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तत्त्वार्थसूत्र
























- आचार्य-उमास्वामी



nikkyjain@gmail.com
Date : 17-Nov-2022

Index


अधिकार

1-जीवाधिकार 2-जीवाधिकार 3-जीवाधिकार 4-जीवाधिकार
5-अजीवाधिकार 6-आस्रवाधिकार 7-आस्रवाधिकार 8-बंधाधिकार
9-संवर-निर्जराधिकार 10-मोक्षाधिकार







Index


गाथा / सूत्रविषयगाथा / सूत्रविषय

1-जीवाधिकार

01-01) मोक्ष का उपाय01-02) सम्यग्दर्शन का लक्षण
01-03) उत्पत्ति के आधार पर सम्यग्दर्शन के भेद01-04) सात तत्त्व
01-05) निक्षेपों का कथन01-06) तत्त्वों को जानने का उपाय
01-07) तत्त्वों को जानने का अन्य उपाय01-08) जीव आदि को जानने के और भी उपाय
01-09) ज्ञान के भेद01-10) ज्ञान ही प्रमाण है
01-11) परोक्ष प्रमाण01-12) प्रत्यक्ष प्रमाण ज्ञान
01-13) परोक्ष प्रमाण के संबंध में विशेष कथन01-14) मतिज्ञान किससे उत्पन्न होता है
01-15) मतिज्ञान के भेद01-16) अवग्रह आदि ज्ञानों के और भेद
01-17) बहु बहुविध आदि किसके विशेषण हैं01-18) अवग्रह आदि ज्ञान का नियम
01-19) व्यंजनावग्रह सभी इन्द्रियों से नही होता01-20) श्रुतज्ञान का स्वरूप
01-21) अवधिज्ञान के भेद01-22) अवधिज्ञान के स्वामी
01-23) मनःपर्यय के भेद01-24) मनःपर्यय के दोनो भेदों में विशेषता
01-25) अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान में अन्तर01-26) मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषय
01-27) अवधिज्ञान का विषय01-28) मनःपर्यय ज्ञान का विषय
01-29) केवल ज्ञान का विषय01-30) एक साथ कितने ज्ञान संभव?
01-31) कौन-कौन से ज्ञान मिथ्या भी होते हैं?01-32) मिथ्यादृष्टि का ज्ञान मिथ्या क्यों?
01-33) नय के भेद

2-जीवाधिकार

02-01) जीव के परिणामों (भावों) के प्रकार
02-02) परिणामों (भावों) के उत्तर-भेद02-03) औपशमिकभाव के भेद
02-04) क्षायिकभाव के भेद02-05) क्षायोपशमिक भाव के भेद
02-06) औदयिक भाव के भेद02-07) पारिणामिक भाव के भेद
02-08) जीव का लक्षण02-09) उपयोग के भेद
02-10) जीव के भेद02-11) संसारी जीवों के भेद
02-12) संसारी जीवों के और भी भेद02-13) स्थावर जीवों के भेद
02-14) त्रस जीवों के भेद02-15) इन्द्रियों की संख्या
02-16) इन्द्रियों के प्रकार02-17) द्रव्य-इन्द्रियों का स्वरूप
02-18) भाव-इन्द्रियों का स्वरूप02-19) इन्द्रियों के प्रकार
02-20) इन्द्रियों के विषय02-21) मन के विषय
02-22) स्पर्शन इन्द्रिय के स्वामी02-23) शेष इन्द्रियों के स्वामी
02-24) संज्ञी जीव का स्वरूप02-25) विग्रह गति में योग
02-26) विग्रह गति में गमन02-27) मुक्त जीव का गमन
02-28) विग्रह गति का काल02-29) ऋजु-गति का काल
02-30) विग्रह-गति में अनाहारक02-31) जन्म के प्रकार
02-32) जन्म-योनि के प्रकार02-33) गर्भ-जन्म के स्वामी
02-34) उपपाद-जन्म के स्वामी02-35) सम्मूर्छन-जन्म के स्वामी
02-36) शरीर के प्रकार02-37) शरीरों में स्थूलता-सूक्ष्मता
02-38) शरीरों के प्रदेश02-39) तैजस-कार्मण शरीरों के प्रदेश
02-40) तैजस-कार्मण शरीरों में सूक्ष्मता02-41) तैजस-कार्मण का जीव के साथ सम्बन्ध
02-42) दोनों शरीरों के स्वामी02-43) एक जीव के कितने शरीर सम्भव हैं?
02-44) कार्मण शरीर के बारे में विशेष02-45) गर्भज और सम्मूर्छनज का शरीर
02-46) उपपाद जन्म के साथ शरीर02-47) वैक्रियक शरीर के अन्य स्वामी
02-48) तैजस शरीर की विशेषता02-49) आहारक शरीर का स्वरूप
02-50) नारक और संमूर्च्छिन में लिंग02-51) देवों में लिंग
02-52) मनुष्य-तिर्यन्चों में लिंग02-53) आयु का अनपवर्तन सम्बन्धी नियम

3-जीवाधिकार

03-01) सात पृथ्वियां03-02) सात पृथ्वियों में नरकों की संख्या
03-03) नारकीयों की लेश्यादि दुःख03-04) पारस्परिक दुःख
03-05) देव-कृत दुःख03-06) नरकों में उत्कृष्ट आयु
03-07) मध्य-लोक में द्वीप समुद्र03-08) द्वीप -समुद्र का आकार
03-09) जम्बू-द्वीप03-10) सात क्षेत्र
03-11) छह पर्वत03-12) पर्वतों के रंग
03-13) पर्वतों का आकार03-14) पर्वतों पर तालाब
03-15) तालाब की लम्बाई-चौड़ाई03-16) तालाब की गहराई
03-17) तालाब के बीच में कमल03-18) बाकी तालाबों के आकार
03-19) तालाबों में देवियों का निवास03-20) क्षेत्रों की नदियाँ
03-21) नदियों की दिशा03-22) तीसरी नदी की दिशा
03-23) परिवार नदियाँ03-24) भरत क्षेत्र का विस्‍तार
03-25) बाकी क्षेत्रों का विस्तार03-26) उत्तर-दक्षिण में समानता
03-27) भरत-एरावत क्षेत्र में काल परिवर्तन03-28) बाकी क्षेत्रों में काल परिवर्तन
03-29) मनुष्यों की आयु03-30) उत्तर-दक्षिण में आयु में समानता
03-31) विदेह क्षेत्र में आयु03-32) भरत क्षेत्र का विस्‍तार
03-33) धातकीखण्‍ड में क्षेत्र तथा पर्वत03-34) पुष्‍करार्द्ध द्वीप में क्षेत्र और पर्वत
03-35) मनुष्यों का गमन03-36) मनुष्‍यों के प्रकार
03-37) कर्म-भूमि03-38) मनुष्‍यों की उत्‍कृष्‍ट और जघन्‍य स्थिति
03-39) तिर्यंचों की स्थिति

4-जीवाधिकार

04-01) देवों के प्रकार
04-02) भवनत्रिक-देवों में लेश्या 04-03) देवों के उत्तर भेद
04-04) दस भेद04-05) भेदों में अपवाद
04-06) भवनावासी और व्यंतर में इंद्र04-07) काय-प्रविचार कहाँ तक?
04-08) स्पर्श, रूप और शब्द प्रविचार04-09) प्रविचार रहित देव
04-10) भवनवासी देवों के प्रकार04-11) व्यन्‍तर देवों के प्रकार
04-12) ज्‍योतिषी देवों के प्रकार04-13) ज्‍योतिषी देवों में गति
04-14) ज्योतिषी-विमान द्वारा काल-की गणना04-15) ज्योतिष्क देव में स्थिरता
04-16) वैमानिक देवों का वर्णन04-17) वैमानिक देवों के प्रकार
04-18) कल्पादि का स्थान-क्रम04-19) स्वर्गों के नाम
04-20) ऊपर के देवों में वृद्धि04-21) ऊपर के देवों में हीनता
04-22) वैमानिक देवों में लेश्या04-23) कल्पवासी देव
04-24) लौकांतिक देव04-25) लौकांतिक देवों के भेद
04-26) दो भवधारी देव04-27) तिर्यंच-योनी
04-28) भवनवासी देवों में उत्कृष्ट आयु04-29) सौधर्म-ऐशान स्वर्गों में उत्कृष्ट आयु
04-30) सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्गों में उत्कृष्ट आयु04-31) १४वें स्वर्ग तक देवों की उत्कृष्ट आयु
04-32) कल्पातीत देवों में उत्कृष्ट आयु04-33) सौधर्म-ऐशान में जघन्य आयु
04-34) स्वर्ग युगलों में आयु सम्बंधित नियम04-35) नरकों में आयु सम्बंधित नियम
04-36) प्रथम नरक में जघन्य आयु04-37) भवनवासी देवों की जघन्य आयु
04-38) व्यन्तर देवों की जघन्य आयु04-39) व्यन्तर-देवों की उत्कृष्ट आयु
04-40) ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्ट आयु04-41) ज्योतिष्क देवों में जघन्य आयु
04-42) लौकांतिक देवों की आयु

5-अजीवाधिकार

05-01) अजीव के भेद
05-02) इनकी संज्ञा05-03) जीव भी द्रव्य
05-04) द्रव्यों के बारे में विशेष05-05) रूपी द्रव्य
05-06) द्रव्यों में संख्या05-07) क्रिया
05-08) प्रदेश05-09) आकाश के प्रदेश
05-10) पुद्गल के प्रदेश05-11) परमाणु के प्रदेश
05-12) आधार05-13) उदाहरण
05-14) पुद्गलों का अवगाह05-15) जीवों का अवगाह
05-16) जीव के अवगाह का नियम05-17) धर्म और अधर्म द्रव्‍य का उपकार
05-18) आकाश द्रव्य का उपकार05-19) पुद्गल द्रव्य का उपकार
05-20) पुद्गल का अन्य उपकार05-21) जीव द्रव्य का उपकार
05-22) काल द्रव्य के उपकार05-23) पुद्गल के गुण
05-24) पुद्गल की पर्याय05-25) पुद्गल के भेद
05-26) स्कन्ध की उत्पत्ति05-27) अणु की उत्पत्ति
05-28) स्कन्ध की उत्पत्ति का विशेष05-29) द्रव्य का लक्षण
05-30) सत् का लक्षण05-31) नित्य का स्वरूप
05-32) विरोधी धर्म एक साथ कैसे?05-33) पुद्गल में बंध
05-34) बन्ध न होने का नियम05-35) और भी
05-36) बन्ध का नियम05-37) परिणमन का नियम
05-38) द्रव्य का और लक्षण05-39) काल द्रव्य
05-40) व्यवहार काल का प्रमाण05-41) गुण का लक्षण
05-42) परिणाम

6-आस्रवाधिकार

06-01) योग
06-02) आस्रव06-03) भेद - पुण्य-पाप
06-04) आस्रव के कर्ता की अपेक्षा भेद06-05) साम्परायिक आस्रव के भेद
06-06) आस्रव में विशेषता06-07) आस्रव का अधिकरण
06-08) जीवाधिकरण06-09) अजीवाधिकरण
06-10) ज्ञान-दर्शनावरण के आस्रव06-11) असाता वेदनीय कर्म के आस्रव
06-12) सातावेदनीय कर्म के आस्रव06-13) दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव
06-14) चारित्रमोहनीय का आस्रव06-15) नारकायु का आस्रव
06-16) माया तिर्यंचायु का आस्रव06-17) मनुष्यायु का आस्रव
06-18) मनुष्यायु का और भी आस्रव06-19) सब आयुओं का आस्रव
06-20) देवायु के आस्रव06-21) देवायु का और भी आस्रव
06-22) अशुभ नाम कर्म के आस्रव06-23) शुभ नामकर्म के आस्रव
06-24) तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव06-25) नीचगोत्र के आस्रव
06-26) उच्च गोत्र के आस्रव06-27) अन्तराय कर्म का आस्रव

7-आस्रवाधिकार

07-01) व्रत07-02) व्रती के भेद
07-03) प्रत्येक व्रत की भावनाएँ07-04) अहिंसाव्रत की भावनाएँ
07-05) सत्य व्रत की भावनाएँ07-06) अचौर्य व्रत की भावनाएँ
07-07) ब्रह्मचर्य व्रत की भावनाएँ07-08) अपरिग्रह व्रत की भावनाएँ
07-09) पाप से विमुखता के लिए भावनाएं07-10) और भी
07-11) परस्पर जीवों के साथ भावनाएं07-12) संसार और शरीर के लिए भावना
07-13) हिंसा का लक्षण07-14) झूठ का लक्षण
07-15) चोरी का लक्षण07-16) कुशील का लक्षण
07-17) परिग्रह का लक्षण07-18) व्रती का लक्षण
07-19) व्रती के भेद07-20) श्रावक
07-21) श्रावक के और भी व्रत07-22) सल्लेखना
07-23) सम्यक्त्व के पांच अतिचार07-24) व्रत और शील के अतिचार
07-25) अहिंसा अणुव्रत के अतिचार07-26) सत्‍याणुव्रत के अतिचार
07-27) अचौर्य अणुव्रत के अतिचार07-28) स्‍वदारसंतोष अणुव्रत के अतिचार
07-29) परिग्रहपरिमाण अणुव्रत के अतिचार07-30) दिग्विरतिव्रत के अतिचार
07-31) देशविरति के अतिचार07-32) अनर्थदण्‍डवि‍रति के अतिचार
07-33) सामायिक व्रत के अतिचार07-34) प्रोषधोपवास के अतिचार
07-35) उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत के अतिचार07-36) अतिथिसंविभाग व्रत के अतिचार
07-37) सल्‍लेखना के अतिचार07-38) दान
07-39) दान में विशेषता

8-बंधाधिकार

08-01) बंध के हेतु
08-02) बन्‍ध08-03) बंध के भेद
08-04) प्रकृतिबन्‍ध के रूप08-05) मूल कर्म प्रकृतियों के भेद
08-06) ज्ञानावरण कर्म के भेद08-07) दर्शनावरण कर्म के भेद
08-08) वेदनीय कर्म के भेद08-09) मोहनीय कर्म के भेद
08-10) आयु कर्म के भेद08-11) नामकर्म के भेद
08-12) गोत्रकर्म के भेद08-13) अन्‍तराय कर्म के भेद
08-14) मूल कर्मों में उत्कृष्ट स्थिति08-18) मूल कर्मों में जघन्य स्थिति
08-21) विपाक08-22) विपाक का स्वभाव
08-23) निर्जरा08-24) प्रदेश बन्ध
08-25) पुण्य प्रकृतियाँ08-26) पाप प्रकृतियाँ

9-संवर-निर्जराधिकार

09-01) संवर09-02) संवर का कारण
09-03) तप09-04) गुप्ति
09-05) समिति09-06) धर्म
09-07) अनुप्रेक्षा09-08) परीषह जय का उद्देश्य
09-09) परीषह के प्रकार09-10) दसवें से बारहवें गुणस्थान में परीषह
09-11) सयोग केवली के परीषह09-12) बादर साम्पराय गुणस्थान तक परीषह
09-13) ज्ञानावरण से परीषह09-14) दर्शनमोह और अन्त‍राय से परीषह
09-15) चारित्रमोह से परीषह09-16) वेदनीय से परीषह
09-17) एक साथ एक जीव के परीषह09-18) चारित्र के प्रकार
09-19) तप के प्रकार09-20) आभ्यन्तर तप
09-21) आभ्यन्तर तपों के उपभेद09-22) प्रायश्चित्त के प्रकार
09-23) विनय के प्रकार09-24) वैयावृत्य के प्रकार
09-25) स्वाध्याय के प्रकार09-26) व्युत्सर्ग के प्रकार
09-27) ध्यान के स्वामी और काल09-28) ध्‍यान के प्रकार
09-29) मोक्ष के हेतु ध्यान09-30) अनिष्ट संयोगज आर्तध्‍यान
09-31) इष्ट वियोगज आर्तध्‍यान09-32) पीड़ा चिंतन आर्तध्‍यान
09-33) निदान आर्तध्‍यान09-34) आर्तध्‍यान के स्वामी
09-35) रौद्रध्‍यान और उसके स्वामी09-36) धर्म-ध्‍यान
09-37) प्रथम दो शुक्‍लध्‍यान के स्वामी09-38) शेष दो शुक्‍लध्‍यान के स्वामी
09-39) शुक्‍लध्‍यान के प्रकार09-40) शुक्ल-ध्‍यान का योग-आलंबन
09-41) प्रथम दो शुक्ल-ध्यान की विशेषता09-42) अपवाद
09-43) वितर्क का लक्षण09-44) वीचार का लक्षण
09-45) सम्यग्दृष्टियों में निर्जरा का क्रम09-46) निर्ग्रन्‍थ के भेद
09-47) पुलाक आदि मुनियों की विशेषता

10-मोक्षाधिकार

10-01) केवलज्ञान की उत्पत्ति
10-02) मोक्ष का लक्षण और कारण10-03) किन भावों के नाश से मोक्ष?
10-04) किन भावों का मोक्ष में सद्भाव है?10-05) मुक्त जीव का निवास
10-06) ऊर्ध्‍वगमन का कारण10-07) प्रत्येक कारण का उदाहरण
10-08) मुक्त जीव लोकांत में क्यों ठहरते हैं?10-09) मुक्त जीवों में भेद-व्यवहार



!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!

श्रीमद्‌-भगवत्उमास्वामीदेव-प्रणीत

श्री
तत्त्वार्थ-सूत्र

मूल संस्कृत सूत्र, श्री पूज्यपाद-आचार्य विरचित 'सर्वार्थ-सिद्धि' नामक संस्कृत टीका का हिंदी अनुवाद, श्री अकलान्काचार्य विरचित 'तत्त्वार्थ-राजवार्तिक' नामक संस्कृत टीका का हिंदी अनुवाद सहित

आभार : महेंद्र-कुमार जैन 'न्यायाचार्य', सुपार्श्वमती-माताजी

🏠
!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!

ॐकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥


॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥

अर्थ : बिन्दुसहित ॐकार को योगीजन सर्वदा ध्याते हैं, मनोवाँछित वस्तु को देने वाले और मोक्ष को देने वाले ॐकार को बार बार नमस्कार हो । निरंतर दिव्य-ध्वनि-रूपी मेघ-समूह संसार के समस्त पापरूपी मैल को धोनेवाली है मुनियों द्वारा उपासित भवसागर से तिरानेवाली ऐसी जिनवाणी हमारे पापों को नष्ट करो । जिसने अज्ञान-रूपी अंधेरे से अंधे हुये जीवों के नेत्र ज्ञानरूपी अंजन की सलाई से खोल दिये हैं, उस श्री गुरु को नमस्कार हो । परम गुरु को नमस्कार हो, परम्परागत आचार्य गुरु को नमस्कार हो ।


सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकम इदं शास्त्रं श्रीतत्त्वार्थ-सूत्र-नामधेयं, अस्य मूलाग्रन्थकर्तार: श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तार: श्रीगणधरदेवा: प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य आचार्य श्रीआचार्यउमास्वामीदेव विरचितं, सर्वे श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥

(समस्त पापों का नाश करनेवाला, कल्याणों का बढ़ानेवाला, धर्म से सम्बन्ध रखनेवाला, भव्यजीवों के मन को प्रतिबुद्ध-सचेत करनेवाला यह शास्त्र श्रीतत्त्वार्थ-सूत्र नाम का है, मूल-ग्रन्थ के रचयिता सर्वज्ञ-देव हैं, उनके बाद ग्रन्थ को गूंथनेवाले गणधर-देव हैं, प्रति-गणधर देव हैं उनके वचनों के अनुसार लेकर आचार्य श्रीआचार्यउमास्वामीदेव द्वारा रचित यह ग्रन्थ है । सभी श्रोता पूर्ण सावधानी पूर्वक सुनें । )


मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्‌ ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम्‌ ॥


आ. उमास्‍वामी (ई.श.3) कृत मोक्षमार्ग, तत्त्वार्थ दर्शन विषयक 10 अध्‍यायों में सूत्रबद्ध ग्रन्‍थ है। कुल सूत्र 357 हैं। इसी को मोक्षशास्‍त्र भी कहते हैं। दिगम्‍बर व श्‍वेताम्‍बर दोनों को समान रूप से मान्‍य है। जैन आम्‍नाय में यह सर्व प्रधान सिद्धान्‍त ग्रन्‍थ माना जाता है। जैन दर्शन प्ररूपक होने के कारण यह जैन बाइबल के रूप में समझा जाता है।

(शास्त्र वंदना)
वीर-हिमाचल तें निकसी, गुरु-गौतम के मुख-कुण्ड ढरी है ।
मोह-महाचल भेद चली, जग की जड़ता-तप दूर करी है ॥१॥
ज्ञान-पयोनिधि माँहि रली, बहुभंग-तरंगनि सौं उछरी है ।
ता शुचि-शारद गंगनदी प्रति, मैं अंजलि करि शीश धरी है ॥२॥
या जग-मन्दिर में अनिवार, अज्ञान-अंधेर छ्यौ अति भारी ।
श्रीजिन की धुनि दीपशिखा-सम, जो नहिं होत प्रकाशनहारी ॥३॥
तो किस भांति पदारथ-पाँति, कहाँ लहते? रहते अविचारी ।
या विधि सन्त कहैं धनि हैं, धनि हैं, जिन-बैन बड़े उपकारी ॥४॥


त्रैकाल्यं द्रव्य-षट्कं नव-पद-सहितं जीव-षट्काय-लेश्या:
पंचान्ये चास्तिकाया व्रत-समिति-गति-ज्ञान-चारित्र-भेदा:
इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवन-महितै: प्रोक्तमर्हद्भिरीशै:
प्रत्येति श्रद्धति स्पृशति च मतिमान् य: स वै शुद्धदृष्टि:

अर्थ - तीन काल, छह द्रव्य, नव पदार्थ, छह काय, छह्लेश्या, पांच अस्तिकाय , पांच व्रत, पांच समिति, गति, पांच ज्ञान और पांच चारित्र भेद रूप ये सब मोक्ष के मूल हैं, ऐसा तीनों लोकों के पूज्य अर्हंत भगवान के द्वारा कहा है । जो बुद्धिमान इनकी प्रतिति करता है , श्रद्धान करता है और स्पर्श करता है / इनके नजदीक जाता है, वह निश्चय से शुद्धदॄष्टि है ॥


सिद्धे जयप्पसिद्धे चउव्विहाराहणा-फलं पत्ते
वंदित्ता अरहंते वोच्छं आराहणा कमसो
उज्जोवणमुज्जवणं णिव्वाहणं साहणं च णिच्छरणं
दंसण-णाण-चरित्तं तवाणमाराहणा भणिया

अर्थ - जगत में प्रसिद्ध चार प्रकार की आराधना के फल को प्राप्त सिद्धों और अर्हन्तों को नमस्कार करके क्रम से आराधना को कहूंगा । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्त्व के उद्योतन, उद्द्यवन, निवर्हन, साधन और निस्तरण को आराधना कहा है ॥


मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्‌
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥
अन्वयार्थ : जो मोक्षमार्ग के नेता हैं, अग्रणी हैं, पथप्रदर्शक हैं; कर्मरूपी पर्वतों को भेदने वाले हैं और सम्पूर्ण तत्त्वों के ज्ञाता हैं, ऐसे आप्त को मैं उनके गुणों - सर्वज्ञतादि की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूँ ।
तत्तवार्थ-सूत्र टीका
कर्ता टीका का नाम श्लोक-प्रमाण काल
समंतभद्र-स्वामी गंधहस्ति 84,000 ई.600
पूज्यपाद-स्वामी सर्वार्थसिद्धि 4,000 वि.श. 6
अकलंक-भट्ट राजवार्तिक 16,000 ई.620-680
विद्यानंद-स्वामी श्लोकवार्तिक 20,000 ई. 775-840
अष्ट-सहस्री 8,000
आप्त-परीक्षा 3,000
अभयनन्दि तत्त्वार्थ वृत्ति ई.श.10-11
आ. शिवकोटि रत्‍नमाला ई.श. 11
आ. भास्‍करनन्दि सुखबोध ई.श. 12
आ. बालचन्‍द्र कन्नड टीका ई.श. 13
प्रभाचन्‍द्र तत्त्वार्थ रत्‍नप्रभाकर ई. 1432
योगदेव तत्त्वार्थ वृत्ति ई. 1579
भट्टारक श्रुतसागर तत्त्वार्थ वृत्ति वि.श.16
पं सदासुखदास अर्थ-प्रकाशिका ई. 1795-1866

राजवार्तिक :
सर्वविज्ञानमय, बाय-आभ्यन्तर लक्ष्मी के स्वामी और परमवीतराग श्रीमहावीर को प्रणाम करके तत्त्वार्थवार्तिक ग्रन्थ को कहता हूँ।

1-2. उपयोगस्वरूप तथा श्रेयोमार्ग की प्राप्ति के पात्रभूत आत्मद्रव्य को ही मोक्षमार्ग के जानने की इच्छा होती है। जैसे आरोग्यलाभ करनेवाले चिकित्सा के योग्य रोगी के रहने पर ही चिकित्सामार्ग की खोज की जाती है, उसी तरह आत्मद्रव्य की प्रसिद्धि होने पर मोक्षमार्ग के अन्वेषण का औचित्य सिद्ध होता है।

3. संसारी आत्मा के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में मोक्ष ही अन्तिम और प्रधानभूत पुरुषार्थ है अतः उसकी प्राप्ति के लिए मोक्षमार्ग का उपदेश करना ही चाहिए।

4-8. प्रश्न – जब मोक्ष अन्तिम, अनुपम, श्रेष्ठ और प्रधान पुरुषार्थ है तब उसी का उपदेश करना चाहिए न कि उसके मार्ग का ?

उत्तर – मोक्षार्थी भव्य ने मार्ग ही पूछा है अतः प्रश्नानुरूप मार्ग का ही उपदेश किया गया है । मोक्ष के सम्बन्ध में प्रायः सभी वादियों का एक मत है, सभी दुःखनिवृत्ति को मोक्ष मानते हैं, पर उसके मार्ग में विवाद है। जैसे विभिन्न दिशाओं से पटना जानेवाले यात्रियों को पटना नगर में विवाद नहीं होता किन्तु अपनी अपनी दिशा के अनुकूल मार्ग में विवाद होता है उसी तरह सर्वोच्च लक्ष्य भूत मोक्ष में वादियों को विवाद नहीं है किन्तु उसके मार्ग में विवाद है।
  • कोई वादी ज्ञानमात्र से ही मोक्ष मानते हैं तो
  • कोई ज्ञान और विषयविरक्ति रूप वैराग्य से तथा
  • कोई क्रिया से ही मोक्ष मानते हैं।
क्रियावादियों का कथन है कि नित्यकर्म करने से ही निर्वाण प्राप्त हो जाता है। फिर, प्रश्नकर्ता को यह बन्धन भी तो नहीं लगाया जा सकता कि - 'आप मार्ग न पूछें, मोक्ष को पूछें', लोगों की रुचि विभिन्न प्रकार की होती है । यद्यपि मोक्ष के स्वरूप में भी वादियों की अनेक कल्पनाएँ हैं, यथा -
  • बौद्ध रूप वेदना संज्ञा संस्कार और विज्ञान इन पांच स्कन्धों के निरोध को मोक्ष कहते हैं,
  • सांख्य प्रकृति और पुरुष में भेद-विज्ञान होने पर शुद्ध चैतन्य मात्र स्वरूप में प्रतिष्ठित होने को मोक्ष मानते हैं,
  • नैयायिक बुद्धि, सुख-दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म-अधर्म और संस्कार इन आत्मा के विशेष गुणों के उच्छेद को मोक्ष कहते हैं,
फिर भी सभी वादी 'कर्मबन्धन का विनाश कर स्वरूपप्राप्ति' इस मोक्षसामान्य में एकमत हैं। सभी वादियों को यह स्वीकार है कि मोक्ष अवस्था में कर्मबन्धन का समूल उच्छेद हो जाता है।

9-13. प्रश्न – मोक्ष जब प्रत्यक्ष से दिखाई नहीं देता तब उसके मार्ग का ढूंढना व्यर्थ है ?

उत्तर – यद्यपि मोक्ष प्रत्यक्षसिद्ध नहीं है फिर भी उसका अनुमान किया जा सकता है। जैसे घटीयन्त्र (रेहट) का घूमना उसके धुरे के घूमने से होता है और धुरे का घूमना उसमें जुते हुए बैल के घूमने पर । यदि बैल का घूमना बन्द हो जाय तो धुरे का घूमना रुक जाता है और धुरे के रुक जाने पर घटीयन्त्र का घूमना बन्द हो जाता है उसी तरह कर्मोदयरूपी बैल के चलने पर ही चार-गति रूपी धुरे का चक्र चलता है और चतुर्गतिरूपी धुरा ही अनेक प्रकार की शारीरिक मानसिक आदि वेदनाओंरूपी घटीयन्त्र को घुमाता रहता है । कर्मोदय की निवृत्ति होने पर चतुर्गति का चक्र रुक जाता है और उसके रुकने से संसाररूपी घटीयन्त्र का परिचलन समाप्त हो जाता है, इसी का नाम मोक्ष है। इस तरह साधारण अनुमान से मोक्ष की सिद्धि हो जाती है । समस्त शिष्टवादी अप्रत्यक्ष होने पर भी मोक्ष का सद्भाव स्वीकार करते हैं और उसके मार्ग का अन्वेषण करते हैं। जिस प्रकार भावी सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण आदि प्रत्यक्षसिद्ध नहीं हैं फिर भी आगम से उनका यथार्थबोध कर लिया जाता है उसी प्रकार मोक्ष भी आगम से सिद्ध हो जाता है। यदि प्रत्यक्ष सिद्ध न होने के कारण मोक्ष का निषेध किया जाता है तो सभी को स्व-सिद्धान्तविरोध होगा, क्योंकि सभी वादी कोई न कोई अप्रत्यक्ष पदार्थ मानते ही हैं।

14-16. प्रश्न – बन्ध के कारणों को पहिले बताना चाहिए था तभी मोक्ष के कारणों का वर्णन सुसंगत हो सकता है ?

उत्तर – आगे आठवें अध्याय में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को बन्ध का कारण बताया है। यद्यपि बन्धपूर्वक मोक्ष होता है अतः पहिले बन्धकारणों का निर्देश करना उचित था फिर भी मोक्षमार्ग का निर्देश आश्वासन के लिए किया है। जैसे जेल में पड़ा हुआ व्यक्ति बन्धन के कारणों को सुनकर डर जाता है और हताश हो जाता है पर यदि उसे मुक्ति का उपाय बताया जाता है तो उसे आश्वासन मिलता है और वह आशान्वित हो बन्धनमुक्ति का प्रयास करता है उसी तरह अनादि कर्मबन्धनबद्ध प्राणी प्रथम ही बन्ध के कारणों को सुनकर डर न जाय और मोक्ष के कारणों को सुनकर आश्वासन को प्राप्त हो इस उद्देश्य से मोक्षमार्ग का निर्देश सर्वप्रथम किया है।

17. अथवा, अन्यवादियों के द्वारा कहे गए ज्ञानमात्र और ज्ञान तथा चारित्र इन एक और दो मोक्षकारणों का निषेध करने के लिए जनसम्मत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों को ही मोक्षमार्ग बताया गया है एक या दो को नहीं।

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1-जीवाधिकार



सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥1॥
अन्वयार्थ : सम्‍यग्‍दर्शन, सम्‍यग्‍ज्ञान और सम्‍यक्‌चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्ष का मार्ग हैं ॥१॥

सर्वार्थसिद्धि :
'सम्‍यक्' शब्‍द अव्‍युत्‍पन्‍न अर्थात् रौढ़िक और व्‍युत्‍पन्‍न अर्थात् व्‍याकरण-सिद्ध है। जब यह व्‍याकरण से सिद्ध किया जाता है तब सम् उपसर्ग पूर्वक अञ्च धातु से क्विप् प्रत्‍यय करने पर 'सम्‍यक्' शब्‍द बनता है। संस्‍कृत में इसकी व्‍युत्‍पत्ति 'समञ्चति इति सम्‍यक्' इस प्रकार होती है। प्रकृत में इसका अर्थ प्रशंसा है। इसे दर्शन, ज्ञान और चारित्र इनमें-से प्रत्‍येक शब्‍द के साथ जोड़ लेना चाहिए । यथा - सम्‍यग्‍दर्शन, सम्‍यग्‍ज्ञान और सम्‍यक्‍चारित्र। लक्षण और भेद के साथ इनका स्‍वरूप विस्‍तार से आगे कहेंगे। नाममात्र यहाँ कहते हैं - पदार्थों के यथार्थ ज्ञानमूलक श्रद्धान का संग्रह करने के लिए दर्शन के पहले सम्‍यक् विशेषण दिया है। जिस-जिस प्रकार से जीवादिक पदार्थ अवस्थित हैं उस-उस प्रकार से उनका जानना सम्‍यग्‍ज्ञान है । ज्ञान के पहले सम्‍यक् विशेषण विमोह (अनध्‍यवसाय), संशय और विपर्यय ज्ञानों का निराकरण करने के लिए दिया है । जो ज्ञानी पुरुष संसार के कारणों को दूर करने के लिए उद्यत है उसके कर्मों के ग्रहण करने में निमित्तभूत क्रिया के उपरम होने को सम्‍यक्‍चारित्र कहते हैं । चारित्र के पहले 'सम्‍यक्' विशेषण अज्ञानपूर्वक आचरण के निराकरण करने के लिए दिया है । दर्शन, ज्ञान और चारित्रका व्‍युत्‍पत्‍यर्थ - दर्शन शब्‍द का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है - 'पश्‍यति दृश्‍यतेऽनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम्' - जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाता है या देखनामात्र । ज्ञान शब्दका व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है -'जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञप्तिमात्रं वा ज्ञानम् - जो जानता है, जिसके द्वारा जाना जाता है या जानना मात्र । चारित्र शब्‍दका व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है - चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम् - जो आचरण करता है, जिसके द्वारा आचरण किया जाता है या आचरण करना मात्र ।

शंका – दर्शन आदि शब्‍दों की इस प्रकार व्‍युत्‍पत्ति करने पर कर्त्ता और करण एक हो जाता है किन्‍तु यह बात विरुद्ध है ?

समाधान – यद्यपि यह कहना सही है तथापि स्‍वपरिणाम और परिणामी में भेद की विवक्षा होने पर उक्त प्रकार से कथन किया गया है । जैसे 'अग्नि दाह परिणाम के द्वारा ईंधन को जलाती है यह कथन भेद-विवक्षा के होने पर ही बनता है । यहाँ चूँकि पर्याय और पर्यायी में एकत्‍व और अनेकत्‍व के प्रति अनेकान्‍त है, अत: स्‍वातन्‍त्र्य और पारतन्‍त्र्य विवक्षा के होने से एक ही पदार्थ में पूर्वोक्त कर्त्ता आदि साधनभाव विरोध को प्राप्‍त न‍हीं होता । जैसे कि अग्नि से दहन आदि क्रिया की अपेक्षा कर्त्ता आदि साधन भाव बन जाता है, वैसे ही प्रकृत में जानना चाहिए ।

शंका – सूत्र में पहले ज्ञान का ग्रहण करना उचित है, क्‍योंकि एक तो दर्शन ज्ञान-पूर्वक होता है और दूसरे ज्ञान में दर्शन शब्‍द की अपेक्षा कम अक्षर हैं ?

समाधान – यह कहना युक्त नहीं कि दर्शन ज्ञान-पूर्वक होता है इसलिए सूत्र में ज्ञान को पहले ग्रहण करना चाहिए, क्‍योंकि दर्शन और ज्ञान एक साथ उत्‍पन्‍न होते हैं । जैसे - मेघ-पटल के दूर हो जाने पर सूर्य के प्रताप और प्रकाश एक साथ व्‍यक्त होते हैं, उसी प्रकार जिस समय दर्शन-मोहनीय का उपशम, क्षय या क्षयोपशम होने से आत्‍मा सम्‍यग्‍दर्शन पर्याय से आविर्भूत होता है उसी समय उसके मत्‍यज्ञान और श्रुताज्ञान का निराकरण होकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान प्रकट होते हैं । दूसरे, ऐसा नियम है कि सूत्र में अल्‍प अक्षरवाले शब्‍द से पूज्‍य शब्‍द पहले रखा जाता है, अत: पहले ज्ञान शब्‍द को न रखकर दर्शन शब्‍द को रखा है ।

शंका – सम्‍यग्‍दर्शन पूज्‍य क्‍यों है ?

समाधान – क्‍योंकि सम्‍यग्‍दर्शन ज्ञान के सम्‍यक् व्‍यपदेश का हेतु है । चारित्र के पहले ज्ञान का प्रयोग किया है, क्‍योंकि चारित्र ज्ञान-पूर्वक होता है । सब कर्मों का जुदा होना मोक्ष है और उसकी प्राप्ति का उपाय मार्ग है । सूत्र में 'मार्ग:' इस प्रकार जो एक-वचन रूप से निर्देश किया है वह, सब मिलकर मोक्ष-मार्ग है, इस बात के जताने के लिए किया है । इससे प्रत्‍येक में मार्गपन है इस बात का निराकरण हो जाता है । अत: सम्‍यग्‍दर्शन, सम्‍यग्‍ज्ञान और सम्‍यग्‍चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्ष का साक्षात् मार्ग है, ऐसा जानना चाहिए ।

अब आदि में कहे गये सम्‍यग्‍दर्शन के लक्षण का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

राजवार्तिक :
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनों का सुमेल रूप रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है। कोई व्याख्याकार कहते हैं कि - मोक्ष के कारण के निर्देश द्वारा शास्त्रानुपूर्वी रचने के लिए तथा शिष्य की शक्ति के अनुसार सिद्धान्त-प्रक्रिया बताने के लिए इस सूत्र की रचना हुई है। परन्तु यहां कोई शिष्याचार्य सम्बन्ध विवक्षित नहीं है किन्तु संसार-सागर में डूबते हुए अनेक प्राणियों के उद्धार की पुण्य-भावना से मोक्षमार्ग का निरूपण करनेवाले इस सूत्र की रचना की गई है।

1. दर्शनमोह-कर्म के उपशम, क्षय या क्षयोपशम रूप अन्तरङ्ग कारण से होनेवाले तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। इस अन्तरङ्ग-कारण की पूर्णता कहीं निसर्ग से होती है और कहीं अधिगम अर्थात् परोपदेश से होती है। इसी कारण से सम्यग्दर्शन भी निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो प्रकार का हो जाता है।

2. प्रमाण और नयों के द्वारा जीवादितत्त्वों का संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान कहलाता है।

3. संसार के कारणभूत रागद्वेषादि की निवृत्ति के लिए कृतसंकल्प विवेकी-पुरुष का शरीर और वचन की बाह्य क्रियाओं से और आभ्यन्तर मानस क्रिया से विरक्त होकर स्वस्वरूपस्थिति प्राप्त करना सम्यक्चारित्र है। पूर्ण यथाख्यात चारित्र वीतरागी-ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में तथा जीवन्मुक्त केवली के होता है। उससे नीचे विविध प्रकार का तरतम चारित्र श्रावक और दसवें गुणस्थान तक के साधुओं को होता है।

4. ज्ञान और दर्शन शब्द करणसाधन हैं अर्थात् आत्मा की उस शक्ति का नाम ज्ञान है जिससे पदार्थ जाने जाते हैं और उस शक्ति का नाम दर्शन है जिससे तत्त्वश्रद्धान होता है। चारित्र शब्द कर्मसाधन है अर्थात् जो आचरण किया जाता है वह चारित्र है।

5-6. प्रश्न – यदि जिसके द्वारा जाना जाय उस करण को ज्ञान कहते हैं तो जैसे 'कुल्हाड़ी से लकड़ी काटते हैं' यहां कुल्हाड़ी और काटनेवाला दो जुदा पदार्थ हैं उसी तरह कर्ता आत्मा और करण-ज्ञान इन दोनों को दो जुदा पदार्थ होना चाहिए ?

उत्तर – नहीं, जैसे 'अग्नि उष्णता से पदार्थ को जलाती है' यहाँ अग्नि और उष्णता दो जुदा पदार्थ नहीं है फिर भी कर्ता और करणरूप से भेदप्रयोग हो जाता है उसी तरह आत्मा और ज्ञान में भी जुदापन न होने पर भी कर्ता-करणरूप से भेद-व्यवहार हो जायगा । एवम्भूतनय की दृष्टि से ज्ञानक्रिया में परिणत आत्मा ही ज्ञान है और दर्शनक्रिया में परिणत आत्मा दर्शन जैसे कि उष्णपर्याय में परिणत आत्मा अग्नि है। यदि अग्नि को उष्णस्वभाव नहीं माना जाय तो अग्नि का स्वरूप ही क्या रह जाता है जिससे उसे अग्नि कहा जा सकेगा? उसी तरह यदि आत्मा को ज्ञान-दर्शन-स्वरूप न माना जाय तो आत्मा का भी क्या स्वरूप बचेगा जिससे उस ज्ञान-दर्शनादिशून्य पदार्थ को आत्मा कह सकें ? अतः अखण्ड द्रव्यदृष्टि से आत्मा और ज्ञान में कोई भेद नहीं है।

7-8. प्रश्न – जिस प्रकार नीले रंग के सम्बन्ध से साड़ी या कम्बल आदि में 'नीला' यह प्रत्यय हो जाता है उसी तरह भिन्न ज्ञानगुण के सम्बन्ध से आत्मा ज्ञानवाला तथा भिन्न उष्णता के सम्बन्ध से अग्नि उष्ण बन जायगी ?

उत्तर – नहीं, जैसे पुरुष से संयुक्त होने के पहिले डंडा एक स्वतन्त्र सिद्ध पदार्थ है और पुरुष भी दण्डसम्बन्ध के पहिले अपने लक्षणों से स्वतन्त्रसिद्ध पदार्थ है उसी तरह क्या उष्णसम्बन्ध के पहिले अग्नि स्वतः सिद्ध पदार्थ है ? क्या ज्ञान के सम्बन्ध के पहिले आत्मा स्वतःसिद्ध पदार्थ है ? दण्ड और पुरुष का तथा नीरंग और साड़ी का सम्बन्ध तो उचित है क्योंकि ये सब पृथक् सिद्ध पदार्थ हैं । परन्तु ज्ञानादि के सम्बन्ध से पहिले ज्ञानादिशून्य आत्मा और उष्णगुण के सम्बन्ध के पहिले अनुष्ण अग्नि सिद्ध ही नहीं हैं। इसी तरह निराश्रय ज्ञान और उष्ण भी स्वतः सिद्ध पदार्थ नहीं हैं अतः इन्हें भिन्न मानकर इनके सम्बन्ध की कल्पना उचित नहीं है।

9. उष्णगुण के सम्बन्ध से पहिले अग्नि में 'उष्ण' यह ज्ञान होता है या नहीं ? यदि होता है, तो उष्णगुण के सम्बन्ध की आवश्यकता ही क्या है ? यदि नहीं, तो अनुष्णपदार्थ में उष्णगुण के सम्बन्ध से उष्ण व्यवहार हो ही नहीं सकता अन्यथा घटादि में भी उष्ण व्यवहार होना चाहिए। यदि अग्नि उष्णगुण के सम्बन्ध से उष्ण है तो उष्णगुण किसके सम्बन्ध से उष्ण होगा? यदि उष्णगुण में उष्णता लाने के लिए अन्य उष्णत्व का सम्बन्ध माना जाता है तो उस उष्णत्व में उष्णता लाने के लिए अन्य उष्णत्व मानना होगा, उसमें भी उष्णता लाने के लिए तदन्य उष्णत्व इस तरह अनवस्था नाम का दूषण होता है । यदि उष्णगुण में स्वतः ही उष्णता है तो अग्नि को ही स्वतः उष्ण मानने में क्या आपत्ति है ? फिर भिन्न पदार्थ के सम्बन्ध से भी प्रतीत होती है यह प्रतिज्ञा भी नहीं रही। इसी तरह आत्मा और ज्ञान में भी समझ लेना चाहिए। अतः आत्मा को स्वतः ज्ञानस्वरूप मानना चाहिए अन्यथा अनवस्था और प्रतिज्ञा-हानि दूषण आते हैं।

10. जिस प्रकार दण्ड का सम्बन्ध होने पर भी पुरुष स्वयं दण्ड नहीं बन जाता किन्तु दण्डवान् या दण्डी इस व्यवहार को ही प्राप्त होता है उसी तरह उष्णत्व नाम के विशिष्ट सामान्य के सम्बन्ध होने पर भी उष्णगुण 'उष्णत्ववान्' तो बन सकता है स्वतः उष्ण नहीं । इसी तरह अग्नि भी उष्णवान् बन सकती है स्वतः उष्ण नहीं, क्योंकि द्रव्य, गुण और सामान्य पदार्थ वैशेषिकों के मत से पृथक् स्वतन्त्र हैं।

11. प्रश्न – वैशेषिक समवाय नाम का सम्बन्ध मानते हैं, इससे अपृथक् सिद्ध पदार्थों में 'इह इदम्' यह प्रत्यय होता है और इसी से गुण-गुणी में अभेद की तरह भान होने लगता है। इस समवाय सम्बन्ध के कारण उष्णत्वसमवाय से उष्णगुण उष्ण बन जायगा और उष्णगुण के समवाय से अग्नि उष्ण हो जायगी ?

उत्तर – नहीं, स्वतन्त्र पदार्थों में समवाय का कोई नियम नहीं बन सकता। जब अग्नि और उष्ण भिन्न हैं तब क्या कारण है कि उष्ण का समवाय अग्नि में ही होता है जल में नहीं ? उष्णत्व का समवाय उष्ण में ही होता है शीत में नहीं ? अतः उष्णता को अग्निद्रव्य का ही परिणमन मानना चाहिए, पृथक् पदार्थ नहीं।

12-13. समवाय नाम का स्वतन्त्र पदार्थ भी सिद्ध नहीं होता। जिस प्रकार गुण की गुणी में समवाय सम्बन्ध से वृत्ति मानी जाती है उसी तरह समवाय की गुण और गुणी में किस सम्बन्ध से वृत्ति होगी ? समवायान्तर से तो नहीं, क्योंकि समवाय पदार्थ एक ही स्वीकार किया गया है। संयोग से भी नहीं, क्योंकि दो पृथक् सिद्ध द्रव्यों में ही संयोग होता है। संयोग और समवाय से भिन्न तीसरा कोई सम्बन्ध है भी नहीं। अतः अपने समवायियों से असम्बद्ध होने के कारण समवाय नाम का कोई स्वतन्त्र पदार्थ सिद्ध नहीं होता। यदि कहा जाय कि चूंकि समवाय 'सम्बन्ध' है अतः उसे स्व-सम्बन्धियों में रहने के लिए अन्य सम्बन्ध की आवश्यकता नहीं है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि संयोग से व्यभिचार-दूषण आता है। संयोग भी 'सम्बन्ध' है पर उसे स्व-सम्बन्धियों में समवाय से रहना पड़ता है।

14. जिस प्रकार दीपक स्व-प्रकाशी और पर-प्रकाशी दोनों है उसी प्रकार समवाय भी अन्य सम्बन्ध की अपेक्षा किए बिना स्वतः ही द्रव्यादि की परस्पर वृत्ति करा देगा तथा स्वयं भी उनमें रह जायगा।' यह तर्क उचित नहीं है ; क्योंकि ऐसा मानने से समवाय को द्रव्यादि की पर्याय ही माननी पड़ेगी। जैसे दीपक प्रकाशस्वरूप से अभिन्न है अतः स्वप्रकाश में उसे प्रकाशान्तर की आवश्यकता नहीं होती उसी तरह न केवल समवाय को ही, किन्तु गुण, कर्म, सामान्य और विशेष को भी द्रव्य की ही पर्यायविशेष मानना होगा। द्रव्य ही बाहय-आभ्यन्तर कारणों से गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय आदि पर्यायों को प्राप्त हो जाता है। दीपक का दृष्टान्त भी उचित नहीं है क्योंकि जैसे दीपक घटादि प्रकाश्य पदार्थों से भिन्न अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखता है उस तरह समवाय की द्रव्यादि से भिन्न अपनी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। यदि गुणादि द्रव्य से भिन्न हों, तो द्रव्य में अद्रव्यत्व का प्रसंग तो होगा ही, साथ ही साथ निराश्रय होने से गुणादि का भी अभाव हो जायगा । अतः गुणादि को द्रव्य का ही पर्यायविशेष मानना युक्तिसंगत है।

15-16. जब ज्ञान क्षणिक तथा एकार्थग्राही है तब ऐसे ज्ञान से यह विवेक ही नहीं हो सकता कि युतसिद्धों-पृथक सिद्धों का संयोग होता है तथा अयुतसिद्धों का समवाय । संस्कार भी अनुभव के अनुसार ही होता है, अतः एकार्थग्राही ज्ञान से पड़ा हुआ संस्कार भी एकार्थग्राही ही फलित होता है इसलिये संस्कार से भी उक्त विवेक नहीं हो सकेगा। अथवा, ज्ञान आत्मा का स्वभाव होकर भी जब कथञ्चित् भिन्न विवक्षित हो जाता है तब एक ही आत्मा कर्ता और करण भी बन जाता है ।

17-18. पर्याय और पर्यायी के भेद और अभेद को अनेकान्तदृष्टि से देखना चाहिए। यथा, घट कपाल, सकोरा आदि पर्यायों में मृद्रप द्रव्य की दृष्टि से कथञ्चित् एकत्व है तथा उन घट आदि पर्यायों की दृष्टि से विभिन्नता है उसी तरह आत्मा और ज्ञानादि गुणों में द्रव्यदृष्टि से एकता है तथा गुण और गुणी की दृष्टि से विभिन्नता है। आत्मा ही बाहय और आभ्यन्तर कारणों से ज्ञानादि पर्यायों को प्राप्त होता है और ज्ञान दर्शन आदि व्यवहारों का विषय बन जाता है। वस्तुतः आत्मा और ज्ञानादि भिन्न नहीं है। यदि यह ऐकान्तिक नियम बनाया जाय कि कर्ता और करण को भिन्न ही होना चाहिए तो 'वृक्ष शाखाओं के भार से टूट रहा है' यहां वक्ष और शाखाभार में भी भेद मानना होगा । पर ऐसा है नहीं, क्योंकि शाखाभार को छोड़कर वृक्ष की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इसी तरह आत्मा को छोड़कर ज्ञान का और ज्ञानादि को छोड़कर आत्मा का पृथक् अस्तित्व नहीं है।

19-21. जैसे द्रव्य मूर्त भी होते हैं तथा अमूर्त भी उसी तरह करण दो प्रकार का होता है - एक विभक्तकर्तृक-जिनका कर्ता जुदा और करण जुदा होता है और दूसरा अविभक्तकर्तृक । 'कुल्हाड़ीसे लकड़ी काटी जाती है' यहां कुल्हाड़ी विभक्तकर्तृक करण है तथा 'वृक्ष शाखाओं के भार से टूटता है' यहां शाखाभार अविभक्तकर्तृक करण है। इसी तरह 'अग्नि उष्णता से जलाती है' 'आत्मा ज्ञान से जानता है' यहां उष्णता और ज्ञान अविभक्तकर्तृक करण हैं क्योंकि उष्णता की अग्नि से तथा ज्ञान की आत्मा से पृथक् सत्ता ही नहीं है। जैसे 'कुशूल टूट रहा है' यहां जब कुशूल स्वयं ही नष्ट हो रहा है तो स्वयं ही कर्ता और स्वयं ही करण बन जाता है उसी तरह आत्मा ही ज्ञाता और ज्ञान होकर कर्ता और करण रूप बन जाता है।

एक ही अर्थ की अनेक पर्याएं होती हैं। जैसे एक ही देवराज इन्द्र शक्र और पुरन्दर आदि पर्यायों को धारण करता है ।
  • इन्दन क्रिया के समय इन्द्र,
  • शासन क्रिया के समय शक्र तथा
  • पूरण क्रिया के समय पुरन्दर कहा जाता है।
देवराज से उक्त तीनों अवस्थाएँ सर्वथा भिन्न नहीं हैं क्योंकि एक ही देवराज उन तीन अवस्थारूप होता है। वे देवराज से अभिन्न हैं, इसलिए वह जिस रूप से इन्द्र है उसी रूप से शक्र, और पुरन्दर भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि इन्द्रादि अवस्थाएं जुदी-जुदी हैं, उसी तरह एक ही आत्मा का ज्ञान दर्शन आदि अवस्थाओं से कथञ्चित् भेद और कथञ्चित् अभेद है । अतः ज्ञानादिक को आत्मा से सर्वथा भिन्न नहीं कहा जा सकता।

22-23. अथवा, ज्ञान दर्शन आदि शब्दों को कर्तृ साधन मानना चाहिए ।
  • 'जानाति इति ज्ञानम्' अर्थात् जो जाने सो ज्ञान,
  • 'पश्यतीति दर्शनम्' अर्थात् जो तत्त्वश्रद्धा करे वह दर्शन,
  • 'चरतीति चारित्रम्'-अर्थात् जो आचरण करे वह चारित्र ।
तात्पर्य यह कि ज्ञानादि पर्यायों से परिणत आत्मा ही ज्ञान दर्शन और चारित्र रूप होता है, इसलिए कर्ता और करण की भिन्नता का सिद्धान्त मानकर आत्मा और ज्ञान में भेद करना उचित नहीं है। व्याकरण शास्त्र से भी ज्ञान दर्शन चारित्र आदि शब्दों में होनेवाले युट् और णित्र प्रत्यय कर्ता आदि सभी साधनों में होते हैं अतः कोई शाब्दिक विरोध भी नहीं है।

24. अथवा, ज्ञान दर्शनादि शब्दों को भावसाधन कहना चाहिए -
  • 'ज्ञातिर्ज्ञानम्' अर्थात् जाननेरूप क्रिया,
  • 'दृष्टिदर्शनम्' अर्थात् तत्त्वश्रद्धान,
  • 'चरणं चारित्रम्' अर्थात् आचरण ।
उदासीनरूप से स्थित ज्ञान दर्शनादि क्रियाएं ही मोक्षमार्ग हैं। क्रिया में व्याप्त ज्ञानादि में तो यथासंभव कर्तृ साधन करणसाधन आदि व्यवहार होंगे।

25. प्रश्न – यदि ज्ञान को ही आत्मा कहा जाता है तो ज्ञान शब्द को आत्मा शब्द की तरह पुल्लिंग और एकवचन होना चाहिए ?

उत्तर – नहीं, एक ही अर्थ में व्यक्तिभेद से लिंगभेद और वचनभेद हो जाता है। जैसे कि - 'गेहं कुटी मठः' यहां एक ही घर रूप अर्थ में विभिन्न लिङ्गवाले शब्दों का प्रयोग है। 'पुष्यः तारका नक्षत्रम्' यहां एक ही तारारूप अर्थ में विभिन्नलिङ्गक और विभिन्न वचनवाले शब्दों का प्रयोग है।

26-29. प्रश्न – सूत्र में ज्ञान शब्द का ग्रहण पहिले करना चाहिए क्योंकि ज्ञानशब्द दर्शन शब्द से थोड़े अक्षरोंवाला है और ज्ञानपूर्वक ही दर्शन होता है अतः पूर्ववर्ती भी है ?

उत्तर – नहीं, जैसे मेघपटल के हटते ही सूर्य का प्रकाश और प्रताप एक साथ ही फैलता है उसी तरह दर्शनमोह का उपशम क्षय या क्षयोपशम होते ही आत्मा में ज्ञान और दर्शन की युगपत् वृत्ति होती है। तात्पर्य यह कि जिस समय आत्मा में सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसी समय उसके मत्यज्ञान श्रुताज्ञान आदि मतिज्ञान श्रुतज्ञान आदि रूप से सम्यग्ज्ञान बन जाते हैं अतः दोनों में पौर्वापर्य नहीं है।

थोड़े अक्षर होने के कारण ही पूर्वग्रहण नहीं होता, जो पूज्य होता है उसका अधिकाक्षर होने पर भी पूर्वग्रहण करना न्याय्य है। दर्शन ही ज्ञान में सम्यक्त्व लाने के कारण पूज्य है, अतः उसका ही प्रथम ग्रहण करना न्याय्य है।

30. सूत्र में दर्शन और चारित्र के बीच में ज्ञान का ग्रहण किया गया है; क्योंकि चारित्र ज्ञानपूर्वक ही होता है।

31-33. 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि' यहाँ सर्वपदार्थप्रधान द्वन्द्व समास है। इसका यह तात्पर्य है कि मोक्षमार्ग के प्रति तीनों की प्रधानता है किसी एक की नहीं। इसीलिए बहुवचन का प्रयोग है। 'द्वन्द्व समास के साथ कोई भी विशेषण चाहे वह आदि में प्रयुक्त हो या अन्त में सबके साथ जुट जाता है' यह नियम है अतः सम्यक् विशेषण का दर्शनादि के साथ अन्वय हो जाता है अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । जैसे कि 'देवदत्त जिनदत्त यज्ञदत्त को भोजन कराओ' यहाँ भोजन क्रिया का तीनों में अन्वय हो जाता है।

34. 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि' इस बहुवचन पद के साथ समानाधिकरण होने से मार्ग शब्द में बहुवचन और नपुसक लिंग नहीं हो सकता, क्योंकि मार्गस्वभावता तीनों में समान रूप से होने के कारण उस मार्गस्वभावता की प्रधानता पर दृष्टि रखने से उसमें पुल्लिंगता और एकवचनत्व रखने में कोई विरोध नहीं है।

35. समस्त कर्मों के आत्यन्तिक उच्छेद को मोक्ष कहते हैं। मोक्ष शब्द 'मोक्षणं मोक्षः' इस प्रकार कियाप्रधान भावसाधन है, 'मोक्ष असने' धातु से बना है।

36-37. मार्गशब्द प्रसिद्ध मार्ग की तरह है। जैसे कांटे आदि से रहित राजमार्ग से यात्री अपने गन्तव्य स्थान को सुखपूर्वक पहुँच जाता है उसी तरह मिथ्यादर्शनादि कंटकों से रहित सम्यग्दर्शनादि मार्ग से मोक्षनगर तक सुखपूर्वक पहुंचा जा सकता है। मार्ग धातु अन्वेषण अर्थ में है अर्थात् मोक्ष जिसके द्वारा ढूंडा जाय उन सम्यग्दर्शनादि को मार्ग कहते हैं।

38. जिस प्रकार वातादि के विकार से उत्पन्न होनेवाले रोगों के निदान को नष्ट करने के कारण औषधि आरोग्य का मार्ग कहलाती है उसी तरह संसार रोगरूप मिथ्यादर्शनादि के कारणों को नष्ट करने के कारण सम्यग्दर्शनादि मोक्ष के मार्ग कहे जाते हैं।

39-46 शंका – मिथ्याज्ञान से ही सभी वादियों ने बन्ध माना है अतः मोक्ष भी केवल सम्यग्ज्ञान से ही होना चाहिए अतः सम्यग्दर्शनादि तीन मोक्ष के मार्ग नहीं हो सकते । यथा

सांख्य (40-41) धर्म से ब्राह्म सौम्य आदि उच्च योनियों में जन्म लेना पड़ता है तथा अधर्म से मानुष पशु आदि नीच योनियों में। प्रकृति और पुरुष में विवेक ज्ञान होने से मोक्ष होता है तथा प्रकृति और पुरुष विषयक विपर्यय ज्ञान से बन्ध । जबतक पुरुष को महान् बुद्धि, अहंकार, पांच तन्मात्राएं - स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द, अहंकारजन्य पांच इन्द्रियां पांच भौतिक शरीर आदि अनात्मीय पदार्थों में 'मैं सुनता हूं, मैं देखता हूं' आदि मिथ्या ज्ञान होता है, वह शरीर को ही आत्मा मानता है तब तक इसको विपर्ययज्ञान के कारण बन्ध होता है और वह संसारी है । पर जब इसे प्रकृति और पुरुष में भेदविज्ञान हो जाता है, वह पुरुष के सिवाय यावत् पदार्थों को प्रकृतिकृत और त्रिगुणात्मक मानकर उनसे विरक्त होकर 'इनमें मैं नहीं हूं, मेरे ये नहीं हैं' यह परम विवेकज्ञान जाग्रत होता है तब सम्यग्ज्ञान से मोक्ष हो जाता है । तात्पर्य यह कि सांख्य विपर्यय से बन्ध और ज्ञान से मोक्ष मानता है।

वैशेषिक - इच्छा और द्वेष से धर्म और अधर्म की प्रवृत्ति होती है उनसे सुख और दुःख रूप संसार । जिस पुरुष को तत्त्वज्ञान हो जाता है उसे इच्छा और द्वेष नहीं होते, इनके न होने से धर्म-अधर्म नहीं होते, धर्म और अधर्म के न होने से नए शरीर और मन का संयोग नहीं होता, जन्म नहीं होता और संचित कर्मों का निरोध हो जाने से मोक्ष हो जाता है। जैसे प्रदीप के बुझ जाने से प्रकाश का अभाव हो जाता है उसी तरह धर्म और अधर्म रूप बन्धन के हट जाने पर जन्म-मरण-चक्ररूप संसार का अभाव हो जाता है । अतः षट्पदार्थ का तत्त्वज्ञान होते ही अनागत धर्म और अधर्म की उत्पत्ति नहीं होगी और संचित धर्माधर्म का उपभोग और ज्ञानाग्नि से विनाश होकर मोक्ष हो जाता है। अतः वैशेषिक के मत से भी विपर्यय बन्ध का कारण है और तत्त्वज्ञान मोक्ष का ।

नैयायिक - तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान की निवृत्ति होने पर क्रमशः दोष प्रवृत्ति जन्म और दुःख को निवृत्ति होने को मोक्ष कहते हैं। दुःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष और मिथ्याज्ञान का कारणकार्यभाव है अर्थात् मिथ्याज्ञान का कार्य दोष, दोष का कार्य प्रवृत्ति, प्रवृत्ति का कार्य जन्म और जन्म का कार्य दुःख है। अतः कारण की निवृत्ति होने पर कार्य की निवृत्ति होना स्वाभाविक ही है। आत्यन्तिक दुःखनिवृत्ति को ही मोक्ष कहते हैं।

बौद्ध - अविद्या से बन्ध तथा विद्या से मोक्ष मानते हैं। अनित्य अनात्मक अशुचि और दुःखरूप सभी पदार्थों को नित्य सात्मक शुचि और सुखरूप मानना अविद्या है । इस अविद्या से रागादिक संस्कार उत्पन्न होते हैं । संस्कार तीन प्रकारके हैं - १ पुण्योपग (शुभ), २ अपुण्योपग (अशुभ), ३ आनेज्योपग (अनुभयरूप)। वस्तु को प्रतिविज्ञप्ति को विज्ञान कहते हैं। इन संस्कारों के कारण वस्तु में इष्ट अनिष्ट प्रतिविज्ञप्ति होती है, इसीलिए संस्कार विज्ञान में प्रत्यय अर्थात् कारण माना जाता है । इस विज्ञान से नाम अर्थात् चार अरूपी स्कन्ध-वेदना संज्ञा, संस्कार और विज्ञान, तथा रूप अर्थात रूपस्कंध - पृथिवी, जल, अग्नि और वायु उत्पन्न होता है। इस पंचस्कन्ध को नामरूप कहते हैं । विज्ञान से ही नाम और रूप को नामरूप संज्ञाएं मिलती हैं अतः इन्हें विज्ञानसम्भूत कहा गया है । इस नामरूप से ही चक्षु आदि पांच इन्द्रियां और मन ये षडायतन होते हैं। अतः षडायतन को नामरूपप्रत्यय कहा है। विषय इन्द्रिय और विज्ञान के सन्निपात को स्पर्श कहते हैं। छह आयतन द्वारों का विषयाभिमुख होकर प्रथम ज्ञानतन्तुओं को जाग्रत करना स्पर्श है। स्पर्श के अनुसार वेदना अर्थात् अनुभव होता है। वेदना के बाद उसमें होनेवाली आसक्ति तृष्णा कहलाती है। उन उन अनुभवों में रस लेना, उनका अभिनन्दन करना, उनमें लीन रहना तृष्णा है । तृष्णा की वृद्धि से उपादान होता है । यह इच्छा होती है कि मेरी यह प्रिया मेरे साथ सदा बनी रहे, मुझमें सानुराग रहे और इसीलिए तृष्णातुर व्यक्ति उपादान करता है । इस उपादान से ही पुनर्भव अर्थात् परलोक को उत्पन्न करनेवाला कर्म होता है। इसे भव कहते हैं। यह कर्म मन, वचन और काय इन तीनों से उत्पन्न होता है। इससे परलोक में नए शरीर आदि का उत्पन्न होना जाति है। शरीर स्कन्ध का पक जाना जरा है और उस स्कन्ध का विनाश मरण कहलाता है। इसीलिए जरा और मरण को जातिप्रत्यय बताया है। इस तरह यह द्वादशांगवाला चक्र परस्परहेतुक है । इसे प्रतीत्यसमुत्पाद कहते हैं। प्रतीत्य अर्थात् एक को निमित्त बनाकर अन्य का समुत्पाद अर्थात् उत्पन्न होना। इसके कारण यह भवचक्र बराबर चलता रहता है। जब सब पदार्थों में अनित्य निरात्मक अशुचि और दुःख रूप तत्त्वज्ञान उत्पन्न होता है तब अविद्या नष्ट हो जाती है, फिर अविद्या के विनाश से क्रमश: संस्कार आदि नष्ट होकर मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इस तरह बौद्धमत में भी अविद्या से बन्ध और विद्या से मोक्ष माना गया है।

जैनसिद्धान्त में भी मिथ्यादर्शन, अविरति आदि को बन्धहेतु बताया है। पदार्थों में विपरीत अभिप्राय का होना ही मिथ्यादर्शन है और यह मिथ्यादर्शन अज्ञान से होता है अत: अज्ञान ही बन्धहेतु फलित होता है । 'सामायिक मात्र से अनन्त जीव सिद्ध हुए हैं' इस आर्ष वचन में ज्ञानरूप सामायिक से स्पष्टतया सिद्धि का वर्णन है। अत: जब अज्ञान से बंध और ज्ञान से मोक्ष यह सभी वादियों को निर्विवाद रूप से स्वीकृत है तब सम्यग्दर्शनादि तीन को मोक्ष का मार्ग मानना उपयक्त नहीं है।

एक बार एक लड़के को हाथी ने मार डाला। एक वणिक् ने समझा कि मेरा लड़का मर गया है और वह पुत्र-शोक में बेहोश हो गया। जब कुशल मित्रों ने होश में लाकर उस वणिक् को उसका जीवित पुत्र दिखाया तब उसे यह ज्ञान हुआ कि मेरा पुत्र जीवित है, मेरे पुत्र के समान कोई रूपवाला दूसरा ही लड़का मरा है तो वह स्वस्थ हो गया । इस लौकिक दृष्टान्त से भी यह सिद्ध होता है कि अज्ञान से दुःख अर्थात् बन्ध और ज्ञान से सुख अर्थात् मोक्ष होता है।

47. समाधान – यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति का सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों से अविनाभाव है, वह इनके बिना नहीं हो सकती। जैसे मात्र रसायन के श्रद्धान ज्ञान या आचरण मात्र से रसायन का फल-आरोग्य नहीं मिलता। पूर्णफल की प्राप्ति के लिए रसायन का विश्वास ज्ञान और उसका सेवन आवश्यक ही है उसी तरह संसार व्याधि की निवृत्ति भी तत्त्वश्रद्धान ज्ञान और चारित्र से ही हो सकती है। अतः तीनों को ही मोक्षमार्ग मानना उचित है। 'अनन्ताः सामायिकसिद्धाः' वचन भी तीनों के मोक्षमार्ग का समर्थन करता है। ज्ञानरूप आत्मा के तत्त्वश्रद्धानपूर्वक ही सामायिक-समताभाव रूप चारित्र हो सकता है। सामायिक अर्थात् समस्त पापयोगों से निवृत्त होकर अभेद समता और वीतरागता में प्रतिष्ठित होना। कहा भी है - क्रियाहीन ज्ञान नष्ट है और अज्ञानियों की क्रिया निष्फल है। दावानल से व्याप्त वन में जिसप्रकार अन्धा व्यक्ति इधर-उधर भागकर भी जल जाता है उसी तरह लँगड़ा देखता हुआ भी जल जाता है । एक चक्र से रथ नहीं चलता। अतः ज्ञान और क्रिया का संयोग ही कार्यकारी है। यदि अन्धा और लँगड़ा दोनों मिल जाय और अन्धे के कन्धे पर लंगड़ा बैठ जाय तो दोनों ही का उद्धार हो जाय । लँगड़ा रास्ता बताकर ज्ञान का कार्य करे और अन्धा पैरों चलकर चारित्र का कार्य करे तो दोनों ही नगरमें आ सकते हैं।

48-51. यदि ज्ञानमात्र से ही मोक्ष माना जाय तो पूर्णज्ञान की प्राप्ति के द्वितीय क्षण में ही मोक्ष हो जायगा। एक क्षण भी पूर्णज्ञान के बाद संसार में ठहरना नहीं हो सकेगा, उपदेश, तीर्थप्रवृत्ति आदि कुछ भी नहीं हो सकेंगे। यह संभव ही नहीं है कि दीपक भी जल जाय और अँधेरा भी रह जाय। उसी तरह यदि ज्ञानमात्र से मोक्ष हो तो यह संभव ही नहीं हो सकता कि ज्ञान भी हो जाय और मोक्ष न हो। यदि पूर्णज्ञान होने पर भी कुछ संस्कार ऐसे रह जाते हैं जिनका नाश हुए बिना मुक्ति नहीं होती और जब तक उन संस्कारों का क्षय नहीं होता तब तक उपदेश आदि हो सकते हैं, तो इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि संस्कारक्षय से मुक्ति होगी ज्ञानमात्र से नहीं। फिर यह बताइये कि संस्कारों का क्षय ज्ञान से होगा या अन्य किसी कारण से ? यदि ज्ञान से, तो ज्ञान होते ही संस्कारों का क्षय भी हो जायगा और तुरंत ही मुक्ति हो जाने से तीर्थोपदेश आदि नहीं बन सकेंगे। यदि संस्कार क्षय के लिए अन्य कारण अपेक्षित है तो वह चारित्र ही हो सकता है, अन्य नहीं । अतः ज्ञानमात्र से मोक्ष मानना उचित नहीं है। यदि ज्ञानमात्र से ही मोक्ष हो जाय तो सिर का मुंडाना, गेरुआ वेष, यम, नियम, जपतप, दीक्षा आदि सभी व्यर्थ हो जाएँगे।

52. इसी तरह ज्ञान और वैराग्य से भी मुक्ति मानने पर तीर्थोपदेश आदि नहीं बन सकेंगे। क्योंकि तत्त्वज्ञान होते ही विषयविरक्तिरूप वैराग्य अवश्य ही होगा और तुरंत मोक्ष हो जाने पर संसार में ठहरना ही नहीं हो सकेगा।

53-55. यदि आत्मा को नित्य और व्यापक माना जाता है तो उसमें न तो ज्ञानादि की उत्पत्ति ही हो सकती है और न हलन-चलन रूप क्रिया ही। इस तरह किसी भी प्रकार की विक्रिया अर्थात् परिणमन न हो सकने के कारण ज्ञान और वैराग्यरूप कारणों की संभावना ही नहीं है। आत्मा इन्द्रिय, मन और अर्थ के सम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान निर्विकारी आत्मा में कैसे पैदा होगा ? जब आत्मा सदा एकसा रहता है, उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन असंभव है तो कूटस्थ नित्य आकाश की तरह मोक्ष आदि नहीं बन सकेंगे।

इसी तरह आत्मा को सर्वथा क्षणिक अर्थात प्रतिक्षण निरन्वयविनाशी माननेपर भी ज्ञान वैराग्यादि परिणमनों का आधारभूत पदार्थ न होने से मोक्ष नहीं बन सकेगा। जिस मत में सभी संस्कार क्षणिक हैं उसके यहाँ ज्ञानादि का उत्पत्ति के बाद ही तुरंत नाश हो जाने पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध आदि नहीं बनेंगे और समस्त अनुभवसिद्ध लोकव्यवहारों का लोप हो जायगा। क्षणों की अवास्तविक सन्तान मानना निरर्थक ही है। यदि सन्तान क्षणों से अभिन्न है तो क्षणों की तरह ही निरन्वय क्षणिक होगी। ऐसी दशा में उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। यदि क्षणों से भिन्न है तो उससे क्षणों का परस्पर समन्वय कैसे हो सकेगा? आदि अनेक दूषण आते हैं।

56. जिस पुरुष ने स्थाणु और पुरुष को पृथक् अनुभव किया हो उसको अन्धकार इन्द्रिय दोष आदि से स्थाणु में पुरुषभान रूप विपर्यय होता है। जिसने आज तक स्थाणु और पुरुषगत विशेषों को नहीं जाना है उसे विपर्यय हो ही नहीं सकता। इस तरह जब अनादि से पुरुष और प्रकृति में भेदोपलब्धि नहीं हुई तब विपर्यय कैसे हो सकता है ? इसी तरह बौद्धमत में भी जब पहिले कभी अनित्य अनात्मक अशुचि दुःखरूप से प्रतीति नहीं हुई तब विपर्यय कैसे हो सकता है ? यदि सांख्य यह कहे कि - हां, पहिले कभी प्रकृति और पुरुष में भेदोपलब्धि हुई है, तो उसी समय भेदविज्ञान से मुक्ति हो जाना चाहिए थी, फिर आज बन्ध कैसा? इसी प्रकार यदि बौद्ध को अनित्यादि रूप से पहिले कभी प्रतीति हुई हो तो उसे भी मोक्ष हो जाना चाहिए था।

57. जिनके मत में एक ज्ञान एक ही अर्थ को जानता है उनके यहां स्थाणु विषयक ज्ञान स्थाणु को ही जानेगा तथा पुरुषविषयक ज्ञान पुरुष को ही। अतः एक ज्ञान का दो अर्थों को जानना जब संभव ही नहीं है तब न तो संशय हो सकता है और न विपर्यय ही। अतः एकार्थग्राहिज्ञानवादी के मत से न तो विपर्यय होगा न बंध और न मोक्ष ।

58-60. शंका – ज्ञान और दर्शन चूंकि एक साथ उत्पन्न होते हैं अतः इन्हें एक ही मानना चाहिए ?

समाधान – जिस प्रकार ताप और प्रकाश एक साथ होकर भी दाह और प्रकाशन रूप अपने भिन्न लक्षणों से अनेक हैं, उसी तरह तत्त्वज्ञान और तत्त्वश्रद्धानरूप भिन्न लक्षणों से ज्ञान और दर्शन भी भिन्न भिन्न हैं। फिर, यह कोई नियम नहीं है कि जो एक साथ उत्पन्न हों वे एक हों। गाय के दोनों सींग एक साथ उत्पन्न होते हैं पर अनेक हैं, अतः इस पक्ष में दृष्टविरोध दोष आता है। जैनदर्शन में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों से वस्तु का विवेचन किया जाता है। अतः द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता और पर्यायार्थिक नय की गौणता करने पर ज्ञान और दर्शन में एकत्व भी है। जैसे परमाणु आदि पुद्गलद्रव्यों में बाह्य और आभ्यन्तर कारणों से एक साथ रूपरसादि परिणमन होता है फिर भी रूप-रस आदि में परस्पर एकत्व नहीं है उसी तरह ज्ञान और दर्शन में भी समझना चाहिए। अथवा, जैसे अनादि पारिणामिक पुद्गलद्रव्य की विवक्षा में द्रव्यार्थिक-नय की प्रधानता और पर्यायाथिक-नय की गौणता रहने पर रूप, रस आदि में एकत्व है क्योंकि वही द्रव्य रूप है और वही द्रव्य रस, उसी तरह अनादिपारिणामिक चैतन्यमय जीवद्रव्य की विवक्षा रहने पर ज्ञान और दर्शन में अभेद है क्योंकि वही आत्मद्रव्य ज्ञानरूप होता है तथा वही आत्मद्रव्य दर्शनरूप । जब हम उन-उन पर्यायों की विवक्षा करते हैं तब ज्ञानपर्याय भिन्न है तथा दर्शन पर्याय भिन्न ।

61-64. प्रश्न – ज्ञान और चारित्र में कालभेद नहीं है अतः दोनों को एक ही मानना चाहिए। किसी व्यभिचारी पुरुष ने अंधेरी रात में मार्ग में जाती हुई अपनी व्यभिचारिणी माता को ही छेड़ दिया। इसी समय बिजली चमकी। उस समय जैसे ही उसे यह ज्ञान हुआ कि यह 'मां' है वैसे ही तुरंत वह अगम्यागमन से निवृत्त हो जाता है, इसी तरह जैसे ही इस जीव को यह सम्यग्ज्ञान होता है कि जीवहिंसा नहीं करनी चाहिए वैसे ही वह हिंसा से निवृत्त हो जाता है । अतः ज्ञान और चारित्र में कालभेद नहीं है और इसीलिए इन्हें एक मानना चाहिए।

उत्तर – जिस प्रकार सुई से ऊपर नीचे रखे हुए 100 कमलपत्रों को एक साथ छेदने पर सूक्ष्म कालभेद की प्रतीति नहीं होती यद्यपि वहां कालभेद है उसी तरह ज्ञान और चारित्र में भी सूक्ष्म कालभेद का भान नहीं हो पाता, कारण काल अत्यन्त सूक्ष्म है । ज्ञान और चारित्र में अर्थभेद भी है - ज्ञान जानने को कहते हैं तथा चारित्र कर्मबन्ध की कारण क्रियाओं की निवृत्ति को। फिर यह कोई नियम नहीं है कि जिनमें कालभेद न हो उनमें अर्थभेद भी न हो। देखो, जिस समय देवदत्त का जन्म होता है उसी समय मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, शरीर, वर्ण, गन्ध आदि का भी उदय होता है पर सबके अर्थ जुदे-जुदे हैं। इसी तरह ज्ञान और चारित्र के भी अर्थ भिन्न-भिन्न हैं ।

यह पहिले कह भी चुके हैं कि द्रव्यार्थिक-दृष्टि से ज्ञानादिक में एकत्व है तथा पर्यायार्थिक-दृष्टि से अनेकत्व।

65-66. प्रश्न – यदि दर्शन ज्ञान आदि में लक्षण भेद है तो ये मिलकर एक मार्ग नहीं हो सकते, इन्हें तीन मार्ग मानना चाहिए ?

उत्तर – यद्यपि इनमें लक्षणभेद है फिर भी ये मिलकर एक ऐसी आत्मज्योति उत्पन्न करते हैं जो अखण्डभाव से एक मार्ग बन जाती है जैसे कि दीपक, बत्ती, तेल आदि विलक्षण पदार्थ मिलकर एक दीपक बन जाते हैं। इसमें किसी वादी को विवाद भी नहीं है।
  • सांख्य प्रसादलाघव-शोषताप-आवरणसादन रूप से भिन्न लक्षणवाले सत्त्व, रज और तम इन तीनों की साम्यावस्था को एक प्रधान तत्त्व मानते हैं ।
  • बौद्ध कक्खडकर्कश द्रव उष्ण आदि रूप से भिन्न लक्षणवाले पथिवी, जल, तेज और वाय इन चार भूतों तथा रूप, रस, गन्ध और स्पर्श इन चार भौतिकों के समदाय को एक रूपपरमाणु मानते हैं। इसी तरह रागादि धर्म और प्रमाण प्रमेय अधिगम आदि धर्मों का समावेश एक ही विज्ञान में माना जाता है ।
  • नैयायिकादि भिन्न रंगवाले सूत से एक चित्रपट मान लेते हैं।
उसी तरह भिन्न लक्षणवाले सम्यग्दर्शनादि तीनों एक मार्ग बन सकते हैं।

67-68. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में पूर्व की प्राप्ति होने पर उत्तर की प्राप्ति भजनीय है अर्थात् हो भी न भी हो। किन्तु उत्तर की प्राप्ति में पूर्व का लाभ निश्चित है - वह होगा ही। जैसे जिसे सम्यक्चारित्र होगा उसे सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन होंगे ही पर जिसे सम्यग्दर्शन है उसे पूर्णसम्यग्ज्ञान और चारित्र हो भी और न भी हो।

69-71. शंका – पूर्व सम्यग्दर्शन के लाभ में उत्तर ज्ञान का लाभ भजनीय है अर्थात् हो भी न भी हो यह नियम उचित नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन होने पर भी ज्ञान यदि नहीं होता तो अज्ञानपूर्वक श्रद्धान का प्रसङ्ग होता है। फिर जब तक स्वतत्त्व का ज्ञान नहीं किया गया तब तक उसका श्रद्धान कैसा? जैसे कि अज्ञात फल के सम्बन्ध में यह विधान नहीं किया जा सकता कि 'इस फल के रस से यह आरोग्य आदि होता है उसी तरह अज्ञात तत्त्व का श्रद्धान भी नहीं किया जा सकता। ज्ञान तो आत्मा का स्वभाव है अतः वह न्यूनाधिक रूप में सदा स्थायी गुण है उसे कभी भी भजनीय नहीं कहा जा सकता अन्यथा आत्मा का ही अभाव हो जायगा, क्योंकि सम्यग्दर्शन होने पर मिथ्याज्ञान की तो निवृत्ति हो जायगी और सम्यग्ज्ञान नियमतः होगा नहीं, अतः सर्वथा ज्ञानाभाव से आत्मा का ही अभाव हो जायगा।

72. समाधान – पूर्ण ज्ञान को भजनीय कहा है न कि ज्ञान-सामान्य को। ज्ञान की पूर्णता श्रुतकेवली और केवलीके होती है। सम्यग्दर्शन होने पर पूर्ण द्वादशांग और चतुर्दश पूर्वरूप श्रुतज्ञान और केवलज्ञान अवश्य हो ही जायगा यह नियम नहीं है। इसी तरह चारित्र भी यथासंभव देशसंयत को सकलसंयम यथाख्यात आदि भजनीय हैं।

73. 'पूर्व-अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के लाभ में चारित्र भजनीय है' यह अर्थ करना उचित नहीं है क्योंकि वार्तिक में 'पूर्वस्य' यह एक वचनपद है अतः इससे एक का ही ग्रहण हो सकता। यदि दो की विवक्षा होती तो 'पूर्वयोः' ऐसा द्विवचनान्त पद देना चाहिए था। यदि एकवचन के द्वारा भी सामान्य रूप से दो का ग्रहण किया जाता है तो 'भजनीयमुत्तरम्' यहां भी 'उत्तरम्' इस एकवचन पद के द्वारा ज्ञान और चारित्र दो का ग्रहण होने से पूर्वोक्त दोष बना ही रहता है। अथवा, क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने पर क्षायिक ज्ञान भजनीय है - हो अथवा न हो' यह व्याख्या कर लेनी चाहिए । अथवा, 'सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों की एक साथ उत्पत्ति होती है अतः नारद और पर्वत के साहचर्य की तरह एक के ग्रहण से दूसरे का भी ग्रहण हो ही जाता है अतः पूर्व अर्थात् सम्यग्दर्शन या सम्यग्ज्ञान का लाभ होने पर भी उत्तर अर्थात् चारित्र भजनीय है' यह अर्थ भी किया जा सकता है ।

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तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥2॥
अन्वयार्थ : अपने अपने स्‍वरूप के अनुसार पदार्थों का जो श्रद्धान होता है वह सम्‍यग्‍दर्शन है ॥२॥

सर्वार्थसिद्धि :
तत्त्व शब्‍द भाव सामान्‍य का वाचक है, क्‍योंकि 'तत्' यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम सामान्‍य अर्थ में रहता है अत: उसका भाव तत्त्व कहलाया। यहाँ 'तत्' पद से कोई भी पदार्थ लिया गया है। आशय यह है कि जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है उसका उस रूप होना यही तत्त्व शब्‍द का अर्थ है। अर्थ शब्‍द का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है... अर्यते निश्‍चीयते इत्‍यर्थ: - जो निश्‍चय किया जाता है। यहाँ तत्त्व और अर्थ इन दोनों शब्‍दों के संयोग से तत्त्वार्थ शब्द बना है जो 'तत्‍त्‍वेन अर्थस्‍तत्त्वार्थ:' ऐसा समास करने पर प्राप्‍त होता है। अथवा भाव-द्वारा भाववाले पदार्थ का कथन किया जाता है, क्‍योंकि भाव भाववाले से अलग नहीं पाया जाता। ऐसी हालत में इसका समास होगा 'तत्त्वमेव अर्थ: तत्त्वार्थ:'। तत्त्वार्थ का श्रद्धान तत्त्वार्थश्रद्धान कहलाता है। उसे ही सम्‍यग्‍दर्शन जानना चाहिए ।

शंका – दर्शन शब्द 'दृशि' धातु से बना है जिसका अर्थ आलोक है, अत: इससे श्रद्धानरूप अर्थ का ज्ञान नहीं हो सकता है ?

समाधान – धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं, अत: 'दृशि' धातु का श्रद्धानरूप अर्थ करने में कोई दोष नहीं है।

शंका – यहाँ 'दृशि' धातु का प्रसिद्ध अर्थ क्‍यों छोड़ दिया है ?

समाधान – मोक्षमार्ग का प्रकरण होने से। तत्त्वार्थों का श्रद्धान आत्‍मा का परिणाम है वह मोक्ष का साधन बन जाता है, क्‍योंकि वह भव्‍यों के ही पाया जाता है, किन्‍तु आलोक चक्षु आदि के निमित्त से होता है जो साधारण रूप से सब संसारी जीवों के पाया जाता है, अत: उसे मोक्षमार्ग मानना युक्त नहीं है।

शंका – सूत्रमें 'तत्त्वार्थश्रद्धानम्' के स्‍थान में 'अर्थश्रद्धानम्' इतना कहना पर्याप्‍त है ?

समाधान – इससे अर्थ शब्‍द के धन, प्रयोजन और अभिधेय आदि जितने भी अर्थ हैं उन सबके ग्रहण का प्रसंग आता है जो युक्त नहीं है, अत: 'अर्थश्रद्धानम्' केवल इतना नहीं कहा है।

शंका – तब 'तत्त्वश्रद्धानम्' इतना ही ग्रहण करना चाहिए ?

समाधान – इससे केवल भाव मात्र के ग्रहण का प्रसंग प्राप्‍त होता है। कितने ही लोग (वैशेषिक) तत्त्व पद से सत्ता, द्रव्‍यत्‍व, गुणत्‍व और कर्मत्‍व इत्‍यादि का ग्रहण करते हैं। अब यदि सूत्र में 'तत्त्वश्रद्धानम्' इतना ही रहने दिया जाता है तो इससे इन सबका श्रद्धान करना सम्‍यग्‍दर्शन प्राप्‍त होता है जो युक्त नहीं है । अथवा तत्त्व शब्‍द एकत्‍ववाची है, इसलिये सूत्र में केवल तत्त्व पद के रखने से 'सब सर्वथा एक हैं' इस प्रकार स्‍वीकार करने का प्रसंग प्रा‍प्‍त होता है। 'यह सब दृश्‍य व अदृश्‍य जग पुरुषस्‍वरूप ही है' ऐसा किन्‍हीं ने माना भी है। किन्‍तु ऐसा मानने पर प्रत्‍यक्ष और अनुमान से विरोध आता है, अत: इन सब दोषों के दूर करने के लिए सूत्र में 'तत्त्व' और 'अर्थ' इन दोनों पदों का ग्रहण किया है । सम्‍यग्‍दर्शन दो प्रकार का है – सराग सम्‍यग्‍दर्शन और वीतराग सम्‍यग्‍दर्शन। प्रशम, संवेग, अनुकम्‍पा और आस्तिक्‍य आदि की अभिव्‍यक्ति लक्षणवाला सराग सम्‍यग्‍दर्शन है और आत्‍मा की विशुद्धिमात्र वीतराग सम्‍यग्‍दर्शन है ।

अब जीवादि पदार्थों को विषय करने वाला यह सम्‍यग्‍दर्शन किस प्रकार उत्‍पन्न होता है इस बा‍त के बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -


राजवार्तिक :
1-2. सम्यक् यह प्रशंसार्थक शब्द (निपात) है। यह प्रशस्त रूप, गति, जाति, कुल, आयु, विज्ञान आदि अभ्युदय और निःश्रेयस का प्रधान कारण होता है। 'सम्यगिष्टार्थतत्त्वयोः' इस प्रमाण के अनुसार सम्यक् शब्द का प्रयोग इष्टार्थ और तत्त्व अर्थ में होता है अतः इसका प्रशंसा अर्थ उचित नहीं है, इस शंका का समाधान यह है कि निपात शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं, अतः प्रशंसा अर्थ मानने में कोई विरोध नहीं है। अथवा सम्यक् का अर्थ 'तत्त्व' भी किया जा सकता है जिसका अर्थ होगा 'तत्त्वदर्शन'। अथवा, यह क्विप् प्रत्ययान्त शब्द है । इसका अर्थ है जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही जाननेवाला। दर्शन शब्द करणसाधन, कर्तृसाधन और भावसाधन तीनों रूप है।

3-4. प्रश्न – दर्शन दृशि धातु से बना है और दृशि धातु का अर्थ देखना है । अतः दर्शन का श्रद्धान अर्थ नहीं हो सकता ?

उत्तर – धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं, इसलिए उनमें से श्रद्धान अर्थ भी ले लिया जायगा। चूंकि यहां मोक्ष का प्रकरण है अतः दर्शन का देखना अर्थ इष्ट नहीं है किन्तु तत्त्वश्रद्धान अर्थ ही इष्ट है।

5-6. तत्त्व शब्द भावसामान्य का वाचक है। 'तत्' यह सर्वनाम है जो भाव-सामान्यवाची है। अतः तत्त्व शब्द का स्पष्ट अर्थ है - जो पदार्थ जिस रूप से है उसका उसी रूप होना। अर्थ माने जो जाना जाय । तत्त्वार्थ माने जो पदार्थ जिस रूप से स्थित है उसका उसी रूप से ग्रहण । तात्पर्य यह कि जिसके होने पर तत्त्वार्थ-अर्थात् वस्तु का यथार्थ ग्रहण हो उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं।

7-8. जिस प्रकार दर्शन शब्द करण, भाव और कर्म तीनों साधनों में निष्पन्न होता है उसी तरह श्रद्धान शब्द भी
  • 'जिसके द्वारा श्रद्धान हो'
  • 'जो श्रद्धान किया जाय' और
  • 'श्रद्धामात्र'
इन तीनों साधनों में निष्पन्न होता है। यह श्रद्धान आत्मा की पर्याय है। आत्मा ही श्रद्धान रूप से परिणत होता है।

9-16. प्रश्न – मोहनीय-कर्म की प्रकृतियों में भी 'सम्यक्त्व' नाम की कर्मप्रकृति है और 'निर्देशस्वामित्व' आदि सूत्र के विवरण से भी ज्ञात होता है कि यहां सम्यक्त्व कर्म प्रकृति का सम्यग्दर्शन से ग्रहण है अतः सम्यक्त्व को कर्मपुद्गल रूप मानना चाहिए ?

उत्तर – यहां मोक्ष के कारणों का प्रकरण है, अतः उपादानभूत आत्मपरिणाम ही विवक्षित है । औपशमिक आदि सम्यग्दर्शन सीधे आत्मस्वरूप ही हैं। सम्यक्त्व प्रकृति तो पुद्गल की पर्याय है। यद्यपि उत्पत्ति स्व और पर उभय निमित्तों से होती है फिर भी पर-पदार्थ तो उपकरणमात्र हैं, साधारण निमित्त हैं। वस्तुतः मिट्टी ही घड़ा बनती है, दण्ड आदि तो साधारण उपकरण हैं, बाह्य-साधन हैं। इसी तरह सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में भी आत्म-परिणमन ही मुख्य है। इस दर्शनमोह नामक कर्म को आत्मविशुद्धि के द्वारा ही रसघात करके स्वल्पघाती क्षीणशक्तिक सम्यक्त्व कर्म बनाया जाता है। अतः यह सम्यक्त्व प्रकृति आत्मस्वरूप मोक्ष का प्रधान कारण नहीं हो सकती। आत्मा ही अपनी शक्ति से दर्शन पर्याय को धारण करता है अतः वही मोक्ष का कारण है। आत्मा की आन्तरिक सम्यग्दर्शन पर्याय अहेय होती है जब कि सम्यक्त्व प्रकृति हेय । इस सम्यक्त्व प्रकृति का नाश करके ही क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है। अतः आभ्यन्तर स्वशक्तिरूप ही सम्यग्दर्शन हो सकता है सम्यक्त्व कर्मपुद्गलरूप नहीं। आभ्यन्तर परिणमन ही प्रधान होता है, वही प्रत्यासन्न कारण होता है और उसी रूप से आत्मा परिणति करता है अतः अहेय होने से प्रधान और प्रत्यासन्न कारण होने से आत्मपरिणामरूप सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का कारण हो सकता है न कि कर्मपुद्गल । अल्पबहुत्व का विवेचन भी उपशम सम्यग्दर्शन आदि आत्मपरिणाम के आधार से किया जा सकता है, उसके लिए भी कर्मपुद्गल की कोई आवश्यकता नहीं है।
  • सबसे कम उपशम सम्यग्दृष्टि हैं,
  • क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणें और
  • क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि उनसे असंख्यातगुणें हैं।
  • सिद्ध क्षायिक सम्यग्दृष्टि अनन्तगुणें होते हैं ।
अतः आत्मपरिणामरूप सम्यग्दर्शन ही मोक्ष का साक्षात् कारण हो सकता है।

17-21. प्रश्न – अर्थश्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन कहना चाहिए, यहां 'तत्त्व' पद व्यर्थ है। इससे सूत्र में भी लघुता आयगी?

उत्तर – यदि तत्त्व पद न दिया जाय सभी अर्थों के श्रद्धान का नाम सम्यग्दर्शन हो जायगा। मिथ्यावादिप्रणीत अर्थ भी उनके द्वारा जाने तो जाते ही हैं पर वे तत्त्व नहीं हैं । अर्थ शब्द के अनेक अर्थ हैं, अतः सन्देह भी होगा कि किस अर्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा जाय ? वैशेषिक शास्त्र में द्रव्य, गुण और कर्म इन तीन पदार्थों की अर्थ संज्ञा है । 'आप यहां किस अर्थ से आए' यहां अर्थ शब्द का प्रयोजन अर्थ है। 'अर्थवान् देवदत्तः' में अर्थवान् का अर्थ धनवान् है । 'शब्दार्थसम्बन्ध' में अर्थ का तात्पर्य अभिधेय है। इस तरह अर्थ शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। यह तर्क तो अनुचित है कि - 'सभी अर्थों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन मानने पर सभी का अनुग्रह हो जायगा, आपको सर्वानुग्रह से द्वेष क्यों है'; क्योंकि असत् अर्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन नाम नहीं पा सकता, अतः सर्वानुग्रह के विचार से ही सन्मार्ग प्रदर्शन बुद्धि से अर्थ के साथ 'तत्त्व' विशेषण लगा दिया है जिससे लोग असदों में न भटक जांय । यद्यपि 'अर्थते इति अर्थः' अर्थात् जो जाना जाय वह अर्थ, इस व्युत्पत्ति के अनुसार मिथ्यावादिप्रणीत अर्थ तो ज्ञेय हो ही नहीं सकते क्योंकि वे अविद्यमान हैं अतः अर्थपद का इतना विशिष्ट अर्थ करके ही तत्त्व पद का कार्य चलाया जा सकता है किन्तु मिथ्यात्व के उदय में इस आत्मा को अस्ति-नास्ति, नित्य-अनित्य आदि एकान्तों में मिथ्या अर्थबुद्धि होने लगती है, जैसे कि पित्तज्वर वाले को मधुर रस भी कटुक मालूम होता है। अतः इन एकान्त अर्थों का निराकरण करने के लिए 'तत्त्व' पद दिया ही जाना चाहिए।

22-25. यद्यपि 'तत्त्व ही अर्थ है' यह विग्रह करने पर तत्त्व के कहने से कार्य चल जाता है फिर भी अर्थ पद का ग्रहण निर्दोष प्रतिपत्ति के लिए किया गया है। यथा - यदि 'तत्त्व है' इस श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा जाय, तो एकान्तवादियों को भी 'नास्ति आत्मा' इत्यादि रूप से तत्त्वश्रद्धा होती है अतः उनकी श्रद्धा को भी सम्यग्दर्शन कहना होगा। यदि 'तत्त्व की श्रद्धा' को सम्यग्दर्शन कहा जाय, तो तत्त्व अर्थात् भावसामान्य की श्रद्धा भी सम्यक्त्व कही जायगी। 'तत्त्व-भाव-सामान्य एक स्वतन्त्र पदार्थ है' यह मान्यता वैशेषिक की है। वे यह भी कहते हैं कि द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व आदि सामान्य द्रव्यादि से भिन्न हैं । अथवा, तत्त्व-एकत्व, 'पुरुषरूप ही यह जगत् है' इस ब्रह्मैकवाद के श्रद्धान को भी सम्यग्दर्शनत्व का प्रसङ्ग प्राप्त होगा। किन्तु यह उचित नहीं है क्योंकि अद्वैतवाद में क्रियाकारक आदि समस्त भेद-व्यवहार का लोप हो जाता है। यदि 'तत्त्वेन-तत्त्वरूप से श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं तो 'किस का श्रद्धान, किसमें श्रद्धान' ये प्रश्न खड़े रहते हैं । अतः अर्थपद का ग्रहण अत्यन्त आवश्यक है अर्थात् तत्त्वरूप से प्रसिद्ध अर्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है।

26-28. कोई वादी इच्छापूर्वक श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। उनका यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि भी बहुश्रुतत्व दिखाने के लिए या जैनमत को पराजित करने के लिए अर्हत्तत्त्वों का झूठा ही श्रद्धान कर लेते हैं, जैन शास्त्रों को पढ़ते हैं। इच्छा के बिना तो यह हो ही नहीं सकता। अतः इन्हें भी सम्यग्दर्शन मानना होगा। यदि इच्छा का नाम सम्यग्दर्शन हो तो इच्छा तो लोभ की पर्याय है, निर्मोही केवली के तो इच्छा नहीं होती अतः केवलीके सम्यक्त्व का अभाव हो जायगा। अतः 'जिसके होने पर आत्मा यथाभूत अर्थ को ग्रहण करता है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं' यही लक्षण उचित है ।

29-31. सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है - १ सराग सम्यग्दर्शन, 2 वीतरागसम्यग्दर्शन । प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य से जिसका स्वरूप अभिव्यक्त होता है वह सरागसम्यग्दर्शन है।
  • रागादि की शान्ति प्रशम है।
  • संसार से डरना संवेग है।
  • प्राणिमात्र में मैत्रीभाव अनुकम्पा है।
  • जीवादि पदार्थों के यथार्थस्वरूप में अस्ति' बुद्धि होना आस्तिक्य है।
मोहनीय की सात कर्मप्रकृतियों का अत्यन्त विनाश होने पर आत्मविशुद्धिरूप वीतराग सम्यक्त्व होता है । सराग सम्यक्त्व साधन ही होता है और वीतराग सम्यग्दर्शन साध्य भी।

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तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥3॥
अन्वयार्थ : वह (सम्‍यग्‍दर्शन) निसर्ग से और अधिगम से उत्‍पन्‍न होता है ॥३॥
  • सम्यग्दर्शन
    • निसर्गज
    • अधिगमज

सर्वार्थसिद्धि :
निसर्ग का अर्थ स्‍वभाव है और अधिगम का अर्थ पदार्थ का ज्ञान है । सूत्र में इन दोनों का हेतुरूप से निर्देश किया है ।

शंका – इन दोनों का किसके हेतुरूप से निर्देश किया है ?

समाधान – क्रिया के ।

शंका – वह कौन-सी क्रिया है ?

समाधान – 'उत्पन्‍न होता है' यह क्रिया है। यद्यपि इसका उल्‍लेख सूत्र में नहीं किया है तथापि इसका अध्‍याहार कर लेना चाहिए, क्‍योंकि सूत्र उपस्‍कार सहित होते हैं । यह सम्‍यग्‍दर्शन निसर्ग से और अधिगम से उत्‍पन्‍न होता है यह इस सूत्र का तात्‍पर्य है ।

शंका – निसर्गज सम्‍यग्‍दर्शन में पदार्थों का ज्ञान होता है या नहीं। यदि होता है तो वह भी अधिगमज ही हुआ, उससे भिन्‍न नहीं । यदि नहीं होता है तो जिसने पदार्थों को नहीं जाना है उसे उनका श्रद्धान कैसे हो सकता है ?

समाधान – यह कोई दोष नहीं, क्‍योंकि दोनों सम्‍यग्‍दर्शनों में दर्शनमोहनीय का उपशम, क्षय या क्षयोपशमरूप अन्‍तरंग कारण समान है। इसके रहते हुए जो बाह्य उपदेश के बिना होता है वह नैसर्गिक सम्‍यग्‍दर्शन है और जो बाह्य उपदेशपूर्वक जीवादि पदार्थों के ज्ञान के निमित्त से होता है वह अधिगमज सम्‍यग्‍दर्शन है । यही इन दोनोंमें भेद है ।

शंका – सूत्र में 'तत्' पद का ग्रहण किसलिए किया है ?

समाधान – इस सूत्र से पूर्व के सूत्र में सम्‍यग्‍दर्शन का ग्रहण किया है उसी का निर्देश करने के लिए यहाँ 'तत्' पद का ग्रहण किया है। अनन्‍तरवर्ती सूत्र में सम्‍यग्‍दर्शन का ही उल्‍लेख किया है उसे ही यहाँ 'तत्' इस पद-द्वारा निर्दिष्‍ट किया गया है । यदि 'तत्' पद न देते तो मोक्षमार्ग का प्रकरण होने से उसका यहाँ ग्रहण हो जाता ।

शंका – 'अगले सूत्र में जो विधि-निषेध किया जाता है वह अव्‍य‍वहित पूर्व का ही समझा जाता है' इस नियम के अनुसार अनन्‍तरवर्ती सूत्र में कहे गये सम्‍यग्‍दर्शन का ग्रहण स्‍वत:सिद्ध है, अत: सूत्र में 'तत्' पद देने की आवश्‍यकता नहीं है ?

समाधान – नहीं, क्‍योंकि 'समीपवर्ती से प्रधान बलवान् होता है' इस नियम के अनुसार यहाँ मोक्षमार्ग का ही ग्रहण होता । किन्‍तु य‍ह बात इष्‍ट नहीं है अत: सूत्र में 'तत्' पद दिया है ।

अब तत्त्व कौन-कौन हैं इस बात के बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

राजवार्तिक :
यहां 'उत्पद्यते-उत्पन्न होता है' इस क्रिया का अध्याहार कर लेना चाहिए।

1-6. प्रश्न – निसर्गज सम्यग्दर्शन नहीं बन सकता; क्योंकि तत्त्वाधिगम हुए बिना उनका श्रद्धान कैसे हो सकता है ? जब तक रसायन का ज्ञान नहीं होगा तब तक रसायन की श्रद्धा हो ही नहीं सकती। अतः जब प्रत्येक सम्यग्दर्शन के लिए तत्त्वज्ञान आवश्यक है तब निसर्गज सम्यग्दर्शन नहीं बन सकता। जिस प्रकार वेदार्थ को जाने बिना भी शूद्र को वेदविषयक भक्ति हो जाती है उसी तरह अनधिगत तत्त्व में श्रद्धा भी हो सकती है' यह कथन उपयुक्त नहीं है; क्योंकि शूद्र को महाभारत आदि ग्रन्थों से वेद की महिमा सुनकर या वेदपाठियों से वेद के महत्त्व को जानकर वेदभक्ति होना उचित है पर ऐसी भक्ति नैसर्गिक नहीं कही जा सकती। किन्तु जीवादितत्त्व विषयक ज्ञान यदि किसी भी प्रकार से पहिले होता है तो निसर्गज सम्यग्दर्शन नहीं हो सकेगा। इसी तरह मणि की विशेष सामर्थ्य को न जानकर सामान्य से उसकी चमक-दमक को देखकर मणि का ग्रहण और फल का मिलना ठीक भी है पर जीवादि को सामान्यरूप से भी बिना जाने नैसर्गिक श्रद्धान का होना कैसे संभव है ? यदि सामान्यज्ञान हो जाता है तो वह अधिगमज ही सम्यग्दर्शन कहलायगा नैसर्गिक नहीं। जिस समय इस जीव के सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है ठीक उसी समय इसके मत्यज्ञान आदि की निवृत्तिपूर्वक मतिज्ञान आदि सम्यग्ज्ञान सूर्य के ताप और प्रकाश की तरह युगपत् उत्पन्न हो जाते हैं अत: नैसगिक सम्यग्दर्शन की स्वतन्त्र सत्ता नहीं बन पाती; क्योंकि जिसके ज्ञान से पहिले सम्यग्दर्शन हो उसी के वह नैसर्गिक कहा जायगा। यहां तो दोनों ही साथ साथ होते हैं।

उत्तर – दोनों सम्यग्दर्शनों में अन्तरंग कारण तो दर्शनमोह का उपशम, क्षय या क्षयोपशम समान है। इसके होने पर जो सम्यग्दर्शन बाह्योपदेश के बिना प्रकट होता है वह निसर्गज कहलाता है तथा जो परोपदेश से होता है वह अधिगमज । लोक में भी शेर, भेड़िया, चीता आदि में शूरा-क्रूरता आदि परोपदेश के बिना होने से नैसर्गिक कहे जाते हैं यद्यपि उनमें ये सब कर्मोदयरूप निमित्त से होने के कारण सर्वथा आकस्मिक नहीं है फिर भी परोपदेश की अपेक्षा न होने से नैसर्गिक कहलाते हैं। अतः परोपदेश निरपेक्ष में निसर्गता स्वीकार की गई है।

7-10. प्रश्न – भव्य जीव अपने समय के अनुसार ही मोक्ष जायगा। यदि अधिगम सम्यक्त्व के बल से समय से पहिले मोक्ष-प्राप्ति की संभावना हो तभी अधिगम सम्यक्त्व की सार्थकता है। अतः एक निसर्गज सम्यक्त्व ही मानना चाहिए।

उत्तर – यदि केवल निसर्गज या अधिगमज सम्यग्दर्शन से मोक्ष माना गया होता तो यह प्रश्न उचित था। पर मोक्ष तो ज्ञान और चारित्र सहित सम्यक्त्व से स्वीकार किया गया है। अतः विचार तो यह है कि वह सम्यग्दर्शन किन कारणों से उत्पन्न होता है। जैसे कि कुरुक्षेत्र में बाह्य प्रयत्न के बिना ही सुवर्ण मिल जाता है उसी तरह बाह्य उपदेश के बिना ही जो तत्त्वश्रद्धान प्रकट होता है उसे निसर्गज कहते हैं और जैसे सुवर्णपाषाण से बाह्य प्रयत्नों द्वारा सुवर्ण निकाला जाता है उसी तरह सदुपदेश से जो सम्यक्त्व प्रकट होता है वह अधिगमज कहलाता है। अतः यहां मोक्ष का प्रश्न ही नहीं है। फिर भव्यों की कर्मनिर्जरा का कोई समय निश्चित नहीं है और न मोक्ष का ही। कोई भव्य संख्यात काल में सिद्ध होंगे, कोई असंख्यात में और कोई अनन्त काल में। कुछ ऐसे भी हैं जो अनन्तानन्त काल में भी सिद्ध नहीं होंगे। अतः भव्य के मोक्ष के कालनियम की बात उचित नहीं है। जो व्यक्ति मात्र ज्ञान से या चारित्र से या दो से या तीन कारणों से मोक्ष मानते हैं उनके यहां 'कालानुसार मोक्ष होगा' यह प्रश्न ही नहीं होता। यदि सबका काल ही कारण मान लिया जाय तो बाह्य और आभ्यन्तर कारण-सामग्री का ही लोप हो जायगा ।

11-12. इस सूत्र में 'तत्' शब्द का निर्देश अनन्तरोक्त सम्यग्दर्शन के ग्रहण के लिए है। अन्यथा मोक्षमार्ग प्रधान था सो उसका ही ग्रहण हो जाता, और इस तरह निसर्ग से और बहुश्रुतत्व प्रदर्शन की इच्छावाले मिथ्याष्टियों को भी अधिगम से मोक्ष-मार्ग का प्रसङ्ग आ जाता । 'अनन्तर का ही विधान या प्रतिषेध होता है' यह नियम 'प्रत्यासत्ति रहने पर भी प्रधान बलवान् होता है' इस नियम से बाधित हो जाता है; अतः तत्' शब्द के बिना प्रधानभूत मोक्षमार्ग का ही सम्बन्ध हो जाता। अतः स्पष्टता के लिए 'तत्' शब्द का ग्रहण किया गया है ।

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जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥4॥
अन्वयार्थ : जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तत्त्व हैं ॥४॥
  • तत्त्व
    • जीव
    • अजीव
    • आस्रव
    • बंध
    • संवर
    • निर्जरा
    • मोक्ष

सर्वार्थसिद्धि :
इनमें-से जीव का लक्षण चेतना है जो ज्ञानादिक के भेद से अनेक प्रकार की है। जीव से विपरीत लक्षणवाला अजीव है। शुभ और अशुभ कर्मों के आने के द्वार रूप आस्रव है । आत्‍मा और कर्म के प्रदेशों का परस्‍पर मिल जाना बन्‍ध है । आस्रव का रोकना संवर है । कर्मों का एकदेश अलग होना निर्जरा है और सब कर्मों का आत्‍मा से अलग हो जाना मोक्ष है । इनका विस्‍तार से वर्णन आगे करेंगे । सब फल जीव को मिलता है, अत: सूत्र के प्रारम्‍भ में जीव का ग्रहण किया है । अजीव जीव का उपकारी है यह दिखलाने के लिए जीव के बाद अजीव का कथन किया है । आस्रव जीव और अजीव दोनों को विषय करता है अत: इन दोनों के बाद आस्रव का ग्रहण किया है । बन्‍ध आस्रव पूर्वक होता है, इसलिए आस्रव के बाद बन्‍ध का कथन किया है । संवृत जीव के बन्‍ध नहीं होता, अत: संवर बन्‍ध का उलटा हुआ इस बात का ज्ञान कराने के लिए बन्‍ध के बाद संवर का कथन किया है । संवर के होने पर निर्जरा होती है, इसलिए संवर के पास निर्जरा कही है । मोक्ष अन्‍त में प्राप्‍त होता है, इसलिए उसका अन्‍त में कथन किया है ।

शंका – सूत्र में पुण्‍य और पाप का ग्रहण करना चाहिए, क्‍योंकि पदार्थ नौ हैं ऐसा दूसरे आचार्यों ने भी कथन किया है।

समाधान – पुण्‍य और पाप का ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्‍योंकि उनका आस्रव और बन्‍ध में अन्‍तर्भाव हो जाता है।

शंका – यदि ऐसा है तो सूत्र में अलग से आस्रव आदि का ग्रहण करना निरर्थक है, क्‍योंकि उनका जीव और अजीव में अन्‍तर्भाव हो जाता है ।

समाधान – आस्रव आदि का ग्रहण करना निरर्थक नहीं है, क्‍योंकि यहाँ मोक्ष का प्रकरण है इसलिए उसका कथन करना आवश्‍यक है। वह संसारपूर्वक होता है और संसार के प्रधान कारण आस्रव और बन्‍ध हैं तथा मोक्ष के प्रधान कारण संवर और निर्जरा हैं, अत: प्रधान हेतु, हेतुवाले और उनके फल के दिखलाने के लिए अलग-अलग उपदेश किया है । देखा भी जाता है कि किसी विशेष का सामान्‍य में अन्‍तर्भाव हो जाता है तो भी प्रयोजन के अनुसार उसका अलग से ग्रहण किया जाता है । जैसे क्षत्रिय आये हैं और सूरवर्मा भी। यहाँ यद्यपि सूरवर्मा का क्षत्रियों में अन्‍तर्भाव हो जाता है तो भी प्रयोजन के अनुसार उसका अलग से ग्रहण किया है । इसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए ।

शंका – तत्त्व शब्‍द भाववाची है यह पहले कह आये हैं, इसलिए उसका द्रव्‍यवाची जीवादि शब्‍दों के साथ समानाधिकरण कैसे हो सकता है ?

समाधान – एक तो भाव द्रव्‍य से अलग नहीं पाया जाता, दूसरे भाव में द्रव्‍य का अध्‍यारोप कर लिया जाता है, इसलिए समानाधिकरण बन जाता है । जैसे, 'उपयोग ही आत्‍मा है' इस वचन में गुणवाची उपयोग शब्‍द के साथ द्रव्‍यवाची आत्‍मा शब्‍द का समानाधिकरण है उसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए ।

शंका – यदि ऐसा है तो विशेष्‍य का जो लिंग और संख्‍या है वही विशेषण को भी प्राप्त होते हैं ?

समाधान – व्‍याकरण का ऐसा नियम है कि 'विशेषण-विशेष्‍य सम्‍बन्‍ध के रहते हुए भी शब्‍द शक्ति की अपेक्षा जिसने जो लिंग और संख्‍या प्राप्‍त कर ली है उसका उल्‍लंघन नहीं होता।' अत: यहाँ विशेष्‍य और विशेषण से लिंग और संख्‍या के अलग-अलग रहने पर भी कोई दोष नहीं है। यह क्रम प्रथम सूत्र में भी लगा लेना चाहिए ।

इस प्रकार पहले जो सम्‍यग्‍दर्शन आदि और जीवादि पदार्थ कहे हैं उनका शब्‍द प्रयोग करते समय विवक्षाभेद से जो गड़बड़ी होना सम्‍भव है उसको दूर करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

राजवार्तिक :
1. संक्षेप और विस्तार से पदार्थों के एक से लेकर अनन्त तक विभाग किए जा सकते हैं। यथा
  • एक ही पदार्थ अनन्तपर्यायवाला है।
  • जीव और अजीव के भेद से दो पदार्थ हैं।
  • अर्थ, शब्द और ज्ञान रूप से तीन पदार्थ हैं।
  • इसी तरह शब्दों के प्रयोग की अपेक्षा संख्यात और
  • ज्ञान के ज्ञेय की अपेक्षा असंख्यात और अनन्त भेद हो सकते हैं।
यदि अत्यन्त संक्षेप से कथन किया जाय तो विद्वज्जनों को ही प्रतीति हो सकेगी और अतिविस्तार से निरूपण किया जाय तो चिरकाल तक भी प्रतिपत्ति नहीं हो सकेगी, अतः शिष्य के आशयानुसार मध्यमक्रम से सात तस्वरूप विभाजन किया है ।

2-5. प्रश्न – आस्रव, बन्ध आदि पदार्थ या तो जीव की पर्याय होंगे या अजीव की, अतः इनमें ही उनका अन्तर्भाव करके दो ही पदार्थ कहना चाहिए इनका पृथक् उपदेश निरर्थक है ?

उत्तर – जीव और अजीव के परस्पर संश्लेष होने पर संसार होता है, अतः संसार और मोक्ष के प्रधान कारणों के प्रतिपादन के लिए सात-तत्त्व रूप से विभाग किया है। यथा -
  • मोक्षमार्ग का प्रकरण है अतः मोक्ष का निरूपण तो करना ही चाहिए। वह मोक्ष किसको होता है ? सो जीव का ग्रहण करना चाहिए।
  • मोक्ष संसारपूर्वक होता है और संसार का अर्थ है जीव और अजीव का परस्पर संश्लेष । अतः अजीव का ग्रहण भी आवश्यक है।
  • संसार के प्रधान कारण बंध और आस्रव हैं और
  • मोक्ष के प्रधान कारण संवर और निर्जरा
सामान्य में अन्तर्भूत भी विशेषों का प्रयोजनवश पृथक् निरूपण किया जाता है जैसे क्षत्रिय आए हैं, शूर वर्मा भी आया है' उसी तरह प्रयोजन विशेष से इन सात तत्त्वों का विभाग किया है। फिर, प्रश्नकर्ता ने आस्रव आदि को जीव और अजीव से पृथक् जाना है या नहीं ? यदि जाना है तो उनका पृथक् अस्तित्व सिद्ध हो ही जाता है। यदि नहीं जाना; तो प्रश्न ही कैसे करता है ? आस्रव आदि जीव और अजीव से भिन्न स्वतन्त्र पदार्थ हैं या नहीं ? यदि हैं, तो इनका स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध हो ही जाता है । यदि नहीं; तो किसका किन में अन्तर्भाव का प्रश्न किया जा रहा है ? गधे के सींग के अन्तर्भाव का प्रश्न तो कहीं किसी ने किया नहीं है। वस्तुतः जीव, अजीव और आस्रवादि के भेदाभेद का अनेकान्त-दृष्टि से विचार करना चाहिए। आस्रवादि द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार हैं। द्रव्य पुद्गल रूप हैं तथा भाव जीवरूप । द्रव्यार्थिक-दृष्टि की प्रधानता रहने पर अनादि पारिणामिक जीव और अजीव द्रव्य की मुख्यता होने से आस्रव आदि पर्यायों की विवक्षा न होने पर उनका जीव और अजीव में अन्तर्भाव हो जाता है । जिस समय उन-उन आस्रवादि पर्यायों को पृथक् ग्रहण करनेवाले पर्यायाथिक-नय की मुख्यता होती है तथा द्रव्यार्थिक-नय गौण हो जाता है तब आस्रव आदि स्वतन्त्र हैं उनका जीव और अजीव में अन्तर्भाव नहीं होता। अतः पर्यायाथिक-दृष्टि से इनका पृथक् उपदेश सार्थक है निरर्थक नहीं।

6-13. जीवादि शब्दों का निर्वचन इस प्रकार है
  • पाँच इन्द्रिय, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन दश प्राणों में से अपनी पर्यायानुसार गृहीत प्राणों के द्वारा जो जीता था, जी रहा है और जीवेगा इस त्रैकालिक जीवन गुणवाले को जीव कहते हैं । 'सिद्धों के यद्यपि ये दश प्राण नहीं हैं फिर भी चूंकि वे इन प्राणों से पहिले जिए थे अतः उनमें भी जीवत्व सिद्ध हो जाता है' इस तरह सिद्धों में औपचारिक जीवत्व की आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनमें अभी भी ज्ञानदर्शनरूप भाव-प्राण हैं अतः मुख्य ही जीवत्व है। अथवा रूढिवश क्रिया की गौणता से जीव शब्द का निर्वचन करना चाहिये । रूढि में क्रिया गौण हो जाती है जैसे 'गच्छतीति गौः- जो चले सो गौ' यहाँ बैठी हुई गौ में भी गौ व्यवहार हो जाता है क्योंकि कभी तो वह चलती थी, उसी तरह कभी तो सिद्धों ने द्रव्य-प्राणों को धारण किया था। अतः रूढिवश उनमें जीव-व्यवहार होता रहता है।
  • ऊपर कहा गया जीवन जिनमें न पाया जाय वे अजीव हैं।
  • जिनसे कर्म आवें वह और कर्मों का आना आस्रव है।
  • जिनसे कर्म बंधे वह और कर्मों का बँधना बंध है।
  • जिनसे कर्म रुकें वह और कर्मों का रुकना संवर है।
  • जिनसे कर्म झड़ें वह और कर्मों का झड़ना निर्जरा है ।
  • जिनसे कर्मों का समूल उच्छेद हो वह और कर्मों का पूर्णरूप से छूटना मोक्ष है।

14. जीव चेतना स्वरूप है। चेतना ज्ञानदर्शन रूप होती है। इसी के कारण जीव अन्य द्रव्यों से व्यावृत्त होता है।

15. जिसमें चेतना न पाई जाय वह अजीव है। भाव की तरह अभाव भी वस्तु का ही धर्म होता है जैसे कि विपक्षाभाव हेतु का स्वरूप होता है। यदि अभाव को वस्तु का धर्म न माना जाय तो सर्वसांकर्य हो जायगा, क्योंकि प्रत्येक वस्तु में स्वभिन्न पदार्थों का अभाव होता ही है।

प्रश्न – वनस्पति आदि में बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति नहीं देखी जाती अतः उनमें जीव नहीं मानना चाहिए। कहा भी है - "अपने शरीर में बुद्धिपूर्वक क्रिया बुद्धि के रहते ही देखी जाती है, वैसी क्रिया यदि अन्यत्र हो तो वहाँ भी बुद्धि का सद्भाव मानना चाहिए, अन्यथा नहीं।"

उत्तर – वनस्पति आदि में भी ज्ञानादि का सद्भाव है। इसको सर्वज्ञ तो अपने प्रत्यक्ष ज्ञान से जानते हैं और हम लोग आगम से । खाद, पानी के मिलने पर पुष्टि और न मिलने पर म्लानता देखकर उनमें चैतन्य का अनुमान भी होता है । गर्भस्थजीव, मूर्च्छित और अंडस्थ जीव में बुद्धिपूर्वक स्थूल क्रिया भी नहीं दिखाई देती, अतः न दिखने मात्र से अभाव नहीं किया जा सकता।

16. पुण्य और पापरूप कर्मों के आगमन के द्वार को आस्रव कहते हैं। जैसे नदियों के द्वारा समुद्र प्रतिदिन जल से भरा जाता है वैसे ही मिथ्यादर्शन आदि स्रोतों से आत्मा में कर्म आते रहते हैं। अतः मिथ्यादर्शनादि आस्रव हैं।

17. मिथ्यादर्शनादि द्वारों से आए हुए कर्मपुद्गलों का आत्मप्रदेशों में एकक्षेत्रावगाह हो जाना बंध है। जैसे बेड़ी आदि से बँधा हुआ प्राणी परतन्त्र हो जाता है और इच्छानुसार देशादि में नहीं जा आ सकता उसी प्रकार कर्मबद्ध आत्मा परतन्त्र होकर अपना इष्ट विकास नहीं कर पाता। अनेक प्रकार के शारीर और मानस दुःखों से दुःखी होता है।

18. मिथ्यादर्शनादि आस्रव-द्वारों के निरोध को संवर कहते हैं। जैसे जिस नगर के द्वार अच्छी तरह बन्द हों वह नगर शत्रुओं को अगम्य होता है उसी तरह गुप्ति, समिति, धर्म आदि से सुसंवृत आत्मा कर्मशत्रुओं के लिए अगम्य होता है।

19. तप विशेष से संचित कर्मों का क्रमश: अंशरूप से झड़ जाना निर्जरा है। जिस प्रकार मन्त्र या औषधि आदि से निःशक्ति किया हुआ विष, दोष उत्पन्न नहीं करता उसी प्रकार तप आदि से नीरस किए गये और निःशक्ति हुए कर्म संसारचक्र को नहीं चला सकते।

20. सम्यग्दर्शनादि कारणों से संपूर्ण कर्मों का आत्यन्तिक मूलोच्छेद होना मोक्ष है। जिस प्रकार बन्धनयुक्त प्राणी स्वतन्त्र होकर यथेच्छ गमन करता है उसी तरह कर्मबन्धन-मुक्त आत्मा स्वाधीन हो अपने अनन्त ज्ञानदर्शन सुख आदि का अनुभव करता है।

21-27. समस्त मोक्षमार्गोपदेशादि प्रयत्न जीव के ही लिए किए जाते हैं अतः तत्त्वों में सर्वप्रथम जीव को स्थान दिया गया है। शरीर, वचन, मन, श्वासोच्छ्वास आदि के द्वारा अजीव आत्मा का प्रकृष्ट उपकारक है अतः जीव के बाद अजीव का ग्रहण किया गया है । जीव और पुद्गल के सम्बन्धाधीन ही आस्रव होता है और आस्रवपूर्वक बन्ध अतः इन दोनों का क्रमशः ग्रहण किया है। संवृत-सुरक्षित व्यक्ति को बंध नहीं होता अतः बंध की विपरीतता दिखाने के लिए बंध के पास संवर का ग्रहण किया है। संवर होने पर ही निर्जरा होती है अतः संवर के बाद निर्जरा का ग्रहण किया है । अन्त में मोक्ष प्राप्त होता है अतः सबके अन्त में मोक्षका ग्रहण किया गया है।

28. आस्रव और बंध या तो पुण्यरूप होते हैं या पापरूप । अतः पुण्य और पाप पदार्थों का अन्तर्भाव इन्हीं में कर दिया जाता है।

29-31. प्रश्न – सूत्र में तत्त्व शब्द भाववाची है और जीवादि शब्द द्रव्यवाची, अतः इनका व्याकरण शास्त्र के नियमानुसार एकार्थ प्रतिपादकत्वरूप सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता?

उत्तर – द्रव्य और भाव में कोई भेद नहीं है, अतः अभेद-विवक्षा में दोनों ही एकार्थ-प्रतिपादक हो जाते हैं जैसे ज्ञान ही आत्मा है। चूंकि तत्त्व शब्द उपात्त-नपुसकलिंग और एकवचन है अतः जीवादि की तरह उसमें पुल्लिंगत्व और बहुवचनत्व नहीं हो सकता।

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नामस्थापनाद्रव्यभाव तस्तन्न्यासः ॥5॥
अन्वयार्थ : नाम, स्‍थापना, द्रव्‍य और भाव रूप से उनका अर्थात् सम्‍यग्‍दर्शन आदि और जीव आदि का न्‍यास (निक्षेप) होता है ॥५॥
  • निक्षेप
    • नाम
    • स्थापना
    • द्रव्य
    • भाव

सर्वार्थसिद्धि :
संज्ञा के अनुसार गुणरहित वस्‍तु में व्‍यवहार के लिए अपनी इच्‍छा से की गयी संज्ञा को नाम कहते हैं ।

काष्‍ठकर्म, पुस्‍तकर्म, चित्रकर्म और अक्षनिक्षेप आदि में 'वह यह है' इस प्रकार स्‍थापित करने को स्‍थापना कहते हैं ।

जो गुणों के द्वारा प्राप्‍त हुआ था या गुणों को प्राप्‍त हुआ था अथवा जो गुणों के द्वारा प्राप्‍त किया जायेगा या गुणों को प्राप्‍त होगा उसे द्रव्‍य कहते हैं ।

वर्तमान पर्याय से युक्त द्रव्‍य को भाव कहते हैं ।


विशेष इस प्रकार है - नामजीव, स्‍थापनाजीव, द्रव्‍यजीव और भावजीव, इस प्रकार जीव पदार्थ का न्‍यास चार प्रकार से किया जाता है । जीवन गुण की अपेक्षा न करके जिस किसी का 'जीव' ऐसा नाम रखना नामजीव है। अक्षनिक्षेप आदि में यह 'जीव है' या 'मनुष्‍य जीव है' ऐसा स्‍थापित करना स्‍थापना-जीव है । द्रव्‍यजीवके दो भेद हैं - आगम द्रव्‍यजीव और नोआगम द्रव्‍यजीव । इनमें-से जो जीवविषयक या मनुष्‍य जीवविषयक शास्‍त्र को जानता है किन्‍तु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित है वह आगम द्रव्‍यजीव है । नोआगम द्रव्‍यजीव के तीन भेद हैं - ज्ञायक शरीर, भावी और तद्व्‍यतिरिक्त। ज्ञाता के शरीरको ज्ञायक शरीर कहते हैं । जीवन सामान्‍य की अपेक्षा 'नोआगम भाविजीव' यह भेद नहीं बनता, क्‍योंकि जीवनसामान्‍यकी अपेक्षा जीव सदा विद्यमान है । हाँ, पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा 'नोआगम भाविजीव' यह भेद बन जाता है,क्योंकि जो जीव दूसरी गति में विद्यमान है वह जब मनुष्‍य भव को प्राप्त करने के लिए सम्‍मुख होता है तब वह मनुष्‍य भाविजीव कहलाता है । तद्व्‍यतिरिक्त के दो भेद हैं - कर्म और नोकर्म । भावजीव के दो भेद हैं - आगम भावजीव और नोआगम भावजीव । इनमें-से जो आत्‍मा जीवविषयक शास्‍त्र को जानता है और उसके उपयोग से युक्त है अथवा मनुष्‍य जीवविषयक शास्‍त्र को जानता है और उसके उपयोग से युक्त है वह आगम भावजीव है । तथा जीवन पर्याय या मनुष्‍य जीवन पर्याय से युक्त आत्‍मा नोआगम भावजीव कहलाता है । इसी प्रकार अजीवादि अन्‍य पदार्थोंकी भी नामादि निक्षेप विधि लगा लेना चाहिए ।

शंका – निक्षेप विधि का कथन किस लिए‍ किया जाता है ?

समाधान – अप्रकृत का निराकरण करने के लिए और प्रकृत का निरूपण करने के लिए इसका कथन किया जाता है । तात्‍पर्य यह है कि प्रकृत में किस शब्‍द का क्‍या अर्थ है यह निक्षेप विधि के द्वारा विस्‍तार से बतलाया जाता है ।

शंका – सूत्रमें 'तत्' शब्‍द का ग्रहण किस लिए किया है ?

समाधान – सबका संग्रह करने के लिए सूत्र में 'तत्' शब्‍द का ग्रहण किया है । यदि सूत्र में 'तत्' शब्‍द न रखा जाय तो प्रधानभूत सम्‍यग्‍दर्शनादि का ही न्‍यास के साथ सम्‍बन्‍ध होता । सम्‍यग्‍दर्शनादिक के विषय-रूप से ग्रहण किये गये अप्रधान-भूत जीवादिक का न्‍यास के साथ सम्‍बन्‍ध न होता । परन्‍तु सूत्र में 'तत्' शब्‍द के ग्रहण कर लेने पर सामर्थ्‍य से प्रधान और अप्रधान सबका ग्रहण बन जाता है ।

इस प्रकार नामादिक के द्वारा विस्‍तार को प्राप्‍त हुए और अधिकृत जीवादिक व सम्‍यग्‍दर्शनादिक के स्‍वरूप का ज्ञान किसके द्वारा होता है इस बात को बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-


राजवार्तिक :
1. शब्द प्रयोग के जाति, गुण, क्रिया आदि निमित्तों की अपेक्षा न करके की जानेवाली संज्ञा नाम है। जैसे परमैश्वर्यरूप इन्दन क्रिया की अपेक्षा न करके किसी का भी इन्द्र नाम रखना या जीवनक्रिया और तत्त्वश्रद्धानरूप क्रिया की अपेक्षा के बिना जीव या सम्यग्दर्शन नाम रखना।

2. 'यह वही है' इस रूप से तदाकार या अतदाकार वस्तु किसी की स्थापना करना स्थापना निक्षेप है, यथा-इन्द्राकार प्रतिमा इन्द्र की या शतरंज के मुहरों में हाथी घोड़ा आदि की स्थापना करना।

3-7. आगामी पर्याय की योग्यतावाले उस पदार्थ को द्रव्य कहते हैं जो उस समय उस पर्याय के अभिमुख हो। जैसे इन्द्रप्रतिमा के लिए लाए गए काठ को भी इन्द्र कहना। इसी तरह जीव पर्याय या सम्यग्दर्शन पर्याय के प्रति अभिमुख द्रव्यजीव या द्रव्यसम्यग्दर्शन कहा जायगा।

प्रश्न – यदि कोई अजीव जीवपर्याय को धारण करनेवाला होता तो द्रव्यजीव बन सकता था अन्यथा नहीं ?

उत्तर – यद्यपि सामान्यरूप से द्रव्यजीव नहीं है फिर भी मनुष्यादि विशेष पर्यायों की अपेक्षा 'द्रव्यजीव' का व्यवहार कर लेना चाहिए। आगमद्रव्य और नोआगमद्रव्य के भेद से द्रव्य दो प्रकार का है। जीवशास्त्र का अभ्यासी पर तत्काल तद्विषयक उपयोग से रहित आत्मा आगमद्रव्यजीव है। नोआगमद्रव्यजीव ज्ञाता का त्रिकालवर्ती शरीर, भावि पर्यायोन्मुख द्रव्य और कर्म नोकर्म के भेद से तीन प्रकार का होता है।

8-11. वर्तमान उस-उस पर्याय से विशिष्ट द्रव्य को भाव जीव कहते हैं। जीवशास्त्र का अभ्यासी तथा उसके उपयोग में लीन आत्मा आगमभावजीव है। जीवनादि पर्यायवाला जीव नोआगमभावजीव है।

12. यद्यपि नाम और स्थापना दोनों निक्षेपों में संज्ञा रखी जाती हैं। बिना नाम रखे स्थापना हो ही नहीं सकती तो भी स्थापित जिन आदि में पूजा आदर और अनुग्रहाभिलाषा होती है जबकि केवल नाम में नहीं। अतः इन दोनों में अन्तर है।

13. यद्यपि द्रव्य और भाव की पृथक् सत्ता नहीं है, दोनों में अभेद है, फिर भी संज्ञा, लक्षण आदि की दृष्टि से इन दोनों में भिन्नता है।

14-18. प्रश्न – सबसे पहिले द्रव्य का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि द्रव्य के ही नाम, स्थापना आदि निक्षेप किए जाते हैं?

उत्तर – चूंकि समस्त लोक-व्यवहार संज्ञा अर्थात नाम से चलते हैं अतः संव्यवहार में मख्य हेतु होने से नाम का सर्वप्रथम ग्रहण किया है। स्तुति, निन्दा, राग-द्वेष आदि सारी प्रवृत्तियां नामाधीन हैं। जिसका नाम रख लिया गया है उसी की 'यह वही है' इस प्रकार स्थापना होती है। अतः नाम के बाद स्थापना का ग्रहण किया है। द्रव्य और भाव पूर्वोत्तरकालवर्ती हैं। अतः पहिले द्रव्य और बाद में भाव का ग्रहण किया है। अथवा भाव के साथ निकटता और दूरी की अपेक्षा इनका क्रम समझना चाहिए। भाव प्रधान है क्योंकि भाव की व्याख्या ही अन्य के द्वारा होती है। भाव के निकट द्रव्य है क्योंकि दोनों का सम्बन्ध है। इसके पहिले स्थापना इसलिए रखी गई है कि वह अतद्रूप पदार्थ में तद्बुद्धि कराने में प्रधान कारण है। उससे पहिले नाम का ग्रहण किया है क्योंकि वह भाव से अत्यन्त दूर है ।

19-25. प्रश्न – विरोध होने के कारण एक जीवादि अर्थ के नामादि चार निक्षेप नहीं हो सकते । जैसे नाम नाम ही है स्थापना नहीं। यदि उसे स्थापना माना जाता है तो उसे नाम नहीं कह सकते। यदि नाम कहते हैं तो वह स्थापना नहीं हो सकती क्योंकि उनमें विरोध है।

उत्तर – एक ही वस्तु में लोक-व्यवहार में नाम आदि चारों व्यवहार देखे जाते हैं अतः उनमें कोई विरोध नहीं है।
  • इन्द्र नाम का व्यक्ति है।
  • मूर्ति में इन्द्र की स्थापना होती है। इन्द्र की प्रतिमा बनाने के लिए लाए गए काष्ठ को भी लोग इन्द्र कह देते हैं।
  • आगे की पर्याय की योग्यता से भी इन्द्र, राजा, सेठ आदि व्यवहार होते हैं तथा
  • शचीपति इन्द्र में भाव-व्यवहार प्रसिद्ध ही है ।
शंकाकार ने जो दृष्टान्त दिया है कि नाम नाम ही है स्थापना नहीं, वह ठीक नहीं है क्योंकि यह कहा ही नहीं जा रहा है कि नाम स्थापना है किन्तु नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से एक वस्तु के चार प्रकार से व्यवहार की बात है। जैसे ब्राह्मण मनुष्य अवश्य होता है क्योंकि ब्राह्मण में मनुष्य जातिरूप सामान्य अवश्य पाया जाता है पर मनुष्य ब्राह्मण हो न भी हो उसी तरह स्थापना 'नाम' अवश्य होगी क्योंकि बिना नामकरण के स्थापना नहीं होती परन्तु जिसका नाम रखा है उसकी स्थापना हो भी न भी हो। इसी तरह द्रव्य 'भाव' अवश्य होगा क्योंकि उसकी उस योग्यता का विकास अवश्य होगा परन्तु भाव 'द्रव्य' हो भी न भी हो क्योंकि उस पर्याय में आगे अमुक योग्यता रहे भी न भी रहे। अतः नाम-स्थापनादि में परस्पर अनेकान्त है। छाया और प्रकाश तथा कौआ और उल्लू में पाया जानेवाला सहानवस्था और बध्यघातक विरोध विद्यमान ही पदार्थों में होता है अविद्यमान खरविषाण आदि में नहीं। अतः विरोध की संभावना से ही नामादिचतुष्टय का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। विरोध यदि नामादिरूप है तो वह उनके स्वरूप की तरह विरोधक नहीं हो सकता। यदि नामादिरूप नहीं है तो भी विरोधक नहीं हो सकता। इस तरह तो सभी पदार्थ परस्पर एक दूसरे के विरोधक हो जायंगे।

26-30. प्रश्न – भाव निक्षेप में वे गुण आदि पाए जाते हैं अतः इसे ही सत्य कहा जा सकता है नामादि को नहीं।

उत्तर – ऐसा मानने पर नाम, स्थापना और द्रव्य से होनेवाले यावत् लोकव्यवहारों का लोप हो जायगा। लोक-व्यवहार में बहुभाग तो नामादि तीन का ही है। नामाद्याश्रित व्यवहारों को उपचार से स्वीकार करना ठीक नहीं है। क्योंकि बच्चे में क्रूरता शूरता आदि गुणों का एकदेश देखकर उपचार से सिंह व्यवहार तो उचित है पर नामादि में तो उन गुणों का एकदेश भी नहीं पाया जाता अतः नामाद्याश्रित व्यवहार औपचारिक भी नहीं कहे जा सकते। यदि नामादि-व्यवहार को औपचारिक कहा जाता है तो "गौण और मुख्य में मुख्य का ही ज्ञान होता है" इस नियम के अनुसार मुख्य 'भाव' का ही संप्रत्यय होगा नामादि का नहीं। अर्थ प्रकरण और संकेत आदि के अनुसार नामादि का भी मुख्य प्रत्यय भी देखा ही जाता है अतः नामादि व्यवहार को औपचारिक कहना उचित नहीं है । "कृत्रिम और अकृत्रिम पदार्थों में कृत्रिम का ही बोध होता है" यह नियम भी सर्वथा एकरूप नहीं है। यद्यपि 'गोपाल को लाओ' यहां जिसकी गोपाल संज्ञा है वही व्यक्ति लाया जाता है न कि जो गायों को पालता है वह । तथापि इस नियम की उभयरूप से प्रवृत्ति देखी जाती है। जैसे किसी प्रकरण के न जाननेवाले गांवडे के व्यक्ति से 'गोपाल को लाओ' यह कहने पर उसकी दोनों गति होंगी - वह गोपाल नामक व्यक्ति को जिस प्रकार लायगा उसी तरह गाय के पालनेवाले को भी ला सकता है। लोक में अर्थ और प्रकरण से कृत्रिम में प्रत्यय देखा जाता है। फिर सामान्य दृष्टि से नामादि भी अकृत्रिम ही हैं। इनमें कृत्रिमत्व और अकृत्रिमत्व का अनेकान्त है।

31-33. प्रश्न – जब नाम स्थापना और द्रव्य द्रव्यार्थिक नय के विषय हैं तथा भाव पर्यायार्थिक नय का। अतः इनका नयों में ही अन्तर्भाव हो जाता है और नयों का कथन आगे होगा ही ?

उत्तर – विनेयों को समझाने के अभिप्राय से दो तीन आदि नयों का संक्षेप या विस्तार से कथन किया जाता है। जो विद्वान् शिष्य हैं वे दो नयों के द्वारा ही सभी नयों के वक्तव्य-प्रतिपाद्य अर्थों को जान लेते हैं उनकी अपेक्षा पृथक् कथन का प्रयोजन न भी हो पर जो मन्दबुद्धि हैं उनके लिए पृथक् नय और निक्षेप का कथन करना ही चाहिए। विषय और विषयी की दृष्टि से नय और निक्षेप का पृथक्-पृथक् निरूपण है।

34-37. यद्यपि सम्यग्दर्शनादि का प्रकरण था अतः सूत्र में 'तत्' शब्द का ग्रहण किए बिना भी सम्यग्दर्शनादि के साथ नामादि का सम्बन्ध हो जाता फिर भी प्रधान सम्यग्दर्शनादि और गौण विषयभूत जीवजीवादि सभी के साथ नामादि का सम्बन्ध द्योतन करने के लिए विशेष रूप से 'तत्' शब्द का ग्रहण किया है। 'अनन्तर का ही विधि या निषेध होता है' इस नियम के अनुसार जीवादि का ही सम्बन्ध होगा सम्यग्दर्शनादि का नहीं' इस शंका का समाधान तो यह है कि - जीवादि सम्यग्दर्शनादि के विषय होने से गौण हैं, अतः प्रत्यासन्न होने पर भी मुख्य सम्यग्दर्शनादि का ही ग्रहण किया जायगा । फिर - 'विशेष बात प्रकरणागत सामान्य में बाधा नहीं दे सकती' इस नियम के अनुसार विषय विशेष के रूप में कहे गए जीवादि पदार्थ प्रकरणागत सम्यग्दर्शनादि के ग्रहण के बाधक नहीं हो सकते ।

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प्रमाणनयैरधिगमः ॥6॥
अन्वयार्थ : प्रमाण और नयों से पदार्थों का ज्ञान होता है ॥६॥
  • ज्ञान के उपाय
    • प्रमाण
    • नय

सर्वार्थसिद्धि :
जिन जीवादि पदार्थों का नाम आदि निक्षेप विधि के द्वारा विस्‍तार से कथन किया है उनका स्‍वरूप दोनों प्रमाणों और विविध नयों के द्वारा जाना जाता है । प्रमाण और नयों के लक्षण और भेद आगे कहेंगे । प्रमाण के दो भेद हैं - स्‍वार्थ और परार्थ। श्रुतज्ञान को छोड़कर शेष सब ज्ञान स्‍वार्थ प्रमाण हैं । परन्‍तु श्रुतज्ञान स्‍वार्थ और परार्थ दोनों प्रकार का है । ज्ञानात्‍मक प्रमाण को स्‍वार्थ प्रमाण कहते हैं और वचनात्‍मक प्रमाण परार्थ प्रमाण कहलाता है । इनके भेद नय हैं ।

शंका – नय शब्‍द में थोड़े अक्षर हैं, इ‍सलिए सूत्र में उसे पहले रखना चाहिए ?

समाधान – यह कोई दोष नहीं, क्‍योंकि प्रमाण श्रेष्‍ठ है, अत: उसे पहले रखा है । 'श्रेष्‍ठता सबसे बलवती होती है' ऐसा नियम है ।

शंका – प्रमाण श्रेष्‍ठ क्‍यों है ?

समाधान – क्‍योंकि प्रमाण से ही नयप्ररूपणा की उत्‍पत्ति हुई है, अ‍त: प्रमाण श्रेष्ठ है । आगम में ऐसा कहा है कि वस्‍तु को प्रमाण से जानकर अनन्‍तर किसी एक अवस्‍था द्वारा पदार्थ का निश्‍चय करना नय है। दूसरे, प्रमाण समग्र को विषय करता है । आगम में कहा है कि 'सकलादेश प्रमाण का विषय है और विकलादेश नय का विषय है' । इसलिए भी प्रमाण श्रेष्‍ठ है । नय के दो भेद हैं - द्रव्‍यार्थिक और पर्यायार्थिक । पर्यायार्थिक नय का विषय भावनिक्षेप है और शेष तीन को द्रव्‍यार्थिक नय ग्रहण करता है, क्‍योंकि नय द्रव्‍यार्थिक सामान्‍यरूप है । द्रव्‍य जिसका प्रयोजन है वह द्रव्‍यार्थिकनय है और पर्याय जिसका प्रयोजन है वह पर्यायार्थिक नय है । तथा द्रव्‍य और पर्याय ये सब मिल कर प्रमाण के विषय हैं ।

इस प्रकार प्रमाण और नय के द्वारा जाने गये जीवादि पदार्थों के जानने के दूसरे उपाय बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -


राजवार्तिक :
1-3 व्याकरणशास्त्र के 'अल्प अक्षरवाले पद का पूर्व प्रयोग करना चाहिए' इस नियम के अनुसार नय का प्रथम ग्रहण करना चाहिए था; किन्तु उक्त नियम के बाधक 'पूज्य का पूर्व निपात होता है' इस नियम के अनुसार 'प्रमाण' पद का प्रथम ग्रहण किया है । प्रमाण के द्वारा प्रकाशित ही अर्थ के एक-देश में नय की प्रवृत्ति होती है अतः प्रमाण पूज्य है । प्रमाण समुदाय को विषय करता है तथा नय अवयव को। प्रमाण सकलादेशी होता है तथा नय विकलादेशी।

4. ज्ञान स्वाधिगम हेतु होता है जो प्रमाण और नयरूप होता है। वचन पराधिगम हेतु हैं। वचनात्मक स्याद्वाद श्रुत के द्वारा जीवादि की प्रत्येक पर्याय सप्तभंगी रूप से जानी जाती है।

5. प्रश्न के अनुसार एक वस्तु में प्रमाण से अविरुद्ध विधि-प्रतिषेध धर्मों की कल्पना सप्तभंगी है। एक ही घड़े का गौण और मुख्य रूप से 1 स्यात् घट, 2 स्यात् अघट, 3 स्यात् उभय, 4 स्यात् अवक्तव्य, 5 स्यात् घट और अवक्तव्य, 6 स्यात् अघट और अवक्तव्य, 7 स्यात् उभय और अवक्तव्य इन सात रूप से निरूपण किया जा सकता है । घट स्वस्वरूप से है पररूप से नहीं है। घड़े के स्वात्मा और परात्मा का विवेचन अनेक प्रकार से होता है। यथा
  1. जिसमें घट बुद्धि और घट शब्द का व्यवहार हो वह स्वात्मा तथा उससे भिन्न परात्मा है । स्वरूप ग्रहण और पररूप त्याग के द्वारा ही वस्तु की वस्तुता स्थिर की जाती है। यदि पररूप की व्यावृत्ति न हो तो सभी रूपों से घट-व्यवहार होना चाहिए और यदि स्वरूप ग्रहण न हो तो निःस्वरूपत्व का प्रसङ्ग होने से वह खर-विषाण की तरह असत् ही हो जायगा।
  2. नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपों का जो आधार होता है वह स्वात्मा तथा अन्य परात्मा। यदि अन्य-रूप से भी घट हो जाय तो प्रतिनियत नामादि व्यवहार का ही उच्छेद हो जायगा।
  3. घट शब्द के वाच्य अनेक घड़ों में से विवक्षित अमुक घट का जो आकार आदि है वह स्वात्मा अन्य परात्मा। यदि इतर घट के आकार से भी वह घट 'घट' हो जाय तो सभी घड़े एक घटरूप ही हो जायेंगे और इस तरह अनेकत्वमूलक घट-सामान्य व्यवहार ही नष्ट हो जायगा।
  4. अमुक घट भी द्रव्य-दृष्टि से अनेक क्षणस्थायी होता है। अतः अन्वयी मृद्द्रव्य की अपेक्षा स्थास, कोश, कुशूल, घट, कपाल आदि पूर्वोत्तर अवस्थाओं में भी घट व्यवहार हो सकता है इनमें स्थास, कोश कुशूल और कपाल आदि पूर्व और उत्तर अवस्थाएं परात्मा हैं तथा मध्यक्षणवर्ती घट अवस्था स्वात्मा है । उसी अवस्था से वह घट है क्योंकि उसी में घड़े के गुण क्रिया आदि पाए जाते हैं। यदि उन कुशूलादि अवस्थाओं में भी घड़े की उपलब्धि हो तो घट की उत्पत्ति और विनाश के लिए किया जानेवाला पुरुष का प्रयत्न ही निष्फल हो जायगा।
  5. उस मध्यकालवर्ती घटपर्याय में भी प्रतिक्षण उपचय और अपचय होता रहता है अतः ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से एक क्षणवर्ती घट ही स्वात्मा है अतीत और अनागतकालीन उस घट की ही पर्यायें परात्मा हैं। यदि प्रत्युत्पन्न क्षण की तरह अतीत और अनागत क्षणों से भी घट माना जाय तो सभी वर्तमान क्षणमात्र ही हो जायँगे। अतीत और अनागत की तरह प्रत्युत्पन्न क्षण से भी असत्त्व माना जाय तो जगत् से घटव्यवहार का ही लोप हो जायगा।
  6. उस प्रत्युत्पन्न घटक्षण में रूप, रस, गन्ध, पृथुबुध्नोदराकार आदि अनेक गुण और पर्यायें हैं अतः घड़ा पृथुबुध्नोदराकार से 'है' क्योंकि घट-व्यवहार इसी आकार से होता है अन्य से नहीं । यदि उस आकार से भी घड़ा 'न' हो तो घट का अभाव ही हो जायगा।
  7. आकार में रूप, रस आदि सभी हैं। घड़े के रूप को आंख से देखकर ही घट के अस्तित्व का व्यवहार होता है अतः रूप स्वात्मा है तथा रसादि परात्मा। 'आंख से घड़े को देखता हूं' यहां रूप की तरह रसादि भी घट के स्वात्मा हों तो रसादि भी चक्षुर्याह्य हो जाने से रूपात्मक हो जायंगे फिर अन्य इन्द्रियों की कल्पना ही निरर्थक हो जायगी। यदि रसादि की तरह रूप भी स्वात्मा न हो तो वह चक्षु के द्वारा दिखाई ही नहीं देगा।
  8. शब्दभेद से अर्थभेद होता ही है अतः घट शब्द का अर्थ जुदा है तथा कुट आदि शब्दों का जुदा । घटन क्रिया के कारण घट है तथा कुटिल होने के कारण कुट। अतः घड़ा जिस समय घटन क्रिया में परिणत हो उसी समय उसे घट कहना चाहिए। इसलिए घट का घटनक्रिया में कर्त्तारूप से उपयुक्त होनेवाला स्वरूप स्वात्मा है और अन्य परात्मा। यदि इतर रूप से भी घट कहा जाय तो पटादि में भी घट-व्यवहार का प्रसङ्ग प्राप्त होगा। और इस तरह सभी पदार्थ एकशब्द के वाच्य हो जायंगे।
  9. घट शब्दप्रयोग के बाद उत्पन्न घट ज्ञानाकार स्वात्मा है क्योंकि वही अन्तरंग है और अहेय है । बाह्य घटाकार परात्मा है। अतः घड़ा उपयोगाकार से है अन्य से नहीं। यदि उपयोगाकार से भी अघट हो जाय तो वचन-व्यवहार के मूलाधार उपयोग के अभाव में सभी व्यवहार विनष्ट हो जायँगे।
  10. चैतन्य-शक्ति के दो आकार होते हैं - १ ज्ञानाकार 2 ज्ञेयाकार । प्रतिबिम्ब-शून्य दर्पण की तरह ज्ञानाकार है और प्रतिबिम्ब सहित दर्पण की तरह ज्ञेयाकार । इनमें ज्ञेयाकार स्वात्मा है क्योंकि घटाकार ज्ञान से ही घट व्यवहार होता है। और ज्ञानाकार परात्मा है क्योंकि वह सर्व-साधारण है। यदि ज्ञानाकार से घट माना जाय तो पटादि ज्ञान काल में भी घट-व्यवहार होना चाहिए। यदि ज्ञेयाकार से भी घट 'न' माना जाय तो घट-व्यवहार निराधार हो जायगा।
इस प्रकार उक्त रीति से सूचित घटत्व और अघटत्व दोनों धर्मों का आधार घड़ा ही होता है। यदि दोनों में भेद माना जाय तो घट में ही दोनों धर्मों के निमित्त से होनेवाली बुद्धि और वचन प्रयोग नहीं हो सकेंगे । अतः घड़ा उभयात्मक है। क्रम से दोनों धर्मों की विवक्षा होने पर घड़ा स्यात् घट भी है और अघट भी । यदि उभयात्मक वस्तु को घट ही कहा जाय तो दूसरे स्वरूप का संग्रह न होने से वह अतत्त्व ही हो जायगी । यदि अघट कही जाय तो घट रूप का संग्रह न होने से अतत्त्व बन जायगी। और कोई ऐसा शब्द है नहीं जो युगपत् उभय रूपों का प्रधान भाव से कथन कर सके अतः युगपदुभय विवक्षा में वस्तु अवक्तव्य है। प्रथम समय में घटस्वरूप की मुख्यता तथा द्वितीय समय में युगपदुभय विवक्षा होने पर घट स्यात् घट और अवक्तव्य है। अघट रूप की विवक्षा तथा क्रमशः युगपदुभय विवक्षा होने पर घट स्यादघट और अवक्तव्य है। क्रमशः उभय धर्म और युगपदुभय धर्मों की सामूहिक विवक्षा होने पर घट स्यादुभय और अवक्तव्य है। इस तरह यह सप्तभंगी प्रक्रिया सभी सम्यग्दर्शनादि में लगा देनी चाहिए। यदि द्रव्यार्थिक नय का एकान्त आग्रह किया जाता है तो अतत् को तत् कहने के कारण उन्मत्त वाक्य की तरह वह अग्राह्य हो जायगा । इसी तरह यदि पर्यायाथिक का सर्वथा आग्रह किया जाता है तो तत् को भी अतत् कहने के कारण असद्वाद ही हो जायगा । स्याद्वाद वस्तु के यथार्थरूप का निश्चय करने के कारण सद्वाद है । वस्तु को सर्वथा अवक्तव्य कहना भी असद्वाद है। क्योंकि इस दशा में 'अवक्तव्य' 'यह वचन भी नहीं बोल सकेंगे जैसे कि मौनव्रती 'मैं मौनव्रती हूं' यह शब्द भी नहीं बोल सकता। अतः स्यादवक्तव्यवाद ही सत्य है। हिताहितविवेक भी इसी से होता है।

6-7. प्रश्न – यदि अनेकान्त में भी यह विधि-प्रतिषेध कल्पना लगती है तो जिस समय अनेकान्त में 'नास्ति' भंग प्रयुक्त होगा उस समय एकान्तवाद का प्रसङ्ग आ जाता है। और अनेकान्त में अनेकान्त लगाने पर अनवस्था दूषण होता है । अतः अनेकान्त को अनेकान्त ही कहना चाहिए।

उत्तर – अनेकान्त में भी प्रमाण और नय की दृष्टि से अनेकान्त और एकान्त रूप से अनेकमुखी कल्पनाएं हो सकती हैं। अनेकान्त और एकान्त दोनों ही सम्यक् और मिथ्या के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं।
  • प्रमाण के द्वारा निरूपित वस्तु के एक-देश को सयुक्ति ग्रहण करनेवाला सम्यगेकान्त है ।
  • एक धर्म का सर्वथा अवधारण करके अन्य धर्मों का निराकरण करनेवाला मिथ्या एकान्त है ।
  • एक वस्तु में युक्ति और आगम से अविरुद्ध अनेक विरोधी धर्मों को ग्रहण करनेवाला सम्यगनेकान्त है तथा
  • वस्तु को तत्, अतत् आदि स्वभाव से शून्य कहकर उसमें अनेक धर्मों की मिथ्या कल्पना करना अर्थशून्य वचनविलास मिथ्या अनेकान्त है।
सम्यगेकान्त नय कहलाता है तथा सम्यगनेकान्त प्रमाण । यदि अनेकान्त को अनेकान्त ही माना जाय और एकान्त का लोप किया जाय तो सम्यगेकान्त के अभाव में शाखादि के अभाव में वृक्ष के अभाव की तरह तत्समुदाय रूप अनेकान्त का भी अभाव हो जायगा। यदि एकान्त ही माना जाय तो अविनाभावी इतर धर्मों का लोप होने पर प्रकृत शेष का भी लोप होने से सर्वलोप का प्रसंग प्राप्त होता है।

8. अनेकान्त छल रूप नहीं है क्योंकि जहां वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ की कल्पना करके वचन विघात किया जाता है वहां छल होता है। जैसे 'नवकम्बलो देवदत्तः' यहां 'नव' शब्द के दो अर्थ होते हैं । एक 9 संख्या और दूसरा नया । तो 'नूतन' विवक्षा से कहे गये 'नव' शब्द का 9 संख्या रूप अर्थविकल्प करके वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ की कल्पना छल कही जाती है किन्तु सुनिश्चित मुख्य गौण विवक्षा से संभव अनेक धर्मों का सुनिर्णीत रूप से प्रतिपादन करनेवाला अनेकान्तवाद छल नहीं हो सकता, क्योंकि इसमें वचनविधात नहीं किया गया है अपितु यथावस्थित वस्तुतत्त्व का निरूपण किया गया है।

9-14. प्रश्न – एक आधार में विरोधी अनेक धर्मों का रहना असंभव है अतः अनेकान्त संशय हेतु है ?

उत्तर – सामान्य धर्म का प्रत्यक्ष होने से विशेष धर्मों का प्रत्यक्ष न होने पर किन्तु उभय विशेषों का स्मरण होने से संशय होता है । जैसे धुंधली रात्रि में स्थाणु और पुरुषगत ऊंचाई आदि सामान्य धर्म की प्रत्यक्षता होने पर स्थाणुगत कोटर पक्षिनिवास तथा पुरुषगत सिर खुजाना कपड़ा हिलने आदि विशेष धर्मों के न दिखने पर किन्तु इन विशेषों का स्मरण रहने पर ज्ञान दो कोटियों में दोलित हो जाता है कि यह स्थाण है या पुरुष । किन्तु अनेकान्तवाद में विशेष धर्मों की अनुपलब्धि नहीं है। सभी धर्मों की सत्ता अपनी-अपनी निश्चित अपेक्षाओं से स्वीकृत है। तत्तद् धर्मों का विशेष प्रतिभास निर्विवाद सापेक्ष रीति से बताया गया है। संशय का यह आधार भी उचित नहीं है कि 'अस्ति आदि धर्मों को पृथक्-पृथक् सिद्ध करनेवाले हेतु हैं या नहीं ?
  • यदि नहीं है तो प्रतिपादन कैसा ?
  • यदि हैं; तो एक ही वस्तु में परस्पर विरुद्ध धर्मों की सिद्धि होने पर संशय होना ही चाहिए; क्योंकि यदि विरोध होता तो संशय होता । किन्तु अपनी-अपनी अपेक्षाओं से संभवित धर्मों में विरोध की कोई संभावना ही नहीं है। जैसे एक ही देवदत्त भिन्न-भिन्न पुत्रादि सम्बन्धियों की दृष्टि से पिता, पुत्र, मामा आदि निर्विरोध-रूप से व्यवहृत होता है। उसी तरह अस्तित्व आदि धर्मों का भी एक वस्तु में रहने में कोई विरोध नहीं है। देवदत्त यदि अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है तो सबकी अपेक्षा पिता नहीं हो सकता। जैसे कि एक ही हेतु सपक्ष में सत् होता है और विपक्ष में असत् होता है उसी तरह विभिन्न अपेक्षाओं से अस्तित्व आदि धर्मों के रहने में भी कोई विरोध नहीं है।

अथवा, जैसे वादी या प्रतिवादी के द्वारा प्रयुक्त प्रत्येक हेतु स्वपक्ष की अपेक्षा साधक और परपक्ष की अपेक्षा दूषक होता है उसीप्रकार एक ही वस्तु में विभिन्न अपेक्षाओं से विविध धर्म रह सकते हैं। 'एक वस्तु अनेक धर्मात्मक है' इसमें किसी वादी को विवाद भी नहीं है । यथा -
  • सांख्य सत्त्व, रज और तम, इन भिन्न स्वभाववाले धर्मों का आधार एक 'प्रधान' मानते हैं।
  • वैशेषिक पृथिवीत्व आदि सामान्यविशेष स्वीकार करते हैं। एक ही पृथिवीत्व स्वव्यक्तियो में अनुगत होने से सामान्यात्मक होकर भी जलादि से व्यावृत्ति कराने के कारण विशेष कहा जाता है। इसीलिए इसकी सामान्यविशेष संज्ञा है।
  • बौद्ध कर्कश आदि विभिन्न लक्षणवाले परमाणुओं के समुदाय को एक रूप स्वलक्षण मानते हैं। इनके मतमें भी विभिन्न परमाणुओं में रूप की दृष्टि से कोई विरोध नहीं है।
  • विज्ञानाद्वैतवादी एक ही विज्ञान को ग्राह्याकार, ग्राहकाकार और संवेदनाकार इस प्रकार त्रयाकार स्वीकार करते ही हैं ।
सभी वादी पूर्वावस्था को कारण और उत्तरावस्था को कार्य मानते हैं अतः एक ही पदार्थ में अपनी पूर्व और उत्तरपर्याय की दृष्टि से कारण-कार्य व्यवहार निर्विरोध रूप से होता ही है। उसी तरह सभी जीवादि पदार्थ विभिन्न अपेक्षाओं से अनेक धर्मों के आधार होते हैं।

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निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ॥7॥
अन्वयार्थ : निर्देश, स्‍वामित्‍व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान से सम्‍यग्‍दर्शन आदि विषयों का ज्ञान होता है ॥७॥
  • ज्ञान के उपाय
    • निर्देश
    • स्वामित्व
    • साधन
    • अधिकरण
    • स्थिति
    • विधान

सर्वार्थसिद्धि :
किसी वस्तु के स्‍वरूप का कथन करना निर्देश है ।

स्‍वामित्‍व का अर्थ आधिपत्‍य है ।

जिस निमित्त से वस्‍तु उत्‍पन्‍न होती है वह साधन है ।

अधिष्‍ठान या आधार अधिकरण है ।

जितने काल तक वस्तु रहती है वह स्थिति है और विधान का अर्थ प्रकार या भेद है। 'सम्‍यग्‍दर्शन क्‍या है' यह प्रश्‍न हुआ, इस पर 'जीवादि पदार्थों का श्रद्धान करना सम्‍यग्‍दर्शन है' ऐसा कथन करना निर्देश है या नामादिक के द्वारा सम्‍यग्‍दर्शन का कथन करना निर्देश है। सम्‍यग्‍दर्शन किसके होता है ? सामान्‍य से जीव के होता है और विशेष की अपेक्षा गति मार्गणा के अनुवाद से नरकगति में सब पृथिवियों में पर्याप्‍तक नारकियों के औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्‍यग्‍दर्शन होता है । पहली पृथिवी में पर्याप्‍तक और अपर्याप्‍तक नारकियों के क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्‍यग्‍दर्शन होता है । तिर्यंचगति में पर्याप्‍तक तिर्यंचों के औपशमिक सम्‍यग्‍दर्शन होता है। क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्‍यग्‍दर्शन पर्याप्‍तक और अपर्याप्‍तक दोनों प्रकार के तिर्यंचों के होता है। तिर्यंचनी के क्षायिक सम्‍यग्‍दर्शन नहीं होता । औपशमिक और क्षायोपशमिक पर्याप्‍तक तिर्यंचनी के ही होता है, अपर्याप्‍तक तिर्यंचनी के नहीं । मनुष्‍य गति में क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्‍यग्‍दर्शन पर्याप्‍तक और अपर्याप्‍तक दोनों प्रकार के मनुष्‍यों के होता है । औपशमिक सम्‍यग्‍दर्शन पर्याप्‍तक मनुष्‍य के ही होता है, अपर्याप्‍तक मनुष्‍य के नहीं । मनुष्‍यनियों के तीनों ही सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं किन्‍तु ये पर्याप्‍तक मनुष्‍यनी के ही होते हैं, अपर्याप्‍तक मनुष्‍यनी के नहीं । देवगति में पर्याप्‍तक और अपर्याप्‍तक दोनों प्रकार के देवों के तीनों ही सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं ।

शंका – अपर्याप्‍तक देवों के औपशमिक सम्‍यग्‍दर्शन कैसे होता है ?

समाधान – जो मनुष्‍य चारित्र-मोहनीय का उपशम करके या करते हुए उपशम-श्रेणी में मरकर देव होते हैं उन देवों के अपर्याप्‍तक अवस्‍था में औपशमिक सम्‍यग्‍दर्शन होता है। भवनवासी, व्‍यन्‍तर और ज्‍योतिषी देवों के, इन तीनों की देवांगनाओं के, तथा सौधर्म और ऐशान कल्‍प में उत्‍पन्‍न हुई देवांगनाओं के क्षायिक सम्‍यग्‍दर्शन नहीं होता, औपशमिक और क्षायोपशमिक ये दो सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं सो वे भी पर्याप्‍तक अवस्‍था में ही होते हैं।

  • इन्द्रिय मार्गणा के अनुवाद से संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के तीनों सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं, अन्‍य जीवों के कोई भी सम्‍यग्‍दर्शन नहीं होता।
  • कायमार्गणा के अनुवादसे त्रसकायिक जीवों के तीनों सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं, अन्‍य कायवाले जीवों के कोई भी सम्‍यग्‍दर्शन नहीं होता।
  • योगमार्गणा के अनुवादसे तीनों योगवाले जीवों के तीनों सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं, किन्‍तु अयोगी जीवोंके एक क्षायिक सम्‍यग्‍दर्शन ही होता है।
  • वेदमार्गणा के अनुवादसे तीनों वेदवाले जीवोंके तीनों सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं, किन्‍तु अपगत-वेदी जीवों के औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं।
  • कषायमार्गणा के अनुवाद से चारों कषायवाले जीवों के तीनों ही सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं, किन्‍तु कषाय-रहित जीवों के औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं।
  • ज्ञानमार्गणा के अनुवाद से आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मन:पर्ययज्ञानी जीवों के तीनों ही सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं, किन्‍तु केवलज्ञानी जीवों के एक क्षायिक-सम्‍यग्‍दर्शन ही होता है ।
  • संयममार्गणा के अनुवाद से
    • सामायिक और छेदोपस्‍थापना-संयत जीवों के तीनों सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं,
    • परिहारविशुद्धि-संयतों के औपशमिक सम्‍यग्‍दर्शन नहीं होता, शेष दो होते हैं ।
    • सूक्ष्‍मसाम्‍परायिक-संयत और यथाख्‍यात-संयत जीवों के औपशमिक और क्षायिक सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं,
    • संयतासंयत और असंयत जीवों के तीनों सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं।
  • दर्शनमार्गणा के अनुवाद से चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शनवाले जीवों के तीनों सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं, किन्‍तु केवलदर्शनवाले जीवों के एक क्षायिक सम्‍यग्‍दर्शन ही होता है ।
  • लेश्‍यामार्गणा के अनुवाद से छहों लेश्‍यावाले जीवों के तीनों सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं, किन्‍तु लेश्‍या-रहित जीवों के एक क्षायिक सम्‍यग्‍दर्शन ही होता है ।
  • भव्‍य मार्गणा के अनुवाद से भव्‍य जीवों के तीनों सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं, अभव्‍यों के कोई भी सम्‍यग्‍दर्शन नहीं होता ।
  • सम्‍यक्‍त्‍व मार्गणा के अनुवाद से जहाँ जो सम्‍यग्‍दर्शन है वहाँ वही जानना।
  • संज्ञामार्गणा के अनुवाद से संज्ञी जीवों के तीनों सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं, असंज्ञियों के कोई भी सम्‍यग्‍दर्शन नहीं होता तथा संज्ञी और असंज्ञी इस संज्ञा से रहित जीवों के एक क्षायिक सम्‍यग्‍दर्शन ही होता है ।
  • आहारमार्गणा के अनुवाद से आहारकों के तीनों सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं, अनाहारक छद्मस्‍थों के भी तीनों सम्‍यग्‍दर्शन होते हैं, किन्‍तु समुद्घातगत केवली अना‍हारकों के एक क्षायिक सम्‍यग्‍दर्शन ही होता है ।

साधन दो प्रकारका है - अभ्‍यन्‍तर और बाह्य। दर्शनमोहनीय का उपशम, क्षय या क्षयोपशम अभ्‍यन्‍तर साधन है। बाह्य साधन इस प्रकार है -
  • नारकियों के चौथे नरक से पहले तक अर्थात् तीसरे नरक तक किन्‍हीं के जातिस्‍मरण, किन्‍हीं के धर्मश्रवण और किन्‍हीं के वेदनाभिभव से सम्‍यग्‍दर्शन उत्‍पन्‍न होता है।
  • चौथे से लेकर सातवें नरक तक किन्‍हीं के जातिस्‍मरण और किन्‍हीं के वेदनाभिभव से सम्‍यग्‍दर्शन उत्‍पन्‍न होता है।
  • तिर्यंचों में किन्‍हीं के जातिस्‍मरण, किन्‍हीं के धर्मश्रवण और किन्‍हीं के जिनबिम्‍बदर्शन से सम्‍यग्‍दर्शन उत्‍पन्‍न होता है। मनुष्‍यों के भी इसी प्रकार जानना चाहिए।
  • देवों में किन्‍हीं के जातिस्‍मरण, किन्‍हीं के धर्मश्रवण, किन्‍हीं के जिन-महिमादर्शन और किन्‍हीं के देवऋद्धिदर्शन से सम्‍यग्‍दर्शन उत्‍पन्‍न होता है। यह व्‍यवस्‍था आनत कल्‍प से पूर्वतक जानना चाहिए।
  • आनत, प्राणत, आरण और अच्‍युत काल्‍प के देवों के देवऋद्धिदर्शन को छोड़कर शेष तीन साधन पाये जाते हैं।
  • नौ ग्रैवेयक के निवासी देवों के सम्‍यग्‍दर्शन का साधन किन्हीं के जातिस्‍मरण और किन्‍हीं के धर्मश्रवण है।
  • अनुदिश और अनुत्तरविमानों में रहनेवाले देवों के यह कल्‍पना नहीं है, क्‍योंकि वहाँ सम्‍यग्‍दृष्टि जीव ही उत्‍पन्‍न होते हैं।

अधिकरण दो प्रकारका है - अभ्‍यन्‍तर और बाह्य। अभ्‍यन्‍तर अधिकरण - जिस सम्‍यग्‍दर्शन का जो स्‍वामी है वही उसका अभ्‍यन्‍तर अधिकरण है। यद्यपि सम्‍बन्‍ध में षष्‍ठी और अधिकरण में सप्‍तमी विभक्ति होती है, फिर भी विवक्षा के अनुसार कारक की प्रवृत्ति होती है, अत: षष्‍ठी विभक्ति द्वारा पहले जो स्‍वामित्‍व का कथन किया है उसके स्‍थानमें सप्‍तमी विभक्ति करने से अधिकरण का कथन हो जाता है। बाह्य अधिकरण लोकनाड़ी है।

शंका – वह कितनी बड़ी है ?

समाधान – एक राजु चौड़ी और चौदह राजु लम्‍बी है।

औपशमिक सम्‍यग्‍दर्शनकी जघन्‍य और उत्‍कृष्‍ट स्थिति एक अन्‍तर्मुहूर्त है। क्षायिक सम्‍यग्‍दर्शन की संसारी जीव के जघन्‍य स्थिति अन्‍तर्मुहूर्त है व उत्‍कृष्‍ट स्थिति आठ वर्ष और अन्‍तर्मुहूर्त कम दो पूर्वकोटि अधिक तैंतीस सागरोपम है। मुक्त जीव के सादि-अनन्‍त है। क्षायोपशमिक सम्‍यग्‍दर्शन की जघन्‍य स्थिति अन्‍तर्मुहूर्त है व उत्‍कृष्‍ट स्थिति छ्यासठ सागरोपम है।

भेद की अपेक्षा
  • सम्‍यग्‍दर्शन सामान्य से एक है।
  • निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो प्रकार का है।
  • औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का है।
  • शब्दों की अपेक्षा संख्यात प्रकार का है तथा
  • श्रद्धान करनेवालों की अपेक्षा असंख्या्त प्रकार का और
  • श्रद्धान करने योग्य पदार्थों की अपेक्षा अनन्त प्रकार का है।
इसी प्रकार यह निर्देश आदि विधि ज्ञान और चारित्र में तथा जीव और अजीव आदि पदार्थों में आगम के अनुसार लगा लेना चाहिए।

क्या इन उपर्युक्त कारणों से ही जीवादि पदार्थों का ज्ञान होता है या और दूसरे भी ज्ञान के उपाय हैं इस प्रकार ऐसा प्रश्न करनेपर दूसरे उपाय हैं यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -


राजवार्तिक :
1-2. जिस पदार्थ के स्वरूप का निश्चय हो जाता है उसी के स्वामित्व साधन आदि जानने की इच्छा होती है अतः सर्वप्रथम निर्देश का ग्रहण किया गया है। अन्य स्वामित्व आदि का प्रश्नों के अनुसार क्रम है।

3-5. पर्यायार्थिक नय से औपशमिक आदि भावरूप जीव है। द्रव्यार्थिक नय से नामादि रूप जीव है । प्रमाणदृष्टि से जीव का निर्देश उभयरूप से होता है।

6-7. निश्चयदृष्टि से जीव अपनी पर्यायों का स्वामी है। जैसे कि अग्नि का स्वामित्व उष्णता पर है। पर्याय और पर्यायी में कथञ्चिद् भेद दृष्टि से स्वामित्व व्यवहार हो जाता है । व्यवहार-नय से सभी पदार्थों का स्वामी जीव हो सकता है।

8-9. निश्चय-नय से जीव अपने अनादि पारिणामिक भावों से ही स्वस्वरूपलाभ करता है । व्यवहार-नय से औपशमिकादि भावों से तथा माता-पिता के रजवीर्य आहार आदि से भी स्वरूपलाभ करता है।

10-11. निश्चय-नय से जीव अपने असंख्यात प्रदेशों में रहता है तथा व्यवहार-नय से कर्मानुसार प्राप्त शरीर में रहता है।

12. द्रव्यदृष्टि से जीव की स्थिति अनाद्यनन्त है। कभी भी जीव चैतन्य जीवद्रव्यत्व उपयोग असंख्यात-प्रदेशित्व आदि सामान्य स्वरूप को नहीं छोड़ सकता। पर्याय की अपेक्षा स्थिति एक समय आदि अनेक प्रकार की है।

13. जीवद्रव्य नारक मनुष्य आदि पर्यायों के भेद से संख्यात असंख्यात और अनन्त प्रकार के हैं।

14. इसी तरह अजीवादि में भी निर्देश आदि की योजना करनी चाहिए। यथा निर्देश-दश प्राणरहित अजीव होता है । अथवा नाम आदि रूप भी अजीव है। अजीव का स्वामी अजीव ही होता है अथवा भोक्ता होने के कारण जीव भी। पुद्गलों के अणुत्व का साधन भेद है और स्कन्ध का साधन भेद और संघात। बाह्य साधन कालादि हैं । धर्म, अधर्म, काल और आकाश में स्वाभाविक गतिहेतुता, स्थितिहेतुता, वर्तनाहेतुता और अवगाहनहेतुता ही साधन है। अथवा जीव और पुद्गल, क्योंकि इनके निमित्त से गत्यादिहेतुता की अभिव्यक्ति होती है। साधारणतया सभी द्रव्यों का अपना निज रूप ही अधिकरण है। आकाश बाह्य अधिकरण है। जलादि के लिए घट आदि अधिकरण हैं। द्रव्य-दृष्टि से स्थिति अनाद्यनन्त है तथा पर्यायदृष्टि से एक समय आदि । द्रव्यदृष्टि से धर्मादि तीन द्रव्य एक-एक हैं। पर्यायार्थिक-दृष्टि से अनन्त जीव-पुद्गलों की गत्यादि में निमित्त होने से अनेक हैं - संख्यात, असंख्यात और अनन्त हैं। काल संख्यात और असंख्यात है। पर-परिणमन में निमित्त होता है अतः अनन्त भी है। पुद्गल-द्रव्य सामान्य से एक है। विशेष-रूप से संख्यात, असंख्यात और अनन्त है।

आस्रव - मन, वचन और काय की क्रिया-रूप होता है, अथवा नामादि रूप आस्रव होता है। उपादान रूप से आस्रव का स्वामी जीव है, निमित्त की दृष्टि से कर्मपुद्गल भी आस्रव का स्वामी होता है। अशुद्ध आत्मा साधन है अथवा निमित्त रूप से कर्म भी। जीव ही आधार है क्योंकि कर्मपरिपाक जीव में ही होता है । कर्मनिमित्तक शरीरादि भी उपचार से आधार हैं। वाचनिक और मानस आस्रव की स्थिति जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है। कायास्रव की जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल या असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । वाचनिक और मानस आस्रव सत्य, असत्य, उभय और अनुभय के भेद से चार प्रकार का है। कायास्रव औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण के भेद से सात प्रकार का है।
  • औदारिक और औदारिकमिश्र मनुष्य और तिर्यञ्चों के होता है।
  • वैक्रियिक और वैक्रियिकमिश्र देव और नारकियों के होता है।
  • ऋद्धिप्राप्त संयतों के आहारक और आहारकमिश्र होता है।
  • विग्रहगतिप्राप्त जीव और समुद्घातगत केवलियों के कार्मण कायास्रव होता है।
आस्रव शुभ और अशुभ के भेद से भी दो प्रकार का है। हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील आदि में प्रवृत्ति अशुभ कायास्रव है तथा निवृत्ति शुभकायास्रव । कठोर गाली, चुगली आदि रूप से पर-बाधक वचनों की प्रवृत्ति वाचनिक अशुभास्रव हैं और इनसे निवृत्ति वाचनिक शुभास्रव। मिथ्या श्रुति, ईर्षा, मात्सर्य, षड्यन्त्र आदि रूप से मानस प्रवृत्ति मानस अशुभास्रव है और इनसे निवृत्ति मानस शुभास्रव ।

बन्ध - जीव और कर्मप्रदेशों का परस्पर संश्लेष-बन्ध है अथवा जिसका नाम बन्ध रखा या स्थापना आदि की, वह बन्ध है। बन्ध का फल जीव को भोगना पड़ता है अतः स्वामी जीव है। चूंकि बन्ध दो में होता है अतः पुद्गल कर्म भी स्वामी कहा जा सकता है । मिथ्यादर्शन अविरति प्रमाद कषाय और योग ये बन्ध के साधन हैं अथवा इन रूप से परिणत आत्मा साधन है। स्वामिसम्बन्ध के योग्य वस्तु ही अर्थात् जीव और कर्मपुद्गल ही बन्ध के आधार हैं। जघन्य-स्थिति वेदनीय की बारह मुहूर्त, नाम और गोत्र की आठ मुहूर्त और शेष कर्मों की अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट स्थिति ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय की तीस कोड़ाकोड़ी सागर है। मोहनीय की सत्तर कोड़ाकोड़ी, नाम और गोत्र की बीस कोडाकोड़ी सागर है। आयु की तेतीस सागर स्थिति है। अभव्य जीवों के बन्ध सन्तान की अपेक्षा अनाद्यनन्त है। उन भव्यों का बन्ध भी अनाद्यनन्त है जो अनन्तकाल तक सिद्ध न होंगे। ज्ञानावरण आदि कर्मों का उत्पाद और विनाश प्रतिसमय होता रहता है अतः सादि-सान्त भी है।
  • सामान्यरूप से बन्ध एक है ।
  • शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार है।
  • द्रव्य, भाव और उभय के भेद से तीन प्रकार का है ।
  • प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार प्रकार का है ।
  • मिथ्यादर्शनादि कारणों के भेद से पांच प्रकार का है ।
  • नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप से छह प्रकार का है।
  • इनमें भव और मिलाने से सात प्रकार का है।
  • ज्ञानावरण आदि मूल कर्मप्रकृतियों की दृष्टि से आठ प्रकार का है।
  • इस प्रकार कारणकार्य की दृष्टि से संख्यात असंख्यात और अनन्त विकल्प होते हैं।

संवर - आस्रव-निरोध को संवर कहते हैं अथवा नामादि रूप भी संवर होता है। इसका स्वामी जीव होता है अथवा रोके जानेवाले कर्म की दृष्टि से कर्म भी स्वामी है । गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा आदि साधन हैं। स्वामि सम्बन्ध के योग्य वस्तु आधार है । जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण है। विधान एक से लेकर एक सौ आठ तक तथा आगे भी संख्यात आदि विकल्प होते हैं। तीन गुप्ति, पांच समिति, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषहजय, बारह तप, नव प्रायश्चित्त, चार विनय, दस वैयावृत्त्य, पांच स्वाध्याय, दो व्युत्सर्ग, दस धर्म ध्यान और चार शुक्लध्यान ये संवर के 108 भेद होते हैं।

निर्जरा - यथाकाल या तपोविशेष से कर्मों की फलदानशक्ति नष्ट कर उन्हें झड़ा देना निर्जरा है। नामस्थापना आदि रूप भी निर्जरा होती है। निर्जरा का स्वामी आत्मा है अथवा द्रव्य निर्जरा का स्वामी जीव भी है। तप और समयानुसार कर्मविपाक ये दो साधन हैं। आत्मा या निर्जरा का स्वस्वरूप आधार है ।
  • सामान्य से निर्जरा एक प्रकार की है,
  • यथाकाल और औपक्रमिक के भेद से दो प्रकार की है,
  • मूल कर्मप्रकृतियों की दृष्टि से आठ प्रकार की है,
  • इसी तरह कर्म के रस को क्षीण करने के विभिन्न प्रकारों की अपेक्षा संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद होते हैं।

मोक्ष - संपूर्ण कर्मों का क्षय मोक्ष है अथवा नामादिरूप मोक्ष होता है। परमात्मा और मोक्षस्वरूप ही स्वामी है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्ष के साधन हैं। स्वामिसम्बन्ध के योग्य पदार्थ अर्थात् जीव और पुद्गल आधार होते हैं। सादि अनन्त स्थिति है।
  • सामान्य से मोक्ष एक ही प्रकार का है। द्रव्य, भाव और भोक्तव्य की दृष्टि से अनेक प्रकार का है।

सम्यग्दर्शन - तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं अथवा नामादिरूप भी सम्यग्दर्शन होता है । स्वामी आत्मा और सम्यग्दर्शन पर्याय है। दर्शनमोह के उपशम आदि अन्तरंग साधन हैं, उपदेश आदि बाह्य साधन हैं। स्वामि सम्बन्ध के योग्य वस्तु अधिकरण है। जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक छ्यासठ सागर प्रमाण है । अथवा औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन सादि सान्त होते हैं तथा क्षायिक सम्यग्दर्शन सादि अनन्त ।
  • सामान्य से सम्यग्दर्शन एक है,
  • निसर्गज और अधिगमज रूप से दो प्रकार का है,
  • औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेदसे तीन प्रकार का है ।
  • इसी तरह विभिन्न परिणामों की दृष्टि से संख्यात, असंख्यात और अनन्त विकल्प होते हैं।

ज्ञान - जीवादितत्त्वों के प्रकाशन को ज्ञान कहते हैं अथवा नामादि रूप भी ज्ञान होता है । स्वामी आत्मा है या ज्ञान पर्याय । ज्ञानावरण आदि कर्म का क्षयोपशम आदि साधन हैं अथवा अपने को प्रकट करने की योग्यता। आत्मा अथवा स्वाकार ही अधिकरण है । क्षायोपशमिक मति आदि चार ज्ञान सादि सान्त हैं। क्षायिक ज्ञान सादि अनन्त होता है।
  • सामान्य से ज्ञान एक है,
  • प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार का है।
  • द्रव्य, गुण और पर्यायरूप ज्ञेय के भेद से तीन प्रकार का है।
  • नामादि के भेद से चार प्रकार का है ।
  • मति, श्रुत, अवधि आदि के भेद से पांच प्रकार का है।
  • इसी तरह ज्ञेयाकार परिणति के भेद से संख्यात, असंख्यात और अनन्त विकल्प होते हैं।

चारित्र - कर्मों के आने के कारणों की निवृत्ति को चारित्र कहते हैं अथवा नामादिरूप भी चारित्र होता है। आत्मा अथवा चारित्रपर्याय स्वामी है। चारित्रमोह का उपशम आदि अथवा चारित्रशक्ति साधन हैं। स्वामिसम्बन्ध के योग्य वस्तु अधिकरण है । जघन्यस्थिति अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट स्थिति कुछ कम पूर्वकोटी प्रमाण है । अथवा औपशमिक और क्षायोपशमिक चारित्र सादि और सान्त हैं। क्षायिक चारित्र शुद्धि की प्रकटता की अपेक्षा सादि अनन्त होता है।
  • सामान्य से चारित्र एक है।
  • बाह्य और आभ्यन्तर निवृत्ति की अपेक्षा दो प्रकार का है।
  • औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का है।
  • चार प्रकार के यति की दृष्टि से या चतुर्यम की अपेक्षा चार प्रकार का है।
  • सामायिक आदि के भेद से पांच प्रकार का है।
  • इसी तरह विविध निवृत्तिरूप परिणामों की दृष्टि से संख्यात, असंख्यात और अनन्त विकल्परूप होता है ।

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सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्‍च ॥8॥
अन्वयार्थ : सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व से भी सम्यग्दर्शन आदि विषयों का ज्ञान होता है ॥८॥
  • ज्ञान के उपाय
    • सत्
    • संख्या
    • क्षेत्र
    • स्पर्शन
    • काल
    • अन्तर
    • भाव
    • अल्प-बहुत्व

सर्वार्थसिद्धि :
 सत् अस्तित्व का सूचक निर्देश है । वह प्रशंसा आदि अनेक अर्थों में रहता है, पर उनका यहाँ ग्रहण नहीं किया है ।

संख्या से भेदों की गणना ली हैं ।

वर्तमानकाल विषयक निवास को क्षेत्र कहते हैं ।

त्रिकाल-विषयक उसी निवास को स्पर्शन कहते हैं ।

काल दो प्रकार का है मुख्य और व्यावहारिक । इनका निर्णय आगे करेंगे ।

विरहकाल को अन्तर कहते हैं ।

भाव से औपशमिक आदि भावों का ग्रहण किया गया है और एक दूसरे की अपेक्षा न्यूनाधिक का ज्ञान करने को अल्पबहुत्व कहते हैं । इन सत् आदि के द्वारा सम्यग्दर्शनादिक और जीवादि पदार्थों का ज्ञान होता है ऐसा यहाँ जानना चहिए ।


शंका – निर्देश से ही सत् का ग्रहण हो जाता है । विधान के ग्रहण से संख्या का ज्ञान हो जाता है । अधिकरण के ग्रहण करने से क्षेत्र और स्पर्शन का ज्ञान हो जाता है । स्थिति के ग्रहण करने से काल का संग्रह हो जाता है । भाव का नामादिक में संग्रह हो ही गया है फिर इनका अलग से किसलिए ग्रहण किया है ?

समाधान – यह बात सही है कि निर्देश आदि के द्वारा सत् आदि की सिद्धि हो जाती है तो भी शिष्यों के अभिप्रायानुसार तत्त्व-देशना में भेद पाया जाता है । कितने ही शिष्य संक्षेप-रुचि वाले होते हैं । कितने ही शिष्य विस्तार-रुचि वाले होते हैं और दूसरे शिष्य न तो अति-संक्षेप कथन करने से समझते हैं और न अति विस्तृत कथन करने से समझते हैं । किन्तु सज्जनों का प्रयास सब जीवों का उपकार करना है, इसलिए यहाँ अलग से ज्ञान के उपाय के भेदों का निर्देश किया है । अन्यथा 'प्रमाणनयैरधिगम:' इतने से ही काम चल जाता, अन्य उपायों का ग्रहण करना निष्फल होता ।


अब जीव द्रव्य की अपेक्षा सत् आदि अनुयोग-द्वारों का कथन करते हैं यथा जीव चौदह गुणस्थानों में स्थित हैं । मिथ्यादृष्टि, सासादन-सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत-सम्यग्दृष्टि, संयता-संयत, प्रमत्त-संयत, अप्रमत्त-संयत, अपूर्व-करण गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक, अनिवृत्ति-बादर-साम्पराय गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक, सूक्ष्म-साम्पराय गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक, उपशान्त-कषाय-वीतराग-छद्मस्थ, क्षीण-कषाय-वीतराग-छद्मस्थ, सयोग-केवली और अयोग-केवली । इन चौदह जीव-समासों के निरूपण करने के लिए चौदह मार्गणास्थान जानने चाहिए । यथा गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहारक ।

सत्प्ररूपणा


इनमें-से सामान्य और विशेष की अपेक्षा सत्प्ररूपणा दो प्रकार की है । मिथ्यादृष्टि है, सासादन-सम्यग्दृष्टि है इत्यादि रूप से कथन करना सामान्य की अपेक्षा सत्प्ररूपणा है ।


  • इन्द्रिय मार्गणा के अनुवाद से


  • काय मार्गणा के अनुवाद से


  • योग मार्गणा के अनुवाद से तीनों योगों में तेरह गुणस्थान हैं और इसके बाद अयोग-केवली गुणस्थान है ।

  • वेद मार्गणा के अनुवाद से


  • कषाय मार्गणा के अनुवाद से


  • ज्ञान-मार्गणा के अनुवाद से


  • संयम मार्गणा के अनुवाद से


  • दर्शन मार्गणा के अनुवाद से


  • लेश्या मार्गणा के अनुवाद से


  • भव्य मार्गणा के अनुवाद से


  • सम्यक्त्व मार्गणा के अनुवाद से


  • संज्ञा मार्गणा के अनुवाद से


  • आहार मार्गणा के अनुवाद से



  • इस प्रकार सत्‍प्ररूपणा का कथन समाप्‍त हुआ ।

    संख्‍या प्ररूपणा


    अब संख्‍या प्ररूपणा का कथन करते हैं । सामान्‍य और विशेष की अपेक्षा वह दो प्रकार की है ।


  • विशेष की अपेक्षा


  • तिर्यंच-गति में


  • मनुष्य-गति में


  • देव-गति में


  • इन्द्रियमार्गणा के अनुवाद से


  • काय मार्गणा के अनुवाद से


  • योग मार्गणा के अनुवाद से


  • अयोगकेवलियों की वही संख्या है जो सामान्य से कह आये हैं ।

  • वेद मार्गणा के अनुवाद से


  • कषाय मार्गणा के अनुवाद से


  • ज्ञान मार्गणा के अनुवाद से


  • प्रमत्त-संयत से लेकर क्षीण-कषाय तक प्रत्येक गुणस्थान में मन:पर्ययज्ञानी जीव संख्यात हैं ।

  • सयोगी और अयोगी केवल-ज्ञानियोंकी संख्या सामान्यवत् है ।

  • संयममार्गणा के अनुवाद से


  • दर्शन मार्गणा के अनुवाद से


  • लेश्या मार्गणा के अनुवाद से


  • शुक्ल लेश्या वाले


  • लेश्यारहित जीव सामान्यवत् हैं ।

  • भव्य मार्गणा के अनुवाद से भव्यों में मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोग-केवली तक जीव सामान्यवत् हैं । अभव्य अनन्त हैं ।

  • सम्यक्त्व मार्गणा के अनुवाद से


  • क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियों में


  • औपशमिक सम्यग्दृष्टियों में


  • सासादन-सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवों की संख्या सामान्यवत् है ।

  • संज्ञा मार्गणा के अनुवाद से


  • आहार मार्गणा के अनुवाद से


  • इस प्रकार संख्‍याका निर्णय किया।

    क्षेत्र प्ररूपणा


    अब क्षेत्र का कथन करते हैं । सामान्‍य और विशेष की अपेक्षा वह दो प्रकार का है ।


  • विशेष की अपेक्षा


  • मनुष्य-गति में


  • देव-गति में सब देवों का चार गुणस्थानों में लोक का असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र है ।

  • इन्द्रियमार्गणा के अनुवाद से


  • काय मार्गणा के अनुवाद से


  • योग मार्गणा के अनुवाद से


  • वेद मार्गणा के अनुवाद से


  • कषाय-मार्गणा के अनुवाद से मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्ति-बादर तक प्रत्येक गुणस्थान वाले क्रोध, मान, माया व लोभ कषायवाले, सूक्ष्म-साम्पराय गुणस्थान में लोभ कषाय वाले और कषाय रहित जीवों का सामान्यवत् क्षेत्र है ।

  • ज्ञानमार्गणा के अनुवाद से


  • संयम मार्गणा के अनुवाद से सामान्योक्त क्षेत्र है ।

  • दर्शन मार्गणा के अनुवाद से


  • लेश्यामार्गणा के अनुवाद से


  • लेश्या रहित जीवों का सामान्योक्त क्षेत्र है ।

  • भव्य मार्गणा के अनुवाद से


  • सम्यक्त्व मार्गणा के अनुवाद से असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर अयोग-केवली पर्यन्त प्रत्येक गुणस्थान वाले क्षायिक सम्यग्दृष्टियों का, असंयत से लेकर अप्रमत्त-संयत तक प्रत्येक गुणस्थान वाले क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियों का तथा असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्त कषाय गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान वाले औपशमिक सम्यग्दृष्टियों का क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । विशेष यह है कि सयोग केवलियों का लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण, लोक के असंख्यात बहुभाग प्रमाण और सर्वलोक क्षेत्र है ।

  • संज्ञा मार्गणा के अनुवाद से संज्ञियों का चक्षु-दर्शन वाले जीवों के समान, असंज्ञियों का सब लोक और संज्ञी-असंज्ञी इस संज्ञासे रहित जीवों का सामान्योक्त क्षेत्र है ।

  • आहार मार्गणा के अनुवाद से


  • विशेषार्थ – क्षेत्र-प्ररूपणामें केवल वर्तमान कालीन आवासका विचार किया जाता है । मिथ्‍यादृष्टि जीव सब लोक में पाये जाते हैं इसलिए उनका सब लोक क्षेत्र बतलाया है । अन्‍य गुणस्थान वाले जीव केवल लोक के असंख्‍यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में ही पाये जाते हैं इसलिए इनका लोक के असंख्‍यातवें भागप्रमाण क्षेत्र बतलाया है । केवल सयोगिकेवली इसके अपवाद हैं । यों तो स्‍वस्‍थानगत सयोगिकेवलियों का क्षेत्र भी लोक के असंख्‍यातवें भाग प्रमाण ही है फिर भी जो सयोगिकेवली समुद्घात करते हैं उनका क्षेत्र तीन प्रकारका प्राप्‍त होता है । दण्‍ड और कपाटरूप समुद्घातके समय लोक के असंख्‍यातवें भागप्रमाण, प्रतररूप समुद्घात के समय लोक का असंख्‍यात बहुभाग और लोकपूरक समुद्घातके समय सब लोक क्षेत्र प्राप्‍त होता है इसलिए इनके क्षेत्र का निर्देश तीन प्रकारसे किया गया है । गति आदि मार्गणाओंके क्षेत्र का विचार करते समय इसी दृष्टिको सामने रखकर विचार करना चाहिए। साधारणतया कहाँ कितना क्षेत्र है इसका विवेक इन बातोंसे किया जा सकता है –

    1. मिथ्‍यादृष्टियोंमें एकेन्द्रियोंका ही सब लोक क्षेत्र प्राप्‍त होता है । शेष का नहीं। इनके कुछ ऐसे अवान्‍तर भेद हैं जिनका सब लोक क्षेत्र नहीं प्राप्‍त होता पर वे यहाँ विवक्षित नहीं। इस हिसाबसे जो-जो मार्गणा एकेन्द्रियोंके सम्‍भव हो उन सबके सब लोक क्षेत्र जानना चाहिए। उदाहरणार्थ- गति मार्गणामें तिर्यंच-गति मार्गणा, इन्द्रिय मार्गणामें एकेन्द्रिय मार्गणा, काय-मार्गणामें पृथिवी आदि पाँच स्‍थावर काय मार्गणा, योग मार्गणामें काययोग मार्गणा, वेद मार्गणामें नपुंसक वेद मार्गणा, कषाय मार्गणामें क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय मार्गणा, ज्ञान मार्गणामें मत्‍यज्ञान और श्रुताज्ञान मार्गणा, संयम मार्गणामें असंयत संयम मार्गणा, दर्शन-मार्गणा में अचक्षु-दर्शन मार्गणा, लेश्‍या मार्गणामें कृष्‍ण, नील और कापोत लेश्‍या मार्गणा, भव्‍य मार्गणामें भव्‍य और अभव्‍य मार्गणा, सम्‍यक्‍त्‍व मार्गणामें मिथ्‍यादृष्टि सम्‍यक्‍त्‍व मार्गणा, संज्ञा मार्गणामें संज्ञी असंज्ञी मार्गणा तथा आहार मार्गणामें आहार और अनाहार मार्गणा इनका सब लोक क्षेत्र बन जाता है ।

    2. सासादन-सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीण-कषाय गुणस्‍थान तक के जीवों का और अयोगकेवलियों का क्षेत्र लोक के असंख्‍यातवें भाग प्रमाण ही है ।

    3. दोइन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पंचेन्द्रियों में असंज्ञियों का क्षेत्र भी लोक के असंख्‍यातवें भाग प्रमाण है ।

    4. संज्ञियोंमें समुद्घातगत सयोगिकेवलियोंके सिवा शेष सबका क्षेत्र लोक के असंख्‍यातवें भागप्रमाण है । इन नियमोंके अनुसार जो मार्गणाएँ सयोगिकेवली के समुद्घात के समय सम्‍भव हैं उनमें भी सब लोक क्षेत्र बन जाता है । शेषके लोक का असंख्‍यातवाँ भाग प्रमाण ही क्षेत्र जानना चाहिए। सयोगिकेवलीके लोकपूरण समुद्घातके समय मनुष्य-गति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस काय, काययोग, अपगतवेद, अकषाय, केवलज्ञान, यथाख्‍यात संयम, केवल-दर्शन, शुक्‍ल लेश्‍या, भव्‍यत्‍व, क्षायिक सम्‍यक्‍त्‍व, न संज्ञी न असंज्ञी और अनाहार ये मार्गणाएँ पायी जाती हैं इसलिए लोकपूरण समुद्घातके समय इन मार्गणाओंका क्षेत्र भी सब लोक जानना चाहिए। केवलीके प्रतर समुद्घातके समय लोक का असंख्‍यात बहुभाग प्रमाण क्षेत्र पाया जाता है । इसलिए इस समय जो मार्गणाएँ सम्‍भव हों उनका क्षेत्र भी लोक का असंख्‍यात बहुभाग प्रमाण बन जाता है । उदाहरण के लिए लोक पूरण समुद्घातके समय जो मार्गणाएँ गिनायी हैं वे सब यहाँ भी जानना चाहिए। इनके अतिरिक्त शेष सब मार्गणाएँ ऐसी हैं जिनका क्षेत्र लोक के असंख्‍यातवें भाग प्रमाण ही प्राप्‍त होता है । लोक पूरण और प्रतर समुद्घातके समय प्राप्‍त होनेवाली जो मार्गणाएँ गिनायी हैं उनमें-से काययोग, भव्‍यत्‍व और अनाहार इन तीनको छोड़कर शेष सब मार्गणाएँ भी ऐसी हैं जिनका भी क्षेत्र उक्त अवस्‍थाके सिवा अन्‍यत्र लोक के असंख्‍यातवें भाग प्रमाण प्राप्‍त होता है । इस प्रकार क्षेत्र का निर्णय किया।

    स्‍पर्श प्ररूपणा


    अब स्‍पर्शन का कथन करते हैं – यह दो प्रकार का है – सामान्‍य और विशेष।


  • विशेष की अपेक्षा



  • सातवीं पृथिवी में


  • तिर्यंच-गति में



  • मनुष्य-गति में



  • देव-गति में


  • इन्द्रिय मार्गणा के अनुवाद से


  • काय-मार्गणा के अनुवाद से


  • योग मार्गणा के अनुवाद से


  • काययोगवालों में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोग-केवली गुणस्थान तक के और अयोग-केवली जीवों का स्पर्श ओघ के समान है ।

  • वेद मार्गणा के अनुवाद से


  • नपुंसक-वेदियों में


  • कषाय मार्गणा के अनुवाद से क्रोधादि चारों कषाय-वाले और कषाय-रहित जीवों का स्पर्श ओघ के समान है ।

  • ज्ञान-मार्गणा के अनुवाद से


  • आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी जीवों का स्पर्श ओघ के समान है ।

  • संयम मार्गणा के अनुवाद से सब संयतों का, संयता-संयतों का और असंयतों का स्पर्श ओघ के समान है ।

  • दर्शन-मार्गणा के अनुवाद से


  • लेश्या-मार्गणा के अनुवाद से


  • पीतलेश्या वाले


  • पद्मलेश्या वाले


  • शुक्ललेश्या वाले


  • भव्य मार्गणा के अनुवाद से


  • सम्यक्त्व मार्गणा के अनुवाद से


  • क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियों का


  • औपशमिक सम्यग्दृष्टियों में


  • सासादन-सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टियों का सामान्योक्त स्पर्श है ।

  • संज्ञा मार्गणा के अनुवाद से


  • आहार मार्गणा के अनुवाद से


  • अनाहारकों में


  • इस प्रकार स्‍पर्शनका व्‍याख्‍यान किया।

    काल प्ररूपणा


    अब काल का कथन करते हैं । सामान्य और विशेष की अपेक्षा वह दो प्रकारका है ।


  • सासादन-सम्यग्दृष्टि का


  • सम्यग्मिथ्यादृष्टि का


  • असंयत-सम्यग्दृष्टि का


  • संयता-संयत का


  • प्रमत्त-संयत और अप्रमत्त-संयत का


  • चारों उपशमकों का नाना जीव और एक जीव की अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।

  • चारों क्षपक और अयोगकेवलियों का नाना जीव और एकजीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मूहूर्त है ।

  • सयोग-केवलियों का


  • विशेष की अपेक्षा


  • तिर्यंच-गति में


  • मनुष्य-गति में मनुष्योंमें


  • देव-गति में देवोंमें


  • इन्द्रिय मार्गणा के अनुवाद से


  • काय मार्गणा के अनुवाद से


  • योग मार्गणा के अनुवाद से


  • काययोगियों में


  • तथा अयोगियों का काल ओघ के समान है ।

  • वेद मार्गणा के अनुवाद से


  • पुरुषवेदवालों में


  • नपुंसकवेदवालों में


  • कषाय मार्गणा के अनुवाद से


  • ज्ञान मार्गणा के अनुवाद से


  • आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी और केवल-ज्ञानियोंका सामान्योक्त काल है ।

  • संयम मार्गणा के अनुवाद से सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्म-साम्परायसंयत, यथाख्यातशुद्धिसंयत, संयता-संयत और चारों असंयतोंका सामान्योक्त काल है ।

  • दर्शन मार्गणा के अनुवाद से


  • अचक्षु-दर्शनवालों में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीण-कषाय तक प्रत्येक का सामान्योक्त काल है ।

  • अवधि-दर्शन वाले और केवल-दर्शन वाले जीवों का काल अवधिज्ञानी और केवल-ज्ञानियों के समान है ।

  • लेश्या मार्गणा के अनुवाद से


  • पीत और पद्मलेश्यावालों में


  • शुक्ल लेश्यावालों में


  • भव्य मार्गणा के अनुवाद से


  • अभव्यों का अनादि-अनन्त काल है ।

  • सम्यक्त्व मार्गणा के अनुवाद से


  • चारों क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियों में भी इसी प्रकार (क्षायिक सम्यग्दृष्टियों के समान) जानना चाहिए ।

  • औपशमिक सम्यग्दृष्टियों में


  • सासादन-सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि का सामान्योक्त काल है ।

  • संज्ञा मार्गणा के अनुवाद से


  • असंज्ञियों का नाना जीवों की अपेक्षा सब काल है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है ।

  • संज्ञी और असंज्ञी व्यवहार से रहित जीवों का सामान्योक्त काल है ।

  • आहार मार्गणा के अनुवाद से


  • अनाहारकों में



  • इस प्रकार कालका वर्णन किया।

    अन्तर प्ररूपणा


    अब अन्तर का निरूपण करते हैं । जब विवक्षित गुण गुणान्तररूपसे संक्रमित हो जाता है और पुन: उसकी प्राप्ति होती है तो मध्यके कालको अन्तर कहते हैं । वह सामान्य और विशेष की अपेक्षा दो प्रकारका है ।


  • विशेष की अपेक्षा


  • तिर्यंच-गति में तिर्यंचों में


  • मनुष्य-गति में मनुष्योंमें


  • देव-गति में देवोंमें


  • इन्द्रिय मार्गणा के अनुवाद से


  • पंचेन्द्रियों में


  • काय मार्गणा के अनुवाद से


  • त्रसकायिकोंमें


  • योग मार्गणा के अनुवाद से


  • वेद मार्गणा के अनुवाद से


  • पुरुषवेदियों में


  • नपुंसक वेदवालों में


  • कषाय मार्गणा के अनुवाद से


  • लोभ कषायमें


  • ज्ञान मार्गणा के अनुवाद से


  • आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें


  • किन्तु अवधि-ज्ञानियों में नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष-पृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है ।

  • मन:पर्ययज्ञानियों में


  • संयम मार्गणा के अनुवाद से


  • परिहारशुद्धि संयतों में प्रमत्त-सयंत और अप्रमत्त-संयत का नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ।

  • सूक्ष्म-साम्परायशुद्धि-संयतों में उपशमक का नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर ओघ के समान है । एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है ।

  • तथा उसी सूक्ष्म-साम्पराय क्षपक का अन्तर ओघ के समान है ।

  • यथाख्यात में अन्तर कषाय-रहित जीवों के समान है ।

  • संयता-संयत का नाना जीव और एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है ।

  • असंयतों में


  • दर्शन-मार्गणा के अनुवाद से


  • अचक्षु-दर्शनवालों में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीण-कषाय तक प्रत्येक गुणस्थान का सामान्योक्त अन्तर है ।

  • अवधि-दर्शनवालों का अवधि-ज्ञानियों के समान अन्तर है ।

  • तथा केवल-दर्शनवालों के केवल-ज्ञानियों के समान अन्तर है ।

  • लेश्या मार्गणा के अनुवाद से


  • पीत और पद्म लेश्यावालों में


  • शुक्ल लेश्यावालों में


  • भव्य मार्गणा के अनुवाद से


  • सम्यक्त्व मार्गणा के अनुवाद से


  • क्षायोपशमिक-सम्यग्दृष्टियों में


  • औपशमिक-सम्यग्दृष्टियों में


  • संज्ञा मार्गणा के अनुवाद से


  • असंज्ञियों का नाना जीव और एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है ।

  • संज्ञी और असंज्ञी व्यवहार से रहित जीवों का अन्तर ओघ के समान है ।

  • आहार मार्गणा के अनुवाद से


  • अनाहारकों में


  • इस प्रकार अन्तरका विचार किया।

    भाव प्ररूपणा


    अब भाव का विचार करते हैं । वह दो प्रकार का है - सामान्य और विशेष।


  • विशेष की अपेक्षा


  • इन्द्रिय मार्गणा के अनुवाद से


  • काय मार्गणा के अनुवाद से


  • योग मार्गणा के अनुवाद से काययोगी, वचनयोगी और मनोयोगी जीवों के मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोग-केवली तक और अयोग-केवली के ओघ के समान भाव हैं

  • वेद मार्गणा के अनुवाद से स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी और वेदरहित जीवों के ओघ के समान भाव हैं ।

  • कषाय मार्गणा के अनुवाद से क्रोध कषायवाले, मान कषायवाले, माया कषाय वाले, लोभ कषायवाले और कषाय रहित जीवों के समान भाव हैं ।

  • ज्ञान मार्गणा के अनुवाद से मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी जीवों के ओघ के समान भाव हैं ।

  • संयम मार्गणा के अनुवाद से सब संयतों के, संयता-संयतो के और असंयतों के ओघ के समान भाव हैं ।

  • दर्शन मार्गणा के अनुवाद से चक्षु-दर्शन वाले, अचक्षु-दर्शन वाले, अवधि-दर्शन वाले और केवल-दर्शन वाले जीवों के ओघ के समान भाव हैं ।

  • लेश्या मार्गणा के अनुवाद से छहों लेश्या वाले और लेश्या रहित जीवों के ओघ के समान भाव हैं ।

  • भव्य मार्गणा के अनुवाद से


  • सम्यक्त्व मार्गणा के अनुवाद से


  • क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियों में


  • औपशमिक सम्यग्दृष्टियों में


  • सासादन-सम्यग्दृष्टि के पारिणामिकभाव है ।

  • सम्यग्मिथ्यादृष्टि के क्षायोपशमिक भाव है ।

  • मिथ्यादृष्टि के औदयिक भाव है ।

  • संज्ञा मार्गणा के अनुवाद से संज्ञियों के ओघ के समान भाव हैं । असंज्ञियों के औदयिक भाव हैं । तथा संज्ञी और असंज्ञी व्यवहार से रहित जीवोंक ओघ के समान भाव हैं ।

  • आहार मार्गणा के अनुवाद से आहारक और अनाहारक जीवों के ओघ के समान भाव हैं ।

  • भाव समाप्त हुआ ।

    अल्पबहुत्व प्ररूपणा


    अब अल्पबहुत्व का कथन करते हैं । वह दो प्रकार का है - सामान्य और विशेष।


  • विशेष की अपेक्षा


  • तिर्यंच-गति में तिर्यंचों में


  • मनुष्य-गति में मनुष्यों के


  • देव-गतिमे देवोंका अल्पबहुत्व नारकियों के समान है ।

  • इन्द्रिय मार्गणा के अनुवाद से


  • काय मार्गणा के अनुवाद से


  • योग मार्गणा के अनुवाद से


  • वेद मार्गणा के अनुवाद से


  • कषाय मार्गणा के अनुवाद से


  • ज्ञान मार्गणा के अनुवाद से


  • विभंगज्ञानियों में


  • मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधि-ज्ञानियों में


  • मन:पर्ययज्ञानियों में


  • केवल-ज्ञानियों में ओयागकेवलियों से सयोग-केवली संख्यात-गुणे हैं ।

  • संयम मार्गणा के अनुवाद से


  • परिहारविशुद्धि संयतों में अप्रमत्त-संयतोंसे प्रमत्त-संयत संख्यात-गुणे हैं ।

  • सूक्ष्म-साम्परायिक शुद्धि-संयतों में उपशमकों से क्षपक संख्यात-गुणे हैं ।

  • यथाख्यात विहार शुद्धि-संयतों में


  • संयता-संयतों का अल्पबहुत्व नहीं है ।

  • असंयतों में


  • दर्शन-मार्गणा के अनुवाद से


  • लेश्या मार्गणा के अनुवाद से


  • शुक्ल लेश्यावालों में


  • भव्य मार्गणा के अनुवाद से


  • सम्यक्त्व मार्गणा के अनुवाद से


  • क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियों में


  • औपशमिक-सम्यग्दृष्टियों में


  • संज्ञा मार्गणा के अनुवाद से


  • आहार मार्गणा के अनुवाद से


  • अल्पबहुत्व का कथन समाप्त हुआ ।

    इस प्रकार गत्यादि मार्गणाओं में मिथ्यादृष्टि आदि का सामान्य से विचार किया । इसमें उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेद आगमानुसार जान लेना चाहिए ।

    इस प्रकार सर्व प्रथम कहे गये सम्यग्दर्शन के लक्षण, उत्पत्ति, स्वामी, विषय न्यास और अधिगम का उपाय कहा । और उसके सम्बन्ध से जीवादिकों की संज्ञा और परिमाण आदि भी कहा । अब इसके बाद सम्यग्ज्ञान विचार योग्य है इसलिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1-2. यद्यपि 'सत्' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है - जैसे 'सत्पुरुष, सदश्व' यहाँ प्रशंसार्थक सत् शब्द है। 'सन् घटः सन् पटः' यहाँ सत् शब्द अस्तित्ववाचक है। 'प्रवजितः सन् कथमनृतं ब्रूयात्-अर्थात् दीक्षित होकर असत्य भाषण कसे कर सकते हैं' यहाँ सत् शब्द प्रतिज्ञावाचक है। 'सत्कृत्य' में सत् शब्द आदरार्थक है । यहाँ विवक्षा से सत् शब्द विद्यमानवाची ग्रहण किया गया है। चूंकि सत् सर्वपदार्थव्यापी है और समस्त विचारों का आधार होता है अतः उसको सर्वप्रथम ग्रहण किया है । गुण और क्रिया आदि किसी में होते हैं किसी में नहीं पर 'सत्' सर्वत्र अप्रतिहतगति है ।

    3. जिसका सद्भाव प्रसिद्ध है उसी पदार्थ की संख्यात, असंख्यात या अनन्त रूप से गणना की जाती है अतः सत के बाद परिमाण निश्चय करनेवाली संख्या का ग्रहण किया गया है।

    4. जिसकी संख्या का परिज्ञान हो गया है उस पदार्थ के ऊपर-नीचे आदि रूप से वर्तमान निवास की प्रतिपत्ति के अर्थ उसके बाद क्षेत्र का ग्रहण किया है।

    5. पदार्थों की त्रैकालिक अवस्थाएँ विचित्र होती हैं, अतः त्रैकालिक क्षेत्र की प्रतिपत्ति के लिए उसके बाद स्पर्शन का ग्रहण किया है। किसी का क्षेत्र प्रमाण ही स्पर्शन होता है तो किसी का एक जीव या नाना जीवों की अपेक्षा 6 राजू या आठ राजू ।

    6. किसी क्षेत्र में स्थित पदार्थ की काल मर्यादा निश्चय करना काल है।

    7. अन्तर शब्द के अनेक अर्थ हैं । यथा - 'सान्तरं काष्ठम्' में छिद्र अर्थ है । 'द्रव्याणि द्रव्यान्तरमारभते' यहां द्रव्यान्तर का अर्थ अन्य द्रव्य है। 'हिमवत्सागरान्तरे में अन्तर शब्द का अर्थ मध्य है। 'शुक्लरक्ताद्यन्तरस्थस्य स्फटिकस्य-सफेद और लाल रंग के समीप रखा हुआ स्फटिक' यहाँ अन्तर का समीप अर्थ है। कहीं पर 'विशेषता' अर्थ में भी प्रयुक्त होता है । जैसे 'घोड़ा हाथी और लोहे में' 'लकड़ी पत्थर और कपड़े में' स्त्री-पुरुष और जल में अन्तर ही नहीं, महान् अन्तर है । यहाँ अन्तर शब्द वैशिष्टयवाचक है । 'ग्रामस्यान्तरे कपाः' में बाह्यार्थक अन्तर शब्द है अर्थात् गाँव के बाहर कुआ है। कहीं उपसंव्यान अर्थात् अन्तर्वस्त्र के अर्थ में अन्तर शब्द का प्रयोग होता है यथा 'अन्तरे शाटकाः'। कहीं विरह अर्थमें जैसे 'अनभिप्रेत श्रोतृजनान्तरे मन्त्रयते - अनिष्ट व्यक्तियों के विरह में मन्त्रणा करता है' प्रकृत में छिद्र मध्य और विरह में से कोई एक अर्थ लेना चाहिए।

    8. किसी समर्थ द्रव्य की किसी निमित्त से अमुक पर्याय का अभाव होने पर निमित्तान्तर से जब तक वह पर्याय पुनः प्रकट नहीं होती तब तक के काल को अन्तर कहते हैं।

    9. औपमशमिक आदि परिणामों के निर्देश के लिए भाव का ग्रहण किया है।

    10. संख्या का निश्चय होने पर भी परस्पर न्यूनाधिक्य का ज्ञान करने के लिए अल्पबहुत्व का कथन है।

    11-14. प्रश्न – निर्देश के ग्रहण से ही 'सत्' का अर्थ पूरा हो जाता है अतः इस सूत्र में 'सत्' का ग्रहण निरर्थक है ?

    उत्तर – 'सत्' के द्वारा गति, इन्द्रिय, काय आदि चौदह मार्गणाओं में 'कहां है कहां नहीं है ?' आदिरूप से सम्यग्दर्शनादि का अस्तित्व सूचित किया जाता है । अधिकृत जीवादि और सम्यग्दर्शनादि का यद्यपि 'निर्देश के द्वारा ग्रहण हो जाता है परन्तु अनधिकृत क्रोधादि या अजीवपर्याय वर्णादि के अस्तित्व का सूचन करने के लिए 'सत्' का ग्रहण आवश्यक है।

    15. विधान और संख्या ग्रहण के पृथक्-पृथक् प्रयोजन है - विधान के द्वारा सम्यग्दर्शनादि के प्रकारों की गिनती की जाती है और प्रत्येक प्रकार की वस्तुओं की गिनती संख्या के द्वारा की जाती है - इतने उपशम सम्यग्दृष्टि हैं, इतने क्षायिकसम्यग्दृष्टि हैं आदि ।

    16. यद्यपि आपाततः क्षेत्र और अधिकरण में कोई अन्तर नहीं है फिर भी अधिकृत अनधिकृत सभी पदार्थों का क्षेत्र बताने के लिए विशेषरूप से क्षेत्र का ग्रहण किया है।

    17-19. प्रश्न – क्षेत्र के होने पर ही स्पर्शन होता है, घटरूप क्षेत्र के रहने पर ही जल उसे स्पर्शन करता है अतः क्षेत्र से स्पर्शन का पृथक् कथन नहीं करना चाहिए ?

    उत्तर – क्षेत्र शब्द विषयवाची है जैसे राजा जनपदक्षेत्र में रहता है यहां राजा का विषय जनपद है न कि वह सम्पूर्ण जनपद को स्पर्श करता है परन्तु स्पर्शन सम्पूर्ण विषयक होता है । क्षेत्र वर्तमानवाची है और स्पर्शन त्रिकालगोचर होता है, अर्थात् त्रैकालिक क्षेत्र को स्पर्शन कहते हैं।

    20. मुख्यकाल के अस्तित्व की सूचना देने के लिए स्थिति से पृथक् काल का ग्रहण किया है। व्यवहारकाल पर्याय और पर्यायी की अवधि का परिच्छेद करता है। सभी पदार्थों के अधिगम के लिए किंचित् विशेष का निरूपण किया गया है।

    21. यद्यपि निक्षेपों में 'भाव' का निरूपण है किन्तु यहां भाव से औपशमिकादि जीवभावों के कहने की विवक्षा है और वहां सामान्य से पर्यायनिरूपण की।

    22. तत्त्वाधिगम के विभिन्न प्रकारों का निर्देश शिष्य की योग्यता, अभिप्राय और जिज्ञासा की शान्ति के लिए किया जाता है । कोई अति-संक्षेप में समझ लेते हैं कोई विस्तार से और कोई मध्यम रीति से । अन्यथा 'प्रमाण' इस संक्षिप्त ग्रहण से ही सब प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं तो अन्य सभी उपायों का कथन निरर्थक हो जायगा ।

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    + ज्ञान के भेद -
    मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् ॥9॥
    अन्वयार्थ : मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पाँच ज्ञान हैं ॥९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्र में ज्ञान शब्‍द मति आदि प्रत्‍येक शब्‍दके साथ जोड़ लेना चाहिए । यथा - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ।

    मति का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है - 'इन्द्रियैर्मनसा च यथा स्‍वमर्थो मन्‍यते अनया मनुते मननमात्रं वा मति:' = इन्द्रिय और मन के द्वारा यथायोग्‍य पदार्थ जिसके द्वारा मनन किये जाते हैं, जो मनन करता है या मननमात्र मति कहलाता है ।

    श्रुत का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है - 'तदावरणकर्मक्षयोपशमे सति निरूप्‍यमाणं श्रूयते अनेन श्रृणोति श्रवणमात्रं वा श्रुतम्' = श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर निरूप्‍यमाण पदार्थ जिसके द्वारा सुना जाता है, जो सुनता है या सुननामात्र श्रुत कहलाता है। मति और श्रुत इन दोनों ज्ञानों का समीप में निर्देश किया है क्‍योंकि इनमें कार्य-कारणभाव पाया जाता है । जैसा कि आगे कहेंगे 'श्रुतं मतिपूर्वम् ।' अवधि का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ = अधिकतर नीचे के विषय को जानने वाला होने से या परिमित विषयवाला होनेसे अवधि कहलाता है ।

    मन:पर्यय का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ = दूसरे के मनोगत अर्थ को मन कहते हैं । सम्‍बन्‍ध से उसका पर्ययण अर्थात् परिगमन करनेवाला ज्ञान मन:पर्यय कहलाता है ।

    शंका – मन:पर्यय ज्ञान का इस प्रकार लक्षण करने पर उसे मतिज्ञान का प्रसंग प्राप्‍त होता है ?

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि मन:पर्ययज्ञान में मन की अपेक्षामात्र है । यद्यपि वह केवल बढ़ी हुई क्षयोपशम शक्ति से अपना काम करता है तो भी केवल स्‍व और पर के मन की अपेक्षा उसका व्‍यवहार किया जाता है। यथा- 'आकाश में चन्‍द्रमा देखो' यहाँ आकाश की अपेक्षामात्र होने से ऐसा व्‍यवहार किया गया है ।

    केवल का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ =अर्थीजन जिसके लिए बाह्य और आभ्‍यन्‍तर तप के द्वारा मार्ग का केवन अर्थात् सेवन करते हैं वह केवलज्ञान कहलाता है । अथवा केवल शब्‍द असहायवाची है, इसलिए असहाय ज्ञानको केवलज्ञान कहते हैं । केवलज्ञानकी प्राप्ति अन्‍त में होती है इसलिए सूत्रमें उसका पाठ सबके अन्‍तर में रखा है । उसके समीप का होने से उसके समीपमें मन:पर्यय का ग्रहण किया है ।

    शंका – मन:पर्यय केवलज्ञान के समीप का क्‍यों है ?

    समाधान – क्‍योंकि इन दोनों का संयम ही एक आधार है, अतएव मन:पर्यय केवलज्ञान के समीप का है । अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञान से दूर है, इसलिए उसका मन:पर्ययज्ञान के पहले पाठ रखा है ।

    शंका – मन:पर्ययज्ञान से अवधिज्ञान को दूर का क्‍यों कहा ?

    समाधान – क्‍योंकि अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञान से अत्‍यन्‍त दूर है । प्रत्‍यक्ष से परोक्ष का पहले कथन किया, क्‍योंकि वह सुगम है । चूँकि मति-श्रुतपद्धति श्रुत, परिचित और अनुभूत होने से प्राय: सब प्राणियों के द्वारा प्राप्‍त करने योग्‍य है अत: वह सुगम है । इस प्रकार यह पाँच प्रकार का ज्ञान है। इसके भेद आदि आगे कहेंगे ।


    प्रमाण और नय से ज्ञान होता है यह पहले कह आये हैं। किन्‍हीं ने ज्ञान को प्रमाण माना है, किन्‍हीं ने सन्निकर्ष को और किन्‍हीं ने इन्द्रिय को। अत: अधिकार प्राप्‍त मत्‍यादिक ही प्रमाण हैं इस बात को दिखलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. मत्यावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर इन्द्रिय और मन की सहायता से अर्थों का मनन मति है। यह 'मननं मतिः' भावसाधन है। 'मनुते अर्थान् मतिः' यह कर्तृसाधन भी स्वतन्त्र विवक्षा में होता है। 'मन्यते अनेन' यह करण-साधन भी मति शब्द होता है। ज्ञान और आत्मा की भेद-अभेद विवक्षा में तीनों प्रकार बन जाते हैं।

    2. श्रुत शब्द कर्मसाधन भी होता है । श्रुतावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर जो सुना जाय वह श्रुत । कर्तृसाधन में श्रुतपरिणत आत्मा श्रुत है। करण विवक्षा में जिससे सुना जाय वह श्रुत है । भावसाधन में श्रवणक्रिया श्रुत है।

    3. अव पूर्वक धा धातु से कर्म आदि साधनों में अवधि शब्द बनता है। 'अव' शब्द 'अधः' वाची है जैसे अधःक्षेपण को अवक्षेपण कहते हैं: अवधिज्ञान भी नीचे की ओर बहुत पदार्थों को विषय करता है । अथवा, अवधिशब्द मर्यादार्थक है अर्थात् द्रव्यक्षेत्रादि की मर्यादा से सीमित ज्ञान अवधिज्ञान है । यद्यपि केवलज्ञान के सिवाय सभी ज्ञान सीमित हैं फिर भी रूढ़िवश इसी ज्ञान को अवधिज्ञान-सीमितज्ञान कहते हैं। जैसे गतिशील सभी पदार्थ हैं पर गाय ही रूढ़िवश गौ (गच्छतीति गौः) कही जाती है।

    4. मनःपर्यय-ज्ञानावरण के क्षयोपशम होने पर दूसरे के मनोगत अर्थ को जानना मनःपर्यय है । पर मनोगत अर्थ को मन कहते हैं, मन में रहने के कारण वह अर्थ मन कहलाता है । अर्थात् मनोविचार का विषय भावघट आदि को विशुद्धिवश जान लेना मनःपर्यय है।

    5. प्रश्न – आगम में 'मनसा मनः संपरिचिन्त्य-अर्थात् मन के द्वारा मन को विचारकर' ऐसा कथन है अतः मनोनिमित्त होने से इसे मानस मतिज्ञान कहना चाहिए ?

    उत्तर – जैसे आकाश में चन्द्र को देखने में आकाश की साधारण अपेक्षा होती है उसी तरह मनःपर्यय ज्ञान में मन अपेक्षा मात्र है जैसे मन मतिज्ञान में कारण होता है उस तरह यहां कारण नहीं है क्योंकि मनःपर्यय मात्र आत्मविशुद्धिजन्य है।

    6-7. जिसके लिए बाह्य और आभ्यन्तर विविध-प्रकार के तप तपे जाते हैं वह लक्ष्यभूत केवलज्ञान है । जैसे 'केवल अन्न खाता है' यहां केवल शब्द असहाय अर्थ में है अर्थात् असहाय शाक आदि रहित अन्न खाता है उसी तरह केवल अर्थात् क्षायोपशमिक आदि ज्ञानों की सहायता से रहित असहाय केवल ज्ञान है। यह रूढ़ शब्द है ।

    8-9. जैनमत में जिस प्रकार ज्ञान करण आदि साधनों में निष्पन्न होता है अन्य एकान्तवादियों के यहां ज्ञान की करणादि साधनता नहीं बन सकती।

    10. जो बौद्ध आत्मा का ही अस्तित्व नहीं मानते उनके यहां कर्ता का अभाव होने से ज्ञान में 'ज्ञायते अनेन' यह करण प्रयोग नहीं हो सकता। फरसे के प्रयोग करनेवाले देवदत्त के रहने पर ही फरसा छेदन क्रिया का करण कहा जा सकता है। इसी तरह 'ज्ञातिनिम्' यह भाव साधन भी नहीं बन सकता; क्योंकि भाववान् के अभाव में भाव की सत्ता नहीं रह सकती। 'जानातीति ज्ञानम्' इस तरह ज्ञान को कर्तृसाधन कहना भी उचित नहीं हैं क्योंकि जब सभी पदार्थ निरीह हैं एक दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते तब निरीह पदार्थ कर्ता कैसे बन सकता है ? फिर, पूर्व और उत्तर पर्याय की अपेक्षा रखनेवाला पदार्थ कर्ता होता है । क्षणिक ज्ञान तो पूर्वोत्तर की अपेक्षा नहीं रखता अतः निरपेक्ष होने के कारण कर्ता नहीं बन सकता । संसार में करण के व्यापार की अपेक्षा रखनेवाला पदार्थ कर्ता होता है, पर ज्ञान के लिए कोई अन्य करण तो है ही नहीं अतः वह कर्ता नहीं बन सकता । स्वशक्ति को करण कहना तो उचित नहीं है। क्योंकि शक्ति और शक्तिमान में भेद मानने पर शक्तिमान् की जगह आत्मा का अस्तित्व सिद्ध हो जायगा। अभेद मानने पर तो वही कर्तत्वाभाव नामक दोष आता है। सन्तान की अपेक्षा पूर्व-क्षण को कर्ता और उत्तर-क्षण को करण मानकर व्यवस्था बनाना भी उचित नहीं है; क्योंकि सन्तान यदि परमार्थ है, तो आत्मा की सिद्धि हो जाती है। यदि मिथ्या है; तो मृषावाद हो जायगा । सन्तान यदि क्षणों से भिन्न है; तो उन क्षणों से कोई वास्तविक सम्बन्ध न होने के कारण वह 'उनकी' सन्तान नहीं कही जा सकती। यदि अभिन्न है तो क्षणों की तरह परस्पर निरन्वय रहने के कारण पूर्वोक्त दोष बने रहेंगे। मन रूप इन्द्रिय को करण कहना भी उचित नहीं है; क्योंकि उसमें वह शक्ति ही नहीं है। "छहों ज्ञानों के लिए एक क्षण पूर्व का ज्ञान मन होता है" यह उनका सिद्धान्त है । इसीलिए अतीतज्ञान रूप मन इन्द्रिय भी नहीं हो सकता। जो ज्ञान उत्पन्न हो रहा है तत्समकालीन को भी करण नहीं कह सकते ; क्योंकि समसमयवालों में कार्य कारण व्यवहार नहीं बन सकता जैसे कि एक साथ उत्पन्न होनेवाले दाएं बाएं दो सींगों में परस्पर । ज्ञान में 'ज्ञा-जानना' इस प्रकृति को छोड़कर अन्य कोई अंश तो है नहीं जो 'जाननेवाला' बनकर कर्ता हो सके। क्षणिकवादी के मत में कर्तृत्व जब एक क्षणवर्ती है तब वह अनेक क्षणवर्ती 'कर्तृ' शब्द से कहा ही कैसे जायगा ? 'कर्तृ' शब्द भी जब एकक्षणवर्ती नहीं है तब वाचक कैसे बन सकता है ? सन्तान की दृष्टि से वाच्यवाचक सम्बन्ध बनाना भी समुचित नहीं है क्योंकि सन्तान अवास्तविक है । तत्त्व को सर्वथा अवाच्य कहना तो नितान्त अनुचित है क्योंकि अवाच्य पक्ष में उसे 'अवाच्य' शब्द से भी नहीं कह सकेंगे, अतः तत्त्व-प्रतिपत्ति के उपाय का भी लोप हो जायगा । किंच, कर्तृसाधन और करणसाधन दोनों को जाननेवाला एक व्यक्ति ही यह भेद कर सकता है कि 'ज्ञान कर्तृसाधन है, करणसाधन नहीं है' जब क्षणिकवादी के यहाँ प्रत्येक ज्ञान एक अर्थ को विषय करनेवाला और क्षणिक है तब निर्णय ही नहीं हो सकेगा। जो व्यक्ति सफेद और काले को नहीं जानता वह 'यह काला है सफेद नहीं' यह विधिनिषेध कर ही नहीं सकता।

    11. आत्मा का अस्तित्व मानकर भी यदि उसे निरतिशय अविकारी नित्य माना जाता है तो भी ज्ञान में करणसाधनता आदि सिद्ध नहीं हो सकते ; क्योंकि अपरिणामी आत्मा से ज्ञान आदि परिणामों का सम्बन्ध ही नहीं बन पाता। जब आत्मा एक स्वतन्त्र पदार्थ है तथा आत्मा इन्द्रिय, मन और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान भी स्वतन्त्र; तब ज्ञान आत्मा का करण कैसे बन सकता है क्योंकि दोनों निरपेक्ष होने से परस्पर सम्बन्धी नहीं हो सकते । जिसप्रकार छेदनेवाले देवदत्त से करणभूत फरसा कठोर, तीक्ष्ण आदि रूप से अपना पृथक अस्तित्व रखता है उसतरह ज्ञान का पृथक् सिद्ध कोई स्वरूप उपलब्ध नहीं होता जिससे उसे करण बनाया जाय। फरसा भी तब करण बनता है जब वह देवदत्तकृत ऊपर उठने और नीचे गिरकर लकड़ी के भीतर घुसने रूप व्यापार की अपेक्षा रखता है, किन्तु ज्ञान में कर्ता के द्वारा की जानेवाली कोई क्रिया नहीं दिखाई देती जिसकी अपेक्षा रखने के कारण उसे करण कहा जाय । स्वयं छेदनक्रिया में परिणत देवदत्त अपनी सहायता के लिए फरसे को लेता है और इसीलिए फरसा करण कहलाता है पर यहाँ आत्मा स्वयं ज्ञानक्रिया रूप से परिणति ही नहीं करता । क्योंकि ज्ञान स्वतन्त्र पदार्थ है । यदि ज्ञान आत्मा से भिन्न है तो आत्मा घटादि पदार्थों की तरह अज्ञ अर्थात् ज्ञानशून्य जड़ हो जायगा । दंडे के सम्बन्ध से दंडी की तरह सम्बन्ध कल्पना उचित नहीं है क्योंकि जब आत्मा स्वयं ज्ञानस्वभाव नहीं है तब ज्ञान का सम्बन्ध आत्मा से ही हो मन या इन्द्रिय से नहीं, यह प्रतिनियम ही नहीं बन सकता । फिर, दण्ड और दण्डी दोनों अपने-अपने लक्षणों से पृथक् सिद्ध हैं अतः उनका सम्बन्ध तो समझ में आता है पर आत्मा से भिन्न ज्ञान की या ज्ञानशून्य आत्मा की जब स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध नहीं होती तब उनमें दण्डदण्डि की तरह सम्बन्ध कैसे बन सकता है ? ज्ञान के उत्पन्न होने पर भी यदि आत्मा में हिताहित विचाररूप परिणमन नहीं होता तो ज्ञान आत्मा का विशेषण कैसे बन सकता है ? दो अंधों के संयोग से जैसे रूप दर्शन की शक्ति नहीं आ सकती वसे ही ज्ञानशून्य आत्मा और ज्ञान के सम्बन्ध से 'ज्ञ' व्यवहार नहीं हो सकेगा। किंच, यदि 'जिनके द्वारा जाना जाय वह ज्ञान' ऐसा निर्वचन किया जाता है तो इन्द्रिय और मन में ज्ञानत्व का प्रसंग आता है। क्योंकि इनके द्वारा भी जाना जाता है। किंच, आत्मा सर्वगत होने से क्रियाशून्य है और ज्ञान गुण होने से क्रियारहित है क्योंकि क्रियावाला द्रव्य ही होता है, अतः दोनों क्रियारहित पदार्थों में न तो कर्तृत्व बन सकता है और न करणत्व ही।

    सांख्य पुरुष को प्रकृति से भिन्न नित्य शुद्ध और निर्विकार कहते हैं। इनके मत में भी ज्ञान करण नहीं हो सकता। इन्द्रिय मन अहङ्कार और महान् तत्त्वों के आलोचन, संकल्प, अभिमान और अध्यवसायात्मक व्यापाररूप बुद्धि प्रकृतितत्त्व है पुरुष इससे भिन्न नित्य, शुद्ध और अविकारी है। बुद्धि ऐसे पुरुष का करण कैसे बन सकती है ? क्रियापरिणत देवदत्त को ही करण की आवश्यकता लोक में प्रसिद्ध है। इसी तरह ज्ञान कर्तृसाधन नहीं बन सकता। करणरूप से प्रसिद्ध तलवार आदि की तीक्ष्णता आदि गुणों की प्रशंसा में 'तलवार ने छेद दिया' इस प्रकार का कर्तृत्वधर्म का अध्यारोपण करके कर्तृसाधन प्रयोग होता है किन्तु यहाँ जब ज्ञान की करणरूप से सिद्धि ही नहीं है तब इसमें कर्तृत्व धर्म का आरोप करके करण प्रयोग कैसे हो सकता है ? ज्ञान 'भावसाधन' भी नहीं हो सकता । जिन चावल आदि पदार्थों में स्वतः विक्रियास्वभाव है उन्हीं में पचनक्रिया देखकर 'पचनं पाकः' यह क्रियाप्रधान भावप्रयोग होता है आकाश आदि में नहीं । अतः परिणमन-रहित अविकारी ज्ञान में क्रियाप्रधान भावप्रयोग नहीं हो सकता । किंच, ज्ञान को प्रमाण माना जाता है । अतः जब तक उससे कोई अन्य अवबोध या फलात्मक ज्ञान उत्पन्न नहीं होगा तब तक उस ज्ञान का 'ज्ञातिनिम्' ऐसा भावसाधन निर्देश नहीं हो सकता।

    बौद्धों का यह कहना उचित नहीं है कि - 'अधिगम भिन्न पदार्थ नहीं है अतः फल में ही प्रमाणता का आरोप कर लेना चाहिए' क्योंकि मुख्य वस्तु के रहने पर ही अन्यत्र आरोपकल्पना होती है, किन्तु यहां मुख्य प्रमाण पृथक् सिद्ध ही नहीं है। एक ही ज्ञान में आकार-भेद से प्रमाण-फल भाव की कल्पना भी उचित नहीं है; क्योंकि आकार और आकारवान् में भेद और अभेद पक्ष में अनेक दोष आते हैं। निरंश तत्त्व में आकारभेद की कल्पना भी उचित नहीं है । ज्ञानवाद में बाह्य-वस्तुओं के आकार के अभाव में अन्तरंग ज्ञान में आकार आ ही नहीं सकता।

    जैनदर्शन में प्रत्येक वस्तु अनेकधर्मात्मक है। अतः पर्यायभेद से एक ही ज्ञान कर्तृ, करण और भाव साधन बन सकता है।

    12. मति आदि प्रत्येक में 'ज्ञान' का अन्वय कर लेना चाहिए। 'द्वन्द्व समास में आदि या अन्त में प्रयुक्त शब्द का सबके साथ अन्वय होता है' यह व्याकरणशास्त्र का प्रसिद्ध नियम है। केवलानि ज्ञानम् में सामानाधिकरण्य होने पर भी चूंकि 'ज्ञान' शब्द उपात्तसंख्यक है अतः एकवचन ही रहा है बहुवचन नहीं हुआ।

    13. मति शब्द धिसंज्ञक है अल्पाक्षर है और मतिज्ञान अल्पविषयक है अत: उसका सर्वप्रथम ग्रहण किया गया है ।

    14-16. चूंकि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है अतः मति के बाद श्रुत का ग्रहण किया है। मति और श्रुत का विषय बराबर है और नारद और पर्वत की तरह दोनों सहभावी है अतः दोनों का पास-पास निर्देश हुआ है ।

    17-20. तीनों प्रत्यक्षों में अवधिज्ञान सबसे कम विशुद्धिवाला है अतः इसका सर्वप्रथम निर्देश है इससे विशुद्धतर होने के कारण संयमी जीवों के ही होनेवाले मनःपर्यय का ग्रहण किया है। सबके अन्त में केवलज्ञान का निर्देश है क्योंकि इससे बड़ा कोई ज्ञान नहीं है । केवल ज्ञान अन्य सब ज्ञानों को जान सकता है पर केवलज्ञान को जाननेवाला उससे बड़ा दूसरा ज्ञान नहीं है। चूंकि केवलज्ञान के साथ ही निर्वाण होता है न कि क्षायोपशमिक मति आदि ज्ञानों के साथ । इसलिए भी इसका अन्त में निर्देश किया है।

    21-25. प्रश्न – चूंकि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों सहचारी है और एक व्यक्ति में युगपत् पाए जाते हैं अतः दोनों में कोई विशेषता न होने से दोनों को एक ही कहना चाहिए ?

    उत्तर – साहचर्य तथा एक व्यक्ति में दोनों के युगपत् रहन से ही यह सिद्ध होता है कि दोनों जदे-जुदे हैं, क्योंकि दोनों बातें भिन्न सत्तावाले पदार्थों में ही होती हैं। मतिपूर्वक श्रुत होता है, इसलिए दोनों की कारण-कार्यरूप से विशेषता सिद्ध है ही। "कारण के सदृश ही कार्य होता है, चूंकि श्रुत मतिपूर्वक हुआ है अतः उसे भी मतिरूप ही कहना चाहिए। सम्यग्दर्शन होने पर कुमति और कुश्रुत को युगपत् ज्ञानव्यपदेश प्राप्त होता है, अतः दोनों एक ही कहना चाहिए" यह शंका ठीक नहीं है। क्योंकि जिन कारणसदृशत्व और युगपद्वृत्ति हेतुओं से आप एकत्व सिद्ध करना चाहते हो उन्हीं से उनमें भिन्नता सिद्ध होती है। सादृश्य और युगपवृत्ति पृथसिद्ध पदार्थो में ही होते हैं। यद्यपि मति और श्रुत का विषय समान है परन्तु जानने के प्रकार जुदा-जुदा हैं। विषय एक होने से ज्ञानों में एकता नहीं हो सकती, अन्यथा एक घटविषयक दर्शन और स्पर्शन में भी एकत्व हो जायगा।

    26-29. प्रश्न – मति और श्रुत दोनों इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होते हैं, मति की तरह श्रुत भी वक्ता की जिह्वा और श्रोता के कान और मन से उत्पन्न होता है। अतः एक कारणजन्य होने से दोनों एक हैं ?

    उत्तर – एककारणता असिद्ध है। वक्ता की जीभ शब्दोस्चारण में निमित्त होती है न कि ज्ञान में। श्रोता का कान भी शब्द प्रत्यक्षरूप मतिज्ञान में निमित्त होता है न कि अर्थज्ञान में, अतः श्रुत में इन्द्रिय और मनोनिमित्तता असिद्ध है। शब्द सुनने के बाद जो मन से ही अर्थज्ञान होता है वह श्रुत है अतः श्रुत अनिन्द्रियनिमित्तक है । यद्यपि ईहादि ज्ञान भी मनोजन्य होते हैं किन्तु वे मात्र अवग्रह के द्वारा गृहीत ही पदार्थ को जानते हैं जब कि श्रुतज्ञान अपूर्व पदार्थ को भी विषय करता है । एक घड़े को इन्द्रिय और मन से जानकर तज्जातीय विभिन्न देशकालवर्ती घटों के सम्बन्ध जाति आदि का विचार भी श्रुत से होता है। श्रुतज्ञान मति के द्वारा एक जीव को जानकर उसके सम्बन्ध के सत्, संख्या, क्षेत्र आदि अनुयोगों के द्वारा नानाविध विशेषों को जानता है । 'सुनकर निश्चय करना श्रुत है' यह तो मतिज्ञान का लक्षण है क्योंकि वह भी शब्द को सुनकर 'यह गो शब्द है' ऐसा निश्चय करता ही है। किन्तु श्रुतज्ञान मन और इन्द्रिय के द्वारा गृहीत या अगृहीत पर्यायवाले शब्द या उसके वाच्यार्थ को श्रोत्रेन्द्रिय के व्यापार के बिना ही नय आदि योजना द्वारा विभिन्न विशेषों के साथ जानता है।

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    + ज्ञान ही प्रमाण है -
    तत्प्रमाणे ॥10॥
    अन्वयार्थ : वह पाँचों प्रकार का ज्ञान दो प्रमाणरूप है ॥१०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    शंका – सूत्र में 'तत्' पद किसलिए दिया है ?

    समाधान – जो दूसरे लोग सन्निकर्ष आदि को प्रमाण मानते हैं उनकी इस कल्‍पना के निराकरण करने के लिए सूत्र में 'तत्' पद दिया है । सन्निकर्ष प्रमाण है, इन्द्रिय प्रमाण है ऐसा कितने ही लोग मानते हैं इसलिए इनका निराकरण करने के लिए सूत्र में 'तत्' पद दिया है जिससे यह अर्थ स्‍पष्‍ट हो जाता है कि वे मत्‍यादि ही प्रमाण हैं, अन्‍य नहीं ।


    शंका – सन्निकर्ष या इन्द्रिय को प्रमाण मानने में क्‍या दोष है ?

    समाधान – यदि सन्निकर्षको प्रमाण माना जाता है तो सूक्ष्‍म, व्‍यवहित और विप्रकृष्‍ट पदार्थों के अग्रहण का प्रसंग प्राप्‍त होता है; क्‍योंकि इनका इन्द्रियों से सम्‍बन्‍ध नहीं होता। इसलिए सर्वज्ञताका अभाव हो जाता है । यदि इन्द्रिय को प्रमाण माना जाता है तो वही दोष आता है, क्‍योंकि चक्षु आदि का विषय अल्‍प है और ज्ञेय अपरिमित हैं ।

    दूसरे सब इन्द्रियों का सन्निकर्ष भी नहीं बनता, क्‍योंकि चक्षु और मन प्राप्‍यकारी नहीं हैं, इसलिए भी सन्निकर्ष को प्रमाण नहीं मान सकते । चक्षु और मन के अप्राप्‍यकारित्‍व का कथन आगे कहेंगे ।

    शंका – यदि ज्ञान को प्रमाण मानते हैं तो फल का अभाव होता है। प्रकृत में ज्ञान को ही फल मानना इष्‍ट है अन्‍य पदार्थ को फल मानना इष्‍ट नहीं। पर यदि उसे प्रमाण मान लिया जाता है तो उसका कोई दूसरा फल नहीं प्राप्‍त हो सकता । किन्‍तु प्रमाण को फलवाला होना चाहिए। पर सन्निकर्ष या इन्द्रिय को प्रमाण मानने पर उससे भिन्‍न ज्ञानरूप फल बन जाता है ?

    समाधान – यह कहना युक्त नहीं, क्‍योंकि यदि सन्निकर्ष को प्रमाण और अर्थ के ज्ञान को फल मानते हैं तो सन्निकर्ष दो में रहनेवाला होने से उसके फलस्‍वरूप ज्ञान को भी दो में रहनेवाला होना चाहिए इसलिए घट-पटादि पदार्थों के भी ज्ञान की प्राप्ति होती है।

    शंका – आत्‍मा चेतन है, अत: उसी में ज्ञान का समवाय है ?

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि आत्‍मा को ज्ञस्‍वभाव नहीं मानने पर सभी पदार्थ अचेतन प्राप्‍त होते हैं। यदि आत्‍मा को ज्ञस्‍वभाव माना जाता है, तो स्‍वमत का विरोध होता है।


    पहले पूर्वपक्षी ने जो यह कहा है कि ज्ञान को प्रमाण मानने पर फल का अभाव होता है सो यह कोई दोष नहीं; क्‍योंकि पदार्थ के ज्ञान होने पर प्रीति देखी जाती है। यद्यपि आत्मा ज्ञस्‍वभाव है तो भी वह कर्मों से मलीन है अत: इन्द्रियों के आलम्‍बन से पदार्थ का निश्‍चय होने पर उसके जो प्रीति उत्‍पन्‍न होती है वही प्रमाण का फल कहा जाता है। अथवा उपेक्षा या अज्ञान का नाश प्रमाण का फल है। राग-द्वेषरूप परिणामों का नहीं होना उपेक्षा है और अन्‍धकार के समान अज्ञान का दूर हो जाना अज्ञाननाश है। सो ये भी प्रमाण के फल हैं।


    प्रमाण शब्‍द का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है- प्रमिणोति, प्रमीयतेऽनेन प्रमितिमात्रं वा प्रमाणम् =जो अच्‍छी तरह मान करता है, जिसके द्वारा अच्‍छी तरह मान किया जाता है या प्रमितिमात्र प्रमाण है।

    शंका – प्रमाण के द्वारा क्‍या जाना जाता है ?

    समाधान – जीवादि पदार्थ जाने जाते हैं।

    शंका – यदि जीवादि पदार्थों के ज्ञान में प्रमाण कारण है तो प्रमाण के ज्ञान के अन्‍य प्रमाण को कारण मानना चाहिए। और ऐसा मानने पर अनवस्‍था दोष प्राप्‍त होता है ?

    समाधान – जीवादि पदार्थों के ज्ञान में प्रमाण को कारण मानने पर अनवस्‍था दोष नहीं आता, जैसे दीपक । जिस प्रकार घटादि पदार्थों के प्रकाश करने में दीपक हेतु है और अपने स्‍वरूप के प्रकाश करने में भी वही हेतु है, इसके लिए प्रकाशान्‍तर नहीं ढूँढना पड़ता । उसी प्रकार प्रमाण भी है यह बात अवश्‍य मान लेनी चाहिए । अब यदि प्रमेय के समान प्रमाण के लिए अन्‍य प्रमाण माना जाता है तो स्‍वका ज्ञान नहीं होने से स्‍मृति का अभाव हो जाता है और स्‍मृति का अभाव हो जाने से व्‍यवहार का लोप हो जाता है ।

    सूत्र में आगे कहे जानेवाले भेदों की अपेक्षा द्विवचन का निर्देश किया है । आगे कहेंगे 'आद्ये परोक्षम्, प्रत्‍यक्षमन्‍यत् ।' यह द्विवचन का निर्देश प्रमाण की अन्‍य संख्‍या के निराकरण करनेके लिए किया है ।


    पहले कहे गये पाँच प्रकारके ज्ञान दो प्रमाणोंमें आ जाते हैं इस प्रकार सुनिश्चित हो जाने पर भी वे दो प्रमाण प्रत्‍यक्ष और अनुमान आदिक भी हो सकते हें अत: इस कल्‍पनाको दूर करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. प्रमाण शब्द भाव, कर्तृ और करण तीनों साधनों में निष्पन्न होता है। जब भाव की विवक्षा होती है तो प्रमा को प्रमाण कहते हैं। कर्तृविवक्षा में प्रमातृत्वशक्ति की मुख्यता होती है और करणविवक्षा में प्रमाता, प्रमेय और प्रमाण की भेद-विवक्षा होती है। इनमें विवक्षानुसार अर्थ ग्रहण किया जाता है।

    2. प्रश्न – प्रमाण की सिद्धि स्वतः होती है या प्रमाणान्तर से ? यदि स्वतः, तो प्रमेयकी सिद्धि भी स्वतः होनी चाहिए। यदि अन्य प्रमाणसे, तो प्रमाणान्तरकी अपेक्षा होनेसे अनवस्था दूषण आता है ? इच्छा मात्रसे किसीकी स्वतः सिद्धि और किसीकी परतःसिद्धि मानने में कोई विशेष हेतु देना चाहिए अन्यथा स्वेच्छाचारित्व का दोष आयगा । उत्तर – जिस प्रकार दीपक घटादि पदार्थों के साथ ही साथ स्वस्वरूप का भी प्रकाशक है उसी तरह प्रमाण भी। प्रमाण या दीपक को स्वस्वरूप के प्रकाशन के लिए प्रमाणान्तर या प्रदीपान्तर की आवश्यकता नहीं होती। जिस प्रकार एक ही प्रदीप 'प्रदीपनं प्रदीप:-प्रदीपन मात्र प्रदीप, प्रदीपयति प्रदीप:-प्रदीपन करनेवाला प्रदीप, प्रदीप्यतेऽनेन-जिसके द्वारा प्रदीपन हो वह प्रदीप' इन तीन साधनों में व्यवहृत होता हैं उसमें न तो कोई विरोध ही आता है और न अनवस्था ही; उसी तरह प्रमाण को भी तीनों साधनों में व्यवहार करने में कोई विरोध या अनवस्था नहीं है।

    3-5. यदि प्रमाण स्वसंवेदी न हो तो परसंवेद्य होनेके कारण वह प्रमाण ही नहीं हो सकता; क्योंकि परसंवेद्य तो प्रमेय होता है । यदि घटज्ञान स्वाकार का परिच्छेदक नहीं है तो घटज्ञान और घट दोनों में अन्तर नहीं हो सकेगा क्योंकि दोनों में समानरूप से विषयाकारता ही रहती है। इसी तरह घटज्ञान ज्ञौर घटज्ञान का ज्ञान इन दोनों ज्ञानों में अस्वसंवेदन दशा में कोई अन्तर नहीं होगा क्योंकि जैसे घटज्ञान में विषयाकारता रहेगी वैसे ही घटज्ञानज्ञान में भी अन्ततः विषयाकारता ही विषय पड़ेगी, स्वाकार नहीं । यदि ज्ञान स्वसंवेदी न हो तो उसे 'ज्ञोऽहम्-मैं जाननेवाला हूं' यह स्मृति उत्तरकाल में नहीं हो सकेगी। इसी तरह जिस ज्ञान ने अपने स्वरूप को नहीं जाना उस ज्ञान के द्वारा ज्ञात अर्थ की स्मृति नहीं हो सकेगी जैसे कि पुरुषान्तर के ज्ञान के द्वारा जाने गए पदार्थों की । पुरुषान्तर के ज्ञेय की स्मृति हमें इसीलिए नहीं होती कि हम उसके ज्ञान को नहीं जानते। यदि हमारा भी ज्ञान हमें अज्ञात हो तो उस ज्ञान के द्वारा ज्ञात अर्थ की स्मृति हमें स्वयं नहीं हो सकेगी।

    6-7. प्रश्न – यदि भावसाधन में प्रमा को प्रमाण कहा जाता है तो फल का अभाव हो जायगा। प्रमा ही फल होती थी।

    उत्तर – अर्थावबोध में जो प्रीति होती है वही फल है, कर्ममलिन आत्मा को इन्द्रियादि के द्वारा जब अर्थावबोध होता है तो उसे प्रीति होती है, वही प्रमाण का फल है। प्रमाण का मुख्य फल अज्ञाननिवृत्ति है। इसी तरह राग और द्वेषरूप वृत्ति न होकर उपेक्षा भाव का होना भी प्रमाण का फल है।

    8-9. प्रश्न – प्रमाण शब्द को कर्तृसाधन मानने पर वह प्रमाता रूप हो जाता है, पर, प्रमाता तो आत्मा होता है जो कि गुणी है और प्रमाण तो ज्ञान रूप गुण है, गुण और गुणी तो जुदे होते हैं। कहा भी है कि - "आत्मा मन, इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह भिन्न है" अतः प्रमाणशब्द को कर्तृसाधन न मानकर करणसाधन मानना ही उचित है।

    उत्तर – यदि ज्ञान को आत्मा से सर्वथा भिन्न माना जाता है तो आत्मा घट की तरह अज्ञ-ज्ञानशून्य जड हो जायगा । ज्ञान के सम्बन्ध से 'ज्ञ' कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि अन्धे को जैसे दीपक का संयोग होने पर भी दिखाई नहीं देता यतः वह स्वयं दष्टिशून्य है उसी तरह ज्ञान-स्वभावरहित आत्मा में ज्ञान का सम्बन्ध होने पर भी ज्ञत्व नहीं आ सकेगा।

    10-13. प्रश्न – जैसे दीपक जुदा है और घड़ा जुदा, उसी तरह जो प्रमाण है वह प्रमेय नहीं हो सकता और जो प्रमेय है वह प्रमाण नहीं। दानों के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं। उत्तर – जिस प्रकार बाह्य प्रमेयों से प्रमाण जुदा है उसी तरह उसमें यदि अन्तरङ्ग प्रमेयता न हो अर्थात् वह स्वयं अपना प्रमेय न बन सकता हो तो अनवस्था दूषण होगा, क्योंकि उसे अपनी सत्ता सिद्ध करने के लिए द्वितीय प्रमाण की आवश्यकता होगी और द्वितीय प्रमाण को भी तृतीय प्रमाण की। यदि अनवस्था दूषण के निवारण के लिए ज्ञान को दीपक की तरह स्वपरप्रकाशी अर्थात् स्वप्रमेय माना जाता है तो प्रमाण और प्रमेय के भिन्न होने का पक्ष समाप्त हो जाता है । वस्तुतः संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि की भिन्नता होने से प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय में भिन्नता है तथा पृथक्-पृथक् रूप से अनुपलब्धि होने के कारण अभिन्नता है। निष्कर्ष यह है कि प्रमेय नियम से प्रमेय ही है किन्तु प्रमाण प्रमाण भी है और प्रमेय भी।

    14. आगे मति और श्रुत का परोक्ष तथा अवधि आदि का प्रत्यक्ष रूप से वर्णन है, अतः इन्हीं दो भेदों की अपेक्षा 'प्रमाणे' यह द्विवचन निर्देश किया गया है ।

    15. 'तत्' शब्द के द्वारा मति आदि ज्ञानों में प्रमाणता का विधान है, ये ही प्रमाण हैं सन्निकर्ष आदि नहीं।

    16-22. सन्निकर्ष को प्रमाण और अर्थाधिगम को फल मानने पर सर्वज्ञत्व नहीं बन सकेगा, क्योंकि सकल पदार्थों से सन्निकर्ष नहीं बनता। सर्वज्ञ के आत्मा मन इन्द्रिय और अर्थ तथा आत्मा मन और अर्थ यह चतुष्टयसन्निकर्ष और त्रयसन्निकर्ष अर्थज्ञान में कारण नहीं हो सकता; क्योंकि मन और इन्द्रियां एक साथ प्रवृत्ति नहीं करती हैं तथा इनका विषय मर्यादित है। सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट आदि रूप से ज्ञेय अनन्त हैं। इनका सन्निकर्ष हुए बिना इनका ज्ञान होगा नहीं, अतः सर्वज्ञत्व का अभाव हो जायगा । आत्मा को सर्वगत मानकर सर्वार्थसन्निकर्ष कहना उचित नहीं है ; क्योंकि आत्मा का सर्वगतत्व परीक्षासिद्ध नहीं है । यदि आत्मा सर्वगत है तो उसमें क्रिया न होने से पुण्य-पाप और पुण्य-पापमूलक संसार तथा संसारोच्छेदरूप मुक्ति आदि नहीं बन सकेंगे। इन्द्रियां तो अचेतन हैं अतः इन्हें संसार और मोक्ष नहीं हो सकता। चक्षु और मन प्राप्यकारी (पदार्थों से सन्निकर्ष करके जाननेवाले) नहीं हैं अतः सभी इन्द्रियों से सन्निकर्ष भी नहीं होता। जो इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं अर्थात् जिन स्पर्शनादि इन्द्रियों से पदार्थ का सम्बन्ध होकर ज्ञान होता है उनके द्वारा सदा और पूर्ण रूप से ग्रहण होना चाहिए; क्योंकि वे सर्वगत आत्मा के द्वारा पदार्थों के प्रत्येक भाग से सम्बन्ध को प्राप्त हैं। यदि सन्निकर्ष को प्रमाण माना जाता है तो सन्निकर्ष के फल अर्थाधिगम को अर्थ में भी होना चाहिए जैसे कि स्त्री और पुरुष के संयोग का फल-सुखानुभव दोनों का होता है। ऐसी दशा में आत्मा की तरह इन्द्रिय, मन और अर्थ को भी अर्थज्ञान होना चाहिए । शय्या पर सोनेवाले पुरुष के दृष्टान्त से केवल पुरुष में अर्थावबोध सिद्ध करना उचित नहीं है। क्योंकि शय्या अचेतन है वह सुख की अधिकारिणी नहीं हो सकती। यदि इन्द्रिय, मन और अर्थ में अचेतन होने के कारण सन्निकर्ष के फल अर्थावबोध का वारण किया जाता है तो इस युक्ति से तो आत्मा में भी अर्थावबोध नहीं हो सकेगा, क्योंकि सन्निकर्षवादियों के मत में आत्मा भी ज्ञानशून्य है अर्थात् अर्थबोध के पहिले सभी अज्ञ हैं; तब अर्थावबोध आत्मा में ही हो इन्द्रिय, मन और अर्थ में नहीं यह नियम कैसे बन सकता है ? ज्ञान का आत्मा से ही सम्बन्ध हो इन्द्रिय आदि से नहीं इसमें क्या विशेष हेतु है ? 'ज्ञान का समवाय आत्मा में ही होता है अन्य में नहीं' यह उत्तर भी विवाद रहित नहीं है क्योंकि जब सभी ज्ञानशून्य हैं तब 'आत्मा में ही ज्ञान का समवाय हो अन्य में नहीं' यही प्रतिनियम नहीं बन सकता । समवाय एक और सर्वगत है और आत्मा आदि सभी समान रूप से ज्ञानशून्य हैं तब क्या कारण है कि समवाय 'आत्मा में ही ज्ञान का सम्बन्ध कराता है अन्य में नहीं ?' अतः सन्निकर्ष को प्रमाण मानना उचित नहीं है।

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    + परोक्ष प्रमाण -
    आद्ये परोक्षम् ॥11॥
    अन्वयार्थ : प्रथम दो ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं ॥११॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    आदि शब्‍द प्राथम्‍यवाची है । जो आदिमें हो वह आद्य कहलाता है ।

    शंका – दो प्रथम कैसे हो सकते हैं ?

    समाधान – पहला मुख्‍य कल्‍पना से प्रथम है और दूसरा उपचार कल्‍पना से प्रथम है । मतिज्ञान तो मुख्‍य कल्‍पना से प्रथम है और श्रुतज्ञान भी उसके समीप का होने से प्रथम है ऐसा उपचार किया जाता है । सूत्र में 'आद्ये' इस प्रकार द्विवचन का निर्देश किया है अत: उसकी सामर्थ्‍य से गौण का भी ग्रहण हो जाता है । 'आद्ये' पद का समास 'आद्यं च आद्यं च आद्ये' है । इससे मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों लिये गये हैं । ये दोनों ज्ञान मिलकर परोक्ष प्रमाण हैं ऐसा यहाँ सम्‍बन्‍ध करना चाहिए ।

    शंका – ये दोनों ज्ञान परोक्ष क्‍यों हैं?

    समाधान – क्‍योंकि ये दोनों ज्ञान पराधीन हैं । 'मतिज्ञान इन्द्रिय और अनिन्द्रिय के निमित्त से होता है, यह आगे कहेंगे ओर 'अनिन्द्रिय का विषय श्रुत है' यह भी आगे कहेंगे । अत: 'पर' से यहाँ इन्द्रिय और मन तथा प्रकाश और उपदेश आदि बाह्य निमित्त लेने चाहिए । तात्‍पर्य यह है कि मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखनेवाले आत्मा के इन्द्रिय और मन तथा प्रकाश और उपदेशादिक बाह्य निमित्तों की अपेक्षा मतिज्ञान और श्रुतज्ञान उत्‍पन्‍न होते हैं अत: ये परोक्ष कहलाते हैं । उपमान और आगमादिक भी ऐसे ही हैं अत: इनका भी इन्‍हीं में अन्‍तर्भाव हो जाता है ।

    परोक्ष का लक्षण कहा । इससे बाकी के सब ज्ञान प्रत्‍यक्ष हैं इस बात को बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. आदि शब्द प्रथम, प्रकार, व्यवस्था, समीपता, अवयव आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त होता है फिर भी यहाँ विवक्षा से उसका 'प्रथम' अर्थ लेना चाहिए।

    2-5. प्रश्न – यदि आदि शब्द का 'प्रथम' अर्थ है तो श्रुत का ग्रहण नहीं हो सकेगा क्योंकि सूत्र में तो मति का प्रथम निर्देश हुआ है। यह समाधान तो उचित नहीं है कि 'श्रुत अवधि की अपेक्षा प्रथम है'; क्योंकि इसमें तो केवलज्ञान के सिवाय सभी अपने उत्तर ज्ञान की अपेक्षा आदि हो सकते हैं। द्विवचन का निर्देश होने से श्रुत का ग्रहण करने में तो विवाद ही है कि किन दो का ग्रहण करना चाहिए ?

    उत्तर – निकटता के कारण श्रुत का ग्रहण किया जाना चाहिए। द्विवचन निर्देश से जिस दूसरे का ग्रहण करना है वह प्रथम मति का समीप-निकट होना चाहिए। समीपता के कारण श्रुत को भी 'आद्य' कह सकते हैं । एक तो सूत्र में मति के पास श्रुत का ग्रहण है दूसरे दोनों करीब-करीब समानविषयक और समस्वामिक होने से परस्पर निकट हैं।

    6-7. उपात्त-इन्द्रियां और मन तथा अनुपात्त-प्रकाश उपदेश आदि 'पर' हैं । पर की प्रधानता से होनेवाला ज्ञान परोक्ष है। जैसे गति-स्वभाववाले पुरुष का लाठी आदि की सहायता से गमन होता है उसी प्रकार ज्ञस्वभाव आत्मा को मतिश्रुतावरण का क्षयोपशम होने पर भी इन्द्रिय और मन रूप पर द्वारों से ही ज्ञान होता है। यह ज्ञान पराधीन होने से परोक्ष है । परोक्ष का अर्थ अज्ञान या अनवबोध नहीं है किन्तु पराधीन ज्ञान है ।

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    + प्रत्यक्ष प्रमाण ज्ञान -
    प्रत्यक्षमन्यत् ॥12॥
    अन्वयार्थ : शेष सब ज्ञान प्रत्‍यक्ष प्रमाण हैं ॥१२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अक्ष शब्‍दका व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है - ''अक्ष्‍णोति व्‍याप्‍नोति जानतीत्‍यक्ष आत्‍मा।'' अक्ष, व्‍याप और ज्ञा ये धातुएँ एकार्थक हैं, इसलिए अक्ष का अर्थ आत्‍मा होता है । इस प्रकार क्षयोपशमवाले या आवरणरहित केवल आत्‍मा के प्रति जो नियत है अर्थात् जो ज्ञान बाह्य इन्द्रियादिक की अपेक्षा से न होकर केवल क्षयोपशमवाले या आवरणरहित आत्‍मा से होता है वह प्रत्‍यक्ष ज्ञान कहलाता है ।

    शंका – अवधिदर्शन और केवलदर्शन भी अक्ष अर्थात् आत्‍मा के प्रति नियत हैं अत: प्रत्‍यक्ष शब्‍द के द्वारा उनका भी ग्रहण प्राप्‍त होता है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं, क्‍योंकि प्रकृत में ज्ञान शब्‍द की अनुवृत्ति है, जिससे दर्शन का निराकरण हो जाता है ।

    शंका – यद्यपि इससे दर्शन का निराकरण हो जाता है तो भी विभंगज्ञान केवल आत्‍मा के प्रति नियत है अत: उसका ग्रहण प्राप्‍त होता है ?

    समाधान – यहाँ 'सम्‍यक्' पद का अधिकार है, अत: उसका निराकरण हो जाता है । तात्‍पर्य यह है कि इस सूत्रमें 'सम्यक्' पद की अनुवृत्ति होती है, जिससे ज्ञान विशेष्‍य हो जाता है इसलिए विभंगज्ञान का निराकरण हो जाता है । क्‍योंकि विभंगज्ञान मिथ्‍यादर्शन के उदय से विपरीत पदार्थ को विषय करता है, इसलिए वह समी‍चीन नहीं है ।

    शंका – जो ज्ञान इन्द्रियों के व्‍यापार से उत्‍पन्‍न होता है वह प्रत्‍यक्ष है और जो इन्द्रियों के व्‍यापार से रहित होकर विषय को ग्रहण करता है वह परोक्ष है । प्रत्‍यक्ष और परोक्ष का यह अविंसवादी लक्षण मानना चाहिए ?

    समाधान – यह कहना ठीक नहीं, क्‍योंकि उक्त लक्षण के मानने पर आप्‍त के प्रत्‍यक्ष ज्ञान का अभाव प्राप्‍त होता है । यदि इन्द्रियों के निमित्त से होने वाले ज्ञान को ही प्रत्‍यक्ष कहा जाता है तो ऐसा मानने पर आप्‍त के प्रत्‍यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता, क्‍योंकि आप्‍त के इन्द्रियपूर्वक पदार्थका ज्ञान नहीं होता । कदाचित् उसके भी इन्द्रियपूर्वक ही ज्ञान माना जाता है तो उसके सर्वज्ञता नहीं रहते ।

    शंका – उसके मानस प्रत्‍यक्ष होता है ?

    समाधान – मन के प्रयत्‍न से ज्ञान की उत्‍पत्ति मानने पर सर्वज्ञत्‍व का अभाव ही होता है ।

    शंका – आगम से सब पदार्थों का ज्ञान हो जायगा ।

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि आगम प्रत्‍यक्षज्ञानपूर्वक प्राप्‍त होता है ।

    शंका – योगी प्रत्‍यक्ष नाम का एक अन्‍य दिव्‍य ज्ञान है ।

    समाधान – तो भी उसमें प्रत्‍यक्षता नहीं बनती, क्‍योंकि वह इन्द्रियों के निमित्त से नहीं होता है । जिसकी प्रवृत्ति प्रत्‍येक इन्द्रिय से होती है वह प्रत्‍यक्ष है ऐसा आपके मत में स्‍वीकार किया गया है ।

    दूसरे प्रत्‍यक्ष का पूर्वोक्त लक्षण मानने पर सर्वज्ञत्‍व का अभाव और प्रतिज्ञाहानि ये दो दोष आते हैं । विशेष इस प्रकार है - इस योगी के जो ज्ञान होता है वह प्रत्‍येक पदार्थ को क्रम से जानता है या अनेक अर्थों को युगपत् जानता है । यदि प्रत्‍येक पदार्थ को क्रम से जानता है तो इस योगी के सर्वज्ञता का अभाव होता है, क्‍योंकि ज्ञेय अनन्‍त हैं । और यदि अनेक अर्थों को युगपत् जानता है तो जो यह प्रतिज्ञा है कि 'जिस प्रकार एक विज्ञान दो अर्थों को नहीं जानता है उसी प्रकार दो विज्ञान एक अर्थ को नहीं जानते हैं।' वह नहीं रहती ।

    अथवा 'सब पदार्थ क्षणिक हैं' यह प्रतिज्ञा नहीं रहती, क्‍योंकि आपके मत में अनेक क्षण तक रहने वाला एक विज्ञान स्‍वीकार किया गया है । अत: अनेक पदार्थों का ग्रहण क्रम से ही होता है ।

    शंका – अनेक पदार्थोंका ग्रहण एक साथ हो जायगा ।

    समाधान – जो ज्ञान की उत्‍पत्ति का समय है उस समय तो वह स्‍वरूप लाभ ही करता है, क्‍योंकि कोई भी पदार्थ स्‍वरूप-लाभ करने के पश्‍चात् ही अपने कार्य के प्रति व्‍यापार करता है ।

    शंका – विज्ञान दीप के समान है, अत: उसमें दोनों बातें एक साथ बन जायेंगी ।

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि उसके अनेक क्षण तक रहने पर ही प्रकाश्‍य-भूत पदार्थों का प्रकाशन करना स्‍वीकार किया गया है । यदि ज्ञान को विकल्‍पातीत माना जाता है तो शून्‍यता की प्राप्ति होती है ।

    प्रमाण के प्रत्‍यक्ष और परोक्ष ये दो भेद कहे । अब हम प्रथम प्रकार के प्रमाण के विशेष का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. इन्द्रिय और मन की अपेक्षा के बिना व्यभिचार रहित जो साकार ग्रहण होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। 'अतत्' को 'तत्' रूप से ग्रहण करना व्यभिचार है, प्रत्यक्ष 'तत्' को 'तत्' जानता है अतः अव्यभिचारी है । इस विशेषण से विभङ्ग-कुअवधि का निराकरण हो जाता है क्योंकि यह मिथ्यादर्शन के उदय से व्यभिचारी-अन्यथा ग्राहक होता है । आकार अर्थात् विकल्प, जो ज्ञान सविकल्प अर्थात् निश्चयात्मक है वह साकार है। इस विशेषण से अवधिदर्शन और केवलदर्शन का निराकरण हो जाता है क्योंकि ये अनाकार हैं। इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्ष विशेषण मति और श्रुत ज्ञान की व्यावृत्ति कर देता है क्योंकि ये ज्ञान इन्द्रियमनोजन्य हैं।

    2-3. प्रत्यक्ष लक्षण में कहे गए विशेषण सूत्र से ही प्रतीत होते हैं, ऊपर से नहीं मिलाए गए हैं । यथा, 'अक्ष अर्थात् आत्मा, जो ज्ञान प्रक्षीणावरण या क्षयोपशम-प्राप्त आत्ममात्र की अपेक्षा से हो वह प्रत्यक्ष' प्रत्यक्ष शब्द का यह व्युत्पत्त्यर्थ करने से इन्द्रिय और मनरूप पर को अपेक्षा की निवृत्ति हो जाती है । 'ज्ञान' का प्रकरण है, अतः अनाकार दर्शन का व्यवच्छेद हो जाता है । इसी तरह 'सम्यक्' का प्रकरण होने से व्यभिचारी ज्ञान की निवृत्ति हो जाती है ?

    4-5. प्रश्न – इन्द्रिय और मन रूप बाह्य और आभ्यन्तर करणों के बिना ज्ञान का उत्पन्न होना ही असम्भव है। बिना करण के तो कार्य होता ही नहीं है ?

    उत्तर – असमर्थ के लिए वसूला, करोंत आदि बाह्य-साधनों की आवश्यकता होती है । जैसे रथ बनानेवाला साधारण रथकार उपकरणों से रथ बनाता है किन्तु समर्थ तपस्वी अपने ऋद्धिबल से बाह्य वसूला आदि उपकरणों के बिना संकल्प-मात्र से रथ को बना सकता है उसी तरह कर्ममलीमस आत्मा साधारणतया इन्द्रिय और मन के बिना नहीं जान सकता पर वही आत्मा जब ज्ञानावरण का विशेष क्षयोपशम रूप शक्तिवाला हो जाता है या ज्ञानावरण का पूर्ण क्षय कर देता है तब उसे बाह्य करणों के बिना भी ज्ञान हो जाता है। आत्मा तो सूर्य आदि की तरह स्वयंप्रकाशी है, इसे प्रकाशन में पर की अपेक्षा नहीं होती है। आत्मा विशिष्ट क्षयोपशम या आवरणक्षय होने पर स्वशक्ति से ही पदार्थों को जानता है।

    6-8. प्रश्न – इन्द्रिय व्यापारजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष और इन्द्रिय-व्यापार की अपेक्षा न रखनेवाले ज्ञान को परोक्ष कहना चाहिए । सभी वादी इसमें प्रायः एकमत हैं। यथा, बौद्ध कल्पनापोढ अर्थात् निर्विकल्प ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। नाम जाति आदि की योजना कल्पना कहलाती है। इन्द्रियां चूंकि असाधारण कारण हैं अतः चाक्षुष प्रत्यक्ष, रासन प्रत्यक्ष आदि रूप से इन्द्रियों के अनुसार प्रत्यक्ष का नामकरण हो जाता है। नैयायिक इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न होनेवाले, अव्यपदेश्य-निर्विकल्पक, अव्यभिचारि और व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं । सांख्य श्रोत्रादि इन्द्रियों की वृत्ति को प्रत्यक्ष कहते हैं। मीमांसक इन्द्रियों का सम्प्रयोग होने पर पुरुष के उत्पन्न होनेवाली बुद्धि को प्रत्यक्ष मानते हैं।

    उत्तर – इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष मानने से आप्त के प्रत्यक्ष ज्ञान न हो सकेगा; सर्वज्ञता का लोप हो जायगा, क्योंकि सर्वज्ञ आप्त के इन्द्रियज ज्ञान नहीं होता। आगम से अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान मानकर सर्वज्ञता का समर्थन करना तो युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि आगम प्रत्यक्षदर्शी वीतराग पुरुष के द्वारा प्रणीत होता है। जब अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं है तब अतीन्द्रिय पदार्थों में आगम का प्रामाण्य कैसे बन सकता है ? आगम का अपौरुषेयत्व तो असिद्ध है। पुरुष प्रयत्न के बिना उत्पन्न हुआ कोई भी विधायक शब्द प्रमाण नहीं है। हिंसादि का विधान करनेवाला वेद प्रमाण नहीं हो सकता।

    9-10. बौद्ध का यह कहना भी उचित नहीं है कि - 'योगियों को आगम विकल्प से शून्य एक अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है, उससे वह समस्त पदार्थों का ज्ञान करता है। कहा भी है - योगियों को गुरुनिर्देश अर्थात् आगमोपदेश के बिना पदार्थमात्र का बोध हो जाता है'; क्योंकि इस मत में प्रत्यक्ष शब्द का अक्ष-इन्द्रियजन्य अर्थ नहीं बनेगा, कारण योगियों के इन्द्रियां नहीं हैं । अथवा, जब 'स्वहेतु, परहेतु, उभयहेतु या बिना हेतु के पदार्थ उत्पन्न नहीं हो सकते, सामान्य और विशेष में एकदेश और सर्वदेश रूप से वृत्ति मानने पर अनेक दूषण आते हैं' आदि हेतुओं से पदार्थमात्र का अभाव किया जाता है और ज्ञानमात्र निरालम्बन है तब योगियों को सर्वार्थज्ञान की संभावना ही नहीं की जा सकती। निर्विकल्प पदार्थ की कल्पना न तो युक्तिसंगत ही है और न प्रमाण सिद्ध ही। बौद्धों के मत में योगी की सत्ता भी स्वयं सिद्ध नहीं है, निर्वाणदशा में तो सर्वशून्यता तक स्वीकार की गई है। कहा भी है - 'निर्वाण दो प्रकार का है - सोपधिशेष और निरुपधिशेष । सोपधिशेष निर्वाण में ज्ञाता की सत्ता रहती है। परन्तु जिस प्रकार से वे बाह्य पदार्थों का अभाव करते हैं उन्हीं युक्तियों से अन्तरङ्ग पदार्थ आत्मा का भी अभाव हो जायगा।

    नैयायिक का यह कहना भी उचित नहीं है कि 'आत्मा इन्द्रियादि से रहित होकर भी योगज धर्म के प्रसाद से सर्वज्ञ हो सकता है' क्योंकि निष्क्रिय और नित्य योगी में जिस प्रकार समस्त क्रियाएँ नहीं होती उसी तरह कोई भी अनुग्रह या विकार भी नहीं हो सकता, वह तो कूटस्थ अपरिणामी नित्य है ।

    11. बौद्धों का प्रत्यक्ष का 'कल्पनापोढ' लक्षण भी नहीं बनता; क्योंकि कल्पनापोढ अर्थात् निर्विकल्पक प्रत्यक्ष यदि सर्वथा कल्पनापोढ है, तो 'प्रमाण ज्ञान है, प्रत्यक्ष कल्पनापोढ है' इत्यादि कल्पनाएं भी उसमें नहीं की जा सकेंगी अर्थात् उसके अस्तित्व आदि की भी कल्पना नहीं की जा सकेगी, उसका 'अस्ति' इस प्रकार से भी सद्भाव-सिद्ध नहीं होगा। यदि उसमें 'अस्ति' 'कल्पनापोढ' इत्यादि कल्पनाओं का सद्भाव माना जाता है तो वह सर्वथा कल्पनापोढ नहीं कहलायगा। यदि कथञ्चित् कल्पनापोढ माना जाता है तब भी स्व-वचन-व्याघात निश्चित है।

    बौद्ध प्रश्न – निर्विकल्पक को हम सर्वथा कल्पनापोढ नहीं कहते । कल्पनापोड यह विशेषण परमत के निराकरण के लिए है अर्थात् परमत में नामजाति आदि भेदों के उपचार को कल्पना कहा है उस कल्पना से रहित प्रत्यक्ष होता है न कि स्वरूपभूत विकल्प से भी रहित । कहा भी है - "पाँच विज्ञानधातु सवितर्क और सविचार हैं, वे निरूपण और अनुस्मरण रूप विकल्पों से रहित हैं।"

    जैन उत्तर – विषय के प्रथम ज्ञान को वितर्क कहते हैं। उसी का बार-बार चिन्तन विचार कहलाता है। उसी में नाम, जाति आदि की दृष्टि से शब्दयोजना को निरूपण कहते हैं। पूर्वानुभव के अनुसार स्मरण को अनुस्मरण कहते हैं। ये सभी धर्म क्षणिक, निरन्वय, विनाशी, इन्द्रियविषय और ज्ञानों में नहीं बन सकते क्योंकि दोनों की एक साथ उत्पत्ति होती है और क्षणिक हैं। गाय के एक साथ उत्पन्न होनेवाले दोनों सीगों की तरह इनमें परस्पर कार्य-कारण-भावमूलक, ग्राह्य-ग्राहक-भाव भी नहीं बन सकता। यदि पदार्थ और ज्ञान को क्रमवर्ती मानते हैं तो ज्ञानकाल में पदार्थ का तथा पदार्थकाल में ज्ञान का अभाव होने से विषय-विषयिभाव नहीं बन सकता। मिथ्या सन्तान की अपेक्षा भी इनमें उक्त धर्मों का समावेश करना उचित नहीं है । अतः समस्त विकल्पों की असम्भवता होने से 'यह, निर्विकल्पक है, यह नहीं है' आदि कोई भी विकल्प नहीं हो सकेगा। इस तरह समस्त विकल्पातीत ज्ञान का अभाव ही प्राप्त होता है । ज्ञान में अनुस्मरण आदि मानने पर तो उस ज्ञान को या ज्ञानाधार आत्मा को अनेक क्षणस्थायी मानना होगा, क्योंकि स्मरण स्वयमनुभूत वस्तु का कालान्तरमें होता है, अन्य के द्वारा अनुभूत का अन्य को नहीं।

    बौद्धों ने - पांच इन्द्रिय और मानस ज्ञान में एकक्षण पूर्व के ज्ञान को मन कहा है। ऐसे मन से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान को मानस-प्रत्यक्ष कहना युक्त नहीं हैं; क्योंकि जब मन अतीत होने से असत् हो गया तब वह ज्ञान का कारण कैसे हो सकता है ? यदि पूर्व के नाश और उत्तर के उत्पाद को एक साथ मानकर कार्यकारण भाव माना जाता है; तो भिन्न सन्तानवर्ती पूर्वोत्तर क्षणों में भी कार्य-कारणभाव मानना चाहिए। यदि एक सन्तानवर्ती क्षणों में किसी शक्ति या योग्यता का अनुगम माना जाता है तो क्षणिकत्व की प्रतिज्ञा नष्ट होती है।

    12. बौद्धों ने ज्ञान को अपूर्वार्थग्राही माना है । उनका यह मत भी युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि सभी ज्ञान प्रमाण हो सकते हैं। जैसे दीपक प्रथमक्षण में अन्धकारमग्न पदार्थों को प्रकाशित करता है और उत्तरकाल में भी वह प्रकाशक बना रहता है कभी भी अप्रकाशक नहीं होता उसी तरह ज्ञान भी प्रतिसमय प्रमाण रहता है चाहे वह गृहीत को जाने या अगृहीत को। यदि प्रतिक्षण परिवर्तन के आधार से प्रदीप में प्रतिक्षण नूतन प्रकाशकत्व माना जाता है और इसीतरह ज्ञान को भी प्रतिक्षण अपूर्व का प्रकाशक बनाया जाता है तो 'स्मृति इच्छा और द्वेष आदि की तरह पूर्वपूर्व पदार्थों का जाननेवाला ज्ञान प्रमाण नहीं है' यह बौद्ध ग्रन्थ का वाक्य खंडित हो जाता है; क्योंकि प्रतिक्षण परिवर्तन के अनुसार कोई भी ज्ञान गृहीतग्राही हो ही नहीं सकता।

    13-14. ज्ञानद्वैतवादी बौद्धों के मत से ज्ञान विषयाकार भी होता है और स्वांकार भी। ये उभयाभास ज्ञान के स्वसंवेदन को प्रमाण का फल मानते हैं। उनका स्व-संवेदन को फल मानना उचित नहीं है क्योंकि फल चूंकि कार्य है अतः उसे भिन्न होना ही चाहिए जैसे कि छेदन क्रिया छेदनेवाले और छिदे जानेवाले से भिन्न होती है। यह समाधान भी उचित नहीं है कि 'अधिगमरूप फल में ही व्यापाररूप प्रमाणता का उपचार करके एक ही अधिगम को प्रमाण और फल कह देते हैं'; क्योंकि उपचार तब होता है जब मुख्य वस्तु स्वतन्त्र-भाव से प्रसिद्ध है। जैसे सिंह अपने शूरत्व-क्रूरत्व आदि गुणों से प्रसिद्ध है, तभी उसका सादृश्य से बालक में उपचार किया जाता है, पर यहां जब मुख्य प्रमाण ही प्रसिद्ध नहीं है तब फल में उसके उपचार की कल्पना ही नहीं हो सकती।

    15. एक ही ज्ञान में ग्राहकाकार विषयाकार और संवेदनाकार इन तीन आकारों को मानकर प्रमाण-फलव्यवस्था बनाना उचित नहीं है; क्योंकि इस कल्पना में एकान्तवाद का निराकरण होकर अनेकान्तवाद की स्थापना हो जाती है । एक वस्तु अनेकधर्मवाली होती है यह तो जैनेन्द्र का अनेकान्त सिद्धान्त है। यदि एक ज्ञान में अनेकाकारता हो सकती है तो जगत् के प्रत्येक पदार्थ को अनेकधर्मात्मक मानने में क्या बाधा है ? यदि अनेकान्तात्मक द्रव्यसिद्धि के भय से केवल आकार ही आकार मानते हैं तो यह प्रश्न होता है कि वे आकार किसके हैं ?' निराश्रय आकार तो रह नहीं सकते। अतः उनका अभाव ही हो जायगा। वे आकार यदि युगपत् उत्पन्न होते हैं तो उनमें कार्य-कारणभाव नहीं' बन सकेगा। क्षणिक-आकारों की क्रमिक उत्पत्ति हो ही नहीं सकती। यदि हो; तो 'अधिगम भिन्न पदार्थ नहीं है अर्थात् आकाररूप ही है' यह सिद्धान्त खण्डित हो जाता है क्योंकि क्रमिक उत्पत्ति में अधिगम की भी किसी क्षण में स्वतन्त्र उत्पत्ति माननी पड़ेगी। यदि बाह्य-पदार्थों की सत्ता नहीं है और केवल ज्ञानमात्र ही सत् है; प्रमाण और प्रमाणाभास की व्यवस्था नहीं बन सकेगी क्योंकि अन्तरंग आकार में तो कोई भेद नहीं होता। जो 'असत्' को 'सत्' जाने वह प्रमाणाभास और जो 'असत्' ही है यह जाने वह प्रमाण - इस प्रकार की प्रमाण-प्रमाणाभास व्यवस्था मानने पर स्वलक्षण और सामान्यलक्षण इन दो प्रमेयों से प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों का नियम करना असङ्गत हो जायगा; क्योंकि यह नियम प्रमेय की सत्ता स्वीकार करके किया गया है। 'प्रत्यक्ष स्वलक्षण को विषय करता है, असाधारण वस्तु स्वलक्षण है, वह विकल्पातीत है, इसी का 'यह वह' इत्यादिरूप से व्यवहार में निर्देश होता है, सामान्य अनुमान का विषय होता है' आदि व्याख्याएँ सर्वाभाववाद में नहीं बन सकती। सर्वाभाववाद में किसी भी भेद की संभावना ही नहीं की जा सकती। सम्बन्धियों के भेद से अभाव में भेद कहना तो तब उचित है जब सम्बन्धियों की सत्ता सिद्ध हो। संवेदनाद्वैतवादी का यह कथन भी उचित नहीं है कि - 'सभी ज्ञान निरालम्बन होने से अयथार्य है, निर्विकल्पक स्वज्ञान ही प्रमाण है। शास्त्रों में जो प्रमाण प्रमेय आदि की प्रक्रिया है उसके द्वारा अविद्या का ही विस्तार किया गया है। विद्या तो आगमविकल्प से परे है, वह स्वयं प्रकाशमान है"; क्योंकि संवेदनाद्वैत की सिद्धि का कोई उपाय नहीं है । कहा भी है "जो संवेदनाद्वैत प्रत्यक्षबुद्धि का विषय नहीं है, जिसका अनुमान अर्थरूप लिंग के द्वारा हो नहीं सकता, और जिसके स्वरूप की सिद्धि वचनों द्वारा भी नहीं हो सकती उस सर्वथा असिद्ध संवेदन को माननेवालों की क्या गति होगी ?" अतः संवेदनाद्वैतवाद त्याज्य है।

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    + परोक्ष प्रमाण के संबंध में विशेष कथन -
    मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ॥13॥
    अन्वयार्थ : मति, स्‍मृति, संज्ञा, चिन्‍ता और अभिनिबोध ये पर्यायवाची नाम हैं ॥१३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    आदि में जो ज्ञान कहा है उसके ये पर्यायवाची शब्‍द जानने चाहिए, क्‍योंकि ये मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम-रूप अन्‍तरंग निमित्त से उत्‍पन्‍न हुए उपयोग को विषय करते हैं और इनकी श्रुतादिक में प्रवृत्ति नहीं होती । 'मननं मति:, स्‍मरण स्‍मृति:, संज्ञानं संज्ञा, चिन्‍तनं चिन्‍ता और अभिनिबोधनमभिनिबोध:' यह इनकी व्‍युत्‍पत्ति है । यथा सम्‍भव इनका दूसरा विग्रह जानना चाहिए ।

    यद्यपि इन शब्‍दोंकी प्रकृति अलग-अलग है अर्थात् यद्यपि ये शब्‍द अलग-अलग धातुसे बने हैं तो भी रूढि़ से पर्यायवाची हैं । जैसे इन्‍द्र, शक्र और पुरन्‍दर । इनमें यद्यपि इन्‍दन आदि क्रियाकी अपेक्षा भेद है तो भी ये सब एक शचीपति की वाचक संज्ञाएँ हैं । अब यदि समभिरूढ नय की अपेक्षा इन शब्‍दों का अलग-अलग अर्थ लिया जाता है तो वह क्रम मति आदि शब्‍दों में भी पाया जाता है । किन्‍तु ये मति आदि मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम-रूप निमित्त से उत्‍पन्‍न हुए उपयोग को उल्‍लंघन नहीं करते हैं यह अर्थ यहाँ पर विवक्षित है । प्रकृत में 'इति' शब्‍द प्रकारवाची है जिससे यह अर्थ होता है कि इस प्रकार ये मति आदि मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्‍द हैं । अथवा प्रकृत में मति शब्‍द अभिधेयवाची है जिसके अनुसार यह अर्थ होता है कि मति, स्‍मृति, संज्ञा, चिन्‍ता और अभिनिबोध इनके द्वारा जो अर्थ कहा जाता है वह एक ही है ।

    मतिज्ञानके स्‍वरूप लाभमें क्‍या निमित्त है अब यह बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1 इति शब्द के अनेक अर्थ होते हैं - यथा 'हन्तीति पलायते-मारा इसलिए भागा' यहाँ इति शब्द का अर्थ हेतु है । 'इति स्म उपाध्यायः कथयति--उपाध्याय इस प्रकार कहता है' यहाँ 'इस प्रकार' अर्थ है। 'गौः अश्वः इति-गाय घोड़ा आदि प्रकार' यहाँ इतिशब्द प्रकारवाची है। 'प्रथममाह्निकमिति, यहाँ इति शब्द का अर्थ समाप्ति है । इसी तरह व्यवस्था, अर्थविपर्यास, शब्दप्रादुर्भाव आदि अनेक अर्थ हैं। यहाँ विवक्षा से आदि और प्रकार ये दो अर्थ लेने चाहिए । मति स्मृति आदि में आदि शब्द से प्रतिभा, बुद्धि, उपलब्धि आदि का ग्रहण होता है।

    2. यद्यपि मति आदि शब्दों में अर्थभेद है फिर भी रूढ़िवश इन शब्दों में एकार्थता है। जैसे कि 'गच्छति गौः' इस प्रकार व्युत्पत्त्यर्थ मान लेने पर भी गौ शब्द सभी चलनेवालों में प्रयुक्त न होकर एक पशु-विशेष में रूढि के कारण प्रयुक्त होता है । ये सभी मति आदि मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से ही पदार्थ-बोध कराते हैं अतः इनमें भेद नहीं है ।

    3-5. प्रश्न – जैसे गौ, अश्व आदि में शब्द-भेद से अर्थभेद है उसी तरह मत्यादि में भी होना चाहिए।

    उत्तर – 'शब्द भेद से अर्थभेद'का नियम संशय उत्पन्न करनेवाला है उससे किसी पक्षविशेष का निर्णय नहीं हो सकता, क्योंकि इन्द्र, शक्र और पुरन्दर आदि में शब्दभेद होने पर भी अर्थभेद नहीं देखा जाता । तीनों शब्द एक इन्द्र अर्थ के वाचक हैं । यदि शब्दभेद से अर्थभेद है तो शब्द-अभेद से अर्थ-अभेद भी होना चाहिए। फलतः वचन पृथिवी आदि ग्यारह अर्थों में अभेद हो जाना चाहिए, क्योंकि ये सभी एक 'गो' शब्द के वाच्य है। अथवा, जैननय के अनुसार इन शब्दों में भेद भी है और अभेद भी। द्रव्यदृष्टि से जैसे इन्द्रादि शब्द इन्द्र द्रव्य के वाचक होने से अभिन्न हैं उसी तरह एक मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न सामान्य मतिज्ञान की अपेक्षा से अथवा एक आत्मद्रव्य की दृष्टि से मत्यादि अभिन्न हैं और तत् तत् पर्याय की दृष्टि से भिन्न हैं। इन्दनक्रिया, शासनक्रिया आदि से विशिष्ट इन्द्रादि पर्यायें जैसे भिन्न हैं उसी तरह मनन, स्मरण, संज्ञान, चिन्तन आदि पर्यायें भी भिन्न है। यह पर्यायार्थिक नय की दृष्टि है।

    6-7. प्रश्न – जैसे मनुष्य, मानव, मनुज आदि पर्याय शब्द मनुष्य के लक्षण नहीं हैं उसी तरह मति आदि पर्याय शब्द भी मतिज्ञान के लक्षण नहीं हो सकते ।

    उत्तर – जो पर्याय पर्यायवाले से अभिन्न होती है वह लक्षण बनती है जैसे उष्ण-पर्याय अग्नि से अभिन्न होने के कारण अग्नि का लक्षण बनती ही है। जैसे मनुष्य, मानव, मनुज आदि शब्द घटादि द्रव्यों से व्यावृत्त होकर एक सामान्य मनुष्य रूप अर्थ के लक्षक होने से लक्षण हैं, अन्यथा यदि ये मनुष्य सामान्य का प्रतिपादन न करें तो मनुष्य का अभाव ही हो जायगा उसी प्रकार मति आदि शब्द अभिनिबोध-सामान्यात्मक मतिज्ञान के लक्षक होने से मतिज्ञान के लक्षण होते हैं । जैसे 'अग्नि कौन ?' यह प्रश्न होने पर बुद्धि तुरंत दौड़ती है कि 'जो उष्ण', और 'कौन उष्ण' कहने पर 'जो अग्नि' इस प्रकार गत्वा-प्रत्यागत न्याय (समान प्रश्नोत्तर न्याय) से भी पर्याय शब्द लक्षण बन सकते हैं । मति आदि में भी यही न्याय समझना चाहिए, यथा 'मतिज्ञान कौन ?' 'जो स्मृति आदि', 'स्मृति आदि क्या हैं? जो 'मतिज्ञान' । इस प्रकार मत्यादि पर्याय शब्दों के लक्षण बनने में कोई बाधा नहीं है । सभी पर्यायें लक्षण नहीं होती किन्तु आत्मभूत अन्तरंग पर्याय ही लक्षण होती है। अग्नि का लक्षण उष्णता तो हो सकती है धूम आदि नहीं। उसी तरह मति आदि ज्ञान पर्यायें लक्षण हो सकती हैं न कि मति आदि पुद्गल शब्द आदि बाह्य पदार्थ ।

    8-10. अथवा, इति शब्द अभिधेयवाची है । अर्थात् मति, स्मृति, संज्ञा आदि के द्वारा जो अर्थ कहा जाता है वह मतिज्ञान है । मत्यादि के द्वारा श्रुतज्ञान आदि का तो कथन होता ही नहीं है क्योंकि उनके भिन्न-भिन्न लक्षण आगे कहे जायेंगे।

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    + मतिज्ञान किससे उत्पन्न होता है -
    तदिन्द्रयानिन्द्रिय निमित्तम् ॥14॥
    अन्वयार्थ : वह(मतिज्ञान) इन्द्रिय और मन के निमित्त से होता है ॥१४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    इन्‍द्र शब्‍द का व्‍युत्‍पत्ति लभ्‍य अर्थ है 'इन्‍दतीति इन्‍द्र:' जो आज्ञा और ऐश्‍वर्यवाला है वह इन्‍द्र। इन्‍द्र शब्‍द का अर्थ आत्‍मा है। वह यद्यपि ज्ञस्‍वभाव है तो भी मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के रहते हुए स्‍वयं पदार्थों को जानने में असमर्थ है, अत: उसको पदार्थ के जानने में जो लिंग(निमित्त) होता है वह इन्‍द्र का लिंग इन्द्रिय कही जाती है। अथवा जो लीन अर्थात् गूढ़ पदार्थ का ज्ञान कराता है उसे लिंग कहते हैं। इसके अनुसार इन्द्रिय शब्‍द का यह अर्थ हुआ कि जो सूक्ष्‍म आत्‍मा के अस्तित्‍व का ज्ञान कराने में लिंग अर्थात् कारण है उसे इन्द्रिय कहते हैं। जैसे लोक में धूम अग्नि का ज्ञान कराने में कारण होता है। इसी प्रकार ये स्‍पर्शनादिक करण कर्त्‍ता आत्‍मा के अभाव में नहीं हो सकते हैं, अत: उनसे ज्ञाता का अस्तित्‍व जाना जाता है। अथवा इन्‍द्र शब्‍द नामकर्म का वाची है। अत: यह अर्थ हुआ कि उससे रची गयी इन्द्रियाँ हैं। वे इन्द्रियाँ स्‍पर्शनादिक हैं जिनका कथान आगे करेंगे। अनिन्द्रिय, मन और अन्‍त:करण ये एकार्थवाची नाम हैं।

    शंका – अनिन्द्रिय शब्‍द इन्द्रिय का निषेधपरक है अत: इन्‍द्र के लिंग मन में अनिन्द्रिय शब्‍द का व्‍यापार कैसे हो सकता है ?

    समाधान – यहाँ नञ् का प्रयोग 'ईषद्' अर्थ में किया है ईषत् इन्द्रिय अनिन्द्रिय। यथा अनुदरा कन्‍या। इस प्रयोग में जो अनुदरा शब्‍द है उससे उदर का अभाव रूप अर्थ न लेकर ईषद् अर्थ लिया गया है उसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए।

    शंका – अनिन्द्रिय में नञ् का निषेधरूप अर्थ न लेकर 'ईषद्' अर्थ कैसे लिया गया है ?

    समाधान – ये इन्द्रियाँ नियत देश में स्थित पदार्थों को विषय करती है और कालान्‍तर में अवस्थित रहती है। किन्‍तु मन इन्‍द्र का लिंग होता हुआ भी प्रतिनियत देश में स्थित पदार्थ को विषय नहीं करता और कालान्‍तर में अवस्थित नहीं रहता।


    यह अन्‍त:करण कहा जाता है। इसे गुण और दोषों के विचार और स्‍मरण करने आदि कार्यों में इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं लेनी पड़ती तथा चक्षु आदि इन्द्रियों के समान इसकी बाहर उपलब्धि भी नहीं होती इसलिए यह अन्‍तर्गत करण होनेसे अन्‍त:करण कहलाता है। इसलिए अनिन्द्रिय में नञ् का निषेधरूप अर्थ न लेकर ईषद् अर्थ लिया गया है।


    शंका – सूत्र में 'तत्' पद किसलिए दिया है ?

    समाधान – सूत्र में 'तत्' पद मतिज्ञान का निर्देश करने के लिए दिया है।

    शंका – मतिज्ञान निर्देश का अनन्‍तर किया ही है और ऐसा नियम है कि 'विधान या निषेध अनन्‍तरवर्ती पदार्थका ही होता है' अत: यदि सूत्र में 'तत्' पद न दिया जाय तो भी मतिज्ञान का ग्रहण प्राप्‍त होता है ?

    समाधान – इस सूत्रके लिए और अगले सूत्रके लिए 'तत्' पदका निर्देश किया है। मति आदि पर्यायवाची शब्‍दोंके द्वारा जो ज्ञान कहा गया है वह इन्द्रिय और अनिन्द्रियके निमित्तसे होता है और उसीके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद हैं, इसलिए पूर्वोक्त दोष नहीं प्राप्‍त होता। यदि 'तत्' पद न दिया जायेगा तो मति आदि पर्यायवाची नाम प्रथम ज्ञानके हो जायेंगे और इन्द्रिय-अनिन्द्रियके निमित्त होनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहलायेगा और इसीके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद प्राप्‍त होंगे इस प्रकार अनिष्‍ट अर्थके सम्‍बन्‍धकी प्राप्ति होगी। अत: इस अनिष्‍ट अर्थके सम्‍बन्‍धके निराकरण करनेके लिए सूत्रमें 'तत्' पद का निर्देश करना आवश्‍यक है।


    इस प्रकार मतिज्ञान की उत्‍पत्ति के निमित्त जान लिये, किन्‍तु अभी उसके भेदों का निर्णय नहीं किया अत: उसके भेदों का ज्ञान कराने के लिए अगला सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1. इन्द्र अर्थात् आत्मा। कर्ममलीमस आत्मा सावरण होने से स्वयं पदार्थों के ग्रहण में असमर्थ होता है। उस आत्मा को अर्थोपलब्धि में लिङ्ग अर्थात् द्वार या कारण इन्द्रियाँ होती हैं।

    2-3. अनिन्द्रिय अर्थात् मन, अन्तःकरण । जैसे अब्राह्मण कहने से ब्राह्मणत्व-रहित किसी अन्य पुरुष का ज्ञान होता है वैसे अनिन्द्रिय कहने से इन्द्रिय-रहित किसी अन्य पदार्थ का बोध नहीं करना चाहिए। क्योंकि अनिन्द्रिय में जो 'न' है वह 'ईषत् प्रतिषेध'को कहता है। जैसे 'अनुदरा कन्या' कहने से 'बिना पेट की लड़की' न समझकर गर्भ धारण आदि के अयोग्य छोटे पेटवाली लड़की का ज्ञान होता है उसी तरह अनिन्द्रिय से इन्द्रियत्व का अभाव नहीं होता किन्तु मन, चक्षुरादि की तरह प्रतिनियत देशवर्ती विषयों को नहीं जानकर अनियत विषयवाला है अतः वह 'अनिन्द्रिय' पद का वाच्य होता है । मन, गुण दोष विचार आदि अपनी प्रवृत्ति में इन्द्रियादि की अपेक्षा नहीं रखता अतः वह अन्तरंग करण होने से अन्तःकरण कहा जाता है।

    4. यद्यपि मतिज्ञान का प्रकरण होने से मतिज्ञान का सम्बन्ध हो ही जाता है अतः इस सूत्र में 'तत्' शब्द के ग्रहण की आवश्यकता न थी; फिर भी आगे के सूत्र में कहे जानेवाले अवग्रहादि भेद मतिज्ञान के हैं यह स्पष्ट बोध कराने के लिए यहाँ 'तत्' शब्द का ग्रहण किया है।

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    + मतिज्ञान के भेद -
    अवग्रहेहावाय धारणाः ॥15॥
    अन्वयार्थ : अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये मतिज्ञान के चार भेद हैं ॥१५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    विषय और विषयी के सम्‍बन्‍धके बाद होने वाले प्रथम ग्रहण को अवग्रह कहते हैं । विषय और विषयी का सन्निपात होने पर दर्शन होता है उसके पश्‍चात् जो पदार्थ का ग्रहण होता है वह अवग्रह कहलाता है । जैसे चक्षु इन्द्रिय के द्वारा 'यह शुक्‍ल रूप है' ऐसा ग्रहण करना अवग्रह है ।

    अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों में उसके विशेष के जानने की इच्‍छा ईहा कहलाती है। जैसे, जो शुक्‍ल रूप देखा है 'वह क्‍या वकपंक्ति है' इस प्रकार विशेष जानने की इच्‍छा या 'वह क्‍या पताका है' इस प्रकार विशेष जानने की इच्‍छा ईहा है ।

    विशेष के निर्णय द्वारा जो यथार्थ ज्ञान होता है उसे अवाय कहते हैं । जैसे उत्‍पतन, निपतन और पक्षविक्षेप आदि के द्वारा 'यह वकपंक्ति ही ध्‍वजा नहीं है' ऐसा निश्‍चय होना अवाय है ।

    जानी हुई वस्‍तु का जिस कारण कालान्‍तर में विस्‍मरण नहीं होता उसे धारणा कहते हैं । जैसे यह वही वकपंक्ति है जिसे प्रात:काल मैंने देखा था ऐसा जानना धारणा है । सूत्र में इन अवग्रहादिक का उपन्‍यास-क्रम इनके उत्‍पत्ति-क्रम की अपेक्षा किया है । तात्‍पर्य यह है कि जिस क्रम से ये ज्ञान उत्‍पन्‍न होते हैं उसी क्रम से इनका सूत्र में निर्देश किया है ।

    इस प्रकार अवग्रह आदि का कथन किया । अब इनके भेदों के दिखलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. विषय और विषयी-इन्द्रियों का सन्निपात अर्थात् योग्य देशस्थिति होने पर दर्शन होता है । इसके बाद जो आद्य अर्थग्रहण है वह अवग्रह कहलाता है ।

    2. अवग्रह के द्वारा 'यह पुरुष है' ऐसा आद्यग्रहण होने पर पुनः उसकी भाषा, उमर, रूपादि के द्वारा विशेष जानने की ओर झुकना ईहा है।

    3. भाषा आदि विशेषों के द्वारा उसकी उस विशेषता का यथार्थ ज्ञान कर लेना अवाय है जैसे यह दक्षिणी है, युवा है या गौर है आदि।

    4. निश्चित विशेष की कालान्तर में स्मृति का कारण धारणा होती है।

    5. अवग्रह आदि क्रमशः उत्पन्न होते हैं, अतः उनका सूत्र में क्रमशः ग्रहण किया है।

    6-10. प्रश्न – जैसे चक्षु के रहते हुए संशय होता है अतः उसे निर्णय नहीं कह सकते उसी तरह अवग्रह के होते हुए ईहा देखी जाती है। ईहा निर्णय रूप तो है नहीं क्योंकि निर्णय के लिए ईहा है न कि स्वयं निर्णयरूप, और जो निर्णयरूप नहीं है वह संशय की ही कोटि का होता है अतः अवग्रह और ईहा को प्रमाण नहीं कह सकते । जैसे ऊर्ध्वता का आलोचन होने पर भी स्थाणु और पुरुष कोटिक संशय हो जाता है उसी तरह अवग्रह के द्वारा 'यह पुरुष है' इस ग्रहण में भी आगे के विशेषों को लेकर संशय उत्पन्न होता है। अतः अवग्रह में ईहा की अपेक्षा होने से करीब-करीब संशयरूपता ही है।

    उत्तर – अवग्रह और संशय के लक्षण जल और अग्नि की तरह अत्यन्त भिन्न हैं, अतः दोनों जुदे-जुदे हैं। संशय स्थाणु पुरुष आदि अनेक पदार्थों में दोलित रहता है, अनिश्यचात्मक होता है और स्थाणु पुरुष आदि में से किसी का निराकरण नहीं करता जब कि अवग्रह एक ही अर्थ को विषय करता है, निश्चयात्मक है और स्वविषय से भिन्न पदार्थों का निराकरण करता है। सारांश यह कि संशय निर्णय का विरोधी होता है अवग्रह नहीं। अवग्रह में भाषा, वय, रूप आदि सम्बन्धी निश्चय न होने के कारण उसे संशयतुल्य कहना उचित नहीं है; क्योंकि अवग्रह जितने विशेष को जानता है उतने का निर्णय ही करता है ।

    11-13. निर्णयात्मक न होने से ईहा को संशय कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि ईहा में पदार्थ विशेष के निर्णय की ओर झुकाव होता है जबकि संशय में किसी एक कोटि की ओर कोई झुकाव नहीं होता। अवग्रह के द्वारा 'पुरुष' ऐसा निश्चय हो जाने पर 'यह दक्षिण-देशीय है या उत्तर-देशीय' यह संशय होता है। इस संशय का उच्छेद करने के लिए 'दक्षिणी होना चाहिए' इस प्रकार के एककोटिक निर्णय के लिए ईहा होती है । अतः इसे संशय नहीं कह सकते। इसीलिए सूत्र में संशय का ग्रहण नहीं किया क्योंकि संशय में किसी अर्थविशेष का ग्रहण नहीं है जब कि ईहा में है।

    प्रश्न – अवाय नाम ठीक है या अपाय ?

    उत्तर – दोनों ठीक है । जब 'दक्षिणी ही है' यह अवाय निश्चय करता है तब 'उत्तरी नहीं है' यह अपाय-त्याग अर्थात् ही हो जाता है। इसी तरह 'उत्तरी नहीं है' इस प्रकार अपाय-त्याग होने पर 'दक्षिणी है' यह अवाय-निश्चय हो ही जाता है। अतः एक से दूसरे का ग्रहण हो जाने से दोनों ठीक है।

    प्रश्न – दर्शन और अवग्रह में क्या अन्तर है ?

    उत्तर – विषय और विषयी के सन्निपात के बाद चक्षुर्दर्शनावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम के अनुसार प्रथम समय में जो 'यह कुछ है' इस प्रकार का विशेषशून्य निराकार प्रतिभास होता है वह दर्शन कहलाता है। इसके बाद दो, दूसरे, तीसरे आदि समयों में 'यह रूप है' 'यह पुरुष है' आदि रूप से विशेषांश का निश्चय अवग्रह कहलाता है। अवग्रह में चक्षुरिन्द्रिय, ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम की अपेक्षा होती है। जातमात्र बालक के भी इसी क्रम से दर्शन और अवग्रह होते हैं। यदि बालक के प्रथम-समय में होनेवाले सामान्यालोचन को अवग्रहजातीय ज्ञान कहा जाता है तो वह कौन ज्ञान होगा? बालक के प्रथम समय भावी आलोचन को संशय और विपर्यय तो नहीं कह सकते; क्योंकि ये दोनों सम्यग्ज्ञानपूर्वक होते हैं। जिसने पहिले स्थाणु और पुरुष का सम्यग्ज्ञान किया है उसे ही तद्विषयक संशय और विपर्यय हो सकता है। चूंकि प्रश्न प्राथमिक ज्ञान का है अतः उसे संशय और विपर्यय नहीं कहा जा सकता। अनध्यवसाय भी नहीं कह सकते; क्योंकि जन्मान्ध और जन्मबधिर की तरह रूपमात्र और शब्दमात्र का स्पष्ट बोध हो ही रहा है। सम्यग्ज्ञान भी नहीं कह सकते; क्योंकि किसी अर्थविशेष के आकार का निश्चय नहीं हुआ है । अवग्रह और दर्शन के उत्पादक कारण-ज्ञानावरण का क्षयोपशम और दर्शनावरण का क्षयोपशम चूंकि जुदे-जुदे हैं, अतः दोनों घट-पट की तरह भिन्न हैं। अवग्रह से पहिले ज्ञानावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ असंख्यात लोक प्रमाण हैं जो इस प्रकार के प्रत्येक इन्द्रियजन्य अवग्रहादि ज्ञानों का आवरण करती हैं। और इनके क्षयोपशमानुसार उक्त ज्ञान प्रकट होते हैं।

    प्रश्न – मतिज्ञान तो इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होता है पर ईहा आदि चूंकि अवग्रह आदि से उत्पन्न हुए हैं अतः इन्हें मतिज्ञान नहीं कहना चाहिए ?

    उत्तर – ईहा आदि मन से उत्पन्न होने के कारण मतिज्ञान हैं। यद्यपि श्रुतज्ञान भी अनिन्द्रियजन्य होता है पर ईहा आदि में परम्परया इन्द्रियजनितता भी है क्योंकि इन्द्रियज अवग्रह के बाद ही ईहादि ज्ञान परम्परा चलती है और तब भी इन्द्रिय व्यापार रुकता नहीं है श्रुतकेवल अनिन्द्रिय जन्य है। इसीलिए ईहा आदि में चक्षुरादि इन्द्रियजन्यता का भी व्यवहार हो जाता है।

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    + अवग्रह आदि ज्ञानों के और भेद -
    बहुबहुविधक्षिप्रानिःसृतानुक्तध्रुवाणां सेतराणाम्‌ ॥16॥
    अन्वयार्थ : सेतर (प्रतिपक्षसहित) बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनि:सृत, अनुक्त और ध्रुव के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप मतिज्ञान होते हैं ॥१६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अवग्रह आदि क्रियाविशेषों का प्रकरण है उनकी अपेक्षा 'बह्वादीनां सेतराणां' इस प्रकार कर्मकारक का निर्देश किया है। 'बहु' शब्‍द संख्‍यावाची और वैपुल्‍यवाची दोनों प्रकार का है। इन दोनों का यहाँ ग्रहण किया है, क्‍योंकि उनमें कोई विशेषता नहीं है। संख्‍यावाची बहु शब्‍द यथा – एक, दो, बहुत। वैपुल्यवाची बहु शब्‍द यथा – बहुत भात, बहुत दाल। 'विध' शब्‍द प्रकारवाची है। सूत्र में 'क्षिप्र' शब्‍द का ग्रहण, जल्‍दी होने वाले ज्ञान के जताने के लिए किया है। जब पूरी वस्‍तु प्रकट न होकर कुछ प्रकट रहती है और कुछ अप्रकट तब वह अनि:सृत कही जाती है। यहाँ अनि:सृत अर्थ ईषद् नि:सृत है, अत: इसका ग्रहण करने के लिए सूत्र में 'अनि:सृत' पद दिया है। जो कही या बिना कही वस्‍तु अभिप्राय से जानी जाती है उसके ग्रहण करने के लिए 'अनुक्त' पद दिया है। जो यथार्थ ग्रहण निरन्‍तर होता है उसके जताने के लिए 'ध्रुव' पद दिया है। इनसे प्रतिपक्षभूत पदार्थों का संग्रह करने के लिए 'सेतर' पद दिया है।

    बहुत का अवग्रह, अल्‍प का अवग्रह, ब‍हुविध का अवग्रह, एकविध का अवग्रह, क्षिप्रावग्रह, अक्षिप्रावग्रह, अनि:सृत का अवग्रह, नि:सृत का अवग्रह, अनुक्त का अवग्रह, उक्त का अवग्रह, ध्रुव का अवग्रह और अध्रुव का अवग्रह‍ ये अवग्रह के बारह भेद हैं। इसी प्रकार ईहादिक में से प्रत्‍येक बारह-बारह भेद हैं। ये सब अलग-अलग पाँच इन्द्रिय और मन के द्वारा उत्‍पन्‍न कराने चाहिए। इनमें-से बहु अवग्रह आदि मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से प्रकर्ष से होते हैं। इतर नहीं। बहु आदि श्रेष्‍ठ हैं, अत: उनका प्रथम ग्रहण किया है।

    कुछ आचार्यों के मत से क्षिप्रानि:सृत के स्‍थान में 'क्षिप्रनि:सृत' ऐसा पाठ है। वे ऐसा व्‍याख्‍यान करते हैं कि श्रोत्र इन्द्रिय के द्वारा शब्‍द को ग्रहण करते समय वह मयूर का है अथवा कुरर का है ऐसा कोई जानता है। दूसरा स्‍वरूप के आश्रय से ही जानता है।


    शंका – ध्रुवावग्रह और धारणा में क्‍या अन्‍तर है ?

    समाधान – क्षयोपशम की प्राप्ति के समय विशुद्ध परिणामों की परम्‍परा के कारण प्राप्‍त हुए क्षयोपशम से प्रथम समय में जैसा अवग्रह होता है वैसा ही द्वितीयादिक समयों में भी होता है, न न्‍यून होता है और न अधिक। यह ध्रुवावग्रह है। किन्‍तु जब विशुद्ध परिणाम और संक्‍लेश परिणामों के मिश्रण से क्षयोपशम होकर उससे अवग्रह होता है तब वह कदाचित् बहुत का होता है, कदाचित् अल्‍प का होता है, कदाचित् बहुविध का होता है और कदाचित् एकविध का होता है। तात्‍पर्य यह कि उनमें न्‍यूनाधिक भाव होता रहता है, इसलिए वह अध्रुवावग्रह कहलाता है किन्‍तु धारणा तो गृहीत अर्थ के नहीं भूलने के कारणभूत ज्ञान को कहते हैं, अत: ध्रुवावग्रह और धारणा में बड़ा अन्‍तर है।

    यदि अवग्रह आदि बहु आदिक को जानते हैं तो बहु आदिक किसके विशेषण हैं। अब इसी बात का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1. बहु शब्द संख्यावाची भी है और परिमाणवाचक भी। जैसे एक दो बहुत आदि, बहुत दाल बहुत भात आदि ।

    2-8. प्रश्न – जब एक ज्ञान एक ही अर्थ को ग्रहण करता है तब बहु आदि विषयक अवग्रह नहीं हो सकता ?

    उत्तर – यदि एक ज्ञान एक ही अर्थ को विषय करता है तो उससे सदा एक ही प्रत्यय होगा। नगर, वन, सेना आदि बहुविषयक ज्ञान नहीं हो सकेंगे। नगर आदि संज्ञाएँ और व्यवहार समुदायविषयक है। अतः समुदायविषयक समस्त व्यवहारों का लोप ही हो जायगा। एकार्थग्राहि ज्ञानपक्ष में यदि पूर्वज्ञान के काल में ही उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति हो जाती है तो 'एक मन होने से एक अर्थविषयक ही ज्ञान होता है' इस सिद्धान्त का विरोध हो जायगा । जैसे एक ही मन अनेक ज्ञानों को उत्पन्न कर सकता है उसी तरह एक ज्ञान को अनेक अर्थों को विषय करनेवाला मानने में क्या आपत्ति है ? यदि अनेक ज्ञानों को एककालीन मानकर अनेकार्थों की उपलब्धि एक साथ की जाती है ; तो 'एक का ज्ञान एक ही अर्थ को जानता है' इस सिद्धान्त का खंडन हो जायगा। यदि पूर्व ज्ञान के निवृत्त होने पर उत्तर ज्ञान की उत्पत्ति मानी जाती है तो सदा एकार्थ विषयक ज्ञान की सत्ता रहने से 'यह इससे छोटा है, बड़ा है' इत्यादि आपेक्षिक , व्यवहारों का लोप हो जायगा। एकार्थवादिज्ञानवाद में मध्यमा और प्रदेशिनी अंगुलियों में होनेवाले ह्रस्व, दीर्घ आदि समस्त आपेक्षिक व्यवहारों का लोप हो जायगा क्योंकि कोई भी ज्ञान दो को नहीं जानेगा। इस पक्ष में उभयार्थग्राही संशयज्ञान नहीं हो सकेगा क्योंकि स्थाण विषयक ज्ञान पुरुष को नहीं जानेगा तथा न पुरुष विषयक ज्ञान स्थाणु को । इस वाद में किसी भी इष्ट अर्थ की सम्पूर्ण उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। जैसे कोई चित्रकार पूर्ण कलश का चित्र बना रहा है तो उसके प्रतिक्षणवर्ती ज्ञान पूर्वापर का अनुसन्धान तो कर ही नहीं सकेंगे, ऐसी दशा में पूर्णकलश का परिपूर्ण चित्र नहीं बन सकेगा। इस पक्ष में दो तीन आदि बहुसंख्या-विषयक प्रत्यय नहीं हो सकेंगे; क्योंकि कोई भी ज्ञान दो तीन आदि समूहों को जान ही नही सकेगा । सन्तान या संस्कार की कल्पना में दो प्रश्न होते हैं कि वे ज्ञानजातीय होंगे या अज्ञानजातीय ? अज्ञानजातीय से तो अपना कोई प्रयोजन सिद्ध होगा ही नहीं । ज्ञानजातीय होकर यदि इनने भी एक ही अर्थ को जाना तो समस्त दूषण ज्यों-के-त्यों बने रहेंगे। यदि अनेकार्थ को जानते हैं तो एकार्थवाली प्रतिज्ञा की हानि हो जायगी।

    9-15. विध शब्द प्रकारार्थक है, बहुविध अर्थात् बहुत प्रकारवाले पदार्थ । क्षिप्र अर्थात् शीघ्रता से । अनिःसृत का अर्थ है वस्तु के कुछ भागों का दिखना, पूरी वस्तु का न दिखना । अनुक्त का अर्थ है कहने के बिना ही अभिप्राय से जान लेना। ध्रुव अर्थात् यथार्थ ग्रहण । सेतर का अर्थ है इनसे उलटे पदार्थ, अर्थात् अल्प, अल्पविध, चिर, निःसृत उक्त और अध्रुव । 'इन सबके अवग्रहादि होते हैं। इस प्रकार का कर्म-निर्देश अवग्रह आदि ज्ञानों की अपेक्षा समझना चाहिये।

    16. बहु आदि का शब्दों से निर्देश इसलिए किया है कि इनके ज्ञान में ज्ञानावरण के क्षयोपशम की विशुद्धि अत्यधिक अपेक्षित होती है। इन बारह प्रकार के अर्थों के अवग्रहादि प्रत्येक इन्द्रिय और मन के द्वारा होते हैं। जैसे श्रोत्रेन्द्रियावरण और वीर्यान्तराय का प्रकृष्ट क्षयोपशम होने पर तदनुकूल अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय से उन-उन अङ्ग-उपाङ्गों के सद्भाव से कोई श्रोता एक साथ तत, वितत, घन, सुषिर आदि बहुत शब्दों को सुनता है। क्षयोपशमादि की न्यूनता में एक या अल्प शब्द को सुनता है। प्रकृष्ट क्षयोपशमादि से ततादि शब्दों के एक-दो-तीन संख्यात असंख्यात आदि प्रकारों को ग्रहण कर बहुविध शब्दों को जानता है । क्षयोपशमादि की न्यूनता में एक प्रकार के ही शब्दों को सुनता है। क्षयोपशम की विशुद्धि में क्षिप्र-शीघ्रता से शब्दों को सुनता है। क्षयोपशम की न्यूनता में अक्षिप्र-देरी से शब्द को सुनता है। क्षयोपशम की विशुद्धि में अनिःसृत-पूरे वाक्य का उच्चारण न होने पर भी उसका ज्ञान कर लेता है । निःसृत अर्थात् पूर्ण रूप से उच्चारित शब्द का ज्ञान कर लेना। क्षयोपशम की प्रकृष्टतामें एक भी शब्द का उच्चारण किए बिना अभिप्राय मात्र से अनुक्त शब्द को जान लेता है। अथवा वीणा आदि के तारों के सम्हालते समय ही यह जान लेना कि 'इसके द्वारा यह राग बजाया जायगा' अनुक्त ज्ञान है। उक्त अर्थात् कहे गये शब्द को जानना । ध्रुव-ग्रहण में जैसा प्रथम समय में ज्ञान हुआ था आगे भी वैसा ही ज्ञान होता रहता है न कम और न अधिक, परन्तु अध्रुवग्रहण में क्षयोपशम की विशुद्धि और अविशुद्धि के अनुसार कम और अधिक रूप से ज्ञान होता है, कभी बहुत शब्दों को जानना हो तो कभी एक को, कभी क्षिप्र तो कभी देरी से, कभी नि:सृत तो कभी अनिःसृत आदि ।

    प्रश्न – बहु और बहुविध में क्या अन्तर है ?

    उत्तर – जैसे कोई बहुत शास्त्रों का सामान्यरूप से व्याख्यान करता है और दूसरा उन्हीं शास्त्रों की अनेकविध व्याख्याएँ करता है, उसी तरह ततादि शब्दों का सामान्य ग्रहण बहुग्रहण है तथा उन्हीं का अनेकगुणी विशेषताओं से ज्ञान करना बहुविध ग्रहण है ।

    प्रश्न – उक्त और निःसृत में क्या विशेषता है ?

    उत्तर – परोपदेश पूर्वक शब्दों का ग्रहण उक्त है और अपने-आप ज्ञान करना नि.सृत है। इसी प्रकार चक्षु इन्द्रिय के द्वारा भी बह्वादि बारह प्रकार के अर्थों का ग्रहण होता है। पंचरंगी साड़ी के एक छोर के रंगों को देखकर पूरी साड़ी के रंगों का ज्ञान कर लेना अनिःसृत ग्रहण है। सफेद काले आदि रंगों के मिश्रण से जो रंग तैयार होते हैं उनके सम्बन्ध में बिना कहे हुए अभिप्रायमात्र से यह जान लेना कि 'आप इन दोनों रंगों के मिश्रण से यह रंग बनायेंगे' अनुक्त रूप ग्रहण है । अथवा अन्य-देश में रखे हुए पंचरंगे वस्त्र के सम्बन्ध में अभिप्रायमात्र से यह जान लेना कि आप इन रंगों का कथन करेंगे अनुक्त-ग्रहण है। दूसरे के अभिप्राय के बिना स्वयं अपने क्षयोपशमानुसार रूप को जानना उक्त ग्रहण है। अन्य बहु आदि विकल्पों की व्याख्या सरल है। इसी तरह प्राणादि इन्द्रियों में भी लगा लेना चाहिये।

    17. प्रश्न – स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र ये चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी अर्थात् पदार्थों से सम्बद्ध होकर ज्ञान करनेवाली हैं अतः इनसे अनिःसृत और अनुक्त ज्ञान नहीं हो सकते?

    उत्तर – इन इन्द्रियों से किसी न किसी रूप में पदार्थ का सम्बन्ध अवश्य हो जाता है, जैसे कि चींटी को सुदूरवर्ती गुड़ आदि के रस और गन्ध का ज्ञान सूक्ष्म परमाणुओं के सम्बन्ध हमलोगों को अनिःसृत और अनुक्त अवग्रहादि श्रुतज्ञान की अपेक्षा से होते हैं क्योंकि इनमें परोपदेश अपेक्षित होता है । शास्त्र में श्रुतज्ञान के भेदप्रभेद के प्रकरण में लब्ध्यक्ष के चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रसना, स्पर्शन और मन के भेद से छह भेद किये हैं, इसलिए इन लब्ध्यक्षररूप श्रुतज्ञानों से उन-उन इन्द्रियों द्वारा अनिःसृत और अनुक्त आदि का विशिष्ट अवग्रहादि ज्ञान होता रहता है।

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    + बहु बहुविध आदि किसके विशेषण हैं -
    अर्थस्य ॥17॥
    अन्वयार्थ : अर्थ के (वस्‍तु के) अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों मतिज्ञान होते हैं ॥१७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    चक्षु आदि इन्द्रियों का विषय अर्थ कहलाता है। बहु आदि विशेषणों से युक्त उस (अर्थ) के अवग्रह आदि होते हैं ऐसा यहाँ सम्‍बन्‍ध करना चाहिए।

    शंका – यत: बहु आदिक अर्थ ही हैं, अत: यह सूत्र किसलिए कहा ?

    समाधान – यह सत्‍य है कि बहु आदिक अर्थ ही हैं तो भी अन्‍य वादियों की कल्‍पना निराकरण करने के लिए 'अर्थस्‍य' सूत्र कहा है। कितने ही प्रवादी मानते हैं कि रूपादिक गुण ही इन्द्रियों के साथ सम्‍बन्‍ध को प्राप्‍त होते हैं, अत: उन्‍हीं का ग्रहण होता है, किन्‍तु उनका ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्‍योंकि वे रूपादिक गुण अमूर्त हैं, अत: उनका इन्द्रियों के साथ सम्‍बन्‍ध नहीं हो सकता।

    शंका – यदि ऐसा है तो 'मैंने रूप देखा, मैंने गन्‍ध सूँघा' यह व्‍यवहार नहीं हो सकता, किन्‍तु होता अवश्‍य है सो इसका क्‍या कारण है ?

    समाधान – जो पर्यायों को प्राप्‍त होता है या पर्यायों के द्वारा जो प्राप्‍त किया जाता है, यह 'अर्थ' है। इसके अनुसार अर्थ द्रव्‍य ठहरता है। उसके इन्द्रियों के साथ सम्‍बन्‍ध को प्राप्‍त होने पर चूंकि रूपादिक उससे अभिन्‍न हैं, अत: रूपादिक में भी ऐसा व्‍यवहार बन जाता है कि 'मैंने रूप देखा, मैंने गन्‍ध सूँघा।'


    क्‍या ये अवग्रह आदि सब इन्द्रिय और मन के होतेहैं या इनमें विषय की अपेक्षा कुछ भेद हैं ? अब इसी बात को बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1. जो बाह्य और आभ्यन्तर निमित्तों से समुत्पन्न पर्यायों का आधार हो वह द्रव्य अर्थ है।

    2. 'अर्थ' के ग्रहण करने से नैयायिकादि के इस कथन का निराकरण हो जाता है कि 'रूपादि गुण ही इन्द्रियों के द्वारा गृहीत होते हैं'; क्योंकि अमूर्त रूपादि गुणों का इन्द्रियों से सम्बन्ध ही नहीं हो सकता । समुदाय अवस्था में भी जब गुण अपनी सक्ष्मता नहीं छोड़ते तब उनका ग्रहण कैसे हो सकता है ? चूंकि अर्थ से रूपादि अभिन्न है, अतः अर्थ के ग्रहण होने पर भी 'रूप को देखा, गन्ध सूंघी' आदि प्रयोग हो जाते हैं।

    3-5. प्रश्न – इनके होने पर मतिज्ञान होता है अत: 'अर्थे' ऐसा सप्तम्यन्त सूत्र बनाना चाहिये ?

    उत्तर – यह कोई एकान्त नियम नहीं है कि अर्थ के होने पर ज्ञान होता ही है । तलघर में बढ़े हुए बालक को 'घट' के सामने रहने पर भी घटज्ञान नहीं होता। कारक विवक्षा के अनुसार होता है, अतः अधिकरण विवक्षा न रहने के कारण सप्तमी न होकर क्रियाकारक सम्बन्ध की विवक्षा में सम्बन्धार्थक षष्ठी का प्रयोग हुआ है। अवग्रह आदि क्रियाविशेष बहु आदि रूप अर्थ के होते हैं।

    6-8. प्रश्न – बहु आदि के साथ सामानाधिकरण्य होने से 'अर्थानाम्' ऐसा बहुवचनान्त प्रयोग होना चाहिये ?

    उत्तर – अवग्रहादि के साथ अर्थ का सम्बन्ध किया जाना चाहिये । अवग्रहादि 'किसके' ऐसे प्रश्न का उत्तर है 'अर्थ के' । अथवा बहु आदि सभी ज्ञान के विषय होने के कारण अर्थ हैं, अतः सामान्य दृष्टि से एकवचन निर्देश कर दिया है। अथवा बहु आदि एक-एक से एकवचनवाले 'अर्थ' का सम्बन्ध कर लेना चाहिये।

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    + अवग्रह आदि ज्ञान का नियम -
    व्यञ्जनस्यावग्रहः ॥18॥
    अन्वयार्थ : व्‍यंजन का अवग्रह ही होता है ॥१८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अव्‍यक्त शब्‍दादि के समूह को व्‍यंजन कहते हैं। उसका अवग्रह ही होता है, ईहादिक नहीं होते।


    शंका – यह सूत्र किसलिए आया है ?

    समाधान – अवग्रह ही होता है, ईहादिक नहीं होते इस प्रकारका नियम करने के लिए यह सूत्र आया है।

    शंका – तो फिर इस सूत्र में एवकार का निर्देश करना चाहिए।

    समाधान – नहीं करना चाहिए, क्‍योंकि 'किसी कार्य के सिद्ध रहते हुए यदि उसका पुन: विधान किया जाता है तो वह नियम के लिए होता है' इस नियमके अनुसार सूत्रमें एवकारके न करने पर भी वह नियमका प्रयो‍जक हो जाता है।

    शंका – जबकि अवग्रह का ग्रहण दोनों जगह समान है तब फिर इनमें अन्‍तर किंनिमित्तक है ?

    समाधान – अर्थावग्रह और व्‍यंजनावग्रह में व्‍यक्त ग्रहण और अव्‍यक्त ग्रहणकी अपेक्षा अन्‍तर है।

    शंका – कैसे ?

    समाधान – जैसे माटी का नया सकोरा जल के दो तीन कणों से सींचने पर गीला नहीं होता और पुन:-पुन: सींचने पर वह धीरे-धीरे गीला हो जाता है इसी प्रकार श्रोत्र आदि इन्द्रियोंके द्वारा किये गये शब्‍दादिरूप पुद्गल स्‍कन्‍ध दो तीन समयोंमें व्‍यक्त नहीं होते हैं, किन्‍तु पुन:-पुन: ग्रहण होने पर वे व्‍यक्त हो जाते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि व्‍यक्त ग्रहणसे पहले-पहले व्‍यंजनावग्रह होता है और व्‍यक्त ग्रहणका नाम अर्थावग्रह है। यही कारण है कि अव्‍यक्त ग्रहणपूर्वक ईहादिक नहीं होते।


    सब इन्द्रियोंके समानरूपसे व्‍यंजनावग्रहके प्राप्‍त होनेपर जिन इन्द्रियोंके द्वारा यह सम्‍भव नहीं है उसका निषेध करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    व्यञ्जन-अव्यक्त शब्दादि पदार्थ, अर्थात् जिनका इन्द्रियों से सम्बन्ध होकर ज्ञान होता है ऐसे प्राप्त पदार्थ । इनका अवग्रह ही होता है ईहादिक नहीं। १ - जैसे 'अपो भक्षयति-पानी पीता है' इस वाक्य में 'एवकार' न रहने पर भी 'पानी ही पीता है' ऐसा अवधारणात्मक ज्ञान हो जाता है। उसी तरह सूत्र में एवकार न देने पर भी 'अवग्रह ही होता है' ऐसा अवधारण समझ लेना चाहिये ।

    व्यक्त ग्रहण अर्थावग्रह कहलाता है और अव्यक्त ग्रहण व्यञ्जनावग्रह । जैसे नया मिट्टी का सकोरा पानी की दो तीन बिन्दु डालने तक गीला नहीं होता पर लगातार जलबिन्दुओं के डालते रहने पर धीरे-धीरे गीला हो जाता है उसी तरह व्यक्त ग्रहण के पहिले का अव्यक्तज्ञान व्यञ्जनावग्रह है और व्यक्तग्रहण अर्थावग्रह ।

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    + व्यंजनावग्रह सभी इन्द्रियों से नही होता -
    न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥19॥
    अन्वयार्थ : चक्षु और मन से व्‍यंजनावग्रह नहीं होता ॥१९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    चक्षु और मन से व्‍यंजनावग्रह नहीं होता है।

    शंका – क्‍यों ?

    समाधान – क्‍योंकि चक्षु और मन अप्राप्‍यकारी है। चूँकि नेत्र अप्राप्‍त, योग्‍य दिशा में अवस्थित, युक्त, सन्निकर्ष के योग्‍य देश में अवस्थित और बाह्य प्रकाश आदि से व्‍यक्त हुए पदार्थ को ग्रहण करता है और मन भी अप्राप्‍त अर्थ को ग्रहण करता है अत: इन दोनों के द्वारा व्‍यंजनावग्रह नहीं होता।


    शंका – चक्षु इन्द्रिय अप्राप्‍यकारी है यह कैसे जाना जाता है ?

    समाधान – आगम और युक्ति से जाना जाता है। आगम से यथा - श्रोत्र स्‍पृष्‍ट शब्‍दको सुनता है, नेत्र अस्‍पृष्‍ट रूप को ही देखता है। तथा घ्राण, रसना और स्‍पर्शन इन्द्रियाँ क्रम से स्‍पृष्‍ट गन्‍ध, रस और स्‍पर्शको ही जानती है।


    युक्ति से यथा - चक्षु इन्द्रिय अप्राप्‍यकारी है, क्‍योंकि वह स्‍पृष्‍ट पदार्थ को नहीं ग्रहण करती। यदि चक्षु इन्द्रिय प्राप्‍यकारी होती तो व‍ह त्‍वचा इन्द्रिय के समान स्‍पृष्‍ट हुए अंजन को ग्रहण करती। किन्‍तु वह स्‍पृष्‍ट अंजन को नहीं ग्रहण करती है इससे मालूम होता है कि मन के समान चक्षु इन्द्रिय अप्राप्‍यकारी है। अत: सिद्ध हुआ कि चक्षु और मन को छोड़कर शेष इन्द्रियों के व्‍यंजनावग्रह होता है। तथा सब इन्द्रिय और मन के अर्थावग्रह होता है।

    लक्षण और भेदोंकी अपेक्षा मतिज्ञानका कथन किया। अब उसके बाद क्रम प्राप्‍त श्रुतज्ञानके लक्षण और भेद कहने चाहिए; इसलिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1. चक्षु और मन के द्वारा व्यवञ्जनावग्रह नहीं होता क्योंकि चक्षु और मन योग्यदेश में स्थित पदार्थ को सम्बन्ध किये बिना ही ज्ञान करते हैं अत: जो भी ज्ञान होता है वह स्पष्ट ही होता है।

    2-3. मन अप्राप्त अर्थ का विचार करता है यह तो निर्विवाद है और चक्षु की अप्राप्यकारिता आगम और युक्ति से सिद्ध है, स्वेच्छा से नहीं। आगम में बताया है कि - शब्द कान से स्पृष्ट होकर सुना जाता है पर रूप अस्पृष्ट होकर दूर से ही देखा जाता है। गन्ध, रस और स्पर्श इन्द्रियों से जब स्पृष्ट होते हैं और विशिष्ट सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं तब जाने जाते हैं।

    युक्तियों से भी चक्षु की अप्राप्यकारिता प्रसिद्ध है । यथा - चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है क्योंकि वह अपने में लगे हुए अंजन को नहीं देख पाती। स्पर्शनेन्द्रिय प्राप्यकारी है तो वह अपने से छुए हुए किसी भी पदार्थ के स्पर्श को जानती ही है । अतः मन की तरह चक्षु अप्राप्यकारी है। 'चक्षु प्राप्यकारी है क्योंकि वह ढंके हुए पदार्थ को नहीं देखती जैसे कि स्पर्शनेन्द्रिय' यह पक्ष ठीक नहीं है। क्योंकि चक्षु काँच, अभ्रक, स्फटिक आदि से आवृत-ढंके हुए पदार्थों को बराबर देखता है अतः पक्ष में ही अव्यापक होने से उक्त हेतु असिद्ध है; जैसे कि वनस्पति में चैतन्य सिद्ध करने के लिए दिया जानेवाला 'स्वाप-सोना' हेतु, क्योंकि किन्हीं वनस्पतियों में पत्र-संकोच आदि चिह्नों से 'सोना' स्पष्ट जाना जाता है किन्हीं का नहीं। चुम्बक तो दूर से ही लोहे को खींचने के कारण अप्राप्यकारी है फिर भी वह ढंके हुए लोहे को नहीं खींचता अतः संशय भी होता है कि आवृत को न देखने के कारण चक्षु इन्द्रिय स्पर्शन की तरह प्राप्यकारी है या चुम्बक की तरह अप्राप्यकारी । भौतिक होने से चक्षु को अग्नि की तरह प्राप्यकारी कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि चुम्बक भौतिक होकर भी अप्राप्यकारी है । बाह्येन्द्रिय होने से स्पर्शनेन्द्रिय की तरह चक्षु को प्राप्यकारी कहना ठीक नहीं है; क्योंकि बाहिर दिखनेवाली द्रव्येन्द्रिय तो अन्तरंग मुख्य भावेन्द्रिय की सहायक हैं, मात्र उनसे ज्ञान नहीं होता। स्पर्शनेन्द्रिय आदि में भी भीतरी भावेन्द्रिय ही की प्रधानता है । अतः यह हेतु कार्यकारी नहीं है। जिस प्रकार चुम्बक अप्राप्त लोहे को खींचता है परन्तु अतिदूरवर्ती अतीत अनागत या व्यवहित लोहे को नहीं खींचता उसी तरह चक्षु भी न व्यवहित को देखता है और न अतिदूरवर्ती को ही; क्योंकि पदार्थों की शक्तियां मर्यादित हैं। अप्राप्यकारी मानने पर चक्षु के द्वारा संशय और विपर्ययज्ञान के अभाव का दूषण तो प्राप्यकारी मानने पर भी बना रहता है । अतः संशय और विपर्यय तो इन्द्रिय-दोष से दोनों ही अवस्थाओं में होते हैं।

    'चक्षु चूंकि तेजोद्रव्य है अतः इसके किरणें होती हैं और यह किरणों के द्वारा पदार्थ से सम्बन्ध करके ही ज्ञान करता है जैसे कि अग्नि । ' यह अनुमान ठीक नहीं है। क्योंकि चक्षु को तेजोद्रव्य मानना ही गलत है। अग्नि तो गरम होती है अतः चक्षुइन्द्रिय का स्थान उष्ण होना चाहिए। अग्नि की तरह चक्षु में चमकदार भासुर रूप भी होना चाहिए। पर न तो चक्षु उष्ण ही है और न भासुररूपवाली ही। अदृष्ट-अर्थात् कर्म के कारण ऐसे तेजोद्रव्य की कल्पना करना 'जिसमें न भासुर रूप हो और न उष्णस्पर्श' उचित नहीं है, क्योंकि अदृष्ट निष्क्रिय गुण है वह पदार्थ के स्वाभाविक गुणों को पलट नहीं सकता। बिल्ली आदि की आखों को प्रकाशमान देखकर चक्षु को तेजोद्रव्य कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि पार्थिव आदि पुद्गल द्रव्यों में भी कारणवश चमक उत्पन्न हो जाती है जैसे कि पार्थिवमणि या जलीय बरफ आदि में । जो गतिमान होता है वह समीपवर्ती और दूरवर्ती पदार्थों से एक साथ सम्बन्ध नहीं कर सकता जैसे कि स्पर्शनेन्द्रिय किन्तु चक्षु समीपवर्ती शाखा और दूरवर्ती चन्द्र को एक साथ जानता है, अतः गतिमान् से विलक्षण प्रकार का होने से चक्षु अप्राप्यकारी है। यदि चक्षु गतिमान् होकर प्राप्यकारी होता तो अँधियारी रात में दूरदेशवर्ती प्रकाश को देखने के समय उसे प्रकाश के पास रखे हुए पदार्थों का तथा मध्यवर्ती पदार्थों का ज्ञान भी होना चाहिए था। आपके मत में जब चक्षु स्वयं प्रकाशरूप है तब अन्य प्रकाश की आवश्यकता उसे होनी ही नहीं चाहिए। किंच, यदि चक्षु प्राप्यकारी होता तो जैसे शब्द कान के भीतर सुनाई देता है, उसी तरह रूप भी आँख के भीतर ही दिखाई देना चाहिए। आंख के द्वारा जो अन्तराल का ग्रहण और अपने से बड़े पदार्थ का अधिकरूप में ग्रहण होता है वह नहीं होना चाहिए । यह मत कि 'इन्द्रियाँ बाहर जाकर पदार्थ से सम्बन्ध करके उन्हें जानती हैं अतः सान्तर और अधिक ग्रहण हो जाता है ठीक नहीं है। क्योंकि इन्द्रियों की बहिर्वृत्ति अप्रसिद्ध है । चिकित्सा आदि तो शरीर देश में ही किए जाते हैं बाहर नहीं। यदि इन्द्रियां बाहिर जाती हैं तो जिस समय देखना प्रारम्भ हुआ उसी समय आंख की पलक बन्द कर लेने पर भी दिखाई देना चाहिए। कारण इन्द्रिय तो बाहर जा चुकी है। फिर, मन से अधिष्ठित होकर ही इन्द्रियां स्वविषय में व्यापार करती हैं, पर मन तो अन्तःकरण है, वह तो बाहिर जाकर इन्द्रियों की सहायता नहीं कर सकता, शरीर देश में ही उसकी सहायता संभव है। यदि अणुरूप मन बाहर चला भी गया तो वह फैले हुए आंखों की किरणों का नियन्त्रण कैसे कर सकता है ? अतः चक्षु शरीर देश में रहकर ही योग्यदेशस्थित पदार्थ को जानता है।

    बौद्ध का मत है कि श्रोत्र भी चक्षु की तरह अप्राप्यकारी है क्योंकि वह दूरवर्ती शब्द को सुन लेता है। यह मत ठीक नहीं है क्योंकि श्रोत्र का दूर से शब्द का सुनना असिद्ध है। वह तो नाक की तरह अपने देश में आये हुए शब्द पुद्गलों को सुनता है । शब्द वर्गणाएँ कान के भीतर पहुंचकर ही सुनाई देती हैं। यदि कान दूरवर्ती शब्द को सुनता है तो उसे कान के भीतर घुसे हुए मच्छर का भिनभिनाना नहीं सुनाई देना चाहिए क्योंकि कोई भी इन्द्रिय अति निकटवर्ती और दूरवर्ती पदार्थों को नहीं जान सकती। शब्द को आकाश का गुण मानना तो अत्यन्त असंगत है। क्योंकि अमूर्तद्रव्य के गुण इन्द्रियों के विषय नहीं हो सकते जैसे कि आत्मा के सुखादि गुण । श्रोत्र को प्राप्यकारी मानने पर भी 'अमुक देश अमुक दिशा आदि में शब्द है' इस प्रकार दिग्देशविशिष्टता के ग्रहण का कोई विरोध नहीं है क्योंकि वेगवान् शब्दपरिणत पुद्गलों के त्वरित और नियत देशादि से आने के कारण उस प्रकार का ज्ञान हो जाता है । शब्द पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म हैं, वे चारों ओर फैलकर श्रोताओं के कानों में प्रविष्ट होते हैं। कहीं कहीं प्रतिघात भी प्रतिकूल वायु और दीवाल आदि से हो जाता है। अतः चक्षु और मन को छोड़कर शेष इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं। इनसे प्रथम व्यञ्जनावग्रह होता है बाद में अर्थावग्रह और चक्षु और मन से सीधा अर्थावग्रह।

    3-7. प्रश्न – मन अपने विचारात्मक कार्य में इन्द्रियान्तर की सहायता की अपेक्षा नहीं करता अतः उसे चक्षु की तरह इन्द्रिय ही कहना चाहिए अनिन्द्रिय नहीं ?

    उत्तर – मन चक्षुरादि इन्द्रियों की तरह दूसरों को दिखाई नहीं देता, सूक्ष्म है, वह अन्तरंग करण है अतः उसे अनिन्द्रिय कहते हैं । इस अनुमान से उसका सद्भाव सिद्ध होता है - चक्षु आदि इन्द्रियों के समर्थ होने पर भी बाह्य रूपादि पदार्थों की उपस्थिति तथा उनके युगपत् जानने का प्रयोजन रहने पर जिसके न होने से युगपत् ज्ञान और क्रियाएं नहीं होती वही मन है । मन जिस-जिस इन्द्रिय को सहायता करता है उसी-उसी के द्वारा क्रमशः ज्ञान और क्रिया होती है। जिसके द्वारा देखे या सुने गये पदार्थ का स्मरण होता है वह मन है । स्मरण से मन का सद्भाव सिद्ध होता है। अप्रत्यक्ष पदार्थों का ज्ञान अनुमान से ही किया जाता है जैसे सूर्य की गति और वनस्पति के वृद्धि और ह्रास का।

    8-9. यद्यपि आत्मा स्वयं समस्त ज्ञान और क्रिया शक्तियों से सम्पन्न है फिर भी उसे उन-उन ज्ञान आदि के लिए भिन्न-भिन्न इन्द्रियों की आवश्यकता होती है, जैसे कि अनेक कलाकुशल देवदत्त को चित्र बनाते समय कलम, ब्रुश आदि उपकरणों की अपेक्षा होती है और अलमारी बनाने के लिए वसूला, करोंत आदि उपकरणों की। नामकर्म के उदय से उत्पन्न अङ्ग उपाङ्गों के कारण इन्द्रियों का भेद होता है। कान यवनाली के समान, नाक मोती के समान, जीभ खुरपा के समान, आंख मसूर के समान काले तारे के आकार और स्पर्शनेन्द्रिय सर्वशरीरव्यापी अनेक आकारों की है। ये ही इन्द्रियां अपने-अपने विषयों को जानने में समर्थ हैं, अन्य नहीं।

    द्रव्य की दृष्टि से मतिज्ञानी सभी द्रव्यों की कुछ पर्यायों को उपदेश से जानता है । क्षेत्र की दृष्टि से उपदेश द्वारा सभी क्षेत्रोंको जानता है। अथवा, आंख का उत्कृष्ट क्षेत्र 47263 21/60 योजन है । कान का क्षेत्र 12 योजन, नाक, जीभ और स्पर्शन का 9 योजन है। उपदेश से सभी काल सभी औदयिक आदि भावों को मतिज्ञानी जान सकता है। सामान्य से मतिज्ञान एक है। इन्द्रियज और अनिन्द्रियज के भेद से है प्रकार का है। अवग्रह आदि के भेद से चार प्रकार का है। अवग्रहादि चार छहों इन्द्रियों से होते हैं अतः 24 प्रकार का है। चार इन्द्रियों से चार व्यञ्जनावग्रह भी होते हैं अतः मिलकर 28 प्रकार का है। इन्हीं अट्ठाईस में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव या अवग्रहादि चार को मिलाने से 32 प्रकार का हो जाता है। इस तरह इन 24, 28, 32 प्रकारों को बहु आदि 6 भेदों से गुणा करने पर क्रमशः 144, 168, 192 भेद हो जाते हैं और बहु आदि 12 से गुणा करने पर 288, 336 और 384 । व्यञ्जनावग्रह में भी अव्यक्त-रूप से बहु आदि बारह प्रकार के पदार्थों का ग्रहण होता है । अनिःसृत ग्रहण में भी जितने सूक्ष्म पुद्गल प्रकट हैं उनसे अतिरिक्त का ज्ञान भी अव्यक्त रूप से हो जाता है। उन सूक्ष्म पुद्गलों का इन्द्रियदेश में आ जाना ही उनका अव्यक्तग्रहण है।

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    + श्रुतज्ञान का स्वरूप -
    श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम्‌ ॥20॥
    अन्वयार्थ : श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। वह दो प्रकार का, अनेक प्रकार का और बारह प्रकार का है ॥२०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    यह 'श्रुत' शब्‍द सुननेरूप अर्थ की मुख्‍यता से निष्‍पादित है तो भी रूढि़ से भी उसका वाच्‍य कोई ज्ञानविशेष है। जैसे 'कुशल' शब्‍द का व्‍युत्‍पत्ति अर्थ कुशा का छेदना है तो भी रूढि़ से उसका अर्थ पर्यवदात अर्थात् विमल या मनोज्ञ लिया जाता है। वह ज्ञानविशेष क्‍या है इस बात को ध्‍यान में रखकर 'श्रुतं मतिपूर्वम्' यह कहा है। जो श्रुत की प्रमाणता को पूरता है। इस व्‍युत्‍पत्ति के अनुसार पूर्व, निमित्त और कारण ये एकार्थवाची हैं। मति का व्‍याख्‍यान पहले कर आये हैं। वह मति जिसका पूर्व अर्थात् निमित्त है वह मतिपूर्व कहलाता है जिसका अर्थ मतिकारणक होता है। तात्‍पर्य यह है कि जो मतिज्ञान के निमित्त से होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं।

    शंका – यदि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है तो श्रुतज्ञान भी मत्‍यात्‍मक ही प्राप्‍त होता है; क्‍योंकि लोक में कारण के समान ही कार्य देखा जाता है ?

    समाधान – यह कोई एकान्‍त नियम नहीं है कि कारण के समान कार्य होता है। यद्यपि घट की उत्‍पत्ति दण्‍डादिक से होती है तो भी वह दण्‍डाद्यात्‍मक नहीं होता। दूसरे, मतिज्ञान के रहते हुए भी श्रुतज्ञान नहीं होता। यद्यपि मतिज्ञान रहा आता है और श्रुतज्ञान के बाह्य निमित्त भी रहे आते हैं तो भी जिसके श्रुतज्ञानावरण का प्रबल उदय पाया जाता है उसके श्रुतज्ञान नहीं होता। किन्‍तु श्रुतज्ञानावरण कर्म का प्रकर्ष क्षयोपशम होने पर ही श्रुतज्ञान होता है इसलिए मतिज्ञान श्रुतज्ञान की उत्‍पत्ति में निमित्तमात्र जानना चाहिए।


    शंका – श्रुतज्ञान को अनादिनिधन कहा है। ऐसी अवस्‍था में उसे मतिज्ञानपूर्वक मान लेने पर उसकी अनादिनिधनता नहीं बनती, क्‍योंकि जिसका आदि होता है उसका अन्‍त अवश्‍य होता है। और इसलिए वह पुरुष का कार्य होने से उसे प्रमाण नहीं माना जा सकता।

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्‍योंकि द्रव्‍य आदि सामान्‍य नयकी मुख्‍यतासे श्रुतको अनादिनिधन कहा है। किसी पुरुषने कहीं और कभी किसी भी प्रकारसे उसे किया नहीं है। हाँ उन्‍हीं द्रव्‍य आदि विशेष नयकी अपेक्षा उसका आदि और अन्‍त सम्‍भव है इसलिए 'वह मतिपूर्वक होता है' ऐसा कहा जाता है। जैसे कि अंकुर बीजपूर्वक होता है, फिर भी वह सन्‍तानकी अपेक्षा अनादिनिधन है। दूसरे, जो यह कहा है कि पुरुषका कार्य होनेसे वह अप्रमाण है सो अपौरुषेयता प्रमाणताका कारण नहीं है। यदि अपौरुषेयताको प्रमाणता का कारण माना जाय तो जिसके कर्ता का स्‍मरण नहीं होता ऐसे चोरी आदिके उपदेश भी प्रमाण हो जाएँगे। तीसरे, प्रत्‍यक्ष आदि ज्ञान अनित्‍य होकर भी यदि प्रमाण माने जाते हैं तो इसमें क्‍या विरोध है, अर्थात् कुछ भी नहीं।


    शंका – प्रथमोपशम सम्‍यक्‍त्‍व की उत्‍पत्ति के साथ ही ज्ञान की उत्‍पत्ति होती है, अत: श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है यह कथन नहीं बनता ?

    समाधान – यह कहना ठीक नहीं है, क्‍योंकि ज्ञान में समीचीनता सम्‍यग्‍दर्शन के निमित्त से प्राप्‍त होती है। इन दोनों का आत्‍मलाभ तो क्रमसे ही होता है, इ‍सलिए 'श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है' इस कथनका व्‍याघात नहीं होता।


    शंका – 'मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है' इस लक्षण में अव्‍याप्ति दोष आता है क्‍योंकि श्रुतज्ञानपूर्वक भी श्रुतज्ञान होता है ऐसा कहा जाता है। यथा – किसी एक जीवने वर्ण, पद और वाक्‍य आदिरूपसे शब्‍द परिणत पुद्गल स्‍कन्‍धोंको कर्ण इन्द्रिय-द्वारा ग्रहण किया। अनन्‍तर उससे घटपदार्थविषयक प्रथम श्रुतज्ञान हुआ। यदि उसने घटके कार्योंका संकेत कर रखा है तो उसे उस घटज्ञानके बाद जलधारणादि दूसरे कार्योंका ज्ञान होता है और तब श्रुतज्ञानसे श्रुतज्ञान उत्‍पन्न होता है। या किसी एक जीव ने चक्षु आदि इन्द्रियों के विषय का ग्रहण किया। अनन्‍तर उसे उससे धूमादि पदार्थविषयक प्रथम श्रुतज्ञान हुआ। यदि उसे धूमादि और अग्नि आदि द्रव्‍यके सम्‍बन्‍धका ज्ञान है तो वह धूमादिके निमित्तसे अग्नि आदि द्रव्‍यको जानता है और तब भी श्रुतज्ञानसे श्रुतज्ञान उत्‍पन्‍न होता है। इसलिए मतिज्ञानपूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है यह बात नहीं बनती ?

    समाधान – यह कोर्इ दोष नहीं है, क्‍योंकि जहाँ पर श्रुतज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है वहाँ पर प्रथम श्रुतज्ञान उपचार से मतिज्ञान माना गया है। श्रुतज्ञान भी कहीं पर मतिज्ञानरूप से उपचरित किया जाता है क्‍योंकि श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है ऐसा नियम है।


    सूत्रमें आये हुए 'भेद' शब्‍द को दो आदि प्रत्‍येक शब्‍दके साथ जोड़ लेना चाहिए। यथा – दो भेद, अनेक भेद और बारह भेद। श्रुतज्ञानके दो भेद अंगबाह्य और अंगप्रविष्‍ट हैं। अंगबाह्यके दशवैकालिक और उत्तराध्‍यययन आदि अनेक भेद है। अंगप्रविष्‍टके बारह भेद हैं। यथा – आचार, सूत्रकृत, स्‍थान, समवाय, व्‍याख्‍याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्‍ययन, अन्‍तकृद्दश, अनुत्तरौपपादिकदश, प्रश्‍नव्‍याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद। दृष्टिवादके पाँच भेद हैं – परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। इनमें-से पूर्वगतके चौद‍ह भेद हैं – उत्‍पादपूर्व, आग्रायणीय, वीर्यानुवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्‍यप्रवाद, आत्‍मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्‍याख्‍याननामधेय, विद्यानुवाद, कल्‍याणनामधेय, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्‍दुसार। इस प्रकार यह श्रुत दो प्रकारका , अनेक प्रकारका और बारहप्रकारका है।

    शंका – यह भेद किंकृत है ?

    समाधान – यह भेद वक्‍ताविशेषकृत है। वक्‍ता तीन प्रकारके हैं – सर्वज्ञ, तीर्थंकर या सामान्‍य केवली तथा श्रुतकेवली और आरातीय। इनमें-से परम ऋषि सर्वज्ञ उत्‍कृष्‍ट और अचिन्‍त्‍य केवलज्ञानरूपी विभूतिविशेष से युक्त है। इस कारण उन्‍होंने अर्थरूपसे आगमका उपदेश दिया । ये सर्वज्ञ प्रत्‍यक्षदर्शी और दोषमुक्त हैं, इसलिए प्रमाण हैं। इनके साक्षात् शिष्‍य और बुद्धिके अतिशयरूप ऋद्धिसे युक्त गणधर श्रुतकेवलियोंने अर्थरूप आगमका स्‍मरण कर अंग और पूर्वग्रन्थोंकी रचना की। सर्वज्ञदेवकी प्रमाणताके कारण ये भी प्रमाण हैं। तथा आरातीय आचार्योंने कालदोषसे जिनकी आयु, मति और बल घट गया है ऐसे शिष्‍योंका उपकार करनेके लिए दशवैकालिक आदि ग्रन्‍थ रचे। जिस प्रकार क्षीरसागरका जल घटमें भर लिया जाता है उसी प्रकार ये ग्रन्‍थ भी अर्थरूपसे वे ही हैं, इसलिए प्रमाण हैं।


    परोक्ष प्रमाणका व्‍याख्‍यान किया। अब प्रत्‍यक्ष प्रमाणका व्‍याख्‍यान करना है। वह दो प्रकारका है – देशप्रत्‍यक्ष और सर्वप्रत्‍यक्ष। देशप्रत्‍यक्ष अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञानके भेदसे दो प्रकारका है। सर्वप्रत्‍यक्ष केवलज्ञान है। यदि ऐसा है तो तीन प्रकारके प्रत्‍यक्षके आदिमें कहे गये अवधिज्ञानका व्‍याख्‍यान करना चाहिए, इसलिए कहते हैं – अवधिज्ञान दो प्रकारका है – भवप्रत्‍यय और क्षयोपशमनिमित्तक। उनमें-से सर्वप्रथम भवप्रत्‍यय अवधिज्ञानका अगले सूत्र द्वारा कथन करते हैं –

    राजवार्तिक :
    1. जिस प्रकार कुशल शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ कुश को काटनेवाला होता है फिर भी रूढि से उसका चतुर अर्थ लिया जाता है उसी तरह श्रुत का व्युत्पत्त्यर्थ 'सुना हुआ' होनेपर भी उसका श्रुतज्ञान रूप ज्ञान-विशेष अर्थ लिया जाता है।

    2. पूर्व अर्थात् कारण, कार्य को पोषण या उसे पूर्ण करने की वजह से कारण पूर्व कहा जाता है।

    3-5. प्रश्न – जैसे मिट्टीके पिण्डसे बना हुआ घड़ा मिट्टी रूप होता है उसी तरह मतिपूर्वक श्रुत भी मतिरूप ही होना चाहिए अन्यथा उसे मतिपूर्वक नहीं कह सकते।

    उत्तर – मतिज्ञान श्रुतज्ञान में निमितमात्र है उपादान नहीं । उपादान तो श्रुतपर्याय से परिणत होनेवाला आत्मा है । जैसे दंड चक्रादि घड़े में निमित्त हैं अतः इनका घटरूप परिणमन नहीं होता और न इनके रहने मात्र से घटभवन के अयोग्य रेत ही घड़ा बन सकती है किन्तु घट होने लायक मिट्टी ही घड़ा बनती है उसी तरह श्रोत्रेन्द्रियजन्य मतिज्ञान के निमित्त होने-मात्र से श्रुतज्ञान नहीं बनता और न श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से रहित आत्मा में श्रुतज्ञान होता है किन्तु श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से जिसमें श्रुत होने की योग्यता है वही आत्मा श्रुतज्ञानरूप से परिणत होता है। फिर, यह कोई नियम नहीं है कि कारण के समान ही कार्य होना चाहिए। पुद्गलद्रव्य की दृष्टि से मिट्टी-रूप कारण के समान घड़ा होता है पर पिण्ड और घट पर्यायों की अपेक्षा दोनों विलक्षण हैं। यदि कारण के सदृश ही कार्य हो तो घट अवस्था से भी पिंड शिवक आदि पर्यायें मिलनी चाहिए थीं। जैसे मृत्पिंड में जल नहीं भर सकते उसी तरह घड़े में भी नहीं भरा जाना चाहिए । घट का भी घट-रूप से ही परिणमन होना चाहिए, कपालरूप नहीं, क्योंकि आपके मत से कारण के सर्वथा सदृश ही कार्य के होने का नियम है। उसी तरह चैतन्य-द्रव्य की दृष्टि से मति और श्रुत दोनों एक हैं क्योंकि मति भी ज्ञान है और श्रुत भी ज्ञान है। किन्तु तत्तत् ज्ञान पर्यायों की दृष्टि से दोनों ज्ञान जुदा-जुदा हैं।

    6. प्रश्न – श्रोत्रेन्द्रियजन्य मतिज्ञान से जो उत्पन्न हो उसे ही श्रुत कहना चाहिए क्योंकि सुनकर जो जाना जाता है वही श्रुत होता है। इस प्रकार चक्षु इन्द्रिय आदि से श्रुत नहीं हो सकेगा?

    उत्तर – श्रुत शब्द श्रुतज्ञान विशेष में रूढ होने के कारण सभी मतिज्ञान पूर्वक होनेवाले श्रुतज्ञानों में व्याप्त है।

    7. प्रश्न – जिसका आदि होता है उसका अन्त भी, अतः श्रुत में अनादिनिधनता नहीं बन सकती । पुरुषकर्तृक होने के कारण श्रुत अप्रमाण भी होगा?

    उत्तर – द्रव्यादि सामान्य की अपेक्षा श्रुत अनादि है, क्योंकि किसी भी पुरुष ने किसी नियत-समय में अविद्यमान-श्रुत की उत्पत्ति नहीं देखी। उस उस श्रुत पर्याय की अपेक्षा उसका आदि भी है और अन्त भी। तात्पर्य यह कि श्रुतज्ञान सन्तति की अपेक्षा अनादि है । अपौरुषेयता प्रमाणता का कारण नहीं है अन्यथा चोरी व्यभिचार आदि के उपदेश भी प्रमाण हो जायेंगे क्योंकि इनका कोई आदिप्रणेता ज्ञात नहीं है। प्रत्यक्ष आदि प्रमाण अनित्य हैं पर इससे उनकी प्रमाणता में कोई कसर नहीं आती।

    8. प्रश्न – प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति होने पर एक साथ मत्यज्ञान और श्रुताज्ञान की निवत्ति होकर मति और श्रत उत्पन्न होते हैं अतः श्रुत को मतिपूर्वक नहीं कहना चाहिए ?

    उत्तर – मति और श्रुत में 'सम्यक्' व्यपदेश युगपत् होता है न कि उत्पत्ति । दोनों की उत्पत्ति तो अपने-अपने कारणों से क्रमशः ही होती है।

    9. चूंकि सभी प्राणियों के अपने-अपने श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम के अनुसार श्रुत की उत्पत्ति होती है अतः मतिपूर्वक होने पर भी सभी के श्रुतज्ञानों में विशेषता बनी रहती है । कारणभेद से कार्यभेद का नियम सर्वसिद्ध है।

    10. प्रश्न – घट शब्द को सुनकर प्रथम घट अर्थ का श्रुतज्ञान हुआ उस श्रुत से जलधारणादि कार्यों का जो द्वितीय श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है उसे श्रुतपूर्वक श्रुत होने से 'मतिपूर्वक' नहीं कह सकते, अतः लक्षण अव्याप्त हो जाता है। इसी तरह धूम अर्थ का ज्ञान प्रथम श्रुत हुआ, उससे उत्पन्न होनेवाले अविनाभावी अग्नि के ज्ञान में श्रुतपूर्वक श्रुतत्व होने से 'मतिपूर्वक' लक्षण अव्याप्त हो जाता है।

    उत्तर – प्रथम श्रुतज्ञान में मतिजन्य होने से 'मतिज्ञानत्व'का उपचार कर लिया जाता है और इस तरह द्वितीय श्रुत में भी 'मतिपूर्वकत्व' सिद्ध हो जाता है । अथवा, पूर्व शब्द व्यवहित पूर्व को भी कहता है । जैसे 'मथुरा से पटना पूर्व में है' यहां अनेक नगरों से व्यवहित भी पटना पूर्व कहा जाता है उसी तरह साक्षात् या परम्परया मतिपूर्वक ज्ञान श्रुत कहे जाते हैं।

    11. भेद शब्द का अन्वय द्वि आदि से कर लेना चाहिए । अर्थात् दो भेद, अनेक भेद और बारह भेद।

    12. श्रुतज्ञान के मूल दो भेद हैं - एक अंगप्रविष्ट और दूसरा अङ्गबाह्य । अङ्गप्रविष्ट आचाराङ्ग आदिके भेदसे बारह प्रकार का है। भगवान् महावीररूपी हिमाचल से निकली हुई वाग्गंगा के अर्थरूप जल से जिनका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल है, उन बुद्धि-ऋद्धि के धनी गणधरों द्वारा ग्रन्थरूप में रचे गये आचाराङ्ग आदि बारह अङ्ग हैं ।

    वेदना आदि निमित्तों से कुछ आत्मप्रदेशों का शरीर से बाहिर निकलना समुद्घात है; वह सात प्रकार का है - वात पित्तादि विकार-जनित रोग या विषपान आदि की तीव्र वेदना से आत्मप्रदेशों का बाहिर निकलना वेदना समुद्धात है। क्रोधादि कषायों के निमित्त से कषाय समुद्धात होता है। उदीरणा या कालक्रम से होनेवाले मरण के निमित्त से मारणान्तिक समुद्घात होता है । जीवों के अनुग्रह और विनाश में समर्थ तैजस शरीर की रचना के लिए तेजस समुद्घात होता है । एकत्व पृथक् आदि नाना प्रकार की विक्रिया के निमित्त से वैक्रियिक समुद्घात होता है । अल्पहिंसा और सूक्ष्मार्थ परिज्ञान आदि प्रयोजनों के लिए आहारक शरीर की रचना के निमित्त आहारक समुद्घात होता है। जब वेदनीय की स्थिति अधिक हो और आयु-कर्म की अल्प तब स्थिति-समीकरण के लिए केवली भगवान् केवलिसमुद्घात करते हैं। जैसे मदिरा में फेन आकर शान्त हो जाता है उसी तरह समुद्घात में आत्म-प्रदेश बाहिर निकलकर फिर शरीर में समा जाते हैं । अहार के और मारणान्तिक समुद्घात एक दिशा में होते हैं; क्योंकि आहारक शरीर की रचना के समय श्रेणिगति होने के कारण एक ही दिशा में असंख्य आत्मप्रदेश निकलकर एक अरत्नि प्रमाण आहारक शरीर को बनाते हैं। मारणान्तिक में जहां नरक आदि में जीव को मरकर उत्पन्न होना है वहां की ही दिशा में आत्मप्रदेश निकलते हैं। शेष पांच समुद्धात श्रेणि के अनुसार ऊपर नीचे पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण इन छहों दिशाओं में होते हैं। वेदना आदि छह समुद्घातों का काल असंख्यात समय है और केवलि समुद्घात का काल आठ समय है। दण्ड, कपाट, प्रतर, लोकपूरण, फिर प्रतर, कपाट, दंड और स्वशरीर-प्रवेश इस तरह आठ-समय होते हैं।
  • क्रियाविशाल पूर्व में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारागणों का गमनक्षेत्र, उपपादक्षेत्र, शकुन, चिकित्सा, भूतिकर्म, इन्द्रजाल विद्या, चौसठ कला, शिल्प, काव्य, गुणदोष, छन्द, क्रिया, क्रियाफल के भोक्ता आदि का विस्तृत विवेचन है।
  • लोकबिन्दुसार में आठ व्यवहार, चार बीजराशि परिकर्म आदि गणित तथा समस्त श्रुतसम्पत्ति का विवरण है।

  • 13-14. गणधरदेव के शिष्य प्रशिष्यों द्वारा अल्पायु-बुद्धिबलवाले प्राणियों के अनुग्रह के लिए अंगों के आधार से रचे गये संक्षिप्त ग्रन्थ अंगबाह्य है। कालिक उत्कालिक आदि के भेद से अंगबाह्य अनेक प्रकार के हैं। स्वाध्यायकाल में जिनके पठन-पाठन का नियम है उन्हें कालिक कहते हैं तथा जिनके पठन-पाठन का कोई नियत समय न हो वे उत्कालिक हैं। उत्तराध्ययन आदि अंगबाह्य ग्रन्थ हैं।

    15. अनुमान आदि का स्व-प्रतिपत्ति काल में अनक्षरश्रुत में अन्तर्भाव होता है तथा परतिपत्ति काल में अक्षरश्रुत में। इसीलिए इनका पृथक् उपदेश नहीं किया है। प्रत्यक्षपूर्वक तीन प्रकार का अनुमान होता है - पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट । अग्नि और धूम के अविनाभाव को जिस व्यक्ति ने पहिले ग्रहण कर लिया है उसे पीछे धूम को देखकर अग्नि का ज्ञान होना पूर्ववत् अनुमान है । जिसने सींग और सींगवाले के सम्बन्ध को देखा है उसे सींग के रूप को देखकर सींगवाले का अनुमान होना शेषवत् है । देवदत्त का देशान्तर में पहुंचना गमनपूर्वक होता है, यह देखकर सूर्य में देशान्तर प्राप्तिरूप हेतु से गति का अनुगान करना सामान्यतोदृष्ट है । 'गाय सरीखा गवय होता है' इस उपमान वाक्य को सुनकर जंगल में गवय को देखकर उससें गवय संज्ञा के सम्बन्ध को जान लेना उपमान है। शब्द प्रमाण तो श्रुत है ही। 'भगवान् ऋषभ ने यह कहा' इत्यादि प्राचीन परम्परागत तथ्य ऐतिह्य प्रमाण है । 'यह आदमी दिन को नहीं खाकर भी जीता है' इस वाक्य को सुनकर अर्थात् ही 'रात्रि को खाता है' इस प्रकार रात्रि भोजन का ज्ञान कर लेना अर्थापत्ति है। 'चार प्रस्थ का आढक होता है' इस ज्ञान के होनेपर एक आढक में दो कुडव (आधा आढक) हैं इस प्रकार की संभावना संभव प्रमाण है । वनस्पतियों में हरा भरापन आदि न दिखने पर वृष्टि के अभाव का ज्ञान करना अभाव प्रमाण है। ये सभी अर्थापत्ति आदि अनुमान में अन्तर्भूत हैं, अतः अनुमान की तरह स्वप्रतिपत्तिकाल में अनक्षरश्रुत हैं तथा परप्रतिपत्तिकाल में अक्षरश्रुत ।

    प्रत्यक्ष दो प्रकार का है देशप्रत्यक्ष और सर्वप्रत्यक्ष । देशप्रत्यक्ष के अवधि और मनःपर्यय दो प्रकार हैं और सर्वप्रत्यक्ष एक केवल ज्ञानरूप है। अवधि-ज्ञानावरण के क्षयोपशम से द्रव्यक्षेत्रादि से मर्यादित रूपीद्रव्य का ज्ञान अवधिज्ञान है । अवधिज्ञान दो प्रकार का है - भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । अथवा देशावधि और सर्वावधि ये दो भेद भी होते हैं। परमावधि सर्वावधि की अपेक्षा न्यून होने से देशावधि में ही गिन ली गई है।

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    + अवधिज्ञान के भेद -
    भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम् ॥21॥
    अन्वयार्थ : भवप्रत्‍यय अवधिज्ञान देव और नारकियों के होता है ॥२१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    भव का स्‍वरूप कहते हैं।

    शंका – भव किसे कहते हैं ?

    समाधान – आयु नामकर्म के उदय का निमित्त पाकर जो जीव की पर्याय होती हैं उसे भव कहते हैं। प्रत्‍यय, कारण और निमित्त ये एकार्थवाची नाम है। जिस अवधिज्ञानके होनेमें भव निमित्त है वह भवप्रत्‍यय अवधिज्ञान है। वह देव और नारकियोंके जानना चाहिए।

    शंका – यदि ऐसा है तो इनके अवधिज्ञान के होने में क्षयोपशम की निमित्तता नहीं बनती ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्‍योंकि भव के आश्रयसे क्षयोपशमकी सिद्धि हो जाती है ऐसा समझकर भव प्रधान कारण है ऐसा उपदेश दिया जाता है। जैसे पक्षियोंका आकाशमें गमन करना भवनिमित्तक होता है, शिक्षा गुणकी अपेक्षासे नहीं होता वैसे ही देव और नारकियोंके व्रत नियमादिकके अभावमें भी अवधिज्ञान होता है, इसलिए उसे भवनिमित्तक कहते हैं। यदि ऐसा न माना जाय तो भव तो सबके साधारणरूपसे पाया जाता है, अत: सबके अवधिज्ञान के होने में विशेषता नहीं रहेगी। परन्तु वहाँ पर अवधिज्ञान न्‍यूनाधिक कहा ही जाता है, इससे ज्ञात होता है कि यद्यपि वहाँ पर अवधिज्ञान होता तो क्षयोपशम से ही है पर वह क्षयोपशम भव के निमित्तसे प्राप्‍त होता है अत: उसे 'भवप्रत्‍यय' कहते हैं। सूत्र में 'देवनारकाणाम्' ऐसा सामान्‍य वचन होने पर भी इससे सम्‍यग्‍दृष्टियों का ही ग्रहण होता है, क्‍योंकि सूत्र में 'अवधि' पद का ग्रहण किया है। मिथ्‍यादृष्टियों का वह विभंगज्ञान कहलाता है। अवधिज्ञान देव और नारकियों में न्‍यूनाधिक किसके कितना पाया जाता है यह आगमसे जान लेना चाहिए।


    यदि भवप्रत्‍यय अवधिज्ञान देव और नारकियों के होता है तो क्षयोपशमहेतुक अवधिज्ञान किसके होता है, आगे इसी बातको बतलाते हैं –


    राजवार्तिक :
    1-6 भव अर्थात् आयु और नामकर्म के उदय से प्राप्त होनेवाली पर्याय, प्रत्यय अर्थात् निमित्त । भव को निमित्त लेकर जो अवधि-ज्ञानावरण के क्षयोपशम पूर्वक ज्ञान होता है वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है। प्रत्यय शब्द के ज्ञान, शपथ, हेतु आदि अनेक अर्थ हैं, पर यहां 'निमित्त' अर्थ की विवक्षा है । देव और नारकी पर्याय में जन्म लेते ही अवधि ज्ञानावरण का क्षयोपशम हो जाता है और उससे अवधिज्ञान होता है। जैसे आकाश पक्षी के उड़ने में निमित्त मात्र है क्योंकि आकाश के रहने पर ही पक्षी उड़ सकता है उसी तरह भव बाह्य निमित्त है। यदि भव ही मुख्य कारण होता तो सभी देव-नारकियों के एक जैसा तुल्य अवधिज्ञान होता पर उनमें अपने-अपने क्षयोपशम के अनुसार तारतम्य आगम में स्वीकार किया गया है। जैसे मनुष्य और तिर्यञ्चों को अहिंसादिव्रतरूप गुणों से अवधिज्ञान होता है उस तरह देवनारकियों को व्रतादिधारण की आवश्यकता नहीं होती, उनके तो उस पर्याय के कारण ही क्षयोपशम प्रकट हो जाता है। अतः भव बाह्य निमित्त है । सम्यग्ज्ञान का प्रकरण होने से मिथ्यादृष्टि देवनारकियों के मिथ्या-अवधि अर्थात् विभंगावधि होती है इसलिए सभी देवनारकियों को सामान्यरूप से अवधिज्ञान का प्रसंग नहीं होता।

    7. प्रश्न – जीवस्थान आदि आगमों में सदादि अनुयोग द्वारों में 'नारक' शब्द का ही पहले ग्रहण किया है अतः यहां भी नारक शब्द का ही पहले प्रयोग करना चाहिए ?

    उत्तर – देव शब्द अल्पस्वर है और पूज्य है, अतः व्याकरण के नियमानुसार देवशब्द का ही पूर्वप्रयोग उचित है । आगम में तो क्रम से गतियों का निरूपण है वहां नियम की अपेक्षा नहीं है, क्योंकि जुदे-जुदे वाक्य हैं। जिस अवधिज्ञान का जितना क्षेत्र है उतने आकाश प्रदेश प्रमाण काल और द्रव्य होते हैं अर्थात् उतने समय प्रमाण अतीत और अनागत का ज्ञान होता है और उतने भेदवाले अनन्त प्रदेशी पुद्गलस्कन्धों में और सकर्मक जीवों में ज्ञान की प्रवृत्ति होती है। भाव की दृष्टि से अपने विषयभूत पुद्गल-स्कन्धों के रूपादिगुणों में और जीव के औदयिक, औपशमिक आदि भावों में अवधिज्ञान की प्रवृत्ति होती है।

    नारकी जीवों में रत्नप्रभा में अवधिक्षेत्र नीचे एक योजन शर्कराप्रभाग 3 1/2 गव्यूति बालुका-प्रभा में 3 गव्यूति, पंक प्रभा में 2 1/2 गव्यूति, धूम प्रभा में 2 गव्यूति, तमःप्रभामें 1 1/2 गव्यूति और महातमः प्रभा में एक गव्यूति है । सभी नरकों में ऊपर की ओर अवधिज्ञान अपने नरकबिलों के ऊपरी भाग तक है और तिरछे असंख्यात कोडाकोड़ी योजन है।

    🏠
    + अवधिज्ञान के स्वामी -
    क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम् ॥22॥
    अन्वयार्थ : क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान छह प्रकार का है, जो शेष अर्थात् तिर्यंचों और मनुष्‍यों के होता है ॥२२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अवधिज्ञानावरण कर्म के देशघाती स्‍पर्धकों का उदय रहते हुए सर्वघाति स्‍पर्धकों का उदयाभावी क्षय और अनुदय प्राप्‍त इन्‍हीं का सदवस्‍थारूप उपशम इन दोनोंके निमित्तसे जो होता है वह क्षयोपशमनिमित्तक अवधिज्ञान है। यह शेष जीवों के जानना चाहिए।

    शंका – शेष कौन हैं ?

    समाधान – मनुष्‍य और तिर्यंच। उनमें भी जिनके सामर्थ्‍य है उन्‍हीं के जानना चाहिए। असंज्ञी और अपर्याप्‍तकोंके यह सामर्थ्‍य नहीं है। संज्ञी और पर्याप्‍तकोंमें भी सबके यह सामर्थ्‍य नहीं होती।

    शंका – तो फिर किनके होती है ?

    समाधान – यथोक्त सम्‍यग्‍दर्शन आदि निमित्तों के मिलने पर जिनके अवधिज्ञानावरण कर्म शान्‍त और क्षीण हो गया है उनके यह सामर्थ्‍य होती है। अवधिज्ञान मात्र क्षयोपशमके निमित्तसे होता है तो भी सूत्रमें क्षयोपशम पदका ग्रहण यह नियम करनेके लिए किया है कि उक्त जीवोंके मात्र क्षयोपशम निमित्त है भव नहीं। यह अवधिज्ञान अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थितके भेदसे छह प्रकारका है। कोई अवधिज्ञान जैसे सूर्य का प्रकाश उसके साथ जाता है वैसे अपने स्‍वामी का अनुसरण करता है। कोई अ‍वधिज्ञान अनुसरण नहीं करता, किंतु जैसे विमुख हुए पुरुषके प्रश्‍नके उत्तरस्‍वरूप दूसरा पुरुष जो वचन कहता है वह वहीं छूट जाता है, विमुख पुरुष उसे ग्रहण नहीं करता है वैसे ही यह अवधिज्ञान भी वहीपर छूट जाता है। कोई अवधिज्ञान जंगलके निर्मन्‍थन से उत्‍पन्‍न हुई और सूखे पत्तोंसे उपचीयमान ईंधनके समुदाय से वृद्धिको प्राप्‍त हुई अग्निके समान सम्‍यग्‍दर्शनादि गुणोंकी विशुद्धिरूप परिणामोंके सन्निधानवश जितने परिमाणमें उत्‍पन्‍न होता है उससे असंख्‍यात लोक जानने की योग्‍यता होने तक बढ़ता जाता है। कोई अवधिज्ञान परिमित उपादानसन्‍ततिवाली अग्निशिखाके समान सम्‍यग्‍दर्शनादि गुणोंकी हानिसे हुए संक्‍लेश परिणामोंके बढ़नेसे जितने परिमाणमें उत्‍पन्‍न होता है उससे मात्र अंगुलके असंख्‍यातवें भागप्रमाण जाननेकी योग्‍यता होने तक घटता चला जाता है। कोई अवधिज्ञान सम्‍यग्‍दर्शनादि गुणोंके समानरूपसे स्थिर रहनेके कारण जितने परिमाणमें उत्‍पन्‍न होता है उतना ही बना रहता है। पर्यायके नाश होने तक या केवलज्ञानके उत्‍पन्‍न होने तक शरीरमें स्थित मसा आदि चिह्नके समान न घटता और न बढ़ता है। कोई अवधिज्ञान वायुके वेगसे प्रेरित जलकी तरंगोंके समान सम्‍यग्‍दर्शनादि गुणोंकी कभी वृद्धि और कभी हानि होनेसे जिनते परिमाणमें उत्‍पन्‍न होता है उससे बढ़ता है जहाँतक उसे बढ़ना चाहिए और घटता है जहाँतक उसे घटना चाहिए। इस प्रकार अवधिज्ञान छह प्रकारका है।


    इस प्रकार अव‍धिज्ञानका व्‍याख्‍यान किया। अब आगे मन:पर्ययज्ञानका व्‍याख्‍यान करना चाहिए, अ‍त: उसके भेदोंके साथ लक्षणका कथन करनेकी इच्‍छासे आगेका सूत्र कहते हैं –


    राजवार्तिक :
    1-3. शेष ग्रहण से देवनारकियों के अतिरिक्त सभी प्राणिमात्र के अवधि का विधान नहीं समझना चाहिए क्योंकि असंज्ञी और अपर्याप्तकों में इसकी शक्ति ही नहीं है। संज्ञी और पर्याप्तकों में भी उन्हीं के, जिनके सम्यग्दर्शनादि गुणों से अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम हो गया है । यद्यपि सभी अवधि क्षयोपशमनिमित्तक होती है फिर भी विशेषरूप से क्षयोपशम के ग्रहण करने से यह नियम होता है कि मनुष्य और तिर्यचों के क्षयोपशमनिमित्तक ही अवधिज्ञान होता है भवप्रत्यय नहीं।

    4. अवधिज्ञान के अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित ये छह भेद हैं। देशावधि, परमावधि और सर्वावधि के भेद से भी अवधि-ज्ञान तीन प्रकार का है। सर्वजघन्य देशावधि का उत्सेधांगुल का असंख्यातवां भाग क्षेत्र, आवलि का असंख्यातवां भाग काल और अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण द्रव्य है, अर्थात् इतने बड़े असंख्यात स्कन्धों में ज्ञान की प्रवृत्ति होती है। स्वविषय स्कन्ध के अनेक रूपादि भाव हैं । एक जीव के प्रदेशोत्तर क्षेत्रवृद्धि नहीं होती, नाना जीवों की अपेक्षा प्रदेशोत्तर क्षेत्र का विकल्प संभव है । एक जीव के मंडूकप्लुति क्रम से अंगुल के असंख्येय भाग प्रमाण क्षेत्रवृद्धि होती है - सर्वलोक तक। कालवृद्धि एक जीव और नाना जीवों की अपेक्षा एक समय दो समय आदि आवलि के असंख्यात भाग तक होती है। द्रव्य क्षेत्र और काल की वृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणवृद्धि इन चार प्रकारों से होती है। भाववृद्धि अनन्त भागवृद्धि और अनन्त गुणवृद्धि मिलाकर छह प्रकारों से होती है । हानि भी इसी क्रम से होती है।

    अंगुल के असंख्यात भाग क्षेत्रवाली अवधि का आवलि का संख्यात भाग काल है, अंगुल के असंख्यात भाग आकाश प्रदेश बराबर द्रव्य है, भाव अनन्त, असंख्यात या संख्यात रूप है। अंगुल प्रमाणक्षेत्रवाली अवधि का कुछ कम आवलि प्रमाण काल है, द्रव्य और भाव पहिले की तरह । अंगुल पृथक्त्व (तीनसे ऊपर 9 से नोचे की संख्या) क्षेत्रवाली अवधि का आवली प्रमाण काल है। एक हाथ क्षेत्रवाली अवधि का आवलि पृथक्त्व काल है। एक गव्यूति प्रमाण क्षेत्रवाली अवधि का कुछ अधिक उच्छ्वास प्रमाण काल है। योजनमात्र क्षेत्रवाली अवधि का अन्तर्मुहूर्त काल है। पच्चीस योजन क्षेत्रवाली अवधि का कुछ कम एक दिन काल है। भरतक्षेत्र प्रमाणवाली अवधि का आधा माह काल है। जम्बूद्वीप प्रमाण क्षेत्रवाली अवधि का कुछ अधिक एक माह काल है। मनुष्यलोक प्रमाण क्षेत्रवाली अवधि का एक वर्ष काल है। रुचकद्वीप प्रमाण क्षेत्रवाली अवधि का संवत्सर-पृथक्त्व काल है। संख्यात द्वीप समुद्र प्रमाण क्षेत्रवाली अवधि का संख्यात वर्ष काल है। असंख्यात द्वीप समुद्र प्रमाण क्षेत्रवाली अवधि का असंख्यात वर्ष काल है । इस तरह तिर्यञ्च और मनुष्यों की मध्य देशावधिक द्रव्यक्षेत्र काल आदि हैं।

    तिर्यचों की उत्कृष्ट देशावधि का क्षेत्र असंख्यात द्वीपसमुद्र, काल असंख्यात वर्ष और तेजःशरीर प्रमाण द्रव्य है, अर्थात् वह असंख्यात द्वीप समुद्र प्रमाण आकाश प्रदेशों से परिमित असंख्यात तेजोद्रव्य वर्गणा से रचे गए अनन्त प्रदेशी स्कन्धों को जानता है। भाव पहिले की तरह है। तिर्यचों और मनुष्यों के जघन्य देशावधि होता है । तिर्यचों के केवल देशावधि ही होता है परमावधि और सर्वावधि नहीं।

    मनुष्योंकी उत्कृष्ट देशावधि का क्षेत्र असंख्यात द्वीप समुद्र, काल असंख्य वर्ष और द्रव्य कार्मण शरीर प्रमाण है अर्थात् वह असंख्यात द्वीपसमुद्र प्रमाण आकाश प्रदेशों से परिमित असंख्यात ज्ञानावरणादि कार्मण द्रव्य की वर्गणाओं को जानता है। भाव पहिले की तरह है। यह उत्कृष्ट देशावधि संयत मनुष्यों के होती है।

    परमावधि - जघन्य परमावधि का क्षेत्र एकप्रदेश अधिक लोकप्रमाण, काल असंख्यात वर्ष, द्रव्य प्रदेशाधिक लोकाकाश प्रमाण और भाव अनन्तादि विकल्पवाला है। इसके बाद नाना जीव या एक जीव के क्षेत्रवृद्धि असंख्यात लोकप्रमाण होगी। असंख्यात अर्थात् आवलिका के असंख्यात भाग प्रमाण । परमावधि का उत्कृष्ट क्षेत्र अग्निजीवों की संख्या प्रमाण लोकालोक प्रमाण असंख्यात लोक । परमावधि उत्कृष्ट चारित्रवाले संयत के ही होती है। यह वर्धमान होती है हीयमान नहीं। अप्रतिपाती होती है प्रतिपाती नहीं। अवस्थित होती है। अनवस्थित भी वृद्धि की ओर होती है हानि की ओर नहीं। इस पर्याय में क्षेत्रान्तर में साथ जाने से अनुगामी होती है। परलोक में नहीं जाती इसलिए अननुगामी भी होती है। चरमशरीरी के होने के कारण परलोक तक जाने का अवसर ही नहीं है।

    सर्वावधि - असंख्यात लोक से गुणित उत्कृष्ट परमावधि का क्षेत्र सर्वावधि का क्षेत्र है। काल द्रव्य और भाव पहिले की तरह। यह सर्वावधि न तो वर्धमान होता है न हीयमान, न अनवस्थित और न प्रतिपाती। केवलज्ञान होने तक अवस्थित है और अप्रतिपाती है । पर्यायान्तर को नहीं जाता इसलिए अननुगामी है। क्षेत्रान्तर को जाता है अतः अनुगामी है। परमावधि का देशावधि में अन्तर्भाव करके देशावधि और सर्वावधि ये दो भेद भी अवधिज्ञान के होते हैं। ऊपर कही गई वृद्धियों में जब कालवृद्धि होती है तब चारों की वृद्धि निश्चित है पर क्षेत्रवृद्धि होने पर कालवृद्धि भाज्य है अर्थात् हो भी और न भी हो। भाववृद्धि होनेपर द्रव्यवृद्धि नियत है पर क्षेत्र और कालवृद्धि भाज्य है। यह अवधिज्ञान श्रीवृक्ष, स्वस्तिक, नन्द्यावर्त आदि शरीरचिह्नों में से किसी एक से प्रकट होने पर एकक्षेत्र और अनेक से प्रकट होने पर अनेकक्षेत्र कहा जाता है। इन चिह्नों की अपेक्षा रखने के कारण इसे पराधीन अतएव परोक्ष नहीं कह सकते; क्योंकि इन्द्रियों को ही 'पर' कहा गया है, जैसा कि गीतामें भी कहा है - "इन्द्रियां पर हैं, इन्द्रियों से भी परे मन है, मन से परे बुद्धि और बुद्धि से भी परे आत्मा है।" अतः इन्द्रियों की अपेक्षा न होने से परोक्ष नहीं कह सकते।

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    + मनःपर्यय के भेद -
    ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः ॥23॥
    अन्वयार्थ : ऋजुमति और विपुलमति मन:पर्ययज्ञान है ॥२३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    ऋजु का अर्थ निर्वर्तित और प्रगुण है।

    शंका – किससे निर्वर्तित ?

    समाधान – दूसरे के मन को प्राप्‍त हुए वचन, काय और मनकृत अर्थ के विज्ञान से अनिर्वर्तित । जिसकी मति ऋजु है वह ऋजुमति कहलाता है । विपुल का अर्थ अनिर्वर्तित और कुटिल है ।

    शंका – किससे अनिर्वर्तित ?

    समाधान – दूसरे के मनको प्राप्‍त हुए वचन, काय और मनकृत अर्थ के विज्ञानसे अनिवर्तित। जिसकी मति विपुल है वह विपुलमति कहलाता है। सूत्रमें जो 'ऋजुविपुलमती' पद आया है वह ऋजुमति और विपुलमति इन पदों से समसित होकर बना है । यहाँ एक ही मति शब्‍द पर्याप्‍त होनेसे दूसरे मति शब्‍दका प्रयोग नहीं किया । अथवा ऋजु और विपुल शब्‍द का कर्मधार‍य समास करनेके बाद इनका मति शब्‍दके साथ बहुव्रीहि समास कर लेना चाहिए। तब भी दूसरे मति शब्‍दकी आवश्‍यकता नहीं रहती । यह मन:पर्ययज्ञान दो प्रकारका है – ऋजुमति और विपुलमति ।


    शंका – मन:पर्ययज्ञान के भेद तो कह दिये । अब उसका लक्षण कहना चाहिए ।

    समाधान – वीर्यान्‍तराय और मन:पर्यय ज्ञानावरण के क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्मके आलम्‍बन से आत्‍मा में जो दूसरे के मन के सम्‍बन्‍ध से उपयोग जन्‍म लेता है उसे मन:पर्ययज्ञान कहते हैं ।

    शंका – यह ज्ञान मन के सम्‍बन्‍ध से होता है, अत: इसे मतिज्ञान होने का प्रसंग आता है ?

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि इस शंका का उत्तर पहले दे आये हैं । अर्थात् यहाँ मन की अपेक्षामात्र है । दूसरेके मनमें अवस्थित अर्थ को यह जानता है इतनी मात्र यहाँ मन की अपेक्षा है । इनमें से ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान काल की अपेक्षा जघन्‍य से जीवों के और दो तीन भवों को ग्रहण करता है, उत्‍कृष्‍ट से गति और आगति की अपेक्षा सात-आठ भवों का कथन करता है । क्षेत्र की अपेक्षा जघन्‍य से गव्‍यूतिपृथक्‍त्‍व और उत्‍कृष्‍ट से योजनपृथक्‍त्‍व के भीतर की बात जानता है, इससे बाहर की नहीं । विपुलमति काल की अपेक्षा जघन्‍य से सात-आठ भवों को ग्रहण करता है, उत्‍कृष्‍ट से गति ओर आगति की अपेक्षा असंख्‍यात भवों का कथान करता है । क्षेत्र की अपेक्षा जघन्‍य से योजन-पृथक्‍त्‍व और उत्‍कृष्‍ट से मानुषोत्तर पर्वत के भीतर की बात जानता है, इससे बाहर की बात नहीं जानता ।

    पहले मन:पर्ययज्ञानके दो भेद कहे हैं उनका और विशेष ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    ऋजु अर्थात् सरल और विपुल अर्थात् कुटिल । परकीय मनोगत मन-वचन-काय सम्बन्धी पदार्थों को जानने के कारण मनःपर्यय दो प्रकार का हो जाता है।

    1-6. वीर्यान्तराय और मनःपर्ययज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर तथा तदनुकूल अङ्ग उपाङ्गों का निर्माण होने पर अपने और दूसरे के मन की अपेक्षा से होनेवाला ज्ञान मनःपर्यय कहलाता है। अपने मन की अपेक्षा तो इसलिए होती है कि वहां के आत्मप्रदेशों में मनःपर्ययज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है। जैसे चक्षु में अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर चक्षु की अपेक्षा होने मात्र से अवधिज्ञान को मतिज्ञान नहीं कहते उसी तरह मनःपर्यय भी मतिज्ञान नहीं है क्योंकि वह इन्द्रिय और मन से उत्पन्न नहीं होता। पर के मन में स्थित विचारों को जानता है अतः आकाश में चन्द्र को देखने के लिए जैसे आकाश साधारण-सा निमित्त है वह चन्द्रज्ञान का उत्पादक नहीं है उसी तरह पर का मन साधारण सा आधार है वह मनःपर्ययज्ञान का उत्पादक नहीं है। इसलिए मनःपर्यय मतिज्ञान नहीं हो सकता। इसी तरह धूम से स्वसम्बन्धी अग्नि के ज्ञान की तरह परकीय मनःसम्बन्धी विचारों को जानने के कारण मनःपर्यय ज्ञान को अनुमान नहीं कह सकते; क्योंकि अनुमान या तो इन्द्रियों से हेतु को देखकर या परोपदेश से हेतु को जानकर ही उत्पन्न होता है परन्तु मनःपर्यय में न तो इन्द्रियों की अपेक्षा होती है और न परोपदेश की ही। फिर अनुमान परोक्ष ज्ञान है जब कि मनःपर्यय प्रत्यक्ष । इसमें 'इन्द्रिय मन की अपेक्षा न करके जो अव्यभिचारी और साकार ग्रहण होता है वह प्रत्यक्ष है' यह प्रत्यक्ष का लक्षण पाया जाता है । जैसा कि सूत्र में बताया है मनःपर्यय दो प्रकार का है ।

    7. ऋजुमनस्कृतार्थज्ञ, ऋजुवाक्कृतार्थज्ञ और ऋजुकायकृतार्थज्ञ इस प्रकार ऋजुमति तीन प्रकार का है । जैसे किसी ने किसी समय सरल मन से किसी पदार्थ का स्पष्ट विचार किया, स्पष्ट वाणी से कोई विचार व्यक्त किया और शरीर से इसी प्रकार की स्पष्ट क्रिया की, कालान्तर में उसे भूल गया, फिर यदि ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानी से पूछा जाय कि - 'इसने अमुक समय में क्या सोचा था, क्या कहा था या क्या किया था ?' या न भी पूछा जाय तो भी वह स्पष्ट रूप से सभी बातों को प्रत्यक्ष जानकर बता देगा। महाबन्ध शास्त्र में बताया है कि 'मनसा मन: परिच्छिद्य परेषां संज्ञादीन् विजानाति' अर्थात् मन से-आत्मा से दूसरे के मन को जानकर उसकी संज्ञा-चिन्ता, जीवित-मरण, सुख-दुःख, लाभालाभ को जान लेता है । जैसे मंच पर बैठे हुए लोगों को उपचार से मंच कहते हैं उसी तरह मन में विचारे गये चेतन-अचेतन अर्थों को भी मन कहते हैं । यह स्पष्ट और सरल मनवाले लोगों की बात को जानता है, कुटिल मनवालों की बात को नहीं। काल से जघन्यरूप से अपने या अन्य जीवों के दो-तीन भव और उत्कृष्ट रूप से सात-आठ भवों को गति-आगति अर्थात् जिस भव को छोड़ा और जिसे ग्रहण किया उनकी दो गिनती करके जानता है । क्षेत्र से जघन्य गव्यूति पृथक्त्व के भीतर और उत्कृष्ट योजनपृथक्त्व के भीतर जानता है।

    8. विपुलमति ऋजु के साथ ही साथ कुटिल मन-वचन-काय सम्बन्धी प्रवृत्तियों को भी जानता है अतः छह प्रकार का हो जाता है। अर्थात् यह अपने या पर के व्यक्त-मन से या अव्यक्त-मन से चिन्तित या अचिन्तित या अर्धचिन्तित सभी प्रकार से चिन्ता, जीवित-मरण, सुख-दुःख, लाभ-अलाभ आदि को जानता है। विपुलमति काल से जघन्यरूप से सात-आठ भव तथा उत्कृष्टरूप से गत्यागति की दृष्टि से असंख्यात भवों को जानता है। क्षेत्र जघन्यरूप से योजनपृथक्त्व है और उत्कृष्ट मानुषोत्तर पर्वत के भीतर है, बाहिर नहीं ।

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    + मनःपर्यय के दोनो भेदों में विशेषता -
    विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥24॥
    अन्वयार्थ : विशुद्धि और अप्रतिपात की अपेक्षा इन दोनों में अन्‍तर है ॥२४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    मन:पर्ययज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेपर जो आत्‍मामें निर्मलता आती है उसे विशुद्धि कहते हैं। गिरने का नाम प्रतिपात है और नहीं गिरना अप्रतिपात कहलाता है। उपशान्‍तकषाय जीव का चारित्र मोहनीय के उदय से संयम शिखर छूट जाता है, जिससे प्रतिपात होता है और क्षीणकषाय जीव का पतनका कारण न होने से प्रतिपात नहीं होता। इन दोनों की अपेक्षा ऋजुमति ओर विपुलमति में भेद है। विशुद्धि यथा – ऋजुमतिसे विपुलमति द्रव्‍य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा विशुद्धत्तर हे।

    शंका – कैसे ?

    समाधान – यहाँ जो कार्मण द्रव्‍य का अनन्तवाँ भाग सर्वावधिज्ञान का विषय है उसके भी अनन्‍त भाग करने पर जो अन्तिम भाग प्राप्‍त होता है वह ऋजुमतिका विषय है। और इस ऋजु‍मतिके विषयके अनन्‍त भाग करने पर जो अन्तिम भाग प्राप्‍त होता है वह विपुलमतिका विषय है। अनन्‍त के अनन्‍त भेद हैं अत: ये उत्तरोत्तर सूक्ष्‍म विषय बन जाते हैं। इस प्रकार द्रव्‍य, क्षेत्र और काल की अपेक्षा विशुद्धि कही। भावकी अपेक्षा विशुद्धि उत्तरोत्तर सूक्ष्‍म द्रव्‍यको विषय करनेवाला होनेसे ही जान लेनी चाहिए, क्‍योंकि इनके उत्तरोत्तर प्रकृष्‍ट क्षयोपशम रूप विशुद्धि पायी जाती है, इसलिए ऋजुमति से विपुलमति में विशुद्धि अधिक होती है। अप्रतिपातकी अपेक्षा भी विपुलमति विशिष्‍ट है; क्‍योंकि इसके स्‍वामियोंके प्रवर्धमान चारित्र पाया जाता है। परन्‍तु ऋजु‍मति प्रतिपाती है; क्‍योंकि इसके स्‍वामियोंके कषायके उदयसे घटता हुआ चारित्र पाया जाता है।


    यदि इस मन:पर्ययज्ञान का अलग-अलग यह भेद है तो अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान में किस कारण से भेद है ? अब इसी बात के बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं –


    राजवार्तिक :
    संयम शिखर से गिरने को प्रतिपात कहते हैं । ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती उपशान्तकषाय का प्रतिपात होता है बारहवें क्षीणकषायी का नहीं। इन दो दृष्टियों से ऋजुमति और विपुलमति में विशेषता है अर्थात् विपुलमति विशुद्धतर और अप्रतिपाती होता है।

    1-2. यद्यपि पहिले सूत्र से ही विशेषता ज्ञात हो जाती थी फिर भी अन्य रूप से विशेषता दिखाने के लिए यह सूत्र बनाया है। यदि विशुद्धि और अप्रतिपात मनःपर्ययज्ञान के भेद होते तो समुच्चयार्थक 'च' शब्द का ग्रहण करना उचित था पर ये भेद नहीं हैं। ये तो उनकी परस्पर विशेषता बतानेवाले प्रकार हैं। सर्वावधि के विषयभूत कार्मणद्रव्य का अनन्तवाँ भाग ऋजुमति का ज्ञेय होता है, उसका भी अनन्तवाँ भाग सूक्ष्म विपुलमति का । अतः ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव प्रत्येक दृष्टि से विशुद्धतर है। विपुलमति अप्रतिपाती होने के कारण ऋजुमति से विशिष्ट है क्योंकि विपुलमति के स्वामी प्रवर्धमान चारित्रवाले होते हैं जब कि ऋजुमति के स्वामी हीयमान चारित्रवाले।

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    + अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान में अन्तर -
    विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्यययोः ॥25॥
    अन्वयार्थ : विशुद्धि, क्षेत्र, स्‍वामी और विषय की अपेक्षा अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में भेद है ॥२५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    विशुद्धि का अर्थ निर्मलता है।

    जिस स्‍थान में स्थित भावों को जानता है वह क्षेत्र है।

    स्‍वामी का अर्थ प्रयोक्‍ता है।

    विषय ज्ञेय को कह‍ते हैं।

    सो इन दोनों ज्ञानों में अवधिज्ञान से मन:पर्ययज्ञान विशुद्धितर हैं, क्‍योंकि मन:पर्ययज्ञानका विषय सूक्ष्‍म है। क्षेत्रका कथन पहले कर आये हैं। विषयका कथन आगे करेंगे। यहाँ स्‍वामीका विचार करते हैं – मन:पर्ययज्ञान प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्‍थान तकके उत्‍कृष्‍ट चारित्रगुणसे युक्त जीवोंके ही पाया जाता है। वहाँ उत्‍पन्‍न होता हुआ भी वह वर्द्धमान चारित्रवाले जीवोंके ही उत्‍पन्‍न होता है, घटते हुए चारित्रवाले जीवोंके नहीं। वर्धमान चारित्रवाले जीवोंमें उत्‍पन्‍न होता हुआ भी सात प्रकारकी ऋद्धियोंमें-से किसी एक ऋद्धिको प्राप्‍त हुए जीवोंके ही उत्‍पन्न होताहै, अन्‍यके नहीं। ऋद्धिप्राप्‍त जीवोंमें भी किन्‍हींके ही उत्‍पन्न होता है, सबके नहीं, इस प्रकार सूत्रमें इसका स्‍वामीविशेष या विशेष्‍ट संयमका ग्रहण प्रकृत है। परन्तु अवधिज्ञान चारों गतिके जीवोंके होता है, इसलिए स्‍वामियोंके भेदसे भी इनमें अन्‍तर है।

    अब केवलज्ञानका लक्षण कहनेका अवसर है। किन्‍तु उसका कथन न कर पहले ज्ञानोंके विषयका विचार करते हैं, क्‍योंकि केवलज्ञानका लक्षण 'मोहक्षयाज्‍ज्ञानदर्शनावरणान्‍तरायक्षयाच्‍च केवलम्' यहाँ कहेंगे। यदि ऐसा है तो सर्वप्रथम आदिमें आये हुए मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके विषयका कथन करना चाहिए। इसी बातको ध्‍यानमें रखकर आगेका सूत्र कहते हैं -


    राजवार्तिक :
    यद्यपि सर्वावधिज्ञान का अनन्तवाँ भाग मनःपर्यय का विषय होता है अतः अल्प विषय है फिर भी वह उस द्रव्य की बहुत पर्यायों को जानता है। जैसे बहुत शास्त्रों का थोड़ा-थोड़ा परिचय रखनेवाले पल्लवग्राही पंडित से एक शास्त्र के यावत् सूक्ष्म अर्थों को तलस्पर्शी गंभीर व्याख्याओं से जाननेवाला प्रगाढ़ विद्वान् विशुद्धतर माना जाता है उसी तरह मनःपर्यय भी सूक्ष्मग्राही होकर भी विशुद्धतर है । क्षेत्र की अपेक्षा विशेषता बताई जा चुकी है। विषय अभी ही आगे बतायेंगे। मनःपर्यय का स्वामी संयमी मनुष्य ही होता है जब कि अवधिज्ञान चारों गतियों के जीवों के होता है । आगम में कहा है कि - 'मनःपर्यय मनुष्यों के होता है देव नारकी और तिर्यञ्चों के नहीं। मनुष्यों में भी गर्भजों के ही होता है सम्मूर्च्छनों के नहीं । गर्भजों में भी कर्मभूमिजों के होता है अकर्मभूमिजों के नहीं। कर्मभृमिजों में पर्याप्तकों के, पर्याप्तकों में सम्यग्दृष्टियों के, सम्यग्दृष्टियों में पूर्णसंयमियों के, संयमियों में छठवें से बारहवें गुणस्थानवालों के ही, उनमें भी जिनका चारित्र प्रवर्धमान है और जिन्हें कोई ऋद्धि प्राप्त है, उनमें भी किसी को ही होता है सबको नहीं। इस तरह विशिष्ट संयमवालों के होने के कारण मनःपर्यय विशिष्ट है।

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    + मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषय -
    मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ॥26॥
    अन्वयार्थ : मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति कुछ पर्यायों से युक्त सब द्रव्‍यों में होती है ॥२६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    निबन्‍ध शब्‍द का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है- निबन्‍धनं निबन्‍ध: - जोड़ना, सम्‍बन्‍ध करना।

    शंका – किसका सम्‍बन्‍ध ? समाधान – विषय का।

    शंका – तो सूत्र में विषय पदका ग्रहण करना चाहिए ?

    समाधान – नहीं करना चाहिए, क्‍योंकि विषय पद का ग्रहण प्रकरण प्राप्‍त है।

    शंका – कहाँ प्रकरण में आया है ?

    समाधान – 'विशुद्धिक्षेत्रस्‍वामिविषयेभ्‍य:' इस सूत्र में आया है। वहाँ से 'विषय' पद को ग्रहण कर अर्थ के अनुसार उसकी विभक्ति बदल ली है, इसलिए यहाँ षष्‍ठी विभक्तिके अर्थमें उसका ग्रहण हो जाता है। सूत्रमें 'द्रव्‍येषु' बहुवचनान्‍त पदका निर्देश जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन सब द्रव्‍योंका संग्रह करनेके लिए किया है। और इन सब द्रव्‍योंके विशेषणरूपसे 'असर्वपर्यायेषु' पदका ग्रहण किया है। वे सब द्रव्‍य मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके विषयभावको प्राप्‍त होते हुए कुछ पर्यायोंके द्वारा ही विषयभावको प्राप्‍त होते हैं, सब पर्यायोंके द्वारा नहीं और अनन्‍त पर्यायोंके द्वारा भी नहीं।

    शंका – धर्मास्तिकाय आदि अ‍तीन्द्रिय हैं। उनमें मतिज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती, अत: 'सब द्रव्‍योंमें मतिज्ञानकी प्रवृत्ति होती है' य‍ह कहना अयुक्त है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्‍योंकि अनिन्द्रिय नामका एक करण है। उसके आलम्‍बनसे नोइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमरूप लब्धिपूर्वक अवग्रह आदिरूप उपयोग पहले ही उत्‍पन्‍न हो जाता है, अत: तत्‍पूर्वक होनेवाला श्रुतज्ञान अपने योग्‍य इन विषयोंमें व्‍यापार करता है।

    मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके अनन्‍तर निर्देशके योग्य अवधिज्ञानका विषय क्‍या है आगे सूत्र द्वारा इसी बातको बतलाते हैं –

    राजवार्तिक :
    1-2. ऊपर के सूत्र से 'विषय' शब्द का सम्बन्ध यहां हो जाता है अतः यहां फिर 'विषय' शब्द देने की आवश्यकता नहीं है । यद्यपि पूर्वसूत्र में विषय शब्द अन्यविभक्तिक है फिर भी 'अर्थवशाद् विभक्तिपरिणामः - अर्थात् अर्थ के अनुसार विभक्ति का परिणमन हो जाता है' इस नियम के अनुसार यहां अनुकूल विभक्ति का सम्बन्ध कर लेना चाहिए, जैसे कि - 'देवदत्त के बड़े-बड़े मकान हैं उसे बुलाओ' यहां 'देवदत्त के' इस षष्ठी विभक्तिवाले देवदत्त का 'उसे' इस द्वितीया विभक्ति रूप परिणमन अर्थ के अनुसार हो गया है।

    3-4. 'द्रव्येषु' यह बहुवचनान्त प्रयोग सर्वद्रव्यों के संग्रह के लिए है। अर्थात् मति और श्रुत जानते तो सभी द्रव्यों को हैं पर उनकी कुछ ही पर्यायों को जानते हैं इसीलिए सूत्र में 'असर्वपर्यायेषु' यह द्रव्यों का विशेषण दे दिया है । मतिज्ञान चक्षुरादि इन्द्रियों से उत्पन्न होता है और रूपादि को विषय करता है अतः स्वभावतः वह रूपी-द्रव्यों को जानकर भी उनकी कुछ स्थूल पर्यायों को ही जानेगा । श्रुत भी प्रायः शब्दनिमित्तक होता है और असंख्यात शब्द अनन्त पदार्थों की स्थूल पर्यायों को ही कह सकते हैं सभी पर्यायों को नहीं। कहा भी है - 'शब्दों के द्वारा प्रज्ञापनीय पदार्थों से वचनातीत पदार्थ अनन्तगुने हैं अर्थात् अनन्तवें भाग पदार्थ प्रज्ञापनीय होते हैं और जितने प्रज्ञापनीय पदार्थ हैं उनके अनन्तवें भाग श्रुत निबद्ध होते हैं।' धर्म, अधर्म, आकाशादि अरूपी अतीन्द्रिय पदार्थ भी मानस मतिज्ञान के विषय होते हैं अतः मतिश्रुत में सर्वद्रव्य विषयता बन जाती है।

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    + अवधिज्ञान का विषय -
    रूपिष्ववधेः ॥27॥
    अन्वयार्थ : अवधिज्ञान की प्रवृत्ति रूपी पदार्थों में होती है ॥२७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके अनन्‍तर निर्देशके योग्य अवधिज्ञानका विषय क्‍या है आगे सूत्र द्वारा इसी बातको बतलाते हैं –

    पिछले सूत्र से 'विषयनिबन्‍ध:' पदकी अनुवृत्ति होती है। 'रूपिषु' पद-द्वारा पुद्गलों और पुद्गलोंमें बद्ध जीवोंका ग्रहण होता है। इस सूत्र द्वारा 'रूपी पदार्थों में ही अवधिज्ञान का विषय सम्‍बन्‍ध है, अरूपी पदार्थों में नहीं' यह नियम किया गया है। रूपी पदार्थों में होता हुआ भी उनकी सब पर्यायोंमें नहीं होता, किन्‍तु स्‍वयोग्‍य पर्यायोंमें ही होता है इस प्रकारका निश्‍चय करनेके लिए 'असर्वपर्यायेषु' पदका सम्‍बन्‍ध होता है।

    अब इसके अनन्‍तर निर्देशके योग्‍य मन:पर्ययज्ञानका विषयसम्‍बन्‍ध क्‍या है इस बात के बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1-3. रूप शब्द का स्वभाव भी अर्थ है और चक्षु के द्वारा ग्राह्य शुक्ल आदि गुण भी। पर यहां शुक्ल आदि रूप ही ग्रहण करना चाहिए । 'रूपी' में जो मत्वर्थीय प्रत्यय है उसका 'नित्ययोग' अर्थ लेना चाहिए अर्थात् क्षीरी-सदा दूधवाले वृक्ष की तरह जो द्रव्य सदा रूपवाले हों उन्हें रूपी कहते हैं। उपलक्षणभूत रूप के ग्रहण करने से रूप के अविनाभावी रस, गन्ध और स्पर्श का भी ग्रहण हो जाता है। अर्थात् रूप-रस-गन्ध-स्पर्शवाले पुद्गल अवधिज्ञान के विषय होते हैं।

    4. इस सूत्र में 'असर्वपर्याय' की अनुवृत्ति कर लेनी चाहिए । अर्थात् पहिले कहे गए रूपी द्रव्यों की कुछ पर्यायों को और जीव के औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक भावों को अवधिज्ञान विषय करता है क्योंकि इनमें रूपी-कर्म का सम्बन्ध है । वह क्षायिक-भाव तथा धर्म, अधर्म आदि अरूपी द्रव्यों को नहीं जानता।

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    + मनःपर्यय ज्ञान का विषय -
    तदनन्तभागे मनःपर्ययस्य ॥28॥
    अन्वयार्थ : मन:पर्ययज्ञान की प्रवृत्ति अवधिज्ञान के विषय के अनन्‍तवें भाग में होती है ॥२८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जो रूपी द्रव्‍य सर्वावधिज्ञानका विषय है उसके अनन्‍त भाग करने पर उसके एक भाग में मन:पर्ययज्ञान प्रवृत्त होता है।


    अब अन्‍तमें जो केवलज्ञान कहा है उसका विषय क्‍या है यह बतलानेके लिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    तदनन्तभागे मनःपर्ययस्य ॥28॥

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    + केवल ज्ञान का विषय -
    सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥29॥
    अन्वयार्थ : केवलज्ञान की प्रवृत्ति सब द्रव्‍य और उनकी सब पर्यायों में होती है ॥२९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्र में आये हुए द्रव्‍य और पर्याय इन दोनों पदोंका इतरेतरयोग द्वन्‍द्वसमास है। तथा इन दोनोंके विशेषरूपसे आये हुए 'सर्व' पदको द्रव्‍य और पर्याय इन दोनोंके साथ जोड़ लेना चाहिए। यथा – सब द्रव्‍योंमें और सब पर्यायोंमें। जीव द्रव्‍य अनन्‍तानन्‍त हैं। पुद्गल द्रव्‍य इनसे भी अनन्‍तानन्‍तगुणे हैं। जिनके अणु और स्‍कन्‍ध ये भेद हैं। धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन हैं और काल असंख्‍यात हैं। इन सब द्रव्‍योंकी पृथक्-पृथक् तीनों कालोंमें होनेवाली अनन्‍तानन्‍त पर्यायें हैं। इन सबमें केवलज्ञानकी प्रवृत्ति होती है। ऐसा न कोई द्रव्‍य है और न पर्यायसमूह है जो केवलज्ञानके विषयके परे हो। केवलज्ञानका माहात्‍म्‍य अपरिमित है इसी बातका ज्ञान करानेके लिए सूत्रमें 'सर्वद्रव्‍यपर्यायेषु' पद कहा है।

    मत्‍यादिकके विषयसम्‍बन्‍ध का निश्‍चय किया, किन्‍तु यह न जान सके कि एक आत्‍मामें एक साथ अपने-अपने निमित्तोंके मिलनेपर कितने ज्ञान उत्‍पन्‍न हो सकते हैं, इसी बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1-3. जो स्वतन्त्र कर्ता होकर अपनी पर्यायों को प्राप्त होता है अथवा अपनी पर्यायों के द्वारा प्राप्त किया जाता है वह द्रव्य है । एक ही द्रव्य कर्ता भी होता है कर्म भी, क्योंकि उसका अपनी पर्यायों से कथञ्चिद् भेद है। यदि सर्वथा अभेद होता तो एक ही निर्विशेष द्रव्य की सत्ता रहने से कर्ता और कर्म ये विभिन्न व्यवहार नहीं हो सकते ।

    4. स्वाभाविक या नैमित्तिक विरोधी या अविरोधी धर्मों में अमुक शब्द व्यवहार के लिए विवक्षित द्रव्य की अवस्थाविशेष को पर्याय कहते हैं। जो धर्म द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव आदि निमित्तों से होते हैं उन्हें उपात्तहेतुक कहते हैं और जो तीनों कालों में अपनी स्वाभाविक सत्ता रखते हैं वे अनुपात्तहेतुक हैं, जैसे जीव के औदयिक आदि भाव और अनादि पारिणामिक चैतन्य आदि। कुछ धर्म अविरोधी होते हैं और कुछ विरोधी, जैसे जीव के अनादि पारिणामिक चैतन्य भव्यत्व या अभव्यत्व ऊर्ध्वगतिस्वभाव अस्तित्वादि एक साथ होने से अविरोधी हैं और नारक तिर्यञ्च मनुष्य देव -- गति, स्त्री पुरुष नपुंसकत्व, एकेन्द्रियादि जाति बचपन, जवानी क्रोध शान्ति आदि एक साथ नहीं हो सकतीं अतः विरोधी हैं। पुद्गल के रूप रसादिसामान्य अचेतनत्व अस्तित्वादि अविरोधी हैं और अमुक शुक्ल कृष्ण आदि रूप कड़वा चिरपरा कषायला आदि रस आदि परस्पर विरोधी हैं। इसी तरह धर्माधर्मादि द्रव्यों में कुछ सामान्यधर्म अविरोधी हैं और विशेषधर्म विरोधी होते हैं।

    5-6 द्रव्य और पर्याय शब्द का इतरेतर योग द्वन्द्व समास है । द्वन्द्व समास जैसे प्लक्ष और न्यग्रोध आदि भिन्न पदार्थों में होता है उसी तरह कथञ्चिद् भिन्न गो और गोत्व आदि में भी होता है। गो और गोत्व सामान्य और विशेषरूप से कथञ्चिद् अभिन्न हैं। 'द्रव्याणां पर्यायाः' ऐसा षष्ठी तत्पुरुष समास करके द्रव्यों को पर्याय का विशेषण बनाना उचित नहीं है। क्योंकि ऐसी दशा में द्रव्य शब्द ही निरर्थक हो जायगा, कारण अद्रव्य की तो पर्याय होती नहीं है। फिर, तत्पुषसमास में उत्तर पदार्थ प्रधान होता है अतः 'केवलज्ञान के द्वारा पर्यायें ही जानी जाती हैं, द्रव्य नहीं' यह अनिष्ट प्रसंग प्राप्त होता है। 'सब पर्यायों के जान लेने पर द्रव्य तो जान ही लिया जाता है' यह समाधान भी ठीक नहीं है क्योंकि इस पक्ष में द्रव्यग्रहण की अनर्थकता ज्यों-की-त्यों बनी रहती है। अतः उभयपदार्थ प्रधान द्वन्द्व समास ही यहां ठीक है । 'पर्याय के बिना द्रव्य उपलब्ध नहीं होता' अतः द्वन्द्व समास में भी द्रव्यग्रहण निरर्थक है' यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदि की दृष्टि से द्रव्य पर्याय में विभिन्नता है।

    9. लोक और अलोक में त्रिकाल विषयक जितने अनन्तानन्त द्रव्य और पर्याय हैं उन सभी में केवलज्ञान की प्रवृत्ति होती है। जितना यह लोक है उतने यदि अनन्त भी लोक हों तो उन्हें भी केवलज्ञान जान सकता है। एक साथ कितने ज्ञान होते है ?

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    + एक साथ कितने ज्ञान संभव? -
    एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः ॥30॥
    अन्वयार्थ : एक आत्‍मा में एक साथ एक से लेकर चार ज्ञान तक भजना से होते हैं ॥३०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    'एक' शब्‍द संख्‍यावाची है और 'आदि' शब्‍द अवयववाची है । जिनका आदि एक है वे एकादि कहलाते हैं । 'भाज्‍यानि' का अर्थ 'विभाग करना चाहिए' होता है । तात्‍पर्य यह है कि एक आत्‍मामें एक साथ एक ज्ञानसे लेकर चार ज्ञान तक हो सकते हैं । यथा - यदि एक ज्ञान होता है तो केवलज्ञान होता है । उसके साथ दूसरे क्षायोपशमिक ज्ञान एक साथ नहीं रह सकते । दो होते हैं तो मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं । तीन होते हैं तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान या मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और मन:पर्ययज्ञान होते हैं । तथा चार होते हैं तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान होते हैं । एक साथ पाँच ज्ञान नहीं होते, क्‍योंकि केवलज्ञान असहाय है ।

    अब यथोक्त मत्‍यादिक ज्ञान व्‍यपदेशको ही प्राप्‍त होते हैं । या अन्‍यथा भी होते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र है -

    राजवार्तिक :
    1. 'एक' शब्द के संख्या, भिन्नता, अकेलापन, प्रथम, प्रधान आदि अनेक अर्थ हैं पर यहां 'प्रथम' अर्थ विवक्षित है।

    2-3. 'आदि' शब्द के भी व्यवस्था, प्रकार, सामीप्य, अवयव आदि अनेक अर्थ हैं, यहाँ अवयव अर्थ की विवक्षा है। अर्थात् एक-प्रथम परोक्षज्ञान का आदि-अवयव मतिज्ञान । अथवा, आदि शब्द समीपार्थक है। इसका अर्थ है मतिज्ञान का आदि समीप-श्रुतज्ञान ।

    4. प्रश्न – यदि मतिज्ञान का समीप 'श्रुतज्ञान' आदि शब्द से लिया जाता है तो इसमें मतिज्ञान छूट जायगा ?

    उत्तर – चूंकि मति और श्रुत सदा अव्यभिचारी हैं, नारद पर्वत की तरह एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ते अतः एक के ग्रहण से दूसरे का ग्रहण ही हो जाता है।

    5-7. जैसे 'ऊंट के मुख की तरह मुख है जिसका वह उष्ट्रमुख' इस बहुव्रीहि समास में एक मुख शब्द का लोप हो गया है उसी तरह 'एकादि हैं आदि में जिनके वे एकादीनि' यहां भी एक आदि शब्द का लोप हो जाता है। अवयव से विग्रह होता है और समुदाय समास का अर्थ होता है। इससे एक को आदि को लेकर चार तक विभाग करना चाहिए; क्योंकि केवलज्ञान असहाय है उसे किसी अन्य ज्ञान की सहायता की अपेक्षा नहीं है, जबकि क्षायोपशमिक मति आदि चार ज्ञान सहायता की अपेक्षा रखते हैं अतः केवलज्ञान अकेला ही होता है उसके साथ अन्य ज्ञान नहीं रह सकते ।

    8-10. प्रश्न – केवलज्ञान होने पर अन्य क्षायोपशमिक ज्ञानों का अभाव नहीं होता, किन्तु वे दिन में तारागणों की तरह विद्यमान रहकर भी अभिभूत हो जाते हैं और अपना कार्य नहीं करते ?

    उत्तर – केवलज्ञान चूंकि क्षायिक और परम विशुद्ध है अतः सकलज्ञानावरण का विनाश होनेपर केवली में ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होनेवाले ज्ञानों की संभावना कैसे हो सकती है ? सर्वशुद्धि की प्राप्ति हो जाने पर लेशतः अशुद्धि की कल्पना ही नहीं हो सकती। आगम में असंज्ञी पंचेन्द्रिय से अयोगकेवलि तक जो पंचेन्द्रिय गिनाए हैं वहां द्रव्येन्द्रियों की विवक्षा है ज्ञानावरण के क्षयोपशमरूप भावन्द्रियों की नही । यदि भावेन्द्रियां विवक्षित होतीं तो ज्ञानावरण का सद्भाव होने से सर्वज्ञता ही नहीं हो सकती। अतः एक आत्मा में पांच एक साथ नही होंगे। अथवा, एक शब्द को संख्यावाची मानकर अकेला मतिज्ञान भी एक हो सकता है क्योंकि जो अंगप्रविष्ट आदि रूप श्रुतज्ञान है वह हर-एक को हो भी न भी हो। अथवा, संख्या, असहाय और प्राधान्यवाची एक शब्द को मानकर अकेला असहाय और प्रधान केवलज्ञान एक होगा दो मति श्रुत आदि ।

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    + कौन-कौन से ज्ञान मिथ्या भी होते हैं? -
    मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्‍च ॥31॥
    अन्वयार्थ : मति, श्रुत और अवधि ये तीन विपर्यय भी हैं ॥३१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    विपर्यय का अर्थ मिथ्‍या है, क्‍योंकि सम्‍यग्‍दर्शन का अधिकार है । 'च' शब्‍द समुच्‍चयरूप अर्थ में आया है । इससे यह अर्थ होता है कि मति, श्रुत और अवधि विपर्यय भी हैं और समीचीन भी ।

    शंका – ये विपर्यय किस कारण से होते हैं ?

    समाधान – क्‍योंकि मिथ्‍यादर्शन के साथ एक आत्‍मा में इनका समवाय पाया जाता है । जिस प्रकार रज सहित कड़वी तूंबड़ी में रखा हुआ दूध कड़वा हो जाता है उसी प्रकार मिथ्‍यादर्शन के निमित्त से ये विपर्यय होते हैं । कड़वी तूंबडी़ के आधारके दोषसे दूधका रस मीठेसे कड़वा हो जाता है - यह स्‍पष्‍ट है, किन्‍तु उस प्रकार मत्‍यादि ज्ञानों की विषय के ग्रहण करनेमें विपरीतता नहीं मालूम होती । खुलासा इस प्रकार है - जिस प्रकार सम्‍यग्‍दृष्टि चक्षु आदिके द्वारा रूपादिक पदार्थों को ग्रहण करता है उसी प्रकार मिथ्‍यादृष्टि भी मत्‍याज्ञानके द्वारा रूपादिक पदार्थोंको ग्रहण करता है । जिस प्रकार सम्‍यग्‍दृष्टि श्रुत के द्वारा रूपादिक पदार्थों को जानता है और उनका निरूपण करता है उसी प्रकार मि‍थ्‍यादृष्टि भी श्रुतज्ञानके द्वारा रूपादिक पदार्थों को जानता है और उनका निरूपण करता है । जिस प्रकार समयग्‍दृष्टि अवधिज्ञानके द्वारा रूपी पदार्थोंको जानता है उसी प्रकार मिथ्‍यादृष्टि भी विभंग ज्ञान के द्वारा रूपी पदार्थों को जानता है ।

    यह एक प्रश्‍न है जिसका समाधान करने के लिए अगला सूत्र कहते हैं ।

    राजवार्तिक :
    मिथ्यादृष्टि जीव के मिथ्यादर्शन के साथ रहने के कारण इन ज्ञानों में मिथ्यात्व आ जाता है जैसे कड़वी तूमरी में रखा हुआ दूध कडुआ हो जाता है उसी तरह मिथ्यादृष्टिरूप आधार-दोष से ज्ञान में मिथ्यात्व आ जाता है। यह आशंका उचित नहीं है कि 'मणि सुवर्ण आदि मलस्थान में गिरकर भी जैसे अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते वैसे ज्ञान को भी नहीं छोड़ना चाहिए'; क्योंकि पारिणामिक अर्थात् परिणमन करानेवाले की शक्ति के अनुसार वस्तुओं में परिणमन होता है । कडुवी तूंबड़ी के समान मिथ्यादर्शन में ज्ञान दूध को बिगाड़ने की शक्ति है। यद्यपि मलस्थान से मणि आदि में बिगाड़ नहीं होता पर अन्य धातु आदि के सम्बन्ध से सुवर्ण आदि भी विपरिणत हो ही सकते हैं। सम्यग्दर्शन के होते ही मत्यादि का मिथ्याज्ञानत्व हटकर उनमें सम्यक् ज्ञानत्व आ जाता है और मिथ्यादर्शन के उदय में ये ही-मत्यज्ञान श्रुताज्ञान और विभङ्गावधि बन जाते हैं। 'जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि मति श्रुत अवधि से रूपादि को जानता है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि भी, अतः ज्ञानों में मिथ्यादर्शन से क्या विपर्यय हुआ ? मिथ्यादृष्टि भी रूप को रूप ही जानता है अन्यथा नहीं' इस आशंका का परिहार करने के लिए सूत्र कहते हैं --

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    + मिथ्यादृष्टि का ज्ञान मिथ्या क्यों? -
    सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥32॥
    अन्वयार्थ : वास्‍तविक और अवा‍स्‍तविक के अन्‍तर के बिना यदृच्‍छोपलब्धि (जब जैसा जी में आया उस रूप ग्रहण होने) के कारण उन्‍मत्त की तरह ज्ञान भी अज्ञान हो जाता है ॥३२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    प्रकृत में 'सत्' का अर्थ विद्यमान और 'असत्' का अर्थ अविद्यमान है । इनकी विशेषता न करके इच्‍छानुसार ग्रहण करने से विपर्यय होता है । कदाचित् रूपादिक विद्यमान हैं तो भी उन्‍हें अविद्यमान कहता है । और कदाचित् अविद्यमान वस्‍तु को भी विद्यमान कहता है । कदाचित् सत् को सत् और असत् को असत् ही मानता है । यह सब निश्‍चय मिथ्‍यादर्शन के उदयसे होता है । जैसे पित्त के उदय से आ‍कुलित बुद्धिवाला मनुष्‍य माता को भार्या और भार्या को माता मानता है । जब अपनी इच्‍छा की लहरके अनुसार माता को माता और भार्या को भार्या ही मानता है तब भी वह ज्ञान सम्‍यग्‍ज्ञान नहीं है इसी प्रकार मत्‍यादिक का भी रूपादिक में विपर्यय जानना चाहिए । खुलासा इस प्रकार है - आत्‍मा में स्थित कोई मिथ्‍यादर्शन-रूप परिणाम रूपादिक की उपलब्धि होने पर भी कारण विपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्‍वरूपविपर्यास को उत्‍पन्‍न करता रहता है ।

    कारणविपर्यास यथा - कोई मानते हैं कि रूपादिक का एक कारण है जो अमूर्त और नित्‍य है । कोई मानते हैं कि पृथिवी जाति के परमाणु अलग हैं जो चार गुणवाले हैं । जल जाति के परमाणु अलग हैं जो तीन गुणवाले हैं । अग्नि जाति के परमाणु अलग हैं जो दो गुणवाले हैं और वायु जाति के परमाणु अलग हैं जो एक गुणवाले हैं । तथा ये परमाणु अपने समान जातीय कार्य को ही उत्‍पन्न करते हैं । कोई कहते हैं कि पृथि‍वी आदि चार भूत हैं और इन भूतों के वर्ण, गन्‍ध, रस और स्‍पर्श ये भौतिक धर्म हैं । इन सब के समुदाय को एक रूप परमाणु या अष्‍टक कहते हैं । कोई कहते हैं कि पृथिवी, जल, अग्नि और वायु ये क्रम से काठिन्‍यादि, द्रवत्‍वादि, उष्‍णत्‍वादि और ईरणत्‍वादि गुणवाले अलग-अलग जाति के परमाणु होकर कार्य को उत्‍पन्‍न करते हैं ।

    भेदाभेदविपर्यास यथा - कारण से कार्यको सर्वथा भिन्‍न या सर्वथा अभिन्‍न मानना ।

    स्‍वरूपविपर्यास यथा - रूपादिक निर्विकल्‍प हैं, या रूपादिक हैं ही नहीं, या रूपादिक के आ‍काररूप से परिणत हुआ विज्ञान ही है उसका आलम्‍बन-भूत और कोई बाह्य पदार्थ नहीं है । इसीप्रकार मिथ्‍यादर्शन के उदय से ये जीव प्रत्‍यक्ष और अनुमान के विरुद्ध नाना प्रकार की कल्‍पनाएँ करते हैं और उनमें श्रद्धान उत्‍पन्‍न करते हैं । इसलिए इनका यह ज्ञान मत्‍यज्ञान, श्रुताज्ञान या विभंगज्ञान होता है। किन्‍तु सम्‍यग्‍दर्शन तत्त्वार्थ के ज्ञान में श्रद्धान उत्‍पन्‍न करता है, अत: इस प्रकार का ज्ञान मति-ज्ञान, श्रुत-ज्ञान और अवधि-ज्ञान होता है ।

    दो प्रकारके प्रमाणका वर्णन किया । प्रमाणके एकदेशको नय कहते हैं । इनका कथन प्रमाणके अनन्‍तर करना चाहिए, अत: आगेका सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. सत्-अर्थात् प्रशस्ततत्त्वज्ञान, असत् अर्थात् अज्ञान इनमें मिथ्यादृष्टि को कोई विशेषता का भान नहीं होता वह कभी सत् को असत् और असत् को सत् कहता है, झोंक में आकर यदृच्छा से सत् को सत् और असत् को असत् कहने पर भी उसका वह मिथ्याज्ञान ही है। जैसे कि कोई पागल गाय को घोड़ा या घोडा को गाय कहता है, कभी गाय को गाय और घोड़े को घोड़ा कहने पर भी उसका सब पागलपन ही कहा जाता है ।

    2. अथवा सत् शब्द विद्यमानार्थक है । वह कभी विद्यमान को अविद्यमान, अविद्यमान को विद्यमान रूप से जानता है ।

    3. इसका कारण है विभिन्न मतवादियों द्वारा वस्तु के स्वरूप का विभिन्न प्रकार से वर्णन और प्रचार करना ।
    1. किन्हीं (अद्वैत) का कहना है कि द्रव्य ही है, रूपादि की सत्ता नहीं है तो
    2. कोई (बौद्ध) रूपादि को ही मानना चाहते हैं द्रव्य को नहीं ।
    3. कोई (वैशेषिक) कहते हैं कि द्रव्य से रूपादि गुण भिन्न होते हैं।
    ये तीनों ही पक्ष मिथ्या है; क्योंकि यदि द्रव्य ही हो रूपादि न हो तो द्रव्य का परिचायक लक्षण न रहने से लक्ष्यभूत द्रव्य का ही अभाव हो जायगा। इन्द्रियों से पूरे द्रव्य का अखण्ड-रूप से ग्रहण होने के कारण पाँच इन्द्रियाँ मानने की आवश्यकता नहीं रह जाती क्योंकि द्रव्य तो किसी एक भी इन्द्रिय से पूर्ण रूप से गृहीत हो ही जायगा। पर ऐसा मानना न तो इष्ट ही है और न प्रमाणप्रसिद्ध ही।

    इसी तरह यदि द्रव्य का अस्तित्व न हो तो निराश्रय रूपादि का आधार क्या होगा ? यदि रूपादि परस्पर में अभिन्न हों तो एक से अभिन्न होने के कारण सभी एक हो जायेंगे समुदाय का अभाव ही हो जायगा। यदि द्रव्य और गुण में सर्वथा भेद है तो उनमें परस्पर लक्ष्यलक्षणभाव नहीं हो सकेगा। दण्ड और दण्डी की तरह पृथक् सिद्धगत लक्ष्यलक्षणभाव तो तब बन सकता है जब द्रव्य और गुण दोनों पृथक् सिद्ध हों। द्रव्य से भिन्न अमूर्त रूपादि गुणों से इन्द्रिय का सन्निकर्ष भी नहीं होगा और इस तरह उनका परिज्ञान करना ही असम्भव हो जायगा; क्योंकि भिन्न द्रव्य तो कारण हो नहीं सकेगा।

    4. केवल स्वरूप में ही नहीं किन्तु जगत् के मूल-कारणों में ही प्रवादियों को विवाद है। जैसे

    सांख्यों का मत है कि - अव्यक्त प्रकृति से महान्-बुद्धि, महान् से अहङ्कार, अहङ्कार से पाँच इन्द्रियाँ, पाँच इन्द्रियों के विषय तन्मात्रा और पृथिवी आदि पाँच महाभूत और मन ये सोलह गुण और पाँच महाभूतों से यह दृश्य-जगत् उत्पन्न होता है। यह मत निर्दोष नहीं है; क्योंकि अमूर्त, निरवयव, निष्क्रिय, अतीन्द्रिय, नित्य और पर-प्रयोग से अप्रभावित प्रधान से मूर्त, सावयव, सक्रिय, इन्द्रियग्राह्य आदि विपरीत लक्षणवाले घटादि पदार्थों की उत्पत्ति नहीं हो सकती । स्वयं चेतनाशून्य प्रधान का इस तरह बुद्धिपूर्वक सृष्टि को उत्पन्न करना सम्भव ही नहीं है । पुरुष स्वयं निष्क्रिय है वह प्रधान को प्रेरणा भी नहीं दे सकता । फिर प्रधान को सृष्टि के उत्पन्न करने का खास प्रयोजन भी नहीं दिखाई देता। 'पुरुष को भोग सम्पादन करना' यह प्रयोजन भी नहीं हो सकता; क्योंकि नित्य और विभु आत्मा का भोक्तारूप से परिणमन ही नहीं हो सकता। स्वयं अचेतन प्रधान प्रेरित होकर भी बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति नहीं कर सकता।

    वैशेषिकों का मत है कि - पथिवी आदि द्रव्यों के जुदा-जुदा परमाणु हैं । उनमें अदृष्ट आदि से क्रिया होती है फिर द्वयणुकादि क्रम से घटादि की उत्पत्ति होती है। यह मत भी ठीक नहीं है। क्योंकि परमाणु नित्य हैं, अतः उनमें कार्य को उत्पन्न करने का परिणमन ही नहीं हो सकता। यदि परिणमन हो तो नित्यता नहीं हो सकती। फिर परमाणुओं से भिन्न किसी स्वतन्त्र अवयवीरूप कार्य की उपलब्धि भी नहीं होती। परमाणुओं में पृथिवीत्व आदि जातिभेद की कल्पना भी प्रमाणसिद्ध नहीं है। क्योंकि उत्पत्ति देखी जाती है। भिन्नजातीयों में केवल समुदाय की कल्पना करना तुल्यजातीयों में भी समुदायमात्र को ही सिद्ध करेगी, कार्योत्पत्ति को नहीं । निष्क्रिय और निर्विकारी आत्मा कर्ता भी नहीं हो सकता। आत्मा का अदृष्ट गुण भी चूंकि निष्क्रिय है अत: वह भी भिन्न पदार्थों में क्रिया उत्पन्न नहीं कर सकेगा।

    बौद्धों की मान्यता है कि वर्णादि परमाणुसमुदयात्मक रूप परमाणुओं का संचय ही इन्द्रियग्राह्य होकर घटादि व्यवहार का विषय होता है। इनका यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि जब प्रत्येक परमाणु अतीन्द्रिय है तो उनसे अभिन्न समुदाय भी इन्द्रियग्राह्य नहीं हो सकता । जब उनका कोई दृश्य कार्य सिद्ध नहीं होता तब कार्यलिङ्गक अनुमान से परमाणुओं की सत्ता भी सिद्ध नहीं की जा सकेगी। परमाणु चूंकि क्षणिक और निष्क्रिय हैं अतः उनसे कार्योत्पत्ति भी नहीं हो सकती। विभिन्न शक्तिवाले उन परमाणुओं का परस्पर स्वतः सम्बन्ध की संभावना नहीं है और अन्य कोई सम्बन्ध का कर्ता हो नहीं सकता। तात्पर्य यह कि परस्पर सम्बन्ध नहीं होने के कारण घटादि स्थूल कार्यों की उत्पत्ति ही नहीं हो सकेगी। इसी तरह बिगड़े पित्तवाले रोगी को रसनेन्द्रिय के विपर्यय की तरह अनेक प्रकार के विपर्यय मिथ्यादृष्टि को होते रहते हैं।

    चारित्र मोक्ष का प्रधान कारण है अत: उसका वर्णन मोक्ष के प्रसङ्ग में किया जायगा। केवलज्ञान हो जाने पर भी जब तक व्युपरतक्रियानिवृति ध्यानरूप चरम चारित्र नहीं होता तब तक मुक्ति की संभावना नहीं है ।

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    + नय के भेद -
    नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूता नयाः ॥33॥
    अन्वयार्थ : नैगम, संग्रह, व्‍यवहार, ऋजुसूत्र, शब्‍द, समभिरूढ और एवंभू‍त ये सात नय हैं ॥३३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    इनका सामान्‍य और विशेष लक्षण कहना चाहिए । सामान्‍य लक्षण - अनेकान्‍तात्‍मक वस्‍तु में विरोध के बिना हेतु की मुख्‍यता से साध्‍यविशेष की यथार्थताके प्राप्‍त करानेमें समर्थ प्रयोगको नय कहते हैं । इसके दो भेद हैं - द्रव्‍यार्थिक और पर्यायार्थिक । द्रव्‍य का अर्थ सामान्‍य, उत्‍सर्ग और अनुवृत्ति है और इसको विषय करने वाला नय द्रव्‍यार्थिक नय कहलाता है । तथा पर्याय का अर्थ विशेष, अपवाद और व्‍यावृत्ति है और इसको विषय करनेवाला नय पर्यायार्थिक नय कहलाता है । इन दोनों नयों के उत्तर भेद नैगमादिक हैं ।

    अब इनका विशेष लक्षण कहते हैं - अनिष्‍पन्‍न अर्थ में संकल्‍पमात्र को ग्रहण करनेवाला नय नैगम है । यथा - हाथ में फरसा लेकर जाते हुए किसी पुरुष को देखकर कोई अन्‍य पुरुष पूछता है आप किस काम के लिए जा रहे हैं । वह कहता है प्रस्‍थ लाने के लिए जा रहा हूँ । उस समय वह प्रस्‍थ पर्याय सन्निहित नहीं है, केवल उसके बनाने का संकल्‍प होने से उसमें प्रस्‍थ व्‍यवहार किया गया है । तथा ईंधन और जल आदि के लाने में लगे हुए किसी पुरुष से कोई पूछता है कि आप क्‍या कर रहे हैं ? उसने कहा भात पका रहा हूँ । उस समय भात पर्याय सन्निहित नहीं है, केवल भात के लिए किये गये व्‍यापार में भात का प्रयोग किया गया है । इस प्रकार का जितना लोक-व्‍यवहार अनिष्‍पन्‍न अर्थ के आलम्‍बन से संकल्‍प-मात्र को विषय करता है वह सब नैगम नय का विषय है ।

    भेदसहित सब पर्यायों को अपनी जाति के अविरोध-द्वारा एक मानकर सामान्‍य से सबको ग्रहण करनेवाला नय संग्रहनय है । यथा - सत्, द्रव्‍य और घट आदि । 'सत्' ऐसा कहने पर सत् इस प्रकारके वचन और विज्ञान की अनुवृत्ति-रूप लिंग से अनुमित सत्ता के आधार-भूत सब पदार्थों का सामान्‍य-रूप से संग्रह हो जाता है । 'द्रव्‍य' ऐसा कहनेपर भी 'उन-उन पर्यायोंको द्रवता है अर्थात् प्राप्‍त होता है' इस प्रकार इस व्‍युत्‍पत्ति से युक्त जीव, अजीव और उनके सब भेद-प्रभेदों का संग्रह हो जाता है । तथा 'घट' ऐसा कहने पर भी घट इस प्रकार की बुद्धि और घट इस प्रकार के शब्‍द की अनु‍वृत्ति-रूप लिंग से अनुमित सब घट पदार्थों का संग्रह हो जाता है । इस प्रकार अन्‍य भी संग्रह नय का विषय है ।

    संग्रह नयके द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थोंका विधिपूर्वक अवहरण अर्थात् भेद करना व्‍यवहार नय है ।

    शंका – विधि क्‍या है ?

    समाधान – जो संग्रह नयके द्वारा गृहीत अर्थ है उसीके आनुपूर्वी क्रमसे व्‍यवहार प्रवृत्त होता है, यह विधि है । यथा - सर्वसंग्रह नय के द्वारा जो वस्‍तु ग्रहण की गयी है वह अपने उत्तर भेदों के बिना व्‍यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए व्‍यवहार नय का आश्रय लिया जाता है । यथा - जो सत् है वह या तो द्रव्‍य है या गुण । इसी प्रकार संग्रह नय का विषय जो द्रव्‍य है वह जीव अजीव विशेष की अपेक्षा किये बिना व्‍यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए जीव द्रव्‍य है और अजीव द्रव्‍य है इस प्रकार के व्‍यवहार का आश्रय लिया जाता है । जीव द्रव्‍य और अजीव द्रव्‍य भी जब तक संग्रह नय के विषय रहते हैं तब तक वे व्‍यवहार कराने में असमर्थ हैं, इसलिए व्‍यवहार से जीव द्रव्‍य के देव, नारकी आदिरूप और अजीव द्रव्‍यके घटादि-रूप भेदों का आश्रय लिया जाता है । इस प्रकार इस नय की प्रवृत्ति वहीं तक होती है जहाँ तक वस्‍तु में फिर कोई विभाग करना सम्‍भव नहीं रहता ।

    ऋजु का अर्थ प्रगुण है । जो ऋजु अर्थात् सरल को सूत्रित करता है अर्थात् स्‍वीकार करता है वह ऋजुसूत्र नय है । यह नय पहले हुए और पश्‍चात् होने वाले तीनों कालों के विषयों को ग्रहण न करके वर्तमान काल के विषय-भूत पदार्थों को ग्रहण करता है, क्‍योंकि अतीत के विनष्‍ट और अनागत के अनुत्‍पन्‍न होने से उनमें व्‍यवहार नहीं हो सकता । वह वर्तमान काल समयमात्र है और उसके विषय-भूत पर्याय-मात्र को विषय करने वाला यह ऋजुसूत्र-नय है ।

    शंका – इस तरह संव्‍यवहार के लोपका प्रसंग आता है ?

    समाधान – नहीं; क्‍योंकि यहाँ इस नय का विषयमात्र दिखलाया है, लोक संव्‍यवहार तो सब नयों के समूह का कार्य है ।

    लिंग, संख्‍या और साधन आदिके व्‍यभिचारकी निवृत्ति करनेवाला शब्‍दनय है । लिंगव्‍यभिचार यथा - पुष्‍य, तारका और नक्षत्र । ये भिन्‍न-भिन्‍न लिंगके शब्‍द हैं । इनका मिलाकर प्रयोग करना लिंगव्‍यभिचार है । संख्‍याव्‍यभिचार यथा - 'जलं आप:, वर्षा: ऋतु:, आम्रा वनम्, वरणा: नगरम्' ये एकवचनान्‍त और बहुवचनान्‍त शब्‍द हैं । इनका विशेषण-विशेष्‍य-रूप से प्रयोग करना संख्‍या-व्‍यभिचार है । साधनव्‍यभिचार यथा - 'सेना पर्वतमधिवसति' सेना पर्वतपर है । यहाँ अधिकरण कारक के अर्थ में सप्‍तमी विभक्ति न होकर द्वितीया विभक्ति है, इसलिए यह साधन-व्‍यभिचार है । पुरुष-व्‍यभिचार यथा - 'एहि मन्‍ये रथेन यास्‍यसि न हि यास्‍यसि यातस्‍ते पिता' = आओ, तुम समझते हो कि मैं रथसे जाऊँगा, नहीं जाओगे । तुम्‍हारे पिता गये । यहाँ 'मन्‍यसे' के स्‍थान में 'मन्‍ये' और 'यास्‍यामि' के स्‍थान में 'यास्‍यसि' क्रिया का प्रयोग किया गया है, इसलिए यह पुरुष-व्‍यभिचार है । काल-व्‍यभिचार यथा - 'विश्‍वदृश्‍वास्‍य पुत्रो जनिता' = इसका विश्‍वदृश्‍वा पुत्र होगा । यहाँ 'विश्‍वदृश्‍वा' कर्ता रखकर 'जनिता' क्रियाका प्रयोग किया गया है, इसलिए यह काल-व्‍यभिचार है । अथवा, 'भाविकृत्‍यमासीत्' = होनेवाला कार्य हो गया । यहाँ होने-वाले कार्य को हो गया बतलाया गया है, इसलिए यह काल-व्‍यभिचार है । उपग्रह-व्‍यभिचार यथा - 'संतिष्‍ठते, प्रतिष्‍ठ‍ते, विरमति, उपर‍मति ।' यहाँ 'सम्' और 'प्र' उपसर्ग के कारण 'स्‍था' धातु का आत्‍मनेपद प्रयोग तथा 'वि' और 'उप' उपसर्ग के कारण 'रम्' धातु का परस्‍मैपद में प्रयोग किया गया है, इसलिए यह उपग्रह-व्‍यभिचार है । यद्यपि व्‍यवहार में ऐसे प्रयोग होते हैं तथापि इस प्रकार के व्‍यवहार को शब्‍द-नय अनुचित मानता है, क्‍योंकि पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से अन्‍य अर्थ का अन्‍य अर्थके साथ सम्‍बन्‍ध नहीं बन सकता ।

    शंका – इससे लोकसमय का (व्‍याकरण शास्‍त्रका) विरोध होता है ।

    समाधान – यदि विरोध होता है तो होने दो, इससे हानि नहीं, क्‍योंकि यहाँ तत्त्‍व की मीमांसा की जा रही है । दवाई कुछ पीडित पुरुष की इच्‍छा का अनुकरण करनेवाली नहीं होती ।

    नाना अर्थों का समभिरोहण करनेवाला होनेसे समभिरूढ़ नय कहलाता है । चूँकि जो नाना अर्थों को 'सम्' अर्थात् छोड़कर प्रधानता से एक अर्थ में रूढ़ होता है वह समभिरूढ़ नय है । उदाहरणार्थ - 'गो' इस शब्‍द के वचन आदि अनेक अर्थ पाये जाते हैं तो भी वह 'पशु' इस अर्थ में रूढ़ है । अथवा अर्थ का ज्ञान कराने के लिए शब्‍दों का प्रयोग किया जाता है । ऐसी हालत में एक अर्थ का एक शब्‍द से ज्ञान हो जाता है, इसलिए पर्यायवाची शब्‍दों का प्रयोग करना निष्‍फल है । यदि शब्‍दों में भेद है तो अर्थ-भेद अवश्‍य होना चाहिए । इस प्रकार नाना अर्थों का समभिरोहण करनेवाला होनेसे समभिरूढ़ नय कहलाता है । जैसे इन्‍द्र, शक्र और पुरन्‍दर ये तीन शब्‍द होनेसे इनके अर्थ भी तीन हैं । इन्‍द्रका अर्थ आज्ञा ऐश्‍वर्यवान् है शक्र का अर्थ समर्थ है और पुरन्‍दर का अर्थ नगर का दारण करनेवाला है । इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए । अथवा जो जहाँ अभिरूढ़ है वह वहाँ 'सम्' अर्थात् प्राप्‍त होकर प्रमुखतासे रूढ़ होने के कारण समभिरूढ़ नय कहलाता है । यथा - आप कहाँ रहते हैं ? अपने में, क्‍योंकि अन्‍य वस्‍तु की अन्‍य वस्‍तु में वृत्ति नहीं हो सकती । यदि अन्‍य की अन्‍य में वृत्ति होती है ऐसा माना जाय तो ज्ञानादिक की ओर रूपादिक की आकाश में वृत्ति होने लगे ।

    जो वस्‍तु जिस पर्यायको प्राप्‍त हुई है उसीरूप निश्‍चय करानेवाले नयको एवंभूत नय कहते हैं। आशय यह है कि जिस शब्‍दका जो वाच्‍य है उसरूप क्रियाके परिणमनके समय ही उस शब्‍दका प्रयोग करना युक्त है, अन्‍य समयमें नहीं। जभी आज्ञा ऐश्‍वर्यवाला हो तभी इन्‍द्र है, अभिषेक करनेवाला नहीं और न पूजा करनेवाला ही । जब गमन करती हो तभी गाय है, बैठी हुई नहीं और न सोती हुई ही । अथवा जिसरूपसे अर्थात् जिस ज्ञानसे आत्‍मा परिणत हो उसी रूपसे उसका निश्‍चय करनेवाला नय एवंभूत नय है । यथा - इन्‍द्ररूप ज्ञानसे परिणत आत्‍मा इन्‍द्र है और अग्निरूप ज्ञानसे परिणत आत्‍मा अग्नि है ।

    ये नैगमादिक नय कहे । उत्तरोत्तर सूक्ष्‍म विषयवाले होने के कारण इनका यह क्रम कहा है । पूर्व-पूर्व नय आगे-आगे के नय का हेतु है, इसलिए भी यह क्रम कहा है । इस प्रकार ये नय पूर्व-पूर्व विरुद्ध महाविषयवाले और उत्तरोत्तर अनुकूल अल्‍प विषयवाले हैं । द्रव्‍य की अनन्‍त शक्ति है, इसलिए प्रत्‍येक शक्ति की अपेक्षा भेद को प्राप्‍त होकर ये अनेक विकल्‍प-वाले हो जाते हैं । ये सब नय गौण-मुख्‍य रूप से एक दूसरे की अपेक्षा करके ही सम्‍यग्‍दर्शन के हेतु हैं । जिस प्रकार पुरुष की अर्थ-क्रिया और साधनों की सामर्थ्‍य-वश यथा-योग्‍य निवेशित किये गये तन्‍तु आदिक पट आदिक संज्ञा को प्राप्‍त होते हैं और स्‍वतन्‍त्र रहने पर कार्यकारी नहीं होते उसी प्रकार ये नय समझने चाहिए ।


    शंका – प्रकृत में 'तन्‍त्‍वादय इव' विषम दृष्‍टान्‍त है; क्‍योंकि तन्‍तु आदिक निरपेक्ष रहकर भी किसी न किसी कार्यको जन्‍म देते ही हैं। देखते हैं कि कोई एक तन्‍तु त्‍वचाकी रक्षा करनेमें समर्थ हैं और एक वल्‍कल किसी वस्‍तुको बाँधनेमें समर्थ है। किन्‍तु ये नय निरपेक्ष रहते हुए थोड़ा भी सम्‍यग्‍दर्शनरूप कार्यको नहीं पैदा कर सकते हैं ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्‍योंकि जो कुछ कहा गया है उसे समझे नहीं। कहे गये अर्थको समझे बिना दूसरेने यह उपालम्‍भ दिया है । हमने यह कहा है कि निरपेक्ष तन्‍तु आदिमें पटादि कार्य नहीं पाया जाता। किन्‍तु शंकाकारने जिसका निर्देश किया है वह पटादिका कार्य नहीं है ।

    शंका – तो वह क्‍या है ?

    समाधान – केवल तन्‍तु आदि का कार्य है। तन्‍तु आदि का कार्य भी सर्वथा निरपेक्ष तन्‍तु आदिके अवयवोंमें नहीं पाया जाता, इसलिए इससे हमारे पक्षका ही समर्थन होता है। यदि यह कहा जाय कि तन्‍तु आदिमें पटादि कार्य शक्तिकी अपेक्षा है ही तो यह बात बुद्धि और अभिधान - शब्‍दरूप निरपेक्ष नयोंके विषयमें भी जानना चाहिए । उनमें भी ऐसी शक्ति पायी जाती है जिससे वे कारणवश सम्‍यग्‍दर्शनके हेतुरूपसे परिणमन करनेमें समर्थ हैं, इसलिए दृष्‍टान्‍त का दार्ष्‍टान्‍तसे साम्‍य ही है ।

    इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि नामावली तत्‍त्‍वार्थवृत्ति में प्रथम अध्‍याय समाप्‍त हुआ ।

    राजवार्तिक :
    शब्द की अपेक्षा नयों के एक से लेकर अंख्यात विकल्प होते हैं। यहाँ मध्यमरुचि शिष्यों की अपेक्षा सात भेद बताए हैं।

    1. प्रमाण के द्वारा प्रकाशित अनेकधर्मात्मक पदार्थ के धर्मविशेष को ग्रहण करनेवाला ज्ञान नय है । नय के मूल दो भेद हैं - एक द्रव्यास्तिक और दूसरा पर्यायास्तिक । द्रव्यमात्र के अस्तित्व को ग्रहण करनेवाला द्रव्यास्तिक और पर्यायमात्र के अस्तित्व को ग्रहण करनेवाला पर्यायास्तिक है । अथवा द्रव्य ही जिसका अर्थ है-गुण और कर्म आदि द्रव्यरूप ही हैं वह द्रव्यार्थिक और पर्याय ही जिसका अर्थ है वह पर्यायाथिक । पर्यायार्थिक का विचार है कि अतीत और अनागत चूंकि विनष्ट और अनुत्पन्न हैं अतः उनसे कोई व्यवहार सिद्ध नहीं हो सकता अतः वर्तमान-मात्र पर्याय ही सत् है । द्रव्यार्थिक का विचार है कि अन्वयविज्ञान अनुगताकार वचन और अनुगत धर्मों का लोप नहीं किया जा सकता, अतः द्रव्य ही अर्थ है।

    2-3. अर्थ के संकल्पमात्र को ग्रहण करनेवाला नैगमनय है। जैसे प्रस्थ बनाने के निमित्त जंगल से लकड़ी लेने के लिए जानेवाले फरसाधारी किसी पुरुष से पूछा कि 'आप कहाँ जा रहे हैं ?' तो वह उत्तर देता है कि 'प्रस्थ के लिए'। अथवा, 'यहां कौन जा रहा है ?' इस प्रश्न के उत्तर में 'बैठा हुआ' कोई व्यक्ति कहे कि 'मैं जा रहा हूँ'। इन दोनों दृष्टान्तों में प्रस्थ और गमन के संकल्प मात्र में वे व्यवहार किये गये हैं। इसी तरह के सभी व्यवहार नैगमनय के विषय हैं। यह नैगमनय केवल भाविसंज्ञा व्यवहार ही नहीं है, क्योंकि वस्तुभूत राजकुमार या चावलों में योग्यता के आधार से राजा या भात संज्ञा भाविसंज्ञा कहलाती है पर नगमनय में कोई वस्तुभूत पदार्थ सामने नहीं है यहाँ तो तदर्थ किए जानेवाले संकल्पमात्र में ही वह व्यवहार किया जा रहा है ।

    4. प्रश्न – भाविसंज्ञा में तो यह आशा है कि आगे उपकार आदि हो सकते हैं, पर नैगमनय में तो केवल कल्पना ही कल्पना है, अतः यह संव्यवहार के अनुपयुक्त है ?

    उत्तर – नयों के विषय के प्रकरण में यह आवश्यक नहीं है कि उपकार या उपयोगिता का विचार किया जाय । यहाँ तो केवल उनका विषय बताना है। फिर संकल्प के अनुसार निष्पन्न वस्तु से आगे उपकारादि की भी संभावना भी है ही।

    5. अनुगताकार बुद्धि और अनुगत शब्द प्रयोग का विषयभूत सादृश्य या स्वरूप जाति है। चेतन की जाति चेतनत्व और अचेतन की जाति अचेतनत्व है। अतः अपने अविरोधी सामान्य के द्वारा उन-उन पदार्थों का संग्रह करनेवाला संग्रहनय है। जैसे 'सत' कहने से सत्ता सम्बन्ध के योग्य द्रव्यगुण कर्म आदि सभी सद्व्यक्तियों का ग्रहण हो जाता है अथवा द्रव्य कहने से द्रव्य व्यक्तियों का। इस तरह यह संग्रह पर और अपर के भेद से अनेक प्रकार का होता है।

    सत्ता नामक भिन्न पदार्थ के सम्बन्ध से 'सत्' यह प्रत्यय मानना उचित नहीं है। क्योंकि यदि सत्ता सम्बन्ध के पहिले द्रव्यादि में 'सत्' प्रत्यय होता था, तो फिर अन्य सत्ता का सम्बन्ध मानना ही निरर्थक है जैसे कि प्रकाशित का प्रकाशन करना । इस तरह दो सत्ताएं एक पदार्थ में माननी होंगी - एक भीतरी और दूसरी बाहिरी । ऐसी दशा में 'सत् सत् प्रत्यय सर्वत्र समान होने से तथा विशेष लिङ्ग न होने से एक ही सामान्य पदार्थ होता है' इस सिद्धान्त का विरोध हो जायगा । यदि सत्ता सम्बन्ध से पहिले द्रव्यादि 'असत्' हैं; तो उनमें खरविषाण की तरह सत्ता सम्बन्ध नहीं हो सकेगा। समवाय भी सत्ता का नियामक स्वतः नहीं हो सकता। किंच, स्वयं सत्ता में 'सत्' इस ज्ञान को यदि अन्य सत्तामूलक मानते हैं तो अनवस्था दूषण आता है। तथा 'द्रव्य गुण कर्म में ही सत्ता रहती है' इस सिद्धान्त का विरोध भी होता है। यदि पदार्थ की शक्तिविचित्रता से द्रव्यादि में होनेवाले 'सत्' प्रत्यय को अन्य सामान्यहेतुक और सत्ता में स्वतः ही सत् प्रत्यय माना जाता है, तो यह व्यवस्था स्वेच्छाकृत होगी प्रमाणसिद्ध नहीं, और इस तरह संसर्ग से प्रत्यय मानने के सिद्धान्त का भी परित्याग हो जाता है। किंच, द्रव्यादिक में सत्ता की वृत्ति यदि 'यह उसकी है' इस रूप से मानी जाती है तो मतुप् प्रत्यय होकर 'सत्तावान् द्रव्य' ऐसा प्रयोग होगा जैसे गोमान् यवमान् आदि । अतः 'सद्व्यम्' इस प्रयोग में भावार्थक और मत्वर्थक दोनों प्रत्ययों की निवृत्ति करनी पड़ेगी । यदि 'यह वही है' इस प्रकार अभेदवृत्ति मानी जाती है तो 'यष्टिः पुरुषः' की तरह 'सत्ता द्रव्यम्' यह प्रयोग होगा न कि 'सद्द्रव्यम्' यह । इस पक्ष में भावार्थक तल् प्रत्यय की निवृत्ति माननी पड़ेगी। संसार में कोई भी एक पदार्थ अनेक में सम्बन्ध से रहनेवाला प्रसिद्ध भी नहीं जिसे दृष्टान्त बनाकर सत्ता को एक होकर अनेक सम्बधिनी बनाया जाय । नीली आदि द्रव्य तो उन-उन कपड़ों में जुदे-जुदे हैं।

    6. संग्रह नय के द्वारा संगृहीत पदार्थों में विधिपूर्वक विभाजन करना व्यवहारनय है। जैसे सर्वसंग्रहनय ने 'सत्' ऐसा सामान्य ग्रहण किया था पर इससे तो व्यवहार चल नहीं सकता था अतः भेद किया जाता है कि - जो सत् है वह द्रव्य है या गुण ? द्रव्य भी जीव है या अजीव ? जीव और अजीव सामान्य से भी व्यवहार नहीं चलता था, अतः उसके भी देव, नारक आदि और घट, पट आदि भेद लोक-व्यवहार के लिए किए जाते हैं। कषायरस को किसी वैद्य ने दवारूप में बताया तो जब तक किसी खास 'आंवला' आदि का निर्देश न किया जाय तबतक समस्त संसार का कषाय रस तो सम्राट भी इकट्ठा नहीं कर सकता । यह व्यवहार नय वहाँ तक भेद करता जायगा जिससे आगे कोई भेद नहीं हो सकता होगा।

    7. जिस प्रकार सरल सूत डाला जाता है उसी तरह ऋजुसूत्र नय एक समयवर्ती वर्तमान पर्याय को विषय करता है । अतीत और अनागत चूंकि विनष्ट और अनुत्पन्न हैं अतः उनसे व्यवहार नहीं हो सकता । इसका विषय एक क्षणवर्ती वर्तमान पर्याय है । 'कषायो भैषज्यम्' में वर्तमानकालीन वह कषाय भैषज हो सकती है जिसमें रस का परिपाक हुआ है न कि प्राथमिक अल्परसवाला कच्चा कषाय । पच्यमान इस नय का विषय है। पच्यमान में भी कुछ अंश तो वर्तमान में पकता है तथा कुछ अंश पक चुकते हैं । अतः पच्यमान भात को अंशतः पक्व कहने में भी कोई विरोध नहीं है; क्योंकि पाक के प्रथम समय में कुछ अंश यदि पक जाता है तो मान लेना चाहिए कि पच्यमान पदार्थ अंशतः पक्व हो चुका है । यदि नहीं पकता; तो द्वितीयादि क्षणों में भी पकने की गुञ्जाइश नहीं हो सकती । अतः पाक का ही अभाव हो जायगा । उस दशा में स्यात् पच्यमान ही कह सकते हैं ; क्योंकि जितने विशद रंधे हुए भात में 'पक्व' का अभिप्राय है उतना पाक अभी नहीं हुआ है । स्यात् पक्व भी कह सकते हैं; क्योंकि किसी भोजनार्थी को उतना ही पाक इष्ट हो सकता है। इसी तरह क्रियमाण में भी अंशतः कृत व्यवहार, भुज्यमान में भी अंशतः भुक्त व्यवहार, बध्यमान में भी अंशतः बद्ध व्यवहार आदि कर लेना चाहिए। जिस समय प्रस्थ से धान्य आदि मापा जाता हो उसी समय उसे प्रस्थ कह सकते हैं। वर्तमान में अतीत और अनागत से धान्य का माप तो होता ही नहीं है। इस नय की दृष्टि से कुम्भकार व्यवहार नहीं हो सकता; क्योंकि शिविक आदि पर्यायों के बनाने तक तो उसे कुम्भकार कह ही नहीं सकते और घट पर्याय के समय अपने अवयवों से स्वयं ही घड़ा बन रहा है। जिस समय जो बैठा है वह उस समय यह नहीं कह सकता कि 'अभी ही आ रहा हूँ'; क्योंकि उस समय आगमन क्रिया नहीं हो रही है। जितने आकाश प्रदेशों में वह ठहरा है उतने ही प्रदेशों में उसका निवास है अथवा स्वात्मा में; अतः ग्रामनिवास गृहनिवास आदि व्यवहार नहीं हो सकते । इस नय की दृष्टि में 'कौआ काला' नहीं है क्योंकि काला रंग काला है और कौआ कौआ है। यदि काला रंग कौआ रूप हो जाय तो संसार के भौंरा आदि सभी काले पदार्थ कौआ बन जायंगे। इसी तरह यदि कौआ काले रंग स्वरूप हो जाय तो शुक्ल काक का अभाव ही हो जायगा। फिर कौआ का रक्त मांस पित्त हड्डी चमड़ा आदि मिलकर पंचरंगी वस्तु होती है, अतः उसे केवल काला ही कैसे कह सकते हैं ? कृष्ण और काक में सामानाधिकरण्य भी नहीं बन सकता; क्योंकि विभिन्न शक्तिवाली पर्याएं ही अपना अस्तित्व रखती हैं द्रव्य नहीं। यदि कृष्णगुण की प्रधानता से काक को काला कहा जाता है तो कम्बल आदि में अतिप्रसंग हो जायगा क्योंकि उनमें भी काला रंग विशेष है, अतः उन्हें भी काक कहना चाहिए । अधिक कसैले और स्वल्प मधुर मधु को फिर मधु नहीं कहना चाहिए । परोक्ष में कहने पर संशय भी हो सकता है कि क्या कृष्णगुण की प्रधानता से काक की कृष्णता का वर्णन 'कृष्णः' शब्द से हो रहा है या कृष्णपरिणमन वाले द्रव्य का ही ? इस नय की दृष्टि में पलाल का दाह नहीं हो सकता ; क्योंकि अग्नि सुलगाना, धौंकना और जलाना आदि असंख्य समय की क्रियाएँ वर्तमान क्षण में नहीं हो सकती। जिस समय दाह है उस समय पलाल नहीं और जिस समय पलाल है उस समय दाह नहीं, तब पलालदाह कैसा ? 'जो पलाल है वह जलता है' यह भी नहीं कह सकते; क्योंकि बहुत पलाल बिना जला भी बाकी है। यह समाधान भी उचित नहीं है कि - 'समुदायवाची शब्दों की अवयव में भी प्रवृत्ति देखी जाती है अतः अंशदाह से सर्वदाह ले लेंगे' क्योंकि कुछ पलाल तो बिना जला शेष है ही। यदि संपूर्णदाह नहीं हो सकता; तो 'पलालदाह' यह प्रयोग ही नहीं करना चाहिए। यदि संपूर्णदाह नहीं हो सकता अतः एकदेशदाह से पलाल का दाह माना जायगा उसमें, 'अदाह' नहीं होगा तो आपके वचन भी संपूर्ण रूप से परपक्ष के दूषक नहीं हो सकते, अतः एकदेश के दूषक होने से उन्हें सर्वथा दूषक ही माना जायगा किसी भी तरह 'अदूषक' नहीं होंगे और इस तरह उनमें स्वपक्ष-अदूषकत्व अर्थात् साधकत्व भी नहीं होगा। यदि अनेक अवयव होने से कुछ अवयवों में दाह होने से सर्वत्र दाह माना जाता है तो कुछ अवयवों में अदाह होने से सर्वत्र अदाह क्यों नहीं माना जायगा ? यदि सर्वत्र दाह है तो अदाह सर्वत्र क्यों नहीं? इसी तरह इस नय की दृष्टि से पान-भोजन आदि कोई व्यवहार नहीं बन सकते । इस नय की दृष्टि से सफेद चीज काली नहीं बन सकती; क्योंकि दोनों का समय भिन्न-भिन्न है। वर्तमान के साथ अतीत का कोई सम्बन्ध नहीं है।

    यह नय व्यवहारलोप की कोई चिंता नहीं करता। यहाँ तो उसका विषय बताया गया है। व्यवहार तो पूर्वोक्त व्यवहार आदि नयों से ही सध जाता है।

    8-9. जिस व्यक्ति ने संकेतग्रहण किया है उसे अर्थबोध करानेवाला शब्द होता है । शब्दनय लिंग, संख्या, साधनादि सम्बन्धी व्यभिचार की निवृत्ति करता है अर्थात् उसकी दृष्टि से ये व्यभिचार हो ही नहीं सकते क्योंकि अन्य अर्थ का अन्य के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । वह व्याकरण-शास्त्र के इन व्यभिचारों को न्याय्य नहीं मानता।
  • कालव्यभिचार -
  • जिसने विश्व को देख लिया ऐसा विश्वदृश्वा (विश्वं दृष्टवान् ) पुत्र उत्पन्न होगा।
  • उपसर्ग के अनुसार धातुओं में परस्मैपद और आत्मनेपद का प्रयोग उपग्रह व्यभिचार है। जैसे संतिष्ठते प्रतिष्ठते विरमति उपरमति आदि में। इत्यादि व्यभिचार अयुक्त हैं क्योंकि अन्य अर्थ का अन्य अर्थ से कोई सम्बन्ध नहीं है अन्यथा घट पट हो जायगा और पट मकान । अतः यथालिंग यथावचन और यथासाधन प्रयोग करना चाहिए। यह नय लोक और व्याकरणशास्त्र के विरोध की कोई चिन्ता नहीं करता। यहाँ तो नय का विषय बताया जा रहा है मित्रों की खुशामद नहीं की जा रही है।

  • 10. अनेक अर्थों को छोड़कर किसी एक अर्थ में मुख्यता से रूढ होने को समभिरूढ नय कहते हैं। जैसे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान अर्थ व्यञ्जन और योग की संक्रान्ति न होने से मात्र एक सूक्ष्म काययोग में परिनिष्ठित हो जाता है उसी तरह 'गौ' आदि शब्द वाणी, पृथ्वी आदि ग्यारह अर्थों में प्रयुक्त होने पर भी सब को छोड़कर मात्र एक सास्नादिवाली 'गाय' में रूढ़ हो जाता है । अथवा, शब्द का प्रयोग अर्थज्ञान के लिए किया जाता है । जब एक शब्द से अर्थबोध हो जाता है तब उसी में अन्य पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग निरर्थक है। शब्दभेद से अर्थभेद होना ही चाहिए, जैसे इन्दन क्रिया से इन्द्र, शासन या शक्ति के कारण शक और पूरण से पुरन्दर । अथवा जो जहां अधिरूढ है वहीं उसका मुख्य रूप से प्रयोग करना समभिरूढ है। जैसे किसी ने पूछा कि - आप कहां हैं ? तो समभिरूढ नय उत्तर देगा - 'अपने स्वरूपमें' क्योंकि अन्य पदार्थ की अन्यत्र वत्ति नहीं हो सकती अन्यथा ज्ञानादि और रूपादि की भी आकाश में वृत्ति होनी चाहिए।

    11-12. जिस समय जो पर्याय या क्रिया हो उस समय तद्वाची शब्द के प्रयोग को ही एवंभूत नय स्वीकार करता है । जिस समय इन्दन अर्थात् परमैश्वर्य का अनुभव करे उसी समय इन्द्र कहा जाना चाहिए, नाम स्थापना द्रव्यनिक्षेप की दशा में नहीं। इसी तरह प्रत्येक शब्द का प्रयोग उस क्रिया में परिणत अवस्था में ही उचित है। अथवा, यह नय जिस पर्याय में है उसी रूप से निश्चय करता है। गौ जिस समय चलती है उसी समय गौ है न तो बैठने की अवस्था में और न सोने की अवस्था में । पूर्व और उत्तर अवस्थाओं में वह पर्याय नहीं रहती अतः उस शब्द का प्रयोग ठीक नहीं है। अथवा, इन्द्र या अग्नि ज्ञान से परिणत आत्मा ही इन्द्र या अग्नि है ऐसा निश्चय एवम्भूत नय करता है। ज्ञान या आत्मा में अग्निव्यपदेश करने के कारण दाहकत्व आदि का अतिप्रसङ्ग आत्मा में नहीं देना चाहिए; क्योंकि नाम स्थापना आदि में पदार्थ के जो-जो धर्म वाच्य होते हैं वे ही उनमें रहेंगे, नोआगमभाव अग्नि में ही दाहकत्व आदि धर्म होते हैं उनका प्रसङ्ग आगमभाव अग्नि में देना उचित नहीं है। ये नय उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषयक तथा पूर्व-पूर्व हेतुक हैं अतः इनका निर्दिष्ट क्रम के अनुसार निर्देश किया है । ये नय पूर्व-पूर्व में विरुद्ध और महा विषयवाले हैं और उत्तरोत्तर अनुकूल और अल्प विषयवाले हैं। अनन्तशक्तिक द्रव्य की हर एक शक्ति की अपेक्षा इनके बहुत भेद होते हैं। गौण-मुख्य विवक्षा से परस्पर सापेक्ष होकर ये नय सम्यग्दर्शन के कारण होते हैं और पुरुषार्थ क्रिया में समर्थ होते हैं। जैसे तन्तु परस्पर सापेक्ष होकर पट अवस्था को प्राप्त करके ही शीत निवारण कर सकते हैं और स्वतन्त्र दशा में न तो पट ही कहे जाते हैं और न शीत से रक्षा ही कर सकते हैं। जिस प्रकार अकेला तन्तु पट के द्वारा होनेवाली अर्थक्रिया नहीं कर सकता वैसे ही निरपेक्ष नय सम्यग्ज्ञानोत्पत्ति नहीं कर सकते। तन्तु तन्तुसाध्य अर्थक्रिया भी अपने अंशुओं की अपेक्षा रखकर ही कर सकता है। यदि तन्तुओं में शक्ति की अपेक्षा पट कार्य की संभावना है तो निरपेक्ष नयों में भी शक्तयपेक्षया सम्यग्ज्ञानोत्पत्ति की संभावना है ही। इस अध्याय में ज्ञान दर्शन तत्त्व नयों के लक्षण और ज्ञान की प्रमाणता आदि का निरूपण किया गया है।

    प्रथम अध्याय समाप्त

    लघुहव्व नृपति के वर अर्थात् ज्येष्ठ या श्रेष्ठ पुत्र, निखिल विद्वज्जनों के द्वारा जिनकी विद्या का लोहा माना जाता है, जो सज्जन पुरुषों के हृदयों को आह्लादित करनेवाले हैं वे अकलङ्क ब्रह्मा जयशील हैं।

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    2-जीवाधिकार



    + जीव के परिणामों (भावों) के प्रकार -
    औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ॥1॥
    अन्वयार्थ : औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदयिक और पारिणामिक ये जीव के स्‍वतत्त्‍व हैं ॥१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सम्‍यग्‍दर्शन के विषय-रूप से जीवादि पदार्थों का कथन किया । उनके आदि में जो जीव पदार्थ आया है उसका स्‍वतत्त्‍व क्‍या है यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    जैसे कतक आदि द्रव्‍य के सम्‍बन्‍ध से जल में कीचड़ का उपशम हो जाता है उसी प्रकार आत्‍मा में कर्म की निज शक्ति का कारण-वश से प्रकट न होना उपशम है । जैसे उसी जल को दूसरे साफ बर्तन में बदल देने पर कीचड़ का अत्‍यन्‍त अभाव हो जाता है वैसे ही कर्मों का आत्‍मा से सर्वथा दूर हो जाना क्षय है । जिस प्रकार उसी जल में कतकादि द्रव्‍य के सम्‍बन्‍ध से कुछ कीचड़ का अभाव हो जाता है और कुछ बना रहता है उसी प्रकार उभयरूप भाव मिश्र है । द्रव्‍यादि निमित्त के वश से कर्मों के फल का प्राप्‍त होना उदय है । और जिनके होने में द्रव्‍य का स्‍वरूप-लाभ मात्र कारण है, वह परिणाम है । जिस भाव का प्रयोजन अर्थात् कारण उपशम है वह औपशमिक भाव है । इसी प्रकार क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक भावोंकी व्‍युत्‍पत्ति कहनी चाहिए । ये पाँच भाव असाधारण हैं, इसलिए जीवके स्‍वतत्त्‍व कहलाते हैं ।

    सम्‍यग्‍दर्शन का प्रकरण होने से उसके तीन भेदों में से सर्वप्रथम औपशमिक सम्‍यग्‍दर्शन होता है अतएव औपशमिक भाव को आदि में ग्रहण किया है । क्षायिक भाव औपशमिक भाव का प्रतियोगी है और संसारी जीवों की अपेक्षा औपशमिक सम्‍यग्दृष्टियों से क्षायिक सम्‍यग्‍दृष्टि असंख्‍यातगुणे हैं अत: औपशमिक भाव के पश्‍चात् क्षायिक भाव को ग्रहण किया है । मिश्र-भाव इन दोनों-रूप होता है और क्षायोपशमिक सम्‍यग्‍दृष्टि जीव औपशमिक और क्षायिक सम्‍यग्‍दृष्टियों से असंख्‍यातगुणे होते हें, अत: तत्‍पश्‍चात् मिश्र-भाव को ग्रहण किया है । इन सबसे अनन्‍तगुणे होने के कारण इन सब के अन्‍त में औदयिक और पारिणामिक भावों को रखा है ।

    शंका – यहाँ 'औपशमिकक्षायिकमिश्रौदयिकपारिणामिका:' इस प्रकार द्वन्‍द्व समास करना चाहिए । ऐसा करनेसे सूत्रमें दो 'च' शब्‍द नहीं रखने पड़ते हैं ।

    समाधान – ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्‍योंकि सूत्र में यदि 'च' शब्‍द न रखकर द्वन्‍द्व समास करते तो मिश्र की प्रतीति अन्‍य गुण की अपेक्षा होती । किन्‍तु वाक्‍य में 'च' शब्‍दके रहने पर उससे प्रकरण में आये हुए औपशमिक और क्षायिक भाव का अनुकर्षण हो जाता है ।

    शंका – तो फिर सूत्र में 'क्षायोपशमिक' पद का ही ग्रहण करना चाहिए ?

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि क्षायोपशमिक पद के ग्रहण करने में गौरव है; अत: इस दोष को दूर करने के लिए क्षायोपशमिक पदका ग्रहण न करके मिश्र पद रखा है । दोनों की अपेक्षा से मिश्र पद मध्‍य में रखा है । औपशमिक और क्षायिक-भाव भव्‍य के ही होते हैं । किन्‍तु मिश्र-भाव अभव्‍य के भी होता है । तथा औदयिक और पारिणामिक भावों के साथ भव्‍य के भी होता है ।

    शंका – भावों के लिंग और संख्‍या के समान स्‍वतत्त्‍व पद का वही लिंग और संख्‍या प्राप्‍त होती है ।

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि जिस पद को जो लिंग और संख्‍या प्राप्‍त हो गयी है उसका वही लिंग और संख्‍या बनी रहती है । स्‍वतत्त्‍व का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है - स्‍वं तत्त्‍वं स्‍वतत्त्‍वम् - जिस वस्‍तु का जो भाव है वह तत्त्‍व है और स्‍व तत्त्‍व स्‍वतत्त्‍व है ।


    उस एक आत्‍मा के जो औपशमिक आदि भाव हैं, उनके कोई भेद हैं या नहीं ? भेद हैं । यदि ऐसा है तो इनके भेदों का कथन करना चाहिए, इसलिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. जैसे कतकफल या निर्मली के डालने से मैले पानी का मैल नीचे बैठ जाता है और जल निर्मल हो जाता है उसी तरह परिणामों की विशुद्धि से कर्मों की शक्ति का अनुद्भूत रहना उपशम है। उपशम के लिए जो भाव होते हैं वे औपशमिक हैं।

    2. जिस जल का मैल नीचे बैठा हो उसे यदि दूसरे बर्तन में रख दिया जाय तो जैसे उसमें अत्यन्त निर्मलता होती है उसी तरह कर्मों की अत्यन्त निवृत्ति से जो आत्यन्तिक विशुद्धि होती है वह क्षय है और कर्मक्षय के लिए जो भाव होते हैं वे क्षायिक भाव हैं।

    3. जैसे कोदों को धोने से कुछ कोदों की मदशक्ति क्षीण हो जाती है और कुछ की अक्षीण उसी तरह परिणामों की निर्मलता से कर्मों के एकदेश का क्षय और एकदेश का उपशम होना मिश्र-भाव है। इस क्षयोपशम के लिए जो भाव होते हैं उन्हें क्षायोपशमिक कहते हैं ।

    4. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से कर्मों का फल देना उदय है और उदयनिमित्तक भावों को औदयिक कहते हैं।

    5-6. जो भाव कर्मों के उपशमादि की अपेक्षा न रखकर द्रव्य के निजस्वरूपमात्र से होते हैं उन्हें पारिणामिक कहते हैं।

    7-15 यद्यपि औदयिक और पारिणामिक भव्य और अभव्य सभी जीवों में रहते हैं अतः बहुव्यापी हैं फिर भी भव्यजीवों के धर्मविशेषों को प्रधानता देने के लिए औपशमिक आदि का प्रथम ग्रहण किया है। उनमें भी औपशमिक को प्रथम इसलिए ग्रहण किया है कि सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन औपशमिक ही होता है फिर क्षायोपशमिक और फिर क्षायिक । उपशम सम्यग्दृष्टि अन्तर्मुहूर्त काल में अधिक से अधिक पल्य के असंख्यात भाग तक हो सकते हैं। अतः संख्या की दृष्टि से सभी सम्यग्दृष्टियों में अल्प हैं और उसका काल भी अल्प है। क्षायिक सम्यग्दर्शन में मिथ्यात्व, सम्यङमिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन तीनों प्रकृतियों का क्षय हो जाने से परम विशुद्धि है और क्षायिक सम्यग्दर्शन का काल तेंतीस सागर है अत: इतने समय तक संचय की दृष्टि से जीवों की संख्या औपशमिक की अपेक्षा आवलि के असंख्यात भाग से गुणित है अतः विशुद्धि और संख्या की दृष्टि से अधिक होने के कारण क्षायिक का औपशमिक के बाद ग्रहण किया है। यद्यपि क्षायिक भाव शुद्धि की दृष्टि से क्षायोपशमिक से अनन्तगुणा है तो भी छयासठ सागर काल में संचित क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियों की संख्या क्षायिक से आवलि के असंख्यात भाग गुणित है अतः क्षायिक के बाद इसका ग्रहण किया है। औदयिक और पारिणामिक की संख्या सबसे अनन्तगुणी है, अतः दोनों का अन्त में ग्रहण किया है । ये दोनों भाव सभी जीवों के समान संख्या में होते हैं तथा इनसे ही अतीन्द्रिय और अमूर्त आत्मा का ज्ञान किया जाता है। मनुष्य, तिर्यञ्च आदि गतिभाव और चैतन्य आदि भाव ही जीव के परिचायक होते हैं। इसलिए सर्वसाधारण होने से दोनों को अन्त में ग्रहण किया है ।

    16-18. जैसे 'गायें धन है' यहाँ गायों के भीतरी संख्या की विवक्षा न होने से सामान्य रूप से एक-वचन धन के साथ सामानाधिकरण्य बन जाता है उसी तरह औपशमिक आदि भीतरी भेद की विवक्षा न करके सामान्य स्वतत्त्व की दृष्टि से 'स्वतत्त्वम्' यह एकवचन निर्देश है। अथवा 'औपशमिक स्वतत्त्व है क्षायिक स्वतत्त्व है' इस प्रकार प्रत्येक के साथ स्वतत्त्व का सम्बन्ध कर लेना चाहिए।

    19-20. सूत्र में यदि द्वन्द्व-समास किया जाता तो दो 'च' शब्द नहीं देने पड़ते फिर भी 'मिश्र' शब्द से औपशमिक और क्षायिक से भिन्न किसी तृतीय ही भाव के ग्रहण का अनिष्ट प्रसङ्ग प्राप्त होता अतः द्वन्द्व-समास नहीं किया गया है । ऐसी दशा में 'च' शब्द से उपशम और क्षय का मिला हआ मिश्र भाव ही लिया जायगा। 'क्षायोपशमिक' शब्द के ग्रहण से तो शब्दगौरव हो जाता है।

    21. मध्य में 'मिश्र' शब्द के ग्रहण का प्रयोजन यह है कि भव्य जीवों के औपशमिक और क्षायिक के साथ मिश्र-भाव होता है और अभव्यों के औदयिक और पारिणामिक के साथ मिश्र-भाव होता है । इस तरह पूर्व और उत्तर दोनों ओर 'मिश्र' का सम्बन्ध हो जाय।

    22. सूत्रगत 'जीवस्य' यह पद सूचित करता है कि ये भाव जीव के ही हैं अन्य द्रव्यों के नहीं।

    23-25. प्रश्न – आत्मा औपशमिकादि भावों को यदि छोड़ता है तो स्वतत्त्व के छोड़ने से उष्णता के छोड़ने पर अग्नि की तरह अभाव अर्थात् शून्यता का प्रसंग होता है और यदि नहीं छोड़ता तो औदयिक आदि भावों के बने रहने से मोक्ष नहीं हो सकेगा?

    उत्तर – अनेकान्तवाद में अनादि पारिणामिक चैतन्य द्रव्य की दृष्टि से स्वभाव का अपरित्याग और आदिमान् औदयिक आदि पर्यायों की दृष्टि से स्वभाव का त्याग ये दोनों ही पक्ष बन जाते हैं। फिर स्वभाव के त्याग या अत्याग से तो मोक्ष होता नहीं है, मोक्ष तो सम्यग्दर्शनादि अन्तः करणों से संपूर्ण कर्मों का क्षय होने पर होता है । अग्नि उष्णता को छोड़ भी दे तो भी उसका सर्वथा अभाव नहीं होता; क्योंकि जो पुद्गल अग्नि पर्याय को धारण किए था वह अन्य रूपस्पर्शवाली दूसरी पर्याय को धारण करके पुद्गल द्रव्य बना रहता है । जैसे कि निद्रा आदि अवस्थाओं में रूपोपलब्धि न रहने पर भी नेत्र का अभाव नहीं माना जाता, अथवा केवली अवस्था में मतिज्ञानरूप रूपोपलब्धि न होने पर भी द्रव्यनेत्र रहने से नेत्र का अभाव नहीं माना जाता। उसी तरह मोक्षावस्था में भी क्षायिक-भावों के विद्यमान रहने से कर्मनिमित्तक औदयिकादि भावों का नाश होने पर भी आत्मा का अभाव नहीं होता।

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    + परिणामों (भावों) के उत्तर-भेद -
    द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् ॥2॥
    अन्वयार्थ : उक्त पाँच भावों के क्रम से दो, नौ, अठारह, इक्‍कीस और तीन भेद हैं ॥२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    संख्‍यावाची दो आदि शब्‍दों का द्वन्‍द्व समास करके पश्‍चात् उनका भेद शब्‍द के साथ स्‍वपदार्थ में या अन्‍यपदार्थ में समास जानना चाहिए । जब स्‍वपदार्थ में समास करते हें तब औपशमिक आदि भावों के दो, नौ, अठारह, इक्‍कीस और तीन भेद हैं ऐसा सम्‍बन्‍ध कर लेते हैं । यद्यपि पूर्व सूत्र में औपशमिक आदि पद की षष्‍ठी विभक्ति नहीं है तो भी अर्थवश विभक्ति बदल जाती है । और जब अन्‍य पदार्थों में समास करते हैं तब विभक्ति बदलने का कोई कारण नहीं रहता । सूत्र में इनकी विभक्ति का जिस प्रकार निर्देश किया है तदनुसार सम्‍बन्‍ध हो जाता है । सूत्रमें 'यथाक्रम' वचन यथासंख्‍या के ज्ञान कराने के लिए दिया है । तथा - औपशमिक भाव के दो भेद हैं, क्षायिक के नौ भेद हैं, मिश्र के अठारह भेद हैं, औदयिक के इक्‍कीस भेद हैं और पारिणामिक के तीन भेद हैं ।

    यदि ऐसा है तो औपशमिक के दो भेद कौन-से हैं ? इस बात का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-2. द्वि नव आदि शब्दों का इतरेतरयोगार्थक द्वन्द्व समास है ।

    प्रश्न – इतरेतरयोग तुल्ययोग में होता है किन्तु यहाँ तुल्ययोग नहीं है क्योंकि द्वि आदि शब्द संख्येय प्रधान हैं तथा एकविंशति शब्द संख्याप्रधान।

    उत्तर – निमित्तानुसार द्वि आदि शब्द भी संख्याप्रधान हो जाते हैं जैसे राजा स्वयं समय-समय पर मन्त्री को प्रधानता देता है।

    प्रश्न – तर्क से कैसा ही समाधान हो जाय पर व्याकरण शास्त्र में स्पष्ट कहा है कि दो से 19 तक के अंक संख्येय प्रधान ही होते हैं तथा बीस आदि कभी संख्याप्रधान और कभी संख्येयप्रधान । यदि दो आदि शब्द भी कदाचित् संख्यावाची हों तो बीस आदि के समान ही इनकी स्थिति हो जायगी ऐसी दशा में 'विंशतिर्गवाम्' की तरह सम्बन्धी में षष्ठी विभक्ति और स्वयं में एकवचनान्त प्रयोग होना चाहिए। व्याकरण में ही जो 'द्वयेकयोः' यह संख्याप्रधान प्रयोग देखा जाता है वह संख्यार्थक नहीं है किन्तु जिसके अवयव गौण हैं ऐसे समुदाय के अर्थ में है, जैसे कि 'बहुशक्तिकिटक वनम्' - शक्तिशाली शूकरों वाला वन ।

    उत्तर – संख्याप्रधान होने पर भी इन्हें संख्येय विषयक मान लेते हैं। 'भावप्रत्यय के बिना भी गुणप्रधान निर्देश हो जाता है' यह नियम है। इस तरह दो आदि शब्द जब संख्येय प्रधान हो गये और एकविंशति शब्द भी संख्येय प्रधान तब तुल्ययोग होने से द्वन्द्व-समास होने में कोई बाधा नहीं है। भेद शब्द से द्विआदि शब्दों का स्वपदार्थ प्रधान समास है। विशेषणविशेष्य समास में 'दो नव आदि ही भेद' ऐसा स्वपदार्थप्रधान निर्देश हो जाता है।

    प्रश्न – 'द्वियमुनम्' आदि में पूर्वपदार्थप्रधान समास होता है, अतः द्वि आदि शब्दों को विशेष्य और भेद-शब्द को विशेषण मानने में भेद शब्द का पूर्वनिपात होना चाहिये ? ।

    उत्तर – सामान्योपक्रम में विशेष कथन होने पर वह नियम लागू होता है । 'के?' कहने से 'द्वे यमुने' यह उत्तर मिलता है पर 'यमने' यह कहने पर दो शब्द निरर्थक हो जाता है। परन्तु यहां बहुत होने से सन्देह होता है - 'भेदाः' यह कहने पर 'कति' यह सन्देह बना रहता है और 'द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रयः' कहने पर 'के ते?' यह सन्देह रहता है अतः उभयव्यभिचार होने से विशेषण विशेष्य भाव इष्ट है। दो आदि गुणवाचक हैं अतः विशेषण हैं । अथवा 'दो आदि हैं भेद जिनके' इस प्रकार अन्यपदार्थप्रधान भी समास किया जा सकता है। संख्या शब्दों का विशेष्य होने पर भी 'सर्वनामसंख्ययोरुपसंख्यानम्' सूत्र से पूर्व निपात हो जायगा। पूर्वसूत्र में कहे गये औपशमिक आदि का अर्थवश विभक्ति परिणमन कराके 'औपशमिकादीनाम्' के रूप में सम्बन्ध कर लिया जायगा।

    3. भेद शब्द का सम्बन्ध प्रत्येक में कर लेना चाहिये, जैसे कि 'देवदत्त, जिनदत्त, गुरुदत्त को भोजन कराओ' यहां भोजन का सम्बन्ध प्रत्येक से हो जाता है। 'यथाक्रमम्' शब्द दो आदि का निर्देशानुसार औपशमिक आदि भावों से क्रमशः सम्बन्ध सूचित करता है ।

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    + औपशमिकभाव के भेद -
    सम्यक्त्वचारित्रे ॥3॥
    अन्वयार्थ : औपशमिक भाव के दो भेद हैं - औपशमिक सम्‍यक्‍त्‍व और औपशमिक चारित्र ॥३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सम्‍यक्‍त्‍व और चारित्र के लक्षण का व्‍याख्‍यान पहले कर आये हैं ।

    शंका – इनके औपशमिकपना किस कारण से है ?

    समाधान – चारित्र-मोहनीय के दो भेद हैं - कषाय-वेदनीय और नोकषाय-वेदनीय । इनमें-से कषाय-वेदनीय के अनन्‍तानुबन्‍धी क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार भेद ओर दर्शन-मोहनीय के सम्‍यक्‍त्‍व, मिथ्‍यात्‍व और सम्‍यग्मिथ्‍यात्‍व ये तीन भेद - इन सात के उपशम से औपशमिक सम्‍यक्‍त्‍व होता है ।

    शंका – अनादि मिथ्‍यादृष्टि भव्‍य के कर्मों के उदय से प्राप्‍त कलुषता के रहते हुए इन का उपशम कैसे होता है ?

    समाधान – काल-लब्धि आदि के निमित्त से इनका उपशम होता है । अब यहाँ काल-लब्धि को बतलाते हैं - कर्म-युक्त कोई भी भव्‍य आत्‍मा अर्धपुद्गल परिवर्तन नाम के काल के शेष रहने पर प्रथम सम्‍यक्‍त्‍व के ग्रहण करने के योग्‍य होता है, इससे अधिक काल के शेष रहने पर नहीं होता यह एक काल-लब्धि है । दूसरी काल-लब्धि का सम्‍बन्‍ध कर्म स्थिति से है । उत्‍कृष्‍ट स्थिति वाले कर्मों के शेष रहने पर या जघन्‍य स्थिति वाले कर्मों के शेष रहने पर प्रथम सम्‍यक्‍त्‍व का लाभ नहीं होता ।

    शंका – तो फिर किस अवस्‍थामें होता है ?

    समाधान – जब बँधने वाले कर्मों की स्थिति अन्‍त:कोड़ाकोड़ी सागरोपम पड़ती है और विशुद्ध परिणामों के वश से सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति संख्‍यात हजार सागरोपम कम अन्‍त:कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्राप्‍त होती है तब यह जीव प्रथम सम्‍यक्‍त्‍व के योग्‍य होता है । एक काल-लब्धि भव की अपेक्षा होती है - जो भव्‍य है, संज्ञी है, पर्याप्‍तक है और सर्व-विशुद्ध है वह प्रथम सम्‍यक्‍त्‍व को उत्‍पन्‍न करता है । 'आदि' शब्‍द से जातिस्‍मरण आदि का ग्रहण करना चाहिए ।

    समस्‍त मोहनीय कर्म के उपशम से औपशमिक चारित्र होता है । इनमें से 'सम्‍यक्‍त्‍व' पद को आदि में रखा है, क्‍योंकि चारित्र सम्‍यक्‍त्‍व पूर्वक होता है ।

    जो क्षायिक-भाव नौ प्रकार का कहा है उसके भेदों के स्‍वरूप का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-2. मिथ्यात्व, सम्यङमिथ्यात्व और सम्यक्त्व ये तीन दर्शनमोह तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार चारित्रमोह, इस प्रकार इन सात कर्मप्रकृतियों के उपशम से औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। अनादिमिथ्यादृष्टि भव्य के काललब्धि आदि के निमित्त से यह सम्यग्दर्शन होता है । काललब्धि अनेक प्रकार की है । जैसे
    1. भव्य-जीव के अर्धपुद्गलपरिवर्तन रूप समय शेष रहने पर वह सम्यक्त्व के योग्य होता है अधिक काल में नहीं।
    2. जब कर्म उत्कृष्ट स्थिति या जघन्य स्थिति में बँध रहे हों तब प्रथम सम्यक्त्व नहीं होता किन्तु जब कर्म अन्तःकोड़ाकोड़ि सागर की स्थिति में बँध रहे हों तथा पूर्वबद्ध कर्म परिणामों की निर्मलता के द्वारा संख्यात हजार सागर कम अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर की स्थितिवाले कर दिए गये हों तब प्रथम सम्यक्त्व की योग्यता होती है।
    3. तीसरी काललब्धि भव की अपेक्षा है ।
    सम्यक्त्व की उत्पत्ति में जातिस्मरण वेदना आदि भी निमित्त होते हैं। भव्य पञ्चेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक परिणामों की विशुद्धि से अन्तर्मुहूर्त में ही मिथ्यात्व कर्म के सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यङमिथ्यात्व रूप से तीन विभाग कर देता है।

    उपशम सम्यग्दर्शन चारों ही गतियोंमें होता है ।

    3. अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ ये सोलह कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये 9 नोकषाय, मिथ्यात्व सम्यङमिथ्यात्व और सम्यक्त्व ये तीन दर्शनमोह इस प्रकार अट्ठाईस मोह प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक चारित्र होता है।

    4. औपशमिक सम्यग्दर्शन होने के बाद ही क्रमशः औपशमिक चारित्र होता है अतः पूज्य होने से उसका प्रथम ग्रहण किया है।

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    + क्षायिकभाव के भेद -
    ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥4॥
    अन्वयार्थ : क्षायिक भाव के नौ भेद हैं - क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्‍यक्‍त्‍व और क्षायिक चारित्र ॥४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्र में 'च' शब्‍द सम्‍यक्‍त्‍व और चारित्र के ग्रहण करने के लिए आया है ज्ञानावरण कर्म के अत्‍यन्‍त क्षय से क्षायिक केवलज्ञान होता है । इसी प्रकार केवलदर्शन भी होता है । दानान्‍तराय कर्म के अत्‍यन्‍त क्षय से अनन्‍त प्राणियों के समुदाय का उपकार करने वाला क्षायिक अभयदान होता है । समस्‍त लाभान्‍तराय कर्म के क्षय के कवलाहार क्रिया से रहित केवलियों के क्षायिक लाभ होता है, जिससे उनके शरीर को बल प्रदान करने में कारण-भूत, दूसरे मनुष्‍यों को असाधारण अर्थात् कभी न प्राप्‍त होने वाले, परम शुभ और सूक्ष्‍म ऐसे अनन्‍त परमाणु प्रति समय सम्‍बन्‍ध को प्राप्‍त होते हैं । समस्‍त भोगान्‍तराय कर्म के क्षय से अतिशयवाले क्षायिक अनन्‍त भोग का प्रादुर्भाव होता है । जिससे कुसुम-वृष्टि आदि अतिशय विशेष होते हैं । समस्‍त उपभोगान्‍तराय के नष्‍ट हो जाने से अनन्‍त क्षायिक उपभोग होता है । जिससे सिंहासन, चामर और तीन छत्र आदि विभूतियाँ होती हैं । वीर्यान्‍तराय कर्म के अत्‍यन्‍त क्षय से क्षायिक अनन्त-वीर्य प्रकट होता है पूर्वोक्त सात प्रकृतियों के अत्‍यन्‍त विनाश से क्षायिक सम्‍यक्‍त्‍व होता है । इसी प्रकार क्षायिक चारित्र का स्‍वरूप समझना चाहिए ।

    शंका – यदि क्षायिक दान आदि भावों के निमित्त से अभयदान आदि कार्य होते हैं तो सिद्धों में भी उनका प्रसंग प्राप्‍त होता है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्‍योंकि इन अभय-दान आदिके होने में शरीर नाम-कर्म और तीर्थंकर नामकर्म के उदयकी अपेक्षा र‍हती है । परन्‍तु सिद्धों के शरीर नाम-कर्म और तीर्थंकर नाम-कर्म नहीं होते, अत: उनके अभय-दान आदि प्राप्‍त नहीं होते ।

    शंका – तो सिद्धों के क्षायिक दान आदि भावों का सद्भाव कैसे माना जाय ?

    समाधान – जिस प्रकार सिद्धों के केवलज्ञान रूप से अनन्‍तवीर्य का सद्भाव माना गया है उसी प्रकार परमानन्‍द और अव्‍याबाध रूप से ही उनका सिद्धों के सद्भाव है ।


    जो अठारह प्रकार का क्षायोपशमिक भाव कहा है उसके भेदों का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. समग्र ज्ञानावरण के क्षय से केवलज्ञान और दर्शनावरण के क्षय से केवलदर्शन क्षायिक होते हैं।

    2. समस्त दानान्तराय कर्म के अत्यन्त क्षय से अनन्त प्राणियों को अभय और अहिंसा का उपदेशरूप अनन्त दान क्षायिक दान है।

    3. संपूर्ण लाभान्तराय का अत्यन्त क्षय होने पर कवलाहार न करनेवाले केवली को शरीर की स्थिति में कारणभूत परम शुभ सूक्ष्म दिव्य अनन्त पुद्गलों का प्रतिसमय शरीर में सम्बन्धित होना क्षायिक लाभ है। अतः 'कवलाहार के बिना कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष तक औदारिक शरीर की स्थिति कैसे रह सकती है ?' यह शंका निराधार हो जाती है।

    4. संपूर्ण भोगान्तराय के नाश से उत्पन्न होनेवाला सातिशय भोग क्षायिक भोग है। इसी से पुष्पवृष्टि, गन्धोदकवृष्टि, पदकमल-रचना सुगन्धित शीत वायु, सह्य धूप आदि अतिशय होते हैं।

    5. समस्त उपभोगान्तराय के नाश से उत्पन्न होनेवाला सातिशय उपभोग क्षायिक उपभोग है। इसी से सिंहासन, छत्र-त्रय, चमर, अशोकवृक्ष, भामण्डल, दिव्यध्वनि, देवदुन्दुभि आदि होते हैं।

    6. समस्त वीर्यान्तराय के अत्यन्त क्षय से प्रकट होनेवाला अनन्त क्षायिक वीर्य है।

    7. दर्शनमोह के क्षय से क्षायिक सम्यग्दर्शन और चारित्रमोह के क्षय से क्षायिक चारित्र होता है।

    प्रश्न – दानान्तराय आदि के क्षयसे प्रकट होनेवाली दानादिलब्धियों के अभयदान आदि कार्य सिद्धों में भी होने चाहिए ?

    उत्तर – दानादिलब्धियों के कार्य के लिए शरीर नाम और तीर्थङ्कर प्रकृति के उदय की भी अपेक्षा है । सिद्धों में ये लब्धियां अव्याबाध अनन्तसुख रूप से रहती हैं। जैसे कि केवल ज्ञानरूप में अनन्तवीर्य । जैसे पोरों के पृथक् निर्देश से अंगुलि सामान्य का कथन हो जाता है उसीतरह सभी क्षायिक भावों में व्यापक सिद्धत्व का भी कथन उन विशेष क्षायिकभावों के कथन से हो ही गया है, उसके पृथक् कथन की आवश्यकता नहीं हैं।

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    + क्षायोपशमिक भाव के भेद -
    ज्ञानाज्ञानदर्शन लब्धयश्‍चतुस्त्रित्रि पञ्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्र संयमासंयमाश्‍च ॥5॥
    अन्वयार्थ : क्षायोपशमिक भाव के अठारह भेद हैं - चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, पाँच दानादि लब्धियाँ, सम्‍यक्‍त्‍व, चारित्र और संयमासंयम ॥५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिनके चार, तीन, तीन और पाँच भेद हैं वे चार, तीन, तीन और पाँच भेदवाले कहलाते हैं । इस सूत्रमें 'यथाक्रमम्' पद की अनुवत्ति होती है, जिससे चार आदि पदों के साथ ज्ञान आदि पदों का क्रम से सम्‍बन्‍ध होता है । यथा - चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन और पाँच लब्धियाँ । वर्तमान काल में सर्वघाती स्‍पर्द्धकों का उदयाभावी क्षय होनेसे और आगामी काल की अपेक्षा उन्‍हीं का सदवस्‍था रूप उपशम होने से देशघाती स्‍पर्द्धकों का उदय रहते हुए क्षायोपशमिक भाव होता है । इन पूर्वोक्त भावोंमें-से ज्ञान आदि भाव अपने-अपने आवरण और अन्‍तराय कर्म के क्षयोपशम से होते हैं ऐसा व्‍याख्‍यान यहाँ कर लेना चाहिए । सूत्र में आये हुए सम्‍यक्‍त्‍व-पद से वेदक सम्‍यक्‍त्‍व लेना चाहिए । तात्‍पर्य यह है ‍-- चार अनन्‍तानुबन्‍धी कषाय, मिथ्‍यात्‍व और सम्‍यग्मिथ्‍यात्‍व इन छह प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और सदवस्‍था-रूप उपशम से देशघाती स्‍पर्धकवाली सम्‍यक्‍त्‍व प्रकृति के उदय में जो तत्त्‍वार्थ-श्रद्धान होता है वह क्षायोपशमिक सम्‍यक्‍त्‍व है । अनन्‍तानुबन्‍धी, अप्रत्‍याख्‍यानावरण और प्रत्‍याख्‍यानावरण इन बारह कषायों के उदयाभावी क्षय होने से और इन्‍हीं के सदवस्‍थारूप उपशम होने से तथा चार संज्‍वलनों में-से किसी एक देशघाती प्रकृति के उदय होने पर और नौ नोकषायों का यथासम्‍भव उदय होने पर जो संसार से पूरी निवृत्तिरूप परिणाम होता है वह क्षायोपशमिक चारित्र है । अनन्‍तानुबन्‍धी और अप्रत्‍याख्‍यानावरण इन आठ कषायों के उदयाभावी क्षय होन से और सदवस्‍थारूप उपशम होने से तथा नौ नोकषायों के यथासम्‍भव उदय होने पर जो विरताविरत-रूप परिणाम होता है वह संयमा-संयम कहलाता है ।

    अब जो इक्‍कीस प्रकारका औदयिक भाव कहा है उसके भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-2. चतुः त्रि आदि शब्दों का द्वन्द्व समास करके पीछे भेद शब्द से अन्य पदार्थ प्रधान बहुव्रीहि समास करना चाहिए। यहां सूत्र में 'त्रि' शब्द दो बार आया है अतः द्वन्द्व का अपवाद करके एकशेष नहीं किया गया है; क्योंकि एक त्रि संख्या से अर्थबोध नहीं होता, यहां अन्यपदार्थ प्रधान है और त्रि शब्द को पृथक् कहने का विशेष प्रयोजन भी है । 'चार प्रकार का ज्ञान, तीन अज्ञान' आदि अनुक्रम से सम्बन्ध ज्ञापन कराने के लिए यहां 'यथाक्रम' शब्द का अनुवर्तन 'द्विनवाष्टा' सूत्र से कर लेना चाहिए। सपना

    3. उदयप्राप्त सर्वघाति स्पर्धकों का क्षय होने पर, अनुदयप्राप्त सर्वघाति स्पर्धकों का सदवस्थारूप उपशम होने पर तथा देशघाति स्पर्धकों के उदय होने पर क्षायोपशमिक भाव होते हैं।

    4. स्पर्धक - उदय प्राप्त कर्म के प्रदेश अभव्यों के अनन्तगुणें तथा सिद्धों के अनन्तभाग प्रमाण होते हैं। उनमें से सर्वजघन्य गुणवाले प्रदेश के अनुभाग का बुद्धि के द्वारा उतना सूक्ष्म विभाग किया जाय जिससे आगे विभाजन न हो सकता हो। सर्वजीवराशि के अनन्तगुण प्रमाण ऐसे सर्वजघन्य अविभाग परिच्छेदों की राशि को एक वर्ग कहते हैं। इसी तरह सर्वजघन्य अविभाग परिच्छेदों के, जीवराशि से अनन्तगुण प्रमाण, राशिरूप वर्ग बनाने चाहिए । इन समगुणवाले समसंख्यक वर्गों के समूह को वर्गणा कहते हैं । पुनः एक अविभाग परिच्छेद अधिक गुणवालों के सर्वजीवराशि की अनन्तगुण प्रमाण राशिरूप वर्ग बनाने चाहिए। उन वर्गों के समुदाय को वर्गणा बनानी चाहिए। इस तरह एक एक अविभाग परिच्छेद बढ़ाकर वर्ग और वर्ग-समूहरूप वर्गणाएँ तब तक बनानी चाहिए जबतक एक अधिक परिच्छेद मिलता जाय । इन क्रमहानि और क्रमवृद्धिवाली वर्गणाओं के समुदाय को एक स्पर्धक कहते हैं। इसके बाद दो, तीन, चार, संख्यात और असंख्यात गुण अधिक परिच्छेद नहीं मिलते किन्तु अनन्तगुण अधिकवाले ही मिलते हैं। फिर उनमें से पूर्वोक्त क्रम से समगुणवाले वर्गों के समुदायरूप वर्गणा बनानी चाहिए । इस तरह जहां तक एक-एक अधिक परिच्छेद का लाभ हो वहां तक की वर्गणाओं के समूह का दूसरा स्पर्धक बनता है । इसके आगे दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात गुण अधिक परिच्छेद नहीं मिलेंगे किन्तु अनन्तगुण अधिक ही मिलते हैं। इस तरह समगुणवाले वर्गों के समुदायरूप वर्गणाओं के समूहरूप स्पर्धक एक उदयस्थान में अभव्यों से अनन्तगुणे तथा सिद्धों के अनन्तभाग प्रमाण होते हैं।

    5. वीर्यान्तराय और मतिश्रुतज्ञानावरण के सर्वघाति स्पर्धकों का उदयक्षय और आगामी का सदवस्था उपशम होने पर तथा देशघाति स्पर्धकों का उदय होने पर क्षायोपशमिक मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं। देशघाति स्पर्धकों के अनुभागतारतम्य से क्षयोपशम में भेद होता है । इसी तरह अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान भी क्षायोपशमिक होते हैं।

    6. मिथ्यात्वकर्म के उदय से मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगज्ञान ये तीन अज्ञान अर्थात् मिथ्याज्ञान होते हैं।

    7. चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन और अवधिदर्शन ये तीन दर्शन अपने-अपने आवरणों के क्षयोपशम से होते हैं।

    8. दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पाँच लब्धियाँ दानान्तराय आदि के क्षयोपशम से होती हैं। अनन्तानुबन्धी चार कषाय, मिथ्यात्व और सम्यङमिथ्यात्व के उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशम होने पर तथा सम्यक्त्व नामक देशघाति प्रकृति के उदय में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है। यह वेदक भी कहलाता है । अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान रूप बारह कषायों के उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशम होने पर तथा चार संज्वलनों में से किसी एक कषाय और नव नोकषायों का यथासंभव उदय होनेपर क्षायोपशमिक चारित्र होता है। अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानरूप आठ कषायों का उदयक्षय और सदवस्था उपशम, प्रत्याख्यान कषाय का उदय, संज्वलन के देशघाति स्पर्धक और यथासंभव नोकषायों का उदय होने पर विरत-अविरत परिणाम उत्पन्न करनेवाला क्षायोपशमिक संयमासंयम होता है ।

    9. क्षायोपशमिक संज्ञित्व भाव नोइन्द्रियावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने के कारण मतिज्ञान में अन्तर्भूत हो जाता है । सम्यङमिथ्यात्व यद्यपि दूध पानी की तरह उभयात्मक है फिर भी सम्यक्त्वपना उसमें विद्यमान होने से सम्यक्त्व में अन्तर्भूत हो जाता है । योग का वीर्यलब्धि में अन्तर्भाव हो जाता है । अथवा, च शब्द से इन भावों का संग्रह हो जाता है। पंचेन्द्रियत्व समान होने पर भी जिसके संज्ञिजाति नामकर्म के उदय के साथ ही नोइन्द्रियावरण का क्षयोपशम होता है वही संज्ञी होता है, अन्य नहीं।

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    + औदयिक भाव के भेद -
    गतिकषायलिंग-मिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्‍चतुश्‍चतुस्त्र्यैकैकैकैक-षड्भेदाः ॥6॥
    अन्वयार्थ : औदयिक भाव के इक्‍कीस भेद हैं - चार गति, चार कषाय, तीन लिंग, एक मिथ्‍यादर्शन, एक अज्ञान, एक असंयम, एक असिद्ध भाव और छह लेश्‍याएँ ॥६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    इस सूत्रमें 'यथाक्रमम्' पदकी अनुवृत्ति होती है, क्‍योंकि यहाँ उसका सम्‍बन्‍ध है ।

    गति चार प्रकार की है - नरक-गति, तिर्यंच-गति, मनुष्‍य-गति और देव-गति । इनमें-से नरक गति नाम-कर्म के उदय से नारक-भाव होता है, इसलिए नरक-गति औदयिक है । इसी प्रकार शेष तीन गतियों का भी अर्थ करना चाहिए ।

    कषाय चार प्रकारका है - क्रोध, मान, माया और लोभ । इनमें-से क्रोधको पैदा करने वाले कर्म के उदय से क्रोध औदयिक होता है । इसी प्रकार शेष तीन कषायों को औदयिक जानना चाहिए ।

    लिंग तीन प्रकार का है - स्‍त्री-वेद, पुरुष-वेद और नपुंसक-वेद । स्‍त्री-वेद कर्म के उदय से स्‍त्री-वेद औदयिक होता है । इसी प्रकार शेष दो वेद औदयिक हैं । मिथ्‍यादर्शन एक प्रकार का है । मिथ्‍यादर्शन कर्म के उदय से जो तत्‍त्‍वों का अश्रद्धान-रूप परिणाम होता है वह मिथ्‍यादर्शन है, इसलिए वह औदयिक है ।

    पदार्थों के नहीं जानने को अज्ञान कहते हैं । चूंकि वह ज्ञानावरण कर्म के उदय से होता है, इसलिए औदयिक है ।

    असंयतभाव चारित्र-मोहनीय कर्म के सर्वघा‍ती-स्‍पर्धकों के उदय से होता है, इसलिए औदयिक है ।

    असिद्धभाव कर्मोदय सामान्‍य की अपेक्षा होता है, इसलिए औदयिक है ।

    लेश्‍या दो प्रकार की है - द्रव्‍य-लेश्‍या और भाव-लेश्‍या । यहाँ जीव के भावों का अधिकार होने से द्रव्‍य-लेश्‍या नहीं ली गयी है । चूं‍कि भावलेश्‍या कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति-रूप है, इसलिए वह औदयिक है ऐसा कहा जाता है । वह छह प्रकार की है - कृष्‍ण-लेश्‍या, नील-लेश्‍या, कापोत-लेश्‍या, पीत-लेश्‍या, पद्म-लेश्‍या और शुक्‍ल-लेश्‍या ।


    शंका – उपशान्‍त-कषाय, क्षीण-कषाय और सयोग-केवली गुणस्‍थान में शुक्‍ल-लेश्‍या है ऐसा आगम है, परन्‍तु वहाँ पर कषाय का उदय नहीं है इसलिए औदयिकपना नहीं बन सकता ।

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्‍योंकि जो योग-प्रवृत्ति कषायों के उदय से अनुरंजित होती रही वही यह है इस प्रकार पूर्वभाव-प्रज्ञापन नय की अपेक्षा उपशान्‍तकषाय आदि गुणस्‍थानों में भी लेश्‍या को औदयिक कहा गया है । किन्‍तु अयोग-केवली के योगप्रवृत्ति नहीं होती, इसलिए वे लेश्‍या-रहित हैं ऐसा निश्‍चय होता है ।


    अब जो तीन प्रकार का पारिणामिक भाव कहा है उसके भेदों के स्‍वरूप का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. जिस कर्म के उदय से आत्मा नारक आदि भावों को प्राप्त हो वह गति है । नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव ये चार गतियाँ होती हैं।

    2. कषाय नामक चारित्रमोह के उदय से होनेवाली क्रोधादिरूप कलुषता कषाय कहलाती है। यह आत्मा के स्वाभाविक रूप को कष् देती है अर्थात् उसकी हिंसा करती है । क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाएँ होती हैं।

    3. द्रव्य और भाव के भेद से लिंग दो प्रकार का है। चूंकि आत्मभावों का प्रकरण है, अतः नामकर्म के उदय से होनेवाले द्रव्यलिंग की यहाँ विवक्षा नहीं है। स्त्रीवेद के उदय से होनेवाली पुरुषाभिलाषा स्त्रीवेद है, पुरुषवेद के उदय से होनेवाली स्त्री-अभिलाषा पुरुषवेद और नपुंसकवेद के उदय से होनेवाली उभयाभिलाषा नपुंसकवेद है।

    4. दर्शनमोह के उदय से तत्त्वार्थ में अरुचि या अश्रद्धान मिथ्यात्व कहलाता है ।

    5. जिस प्रकार प्रकाशमान सूर्य का तेज सघन मेघों द्वारा तिरोहित हो जाता है उसी तरह ज्ञानावरण के उदय से ज्ञानस्वरूप आत्मा के ज्ञान-गुण की अनभिव्यक्ति अज्ञान है। एकेन्द्रिय के रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्रेन्द्रियावरण के सर्वघाति स्पर्धकों का उदय होने से रसादि का अज्ञान रहता है। तोता, मैना आदि के सिवाय पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में तथा कुछ मनुष्यों में अक्षर श्रुतावरण के सर्वघाति स्पर्धकों का उदय होने से अक्षर श्रुतज्ञान नहीं हो पाता । नोइन्द्रियावरण के उदय से होनेवाला असंज्ञित्व अज्ञान में ही अन्तर्भूत है । इसी तरह अवधि ज्ञानावरणादि के उदय से होनेवाले यावत् अज्ञान औदयिक हैं ।

    6. चारित्रमोह के उदय से होनेवाली हिंसादि और इन्द्रिय विषयों में प्रवृत्ति असंयम है।

    7. अनादि कर्मबद्ध आत्मा के सामान्यतः सभी कर्मों के उदय से असिद्ध पर्याय होती है । दसवें गुणस्थान तक आठों कर्मों के उदय से, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में मोहनीय के सिवाय सात कर्मों के उदय से और सयोगी तथा अयोगी में चार अघातिया कर्मों के उदय से असिद्धत्व भाव होता है ।

    8. कषाय के उदय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति लेश्या है । द्रव्यलेश्या पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म के उदय से होती है अतः आत्मभावों के प्रकरण में उसका ग्रहण नहीं किया है । यद्यपि योगप्रवृत्ति आत्मप्रदेश परिस्पन्द रूप होने से क्षायोपशमिक वीर्यलब्धि में अन्तर्भूत हो जाती है और कषाय औदयिक होती है फिर भी कषायोदय के तीव्र मन्द आदि तारतम्य से अनुरंजित लेश्या पृथक् ही है। आत्मपरिणामों के अशुद्धि तारतम्य की अपेक्षा लेश्या के कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ये छह भेद हो जाते हैं। यद्यपि उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली गुणस्थानों में कषाय का उदय नहीं है फिर भी वहां भूतपूर्व प्रज्ञापन नय की अपेक्षा शुक्ल-लेश्या उपचार से कही है । 'जो योगप्रवृत्ति पहिले कषायानुरंजित थी वही यह है' इस तरह एकत्व उपचार का निमित्त होता है । चूंकि अयोगी में योगप्रवृत्ति भी नहीं है अतः वे अलेश्य कहे जाते हैं।

    9-11. मिथ्यादर्शन में दर्शनावरण के उदय से होनेवाले अदर्शन का अन्तर्भाव हो जाता है । यद्यपि मिथ्यादर्शन तत्त्वार्थाश्रद्धान रूप है फिर भी अदर्शन सामान्य में दर्शनाभाव रूप से दोनों प्रकार के दर्शनों का अभाव ले लिया जाता है। लिंग के सहचारी हास्य रति आदि छह नोकषाय लिंग में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं। गति अघातिकर्मोदय का उपलक्षण है, इससे नाम कर्म, वेदनीय, आयु और गोत्रकर्म के उदय से होनेवाले यावत् जीवविपा की भाव गृहीत हो जाते हैं। सूत्र में 'यथाक्रम' का अनुवर्तन करके गति आदि का चार आदि के साथ क्रमशः सम्बन्ध कर लेना चाहिये।

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    + पारिणामिक भाव के भेद -
    जीवभव्याभव्यत्वानि च ॥7॥
    अन्वयार्थ : पारिणामिक भाव के तीन भेद हैं - जीवत्‍व, भव्‍यत्‍व और अभव्‍यत्‍व ॥७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जीवत्‍व, भव्‍यत्‍व और अभव्‍यत्‍व ये तीन पारिणामिक भाव अन्‍य द्रव्‍यों में नहीं होते इसलिए ये आत्‍मा के जानने चाहिए ।

    शंका – ये पारिणामिक क्‍यों हैं ?

    समाधान – ये तीनों भाव कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना होते हैं, इसलिए पारिणामिक हैं । जीवत्‍व का अर्थ चैतन्‍य है । जिसके सम्‍यग्‍दर्शन आदि भाव प्रकट होने की योग्‍यता है । वह भव्‍य कहलाता है । अभव्‍य इसका उलटा है । ये तीनों जीव के पारिणामिक भाव हैं ।

    शंका – अस्तित्‍व, नित्‍यत्‍व और प्रदेशवत्त्‍व आदिक भी भाव हैं उनका इस सूत्र में ग्रहण करना चाहिए ?

    समाधान – अलग से उनके ग्रहण करने का कोई काम नहीं; क्‍योंकि उनका ग्रहण किया ही है ।

    शंका – कैसे ?

    समाधान – क्‍योंकि सूत्र में आये हुए 'च' शब्‍द से उनका समुच्‍चय हो जाता है ।

    शंका – यदि ऐसा है तो 'तीन' संख्‍या विरोध को प्राप्‍त होती है, क्‍योंकि इस प्रकार तीन से अधिक पारिणामिक भाव हो जाते हैं ?

    समाधान – तब भी 'तीन' यह संख्‍या विरोध को नहीं प्राप्‍त होती, क्‍योंकि जीव के असाधारण पारिणामिक भाव तीन ही हैं । अस्तित्‍वादिक तो जीव और अजीव दोनों के साधारण हैं इसलिए उनका 'च' शब्‍दके द्वारा अलगसे ग्रहण किया है ।

    शंका – औपशमिक आदि भाव नहीं बन सकते; क्‍योंकि आत्‍मा अमूर्त है । ये औपशमिक आदि भाव कर्मबन्‍ध की अपेक्षा होते हैं परन्‍तु अमूर्त आत्‍मा के कर्मों का बन्‍ध नहीं बनता है ?

    समाधान – यह कहना ठीक नहीं है, क्‍योंकि आत्‍मा के अमूर्तत्‍व के विषय में अनेकान्‍त है । य‍ह कोई एकान्‍त नहीं कि आत्‍मा अमूर्त ही है । कर्म-बन्‍ध-रूप पर्याय की अपेक्षा उसका आवेश होने के कारण कथंचित् मूर्त है और शुद्ध स्‍वरूप की अपेक्षा कथंचित् अमूर्त है।

    शंका – यदि ऐसा है तो कर्म-बन्‍ध के आवेश से आत्‍मा का ऐक्‍य हो जाने पर आत्‍मा का उससे भेद नहीं रहता ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं, क्‍योंकि यद्यपि बन्‍ध की अपेक्षा अभेद है तो भी लक्षण के भेद से कर्म से आत्‍मा का भेद जाना जाता है । कहा भी है - 'आत्‍मा बन्‍ध की अपेक्षा एक है तो भी लक्षण की अपेक्षा वह भिन्‍न है । इसलिए जीव का अमूर्तिक-भाव अनेकान्‍त-रूप है । व‍ह एक अपेक्षा से है और एक अपेक्षा से नहीं है।'


    यदि ऐसा है तो वही लक्षण कहिए जिससे कर्म से आत्‍मा का भेद जाना जाता है, इसी बात को ध्‍यान में रखकर आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-2. कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम की अपेक्षा न रखनेवाले मात्र द्रव्य की स्वभावभूत अनादि पारिणामिकी शक्ति से ही आविर्भूत ये भाव पारिणामिक हैं।

    3-6. यदि आयु नामक कर्म पुद्गल के सम्बन्ध से जीवत्व माना जाय तो उस कर्म-पुद्गल का सम्बन्ध तो धर्म-अधर्म आदि द्रव्यों से भी है अतः उनमें भी जीवत्व होना चाहिए और सिद्धों में कर्म-सम्बन्ध न होने से जीवत्व का अभाव हो जाना चाहिए, अतः अनादि पारिणामिक जीवद्रव्य का निज परिणाम ही जीवत्व है । 'जीवति अजीवीत् जीविष्यति' यह प्राणधारण की अपेक्षा जो व्युत्पत्ति है वह केवल व्युत्पत्ति है उससे कोई सिद्धान्त फलित नहीं होता जैसे कि 'गच्छतीति गौः' से मात्र गोशब्द की व्युत्पत्ति ही होती है न कि गौ का लक्षण आदि। जीव का वास्तविक अर्थ तो चैतन्य ही है और वह अनादि पारिणामिक द्रव्य निमित्तक है।

    7-9. सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र पर्याय जिसकी प्रकट होगी वह भव्य है और जिसके प्रकट न होगी वह अभव्य । द्रव्य की शक्ति से ही यह भेद है । उस भव्य को जो अनन्तकाल में भी सिद्ध नहीं होगा, अभव्य नहीं कह सकते, क्योंकि उसमें भव्यत्वशक्ति है। जैसे कि उस कनक-पाषाण को जो कभी भी सोना नहीं बनेगा अन्धपाषाण नहीं कह सकते अथवा उस आगामी-काल को जो अनन्तकाल में भी नहीं आयगा अनागामी नहीं कह सकते उसी तरह सिद्धि न होने पर भी भव्यत्वशक्ति होने के कारण उसे अभव्य नहीं कह सकते । वह भव्यराशि में ही शामिल है।

    10. प्रश्न – द्वन्द्व-समास के बाद भावार्थक 'त्व' प्रत्यय करने पर चूंकि भाव एक है अतः एकवचन प्रयोग होना चाहिए ?

    उत्तर – द्रव्य भेद से भाव भी भिन्न हो जाता है अतः भेद विवक्षा में बहुवचन किया गया है। 'स्व' का प्रत्येक से सम्बन्ध कर लेना चाहिए -- जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व।

    11. आगम में सासादन गुणस्थान में दर्शन-मोह के उदय, उपशम, क्षय या क्षयोपशम की अपेक्षा न रखने के कारण जो पारिणामिक भाव बताया है वह सापेक्ष है। वस्तुतः वहां अनन्तानुबन्धि का उदय होने से औदयिक भाव ही है । अतः उसका यहां ग्रहण नहीं किया है।

    12-13. अस्तित्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, पर्यायवत्त्व, असर्वगतत्व, अनादिसन्ततिबन्धनबद्धत्व, प्रदेशवत्त्व, अरूपत्व, नित्यत्व आदि के समुच्चय के लिए सूत्र में 'च' शब्द दिया है। चूंकि ये भाव अन्य द्रव्यों में भी पाए जाते है अतः असाधारण पारिणामिक जीवभावों के निर्देशक इस सूत्र में इनका ग्रहण नहीं किया है, यद्यपि ये सभी भाव, कर्म के उदय उपशम, क्षय, क्षयोपशम की अपेक्षा न रखने के कारण पारिणामिक हैं। इसी तरह आत्मा में अन्य भी साधारण पारिणामिक भाव होते हैं।

    14-18. प्रश्न – गति आदि औदयिक भावों के संग्रह के लिए 'च' शब्द मानना चाहिये।

    उत्तर – गति आदि पारिणामिक नहीं हैं किन्तु कर्मोदय-निमित्तक हैं अतः सूत्र में पारिणामिक-भाव तीन ही बताए हैं। क्षयोपशम-भाव की तरह गति आदि को औदयिक और पारिणामिक रूप से उभयरूप नहीं कह सकते; गति आदि भाव केवल औदयिक हैं पारिणामिक नहीं । यदि ये पारिणामिक होते तो जीवत्व की तरह सिद्धों में भी पाए जाते। आगम में जिस प्रकार क्षय और उपशम का 'मिश्र' क्षायोपशमिक बताया है उस तरह औदयिक और पारिणामिक को मिलाकर एक अन्य मिश्र' नहीं बताया है । अतः अस्तित्व आदि के समुच्चय के ही लिए 'च' शब्द दिया गया है।

    19-20. प्रश्न – अस्तित्व आदि के समुच्चय के लिए सूत्र में 'आदि' शब्द देना चाहिये?

    उत्तर – आदि शब्द देने से पारिणामिक भाव 'तीन' ही नहीं रहेंगे। च शब्द से गौणरूप से द्योतित होनेवाले अस्तित्व आदि भावों की संख्या से पारिणामिक भावों की मुख्य तीन संख्या का व्याघात नहीं होता; क्योंकि प्रधान और असाधारण पारिणामिक तीन ही विवक्षित हैं । और यदि 'आदि' शब्द दिया जाता तो आदि शब्द से सूचित होनेवाले अस्तित्व आदि का ही प्राधान्य हो जाता; जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व तो उपलक्षक हो जाने से गौण ही हो जाते। यदि तद्गुणसंविज्ञान पक्ष भी लिया जाय तो भी दोनों की ही समानरूप से प्रधानता हो जायगी।

    21-22. सान्निपातिक नाम का कोई छठवां भाव नहीं है। यदि है भी तो वह 'मिश्र' शब्द से गृहीत हो जाता है। 'मिश्र' शब्द केवल क्षयोपशम के लिए ही नहीं है किन्तु उसके पास ग्रहण किया गया 'च' शब्द सूचित करता है कि मिश्र शब्द से क्षायोपशमिक और सन्निपातिक दोनों का ग्रहण करना चाहिए । सान्निपातिक नाम का एक स्वतन्त्र भाव नहीं है । संयोग भंग की अपेक्षा आगम में उसका निरूपण किया गया है। सान्निपातिक भाव 26, 36 और 41 आदि प्रकार के बताए हैं।

    द्विसंयोगी 10, त्रिसंयोगी 10, चतुःसंयोगी 5 और पंचसंयोगी 1 इस तरह 26 भाव होते हैं। इस तरह 26 प्रकार के सान्निपातिक भाव हैं।

    36 प्रकार - दो औदयिक भाव और औदयिक का औपशमिक आदि से संयोग करने पर 5 भंग होते हैं -
    1. औदयिक-औदयिक -- मनुष्य और क्रोधी ।
    2. औदयिक-औपशमिक -- मनुष्य और उपशान्तक्रोध ।
    3. औदयिक-क्षायिक -- मनुष्य और क्षीणकषाय ।
    4. औदयिक-क्षायोपशमिक -- क्रोधी और मतिज्ञानी ।
    5. औदयिक-पारिणामिक -- मनुष्य और भव्य ।

    दो औपशमिक और औपशमिक का शेष चार के साथ संयोग करने पर पांच भंग होते हैं -
    1. औपशमिक-औपशमिक -- उपशमसम्यग्दृष्टि और उपशान्तकषाय ।
    2. औपशमिक औदयिक -- उपशान्तकषाय और मनुष्य ।
    3. औपशमिक-क्षायिक -- उपशान्तक्रोध और क्षायिक सम्यग्दष्टि ।
    4. औपशमिक-क्षायोपशमिक -- उपशान्तकषाय और अवधिज्ञानी
    5. औपशमिक-पारिणामिक -- उपशमसम्यग्दृष्टि और जीव ।

    दो क्षायिक और क्षायिक का औपशमिक आदि से मेल करने पर पांच भंग होते हैं
    1. क्षायिक-क्षायिक -- क्षायिकसम्यग्दृष्टि और क्षीणकषाय ।
    2. क्षायिक-औदयिक -- क्षीणकषाय और मनुष्य ।
    3. क्षायिक-औपशमिक -- क्षायिकसम्यग्दृष्टि और उपशान्तवेद ।
    4. क्षायिक-क्षायोपशमिक -- क्षीणकषाय और मतिज्ञानी।
    5. क्षायिक-पारिणामिक -- क्षीणमोह और भव्य ।

    दो क्षायोपशमिक और क्षायोपशमिक का शेष के साथ मेल करने पर पांच भंग होते हैं।
    1. क्षायोपशमिक-क्षायोपशमिक -- संयत और अवधिज्ञानी।
    2. क्षायोपशमिक-औदयिक -- संयत और मनुष्य ।
    3. क्षायोपशमिक-औपशमिक -- संयत और उपशान्तकषाय ।
    4. क्षायोपशमिक-क्षायिक -- संयतासंयत और क्षायिकसम्यग्दृष्टि ।
    5. क्षायोपशमिक-पारिणामिक -- अप्रमतसंयत और जीव ।

    दो पारिणामिक और पारिणामिक का शेष के साथ मेल करने पर पांच भंग होते हैं -
    1. पारिणामिक-पारिणामिक -- जीव और भव्य ।
    2. पारिणामिक-औदयिक -- जीव और क्रोधी ।
    3. पारिणामिक-औपशमिक -- भव्य और उपशान्तकषाय ।
    4. पारिणामिक-क्षायिक -- भव्य और क्षीणकषाय ।
    5. पारिणामिक-क्षायोपशमिक -- संयत और भव्य ।
    इस तरह द्विभावसंयोगी 25 त्रिभाव संयोगी 10 और पंचभावसंयोगी 1 मिलकर कुल 36 भंग हो जाते हैं । इन्हीं छत्तीस में चतुर्भावसंयोगी 5 भंग मिलानेपर 41 प्रकार के भी सान्निपातिक भाव होते हैं।

    23. यद्यपि औपशमिक, क्षायिक, औदयिक आदि भाव पुद्गल कर्मों के उदय, उपशम, निर्जरा आदि की अपेक्षा रखते हैं, फिर भी वे आत्मा के ही परिणाम हैं। आत्मा ही कर्मनिमित्त से उन-उन परिणामों को प्राप्त करता है, और इसीलिए इन परिणामों को आत्मा का असाधारण स्वतत्त्व कहा है। कहा भी है - "जिस समय जो द्रव्य जिस रूप से परिणत होता है उस समय वह तन्मय हो जाता है। इसलिए धर्मपरिणत आत्मा धर्म कहा जाता है।"

    24-27. प्रश्न – जूंकि आत्मा अमूर्त है अतः उसका कर्मपुद्गलों से अभिभव नहीं होना चाहिए ?

    उत्तर – अनादि कर्मबन्धन के कारण उसमें विशेष शक्ति आ जाती है । अनादि पारिणामिक चैतन्यवान् आत्मा की नारकादि मतिज्ञानादि रूप पर्याएं भी चेतन ही हैं। वह अनादि कार्मण शरीर के कारण मूर्तिमान् हो रहा है और इसीलिए उस पर्याय सम्बन्धी शक्ति के कारण मूर्तिक कर्मों को ग्रहण करता है। आत्मा कर्मबद्ध होने से कथञ्चित् मूर्तिक है तथा अपने ज्ञानादि स्वभाव को न छोड़ने के कारण अमूर्तिक है । जिस प्रकार मदिरा को पीकर मनुष्य मूर्च्छित हो जाता है, उसकी स्मरण शक्ति-नष्ट हो जाती है उसी तरह कर्मोदय से आत्मा के स्वाभाविक ज्ञानादि गुण अभिभूत हो जाते हैं । मदिरा के द्वारा इन्द्रियों में विभ्रम या मूर्छा आदि मानना ठीक नहीं है; क्योंकि जब इन्द्रियां अचेतन हैं तो अचेतन में बेहोशी आ नहीं सकती अन्यथा जिस पात्र में मदिरा रखी है उसे ही मूर्च्छित हो जाना चाहिए । यदि इन्द्रियों में चैतन्य है तो यह सिद्ध हो जाता है कि बेहोशी चेतन में होती है न कि अचेतन में।

    प्रश्न – चार्वाक - जिस प्रकार महुआ गुड़ आदि के सड़ाने पर उनमें मादकता प्रकट हो जाती है उसी तरह पृथिवी जल आदि भूतों का विशेष रासायनिक मिश्रण होने पर सुखदुःखादिरूप चैतन्य प्रकट हो जाता है, कोई स्वतन्त्र अमूर्त चैतन्य नहीं है।

    उत्तर – जैन - सुखादिक से रूपादिक में विलक्षणता है । रूपरसादि पृथिवी आदि के गुण जब पृथिवी आदि को विभक्त कर देते हैं तब कम हो जाते हैं और जब पृथिवी आदि अविभक्त रहते हैं तब अधिक देखे जाते हैं। ऐसे ही शरीर के अवयवों के विभक्त या अविभक्त कहने पर सुख ज्ञानादि गुणों में न्यूनाधिकता नहीं देखी जाती। यदि सुखादि पृथिवी आदि के गुण हों तो मृत शरीर में वे गुण रूपादि गुणों की तरह अवश्य मिलने चाहिए। यह तर्क तो उचित नहीं है कि - 'मृत शरीर से कुछ सूक्ष्म भूत निकल गए हैं, अतः ज्ञानादि नहीं मिलते' ; क्योंकि बहुत से स्थूल भूत जब मिलते हैं तो ज्ञानादि गुणों का अभाव नहीं होना चाहिए । यदि सूक्ष्म भूतों के निकल जाने से वे गुण मृत शरीर में नहीं रहे तो वे गुण उन सूक्ष्म भूतों के ही माने जाने चाहिए न कि समुदाय प्राप्त सभी भूतों के । ऐसी दशा में मदिरा का दृष्टान्त समुचित नहीं होगा क्योंकि मदिरा में तो कण-कण में मादकता व्याप्त रहती है। फिर उन सूक्ष्म भूतों की सिद्धि कैसे की जायगी ? यदि ज्ञानादि के द्वारा, तो ज्ञानादि से आत्मा की ही सिद्धि मान लेनी चाहिए। जिन इन्द्रियों में शराब के द्वारा बेहोशी मानते हैं वे इन्द्रियां यदि बाह्य करण हैं तो अचेतन होने के कारण उनपर मदिरा का कोई असर नहीं होना चाहिए। यदि अन्तःकरण होकर वे अचेतन हैं तो इनमें भी बेहोशी नहीं आ सकती। यदि चेतन हैं; तो यह मानना होगा कि ज्ञानरूप होने से ही इन पर मदिरा का असर हुआ। ऐसी दशा में 'अमूर्त होने से अभिभव नहीं हो सकता' यह पक्ष स्वतः खंडित हो जाता है। यद्यपि आत्मा अनादि से कर्मबद्ध है फिर भी उसका अपने ज्ञानादि गुणों के कारण स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध होता है। कहा भी है "बन्ध की दृष्टि से आत्मा और कर्म में एकत्व होने पर भी लक्षण की दृष्टि से दोनों में भिन्नता है । अतः आत्मा में एकान्त से अमूर्तिकपना नहीं है।"

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    + जीव का लक्षण -
    उपयोगो लक्षणम् ॥8॥
    अन्वयार्थ : उपयोग जीव का लक्षण है॥८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जो अन्‍तरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के निमित्‍तों से होता है और चैतन्‍य का अन्‍वयी है अर्थात् चैतन्‍य को छोड़कर अन्‍यत्र नहीं रहता वह परिणाम उपयोग कहलाता है । यद्यपि आत्‍मा बन्‍ध की अपेक्षा एक है तो भी इससे वह स्‍वतन्‍त्र जाना जाता है । जिस प्रकार स्‍वर्ण और चाँदी बन्‍ध की अपेक्षा एक हैं तो भी वर्णादि के भेद से उनमें पार्थक्‍य रहता है उसी प्रकार प्रकृत में समझना चाहिए ।


    अब उपयोग के भेद दिखलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. दो प्रकार के बाह्य तथा दो प्रकार के आभ्यन्तर हेतुओं का यथासंभव सन्निधान होने पर आत्मा के चैतन्यान्वयी परिणमन को उपयोग कहते हैं । बाह्य हेतु आत्मभूत और अनात्मभूत के भेद से दो प्रकार के हैं। आत्मा से सम्बद्ध शरीर में निर्मित चक्षु आदि इन्द्रियां आत्मभूत बाह्य हेतु हैं और प्रदीप आदि अनात्मभूत बाह्य हेतु । मन-वचन-काय की वर्गणाओं के निमित्त से होनेवाला आत्मप्रदेश परिस्पन्दन रूप द्रव्ययोग अन्तःप्रविष्ट होने से आभ्यन्तर अनात्मभूत हेतु है तथा द्रव्ययोगनिमित्तक ज्ञानादिरूप भावयोग तथा आत्मा की विशुद्धि आभ्यन्तर आत्मभूत हेतु है । इन हेतुओं का यथासंभव ही सन्निधान होता है । मनुष्यों को दीपक की आवश्यकता होती है, पर रात्रिचर बिल्ली आदि को नहीं। इन्द्रियां भी एकेन्द्रियादि के यथायोग्य ही रहती हैं । असंज्ञी जीवों के मन नहीं होता है। एकेन्द्रिय, विग्रहगति प्राप्त जीव और समुद्घातगत सयोगकेवली के एक काययोग ही होता है । क्षीणकषाय तक क्षयोपशमानुसार तन्निमित्तक एक ही भावयोग होता है। आगे ज्ञानावरणादि का क्षय होता है। इस तरह विभिन्न जीवों के उपयोग के कारण भिन्न-भिन्न होते हैं। चैतन्य केवल सुख-दुःख मोह रूप ही नहीं है जिससे ज्ञानदर्शन को चैतन्य कहने से पूर्वापर विरोध हो । चैतन्य आत्मा का सामान्य असाधारण धर्म है । वह सुख दुःखादि रूप भी होता है और ज्ञान दर्शनादि रूप भी। 'समुदायवाची शब्दों का प्रयोग अवयवों में भी हो जाता है' इस न्याय के अनुसार सुखदुःखादि को चैतन्य कह दिया गया है ।

    2-3. परस्पर सम्मिलित वस्तुओं से जिसके द्वारा किसी वस्तु का पृथक्करण हो वह उसका लक्षण होता है । जैसे सोना और चांदी की मिली हुई डली में पीला रंग और वजन सोने का भेदक होता है उसी तरह शरीर और आत्मा में बंध की दृष्टि से परस्पर एकत्व होने पर भी ज्ञानादि उपयोग उसके भेदक आत्मभूत लक्षण होते हैं । लक्षण आत्मभूत और अनात्मभूत के भेद से दो प्रकार का है। अग्नि की उष्णता आत्मभूत लक्षण है और दण्डी पुरुष का भेदक दंड अनात्मभूत है।

    4. गुणी आत्मा और ज्ञानादि गुण में सर्वथा भेद मानना उचित नहीं है । क्योंकि यदि आत्मा ज्ञानादि स्वभाव न हो तो उसका निश्चायक कोई स्वभाव न होने से अभाव हो जायगा और इसी तरह ज्ञानादि का भी निराश्रय होने से सद्भाव सिद्ध नहीं हो सकेगा।

    5-6. प्रश्न – गुणी लक्ष्य है और गुण लक्षण है । लक्ष्य और लक्षण तो जुदे-जुदे होते हैं। अतः आत्मा और ज्ञान में भेद मानना चाहिए ?

    उत्तर – यदि लक्ष्य और लक्षण में सर्वथा भेद माना जाय तो अनवस्था हो जायगी क्योंकि लक्षण का परिचायक अन्य लक्षण मानना होगा उसका भी परिचायक अन्य। यदि लक्षण का परिचायक अन्य लक्षण नहीं माना जाता है तो लक्षणशून्य होने से उसका मण्डूक शिखण्ड की तरह अभाव हो जायगा । लक्ष्य और लक्षण में कथञ्चित् भेद मानने से लक्षण के पृथक् लक्षण की आवश्यकता नहीं रहती उसका साधारण लक्षण 'तल्लक्ष्य में रहनेवाला' यह बन जाता है। लक्ष्य और लक्षण पृथक् उपलब्ध न होने से अभिन्न होकर भी संज्ञा, संख्या, गुण-गुणी आदि के भेद से भिन्न भी होते हैं।

    7-12. प्रश्न – जैसे दूध का दूध रूप से ही परिणमन नहीं होता किन्तु दही रूप से, उसी तरह ज्ञानात्मक आत्मा का ज्ञानरूप से परिणमन नहीं हो सकेगा। अतः जीव के ज्ञानादि उपयोग नहीं होना चाहिए। यदि आप यह कहें कि आत्मा का ज्ञानरूप से तो उपयोग होगा दूध का दूध रूप से नहीं तो हम भी यह कह सकते हैं कि दूध का दूध रूप से उपयोग हो, पर आत्मा का ज्ञान रूप से न हो। यह पक्ष आपके लिए अनिष्ट है।

    उत्तर – चूंकि आत्मा और ज्ञान में अभेद है इसीलिए उसका ज्ञानरूप से उपयोग होता है । आकाश का सर्वथा भिन्न रूपादिक रूप से उपयोग नहीं देखा जाता । जिस प्रकार गाय के उदर में दूध बनने के योग्य तृण, जलादि द्रव्यों का दूध रूप से परिणमन होता है । वे तृणादि द्रव्यदृष्टि से दूध पर्याय के सम्मुख होने से दूध कहे जाते हैं और आगे वे ही दूध पर्याय को धारण करते हैं उसी तरह ज्ञानपर्याय के अभिमुख जीव भी ज्ञानव्यपदेश को प्राप्त करके स्वयं घटपटादि-विषयक अवग्रहादि ज्ञान पर्याय को धारण करता है अतः द्रव्यदृष्टि से उसका ही उसी रूप से परिणमन सिद्ध होता है । जो जिस रूप नहीं उसका उस रूप से परिणमन मानने में अतिप्रसङ्ग दोष आता है । देखिए आपके वचन स्वपक्ष-साधन और परपक्ष-दूषणरूप हैं। उनका स्वपक्ष-साधन और परपक्ष-दूषणरूप से ही परिणमन होता है। जैसे आप दूध का दही रूप अन्यथा परिणमन ही मानते हो दूध रूप नहीं उसी तरह अपने वचनों का भी स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषणरूप से परिणमन नहीं होकर अन्यथा ही परिणमन मानना होगा। आप स्वयं रूपाद्यात्मक पृथिवी आदि महाभूतों का रूपादिक रूप से ही परिणमन मानते ही हैं। यदि अन्यथा परिणमन मानोगे तो स्वसिद्धान्त विरोध होगा। जिसके मत में सदा आत्मा ज्ञानात्मक ही रहता है उसके मत में आत्मा का ज्ञानरूप से परिणमन तो कहा नहीं जा सकता क्योंकि उस रूप से वह स्वयं परिणत है ही। जैन मत में आत्मा कभी ज्ञानरूप से, कभी दर्शनरूप से और कभी सुखादिरूप से परिणमन करता रहता है। अतः कभी ज्ञानात्मक का ज्ञानात्मक भी परिणमन होता है तथा कभी दर्शनात्मक आदि रूप भी । यदि सर्वथा किसी एक रूप से आत्मा का परिणमन माना जाय तो फिर उस पर्याय का कभी विराम नहीं हो सकेगा। यदि हुआ तो आत्मा का ही अभाव हो जायगा । तदात्मक का ही तद्रूप परिणमन देखा जाता है । देखो, गाय के स्तनों से निकला हुआ दूध गरम ठंडा मीठा गाढा आदि अनेक पर्यायों को धारण करके भी दूध तो रहता ही है। इन अवस्थाओं में दूध का दूध रूप से ही परिणमन होता है । इसी तरह आत्मा का भी उपयोग रूप से ही परिणमन होता रहता है । यदि तत् का तदात्मक परिणमन न माना जाय तो वस्तु परिणामशून्य ही हो जायगी; क्योंकि अन्यथा परिणमन मानने पर सर्व-पदार्थसांकर्य दूषण होता है, जो कि अनिष्ट है । अतः परिणामशून्यता और अन्यथापरिणमन के दूषणों से बचने के लिए वस्तु में तत् का तदात्मक ही परिणमन स्वीकार करना होगा।

    13-15. प्रश्न – चूंकि आत्मा के कोई उत्पादक कारण आदि नहीं हैं अतः मण्डूक शिखण्ड की तरह उसका अभाव ही है । अतः लक्ष्यभूत आत्मा के अभाव में उपयोग आत्मा का लक्षण नहीं हो सकता । आत्मा का सद्भाव सिद्ध हो भी तो भी उपयोग चूंकि अस्थिर है अतः वह आत्मा का लक्षण नहीं हो सकता। अस्थिर पदार्थ को लक्षण बनाने पर वही दशा होगी जैसे किसी ने देवदत्त के घर की पहिचान बताई कि 'जिस पर कौआ बैठा है वह देवदत्त का घर है' सो जब कौआ उड़ जाता है तो देवदत्त के घर की पहिचान समाप्त हो जाती है और लक्षणके अभाव में लक्ष्य के अवधारण का कोई उपाय ही नहीं बच पाता ।

    16-18. उत्तर – 'अकारणत्वात्' हेतु से आत्मा का लोप करना उचित नहीं है; क्योंकि आत्मा नर नारकादि पर्यायों से पृथक् तो मिलता नहीं है और ये पर्यायें मिथ्यादर्शन आदि कारणों से होती है अतः अकारणत्व हेतु असिद्ध है। पर्यायों को छोड़कर पृथक् आत्मद्रव्य की सत्ता न होने से आश्रयासिद्ध भी है । जितने घटादि सत् हैं वे स्वभाव से ही सत् हैं न कि किसी कारणविशेष से । जो सत् है वह तो अकारण ही होता है । मण्डूकशिखण्ड भी 'नास्ति' इस प्रत्यय का होने से 'सत्' तो है पर इसके उत्पादक कारण नहीं है अत: यह हेतु अनैकान्तिक भी है। मण्डूक शिखण्ड दृष्टान्त भी साध्यसाधन उभयधर्मों से विकल होने के कारण दृष्टान्ताभास है। क्योंकि उसके भी किसी अपेक्षा से कारण बन जाते हैं और वह 'सत्' भी सिद्ध हो जाता है । यथा - कोई जीव मेंढक था और वही जीव जब युवती की पर्याय को धारण करता है तो भूतपूर्वनय की अपेक्षा उस युवती को भी हम मेंढक कह ही सकते हैं और उसके युवति-पर्यायापन्न मंडूक के शिखा होने से मंडूकशिखण्ड व्यवहार हो सकता है। पुदगलद्रव्य की पर्यायों का कोई नियम नहीं है अतः यवती के द्वारा उपभक्त भोजन आदि पुद्गल द्रव्यों का शिखण्डक रूप से परिणमन होने के कारण सकारणता भी बन जाती है। इसी तरह आकाशकुसुम भी अपेक्षा से बन जाता है। वनस्पतिनामकर्म का जिस जीव के उदय है वह जीव और पुद्गल का समुदाय पुष्प कहा जाता है । जिस प्रकार वृक्ष के द्वारा व्याप्त होने से वह पुष्प पुद्गल वृक्ष का कहा जाता है उसी तरह आकाश के द्वारा व्याप्त होने के कारण आकाश का क्यों न कहा जाय ? वक्ष के द्वारा उपकृत होने के कारण यदि वह वृक्ष का कहा जाता है तो आकाशकृत अवगाहनरूप उपकार की अपेक्षा उसे आकाश का भी कहना चाहिए। वृक्ष से टूटकर फूल गिर भी जाय पर आकाश से तो कभी भी दूर नहीं हो सकता, सदा आकाश में ही रहता है । अथवा मण्डूकशिखण्ड विषयक ज्ञान का विषय होने से भी मंडूक शिखंड का सद्भाव सिद्ध मानना चाहिए।

    इसी तरह 'अप्रत्यक्ष' हेतु के द्वारा आत्मा का अभाव करना भी उचित नहीं हैं, क्योंकि शुद्ध आत्मा केवलज्ञान के प्रत्यक्ष होता है तथा अशुद्ध कार्मणशरीरसंयुक्त आत्मा अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान के द्वारा। इन्द्रिय प्रत्यक्ष की दृष्टि से तो आत्मा परोक्ष ही माना जाता है। घटादि परोक्ष हैं क्योंकि वे अग्राहकनिमित्त से ग्राह्य होते हैं जैसे कि धूम से अनुमित अग्नि । इन्द्रियाँ अग्राहक हैं क्योंकि उनके नष्ट हो जाने पर भी स्मृति देखी जाती है। जैसे खिड़की के नष्ट हो जाने पर भी उसके द्वारा देखनेवाला कायम रहता है उसी तरह इन्द्रियों से देखनेवाला ग्राहक आत्मा स्थिर है। अतः अग्राहकनिमित्त से ग्राह्य होने के कारण इन्द्रियग्राह्य पदार्थ परोक्ष ही है। अप्रत्यक्ष शब्द को यदि पर्युदासरूप लिया जाता है तो प्रत्यक्ष से भिन्न अप्रत्यक्ष वस्त्वन्तर सिद्ध होता है । यदि प्रसज्यपक्ष लेते हैं तो प्रतिषेध्य का क्वचित् सद्भावसिद्ध होने पर ही प्रतिषेध किया जाता है अतः कथञ्चित् सत्ता सिद्ध होने से हेतु असिद्ध हो जाता है। असत् खरविषाण आदि अप्रत्यक्ष हैं तथा विद्यमान ज्ञान आदि भी अप्रत्यक्ष हैं अतः यह हेतु अनैकान्तिक है। यदि ज्ञान को स्वप्रत्यक्ष और योगिप्रत्यक्ष होने से प्रत्यक्ष मानते हो तो आत्मा को ही इस तरह प्रत्यक्ष मानने में क्या बाधा है ? जितने भी पदार्थ शब्दगोचर हैं वे सब विधि-निषेधात्मक हैं। कोई भी वस्तु सर्वथा निषेधगम्य नहीं होती । जैसे कुरवक पुष्प लाल और सफेद दोनों रंगों का नहीं होता, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह वर्णशून्य है । इसी तरह पर की अपेक्षा से वस्तु में नास्तित्व होने पर भी स्वदृष्टि से उसका अस्तित्व प्रसिद्ध ही है। कहा भी है कथञ्चित् असत् की भी उपलब्धि और अस्तित्व है तथा कथञ्चित् सत् की भी अनुपलब्धि और नास्तित्व है । यदि सर्वथा अस्ति और उपलब्धि मानी जाय तो घट की पटादि रूप से भी उपलब्धि होने से सभी पदार्थ सर्वात्मक हो जायंगे और यदि पररूप की तरह स्वरूप से भी असत्त्व माना जाय अर्थात् सर्वथा असत्व माना जाय तो पदार्थ का ही अभाव हो जायगा, वह शब्द का विषय ही नहीं हो सकेगा । अतः नास्तित्व और अप्रत्यक्षत्व से शून्य जो होगा वह अवस्तु ही होगा। इस तरह जब धर्मी ही अप्रसिद्ध हो जाता है तब अनुमान नहीं बन सकेगा।

    19-20. इन्द्रियों और तज्जनित ज्ञानों में नहीं पाया जानेवाला 'जो मैं देखनेवाला था वही चखनेवाला हूँ' यह एकत्व-विषयक फल, सभी इन्द्रिय द्वारों से जाननेवाले तथा सभी ज्ञानों में परस्पर एकसूत्रता कायम रखनेवाले गृहीता आत्मा का सद्भाव सिद्ध करता है । 'आत्मा है' यह ज्ञान यदि संशय रूप है तो भी आत्मा की सत्ता सिद्ध होती है। क्योंकि अवस्तु का संशय नहीं होता। इसी तरह 'आत्मा है' इस ज्ञान को अनादिकाल से प्रत्येक व्यक्ति आत्मा का अनुभव करता है अतः अनध्यवसाय भी नहीं कह सकते । यदि इसे विपरीत ज्ञान कहते हैं तब भी आत्मा की क्वचित् सत्ता सिद्ध हो ही जाती है क्योंकि अप्रसिद्ध पदार्थ का विपर्यय ज्ञान नहीं होता। तात्पर्य यह कि 'आत्मा है' यह ज्ञान किसी भी रूप में आत्मा के अस्तित्व का ही साधक है। सम्यक् रूप में तो आत्मसाधक है ही।

    21. बौद्ध का यह पक्ष भी ठीक नहीं है कि अनेकज्ञानक्षणों की एक सन्तान है, इसी से उक्त प्रत्यभिज्ञान आदि हो जाते हैं; क्योंकि उनके मत से सन्तान संवृतिसत् अर्थात् काल्पनिक है वास्तविक नहीं। यदि इस अनेक क्षणवर्ती सन्तान को वस्तु मानते हैं तो आत्मा और सन्तान में नाममात्र का ही अन्तर रहा - पदार्थ का नहीं, क्योंकि अनेक ज्ञानादिपर्यायों में अनुस्यूत द्रव्य को ही आत्मा कहते हैं।

    22-23. यह शंका भी ठीक नहीं है कि उपयोग अस्थिर है अतः वह आत्मा का लक्षण नहीं हो सकता; क्योंकि एक उपयोग क्षण के नष्ट हो जाने पर भी दूसरा उसका स्थान ले लेता है, कभी भी उपयोग की धारा टूटती नहीं है । पर्याय दृष्टि से अमुक पदार्थविषयक उपयोग का नाश होने पर भी द्रव्यदृष्टि से उपयोग सामान्य बना ही रहता है । यदि उपयोग का सर्वथा विनाश माना जाय तो उत्तर-काल में स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि नहीं हो सकेंगे क्योंकि स्मरण स्वयं अनुभूत पदार्थ का स्वयं को ही होता है, अन्य के द्वारा अनुभूत का अन्य को नहीं। स्मरण के अभाव में समस्त लोक-व्यवहार का लोप ही हो जायगा ।

    24. उपयोग को पृथक् गुण मानकर उसके सम्बन्ध को लक्षण कहना उचित नहीं है। क्योंकि यदि ज्ञानादि उपयोग को आत्मा से पृथक् माना जाता है तो उसका 'आत्मा से ही सम्बन्ध हो अन्य से नहीं' यह नियम नहीं बन सकेगा। अतः उपयोग को आत्मभूत लक्षण मानना ही उचित है । दंड तो अनात्मभूत है । अतः वह पृथक् रहकर भी सम्बन्ध से लक्षण बन सकता है।

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    + उपयोग के भेद -
    स द्विविधोऽष्ट-चतुर्भेदः ॥9॥
    अन्वयार्थ : वह उपयोग दो प्रकार का है - ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है ओर दर्शनोपयोग चार प्रकार का है ॥९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    वह उपयोग दो प्रकार का है, ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मत्‍यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगज्ञान । दर्शनोपयोग चार प्रकारका है - चक्षु-दर्शन, अचक्षु-दर्शन, अवधि-दर्शन और केवल-दर्शन ।

    शंका – इन दोनों उपयोगों में किस कारण से भेद है ?

    समाधान – साकार और अनाकार के भेद से इन दोनों उपयोगों में भेद है । साकार ज्ञानोपयोग है और अनाकार दर्शनोपयोग है । ये दोनों छद्मस्‍थों में क्रम से होते हैं और आवरण-रहित जीवों में युगपत् होते हैं । यद्यपि दर्शन पहले होता है तो भी श्रेष्‍ठ होने के कारण सूत्र में ज्ञान को दर्शन से पहले रखा है । सम्‍यग्‍ज्ञान का प्रकरण होने के कारण पहले पाँच प्रकार के ज्ञानोपयोग का व्‍याख्‍यान कर आये हैं । परन्‍तु यहाँ उपयोग का ग्रहण करने से विपर्यय का भी ग्रहण होता है, इसलिए वह आठ प्रकार का कहा है ।


    सब आत्‍माओं में साधारण उपयोग-रूप जिस आत्‍म-परिणाम का पहले व्‍याख्‍यान किया है उससे उपलक्षित सब उपयोग वाले जीव दो प्रकार के हैं, इस बात का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-2. साकार और अनाकार दो प्रकार का उपयोग है । ज्ञान साकार होता है तथा दर्शन निराकार। यद्यपि दर्शन पूर्वकालभावी है फिर भी विशेष ग्राहक होने के कारण पूज्य होने से ज्ञान का ग्रहण पहिले किया है।

    3. ज्ञान की संख्या आठ पहिले लिखी गई है अतः ज्ञान की पूज्यता सिद्ध होती है। इसी तरह 'छोटी संख्या का पहिले ग्रहण करना चाहिए' इस व्याकरण के सामान्य नियम के रहते हुए भी 'पूज्य का प्रथम ग्रहण होता है' इस विशेष नियम के अनुसार ज्ञान की आठ संख्या का प्रथम ग्रहण किया गया है। ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभङ्गावधिज्ञान । दर्शनोपयोग चार प्रकार का है - चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। ये उपयोग निरावरण केवली में युगपत् होते हैं तथा छद्मस्थों के क्रमशः ।

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    + जीव के भेद -
    संसारिणो मुक्ताश्‍च ॥10॥
    अन्वयार्थ : जीव दो प्रकार के हैं - संसारी और मुक्त ॥१०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    संसरण करने को संसार कहते हैं, जिसका अर्थ परिवर्तन है । यह जिन जीवों के पाया जाता है वे संसारी हैं । परिवर्तन के पाँच भेद हैं - द्रव्‍य-परिवर्तन, क्षेत्र-परिवर्तन, काल-परिवर्तन, भव-परिवर्तन और भाव-परिवर्तन ।

    द्रव्‍य-परिवर्तन के दो भेद हैं - नोकर्म द्रव्‍य-परिवर्तन और कर्म द्रव्‍य-परिवर्तन ।

    अब नोकर्म द्रव्‍य-परिवर्तन का स्‍वरूप कहते हैं -- किसी एक जीव ने तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्‍य पुद्गलों को एक समय में ग्रहण किया । अनन्‍तर वे पुद्गल स्निग्‍ध या रूक्ष स्‍पर्श तथा वर्ण और गन्‍ध आदि के द्वारा जिस तीव्र, मन्‍द और मध्‍यम भाव-रूप से ग्रहण किये थे उस रूप से अवस्थित रहकर द्वितीयादि समयों में निर्जीर्ण हो गये । तत्‍पश्‍चात् अगृहीत परमाणुओं को अनन्‍त बार ग्रहण करके छोड़ा, मिश्र परमाणुओं को अनन्‍त बार ग्रहण करके छोड़ा और बीच में गृहीत परमाणुओं को अनन्‍त बार ग्रहण करके छोड़ा । तत्‍पश्‍चात् जब उसी जीव के सर्वप्रथम ग्रहण किये गये वे ही नोकर्म परमाणु उसी प्रकार से नोकर्म-भाव को प्राप्‍त होते हैं तब यह सब मिलकर एक नोकर्म द्रव्‍य-परिवर्तन होता है ।

    अब कर्म-द्रव्‍य-परिवर्तन का कथन करते हैं -- एक जीव ने आठ प्रकार के कर्म-रूप से जिन पुद्गलों को ग्रहण किया, वे समया‍धिक एक आवली काल के बाद द्वितीयादिक समयों में झर गये । पश्‍चात् जो क्रम नोकर्म द्रव्‍य-परिवर्तन में बतलाया है उसी क्रम से वे ही पुद्गल उसी प्रकार से उस जीव के जब कर्मभाव को प्राप्‍त होते हैं तब यह सब एक कर्म-द्रव्‍य-परिवर्तन कहलाता है । कहा भी है - 'इस जीवने सभी पुद्गलोंको क्रमसे भोगकर छोड़ दिया । और इस प्रकार यह जीव असकृत अनन्‍तबार पुद्गल परिवर्तन-रूप संसार में घूमता है।'

    अब क्षेत्रपरिवर्तन का कथन करते हैं -- जिसका शरीर आकाश के सबसे कम प्रदेशों पर स्थित है ऐसा एक सूक्ष्‍म निगोद लब्‍ध्‍यपर्याप्‍तक जीव लोक के आठ मध्‍य प्रदेशों को अपने शरीर के मध्‍य में करके उत्‍पन्‍न हुआ और क्षुद्र-भव ग्रहण काल तक जीकर मर गया । पश्‍चात् वही जीव पुन: उसी अवगाहना से वहाँ दूसरी बार उत्‍पन्‍न हुआ, तीसरी बार उत्‍पन्‍न हुआ, चौथी बार उत्‍पन्‍न हुआ । इस प्रकार घनांगुल के असंख्‍यातवें भाग में आकाश के जितने प्रदेश प्राप्‍त हों उतनी बार वहीं उत्‍पन्‍न हुआ । पुन: उसने आकाश का एक-एक प्रदेश बढ़ाकर सब लोक को अपना जन्‍म-क्षेत्र बनाया । इस प्रकार यह सब मिलकर एक क्षेत्र-परिवर्तन होता है । कहा भी है -

    'सब लोक क्षेत्र में ऐसा एक प्रदेश नहीं है जहाँ यह अवगाहना के साथ क्रम से नहीं उत्‍पन्‍न हुआ । इस प्रकार इस जीव ने क्षेत्र संसार में अनेक बार परिभ्रमण किया ।'


    अब कालपरिवर्तन का कथन करते हैं -- कोई जीव उत्‍सर्पिणी के प्रथम समय में उत्‍पन्‍न हुआ और आयु के समाप्‍त हो जाने पर मर गया । पुन: वही जीव दूसरी उत्‍सर्पिणी के दूसरे समय में उत्‍पन्‍न हुआ और अपनी आयु के समाप्‍त हो जाने पर मर गया । पुन: वही जीव तीसरी उत्‍सर्पिणी के तीसरे समय में उत्‍पन्‍न हुआ । इस प्रकार इसने क्रम से उत्‍सर्पिणी समाप्‍त की और इसी प्रकार अवसर्पिणी भी । यह जन्‍म का नैरन्‍तर्य कहा । तथा इसी प्रकार मरण का भी नैरन्‍तर्य लेना चाहिए । इस प्रकार यह सब मिलकर एक काल-परिवर्तन है। कहा भी है - 'कालसंसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव उत्‍सर्पिणी और अवसर्पिणी के सब समयों में अनेक बार जन्‍मा और मरा ।'

    अब भव-परिवर्तन का कथन करते हैं -- नरकगति में सबसे जघन्‍य आयु दस हजार वर्ष की है । एक जीव उस आयु से वहाँ उत्‍पन्‍न हुआ, पुन: घूम-फिरकर उसी आयु से वहीं उत्‍पन्‍न हुआ । इस प्रकार दस हजार वर्ष के जितने समय हैं उतनी बार व‍हीं उत्‍पन्‍न हुआ और मरा । पुन: आयु के एक-एक समय बढ़ाकर नरक की तेंतीस सागर आयु समाप्‍त की । तदनन्‍तर नरक से निकलकर अन्‍तमुहूर्त आयु के साथ तिर्यंचगति में उत्‍पन्‍न हुआ । और पूर्वोक्त क्रम से उसने तिर्यंचगति की तीन पल्‍योपम आयु समाप्‍त की । इसी प्रकार मनुष्‍यगति में अन्‍तर्मुहूर्त से लेकर तीन पल्‍योपम आयु समाप्‍त की । तथा देवगति में नरकगति के समान आयु समाप्‍त की । किन्‍तु देवगति में इतनी विशेषता है कि यहाँ इकतीस सागरोपम आयु समाप्‍त होने तक कथन करना चाहिए । इस प्रकार यह सब मिलकर एक भव-परिवर्तन है ।

    अब भाव-पिरवर्तन का कथन करते हैं -- पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्‍तक मिथ्‍यादृष्टि कोई एक जीव ज्ञानावरण प्रकृति की सबसे जघन्‍य अपने योग्‍य अन्‍त:कोड़ाकोड़ी-प्रमाण स्थिति को प्राप्त होता है । उसके उस स्थिति के योग्‍य षट्स्थानपतित असंख्‍यात लोकप्रमाण कषाय-अध्‍यवसाय-स्‍थान होते हैं । और सबसे जघन्‍य इन कषायअध्‍यवसाय-स्‍थानों के निमित्त से असंख्‍यात लोकप्रमाण अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थान होते हैं। इस प्रकार सबसे जघन्‍य स्थिति, सबसे जघन्‍य कषाय-अध्‍यवसाय-स्‍थान और सबसे जघन्‍य अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थान को धारण करने वाले इस जीव के तद्योग्‍य सबसे जघन्‍य योग-स्‍थान होता है । तत्‍पश्‍चात् स्थ्‍िाति, कषाय अध्‍यवसाय-स्‍थान और अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थान वही रहते हैं, किन्‍तु योग-स्‍थान दूसरा हो जाता है जो असंख्‍यात भाग-वृद्धि-संयुक्त होता है । इसी प्रकार तीसरे, चौथे आदि योगस्‍थानों में समझना चाहिए । ये सब योग-स्‍थान चार स्‍थान पतित होते हैं और इनका प्रमाण श्रेणी के असंख्‍यातवें भाग-प्रमाण है । तदनन्‍तर उसी स्थिति और उसी कषाय-अध्‍यवसाय-स्‍थान को धारण करने वाले जीव के दूसरा अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थान होता है । इसके योग-स्‍थान पहले के समान जानना चाहिए । तात्‍पर्य यह है कि यहाँ भी पूर्वोक्‍त तीनों बातें ध्रुव रहती हैं किन्‍तु योग-स्‍थान जग-श्रेणी के असंख्‍यातवें भाग-प्रमाण होते हैं । इस प्रकार असंख्‍यात लोकप्रमाण अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थानों के होने तक तीसरे आदि अनुभाग अध्‍यवसाय-स्‍थानों में जानना चाहिए । तात्‍पर्य यह है कि यहाँ स्थिति और कषाय अध्‍यवसाय-स्‍थान तो जघन्‍य ही रहते हैं किन्‍तु अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थान क्रम से असंख्‍यात लोक-प्रमाण हो जाते हैं और एक-एक अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थान के प्रति जग-श्रेणी के असंख्‍यातवें भाग-प्रमाण योगस्‍थान होते हैं । तत्‍पश्‍चात् उसी स्थिति को प्राप्‍त होने वाले जीव के दूसरा कषाय-अध्‍यवसाय-स्‍थान होता है । इसके भी अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थान और योग-स्‍थान पहले के समान जानना चाहिए । अर्थात् एक-एक कषाय-अध्‍यवसाय-स्‍थान के प्रति असंख्‍यात लोक-प्रमाण अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थान होते हैं और एक-एक अनुभाग-अध्‍यवसाय-स्‍थान के प्रति जग-श्रेणी असंख्‍यातवें भाग-प्रमाण योग-स्‍थान होते हैं । इस प्रकार असंख्‍यात लोकप्रमाण कषाय-अध्‍यवसाय-स्‍थानों के होने तक तीसरे आदि कषाय-अध्‍यसाय-स्‍थानों में वृद्धि का क्रम जानना चाहिए । जिस प्रकार सबसे जघन्‍य स्थिति के कषायादि स्‍थान कहे हैं उसी प्रकार एक समय अधिक जघन्‍य स्थिति के भी कषायादि स्‍थान जानना चाहिए और इसी प्रकार एक-एक समय अधिक के क्रम से तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्‍कृष्‍ट स्थिति तक प्रत्‍येक स्थिति-विकल्‍प के भी कषायादि स्‍थान जानना चाहिए । अनन्‍त भाग-वृद्धि, असंख्‍यात भाग-वृद्धि, संख्‍यात भाग-वृद्धि, संख्‍यात गुण-वृद्धि, असंख्‍यात गुण-वृद्धि और अनन्‍त गुण-वृद्धि इस प्रकार ये वृद्धि के छह स्‍थान हैं तथा इसी प्रकार हानि भी छह प्रकार की है । इनमें-से अनन्‍त भाग-वृद्धि और अनन्‍त गुण-वृद्धि इन दो स्‍थानों के कम कर देने पर चार स्‍थान होते हैं । इसी प्रकार सब मूल प्रकृतियों का और उनकी उत्तर प्रकृतियों के परिवर्तन का क्रम जानना चाहिए । यह सब मिलकर एक भाव-परिवर्तन होता है । कहा भी है -

    'इस जीव ने मिथ्‍यात्‍व के संसर्ग से सब प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्‍धके स्‍थानों को प्राप्‍त कर भाव-संसार में परिभ्रमण किया।'

    जो उक्त पाँच प्रकार के संसार से निवृत्त हैं वे मुक्त हैं । सूत्रमें 'संसारि' पद का पहले ग्रहण किया, क्‍योंकि 'मुक्त' यह संज्ञा संसार पूर्वक प्राप्‍त होती है ।


    पहले जो संसारी जीव कह आये हैं वे दो प्रकार के हैं । आगे के सूत्र-द्वारा इसी बात को बतलाते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-2. अपने किए कर्मों से स्वयं पर्यायान्तर को प्राप्त होना संसार है । आत्मा स्वयं कर्मों का कर्ता है और उनके फलों का भोक्ता। सांख्य का यह मत कि - 'प्रकृति कर्त्री है और पुरुष फल भोगता है' नितान्त असङ्गत है; क्योंकि अचेतन प्रकृति में घटादि की तरह पुण्यपाप की कर्तृता नहीं आ सकती। यदि अन्यकृत कर्मों का फल अन्य को भोगना पड़े तो मुक्ति नहीं हो सकती और कृतप्रणाश (किये गये कर्मों का निष्फल होना) नाम का दूषण होता है । संसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव इस प्रकार पांच प्रकार का है। जिनके संसार है वे संसारी हैं। जिनके पुद्गलकर्मरूप द्रव्यबन्ध और तज्जनित क्रोधादिकषायरूप भावबन्ध दोनों नष्ट हो गये हैं वे मुक्त हैं।

    3-5. यदि सूत्र में लघुता के विचार से द्वन्द्व-समास किया जाता तो अल्प-अक्षर और पूज्य होने से मुक्त शब्द का पूर्वनिपात होने पर 'मुक्तसंसारिणः' यह प्रयोग प्राप्त होता। इसका सीधा अर्थ निकलता - 'छोड़ दिया है संसार जिनने' ऐसे जीव । अर्थात् केवल मुक्तजीवों का ही बोध हो पाता। अतः 'संसारिणः मुक्ताश्च' यह पृथक्-पृथक् वाक्य ही दिए गए हैं। सूत्र में 'च' शब्द समुच्चयार्थक नहीं है किन्तु अन्वाचय अर्थ में है । संसारी जीवों में उपयोग की मुख्यता और मुक्त जीवों में उपयोग की गौणता बताने के लिए 'च' शब्द दिया है । संसारी जीवों में उपयोग बदलता रहता है अतः जैसे एकाग्र चिन्तानिरोधरूप ध्यान छद्मस्थों में मुख्य है, केवली में तो उसका फल कर्मध्वंस देखकर उपचार से ही वह माना जाता है उसी तरह संसारियों में पर्यायान्तर होने से उपयोग मुख्य है, मुक्त जीवों में सतत एक-सी धारा रहने से गौण है।

    6. संसारियों के अनेक भेद हैं तथा मोक्ष संसारपूर्वक ही होता है और सभी के स्वसंवेद्य है अतः संसारी का ग्रहण प्रथम किया है। मुक्त तो अत्यन्त परोक्ष हैं, उनका अनुभव अभी तक अप्राप्त ही है।

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    + संसारी जीवों के भेद -
    समनस्काऽमनस्काः ॥11॥
    अन्वयार्थ : मनवाले और मनरहित ऐसे संसारी जीव हैं ॥११॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    मन दो प्रकार का है -- द्रव्‍य-मन और भाव-मन । उनमें-से द्रव्‍य-मन पुद्गल-विपाकी अंगोपांग नाम-कर्म के उदय से होता है तथा वीर्यान्‍तराय और नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखनेवाले आत्‍मा की विशुद्धि को भाव-मन कहते हैं । यह मन जिन जीवों के पाया जाता है वे समनस्‍क हैं । और जिनके मन नहीं पाया जाता है वे अमनस्‍क हैं । इस प्रकार मन के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा संसारी जीव दो भागोंमें बँट जाते हैं ।। 'समनस्‍कामनस्‍का:' इसमें समनस्‍क और अमनस्‍क इस प्रकार द्वन्‍द्व समास है । समनस्‍क शब्‍द श्रेष्‍ठ है अत: उसे सूत्रमें पहले रखा ।

    शंका – श्रेष्‍ठता किस कारण से है ?

    समाधान – क्‍योंकि समनस्‍क जीव गुण और दोषोंके विचारक होते हैं, इ‍सलिए समनस्‍क पद श्रेष्‍ठ है ।

    अब फिर से भी संसारी जीवों के भेदों का ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. मन दो प्रकार का है - एक द्रव्य-मन और दूसरा भाव-मन । पुद्गलविपाकी नाम-कर्म के उदय से द्रव्यमन होता है और वीर्यान्तराय तथा नोइन्द्रियावरण के क्षयोपशम से होनेवाली आत्मविशुद्धि भावमन है । मन सहित जीव समनस्क और मनरहित अमनस्क, इस प्रकार दो तरह के संसारी हैं।

    2-7. प्रश्न – दो प्रकार के जीवों का प्रकरण है अत: संसारी समनस्क और मुक्त अमनस्क इस प्रकार यथाक्रम सम्बन्ध कर लेना चाहिए । मुक्त जीवों को मनरहित मानना इष्ट भी है।

    उत्तर – इस प्रकार सभी संसारी जीवों में समनस्कता का प्रसंग आता है। 'संसारिणो मुक्ताश्च' और 'समनस्काऽमनस्काः' ये दो पृथक् सूत्र बनाने से ज्ञात होता है कि पूर्वसूत्र से केवल संसारी पद का यहां सम्बन्ध होता है अन्यथा एक ही सूत्र बनाना चाहिए था । अथवा आगे आनेवाले 'संसारिणः त्रसस्थावराः' सूत्र से 'संसारी' पद का यहां सम्बन्ध कर लेना चाहिए। आगे के पूरे सूत्र का यहां सम्बन्ध विवक्षित नहीं है अन्यथा सभी त्रसों में समनस्कता का अनिष्ट प्रसङ्ग प्राप्त होता। यदि 'सस्थावराः' का भी सम्बन्ध इष्ट होता तो एक ही सूत्र बनाना चाहिए था। तात्पर्य यह कि तीनों पृथक्-सूत्र बनाने से यही फलित होता कि विवक्षानुसार पदों का सम्बन्ध करना चाहिए। यदि एक सूत्र बनाना इष्ट होता तो एक संसारी पद निरर्थक हो जाता है और सूत्र का आकार 'संसारिमुक्ताः समनस्कामनस्कास्त्रसस्थावराश्च' यह होता । ऐसी दशा में कई अनिष्ट प्रसङ्ग होते हैं।

    8. समनस्क ग्रहण प्रथम किया है क्योंकि वह पूज्य है। समनस्क के सभी इन्द्रियां होती हैं।

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    + संसारी जीवों के और भी भेद -
    संसारिणस्त्रसस्थावराः ॥12॥
    अन्वयार्थ : तथा संसारी जीव त्रस और स्‍थावर के भेद से दो प्रकार हैं ॥१२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    शंका – सूत्र में 'संसारी' पद का ग्रहण करना निरर्थक है, क्‍योंकि वह प्रकरण प्राप्‍त है ?

    समाधान – इसका प्रकरण कहाँ है ?

    शंका – 'संसारिणो मुक्‍ताश्‍च' इस सूत्र में उसका प्रकरण है।

    समाधान – सूत्रमें 'संसारी' पद का ग्रहण करना अनर्थक नहीं है, क्‍योंकि पूर्व सूत्र की अपेक्षा इस सूत्रमें 'संसारी' पद का ग्रहण किया है। तात्‍पर्य यह है कि पूर्व सूत्र में जो समनस्‍क और अमनस्‍क जीव बतलाये हैं वे संसारी हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए इस सूत्रमें 'संसारी' पद दिया है । यदि 'संसारी' पद को पूर्व का विशेषण न माना जाय तो समनस्‍क और अमनस्‍क इनका संसारी और मुक्त इनके साथ क्रमसे सम्‍बन्‍ध हो जायेगा। और इस अभिप्राय से 'संसारिणो' पद का इस सूत्र के आदि में ग्रहण करना बन जाता है । इस प्रकार 'संसारिणो' पद का ग्रहण पूर्व सूत्र की अपेक्षा से होकर अगले सूत्र के लिए भी हो जाता है । यथा - वे संसारी जीव दो प्रकार के हैं त्रस और स्‍थावर । जिनके त्रस नामककर्म का उदय है वे त्रस कहलाते हैं और जिनके स्‍थावर नामकर्म का उदय है उन्‍हें स्‍थावर कहते हैं ।

    शंका – 'त्रस्‍यन्ति' अर्थात् जो चलते-फिरते हैं वे त्रस हैं और जो स्थिति स्‍वभाववाले हैं वे स्‍थावर हैं, क्‍या त्रस और स्‍थावरका यह लक्षण ठीक है ?

    समाधान – यह कहना ठीक नहीं है, क्‍योंकि ऐसा माननेमें आगम से विरोध आता है, क्‍योंकि कायानुवाद की अपेक्षा कथन करते हुए आगममें बतलाया है कि द्वीन्द्रिय जीवों से लकर अयोगकेवली तक के सब जीव त्रस हैं, इसलिए गमन करने और न करने की अपेक्षा त्रस और स्‍थावर यह भेद नहीं है, किन्‍तु त्रस और स्‍थावर कर्मों के उदय की अपेक्षा से ही है । सूत्र में त्रसपद का प्रारम्‍भ में ग्रहण किया है, क्‍योंकि स्‍थावर पद से इसमें कम अक्षर हैं और यह श्रेष्‍ठ है । त्रस श्रेष्‍ठ इसलिए हैं कि इनके सब उपयोगों का पाया जाना सम्‍भव है ।

    एकेन्द्रियों के विषय में अधिक वक्तव्‍य नहीं है, इसलिए आनुपूर्वी को छोडकर पहले स्‍थावर के भेदों का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-2. जीव-विपाकी त्रस नाम-कर्म के उदय से त्रस होते हैं। 'जो भयभीत होकर गति करें वे त्रस' यह व्युत्पत्त्यर्थ ठीक नहीं है, क्योंकि गर्भस्थ, अण्डस्थ, मूर्च्छित, सुषुप्त आदि में बाह्य भय के निमित्त मिलने पर भी हलन-चलन नहीं होता अतः इनमें अत्रसत्व का प्रसङ्ग प्राप्त होता है । 'त्रस्यन्तीति त्रसाः' यह केवल 'गच्छतीति गौः' की तरह व्युत्पत्ति मात्र है।

    3-5. जीवविपाकी स्थावर नामकर्म के उदय से स्थावर होते हैं । 'जो ठहरें वे स्थावर' यह व्युत्पत्ति करने पर वायु, अग्नि, जल आदि गतिशील जीव स्थावर नहीं कहे जा सकेंगे । आगम में भी द्वीन्द्रिय से लेकर अयोगकेवली तक जीवों को त्रस कहा है। अतः वायु आदि को स्थावर कोटि से निकालकर त्रसकोटि में लाना उचित नहीं है । इसलिए चलन और अचलन की अपेक्षा त्रस और स्थावर व्यवहार नहीं किया जा सकता।

    6. त्रस शब्द कि अल्प अक्षरवाला है और पूज्य है इसलिए पहिले लिया गया है। त्रसों के सभी उपयोग हो सकते हैं अतः वह पूज्य है।

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    + स्थावर जीवों के भेद -
    पृथिव्यप्तेजो वायु-वनस्पतयः स्थावराः ॥13॥
    अन्वयार्थ : पृ‍थिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्‍पतिकायिक ये पाँच स्‍थावर हैं ॥१३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    पृथिवीकाय आदि स्‍थावर नामकर्म के भेद हैं । उनके उदयके निमित्तसे जीवोंके पृथिवी आदिक नाम जानने चाहिए । यद्यपि ये नाम प्रथन आदि धातुओंसे बने हैं तो भी ये रौढिक हैं, इसलिए इनमें प्रथन आदि धर्मोंकी अपेक्षा नहीं है ।

    शंका – आर्ष में ये पृथिवी आदिक अलग-अलग चार प्रकारके कहे हैं सो ये चार-चार भेद किस प्रकार प्राप्‍त होते हैं ?

    समाधान – पृथिवी, पृथिवीकाय, पृथिवीकायिक और पृथिवीजीव ये पृथिवीके चार भेद हैं ।

    इनमें-से जो अचेतन है, प्रा‍कृतिक परिणमनों से बनी है और कठिन गुणवाली है वह पृथिवी है । अचेतन होनेसे यद्यपि इसमें पृथिवी नामकर्मका उदय नहीं है तो भी प्रथनक्रियासे उपलक्षित होनेके कारण अर्थात् विस्‍तार आदि गुणवाली होने के कारण यह पृथिवी कहलाती है । अथवा पृथिवी यह सामान्‍य वाची संज्ञा है, क्‍योंकि आगे के तीन भेदों में भी यह पायी जाती है ।

    काय का अर्थ शरीर है, अत: पृथिवीकायिक जीव द्वारा जो शरीर छोड़ दिया जाता है वह पृथिवीकाय कहलाता है । यथा मरे हुए मनुष्‍य आदिक का शरीर । जिस जीव के पृथिवीरूप काय विद्यमान है उसे पृथिवीकायिक कहते हैं । तात्‍पर्य यह है कि जीव पृथिवीरूप शरीर के सम्‍बन्‍धसे युक्त है ।

    कार्मणकाययोगमें स्थित जिस जीवने जबतक पृथिवी को कायरूप से ग्रहण नहीं किया है तब तक वह पृथिवीजीव कहलाता है। इसी प्रकार जलादिक में भी चार-चार भेद कर लेने चाहिए। ये पाँचों प्रकार के प्राणी स्‍थावर हैं ।

    शंका – इनके कितने प्राण होते हैं ?

    समाधान – इनके चार प्राण होते हैं - स्‍पर्शन इन्द्रियप्राण, कायबलप्राण, उच्‍छ्वास-नि:श्‍वासप्राण और आयु:प्राण ।

    अब त्रस कौन हैं इस बात का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. पृथिवीकाय आदि स्थावर नामकर्म के उदय से जीवों की पृथिवी आदि संज्ञाएं होती हैं । पृथन क्रिया आदि तो व्युत्पत्ति के लिए साधारण निमित्त हैं, वस्तुतः रूढिवश ही पृथिवी आदि संज्ञाएं की जाती हैं। आर्ष ग्रन्थों में पृथिवी आदि के चार भेद किए हैं - पृथिवी, पृथिवीकाय, पृथिवीकायिक और पृथिवी जीव । इसी तरह जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के चार-चार भेद समझना चाहिए।

    2-6. घट आदि पृथिवी के द्वारा जल का, सिगड़ी आदि पृथिवी के द्वारा अग्नि का, चमड़े के कुप्पे आदि से वायु का सुखपूर्वक ग्रहण किया जाता है, पर्वत मकान आदि रूप से पृथिवी स्थूल रूप में सर्वत्र मिलती है, भोजन, वस्त्र, मकान आदि रूप से बहुतर उपकार पृथिवी के ही हैं, इतना ही नहीं, जल, अग्नि, वायु आदि के कार्य आधारभूत पृथिवी के बिना हो ही नहीं सकते अतः सर्वाधारभूत पृथिवी का सूत्र में सर्वप्रथम ग्रहण किया है। जल का आधार पृथिवी है वह आधेय है तथा पृथिवी और अग्नि का विरोध है, अग्नि पृथिवी को जलाकर खाक बना देती है और उसका शमन जल के द्वारा ही होता है अतः पृथिवी और अग्नि के बीच में जल का ग्रहण किया है। पृथिवी और जल का परिपाक अग्नि के द्वारा होता है अतः इन दोनों के बाद अग्नि का ग्रहण किया है । अग्नि का सन्दीपन वायु के द्वारा होता है, अतः अग्नि के बाद तत्सखा वायु का ग्रहण किया है । वनस्पति की उत्पत्ति में पृथिवी आदि चारों निमित्त होते हैं अतः वनस्पति का ग्रहण सबके अन्त में किया है। वनस्पति कायिक जीवों की संख्या पृथिवी आदि से अनन्तगुणी है, इसलिए संख्या की दृष्टि से भी उसका नम्बर अन्त में ही आता है। इनके स्पर्शनेन्द्रिय कायबल आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण होते हैं।

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    + त्रस जीवों के भेद -
    द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः ॥14॥
    अन्वयार्थ : दो इन्द्रिय आदि त्रस हैं ॥१४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिन जीवों के दो इन्द्रियाँ होती हैं उन्‍हें दो-इन्द्रिय कहते हैं । तथा जिनके प्रारम्‍भ में दो इन्द्रिय जीव हैं दो-इन्द्रियादिक कहलाते हैं । यहाँ आदि शब्‍द व्‍यवस्‍थावाची है ।

    शंका – ये कहाँ व्‍यवस्थित होकर बतलाये गये हैं ?

    समाधान – आगम में ।

    शंका – किस क्रम से ?

    समाधान – दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इस क्रम से व्‍य‍वस्थित हैं । यहाँ तद्गुणसंविज्ञान बहुव्रीहि समास का ग्रहण किया है, अत: द्वीन्द्रिय का भी अन्‍तर्भाव हो जाता है ।

    शंका – इन द्वीन्द्रिय आदि जीवों के कितने प्राण होते हैं ?

    समाधान – पूर्वोक्त चार प्राणों में रसना-प्राण और वचन-प्राण इन दो प्राणों के मिला देने पर दो इन्द्रिय जीवों के छह प्राण होते हैं । इनमें घ्राणप्राण के मिला देने पर तीनइन्द्रिय जीव के सात प्राण होते हैं । इनमें चक्षु-प्राण के मिला देने पर चौइन्द्रिय जीव के आठ प्राण होते हैं । इनमें श्रोत्र-प्राण के मिला देने पर तिर्यंच असंज्ञी के नौ प्राण होते हैं । इनमें मनोबल के मिला देने पर संज्ञी जीवों के दस प्राण होते हैं ।

    पूर्व सूत्र में जो आदि शब्‍द दिया है उससे इन्द्रियों की संख्‍या नहीं ज्ञात होती, अत: उनके परिमाण का निश्‍चय करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. आदि शब्द के अनेक अर्थ हैं, पर यहाँ आदि शब्द व्यवस्थावाची है।

    2-4. प्रश्न – 'दो इन्द्रियाँ हैं जिसकी' इस प्रकार बहुव्रीहि समास में अन्य पदार्थ प्रधान होने से द्वीन्द्रिय से आगे के जीव त्रस कहे जायँगे जैसे कि 'पर्वत से लेकर खेत है' यहाँ पर्वत की गिनती खेत में नहीं होती।

    उत्तर – जैसे 'सफेद वस्त्रवाले को लाओ' इस तद्गुणसंविज्ञान बहुव्रीहि में सफेद कपड़ा नहीं छूटता है उसी तरह 'द्वीन्द्रियादयः' में भी द्विन्द्रिय शामिल हो जाती है।

    अथवा, अवयव से विग्रह करने पर भी समास का अर्थ समुदाय होता है, जैसे 'सर्वादिः' में सर्व का भी ग्रहण होता है उसी तरह द्वीन्द्रिय का भी त्रस में अन्तर्भाव कर लेना चाहिये। द्वीन्द्रिय के स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियां, वचनबल और कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये छह प्राण होते हैं। त्रीन्द्रिय के घ्राणेन्द्रिय के साथ सात, चतुरिन्द्रिय के चक्षु के साथ आठ, पंचेन्द्रिय असंज्ञी तिर्यच के श्रोत्र के साथ नव और संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च मनुष्य देव और नारकियों के मनोबल के साथ दस प्राण होते हैं ।

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    + इन्द्रियों की संख्या -
    पंचेद्रियाणि ॥15॥
    अन्वयार्थ : इन्द्रियाँ पाँच हैं ॥१५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    इन्द्रिय शब्‍द का व्‍याख्‍यान कर आये । सूत्र में जो 'पंच' पदका ग्रहण किया है वह मर्यादा के निश्चित करने के लिए किया है कि इन्द्रियाँ पाँच ही होती हैं । इससे इन्द्रियों की और अधिक संख्‍या नहीं पायी जाती ।

    शंका – इस सूत्र में वचनादिक कर्मेन्द्रियों का ग्रहण करना चाहिए ?

    समाधान – नहीं करना चाहिए, क्‍योंकि उपयोग का प्रकरण है । इस सूत्र में उपयोग की साधन-भूत इन्द्रियों का ग्रहण किया है, क्रिया की साधन-भूत इन्द्रियों का नहीं । दूसरे, क्रिया की साधन-भूत इन्द्रियों की मर्यादा नहीं है । अंगोपांग नामकर्म के उदय से जितने भी अंगोपांगों की रचना होती है वे सब क्रिया के साधन हैं, इसलिए कर्मेन्द्रियाँ पाँच ही हैं ऐसा कोई नियम नहीं किया जा सकता ।

    अब उन पाँचों इन्द्रियों के अन्‍तर्भेदों को दिखलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    अन्य मतवादी छह और ग्यारह भी इन्द्रियों मानते हैं उनका निराकरण करनेके लिए पांच शब्द दिया है।

    1-2. कर्म-परतन्त्र होने पर भी अनन्त ज्ञानादि शक्तियों का स्वामी आत्मा इन्द्र कहलाता है। अतः इन्द्रभूत आत्मा के अर्थग्रहण में लिंग अर्थात् कारण को इन्द्रिय कहते हैं। अथवा, कर्म के कारण ही यह आत्मा चारों गतियों में संसरण करता है अतः इस समर्थ कर्म को इन्द्र कहते हैं । इस कर्म के द्वारा सृष्ट-रची गई इन्द्रियां हैं । ये इन्द्रियां पांच हैं।

    3-4. मन भी यद्यपि कर्मकृत है और आत्मा को अर्थग्रहण में सहायक होता है फिर भी वह चक्षुरादि इन्द्रियों की तरह नियतस्थानीय नहीं है, अनवस्थित है अतः वह इन्द्रियों में शामिल नहीं किया गया है । चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा ज्ञान होने के पहिले ही मन का व्यापार होता है। जब आत्मा को रूप देखने का मन होता है तब ही वह मन के द्वारा उपयोग को रूपाभिमुख करता है, इसके बाद ही इन्द्रिय व्यापार होता है अतः मन अनिन्द्रिय है।

    5-6. सांख्य वाक्, पाणि, पाद, गुदा और उपस्थ (पुरुष या स्त्री का चिह्न) इनको वचन आदि क्रिया का साधन होने से कर्मेन्द्रिय मानते हैं। पर चूंकि यहां उपयोग का प्रकरण है अतः उपयोग के साधन ज्ञानेन्द्रियों का ही ग्रहण किया है। क्रिया के साधन अंगों को यदि इन्द्रियों की श्रेणी में गिना जाय तो सिर आदि अनेक अवयवों को भी इन्द्रिय मानना होगा अर्थात् इन्द्रियों की कोई संख्या ही निश्चित नहीं की जा सकेगी।

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    + इन्द्रियों के प्रकार -
    द्विविधानि ॥16॥
    अन्वयार्थ : वे प्रत्‍येक दो-दो प्रकार की हैं ॥१६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    विध शब्‍द प्रकारवाची है । 'द्विविधानि' पद में 'द्वौ विधौ येषां तानि द्विविधानि' इस प्रकार बहुव्रीहि समास है । आशय है है कि ये पाँचों इन्द्रियाँ प्रत्‍येक दो-दो प्रकार की हैं ।

    शंका – वे दो प्रकार कौन हैं ?

    समाधान – द्रव्‍येन्द्रिय और भावेन्द्रिय ।

    अब द्रव्‍येन्द्रिय के स्‍वरूप का ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    इन्द्रियां दो प्रकार की हैं - एक द्रव्येन्द्रिय और दूसरी भावेन्द्रिय ।

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    + द्रव्य-इन्द्रियों का स्वरूप -
    निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्‌ ॥17॥
    अन्वयार्थ : निर्वृत्ति और उपकरणरूप द्रव्‍येन्द्रिय है॥१७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    रचना का नाम निर्वृत्ति है ।


    शंका – किसके द्वारा यह रचना की जाती है ?

    समाधान – कर्म के द्वारा । निर्वृत्ति दो प्रकार की है - बाह्यनिर्वृत्ति और आभ्‍यन्‍तर निर्वृत्ति । उत्‍सेधांगुल के असंख्‍यातवें भागप्रमाण और प्रतिनियत चक्षु आदि इन्द्रियों के आकाररूप से अवस्थित शुद्ध आत्‍म-प्रदेशों की रचना को आभ्‍यन्‍तर निर्वृत्ति कहते हैं । तथा इन्द्रिय नामवाले उन्‍हीं आत्‍म-प्रदेशों में प्रतिनियत आकार-रूप और नाम-कर्म के उदय से विशेष अवस्‍था को प्राप्‍त जो पुद्गल-प्रचय होता है उसे बाह्यनिर्वृत्ति कहते हैं । जो निर्वृत्ति का उपकार करता है उसे उपकरण कहते हैं । निर्वृत्ति के समान यह भी दो प्रकार का है - आभ्‍यन्‍तर और बा‍ह्य । नेत्र इन्द्रिय में कृष्‍ण-शुक्‍ल-मण्‍डल आभ्‍यन्‍तर उपकरण है तथा पलक और दोनों बरोनी आदि बाह्य उपकरण हैं । इसी प्रकार शेष इन्द्रियों में भी जानना चाहिए ।

    अब भावेन्द्रियका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-4 नाम-कर्म से जिसकी रचना हो उसे निर्वृत्ति कहते हैं। निर्वृत्ति बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार की है। उत्सेधांगुल के असंख्यातभागप्रमाण विशुद्ध आत्म-प्रदेशों की चक्षुरादि के आकाररूप से रचना आभ्यन्तर निर्वृत्ति है अर्थात् आत्मप्रदेशों का चक्षु आदि के आकार रूप होना। नाम-कर्म के उदय से शरीर पुद्गलों की इन्द्रियों के आकाररूप से रचना होना बाह्यनिर्वृत्ति है।

    5-6. जो निर्वृत्ति का उपकार करे वह उपकरण है। आंख में सफेद और काला मंडल आभ्यन्तर उपकरण है और पलक आदि बाह्य उपकरण है ।

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    + भाव-इन्द्रियों का स्वरूप -
    लब्ध्युपयोगो भावेन्द्रियम् ॥18॥
    अन्वयार्थ : लब्धि और उपयोगरूप भावेन्द्रिय है॥१८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    लब्धि शब्‍द का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है - लम्‍भनं लब्धि: - प्राप्‍त होना ।

    शंका – लब्धि किसे कहते हैं ?

    समाधान – ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम-विशेष को लब्धि कहते हैं । जिसके संसर्ग से आत्‍मा द्रव्‍येन्द्रिय की रचना करनेके लिए उद्यत होता है, तन्निमित्तक आत्‍मा के परिणामको उपयोग कहते हैं । लब्धि और उपयोग ये दोनों भावेन्द्रियाँ हैं ।

    शंका – उपयोग इन्द्रिय का फल है, वह इन्द्रिय कैसे हो सकता है ?

    समाधान – कारण का धर्म कार्य में देखा जाता है । जैसे घटाकार परिणत हुआ ज्ञान भी घट कहलाता है, अत: इन्द्रिय के फल को इन्द्रिय के मानने में कोई आपत्ति नहीं है । दूसरे इन्द्रिय का जो अर्थ है वह मुख्‍यता से उपयोग में पाया जाता है । तात्‍पर्य यह है कि 'इन्‍द्र के लिंगको इन्द्रिय कहते हैं' यह जो इन्द्रिय शब्‍दका अर्थ है वह उपयोग में मुख्‍य है, क्‍योंकि जीव का लक्षण उपयोग है' ऐसा वचन है, अत: उपयोग को इन्द्रिय मानना उचित है ।

    अब उक्त इन्दियों के क्रम से संज्ञा दिखलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    लाभको लब्धि कहते हैं। षित्त्वात् अङ्प्रत्यय होकर लब्ध इसलिए नहीं बना कि अनुबन्धकृत विधियां अनित्य होती हैं। महाभाष्य में भी अनुपलब्धि प्रयोग है। अथवा, स्त्रीलिंग क्तिन् प्रत्यय करके लब्धि शब्द सिद्ध हो जाता है।

    1. जिस ज्ञानावरणक्षयोपशम के रहने पर आत्मा द्रव्येन्द्रिय की रचना के लिए व्यापार करता है उसे लब्धि कहते हैं।

    2-4. लब्धि के अनुसार होनेवाला आत्मा का ज्ञानादि व्यापार उपयोग है। यद्यपि उपयोग इन्द्रिय का फल है फिर भी कारण के धर्म का कार्य में उपचार करके उसे भी इन्द्रिय कहा है जैसे कि घटाकार परिणत ज्ञान को घट कह देते हैं। 'इन्द्र का लिंग, इन्द्र के द्वारा सृष्ट' इत्यादि शब्दव्युत्पत्ति तो मुख्य रूप से उपयोग में ही घटती है। अतः उपयोग को इन्द्रिय कहने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए।

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    + इन्द्रियों के प्रकार -
    स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षुःश्रोत्राणि ॥19॥
    अन्वयार्थ : स्‍पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ हैं ॥१९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    लोक में इन्द्रियों की पारतन्‍त्र्य विवक्षा देखी जाती है । जैसे इस आँख से अच्‍छा देखता हूँ, इस कान से मैं अच्‍छा सुनता हूँ । अत: पारतन्‍त्र्य विवक्षा में स्‍पर्शन आदि इन्द्रियों का करणपना बन जाता है । वीर्यान्‍तराय और मति-ज्ञानावरण-कर्म के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नाम-कर्म के आलम्‍बन से आत्‍मा जिसके द्वारा स्‍पर्श करता है वह स्‍पर्शन इन्द्रिय है, जिसके द्वारा स्‍वाद लेता है वह रसन इन्द्रिय है, जिसके द्वारा सूँघता है वह घ्राण इन्द्रिय है । चक्षि धातुके अनेक अर्थ हैं । उनमें-से यहाँ दर्शनरूप अर्थ लिया गया है इसलिए जिसके द्वारा पदार्थोंको देखता है वह चक्षु इन्द्रिय है तथा जिसके द्वारा सुनता है वह श्रोत्र इन्द्रिय है । इसीप्रकार इन इन्द्रियोंकी स्‍वातन्‍त्र्य विवक्षा भी देखी जाती है । जैसे यह मेरी आँख अच्‍छी तरह देखती है, यह मेरा कान अच्‍छी तरह सुनता है । और इसलिए इन स्‍पर्शन आदि इन्द्रियोंकी कर्ताकारकमें सिद्धि होती है । यथा - जो स्‍पर्श करती है वह स्‍पर्शन इन्दिय है, जो स्‍वाद लेती है वह रसन इन्द्रिय है, जो सूँघती है वह घ्राण इन्द्रिय है, जो देखती है वह चक्षु इन्द्रिय है और जो सुनती है वह कर्ण इन्द्रिय है । सूत्रमें इन इन्द्रियोंका जो स्‍पर्शनके बाद रसना और उसके बाद घ्राण इत्‍यादि क्रमसे निर्देश किया है वह एक-एक इन्द्रियकी इस क्रमसे वृद्धि होती है यह दिखलाने के लिए किया है ।

    अब उन इन्द्रियों का विषय दिखलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. स्पर्शन आदि शब्द करणसाधन और कर्तृसाधन दोनों में निष्पन्न होते हैं। 'मैं इस आंख से देखता हूं' इत्यादि रूप से जब आत्मा स्वतन्त्र विवक्षित होता है तो इन्द्रियां परतन्त्र होने से करण बन जाती हैं । वीर्यान्तराय और उन-उन इन्द्रियावरणों के क्षयोपशम होने पर 'स्पृशति अनेन आत्मा-छूता है जिससे आत्मा' इत्यादि करणसाधनता बन जाती है। जब 'मेरी आंख अच्छा देखती है' इत्यादि रूप से इन्द्रियों की स्वतन्त्रता विवक्षित होती है तब 'स्पृशतीति स्पर्शनम्' जो छुए वह स्पर्शन इत्यादि रूप से कर्तृसाधनता बन जाती है। इसमें आत्मा स्वयं स्पर्शन आदि रूप से विवक्षित होता है ।

    2. कोई सूत्र में 'इन्द्रियाणि' यह पाठ अधिक मानते हैं, पर चूंकि इन्द्रियों का प्रकरण है अतः 'पंचेन्द्रियाणि' सूत्र से 'इन्द्रियाणि' का अनुवर्तन हो जाता है इसलिए उक्त पाठ अधिक मानना व्यर्थ है।

    3-10. स्पर्शनेन्द्रिय सर्वशरीरव्यापी है, 'वनस्पत्यन्तानामेकम्' इस सूत्र में एक शब्द से स्पर्शनेन्द्रिय का ग्रहण करना है और सभी संसारी जीवों के यह अवश्य पाई जाती है अतः सूत्र में इसका ग्रहण सर्वप्रथम किया है । प्रदेशों की दृष्टि से अतः क्रमशः रसना आदि इन्द्रियों का ग्रहण किया है । यद्यपि इस क्रम में चक्षु को सबसे पीछे लेना चाहिये था, फिर भी चूंकि श्रोत्रेन्द्रिय बहूपकारी है - इसी से उपदेश सुनकर हितप्राप्ति और अहितपरिहार में प्रवृत्ति होती है अतः इसी को अन्त में लिया है। रसना को भी वक्तृत्व के कारण बहूपकारी कहने का सीधा अर्थ तो यह है कि शंकाकार श्रोत्र की बहूपकारिता तो स्वीकार करता ही है । रसना के द्वारा वक्तृत्व तो तब होता है जब पहिले श्रोत्र से शब्दों को सुन लेता है । अतः अन्ततः श्रोत्र ही बहूपकारी है। यद्यपि सर्वज्ञ में श्रोत्रेन्द्रिय से सुनने के बाद वक्तृत्व नहीं देखा जाता क्योंकि वे समग्र ज्ञानावरण के क्षय हो जाने पर रसनेन्द्रिय के सद्भाव मात्र से उपदेश देते हैं, तथापि यहाँ इन्द्रियों का प्रकरण होने से इन्द्रियजन्य वक्तृत्ववालों की ही चर्चा है, केवलियों की नहीं।

    11. आगे आनेवाले 'कृमिपिपीलिका' आदि सूत्र में एक-एक वृद्धि के साथ संगति बैठाने के लिए स्पर्शनादि इन्द्रियों का क्रम रखा है।

    12. इन्द्रियों का परस्पर तथा आत्मा से कथञ्चित् एकत्व और नानात्व है। ज्ञानावरण के क्षयोपशम रूप शक्ति की अपेक्षा सभी इन्द्रियां एक हैं। समुदाय से अवयव भिन्न नहीं होते हैं अतः समुदाय की दृष्टि से एक हैं। सभी इन्द्रियों के अपने-अपने क्षयोपशम जुदे-जुदे हैं और अवयव भी भिन्न हैं अतः परस्पर भिन्नता है। साधारण इन्द्रिय, बुद्धि और शब्द-प्रयोग की दृष्टि से एकत्व है और विशेष की दृष्टि से भिन्नता है । आत्मा ही चैतन्यांश का परित्याग नहीं करके तपे हुए लोहे के गोले की तरह इन्द्रिय रूप से परिणमन करता है, उसको छोड़कर इन्द्रियां पृथक् उपलब्ध नहीं होती अतः आत्मा और इन्द्रियों में एकत्व है अन्यथा आत्मा इन्द्रियशून्य हो जायगा । किसी एक इन्द्रिय के नष्ट हो जाने पर भी आत्मा नष्ट नहीं होता, आत्मा पर्यायी है और इन्द्रियां पर्याय, तथा संज्ञा, संख्या, प्रयोजन आदि के भेद से आत्मा और इन्द्रियों में भेद है।

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    + इन्द्रियों के विषय -
    स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण-शब्दास्तदर्थाः ॥20॥
    अन्वयार्थ : स्‍पर्श, रस, गन्‍ध, वर्ण और शब्‍द ये क्रम से उन इन्द्रियों के विषय हैं ॥२०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    द्रव्‍य और पर्याय की प्राधान्‍य विवक्षा में स्‍पर्शादि शब्‍दों की क्रमसे कर्मसाधन और भावसाधनमें सिद्धि जानना चाहिए। जब द्रव्‍यकी अपेक्षा प्रधान रहती है तब कर्मनिर्देश होता है। जैसे – जो स्‍पर्श किया जाता है वह स्‍पर्श है, जो स्‍वादको प्राप्‍त होता है वह रस है, जो सूँघा जाता है वह गन्‍ध है जो देखा जाता है वह वर्ण है और जो शब्‍दरूप होता है वह शब्‍द है। इस व्‍युत्‍पत्तिके अनुसार ये सब स्‍पर्शादिक द्रव्‍य ठहरते हैं। तथा जब पर्यायकी विवक्षा प्रधान रहती है तब भावनिर्देश होता है। जैसे – स्‍पर्शन स्‍पर्श है, रसन रस है, गन्‍धन गन्‍ध है, वर्णन वर्ण है और शब्‍दन शब्‍द है। इस व्‍युत्‍पत्तिके अनुसार ये सब स्‍पर्शादिक धर्म निश्चित होते हैं। इन स्‍पर्शादिकका क्रम इन्द्रियोंके क्रमसे ही व्‍याख्‍यात है। अर्थात् इन्द्रियोंके क्रमको ध्‍यानमें रखकर इनका क्रमसे कथन किया है।

    आगे कहते हैं कि मन अनवस्थित है, इसलिए वह इन्द्रिय नहीं। इस प्रकार जो मन के इन्द्रियपनेका निषेध किया है, सो यह मन उपयोगका उपकारी है या नहीं ? मन भी उपकारी है, क्‍योंकि मनके बिना स्‍पर्शादि विषयोंमें इन्द्रियाँ अपने-अपने प्रयोजनकी सिद्धि करनेमें समर्थ नहीं होती। तो क्‍या इन्द्रियोंकी सहायता करना ही मनका प्रयोजन है या और भी इसका प्रयोजन है ? इसी बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1. स्पर्श आदि शब्द द्रव्यविवक्षा में कर्मसाधन और पर्यायविवक्षा में भावसाधन होते हैं। द्रव्यविवक्षा में इन्द्रियों से द्रव्य गृहीत होता है उससे भिन्न स्पर्शादि तो पाये ही नहीं जाते, अतः 'स्पृश्यते इति स्पर्श: - जो छुआ जाय वह स्पर्श' ऐसी कर्मसाधन व्युत्पत्ति द्रव्यपरक हो जाती है। पर्यायविवक्षा में उदासीन भाव का भी कथन होता है अतः 'स्पर्शनं स्पर्शः' आदि भावसाधन में व्युत्पत्ति बन जाती है। यद्यपि परमाणुओं के स्पर्शादि इन्द्रियग्राह्य नहीं है फिर भी उनके कार्यभूत स्थूल पदार्थों में स्पर्शादि का परिज्ञान होता है अतः उनमें भी स्पर्शादि की सत्ता निर्विवाद है।

    2-3. प्रश्न – 'तदर्थाः' में 'तत्' शब्द इन्द्रियसापेक्ष होने से असमर्थ हो जाता है अतः उसका अर्थ शब्द से समास नहीं हो सकता।

    उत्तर – जैसे 'देवदत्तस्य गरुकलम' यहाँ गरुशब्द सदा शिष्यापेक्ष होकर भी समास को प्राप्त हो जाता है उसी तरह यहाँ भी सामान्यवाची 'तत्' शब्द विशेष इन्द्रियों की अपेक्षा रखने के कारण समास को प्राप्त हो जाता है।

    4. इन्द्रियक्रम के अनुसार ही स्पर्श आदि का क्रम रखा गया है। ये सब सामान्य रूप से पुद्गल-द्रव्य के गुण हैं। वैशेषिक मतवादी मानते हैं। इस प्रकार का गुणविभाजन अयुक्त है; क्योंकि सभी में सभी गुण पाए जाते हैं। जल आदि में गन्ध आदि गुणों की साक्षात् उपलब्धि भी होती है। यह कल्पना तो अत्यन्त असंगत है कि जलादिक में गन्ध पार्थिव परमाणुओंके संयोगसे आई है स्वतः नहीं है, क्योंकि हम तो यही कहेंगे कि गन्धादि जलादि के ही गुण हैं क्योंकि वहीं पाए जाते हैं। यदि जल में गन्ध को संयोगज मानते हैं तो रस को भी संयोगज ही कहना चाहिये, उसे स्वाभाविक क्यों कहते हैं ? फिर, पृथिवी आदि में जातिभेद भी नहीं है। एक ही पुद्गल द्रव्य पृथिवी आदि नाना रूपों में पाया जाता है । पृथिवी ही निमित्त पाकर पिघल जाती है और जल बनती है। द्रवीभूत जल भी जमकर बरफ बन जाता है। अग्नि काजल बन जाती है आदि । इसी तरह वायु आदि में भी रूप आदि समझ लेना चाहिए। हाँ कोई गुण कहीं विशेष प्रकट होता है कहीं नहीं।

    5. स्पर्शादि परस्पर तथा द्रव्य से कथञ्चिद् भिन्न और कथञ्चिद् अभिन्न हैं । यदि स्पर्शादि में सर्वथा एकत्व हो तो स्पर्श के छूने पर रस आदि का ज्ञान हो जाना चाहिए। यदि द्रव्य से सर्वथा एकत्व हो तो या तो द्रव्य की सत्ता रहेगी या फिर स्पर्शादि की। यदि द्रव्य की सत्ता रहती है तो लक्षण के अभाव में उसका भी अभाव हो जायगा और यदि गुणों की, तो निराश्रय होने से उनका अभाव ही हो जायगा । यदि सर्वथा भेद माना जाता है तो घट के दिखने पर घट की तरह स्पर्श के छूने पर 'घड़े को छुआ' यह व्यवहार नहीं होना चाहिए। इन्द्रियभेद से स्पर्शादि में सर्वथा भेद मानना भी उचित नहीं है। क्योंकि संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्वापरत्व आदि रूपी द्रव्य में समवाय-सम्बन्ध से रहने के कारण चाक्षुष होने पर भी परस्पर भिन्न हैं। लक्षण-भेद से भी नानात्व नहीं होता; क्योंकि द्रव्य गुण कर्म में सत्तासम्बन्धित्व रूप एक लक्षण के पाए जाने पर भी भेद देखा जाता है। स्पर्शादि भिन्न उपलब्ध नहीं होते अतः सर्वथा एकत्व मानना उचित नहीं है ; क्योंकि सांख्य के मत में सत्त्व, रज और तम पृथक् उपलब्ध नहीं होते फिर भी भेद माना जाता है। इनमें व्यक्त और अव्यक्त आदि के रूप से अनेकधा भेद पाया जाता है। अतः द्रव्य-दृष्टि से कथञ्चित् एकत्व और पर्यायष्टि से कथञ्चित् भेद मानना ही उचित है ।

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    + मन के विषय -
    श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥21॥
    अन्वयार्थ : श्रुत मन का विषय है॥२१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    श्रुतज्ञान का विषयभूत अर्थ श्रुत है वह अनिन्द्रिय अर्थात् मनका विषय है, क्‍योंकि श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमको प्राप्‍त हुए जीवके श्रुतज्ञानके विषयमें मनके आलम्‍बनसे ज्ञानकी प्रवृत्ति होती है। अथवा श्रुत शब्‍दका अर्थ श्रुतज्ञान है। और वह मनका अर्थ अर्थात् प्रयोजन है। यह प्रयोजन मन के स्‍वत: आधीन है, इसमें उसे दूसरेके साहाय्य की आवश्‍यकता नहीं लेनी पड़ती।

    किस इन्द्रियका क्‍या विषय है यह बतला आये हैं। अब उनके स्‍वामीका कथन करना है, अत: सर्वप्रथम हो स्‍पर्शन इन्द्रिय कही है उसके स्‍वामीका निश्‍चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर आत्मा की श्रुतज्ञान के विषयभूत पदार्थ में मन के निमित्त से प्रवृत्ति होती है। अथवा, श्रुतज्ञान मन से उत्पन्न होता है। यह पदार्थ इन्द्रियव्यापार से परे है।

    श्रोत्रेन्द्रियजन्य ज्ञान को या श्रोत्रेन्द्रिय के विषय को श्रुत नहीं कह सकते; क्योंकि वह इन्द्रियजन्य होने से मतिज्ञान ही है। मतिज्ञान के बाद जो विचार केवल मनजन्य होता है वह श्रुत है।

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    + स्पर्शन इन्द्रिय के स्वामी -
    वनस्पत्यन्तानामेकम् ॥22॥
    अन्वयार्थ : वनस्‍पतिकायिक तक के जीवों के एक अर्थात् प्रथम इन्द्रिय होती है ॥२२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्र में आये हुए 'एक' शब्‍दका अर्थ प्रथम है।

    शंका – यह कौन है ? समाधान – स्‍पर्शन।

    शंका – वह किन जीवों के होती है ?

    समाधान – पृथिवीकायिक जीवों से लेकर वनस्‍पतिकायिक तक के जीवों के जानना चाहि‍ए।

    अब उसकी उत्‍पत्ति के कारण का कथन करते हैं - वीर्यान्‍तराय तथा स्‍पर्शन इन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमके होनेपर और शेष इन्द्रियोंके सर्वघाती स्‍पर्धकोंके उदयके होनेपर तथा शरीर नामकर्मके आलम्‍बनके होनेपर और एकेन्द्रिय जाति नामकर्मके उदयकी आधीनताके रहते हुए एक स्‍पर्शन इन्द्रिय प्रकट होती है।

    अब इतर इन्द्रियोंके स्‍वामित्‍वका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-3. अन्त शब्द पर्यन्तवाची है। यदि अन्त शब्द का अर्थ समीपता लिया जायगा तो वनस्पति के समीप अर्थात् वायु और त्रसों का बोध होगा । अन्त शब्द सम्बन्धिशब्द है अतः वनस्पति-पर्यन्त कहने से 'पृथिवी को आदि लेकर' यह ज्ञान हो ही जाता है ।

    4. 'एक' शब्द प्रथमता का वाचक है, अतः जिस-किसी इन्द्रिय का ज्ञान न करा के प्रथम स्पर्शनेन्द्रिय का बोधक है। वीर्यान्तराय और स्पर्शनेन्द्रियावरण का क्षयोपशम, शरीर अङ्गोपाङ्ग नाम और एकेन्द्रिय जाति का उदय होने पर एक स्पर्शनेन्द्रिय होती है।

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    + शेष इन्द्रियों के स्वामी -
    कृमि-पिपीलिका-भ्रमर-मनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥23॥
    अन्वयार्थ : कृमि, पिपीलिका, भ्रमर और मनुष्‍य आदि के क्रम से एक-एक इन्द्रिय अधिक होती है॥२३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    'एकैकम्' य‍ह वीप्‍सामें द्वित्‍व है। इन्द्रियाँ एक-एकके क्रमसे बढ़ी हैं इसलिए वे 'एकैकवृद्ध' कही गयी हैं। ये इन्द्रियाँ कृमिसे लेकर बढ़ी हैं। स्‍पर्शन इन्द्रियका अधिकार है, अत: स्‍पर्शन इन्द्रियसे लेकर एक-एकके क्रमसे बढ़ी हैं इस प्रकार यहाँ सम्‍बन्‍ध कर लेना चाहिए। आदि शब्‍दका प्रत्‍येकके साथ सम्‍बन्‍ध होता है। जिससे यह अर्थ हुआ कि कृमि आदि जीवोंके स्‍पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ होती हैं। पिपीलिका आदि जीवोंके स्‍पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ होती हैं। भ्रमर आदि जीवोंके स्‍पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियाँ होती हैं। मनुष्‍यादिकके श्रोत्र इन्द्रियके और मिला देनेपर पाँच इन्द्रियाँ होती हैं। इस प्रकार उक्‍त जीव और इन्द्रिय इनका यथाक्रमसे सम्‍बन्‍धका व्‍याख्‍यान किया। पहले स्‍पर्शन इन्द्रियकी उत्‍पत्तिका व्‍याख्‍यान कर आये हैं उसी प्रकार शेष इन्द्रियोंकी उत्‍पत्तिका व्‍याख्‍यान करना चाहिए। किन्‍तु उत्‍पत्तिके कारणका व्‍याख्‍यान करते समय जिस इन्द्रियकी उत्‍पत्तिके कारणका व्‍याख्‍यान किया जाय, वहाँ उससे अगली इन्द्रिय सम्‍बन्‍धी सर्वघा‍ती स्‍पर्धकोंके उदयके साथ वह व्‍याख्‍यान करना चाहिए।

    इस प्रकार इन दो प्रकारके और इन्द्रिय-भेदोंकी अपेक्षा पाँच प्रकारके संसारी जीवोंमें जो पंचेन्द्रिय जीव हैं उनके भेद नहीं कहे, अत: उनका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    'एकैकम्' यह वीप्सार्थक है। सभी इन्द्रियों की अपेक्षा 'वृद्धानि' में बहुवचन दिया है । 'स्पर्शन' का अनुवर्तन करके क्रमशः एक-एक इन्द्रिय की वृद्धि विवक्षित है। होती हैं। आदि शब्द प्रकार और व्यवस्था के अर्थ में है।

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    + संज्ञी जीव का स्वरूप -
    संज्ञिनः समनस्काः ॥24॥
    अन्वयार्थ : मनवाले जीव संज्ञी जीव होते हैं॥२४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    मनका व्‍याख्‍यान कर आये हैं। उसके साथ जो रहते हैं वे समनस्‍क कहलाते हैं। और उन्‍हें ही संज्ञी कहते हैं। परिशेष न्‍यायसे यह सिद्ध हुआ कि इनसे अतिरिक्‍त जितने संसारी जीव होते हैं वे सब असंज्ञी होते हैं।

    शंका – सूत्रमें 'संज्ञिन:' इतना पद देनेसे ही काम चल जाता है, अत: 'समनस्‍का:' यह विशेषण देना निष्‍फल है, क्‍योंकि हितकी प्राप्ति और अहितके त्‍यागकी परीक्षा करने में मनका व्‍यापार होता है और यही संज्ञा है ?

    समाधान – यह कहना उचित नहीं, क्योंकि संज्ञा शब्‍द के अर्थमें व्‍यभिचार पाया जाता है। अर्थात् संज्ञा शब्‍दके अनेक अर्थ हैं। संज्ञाका अर्थ नाम है। यदि नामवाले जीव संज्ञी माने जायँ तो सब जीवोंको संज्ञीपनेका प्रसंग प्राप्‍त होता है। संज्ञाका अर्थ यदि ज्ञान लिया जाता है तो भी सभी प्राणी ज्ञानस्‍वभाव होनेसे सबको संज्ञीपनेका प्रसंग प्राप्‍त होता है। यदि आहारादि विषयोंकी अभिलाषाको संज्ञा कहा जाता है तो भी पहलेके समान दोष प्राप्‍त होता है। अर्थात् आहारादि विषयक अभिलाषा सबके पायी जाती है, इसलिए भी सबको संज्ञीपने का प्रसंग प्रापत होता है। चूँकि ये दोष न प्राप्‍त हों अत: सूत्रमें 'समनस्‍का:' यह पद रखा है। इससे यह लाभ है कि गर्भज, अण्‍डज, मूर्च्छित और सुषुप्ति आदि अवस्‍थाओंमें हिताहितकी परीक्षाके न होनेपर भी मनके सम्‍बन्‍ध से संज्ञीपना बन जाता है।

    यदि जीवोंके हित और अहित आदि विषयके लिए क्रिया मनके निमित्तसे होती है तो जिसने पूर्व शरीर को छोड़ दिया है और जो मनरहित है ऐसा जीव जब नूतन शरीर को ग्रहण करनेके लिए उद्यत होता है तब उसके जो क्रिया होती है वह किस निमित्तसे होती है यही बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    प्रश्न – यह हित है और यह अहित इस प्रकार के गुण-दोष-विचार को संज्ञा कहते हैं । मन का भी यही कार्य है अतः समनस्क विशेषण व्यर्थ है।

    उत्तर – संज्ञा शब्द के अनेक अर्थ हैं, जो समनस्क जीवों के सिवाय अन्यत्र भी पाये जाते हैं। अत: मनरहित प्राणियों की व्यावृत्ति के लिए समनस्क विशेषण की सार्थकता है । इस तरह गर्भस्थ, अण्डस्थ, मूर्च्छित, सुषुप्त आदि अवस्थाओं में हिताहित विचार न होने पर भी मन की सत्ता होने से संज्ञित्व बन जाता है।

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    + विग्रह गति में योग -
    विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥25॥
    अन्वयार्थ : विग्रहगति में कार्मणकाय योग होता है॥२५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    विग्रहका अर्थ देह है। विग्रह अर्थात् शरीरके लिए जो गति होती है वह विग्रह गति है। अथवा विरुद्ध ग्रहको विग्रह कहते हैं जिसका अर्थ व्‍याघात है। तात्‍पर्य यह है कि जिस अवस्‍थामें कर्मके ग्रहण होनेपर भी नोकर्मरूप पुद्गलोंका ग्रहण नहीं होता वह विग्रह है और इस विग्रहके साथ होनेवाली गतिका नाम विग्रहगति है। सब शरीरोंकी उत्‍पत्तिके मूलकारण कार्मण शरीरको कर्म कहते हैं। तथा वचनवर्गणा, मनोवर्गणा और कायवर्गणाके निमित्तसे होनेवाले आत्‍मप्रदेशोंके हलनचलनको योग कहते हैं। कर्मके निमित्तसे जो योग होता है वह कर्मयोग है व‍ह विग्रहगतिमें होता है यह उक्‍त कथनका तात्‍पर्य है। इससे नूतन कर्मका गहण और एक देशसे दूसरे देशमें गमन होता है।

    गमन करनेवाले जीव और पुद्गलोंका एक देशसे दूसरे देशमें गमन क्‍या आकाशप्रदेशों की पंक्तिक्रमसे होता है या इसके बिना होता है, अब इसका खुलासा करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    औदारिकादि नाम-कर्म के उदय से उन शरीरों के योग्य पुद्गलों का ग्रहण विग्रह कहलाता है। विरुद्ध ग्रह अर्थात् कर्म-पुद्गलों का ग्रहण होने पर भी जहां नोकर्म-पुद्गलों का ग्रहण नहीं होता वह विग्रह । विग्रह के लिए गति विग्रहगति कही जाती है । इस विग्रहगति में सभी औदारिकादि शरीरों को उत्पन्न करनेवाले कार्मण शरीर के निमित्त से ही आत्मप्रदेश परिस्पन्द होता है। इसलिए समनस्क और अमनस्क सभी प्राणियों की गति में कोई व्यवधान नहीं पड़ता।

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    + विग्रह गति में गमन -
    अनुश्रेणिः गतिः ॥26॥
    अन्वयार्थ : गति श्रेणी के अनुसार होती है॥२६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    लोकके मध्‍यसे लेकर ऊपर नीचे और तिरछे क्रमसे स्थित आकाशप्रदेशोंकी पंक्तिको श्रेणी कहते हैं। अनु शब्‍द 'आनुपूर्वी' अर्थमें समसित है। इसलिए 'अनुश्रेणि' का अर्थ 'श्रेणीकी आनुपूर्वीसे' होता है। इस प्रकारकी गति जीव और पुद्गलोंकी होती है यह इसका भाव है।

    शंका – पुद्गलों का अधिकार न होनेसे यहाँ उनका ग्रहण कैसे हो सकता है ?

    समाधान – सूत्रमें गतिपदका ग्रहण किया है इससे सिद्ध हुआ कि अनधिकृत पुद्गल भी यहाँ विवक्षित हैं। यदि जीवोंकी गति ही इष्‍ट होती तो सूत्रमें गति पदके ग्रहण करनेकी आवश्‍यकता न थी, क्‍योंकि गति पदका ग्रहण अधिकारसे सिद्ध है। दूसरे अगले सूत्रमें जीव पदका ग्रहण किया है, इसलिए इस सूत्रमें पुद्गलोंका भी ग्रहण इष्‍ट है यह ज्ञान होता है।

    शंका – चन्‍द्रमा आदि ज्‍योतिषियोंकी और मेरुकी प्रदक्षिणा करते समय विद्याधरोंकी विश्रेणी गति देखी जाती है, इसलिए जीव और पुद्गलोंकी अनुश्रेणी गति होती है यह किसलिए कहा ?

    समाधान – यहाँ कालनियम और देशनियम जानना चाहिए। कालनियम यथा - मरणके समय जब जीव एक भवको छोड़कर दूसरे भवके लिए गमन करते हैं और मुक्‍त जीव जब ऊर्ध्‍व गमन करते हैं तब उनकी गति अनुश्रेणि ही होती है। देशनियम यथा - जब कोई ऊर्ध्‍वलोकसे अधोलोकके प्रति या अधोलोकसे ऊर्ध्‍वलोकके प्रति आता जाता है। इसी प्रकार तिर्यग्‍लोकसे अधोलोकके प्रति या अधोलोक से ऊर्ध्‍वलोकके प्रति आता जाता है तब उस अवस्‍थामें गति अनुश्रेणि ही होती है। इसी प्रकार पुद्गलोंकी जो लोकके अन्‍तको प्राप्‍त करानेवाली गति होती है वह अनुश्रेणि ही होती है। इसी प्रकार पुद्गलोंकी जो लोकके अन्‍तको प्राप्‍त करानेवाली गति होती है वह अनुश्रेणि ही होती है। हाँ, इसके अतिरिक्‍त जो गति होती है वह अनुश्रेणि भी होती है और विश्रेणि भी। किसी एक प्रकारकी गति होनेका कोई नियम नहीं है।

    अब फिर भी गति विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-5. लोक के मध्य से लेकर ऊपर नीचे और तिरछे आकाश के प्रदेश क्रमश: श्रेणिबद्ध हैं। इसके अनुकूल ही सभी गतिवाले जीव-पुद्गलों की गति होती है। गति का प्रकरण होने पर भी इस सूत्र में जो पुनः 'गति' शब्द का ग्रहण किया है और आगे के सूत्र में जो 'जीव' शब्द का विशेषरूप से ग्रहण किया है उससे ज्ञात होता है कि इस सूत्र से सभी गतिवाले जीव-पुद्गलों की गति का विधान किया गया है। विग्रहगति में जीव का बैठना, सोना या ठहरना आदि तो होता नहीं है जिससे इनकी निवृत्ति के लिए 'गति' शब्द की सार्थकता मानी जाय ।

    6. अनुश्रेणि-गति को देश और काल नियत है। इसके सिवाय लोक में चक्र आदि की विविध प्रकार विश्रेणि गति भी होती है। जीवों के मरणकाल में नवीन-पर्याय धारण करने के समय तथा मुक्तजीवों के ऊर्ध्वगमन के समय अनुश्रेणि ही गति होती है । ऊर्ध्वलोक से नीचे, अधोलोक से ऊपर या तिर्यक् लोक से ऊपर-नीचे जो गति होगी वह अनुश्रेणि होगी। पुद्गलों की जो लोकान्त तक गति होती है, वह नियम से अनुश्रेणि ही होती है । अन्य गतियों का कोई नियम नहीं है।

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    + मुक्त जीव का गमन -
    अविग्रहा जीवस्य ॥27॥
    अन्वयार्थ : मुक्‍त जीव की गति विग्रहरहित होती है॥२७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    विग्रह का अर्थ व्‍याघात या कुटिलता है जिस गति में विग्रह अर्थात् कुटिलता नहीं होती वह विग्रह-रहित गति है।

    शंका – यह किसके होती है ? समाधान – जीव के।

    शंका – किस प्रकार के जीव के ? समाधान – मुक्‍त जीव के ।

    शंका – यह किस प्रमाण से जाना जाता है कि मुक्‍त जीव के विग्रहरहित गति होती है ?

    समाधान – अगले सूत्रमें 'संसारी' पदका ग्रहण किया है इससे ज्ञात होता है कि इस सूत्र में मुक्‍त जीव के विग्रहरहित गति ली गयी है।

    शंका – 'अनुश्रेणि गति:' इस सूत्र से ही यह ज्ञात हो जाता है कि एक श्रेणि से दूसरी श्रेणि में संक्रमण नहीं होता फिर इस सूत्रके लिखने से क्‍या प्रयोजन है ?

    समाधान – पूर्व सूत्र में कहीं पर विश्रेणिगति भी होती है इस‍ बात का ज्ञान कराने के लिए यह सूत्र रचा है।

    शंका – पूर्व सूत्र की टीका में ही देशनियम और कालनियम कहा है ?

    समाधान – नहीं; क्‍योंकि उसकी सिद्धि इस सूत्र से होती हे।

    मुक्‍तात्‍मा की लोकपर्यन्‍त गति बिना प्रतिबन्‍ध के नियत समय के भीतर होती है यदि ऐसा आपका निश्‍चय है तो अब यह बतलाइए कि सदेह आत्‍मा की की गति क्‍या प्रतिबन्‍ध के साथ होती है या मुक्‍तात्‍मा के समान बिना प्रतिबन्‍ध के होती है, इसी बात का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    आगे के सूत्र में 'संसारी' का ग्रहण किया है, अत: यह सूत्र मुक्त के लिए है यह निश्चित हो जाता है। यद्यपि 'अनुश्रेणि गतिः' सूत्र से मुक्त की अविग्रह गति सिद्ध हो जाती है फिर भी जब वह सूत्र जीव-पुद्गल दोनों के लिए साधारण हो गया और वह भी इसी सूत्र के बल पर, तब इस सूत्र की आवश्यकता बनी ही रहती है ।

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    + विग्रह गति का काल -
    विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्भ्यः ॥28॥
    अन्वयार्थ : संसारी जीव की गति विग्रहरहित और विग्रहवाली होती है। उसमें विग्रहवाली गति चार समय से पहले अर्थात् तीन समय तक होती है॥२८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    कालका अवधारण करनेके लिए 'प्राक्चतुर्भ्‍य:' पद दिया है। 'प्राक्' पद मर्यादा निश्चित करनेके लिए दिया है। चार समयसे पहले मोड़ेवाली गति होती है, चौथे समयमें नहीं यह इसका तात्‍पर्य है।

    शंका – मोड़ेवाली गति चार समय से पूर्व अर्थात् तीन समय तक ही क्‍यों होती है चौथे समय में क्‍यों नहीं होती ?

    समाधान – निष्‍कुट क्षेत्र में उत्‍पन्‍न होनेवाले दूसरे निष्‍कुट क्षेत्र वाले जीवको सबसे अधिक मोड़े लेने पड़ते हैं; क्‍योंकि वहाँ आनुपूर्वीसे अनुश्रेणिका अभाव होनेसे इषुगति नहीं हो पाती। अत: यह जीव निष्‍कुट क्षेत्रको प्राप्‍त करनेके लिए तीन मोडे़वाली गतिका आरम्‍भ करता है। यहाँ इससे अधिक मोड़ोंकी आवश्‍यकता नहीं पड़ती, क्‍योंकि इस प्रकारका कोई उपपादक्षेत्र नहीं पाया जाता, अत: मोड़ेवाली गति तीन समय तक ही होती है, चौथे समयमें नहीं होती। 'च' शब्‍द समुच्‍चयके लिए दिया है। जिससे विग्रहवाली और विग्रहरहित दोनों गतियोंका समुच्‍चय होता है।

    विग्रहवाली गतिका काल मालूम पड़ा। अब विग्रहरहित गतिका कितना काल है इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. चार समय से पहिले ही मोड़ेवाली गति होती है, क्योंकि संसार में ऐसा कोई कोनेवाला टेढा-मेढा क्षेत्र ही नहीं है जिसमें तीन मोड़ा से अधिक मोड़ा लेना पड़े। जैसे षष्टिक चावल साठ दिन में नियम से पक जाते हैं उसी तरह विग्रह-गति भी तीन समय में समाप्त हो जाती है।

    2. च शब्द से उपपाद-क्षेत्र के प्रति ऋजुगति अविग्रहा तथा कुटिल गति सविग्रहा इस प्रकार दोनों का समुच्चय हो जाता है ।

    3-4. प्राक् शब्द की जगह 'आचतुर्व्यः' कहने से लाघव तो होता पर इससे चौथे समय के ग्रहण का अनिष्ट-प्रसंग प्राप्त हो जाता है । यद्यपि 'आङ्' का मर्यादा अर्थ भी होता है पर अभिविधि और मर्यादा में से विवक्षित अर्थ के जानने के लिए व्याख्यान आदि का गौरव होता अतः स्पष्टता के लिए 'प्राक्' शब्द ही दे दिया है । ये गतियां चार हैं - इषुगति, पाणिमुक्ता, लांगलिका और गोमूत्रिका। इषुगति बिना विग्रह के होती है और शेष गतियां मोड़ेवाली हैं ।

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    + ऋजु-गति का काल -
    एकसमयाऽविग्रहा ॥29॥
    अन्वयार्थ : एक समयवाली गति विग्रहरहित होती है॥२९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिस गति में एक समय लगता है वह एक समयवाली गति है। जिस गतिमें विग्रह अर्थात् मोड़ा नहीं लेना पड़ता वह मोड़ारहित गति हे। गमन करनेवाले जीव और पुद्गलोंके व्‍याघातके अभावमें एक समयवाली गति लोकपर्यन्‍त भी होती है यह इस सूत्र का तात्‍पर्य है।

    कर्मबंधकी परम्‍परा अनादिकालीन है, अत: मिथ्‍यादर्शन आदि बन्‍ध कारणों के वश से कर्मों को ग्रहण करनेवाला जीव विग्रहगति में भी आहारक प्राप्‍त होता है, अत: नियम करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1. बिना मोड़े की ऋजुगति एक समयवाली ही होती है । लोक के अग्रभाग तक जीव पुद्गलों की गति एक ही समय में हो जाती है ।

    2-3. आत्मा को सर्वगत अतएव निष्क्रिय मानकर गति का निषेध करना उचित नहीं है; क्योंकि जैसे बाह्य-आभ्यन्तर कारणों से पत्थर सक्रिय होता है उसी तरह आत्मा भी कर्मसम्बन्ध से शरीरपरिमाणवाला होकर शरीरकृत क्रियाओं के अनुसार स्वयं सक्रिय होता है । शरीर के अभाव में दीपशिखा की तरह स्वाभाविक-क्रिया में परिपूर्ण रहता है । यदि आत्मा को सर्वगत अतएव क्रियाशून्य माना जाता है तो संसार और बन्ध आदि नहीं हो सकेंगे। मोक्ष तो क्रिया से ही संभव है।

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    + विग्रह-गति में अनाहारक -
    एकं द्वौ त्रीन्वानाहारकः ॥30॥
    अन्वयार्थ : एक, दो या तीन समय तक जीव अनाहारक रहता है॥३०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    समयका अधिकार होनेसे यहाँ उसका सम्‍बन्‍ध होता है। 'वा' पदका अर्थ विकल्‍प है और विकल्‍प जहाँ तक अभिप्रेत हैं वहाँ तक लिया जाता है। जीव एक समय तक, दो समय तक या तीन समय तक अनाहारक होता है यह इस सूत्रका अभिप्राय है। तीन शरीर और छह पर्याप्तियोंके योग्‍य पुद्गलोंके ग्रहण करने को आहार कहते हैं। जिन जीवोंके इस प्रकारका आहार नहीं होता वे अनाहारक कहलाते हैं। किन्‍तु कार्मण शरीर के सद्भावमें कर्मके ग्रहण करनेमें अन्‍तर नहीं पड़ता जब यह जीव उपपादक्षेत्र के प्रति ऋजुगति में रहता है तब आहारक होता है। बाकीके तीन समयोंमें अनाहारक होता है।

    इस प्रकार अन्‍य गतिको गमन करनेवाले जीवके नूतन दूसरे पर्यायकी उत्‍पत्तिके भेदोंको दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1. पूर्व-सूत्र से 'समय' शब्द की अनुवृत्ति कर लेनी चाहिए। यद्यपि पूर्वसूत्र में समय शब्द समासान्तर्गत होने से गौण है फिर भी सामर्थ्य से उसी का सम्बन्ध हो जाता है ।

    2-3. वा शब्द विकल्पार्थक है । विकल्प का अर्थ है यथेच्छ सम्बन्ध करना। अत्यन्त संयोग विवक्षित होने के कारण सप्तमी न होकर यहां द्वितीया विभक्ति की गई है।

    4. औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरों के तथा छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों का ग्रहण करना आहार है। तैजस और कार्मण शरीर के पुद्गल तो जब तक मोक्ष नहीं होता तब तक प्रतिक्षण आते ही रहते हैं ।

    5-6. ऋद्धिप्राप्त ऋषियों के ही आहारक शरीर होता है अतः विग्रह गति में इसकी संभावना नहीं है। विग्रहगति में बाकी कवलाहार लेपाहार आदि कोई भी आहार नहीं होते ; क्योंकि इन आहारों में समय लगता है अतः समय का व्यवधान पड़ जायगा। जैसे तपाया हुआ बाण लक्ष्य देशपर पहुंचने के पहिले भी बरसात के जल को ग्रहण करता जाता है उसी तरह पूर्वदेह को छोड़ने के दुःख से सन्तप्त यह प्राणी आठ प्रकार के कर्मपुद्गलों से निर्मित कार्मण शरीर के कारण जाते समय ही नोकर्मपुद्गलों को भी ग्रहण करके आहारक हो जाता है । वक्रगति में तीन समय तक अनाहारक रहता है।

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    + जन्म के प्रकार -
    सम्मूर्च्छन-गर्भोपपादा जन्म ॥31॥
    अन्वयार्थ : सम्‍मूर्च्‍छन, गर्भ और उपपाद ये (तीन) जन्‍म हैं ॥३१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    तीनों लोकोंमें ऊपर, नीचे और तिरछे देहका चारों ओरसे मूर्च्‍छन अर्थात् ग्रहण होना संमूर्च्‍छन है। इसका अभिप्राय है चारों ओरसे पुद्गलोंका ग्रहण कर अवयवोंकी रचना होना। स्‍त्रीके उदरमें शुक्र और शोणितके परस्‍पर गरण अर्थात् मिश्रणको गर्भ कहते हैं। अथवा माताके द्वारा उपभुक्‍त आहारके गरण होनेको गर्भ कहते हैं। प्राप्‍त होकर जिसमें जीव हलन-चलन करता है उसे उपपाद कहते हैं। उपपाद यह देव और नारकियोंके उत्‍पत्तिस्‍थान विशेषकी संज्ञा है। संसारी जीवोंके ये तीनों जन्‍मके भेद हैं, जो शुभ और अशुभ परिणामोंके निमित्तसे अनेक प्रकारके कर्म बँधते हैं, उनके फल हैं।

    यहाँ तक संसारी विषयोंके उपभोगकी प्राप्तिमें आधारभूत जन्‍मोंका अधिकार था। अब इनकी योनियोंके भेद कहने चाहिए, इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1. तीनों लोकों में ऊपर, नीचे, तिरछे सभी दिशाओं से पुद्गलपरमाणुओं का इकट्ठा होकर शरीर बनना सम्मूर्छन है।

    2-3. स्त्री के गर्भाशय में शुक्र और शोणित के मिश्रण को गर्भ कहते हैं। अथवा, माता के द्वारा गृहीत आहार से जहां रस ग्रहण किया जाय वह गर्भ है।

    4. देव और नारकियों के उत्पत्तिस्थानों को उपपाद कहते हैं। इन नियत स्थानों के पुद्गलों से उपपाद-जन्म होता है ।

    5-10. सम्मूर्च्छन शरीर अत्यन्त स्थूल होता है, अल्पकालजीवी होता है तथा उसके कारण मांसादि और कार्य शरीर, दोनों ही प्रत्यक्ष हैं अतः उसका ग्रहण प्रथम किया है। इसके बाद गर्भ का; क्योंकि यह अधिक काल में परिपूर्ण होता है । अति दीर्घजीवी होने के कारण उपपाद का सब के अन्त में ग्रहण किया है । परिणामाधीन विविध कर्मों के विपाक से इन विभिन्न रूपों में प्राणियों की उत्पत्ति होती है । कर्म के अनुसार ही जन्म होता है ।

    11. यद्यपि जन्म के प्रकार अनेक हैं फिर भी प्रकारगत सामान्य की अपेक्षा से 'जन्म' शब्द को एकवचन ही रखा है ।

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    + जन्म-योनि के प्रकार -
    सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्‍चैकशस्तद्योनयः ॥32॥
    अन्वयार्थ : सचित्त, शीत और संवृत तथा इनकी प्रतिपक्षभूत अचित्त, उष्‍ण और विवृत तथा मिश्र अर्थात् सचित्ताचित्त, शीतोष्‍ण और संवृतविवृत ये उसकी अर्थात् जन्‍म की योनियाँ हैं ॥३२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    आत्‍मा के चैतन्‍यविशेषरूप परिणाम को चित्त कहते हैं। जो चित्तके साथ रहता है वह सचित्त कहलाता है। शीत यह स्‍पर्शका एक भेद है। शुक्‍ल आदिके समान यह द्रव्‍य और गुण दोनोंका वाची है, अत: शीतगुणवाला द्रव्‍य भी शीत कहलाता है। जो भले प्रकार ढका हो वह संवृत कहलाता है। यहाँ संवृत ऐसे स्‍थानको कहते हैं जो देखनेमें न आवे। इतर का अर्थ अन्‍य है और इनके साथ रहनेवाले सेतर कहे जाते हैं।

    शंका – वे इतर कौन हैं ?

    समाधान – अचित्त, उष्‍ण और विवृत्त। जो उभयरूप होते हैं वे मिश्र कहलाते हैं। यथा - सचित्ताचित्त, शीतोष्‍ण और संवृतविवृत। सूत्रमें 'च' शब्‍द समुच्‍चयवाची है। जिससे योनियाँ मिश्र भी होती हैं इसका समुच्‍चय हो जाता है। यदि 'च' पदका यह अर्थ न लिया जाय तो मिश्रपद पूर्वोक्‍त पदोंका ही विशेषण हो जाता। 'एकश:' यह पद वीप्‍सावाची है। सूत्रमें इस पदका ग्रहण क्रम और मिश्रका ज्ञान करानेके लिए किया है। जिससे यह ज्ञान हो कि सचित्त, अचित्त, शीत, उष्‍ण, संवृत, विवृत इस क्रमसे योनियाँ ली हैं। यह ज्ञान न हो कि सचित्त, शीत इत्‍यादि क्रमसे योनियाँ ली हैं। जन्‍मके भेदोंके दिखलानेके लिए सूत्रमें 'तत्' पदका ग्रहण किया है। उन संमूर्च्‍छन आदि जन्‍मोंकी ये योनियाँ हैं यह इसका भाव है। ये सब मिलाकर नौ योनियाँ जानना चाहिए।

    शंका – योनि और जन्‍म में कोई भेद नहीं ?

    समाधान – नहीं; क्‍योंकि आधार और आधेयके भेदसे उनमें भेद हैं। ये सचित्त आदिक योनियाँ आधार हैं और जन्‍मके भेद आधेय हैं, क्‍योंकि सचित्त आदि योनिरूप आधारमें संमूर्च्‍छन आदि जन्‍मके द्वारा आत्‍मा शरीर, आहार और इन्द्रियोंके योग्‍य पुद्गलों को ग्रहण करता है। देव और नारकियोंकी अचित्त योनि होती है, क्‍योंकि उनके उपपाद देश के पुद्गलप्रचयरूप योनि अचित्त है। गर्भजोंकी मिश्र योनि होती है, क्‍योंकि उनकी माता के उदरमें शुक्र और शोणित अचित्त होते हैं जिनका सचित्त माताकी आत्‍मासे मिश्रण है इसलिए वह मिश्रयोनि है। संमूर्च्‍छनोंकी तीन प्रकारकी योनियाँ होती हैं। किन्‍हींकी सचित्त योनि होती है, अन्‍यकी अचित्तयोनि होती है और दूसरोंकी मिश्रयोनि होती है। साधारण शरीरवाले जीवोंकी सचित्त योनि होती है, क्‍योंकि ये एक-दूसरेके आश्रयसे रहते हैं। इनसे अतिरिक्‍त शेष संमूर्च्‍छन जीवोंके अचित्त और मिश्र दोनों प्रकारकी योनियाँ होती हैं। देव और नारकियोंकी शीत और उष्‍ण दोनों प्रकारकी योनियाँ होती हैं; क्‍योंकि उनके कुछ उपपादस्‍थान शीत हैं और कुछ उष्‍ण। तेजस्‍कायिक जीवोंकी उष्‍णयोनि होती है। इनसे अतिरिक्‍त जीवोंकी योनियाँ तीन प्रकारकी होती हैं। किन्‍हींकी शीत योनियाँ होती हैं, किन्‍हींकी उष्‍णयोनियाँ होती हैं और किन्‍हींकी मिश्रयोनियाँ होती हैं। देव, नारकी और एकेन्द्रियोंकी संवृत योनियाँ होती हैं। विकलेन्द्रियों की विवृत योनियाँ होती हैं। तथा गर्भजोंकी मिश्र योनियाँ होती हैं। इन सब योनियोंके चौरासी लाख भेद हैं यह बात आगमसे जाननी चाहिए। कहा भी है -

    नित्‍यनिगोद, इतरनिगोद, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंकी सात-सात लाख योनियाँ हैं। वृक्षोंकी दस लाख योनियाँ हैं। विकलेन्द्रियोंकी मिलाकर छह लाख योनियाँ हैं। देव, नारकी और तिर्यंचोंकी चार-चार लाख योनियाँ हैं तथा मनुष्‍योंकी चौदह लाख योनियाँ हैं।

    इस प्रकार नौ यौनियोंसे युक्‍त तीन जन्‍म सब जीवोंके अनियमसे प्राप्‍त हुए, अत: निश्‍चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-5. आत्मा के चैतन्य परिणमन को चित्त कहते हैं । चित्त सहित सचित्त कहलाता है। शीत अर्थात् ठंडा स्पर्श और ठंडा पदार्थ । संवृत अर्थात् ढंका हुआ । इतर अर्थात् अचित्त उष्ण और विवृत। मिश्र अर्थात् उभयात्मक ।

    6-8. च शब्द प्रत्येक के समुच्चय के लिए है, अन्यथा 'सचित्त शीत संवृत जब अचित्त उष्ण और विवृत से मित्र हों तत्र योनियां होंगीं' यह अर्थ हो जाता। च शब्द से 'प्रत्येक भी योनियाँ है तथा मिश्र भी' यह स्पष्ट बोध हो जाता है । यद्यपि कहीं 'च' शब्द न देने पर भी समुच्चय का बोध देखा जाता है और समुच्चय और विशेषण दोनों अर्थों में इच्छानुसार समुच्चय अर्थ भी लिया जा सकता था फिर भी सूत्र में नहीं कही गई चौरासी लाख योनियों के संग्रह के लिए 'च' शब्द की सार्थकता है।

    9. 'एकशः' पद से ज्ञात होता है कि मिश्र-योनियों में क्रममिश्रता होनी चाहिये । अर्थात् सचित-अचित्त, शीत-उष्ण, संवृत-विवृत आदि, न कि सचित्त-शीत आदि ।

    10. 'तत्' पद से ज्ञात होता है कि ये योनियां पूर्वोक्त सम्मूर्च्छन आदि जन्मों की हैं।

    11-12. योनि शब्द को केवल स्त्रीलिंग समझकर द्वन्द्वसमास में सचित्तादि शब्दों के पुल्लिग प्रयोग में आपत्ति नहीं करनी चाहिये; क्योंकि योनि शब्द उभयलिंग है। यहां पुल्लिग समझना चाहिये।

    13. योनि आधार है तथा जन्म आधेय है । सचित्तादि योनियों में ही सम्मूर्छनादि जन्मों के द्वारा आत्मा शरीर ग्रहण करता है । यही योनि और जन्म में भेद है ।

    14-17. चेतनात्मक होने से सचित्त का प्रथम ग्रहण किया है, उसके बाद तृप्तिकारक होने से शीत का तथा गुप्त होने से संवृत का अन्त में ग्रहण किया है। जीवों के कर्मविपाक नाना प्रकार के हैं अतः योनियां भी अनेक प्रकार की मानी गई हैं।

    18-26. देव और नारकों के अचित्त योनि हैं; क्योकि इनके उपपाद प्रदेश के पुद्गल अचेतन हैं। माता के उदर में अचेतन वीर्य और रज से चेतन आत्मा का मिश्रण होने से गर्भजों के मिश्र योनि हैं। सम्मूर्छन जीवों में साधारण शरीरवालों के सचित्त योनि है । शेष में किसी के अचित्त योनि तथा किसी के मिश्रयोनि होती है। देव और नारकियों के शीत और उष्ण योनि, तेजस्कायिकों के उष्णयोनि तथा शेष जीवों के शीत उष्ण और मिश्रयोनि होती हैं । देव, नारक और एकेन्द्रिय जीवों के संवृतयोनि, विकलेन्द्रियों के विवृत योनि और गर्भज जीवों के मिश्रयोनि होती है।

    27. इन योनियों के चौरासी लाख भेदों का 'च' शब्द से समुच्चय किया गया है। सर्वज्ञ ने इनका साक्षात्कार किया है और अल्पज्ञानियों को ये आगमगम्य हैं। नित्यनिगोद के 7 लाख, अनित्य निगोद के 7 लाख, पृथिवी जल अग्नि और वायु प्रत्येक के सात-सात लाख, वनस्पतिके दस लाख, विकलेन्द्रियों के छह लाख, देव नारकी और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च प्रत्येक के चार-चार लाख, मनुष्यों के चौदह लाख इस प्रकार कुल 84 लाख योनिभेद होते हैं।

    जो कभी भी त्रस पर्याय को प्राप्त न होंगे वे नित्यनिगोद तथा जिनने त्रस पर्याय पाई थी या आगे पायेंगे वे अनित्य निगोद हैं।

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    + गर्भ-जन्म के स्वामी -
    जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः ॥33॥
    अन्वयार्थ : जरायुज, अण्‍डज और पोत जीवों का गर्भजन्‍म होता है ॥३३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जो जालके समान प्राणियोंका आवरण है और जो मांस और शोणितसे बना है उसे जरायु कहते हैं। जो नख की त्‍वचाके समान कठिन है, गोल है और जिसका आवरण शुक्र और शोणितसे बना है उसे अण्‍ड कहते हैं। जिसके सब अवयव बिना आवरणके पूरे हुए हैं और जो योनिसे निकलते ही हलन-चलन आदि सामर्थ्‍यसे युक्‍त है उसे पोत कहते हैं। इनमें जो जर से पैदा होते हैं वे जरायुज कहलाते हैं। जो अण्‍डोंसे पैदा होते हैं वे अण्‍डज कहलाते हैं। सूत्रमें जरायुज, अण्‍डज और पोत इनका द्वन्‍द्व समास है। ये सब गर्भ की योनियाँ हैं।

    यदि इन जरायुज, अण्‍डज और पोत जीवों का गर्भ जन्‍म निर्णीत होता है तो अब यह बतलाइए कि उपपाद जन्‍म किन जीवों के होता है, अत: इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1-3. गर्भाशय में प्राणी के ऊपर जो मांस और रक्त का जाल होता है वह जरायु है। शुक्र और शोणित से परिवेष्टित, नख के ऊपरी भाग की तरह कठिन और श्वेत गोलाकार अण्डा होता है । इनमें उत्पन्न जीव क्रमशः जरायुज और अण्डज हैं । जो योनि से निकलते ही चलने फिरने की शक्ति रखते हैं, गर्भाशय में जिनके ऊपर कोई आवरण नहीं रहता वे पोत हैं।

    4-5. कोई 'पोतजाः' ऐसा पाठ रखते हैं । पर यह ठीक नहीं है। क्योंकि पोत तो स्वयं आत्मा ही है, उसमें उत्पन्न होनेवाला कोई दूसरा जीव नहीं है जो पोतज कहा जाय । आत्मा ही पोत परिणमन करके पोत कहलाता है।

    6-10. चूंकि जरायुजों में भाषा अध्ययन आदि असाधारण क्रियाएँ देखी जाती हैं, चक्रवर्ती वासुदेव आदि महाप्रभावशाली जरायुज ही होते हैं तथा मोक्ष की प्राप्ति जरायुजों को ही होती है अतः पूज्य होने से उसका ग्रहण सर्वप्रथम किया है । अण्डजों में भी तोता मैना आदि अक्षरोच्चारण आदि में कुशल होते हैं अतः पोत से पहिले उनका ग्रहण किया है।

    11. यद्यपि पहिले सूत्र में सम्मूर्छनों का नाम प्रथम लिया है अतः यहां भी उसी का वर्णन होना चाहिये था फिर भी आगे 'शेषाणां सम्मूर्छनम्' इस सूत्र की लघुता के लिए उसका यहाँ प्रथम ग्रहण नहीं किया है; क्योंकि यदि, समूर्च्छन का प्रथम कथन करते तो 'एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां पञ्चेन्द्रियाणां तिरश्चां मनुष्याणां च केषाञ्चित् सम्मूर्च्छनम्' इतना बड़ा सूत्र बनाना पड़ता।

    12. जरायुज आदि के गर्भजन्म सिद्ध ही था फिर भी 'गर्भ' शब्द के ग्रहण करने से 'जरायुज अण्डज और पोतों के ही गर्भ होता है' यह नियम ज्ञापित होता है। आगे के सूत्र में 'शेष' पद देने से ज्ञात होता है कि जन्म का ही नियम किया गया है जन्मवालों का नहीं। यदि इन सूत्रों से जन्मवालों का नियम होता तो आगे 'शेष' ग्रहण करना निरर्थक ही हो जाता।

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    + उपपाद-जन्म के स्वामी -
    देवनारकाणामुपपादः ॥34॥
    अन्वयार्थ : देव और नारकियों का उपपाद जन्‍म होता है ॥३४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    इनसे अतिरिक्‍त अन्‍य जीवोंके कौन-सा जन्‍म होता है। अब इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    जिस समय से देवगति का उदय हो तभी से उसका जन्म स्वीकार करना इसलिए ठीक नहीं है कि विग्रहगति में भी देवगति का उदय हो जाता है पर शरीरयोग्य पुद्गलों का ग्रहण न होने से उस समय जन्म नहीं माना जाता। इसलिए उपपाद को जन्म कहना ठीक है।

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    + सम्मूर्छन-जन्म के स्वामी -
    शेषाणां सम्मूर्च्छनं ॥35॥
    अन्वयार्थ : शेष सब जीवों का सम्‍मूर्च्‍छन जन्‍म होता है ॥३५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    इस सूत्रमें 'शेष' पदसे वे जीव लिये गये हैं जो गर्भ और उपपाद जन्‍मसे नहीं पैदा होते। इनके संमूर्च्‍छन जन्‍म होता है। ये तीनों ही सूत्र नियम करते हैं। और यह नियम दोनों ओरसे जानना जानना चाहिए। यथा – गर्भ जन्‍म जरायुज, अण्‍डज और पोत जीवोंका ही होता है। या जरायुज, अण्‍डज और पोत जीवोंके गर्भजन्‍म ही होता है। उपपाद जन्‍म देव और नारकियोंके ही होता है या देव और नारकियोंके उपपाद जन्‍म ही होता है। संमूर्च्‍छन जन्‍म शेष जीवोंके ही होता है या शेष जीवोंके संमूर्च्‍छन जन्‍म ही होता है।


    जो तीन जन्‍मोंसे पैदा होते हैं और जिनके अपने अवान्‍तर भेदोंसे युक्‍त नौ योनियाँ हैं उन संसारी जीवोंके शुभ और अशुभ नामकर्मके उदयसे निष्‍पन्‍न हुए और बन्‍धफलके अनुभव करनेमें आधारभूत शरीर कितने हैं। अब इसी बातको दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    देव और नारकियों के ही उपपाद और शेष के ही सम्मूर्च्छन होता है। पहिले गर्भ और उपपाद जन्म का तो नियम हुआ है पर जरायुज आदि का नहीं, उनके सम्मूर्छन जन्म का भी प्रसंग प्राप्त होता है अतः उसके वारण करने के लिए यह सूत्र बनाया गया है। यदि 'जरायुज अण्डज पोतों के गर्भ ही होता है और देव नारकियों के उपपाद ही होता है ; तो अर्थात् ही शेष के सम्मूर्च्छन ही होता है, यह फलित हो जाता है। ऐसी दशा में न केवल शेषग्रहण किन्तु यह सूत्र ही निरर्थक हो जाता है । परन्तु जन्म और जन्मवाले दोनों के अवधारण का प्रसंग उपस्थित होने पर 'जन्म का ही अवधारण करना चाहिए' यह व्यवस्था इस सूत्र से ही फलित होती है अतः सूत्र की सार्थकता है।

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    + शरीर के प्रकार -
    औदारिक-वैक्रियिकाहारक-तैजस-कार्मणानि शरीराणि ॥36॥
    अन्वयार्थ : औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण ये पाँच शरीर हैं ॥३६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जो विशेष नामकर्मके उदयसे प्राप्‍त होकर शीर्यन्‍ते अर्थात् गलते हैं वे शरीर हैं। इसके औदारिक आदि पाँच भेद हैं। ये औदारिक आदि प्रकृति विशेषके उदयसे होते हैं।

    उदार और स्‍थूल ये एकार्थवाची शब्द हैं। उदार शब्‍दसे होनेरूप अर्थमें या प्रयोजनरूप अर्थमें ठक् प्रत्‍यय होकर औदारिक शब्‍द बनता है।

    अणिमा आदि आठ गुणोंके ऐश्‍वर्यके सम्‍बन्‍धसे एक, अनेक, छोटा, बड़ा आदि नाना प्रकारका शरीर करना विक्रिया है। यह विक्रिया जिस शरीरका प्रयोजन है वह वैक्रियिक शरीर है।

    सूक्ष्‍म पदार्थका ज्ञान करनेके लिए या असंयमको दूर करनेकी इच्‍छासे प्रमत्तसंयत जिस शरीरकी रचना करता है वह आहारक शरीर है।

    जो दीप्तिका कारण है या तेजमें उत्‍पन्‍न होता है उसे तैजस शरीर कहते हैं।

    कर्मोंका कार्य कार्मण शरीर है। यद्यपि सब शरीर कर्मके निमित्तसे होते हैं तो भी रूढिसे विशिष्‍ट शरीरको कार्मण शरीर कहा है।

    जिस प्रकार इन्द्रियाँ औदारिक शरीरको जानती हैं उस प्रकार इतर शरीरोंको क्‍यों नहीं जानतीं ? अब इस बातको दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1-3. जो शीर्ण हों वे शरीर हैं। यद्यपि घटादि पदार्थ भी विशरणशील हैं परन्तु वे उनमें नामकर्मोदय निमित्त नहीं हैं, अतः उन्हें शरीर नहीं कह सकते। जिस प्रकार 'गच्छतीति गौः' यह विग्रह रूढ शब्दों में भी किया जाता है उसी तरह 'शरीर' शब्द का भी विग्रह समझना चाहिए। शरीरत्व नाम की जाति के समवाय से शरीर कहना तो उचित नहीं है क्योंकि स्वयं शरीर-स्वभाव न मानने पर अमुक जगह ही शरीरत्व का सम्बन्ध हो अमुक जगह न हो इत्यादि नियम नहीं बन सकता।

    4-9. उदार अर्थात् स्थूल प्रयोजनवाला या स्थूल जो शरीर वह औदारिक है। अणिमा आदि आठ प्रकार के ऐश्वर्य के कारण अनेक प्रकार के छोटे-बड़े आकार करने रूप विक्रिया करना जिसका प्रयोजन है वह वैक्रियिक है। प्रमत्तसंयत मुनि के द्वारा सूक्ष्मतत्त्वज्ञान और असंयम के परिहार के लिए जिसकी रचना की जाती है वह आहारक है । जो दीप्ति का कारण होता है वह तैजस है । कर्मों का कार्य या कर्मों के समूह को कार्मण कहते हैं।

    10-13. जैसे मिट्टी के पिण्ड से उत्पन्न होनेवाले घट, घटी, सकोरा आदि में संज्ञा लक्षण आकार आदि की दृष्टि से भेद है उसी तरह यद्यपि औदारिकादि शरीर कर्मकृत हैं, फिर भी उनमें संज्ञा, लक्षण, आकार और निमित्त आदि की दृष्टि से परस्पर भिन्नता है। औदारिकादि शरीर प्रतिनियत नामकर्म के उदय से होते हैं । कार्मण शरीर से ही औदारिकादि शरीर उत्पन्न होते हैं अतः कारण-कार्य की अपेक्षा भी कार्मण और औदारिकादि भिन्न हैं। जैसे गीले गुड़पर धूलि आकर जम जाती है उसी तरह कार्मण शरीर पर ही औदारिकादि शरीरों के योग्य परमाणु, जिन्हें विस्रसोपचय कहते हैं, आकर जमा होते हैं। इस दृष्टि से भी कार्मण और औदारिकादि भिन्न हैं।

    14-17. जैसे दीपक परप्रकाशी होने के साथ ही साथ स्वप्रकाशी भी है उसी तरह कार्मण शरीर औदारिकादि का भी निमित्त है और अपने उत्तर कार्मण का भी । अतः निनिमित्त होने से उसे असत् नहीं कह सकते। फिर मिथ्यादर्शन आदि कार्मण शरीर के निमित्त हैं। यदि यह निनिमित्त माना जायगा तो मोक्ष ही नहीं हो सकता क्योंकि विद्यमान और निर्हेतुक पदार्थ नित्य होता है, उसका कभी विनाश नहीं हो सकेगा। कार्मण शरीर में प्रतिसमय उपचय-अपचय होता रहता है अतः उसका अंशत: विशरण सिद्ध है और इसीलिए वह शरीर है।

    18-19. यद्यपि कार्मण शरीर सर्व का आधार और निमित्त है अतः उसका सर्वप्रथम ग्रहण करना चाहिए था किन्तु चूँकि वह सूक्ष्म है और औदारिकादि स्थूल कार्यों के द्वारा अनुमेय है अतः उसका प्रथम ग्रहण नहीं किया। कर्म के मूर्तिमान् औदारिकादि फल देखे जाते हैं अतः वह मूर्तिमान् सिद्ध होता है। आत्मा के अमूर्त अदृष्ट नाम के निष्क्रिय गुण से परमाणुओं मे क्रिया होकर द्रव्योत्पत्ति मानना उचित नहीं है।

    20-21. अत्यन्त स्थूल और इन्द्रियग्राह्य होने से औदारिक शरीर को प्रथम ग्रहण किया है। आगे-आगे सूक्ष्मता दिखाने के लिए वैक्रियिक आदि शरीरों का क्रम है।

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    + शरीरों में स्थूलता-सूक्ष्मता -
    परं परं सूक्ष्मम् ॥37॥
    अन्वयार्थ : आगे-आगे का शरीर सूक्ष्‍म है ॥३७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    पर शब्‍दके अनेक अर्थ हैं तो भी यहाँ विवक्षासे व्‍यवस्‍थारूप अर्थका ज्ञान होता है। यद्यपि शरीर अलग-अलग हैं तो भी उनमें सूक्ष्‍म गुणका अन्‍वय है यह दिखलानेके लिए 'परम्‍परम्' इस प्रकार वीप्‍सा निर्देश किया है। औदारिक शरीर स्‍थूल है। इससे वैक्रियिक शरीर सूक्ष्‍म है। इससे आहारक शरीर सूक्ष्म है। इससे तैजस शरीर सूक्ष्‍म है और इससे कार्मण शरीर सूक्ष्‍म है।

    यदि ये उत्तरोत्तर शीरर सूक्ष्‍म हैं तो प्रदेशोंकी अपेक्षा भी उत्तरोत्तर हीन होंगे। इस प्रकार विपरीत ज्ञानका निराकरण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हेा –

    राजवार्तिक :
    पर शब्द के व्यवस्था, भिन्न, प्रधान, इष्ट आदि अनेक अर्थ हैं पर यहां 'व्यवस्था' अर्थ विवक्षित है। संज्ञा, लक्षण, आकार, प्रयोजन आदि की दृष्टि से परस्पर विभिन्न शरीरों का सूक्ष्मता के विचार से पर शब्द का वीप्सा अर्थ में दो बार निर्देश किया है।

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    + शरीरों के प्रदेश -
    प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक् तैजसात् ॥38॥
    अन्वयार्थ : तैजस से पूर्व तीन शरीरों में आगे-आगे का शरीर प्रदेशों की अपेक्षा असंख्‍यातगुणा है ॥३८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    प्रदेश शब्‍दकी व्‍युत्‍पत्ति 'प्रदिश्‍यन्‍ते' होती है। इसका अर्थ परमाणु है। संख्‍यातीतको असंख्‍येय कहते हैं। जिसका गुणकार असंख्‍यात है वह असंख्‍येयगुणा कहलाता है।

    शंका – किसकी अपेक्षा ?

    समाधान – प्रदेशोंकी अपेक्षा, अवगाहनकी अपेक्षा नहीं। पूर्व सूत्रमें 'परम्‍परम्' इस पदकी अनुवृत्ति होकर असंख्‍येयगुणत्‍वका प्रसंग कार्मण शरीर तक प्राप्‍त होता है अत: उसकी निवृत्तिके लिए सूत्रमें 'प्राक् तैजसात्' पद रखा है। अर्थात् तैजस शरीरसे पूर्ववर्ती शरीर तक ये शरीर उत्तरोत्तर असंख्‍यातगुणे हैं। औदारिक शरीरसे वैक्रियिक शरीर असंख्‍यातगुणे प्रदेशवाला है।

    शंका – गुणकार का प्रमाण क्‍या है ?

    समाधान – पल्‍यका असंख्‍यातवाँ भाग।

    शंका – यदि ऐसा है तो उत्तरोत्तर एक शरीर से दूसरा शरीर महापरिमाणवाला प्राप्‍त होता है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्‍योंकि बन्‍धविशेषके कारण परिमाणमें भेद नहीं होता। जैसे रुईका ढेर और लोहे का गोला।

    आगेके दो शरीरोंके प्रदेश क्‍या समान हैं या उनमें भी कुछ भेद है। इस बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हेा -

    राजवार्तिक :
    प्रदेश अर्थात् परमाणु । परमाणुओं से ही आकाशादि का क्षेत्र-विभाग किया जाता है। पूर्वसूत्र से 'परं परम्' की अनुवृत्ति होती है अतः मर्यादा बाँधने के लिए 'प्राक तेजसात्' यह स्पष्ट निर्देश किया है। प्रदेशों की दृष्टि से पल्य के असंख्येय भाग से गुणित होने पर भी इन शरीरों का अवगाह क्षेत्र कम ही होता है । तात्पर्य यह कि औदारिक से वैक्रियिक असंख्यात गुण प्रदेशवाला है और वैक्रियक से आहारक । जैसे समप्रदेशवाले लोहा और रुई के पिण्ड में परमाणुओं के निबिड और शिथिल संयोगों की दृष्टि से अवगाहनक्षेत्र में तारतम्य है उसी तरह वैक्रियिक आदि शरीरों में उत्तरोत्तर निबिड संयोग होने से अल्पक्षेत्रता और सूक्ष्मता है।

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    + तैजस-कार्मण शरीरों के प्रदेश -
    अनन्तगुणे परे ॥39॥
    अन्वयार्थ : परवर्ती दो शरीर प्रदेशों की अपेक्षा उत्तरोत्तर अनन्‍तगुणे हैं ॥३९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    पूर्व सूत्रसे 'प्रदेशत: इस पद की अनुवृत्ति होती है। जिससे इसका सम्‍बन्ध करना चाहिए कि आहारक शरीरसे तैजस शरीर के प्रदेश अनन्‍तगुणे हैं और तैजस शरीर से कार्मण शरीर के प्रदेश अनन्‍तगुणे हैं।

    शंका – गुणकार क्‍या है ?

    समाधान – अभव्‍योंसे अनन्‍तगुणा और सिद्धोंका अनन्‍तवाँ भाग गुणकार है।

    शंका – जिस प्रकार कील आदि के लग जानेसे कोई भी प्राणी इच्छित स्‍थानको नहीं जा सकता उसी प्रकार मूर्तिक द्रव्‍यसे उपचित होनेके कारण संसारी जीवकी इच्छित गतिके निरोधका प्रसंग प्राप्‍त होता है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्‍योंकि ये दोनों शरीर -

    राजवार्तिक :
    1-2. अनन्तगुणें अर्थात् अभव्यों के अनन्तगुणें से गुणित और सिद्धों के अनन्तवें भाग से गुणित । अनन्त के अनन्त ही विकल्प होते हैं, अतः उत्तरोत्तर अनन्तगुणता समझनी चाहिए। पूर्व सूत्र से 'परं परं' को अनुवृत्ति होती है अतः आहारक से तैजस अनन्तगुणा तथा तैजस से कार्मण अनन्तगुणा समझना चाहिए।

    3-5. प्रश्न – पर तो कार्मण हुआ और तैजस अपर, अतः 'परापरे' यह पद रखना चाहिए ?

    उत्तर – शब्दोच्चारण की दृष्टि से यहाँ 'पर' व्यवहार अपेक्षित नहीं है किन्तु ज्ञान की दृष्टि से । बुद्धि में आहारक से आगे रखे गये तैजस और कार्मण दोनों ही 'पर' कहे जाते हैं। जैसे 'पटना से मथुरा परे है' यहां काशी आदि देशों का व्यवधान होने पर भी व्यवहित मथुरा में पर शब्द का प्रयोग हो जाता है उसी तरह आहारक से पर तैजस और तेजस से पर कार्मण में भी पर शब्द का प्रयोग उचित है।

    6. यद्यपि तैजस और कार्मण में परमाणु अधिक हैं फिर भी उनका अतिसघन संयोग और सूक्ष्म परिणमन होने से इन्द्रियों के द्वारा उपलब्धि नहीं हो सकती।

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    + तैजस-कार्मण शरीरों में सूक्ष्मता -
    अप्रतीघाते ॥40॥
    अन्वयार्थ : प्रतीघात रहित हैं ॥४०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    एक मूर्तिक पदार्थका दूसरे मूर्तिक पदार्थ के द्वारा जो व्‍याघात होता है उसे प्रतीघात कहते हैं। इन दोनों शरीरों का इस प्रकार का प्रतीघात नहीं होता, इसलिए ये प्रतीघात रहित हैं। जिस प्रकार सूक्ष्‍म होने से अग्नि लोहेके गोलेमें प्रवेश कर जाती है। उसी प्रकार तैजस और कार्मण शरीर का वज्रपटलादिक में भी व्‍याघात नहीं होता ।

    शंका – वैक्रियिक और आहारक शरीरका भी प्रतीघात नहीं होता फिर यहाँ तैजस और कार्मण शरीर को ही अप्रतीघात क्‍यों कहा ?

    समाधान – इस सूत्रमें सर्वत्र प्रतीघात का अभाव विवक्षित है। जिस प्रकार तैजस और कार्मण शरीरका लोक पर्यन्‍त सर्वत्र प्रतीघात नहीं होता वह बात वैक्रियिक और आहारक शरीर की नहीं है।

    इन दोनों शरीरोंमें क्‍या इतनी ही विशेषता है या और भी कोई विशेषता है। इसी बातको बतलाने के लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-3. एक मूर्तिमान् द्रव्य का दूसरे मूर्तिमान् द्रव्य से रुक जाना या टकराना प्रतीघात कहलाता है । जैसे अग्नि सूक्ष्म परिणमन के कारण लोहे के पिंड में भी घुस जाती है उसी तरह ये दोनों शरीर वज्रपटलादिक से भी नहीं रुकते, सब जगह प्रवेश कर जाते हैं। यद्यपि वैक्रियिक और आहारक भी अपनी-अपनी सीमा में अप्रतीघाती हैं फिर भी लोक-भर में सर्वत्र अप्रतीघाती ये दोनों ही हैं, अतः दोनों को ही अप्रतीघाती कहा है।

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    + तैजस-कार्मण का जीव के साथ सम्बन्ध -
    अनादिसंबन्धे च ॥41॥
    अन्वयार्थ : आत्‍मा के साथ अनादि सम्‍बन्‍धवाले हैं ॥४१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्र में 'च'शब्‍द विकल्‍प को सूचित करने के लिए दिया है। जिससे यह अर्थ हुआ कि तैजस और कार्मण शरीरका अनादि सम्‍बन्‍ध है और सादि सम्‍बन्‍ध भी है। कार्यकारणभाव की परम्‍परा की अपेक्षा अनादि सम्‍बन्‍ध वाले हैं और विशेष की अपेक्षा सादि सम्‍बन्‍धवाले हैं। यथा बीज और वृक्ष। जिस प्रकार औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर जीव के कदाचित् होते हैं उस प्रकार तैजस और कार्मण शरीर नहीं हैं। संसार का क्षय होने तक उनका जीव के साथ सदा सम्‍बन्‍ध है।

    ये तैजस और कार्मण शरीर क्‍या किसी जीव के ही होते हैं या सामान्‍यरूप से सबके होते हैं। इसी बातका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1-2. ये दोनों शरीर अनादि से इस जीव के साथ हैं। उपचय-अपचय की दृष्टि से इनका सादि-सम्बन्ध भी होता है, इसीलिए च शब्द दिया है। जैसे वृक्ष से बीज और बीज से वृक्ष इस प्रकार सन्तति की दृष्टि से बीज-वृक्ष अनादि होकर भी तद्बीज और तद्वृक्ष की अपेक्षा सादि हैं उसी तरह तैजस कार्मण भी बन्धसन्तति की दृष्टि से अनादि और तत्-तत् दृष्टि से सादि हैं।

    3-5. यदि सर्वथा आदिमान् माना जाय तो अशरीर आत्मा के नूतन शरीर का सम्बन्ध ही नहीं हो सकेगा, क्योंकि शरीर-सम्बन्ध का कोई निमित्त ही नहीं है। और यदि निनिमित्त ही शरीर-सम्बन्ध होने लगे तो मुक्त-आत्माओं के साथ भी शरीर का सम्बन्ध हो जायगा। इस तरह कोई मुक्त ही नहीं रह सकेगा। और यदि अनादि होने से उसे अनन्त माना जायगा; तो भी किसी को मोक्ष ही नहीं हो सकेगा। अतः जैसे अनादिकालीन बीज-वृक्ष सन्तति भी अग्नि आदि कारणों से नष्ट हो जाती है उसी तरह कर्मशरीर भी ध्यानाग्नि से नष्ट हो जाता है ।

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    + दोनों शरीरों के स्वामी -
    सर्वस्य ॥42॥
    अन्वयार्थ : तथा सब संसारी जीवों के होते हैं ॥४२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    यहाँ 'सर्व' शब्‍द निरवशेषवाची है । वे दोनों ही शरीर सब संसारी जीवों के होते हैं यह इस सूत्र का तात्‍पर्य है।

    सामान्‍य कथन करने से उन औदारिकादि शरीरों के साथ सब संसारी जीवोंका एक साथ सम्‍बन्‍ध प्राप्‍त होता है, अत: एक साथ कितने शरीर सम्‍भव हैं इस बात को दिखलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    ये दोनों शरीर सभी संसारी जीवों के होते हैं। 'सर्वस्य' यह एक-वचन संसारिसामान्यकी अपेक्षा दिया है। यदि ये किसी संसारी के न हों तो वह संसारी ही नहीं हो सकता।

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    + एक जीव के कितने शरीर सम्भव हैं? -
    तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः ॥43॥
    अन्वयार्थ : एक साथ एक जीव के तैजस और कार्मण से लेकर चार शरीर तक विकल्‍प से होते हैं ॥४३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्र में प्रकरण प्राप्‍त तैजस और कार्मण शरीरका निर्देश करनेके लिए 'तत्' शब्‍द दिया है। तदादि शब्‍दका समासलभ्‍य अर्थ है – तैजस और कार्मण शरीर जिनके आदि हैं वे। भाज्‍य और विकल्‍प्‍य ये पर्यायवाची नाम हैं। तात्‍पर्य यह है कि एक साथ एक आत्‍मा के पूर्वोक्‍त दो शरीर से लेकर चार शरीर तक विकल्‍प से होते हैं। किसीके तैजस और कार्मण ये दो शरीर होते हैं। अन्‍य के औदारिक, तैजस और कार्मण या वैक्रियिक, तैजस और कार्मण ये तीन शरीर होते हैं। किसी दूसरे के औदारिक, आहारक, तैजस और कार्मण ये चार शरीर होते हैं। इस प्रकार यह विभाग यहाँ किया गया है।

    फिर भी उन शरीरों का विशेष ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    'तत्' शब्द से जिन दो शरीरों का प्रकरण है उनका ग्रहण करना चाहिए। 'आदि' शब्द व्यवस्थावाची है। 'आङ्' उपसर्ग अभिविधि के अर्थमें है, अतः किसी के चार भी हो सकते हैं। यदि मर्यादार्थक होता तो चार से पहिले अर्थात् तीन शरीर तक का नियम होता । किसी आत्मा के दो शरीर तैजस और कर्मण होंगे। तीन औदारिक तेजस और कार्मण अथवा वैक्रियिक तैजस और कार्मण होंगे। किसी के औदारिक आहारक तेजस और कार्मण ये चार भी हो सकते हैं। वैक्रियिक और आहारक एक साथ नहीं होते अतः पांच की संभावना नहीं है। क्योंकि आहारक जिस प्रमत्तसंयत मुनि के होता है उसके वैक्रियिक नहीं होता, जिन देव और नारकियों के वैक्रियिक होता है उनके आहारक नहीं होता।

    🏠
    + कार्मण शरीर के बारे में विशेष -
    निरुपभोगमन्त्यम् ॥44॥
    अन्वयार्थ : अन्तिम शरीर उपभोग-रहित है ॥४४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जो अन्‍त में होता है वह अन्‍त्‍य कहलाता है।

    शंका – वह अन्‍त का शरीर कौन है ?

    समाधान – कार्मण। इन्द्रियरूपी नालियों के द्वारा शब्‍दादि के ग्रहण करनेको उपभोग कहते हैं। यह बात अन्‍त के शरीर में नहीं पायी जाती; अत: वह निरुपभोग है। विग्रहगतिमें लब्धिरूप भावेन्द्रिय के रहते हुए भी वहाँ द्रव्‍येन्द्रियकी रचना न होनेसे शब्‍दादिकका उपभोग नहीं होता।


    शंका – तैजस शरीर भी निरुपभोग है, इसलिए वहाँ यह क्‍यों कहते हो कि अन्‍त का शरीर निरुपभोग है ?

    समाधान – तैजस शरीर योग में निमित्त भी नहीं होता, इसलिए इसका उपभोगके विचार में अधिकार नहीं है।

    इस प्रकार पूर्वोक्‍त लक्षणवाले इन जन्‍मों में क्‍या सामान्‍य से सब शरीर उत्‍पन्‍न होते हैं या इसमें कुछ विशेषता है। इस बातको बतलानेके लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    इन्द्रियों के द्वारा शब्दादिक की उपलब्धि को उपभोग कहते हैं। यद्यपि कर्मादान निर्जरा और सुखदुःखानुभवन आदि उपभोग कार्मण शरीर में संभव हैं फिर भी विग्रहगति में द्रव्येन्द्रियों की रचना नहीं होती, अतः विवक्षित उपभोग कार्मण शरीर में नहीं पाया जाता। तैजस शरीर चूंकि योगनिमित्त, योग अर्थात् आत्मप्रदेश परिस्पन्द में भी निमित्त नहीं होता अतः उसकी उपभोग विचार में विवक्षा नहीं है। अतः योगनिमित्त शरीरों में अन्तिम कार्मण शरीर ही निरुपभोग है, शेष सोपभोग हैं ।

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    + गर्भज और सम्मूर्छनज का शरीर -
    गर्भसम्मूर्च्छनजमाद्यम्‌ ॥45॥
    अन्वयार्थ : पहला शरीर गर्भ और संमूर्च्‍छन जन्‍म से पैदा होता है ॥४५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्रमें जिस क्रमसे निर्देश किया तदनुसार यहाँ आद्यपदसे औदारिक शरीरका ग्रहण करना चाहिए। जो शरीर गर्भजन्‍म से और संमूर्च्‍छन जन्‍मसे उत्‍पन्‍न होता है वह सब औदारिक शरीर है यह इस सूत्रका तात्‍पर्य है।

    इसके अनन्‍तर जिस शरीरका निर्देश किया है उसकी उत्‍पत्ति किस जन्‍म से होती है अब इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    जितने गर्भज और सम्मूर्छनजन्य शरीर हैं वे सब औदारिक हैं ।

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    + उपपाद जन्म के साथ शरीर -
    औपपादिकं वैक्रियिकम्‌ ॥46॥
    अन्वयार्थ : वैक्रियिक शरीर उपपाद जन्‍म से पैदा होता है ॥४६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जो उपपादमें होता है उसे औपपादिक कहते हैं। इस प्रकार उपपाद जन्‍मसे पैदा होनेवाले शरीर को वैक्रियिक जानना चाहिए।

    यदि जो शरीर उपपाद जन्‍मसे पैदा होता है वह वैक्रियिक है तो जो शरीर उपपाद जन्‍म से नहीं पैदा होता उसमें वैक्रियिकपन नहीं बन सकता । अब इसी बातका स्‍पष्‍टीकरण करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    उपपादजन्य यावत् शरीर वैक्रियिक हैं।

    🏠
    + वैक्रियक शरीर के अन्य स्वामी -
    लब्धिप्रत्ययं च॥47॥
    अन्वयार्थ : तथा लब्धि से भी पैदा होता है ॥४७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्रमें 'च' शब्‍द आया है। उससे वैक्रियिक शरीरका सम्‍बन्‍ध करना चाहिए। तपविशेषसे प्राप्‍त होनेवाली ऋद्धिको लब्धि कहते हैं। इस प्रकारकी लब्धिसे जो शरीर उत्‍पन्‍न होता है वह लब्धिप्रत्‍यय कहलाता है।वैक्रियिक शरीर लब्धिप्रत्‍यय भी होता है ऐसा यहाँ सम्‍बन्‍ध करना चाहिए।

    क्‍या यही शरीर लब्धिकी अपेक्षासे होता है या दूसरा शरीर भी होता हे। अब इसी बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1-2. प्रत्यय शब्द के ज्ञान, सत्यता, कारण आदि अनेक अर्थ हैं किन्तु यहाँ कारण अर्थ विवक्षित है। विशेष तप से जो ऋद्धि प्राप्त होती है वह लब्धि है। लब्धिकारणक भी वैक्रियिक शरीर होता है।

    3. उपपाद तो निश्चित है, पर लब्धि अनिश्चित है, किसी के ही विशेष तप धारण करने पर होती है।

    4. विक्रिया का अर्थ विनाश नहीं है, जिससे प्रतिसमय न्यूनाधिक रूप से सभी शरीरों का विनाश होने से सबको वैक्रियिक कहा जाय किन्तु नाना आकृतियों को उत्पन्न करना है । विक्रिया दो प्रकार की है - १ एकत्व विक्रिया, २ पृथक्त्व विक्रिया।
    1. अपने शरीर को ही सिंह, व्याघ्र, हिरण, हंस आदि रूप से बना लेना एकत्व विक्रिया है और
    2. शरीर से भिन्न मकान, मण्डप आदि बना देना पथक्त्व विक्रिया है।

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    + तैजस शरीर की विशेषता -
    तैजसमपि ॥48॥
    अन्वयार्थ : तैजस शरीर भी लब्धि से पैदा होता है ॥४८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्रमें 'अपि' शब्‍द आया है। उससे 'लब्धिप्रत्‍ययम्' पद का ग्रहण होता है। तैजस शरीर भी लब्धिप्रत्‍यय होता है यह इस सूत्रका भाव है।

    वैक्रियिक शरीरके पश्‍चात् जिस शरीरका उपदेश दिया है उसके स्‍वरूपका निश्‍चय करनेके लिए और उसके स्‍वामीका निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    तेजस शरीर भी लब्धिप्रत्यय होता है। यद्यपि आहारक का प्रकरण था परन्तु लब्धिप्रत्ययों के प्रकरण में लाघव के लिए तैजस का कथन कर दिया है।

    🏠
    + आहारक शरीर का स्वरूप -
    शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ॥49॥
    अन्वयार्थ : आहारक शरीर शुभ, विशुद्ध और व्‍याघात रहित है और वह प्रमत्तसंयत के ही होता है ॥४९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    शुभकर्मका कारण होने से इसे शुभ कहा है। यह शरीर आहारक काययोगरूप शुभकर्मका कारण है, इसलिए आहारक शरीर शुभ कहलाता है। यहाँ कारणमें कार्यका उपचार है। जैसे अन्‍नमें प्राणका उपचार करके अन्‍नको प्राण कहते हैं। विशुद्धकर्मका कार्य होनेसे आहारक शरीरको विशुद्ध कहा है। तात्‍पर्य यह हैकि जो चित्र-विचित्र न होकर निर्दोष है ऐसे विशुद्ध अर्थात् पुण्‍यकर्मका कार्य होनेसे आहारक शरीरको विशुद्ध कहते हैं। यहाँ कार्य में कारणका उपचार है। जैसे तन्‍तुओंमें कपासका उपचार करके तन्‍तुओं को कपास कहते हैं। दोनों ओरसे व्‍याघात नहीं होता, इसलिए यह अव्‍याघाती है। तात्‍पर्य यह है कि आहारक शरीरसे अन्‍य पदार्थका व्‍याघात नहीं होता और अन्‍य पदार्थसे आहारक शरीरका व्‍याघात नहीं होता। आहारक शरीरके प्रयोजनका समुच्‍चय करने के लिए सूत्रमें 'च' शब्‍द दिया है। यथा – आहारक शरीर कदाचित् लब्धि-विशेषके सद्भावको जतानेके लिए, कदाचित् सूक्ष्‍म पदार्थका निश्‍चय करनेके लिए और संयमकी रक्षा करनेके लिए उत्‍पन्‍न होता है। सूत्रमें 'आहारक' पद आया है उससे पूर्व में कहे गये आहारक शरीरको दुहराया है। जिस समय जीव आहारक शरीरकी रचना का आरम्‍भ करता है उस समय वह प्रमत्त हो जाता है, इसलिए सूत्रमें प्रमत्तसंयतके ही आहारक शरीर होता है यह कहा है। इष्‍ट अर्थके निश्‍चय करनेके लिए सूत्रमें 'एवकार' पदको ग्रहण किया है। जिससे यह जाना जाय कि आहारक शरीर प्रमत्तसंयतके ही होता है अन्‍यके नहीं किन्‍तु यह न जाना जाय कि प्रमत्तसंयतके आहारक ही होता है। तात्‍पर्य यह है कि प्रमत्तसंयतके औदारिक आदि शरीरोंका निराकरण न हो, इसलिए प्रमत्तसंयत पदके साथ ही एवकार पद लगाया है।

    इस प्रकार इन शरीरोंको धारण करनेवाले संसारी जीवोंके प्रत्‍येक गतिमें क्‍या तीनों लिंग होते हैं या लिंगका कोई स्‍वतन्‍त्र नियम है ? अब इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1-3. जैसे प्राणों का कारण होने से उपचार से अन्न को भी प्राण कह देते हैं उसी तरह शुभ आहारकयोग का कारण होने से यह शरीर शुभ कहा जाता है। विशुद्ध कर्म के उदय से होने के कारण यह विशुद्ध है। न तो आहारक शरीर किसी का व्याघात करता है और न किसी से व्याघातित ही होता है अतः अव्याघाती है।

    4. भरत और ऐरावत क्षेत्र में केवलियों का अभाव होने पर महाविदेह क्षेत्र में केवली भगवान् के पास औदारिक शरीर से जाना तो शक्य नहीं है और असंयम भी बहुत होगा अतः प्रमत्तसंयत मुनि सूक्ष्म पदार्थक निर्णय के लिए या ऋद्धि का सद्भाव जानने के लिए या संयम परिपालन के लिए आहारक शरीर की रचना करता है। इन बातों के समुनचय के लिए 'च' शब्द दिया गया है।

    5-7. 'प्रमत्त संयत के ही आहारक होता है' इस प्रकार अवधारण करने के लिए एवकार है न कि 'प्रमत्तसंयत के आहारक ही होता है' इस अनिष्ट अवधारण के लिए। जिस समय मुनि आहारक शरीर की रचना करता है उस समय वह प्रमत्तसंयत ही हो जाता है।

    8. इन शरीरों में परस्पर संज्ञा, लक्षण, कारण, स्वामित्व, सामर्थ्य, प्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, संख्या, प्रदेश, भाव और अल्पबहुत्व आदि की दृष्टिसे भेद है । यथा,

    संज्ञा - औदारिक आदि के अपने-अपने जुदे नाम हैं।

    लक्षण - स्थूल शरीर औदारिक है। विविधगुण ऋद्धिवाली विक्रिया करनेवाला शरीर वैक्रियिक है। सूक्ष्मपदार्थविषयक निर्णय के लिए आहारक शरीर होता है। शंख के समान शुभ तैजस होता है। वह दो प्रकार का है - १ निःसरणात्मक 2 अनिःसरणात्मक । औदारिक वैक्रियिक और आहारक शरीर में दीप्ति करनेवाला-रौनक लानेवाला अनिःसरणात्मक तैजस है। निःसरणात्मक तेजस उग्रचारित्रवाले अतिक्रोधी यति के शरीर से निकल कर जिसपर क्रोध है उसे घेरकर ठहरता है और उसे शाक की तरह पका देता है, फिर वापिस होकर यति के शरीर में ही समा जाता है। यदि अधिक देर ठहर जाय तो उसे भस्मसात् कर देता है । सभी शरीरों में कारणभूत कर्मसमुह को कार्मण शरीर कहते हैं ।

    कारण - औदारिक आदि भिन्न-भिन्न नाम कर्मों के उदय से ये शरीर होते हैं। अतः कारणभेद स्पष्ट है।

    स्वामित्व - औदारिक शरीर तिर्यञ्च और मनुष्यों के होता है । वैक्रियिक शरीर देव, नारकी, तेजस्काय, वायुकाय और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च तथा मनुष्यों में किसी के होता है।

    प्रश्न – जीवस्थान के योगभंग प्रकरण में तिर्यञ्च और मनुष्यों के औदारिक और औदारिक मिश्र तथा देव और नारकियों के वैक्रियिक और वैक्रियिकमिश्र बताया है पर यहां तो तिर्यञ्च और मनुष्यों के भी वैक्रियिक का विधान किया है । इस तरह परस्पर विरोध आता है ?

    उत्तर – व्याख्या प्रज्ञप्ति दंडक के शरीरभंग में वायुकायिक के औदारिक, वैक्रियिक, तेजस और कार्मण ये चार शरीर तथा मनुष्यों के पांच शरीर बताए हैं । भिन्न-भिन्न अभिप्रायों से लिखे गये उक्त सन्दर्भो में परस्पर विरोध भी नहीं है। जीवस्थान में जिस प्रकार देव और नारकियों के सर्वदा वैक्रियिक शरीर रहता है उस तरह तिर्यञ्च और मनुष्यों के नहीं होता, इसीलिए तिर्यञ्च और मनुष्यों के वैक्रियिक शरीर का विधान नहीं किया है जब कि व्याख्याप्रज्ञप्ति में उसके सद्भावमात्र से ही उसका विधान कर दिया है। आहारक प्रमत्तसंयत के ही होता है । तैजस और कार्मण सभी संसारियोंके होते हैं।

    सामर्थ्य - मनुष्य और तिर्यञ्चों में सिंह और केशरी, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि के औदारिक शरीरों में शक्ति का तारतम्य सर्वानुभूत है। यह भवप्रत्यय है । उत्कृष्ट तपस्वियों के शरीरविक्रिया करने की शक्ति गुणप्रत्यय है। वैक्रियिक शरीर में मेरुकम्पन और समस्त भूमण्डल को उलटा-पुलटा करने की शक्ति है। आहारक शरीर अप्रतिघाती होता है, वज्रपटल आदि से भी वह नहीं रुकता। यद्यपि वैक्रियिक शरीर भी साधारणतया अप्रतिघाती होता है, फिर भी इन्द्र सामानिक आदि में शक्ति का तारतम्य देखा जाता है । अनन्तवीर्ययति ने इन्द्र की शक्ति को कुंठित कर दिया था यह प्रसिद्ध ही है। अत: वैक्रियिक क्वचित् प्रतिघाती होता है किन्तु सभी आहारक शरीर समशक्तिक और सर्वत्र अप्रतिघाती होते हैं। तेजस शरीर क्रोध और प्रसन्नता के अनुसार दाह और अनुग्रह करने की शक्ति रखता है । कार्मण शरीर सभी कर्मों को अवकाश देता है, उन्हें अपने में शामिल कर लेता है।

    प्रमाण - सबसे छोटा औदारिक शरीर सूक्ष्मनिगोदिया जीवों के अंगुल के असंख्यात भाग बराबर होता है और सबसे बड़ा नन्दीश्वरवापी के कमल का कुछ अधिक एक हजार योजन प्रमाण का होता है। वैक्रियिक मूल शरीर की दृष्टि से सबसे छोटा सर्वार्थसिद्धि के देवों के एक अरत्नि प्रमाण और सबसे बड़ा सातवें नरक में पांच सौ धनुष प्रमाण है। विक्रिया की दृष्टि से बड़ी-से-बड़ी विक्रिया जम्बूद्वीप प्रमाण होती है। आहारक शरीर एक अरत्नि प्रमाण होता है। तैजस और कार्मण शरीर जघन्य से अपने औदारिक शरीर के बराबर होते हैं और उत्कृष्ट से केवलि समुद्घात में सर्वलोकप्रमाण होते हैं।

    क्षेत्र - औदारिक वैक्रियिक और आहारक का लोक का असंख्यातवां भाग क्षेत्र है। तैजस और कार्मण का लोक का असंख्यातवां भाग, असंख्यात बहुभाग या सर्वलोक क्षेत्र होता है, प्रतर और लोकपूरण अवस्था में ।

    स्पर्शन - तिर्यञ्चों ने औदारिक शरीर से सम्पूर्ण लोक का स्पर्शन किया है, और मनुष्यों ने लोक के असंख्यातवें भाग का । मूल वैक्रियिक शरीर से लोक के असंख्यात बहुभाग और उत्तर वैक्रियिक से कुछ कम भाग स्पृष्ट होते हैं। सौधर्मस्वर्ग के देव स्वयं या परनिमित्त से ऊपर आरण अच्युत स्वर्ग तक छह राजू जाते हैं और नीचे स्वयं बालुकाप्रभा नरक तक दो राजू, इस तरह पर भाग होते हैं । आहारक शरीर के द्वारा लोक का असंख्यातवां भाग स्पर्श किया जाता है । तैजस और कार्मण समस्त लोक का स्पर्शन करते हैं।

    काल - तिर्यञ्च और मनुष्यों के औदारिक शरीर का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्य है। यह अन्तर्महूर्त अपर्याप्तक का काल है । वैक्रियिक शरीर का देवों की अपेक्षा मूलवैक्रियिक का जघन्य काल अपर्याप्तकाल के अन्तर्मुहूर्त से कम दस हजार वर्ष प्रमाण है। उत्कृष्ट अपर्याप्तकालीन अन्तर्मुहूर्त से कम तेतीस सागर है। उत्तर वैक्रियिक का जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। तीर्थङ्करों के जन्मोत्सव, नन्दीश्वरपूजा आदि के समय अन्तर्मुहुर्त के बाद नए-नए उत्तरवैक्रियिक शरीर उत्पन्न होते जाते हैं। आहारक का जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही काल अन्तर्मुहूर्त है। तेजस और कार्मण शरीर अभव्य और दूरभव्यों की दृष्टि से सन्तान की अपेक्षा अनादि अनन्त हैं। भव्यों की दृष्टि से अनादि और सान्त है । निषेक की दृष्टि से एक समयमात्र काल है। तेजस शरीर की उत्कृष्ट निषेक स्थिति छयासठ सागर और कार्मण शरीर की सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है।

    अन्तर - औदारिक शरीर का जघन्य अन्तर अन्तर्महूर्त है। उत्कृष्ट अपर्याप्तिकाल के अन्तर्मुहूर्त से अधिक तेंतीस सागर है। वैक्रियिक शरीर का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है । आहारक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट से अन्तमुहूर्त कम अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल प्रमाण है। तेजस और कार्मण शरीर का अन्तर नहीं है।

    संख्या - औदारिक असंख्यात लोक प्रमाण हैं। वैक्रियिक असंख्यात श्रेणी और लोकप्रतर का असंख्यातवाँ भाग हैं । आहारक 54 हैं । तैजस और कार्मण अनन्त हैं, अनन्तानन्त लोक प्रमाण हैं।

    प्रदेश - औदारिक के प्रदेश अभव्यों से अनन्तगुणें और सिद्धों के अनन्तभाग प्रमाण हैं। शेष चार के प्रदेश उत्तरोत्तर अधिक अनन्त प्रमाण हैं।

    भाव - औदारिकादि नाम के उदय से सभी के औदयिकभाव हैं।

    अल्पबहुत्व - सबसे कम आहारकशरीर हैं, वैक्रियिकशरीर असंख्यातगुणे हैं। असंख्यात श्रेणी वा लोकप्रतर का असंख्यातवां भाग गुणकार है । उससे औदारिक शरीर असंख्यातगुणे हैं। यहां गुणकार असंख्यात लोक हैं। तेजस और कार्मण अनन्तगुणे हैं। यहां गुणकार सिद्धों का अनन्तगुणा है ।

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    + नारक और संमूर्च्छिन में लिंग -
    नारकसंमूर्च्छिनो नपुंसकानि ॥50॥
    अन्वयार्थ : नारक और संमूर्च्छिन नपुंसक होते हैं ॥५०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    नरकों का कथन आगे करेंगे। जो नरकों में उत्‍पन्‍न होते हैं वे नारकी कहलाते हैं। जो संमूर्च्‍छन जन्‍मसे पैदा होते हैं वे संमूर्च्छिन कहलाते हैं। सूत्रमें नारक और संमूर्च्छिन इन दोनों पदोंका द्वन्‍द्वसमास है। चारित्रमोहके दो भेद हैं – कषाय और नोकषाय। इनमें-से नोकषाय के भेद नपुंसकवेद के उदयसे और अशुभ नामकर्मके उदयसे उक्‍त जीव स्‍त्री और पुरुष न होकर नपुंसक होते हैं। यहाँ ऐसा नियम जानना कि नारक और संमूर्च्छिन नपुंसक ही होते हैं। इन जीवोंके मनोज्ञ शब्‍द, गन्‍ध, रूप, रस और स्‍पर्शके सम्‍बन्‍धसे उत्‍पन्‍न हुआ स्‍त्री-पुरुष विषयक थोड़ा भी सुख नहीं पाया जाता है।

    यदि उक्‍त जीवोंके नपुंसकवेद निश्चित होता है तो यह अर्थात् सिद्ध है कि इनसे इतिरिक्‍त अन्‍य संसारी जीव तीन वेदवाले होते हैं। इसमें भी जिनके नपुंसकवेदका अत्‍यन्‍त अभाव है उनका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    धर्म आदि चार पुरुषार्थों का नयन करनेवाले 'नर' होते हैं जो इन नरों को शीत उष्ण आदि की वेदनाओं से शब्दाकुलित कर दे वह नरक है। अथवा पापी जीवों को आत्यन्तिक दुःख को प्राप्त करानेवाले नरक हैं। इन नरकों में जन्म लेनेवाले जीव नारक हैं। जो चारों ओर के परमाणुओं से शरीर बनता है वह संमूर्च्छ है इस सम्मूछे से उत्पन्न होनेवाले जीव सम्मूर्छन कहलाते हैं । ये दोनों चारित्रमोहनीय के नपुंसकवेद नोकषाय तथा अशुभ नामकर्म के उदय से न स्त्री और न पुरुष अर्थात् नपुंसक ही होते हैं। इनमें स्त्री और पुरुष सम्बन्धी स्वल्प सुख भी नहीं है ।

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    + देवों में लिंग -
    न देवाः ॥51॥
    अन्वयार्थ : देव नपुंसक नहीं होते ॥५१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    शुभगति नामकर्मके उदयसे स्‍त्री और पुरुषसम्‍बन्‍धी जो निरतिशय सुख है उसका देव अनुभव करते हैं इसलिए उनमें नपुंसक नहीं होते।

    इनसे अतिरिक्त शेष जीव कितने लिंगवाले होते हैं, इस बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
     देवोंमे नपुंसक नहीं होते। वे स्त्री और पुरुषसम्बन्धी अतिशय सुख का उपभोग करते हैं।

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    + मनुष्य-तिर्यन्चों में लिंग -
    शेषास्त्रिवेदाः ॥52॥
    अन्वयार्थ : शेष जीवों के यथासंभव तीनों वेद होते हैं ॥५२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिनके तीन वेद होते हैं वे तीन वेदवाले कहलाते हैं।


    शंका – वे तीन वेद कौन हैं ? समाधान – स्‍त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद।


    शंका – इनकी सिद्धि कैसे होती है ?

    समाधान – जो वेदा जाता है उसे वेद कहते हैं। इसीका दूसरा नाम लिंग है। इसके दो भेद हैं - द्रव्‍यलिंग और भावलिंग। जो योनि मेहन आदि नामकर्मके उदयसे रचा जाता है वह द्रव्‍यलिंग है और जिसकी स्थिति नोकषायके उदयसे प्राप्‍त होती है वह भाव लिंग है। स्‍त्रीवेदके उदयसे जिसमें गर्भ रहता है वह स्‍त्री है। पुंवेदके उदयसे जो अपत्‍यको जनता है वह पुरुष है और नपुंसकवेदके उदयसे जो उक्‍त दोनों प्रकारकी शक्तिसे रहित है वह नपुंसक है। वास्‍तवमें ये तीनों रौढिक शब्‍द हैं और रूढि में क्रिया व्‍युत्‍पत्तिके लिए ही होती हे। यथा जो गमन करती है वह गाय है। यदि ऐसा न माना जाय और इसका अर्थ गर्भधारण आदि क्रियाप्रधान लिया जाय तो बालक और वृद्धोंके, तिर्यंच और मनुष्‍योंके, देवोंके तथा कार्मणकाययोगमें स्थित जीवोंके गर्भधारण आदि क्रियाका अभाव होनेसे स्‍त्री आदि संज्ञा नहीं बन सकती है। ये तीनों वेद शेष जीवोंके अर्थात् गर्भजोंके होते हैं।

    जो ये देवादिक प्राणी जन्‍म, योनि, शरीर और लिंगके सम्‍बन्‍धसे अनेक प्रकारके बतलाये हैं वे विचित्र पुण्‍य और पापके वशीभूत होकर चारों गतियोंमें शरीरको धारण करते हुए यथाकाल आयुको भोगकर अन्‍य शरीरको धारण करते हैं या आयुको पूरा न करके भी शरीरको धारण करते हैं ? अब इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    चारित्रमोह के भेद, वेद आदि के उदय से तीनों वेद होते हैं। जो अनुभव में आवे उसे वेद कहते हैं । वेद अर्थात् लिंग। लिंग दो प्रकारका है - १ द्रव्यलिंग और २ भावलिंग। नामकर्म के उदय से योनि पुरुषलिंग आदि द्रव्यलिंग हैं और नोकषाय के उदय से भावलिंग होते हैं। स्त्रीवेद के उदय से जो गर्भ धारण कर सके वह स्त्री, जो सन्तति का उत्पादक हो वह पुरुष और जो दोनों शक्तियों से रहित हो वह नपुंसक है। ये सब रूढ शब्द हैं। रूढियों में क्रिया साधारण व्युत्पत्ति के लिए होती है जैसे 'गच्छतीति गौः' यहां । यदि क्रिया की प्रधानता हो तो बाल, वृद्ध, तिर्यच और मनुष्य तथा कार्मणयोगवर्ती देवों में गर्भधारणादि क्रियाएं नहीं पाई जाती अतः उनमें स्त्री आदि व्यपदेश नहीं हो सकेगा। स्त्रीवेद लकड़ी के अंगार की तरह, पुरुषवेद तृण की अग्नि की तरह और नपुंसकवेद ईंट के भट्ठ की तरह होता है।

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    + आयु का अनपवर्तन सम्बन्धी नियम -
    औपपादिक चरमोत्तम-देहाऽसंख्येय-वर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः ॥53॥
    अन्वयार्थ : उपपाद जन्‍मवाले (देव / नारकी), चरमोत्तम देहवाले (तद्भव-मोक्षगामी) और असंख्‍यात वर्ष की आयुवाले (भोग-भूमिज) जीव परिपूर्ण आयु वाले होते हैं ॥५३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    उपपादजन्‍मवाले देव और नारकी हैं यह व्‍याख्‍यान कर आये। चरम शब्‍द अन्‍त्‍यवाची है। उत्तम शब्‍द का अर्थ उत्‍कृष्‍ट है। जिनका शरीर चरम होकर उत्तम है वे चरमोत्तम देहवाले कहे जाते हैं। जिनका संसार निकट है अर्थात् उसी भवसे मोक्षको प्राप्‍त होनेवाले जीव चरमोत्तम देहवाले कहलाते हैं। असंख्‍येय परिमाण विशेष है जो संख्‍यात से परे है। तात्‍पर्य यह है कि पल्‍य आदि उपमा प्रमाणके द्वारा जिनकी आयु जानी जाती है वे उत्तरकुरु आदिमें उत्‍पन्‍न हुए तिर्यंच और मनुष्‍य असंख्‍यात वर्षकी आयुवाले कहलाते है। उपघातके निमित्त विष शस्‍त्रादिक बाह्य निमित्‍तोंके मिलनेपर जो आयु घट जाती है वह अपवर्त्‍य आयु कहलाती है। इस प्रकार जिनकी आयु घट जाती है वे अपवर्त्‍य आयुवाले कहलाते हैं। इन औपपादिक आदि जीवोंकी आयु बाह्य निमित्तसे नहीं घटती यह नियम है तथा इनसे अतिरिक्‍त शेष जीवोंका ऐसा कोई नियम नहीं है। सूत्रमें जो उत्तम विशेषण दिया है वह चरम शरीरके उत्‍कृष्‍टपनको दिखलानेके लिए दिया है। यहाँ इसका और कोई विशेष अर्थ नहीं है। अथवा 'चरमोत्तमतदेहा' पाठके स्‍थानमें 'चरमदेहा' यह पाठ भी मिलता है।

    राजवार्तिक :
    1-5. औपपादिक-देव और नारकी। चरम-उसी जन्म से मोक्ष जानेवाले। उत्तम शरीरी अर्थात् चक्रवर्ती, वासुदेव आदि । असंख्येयवर्षायुष- पल्य प्रमाण आयुवाले उत्तरकुरु आदि के जीव । अपवर्त-विष शस्त्र आदि के निमित्त से आयु के ह्रास को अपवर्त कहते हैं ।

    6-9. प्रश्न – उत्तम देहवाले भी अन्तिम चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त और कृष्ण वासुदेव तथा और भी ऐसे लोगों की अकालमृत्यु सुनी जाती है अतः यह लक्षण ही अव्यापी है ?

    उत्तर – चरम शब्द उत्तम का विशेषण है अर्थात् अन्तिम उत्तम देहवालों की अकालमृत्यु नहीं होती। यदि केवल उत्तमदेह पद देते तो पूर्वोक्त दोष बना रहता है । यद्यपि केवल 'चरमदेह' पद देने से कार्य चल जाता है फिर भी उस चरमदेह की सर्वोत्कृष्टता बतानेके लिए उत्तम विशेषण दिया है। कहीं 'चरमदेहाः' यह पाठ भी देखा जाता है। इनकी अकालमृत्यु कभी नहीं होती।

    10-13. जैसे कागज, पयाल आदि के द्वारा आम आदि को समय से पहिले ही पका दिया जाता है उसी तरह निश्चित मरणकाल से पहिले भी उदीरणा के कारणों से आयु की उदीरणा होकर अकालमरण हो जाता है। आयुर्वेदशास्त्र में अकालमृत्यु के वारण के लिए औषधिप्रयोग बताये गए हैं। जैसे दवाओं के द्वारा वमन विरेचन आदि करा के श्लेष्म आदि दोषों को बलात् निकाल दिया जाता है उसी तरह विष शस्त्रादि निमित्तों से आयु की भी समय से पहिले ही उदीरणा हो जाती है। उदीरणा में भी कर्म अपना फल देकर ही झड़ते हैं, अतः कृतनाश की आशंका नहीं है । न तो अकृत कर्म का फल ही भोगना पड़ता है और न कृत कर्म का नाश ही होता है, अन्यथा मोक्ष ही नहीं हो सकेगा और न दानादि क्रियाओं के करने का उत्साह ही होगा। तात्पर्य यह कि जैसे गीला कपड़ा फैला देनेपर जल्दी सूख जाता है और वही यदि इकट्ठा रखा रहे तो सूखने में बहुत समय लगता है उसी तरह उदीरणा के निमित्तों से समय के पहिले ही आयु झड़ जाती है। यही अकालमृत्यु है।

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    3-जीवाधिकार



    + सात पृथ्वियां -
    रत्न-शर्करा-बालुका-पंक-धूम-तमो-महातमः प्रभा भूमयो घनाम्बुवाताकाश प्रतिष्ठाः सप्ताऽधोऽधः॥1॥
    अन्वयार्थ : रत्‍नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा ये सात भूमियाँ घनाम्‍बु, वात और आकाश के सहारे स्थित हैं तथा क्रम से नीचे-नीचे हैं ॥१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    'भवप्रत्‍ययोऽवधिर्देवनारकाणाम्' इत्‍यादिक सूत्रोंमें नारक शब्‍द सुना है इसलिए पूछते हैं कि वे नारकी कौन हैं ? अतः नारकियोंका कथन करनेके लिए उनकी आधारभूत पृथि‍वियोंका निर्देश करते हैं-

    'रत्‍नशर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमाः' इनमें सब पदोंका परस्‍पर द्वन्‍द्व समास है। प्रभा शब्‍दको प्रत्‍येक शब्‍दके साथ जोड़ लेना चाहिए। पृथिवियोंकी प्रभा क्रमसे रत्‍न आदिके समान होनेसे इनके रत्‍नप्रभा आदि नाम पडे़ हैं। यथा - जिसकी प्रभा चित्र आदि रत्‍नोंकी प्रभाके समान है वह रत्‍नप्रभा भूमि है। जिसकी प्रभा शर्कराके समान है वह शर्कराप्रभा भूमि है। जिसकी प्रभा वालुकाकी प्रभाके समान है वह वालुकाप्रभा भूमि है। जिसकी प्रभा कीचड़के समान है वह पंकप्रभा भूमि है। जिसकी प्रभा धुँवाके समान है वह धूमप्रभा भूमि है। जिसकी प्रभा अन्‍धकारके समान है वह तमःप्रभा भूमि है और जिसकी प्रभा गाढ अन्‍धकारके समान है वह महातमःप्रभा भूमि है। इस प्रकार इन नामोंकी व्‍युत्‍पत्ति कर लेनी चाहिए। सूत्रमें भूमि पदका ग्रहण अधिकरण विशेषका ज्ञान करानेके लिए किया है। तात्‍पर्य यह है कि जिस प्रकार स्‍वर्गपटल भूमिके बिना स्थित है उस प्रकार नारकियोंके निवासस्‍थान न‍हीं हैं। किन्‍तु वे भूमिके आश्रयसे अवस्थित हैं। इन भूमियोंके आलम्‍बनका ज्ञान करानेके लिए सूत्रमें 'घनाम्‍बुवात' आदि पद का ग्रह‍ण किया है। अभिप्राय यह है कि ये भूमियाँ क्रमसे घनोदधिवातवलय, घनवातवलय, तनुवातवलय और आकाशके आश्रयसे स्थित हैं इस बातके दिखलानेके लिए सूत्रमें 'घनाम्‍बुवाताकाशप्रतिष्‍ठाः' पद दिया है। ये सब भूमियाँ घनोदधिवातवलयके आश्रयसे स्थित हैं। घनोदधिवातवलय घनवातवलयके आधारसे स्थित है। घनवातवलय तनुवातवलयके आश्रयसे स्थित है। तनुवातवलय आकाशके आश्रयसे स्थित है और आकाश स्‍वयं अपने आधारसे स्थित है; क्‍योंकि वह आधार और आधेय दोनों है। ये तीनों वातवलय प्रत्‍येक बीस-बीस हजार योजन मोटे हैं। सूत्रमें 'सप्‍त' पदका ग्रहण दूसरी संख्‍या के निराकरण करनेके लिए दिया है। भूमियाँ सात ही हैं, न आठ हैं और न नौ हैं। ये भूमियाँ तिर्यक् रूपसे अवस्थित नहीं हैं। इस बातको दिखानेके लिए सूत्रमें 'अधोऽधः' यह वचन दिया है।

    क्‍या इन भूमियोंमें सर्वत्र नारकियोंके निवास-स्‍थान हैं या कहीं-कहीं, इस बातका निश्‍चय करनेके लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-4. रत्न आदि शब्दों का द्वन्द्व समास करके प्रत्येक में प्रभा शब्द जोड़ देना चाहिए, रत्नप्रभा शर्कराप्रभा आदि । जैसे यष्टि सहित देवदत्त को यष्टि कहते हैं उसी तरह चित्र, वज्र, वैडूर्य, लोहित आदि सोलह रत्नों की प्रभा से सहित होने के कारण रत्नप्रभा संज्ञा की गई है। इसी तरह शर्कराप्रभा आदि समझना चाहिए। तम की भी अपनी एक आभा होती है। केवल दीप्ति का नाम ही प्रभा नहीं है किन्तु द्रव्यों का जो अपना विशेष-विशेष सलोनापन होता है, उसी से कहा जाता है कि यह स्निग्ध कृष्ण प्रभावाला है, यह रूक्ष कृष्ण प्रभावाला।

    5-6. जैसे मखमली कीड़े की 'इन्द्रगोप' संज्ञा रूढ़ है, इसमें व्युत्पत्ति अपेक्षित नहीं है उसी तरह तमःप्रभा आदि संज्ञाएँ अनादि पारिणामि की रूढ़ समझनी चाहिए। यद्यपि ये रूढ शब्द हैं फिर भी ये अपने प्रतिनियत अर्थों को कहते हैं।

    7-8. जिस प्रकार स्वर्गपटल भूमिका आधार लिए बिना ही ऊपर-ऊपर हैं उस प्रकार नरक नहीं है किन्तु भूमियों में है। इन तीनों ही वातवलय बीस-बीस हजार योजन मोटे हैं। रत्नप्रभा पृथिवी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है। उसके तीन भाग हैं।
    1. खरभाग
    2. पंकबहुल
    3. अब्बहुल ।
    सात ही नरकभूमियाँ हैं न छह और न आठ। अतः कोई मतवालों का यह मानना ठीक नहीं है कि अनन्त लोक धातुओं में अनन्त पृथ्वी प्रस्तार हैं । ये भूमियाँ नीचे-नीचे हैं तिरछी नहीं हैं। यद्यपि इन भूमियों में परस्पर असंख्यात कोड़ा-कोड़ी योजन का अन्तराल है फिर भी इसकी विवक्षा न होने से अथवा अन्तर को भूमि के ऊपर-नीचे के भाग में शामिल कर देने से सामीप्य अर्थ में 'अधोऽधः' यह दो बार 'अधः' शब्द का प्रयोग किया है। विद्यमान भी पदार्थ की अविवक्षा होती है जैसे कि अनुदरा-कन्या और बिना रोम की भेड़ आदि में।

    13-14. श्वेताम्बर सूत्रपाठ में 'पृथुतराः' यह पाठ है किन्तु जब तक कोई 'पृथु' सामने न हो तब तक किसी को 'पृथुतर' कैसे कहा जा सकता है ? दो में से किसी एक में अतिशय दिखाने के लिए 'तर' का प्रयोग होता है, खासकर रत्नप्रभा में तो 'पृथुतर' प्रयोग हो ही नहीं सकता; क्योंकि कोई इससे पहिले की भूमि ही नहीं हैं। नीचे-नीचे की पृथिवियाँ उत्तरोत्तर हीन परिमाणवाली हैं, अतः उनमें भी 'पृथुतरा' प्रयोग नहीं किया जा सकता। अधोलोक का आकार वेत्रासन के समान नीचे-नीचे पृथु होता गया है, अतः इसकी अपेक्षा 'पृथुतर' प्रयोग की उपपत्ति किसी तरह बैठ भी जाय तो भी इससे भूमियों के आजू-बाजू बाहर पृथुत्व आयगा न कि नरकभूमियों में। कहा है -

    "स्वयम्भूरमण समुद्र के अन्त से यदि सीधी रस्सी डाली जाय तो वह सातवीं नरकभूमि के काल महाकाल रौरव महारौरव के अन्त में जाकर गिरती है"।

    यदि कथञ्चित् 'पृथुतराः' पाठ बैठाना भी हो तो 'तिर्यक् पृथुतराः' कहना चाहिए, न कि 'अधोऽधः' । अथवा नीचे-नीचे के नरकों में चूंकि दुःख अधिक है आयु भी बड़ी है अतः इनकी अपेक्षा भूमियों में भी 'पृथुतरा' व्यवहार यथाकथंचित् किया जा सकता है। फिर भी रत्नप्रभा में 'पृथुतरा' व्यवहार किसी भी तरह नहीं बन सकेगा।

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    + सात पृथ्वियों में नरकों की संख्या -
    तासु त्रिंशत्पंचविंशति पंचदशदश-त्रि-पंचोनैक-नरक-शतसहस्राणि पंच चैव यथाक्रमम्॥2॥
    अन्वयार्थ : उन भूमियों में क्रम से तीस लाख, पच्चीस लाख, पन्‍द्रह लाख, दस लाख, तीन लाख, पाँच कम एक लाख और पाँच नरक हैं ॥२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    उन रत्‍नप्रभा आदि भूमियोंमें, इस सूत्र-द्वारा क्रमसे नरकोंकी संख्‍या बतलायी गयी है।

    रत्‍नप्रभामें तीस लाख नरक हैं। शर्कराप्रभामें पचीस लाख नरक हैं। वालुकाप्रभामें पन्‍द्रह लाख नरक हैं। पंकप्रभामें दश लाख नरक हैं। धूमप्रभामें तीन लाख नरक हैं। तमःप्रभामें पाँच कम एक लाख नरक हैं और महातमःप्रभामें पाँच नरक हैं। रत्‍नप्रभामें तेरह नरकपटल हैं। इससे आगे सातवीं भू‍मि तक दो-दो नरक पटल कम हैं। इसके अतिरिक्‍त और विशेषता लोकानुयोगसे जान लेनी चाहिए।

    उन भूमियोंमें रहनेवाले नारकियोंमें क्‍या विशेषता है इस बातको बतलानेके लिए अब आगे सूत्र को कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-2. त्रिंशत्' आदि पदार्थों का परस्पर सम्बन्ध अर्थ में समास है। यथाक्रम कहने से क्रमशः संख्याओं का सम्बन्ध कर लेना चाहिए। रत्नप्रभा भूमि में सीमन्त नामक इन्द्रक बिल की चारों दिशाओं और चारों विदिशाओं में नरकश्रेणी (श्रेणीबद्ध) बिल हैं। उन दिशाओं और विदिशाओं के अन्तराल में पुष्पप्रकीर्णक बिल हैं। एक-एक दिशा में ४९-४९ श्रेणीबद्ध बिल हैं और एक-एक विदिशा में अड़तालीस-अड़तालीस श्रेणीबद्ध बिल हैं। निरय आदि शेष इन्द्रक बिल दिशाओं एवं विदिशाओं में एक-एक कम करना चाहिये । अतः अन्तिम सप्तम नरक में एक इन्द्रक बिल और चार दिशाओं में चार श्रेणीकबद्ध बिल होते हैं।पूर्व दिशा में काल, दक्षिण में महाकाल, पश्चिम दिशा में रौरव, उत्तर दिशा में महारौरव और मध्य में अप्रतिष्ठान नामक बिल है। इन सर्व इन्द्रकों एवं श्रेणीबद्ध बिलों की संख्या नव हजार छह सौ त्रेपन तथा पुष्पप्रकीर्णक की संख्या तिरासी लाख नब्वे हजार तीन सौ सैंतालीस है। सर्व बिलों की जोड़ चौरासी लाख है।

    उन सातों पृथिवियों में कुछ बिल संख्थात योजन विस्तार वाले हैं और कोई असंख्यात योजन में विस्तार वाले हैं। जो संख्यात योजन विस्तार वाले हैं उनको संख्यात लाख योजन और असंख्यात विस्तार वालों को असंख्यात लाख योजन विस्तार वाला समझना चाहिये । ८४ लाख नरक बिलों में पाँच का भाग देने पर एक भाग प्रमाण बिल तो संख्यात योजन विस्तार वाले हैं और चार भाग प्रमाण बिल असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं। बाहुल्य का प्रमाण नीचे लिखे अनुसार है।

    इन्द्रक गहराई नरक में कोस प्रमाण है और नीचे के नरकों में क्रमशः आधा-आधा कोस बढ़ती हुई सप्तम भूमि में इन्द्रक बिल की गहराई चार कोस प्रमाण हो जाती है। श्रेणीबद्ध बिलों की गहराई अपने इन्द्रक बिल की गहराई से तिहाई और अधिक है, प्रकीर्णकों की गहराई श्रेणी और इन्द्रक इन दोनों की मिली गहराई के बराबर है अर्थात् प्रथम रत्नप्रभा नरक के इन्द्रक बिल की मोटाई एक कोस की है । श्रेणीबद्ध बिलों की मोटाई एक कोस और एक कोस के तीन भाग है और पुष्पप्रकीर्णक बिलों की मोटाई दो कोस और एक कोस तीन भाग है -- इस प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये। ये सब नरक बिल ऊंट आदि के समान अशुभ आकार वाले हैं तथा शोचन, रोदन, आक्रन्दन आदि अशुभ नाम जानने चाहिये । प्रथम नरक से तीसरे नरक तक के नारकियों उत्पत्ति के स्थान अनेक तो ऊँट के आकार के हैं, अनेक कुंभी घड़ियाल, कुस्थली, मुद्गर और नाड़ी आकार के हैं। चतुर्थ एवं पञ्चम नरकों नारकियों के जन्मस्थान कुछ तो गाय के आकार और कुछ हाथी, घोड़ा, धौंकनी, नौका कमलपुट सदृश हैं। छ्ठे और सातवें नरक के नारकियों के उत्पत्ति स्थान खेत, झालर, मल्लिका एवं भौंरे के आकार के हैं । इनके आक्रन्दन, शोचन, रोदन आदि अशुभ नाम हैं। पापकर्म के उदय से सीमन्त आदि नरकों में उत्पन्न होने वाले प्राणियों के लक्षण क्या हैं ? ऐसा पूछने पर सूत्र कहते हैं --

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    + नारकीयों की लेश्यादि दुःख -
    नारका नित्याऽशुभतर-लेश्या-परिणामदेह-वेदना-विक्रियाः॥3॥
    अन्वयार्थ : नारकी निरन्‍तर अशुभतर लेश्‍या, परिणाम, दे‍ह, वेदना और विक्रियावाले हैं ॥३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    लेश्‍यादिकका पहले व्‍याख्‍यान कर आये हैं। 'अशुभतर' इस पदके द्वारा तिर्यंचगतिमें प्राप्‍त होनेवाली अशुभ लेश्‍या आदिककी अपेक्षा और नीचे-नीचे अपनी गतिकी अपेक्षा लेश्‍यादिककी प्रकर्षता बतलायी है। अर्थात् तिर्यंचोंमें जो लेश्‍यादिक हैं उनसे प्रथम नरकके नारकियोंके अधिक अशुभ हैं आदि। नित्‍य शब्‍द आभीक्ष्‍ण्‍य अर्थात् निरन्‍तरवाची है। तात्‍पर्य यह है कि नारकियोंकी लेश्‍या, परिणाम, देह, वेदना और विक्रिया निरन्‍तर अशुभ होते हैं। यथा, प्रथम और दूसरी पृथिवीमें कापोत लेश्‍या है। तीसरी पृथिवीमें ऊपरके भागमें कापोत लेश्‍या है और नीचेके भागमें नील लेश्‍या है। चौथी पृथिवीमें नील लेश्‍या है। पाँचवीं पृथिवीमें ऊपरके भागमें नील लेश्‍या है और नीचेके भागमें कृष्‍ण लेश्‍या है। छठी पृथिवीमें कृष्‍ण लेश्‍या है। और सातवीं पृथिवीमें परम कृष्‍ण लेश्‍या है। द्रव्‍य लेश्‍याएँ अपनी आयु तक एक सी कही गयी हैं। किन्‍तु भावलेश्‍याएँ अन्‍तर्मुहूर्तमें बदलती रहती हैं।

    परिणाम से यहाँ स्‍पर्श, रस, गन्‍ध, वर्ण और शब्‍द लिये गये हैं। ये क्षेत्रविशेषके निमित्तसे अत्‍यन्‍त दुःखके कारण अशुभतर हैं।

    नारकियोंके शरीर अशुभ नामकर्मके उदयसे होनेके कारण उत्‍तरोत्तर अशुभ हैं। उनकी विकृत आकृति है, हुंड संस्‍थान है और देखनेमें बुरे लगते हैं। उनकी ऊँचाई प्रथम पृथिवीमें सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल है। तथा नीचे-नीचे प्रत्‍येक पृथिवीमें वह दूनी-दूनी है।

    ना‍रकियोंके अभ्‍यन्‍तर कारण असाता वेदनीयका उदय रहते हुए अनादिकालीन शीत और उष्‍णरूप बाह्य निमित्तसे उत्‍पन्‍न हुई तीव्र वेदना होती है। पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी पृथिवीमें मात्र उष्‍ण वेदनावाले नरक हैं। पाँचवीं पृथिवीमें ऊपरके दो लाख नरक ऊष्‍ण वेदनावाले हैं। और नीचेके एक लाख नरक शीत वेदनावाले हैं। तथा छठी और सातवीं पृथिवी के नरक शीत वेदनावाले ही हैं।

    नारकी 'शुभ विक्रिया करेंगे' ऐसा विचार करते हैं पर उत्तरोत्तर अशुभ विक्रिया को ही करते हैं। 'सुखकर हेतुओंको उत्‍पन्‍न करेंगे' ऐसा विचार करते हैं, परन्‍तु वे दुःखकर हेतुओंको ही उत्‍पन्‍न करते हैं। इस प्रकार ये भाव नीचे-नीचे अशुभतर जानने चाहिए।


    क्‍या इन नारकियोंके शीतोष्‍णजनित ही दुःख है या दूसरे प्रकारका भी दुःख है, इस बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-3 तिर्यञ्चों की अपेक्षा अथवा ऊपर के नरकों की अपेक्षा नीचे नरकों में लेश्या आदि अशुभतर होते हैं।

    4 जैसे 'नित्यप्रहसितो देवदत्तः - देवदत्त नित्य हंसता है' यहाँ नित्य शब्द बहुधा अर्थ में है अर्थात् निमित्त मिलनेपर देवदत्त जरूर हंसता है उसी तरह नारकी भी निमित्त मिलने पर अवश्य ही अशुभतर लेश्यावाले होते हैं। यहाँ नित्य का अर्थ शाश्वत या कूटस्थ नहीं है। अतः लेश्या की अनिवृत्ति का प्रसंग नहीं होता। द्रव्यलेश्या होती है। भावलेश्या तो छहों होती हैं और वे अन्तर्मुहुर्त में बदलती रहती हैं। क्षेत्र के कारण वहाँ के स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द परिणमन अत्यन्त दुःख के कारण होते हैं। उनके शरीर अशुभ नाम-कर्म के उदय से हुंडक संस्थानवाले बीभत्स होते हैं। यद्यपि उनका शरीर वैक्रियिक है फिर भी उसमें मल-मूत्र, पीब आदि सभी बीभत्स सामग्री रहती है। प्रथम नरक में शरीर की ऊंचाई 7 धनुष 3 हाथ और 6 अंगुल है। आगे के नरकों में दूनी होकर सातवें नरक में 500 धनुष हो जाती है । आभ्यन्तर असातावेदनीय के उदय से शीत-उष्ण आदि की बाह्य तीव्र वेदनाएं होती हैं। नरकों में इतनी गरमी होती है कि यदि हिमालय बराबर तांबे का गोला उसमें डाल दिया जाय तो वह क्षणमात्र में गल जायगा, और यदि वही पिघला हुआ शीत-नरकों में डाला जाय तो क्षणमात्र में ही जम जायगा । तात्पर्य यह है कि 82 लाख नरक उष्ण हैं और दो लाख नरक शीत । नारकी जीव विचारते हैं कि शुभ करें पर कर्मोदय से होता अशुभ ही है। दुःख दूर करने के जितने उपाय करते हैं उनसे दूना दुःख ही उत्पन्न होता है।

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    + पारस्परिक दुःख -
    परस्परोदीरित-दुःखाः॥4॥
    अन्वयार्थ : त‍था वे परस्‍पर उत्‍पन्‍न किये गये दुःखवाले होते हैं ॥४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    शंका – नारकी परस्‍पर एक-दूसरेको कैसे दुःख उत्‍पन्‍न करते हैं ?

    समाधान – नारकियोंके भवप्रत्‍यय अवधिज्ञान है जिसे मिथ्‍यादर्शनके उदयसे विभंगज्ञान कहते हैं। इस ज्ञानके कारण दूरसे ही दुःखके कारणोंको जानकर उनको दुःख उत्‍पन्‍न हो जाता है और समीपमें आने पर एक-दूसरेको देखनेसे उनकी क्रोधाग्नि भभक उठती है। तथा पूर्वभवका स्‍मरण होनेसे उनकी वैरकी गाँठ और दृढ़तर हो जाती है। जिससे वे कुत्ता और गीदड़के समान एक-दूसरे का घात करनेके लिए प्रवृत्‍त होते हैं। वे विक्रियासे तलवार, बसूला, फरसा, हाथसे चलानेका तीर, बर्छी, तोमर नामका अस्‍त्र विशेष, बरछा और हथौड़ा आदि अस्‍त्र-शस्‍त्र बनाकर उनसे तथा अपने हाथ, पाँव और दाँतोंसे छेदना, भेदना, छीलना और काटना आदिके द्वारा परस्‍पर अतितीव्र दुःखको उत्‍पन्‍न करते हैं।

    जिन कारणोंसे दुःख उत्‍पन्‍न होता है वे क्‍या इतने ही हैं या और भी हैं ? अब इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    जिस प्रकार एक कुत्ता दूसरे कुत्ते को देखकर अकारण ही भौंकता है और काटता है उसी तरह नारकी तीव्र अशुभ-कर्म के उदय से तथा विभङ्गावधि से पूर्वकृत वैर के कारणों को जान-जानकर निरन्तर एक दूसरे को तीव्र-दुःख उत्पन्न करते रहते हैं । आपस में मारना, काटना, छेदना, घानी में पेलना आदि भयंकर दुःख कारणों को जुटाते रहते हैं।

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    + देव-कृत दुःख -
    संक्लिष्टासुरोदीरित-दुःखाश्‍च प्राक् चतुर्थ्याः॥5॥
    अन्वयार्थ : और चौथी भूमि से पहले तक वे संक्लिष्‍ट असुरों के द्वारा उत्‍पन्‍न किये गये दुःखवाले भी होते हैं ॥५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    देवगति नामक नामकर्मके भेदोंमें एक असुर नामकर्म है जिसके उदयसे 'परान् अस्‍यन्ति' जो दूसरोंको फैंकते हैं उन्‍हें असुर कहते हैं। पूर्व जन्‍ममें किये गये अतितीव्र संक्‍लेशरूप परिणामोंसे इन्‍होंने जो पापकर्म उपार्जित किया उसके उदयसे ये निरन्‍तर क्लिष्‍ट रहते हैं इसलिए संक्लिष्‍ट असुर कहलाते हैं। सूत्रमें यद्यपि असुरोंको संक्लिष्‍ट विशेषण दिया है पर इसका यह अर्थ नहीं है कि सब असुर नारकियोंको दुःख उत्‍पन्‍न कराते हैं। किन्‍तु अम्‍बावरीष आदि कुछ असुर ही दुःख उत्‍पन्‍न कराते हैं। मर्यादाके दिखलानेके लिए सूत्रमें 'प्राक् चतुर्थ्‍याः' यह विशेषण दिया है। इससे य‍ह दिखलाया है कि ऊपरकी तीन पृथिवीयोंमें ही संक्लिष्‍ट असुर बाधाके कारण है, इसके आगे नहीं। सूत्रमें 'च' शब्‍द पूर्वोक्‍त दुःखके कारणोंका समुच्‍चय करनेके लिए दिया है। परस्‍पर खूब तपाया हुआ लोहेका रस पिलाना, अत्‍यन्‍त तपाये गये लौहस्‍तम्भका आलिंगन, कूट सेमरके वृक्षपर चढ़ाना-उतारना, लोहेके घनसे मारना, बसूला और छुरासे तरासना, तपाये गये खारे तेलसे सींचना, तेलकी कढाईमें पकाना, भाड़में भूँजना, वैतरणीमें डूबाना, यन्‍त्रसे पेलना आदिके द्वारा नारकियोंके परस्‍पर दुःख उत्‍पन्‍न कराते हैं। इस प्रकार छेदन, भेदन आदिके द्वारा उनका शरीर खण्‍ड-खण्‍ड हो जाता है तो भी उनका अकालमें मरण नहीं होता है, क्‍योंकि उनकी आयु घटती नहीं।

    यदि ऐसा है तो य‍ह कहिए कि उन नारकियोंकी कितनी आयु है ? इसी बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-5 असुर नामक देवगति के उदय से असुर होते हैं । सभी असुर संक्लिष्ट नहीं होते किन्तु अम्बाम्बरीष आदि जाति के कुछ ही असुर। तीसरी पृथिवी तक ही इनकी गमन शक्ति है । यद्यपि 'आचतुर्थ्यः' कहने से लघुता होती फिर भी चूंकि 'आङ्' का अर्थ मर्यादा और अभिविधि दोनों ही होता है अत: सन्देह हो सकता था कि 'चौथी पृथ्वी को भी शामिल करना या नहीं ?' इसलिए स्पष्ट और असन्दिग्ध अर्थबोध के लिए 'प्राक्' पद दिया है ।

    6. 'च' शब्द पूर्वोक्त दुःख हेतुओं के समुच्चय के लिए है, अन्यथा तीन पृथिवियों में पूर्वहेतुओं के अभाव का प्रसङ्ग होता।

    7. यद्यपि पूर्वसूत्र में उदीरित शब्द है फिर भी चूंकि वह समासान्तर्गत होने से गौण हो गया है अतः उसका यहाँ सम्बन्ध नहीं हो सकता था अतः इस सूत्र में पुन: 'उदीरित' शब्द दिया है।

    8. यद्यपि 'परस्परेणोदीरितदुःखाः संक्लिष्टासुरैश्च प्राक् चतुर्थ्या:' ऐसा एक वाक्य बनाया जा सकता था फिर भी उदीरणा के विविध प्रकारों के प्रदर्शन के लिए पृथक् उदीरित शब्द देकर पूर्वोक्त सूत्र बनाए हैं। नरकों में असुर-कुमार जाति के देव परस्पर तपे हुए लोहे को पिलाना, जलते हुए लोहस्तम्भ से चिपटा देना, लौह-मुद्गरों से ताड़ना, वसूला, छुरी, तलवार आदि से काटना, तप्त तैल से सींचना, भाँड में मूंजना, लोहे के घड़े में पका देना, कोल्हू में पेल देना, शूली पर चढ़ा देना, करोंत से काट देना, सुई जैसी घास पर घसीटना, सिंह, व्याघ्र, कौआ, उल्लू आदि के द्वारा खिलाया जाना, गरम रेत पर सुला देना, वैतरिणी में पटकना आदि के द्वारा नारकियों के तीव्र दुःख के कारण होते हैं । वे ऐसे कलहप्रिय और संक्लेशमना हैं कि जब तक वे इस प्रकार की मारकाट मार-धाड़ आदि नहीं करा लेते तब तक उन्हें शान्ति नहीं मिलती जैसे कि यहाँ कुछ रुद्र लोग मेढ़ा, तीतर, मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाकर अपनी रौद्रानन्दी कुटेव की तृप्ति करते हैं। यद्यपि उनके देवगति नामकर्म का उदय है फिर भी उनके माया, मिथ्या, निदान शल्य, तीव्र-कषाय आदि से ऐसा अकुशलानुबन्धी पुण्य बंधा है जिससे उन्हें अशुभ और संक्लेशकारक प्रवृत्तियों में ही आनन्द आता है। इस तरह भयंकर छेदन-भेदन आदि होने पर भी नारकियों की कभी अकालमृत्यु नहीं होती ।

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    + नरकों में उत्कृष्ट आयु -
    तेष्वेक-त्रि-सप्त-दश-सप्तदश-द्वाविंशति-त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थितिः॥6॥
    अन्वयार्थ : उन नरकों में जीवों की उत्‍कृष्‍ट स्थिति क्रम से एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बाईस और तैंतीस सागरोपम है ॥६॥
    नरक-गति के पटलों में जघन्य / उत्कृष्ट आयु
    पटल संख्याप्रथम पृथ्वीद्वितीय पृथ्वीतृतीय पृथ्वीचतुर्थ पृथ्वीपंचम पृथ्वीषष्ट पृथ्वीसप्तम पृथ्वी
    जघन्यउत्कृष्टजघन्यउत्कृष्टजघन्यउत्कृष्टजघन्यउत्कृष्टजघन्यउत्कृष्टजघन्यउत्कृष्टजघन्यउत्कृष्ट
    सामान्य10,000 वर्ष1 सागर1337710101717222233
    110,000 वर्ष90,000 वर्ष113/11331/9752/71057/51756/32233
    290,000 वर्ष90,00,000 वर्ष13/1115/1131/935/952/755/757/564/556/361/3
    390,00,000 वर्षअसं. कोटि पूर्व15/1117/1135/939/955/758/764/571/561/322
    4असं. कोटि पूर्व1/10 सागर17/1119/1139/943/958/761/771/578/5
    51/10 सागर1/5 सागर19/1121/1143/947/961/764/778/517
    61/5 सागर3/10 सागर21/1123/1147/951/964/767/7
    73/10 सागर2/5 सागर23/1125/1151/955/967/710
    82/5 सागर1/2 सागर25/1127/1155/959/9
    91/2 सागर3/5 सागर27/1129/1159/97
    103/5 सागर7/10 सागर29/1131/11
    117/10 सागर4/5 सागर31/113-0
    124/5 सागर9/10 सागर
    139/10 सागर1 सा

    सर्वार्थसिद्धि :
    इस सूत्रमें 'यथाक्रमम्' इस पदकी अनुवृत्ति होती है। जिससे उन नरकोंमें भूमिके क्रमसे एक सागरोपम आदि स्थितियोंका क्रमसे सम्‍बन्‍ध हो जाता है। रत्‍नप्रभामें एक सागरोपम उत्‍कृष्‍ट स्थिति है। शर्कराप्रभामें तीन सागरोपम उत्‍कृष्‍ट स्थिति है। वालुकाप्रभामें सात सागरोपम उत्‍कृष्‍ट स्थिति है। पंकप्रभामें दस सागरोपम उत्‍कृष्‍ट स्थिति है। धूमप्रभामें सत्रह सागरोपम उत्‍कृष्‍ट स्थिति है। तमःप्रभामें बाईस सागरोपम उत्‍कृष्‍ट स्थिति है और महातमःप्रभामें तैंतीस सागरोपम उत्‍कृष्‍ट स्थिति है। 'परा' शब्‍दका अर्थ 'उत्‍कृष्‍ट' है। और 'सत्त्वानाम्' पद भूमियोंके निराकरणके लिए दिया है। अभिप्राय य‍ह है कि भूमियोंमें जीवोंकी यह स्थिति है, भूमियोंकी नहीं।

    सात भूमियोंमें फैले हुए अधोलोकका वर्णन किया। अब तिर्यग्‍लोकका कथन करना चाहिए।

    शंका – तिर्यग्‍लोक यह संज्ञा क्‍यों है ?

    समाधान – चूँकि स्‍वयम्‍भूरमण समुद्र पर्यन्‍त असंख्‍यात द्वीप-समुद्र तिर्यक् प्रचयविशेषरूपसे अवस्थित हैं, इसलिए तिर्यग्‍लोक संज्ञा है। वे तिर्यक् रूपसे अवस्थित क्‍या हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-2. सागर में जिस प्रकार अपार जलराशि होती है उसी तरह नारकियों की आयु में निषेकों की संख्या अपार होती है अतः सागर की उपमा से आयु का निर्देश किया है। एक आदि शब्दों का द्वन्द्व समास करके सागरोपमा विशेषण से अन्वय कर देना चाहिए।

    प्रश्न – जब 'एका च तिस्रश्च' इत्यादि विग्रह में एक शब्द स्त्रीलिंग है तब सूत्र में उसका पुल्लिंग रूप से निर्देश कैसे हो गया ?

    उत्तर – यह पुल्लिंग निर्देश नहीं है किन्तु 'एकस्याः क्षीरम् एकक्षीरम्'की तरह औत्तरपदिक ह्रस्वत्व है । अथवा 'सागर उपमा यस्य तत् सागरोपमम् आयुः' फिर, 'एकं च त्रीणि च' आदि विग्रह करके स्त्रीलिंग स्थिति शब्द से बहुव्रीहि समास करने पर स्थिति शब्द की अपेक्षा स्त्रीलिंग निर्देश है ।

    3. द्वितीय सूत्र से 'यथाक्रमम्' का अनुवर्तन करके क्रमशः रत्नप्रभा आदि से सम्बन्ध कर लेना चाहिए। रत्नप्रभा की एक सागर, शर्करा प्रभा की तीन सागर आदि ।

    4-5. प्रश्न – 'तेषु' कहने से रत्नप्रभा पृथिवी के सीमन्तक आदि नरक पटलों में ही पूर्वोक्त स्थिति का सम्बन्ध होना चाहिए; क्योंकि प्रकरण-सामीप्य इन्हीं से है । पर यह आपको इष्ट नहीं है। अतः 'तेषु' यह पद निरर्थक है ।

    उत्तर – जो रत्नप्रभा आदि से उपलक्षित तीस-लाख, पच्चीस-लाख आदिरूप से नरकबिल गिने गए हैं उन नरकों के जीवों की एक सागर आदि आयु विवक्षित है। अथवा, नरक सहचरित भूमियों को भी नरक ही कहते हैं, अतः इन रत्नप्रभा आदि नरकों में उत्पन्न होनेवाले जीवों की यह स्थिति है। इसीलिए 'तेषु' पद की सार्थकता है, अन्यथा भूमि से आयु का सम्बन्ध नहीं जुड़ पाता क्योंकि वे व्यवहित हो गई हैं।

    6. 'सत्त्वानाम्' यह स्पष्ट पद दिया है अतः नरकवासी जीवों की यह स्थिति है न कि नरकों की।

    7. परा और उत्कृष्ट ये दोनों शब्द पर्यायवाची हैं इसलिये नरकों में एक नारकी के रहने की उत्कृष्ट स्थिति कही गई है रत्नप्रभा आदि में प्रति प्रस्तार की जघन्य स्थिति कहते हैं। रत्नप्रभा नरक के सर्व बिलों में मध्यम आयु अपनी-अपनी जघन्य आयु से एक समय अधिक तथा उत्कृष्ट से एक समय हीन है।

    इसी तरह शर्कराप्रभा आदि में भी प्रति प्रस्तार जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति समझ लेनी चाहिए। उसका नियम यह है उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति का अन्तर निकालकर प्रतरों की संख्या से उसे विभाजित करके पहिली पृथिवी की उत्कृष्ट स्थिति में जोड़ने पर दूसरी पृथिवी के प्रथम पटल की उत्कृष्ट स्थिति होती हैं। आगे वही इष्ट जोड़ते जाना चाहिए। जैसे शर्कराप्रभा की उत्कृष्ट 3 सागर और जघन्य एक सागर है। दोनों का अन्तर 2 आया। इसमें प्रतरसंख्या 11 का भाग देने पर, इष्ट हुआ। इसे प्रतिपटल में बढ़ाने पर अवान्तर पटलों की उत्कृष्ट स्थिति हो जाती है। पहिली-पहिली पृथिवी की तथा पहिले-पहिले पटलों की उत्कृष्ट स्थिति आगे-आगे की पृथिवियों और पटलों में जघन्य हो जाती है। उत्पत्ति का विरहकाल - सभी पृथिवियों में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट क्रमश: 24 मुहूर्त, सात रात-दिन, एक पक्ष, एक माह, दो माह, चार माह और छह माह होता है। उत्पाद और नियति -

    सप्त पृथिवी विस्तार वाले अधो लोक का वर्णन किया। अब तिर्यग्लोक के वर्णन का अवसर प्राप्त है, इसलिये उसका वर्णन किया जाता है।

    प्रश्न – मध्यलोक में किसका वर्णन है ?

    उत्तर – मध्यलोक में द्वीप, समुद्र तथा उनके अधिष्ठाता, पर्वत, वन, क्षेत्र, उनके प्रस्तर और परिमाणादि का वर्णन है।

    प्रश्न – यदि उसमें क्षेत्रादि का वर्णन है तो उसको होने दो। सर्वप्रथम इसकी व्याख्या करो कि इस तिर्यग्लोक का यह नाम क्यों पड़ा है ?

    उत्तर – इस लोक के मध्य में जम्बूद्वीप से लेकर स्वयंभूरमरण समुद्र पर्यन्त तियंग् प्रचय विशेषण से अवस्थित असंख्यात द्वीप-समुद्र अवस्थित हैं इसलिये इसको तिर्यग्लोक कहते हैं।

    यदि असंख्यात द्वीप-समुद्र की अपेक्षा तिर्यग्लोक है तो उसके कुछ नामों का उल्लेख करना चाहिये, ऐसा पूछने पर सूत्र कहते हैं --

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    + मध्य-लोक में द्वीप समुद्र -
    जम्बूद्वीप-लवणोदादयः शुभनामानो द्वीप-समुद्रा॥7॥
    अन्वयार्थ : जम्‍बूद्वीप आदि शुभ नामवाले द्वीप और लवणोद आदि शुभ नामवाले समुद्र हैं॥७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जम्‍बूद्वीप आदिक द्वीप हैं और लवणोद आदिक समुद्र हैं। तात्‍पर्य यह है कि लोकमें जितने शुभ नाम हैं उन नामवाले वे द्वीप-समुद्र हैं। य‍था- जम्‍बूद्वीप नामक द्वीप, लवणोद समुद्र, धातकीखण्‍ड द्वीप, कालोद समुद्र, पुष्‍करवर द्वीप, पुष्‍करवर समुद्र, वारुणीवर द्वीप, वारुणीवर समुद्र, क्षीरवर द्वीप, क्षीरवर समुद्र, घृतवर द्वीप, घृतवर समुद्र, इक्षुवर द्वीप, इक्षुवर समुद्र, नन्‍दीश्‍वरवर द्वीप, नन्‍दीश्‍वरवर समुद्र, अरुणवर द्वीप और अरुणवर समुद्र, इस प्रकार स्‍वयंभूरमण पर्यन्‍त असंख्‍यात द्वीप-समुद्र जानने चाहिए।

    अब इन द्वीप-समुद्रोंके विस्‍तार, रचना और आकारविशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1 अतिविशाल महान् जम्बूवृक्ष का आधार होने से यह द्वीप जम्बूद्वीप कहलाता है । उत्तरकुरु-क्षेत्र में 500 योजन लम्बी-चौड़ी तिगुनी परिधिवाली, बीच में बारह योजन मोटी और अन्त में दो कोश मोटी भूमि है । उसके मध्यभाग में 8 योजन लंबा 4 योजन चौड़ा इतना ही ऊँचा एक पीठ है । यह पीठ 12 पद्मवरवेदिकाओं से परिवेष्टित है। उन वेदिकाओं में प्रत्येक में चार-चार शुभ्र तोरण हैं । इन पर सुवर्णस्तूप बने हैं। उसके ऊपर एक योजन लम्बा चौड़ा दो-कोस ऊँचा मणिमय उपपीठ है। इस पर दो योजन ऊंची पीठवाला 6 योजन ऊंचा, मध्य में 6 योजन विस्तारवाला और आठ योजन लम्बा सुदर्शन नाम का जम्बूवृक्ष है । इसके चारों ओर इससे आधे लम्बे चौड़े और ऊँचे 108 परिवारभूत जम्बूवृक्ष और हैं।

    2. खारे जलवाला होने से इस समुद्र का नाम 'लवणोद' पड़ा है।

    इस तिर्यक्लोक में जम्बूद्वीप, लवणोद, धातकीखंड, कालोद, पुष्करवर, पुष्करोद, वारुणीवर, वारुणोद, क्षीरवर, क्षीरोद, घृतवर, घृतोद, इक्षुवर, इक्षूद, नन्दीश्वरवर, नन्दीश्वरवरोद इत्यादि शुभ नामवाले असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं । अन्त में स्वयम्भूरमणद्वीप और स्वयम्भूरमणोद समुद्र है। अढ़ाई सागर काल के समयों की संख्या के बराबर द्वीपसमुद्रों की संख्या है।

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    + द्वीप -समुद्र का आकार -
    द्विर्द्विर्विष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाकृतयः॥8॥
    अन्वयार्थ : वे सभी द्वीप और समुद्र दूने-दूने व्‍यासवाले, पूर्व-पूर्व द्वीप और समुद्र को वेष्टित करने वाले और चूड़ी के आकार वाले हैं ॥८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    द्वीप-समुद्रोंका विस्‍तार दूना-दूना है इस बातको दिखलानेके लिए सूत्रमें 'द्विर्द्विः' इस प्रकार वीप्‍सा अर्थमें अभ्‍यावृत्ति वचन है। प्रथम द्वीपका जो विस्‍तार है लवणसमुद्रका विस्‍तार उससे दूना है तथा दूसरे द्वीपका विस्‍तार इससे दूना है और समुद्रका इससे दूना है। इस प्रकार उत्‍तरोत्‍तर दूना-दूना विस्‍तार है। तात्‍पर्य यह है कि इन द्वीप-समुद्रोंका विस्‍तार दूना-दूना है, इसलिए सूत्रमें उन्‍हें दूने-दूने विस्‍तारवाला कहा है। ग्राम और नगरादिकके समान इन द्वीप-समुद्रोंकी रचना न समझी जाये इस बातके बतलानेके लिए सूत्रमें 'पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणः' यह वचन दिया है। अर्थात् वे द्वीप और समुद्र उत्तरोत्तर एक दूसरेको घेरे हुए हैं। सूत्रमें जो 'वलयाकृतयः' वचन दिया है वह चौकोर आदि आकारोंके निराकरण करनेके लिए दिया है।

    अब पहले जम्‍बूद्वीपका आकार और विस्‍तार कहना चा‍हिए, क्‍योंकि दूसरे द्वीप समुद्रोंका विस्‍तार आदि तन्‍मूलक है, इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    पहिले द्वीप का जितना विस्तार है उससे दूना उसको घेरनेवाला समुद्र है; उससे दूना उसको घेरनेवाला द्वीप है; इस प्रकार आगे आगे दूने-दूने विस्तार का स्पष्ट प्रतिपादन करने के लिए 'द्विर्द्विः' ऐसा वीप्सार्थक निर्देश किया है। यद्यपि 'द्विर्द्विशा:' की तरह समास करने से वीप्सा-अभ्यावृत्ति की प्रतीति हो जाती पर यहां स्पष्ट ज्ञान कराने के लिए 'द्विर्द्विः' यह स्फुट निर्देश किया गया है। ये द्वीप-समुद्र ग्राम-नगर आदि की तरह बेसिलसिले के नहीं बसे हैं किन्तु पूर्वपूर्व को घेरे हुए हैं और न ये चौकोर तिकोने पंचको ने षट्को ने आदि हैं किन्तु गोल हैं।

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    + जम्बू-द्वीप -
    तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृत्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः॥9॥
    अन्वयार्थ : उन सबके बीच में गोल और एक लाख योजन विष्‍कम्‍भवाला जम्‍बूद्वीप है। जिसके मध्‍य में नाभि के समान मेरु पर्वत है ॥९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    'तन्‍मध्‍ये' पदका अर्थ है 'उनके बीचमें'।


    शंका – किनके बीचमें ?

    समाधान – पूर्वोक्‍त द्वीप और समुद्रोंके बीचमें।

    नाभिस्‍थानीय होनेसे नाभि कहा है। जिसका अर्थ मध्‍य है। अभिप्राय यह है कि जिसके मध्‍यमें मेरु पर्वत है, जो सुर्यके मण्‍डलके समान गोल है और जिसका एक लाख योजन विस्‍तार है ऐसा यह जम्‍बूद्वीप है।

    शंका – इसे जम्‍बूद्वीप क्‍यों कहते हैं ?

    समाधान – जम्‍बूवृक्षसे उपलक्षित होनेके कारण इसे जम्‍बूद्वीप कहते हैं। उत्‍तरकुरुमें अनादिनिधन, पृथिवीसे बना हुआ, अ‍कृत्रिम और परिवार वृक्षोंसे युक्‍त जम्‍बूवृक्ष है, उसके कारण यह जम्‍बूद्वीप कहलाता है।


    इस जम्‍बूद्वीपमें छह कुलपर्वतोंसे विभाजित होकर जो सात क्षेत्र हैं वे कौन-से हैं ? इसी बातको बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    'तत्' शब्द पूर्वोक्त असंख्य द्वीप-समुद्रों का निर्देश करता है । जम्बूद्वीप की परिधि 316227 योजन 3 कोश 128 धनुष 13 1/2 अंगुल से कुछ अधिक है। इस जम्बूद्वीप के चारों ओर एक वेदिका है। यह आधा योजन मोटी, आठ योजन ऊंची, मूल मध्य और अन्त में क्रमशः 12, 8 और 4 योजन विस्तृत, वजमय तल वाली, वैडूर्यमणिमय ऊपरी भागवाली, मध्य में सर्वरत्नखचित, झरोखा, घंटा, मोती, सोना, मणि, पद्ममणि आदि की नौ जालियों से भूषित है । ये जालियाँ आधे योजन ऊंची, पाँच सौ धनुष चौड़ी और वेदिका के समान लम्बी हैं। इसके चारों दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नाम के चार महाद्वार हैं। ये आठ योजन ऊंचे और चार योजन चौड़े हैं। विजय और वैजयन्त का अन्तराल 790052 3/4 योजन, 3/4 कोश 32 धनुष 3 1/4 अंगुल अंगुल का 1/8 है भाग तथा कुछ अधिक है।

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    + सात क्षेत्र -
    भरतहैमवत-हरि-विदेह-रम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि॥10॥
    अन्वयार्थ : भरतवर्ष, हैमवतवर्ष, हरिवर्ष, विदेहवर्ष, रम्‍यकवर्ष, हैरण्‍यवतवर्ष और ऐरावतवर्ष ये सात क्षेत्र हैं ॥१०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    क्षेत्रोंकी भर‍त आदि संज्ञाएँ अनादिकालसे चली आ रही हैं और अनिमित्तक हैं। इनमें-से भरत क्षेत्र कहाँ स्थित है ? हिमवान् पर्वतके दक्षिणमें और तीन समुद्रोंके बीचमें चढे़ हुए धनुषके आकारवाला भरत क्षेत्र है जो विजयार्ध और गंगा-सिन्‍धुसे विभाजित होकर छह खण्‍डोंमें बटा हुआ है। क्षुद्र हिमवान् के उत्तरमें और महाहिमवान के दक्षिणमें त‍था पूर्व-पश्चिम समुद्रके बीचमें हैमवत क्षेत्र है। निषधके दक्षिणमें और महाहिमवान् के उत्तरमें तथा पूर्व और पश्चिम समुद्रके बीचमें हरिक्षेत्र है। निषधके उत्तरमें और नीलके दक्षिणमें तथा पूर्व और पश्चिम समुद्रके बीचमें हरिक्षेत्र है। नीलके उत्तरमें और रुक्‍मीके दक्षिणमें तथा पूर्व पश्चिम समुद्रके बीचमें रम्‍यक क्षेत्र है। रुक्‍मीके उत्तरमें और शिखरीके दक्षिणमें तथा पूर्व और पश्चिम समुद्रके बीचमें हैरण्‍यवत क्षेत्र है। शिखरीके उत्तरमें और तीन समुद्रोंके बीचमें ऐरावत क्षेत्र है जो विजयार्द्ध और रक्‍ता रक्‍तोदा से विभाजित होकर छह खण्‍डोंमें बँटा हुआ है।

    कुलपर्वत छह हैं य‍ह पहले कह आये हैं, परन्‍तु कौन हैं और कहाँ स्थित हैं यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1. विजया से दक्षिण, समुद्र से उत्तर और गंगा सिन्धु नदियों के मध्य भाग में 12 योजन लम्बी 9 योजन चौड़ी विनीता नाम की नगरी थी। उसमें भरत नाम का षट्खण्डाधिपति चक्रवर्ती हुआ था। उसने सर्वप्रथम राजविभाग करके इस क्षेत्र का शासन किया था अतः इसका नाम भरत पड़ा।

    2. अथवा, जैसे संसार अनादि है उसी तरह क्षेत्र आदि के नाम भी बिना किसी कारण के स्वाभाविक अनादि हैं।

    3. तीन ओर समुद्र और एक ओर हिमवान् पर्वत के बीच में भरतक्षेत्र है। इसके गंगा सिन्धु और विजयार्द्ध पर्वत से विभक्त होकर छह खंड हो जाते हैं।

    4. चक्रवर्ती के विजयक्षेत्र की आधी सीमा इस पर्वत से निर्धारित होती है। अतः इसे विजया कहते हैं। यह 50 योजन विस्तृत 25 योजन ऊँचा 6 1/4 योजन गहरा है और अपने दोनों छोरों से पूर्व और पश्चिम के समुद्र को स्पर्श करता है। इसके दोनों ओर आधा योजन चौड़े और पर्वत बराबर लंबे वनखंड हैं । ये वन आधी योजन ऊंची, पांच सौ धनुष चौड़ी और वन बराबर लंबी वेदिकाओं से घिरे हुए हैं। इस पर्वत में तमिस्र और खण्डप्रपात नाम की दो गुफाएँ हैं। ये गुफाएँ उत्तर दक्षिण 50 योजन लंबी पूर्व-पश्चिम 12 योजन चौड़ी हैं। इसके उत्तर दक्षिण दिशाओं में 8 योजन ऊँचे दरवाजे हैं। इनमें 61 योजन चौड़े एक कोश मोटे और आठ योजन ऊँचे वज्रमय किवाड़ लगे हैं। इनसे चक्रवर्ती उत्तरभरत विजयार्ध को जाता है। इन्हीं से गंगा और सिन्धु निकली है। इनमें विजयार्द्ध से निकली हुई उन्मग्नजला और निमग्नजला दो नदियाँ मिलती हैं। इसी पहाड़ की तलहटी में भूमितल से दस योजन ऊपर दोनों ओर दस योजन चौड़ी और पर्वत बराबर लम्बी विद्याधर श्रेणियां हैं। दक्षिण श्रेणी में रथनूपुर चक्रवाल आदि 50 विद्याधरनगर हैं। उत्तर श्रेणी में गगनवल्लभ आदि 60 विद्याधर नगर हैं। यहाँ के निवासी भी यद्यपि भरतक्षेत्र की तरह षटकर्म से ही आजीविका करते हैं, किन्तु प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं को धारण करने के कारण विद्याधर कहे जाते हैं। इनसे दश योजन ऊपर दोनों ओर दश योजन विस्तृत व्यन्तर श्रेणियाँ हैं। इनमें इन्द्र के सोम, यम, वरुण और वैश्रवण ये चार लोकपाल तथा आभियोग्य व्यन्तरों का निवास है। इससे पाँच योजन ऊपर दश योजन विस्तृत शिखरतल है। पूर्वदिशा में 6 योजन और एक कोस ऊंचा तथा इतना ही विस्तृत, वेदिका से वेष्टित सिद्धायतनकूट है। इसपर उत्तर दक्षिण लंबा, पूर्व-पश्चिम चौड़ा, एक कोस लंबा, आधा कोस चौड़ा कुछ कम एक कोस ऊंचा, वेदिका से वेष्टित, चतुर्दिक द्वारवाला सुन्दर जिनमन्दिर है । इसके बाद दक्षिणार्ध भरतकूट, खण्डकप्रपातकूट, माणिकभद्रकूट, विजयार्धकूट, पूर्णभद्रकूट, तमिस्रगुहाकूट, उत्तरार्धभरतकूट और वैश्रवणकूट ये आठ कूट सिद्धायतनकूट के समान लंबे-चौड़े-ऊंचे हैं। इनके ऊपर क्रमशः दक्षिणार्धभरतदेव, वृत्तमाल्यदेव, माणिभद्रदेव, विजयागिरिकुमारदेव, पूर्णभद्रदेव, कृतमालदेव, उत्तरार्धभरतदेव और वैश्रवणदेवों के प्रासाद हैं।

    5-7. हिमवान् नाम के पर्वत के पास का क्षेत्र, या जिसमें हिमवान् पर्वत है वह हैमवत है । यह क्षुद्रहिमवान् और महाहिमवान् तथा पूर्वापर समुद्रों के बीच में है। इसके बीच में शब्दवान् नाम का वृत्तवेदाढ्य पर्वत है। यह एक हजार योजन ऊंचा, 250 योजन जड़ में, ऊपर और मूल में एक हजार योजन विस्तारवाला है। इसके चारों ओर आधा योजन विस्तारवाली तथा चतुर्दिक द्वारवाली वेदिका है। उसके तल में 623 योजन ऊंचा 313 योजन विस्तृत स्वातिदेव का विहार है।

    8-10. हरि अर्थात् सिंह के समान शुक्ल रूपवाले मनुष्य इसमें रहते हैं अतः यह हरिवर्ष कहलाता है । यह निषध से दक्षिण महाहिमवान् से उत्तर और पूर्वापर समुद्रों के मध्य में है । इसके बीच में विकृतवान् नाम का वृत्तवेदाढ्य है । इसपर अरुणदेव का विहार है।

    11-12. निषध से उत्तर नील पर्वत से दक्षिण और पूर्वापर समुद्रों के मध्य में विदेह-क्षेत्र है। इसमें रहनेवाले मनुष्य सदा विदेह अर्थात् कर्मबन्धोच्छेद के लिए यत्न करते रहते हैं इसलिए इस क्षेत्र को विदेह-क्षेत्र कहते हैं। यहाँ कभी भी धर्म का उच्छेद नहीं होता।

    13. यह पूर्वविदेह, अपरविदेह, उत्तरकुरु और देवकुरु इन चार भागों में विभाजित है। भरतक्षेत्र के दिग्विभाग की अपेक्षा मेरु के पूर्व में पूर्वविदेह, उत्तर में उत्तर कुरु, पश्चिम में अपर विदेह और दक्षिण में देवकुरु है। विदेह के मध्यभाग में मेरु पर्वत है। उसकी चारों दिशाओं में चार वक्षार पर्वत हैं। सीतानदी के पूर्व की ओर जम्बूवृक्ष है। उसके पूर्व दिशा की शाखा पर वर्तमान प्रासाद में जम्बूद्वीपाधिपति अनावृत नाम का व्यन्तरेश्वर रहता है । तथा अन्य दिशाओं में उसके परिवार का निवास है। नील की दक्षिण दिशा में एक हजार योजन तिरछे जाने पर सीतानदी के दोनों तटों पर दो यमकाद्रि हैं । सीतानदी से पूर्वविदेह के दो भाग हो जाते हैं - उत्तर और दक्षिण । उत्तरभाग चार वक्षार पर्वत और तीन विभंग नदियों से बंट जाता है और ये आठों भूखण्ड आठ चक्रवतियों के उपभोग्य होते हैं। कच्छ, सुकच्छ, महाकच्छ, कच्छक, कच्छकावर्त, लांगलावर्त, पुष्कल और पुष्कलावर्त ये उन देशों के नाम हैं। उनमें क्षेमा, क्षेमपुरी, अरिष्टा, अरिष्टपरी, खड़गा, मंजूषा, ओषधि और पुण्डरीकिणी ये आठ राजनगरियाँ हैं। कच्छदेश में पूर्व पश्चिम लंबा विजयार्ध पर्वत है। वह गंगा सिन्धु और विजया से बंटकर छह खंड को प्राप्त हो जाता है। इसी तरह दक्षिण पूर्वविदेह भी चार वक्षार और तीन विभंग नदियों से विभाजित होकर आठ चक्रवर्तियों के उपभोग्य होता है । वत्सा, सुवत्सा, महावत्सा, वत्सावती, रम्या, रम्यका, रमणीया और मंगलावती ये आठ देशों के नाम हैं। इसी तरह अपर विदेह भी उत्तर-दक्षिण विभक्त होकर आठ-आठ देशों में विभाजित होकर आठ-आठ चक्रवर्तियों के उपभोग्य होता है। विदेह के मध्य में मेरु पर्वत है। यह 99 हजार योजन ऊंचा, पृथिवीतल में एक हजार योजन नीचे गया है । इसके ऊपर भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पांडुक ये चार वन हैं। पांडुक-वन में बीचोंबीच मेरु की शिखर प्रारम्भ होती है । उस शिखर की पूर्व दिशा में पांडुक शिला, दक्षिण में पाण्डुकम्बल शिला, पश्चिम में रक्तकम्बल शिला और उत्तर में अतिरक्त कम्बल नाम की शिला हैं। उनपर पूर्वमुख सिंहासन रखे हुए हैं। पूर्व सिंहासनपर पूर्वविदेह के तीर्थङ्करों का, दक्षिण के सिंहासन पर भरतक्षेत्र के तीर्थङ्करों का, पश्चिम में अपर विदेह के तीर्थङ्करों का और उत्तर में ऐरावत के तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक देवगण करते हैं। यह मेरु-पर्वत तीनों-लोकों का मानदंड है । इसके नीचे अधोलोक, चूलिका के ऊपर ऊर्ध्वलोक है और मध्य में तिरछा फैला हुआ मध्यलोक है । इत्यादि विदेह क्षेत्र का विस्तृत वर्णन मूल-ग्रन्थ से जान लेना चाहिए।

    14-16. नील पर्वत के उत्तर रुक्मि पर्वत के दक्षिण तथा पूर्व-पश्चिम समुद्रों के बीच रम्यक क्षेत्र है। रमणीय देश नदी-पर्वतादि से युक्त होने के कारण इसे रम्यक कहते हैं। वैसे 'रम्यक' नाम रूढ़ ही है । रम्यक क्षेत्र के मध्य में गन्धवान् नामक वृत्तवेदाढ्य है। यह शब्दवान् वृत्तवेदाढ्य के समान लम्बा-चौड़ा है। इसपर पमदेव का निवास है।

    17-19. रुक्मि के उत्तर शिखरी के दक्षिण तथा पूर्व पश्चिम समुद्रों के बीच हैरण्यवत-क्षेत्र है। हिरण्यवाले रुक्मि पर्वत के पास होने से इसका नाम हैरण्यवत पड़ा है। इसमें शब्दवान् वृत्तवेदाढ्य की तरह माल्यवान् वृत्तवेदाढ्य है। इसपर प्रभासदेव का निवास है।

    20-22. शिखरी पर्वत तथा पूर्व-पश्चिम और दक्षिण-उत्तर समुद्रों के बीच ऐरावत क्षेत्र है। रक्ता तथा रक्तोदा नदियों के बीच अयोध्या नगरी है। इसमें एक ऐरावत नाम का राजा हुआ था। उसके कारण इस क्षेत्र का ऐरावत नाम पड़ा है। इसके बीच में विजया पर्वत है।

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    + छह पर्वत -
    तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषध-नील-रुक्मि-शिखरिणो वर्षधर-पर्वताः॥11॥
    अन्वयार्थ : उन क्षेत्रों को विभाजित करनेवाले और पूर्व-पश्चिम लम्‍बे ऐसे हिमवन्, महाहिमवन्, निषध, नील, रुक्‍मी और शिखरी ये छह वर्षधर पर्वत हैं ॥११॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    इन पर्वतोंका स्‍वभाव उन क्षेत्रोंका विभाग करना है, इसलिए इन्‍हें उनका विभाग करनेवाला कहा है। ये पूर्वसे पश्चिम तक लम्‍बे हैं। इसका यह भाव है कि इन्‍होंने अपने पूर्व और पश्चिम सिरेसे लवण समुद्रको स्‍पर्श किया है। ये हिमवान् आदि संज्ञाएँ अनादि कालसे चली आ रही हैं और बिना निमित्तकी हैं। इन पर्वतोंके कारण क्षेत्रोंका विभाग होता है इसलिए इन्‍हें वर्षधर पर्वत कहते हैं। हिमवान् पर्वत कहाँ है अब इसे बतलाते हैं- भरत और हैमवत क्षेत्र की सीमापर हिमवान् पर्वत स्थित है। इसे क्षुद्र हिमवान् भी कहते हैं। यह सौ योजन ऊँचा है। हैमवत और हरिवर्षका विभाग करनेवाला महाहिमवान् है। यह दो सौ योजन ऊँचा है। विदेहके दक्षिणमें और हरिवर्षके उत्‍तरमें निषध पर्वत है। यह चार सौ योजन ऊँचा है। इसी प्रकार आगेके तीन पर्वत भी अपने-अपने क्षेत्रोंका विभाग करनेवाले जानने चाहिए। उनकी ऊँचाई क्रमशः चार सौ, दो सौ और सौ योजन जाननी चाहिए। इन सब पर्वतोंकी जड़ अपनी ऊँचाईका एक-चौथाई भाग है।

    अब इन पर्वतोंके वर्णविशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-2 हिम जिसमें पाया जाय वह हिमवान् । चूंकि सभी पर्वतों में हिम पाया जाता है अतः रूढि से ही इसकी हिमवान् संज्ञा समझनी चाहिए। यह भरत और हैमवत क्षेत्र की सीमापर स्थित है। इसे क्षुद्रहिमवान् कहते हैं। यह 25 योजन पृथ्वी के नीचे, 100 योजन ऊंचा 105211 योजन विस्तृत है। इसके ऊपर पूर्व दिशा में सिद्धायतन कूट है। पश्चिम दिशा में हिमवत्, भरत, इला, गंगा, श्री, रोहितास्या, सिन्धु, सुरा, हैमवत् और वैश्रवण ये दश कूट हैं इन सब पर चैत्यालय और प्रासाद हैं। इनमें हिमवत्, भरत, हैमवत् और वैश्रवण कूट पर इन्हीं नामवाले देव तथा शेष कूटों पर उसी नामवाली देवियाँ रहती हैं।

    3-4. महाहिमवान् संज्ञा रूढ़ि से है। यह हैमवत और हरिवर्ष का विभाग करनेवाला है । 50 योजन गहरा 200 योजन ऊंचा और 421016 योजन विस्तृत है। इसपर सिद्धायतन महाहिमवत्, हैमवत्, रोहित्, हरि, हरिकान्ता, हरिवर्ष और वैडूर्य ये आठ कुट है। कूटों में चैत्यालय और प्रासाद है। प्रासादों में कूट के नामवाले देव और देवियाँ निवास करती हैं।

    5-6. जिसपर देव और देवियाँ क्रीड़ा करें वह निषध । यह संज्ञा रूढ है। यह हरि और विदेह क्षेत्र की सीमा पर है। यह 100 योजन गहरा 400 योजन ऊंचा और 1684212 योजन विस्तृत है । इस पर सिद्धायतन, निषध, हरिवर्ष, पूर्वविदेह, हरि, घृति, सीतोदा, अपरविदेह और रुचक नाम के नव कूट हैं । कूटों पर चैत्यालय और देवप्रासाद हैं। इनमें कूटों के नामवाले देव और देवियाँ रहती है।

    7-8 नीलवर्ण होने के कारण इसे नील कहते हैं। वासुदेव की कृष्ण संज्ञा की तरह यह संज्ञा है। यह विदेह और रम्यक क्षेत्र की सीमा पर स्थित है। इसका विस्तार आदि निषध के समान है। इस पर सिद्धायतन, नील, पूर्वविदेह, सीता, कीर्ति, नरकान्ता, अपरविदेह, रम्यक और आदर्शक ये नव कूट हैं। इन पर चैत्यालय और प्रासाद हैं। प्रासादों में अपने कूटों के नाम वाले देव और देवियों रहती हैं।

    9-10. चाँदी जिसमें पाई जाय वह रुक्मी । यह रूढ संज्ञा है जैसे कि हाथी की करि संज्ञा। यह रम्यक और हैरण्यवत क्षेत्र का विभाग करता है। इसका विस्तार आदि महा हिमवान् के समान है। इस पर सिद्धायतन, रुक्मि, रम्यक, नारी, बुद्धि, रूप्यकूला, हैरण्यवत और मणिकांचन ये आठ कूट हैं। इनपर जिन-मन्दिर और प्रासाद हैं। प्रासादों में अपने कूट के नामवाले देव और देवियाँ रहती हैं।

    11-12. जिसके शिखर हों यह शिखरी । यह रूढ संज्ञा है जैसे कि मोर की शिखंडी संज्ञा। यह हैरण्यवत और ऐरावत की सीमा पर पुल के समान स्थित है। इसका विस्तार आदि हिमवान् के समान है । इसपर सिद्धायतन, शिखरी, हैरण्यवत, रसदेवी, रक्तावती, श्लक्ष्णकूला, लक्ष्मी, गन्धदेवी, ऐरावत और मणिकांचन ये 11 कूट हैं। इनपर जिनायतन और प्रासाद हैं। प्रासादों में अपने कूट के नामवाले देव और देवियाँ रहती हैं।

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    + पर्वतों के रंग -
    हेमार्जुन-तपनीय वैडूर्य-रजत हेममयाः॥12॥
    अन्वयार्थ : ये छहों पर्वत क्रम से सोना, चाँदी, तपाया हुआ सोना, वैडूर्यमणि, चाँदी और सोना इनके समान रंगवाले हैं ॥१२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    वे पर्वत क्रम से हेम आदि वर्णवाले जानने चाहिए। हिमवान् पर्वतका रंग हेममय अर्थात् चीनी रेशमके समान है। महाहिमवान् का रंग अर्जुनमय अर्थात् सफेद है। निषध पर्वतका रंग-तपाये गये सोनेके समान अर्थात् उगते हुए सूर्यके रंगके समान है। नील पर्वतका रंग वैडूर्यमय अर्थात् मोरके गलेकी आभावाला है। रुक्‍मी पर्वतका रंग रजतमय अर्थात् सफेद है और शिखरी पर्वतका रंग हेममय अर्थात् चीनी रेशमके समान है।

    फिरभी इन पर्वतोंकी और विशेषता का ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    हिमवान् हेममय चीनपट्ट वर्ण का है । महाहिमवान् अर्जुनमय शुक्लवर्ण है । निषध तपनीयमय मध्याह्न के सूर्य के समान वर्णवाला है। नील वैडूर्यमय मोर के कंठ के समान वर्ण का है । रुक्मी रजतमय शुक्लवर्ण वाला है। शिखरी हेममय चीनपट्ट वर्ण का है। 'मय' विकारार्थक है । हरएक पर्वत के दोनों ओर वनखंड और वेदिकाएँ हैं।

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    + पर्वतों का आकार -
    मणि-विचित्र-पार्श्‍वा उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः॥13॥
    अन्वयार्थ : इनके पार्श्‍व मणियों से चित्र-विचित्र हैं तथा वे ऊपर, मध्‍य और मूल में समान विस्‍तारवाले हैं ॥१३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    इन पर्वतोंके पार्श्‍व भाग नाना रंग और नाना प्रकार की प्रभा आदि गुणोंसे युक्‍त मणियोंसे विचित्र हैं, इसलिए सूत्रमें इन्‍हें मणियोंसे विचित्र पार्श्‍ववाले कहा है। अनिष्‍ट आकारके निराकरण करनेके लिए सूत्रमें 'उपरि' आदि पद रखे हैं। 'च' शब्‍द मध्‍यभागका समुच्‍चय करनेके लिए है। तात्‍पर्य यह है कि इनका मूलमें जो विस्‍तार है वही ऊपर और मध्‍यमें है।

    इन पर्वतोंके मध्‍यमें जो तालाब हैं उनका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    इन पर्वतों के पार्श्वभाग रंग-बिरंगी मणियों से चित्र-विचित्र हैं और ये ऊपर नीचे और मध्य में तुल्य विस्तारवाले हैं। उपरि आदि वचन अनिष्ट संस्थान की निवृत्ति के लिए है । च शब्द से मध्य का ग्रहण कर लेना चाहिये ।

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    + पर्वतों पर तालाब -
    पद्ममहापद्मतिगिञ्छकेशरि महापुण्डरीकपुण्डरीका-हृदास्तेषामुपरि॥14॥
    अन्वयार्थ : इन पर्वतों के ऊपर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिंछ, केस‍री, महापुण्‍डरीक और पुण्‍डरीक ये तालाब हैं ॥१४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    पद्म, महापद्म, तिगिंच्‍छ, केसरी, महापुण्‍डरीक और पुण्‍डरीक ये छह तालाब हैं जो उन हिमवान् आदि पर्वतोंपर क्रमसे जानना चाहिए।

    इनमें-से पहले तालाबके आकार-विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    पद्म आदि कमलों के नाम हैं। इनके साहचर्य से सरोवरों की भी पद्म आदि संज्ञाएँ हैं।

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    + तालाब की लम्बाई-चौड़ाई -
    प्रथमो योजन-सहस्रायामस्तदर्द्धविष्कम्भो हृदः।॥15॥
    अन्वयार्थ : पहला तालाब एक हजार योजन लम्‍बा और इससे आधा चौड़ा है ॥१५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    पद्म नामक तालाब पूर्व और पश्चिम एक हजार योजन लम्‍बा तथा उत्‍तर और दक्षिण पाँच सौ योजन चौड़ा है। इसका तलभाग वज्रसे बना हुआ है। तथा इसका तट नाना प्रकारके मणि और सोनेसे चित्रविचित्र है।

    अब इसकी गहराई दिखलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    प्रथम सरोवर पूर्व-पश्चिम एक हजार योजन लम्बा और उत्तर दक्षिण पाँच सौ योजन चौड़ा है । इसका वज्रमय तल और मणिजटित तट है। यह आधी योजन ऊँची और पांच सौ धनुष विस्तृत पद्मवरवेदिका से वेष्टित है । चारों-ओर यह मनोहर वनों से शोभायमान है। विमल स्फटिक की तरह स्वच्छ जलवाला विविध जलपुष्पों से परितः विराजित शरत्काल में चन्द्रतारा आदि के प्रतिबिम्बों से चमचमायमान यह सरोवर ऐसा मालूम होता है मानो आकाश ही पृथ्वी पर उलट गया हो ।

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    + तालाब की गहराई -
    दशयोजनावगाहः॥16॥
    अन्वयार्थ : तथा दस योजन गहरा है ॥१६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अवगाह, अधःप्रवेश और निम्‍नता ये एकार्थवाची नाम है। पद्म तालाबकी गहराई दस योजन है यह इस सूत्रका तात्‍पर्य है।

    इसके बीचमें क्‍या है ?

    राजवार्तिक :
    पहिले सरोवर की गहराई दस योजन है।

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    + तालाब के बीच में कमल -
    तन्मध्ये योजनं पुष्करम्॥17॥
    अन्वयार्थ : इसके बीच में एक योजन का कमल है ॥१७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्रमें जो 'योजनम्' पद दिया है उससे एक योजन प्रमाण लेना चाहिए। तात्‍पर्य यह है कि कमलका पत्‍ता एक कोस लम्‍बा है और उसकी कर्णिकाका विस्‍तार दो कोसका है, इसलिए कमल एक योजन लम्‍बा और एक योजन विस्‍तारवाला है। इस कमलकी नाल जलतल से दो कोस ऊपर उठी है और इसके पत्‍तोंकी उतनी ही मोटाई है। इस प्रकार यह कमल जानना चाहिए।

    अब दूसरे तालाब और कमलोंकी लम्‍बाई आदिका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    इसके मध्य में एक योजन का कमल है । इसके पत्ते एक-एक कोस के और कणिका दो कोस विस्तृत है। जल से दो कोस ऊंचा नाल है और पत्रों का भाग भी दो कोस ऊंचा ही है । इसका मूलभाग वज्रमय, कन्द अरिष्ट मणिमय, मृणाल रजतमणिमय और नाल वैडूर्यमणिमय है । इसके बाहरी पत्ते सुवर्णमय, भीतरी पत्ते चाँदी के समान, केसर सुवर्ण के समान और कणिका अनेक प्रकार की चित्रविचित्र मणियों से युक्त है । इसके आसपास 108 कमल और भी हैं। इसके ईशान उत्तर और वायव्य में श्रीदेवी और सामानिक देवों के चार हजार कमल हैं। आग्नेय में अभ्यन्तर परिषद् के देवों के बत्तीस हजार कमल हैं । दक्षिण में मध्यम परिषद्-देवों के चालीस हजार कमल हैं। नैर्ऋत्य में बाह्यपरिषद् देवों के अड़तालीस हजार कमल हैं। पश्चिम में सात अनीक महत्तरों के सात कमल हैं। चारों दिशाओं में आत्मरक्ष देवों के सोलह हजार कमल हैं। ये सब परिवार कमल मुख्य कमल से आधे ऊंचे हैं।

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    + बाकी तालाबों के आकार -
    तद् द्विगुण-द्विगुणा हृदाः पुष्कराणि च॥18॥
    अन्वयार्थ : आगे के तालाब और कमल दूने-दूने हैं ॥१८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्रमें जो 'तत्' पद आया है उससे तालाब और कमल दोनोंका ग्रहण किया है। आगेके तालाब और कमल दूने-दूने हैं इस व्‍याप्तिका ज्ञान करानेके लिए सूत्रमें 'तद्द्विगुणद्विगुणाः' कहा है।


    शंका – ये तालाब और कमल किसकी अपेक्षा दूने हैं ?

    समाधान – लम्‍बाई आदिकी अपेक्षा। पद्म तालाब की जो लम्‍बाई, विस्‍तार और गहराई है महापद्म तालाबकी लम्‍बाई, विस्‍तार और गहराई इससे दूनी है। इससे तिगिंछ तालाबकी लम्‍बाई, विस्‍तार और गहराई दूनी है।

    शंका – कमल क्‍या है ?

    समाधान – ये भी लम्‍बाई आदिकी अपेक्षा दूने-दूने हैं ऐसा यहाँ सम्‍बन्‍ध करना चाहिए।

    इनमें निवास करनेवाली देवियोंके नाम, आयु और परिवारका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1. पद्म-हृद से दूना लम्बा-चौड़ा और गहरा महापद्म-हृद, महापद्म-हृद से दूना लम्बा चौड़ा और गहरा तिगिंछ-हृद है। इसी तरह कमल भी दूने लम्बे-चौड़े हैं।

    2-4. प्रश्न – यदि पद्महृद से आगे के दो सरोवरों को ही दूना-दूना कहना है तो 'द्विगुणाः' यहाँ बहुवचन न कहकर द्विवचन कहना चाहिए ?

    उत्तर – 'आदि और अन्त के पद्म और पुण्डरीक-हृद से दक्षिण और उत्तर के दो-दो हृद दूने-दूने प्रमाणवाले हैं।' इस अर्थ की अपेक्षा बहुवचन का प्रयोग किया है। यद्यपि सूत्र में दिये गये 'तत्' शब्द से पद्म-हृद का ही ग्रहण होता है फिर भी व्याख्यान से विशेष अर्थ का बोध होता है। आगे 'उत्तरा दक्षिणतुल्याः' सूत्र से भी इसी अर्थ का समर्थन होता है।

    प्रश्न – यदि 'तत्' शब्द का द्विगुण शब्द से समास किया जाता है तो 'तद्विगुण' शब्द का ही द्वित्व होगा न कि केवल द्विगुणशब्द का। यदि पहिले द्विगुण शब्द को द्वित्व किया जाता है तो 'तत्' शब्द से समास नहीं हो सकेगा। यदि वीप्सार्थक द्वित्व किया जाता है तो वाक्य ही रह जायगा।

    उत्तर – 'तत्' यह अपादानार्थक निपात है। अतः 'ततो द्विगुणद्विगुणाः' 'तद्विगुणद्विगुणाः' पद बन जाता है।

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    + तालाबों में देवियों का निवास -
    तन्निवासिन्यो देव्यः श्री-ह्री-धृति-कीर्ति-बुद्धि-लक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयः ससामानिक परिषत्काः ॥19॥
    अन्वयार्थ : इनमें श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्‍मी ये देवियाँ सामानिक और परिषद् देवों के साथ निवास करती हैं। तथा इनकी आयु एक पल्‍योपम है ॥१९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    इन कमलोंकी कर्णिकाके मध्‍यमें शरत्कालीन निर्मल पूर्ण चन्‍द्रमाकी कान्तिको हरनेवाले एक कोस लम्‍बे, आधा कोस चौड़े और पौन कोस ऊँचे महल हैं। उनमें निवास करनेवाली श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्‍मी नामवाली देवियाँ क्रमसे पद्म आदि छह कमलोंमें जानना चाहिए। उनकी स्थिति एक पल्‍योपम की है इस पदके द्वारा उनकी आयुका प्रमाण कहा है। समान स्‍थानमें जो होते हैं वे सामानिक कहलाते हैं। सामानिक और परिषत्‍क ये देव हैं। वे देवियाँ इनके साथ रहती है। तात्‍पर्य यह है कि मुख्‍य कमलके जो परिवार कमल हैं उनके महलों में सामानिक और परिषद् जाति के देव रहते हैं।

    जिन नदियोंसे क्षेत्रोंका विभाग हुआ है अब उन नदियोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    श्री आदि का द्वन्द्व समास है। वे क्रमशः पद्म आदि ह्रदों में रहती हैं। इनकी आयु एक पल्य की है। ये सामानिक और पारिषत्क जाति के देवों के साथ निवास करती हैं।

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    + क्षेत्रों की नदियाँ -
    गंगासिन्धु रोहिद्रोहितास्या-हरिद्धरिकान्ता सीतासीतोदा-नारीनरकान्ता सुवर्णरूप्यकूला रक्तारक्तोदाः सरितस्तन्मध्यगाः ॥20॥
    अन्वयार्थ : इन भरत आदि क्षेत्रों में-से गंगा, सिन्‍धु, रो‍हित, रोहितास्‍या, हरित्, हरिकान्‍ता, सीता, सीतोदा, नारी, नरकान्‍ता, सुवर्णकूला, रूप्‍यकूला, रक्‍ता और रक्‍तोदा नदियाँ बही हैं ॥२०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    ये नदियाँ हैं तालाब नहीं। वे नदियाँ अन्‍तरालसे हैं या पास-पास इस बातका खुलासा करने के लिए सूत्रमें 'तन्‍मध्‍यगाः' पद दिया है। इसका यह भाव है कि उन क्षेत्रोंमें या उन क्षेत्रोंमें-से होकर वे नदियाँ बही हैं। एक स्‍थान में सबका प्रसंग प्राप्‍त होता है, अतः इसका निराकरण करके दिशा विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    इन क्षेत्रों के मध्य में गंगा आदि चौदह नदियाँ हैं।

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    + नदियों की दिशा -
    द्वयोर्द्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः॥21॥
    अन्वयार्थ : दो-दो नदियों में-से पहली-पहली नदी पूर्व समुद्र को जाती है ॥२१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    इस सूत्रमें 'दो-दो नदियाँ एक-एक क्षेत्र में हैं' इस प्रकार वाक्‍यविशेष का सम्‍बन्‍ध कर लेनेसे एक क्षेत्रमें सब नदियोंके प्रसंग होनेका निराकरण हो जाता है। 'पूर्वाः पूर्वगाः' यह वचन दिशाविशेष का ज्ञान करानके लिए दिया है। इन नदियोंमें जो प्रथम नदियाँ हैं वे पूर्व समुद्रमें जाकर मिली हैं। सूत्रमें जो 'पूर्वगाः' पद है उसका अर्थ 'पूर्व समुद्रको जाती हैं' यह है।


    शंका – पूर्वत्‍व किस अपेक्षासे है ?

    समाधान – सूत्रमें किये गये निर्देशकी अपेक्षा।

    शंका – यदि ऐसा है तो गंगा, सिन्‍धु आदि सात नदियाँ पूर्व समुद्रको जानेवाली प्राप्‍त होती है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं, क्‍योंकि 'द्वयोः द्वयोः' इन पदों का सम्‍बन्‍ध है। तात्‍पर्य यह है कि दो-दो नदियों में-से प्रथम-प्रथम नदी बहकर पूर्व समुद्रमें मिली है।

    अब इतर नदियोंके दिशाविशेष का ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    दो-दो नदियाँ एक-एक क्षेत्र में बहती हैं। 'पूर्वाः पूर्वगाः' से नदियों के बहाव की दिशा बताई है।

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    + तीसरी नदी की दिशा -
    शेषास्त्वपरगाः॥22॥
    अन्वयार्थ : किन्‍तु शेष नदियाँ पश्चिम समुद्र को जाती हैं ॥२२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    दो-दो नदियोंमें जो शेष नदियाँ हैं वे बहकर पश्चिम समुद्रमें मिली हैं। 'अपरगाः' पद का अर्थ अपर समुद्र को जाती है यह है। उनमें-से पद्म तालाबसे उत्‍पन्‍न हुई और पूर्व तोरणद्वारसे निकली हुई गंगा नदी है। पश्चिम तोरणद्वारसे निकली हुई सिन्‍धु नदी है तथा उत्तर तोरणद्वारसे निकली हुई रोहितास्‍या नदी है। महापद्म तालाबसे उत्‍पन्‍न हुई और दक्षिण तोरणद्वारसे निकली हुई रोहित नदी है तथा उत्तर तोरणद्वारसे निकली हुई हरिकान्‍ता नदी है। तिगिंछ तालाबसे उत्‍पन्‍न हुई और दक्षिण तोरणद्वारसे निकली हुई हरित नदी है। और उत्तर तोरणद्वारसे निकली हुई सीतोदा नदी है। केसरि तालाबसे उत्‍पन्‍न हुई और दक्षिण तोरणद्वारसे निकली हुई सीता नदी है त‍था उत्तर तोरणद्वारसे निकली हुई नरकान्‍ता नदी है। महापुण्‍डरीक तालाबसे उत्‍पन्‍न हुई और दक्षिण तोरणद्वारसे निकली हुई नारी नदी है। तथा उत्तर तोरणद्वारसे निकली हुई रूप्‍यकूला नदी है। पुण्‍डरीक तालाबसे उत्‍पन्‍न हुई और दक्षिण तोरणद्वारसे निकली हुई सुवर्णकूला नदी है। पूर्व तोरणद्वारसे निकली हुई रक्‍ता नदी है और पश्चिम तोरणद्वारसे निकली हुई रक्‍तोदा नदी है।

    अब इनकी परिवार-नदियोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1. पद्महृद के पूर्व तोरणद्वार से गंगा नदी निकली है। वह पाँच सौ योजन पूर्व की ओर जाकर गंगा कूट से 523 6/19 दक्षिणमुख जाती है। स्थूल मुक्तावली की तरह 100 योजन धारावाली 6 1/4 योजन विस्तृत आधे योजन गहरी यह आगे 60 योजन लंबे चौड़े 10 योजन गहरे कुड में गिरती है। फिर दक्षिण तरफ से निकलकर खंडकप्रपात गुहा से विजयार्ध को लांघकर दक्षिण-भरतक्षेत्र को प्राप्त करके पूर्वमुखी होकर लवणसमुद्र में मिल जाती है।

    2. पद्महृद के पश्चिम तोरण से सिन्धु नदी निकलती है। वह 500 योजन आगे जाकर सिन्धु कूट से टकराकर सिन्धुकुण्ड में गिरती हुई तमिस्र गुहा से विजयार्ध होती हुई पश्चिम लवणसमुद्र में मिलती है। गंगाकुण्ड के द्वीप के प्रासाद में गंगादेवी और सिन्धुकुण्डवर्ती द्वीप के प्रासाद में सिन्धु देवी रहती है । हिमवान् पर्वत पर गंगा और सिन्धु के मध्य में दो कमल के आकार के द्वीप हैं। इनके प्रासादों में क्रमशः बला और लवणा नाम की एक पल्यस्थिति वाली देवियाँ रहती हैं ।

    3. पद्महृद के ही उत्तर द्वार से रोहितास्या नदी निकली है । यह 267 6/19 योजन उत्तर की तरफ जाकर श्रीदेवी के कुण्ड में गिरती है। फिर कुण्ड के उत्तर द्वार से निकलकर उत्तर की तरफ बहती हुई शब्दवान् वृत्तवेदाढ्य को घेरकर पश्चिम की ओर बहकर पश्चिम लवण समुद्र में मिलती है।

    4. रोहित् नदी महाहिमवान् पर्वतवर्ती महापद्महृद के दक्षिण तोरणद्वार से निकलकर पूर्वलवण समुद्र में मिलती है।

    5. हरिकान्ता नदी महाहिमवान् पर्वतवर्ती महापद्महृद के उत्तर तोरणद्वार से निकलकर रोहित की तरह पहाड़ की तलहटी में जाकर कुण्ड में गिरती है। फिर उत्तर की ओर बहकर विकृतवान् वृत्तवेदाढ्य को आधे योजन दूर से घेरकर पश्चिम मुख हो पश्चिम समुद्र में गिरती है।

    6. हरित् नदी निषध पर्वतवर्ती तिगिंछ हृद के दक्षिण तोरण द्वार से निकलकर पूर्व की ओर बहकर कुण्ड में गिरती है । फिर पूर्व समुद्र में मिलती है ।

    7. सीतोदा नदी तिगिंछ-हृद के उत्तर तोरण द्वार से निकलकर कुण्डमें गिरती है फिर कुण्डके उत्तर तोरण द्वार से निकलकर देवकुरु के चित्र विचित्रकूट के बीच से उत्तर-मुख बहती हुई मेरु-पर्वत को आधे-योजन दूर से ही घेरकर विद्युत्प्रभ को भेदती हुई अपर विदेह के बीच से बहती हुई पश्चिम-समुद्र में मिलती है ।

    8. सीता नदी नीलपर्वतवर्ती केसरी-हृद के दक्षिण तोरणद्वार से निकलकर कुंड में गिरती हुई माल्यवान् को भेदती हुई पूर्वविदेह में बहकर पूर्वसमुद्र में मिलती है।

    9. नरकान्ता नदी केसरी-हृद के उत्तर तोरणद्वार से निकलकर गन्धवान् वेदाढ्य को घेरती हुई पश्चिम समुद्र में मिलती है।

    10. नारी नदी रुक्मि पर्वत के ऊपर स्थित महापुण्डरीक-हृद के दक्षिण तोरणद्वार से निकलकर गन्धवान् वेदाढ्य को घेरती हुई पूर्वसमुद्र में गिरती है।

    11. इसी महापुण्डरीक-हृद के उत्तर तोरणद्वार से रूप्यकूला नदी निकलती है और माल्यवान् वृत्तवेदाढ्य को घेरकर पश्चिम समुद्र में गिरती है ।

    12. शिखरी पर्वत पर स्थित पुण्डरीक-हृद के दक्षिण तोरणद्वार से सुवर्णकूला नदी निकलती है और माल्यवान् वृत्तवेदाढ्य को घेरती हुई पूर्वसमुद्र में मिलती है।

    13. इसी पुण्डरीक हृद के पूर्वतोरणद्वार से रक्ता नदी निकली है और यह गंगा नदी की तरह पूर्वसमुद्र में मिलती है ।

    14. इसी पुण्डरीक-हृद के पश्चिम तोरणद्वार से रक्तोदा नदी निकलती है और पश्चिम समुद्र में मिलती है। ये सभी नदियाँ अपने-अपने नाम के कुण्डों में गिरती हैं और उसमें नदी के नामवाली देवियाँ रहती हैं। गंगा, सिन्धु, रक्ता और रक्तोदा नदियां कुटिलगति होकर बहती हैं शेष ऋजुगति से। सभी नदियों के दोनों किनारे वनखंडों से सुशोभित हैं।

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    + परिवार नदियाँ -
    चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृता गंगासिन्ध्वादयो नद्यः॥23॥
    अन्वयार्थ : गंगा और सिन्‍धु आदि नदियों की चौदह-चौदह हजार परिवार नदियाँ हैं ॥२३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    शंका – 'गंगा सिन्‍धु आदि' पदका ग्रहण किसलिए किया गया है ?

    समाधान – नदियोंका ग्रहण करने के लिए।

    शंका – उनका तो प्रकरण है ही, अतः 'गङ्गासिन्‍ध्‍वादि' पदके बिना ग्रहण किये ही उनका सम्‍बन्‍ध हो जाता है ?

    समाधान – ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्‍यों‍कि 'अनन्‍तरका विधान होता है या प्रतिषेध' इस नियमके अनुसार पश्चिमकी ओर बहनेवाली नदियोंका ही ग्रहण होता है जो कि इष्‍ट नहीं, अतः सूत्रमें 'गङ्गासिन्‍ध्‍वादि' पद दिया है।


    शंका – तो सूत्रमें 'गङ्गादि' इतने पद का ही ग्रहण रहे ?

    समाधान – यदि 'गङ्गादि' इतने पदका ही ग्रहण किया जाये तो पूर्वकी ओर बहनेवाली नदियोंका ही ग्रहण होवे जो भी इष्‍ट नहीं, अतः दोनों प्रकारकी नदियोंका ग्रहण करनेके लिए 'गङ्गासिन्‍ध्‍वादि' पदका ग्रहण किया है। यद्यपि 'गङ्गासिन्‍ध्‍वादि' इतने पदके ग्रहण करनेसे ही यह बोध हो जाता है कि ये नदियाँ हैं, फिर भी सूत्रमें जो 'नदी' पदका ग्रहण किया है वह 'द्विगुणा द्विगुणाः' इसके सम्‍बन्‍धके लिए किया है। गंगाकी परिवार नदियाँ चौदह हजार हैं। इसी प्रकार सिन्‍धुकी भी परिवार नदियाँ चौदह हजार हैं। इस प्रकार आगेकी परिवार नदियाँ विदेह पर्यन्‍त दूनी-दूनी होती गयी हैं। और इससे आगेकी परिवार नदियाँ आधी-आधी होती गयी हैं।

    अब उक्‍त क्षेत्रोंके विस्‍तारका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    यदि प्रकरणगत होने के कारण 'गंगासिन्धु आदि'का ग्रहण नहीं किया जाता तो 'अनन्तर का ही विधि या निषेध होता है' इस नियम के अनुसार अपरगा-पश्चिमसमुद्र में मिलनेवाली नदियों का ही ग्रहण होता। इसी तरह यदि 'गंगा' का ग्रहण करते तो पूर्वगा-पूर्व समुद्र में गिरनेवाली नदियों का ही ग्रहण होता। यद्यपि 'नदी' कहने से सबका ग्रहण हो सकता था फिर भी 'द्विगुण-द्विगुण' बताने के लिए 'गंगा सिन्धु आदि' पद दिया गया है। यदि केवल 'द्विगुण' का सम्बन्ध करते तो 'गंगा की चौदह हजार और सिन्धु की अट्ठाईस हजार' यह अनिष्ट प्रसंग होता। अतः गंगा और सिन्धु दोनों के चौदह हजार, रोहित रोहितास्या के अट्ठाइस हजार, हरित् हरिकान्ता के छप्पन हजार और सीता सीतोदा के एक लाख बारह हजार सहायक नदियाँ हैं। आगे 'उत्तरा दक्षिणतुल्याः' के अनुसार व्यवस्था है।

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    + भरत क्षेत्र का विस्‍तार -
    भरतः षड्विंशति-पंचयोजनशत-विस्तारः षट्चैकोनविंशतिभागा-योजनस्य ॥24॥
    अन्वयार्थ : भरत क्षेत्र का विस्‍तार पाँच सौ छब्‍बीस सही छह बटे उन्‍नीस योजन है ॥२४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    यहाँ टीकामें पहले 'षड्विंशतिपंचयोजनशतविस्‍तारः' पद का समास किया गया है जिसका अभिप्राय यह है कि भ‍रतवर्ष पाँच सौ छब्‍बीस योजनप्रमाण विस्‍तार से युक्‍त है।


    शंका – क्‍या इसका इतना ही विस्‍तार है ?

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि इसका एक योजन का छह बटे उन्‍नीस योजन विस्‍तार और जोड़ लेना चाहिए।


    अब इतर क्षेत्रोंके विस्‍तार विशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1. यद्यपि व्याकरण के नियमानुसार वर्ष शब्द का पूर्व-निपात होना चाहिए था फिर भी आनुपूर्वी दिखाने के लिए 'वर्षधर' शब्द का पूर्वप्रयोग किया है। 'लक्षणहेत्वोः क्रियायाः' इस प्रयोग के बल से यह नियम फलित होता है।

    2. 'विदेहान्त' पद से मर्यादा ज्ञात हो जाती है । अर्थात् हिमवान् का विस्तार 1052 12/19 योजन, हैमवत का 2005 5/19 योजन, महाहिमवान् का 4010 10/19 योजन, हरिवर्ष का 8421 1/19 योजन, निषध का 16842 2/19 और विदेह का 33684 4/19 योजन है।

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    + बाकी क्षेत्रों का विस्तार -
    तद् द्विगुण द्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहान्ताः॥25॥
    अन्वयार्थ : विदेह पर्यन्‍त पर्वत और क्षेत्रों का विस्‍तार भर‍त क्षेत्र के विस्‍तार से दूना-दूना है ॥२५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिनका भरतसे दूना-दूना विस्‍तार है वे भरत से दूने-दूने विस्‍तारवाले कहे गये हैं। यहाँ 'तद्द्विगुणद्विगुणविस्‍ताराः' में बहुव्रीहि समास है।

    शंका – वे दूने-दूने विस्‍तारवाले क्‍या हैं ?

    समाधान – पर्वत और क्षेत्र।

    शंका – क्‍या सबका दूना-दूना विस्‍तार है ?

    समाधान – नहीं, किन्‍तु विदेह क्षेत्र तक दूना-दूना विस्‍तार है।

    क्षेत्र और पर्वतोंका विस्‍तार क्रमसे किस प्रकार है अब इस बातके बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    विदेहक्षेत्र पर्यन्त के पर्वत और क्षेत्र क्रमशः दूने-दूने विस्तारवाले हैं।

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    + उत्तर-दक्षिण में समानता -
    उत्तरा दक्षिण-तुल्याः ॥26॥
    अन्वयार्थ : उत्तर के क्षेत्र और पर्वतों का विस्‍तार दक्षिण के क्षेत्र और पर्वतों के समान है ॥२६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    'उत्तर' इस पदसे ऐरावत क्षेत्रसे लेकर नील पर्यन्‍त क्षेत्र और पर्वत लिये गये हैं। इनका विस्‍तार दक्षिण दिशावर्ती भरतादिके समान जानना चाहिए। पहले जितना भी कथन कर आये हैं उन सबमें यह विशेषता जाननी चाहिए। इससे तालाब और कमल आदिकी समानता लगा लेनी चाहिए।

    यहाँ पर शंकाकार कहता है कि इन पूर्वोक्‍त भरतादि क्षेत्रों में मनुष्‍यों का अनुभव आदि क्‍या समान हैं या कुछ विशेषता है ? इस शंका का समाधान करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    ऐरावत आदि नील-पर्वत पर्यन्त क्षेत्र पर्वत भरत आदि के समान विस्तारवाले हैं।

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    + भरत-एरावत क्षेत्र में काल परिवर्तन -
    भरतैरावतयोर्वृद्धिह्रासौ षट्‍समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम्‌ ॥27॥
    अन्वयार्थ : भरत और ऐरावत क्षेत्रों में उत्‍सर्पिणी और अवसर्पिणी के छह समयों की अपेक्षा वृद्धि और ह्रास होता रहता है ॥२७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    वृद्धि और ह्रास इन दोनों पदों में कर्मधारय समास है।

    शंका – किनकी अपेक्षा वृद्धि और ह्रास होता है ?

    समाधान – उत्‍सर्पिणी और अवसर्पिणीसम्‍बन्‍धी छह समयोंकी अपेक्षा।

    शंका – किनका छह समयों की अपेक्षा वृद्धि और ह्रास होता है ?

    समाधान – भरत और ऐरावत क्षेत्र का। इसका यह मतलब नहीं कि उन क्षेत्रोंका वृद्धि और ह्रास होता है, क्‍योंकि ऐसा होना असम्‍भव है। किन्‍तु उन क्षेत्रोंमें रहनेवाले मनुष्‍योंका वृद्धि और ह्रास होता है। अथवा, 'भरतैरावतयोः' षष्‍ठी विभक्ति न होकर अधिकरणमें य‍ह निर्देश किया है जिससे इस प्रकार अर्थ होता है कि भरत और ऐरावत क्षेत्र में मनुष्‍योंकी वृद्धि और ह्रास होता है।

    शंका- यह वृद्धि और ह्रास किंनिमित्‍तक होता है ?

    समाधान- अनुभव, आयु और प्रमाण आदि निमित्‍तक होता है। अनुभव उपभोगको कहते हैं, जीवित रहनेके परिमाणको आयु कहते हैं और शरीरकी ऊँचाईको प्रमाण कहते हैं। इस प्रकार इत्‍यादि कारणोंसे मनुष्‍योंका वृद्धि और ह्रास होता है।

    शंका – यह वृद्धि और ह्रास किस निमित्‍तसे होते हैं ?

    समाधान – ये कालके निमित्‍त से होते हैं। वह काल दो प्रकारका है- उत्‍सर्पिणी और अवसर्पिणी। इनमें-से प्रत्‍येकके छह भेद हैं। ये दोनों काल सार्थक नामवाले हैं। जिसमें मनुष्‍योंके अनुभव आदिकी वृद्धि होती है वह उत्‍सर्पिणी काल है और जिसमें इनका ह्रास होता है वह अवसर्पिणी है। अवसर्पिणीके छह भेद हैं-सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुष्‍षमा, दुष्‍षमसुषमा, दुष्‍षमा और अतिदुष्‍षमा। इसीप्रकार उत्‍सर्पिणी भी अतिदुष्‍षमासे लेकर सुषमसुषमा तक छह प्रकार का है। अवसर्पिणी कालका परिमाण दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है और उत्‍सर्पिणीका भी इतना ही है। ये दोनों मिलकर एक कल्‍पकाल कहे जाते हैं। इनमें-से सुषमसुषमा चार कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण है। इसके प्रारम्‍भमें मनुष्‍य उत्‍तरकुरुके मनुष्‍योंके समान होते हैं। फिर क्रमसे हानि होनेपर तीन कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण सुषमा काल प्राप्‍त होता है। इसके प्रारम्‍भमें मनुष्‍य हरिवर्ष के मनुष्‍योंके समान होते हैं। तदनन्‍तर क्रमसे हानि होनेपर दो कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण सुषमदुष्‍ष्‍मा काल प्राप्‍त होता है। इसके प्रारम्‍भमें मनुष्‍य हैमवतके मनुष्‍योंके समान होते हैं। तदनन्‍तर क्रमसे हानि होकर ब्‍यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण दुष्‍षमसुषमा काल प्राप्‍त होता है। इसके प्रारम्‍भमें मनुष्‍य विदेह क्षेत्रके मनुष्‍योंके समान होते हैं। तदनन्‍तर क्रमसे हानि होकर इक्‍कीस हजार वर्षका दुष्‍षमा काल प्राप्‍त होता है। तदनन्‍तर क्रमसे हानि होकर इक्‍कीस हजार वर्षका अतिदुष्‍षमा काल प्राप्‍त होता है। इसी प्रकार उत्‍सर्पिणी भी विपरीत क्रमसे जाननी चाहिए।

    इतर भूमियोंमें क्‍या अवस्‍था है अब इस बातके बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-3 जैसे 'पर्वतदाह' कहने से पर्वतवर्ती वनस्पति आदि का दाह समझा जाता है उसी तरह क्षेत्र की वृद्धिह्रास का अर्थ है क्षेत्र में रहनेवाले मनुष्यों की आयु आदि का वृद्धिह्रास । अथवा, 'भरतैरावतयोः' यह आधारार्थक सप्तमी है । अर्थात् इन क्षेत्रों में मनुष्यों का अनुभव, आयु, शरीर की ऊंचाई आदि का वृद्धिह्रास होता है।

    4-5. जिसमें अनुभव, आयु, शरीरादि की उत्तरोत्तर उन्नति हो वह उत्सर्पिणी और जिसमें अवनति हो वह अवसर्पिणी है । अवसर्पिणी - सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुःषमा, दुःषमसुषमा, दुःषमा और अतिदुःषमा के भेद से छह प्रकार की और उत्सर्पिणी अतिदुःषमा के क्रम से छह प्रकार की है । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी दोनों ही दस-दस कोडाकोड़ी सागर की होती हैं। इन्हें कल्पकाल कहते हैं। उत्सर्पिणी अतिदुःषमा से प्रारम्भ होती है और क्रमश: बढ़ती हुई सुषमा तक जाती है।

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    + बाकी क्षेत्रों में काल परिवर्तन -
    ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः॥28॥
    अन्वयार्थ : भरत और ऐरावत के सिवा शेष भूमियाँ अवस्थित हैं ॥२८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्रमें 'ताभ्‍याम्' पदसे भरत और ऐरावत क्षेत्रका ग्रहण किया है। इन दोनों क्षेत्रोंसे शेष भूमियाँ अवस्थित हैं। उन क्षेत्रोंमें उत्‍सर्पिणी और अवसर्पिणी काल नहीं हैं।

    इन भूमियोंमें मनुष्‍य क्‍या तुल्‍य आयुवाले होते हैं या कुछ विशेषता है इस बातके बतलानेके लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    भरत और ऐरावत के सिवाय अन्य भूमियों में परिवर्तन नहीं होता, वे सदा एक-सी रहती है।

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    + मनुष्यों की आयु -
    एकद्वित्रिपल्योपम-स्थितयो हैमवतक हारिवर्षक दैवकुरुवकाः॥29॥
    अन्वयार्थ : हैमवत, हरिवर्ष और देवकुरु के मनुष्‍यों की स्थिति क्रम से एक, दो और तीन पल्‍योपम प्रमाण है॥२९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    हैमवत क्षेत्रमें उत्‍पन्‍न हुए हैमवतक कहलाते हैं। यहाँ हैमवत शब्‍दसे 'वुञ्' प्रत्‍यय करके हैमवतक शब्‍द बना है जिससे मनुष्‍योंका ज्ञान होता है। इसी प्रकार आगेके हारिवर्षक और दैवकुरवक इन दो शब्‍दोंमें जान लेना चाहिए। हैमवतक आदि तीन हैं और एक आदि तीन हैं। यहाँ इनका क्रमसे सम्‍बन्‍ध करते हैं जिससे यह अर्थ हुआ कि हैमवत क्षेत्रके मनुष्‍योंकी स्थिति एक पल्‍योपम है। हरिवर्ष क्षेत्रके मनुष्‍योंकी स्थिति दो पल्‍योपम है और देवकुरुक्षेत्रके मनुष्‍योंकी स्थिति तीन पल्‍योपम है।

    ढाई द्वीपमें जो पाँच हैमवत क्षेत्र हैं उनमें सदा सुषमदुष्‍षमा काल है। वहाँ मनुष्‍योंकी आयु एक पल्‍योपम है, शरीरकी ऊँचाई दो हजार धनुष हैं, उनका आहार एक दिनके अन्‍तरालसे होता है और शरीरका रंग नील कमलके समान है।

    पाँच हरिवर्ष नाम के क्षेत्रोंमें सदा सुषमा काल र‍हता है। वहाँ मनुष्‍योंकी आयु दो पल्‍योपम है, शरीरकी ऊँचाई चार हजार धनुष है, उनका आहार दो दिनके अन्‍तरालसे होता है और शरीर का रंग शंखके समान सफेद है।

    पाँच देवकुरु नामके क्षेत्रमें सदा सुषमसुषमा काल है। वहाँ मनुष्‍योंकी आयु तीन पल्‍योपम है, शरीरकी ऊँचाई छह हजार धनुष है। उनका भोजन तीन दिनके अन्‍तरालसे होता है और शरीरका रंग सोनेके समान पीला है।

    उत्‍तर दिशावर्ती क्षेत्रोंमें क्‍या अवस्‍था है इसके बतलानेके लिए अब आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    हैमवतक, हारिवर्षक और देवकुरुवक का अर्थ है इन क्षेत्रों में रहनेवाले मनुष्य ।

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    + उत्तर-दक्षिण में आयु में समानता -
    तथोत्तराः॥30॥
    अन्वयार्थ : दक्षिण के समान उत्‍तर में है ॥३०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिस प्रकार दक्षिणके क्षेत्रोंका व्‍याख्‍यान किया उसी प्रकार उत्‍तरके क्षेत्रोंका जानना चाहिए। हैरण्‍यवत क्षेत्रोंके मनुष्‍योंकी सब बातें हैमवतके मनुष्‍योंके समान हैं, रम्‍यक क्षेत्रके मनुष्‍योंकी सब बातें हरिवर्ष क्षेत्रके मनुष्‍योंके समान हैं और देवकुरु क्षेत्रके मनुष्‍योंकी सब बातें उत्‍तरकुरु क्षेत्रके मनुष्‍योंके समान हैं।

    पाँच विदेहोंमें क्‍या स्थिति है इसके बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    उत्तरवर्ती क्षेत्र दक्षिण के समान हैं अर्थात् हैरण्यवत हैमवत के समान, रम्यक हरिवर्ष के समान और देवकुरु उत्तरकुरु के समान हैं।

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    + विदेह क्षेत्र में आयु -
    विदेहेषु संख्येयकालाः॥31॥
    अन्वयार्थ : विदेहों में संख्‍यात वर्ष की आयुवाले मनुष्‍य हैं ॥३१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सब विदेहोंमें संख्‍यात वर्षकी आयुवाले मनुष्‍य होते हैं। वहाँ सुषमदुःषमा कालके अन्‍तके समान काल सदा अवस्थित है। मनुष्‍योंके शरीरकी ऊँचाई पाँच सौ धनुष होती है, वे प्रतिदिन आहार करते हैं। उनकी उत्‍कृष्‍ट आयु एक पूर्वकोटि वर्षप्रमाण और जघन्‍य आयु अन्‍तर्मु‍हूर्त प्रमाण है। इसके सम्‍बन्‍धमें एक गाथा कही जाती है-

    ''पुव्‍वस्‍स दु परिमाणं सदरिं खलु कोडिसदसहस्‍साइं।

    छप्‍पण्‍णं च सहस्‍सा बोद्धव्‍वा वासकोडीणं ।।''

    अर्थ:- ''एक पूर्वकोटिका प्रमाण सत्तर लाख करोड़ और छप्‍पन हजार करोड़ वर्ष जानना चाहिए।''

    भरतक्षेत्रका विस्‍तार पहले कह आये हैं। अब प्रकारान्‍तरसे उसका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    विदेहक्षेत्र में संख्यात वर्ष की आयु होती है । इसमें सुषमदुःषमाकाल सदा रहता है। मनुष्यों की ऊंचाई पाँच सौ धनुष है। नित्य भोजन करते हैं। उत्कृष्ट स्थिति एकपूर्वकोटि और जघन्य अन्तर्मुहूर्त है ।

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    + भरत क्षेत्र का विस्‍तार -
    भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवतिशतभागः॥32॥
    अन्वयार्थ : भरत क्षेत्र का विस्‍तार जम्‍बूद्वीप का एक सौ नब्‍बेवाँ भाग है ॥३२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    एक लाख योजन प्रमाण जम्‍बूद्वीपके विस्‍तारके एक सौ नब्‍बे भाग करनेपर जो एक भाग प्राप्‍त हो उतना भरतक्षेत्रका विस्‍तार है जो कि पूर्वोक्‍त पाँचसौ छब्‍बीस सही छह बटे उन्‍नीस योजन होता है।

    जो प‍हले जम्‍बूद्वीप कह आये हैं उसके चारों ओर एक वेदिका है। इसके बाद लवणसमुद्र है जिसका विस्‍तार दो लाख योजन है। इसके बाद धातकीखण्‍ड द्वीप है जिसका विस्‍तार चार लाख योजन है। अब इसमें क्षेत्र आदिकी संख्‍याका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-2. धातकीखंड और पुष्करवर के क्षेत्रों के विस्तार-निरूपण में सुविधा के लिए भरतक्षेत्र का प्रकारान्तर से विस्तार कहा है।

    3-7. लवण-समुद्र का सम भूमितल में दो लाख योजन विस्तार है। उसके मध्य में यवराशि की तरह 16 हजार योजन ऊँचा जल है। वह मूल में दश हजार योजन विस्तृत है तथा एक हजार योजन गहरा है। इसमें क्रमशः पूर्वादि दिशाओं में पाताल, बडवामुख, यूपकेसर और कलम्बुक नाम के चार महापाताल है। ये एक लाख योजन गहरे हैं, तथा इतने ही मध्य में विस्तृत हैं। जलतल और मूल में दस हजार योजन विस्तृत हैं। इन पातालों में सबसे नीचे के तीसरे भाग में वायु है, मध्य के तीसरे भाग में वायु और जल है तथा ऊपरी त्रिभाग में केवल जल है। रत्नप्रभा पृथिवी के खरभाग में रहनेवाली वातकुमार देवियों की क्रीड़ा से क्षुब्ध वायु के कारण 500 योजन जल की वृद्धि होती है। विदिशाओं में क्षुद्रपाताल हैं तथा अन्तराल में भी हजार-हजार पाताल है। मध्य में पचास-पचास क्षुद्र पाताल और भी हैं । रत्नवेदिका से तिरछे बयालीस हजार योजन जाकर चारों दिशाओं में वेलन्धर नागाधिपति के नगर हैं। वेलन्धर नागाधिपतियों की आयु एक पल्य, शरीर की ऊंचाई दश धनुष है । प्रत्येक के चार-चार अग्रमहिषी हैं। 42 हजार नाग लवणसमुद्र के आभ्यन्तर तट को, 72 हजार बाह्य तट को तथा 28 हजार बढ़े हुए जल को धारण करते हैं।

    8. रत्नवेदिका से तिरछे 12 हजार योजन जाकर 12 हजार योजन लंबा चौड़ा गौतम नाम के समुद्राधिपति का गौतम द्वीप है । रत्नवेदिका से प्रति 95 हाथ आगे एक हाथ गहराई है। इस तरह 95 योजनपर एक योजन, 95 हजार योजनपर एक हजार योजन गहराई है। लवण समुद्र के दोनों ओर तट हैं। लवणसमुद्र में ही पाताल हैं अन्य समुद्रों में नहीं। सभी समुद्र एक हजार योजन गहरे हैं । लवणसमुद्र का जल खारा है । वारुणीवर का मदिरा के समान, क्षीरोद का दूध के समान, घृतोद का घी के समान जल है। कालोद पुष्कर और स्वयम्भू रमण का जल पानी जैसा ही है। बाकी का इक्षुरस के समान जल है । लवण समुद्र, कालोदधि और स्वयम्भुरमण समुद्र में ही मछली, कछवा आदि जलचर हैं, अन्यत्र नहीं । लवण-समुद्र में नदी गिरने के स्थान पर 9 योजन अवगाहनावाले मत्स्य है, मध्य में 18 योजन के हैं। कालोदधि में नदीमुख में 18 योजन तथा मध्य में 36 योजन के मत्स्य हैं। स्वयम्भूरमण में नदीमुख में 500 योजन के तथा मध्य में एक हजार योजन के मत्स्य हैं।

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    + धातकीखण्‍ड में क्षेत्र तथा पर्वत -
    द्विर्धातकीखण्डे॥33॥
    अन्वयार्थ : धातकीखण्‍ड में क्षेत्र तथा पर्वत आदि जम्‍बूद्वीप से दूने हैं॥३३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    भ‍रत आदि क्षेत्रोंकी यहाँ आवृ‍त्ति विवक्षित है।

    शंका – सूत्रमें 'सुच्' प्रत्‍यय किसलिए किया है ?

    समाधान – वाक्‍य पूरा करने के लिए जो क्रिया जोड़ी जाती है उसकी आवृत्ति बतलानेके लिए 'सुच्' प्रत्‍यय किया है। जैसे 'द्विस्‍तावान् अयं प्रासादः' यहाँ 'सुच्' प्रत्‍यय के रहने से यह प्रासाद दुमंजिला है यह समझा जाता है। इसी प्रकार धातकीखण्‍डमें 'सुच्' से भरतादिक दूने ज्ञात हो जाते हैं। य‍था-अपने सिरे से लवणोद और कालोद को स्‍पर्श करनेवाले और दक्षिणसे उत्‍तर तक लम्‍बे इष्‍वाकार नामक दो पर्वतोंसे विभक्‍त होकर धातकीखण्‍ड द्वीपके दो भाग हो जाते हैं-पूर्व धातकीखण्‍ड और पश्चिम धातकीखण्‍ड। इन पूर्व और पश्चिम दोनों खण्‍डोंके मध्‍यमें दो मन्‍दर अर्थात् मेरु पर्वत हैं। इन दोनों के दोनों ओर भरत आदि क्षेत्र और हिमवान् आदि पर्वत हैं। इस प्रकार दो भरत दो हिमवान् इत्‍यादि रूपसे जम्‍बूद्वीपसे धातकीखण्‍ड द्वीपमें दूनी संख्‍या जाननी चाहिए। जम्‍बूद्वीपमें हिमवान् आदि पर्वतोंका जो विस्‍तार है धातकीखण्‍ड द्वीपमें हिमवान् आदि पर्वतोंका उससे दूना विस्‍तार है। चक्‍केमें जिस प्रकार आरे होते हैं उसी प्रकार ये पर्वत क्षेत्रोंके मध्‍यमें अवस्थित हैं। और चक्‍केमें छिद्रोंका जो आकार होता है यहाँ क्षेत्रोंका वही आकार है। जम्‍बूद्वीपमें जहाँ जम्‍बू वृक्ष स्थित है धातकीखण्‍डद्वीपमें परिवार वृक्षोंके साथ वहाँ धातकी वृक्ष स्थित है। और इसके सम्‍बन्‍धसे द्वीपका नाम धातकीखण्‍ड प्रसिद्ध है। इसको घेरे हुए कालोद समुद्र है। जिसका घाट ऐसा मालूम देता है कि उसे टाँकीसे काट दिया हो और जिसका विस्‍तार आठ लाख योजन है। कालोदको घेरे हुए पुष्‍करद्वीप है जिसका विस्‍तार सोलह लाख योजन है।

    द्वीप और समुद्रोंका उत्‍तरोत्‍तर जिस प्रकार दूना दूना विस्‍तार बतलाया है उसी प्रकार यहाँ धातकीखण्‍ड द्वीपके क्षेत्र आदिकी संख्‍या दूनी प्राप्‍त होती है अतः विशेष निश्‍चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1. जैसे 'द्विस्तावानयं प्रासादः' यहाँ 'मीयते' क्रिया का अध्याहार करके क्रिया की अभ्यावृत्ति में सुज् प्रत्यय होता है उसी तरह 'द्विर्धातकीखण्डे' में भी 'संख्यायन्ते' क्रिया का अध्याहार करके सुज् प्रत्यय कर लेना चाहिए । धातकीखंड में भरतादि क्षेत्र दो-दो हैं तथा उनका विस्तार भी दूना-दूना है ।

    2-4. धातकीखंड के भरत का आभ्यन्तर विष्कम्भ-६६१४ योजन, योजन के 129/212 भाग प्रमाण है । मध्यविष्कम्भ-१२५८१ योजन एक योजन के 39/212 भाग प्रमाण है । बाह्य विष्कम्भ-१८५४७ 55/212 योजन प्रमाण है।

    5. धातकीखंड में भरत से चौगुना हैमवत, हैमवत से चौगुना हरिक्षेत्र और हरिक्षेत्र से चौगुना विदेह क्षेत्र है । दक्षिण की तरह ही उत्तर के क्षेत्र है । धातकीखंड का विस्तार 4 लाख योजन है। इसकी परिधि 4110961 योजन है । क्षेत्र, पर्वत, नदी, वृत्तवेदाढ्य और सरोवरों के वे ही नाम है । विस्तार आदि दूना-दूना हो गया है।

    6. भरत और ऐरावत क्षेत्रों में कालोदधि और लवणसमुद्र को स्पर्श करनेवाले 100 योजन गहरे, 400 योजन ऊंचे, पर एक हजार योजन विस्तृत इष्वाकार पर्वत हैं। धातकीखंड में पूर्व और पश्चिम में दो मेरु पर्वत हैं। ये एक हजार योजन गहरे 9500 योजन मूल में विस्तृत, पृथ्वीतल पर 9400 योजन विस्तृत और 84000 हजार योजन ऊंचे हैं। भूमितल से 500 योजन ऊपर नन्दनवन है। यह 500 योजन विस्तृत है। 55500 योजन ऊपर सौमनस वन है। यह भी 500 योजन विस्तृत है। इससे 28 हजार योजन ऊपर पांडुकवन है । जम्बूद्वीप में जहाँ जम्बू वृक्ष है धातकीखंड में वहीं धातकीवृक्ष है। जैसे चक्र के आरे होते हैं उसी प्रकार के पर्वत हैं और आरे के बीच के भाग के समान क्षेत्र है। घातकीखंड को घेरे हुए कालोदधि समुद्र है। कालोदधि के बाद पुष्करवर द्वीप सोलह लाख योजन विस्तृत है।

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    + पुष्‍करार्द्ध द्वीप में क्षेत्र और पर्वत -
    पुष्करार्द्धे च॥34॥
    अन्वयार्थ : पुष्‍करार्द्ध में उतने ही क्षेत्र और पर्वत हैं ॥३४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    यहाँ 'द्वि' पदकी अनुवृत्ति होती है।

    शंका – 'द्वि' इस पदकी किसकी अपेक्षा अनुवृत्ति होती है ?

    समाधान – जम्‍बूद्वीपके भरत आदि क्षेत्र और हिमवान् आदि पर्वतोंकी अपेक्षा 'द्विः' इस पदकी अनुवृत्ति होती है।

    शंका – यह कैसे समझा जाता है ?

    समाधान – व्‍याख्‍यानसे। जिसप्रकार धातकीखण्‍ड द्वीपमें हिमवान् आदिका विस्‍तार कहा है उसी प्रकार पुष्‍करार्धमें हिमवान् आदिका विस्‍तार दूना बतलाया है। नाम वे ही हैं। दो इष्‍वाकार और दो मन्‍दर पर्वत पहलेके समान जानना चाहिए। जहाँ पर जम्‍बूद्वीपमें जम्‍बूवृक्ष है पुष्‍कर द्वीपमें वहाँ अपने परिवार वृक्षोंके साथ पुष्‍करवृक्ष हैं। इसीलिए इस द्वीपका पुष्‍करद्वीप यह नाम रूढ़ हुआ है।

    शंका – इस द्वीपको पुष्‍करार्ध यह संज्ञा कैसे प्राप्‍त हुई ?

    समाधान – मानुषोत्‍तर पर्वतके कारण इस द्वीपके दो विभाग हो गये हैं अतः आधे द्वीपको पुष्‍करार्ध य‍ह संज्ञा प्राप्‍त हुई।

    यहाँ शंकाकारका कहना है कि जम्‍बूद्वीपमें हिमवान् आदिकी जो संख्‍या है उससे हिमवान् आदिकी दूनी संख्‍या आधे पुष्‍करद्वीपमें क्‍यों कही जाती है पूरे पुष्‍कर द्वीपमें क्‍यों नहीं कही जाती ? अब इस शंकाका समाधान करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1. च शब्द से 'द्विः' इस संख्या को पूर्वसूत्र से अनुवृत्ति कर लेनी चाहिए। यह द्विगुणता जम्बूद्वीप के भरतादि की संख्या की अपेक्षा से है। यद्यपि धातकीखंड का वर्णन अनन्तर निकट है, फिर भी इच्छानुसार जम्बूद्वीप की संख्या से ही द्विगुणता लेनी चाहिये।

    2-4. पुष्करार्ध के भरत का आभ्यन्तर विष्कम्भ-४१५७९ योजन और 73 भाग है। मध्यविष्कम्भ 53512 योजन और 199 भाग प्रमाण है । बाह्यविष्कम्भ 65442 योजन और 13 भाग प्रमाण है ।

    5. विदेह तक एक क्षेत्र से दूसरा क्षेत्र चौगुने विस्तारवाला है। उत्तर के क्षेत्रों का विस्तार क्रमशः दक्षिण के क्षेत्रों के ही समान है। पर्वत, विजयार्ध, वृत्तवेदाढ्य आदि की संख्या और विस्तार भी दूना-दूना है । जम्बूद्वीप में जहाँ जम्बू-वृक्ष है वहाँ पुष्करद्वीप में पुष्कर है। इसी के कारण इस द्वीप को पुष्करवर द्वीप कहते हैं।

    6. मानुषोत्तर पर्वत से अर्ध विभक्त होने के कारण इसे पुष्करार्ध कहते हैं। पुष्करद्वीप के मध्य में मानुषोत्तर पर्वत है। यह 1721 योजना ऊंचा 430 योजन गहरा 22 हजार योजन मूल में विस्तृत 1723 योजन मध्य में विस्तृत 424 योजन ऊपर विस्तृत है। यवराशि के समान यह पर्वत नीचे मुख किए हुए बैठे सिंह के सदृश मालूम होता है । उसके ऊपर चारों दिशाओं में 50 योजन लम्बे 25 योजन चौड़े और 37 1/2 योजन ऊंचे जिनायतन हैं। इसके ऊपर वैडूर्य आदि चौदह कूट हैं ।

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    + मनुष्यों का गमन -
    प्राङ् मानुषोत्तरान्मनुष्याः॥35॥
    अन्वयार्थ : मानुषोत्तर पर्वत के पहले तक ही मनुष्‍य हैं ॥३५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    पुष्‍करद्वीपके ठीक मध्‍यमें चूड़ीके समान गोल मानुषोत्तर नामका पर्वत है। उससे पहले ही मनुष्‍य हैं, उसके बाहर नहीं। इसलिए मानुषोत्तर पर्वतके बाहर पूर्वोक्‍त क्षेत्रोंका विभाग नहीं है। इस पर्वतके उस ओर उपपाद जन्‍मवाले और समुद्घातको प्राप्‍त हुए मनुष्‍योंको छोड़कर और दूसरे विद्याधर या ऋद्धिप्राप्‍त मुनि भी कदाचित् नहीं जाते हैं इसलिए इस पर्वतका मानुषोत्तर यह सार्थक नाम है। इस प्रकार जम्‍बूद्वीप आदि ढाई द्वीपोंमें और दो समुद्रोंमें मनुष्‍य जानना चाहिए।

    विशेषार्थ – ढाई द्वीप और इनके मध्‍यमें आनेवाले दो समुद्र यह मनुष्‍यलोक है। मनुष्‍य इसी क्षेत्रमें पाये जाते हैं। मानुषोत्‍तर पर्वत मनुष्‍यलोककी सीमापर स्थित होनेसे इसका मानुषोत्‍तर यह नाम सार्थक है। मनुष्‍य इसी क्षेत्रमें रहते हैं, उनका बाहर जाना सम्‍भव नहीं, इसका यह अभिप्राय है कि गर्भमें आनेके बाद मरण पर्यन्‍त औदारिक शरीर या आ‍हारक शरीरके साथ वे इस क्षेत्रसे बाहर नहीं जा सकते। सम्‍मूर्च्‍छन मनुष्‍य तो इसके औदारिक शरीरके आश्रयसे होते हैं, इसलिए उनका मनुष्‍यलोकके बाहर जाना कथमपि सम्‍भव नहीं है। पर इसका यह अर्थ नहीं है कि किसी भी अवस्‍थामें मनुष्‍य इस क्षेत्रके बाहर नहीं पाये जाते हैं। ऐसी तीन अवस्‍थाएँ हैं जिनके होनेपर मनुष्‍य इस क्षेत्रके बाहर पाये जाते हैं, यथा-

    (1) जो मनुष्‍य मरकर ढाई द्वीपके बाहर उत्‍पन्‍न होनेवाले हैं वे यदि मरणके पहले मारणान्तिक समुद्घात करते हैं तो इसके द्वारा उनका ढाई द्वीपके बाहर गमन देखा जाता है।

    (2) ढाई द्वीपके बाहर निवास करनेवाले जो जीव मरकर मनुष्‍योंमें उत्‍पन्‍न होते हैं उनके मनुष्‍यायु और मनुष्‍य गतिनाम कर्मका उदय होनेपर भी ढाई द्वीपमें प्रवेश करनेके पूर्व तक उनका इस क्षेत्रके बाहर अस्तित्‍व देखा जाता है।

    (3) केवलिसमुद्घातके समय उनका मनुष्‍यलोकके बाहर अस्तित्‍व देखा जाता है। इन तीन अपवादोंका छोड़कर और किसी अवस्‍थामें मनुष्‍योंका मनुष्‍यलोकके बाहर अस्तित्‍व नहीं देखा जाता। वे मनुष्‍य दो प्रकारके हैं अब ये बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    मानुषोत्तर पर्वत के इस ओर ही मनुष्य हैं उस ओर नहीं । उपपाद और समुद्घात अवस्था के सिवाय इस पर्वत के उस ओर विद्याधर या ऋद्धिधारी मनुष्य भी नहीं जा सकते। इसीलिए इसकी मानुषोत्तर संज्ञा सार्थक है।

    आठवाँ नन्दीश्वर द्वीप है। इसका विस्तार 3638400000 योजन है। इसके मध्य में चारों दिशाओं में 84 हजार योजन ऊंचे चार अंजनगिरि है । इसकी चारों दिशाओं में चार-चार बावड़ी हैं। ये 1 हजार योजन गहरी और एक लाख योजन विस्तारवाली हैं। इन सोलह वापियों में दस हजार योजन विस्तृत दधिमुख पर्वत हैं। इन वापियों के चारों ओर चार वन हैं। इन वापियों के चारों कोनों में एक हजार योजन ऊंचे चार-चार रतिकर है। इस तरह 64 रतिकर है। बाहरी कोणों में स्थित 32 रतिकर चा अंजनगिरि तथा 16 दधिमुख इस तरह 52 पर्वतों पर 52 जिनालय हैं । ये जिनालय 100 योजन लम्बे, 50 योजन चौड़े तथा 75 योजन ऊंचे हैं।

    ग्यारहवाँ कुण्डलवर द्वीप है । उसके मध्य में कुंडलवर पर्वत है। उसके ऊपर प्रत्येक दिशा में चार-चार कूट है। इसको घेरे हुए कुण्डलवर समुद्र है। इसके आगे क्रमशः शंखवरद्वीप, शंखवरसमुद्र, रुचकवरद्वीप, रुचकवरसमुद्र आदि असंख्यात द्वीपसमुद्र हैं। रुचकवर द्वीप में 84 हजार योजन ऊँचा 42 हजार योजन विस्तृत रुचक पर्वत है । इसके नन्द्यावर्त आदि चार कूट हैं। इनमें दिग्गजेन्द्र रहते हैं । उनके ऊपर प्रत्येक के आठ-आठ कूट और हैं। इन पर दिक्कुमारियाँ रहती हैं । ये तीर्थङ्करों के गर्भ और जन्मकल्याणक के समय माता की सेवा करती है।

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    + मनुष्‍यों के प्रकार -
    आर्या म्लेच्छाश्‍च॥36॥
    अन्वयार्थ : मनुष्‍य दो प्रकार के हैं-आर्य और म्‍लेच्‍छ ॥३६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जो गुणों या गुणवालोंके द्वारा माने जाते हैं-वे आर्य कहलाते हैं। उनके दो भेद हैं- ऋद्धिप्राप्‍त आर्य और ऋद्धिरहित आर्य।

    ऋद्धिरहित आर्य पाँच प्रकारके हैं- क्षेत्रार्य, जात्‍यार्य, कर्मार्य, चारित्रार्य और दर्शनार्य।

    बुद्धि, विक्रिया, तप, बल, औषध, रस और अक्षीण ऋद्धिके भेदसे ऋद्धिप्राप्‍त आर्य सात प्रकारके हैं।

    म्‍लेच्‍छ दो प्रकारके हैं-अन्‍तर्द्वीपज म्‍लेच्‍छ और कर्मभूमिज म्‍लेच्‍छ। लवणसमुद्रके भीतर आठों दिशाओंमें आठ अन्‍तर्द्वीप हैं और उनके अन्‍तरालमें आठ अन्‍तर्द्वीप और हैं। तथा हिमवान् और शिखरी इन दोनों पर्वतोंके अन्‍तमें और दोनों विजयार्ध पर्वतोंके अन्‍तमें आठ अन्‍तर्द्वीप हैं। इनमें-से जो दिशाओंमें द्वीप हैं वे वेदिकासे तिरछे पाँचसौ योजन भीतर जाकर हैं। विदिशाओं और अन्‍तरालों में जो द्वीप हैं वे पाँचसौ पचास योजन भीतर जाकर हैं। तथा पर्वतोंके अन्‍तमें जो द्वीप हैं वे छहसौ योजन भीतर जाकर हैं। दिशाओंमें स्थित द्वीपोंका विस्‍तार सौ योजन है। विदिशाओं और अन्‍तरालोंमें स्थित द्वीपोंका विस्‍तार उससे आधा अर्थात् पचास योजन है। तथा पर्वतोंके अन्‍तमें स्थित द्वीपोंका विस्‍तार पच्‍चीस योजन है पूर्व दिशा में एक टाँगवाले मनुष्‍य हैं। पश्चिम दिशामें पूँछवाले मनुष्‍य हैं। उत्‍तर दिशामें गूँगे मनुष्‍य हैं और दक्षिण दिशामें सींगवाले मनुष्‍य हैं। चारों विदिशाओंमें क्रमसे खरगोशके समान कानवाले, शष्‍कुली अर्थात् मछली अथवा पूड़ीके समान कानवाले, प्रावरणके समान कानवाले और लम्‍बे कानवाले मनुष्‍य हैं। आठों अन्‍तराल के द्वीपोंमें क्रमसे घोडेके समान मुखवाले, सिंहके समान मुखवाले, कुत्‍तोंके समान मुखवाले, भैंसाके समान मुखवाले, सुअरके समान मुखवाले, व्‍याघ्रके समान मुखवाले, कौआके समान मुखवाले और बन्‍दरके समान मुखवाले मनुष्‍य हैं। शिखरी पर्वतके दोनों कोणोंकी सीधमें जो अन्‍तर्द्वीप है उनमें मेघके समान मुखवाले और बिजली के समान मुखवाले मनुष्‍य हैं। हिमवान् पर्वतके दोनों कोणोंकी सीधमें जो अन्‍तर्द्वीप हैं उनमें मछलीके समान मुखवाले और कालके समान मुखवाले मनुष्‍य हैं। उत्‍तर विजयार्धके दोनों कोणोंकी सीधमें जो अन्‍तर्द्वीप हैं उनमें हाथीके समान मुखवाले और दर्पणके समान मुखवाले मनुष्‍य हैं। तथा दक्षिण विजयार्धके दोनों कोणोंकी सीधमें जो अन्‍तर्द्वीप हैं उनमें गायके समान मुखवाले और मेढाके समान मुखवाले मनुष्‍य हैं। इनमें-से एक टाँगवाले मनुष्‍य गुफाओंमें निवास करते हैं और मिट्टीका आहार करते हैं तथा शेष मनुष्‍य फूलों और फलोंका आहार करते हैं और पेडों पर रहते हैं । इन सबकी आयु एक पल्‍योपम है। ये चौबीसों अन्‍तर्द्वीप जलकी सतहसे एक योजन ऊँचे हैं। इसी प्रकार कालोद समुद्रमें भी जानना चाहिए। ये सब अन्‍तर्द्वीपज म्‍लेच्‍छ हैं। इनसे अतिरिक्‍त जो शक, यवन, शबर और पुलिन्‍दादिक हैं वे सब कर्मभूमिज म्‍लेच्‍छ हैं।

    विशेषार्थ – षट्खण्‍डागममें मनुष्‍योंके दो भेद किये गये हैं- कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज। अकर्मभूमि भोगभूमिका दूसरा नाम है। भोगभूमिका एक भेद कुभोगभूमि है। उसमें जन्‍म लेनेवाले मनुष्‍य ही यहाँ अन्‍तर्द्वीपज म्‍लेच्‍छ कहे गये हैं। शेष रहे शक, यवन, शबर और पुलिन्‍द आदि म्‍लेच्‍छ कर्मभूमिज म्‍लेच्‍छ हैं। इसी प्रकार आर्य भी क्षेत्रकी अपेक्षा दो भागोंमें विभक्‍त हैं-कर्मभूमिज आर्य और अकर्मभूमिज आर्य। तीस भोगभूमियोंके मनुष्‍य अकर्मभूमिज आर्य हैं और कर्मभूमिके आर्य कर्मभूमिज आर्य हैं। इनमें-से अकर्मभूमिज आर्य और म्‍लेच्‍छों के अविरत सम्‍यग्‍दृष्टि तक चार गुणस्‍थान हो सकते हैं किन्‍तु कर्मभूमिज आर्य और म्‍लेच्‍छ अणुव्रत और महाव्रतके भी अधिकारी हैं। इनके संयमासंयम और संयमस्‍थानों का विशेष व्‍याख्‍यान कषायप्राभृत लब्धिसार क्षपणासारमें किया है।

    कर्मभूमियाँ कौन-कौन हैं, अब इस बातके बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-2. गुण और गुणवानों से जो सेवित हैं वे आर्य हैं। आर्य दो प्रकार के हैं -- एक ऋद्धिप्राप्त और दूसरे अनृद्धिप्राप्त आर्य । अनुद्धिप्राप्त आर्य पांच प्रकार के हैं -- क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कर्माय, चारित्रार्य और दर्शनार्य ।

    3. ऋद्धिप्राप्त आर्य आठ ऋद्धियों के भेद से आठ प्रकार के हैं। बुद्धि-ज्ञान, यह ऋद्धि केवलज्ञान अवधिज्ञान मनःपर्ययज्ञान बीजबुद्धि आदिके भेदसे अठारह प्रकार की है। क्रिया विषयक ऋद्धि दो प्रकार की है - चारणत्व और आकाशगामित्व । विक्रिया विषयक ऋद्धि अणिमा आदि के भेद से अनेक प्रकार की है। तपोऽतिशय-ऋद्धि सात प्रकार की है - बलालम्बन ऋद्धि तीन प्रकार की है - औषध-ऋद्धि आठ प्रकार की है - रस ऋद्धि प्राप्त आर्य छह प्रकार के हैं - क्षेत्रऋद्धिप्राप्त आर्य दो प्रकार के हैं - अक्षीणमहानस और अक्षीणमहालय । प्रकृष्ट लाभान्तराय के क्षयोपशमवाले यतियों को भिक्षा देने पर उस भोजन से चक्रवर्ती के पूरे कटक को भी जिमाने पर क्षीणता न आना अक्षीणमहानस ऋद्धि है। अक्षीणमहालय ऋद्धिवाले मुनि जहाँ बैठते हैं उस स्थान में इतनी अवगाहन शक्ति हो जाती है कि वहाँ सभी देव, मनुष्य और तिर्यञ्च निर्बाध रूप से बैठ सकते हैं। ये सब ऋद्धिप्राप्त आर्य हैं।

    4. म्लेच्छ दो प्रकार के हैं - १ अन्तरद्वीपज और 2 कर्मभूमिज। लवणसमुद्र की आठों दिशाओं में आठ और उनके अन्तराल में आठ, हिमवान् और शिखरी तथा दोनों विजयार्धों के अन्तराल में आठ इस तरह चौबीस अन्तरद्वीप हैं। दिशावर्ती द्वीप वेदिका से तिरछे पाँच सौ योजन आगे हैं। विदिशा और अन्तरालवर्ती द्वीप 550 योजन जाकर हैं। पहाड़ों के अन्तिम भागवर्ती द्वीप छह सौ योजन भीतर आगे हैं। दिशावर्ती द्वीप सौ योजन विस्तृत हैं, विदिशावर्ती द्वीप पचास योजन और पर्वतान्तवर्ती द्वीप पच्चीस योजन विस्तृत हैं। पूर्व दिशा में एक जाँघ वाले, पश्चिम में पूंछवाले, उत्तर में गूंगे, दक्षिण में सींगवाले प्राणी हैं। विदिशाओं में खरगोश के कान सरीखे कानवाले, पुड़ी के समान कानवाले, बहुत चौड़े कानवाले और लम्बकर्ण मनुष्य हैं । अन्तराल में अश्व, सिंह, कुत्ता, सुअर, व्याघ्र उल्लू और बन्दर के मुख जैसे मुखवाले प्राणी है। शिखरी पर्वत के दोनों अन्तरालों में मेघ और बिजली के समान मुखवाले, हिमवान् के दोनों अन्तरालों में मत्स्यमुख और कालमुख, उत्तर विजयार्ध के दोनों अन्त में हस्तिमुख और आदर्शमुख और दक्षिण विजयार्ध के दोनों अन्त में गोमुख और मेषमुखवाले प्राणी है । एक टाँगवाले गुफाओं में रहते हैं और मिट्टी का आहार करते हैं। बाकी वृक्षों पर रहते हैं और पुष्प फल आदि का आहार करते हैं। ये सब प्राणी पल्योपम आयुवाले है। ये चौबीसों द्वीप जल तल से एक योजन ऊँचे हैं। इसी तरह कालोदधि में हैं। ये सब अन्तर्द्वीपज म्लेच्छ है । शक, यवन, शबर और पुलिन्द आदि कर्मभूमिज म्लेच्छ है।

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    + कर्म-भूमि -
    भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः॥37॥
    अन्वयार्थ : देवकुरु और उत्‍तरकुरु के सिवा भरत, ऐरावत और विदेह ये सब कर्मभूमियाँ हैं ॥३७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    भरत, ऐरावत और विदेह ये प्रत्‍येक पाँच-पाँच हैं। ये सब कर्मभूमियाँ कही जाती हैं। इनमें विदेहका ग्रहण किया है, इसलिए देवकुरु और उत्‍तरकुरुका भी ग्रहण प्राप्‍त होता है, अतः उसका निषेध करनेके लिए 'अन्‍यत्र देवकुरूत्‍तरकुरुभ्‍यः' यह पद रखा है। अन्‍यत्र शब्‍द का अर्थ निषेध है। देवकुरु, उत्‍तरकुरु, हैमवत, हरिवर्ष, रम्‍यक, हैरण्‍यवत और अन्‍तर्द्वीप ये भोगभूमियाँ कही जाती हैं।

    शंका – कर्मभूमि यह संज्ञा कैसे प्राप्‍त होती है ?

    समाधान – जो शुभ और अशुभ कर्मों का आश्रय हो उसे कर्मभूमि कहते हैं। यद्यपि तीनों लोक कर्मका आश्रय है, फिरभी इससे उत्‍कृष्‍टताका ज्ञान होता है कि ये प्रकर्ष रूपसे कर्मका आश्रय हैं। सातवें नरकको प्राप्‍त करनेवाले अशुभ कर्मका भरतादि क्षेत्रोंमें ही अर्जन किया जाता है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि आदि स्‍थान विशेषको प्राप्‍त करानेवाले पुण्‍य कर्मका उपार्जन भी यहीं पर होता है। तथा पात्रदान आदिके साथ कृषि आदि छह प्रकारके कर्म का आरम्‍भ यहीं पर होता है, इसलिए भरतादिककी कर्मभूमि संज्ञा जाननी चाहिए। इतर क्षेत्रोंमें दस प्रकारके कल्‍पवृक्षोंसे प्राप्‍त भोगोंकी मुख्‍यता है, इसलिए वे भोगभूमियाँ कहलाती हैं।

    विशेषार्थ – यह पहले ही बतला आये हैं कि भरतादि क्षेत्रोंका विभाग ढाई द्वीपमें ही है। जम्‍बूद्वीपमें भरतादि क्षेत्र एक-एक हैं और धातकीखण्‍ड व पुष्‍करार्धमें ये दो-दो हैं। इस प्रकार कुल क्षेत्र 35 होते हैं। उसमें भी उत्‍तरकुरु और देवकुरु विदेह क्षेत्रमें होकर भी अलग गिने जाते हैं, क्‍योंकि यहाँ उत्‍तम भोगभूमिकी व्‍यवस्‍था है, इसलिए पाँच विदेहोंके पाँच देवकुरु और पाँच उत्‍तरकुरु इनको उक्‍त 35 क्षेत्रोंमें मिलानेपर कुल 45 क्षेत्र होते हैं। इनमें-से 5 भरत, 5 विदेह और 5 ऐरावत ये 15 कर्मभूमियाँ हैं और शेष 30 भोगभूमियाँ हैं। ये सब कर्मभूमि और भोगभूमि क्‍यों कहलाती हैं इस बातका निर्देश मूल टीकामें किया ही है।

    उक्‍त भूमियोंमें स्थितिका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-3. यद्यपि ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का बन्ध और उनका फलभोग सभी मनुष्य क्षेत्रों में समान है फिर भी यहाँ कर्मभूमि व्यवहारविशेष के निमित्त से है । सर्वार्थसिद्धि प्राप्त करानेवाला या तीर्थङ्कर प्रकृति बाँधनेवाला प्रकृष्ट शुभकर्म अथवा सातवें नरक ले जानेवाला प्रकृष्ट अशुभकर्म कर्मभूमि में ही बँधता है। सकल संसार का उच्छेद करनेवाली परमनिर्जरा की कारण तपश्चरणादि क्रियाएँ भी यहीं होती हैं। असि, मषि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य रूप छह कर्मों की प्रवृत्ति भी यहीं होती है। अतः भरतादिक में ही कर्मभूमि व्यवहार उचित है।

    4. जैसे 'न क्वचित् सर्वदा सर्ववित्रम्भगमनं नयः अन्यत्र धर्मात्' अर्थात् धर्म को छोड़कर अन्य आर्थिक आदि प्रसङ्गों में पूर्ण विश्वास करना नीतिसंगत नहीं है । यहाँ 'अन्यत्र' शब्द 'छोड़कर' इस अर्थ में हैं उसी तरह 'अन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः' यहाँ भी। अर्थात् देवकुरु और उत्तरकुरु को छोड़कर शेष विदेहक्षेत्र कर्मभूमि है। देवकुरु, उत्तरकुरु और हैमवत आदि भोगभूमि हैं।

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    + मनुष्‍यों की उत्‍कृष्‍ट और जघन्‍य स्थिति -
    नृस्थितीपरावरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते॥38॥
    अन्वयार्थ : मनुष्‍यों की उत्‍कृष्‍ट स्थिति तीन पल्‍योपम और जघन्‍य अन्‍तर्मुहूर्त है ॥३८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    'त्रिपल्‍योपमा' इस वाक्‍यमें 'त्रि' और 'पल्‍योपम' का बहुव्रीहि समास है। मुहूर्तके भीतरके कालको अन्‍तर्मुहूर्त कहते हैं। पर और अपर के साथ इन दोनोंका क्रमसे सम्‍बन्‍ध है। मनुष्‍योंकी उत्‍कृष्‍ट स्थिति तीन पल्‍योपम है और जघन्‍य स्थिति अन्‍तर्मुहूर्त है। तथा मध्‍यकी स्थिति अनेक प्रकारकी है। पल्‍य तीन प्रकारका है-व्‍यवहार पल्‍य, उद्धारपल्‍य और अद्धापल्‍य। ये तीनों सार्थक नाम हैं। आदि के पल्‍यको व्‍यवहार पल्‍य कहते हैं, क्‍योंकि वह आगेके दो पल्‍योंके व्‍यवहारका मूल है। इसके द्वारा और किसी वस्‍तुका परिमाण नहीं किया जाता। दूसरा उद्धारपल्‍य है। उद्धारपल्‍य में-से निकाले गये लोमके छेदोंके द्वारा द्वीप और समुद्रोंकी गिनती की जाती है। तीसरा अद्धापल्‍य है। अद्धा और कालस्थिति ये एकार्थवाची शब्‍द हैं। इनमें-से अब प्रथम पल्‍यका प्रमाण कहते हैं- जो इस प्रकार है-प्रमाणांगुलकी गणनासे एक-एक योजन लम्‍बे, चौडे़ और गहरे तीन गढ़ा करो और इनमें-से एकमें एक दिन से लेकर सात दिन तक के पैदा हुए मेढ़े के रोमोंके अग्र भागोंको ऐसे टुकडे़ करके भरो जिससे कैंची से उनके दूसरे टुकडे़ न किये जा सकें। अनन्‍तर सौ-सौ वर्षमें एक-एक रोमका टुकड़ा निकालो। इस विधिसे जितने कालमें व‍ह गढ़ा खाली हो वह सब काल व्‍यवहार पल्‍योपम नामसे कहा जाता है। अनन्‍तर असंख्‍यात करोड़ वर्षोंके जितने समय हों उतने उन लोमच्‍छेदोंमें-से प्रत्‍येक खण्‍ड करके उनसे दूसरे गढे़के भरनेपर वह गढ़ा खाली हो जाय उतने कालका नाम उद्धार पल्‍योपम है। इन दस कोडा़कोडी़ उद्धारपल्‍योंका एक उद्धार सागरोपम काल होता है। तथा ढा़ई उद्धार सागरके जितने रोमखण्‍ड हों उतने सब द्वीप और समुद्र हैं। अनन्‍तर सौ वर्षके जितने समय हों उतने उद्धारपल्‍यके रोमखण्‍डोंमें-से प्रत्‍येकके खण्‍ड करके और उनसे तीसरे गढे़ के भरनेपर एक अद्धापल्‍य होता है। और इनमें-से प्रत्‍येक समयमें एक-एक रोमके निकालनेपर जितने समयमें वह गढ़ा खाली हो जाय उतने कालका नाम अद्धापल्‍योपम है। तथा ऐसे दस कोड़ाकोड़ी अद्धापल्‍योंका एक अद्धासागर होता है। दस कोड़ाकोड़ी अद्धासागरोंका एक अवसर्पिणी काल होता है और उत्‍सर्पिणी भी इतना ही बड़ा होता है।

    इस अद्धापल्‍यके द्वारा नारकी, तिर्यंच, देव और मनुष्‍योंकी कर्मस्थिति, भवस्थिति, आयुस्थिति और कायस्थिति की गणना करनी चाहिए। संग्रह गाथा भी कही है-

    'व्‍यवहार, उद्धार और अद्धा ये तीन पल्‍य जानने चाहिए। संख्‍याका प्रयोजक व्‍यवहार पल्‍य है। दूसरेसे द्वीप-समुद्रोंकी गणना की जाती है और तीसरे अद्धापल्‍यमें कर्मोंकी स्थितिका लेखा लिया जाता है।'

    जिसप्रकार मनुष्‍योंकी यह उत्‍कृष्‍ट और जघन्‍य स्थिति है उसी प्रकार-

    राजवार्तिक :
    1-3. लौकिक और लोकोत्तर के भेद से प्रमाण दो प्रकार का है। लौकिक मान छह प्रकार का है - मान, उन्मान, अवमान, गणना, प्रतिमान और तत्प्रमाण । इत्यादि मगध देश का प्रमाण है।
  • मणि आदि की दीप्ति, अश्व आदि की ऊंचाई गुण आदि के द्वारा मूल्य निर्धारण करने के लिए तत्प्रमाण का उपयोग होता है । जैसे मणि की प्रभा ऊपर जहाँ तक जाय उतनी ऊंचाई तक का सुवर्ण का ढेर उसका मूल्य होगा। घोडा जितना ऊंचा हो - उतनी ऊंची सुवर्ण मुद्राएं घोड़े का मूल्य । अथवा जितने में रत्न के मालिक को सन्तोष हो उतना रत्न का मूल्य होता है। आदि।

  • 4. लोकोतर प्रमाण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार प्रकार का है।

    5. द्रव्यप्रमाण संख्या और उपमा के भेद से दो प्रकार का है। संख्या प्रमाण संख्येय, असंख्येय और अनन्त के भेद से तीन प्रकार का है। संख्येय प्रमाण जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्योत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार का है। असंख्यात और अनन्त नौ-नौ प्रकार के हैं। संख्येय प्रमाण के ज्ञान के लिए जम्बूद्वीप के समान एक लाख लम्बे चौड़े और एक योजन गहरे शलाका, प्रतिशलाका, महाशलाका और अनवस्थित नाम के चार कुण्ड बुद्धि से कल्पित करने चाहिए । अनवस्थित कुण्ड में दो सरसों डालना चाहिए। यह जघन्य संख्येय का प्रमाण है। उस अनवस्थित कुण्ड को सरसों से भर देना चाहिए। फिर कोई देव उससे एक-एक सरसों को क्रमशः एक-एक द्वीप समुद्र में डालता जाय । जब वह कुण्ड खाली हो जाय तब शलाका कुण्ड में एक दाना डाला जाय। जहाँ अनवस्थितकुण्ड का अन्तिम सरसों गिरा था उतना बड़ा अनवस्थित कुण्ड कल्पना किया जाय । उसे सरसों से भरकर फिर उससे आगे के द्वीपों में एक एक सरसों डालकर उसे खाली किया जाय। जब वह खाली हो जाय तब शलाका कुण्ड में दूसरा सरसों डाले। फिर जहाँ अन्तिम सरसों गिरा था उतना बड़ा अनवस्थित कुण्ड कल्पित करके उसे सरसों से भरकर उससे आगे के द्वीपसमुद्रों में एक-एक सरसों डालकर खाली करना चाहिए। तब शलाका कुण्ड में एक सरसों डाले। इस तरह अनवस्थितकुण्ड को तब तक बढ़ाता जाय जब तक शलाका कुण्ड सरसों से न भर जाय। जब शलाका कुण्ड भर जाय तब एक सरसों प्रतिशला का कुण्ड में डाले। इस तरह उसे भी भरे । जब प्रतिशला का कुण्ड भर जाय तब एक सरसों महाशलाका कुण्ड में डाले । उक्त विधि से जब वह भी परिपूर्ण हो जाय तब जो प्रमाण आता है वह उत्कृष्ट संख्यात से एक अधिक जघन्यपरीतासंख्यात है। उसमें से एक कम करने पर उत्कृष्ट संख्यात होता है। जघन्य और उत्कृष्टके बीच के सभी भेद अजघन्योत्कृष्ट संख्यात हैं। जहाँ भी संख्यात शब्द आता है वहाँ यही अजघन्योत्कृष्ट संख्यात लिया जाता है।

    असंख्यात तीन प्रकार है - परीतासंख्येय, युक्तासंख्येय और असंख्येयासंख्येय। परीतासंख्यात जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार का है । इसी तरह अन्य असंख्यातों के भी भेद होते हैं। अनन्त भी तीन प्रकार का है - परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त । ये तीनों अनन्त जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्योत्कृष्ट के भेद से तीन-तीन प्रकार के हैं। जघन्य परीतासंख्येय को फैलाकर मोती के समान जुदे-जुदे रखना चाहिए। प्रत्येक पर एक-एक जघन्य परीतासंख्येय को फैलाना चाहिए। इनका परस्पर वर्ग करे। जो जघन्य परीतासंख्येय मुक्तावली पर दिये गये थे उनका गुणाकर एक राशि बनावे। उसे विरलन कर उसपर उस वर्गित राशि को दे । उसका परस्पर वर्ग कर जो राशि आती है वह उत्कृष्ट परीतासंख्येय से एक अधिक होती है। उसमें से एक कम करने पर उत्कृष्ट परीतासंख्येय होता है। बीच के विकल्प अजघन्योत्कृष्ट परीतासंख्येय है। जहाँ आवलि से प्रयोजन होता है वहाँ जघन्ययुक्तासंख्येय लिया जाता है। जघन्ययुक्तासंख्येय को विरलन कर प्रत्येक पर जघन्ययुक्तासंख्येय को स्थापित करे । उनका वर्ग करने पर जो राशि आती है वह जघन्य संख्येयासंख्येय है। उसमें से एक कम करने पर उत्कृष्ट युक्तासंख्येय होती है। बीच के विकल्प मध्यम युक्तासंख्येय हैं। जघन्य संख्येयासंध्येय का विरलन कर पूर्वोक्त विधि से तीन बार वर्ग संवर्ग करने पर भी उत्कृष्ट संख्ययासंख्येय नहीं होता। इसमें धर्म, अधर्म, एक जीव, लोकाकाश, प्रत्येक शरीरजीव, बादर निगोत शरीर ये छहों असंख्येय, स्थितिबन्धाध्यवसाय स्थान, अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान, योग के अविभाग परिच्छेद, उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के समयों को जोड़ने पर फिर तीन बार वर्गित संवर्गित करने पर उत्कृष्टासंख्येयासंख्येय से एक अधिक जघन्यपरीतानन्त होता है । इसमें से एक कम करने पर उत्कृष्टासंख्येयासंख्येय होता है । मध्य के विकल्प अजघन्योत्कृष्टासंख्येयासंख्येय होते हैं। असंख्येयासंख्येय के स्थान में अजघन्योत्कृष्टासंख्येयासंख्येय विवक्षित होता है। इसी तरह जघन्यपरीतानन्त को विरलन कर तीन बार वर्गित संवर्गित करने पर उत्कृष्टपरीतानन्त से एक अधिक जघन्ययुक्तानन्त होता है । उससे एक कम करने पर उत्कृष्टपरीतानन्त होता है। मध्य के विकल्प अजघन्योत्कृष्ट परीतानन्त हैं। अभव्यराशि के प्रमाण में जघन्ययुक्तानन्त लिया जाता है। जघन्ययुक्तानन्त को विरलनकर प्रत्येक पर जघन्ययुक्तानन्त को रखे। उन्हें परस्पर वर्ग करने पर जो राशि आती है वह उत्कृष्टयुक्तानन्त से एक अधिक जघन्य अनन्तानन्त की राशि है। उसमें से एक कम करने पर उत्कृष्ट युक्तानन्त होता है। मध्य के विकल्प अजघन्योत्कृष्ट युक्तानन्त है । जघन्य अनन्तानन्त को विरलनकर प्रत्येक पर जघन्य अनन्तानन्त को स्थापितकर तीन बार वर्गित संवर्गित करने पर भी उत्कृष्ट अनन्तानन्त नहीं होता। अतः उसमें सिद्ध, निगोदजीव, वनस्पतिकाय, अतीत अनागतकाल के समय, सभी पुद्गल, आकाश के प्रदेश, धर्म, अधर्म और अनन्त अगुरुलघुगुण जोड़े। फिर तीन बार वगित संवर्गित करे। तब भी उत्कृष्ट अनन्तानन्त नहीं होता। अतः उसमें केवलज्ञान और केवलदर्शन को जोड़े तब उत्कृष्ट अनन्तानन्त होता है। उससे एक कम अजघन्योत्कृष्ट अनन्तानन्त होता है। जहां अनन्तानन्त का प्रकरण आता है वहाँ अजघन्योत्कृष्ट अनन्तानन्त लेना चाहिए।

    7. उपमा प्रमाण आठ प्रकार का है - पल्य, सागर, सूची, प्रतर, घनांगुल, जगच्छेणी, लोकप्रतर और लोक । आदि अन्त से रहित अतीन्द्रिय एक रस, एक गन्ध, एक रूप और दो स्पर्शवाला अविभागी द्रव्य परमाणु कहलाता है। अनन्तानन्त परमाणुओं के संघात की एक उत्संज्ञासंज्ञा। आठ उत्संज्ञासंज्ञा की एक संज्ञासंज्ञा। आठ संज्ञासंज्ञा की एक त्रुटिरेणु। आठ त्रुटिरेणु की एक त्रसरेणु। आठ त्रसरेणु की एक रथरेणु । आठ रथरेणु का एक देवकुरु उत्तरकुरु के मनुष्य का बालाग्र। उन आठ बालाग्रों का एक रम्यक और हरिवर्ष के मनुष्यों का बालाग्र । उन आठ बालग्रों का एक हैरण्यवत और हैमवत क्षेत्र के मनुष्यों का बालाग्र । उन आठ बालाग्रों का एक भरत ऐरावत और विदेह के मनुष्यों का बालाग्र । उन आठ बालाग्रों की एक लीख । आठ लीख की एक जूं । आठ जूं का एक मध्य । आठ यवमध्यों का एक उत्सेधांगुल। इससे नारक, तिर्यञ्च, देव, मनुष्य और अकृत्रिम चैत्यालयों की प्रतिमाओं का माप होता है। 500 उत्सेधांगुल का एक प्रमाणांगुल। यही अवसर्पिणी के प्रथम चक्रवर्ती का आत्मांगुल होता है। उस समय इसी से गाँव नगर आदि का माप किया जाता है। दूसरे युगों में उस-उस युग के मनुष्यों के आत्मांगुल से ग्राम, नगर आदि का माप किया जाता है। प्रमाणांगुल से द्वीप, समुद्र, वेदिका, पर्वत, विमान, नरक, प्रस्तार आदि अकृत्रिम द्रव्यों की लम्बाई-चौड़ाई मापी जाती है। छह अंगुल का एक पाद । बारह अंगुल का एक बीता। दो बीते का एक हाथ । दो हाथ का एक किष्कु । दो किष्कु का एक दंड। दो हजार दंड का एक गव्यूत । चार गव्यूत का एक योजन होता है।

    8. पल्य तीन प्रकार का है - व्यवहारपल्य, उद्धारपल्य और अद्धापल्य । व्यवहारपल्य आगे के पल्यों के व्यवहार में कारण होता है, उससे अन्य किसी का परिच्छेद नहीं होता। उद्धारपल्य के लोमच्छेदों से द्वीप-समुद्रों की गिनती की जाती है। अद्धापल्य से स्थिति का परिच्छेद किया जाता है। प्रमाणांगुल से परिमित एक योजन लम्बे-चौड़े-गहरे तीन गड्ढे किये जायें। वे सात दिन तक की आयु वाले भेड़ों के रोम के अतिसूक्ष्म टुकड़ों से भरे जायं। एक-एक सौ वर्ष में एक-एक रोम का टुकड़ा निकाला जाय। जितने समय में वह खाली हो उतना काल व्यवहारपल्य कहलाता है। उन्हीं रोमच्छेदों को यदि प्रत्येक को असंख्यात करोड वर्ष के समयों से छिन्न कर दिया जाय और प्रत्येक समय में एक-एक रोम छेद को निकाला जाय तो जितने समय में वह खाली होगा वह समय उद्धारपल्य कहलाता है। दस कोड़ाकोड़ी उद्धारपल्यों का एक उद्धारसागर होता है। ढाई उद्धारसागरों के जितने रोमच्छेद होते हैं उसने ही द्वीप-समुद्र हैं । उद्धारपल्य के रोमच्छेदों को सौ वर्ष के समयों से छेद करके एक-एक समय में एक-एक रोमच्छेद को निकालने पर जितने समय में वह खाली हो उतना समय अद्धापल्य कहलाता है। दस कोडाकोड़ी अदापल्यों का एक अद्धासागर होता है । दस कोडाकोड़ी अद्धासागरों की एक अवसर्पिणी होती है और इतनी ही उत्सर्पिणी। अद्धापल्य से नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों की कर्मस्थिति, भवस्थिति, आयुस्थिति और कायस्थिति मापी जाती है। अद्धापल्य के अर्धच्छेदों को विरलनकर प्रत्येक अद्धापल्य को स्थापितकर परस्पर गुणा करे, तब जितने रोमच्छेद हों उतने प्रदेशों को सूच्यंगुल कहते हैं। सूच्यंगुल को सूच्यंगुल से गुणा करने पर प्रतरांगुल होता है। प्रतरांगुल को सूच्यंगुल से गुणा करने पर घनांगुल होता है । असंख्येय वर्षों के जितने समय हैं उतने खंडवाला अद्धापल्य स्थापित करे। उनसे अखंख्यात खंडों को निकालकर एक असंख्यात भाग को बुद्धि से विरलनकर प्रत्येक पर घनांगुल को स्थापित करे। उनका परस्पर गुणा करने पर एक जगत्श्रेणी होती है। जगत्श्रेणी को जगत्त्रेणी से गुणा करने पर प्रतरलोक होता है। प्रतरलोक जगत्श्रेणी से वर्ग करने पर घनलोक होता है।

    क्षेत्र प्रमाण दो प्रकार का है - अवगाह क्षेत्र और विभागनिष्पन्न क्षेत्र । अवगाह क्षेत्र एक, दो, तीन, चार, संख्येय, असंख्येय और अनन्त प्रदेशवाले पुद्गलद्रव्य को अवगाह देनेवाले आकाश प्रदेशों की दृष्टि से अनेक प्रकार का है। विभाग निष्पन्नक्षेत्र भी अनेक प्रकार का है -- असंख्यात आकाश श्रेणी, क्षेत्र प्रमाणांगुल का एक असंख्यात भाग, असंख्यात क्षेत्र प्रमाणांगुल के असंख्यात भाग, एक क्षेत्र प्रमाणांगुल। पाद, बीता आदि पहिले की तरह जानना चाहिए।

    कालप्रमाण - जघन्यगति से एक परमाणु सटे हुए द्वितीय परमाणु तक जितने काल में जाता है उसे समय कहते हैं। असंख्यात समय की एक आवली। संख्यात आवली का एक उच्छ्वास या निश्वास । एक उच्छ्वास निश्वास का एक प्राण । सात प्राणों का एक स्तोक । सात स्तोक का एक लव । 77 लव का एक मुहूर्त । 30 मुहूर्त का एक दिन रात । 15 दिन रात का एक पक्ष। दो पक्ष का एक माह । दो माह की एक ऋतु। तीन ऋतुओं का एक अयन । दो अयन का एक संवत्सर। 84 लाख वर्षों का एक पूर्वाङ्ग। 84 लाख पूर्वाङ्गों का एक पूर्व । इसी तरह पूर्वाङ्ग पूर्व, नयुतांग नयुत, कुमुदांग कुमुद, पद्मांग पद्म, नलिनांग नलिन, कमलांग कमल, तुट्यांग तुट्य, अटटांग अटट, अममांग अमम, हूहूअंग हूहू, लतांग लता, महालतांग महालता आदि काल वर्षों की गिनती से गिना जानेवाला संख्येय कहलाता है। इसके आगे का काल पल्योपम सागरोपम आदि असंख्येय है, उसके अनन्तकाल है जो कि अतीत और अन्तगत रूप है। वह सर्वज्ञ के प्रत्यक्षगम्य है। पाँच प्रकार का ज्ञान भावप्रमाण है।

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    + तिर्यंचों की स्थिति -
    तिर्यग्योनिजानां च॥39॥
    अन्वयार्थ : तिर्यंचों की स्थिति भी उतनी ही है ॥३९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    तिर्यंचों की योनिको तिर्यग्‍योनि कहते हैं। इसका अर्थ तिर्यंचगति नामकर्मके उदयसे प्राप्‍त हुआ जन्‍म है। जो तिर्यंचयोनिमें पैदा होते हैं वे तिर्यग्‍योनिज कहलाते हैं। इन तिर्यंचयोनिसे उत्‍पन्‍न जीवोंकी उत्‍कृष्‍ट भवस्थिति तीन पल्‍योपम और जघन्‍य भवस्थिति अन्‍तर्मुहूर्त है। तथा बीचकी स्थितिके अनेक विकल्‍प हैं।

    विशेषार्थ – स्थिति दो प्रकारकी होती है-भवस्थिति और कायस्थिति। एक पर्यायमें रहनेमें जितना काल लगे वह भवस्थिति है। त‍था विवक्षित पर्यायके सिवा अन्‍य पर्यायमें उत्‍पन्‍न न होकर पुनः पुनः उसी पर्यायमें निरन्‍तर उत्‍पन्‍न होने से जो स्थिति प्राप्‍त होती है वह कायस्थिति है। यहाँ मनुष्‍यों और तिर्यंचोंकी भवस्थिति कही गयी है इनकी जघन्‍य कायस्थिति जघन्‍य भवस्थिति प्रमाण है, क्‍योंकि एक बार जघन्‍य आयुके साथ भव पाकर उसका अन्‍य पर्यायमें जाना संभव है। मनुष्‍योंकी उत्‍कृष्‍ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्‍त्‍व अधिक तीन पल्‍योपम है। पृथक्‍त्‍व यह रौढिक संज्ञा है। मुख्‍यतः इसका अर्थ तीनसे ऊपर और नौसे नीचे होता है। यहाँ बहुत अर्थमें पृथक्‍त्‍व शब्‍द आया है। तिर्यंचोंकी उत्‍कृष्‍ट कायस्थिति अनन्‍तकाल है जो असंख्‍यात पुद्गल परिवर्तनोंके बराबर है। यह तिर्यंचगति सामान्‍यकी अपेक्षा उनकी कायस्थिति कही है। यदि अन्‍य गतिसे आकर कोई जीव निरन्‍तर तिर्यंचगतिमें परिभ्रमण करता रहता है तो अधि‍कसे अधिक इतने काल तक वह तिर्यंचगति में रह सकता है। इसके बाद वह नियमसे अन्‍य गतिमें जन्‍म लेता है। वैसे तिर्यंचोंके अनेक भेद हैं, इसलिए उन भेदोंकी अपेक्षा उनकी कायस्थिति जुदी-जुदी है।

    इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि नामवाली तत्‍त्‍वार्थवृत्तिमें तीसरा अध्‍याय समाप्‍त हुआ ।।3।।

    राजवार्तिक :
    1-2. तिर्यञ्च गति नाम कर्म के उदय से जिनका जन्म हुआ है वे तिर्यञ्च हैं। तिर्यञ्च एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के भेद से तीन प्रकार के हैं।

    3. शुद्ध पृथिवी कायिकों की उत्कृष्ट स्थिति 12 हजार वर्ष, खरपृथिवी कायिकों की 22 हजार वर्ष, वनस्पति कायिकों की 10 हजार वर्ष, जल कायिकों की 7 हजार वर्ष, वायुकायिकों की तीन हजार वर्ष और तेजस्कायिकों की तीन रात दिन है ।

    4. द्वीन्द्रियों की उत्कृष्ट स्थिति 12 वर्ष, त्रीन्द्रियोंकी 49 दिन रात और चतुरिन्द्रियों की 6 माह है।

    5. जलचर पंचेन्द्रियों की उत्कृष्ट स्थिति मछली आदि की एक पूर्वकोटि, सरिसृप, गोह, नकुल आदि की 9 पूर्वाङ्ग, उरग-सर्पों की 42 हजार वर्ष, पक्षियों की 72 हजार वर्ष, चतुष्पदों की तीन पल्य । सबकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है।

    6. तिर्यञ्चों की आयु का पृथक् निर्देश इसलिए किया है जिससे प्रत्येक की उत्कृष्ट और जघन्य दोनों प्रकार की स्थिति का ज्ञान स्वतन्त्र भाव से हो जाय। अन्यथा यथासंख्य अन्वय होकर मनुष्यों की उत्कृष्ट और तिर्यञ्चों की जघन्य यह ज्ञान होता। एक भव की स्थिति भवस्थिति कहलाती है और एक काय का परित्याग किये बिना अनेक भव विषयक कायस्थिति होती है। पृथिवी, जल, तेज और वायुकायिकों की उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात लोक है। वनस्पतिकाय की उत्कृष्ट काय स्थिति अनन्तकाल, असंख्यात पुद्गल परिवर्तन, आवलिका का असंख्यात भागमात्र है। विकलेन्द्रियों की असंख्यात हजार वर्ष, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च मनुष्यों की पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य । सभी की जघन्य कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त है । देव और नारकों की भवस्थिति ही कायस्थिति है ।

    तृतीय अध्याय समाप्त

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    4-जीवाधिकार



    + देवों के प्रकार -
    देवाश्चतुर्णिकाया: ॥1॥
    अन्वयार्थ : देव चार निकाय वाले हैं ॥१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    'देव और नारकियों के भवप्रत्‍यय अवधिज्ञान होता है' इत्‍यादि सूत्रों में अनेक बार देव शब्‍द आया है। किन्‍तु वहाँ यह न जान सके कि देव कौन है। और वे कितने प्रकार के होते हैं। अत: इसका निर्णय करने के लिए आगे के सूत्र कहते हैं-

    अभ्‍यन्‍तर कारण देवगति नामकर्म का उदय होने पर जो नाना प्रकार की बाह्य विभूति से द्वीप समुद्रादि अनेक स्थानों में इच्‍छानुसार क्रीड़ा करते हैं, वे देव कहलाते हैं।

    शंका – 'देवश्‍चतुर्णिकाय:' इस प्रकार एकवचन रूप निर्देश करना उचित था, क्‍योंकि जाति का कथन कर देने से बहुत का कथन हो ही जाता है।

    समाधान – देवों के अर्न्‍तगत अनेक भेद हैं। इस बात का ज्ञान कराने के लिए सूत्र में बहुवचन का निर्देश किया है। तात्‍पर्य यह है कि देवों के इन्‍द्र सामानिक आदि की अपेक्षा अनेक भेद हैं, और स्‍थिति आदि की अपेक्षा भी अनेक भेद हैं अत: उनको सूचित करने के लिय बहुवचन का निर्देश किया है। अपने अवान्‍तर कर्मों से भेद को प्राप्‍त होने वाले देवगति नाम‍ कर्म के उदय की सामर्थ्य से जो संग्रह किये जाते हैं, वे निकाय कहलाते है। निकाय शब्‍द का अर्थ संघात है। 'चतुर्णिकाय' में बहुव्रीहि समास है, जिसमें देवों के मुख्‍य निकाय चार ज्ञात होते हैं।

    शंका – इन चार निकायों के क्‍या नाम है ? समाधान – भवनवासी, व्‍यन्‍तर, ज्‍योतिष्‍क और वैमानिक ।

    अब इनकी लेश्‍याओं का निश्‍चय करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -


    राजवार्तिक :
    1-2 देवगति-नाम-कर्म के उदय होने पर बाह्य दीप्ति, यथेच्छ क्रीड़ा आदि से जो दिव्य हैं, वे देव हैं। अन्तर्गत भेदों की दृष्टि से 'निकायाः' में बहुवचन का प्रयोग किया गया है।

    3. देवगतिनामकर्मोदय की भीतरी सामर्थ्य से बने हुए समुदायों को निकाय कहते हैं। भवनवासी, किन्नर, ज्योतिष्क और वैमानिक ये चार निकाय हैं।

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    + भवनत्रिक-देवों में लेश्या -
    आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्या: ॥2॥
    अन्वयार्थ : आदि के तीन निकायों में पीत पर्यन्‍त चार लेश्‍याएँ हैं ॥२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अन्‍त के तीन निकायों का, मध्‍य के निकायों का या विपरीत क्रम से निकायों का ग्रहण न समझ लिया जाय, इसलिय सूत्रमें 'आदित:'पद दिया है। दो और एक निकाय के निराकरण करने के लिए 'त्रि' पद का ग्रहण किया है।

    शंका – 'त्रि' पद से चार की निवृत्ति क्‍यों नहीं होती है?

    समाधान – सूत्र में जो 'आदितः' पद दिया है। इससे ज्ञात होता है कि 'त्रि' पद चार की निवृति के लिए नहीं है। लेश्‍याए छह कहीं है। उनमें-से चार लेश्‍याओं के ग्रहण करने के लिए सूत्र में 'पीतान्‍त' पदका ग्रहण किया है। यहाँ पीत से तेज लेश्‍या लेनी चाहिए। यहां पहले पीत और अन्‍त इन शब्‍दो में और अनन्‍तर पीतान्‍त और लेश्‍या शब्‍दों में बहुव्रीहि समास है। इसका यह अभिप्राय है कि आदि के भवनवासी, व्‍यन्‍तर और ज्‍योतिषी इन तीन निकायों में देवों के कृष्‍ण, नील, कापोत और पीत ये चार लेश्‍याएँ होती है।

    विशेषार्थ – यों तो भवनवासी, व्‍यन्‍तर और ज्‍योतिषी-देवों के एक पीत लेश्‍या ही होती है। किन्‍तु ऐसा नियम है कि कृष्‍ण, नील और कापोत लेश्‍या के मध्‍यम अंश से मरे हुए कर्मभूमियाँ मिथ्‍यादृष्टि मनुष्‍य और तिर्यंच और पीत लेश्‍या के मध्‍यम अंश से मरे हुए कर्मभूमियाँ मिथ्‍यादृष्टि मनुष्‍य और तिर्यंच भवनत्रिक में उत्‍पन्‍न होते हैं। यत: ऐसे कर्मभूमियाँ मनुष्‍य और तिर्यंचों के मरते समय प्रारम्‍भ की तीन अशुभ लेश्‍याएँ होती हैं अत: इनके मरकर भवनत्रिकों में उत्‍पन्‍न होने पर वहाँ भी अपर्याप्‍त अवस्‍था में ये तीन अशुभ लेश्‍याएँ पायी जाती हैं। इसी से इनके पीत तक चार लेश्‍याएँ कही है। अभिप्राय यह है कि भवनत्रिकों के अपर्याप्‍त अवस्‍था में पीत तक चार लेश्‍याएँ और पर्याप्‍त अवस्‍था में एक पीत लेश्‍या होती है।


    अब इन निकायों के भीतरी भेद दिखलाने के लिये आगे का सूत्र कहते है -

    राजवार्तिक :
    अन्त या मध्य से नहीं किन्तु आदि से, एक या दो नहीं किन्तु तीन निकायों में अर्थात् भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियों में कृष्ण नील कापोत और पीत ये चार लेश्याएँ होती हैं।

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    + देवों के उत्तर भेद -
    दशाष्ट-पञ्च-द्वादश-विकल्पा कल्पोपपन्न पर्यन्ता: ॥3॥
    अन्वयार्थ : वे कल्‍पोपपन्‍न देव तक के चार निकाय के देव क्रम से दस, आठ, पांच और बारह भेद वाले हैं ॥३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    देव निकाय चार है। और दश आदि संख्‍या शब्‍द चार है। अत: इनका क्रम से संबध जानना चाहिए। यथा- भवनवासी दस प्रकार के हैं, व्‍यन्‍तर आठ प्रकार के हैं। ज्‍योतिषी पांच प्रकार के हैं, और वैमानि‍क बारह प्रकार के है। पूर्वोक्‍त कथन से सब वैमानिक बारह भेदों में आ जाते है। अत: ग्रैवेयक आदि के निराकरण करने के लिए सूत्र में 'कल्‍पोपपन्‍नपर्यन्‍ता:'यह पद दिया है।

    शंका – कल्‍प इस संज्ञा का क्‍या कारण है ?

    समाधान – जिनमें इन्‍द्र आदि दस प्रकार कल्‍पे जाते हैं वे कल्‍प कहलाते है। इस प्रकार इन्‍द्रादिक की कल्‍पना ही कल्‍प संज्ञा का कारण है। यद्यपि इन्‍द्रादिक की कल्‍पना भवनवासियों में भी सम्‍भव है फिर भी रूढि से कल्‍प शब्‍द का व्‍यवहार वैमानिकों में ही किया जाता है। जो कल्‍पों में उत्‍पन्‍न होते है वे कल्‍पोपन्‍न कहलाते हैं। तथा जिनके अन्‍त में कल्‍पोपपन्‍न देव हैं उनको कल्‍पोपपन्‍नपर्यन्‍त कहा है।

    प्रकारान्‍तरसे उनके भेदों का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-


    राजवार्तिक :
    इन्द्र, सामानिक आदि कल्पनाएं जिनमें होती हैं वे कल्पोपपन्न हैं। यद्यपि भवनवासी आदि में भी ये कल्पनाएं हैं फिर भी रूढ़िवश कल्पोपपन्न शब्द से 16 स्वर्गवासियों का ग्रहण है। ग्रैवेयक आदि कल्पातीतों की इससे निवृत्ति हो जाती है। अर्थात् भवनवासी दस प्रकार, व्यन्तर आठ प्रकार, ज्योतिषी पाँच प्रकार और वैमानिक कल्प बारह प्रकार के हैं।

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    + दस भेद -
    इंद्र-सामानिक-त्रायस्त्रिंश-पारिषदात्मरक्ष-लोकपालानीक-प्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिकाश्चैकश: ॥4॥
    अन्वयार्थ : उक्‍त दस आदि भेदों में-से प्रत्‍येक इन्‍द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद, आत्‍मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्‍य ओर किल्विषिक रूप हैं ॥४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जो अन्‍य देवोंमें असाधारण अणिमादि गुणों के सम्‍बन्‍ध से शोभते हैं वे इन्‍द्र कहलाते हैं।

    आज्ञा और ऐश्‍वर्य के सिवा जो स्‍थान, आयु, वीर्य, परिवार, भोग और उपभोग आदि हैं वे समान कहलाते हैं। इस समान में जो होते हैं वे सामानिक कहलाते हैं। ये पिता, गुरू और उपाध्‍याय के समान सबसे बड़े हैं।

    जो मन्‍त्री और पुरोहित के समान हैं वे त्रायस्त्रिंश हैं, ये तेंतीस ही होते है इसलिए त्रायस्त्रिंश कहलाते हैं।

    जो सभा में मित्र और प्रेमीजनों के समान होते है, वे पारिषद कहलाते हैं।

    जो अंगरक्षक के समान हैं वे आत्त्‍मरक्ष कहलाते हैं।

    जो रक्षकके समान अर्थचर है, वे लोकपाल कहलाते हैं।

    जैसे यहाँ सेना है उसी प्रकार सात प्रकार के पदाति आदि अनीक कहलाते हैं।

    जो गाँव और शहरों में रहने वालों के समान हैं। उन्‍हें प्रकीर्णक कहते हैं।

    जो दास के समान वाहन आदि कर्म में प्रवृत होते हैं, वे आभियोग कहलाते हैं।

    जो सीमाके पास रहने वालों के समान हैं वे किल्विषिक कहलाते हैं। किल्विष पाप को कहते हैं इसकी जिनके बहुलता होती है। वे किल्विषिक कहलाते हैं।

    चारों निकायों में से प्रत्येक निकाय में ये इन्द्रादिक दस भेद उत्सर्ग से प्राप्त हुए, अत: जहाँ अपवाद है। उसका कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते है -

    राजवार्तिक :
    प्रत्येक निकायमें इन्द्र सामानिक त्रायस्त्रिंश पारिषद् आत्मरक्ष लोकपाल अनीक प्रकीर्णक आभियोग्य और किल्विषक ये दश भेद हैं।

    1. अन्य देवों में नहीं पाया जानेवाला अणिमा आदि ऋद्धिरूप ऐश्वर्यवाला इन्द्र है।
    2. आज्ञा और ऐश्वर्य के सिवाय स्थान, आयु, शक्ति, परिवार और भोगोपभोग आदि में जो इन्द्रों के समान हैं वे सामानिक हैं । ये पिता गुरु उपाध्याय आदि के समान आदरणीय होते हैं।
    3. मन्त्री और पुरोहित के समान हित चेतानेवाले त्रास्त्रिंश देव होते हैं। त्रयस्त्रिंशत् संख्या और संख्येय में भेद मानकर यहाँ समास हो गया है। अथवा स्वार्थिक अण् प्रत्यय करने पर त्रास्त्रिंश रूप बन जाता है।
    4. पारिषद् अर्थात् सभ्य । ये मित्र और पीठमर्द-अर्थात् नर्तकाचार्य के समान विनोदशील होते हैं।
    5. अंगरक्षक के समान कवच पहिने हुए सशस्त्र पीछे खड़े रहनेवाले आत्मरक्ष - हैं। यद्यपि कोई भय नहीं है फिर भी विभूति के द्योतन के लिए तथा दूसरों पर प्रभाव डालने के लिए आत्मरक्ष होते हैं।
    6. अर्थरक्षक के समान लोकपाल होते हैं।
    7. पदाति आदि सात प्रकार की सेना अनीक है ।
    8. नगर या प्रान्तवासियों के समान प्रकीर्णक होते है।
    9. दासों के समान आभियोग्य होते हैं। ये ही विमान आदि को खींचते हैं और वाहक आदि रूप से परिणत होते हैं।
    10. पापशील और अन्त्यवासी की तरह किल्विषक होते हैं।

    प्रत्येक निकाय में इन भेदों की सूचना के लिए 'एकशः' पद में वीप्सार्थक शस् प्रत्यय है।

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    + भेदों में अपवाद -
    त्रायस्त्रिंश-लोकपाल-वर्ज्या व्यंतरज्योतिष्का: ॥5॥
    अन्वयार्थ : किन्‍तु व्‍यन्‍तर और ज्योतिष्‍क देव त्रायस्त्रिंश और लोकपाल इन दो भेदों से रहित है ॥५॥
    देवों में भेद
    इन्द्र सामानिक त्रायस्त्रिंश पारिषद आत्‍मरक्ष लोकपाल अनीक प्रकीर्णक अभियोग्‍य किल्विषिक
    भवनवासी
    व्यंतर X X
    ज्योतिष्क X X
    वैमानिक

    सर्वार्थसिद्धि :
    व्‍यन्‍तर और ज्‍योतिषियों में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल इन दो भेदों के सिवा शेष आठ भेद जानना चाहिए।

    उन निकायों में क्‍या एक एक इन्‍द्र है या और दूसरा कोई नियम है इस बात को बतलाने लिए अब आगे का सूत्र कहते है-

    राजवार्तिक :
    व्यन्तर और ज्योतिष्कों में त्रास्त्रिंश और लोकपाल के सिवाय आठ भेद होते हैं ।

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    + भवनावासी और व्यंतर में इंद्र -
    पूर्वयोर्द्वीन्द्राः ॥6॥
    अन्वयार्थ : प्रथम दो निकायो (भवनवासी / व्यंतर) में दो-दो इन्‍द्र हैं ॥६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    पूर्व के दो निकायों से भवनवासी और व्‍यन्‍तर ये दो निकाय लेना चाहिए।

    शंका – दूसरे निकाय को पूर्व कैसे कहा जा सकता है?

    समाधान – प्रथम के समीपवर्ती होने से दूसरे निकाय को उपचार से पूर्व कहा है। 'द्वीन्‍द्राः' इस पद में वीप्‍सारूप अर्थ गर्भित है, अतः इसका विग्रह इस प्रकार हुआ कि 'द्वौ द्वौ इन्‍द्रौ येषो ते द्वीन्‍द्रा' जैसे सप्‍तपर्ण और अष्‍टापद। तात्‍पर्य यह है कि जिस प्रकार सप्‍तपर्ण और अष्‍टापद इन पदों में वीप्‍सारूप अर्थ गर्भित है उसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए। खुलासा इस प्रकार है भवनवासियों में असुरकुमारों के चमर और वैरोचन ये दो इन्‍द्र हैं। नागकुमारों के धरण और भूतानन्‍द ये दो इन्‍द्र हैं। विद्युत्‍कुमारों के हरि-सिंह और हरिकान्‍त ये दो इन्‍द्र हैं। सुपूर्णकुमारों के वेणुदेव और वेणुधारी ये दो इन्‍द्र हैं। वातकुमारों के वैलम्‍ब और प्रभंजन ये दो इन्‍द्र हैं। स्‍तनितकुमारों के सुघोष और महाघोष दो इन्द्र हैं। उदधिकुमारों के जलकान्‍त और जलप्रभ ये दो इन्द्र हैं। दीपकुमारों के पूर्ण और विशिष्ट ये दो इन्‍द्र हैं। तथा दिक्कुमारों के अमितगति और अमितवाहन ये दो इन्‍द्र हैं। व्यंतरों में भी किन्‍नरों के किन्नर और किम्‍पुरूष ये दो इन्‍द्र हैं। किम्पुरूषों के सत्‍पुरूष और महापुरूष ये दो इन्‍द्र हैं। महोरगों के अतिकाय और महाकाय ये दो इन्‍द्र हैं। गन्‍धर्वों के गीतरति और गीतयश ये दो इन्‍द्र हैं। यक्षों के पूर्णभद्र और मणिभद्र ये दो इन्‍द्र हैं। राक्षसों के भीम और महाभीम ये दो इन्‍द्र हैं। भूतों के प्रतिरूप और अप्रतिरूप ये दो इन्‍द्र हैं। तथा पिशाचों के काल और महाकाल ये दो इन्‍द्र हैं।

    इन देवों का सुख किस प्रकार का होता है ऐसा पूछने पर सुखों का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1-2 पूर्वयोः' इस शब्द से प्रथम और द्वितीय निकाय का ग्रहण करना चाहिए, समदाय और समुदायवाले में भेद विवक्षा की दृष्टि से देवों के निकायों में ऐसा भेदपरक निर्देश किया है । जैसे आमों का वन या धान्य की राशि ।

    3 'द्वीन्द्राः' यहाँ वीप्सार्थ की विवक्षा है अर्थात् दो-दो इन्द्र होते हैं। भवनवासियों में नाम के इन्द्र हैं। व्यन्तरों में नाम के इन्द्र हैं।

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    + काय-प्रविचार कहाँ तक? -
    काय-प्रवीचारा आ ऐशानात् ॥7॥
    अन्वयार्थ : ऐशान तक के देव कायप्रवीचार अर्थात शरीर से विषय सुख भोगने वाले होते हैं ॥७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    मैथुन द्वारा उपसेवन को प्रवीचार कहते है। जिनका काय से प्रवीचार है वे कायप्रवीचार वाले कहे जाते हैं। कहाँ तक काय से प्रवीचार की व्‍याप्ति है इस बात के बतलाने लिए सूत्र में 'आङ्' का निर्देश किया है। सन्‍देह न हो इसलिए 'आ ऐशानात्‍' इस प्रकार सन्धि के बिना निर्देश किया है। तात्‍पर्य यह है कि ऐशान स्‍वर्ग पर्यन्‍त ये भवनवासी आदि देव संक्लिष्‍ट कर्म वाले होने के कारण मनुष्‍यों के समान स्‍त्री विषयक सुखका अनुभव करते हैं।

    पूर्वोक्‍त सूत्रमें काय से प्रवीचार की मर्यादा कर दी हैा इसलिए इतर देवों के सुख का विभाग नहीं ज्ञात होता है, अत: इसके प्रतिपादन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -


    राजवार्तिक :
    1. मथुन व्यवहार को प्रवीचार कहते हैं । शरीर से मैथुन-सेवन को कायप्रवीचार कहते हैं।

    2. आङ् उपसर्ग अभिविधि अर्थ में है । अर्थात् ऐशान स्वर्ग तक के देव संक्लिष्ट कर्मवाले होने से मनुष्यों की तरह स्त्री-विषय का सेवन करते हैं । यदि 'प्राग् ऐशानात्' ऐसा ग्रहण करते तो ऐशान स्वर्ग के देव छूट जाते ।

    3 'आ ऐशानात्' ऐसा बिना सन्धि का निर्देश असन्देह के लिए किया गया है । यदि सन्धि कर देते तो 'आङ्' उपसर्ग का पता ही न चलता । पूर्वसूत्र में 'पूर्वयोः' का अधिकार है । अत: उसका अनुवर्तन होन से 'ऐशान से पहिले के' यह अनिष्ट अर्थ होता। अतः यहाँ सन्धि नहीं की है।

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    + स्पर्श, रूप और शब्द प्रविचार -
    शेषा: स्पर्श-रूप-शब्द-मन: प्रवीचारा: ॥8॥
    अन्वयार्थ : शेष देव स्‍पर्श, रूप, शब्‍द और मन से विषय सुख भोगने वाले होते हैं ॥८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    पहले जिन देवों का प्रवीचार कहा है। उनसे अतिरिक्‍त देवों के ग्रहण करने के लिए शेष पद का ग्रहण किया है।

    शंका – उक्‍त देवों से अवशिष्‍ट और कौन देव है ?

    समाधान – कल्‍पवासी । यहाँ स्‍पर्श, रूप, शब्‍द और मन इनका परस्‍पर द्वन्द्व समास करके अनन्‍तर प्रवीचार शब्‍द के साथ बहुटीहि समास किया है।

    शंका- इनमें से किन देवों के कौन सा प्रवीचार है इसका संबध कैसे करना चाहिए ?

    समाधान – इसका संबध जिस प्रकार आर्ष में विरोध न आवे उस प्रकार कर लेना चाहिए।

    शंका – पुन: 'प्रवीचार' शब्‍द का ग्रहण किसलिए किया है ?

    समाधान – इष्‍ट अर्थ का ज्ञान कराने के लिए।

    शंका – जिसमें आर्ष से विरोध न आवे ऐसा वह इष्‍ट अर्थ क्‍या है?

    समाधान – सानत्कुमार और माहेन्‍द्र स्‍वर्ग के देव देवांगानाओं के स्‍पर्श मात्र से परम प्रीति को प्राप्‍त होते हैं इसी प्रकार वहाँ की देवियाँ भी। ब्रह्म, ब्रह्मोत्‍तर, लान्‍तव और कापिष्‍ठ स्‍वर्ग के देव देवागानाओं के श्रंगार, आकृति, विलास, चतुर और मनोज्ञ वेष तथा मनोज्ञ रूप के देखने मात्र से ही परम सुख को प्राप्‍त होते है। शुक्र, महाशुक्र, शतार ओर सहस्‍त्रार स्‍वर्ग के देव देवगांनाओं के मधुर संगीत, कोमल हास्‍य, ललित कथित और भूषणों के कोमल शब्‍दों के सुनने के मात्र से ही परम प्रीति को प्राप्‍त होते हैं। तथा आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्‍प के देव अपनी अंगना का मन में संकल्‍प करने मात्र से ही परमसुख को प्राप्‍त होते हैं।

    अब आगे के देवों का किस प्रकार का सुख है ऐसा प्रश्‍न करने पर उसका निश्‍चय करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1. शेष शब्द के द्वारा ऐशान के सिवाय अन्य विमानवासियों का संग्रह होता है । ग्रेवेयकादि के देव तो 'परेप्रवीचाराः' सूत्र से मैथुन-रहित बताए जायंगे।

    2-4. प्रश्न – इस सूत्र के द्वारा यह ज्ञात नहीं होता कि स्वर्गों में स्पर्श-प्रवीचार है तथा किनमें रूप-प्रवीचार आदि । अतः यह सूत्र अगमक है। 'दो दो' का सम्बन्ध लगाने से भी आगमोक्त अर्थ नहीं निकलता। इन्द्रों की अपेक्षा दो-दो का सम्बन्ध लगाने से आनतादिक चार अन्त में बच जाते हैं। तात्पर्य यह कि यह सूत्र अपूर्ण है।

    उत्तर – यद्यपि पूर्वसूत्र से प्रवीचार शब्द की अनुवृत्ति आती है फिर भी इस सूत्र में दुबारा प्रवीचार शब्द के ग्रहण करने से इस प्रकार आगमाविरोधी इष्ट अर्थ का ज्ञान हो जाता है । सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में देव-देवियां परस्पर अंग-स्पर्श करने से सुखानुभवन करते हैं । ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ठ स्वर्ग के देव और देवियाँ परस्पर सुन्दर रूप को देखकर ही तृप्त हो जाते हैं । शुक्र महाशुक्र शतार और सहस्रार स्वर्ग के देव और देवियाँ परस्पर मधुर संगीत श्रवण, मृदु हास्य, भूषणों की झंकार आदि शब्दों के सुनने मात्र से सुखानुभव करते हैं । आनत, प्राणत, आरण और अच्युत स्वर्ग के देव देवियाँ मन में एक दूसरे का विचार आते ही तृप्त हो जाते हैं।

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    + प्रविचार रहित देव -
    परेऽप्रवीचारा: ॥9॥
    अन्वयार्थ : बाकी के सब देव विषय सुख से रहित होते हैं ॥९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    शेष सब देवों का संग्रह करने के लिए सूत्र में 'पर' शब्‍द का ग्रहण किया है । परम सुख का ज्ञान कराने के लिए अप्रवीचार पद का ग्रहण किया है। प्रवीचार वेदना का प्रतिकार मात्र है। इसके अभाव में उनके सदा परम सुख पाया जाता हैं ।

    आदि के निकाय के देवों के दस भेद कहे हैं। अब उनकी सामान्‍य और विशेष संज्ञा ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    कल्पातीत-प्रेवेयकादि वासी देव प्रवीचार से रहित हैं । प्रवीचार कामवेदना का प्रतीकार है। इनके काम-वेदना ही नहीं होती। अतः ये परमसुख का सदा अनुभव करते हैं ।

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    + भवनवासी देवों के प्रकार -
    भवन-वासिनोऽसुरनाग-विद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधि-द्वीप-दिक्कुमारा: ॥10॥
    अन्वयार्थ : भवनवासी देव दस प्रकार के हैं - असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्‍कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्‍तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्‍कुमार ॥१०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिनका स्‍वाभव भवनों में निवास करना है वे भवनवासी कहे जाते हैं। प्रथम निकाय की यह सामान्‍य संज्ञा है। तथा असुरादिक विशेष संज्ञाएँ हैं जो विशिष्ट नाम कर्म के उदय से प्राप्‍त होती हैं। यद्यपि इन सब देवों का वय और स्‍वभाव अवस्थित है तो भी इनके वेष, भूषा, शस्‍त्र, यान, वाहन और क्रीड़ा आदि कुमारों के समान होती है इसलिए सब भवनवासियों में कुमार शब्‍द रूढ़ है। यह कुमार शब्‍द प्रत्‍येक के साथ जोड लेना चाहिए । यथा असुर-कुमार आदि ।

    शंका – इनके भवन कहाँ है ?

    समाधान – रत्‍नप्रभा के पंकबहुल भाग में असुरकुमारों के भवन हैं। और खर पृथिवीभाग में ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोडकर शेष नौ प्रकार के कुमारों के भवन हैं।

    अब दूसरे निकाय की समान्‍य और विशेष संज्ञा के निश्‍चय करने के लिए आगे का सूत्र कहते है -

    राजवार्तिक :
    1-3. भवनों में रहने के कारण ये भवनवासी कहे जाते हैं । असुर आदि उनके भेद हैं । ये भेद नामकर्म के कारण हैं।

    4-6. 'देवों के साथ असुर का युद्ध होता था अतः ये असुर कहलाते हैं' यह देवों का अवर्णवाद मिथ्यात्व के कारण किया जाता है । क्योंकि सौधर्मादि स्वर्गों के देव महा प्रभावशाली हैं, वे सदा जिनपूजा आदि शुभकार्यों में लगे रहते हैं, उनमें स्त्रीहरण आदि निमित्तों से वैर की संभावना ही नहीं है अत: अल्पप्रभाव वाले असुरों से युद्ध की कल्पना ही व्यर्थ है।

    7-8. ये सदा कुमारों की तरह वेषभूषा तथा यौवनक्रीडाओं में लगे रहते हैं अतः कुमार कहलाते हैं। कुमार शब्द का सम्बन्ध प्रत्येक के साथ है - असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार आदि।

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    + व्यन्‍तर देवों के प्रकार -
    व्यन्तरा: किन्नर-किम्पुरुष-महोरग-गन्धर्व-यक्ष-राक्षस-भूत-पिशाचा: ॥11॥
    अन्वयार्थ : व्यन्‍तर देव आठ प्रकार के हैं- किन्‍नर, किम्‍पुरूष, महोरग, गन्‍धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच ॥११॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिनका नाना प्रकार के देशों में निवास है वे व्‍यन्‍तर देव कहलाते हैं। यह समान्‍य संज्ञा सार्थक है जो अपने आठों ही भेदों में लागू है। यह व्‍यन्‍तरों के किन्‍नरादि आठों भेद विशेष नाम कर्म के उदय से प्राप्‍त होते है ऐसा जानना चाहिए।

    शंका- इन व्‍यन्‍तरों के निवास कहाँ हैं ?

    समाधान- इस जम्‍बूद्वीप से असंख्‍यात द्वीप और समुद्र लाँघकर उपर के खर पृथ्‍वी भाग में सात प्रकार के व्‍यन्‍तरों के आवास हैं। तथा पंकबहुल भाग में राक्षसों के आवास हैं।


    अब तीसरे निकाय की सामान्‍य और विशेष संज्ञा का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-3 विविध देशों में निवास होने से इन्हें व्यन्तर कहते हैं। इनके किन्नर आदि आठ भेद हैं । देवगति के उत्तरभेद रूप उन-उन प्रकृतियों के उदय से ये किन्नर आदि भेद हुए हैं।

    4 प्रश्न – खोटे मनुष्यों को चाहने के कारण किन्नर, कुत्सित पुरुषों की कामना करने के कारण किम्पुरुष, मांस खाने से पिशाच आदि कारणों से ये संज्ञाएं क्यों नहीं मानते ?

    उत्तर – यह सब देवों का अवर्णवाद है । ये पवित्र वैक्रियिक शरीर के धारक होते हैं वे कभी भी अशुचि औदारिक शरीरवाले मनुष्य आदि की कामना नहीं करते और न वे मांस मदिरादि के खानपान में प्रवृत्त ही होते हैं। लोक में जो व्यन्तरों की मांसादि ग्रहण की प्रवृत्ति सुनी जाती है वह केवल उनकी क्रीड़ा है । वे तो मानस आहार लेते हैं । इस जम्बूद्वीप से तिरछे असंख्य द्वीप समुद्रों के बाद नीचे खर-पृथिवी भाग में दक्षिणाधिपति किन्नरेन्द्र के असंख्यात लाख नगर है। इसके 4 हजार सामानिक, तीन परिषद्, सात अनीक, चार अग्रमहिषी और सोलह हजार आत्मरक्ष हैं। उत्तराधिपति किन्नरेन्द्र किम्पुरुष का भी इतना ही विभव परिवार है। शेष छह दक्षिणाधिपति-सत्पुरुष, अतिकाय, गीतरति, पूर्णभद्र, स्वरूप और काल के दक्षिण दिशा में आवास हैं। तथा उत्तराधिपति महापुरुष, महाकाय, गीतयश, माणिभद्र, अप्रतिरूप और महाकाल के उत्तरदिशा में आवास हैं। राक्षसेन्द्र भीम के दक्षिण दिशा में पंकबहुल भाग में असंख्यात लाख नगर है और उत्तराधिपति महाभीम के उत्तरदिशा में । सोलहों व्यन्तरों के सामानिक आदि विभव परिवार एक जैसा है। भूमितल में भी व्यन्तर द्वीप, पर्वत, समुद्र, देश, ग्राम, नगर, तिगड्डा, चौराहा, घर, गली, जलाशय, उद्यान, देवमन्दिर आदि में निवास करते हैं।

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    + ज्‍योतिषी देवों के प्रकार -
    ज्योतिष्का: सूर्याचन्द्रमसौ ग्रह-नक्षत्र-प्रकीर्णक-तारकाश्च ॥12॥
    अन्वयार्थ : ज्‍योतिषी देव पाँच प्रकार के हैं - सूर्य, चन्‍द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे ॥१२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    ये सब पाँचों प्रकार के देव ज्‍योतिर्मय हैं, इसलिए इनकी ज्‍योतिषी यह सामान्‍य संज्ञा सार्थक है। तथा सूर्य आदि विशेष संज्ञाएँ विशेष नाम कर्म के उदय से प्राप्‍त होती हैं। सूर्य और चन्‍द्रमा की प्रधानता को दिखलाने के लिए 'सूर्याचन्‍द्रमसौ' इस प्रकार इन दोनों का अलग से ग्रहण किया है।

    शंका – इनमें प्रधानता किस निमित से प्राप्‍त होती है ?

    समाधान – इनमें प्रभाव आदिक की अपेक्षा प्रधानता प्राप्‍त होती है।

    शंका – इनका आवास कहाँ पर है ?

    समाधान – इस समान भूमि भाग से सात सौ नब्‍बे योजन ऊपर जाकर तारकाएँ विचरण करती हैं। जो सब ज्‍येातिषियों के अधोभाग में स्‍थित हैं। इससे दस योजन ऊपर जाकर सूर्य विचरण करते हैं। इससे अस्‍सी योजन ऊपर जाकर चन्‍द्रमा परिभ्रमण करते हैं। इससे चार योजन ऊपर जाकर नक्षत्र हैं। इससे चार योजन ऊपर जाकर बुध है। इससे तीन योजन ऊपर जाकर शुक्र हैं। इससे तीन योजन ऊपर जाकर बृहस्‍पति हैं। इससे तीन योजन ऊपर जाकर मंगल हैं। इससे तीन योजन ऊपर जाकर शनीचर हैं। यह ज्‍योतिषियों से व्‍याप्‍त नभ:प्रदेश एक सौ दस योजन मोटा और धनोदधि-पर्यन्‍त असंख्‍यात द्वीप-समुद्र-प्रमाण लम्‍बा है। कहा भी है--

    'इस पृथ्‍वी तल से सात सौ नब्‍बे योजन ऊपर जाकर ताराएँ हैं। पुन: दस योजन ऊपर जाकर सूर्य हैं। पुन: अस्सी योजन ऊपर जाकर चन्द्रमा हैं। पुन: चार योजन ऊपर जाकर नक्षत्र और चार योजन ऊपर जाकर बुध हैं। पुनः चार बार तीन योजन ऊपर जाकर अर्थात तीन-तीन योजन ऊपर जाकर क्रम से शुक्र, गुरू, मंगल और शनि हैं।

    अब ज्‍योतिषी देवों की गति विशेष का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-3. प्रकाश स्वभाव होने से ये ज्योतिष्क कहलाते हैं। ज्योतिष् शब्द से स्वार्थ में 'क' प्रत्यय होने पर ज्योतिष्क शब्द सिद्ध होता है । यद्यपि ज्योतिष् शब्द नपुंसक-लिंग है फिर भी क प्रत्यय स्वार्थ में होने पर पुल्लिग ज्योतिष्क शब्द बन जाता है जैसे कुटी से कुटीर, शुण्डा से शुण्डार आदि । अर्थात् कहीं-कहीं लिंग-व्यतिक्रम हो जाता है।

    4-10. उन-उन देवगति नाम-कर्म की उत्तर-प्रकृतियों के उदय से सूर्य, चन्द्र आदि संज्ञाएं रूढ़ हुई हैं। 'सूर्याचन्द्रमसौ' यहाँ 'देवताद्वन्द्वे' सूत्र से आनङ् प्रत्यय हुआ है। यह सर्वत्र नहीं होता। 'सूर्याचन्द्रमसौ' का पृथक् ग्रहण इसलिए किया है कि ये प्रभाव ज्योति आदि के कारण सबमें प्रधान हैं। सूर्य का प्रथम पाठ इसलिए किया है कि उसमें अल्प स्वर हैं और वह प्रभावशाली तथा अपनी प्रभा से सबका अभिभव करने में समर्थ होने से पूज्य भी हैं। ग्रह शब्द अल्प अच्वाला है और अभ्यर्हित है अतः उसका नक्षत्र और तारका से पहिले ग्रहण किया है। इसी तरह तारका से नक्षत्र अल्पाच् और अभ्यर्हित है।

    इस भूमितलसे 790 योजन ऊपर ज्योतिर्मण्डल में सबसे नीचे तारागण हैं। उससे दश योजन ऊपर सूर्य, उससे 80 योजन ऊपर चन्द्रमा, उससे तीन योजन ऊपर नक्षत्र, उससे तीन योजन ऊपर बुध, उससे तीन योजन ऊपर शुक्र, उससे तीन योजन ऊपर बृहस्पति, उससे चार योजन ऊपर मंगल और उससे चार योजन ऊपर शनैश्चर हैं। इस तरह सम्पूर्ण ज्योतिश्चक्र 110 योजन ऊंचाई और असंख्यात द्वीपसमूह प्रमाण लम्बाई में है ।

    अभिजित नक्षत्र सबसे भीतर और मूल सबसे बाहिर है । भरणी सबसे नीचे और स्वाति सबसे ऊपर है । सूर्य के विमान तपे हुए सुवर्ण के समान प्रभावाले लोहित मणिमय, 48 1/60 योजन लम्बे 24 1/60 योजन चौड़े, आधे गोलक के आकारवाले और सोलह हजार देवों द्वारा वहन किये जाते हैं । पूर्व दक्षिण उत्तर और पश्चिम दिशा में क्रमशः चार-चार हजार देव सिंह, हाथी, वृषभ और घोड़े के आकार को धारण करके सूर्य के विमान में जुते रहते हैं। इनके ऊपर सूर्य देव हैं। इनके सूर्यप्रभा, सुसीमा, अर्चिमालिनी और प्रभंकरा ये चार अग्रमहिषी हैं। ये प्रत्येक चार-चार हजार देवियों की विक्रिया कर सकती हैं। सूर्य असंख्यात लाख विमानों के स्वामी हैं।

    चन्द्रविमान निर्मल मृणालवर्ण के समान धवल प्रभावाले हैं। ये 56 1/60 योजन लंबे 28 1/60 योजन चौड़े और हजार देवों द्वारा वहन किए जाते हैं । पूर्वादिक दिशाओं में क्रमशः सिंह, हाथी, घोड़ा और वृषभ के रूप को धारण किए हुए चार-चार हजार देव चन्द्रविमानों में जुते रहते हैं। इनके चन्द्रप्रभा, सुसीमा, अचिमालिनी और प्रभंकरा ये चार अग्रमहिषी चार-चार हजार देवियों की विक्रिया करने में समर्थ हैं । ये असंख्यात लाख विमानों के अधिपति हैं।

    राहु के विमान अंजनमणि के समान काले, एक योजन लम्बे-चौड़े और 250 धनुष विस्तारवाले हैं । नव मल्लिका कुसुम की तरह रजतमय शुक्र विमान हैं । ये एक गव्यूत लम्बे चौड़े हैं।

    बृहस्पति के विमान अंकमणिमय और सुवर्ण तथा मोती की समान कान्तिवाले हैं। कुछ कम गव्यूत प्रमाण लम्बे चौड़े हैं। बुध के विमान कनकमय और पीले रंग के हैं । तपे हुए सोने के समान लालरंग के शनैश्चर के विमान हैं । लोहित मणिमय तप्त सुवर्ण की कान्तिवाले मंगल के विमान हैं। बुध आदि के विमान आधे गव्युत लम्बे चौड़े हैं। शुक्र आदि के विमान राहु के विमान बराबर लम्बे चौड़े हैं। राहु आदि के विमानों को चार-चार हजार देव वहन करते हैं। नक्षत्र विमानों को भी चार हजार देव ही ढोते हैं। तारा विमानों को दो हजार देव वहन करते हैं । राहु आदि के विमानवाहक देव चन्द्रविमानवाहक देवों की तरह रूपविक्रिया करते हैं। नक्षत्र विमानों का उत्कृष्ट विस्तार एक कोश है । तारा विमानों का जघन्य विस्तार 1/4 कोश, मध्यम कुछ अधिक 1/4 कोश और उत्कृष्ट 1/2 गव्यूत है। ज्योतिषी विमानों का सर्वजघन्य विस्तार 500 धनुष है। ज्योतिषियों के इन्द्र सूर्य और चन्द्रमा हैं। ये असंख्यात हैं।

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    + ज्‍योतिषी देवों में गति -
    मेरु-प्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥13॥
    अन्वयार्थ : ज्‍योतिषी देव मनुष्‍यलोक में मेरू की प्रदक्षिणा करते हैं और निरन्‍तर गतिशील हैं ॥१३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    'मेरूप्रदक्षिणा' इस पद में षष्‍ठी तत्‍पुरूष समास है। 'मेरूप्रदक्षिणा' यह वचन गतिविशेष का ज्ञान करने के लिए और कोई विपरीत गति न समझ बैठे इसके लिए दिया है। वे निरन्तर गतिरूप क्रिया युक्‍त हैं इस बात का ज्ञान कराने के लिए 'नित्‍यगतय' पद दिया है। इस प्रकार के ज्‍योतिषी देवों का क्षेत्र बताने के लिए 'नृलोक' पद का ग्रहण किया है। तात्‍पर्य यह है कि ढाई द्वीप और दो समुद्रों में ज्‍योतिषी देव निरन्‍तर गमन करते रहते हैं अन्‍यत्र नहीं।

    शंका – ज्‍योतिषी देवों के विमानों की गति का कारण नहीं पाया जाता अत: उनका गमन नहीं बन सकता ?

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि यह हेतु असिद्ध है। बात यह है कि गमन करने में रत जो अभियोग जाति के देव हैं उनसे प्रेरित होकर देवों के विमानों का गमन होता रहता है। यदि कहा जाए कि अभियोग्‍य जाति के देव निरन्‍तर गति में ही क्‍यों रत रहते हैं तो उसका उत्‍तर यह है कि यह कर्म के परिपाक की विचित्रता है। उनका कर्म गतिरूप से ही फलता है। यही कारण है कि वे निरन्‍तर गमन करने में ही रत रहते हैं। यद्यपि ज्‍योतिषी देव मेरूपर्वत की प्रदक्षिणा करते हैं तो भी मेरूपर्वत से ग्यारह सौ इक्‍कीस योजन दूर रह कर ही विचरण करते हैं।


    अब गमन करने वाले ज्‍योतिषियों के सम्‍बन्‍ध से व्यवहार-काल का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. अन्य प्रकार की गति की निवृत्ति के लिए 'मेरुप्रदक्षिणा' शब्द दिया है।

    2-3. यद्यपि गति प्रतिक्षण भिन्न होने के कारण अनित्य है फिर भी सतत गति की सूचना के लिए 'नित्य' पद दिया है । तात्पर्य यह कि वे सदा चलते हैं कभी रुकते नहीं। गति भी द्रव्यदृष्टि से नित्य होती है क्योंकि सभी पदार्थ द्रव्यदृष्टि से नित्य और पर्यायदृष्टि से अनित्य इस तरह अनेकान्तरूप हैं।

    4. 'नृलोक' ग्रहण सूचित करता है कि ढाई-द्वीप के ज्योतिषी नित्यगतिवाले हैं, बाहर के नहीं। गतिपरिणत आभियोग्य जाति के देवों द्वारा इनके विमान ढोए जाते हैं अतः वे नित्यगतिक हैं। इन देवों के ऐसे ही कर्म का उदय है जिससे इन्हें विमानों को वहन करके ही अपना कर्मफल भोगना पड़ता है। ये मेरु पर्वत से 11 सौ योजन दूर घूमते हैं। ताराओं का जघन्य अन्तर 17 गव्यूत है, मध्यम 50 गव्यत और उत्कष्ट अन्तर एक हजार योजन है। चन्द्र और सूर्य का जघन्य अन्तर 99640 योजन और उत्कृष्ट अन्तर 100666 योजन है । जम्बूद्वीप आदि में एक-एक चन्द्रमा के 66 हजार कोडाकोड़ी 9 सौ कोडाकोड़ी और 75 कोड़ाकोड़ी तारा, 88 महाग्रह और 28 नक्षत्र हैं। सूर्य के 184 मंडल 80 सौ जम्बूद्वीप के भीतर घुसकर प्रकाशित करते हैं । इनमें 65 आभ्यन्तर मंडल हैं तथा लवणोदधि के भीतर 33 सौ योजन घुसकर प्रकाशित करते हैं । बाह्य मण्डल 119 हैं । एक-एक मण्डल का अन्तर दो-दो योजन है । 2 4891 योजन उदयान्तर है । सबसे भीतरी मण्डल में सूर्य 44820 योजन मेरुपर्वत से दूर सूर्य प्रकाशित होता है । इसका विस्तार 99640 योजन है। इस समय 18 मुहूर्त का दिन होता है। एक मुहूर्त का गतिक्षेत्र 52512960 योजन है। सर्व बाह्य मण्डल में सूर्य 45330 योजन मेरु पर्वत से दूर रहकर प्रकाशित होता है । इसका विस्तार 100660 योजन है। इस समय दिनमान 12 मुहूर्त है। 53051560 योजन मुहूर्त गतिक्षेत्र है । उस समय 3183212 योजन में सूर्य दिखाई देता है।

    चन्द्रमण्डल 15 हैं। द्वीप के भीतर पाँच मंडल हैं और समुद्र में दस । 15 मंडलों के 14 अन्तर हैं। एक-एक मंडलान्तर का प्रमाण 353061-47 योजन है। सर्वाभ्यन्तर मंडलको 13725 से भाग देने पर 507344177, शेष रहता है। यह चन्द्रमण्डल की एक मुहूर्त की गति का परिमाण है । सर्व बाह्यमंडल को 13725 से भाग देने पर 512569190 शेष रहता है। यह चन्द्रमंडल की एक मुहूर्त की गति का परिमाण है। 510 योजन सूर्य और चन्द्र का चार क्षेत्र का विस्तार है।

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    + ज्योतिषी-विमान द्वारा काल-की गणना -
    तत्कृत: काल विभाग: ॥14॥
    अन्वयार्थ : उन (ज्योतिष्क देवों )के द्वारा काल-विभाग होता है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    गमन करने वाले ज्‍योतिषी देवों का निर्देश करने के लिए सूत्र में 'तत्' पदका ग्रहण किया है। केवल गति से काल का निर्णय नहीं हो सकता, क्‍योंकि वह पायी नहीं जाती और गति के बिना केवल ज्‍योति से भी काल का निर्णय नहीं हो सकता, क्‍योंकि परिवर्तन के बिना वह सदा एक सी रहेगी। यही कारण है कि यहाँ 'तत्' पद के द्वारा गति वाले ज्‍योतिषियों का निर्देश किया है। काल दो प्रकार का है व्‍यावहारिक काल और मुख्‍य काल। इनमें-से समय और आवलि आदि रूप व्‍यावहारिक काल विभाग गति वाले ज्‍योतिषी देवों के द्वारा किया हुआ है। यह क्रिया विशेष से जाना जाता है और अन्‍य नहीं जानी हुई वस्‍तुओं के जानने का हेतु है। मुख्‍यकाल इससे भिन्‍न है जिसका लक्षण आगे कहने वाले हैं -

    विशोषार्थ - मनुष्‍य मानुषोत्‍तर पर्वतके भीतर पाये जाते है। मानुषोत्तर पर्वत के एक ओर से लेकर दूसरी ओर तक कुल विस्‍तार पैंतालीस लाख योजन है। मनुष्‍य इसी क्षेत्रमें पाये जाते हैं इसलिए यह मनुष्‍यलोक कहलाता है। इस लोकमें ज्‍योतिष्‍क सदा भ्रमण किया करते है। इनका भ्रमण मेरू के चारों ओर होता है। मेरू के चारों ओर ग्‍यारहसौ इक्‍कीस योजन तक ज्‍योतिष्‍क मण्‍डल नहीं है। इसके आगे वह आकाश में सर्वत्र बिखरा हुआ है। जम्‍बूद्वीपमें दो सूर्य और दो चन्‍द्र हैं। एक सूर्य जम्‍बूद्वीप की पूरी प्रदिक्षिणा दो दिन-रातमें करता है। इसका चार क्षेत्र जम्‍बूद्धीप मे 180 योजन और लवण समुद्र में 330 48/61 योजन माना गया है। सूर्य के घूमने की कुल गलियां 184 हैं। इनमें यह क्षेत्र विभाजित हो जाता है। एक गली से दूसरी गली में दो योजन का अन्‍तर माना गया है। इसमें सूर्य बिम्‍ब के प्रमाण को मिला देने पर वह 2 48/61 योजन होता है। इतना उदयान्‍तर है। मण्‍डलान्‍तर दो योजन का ही है। चन्‍द्र को पूरी प्रदक्षिणा करने में दो दिन रात से कुछ अधि‍क समय लगता है। चन्‍द्रोदय में न्‍यूनाधिकता इसी से आती है। लवण समुद्रमें चार सूर्य, चार चन्‍द्र, धातकीखण्‍ड में बारह सूर्य, बारह चन्‍द्र, कालोदधि में व्‍यालीस सूर्य, व्‍यालीस चन्‍द्र और पुष्‍करार्ध में बहत्तर सूर्य, बहत्‍तर चन्‍द्र हैं। इस प्रकार ढाई द्वीपमें एक सौ बत्‍तीस सूर्य और एक सौ बत्‍तीस चन्‍द्र हैं। इन दोनों में चन्‍द्र इन्‍द्र और सूर्य प्रतीन्‍द्र है। एक एक चन्‍द्र का परिवार एक सूर्य, अट्ठाईस नक्षत्र, अठासी ग्रह और छयासठ हजार नौ सौ कोडा कोड़ा तारे हैं। इन ज्‍योतिष्‍कों का गमन स्‍वभाव है तो भी आभियोग्‍य देव सूर्य आदिके विमानों को निरन्‍तर ढोया करते हैं। ये देव सिंह, गज, बैल और घोडे़ का आकार धारण किये रहते हैं। सिंहकार देवों का मुख पूर्व दिशा की ओर र‍हता है। तथा गजाकार देवों का मुख दक्षिण दिशा की ओर, वृषभाकार देवों का मुख पश्चिम की ओर और अश्‍वाकार देवोंका मुख उतर दिशा की ओर रहता है।

    अव ढाई द्वीपके बाहर ज्‍योतिषियों के अवस्थान का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते है -

    राजवार्तिक :
    1. 'तत्' शब्द से ज्ञात होता है कि न तो केवल गति से कालविभाग होता है और न केवल ज्योतिषियों से; क्योंकि गतिकी उपलब्धि नहीं होती और ज्योतिषियों में परिवर्तन नहीं होता।

    2-4. काल दो प्रकार का है - मुख्य और व्यवहार । समय आवली आदि व्यवहार काल ज्योतिषियों की गति से गिना जाता है। यह क्रियाविशेष से परिच्छिन्न होता है और अन्य पदार्थों के परिच्छेद का कारण होता है।

    प्रश्न – सूर्य आदि की गति से पृथक् कोई मुख्य काल नहीं है, क्योंकि उसका अनुमापक लिंग नहीं पाया जाता। कलाओं के समूह को काल कहते हैं। कला अर्थात् क्रिया के भाग। आगम में पाँच ही अस्तिकाय बताए हैं अतः छठवाँ काल कोई पदार्थ नहीं है।

    उत्तर – सूर्यगति आदि में जिस काल का उपचार किया जाता है वही मुख्य काल है। मुख्य के बिना कहीं भी गौण व्यवहार नहीं होता। यदि मुख्य गौ न होती तो बोझा ढोनेवाले में गौण गौ व्यवहार कैसे होता ? अतः काल का गौण व्यवहार ही वर्तना लक्षणवाले मुख्य काल का अस्तित्व सिद्ध करता है। इसीलिए कलाओं के समूह को ही काल नहीं कहते। अस्तिकायों में उन द्रव्यों को गिनाया है जिनमें प्रदेशप्रचय-बहुत प्रदेश पाये जाते हैं। काल एकप्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है। यदि काल की सत्ता ही न होती तो वह द्रव्यों में क्यों गिनाया जाता?

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    + ज्योतिष्क देव में स्थिरता -
    बहिरवस्थिता: ॥15॥
    अन्वयार्थ : मनुष्य लोक के बाहर ज्योतिष्क देव स्थिर हैं, गमन नहीं करते ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्र में 'बहिः' पद दिया है।

    शंका – किससे बाहर ?

    समाधान – मनुष्‍य लोक से बाहर।

    शंका – यह कैसे जाना जाता है।

    समाधान – पिछले सूत्र में नृलोके पद आया है। अर्थ के अनुसार उस‍की विभक्ति बदल जाती है। जिससे यह जाना जाता है। कि यहाँ 'बहिः' पद से मनुष्‍यलोक के बाहर यह अर्थ इष्‍ट है।

    शंका – मनुष्‍यलोक में ज्‍योतिषी निरन्‍तर गमन करते है। यह पिछले सूत्र में कहा ही है। अत: अन्‍यत्र ज्‍योतिषियों का अवस्‍थान सुतरां सिद्व है। इसलिए बहिरवस्थिता: यह सूत्रवचन निरर्थक है।

    समाधान – यह कहना ठीक नहीं, क्‍योंकि मनुष्‍यलोक के बाहर ज्‍योतिषियों का अस्तित्‍व औार अवस्‍थान ये दोनों असिद्ध है। अत: इन दोनों की सिद्धि के लिए बहिरवस्थिता: यह सूत्रवचन कहा है। दूसरे विपरीत गति के निराकरण करने के लिए यह सूत्र रचा है। अत: यह सूत्र वचन अनर्थक नहीं है।

    अब चौथे निकाय की सामान्‍य संज्ञा के कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    मनुष्य-लोक से बाहिर ज्योतिषी हैं और अवस्थित हैं, इन दोनों बातों की सिद्धि के लिए यह सूत्र बनाया है। यदि यह न बनाया जाता तो पहिले के सूत्र से 'मनुष्यलोक में ही ज्योतिषी हैं और वे नित्यगति हैं' यह अर्थ स्थित रह जाता है।

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    + वैमानिक देवों का वर्णन -
    वैमानिका: ॥16॥
    अन्वयार्थ : अब वैमानिक देवों का वर्णन करते हैं ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    वैमानिकों का अधिकार है। यह बतलाने के लिए 'वैमानिक' पद का ग्रहण किया है। आगे जिनका कथन करने वाले हैं वे वैमानिक हैं। इनका ज्ञान जैसे हो इसके लिए यह अधिकार वचन है। जो विशेषतः अपने में रहने वाले जीवों को पुण्‍यात्‍मा मानते हैं वे विमान हैं और जो उन विमानों में होते हैं वे वैमानिक हैं। इन्‍द्रक, श्रेणीबद्ध और पुष्‍पप्रकीर्णक के भेद से विमान अनेक प्रकार के हैं। उनमें से इन्‍द्रक विमान इन्‍द्र के समान मध्य में स्थित है। उनके चारों ओर आकाश के प्रदेशों की पंक्ति के समान जो स्थित हैं वे श्रेणि विमान हैं। तथा बिखरे हुए फूलों के समान विदिशाओं में जो विमान हैं वे पुष्‍पप्रकीर्णक विमान हैं।

    उन वैमानिकों के भेदों का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    यहाँ से वैमानिकों का कथन किया जाता है जिनमें रहने से विशेषतया अपने को सुकृति मानें वे विमान, विमानों में रहनेवाले वैमानिक हैं। इन्द्रक, श्रेणि और पुष्प-प्रकीर्णक के भेद से विमान तीन प्रकार के हैं । इन्द्रक-विमान इन्द्र की तरह मध्य में हैं। उसकी चारों दिशाओं में क्रमबद्ध श्रेणिविमान हैं तथा विदिशाओं में प्रकीर्ण पुष्प की तरह अक्रमी पुष्पप्रकीर्णक विमान हैं।

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    + वैमानिक देवों के प्रकार -
    कल्पोपपन्ना: कल्पातीताश्च ॥17॥
    अन्वयार्थ : वे दो प्रकार के हैं -- कल्पोपपन्न और कल्पातीत ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    जो कल्‍पों में उत्‍पन्‍न होते हैं वे कल्पोपपन्‍न कहलाते हैं। और जो कल्‍पों के परे हैं वे कल्‍पातीत कहलाते हैं। इस प्रकार वैमानिक दो प्रकार के हैं।

    अब उनके अवस्‍थान विशेष का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    वैमानिकों के दो भेद हैं - कल्पोपपन्न और कल्पातीत । इन्द्र आदि दश प्रकार की कल्पनाएं जिनमें पाई जायं वे कल्पोपपन्न तथा जहाँ सभी 'अहमिन्द्र' हों वे कल्पातीत ।

    यद्यपि नव ग्रैवेयेक नव अनुदिश आदि में नव आदि संख्याकृत कल्पना है पर 'कल्पातीत' व्यवहार में इन्द्र आदि दश प्रकार की कल्पनाएं ही मुख्य रूप से विवक्षित हैं।

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    + कल्पादि का स्थान-क्रम -
    उपर्युपरि ॥18॥
    अन्वयार्थ : ये कल्पादि क्रमश: ऊपर ऊपर हैं ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    शंका – यह सूत्र किसलिए कहा है ?

    समाधान – ये कल्‍पोपन्‍न और कल्‍पातीत वैमानिक तिरछे रूप से रहते हैं इसका निषेध करने के लिए कहा है। ये ज्‍योतिषियों के समान तिरछे रूप से नहीं रहते हैं उसी प्रकार व्‍यन्‍तरों के समान विषमरूप से नहीं रहते हैं ।

    शंका – वे ऊपर-ऊपर क्‍या है ?

    समाधान – कल्‍प ।

    यदि ऐसा है तो कितने कल्‍प विमानों में देव निवास करते हैं इस बात के बतलाने के लिए अब आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1 ये ऊपर ऊपर हैं । न तो ज्योतिषियों की तरह तिरछे हैं और न व्यन्तरों की तरह अनियत ही हैं । यहाँ 'समीप' अर्थ में उपरि शब्द का द्वित्व हुआ है । यद्यपि इनमें परस्पर असंख्यात योजनों का व्यवधान है फिर भी दो स्वर्गों में अन्य किसी सजातीय-स्वर्ग का व्यवधान नहीं है अतः समीपता मानकर द्वित्व कर दिया है।

    2-5. ऊपर-ऊपर कल्प अर्थात् स्वर्ग है। देव तो एक दूसरे के ऊपर हैं नहीं और न विमान ही क्योंकि श्रेणि और पुष्पप्रकीर्णक विमान समतल पर तिरछे फैले हुए हैं । यद्यपि पूर्व सूत्र में 'कल्पोपपन्नाः' में 'कल्प' पद समासान्तर्गत होने से गौण हो गया है फिर भी विशेष प्रयोजन से उसका यहाँ सम्बन्ध हो जाता है। जैसे 'राजपुरुषोऽयम्' यहाँ 'कस्य' प्रश्न होने पर 'राजपुरुष' में से 'राज' का सम्बन्ध कर लिया जाता है।

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    + स्वर्गों के नाम -
    सौधर्मेशान-सानत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर-लान्तव-कापिष्ट-शुक्र-महाशुक्र-शतार-सहस्रारेष्वानतप्राणत-योरारणाच्युतयोर्नवसु ग्रैवेयकेषु विजय-वैजयन्त जयन्तापराजितेषु सर्वार्थ-सिद्धौ च ॥19॥
    अन्वयार्थ : सौधर्म-ऐशान, सानत्कुमार-माहेन्द्र, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव-कापिष्ठ, शुक्र-महाशुक्र, शतार-सहस्रार, आनत-प्राणत, आरण-अच्युत आठ स्वर्गों के युगलों में देवों के निवास-स्थान विमान हैं तथा नौ ग्रैवेयक, (र्नवसु) नौ अनुदिश, विजय, वैजयंत, जयन्त और अपराजित और सर्वाथसिद्धि अनुत्तर-विमानों मे अहमिन्द्र कल्पातीत-देव रहते हैं ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    शंका – इन सौधर्मादिक शब्‍दों को कल्‍प संज्ञा किस निमित्‍त से मिली है ?

    समाधान – व्‍याकरण में चार अर्थ में 'अण्' प्रत्यय होता है उससे सौधर्म आदि शब्‍दों की कल्‍प संज्ञा है या स्‍वभाव से ही वे कल्‍प कहलाते हैं ।

    शंका – सौधर्म आदि शब्‍द इन्‍द्र के वाची कैसे हैं ?

    समाधान – स्‍वभाव से या साहचर्य से।

    शंका – कैसे ?

    समाधान – सुधर्मा नाम की सभा है। वह जहाँ है, उस कल्‍प का नाम सौधर्म है। य‍हाँ 'तदस्मिन्‍नस्ति' इससे 'अण्‌' प्रत्‍यय हुआ है। और इस कल्‍प के सम्‍बन्‍ध से वहाँ का इन्‍द्र भी सौधर्म कहलाता है। इन्‍द्र का ईशान यह नाम स्‍वभाव से है। वह इन्‍द्र जिस कल्‍प में रहता है उसका नाम ऐशान कल्‍प है। यहाँ 'तस्‍य निवासः' इस सूत्र से अण्‌ प्रत्‍यय हुआ है। तथा इस कल्‍प के सम्‍बन्ध से इन्‍द्र भी ऐशान कहलाता है। इन्‍द्र का सनत्‍कुमार नाम स्‍वभाव से है। यहॉं 'तस्‍य निवासः' इस सूत्र से अण् प्रत्‍यय हुआ है इससे कल्‍प का नाम सानत्‍कुमार पडा और इसके सम्‍बन्‍ध से इन्‍द्र भी सानत्‍कुमार कहलाता है। इन्‍द्र का महेन्‍द्र नाम स्‍वभाव से है। वह इन्‍द्र जिस कल्‍प में रहता है, उसका नाम माहेन्‍द्र कहलाता है। इसी प्रकार आगे भी जानना । व्‍यवस्‍था आगम के अनुसार होती है। इसलिए 'उपर्युपरि' इस पद के साथ दो दो कल्‍पों का सम्‍बन्‍ध कर लेना चाहिए । सर्वप्रथम सौधर्म और ऐशान कल्‍प है। इनके ऊपर सानत्‍कुमार और माहेन्‍द्र कल्‍प है। इनके ऊपर ब्रह्म और ब्रह्मोत्‍तर कल्‍प हैं। इनके ऊपर लान्‍तव और कापिष्‍ठ कल्‍प हैं। इनके ऊपर शुक्र और महाशुक्र कल्‍प हैं। इनके ऊपर शतार और सहस्रार कल्‍प हैं। नीचे और ऊपर आनत और प्राणत कल्‍प हैं। इनके ऊपर आरण और अच्‍युत कल्‍प है। नीचे और ऊपर प्रत्‍येक कल्‍प में एक एक इन्‍द्र है। तथा मध्य में दो दो कल्‍पों में एक एक इन्‍द्र है। तात्‍पर्य यह है कि सौधर्म, ऐशान सानत्कुमार और माहेन्‍द्र इन चार कल्‍पों के चार इन्‍द्र हैं। ब्रह्मलोक और ब्रह्मोत्‍त्तर इन दो कल्‍पों का एक ब्रह्म नामक इन्‍द्र है। लान्‍तव और कापिष्‍ठ इन दो कल्‍पों में एक लान्‍तव नाम का इन्‍द्र है। शुक्र और महाशुक्र में एक शुक्र नाम का इन्‍द्र है। शतार और सहस्रार इन दो कल्‍पों में एक शतार नामक इन्‍द्र है। तथा आनत, प्राणत, आरण और अच्‍युत इन चार कल्‍पों के चार इन्‍द्र हैं। इस प्रकार कल्‍पवासियों के बारह इन्‍द्र होते हैं। जम्‍बूद्वीप में एक महामन्‍दर नाम का पर्वत जो मूल में एक हजार योजन गहरा है। और निन्‍यानबे हजार योजन ऊँचा है। उसके नीचे अधोलोक है। मेरू पर्वत की जितनी ऊँचाई है उतना मोटा और तिरछा फैला हुआ तिर्यग्‍लोक है। उसके ऊपर ऊर्ध्वलोक है, जिसकी मेरू चूलिका चालीस योजन विस्तृत है । उसके ऊपर एक बाल के अन्‍तर से ऋजुविमान है जो सौधर्म कल्‍प का इन्‍द्रक विमान है। शेष सब लोकानुयोग से जानना चाहिए।

    शंका – 'नवसु ग्रैवेयकेषु' यहॉं नव शब्‍द का कथन अलग से क्‍यों किया है ?

    समाधान – अनुदिश नाम के नौ विमान और हैं। इस बात के बतलाने के लिए 'नव' शब्‍द का अलग से कथन किया है। इससे भी अनुदिशों का ग्रहण कर लेना चाहिए।

    अब इन अधिकार प्राप्‍त वैमानिकों के परस्‍पर विशेष ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-2. सौधर्म आदि संज्ञाएं स्वभाव से अथवा साहचर्य से पड़ी हैं। इनके साहचर्य से इन्द्र भी सौधर्म आदि कहलाते हैं । लोक पुरुष के ग्रीवा की तरह ग्रैवेयक हैं । विजयादि विमानों की भी इसी तरह सार्थक संज्ञाएं हैं। इनके इन्द्रों के भी यही नाम हैं ।

    3. सर्वार्थसिद्धि विमान में एक ही उत्कृष्ट स्थिति तेंतीस सागर की है, प्रभाव भी सर्वार्थसिद्धि के देवों का सर्वोत्कृष्ट है इत्यादि विशेषताओं के कारण सर्वार्थसिद्धि का पृथग् ग्रहण किया है।

    4-5. ग्रैवेयक आदि को कल्पातीत बतलाने के लिए उनका पृथक् ग्रहण किया है। नव शब्द को पृथक् रखने से नव अनुदिश की सूचना हो जाती है । अनुदिश अर्थात् प्रत्येक दिशा में वर्तमान विमान ।

    6-8. 'उपरि उपरि' के साथ दो-दो स्वर्गों का सम्बन्ध है । अर्थात् सौधर्म-ऐशान के ऊपर सानत्कुमार-माहेन्द्र आदि । सोलह स्वर्गों में एक-एक इन्द्र है पर मध्य के 8 स्वर्गों में चार इन्द्र हैं। इसलिए 'आनतप्राणतयोः आरणाच्युतयोः' इन चार स्वर्गों का पृथक् निर्देश करना सार्थक होता है । अन्यथा लाघव के लिए एक ही द्वन्द्व-समास करना उचित होता ।

    इस भूमितल से 990040 योजन ऊपर सौधर्म ऐशान कल्प हैं। उनके 31 विमान प्रस्तार हैं । ऋतु चन्द्र विमल आदि उनके नाम हैं। मेरु पर्वत के शिखर और ऋतुविमान में मात्र एक बाल का अन्तर है। ऋतुविमान से चारों दिशाओं में चार विमान श्रेणियाँ हैं। प्रत्येक में 62-62 विमान हैं। विदिशाओं में पुष्प प्रकीर्णक हैं। प्रभा नामक इन्द्रक की श्रेणी में अठारवाँ विमान कल्पविमान है। उसके स्वस्तिक, वर्धमान और विश्रुत नाम के तीन प्राकार हैं । बाह्य प्राकार में अनीक और पारिषद, मध्य प्राकार में त्रायस्त्रिश देव और अन्तर प्राकार में सौधर्म इन्द्र रहता है। उस विमान की चारों दिशाओं में चार नगर हैं। उसके 32 लाख विमान हैं । 33 त्रायस्त्रिश, 84 हजार आत्मरक्ष, तीन परिषदें, सात अनीक, 84 हजार सामानिक, चार लोकपाल, पद्मा आदि अग्रमहिषी, 40 हजार वल्लभिकाएं हैं। इत्यादि विभूति हैं। प्रभा विमान से उत्तर में १८वें कल्प विमान में ऐशान इन्द्र रहता है । इसका परिवार सौधर्म की तरह है। इसी तरह सोलहों स्वर्ग का वर्णन है। लोकानुयोग में चौदह इन्द्र कहे गए हैं। पर यहाँ बारह विवक्षित हैं क्योंकि ब्रह्मोतर, कापिष्ठ, महाशुक्र और सहस्रार ये चार अपने दक्षिणेन्द्र के अनुवर्ती हैं। आरणाच्युत विमान से सैकड़ों योजन ऊपर अधोग्रैवेयक के तीन विमान पटल हैं। फिर मध्यम ग्रैवेयक और फिर उत्तम ग्रैवेयक के विमान पटल हैं । इनके ऊपर नव अनुदिश विमानों का एक पटल है। इनसे सैकड़ों योजन ऊपर एक सर्वार्थसिद्धि पटल है। इसमें चारों दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित तथा मध्य में सर्वार्थसिद्धि विमान है।

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    + ऊपर के देवों में वृद्धि -
    स्थिति-प्रभाव-सुख-द्युति-लेश्याविशुद्धीन्द्रियावधि-विषय-तोऽधिका: ॥20॥
    अन्वयार्थ : ऊपर-ऊपर के देवों की आयु, प्रभाव, सुख, कांति, लेश्या, विशुद्धि, इन्द्रिय-विषय और अवधिज्ञान के विषय क्रमश उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होते हैं ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    अपने द्वारा प्राप्‍त हुई आयु के उदय से उस भव में शरीर के साथ रहना स्थिति कहलाती है।

    शाप और अनुग्रहरूप शक्ति को प्रभाव कहते हैं।

    इन्द्रियों के विषयों के अनुभवन करने को सुख कहते हैं।

    शरीर वस्‍त्र और अभूषण आदि की कान्ति को द्युति कहते हैं।

    लेश्‍या का कथन कर आये हैं। लेश्‍या की विशुद्धि लेश्‍याविशुद्धि कहलाती हैं।

    इन्द्रिय और अवधिज्ञान का विषय इन्द्रियविषय और अवधिविषय कहलाता है।

    इनसे या इनकी अपेक्षा वे सब देव उत्‍तरोत्‍तर अधिक-अधिक हैं। तात्‍पर्य यह है कि ऊपर-ऊपर प्रत्‍येक कल्‍प में और प्रत्‍येक प्रस्‍तार में वैमानिक देव स्थिति आदि की अपेक्षा अधिक- अधिक हैं।

    जिस प्रकार ये वैमानिक देव स्‍थिति आदि की अपेक्षा ऊपर-ऊपर अधिक हैं। उसी प्रकार गति आदि की अपेक्षा भी प्राप्‍त हुए, अत: इसका निराकरण करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-6. अपनी देवायु के उदय से उस पर्याय में रहना स्थिति है। शाप और अनुग्रह की शक्ति को प्रभाव कहते हैं । सातावेदनीय के उदय से बाह्य विषयों में इष्टानुभव करना सुख है। शरीर, वस्त्राभरण आदि की कान्ति को द्युति कहते हैं। कषाय से रंगी हुई योगप्रवृत्ति लेश्या कहलाती है । लेश्याकी निर्मलता लेश्याविशुद्धि है।

    7-8. यहाँ इन्द्रिय और अवधिज्ञान का विषय विवक्षित है, अन्यथा ऊपर-ऊपर के स्वर्गों में इन्द्रियों की संख्या अधिक समझी जाती।

    9 स्थिति आदि ऊपर-ऊपर विमानों के तथा प्रसारों के देवों में अधिक हैं। जिन स्वर्गों में समस्थिति है उनमें भी विमानों और प्रस्तारों में ऊपर क्रमशः अधिक है । निग्रह-अनुग्रह सम्बन्धी प्रभाव या शक्ति भी इसी तरह ऊपर-ऊपर अधिक होती गई है। यह शक्ति की दृष्टि से है क्योंकि ऊपर-ऊपर अल्पसंक्लेश तथा मन्द-अभिमान होने से उसके प्रयोग का अवसर ही नहीं आता।

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    + ऊपर के देवों में हीनता -
    गति-शरीर-परिग्रहाभिमानतो हीना: ॥21॥
    अन्वयार्थ : नीचे के स्वर्गों से ऊपर-ऊपर के स्वर्गों के देवों में गति, शरीर, परिग्रह, अभिमान क्रमश हीन-हीन होता है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    एक देश से दूसरे देश के प्राप्‍त करने का जो साधन है उसे गति कहते हैं।

    यहाँ शरीर से वैक्रियिक शरीर लिया गया है यह पहले कह आये हैं।

    लोभ कषाय के उदय से विषयों के संग को परिग्रह कहते हैं।

    मानकषाय के उदय से उत्‍पन्‍न हुए अहंकार को अभिमान कहते हैं।

    इन गति आदि की अपेक्षा वैमानिक देव ऊपर-ऊपर हीन हैं। भिन्‍न देश में स्थित विषयों में क्रीडा विषयक रति का प्रकर्ष नहीं पाया जाता इसलिए ऊपर-ऊपर गमन कम है। सौधर्म और ऐशान स्‍वर्ग के देवों का शरीर सात अरत्निप्रमाण है। सानत्‍कुमार और माहेन्‍द्र स्‍वर्ग के देवों का शरीर छह अरत्निप्रमाण है। ब्रह्म ब्रह्मोत्‍तर, लान्‍तव और कापिष्‍ठ कल्‍प के देवों का शरीर पाँच अरत्निप्रमाण है। शुक्र महाशुक्र, शतार और सहस्रार कल्‍प के देवों का शरीर चार अरत्निप्रमाण है। आनत और प्राणत कल्‍प के देवों का शरीर साढे तीन अरत्निप्रमाण है। आरण और अच्‍युत कल्‍प के देवों का शरीर तीन अरत्निप्रमाण है। अधोग्रैवेयक में अहमिन्‍द्रों का शरीर ढाई अरत्निप्रमाण है। मध्यग्रैवयक में अहमिन्‍द्रों का शरीर दो अरत्निप्रमाण है, तथा पाँच अनुत्‍तर विमानों में अहमिन्‍द्रों का शरीर एक अरत्निप्रमाण है। विमानों की लम्‍बाई चौडाई आदि रूप परिग्रह ऊपर-ऊपर कम है। अल्‍प कषाय होने से अभिमान भी ऊपर-ऊपर कम है।

    पहले तीन निकायों में लेश्‍या का कथन कर आये। अब वैमानिकों में लेश्‍याओं का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-4. एक देश से दूसरे देश जाने को गति कहते हैं। शरीर तो प्रसिद्ध है। लोभ कषाय के उदय से होनेवाले मूर्छा परिणाम को परिग्रह कहते हैं। मानकषाय के उदय से अभिमान होता है। गति शब्द स्वन्त तथा अल्प अच्वाला है अतः इसका सर्वप्रथम ग्रहण किया है । शरीर के रहते ही परिग्रहसंचय की वृत्ति होती है अतः परिग्रह से पहिले शरीर का ग्रहण है । यद्यपि वीतरागी केवली के शरीर रहते भी परिग्रह की इच्छा नहीं होती पर यहाँ देवों का प्रकरण है अतः रागादियुक्त देवों के शरीर रहते हुए परिग्रहेच्छा अवश्यंभाविनी है। परिग्रहमूलक ही संसार में अभिमान देखा जाता है अतः परिग्रह के बाद अभिमान का ग्रहण किया है । ये सब बातें ऊपर-ऊपर के देवों में क्रमशः कम होती गई हैं। जिस प्रकार सौधर्म और ऐशान स्वर्ग के देव विषय, क्रीडा आदिके निमित्त इधर-उधर गमन करते हैं उस प्रकार ऊपर के देव नहीं, क्योंकि उनकी विषयाभिलाषा क्रमशः कम होती जाती है । परिग्रह और अभिमान भी ऊपर-ऊपर कम है।

    9. मन्द-कषायों की मन्दता से अवधिज्ञान की विशुद्धि होती है। अवधि की विशुद्धि से ऊपर-ऊपर के देव, नारकी, तिर्यञ्च और मनुष्यों के विविध प्रकार के दुखों को बराबर देखते रहते हैं और इसीलिए उनके वैराग्यरूप परिणाम रहते हैं तथा परिग्रह और अभिमान कम रहता है।

    10. विशुद्ध परिणामों से ही जीव ऊपर के देवों में उत्पन्न होते हैं, इसलिए भी उनमें अभिमान आदि कषायें कम रहती हैं।

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    + वैमानिक देवों में लेश्या -
    पीत-पद्म-शुक्ल-लेश्या द्वि-त्रि-शेषेषु ॥22॥
    अन्वयार्थ : प्रथम दो युगलों में, तीन युगलों में और शेष समस्त विमानों में देवों की क्रमश पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याएं होती हैं ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    पीता, पद्मा और शुक्‍ला में द्वन्‍द्व समास है, अनन्तर लेश्‍या शब्‍द के साथ बहुव्रीहि समास है। जिनके ये पीत, पद्म और शुक्‍ल लेश्‍याएँ पायी जाती हैं वे पीत पद्म और शुक्‍ल लेश्‍यावाले देव हैं।

    शंका – पीता, पद्मा और शुक्‍ला ये तीनों शब्‍द दीर्घ हैं वे ह्रस्‍व किस नियम से हो गये ?

    समाधान – जैसे 'द्रुतायां तपरकरणे मध्यम विलम्बितयोरुपसंख्यानम्‌' अर्थात द्रुतावृत्ति में तपरकरण करने पर मध्यमा और विलम्बिताव्रत्ति में उसका उपसंख्यान होता है इसके अनुसार यहाँ 'मध्यमा' शब्‍दों में औत्‍तरपदिक ह्रस्‍व हुआ है। उसी प्रकार प्रकृत में भी औत्‍तरपदिक ह्रस्‍व जानना चाहिए । अथवा यहाँ पीता, पद्मा और शुक्‍ला शब्‍द न लेकर पीत, पद्म और शुक्‍ल वर्ण वाले पदार्थ लेने चाहिए । जिनके इन वर्णों के समान लेश्‍याएँ पायी जाती हैं वे पीत पद्‍म और शुक्‍ल लेश्‍यावाले जीव हैं। इस प्रकार यहाँ पीत पद्‍म और शुक्‍ल ये तीन शब्‍द ह्रस्‍व ही समझना चाहिए । अब किसके कौन लेश्‍या है यह बतलाते हैं -सौधर्म और ऐशान कल्‍प में पीत लेश्‍या है। सानत्‍कुमार और माहेन्‍द्रकल्‍प में पीत और पद्म लेश्‍याएँ है। ब्रह्मलोक, ब्रह्मोत्‍तर, लान्‍तव और कापिष्‍ठ कल्‍पों में पद्‍मलेश्‍या है। शुक्र, महाशु‍क्र, शतार और सहस्रार कल्‍प में पद्‍म और शुक्ल ये दो लेश्‍याएँ हैं तथा आनतादिक में शुक्‍ल लेश्‍या है। उसमें भी अनुदिश और अनुत्‍तर विमानों में परम शुक्‍ल लेश्‍या है।

    शंका – सूत्र में तो मिश्र लेश्‍याएँ नहीं कही हैं। फिर उनका ग्रहण कैसे होता है।

    समाधान – साहचर्यवश मिश्र लेश्‍याओं का ग्रहण होता है लोक के समान । जैसे 'छत्री जाते हैं' ऐसा कथन करने पर अछ‍त्रियों में भी छत्री व्‍यवहार होता है। उसी प्रकार यहाँ भी दोनों मिश्र लेश्‍याओं में से किसी एक का ग्रहण होता है।

    शंका – यह अर्थ सूत्र से कैसे जाना जाता है।

    समाधान – यहाँ ऐसा सम्‍बन्‍ध करना चाहिए कि दो कल्प यु्गलों मे पीत लेश्‍या है। यहाँ सानत्कुमार और माहेन्‍द्र कल्‍प में पद्‍मलेश्‍या की विवक्षा नहीं की ब्रह्मलोक आदि तीन कल्‍पयुगलों में पद्म लेश्‍या है। शुक्र और महाशुक्र में शुक्‍ल लेश्‍या की विवक्षा नहीं की। शेष शतार आदि में शुक्‍ललेश्‍या है। पद्म लेश्‍या की विवक्षा नहीं की । इसलिए कोई दोष नहीं है।


    कल्‍पोपपन्‍न देव हैं यह कह आये पर यह नहीं ज्ञात हुआ कि कल्‍प कौन हैं इसलिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1 यहाँ अलग से लेश्याओं का कथन लघुनिर्देश के लिए है। 'पीतपद्मशुक्ललेश्याः' पद में पीत आदि में औत्तरपदिक ह्रस्व है जैसे भाष्य में 'मध्यमविलम्बितयोः' पद में है।

    2-6.

    7-8. यद्यपि सूत्र में शुद्ध और मिश्र दो प्रकार की लेश्याओं का निर्देश स्पष्ट नहीं किया गया है फिर भी जिनका मिश्रण है उन एक-एक का ग्रहण होने से मिश्र का निर्देश समझ लेना चाहिए। यद्यपि सूत्र में द्वि, त्रि और शेष ग्रहण करने से पीत, पद्य और शुक्ल इन तीनों लेश्याओं का पृथक्-पृथक् अन्वय हो जाता है फिर भी इच्छानुसार सम्बन्ध इस प्रकार कर लेना चाहिए - दो कल्प युगलों में पीत लेश्या है, सानत्कुमार और माहेन्द्र में पद्म लेश्या की विवक्षा नहीं है । ब्रह्मलोक आदि तीन युगलों में पद्म लेश्या है, शुक्र महाशुक्र में शुक्ललेश्या की विवक्षा नहीं है। शतार आदि शेष में शुक्ल लेश्या है, पद्मलेश्या की विवक्षा नहीं है । इस तरह आगमविरोध नहीं होता ।

    9. अथवा 'पीतमिश्रपद्ममिश्रशुक्ललेश्या द्विद्विश्चतुश्चतुः शेषेषु' यह स्पष्टार्थक सूत्रपाठ मान लेने से कोई दोष नहीं रहता।

    10. निर्देश आदि सोलह अनुयोगों द्वारा लेश्या का विशेष विवेचन इस प्रकार है
    1. निर्देश-कृष्ण, नील, कपोत, तेज, पद्म और शुक्ल ।
    2. वर्ण-भोंरा, मयूरकण्ठ, कबूतर, सुवर्ण, पद्म और शंख के समान क्रमशः लेश्याओं का वर्ण है । अवान्तर तारतम्य प्रत्येक लेश्या में अनन्त प्रकार का है ।
    3. परिणाम-असंख्यात-लोक-प्रदेश-प्रमाण कषायों के उदयस्थान होते हैं। उनमें नीचे से उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य अंशों में संक्लेश हानि से क्रमश: कृष्ण, नील और कपोत अशुभ लेश्या रूप परिणमन होता है। इसी तरह जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट अंशों में विशुद्धि की वृद्धि से तेज, पद्म और शुक्ल तीन शुभ लेश्या रूप परिणाम होते हैं। इसी तरह ऊपर से उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य अंशों में विशुद्धि हानि से शुक्ल, पद्म और पीत तथा जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट अंशों में संक्लेशवृद्धि से कपोत, नील और कृष्णलेश्या रूप परिणमन होता है। प्रत्येक लेश्या के असंख्यात लोक प्रमाण अवान्तर परिणाम होते हैं।
    4. संक्रमण-यदि कृष्णलेश्यावाला अधिक संक्लेश करता है तो वह कृष्णलेश्या के ही अवान्तर उत्कृष्ट आदि भेदों में बना रहता है । इस तरह वृद्धि में एक ही स्वस्थान संक्रमण होता है । हानि में स्वस्थान तथा परस्थान दोनों संक्रमण होते हैं। शुक्ल लेश्या में विशुद्धि वृद्धि में एक स्वस्थान संक्रमण ही होगा तथा विशुद्धि हानि में स्वस्थान और परस्थान दोनों संक्रमण होते हैं । मध्य की लेश्याओं में संक्लेश और विशुद्धि की हानि-वृद्धि से स्वस्थान और परस्थान दोनों संक्रमण होते हैं । अनन्त भागवृद्धि आदि इनमें होती रहती है।
    5. लेश्याकर्म-जामुन भक्षण को दृष्टान्त मानकर-
      • पीढ़ से वृक्ष को काटना,
      • शाखाएं काटना,
      • छोटी डालियां काटना,
      • गुच्छे तोड़ना,
      • पके फल तोड़ना तथा
      • स्वयं गिरे हुए पके फल खाना
      इस प्रकार कृष्ण आदि लेश्याओं के आचरण समझना चाहिए।
    6. लक्षण-
      • दुराग्रह, उपदेशावमानन, तीव-वैर, अति-क्रोध, दुर्मुख, निर्दयता, क्लेश, ताप, हिंसा, असन्तोष आदि परम तामस भाव कृष्णलेश्या के लक्षण हैं।
      • आलस्य, मूर्खता, कार्यानिष्ठा, भीरुता, अतिविषयाभिलाष, अतिगृद्धि, माया, तृष्णा, अतिमान, वंचना, अनृत-भाषण, चपलता, अतिलोभ आदि भाव नीललेश्या के लक्षण हैं ।
      • मात्सर्य, पैशुन्य, परपरिभव, आत्मप्रशंसा, परपरिवाद, जीवन-नैराश्य, प्रशंसक को धन देना, युद्ध, मरणोद्यम आदि कपोतलेश्या के लक्षण हैं ।
      • दृढ़मित्रता, दयालुता, सत्यवादिता, दानशीलत्व, स्वकार्यपटुता, सर्वधर्मसमदर्शित्व आदि तेजोलेश्या के लक्षण हैं ।
      • सत्यवाक्य, क्षमा, सात्त्विकदान, पाण्डित्य, गुरु-देवतापूजनरुचि आदि पद्मलेश्या के लक्षण हैं।
      • निर्वैर, वीतरागता, शत्रु के भी दोषों पर दृष्टि न देना, निन्दा न करना, पाप कार्यों से उदासीनता, श्रेयोमार्ग रुचि आदि शुक्ललेश्या के लक्षण हैं ।
    7. गति-लेश्या के छब्बीस अंशों में मध्य के आठ अंशो में आयुबंध होता है तथा शेष अठारह अंश गतिहेतु होते हैं।
      • उत्कृष्ट शुक्ललेश्यावाला सर्वार्थसिद्धि जाता है।
      • जघन्य शुक्ल लेश्या से शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार जाता है ।
      • मध्यम शुक्ललेश्या से आनत और सर्वार्थसिद्धि के मध्य के स्थानों में उत्पन्न होता है।
      • उत्कृष्ट पद्मलेश्या से सहस्रार,
      • जघन्य पद्मलेश्या से सानत्कुमार, माहेन्द्र तथा
      • मध्यम पद्मलेश्या से ब्रह्मलोक से शतार तक उत्पन्न होता है।
      • उत्कृष्ट तेजोलेश्या से सानत्कुमार, माहेन्द्र कल्प के अन्त में चक्रेन्द्रकणि विमान तक,
      • जघन्यतेजोलेश्या से सौधर्म ऐशान के प्रथम इन्द्रकश्रेणि विमान तक, तथा
      • मध्य तेजोलेश्या से चन्द्रादि इन्द्रकश्रेणि विमान से बलभद्र इन्द्रक श्रेणि विमान तक उत्पन्न होता है।
      • उत्कृष्ट कृष्णलेश्यांश से सातवें अप्रतिष्ठान नरक,
      • जघन्य कृष्णलेश्यांश से पांचवें नरक के तमिस्रबिल तक तथा
      • मध्य कृष्णलेश्यांश से हिमेन्द्रक से महारौरव नरक तक उत्पन्न होते हैं।
      • उत्कृष्ट नीललेश्यांश से पांचवें नरक में अन्ध इन्द्रक तक,
      • जघन्य नीललेश्यांश से तीसरे नरक के तप्त इन्द्रक तक, तथा
      • मध्यमनीललेश्यांश से तीसरे नरक के त्रस्त इन्द्रक से झष इन्द्रक तक उत्पन्न होते हैं।
      • उत्कृष्ट कपोतलेश्यांश से बालुकाप्रभा के संप्रज्वलित नरक में,
      • जघन्यकपोत लेश्यांश से रत्नप्रभा के सीमंतक तक तथा
      • मध्यमकपोत लेश्यांश से रौरकादिक में संज्वलित इन्द्रक तक उत्पन्न होते हैं।
      • कृष्ण नील कपोत और तेज के मध्यम अंशों से भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, पथिवी, जल, और वनस्पतिकाय में उत्पन्न होते हैं।
      • मध्यम कृष्ण नील कपोत लेश्यांशों से तेज और वायुकाय में उत्पन्न होते हैं।
      • देव और नारकी अपनी लेश्याओं से तिर्यञ्च और मनुष्यगति में जाते हैं।
    8. स्वामित्व-
      • रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा में नारकियों के कापोत लेश्या है
      • बालुकाप्रभा में कापोत और नील लेश्या,
      • पंकप्रभा में नीललेश्या
      • धूमप्रभा में नील और कृष्ण लेश्या,
      • तम:प्रभा में कृष्ण लेश्या तथा
      • महातमःप्रभा में परमकृष्ण लेश्या है।
      • भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों के कृष्ण, नील, कपोत और तेजो लेश्या,
      • एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के संक्लिष्ट कृष्ण, नील और कपोत लेश्या,
      • असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के संक्लिष्ट कृष्ण, नील, कापोत और पीतलेश्या,
      • चारों गुणस्थानवर्ती संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्यों के छहों लेश्याएं,
      • पांचवें छठवें तथा सातवें गुणस्थान में तीन शुभलेश्याएं,
      • अपूर्वकरण से 13 वें गुणस्थान तक केवल शुक्ललेश्या होती है।
      • अयोगकेवलियों के लेश्या नहीं होती।
      • सौधर्म और ऐशान में तेजोलेश्या
      • सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में तेज और पद्मलेश्या,
      • ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर लान्तव और कापिष्ठ में पद्मलेश्या,
      • शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार में पद्म और शुक्ललेश्या,
      • आनत से लेकर सर्वार्थसिद्धि से पहिले केवल शुक्ललेश्या तथा
      • सर्वार्थसिद्धि में परमशुक्ललेश्या होती है।
    9. साधन-द्रव्यलेश्या शरीर के रंग से सम्बन्ध रखती है, वह नामकर्म के उदय से होती है । भावलेश्या कषायों के उदय क्षयोपशम, उपशम और क्षय से होती है।
    10. संख्या-
      • कृष्ण, नील और कपोत लेश्यावाले प्रत्येक का द्रव्यप्रमाण अनन्त है, कोई प्रमाण अनन्तानन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी प्रमाण है और क्षेत्र प्रमाण अनन्तानन्तलोक प्रमाण है।
      • तेजोलेश्या का द्रव्य प्रमाण ज्योतिषी देवों से कुछ अधिक है।
      • पद्मलेश्यावालों का द्रव्यप्रमाण संज्ञीपंचेन्द्रियतिर्यञ्च योनिनियों के संख्येयभाग है।
      • शुक्ललेश्यावाले पल्योपम के असंख्यातवें भाग हैं।
    11. क्षेत्र-
      • कृष्ण नील और कपोतलेश्यावालों का प्रत्येक का स्वस्थान, समुद्धात तथा उपपाद की दृष्टि से सर्वलोकक्षेत्र है।
      • तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालों का प्रत्येक का स्वस्थान,समुद्घात और उपपाद की दृष्टि से लोक के असंख्येय भाग है ।
      • शुक्ललेश्यावालों का स्वस्थान और उपपाद की दृष्टि से लोक का असंख्येयभाग, समुद्घात की दृष्टि से लोक के असंख्येय एक भाग, असंख्येय बहुभाग और सर्वलोकक्षेत्र है।
    12. स्पर्शन-कृष्ण, नील और कपोत लेश्यावालों का स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद की दृष्टि से सर्वलोक स्पर्शन है। तेजोलेश्यावालों का स्वस्थान की दृष्टि से लोक का असंख्येयभाग तथा कुछ कम 814 भाग स्पर्शन है, समुद्घात की दृष्टि से लोक का असंख्येयभाग तथा कुछ कम 814 और 914 भाग है, उपपाद की दृष्टि से लोक के असंख्येय भाग तथा कुछ कम 1114 भाग है । पद्मलेश्यावालों का स्वस्थान और समुद्धात से लोक का असंख्येय भाग तथा कुछ कम 814 भाग है, उपपाद की दृष्टि से लोक का असंख्येय भाग तथा कुछ कम 514 भाग है। शुक्ललेश्यावालों का स्वस्थान और उपपाद की दृष्टि से लोक का असंख्येय भाग तथा कुछ कम 614 भाग स्पर्शन है, समुद्धात की दृष्टि से लोक का असंख्येय भाग, कुछ कम 614 भाग, असंख्येय बहुभाग और सर्वलोक स्पर्शन है।
    13. काल - कृष्ण नील कपोतलेश्यावालों का प्रत्येक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक तेंतीससागर, सत्रहसागर और सातसागर है। तेज, पद्म और शुक्ललेश्यावालों का प्रत्येक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट से कुछ अधिक दो सागर, अठारह सागर और तेंतीस सागर है।
    14. अन्तर - कृष्ण, नील, कपोत लेश्यावालों का प्रत्येक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट कुछ अधिक तेंतीससागर है। तेज, पद्म और शुक्ललेश्यावालों का प्रत्येक का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट से अनन्तकाल और असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है।
    15. भाव - छहों लेश्याओं में औदयिक भाव हैं क्योंकि शरीर नाम कर्म और मोह के उदय से होती हैं।
    16. अल्पबहुत्व - सबसे कम शुक्ललेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले असंख्यातगुणे, तेजोलेश्यावाले असंख्यातगुणे, अलेश्या अनन्तगुणे, कपोतलेश्यावाले अनन्तगुणे, नीललेश्यावाले विशेष अधिक तथा कृष्णलेश्यावाले विशेष अधिक हैं।

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    + कल्पवासी देव -
    प्राग्ग्रैवेयकेभ्य: कल्पा: ॥23॥
    अन्वयार्थ : ग्रैवेयकों से पहिले अर्थात १६वें स्वर्ग तक कल्प कहते है क्योकि वहीं तक के देवों में इन्द्रादिक दस-भेदों की कल्पना है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    यह नहीं मालूम होता कि यहाँ से लेकर कल्‍प हैं इसलिए सौधर्म अदि पद की अनुवृत्ति होती है। इससे यह अर्थ प्राप्‍त होता है कि सौधर्म से लेकर और नौ ग्रैवेयक से पूर्व तक कल्‍प हैं । परिशेष न्‍याय से यह भी ज्ञात हो जाता है कि शेष सब कल्‍पातीत हैं।

    लौकान्तिक देव वैमानिक हैं उनका किन में समावेश होता है वैमानिकों में। कैसे ? अब इसी बात के बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1. यदि सौधर्म आदि के बाद ही यह सूत्र रचा जाता तो स्थिति, प्रभाव आदि तीन सूत्रों का सम्बन्ध भी कल्प विमानों से ही होता जब कि इनका विधान पूरे देवलोक के लिए है।

    2. कल्पों से अतिरिक्त ग्रैवेयक आदि कल्पातीत हैं। भवनवासी आदि को कल्पातीत इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि यहाँ 'उपर्युपरि' का अनुवर्तन होता है जिससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि कल्प से ऊपर-ऊपर कल्पातीत हैं। कल्पातीत 'अहमिन्द्र' कहलाते हैं क्योंकि इनमें सामानिक आदि भेद नहीं हैं।

    4 यद्यपि देवों के भवनवासी, पातालवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, कल्पवासी और विमानवासी के भेद्र से छह प्रकार तथा पांशुतापि, लवणतापि, तपनतापि, भवनतापि, सोमकायिक, यमकायिक, वरुणकायिक, वैश्रवणकायिक, पितृकायिक, अनलकायिक, रिष्टक, अरिष्ट और संभव ये बारह प्रकारवाले आकाशोपपन्न को मिलाकर सात प्रकार हो सकते हैं। फिर भी इन सबका चारों निकायों में उसी तरह अन्तर्भाव हो जाता है जैसे कि लौकान्तिक देवों का कल्पवासियों में । पातालवासी और आकाशोपपन्न व्यन्तरों में और कल्पवासियों का वैमानिकों में अन्तर्भाव हो जाता है अतः चार से अतिरिक्त निकाय नहीं है।

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    + लौकांतिक देव -
    ब्रह्म-लोकालया लौकान्तिका: ॥24॥
    अन्वयार्थ : ब्रह्म-लोक (पांचवे स्वर्ग) के निवासी देव लौकांतिक देव कहलाते हैं ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    आकर जिसमें लय को प्राप्‍त होते हैं अर्थात निवास करते हैं। वह आलय या आवास कहलाता है। ब्रह्मलोक जिनका घर है वे ब्रह्मलोक में रहने वाले लौकान्तिक देव जानना चाहिए ।

    शंका – यदि ऐसा है तो ब्रह्मलोक में रहने वाले सब देव लोकान्तिक हुए ?

    समाधान – सार्थक संज्ञा के ग्रहण करने से यह दोष नहीं रहता । लौकान्तिक शब्‍द में जो लोक शब्‍द है उससे ब्रह्मलोक लिया है और उसका अन्‍त अर्थात प्रान्तभाग लोकान्‍त कहलाया । वहाँ जो होते हैं वे लौकान्तिक कहलाते हैं। इसलिए ब्रह्मलोक में रहने वाले सब देवों का ग्रहण नहीं होता है। इन लौकान्तिक देवों के विमान ब्रह्मलोक के प्रान्‍तभाग में स्‍थि‍त हैं। अथवा जन्‍म जरा और मरण से व्‍याप्‍त संसार लोक कहलाता है। और उसका अन्‍त लोकान्‍त कहलाता है। इस प्रकार संसार के अन्‍त में जो होते हैं वे लौकान्तिक हैं क्‍यों कि ये सब परीतसंसारी होते हैं। वहॉं से च्‍युत होकर और एक बार गर्भ में रहकर निर्वाण को प्राप्‍त होंगे ।

    सामान्‍य से कहे गये उन लौकान्तिक देवों के भेदों का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    जिसमें प्राणिगण रहें उसे आलय कहते हैं । लोकान्तिकों का आलय ब्रह्मलोक है। सभी ब्रह्मलोकवासियों को लौकान्तिक नहीं कह सकते क्योंकि 'लौकान्तिका:' पद से 'लोकान्त' निकाल लेते हैं । इससे यह अर्थ फलित होता है कि ब्रह्मलोक के अन्त में रहनेवाले लौकान्तिक हैं अथवा जन्म-जरा-मरण से व्याप्त लोक संसार का अन्त करना जिनका प्रयोजन है वे लौकान्तिक है। ये निकटसंसारी हैं। वहाँ से च्युत होकर मनुष्य-पर्याय को प्राप्त कर नियम से मोक्ष चले जाते हैं।

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    + लौकांतिक देवों के भेद -
    सारस्वतादित्य वह्न्यरुण-गर्दतोय-तुषिताव्या-बाधारिष्टाश्च ॥25॥
    अन्वयार्थ : लौकांतिक देवों के सारस्वत, आदित्य, वहि्न, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट आठ भेद नाम हैं । यहाँ च से सूचित होता है कि प्रत्येक के बीच २-२ लौकांतिक देव और हैं ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    शंका – ये सारस्‍वत आदिक कहॉं रहते हैं?

    समाधान – पूर्व उत्‍तर आदि आठों ही दिशाओं में क्रम से ये सारस्‍वत आदि देवगण रहते हैं ऐसा जानना चाहिए । यथा - पूर्वोत्‍तर कोण में सारस्‍वतों के विमान हैं। पूर्व दिशा में आदित्‍यों के विमान हैं। पूर्व दक्षिण दिशा में वह्नि देवों के विमान हैं। दक्षिण दिशा में अरुण विमान हैं।दक्षिण- पश्चिम कोने में गर्दतोय देवों के विमान हैं। पश्‍चिम दिशा में तुषित विमान हैं। उत्‍तर-पश्चिम दिशा में अव्‍याबाध देवों के विमान हैं। और उत्‍तर दिशा में अरिष्‍टदेवों के विमान हैं । सूत्र में'च' शब्‍द है उससे इनके मध्य में दो दो देवगण और हैं इसका समुच्‍चय होता हैा यथा - सारस्‍वत और आदित्‍य के मध्य में अग्‍न्‍याभ और सूर्याभ हैं। आदित्‍य और वह्नि के मध्य में चन्‍द्राभ और सत्‍याभ हैं। वह्नि और अरूण के मध्य में श्रेयस्‍कर और क्षेमंकर हैं। अरूण और गर्दतोय के मध्य में व्रषभेष्‍ट और कामचार हैं। गर्दतोय और तुषित के मध्य में निर्माणरजस्‌ और दिगन्‍तरक्षित हैं। तुषित और अव्‍याबाध के मध्य में आत्मरक्षित और सर्वरक्षित हैं। अव्‍याबाध और अरिष्‍ट के मध्य में मरुत्‌ और वसु हैं । अरिष्ट और सारस्‍वत के मध्य में अश्‍व और विश्‍व हैं। ये सब देव स्‍वतन्‍त्र हैं क्‍योंकि इनमें हीनाधिकता नहीं पायी जाती । विषय- रति से रहित होने के कारण देव ऋषि हैं। दूसरे देव इनकी अर्चा करते हैं। चौदह पूर्वों के ज्ञाता हैं। और वैराग्‍य कल्‍याणक के समय तीर्थंकर को संबोधन करने में तत्‍पर हैं।

    लौकान्तिक देवों का कथन किया और वहॉं से च्‍युत होकर तथा एक गर्भ को धारण करके निर्वाण को प्राप्‍त होंगे यह भी कहा। क्‍या इसी प्रकार अन्‍य देवों में भी निर्वाण को प्राप्‍त होने के काल में भेद है? अब इसी बात का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1. पूर्व उत्तर आदि दिशाओं में यथाक्रम सारस्वत आदि देवों का निवास है। अरुण समुद्र के मध्य से एक तमस्कन्ध मूल में असंख्यात योजन का विस्तृत तथा मध्य और अन्त में क्रमशः घटकर संख्यात योजन विस्तारवाला है। यह अत्यन्त तीव्र अन्धकार रूप तथा समुद्र की तरह गोल है। यह तमस्कन्ध अरिष्ट विमान के नीचे स्थित है। इससे आठ अन्धकार राशियाँ निकलती हैं जो अरिष्ट विमान के आसपास हैं। चारों दिशाओं में दो-दो करके तिर्यक्लोक तक आठ हैं। इनके अन्तराल में सारस्वत आदि लौकान्तिक हैं। पूर्व और उत्तर के कोण में सारस्वत, पूर्व में आदित्य, पूर्वदक्षिण कोण में वह्नि, दक्षिण में अरुण, दक्षिण पश्चिम में गर्दतोय, पश्चिम में तुषित, उत्तर पश्चिम में अव्याबाध और उत्तर में अरिष्ट विमान है।

    3. दो-दो लोकान्तिकों में अग्न्याभ सूर्याभ आदि 16 लौकान्तिक और भी हैं। सारस्वत और आदित्य के बीच में अग्न्याभ और सूर्याभ, आदित्य और वह्नि के अन्तराल में चन्द्राभ और सत्याभ, वह्नि और अरुण के बीच में श्रेयस्कर और क्षेमकर, अरुण और गर्दतोय के अन्तराल में वृषभेष्ट और कामवर, गर्दतोय और तुषित के बीच में निर्माणरज और दिगन्तरक्षित, तुषित और अव्याबाध के बीच में आत्मरक्षित और सर्वरक्षित, अव्याबाध और अरिष्ट के बीच में मरुत् और वसु तथा अरिष्ट और सारस्वत के वीच अश्व और विश्व हैं, इन नामों के विमान हैं। इनमें रहनेवाले लौकान्तिक देव भी इसी नाम से व्यवहृत होते हैं। इनकी संख्या इस प्रकार है - सारस्वत-७००, आदित्य 700, वह्नि, 7007, अरुण 7007, गर्दतोय 9009, तुषित 9009, अव्याबाध 11011, अरिष्ट 11011, अग्न्याभ 7007, सूर्याभ 9009, चन्द्राभ 11011, सत्याभ 13013, श्रेयस्कर 15015, क्षेमंकर 17017, वृषभेष्ट 19019, कामवर 21021, निर्माणरज 23023, दिगन्तरक्षित 25025, आत्मरक्षित 27027, सर्वरक्षित 29029, मरुत् 31031, वसु 33033, अश्व 35035, विश्व 37037 । इस तरह इन चालीस लोकान्तिकों की समग्र संख्या 40786 । ये सभी स्वतन्त्र हैं। विषयविरक्त होने से देवर्षि कहे जाते हैं। ये चौदह पूर्व के पाठी, ज्ञानोपयोगी, संसार से उद्विग्न, अनित्य आदि भावनाओं को भानेवाले, अति विशुद्ध सम्यग्दृष्टि होते हैं। तीर्थङ्करों की दीक्षा के समय उन्हें प्रतिबोध देने आते हैं। नामकर्म की उत्तर प्रकृतियाँ असंख्यात हैं। उन्हीं के उदय से संसारी जीवों के अनेक प्रकार की शुभ-अशुभ संज्ञाएँ होती हैं। यह अष्टकर्ममय संसार सामान्यतया भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकार के जीवों के अनादि अनन्त है । जो मोह का उपशम या क्षय करने के लिए उद्यत हैं उन सम्यग्दृष्टियों के उत्कृष्ट से 7-8 भव तथा जघन्य से 2-3 भव में संसार का उच्छेद हो जाता है । जो सम्यक्त्व से च्युत हो गए हैं उनका कोई नियम नहीं ।

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    + दो भवधारी देव -
    विजयादिषु द्वि-चरमा: ॥26॥
    अन्वयार्थ : नव अनुदिश के नौ और ४ अनुत्तरों; विजय ,वैजयंत,जयंत, अपराजित के देव उत्कृष्टता से दो भवधारी होते हैं ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    यहॉं आदि शब्‍द प्रकारवाची है । इससे विजय, वैजयन्‍त, जयन्‍त, अपराजित और नौ अनुदिशों का ग्रहण सिद्ध हो जाता है।

    शंका – यहाँ कौन-सा प्रकार लिया है?

    समाधान – अहमिन्‍द्र होते हुए सम्‍यग्‍दृष्टियों का उत्‍पन्‍न होना, यह प्रकार यहाँ लिया गया है।

    शंका – इससे सर्वार्थसिद्धि का भी ग्रहण प्राप्‍त होता है।

    समाधान – नहीं क्‍योंकि वे परम उत्कृष्ट हैं। उनका सर्वार्थसिद्धि यह सार्थक नाम है। इसलिए वे एक भवावतारी होते हैं। देह का चरमपना मनुष्‍य भव की अपेक्षा लिया है। जिसके दो चरम भव होते हैं वे द्विचरम कहलाते हैं। जो विजयादिक से च्‍युत होकर और सम्‍यक्‍त्‍व को न छोडकर मनुष्‍यों में उत्‍पन्‍न होते हैं और संयम की आराधना कर पुन: विजयादिक में उत्‍पन्‍न होकर और वहाँ से च्‍युत होकर मनुष्‍य भव को प्राप्त करके सिद्ध होते हैं। इस प्रकार यहॉं मनुष्‍य भव की अपेक्षा द्विचरमपना है।


    कहते हैं, जीव के औदयिक भावों को बतलाते हुए तिर्यंचगति औदयिकी कही है। पुन: स्थितिका कथन करते समय 'तिर्यग्‍योनिजानां च' यह सूत्र कहा है । पर यह न जान सके कि तिर्यंच कौन है इसलिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1. आदि शब्द प्रकारार्थक है, अर्थात् विजय वैजयन्त जयन्त अपराजित और अनुदिश विमानोंमें द्विचरम होते हैं। इनमें एकप्रकारता इसलिए है कि सभी पूर्व सम्यग्दृष्टि और अहमिन्द्र हैं। सर्वार्थसिद्धि नामसे ही सूचित होता है कि वहाँके देव सर्वोत्कृष्ट हैं और एकचरम हैं।

    2-4. द्विचरमत्व मनुष्यदेह की अपेक्षा है, अर्थात् विजयादिक से च्युत होकर सम्यग्दर्शन को कायम रखते हुए मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं फिर संयम की आराधना कर विजयादिक में उत्पन्न होते हैं। फिर च्युत होकर मनुष्यभव धारण कर मुक्त हो जाते हैं। इस तरह मनुष्यभव की अपेक्षा द्विचरमत्व है वैसे तो दो मनुष्यभव तथा एक देवभव मिलाकर त्रिचरम गिने जा सकते हैं। चूंकि मनुष्य पर्याय से ही मोक्षलाभ होता है अतः मनुष्यदेह की अपेक्षा ही चरमत्व गिना जा सकता है । यद्यपि चरम शब्द अन्त्यवाची है अतः एक ही चरम हो सकता है परन्तु चरम के पास का अव्यवहित पूर्व का मनुष्यभव भी उपचार से चरम कहा जा सकता है । देवभव के व्यवधान-अव्यवधान का विचार मोक्ष के प्रकरण में नहीं होता क्योंकि मोक्ष मनुष्य पर्याय से ही होता है।

    5 प्रश्न – आगम में अन्तर प्रकरण में अनुदिश, अनुत्तर और विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानवासियों का जघन्य अन्तर वर्षपृथक्त्व तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक दो सागर बताया है। इसका यह अर्थ है कि मनुष्यों में उत्पन्न होकर आठ वर्ष संयम की आराधना कर अन्तर्मुहूर्त में फिर विजयादि में उत्पन्न हो जाते हैं इस तरह जघन्य से वर्षपृथक्त्व अन्तर है। कुछ विजयादिक से च्युत होकर मनुष्यभव से सौधर्म ऐशान कल्प में जाते हैं फिर मनुष्य होकर विजयादि में जाते हैं इनके दो सागर से कुछ अधिक उत्कृष्ट अन्तर होता है। इस अपेक्षा मनुष्य के तीन भव हो जाने से द्विचरमत्व नहीं रहता ?

    उत्तर – आगम में उक्त कथन प्रश्न विशेष की अपेक्षा से है। गौतम ने भगवान् से यह प्रश्न किया कि विजयादिक में देव मनुष्य-पर्याय को प्राप्त कर कितनी गति आगति विजयादिक में करते हैं ? इसके उत्तर में भगवान् ने व्याख्याप्रज्ञप्तिदंडक में कहा कि आगति की दृष्टि से जघन्य से एक भव तथा गति आगति की अपेक्षा उत्कृष्ट से दो भव। सर्वार्थसिद्धि से च्युत होनेवाले मनुष्य-पर्याय में आते हैं तथा उसी पर्याय से मोक्षलाभ करते हैं। विजयादि के देव लौकान्तिक की तरह एकभविक नहीं हैं किन्तु द्विभविक हैं। इसमें बीच में यदि कल्पान्तर में उत्पन्न हुआ है तो उसकी विवक्षा नहीं है।

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    + तिर्यंच-योनी -
    औपपादिक-मनुष्येभ्य: शेषास्तिर्यग्योनय: ॥27॥
    अन्वयार्थ : उपपाद जन्म वाले देवों, नारकियों और मनुष्यों के अतिरिक्त सभी तिर्यंच-योनी के जीव हैं ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    औपपादिक देव और नार‍की हैं यह पहले कह आये हैं। 'प्रा‌ङमानुषोत्‍तरान्‍मनुष्‍या:' इसका व्‍याख्‍यान करते समय मनुष्‍यों का भी कथन कर आये हैं। इनसे अन्य जितने संसारी जीव हैं उनका यहाँ शेष पद के द्वारा ग्रहण किया है । वे सब तिर्यंच जानना चाहिए।

    शंका – जिस प्रकार देवादिक का पृथक-पृथक क्षेत्र बतलाया है। उसी प्रकार इनका क्षेत्र बतलाना चाहिये ?

    समाधान – तिर्यंच सब लोक में रहते हैं, अतः उनका अलग से क्षेत्र नहीं कहा।

    नारकी, मनुष्‍य और तिर्यंचों की स्थिति पहले कही जा चुकी है। परन्‍तु अभी तक देवों की स्थिति नहीं कही है, अत: उसका कथन करते हुए सर्वप्रथम प्रारम्‍भ में कहे गये भवनवासियों की स्थिति का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    औपपादिक-देव और नारकी तथा मनुष्यों के सिवाय अन्य संसारी तिर्यञ्च हैं। यद्यपि मनुष्य शब्द का अल्पस्वरवाला होने से पहिले प्रयोग होना चाहिए था परन्तु चूंकि औपपादिकों में अन्तर्गत देव स्थिति, प्रभाव आदि की दृष्टि से बड़े और पूज्य हैं अतः औपपादिक शब्द का ही पूर्वप्रयोग किया गया है।

    1-2. औपपादिक-देव नारकी और मनुष्यों से बचे शेष प्राणी तिर्यञ्च हैं । संसारी जीवों का प्रकरण होने से सिद्धों में तिर्यञ्चत्व का प्रसङ्ग नहीं आता।

    3-7 तिरोभाव अर्थात् नीचे रहना-बोझा ढोने के लायक । कर्मोदय से जिनमें तिरोभाव प्राप्त हो वे तिर्यग्योनि हैं। इसके त्रस स्थावर आदि भेद पहिले बतलाये जा चुके हैं। तिर्यञ्चों का आधार सर्वलोक है वे देवादि की तरह निश्चित स्थानों में नहीं रहते। तिर्यञ्च सूक्ष्म और बादर के भेद से दो प्रकार के हैं। सूक्ष्म पृथिवी, अप्, तेज और वायुकायिक सर्वलोकव्यापी हैं पर बादर पृथिवी, अप, तेज, वायु, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय लोक के कुछ भागों में पाये जाते हैं । चूंकि तीनों लोक ही सूक्ष्म तिर्यञ्चों का आधार है अतः तीन-लोक के वर्णन के बाद ही यहाँ उनका निर्देश किया है, द्वितीय अध्याय में नहीं, और यहीं शेष शब्द का यथार्य बोध भी हो सकता है क्योंकि नारक, देवों और मनुष्यों के निर्देश के बाद ही शेष का अर्थ समझ में आ सकता है।

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    + भवनवासी देवों में उत्कृष्ट आयु -
    स्थितिरसुर-नाग-सुपर्ण-द्वीपशेषाणां-सागरोपम-त्रिपल्योपमार्द्धहीन-मिता: ॥28॥
    अन्वयार्थ : भवनवासी देवों में असुरकुमार की आयु १ सागर, नाग कुमार की ३ पल्य, सुपर्ण कुमार की २.५ पल्य, द्वीप कुमार की २ पल्य तथा शेष छ देवोँ (विद्युतकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनिक कुमार, उदधि कुमार और दिक्कुमार) की १.५ पल्य है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    यहाँ सागरोपम आदि शब्‍दों के साथ असुरकुमार आदि शब्‍दों का क्रम से सम्‍बन्‍ध जान लेना चाहिए । यह उत्‍कृष्‍ट स्थिति है। जघन्‍य स्थिति भी आगे कहेंगे। वह उत्‍कृष्‍ट स्थिति इस प्रकार है- असुरों की स्थिति एक सागरोपम है। नागकुमारों की उत्कृष्‍ट स्थिति तीन पल्‍योपम है। सुपर्णों की उत्‍कृष्‍ट स्थिति ढाई पल्‍योपम है। द्वीपों की उत्‍कृष्‍ट स्थिति दो पल्‍योपम है। और शेष छह कुमारों की उत्‍कृष्‍ट स्थिति डेढ पल्‍योपम है।

    देवों के प्रथम निकाय की स्थिति कहने के पश्‍चात व्‍यन्‍तर और ज्‍योतिषियों की स्थिति क्रम प्राप्‍त है, किन्‍तु उसे छोडकर वैमानिकों की स्थिति कहते हैं क्‍योंकि व्‍यन्तर और ज्‍योतिषियों की स्‍थिति आगे थोडे में कही जा सकेगी । वैमानिकों में आदि में कहे गये दो कल्‍पों की स्थिति का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    असुरकुमारों की एक सागर, नागकुमारों की तीन पल्य, सुपर्णकुमारों की 212 पल्य, द्वीपकुमारों की 2 पल्य तथा शेष छह कुमारों की 112 पल्य उत्कृष्ट स्थिति हैं।

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    + सौधर्म-ऐशान स्वर्गों में उत्कृष्ट आयु -
    सौधर्मेशानयो: सागरोपमेऽधिके ॥29॥
    अन्वयार्थ : सौधर्म और ऐशान स्वर्गों के देवों की उत्कृष्ट आयु दो सागर से कुछ अधिक है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्र में 'सागरोपमे' यह द्विवचन प्रयोग किया है उससे दो सागरोपमों का ज्ञान होता है। 'अधिके' यह अधिकार वचन है।

    शंका – इसका कहॉं तक अधिकार है ?

    समाधान – सहस्रार कल्‍प तक ।

    शंका – यह कैसे जाना जाता है ?

    समाधान – अगले सूत्र में जो 'तु' पद दिया है उससे जाना जाता है। इससे यह निश्‍चित होता है कि सौधर्म और ऐशान कल्‍प में दो सागरोपम से कब अधिक स्‍थिति है।

    अब आगे के दो कल्‍पों में स्‍थिति विशेष का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में कुछ अधिक दो सागर स्थिति है। 'अधिक' यह अधिकार सहस्रार स्वर्ग तक चालू रहेगा।

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    + सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्गों में उत्कृष्ट आयु -
    सानत्कुमार-माहेन्द्रयो: सप्त ॥30॥
    अन्वयार्थ : सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गों में देवों की उत्कृष्ट-आयु सात सागर है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    इन दो कल्‍पों में देवों की साधिक सात सागरोपम उत्‍कृष्‍ट स्थिति है।

    अब बह्मलोक से लेकर अच्‍युत पर्यन्‍त कल्‍पों में स्थिति विशेष का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं–

    राजवार्तिक :
    सागर और अधिक पद का अनुवर्तन पूर्वसूत्र से हो जाता है। अतः सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में कुछ अधिक सात सागर स्थिति समझनी चाहिए ।

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    + १४वें स्वर्ग तक देवों की उत्कृष्ट आयु -
    त्रिसप्त-नवैकादश-त्रयोदश-पञ्चदशभिरधिकानि तु ॥31॥
    अन्वयार्थ : तीसरे युगल, (ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर) में १० सागर चौथे युगल (लांतव-कापिष्ट) में १४ सागर, पांचवे युगल (शुक्र-महाशुक्र) में १६ सागर, छठे युगल (शतार-सहस्रार) में १८ सागर, सातवें युगल (आणत-प्राणत) में २० सागर और आठवे युगल (आरण-अच्युत) में देवों की उत्कृष्टायु आयु २२ सागर है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    यहाँ पिछले सूत्र से 'सप्‍त' पद का ग्रहण प्रकृत है। उसका यहाँ तीन आदि निर्दिष्‍ट संख्‍याओं के साथ सम्‍बन्ध जानना चाहिए । यथा- तीन अधिक सात, सात सधिक सात आदि । तथा इनका क्रम से दो दो कल्‍पों के साथ सम्‍बन्‍ध जानना चाहिए । सूत्र में 'तु' शब्‍द विशेषता के दिखलाने के लिए आया है।

    शंका – इससे क्‍या विशेषता मालूम पड़ती है ?

    समाधान – इससे यहाँ यह विशेषता मालूम पडती है कि अधिक शब्‍द की अनुवृत्ति होकर उसका सम्‍बन्‍ध त्रि आदि चार शब्‍दों से ही होता है, अन्‍त के दो स्थिति विकल्‍पों से नहीं । इससे यहाँ यह अर्थ प्राप्‍त हो जाता है, ब्रह्मलोक और ब्रह्मोत्‍तर में साधिक दस सागरोपम उत्‍कृष्‍ट स्थिति है। लान्‍तव और कापिष्‍ठ में साधिक चौदह सागरोपम उत्कृष्‍ट स्थिति है। शुक्र और महाशुक्र में साधिक सोलह सागरोपम उत्‍कृष्‍ट स्थिति है। शतार और सहस्रार में साधिक अठारह सागरोपम उत्‍कृष्‍ट स्थिति है। आनत और प्राणत में बीस सागरोपम उत्कृष्‍ट स्थिति है। तथा आरण और अच्‍युत में बार्इस सागरोपम उत्‍कृष्‍ट स्थिति है।


    अब इसके आगे के विमानों में स्थिति विशेष का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    सात का तीन आदि के साथ सम्बन्ध जोड़ लेना चाहिए । 'तु' शब्द सूचित करता है कि 'अधिक' का सम्बन्ध सहस्रार तक ही करना चाहिए। अर्थात् - ब्रह्म ब्रह्मोत्तर में कुछ अधिक दश सागर, लान्तव कापिष्ठ में कुछ अधिक चौदह सागर, शुक्र महाशुक्र में कुछ अधिक सोलह सागर, शतार सहस्रार में कुछ अधिक 18 सागर, आनत प्राणत में 20 सागर, आरण अच्युत में 22 सागर उत्कृष्ट स्थिति है। इस 'तु' शब्द से ही 'अधिक' का अन्वय सहस्रार स्वर्ग तक ही होता है।

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    + कल्पातीत देवों में उत्कृष्ट आयु -
    आरणाच्युता-दूर्ध्वमेकैकेन नवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥32॥
    अन्वयार्थ : आरण और अच्युत स्वर्गों के आठवें युगल से ऊपर नव-अनुदिश ,और विजयादि चार अनुत्तरों और सर्वार्थसिद्धि में देवों की उत्कृष्ट आयु क्रमश १-१ सागर वृद्धिंगत है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    पूर्व सूत्र से अधिक पद की अनुवृत्ति होती है, इसलिए यहाँ इस प्रकार सम्‍बन्‍ध करना चाहिए कि एक-एक सागरोपम अधिक है।

    शंका – सूत्र में 'नव' पद का ग्रहण किसलिए किया ?

    समाधान – प्रत्‍येक ग्रैवेयक में एक-एक सागरोपम अधिक उत्‍कृष्‍ट स्थिति है इस बात का ज्ञान कराने के लिए 'नव' पद का अलग से ग्रहण किया है। यदि ऐसा न करते तो सब ग्रैवेयकों में एक सागरोपम अधिक स्थिति ही प्राप्‍त होती। 'विजयादिषु' में आदि शब्‍द प्रकारवाची है जिससे अनुदिशों का ग्रहण हो जाता है। सर्वार्थसिद्धि में जघन्‍य आयु नहीं है यह बतलाने के लिए 'सर्वार्थसिद्धि' पद का अलग से ग्रहण किया है इससे यह अर्थ प्राप्‍त हुआ कि अधोग्रैवेयक में से प्रथम में तेईस सागरोपम, दूसरे में चौबीस सागरोपम और तीसरे में पच्‍चीस सागरोपम उत्‍कृष्‍ट स्थिति है। मध्यम ग्रैवेयक में से प्रथम में छब्‍बीस सागरोपम, दूसरे में सत्‍ताईस सागरोपम और तीसरे में अट्ठाईस सागरोपम उत्‍कृष्‍ट स्थिति है। उपरिम ग्रैवेयक में से पहले में उनतीस सागरोपम, दूसरे में तीस सागरोपम और तीसरे में इकतीस सागरोपम उत्‍कृष्‍ट स्थिति है। अनुदिश विमानों में बत्‍तीस सागरोपम उत्‍कृष्‍ट स्थिति है। विजयादिक में तेंतीस सागरोपम उत्‍कृष्ट स्थिति है और सर्वार्थसिद्धि में तेंतीस सागरोपम ही स्थिति है। यहॉं उत्‍कृष्‍ट और जघन्‍य का भेद नहीं है।

    जिनमें उत्‍कृष्‍ट स्थिति कह आये हैं उनमें जघन्‍य स्थिति का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-4. 'अधिक ग्रहण' की अनुवृत्ति आ रही है अतः 'एक एक अधिक' यह अर्थ कर लेना चाहिए। ग्रैवेयक और विजयादि का पृथक् ग्रहण करने से अनुदिशों का संग्रह हो जाता है। 'नव' शब्द देने से प्रत्येक में 'एक अधिक' का सम्बन्ध हो जाता है। 'सर्वार्थसिद्ध' का पृथक् ग्रहण करने से सूचित होता है कि उसमें एक ही उत्कृष्ट स्थिति है, विजयादि की तरह जघन्य और उत्कृष्ट विकल्प नहीं है । तात्पर्य यह कि अधो ग्रैवेयकों में पहिले ग्रैवेयक में 23 सागर, दूसरे में 24 सागर तथा तीसरे में 25 सागर; मध्यम ग्रैवेयक के प्रथम ग्रैवेयक में 26 सागर, दूसरे में 27 तथा तृतीय में 28; उपरिम ग्रैवेयक के प्रथम ग्रैवेयक में 29 सागर, द्वितीय में 30 तथा तृतीय में 31 सागर उत्कृष्ट स्थिति है । अनुदिश विमानों में 32 तथा विजयादि और सर्वार्थसिद्धि में 33 सागर हैं । सर्वार्थसिद्धि में केवल उत्कृष्ट ही स्थिति 33 सागर है।

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    + सौधर्म-ऐशान में जघन्य आयु -
    अपरा पल्योपममधिकम् ॥33॥
    अन्वयार्थ : सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में देवों की जघन्यायु एक पल्य है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    पल्‍योपम का व्‍याख्यान कर आये। यहाँ 'अपरा' पद से जघन्‍य स्थिति ली गयी है जो साधिक एक पल्‍योपम है।

    शंका – यह जघन्य स्‍थिति किनकी है ?

    समाधान – सौधर्म और ऐशान कल्‍प के देवों की ।

    शंका – कैसे जाना जाता है ?

    समाधान – जो पूर्व-पूर्व देवों की उत्‍कृष्‍ट स्थिति है वह अगले अगले देवों की जघन्‍य स्थिति है। यह आगे कहने वाले हैं। इससे जाना जाता है कि यह सौधर्म और ऐशान कल्‍प के देवों की जघन्‍य स्‍थिति है।

    अब सौधर्म और ऐशान कल्‍प से आगे के देवों की जघन्‍य स्थिति का प्रतिपादन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    सौधर्म और ऐशान स्वर्ग की जघन्य स्थिति कुछ अधिक एक पल्य है । आगे के सूत्रों में भवनवासी आदि तथा सानत्कुमार आदि की जघन्य स्थिति बताई जायगी । अतः ज्ञात होता है कि इस सूत्र में सौधर्म और ऐशान की ही स्थिति बतायी जा रही है ।

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    + स्वर्ग युगलों में आयु सम्बंधित नियम -
    परत: परत: पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा ॥34॥
    अन्वयार्थ : स्वर्गों में अगले स्वर्ग युगल के देवों की जघन्यायु पहिले-पहिले स्वर्ग युगल के देवों के उत्कृष्टायु से एक समय अधिक है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    यहॉं 'परतः' पद का अर्थ 'पर स्‍थान में' लिया गया है। तथा द्वित्व वीप्सा रूप अर्थ में आया है। इसी प्रकार 'पूर्व' शब्‍द को भी वीप्‍सा अर्थ में द्वित्‍व किया है। अधिक पद की यहाँ अनुवृत्ति होती है। इसलिए इस प्रकार सम्‍बन्‍ध करना चाहिए कि सौधर्म ओर ऐशान कल्‍प में जो साधिक दो सागरोपम उत्‍कृष्‍ट स्‍थिति कही है उसमें एक समय मिला देने पर वह सानत्‍कुमार और माहेन्द्र कल्प में जघन्‍य स्थिति होती है। सानत्कुमार और माहेन्‍द्र में जो साधिक सात सागरोपम उत्‍कृष्‍ट स्‍थिति कही है। उसमें एक समय मिला देने पर वह ब्रह्म और ब्रह्मोत्‍तर में जघन्‍य स्थिति होती है इत्‍यादि।

    नारकियों की उत्‍कृष्‍ट स्थिति कह आये हैं पर सूत्र-द्वारा अभी जघन्‍य स्‍थिति नहीं कही है। यद्यपि उसका प्रकरण नहीं है तो भी यहाँ उसका थोडे में कथन हो सकता है। इस इच्‍छा से आचार्य ने आगे का सूत्र कहा है –

    राजवार्तिक :
    1-3. 'अधिक' की अनुवृत्ति हो जाती है। सौधर्म और ऐशान की जो दो सागर से कुछ अधिक उत्कृष्ट स्थिति है वही कुछ अधिक होकर सानत्कुमार और माहेन्द्र में जघन्य हो जाती है। सानत्कुमार और माहेन्द्र की जो कुछ अधिक सात सागर उत्कृष्ट स्थिति है वही कुछ अधिक होकर ब्रह्म ब्रह्मोत्तर में जघन्य हो जाती है। सर्वार्थसिद्ध का पृथक् ग्रहण करने से यही सूचित होता है कि यह जघन्य स्थिति का क्रम विजयादि तक ही चलता है। यद्यपि पूर्वशब्द से 'पहिले की स्थिति' का ग्रहण हो सकता है फिर भी चूंकि पूर्वशब्द का प्रयोग 'मथुरा से पूर्व में पटना है' इत्यादि स्थलों में व्यवहित में भी देखा जाता है अत: 'अव्यवहित' का सम्बन्ध करने के लिए 'अनन्तर' शब्द का प्रयोग किया गया है ।

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    + नरकों में आयु सम्बंधित नियम -
    नारकाणां च द्वितीयादिषु ॥35॥
    अन्वयार्थ : द्वितीय आदि नरकों में नारकियों की जघन्य स्थिति पूर्व-पूर्व के नारकियों की उत्कृष्ट स्थिति के समान है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    शंका – सूत्रमें 'च' शब्‍द किसलिए दिया है ?

    समाधान – प्रकृत विषय का समुच्‍चय करने के लिए 'च' शब्‍द दिया है।

    शंका – क्‍या प्रकृत है ?

    समाधान – 'परत: परत: पूर्वा पूर्वाsनन्तरा अपरा स्‍थिति:' यह प्रकृत है। अत: 'च' शब्‍द से इसका समुच्‍चय हो जाता है। इससे यह अर्थ प्राप्‍त होता है कि रत्‍नप्रभा में नारकियों की उत्‍कृष्‍ट स्थिति जो एक सागरोपम है वह शर्कराप्रभा में जघन्‍य स्थति है। शर्कराप्रभा में उत्‍कृष्‍ट स्थिति जो तीन सागरोपम है वह बालुकाप्रभा में जघन्‍य स्‍थिति है इत्‍यादि ।

    इस प्रकार द्वितीयदि नरकों मे जघन्‍य स्थिति कही । प्रथम नरक में जघन्‍य स्थिति कितनी है। अब यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –


    राजवार्तिक :
    च शब्द से पूर्वसूत्र में सूचित क्रम का सम्बन्ध हो जाता है। अतः रत्नप्रभा की जो एक सागर उत्कृष्ट स्थिति है वह शर्कराप्रभा में जघन्य होती है। इसी प्रकार आगे भी।

    🏠
    + प्रथम नरक में जघन्य आयु -
    दश-वर्षसहस्राणि प्रथमायाम् ॥36॥
    अन्वयार्थ : प्रथम नरक में नारकी की जघन्यायु दस हज़ार वर्ष है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    इस सूत्र में 'अपरा स्थितिः' इस पद की अनुवृत्ति होती है। तात्‍पर्य यह है कि रत्‍नप्रभा पृथिवी में दस हजार वर्ष जघन्‍य स्थिति है।

    अब भवनवासियों की जघन्य स्थिति कितनी है, यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं–

    राजवार्तिक :
    प्रथम नरक की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है।

    🏠
    + भवनवासी देवों की जघन्य आयु -
    भवनेषु च ॥37॥
    अन्वयार्थ : भवनवासी देवों की जघन्यायु भी १० हज़ार वर्ष है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    शंका – सूत्र में 'च' शब्‍द किसलिए दिया है ?

    समाधान – प्रकृत विषय का समुच्‍चय करने के लिए । इससे ऐसा अर्थ घटित होता है कि भवनवासियों की जघन्‍य स्थिति दस हजार वर्ष है।

    तो व्‍यन्‍तरों की जघन्‍य स्थिति कितनी है अब यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं–

    राजवार्तिक :
    भवनवासियों की भी जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है।

    🏠
    + व्यन्तर देवों की जघन्य आयु -
    व्यन्तराणां च ॥38॥
    अन्वयार्थ : व्यन्तर देवों की भी दस हज़ार वर्ष जघन्यायु है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्र में 'च' शब्‍द प्रकृत विषय का समुच्‍चय करने के लिए दिया है। इससे ऐसा अर्थ घटित होता है कि व्‍यन्‍तरों की जघन्‍य स्थिति दस हजार वर्ष है।

    अब व्‍यन्‍तरों की उत्‍कृष्‍ट स्थिति कितनी है, यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    इसी तरह व्यन्तरों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है। व्यन्तरों की उत्कृष्ट स्थिति पहिले इसीलिए नहीं कही गई कि यदि उत्कृष्ट स्थिति पहिले कही जाती तो जघन्य स्थिति के निर्देश के लिए फिर से 'दशवर्षसहस्राणि' सूत्र बनाना पड़ता।

    🏠
    + व्यन्तर-देवों की उत्कृष्ट आयु -
    परा पल्योपममधिकम् ॥39॥
    अन्वयार्थ : व्यन्तर-देवों की उत्कृष्टायु पल्य से कुछ अधिक है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    पर शब्‍द का अर्थ उत्‍कृष्‍ट है। तात्‍पर्य यह है कि व्‍यन्‍तरों की उत्‍कृष्‍ट स्थिति साधिक एक पल्‍योपम है।

    अब ज्‍योतिषियों की स्थिति कहनी चाहिए, अत: आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    व्यन्तरों की उत्कृष्ट स्थिति एक पल्य से कुछ अधिक है।

    🏠
    + ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्ट आयु -
    ज्योतिष्काणां च ॥40॥
    अन्वयार्थ : ज्योतिष्क देवों की भी उत्कृष्टायु १ पल्य से कुछ अधिक होती है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्र में 'च' शब्‍द प्रकृत का समुच्चय करने के लिए दिया है। इससे यह अर्थ घटित होता है कि ज्‍योतिषियों की उष्‍कृष्‍ट स्थिति साधिक एक पल्योपम है।

    ज्‍योतिषियों की जघन्‍य स्‍थिति कितनी है, अब यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    ज्योतिषियों की भी उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक एक पल्य है।

    🏠
    + ज्योतिष्क देवों में जघन्य आयु -
    तदष्टभागोऽपरा ॥41॥
    अन्वयार्थ : ज्योतिष्क देवों में जघन्यायु एक पल्य का आठवा भाग है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    इस सूत्र का यह भाव है कि उसका अर्थात पल्योपम का आठवाँ भाग ज्‍योतिषियों की जघन्‍य स्‍थिति है।


    विशेषरूप में कहे गये लौकान्तिक देवों की स्थिति नहीं कही है। वह कितनी है अब यह बतलाते हैं -

    राजवार्तिक :
    चन्द्र की उत्कृष्ट स्थिति एक लाख वर्ष अधिक एक पल्य, सूर्य की एक-एक हजार वर्ष अधिक एक पल्य, शुक्र की एक सौ वर्ष अधिक एक पल्य तथा वृहस्पति की पूर्ण एक पल्य है । शेष बुध आदि ग्रहों की और नक्षत्रों की आधे पल्य प्रमाण स्थिति है । तारागण की पल्य का चौथा भाग उत्कृष्ट स्थिति है। तारा और नक्षत्रों की जघन्य स्थिति पल्यके आठवें भाग है । सूर्य आदि की जघन्य स्थिति पल्य के चौथाई भागप्रमाण है।

    🏠
    + लौकांतिक देवों की आयु -
    लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम् ॥42॥
    अन्वयार्थ : लौकांतिक देवों की एक समान जघन्यायु और उत्कृष्टायु ८ सागर प्रमाण ही है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    इन सब लौकान्तिकों की शुक्‍ल लेश्‍या होती है। और शरीर की ऊँचाई पाँच हाथ होती है।

    इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि नामवाली तत्त्वार्थवृत्ति में चौथा अध्याय समाप्‍त हुआ ।।4।।

    राजवार्तिक :
    1. सभी लौकान्तिकों की दोनों प्रकार की स्थिति आठ सागर प्रमाण है।

    2. जीव पदार्थ का व्याख्यान हुआ।

    3. वह एक होकर भी अनेकात्मक है क्योंकि वह अभाव से विलक्षण है। 'अभूत' 'नहीं है' आदि अभाव में कोई भेद नहीं पाया जाता पर भाव में तो अनेक धर्म और अनेक भेद पाये जाते हैं । भाव में ही जन्म, सद्भाव, विपरिणाम, वृद्धि , अपक्षय और विनाश देखे जाते हैं। बाह्य आभ्यन्तर दोनों निमित्तों से आत्मलाभ करना जन्म है, जैसे मनुष्यगति आदि के उदय से जीव मनुष्य पर्यायरूप से उत्पन्न होता है । आयु आदि निमित्तों के अनुसार उस पर्याय में बने रहना सद्भाव या स्थिति है। पूर्वस्वभाव को कायम रखते हुए अधिकता हो जाना वृद्धि है । क्रमशः एक देश का जीर्ण होना अपक्षय है । उस पर्याय की निवृत्ति को विनाश कहते हैं। इस तरह पदार्थों में अनन्तरूपता होती है। अथवा सत्त्व, ज्ञेयत्व, द्रव्यत्व, अमूर्तत्व, अतिसूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, असंख्येयप्रदेशत्व, अनादिनिधनत्व और चेतनत्व आदि की दृष्टि से जीव अनेक रूप है।

    5. अनेक शब्द और अनेक ज्ञान का विषय होने से । जिस पदार्थ में जितने शब्दों का प्रयोग होता है उसमें उतनी ही वाच्य-शक्तियाँ होती हैं तथा वह जितने प्रकार के ज्ञानों का विषय होता है उसमें उतनी ही ज्ञेय शक्तियाँ होती हैं। शब्द प्रयोग का अर्थ है प्रतिपादन, क्रिया । उसके साधन दोनों ही हैं - शब्द और अर्थ। एक ही घट में घट, पार्थिव, मार्तिक-मिट्टी से बना हुआ, सन्, ज्ञेय, नया, बड़ा आदि अनेकों शब्दों का प्रयोग होता है तथा इन अनेक ज्ञानों का विषय होता है । अतः जैसे घड़ा अनेकान्त रूप है । उसी तरह आत्मा भी अनेक धर्मात्मक है ।

    6. अनेक शक्तियों का आधार होने से। जैसे घी चिकना है, तृप्ति करता है, उपबृहण करता है अतः अनेक शक्तिवाला है अथवा, जैसे घड़ा जल-धारण, आहरण आदि अनेक शक्तियों से युक्त है उसी तरह आत्मा भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से अनेक प्रकार की वैभाविक पर्यायों की शक्तियों को धारण करता है।

    7. जिस प्रकार एक ही घड़ा अनेक सम्बन्धियों की अपेक्षा पूर्व-पश्चिम, दूर-पास, नया-पुराना, समर्थ-असमर्थ, देवदत्त कृत चैत्रस्वामिक, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभागादि के भेद से अनेक व्यवहारों का विषय होता है उसी तरह अनन्त सम्बन्धियों की अपेक्षा आत्मा भी उन-उन अनेक पर्यायों को धारण करता है । अथवा, जैसे अनन्त पुद्गल सम्बन्धियों की अपेक्षा एक ही प्रदेशिनी अंगुली अनेक भेदों को प्राप्त होती है उसी तरह जीव भी कर्म और नोकर्म विषय उपकरणों के सम्बन्ध से जीवस्थान, गुणस्थान, मार्गणास्थान, दंडी, कुंडली आदि अनेक पर्यायों को धारण करता है। प्रदेशिनी अंगुली में मध्यमा की अपेक्षा जो भिन्नता है वही अनामिका की अपेक्षा नहीं है, प्रत्येक पर रूप का भेद जुदा-जुदा है। मध्यमा ने प्रदेशिनी में ह्रस्वत्व उत्पन्न नहीं किया, अन्यथा खरविषाण में भी उत्पन्न हो जाना चाहिए था, और न स्वतः ही था, अन्यथा मध्यमा के अभाव में भी उसकी प्रतीति हो जानी चाहिए थी । तात्पर्य यह कि अनन्त परिणामी द्रव्य ही उन-उन सहकारी कारणों की अपेक्षा उन-उन रूप से व्यवहार में आता है।

    8. जिस प्रकार एक ही घड़े के रूपादि गुणों में अन्यद्रव्यों के रूपादि गुणों की अपेक्षा एक, दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात आदि रूप से तरतम भाव व्यक्त होता है और इसलिए वह अनेक है, उसी तरह जीव में भी अन्य आत्माओं की अपेक्षा क्रोधादि के अविभाग प्रतिच्छेदों की तरतमता होती है। अन्य सहकारियों की अपेक्षा वैसे क्रोधादि परिणाम अभिव्यक्त होते रहते है।

    9. जैसे मिट्टी आदि द्रव्य प्रध्वंसरूप अतीतकाल, संभावनारूप भविष्यत् काल तथा क्रिया सातत्यरूप वर्तमानकाल के भेद से उन-उन कालों में अनेक पर्यायों को प्राप्त होता है, उसीतरह जीव भी अनादि अतीतकाल, संभावनीय अनागत और वर्तमान अर्थपर्याय व्यञ्जनपर्यायों से अनन्तरूप को धारण करता है। यदि वर्तमान मात्र माना जाय तो पूर्व और उत्तर की रेखा न होने से वर्तमान का भी अभाव हो जायगा।

    10. अनन्तकाल और एककाल में अनन्त प्रकार के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होने के कारण आत्मा अनेकान्तरूप है। जैसे घड़ा एक काल में द्रव्य दृष्टि से पार्थिव रूप में उत्पन्न होता है जलरूप में नहीं, देश दृष्टि से यहाँ उत्पन्न होता है पटना आदि में नहीं, कालदृष्टि से वर्तमानकाल में उत्पन्न होता है अतीत-अनागत में नहीं, भावदृष्टि से बड़ा उत्पन्न होता है छोटा नहीं । यह उत्पाद अन्य सजातीय घट, किंचित् विजातीय घट, पूर्ण विजातीय पटादि तथा द्रव्यान्तर आत्मा आदि के अनन्त उत्पादों से भिन्न है अतः उतने ही प्रकार का है। इसी प्रकार उस समय उत्पन्न नहीं होनेवाले द्रव्यों की ऊपर, नीची, तिरछी, लम्बी, चौड़ी आदि अवस्थाओं से भिन्न वह उत्पाद अनेक प्रकार का है। अनेक अवयववाले मिट्टी के स्कन्ध से उत्पन्न होने के कारण भी उत्पाद अनेक प्रकार का है। इसी तरह जल-धारण आहरण हर्ष, भय, शोक, परिताप आदि अनेक अर्थक्रियाओं में निमित्त होने से उत्पाद अनेक तरह का है । उसी समय उतने ही प्रतिपक्षभूत व्यय होते हैं । जब तक पूर्व पर्याय का विनाश नहीं होगा तब तक नूतन के उत्पाद की संभावना नहीं है । उत्पाद और विनाश की प्रतिपक्षभूत स्थिति भी उतने ही प्रकार की है। जो स्थित नहीं है उसके उत्पाद और व्यय नहीं हो सकते । 'घट' उत्पन्न होता है' इस प्रयोग को वर्तमान तो इसलिए नहीं मान सकते कि अभी तक घड़ा उत्पन्न ही नहीं हुआ है, उत्पत्ति के बाद यदि तुरन्त विनाश मान लिया जाय तो सद्भाव को अवस्था का प्रतिपादक कोई शब्द ही प्रयुक्त नहीं होगा, अतः उत्पाद में भी अभाव और विनाश में भी अभाव, इस तरह पदार्थ का अभाव ही होने से तदाश्रित व्यवहार का लोप हो जायगा। अतः पदार्थ में उत्पद्यमानता, उत्पन्नता और विनाश ये तीन अवस्थाएँ माननी ही होंगी। इसी तरह एक जीव में भी द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नय की विषयभूत अनन्त शक्तियाँ तथा उत्पत्ति, विनाश, स्थिति आदि रूप होने से अनेकान्तात्मकता समझनी चाहिए।

    11. अन्वय व्यतिरेक रूप होने से भी। जैसे एक ही घड़ा सत्, अचेतन आदि सामान्य रूप से अन्वयधर्म का तथा नया-पुराना आदि विशेष रूप से व्यतिरेक धर्म का आधार होता है उसी तरह आत्मा भी सामान्य और विशेष धर्मों की अपेक्षा अन्वय और व्यतिरेकात्मक है। अनुगताकार बुद्धि और अनुगताकार शब्द प्रयोग के विषयभूत स्वास्तित्व, आत्मत्व, ज्ञातृत्व, द्रष्टृत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, अमूर्तत्व, असंख्यातप्रदेशत्व, अवगाहनत्व, अतिसूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व, अहेतुकत्व, अनादि सम्बन्धित्व, ऊर्ध्वगतिस्वभाव आदि अन्वय धर्म हैं। व्यावृत्ताकार बुद्धि और शब्द प्रयोग के विषयभूत परस्पर विलक्षण उत्पत्ति, स्थिति, विपरिणाम, वृद्धि, ह्रास, क्षय, विनाश, गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, दर्शन, संयम, लेश्या, सम्यक्त्व आदि व्यतिरेक धर्म हैं।

    12-13. इस अनेकान्तात्मक जीव का कथन शब्दों से दो रूप में होता है - एक क्रमिक और दूसरा यौगपद्य रूप से । तीसरा कोई प्रकार नहीं है। जब अस्तित्व आदि अनेक धर्म कालादि की अपेक्षा भिन्न-भिन्न विवक्षित होते हैं उस समय एक शब्द में अनेक अर्थों के प्रतिपादन की शक्ति न होने से क्रम से प्रतिपादन होता है। इसे विकलादेश कहते हैं। परन्तु जब उन्हीं अस्तित्वादि धर्मों की कालादिक की दृष्टि से अभेद विवक्षा होती है तब एक भी शब्द के द्वारा एकधर्ममुखेन तादात्म्यरूप से एकत्व को प्राप्त सभी धर्मों का अखंड भाव से युगपत् कथन हो जाता है। यह सकलादेश कहलाता है। विकलादेश नयरूप हैं और सकलादेश प्रमाण रूप। कहा भी है - सकलादेश प्रमाणाधीन है और विकलादेश नयाधीन । एक गुणरूप से संपूर्ण वस्तुधर्मों का अखंडभाव से ग्रहण करना सकलादेश है । जिस समय एक अभिन्न वस्तु अखंडरूप से विवक्षित होती है उस समय वह अस्तित्वादि धर्मों का अभेदवृत्ति या अभेदोपचार करके पूरी की पूरी एक शब्द से कही जाती है यही सकलादेश है। द्रव्याथिकनय से धर्मों में अभेद है तथा पर्यायार्थिक की विवक्षा में भेद होने पर भी अभेदोपचार कर लिया जाता है।

    15. इस सकलादेश में प्रत्येक धर्म की अपेक्षा सप्तभंगी होती है।
    1. स्यात् अस्त्येव जीवः
    2. स्यात् नास्त्येव जीवः
    3. स्यात् अववतव्य एव जीव:
    4. स्यात् अस्ति च नास्ति च
    5. स्यात् अस्ति च अवक्तव्यश्च
    6. स्यात् नास्ति च अवक्तव्यश्च
    7. स्यात् अस्ति नास्ति च अवक्तव्यश्च ।
    कहा भी है --

    "प्रश्न के वश से सात ही भंग होते हैं। वस्तु सामान्य और विशेष उभय धर्मों से युक्त है।"

    'स्यात् अस्त्येव जीवः' इस वाक्य में जीव शब्द विशेष्य है द्रव्यवाची है और 'अस्ति' शब्द विशेषण है गुणवाची है। उनमें विशेषण विशेष्यभाव द्योतन के लिए 'एव' का प्रयोग है। इससे इतर धर्मों की निवृत्ति का प्रसंग होता है, अतः उन धर्मों का सद्भाव द्योतन करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया गया है। 'स्यात्' शब्द तिङ्न्तप्रतिरूपक निपात है। इसके अनेकान्त विधि विचार आदि अनेक अर्थ हो सकते हैं परन्तु विवक्षावश यहाँ 'अनेकान्त' अर्थ लिया जाता है। यद्यपि 'स्यात्' शब्द से सामान्यतया अनेकान्त का द्योतन हो जाता है फिर भी विशेषार्थी विशेष शब्द का प्रयोग करते हैं जैसे 'वृक्ष' कहने से धव, खदिर आदि का ग्रहण हो जाने पर भी धव, खदिर आदि के इच्छुक उन-उन शब्दों का प्रयोग करते हैं । अथवा 'स्यात्' शब्द अनेकान्त का द्योतक होता है । जो द्योतक होता है वह किसी वाचक शब्द के द्वारा कहे गये अर्थ का ही द्योतन कर सकता है अतः उसके द्वारा प्रकाश्य धर्म की सूचना के लिए इतर शब्दों का प्रयोग किया गया है।

    प्रश्न – यदि 'स्यात् अस्त्येव जीव:' यह वाक्य सकलादेशी है तो इसी से जीवद्रव्य के सभी धर्मों का संग्रह हो ही जाता है, तो आगे के भंग निरर्थक हैं ?

    उत्तर – गौण और मुख्य विवक्षा से सभी भंगों की सार्थकता है। द्रव्यार्थिक की प्रधानता तथा पर्यायाथिक की गौणता में प्रथम भंग सार्थक है और द्रव्याथिक की गौणता और पर्यायाथिक की प्रधानता में द्वितीय भंग । यहाँ प्रधानता केवल शब्द प्रयोग की है, वस्तु तो सभी भंगों में पूरी ही ग्रहण की जाती है। जो शब्द से कहा नहीं गया है अर्थात् गम्य हुआ है वह यहाँ अप्रधान है। तृतीय भंग में युगपत् विवक्षा होने से दोनों ही अप्रधान हो जाते हैं क्योंकि दोनों को प्रधान भाव से कहने वाला कोई शब्द नहीं है। चौथे भंग में क्रमशः उभय प्रधान होते हैं । यदि अस्तित्वैकान्तवादी 'जीव एव अस्ति' ऐसा अवधारण करते हैं तो अजीव के नास्तित्व का प्रसंग आता है अतः 'अस्त्येव' यहीं एवकार दिया जाता है । 'अस्त्येव' कहने से पुद्गलादिक के अस्तित्व से भी जीव का अस्तित्व व्याप्त हो जाता है अतः जीव और पुद्गल में एकत्व का प्रसंग होता है । "अस्तित्व सामान्य से जीव का सम्बन्ध होगा अस्तित्व विशेष से नहीं, जैसे 'अनित्यमेव कृतकम्' कहने से अनित्यत्व के अभाव में कृतकत्व नहीं होता ऐसा अवधारण करने पर भी सब प्रकार के अनित्यत्व से सब प्रकार के कृतकत्व की व्याप्ति नहीं होती किन्तु अनित्यत्व सामान्य से ही होती है न कि रथ, घट, पट आदि के अनित्यत्व विशेष से । ' यह समाधान प्रस्तुत करने पर तो यही फलित होता है कि आप स्वयं अवधारण को निष्फलता स्वीकार कर रहे हैं । 'स्वगत विशेष से अनित्यत्व है' इसका स्पष्ट अर्थ है कि परगत विशेष से अनित्यत्व नहीं है। फिर तो 'अनित्यं कृतकम्' ऐसा बिना अवधारण का वाक्य कहना चाहिए। ऐसी दशा में अनित्यत्व का अवधारण न होने से नित्यत्व का भी प्रसंग प्राप्त होता है। इसी तरह आप यदि "अस्तित्व सामान्य से जीव 'स्यादस्ति' है पुद्गलादिगत अस्तित्व विशेष से नहीं" यह स्वीकार करते हैं तो यह स्वयं मान रहे हैं कि दो प्रकार का अस्तित्व है - एक सामान्य अस्तित्व और दूसरा विशेष अस्तित्व। ऐसी दशा में सामान्य अस्तित्व से स्यादस्ति और विशेष अस्तित्व से स्यान्नास्ति होने पर अवधारण निष्फल हो ही जाता है । सब प्रकार से अस्तित्व स्वीकृत होने पर ही नास्तित्व के निराकरण से ही अवधारण सार्थक हो सकता है। नियम न रहने पर पुद्गलादि के अस्तित्व से भी 'स्यादस्ति' की प्राप्ति होती है अतः एकान्तवादी को अवधारण मानना ही होगा और ऐसी स्थिति में पूर्वोक्त दोष आता है। 'जो अस्ति है वह अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से, इतर द्रव्यादि से नहीं क्योंकि वे अप्रस्तुत हैं । जैसे घड़ा पार्थिव रूप से, इस क्षेत्र से, इस काल की दृष्टि से तथा अपनी वर्तमान पर्यायों से 'अस्ति' है अन्य से नहीं क्योंकि वे अप्रस्तुत हैं।' इस समाधान से ही फलित होता है कि घड़ा स्यादस्ति और स्यानास्ति है । यदि नियम न माना गया तो वह घडा ही नहीं हो सकता क्योंकि सामान्यात्मकता के अभाव में विशेषरूपता भी नहीं टिक सकती, अथवा अनियत दव्यादिरूप होने से वह घड़ा ही नहीं रह सकता किंतु सर्वरूप होने से महा सामान्य बन जायगा । यदि घड़ा पार्थिवत्व की तरह जलादि रूप से भी अस्ति हो जाय तो जलादि रूप भी होने से वह एक सामान्य द्रव्य बन जायगा न कि घड़ा । यदि इस क्षेत्र की तरह अन्य समस्त क्षेत्रों में भी घड़ा अस्ति हो जाय तो वह घड़ा नहीं रह पायगा किन्तु आकाश बन जायगा । यदि इस काल की तरह अतीत अनागत काल से भी वह 'अस्ति' हो तो भी घड़ा नहीं रह सकता किन्तु त्रिकालानुयायी होने से मृद् द्रव्य बन जायगा, फिर तो जिस प्रकार इस देश काल रूप से हमलोगों के प्रत्यक्ष है और अर्थक्रियाकारी है उसीतरह अतीत अनागतकाल तथा सभी देशों में उसकी प्रत्यक्षता तथा तत्सम्बन्धी अर्थक्रियाकारिता होनी चाहिये । इसी तरह जैसे वह नया है उसी तरह पुराने या सभी रूप-रस-गन्ध-स्पर्श, संख्या संस्थान आदि की दृष्टिसे भी 'अस्ति' हो तो वह घड़ा नहीं रह जायगा किन्तु सर्वव्यापी होने से महासत्ता बन जायगा । इसी तरह मनुष्य जीव भी स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की दृष्टि से ही 'अस्ति' है अन्यरूपों से नास्ति है। यदि मनुष्य अन्य रूप से भी 'अस्ति' हो जाय तो वह मनुष्य ही नहीं रह सकता, महासामान्य हो जायगा । इसी तरह अनियत क्षेत्र आदि रूप से 'अस्ति' मानने में अनियतरूपता का प्रसंग आता है। स्वसद्भाव और पर-अभाव के अधीन जीव का स्वरूप होने से वह उभयात्मक है। यदि जीव परसत्ता के अभाव की अपेक्षा न करे तो वह जीव न होकर सन्मात्र हो जायगा। इसी तरह परसत्ता के अभाव की अपेक्षा होने पर भी स्वसत्ता का सद्भाव न हो तो वह वस्तु ही नहीं हो सकेगा, जीव होने की बात तो दूर ही रही। अतः पर का अभाव भी स्वसत्ता सद्भाव से ही वस्तु का स्वरूप बन सकता है। जैसे अस्तित्व धर्म अस्तित्व रूप से ही है नास्तित्व रूप से नहीं, अतः उभयात्मक है । अन्यथा वस्तु का अभाव ही हो जायगा क्योंकि अभाव, भावनिरपेक्ष होकर सर्वथा शून्य का ही प्रतिपादन करेगा तथा भाव अभावरूप से निरपेक्ष रहकर सर्वसन्मात्ररूप वस्तु को कहेगा। सर्वथा सत या सर्वथा अभाव रूप से वस्तु की स्थिति तो है नहीं। क्या कभी वस्तु सर्वाभावात्मक या सर्वसत्तात्मक देखी गई है ? वैसी वस्तु ही नहीं हो सकती क्योंकि वह खरविषाण की तरह सर्वाभाव रूप है । जब वस्तुत्व श्रावणत्व की तरह सपक्ष विपक्ष दोनों से व्यावृत्त होने के कारण असाधारण हो गया तब उसका बोध होना भी कठिन है। वस्तु में क्रियागुण व्यपदेश का अभाव होने से भावविलक्षणता के कारण अभावता आती है तथा भावता अभाव वैलक्षण्य से । इस तरह भावरूपता और अभाव रूपता दोनों परस्पर सापेक्ष हैं अभाव अपने सद्भाव तथा भाव के अभाव की अपेक्षा सिद्ध होता है तथा भाव स्वसद्भाव और अभाव के अभाव की अपेक्षा से । यदि अभाव को एकांत से अस्ति स्वीकार किया जाय तो जैसे वह अभावरूप से अस्ति है उसी तरह भावरूप से भी 'अस्ति' हो जाने के कारण भाव और अभाव में स्वरूपसांकर्य हो जायगा। यदि अभाव को सर्वथा 'नास्ति' माना जाय तो जैसे वह भावरूप से 'नास्ति' है उसी तरह अभावरूप से भी 'नास्ति' होने से अभाव का सर्वथा लोप होने के कारण भावमात्र ही जगत् रह जायगा। और इस तरह खपुष्प आदि भी भावात्मक हो जायंगें । अतः घटादिक भाव स्यादस्ति और स्यान्नास्ति हैं । इस तरह घटादि वस्तुओं में भाव और अभाव को परस्पर सापेक्ष होने से प्रतिवादी का यह कथन कि 'अर्थ या प्रकरण से जब घट में पटादि की सत्ता का प्रसंग ही नहीं है तब उसका निषेध क्यों करते हो ?' अयुक्त हो जाता है । किंच, अर्थ होने के कारण सामान्यरूप से घट में पटादि अर्थों की सत्ता का प्रसंग प्राप्त है ही, यदि उसमें हम विशिष्ट घटरूपता स्वीकार करना चाहते हैं तो वह पटादि की सत्ता का निषेध करके ही आ सकती है । अन्यथा वह घट नहीं कहा जा सकता क्योंकि पटादि रूपों की व्यावृत्ति न होने से उसमें पटादि रूपता भी उसी तरह मौजूद है। घट में जो पटादि का 'नास्तित्व' है वह भी घड़े का ही धर्म है, वह उसकी स्वपर्याय है। हाँ, पर की अपेक्षा व्यवहार में आने से पर-पर्याय उपचार से कही जाती है।

    प्रश्न – 'अस्त्येव जीवः' यहाँ 'अस्ति' शब्द के वाच्य अर्थ से जीव शब्द का वाच्य अर्थ भिन्न स्वभाववाला है, या अभिन्न स्वभाववाला ? यदि अभिन्न स्वभाव है, तो इसका यह अर्थ हुआ कि जो 'सत्' है वही जीव है, उसमें अन्य धर्म नहीं हैं । तब उनमें परस्पर सामानाधिकरण्य विशेषण-विशेष्य भाव आदि नहीं हो सकेंगे, तथा दोनों शब्दों का प्रयोग भी नहीं होना चाहिये। जिस तरह 'सत्त्व' सर्व द्रव्य और पर्यायों में व्याप्त है उसी तरह उससे अभिन्न जीव भी व्याप्त होगा। तात्पर्य यह कि संसार के सब पदार्थों में एक जीवरूपता का प्रसंग आयगा। जीव में सामान्य सत्स्वभाव होने से जीव के चैतन्य ज्ञानादि क्रोधादि नारकत्वादि सभी पर्यायों का अभाव हो जायगा। अथवा, अस्तित्व जब जीव का स्वभाव हो गया, तब पुद्गलादिक में 'सत्' यह प्रत्यय नहीं करा सकेगा। यदि उक्त दोष से बचने के लिए अस्ति शब्द के वाच्य अर्थ से जीव शब्द का वाच्य अर्थ भिन्न माना जाता है तो जीव स्वयं असद्रूप हो जायगा। कहा जा सकता है कि जीव असद्रूप है क्योंकि वह अस्ति शब्द के वाच्य अर्थ से भिन्न है जैसे कि खरविषाण। ऐसी दशा में जीवाश्रित बन्ध मोक्ष आदि सभी व्यवहार नष्ट हो जायेंगे। और जिस तरह अस्तित्व जीव से भिन्न है । उसी तरह अन्य पुद्गलादि से भी भिन्न होगा, तात्पर्य यह कि सर्वथा निराश्रय होने से उसका अभाव ही हो जायगा। किंच, अस्तित्व से भिन्न स्वभाववाले जीव का फिर क्या स्वरूप रह जाता है ? जिसे भी आप स्वभाव कहोगे वह सब असद्रप ही होगा।

    उत्तर – 'अस्ति' शब्द के वाच्य अर्थ से जीव शब्द का वाच्य अर्थ कथंचित् भिन्न रूप है तथा कथंचित् अभिन्न रूप । पर्यायाथिक नय से भवन और जीवन पर्यायों में भेद होने से दोनों शब्द भिन्नार्थक हैं । द्रव्यार्थिक दृष्टि से दोनों अभिन्न हैं, जीव के ग्रहण से तद्भिन्न अस्तित्व का भी ग्रहण होता ही है अतः पदार्थ स्यात अस्ति और स्यान्नास्ति रूप हैं। निरंश वस्तु में गुणभेद से अंशकल्पना करना विकलादेश है। स्वरूप से अविभागी अखंड सत्ता का वस्तु में विविध गुणों की अपेक्षा अंश कल्पना करना अर्थात् अनेकत्व और एकत्व की व्यवस्था के लिए मूलतः नरसिंह में सिंहत्व की तरह समुदायात्मक वस्तुस्तरूप को स्वीकार करके ही काल आदि की दृष्टि से परस्पर विभिन्न अंशों की कल्पना करना विकलादेश है। केवल सिंह में सिंहत्व की तरह एक में एकांश की कल्पना विकलादेश नहीं हैं। जैसे दाडिम कर्पूर आदि से बने हुए शर्बत में विलक्षण रस की अनुभूति और स्वीकृति के बाद अपनी पहचान शक्ति के अनुसार 'इस शर्बत में इलायची भी है, कर्पूर भी है' इत्यादि विवेचन किया जाता है उसी तरह अनेकान्तात्मक एक वस्तु की स्वीकृति के बाद हेतुविशेष से किसी विवक्षित अंश का निश्चय करना विकलादेश है। अखंड भी वस्तु में गुणों से भेद होता है जैसे 'गतवर्ष आप पटु थे, इस वर्ष पटुतर हैं' इस प्रयोग में अवस्थाभेद से तदभिन्न द्रव्य में भेद व्यवहार होता है। गुणभेद से गुणिभेद का होना स्वाभाविक ही है।

    26. विकलादेश में भी सप्तभंगी होती है। गुणभेदक अंशों में क्रम, योगपद्य तथा क्रम-योगपद्य दोनों से विवक्षा के वश विकलादेश होते हैं। सर्वसामान्य आदि किसी एक द्रव्यार्थ-दृष्टि से 'स्यादस्त्येव आत्मा' यह पहिला विकलादेश है। इस भंग में अन्य धर्म यद्यपि वस्तु में विद्यमान हैं तो भी कालादि की अपेक्षा भेदविवक्षा होने से शब्दवाच्यत्वेन स्वीकृत नहीं हैं अतः न उनका विधान ही है और न प्रतिषेध ही। इसी तरह अन्य भंगों में भी स्वविवक्षित धर्म की प्रधानता होती है और अन्य धर्मों के प्रति उदासीनता, न तो उनका विधान ही होता है और न उनका प्रतिषेध ही ।

    प्रश्न – जब आप 'अस्त्येव' इस तरह विशेषण-विशेष्य के नियमन को एवकार देते हो तब अर्थात् ही इतर की निवृत्ति हो जाती है ? उदासीनता कहाँ रही ?

    उत्तर – इसीलिए शेष धर्मों के सद्भाव को द्योतन करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है । एवकार से जब इतरनिवृत्ति का प्रसंग प्रस्तुत होता है तो सकल लोप न हो जाय इसलिए 'स्यात्' शब्द विवक्षित धर्म के साथ ही साथ अन्य धर्मों के सद्भाव की सूचना दे देता है। इस तरह अपुनरुक्त रूप से अधिक से अधिक सात प्रकार के वचन हो सकते हैं । यह सब द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों की विवक्षा से होता है। ये नय संग्रह और व्यवहार रूप होते हैं । शब्द नय और अर्थनय रूप से भी इनके विभाग हैं।
    1. संग्रहनय सत्ता को विषय करता है, वह समस्त वस्तुतत्त्व का सत्ता में अन्तर्भाव करके अभेद रूप से संग्रह करता है।
    2. व्यवहारनय असत्त्व को विषय करता है क्योंकि वह उन परस्पर भिन्न सत्त्वों को ग्रहण करता है जिनमें एक दूसरे का असत्त्व अन्तर्भूत है।
    3. ऋजुसूत्रनय वर्तमान क्षणवर्ती पर्याय को जानता है । इसकी दृष्टि में अतीत और अनागत चूंकि विनष्ट और अनुत्पन्न है, अतः उनसे व्यवहार नहीं हो सकता।
    ये तीनों अर्थनय मिलकर तथा एकाकी रहकर सात प्रकार के भंगों को उत्पन्न करते हैं ।
    1. पहिला संग्रह,
    2. दूसरा व्यवहार,
    3. तीसरा अविभक्त (युगपद् विवक्षित) संग्रह व्यवहार,
    4. चौथा समुच्चित (क्रम विवक्षित समुदाय) संग्रह व्यवहार,
    5. पांचवां संग्रह और अविभवत संग्रह व्यवहार,
    6. छठवां व्यवहार और अविभक्त संग्रह व्यवहार तथा
    7. सातवां समुदित संग्रह व्यवहार और अविभक्त संग्रह व्यवहार ।

    27. इन परस्पर विरुद्ध सरीखे दिखनेवाले धर्मों में नयदृष्टि से योजना करनेपर कोई विरोध नहीं रहता। विरोध तीन प्रकार का है
    1. वध्यघातक भाव,
    2. सहानवस्थान,
    3. प्रतिबन्ध्य-प्रतिबन्धक भाव ।
    इस तरह विवक्षाभेद से जीवादिपदार्थ एकानेकात्मक हैं।

    चतुर्थ अध्याय समाप्त

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    5-अजीवाधिकार



    + अजीव के भेद -
    अजीव-काया-धर्माधर्माकाश-पुद्गला: ॥1॥
    अन्वयार्थ : धर्म, अधर्म, आकाश, और पुद्गल अजीव (चेतना रहित) और कायावान (बहु प्रदेशी) है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    व्‍युत्‍पत्ति से काय शब्‍द का अर्थ शरीर है तो भी इन द्रव्‍यों में उपचार से उसका आरोप किया है ।

    शंका – उपचार का क्‍या कारण है ?

    समाधान – जिस प्रकार शरीर पुद्गल द्रव्‍य के प्रचयरूप होता है उसी प्रकार धर्मादिक द्रव्‍य भी प्रदेश-प्रचय की अपेक्षा काय के समान होने से काय कहे गये हैं । अजीव और काय इनमें कर्मधारय-समास है जो 'विशेषणं विशेष्‍येण' इस सूत्र से हुआ है ।

    शंका- नीलोत्‍पल इत्‍यादि में नील और उत्‍पल इन दोनों का व्‍यभिचार देखा जाता है अत: वहाँ विशेषण-विशेष्‍य सम्‍बन्‍ध किया गया है, किन्‍तु अजीवकाय में विशेषणविशेष्‍य सम्‍बन्‍ध करने का क्‍या कारण है ?

    समाधान – अजीवकाय का यहाँ भी व्‍यभिचार देखा जाता है क्‍योंकि अजीव शब्‍द काल में भी रहता है जो कि काय नहीं है और काय शब्‍द जीव में रहता है, अत: इस दोष के निवारण करने के लिए यहाँ विशेषण-विशेष्‍य सम्‍बन्‍ध किया है ।

    शंका – काय शब्‍द किसलिए दिया है ?

    समाधान – प्रदेश बहुत्‍व का ज्ञान कराने के लिए । धर्मादिक द्रव्‍यों के बहुत प्रदेश हैं यह इससे जाना जाता है ।

    शंका – आगे यह सूत्र आया है कि 'धर्म, अधर्म और एक जीव के असंख्‍यात प्रदेश हैं' इसी से इनके बहुत प्रदेशों का ज्ञान हो जाता है फिर यहाँ कायशब्‍द के देने की क्‍या आवश्‍यकता ?

    समाधान – यह ठीक है । तो भी इस कथन के होने पर उस सूत्र से प्रदेशों के विषय में यह निश्‍चय किया जाता है कि इन धर्मादिक द्रव्‍यों के प्रदेश असंख्‍यात हैं, न संख्‍यात हैं और न अनन्‍त । दूसरे काल-द्रव्‍य में प्रदेशों का प्रचय नहीं है यह ज्ञान कराने के लिए इस सूत्रमें 'काय' पद का ग्रहण किया है । काल का आगे व्‍याख्‍यान करेंगे । उसके प्रदेशों का निषेध करने के लिए यहाँ 'काय' शब्‍द का ग्रहण किया है । जिसप्रकार अणु एक-प्रदेशरूप होन के कारण उसके द्वितीय आदि प्रदेश नहीं होते इसलिए अणु को अप्रदेशी कहते हें उसीप्रकार काल परमाणु भी एकप्रदेशरूप होने के कारण अप्रदेशी हैं । धर्मादिक द्रव्‍यों में जीव का लक्षण नहीं पाया जाता, इसलिए उनकी अजीव यह सामान्‍य संज्ञा है । तथा धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये उनकी विशेष संज्ञाएँ हैं जो कि यौगिक हैं ।

    'सर्वद्रव्‍यपर्यायेषु केवलस्‍य' इत्‍यादि सूत्रों में द्रव्‍य कह आये हैं । वे कौन हैं यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं --

    राजवार्तिक :
    1-5. 'अजीव जो काय' इस प्रकार समानाधिकरणा वृत्ति यहाँ समझनी चाहिए। अजीव शब्द की काल में तथा काय शब्द की जीव में भी वृत्ति होने से यहाँ परस्पर व्यभिचार है अतः नीलोत्पल की तरह समानाधिकरण वृत्ति है। यदि भिन्न अधिकरणरूप वृत्ति मानी जाय तो 'राजा का पुरुष राज-पुरुष' इसकी तरह अजीवों का काय इस प्रकार के सर्वथा भेद का प्रसंग आयगा । यद्यपि 'सुवर्ण की अंगूठी' यहाँ सुवर्ण और अंगूठी में अभेद रहने पर भी भेदमूलक षष्ठी-समास देखा गया है तो भी जैसे 'सुवर्ण की अंगूठी' इस स्थल पर सुवर्ण का प्रयोग चाँदी आदि की निवृत्ति के लिए है कि - यह अंगूठी सुवर्ण की है, चाँदी आदि की नहीं है और न मासा रत्ती आदि की, उस तरह 'अजीव के काय' यहाँ किसी पदार्थान्तर की निवृत्ति नहीं करनी है। अथवा, भिन्नाधिकरण भी वृत्ति मानने में कोई विरोध नहीं है। जीव भी काय है क्योंकि पाँच अस्तिकायों में जीव का भी नाम है। इसलिए उसकी निवृत्ति के लिए यहाँ अजीव शब्द का प्रयोग किया गया है कि अजीव के काय, जीव के नहीं । 'सुवर्ण की अंगूठी' यहाँ भी सुवर्ण द्रव्य से अंगूठी पर्याय में संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदिके भेद से भेद है ही । यदि सुवर्ण और अंगूठी में सर्वथा अभेद माना जाय तो सुवर्ण की कुंडल आदि पर्यायों में वृत्ति नहीं होनी चाहिए, या सुवर्ण की तरह अंगुलीयकत्व (अंगूठीपना) कुंडल आदि में भी पाया जाना चाहिए । इसीलिए अन्य चाँदी आदि की निवृत्ति के लिए 'सुवर्ण' शब्द का प्रयोग किया गया है । सर्वथा अभेद में 'सुवर्ण की अंगूठी' यह भेद प्रयोग ही नहीं हो सकता। 'अजीवकाया? यहाँ काय शब्द प्रदेशवाचक है । धर्मादि द्रव्य अपने प्रदेशों से संज्ञा, लक्षण और प्रयोजन आदि की दृष्टि से भिन्न भी हैं । यदि सर्वथा अभेद हो तो जैसे धर्मादि एक हैं उसी तरह प्रदेशों में भी एकत्व होना चाहिए, अथवा जैसे प्रदेश बहुत हैं उसी तरह धर्मादिक में भी बहुत्व होना चाहिए । इसीलिए अन्यनिवृत्ति के लिए 'अजीव शब्द का प्रयोग किया है कि - अजीवों के काय, न कि जीव के । यदि सर्वथा एकत्व होता तो 'अजीव के काय' यह भेद-व्यवहार ही नहीं हो सकता था । 'शिलापुत्रक का शरीर या राहु का सिर' इन प्रयोगों में भी कथंचित् भेद है ही । बुद्धि शब्द और प्रयोजन आदि के भेद से उनमें भेद है । इसलिए यहाँ भी अन्य निवृत्ति के लिए शिलापुत्रक या राहु शब्द दिया जाता है । अर्थात् शिंलापुत्रक का यह शरीर है अन्य मनुष्य आदि का नहीं, राहु का यह शिर है अन्य का नहीं । सर्वथा अभेद में अन्यनिवृत्ति की आवश्यकता ही नहीं रह जाती जैसे सुवर्ण का सुवर्ण या घट का घट ।

    6. 'न जीवः अजीवः' कहने से अजीव को केवल जीवाभाव रूप ही नहीं समझना चाहिए, किन्तु जैसे 'अनश्व' कहने से घोड़े के निषेध के साथ ही घोड़े सरीखे अन्य प्राणी (गधा आदि) का प्रत्यय होता है उसी तरह अजीव से भी जीव से भिन्न अन्य अचेतन पदार्थ का संप्रत्यय होता है । जड़ और चेतन में सत्त्व द्रव्यत्व आदि की दृष्टि से सादृश्य है ही । एक 'सत्' पदार्थ ही पररूप आदि की अपेक्षा अभाव-प्रत्यय का विषय होता है ।

    7-8. काय शब्द में 'काय की तरह काय' यह सादृश्य अर्थ अन्तर्भूत है । अर्थात जैसे काय-शरीर औदारिकादि शरीर नामकर्म के उदय से अनेक पुद्रल-परमाणुओं से संचित होता है उसी तरह धर्मादि द्रव्य अनादि-पारिणामिक प्रदेशोंवाले होने से काय हैं । काय शब्द का ग्रहण ही प्रदेश या अवयवों की बहुतायत सूचित करने के लिए है । धर्मादिक में मुख्य रूप से प्रदेश न रहने पर भी एक परमाणु के द्वारा रोके गये आकाश-प्रदेश के नाप से बुद्धि के द्वारा उनमें असंख्येय आदि प्रदेश स्वीकार किये जाते हैं ।

    9-14. प्रश्न –'असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधमैकजीवानाम्' इस सूत्र से ही बहुप्रदेशीपना सिद्ध है फिर काय ग्रहण करना निरर्थक है । प्रदेशों की संख्या के निश्चय के लिए भी इसकी उपयोगिता नहीं है क्योंकि इससे तो प्रदेशप्रचय मात्र की ही प्रतीति होती है । 'लोकाकाशेऽवगाहः' के बाद 'धर्माधर्मयोः कृत्स्ने' कहने से द्रव्यों के प्रदेशों के परिमाण का निश्चय हो जाता है । काय ग्रहण के बिना अप्रदेशी एक-द्रव्यपने का प्रसंग भी नहीं आ सकता; क्योंकि 'असंख्ययाः प्रदेशा धर्माधमैकजीवानाम्' सूत्र से ही बहुप्रदेशित्व सूचित हो जाता है । पंचास्तिकाय के आर्ष उपदेश के अनुवाद के लिए काय शब्द का ग्रहण निरर्थक है क्योंकि 'असंख्येयाः प्रदेशाः' इत्यादि सूत्र से ही वह कार्य हो जाता है । 'काय-बहुप्रदेशित्वरूप स्वभाव उनका सदा रहता है छूटता नहीं' इस बात के द्योतन के लिए भी काय शब्द का कोई उपयोग नहीं है, क्योंकि 'नित्य और अवस्थित' कथन से ही स्वभाव का अपरित्याग सिद्ध हो जाता है ।

    15-16. उत्तर – कायशब्द के ग्रहण से पाँचों ही अस्तिकायों में प्रदेश-बहुत्व की सिद्धि होने पर ही 'असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मेकजीवानाम्' यह सूत्र प्रदेशों की असंख्येयता का अवधारण कर सकता है कि असंख्येय ही प्रदेश हैं न संख्येय और न अनन्त । अवधारण विधिपूर्वक होता है । फिर काल-द्रव्य के बहुप्रदेशित्व के प्रतिषेध के लिए यहाँ 'काय' का ग्रहण करना उपयुक्त है । जिसप्रकार अणु को एकप्रदेशी होने से अर्थात् द्वितीय आदि प्रदेश न होने से 'अप्रदेश' कहते हैं उसी तरह काल-परमाणु भी एकप्रदेशी होने से अप्रदेशी हैं ।

    17. सर्वज्ञ प्रतिपादित आर्हत आगम में ये धर्म अधर्म आकाश आदि संज्ञाएँ सांकेतिक हैं, रूढ़ हैं ।

    18-23. अथवा, इन संज्ञाओं को क्रिया-निमित्तक भी कह सकते हैं । स्वयं क्रिया-परिणत जीव और पुद्गलों को जो सहायक हो (साचिव्यं दधातीति धर्मः) वह धर्म है । इससे विपरीत अर्थात् स्थिति में सहायक अधर्म होता है । जिसमें जीवादि द्रव्य अपनी अपनी पर्यायों के साथ प्रकाशमान हों तथा जो स्वयं अपने को भी प्रकाशित करे वह आकाश । अथवा, जो अन्य सब द्रव्यों को अवकाश दान दे वह आकाश । यद्यपि अलोकाकाश में द्रव्यों का अवगाह न होने से यह लक्षण नहीं घटता तथापि शक्ति की दृष्टि से उसमें भी आकाश-व्यवहार होता ही है । जैसे अतिदूर भविष्यत् काल में वर्तमान प्राप्ति की योग्यता के कारण ही भविष्यत् व्यपदेश होता है उसी तरह अलोकाकाश में अवगाही द्रव्यों के न होने पर भी अवगाहनशक्ति के कारण अखंड-द्रव्य-प्रयुक्त आकाश व्यवहार हो जाता है ।

    24-26. जैसे भा को करनेवाला भास्कर कहा जाता है उसी तरह जो भेद, संघात और भेदसंघात से पूरण और गलन को प्राप्त हों वे पुद्गल हैं । यह शब्द 'शवशयनं श्मसानम्' की तरह पृषोदरादिगण में निष्पन्न होता है । परमाणुओं में भी शक्ति की अपेक्षा पूरण और गलन है तथा प्रतिक्षण अगुरुलधुगुणकृत गुणपरिणमन गुणवृद्धि और गुणहानि होती रहती है अतः उनमें भी पूरण और गलन व्यवहार मानने में कोई बाधा नहीं है । अथवा, पुरुप यानी जीव जिनको शरीर, आहार, विषय और इन्द्रिय-उपकरण आदि के रूप में निगलें (ग्रहण करें) वे पुद्गल हैं । परमाणु भी स्कन्ध-दशा में जीवों के द्वारा निगले ही जाते हैं ।

    27. 'धर्माधर्माकाशपुद्गलाः' यहाँ बहुवचन स्वातन्त्र्य प्रतिपत्ति के लिए है । इनका यही स्वातन्त्र्य है कि ये स्वयं गति और स्थिति रूप से परिणत जीव और पुदलों की गति और स्थिति में स्वयं निमित्त होते हैं, जीव या पुदल इन्हें उकसाते नहीं हैं । इनकी प्रवृत्ति पराधीन नहीं है । यद्यपि इतरेतरयोग द्वन्द्व में बहुवचन न्यायप्राप्त था पर समाहार में समुदाय की प्रधानता होने से एकवचन से ही कार्य चल जाता है, फिर भी जो बहुवचन का निर्देश किया गया है. वह स्वातन्त्र्य का ज्ञापक है । जैसे जैनेन्द्र व्याकरणमें 'हृतः'। यहाँ 'हृत्' इस एक वचन से कार्य चल सकता था फिर भी बहुवचन का निर्देश ज्ञापन करता है कि अनुक्त में भी तद्धितीय प्रत्यय होता है ।

    28-30. धर्म शब्द की लोक में प्रतिष्ठा है अतः सूत्र में धर्म का पहिले ग्रहण किया है । अधर्मद्रव्य से लोक की पुरुषाकार आकृति की व्यवस्था बनती है अतः अधर्म का उसके अनन्तर ग्रहण किया है । यदि अधर्म-द्रव्य न माना जाता तो जीव और पुद्गल समस्त आकाश अर्थात् अलोकाकाश में भी जा पहुँचते, इस तरह लोक का कोई आकार ही नहीं बन पाता । अतः लोक-अलोक विभाग अधर्म-द्रव्य के कारण ही बनता है । फिर अधर्म धर्म का

    प्रतिपक्षी है, अतः उसका धर्म के बाद ग्रहण करना उचित ही है ।

    31-32. धर्म और अधर्म के द्वारा आकाश का परिच्छेद किया जाता है - लोक और अलोक के रूप में । जहाँ तक धर्म और अधर्म हैं वह लोक, आगे का अलोक । अतः धर्म और अधर्म के बाद आकाश को ग्रहण किया है । फिर अमूर्तरूप से आकाश धर्म और अधर्म में सजातीयपना भी है ।

    33. आकाश में पुद्गल अवकाश पाते हैं, अतः आकाश के पास पुद्गल का ग्रहण किया गया है ।

    34-35. प्रश्न – आकाश का ग्रहण सर्वप्रथम करना चाहिए क्योंकि वह धर्म और अधर्म आदि का आधार है ?

    उत्तर – लोक की यह रचना अनादि से है, इसमें आधाराधेय-भाव-मूलक पौर्वापर्य नहीं है । आदिवाले दही और कुंड आदि में ही आधाराधेयमूलक पौर्वापर्य होता है । यद्यपि आर्ष-ग्रन्थ में यह बताया है कि - "आकाश स्व तनुवातवलय में घनवातवलय, धनवातवलय में घनोदधिवातवलय आधेय रूप से है" इत्यादि फिर भी कोई विरोध नहीं है, क्योंकि यदि आधाराधेयभाव का सर्वथा निषेध किया जाता तो विरोध होता । परन्तु द्रव्यार्थिक की प्रधानता से सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ठ हैं, अतएव आधाराधेयभाव नहीं रहने पर भी पर्यायार्थिक की प्रधानता में आधाराधेयभाव है ही । इसी तरह व्यवहार-नय से आकाश को आधार और अन्य द्रव्यों को आधेय कहते ही हैं । एवंभूतनय से अनादि पारिणामिक लोकरचना की अपेक्षा आधाराधेयभाव नहीं भी है । व्यवहार में तनुवातवलय का आधार आकाश को मानने पर आकाश के भी अन्य आधार की कल्पना करके अनवस्था दूषण नहीं आ सकता; क्योंकि आकाश सर्वगत और अनन्त है, अतः उसके अन्य आधार की कल्पना करना उचित नहीं है । असर्वगत सान्त मूर्तिमान् और सावयव पदार्थों में ही अन्य आधार की कल्पना हो सकती है ।

    36. यद्यपि काल भी अजीव है और भाष्य में अनेक बार छह द्रव्यों का कथन भी किया है, पर इसका लक्षण आगे किया है अतः उसे यहाँ नहीं गिनाया है ।

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    + इनकी संज्ञा -
    द्रव्याणि ॥2॥
    अन्वयार्थ : यह (धर्म, अधर्म, आकाश, और पुद्गल) द्रव्य हैं ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    द्रव्‍य शब्‍द में 'द्रु' धातु है जिसका अर्थ प्राप्‍त करना होता है । इससे द्रव्‍य शब्‍द का व्‍युत्‍पत्तिरूप अर्थ इस प्रकार हुआ कि जो यथायोग्‍य अपनी-अपनी पर्यायों के द्वारा प्राप्‍त होते हैं या पर्यायों को प्राप्‍त होते हैं वे द्रव्‍य कहलाते हैं ।

    शंका – द्रव्‍यत्‍व नाम की एक जाति है उसके सम्‍बन्‍ध से द्रव्‍य कहना ठीक है ।

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि इस तरह दोनों की सिद्धि नहीं होती । जिस प्रकार दण्‍ड और दण्‍डी ये दोनों पृथक् सिद्ध हैं अत: उनका सम्‍बन्‍ध बन जाता है; उसप्रकार द्रव्‍य और द्रव्‍यत्‍व से अलग-अलग सिद्ध नहीं हैं । यदि अलग-अलग सिद्ध न होने पर भी इनका सम्‍बन्‍ध माना जाता है तो आकाश-कुसुम का और प्रकृत पुरूष के दूसरे सिर का भी सम्‍बन्‍ध मानना पड़ेगा । यदि इनकी पृथक् सिद्धि स्‍वीकार करते हो तो द्रव्‍यत्‍व का अलग से मानना निष्‍फल है । गुणों के समुदाय को द्रव्‍य कहते हैं यदि ऐसा मानते हो तो यहाँ भी गुणों का और समुदाय का भेद नहीं रहने पर पूर्वोक्‍त संज्ञा नहीं बन सकती है । यदि भेद माना जाता है तो द्रव्‍यत्‍व के सम्‍बन्‍ध से द्रव्‍य होता है इसमें जो दोष दे आये हैं वही दोष यहाँ भी प्राप्‍त होता है ।

    शंका – जो गुणों को प्राप्‍त हों या गुणों के द्वारा प्राप्‍त हों उन्‍हें द्रव्‍य कहते हैं, द्रव्‍य का इस प्रकार विग्रह करने पर वही दोष प्राप्‍त होता है ?

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद के बन जाने से द्रव्‍य इस संज्ञा की सिद्धि हो जाती है । गुण और द्रव्‍य ये एक दूसरे को छोड़कर नहीं पाये जाते, इसलिए तो इनमें अभेद है । तथा संज्ञा, लक्षण और प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद होने से इनमें भेद है । प्रकृत धर्मादिक द्रव्‍य बहुत हैं, इसलिए उनके साथ समानाधिकरण करने के अभिप्रायसे 'द्रव्‍याणि' इस प्रकार बहुवचनरूप निर्देश किया है ।

    शंका – जिस प्रकार यहाँ संख्‍या की अनुवृत्ति प्राप्‍त हुई है उसी प्रकार पुल्लिंग को भी अनुवृत्ति प्राप्‍त होती है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है; क्‍योंकि जिस शब्‍द का जो लिंग है वह कभी भी अपने लिंग का त्‍याग‍ करके अन्‍य लिंग के द्वारा व्‍यवहृत नहीं होता, इसलिए 'धर्मादयो द्रव्‍याणि भवन्ति' ऐसा सम्‍बन्‍ध यहाँ करना चाहिए ।

    अव्‍यवहित होने के कारण धर्मादिक चार को ही द्रव्‍य संज्ञा प्राप्‍त हुई, अत: अन्‍य का अध्‍यारोप करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं --

    राजवार्तिक :
    1. स्व और पर कारणों से होनेवाली उत्पाद और व्यय रूप पर्यायों को जो प्राप्त हो तथा पर्यायों से जो प्राप्त होता हो वह द्रव्य है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप बाह्य प्रत्यय पर हैं तथा अपनी स्वाभाविक शक्ति स्व-प्रत्यय है । बाह्य-प्रत्ययों के रहने पर भी यदि द्रव्य में स्वयं उस पर्याय की योग्यता न हो तो पर्यायान्तर उत्पन्न नहीं हो सकती । दोनों के मिलने पर ही पर्याय उत्पन्न होती है, जैसे पकने योग्य उड़द यदि बोरे में पड़ा हुआ है तो पाक नहीं हो सकता और यदि घोटक (न पकने योग्य) उड़द बटलोई में उबलते हुए पानी में भी डाला जाय तो भी नहीं पक सकता । यद्यपि पर्यायें या उत्पाद-व्यय उस द्रव्य से अभिन्न होते हैं तथापि कर्तृ और कर्म में भेद-विवक्षा करके 'द्रवति गच्छति' यह निर्देश बन जाता है । जिस समय द्रव्य को कर्मपर्यायों को कर्ता बनाते हैं तब कर्म में दुधातु से 'य' प्रत्यय हो ही जाता है, और जब द्रव्य को कर्ता मानते तब बहुलापेक्षया कर्ता में 'य' प्रत्यय हो जाता है । तात्पर्य यह कि उत्पाद और विनाश आदि अनेक पर्यायों के होते रहने पर भी जो सान्ततिक द्रव्यदृष्टि से गमन करता जाय वह द्रव्य है ।

    2. अथवा, द्रव्य शब्द को इवार्थक निपात मानना चाहिए । 'द्रव्यं भव्ये' इस जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्रानुसार 'द्रु' की तरह जो हो वह 'द्रव्य' यह समझ लेना चाहिए । जिस प्रकार बिना गांठ की सीधी द्रु-लकड़ी बढ़ई आदि के निमित्त से टेबिल कुरसी आदि अनेक आकारों को प्राप्त होती है उसी तरह द्रव्य भी उभयकारणों से उन-उन पर्यायों को प्राप्त होता रहता है । जैसे 'पाषाण खोदने से पानी निकलता है' यहाँ अविभक्तकर्तृक करण है उसी तरह द्रव्य और पर्याय में भी समझना चाहिए ।

    3. प्रश्न – जैसे दण्ड के सम्बन्ध से देवदत्त में दंडी व्यवहार और ज्ञान होता है उसी तरह द्रव्यत्व नाम के सामान्य पदार्थ के सम्बन्ध से पृथिवी आदि में 'द्रव्य' यह व्यवहार हो जायगा । इसी से वह गुण कर्म आदि से व्यावृत्त भी सिद्ध हो जाती है । अतः द्रव्यत्व के सम्बन्ध से ही द्रव्य मानना चाहिए न कि पर्यायों को प्राप्त होने से ।

    उत्तर – उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है । क्योंकि जिस प्रकार दंड के सम्बन्ध से पहिले देवदत्त अपनी जाति आदि से युक्त होकर प्रसिद्ध है और देवदत्त के सम्बन्ध के पहिले दंड अपने लक्षणों से प्रसिद्ध है उस तरह द्रव्यत्व के सम्बन्ध के पहिले न तो द्रव्य ही प्रसिद्ध है और न द्रव्यत्व ही । यदि द्रव्यत्व के सम्बन्ध के पहिले द्रव्य उपलब्ध हो तो द्रव्यत्व के सम्बन्ध की कल्पना ही व्यर्थ है । इस तरह दोनों जब सम्बन्ध से पहिले असत् हैं तब उनके सम्बन्ध की कल्पना ही नहीं हो सकती । अस्तित्व भी मान लिया जाय, पर जब उनमें पृथक्-पृथक् शक्ति नहीं है तब मिलकर भी स्व-प्रत्ययोत्पादन की शक्ति नहीं आ सकती । जैसे कि दो जन्मान्धों को एक साथ मिला देने पर भी दर्शन-शक्ति उत्पन्न नहीं होती, उसी तरह द्रव्य और द्रव्यत्व में जब द्रव्य-प्रत्यय और व्यवहार की शक्ति नहीं है तब दोनों के सम्बन्ध होने पर भी वह व्यवहार नहीं हो सकेगा । यदि द्रव्यत्व के सम्बन्ध के पहिले भी द्रव्य अपने में द्रव्य-व्यवहार करा सकता था तो द्रव्यत्व की कल्पना ही निरर्थक है । इसी तरह द्रव्यत्व भी द्रव्य-समवाय के पहिले द्रव्य-व्यवहार का निमित्त नहीं बन सकता । द्रव्यत्व के सम्बन्ध के पहिले यदि द्रव्य का 'सत्' स्वरूप भी होता तो द्रव्यत्व का सम्बन्ध मानना उचित होता किन्तु द्रव्य स्वतः सत् भी नहीं है, वह तो सत्ता के समवाय से 'सत्' होता है । यदि असत् में भी सत्तासमवाय माना जाता है तो खरविषाण में भी होना चाहिए । किंच, द्रव्यत्व सामान्य सर्वगत है, अतः यदि अतदात्मक द्रव्य में वह समवाय-सम्बन्ध से रहता है तो गुण और कर्म आदि में भी रहना चाहिए । यदि द्रव्य तदात्मक है अतः उसमें ही द्रव्यत्व का समवाय होता है, तो फिर द्रव्यत्व के समवाय की कल्पना ही निरर्थक है । यह कहना भी ठीक नहीं है कि द्रव्य चूँकि समवायिकारण है अतः द्रव्यत्व का समवाय उसी में होता है; गुण, कर्म या खरविषाण आदि में नहीं, क्योंकि द्रव्यत्व-सम्बन्ध के पहिले जब द्रव्य का कोई स्वरूप ही नहीं है तब किसे समवायिकारण कहा जाय ? यदि निःस्वरूप द्रव्य समवायिकारण हो सकता है तो खरविषाण आदि को भी होना चाहिए । असत् होने से खरविषाण यदि समवायिकारण नहीं हो सकता, तो असत्त्व तो द्रव्य में भी विद्यमान है । तात्पर्य यह कि जिस कारण द्रव्य ही समवायिकारण होता है गुण कर्म आदि नहीं, उसी कारण यह मानना होगा कि द्रव्य का निजस्वरूप ही द्रव्य का आत्मा है और उसी से द्रव्य-व्यवहार होता है । यह स्वरूप अनादि-पारिणामिक है । द्रव्य से बाहर का कोई द्रव्यत्व नाम का सामान्य-विशेष नहीं । यह समाधान भी उचित नहीं है कि - 'द्रव्य में एक विशेषता है जिसके कारण वही समवायिकारण होता है गुण कर्म आदि नहीं और इसीलिए द्रव्यत्व उसी में समवाय-सम्बन्ध से रहता है अन्य में नहीं । वह विशेषता है आधार होना । द्रव्य ही गुण कर्म आदि का आधार होता है; क्योंकि जब द्रव्य स्वतः 'सत्' भी नहीं है तब वह कैसे किसी का आधार हो सकता है ? स्वतः सिद्ध घड़ा ही जलादि का आधार होता है ।

    4. जो वादी द्रव्यत्व के योग से द्रव्य मानते हैं उनके यहाँ 'द्रव्य' यह व्यपदेश ही नहीं हो सकता । अभेद रूप से व्यपदेश मानने पर जैसे यष्टि के साहचर्य से पुरुष को 'यष्टि' कह देते हैं उस तरह तो द्रव्यत्व के सम्बन्ध से द्रव्य में 'द्रव्यत्व' व्यपदेश होगा न कि द्रव्य । यह समाधान ठीक नहीं है कि 'द्रव्यत्व का वाचक द्रव्यत्व शब्द के समान द्रव्य शब्द भी है अतः उसके सम्बन्ध से उसमें द्रव्य-व्यवहार हो जायगा'; क्योंकि यदि द्रव्यत्व की 'द्रव्य' यह संज्ञा स्वतः ही है तो द्रव्य को स्वतः मानने में क्या असन्तोष है ? उसकी भी 'द्रव्य' यह संज्ञा स्वतः मान लेनी चाहिए । यदि यह संज्ञा किसी अन्य पदार्थ के सम्बन्ध से है, तो वे ही दोष आते हैं । फिर यदि द्रव्यत्व के वाचक 'द्रव्यत्व और द्रव्य' ये दो शब्द हैं तो 'द्रव्य' व्यपदेश की तरह 'द्रव्यत्व' व्यपदेश भी होना चाहिए । यदि 'यष्टिमान्' की तरह भेदमूलक व्यपदेश मानते हो तो द्रव्य में 'द्रव्यत्ववान्' यह व्यपदेश होना चाहिए न कि 'द्रव्य' यह व्यपदेश । "जिस प्रकार शुक्ल-गुण के योग से 'शुक्लः पटः' इस प्रयोग में 'मतुप्' प्रत्यय का लोप होकर अभेदमूलक प्रयोग होता है उसी तरह यहाँ भी 'द्रव्य' यह प्रयोग हो जायगा" यह समाधान ठीक नहीं है, क्योंकि व्याकरण शास्त्र में गुणवाची शब्दों से 'मतुप'का लोप स्वीकार किया गया है । शुक्ल आदि शब्द द्रव्यवाची और गुणवाची दोनों प्रकार के होते हैं, किन्तु 'द्रव्यत्व' शब्द गुणवाची नहीं है अतः इससे 'मतुप्' की निवृत्ति नहीं हो सकती । इसी तरह 'त्व' की निवृत्ति भी व्याकरण-शास्त्र से सिद्ध नहीं है अतः 'द्रव्य' यह व्यपदेश नहीं हो सकता ।

    5. द्रव्य शब्द से भावार्थक 'त्व' प्रत्यय भी नहीं हो सकता; क्योंकि यदि भाव द्रव्य से अभिन्न आत्मभूत अनादि-पारिणामिक द्रव्यरूप ही है तो द्रव्य से द्रव्यत्व भिन्न नहीं हुआ । ऐसी दशा में 'द्रव्यत्व के समवाय' की कल्पना समाप्त हो जाती है । यदि भिन्न है तो वह द्रव्य का भाव नहीं कहा जा सकता । किंच, जिस प्रकार द्रव्य का भाव द्रव्यत्व माना जाता है उसी तरह द्रव्यत्व का अन्य भाव यदि है तो 'द्रव्यत्वत्व' का प्रसंग होने पर अनवस्था हो जायगी । यदि नहीं है तो स्वभावशून्य होने से अभाव हो जायगा । जिस प्रकार 'अवेर्मासम्' या 'अविकस्य मांसम्' दोनों विग्रहों में 'अवि' शब्द से ही प्रत्यय होता है उस तरह 'द्रव्यस्य भावः' और 'द्रव्यत्वस्य भावः' दोनों विग्रहों में द्रव्य शब्द से ही त्व-प्रत्यय नहीं हो सकता क्योकि जिस प्रकार अवि और अविक शब्द एकार्थक हैं उस प्रकार द्रव्य और द्रव्यत्व दोनों शब्द एकार्थक नहीं हैं । यहाँ विग्रह-भेद से अर्थभेद का होना अवश्यम्भावी है ।

    6-8. यदि द्रव्यत्व नित्य एक और निरवयव है तो वह अनेक पृथिवी आदि में कैसे रह सकता है ? यदि रहता है तो रूपादि की तरह अनेक ही हो जायगा । आकाश महापरिमाणवाला है अतः उसका एक साथ अनेक द्रव्यों को व्याप्त करना बन जाता है, परन्तु द्रव्यत्व नामक सामान्य में यह बात नहीं है क्योंकि महापरिमाण गुण द्रव्य में ही रहता है, सामान्य में नहीं । एकत्व संख्या की तरह इसमें उपचार से महत्त्व स्वीकार करके निर्वाह करना उचित नहीं है क्योंकि उपचरित पदार्थ मुख्य कार्य नहीं कर सकता । आकाश तो अनन्त प्रदेशवाला है अतः प्रदेशभेद से युगपत् अनेक जगह वृत्ति बन जाती है, पर द्रव्यत्व में यह बात नहीं है । अनेक कपड़ों में रंगा गया नील द्रव्य एक नहीं है वह तो न केवल प्रत्येक कपड़े में जुदा-जुदा है किन्तु एक कपड़े के हिस्सों में भी जुदा-जुदा है । जिसप्रकार अग्नि की उष्णता सिद्ध करने के लिए अन्य दृष्टान्त नहीं है, फिर भी स्वभाव से अग्नि उष्ण है उसी तरह 'एक की अनेक जगह वृत्ति मानने में दृष्टान्त न मिलने पर भी वह स्वभावतः सिद्ध हो जायगी' यह तर्क असङ्गत है; क्योंकि 'दृष्टान्त के अभाव में भी साध्य सिद्ध होता है' । इस प्रतिज्ञा की सिद्धि में आपने स्वयं दृष्टान्त उपस्थित किया है अतः स्ववचन विरोध है । यदि युक्तियों के अभाव में भी द्रव्यत्व को अनेकसम्बन्धी मानते हो तो द्रव्य को ही स्वतः द्रव्य क्यों नहीं मान लेते ? समवाय का खंडन तो पहिले किया जा चुका है ।

    9-12. 'गुणसन्द्राव अर्थात् जो गुणों को प्राप्त हो या गुणों के द्वारा प्राप्त हो वह द्रव्य है ।' यह मत भी ठीक नहीं है, क्योंकि सर्वथा एकान्त पक्ष में अनेक दोष आते हैं । गुणों से यदि द्रव्य को अभिन्न माना जाता है तो कर्ता और कर्म रूप से भिन्न निर्देश नहीं हो सकेगा । अभेद पक्ष में या तो गुण ही रह जायेंगे या फिर द्रव्य ही । यदि गुण ही रहते हैं, तो निराश्रय गुणों का अभाव ही हो जायगा । यदि द्रव्य रहता है, तो बिना लक्षण या स्वभाव के उसका कोई अस्तित्व नहीं रह सकेगा । यदि भिन्न मानते हैं तो भी दोनों का निःस्वरूप होने से अभाव ही हो जायगा । गुण तो निष्क्रिय होते हैं अतः उनका द्रव्य के प्रति अभिद्रवण (गमन) भी नहीं हो सकता । वैशेषिक सूत्र में लिखा ही है कि "दिशा काल और आकाश क्रियावालों से विलक्षण होने के कारण निष्क्रिय हैं । कर्म और गुण भी" इसी तरह निष्क्रिय द्रव्य भी गुणों की तरफ गमन नहीं कर सकते । अतः 'संद्रवति' यह लक्षण भी ठीक नहीं है । जैसे अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखनेवाले ग्राम को स्वतःसिद्ध देवदत्त प्राप्त होता है, उस तरह यहाँ गुण स्वतन्त्र सत्तावाले नहीं हैं जिससे द्रव्य उन्हें प्राप्त हो । 'पार्थिव परमाणुओं में अग्निसंयोग से श्याम रूप आदि का विनाश होकर लाल रूप उत्पन्न होता है, अतः यहाँ गुणों को द्रव्य प्राप्त होता ही है' यह तर्क भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि द्रव्य ठहरता है और रूपादि नष्ट होते और उत्पन्न होते हैं तो रूपादि गुण और द्रव्यों में भेद हो जायगा । यदि इनका समवाय मानकर इन्हें अयुतसिद्ध स्वीकर किया जाता है तो द्रव्य की तरह रूपादिगुण भी नित्य हो जायगा । अयुतसिद्धि तो तभी हो सकती है जब द्रव्य के काल में रूपादि सदा विद्यमान रहें । इस तरह या तो रूपादि की तरह द्रव्य अनित्य हो जायगा या फिर द्रव्य की तरह रूपादि नित्य हो जायेंगे । जिस प्रकार जो पंडित है वह मूर्ख नहीं तथा जो मूर्ख है यह पंडित नहीं क्योंकि दोनों में परस्पर विरोध है, उसी तरह यदि समवाय के कारण द्रव्य से रूपादि अयुतसिद्ध होंगे तो वे द्रव्य की तरह न तो उत्पन्न ही होंगे और न विनष्ट ही । यदि ये विनष्ट भी होंगे तथा उत्पन्न भी होंगे और द्रव्य स्थिर रहेगा तो मानना होगा कि वे अयुतसिद्ध नहीं हैं । यदि गुण और द्रव्य पृथक हैं तो गुणों के द्वारा द्रव्य का नियत प्राप्त होना उसी तरह असंभव है जिस तरह कि घट के द्वारा पट का । "भेद में ही अग्नि और धूम की तरह उपलभ्य-उपलम्भक भाव होता है अभेद में नहीं; क्योंकि स्वात्मा में वृत्ति का विरोध है, वही अंगुली का अग्रभाग अपने आपको नहीं छू सकता । इसी तरह 'द्रव्य और गुण में अभेद मानने पर वृत्ति नहीं बन सकती" यह तर्क ठीक नहीं है, क्योंकि 'प्रदीप अपने स्वरूप को प्रकाशित करता है' यहाँ स्वात्मा में ही प्रकाशन क्रिया देखी गई है । वह स्वरूप-प्रकाशन में अन्य प्रदीप की आवश्यकता नहीं रखता । हम पूछते हैं कि इस मत के उपदेष्टा अपने स्वरूप को जानते हैं या नहीं ? यदि नहीं जानते हैं; तो शास्त्र-विरोध और स्ववचन-विरोध होता है । वैशेषिक दर्शन में बताया है कि "आत्मा और मन का संयोग विशेष से आत्मप्रत्यक्ष होता है" । असर्वज्ञता का भी प्रसंग आता है, क्योंकि जो अपनी आत्मा को ही नहीं जानता वह इतर पदार्थों को कैसे जान सकता है ? यदि स्वरूप को जानता है; तो 'स्वात्मा में वृत्ति का विरोध है' यह मत खंडित हो जाता है । अतः द्रव्यात्मक ही पर्याय स्वीकार करना चाहिए । जो गुण-समुदायमात्र द्रव्य स्वीकार करते हैं उनके यहाँ भी 'गुणसन्द्रावो द्रव्यम्' यह द्रव्य का लक्षण नहीं बनता; क्योंकि इनके मत में भी कर्ता और कर्म का भेद नहीं होता । गुण-समुदायमात्रवादी के न तो गुण पृथक् हैं और न समुदाय ही, जिससे कर्तृकर्मभाव बनाया जा सके। 'दीपक अपने स्वरूप को प्रकाशित करता है' यहाँ भी भासुर रूप और द्रव्य में कथञ्चित् भेद मानकर ही कर्तृकर्मभाव प्रयुक्त हुआ है । यदि सर्वथा अभेद ही होता तो सभी द्रव्य भासुररूपवाले हो जाते और भासुरद्रव्य सदा भासुररूपवाला ही बना रहता, परन्तु उसमें कालापन भी आ जाता है । फिर जब गुण पृथक उपलब्ध नहीं होते तब समुदाय की कल्पना करना उचित नहीं है । गुण का अर्थ है विशेषण । गुणी-विशेष्य के बिना गुणों में गुणत्व ही कैसे आ सकता है ? समुदाय गुणों से यदि अभिन्न है; तो या तो समुदाय रहेगा या गुण । यदि भिन्न है; तो 'यह गुणों का समुदाय है' यह व्यवहार ही नहीं हो सकेगा । यदि अवक्तव्य है, तो 'अवक्तव्य' शब्द से भी उसका कथन नहीं हो सकेगा । यदि समुदाय है तो अवक्तव्य नहीं हो सकता और यदि अवक्तव्य है तो समुदाय नहीं हो सकता, क्योंकि विद्यमान अर्थ की ही संज्ञा होती है, अवक्तव्य तो सर्ववचनों के अगोचर होने से निःस्वरूप ही है । यदि गुण वक्तव्य है और समुदाय अवक्तव्य है तो दोनों में लक्षणभेद होने से भेद हो जायगा । यदि त्र्यणुक आदि स्कन्धों को रूपादिपरमाणु का मात्र समुदाय माना जाता है और उस अवस्था में किसी नई पर्याय का उत्पाद नहीं होता, तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि परमाणुओं की अतीन्द्रियता समुदाय में भी बनी रहती है तब स्कन्धों को दृश्य नहीं होना चाहिए । और यदि स्कन्ध-प्रतीति को भ्रान्त माना जाता है तो प्रत्यक्ष और प्रत्यक्षाभास तथा अनुमान और अनुमानाभास में कोई भेद नहीं रह जायगा । इनमें भेद बाह्यार्थ की प्राप्ति और अप्राप्ति से ही पड़ता है ।

    एकान्तवादियों के मत में 'द्रव्यं भव्ये' यह लक्षण भी नहीं बनता; क्योंकि जब द्रव्य ही असिद्ध है तब उसमें भव्य-होने योग्य की कल्पना ही नहीं हो सकती । गुण कर्म और सामान्य आदि से जब द्रव्य सर्वथा भिन्न है तब वह खर-विषाण की तरह स्वयं असत् होने से भवन-क्रिया का कर्ता नहीं हो सकता । जो स्वयं असिद्ध है उसमें समवाय-सम्बन्ध के कारण स्वरूप-कल्पना करना भी संभव नहीं है । गुणसमुदाय पक्ष में चूँकि समुदाय काल्पनिक है और गुणों का पृथक कोई स्वरूप उपलब्ध नहीं होता अतः उभयथा असत् पदार्थ भवन-क्रिया का कर्ता नहीं बन सकता । अनेकान्तवादी के मत में तो द्रव्य और पर्याय में कथञ्चित् भेद होने से 'गुणसन्द्रावो द्रव्यम्' और 'द्रव्यं भव्ये' ये दोनों लक्षण बन जाते हैं ।

    13-14. 'द्रव्याणि' में बहुवचन धर्माधर्मादि बहुत के सामानाधिकरण्य के लिए दिया है । सामानाधिकरण्य होने पर भी चूँकि 'द्रव्य' शब्द नित्य नपुंसकलिंग है अतः पहिले सूत्र में निर्दिष्ट धर्माधर्मादि के समान उसमें पुल्लिंग का प्रयोग नहीं हुआ है ।

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    + जीव भी द्रव्य -
    जीवाश्च ॥3॥
    अन्वयार्थ : जीव भी द्रव्य है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    जीव शब्‍द का व्‍याख्‍यान कर आये । सूत्र में जो बहुवचन दिया है वह जीव-द्रव्‍य के कहे गये भेदों के दिखलाने के लिए दिया है । 'च' शब्‍द द्रव्‍य संज्ञा के खींचने के लिए दिया है जिससे 'जीव भी द्रव्‍य है' यह अर्थ फलित हो जाता है । इस प्रकार ये पाँच आगे कहे जानेवाले काल के साथ छह द्रव्‍य होते हैं ।

    शंका – आगे 'गुणपर्ययवद् द्रव्‍यम्' इस सूत्र-द्वारा द्रव्‍य का लक्षण कहेंगे; अत: लक्षण के सम्‍बन्‍ध से धर्मादिक को 'द्रव्‍य' संज्ञा प्राप्‍त हो जाती है फिर यहाँ उनकी अलग से गिनती करने का कोई कारण नहीं ?

    समाधान – गिनती निश्‍चय करने के लिए की है । इससे अन्‍यवादियों के द्वारा माने गये पृथिवी आदि द्रव्‍यों का निराकरण हो जाता है ।

    शंका – कैसे ?

    समाधान – पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और मन इनका पुद्गल द्रव्‍य में अन्‍तर्भाव हो जाता है; क्‍योंकि ये रूप, रस, गन्‍ध और स्‍पर्शवाले होते है।

    शंका – वायु और मन में रूपादिक नहीं हैं ?

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि वायु रूपादिवाला है, स्‍पर्शवाला होने से, घट के समान । इस अनुमान के द्वारा वायु में रूपादिक की सिद्धि होती है ।

    शंका – चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा वायु का ग्रहण नहीं होता, इसलिए उसमें रूपादिक का अभाव है ?

    समाधान – नहीं; क्‍योंकि इस प्रकार मानने पर परमाणु आदि में अतिप्रसंग दोष आता है । अर्थात् परमाणु आदि को भी चक्षु आदि इंन्द्रियाँ नहीं ग्रहण करतीं, इसलिए उनमें भी रूपादिक का अभाव मानना पड़ेगा । इसी प्रकार जल गन्‍धवाला है, स्‍पर्शवाला होने से, पृथिवी के समान । अग्नि भी रस और गन्‍धवाली है, रूपवाली होने से, पृथिवी के समान ।

    मन भी दो प्रकार का है -- द्रव्‍यमन और भावमन । उनमें-से भावमन ज्ञानस्‍वरूप है और ज्ञान जीव का गुण है, इसलिए इसका आत्‍मा में अन्‍तर्भाव होता है । तथा द्रव्‍यमन में रूपादिक पाये जाते हैं, अत: पुद्गलद्रव्‍य की पर्याय है । यथा - मन रूपादिवाला है, ज्ञानोपयोग का करण होने से, चक्षु इन्द्रिय के समान ।

    शंका – शब्‍द अमूर्त होते हुए भी उसमें ज्ञानोपयोग की करणता देखी जाती है, अत: मन को रूपादिवाला सिद्ध करने के लिए जो हेतु दिया है वह व्‍यभिचारी है ?

    समाधान – नहीं; क्‍योंकि शब्‍द पौद्गलिक है, अत: उसमें मूर्तपना बन जाता है ।

    शंका – जिस प्रकार परमाणुओं के रूपादि गुणवाले कार्य नहीं देखे जाते हैं अत: वे रूपादिवाले सिद्ध होते हैं उस प्रकार वायु और मन के रूपादि गुणवाले कार्य नहीं दिखाई देते ?

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि वायु और मन के भी रूपादि गुणवाले कार्य सिद्ध हो जाते हैं; क्‍योंकि सब परमाणुओं में सब रूपादि गुणवाले कार्यों के होने की योग्‍यता मानी है । कोई पार्थिव आदि भिन्‍न-भिन्‍न जाति के अलग-अलग परमाणु हैं, यह बात नहीं है; क्‍योंकि जाति का संकर होकर सब कार्यों का आरम्‍भ देखा जाता है । इसी प्रकार दिशा का भी आकाश में अन्‍तर्भाव होता है, क्‍योंकि सूर्य के उदयादिक की अपेक्षा आकाश प्रदेशपंक्तियों में यहाँ से यह दिशा है इस प्रकार के व्‍यवहार की उत्‍पत्ति होती है ।

    अब उक्‍त द्रव्‍यों के विशेष का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-2. 'जीवत्व नामक अपरसामान्य के सम्बन्ध से जीव हैं, स्वतःसिद्ध नहीं' यह वैशेषिक का मत ठीक नहीं है क्योंकि द्रव्यत्व के सम्बन्ध से द्रव्य मानने में जो दोष दिये हैं वे 'सब यहाँ लागू हो जाते हैं। यदि जीवमें 'जीवत्व' के सम्बन्ध से जीव प्रत्यय होता है तो 'जीवत्व' में अन्य 'जीवत्वत्व' के सम्बन्ध से प्रत्यय मानने पर अनवस्था दूषण होता है । यदि इस अनवस्था दोष के भय से 'जीवत्व' को स्वतःसिद्ध मानते हो तो 'अर्थान्तर के संसर्ग से प्रत्यय होता है । इस प्रतिज्ञा की हानि हो जायगी । अतः जिस प्रकार जीवत्व स्वतःसिद्ध है उसी तरह जीव को भी स्वतःसिद्ध मान लेना चाहिए । प्रदीप की तरह 'जीवत्व' में स्वतः प्रत्यय मानना उचित नहीं है; क्योंकि उसी तरह जीव में भी स्वतःप्रत्यय मानने में कोई बाधा नहीं है । 'चूंकि जीव और जीवत्व दोनों भिन्न पदार्थ हैं अतः उनमें समानता नहीं लाई जा सकती' यह तर्क उचित नहीं है । क्योंकि जीव और जीवत्व भिन्न पदार्थ ही नहीं हैं । फिर आपके मत से तो दूसरे पदार्थ का धर्म दूसरे पदार्थ में आ ही जाता है जैसे कि सत्ता का 'सत्प्रययहेतुत्व' धर्म द्रव्य, गुण और कर्म में आता है । यदि सत्ता का सम्बन्ध होने पर भी द्रव्यादि में सत्प्रत्ययहेतुता नहीं है किन्तु सत्ता में ही है तो फिर द्रव्यादि को खरविषाण की तरह 'सत्' ही नहीं कह सकेंगे । अतः जीवनक्रिया से उपलक्षित द्रव्य विशेष में 'जीव' यह संज्ञा अनादिपारिणामिकी और स्वभावभूत है ।

    3. यद्यपि आगे 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' इस सूत्रगत द्रव्यलक्षण से ही धर्मादि में द्रव्यता सिद्ध थी, फिर भी यहाँ द्रव्यों की गिनती नियम के लिए की है । धर्म अधर्म आकाश पुदल और जीव काल के साथ मिलकर छह द्रव्य होते हैं अतिरिक्त द्रव्य नहीं हैं । अतः अन्य मतवालों ने जो द्रव्य-संख्याएँ मानी हैं उनकी निवृत्ति हो जाती है । वैशेषिक नव द्रव्यवादी हैं । उनका इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है । पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और मन, रूप, रस गन्ध और स्पर्शवाले होने से पुद्गल द्रव्य में अन्तर्भूत हैं । वायु रूपवाली है क्योंकि उसमें घट आदि की तरह स्पर्श पाया जाता है । चक्षु के द्वारा न दिखने के कारण रूप का अभाव नहीं किया जा सकता, अन्यथा परमाणु आदि का भी अभाव हो जायगा । मन दो प्रकार का है - द्रव्यमन और भावमन । भावमन ज्ञानरूप है, वह जीव का गुण होने से आत्मा में अन्तर्भूत है ।

    द्रव्यमन रूपादिवाला होने से पौगलिक है । परमाणु आदि अतीन्द्रिय पदार्थ रूपादिवाले होकर भी आँखों से नहीं दिखते अतः न दिखने मात्र से मन में रूपादि वस्तु का अभाव नहीं किया जा सकता । 'मन ज्ञानोपयोग का करण होने से रूपादिवाला है चक्षु इन्द्रिय की तरह' इस अनुमान से मन में रूपादि का सद्भाव सिद्ध होता है । शब्द भी पौद्गलिक होने से मूर्तिक है । वायु और मन के पुद्गल-परमाणुओं में भी स्कन्ध होने की योग्यता है, अतः वे भी स्कन्ध बनते हैं । पार्थिव और जलीय आदि रूप से परमाणुओं में जातिभेद नहीं है, क्योंकि पार्थिव चन्द्रकान्तमणि से जल की, जल से पार्थिव मोती आदि की जाति-संकररूप से उत्पत्ति देखी जाती है । दिशा का भी आकाश में अन्तर्भाव हो जाता है, सूर्योदय आदि की अपेक्षा आकाश के प्रदेशों में ही 'यह इससे पूर्व है' आदि दिग्व्यवहार हो जाता है ।

    4. जीवों की अनन्तता और विविधता सूचन करने के लिए 'जीवाश्च' यहाँ बहुवचन का प्रयोग किया है । संसारी जीव गति आदि चौदह मार्गणास्थान, मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थान, सूक्ष्म बादर आदि चौदह जीवस्थानों के विकल्प से अनेक प्रकार के हैं । मुक्त जीव भी एक, दो, तीन, संख्यात, असंख्यात, समयसिद्ध, शरीराकार, अवगाहना आदि के भेद से अनेक प्रकार के हैं ।

    5-8. यदि 'द्रव्याणि जीवाः' ऐसा इकट्ठा एक सूत्र बनाते तो च शब्द न देने के कारण लघुसूत्र तो होता परन्तु इससे जीव ही द्रव्य कहे जा सकते धर्मादि नहीं । 'द्रव्याणि' में जो बहुवचन है वह तो अनेक प्रकार के जीवों के सामानाधिकरण्य के लिए ही सार्थक हो जाता है उससे धर्मादि में द्रव्यता सिद्ध नहीं हो पायगी । यद्यपि 'अजीवकायाः' इस सूत्र से अजीवाधिकार चल रहा है परन्तु जब 'द्रव्याणि जीवाः' एक सूत्र बना दिया जाता तो स्वभावतः जीवों में ही द्रव्यता फलित होगी अजीवों में नहीं । अधिकार रहने पर भी जब तक उस प्रकार का प्रयत्न न किया जाय तबतक अजीवों में द्रव्यरूपता बन ही नहीं सकती । अतः पृथक् सूत्र बनाना उचित है इसीलिए 'च' शब्द भी सार्थक है ।

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    + द्रव्यों के बारे में विशेष -
    नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥4॥
    अन्वयार्थ : (ऊपर कहे हुए सभी द्रव्य) नित्य (अविनाशी) है, अवस्थित (संख्या निश्चित है), अन्यरूपाणि (चक्षु इन्द्रिय से देखे नहीं जा सकते / अरूपी) हैं ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    नित्‍य शब्‍द का अर्थ ध्रुव है । 'नेर्ध्रुवेत्‍य:', इस वार्तिक के अनुसार 'नि' शब्‍द से ध्रुव अर्थ में 'त्‍य' प्रत्‍यय लगाकर नित्‍य शब्‍द बना है । पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा गतिहेतुत्‍व आदि रूप विशेष लक्षणों को ग्रहण करनेवाले और द्रव्‍यार्थिक-नय की अपेक्षा अस्तित्‍व आदि रूप सामान्‍य लक्षण को ग्रहण करनेवाले ये छहों द्रव्‍य कभी भी विनाश को प्राप्‍त नहीं होते, इसलिए नित्‍य हैं । 'तदभावाव्‍ययं नित्‍यम्' इस सू्त्र द्वारा यही बात आगे कहनेवाले भी हैं । व्‍यभिचार नहीं होता, इसलिए ये अवस्थित हैं । धर्मादिक छहों द्रव्‍य कभी भी छह इस संख्‍या का उल्‍लंघन नहीं करते, इसलिए ये अवस्थित कहे जाते हैं । इनमें रूप नहीं पाया जाता इसलिए अरूपी हैं । यहाँ केवल रूप का निषेध किया है, किन्‍तु रसादिक उसके सहचारी हैं अत: उनका भी निषेध हो जाता है । जिस प्रकार सब द्रव्‍यों का नित्‍य और अवस्थित यह साधारण लक्षण प्राप्‍त होता है उसी प्रकार पुद्गलों में अरूपीपना भी प्राप्‍त होता है, अत: इसका अपवाद करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं --

    राजवार्तिक :
    1-2. नित्यशब्द का अर्थ है ध्रौव्य । द्रव्य जिन-जिन गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व आदि विशेष-लक्षणों तथा अस्तित्व आदि सामान्य-लक्षणों से युक्त है उन-उन स्वभावों का कभी भी विनाश नहीं होता । इसी तद्भावाव्यय को नित्य कहते हैं ।

    3-5. धर्मादि द्रव्य कभी भी अपनी छह संख्या को नहीं छोड़ते, न तो सात होते हैं और न पाँच, इसीलिए ये अवस्थित हैं । अथवा धर्माधर्मादिद्रव्यों के जितने प्रदेश बताये गये हैं उनमें न्यूनाधिकता नहीं होती । धर्मादि द्रव्यों के गत्युपग्रह, स्थित्युपग्रह, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, मूर्तिमत्त्व, और अमूर्तत्व आदि अनेक परिणमन होते हैं, अतः नित्य के बाद भी अवस्थित का कथन करने से यह सूचित होता है कि अनेकपरिणमन होनेपर भी कभी भी धर्मादिक में मूर्तत्व या चेतनत्व नहीं आ सकता, न जीवों में अचेतनत्व और न पुद्गलों में अमूर्तत्व आदि । इन धर्मादिक द्रव्यों में द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय की गौण-मुख्य विवक्षा से ये अनेक परिणमन बन जाते हैं । इनमें कोई विरोध नहीं आता ।

    6-7. अथवा, नित्य' शब्द अवस्थित का विशेषण है । जैसे गमन शयन आदि अनेक क्रियाओं के करते रहनेपर भी सतत प्रजल्प (बकवास) करने के कारण देवदत्त में 'नित्यप्रजल्पित' व्यवहार कर दिया जाता है; उसी तरह बाह्य और आभ्यन्तर कारणों से उत्पाद-व्यय होनेपर भी धर्मादि द्रव्य कभी भी अपने अमूर्तत्व स्वभाव को नहीं छोड़ते अतः इन्हें नित्यावस्थित कहते हैं । परिस्पन्द रूप क्रिया की निवृत्ति के लिए अवस्थित पद की सार्थकता नहीं है क्योंकि आगे इस क्रिया की निवृत्ति के लिए 'निष्क्रियाणि' सूत्र कहा जानेवाला है ।

    8. 'अरूप' पद रूप और स्पर्शादि का निषेध करके 'अमूर्तत्व' स्वभाव की सूचना देता है ।

    9. वृत्ति में "धर्मादिद्रव्य अवस्थित हैं, वे कभी भी अपनी पाँच संख्या को नहीं छोड़ते" यह कथन होने से षड्द्रव्योपदेश का व्याघात नहीं होता; क्योंकि वृत्ति में 'कालश्च' सूत्र से निर्दिष्ट होनेवाले कालद्रव्य को अपेक्षा न करके 'पाँच' का निर्देश किया है ।

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    + रूपी द्रव्य -
    रूपिण: पुद्गला: ॥5॥
    अन्वयार्थ : पुद्गल द्रव्य रूपी (मूर्तिक) है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    रूप और मूर्ति इनका एक अर्थ है ।

    शंका – मूर्ति किसे कहते हैं ?

    समाधान – रूपादिसंस्‍थान के परिणाम को मूर्ति कहते हैं । जिनके रूप पाया जाता है वे रूपी कहलाते हैं । इसका अर्थ मूर्तिमान् है । अथवा, रूप यह गुणविशेष का वाची शब्‍द है । वह जिनके पाया जाता है वे रूपी कहलाते हैं ।

    शंका – यहाँ रसादिक का ग्रहण नहीं किया है ?

    समाधान – नहीं; क्‍योंकि रसादिक रूप के अविनाभावी हैं, इसलिए उनका अन्‍तर्भाव हो जाता है ।

    पुद्गलों के भेदों का कथन करने के लिए सूत्र में 'पुद्गला:' यह बहुवचन दिया है । स्‍कन्‍ध और परमाणु के भेद से पुद्गल अनेक प्रकार के हैं । पुद्गल के ये सब भेद आगे कहेंगे । यदि पुद्गल को प्रधान के समान एक और अरूपी माना जाय तो जो विश्‍वरूप कार्य दिखाई देता है उसके होने में विरोध आता है ।

    पुद्गल द्रव्‍य के समान क्‍या धर्मादिक प्रत्‍येक द्रव्‍य भी अनेक हैं ? अब इस बात का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं --

    राजवार्तिक :
    1. यद्यपि रूप शब्द के स्वभाव, अभ्यास, श्रुति, महाभूत, गुणविशेष और मूर्ति आदि अनेक अर्थ हैं परन्तु यहाँ शास्त्रानुसार 'मूर्ति' अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।

    2. रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श तथा गोल, त्रिकोण, चौकोण, लंबा-चौड़ा आदि आकृतियों रूप परिणमन को मूर्ति कहते हैं ।

    3-6. अथवा, रूप शब्द से आँख के द्वारा ग्रहण होनेवाला रूप नाम का गुणविशेष लेना चाहिए । रस, गन्ध आदि रूप के अविनाभावी हैं अतः रूप के कहने से उनका ग्रहण हो जाता है । यद्यपि पुद्गलद्रव्य से रूप भिन्न नहीं है क्योंकि द्रव्य को छोड़कर पृथक् उसकी उपलब्धि नहीं होती, तो भी पर्यायार्थिकनय की दृष्टि से कथञ्चित् भेद है ही । पुदल-द्रव्य स्थिर रहता है पर रूपादि उत्पन्न होते और नष्ट होते हैं, द्रव्य अनादि है रूपादि आदिमान, द्रव्य अन्वयी होता है और रूपादि व्यतिरेकी, अतः भेद-विवक्षा से 'रूपी' यहाँ 'इन्' प्रत्यय हो जाता है ।

    फिर, अभेद में भी 'मतुप्' आदि प्रत्ययों के द्वारा भेदपरक निर्देश भी देखा जाता है जैसे कि 'आत्मवान् आत्मा', 'सारवान् स्तम्भः' यहाँ । यहाँ आत्मा से भिन्न कोई आत्मत्व या स्तम्भ को छोडकर अन्य सार नहीं पाया जाता । उसी तरह 'रूपिणः' यह निर्देश अभेद में भी बन जाता है ।

    7. परमाणु और स्कन्ध आदि के भेद से अनेक प्रकार के पुदल-द्रव्यों की सूचना देने के लिए 'पुद्गलाः' यहाँ बहुवचन दिया है ।

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    + द्रव्यों में संख्या -
    आ आकाशादेक-द्रव्याणि ॥6॥
    अन्वयार्थ : आकाशपर्यन्त सभी द्रव्य (धर्म, अधर्म और आकाश) १-१ हैं ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    इस सूत्र में 'आङ' अभिविधि अर्थ में आया है । सूत्र सम्‍बन्‍धी आनुपूर्वी का अनुसरण करके यह कहा है । इससे धर्म, अधर्म और आकाश इन तीन का ग्रहण होता है । एक शब्‍द संख्‍यावाची है और वह द्रव्‍य का विशेषण है । तात्‍पर्य यह है कि धर्म, अधर्म और आकाश ये एक-एक द्रव्‍य हैं ।

    शंका – यदि ऐसा है तो सूत्र में 'एकद्रव्‍याणि' इस प्रकार बहुवचन का प्रकार करना अयुक्‍त है ?

    समाधान – धर्मादिक द्रव्‍यों की अपेक्षा बहुवचन बन जाता है ।

    शंका – एक में अनेक के ज्ञान कराने की शक्ति होती है, इसलिए 'एकद्रव्‍याणि' के स्‍थान में 'एकैकम्' इतना ही रहा आवे । इससे सूत्र छोटा हो जाता है । तथा 'द्रव्‍य' पद का ग्रहण करना भी निष्‍फल है ?

    समाधान – ये धर्मादिक द्रव्‍य की अपेक्षा एक है इस बात के बतलाने के लिए सूत्र में 'द्रव्‍य' पद का ग्रहण किया है । तात्‍पर्य यह है कि यदि सूत्र में 'एकैकम्' इतना ही कहा जाता तो यह नहीं मालूम पड़ता कि ये धर्मादिक द्रव्‍य द्रव्‍य, क्षेत्र, काल और भाव इनमें-से किसकी अपेक्षा एक हैं, अत: सन्‍देह के निवारण करने के लिए 'एकद्रव्‍याणि' पद रखा है । इनमें से धर्म और अधर्म द्रव्‍य के क्षेत्र की अपेक्षा असंख्‍यात विकल्‍प इष्‍ट होने से और भाव की अपेक्षा अनन्‍त विकल्‍प इष्‍ट होने से तथा आकाश के क्षेत्र और भाव दोनों की अपेक्षा अनन्‍त विकल्‍प इष्‍ट होने से ये जीव और पुद्गलों के समान बहुत नहीं हैं इस प्रकार यह बात इस सूत्र में दिखायी गयी है ।

    अब अधिकार प्राप्‍त उन्‍हीं एक-एक द्रव्‍यों का विशेष ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं --

    राजवार्तिक :
    1. 'आ' का प्रयोग अभिविधि अर्थात् अभिव्याप्ति के अर्थ में किया गया है, इससे आकाश का भी ग्रहण हो जाता है । यदि मर्यादा अर्थ में होता तो आकाश से पहिले पहिले के द्रव्यों का ग्रहण होता, आकाश का नहीं ।

    2-3 एक शब्द संख्यावाची है । चूंकि धर्म, अधर्म और आकाश तीन द्रव्यों के एक-एकपने का निर्देश करना है, अतः सूत्र में द्रव्य शब्द का बहुवचन के रूप में निर्देश किया है ।

    4-6. प्रश्न – 'आ आकाशादेकैकम्' ऐसा लघुसूत्र बनाने से भी कार्य चल सकता है, द्रव्य तो प्रसिद्ध ही है, अतः द्रव्य का अन्वय हो ही जायगा, फिर सूत्र में द्रव्यपद निरर्थक है ?

    उत्तर – केवल 'एकैकम्' कहने से यह पता नहीं चलता कि ये किस अपेक्षा एक कहे जा रहे हैं - द्रव्य, क्षेत्र, काल या भाव से ? अतः असन्दिग्ध रूप से 'द्रव्य की अपेक्षा' का सूचन करने के लिए 'द्रव्य' पद देना सार्थक ही है । अतः गति, स्थिति आदि परिणामवाले विविध जीव पुद्गलों की गति आदि में निमित्त होने से भाव की अपेक्षा, प्रदेशभेद से क्षेत्र की अपेक्षा, तथा कालभेद से काल की अपेक्षा अनेकत्व होनेपर भी धर्मादि एक-एक ही द्रव्य हैं जीव और पुद्गल आदि की तरह अनेक नहीं हैं । यदि जीव और पुदलों को एक-एक द्रव्य माना जायगा तो क्रियाकारक का भेद, संसार और मोक्ष आदि नहीं हो सकेंगे ।

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    + क्रिया -
    निष्क्रियाणि च ॥7॥
    अन्वयार्थ : और (धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य) निष्क्रिय (क्रियारहित) हैं ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    अन्‍तरंग और बहिरंग निमित्त से उत्‍पन्‍न होनेवाली जो पर्याय द्रव्‍य के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में प्राप्‍त कराने का कारण है वह क्रिया कहलाती है और जो इस प्रकार की क्रिया से रहित हैं वे निष्क्रिय कहलाते हैं ।

    शंका – यदि धर्मादिक द्रव्‍य निष्क्रिय हैं तो उनका उत्‍पाद नहीं बन सकता, क्‍योंकि घटादिक का क्रियापूर्वक ही उत्‍पाद देखा जाता है । और उत्‍पाद नहीं बनने से उनका व्‍यय नहीं बनता । अत: सब द्रव्‍य उत्‍पाद आदि तीन रूप होते हैं इस कल्‍पना का व्‍याघात हो जाता है ?

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि इनमें उत्‍पाद आदिक तीन अन्‍य प्रकार से बन जाते हैं । यद्यपि इन धर्मादिक द्रव्‍यों में क्रिया-निमित्तक उत्‍पाद नहीं है तो भी इनमें अन्‍य प्रकार से उत्‍पाद माना गया है । यथा - उत्‍पाद दो प्रकार का है, स्‍वनिमित्तक उत्‍पाद और पर-प्रत्‍यय उत्‍पाद । स्‍व-निमित्तक यथा - प्रत्‍येक द्रव्‍य में आगम प्रमाण से अनन्‍त अगुरुलघु गुण (अविभाग-प्रतिच्‍छेद) स्‍वीकार किये गये हैं जिनका छह स्‍थानपति‍त वृद्धि और हानि के द्वारा वर्तन होता रहता है, अत: इनका उत्‍पाद और व्‍यय स्‍वभाव से होता है । इसी प्रकार पर-प्रत्‍यय का भी उत्‍पाद और व्‍यय होता है । यथा - ये धर्मादिक द्रव्‍य क्रम से अश्‍व आदि की गति, स्थिति और अवगाहन में कारण हैं । चूँकि इन गति आदिक में क्षण-क्षण में अन्‍तर पड़ता है इसीलिए इनके कारण भी भिन्‍न-भिन्‍न होने चाहिए, इस प्रकार इन धर्मादिक द्रव्‍यों में पर-प्रत्‍यय की अपेक्षा उत्‍पाद और व्‍यय का व्‍यवहार किया जाता है ।

    शंका – यदि धर्मादिक द्रव्‍य निष्क्रिय हैं तो ये जीव और पुद्गलों की गति आदिक के कारण नहीं हो सकते; क्‍योंकि जलादिक क्रियावान् होकर ही मछली आदि की गति आदि में निमित्त देखे जाते हैं, अन्‍यथा नहीं ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्‍योंकि चक्षु इन्द्रिय के समान ये बलाधान में निमित्तमात्र हैं । जैसे चक्षु इन्द्रिय रूप के ग्रहण करने में निमित्तमात्र है, इसलिए जिसका मन व्‍याक्षिप्‍त है उसके चक्षु इन्द्रिय के रहते हुए भी रूप का ग्रहण नहीं होता । उसी प्रकार प्रकृत में समझ लेना चाहिए । इस प्रकार अधिकार प्राप्‍त धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्‍य को निष्क्रिय मान लेने पर जीव और पुद्गल सक्रिय हैं यह प्रकरण से अपने-आप प्राप्‍त हो जाता है ।

    शंका – काल द्रव्‍य भी सक्रिय होगा ?

    समाधान – नहीं; क्‍योंकि उसका यहाँ अधिकार नहीं है । इसलिए इन द्रव्‍यों के साथ उसका अधिकार नहीं किया है ।

    'अजीवकाया:' इत्‍यादि सूत्र में 'काय' पद के ग्रहण करने से प्रदेशों का अस्तित्‍व मात्र जाना जाता है, प्रदेशों की संख्‍या नहीं मालूम होती, अत: उसका निर्धारण करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं --

    राजवार्तिक :
    1-2. बाह्य और आभ्यन्तर दोनों कारणों से होनेवाली द्रव्य की उस पर्याय को क्रिया कहते हैं जो एक देश से देशान्तर प्राप्ति में कारण होती है । उभय कारणों का ग्रहण इसलिए किया है कि क्रिया द्रव्य का सदा वर्तमान स्वभाव नहीं है । यदि होता, तो द्रव्य में प्रतिक्षण क्रिया होनी चाहिए थी । क्रिया द्रव्य से भिन्न नहीं है किन्तु क्रिया परिणामी द्रव्य की पर्याय है । यदि भिन्न हो तो द्रव्य निश्चल हो जायगा । ज्ञानादि या रूपादि गुणों की व्यावृत्ति के लिए 'देशान्तरप्राप्तिहेतु' यह विशेषण दिया गया है । क्रिया शब्द से 'निर' उपसर्ग का समास करने पर 'निष्क्रिय' शब्द सिद्ध होता है ।

    3. धर्मादि द्रव्यों में क्रियानिमित्तक उत्पाद और व्यय नहीं होते अतः निष्क्रिय होने से उत्पादादि का अभाव करना उचित नहीं है । उत्पाद दो प्रकार का है -- स्वनिमित्तक और परप्रत्यय । अनन्त अगुरुलघुगुणों की षट्स्थानपतित वृद्धि और हानि से सभी द्रव्यों में स्वाभाविक उत्पाद व्यय हैं । पर-प्रत्यय भी उत्पाद-व्यय अश्वादि की गति-स्थिति और अवगाह में निमित्त होने से होते हैं । उन पदार्थों में प्रतिक्षण परिणमन होता है अतः उनकी अपेक्षा गति स्थिति और अवगाहन की हेतुता में भेद होता रहता है ।

    4-6. प्रश्न – क्रियावाले ही जलादि पदार्थ मछली आदि की गति और स्थिति में निमित्त देखे गये हैं, अतः निष्क्रिय धर्माधर्मादि गतिस्थिति में निमित्त कैसे हो सकते हैं ?

    उत्तर – जैसे देखने की इच्छा करनेवाले आत्मा को चक्षु इन्द्रिय बलाधायक हो जाती है, इन्द्रियान्तर में उपयुक्त आत्मा को वह स्वयं प्रेरणा नहीं करती । आयु के क्षय हो जाने पर आत्मा के निकल जाने पर शरीर में विद्यमान भी इन्द्रियाँ रूपादिदर्शन नहीं कराती, अतः ज्ञात होता है कि आत्मा में ही वह शक्ति है, इन्द्रियाँ तो मात्र बलाधायक होती हैं, उसी प्रकार स्वयं गति, स्थिति और अवगाहन रूप से परिणमन करनेवाले द्रव्यों की गति आदि में धर्मादि-द्रव्य निमित्त हो जाते हैं, स्वयं क्रिया नहीं करते । जैसे आकाश अपनी द्रव्य सामर्थ्य से गमन न करने पर भी सभी द्रव्यों से संबद्ध है और सर्वगत कहलाता है उसी तरह धर्मादि द्रव्यों की भी गति आदि में निमित्तता समझनी चाहिए । 'च' शब्द से धर्म-अधर्म और आकाश का सम्बन्ध ज्ञात हो जाता है । धर्माधर्मादि में निष्क्रियत्व का नियम होने से अर्थात् ही जीव और पुद्गल में स्व-पर-प्रत्यय सक्रियता सिद्ध हो जाती है ।

    7-13. प्रश्न – आत्मा स्वयं तो सर्वगत होने से निष्क्रिय है, केवल क्रियाहेतु गुण अदृष्ट के समवाय से पर-पदार्थों की क्रिया में हेतु होता है । अतः आत्मा को सक्रिय कहना उचित नहीं है ?

    उत्तर – जैसे वायु स्वयं क्रियाशील होकर ही वृक्ष आदि में क्रिया करती है उसी तरह स्वयं क्रिया-स्वभाव आत्मा के वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षय या क्षयोपशम, अङ्गोपाङ्ग नाम-कर्म का उदय और विहायोगति नामकर्म से विशेष शक्ति मिलने पर गति में तत्पर होते ही हाथ-पैर आदि में क्रिया होती है । निष्क्रिय आत्मा दूसरे पदार्थ में क्रिया नहीं करा सकता । अतः वैशेषिक का यह सिद्धान्त खंडित हो जाता है - "आत्मसंयोग और प्रयत्न से हाथ में क्रिया होती है" क्योंकि जिस प्रकार निष्क्रिय आकाश का घटादिक में संयोग होनेपर भी घट में क्रिया नहीं होती उसी तरह निष्क्रिय आत्मा में भी हाथ आदि से संयोग होनेपर भी क्रिया नहीं हो सकती । जैसे दो जन्मान्धों के सम्बन्ध से दर्शनशक्ति उत्पन्न नहीं होती उसी तरह आत्मसंयोग और प्रयत्न जब दोनों निष्क्रिय हैं तब इनके सम्बन्ध से क्रिया उत्पन्न नहीं हो सकती । वैशेषिक सूत्र में बताया है कि "दिशा काल और आकाश क्रियावाले द्रव्यों से विलक्षण होने से निष्क्रिय हैं । इसी तरह कर्म और गुण पदार्थ भी निष्क्रिय हैं।" संयोग और प्रयत्न दोनों गुण हैं अतः निष्क्रिय हैं। यह तर्क भी ठीक नहीं है कि "जैसे अग्नि-संयोग उष्णता की अपेक्षा करके घट आदि पदार्थों में पाकज रूप आदि को उत्पन्न करता है स्वयं अग्नि में नहीं उसी तरह अदृष्ट की अपेक्षा लेकर आत्मसंयोग और प्रयत्न हाथ आदि में क्रिया उत्पन्न कर देंगे अपनेमें नहीं।" क्योंकि इससे तो हमारा ही पक्ष सिद्ध होता है। अग्निसंयोग का दृष्टान्त भी ठीक नहीं है क्योंकि अनुष्णशीत अप्रेरक अनुपघाती और अप्राप्त संयोग, रूपादि की उत्पत्ति या उच्छेद में कारण नहीं हो सकता । गुरुत्व भी क्रियापरिणामी द्रव्य का गुण होकर ही अन्य द्रव्य में कियाहेतु हो सकता है । इसी तरह आत्मसंयोग और प्रयत्न भी क्रियापरिणामी द्रव्य के गुण होकर ही क्रियाहेतु होंगे । अतः तथापरिणत (क्रियापरिणत) द्रव्य को ही क्रियाहेतु मानना उचित है । धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गल की गति में अप्रेरक कारण है अतः वह निष्क्रिय होकर भी बलाधायक हो सकता है पर आप तो आत्मगुण को पर की क्रिया में प्रेरक निमित्त मानते हैं अतः धर्मास्तिकाय का दृष्टान्त विषम है । कोई भी निष्क्रिय द्रव्य या उसका गुण प्रेरक-निमित्त नहीं हो सकता । धर्मास्तिकाय द्रव्य तो अन्यत्र बलाधायक हो सकता है पर निष्क्रिय आत्मा का गुण, जो कि पृथक् उपलब्ध नहीं होता क्रिया का बलाधायक भी संभव नहीं है । यदि गुण का पृथक् सद्भाव मानते हैं तो दोनों का अभाव हो जायगा ।

    14-16. यदि आत्मा को निष्क्रिय मानते हैं तो आकाशप्रदेश की तरह वह शरीर में क्रियाहेतु नहीं हो सकेगा । एकान्त से अमूर्त और निष्क्रिय आत्मा का शरीर से सम्बन्ध भी संभव नहीं, अतः परस्पर उपकार नहीं बन सकेगा । जैन तो कार्मणशरीर के सम्बन्ध से आत्मा में क्रिया मानते हैं, अतः जब आठों कर्मों का नाश होने से शरीर का वियोग हो जाता है तो अशरीरी आत्मा निष्क्रिय बन जाता है । क्योंकि कारण के अभाव में कार्य का अभाव होना सर्वसिद्ध है । जो क्रिया कर्म और नोकर्म के निमित्त से आत्मा में होती है उसका अभाव कर्म-नोकर्म के अभाव में हो ही जाना चाहिए, पर आत्मा की स्वाभाविक ऊर्ध्वगतिरूप क्रिया तो मुक्त के भी स्वीकार की जाती है । मुक्त में भी अनन्तवीर्य ज्ञान, दर्शन और सुखानुभवन आदि क्रियाएँ होती ही रहती हैं । आगे दसवें अध्याय में पूर्वप्रयोग और असंगत्व आदि कारणों से मुक्तों की ऊर्ध्वगति का समर्थन किया भी है ।

    17. पुद्गलद्रव्यों के भी स्वाभाविक और प्रायोगिक दोनों प्रकार की क्रियाएँ होती हैं ।

    18-19. क्रिया क्रियावान् द्रव्य से अभिन्न है; क्योंकि वह उसी का परिणामविशेष है, जैसे कि अग्नि की उष्णता । जिस प्रकार उष्णता को अग्नि से भिन्न माननेपर अग्नि के अभाव का ही प्रसंग होता है उसी तरह यदि क्रिया को भिन्न माना जायगा तो द्रव्य स्पन्दरहित निष्क्रिय हो जायगा और इस तरह क्रियावाले द्रव्यों का अभाव ही हो जायगा । दंड स्वतःसिद्ध है, अतः उसके सम्बन्ध से पुरूष में 'दंडी' यह व्यपदेश हो सकता है पर क्रिया तो द्रव्य से भिन्न-पृथकसिद्ध नहीं है अतः दंडी की तरह 'क्रियावान्' व्यपदेश नहीं हो सकता ।

    20-21. समवाय सम्बन्ध के द्वारा 'क्रियावान' व्यपदेश मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि यदि क्रिया और क्रियावान् द्रव्य में अयुतसिद्धत्व-अभिन्नत्व माना जाता है तो द्रव्य और क्रिया का पार्थक्य ही नहीं रहता, फिर सम्बन्ध कैसा ? यदि भिन्नता मानी जाती है तो अयुतसिद्ध सम्बन्ध नहीं बन सकेगा । क्रिया और क्रियावान् द्रव्य में तो भेद देखा जाता है । क्रिया क्षणिक और सकारण है जब कि द्रव्य अवस्थित और अकारण है । यदि दोनों में अभेद माना जायगा तो द्रव्य की तरह क्रिया भी नित्य और अकारण हो जायगी, और क्रिया की तरह द्रव्य भी क्षणिक और सकारण हो जायगा ।

    22-25. महान् अहंकार तथा परमाणु आदि क्रियावान होकर भी नित्य माने जाते हैं अतः दीपक के दृष्टान्त से जीव में क्रियावान् होने से अनित्यत्व का प्रसंग नहीं आ सकता । सर्वानित्यत्ववादी का यह हेतु असिद्ध है कि - "सब पदार्थ प्रत्ययजन्य हैं और निरीहक हैं" क्योंकि ऐसा मानने पर क्रियावत्त्व का लोप हो जायगा । जैन पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से क्रियावान जीवादि द्रव्यों को अनित्य भी मानते हैं । इसी तरह द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से जब नित्यत्व है तब हम उसे प्रदीप की तरह क्रियावाला भी नहीं मानते । अतः इस पक्ष में प्रदीप दृष्टान्त भी ठीक नहीं है । द्रव्यार्थिक की प्रधानता में सभी पदार्थ उत्पाद और व्यय से शून्य हैं, निष्क्रिय हैं और नित्य हैं । पर्यायर्थिकनय से ही पदार्थों में उत्पाद और व्यय होते हैं, वे सक्रिय और अनित्य हैं । इस तरह अनेकान्त समझना चाहिए ।

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    + प्रदेश -
    असंख्येया: प्रदेशा धर्माधर्मैकजीवानाम् ॥8॥
    अन्वयार्थ : धर्म, अधर्म और एक जीवद्रव्य के असंख्यात-असंख्यात प्रदेश होते हैं ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    जो संख्‍या से परे हैं वे असंख्‍यात कहलाते हैं । असंख्‍यात तीन प्रकार का है - जघन्‍य, उत्‍कृष्‍ट और अजघन्‍योत्‍कृष्‍ट । उनमें से यहाँ अजघन्‍योत्‍कृष्‍ट असंख्‍यात का ग्रहण किया है । 'प्रदिश्‍यन्‍ते इति प्रदेश:' यह प्रदेश शब्‍द की व्‍युत्‍पत्ति है । तात्‍पर्य यह है कि जिससे विवक्षित परिमाण का संकेत मिलता है, उसे प्रदेश कहते हैं । परमाणु का लक्षण आगे कहेंगे । वह जितने क्षेत्र में रहता है वह प्रदेश है ऐसा व्‍यवहार किया जाता है । धर्म, अधर्म और एक जीव के प्रदेशों की संख्‍या समान है । इनमें-से धर्म और अधर्मद्रव्‍य निष्क्रिय हैं और लोकाकाशभर में फैले हुए हैं । यद्यपि जीव के प्रदेश धर्म और अधर्म द्रव्‍य के बराबर ही हैं तो भी वह संकोच और विस्‍तार-स्‍वभाववाला है, इसलिए कर्म के निमित्त से छोटा या बड़ा जैसा शरीर मिलता है उतनी अवगाहना का होकर रहता है । और केवलि-समुद्घात के समय जब यह लोक को व्‍यापता है उस समय जीव के मध्‍य के आठ प्रदेश मेरु पर्वत के नीचे चित्रा पृथिवी के वज्रमय पटल के मध्‍य में स्थित हो जाते हैं और शेष प्रदेश ऊपर, नीचे और तिरछे समस्‍त लोक को व्‍याप लेते हैं ।

    अब आकाश द्रव्‍य के कितने प्रदेश हैं यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं --

    राजवार्तिक :
    1-2. गिनती न हो सकने के कारण वे असंख्येय हैं । वे गिनती की सीमा को पार कर गये हैं । जैसे सर्वज्ञ अनन्त को अनन्त रूप में जानता है उसी तरह वह असंख्यात को असंख्यात रूप में जानता है । इस तरह सर्वज्ञता में कोई बाधा नहीं है । यहाँ अजघन्योत्कृष्ट असंख्येय लेना चाहिए ।

    3-4. एक अविभागी परमाणु जितने क्षेत्र में ठहरता है उसे प्रदेश कहते हैं । धर्म और अधर्म द्रव्य असंख्यातप्रदेशी लोक को व्याप्त करके स्थित हैं, ये निष्क्रिय हैं । जीव असंख्यातप्रदेशी होने पर भी संकोच-विस्तारशील होने से कर्म के अनुसार प्राप्त छोटे या बड़े शरीर में तत्प्रमाण होकर रहता है । जब इसकी समुद्घात काल में लोकपूर्ण अवस्था होती है तब इसके मध्यवर्ती आठ प्रदेश सुमेरु पर्वत के नीचे चित्र और वनपटल के मध्य के आठ प्रदेशों पर स्थित हो जाते हैं, बाकी प्रदेश ऊपर नीचे चारों ओर फैल जाते हैं ।

    5-6. एक द्रव्य यद्यपि अविभागी है, वह घट की तरह संयुक्त-द्रव्य नहीं है फिर भी उसमें प्रदेश वास्तविक हैं उपचार से नहीं । घट के द्वारा जो आकाश का क्षेत्र अवगाहित किया जाता है वही अन्य पटादि के द्वारा नहीं । दोनों जुदे-जुदे हैं । यदि प्रदेश-भिन्नता न होती तो वह सर्वव्यापी नहीं हो सकता था । अतः द्रव्य अविभागी होकर भी प्रदेश-शून्य नहीं है । वह घटादि की तरह द्रव्य-विभागवाला (सावयव) भी नहीं है अतः अविभागी निरवयव और अखंड मानने में कोई बाधा नहीं है ।

    7-9. जीव अनन्त हैं अतः 'एकजीव' का असंख्यातप्रदेशित्व बताने के लिए 'एक' पद दिया है । नाना जीवों की अपेक्षा तो अनन्त प्रदेश हो सकते हैं । द्रव्यों से प्रदेशों का कथञ्चित् भेद होने से षष्ठी विभक्ति-द्वारा 'धर्माधर्मैकजीवानाम्' यह भेदनिर्देश कर दिया है । 'असंख्येयप्रदेशाः' ऐसा लघुनिर्देश न करके 'प्रदेशाः' का पृथक् निर्देश इसलिए किया है कि उसका सम्बन्ध आगे के सूत्रों में होता जाय । यदि 'असंख्येयप्रदेशाः' ऐसा द्रव्यप्रधान निर्देश करते तो 'प्रदेश' पद गौण हो जाने से आगे उसका सम्बन्ध नहीं हो पाता ।

    10-13. माणवक (सिंह के बच्चे) में सिंह की तरह धर्मादि द्रव्यों में प्रदेश-कल्पना औपचारिक नहीं है । क्योंकि जिस प्रकार क्रूरता, शूरता आदि गुणवाले पन्चेन्द्रिय तिर्यंच में सिंह शब्द मुख्य रूप से तथा सादृश्य की अपेक्षा माणवक में गौणरूप से दो प्रकार के प्रत्ययों का उत्पादक प्रसिद्ध है उस तरह धर्मादि और पुद्गलादि में होनेवाले 'प्रदेशवत्त्व' प्रत्यय में कोई भेद नहीं दिखाई देता । सिंह में मुख्य सिंह प्रत्यय होने से माणवक में गौण-कल्पना हो भी सकती है । पर यहाँ ऐसा है । जब केवल सिंह शब्द का प्रयोग होता है तब मुख्य प्रदेशों का बोध होता है तथा जब सोपपद अर्थात् माणवकसिंह की तरह किसी अन्यपद से युक्त का प्रयोग होता है तब गौण-व्यवहार किया जाता है । किन्तु यहाँ जैसे 'घट के प्रदेश' प्रयोग होता है वैसे ही 'धर्मादि के प्रदेश' यह भी सोपपद ही प्रयोग होता है, अतः कोई विशेषता नहीं है । सिंहगत क्रौर्यादि धर्मों का एकदेश सादृश्य देखकर माणवक में किया जानेवाला 'सिंह व्यवहार' गौण हो सकता है किन्तु पुद्गल और धर्मादि में सभी के स्वाधीन मुख्य ही प्रदेश हैं अतः उपचार कल्पना नहीं बनती ।

    14. प्रश्न – यदि घटादि की तरह धर्मादि के भी मुख्य ही प्रदेश होते तो घटादि के ग्रीवा, पैंदा, आदि की तरह स्वतः उनमें भी प्रदेशवान् की तरह व्यवहार होना चाहिए द्रव्यान्तर से नहीं । धर्मादि द्रव्यों में प्रदेश-व्यवहार पुद्गल परमाणु के द्वारा रोके गये आकाश-प्रदेश के नाप से होता है । अतः मानना चाहिए कि उनमें मुख्य प्रदेश नहीं है ।

    उत्तर – चूंकि धर्मादि द्रव्य अतीन्द्रिय हैं, परोक्ष हैं, अतः उनमें मुख्यरूप से प्रदेश विद्यमान रहने पर भी स्वतः उनका ज्ञान नहीं हो पाता । इसलिए परमाणु के नाप से उनका व्यवहार किया जाता है ।

    15. अर्हन्त के द्वारा प्रणीत गणधर के द्वारा अनुस्मृत तथा आचार्यों की परम्परा से प्राप्त श्रुत (आगम) में इन सब द्रव्यों के प्रदेशों का वर्णन इस प्रकार मिलता है - “एक-एक आत्म-प्रदेश में अनन्तानन्त ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रदेश ठहरे हैं । एक-एक कर्मप्रदेश में अनन्तानन्त औदारिकादि शरीरों के प्रदेश हैं । एक-एक शरीर-प्रदेश में अनन्तानन्त विस्रसोपचय परमाणु गीले गुड़ में धूल की तरह लगे हुए हैं ।" इसी तरह धर्मादि द्रव्यों में भी मुख्य प्रदेश जानना चाहिए ।

    16. आगम में जीव के प्रदेशों को स्थित और अस्थित दो रूप में बताया है । सुख-दुःख का अनुभव पर्याय-परिवर्तन या क्रोधादि दशा में जीव के प्रदेशों की उथल-पुथल को अस्थिति तथा उथल-पुथल न होने को स्थिति कहते हैं । जीव के आठ मध्य-प्रदेश सदा निरपवाद-रूप से स्थित ही रहते हैं । अयोगकेवली और सिद्धों के सभी प्रदेश स्थित हैं । व्यायाम के समय या दुःख परिताप आदि के समय जीवों के उक्त आठ मध्य-प्रदेशों को छोड़कर बाकी प्रदेश अस्थित होते हैं । शेष जीवों के स्थित और अस्थित दोनों प्रकार के हैं । अतः ज्ञात होता है कि द्रव्यों के मुख्य ही प्रदेश हैं, गौण नहीं ।

    17. चूंकि आगम में वीर्यान्तराय और मति-श्रुत-ज्ञानावरण का क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय में आत्मा के उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण प्रदेश में चक्षु-इन्द्रिय पर्याय की प्राप्ति बताई गई है । इस तरह अमुक प्रदेशों में उसका परिणमन बताने से ज्ञात होता है कि आत्मादि के मुख्य ही प्रदेश हैं ।

    18. द्रव्यों की प्रतिनियत स्थानों में स्थिति बताई जाने से भी ज्ञात होता है कि आकाश आदि में मुख्य ही प्रदेश हैं । पटना आकाश के दूसरे प्रदेश में है और मथुरा अन्य प्रदेश में । यदि आकाश अप्रदेशी होता तो पटना और मथुरा एक ही जगह हो जाते ।

    19. वैशेषिकों के मत में संसारी जीव के कान के भीतर आया हुआ आकाशप्रदेश श्रोत्र कहलाता है । यह अदृष्टविशेष से संस्कृत होकर शब्दोपलब्धि करता है । यदि आकाश के प्रदेश न माने जायंगे तो संपूर्ण आकाश को श्रोत्र कहना होगा । ऐसी दशा में सभी प्राणियों को सभी शब्द सुनाई देना चाहिए । यदि प्रदेशविशेष को श्रोत्र कहते हैं तो आकाश को अप्रदेशी कहना खंडित हो जाता है । अथवा एक परमाणु पूरे आकाश से सम्बन्ध को प्राप्त होता है या एक देश से ? यदि पूरे आकाश से, तो या तो आकाश को परमाणुरूप मानना होगा या फिर परमाणु को आकाश के बराबर । यदि एकदेश से; तो स्पष्ट सिद्ध होता है कि आकाश के मुख्य ही प्रदेश हैं ।

    20. वैशेषिक मत में कर्म उत्पन्न होते ही अपने आश्रय को एक आधार से हटाकर दूसरे आधार से संयुक्त कराता है । यह कर्म का स्वभाव है । इससे स्पष्ट है कि आकाश के प्रदेशभेद हैं अन्यथा किसी से संयोग और किसी से वियोग कैसे बन सकता है ? यदि प्रदेशान्तर संक्रमण न हो तो कर्म का ही अभाव हो जायगा ।

    21. आत्मा के, सामान्य पुरुष-शरीर की दृष्टि से, प्रदेशों में एकत्व है और सिर, पैर, हाथ, नाक, आदि अंग-उपांग रूप पर्याय की दृष्टि से भेद है । इस तरह प्रदेशों के एकत्व और अनेकत्व में अनेकान्त है । अथवा, पुरुष द्रव्य की दृष्टि से एकत्व होने पर पाचक, लावक (काटनेवाला) आदि पर्यायों की दृष्टि से अनेकत्व है । अथवा, पिता, पुत्र, चाचा, मामा आदि पर्यायों की दृष्टि से अनेकता है । अथवा, पंचेन्द्रिय, आरोग्य, मेधावी, पटु, कुशल, सुशील, आदि व्यवहारों में कारणभूत पर्यायों की दृष्टि से अनेकता है । इसीतरह धर्म, अधर्म, आकाश, आदि में स्व-द्रव्य की विवक्षा में एक-प्रदेशत्व है और तत्तत् (प्रतिनियत) पर्यायों की विवक्षा में अनेक-प्रदेशत्व है ।

    22. शुद्धनय की दृष्टि से अखंड उपयोग स्वभाव की विवक्षा से आत्मा में प्रदेश-भेद न होनेपर भी व्यवहारनय से संसारी जीव अनादि कर्मबन्धन बद्ध होने से सावयव ही है ।

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    + आकाश के प्रदेश -
    आकाशस्यानन्ता: ॥9॥
    अन्वयार्थ : आकाश के अनंत प्रदेश हैं ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिनका अन्‍त नहीं है वे अनन्‍त कहलाते हैं ?

    शंका – अनन्‍त क्‍या हैं ?

    समाधान – प्रदेश ।

    शंका – किसके ?

    समाधान – आकाश के । पहले के समान इसके भी प्रदेश की कल्‍पना जान लेनी चाहिए । अर्थात् जितने क्षेत्र में एक परमाणु रहता है उसे प्रदेश कहते हैं । प्रदेश का यह अर्थ यहाँ जानना चाहिए ।

    अर्मू‍त द्रव्‍यों के प्रदेश कहे । अब मूर्त पुद्गलों के प्रदेशों की संख्‍या ज्ञातव्‍य है, अत: उसका ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-2. अनन्त अर्थात् जिनका अन्त न हो । 'प्रदेशाः' पद का सम्बन्ध यहाँ हो जाता है । अनन्त और असंख्यात में इयत्ता का अपरिच्छेद होने से तुल्यता नहीं कहनी चाहिए, क्योंकि इनका महान अन्तर 'नृस्थिती परावरे' सूत्र में बता आये हैं ।

    3-5.

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    + पुद्गल के प्रदेश -
    संख्येयासंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥10॥
    अन्वयार्थ : पुद्गल के संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेश होते हैं ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्र में जो 'च' शब्‍द दिया है उससे अनन्‍त की अनुवृ‍त्ति होती है । तात्‍पर्य यह है कि किसी द्वयणुक आदि पुद्गल-द्रव्‍य के संख्‍यात प्रदेश होते हैं और किसी के असंख्‍यात तथा अनन्‍त प्रदेश होते हैं ।

    शंका – यहाँ अनन्‍तानन्‍त का उपसंख्‍यान करना चाहिए ?

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि यहाँ अनन्‍त सामान्‍य का ग्रहण किया है । अनन्‍त प्रमाण तीन प्रकार का कहा है - परीतानन्‍त, युक्‍तानन्‍त और अनन्‍तानन्‍त । इसलिए इन सबका अनन्‍त सामान्‍य से ग्रहण हो जाता है ।

    शंका – लोक असंख्‍यात प्रदेशवाला है, इसलिए वह अनन्‍त प्रदेशवाले और अनन्‍तानन्‍त प्रदेशवाले स्‍कन्‍ध का आधार है, इस बात के मानने में विरोध आता है, अत: पुद्गल के अनन्‍त प्रदेश नहीं बनते ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं हैं; क्‍योंकि सूक्ष्‍म परिणमन होने से और अवगाहन शक्ति के निमित्त से अनन्‍त या अनन्‍तानन्‍त प्रदेशवाले पुद्गल स्‍कन्‍धों का आकाश आधार हो जाता है । सूक्ष्‍मरूप से परिणत हुए अनन्‍तानन्‍त परमाणु आकाश के एक-एक प्रदेश में ठहर जाते हैं । इनकी यह अवगाहन शक्ति व्‍याघात रहित है, इसलिए आकाश के एक प्रदेश में भी अनन्‍तानन्‍त परमाणुओं का अवस्‍थान विरोध को प्राप्‍त नहीं होता ।

    पूर्व सूत्र में 'पुद्गलानाम्' यह सामान्‍य वचन कहा है । इससे परमाणु के भी प्रदेशों का प्रसंग प्राप्‍त होता है, अत: इसका निषेध करन के लिए आगे का सूत्र कहते हैं --

    राजवार्तिक :
    1-2. च शब्द से 'अनन्त' का समुच्चय कर लेना चाहिए । अनन्त कहने से परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त तीनों का ग्रहण हो जाता है ।

    3-6. प्रश्न – जब लोक असंख्यात प्रदेशी है, तब उसमें अनन्तानन्त प्रदेशी पुद्गल-स्कन्ध कैसे समा सकते हैं ? यह तो विरोधी बात है ।

    उत्तर – पुद्गलों के सूक्ष्म परिणमन और आकाश की अवगाहन-शक्ति से अनन्तानन्त पुद्गलों का अवगाह हो जाता है । फिर यह कोई ऐकान्तिक नियम नहीं है कि छोटे आधार में बड़ा द्रव्य ठहर ही नहीं सकता हो । पुद्गलों के विशेष प्रकार का सघन संघात होने से अल्पक्षेत्र में बहुतों का अवस्थान हो जाता है । जैसे कि छोटी सी चंपा की कली में सूक्ष्मरूप से बहुत से गन्धावयव रहते हैं, पर वे ही जा फैलते हैं तो समस्त दिशाओं को व्याप्त कर लेते हैं । जैसे कि कंडा या लकड़ी में जो पुद्गल सूक्ष्मरूप से अल्पक्षेत्र में थे वे ही आग से जलने पर धूम के रूप में बहुत आकाश को व्याप्त कर लेते हैं । इसी तरह संकोच और विस्तार रूप परिणमन से अल्प लोकाकाश में भी अनन्तानन्त जीव-पुद्गलों का अवस्थान हो जाता है ।

    🏠
    + परमाणु के प्रदेश -
    नाणो: ॥11॥
    अन्वयार्थ : पुद्गल परमाणु एकप्रदेशी ही है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    परमाणु के प्रदेश नहीं हैं, यहाँ 'सन्ति' यह वाक्‍य का शेष है ।

    शंका – परमाणु के प्रदेश क्‍यों नहीं होते ?

    समाधान – क्‍योंकि वह स्‍वयं एक प्रदेशमात्र है । जिस प्रकार एक आकाश-प्रदेश में प्रदेश-भेद नहीं होने से वह अप्रदेशी माना गया है उसी प्रकार अणु स्‍वयं एक प्रदेशरूप है इसलिए उसमें प्रदेशभेद नहीं होता । दूसरे अणु से अल्‍प परिमाण नहीं पाया जाता । ऐसी कोई अन्‍य वस्‍तु नहीं जो परमाणु से छोटी हो जिससे इसके प्रदेश-भेद को प्राप्‍त होवें ।

    इस प्रकार निश्चित प्रदेशवाले इन धर्मादिक द्रव्‍यों के आधार का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं --

    राजवार्तिक :
    1-3. जैसे आकाश का एक प्रदेश अन्य प्रदेश न होन से अप्रदशी है उसी तरह अणु के भी प्रदेशमात्र होने से अन्य प्रदेश नहीं है । अणु से छोटा तो कोई भाग होता नहीं, अतः स्वयं ही आदि और अन्त होने से अणु अप्रदेशी है । जैसे कि प्रदीपन करने के कारण प्रदीप की संज्ञा सार्थक है उसी तरह अणु अर्थात् सूक्ष्म होने से 'अणु' संज्ञा भी सार्थक है । यदि अणु के भी प्रदेश-प्रचय हो तो फिर वह अणु ही नहीं कहा जायगा, किन्तु उसके प्रदेश अणु कहे जायँगे ।

    4-5. अप्रदेशी होने से परमाणु का खरविषाण की तरह अभाव नहीं किया जा सकता; क्योंकि पहिले कहा जा चुका है कि परमाणु एकप्रदेशी है न कि सर्वथा प्रदेशशून्य । जैसे विज्ञान का आदि, मध्य और अन्त व्यपदेश न होने पर भी अस्तित्व है उसी तरह परमाणु में भी आदि अन्त और मध्य व्यवहार न होने पर भी उसका अस्तित्व है, खरविषाण की तरह उसका अभाव नहीं है ।

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    + आधार -
    लोकाकाशेऽवगाह: ॥12॥
    अन्वयार्थ : इन द्रव्यों का अवगाहन लोकाकाश में है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    उक्‍त धर्मादिक द्रव्‍यों का लोकाकाश में अवगाह है बाहर नहीं, यह इस सूत्र का तात्‍पर्य है ।

    शंका – यदि धर्मादिक द्रव्‍यों का लोकाकाश आधार है तो आकाश का क्‍या आधार है ?

    समाधान – आकाश का अन्‍य आधार नहीं है, क्‍योंकि आकाश स्‍वप्रतिष्‍ठ है ।

    शंका – यदि आकाश स्‍व-प्रतिष्‍ठ है तो धर्मादिक द्रव्‍य भी स्‍व-प्रतिष्‍ठ ही होने चाहिए । यदि धर्मादिक द्रव्‍यों का अन्‍य आधार माना जाता है तो आकाश का भी अन्‍य आधार मानना चाहिए । और ऐसा मानने पर अनवस्‍था दोष प्राप्‍त होता है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्‍योंकि आकाश से अधिक परिमाणवाला अन्‍य द्रव्‍य नहीं है जहाँ आकाश स्थित है यह कहा जाय । वह सब ओर से अनन्‍त है । परन्‍तु धर्मादिक द्रव्‍यों का आकाश अधिकरण है वह व्‍यवहारनय की अपेक्षा कहा जाता है । एवंभूत नय की अपेक्षा तो सब द्रव्‍य स्‍व-प्रतिष्‍ठ ही हैं । कहा भी है - आप कहाँ रहते हैं ? अपने में । धर्मादिक द्रव्‍य लोकाकाश के बाहर नहीं हैं, यहाँ आधार-आधेय कल्‍पना से इतना ही फलितार्थ लिया गया है ।

    शंका – लोक में जो पूर्वोत्तर कालभावी होते हैं उन्‍हीं का आधार-आधेयभाव देखा गया है । जैसे कि बेरों का आधार कुण्‍ड होता है । उसीप्रकार आकाश पूर्वकालभावी हो और धर्मादिक द्रव्‍य पीछे से उत्‍पन्‍न हुए हों, ऐसा तो है नहीं, अत: व्‍यवहारनय की अपेक्षा भी आधार-आधेयकल्‍पना नहीं बनती ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्‍योंकि एक साथ होनेवाले पदार्थों में भी आधार-आधेयभाव देखा जाता है । यथा - घट में रूपादिक हैं । और शरीर में हाथ आदि हैं । अब लोक का स्‍वरूप कहते हैं ।

    शंका – लोक किसे कहते हैं ?

    समाधान – जहाँ धर्मादिक द्रव्‍य विलोके जाते हैं उसे लोक कहते हैं । 'लोक' धातु से अधिकरण अर्थ में 'धञ्' प्रत्‍यय करके लोक शब्‍द बना है । आकाश दो प्रकार का है - लोकाकाश और अलोकाकाश । लोक का स्‍वरूप पहले कह आये हैं । वह जितने आकाश में पाया जाता है लोकाकाश है और उससे बाहर सबसे अनन्‍त अलोकाकाश है । यह लोकालोक का विभाग धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा से जानना चाहिए । अर्थात् धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय जहाँ तक पाये जाते हैं वह लोकाकाश है और इससे बाहर अलोकाकाश है । यदि धर्मास्तिकाय का सद्भाव न माना जाये तो जीव और पुद्गलों की गति के नियम का हेतु न रहने से लोकालोक का विभाग नहीं बनता । उसी प्रकार यदि अधर्मास्तिकाय का सद्भाव न माना जायेगा तो स्थिति का निमित्त न रहने से जीव और पुद्गलों की स्थिति का अभाव होता है जिससे लोकालोक का विभाग नहीं बनता । अत: इन दोनों के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा लोकालोक के विभाग की सिद्धि होती है।

    लोकाकाश में जितने द्रव्‍य बतलाये हैं उनके अवस्‍थान में भेद हो सकता है, इसलिए प्रत्‍येक द्रव्‍य के अवस्‍थान विशेष का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं --

    राजवार्तिक :
    1. यद्यपि पुद्गलों का प्रकरण है फिर भी यहाँ धर्मादि सभी द्रव्यों की सामान्यरूप से विवक्षा है । अतः सभी द्रव्यों के आधार का यहाँ कथन है ।

    2-4. जैसे धर्मादि द्रव्यों का लोकाकाश आधार है उस तरह आकाश का अन्य आधार नहीं है । क्योंकि उससे बड़ा दूसरा द्रव्य नहीं है जिसमें आकाश आधेय बन सके । अतः सर्वतः अनन्त यह आकाश स्वप्रतिष्ठ है । इस तरह अनवस्था दूषण भी नहीं आता । आकाश का अन्य आधार, उसका अन्य तथा उसका भी अन्य आधार मानने में ही अनवस्था होती है ।

    5-6. एवंभूतनय की दृष्टि से देखा जाय तो सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ठित ही है, इनमें आधाराधेयभाव नहीं है । व्यवहारनय से ही परस्पर आधाराधेयभाव की कल्पना होती है । व्यवहार से ही वायु के लिए आकाश, जल को वायु, पृथिवी को जल, सब जीवों को पृथिवी, जीव के लिए अजीव, अजीव के लिए जीव, कर्म के लिए जीव, जीव के लिए कर्म, तथा धर्म, अधर्म और काल के लिए आकाश आधार माना जाता है । परमार्थसे तो आकाश की तरह वायु आदि भी स्वप्रतिष्ठ ही हैं ।

    7. जैसे व्यवहारनय से 'आस्ते गच्छति' आदि कर्तृसमवायिनी क्रियाओं का कर्ता और 'ओदन को पकाता है, घड़ेको फोड़ता है' आदि कर्मसमवायिनी क्रियाओं का कर्म आधार माना जाता है तथा क्रियाविष्ट कर्ता और कर्म का आधार आसन और बटलोई समझी जाती है उसी तरह आकाशादि में भी समझना चाहिए । परमार्थ से एवंभूतनय की विवक्षा में तो जैसे क्रिया क्रिया के स्वरूप में ही है और द्रव्य अपने स्वरूप में, उसी तरह सभी द्रव्य स्वाधार ही हैं ।

    8-9. जिस प्रकार कुण्ड और बेर में आधाराधेयभाव मानने पर पूर्वापरकालता और युतसिद्धि है उस तरह आकाश और धर्मादि द्रव्यों में नहीं है । क्योंकि हाथ और शरीर आदि में आधाराधेयभाव होने पर भी न तो पूर्वापरकालता है और न युतसिद्धि ही, कारण दोनों युगपत उत्पन्न होते हैं और अयुतसिद्ध हैं । आकाश और धर्मादि द्रव्य अनादि पारिणामिक हैं, इनमें कोई पहिले का और कोई बाद का नहीं है । अतः पूर्वापरीभाव न होने पर भी आधाराधेयभाव मानने में कोई विरोध नहीं है । फिर यह ऐकान्तिक नियम भी नहीं है कि युतसिद्ध या अयुतसिद्ध में ही आधाराधेयभाव होता हो, स्तम्भ और सार जैसे अयुतसिद्ध पदार्थों में और कुण्ड और बदर जैसे युतसिद्ध पदार्थों में, दोनों में ही आधाराधेयभाव देखा जाता है ।

    10-14. जहाँ पुण्य और पाप का सुखदुःख रूप फल देखा जाता है वह लोक है । इस व्युत्पत्ति में लोक का अर्थ हुआ आत्मा । अथवा, जो लोके अर्थात् देखे-जाने पदार्थां को वह लोक अर्थात् आत्मा । यद्यपि दोनों प्रकार की व्युत्पत्तियों में जीव को ही लोक-संज्ञा प्राप्त होती है तथापि न तो अन्य द्रव्यों को अलोक कहा जायगा और न 'छह द्रव्यों का समूह लोक' इस सिद्धान्त का विरोध ही होगा, क्योंकि रूढि में क्रिया व्युत्पत्ति का निमित्तमात्र होती है । जैसे 'गच्छतीति गौः - ऐसी व्युत्पत्ति करने पर भी न तो सभी चलनेवाले गौ बन जाते हैं और न बैठी हुई गाय अगौ।' इसी तरह लोक शब्द की उक्त व्युत्पत्ति करने पर भी धर्मादि द्रव्यों का लोकत्व नष्ट नहीं होता । आत्मा स्वयं अपने स्वरूप का लोकन करता है अतः लोक है । सर्वज्ञ जैसे बाह्य पदार्थों का लोकन करता है उसी तरह स्वस्वरूप का भी । यदि स्वस्वरूप को न लोके तो सर्वज्ञ कैसा ? स्वस्वरूप का अजानकार धर्मादि की तरह बाह्य पदार्थों का ज्ञाता भी कैसे बन सकता है ?

    15-16. प्रश्न – 'जो देखा जाय वह लोक' ऐसी व्युत्पत्ति करने पर आलोक को भी, चूँकि वह सर्वज्ञ के द्वारा देखा जाता है, लोक कहना चाहिए । यदि सर्वज्ञ उसे नहीं देखता तो सर्वज्ञ कैसा ?

    उत्तर – लोकसंज्ञा रूढ़ है, व्युत्पत्ति तो निमित्तमात्र है । अथवा, 'जहाँ बैठकर जिसे देखता हो वह लोक' यह व्युत्पत्ति करने में कोई दोष नहीं है । क्योंकि अलोक में बैठकर तो केवली अलोक को देखता नहीं है । अतः उभय विशेषण देने में कोई विरोध नहीं आता ।

    17-18. लोक के आकाश को लोकाकाश कहते हैं, जैसे जल के आशय (स्थान) को जलाशय । अथवा, 'धर्म, अधर्म, पुद्गल, काल और जीव जहाँ देखे जाँय वह लोक' इस व्युत्पत्ति में अधिकरणार्थक घन् प्रत्यय होने पर 'लोक' शब्द बन जाता है । लोक ही आकाश वह लोकाकाश । इस तरह आकाश दो भागों में बँट जाता है - लोकाकाश और अलोकाकाश । लोकाकाश धर्म, अधर्म आदि द्रव्यों की तरह असंख्यात प्रदेशी है । उसके बाहर अनन्त अलोकाकाश है ।

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    + उदाहरण -
    धर्माधर्मयो: कृत्स्ने ॥13॥
    अन्वयार्थ : धर्म और अधर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में तिल में तेल के समान व्याप्त है ।

    सर्वार्थसिद्धि :
    सब लोकाकाश के साथ व्‍याप्ति के दिखलाने के लिए सूत्र में 'कृत्‍स्‍न' पद रखा है । घर में जिस प्रकार घट अवस्थित रहता उस प्रकार लोकाकाश में धर्म और अधर्म द्रव्‍य का अवगाह न‍हीं है । किन्‍तु जिस प्रकार तिल में तैल रहता है उस प्रकार सब लोकाकाश में धर्म और अधर्म द्रव्‍य का अवगाह है । यद्यपि ये सब द्रव्‍य एक जगह रहते हैं तो भी अवगाह शक्ति के निमित्त से इनके प्रदेश परस्‍पर प्रविष्‍ट होकर व्‍याघात को नहीं प्राप्‍त होते ।

    अब जो उक्‍त द्रव्यों से विपरीत हैं और जो अप्रदेशी है या संख्‍यात, असंख्‍यात और अनन्‍तप्रदेशी हैं ऐसे मूर्तिमान् पुद्गगलों के अवगाह विशेष का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं --

    राजवार्तिक :
    1-3. धर्म और अधर्म दव्य तिलों में तैल की तरह समस्त लोकाकाश को व्याप्त करते हैं । कृत्स्न शब्द निरवशेष (संपूर्ण) व्याप्ति का सूचक है । जबकि मूर्त्तिमान् भी जल भस्म और रेत आदि एक जगह बिना विरोध के रह जाते हैं तब इन अमूर्त द्रव्यों की एकत्र स्थिति में कोई विरोध नहीं है । जिन स्थूल स्कन्धों का आदिमान सम्बन्ध होता है उनमें कदाचित् परस्पर प्रदेशविरोध हो भी पर धर्म और अधर्म आदि तो अनादि सम्बन्धी हैं, इनमें पूर्वापरभाव नहीं है और ये अमूर्त हैं । अतः इनका प्रदेशविरोध नहीं है ।

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    + पुद्गलों का अवगाह -
    एकप्रदेशादिषु भाज्य: पुद्गलानाम् ॥14॥
    अन्वयार्थ : पुद्गलों का अवगाह लोकाकाश के एक प्रदेश आदि में विकल्‍प से होता है ॥१४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    एक और प्रदेश इन दोनों का द्वन्‍द्व समास है । जिनके आदि में एक प्रदेश है वे एक प्रदेश आदि कहलाते हैं । उनमें पुद्गलों का अवगाह विकल्‍प से है । यहाँ पर विग्रह अवयव के साथ है किन्‍तु समासार्थ समुदायरूप लिया गया है, इसलिए एक प्रदेश का भी ग्रहण होता है । खुलासा इस प्रकार है -- आकाश के एक प्रदेश में एक परमाणु का अवगाह है । बन्‍ध को प्राप्‍त हुए या खुले हुए दो परमाणुओं का आकाश के एक प्रदेश में या दो प्रदेशों में अवगाह है । बन्‍ध को प्राप्‍त हुए या खुले हुए तीन परमाणुओं का आकाश के एक, दो या तीन प्रदेशों में अवगाह है । इसी प्रकार संख्‍यात असंख्‍यात और अनन्‍त प्रदेशवाले स्‍कन्‍धों का लोकाकाश के एक, संख्‍यात और असंख्‍यातप्रदेशों में अवगाह जानना चाहिए ।

    शंका – यह तो युक्‍त है कि धर्म और अधर्म द्रव्‍य अमूर्त हैं, इसलिए उनका एक जगह बिना विरोध के रहना बन जाता है, किन्‍तु पुद्गल मूर्त हैं इसलिए उनका बिना विरोध के एक जगह रहना कैसे बन सकता है ?

    समाधान – इनका अवगाहन स्‍वभाव है और सूक्ष्‍म रूप से परिणमन हो जाता है, इसलिए ए‍क ढक्‍कन में जिस प्रकार अनेक दीपकों का प्रकाश रह जाता है उसी प्रकार मूर्तमान् पुद्गलों का एक जगह अवगा‍ह विरोध को प्राप्‍त नहीं होता तथा आगम प्रमाण से यह बात जानी जाती है । कहा भी है --

    'लोक‍ सूक्ष्‍म और स्‍थूल अनन्‍तानन्‍त नाना प्रकार के पुद्गलकायों से चारों ओर से खचा-खच भरा है ।'

    अब जीवों का अवगाह किस प्रकार है इस बात को अगले सूत्र में कहते हैं --

    राजवार्तिक :
    1-2. 'एकप्रदेशादिषु' पद में 'एकश्चासौ प्रदेशः' ऐसा अवयव से विग्रह करके 'अखण्ड एकप्रदेश' को (समुदाय को) समासार्थ समझना चाहिए । जैसे 'सोमशर्मादि' में सोमशर्मा भी गृहीत होता है उसी तरह यहाँ एक प्रदेश का भी ग्रहण करना चाहिए । अथवा, प्रदेश शब्द को अनुवृत्ति करके 'सर्वादि' की तरह समुदाय को समासार्थ मानना चाहिए । भाज्य अर्थात विकल्प्य । एक प्रदेश में यदि अबद्ध हैं तो दो प्रदेशों में, तथा तीन का बद्ध और अबद्ध अवस्था में एक दो और तीन प्रदेशों में अवगाह होता है । इसी तरह बन्धविशेष से संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी स्कन्धों का लोकाकाश के एक, संख्यात और असंख्यात प्रदेशों में अवगाह समझना चाहिए ।

    3-6. प्रश्न – धर्मादि द्रव्य चूँकि अमूर्त हैं अतः उनका एकप्रदेश में अवगाह हो सकता है पर मूर्तिमान अनेक पुद्गलों का एक प्रदेश में अवस्थान कैसे हो सकता है ? यदि होगा तो या तो प्रदेशों का भी प्रदेशविभाग करना होगा या फिर अवगाही पुद्गलों में एकत्व मानना पड़ेगा ?

    उत्तर – यह पहिले कहा जा चुका है कि प्रचयविशेष, सूक्ष्मपरिणमन और आकाश को अवगाहनशक्ति के कारण अनेक का एकत्र अवस्थान हो जाता है । जैसे एक ही कमरे में सैकड़ों दीप-प्रकाश रह जाते हैं और एक प्रदेश में रहने से उनकी पृथक सत्ता भी नष्ट नहीं होती उसी तरह एक प्रदेश में अनन्त भी स्कन्ध अतिसूक्ष्म परिणमन के कारण स्वभाव में सांकर्य हुए बिना ही रह सकते हैं । जैसे अग्नि का स्वभाव जलाने का और तृणादि का जलने का है और उनके इन स्वभावों में कोई तर्क नहीं चलता उसी तरह मूर्तिमान होनेपर भी अनेक स्कन्धों का एक आकाशप्रदेश में अवगाहनस्वभाव होने के कारण अवस्थान हो जाता है । सर्वज्ञप्रणीत आगम में जिस प्रकार एक निगोद शरीर में-साधारण आहार जीवन मरण और श्वासाचास हाने से साधारण संज्ञावाले अनन्त निगोदियों का अवस्थान बताया है । उसी तरह यह भी बताया है कि "अनन्तानन्त विविध सूक्ष्म और बादर पुद्गलकायों से यह लोक सर्वतः ठसाठस भरा हुआ है ।" अतः आगम प्रामाण्य से भी उनका अवस्थान समझ लेना चाहिए ।

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    + जीवों का अवगाह -
    असंख्येय-भागादिषु जीवानाम् ॥15॥
    अन्वयार्थ : लोकाकाश के असंख्‍यातवें भाग आदि में जीवों का अवगाह है ॥१५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    इस सूत्र में 'लोकाकाशे' इस पद की अनुवृत्ति होती है। उसके असंख्‍यात भाग करके जो एक भाग प्राप्‍त हो वह असंख्‍यातवाँ भाग कहलाता है । वह जिनके आदि में है वे सब असंख्‍यातवें भाग आदि है । उनमें जीवों का अवगाह जानना चाहिए । व‍ह इस प्रकार है -- एक-एक असंख्‍यातवें भाग में एक जीव रहता है । इस प्रकार दो, तीन और चार आदि असंख्‍यात भागों से लेकर सब लोकपर्यन्‍त एक जीव का अवगाह जानना चाहिए । किन्‍तु नाना जीवों का अवगाह सब लोक में ही होता है ।

    शंका – यदि लोक के एक असंख्‍यातवें भाग में एक जीव रहता है तो संख्‍या की अपेक्षा अनन्‍तानन्‍त सशरीर जीवराशि लोकाकाश में कैसे रहती है ?

    समाधान – जीव दो प्रकार के हैं सूक्ष्‍म और बादर, अत: उनका लोकाकाश में अवस्‍थान बन जाता है। जो बादर जीव हैं उनका शरीर तो प्रतिघात सहित होता है किन्‍तु जो सूक्ष्‍म हैं वे यद्यपि सशरीर हैं तो भी सूक्ष्‍म होने के कारण एक निगोद जीव आकाश के जितने प्रदेशों को अवगाहन करता है उतने में साधारण शरीर वाले अनन्‍तानन्‍त जीव रह जाते हैं। वे परस्‍पर में और बादरों के साथ व्‍याघात को नहीं प्राप्‍त होते, इसलिए लोकाकाश में अनन्‍तानन्‍त जीवों के अवगाह में कोई विरोध नहीं आता।

    यहाँ पर शंकाकार का कहना है कि जब एक जीव के प्रदेश लोकाकाश के बराबर बतलाये हैं तो लोक के असंख्‍यातवें भाग आदि में एक जीव कैसे रह सकता है, उसे तो सब लोक को व्‍याप्‍त कर ही रहना चाहिए ? अब इस शंका का समसधान करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-3. असंख्येय भागों का एक भाग असंख्येयभाग । लोकाकाश के असंख्येय एक भाग आदि में जीवों का अवगाह है । 'लोकाकाशेऽवगाह' सूत्र से लोकाकाश शब्द का प्रकरणवश अर्थाधीन विभक्तिपरिणमन करके 'लोकाकाशस्य' के रूप में अनुवर्तन कर लेना चाहिए । तात्पर्य यह कि -- लोक के असंख्यात प्रदेश हैं, उनके असंख्यात भाग किये जाँय । एक असंख्येय भाग में भी एक जीव रहता है तथा दो तीन चार आदि असंख्येय भागों में और संपूर्ण लोक जीवों का अवगाह समझना चाहिए । नाना जीवों का अवगाहक्षेत्र तो सर्वलोक है ।

    4. प्रश्न – जब एक असंख्येय भाग में भी असंख्यात प्रदेश हैं और दो तीन चार आदि भागों में भी असंख्यात प्रदेश हैं तब जीवों के अवगाह में कोई विशेषता नहीं होनी चाहिए ?

    उत्तर – अजघन्योत्कृष्ट असंख्येय के भी असंख्येय विकल्प हैं । अजघन्योत्कृष्ट असंख्येय के असंख्येय भेद हैं, अतः जीवों के अवगाह में भी भेद हो जाता है ।

    5. प्रश्न – जब लोक के एक असंख्येय भाग में एक जीव रहता है और द्रव्य-प्रमाण से जीवराशि अनन्तानन्त है तो वह लोकाकाश में कैसे समा सकती है ?

    उत्तर – जीव बादर और सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार के हैं । बादर जीव सप्रतिघात शरीरी होते हैं पर सूक्ष्मजीवों का सूक्ष्म-परिणमन होने के कारण सशरीरी होने पर भी न तो बादरों से प्रतिघात होता है और न परस्पर ही । वे अप्रतीघात-शरीरी हैं । इसलिए जहाँ एक सूक्ष्मनिगोद जीव रहता है वहीं अनन्तानन्त साधारण सूक्ष्म शरीरी रहते हैं । बादर मनुष्य आदि के शरीरों में भी संस्वेदज आदि अनेक सम्मृर्छन जीव रहते हैं । यदि सभी जीव बादर ही होते तो अवगाह में गड़बड़ पड़ सकती थी । सशरीर आत्मा भी अप्रतिघाती है यह बात तो अनुभव-सिद्ध है । निश्छिद्र लोहे के मकान से, जिसमें वन के किवाड़ लगे हों और वनलेप भी जिसमें किया गया हो, मरकर जीव कार्मणशरीर के साथ निकल जाता है । यह कार्मण शरीर मूर्तिमान् ज्ञानावरणादि कर्मों का पिंड है । तैजस शरीर भी इसके साथ सदा रहता है । मरणकाल में इन दोनों शरीरों के साथ जीव वनमय कमरे से निकल जाता है और उस कमरे में कहीं भी छेद या दरार नहीं पड़ती । इसी तरह सूक्ष्म निगोदिया जीवों का शरीर भी अप्रतिघाती समझना चाहिए ।

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    + जीव के अवगाह का नियम -
    प्रदेश-संहार-विसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥16॥
    अन्वयार्थ : क्‍योंकि प्रदीप के समान जीव के प्रदेशों का संकोच और विस्‍तार होने के कारण लोकाकाश के असंख्‍येयभागादिक में जीवों का अवगाह बन जाता है॥१६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    चूँकि आत्‍मा अमूर्त स्‍वभाव है तो भी अनादिकालीन बन्‍ध के कारण एकपने को प्राप्‍त होने से वह मूर्त हो रहा है और कार्मण शरीर के कारण वह छोटे- बड़े शरीर में रहता है, इसलिए वह प्रदेशों के संकोच और विस्‍तार स्‍वभाववाला है और इसलिए शरीर के अनुसार दीपक के समान उसका लोक के असंख्‍यातवें भाग आदि में रहना बन जाता है। जिस प्रकार निरावरण आकाश-प्रदेश में यद्यपि दीपक के प्रकाश के परिमाण का निश्‍चय नहीं होता तथापि वह सकोरा, ढक्‍कन , तथा आवरण करने वाले दूसरे पदार्थों के आवरण के वश से तत्‍परिमाण होता है उसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए।

    शंका – धर्मादिक द्रव्‍यों के प्रदेशों का परस्‍पर प्रवेश होने के कारण संकर होने से अभेद प्राप्‍त होता है ?

    समाधान – नहीं; क्योंकि परस्‍पर अत्‍यन्‍त संश्‍लेष सम्‍बन्‍ध हो जाने पर भी वे अपने-अपने स्‍वभाव को नहीं छोड़ते; इसलिए उनमें अभेद नहीं होता । कहा भी है-

    'सब द्रव्‍य परस्‍पर प्रविष्‍ट हैं , एक दूसरे को अवकाश देते हैं, और सदा मिलकर रह रहे हैं तो भी अपने स्‍वभाव नहीं छोड़ते।'

    यदि ऐसा है तो धर्मादिक द्रव्‍यों का स्‍वभावभेद कहना चाहिए इसलिए आगे का सूत्र क‍हते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-3. यद्यपि आत्मा स्वभाव से अमूर्त है पर अनादिकालीन कर्मसम्बन्ध के कारण कथश्चित मूर्तपने को धारण किये हुए है । लोकाकाश के बराबर इसके प्रदेश हैं फिर भी कार्मणशरीर के कारण ग्रहण किये गये शरीर में ही स्थित रहता है । सूखे चमड़े की तरह प्रदेशों के संकोच को संहार और जल में तेल की तरह प्रदेशों के फैलाव को विसर्प कहते हैं । इन कारणों से जीव असंख्येयभाग आदि में समा जाता है । जैसे कि निरावरण आकाश में रखे हुए दीपक का प्रकाश बहुदेशव्यापी होने पर भी जब वह सकोरा या अन्य किसी आवरण से ढंक दिया जाता है तो उतने में ही सीमित हो जाता है । संहार और विसर्प स्वभाव होने पर आत्मा में दीपक की तरह अनित्यत्व का प्रसंग देना जैनों के लिए दूषण नहीं है, क्योंकि उन्हें यह इष्ट है कि आत्मा कार्मणशरीर जन्य प्रदेशसंहार और विसर्परूप पर्याय की दृष्टि से अनित्य है ही ।

    अथवा संकोच विकास होने पर भी दीपकरूपी द्रव्यसामान्य की दृष्टि से नित्य है । अतः वह बाधाकारी दृष्टान्त नहीं बन सकता ।

    4-7. प्रश्न – प्रदीपादि की तरह संहार और विसर्प होने से संसारी आत्मा के घटादि को तरह छेदन भेदन और प्रदेशविशरण होना चाहिए । इस तरह शून्यता का प्रसंग प्राप्त होता है ।

    उत्तर – बन्ध की दृष्टि से कार्मण शरीर के साथ एकत्व होने पर भी आत्मा अपने निजी अमूर्त स्वभाव को नहीं छोड़ता । लक्षण भेद से उनमें भेद है ही । फिर इस विषय में भी अनेकान्त ही है । अनादि पारिणामिक चैतन्य जीवद्रव्योपयोग आदि द्रव्यार्थदृष्टि से न तो प्रदेशों का संहार या विसर्प ही होता है और न उसमें सावयवपना ही है । हाँ, प्रतिनियत सूक्ष्म / बादर शरीर को उत्पन्न करनेवाले निर्माण नामक उदय रूप पर्याय की विवक्षा से स्यात् प्रदेशसंहार और विसर्प है, इसी तरह अनादि कर्मबन्ध रूपी पर्यायार्थदेश से सावयवपना भी है । किंच, जिस पदार्थ के अवयव कारणपूर्वक होते हैं अर्थात् कारणों से उत्पन्न होते हैं उसके अवयवविशरण से विनाश हो सकता है जैसे कि अनेक तन्तुओं से बने हुए कपड़े का तन्तुविशरण से विनाश होता है । पर आत्मा के प्रदेश अन्यद्रव्य के संघात से उत्पन्न नहीं हुए हैं, वे अकारणपूर्वक हैं । जिस प्रकार अणु का प्रदेश अकारणपूर्वक है अतः वह अवयवविश्लेष से अनित्यता को प्राप्त नहीं होता किन्तु अन्य परमाणु के संयोग से ही उसमें अनित्यता आती है उसी प्रकार आत्मप्रदेश अन्यद्रव्यसंघातपूर्वक नहीं हैं अतः प्रदेशवान होने से सावयव होकर भी आत्मा अवयवविश्लेष से अनित्यता को नहीं प्राप्त होता, केवल गति आदि पर्यायों की दृष्टि से ही अनित्य हो सकता है । इसीलिए आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में सुखादिगुणों की विशेषाभिव्यक्ति नहीं देखी जाती । अन्यद्रव्यसंघात से सावयव बने हुए पटादिद्रव्यों में ही प्रतिप्रदेश रूपादिगुणों की विशेषता देखी जाती है । यदि आत्मा के प्रदेश भी अन्यद्रव्य संघात पूर्वक होते तो प्रतिप्रदेश सुखादिगुणों की विशेषता रहती और इस तरह एक ही शरीर में बहुत आत्माओं का प्रसंग प्राप्त होता । जैसे परमाणु में एक समय में एक जातीय ही शुक्ल आदि गुण होता है उसी तरह आत्मा में भी एकजातीय ही सुखादि एक काल में हो सकते हैं ।

    अतः यह आशंका भी निर्मूल हो जाती है कि - "सर्दी और गर्मी का असर चमड़े पर पड़ता है आकाश पर नहीं । यदि आत्मा चमड़े की तरह है तो अनित्य हो जायगा और आकाश की तरह है तो समस्त पुण्य पापादि क्रियाएँ निष्फल हो जायगी।" क्योंकि यह कहा जा चुका है कि - द्रव्यदृष्टि से नित्य होने पर भी आत्मा पर्यायदृष्टि से अनित्य है ।

    8-9. चूँकि संसारी आत्मा कार्मणशरीर के अनुसार छोटे बड़े स्थूल शरीर को ग्रहण करता है और सबसे छोटा शरीर अंगुल के असंख्येय भाग प्रमाण है अतः आत्मा का पुद्गल की तरह एक प्रदेश आदि में अवगाह नहीं हो सकता । यद्यपि मुक्त जीवों के वर्तमान शरीर नहीं है फिर भी उनके आत्मप्रदेशों की रचना अन्तिमशरीर से कुछ कम आकार में रह जाती है, न तो घटती है और न बढ़ती है क्योंकि मुक्त अवस्था में संहार और विसर्प का कारण कर्म ही नहीं है । अतः मुक्त आत्माओं की पुद्गल की तरह एक प्रदेश आदि में वृत्ति नहीं मानी जा सकती ।

    10. प्रश्न – जिस देश में धर्म द्रव्य है उसी देश में अधर्म और आकाशादि, जो धर्म का आकार है वही अधर्म आदि द्रव्यों का, काल भी सबका एक जैसा ही है, स्पर्शन भी सभी का बराबर है, केवल ज्ञानी के ज्ञान के विषय भी सब समान रूप से होते हैं, इसी तरह अरूपत्व, द्रव्यत्व और ज्ञेयत्व आदि की दृष्टि से कोई विशेषता न होने से धर्मादि द्रव्यों को एक ही मानना चाहिए ?

    उत्तर – जिस कारण आपने धर्मादि द्रव्यों में एकत्व का प्रश्न किया है उसी कारण उनकी भिन्नता स्वयं सिद्ध है । जब वे भिन्न भिन्न हैं तभी तो उनमें अमुक दृष्टियों से एकत्व की सम्भावना की गई है । यदि ये एक होते तो यह प्रश्न ही नहीं उठता । जिस तरह रूप रस आदि में तुल्यदेशकालत्व आदि होने पर भी अपने-अपने विशिष्ट-लक्षण के होने से अनेकता है, उसी तरह धर्मादि द्रव्यों में भी लक्षणभेद से अनेकता है ।

    आगे उन्हीं लक्षणों को कहते हैं --

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    + धर्म और अधर्म द्रव्‍य का उपकार -
    गति-स्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकार: ॥17॥
    अन्वयार्थ : गति और स्थिति में निमित्त होना यह क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्‍य का उपकार है ॥१७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान के प्राप्‍त कराने में जो कारण है उसे गति कहते हैं। स्थिति का स्‍वरूप इससे उलटा है। उपग्रह शब्‍द उपकार का पर्यायवाची है जिस‍की व्‍युत्‍पत्ति 'उपगृह्यते' है। गति और स्थिति इन दोनों में द्वन्‍द्व समास है। गति और स्थिति ही उपग्रह हैं, इसलिए 'गतिस्थित्‍युपग्रहौ' यह सूत्रवचन कहा है। 'धर्माधर्मयो:' यह कर्ता अर्थ में षष्‍ठी निर्देश है। उपकार की व्‍युत्‍पत्ति 'उपक्रियते' है।

    शंका – यह उपकार क्‍या है ?

    समाधान – गति उपग्रह और स्थिति उपग्रह यही उपकार है।

    शंका – यदि ऐसा है तो द्विवचन का निर्देश प्राप्‍त होता है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्‍योंकि सामान्‍य से ग्रहण किया गया शब्‍द जिस संख्‍या को प्राप्‍त कर लेता है दूसरे शब्‍द के सम्‍बन्‍ध होने पर भी वह उस संख्‍या को नहीं छोड़ता। जैसे 'साधो: कार्यं तप: श्रुते' इस वाक्‍य में 'कार्यम्' एकवचन और 'तपःश्रुते' द्विवचन है। यही बात प्रकृत में जानना चाहिए। इस सूत्र का यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार मछली के गमन में जल साधारण निमित्त है उसी प्रकार गमन करते हुए जीव और पुद्‍गलों के गमन में धर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है। तथा जिस प्रकार घोड़ा आदि के ठहरने में पृथिवी साधारण निमित्त है उसी प्रकार ठहरने वाले जीव और पु्द्‍गलों के ठहरने में अधर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है।

    शंका – सूत्र में 'उपग्रह' वचन निरर्थक है, क्‍योंकि 'उपकार' इसी से काम चल जाता है। यथा - 'गतिस्थिती धर्माधर्मयोरूपकार:' ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है; क्‍योंकि यथाक्रम के निराकरण करने के लिए 'उपग्रह' पद रखा है। जिस प्रकार धर्म और अधर्म के साथ गति और स्थिति का क्रम से सम्‍बन्‍ध होता है उसी प्रकार जीव और पुद्‍गलों का क्रम से सम्‍बन्‍ध प्राप्‍त होता है। यथा- धर्म द्रव्‍य का उपकार जीवों की गति है और अधर्म द्रव्‍य का उपकार पु्द्‍गलों की स्थिति है, अत: इसका निराकरण करने के लिए सूत्र में 'उपग्रह' पद रखा है।

    शंका – धर्म और अधर्म द्रव्‍य का जो उपकार है उसे आकाश का मान लेना युक्‍त है क्‍योंकि आकाश सर्वगत है ?

    समाधान – यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि आकाश का अन्‍य उपकार है। सब धर्मादिक द्रव्‍यों को अवगाहन देना आकाश का प्रयोजन है। यदि एक द्रव्‍य के अनेक प्रयोजन माने जाते हैं तो लोकालोक के विभाग का अभाव होता है, अत: धर्म और अधर्म द्रव्‍य का जो उपकार है व‍ह आकाश का मानना युक्‍त नहीं।

    शंका – धर्म और अधर्म द्रव्‍य के जो प्रयोजन हैं पृथिवी और जल आदिक ही उनके करने में समर्थ हैं, अत: धर्म और अधर्म द्रव्‍य का मानना ठीक नहीं ?

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि धर्म और अधर्म द्रव्‍य गति और स्थिति के साधारण कारण हैं यह विशेष रूप से कहा है। तथा एक कार्य अनेक कारणों से होता है, इसलिए धर्म और अधर्म द्रव्‍य का मानना ठीक है।

    शंका – धर्म और अधर्म ये दोनों द्रव्य तुल्‍य बलवाले हैं, अत: गति से स्थिति का और स्थिति से गति का प्रतिबन्‍ध होना चाहिए ?

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि ये अप्रेरक हैं।

    शंका – धर्म और अधर्म द्रव्‍य नहीं है, क्‍योंकि उनकी उपलब्धि नहीं होती, जैसे गधे के सींग ?

    समाधान – नहीं; क्‍योंकि इसमें सब वादियों को विवाद नहीं है। तात्‍पर्य यह है कि जितने वादी हैं वे प्रत्‍यक्ष और परोक्ष दोनों प्रकार के पदार्थों को स्‍वीकार करते हैं। इसलिए इनका अभाव नहीं किया जा सकता। दूसरे हम जैनों के प्रति 'अनुपलब्धि' हेतु असिद्ध है, क्‍योंकि जिनके सातिशय प्रत्‍यक्ष ज्ञानरूपी नेत्र विद्यमान हैं ऐसे सर्वज्ञ देव सब धर्मादिक द्रव्‍यों को प्रत्‍यक्ष जानते हैं और उनके उपदेश से श्रुतज्ञानी भी जानते हैं।

    यदि अतीन्द्रिय धर्म और अधर्म द्रव्‍य का उपकार के सम्‍बन्‍ध से अस्तित्‍व स्‍वीकार किया जाता है तो इनके अनन्‍तर जो अतीन्द्रिय आकाश द्रव्‍य कहा है, ऐसा कौन-सा उपकार है जिससे उसका ज्ञान होता है ? अब इसी बात के बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-3. बाह्य और आभ्यन्तर कारणों से परिणमन करनेवाले द्रव्य को देशान्तर में प्राप्त करनेवाली पर्याय गति कहलाती है । स्वदेश से अप्रच्युति को स्थिति कहते हैं । उपग्रह अर्थात् अनुग्रह, द्रव्यों की शक्ति का आविर्भाव करने में कारण होना ।

    4-9. 'गतिस्थित्युपग्रहो' यहाँ अनेक विग्रहों की संभावना होने पर भी 'गतिस्थिता एव उपग्रहो' यह समानाधिकरण वृत्ति समझनी चाहिए, तभी द्विवचन की सार्थकता है । इनमें 'उपगृह्यते इति उपग्रहौ' इस तरह कर्मसाधनकृत सामानाधिकरण्य है । यदि बहुब्रीहि समास होता तो 'गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मों' ऐसा प्रयोग होता । यदि षष्ठी तत्पुरुष होता तो उत्तर पदार्थ को प्रधानता होने से 'गतिस्थित्युपग्रहः' ऐसा एकवचनान्त प्रयोग होना चाहिए था । .

    10. 'धर्माधर्मयोः' यह कर्तृनिर्देश है अर्थात् ये उपकार क्रिया के कर्ता हैं ।

    11-13. प्रश्न – यदि उपकार शब्द को 'उपकरणमुपकारः' ऐसा भावसाधन माना जाता है तो 'धर्माधर्मयोरुपग्रहौ' इस पद से सामानाधिकरण्य नहीं हो सकेगा; क्योंकि उपकार कर्तृस्थ क्रिया होने से धर्म अधर्म में रहेगी तथा उपगृह्यमाण गति और स्थिति जीव और पुद्गल में रहते हैं । यदि कर्मसाधन मानते हैं तो 'उपगृहौ' की तरह 'उपकारौ' ऐसा द्विवचन प्रयोग होना चाहिए ।

    उत्तर – जैसे 'साधोः कार्य तपःश्रुते' यहाँ सामान्य की अपेक्षा कार्यशब्द में एकवचन का प्रयोग है, वह पीछे भी अपने उपात्त वचन को नहीं छोड़ता, उसी तरह उपकार शब्द भी सामान्य की अपेक्षा उपात्त (एकवचन) होने से अपने गृहीत वचन को नहीं छोड़ता ।

    14-15 अथवा, 'उपग्रहणमुपग्रहः' यह भावसाधन प्रयोग है, इसी तरह उपकार शब्द भी । तब यहाँ 'गति स्थित्योरुपग्रहो' यह षष्ठीसमास मान लेना चाहिए । 'उपग्रहो' में द्विवचन का प्रयोग यथाक्रम प्रतिपत्ति के लिए है । यदि एकवचन रहता तो जैसे एक पृथिवी अश्व आदि की गति और स्थिति दोनों में उपकारक होती है उसी तरह धर्म और अधर्म दोनों गति और स्थिति दोनों ही कार्य करते हैं यह अर्थबोध होता । इससे किसी एक की व्यर्थता नहीं हो सकती क्योंकि एक ही कार्य अनेक कारणों से उत्पन्न हुआ देखा जाता है । अतः इस अनिष्ट प्रसंग के निवारण के लिए 'उपग्रहौ' ऐसा द्विवचन दिया है । तात्पर्य यह कि स्वयं गतिपरिणत जीव और पुद्गलों के गति रूप उपग्रह के लिए धर्मद्रव्य और स्वयं स्थिति रूप से परिणत जीव और पुद्गलों की स्थिति के लिए अधर्म द्रव्य की आवश्यकता है । समस्त लोकाकाश में इन प्रयोजनों की सिद्धि के लिए इन्हें सर्वगत मानना अत्यावश्यक है ।

    16-19. प्रश्न – जब 'उपकार' से ही काम चल जाता है तब 'उपग्रहो' वचन निरर्थक है । 'धर्माधर्मयोरुपकारः' इतना लघुसूत्र बना देना चाहिए । जैसे यष्टि (लाठी) चलते हए अन्धे की उपकारक है उसे प्रेरणा नहीं करती उसी तरह धर्मादि को भी उपकारक कहने से उनमें प्रेरक कर्तृत्व नहीं आ सकता । यदि प्रेरक कर्तृत्व इष्ट होता तो स्पष्ट ही 'गतिस्थिती धर्माधर्मकृते' ऐसा सूत्र बना देते । अतः उपग्रह वचन निरर्थक है ।

    उत्तर – 'आत्मा के गतिपरिणाम में निमित्त होना धर्म-द्रव्य का उपकार है तथा पुद्गलों की स्थिति में निमित्त होना अधर्म-द्रव्य का उपकार है' -- इस अनिष्ट यथाक्रम प्रतीति की निवृत्ति के लिए 'उपग्रह' वचन स्पष्टप्रतीति के लिए दिया गया है । व्याख्यान से विशेष प्रतिपत्ति करने में निरर्थक गौरव होता, अतः सरलता से इष्ट अर्थबोध के लिए 'उपग्रहौ' पद का दे देना अच्छा ही हुआ ।

    20-23. प्रश्न – आकाश सर्वगत है और उसमें सुषिरता भी है अतः गति और स्थिति रूप उपग्रह भी आकाश के ही मान लेने चाहिए ?

    उत्तर – आकाश धर्माधर्मादि सभी का आधार है । जैसे नगर के बने हुए मकानों का नगर आधार है उसी तरह धर्मादि पाँच द्रव्यों का आकाश आधार है । जब आकाश का एक 'अवगाहदान' उपकार सुनिश्चित है तब उसके अन्य उपकार नहीं माने जा सकते अन्यथा जल और अग्नि के द्रवता और उष्णता गुण पृथ्वी के भी मान लेना चाहिए । यदि आकाश ही गति और स्थिति में उपकारक हो तो अलोकाकाश में भी जीव पुदलों की गति और स्थिति होनी चाहिए । इस तरह लोक और अलोक का विभाग ही समाप्त हो जाता है । लोक से भिन्न अलोक तो होना ही चाहिए, क्योंकि वह 'अब्राह्मण' की तरह नञ्युक्त सार्थक पद है । जिस प्रकार मछली की गति जल में होती है, जल के अभाव में जमीन पर नहीं होती आकाश की मौजूदगी रहनेपर भी, उसी तरह आकाश के रहने पर भी धर्माधर्म के होनेपर ही जीव और पुदल की गति और स्थिति होती है । धर्म और अधर्म गति और स्थिति के साधारण कारण है अवकाशदान में आकाश की तरह । जैसे भूमि आदि आधारों के विद्यमान रहने पर भी अवगाहक साधारण कारण आकाश माना जाता है उसी तरह मछली आदि के लिए जल आदि बाह्य निमित्त रहेन पर भी साधारण कारण धर्म और अधर्म द्रव्य मानना ही चाहिए ।

    24. यदि एक द्रव्य का धर्म दूसरे द्रव्य में मानकर अन्य द्रव्यों का लोप किया जाता है और इसी पद्धति से सर्व व्यापक आकाश को ही गति और स्थिति में निमित्त मानकर धर्म और अधर्म द्रव्य का अभाव किया जाता है तो सभी मतवादियों के यहाँ सिद्धान्त-विरोध दूषण आएगा क्योंकि सभी ने अनेक व्यापक द्रव्य माने हैं । 25-27. जिस प्रकार स्वयं गति में समर्थ लँगड़े को चलते समय लाठी सहारा देती है अथवा जैसे स्वतः दर्शनसमर्थ नेत्र के लिए दीपक सहारा देता है, न तो लाठी गति की है और न वह प्रेरणा देती है, दीपक भी असमर्थ के दर्शनशक्ति उत्पन्न नहीं करता । यदि असमर्थी को भी गति या दर्शनशक्ति के ये कर्ता हो तो मूर्छित, सुषुप्त और जात्यन्धों का भी गति और दर्शन होना चाहिए । उसी तरह स्वयं गति और स्थिति में परिणत जीव और पुद्गलों को धर्म और अधर्म गति और स्थिति में उपकारक होते हैं, प्रेरक नहीं । अतः एक साथ गति और स्थिति का प्रसंग नहीं होता और न गति और स्थिति का परस्पर प्रतिबन्ध ही । यदि ये कर्ता होते तो ही गति के समय स्थिति और स्थिति के समय गति का प्रसंग होकर परस्पर प्रतिबन्ध होता । कहीं-कहीं पर जल जैसे बाह्य कारण न रहनेपर भी प्रकृष्ट गति परिणाम होने से धर्मद्रव्य के निमित्त मात्रसे गति देखी जाती है जैसे पक्षी की गति । इसी तरह अन्य द्रव्यों की भी गति और स्थिति समझ लेनी चाहिए । पक्षियों के गमन में आकाश को निमित्त मानना उचित नहीं, क्योंकि आकाश का कार्य तो अवगाहदान है ।

    28. फिर यह कोई एकान्तिक नियम नहीं है कि सभी आँखवाले बाह्य प्रकाश की सहायता लें ही । व्याघ्र, बिल्ली आदि को बाह्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं भी रहती । मनुष्य आदि में स्वतः वैसी दर्शन शक्ति नहीं है अतः बाह्य आलोक अपेक्षित होता है । जैसे यह कोई नियम नहीं है कि सभी चलनेवाले लाठी का सहारा लेते ही हों । उसी तरह जीव और पुद्गलों को सर्वत्र बाह्य कारणों की मदद के बिना भी केवल धर्म और अधर्म द्रव्य के उपग्रह से गति और स्थिति होती रहती है । किन्हीं को मात्र धर्माधर्मादि से और किन्हीं को धमाधर्मादि के साथ अन्य बाह्य कारणों की भी उपेक्षा होती है ।

    29-31. धर्म और अधर्म की अनुपलब्धि हाने से खरविषाण की तरह अभाव नहीं किया जा सकता अन्यथा अपने तीर्थंकर पुण्य-पाप, परलोक आदि सभी पदार्थां का अभाव हो जायगा । अनुपलब्ध असिद्ध भी है क्योंकि भगवान अर्हन्त सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत आगम से धर्म और अधर्म द्रव्य की उपलब्धि होती ही है । अनुमान से भी गति और स्थिति के साधारण निमित्त के रूप में उनकी उपलब्धि होती है । जिस कारण धर्म और अधर्म अप्रत्यक्ष-अतीन्द्रिय हैं इसीलिए विवाद है कि इनकी खरविषाण की तरह असत्त्व होने से अनुपलब्धि है अथवा परमाणु आकाश आदि की तरह अतीन्द्रिय होने से अनुपलब्धि है ? जिस कारण विवाद है उसी से अभाव का निश्चय नहीं किया जा सकता ।

    32-34. अकेले मृत्पिण्ड से घड़ा उत्पन्न नहीं होता, उसके लिए कुम्हार चक्र-चीवर आदि अनेक बाह्य कारण अपेक्षित होते हैं उसी तरह पक्षी आदि की गति और स्थिति भी अनेक बाह्य कारणों की अपेक्षा करती हैं । इनमें सबकी गति और स्थिति के लिए साधारण कारण क्रमशः धर्म और अधर्म होते हैं । इस तरह अनुमान से धर्म और अधर्म प्रसिद्ध हैं । कारणों का संसर्ग ही कार्योत्पादक होता है न कि जिन किन्ही पदार्थों का संसर्ग । अतः प्रतिविशिष्ट तन्तु जुलाहा, तुरी आदि के संसर्ग से पट की उत्पत्ति की तरह गति और स्थिति के साधारण कारण - धर्म और अधर्म के साथ ही अन्य कारणों का संसर्ग कार्यकारी हो सकता है । संसर्ग भी अनेक कारणों का ही होता है एक का नहीं । बहुत कारणों का संसर्ग भी कारणभेद से भिन्न-भिन्न ही है, अतः अनेक कारणों से कार्योत्पत्ति होती है, यही पक्ष स्थिर रहता है ।

    35. यदि यह नियम बनाया जाय कि 'जो-जो पदार्थ प्रत्यक्ष से उपलब्ध न हों उनका अभाव है' तो सभी वादियों को स्व-सिद्धान्तविरोध दोष होता है; क्योंकि प्रायः सभी वादी अप्रत्यक्ष पदार्थों को स्वीकार करते ही हैं । इस तरह सभी मतवादियों को स्व-सिद्धान्तविरोध दूषण होता है । यदि परमाणु आदि का कार्य से अनुमान किया जाता है तो धर्म और अधर्म का भी अनुमान मानने में क्या विरोध है ? जैसे तुम्हारे ही जीवन-मरण, सुख-दुःख, लाभालाभ आदि पर्यायों का जो कि मनुष्यमात्र को अतीन्द्रिय होने से मनुष्यमात्र के प्रत्यक्ष नहीं हैं, पर सर्वज्ञ के द्वारा उनका साक्षात्कार होने से अस्तित्व सिद्ध है उसी तरह तुम्हारे प्रमाण के अविषय भी धर्म और अधर्म का अस्तित्व सर्वज्ञ-प्रत्यक्ष होने से सिद्ध ही है ।

    36. प्रश्न – जिस प्रकार ज्ञानादि आत्मपरिणाम और दधि आदि पुदलपरिणामों की उत्पत्ति परस्पराश्रित है । इसके लिए किसी धर्म और अधर्म जैसे अतीन्द्रिय द्रव्य की आवश्यकता नहीं है उसी तरह जीव और पुद्गलों की गति और स्थिति के लिए भी उनकी आवश्यकता नहीं है ?

    उत्तर – ज्ञानादि पर्यायों की उत्पत्ति के लिए भी 'काल' नामक साधारण बाह्य कारण की आवश्यकता है उसी तरह गति और स्थिति के लिए साधारण बाह्य कारण -- धर्म और अधर्म होना ही चाहिए ।

    37-40 प्रश्न – अदृष्ट आत्मा का गुण है, इसी के निमित्त से सुख-दुःखरूप फल तथा उनके साधन जुटते हैं । वैशेषिक सूत्र में कहा भी है कि - "अग्नि का ऊपर की ओर जलना, वायु का तिरछा बहना, परमाणु और मन की आद्य क्रिया, ये सब अदृष्ट से होते हैं । उपसर्पण, अपसर्पण, वातपित्तसंयोग और शरीरान्तर से संयोग आदि सभी अष्टकृत हैं।" इसी अदृष्ट से गति और स्थिति हो जायगी ?

    उत्तर – पुदल द्रव्यों में अचेतन होने से अदृष्ट नहीं पाया जाता, अतः यदि गति और स्थिति को अदृष्यहेतुक माना जाता है तो पुद्गलों में गति और स्थिति नहीं हो सकेंगी । यह समाधान भी उचित नहीं है कि - 'जो घटादि पुद्गल जिस आत्मा का उपकार करेंगे उस आत्मा के अदृष्ट से उन पुद्गलों में गति और स्थिति हो जायगी' क्योंकि अन्य द्रव्य का धर्म अन्य द्रव्य में क्रिया नहीं करा सकता । यह हम पहिले ही बता आये हैं कि जो स्वाश्रय में क्रिया को उत्पन्न नहीं करता वह अन्य द्रव्यों में क्रिया उत्पन्न नहीं कर सकता । यदि अदृष्टहेतुक गति और स्थिति मानी जाती है तो जिन मुक्त-जीवों का अदृष्ट (पुण्यपाप) नष्ट हो गया है उनके स्वाभाविक गति और स्थिति नहीं हो सकेंगी, पर होती अवश्य हैं ।

    41-42. अमूर्त होने से धर्म और अधर्म द्रव्य में गतिहेतुत्व और स्थितिहेतुत्व का अभाव नहीं किया जा सकता, क्योंकि अमूर्त के कार्यहेतुत्व न होने का कोई दृष्टान्त नहीं मिलता । उल्टे आकाश आदि अमूर्त पदार्थ स्व-कार्यकारी देखे ही जाते हैं । आकाश अमूर्त होकर सब द्रव्यों के अवगाह में निमित्त होता है । अमूर्त प्रधान महान् अहंकार आदि विकार रूप से परिणत होकर पुरुष के भोग में निमित्त होता है । अमूर्त विज्ञान नाम रूप की उत्पत्ति का कारण होता है । 'नाम रूप विज्ञाननिमित्तक हैं' यह बौद्धों का सिद्धान्त है । अदृष्ट अमूर्त होकर भी पुरुष के उपभोग-साधनों में निमित्त होता ही है । इसी तरह अमूर्त धर्म और अधर्म भी गति और स्थिति में साधारण निमित्त हो जाएँगे ।

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    + आकाश द्रव्य का उपकार -
    आकाशस्या-वगाह: ॥18॥
    अन्वयार्थ : आवगाहन देना आकाश द्रव्य का उपकार है ॥१८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    इस सूत्र में 'उपकार' इस पद की अनुवृत्ति होती है। अवगाहन करने वाले जीव और पुद्‍गलों को अवकाश देना आकाश का उपकार जानना चाहिए।

    शंका – अवगाहन स्‍वभाव वाले जीव और पुद्‍गल क्रियावान् हैं इसलिए इनको अवकाश देना युक्‍त है परन्‍तु धर्मादिक द्रव्‍य निष्क्रिय और नित्‍य सम्‍बन्‍धवाले हैं, उनका अवगाह कैसे बन सकता है ?

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि उपचार से इसकी सिद्ध होती है। जैसे गमन नहीं करने पर भी आकाश सर्वगत कहा जाता है, क्‍योंकि वह सर्वत्र पाया जाता है इसी प्रकार यद्यपि धर्म और अधर्म द्रव्‍य में अवगाह रूप क्रिया नहीं पायी जाती तो भी लोकाकाश में वे सर्वत्र व्‍याप्‍त हैं, अत: वे अवगाही ऐसा उपचार कर लिया जाता है।

    शंका – यदि अवकाश देना आकाश का स्‍वभाव है तो वज्रादिक से लोढा आदिक का और भीत आदि से गाय आदि का व्‍याघात न‍हीं प्राप्‍त होता है, किन्‍तु व्‍याघात तो देखा जाता है। इससे मालूम होता है कि अवकाश देना आकाश का स्‍वभाव नहीं ठहरता ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्‍योंकि वज्र और लोढा आदि स्‍थूल पदार्थ हैं, इसलिए उनका आपस में व्‍याघात होता है, अत: आकाश की अवकाश देने रूप सामर्थ्‍य नहीं नष्‍ट होती। यहाँ जो व्‍याघात दिखाई देता है वह अवगाहन करने वाले पदार्थों का ही है। तात्‍पर्य यह है कि वज्रादिक स्‍थूल पदार्थ हैं, इसलिए वे परस्‍पर अवकाश नहीं देते, यह कुछ आकाश का दोष नहीं है। हाँ, जो पुद्‍गल सूक्ष्‍म होते हैं वे परस्‍पर अवकाश देते है।

    शंका – यदि ऐसा है तो यह आकाश का असाधारण लक्षण नहीं रहता, क्‍योंकि दूसरे पदार्थों में भी इसका सद्भाव पाया जाता है ?

    समाधान – नहीं क्‍योंकि, आकाश द्रव्‍य सब पदार्थों को अवकाश देने में साधारण कारण है यही इसका असाधारण लक्षण है, इसलिए कोई दोष नहीं है।

    शंका – अलोकाकाश में अवकाशदान रूप स्‍वभाव नहीं पाया जाता, इससे ज्ञात होता है कि यह आकाश का स्वभाव नहीं है ?

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि कोई भी द्रव्‍य अपने स्‍वभाव का त्‍याग नहीं करता।

    आकाश द्रव्‍य का उपकार कहा। अब उसके अनन्‍तर कहे गये पुद्‍गलों का क्‍या उपकार है, यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1. अवगाह शब्द भावसाधन है ।

    2. 'धर्म और अधर्म आकाश में रहते हैं । यह औपचारिक प्रयोग है, यह 'हंस जल को अवगाहन करता है । इसकी तरह मुख्य प्रयोग नहीं है । मुख्य आधाराधेयभाव में आधार और आधेय में पौर्वापर्य होता है और यह पहिले है इस प्रकार का सादित्व होता है किन्तु यहाँ समस्त लोकाकाश में धर्म और अधर्म की व्याप्ति है अतः 'लोकाकाश में अवगाह है' यह प्रयोग हो जाता है । जैसे कि गमनक्रिया न होनेपर भी सर्वत्र व्याप्ति होने के कारण आकाश को सर्वगत कह देते हैं ।

    3-4. प्रश्न – कुण्ड और बेर आदि पृथक्-सिद्ध पदार्थों में ही आधाराधेय भाव देखा जाता है । पर ये धर्म अधर्म आकाश आदि तो अयतसिद्ध (पृथकसिद्ध नहीं) हैं क्योंकि इनमें अप्राप्तिपूर्वक प्राप्ति नहीं है ?

    उत्तर – अयुतसिद्ध पदार्थों में भी आधाराधेयभाव देखा जाता है जैसे कि 'हाथ में रेखा' यहाँ पर, उसी तरह लोकाकाश में धर्म और अधर्म हैं यह व्यवहार भी बन जायगा । अथवा, जैसे 'ईश्वर में ऐश्वर्य है' यहाँ अयुतसिद्ध में भी आधाराधेयभाव देखा गया है उसी तरह धर्म अधर्म और आकाश में भी समझ लेना चाहिए ।

    5. धर्माधर्मादि के अनादि-सम्बन्ध और अयुतसिद्धत्व के विषय में अनेकान्त है - पर्यायार्थिकनय की गौणता और द्रव्यार्थिक की मुख्यता होने पर व्यय और उदय नहीं होता अतः ये स्यात् अयुतसिद्ध और अनादि-सम्बद्ध हैं तथा पर्यायार्थिक की मुख्यता और द्रव्यार्थिक की गौणता में सादि-सम्बद्ध और युतसिद्ध हैं क्योंकि पर्यायों का उत्पाद और व्यय होता रहता है ।

    6. जीव और पुद्गल 'हंस जल का अवगाहन करता है' इसकी तरह मुख्य रूप से अवगाह प्राप्त करते हैं क्योंकि ये क्रियावान हैं ।

    7-9. आकाश में अवकाशदान की शक्ति होने पर भी स्थूल पदार्थ परस्पर में टकरा जाते हैं, एक-दूसरे के प्रतिघाती होते हैं । इन वन, पत्थर, दीवाल आदि स्थूल पदार्थों में प्रतिघात होने से आकाश के अवकाशदान में कोई कमी नहीं आती । सूक्ष्म-पदार्थ तो एक-दूसरे के भीतर भी प्रवेश कर सकते हैं । सूक्ष्म-पदार्थों के परस्पर अवकाश देने पर भी आकाश के अवगाहदान लक्षण में कोई कमी नहीं आती, क्योंकि भूमि आदि अश्व आदि के आधार हो भी जायँ किन्तु समस्त पदार्थों को अवगाह देना आकाश की ही विशेषता है । अलोकाकाश में यद्यपि अवगाही पदार्थ नहीं है फिर भी आकाश का 'अवगाहदान' स्वभाव वहाँ भी मौजूद है ही जैसे कि जल में अवगाहन करनेवाले हंस आदि के अभाव में भी 'अवगाह देना' स्वभाव बना रहता है ।

    10. प्रश्न – आकाश का खरविषाण की तरह अभाव है क्योंकि वह उत्पन्न नहीं हुआ है ?

    उत्तर – आकाश को अनुत्पन्न कहना असिद्ध है, क्योंकि द्रव्यार्थिक की गौणता और पर्यायार्थिक की मुख्यता होनेपर अगुरुलघु गुणों की वृद्धि और हानि के निमित्त से स्व-प्रत्यय उत्पाद-व्यय और अवगाहक जीव-पुद्गलों के परिणमन के अनुसार पर-प्रत्यय उत्पाद-व्यय आकाश में होते ही रहते हैं । जैसे कि अन्तिम समय में असर्वज्ञता का विनाश होकर किसी मनुष्य को सर्वज्ञता उत्पन्न हुई तो जो आकाश पहिले अनुपलभ्य था वही पीछे सर्वज्ञ को उपलभ्य हो गया, अतः आकाश भी अनुपलभ्यत्वेन विनष्ट होकर उपलभ्यत्वेन उत्पन्न हुआ । इस तरह उसमें पर-प्रत्यय भी उत्पाद-विनाश होते रहते हैं । 'खरविषाण' भी ज्ञान और शब्द रूप से उत्पन्न होता है तथा अस्तित्व में भी है, अतः दृष्टान्त साध्यसाधन उभयधर्म से शून्य है । कोई जीव जो पहिले खर था, मरकर गौ उत्पन्न हुआ और उसके सींग निकल आये । ऐसी दशा में एक जीव की अपेक्षा अर्थरूप से भी 'खर-विषाण' प्रयोग हो ही जाता है । अतः आकाश का अभाव नहीं किया जा सकता ।

    11. आकाश आवरणाभाव मात्र नहीं है किन्तु वस्तुभूत है । जैसे कि नाम और वेदना आदि अमूर्त होने से अनावरण रूप होकर भी सत् हैं उसी तरह आकाश भी ।

    12. शब्द पौद्गलिक है, आकाश का गुण नहीं है, अतः शब्द-गुण के द्वारा गुणीभूत आकाश का अनुमान करना उचित नहीं है, किन्तु अवगाह के द्वारा ही वह अनुमित होता है । अतः यह कहना अयुक्तिक है कि - "शब्द आकाश का गुण है, वह वायु के अविघात आदि बाह्य निमित्तों से उत्पन्न होता है, इन्द्रिय-प्रत्यक्ष है, गुण है, अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाता, निराधार गुण रह नहीं सकते अतः अपने आधारभूत गुणी आकाश का अनुमान कराता है।"

    13. सांख्य का आकाश को प्रधान का विकार मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि नित्य निष्क्रिय अनन्त प्रधान के आत्मा की तरह विकार ही नहीं हो सकता, न उसका आविर्भाव ही हो सकता है और न तिरोभाव ही । "प्रधान को सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों को साम्य" अवस्थारूप माना है । उसमें उत्पादक स्वभावता है इसी के विकार महान् आदि होते हैं, आकाश भी उसी का विकार है" -- यह कथन भी अयुक्त है, क्योंकि जिस प्रकार घड़ा प्रधान का विकार होकर अनित्य मूर्त और असर्वगत है उसी तरह आकाश को भी होना चाहिए या फिर आकाश की तरह घट को नित्य अमूर्त और सर्वगत होना चाहिए । एक कारण से दो परस्पर अत्यन्तविरोधी विकार नहीं हो सकते ।

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    + पुद्गल द्रव्य का उपकार -
    शरीरवाङ्मन:-प्राणापाना पुद्गलानाम् ॥19॥
    अन्वयार्थ : शरीर,वचन, मन और प्राणापान -- यह पुद्गलों का उपकार है ॥१९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    शंका – यह अयुक्‍त है।

    समाधान – (प्रतिशंका) क्‍या अयुक्‍त है ?

    शंका – पुद्‍गलों का क्‍या उपकार है यह प्रश्‍न था पर उसके उत्तर में 'शरीरादिक पुद्‍गलमय हैं' इस प्रकार पुद्‍गलों का लक्षण कहा जाता है ?

    समाधान – यह अयुक्‍त नहीं है, क्‍योंकि पुद्‍गलों का लक्षण आगे कहा जाएगा, यह सूत्र तो जीवों के प्रति पुद्‍गलों के उपकार का कथन करने के लिए ही आया है, अत: उपकार प्रकरण में ही यह सूत्र कहा है। औदारिक आदि पाँचों शरीरों का कथन पहले कर आये हैं। वे सूक्ष्‍म होने से इन्द्रियगोचर नहीं है। किन्‍तु उनके उदय से जो उपचय शरीर प्राप्‍त होते हैं उनमें-से कुछ शरीर इन्द्रियगोचर हैं और कुछ इन्द्रियातीत हैं। इन पाँचो शरीरों के कारणभूत जो कर्म हैं उनका भी शरीर पद के ग्रहण करने से ग्रहण हो जाता है। ये सब शरीर पौद्‍गलिक हैं ऐसा समझकर जीवों का उपकार पुद्‍गल करते हैं यह कहा है।

    शंका – आकाश के समान कार्मण शरीर का कोई आकार नहीं पाया जाता, इसलिए उसे पौद्‍गलिक मानना युक्‍त नहीं है। हाँ, जो औदारिक आदिक शरीर आकारवाले हैं उनको पौद्‍गलिक मानना युक्‍त है ?

    समाधान – य‍ह कहना ठीक नहीं है, क्‍योंकि कार्मण शरीर भी पौद्‍गलिक ही है, क्‍योंकि उसका फल मूर्तिमान् पदार्थों के सम्‍बन्‍ध से होता है। यह तो स्‍पष्‍ट दिखाई देता है कि जलादिक के सम्बन्ध से पकनेवाले धान आदि पौद्‍गलिक है। उसी प्रकार कार्मण शरीर भी गुड़ और काँटे आदि मूर्तिमान् पदार्थों के मिलने पर फल देते हैं, इससे ज्ञात होता है कि कार्मण शरीर भी पौद्‍गलिक है। वचन दो प्रकार का है- द्रव्‍यवचन और भाववचन। इनमें-से भाववचन वीर्यान्‍तराय और मतिज्ञानावरण तथा श्रुतज्ञानावरण कर्मों के क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्म के निमित्त से होता है, इसलिए वह पौद्‍गलिक है, क्‍योंकि पुद्‍गलों के अभाव में भाववचन का सद्भाव नहीं पाया जाता। चूँकि इस प्रकार की सामर्थ्य से युक्‍त क्रियावाले आत्‍मा के द्वारा प्रेरित हो कर पुद्‍गल वचनरूप से परिणमन करते हैं, इसलिए द्रव्‍य वचन भी पौद्‍गलिक हैं। दूसरे द्रव्‍य श्रोत्र इन्द्रिय के विषय हैं, इससे भी ज्ञात होता है कि वे पौद्‍गलिक हैं।

    शंका – वचन इतर इन्द्रियों के विषय क्‍यों नहीं होते ?

    समाधान – घ्राण इन्द्रिय गन्‍ध को ग्रहण करती है उससे जिस प्रकार रसादिक की उपलब्धि नहीं होती उसी प्रकार इतर इन्द्रियों में वचन के ग्रहण करने की योग्‍यता नहीं है।

    शंका – वचन अमूर्त हैं ?

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि वचनों का मूर्त इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण होता है, वे मूर्त भीत आदि के द्वारा रुक जाते हैं, प्रतिकूल वायु आदि के द्वारा उनका व्‍याघात देखा जाता है तथा अन्‍य कारणों से उनका अभिभव आदि देखा जाता है। इससे शब्‍द मूर्त सिद्ध होते हैं।

    मन दो प्रकार का है- द्रव्‍यमन और भावमन । लब्धि और उपयोगलक्षण भावमन पुद्‍गलों के आलम्‍बन से होता है, इसलिए पौद्‍गलिक है। तथा ज्ञानावरण और वीर्यान्‍तराय के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के निमित्त से जो पुद्‍गल गुण-दोष का विचार और स्‍मरण आदि उपयोग के सम्‍मुख हुए आत्‍मा के उपकारक हैं वे ही मनरूप से परिणत होते हैं, अत: द्रव्‍यमन भी पौद्‍गलिक है।

    शंका – मन एक स्‍वतन्‍त्र द्रव्‍य है। वह रूपादिरूप परिणमन से रहित है और अणुमात्र है, इसलिए उसे पौद्गलिक मानना अयुक्‍त है।

    समाधान – शंकाकार का इस प्रकार कहना अयुक्‍त है। खुलासा इस प्रकार है- वह मन आत्‍मा और इन्द्रिय से सम्‍बद्ध है या असम्‍बद्ध। यदि असम्‍बद्ध है तो वह आत्‍मा का उपकारक नहीं हो सकता और इन्द्रियों की सहायता भी नहीं कर सकता। यदि सम्‍बद्ध है तो जिस प्रदेश में वह अणु मन सम्‍बद्ध है उस प्रदेशको छोड़ कर इतर प्रदेशों का उपकार नहीं कर सकता।

    शंका – अदृष्‍ट नाम का एक गुण है उसके वश से वह मन अलातचक्र के समान सब प्रदेशों में घूमता रहता है ?

    समाधान – नहीं, क्‍योंकि अदृष्‍ट नाम के गुण में इस प्रकार की सामर्थ्‍य नहीं पायी जाती। यत: अमूर्त और निष्क्रिय आत्‍मा का अदृष्‍ट गुण है । अतः यह गुण भी निष्क्रिय है, इसलिए अन्‍यत्र क्रिया का आरम्‍भ करने में असमर्थ है। देखा जाता है कि वायु नामक द्रव्‍य विशेष स्‍वयं क्रियावाला और स्‍पर्शवाला होकर ही वनस्‍पति में परिस्‍पन्‍द का कारण होता है, परन्‍तु यह अदृष्‍ट उससे विपरीत लक्षणवाला है, इसलिए यह क्रिया का हेतु नहीं हो सकता । वीर्यान्‍तराय और ज्ञानावरण के क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामककर्म के उदय की अपेक्षा रखने वाला आत्‍मा कोष्‍ठगत जिस वायु को बाहर निकालता है उच्‍छवास लक्षण उस वायु को प्राण कहते हैं । तथा वही आत्‍मा बाहरी जिस वायु को भीतर करता है नि:श्‍वासलक्षण उस वायु को अपान कहते हैं । इस प्रकार ये प्राण और अपान भी आत्‍मा का उपकार करते हैं, क्‍योंकि इनमें आत्‍मा जीवित रहता है । ये मन, प्राण और अपान मूर्त हैं, क्‍योंकि दूसरे मूर्त पदार्थों के द्वारा इनका प्रतिघात आदि देखा जाता है । जैसे- प्रतिभय पैदा करनेवाले बिजलीपात आदि के द्वारा मन का प्रतिघात होता है और सुरा आदि के द्वारा अभिभव। तथा हस्‍ततल और वस्‍त्र आदि के द्वारा मुख के ढँक लेने से प्राण और अपान का प्रतिघात उपलब्ध होता है और कफ़ के द्वारा अभिभव । परन्तु अमूर्त का मूर्त पदार्थों के द्वारा अभिघात आदि नहीं हो सकता, इससे प्रतीत होता है कि ये सब मूर्त हैं। तथा इसी से आत्‍मा के अस्तित्‍व की सिद्धि होती है । जैसे यन्‍त्रप्रतिमा की चेष्‍टाएँ अपने प्रयोक्‍ता के अस्तित्‍व का ज्ञान कराती हैं उसी प्रकार प्राण और अपान आदि रूप कार्य भी क्रिया वाले आत्‍मा के अस्तित्‍व के साधक हैं ।

    क्‍या पुद्‍गलों का इतना ही उपकार है या और भी उपकार है, इस बात के बतलाने के लिए अब आगे का सूत्र कहते हैं --

    राजवार्तिक :
    1-2, 9-11. शरीर के होने पर ही वचन आदि की प्रवृत्ति होती है अत: शरीर का सर्व प्रथम ग्रहण किया है । उसके बाद वचन का ग्रहण किया है क्योंकि वचन ही पुरुष को हित में प्रवृत्ति कराते हैं । इसके बाद मन का ग्रहण किया है क्योंकि जिनके शरीर और वचन होता है उन्हीं के मन होता है । अन्त में श्वासोच्छवास का ग्रहण किया है क्योंकि ये सभी संसारी जीवों के पाया जाता है । ये सब पुद्गल-द्रव्य के लक्षण नहीं हैं किन्तु उपकार हैं । लक्षण तो आगे बताया जायगा ।

    3-8. प्रश्न – चक्षु आदि इन्द्रियाँ भी आत्मा को उपकारक हैं अतः उनका भी ग्रहण करना चाहिए ?

    उत्तर – आगे के सूत्र में 'च' शब्द देनेवाले हैं, उससे सभी इष्ट का समुच्चय हो जायगा । 'चक्षु आदि इन्द्रियाँ आत्म-प्रदेशरूप हैं अतः उनका यहाँ ग्रहण नहीं किया है । यह समाधान ठीक नहीं है क्योंकि अंगोपांग नामकर्म के उदय से रची गई द्रव्येन्द्रियाँ पौद्गलिक हैं । और यदि ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम को चेतनात्मक होने से चक्षु आदि भाव-इन्द्रियों का यहाँ अग्रहण है तो भाव-मन भी चेतन है, अतः उसका ग्रहण नहीं होना चाहिए था । यह तर्क भी ठीक नहीं है कि 'चूँकि मन चक्षुरादि इन्द्रियों की तरह अवस्थित नहीं है अनवस्थित है, जैसे चक्षुरादि इन्द्रियों के आत्मप्रदेश नियतदेश में अवस्थित हैं उस तरह मन के नहीं है इसलिए उसे अनिन्द्रिय भी कहते हैं, और इसीलिए उसका पृथक अग्रहण किया गया है । क्योंकि अनवस्थित होने पर भी वह क्षयोपशम-निमित्तक तो है ही । जहाँ-जहाँ उपयोग होता है वहाँ-वहाँ के अंगुल के असंख्यातभाग प्रमाण आत्मप्रदेश मन के रूप से परिणत हो जाते हैं । इसीतरह यदि आत्मपरिणाम होने से चक्षुरादि का यहाँ अग्रहण किया है तो वचन का भी ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि वचन भी ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से होते हैं । यदि कहो कि द्रव्य-वचन जो कि बाहर निकलते हैं, पौगलिक हैं, अतः उनके संग्रह के लिए वचन का ग्रहण है तो द्रव्येन्द्रिय भी पौद्गलिक हैं, अतः उनका संग्रह 'च' शब्द से करना ही चाहिए ।

    12. प्रश्न – धर्मादि द्रव्य चूँकि अप्रत्यक्ष हैं अतः गत्युपग्रह आदि का वर्णन करना उचित है पर पुद्गल तो प्रत्यक्ष है, उसके उपकार वर्णन करने से क्या लाभ ? यह तो ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि सूर्य पूर्व में उदित होता है पश्चिम में डूबता है, गुड़ मीठा है आदि ।

    उत्तर – कुछ पुद्गल भी अप्रत्यक्ष होते हैं । औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण ये शरीर कर्म मूलतः सूक्ष्म होने से अप्रत्यक्ष हैं, उनके उदय से बने हुए औदारिकादि कुछ स्थूल शरीर प्रत्यक्ष हैं कुछ अप्रत्यक्ष हैं । मन भी अप्रत्यक्ष है । वचन और श्वासोच्छास कुछ प्रत्यक्ष हैं कुछ अप्रत्यक्ष । अतः पुद्गल के उपकारों का स्पष्ट विवेचन करने के लिए शरीरादि का उपदेश किया है ।

    13-14. शरीरों का वर्णन किया जा चुका है । कार्मण शरीर अनाकार होकर भी चूंकि मूर्तिमान पुद्गलों के सम्बन्ध से अपना फल देता है, अतः वह पौद्गलिक है । जैसे धान्य, पानी, धूप आदि मूर्तिमान पुद्गलों के सम्बन्ध से पकता है अतएव पौद्गलिक है, उसी तरह गुड़-कंटक आदि मूर्तिमान् पुद्गल-द्रव्यों के सम्बन्ध से कर्मों का विपाक होता है, अतः ये पौद्गलिक है । कोई भी अमूर्त-पदार्थ मूर्तिमान पदार्थ के सम्बन्ध से नहीं पकता ।

    15-17. वचन दो प्रकार के हैं -- द्रव्यवचन और भाववचन । दोनों ही पौगलिक हैं । 18-19. 'शब्द अमूर्त है क्योंकि वह अमूर्त आकाश का गुण है' यह पक्ष ठीक नहीं है । क्योंकि मूर्तिमान के द्वारा ग्रहण, प्रेरणा और अवरोध होने से वह पौद्गलिक है, मूर्त है । शब्द मूर्तिमान इन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य होता है । वायु के द्वारा रूई की तरह एक स्थान से दूसरे स्थान को प्रेरित किया जाता है क्योंकि विरुद्ध दिशा में स्थित व्यक्ति को वह सुनाई देता है । नल, बिल (,रिकार्ड) आदि में पानी की तरह शब्द रोका भी जाता है । अमूर्त पदार्थ में ये सब बातें नहीं होती ।

    शंका – श्रोत्र आकाश रूप है अतः अमूर्त के द्वारा अमूर्त शब्द का ग्रहण हो जाता है । वायु के द्वारा शब्द प्ररित नहीं होता क्योंकि शब्द गुण है और गुण में क्रिया नहीं होती किन्तु संयोग विभाग और शब्द से शब्दान्तर उत्पन्न हो जाते हैं अतः नये-नये शब्द उत्पन्न होकर उनका ग्रहण होता है । जहाँ वेगवान् द्रव्य का अभिघात होता है वहाँ नये शब्दों की उत्पत्ति नहीं होती । जो शब्द का अवरोध जैसा मालूम होता है, वस्तुतः वह अवरोध नहीं है किन्तु अन्य स्पर्शवान द्रव्य का अभिघात होने से एक ही दिशा में शब्द उत्पन्न होने से अवरोध जैसा लगता है । अतः शब्द अमूर्त ही है ।

    समाधान – ये दोष नहीं हैं । श्रोत्र को आकाशमय कहना उचित नहीं है क्योंकि अमूर्त आकाश कार्यान्तर को उत्पन्न करने की शक्ति से रहित है । अदृष्ट की सहायता के सम्बन्ध में यह विचारना है कि यह अदृष्ट आकाश का संस्कार करता है या आत्मा का अथवा शरीर के एक-देश का ? मूर्तिमान तैल आदि से श्रोत्र में अतिशय देखा जाता है तथा मूर्तिमान् कील आदि से उसका विनाश देखा जाता है अत श्रोत्र को मूर्त मानना ही समुचित है । 'स्पर्शवान् द्रव्य के अभिधात से शब्दान्तर का उत्पन्न न होना हो' यह सूचित करता है कि शब्द मूर्त है, क्योंकि कोई भी अमूर्त पदार्थ मूर्त के द्वारा अभिघात को प्राप्त नहीं हो सकता । इसीलिए मुख्य रूप से शब्द का अवरोध भी बन जाता है । जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से अभिभूत होनेवाले तारा आदि मूर्तिक हैं उसी तरह सिंह की दहाड़, हाथी की चिंघाड़ और भेरी आदि के घोष से पक्षी आदिक मन्द शब्दों का भी अभिभव हाने से वे मूर्त हैं । कांसे के बर्तन आदि में पड़े हुए शब्द शब्दान्तर को उत्पन्न करते हैं । पर्वत की गुफाओं आदि से टकराकर प्रतिध्वनि होती है । मूर्तिक मदिरा से इन्द्रियज्ञान का जो अभिभव देखा जाता है वह भी मूर्त से मूर्त का ही अभिभव है क्योंकि क्षायोपशमिक ज्ञान इन्द्रियादि पुद्गलों के अधीन होने से पौद्गलिक है, अन्यथा आकाश की तरह उसका अभिभव नहीं हो सकता था । इस तरह उक्त हेतुओंसे शब्द पुद्गल की पर्याय सिद्ध होता है ।

    20. मन दो प्रकार का है एक भावमन और दूसरा द्रव्यमन । भावमन लब्धि और उपयोगरूप है । यह पुद्गल-निमित्तक और पुद्गलावलम्बन होने से पौद्गलिक है । गुण-दोषविचार और स्मरणादिरूप व्यापार में तत्पर आत्मा के ज्ञानावरण वीर्यान्तराय के क्षयोपशम को आलम्बन बननेवाले या सहायक जो पुद्गल शक्ति-विशेष से युक्त होकर मनरूप से परिणत होते हैं, वे द्रव्यमन हैं । यह पौद्गलिक है ही ।

    21-23. जैसे वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा से आत्मा के ही प्रदेश चक्षु आदि इन्द्रियरूप से परिणमन करते हैं. अतः आत्मा से इन्द्रिय भिन्न नहीं है और इन्द्रिय के नष्ट हो जाने पर भी आत्मा नष्ट नहीं होता अतः इन्द्रिय आत्मा से भिन्न है उसी तरह आत्मा का ही मन रूप से परिणमन होने के कारण मन आत्मा से अभिन्न है और मन की निवृत्ति हो जाने पर भी आत्मा की निवृत्ति नहीं होती, अतः भिन्न है । मन कोई स्थायी पदार्थ नहीं है, क्योंकि जो पुद्गल मन रूप से परिणत हुए थे उनकी मनरूपता गुण, दोष-विचार और स्मरणादि कार्य कर लेने पर अनन्तर समय में नष्ट हो जाती है, आगे वे मन नहीं रहते । वैसे द्रव्यदृष्टि से मन भी स्थायी है और पर्याय दृष्टि से अस्थायी ।

    24-26. वैशेषिक का मत है कि मन एक स्वतंत्र द्रव्य है, वह अणुरूप है और प्रत्येक आत्मा से एक-एक सम्बद्ध है । कहा भी है कि "एक साथ आत्मा के अनेक प्रयत्न नहीं होते और न एक साथ सभी इन्द्रियज्ञानों की उत्पत्ति ही देखी जाती है अतः क्रम का नियामक एक मन है ।" यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि परमाणुमात्र होने से उसमें सामर्थ्य का अभाव है । यह विचारना है कि परमाणुमात्र मन जब आत्मा और इन्द्रिय से सम्बद्ध होकर ज्ञानादि की उत्पत्ति में व्यापार करता है तब वह आत्मा और इन्द्रिय से सर्वात्मना सम्बद्ध होता है या एक देश से ? सर्वात्मना सम्बद्ध नहीं बन सकता; क्योंकि अणुरूप मन या तो इन्द्रिय से सर्वात्मना सम्बद्ध हो सकता है या फिर आत्मा से ही, दोनों के साथ पूर्णरूप से युगपत् सम्बन्ध नहीं हो सकता । यदि एक देश से; तो मन के प्रदेशभेद मानना होगा, पर यह अनिष्ट है क्योंकि मन को परमाणुरूप माना गया है । यदि आत्मा मन से सर्वात्मना सम्बन्ध करता है तो या तो आत्मा की तरह मन को व्यापक मानना होगा या मन की तरह आत्मा को अणुरूप । यदि आत्मा एकदेश से मन के साथ संयुक्त होता है तो आत्मा के प्रदेश मानने होंगे । ऐसी दशा में आत्मा, मन, इन्द्रिय और पदार्थ; आत्मा, मन और पदार्थ तथा आत्मा और मन इन चार तीन और दो के सन्निकर्ष से आत्मा के कुछ प्रदेश ज्ञानवाले होंगे तथा कुछ प्रदेश ज्ञानादि रहित । जिन प्रदेशों में ज्ञानादि नहीं होंगे, उनकी आत्मरूपता निश्चित नहीं हो सकने के कारण आत्मा सर्वगत नहीं रह सकेगा । इसी तरह यदि मन इन्द्रियों के साथ सर्वात्मना सम्बद्ध होता है तो या तो मन की तरह इन्द्रियाँ अणुरूप हो जायँगी या फिर इन्द्रियों की तरह मन अणुरूपता छोड़कर कुछ बड़ा हो जायगा । एकदेश से सम्बन्ध मानने पर मन परमाणुरूप नहीं रह पायगा, उसके अनेक पदेश हो जायेंगे । फिर, आपके मत में गुण और गुणी में भेद स्वीकार किया गया है तथा मन नित्य माना गया है अतः जब उसका संयोग और विभागरूप में परिणमन ही नहीं हो सकता, तब न तो आत्मा से संयोग हो सकेगा और न इन्द्रियों से ही । यदि मन का संयोग और विभाग रूप से परिणमन होता है तो नित्यता नहीं रहती । जब मन अचेतन है तो उसे 'इस आत्मा या इन्द्रिय से संयुक्त होना चाहिए इससे नहीं' यह विवेक नहीं हो सकेगा, इसलिए प्रतिनियत आत्मा से उसका संयोग नहीं बन सकेगा । कर्म का दृष्टान्त तो उचित नहीं है क्योंकि कर्म पुरुष के परिणामों से अनुरंजित होने के कारण - कथञ्चित् चेतन है; हाँ पुद्गल द्रव्य की द्रव्य की दृष्टि से ही वह अचेतन है । मन परमाणुरूप है, अतः चक्षु आदि का जो प्रदेश उससे संयुक्त होगा उसी से अर्थबोध हो सकेगा अन्य से नहीं पर समस्त चक्षु के द्वारा रूपज्ञान देखा जाता है अतः मन परमाणुरूप नहीं है । अणु मन को आशुसंचारी मानकर पूरी चक्षु आदि से सम्बन्ध मानना उचित नहीं है, क्योंकि अचेतन मन के बुद्धिपूर्वक क्रिया और व्याप्ति नहीं हो सकती । अदृष्ट की प्ररणा से मन का इष्ट देश में आशुभ्रमण मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि क्रियावान् पुरुष के द्वारा प्रेरित होकर ही अलातचक्र (जलती हुई लकड़ी ज़ोर से घुमाने से बना हुआ मंडल) आदि शीघ्र-गति से सर्वत्र गोलाकार में उपलब्ध होता है, परन्तु अदृष्ट नामक गुण तो स्वयं क्रियारहित है, वह कैसे अन्यत्र क्रिया करा सकेगा ?

    27-29 मन और आत्मा का अनादि सम्बन्ध माननः उचित नहीं है । क्योंकि मन और आत्मा का संयोग सम्बन्ध है । आपके मत से तो अप्राप्तिपूर्वक प्राप्ति को संयोग कहते हैं । अतः इनका अनादि-सम्बन्ध नहीं बन सकता । जैन दृष्टि से तो मन क्षायोपशमिक है, अतः उसकी अनादिता हो ही नहीं सकती । यदि मन अनादिसम्बन्धी होता तो उसका परित्याग नहीं होना चाहिए था । जीव और कर्म का अनादि सम्बन्ध होने पर भी कर्म का परित्याग इसलिए हो जाता है कि कर्म बन्धसन्तति की दृष्टि से अनादि होकर भी चूंकि मिथ्यादर्शन आदि कारणों से उस-उस समय में बँधते रहते हैं, सादिबन्धी भी है -- अतः जब सम्यग्दर्शन आदि रूप से परिणमन होता है तब उनका सम्बन्ध छूट जाता है, पर मन में ऐसी बात नहीं है ।

    30-31. प्रश्न – मन इन्द्रियों का सहकारी कारण है, क्योंकि जब इन्द्रियाँ इष्ट-अनिष्ट विषयों में प्रवृत्त होती हैं तब मन के सन्निधान से ही वे सुख दुःखादि का अनुभव करती हैं । इसके सिवाय मन का अन्य व्यापार नहीं है ।

    उत्तर – वस्तुतः गरम लोहपिण्ड की तरह आत्मा का ही इन्द्रियरूप से परिणमन हुआ है, अतः चेतनरूप होने से इन्द्रियाँ स्वयं सुख-दुःख का वेदन करती हैं । यदि मन के बिना इन्द्रियों में स्वयं सुख-दुःखानुभव न हो तो एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को सुख-दुःख का अनुभव नहीं होना चाहिए । गुण-दोष-विचार आदि मन के स्वतन्त्र कार्य हैं । मनोलब्धिवाले आत्मा के जो पुद्गल मनरूप से परिणत हुए हैं वे अन्धकार तिमिर आदि बाह्यन्द्रियों के उपघातक कारणों के रहते हुए भी गुण-दोष-विचार और स्मरण आदि व्यापार में सहायक होते ही हैं । इसलिए मन का स्वतन्त्र अस्तित्व है ।

    32. बौद्ध मन का पृथक अस्तित्व न मानकर उसे विज्ञानरूप कहते हैं । "छहों ज्ञानों की उत्पत्ति का जो समनन्तर अतीत अर्थात् उपादानभूत ज्ञानक्षण है वह मन है, अर्थात् पूर्वज्ञान को मन कहते हैं" यह उनका सिद्धान्त है । पर, उनके मत में जब ज्ञान क्षणिक है तो जब वह वर्तमानक्षण में ही पदार्थों का बोध नहीं कर सकता तो पूर्वज्ञान की तो बात ही क्या करनी । वर्तमान ज्ञान पूर्व और उत्तर विज्ञानों से जब कोई सम्बन्ध नहीं रखता तब वह गुण-दोष-विचार स्मरण आदि कैसे कर सकता है ? अनुस्मरण स्वयं अनुभूत पदार्थ का उसी को होता है न तो अन्य के द्वारा अनुभूत का और न अननुभूत का । क्षणिक-पक्ष में स्मरण आदि का यह क्रम बन ही नहीं सकता । सन्तान अवस्तुभूत है अतः उसकी अपेक्षा स्मरणादि को संगति बैठाना भी उचित नहीं है । पूर्वज्ञानरूप मन जब वर्तमानकाल में अत्यन्त असत् हो जाता है तब वह गुण-दोष-विचार, स्मरण आदि कार्यों को कैसे कर सकेगा ? यदि बीजरूप आलयविज्ञान को स्थायी मानते हैं तो क्षणिकत्व-पक्ष का लोप हो जाता है। यदि वह भी क्षणिक है; तो वह भी स्मरणादिका आलम्बन नहीं हो सकता।

    बौद्ध-मत -- 'आलयविज्ञान अनित्य और क्षणिक है।' वह विशाल जलसमूह के निरन्तर प्रवाह के समान वासना-विज्ञान-चैत्तधर्मों का निरन्तर प्रवाह है । निर्वाण में (अर्हन्त्य प्राप्त होने पर) आलयविज्ञान की व्यावृत्ति अर्थात्‌ निरोध हो जाता है।' मुक्त व्यक्ति के लिए आलयविज्ञान का स्रोत सूख जाता है तथा पुन: प्रवाहित नहीं हो सकता।

    33-34. सांख्य मन को प्रधान का विकार मानते हैं । पर, जब प्रधान स्वयं अचेतन है तो उसके विकार भी अचेतन ही होंगे तब वह घटादि की तरह गुणदोषविचार, स्मरण आदि व्यापार नहीं कर सकेगा । मन विचाररूप क्रिया का करण होता है । तो बताइए कि इस क्रिया का कर्ता कौन होगा -- प्रधान या पुरुष ? सत्त्व, रज और तम की साम्यावस्था रूप प्रधान से महान् अहंकार आदि विषमावस्थारूप विकार यदि भिन्न उत्पन्न होते हैं, तो कार्य और कारण के अभेद मानने का सिद्धान्त खण्डित हो जाता है । यदि अभिन्न हैं; तो केवल प्रधान ही अवशिष्ट रह जाता है उससे भिन्न कोई परिणाम नहीं बचता । अतः मन नहीं बन सकेगा ।

    35-37. वीर्यान्तराय ज्ञानावरणक्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्म के उदय की अपेक्षा रखनेवाले आत्मा के द्वारा शरीरकोष्ठ से जो वायु बाहर निकाली जाती है उस उच्छ्वास को प्राण कहते हैं तथा जो वायु भीतर ली जाती है उस निःश्वास को अपान कहते हैं । ये आत्मा के जीवन में कारण होते हैं । भय के कारणों से तथा वज्रपात आदि से मन का प्रतिघात और मदिरा आदि के द्वारा अभिभव देखा जाता है । हाथ से मुँह और नाक को बन्द करने से श्वासोच्छ्वास का प्रतिघात तथा कण्ठ में कफ आ जाने से अभिभव देखा जाता है । अतः मूर्तिमान् द्रव्यों से प्रतिघात और अभिभव होने से ये सब पौद्गलिक हैं ।

    38. श्वासोच्छ्वासरूपी कार्य से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है । जैसे किसी यन्त्रमूर्ति की चेष्टाएँ उसके प्रयोक्ता का अस्तित्व बताती हैं उसी तरह प्राणापानादि क्रियाएँ क्रियावान् आत्मा की सिद्धि करती हैं । ये क्रियाएँ बिना कारण के भी नहीं होतीं; क्योंकि नियमपूर्वक देखी जाती हैं । विज्ञान आदि के द्वारा भी नहीं हो सकतीं; क्योंकि विज्ञानादि अमूर्त हैं, अतः उनमें प्रेरणाशक्ति नहीं हो सकती । अचेतन होने के कारण रूपस्कन्ध से भी ये क्रियाएँ नहीं हो सकती । यदि सभी पदार्थों को निरीहक मानकर क्रिया का लोप किया जाता है तो फिर पदार्थों की देशान्तरप्राप्ति आदि नहीं हो सकेगी । "वायुधातु से देशान्तर में उत्पन्न हो जाना ही क्रिया है, मुख्य क्रिया नहीं है, 'पदार्थों की उत्पत्ति को ही क्रिया कहते हैं' -- यह सिद्धान्त है" यह पक्ष भी ठीक नहीं है । क्योंकि जब वायुधातु भी निष्क्रिय है तो वह अन्य पदार्थों की देशान्तर में उत्पत्ति कैसे करा सकेगी ? क्षणिक होने से क्रिया का निषेध करना उचित नहीं है क्योंकि क्षणिकवाद प्रमाणविरुद्ध है ।

    39. प्रश्न – 'शरीरवाङ्मनःप्राणापाना' यहाँ शरीर आदि को प्राणी का अंग होने से द्वन्द्व समास में एकवचन होना चाहिए ?

    उत्तर – जहाँ अंग-अंगिभाव होता है वहाँ एकचन नहीं होता । प्राणी के अंगों में ही जहाँ द्वन्द्व-समास होता है वहीं एकवचन होता है । यहाँ शरीर अंगी है तथा वचन मन आदि अंग । अथवा वचन आदि अंग भी नहीं हैं क्योंकि ये दाँत आदि की तरह अनवस्थित हैं । चूँकि समाहारविषयक द्वन्द्व-समास में एकवद्भाव होता है, और समाहार एक प्राणी के अंगों में ही होता है, किन्तु यहाँ शरीर, वचन, मन आदि नाना प्राणियों के विवक्षित हैं ।

    एकवद्भाव=An aggregate of many, as in grammar, the formation of a compound noun of several nouns.

    40. पुद्गल शब्द का अर्थात् अर्थ है पूरण गलनवाला पदार्थ या जो पुरुष के द्वारा कर्म और नोकर्म के रूप से ग्रहण किया जाता है ।

    41. उपग्रह शब्द भावसाधन है, अतः अनुक्त कर्ता में 'पुद्गलानाम्' यहाँ पर षष्ठी है । तात्पर्य यह कि शरीर आदि परिणामों के द्वारा पुद्गल आत्मा के उपकारक हैं । कर्ममलीमस आत्मा सक्रिय हैं, अतः वे शरीरादिकृत उपकारों को बन्धपूर्वक स्वीकार करते हैं, उनका अनुभव करते हैं । यदि आत्मा को सर्वथा निष्क्रिय या अत्यन्त शुद्ध माना जाय तो शरीर आदि से बन्ध नहीं हो सकता और उपकारानुभव भी नहीं होगा, क्रिया का कारण न होने से संसार नहीं बनेगा और न मोक्ष ही ।

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    + पुद्गल का अन्य उपकार -
    सुख-दु:ख-जीवितमरणोपग्रहाश्च ॥20॥
    अन्वयार्थ : सुख, दु:ख जीवित और मरण ये भी पुद्गलों के उपकार हैं ॥२०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    साता और असाता के उदयरूप अन्‍तरंग हेतु के रहते हुए बाह्य द्रव्‍यादिक के परिपाक के निमित्त से जो प्रीति और परिताप रूप परिणाम उत्‍पन्‍न होते हैं वे सुख दुःख कहे जाते हैं । पर्याय के धारण करने में कारणभूत आयुकर्म के उदय से भवस्थिति को धारण करने वाले जीव के पूर्वोक्‍त प्राण और अपानरूप क्रिया विशेष का विच्‍छेद नहीं होना जीवित है । तथा उसका उच्‍छेद मरण है । ये सुखादिक जीव के पुद्‍गल- कृत उपकार हैं; क्‍योंकि मूर्त कारणों के रहने पर ही इनकी उत्‍पति होती है ।

    शंका – उपकार का प्रकरण होने से सूत्र में उपग्रह शब्‍द का प्रयोग करना निष्‍फल हैं ?

    समाधान – निष्‍फल नहीं है, क्‍योंकि स्‍वत: के उपकार के दिखलाने के लिए सूत्र में उपग्रह शब्‍द का प्रयोग किया है । पुद्‍गलों का भी पुद्‍गलकृत उपकार होता है । यथा -- काँसे आदि का राख आदि के द्वारा, जल आदि का कतक आदि के द्वारा और लौह आदि का जल आदि के द्वारा, जल आदि का कतक आदि के द्वारा लौह आदि का जल आदि के द्वारा उपकार किया जाता है ।

    शंका – सूत्र में 'च' शब्‍द किस लिए दिया है ?

    समाधान – समुच्‍चय के लिए । पुद्‍गलकृत और भी उपकार हैं इसके समुच्‍चय के लिए सूत्र में 'च' शब्‍द दिया है । जिस प्रकार शरीर आदिक पुद्‍गलकृत उपकार हैं उसी प्रकार चक्षु आदि इन्द्रियाँ भी पुद्‍गलकृत उपकार हैं ।

    इस प्रकार पहले अजीवकृत उपकारको दिखलाकर अब जीवकृत उपकार के दिखलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-4. जब आत्मा से बद्ध सातावेदनीय कर्म द्रव्यादि बाह्य कारणों से परिपाक को प्राप्त होता है तब जो आत्मा को प्रीति या प्रसन्नता होती है उसे सुख कहते हैं। इसी तरह असातावेदनीय कर्म के उदय से जो आत्मा के संक्लेशरूप परिणाम होते हैं उन्हें दुःख कहते हैं। भवस्थिति में कारण आयुकर्म के उदय से जीव के श्वासोच्छ्वास का चालू रहना, उसका उच्छेद न होना जीवित है और उच्छेद हो जाना मरण है।

    5-8. सारे प्रयत्न सुख के लिए हैं अतः सुख का ग्रहण सर्वप्रथम किया है और उसके प्रतिपक्षी दुःख का उसके बाद । जीवित प्राणी को ये दोनों होते हैं अतः उसके बाद जीवित और आयुक्षय निमित्त से होनेवाला मरण अन्त में होता है अतः मरण का ग्रहण अन्त में किया है।

    9. यद्यपि उपग्रह का प्रकरण है फिर भी इस सूत्र में उपग्रह का ग्रहण पुद्गलों के स्वोपकार को भी सूचित करता है । जैसे धर्म-अधर्म आदि द्रव्य दूसरों का ही उपकार करते हैं उस तरह पुद्गल नहीं । पुद्गलों का स्वोपग्रह भी है । जैसे काँसे को भस्म से, जल को कतकफल से साफ किया जाता है आदि ।

    10-11. साधारणतया मरण किसी को प्रिय नहीं है तो भी व्याधि, पीडा, शोकादि से व्याकुल प्राणी को मरण भी प्रिय होता है अतः उसे उपकार श्रेणी में ले लिया है। फिर यहाँ उपकार शब्द से इष्ट पदार्थ नहीं लिया गया है किन्तु पुद्गलों के द्वारा होनेवाले समस्त कार्य लिये गये हैं। दुःख भी अनिष्ट है, पर पुद्गलकृत प्रयोजन होने से उसका निर्देश किया है।

    12. 'शरीरवाङ्मनः' तथा 'सुख-दुःख' इन दोनों को यदि एक सूत्र बनाते तो यह सन्देह होता कि 'शरीरादि चार के क्रमशः सुख-दुःख आदि चार फल है। इस अनिष्ट आशंका की निवृत्ति के लिए पृथक सूत्र बनाये हैं। फिर सुख-दुःख आदि का सम्बन्ध जीवोपकारों से भी जुड़ता है, अतः पृथक पृथक सूत्र ही बनाया है।

    13. कथञ्चित् नित्यानित्य आत्मा के ही सुख-दुःखादि हो सकते हैं सर्वथा नित्य और सर्वथा अनित्य के नहीं। नित्यपक्ष में विकार-परिणमन नहीं हो सकता और अनित्यपक्ष में स्थिति नहीं है। नित्यपक्ष में आत्मा पूर्व और उत्तरकाल में सर्वथा एक जैसी बनी रहती है, उसमें कोई परिणमन नहीं होता, अतः सुख आदि की कल्पना ही नहीं हो सकती । अनित्य पक्ष में पूर्व और उत्तर में कोई मेल नहीं बैठता, स्थिति नहीं है, अतः सुखादि नहीं हो सकते । अवस्थित आत्मा ही इष्ट-अनिष्ट पदार्थों के सम्पर्क से कुशल-अकुशल भावना पूर्वक सुखादि का अनुभव कर सकता है। कुशल और अकुशल भावनाएँ पूर्वानुभूत की स्मृति और तत्पूर्वक चेष्टाओं से सम्बन्ध रखती हैं।

    जीवों का उपकार -

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    + जीव द्रव्य का उपकार -
    परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥21॥
    अन्वयार्थ : परस्‍पर निमित्त होना यह जीवों का उपकार है ॥२१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    परस्‍पर यह शब्‍द कर्म व्‍यतिहार अर्थ में रहता है । और कर्मव्‍यतिहार का अर्थ क्रियाव्‍यतिहार है । परस्‍पर का उपग्रह परस्‍परोपग्रह है । यह जीवों का उपकार है ।

    शंका – वह क्‍या है ?

    समाधान – स्‍वामी और सेवक तथा आचार्य और शिष्‍य इत्‍यादि रूप से वर्तन करना परस्‍परोपग्रह है । स्‍वामी तो धन आदि देकर सेव‍क का उपकार करता है और सेवक हित का कथन करके तथा अहित का निषेध करके स्‍वामी का उपकार करता है । आचार्य दोनों लोक में सुखदायी उपदेश-द्वारा तथा उस उपदेश के अनुसार क्रिया में लगाकर शिष्‍यों का उपकार करता है और शिष्‍य भी आचार्य का उपकार करते हैं ।

    शंका – उपकार का अधिकार है, इसलिए सूत्र में फिर से 'उपग्रह' शब्‍द किसलिए दिया है ?

    समाधान – पिछले सूत्र में जो सुखादिक चार कह आये हैं उनके दिखलाने के लिए फिर से 'उपग्रह' शब्‍द दिया है । तात्‍पर्य यह है कि सुखादिक भी जीवों के जीवकृत उपकार है ।

    यदि ऐसा है कि जो है उसे अवश्य उपकारी होना चाहिए तो काल भी सद्रूप माना गया है इसलिए उसका क्या उपकार है, इसी बात के बतलाने के लिए अब आगे का सूत्र कहते हैं-


    राजवार्तिक :
    1-2 परस्पर शब्द कर्मव्यतिहार अर्थात क्रिया के आदान-प्रदान को कहता है। स्वामि-सेवक, गुरु-शिष्य आदि रूप से व्यवहार परस्परोपग्रह है। स्वामी रुपया देकर तथा सेवक हितप्रतिपादन और अहितप्रतिरोध के द्वारा परस्पर उपकार करते हैं। गुरु उभयलोक का हितकारी मार्ग दिखाकर तथा आचरण कराके और शिष्य गुरु की अनुकूलवृत्ति से परस्पर के उपकार में प्रवृत्त होते हैं।

    3-4. यद्यपि 'उपग्रह' का प्रकरण है फिर भी यहाँ 'उपग्रह' शब्द के द्वारा पहिले सूत्र में निर्दिष्ट सुख-दुःख आदि चारों का ही प्रतिनिर्देश समझना चाहिए । 'उपग्रह' शब्द सूचित करता है कि अन्य कोई नया उपकार नहीं है, किन्तु पूर्वसूत्र में निर्दिष्ट ही उपकार हैं।' 'जिस प्रकार रतिक्रिया में स्त्री और पुरुष परस्पर का उपकार करते हैं इस प्रकार का सर्वथा नियम पर स्परोपकार का नहीं है' इस बात की सूचना 'उपग्रह' शब्द से मिल जाती है। कोई जीव अपने लिए सुख उत्पन्न करके कदाचित दूसरे एक को, दो को या बहुतों को सुखी कर सकता है और दुःख भी, दुःख उत्पन्न करके सुखी भी कर सकता है और दुःखी भी। अतः कोई निश्चित नियम नहीं है।

    काल का उपकार -

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    + काल द्रव्य के उपकार -
    वर्तना-परिणाम-क्रिया-परत्वापरत्वे च कालस्य ॥22॥
    अन्वयार्थ : वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये काल के उपकार हैं ॥२२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    णिजन्त वृत्ति धातु से कर्म या भाव में 'युट्' प्रत्यय के करने पर स्त्रीलिंग में वर्तना शब्द बनता है जिसकी व्युत्पत्ति 'वर्त्यते' या वर्तनमात्रम् होती है । यद्यपि धर्मादिक द्रव्य अपनी नवीन पर्याय के उत्पन्न करने में स्वयं प्रवृत्त होते हैं तो भी उनकी वृत्ति बाह्य सहकारी कारण के बिना नहीं हो सकती, इसलिए उसे प्रवर्ताने वाला काल है ऐसा मान कर वर्तना काल का उपकार कहा है ।

    शंका – णिजर्थ क्या है ?

    समाधान – द्रव्य की पर्याय बदलती है और उसे बदलाने वाला काल है ।

    शंका – यदि ऐसा है तो काल क्रियावान् द्रव्य प्राप्त होता है ? जैसे शिष्य पढ़ता है और उपाध्याय पढ़ाता है । (यहाँ उपाध्याय क्रियावान् द्रव्य है ।)

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि निमित्त मात्र में भी हेतुकर्ता रूप व्यपदेश देखा जाता है । जैसे कंडे की अग्नि पढ़ाती है । यहाँ कंडे की अग्नि निमित्तमात्र है उसी प्रकार काल भी हेतुकर्ता है ।

    शंका – वह काल है यह कैसे जाना जाता है ?

    समाधान – समयादिक क्रियाविशेषों की और समयादिक के द्वारा होने वाले पाक आदिक की समय, पाक इत्याादि रूप से अपनी-अपनी रौढि़क संज्ञा के रहते हुए भी उसमें जो समय काल, ओदनपाक काल इत्यादि रूप से काल संज्ञा का अध्यारोप होता है वह उस संज्ञा के निमित्तभूत मुख्यकाल के अस्तित्व का ज्ञान कराता है, क्योंकि गौण व्यवहार मुख्य की अपेक्षा रखता है । एक धर्म की निवृत्ति करके दूसरे धर्म के पैदा करने रूप और परिस्पन्द से रहित द्रव्य की जो पर्याय है उसे परिणाम कहते हैं । यथा जीव के क्रोधादि और पुद्‍गल के वर्णादि । इसी प्रकार धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य में परिणाम होता है जो अगुरुलघु गुणों (अविभाग-प्रतिच्छेदों) की वृद्धि और हानि से उत्पन्न होता है । द्रव्य में जो परिस्पन्दरूप परिणमन होता है उसे क्रिया कहते हैं । प्रायोगिक और वैस्रसिक के भेद से वह दो प्रकार की है । उनमें-से गाड़ी आदि की प्रायोगिक क्रिया है और मेघादिक की वैस्रसिकी । परत्व और अपरत्व दो प्रकार का है – क्षेत्रकृत और कालकृत । प्रकृत में कालकृत उपकार का प्रकरण है, इसलिए कालकृत परत्व और अपरत्व लिये गये हैं । ये सब वर्तनादिक उपकार काल के अस्तित्व का ज्ञान कराते हैं ।

    शंका – सूत्र में केवल वर्तना पद का ग्रहण करना पर्याप्त है । परिणाम आदिक उसके भेद हैं, अत: उनका अलग से ग्रहण करना निष्फल है ।

    समाधान – परिणाम आदिक का अलग से ग्रहण करना निष्फल नहीं है, क्योंकि दो प्रकार के काल के सूचन करने के लिए इतना विस्तार से कथन किया है । काल दो प्रकार का है - परमार्थ काल और व्यवहार काल । इनमें-से परमार्थ काल वर्तना लक्षणवाला है और परिणाम आदि लक्षणवाला व्यवहार काल है । तात्पर्य यह है कि जो क्रिया विशेष अन्य से परिच्छिन्न होकर अन्य के परिच्छिेद का हेतु है उसमें काल इस प्रकार का व्यवहार किया गया है । वह काल तीन प्रकार का है - भूत, वर्तमान और भविष्यत् । उनमें-से परमार्थ काल में काल यह संज्ञा मुख्य है और भूतादिक व्यपदेश गौण है । तथा व्यवहार काल में भूतादिकरूप संज्ञा मुख्य है और काल संज्ञा गौण है, क्योंकि इस प्रकार का व्यवहार क्रिया वाले द्रव्य की अपेक्षा से होता है तथा काल का कार्य है । यहाँ पर शंकाकार कहता है कि धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, जीव और काल द्रव्य का उपकार कहा तथा, 'उपयोगो लक्षणम्' इत्यादि सूत्र द्वारा इनका लक्षण भी कहा । इसी प्रकार 'अजीवकाया' इत्यादि सूत्र द्वारा पुद्गलों का सामान्य लक्षण भी कहा, किन्तु पुद्गलों का विशेष लक्षण नहीं कहा, इसलिए आगे का सूत्र कहते हैं --

    राजवार्तिक :
    प्रश्न – काल का स्वरूप क्या है ?

    उत्तर – जितने लोकाकाश में प्रदेश हैं उतने ही कालाणु हैं । इनका परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है । एक-एक आकाश प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित है । सारे लोकाकाश में भिन्न होने से इनमें मुख्य और प्रदेश कल्पना नहीं है क्योंकि ये निरवयवी हैं । क्योंकि मुख्यप्रदेश कल्पना घर्म, अधर्म, आकाश, जीव और द्वय-अणुक पुद्गल स्कन्धों में है तथा परमाणु में प्रचयशक्ति के कारण उपचार से प्रदेश-कलपना है, परन्तु कालाणु में धर्मास्तिकाय आदि के समान न तो मुख्य-प्रदेश कल्पना है और न परमाणु के समान उपचार प्रदेश-प्रचय कल्पना है, अत: कालाणु में कायत्व का अभाव है अर्थात् कालाणु अस्तिकाय नहीं है क्योंकि दोनों प्रकार के प्रदेश-प्रचयों का इसमें अभाव है । विनाश का कारण न होने से कालाणु नित्य है । कालाणु में पर-प्रत्यय (कारण) से उत्पाद-विनाश होता रहता है, इसलिए कालाणु कथंचित अनित्य भी है । सुई में धागा जाने के आकाश मार्ग के छिद्र के समान परिछिन्न मूर्ति होने पर भी रूप-रस-आदि से रहित होने के कारण अमूर्त्त है । अर्थात् जैसे सुई का धागा जाने से मार्ग परिछिन्न होता है, अमूर्त्त होते हुए भी सुई के छिद्र का आकाश सुई के नोक बराबर मूर्त्त हो जाता है, उतने स्थान का कालाणु भी परिछिन्न हो जाने से मूर्तसा दिखता है परन्तु रूप आदि नहीं होने से, वास्तव में अमूर्त्त है । प्रदेशान्तर -- क्षेत्र से क्षेत्रान्तर के संक्रमण का अभाव होने से कालाणु निष्क्रिय है । व्यवहारकाल परिणाम, क्रिया और परत्वा-परत्व के द्वारा लक्षित होता है । कालकृत वर्त्तना का आधार होने से यह भी काल कहलाता है । यह स्वयं किसी के द्वारा परिछिन्न होकर अन्य पदार्थों के परिच्छेद में कारण होता है ॥२४॥

    परस्पर अपेक्षा से काल तीन प्रकार का सिद्ध है । भूत, वर्त्तमान और भविष्यत् । ये तीनों काल परस्परापेक्ष सिद्ध होते हैं । जैसे वृक्ष-पंक्ति के अनुसार चलने वाले देवदत्त के एक-एक वृक्ष प्राप्त होने से कुछ वृक्ष प्राप्त हो चुके, कुछ प्राप्त हो रहे हैं और कुछ आगे प्राप्त होंगे, ऐसा व्यपदेश हाता है, उसी प्रकार उन कालाणुओं की क्रमिक पर्यायों का अनुसरण करने वाले दव्यों में क्रमश: वर्तमान का अनुभवन होने से भूत, वर्तमान और भविष्यत् काल का सदव्यवहार होता है । उनमें परमार्थ (मुख्य) काल में भूत, वर्तमानादि का व्यवहार गौण है तथा व्यवहार काल में मुख्य है । अत: यह भूतादि व्यवहार काल एक-दूसरे की अपेक्षा रखता है । जो क्रियापरिणत द्रव्य कालपरमाणु को प्राप्त होता है वह द्रव्य उस काल के द्वारा वर्तमान समय सम्बन्धी वर्त्तना के कारण वर्तमान-काल कहलाता है । कालाणु भी उस वर्तमान द्रव्य की स्व-सम्बन्धी वर्तना के कारण वर्त्तमान कहा जाता है, वही द्रव्य जब कालवश वर्तना के सम्बन्ध का अनुभव कर चुकता है तब भूत कहा जाता है और कालाणु भी भूतकाल सम्बन्धी द्रव्य की वर्त्तना में कारण होने से भूत कहलाता है । वहीं द्रव्य आगे होने वाली वर्त्तना की अपेक्षा भविष्यत् कहा जाता है और कालाणु भी भविष्यत्काल सम्बन्धी द्रव्य की वर्तना के कारण भविष्यत् कहलाता है । इस प्रकार सूर्य को प्रतिक्षण गति की अपेक्षा आवलिका, उच्छवास, प्राण, स्तोक, लव, नालिका, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन आदि सूर्य-गति-निमित्तक परिवर्तन काल-वर्तना के कारण व्यवहार काल मनुष्य क्षेत्र में होता है, ऐसा कहा जाता है ; क्योंकि मनुष्य लोक में ही ज्योतिर्देव गतिशील होते हैं । मनुष्य-क्षेत्र से बाहर के ज्योतिर्देव अवस्थित हैं, गमन नहीं करते अर्थात वे गतिव्यापार से रहित हैं । मनुष्य-क्षेत्र में उत्पन्न ज्योतिषी देवों की गति के कारण समुत्थ समय आवलि आदि के द्वारा परिछिन्न क्रियाकलाप रूप वर्तना नामक काल से ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक लोकरूप तीनों लोकों के प्राणियों की संख्यात, असंख्यात, अनन्तानन्त काल गणना के प्रभेद से कर्म-स्थिति, भव-स्थिति और काय-स्थिति आदि का परिच्छेद (ज्ञान) होता है । इससे संख्यात, असंख्यात, अनन्त आदि की गिनती की जाती है और इस व्यवहार काल से ही सर्वत्र, जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट अवस्था की जाती है ॥२५॥

    1-3. 'वर्तते अनया अस्यां वा' ऐसा करण और अधिकरण में विग्रह करके यदि वर्तना शब्द की सिद्धि की जाती है तो युट प्रत्यय में टित् होने से ङीप प्रत्यय होने पर 'वर्तनी' प्रयोग बनेगा अतः 'वर्त्यते वर्तनमानमात्रं वा वर्तना' यह णिजन्त से युच् प्रत्यय करके बनाया जाता है। अथवा 'वर्तनशीला वर्तना' ऐसा तच्छील अर्थ में युच् करके वर्तना शब्द बन जाता है।

    4. हर एक द्रव्य प्रत्येक पर्याय में प्रति समय जो स्वसत्ता की अनुभूति करता है उसे वर्तना कहते हैं । तात्पर्य यह कि पदार्थ अपनी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक सत्ता का प्रतिक्षण अनुभव धर्मादि द्रव्य अपनी अनादि या आदिमान पर्यायों में प्रतिक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप से परिणत होते रहते हैं, यही स्वसत्तानुभूति वर्तना है। सादृश्योपचार से प्रतिक्षण 'वर्तना वर्तना' ऐसा अनुगत व्यवहार होने से यद्यपि यह एक कही जाती है पर वस्तुतः प्रत्येक द्रव्य की अपनी अपनी वर्तना जुदी-जुदी है।

    5. वर्तना प्रतिक्षण प्रत्येक द्रव्य में होती रहती है। यह अनुमान से इस प्रकार सिद्ध है - जैसे तन्दुल को पकने के लिए बटलोई में डाला और वह आधा घण्टे में पका तो यह नहीं समझना चाहिए कि 29 या साढ़े 29 मिनट तो वह ज्यों का त्यों रखा रहा और अन्तिम क्षण में पककर भात बन गया हो। उसमें प्रथम समय से ही सूक्ष्मरूप से पाक बराबर होता रहा है। यदि प्रथम समय में पाक न हुआ होता तो दूसरे तीसरे आदि क्षणों में भी सम्भव नहीं हो सकता था। इस तरह पाक का ही अभाव हो जायगा।

    6. काल का लक्षण वर्तना है। समय आदि क्रियाविशेषों की तथा समय से निष्पन्न पाकादि पर्यायों की, जो कि स्वसत्ता का अनुभव करके स्वतः ही वर्तमान हैं, उत्पत्ति का बाह्य कारण काल है। उनमें 'समय, पाक' आदि व्यवहार तो होते हैं पर 'काल' यह व्यवहार बिना कालद्रव्य के नहीं हो सकता । इस तरह काल अनुमेय होता है।

    7. आदित्य-सूर्य की गति से द्रव्यों में वर्तना नहीं हो सकती; क्योंकि सूर्य की गति में भी 'भूत वर्तमान भविष्यत' आदि कालिक व्यवहार देखे जाते हैं। वह भी एक क्रिया है। उसकी वर्तना में भी किसी अन्य को हेतु मानना ही चाहिए । वही काल है।

    8. जैसे वर्तन चावलों का आधार है, पर पाक के लिए वो अग्नि का व्यापार ही चाहिए उसी तरह आकाश वर्तनावाले द्रव्यों का आधार तो हो सकता है वह वर्तना की उत्पत्ति में सहकारी नहीं हो सकता । उसमें तो काल द्रव्य का ही व्यापार है।

    9. सत्ता यद्यपि सर्व-पदार्थों में रहती है, साधारण है, पर वर्तना सत्ताहेतुक नहीं हो सकती क्योंकि वर्तना सत्ता का भी उपकार करती है। काल से अनुगृहीत वर्तना ही सत्ता कहलाती है । अतः काल पृथक ही होना चाहिए।

    10. द्रव्य का अपनी स्व-द्रव्यत्वजाति को नहीं छोड़ते हुए जो स्वाभाविक या प्रायोगिक परिवर्तन होता है उसे परिणाम कहते हैं । द्रव्यत्व जाति यद्यपि द्रव्य से भिन्न नहीं है फिर भी द्रव्यार्थिक की अविवक्षा और पर्यायार्थिक की प्रधानता में उसका पृथक् व्यवहार हो जाता है। तात्पर्य यह कि अपनी मौलिक सत्ता को न छोड़ते हुए पूर्वपर्याय की निवृत्तिपूर्वक जो उत्तर पर्याय का उत्पन्न होना है वही परिणाम है। प्रयोग अर्थात् पुद्गल विकार । प्रयोग के बिना होनेवाली विक्रिया विस्रसा होती है। परिणाम दो प्रकार का है - एक अनादि, दूसरा आदिमान् । लोक की रचना सुमेरु पर्वत आदि के आकार इत्यादि अनादि परिणाम हैं । आदिमान दो प्रकार के हैं - एक प्रयोगजन्य और दूसरे स्वाभाविक । चेतन द्रव्य के औपशमिकादि भाव जो मात्र कर्मों के उपशम आदि की अपेक्षा से होते हैं। पुरुष प्रयत्न की जिनमें आवश्यकता नहीं होती वे वैस्रसिक परिणाम हैं । ज्ञान, शील, भावना आदि गुरूपदेश के निमित्त से होते हैं, अतः ये प्रयोगज हैं । अचेतन मिट्टी आदि का कुम्हार आदि के प्रयोग से होनेवाला घट आदि परिणमन प्रयोगज है और इन्द्रधनुष, मेघ आदि रूप से परिणमन वैस्रसिक है।

    11. प्रश्न – बीज अंकुर में है या नहीं ? यदि है; तो वह अंकुर नहीं कहा जा सकता बीज की तरह । यदि नहीं है, तो कहना होगा कि बीज अंकुर रूप से परिणत नहीं हुआ क्योंकि उसमें बीजस्वभावता नहीं है। इस प्रकार सत् और असत्, दोनों पक्ष में दूषण आते हैं, अतः परिणाम हो ही नहीं सकता?

    उत्तर – पक्षान्तर अर्थात् कथञ्चित् सदसद्वाद में सर्वथा सत् पक्ष के और सर्वथा असत् पक्ष के दोष नहीं आते और न उभय पक्ष के दोनों दोष ही आ सकते हैं, क्योंकि कथञ्चित् सदसद्वाद 'नरसिंह' की तरह जात्यन्तर रूप है। शालिबीजादि द्रव्यार्थिक दृष्टि से अंकुर में बीज है, यदि उसका निरन्वय विनाश हो गया होता तो वह 'शालिका अंकुर' क्यों कहलाता है ? शालिबीज और शालिअंकुर रूप पर्यायार्थिक दृष्टि से अंकुर में बीज नहीं है क्योंकि यदि बीज का परिणमन नहीं हुआ होता तो अंकुर कहाँ से आता ? अतः अनेकान्तवाद में कोई दूषण नहीं है।

    12. हम यह पूछते हैं कि - जिस परिणाम का तुम निषेध करते हो वह विद्यमान है, या नहीं ? दोनों ही पक्ष में प्रतिषेध नहीं किया जा सकता। यदि परिणाम विद्यमान है। तब निषेध कैसा ? यदि विद्यमान का निषेध करते हो; तो 'परिणाम का प्रतिषेध' भी विद्यमान है, अतः उसका भी प्रतिषेध हो जायगा। ऐसी दशा में परिणाम का अस्तित्व ही सिद्ध होगा। यदि परिणाम का प्रतिषेध विद्यमान होने पर भी अप्रतिषिद्ध है; तो परिणाम भी विद्यमान रहते हुए अप्रतिषिद्ध रहना चाहिए। यदि परिणाम विद्यमान नहीं है, तो भी खरविषाण की तरह उसका निषेध नहीं किया जा सकता। अथवा जो व्यक्ति परिणाम का प्रतिषेध कर रहा है उसका 'वक्ता' के रूप में, वचनों का 'वाचक शब्द' के रूप में तथा अभिधेय का 'वाच्य अर्थ' के रूप में परिणमन भी जब नहीं होगा तब प्रतिषेध कैसे होगा? तात्पर्य यह कि वक्ता, वाच्य और वचनों के अभाव में परिणाम का प्रतिषेध सिद्ध नहीं हो पायगा।

    13. प्रश्न – 'बीज से अंकुर भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न है तो वह बीज का परिणाम नहीं कहा जा सकेगा। यदि अभिन्न है; तो उसे अंकुर नहीं कह सकते क्योंकि वह बीज के स्वरूप की तरह बीज से अभिन्न है। कहा भी है - 'यदि बीज स्वयं परिणत हुआ है तो अंकुर बीज से भिन्न नहीं हो सकता । पर ऐसा है नहीं, अर्थात् भिन्न है । यदि भिन्न है अर्थात् बीज अंकुररूप नहीं है तो उसे अंकुर नहीं कह सकते' इत्यादि दूषण आते हैं अतः परिणाम नहीं बन सकता।

    उत्तर – इसका उत्तर पहिले दे दिया है कि हम एकान्तपक्ष को नहीं मानकर अनेकान्तपक्ष मानते हैं। अंकुर की उत्पत्ति के पहिले बीज में अंकुर पर्याय नहीं थी पीछे उत्पन्न हुई अतः पर्याय की दृष्टि से अंकुर बीज से भिन्न है । चूँकि शालिबीज की जातिवाला ही अंकुर उत्पन्न हुआ है अन्य जाति का नहीं अतः शालिबीज जातिवाले द्रव्य की दृष्टि से बीज से अंकुर अभिन्न है।

    11. प्रश्न – बीज जब अंकुररूप से परिणत हो जाता है तब उसमें बीज यदि व्यवस्थित है तो बीज के व्यवस्थित रहने से अंकुर का होना विरुद्ध ही है। यदि अव्यवस्थित है तो कहना होगा कि बीज अंकुररूप से परिणत नहीं हुआ' इत्यादि दोष आने से परिणाम नहीं सकता।

    उत्तर – इस सम्बन्ध में अनेकान्त ही स्वीकार किया गया है। जैसे मनुष्यायु और नाम-कर्म के उदय से अंग-उपांग पर्यायों को प्राप्त करता हुआ आत्मा अंगुलि उपांग की दृष्टि से अंगुलि-आत्मा कहा जाता है। वह अंगुलि-आत्मा वीर्यान्तराय के क्षयोपशम की अपेक्षा संकुचित और प्रसारित अवस्थाओं को प्राप्त होता है। उस समय वह अनादि पारिणामिक चैतन्य द्रव्य की दृष्टि से 'सत्' है और पुद्गलरूप से परिणत अंगुलि उपांग की दृष्टि से भी 'सत्' है, अभिन्न है और अवस्थित है। संकोचन प्रसारणरूप पर्यायार्थिक दृष्टि से ही वह असत भिन्न और अनवस्थित है। उसी तरह एकेन्द्रिय वनस्पति नाम कर्म के उदयवाला आत्मा ही बीज कहा जाता है । वह अनादि पारिणामिक चैतन्य द्रव्य की दृष्टि से 'सत्' है और पौद्गलिक शालिजातीय एकेन्द्रिय के रूप, रस, स्पर्श, शब्दादि पर्याय की दृष्टि से भी 'सत्' है, इसी तरह अभिन्न भी है और अवस्थित भी। हाँ, पौगलिक शालिबीजरूप पर्याय की दृष्टि से ही वह असत् भिन्न और अनवस्थित है। इस तरह अनेकान्तवाद में कोई दूषण नहीं रहता।

    15. प्रश्न – परिणाम मानने में वृद्धि नहीं हो सकती। यदि बीज अंकुररूप से परिणत होता है तो दूध के परिणाम दही की तरह अंकुर को बीजमात्र ही होना चाहिए, बड़ा नहीं। कहा भी है -'यदि बीज अंकुरपने को प्राप्त होता है तो छोटे बीज से बड़ा अंकुर कैसे हो सकेगा ?' यदि पार्थिव और जलीय रस से अंकुर की वृद्धि कही जाती है तो कहना होगा कि वह बीज का परिणाम नहीं हुआ। कहा भी है -'यदि यह इष्ट है कि अंकुर पार्थिव और जलीय रस से बढ़ता है तो फिर उसे बीज का परिणाम नहीं कहना होगा।' पार्थिव जलीय तथा अन्य रस द्रव्यों के संचय से वृद्धि की कल्पना भी ठीक नहीं है, क्योंकि लाख का संयोग होने पर भी जैसे लकड़ी में वृद्धि नहीं होती उसी तरह संचय से वृद्धि नहीं मानी जा सकती। कहा भी है - 'जैसे लाख से लपेटने पर भी काठ मोटा तो हो जाता है पर बढ़ता नहीं है, लाख ही बढ़ती है, उसी तरह यदि बीज उसी तरह रहता है और रस बढ़ते हैं तो फिर बीज क्या करता है ?'

    उत्तर – ऐसा कहना उपयुक्त नहीं है; योंकि इसमें अन्य ही हेतु है । क्योंकि 'बीज मात्र अंकुर होगा' यह कहकर परिणाम तो आगे स्वीकार कर ही लिया है । जैसे मनुष्यायु नाम-कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ बालक बाह्य सूर्यप्रकाश, माँ का दूध आदि को अपनी भीतर पाचनशक्ति से पचाता हुआ आहार आदि के द्वारा क्रमशः बढ़ता है उसी तरह वनस्पति विशेष आयु और नाम कर्म के उदय से बीजाश्रित जीव अंकुररूप से उत्पन्न होकर पार्थिव और जलीय रसभाग को गरम लोहे के द्वारा सोखे गये पानी की तरह खींचता हुआ बाह्य सूर्यप्रकाश और भीतरी पाचनशक्ति के अनुसार उन्हें जीर्ण करता हुआ अपने खाद के अनुसार बढ़ता है । अतः वृद्धि बीजाश्रित नहीं है किन्तु अन्य कारणों के आधीन है। यह दोष तो एकान्तवादियों को ही हो सकता है । जो वस्तु को सर्वथा नित्य मानते हैं, उनके यहाँ तो परिणमन ही नहीं होता, वृद्धि कहाँ से होगी ? क्षणिक पक्ष में भी प्रतीत्यसमुत्पाद की प्रक्रिया में जितना कारण होगा उतना कार्य होगा अतः वृद्धि नहीं हो सकती । क्षणिक पक्ष में अंकुर और अंकुर के कारण भौम रस उदक-रस आदि का युगपत् विनाश होगा या क्रमशः ? यदि युगपत् ; तो उनके द्वारा वृद्धि क्या होगी? वृद्धि के कारण जब स्वयं नष्ट हो रहे हैं तो वे अन्य विनश्यमान पदार्थ की क्या वृद्धि करेंगे? यदि क्रमशः; तब भी नष्ट अंकुर का भौमरस उदकरस आदि क्या करेंगे? अथवा, विनष्ट रसादि अंकुर का क्या कर सकेंगे? अनेकान्तवादी के मत में तो अंकुर या भौमरसादि सभी द्रव्यदृष्टि से नित्य हैं और पर्याय दृष्ट से अनित्य । अतः वृद्धि हो सकती है।

    16. शंका – क्षणिक पक्ष में प्रबन्धभेद मानकर वृद्धि बन सकती है। प्रबन्ध तीन प्रकार के हैं - सभागरूप, क्रमापेक्ष और अनियत । प्रदीप से प्रदीप की सन्तति चलना सभागप्रबन्ध है। यह प्रवाह से प्रवाह की तरह सादृश्य होने से सभाग कहलाता है। जो सन्तान प्रबन्ध क्रम से चले वह क्रमापेक्ष है जैसे कि बाल, कुमार, जवान आदि दशाओं का या बीज अंकुर आदि अवस्थाओं का । मुर्गे में अनेक रंग के प्रबन्ध की तरह मेघ और इन्द्रधनुष आदि में अनियत प्रबन्ध है। इससे वृद्धि हो सकती है ?

    समाधान – यहाँ यह विचारणीय है कि प्रबन्ध दो विद्यमान पदार्थों का माना जायगा, या अविद्यमान पदार्थों का, या विद्यमान और अविद्यमान का ? दो अविद्यमानों का तो बन्ध्यासुत और आकाशपुष्प की तरह प्रबन्ध हो नहीं सकता । इसी तरह खर और खरविषाण की तरह एक विद्यमान और एक अविद्यमान का भी प्रबन्ध नहीं हो सकेगा। अन्त में विद्यमानों का ही प्रबन्ध बनता है। परन्तु क्षणिकपक्ष में पूर्व और उत्तर स्कन्ध की एक क्षण में सत्ता तो हो ही नहीं सकती अतः प्रबन्ध कैसा ? यदि सत्ता मानते हैं तो क्षणिकवाद का लोप हो जायगा । 'तराजू के पलड़ों में एक का ऊपर उठना और दूसरे का नीचे झुकना जिस प्रकार एक साथ होता है उसी तरह एक साथ उत्पाद और विनाश मानकर अर्थप्रबन्ध चलेगा' यह पक्ष भी ठीक नहीं है क्योंकि यदि युगपत् उत्पाद-विनाश माना जाता है तो दायें-बायें सींग की तरह परस्पर कार्य-कारणभाव नहीं हो सकेगा।

    17-18. "अवस्थित द्रव्य के एक धर्म की निवृत्ति होने पर अन्य धर्म की उत्पत्ति होना परिणाम है।" ध्रौव्यादि लक्षणवाले द्रव्य के क्षीरधर्म की निवृत्तिपूर्वक दधिधर्म की उत्पत्ति परिणाम कही जाती है । परिणाम का यह लक्षण भी ठीक नहीं है, इसमें अनेक दोष आते हैं । इस वादी के यहाँ द्रव्य अवस्थित तो है नहीं, जिसका परिणाम होगा। यदि गुणसमुदाय से भिन्न कोई द्रव्य स्थिर रहता है तो गुण-समुदायमात्र को द्रव्य नहीं मानना चाहिए। बताइए जो उत्पन्न होता है जो नष्ट होता है तथा जो स्थिर रहता है ये तीनों गुणसमुदायरूप हैं, या उससे भिन्न ? यदि गुणसमुदायमात्र ही हैं। तो जब वही गुणसमुदाय पहिले रहा तथा वही पश्चात् , तो इनमें कौन किसका परिणाम होगा ? निवृत्त होनेवाला उत्पन्न होनेवाला, और स्थिर रहनेवाला तो भिन्न ही होना चाहिए। यदि भिन्न है; तो गुणसमुदायमात्र को ही द्रव्य नहीं मानना चाहिए। यदि एक धर्म नष्ट होता है तथा अन्य उत्पन्न, तो फिर नित्यैकान्तपक्ष समाप्त हो जाता है। किंच, समुदाय गुणों से भिन्न है या अभिन्न ? यदि अभिन्न है; तो गुणमात्र ही रह जायँगे, समुदाय क्या रहेगा ? और जब समुदाय नहीं रहेगा तो उसके अविनाभावी गुणों का भी अभाव हो जायगा। यदि समुदाय भिन्न माना जाता है तो 'गुण-समुदायमात्र द्रव्य है' - इस प्रतिज्ञा का विरोध होगा तथा परस्पर अविनाभावी गुण और समुदाय दोनों का अभाव हो जायगा । यदि पूर्वभाव के अन्यभावरूप होने को परिणाम कहते हैं तो सुख-दुःख और मोह शब्दादि या घटादिरूप हो जायँगे । ऐसी हालत में शब्दादि या घटादि में सुखादि के समन्वय की बात नहीं रहती। यदि समन्वय स्वीकार किया जाता है तो 'पूर्वभाव का अन्यभाव होना परिणाम है' परिणाम का यह लक्षण नहीं बनता। फिर, 'जो जिस रूप में नहीं है उसमें वह रूप नहीं आ सकता' यह साधारण नियम है जैसे कि अभाव भावरूप से नहीं है तो उसमें भावरूपता नहीं आ सकती। इसी तरह गुणों में यदि स्थूलरूपता नहीं है तो उनमें स्थूलरूपता नहीं आ सकती। यदि उनमें वह रूप है; तो भी परिणाम कैसा ? जिसमें जो रूप विद्यमान है उसमें फिर से वही रूप तो प्राप्त हो नहीं सकता । अभाव अभावात्मक है तो वह फिर से अभावात्मक क्या होगा ? इस तरह एकान्तपक्ष में दोनों प्रकार से परिणाम नहीं बन पाता अतः अनेकान्तवाद स्वीकार करना चाहिए। अनेकान्त पक्ष में पर्यायार्थिक दृष्टि से अन्यभावता हो सकती है और द्रव्यार्थिक दृष्टि से स्थिरता । अतः द्रव्यदृष्टि से अवस्थित द्रव्य में हो पर्यायदृष्टि से एक की निवृत्ति तथा अन्य की उत्पत्तिरूप परिणाम हो सकता है।

    19. बाह्य और आभ्यन्तर निमित्तों से द्रव्य में होनेवाला परिस्पन्दात्मक परिणमन क्रिया है। वह दो प्रकार की है - बैलगाड़ी आदि में प्रायोगिक तथा मेघ आदि में स्वाभाविक क्रिया होती है।

    20-21. प्रश्न – यदि स्थिति-ठहरना रूप क्रिया का परिणाम में अन्तर्भाव होता है, तो परिस्पन्दात्मक क्रिया का भी उसी में अन्तर्भाव हो सकता है, और ऐसी स्थिति में केवल परिणाम का ही निर्देश करना चाहिए ।

    उत्तर – परिस्पन्दात्मक और अपरिस्पन्दात्मक दोनों प्रकार के भावों की सूचना के लिए क्रिया का पृथक ग्रहण करना आवश्यक है। परिस्पन्द क्रिया है तथा अन्य परिणाम।

    22. परत्व और अपरत्व क्षेत्रकृत भी हैं जैसे दूरवर्ती पदार्थ 'पर' और समीपवर्ती 'अपर' कहा जाता है। गुणकृत भी होते हैं जैसे अहिंसा आदि प्रशस्त गुणों के कारण धर्म 'पर' और अधर्म 'अपर' कहा जाता है । कालकृत भी होते हैं जैसे सौ वर्षवाला वृद्ध

    'पर'और सोलह वर्ष का कुमार 'अपर' कहा जाता है। यहाँ कालके उपकारका प्रकरण है, अतः कालकृत ही परत्व और अपरत्व लेना चाहिए। दूरदेशवर्ती कुमार तपस्वीकी अपेक्षा समीप देशवर्ती वृद्ध चाण्डालमें कालको अपेक्षा 'पर' व्यवहार देखा जाता है और कुमार तपस्वी में 'अपर' व्यवहार । ये परत्वापरत्व कालकृत हैं।

    23 वर्तना परिणाम आदि उपकार रूप लिंगों के द्वारा कालद्रव्य का अनुमान होता है। कहा भी है - "जिससे मूर्तद्रव्यों का उपचय और अपचय लक्षित होते हैं वह काल है।"

    24. प्रश्न – काल के अस्तित्व की सिद्धि के लिए वर्तना का ग्रहण ही पर्याप्त है क्योंकि परिणाम आदि वर्तना के ही विशेष हैं ?

    उत्तर – 'मुख्यकाल और व्यवहारकाल' इन दो प्रकार के कालों की स्पष्ट सूचना के लिए यह विस्तार किया गया है। जिस प्रकार धर्म अधर्म आदि गति और स्थिति में उपकारक हैं उसी तरह वर्तना में मुख्य कालद्रव्य उपकारक है। प्रत्येक लोकाकाश के प्रदेश पर एक-एक कालाणु द्रव्य स्थित हैं। इनका परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है। इनमें धर्मअधर्म आदि की तरह मुख्य रूप से प्रदेशप्रचय नहीं है और न पुद्गलपरमाणु की तरह प्रचयशक्ति की अपेक्षा गौण प्रदेशप्रचय ही। ये एकप्रदेशी हैं। दोनों प्रकार के प्रदेशप्रचय न होने से ये अस्तिकाय नहीं हैं। विनाश का कारण न होने से नित्य हैं । इनमें परप्रत्यय उत्पाद विनाश होता रहता है अतः अनित्य हैं । जैसे सुई में धागा जाने का मार्ग परिच्छिन्न होता है उसी तरह परिच्छिन्नमूर्ति होने पर भी रूप रसादि से रहित होने के कारण अमूर्त हैं। प्रदेशान्तर में संक्रमण न होने से निष्क्रिय हैं। व्यवहारकाल परिणाम, क्रिया और परत्वापरत्व के द्वारा लक्षित होता है । कालकृत वर्तना का आधार होने से यह भी काल कहलाता है। यह स्वयं किसी के द्वारा परिच्छिन्न होकर अन्य पदार्थो के परिच्छेद में कारण होता है।

    25. भूत, वर्तमान और भविष्यत ये तीनों काल परस्परापेक्ष सिद्ध होते हैं। जैसे वृक्षपंक्ति के किनारे चलनेवाले देवदत्त के कुछ वृक्ष गत कुछ गम्यमान और कुछ गमिष्यमाण होते हैं उसी तरह कालाणुओं की क्रमिक पर्यायों के अनुसार पदार्थों में भूत वर्तमान और भविष्यत व्यवहार होता है। मुख्यकाल में भूत आदि व्यवहार गौण है तथा व्यवहारकाल में मुख्य । भूत आदि व्यवहार परस्परापेक्ष हैं। जो क्रिया-परिणत द्रव्य काल-परमाणु को प्राप्त होता है वह द्रव्य उस काल के द्वारा वर्तमान समय-सम्बन्धी वर्तना के कारण वर्तमान कहा जाता है। कालाणु भी उस वर्तमानद्रव्य को स्व-सम्बद्ध ही वर्तन कराता है अतः वर्तमान कहा जाता है। वही जब कालवश वर्तना के सम्बन्ध को अनुभव कर चुकता है तब भूत कहा जाता है और कालाणु भी भूत । वही आगे आनेवाली वर्तना की अपेक्षा भविष्यत कहा जाता है और कालाणु भी भविष्यत । इसी तरह सूर्य की प्रतिक्षण की गति की अपेक्षा आवलि का उच्छ्वास-प्राण, स्तोक, लव, नालिका, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन आदि सूर्यगतिनिमित्तक व्यवहारकाल मनुष्यक्षेत्र में चलता है क्योंकि मनुष्यलोक के ज्योतिर्देव गतिशील होते हैं, बाहर के ज्योतिर्देव अवस्थित हैं। इसी आवलि का आदि से तीनों लोकों के प्राणियों की कर्मस्थिति, भवस्थिति और कायस्थिति आदि का परिच्छेद होता है । इसी से संख्येय, असंख्येय, अनन्त आदि गिनती की जाती है।

    26. प्रश्न – क्रियामात्र ही काल है, उससे भिन्न नहीं । क्रिया स्वयं परिच्छिन्न होकर अन्य द्रव्यों के परिच्छेद में कारण होती है अतः वही काल है। परमाणु की परिवर्तन क्रिया का समय ही 'समय' कहा जाता है, समय के परिमाण को मापनेवाला कोई दूसरा सूक्ष्मकाल नहीं है। 'समय क्रिया का समुदाय आवलिका, आवलिका का समुदाय उच्छ्वास' आदि में उच्छवास के मापने में आवलि का क्रिया काल है और आवलिका में परमाणुक्रिया रूप समयकाल है। इसी तरह आगे भी समझना चाहिए। लोकव्यवहार में भी 'गो-दोहनकाल, रसोई का समय' आदि काल व्यवहार क्रियामूलक ही हैं । एक क्रिया से दूसरी क्रिया परिच्छिन्न होती हुई काल संज्ञा प्राप्त करती है।

    उत्तर – ठीक है, क्रियाकृत ही यह व्यवहार होता है कि 'उच्छ्वासमात्र में किया, मुहूर्त में किया' आदि, परन्तु उच्छ्वास निश्वास मुहूर्त आदि संज्ञाओं को 'काल' व्यपदेश बिना किसी कारण के नहीं हो जाता। उसका कारण काल है अन्यथा काल व्यवहार का लोप हो जायगा। जैसे देवदर में 'दंडी' यह व्यपदेश अकस्मात् नहीं होता किन्तु उसका कारण दंड का सम्बन्ध है उसी तरह उक्त व्यवहारों में 'काल' व्यपदेश के लिए काल-द्रव्य मानना आवश्यक है।

    27. क्रिया मात्र को काल मानने में वर्तमान' का अभाव हो जायगा । पट बुनते समय जो तन्तु बुना गया वह तो 'अतीत' हो गया तथा जो बुना जायगा वह 'अनागत' होगा। इन दोनों के बीच में कोई अनतिक्रान्त और अनागामिनी क्रिया है ही नहीं जिसे वर्तमान कहा जाय । अतीत और अनागत व्यवहार भी वर्तमान की अपेक्षा होता है अतः वर्तमान के अभाव में उनका भी अभाव हो जायगा । 'प्रारम्भ से लेकर कार्य समाप्ति तक होनेवाली क्रियाओं का समूह वर्तमान है' यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि इसमें प्रतिज्ञाविरोध आता है। पहिले आपने क्रिया को काल कहा था और अब 'क्रियासमूह' को काल कहते हो। फिर, क्षणिक क्रियाओं का समूह भी नहीं बन सकता। जो वर्तना-लक्षण काल भिन्न मानते हैं उनके मत में तो प्रथम समयवाली क्रिया की वर्तना से प्रारम्भ करके द्वितीय आदि समयवर्ती क्रियाओं की द्रव्यदृष्टि से स्थिति मानकर समूहकल्पना कर ली जाती है, और उस क्रियासमूह से बननेवाले घटादि की समाप्ति तक 'घट क्रिया हो रही है' यह वर्तमानकालिक प्रयोग कर दिया जाता है। यदि भिन्न रूप से उपलब्ध न होने के कारण काल का अभाव किया जाता है तो क्रिया और क्रियासमूह का भी अभाव हो जायगा । कारकों की प्रवृत्तिविशेष को क्रिया कहते हैं। प्रवृत्तिविशेष भी कारकों से भिन्न उपलब्ध नहीं होता जैसे टेढ़ापन सर्प से जुदा नहीं है उसी तरह क्रियावयवों से भिन्न कोई क्रिया नहीं है अतः क्रिया और क्रियासमूह दोनों का अभाव ही हो जायगा। क्रिया से क्रियान्तर का परिच्छेद भी नहीं हो सकता, क्योंकि स्थिर प्रस्थ आदि से ही स्थिर ही गेहूँ आदि का परिच्छेद देखा जाता है। परन्तु जब क्रिया क्षणमात्र ही ठहरती है; तो उससे अन्य क्रियाओं का परिच्छेद कैसे किया जा सकता है ? स्वयं अनवस्थित पदार्थ किसी अन्य अनवस्थित का परिच्छेदक नहीं देखा गया । प्रदीप अनवस्थित होकर अनवस्थित परिस्पन्द का परिच्छेदक होता है तभी तो 'प्रदीपवत् परिस्पन्दः' यह प्रयोग होता है, यह कहना भी उचित नहीं है; क्योंकि प्रदीप या परिस्पन्द को हम सर्वथा क्षणिक नहीं मानते, कारण कि उसके प्रकाशन आदि कार्य अनेक क्षणसाध्य होते हैं। समूह में परिच्छेद्य-परिच्छेदकभाव भी नहीं बनता; क्योंकि क्षणिकों का समूह ही नहीं बन सकता।

    प्रश्न – जैसे क्षणिक वर्णध्वनियों का समुदाय पद और वाक्य बन जाता है उसी तरह क्रिया का समूह भी बन जायगा।

    उत्तर – वर्णध्वनियों का क्षणिकत्व ही असिद्ध है क्योंकि देशान्तरवर्ती श्रोताओं को वे सुनाई देती हैं। शब्दान्तर की उत्पत्ति के द्वारा देशान्तरवर्ती श्रोताओं को सुनाई देने का पक्ष भी ठीक नहीं हैं; क्योंकि जिस क्षण में ध्वनि उत्पन्न हुई उसी क्षण में तो अन्यध्वनि को उत्पन्न नहीं करती, और अगले क्षण में स्वयं असत् हो जाती है। जिसकी सदवस्था समीप है उस क्षण को उत्पत्ति-काल कहते हैं, पर जिसका उत्तर काल में सत्त्व नहीं हैं उसमें उत्पत्ति व्यवहार नहीं हो सकेगा। पूर्व पूर्वज्ञानों से प्राप्त संस्कारों की आधारभूत बुद्धि में समुदाय की कल्पना भी नहीं हो सकती क्योंकि बुद्धि भी क्षणिक है । जिसके मत में द्रव्य दृष्टि से क्रिया नित्य है और पर्याय दृष्टि से अनित्य उसी के मत में बुद्धि भी नित्यानित्यात्मक होकर ही संस्कारों का आधार हो सकती है और ऐसी बुद्धि में ही शक्ति और व्यक्ति रूप से व्यवस्थित क्रिया समूह के द्वारा, जिसमें कि कालकृत वर्तना से 'काल' व्यपदेश प्राप्त हो गया है, अन्यपरिच्छेद की वृत्ति की जा सकती है । इस तरह व्यवहारकाल सिद्ध हो जाता है, और व्यवहारकाल के द्वारा मुख्यकाल सिद्ध हो जाता है।

    28. परत्व की अपेक्षा अपरत्व और अपरत्व की अपेक्षा परत्व होता है, अतः इनका पृथक् ग्रहण किया है।

    29. 'वर्तना' का ग्रहण सर्वप्रथम इसलिए किया है कि वह अभ्यहित है। परमार्थ काल की प्रतिपत्ति वर्तना से होती है अतः यह पूज्य है। अन्य परिणाम आदि व्यवहार काल के लिंग हैं, अतः अप्रधान हैं ।

    बौद्ध जीव को पुद्गल शब्द से कहते हैं अतः पुद्गल की परिभाषा करते हैं --

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    + पुद्गल के गुण -
    स्पर्श-रस-गंध-वर्णवन्त: पुद्गला: ॥23॥
    अन्वयार्थ : स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णवाले पुद्गल होते हैं ॥२३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जो स्पर्श किया जाता है उसे या स्पर्शनमात्र को स्पर्श कहते हैं । कोमल, कठोर, भारी, हल्का, ठंडा, गरम, स्निग्ध और रूक्ष के भेद से वह आठ प्रकार का है ।

    जो स्वाद रूप होता है या स्वादमात्र को रस कहते हैं । तीता, खट्टा, कडुआ, मीठा और कसैला के भेद से वह पाँच प्रकार का है ।

    जो सूँघा जाता है या सूँघनेमात्र को गन्ध कहते हैं । सुगन्ध और दुर्गन्ध के भेद से वह दो प्रकार का है ।

    जिसका कोई वर्ण है या वर्णमात्र को वर्ण कहते हैं । काला, नीला, पीला, सफेद और लाल के भेद से वह पाँच प्रकार का है ।

    ये स्पर्श आदि के मूल भेद हैं । वैसे प्रत्येक के संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद होते हैं । इस प्रकार ये स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण जिनमें पाये जाते हैं वे स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णवाले कहे जाते हैं । इनका पुद्गल द्रव्य‍ से सदा सम्बन्ध है यह बतलाने के लिए 'मतुप्, प्रत्यय किया है । जैसे 'क्षीरिणो न्यग्रोधा:' । यहाँ न्यग्रोध वृक्ष में दूध का सदा सम्बन्ध बतलाने के लिए 'णिनी' प्रत्यय किया है - उसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए ।

    शंका – 'रूपिण: पुद्गला:' इस सूत्र में पुद्गलों को रूपवाला बतला आये हैं । और रसादिक वहीं रहते हैं जहाँ रूप पाया जाता है; क्यों कि इनका परस्पर में सहचर नाम का अविनाभाव सम्बन्ध है इसलिए रूप के ग्रहण करने से रसादि का ग्रहण हो ही जाता है यह भी पहले बतला आये हैं, इसलिए उसी सूत्र के बल से पुद्गल रूपादिवाला सिद्ध हो जाता है अत: यह सूत्र निष्फल है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' इस सूत्र में धर्मादिक द्रव्यों का नित्य आदि रूप से निरूपण किया है इससे पुद्गलों को अरूपित्व प्राप्त हुआ, अत: इस दोष के दूर करने के लिए 'रूपिण: पुद्गला:' यह सूत्र कहा है । परन्तु यह सूत्र पुद्गलों के स्वरूप विशेष का ज्ञान कराने के लिए कहा है ।


    अब पुद्गलों की शेष रहीं पर्यायों का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-5. सभी रूप रसादि विषयों में स्पर्श सबल है क्योंकि स्पृष्टया ही इन्द्रियों में स्पर्श की शीघ्र अभिव्यक्ति होती है तथा सभी संसारी जीवों के यह ग्रहणयोग्य होता है। इसीलिए स्पर्श का ग्रहण सर्वप्रथम किया है। यद्यपि स्पर्शसुख से निरुत्सुक जीवों में कहीं-कहीं रसव्यापार प्रचुर देखा जाता है फिर भी उनके स्पर्श के होने पर ही रस-व्यापार होता है, इसीलिए स्पर्श के बाद रस का ग्रहण किया है क्योंकि रस-ग्रहण स्पर्शग्रहण के बाद होता है। वायु में भी रस रूप आदि मानते हैं अतः व्यभिचार दोष नहीं हैं । रूप आदि स्पर्श के अविनाभावी हैं । जिस प्रकार घ्राण के द्वारा ग्राह्य गन्ध द्रव्य में रूपादि विद्यमान रहनेपर भी अनुभूत या सूक्ष्म होने के कारण तथा चक्षुरादि इन्द्रियों के स्थूल विषयग्राहक होने से उपलब्ध नहीं होते उसी तरह वायु के रूपादि भी। रूप से पहिले गन्ध का ग्रहण किया है क्योंकि वह अचाक्षुष है । अन्त में रूप का ग्रहण इसलिए किया है कि वह स्थूलद्रव्यगत हो उपलब्ध होता है।

    6. जैसे 'क्षीरिणो न्यग्रोधाः' यहाँ नित्ययोग अर्थ में मत्वर्थीय प्रत्यय किया गया है उसी तरह अनादि पारिणामिक स्पर्शादि गुणों के नित्य योग में मतु प्रत्यय है।

    7-10. मृदु-कठिन, गुरु-लघु, शीत-उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष ये आठ स्पर्श के मूल भेद हैं। रस पाँच प्रकार का है - तिक्त, कटु, अम्ल, मधुर और कषाय । सुगन्ध और दुर्गन्ध के भेद से गन्ध दो प्रकार की है। नील, पीत, शुक्ल, कृष्ण और लोहित के भेद से रूप पाँच प्रकार का है। इन स्पर्शादि के एक, दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात और अनन्तगुण परिणाम होते हैं ।

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    + पुद्गल की पर्याय -
    शब्द-बंध-सौक्ष्म्य-स्थौल्य-संस्थान-भेद-तमश्छायातपोद्योतवन्तश्च ॥24॥
    अन्वयार्थ : तथा वे शब्द, बन्ध, सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व, संस्थान, भेद, अन्धकार, छाया, आतप और उद्योत वाले होते हैं ॥२४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    ये सब शब्दादिक पुद्गल द्रव्य के विकार(पर्याय) हैं । इसीलिए सूत्र में पुद्गल को इन शब्द, बन्ध, सौक्ष्म्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप और उद्योतवाला कहा है । सूत्र में दिये हुए 'च' शब्द से नोदन अभिघात आदिक जो पुद्गल की पर्यायें आगम में प्रसिद्ध हैं उनका संग्रह करना चाहिए ।

    अब पूर्वोक्त पुद्गलों के भेदों का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं - पुद्गल के दो भेद हैं --

    राजवार्तिक :
    1. 'जो अर्थ को शपति अर्थात् कहता है जिसके द्वारा अर्थ कहा जाता है या शपनमात्र है वह शब्द है' इत्यादि कर्तृ करण और भावसाधनों में शब्द आदि का निर्वचन करके, परस्परापेक्षार्थक द्वन्द्व-समास के बाद मतुप प्रत्यय करना चाहिए । जो बँधे या जिसके द्वारा बाँधा जाय या बन्धनमात्र को बन्ध कहते हैं । जो लिंग के द्वारा अपने स्वरूप को सूचित करता है या जिसके द्वारा सूचित किया जाता है या सूचनमात्र है, वह सूक्ष्म है। सूक्ष्म के भाव वा कर्म को सौम्य कहते हैं । जो स्थूल होता है बढ़ता है या जिसके द्वारा स्थूलन होता है या स्थूलनमात्र को स्थूल कहते हैं । स्थूल का भाव या कर्म स्थौल्य है। जो संस्थित होता है या जिसके द्वारा संस्थित हो जाते हैं या संस्थिति को संस्थान कहते हैं । जो भेदन करता है, जिसके द्वारा भेदन किया जाता है या भेदनमात्र को भेद कहते हैं। पूर्वोपात्त अशुभ कर्म के उदय से जो स्वरूप को अन्धकारावृत करता या जिसके द्वारा किया जाता है या तमनमात्र को तम कहते हैं। पृथिवी आदि सघन द्रव्यों के सम्बन्ध से शरीरादि के तुल्य आकार में जो प्रकाश का आवरण करे या अपने स्वरूप का छेदन करे वह छाया है। असातावेदनीय के उदय से अपने स्वरूप को जो तपता है या जिसके द्वारा तपाया जाता है या आतपनमात्र को आतप कहते हैं । जो निरावरण को उद्योतित करता है, जिसके द्वारा उद्योतित करता है या उद्योतनमात्र को उद्योत कहते हैं।

    2-5. शब्द दो प्रकार के हैं - एक भाषात्मक और दूसरे अभाषात्मक । भाषात्मक शब्द अक्षर और अनक्षर के भेद से दो प्रकार के हैं। अक्षरीकृत शब्दों से शास्त्र की अभिव्यक्ति होती है, यह संस्कृत और अन्य के भेद से आर्य और म्लेच्छों के व्यवहार का कारण होता है। अनक्षरात्मक शब्द दो इन्द्रिय आदि जीवों के होते हैं। अतिशयज्ञान-केवलज्ञान के द्वारा स्वरूप प्रतिपादन में कारणभूत भी अनक्षरात्मक भाषात्मक शब्द होते हैं। ये सब प्रायोगिक हैं । अभाषात्मक शब्द प्रायोगिक और वैस्रसिक के भेद से दो प्रकार के हैं। मेघ आदि की गर्जना प्रायोगिक है । प्रायोगिक शब्द तत, वितत, धन और सौषिर के भेद से चार प्रकार के हैं। पुष्कर भेरी आदि में चमड़े के तनाव से जो शब्द होता है वह तत है । वीणा सुघोष आदि से जो शब्द होता है वह वितत है । ताल, घंटा आदि के अभिघात से होनेवाला शब्द धन है और बाँसुरी शंख आदि से निकलनेवाला शब्द सौषिर है।

    स्फोटवादी मीमांसकों का मत है कि ध्वनियाँ क्षणिक हैं, क्रमशः उत्पन्न होती हैं और अनन्तर क्षण में विनष्ट हो जाती हैं। वे स्वरूप के बोध कराने में ही क्षीणशक्ति हो जाती हैं, अतः अर्थान्तर का ज्ञान कराने में समर्थ नहीं हैं। यदि ध्वनियाँ ही समर्थ होतीं तो पदों से पदार्थ की तरह प्रत्येक वर्ण से अर्थबोध होना चाहिए। एक वर्ण के द्वारा अर्थबोध होने पर वर्णान्तर का उपादान निरर्थक है । क्रम से उत्पन्न होनेवाली ध्वनियों का सहभावरूप संघात भी संभव नहीं है, जिससे अर्थबोध हो सके। अतः उन ध्वनियों से अभिव्यक्त होनेवाला, अर्थप्रतिपादन में समर्थ, अमूर्त, नित्य, अतीन्द्रिय निरवयव और निष्क्रिय शब्द स्फोट स्वीकार करना चाहिए । उनका यह मत ठीक नहीं है, क्योंकि ध्वनि और स्फोट में व्यंग्य व्यञ्जकभाव नहीं बन सकता। जिस शब्द-स्फोट को व्यंग्य मानते हैं वह स्वरूप में स्थित है या अस्थित ? यदि स्वरूप से स्थित है, तो ध्वनियों से पहिले और बाद में उसके अनुपलब्ध होने का क्या कारण है - सूक्ष्मता या किसी प्रतिबन्धक का सद्भाव ? यदि सूक्ष्मता कारण है; तो आकाश की तरह सदा अर्थात् ध्वनिकाल में भी अनुपलब्ध रहना चाहिए। यदि ध्वनियों से उसकी सूक्ष्मता हटकर स्थूलता आ जाती है तो वह नित्य नहीं रहेगा, क्योंकि उसमें विकार आ गया है। घट की उपलब्धि के लिए प्रतिबन्धकभूत अन्धकार की तरह यहाँ कोई प्रतिबन्धक भी नहीं है । अन्धकार केवल अभावात्मक नहीं है किन्तु नील वर्ण की तरह अतिशयवाला और वृद्धि-हानिवाला होने से वह वस्तुभूत है। यदि स्फोट स्वरूप से अनवस्थित है तो वह व्यङ्ग्य नहीं हो सकता और न ध्वनियाँ व्यञ्जक; किन्तु ध्वनियों से स्वरूपलाम करने के कारण उसे कार्य मानना होगा। किंच, प्रथम ध्वनि शव्दस्फोट को यदि पूरे रूप से प्रकट कर देती है तो दूसरी तीसरी आदि ध्वनियाँ निरर्थक हो जायँगी। यदि उसके एकदेश को प्रकट करती हैं तो वह निरवयव नहीं रहकर सावयव हो जायगा । किंच, ध्वनियाँ स्फोट की व्यञ्जक होती हैं तो वे स्फोट का उपकार करेंगी या श्रोत्र का या दोनों का? जिस प्रकार जल के सींचने से पृथिवी की गन्ध प्रकट होती है उस तरह ध्वनियाँ स्फोट का उपकार नहीं कर सकतीं, क्योंकि वह नित्य है, अतः उसमें विकार या किसी के द्वारा किया गया कोई अतिशय नहीं आ सकता। अमूर्त, नित्य और अभिव्यङ्ग्य स्फोट में कोई विकार हो नहीं सकता। जिसप्रकार अंजन चक्षु का उपकारक होता है उस तरह ध्वनियाँ श्रोत्र का भी उपकार नहीं कर सकतीं; क्योंकि वधिर-बहरे की इन्द्रिय में तो उपकार हो नहीं सकता । स्वस्थ कर्ण का उपकार यही है कि उसके द्वारा शब्द का बोध हो जाय । सो यह कार्य तो जब ध्वनियों से ही हो जाता है तो फिर स्फोट की कल्पना ही व्यर्थ हो जाती है। इसी तरह दोनों का उपकार भी नहीं बनता । किंच, जब ध्वनियाँ उत्पत्ति के बाद ही नष्ट हो जाती हैं तब वे स्फोट की अभिव्यक्ति कैसे करेंगी ? यदि क्षणिक होकर भी वे स्फोट की अभिव्यक्ति कर सकती हैं तो सीधा अर्थबोध कराने में क्या बाधा है ? जिससे एक निरर्थक स्फोट माना जाय ? दीपक भी सर्वथा क्षणिक नहीं है, क्योंकि उसके द्वारा देशान्तरवर्ती पदार्थों का प्रकाश होता है। 'कर्मव्यक्तियाँ क्षणिक होकर भी कर्मत्व जाति की अभिव्यक्ति करती हैं। यह पक्ष भी ठीक नहीं है ; क्योंकि हम द्रव्य गुण और कर्म में रहनेवाला भिन्न सामान्य पदार्थ ही नहीं मानते । कर्म भी द्रव्य से भिन्न पदार्थ नहीं है और द्रव्य दृष्टि से वह स्थिर है क्षणिक नहीं। किंच, अभिव्यंजक और अभिव्यंग्यों से विलक्षण होने के कारण भी स्फोट की अभिव्यक्ति की कल्पना करना उचित नहीं है । जैसे मूर्त और क्रियावान् दीपक के द्वारा मूर्त और सक्रिय ही घटादि अभिव्यक्त होते हैं उस तरह न तो ध्वनियाँ ही मूर्त और क्रियाशील हैं और न स्फोट ही । अतः अभिव्यक्ति की कल्पना उचित नहीं है । किंच, स्फोट यदि ध्वनियों से अभिन्न है तो दोनों के एक ही हो जाने से वह व्यंग्य नहीं रह सकेगा। यदि भिन्न है तो श्रोत्रेन्द्रिय से उपलब्ध नहीं होना चाहिए । किंच, यदि स्फोट को व्यंग्य मानते हैं तो उसमें घटादि की तरह अनित्यता भी आ जानी चाहिए । 'ज्ञान के द्वारा अभिव्यङ्गय आकाश होता है और वह नित्य है अतः उक्त साधन व्यभिचारी है' यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि हम 'मूर्तिमान के द्वारा व्यंग्य होने से' ऐसा विशिष्ट हेतु देंगे, फिर जो व्यंग्य होते हैं वे कार्य भी देखे जाते हैं जैसे कि घटादि । पर स्फोट को तो सर्वथा नित्य माना गया है अतः वह व्यंग्य से विलक्षण होने के कारण व्यंग्य नहीं बन सकता । 'महान् अहंकार' आदि सांख्याभिमत तत्वों का दृष्टान्त देना ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे स्फोट की व्यंग्यता असिद्ध है उस तरह उन तत्त्वों की भी। फिर, ऐसा कोई दृष्टान्त नहीं मिलता जो अमूर्त, नित्य और निरवयव होकर मूर्त, अनित्य और सावयव से व्यंग्य होता हो । अतः शब्द ध्वनिरूप ही है और वह नित्यानित्यात्मक है यह स्वीकार करना चाहिए । वह पुद्गल-द्रव्य की दृष्टि से नित्य है, श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा सुनने योग्य पर्यायसामान्य की दृष्टि से कालान्तर स्थायी है और प्रतिक्षण की पर्याय की अपेक्षा क्षणिक है।

    6. बन्ध प्रायोगिक और वैस्रसिक के भेद से दो प्रकार का है। वैस्रसिक बन्ध भी आदिमान और अनादिमान के भेद से दो प्रकार का होता है । स्निग्ध रूक्ष गुणों के निमित्त से बिजली, उल्का, जलधारा, इन्द्रधनुष आदि रूपपुगल बन्ध आदिमान् है। अनादि वैस्रसिक बन्ध नव प्रकार का है - धर्मास्तिकाय बन्ध, धर्मास्तिकाय देशबन्ध, धर्मास्तिकाय प्रदेशबन्ध, अधर्मास्तिकाय बन्ध, अधर्मास्तिकाय देशबन्ध, अधर्मास्तिकाय प्रदेशबन्ध, आकाशास्तिकायबन्ध, आकाशास्तिकाय देशबन्ध और आकाशास्तिकाय प्रदेशबन्ध । सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय है, आधा देश और आधे का आधा प्रदेश कहलाता है । कालाणुओं का कभी परस्पर विश्लेष नहीं होता अतः उनका वैस्रसिक सम्बन्ध अनादि है । एक जीव के प्रदेशों का संहरण और विसर्पण स्वभाव होने पर भी परस्पर विश्लेष नहीं होता अतः अनादि बन्ध है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल का कभी भी परस्पर वियोग नहीं होता अतः इनका अनादि बन्ध है । नानाजोवों का भी सामान्य दृष्टि से अन्य द्रव्यों के साथ अनादि सम्बन्ध है। पुद्गल द्रव्यों में भी महास्कन्ध आदि का सामान्य रूप से अनादि बन्ध है। इस तरह सब द्रव्यों में बन्ध की सम्भावना है, पर पुद्गल का प्रकरण होने से यहाँ पुद्गलबन्ध ही लेना चाहिए।

    7-9. विनसा अर्थात् स्वाभाविक । पुरुषार्थ की अपेक्षा 'विधि' होती है । विधि से उलटा 'विस्रसा' शब्द है । प्रयोग अर्थात् पुरुष का काय, वचन और मन का संयोग । जो प्रयोगजन्य है उसे प्रायोगिक कहते हैं । यह दो प्रकार का है - एक अजीवविषयक और दूसरा जीव और अजीव विषयक । लाख और काठ आदि का बन्ध अजीवविषयक बन्ध है। कर्म और नोकर्मबन्ध जीव और अजीव विषयक है । कर्मबन्ध ज्ञानावरणादि के भेद से आठ प्रकार का है। नोकर्मबन्ध औदारिकादि शरीर विषयक है । बन्ध पाँच प्रकार का भी है - आलपन, आलयन, संश्लेष, शरीर और शरीरी के भेद से । रथ गाड़ी आदि का लोहे की साँकल रस्सा आदि से खींचकर बाँधना आलपन बन्ध है । दीवाल मकान आदि का मिट्टी का गारा ईंट आदि से परस्पर चिनना आलयन बन्ध है । लाख काठ आदि का संश्लेष बन्ध है । शरीर बन्ध औदारिक आदि शरीर के भेद से पाँच प्रकार का है। यह संयोगज भंग की अपेक्षा पन्द्रह प्रकार का भी है।
    1. औदारिक शरीर नोकर्म का अन्य औदारिक शरीर नोकर्म से सम्बन्ध होने पर औदारिक औदारिक शरीर नोकर्म बन्ध,
    2. औदारिक और तैजस शरीर के परस्पर सम्बन्ध से औदारिक तैजस शरीर नोकर्म बन्ध,
    3. इसी तरह औदारिक कार्मण कर्म शरीर बन्ध;
    4. औदारिक तैजस कार्मण शरीर बन्ध,
    5. वैक्रियिक वैक्रियिक शरीर बन्ध,
    6. वैक्रियिक तैजसशरीर बन्ध,
    7. वैक्रियिक कार्मण शरीर बन्ध,
    8. वैक्रियिक तैजस कार्मण शरीर बन्ध,
    9. आहारक आहारक शरीर बन्ध,
    10. आहारक तैजस शरीर बन्ध,
    11. आहारक कार्मण शरीर बन्ध,
    12. आहारक तैजस कार्मण शरीर बन्ध,
    13. तैजस तैजस शरीर बन्ध
    14. तैजस कार्मण शरीर बन्ध और
    15. कार्मण कार्मण शरीर बन्ध
    समझना चाहिए। शरीरिबन्ध अनादिमान और आदिमान के विकल्प से दो प्रकार का है । जीव के आठ मध्य प्रदेशों का, जो ऊपर नीचे चार-चार रूप से स्थित हैं सदा वैसे ही रहते हैं एक दूसरे को नहीं छोड़ते, अनादि बन्ध है। अन्य प्रदेशों में कर्म-निमित्तक संकोच-विस्तार होता रहता है अतः उनका बन्ध आदिमान है। जैसे क्रोध-परिणत आत्मा को क्रोध कहते हैं उसी तरह गरम लोहे के पिंड की तरह बन्ध की अपेक्षा एकत्व को प्राप्त हुआ शरीर-परिणत आत्मा ही शरीर हैं, अतः शरीरबन्ध के पन्द्रह विकल्प शरीरी में भी लगा लेना चाहिए । आत्मा के योग-परिणामों के द्वारा जो किया जाता है उसे कर्म कहते हैं। यह आत्मा को परतन्त्र बनाने का मूल कारण है । कर्म के उदय से होनेवाला वह औदारिकशरीर आदिरूप पुद्गलपरिणाम जो आत्मा के सुख-दुःख में सहायक होता है, नोकर्म कहलाता है। स्थिति के भेद से भी कर्म और नोकर्म में भेद है। कर्मों की स्थिति आगे कही जायगी। औदारिक और वैक्रियिक शरीर में अपनी आयु के प्रमाण निषेक होते हैं। औदारिक शरीर की तीन-पल्य उत्कृष्ट स्थिति है, एक समय से लेकर तीन-पल्य तक औदारिक शरीर का अवस्थान है । वक्रियिक शरीर की तेतीस-सागर स्थिति है, एक समय निषेक से लेकर तेतीस-सागर के अन्तिम समय तक वैक्रियिक शरीर ठहरता है। आहारक शरीर की स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। तैजस शरीर की 66 सागर स्थिति है। ज्ञानावरणादि कर्मों की जो उत्कृष्ट स्वस्थिति है वही कार्मण शरीर की स्थिति समझनी चाहिए। औदारिक, वैक्रियिक, तैजस और कार्मण शरीर नामकर्म की प्रत्येक की बीस-कोड़ाकोड़ी सागर स्थिति है। आहारक-शरीर कर्म की अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर स्थिति है।

    10-11. सौक्ष्म्य और स्थौल्य दो दो प्रकार के हैं - एक अन्त्य और दूसरे आपेक्षिक । अन्त्य सौम्य परमाणुओं में है और आपेक्षिक सौक्ष्म्य बेर, आँवला, बेल, ताड़फल आदि में है । इसी तरह अन्त्य स्थौल्य जगद्व्यापी महास्कन्ध में तथा आपेक्षिक बेर, आँवला, बेल आदि में है।

    12-13. संस्थान-आकृति दो प्रकार का है - एक इत्थंलक्षण और दूसरा अनित्थंलक्षण । गोल, तिकोना, चौकोना, लम्बा, चौड़ा आदि रूप से जिसका वर्णन किया जा सके वह इत्थंलक्षण है। उससे भिन्न मेघ आदि का संस्थान 'यह ऐसा है' ऐसा निरूपण न कर सकने के कारण अनित्थंलक्षण है।

    14. भेद छह प्रकार का है - उत्कर, चूर्ण, खण्ड, चूर्णिका, प्रतर और अणुचटन के भेद से । लकड़ी का आरा आदि से चीरना उत्कर है । गेहूँ, चना आदि का सत्त चून आदि बनाना चूर्ण है । घड़े के खप्पर हो जाना खंड है। उड़द मूंग आदि की दाल बनाना चूर्णिका है। अभ्रक आदि के पटल प्रतर हैं । गरम लोहे को घन से कूटने पर जो फुलिंगे निकलते हैं उन्हें अणुचटन कहते है।

    15. दृष्टि का प्रतिबन्ध करनेवाला अन्धकार है, जिसे हटाने के कारण दीपक प्रकाशक कहा जाता है ।

    16-17. प्रकाश के आवरणभूत शरीर आदि से छाया होती है। छाया दो प्रकार की है - दर्पण आदि स्वच्छ द्रव्यों में आदर्श के रंग आदि की तरह मुखादि का दिखना तद्वर्णपरिणता छाया है तथा अन्यत्र प्रतिबिम्ब मात्र होती है। प्रसन्नद्रव्य के परिणमन विशेष से पूर्वमुख पदार्थ की पश्चिममुखी छाया पड़ती है । मीमांसक का यह मत ठीक नहीं है कि - 'दर्पण में छाया नहीं पड़ती किन्तु नेत्र की किरणें दर्पण से टकराकर वापिस लौटती हैं और अपने मुख को ही देखती हैं।' क्योंकि नेत्र की किरणें जैसे दर्पण से टकराकर मुख को देखती हैं उसी तरह दीवाल से टकराकर भी उन्हें मुख को देखना चाहिए । इसी तरह जब किरणें वापिस आती हैं तो पूर्वदिशा की तरफ जो मुख है वह पूर्वाभिमुख ही दिखाई देना चाहिए पश्चिमाभिमुख नहीं । मुख की दिशा बदलने का कोई कारण नहीं है। फिर ये नेत्र रश्मियाँ मन के अधिष्ठान के बिना पदार्थ के ग्रहण में समर्थ भी नहीं हो सकतीं ।

    18. सूर्यादि के उष्ण प्रकाश को आतप कहते हैं।

    19. चन्द्र, मणि, जुगनू आदि के प्रकाश को उद्योत कहते हैं।

    20-21. क्रिया भी पुद्गल की पर्याय है। इसका ग्रहण धर्म, अधर्म और आकाश में क्रिया का निषेध करने से हो ही जाता है । इस प्रकार 'काल' द्रव्य में पुद्गल की तरह क्रियावत्त्व का प्रसंग नहीं होता; क्योंकि 'अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गला' यहाँ अस्तिकायों के निर्देश में 'काल' का ग्रहण ही नहीं किया है। यदि यहाँ पाठ होता तो 'आ आकाशादेकद्रव्याणि निष्कियाणि' इन सूत्रों से बाह्य होने के कारण काल में भी पुद्गल की तरह क्रियावत्त्व का प्रसंग आता। अथवा यदि काल को सक्रिय मानना इष्ट होता तो 'द्रव्याणि जीवाः, कालश्च' ऐसा पूर्वनिर्देश किया होता । ऐसी हालतमें 'जीवाश्च' यहाँ 'च' शब्द नहीं देना पड़ता और 'कालश्च' यह पृथक्सूत्र भी नहीं बनाना पड़ता। अनन्त समयों की सूचना के लिए 'कालश्च' सूत्र की सार्थकता बताना भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'आकाशस्यानन्ताः कालश्च' इस प्रकार सूत्र बनाने से वह प्रयोजन सिद्ध हो सकता था। इस तरह लघु न्याय से सब कार्य सिद्ध हो जाने पर भी जो आगे 'कालश्च' ऐसा पृथक् सूत्र बनाया गया है उससे ज्ञात होता है कि काल में क्रियावत्त्व इष्ट नहीं है। यह निष्क्रियता परिस्पन्दरूप क्रिया की अपेक्षा से है 'अस्ति' आदि भावात्मक क्रियाओं की अपेक्षा से नहीं। अतः अनादि पारिणामिक अस्ति आदि क्रिया की दृष्टि से काल द्रव्य क्रियावान है और देशान्तर प्राप्ति कराने में समर्थ परिस्पन्दरूप क्रिया की अपेक्षा काल निष्क्रिय है ।

    22. क्रिया प्रयोग बन्धाभाव आदि के भेद से दस प्रकार की है। बाण चक्र आदि की प्रयोग गति है । एरण्डबीज आदि की बन्धाभाव गति है । मृदंग, भेरी, शंखादि के शब्द पुद्गलों की जो दूर तक जाते हैं छिन्नगति है । गेंद आदि की अभिघातगति है । नौका आदि की अवगाहनगति है । पत्थर आदि की नीचे की ओर गुरुत्वगति है । तुंबड़ी, रुई आदि की लघु गति है । सुरा, सिरका आदि की संचार गति है। मेघ, रथ, मूसल, आदि की क्रमशः वायु, हाथी तथा हाथ के संयोग से होनेवाली संयोग गति है। वायु, अग्नि, परमाणु, मुक्तजीव और ज्योतिर्देव आदि की स्वभावगति है। अकेली वायु की तिर्यक गति है। भस्त्रादि के कारण वायु की अनियत गति होती है। अग्नि की स्वाभाविक ऊर्ध्वगति है। कारणवश उसकी अन्य दिशाओं में भी गति होती है। परमाणुकी अनियत गति है । मुक्त होनेवाले जीवों की ऊर्ध्वगति है । ज्योतिषियों का नरलोक में नित्य भ्रमण होता है।

    22-23 जैसे 'सारवान् स्तम्भः' या 'आत्मवान् पुरुषः' यहाँ अभेद में भी मत्वर्थीय प्रयोग देखा जाता है, उसी तरह इस सूत्र में भी समझना चाहिए । मत्वर्थीय का 'दण्डी देवदत्तः' की तरह एकान्त भिन्नता में ही प्रयोग होने का नियम नहीं है। फिर शब्दादि भी पर्यायदृष्टि से पुद्गल द्रव्य से भिन्न हैं । गरम लोहे की तरह पुद्गल का ही शब्दादि रूप से परिणमन होता है, अतः स्यात् अभिन्नत्व है।

    24 स्पर्शादि परमाणुओं के भी होते हैं और स्कन्धों के भी, पर शब्दादि व्यक्तरूप से स्कन्धों के ही होते हैं सौक्ष्म्य को छोड़कर, इस विशेषता को बताने के लिए पृथक सूत्र बनाया है। सौक्ष्य का इस सूत्र में निर्देश स्थौल्य का प्रतिपक्ष सूचन करने के लिए खास तौर से किया गया है।

    25. 'स्पर्शादि गुणों का एकजातीय परिणमन होता है। इसकी सूचना करने के लिए पृथक् सूत्र बनाया है। जैसे कठिन स्पर्श अपनी जाति को न छोड़कर पूर्व और उत्तर स्वगत भेदों के उत्पाद विनाश को करता हुआ दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात, अनन्तगुण कठिन स्पर्श पर्यायों से ही परिणत होता है मृदु, गुरु, लघु आदि स्पर्शों से नहीं । इसी तरह मृदु आदि भी। तिक्तरस रस जाति को न छोड़कर उत्पाद विनाश को प्राप्त होकर भी दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात, अनन्त गुण तिक्तरस रूप से ही परिणमन करेगा कटुक आदि रसों से नहीं। इसी तरह कटुक आदि में भी समझना चाहिए । एक सुगन्ध अपनी जाति को न छोड़कर दो आदि अनन्तगुण सुगन्ध पर्यायों से ही परिणत होगा दुर्गन्ध रूप से नहीं । इसी तरह दुर्गन्ध भी । शुक्ल वर्ण अपनी जाति को न छोड़कर पूर्व उत्तर के नाश और उत्पाद का अनुभव करता हुआ दो आदि अनन्तगुण शुक्ल वर्गों से ही परिणमन करता है, नीलादि रूप से नहीं । इसी तरह नीलादि में भी समझना चाहिए।

    प्रश्न – जब कठिन स्पर्श मृदु रूप में, गुरु लघु रूप में, स्निग्ध सूक्ष्म में और शीत उष्ण में बदलता है, इसी तरह तिक्त कटुक आदि रूप से, सुगन्ध दुर्गन्ध रूप से, शुक्ल कृष्णादि रूप में तथा और भी परस्पर संयोग से गुणान्तर रूप में परिणमन करते हैं तब यह एकजातीय परिणमन का नियम कैसे रहेगा ?

    उत्तर – ऐसे स्थानों में कठिन स्पर्श अपनी स्पर्श जाति को न छोड़कर ही मृदु स्पर्श से विनाश उत्पाद का अनुभव करता हुआ परिणमन करता है अन्य रूप में नहीं । इसी तरह अन्य गुणों में भी समझ लेना चाहिए।

    26. च शब्द से नोदन अभिधात आदि जितने भी पुद्गल परिणाम हो सकते हैं उन सबका समुच्चय हो जाता है।

    पुद्गल के भेद -

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    + पुद्गल के भेद -
    अणव: स्कन्धाश्च ॥25॥
    अन्वयार्थ : पुद्गल के दो भेद हैं - अणु और स्कन्ध ॥२५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    एक प्रदेश होने वाले स्पर्शादि पर्याय को उत्पन्न करने की सामर्थ्य रूप से जो 'अण्यन्ते' अर्थात् कहे जाते हैं वे अणु कहलाते हैं । तात्पर्य यह है कि अणु एकप्रदेशी होने से सबसे छोटा होता है इसलिए वह अणु कहलाता है । यह इतना सूक्ष्म होता है जिससे वही आदि है, वही मध्य है और वही अन्त है । कहा भी है –

    'जिसका आदि, मध्य‍ और अन्त एक है, और जिसे इन्द्रियाँ नहीं ग्रहण कर सकतीं ऐसा जो विभाग रहित द्रव्य है उसे परमाणु समझो ।'


    जिनमें स्थूल रूप से पकड़ना, रखना आदि व्यापार का स्कन्धन अर्थात् संघटना होती है, वे स्कन्ध कहे जाते हैं । रूढि में क्रिया कहीं पर होती हुई उपलक्षणरूप से वह सर्वत्र ली जाती है, इसलिए ग्रहण आदि व्यापार के अयोग्य द्वयणुक आदिक में भी स्कन्ध संज्ञा प्रवृत्त होती है । पुद्गलों के अनन्त भेद हैं तो भी वे सब अणुजाति और स्कन्‍धजाति के भेद से दो प्रकार के हैं । इस प्रकार पुद्गलों की इन दोनों जातियों के आधारभूत अनन्त भेदों के सूचन करने के लिए सूत्र में बहुवचन का निर्देश किया है । यद्यपि सूत्र में अणु और स्कन्ध इन दोनों पदों को समसित रखा जा सकता था तब भी ऐसा न करके 'अणव: स्कन्धा:' इस प्रकार भेद रूप से जो कथन किया है वह इस सूत्र से पहले कहे गये दो सूत्रों के साथ अलग-अलग सम्बन्ध बतलाने के लिए किया है । जिससे यह ज्ञात हो कि अणु स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णवाले हैं परन्तु स्कन्ध शब्द, बन्ध, सौक्ष्म्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, छाया, आतप और उद्योतवाले हैं तथा स्पर्शादिवाले भी हैं ।


    इन पुद्गलों का अणु और स्कन्धरूप परिणाम होना अनादि है या सादि ? वह उत्पन्न होता है इसलिए सादि है । यदि ऐसा है तो उस निमित्त का कथन करो जिससे अणु और स्कन्ध ये भेद उत्पन्न होते हैं । इसलिए पहले स्कन्धों की उत्पत्ति के हेतु का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं --

    राजवार्तिक :
    1. प्रदेशमात्रभावी स्पर्श आदि गुणों से जो सतत परिणमन करते है और इसी रूप से शब्द के विषय होते हैं वे अणु हैं। ये अत्यन्त सक्षम हैं इनका आदि मध्य और अन्त एक ही है। वही अणु का स्वरूप । कहा भी है - 'एक ही स्वरूप जिनका आदि मध्य और अन्त है, जो इन्द्रियग्राह्य नहीं है, उस अविभागी द्रव्य को परमाणु कहते हैं।'

    2. स्थूल होने के कारण जो ग्रहण किये जा सकते हैं और रखे जा सकते हैं वे स्कन्ध हैं । रूढ़ शब्दों में क्रिया कहीं होती है, और कहीं न भी हो तो उपलक्षण से मान ली जाती है। अतः ग्रहण निक्षेप आदि व्यापार के अयोग्य भी द्वयणुक आदि स्कन्धों में स्कन्ध संज्ञा बन जाती है।

    3-4. दोनों शब्दों में बहुबचन अणुत्वजाति और स्कन्धत्वजाति से संगृहीत होनेवाले अनन्त भेदों की सूचना के लिए है । यद्यपि 'अणुस्कन्धाः ' ऐसा सूत्र बन सकता था। परन्तु पृथक निर्देश पूर्वोक्त दो सूत्रों से पृथक-पृथक् सम्बन्ध बनाने के लिए है । स्पर्श रस गन्ध और वर्णवाले अणु हैं और शब्द आदि पर्यायवाले स्कन्ध हैं।

    5-12. कोई वादी परमाणु के इस लक्षण से एकान्त का समर्थन करते हैं - 'अन्त्यपरमाणु कारण ही है, सूक्ष्म है, नित्य है, उसमें एक रस, एक गन्ध और एक वर्ण है, अविरोधी दो स्पर्श हैं तथा कार्यलिंग के द्वारा वह अनुमेय है'; पर यह युक्तियुक्त नहीं है। परमाणु को 'कारण ही' कहना ठीक नहीं है। क्योंकि वह स्कन्धों के भेदपूर्वक उत्पन्न होने से कार्य भी है। 'कारणमेव' कहने से उसके कार्यत्व का निषेध हो जाता है। जब 'कारणमपि' कहा जाता तभी कार्यत्व का अनिषेध रहता । परमाणु में स्नेह आदि गुण उत्पन्न और विनष्ट होते हैं अतः कथञ्चित् अनित्य होने से वह सर्वथा नित्य नहीं कहा जा सकता। 'परमाणु अनादिकाल से अणु रहता है और वह द्वणुकादि स्कन्धों का कारण है, इसी अपेक्षा "कारणमेव" कहा है' यह समाधान भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि अणु अपने अणुत्व को नहीं छोड़ता तो उससे कार्य भी उत्पन्न नहीं हो सकता । यदि अणुत्व का भेद हुआ तो वह स्वयं कार्य हो ही जायगा । जब तक उससे अणुत्व के भेदपूर्वक कार्य उत्पन्न नहीं हो जाता तबतक उसे कारण भी नहीं कह सकते। पुत्र के अभाव में पिता व्यपदेश नहीं होता । अनादि परमाणु की छाया आदि भी नहीं पड़ सकती; क्योंकि छाया आदि स्कन्धों की होती है, अतः छायादिरूप कार्य की अपेक्षा भी वह कारण नहीं कहा जा सकता। छायादि चाक्षुष हैं, अतः वे परमाणु के कार्य नहीं हो सकते । परमाणु के कार्य तो अचाक्षुष होंगे। फिर अनादिकाल से अबतक परमाणु की अवस्था में ही रहनेवाला कोई अणु नहीं है। 'भेदादणु:' सूत्र में स्कन्ध भेदपूर्वक परमाणुओं की उत्पत्ति बताई है। अतः 'अनादि परमाणु' की अपेक्षा नित्य कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें भी स्नेह आदि गुणों का प्रतिक्षण परिणमन होता रहता है । कोई भी पदार्थ परिणामशून्य नहीं है । द्वयणुक आदि की तरह संघात से परमाणु कभी उत्पन्न नहीं होता अतः कारण ही है, और द्रव्यदृष्टि से व्यय और उत्पाद नहीं होता अतः नित्य है। इस तरह विशेष विवक्षा में 'कारणमेव' यहाँ एवकार का भी विरोध नहीं है।

    13-14. परमाणु निरवयव है, अत: उसमें एक रस एक गन्ध और एक वर्ण है। सावयव ही मातुलिंग आदि में अनेक रस, मयूर आदि में अनेक वर्ण और अनुलेपन आदि में अनेक गन्ध हो सकती हैं। उसमें शीत और उष्ण में से कोई एक तथा स्निग्ध और रूक्ष में से कोई एक, इस तरह अविरोधी दो स्पर्श होते हैं । गुरु-लघु, मृदु और कठिन स्पर्श परमाणु में नहीं पाये जाते क्योंकि वे स्कन्धगत हैं। शरीर इन्द्रिय और महाभूत आदि स्कन्धरूप कार्यों से परमाणु का अस्तित्व सिद्ध होता है। कार्यलिंग से कारण का अनुमान किया जाना सर्वसम्मत नियम है। परमाणुओं के अभाव में स्कन्ध कार्य नहीं हो सकते।

    15. अतः अनेकान्त दृष्टि से ही उक्त लक्षण ठीक हो सकता है।

    16. जिन परमाणुओं ने परस्पर बन्ध कर लिया है वे स्कन्ध कहलाते हैं। वे तीन प्रकार के हैं - स्कन्ध, स्कन्धदेश और स्कन्धप्रदेश । अनन्तानन्त परमाणुओं का बन्धविशेष स्कन्ध है। उसके आधे को देश कहते हैं और आधे के भी आधे को प्रदेश । पृथिवी जल अग्नि वायु आदि उसी के भेद हैं । स्पर्शादि और शब्दादि उसकी पर्याय हैं । घट-पट आदि स्पर्शादिमान पदार्थ पृथिवी हैं । जल भी पुद्गल का विकार होनेसे पुद्गलात्मक है। उसमें गन्ध भी पाई जाती है। 'जल में संयक्त पार्थिवद्रव्यों की गन्ध जल में आती है, जल स्वयं निर्गन्ध है' यह पक्ष असिद्ध है। क्योंकि कभी भी गन्धरहित जल उपलब्ध नहीं होता और न पार्थिव द्रव्यों के संयोग से रहित ही गन्ध स्पर्श का अविनाभावी है । अर्थात् पुद्गल का अविनाभावी है अतः वह जल का ही गुण है । जल गन्धवाला है क्योंकि वह रसवाला है जैसे कि आम । अग्नि भी स्पर्शादि और शब्दादि स्वभाववाली है क्योंकि वह पृथिवीत्ववाली पृथिवी का कार्य है जैसे कि घड़ा। स्पर्शादिवाली लकड़ी आदि से अग्नि उत्पन्न होती है। यह सर्वविदित है। पुद्गलपरिणाम होने से ही खाए गए स्पर्शादिगुणवाले आहार का वात, पित्त और कफरूप से परिणाम होता है । पित्त अर्थात् जठराग्नि । अतः तेज को स्पर्श आदि गुणवाला ही मानना ठीक है । इसी तरह वायु भी स्पर्शादि और शब्दादि पर्यायवाली है क्योंकि उसमें स्पर्श गुण पाया जाता है जैसे कि घट में। खाए हुए स्पर्शादिवाले भोजन का वात, पित्त और श्लेष्म रूप से परिणमन होता है । वात अर्थात् वायु । अतः वायु को भी स्पर्शादिमान् मानना चाहिए। अतः नैयायिक का यह कथन खण्डित हो जाता है कि - 'पृथ्वी में चार गुण, जल में गन्धरहित तीन गुण, अग्नि में गन्धरसरहित दो गुण तथा वायु में केवल स्पर्श गुण है। ये सब पृथिवीत्व जलत्व आदि जातियों से भिन्न-भिन्न हैं।'

    स्कन्धों की उत्पत्ति का कारण -

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    + स्कन्ध की उत्पत्ति -
    भेद-संघातेभ्य उत्पद्यन्ते ॥26॥
    अन्वयार्थ : भेद से, संघात से तथा भेद और संघात दोनों से स्कन्ध उत्पन्न होते हैं ॥२६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अन्तरंग अैर बहिरंग इन दोनों प्रकार के निमित्तों से संघातों के विदारण करने को भेद कहते हैं ।

    तथा पृथग्भूत हुए पदार्थों के एकरूप हो जाने को संघात कहते हैं ।

    शंका – भेद और संघात दो हैं, इसलि‍ए सूत्र में द्विवचन होना चाहिए ।

    समाधान – तीन का संग्रह करने के लिए सूत्र में बहुवचन का निर्देश किया है । जिससे यह अर्थ सम्पन्न होता है कि भेद से, संघात से तथा भेद और संघात इन दोनों से स्कन्ध उत्पन्न होते हैं । खुलासा इस प्रकार है - दो परमाणुओं के संघात से दो प्रदेशवाला स्कन्ध उत्पन्न‍ होता है । दो प्रदेशवाले स्कन्ध और अणु के संघात से या तीन अणुओं के संघात से तीन प्रदेशवाला स्कन्ध उत्पन्न होता है । दो प्रदेशवाले दो स्कन्धों के संघात से, तीन प्रदेशवाले स्कन्ध और अणु के संघात से या चार अणुओं के संघात से चार प्रदेशवाला स्कन्ध उत्पन्न होता है । इस प्रकार संख्यात, असंख्यात, अनन्त और अनन्तानन्त अणुओं के संघात से उतने-उतने प्रदेशोंवाले स्कन्ध उत्पन्न होते हैं । तथा इन्हीं संख्यात आदि परमाणुवाले स्कन्धों के भेद से दो प्रदेशवाले स्कन्ध तक स्कन्ध उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार एक समय में होनेवाले भेद और संघात इन दोनों से दो प्रदेशवाले आदि स्कन्ध उत्पन्न होते हैं । तात्पर्य यह है कि जब अन्य स्कन्ध से भेद होता है और अन्य का संघात, तब एक साथ भेद और संघात इन दोनों से भी स्कन्ध की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार स्क‍न्धों की उत्‍‍पत्ति का कारण कहा ।

    अब अणु की उत्पत्ति के हेतु को दिखलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1-4. बाह्य और अभ्यन्तर कारणों से सहित स्कन्धों के विदारण को भेद कहते हैं । भिन्न-भिन्न पदार्थो का बन्ध होकर एक हो जाना संघात है। सूत्र में बहुवचन देने से ज्ञात होता है कि भेदपूर्वक संघात अर्थात् 'भेदसंघात' भी स्कन्धोत्पत्ति का स्वतन्त्र कारण है। 'उत्पद्यन्ते' में उत्पूर्वक पदि धातु का अर्थ जन्म होता है । उत्पद्यन्ते अर्थात् जन्म लेते हैं।

    5. 'भेदसंघातेभ्यः' यह हेतुनिर्देश उत्पत्ति की अपेक्षा है। निमित्त कारण और हेतु में सभी विभक्तियाँ प्रायः होती हैं । अतः 'भेद संघातरूप कारणों से स्कन्ध उत्पन्न होते हैं' यह अर्थ फलित हो जाता है । दो परमाणुओं के संघात से द्विप्रदेशी स्कन्ध उत्पन्न होता है । द्विप्रदेशी स्कन्ध तथा एक परमाणु के संघात से या तीनों परमाणुओं के संघात से त्रिप्रदेशी स्कन्ध उत्पन्न होता है। दो द्विप्रदेशी, एक त्रिप्रदेशी और एक अणु, या चार अणुओं के सम्बन्ध से एक चतुःप्रदेशी स्कन्ध होता है। इस तरह संख्येय, असंख्येय और अनन्त प्रदेशों के संघात से उतने प्रदेशवाले स्कन्ध उत्पन्न होते हैं । इन्हीं के भेद से द्विप्रदेशपर्यन्त स्कन्ध उत्पन्न होते हैं। इस तरह एक ही समय में भेद और संघात से-किसी से भेद और किसी से संघात होने पर द्विप्रदेशी आदि स्कन्ध उत्पन्न होते हैं।

    अणुकी उत्पत्ति का कारण --

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    + अणु की उत्पत्ति -
    भेदादणु: ॥27॥
    अन्वयार्थ : भेद से अणु उत्पन्न होता है ॥२७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    कोई विधि सिद्ध हो, फिर भी यदि उसका आरम्भ किया जाता है तो वह नियम के लिए होती है। तात्पर्य यह है कि अणु भेद से होता है यद्यपि यह सिद्ध है फिर भी 'भेदादणु:' इस सूत्र के निर्माण करने से यह नियम फलित होता है कि अणु की उत्पत्ति भेद से ही होती है। न संघात से होती है और न भेद और संघात इन दोनों से ही होती है।


    जब संघात से ही स्कन्धों की उत्पत्ति होती है तब सूत्र में भेद और संघात इन दोनों पदों का ग्रहण करना निष्फल है अत: इन दोनों पदों के ग्रहण करने का क्या प्रयोजन है इसका कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. 'भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते' इस सूत्र से स्कन्ध की उत्पत्ति सूचित होने से अर्थात् ही ज्ञात हो जाता है कि 'अणु भेद से होता है' फिर भी इस सूत्र के बनाने से यह अवधारण किया जाता है कि अणु भेद से ही उत्पन्न होता है। जैसे कि 'अपो भक्षयति' में एवकार का अर्थ अवधारण आ जाता है।

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    + स्कन्ध की उत्पत्ति का विशेष -
    भेद-संघाताभ्यां चाक्षुष: ॥28॥
    अन्वयार्थ : भेद और संघात से चाक्षुष स्कन्ध बनता है ॥२८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अनन्तानन्त परमाणुओं के समुदाय से निष्पन्न होकर भी कोई स्कन्ध चाक्षुष होता है और कोई अचाक्षुष। उसमें जो अचाक्षुष स्कन्ध है वह चाक्षुष कैसे होता है इसी बात के बतलाने के लिए यह कहा है कि भेद और संघात से चाक्षुष स्कन्ध‍ होता है, केवल भेद से नहीं, यह इस सूत्र का अभिप्राय है।

    शंका – इसका क्या कारण है ?

    समाधान – आगे उसी कारण को बतलाते हैं - सूक्ष्मपरिणाम वाले स्कन्ध का भेद होने पर वह अपनी सूक्ष्मता को नहीं छोड़ता इसलिए उसमें अचाक्षुषपना ही रहता है। एक दूसरा सूक्ष्मपरिणामवाला स्कन्ध है जिसका यद्यपि भेद हुआ तथापि उसका दूसरे संघात से संयोग हो गया अत: सूक्ष्मपना निकलकर उसमें स्‍‍थूलपने की उत्पत्ति हो जाती है और इसलिए वह चाक्षुष हो जाता है।


    धर्मादिक द्रव्य के विशेष लक्षण कहे, सामान्य लक्षण नहीं कहा, जो कहना चाहिए इसलिए सूत्र द्वारा सामान्य लक्षण कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    अनन्तानन्त परमाणुओं से उत्पन्न होकर भी कोई स्कन्ध चाक्षुष होता है तथा कोई अचाक्षुष 'जो अचाक्षुष स्कन्ध है वह चाक्षुष कैसे बनता है' इस प्रश्न का समाधान इस सूत्र में किया है कि भेद और संघात से अचाक्षुष स्कन्ध चाक्षुष बनता है। सूक्ष्म स्कन्ध से कुछ अंश का भेद होने पर भी यदि उसने सूक्ष्मता का परित्याग नहीं किया है तो वह अचाक्षुष का अचाक्षुष ही बना रहेगा । सूक्ष्मपरिणत स्कन्ध भेद होने पर भी अन्य के संघात से सूक्ष्मता का त्याग करने पर और स्थूलता की उत्पत्ति होने पर चाक्षुष बनता है।

    प्रश्न – गति स्थिति अवगाह वर्तना शरीरादि और परस्परोकार के द्वारा जिन धर्म आदि का अनुमान किया गया है उन्हें पहिले 'द्रव्य' कहा है। तो उन्हें द्रव्य क्यों कहते हैं ?

    उत्तर – सत् होने से ।

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    + द्रव्य का लक्षण -
    सद् द्रव्य-लक्षणम् ॥29॥
    अन्वयार्थ : द्रव्य का लक्षण सत् है ॥२९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जो सत् है वह द्रव्य है यह इस सूत्र का भाव है।

    यदि ऐसा है तो यही कहिए कि सत् क्या है ? इसलिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    जो सत् है वह द्रव्य है। 'तो सत् का लक्षण क्या है' इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जो इन्द्रियग्राह्य या अतीन्द्रिय पदार्थ बाह्य और आन्तर निमित्त की अपेक्षा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को प्राप्त होता है वह 'सत्' है । यहाँ 'वेदितव्यम्' इस पद का अध्याहार कर लेना चाहिए । धर्मादि को 'सत्' होने से द्रव्य समझ लिया था, अतः बताइए कि 'सत्' क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए यह सूत्र बनाया है --

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    + सत् का लक्षण -
    उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत् ॥30॥
    अन्वयार्थ : जो उत्पा‍द, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों से युक्त अर्थात् इन तीनों रूप है वह सत् है ॥३०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    द्रव्य दो हैं - चेतन और अचेतन। वे अपनी जाति को तो कभी नहीं छोड़ते फिर भी उनकी अन्तरंग और बहिरंग निमित्त के वश से प्रति समय जो नवीन अवस्था की प्राप्ति होती है उसे उत्पाद कहते हैं। जैसे मिट्टी के पिण्ड की घट पर्याय। तथा पूर्व अवस्था के त्याग को व्यय कहते हैं। जैसे घट की उत्पत्ति होने पर पिण्डरूप आकार का त्याग तथा जो अनादिकालीन पारिणामिक स्वभाव है उसका व्यय और उदय नहीं होता किन्तु वह 'ध्रुवति'अर्थात् स्थिर रहता है इसलिए उसे ध्रुव कहते हैं। तथा इस ध्रुव का भाव या कर्म ध्रौव्य कहलाता है। जैसे मिट्टी के पिण्ड और घटादि अवस्थाओं में मिट्टी का अन्वय बना रहता है। इस प्रकार इन उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से जो युक्त है वह सत् है।

    शंका – भेद के रहते हुए युक्त शब्द देखा जाता है। जैसे दण्ड से युक्त देवदत्त। यहाँ दण्ड और देवदत्त में भेद है प्रकृत में भी यदि ऐसा मान लिया जाय तो उन तीनों का और उन तीनों से युक्त द्रव्य का अभाव प्राप्त‍ होता है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि अभेद में भी कथंचित् भेदग्राही नय की अपेक्षा युक्त शब्द का प्रयोग देखा जाता है। जैसे सार युक्त स्तम्भ। ऐसी हालत में उन तीनों का परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध होने से यहाँ युक्त शब्द का प्रयोग करना युक्त है। अथवा यह युक्त शब्द समाधिवाची है। भाव यह है कि युक्त, समाहित और तदात्मक ये तीनों एकार्थवाची शब्द हैं जिससे 'सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है' इसका भाव 'सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है' यह होता है। उक्त कथन का तात्पर्य है कि उत्पा‍द आदि द्रव्य के लक्षण हैं और द्रव्य लक्ष्य है। यदि इनका पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा विचार करते हैं तो ये आपस में और द्रव्य से पृथक् पृथक् हैं और यदि द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा विचार करते हैं तो ये पृथक्-पृथक् उपलब्ध‍ नहीं होने से अभिन्न हैं। इस प्रकार इनमें और द्रव्य में लक्ष्य-लक्षणभाव की सिद्धि होती है।

    'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' यह सूत्र कह आये हैं। वहाँ यह नहीं ज्ञात होता कि नित्य क्या है, इसलिये आगे का सूत्र कहते हैं--

    राजवार्तिक :
    अथवा, यदि उपकार करने के कारण धर्मादि द्रव्य 'सत्' हैं तो जब ये उपकार नहीं करते तब इन्हें 'असत्' कहना चाहिए ?' इस शंका के समाधानार्थ कहा है कि - उपकारविशेष न होने पर भी 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तत्व' इस सामान्य द्रव्यलक्षण के रहने से 'सत्' होंगे ही।

    1-3. चेतन या अचेतन द्रव्य का स्वजाति को न छोड़ते हुए जो पर्यायान्तर की प्राप्ति उत्पादन है वह उत्पाद है, जैसे कि मृत्पिड में घट पर्याय । इसी तरह पूर्वपर्याय के विनाश को व्यय कहते हैं, जैसे कि घड़े की उत्पत्ति होने पर पिंडाकार का नाश होता है । अनादि पारिणामिक स्वभाव से व्यय और उत्पाद नहीं होते किन्तु द्रव्य स्थित रहता है, ध्रुव बना रहता है, जैसे कि पिण्ड और घट दोनों अवस्थाओं में मृदूपता का अन्वय है।

    4-7. प्रश्न – युक्त शब्द का प्रयोग भिन्न पदार्थ से किसी अन्य पदार्थ का संयोग होने पर होता है जैसे कि दण्ड के संयोग से 'दंडी' प्रयोग ।

    उत्तर – यहाँ युजि धातु के अर्थ में सत्ता का अर्थ समाया हुआ है। सभी धातुएँ भाववाची हैं । भाव अर्थात् सत्ताक्रिया । इसी सामान्य भावसत्ता को वे वे विशेष धातुएँ स्वार्थ से विशिष्ट करके विषय करती है। चाहे 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' कह लीजिए चाहे 'उत्पादव्ययध्रौव्यं सत्' कह लीजिए बात एक ही है । सत्तार्थक मानने पर भी 'एध' आदि धातुओं के वृद्धि आदि विशेष अर्थ बन ही जाते हैं क्योंकि असत् खरविषाण आदि के वृद्धि आदि तो होती नहीं। ऐसी स्थिति में 'उत्पादव्ययध्रौव्ययवत' यह प्रयोग उचित नहीं है क्योंकि इसमें भी दूषण और परिहार समान हैं। जैसे 'देवदत्त और गौ भिन्न हैं, तब "गोमान्" यह व्यवहार होता है वैसे उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से द्रव्य भिन्न नहीं है, अतः मत्वर्थीय नहीं हो सकता' यह दूषण बना रहता है क्योंकि अभिन्न में भी मत्वर्थीय प्रत्यय होता है जैसे कि 'आत्मवान् आत्मा, सारवान् स्तम्भः' आदि में । अथवा, युक्त शब्द का अर्थ तादात्म्य है, अर्थात् सत् उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक होता है । अथवा, उत्पाद आदि पर्यायों से पर्यायी द्रव्य कथञ्चित भिन्न होता है अतः योग अर्थ में भी 'युक्त' शब्द का प्रयोग किया जा सकता है। यदि सर्वथा भेद माना जायगा तो दोनों का अभाव हो जायगा।

    8. 'सत्' शब्द के अनेक अर्थ हैं - जैसे 'सत्पुरुष' में प्रशंसा 'सत्कार' में आदर 'सद्भूत' में अस्तित्व 'प्रवजितः सन्' में प्रज्ञायमान आदि । यहाँ 'सत्'का अर्थ अस्तित्व है।

    9. प्रश्न – व्यय और उत्पाद चूँकि द्रव्य से अभिन्न होते हैं अतः द्रव्य ध्रुव नहीं रह सकता ?

    उत्तर – व्यय और उत्पाद से भिन्न होने के कारण द्रव्य को ध्रुव नहीं कहा जाता किन्तु द्रव्यरूप से अवस्थान होने के कारण। यदि व्यय और उत्पाद से भिन्न होने के कारण द्रव्य को ध्रुव कहा जाता है तो द्रव्य से भिन्न होने के कारण व्यय और उत्पाद में भी ध्रौव्य आना चाहिए। शंकाकार ने हमारा अभिप्राय नहीं समझा । हम द्रव्य से व्यय और उत्पाद को सर्वथा अभिन्न नहीं कहते, यदि कहते तो ध्रौव्य का लोप हो ही जाता, किन्तु कथञ्चित् । व्यय और उत्पाद के समय भी द्रव्य स्थिर रहता है अतः दोनों में भेद है और द्रव्यजाति का परित्याग दोनों नहीं करते उसी द्रव्य के ये होते हैं अतः अभेद है। यदि सर्वथा भेद होता तो द्रव्य को छोड़कर उत्पाद और व्यय पृथक मिलते और सर्वथा अभेद पक्ष में एकलक्षण होने से एक का अभाव होने पर शेष के अभाव का भी प्रसंग आता।

    10. इस प्रकार की शंकाओं में स्ववचन विरोध भी है। आप अपने पक्ष की सिद्धि के लिए जिस हेतु का प्रयोग कर रहे हैं वह साधकत्व से यदि सर्वथा अभिन्न है तो स्वपक्ष की तरह परपक्ष का भी साधक ही होगा अथवा परपक्ष की तरह स्वपक्ष का भी दूषक होगा। इस तरह स्ववचन विरोध दूषण आता है ।

    11. उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप पर्यायें तथा पर्यायी द्रव्य में कथञ्चित् भेद और कथञ्चित् अभेद है, अतः सर्वथा भेद पक्षभावी दोष कि - 'भिन्न उत्पादादि ही सत्ता कहे जायेंगे, अतः द्रव्य का अस्तित्व नहीं रहेगा, और द्रव्य के अभाव में निराधार उत्पादादि का भी अभाव हो जायगा', तथा सर्वथा अभेद पक्षभावी दोष कि - 'लक्ष्य और लक्षण में एकत्व हाने से लक्ष्यलक्षणभाव नहीं बनेगा' नहीं आ सकते । जैसे जाति, कुल, रूप आदि से अन्वयधर्मी मनुष्य के अनेक सम्बन्धियों की दृष्टि से पिता-पुत्र-भ्राता-भानजा आदि परस्पर विलक्षण धर्म होने पर भी पुरुष में भेद नहीं होता और न पुरुष के अभिन्न होने पर भी उन धर्मों में अभेद होता है उसी तरह द्रव्य से बाह्य आभ्यन्तर कारणों से उत्पन्न होने के कारण पर्यायें कथञ्चित् भिन्न हैं और द्रव्यदृष्टि से अवस्थान होने से कथञ्चित अभिन्न हैं, अतः न तो असत्त्व है और न लक्ष्यलक्षणभाव का अभाव ही है। अतः उत्पादादि तीन की ऐक्यवृत्ति ही सत्ता है और वही द्रव्य है। जैसे अन्वय द्रव्य का आत्मभूत धर्म है उसी तरह पर्यायें भी । अतः पर्याय की निवृत्ति की तरह द्रव्य की भी निवृत्ति यदि मानी जाती है तो शून्यता हो जायगी।' यह आशंका तब ठीक होती जब पिण्ड, घट, कपालादि पर्यायों की तरह रूपित्व, द्रव्यत्व, अजीवत्व, अचेतनत्व आदि द्रव्यांश भी कादाचित्क होते । व्यय और उत्पाद होने पर भी द्रव्य को तो नित्य ही माना गया है।

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    + नित्य का स्वरूप -
    तद्भावाव्ययं नित्यम् ॥31॥
    अन्वयार्थ : उसके भाव से (अपनी जाति से) च्युत न होना नित्य‍ है ॥३१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अब तद्भाव इस पद का खुलासा करते हैं।

    शंका – 'तद्भाव' क्या वस्तु है ?

    समाधान – जो प्रत्यभिज्ञान का कारण है वह तद्भाव है, 'वही यह है' इस प्रकार के स्मरण को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। वह अकस्मात् तो होता नहीं, इसलिए जो इसका कारण है वही तद्भाव है। इसकी निरुक्ति 'भवनं भाव:, तस्य भाव: तदभाव:' इस प्रकार होती है। तात्पर्य यह है कि पहले जिसरूप वस्तु् को देखा है उसी रूप उसके पुन: होने से 'यह वही है' इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान होता है। यदि पूर्व वस्तु का सर्वथा नाश हो जाय या सर्वथा नयी वस्तु का उत्पाद माना जाय तो इससे स्मरण की उत्पत्ति नहीं हो सकती और स्मरण की उत्पत्ति न हो सकने से स्मरण के आधीन जितना लोकसंव्यवहार चालू है वह सब विरोध को प्राप्त होता है, इसलिए जिस वस्तु् का जो भाव है उस रूप से च्युत न होना तद्भावाव्यय अर्थात् नित्य है ऐसा निश्चित होता है। परन्तु इसे कथंचित् जानना चाहिए। यदि सर्वथा नित्यता मान जी जाय तो परिणमन का सर्वथा अभाव प्राप्त होता है और ऐसा होने से संसार और इसकी निवृत्ति के कारणरूप प्रक्रिया का विरोध प्राप्त होता है।

    शंका – उसी को नित्‍य कहना और उसी को अनित्‍य कहना यही विरुद्ध है। यदि नित्‍य है तो उसका व्‍यय और उत्‍पाद न होने से उसमें अनित्‍यता नहीं बनती। और यदि अनित्‍य है तो स्थिति का अभाव होने से नित्‍यता का व्‍याघात होता है ?

    समाधान – नित्‍यता और अनित्‍यता का एक साथ रहना विरुद्ध नहीं है, क्योंकि –

    राजवार्तिक :
    1-2. 'यह वही है' यह प्रत्यभिज्ञान निर्विपय और निर्हेतुक नहीं है। इसमें जो कारण होता है उसे 'तद्भाव' कहते हैं । जिस रूप से वस्तु को पहिले देखा था उसी रूप से पुनः दृष्ट होने पर 'तदेवेदम्' यह प्रत्यभिज्ञान होता है । पूर्व का अत्यन्त निरोध और उत्तर का सर्वथा नूतन उत्पादन मानने पर स्मरण और स्मरणाधीन समस्त लोक-व्यवहार समाप्त हो जायेंगे। 'जो नष्ट होता है वही नष्ट नहीं होता, जो उत्पन्न होता है वही उत्पन्न नहीं होता' यह बात परस्पर विरोधी मालूम होती है, पर वस्तुतः विरोध नहीं है क्योंकि जिस दृष्टि से नित्य कहते हैं यदि उसी दृष्टि से अनित्य कहते तो विरोध होता जैसे कि एक ही अपेक्षा किसी पुरुष को पिता और पुत्र कहने में । पर यहाँ द्रव्य-दृष्टि से नित्य और पर्याय-दृष्टि से अनित्य कहा जाता है, अतः विरोध नहीं है । दोनों नयों की दृष्टि से दोनों धर्म बन जाते हैं।

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    + विरोधी धर्म एक साथ कैसे? -
    अर्पितानर्पितसिद्धे: ॥32॥
    अन्वयार्थ : मुख्‍यता और गौणता की अपेक्षा एक वस्‍तु में विरोधी मालूम पड़ने वाले दो धर्मों की सिद्धि होती है ॥३२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    वस्‍तु अनेकान्‍तात्‍मक है। प्रयोजन के अनुसार उसके किसी एक धर्म को विवक्षा से जब प्रधानता प्राप्‍त होती है तो वह अर्पित या उपनीत कहलाता है और प्रयोजन के अभावमें जिसकी प्रधानता नहीं रहती वह अनर्पित कहलाता है। तात्‍पर्य यह है कि किसी वस्‍तु या धर्म के र‍हते हुए भी उसकी विवक्षा नहीं होती, इसलिए जो गौण हो जाता वह अनर्पित कहलाता है। इन दोनोंका 'अनर्पितं च अर्पितं च' इस प्रकार द्वन्‍द्व समास है। इन दोनों की अपेक्षा एक वस्‍तु में परस्‍पर विरोधी दो धर्मों की सिद्धि होती है, इसलिए कोई विरोध नहीं है। खुलासा इस प्रकार है - जैसे देवदत्त के पिता, पुत्र, भाई और भान्‍जे इसी प्रकार और भी जनकत्‍व और जन्‍यत्‍व आदि के निमित्त से होने वाले सम्‍बन्‍ध विरोध को प्राप्‍त नहीं होते। जब जिस धर्म की प्रधानता होती है उस समय उसमें वह धर्म माना जाता है। उदाहरणार्थ - पुत्र की अपेक्षा वह पिता है और पिता की अपेक्षा वह पुत्र है आदि। उसी प्रकार द्रव्‍य भी सामान्‍य की अपेक्षा नित्‍य है और विशेष की अपेक्षा अनित्‍य है, इसलिए कोई विरोध नहीं है। वे सामान्‍य और विशेष कथंचित् भेद और अभेद की अपेक्षा ही व्‍यवहार के कारण होते हैं।


    शंका – सत् अनेक प्रकार के नय के व्‍यवहार के आधीन होने से भेद, संघात और भेद-संघात से स्‍कन्‍धों की उत्‍पत्ति भले ही बन जावे परन्‍तु यह संदिग्‍ध है कि द्वयणुक आदि लक्षणवाला संघात संयोग से ही होता है या उसमें और कोई विशेषता है ?

    समाधान – संयोग के होने पर एकत्‍व परिणमन रूप बन्‍ध से संघात की उत्‍पत्ति होती है।

    शंका – यदि ऐसा है तो यह बतलाइए कि सब पुद्गलजाति के होकर भी उनका संयोग होने पर किन्‍हीं का बन्‍ध होता है और किन्‍हीं का नहीं होता, इसका क्‍या कारण है ?

    समाधान – चूँकि वे सब जाति से पुद्गल हैं तो भी उनकी जो अनन्‍त पर्यायें हैं उनका परस्‍पर विलक्षण परिणमन होता है, इसलिए उससे जो सामर्थ्‍य उत्‍पन्‍न होती है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि –

    राजवार्तिक :
    1-4. प्रयोजनवश अनेकात्मक वस्तु के जिस धर्म की विवक्षा होती है, या विवक्षित जिस धर्म को प्रधानता मिलती है उसे 'अर्पित' कहते हैं। जिन धर्मों की विद्यमान रहने पर भी विवक्षा नहीं होती उन्हें 'अनर्पित' कहते हैं। अनर्पित अर्थात गौण । जब मृत्पिण्ड 'रूपी द्रव्य' के रूप में अर्पित विवक्षित होता है तब वह नित्य है क्योंकि कभी भी वह रूपित्व या द्रव्यत्व को नहीं छोड़ता। जब वही अनेकधर्मात्मक पदार्थ रूपित्व और द्रव्यत्व को गौण कर केवल 'मृत्पिण्ड' रूप पर्याय से विवक्षित होता है तो वह 'अनित्य' है क्योंकि पिंड पर्याय अनित्य है। यदि केवल द्रव्यार्थिक नय की विषयभूत वस्तु ही मानी जाय तो व्यवहार का लोप हो जायगा क्योंकि पर्याय से शून्य केवल द्रव्यरूप वस्तु नहीं है । और न केवल पर्यायार्थिकनय की विषयभूत ही वस्तु है, वैसी वस्तु से लोकयात्रा नहीं चल सकती, क्योंकि द्रव्य से शून्य पर्याय नहीं होती । अतः वस्तु को उभयात्मक मानना ही उचित है। परमाणुओं के परस्पर बन्ध होने पर एकत्व परिणति रूप स्कन्ध उत्पन्न होता है।

    यहाँ यह बताइए कि 'पुद्गल जाति समान होने पर और संयोग रहने पर भी क्यों किन्हीं परमाणुओं का बन्ध होता है अन्य का नहीं ?' इस प्रश्न के समाधान के लिए आगे का सूत्र कहते हैं --

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    + पुद्गल में बंध -
    स्निग्ध-रूक्षत्वाद् बन्धः ॥33॥
    अन्वयार्थ : स्निग्‍धत्‍व और रूक्षत्‍व से बन्‍ध होता है ॥३३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    बाह्य और आभ्‍यन्‍तर कारण से जो स्‍नेह पर्याय उत्‍पन्न होती है उससे पुद्गल स्निग्‍ध कहलाता है। इसकी व्‍युत्‍पत्ति 'स्निह्यते स्‍मेति स्निग्‍ध:' होगी। तथा रूखापन के कारण पुद्गल रूक्ष कहा जाता है। स्निग्‍ध पुद्गल का धर्म स्निग्‍धत्‍व है और रूक्ष पुद्गल का धर्म रूक्षत्‍व है। पुद्गल की चिकने गुणरूप जो पर्याय है वह स्निग्‍धत्‍व है और इससे जो विपरीत परिणमन है वह रूक्षत्‍व है। सूत्र में 'स्निग्‍धरूक्षत्‍वात्' इस प्रकार हेतुपरक निर्देश किया है। तात्‍पर्य यह है कि द्वयणुक आदि लक्षणवाला जो बन्‍ध होता है वह इनका कार्य है। स्निग्‍ध और रूक्ष गुणवाले दो परमाणुओं का परस्‍पर संश्‍लेषलक्षण बन्‍ध होने पर द्वयणुक नाम का स्‍कन्‍ध बनता है। इसी प्रकार संख्‍यात, असंख्‍यात और अनन्‍त प्रदेशवाले स्‍कन्‍ध उत्‍पन्‍न होते हैं। स्निग्‍ध गुण के एक, दो, तीन, चार, संख्‍यात, असंख्‍यात और अनन्‍त भेद हैं। इसी प्रकार रूक्ष गुण के भी एक, दो, तीन, चार संख्‍यात, असंख्‍यात और अनन्‍त भेद हैं। और इन गुणवाले परमाणु होते हैं। जिस प्रकार जल तथा बकरी, गाय, भैंस और ऊँट के दूध और घी में उत्तरोत्तर अधिक रूप से स्‍नेह गुण रहता है तथा पांशु, कणिका और शर्करा आदि में उत्तरोत्तर न्‍यूनरूप से रूक्ष गुण रहता है उसी प्रकार परमाणुओं में भी न्‍यूनाधिकरूप से स्निग्‍ध और रूक्ष गुण का अनुमान होता है।

    स्निग्‍धत्‍व और रूक्षत्‍व गुण के निमित्त से सामान्‍य से बन्‍ध के प्राप्‍त होने पर बन्‍ध में अप्रयोजनीय गुण के निराकरण करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1-5. बाह्य आभ्यन्तर कारणों से स्नेह पर्याय की प्रकटता से जो चिकनापन है वह स्नेह है और जो रूखापन है वह रूक्ष है। इन कारणों से द्वयणुक आदि स्कन्धरूप बन्ध होता है। दो स्निग्ध रूक्ष परमाणुओं में बन्ध होने पर द्वयणुक स्कन्ध होता है । स्नेह और रूक्ष के अनन्त भेद हैं । अविभागपरिच्छेद एकगुणवाला स्नेह सर्वजघन्य है, प्रथम है। इसी तरह दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात और अनन्तगुण स्नेह रूक्ष के विकल्प हैं। जैसे जल से बकरी के दूध और घी में प्रकृष्ट स्निग्धता है, उससे भी प्रकृष्ट गाय के दूध और घी में, उससे भी प्रकृष्ट भैस के दूध घी में, उससे भी प्रकृष्ट ऊँटनी के दूध और घी में स्निग्धता देखी जाती है उसी तरह क्रमशः धूल से प्रकृष्ट रूखापन तुषखंड में और उससे भी प्रकृष्ट रूक्षता रेत में पायी जाती है। इसी तरह परमाणुओं में भी स्निग्धता और रूक्षता के प्रकर्ष और अपकर्ष का अनुमान होता है।

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    + बन्ध न होने का नियम -
    न जघन्य-गुणानाम् ॥34॥
    अन्वयार्थ : जघन्‍य गुणवाले पुद्गलों का बन्‍ध नहीं होता ॥३४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    यहाँ जघन्‍य शब्‍द का अर्थ निकृष्‍ट है और गुण शब्‍द का अर्थ भाग है। जिनमें जघन्‍य गुण होता है अर्थात् जिनका शक्‍त्‍यंश निकृष्‍ट होता है वे जघन्‍य गुणवाले कहलाते हैं। उन जघन्‍य गुणवालों का बन्‍ध नहीं होता। यथा - एक स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवाले का एक स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवाले के साथ या दो से लेकर संख्‍यात, असंख्‍यात और अनन्‍त शक्‍त्‍यंशवालों के साथ बन्‍ध नहीं होता। उसी प्रकार एक स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवाले का एक रूक्ष शक्‍त्‍यंशवाले के साथ या दो से लेकर संख्‍यात, असंख्‍यात और अनन्‍त रूक्ष शक्‍त्‍यंशवालों के साथ बन्‍ध नहीं होता। उसी प्रकार एक रूक्ष शक्‍त्‍यंशवाले की भी योजना करनी चाहिए।


    इन जघन्‍य स्निग्‍ध और रूक्ष शक्‍त्‍यंशवालों के सिवा अन्‍य स्निग्‍ध और रूक्ष पुद्गलों का परस्‍पर बन्‍ध सामान्‍य रीति से प्राप्‍त हुआ, इसलिए इनमें भी जो बन्‍धयोग्‍य नहीं हैं वे प्रतिषेध के विषय हैं यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1-2. जैसे शरीर में जघन-जाँघ सबसे निकृष्ट है उसी प्रकार जघन की तरह निकृष्ट अवयव को जघन्य कहते हैं । गुण शब्द के अनेक अर्थ हैं - जैसे पर यहाँ 'भाग' अर्थ विवक्षित है । तात्पर्य यह कि - एकगुण स्निग्ध परमाणु का अन्य एकगुण स्निग्ध परमाणु से, तथा दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात और अनन्तगुण स्निग्ध परमाणु से बन्ध नहीं होता । उसी एकगुण स्निग्ध का एकगुण रूक्ष, तथा दो, तीन, संख्यात, असंख्यात और अनन्तगुणरूक्ष, परमाणु से बन्ध नहीं होता। इसी तरह एकगुण रूक्ष का अन्य एकगुण रूक्ष या एकगुण स्निग्ध या दो, तीन, चार आदि अनन्तगुणवाले स्निग्ध या रूक्ष परमाणुओं से बन्ध नहीं होता।

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    + और भी -
    गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥35॥
    अन्वयार्थ : गुणों की समानता होने पर तुल्‍य जातिवालों का बन्‍ध नहीं होता ॥३५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    तुल्‍य जातिवालों का ज्ञान कराने के लिए सदृश पद का ग्रहण किया है। तुल्‍य शक्‍त्‍यंशों का ज्ञान कराने के लिए 'गुणसाम्‍य' पद का ग्रहण किया है। तात्‍पर्य यह है कि दो स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवालों का दो रूक्ष शक्‍त्‍यंशवालों के साथ, तीन स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवालों का तीन रूक्ष शक्‍त्‍यंशवालों के साथ, दो स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवालों का दो स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवालों के साथ, दो रूक्ष शक्‍त्‍यंशवालों का दो रूक्ष शक्‍त्‍यंशवालों के साथ बन्‍ध नहीं होता। इसी प्रकार अन्‍यत्र भी जानना चाहिए।

    शंका – यदि ऐसा है तो सूत्र में 'सदृश' पद किसलिए ग्रहण किया है ?

    समाधान – शक्‍त्‍यंशों की असमानता के रहते हुए बन्‍ध होता है इसका ज्ञान कराने के लिए सूत्र में सदृश पद ग्रहण किया है।


    इस पूर्वोक्त कथन से समानजातीय या असमानजातीय विषम शक्‍त्‍यंशवालों का अनियम से बन्‍ध प्राप्‍त हुआ, अत: इष्‍ट अर्थ का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1-5. सदृश अर्थात् तुल्यजातीय, गुणसाम्य अर्थात् तुल्यभाग। गुणसाम्य पद से सदृश ग्रहण निरर्थक नहीं होता; क्योंकि यदि सदृश ग्रहण नहीं करते तो द्विगुण स्निग्धों का द्विगुण रूक्षों से, त्रिगुणस्निग्धों का त्रिगुणरूक्षों से गुणकार साम्य होने के कारण बन्ध का निषेध हो जाता । सदृश ग्रहण करने से द्विगुण स्निग्ध का द्विगुण स्निग्ध के साथ, द्विगुणरूक्ष का द्विगुणरूक्षों के साथ बन्धनिषेध सिद्ध हो जाता है । अथवा यह प्रयोजन नहीं है, क्योंकि द्विगुणस्निग्धों का द्विगुणरूक्षों के साथ बन्ध का निषेध इष्ट है।

    5. सदृशग्रहण का यह प्रयोजन है कि गुणवैषम्य होने पर विसदृशों का बन्ध तो होता ही है पर सदृशों का भी बन्ध होता है। इस तरह विषमगुणवालों का और तुल्यजातीयों का सामान्यरूप से बन्ध प्रसंग होने पर इष्ट व्यवस्था के प्रतिपादन के लिए सूत्र कहते हैं --

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    + बन्ध का नियम -
    द्वयधिकादि गुणानां तु ॥36॥
    अन्वयार्थ : दो अधिक आदि शक्‍त्‍यंशवालों का तो बन्‍ध होता है ॥३६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिसमें दो शक्‍त्‍यंश अधिक हों उसे द्वयधिक कहते हैं।

    शंका – वह द्वयधिक कौन हुआ ?

    समाधान – चार शक्‍त्‍यंशवाला। सूत्र में आदि शब्‍द प्रकारवाची है।

    शंका – वह प्रकार रूप अर्थ क्‍या है ?

    समाधान – द्वयधिकपना । इससे पाँच शक्‍त्‍यंश आदि का ज्ञान नहीं होता। तथा इससे यह भी तात्‍पर्य निकल आता है कि समानजातीय या असमानजातीय दो अधिक आदि शक्‍त्‍यंशवालों का बन्‍ध होता है दूसरों का नहीं। जैसे दो स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवाले परमाणु का एक स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवाले परमाणु के साथ, दो स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवाले परमाणु के साथ और तीन स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंश वाले परमाणु के साथ बन्‍ध नहीं होता। हाँ, चार स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवाले परमाणु के साथ अवश्‍य बन्‍ध होता है। तथा उसी दो स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवाले परमाणु का पाँच स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवाले परमाणु के साथ, इसी प्रकार छह, सात, आठ, संख्‍यात, असंख्‍यात और अनन्‍त स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवाले परमाणु के सा‍थ बन्‍ध नहीं होता। इसी प्रकार तीन स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवाले परमाणु का पाँच स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवाले परमाणु के साथ बन्‍ध होता है। किन्‍तु आगे-पीछे के शेष स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवाले परमाणु के साथ बन्‍ध नहीं होता। चार स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवाले परमाणु का छह स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवाले परमाणु के साथ बन्‍ध होता है किन्‍तु आगे पीछे के शेष स्निग्‍ध शक्‍त्‍यंशवाले परमाणु के साथ बन्‍ध नहीं होता। इसी प्रकार यह क्रम आगे भी जानना चाहिए। तथा दो रूक्ष शक्‍त्‍यंशवाले परमाणु का एक, दो और तीन रूक्ष शक्‍त्‍यंशवाले परमाणु के साथ बन्‍ध नहीं होता। हाँ, चार रूक्ष शक्‍त्‍यंशवाले परमाणु के साथ अवश्‍य बन्‍ध होता है। उसी दो रूक्ष शक्‍त्‍यंशवाले परमाणु का आगे के पाँच आदि रूक्ष शक्‍त्‍यंशवाले परमाणुओं के साथ बन्‍ध नहीं होता। इसी प्रकार तीन आदि रूक्ष शक्‍त्‍यंशवाले परमाणुओं का भी दो अधिक शक्‍त्‍यंशवाले परमाणुओं के साथ बन्‍ध जान लेना चाहिए। समान जातीय परमाणुओं में बन्‍ध का जो क्रम बतलाया है विजातीय परमाणुओं में भी बन्‍ध का वही क्रम जानना चाहिए। कहा भी है – 'स्निग्‍ध का दो अधिक शक्‍त्‍यंशवाले स्निग्‍ध के साथ बन्‍ध होता है। रूक्ष का दो अधिक शक्‍त्‍यंशवाले रूक्ष के साथ बन्‍ध होता है। तथा स्निग्‍ध का रूक्ष के साथ इसी नियम से बन्‍ध होता है। किन्‍तु जघन्‍य शक्‍त्‍यंशवाले का बन्‍ध सर्वथा वर्जनीय है।' सूत्र में 'तु' पद विशेषणपरक है जिससे बन्‍ध के प्रतिषेध का निवारण और बन्‍ध का विधान होता है।


    अधिक गुणवाले के साथ बन्‍ध होता है ऐसा क्‍यों कहा, समगुणवाले के साथ बन्‍ध होता है ऐसा क्‍यों नहीं कहा ? अब इसी बात के बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1. दो अधिक अर्थात् चार गुण आदि का बन्ध होता है।

    2. आदि शब्द प्रकारार्थक है। चार आदि दो अधिक गुणवालों का बन्ध होता है। चाहे तुल्यजातीय हों या अतुल्यजातीय, दो अधिक गुणवालों का बन्ध होता है; अन्य का नहीं। दो-गुणस्निग्ध परमाणु का एक-गुणस्निग्ध, दो-गुणस्निग्ध और तीन-गुणस्निग्ध से बन्ध नहीं होगा। चार गुणस्निग्ध से बन्ध होता है। इसी तरह उसका पाँच, छह, सात, आठ, नव, दश संख्यात असंख्यात और अनन्तगुणवाले स्निग्ध से बन्ध नहीं होता । इसी तरह तीन गुण-स्निग्ध का मात्र पाँच-गुणस्निग्ध से तो बन्ध होगा चार या छह आदि आगे पीछे गुणवालों से नहीं। इसी तरह रूक्ष में भी समझना चाहिए । इसी प्रकार भिन्नजातीयों में भी दो अधिक गुणवालों में ही बन्ध होता है। द्विगुणरूक्ष का चतुर्गुणस्निग्ध या चतुर्गुणरूक्ष से ही बन्ध होता है। पाँच या तीन आदि आगे-पीछे के गुणवालों से नहीं। तीन-गुणरूक्ष का पाँच गुणरूक्ष या पाँच गुणस्नेह से बन्ध होता है चार या छह आदि आगे-पीछे के गुणवालों से नहीं । कहा भी है

    'स्नेह का दो अधिक गुणवाले स्नेह से या रूक्ष से रूक्ष का दो अधिक गुणवाले रूक्ष से या स्नेह से बन्ध होता है। जघन्यगुण का किसी भी तरह बन्ध नहीं होता।'

    इस तरह उक्त विधि से बन्ध होने पर द्वयणुक आदि अनन्तपरमाणुक स्कन्धों की उत्पत्ति होती है।

    2. तु शब्द से बन्धप्रतिषेध का प्रकरण बन्द होता है और इष्ट व्यवस्था सूचित होती है।

    प्रश्न – पुद्गलों के संयोगरूप बन्ध क्यों मानते हैं, परस्पर समुदाय से ही समस्त सामूहिक व्यवहार सिद्ध हो सकते हैं ?

    उत्तर – शुक्ल और कृष्ण तन्तुओं की तरह यदि मात्र प्राप्ति ही है, उनमें एक दूसरे की पारिणामकता नहीं है तो वह बन्ध नही कहा जायगा।

    उस पारिणामकता का नियम बताते हैं --

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    + परिणमन का नियम -
    बन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ च ॥37॥
    अन्वयार्थ : बन्‍ध होते समय दो अधिक गुणवाला परिणमन करानेवाला होता है ॥३७॥

    राजवार्तिक :
    1. गुण का प्रकरण है अतः अधिकौ का अर्थ अधिक गुणवाले होता है।

    2. अवस्थान्तर उत्पन्न करना पारिणामकता है। जैसे अधिक मधुरगुणवाला गुड धूलि आदि को मीठे रसवाला बनाने के कारण पारिणामक होता है उसी तरह अन्य भी अधिक गुणवाला न्यून गुणवालों का पारिणामक होता है। तात्पर्य यह कि दो-गुणस्निग्ध परमाणु को चार-गुण रूक्षपरमाणु पारिणामक होता है। बन्ध होने पर एक तीसरी ही विलक्षण अवस्था होकर एक स्कन्ध बन जाता है। अन्यथा सफेद और काले धागों के संयोग होने पर भी दोनों जुदे-जुदे से रखे रहेंगे । जहाँ पारिणामकता होती है वहाँ स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि में परिवर्तन हो जाता है जैसे शुक्ल और पीत रंगों के मिलने पर हरे रंग के पत्र आदि उत्पन्न होते हैं।

    3-4. श्वेताम्बर परम्परामें 'बन्धे समाधिको' पाठ है । इसका तात्पर्य है कि द्वि-गुणस्निग्ध का द्वि-गुणरूक्ष भी पारिणामक होता है। पर यह पाठ उपयुक्त नहीं है। क्योंकि इसमें सिद्धान्तविरोध होता है। वर्गणा में बन्ध विधान के नोआगम द्रव्यबन्ध विकल्प-सादि वैस्रसिक बन्धनिर्देश में कहा है कि - 'विषम स्निग्धता और विषमरूक्षता में बन्ध तथा समस्निग्धता और समरूक्षता में भेद होता है।' इसी के अनुसार 'गुणसाम्ये सदृशानाम्' यह सूत्र कहा गया है। इससे समगुणवालों के बन्ध का जब प्रतिषेध कर दिया तब बन्ध में 'सम' भी पारिणामक होता है यह कथन आर्षविरोधी है । अतः विद्वानों के द्वारा ग्राह्य नहीं है।

    5. 'जघन्यवर्जे विषमे समे वा' का तात्पर्य यह है कि - सम अर्थात् तुल्यजातीय और विषम अर्थात् अतुल्यजातीय । अतः सम-चतुर्गुण स्निग्ध का षड्गुण स्निग्ध के साथ और और विषम-चतुर्गुणस्निग्ध का षड्गुण रूक्ष के साथ बन्ध होता है। बन्ध की इतनी लम्बी चर्चा करने का प्रयोजन यह है कि - आत्मा के योगव्यापार से आत्मा के प्रदेशों में स्निग्धरूक्ष परिणत अनन्तप्रदेशी कर्म बन्ध को प्राप्त होते हैं। ये ज्ञानावरणादि कर्म अपनी तीस कोड़ाकोड़ी सागर आदि तक की स्थिति तक घनपरिणामी बन्ध को प्राप्त रहते हैं, विघटित नहीं होते।

    आपने 'द्रव्याणि, जीवाश्च' इन सूत्रो में 'द्रव्य'का नामनिर्देश तो किया है, लक्षण नहीं बताया । अतः द्रव्य का लक्षण कहते हैं --

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    + द्रव्य का और लक्षण -
    गुण-पर्ययवद् द्रव्यम् ॥38॥
    अन्वयार्थ : गुण और पर्यायवाला द्रव्‍य है॥३८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिसमें गुण और पर्याय दोनों हैं वह गुण-पर्यायवाला कहलाता है और वही द्रव्‍य है। यहाँ 'मतुप्' प्रत्‍यय का प्रयोग कैसे बनता है इस विषयमें पहले समाधान कर आये हैं। तात्‍पर्य यह है कि द्रव्‍य का गुण और पर्यायों से कथंचित् भेद है इसलिए यहाँ 'मतुप्' प्रत्‍यय का प्रयोग बन जाता है।

    शंका – गुण किन्‍हें कहते हैं और पर्याय किन्‍हें कहते हैं ?

    समाधान – गुण अन्‍वयी होते हैं और पर्याय व्‍यतिरेकी। तथा इन दोनों से युक्त द्रव्य होता है। कहा भी है – 'द्रव्‍य में भेद करनेवाले धर्म को गुण और द्रव्‍य के विकार को पर्याय कहते हैं। द्रव्‍य इन दोनों से युक्त होता है। तथा वह अयुतसिद्ध और नित्‍य होता है।' तात्‍पर्य यह है कि जिससे एक द्रव्‍य दूसरे द्रव्‍य से जुदा होता है वह गुण है। इसी गुण के द्वारा उस द्रव्‍य का अस्तित्‍व सिद्ध होता है। यदि भेदक गुण न हो तो द्रव्‍यों में सांकर्य हो जाय। खुलासा इस प्रकार है –

    जीव द्रव्‍य पुद्गलादिक द्रव्‍यों से ज्ञानादि गुणों के द्वारा भेद को प्राप्‍त होता है और पुद्गलादिक द्रव्‍य भी अपने रूपादि गुणों के द्वारा भेद को प्राप्‍त होते हैं। यदि ज्ञानादि गुणों के कारण विशेषता न मानी जाय तो सांकर्य प्राप्‍त होता है। इसलिए सामान्‍य की अपेक्षा जो अन्‍वयी ज्ञानादि हैं वे जीव के गुण हैं और रूपादिक पुद्गलादिक के गुण हैं। तथा इनके विकार विशेष रूप से भेद को प्राप्‍त होते हैं इसलिए वे पर्याय कहलाते हैं। जैसे घटज्ञान, पटज्ञान, क्रोध, मान, गन्‍ध, वर्ण, तीव्र और मन्‍द आदिक। तथा जो इनसे कथंचित् भिन्‍न है और समुदाय रूप है वह द्रव्‍य कहलाता है। यदि समुदाय को सर्वथा अभिन्‍न मान लिया जाय तो सबका अभाव प्राप्‍त होता है। खुलासा इस प्रकार है – परस्‍पर विलक्षण धर्मों का समुदाय होने पर यदि उसे एक और अभिन्‍न माना जाय तो समुदाय का और सबका अभाव प्राप्‍त होता है, क्‍योंकि वे धर्म परस्‍पर भिन्‍न हैं। जो यह रूप है उससे रसादिक भिन्‍न हैं। अब यदि इनका समुदाय अभिन्‍न माना जाता है तो रसादिक से भिन्‍न जो रूप है और उससे अभिन्‍न जो समुदाय है वह रसादिक से भिन्‍न कैसे नहीं होगा अर्थात् अवश्‍य होगा। और इस प्रकार समुदाय रूपमात्र प्राप्‍त होता है। परन्‍तु एक रूप गुण समुदाय हो नहीं सकता इसलिए समुदाय का अभाव प्राप्‍त होता है और समुदाय का अभाव हो जाने से उससे अभिन्‍न समुदायियों का भी अभाव होता है। इस प्रकार समुदाय और समुदायी सबका अभाव हो जाता है। जिस प्रकार रूप की अपेक्षा कथन किया उसी प्रकार रसादिक की अपेक्षा भी कथन करना चाहिए। इसलिए यदि समुदाय स्‍वीकार किया जाता है तो वह कथंचित् अभिन्‍न ही मानना चाहिए।


    पूर्वोक्त द्रव्‍यों के लक्षण का निर्देश करने से यह प्राप्‍त हुआ कि जो उस लक्षण का विषय है वही द्रव्‍य है, अत: अभी तक जिस द्रव्‍य का कथन नहीं किया उसकी सूचना करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं–

    राजवार्तिक :
    1. यद्यपि गुण और पर्याय द्रव्य से अभिन्न हैं, फिर भी 'गुणपर्ययवत्' यहाँ मत्वर्थीय प्रत्यय हो जाता है जैसे कि 'सोने की अंगूठी' में सोना और अँगूठी में अभेद होने पर भी भेदप्रयोग देखा जाता है । अथवा, लक्षण आदि की दृष्टि से गुणपर्यायों का द्रव्य से कथंचित, भेद भी है, अतः मत्वीय प्रयोग बन जाता है।

    2. प्रश्न – 'गुण' यह संज्ञा जैनमत की नहीं है, यह तो अन्यमत वालों की है। जैनमत में तो द्रव्य और पर्याय ये दो ही प्रसिद्ध हैं । द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक दो नामों का उपदेश होने से भी ज्ञात होता है कि द्रव्य और पर्याय ये दो ही हैं, गुण नहीं । यदि गुण होता तो उसको विषय करनेवाला तीसरा गुणार्थिकनय भी होना चाहिए था। अतः 'गुणपर्यायवत्' यह लक्षण ठीक नहीं है ?

    उत्तर – अर्हत्प्रवचनहृदय आदिमें 'गुण' का उपदेश है। अर्हत्प्रवचन में 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' इस सूत्र में गुण का निर्देश है ही। अन्यत्र भी कहा है -

    'गुण' यह द्रव्य का विधान-अन्वय अंश है। द्रव्य के विकार को पर्याय कहते हैं। द्रव्य इनसे सदा अयुतसिद्ध है।'

    द्रव्य के सामान्य और विशेष ये दो स्वरूप हैं। सामान्य, उत्सर्ग, अन्वय और गुण ये एकार्थक शब्द हैं । विशेष भेद और पर्याय ये पर्यायार्थक शब्द हैं। सामान्य को विषय करनेवाला द्रव्यार्थिकनय है और विशेष को विषय करनेवाला पर्यायार्थिक । दोनों समुदित अयुतसिद्धरूप द्रव्य हैं। अतः गुण जब द्रव्य का ही सामान्यरूप है तब उसके ग्रहण के लिए द्रव्यार्थिक से पृथक् गुणार्थिक नय की कोई आवश्यकता नहीं है। समुदायरूप द्रव्य सकलादेशी प्रमाण का विषय होता है।

    3-4. अथवा, गुणा एव पर्याया' ऐसा समानाधिकरणरूप से निर्देश करेंगे। अर्थात् उत्पाद, व्यय और घौव्य पर्याय नहीं है और न इनसे भिन्न गुण हैं । गुण ही पर्याय हैं इस समानाधिकरणता में मतुप् प्रत्यय होने पर 'गुणपर्यायवत्' यह निर्देश बन जाता है। गुणों को ही पर्याय बनाने पर जब अर्थभेद नहीं रहा; तब या तो 'गुणवत्' कहना चाहिए या फिर 'पर्यायवत्' निर्देश करना युक्त नहीं है ? भिन्न विशेषण निरर्थक हो जाता है।

    उत्तर – वैशेषिक आदि द्रव्य से भिन्न 'गुण' पदार्थ मानते हैं। पर 'द्रव्य से भिन्न कोई गुण-पदार्थ नहीं है, क्योंकि द्रव्य से भिन्न वे उपलब्ध ही नहीं होते । अतः द्रव्य का ही परिणमन-परिवर्तन पर्याय कहलाता है और उसका ही भेद गुण है, भिन्न पदार्थ नहीं है । इस तरह मतान्तर की निवृत्ति के लिए पृथक् 'गुण' यह विशेषण देना उचित है।

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    + काल द्रव्य -
    कालश्च ॥39॥
    अन्वयार्थ : काल भी द्रव्‍य है ॥३९॥

    राजवार्तिक :
    1-2. 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' और 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' इन लक्षणों से युक्त होने के कारण आकाश आदि की तरह काल भी द्रव्य है । काल में ध्रौव्य तो स्वप्रत्यय ही है क्योंकि वह स्वस्वभाव में सदा व्यवस्थित रहता है । व्यय और उत्पाद अगुरुलघुगुणों की वृद्धि-हानि की अपेक्षा स्वप्रत्यय हैं तथा पर द्रव्यों में वर्तनाहेतु होने से परप्रत्यय भी हैं । काल में अचेतनत्व, अमूर्तत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व आदि साधारण गुण और वर्तनाहेतुत्व असाधारण गुण पाये जाते हैं । व्यय और उत्पाद रूप पर्यायें भी काल में बराबर होती रहती हैं । अतः वह द्रव्य है।

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    + व्यवहार काल का प्रमाण -
    सोऽनन्तसमय: ॥40॥
    अन्वयार्थ : वह अनन्त समयवाला है ॥४०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    यद्यपि वर्तमान काल एक समयवाला है तो भी अतीत और अनागत अनन्त समय हैं ऐसा मानकर काल को अनन्त समयवाला कहा है। अथवा मुख्य काल का निश्चय करने के लिए यह सूत्र कहा है। तात्पर्य यह है कि अनन्त पर्यायें वर्तना गुण के निमित्त से होती हैं, इसलिए एक कालाणु को भी उपचार से अनन्त कहा है। परन्तु् समय अत्यन्त सूक्ष्म कालांश है और उसके समुदाय की आवलि आदि जानना चाहिए।

    'गुण और पर्यायवाला द्रव्य है' यह पहले कह आये हैं। अब गुण क्या है यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1. मुख्य परमार्थ कालाणु असंख्यात द्रव्य हैं। अनन्त समय का निर्देश व्यवहारकाल का है। वर्तमान काल एक समय का है पर अतीत और अनागतकाल अनन्त समयवाले हैं।

    2. अथवा, मुख्य ही कालाणु अनन्त पर्यायों की वर्तना में कारण होने से अनन्त कहा जाता है । अतिसूक्ष्म अविभागी कालांश को समय कहते हैं। समय के समुदायरूप आवलि आदि होते हैं।

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    + गुण का लक्षण -
    द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा: ॥41॥
    अन्वयार्थ :  जो निरन्तर द्रव्य में रहते हैं और गुणरहित हैं वे गुण हैं ॥४१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
     जिनके रहने का आश्रय द्रव्य है वे द्रव्याश्रय कहलाते हैं और जो गुणों से रहित हैं वे निर्गुण कहे जाते हैं। इस प्रकार इन दोनों लक्षणों से युक्त गुण होते हैं। सूत्र में 'निर्गुणा:' यह विशेषण द्वयणुक आदि के निराकरण करने के लिए दिया है। वे भी अपने कारणभूत परमाणु द्रव्य के आश्रय से रहते हैं और गुणवाले हैं, इसलिए 'निर्गुणा:' इस विशेषण से उनका निषेध किया गया है।

    शंका – घटसंस्थान आदि जितनी पर्याय हैं वे सब द्रव्य के आश्रय से रहती हैं और निर्गुण होती हैं अत: गुण के उक्त लक्षण के अनुसार उन्हें भी गुणत्व प्राप्त होता है ?

    समाधान – सूत्र में जो 'द्रव्याश्रया:' विशेषण है उसका यह अभिप्राय है कि जो सदा द्रव्य के आश्रय से रहते हैं वे गुण है। इस प्रकार 'सदा' विशेषण लगाने से पर्यायों का निषेध हो जाता है अर्थात् गुण का लक्षण पर्यायों में नहीं जाता है; क्योंकि पर्याय कादाचित्क होती है।

    परिणाम शब्द का अनेक बार उल्लेख किया; परन्तु उसका क्या तात्पर्य है ऐसा प्रश्न होने पर अगले सूत्र द्वारा इसी का उत्तर देते हैं –

    राजवार्तिक :
    1-4. आश्रय अर्थात् आधार । अथवा गुणों के द्वारा जो आश्रय स्वरूप से स्वीकृत होता हो वह आश्रय है । यदि 'द्रव्याश्रया गुणाः' इतना ही सूत्र बनाते तो द्वयणुकादि कार्य द्रव्य भी परमाणुरूप कारणद्रव्य में रहते हैं अतः उनमें गुणत्व के प्रसंग का निवारण करने के लिए 'निर्गुणाः' विशेषण दिया है। क्योंकि द्वयणुकादि में रूपादिगुणों का सद्भाव है।

    प्रश्न – यदि 'द्रव्याश्रया गुणा:' इतना ही लक्षण गुणों का किया जाता तो घट, संस्थान आदि पर्यायें भी द्रव्याश्रित और निर्गुण होने से गुण बन जायँगी।

    उत्तर – 'द्रव्याश्रया' विशेषण से पर्यायों में गुणत्व के प्रसंग का वारण हो जाता है। 'द्रव्याश्रयाः' यह विशेषण आश्रय की प्रतीति के लिए है' यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि सामर्थ्य से ही यह सिद्ध हो जाता है कि गुणों का कोई न कोई आश्रय चाहिए, गुण निराधार नहीं रह सकते और द्रव्य को छोड़कर अन्य आधार हो नहीं सकता। अतः 'द्रव्याश्रयाः' पद निरर्थक होकर पर्याय निवृत्ति का ज्ञापक हो जाता है।

    प्रश्न – अधिक शब्द होने से अर्थ भी अधिक होता है । अतः क्या उससे पर्याय की निवृत्ति का प्रयोजन साधना उचित है ?

    उत्तर – नहीं, 'द्रव्याश्रयाः' यह अन्यपदार्थक समास मत्वर्थ में है । मत्वर्थ नित्ययोग का सूचन करता है । अर्थात् जो नित्य ही द्रव्य में रहता हो वह गुण है। पर्यायें यद्यपि द्रव्य में रहती हैं पर वे कादाचित्क हैं, अतः 'द्रव्याश्रयाः' पद से उनका ग्रहण नहीं होता । अतः अन्वयी धर्म गुण हैं जैसे कि जीव के अस्तित्व आदि और ज्ञान, दर्शन आदि, पुद्गल के अचेतनत्व आदि रूप, रस आदि। घटज्ञान आदि जीव की पर्यायें हैं और कपाल आदि विकार पुद्गल की पर्यायें हैं।

    परिणाम का लक्षण -


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    + परिणाम -
    तद्भाव: परिणाम: ॥42॥
    अन्वयार्थ : उसका होना अर्थात् प्रति समय बदलते रहना परिणाम है ॥४२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अथवा गुण द्रव्य से अलग है यह किन्हीं का मत है। वह क्या आपके (जैन) मत में स्वीकार है ? नहीं, इसलिए कहते हैं कि संज्ञा आदि के निमित्त से प्राप्त‍ होने वाले भेद के कारण गुण द्रव्य से कथंचित् भिन्न हैं तो भी वे द्रव्य से भिन्न नहीं पाये जाते हैं और द्रव्य के परिणाम हैं इसलिए भिन्न नहीं भी हैं। यदि ऐसा है तो वह बात कहिए जिससे परिणाम का स्वरूप ज्ञात हो। बस इसी बात का निश्चयय करने के लिए कहते हैं – धर्मादिक द्रव्य जिस रूप से होते हैं वह तद्भाव या तत्त्व है और इसे ही परिणाम कहते हैं। वह दो प्रकार का है - अनादि और सादि। उनमें-से धर्मादिक द्रव्य के जो गत्युपग्रहादिक होते हैं वे सामान्य की अपेक्षा अनादि और विशेष की अपेक्षा सादि हैं।

    इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थवृत्ति में पाँचवाँ अध्याय समाप्त हुआ।

    राजवार्तिक :
    अथवा, 'वैशेषिक गुणों को द्रव्य से भिन्न मानते हैं' यह पक्ष जैनों को सम्मत नहीं है। व्यपदेश हेतुभेद आदि की अपेक्षा द्रव्य से भिन्न होकर भी गुण द्रव्य से भिन्न उपलब्ध नहीं होते तथा द्रव्य के ही परिणाम हैं अतः अभिन्न भी हैं। अब बताइए परिणाम किसे कहते हैं --

    1-3. धर्मादि द्रव्यों का अपने निज स्वभावरूप से होना परिणाम है । प्रत्येक द्रव्य के निजस्वरूप पहिले बताये जा चुके हैं। परिणाम दो प्रकार का है - एक अनादि और दूसरा आदिमान् । धर्मादि द्रव्यों के गत्युपग्रह आदि परिणाम अनादि हैं, जबसे ये द्रव्य हैं तभी से उनके ये परिणाम हैं। धर्मादि पहिले और गत्युपग्रहादि बाद में किसी समय हुए हों ऐसा नहीं है। बाह्य प्रत्ययों के आधीन उत्पाद आदि धर्मादिद्रव्यों के आदिमान परिणाम हैं।

    4. कोई धर्म, अधर्म, आकाश और काल में अनादि परिणाम और जीव तथा पुद्गल में आदिमान् परिणाम कहते हैं। उनका कथन ठीक नहीं है, क्योंकि सभी द्रव्यों को द्वयात्मक मानने से ही उनमें सत्त्व हो सकता है अन्यथा नित्य अभाव का प्रसंग होगा। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों की विवक्षा से धर्मादि सभी द्रव्यों में अनादि और आदिमान दोनों प्रकार के परिणाम बनते हैं। यह विशेषता है कि धर्मादि चार अतीन्द्रिय द्रव्यों का अनादि और आदिमान् परिणाम आगम से जाना जाता है और जीव तथा पुद्गलों का कथञ्चित् प्रत्यक्ष गम्य भी होता है।

    पाँचवाँ अध्याय समाप्त

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    6-आस्रवाधिकार



    + योग -
    काय-वाङ्मन: कर्म-योग: ॥1॥
    अन्वयार्थ : काय, वचन और मन की क्रिया योग है ॥१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    काय आदि शब्दों का व्याख्यान पहले कर आये हैं । कर्म और क्रिया ये एकार्थवाची नाम हैं । काय, वचन और मन की क्रिया को योग कहते हैं -- यह इसका तात्पर्य है । आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्द -- हलन चलन योग है । वह निमित्तों के भेद से तीन प्रकार का है -- काययोग, वचनयोग और मनोयोग । खुलासा इस प्रकार है --

    वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम के होने पर औदारिक आदि सात प्रकार की कायवर्गणाओं में से किसी एक प्रकार की वर्गणा के आलम्बन से होने वाला आत्म प्रदेश परिस्पन्द काययोग कहलाता है ।


    शरीर नाम-कर्म के उदय से प्राप्‍त हुई वचन-वर्गणाओं का आलम्बन होने पर तथा वीर्यान्तराय और मत्यक्षरादि आवरण के क्षयोपशम से प्राप्त हुई भीतरी वचन-लब्धि के मिलने पर वचनरूप पर्याय के सन्मुख हुए आत्मा के होने वाला प्रदेश-परिस्पन्द वचनयोग कहलाता है।

    वीर्यान्तराय और नो-इन्द्रियावरण के क्षयोपशमरूप आन्तरिक मनो-लब्धि के होने पर तथा बाहरी निमित्त-भूत मनो-वर्गणाओं का आलम्बन मिलने पर मन-रूप पर्याय के सन्मुख हुए आत्मा के होने वाला प्रदेश-परिस्पन्दन मनोयोग कहलाता है । वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण कर्म के क्षय हो जाने पर भी सयोग-केवली के जो तीन प्रकार की वर्गणाओं की अपेक्षा आत्म-प्रदेश-परिस्पन्द होता है वह भी योग है -- ऐसा जानना चाहिए।


    हम तो स्वीकार करते हैं कि तीन प्रकार की क्रिया योग है । अब यह बतलाइए कि आस्रव का क्या लक्षण है ? संसारी जीव के जो यह योग शब्द का वाच्य कहा है –

    राजवार्तिक :
    काय-वाङ्मन: कर्म-योग: ॥1॥

    काय वचन और मनके परिस्पन्दको योग कहते हैं।

    1-2. काय आदि शब्दों का इतरेतरयोगार्थक द्वन्द्व है। यहाँ 'वाङमनसम्' ऐसा वचन नहीं हो सकता; क्योंकि एक वचन का विधान दो के समास में होता है बहुत के समास में नहीं।

    3-4. कर्मशब्द के अनेक अर्थ हैं-घटं करोति' में कर्मकारक कर्मशब्द का अर्थ है । 'कुशल अकुशल कर्म में पुण्य-पाप अर्थ है, उत्क्षेपण अवक्षेपण आदि में कर्म का क्रिया अर्थ विवक्षित है । यहाँ क्रिया अर्थविवक्षित है अन्य अर्थ नहीं।

    5-6. कर्ताको क्रिया के द्वारा जो प्राप्त करने योग्य इष्ट होता है उसे कर्म कहते हैं । यह कर्मकारक निवर्त्य विकार्य और प्राप्य तीन प्रकार का है। ये तीनों कर्म कर्तासे भिन्न होते हैं। यदि कायादिको कर्ता बनाते हैं तो कर्मको इनसे भिन्न करना पड़ेगा और यदि कायादिको कर्म बनाते हैं तो कर्ता अन्य कहना पड़ेगा। चूँकि कायादि में एक साथ कर्तृत्व और कर्मत्व दोनों धर्म बन नहीं सकते अतः यहाँ कर्म शब्दसे कर्मकारक विवक्षित नहीं है। यदि पुण्य और पापरूप कर्म ही यहाँ विवक्षित होते तो आगेका'शुभः पुण्यस्य' सूत्र निरर्थक हो जाता है। अतः पुण्य र पाप रूप कमें भी यहाँ गृहीत नहीं है। अथवा, सामथ्येयुक्त आत्मा यहाँ कतोरूप से विवक्षित है, उस कर्ताको ईप्सित होनेसे कर्मकारक भी कर्मशब्द का अर्थ हो सकता है।

    7. कर्मशब्द कर्ता और कर्म भाव तीनों साधनों में निष्पन्न होता है और विवक्षानुसार तीनों यहाँ परिगृहीत हैं । वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षयोयशम की अपेक्षा रखनेवाले आत्मा के द्वारा निश्चयनयसे आत्मपरिणाम और पुद्गल के द्वारा पुद्गलपरिणाम तथा व्यवहारनयसे आत्मा के द्वारा पुद्गल परिणाम भी जो किये जाँय वह कर्म है। करणभूत परिणामों की प्रशंसा की विवक्षा में कर्तृधर्म आरोप करनेपर वही परिणाम स्वयं द्रव्य और भावरूप कुशल अकुशल कर्मोको करताहै अतः वही कर्म है। आत्मा की प्रधानता में वह कर्ता होत और परिणाम करण तब 'क्रियतेऽनेन-जिन के द्वारा किया नाय वह कर्म' यह विग्रह भी होता है। साध्य साधनभाव की विवक्षा न होनेपर स्वरूपमात्र कथन करनेसे कृतिको भी कर्म कहते हैं । इसी तरह अन्य कारक भी लगा लेना चाहिए ।

    8. योग शब्द भी इसी तरह कर्ता आदि कारकों में निष्पन्न होता है।

    9-11. यद्यपि आत्मा अखंडद्रव्य है और तीनों योग आत्मपरिणामरूप ही हैं फिर भी पर्यायविवक्षासे ये व्यापार भिन्न भिन्न हैं । जैसे एक ही घड़ा चक्षु आदि इन्द्रियों के सम्बन्ध से रूप रस आदि पर्यायों के द्वारा भिन्न भिन्न गृहीत होता है उसी तरह पर्यायभेद से योग में भी भेद समझना चाहिए। चक्षुरादि इन्द्रियों के निमित्त से जिस प्रकार घड़े में रूप रसादि पर्यायभेद सिद्ध है क्योंकि ग्रहणभेदसे ग्राह्य भेद होता ही है उसी तरह आत्मा में पूर्वकृत काँके निमित्तसे शक्तिभेद होता है और उसीसे योगभेद भी। पुद्गलविपाकी शरीरनामकर्म के उदयसे प्राप्त कायवर्गणा क्वनवर्गणा और मनोवर्गणाओंमेंसे किसी एक का बाह्य आलम्बन लेकर, वीर्यान्तराय मत्यक्षरादि आवरण के क्षयोपशमसे आभ्यन्तर वाग्लब्धि के सान्निध्य में वचनपरिणाम के अभिमुख आत्मा के जो प्रदेशों में हलन-चलन होता है उसे वाग्योग कहते हैं। पूर्वोक्त बाह्य आलम्बन तथा वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण के क्षयोपशमरूप मनोलब्धि के सन्निधान में मनपरिणाम के अभिमुख आत्मा के जो प्रदेश परिस्पन्द होता है वह मनोयोग है । वीर्यान्तराय का क्षयोपशम होनेपर औदारिक आदि सात प्रकार की कायवर्गणाओंमेंसे किसी एक वर्गणा के आलम्बनसे जो आत्मा का प्रदेशपरिस्पन्द होता है वह काययोग है। केवली के क्षयनिमित्तक योग माना जाता है। क्रियापरिणाम आत्मा के कायवचन और मनोवर्गणा के आलम्बनसे होनेवाला प्रदेशपरिस्पन्द केवली के होता है अतः उन के योग है अयोगकेवली और सिद्धों के उक्त वर्गणा निमित्तक प्रदेशपरिस्पन्द न होनेसे योग नहीं है। 11. जैसे जाति कुल रूप संज्ञा और लक्षण आदि की दृष्टि से अभिन्न भी देवदत्त बाह्यक्रियाओंको अपेक्षा लावक (काटनेवाला) पावक (पवित्र करनेवाला) आदि पर्यायभेदको प्राप्त करता है अतः वह एक भी है और अनेक भी, उसी तरह प्रतिनियत क्षायोपमिक शरीर आदि पर्याय की दृष्टिसे योग तीन प्रकार का होकर भी अनादि पारिणामिक द्रव्यार्थनयसे एक प्रकार का भी है।

    12. योग का अर्थ समाधि और ध्यान भी होता है, यह आगे कहा जायगा। यहाँ उसकी विवक्षा नहीं है । यहाँ आस्रव का प्रकरण है अतः कियारूप योग लिया गया है।

    13. गर्गोंपर 100) रु० जुर्माना करो' की तरह 'कायवाङमनस्कर्म' में तीनों की सामुदायिक क्रियाको योग नहीं कहते किन्तु कर्म शब्द का अन्वय कायकर्म वाक्कर्म और मनस्कर्म तीनों में पृथक् पृथक कर लेना चाहिए जैसे कि 'देवदत्त जिनदत्त और गुरुदत्तको भोजन कराओ' इस वाक्य में प्रत्येकको भोजन का सम्बन्ध विवक्षित होता है।

    'कायवाङ्मनस्कर्मास्रव:' इतना सूत्र बनाने से लघुता होती थी, ऐसी आशंका नही करनी चाहिये क्योंकि ऐसा करने मे योग का कथन नही होता ।

    शंका – 'कायवाङ्मनस्कर्मास्रव:' ऐसा सूत्र बनाने में अक्षर का सौष्ठव होता है, सुन्दर भी प्रतीत होता है अत: दो सूत्र न बनाकर ऐसा एक सूत्र ही बनाना चाहिये ।

    उत्तर – 'कायवाङ्मनस्कर्मास्रव:' ऐसा लघु सूत्र बनाने से आगम प्रसिद्ध योग शब्द का अर्थ तो अव्याखयात (अप्रसिद्ध) ही रह जाता ॥१॥

    सर्व योग में आस्रव का प्रसंग आता है अत: 'कायवाङ्मनस्कर्मयोग आस्रव:' ऐसा सूत्र भी नहीं बनाना चाहिये ।

    शंका – 'कायवाङ्मनस्कर्मयोग आस्रव:' ऐसा एक सूत्र बनाना चाहिये क्योंकि ऐसा एक सूत्र बनाने से तत् शब्द (सः) का प्रयोग नही करना पडेगा और योग विभाग न हाने से अर्थात् एक योग होने से सुत्र भी लघु (छोटा) हो जाएगा तथा आगम-प्रसिद्ध योग शब्द भी प्रख्यात हो जाएगा ?

    उत्तर – 'कायवाङ्मनस्कर्मयोग आस्रव:' ऐसा सूत्र बनाने से यद्यपि 'सः' शब्द को ग्रहण नहीं करना पड़ता और एक योग होने से सूत्र छोटा भी बन जाता है तथा योग भी प्रख्यात् हो जाता है; परन्तु इस में सभी योग मे आस्रवत्व का प्रसंग प्राप्त हाता है -- केवलि-समुद्घात के समय में होने वाले दंड, कपाट, प्रतर और लोक-पूरण योग भी आस्रव हो जायेंगे ।

    प्रश्न – दण्डादि योग में आस्रवत्व मानने में क्या दोष है ?

    उत्तर – यद्यपि केवलि-समुद्घात अवस्था में सूक्ष्म योग मानकर तन्निमित्तक अल्प-बंध माना जाता है परन्तु एक सूत्र बनाने में तो केवलि-समुद्घात में साधारण योगत्व और बहु-बन्ध का प्रसंग आने से विपरीतता आती है । वस्तुत: तो वर्गणा-निमित्तक आत्म-प्रदेश-परिस्पन्दन रूप मुख्य योग ही आस्रव कहा जाता है, परन्तु केवलि-समुद्घात अवस्था में होने वाले दण्ड, कपाट, प्रतर और लोक-पूर्ण योग वर्गणा अवलम्बन रूप नहीं है, अत: इससे आस्रव नहीं होता है अर्थात् दण्डादि-योग में आस्रव नहीं माना है ।

    प्रश्न – यदि वर्गणालम्बन-रूप योग नहीं होने से दण्डादि व्यापार काल में अनास्रव होने से दण्डादि योग-निमित्तक बन्ध नहीं होना चाहिए परन्तु केवलि-समुद्घात अवस्था में बन्ध तो माना है ?

    उत्तर – यद्यपि केवलि-समुद्घात वर्गणा अवलम्बन न होने से दण्डादि योग-निमित्तक बन्ध नहीं है तथापि काय-वर्गणा निमित्तक आत्म-प्रदेशों में परिस्पंदन है अत: सूक्ष्म काय-निमित्तक-बन्ध केवलि-समुद्घात अवस्था में भी बन्ध है ॥२॥

    प्रश्न – एक सूत्र बनाने पर भी दण्डादि-योग आस्रव रूप प्रयोजन के अकरण होने से दण्डादि में आस्रव का प्रसंग नहीं आयेगा ?

    उत्तर – योग विभाग के सामर्थ्य से ही अर्थात् भिन्न सूत्र की रचना से ही यह स्पष्ट अर्थ निकल आता है की काय, वचन, मनो-वर्गणालंबन के निमित्त जो आत्म-प्रदेश परिस्पन्द है वही योग और आस्रव है, अन्य नहीं ।

    प्रश्न – जैसे केवली के इन्द्रियाँ विद्यमान रहती हैं परन्तु तत्पुर्वक व्यापार नहीं होने से इन्द्रिय-जन्य कर्म-बन्ध नहीं होता है उसी प्रकार योग-विभाग (पृथक-सूत्र) के सामान एक योग (एक सूत्र) बना लेने पर भी केवलि-समुद्घात के समय दण्डादि-योग आस्रव के कारण नहीं होंगे ? अर्थात् दण्ड-योग में आस्रव नहीं होगा ।

    उत्तर – पृथक सूत्र के सामर्थ्य से ही यह प्रतीत होता है की उपरिकथित (वर्गणाओं का अवलम्बन-भूत) योग ही आस्रव है अन्य योग आस्रव नहीं । अर्थात् पृथक सूत्र के आधार पर ही यह जाना जा सकता है कि योग-सामान्य होने पर भी दण्डादि-योग आस्रव नहीं है, ऐसा भी योग है जो आस्रव-रूप नहीं होता, इसकी सुचना पृथक-सूत्र करता है । 'कायवाङ्मनस्कर्मास्रव:' ऐसा एक सूत्र करने पर दण्डादि-योग आस्रव के कारण नहीं है, इसकी प्रतिपत्ति (ज्ञान) नहीं होती अत: सर्व योगों के आस्रवत्व का प्रसंग आयेगा ।


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    + आस्रव -
    स आस्रव: ॥2॥
    अन्वयार्थ : वही आस्रव है ॥२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिस प्रकार तालाब में जल लाने का दरवाजा जल के आने का कारण होने से आस्रव कहलाता है उसी प्रकार आत्मा के साथ बंधने के लिए कर्म योग-रूपी नाली के द्वारा आते हैं, इसलिए योग आस्रव संज्ञा को प्राप्त होता है ।

    कर्म दो प्रकार का है -- पुण्य और पाप, इसलिए क्या योग सामान्य-रूप से उसके आस्रव का कारण है या कोई विशेषता है ? इसी बात के बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1-3. 'कायवाङ्मनस्कर्मास्रवः' इतना लघुसूत्र बनाने में योगशब्द आगम में प्रसिद्ध है उसका अर्थ अव्याख्यात ही रह जायगा । 'कामवाङ्मनस्कर्म योग आस्रवः' ऐसा एक सूत्र बनाने से यद्यपि 'स' शब्द को ग्रहण नहीं करना पड़ता और एकयोग होने से लाघव हो सकता है परन्तु इस से सभी योगों में आस्रवत्व का प्रसंग प्राप्त होता है - केवली के समुद्घात के समय होनेवाले दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूर्ण योग भी आस्रव हो जायँगे । यद्यपि इस काल में सूक्ष्मयोग मानकर तन्निमित्तक अल्पबंध माना जाता है पर इससे तो उनमें साधारण योगत्व और बहुबन्ध का प्रसंग प्राप्त होता है । वस्तुतः मुख्य योग तो वर्गणा-निमित्तक प्रदेशपरिस्पन्द रूप है और वही आस्रव है, पर केवलिसमुद्भात वर्गणालम्बन नहीं है अतः उसे आस्रव नहीं मानते । दण्डादिव्यापार काल में अनास्रव होने से दण्डादियोगनिमित्तक बन्ध भी नहीं होता। हाँ, उस समय जो कायवर्गणालम्बन सूक्ष्म काययोग होता है उसी से बन्ध होता है। यदि एकसूत्र बनाया जाता तो सभी योग आस्रव बन जाते । भिन्न सूत्र बनाने से यह स्पष्ट अर्थ निकल आता है कि--- जो काय वचन मनोवर्गणालम्बन प्रदेश परिस्पन्द है वही योग और आस्रव है, अन्य नहीं। अर्थात्.ऐसा भी योग है जो आस्रव नहीं होता। जैसे केवली के इन्द्रियाँ विद्यमान रहती हैं, पर तत्पूर्वक व्यापार नहीं होने से इन्द्रियजकर्मबन्ध नहीं होता उसी तरह दण्डादि योग के रहनेपर भी कर्मबन्ध नहीं होता अतः इसे आस्रव नहीं कहते।

    4-5. जैसे जलागमन द्वार से जल आता है उसी तरह योगप्रणाली से आत्मा में कर्म आते हैं अतः इस योग को आस्रव कहते हैं । जैसे गोला कपड़ा वायु के द्वारा लाई गई धूलि को चारों ओर से चिपटा लेता है उसी तरह कषायरूपी जल से गीला आत्मा योग के द्वारा लाई गई करता है। अथवा जैसे गरम लोहपिण्ड यदि पानी डाला जाय तो वह चारों तरफ से पानी को खींचता है उसी तरह कषाय से सन्तप्त जीव योग से लाये गये कर्मो को सब ओर से ग्रहण करता है।

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    + भेद - पुण्य-पाप -
    शुभ: पुण्यस्याशुभ: पापस्य ॥3॥
    अन्वयार्थ : शुभयोग पुण्य‍ का और अशुभयोग पाप का आस्रव है ॥३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    शंका – शुभ योग क्या है और अशुभ योग क्या है ?

    समाधान – हिंसा, चोरी, और मैथुन आदिक अशुभ काय-योग है । असत्य वचन, कठोर वचन और असभ्य वचन आदि अशुभ वचन-योग है । मारने का विचार, ईर्ष्या और डाह आदि अशुभ मनो-योग है । तथा इनसे विपरीत शुभ-काय योग, शुभ वचन-योग और शुभ मनो-योग है ।

    शंका – योग के शुभ और अशुभ ये भेद किस कारण से हैं ?

    समाधान – जो योग शुभ परिणामों के निमित्त से होता है वह शुभ योग है और जो योग अशुभ परिणामों के निमित्त से होता है वह अशुभ योग है । शायद कोई यह माने कि शुभ और अशुभ कर्म का कारण होने से शुभ और अशुभ योग होता है सो बात नहीं है; क्योंकि यदि इस प्रकार इनका लक्षण कहा जाता है तो शुभ-योग ही नहीं हो सकता, क्योंकि शुभ-योग को भी ज्ञानावरणादि कर्मों के बन्ध का कारण माना है । इसलिए शुभ और अशुभ योग का जो लक्षण यहाँ पर किया है वही सही है । जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होता है वह पुण्य है, जैसे साता-वेदनीय आदि । तथा जो आत्मा को शुभ से बचाता है वह पाप है; जैसे असाता-वेदनीय आदि ।


    क्या यह आस्रव सब संसारी जीवों के समान फल को पैदा करता है या कोई विशेषता है ? अब इसी बात के बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-2. इत्यादि अनन्त प्रकार के अशुभ योग से भिन्न शुभयोग भी अनन्त प्रकार का है। यद्यपि अध्यवसायस्थान असंख्येय-लोकप्रमाण हैं फिर भी अनन्तानन्त पुद्गल प्रदेशरूप से बँधे हुए ज्ञानावरण, वीर्यान्तराय के देशघाती और सर्वघाती स्पर्धकों के क्षयोपशम भेद से, अनन्तानन्त प्रदेशवाले कर्मों के ग्रहण का कारण होने से तथा अनन्तानन्त नाना जीवों की दृष्टि से तीनों योग अनन्त प्रकार के हो जाते हैं।

    3. शुभपरिणाम पूर्वक होनेवाला योग शुभयोग है तथा अशुभ परिणाम से होनेवाला अशुभयोग है। शुभ अशुभ कर्म का कारण होने से योग में शुभत्व या अशुभत्व नहीं है क्योंकि शुभ योग भी ज्ञानावरण आदि अशुभ कर्मों के बन्ध में भी कारण होता है।

    4-6. जो आत्मा को प्रसन्न करे वह पुण्य अथवा जिस के द्वारा आत्मा सुखसाता अनुभव करे वह सातावेदनीय आदि पुण्य हैं । पुण्य का उलटा पाप । जो आत्मा में शुभपरिणाम न होने दे वह असातावेदनीय आदि पाप हैं। यद्यपि सोने की बेड़ी या लोहे की बेड़ी की तरह दोनों ही आत्मा की परतन्त्रता में कारण हैं फिर भी इष्ट-फल और अनिष्ट-फल के भेद से पुण्य और पाप में भेद है । जो इष्ट गति, जाति, शरीर, इन्द्रिय, विषय आदि का हेतु है वह पुण्य है तथा जो अनिष्ट गति, जाति, शरीर, इन्द्रिय आदि का कारण है वह पाप है। शुभयोग से पुण्य का आस्रव होता है और अशुभयोग से पाप का।

    7. प्रश्न – जब घाति कर्मों का बन्ध भी शुभ-परिणामों से होता है तो 'शुभः पुण्यस्य' अर्थात शुभ-परिणाम पण्यास्रव के कारण हैं। यह निर्देश व्यर्थ हो जाता है?

    उत्तर – अघातिया कर्मों में जो पुण्य और पाप हैं, उनकी अपेक्षा पुण्य-पाप-हेतुता का निर्देश है । अथवा 'शुभ पुण्य का ही कारण है' ऐसा अवधारण नहीं करते हैं; किन्तु शुभ ही पुण्य का कारण है' यह अवधारण किया गया है । इससे ज्ञात होता है कि शुभ पाप का भी हेतु हो सकता है।

    प्रश्न – यदि शुभ पाप का और अशुभ पुण्य का भी कारण होता है, क्योंकि सब कर्मों का उत्कृष्ट स्थिति-बन्ध उत्कृष्ट संक्लेश से होता है। कहा भी है - "आयु और गति को छोड़कर शेष कर्मों की उत्कृष्ट स्थितियों का बन्ध उत्कृष्ट संक्लेश से होता है और जघन्य स्थितिबन्ध मन्द संक्लेश से " अतः दोनों सूत्र निरर्थक हो जाते हैं।

    उत्तर – अनुभाग बन्ध की अपेक्षा सूत्रों को लगाना चाहिए। अनुभागबन्ध प्रधान है, वही सख दुःखरूप फल का निमित्त होता है। समस्त शुभ-प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों से और समस्त अशुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उत्कृष्ट संक्लेशपरिणामों से होता है। यद्यपि उत्कृष्ट शुभ परिणाम अशुभ के जघन्य अनुभागबन्ध के भी कारण होते हैं पर बहुत शुभ के कारण होने से 'शुभः पुण्यस्य' सूत्र सार्थक है, जैसे कि थोड़ा अपकार करनेपर भी बहुत उपकार करनेवाला उपकारक ही माना जाता है। इसी तरह 'अशुभः पापस्य में भी समझ लेना चाहिए। कहा भी है "विशुद्धि से शुभप्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है तथा संक्लेश से अशुभ प्रकृतियों का । जघन्य अनुभाग बन्ध का क्रम इससे उलटा है, अर्थात् विशुद्धि से अशुभ का जघन्य और संक्लेश से शुभ का जघन्य बन्ध होता है।

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    + आस्रव के कर्ता की अपेक्षा भेद -
    सकषायाकषाययो: साम्परायिकेर्यापथयो: ॥4॥
    अन्वयार्थ : कषायसहित और कषायरहित आत्मा का योग क्रम से साम्परायिक और ईर्यापथ कर्म के आस्रवरूप है ॥४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    स्वामी के भेद से आस्रव में भेद है । स्वामी दो प्रकार के हैं -- कषाय-सहित और कषाय-रहित । क्रोधादिक कषाय कहलाते हैं । कषाय के समान होने से कषाय कहलाता है । उपमा-रूप अर्थ क्या है ? जिस प्रकार नैयग्रोध आदि कषाय श्लेष का कारण है उसी प्रकार आत्मा का क्रोधादि-रूप कषाय भी कर्मों के श्लेष का कारण है इसलिए कषाय के समान यह कषाय है ऐसा कहते हैं । जिसके कषाय है वह सकषाय जीव है और जिसके कषाय नहीं है वह अकषाय जीव है । यहाँ इन दोनों पदों का पहले 'सकषायश्‍च अकषायश्‍चेति सकषायाकषायौ' इस प्रकार द्वन्द्व समास करके अनन्तर स्वामित्व दिखलाने के लिए षष्ठी का द्विवचन दिया है । साम्पराय संसार का पर्याय-वाची है । जो कर्म संसार का प्रयोजक है वह साम्परायिक कर्म है । ईर्या की व्युत्पत्ति 'ईरणं' होगी । योग का अर्थ गति है । जो कर्म इसके द्वारा प्राप्त होता है वह ईर्या-पथ कर्म है । यहाँ इन दोनों पदों का पहले 'साम्परायिकं च ईर्यापथं च साम्प्रायिकेर्यापथे' इस प्रकार द्वन्द्व समास करके तदनन्तर सम्बन्ध दिखलाने के लिए षष्ठी का द्विवचन दिया है । सकषाय के साथ साम्परायिक शब्द का और अकषाय के साथ ईर्या-पथ शब्द का यथा-क्रम सम्बन्ध है। जिससे यह अर्थ हुआ कि मिथ्यादृष्टि आदि कषाय-सहित जीव के साम्परायिक कर्म का आस्रव होता है । तथा उपशान्त कषाय आदि कषाय रहित जीव के ईर्या-पथ कर्म का आस्रव होता है ।

    आदि में कहे गये आस्रव के भेद दिखलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं --

    राजवार्तिक :
    1-7. आस्रव के अनन्त भेद होने पर भी सकषाय और अकषाय स्वामियों की अपेक्षा दो भेद हैं । क्रोधादि परिणाम आत्मा को युगति में ले जाने के कारण कषते हैं - आत्मा के स्वरूप की हिंसा करते हैं, अतः ये कषाय हैं । अथवा जैसे वटवृक्ष आदि का चेप चिपकने में कारण होता है उसी तरह क्रोध आदि भी कर्मबन्धन के कारण होने से कषाय हैं । कर्मों के द्वारा चारों-ओर से स्वरूप का अभिभव होना सम्पराय है, इस सम्पराय के लिए जो आस्रव होता है वह साम्परायिक आस्रव है । ईर्या अर्थात् योगगति, जो कर्म मात्र-योग से ही आते हैं वे ईर्यापथ आस्रव हैं। सकषाय जीव के साम्परायिक और अकषाय जीव के ईर्यापथ आस्रव होता है। मिथ्या दृष्टि से लेकर दसवें गुणस्थान तक कषाय का चेंप रहने से योग के द्वारा आये हुए कर्म गीले चमड़े पर धूल की तरह चिपक जाते हैं, उनमें स्थितिबन्ध हो जाता है, यह साम्परायिक आस्रव है। उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली के योगक्रिया से आये हुए कर्म कपाय का चेंप न होने से सूखी-दीवाल पर पड़े हुए पत्थर की तरह द्वितीय क्षण में ही झड़ जाते हैं, बँधते नहीं हैं; यह ईर्यापथ आस्रव है।

    8. यद्यपि 'अजाद्यत्' सूत्र के अनुसार अकषाय और ईर्यापथ शब्दों का पूर्वप्रयोग होना चाहिए था, परन्तु साम्परायिक और सकषाय के सम्बन्ध में बहुत वर्णन करना है अतः इसी दृष्टि से उन्हें अभ्यर्हित मानकर उन का पूर्व प्रयोग किया है।

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    + साम्परायिक आस्रव के भेद -
    इन्द्रिय-कषायाव्रत-क्रिया: पंच-चतु:-पंच-पंचविंशति-संख्या: पूर्वस्य भेदा: ॥5॥
    अन्वयार्थ : पूर्व के अर्थात् साम्परायिक कर्मास्रव के इन्द्रिय, कषाय, अव्रत और क्रियारूप भेद हैं जो क्रम से पाँच, चार, पाँच और पच्चीस हैं ॥५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    यहाँ इन्द्रिय आदि का पाँच आदि के साथ क्रम से सम्बन्ध जानना चाहिए । यथा इन्द्रियाँ पाँच हैं, कषाय चार हैं, अव्रत पाँच हैं और क्रिया पच्चीस हैं । इनमें-से स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियों का कथन पहले कर आये हैं । क्रोधादि चार कषाय हैं और हिंसा आदि पाँच अव्रत आगे कहेंगे । पच्चीस क्रियाओं का वर्णन यहाँ करते हैं --
    1. चैत्य, गुरु और शास्त्र की पूजा आदिरूप सम्यक्त्व को बढ़ाने वाली सम्यक्त्व क्रिया है ।
    2. मिथ्यात्व के उदय से जो अन्य देवता के स्त‍वन आदि रूप क्रिया होती है वह मिथ्यात्व क्रिया है।
    3. शरीर आदि द्वारा गमनागमन आदिरूप प्रवृत्ति प्रयोगक्रिया है।
    4. संयत का अविरति के सम्मु्ख होना समादान क्रिया है ।
    5. ईर्यापथ की कारणभूत क्रिया ईर्यापथ क्रिया है। ये पाँच क्रिया है ।
    6. क्रोध के आवेश से प्रादोषिकी क्रिया होती है ।
    7. दुष्ट भाव युक्त होकर उद्यम करना कायिकी क्रिया है ।
    8. हिंसा के साधनों को ग्रहण करना आधिकरणिकी क्रिया है ।
    9. जो दु:ख की उत्पत्ति का कारण है वह पारितापिकी क्रिया है ।
    10. आयु, इन्द्रिय, बल और श्वासोच्छ्‍वास रूप प्राणों का वियोग करने वाली प्राणातिपातिकी क्रिया है । ये पाँच क्रिया हैं ।
    11. रागवश स्नेहसिक्त होने के कारण प्रमादी का रमणीय रूप के देखने का अभिप्राय दर्शनक्रिया है ।
    12. प्रमादवश स्पर्श करने लायक सचेतन पदार्थ का अनुबन्ध स्पर्शन क्रिया है ।
    13. नये अधिकरणों को उत्पन्न करना प्रात्ययिकी क्रिया है ।
    14. स्त्री, पुरुष और पशुओं के जाने, आने, उठने और बैठने के स्थान में भीतरी मल का त्याग करना समन्तानुपात क्रिया है ।
    15. प्रमार्जन और अवलोकन नहीं की गयी भूमि पर शरीर आदि का रखना अनाभोग क्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं ।
    16. जो क्रिया दूसरों द्वारा करने की हो उसे स्वयं कर लेना स्वहस्त क्रिया है ।
    17. पापादान आदिरूप प्रवृत्ति विशेष के लिए सम्मति देना निसर्ग क्रिया है ।
    18. दूसरे ने जो सावद्यकार्य किया हो उसे प्रकाशित करना विदारणक्रिया है ।
    19. चारित्रमोहनीय के उदय से आवश्यक आदि के विषय में शास्त्रोक्त आज्ञा को न पाल सकने के कारण अन्यथा निरूपण करना आज्ञाव्यापादिकी क्रिया है ।
    20. धूर्तता और आलस्य के कारण शास्त्र में उपदेशी गयी विधि करने का अनादर अनाकांक्षक्रिया है। ये पाँच क्रिया हैं ।
    21. छेदना, भेदना और मारना आदि क्रिया में स्वयं तत्पर रहना और दूसरे के करने पर हर्षित होना प्रारम्भ क्रिया है ।
    22. परिग्रह का नाश न हो इसलिए जो क्रिया की जाती है वह पारिग्राहिकी क्रिया है ।
    23. ज्ञान, दर्शन आदि के विषय में छल करना मायाक्रिया है ।
    24. मिथ्यादर्शन के साधनों से युक्त पुरुष की प्रशंसा आदि के द्वारा दृढ़ करना कि 'तू ठीक करता है' मिथ्या दर्शन क्रिया है ।
    25. संयम का घात करने वाले कर्म के उदय से त्यागरूप परिणामों का न होना अप्रत्याख्यान क्रिया है । ये पाँच क्रिया हैं ।
    ये सब मिलकर पच्चीस क्रियाएँ होती हैं । कार्य-कारण के भेद से अलग-अलग भेद को प्राप्त होकर ये इन्द्रियादिक साम्परायिक कर्म के आस्रव के द्वार हैं ।

    शंका – तीनों योग सब आत्माओं के कार्य हैं, इसलिए वे सब संसारी जीवों के समान रूप से प्राप्त होते हैं इसलिए कर्मबन्ध के फल के अनुभव के प्रति समानता प्राप्त होनी चाहिए ?

    समाधान – यह बात ऐसी नहीं है, क्योंकि यद्यपि योग प्रत्येक आत्मा के होता है, परन्तु जीवों के परिणामों के अनन्त भेद हैं, इसलिए कर्मबन्ध के फल के अनुभव की विशेषता माननी पड़ती है।

    शंका – किस प्रकार ?

    समाधान – अब अगले सूत्र द्वारा इसी बात का समाधान करते हैं --

    राजवार्तिक :
    1-5. इन्द्रिय आदि में इतरेतरयोग द्वन्द्व समास है। पंच आदि का संख्या शब्द से समास करके उनका यथाक्रम अन्धय कर देना चाहिए। पूर्व अर्थात् पहिले सूत्र में जिसका प्रथम निर्देश किया है । भेद अर्थात् प्रकार। पाँच इन्द्रियाँ, चार कषाय, पाँच अव्रत और पच्चीस क्रियाएँ ये पूर्वसाम्परायिक आस्रव के भेद हैं।

    6. इन्द्रियादि का आत्मा से कथश्चित् भेद और कथञ्चित् अभेद है। इन्द्रियादि की निवृत्ति होने पर भी द्रव्य स्थिर रहता है। इसीलिए पर्यायभेद से पाँच आदि भेद बन जाते हैं । स्पर्शादि पाँच इन्द्रियों का वर्णन कर चुके हैं क्रोधादिकषाय और हिंसादि अव्रत का वर्णन आगे करेंगे । पच्चीस क्रियाएँ इस प्रकार हैं

    7-11.
    1. चैत्य गुरु शास्त्र की पूजा आदि सम्यक्त्व को बढ़ानेवाली क्रिया सम्यक्त्वक्रिया है ।
    2. अन्यदेवता का स्तवन आदि मिथ्यात्वहेतु प्रवृत्ति मिथ्यात्व क्रिया है।
    3. शरीर आदि के द्वारा गमन आगमन आदि प्रवृत्ति करना प्रयोग क्रिया है। अथवा वीर्यान्तराय ज्ञानावरण का क्षयोपशम होनेपर अंगोपांग नाम कर्म के उदय से काय वचन और मनोयोग की रचना में समर्थ पुद्गलों का ग्रहण करना प्रयोग क्रिया है ।
    4. संयम धारण करनेपर भी अविरति की तरफ झुकना समादान क्रिया है
    5. ईर्यापथ-आस्रव में कारणभूत क्रिया ईर्यापथ क्रिया है ।
    6. क्रोधावेश से प्रवृत्ति प्रादोषिकी क्रिया है । क्रोध प्रदोष में कारण होता है अतः कार्यकारण के भेद से क्रोधकषाय और प्रादोषिकी क्रिया में भेद है। क्रोध अनिमित्त भी होता है पर प्रदोष क्रोधरूप निमित्त से होता है। पिशुन स्वभाववाला व्यक्ति इष्ट दारा हरण, धननाश आदि निमित्तों के बिना स्वभाव से ही क्रोध करता है। किसी-किसी की दृष्टि में ही विष होता है। कहा भी है - "जिस प्रकार पूर्णिमा के दिन चन्द्र का बिना किसी निमित्त के स्वभाव से ही उदय होता है उसी तरह कर्मवशी आत्मा के बिना निमित्त के ही क्रोधादि कषायों का उदय होता है ।" तथा "दुर्जन पुरुषों की चेष्टाएँ, जिनकी लोल जिह्वा मृगों के खून से लाल हो रही है ऐसे शार्दूल, भेड़िया, सर्प आदि निसर्ग हिंसक प्राणियों के समान वैर और रोषपूर्ण होती हैं।"
    7. प्रदोष के बाद प्रयत्न करना कायिकी क्रिया है ।
    8. हिंसा के उपकरणों को ग्रहण करना आधिकरणकी क्रिया है ।
    9. दूसरे को दुःख उत्पन्न करनेवाली पारितापिकी क्रिया है।
    10. आयु, इन्द्रिय बल आदि का वियोग करनेवाली प्राणातिपातिकी क्रिया है ।
    11. रागाविष्ट होकर प्रमादी पुरुष का रमणीय रूप के देखने की ओर प्रवृत्ति दर्शनक्रिया है ।
    12. प्रमादवश छूने की प्रवृत्ति स्पर्शन क्रिया है ।
    13. चक्षु इन्द्रिय और स्पर्शन इन्द्रियों में इन इन्द्रियों द्वारा होने वाले ज्ञान का ग्रहण है तथा यहाँ ज्ञानपूर्वक हलन-चलन का ग्रहण है। नये-नये अधिकरणों को उत्पन्न करना प्रात्यायिकी क्रिया है ।
    14. स्त्री-पुरुष, पशु आदि से व्याप्त स्थान में मलोत्सर्ग करना समन्तानुपातन किया है ।
    15. बिना शोधी और बिना देखी भूमि पर शरीर आदि का रखना अनाभोग क्रिया है
    16. दूसरे के द्वारा करने योग्य क्रिया को स्वयं करना स्वहस्त किया है ।
    17. पापादान आदि को स्वीकार करना निसर्ग क्रिया है ।
    18. आलस्य से प्रशस्त क्रियाओं का न करना और पर के पाप आदि का प्रकाशन करना विदारण क्रिया है ।
    19. चारित्रमोह के उदय से आवश्यक आदि क्रियाओं के करने में असमर्थ होने पर शास्त्राज्ञा का अन्यथा ही निरूपण करना आज्ञाव्यापादिका क्रिया है ।
    20. मूर्खता और आलस्य से शास्त्रोपदिष्ट विधि-विधानों के प्रति अनादर करना अनाकांक्षा क्रिया है ।
    21. छेदनभेदन, हिंसा आदि क्रियाओं में तत्पर होना अथवा अन्य के द्वारा हिंसादि व्यापार किये जाने पर हर्षित होना आरम्भ क्रिया है ।
    22. परिग्रह के नष्ट न होने देने के लिए जो व्यापार है वह पारिग्राहिकी क्रिया है ।
    23. ज्ञान-दर्शन आदि में छल-कपट करना माया क्रिया है ।
    24. मिथ्यात्व के कार्यो की प्रशंसा कर के दूसरे को मिथ्यात्व में दृढ़ करना मिथ्यादर्शन क्रिया है ।
    25. संयमघाती कर्म के उदय से विषयों का प्रत्याख्यान-त्याग नहीं करना अप्रत्याख्यान क्रिया है ।

    12. प्रश्न – इन्द्रिय, कषाय और अव्रत भी क्रिया स्वभाव ही हैं अतः उनका पृथक ग्रहण करना निरर्थक है ?

    उत्तर – यह एकान्त नियम नहीं है कि इन्द्रिय, कषाय और अव्रत क्रिया स्वभाव ही हों। नाम, स्थापना और द्रव्यरूप इन्द्रिय, कषाय और अव्रतों में परिस्पन्दात्मक क्रियारूपता नहीं है । नामेन्द्रिय आदि तो शब्दमात्र हैं, अतः इसमें तो क्रियारूपता है नहीं । स्थापना इन्दिय आदि 'यह वही है। इस प्रकार के शब्द और विज्ञान में कारण होते है, अतः इनमें भी क्रियारूपता नहीं कही जा सकती। द्रव्यरूप इन्द्रियादि में तो चाहे वह अतीत रूप हो या भावियोग्यता रूप, वर्तमान इन्द्रियादिरूपता है नहीं अतः उसमें परिस्पन्दात्मक क्रियारूपता नहीं हो सकती। अथवा, यह कोई नियम नहीं है कि इन्द्रिय, कषाय आदि क्रियारूप ही हों। द्रव्यार्थिक को गौण करनेपर पर्यायार्थिक की प्रधानता में इन्द्रिय, कषाय और अव्रत को कथंचित् क्रियारूप कह सकते हैं पर पर्यायार्थिक को गौण और द्रव्यार्थिक को मुख्य करनेपर क्रियारूपता नहीं भी है।

    13-14 'इन्द्रिय कषाय और अव्रत शुभ और अशुभ आस्रव परिणाम के अभिमुख होने से द्रव्यास्रव हैं। कर्म का ग्रहण भावास्रव है। वह पच्चीस क्रियाओं के द्वारा होता है। इसलिए इन्द्रिय, कषाय और अव्रत का ग्रहण किया है' यह समाधान उचित नहीं है, क्योंकि इस से प्रतिज्ञाविरोध होता है। 'कायवाङमनःकर्म योगः, स आस्रवः' इन सूत्रों से द्रव्यास्रव का ही निरूपण किया गया है।

    15. निमित्तनैमित्तिक-भाव ज्ञापन करने के लिए इन्द्रिय आदि का पृथक् ग्रहण किया है। छूना आदि क्रोध करना आदि और हिंसा करना आदि क्रियाएँ आस्रव हैं। ये पञ्चीस क्रियाएँ इन्हीं से उत्पन्न होती हैं। इनमें तीन परिणमन होते हैं। जैसे मूर्छा-ममत्व परिणाम कारण है, परिग्रह कार्य है। इनके होनेपर पारिग्राहिकी क्रिया भिन्न ही होती है जो कि परिग्रह के संरक्षण अविनाश और संस्कारादि रूप हैं । क्रोध कारण है प्रदोष कार्य है इनसे प्रादोषिकी क्रिया होती है। मान कारण है, नम्र न होना कार्य है, इनसे अपूर्वाधिकरण उत्पन्न करनेवाली प्रात्यायिकी क्रिया भिन्न है । माया कारण है, कुटिलता कार्य है, इनसे ज्ञानदर्शन और चारित्रमें माया प्रवृत्ति रूप क्रिया होती है। प्राणातिपात कारण है और प्राणातिपातिकी क्रिया कार्य है । मृषावाद चोरी और कुशील कारण है और असंयम के उदय से आज्ञाव्यापादि का क्रिया कार्य है। इसी तरह अन्य भी समझना चाहिए।

    16. प्रश्न – इन्द्रियों से ही ज्ञान करके और विचार के बाद कषाय, अव्रत और क्रियाओं में प्रवृत्ति होती है अतः इन्द्रिय का ही ग्रहण करना चाहिए । कषाय, अव्रत और क्रियाएँ तो अर्थात् ही गृहीत हो जाती हैं, उनका ग्रहण नहीं करना चाहिए। इससे सूत्र भी लघु हो जायगा ?

    उत्तर – यदि इन्द्रियों को ही आस्रव में गिना जाय तो छठवें गुणस्थान तक ही आस्रव का विधान होगा अप्रमत्त के नहीं। प्रमत्त ही चक्षु आदि इन्द्रियों से रूपादिक विषयों के सेवन के प्रति आसक्त होता है। या सेवन न भी करे तो भी हिंसादि की कारणभूत अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ रूप आठ कषायों से युक्त होता हुआ हिंसादि करता है, न भी करे तो भी प्रमादी होने से सतत कर्मों का आस्रव करता है । परन्तु अप्रमत्त व्यक्ति पन्द्रह प्रकार के प्रमादों से रहित होकर मात्र योग और कषायनिमित्तक ही आस्रव करता है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञिपंचेन्द्रियों में यथासम्भव चक्षु आदि इन्द्रियाँ और मनोविचार के न होने पर भी क्रोधादि-हिंसा पूर्वक कर्मग्रहण होता ही है। अतः सर्वसंग्रह के लिए कषाय आदि का ग्रहण करना उचित है।

    17. प्रश्न – राग-द्वेष से रहित व्यक्ति न तो इन्द्रियों से विषय ग्रहण करता है और न जीवहिंसा या असत्य आदि में प्रवृत्ति करता है, अतः कषाय के ग्रहण करने से सभी साम्परायिक आस्रवों का ग्रहण हो ही जाता है, इन्द्रिय अव्रत और क्रियाओं का ग्रहण नहीं करना चाहिए ?

    उत्तर – उपशान्तकषायी साधु के कषाय का सद्भाव रहने मात्र से चक्षुरादि के द्वारा रूपादि विषयों का ग्रहण करने के कारण राग-द्वेष और हिंसा आदि की उत्पत्ति का प्रसंग होगा । यदि रूपादि के ग्रहण करने मात्र से रागी-द्वेषीपना आता हो तो कोई वीतराग नहीं हो पायगा। चक्षु आदि के द्वारा रूपादि का ग्रहण होनेपर भी कोई व्यक्ति वीतराग रह सकता है । अतः कषाय मात्र का प्रहण करना ठीक नहीं है।

    18. यद्यपि अव्रत में इन्द्रिय, कषाय और क्रियाएँ अन्तर्भूत हो सकती हैं किन्तु अव्रत की प्रवृत्ति में इन्द्रिय, कषाय और क्रियाएँ निमित्त हैं यह प्रवृत्ति-निमित्तता द्योतन करने के लिए इन्द्रिय, कषाय और क्रियाओं का पृथक् ग्रहण किया है।

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    + आस्रव में विशेषता -
    तीव्र-मंद-ज्ञाताज्ञात-भावाधिकरण-वीर्य-विशेषेभ्यस्तद्विशेष: ॥6॥
    अन्वयार्थ : तीव्र-भाव, मन्द-भाव, ज्ञात-भाव, अज्ञात-भाव, अधिकरण-विशेष और वीर्य-विशेष के भेद से उसकी (आस्रव की) विशेषता होती है ॥६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्र में जो भाव शब्द आया है वह सब शब्दों के साथ जोड़ लेना चाहिए । यथा – तीव्रभाव, मन्दभाव इत्यादि । इन सब कारणों से आस्रव में विशेषता आ जाती है, क्योंकि कारण के भेद से कार्य में भेद होता है ।

    पूर्व सूत्र में 'अधिकरण' पद आया है पर उसका स्वरूप अज्ञात है, इसलिए वह कहना चाहिए ? अब उसके भेदों के कथन द्वारा उसके स्वरूप का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं --

    राजवार्तिक :
    1-7. बाह्य और आभ्यन्तर कारणों से कषायों की उदीरणा होने पर अत्यन्त प्रवृद्ध परिणामों को तीव्र कहते हैं । इस से विपरीत अनुद्रिक्त परिणाम मन्द हैं। मारने के परिणाम न होने पर भी हिंसा हो जाने पर 'मैंने मारा' यह जान लेना ज्ञात है । अथवा, 'इस प्राणी को मारना चाहिए' ऐसा जानकर प्रवृत्ति करना ज्ञात है। मद या प्रमाद से गमनादि क्रियाओं में बिना जाने प्रवृत्ति करना अज्ञात है । अधिकरण अर्थात् आधारभूत द्रव्य । द्रव्य को शक्ति को वीर्य कहते हैं। 'भाव' शब्द प्रत्येक में लगा देना चाहिए-तीव्रभाव मन्दभाव ज्ञातभाव अज्ञातभाव आदि।

    8. भाव का अर्थ सत्ता नहीं है जिस से वह गोत्वादि की तरह तीव्र आदि का भेदक न हो सके; किन्तु भाव का अर्थ बौद्धिक व्यापार है। नोद्रव्यों के भाव दो प्रकार के हैं - एक परिस्पन्द रूप तथा दूसरा अपरिस्पन्द रूप । अपरिस्पन्द रूप भाव अस्तित्व आदि हैं, जो अनादि हैं । परिस्पन्दात्मक भाव उत्पाद और व्यय रूप हैं, जो कि आदिमान हैं । अपरिस्पन्द रूप भाव सामान्यात्मक है, वह तीव्र आदि का भेदक नहीं हो सकता परन्तु काम आदि की क्रियारूप जो भाव है वह कायादि के अस्तित्व और तीव्र आदि का भेदक होता ही है। तात्पर्य यह कि तीव्र आदि में बौद्धिक व्यापार से विशेषता होती है । अथवा, भाववाले आत्मा से अभिन्न होने के कारण तीव्र आदि भी भाव हैं । एक-एक कषायादि स्थान में असंख्यात-लोकप्रमाण भाव होते हैं। वे ही यहाँ विवक्षित हैं, एक सत्तारूप भाव नहीं।

    9-11. यद्यपि वीर्य-शक्ति आत्म-परिणामरूप है और वह जीवाधिकारण का परिणाम होने से 'अधिकरण' में ही गृहीत हो जाता है फिर भी शक्तिविशेष से हिंसा आदिमें विशेषता आती है और उससे आस्रवमें विशेषता आती है यह सूचन करने के लिए उस को ग्रहण किया है। वीर्यवान आत्मा के तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम आदि परिणाम होते हैं । आस्रव में फलभेद बताने के लिए ही तीव्र आदि का पृथक ग्रहण किया है, अन्यथा केवल 'अधिकरण' से ही सब कार्य चल सकता था, क्योंकि तीव्र आदि जीवाधिकरणरूप ही हैं। कारणभेद से कार्यभेद अवश्य होता है। अतः जब तीव्र आदि अनुभाग के भेद से आस्रव अनन्त प्रकार का हो गया तो उस के कार्यभूत शरीर आदि भी अनन्त ही प्रकार के होते हैं ।

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    + आस्रव का अधिकरण -
    अधिकरणं जीवाजीवा: ॥7॥
    अन्वयार्थ : अधिकरण जीव और अजीवरूप हैं ॥७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जीव और अजीव के लक्षण पहले कह आये हैं ।

    शंका – यदि इनके लक्षण पहले कह आये हैं तो फिर से इनका उल्लेख किस लिए किया ?

    समाधान – अधिकरण विशेष का ज्ञान कराने के लिए फिर से इनका उल्लेख किया है, जिससे जीव और अजीव अधिकरण हैं यह विशेष जताया जा सके ।

    शंका – वह कौन है ?

    समाधान – हिंसादि उपकरणभाव ।

    शंका – मूल पदार्थ दो हैं इसलिए 'जीवाजीवौ' इस प्रकार सूत्रमें द्विवचन रखना न्यायप्राप्ति है ?

    समाधान – यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उनकी पर्यायों को अधिकरण माना है। तात्पर्य यह है कि किसी एक पर्याय से युक्त द्रव्य अधिकरण होता है, केवल द्रव्य नहीं, इसलिए सूत्र में बहुवचन रखा है। जीव और अजीव किसके अधिकरण हैं ? आस्रव के। इस प्रकार प्रयोजन के अनुसार यहाँ आस्रव पद का सम्बन्ध होता है ।

    अब जीवाधिकरण के भेद दिखलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1-3. यद्यपि जीव और अजीव की व्याख्या हो चुकी है, फिर भी यहाँ अधिकरणविशेष रूप से उनका निर्देश किया गया है । हिंसा आदि के उपकरण रूप से जीव और अजीव ही अधिकरण होते हैं। 'अनन्तपर्यायविशिष्ट जीव और अजीव अधिकरण बनते हैं। इस बात की सूचना देने के लिए सूत्र में बहुवचन दिया गया है।

    4-5. 'जीव और अजीव ही अधिकरण' ऐसा समानाधिकरण अर्थ में समास करने पर जीवत्व और अजीवत्व से विशिष्ट अधिकरणमात्र की प्रतिपत्ति होगी, आस्रवविशेष का ज्ञान नहीं हो सकेगा । 'जीव और अजीव का अधिकरण' ऐसा भिन्नाधिकरणक पष्ठी समास करने पर भी जीव और अजीव के आधारमात्र का ही ज्ञान होगा आस्रवविशेष का नहीं। अतः प्रकृतपाठ ही ठीक है।

    'जीव और अजीव किस के अधिकरण हैं ? यह प्रश्न होने पर 'अर्थ के वश से विभक्ति का परिणमन होता है' इस नियम के अनुसार 'आस्रवस्य' यह आस्रव का सम्बन्ध हो जाता है । जैसे कि 'देवदत्त के ऊँचे मकान हैं उसे बुलाओ' यहाँ उस के साथ देवदत्त का कर्मकारक रूप से सम्बन्ध हो जाता है। दोनों अधिकरण दस प्रकार के हैं - विष, लवण, क्षार, कटुक, अम्ल, स्नेह, अग्नि और खोटे रूप से प्रयुक्त मन-वचन और काय ।

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    + जीवाधिकरण -
    आद्यं संरम्भ-समारम्भारम्भयोग कृत-कारितानुमत-कषाय-विशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रि-श्चतुश्चैकश: ॥8॥
    अन्वयार्थ : पहला जीवाधिकरण संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ के भेद से तीन प्रकार का, योगों के भेद से तीन प्रकार का; कृत, कारित और अनुमत के भेद से तीन प्रकार का तथा कषायों के भेद से चार प्रकार का होता हुआ परस्पर मिलाने से एक सौ आठ प्रकार का है ॥८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    प्रमादी जीव का प्राणों की हिंसा आदि कार्य में प्रयत्नशील होना संरम्भ‍ है ।

    साधनों का जुटाना समारम्भ है ।

    कार्य करने लगना आरम्भ है ।

    योग शब्द का व्याख्यान पहले कर आये हैं ।

    कर्ता की कार्य विषयक स्वतन्त्रता दिखलाने के लिए सूत्रमें कृत वचन रखा है ।

    कार्य में दूसरे प्रयोग की अपेक्षा दिखलाने के लिए कारित वचन रखा है ।

    तथा प्रयोजक के मानस परिणाम को दिखलाने के लिए अनुमत शब्द रखा है ।

    क्रोधादि कषायों के लक्षण कहे जा चुके हैं । जिससे एक अर्थ दूसरे अर्थ से विशेषता को प्राप्त हो वह विशेष है । इसे प्रत्येक शब्द के साथ जोड़ लेना चाहिए यथा संरम्भविशेष, समारम्भविशेष आदि। यहाँ 'भिद्यते' यह वाक्यशेष है जिससे यह अर्थ होता है कि पहला जीवाधिकरण इन विशेषताओं से भेद को प्राप्त होता है । सुच् प्रत्ययान्त ये चारों 'तीन' आदि शब्द‍ क्रम से सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं । यथा - संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ ये तीन; योग तीन; कृत, कारित और अनुमत ये तीन और कषाय चार । इनके गणना की पुनरावृत्ति 'सुच्' प्रत्यय-द्वारा प्रकट की गयी है। 'एकश:' यह वीप्सा में निर्देश है । तात्पर्य यह है कि तीन आदि भेदों को प्रत्येक के प्रति लगा लेना चाहिए । जैसे क्रोध-कृत-काय-संरम्भ, मान-कृत-काय-संरम्भ, माया-कृत-काय-संरम्भ, लोभ-कृत-काय-संरम्भ, क्रोध-कारित-काय-संरम्भ, मान-कारित-काय-संरम्भ, माया-कारित-काय-संरम्भ, लोभ-कारित-काय-संरम्भ, क्रोधानुमत-काय-संरम्भ, मानानुमत-काय-संरम्भ, मायानुमत-काय-संरम्भ, लोभानुमत-काय-संरम्भ । इसप्रकार काय-संरम्भ बारह प्रकार का है । इसी प्रकार वचनयोग और मनोयोग की अपेक्षा संरम्भ बारह-बारह प्रकार का है । ये सब मिला कर छत्तीस भेद होते हैं । इसी प्रकार समारम्भ और आरम्भ के भी छत्तीस-छत्तीस भेद होते हैं । ये सब मिल कर जीवाधिकरण के 108 भेद होते हैं । 'च' शब्द अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलनरूप कषायों के अवान्तर भेदों का समुच्चय करने के लिए दिया है ।


    अब दूसरे अजीवाधिकरण के भेदों का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1. यद्यपि आगे के सूत्र में 'पर' शब्द देने से यह अर्थात् सिद्ध हो जाता है कि इस सूत्र में आद्य जीवाधिकरण का वर्णन है फिर भी स्पष्ट अर्थबोध के लिए इस सूत्र में 'आद्य पद दे दिया है।

    2-17. प्रमादवान् पुरुष का प्राणघात आदि के लिए प्रयत्न करने का संकल्प संरम्भ है। उसके साधनों का इकट्ठा करना समारम्भ है। कार्य को शुरू कर देना आरम्भ है। ये तीनों शब्द भावसाधन हैं। योग शब्द का व्याख्यान प्रथमसूत्र में किया जा चुका है। आत्मा ने जो स्वतन्त्र भाव से किया वह कृत है। दूसरे के द्वारा कराया गया कारित है। करनेवाले के मानस-परिणामों की स्वीकृति अनुमत है । जैसे कोई मौनी व्यक्ति किये जानेवाले कार्य का यदि निषेध नहीं करता तो वह उसका अनुमोदक माना जाता है उसी तरह करानेवाला प्रयोक्ता होने से और उन परिणामों का समर्थक होने से अनुमोदक है । क्रोधादि कषायें कही जा चुकी हैं। विशेष शब्द का प्रत्येक में अन्वय कर लेना चाहिए और यहाँ 'भिद्यते' क्रिया पद का अध्याहार करके 'विशेषै:' निर्देश की सार्थकता समझ लेनी चाहिए, क्योंकि कर्ता और करण का निर्देश क्रियापद के होनेपर ही सार्थक होता है । जैसे 'शंकुलया खंडः' में अप्रयुक्त 'कृत' क्रिया की अपेक्षा निर्देश है वैसे यहाँ भी समझना चाहिए। अथवा, 'पूर्वस्य भेदाः' इस सूत्रांश में भेद शब्द का अधिकार चला आ रहा है, उसकी अपेक्षा 'विशेषैः' में करण निर्देश उपयुक्त है। त्रि-त्रि आदि सुजन्त संख्याशब्दों का क्रमशः सम्बन्ध कर लेना चाहिए। एकशः वीप्सार्थक निर्देश है अर्थात् एक-एक के भेद समझना चाहिए।

    18-19. संरम्भ आदि तीन वस्तुवाची हैं अतः इनका प्रथम ग्रहण किया है, बाकी वस्तु के भेद हैं। योग आदि का आनुपूर्वी से कथन पूर्व और उत्तर दोनों के विशेषणार्थ है। तात्पर्य यह कि - क्रोधादि चार और कृत आदि तीन के भेद से कायादि योगों के संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ से विशिष्ट करने पर प्रत्येक के छत्तीस-छत्तीस भेद होते हैं। क्रोध-कृत-काय-संरम्भ, मान-कृत-काय-संरम्भ, माया-कृत-काय-संरम्भ, लोभ-कृत-काय-संरम्भ, क्रोध-कारित-काय-संरम्भ, मान-कारित-काय-संरम्भ, माया-कारित-काय-संरम्भ, लोभ-कारित-काय-संरम्भ, क्रोधानुमत-काय-संरम्भ, मानानुमत-काय-संरम्भ, मायानुमत-काय-संरम्भ और लोभानुमत-काय-संरम्भ । इस प्रकार संरम्भ बारह प्रकार का है। समारम्भ-आरम्भ भी इसी तरह बारह-बारह प्रकार के होकर कुल छत्तीस प्रकार काययोग के होते हैं। इसी तरह वचन और मन के भी छत्तीस-छत्तीस प्रकार मिलकर कुल 108 प्रकार जीवाधिकरण के होते हैं । कहा भी है - "क्रोध आदि और कृत आदि के द्वारा काय संरम्भ 12 प्रकार का है और समारम्भ तथा आरम्भ भी इसी प्रकार बारह-बारह प्रकार का होता है । इस तरह कुल छत्तीस भेद हो जाते हैं।"

    20-21. च शब्द से क्रोधादि के अन्य विशेषों का भी संग्रह हो जाता है। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन से उक्त भेदों को गुणा करने पर कुल 432 भेद हो जाते हैं। जैसे नीले रंग में डाला गया वस्त्र नीलरंग से नील हो जाता है उसी तरह संरम्भ आदि क्रियाएँ अनन्तानुबन्धी आदि कषायों से अनुरंजित होती हैं । अतः ये भी जीवाधिकरण हैं।

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    + अजीवाधिकरण -
    निर्वर्तना-निक्षेप-संयोग-निसर्गा द्विचतुर्द्वि-त्रिभेदा: परम् ॥9॥
    अन्वयार्थ : पर अर्थात् अजीवाधिकरण क्रम से दो, चार, दो और तीन भेदवाले निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग और निसर्गरूप है ॥९॥

    राजवार्तिक :
    1-3 निर्वर्तना आदि शब्द कर्मसाधन और भावसाधन दोनों हैं। जब निर्वर्तना आदि शब्द कर्मसाधन हैं तब 'निर्वर्तना ही अधिकरण' ऐसा सामानाधिकरण्य रूप से अधिकरण शब्द का सम्बन्ध कर लेना चाहिए। जिस समय भावसाधन होते हैं तब 'विशिष्यन्ति' क्रिया का अध्याहार करके 'निर्वर्तना आदि भाव पर अधिकरण को विशिष्ट करते हैं' ऐसा भिन्नाधिकरण रूप से अधिकरण शब्द का सम्बन्ध कर लेना चाहिए। निर्वर्तना-उत्पत्ति, निसर्ग-स्थापना, संयोगमिलाना और निसर्ग-प्रवृत्ति । 'द्वि चतुर आदि हैं भेद जिसके' ऐसा द्वन्द्वगर्भ बहुव्रीहि समास 'द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः' में समझना चाहिए।

    4-11. प्रश्न – इस सूत्र में 'पर' शब्द निरर्थक है क्योंकि पहिले सूत्र में 'आद्य' शब्द देने से अर्थात् ही यह 'पर' सिद्ध हो जाता है या फिर प्रथम सूत्र में 'आद्य' शब्द व्यर्थ है क्योंकि सारा प्रयोजन अर्थापत्ति से सिद्ध हो जाता है। अर्थापत्ति को अनैकान्तिक कहना उचित नहीं है क्योंकि 'अहिंसा धर्म है' यह कहने से जिस प्रकार 'हिंसा अधर्म है' यह सिद्ध होता ही है उसी तरह मेघ के अभाव में वृष्टि नहीं होती' यह कहने से 'मेघ के होने पर वृष्टि होती है' यह भी सिद्ध होता ही है। कभी मेघ के होने पर भी वृष्टि के न देखे जाने से इतना ही कह सकते हैं कि वृष्टि 'मेघ के होने पर ही होगी' अभाव में नहीं। 'पर शब्द यदि न दिया जायगा तो यह सूत्र असम्बद्ध हो जायगा' यह भी समाधान ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ कोई निवर्त्य नहीं है। आद्य जीवाधिकरण का तो संरम्भ आदि से सम्बन्ध हो ही गया है। अतः परिशेष न्याय से ये अजीवाधिकरण हो ही जाते हैं। पर शब्द को प्रकृष्टवाची कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि जीवाधिकरण निकृष्ट तो है नहीं जिसका प्रकृष्ट अजीवाधिकरण से वारण किया जाय । इसी तरह पर शब्द को 'पर धाम को गये' अर्थात् इष्ट धाम को गये इसकी तरह इष्टवाची भी नहीं कह सकते क्योंकि यहाँ अनिष्ट क्या है जिसकी निवृत्ति के लिए पर शब्द को इष्टवाची कहा जाय ?

    उत्तर – पर शब्द भिन्नार्थक है अर्थात् संरम्भ आदि से निर्वर्तना आदि भिन्न हैं। अन्यथा निर्वर्तना को भी आत्मपरिणामरूपता आ जाने से जीवाधिकरणत्व का प्रसंग प्राप्त होता। अथवा, पहिले कह दिया है कि आद्य की तरह 'पर' शब्द भी स्पष्ट अर्थबोध कराने के लिए है।

    12. पाँच प्रकार के शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वास मूलगुण निर्वर्तना हैं और काष्ठ, पुस्तक, चित्रकर्म आदि उत्तरगुण निर्वर्तना हैं।

    13. अप्रत्यवेक्षित, दुष्प्रमृष्ट, सहसा और अनाभोग के भेद से निक्षेप चार प्रकार का है।

    14. भक्तपानसंयोग और उपकरणसंयोग के भेद से संयोग दो प्रकार का है।

    15. मन वचन और काय के भेद से निसर्ग तीन प्रकार का है।

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    + ज्ञान-दर्शनावरण के आस्रव -
    तत्प्रदोष-निह्नव-मात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञान-दर्शनावरणयो: ॥10॥
    अन्वयार्थ : ज्ञान और दर्शन के विषय में प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव हैं ॥१०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    तत्त्वज्ञान मोक्ष का साधन है उसका गुणगान करने पर उस समय नहीं बोलनेवाले के जो भीतर पैशुन्यरूप परिणाम होता है वह प्रदोष है ।

    किसी कारण से 'ऐसा नहीं है, मैं नहीं जानता' ऐसा कहकर ज्ञान का अपलाप करना निह्नव है ।

    विज्ञान का अभ्यास किया है वह देने योग्य भी है तो जिस कारण से वह नहीं दिया जाता है वह मात्सर्य है ।

    ज्ञान का विच्छेद करना अन्तराय है ।

    दूसरा कोई ज्ञान का प्रकाश कर रहा हो तब शरीर या वचन से उसका निषेध करना आसादन है ।

    प्रशंसनीय ज्ञान में दूषण लगाना उपघात है ।

    शंका – उपघात का जो लक्षण किया है उससे वह आसादन ही ज्ञात होता है ?

    समाधान – प्रशस्त ज्ञान की विनय न करना, उसकी अच्छाई की प्रशंसा न करना आदि आसादन है । परन्तु ज्ञान को अज्ञान समझकर ज्ञान के नाश का इरादा रखना उपघात है इस प्रकार इन दोनों में अन्तर है । सूत्रमें 'तत्' पद ज्ञान और दर्शन का निर्देश करने के लिए दिया है ।

    शंका – ज्ञान और दर्शन अप्रकृत हैं, तथा उनका निर्देश भी नहीं किया है, फिर यहाँ 'तत्' शब्द के द्वारा उनका ज्ञान कैसे हो सकता है ?

    समाधान – प्रश्न की अपेक्षा अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शनावरण का क्या आस्रव है ऐसा प्रश्न करने पर उसकी अपेक्षा 'तत्' शब्द ज्ञान और दर्शन का निर्देश करता है । इससे यह अभिप्राय निकला कि ज्ञान और दर्शनवालों के विषय में तथा उनके साधनों के विषय में प्रदोषादिक की योजना करनी चाहिए, क्योंकि ये उनके निमित्तसे होते हैं । ये प्रदोषादिक ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के आस्रव के कारण हैं । एक कारण से भी अनेक कार्य होते हुए देखे जाते हैं, इसलिए प्रदोषादिक के एक समान रहते हुए भी इनसे ज्ञानावरण और दर्शनावरण दोनों का आस्रव सिद्ध होता है । अथवा विषय के भेद से आस्रवमें भेद होता है । ज्ञान-सम्बन्धी प्रदोषादिक ज्ञानावरणके आस्रव हैं और दर्शनसम्बन्धी प्रदोषादिक दर्शनावरणके आस्रव हैं ।

    जिस प्रकार इन दोनों कर्मों का आस्रव अनेक प्रकार का है उसी प्रकार-

    राजवार्तिक :
    1-7. ज्ञान-कथा के समय मुँह से कुछ न कहकर भीतर-ही भीतर ईर्ष्या के परिणाम होना प्रदोष है। किसी बहाने से 'नहीं है, नहीं जानता' इत्यादि रूप से ज्ञान का लोप करना निह्नव है। देने योग्य ज्ञान को भी किसी बहाने से न देना मात्सर्य है। कलुषता से ज्ञान का व्यवच्छेद करना अन्तराय है। दूसरे के द्वारा प्रकाशित ज्ञान का काय या वचन के द्वारा वृर्जन करना आसादन है। बुद्धि और हृदय की कलुषता से प्रशस्त ज्ञान में दूषण लगाना उपघात है। आसादन में विद्यमान ज्ञान का विनय, प्रकाशन, गुणकीर्तन आदि न करके अनादर किया जाता है और उपघात में ज्ञान को अज्ञान ही कहकर ज्ञान का नाश किया जाता है।

    8-9. तत् शब्द से ज्ञान और दर्शन का ग्रहण किया जाता है अर्थात् ज्ञान और दर्शन के प्रदोष, निह्नव आदि ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव के कारण होते हैं । 'ज्ञानदर्शनावरणयोः' कहने से ज्ञात होता है कि प्रदोष आदि ज्ञान और दर्शन सम्बन्धी हैं। इसी तरह ज्ञान दर्शनवालों के प्रदोष आदि और ज्ञानदर्शन के साधनों के प्रदोष आदि भी 'तत्प्रदोष' शब्द से ग्रहण कर लेने चाहिये।

    10-11. प्रश्न – ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव के कारण तुल्य हैं अतः दोनों को एक ही कहना चाहिए। जिनके कारण तुल्य होते हैं वे एक होते हैं।

    उत्तर – तुल्य कारण होने से कार्यक्य माना जाय तो जब वचन के कारण कण्ठ, ओंठ आदि तुल्य हैं तो प्रत्येक वचन को या तो साधक होना चाहिए या दूषक ही। इस तरह स्व-वचनविरोध ही हो जायगा। यदि एक हेतु के होने पर भी वचन स्वपक्ष के ही साधक तथा परपक्ष के ही दूषक होते है तो 'तुल्यहेतु होने से कार्यक्य होता है' इस वचन का विरोध हो जायगा। इस पक्ष में दृष्ट और आगम दोनों से ही विरोध आता है। एक मिट्टी के पिण्ड से ही घट, घटी, शराव, उदञ्चन-सकोरा आदि अनेक कार्यों की प्रत्यक्षसिद्धि है। इस तरह सभी के आगमविरोध दोष का प्रसंग होता है।

    12-16. आवरण के अत्यन्त संक्षय होने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन सूर्य के प्रताप और प्रकाश की तरह प्रकट हो जाते हैं अतः इनमें तुल्य कारणों से आस्रव मानना उचित है। सावरण व्यक्ति के ज्ञान और दर्शन की क्रमशः प्रवृत्ति होती है। जैसे गरम जल में वर्तमान अग्नि का ताप प्रकट है प्रकाश प्रकट नहीं है और प्रदीप के प्रकाश में प्रकाश प्रकट है प्रताप प्रकट नहीं है उसी तरह छद्मस्थ के जब ज्ञानोपयोग होता है तब दर्शनोपयोग नहीं होता और जब दर्शनोपयोग होता है तब ज्ञानोपयोग नहीं। जैसे मेघपलट के हटने पर सूर्य का जहाँ प्रकाश है वहाँ प्रताप है और जहाँ प्रताप है वहाँ प्रकाश है उसी तरह निरावरण अचिन्त्य-माहात्म्यशाली केवलीसूर्य के समस्त विषयक ज्ञान और दर्शन होते हैं, जहाँ ज्ञान है वहाँ दर्शन है और जहाँ दर्शन है वहाँ ज्ञान है अतः यह शंका निर्मूल हो जाती है कि - "ज्ञान अस्पृष्ट और अविषय में भी प्रवृत्ति करता है पर दर्शन स्पृष्ट और विषय में ही चूँकि अतीत और अनागत विनष्ट और अनुत्पन्न होने से स्पृष्ट और विषय नहीं हो सकते अतः तद्विषयक ज्ञान ही हो सकता है दर्शन नहीं। अतः केवली को अतीतानागतदर्शी नहीं कह सकते"; जैसे केवली असद्भुत और अनुपदिष्ट को जानते हैं उसी तरह देखते भी हैं इसमें क्या बाधा है ? जैसे सावरण को अस्पृष्ट और अविषय में बिना उपदेश के ज्ञान नहीं होता क्या उसी तरह केवली को भी मानते हो ? यदि नहीं, तो जैसे सावरण व्यक्ति को स्पृष्ट और विषय में दर्शन होता है उस तरह केवली के नहीं माना जा सकता। अतः केवली को त्रिकालगोचर दर्शन मानना उचित है।

    17. यद्यपि अवधिज्ञानीक आवरण है फिर भी अवधिदर्शनावरण का क्षयोपशम अन्य कारणों की अपेक्षा नहीं करता अतः बिना उपदेश के ही अवधिदर्शन की केवल दर्शन की तरह अतीत और अनागत में भी प्रवृत्ति होती है अतः अस्पृष्ट और अविषय का भी अवधिदर्शन सिद्ध है।

    18-19. चूंकि चार ही दर्शनावरण बताये हैं, इस लिए मनःपर्यय दर्शनावरण का क्षयोपशमरूप निमित्त न होने से मनःपर्यय दर्शन नहीं होता । मनःपर्ययज्ञान अवधिज्ञान की तरह स्वमुख से विषयों को नहीं जानता किन्तु परकीय मनप्रणाली से जानता है । अतः मन जैसे अतीत और अनागत अर्थों का विचार-चिन्तन तो करता है. देखता नहीं है उसी तरह मनःपर्ययज्ञानी भी भूत और भविष्यत् को जानता है, देखता नहीं । वह वर्तमान भी मन को विषयविशेषाकार से जानता है अतः सामान्यावलोकन पूर्वक प्रवृत्ति न होने से मनःपर्ययदर्शन नहीं बनता।

    20. अथवा, ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव के कारण भिन्न-भिन्न ही समझने चाहिए क्योंकि विषयभेद से प्रदोष आदि भिन्न हो जाते हैं। ज्ञानविषयक प्रदोष आदि ज्ञानावरण के और दर्शनविषयक प्रदोष आदि दर्शनावरण के आस्रव के कारण होते हैं। इसी तरह आचार्य और उपाध्याय के प्रतिकूल चलना, अकाल अध्ययन, अश्रद्धा, अभ्यास में आलस्य करना, अनादर से अर्थ सुनना, तीर्थोपरोध-दिव्यध्वनि के समय स्वयं व्याख्या करने लगना, बहुश्रुतपने का गर्व, मिथ्योपदेश, बहुश्रुत का अपमान करना, स्वपक्ष का दुराग्रह, स्वपक्ष के दुराग्रहवश असम्बद्ध प्रलाप करना, सूत्रविरुद्ध बोलना, असिद्ध से ज्ञान प्राप्ति, शास्त्रविक्रय और हिंसा आदि ज्ञानावरण के आस्रव के कारण हैं । दर्शनमात्सर्य, दर्शनअन्तराय, आँखें फोड़ना, इन्द्रियों के विपरीत प्रवृत्ति, दृष्टि का गर्व, दीर्घ-निद्रा, दिन में सोना, आलस्य, नास्तिकता, सम्यग्दृष्टि में दूषण लगाना, कुतीर्थ की प्रशंसा, हिंसा और यतिजनों के प्रति ग्लानि के भाव आदि भी दर्शनावरण के आस्रव के कारण है। इस तरह इनके आस्रव के कारणों में भेद है।

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    + असाता वेदनीय कर्म के आस्रव -
    दु:ख-शोक-तापाक्रन्दन-वध-परिदेवनान्यात्म-परोभय-स्थानान्यसद्वेद्यस्य ॥11॥
    अन्वयार्थ : अपने में, दूसरे में या दोनों में विद्यमान दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन ये असाता वेदनीय कर्म के आस्रव हैं ॥ ११ ॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    पीड़ारूप आत्माका परिणाम दुःख है ।

    उपकार करने वाले का सम्बन्ध टूट जाने पर जो विकलता होती है वह शोक है ।

    अपवाद आदि के निमित्त से मन के खिन्न होने पर जो तीव्र अनुशय-संताप होता है वह ताप है ।

    परिताप के कारण जो आँसू गिरने के साथ विलाप आदि होता है, उससे खुलकर रोना आक्रन्दन है ।

    आयु, इन्द्रिय, बल और श्वासोच्छ्वास का जुदा कर देना वध है ।

    संक्लेशरूप परिणामों के होने पर गुणों का स्मरण और प्रशंसा करते हुए अपने और दूसरे के उपकार की अभिलाषा से करुणाजनक रोना परिदेवन है ।

    शंका – शोकादिक दुःख के भेद हैं, इसलिए दुःख का ग्रहण करना पर्याप्त है ?

    समाधान – यह कहना सही है तो भी यहाँ कुछ भेदों का कथन करके दुःख की जातियाँ दिखलायी हैं । जैसे गौ ऐसा कहने पर अवान्तर भेदों का ज्ञान नहीं होता, इसलिए खांडी, मुंडी, काली, सफेद आदि विशेषण दिये जाते हैं उसी प्रकार दुःखविषयक आस्रव असंख्यात लोकप्रमाण संभव हैं । परन्तु दुःख इतना कहने पर सब भेदों का ज्ञान नहीं होता अतएव कुछ भेदों का उल्लेख करके उनको पृथक्-पृथक् जान लिया जाता है । क्रोधादिक के आवेशवश ये दुःखादिक कभी अपने में होते हैं, कभी दूसरों में होते हैं और कभी दोनों में होते हैं । ये सब असाता वेदनीय के आस्रव के कारण जानने चाहिए ।

    शंका – यदि अपने में, पर में या दोनों में स्थित दुःखादिक असातावेदनीय के आस्रव के कारण हैं तो अरिहंत के मत को मानने वाले मनुष्य दुःख को पैदा करने वाले केशलोंच, अनशन और आतपस्थान (आतापनयोग) आदि में क्यों विश्वास करते हैं और दूसरों को इनका उपदेश क्यों देते हैं ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है ; क्योंकि अन्तरंग में क्रोधादिक के आवेश से जो दुःखादिक पैदा होते हैं वे असातावेदनीय के आस्रव के कारण हैं इतना यहाँ विशेष कहा है । जैसे अत्यन्त दयालु किसी वैद्य के फोड़े की चीर-फाड़ और मरहमपट्टी करते समय निःशल्य संयत को दुःख देने में निमित्त होने पर भी केवल बाह्य निमित्त मात्रसे पापबन्ध नहीं होता उसी प्रकार जो भिक्षु संसार-सम्बन्धी दुःखसे उद्विग्न है और जिसका मन उसके दूर करने के उपायों में लगा हुआ है उसके शास्त्रविहित कर्म में प्रवृत्ति करते समय संक्लेशरूप परिणामों के नहीं होने से पापबन्ध नहीं होता । कहा भी है - “ जिस प्रकार चिकित्सा के साधन न स्वयं दुःखरूप देखे जाते हैं और न सुखरूप, किन्तु जो चिकित्सा में लग रहा है उसे दुःख भी होता है और सुख भी । उसी प्रकार मोक्ष-साधन के जो हेतु हैं वे स्वयं न दुःखरूप हैं और न सुखरूप किन्तु जो मोक्षमार्ग पर आरूढ़ है उसे दुःख भी होता है और सुख भी ।”

    असातावेदनीय के आस्रव के कारण कहे, परन्तु सातावेदनीय के आस्रव के कारण कौन हैं ? इसी बात को बतलाने के लिए अब आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-8. विरोधी पदार्थों का मिलना, इष्ट का वियोग, अनिष्टसंयोग और निष्ठुर वचन आदि बाह्य कारणों की अपेक्षा से तथा असाता वेदनीय के उदय से होने वाला पीडा-लक्षण परिणाम दुःख है । अनुग्रह करनेवाले बन्धु आदि से विच्छेद हो जाने पर उसका बार-बार विचार करके जो चिन्ता, खेद और विकलता आदि मोह-कर्मविशेष-शोक के उदय से होते हैं वे शोक हैं । परिभवकारी कठोरवचन के सुनने आदि से कलुष चित्तवाले व्यक्ति के जो भीतर-ही-भीतर तीव्र जलन या अनुशयपरिणाम होते हैं वे ताप हैं । परिताप के कारण अश्रुपात अंगविकार-माथा फोड़ना, छाती कूटना आदि पूर्वक जो रोना है वह आक्रन्दन है । आयु, इन्द्रिय, बल और प्राण आदि का विघात करना वध है। अतिसंक्लेशपूर्दक ऐसा रोना-पीटना जिसे सुनकर स्वयं अपने तथा दूसरे को दया आ जाय, परिदेवन है । यद्यपि ये सभी दुखाजातीय हैं; क्योंकि दुःख के ही असंख्यात भेद होते हैं, फिर भी यहाँ कुछ मुख्य-मुख्य भेदों का निर्देश कर दिया है। जैसे कि गौ असंख्य प्रकार की होती हैं और केवल गौ कहने से सबका ज्ञान नहीं हो पाता अतः खण्डी, मुण्डी, शाबलेय आदि कुछ विशेष दिखा दिये जाते हैं। अथवा, जैसे मृत्पिण्ड, घट, कपाल आदि मूर्तिमान रूपीद्रव्य की दृष्टि से एक होकर भी प्रतिनियत आकार आदि पर्यायार्थिक दृष्टि से भिन्न हैं उसी तरह अप्रीतिसामान्य की दृष्टि से दुःखादि में एकत्व होनेपर भी विभिन्न कारणों से उत्पन्न और अभिव्यक्त पर्यायों की दृष्टि से वे जुदा-जुदा हैं।

    9. जिस समय पर्याय और पर्यायी की अभेद विवक्षा होती है उस समय गरमलोह-पिण्ड की तरह तप से परिणमन करने के कारण आत्मा ही दुःखयति-दुःख आदिरूप होती है, अतः दुःखादि शब्द कर्तृसाधन में निष्पन्न होते हैं और जब पर्याय और पर्यायी की भेदविवक्षा होती है तब दुःखादि शब्द 'दुःख हो जिसके द्वारा या जिसमें' अथवा 'दुःखनमात्र दुःख' इस प्रकार करणसाधन और भावसाधन होते हैं।

    10. सर्वथा एकान्त-पक्ष में दुःख आदि की कर्ता आदि साधनों में व्युत्पत्ति नहीं बन सकती; क्योंकि इसमें दूसरे पक्ष का संग्रह नहीं हो पाता । यदि पर्यायमात्र ही माना जाय और आत्मद्रव्य की सत्ता न मानी जाय तो विज्ञान आदि में 'करण' व्यवहार ही नहीं हो सकता; क्योंकि कोई कर्ता ही नहीं है। स्वातन्त्र्य-शक्तिविशिष्ट कर्ता की अपेक्षा ही शेष कर्म करण आदि कारक बनते हैं। कर्ता के अभाव में उनका भी अभाव हो जायगा। कर्तृसाधनता भी नहीं बनती; क्योंकि यहाँ करण आदि सहकारियों की अपेक्षा नहीं है । विज्ञान आदि जब युगपत् उत्पन्न होते हैं तो दायें-बायें सींग की तरह परस्पर सहकारिभाव नहीं बन सकता । अतीत और अनागत चूँकि असत् हैं, अतः उनका भी वर्तमान के प्रति सहकारिभाव नहीं हो सकता। जब विज्ञान आदि क्षणिक हैं तो पूर्वानुभूत की स्मृति आदि नहीं होंगी, और तब पूर्वविनष्ट अर्थ के विचार से होनेवाले शोक आदि कैसे होंगे ? क्षणिकवाद में स्मृति आदि तो हो ही नहीं सकते । सन्तान अवस्तु है अतः उसकी अपेक्षा भी स्मरणादि की कल्पना नहीं जमती। भाववान् के बिना भावसाधन की बात करना भी निरर्थक ही है।

    यदि द्रव्यमात्र ही स्वीकार किया जाता है, उसमें क्रिया या गुण आदि परिणमन नहीं होते, वह सर्वथा निर्गुण और निष्क्रिय है तो सुख-दुःख आदि पर्यायों के प्रति कर्ता कैसे हो सकता है ? इसी तरह अचेतन प्रधान भी दुःख आदि पर्यायों का कर्ता नहीं हो सकता; क्योंकि घटादि अचेतनों में दुःख आदि नहीं देखे जाते । यदि अचेतन में भी सुख-दुःख आदि माने जायँ तो चेतन और अचेतन में कुछ अन्तर ही नहीं रहेगा। निष्क्रिय द्रव्य के अधर्मनिमित्तक दुःख आदि की कल्पना भी ठीक नहीं है क्योंकि निष्क्रिय द्रव्य के धर्म और अधर्म की उत्पत्ति नहीं हो सकती और न उसके कर्मफल का अनुभव ही हो सकता है।

    11. ये दुःखादि क्रोधादि के आवेश के कारण आत्मा पर और उभय में होते हैं। जब क्रोधादि से आविष्ट आत्मा अपने में दुःख आदि उत्पन्न करता है तब वे आत्मस्थ होते हैं और जब समर्थ व्यक्ति पर में दुख आदि उत्पन्न करता है तब वे परस्थ होते हैं और जब साहुकार कर्जदार से ऋण वसूल करने जाते हैं तब दोनों को ही भूख-प्यास आदि के कारण दुःख आदि होते हैं तब ये उभयस्थ होते हैं।

    12-13. विद्, विद्लृ, विन्ति और विद्यति ये चार विद् धातुएँ क्रमशः ज्ञान, लाभ, विचार और सद्भाव अर्थ को कहती हैं। यहाँ चेतनार्थक विद् धातु से चुरादिण्यन्त प्रत्यय करके वेध शब्द बना है। अनिष्ट-फल उत्पन्न करने के कारण वह अप्रशस्त है, अतः असद्वेद्य कहा जाता है।

    14-15. प्रधान होने से दुःख का ग्रहण सर्वप्रथम किया है, शेष शोक आदि इसी के विकल्प हैं। शोकादि का ग्रहण दुःख के विकल्पों के उपलक्षणरूप है, अतः अन्य विकल्पों का भी संग्रह हो जाता है। अतः अशुभप्रयोग, परपरिवाद, पैशुन्यपूर्वक अनुकम्पाभाव, परपरिताप, अंगोपांगच्छेद, भेद, ताडन, त्रासन, तर्जन, भर्त्सन, तक्षण, विशंसन, बन्धन, रोधन, मर्दन, दमन, वाहन, विहेडन, ह्वेपण, शरीर को रूखा कर देना, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, संक्लेशप्रादर्भावन, जीवन को यों ही बरबाद करना, निर्दयता, हिंसा, महाआरम्भ, महापरिग्रह, विश्वासघात, कुटिलता, पापकर्मजीवित्व, अनर्थदण्ड, विषमिश्रण, बाण जाल पाश रस्सी पिंजरा यन्त्र आदि हिंसा के साधनों का उत्पादन, जबरदस्ती शस्त्र देना और दुःखादि पापमिश्रित भाव आदि भी गृहीत हो जाते हैं । ये आत्मा पर और उभय में रहनेवाले आसातावेदनीय के आस्रव के कारण होते हैं ।

    16-21. प्रश्न – यदि दुःख के कारणों से असातावेदनीय का आस्रव होता है तो नग्न रहना केशलुंचन और अनशन आदि तपों का उपदेश भी दुःख के कारणों का उपदेश हुआ, अतः तीर्थंकरों को उसका उपदेश नहीं करना चाहिए ?

    उत्तर – यह प्रश्न ही नहीं हो सकता; यतः जैन तो प्रश्न कर नहीं सकते क्योंकि स्वतीर्थंकरों के उपदेश का व्याघात हो जाता है । बौद्धों के मत में जब सभी पदार्थ दुःख शून्य और अनात्मक रूप हैं तब हिंसादि की तरह दानादि में भी दुःखहेतुता ही रहेगी और इसलिए इनका उपदेश भी अकुशल का ही उपदेश कहा जायगा। इसी तरह अन्य मतवादियों को भी यम नियम परिपालन, विविध वेष, अनुष्ठान, दुश्चर उपवास, ब्रह्मचर्यवास आदि का दुःखहेतु होने से अनुष्ठान नहीं करना चाहिए और न उपदेश देना चाहिए; क्योंकि सभी वादी हिंसा आदि को दुःखहेतु होने से पापास्रव का कारण मानते ही हैं । सत्य बात तो यह है कि - क्रोधादि के आवेश के कारण द्वेषपूर्वक होनेवाले स्व, पर और उभय के दुःख आदि पापास्रव के हेतु होते है न कि स्वेच्छा से आत्मशुद्धयर्थ किये जानेवाले तप आदि । जैसे अनिष्टद्रव्य के सम्पर्क से द्वेषपूर्वक दुःख उत्पन्न होता है उस तरह बाह्य और अभ्यन्तर तप की प्रवृत्तिमें धर्मध्यानपरिणत मुनि के अनशन केशलुंचन आदि करने या कराने में द्वेष की सम्भावना नहीं है अतः असाता का बन्ध नहीं होता। जिस प्रकार यति अहिंसा आदि करने और कराने में प्रसन्न होता है उसी तरह उपवास आदि करने और कराने में उसे प्रसन्नता ही होती है। अतः अनशन आदि तप दुःखरूप नहीं हैं। जब मुनियों को किसी भी कारण से कभी भी क्रोधादि के उत्पन्न होने पर उसके परिमार्जन के लिए प्रायश्चित्त करना पड़ता है तब यति को अनशन आदि तपविधि में क्रोधादि परिणामों की सम्भावना ही नहीं की जा सकती, जिससे असाता का आस्रव माना जाय ।

    जैसे वैद्य करुणाबुद्धि से रोगी के फोड़े की शल्य क्रिया करके भी क्रोधादि न होने से पापबन्ध नहीं करता उसी तरह अनादिकालीन सांसारिक जन्ममरण की वेदना को नाश करने की इच्छा से तप आदि उपायों में प्रवृत्ति करनेवाले यति के कार्यों में स्वपर-उभय में दुःखहेतुता दिखनेपर भी क्रोधादि न होने के कारण वह पाप का बन्धक नहीं होता । मनोरति को सुख कहते हैं। जैसे अत्यन्त दुःखी भी संसारी जीवों का जिन पदार्थों में मन रम जाता है वे ही सुखकारक होते हैं, उसी तरह यति का मन अनशन आदि करने में रमता है, प्रसन्न होता है अतः वह दुःखी नहीं है और इसीलिए असाता का बन्धक नहीं है । कहा भी है - "नगर हो या वन, स्वजन हो या परजन, महल हो या पेड़ की खोह, प्रिया की गोद हो या शिलातल, वस्तुतः मनोरति को ही सुख कहते हैं। जहाँ जिस का मन रम गया वह वहीं सुखी है।"

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    + सातावेदनीय कर्म के आस्रव -
    भूत-व्रत्यनुकम्पादान-सराग-संयमादि-योग: क्षांति: शौचमिति सद्वेद्यस्य ॥12॥
    अन्वयार्थ : भूत-अनुकम्पा, व्रती-अनुकम्पा, दान और सरागसंयम आदि का योग तथा क्षान्ति और शौच ये सातावेदनीय कर्म के आस्रव हैं ॥१२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जो कर्मोदय के कारण विविध गतियों में होते हैं वे भूत कहलाते हैं । भूत यह प्राणी का पर्यायवाची शब्द है ।

    अहिंसादिक व्रतोंका वर्णन आगे करेंगे । जो उनसे युक्त हैं वे व्रती कहलाते हैं । वे दो प्रकारके हैं - पहले वे जो घर से निवृत्त होकर संयत हो गये हैं और दूसरे गृहस्थ संयतासंयत ।

    अनुग्रह से दयार्द्र चित्तवाले के दूसरे की पीड़ा को अपनी ही मानने का जो भाव होता है उसे अनुकम्पा कहते हैं । सब प्राणियों पर अनुकम्पा रखना भूतानुकम्पा है और व्रतियों पर अनुकम्पा रखना व्रत्यनुकम्पा है ।

    दूसरे का उपकार हो इस बुद्धि से अपनी वस्तु का अर्पण करना दान है ।

    जो संसार के कारणों के त्याग के प्रति उत्सुक है, परन्तु जिसके अभी राग के संस्कार नष्ट नहीं हुए हैं वह सराग कहलाता है । प्राणी और इन्द्रियों के विषय में अशुभ प्रवृत्ति के त्याग को संयम कहते हैं । सराग का संयम या रागसहित संयम सरागसंयम कहलाता है । सूत्र में सरागसंयम के आगे दिये गये आदि पद से संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप का ग्रहण होता है ।

    योग, समाधि और सम्यक्प्रणिधान ये एकार्थवाची नाम हैं । पहले जो भूतानुकम्पा, व्रत्यनुकम्पा, दान और सरागसंयम 'आदि' कहे हैं इनका योग अर्थात् इनमें भले प्रकार मन लगाना भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोग है ।

    क्रोधादि दोषों का निराकरण करना क्षान्ति है ।

    तथा लोभ के प्रकारों का त्याग करना शौच है ।

    सूत्रमें आया हुआ 'इति' शब्द प्रकारवाची है । वे प्रकार कौन हैं ? अरहंत की पूजा करने में तत्परता तथा बाल और वृद्ध तपस्वियों की वैयावृत्त्य आदि करना वे प्रकार हैं । यद्यपि भूतपद के ग्रहण करने से व्रतियों का ग्रहण हो जाता है तो भी व्रतीविषयक अनुकम्पा की प्रधानता दिखलाने के लिए सूत्र में 'व्रती' पद को अलग से ग्रहण किया है । ये सब सातावेदनीय के आस्रव जानने चाहिए ।

    अब इसके बाद मोहनीय के आस्रव के कारणों का कथन करना क्रमप्राप्त है । उसमें भी पहले उसके प्रथम भेद दर्शनमोहनीय के आस्रव के कारणों का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-11. आयुकर्म के उदय से उन-उन योनियों में होनेवाले प्राणियों को भूत कहते हैं। व्रतों को धारण करनेवाले श्रावक या मुनि व्रती हैं। दयार्द्र व्यक्ति का दूसरे की पीड़ा को अपनी ही पीड़ा समझकर कँप जाना अनुकम्पा है। इन की अनुकम्पा भूतानुकम्पा और व्रती-अनुकम्पा है। अपनी वस्तु का पर के अनुग्रह के लिए त्याग करना दान है । पूर्वोपात्त कर्मोदय से जिस की कषायें शान्त नहीं हैं पर जो कषायनिवारण के लिए तैयार है वह सराग है। प्राणियों की रक्षा तथा इन्द्रियों की विषय-प्रवृत्ति को रोकना संयम है । सराग के संयम को या रागसहित संयम को सरागसंयम कहते हैं। परतन्त्रता के कारण भोग-उपभोग का निरोध होनेपर उसे शान्ति से सह जाना अकामनिर्जरा है। मिथ्यादृष्टियों के अग्निप्रवेश, पंचाग्नितप आदि तप को बालतप कहते हैं । निरवद्य क्रिया के अनुष्ठान को योग कहते हैं। योग अर्थात् पूर्ण उपयोग से जुट जाना । दूषण की निवृत्ति के लिए योग शब्द का ग्रहण किया है। अर्थात्, भूतव्रत्यनुकम्पा दान और सरागसंयम आदि का योग । शुभपरिणामों से क्रोधादि की निवृत्ति करना क्षान्ति है। लोभ के प्रकारों से निवृत्ति शौच है। स्वद्रव्य का त्याग नहीं करना, पर द्रव्य का अपहरण करना और धरोहर का हड़पना आदि लोभ के प्रकार हैं। इति शब्द प्रकारार्थक है। अर्थात् इस प्रकार सद्वेद्य के आस्रव हैं।

    12-14. यहाँ समास नहीं करने का कारण है - ऐसे ही अन्य उपायों का संग्रह करना । यद्यपि 'इति' शब्द का भी यही प्रयोजन है फिर भी समास न करना और 'इति' शब्द का ग्रहण करना स्पष्टता के लिए है। अर्हत्पूजा, बाल वृद्ध और तपस्वी की वैयावृत्य, आर्जव और विनयशीलता आदि भी सातावेदनीय के आस्रव है। भूतानुकम्पा से व्रती-अनुकम्पा में प्रधानता दिखाने के लिए 'व्रती' का पृथक् ग्रहण किया है।

    15. द्रव्यदृष्टि से नित्यता को न छोड़ने वाले और नैमित्तिक परिणामों से अनित्य पर्याय को प्राप्त करनेवाले नित्यानित्यात्मक जीव के ही अनुकम्पा आदि परिणाम हो सकते हैं । सर्वथा नित्य मानने पर किसी प्रकार की विक्रिया नहीं होती अतः अनुकम्पारूप परिणति नहीं हो सकता। यदि अनुकम्पा परिणति मानी जाती है, तो नित्यता नहीं रह सकेगी। क्षणिक पक्ष में पूर्व और उत्तरपर्याय का ग्रहण एक विज्ञान से न होने से स्मरणादि के बिना अनुकम्पा नहीं हो सकती। संस्कार भी क्षणिक है। संस्कार यदि ज्ञानरूप है तो वह उसी की तरह क्षणिक होगा। अतः वह भी स्मृति आदि नहीं करा सकता । यदि अज्ञानरूप है तो ज्ञान का कारण नहीं हो सकता।

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    + दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव -
    केवलि-श्रुत-संघ-धर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥13॥
    अन्वयार्थ : केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव इनका अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव है ॥१३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिनका ज्ञान आवरण रहित है वे केवली कहलाते हैं ।

    अतिशय बुद्धिवाले गणधरदेव उनके उपदेशों का स्मरण करके जो ग्रन्थों की रचना करते हैं वह श्रुत कहलाता है ।

    रत्नत्रय से युक्त श्रमणों का समुदाय संघ कहलाता है ।

    सर्वज्ञ-द्वारा प्रतिपादित आगम में उपदिष्ट अहिंसा ही धर्म है ।

    चार निकायवाले देवों का कथन पहले कर आये हैं ।

    गुणवाले बड़े पुरुषों में जो दोष नहीं है उनका उनमें उद्भावन करना अवर्णवाद है ।

    इन केवली आदि के विषय में किया गया अवर्णवाद दर्शनमोहनीयके आस्रव का कारण है । यथा केवली कवलाहार से जीते हैं इत्यादि रूपसे अपवाद करना संघ का अवर्णवाद है । जिनदेव के द्वारा उपदिष्ट धर्म में कोई सार नहीं, जो इसका सेवन करते हैं वे असुर होंगे इस प्रकार कथन करना धर्म का अवर्णवाद है । देव सुरा और मांस आदि का सेवन करते हैं इस प्रकार का कथन करना देवों का अवर्णवाद है ।

    अब मोहनीय का दूसरा भेद जो चारित्र मोहनीय है उसके आस्रव के भेदों का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-6. ज्ञानावरण का अत्यन्त क्षय हो जाने पर जिनके स्वाभाविक अनन्तज्ञान प्रकट हो गया है, जिनका ज्ञान इन्द्रिय कालक्रम और दूर देश आदि के व्यवधान से परे है और परिपूर्ण है वे केवली हैं। उनके द्वारा उपदेश दिया गया तथा बुद्धय्तिशययुक्त गणधरों के द्वारा धारण किया गया श्रुत है। सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय-भावना-परायण चतुर्विध श्रमणों के समूह को संघ कहते हैं । यद्यपि संघ समूहवाची है फिर भी एक व्यक्ति भी अनेक व्रत, गुण आदि का धारक होने से संघ कहा जाता है। कहा भी है - 'गुण संघात को संघ कहते हैं । कर्मों का नाश करने और दर्शन ज्ञान और चरित्र का संघटन करने से संघ कहा जाता है।' अहिंसादि धर्म हैं । देवगति नामकर्म के उदय से भवनवासी आदि चार प्रकार के देव हैं।

    7. गुणवान् और महत्त्वशालियों में अपनी बुद्धि और हृदय की कलुषता से अविद्यमान दोषों का उद्धावन करना अवर्णवाद है।

    8. 'केवली भोजन करते हैं, कम्बल आदि धारण करते हैं, तुंबड़ी का पात्र रखते हैं, उनके ज्ञान और दर्शन क्रमशः होते हैं' इत्यादि केवली का अवर्णवाद है।

    9 मद्य-मांस का भक्षण, मधु और सुरा का पीना, कामातुर को रतिदान तथा रात्रिभोजन आदि में कोई दोष नहीं है, यह सब श्रुत का अवर्णवाद है।

    10. ये श्रमण शूद्र हैं, स्नान न करने से मलिन शरीरवाले हैं, अशुचि हैं, दिगम्बर हैं, निर्लज्ज हैं, इसी लोक में ये दुखी हैं, परलोक भी इनका नष्ट है, इत्यादि संघ का अवर्णवाद है।

    11. जिनोपदिष्ट धर्म निर्गुण है। इसके धारण करनेवाले मरकर असुर होते हैं, इत्यादि धर्म का अवर्णवाद है।

    12-13. देव मद्य-मांस का सेवन करते हैं, अहल्या आदि में आसक्त हुए थे, इत्यादि देवों का अवर्णवाद है । ये सब सम्यग्दर्शन को नष्ट करनेवाले दर्शनमोह के आस्रव के कारण हैं।

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    + चारित्रमोहनीय का आस्रव -
    कषायोदयात्तीव्र-परिणामश्चारित्र-मोहस्य ॥14॥
    अन्वयार्थ : कषाय के उदय से होने वाला तीव्र आत्मपरिणाम चारित्रमोहनीय का आस्रव है ॥१४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    कषायों का व्याख्यान पहले कर आये हैं । विपाक को उदय कहते हैं । कषायों के उदय से जो आत्मा का तीव्र परिणाम होता है वह चारित्रमोहनीय का आस्रव जानना चाहिए ।

    स्वयं कषाय करना, दूसरों में कषाय उत्पन्न करना, तपस्वीजनों के चारित्र में दूषण लगाना, संक्लेश को पैदा करने वाले लिंग (वेष) और व्रत को धारण करना आदि कषायवेदनीय के आस्रव हैं ।

    सत्य धर्म का उपहास करना, दीन मनुष्य की दिल्लगी उड़ाना, कुत्सित राग को बढ़ाने वाला हँसी मजाक करना, बहुत बकने और हँसने की आदत रखना आदि हास्यवेदनीय के आस्रव हैं ।

    नाना प्रकार की क्रीड़ाओं में लगे रहना, व्रत और शील के पालन करने में रुचि न रखना आदि रतिवेदनीय के आस्रव हैं ।

    दूसरों में अरति उत्पन्न हो और रति का विनाश हो ऐसी प्रवृत्ति करना और पापी लोगों की संगति करना आदि अरतिवेदनीयके आस्रव हैं ।

    स्वयं शोकातुर होना, दूसरों के शोक को बढ़ाना तथा ऐसे मनुष्यों का अभिनन्दन करना आदि शोकवेदनीय के आस्रव हैं ।

    भयरूप अपना परिणाम और दूसरे को भय पैदा करना आदि भयवेदनीय के आस्रव के कारण हैं ।

    सुखकर क्रिया और सुखकर आचार से घृणा करना और अपवाद करने में रुचि रखना आदि जुगुप्सावेदनीय के आस्रव हैं ।

    असत्य बोलने की आदत, अतिसन्धानपरता, दूसरे के छिद्र ढूँढ़ना और बढ़ा हुआ राग आदि स्त्रीवेदनीय के आस्रव हैं ।

    क्रोध का अल्प होना, ईर्ष्या नहीं करना, अपनी स्त्री में संतोष करना आदि पुरुषवेदनीय के आस्रव हैं ।

    प्रचुर मात्रा में कषाय करना, गुप्त इन्द्रियों का विनाश करना और परस्त्री से बलात्कार करना आदि नपुंसक वेदनीय के आस्रव हैं ।

    मोहनीय के आस्रव के भेदों का कथन किया । इसके बाद आयुकर्म के आस्रव के कारणों का कथन क्रमप्राप्त है । उसमें भी पहले जिसका नियत काल तक फल मिलता है उस आयु के आस्रव के कारण दिखलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-3. बाँधे हुए कर्म का द्रव्यक्षेत्रादि निमित्तों से फल देने लगना उदय है। कषायों के तीव्र उदय से होनेवाले संक्लिष्ट-परिणाम चारित्रमोह के आस्रव के कारण हैं। जगदुपकारी शीलवती तपस्वियों की निन्दा, धर्मध्वंस, धर्म में अन्तराय करना, किसी को शीलगुण देशसंयम और सकलसंयम से च्युत करना, मद्य मांस आदि से विरक्त जीवों को उससे बिचकाना, चरित्रदूषण, संक्लशोत्पादक व्रत और वेषों का धारण, स्व और पर में कषायों का उत्पादन आदि कषायवेदनीय के आस्रव के कारण हैं। उत्प्रहास, दीनतापूर्वक हँसी, कामविकारपूर्वक हँसी, बहुप्रलाप तथा हरएक की हँसी मजाक करना हास्यवेदनीय के आस्रव के कारण हैं । विचित्र क्रीड़ा, दूसरे के चित्त को आकर्षण करना, बहुपीड़ा, देशादि के प्रति अनुत्सुकता, प्रीति उत्पन्न करना, रति-विनाश, पापशील व्यक्तियों की संगति, अकुशल क्रिया का प्रोत्साहन देना आदि अरतिवेदनीय के आस्रव के कारण हैं । स्वशोक, प्रीति के लिए पर का शोक करना, दूसरे को दुःख उत्पन्न करना, शोक से व्याप्त का अभिनन्दन आदि शोकवेदनीय के आस्रव के कारण हैं । स्वयं भयभीत रहना, दूसरे को भय उत्पन्न करना, निर्दयता, त्रास आदि भयवेदनीय के आस्रव के कारण हैं। धर्मात्मा चतुर्वर्ण विशिष्ट वर्ग कुल आदि की क्रिया और आचारमें तत्पर पुरुषों से ग्लानि करना, दूसरे की बदनामी करने का स्वभाव आदि जुगुप्सा वेदनीय के आस्रव के कारण हैं । अत्यन्त क्रोध के परिणाम, अतिमान, अत्यन्त ईर्ष्या, मिथ्या भाषण, छलकपट, प्रपंचतत्परता, तीव्र राग, परांगनागमन, स्त्रीभावोंमें रुचि आदि स्त्रीवेद के आस्रव के कारण हैं। मन्द क्रोध, कुटिलता न होना, अभिमान न होना, निर्लोभ भाव, अल्पराग, स्वदारसन्तोष, ईर्ष्यारहित भाव, स्नान गन्ध माला आभरण आदि के प्रति आदर न होना आदि पुंवेद के आस्रव के कारण हैं। प्रचुर क्रोध मान माया लोभ, गुप्त इन्द्रियों का विनाश, स्त्री पुरुषों में अनंगक्रीड़ा का व्यसन, शीलव्रत गुणधारी और दीक्षाधारी पुरुषों को बिचकाना, परस्त्री पर आक्रमण, तीव्र राग, अनाचार आदि नपुंसकवेद के आस्रव के कारण हैं।

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    + नारकायु का आस्रव -
    बह्वारम्भ-परिग्रहत्वं नारकस्यायुष: ॥15॥
    अन्वयार्थ : बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रहपने का भाव नारकायु का आस्रव है ॥१५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    प्राणियों को दुख पहुँचाने वाली प्रवृत्ति करना आरम्भ है ।

    यह वस्तु मेरी है इस प्रकार का संकल्प रखना परिग्रह है ।

    जिसके बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह हो वह बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह वाला कहलाता है और उसका भाव बह्वारम्भपरिग्रहत्व है । हिंसा आदि क्रूर कार्यों में निरन्तर प्रवृत्ति, दूसरे के धन का अपहरण, इन्द्रियों के विषयों में अत्यन्त आसक्ति तथा मरने के समय कृष्ण लेश्या और रौद्रध्यान आदि का होना नरकायु के आस्रव हैं ।

    नरकायु का आस्रव कहा । अब तिर्यंचायु का आस्रव कहना चाहिए, इसलिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    बहु अर्थात् बहुसंख्यक और बहुपरिमाणवाला, आरम्भ-हिंसकव्यापार । 'यह मेरा है मैं इसका स्वामी हूँ' इस प्रकार का ममत्व परिणाम परिग्रह है। बहुत आरम्भ और बहुपरिग्रह नरक आयु के आस्रव के कारण हैं। तात्पर्य यह कि - परिग्रहलोलुप व्यक्ति तीव्रतर-कषाय-परिणाम वाले होते हैं और हिंसा में तत्पर होते हैं यह बहुत बार देखा गया है और सुना गया है। वे तीव्र अनुशय से लोहे के तपे हुए गोले की तरह कषायज्वालाओं से सन्तप्त हो क्रूरकर्मा होते हैं और नरक आयु का आस्रव करते हैं।

    मिथ्यादर्शन, अशिष्ट आचरण, उत्कृष्ट मान, पत्थर की रेखा के समान क्रोध, तीव्र-लोभ, अनुकम्पारहित परिणाम, परपरिताप में खुश होना, वध-बन्धन आदि का अभिनिवेश, प्राण, भूत, सत्त्व और जीवों की सतत हिंसा करना, प्राणिवध, असत्यभाषणशीलता, परधनहरण, गुपचुप रागी चेष्टाएँ, मैथुनप्रवृत्ति, महाआरम्भ, इन्द्रियपरवशता, तीव्र कामभोगाभिलाष, निःशीलता, पापनिमित्तक भोजन, बद्धवैरता, क्रूरतापूर्वक रोना चिल्लाना, अनुग्रहरहित स्वभाव, यतिवर्ग में फूट पैदा करना, तीर्थंकर की आसादना, कृष्णलेश्या रूप रौद्रपरिणाम, रौद्रभाव-पूर्वक मरण आदि नारक आयु के आस्रव हैं।

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    + माया तिर्यंचायु का आस्रव -
    माया तैर्यग्योनस्य ॥16॥
    अन्वयार्थ : माया तिर्यंचायु का आस्रव है ॥१६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    माया नामक चारित्रमोहनीय के उदय से जो आत्मा में कुटिल भाव पैदा होता है वह माया है । इसका दूसरा नाम निकृति है । इसे तिर्यंचायु का आस्रव जानना चाहिए । इसका विस्तार से खुलासा - धर्मोपदेश में मिथ्या बातों को मिलाकर उनका प्रचार करना, शीलरहित जीवन बिताना, अतिसंधानप्रियता, तथा मरण के समय नील व कापोत लेश्या और आर्तध्यान का होना आदि तिर्यंचायु के आस्रव हैं ।

    तिर्यंचायु के आस्रव कहे । अब मनुष्यायु का क्या आस्रव है यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    चारित्रमोह के उदय से होनेवाला आत्मा का कुटिल परिणाम तिर्यच आयु के आस्रव का कारण है।

    मिथ्यात्वयुक्त अधर्म का उपदेश, बहुआरम्भ, बहुपरिग्रह, अतिवंचना, कूटकर्म, पृथिवी की रेखा के समान रोष आदि, निःशीलता, शब्द और संकेत आदि से परवंचन का षड्यन्त्र, छलप्रपंच की रुचि, भेद उत्पन्न करना, अनर्थोद्भावन, वर्ण-रस-गन्ध आदि को विकृत करने की अभिरुचि, जाति-कुल-शीलसंदूषण, विसंवादरुचि, मिथ्याजीवित्व, सद्गुणलोप, असद्गुणख्यापन, नील-कपोतलेश्यारूप परिणाम, आर्तध्यान, मरण समय में आर्तरौद्रपरिणाम इत्यादि तिर्यञ्च-आयु के आस्रव के कारण हैं।

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    + मनुष्यायु का आस्रव -
    अल्पारम्भ परिग्रहत्वं मानुषस्य ॥17॥
    अन्वयार्थ : अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रहपने का भाव मनुष्यायु के आस्रव हैं ॥१७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    नरकायु का आस्रव पहले कह आये हैं । उससे विपरीत भाव मनुष्यायु का आस्रव है । संक्षेप में यह इस सूत्र का अभिप्राय है । उसका विस्तार से खुलासा - स्वभाव का विनम्र होना, भद्र प्रकृति का होना, सरल व्यवहार करना, अल्प कषाय का होना तथा मरण के समय संक्लेशरूप परिणति का नहीं होना आदि मनुष्यायु के आस्रव हैं ।

    क्या मनुष्यायु का आस्रव इतना ही है या और भी है । इसी बात को बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    नरकायु के आस्रव के कारणों से विपरीत भाव अर्थात् अल्प-आरम्भ और अल्प-परिग्रह मनुष्यायु के आस्रव के कारण हैं। भद्रमिथ्यात्व, विनीत स्वभाव, प्रकृतिभद्रता, मार्दव, आर्जव परिणाम, सुख समाचार कहने की रुचि, रेत की रेखा के समान क्रोध आदि, सरल व्यवहार, अल्पारम्भ, अल्पपरिग्रह, सन्तोषसुख, हिंसाविरक्ति, दुष्ट कार्यों से निवृत्ति, स्वागततत्परता, कम बोलना, प्रकृतिमधुरता, लोकयात्रानुग्रह, औदासीन्यवृत्ति, ईर्षारहित परिणाम, अल्पसंक्लेश, गुरु देवता अतिथि पूजा में रुचि, दानशीलता, कपोत-पीत-लेश्यारूप परिणाम, मरणकाल में धर्म-ध्यान परिणति आदि मनुष्यायु के आस्रव के कारण हैं।

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    + मनुष्यायु का और भी आस्रव -
    स्वभाव-मार्दवं च ॥18॥
    अन्वयार्थ : स्वभाव की मृदुता भी मनुष्यायु का आस्रव है ॥१८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    मृदु का भाव मार्दव है । स्वभाव से मार्दव स्वभाव मार्दव है । आशय यह है कि किसी के समझाये-बुझाये मृदुता अपने जीवन में उतरी हुई हो इसमें किसी के उपदेश की आवश्यकता न पड़े । यह भी मनुष्यायु का आस्रव है ।

    शंका – इस सूत्र को अलग से क्यों बनाया ?

    समाधान – स्वभाव की मृदुता देवायु का भी आस्रव है इस बात के बतलाने के लिए इस सूत्र को अलग से बनाया है ।

    क्या ये दो ही मनुष्यायु के आस्रव हैं ? नहीं, किन्तु और भी हैं । इसी बात को बतलाने के लिए अब आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    उपदेश के बिना होने वाला स्वाभाविक मृदु स्वभाव भी मनुष्य-आयु के आस्रव का कारण है। स्वभाव मार्दव का निर्देश पृथक् सूत्र बनाकर इसलिए किया है कि इस सूत्र का सम्बन्ध आगे बताये जाने वाले देवायु के आस्रवों से भी करना है।


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    + सब आयुओं का आस्रव -
    नि:शील-व्रतत्वं च सर्वेषाम् ॥19॥
    अन्वयार्थ : शीलरहित और व्रतरहित होना सब आयुओं का आस्रव है ॥१९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्र में जो 'च' शब्द है वह अधिकार प्राप्त आस्रवों के समुच्चय करने के लिए है । इससे यह अर्थ निकलता है कि अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रहरूप भाव तथा शील और व्रतरहित होना सब आयुओं के आस्रव हैं । शील और व्रतों का स्वरूप आगे कहनेवाले हैं । इनसे रहित जीव का जो भाव होता है उससे सब आयुओं का आस्रव होता है यह इस सूत्र का भाव है । यहाँ सब आयुओं का आस्रव इष्ट है यह दिखलाने के लिए सूत्र में 'सर्वेषाम्' पद को ग्रहण किया है ।

    शंका – क्या शील और व्रतरहितपना देवायु का भी आस्रव है ?

    समाधान – हाँ, भोगभूमियाँ प्राणियों की अपेक्षा शील और व्रतरहितपना देवायु का भी आस्रव है ।

    अब चौथी आयु का क्या आस्रव है यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    शील और व्रतों से रहितपना सभी आयुओं के आस्रव का कारण है। 'च' शब्द से अल्पारम्भ और अल्प-परिग्रहत्व का समुच्चय कर लेना चाहिए । 'सर्वेषाम्' से देवायु का ग्रहण नहीं करना चाहिए किन्तु पीछे कही गई तीनों आयुओं का । यद्यपि पृथक सूत्र बनाने से ही बीती हुई आयु का बोध हो जाता है फिर भी 'सर्वेषाम्' पद का प्रयोजन यह है कि निःशीलत्व और निर्व्रतत्व भी देवायु के आस्रव के कारण होते हैं पर वह भोगभूमिया जीवों की अपेक्षा समझना चाहिए ।

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    + देवायु के आस्रव -
    सरागसंयम-संयमा-संयमाकामनिर्जराबालतपांसि दैवस्य ॥20॥
    अन्वयार्थ : सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप ये देवायु के आस्रव हैं ॥२०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सरागसंयम और संयमासंयम का व्याख्यान पहले कर आये हैं । चारक में रोक रखने पर या रस्सी आदि से बाँध रखने पर जो भूख प्यास सहनी पड़ती है, ब्रह्मचर्य पालना पड़ता है, भूमि पर सोना पड़ता है, मलमूत्र को रोकना पड़ता है और संताप आदि होता है यह सब अकाम है और इससे जो निर्जरा होती है वह अकामनिर्जरा है । मिथ्यात्व के कारण मोक्षमार्ग में उपयोगी न पड़नेवाले अनुपाय कायक्लेशबहुल माया से व्रतों का धारण करना बालतप है । ये सब देवायु के आस्रव के कारण जानने चाहिए ।

    क्या देवायु का आस्रव इतना ही है या और भी है ? अब इसी बात को बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    सराग-संयम आदि शुभ परिणाम देवायु के आस्रव के कारण हैं । कल्याण-मित्र-संसर्ग, आयतनसेवा, सद्धर्मश्रवण, स्वगौरवदर्शन, निर्दोष प्रोषधोपवास, तप की भावना, बहुश्रुतत्व, आगमपरता, कषायनिग्रह, पात्रदान, पीत-पद्म-लेश्या परिणाम, मरणकाल में धर्मध्यान रूप परिणति आदि सौधर्म आदि स्वर्ग की आयु के आस्रव हैं। अव्यक्त सामायिक, और सम्यग्दर्शन की विराधना आदि भवनवासी आदि की आयु के अथवा महर्धिक मनुष्य की आयु के आस्रव कारण हैं । पंच अणुव्रतों के धारक सम्यग्दृष्टि तिर्यंच या मनुष्य सौधर्म आदि अच्युत पर्यन्त स्वर्गों में उत्पन्न होते हैं। यदि सम्यग्दर्शन की विराधना हो जाय तो भवनवासी आदि में उत्पन्न होते हैं । तत्त्वज्ञान से रहित बालतप तपने वाले अज्ञानी मन्द-कषाय के कारण कोई भवनवासी व्यन्तर आदि सहस्रार स्वर्गपर्यन्त उत्पन्न होते हैं, कोई मरकर मनुष्य भी होते हैं तथा तिर्यंच भी। अकाम-निर्जरा, भूख-प्यास का सहना, ब्रह्मचर्य, पृथ्वी पर सोना, मलधारण आदि परीषहों से खेदखिन्न न होना, गूढ़ पुरुषों के बन्धन में पड़ने पर भी नहीं घबड़ाना, दीर्घकालीन रोग होने पर भी असंक्लिष्ट रहना, या पर्वत के शिखर से झम्पापात करना, अनशन अग्निप्रवेश विषभक्षण आदि को धर्म मानने वाले कुतापस व्यन्तर और मनुष्य तथा तिर्यञ्चों में उत्पन्न होते हैं। जिनने व्रत या शीलों को धारण नहीं किया किन्तु जो सदय हृदय हैं, जलरेखा के समान मन्दकषायी हैं तथा भोगभूमि में उत्पन्न होनेवाले व्यन्तर आदि में उत्पन्न होते हैं ।

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    + देवायु का और भी आस्रव -
    सम्यक्त्वं च ॥21॥
    अन्वयार्थ : सम्यक्त्व भी देवायु का आस्रव है ॥२१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
     शंका – किस कारण से ।

    समाधान – अलग सूत्र बनाने से ।

    शंका – यदि ऐसा है तो पूर्व सूत्र में जो विधान किया है वह सामान्यरूप से प्राप्त होता है और इससे सरागसंयम और संयमासंयम ये भवनवासी आदि की आयु के भी आस्रव हैं यह प्राप्त होता है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि सम्यक्त्व के अभाव में सरागसंयम और संयमासंयम नहीं होते, इसलिए उन दोनों का यहीं अन्तर्भाव होता है । अर्थात् ये भी सौधर्मादि देवायु के आस्रव हैं; क्योंकि ये सम्यक्त्व के होने पर ही होते हैं ।

    आयु के बाद नाम के आस्रव का कथन क्रमप्राप्त है । उसमें भी पहले अशुभ नाम के आस्रव का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    पृथक् सूत्र बनाने से ज्ञात होता है कि सम्यक्त्व सौधर्मादि स्वर्गवासी देवों की आयु के आस्रव का कारण है । इस सूत्र से यह भी सिद्ध हो जाता है कि सरागसंयम और संयमासंयम भी विमानवासियों की ही आयु के आस्रव के कारण होते हैं, भवनवासी आदि की आयु के नहीं।


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    + अशुभ नाम कर्म के आस्रव -
    योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्न: ॥22॥
    अन्वयार्थ : योगवक्रता और विसंवाद ये अशुभ नाम कर्म के आस्रव हैं ॥२२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    तीन प्रकार के योग का व्याख्यान पहले कर आये हैं । इसकी कुटिलता योगवक्रता है । अन्यथा प्रवृत्ति करना विसंवाद है ।

    शंका – इस तरह इनमें अर्थभेद नहीं प्राप्त होता; क्योंकि योगवक्रता और अन्यथा प्रवृत्ति करना एक ही बात है ?

    समाधान – यह कहना सही है तब भी स्वगत योगवक्रता कही जाती है और परगत विसंवादन । जो स्वर्ग और मोक्ष के योग्य समीचीन क्रियाओं का आचरण कर रहा है उसे उसके विपरीत मन, वचन और काय की प्रवृत्ति द्वारा रोकना कि ऐसा मत करो ऐसा करो विसंवादन है । इस प्रकार ये दोनों एक नहीं हैं किन्तु अलग-अलग हैं । ये दोनों अशुभ नामकर्म के आस्रव के कारण जानने चाहिए । सूत्र में आये हुए 'च' पद से मिथ्यादर्शन, चुगलखोरी, चित्त का स्थिर न रहना, मापने और तौलने के बाँट घट-बढ़ रखना, दूसरों की निन्दा करना और अपनी प्रशंसा करना आदि आस्रवों का समुच्चय होता है ।

    अब शुभ नामकर्म का आस्रव क्या है यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं ।

    राजवार्तिक :
    1-3. मन-वचन-काय की कुटिल वृत्तिरूप योग-वक्रता तथा अन्य प्रकार से प्रवृत्ति और प्रतिपादनरूप विसंवाद अशुभनाम के आस्रव के कारण हैं। योगवक्रता आत्मगत है तथा विसंवादन पर से सम्बन्ध रखता है। कोई पुरुष सम्यक् अभ्युदय और निःश्रेयस की कारणभूत कियाओं में प्रवृत्ति कर रहा है उसे काय, वचन और मन द्वारा 'ऐसा मत करो यह करो' आदि रूप से कुटिल प्रवृत्ति कराना विसंवाद है।

    4. च शब्द अनुक्त के समुच्चयार्थ है। मिथ्यादर्शन, पिशुनता, अस्थिरचित्त स्वभावता, झूठे बांट तराजू आदि रखना, कृत्रिम सुवर्ण मणि रत्न आदि बनाना, झूठी गवाही, अंग उपांगों का छेदन, वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श का विपरीतपना, यन्त्र-पिंजरा आदि बनाना, माया-बाहुल्य, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, मिथ्याभाषण, पर-द्रव्यहरण, महारम्भ, महापरिग्रह शौकीन वेष, रूप का घमंड, कठोर असभ्यभाषण, गाली बकना, व्यर्थ बकवास करना, वशीकरण प्रयोग, सौभाग्योपयोग, दूसरे में कुतूहल उत्पन्न करना, भूषणों में रुचि, मंदिर के गन्ध माल्य धूप आदि का चुराना, लम्बी हँसी, ईटों का भट्टा लगाना, वन में दावाग्नि जलाना, प्रतिमायतन-विनाश, आश्रय विनाश, आराम-उद्यान विनाश, तीन क्रोध मान-माया-लोभ और पाप-कर्म जीविका आदि भी अशुभ नामकर्म के आस्रव के कारण हैं।

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    + शुभ नामकर्म के आस्रव -
    तद्विपरीतं शुभस्य ॥23॥
    अन्वयार्थ : उससे विपरीत अर्थात् योग की सरलता और अविसंवाद ये शुभनामकर्म के आस्रव हैं ॥२३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
     काय, वचन और मन की सरलता तथा अविसंवाद ये उससे विपरीत हैं । उसी प्रकार पूर्व सूत्र की व्यवस्था करते हुए 'च' शब्द से जिनका समुच्चय किया गया है उनके विपरीत आस्रवों का ग्रहण करना चाहिए । जैसे - धार्मिक पुरुषों व स्थानों का दर्शन करना, आदर सत्कार करना, सद्भाव रखना, उपनयन, संसार से डरना और प्रमाद का त्याग करना आदि । ये सब शुभ नामकर्म के आस्रव के कारण हैं ।

    शंका – क्या इतनी ही शुभ नामकर्म की आस्रवविधि हैं या और भी कोई विशेषता है ?

    समाधान – जो यह अनन्त और अनुपम प्रभाववाला, अचिन्त्य विभूति विशेष का कारण और तीन लोक की विजय करने वाला तीर्थंकर नामकर्म है उसके आस्रव में विशेषता है, अतः अगले सूत्र द्वारा उसी का कथन करते हैं -

    राजवार्तिक :
    मन वचन काय की सरलता और अविसंवादन शुभ नामकर्म के आस्रव के कारण हैं । च शब्द से धार्मिक व्यक्तियों के प्रति आदरभाव, संसार-भीरता, अप्रमाद, निश्छलचारित्र आदि पूर्वोक्त अशुभ नाम के आस्रव के विपरीत भावों का समुच्चय कर लेना चाहिए।

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    + तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव -
    दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नता-शील-व्रतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्याग-तपसी साधुसमाधिर्वैयावृत्य-करणमर्हदाचार्य-बहुश्रुत-प्रवचन-भक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्ग-प्रभावना-प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥24॥
    अन्वयार्थ : दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शील और व्रतों का अतिचार रहित पालन करना, ज्ञान में सतत उपयोग, सतत संवेग, शक्ति के अनुसार त्याग, शक्ति के अनुसार तप, साधु-समाधि, वैयावृत्त्य करना, अरिहंतभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यक क्रियाओं को न छोड़ना, मोक्षमार्ग की प्रभावना और प्रवचनवात्सल्य ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव हैं ॥२४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
     (1) जिन भगवान् अरिहंत परमेष्ठी द्वारा कहे हुए निर्ग्रन्थ स्वरूप मोक्षमार्ग पर रुचि रखना दर्शनविशुद्धि है । इसका विशेष लक्षण पहले कह आये हैं । उसके आठ अंग हैं - निःशंकितत्व, निःकांक्षिता, निर्विचिकित्सितत्व, अमूढ़दृष्टिता, उपबृंहण, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना ।

    (2) सम्यग्ज्ञानादि मोक्षमार्ग और उनके साधन गुरु आदि के प्रति अपने योग्य आचरण द्वारा आदर सत्कार करना विनय है और इससे युक्त होना विनयसम्पन्नता है ।

    (3) अहिंसादिक व्रत हैं और इनके पालन करने के लिए क्रोधादिक का त्याग करना शील है । इन दोनों के पालन करने में निर्दोष प्रवृत्ति रखना शीलव्रतानतिचार है ।

    (4) जीवादि पदार्थरूप स्वतत्त्वविषयक सम्यग्ज्ञान में निरन्तर लगे रहना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है ।

    (5) संसार के दुःखों से निरन्तर डरते रहना संवेग है ।

    (6) त्याग दान है । वह तीन प्रकार का है - आहारदान, अभयदान और ज्ञानदान । उसे शक्ति के अनुसार विधिपूर्वक देना यथाशक्ति त्याग है ।

    (7) शक्ति को न छिपाकर मोक्षमार्ग के अनुकूल शरीर को क्लेश देना यथाशक्ति तप है ।

    (8) जैसे भांडार में आग लग जाने पर बहुत उपकारी होने से आग को शान्त किया जाता है उसी प्रकार अनेक प्रकार के व्रत और शीलों से समृद्ध मुनि के तप करते हुए किसी कारण से विघ्न के उत्पन्न होने पर उसका संधारण करना-शान्त करना साधुसमाधि है ।

    (9) गुणी पुरुष के दुःख में आ पड़ने पर निर्दोष विधि से उसका दुःख दूर करना वैयावृत्त्य है ।

    (10-13) अरिहंत, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन इनमें भावों की विशुद्धि के साथ अनुराग रखना अरिहंतभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति और प्रवचनभक्ति है ।

    (14) छह आवश्यक क्रियाओं का यथा समय करना आवश्यकापरिहाणि है ।

    (15) ज्ञान, तप, दान और जिनपूजा इनके द्वारा धर्म का प्रकाश करना मार्गप्रभावना है ।

    (16) जैसे गाय बछड़े पर स्नेह रखती है उसी प्रकार साधर्मियों पर स्नेह रखना प्रवचनवत्सलत्व है ।

    ये सब सोलह कारण हैं । यदि अलग-अलग इनका भले प्रकार चिन्तन किया जाता है तो भी ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव के कारण होते हैं और समुदायरूप से सबका भले प्रकार चिन्तन किया जाता है तो भी ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव के कारण जानने चाहिए ।

    नामकर्म के आस्रवों का कथन करने के बाद अब गोत्रकर्म के आस्रवों का कथन क्रमप्राप्त है । उसमें भी पहले नीच गोत्र के आस्रवों का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. जिनोपदिष्ट निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग में रुचि दर्शन विशद्धि है। उस के आठ अंग हैं।

    2. सम्यग्ज्ञान आदि मोक्ष के साधनों में तथा ज्ञान के निमित्त गुरु आदि में योग्य रीति से सत्कार आदर आदि करना तथा कषाय की निवृत्ति करना विनय सम्पन्नता है।

    3. अहिंसा आदि व्रत तथा उनके परिपालन के लिए क्रोधवर्जन आदि शीलों में काय, वचन और मन की निर्दोष प्रवृत्ति शीलवतेष्वनतिचार है।

    4. जीवादि पदार्थों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जाननेवाले मति आदि पाँच ज्ञान हैं। अज्ञाननिवृत्ति इनका साक्षात् फल है तथा हितप्राप्ति अहितपरिहार और उपेक्षा व्यवहित फल हैं । इस ज्ञान की भावना में सदा तत्पर रहना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है।

    5. शारीर, मानस आदि अनेक प्रकार के प्रियवियोग अप्रियसंयोग इष्ट का अलाभ आदिरूप सांसारिक दुःखों से नित्यभीरता संवेग है।

    6. पर की प्रीति के लिए अपनी वस्तु को देना त्याग है । आहार देने से पात्र को उस दिन प्रीति होती है। अभयदाम से उस भव का दुःख छूटता है, अतः पात्र को सन्तोष होता है। ज्ञानदान तो अनेक सहस्र भवों के दुःख से छुटकारा दिलानेवाला है। ये तीनों दान विधिपूर्वक दिये गये त्याग कहलाते हैं।

    7. अपनी शक्ति को नहीं छिपाकर मार्गाविरोधी कायक्लेश आदि करना तप है । यह शरीर दाख का कारण है, अशुचि है, कितना भी भोग भोगो पर इसकी तृप्ति नहीं होती। यह अशुधि होकर भी शीलवत आदि गुणों के संचय में आत्मा की सहायता करता है यह विचारकर विषयविरक्त हो आत्मकार्य के प्रति शरीर का नौकर की तरह उपयोग कर लेना उचित है । अतः मार्गाविरोधी कायक्लेश आदि करना तप है।

    8. जैसे भण्डार में आग लगनेपर वह प्रयत्नपूर्वक शान्त की जाती है उसी तरह अनेक व्रतशीलों से समृद्ध मुनिगण के तप आदि में यदि कोई विघ्न उपस्थित हो जाय तो उसका निवारण करना साधुसमाधि है।

    9. गुणवान् साधुओं पर आये हुए कष्ट रोग आदि को निर्दोष विधि से हटा देना, उनकी सेवा आदि करना बहु उपकारी वैयावृत्त्य है।

    10. केवलज्ञान श्रुतज्ञान आदि दिव्यनेत्रधारी परहितप्रवण और स्वसमयविस्तारनिश्चयज्ञ अर्हन्त आचार्य और बहुश्रुतों में तथा श्रुतदेवता के प्रसाद से कठिनता से प्राप्त होनेवाले मोक्ष महल की सीढ़ी रूप प्रवचन में भावविशुद्धिपूर्वक अनुराग करना अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुत भक्ति और प्रवचनभक्ति है।

    11. सामायिक चतुर्विंशतिस्तव वन्दना प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यक क्रियाओं को यथाकाल बिना नागा किये स्वाभाविक क्रम से करते रहना आवश्यकापरिहाणि है।
    1. सर्व सावद्य योगों का त्याग करना, चित्त को एकाग्र रूप से ज्ञान में लगाना सामायिक है।
    2. तीर्थंकरों के गुणों का कीर्तन चतुर्विंशतिस्तव है।
    3. मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक खड्गासन या पद्मासन से चार बार शिरोनति और बारह आवर्त पूर्वक वन्दना होती है।
    4. कृत दोषों की निवृत्ति प्रतिक्रमण है ।
    5. भविष्य में दोष न होने देने के लिए सन्नद्ध होना प्रत्याख्यान है।
    6. अमुक समयतक शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है।

    12. परसमयरूपी जुगुनुओं के प्रकाश को पराभूत करनेवाले ज्ञानरवि की प्रभा से; इन्द्र के सिंहासन को कँपा देनेवाले महोपवास आदि सम्यक तपों से तथा भव्यजनरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्यप्रभा समान जिनपूजा के द्वारा सद्धर्म का प्रकाश करना मार्गप्रभावना है।

    13. जैसे गाय अपने बछड़े से अकृत्रिम स्नेह करती है उसी तरह धार्मिक जन को देखकर स्नेह से ओतप्रोत हो जाना प्रवचनवत्सलत्व है। जो धार्मिकों में स्नेह है वही तो प्रवचन स्नेह है।

    ये सोलहकारण भावनाएँ तीर्थंकर प्रकृति के आसव का कारण होती हैं।

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    + नीचगोत्र के आस्रव -
    परात्म-निन्दा-प्रशंसे सदसद् गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ॥25॥
    अन्वयार्थ : परनिंदा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का उच्छादन और असद्गुणों का उद्भावन ये नीचगोत्र के आस्रव हैं ॥२५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सच्चे या झूठे दोष को प्रकट करने की इच्छा निन्दा है । गुणों के प्रकट करने का भाव प्रशंसा है । पर और आत्मा शब्द के साथ इनका क्रम से सम्बन्ध होता है । यथा परनिन्दा और आत्मप्रशंसा है । रोकनेवाले कारणों के रहने पर प्रकट नहीं करने की वृत्ति होना उच्छादन है और रोकनेवाले कारणों का अभाव होने पर प्रकट करने की वृत्ति होना उद्भावन है । यहाँ भी क्रम से सम्बन्ध होता है । यथा - सद्गुणोच्छादन और असद्गुणोद्भावन । इन सब का नीच गोत्र के आस्रव के कारण जानना चाहिए ।

    अब उच्च गोत्र के आस्रव के कारण क्या हैं यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    तथ्य या अतथ्य दोष के उद्भावन की इच्छा या दोष प्रकट करने की चि वृत्ति निन्दा है । सद्भूत या असद्भूत गुण के प्रकाशन का अभिप्राय प्रशंसा है। प्रतिबन्धक कारणों से वस्तु का प्रकट नहीं होना छादन है और प्रतिबन्धक के हट जाने पर प्रकाश में आ जाना उद्भावन है। जो गूयते अर्थात् शब्द-व्यवहार में आवे वह गोत्र है। जिससे आत्मा नीच व्यवहार में आवे वह नीचगोत्र है।

    जाति, कुल, बल, रूप, श्रुत, आज्ञा, ऐश्वर्य और तप का मद करना, पर की अवज्ञा, दसरे की हँसी करना, परनिन्दा का स्वभाव, धार्मिकजन-परिहास, आत्मोत्कर्ष, परयश का विलोप, मिथ्याकीर्ति अर्जन करना, गुरुजनों का परिभव तिरस्कार दोषख्यापन विहेडन स्थानावमान भर्त्सन और गुणावसादन करना, तथा अंजलि-स्तुति-अभिवादन-अभ्युत्थान आदि न करना, तीर्थकरों पर आक्षेप करना आदि नीचगोत्र के आस्रव के कारण हैं।

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    + उच्च गोत्र के आस्रव -
    तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य ॥26॥
    अन्वयार्थ : उनका विपर्यय अर्थात् परप्रशंसा, आत्मनिन्दा, सद्गुणों का उद्भावन और असद्गुणों का उच्छादन तथा नम्रवृत्ति और अनुत्सेक ये उच्च गोत्र के आस्रव हैं ॥२६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    इनके पहले नीच गोत्र के आस्रवों का उल्लेख कर आये हैं, अतः 'तत्' इस पद से उनका ग्रहण होता है । अन्य प्रकार से वृत्ति होना विपर्यय है । नीच गोत्र का जो आस्रव कहा है उससे विपर्यय तद्विपर्यय है ।

    शंका – वे विपरीत कारण कौन हैं ?

    समाधान – आत्मनिन्दा, परप्रशंसा, सद्गुणों का उद्भावन और असद्गुणों का उच्छादन । जो गुणों में उत्कृष्ट हैं उनके विनय से नम्र रहना नीचैर्वृत्ति है । ज्ञानादिक की अपेक्षा श्रेष्ठ होते हुए भी उसका मद न करना अर्थात् अहंकार रहित होना अनुत्सेक है । ये उत्तर अर्थात् उच्च गोत्र के आस्रव के कारण हैं ।

    अब गोत्र के बाद क्रम प्राप्त अन्तराय कर्म का क्या आस्रव है यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    सत-नीचगोत्र, विपर्यय-उलटे । अर्थात् आत्मनिन्दा, परप्रशंसा, परसद्गुणोद्भावन, आत्मअसगुणच्छादन, गुणी पुरुषों के प्रति विनयपूर्षक नम्रवृत्ति और ज्ञानादि होने पर भी तत्कृत उत्सेक-अहंकार न होना ये सब उच्चगोत्र के आस्रव के कारण हैं । जाति, कुल, बल, रूप, वीर्य, ज्ञान, ऐश्वर्य और तप आदि की विशेषता होने पर भी अपने में बड़प्पन का भाव नहीं आये देना, पर का तिरस्कार न करना, अनौद्धत्य, असूया उपहास बदनामी आदि न करना, मान नहीं करना, साधर्मी व्यक्तियों का सन्मान, उन्हें अभ्युत्थान अंजलि नमस्कार आदि करना, इस युग में अन्य-जनों में न पाये जानेवाले ज्ञान आदि गुणों के होने पर भी उनका रंचमात्र अहंकार नहीं करना, निरहंकार नम्रवृत्ति, भस्म से ढंकी हुई अग्नि की तरह अपने माहात्म्य का ढिंढोरा नहीं पीटना और धर्मसाधनों में अत्यन्त आदर बुद्धि आदि भी उच्चगोत्र के आस्रव के कारण हैं।

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    + अन्तराय कर्म का आस्रव -
    विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥27॥
    अन्वयार्थ : दानादिक में विघ्न डालना अन्तराय कर्म का आस्रव है ॥२७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    'दानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च' इस सूत्र की व्याख्या करते समय दानादिक का व्याख्यान कर आये हैं । उनका नाश करना विघ्न है । और इस विघ्न का करना अन्तराय कर्म का आस्रव जानना चाहिए ।

    शंका – तत्प्रदोष और निह्नव आदिक ज्ञानावरण और दर्शनावरण आदि कर्मों के प्रतिनियत आस्रव के कारण कहे तो क्या वे ज्ञानावरण और दर्शनावरण आदि प्रतिनियत कर्मों के आस्रव के कारण हैं या सामान्य से सभी कर्मों के आस्रव के कारण हैं ? यदि ज्ञानावरणादिक प्रतिनियत कर्मों के कारण हैं तो आगम से विरोध प्राप्त होता है, क्योंकि आयु के सिवा शेष सात कर्मों का प्रति समय आस्रव होता है ऐसा आगम में कहा है, अतः इससे विरोध होता है । और यदि सामान्य से सब कर्मों के आस्रव के कारण हैं ऐसा माना जाता है तो इस प्रकार विशेष रूप से कथन करना युक्त नहीं ठहरता ?

    समाधान – यद्यपि तत्प्रदोष आदि से ज्ञानावरणादि सब कर्म प्रकृतियों का प्रदेश बन्ध होता है ऐसा नियम नहीं है तो भी वे प्रतिनियत अनुभागबन्ध के हेतु हैं, इसलिए तत्प्रदोष, निह्नव आदि का अलग-अलग कथन किया है ।

    इति तत्त्वार्थवृत्तौ सर्वार्थसिद्धिसंज्ञिकायां षष्ठोध्यायः ।।6।।

    इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थवृत्ति में छठा अध्याय समाप्त हुआ ।।6।।

    राजवार्तिक :
    1. दान लाभ भोग उपभोग और वीर्य में विघात करना-विघ्न उपस्थित करना अन्तराय के आस्रव के कारण है।

    ज्ञानप्रतिषेध, सत्कारोपघात, दान-लाभ-भोग-उपभोग-वीर्य स्नान-अनलेपन, गन्ध-माल्य, आच्छादन भूषण, शयन, आसन, भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य और परिभोग आदि में विघ्न करना, विभवस्मृद्धि में विस्मय करना, द्रव्य का त्याग नहीं करना, द्रव्य के उपयोग के समर्थन में प्रमाद करना, देवता के लिए निवेदित किया या अनिवेदित किये गये द्रव्य का ग्रहण, निर्दोष उपकरणों का त्याग, दूसरे की शक्ति का अपहरण, धर्म-व्यवच्छेद करना, कुशल चारित्रवाले तपस्वी गुरु तथा चैत्य की पूजा में व्याघात करना, दीक्षित कृपण दीन अनाथ को दिये जानेवाले वस्त्र-पात्र, आश्रय आदि में विघ्न करना, पर-निरोध, बन्धन, गुह्य अंगच्छेद, कान-नाक-ओंठ आदि का काट देना प्राणिवध आदि अन्तरायकर्म के आस्रव के कारण हैं।

    2. 'शान्तिः शौचमिति' सूत्र से प्रकारवाची 'इति' शब्द का सब जगह अनुवर्तन करना चाहिए। इससे अनुक्त प्रकारों का संग्रह हो जाता है।

    3. जैसे शराबी मद-मोह-विभ्रमकरी सुरा को पीकर उस के नशे में अनेक विकारों को प्राप्त होता है अथवा जैसे रोगी अपथ्य भोजन कर के अनेक बात-पित्तादि विकारों से ग्रस्त होता है उसी तरह उक्त आस्रवविधि से ग्रहण किये गये ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से यह आत्मा अनेक संसार-विकारों को प्राप्त होता है।

    4-6. जैसे दीपक घटादि का प्रकाशक होता है उसी तरह शास्त्र भी पदार्थों का प्रकाशक होता है । 'यह परिणमन या शक्ति अमुक फल को उत्पन्न करेगी' यह तो स्वभावव्याख्यान है। शास्त्र भी अतिशयज्ञानवाले युगपत् सर्वार्थावभासनसमर्थ प्रत्यक्षज्ञानी केवली के द्वारा प्रणीत हैं, अतः प्रमाण हैं । इसीलिए शास्त्र में वर्णित ज्ञानावरणादि के आस्रव के कारण आगमानुगृहीत हैं और ग्राह्य हैं । शास्त्र भी स्वभाव को ही प्रकट करता है। 'शास्त्रसिद्ध भी पदार्थव्यवस्था होती है' इसमें किसी भी वादी को विवाद नहीं है। वैशेषिक पृथिव्यादि द्रव्यों का कठिन द्रव, उष्ण और चलनस्वभाव, रूपादिगुणों को उन-उन इन्द्रियों के द्वारा गृहीत होने का स्वभाव और उत्क्षेपण-अवक्षेपण आदि का संयोग और विभाग से निरपेक्षकारण होने का स्वभाव आगम से ही स्वीकार करते हैं । सांख्य सत्त्व रज और तमगुणों का प्रकाश प्रवृत्ति आदि स्वभाव मानते हैं। बौद्ध अविद्या आदि का संस्कार आदि को उत्पन्न करने का प्रतिनियत स्वभाव स्वीकार करते हैं। अतः कोई उपालम्भ नहीं है।

    7. प्रश्न – आगम में ज्ञानावरण के बन्धकाल में दर्शनावरण आदि का भी बन्ध बताया है, अतः प्रदोष आदि ज्ञानावरण के ही आस्रव के कारण नहीं हो सकते, सभी कर्मों के आस्रव के कारण होंगे ?

    उत्तर – प्रदोष आदि कारणों से ज्ञानावरण आदि उन कर्मों में विशेष अनुभाग पड़ता है । प्रदोष आदि से प्रदेशबन्ध तो सबका होता है पर अनुभाग उन्हीं-उन्हीं ज्ञानावरणादि में पड़ता है। अतः अनुभागविशेष से प्रदोष आदि का आस्रवभेद हो जाता है।

    *** छठाँ अध्याय समाप्त ***

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    7-आस्रवाधिकार



    + व्रत -
    हिंसाऽनृत-स्तेयाब्रह्म-परिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् ॥1॥
    अन्वयार्थ : हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह से विरत होना व्रत है ॥१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अथ सप्तमोध्यायः

    आस्रव पदार्थ का व्याख्यान करते समय उसके आरम्भ में 'शुभः पुण्यस्य' यह कहा है पर वह सामान्यरूपसे ही कहा है, अतः विशेषरूप से उसका ज्ञान करानेके लिए शुभ क्या है ऐसा पूछने पर आगेका सूत्र कहते हैं -

    'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' इत्यादि सूत्रों द्वारा हिंसादिक का जो स्वरूप आगे कहेंगे उनसे विरत होना व्रत कहलाता है । प्रतिज्ञा करके जो नियम लिया जाता है वह व्रत है । या 'यह करने योग्य है और यह नहीं करने योग्य है' इस प्रकार नियम करना व्रत है ।

    शंका – हिंसा आदिक परिणाम विशेष ध्रुव अर्थात् सदा काल स्थिर नहीं रहते इसलिए उनका अपादान कारक में प्रयोग कैसे बन सकता है ?

    समाधान – बुद्धिपूर्वक त्याग में ध्रुवपने की विवक्षा बन जाने से अपादान कारक का प्रयोग बन जाता है । जैसे 'धर्म से विरत होता है' यहाँ जो यह धर्म से विमुख बुद्धिवाला मनुष्य है वह विचार करता है कि 'धर्म दुष्कर है और उसका फल श्रद्धामात्रगम्य है' इस प्रकार वह बुद्धि से समझ कर धर्म से विरत हो जाता है । इसी प्रकार यहाँ भी जो यह मनुष्य विचारपूर्वक काम करनेवाला है वह विचार करता है कि जो ये हिंसादिक परिणाम हैं वे पापके कारण हैं और जो पाप कार्य में प्रवृत्त होते हैं उन्हें इसी भव में राजा लोग दण्ड देते हैं और वे पापाचारी परलोक में दुःख उठाते हैं, इस प्रकार वह बुद्धिसे समझ कर हिंसादिक से विरत हो जाता है । इसलिए बुद्धि से ध्रुवत्वपने की विवक्षा बन जाने से अपादान कारक का प्रयोग करना उचित है । विरति शब्द को प्रत्येक शब्द के साथ जोड़ लेना चाहिए । यथा हिंसा से विरति, असत्य से विरति आदि । इन पाँच व्रतों में अहिंसा व्रत को प्रारम्भ में रखा है क्योंकि वह सब में मुख्य है । धान्य के खेत के लिए जैसे उसके चारों ओर काँटों का घेरा होता है उसी प्रकार सत्यादिक सभी व्रत उसकी रक्षा के लिए हैं । सब पापों से निवृत्त होनेरूप सामायिक की अपेक्षा एक व्रत है । वही व्रत छेदोपस्थापना की अपेक्षा पाँच प्रकार का है और उन्हीं का यहाँ कथन किया है ।

    शंका – यह व्रत आस्रव का कारण है यह बात नहीं बनती, क्योंकि संवर के कारणों में इनका अन्तर्भाव होता है । आगे गुप्ति, समिति इत्यादि संवर के कारण कहने वाले हैं । वहाँ दस प्रकार के धर्मों में एक संयम नाम का धर्म बतलाया है उसमें व्रतों का अन्तर्भाव होता है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वहाँ निवृत्तिरूप संवर का कथन करेंगे और यहाँ प्रवृत्ति देखी जाती है, क्योंकि हिंसा, असत्य और अदत्तादान आदि का त्याग करने पर अहिंसा, सत्यवचन और दी हुई वस्तु का ग्रहण आदि-रूप क्रिया देखी जाती है । दूसरे ये व्रत गुप्ति आदि रूप संवर के अंग हैं । जिस साधु ने व्रतों की मर्यादा कर ली है वह सुखपूर्वक संवर करता है, इसलिए व्रतों का अलग से उपदेश दिया है ।


    शंका – रात्रिभोजनविरमण नाम छठा अणुव्रत है उसकी यहाँ परिगणना करनी थी ?

    समाधान – नहीं, क्योंकि उसका भावनाओं में अन्तर्भाव हो जाता है । आगे अहिंसा व्रतकी भावनाएँ कहेंगे । उनमें एक आलोकितपानभोजन नाम की भावना है उसमें रात्रिभोजनविरमण नामक व्रत का अन्तर्भाव हो जाता है ।

    उस पाँच प्रकार के व्रत के भेदों का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-3 हिंसादि के लक्षण आगे कहेंगे। चारित्रमोह के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से औपशमिक आदि चारित्रों की प्रकटता में जो विरक्ति होती है उसे विरति कहते हैं । बुद्धिपूर्वक परिणामो से 'यह ऐसा ही करना है' इस प्रकार के नियम को व्रत कहते हैं । व्रत में किसी अन्य कार्य से निवृत्ति ही मुख्य होती है।

    4-5. 'हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यः' यह अपादानार्थक पञ्चमी विभक्ति है । यहाँ बुद्धि के अपाय में ध्रुवत्वविवक्षा करके जैसे 'ग्रामाद् आगच्छति' में ग्राम को ध्रुव मानकर पञ्चमी-विभक्ति बनती है वैसे ही पञ्चमी बन जाती है। जैसे 'धर्माद् विरमति' यहाँ कोई हतबुद्धि 'धर्म बड़ा दुष्कर है, इसका फल श्रद्धामात्रगम्य है' यह विचार कर अपनी धर्मबुद्धि से विरक्त होता है उसी तरह कोई विवेकी पुरुष 'हिंसादि परिणाम पाप के कारण हैं, पापी को इसी लोक में राजदंड आदि मिलते हैं, परलोक में भी अनेकविध दुःख उठाने पड़ते हैं' यह विचारकर हिंसाबुद्धि से विरक्त होता है । अतः बुद्धि की दृष्टि से ध्रुवत्व विवक्षा में पञ्चमी विभक्ति बन जाती है। अतः 'हिंसादि परिणाम क्षणिक है इस कारण उससे अपादान नहीं बनता। यदि हिंसापरिणत नित्य आत्माको हिंसा मानकर उससे विरक्ति करते हैं तो नित्य आत्मा से विरति हो नहीं सकती' यह आशंका निर्मूल हो जाती है।

    6. अहिंसा सभी व्रतों में प्रधान है, अतः उसका सर्वप्रथम कथन किया है। जैसे धान के खेत में चारों ओर बारी लगा दी जाती है और उसी तरह अन्य सभी व्रत चारों-ओर से अहिंसा रूपी धान की रक्षा करने वाले हैं।

    7-9. विरति शब्द का सम्बन्ध 'हिंसाविरति अनृतविरति' आदि रूप से प्रत्येक से कर लेना चाहिए। यद्यपि गुड़, चावल आदि पकने योग्य पदार्थों के भेद से जैसे पाक में भेद होता है उसी तरह त्याज्य हिंसा, अनृत आदि के भेद से 'विरति' भी अनेक प्रकार की हो सकती है किन्तु विरतिसामान्य की दृष्टि से यहाँ एकवचन का प्रयोग किया है। विषयभेद से भेद यहाँ विवक्षित नहीं है। इसीलिए सर्व-सावद्य-निवृत्तिरूप सामान्य सामायिकव्रत की अपेक्षा एक व्रत है और भेदाधीन छेदोपस्थापना की अपेक्षा पाँच व्रत होते हैं।

    10-14. प्रश्न – इन अहिंसा आदि व्रतों को आस्रव के प्रकरण में न कहकर संवर के प्रकरण में कहना चाहिए, क्योंकि संवर के कारणभूत भाव काय, विनय, ईर्यापथ, भैक्ष्य, शयन, आसन, प्रतिष्ठापन और वाक्य इन आठ शुद्धिरूप संयमधर्म में तथा सत्यादि में इनका अन्तर्भाव हो जाता है। यदि प्रपञ्च के लिए इनका निरूपण करना है तो वहीं करना चाहिए, यहाँ प्रकरण बढ़ाने से क्या लाभ ?

    उत्तर – व्रत संवररूप नहीं है। क्योंकि इनमें परिस्पन्द-प्रवृत्ति है। असत्य, चोरी आदि से विरक्त होकर सत्य, अचौर्य आदि प्रवृत्ति देखी जाती है। हाँ, गुप्ति आदि संवर के लिए ये अहिंसादिव्रत सहायक होते हैं। व्रतों का संस्कार रखनेवाला साधु सुखपूर्वक संवर करता है। अतः संवर की भूमिकारूप इन व्रतों का पुण्यास्रव का हेतु होने से यहाँ ही निर्देश करना उचित है।

    15-20. यद्यपि रात्रि-भोजन-विरति छठवें अणुव्रत के रूप में निर्दिष्ट मिलता है, फिर भी अहिंसा-व्रत की 'आलोकितपानभोजन' नामक भावना में अन्तर्भूत होने से उसका पृथक् निर्देश नहीं किया है ।

    प्रश्न – यदि आलोकितपानभोजन की विवक्षा है तो यह प्रदीप और चन्द्र आदि के प्रकाश में रात्रिभोजन करने पर भी सिद्ध हो सकती है ?

    उत्तर – इसमें अनेक आरम्भ दोष हैं। दीपक के जलाने में और अग्नि आदि के करने कराने में अनेक दोष होते हैं। दूसरे के द्वारा जलाये हुए प्रदीप के प्रकाश में स्वयं का आरम्भ न भी हो तो भी गमन आदि नहीं हो सकते । 'ज्ञान, सूर्य तथा इन्द्रियों से मार्ग की परीक्षा करके चार-हाथ आगे देखकर यति को योग्य देशकाल में शुद्ध भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए' यह आचारशास्त्र का उपदेश है। यह विधि रात्रि में नहीं बनती। दिन को भिक्षा लाकर रात्रि में भोजन करना भी उचित नहीं है। क्योंकि इसमें प्रदीप आदि के समारम्भ के दोष बने ही रहते हैं। 'लाकर के भोजन करना' यह संयम का साधन भी नहीं है। निष्परिग्रही पाणिपुटभोजी साधु को भिक्षा का लाना भी संभव नहीं है । पात्र रखनेपर अनेक दोष देखे जाते हैं - अतिदीनवृत्ति आ जाती है और शीघ्र पूर्ण निवृत्ति के परिणाम नहीं हो सकते क्योंकि सर्व-सावद्यनिवृत्तिकाल में ही पात्रग्रहण करने से पात्रनिवृत्ति के परिणाम कैसे हो सकेंगे? पात्र से लाकर परीक्षा करके भोजन करने में भी योनिप्राभृतज्ञ साधु को संयोग, विभाग आदि से होनेवाले गुणदोषों का विचार करना पड़ता है, लाने में दोष है, छोड़ने में भी अनेक दोष होते है। जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश में स्फुट रूप से पदार्थ दिख जाते हैं, तथा भूमि दाता गमन अन्नपान आदि गिरे या रखे हुए सब साफ-साफ दिखाई देते हैं उस प्रकार चन्द्र आदि के प्रकाश में नहीं दिखते । अतः दिन में भोजन करना ही निर्दोष है।

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    + व्रती के भेद -
    देश सर्वतोऽणु-महती ॥2॥
    अन्वयार्थ : हिंसादिक से एकदेश निवृत्त होना अणुव्रत है और सब प्रकार से निवृत्त होना महाव्रत है ॥२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    देश शब्द का अर्थ एकदेश है और सर्व शब्द का अर्थ सकल है । सूत्र में देश और सर्व शब्द का द्वन्द्व समास करके तसि प्रत्यय करके 'देशसर्वतः' पद बनाया है । इस सूत्र में विरति शब्द की अनुवृत्ति पूर्व सूत्र से होती है । यहाँ अणु और महत् शब्द का द्वन्द्व समास होकर 'अणुमहती' पद बना है । व्रत शब्द नपुंसक लिंग है, इसलिए 'अणुमहती' यह नपुंसक लिंगपरक निर्देश किया है । इनका सम्बन्ध क्रम से होता है । यथा - एकदेश निवृत्त होना अणुव्रत है और सब प्रकार से निवृत्त होना महाव्रत है इस प्रकार अहिंसादि प्रत्येक व्रत दो प्रकार के हैं । प्रयत्नशील जो पुरुष उत्तम औषधि के समान इन व्रतों का सेवन करता है उसके दुःखोंका नाश होता है ।

    इन व्रतों की किसलिए और किस प्रकार भावना करनी चाहिए, अब इसी बात को बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    देश अर्थात् एक भाग, सर्व-संपूर्णरूप । हिंसादि से एकदेश विरक्त होना अणुव्रत है और सम्पूर्णरूप से विरक्ति महाव्रत है। जो व्यक्ति 'हिंसा नहीं करुंगा, झूठ नहीं बोलूंगा, चोरी नहीं करूँगा, परस्त्रीगमन नहीं करूँगा, परिग्रह नहीं रखूगा' इन अभिप्रायों की रक्षा करने में असमर्थ है उसे इन व्रतों की दृढ़ता के लिए ये भावनाएँ पालनी चाहिए --

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    + प्रत्येक व्रत की भावनाएँ -
    तत्स्थैर्यार्थं भावना: पञ्च-पञ्च ॥3॥
    अन्वयार्थ : उन व्रतों को स्थिर करने के लिए प्रत्येक व्रत की पाँच पाँच भावनाएँ हैं ॥३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    उन व्रतों को स्थिर करने के लिए एक एक व्रत की पाँच पाँच भावनाएँ जाननी चाहिए । यदि ऐसा है तो प्रथम अहिंसा व्रत की भावनाएँ कौन-सी हैं ? अब इस बात को बतलाने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. वीर्यान्तराय-क्षयोपशम चारित्र-मोहोपशम-क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्मोदय की अपेक्षा रखनेवाले आत्मा के द्वारा जो भाई जाती हैं - जिनका बार-बार अनुशीलन किया जाता है, वे भावना हैं।

    2-3. प्रश्न – 'पञ्च-पञ्च' की जगह वीप्सा अर्थ में शस् प्रत्यय करके 'पञ्चशः' यह लघुनिर्देश करना चाहिए। 'भावयेत्' इस क्रिया का अध्याहार करने से यहाँ कारक का प्रकरण भी है ही।

    उत्तर – शस् प्रत्यय विकल्प से होता है। फिर, क्रिया का अध्याहार करने में प्रतिपत्ति-गौरव होता है, अतः स्पष्ट अर्थबोध कराने के लिए 'पञ्च-पञ्च' यही विशद निर्देश उपयुक्त है।

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    + अहिंसाव्रत की भावनाएँ -
    वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपण-समित्यालोकित-पान-भोजनानि पञ्च ॥4॥
    अन्वयार्थ : वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति और आलोकितपान-भोजन ये अहिंसाव्रत की पाँच भावनाएँ हैं ॥४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति और आलोकितपानभोजन ये अहिंसा व्रत की पाँच भावनाएँ हैं ।

    अब दूसरे व्रत की भावनाएँ कौनसी हैं यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति और आलोकितपानभोजन ये अहिंसाव्रत की पाँच भावनाएँ हैं।

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    + सत्य व्रत की भावनाएँ -
    क्रोध-लोभ-भीरुत्व-हास्य-प्रत्याख्यानान्यनुवीचि-भाषणं च पञ्च ॥5॥
    अन्वयार्थ : क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, भीरुत्वप्रत्याख्यान, हास्यप्रत्याख्यान और अनुवीचीभाषण ये सत्य व्रत की पाँच भावनाएँ हैं ॥५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, भीरुत्वप्रत्याख्यान, हास्यप्रत्याख्यान और अनुवीचीभाषण ये सत्य व्रत की पाँच भावनाएँ हैं । अनुवीचीभाषण का अर्थ निर्दोष भाषण है ।

    अब तीसरे व्रत की कौनसी भावनाएँ हैं, यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    क्रोधत्याग, लोभत्याग, भयत्याग, हास्यत्याग और अनुवीचिभाषण-विचारपूर्वक बोलना ये पाँच सत्यव्रत की भावनाएँ हैं। पुण्यास्रव का प्रकरण होने से अप्रशस्त क्रिया करनेवाले पापी के भाषण को अनुवीचिभाषण नहीं कह सकते।

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    + अचौर्य व्रत की भावनाएँ -
    शून्यागार-विमोचितावास-परोपरोधाकरण-भैक्ष्यशुद्धि-सधर्मावि-संवादा: पञ्च ॥6॥
    अन्वयार्थ : शून्यागारवास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, भैक्षशुद्धि और सधर्माविसंवाद ये अचौर्य व्रत की पाँच भावनाएँ हैं ॥६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    पर्वत की गुफा और वृक्ष का कोटर आदि शून्यागार हैं इनमें रहना शून्यागारावास है ।

    दूसरों द्वारा छोड़े हुए मकान आदि में रहना विमोचितावास है ।

    दूसरों को ठहरने से नहीं रोकना परोपरोधाकरण है ।

    आचार शास्त्र में बतलायी हुई विधि के अनुसार भिक्षा लेना भैक्षशुद्धि है ।

    'यह मेरा है यह तेरा है' इस प्रकार सधर्मियों से विसंवाद नहीं करना सधर्माविसंवाद है । ये अदत्तादानविरमण व्रत की पाँच भावनाएँ हैं ।

    अब इस समय ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाओं का कथन करना चाहिए ; इसलिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    शून्यागार-पर्वत की गुफा वृक्ष की खोह आदि में निवास करना, पर के द्वारा छोड़े गये मकान आदि में रहना, दूसरे को उसमें आने से नहीं रोकना, शास्त्रानुसार भिक्षाचर्या, 'यह मेरा और यह तेरा' इस प्रकार साधर्मीजनों से विसंवाद नहीं करना, ये पाँच अचौर्यव्रत की भावनाएँ हैं।

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    + ब्रह्मचर्य व्रत की भावनाएँ -
    स्त्रीरागकथा श्रवण-तन्मनोहरांग निरीक्षण पूर्व-रतानुस्मरण-वृष्येष्टरस-स्वशरीरसंस्कारत्यागा: पञ्च ॥7॥
    अन्वयार्थ : स्त्रियों में राग को पैदा करने वाली कथा के सुनने का त्याग, स्त्रियों के मनोहर अंगों को देखने का त्याग, पूर्व भोगों के स्मरण का त्याग, गरिष्ठ और इष्ट रस का त्याग तथा अपने शरीर के संस्कार का त्याग ये ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ हैं ॥७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    त्याग शब्द को प्रत्येक शब्द के साथ जोड़ लेना चाहिए । यथा - स्त्रीरागकथाश्रवणत्याग, तन्मनोहरांगनिरीक्षणत्याग, पूर्वरतानुस्मरणत्याग, वृष्येष्टरसत्याग और स्वशरीरसंस्कारत्याग ये ब्रह्मचर्य व्रत की भावनाएँ हैं ।

    अब पाँचवें व्रत की कौनसी भावनाएँ हैं यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    स्त्री-राग-कथा-श्रवण-वर्जन, उनके मनोहर अंगों के देखने का त्याग, पूर्वभुक्त विषयों के स्मरण का त्याग, उन्मादक भोजन आदि का त्याग और शरीर-संस्कार का त्याग ये पाँच ब्रह्मचर्यव्रत की भावनाएँ हैं।

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    + अपरिग्रह व्रत की भावनाएँ -
    मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रिय-विषय-राग-द्वेष वर्जनानि पञ्च ॥8॥
    अन्वयार्थ : पांचों इन्द्रियों के मनोज्ञ (प्रिय) और अमनोज्ञ (अप्रिय) विषयों में क्रम से राग और द्वेष का त्याग करना ये अपरिग्रहव्रत की पाँच भावनाएँ हैं ॥८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियों के इष्ट और अनिष्ट स्पर्श आदिक पाँच विषयों के प्राप्त होने पर राग और द्वेष का त्याग करना ये आकिंचन्य व्रत की पाँच भावनाएँ जाननी चाहिए ।

    जिस प्रकार इन व्रतों की दृढ़ता के लिए भावनाएँ प्रतीत होती हैं, इसलिए भावनाओं का उपदेश दिया है उसी प्रकार विद्वान् पुरुषों को व्रतों की दृढ़ता के लिए विरोधी भावों के विषय में क्या करना चाहिए ? यह बतलाने के लिए अब आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    पाँचों इन्द्रियों के इष्ट विषयों में राग और अनिष्ट विषयों में द्वेष का त्याग करना अपरिग्रह-व्रत की पाँच भावनाएं हैं।

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    + पाप से विमुखता के लिए भावनाएं -
    हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥9॥
    अन्वयार्थ : हिंसादिक पाँच दोषों में ऐहिक और पारलौकिक अपाय और अवद्य का दर्शन भावने योग्य है ॥९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    स्वर्ग और मोक्ष की प्रयोजक क्रियाओं का विनाश करने वाली प्रवृत्ति अपाय है । अवद्य का अर्थ गर्ह्य है । अपाय और अवद्य इन दोनों के दर्शन की भावना करनी चाहिए ।

    शंका – कहाँ ?

    समाधान – इस लोक और परलोक में ।

    शंका – किनमें ?

    समाधान – हिंसादि पाँच दोषों में ।

    शंका – कैसे ?

    समाधान – हिंसा में यथा - हिंसक निरन्तर उद्वेजनीय है, वह सदा वैर को बाँधे रहता है । इस लोक में वध, बन्ध और क्लेश आदि को प्राप्त होता है तथा परलोक में अशुभ गति को प्राप्त होता है और गर्हित भी होता है इसलिए हिंसा का त्याग श्रेयस्कर है । असत्यवादी का कोई श्रद्धान नहीं करता । वह इस लोक में जिह्वाछेद आदि दुःखों को प्राप्त होता है तथा असत्य बोलने से दुःखी हुए अतएव जिन्होंने वैर बाँध लिया है उनसे बहुत प्रकार की आपत्तियों को और परलोक में अशुभ गति को प्राप्त होता है और गर्हित भी होता है इसलिए असत्य वचन का त्याग श्रेयस्कर है । तथा परद्रव्य का अपहरण करने वाले चोर का सब तिरस्कार करते हैं । इस लोक में वह ताड़ना, मारना, बाँधना तथा हाथ, पैर, कान, नाक, ऊपर के ओठ का छेदना, भेदना और सर्वस्वहरण आदि दुःखों को और परलोक में अशुभ गति को प्राप्त होता है और गर्हित भी होता है इसलिए चोरी का त्याग श्रेयस्कर है । तथा जो अब्रह्मचारी है उसका चित्त मद से भ्रमता रहता है । जिस प्रकार वन का हाथी हथिनी से जुदा कर दिया जाता है और विवश होकर उसे वध, बन्धन और क्लेश आदि दुःखों को भोगना पड़ता है ठीक यही अवस्था अब्रह्मचारी की होती है । मोह से अभिभूत होने के कारण वह कार्य और अकार्य के विवेक से रहित होकर कुछ भी उचित आचरण नहीं करता । परस्त्री के आलिंगन और संसर्ग में ही इसको रति रहती है, इसलिए यह वैर को बढ़ाने वाले लिंग का छेदा जाना, मारा जाना, बाँधा जाना और सर्वस्व का अपहरण किया जाना आदि दुःखों को और परलोक में अशुभ गति को प्राप्त होता है तथा गर्हित भी होता है, इसलिए अब्रह्म का त्याग आत्महितकारी है । जिस प्रकार पक्षी मांस के टुकड़ें को प्राप्त करके उसको चाहने वाले दूसरे पक्षियों के द्वारा पराभूत होता है उसी प्रकार परिग्रहवाला भी इसी लोक में उसको चाहने वाले चोर आदि के द्वारा पराभूत होता है। तथा उसके अर्जन, रक्षण और नाश से होनेवाले अनेक दोषों को प्राप्त होता है। जैसे ईंधन से अग्नि की तृप्ति नहीं होती वैसे ही इसकी कितने ही परिग्रह से कभी भी तृप्ति नहीं होती। यह लोभातिरेक के कारण कार्य और अकार्य का विवेक नहीं करता, परलोक में अशुभ गति को प्राप्त होता है। तथा यह लोभी है इस प्रकार से इसका तिरस्कार भी होता है, इसलिए परिग्रह का त्याग श्रेयस्कर है। इस प्रकार हिंसा आदि दोषों में अपाय और अवद्य के दर्शन की भावना करनी चाहिए।

    अब हिंसा आदि दोषों में दूसरी भावना का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-2. अभ्युदय और निःश्रेयस के साधनों का नाशक अनर्थ अपाय है। अथवा इहलोकभय परलोकभय आदि सात प्रकार के भय अपाय हैं । अवद्य अर्थात् गर्ह्य निन्दनीय । इस तरह हिंसादिक में अपाय और अवद्य की भावना करनी चाहिए।

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    + और भी -
    दु:खमेव वा ॥10॥
    अन्वयार्थ : अथवा हिंसादिक दुःख ही हैं ऐसी भावना करनी चाहिए ॥१०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    हिंसादिक दुःख ही हैं ऐसा चिन्तन करना चाहिए।

    शंका – हिंसादिक दुःख कैसे हैं ?

    समाधान – दुःख के कारण होने से। यथा-'अन्न ही प्राण हैं।' अन्न प्राणधारण का कारण है पर कारण में कार्य का उपचार करके जिस प्रकार अन्न को ही प्राण कहते हैं। या कारण का कारण होनेसे हिंसादिक दुःख हैं। यथा-'धन ही प्राण हैं।' यहाँ अन्नपान का कारण धन है और प्राण का कारण अन्नपान है, इसलिए जिस प्रकार धन को प्राण कहते हैं उसी प्रकार हिंसादिक असाता वेदनीय कर्म के कारण हैं और असाता वेदनीय दुःख का कारण है, इसलिए दुःख के कारण या दुःख के कारण के कारण हिंसादिक में दुःख का उपचार है। ये हिंसादिक दुःख ही हैं इस प्रकार अपनी और दूसरों की साक्षीपूर्वक भावना करनी चाहिए।

    शंका – ये हिंसादिक सबके सब केवल दुःख ही हैं यह बात नहीं है, क्योंकि विषयों के सेवन में सुख उपलब्ध होता है ?

    समाधान – विषयों के सेवन से जो सुखाभास होता है वह सुख नहीं है, किन्तु दाद को खुजलाने के समान केवल वेदना का प्रतिकारमात्र है।

    और भी अन्य भावना करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-4 जैसे प्राण के कारण अन्न को प्राण कह देते हैं उसी तरह दुःख के कारण हिंसादि में कार्यभूत दुःख का उपचार करके उन्हें दुःख कह देते हैं । अथवा, जैसे धन से अन्न आता है और अन्न से प्राणस्थिति होती है अतः कारण के कारण में कार्य का उपचार करके धन को प्राण कहते हैं उसी तरह हिंसादि असातावेदनीय के कारण हैं और असाता दुःख का कारण है, अतः हिंसादि को भी दुःख कहते हैं। कहा भी है - "धन मनुष्य का बाहिर घूमनेवाला प्राण है । इस तरह अपनी आत्मा की तरह पर को समझकर हिंसादि से विरक्त होना श्रेयस्कर है। परांगना संस्पर्श में सुख की कल्पना निरी मूर्खता है क्योंकि वह सुख नहीं है, वह तो वेदना का प्रतिकार है। जैसे खुजली का रोगी अपनी खुजाल मिटाने के लिए नख या पत्थर आदि से खुजाता है, फिर भी खुजली शान्त नहीं होती, लहूलुहान होता है और दुःखी होता है, उस खुजाने के दुःख को भी थोड़ी देर के लिए खाज बन्द हो जाने के कारण सुख मान बैठता है उसी तरह मैथुनसेवी मोहवश दुःख को भी सुख मानता है। ये सब हिंसादि दुःख के कारण होने से दुःखरूप ही हैं।

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    + परस्पर जीवों के साथ भावनाएं -
    मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थानि च सत्त्व-गुणाधिक-क्लिश्यमानाविनयेषु ॥11॥
    अन्वयार्थ : प्राणीमात्र में मैत्री, गुणाधिकों में प्रमोद, क्लिश्यमानों में करुणा वृत्ति और अविनयों में माध्यस्थ्य भावना करनी चाहिए ॥११॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    दूसरों को दुःख न हो ऐसी अभिलाषा रखना मैत्री है।

    मुख की प्रसन्नता आदि के द्वारा भीतर भक्ति और अनुराग का व्यक्त होना प्रमोद है।

    दोनों पर दयाभाव रखना कारुण्य है।

    रागद्वेषपूर्वक पक्षपात का न करना माध्यस्थ्य है।

    बुरे कर्मों के फल से जो नाना योनियों में जन्मते और मरते हैं वे सत्व हैं। सत्व यह जीव का पर्यायवाची नाम है।

    जो सम्यग्ज्ञानादि गुणों में बढ़े चढ़े हैं वे गुणाधिक कहलाते हैं।

    असातावेदनीय के उदय से जो दुःखी हैं वे क्लिश्यमान कहलाते हैं।

    जिनमें जीवादि पदार्थों को सुनने और ग्रहण करने का गुण नहीं हैं वे अविनेय कहलाते हैं ।

    इन सत्व आदिक में क्रम से मैत्री आदि की भावना करनी चाहिए। जो सब जीवों में मैत्री, गुणाधिकों में प्रमोद, क्लिश्यमानों में कारुण्य और अविनेयों में माध्यस्थ्य भाव की भावना करता है उसके अहिंसा आदि व्रत पूर्णता को प्राप्त होते हैं।

    अब फिर भी और भावना के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-4.

    5-7. अनादिकालीन अष्टविध कर्मबन्धन से तीव्र दुःख की कारणभत चारों गतियों में जो दुख उठाते हैं वे सत्त्व हैं । सम्यग्दर्शन ज्ञान आदि गुणों से विशिष्ट पुरुष गुणाधिक हैं। असाता वेदनीय के उदय से जो शारीर या मानस दुःखों से संतप्त हैं वे क्लिश्यमान हैं । तत्त्वार्थोपदेश श्रवण और ग्रहण के जो पात्र होते हैं उन्हें विनेय कहते हैं। अविनेय अर्थात् विपरीत वृत्तिवाले। इनमें मैत्री आदि भावनाएँ रखनी चाहिए । इस तरह इन भावनाओं के द्वारा अहिंसादिव्रत परिपूर्ण होते हैं।

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    + संसार और शरीर के लिए भावना -
    जगत्काय-स्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥12॥
    अन्वयार्थ : संवेग और वैराग्य के लिए जगत् के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिए ॥१२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जगत् का स्वभाव यथा- यह जगत् अनादि है, अनिधन है, वेत्रासन, झल्लरी और मृदंग के समान है। इस अनादि संसार में जीव अनन्त काल तक नाना योनियों में दुःखों को पुनः पुनः भोगते हुए भ्रमण करते हैं। इसमें कोई भी वस्तु नियत नहीं है। जीवन जल के बुलबुले के समान है। और भोग-सम्पदाएँ बिजली और इन्द्रधनुष के समान चंचल हैं- इत्यादि रूप से जगत् के स्वभाव का चिन्तन करने से संसार से संवेग-भय होता है. काय का स्वभाव यथा- यह शरीर अनित्य है, दुःख का कारण है, निःसार है और अशुचि है इत्यादि। इस प्रकार काय के स्वभाव का चिन्तन करने से विषयों से आसक्ति हटकर वैराग्य उत्पन्न होता है। अतः जगत् और काय के स्वभाव की भावना करनी चाहिए।

    यहाँ पर शंकाकार कहता है कि आपने यह तो बतलाया कि हिंसादिक से निवृत्त होना व्रत है। परन्तु वहाँ यह न जान सके कि हिंसादिक क्रियाविशेष क्या है ? इसलिए यहाँ कहते हैं। तथापि उन सबका एक साथ कथन करना अशक्य है, किन्तु उनका लक्षण क्रम से ही कहा जा सकता है, अतः प्रारम्भ में जिसका उल्लेख किया है उसी का स्वरूप बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-4. स्वभाव-असाधारण धर्म । विविध वेदना के आकरभूत संसार से भीरुता संवेग है । चारित्रमोह के उदय के अभाव में उसके उपशम, क्षय और क्षयोपशम से होनेवाले विषय-विरक्त परिणाम वैराग्य हैं। आदिमान और अनादि परिणामवाले द्रव्यों का समुदाय ही संसार है। इसकी रचना अनादिनिधन है। इसमें जीव नाना गतियों में अनेक प्रकार के दुःखों को भोगते हुए परिभ्रमण करते हैं, इसमें कुछ भी नियत नहीं है, जीवन जलबुद्बुद के समान चपल है, बिजली और मेघ आदि के समान भोग-सम्पत्तियाँ क्षणभंगुर हैं, इत्यादि जगत् के स्वरूप की भावना करनी चाहिए। शरीर अनित्य है, दुःख हेतु है, अशुचि है, निःसार है इत्यादि भावनाओं से संवेग उत्पन्न होता है। इस तरह आरम्भ और परिग्रह में दोष देखने से धर्म में, धार्मिकों में, धर्मश्रवण में और धार्मिकों के दर्शन में आदरभाव और मनस्तुष्टि आदि होते हैं। आगे-आगे गुणों की प्राप्ति में श्रद्धा होती है और शरीर भोगोपभोग तथा संसार से वैराग्य उत्पन्न होता है। इस तरह भावनाओं से भावितचेता व्यक्ति व्रतों के परिपालन में दृढ़ होता है। ये सभी भावनाएँ नित्यानित्यात्मक आत्मा में ही हो सकती है। सर्वथा नित्यपक्ष में विक्रिया न होने से भावनाएँ नहीं हो सकतीं । यदि विक्रिया मानते हैं तो नित्यता नहीं रहती। सर्वथा अनित्यपक्ष में अनेकक्षण में रहनेवाला एक पदार्थ नहीं है तथा अनेक अर्थ को विषय करनेवाला एक ज्ञान नहीं है, अतः स्मरण नहीं हो सकता और इसीलिए भावना भी नहीं हो सकती। अनेकान्तवाद में तो द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से नित्य और उभयनिमित्तजन्य उत्पादविनाशरूप पर्यायों की दृष्टि से अनित्यता को प्राप्त आत्मद्रव्य में परिणमन हो सकता है। अतः भावनाएँ बन सकती हैं।

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    + हिंसा का लक्षण -
    प्रमत्तयोगात्प्राण-व्यपरोपणं हिंसा ॥13॥
    अन्वयार्थ : प्रमत्तयोग से प्राणों का वियोग करना हिंसा है ॥१३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    प्रमाद कषाय सहित अवस्था को कहते हैं और इस प्रमाद से युक्त जो आत्मा का परिणाम होता है वह प्रमत्त कहलाता है। तथा प्रमत्त का योग प्रमत्तयोग है। इसके सम्बन्ध से इन्द्रियादि दस प्राणों का यथासम्भव व्यपरोपण अर्थात् वियोग करना हिंसा कही जाती है। इससे प्राणियों को दुःख होता है, इसलिए वह अधर्म का कारण है। केवल प्राणों का वियोग करने से अधर्म नहीं होता है यह बतलाने के लिए सूत्र में 'प्रमत्तयोग से' यह पद दिया है। कहा भी है-

    'यह प्राणी दूसरे को प्राणों से वियुक्त करता है तो भी उसे हिंसा नहीं लगती।' और भी कहा है-

    'ईर्यासमिति से युक्त साधु के अपने पैर के उठाने पर चलने के स्थान में यदि कोई क्षुद्र प्राणी उनके पैर से दब जाय और उसके सम्बन्ध से मर जाय तो भी उस निमित्त से थोड़ा भी बन्ध आगम में नहीं कहा है, क्योंकि जैसे अध्यात्म दृष्टि से मूर्च्छा को ही परिग्रह कहा है वैसे यहाँ भी रागादि परिणाम को हिंसा कहा है।।'

    शंका – प्राणों का विनाश न होने पर भी केवल प्रमत्तयोग से ही हिंसा कही जाती है। कहा भी है -

    'जीव मर जाय या जीता रहे तो भी यत्नाचार से रहित पुरुष के नियम से हिंसा होती है और जो यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करता है, हिंसा के हो जाने पर भी उसे बन्ध नहीं होता।।'

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ भी भावरूप प्राणों का नाश है ही। कहा भी है-

    'प्रमाद से युक्त आत्मा पहले स्वयं अपने द्वारा ही अपना घात करता है इसके बाद दूसरे प्राणियों का वध होवे या मत होवे।'

    हिंसा का लक्षण कहा। अब उसके बाद असत्य का लक्षण बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-5. इन्द्रियों के प्रचारविशेष का निश्चय न करके प्रवृत्ति करनेवाला प्रमत्त है। जैसे मदिरा पीनेवाला मदोन्मत्त होकर कार्याकार्य और वाच्यावाच्य से अनभिज्ञ रहता है उसी तरह प्रमत्त जीवस्थान, जीवोत्पत्तिस्थान और जीवाश्रयस्थान आदि को नहीं जानकर कर्मोदय से हिंसा व्यापारों को ही करता रहता है और सामान्यतया अहिंसा में प्रयत्नशील नहीं होता। अथवा, चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रियाँ, निद्रा और प्रणय इन पन्द्रह प्रमादों से युक्त प्रमात है। योग-सम्बन्ध । यहाँ आत्मा का परिणाम ही कर्ता है अतः जो प्रमादरूप से परिणत होता है वह परिणाम प्रमत्त कहलाता है, उस परिणाम के योग-सम्बन्ध से । अथवा योग अर्थात् मन-वचन-काय की क्रिया । प्रमत्त-प्रमादपरिणत व्यक्ति के योग-व्यापार को प्रमत्तयोग कहते।

    6-11. व्यपरोपण-वियोग करना । प्राणों के वियोग करने से प्राणी की हिंसा होती है अतः प्राण का ग्रहण किया है, क्योंकि स्वतः प्राणी तो निरवयव है उसका क्या वियोग होगा ? प्राण आत्मा से सर्वथा मिन्न नहीं है, जिससे प्राणवियोग होने पर भी हिंसा न मानी जाय किन्तु प्राणवियोग होने पर आत्मा को ही दुःख होता है अतः हिंसा है और अधर्म है। 'शरीरी आत्मा प्राणों से भिन्न है अतः उसके वियोग में भी आत्मा को दुःख नहीं होना चाहिए' यह शंका ठीक नहीं है ; क्योंकि जब सर्वथा भिन्न पुत्र, कलत्र आदि के वियोग में आत्मा को परिताप होता है तब कथंचित भिन्न प्राणों के वियोग में तो होना ही चाहिए। यद्यपि शरीर और शरीरी में लक्षणभेद से नानात्व है फिर भी बन्ध के प्रति दोनों एक हैं अतः शरीर-वियोग-पूर्वक होनेवाला दुःख आत्मा को ही होता है, अतः हिंसा और अधर्म है । हाँ, जो आत्मा को निष्क्रिय, नित्य, शुद्ध और सर्वगत मानते हैं उनके यहाँ शरीर से बन्ध नहीं हो सकेगा और न दुःख ही होगा अतः उनके मत में हिंसा नहीं हो सकती।

    12. प्रमत्तयोग और प्राणव्यपरोपण ये दोनों विशेषण यह सूचना करते हैं कि दोनों के होने पर हिंसा होती है, एक के भी अभाव में हिंसा नहीं होती। तात्पर्य यह कि जब प्रमत्तयोग नहीं होता, केवल प्राणव्यपरोपण है तो वह हिंसा नहीं कही जायगी । कहा भी है

    "प्राणों से वियोग करता हुआ भी (अप्रमत्त ) वध से लिप्त नहीं होता"

    "ईर्यासमितिपूर्वक गमन करनेवाले साधु के पैर के नीचे यदि कोई जीव आ जाय और मर जाय तो भी उसे तन्निमित्तक सूक्ष्म भी बन्ध नहीं होता। अध्यात्मप्रमाण से तो मूर्छा-ममत्वभाव को ही परिग्रह कहा है।"

    प्रश्न – आपने दोनों विशेषणों को आवश्यक बताया है पर शास्त्र में तो प्राणव्यपरोपण नहीं होने पर भी केवल प्रमत्तयोग से भी हिंसा बताई है ? कहा भी है - "जीव मरे या न मरे परन्तु सावधानीपूर्वक नहीं बरतनेवाले को हिंसा है ही। जो प्रयत्नशील है उसके द्वारा हिंसा भी हो जाय पर उसे बन्ध नहीं होता" ?

    उत्तर – जहाँ प्रमत्तयोग है वहाँ स्वयं के ज्ञान-दर्शन आदि भावप्राणों का वियोग होता ही है। अतः भावप्राणों के वियोग की अपेक्षा दोनों विशेषण सार्थक हैं। कहा भी है - "प्रमाद्वान् आत्मा अपने प्रमादी भावों से पहिले स्वयं अपनी हिंसा करता ही है, दूसरे प्राणी का पीछे वध हो या न भी हो।" अतः यह दोष भी नहीं होता है कि - "जल में, थल में और आकाश में सब जगह जन्तु ही जन्तु हैं। इस जन्तुमय जगत् में भिक्षु अहिंसक कैसे रह सकता है ?" क्योंकि ज्ञान-ध्यान-परायण अप्रमत्त भिक्षु को मात्र प्राणवियोग से हिंसा नहीं होती।

    जीव भी स्थूल और सूक्ष्म दो प्रकार के हैं, उनमें जो सूक्ष्म हैं वे तो न किसी से रुकते हैं और न किसी को रोकते हैं अतः उनकी तो हिंसा होती नहीं है । जो स्थूल जीव हैं उनकी यथाशक्ति रक्षा की जाती है। जिनकी हिंसा का रोकना शक्य है उसे प्रयत्नपूर्वक रोकनेवाले संयत के हिंसा कैसे हो सकती है ?

    13. यदि प्राणी-आत्मा का सद्भाव न माना जाय तो कर्ता का अभाव होने से कुशल और अकुशल कर्मपूर्वक होनेवाले प्राणों का भी अभाव हो जायगा । अतः कर्मभूत प्राणों का सद्भाव ही कतृभूत प्राणी का सद्भाव सिद्ध करता है, जिस प्रकार कि सँडसी आदि हथियारों से लुहार की सत्ता सिद्ध होती है। एक आत्मा की सत्ता न मानने पर रूपण, अनुभवन, उपलम्भन, निमित्तग्रहण और संस्करण आदि भिन्नलक्षणवाले रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार नामक पाँचों स्कन्ध जब परस्परोपकार के प्रति उत्सुकता से रहित हैं और क्षणिक होने से अपना ही कार्य करने में असमर्थ हैं तो वे हिंसा-व्यापार में समर्थ नहीं हो सकते। स्मृति, अभिप्राय और संकल्प रूप चित्त जब भिन्नाधिकरण हैं, एक कर्तारूप से उनका प्रतिसन्धान नहीं होता, तब हिंसा आदि व्यापार कैसे हो सकेंगे ? उत्पत्ति के बाद ही तुरंत विनाश मानने पर तथा विनाश को निर्हेतुक मानने से प्राणविनाशरूप हिंसा का भी कोई हेतु नहीं हो सकता, जब और हिंसक नहीं होगा तब किसी को क्यों हिंसा का फल लगेगा ? यदि हिंसा के अकारण को भी हिंसा का फल मिलता है तो जगत् में कोई अहिंसक ही नहीं रह सकेगा। 'भिन्न सन्तान-प्राणवियुक्तरूप क्षणों को उत्पन्न करनेवाला हिंसक है' यह कल्पना भी ठीक नहीं है। क्योंकि सर्वथा असत् की उत्पत्ति का कोई कारण ही नहीं हो सकता। यदि असत् की उत्पत्ति का हेतु माना जाता है तो सत् के विनाश का भी कारण मानना चाहिए । तात्पर्य यह कि विनाश का निर्हेतुक मानना खंडित हो जाता है।

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    + झूठ का लक्षण -
    असदभिधानमनृतम् ॥14॥
    अन्वयार्थ : अप्रशस्त बोलना अनृत है ॥१४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सत् शब्द प्रशंसावाची है। जो सत् नहीं वह असत् है। असत् का अर्थ अप्रशस्त है। तात्पर्य यह है कि जो पदार्थ नहीं है उसका कथन करना अनृत-असत्य कहलाता है। ऋत का अर्थ सत्य है और जो ऋत-सत्य नहीं है वह अनृत है।

    शंका – अप्रशस्त किसे कहते हैं ?

    समाधान – जिससे प्राणियों को पीड़ा होती है उसे अप्रशस्त कहते हैं। भले ही वह चाहे विद्यमान पदार्थ को विषय करता हो या चाहे अविद्यमान पदार्थ को विषय करता हो। यह पहले ही कहा है कि शेष व्रत अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए हैं। इसलिए जिससे हिंसा हो वह वचन अनृत है ऐसा निश्चय करना चाहिए।

    असत्य के बाद जो स्तेय कहा है उसका क्या लक्षण है यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-4. 'सत्' शब्द प्रशंसावाची है, अतः 'न सत् असत्' का अप्रशस्त अर्थ होता है, शून्य अर्थ नहीं । अभिधान-कथन । अप्रशस्त अर्थ का कहना । ऋत-सत्य और अनृत असत्य है। विद्यमान पदार्थों के अस्तित्व में कोई विघ्न उत्पन्न न करने के कारण 'सत्सु साधु सत्यम्' यह व्युत्पत्ति भी सत्य की हो सकती है।

    5. यदि 'मिथ्या अनृतम्' ऐसा लघुसूत्र बनाते तो पूरे अर्थ का बोध नहीं होता, क्योंकि मिथ्या शब्द विपरीतार्थक है। अतः विद्यमान का लोप तथा अविद्यमान के उद्भावन करने वाले 'आत्मा नहीं है, परलोक नहीं है, श्यामतंडुल बराबर आत्मा है, अंगूठे की पौर बराबर आत्मा है, आत्मा सर्वगत है, निष्क्रिय है' इत्यादि वचन ही मिथ्या होने से असत्य कहे जाएंगे, किन्तु जो विद्यमान अर्थ को भी कहकर प्राणिपीड़ा करनेवाले अप्रशस्त वचन हैं वे असत्यकोटि में नहीं आँयगे । 'असत्' कहने से जितने अप्रशस्त अर्थवाची हैं, वे सभी अनृत कहे जाएंगे। इससे जो विपरीतार्थवचन प्राणिपीडाकारी हैं वे भी अनृत ही हैं।

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    + चोरी का लक्षण -
    अदत्तादानं स्तेयम् ॥15॥
    अन्वयार्थ : बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण स्तेय है ॥१५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    आदान शब्द का अर्थ ग्रहण है। बिना दी हुई वस्तु का लेना अदत्तादान है और यही स्तेय-चोरी कहलाता है।

    शंका – यदि स्तेय का पूर्वोक्त अर्थ किया जाता है तो कर्म और नोकर्म का ग्रहण करना भी स्तेय ठहरता है, क्योंकि ये किसी के द्वारा दिये नहीं जाते ? समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जहाँ देना और लेना सम्भव है वहीं स्तेय का व्यवहार होता है।

    शंका – यह अर्थ किस शब्द से फलित होता है ?

    समाधान – सूत्र में जो 'अदत्त' पद का ग्रहण किया है उससे ज्ञात होता है कि जहाँ देना लेना सम्भव है वहीं स्तेय का व्यवहार होता है।

    शंका – स्तेय का उक्त अर्थ करने पर भी भिक्षु के ग्राम नगरादिक में भ्रमण करते समय गली, कूचा के दरवाजा आदि में प्रवेश करने पर बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण प्राप्त होता है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है ; क्योंकि वे गली, कूचा के दरवाजा आदि सबके लिए खुले हैं। यह भिक्षु जिनमें किवाड़ आदि लगे हैं उन दरवाजा आदि में प्रवेश नहीं करता, क्योंकि वे सबके लिए खुले नहीं हैं। अथवा, 'प्रमत्तयोगात्' इस पद की अनुवृत्ति होती है जिससे यह अर्थ होता है कि प्रमत्त के योग से बिना दी हुई वस्तुका ग्रहण करना स्तेय है। गली कूचा आदि में प्रवेश करने वाले भिक्षु के प्रमत्तयोग तो है नहीं, इसलिए वैसा करते हुए स्तेय का दोष नहीं लगता। इस सब कथन का यह अभिप्राय है कि बाह्य वस्तु ली जाय या न ली जाय किन्तु जहाँ संक्लेशरूप परिणाम के साथ प्रवृत्ति होती है वहाँ स्तेय है।

    अब चौथा जो अब्रह्म है उसका क्या लक्षण है यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-6. प्रश्न – यदि अदत्त के आदान को चोरी कहते हैं तो आठ प्रकार के कर्म और नोकर्म तो बिना दिये हुए ही ग्रहण किये जाते हैं अतः उनका प्रहण भी चोरी ही कहलायगा ?

    उत्तर – जिनमें देनलेन का व्यवहार है, उन सोना, चाँदी आदि वस्तुओं के अदत्तादान को ही चोरी कहते हैं, कर्म-नोकर्म के ग्रहण को नहीं। यदि कर्मादान भी चोरी समझा जाय तो 'अदत्ता दान' विशेषण निरर्थक हो जाता है। जिसमें 'दत्त' का प्रसंग है उसी का 'अदत्त' से निषेध किया जा सकता है। जैसे वस्त्र, पात्र आदि हाथ आदि के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं तथा दूसरों को दिये जाते हैं, उस तरह कर्म नहीं। कर्म अत्यन्त सूक्ष्म हैं, उनका हाथ आदि के द्वारा देना-लेना नहीं हो सकता । स्व-परशरीर आहार तथा शब्दादि विषयों में राग-द्वेष रूप तीव्र विकल्प होने से कर्मबन्ध होता है। अतः स्वपरिणामों के अधीन होने से इनका लेन-देन नहीं होता । जब गुप्ति समितिरूप संवरपरिणाम होते हैं तब आस्रव का निरोध हो जाता है - कर्मों का आना रुक जाता है, अतः नित्य कर्मबन्ध का प्रसंग नहीं है। अतः जहाँ लौकिक लेन-देन व्यवहार है वहीं अदत्तादान से चोरी का प्रसंग होता है।

    7-9. प्रश्न – इन्दियों के द्वारा शब्द आदि विषयों को ग्रहण करने से तथा नगर के दरवाजे आदि को बिना दिये हुए प्राप्त करने से साधु को चोरी का दोष लगना चाहिये।

    उत्तर – यत्नवान् अप्रमत्त और ज्ञानी साधु को शास्त्रदृष्टि से आचरण करने पर शब्दादि सुनने में चोरी का दोष नहीं है, क्योंकि ये सब वस्तुएँ तो सबके लिए दी ही गई हैं, अदत्त नहीं हैं । इसीलिए साधु उन दरवाजों में प्रवेश नहीं करता जो सार्वजनिक नहीं हैं या बन्द हैं। 'वन्दना, सामायिक आदि क्रियाओं के द्वारा पुण्य का संचय साधु बिना दिया हुआ ही करता है अतः उसको प्रशस्त चोर कहना चाहिए' यह आशंका भी निर्मूल है; क्योंकि यह पहिले कह दिया है कि जहाँ देन-लेन का व्यवहार होता है वहीं चोरी है। फिर, 'प्रमत्तयोग' का सम्बन्ध यहाँ होता है। अतः वन्दनादि क्रियाओं को सावधानीपूर्वक करनेवाले साधु के प्रमत्तयोग की सम्भावना ही नहीं है अतः चोरी का प्रसंग नहीं आता । तात्पर्य यह कि प्रमत्त व्यक्ति को परद्रव्य का आदान हो या न हो, पर प्राणिपीड़ा का कारण उपस्थित होने के कारण पापास्रव होगा ही।

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    + कुशील का लक्षण -
    मैथुनम-ब्रह्म ॥16॥
    अन्वयार्थ : मैथुन कर्म अब्रह्म है ॥१६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    चारित्रमोहनीय का उदय होने पर राग परिणाम से युक्त स्त्री और पुरुष के जो एक दूसरे को स्पर्श करने की इच्छा होती है वह मिथुन कहलाता है और इसका कार्य मैथुन कहा जाता है। सब कार्य मैथुन नहीं कहलाता क्योंकि लोक में और शास्त्र में इसी अर्थ में मैथुन शब्द की प्रसिद्धि है। लोक में बाल-गोपाल आदि तक यह प्रसिद्ध है कि स्त्री-पुरुष की रागपरिणाम के निमित्तसे होने वाली चेष्टा मैथुन है। शास्त्र में भी 'घोड़ा और बैल की मैथुनेच्छा होने पर' इत्यादि वाक्यों में यही अर्थ लिया जाता है। दूसरे 'प्रमत्तयोगात्' इस पद की अनुवृत्ति होती है, इसलिए रतिजन्य सुख के लिए स्त्री-पुरुष की मिथुनविषयक जो चेष्टा होती है वही मैथुनरूप से ग्रहण किया जाता है, सब नहीं। अहिंसादिक गुण जिसके पालन करने पर बढ़ते हैं वह ब्रह्म कहलाता है और जो इससे रहित है वह अब्रह्म है।

    शंका – अब्रह्म क्या है ?

    समाधान – मैथुन। मैथुन में हिंसादिक दोष पुष्ट होते हैं, क्योंकि जो मैथुन के सेवन में दक्ष है वह चर और अचर सब प्रकार के प्राणियों की हिंसा करता है, झूठ बोलता है, बिना दी हुई वस्तु लेता है तथा चेतन और अचेतन दोनों प्रकार के परिग्रह को स्वीकार करता है।

    अब पाँचवाँ जो परिग्रह है उसका क्या लक्षण है यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-9. चारित्रमोह के उदय से स्त्री और पुरुष का परस्पर शरीरसम्मिलन होने पर सुखप्राप्ति की इच्छा से होनेवाला रागपरिणाम मैथुन है। यद्यपि मैथुन शब्द से इतना अर्थ नहीं निकलता फिर भी प्रसिद्धिवश इष्ट अर्थ का अध्यवसाय कर लिया जाता है । मैथुन शब्द लोक और शास्त्र दोनों में स्त्री-पुरुष के संयोग से होनेवाले रतिकर्म में प्रसिद्ध है। व्याकरण में भी 'अश्ववृषभयोमैथुनेच्छायाम्' सूत्र में मैथुन का यही अर्थ लिया गया है। जिस प्रकार स्त्री और पुरुष का रति के समय शरीर-संयोग होने पर स्पर्शसुख होता है उसी तरह एक व्यक्ति को भी हाथ आदि के संयोग से स्पर्श-सुख का भान होता है, अतः हस्तमैथुन भी मैथुन ही कहा जाता है । यह औपचारिक नहीं है अन्यथा इससे कर्मबन्ध नहीं हो सकेगा। यहाँ एक ही व्यक्ति चारित्रमोहोदय से प्रकट हुए कामरूपी पिशाच के संपर्क से दो हो गया है और दो के कर्म को मैथुन कहने में कोई बाधा नहीं है। अतः 'मिथुनस्य भावः' इस पक्ष में जो दो स्त्री-पुरुषरूप द्रव्यों की सत्तामात्र को मैथुनत्व का प्रसंग दिया जाता है,वह उचित नहीं है। क्योंकि आभ्यन्तर चारित्रमोहोदयरूपी परिणाम के अभाव में बाह्य कारण निरर्थक हैं। जैसे बठर चना आदि में आभ्यन्तर पाकशक्ति न होने से बाह्य जल आदि का संयोग निष्फल है उसी तरह आभ्यन्तर चारित्रमोहोदय के स्त्रैण पौंस्नरूप रतिपरिणाम न होने से बाह्य में रति-परिणाम-रहित दो द्रव्यों के रहने पर भी मैथुन का व्यवहार नहीं होता।

    'मिथुनस्य कर्म' इस पक्ष में दो पुरुषों के द्वारा की जानेवाली बोझा-ढोनारूप क्रिया, पाकक्रिया और नमस्कारादि क्रिया को भी मैथुनत्व का प्रसंग देना उचित नहीं है, क्योंकि कभी-कभी दो पुरुषों में भी चारित्रमोहोदय से मैथुनकर्म देखा जाता है। कहा भी है "पुरुष पुरुष के साथ ही जो रतिकर्म करते हैं वह तीव्र-राग की ही चेष्टा है।" इसी तरह 'स्त्री और पुरुष के कर्म' पक्ष में पाकादि क्रिया और वन्दनादि क्रिया में मैथुनत्व का प्रसंग उचित नहीं है, क्योंकि स्त्री और पुरुष के संयोग से ही होनेवाला कर्म वहाँ विवक्षित है, पाकादि क्रिया तो अन्य से भी हो जाती है। फिर 'प्रमत्तयोग' की अनुवृत्ति यहाँ भी आती ही है। अतः चारित्रमोह के उदय से प्रमत्त मिथुन के कर्म को ही मैथुन कह सकते हैं। नमस्कारादि क्रिया में प्रमाद का योग तथा चारित्रमोह का उदय नहीं है, अतः वह मैथुन नहीं कही जा सकती।

    10. जिसके परिपालन से अहिंसादि गुणों की वृद्धि हो वह ब्रह्म है । अब्रह्मचारी के हिंसादि दोष पुष्ट होते हैं। मैथुनाभिलाषी व्यक्ति स्थावर और त्रसजीवों का घात करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, सचेतन और अचेतन परिग्रह का संग्रह भी करता है।

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    + परिग्रह का लक्षण -
    मूर्च्छा परिग्रह: ॥17॥
    अन्वयार्थ : मूर्च्छा परिग्रह है ॥१७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अब मूर्च्छा का स्वरूप कहते हैं।

    शंका – मूर्च्छा क्या है ?

    समाधान – गाय भैंस, मणि और मोती आदि चेतन अचेतन बाह्य उपधि का तथा रागादिरूप अभ्यन्तर उपधि का संरक्षण अर्जन और संस्कार आदिरूप व्यापार ही मूर्च्छा है।

    शंका – लोकमें वातादि प्रकोपविशेष का नाम मूर्च्छा है ऐसी प्रसिद्धि है, इसलिए यहाँ इस मूर्च्छा का ग्रहण क्यों नहीं किया जाता ?

    समाधान – यह कहना सत्य है तथापि मूर्च्छ धातु का सामान्य अर्थ मोह है और सामान्य शब्द तद्गत विशेषों में ही रहते हैं ऐसा मान लेने पर यहाँ मूर्च्छा का विशेष अर्थ ही लिया गया है, क्योंकि यहाँ परिग्रह का प्रकरण है।

    शंका – मूर्च्छाका यह अर्थ लेने पर भी बाह्य वस्तु को परिग्रहपना नहीं प्राप्त होता, क्योंकि मूर्च्छा इस शब्द से आभ्यन्तर परिग्रह का संग्रह होता है।

    समाधान – यह कहना सही है; क्योंकि प्रधान होने से आभ्यन्तर का ही संग्रह किया है। यह स्पष्ट ही है कि बाह्य परिग्रह के न रहने पर भी 'यह मेरा है' ऐसा संकल्प वाला पुरुष परिग्रहसहित ही होता है।

    शंका – यदि बाह्य पदार्थ परिग्रह नहीं ही है और यदि मूर्च्छा का कारण होने से 'यह मेरा है' इस प्रकार का संकल्प ही परिग्रह है तो ज्ञानादिक भी परिग्रह ठहरते हैं, क्योंकि रागादि परिणामों के समान ज्ञानादिक में भी 'यह मेरा है' इस प्रकारका संकल्प होता है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि 'प्रमत्तयोगात्' इस पद की अनुवृत्ति होती है, इसलिए जो ज्ञान, दर्शन और चारित्रवाला होकर प्रमादरहित है उसके मोह का अभाव होने से मूर्च्छा नहीं है, अतएव परिग्रहरहितपना सिद्ध होता है। दूसरे वे ज्ञानादिक अहेय हैं और आत्मा के स्वभाव हैं, इसलिए उनमें परिग्रहपना नहीं प्राप्त होता। परन्तु रागादिक तो कर्मों के उदय से होते हैं, अतः वे आत्मा का स्वभाव न होने से हेय हैं इसलिए उनमें होने वाला संकल्प परिग्रह है यह बात बन जाती है। सब दोष परिग्रहमूलक ही होते हैं। 'यह मेरा है' इस प्रकार के संकल्प के होने पर संरक्षण आदिरूप भाव होते हैं। और उसमें हिंसा अवश्यंभाविनी है। इसके लिए असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन कर्म में प्रवृत्त होता है। नरकादिक में जितने दुःख हैं वे सब इससे उत्पन्न होते हैं।

    इस प्रकार उक्त विधि से जो हिंसादि में दोषों का दर्शन करता है, जिसका चित्त अहिंसादि गुणों में लगा रहता है और जो अत्यन्त प्रयत्नशील है वह यदि अहिंसादि व्रतों को पाले तो किस संज्ञा को प्राप्त होता है इसी बात का खुलासा करने के लिए अब आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-4. गाय-भैंस, मणि-मुक्ता आदि चेतन-अचेतन बाह्य परिग्रहों के और राग-द्वेष आदि आभ्यन्तर उपाधियों के संरक्षण, अर्जन, संस्कारादि व्यापार को मूर्छा कहते हैं । वात पित्त और कफ आदि के विकार से होनेवाली मूर्छा-बेहोशी यहाँ विवक्षित नहीं है। यद्यपि मूछि धातु मोह सामान्यार्थक है फिर भी यहाँ बाह्य-आभ्यन्तर उपाधि के संरक्षण अर्थ में ही उसका प्रयोग है। आभ्यन्तर ममत्व-परिणाम रूप मूर्छा को परिग्रह कहने पर बाह्य पदार्थों में अपरिग्रहत्व का प्रसंग नहीं देना चाहिए, क्योंकि आभ्यन्तर परिग्रह ही प्रधानभूत है, उसके ग्रहण करने से बाह्य का ग्रहण तो हो ही जाता है । जिस प्रकार प्राण का कारण होने से अन्न को प्राण कह देते हैं उसी तरह कारण में कार्य का उपचार करके मूर्छा के कारणभूत बाह्य-पदार्थ को भी मूर्छा कह देते हैं।

    5-6. 'प्रमत्तपद' की अनुवृत्ति यहाँ भी होती है। अतः ज्ञान दर्शन और चारित्र आदि में होनेवाले ममत्वभाव को मूर्छा या परिग्रह नहीं कह सकते। ज्ञान-दर्शनादिवालों के मोह न होने से वे अप्रमत्त हैं और इसीलिए अपरिग्रही हैं। ज्ञानादि तो आत्मा के स्वभाव हैं, अहेय हैं अतः वे परिग्रह हो ही नहीं सकते । रागादि कर्मोदयजन्य हैं । अनात्मस्वभाव हैं अतः हेय हैं, अतः इनमें होनेवाला 'ममेदम्' संकल्प परिग्रह है और यह परिग्रह ही समस्त दोषों का मूल है। ममत्व संकल्प होने पर उसके रक्षणादि की व्यवस्था करनी होती है और उसमें हिंसादि अवश्यभावी हैं, उसके लिए झूठ भी बोलता है, चोरी करता है और क्या कुकर्म नहीं करता ? और इनसे नरकादि अशुभ गतियों का पात्र बनता है, इस लोक में भी सैकड़ों आपत्तियों और आकुलताओं से व्याकुल रहता है।

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    + व्रती का लक्षण -
    नि:शल्यो व्रती ॥18॥
    अन्वयार्थ : जो शल्यरहित है वह व्रती है ॥१८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    'श्रृणाति हिनस्ति इति शल्यम्' यह शल्य शब्द की व्युत्पत्ति है। शल्य का अर्थ है पीड़ा देनेवाली वस्तु। जब शरीर में काँटा आदि चुभ जाता है जो वह शल्य कहलाता है। यहाँ उसके समान जो पीडाकर भाव है वह शल्य शब्द से लिया गया है। जिस प्रकार काँटा आदि शल्य प्राणियों को बाधाकर होती है उसी प्रकार शरीर और मनसम्बन्धी बाधा का कारण होने से कर्मोदयजनित विकार में भी शल्य का उपचार कर लेते हैं अर्थात् उसे भी शल्य कहते हैं। वह शल्य तीन प्रकार की है- माया शल्य, निदान शल्य और मिथ्यादर्शन शल्य। माया, निकृति और वंचना अर्थात् ठगनेकी वृत्ति यह माया शल्य है। भोगों की लालसा निदान शल्य है और अतत्त्वों का श्रद्धान मिथ्यादर्शन शल्य है। इन तीन शल्यों से जो रहित है वही निःशल्य व्रती कहा जाता है।

    शंका – शल्य के न होने से निःशल्य होता है और व्रतों के धारण करने से व्रती होता है। शल्यरहित होने से व्रती नहीं हो सकता। उदाहरणार्थ देवदत्त के हाथ में लाठी होने पर वह छत्री नहीं हो सकता ?

    समाधान – व्रती होने के लिए दोनों विशेषणों से युक्त होना आवश्यक है, यदि किसी ने शल्यों का त्याग नहीं किया और केवल हिंसादि दोषों को छोड़ दिया तो वह व्रती नहीं हो सकता। यहाँ ऐसा व्रती इष्ट है जिसने शल्यों का त्याग करके व्रतों को स्वीकार किया है। जैसे जिसके यहाँ बहुत घी दूध होता है वह गायवाला कहा जाता है। यदि उसके घी दूध नहीं होता और गायें हैं तो वह गायवाला नहीं कहलाता, उसी प्रकार जो सशल्य है व्रतों के होने पर भी वह व्रती नहीं हो सकता। किन्तु जो निःशल्य है वह व्रती है।

    अब उसके भेदों का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-2. अनेक प्रकार की वेदनारूपी सुइयों से प्राणी को जो छेदें वे शल्य है। जिसप्रकार शरीर में चुभा हुए काँटा आदि प्राणी को बाधा करते हैं उसी तरह कर्मोदयविकार भी शारीर और मानस बाधाओं का कारण होने से शल्य की तरह शल्य कहा जाता है।

    3. शल्य तीन प्रकार की है -- माया, मिथ्यादर्शन और निदान । माया अर्थात् वंचना छल-कपट आदि । विषयभोग की आकांक्षा निदान है। मिथ्यादर्शन अर्थात् अतत्त्वश्रद्धान । इन तीन शल्यों से निकला हुआ निःशल्य व्यक्ति व्रती होता है।

    4-8. प्रश्न – निःशल्यत्व और व्रतित्व दोनों पृथक्-पृथक हैं, अतः निःशल्य होने से व्रती नहीं हो सकता । कोई भी दण्ड के सम्बन्ध से 'छत्री' नहीं हो सकता । अतः व्रत के सम्बन्ध से व्रती कहना चाहिए और शल्य के अभाव में निःशल्य । यदि निःशल्य होने से व्रती होता है तो या तो व्रती कहना चाहिए या निःशल्य । 'निःशल्य हो या व्रती हो' यह विकल्प मानकर विशेषणविशेष्य भाव बनाना भी उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा करने में कोई विशेष फल नहीं है। जैसे 'देवदत्त को घी, दाल या दही से भोजन कराना' यहाँ विभिन्न फल हैं वैसे यहाँ चाहे 'निःशल्य कहो या व्रती' दोनों विशेषणों से विशिष्ट एक ही व्यक्ति इष्ट है।

    उत्तर – निःशल्यत्व और व्रतित्व में अंग-अंगिभाव विवक्षित है। केवल हिंसादि-विरक्ति रूप व्रत के सम्बन्ध से व्रती नहीं होता जब तक कि शल्यों का अभाव न हो जाय । शल्यों का अभाव होने पर ही व्रत के सम्बन्ध से व्रती होता है । जैसे 'बहुत घी दूधवाला गोमान्' यहाँ गायें रहने पर भी यदि बहुत घी-दूध नहीं होता तो उक्त प्रयोग नहीं किया जाता उसी तरह सशल्य होने पर व्रतों के रहते हुए भी व्रती नहीं कहा जायगा । जो निःशल्य होता है वही व्रती है । जैसे 'तेज फरसे से छेदता है' यहाँ अप्रधान फरसा छेदनेवाले प्रधान कर्ता का उपकारक है उसीतरह निःशल्यत्वगुण से युक्त व्रत, व्रती आत्मा के विशेषक होते हैं।

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    + व्रती के भेद -
    अगार्यनगारश्च ॥19॥
    अन्वयार्थ : उसके अगारी और अनागार ये दो भेद हैं ॥१९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    आश्रय चाहने वाले जिसे अंगीकार करते हैं वह अगार है। अगार का अर्थ वेश्म अर्थात् घर है। जिसके घर है वह अगारी है। और जिसके घर नहीं है वह अनगार है इस तरह व्रती दो प्रकार का है-अगारी और अनगार।

    शंका – अभी अगारी और अनगार का जो लक्षण कहा है उससे विपरीत अर्थ भी प्राप्त होता है, क्योंकि पूर्वोक्त लक्षण के अनुसार जो मुनि शून्य घर और देवकुल में निवास करते हैं वे अगारी हो जायेंगे और विषयतृष्णा का त्याग किये बिना जो किसी कारण से घर को छोड़कर वन में रहने लगे हैं वे अनगार हो जायेंगे ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि यहाँ पर भावागार विवक्षित है। चारित्र मोहनीय का उदय होने पर जो परिणाम घर से निवृत्त नहीं है वह भावागार कहा जाता है। वह जिसके है वह वन में निवास करते हुए भी अगारी है और जिसके इस प्रकार का परिणाम नहीं है वह घर में रहते हुए भी अनगार है।

    शंका – अगारी व्रती नहीं हो सकता, क्योंकि उसके पूर्ण व्रत नहीं है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि नैगम आदि नयों की अपेक्षा नगरावास के समान अगारी के भी व्रतीपना बन जाता है। जैसे कोई घर में या झोपड़ीमें रहता है तो भी 'मैं नगर में रहता हूँ' यह कहा जाता है उसी प्रकार जिसके पूरे व्रत नहीं है वह नैगम, संग्रह और व्यवहारनयकी अपेक्षा व्रती कहा जाता है।

    शंका – जो हिंसादिक में-से एक से निवृत्त है वह क्या अगार व्रती है ?

    समाधान – ऐसा नहीं है ।

    शंका – तो क्या है ?

    समाधान – जिसके एक देश से पाँचों प्रकार की विरति है वह अगारी है यह अर्थ यहाँ विवक्षित है ।

    अब इसी बात को बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -


    राजवार्तिक :
    1-2. आश्रयार्थियों के द्वारा जो स्वीकार किया जाय वह अगार-घर है। यहाँ चारित्रमोह के उदय से घर के प्रति अनिवृत्त परिणामरूप भावागार विवक्षित है । अतः भावागारी व्यक्ति घर छोड़कर यदि किसी कारणवश वन में भी रहता है तो वह अगारी ही है और विषयतृष्णाओं से निवृत्त मुनि यदि शून्य घर मन्दिर आदि में भी बस जाता है तो भी वह अनगारी है।

    3-4. जैसे घर के एक कोने या नगर के एकदेश में रहनेवाला भी व्यक्ति नगरवासी कहा जाता है उसी तरह सकल-व्रतों को धारण न कर एकदेश-व्रतों को धारण करनेवाला भी भी नैगम, संग्रह और व्यवहारनयों की अपेक्षा व्रती कहा जायगा। जैसे बत्तीस हजार देशों के अधिपति में प्रयुक्त होनेवाला 'राजा' शब्द एक-देश या आधे-देश के अधिपति में भी प्रयुक्त होता है, वह भी 'राजा' कहलाता है उसी तरह अठारह हजार शील और चौरासी लाख गुणों के धारक संपूर्णव्रती अनगार में प्रयुक्त होनेवाला भी 'व्रती' शब्द अणुव्रतधारियों में भी प्रयुक्त होता है। उन्हें भी व्रती कहते हैं।

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    + श्रावक -
    अणुव्रतोऽगारी ॥20॥
    अन्वयार्थ : अणुव्रतों का धारी अगारी है ॥२०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अणु शब्द अल्पवाची है । जिसके व्रत अणु अर्थात् अल्प हैं वह अणुव्रतवाला अगारी कहा जाता है ।

    शंका – अगारी के व्रत अल्प कैसे होते हैं ?

    समाधान – अगारी के पूरे हिंसादि दोषों का त्याग सम्भव नहीं है इसलिए उसके व्रत अल्प होते हैं ।

    शंका – तो यह किससे निवृत्त हुआ है ?

    समाधान – यह त्रस जीवों की हिंसा से निवृत्त है; इसलिए उसके पहला अहिंसा अणुव्रत होता है । गृहस्थ स्नेह और मोहादिक के वश से गृहविनाश और ग्रामविनाश के कारण असत्य वचन से निवृत्त है, इसलिए उसके दूसरा सत्याणुव्रत होता है । श्रावक राजा के भय आदि के कारण दूसरे को पीड़ाकारी जानकर बिना दी हुई वस्तु को लेना यद्यपि अवश्य छोड़ देता है तो भी बिना दी हुई वस्तु के लेने से उसकी प्रीति घट जाती है, इसलिए उसके तीसरा अचौर्याणुव्रत होता है । गृहस्थ के स्वीकार की हुई या बिना स्वीकार की हुई परस्त्री का संग करने से रति हट जाती है, इसलिए उसके परस्त्रीत्याग नाम का चौथा अणुव्रत होता है । तथा गृहस्थ धन, धान्य और क्षेत्र आदि का स्वेच्छा से परिमाण कर लेता है, इसलिए उसके पाँचवाँ परिग्रहपरिमाण अणुव्रत होता है ।

    गृहस्थ को क्या इतनी ही विशेषता है कि और भी विशेषता है, अब यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-5. समस्त सावद्य की निवृत्ति न होने से अणुव्रत कहे जाते हैं।

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    + श्रावक के और भी व्रत -
    दिग्देशानर्थदण्ड-विरति-सामायिक-प्रोषधोपवासोपभोग-परिभोग-परिमाणातिथि-संविभागव्रतसम्पन्नश्च ॥21॥
    अन्वयार्थ : वह दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदण्डविरति, सामायिकव्रत, प्रोषधोपवासव्रत, उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत और अतिथिसंविभागव्रत इन व्रतों से भी सम्पन्न होता है ॥२१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    विरति शब्द प्रत्येक शब्द पर लागू होता है । यथा - दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्डविरति । ये तीन गुणव्रत हैं, क्योंकि व्रत शब्द का हर एक के साथ सम्बन्ध है । तथा सामायिकव्रत, प्रोषधोपवासव्रत, उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत और अतिथिसंविभ।गव्रत ये चार है । इस प्रकार इन व्रतों से जो सम्पन्न है वह गृही विरताविरत कहा जाता है । खुलासा इस प्रकार है -

    जो पूर्वादि दिशाएँ हैं उनमें प्रसिद्ध चिह्नों के द्वारा मर्यादा करके नियम करना दिग्विरतिव्रत है । उस मर्यादा के बाहर त्रस और स्थावर हिंसा का त्याग हो जाने से उतने अंश में महाव्रत होता है । मर्यादा के बाहर लाभ होते हुए भी उसमें परिणाम न रहने के कारण लोभ का त्याग हो जाता है ।

    ग्रामादिक की निश्चित मर्यादारूप प्रदेश देश कहलाता है । उससे बाहर जाने का त्याग कर देना देशविरतिव्रत है । यहाँ भी पहले के समान मर्यादा के बाहर महाव्रत होता है ।

    उपकार न होकर जो प्रवृत्ति केवल पाप का कारण है वह अनर्थदण्ड है । इससे विरत होना अनर्थदण्डविरतिव्रत है । अनर्थदण्ड पाँच प्रकार का है- अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादाचरित, हिंसाप्रदान और अशुभश्रुति --

    दूसरों का जय, पराजय, मारना, बाँधना, अंगों का छेदना और धन का अपहरण आदि कैसे होवे इस प्रकार मन से विचार करना अपध्यान नाम का अनर्थदण्ड है।

    तिर्यंचों को क्लेश पहुँचाने वाले, वणिज का प्रसार करनेवाले और प्राणियों की हिंसा के कारणभूत आरम्भ आदि के विषय में पापबहुल वचन बोलना पापोपदेश नाम का अनर्थदण्ड है ।

    बिना प्रयोजन के वृक्षादि का छेदना, भूमि का कूटना, पानी का सींचना आदि पाप कार्य प्रमादाचरित नाम का अनर्थदण्ड है ।

    विष, काँटा, शस्त्र, अग्नि, रस्सी, चाबुक और लकड़ी आदि हिंसा के उपकरणों का प्रदान करना हिंसाप्रदान नाम का अनर्थदण्ड है ।

    हिंसा और राग आदि को बढ़ानेवाली दुष्ट कथाओं का सुनना और उनकी शिक्षा देना अशुभश्रुति नाम का अनर्थदण्ड है ।


    'सम्' उपसर्ग का अर्थ एकरूप है । जैसे 'घी संगत है, तेल संगत है,' जब यह कहा जाता है तब संगत का अर्थ एकीभूत होता है । सामायिक में मूल शब्द समय है । इसके दो अवयव हैं सम् और अय । सम्‌ अर्थ कहा ही है और अय का अर्थ गमन है । समुदायार्थ एकरूप हो जाना समय है और समय ही सामायिक है । अथवा समय अर्थात् एकरूप हो जाना ही जिसका प्रयोजन है वह सामायिक है । इतने देश में और इतने काल तक इस प्रकार निश्चित की गयी सामायिक में स्थित पुरुष के पहले के समान महाव्रत जानना चाहिए, क्योंकि इसके सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार के हिंसा आदि पापों का त्याग हो जाता है ।

    शंका – यदि ऐसा है तो सामायिक में स्थित हुए पुरुष के सकलसंयम का प्रसंग प्राप्त होता है ?

    समाधान – नहीं, क्योंकि इसके संयम का घात करने वाले कर्मों का उदय पाया जाता हैं ।

    शंका- -तो फिर इसके महाव्रत का अभाव प्राप्त होता है ?

    समाधान – नहीं, क्योंकि जैसे राजकुल में चैत्र को सर्वगत उपचार से कहा जाता है उसी प्रकार इसके महाव्रत उपचार से जानना चाहिए ।

    प्रोषध का अर्थ पर्व है और पांचों इन्द्रियों के शब्दादि विषयों के त्यागपूर्वक उसमें निवास करना उपवास है । अर्थात चार प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास है । तथा प्रोषध के दिनों में जो उपवास किया जाता है उसे प्रोषधोवास कहते हैं । प्रोषधोपवासी श्रावक को अपने शरीर के संस्कार के कारण स्नान, गन्ध, माला और आभरण आदि का त्याग करके किसी पवित्र स्थान में, साधुओं के रहने के स्थान में, चैत्यालय में या अपने प्रोषधोपवास के लिए नियत किये गये घर में, धर्मकथा के सुनने, सुनाने और चिन्तन करने में मन को लगाकर उपवासपूर्वक निवास करना चाहिए और सब प्रकार का आरम्भ छोड देना चाहिए ।

    भोजन, पान, गन्ध और माला आदि उपभोग कहलाते हैं तथा ओढ़ना-बिछाना, अलंकार, शयन, आसन, घर, यान और वाहन आदि परिभोग कहलाते हैं । इनका परिमाण करना उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत है । जिसका चित्त त्रसहिंसा से निवृत्त है उसे सदा के लिए मधु, मांस और मदिरा का त्याग कर देना चाहिए । जो बहुत जन्तुओं की उत्पत्ति के आधार हैं और जिन्हें अनन्तकाय कहते हैं ऐसे केतकी के फूल और अर्जुन के फूल आदि तथा अदरख और मूली आदि का त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि इनके सेवन में फल कम है और घात बहुत जीवों का है । तथा यान, वाहन और आभरण आदिक में हमारे लिए इतना ही इष्ट है शेष सब अनिष्ट है इस प्रकार का विचार करके कुछ काल के लिए या जीवन भर के लिए शक्त्यानुसार जो अपने लिए अनिष्ट हो उसका त्याग कर देना चाहिए ।

    संयमका विनाश न हो इस विधि से जो चलता है वह अतिथि है या जिसके आने की कोई तिथि नहीं उसे अतिथि कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जिसके आने का कोई काल निश्चित नहीं है उसे अतिथि कहते हैं । इस अतिथि के लिए विभाग करना अतिथिसंविभाग है । वह चार प्रकार का है- भिक्षा, उपकरण, औषध और प्रतिश्रय अर्थात् रहनेका स्थान । जो मोक्ष के लिए बद्धकक्ष है, संयम के पालन करने में तत्पर है और शुद्ध है उस अतिथि के लिए शुद्ध मन से निर्दोष भिक्षा देनी चाहिए । सम्यग्दर्शन आदि के बढ़ाने वाले धर्मोपकरण देने चाहिए । योग्य औषध की योजना करनी चाहिए तथा परम धर्म में श्रद्धापूर्वक निवास-स्थान भी देना चाहिए । सूत्र में जो 'च' शब्द है वह आगे कहे जाने वाले गृहस्थधर्म के संग्रह करने के लिए दिया है ।

    वह और क्या होता है-


    राजवार्तिक :
    1-6. परमाणुओं से मापे गये आकाश के प्रदेशों की श्रेणी में ही सूर्य के उदय, अस्त और गति से पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण आदि दिशाओं का व्यवहार होता है। निश्चित संख्यावाले ग्राम, नगर आदि के प्रदेशों को देश कहते हैं । बिना प्रयोजन के पाप-कर्मों में प्रवृत्ति अनर्थदण्ड है । विरति शब्द का प्रत्येक से सम्बन्ध हो जाता है - दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्डविरति । यद्यपि प्रथमसूत्र में विरतिशब्द है पर वह उपसर्जनीभूत गौण होने से सम्बद्ध नहीं हो सकता अतः यहाँ उसका पुनः प्रहण किया है।

    7. जैसे 'संगत घृत, संगत तैल' में 'सम्' शब्द एकीभाव अर्थ में है उसी तरह सामायिक में भी । अर्थात् मन, वचन और काय की क्रियाओं से निवृत्त होकर एक आत्मद्रव्य में लीन हो जाना । समय अर्थात् आत्मा की प्राप्ति जिसका प्रयोजन हो वह सामायिक है ।

    8. पाँचों इन्द्रियों का शब्द अदि विषयों से निवृत्त होकर आत्मा के समीप पहुँच जाना उपवास है अर्थात् अशन, पान, भक्ष्य और लेह्य इन चार प्रकार के आहारों का त्याग करना उपवास है। प्रोषध अर्थ पर्व के दिन । पर्व में किया जानेवाला उपवास प्रोषधोपवास है।

    9. उपभोग अर्थात् एकबार भोगे जानेवाले अशन, पान, गन्ध, माला आदि । परिभोग अर्थात् जो एकबार भोगे जाकर भी दुबारा भोगे जा सकें जैसे वस्त्र, अलंकार, शय्या, मकान, सवारी आदि । उपभोग और परिभोग की मर्यादा करना उपभोगपरिभोगपरिमाण है।


    10-11. चारित्रबल से सम्पन्न होने के कारण जो संयम का विनाश नहीं करके गमन करता है वह अतिथि है। अथवा, जिसके आने की तिथि निश्चित न हो वह अतिथि है। अतिथि के लिए संविभाग-दान देना अतिथिसंविभाग व्रत है।

    12-13. 'व्रत' शब्द प्रथम सूत्र में है पर गौण होने से उसका यहाँ सम्बन्ध नहीं किया जा सकता। 'व्रतसम्पन्न' शब्द का सम्बन्ध दिग्विरतिव्रतसम्पन्न, देशविरतिव्रतसम्पन्न आदि रूप से प्रत्येक से कर देना चाहिए ।

    14-18. जिनका बचाव नहीं किया जा सकता ऐसे क्षुद्र जन्तुओं से दिशाएँ व्याप्त रहती हैं अतः उनमें गमनागमन की निवृत्ति करनी चाहिए। दिशाओं का परिमाण पर्वत आदि प्रसिद्ध चिह्नों से तथा योजन आदि की गिनती से कर लेना चाहिए । यद्यपि दिशाओं के भाग में गमन न करने पर भी स्वीकृत क्षेत्रमर्यादा के कारण पापबन्ध होता है फिर भी दिग्विरति का उद्देश्य निवृत्तिप्रधान होने से बाह्यक्षेत्र में हिंसादि की निवृत्ति करने के कारण कोई दोष नहीं है । जो पूर्णरूप से हिंसादिनिवृत्ति करने में असमर्थ है पर उस सकलविरति के प्रति आदरशील है वह श्रावक जीवन-निर्वाह हो या न हो, अनेक प्रयोजन होने पर भी स्वीकृत क्षेत्रमर्यादा को नहीं लाँघता अतः हिंसानिवृत्ति होने से वह व्रती है। किसी परिग्रही व्यक्ति को 'इस दिशा में अमुक जगह जाने पर बिना प्रयत्न के मणि मोती आदि उपलब्ध होते हैं। इस तरह प्रोत्साहित करने पर भी दिग्व्रत के कारण बाहर जाने की और मणि मोती की सहजप्राप्ति की लालसा का निरोध होने से दिग्व्रत श्रेयस्कर है। अहिंसाणुव्रती भी परिमित दिशाओं से बाहर मन, वचन, काय, कृत, कारित और अनुमोदना सभी प्रकारों के द्वारा हिंसादि सर्वसावद्यों से विरक्त होता है अतः वहाँ उसके महाव्रत ही माना जाता है।

    19. इसीतरह देशविरतिव्रत होता है। 'मैं इस घर और तालाब के मध्य भाग को छोड़कर अन्यत्र नहीं जाऊँगा।' इसतरह देशव्रत लिया जाता है। मर्यादा के बाहिरी क्षेत्र में इसे भी महाव्रत कहते हैं । दिग्विरति यावन्नीवन-सर्वकालके लिये होती है जब कि देशव्रत शक्त्यनुसार नियतकाल के लिए होता है।

    20. अनर्थदण्ड पाँच प्रकार का है। 'दूसरे का जय, पराजय, वध, बन्ध, अंगच्छेद, धनहरण आदि कैसे हो' यह मन से चिन्तन करना अपध्यान है । क्लेशवणिज्या तिर्यगवणिज्या वधकोपदेश और आरम्भोपदेश आदि पापोपदेश हैं । 'इस देश में दास दासी सस्ते मिलते हैं, उन्हें अमुक देश में बेचने पर प्रचुर अर्थलाभ होगा' इत्यादि कहना क्लेशवणिज्या है। गाय भैंस आदि पशुओं के व्यापार का मार्ग बताना तिर्यग्वणिज्या है। जाल डालनेवाले, पक्षी पकड़नेवाले तथा शिकारियों को पक्षी, मृग, सुअर आदि शिकार के योग्य प्राणियों का पता आदि बताना वधकोपदेश है। आरम्भकार्य करनेवाले किसान आदि को पृथिवी, जल, अग्नि और वनस्पति आदि के आरम्भ के उपाय बताना आरम्भोपदेश है। तात्पर्य यह कि हर प्रकार के पापवर्धक उपदेश पापोपदेश है । प्रयोजन के बिना ही वृक्ष आदि का काटना, भूमि को कूटना, पानी सींचना आदि सावद्यकर्म प्रमादाचरित हैं । विष, शस्त्र, अग्नि, रस्सी, कसन और दंड आदि हिंसा के उपकरणों का देना हिंसादान है। हिंसा या काम आदि को बढ़ानेवाली दुष्ट कथाओं का सुनना और सिखाना आदि व्यापार अशुभश्रुति है। इन अनर्थदंडों से विरक्त होना अनर्थदंडविरतिव्रत है।

    21. पहिले कहे गये दिग्व्रत और देशव्रत तथा आगे कहे जानेवाले उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रत में स्वीकृत मर्यादा में भी निरर्थक गमन आदि तथा विषयसेवन आदि नहीं करना चाहिए, इस अतिरेकनिवृत्ति की सूचना देने के लिए बीच में अनर्थदण्डविरति का ग्रहण किया है।

    22-24. जितने काल तथा जितने क्षेत्र का परिमाण सामायिक में निश्चित किया जाता है उसमें स्थित सामायिक करनेवाले के स्थूल और सूक्ष्म हिंसा आदि से निवृत्ति होने के कारण महाव्रतत्व समझना चाहिए। यद्यपि सामायिक में सर्वसावद्यनिवृत्ति हो जाती है फिर भी संयमघाती चारित्रमोह कर्म के उदय के कारण इसे संयत नहीं कह सकते। इसे 'महाव्रती' तो उपचार से कहा है । जैसे राजमहल के कुछ भण्डार बैठक आदि में व्यापार करनेवाला चैत्र अन्तःपुर शयनागार आदि में नहीं जाकर भी 'राजकुल में सर्वगत' यह समझा जाता है उसी तरह हिंसादि बाह्य व्यापारों से विरक्त होने के कारण आभ्यन्तर संयमघाती कर्म के उदय रहनेपर भी सामायिकव्रती को महाव्रती कह देते हैं। इसीलिए निर्ग्रन्थलिंगधारी और एकादशांगपाठी अभव्य की भी बाह्यमहाव्रत पालन करने के कारण देशसंयतभाव और संयतभाव से रहित होने पर भी उपरिम ग्रैवेयिक तक उत्पत्ति बन जाती है।

    25. श्रावक शरीरसंस्कार के कारणभूत स्नान, गन्ध, माला, अलंकार आदि से रहित होकर साधुनिवास चैत्यालय या प्रोषधोपवासालय आदि पवित्र स्थानों में धर्मकथाश्रवण, श्रावण, चिन्तन और ध्यान आदि में मन को लगाता हुआ आरम्भ परिग्रह को छोड़कर उपवास करे।

    26. त्रसघात, बहुघात, प्रमाद, अनिष्ट और अनुपसेव्य रूप विषयों के भेद से भोगोपभोगपरिमाणवत पाँच प्रकार का हो जाता है। त्रसघात की निवृत्ति के लिए मधु और मांस को सदा के लिए छोड़ देना चाहिए। प्रमाद के नाश करने के लिए हिताहितविवेक को नष्ट करनेवाली मोहकारी मदिरा का त्याग करना अत्यावश्यक है। केतकी, अर्जुनपुष्प आदि बहुत जन्तुओं के उत्पत्तिस्थान हैं तथा मूली, अदरख, हलदी, नीम के फूल आदि अनन्तकाय हैं, इनके सेवन में अल्पफल और बहुविधात होता है, अतः इनका त्याग ही कल्याणकारी है। गाड़ी, रथ, घोड़ा तथा अलंकार आदि 'इतने मुझे इष्ट हैं, रखना हैं, अन्य अनिष्ट हैं' इस तरह अनिष्ट से निवृत्ति करनी चाहिये क्योंकि जबतक अभिप्रायपूर्वक नियम नहीं लिया जाता तबतक वह व्रत नहीं माना जा सकता। जो विचित्र प्रकार के वस्त्र विकृतवेष आभरण आदि शिष्टजनों के उपसेव्य-धारण करने लायक नहीं हैं वे अपने को अच्छे भी लगते हों तब भी उनका यावज्जीवन परित्याग कर देना चाहिये। यदि वैसी शक्ति नहीं है तो अमुक समय की मर्यादा से अमुक वस्तुओं का परिमाण करके निवृत्ति करनी चाहिये।

    27. अतिथिसंविभागव्रत आहार, उपकरण औषध और आश्रय के भेद से चार प्रकार का हो जाता है। मोक्षार्थी संयमी शुद्धमति के लिए शुद्ध-चित्त से निर्दोष-भिक्षा, सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के बढ़ानेवाले धर्मोपकरण, योग्य औषध और आश्रय परमधर्म और श्रद्धापूर्वक देना चाहिये।

    'च' शब्द से गृहस्थधर्मों में संगृहीत होनेवाली सल्लेखना का वर्णन -

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    + सल्लेखना -
    मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता ॥22॥
    अन्वयार्थ : तथा वह मारणान्तिक संलेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन करने वाला होता है ॥२२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अपने परिणामों से प्राप्त हुई आयु का, इन्द्रियों का और मन, वचन, काय इन तीन बलों का कारण विशेष के मिलने पर नाश होना मरण है । उसी भव के मरण का ज्ञान कराने के लिए सूत्र में मरण शब्द के साथ अन्त पद को ग्रहण किया है । मरण यही अन्त मरणान्त है और 'जिसका यह मरणान्त ही प्रयोजन है' वह मारणान्तिकी कहलाती है । अच्छे प्रकार से काय और कषाय का लेखन करना अर्थात् कृष करना सल्लेखना है । अर्थात् बाहरी शरीर का और भीतरी कषायों का, उत्तरोत्तर काय और कषाय को पुष्ट करने वाले कारणों को घटाते हुए, भले प्रकार से लेखन करना अर्थात् कृष करना सल्लेखना है । मरण के अन्त में होने वाली इस सल्लेखना को प्रीतिपूर्वक सेवन करने वाला गृहस्थ होता है यह इस सूत्र का तात्पर्य है ।

    शंका – सहज तरीके से अर्थ का स्पष्टीकरण हो इसके लिए सूत्र में 'जोषिता' इसके स्थान में 'सेविता' कहना ठीक है ?

    समाधान – नहीं; क्योंकि 'जोषिता ' क्रिया के रखने से उससे अर्थ-विशेष ध्वनित हो जाता है। यहाँ केवल 'सेवन करना' अर्थ नहीं लिया गया है किन्तु प्रीति रूप अर्थ भी लिया गया है, क्योंकि प्रीति के न रहने पर बलपूर्वक सल्लेखना नहीं करायी जाती । किन्तु प्रीति के रहने पर जीव स्वयं ही सल्लेखना करता है । तात्पर्य यह है कि 'प्रीतिपूर्वक सेवन करना' यह अर्थ 'जोषिता' क्रिया से निकल आता है 'सेविता' से नहीं, अत: सूत्र में 'जोषिता' क्रिया रखी है ।

    शंका – चूं कि सल्लेखना में अपने अभिप्राय से आयु आदि का त्याग किया जाता है, इसलिए यह आत्मघात हुआ ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सल्लेखना में प्रमाद का अभाव है। 'प्रमत्तयोग से प्राणों का वध करना हिंसा है' यह पहले कहा जा चुका है । परन्तु इसके प्रमाद नहीं है, क्योंकि इसके रागादिक नहीं पाये जाते । राग, द्वेष और मोह से युक्त होकर जो विष और शस्त्र आदि उपकरणों का प्रयोग करके उनसे अपना घात करता है उसे आत्मघात का दोष प्राप्त होता है । परन्तु सल्लेखना को प्राप्त हुए जीव के रागादिक तो हैं नहीं, इसलिए इसे आत्म- घात का दोष नहीं प्राप्त होता । कहा भी है -

    " शास्त्र में यह उपदेश है कि रागादि का नहीं उत्पन्न होना अहिंसा है । तथा जिनदेव ने उनकी उत्पत्ति को हिंसा कहा है ॥ ''

    दूसरे, मरण किसी को भी इष्ट नहीं है । जैसे नाना प्रकार की विक्रेय वस्तुओं के देन, लेन और संचय में लगे हुए किसी व्यापारी को अपने घर का नाश होना इष्ट नहीं है । फिर भी परिस्थितिवश उसके विनाश के कारण आ उपस्थित हों तो यथाशक्ति वह उनको दूर करता है । इतने पर भी यदि वे दूर न हो सकें तो जिससे विक्रेय वस्तुओं का नाश न हो ऐसा प्रयत्न करता है उसी प्रकार पुण्यस्थानीय व्रत और शील के संचय में जुटा हुआ गृहस्थ भी उनके आधारभूत आयु आदि का पतन नहीं चाहता । यदा कदाचित् उनके विनाश के कारण उत्पन्न हो जाँय तो जिससे अपने गुणों में बाधा नहीं पड़े इस प्रकार उनको दूर करने का प्रयत्न करता है । इतने पर भी यदि वे दूर न हों तो जिससे अपने गुणों का नाश न हो इस प्रकार प्रयत्न करता है, इसलिए इसके आत्मघात नाम का दोष कैसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता है ।

    यहाँ पर शंकाकार कहता है कि व्रती निःशल्य होता है ऐसा कहा है और वहां तीसरी शल्य मिथ्यादर्शन है । इसलिए सम्यग्दृष्टि व्रती को निःशल्य होना चाहिए यह उसका अभिप्राय है, तो अब यह बतलाइए कि वह सम्यग्दर्शन सापवाद होता है या निरपवाद होता है ? अब इसका समाधान करते हैं - किसी जीव के मोहनीय की अवस्था विशेष के कारण ये अपवाद होते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-5. अपने परिणामों से गृहीत आयु, इन्द्रिय और बल का कारणवश क्षय होना मरण है। मरण दो प्रकार का है - नित्यमरण और तद्भवमरण । सूत्र में मरणान्त शब्द से तद्भवमरण लिया गया है। सल्लेखना अर्थात भली प्रकार काय और कषायों को कृश करना। बाह्यशरीर और आभ्यन्तर कषायों का कारण निवृत्तिपूर्वक क्रमशः क्षीण करते जाना सल्लेखना है। इसको सेवन करनेवाला 'गृही' होता है। यहाँ 'गृही शब्द का अध्याहार कर लेना चाहिए। यद्यपि 'सेविता' शब्द देने से काम निकल सकता था, फिर भी 'जोषिता' पद से 'प्रीतिपूर्वक सेवन करना' यह विशिष्ट अर्थ विवक्षित है । स्वयं की अन्तरंग प्रीति के बिना जबरदस्ती सल्लेखना नहीं कराई जाती। अन्तरंग प्रीति के होने पर सल्लेखना की जाती है। यहाँ 'जोषिता' शब्द में कर्ता अर्थ में 'तृन्' प्रत्यय है, अतः 'सल्लेखनायाः' ऐसा षष्ठी का प्रसंग नहीं है।

    6-9. प्रश्न – सल्लेखना में अभिप्रायपूर्वक आयु और शरीर आदि का घात किया जाता है, अतः इसमें आत्मवध का दोष लगना चाहिये ?

    उत्तर – प्रमाद के योग से प्राणव्यपरोपण को हिंसा कहते हैं । चूँकि सल्लेखना में प्रमाद का योग नहीं है अतः उसे आत्मवध नहीं कह सकते । राग, द्वेष और मोह आदि से कलुषित व्यक्ति जब विष, शस्त्र आदि से अभिप्रायपूर्वक घात करता है तब आत्मवध का दोष होता है, पर सल्लेखनाधारी के राग-द्वेष आदि कलुषताएँ नहीं हैं अतः आत्मवध का दोष नहीं हो सकता। कहा भी है - "रागादि की उत्पत्ति न होना अहिंसा है और रागादि का उत्पन्न होना ही हिंसा है।" फिर, मरण तो अनिष्ट होता है । जैसे अनेक प्रकार के सोने, चाँदी, कपड़ा आदि वस्तुओं का व्यापार करनेवाले किसी भी दुकानदार को अपनी दुकान का विनाश कभी इष्ट नहीं हो सकता, और विनाश के कारण आ जाने पर यथाशक्ति उनका परिहार करना संभव न हुआ तो वह बहुमूल्य पदार्थों की रक्षा करता है उसीतरह व्रत, शील, पुण्य आदि के संचय में लगा हुआ गृहस्थ भी इनके आधारभूत शरीर का विनाश कभी भी नहीं चाहता, शरीर में रोग आदि विनाश के कारण आने पर उनका यथाशक्ति समयानुसार प्रतीकार भी करता है, पर यदि निष्प्रतीकार अवस्था हो जाती है तो अपने संयम आदि का विनाश न हो उनकी रक्षा हो जाय इसके लिए पूरा यत्न करता है । अतः व्रतादि की रक्षा के लिए किये गये प्रयत्न को आत्मवध कैसे कहा जा सकता है ? अथवा, जिस प्रकार तपस्वी ठंड गरमी के सुख-दुःख को नही चाहता, पर यदि बिन चाहे सुख-दुःख आ जाते हैं तो उनमें राग-द्वेष न होने से तत्कृत कर्मों का बन्धक नहीं होता उसी तरह जिनप्रणीत सल्लेखनाधारी व्रती जीवन और मरण दोनों के प्रति अनासक्त रहता है पर यदि मरण के कारण उपस्थित हो जाते हैं तो रागद्वेष आदि न होने से आत्मवध का दोषी नहीं है।

    10. जैसे क्षणिकवादी को 'सभी पदार्थ क्षणिक हैं' यह कहने में स्वसमयविरोध है उसी तरह 'जब सत्त्व सत्त्वसंज्ञा वधक और वधचित्त इन चार चेतनाओं के रहनेपर हिंसा होती है। इस मतवादी के यहाँ जब सल्लेखनाकारी के 'आत्मवधक' चित्त ही नहीं है तब आत्मवध का दोष देने में स्ववचनविरोध है। इसका अर्थ यह हुआ कि बिना अभिप्राय के ही कर्मबन्ध हो गया जो कि स्पष्टतः सिद्धान्तविरुद्ध है। यदि सिद्धान्तविरोध के भय से चार प्रकार की चेतनाओं के रहने पर ही हिंसा स्वीकार की जाती है तो सल्लेखना में आत्मवधक चित्त न होने से हिंसा नहीं माननी चाहिए। अथवा, जैसे 'मैं मौनी हूँ' यह कहनेवाले मौनी के स्ववचनविरोध है उसी तरह निरात्मकवादी के जब आत्मा का अभाव ही है तब 'आत्मवधकत्व' का दोष देने में भी स्ववचनविरोध ही है । यदि स्ववचनविरोध के भय से निरात्मक पक्ष लिया जाता है तो 'आत्मवध' की चर्चा अप्रासंगिक हो जाती है। जो वादी आत्मा को निष्क्रिय मानते हैं यदि वे साधुजन-सेवित सल्लेखना को करनेवाले के लिए 'आत्मवध' दूषण देते हैं तो उनकी आत्मा को निष्क्रिय मानने की प्रतिज्ञा खंडित हो जाती है और यदि वे निष्क्रियत्व पक्ष पर दृढ़ रहते हैं तो जब आत्मवध की प्रयोजक सल्लेखना नामक क्रिया ही नहीं हो सकती, तब आत्मवध का दोष कैसे दिया जा सकता है ?

    11. जिस समय व्यक्ति शरीर को जीर्ण करनेवाली जरा से क्षीणबलवीर्य हो जाता है और वातादिविकारजन्य रोगों से तथा इन्द्रियबल आदि के नष्टप्राय होने से मृतप्राय हो जाता है, उस समय सावधान व्रती मरण के अनिवार्य कारणों के उपस्थित होने पर प्रासुक भोजन, पान और उपवास आदि के द्वारा क्रमशः शरीर को कृश करता है और मरण होने तक अनुप्रक्षा आदि का चिन्तन करके उत्तम आराधक होता है ।

    12-14. पूर्वसूत्र के साथ इस सूत्र को मिलाकर एक सूत्र इसलिए नहीं बनाया कि सल्लेखना कभी किसी सप्तशीलधारी व्रती के द्वारा आवश्यकता पड़नेपर ही की जाती है, दिग्वत आदि की तरह वह सबके लिए अनिवार्य नहीं है। किसी के सल्लेखना के कारण नहीं भी आते।

    गृहस्थ को दिगव्रत आदि सात शीलों का उपदेश दिया गया है । उसे घर छोड़ देने पर श्रावकरूप से ही सल्लेखना होती है इस विशेष अर्थ को सूचना देने के लिए पृथक सूत्र बनाया है। 'यह सल्लेखना विधि सातशीलधारी गृहस्थ को ही नहीं है किन्तु महाव्रती साधु को भी होती है' इस सामान्य नियम की सूचना भी पृथक् सूत्र बनाने से मिल जाती है।

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    + सम्यक्त्व के पांच अतिचार -
    शंका-कांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टि-प्रशंसा-संस्तवा: सम्यग्दृष्टेरती-चारा: ॥23॥
    अन्वयार्थ : शंका, कांक्षा, विचिकित्‍सा, अन्‍यदृष्टिप्रशंसा और अन्‍यदृष्टिसंस्‍तव ये सम्‍यग्‍दष्टि के पॉंच अतिचार हैं ॥२३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    'दर्शनविशुद्धि:' इत्‍यादि सूत्र का व्‍याख्‍यान करते समय नि:शंकितत्‍व आदि का व्‍याख्‍यान किया । ये शंकादिक उनके प्रतिपक्षभूत जानना चाहिए ।

    शंका – प्रशंसा और संस्‍तव में क्‍या अन्‍तर है ?

    समाधान – मिथ्‍यादृष्टि के ज्ञान और चारित्र गुणों का मन से उद्भावन करना प्रशंसा है और मिथ्‍यादृष्टि में जो गुण हैं या जो गुण नहीं हैं इन दोनों का सद्भाव बतलाते हुए कथन करना संस्‍तव है, इस प्रकार यह दोनों में अन्तर है।

    शंका – सम्‍यग्‍दर्शन के आठ अंग है, इसलिए उसके अतिचार भी आठ ही होने चाहिए।

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्‍योंकि आगे आचार्य व्रतों और शीलों के पाँच पाँच अतिचार कहने वाले हैं, इसलिए अन्‍यदृष्टिप्रशंसा और अन्‍यदृष्टिसंस्‍तव इन दो अतिचारों में शेष अतिचारों का अन्‍तर्भाव करके सम्‍यग्‍दृष्टि के पॉंच ही अतिचार कहे हैं ।

    सम्‍यग्‍दृष्टि के अतिचार कहे, क्‍या इसी प्रकार व्रत और शीलों के भी अतिचार होते हैं ? हॉं, यह कह कर अब उन अतिचारों की संख्‍या का निर्देश करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1. शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव ये सम्यग्दर्शन के अतिचार हैं। निःशंकित्व आदि के प्रतिपक्षी शंका आदि हैं। मिथ्यादृष्टियों के ज्ञान चारित्र गुणों का मन से अभिनन्दन करना प्रशंसा है तथा वचन से विद्यमान-अविद्यमान गुणों का कथन संस्तव है।

    2. यद्यपि अगारी का प्रकरण है और आगे भी रहेगा, पर इस सूत्र में अगारी-गृहस्थ सम्यग्दृष्टि के अतिचार नहीं बताये हैं किन्तु सम्यग्दृष्टिसामान्य के, चाहे वह गृहस्थ हो या मुनि ।

    3-4. दर्शनमोह के उदय से तत्त्वार्थश्रद्धान से विचलित होना अतीचार है । अतिक्रम भी अतिचार का ही नाम है । यद्यपि सम्यग्दर्शन के अंग आठ बताये हैं और उनके प्रतिपक्षी दोष आठ हो सकते हैं, पर शेष का यहीं अन्तर्भाव करके पाँच ही अतिचार बताये गये हैं, यहाँ संस्तव को पृथक् गिना है।

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    + व्रत और शील के अतिचार -
    व्रत-शीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ॥24॥
    अन्वयार्थ : व्रतों और शीलों में पॉंच पॉंच अतिचार हैं जो क्रम से इस प्रकार हैं ॥२४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    शील और व्रत इन शब्‍दों का कर्मधारय समास होकर व्रतशील पद बना है । उनमें अर्थात् व्रत-शीलों में ।

    शंका – सूत्र में शील पद का ग्रहण करना निष्‍फल है, क्‍योंकि व्रत पद के ग्रहण करने से ही उसकी सिद्धि हो जाती है ?

    समाधान – सूत्र में शील पद का ग्रहण करना निष्‍फल नहीं है, क्‍योंकि विशेष का ज्ञान कराने के लिए और व्रतों की रक्षा करने के लिए शील है, इसलिए यहॉं शील पद के ग्रहण करने से दिग्वि‍रति आदि लिये जाते हैं ।

    यहॉं गृहस्‍थ का प्रकरण है, इसलिए गृहस्‍थ के व्रतों और शीलों के आगे कहे जाने वाले क्रम से पॉंच पॉंच अतिचार जानने चाहिए जो इस प्रकार हैं । उसमें भी पहले प्रथम अहिंसा व्रत के अतिचार बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    1-2. यद्यपि दिग्विरति आदि शील भी अभिसन्धिपूर्वक निवृत्ति होने से व्रत हैं किन्तु ये शील विशेषरूप से व्रतों के परिरक्षण के लिए होते हैं अतः इनका पृथक निर्देश किया है। आगे बन्ध, वध आदि अतिचार बताये जायँगे, उससे ज्ञात होता है कि ये अतिचार गृहस्थों के व्रत के हैं।

    3-4. 'पञ्च-पञ्च' यह वीप्सार्थक द्वित्व है । तात्पर्य यह कि इसमें समस्त अर्थ का बोध होता है, प्रत्येक व्रत-शील के पाँच-पाँच अतिचार हैं यह सूचित होता है । यद्यपि 'पञ्चशः' ऐसा शस् प्रत्ययान्तपद से काम चल सकता था पर स्पष्ट बोध के लिए द्वित्वनिर्देश किया है। यथाक्रम शब्द से आगे कहे जानेवाले अतिचारों का निर्दिष्टक्रम से अन्वय कर लेना चाहिए।

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    + अहिंसा अणुव्रत के अतिचार -
    बंधवध-च्छेदाति-भारारोपणान्नपान-निरोधा: ॥25॥
    अन्वयार्थ : बन्‍ध, वध, छेद, अतिभार का आरोपण और अन्‍नपान का निरोध ये अहिंसा अणुव्रत के पॉंच अतिचार हैं ॥२५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    किसी को अपने इष्‍ट स्‍थान में जाने से रोकने के कारण को बन्‍ध कहते हैं।

    डंडा, चाबुक और बेंत आदि से प्राणियों को मारना वध है। यहॉं वध का अर्थ प्राणों का वियोग करना नहीं लिया है, क्‍योंकि अतिचार के पहले ही हिंसा का त्‍याग कर दिया जाता है।

    कान और नाक आदि अवयवों का भेदना छेद है।

    उचित भार से अतिरिक्‍त भार का लादना अतिभारारोपण है ।

    गौ आदि के भूखप्‍यास में बाधाकर अन्‍नपान का रोकना अन्‍नपाननिरोध है।

    ये पॉंच अहिंसाणुव्रत के अतिचार हैं ।

    राजवार्तिक :
    बन्ध-खूटा आदि से रस्सी से इस प्रकार बाँध देना जिससे वह इष्टदेश को गमन न कर सके। डंडा, कषा, बेंत आदि से पीटना वध है, न कि प्राणिहत्या; क्योंकि हत्या से विरति तो व्रतधारणकाल में हो चुकी है । कान-नाक आदि अवयवों का छेदन करना छेद है । अत्यन्त लोभ के कारण उचित भार से अधिक भार लादना अतिभारारोपण है। गाय, बैल आदि को किसी कारण से समय पर चारा-पानी नहीं देना अन्नपाननिरोध है । ये अहिंसाणुव्रत के अतिचार हैं।

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    + सत्‍याणुव्रत के अतिचार -
    मिथ्योपदेश-रहोभ्याख्यान-कूटलेखक्रिया-न्यासापहार-साकारमन्त्रभेदा: ॥26॥
    अन्वयार्थ : मिथ्‍योपदेश, रहोभ्‍याख्‍यान, कूटलेखक्रिया, न्‍यासापहार और साकारमंत्रभेद ये सत्‍याणुव्रत के पॉंच अतिचार हैं ॥२६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अभ्‍युदय और मोक्ष की कारणभूत क्रियाओं में किसी दूसरे को विपरीत मार्ग से लगा देना या मिथ्‍या वचनों द्वारा दूसरों को ठगना मिथ्‍योपदेश है ।

    स्‍त्री और पुरूष द्वारा एकान्‍त में किये गये आचरण विशेष का प्रकट कर देना रहोभ्‍याख्‍यान है।

    दूसरे ने न तो कुछ कहा और न कुछ किया तो भी अन्य किसी की प्रेरणा से उसने ऐसा कहा है और ऐसा किया है इस प्रकार छल से लिखना कूटलेखक्रिया है ।

    धरोहर में चाँदी आदि को रखने वाला कोई उसकी संख्या भूलकर यदि उसे कमती लेने लगा तो 'ठीक है' इस प्रकार स्वीकार करना न्यासापहार है । अर्थवश, प्रकरणवश, शरीर के विकारवश या भ्रूक्षेप आदि के कारण दूसरे के अभिप्राय को जान कर डाह से उसका प्रकट कर देना साकारमन्त्रभेद है ।

    इस प्रकार ये सत्याणुव्रत के पाँच अतिचार जानने चाहिए ।


    राजवार्तिक :
    ये सत्याणुव्रत के अतिचार हैं।

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    + अचौर्य अणुव्रत के अतिचार -
    स्तेनप्रयोग-तदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रम-हीनाधिकमानोन्मान-प्रतिरूपक-व्यवहारा: ॥27॥
    अन्वयार्थ : स्‍तेनप्रयोग, स्तेन आहृतादान, विरूद्धराज्‍यातिक्रम, हीनाधिक मानोन्मान और प्रतिरुपक व्‍यवहार ये अचौर्य अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं ॥२७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    किसी को चोरी के लिए स्‍वयं प्रेरित करना, या दूसरे के द्वारा प्रेरित कराना या प्रयुक्‍त हुए की अनुमोदना करना स्‍तेनप्रयोग है।

    अपने द्वारा अप्रयुक्‍त असम्‍मत चोर के द्वारा लायी हुई वस्‍तु का ले लेना तदाहृतादान है। यहॉं न्‍यायमार्ग को छोड कर अन्‍य प्रकार से वस्‍तु ली गयी है इसलिए अतिचार है।

    विरुद्ध जो राज्‍य वह विरुद्धराज्‍य है । राज्‍यों में किसी प्रकार का विरोध होने पर मर्यादा का न पालना विरुद्धराज्‍यातिक्रम है । यदि वहॉं अल्‍प मूल्‍य में वस्‍तुयें मिल गयीं तो उन्‍हें महँगा बेचने का प्रयत्‍न करना विरुद्धराज्‍यातिक्रम है ।

    मानपद से प्रस्थ आदि मापने के बाट लिये जाते हैं और उन्मान पद से तराजू आदि तौलने के बाट लिये जाते हैं । कमती मापतौल से दूसरे को देना और बढती माप-तौल से स्‍वयं लेना इत्‍यादि कुटिलता से लेन-देन करना हीनाधिकमानोन्‍मान है ।

    बनावटी चॉंदी आदि से कपटपूर्वक व्‍यवहार करना प्रतिरुपक व्‍यवहार है।

    इस प्रकार ये अदत्‍तादान अणुव्रत के पॉंच अतिचार हैं।

    राजवार्तिक :
    ये अदत्तादानविरति के अतिचार हैं।

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    + स्‍वदारसंतोष अणुव्रत के अतिचार -
    परविवाह करणेत्वरिका-परिगृहीतापरिगृहीता-गमनानङ्गक्रीडा-कामतीव्राभिनिवेशा: ॥28॥
    अन्वयार्थ : परविवाहकरण, इत्‍वरिकापरिगृहीतागमन, इत्‍वारिका-अपरिगृहीतागमन, अनंगक्रीडा़ और कामतीव्राभिनिवेश ये स्‍वदारसंतोष अणुव्रत के पॉंच अतिचार हैं ॥२८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    कन्‍या का ग्रहण करना विवाह है। किसी अन्‍य का विवाह परविवाह है और इसका करना प‍रविवाह-करण है।

    जिसका स्‍वभाव अन्‍य पुरुषों के पास जाना-आना है वह इत्‍वरी कहला‍ती है। इत्‍वरी अर्थात अभिसारिका । इसमें भी जो अत्‍यन्‍त आचरट होती है वह इत्‍वरिका कहलाती हैं। यहॉं कुत्सित अर्थमें 'क' प्रत्‍यय होकर इत्‍वरिका शब्‍द बना है। जिसका कोई एक पुरुष भर्ता है वह परिगृहीता कहलाती है। तथा जो वेश्‍या या व्‍यभिचारिणी होने से दूसरे पुरुषों के पास जाती-आती रहती है और जिसका कोई पुरुष स्वामी नहीं है वह अपरिगृहीता कहलाती है। परिगृहीता इत्‍वरिका का गमन करना इत्‍वरिकापरिगृहीतागमन है और अपरिगृहीता इत्‍वरिका का गमन करना इत्‍वरिका-अपरिगृहीतागमन है ।

    यहाँ अंग शब्‍द का अर्थ प्रजनन और योनि है। तथा इनके सिवा अन्‍यत्र क्रीडा करना अनंगक्रीडा है।

    कामविषयक बढा हुआ परिणाम कामतीव्राभिनिवेश है।

    ये स्‍वदारसन्‍तोष अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं।

    राजवार्तिक :
    सातावेदनीय और चारित्रमोह के उदय से कन्या के वरण को विवाह कहते हैं । पर का विवाह कराना । गान नृत्यादि कला चारित्रमोह स्त्रीवेदका उदय विशिष्ट अंगोपांगके लाभ से गमन करनेवाली इत्वरिका है। जिसका कोई स्वामी नहीं ऐसी वेश्या या पुंश्चली अपरिगृहीता है। जो एक पति के द्वारा परिणीत है वह परिगृहीता है। इनसे सम्बन्ध रखना इत्वरिका परिगृहीता परिगृहीता-गमन है। काम सेवन के योनि आदि अंगों के सिवाय अन्य अंगों में कामातिरेकवश क्रीड़ा करना अनंगक्रीड़ा है। तीव्रकामप्रवृत्ति, सतत कामवासना से पीड़ित रहकर विषयसेवन में लगे रहना कामतीव्राभिनिवेश है। दीक्षिता अतिबाला तथा पशुओं आदि में मैथुनप्रवृत्ति करना कामतीव्राभिनिवेश के ही फल हैं । इन कार्यों में राजभय लोकापवाद आदि हैं। ये स्वदारसन्तोषव्रत के अतिचार हैं।

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    + परिग्रहपरिमाण अणुव्रत के अतिचार -
    क्षेत्रवास्तु-हिरण्यसुवर्ण-धन-धान्य-दासीदास-कुप्य-प्रमाणातिक्रमा: ॥29॥
    अन्वयार्थ : क्षेत्र और वास्तु के प्रमाण का अतिक्रम, हिरण्य और सुवर्ण के प्रमाण का अतिक्रम, धन और धान्य के प्रमाण का अतिक्रम,दासी और दास के प्रमाण का अतिक्रम तथा कुप्य के प्रमाण का अतिक्रम ये परिग्रहपरिमाण अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं ॥२९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    धान्‍य पैदा करनेका आधारभूत स्‍थान क्षेत्र है। मकान वास्‍तु है। जिससे रुप्‍य आदि का व्‍यवहार होता है व‍ह हिरण्‍य है। सुवर्ण का अर्थ स्‍पष्‍ट है। धन से गाय आदि लिये जाते हैं । धान्‍य से व्रीहि आदि लिये जाते हैं। नौकर स्‍त्री पुरुष मिलकर दासी–दास कहलाते है । रेशम, कपास, और कोसा के वस्‍त्र त‍था चन्‍दन आदि कुप्‍य कहलाते हैं ।

    क्षेत्र-वास्‍तु, हिरण्‍य–सुवर्ण, धन-धान्‍य, दासी-दास और कुप्‍य इनके विषय में मेरा इतना ही परिग्रह है इससे अधिक नहीं ऐसा प्रमाण निश्चित करके लोभवश क्षेत्रवास्‍तु आदि के प्रमाण को बढा लेना प्रमाणातिक्रम है। इस प्रकार ये परिग्रहपरिमाण अणुव्रत के पॉंच अतिचार हैं।

    राजवार्तिक :
    क्षेत्र वास्तु आदि दो-दो का द्वन्द्व समास करके फिर कुप्य के साथ पूर्णद्वन्द्व करना चाहिये। क्षेत्र-खेत, वास्तु-मकान, हिरण्य-सोने के सिक्के आदि, सुवर्ण-सोना, धन-गाय आदि, धान्य-चावल आदि, दासीदास-स्त्री और पुरुष भृत्य, कुप्य-कपास या कोसे आदि के वस्त्र और चन्दन आदि । 'मेरा इतना ही परिग्रह है इससे अधिक नहीं' इस तरह मर्यादित क्षेत्र आदि से अतिलोभ के कारण मर्यादा बढ़ा लेना, स्वीकृत मर्यादा का उल्लंघन करना परिग्रहविरमण व्रत के अतिचार हैं।

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    + दिग्विरतिव्रत के अतिचार -
    ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धि-स्मृत्यंतराधानानि ॥30॥
    अन्वयार्थ : ऊर्ध्‍वव्‍यतिक्रम, अधोव्‍यतिक्रम, तिर्यग्‍व्‍यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्‍मृत्‍यन्‍तराधान ये दिग्विरतिव्रत के पाँच अतिचार हैं ॥३०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    दिशा की जो मर्यादा निश्चित की हो उसका उल्‍लंघन करना अतिक्रम है। वह संक्षेप से तीन प्रकार का है - ऊर्ध्‍वातिक्रम, अधोऽतिक्रम और तिर्यगतिक्रम। इनमें से मर्यादा के बाहर पर्वतादिक पर चढने से ऊर्ध्‍वातिक्रम होता है, कुआँ आदि में उतरने आदि से अधोऽतिक्रम होता है और बिल आदि में घुसने से तिर्यगतिक्रम होता है।

    लोभ के कारण मर्यादा की हुई दिशा के बढाने का अभिप्राय रखना क्षेत्रवृद्धि है। यह व्‍यतिक्रम प्रमाद से, मोह से या व्‍यासंग से होता है।

    मर्यादा का स्‍मरण ना रखना स्‍मृत्‍यन्‍तराधान है।

    ये दिग्विरमण व्रत के पाँच अतिचार हैं।


    राजवार्तिक :
    1-9. दिशाओं की की गई मर्यादा का लाँघ जाना अतिक्रम है। पर्वत और सीमाभूमि आदि से ऊपर चढ़ जाना ऊर्ध्वातिक्रम है । कूप आदि में नीचे उतरना अधोऽतिक्रम है। बिल गुफा आदि में प्रवेश करके मर्यादा लाँघ जाना तिर्यग्व्यतिक्रम है । लोभ आदि के कारण स्वीकृत मर्यादा का परिमाण बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि है । निश्चित मर्यादा को भूल जाना स्मृत्यन्तराधान है। इच्छापरिमाण नामक पाँचवें अणुव्रत में इसका अन्तर्भाव नहीं हो सकता; क्योंकि उसमें क्षेत्र, वास्तु आदि का परिमाण किया जाता है और दिग्विरति में दिशाओं की मर्यादा की जाती है। इस दिशा में लाभ होगा अन्यत्र लाभ नहीं होगा और लाभालाभ से ही जीवन-मरण की समस्या जुटी है फिर भी स्वीकृत दिशामर्यादा से आगे लाभ होने पर भी गमन नहीं करना दिग्विरति है। दिशाओं का क्षेत्र, वास्तु आदि की तरह परिग्रहबुद्धि से अपने अधीन करके परिमाण नहीं किया जाता। इन दिशाकी मर्यादाओं का उल्लंघन प्रमाद मोह और चित्तव्यासंग से हो जाता है।

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    + देशविरति के अतिचार -
    आनयन-प्रेष्यप्रयोग-शब्दरूपानुपात-पुद्गलक्षेपा: ॥31॥
    अन्वयार्थ : आनयन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गलक्षेप ये देशविरति के पाँच अतिचार हैं ॥३१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अपने द्वारा संकल्पित देश में ठहरे हुए पुरुष को प्रयोजनवश किसी वस्‍तु को लाने की आज्ञा करना आनयन है।

    ऐसा करो इस प्रकार काम में लगाना प्रेष्‍यप्रयोग है।

    जो पुरुष किसी उद्योग में जुटे हैं उन्‍हें उद्देश्‍य कर खाँसना आदि शब्‍दानुपात है।

    उन्‍हीं पुरुषों को अपने शरीर को दिखलाना रुपानुपात है।

    ढेला आदि का फेंकना पुदगलक्षेप है।

    इस प्रकार देशविरमण व्रत के पाँच अतिचार हैं।

    राजवार्तिक :
    अपने संकल्पित देश से बाहर स्थित व्यक्ति को प्रयोजनवश कुछ पदार्थ लाने की आज्ञा देना आनयन है । स्वीकृत मर्यादा से बाहर स्वयं न जाकर और दूसरे को नबुलाकर भी नौकर के द्वारा इष्टव्यापार सिद्ध करना प्रेष्यप्रयोग है। मर्यादा के बाहर के नौकर आदि को खाँसकर या अन्य प्रकार से शब्द करके कार्य कराना शब्दानुपात है। 'मुझे देखकर काम जल्दी होगा' इस अभिप्राय से अपने शरीर को दिखाना रूपानुपात है। नौकर चाकरों को संकेत करने के लिए कंकड़ पत्थर आदि फैंकना पुद्गलक्षेप कहा जाता है। उक्त अतिचारों में स्वयं मर्यादा का उल्लंघन नहीं करके अन्य से करवाता है, अतः इन्हें अतिक्रम कहते हैं। यदि स्वयं उल्लंघन करता तो व्रत का लोप ही हो जाता । ये देशव्रत के अतिचार हैं।

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    + अनर्थदण्‍डवि‍रति के अतिचार -
    कन्दर्प-कौत्कुच्य-मौखर्यासमीक्ष्याधि-करणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि ॥32॥
    अन्वयार्थ : कन्‍दर्प, कौत्‍कुच्‍य, मौखर्य, असमीक्ष्‍याधिकरण और उपभोगपरिभोगानर्थक्‍य ये अनर्थदण्‍डवि‍रति व्रत के पाँच अतिचार हैं ॥३२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    रागभाव की तीव्रतावश हास्‍यमिश्रित असभ्‍य वचन बोलना कन्‍दर्प है।

    परिहास और असभ्‍यवचन इन दोनों के साथ दूसरे के लिए शारीरिक कुचेष्‍टाएँ करना कौतकुच्‍य है।

    धीठता को लिये हुए नि:सार कुछ भी बहुत बकवास करना मौखर्य है।

    प्रयोजन का विचार किये बिना मर्यादा के बाहर अधिक काम करना असमीक्ष्‍याधिकरण है।

    उपभोग परिभोग के लिए जितनी वस्तु की आवश्यकता है वह अर्थ है उससे अतिरिक्त अधिक वस्तु रखना उपभोगपरिभोगानर्थक्‍य है।

    इस प्रकार ये अनर्थदण्‍डवि‍रति व्रत के पाँच अतिचार हैं ।

    राजवार्तिक :
    चारित्रमोहात्मक राग के उदय से हास्ययुक्त अशिष्टवचन के प्रयोग को कन्दर्प कहते हैं । काय की कुचेष्टाओं के साथ ही साथ होनेवाला हास्य और अशिष्ट प्रयोग कौत्कुच्य कहलाता है। शालीनता का त्यागकर धृष्टतापूर्वक यद्वा तद्वा प्रलाप-बकवास मौखर्य है। प्रयोजनके बिना ही आधिक्यरूप से प्रवर्तन अधिकरण कहलाता है। निरर्थक काव्य आदि का चिन्तन मानस अधिकरण है। निष्प्रयोजन पर-पीड़ादायक कुछ भी बकवास वाचनिक अधिकरण है। बिना प्रयोजन बैठे या चलते हुए सचित्त या अचित्त पत्र पुष्प फलों का छेदन, मर्दन, कुट्टन या क्षेपण आदि करना, तथा अग्नि, विष, क्षार आदि देना कायिक अधिकरण है। जिसके जितने उपभोग और परिभोग के पदार्थों से काम चल जाय वह उसके लिए अर्थ है उससे अधिक पदार्थ रखना उपभोगपरिभोगानर्थक्य है । उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत में इच्छानुसार परिमाण किया जाता है और सावद्य का परिहार किया जाता है, पर यहाँ आवश्यकता का विचार है । जो संकल्पित भी है पर यदि आवश्यकता से अधिक है तो अतिचार है। उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत के अतिचारों में सचित्तसम्बन्ध आदि रूप से मर्यादातिक्रम विवक्षित है अतः इसका वहाँ कथन नहीं किया। ये पाँच अनर्थदण्डविरति के अतीचार हैं।

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    + सामायिक व्रत के अतिचार -
    योग दु:प्रणिधानानादर-स्मृत्यनु-पस्थानानि ॥33॥
    अन्वयार्थ : काययोगदुष्‍प्रणिधान, वचनयोगदुष्‍प्रणि‍धान, मनोयोगदुष्‍प्रणि‍धान, अनादर और स्मृति का अनुपस्थान ये सामायिक व्रत के पाँच अतिचार हैं ॥३३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    तीन प्रकार के योग का व्‍याख्‍यान किया जा चुका है। उसका बुरी तरह से प्रयोग करना योगदुष्‍प्रणिधान है जो तीन प्रकारका है— कायदुष्‍प्रणिधान, वचनदुष्‍प्रणि‍धान और मनोदुष्‍प्रणि‍धान ।

    उत्‍साह का न होना अनुत्‍साह है और वही अनादर है।

    तथा एकाग्रता का न होना स्‍मृत्‍यनुपस्‍थान है ।

    इस प्रकार ये सामायिक व्रत के पाँच अतिचार हैं ।

    राजवार्तिक :
    क्रोधादि कषायों के वश होकर शरीर का विचित्र विकृतरूप से हो जाना, निरर्थक अशुद्ध वचनों का प्रयोग और मन का उपयोग नहीं लगना योगदुःप्रणिधान है। अनादर-अनुत्साह, कर्तव्यकर्म का जिस किसी तरह निर्वाह करना । चित्त की एकाग्रता न होना और मन में समाधिरूपता का न होना स्मृत्यनुपस्थान है। मनोदुष्प्रणिधान में अन्य विचार नहीं आता, जिस विषय का विचार किया जाता है उसमें भी क्रोधादि का आवेश आ जाता है, किन्तु स्मृत्यनुपस्थान में चिन्ता के विकल्प चलते रहते हैं और चित्त में एकाग्रता नहीं आती। अथवा, रात्रि और दिन को नित्यक्रियाओं को ही प्रमाद की अधिकता से भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान है। ये पाँच सामायिक के अतीचार हैं।

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    + प्रोषधोपवास के अतिचार -
    अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणा-नादरस्मृत्यनुप-स्थानानि ॥34॥
    अन्वयार्थ : अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित भूमि में उत्‍सर्ग, अप्रत्‍यवेक्षित अप्रमार्जित वस्‍तु का आदान, अप्रत्‍यवेक्षित अप्रमार्जित संस्‍तर का उपक्रमण, अनादर और स्‍मृति का अनुपस्‍थान ये प्रोषधोपवास व्रत के पाँच अतिचार हैं ॥३४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जीव है या नहीं हैं इस प्रकार आँख से देखना प्रत्‍यवेक्षण कहलाता है और कोमल उपकरण से जो प्रयोजन साधा जाता है वह प्रमार्जित कहलाता है। निषेधयुक्‍त इन दोनों पदों का उत्‍सर्ग आदि अगले तीन पदों से सम्‍बन्‍ध होता है। यथा- अप्रत्‍यवेक्षिताप्रमार्जितोत्‍सर्ग आदि।

    बिना देखी और बिना प्रमार्जित भूमि में मल–मूत्र का त्‍याग करना अप्रत्‍यवेक्षिताप्रमार्जितोत्‍सर्ग हैं।

    अरहंत और आचार्य की पूजा के उपकरण, गन्‍ध, माला और धूप आदि को तथा अपने ओढने आदि के वस्‍त्रादि पदार्थों को बिना देखे और बिना परिमार्जन किये हुए ले लेना अप्रत्‍यवेक्षिताप्रमार्जितादान है।

    बिना देखे और बिना परिमार्जन किये हुए प्रावरण आदि संस्‍तर का बिछाना अप्रत्‍यवेक्षिताप्रमार्जितसंस्‍तरोपक्रमण है।

    भूख से पीडित होने के कारण आवश्‍यक कार्यों में अनुत्‍साहित होना अनादर है।

    स्‍मृत्‍यनुपस्‍थान का व्‍याख्‍यान पहले किया ही है।

    इस प्रकार ये प्रोषधोपवास व्रत के पाँच अतिचार हैं।

    राजवार्तिक :
    प्रत्यवेक्षण-देखना, प्रमार्जन-शोधना । बिना देखे और बिना शोधे हुए भूमिपर मल-मूत्रादि करना, बिना देखे बिना शोधे अर्हन्त या आचार्य की पूजा के उपकरणों का रखना उठाना, गन्ध, माला, वस्त्र, पात्र आदि का रखना, बिना देखे बिना शोधे संथारा आदि बिछाना, भूख आदि के कारण आवश्यक क्रियाओं में उत्साह नहीं रखना तथा स्मृत्यनुपस्थान-चित्त की एकाग्रता का अभाव ये पाँच प्रोषधोपवास व्रत के अतिचार हैं।

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    + उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत के अतिचार -
    सचित्त-संबंधसम्मिश्रा-भिषवदु:पक्वाहारा: ॥35॥
    अन्वयार्थ : सचित्ताहार, सम्‍बन्‍धाहार, सम्मिश्राहार, अभिषवाहार और दु:पक्‍वाहार ये उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत के पाँच अतिचार हैं ॥३५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जो चित्‍त सहित है सचित्‍त कहलाता है। सचित्‍त से चेतना सहित द्रव्‍य लिया जाता है। इससे सम्‍बन्‍ध को प्राप्‍त हुआ द्रव्‍य सम्‍बन्‍धाहार है। और इससे मिश्रित द्रव्‍य सम्मिश्र है।

    शंका- यह गृहस्‍‍थ सचित्‍तादिक में प्रवृत्त्ति किस कारण से करता है ?

    समाधान- प्रमाद और सम्‍मोह के कारण ।

    द्रव, वृष्‍य, और अभिषव इनका एक अर्थ है ।

    जो ठीक तरह से नहीं पका है वह दु:पक्‍व है ।

    ये पाँचों शब्‍द आहार के विशेषण हैं या इनसे आहार पाँच प्रकार का हो जाता है। यथा- सचित्‍ताहार, सम्‍बन्‍धाहार, सम्मिश्राहार, अभिषवाहार और दु:पक्‍वाहार ये सब भोगोपभोपरिसंख्‍यान व्रत के पाँच अतिचार हैं।

    राजवार्तिक :
    सचित्त-चेतन द्रव्य । सचित्त से सम्बन्ध और सचित्त से मिश्र । सम्बन्ध में केवल संसर्ग विवक्षित है तथा सम्मिश्रण में सूक्ष्म जन्तुओं से आहार ऐसा मिला हुआ होता है जिसका विभाग न किया जा सके। प्रमाद तथा मोह के कारण क्षुधा-तृषा आदि से पीड़ित व्यक्ति की जल्दी-जल्दी में सचित्त आदि भोजन, पान, अनुलेपन तथा परिधान आदि में प्रवृत्ति हो जाती है । द्रव, सिरका आदि और उत्तेजक भोजन अभिषव कहलाता है। जो अच्छी तरह नहीं पकाया गया हो वह दुष्पक्व आहार है। इसके भोजन से इन्द्रियाँ मत्त हो जाती हैं। सचित्तप्रयोग से वायु आदि दोषों का प्रकोप हो सकता है और उसका प्रतीकार करने में पाप लगता है, अतिथि उसे छोड़ भी देते हैं । कृचछ्र विवक्षा में 'दुष्पच' शब्द बनता है, यहाँ वह विवक्षा नहीं है अतः दुष्पक्व प्रयोग किया है। ये पाँच उपभोगपरिभोगसंख्यान व्रत के अतिचार हैं।

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    + अतिथिसंविभाग व्रत के अतिचार -
    सचित्त-निक्षेपापिधानपरव्यपदेश-मात्सर्यकालातिक्रमा: ॥36॥
    अन्वयार्थ : सचित्तनिक्षेप, सचित्तापिधान, परव्‍यपदेश, मात्‍सर्य और कालातिक्रम ये अतिथिसंविभाग व्रत के पाँच अतिचार है ॥३६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सचित्‍त कमलपत्र आदि में रखना सचित्‍तनिक्षेप है।

    अपिधान का अर्थ ढाँकना है। इस शब्‍द को भी सचित्‍त शब्‍द से जोड़ लेना चाहिए, जिससे सचित्‍त कमलपत्र आदि से ढाँकना यह अर्थ फलित होता है।

    इस दान की वस्‍तु का दाता अन्‍य है यह कहकर देना परव्‍यपदेश है।

    दान करते हुए भी आदर का न होना या दूसरे दाता के गुणों को न सह सकना मात्‍सर्य है।

    भिक्षाकाल के सिवा दूसरा काल अकाल है और उसमें भोजन कराना कालातिक्रम है।

    ये सब अतिथिसंविभाग शीलव्रत के पाँच अतिचार हैं ।

    राजवार्तिक :
    सचित्त-कमलपत्र आदिमें आहार रखना, सचित्त से ढंक देना, 'दूसरी जगह दाता हैं, यह देय पदार्थ अन्य का है' इस तरह दूसरे के बहाने देना, दान देते समय आदरभाव नहीं रखना, साधुओं के भिक्षाकाल को टाल देना कालातिक्रम है, ये अतिथिसंविभाग व्रत के अतीचार हैं।

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    + सल्‍लेखना के अतिचार -
    जीवित-मरणाशंसा-मित्रानुराग-सुखानुबंध-निदानानि ॥37॥
    अन्वयार्थ : जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्‍ध और निदान ये सल्‍लेखना के पाँच अतिचार हैं ॥३७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    आशंसा का अर्थ चाहना है। जीने की चाह करना जीविताशंसा है और मरने की चाह करना मरणाशंसा है।

    पहले मित्रों के साथ पांसुक्रीडन आदि नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ की रही उनका स्‍मरण करना मित्रानुराग है।

    अनुभव में आये हुए विविध सुखों का पुन: पुन: स्मरण करना सुखानुबन्ध है।

    भोगाकांक्षा से जिसमें या जिसके कारण चित्त नियम से दिया जाता है वह निदान है।

    ये सब सल्‍लेखना के पाँच अतिचार हैं ।

    तीर्थंकर पद के कारणभूत कर्म के आस्रव का कथन करते समय शक्तिपूर्वक त्‍याग और तप कहा; पुन: शीलों का कथन करते समय अतिथिसंविभागव्रत कहा परन्‍तु दान का लक्षण अभी तक ज्ञात नहीं हुआ, इसलिए दान का स्‍वरुप बतलाने के लिए आगे का सूत्र है –

    राजवार्तिक :
    अवश्य नष्ट होनेवाले शरीर के ठहरने की अभिलाषा जीविताशंसा-जीने की इच्छा है। रोग आदि की तीव्र पीड़ा से जीने में संक्लेश होने पर मरने की आकांक्षा करना मरणाशंसा है। जिनके साथ बचपन में धूल में खेले हैं, जिनने आपत्ति में साथ दिया और उत्सव में हाथ बटाया उन मित्रों का स्मरण मित्रानुराग है । पहिले भोगे गये भोग, क्रीड़ा, शयन आदि का स्मरण करना सुखानुबन्ध है । आगे भोगों की आकाँक्षा करना निदान है। ये पाँच सल्लेखना के अतीचार है।

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    + दान -
    अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् ॥38॥
    अन्वयार्थ : अनुग्रह के लिए अपनी वस्‍तुका त्‍याग करना दान हैं ॥३८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    स्‍वयं अपना और दूसरे का उपकार करना अनुग्रह है।

    दान देने से पुण्‍य का संचय होता है यह अपना उपकार है तथा जिन्‍हें दान दिया जाता है उनके सम्‍यग्‍ज्ञान आदि की वृद्धि होती है, यह पर का उपकार है।

    सूत्र में आये हुए स्‍वशब्‍द का अर्थ धन है। तात्‍पर्य यह है कि अनुग्रह के लिए जो धन का अतिसर्ग अर्थात त्‍याग किया जाता है। वह दान है ऐसा जानना चाहिए।

    दान का स्‍वरुप कहा तब भी उसका फल एक-सा होता है या उसमें कुछ विशेषता है, यह बतलाने के लिए अब आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    स्वोपकार और परोपकार को अनुग्रह कहते हैं । पुण्य का संचय स्वोपकार है और पात्र की सम्यग्ज्ञान आदि की वृद्धि परोपकार है। स्व शब्द के आत्मा, आत्मीय, ज्ञाति, धन आदि अनेक अर्थ होते हैं, पर यहाँ स्व शब्द धन का वाचक है। अनुग्रह के लिए धन का त्याग दान है।

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    + दान में विशेषता -
    विधि-द्रव्य-दातृ-पात्र-विशेषात्तद्विशेष: ॥39॥
    अन्वयार्थ : विधि, देय वस्‍तु, दाता और पात्र की विशेषता से उसकी विशेषता है ॥३९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    प्रतिग्रह आदि करने का जो क्रम है वह विधि है। विशेषता गुण से आती है । इस विशेष शब्‍द को विधि आदि प्रत्‍येक शब्‍द के साथ जोड लेना चाहिए। यथा- विधिविशेष, द्रव्‍यविशेष, दाताविशेष और पात्रविशेष ।

    प्रतिग्रह आदिक में आदर और अनादर होने से जो भेद होता है वह विधिविशेष है।

    जिससे तप और स्‍वाध्‍याय आदि की वृद्धि होती है वह द्रव्‍यविशेष है।

    अनसूया और विषाद आदि का न होना दाता की विशेषता है।

    तथा मोक्षके कारणभूत गुणों से युक्‍त रहना पात्र की विशेषता है।

    जैसे पृथिवी आदि में विशेषता होने से उससें उत्‍पन्‍न हुए बीज में विशेषता आ जाती है वैसे ही विधि आदिक की विशेषता से दान से प्राप्त होने वाले पुण्य फ़ल में विशेषता आ जाती है।

    इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि नामक तत्‍वार्थवृत्तिमें सातवाँ अध्‍याय समाप्‍त हुआ ।।7।।

    राजवार्तिक :
    1-2. प्रतिग्रह, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, अर्चन, प्रणाम आदि क्रियाओं को विधि कहते हैं । यहाँ विशेषता गुणकृत समझनी चाहिए। विधिविशेष अर्थात् प्रतिग्रह आदिमें आदरपूर्वक प्रवृत्ति करना।

    3-5. जो अन्न आदि द्रव्य लेनेवाले पात्र के स्वाध्याय, ध्यान और परिणामशुद्धि आदि की वृद्धि का कारण हो वह द्रव्य विशेष है । पात्र में ईर्षा न होना, त्याग में विषाद न होना, देने की इच्छा करनेवाले में, देनेवाले में या जिसने दान दिया है सबमें प्रीति होना, कुशल अभिप्राय, प्रत्यक्ष फल की आकांक्षा न करना, निदान नहीं करना, किसी से विसंवाद नहीं करना आदि दाता की विशेषताएँ हैं । मोक्ष के कारणभूत सम्यग्दर्शन आदि गुण जिनमें पाये जायँ वे पात्र हैं ।

    6. जिस प्रकार भूमि बीज आदि कारणों में गुणवत्ता होने से विशेष फलोत्पत्ति देखी जाती है उसी तरह विधिविशेष आदि से दान के फल में विशेषता होती है।

    7-8. यदि सभी पदार्थों को निरात्मक माना जाता है तो विधि आदि की विशेषता नहीं बन सकती । जब ज्ञान क्षणिक है तब 'तप स्वाध्याय और ध्यान में परायण यह ऋषि मेरा उपकार करेगा, इसे दिया गया दान व्रतशील, भावना आदि की वृद्धि करेगा, इसकी यह विधि है' इस प्रकार अनुसन्धान-प्रत्यभिज्ञान ही नहीं हो सकता; क्योंकि पूर्वोत्तरक्षणविषयक ज्ञान संस्कार आदि का ग्राहक एकज्ञान नहीं है । अतः इस पक्ष में दानविधि नहीं बन सकती।

    9-10. जो वादी आत्मा को अकारण होने से नित्य, ज्ञानदर्शनादि गुणों से भिन्न होने के कारण अज्ञ, सर्वगत होने से निष्क्रिय आदि मानते हैं; उनके यहाँ भी दानविधि आदि नहीं बन सकती; क्योंकि ऐसी आत्मा में कोई विकार-परिवर्तन की सम्भावना नहीं है। समवाय से क्रियागुण आदि का सम्बन्ध मानने पर भी जबतक स्वयं वैसा परिणमन न होगा तबतक दानादि विधि नहीं बन सकतीं। जिस प्रकार दण्ड का सम्बन्ध होने पर भी देवदत्त में दण्डरूप परिणमन नहीं होता उसमें दण्डस्वभाव नहीं आता उसी तरह क्रिया, गुण आदि के समवाय से भी आत्मा में क्रिया और गुण-स्वभावता नहीं आ सकेगी। ऐसी दशा में दानादिविधि नहीं बन सकती।

    11. 'महान् अहंकार आदि चौबीस प्रकार का अचेतन क्षेत्र है और क्षेत्रज्ञ पुरुषचेतन है' इस सांख्यदर्शन में भी क्षेत्रभूत प्रकृति जब अचेतन है तो उसे घटादि की तरह विधि आदि का प्रतिसन्धान नहीं हो सकता। यदि प्रतिसन्धान होता है तो अचेतन नहीं कह सकते। क्षेत्रज्ञ पुरुष तो नित्य शुद्ध और निष्क्रिय है अतः उसे भी दानादि की विधि का अनुसन्धान नहीं हो सकता।

    12. अनेकान्तवादी जैनदर्शन में द्रव्यदृष्टि से नित्य और पर्यायदृष्टि से अनित्य आत्मा में विधिविशेष आदि का अनुसन्धान आदि सभी बन जाते हैं।

    सातवाँ अध्याय समाप्त

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    8-बंधाधिकार



    + बंध के हेतु -
    मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतव: ॥1॥
    अन्वयार्थ : मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बंध के हेतु हैं ॥१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    आस्रव पदार्थ व्‍याख्‍यान किया । अब उसके बाद कहे गये बन्‍ध पदार्थ का व्‍याख्‍यान करना चाहिए उसका व्‍याख्‍यान करते हुए पहले बन्‍ध के कारणों का निर्देश करते हैं, क्‍योंकि बन्‍ध तत्‍पूर्वक होता है-

    मिथ्‍यादर्शन आदि का व्‍याख्‍यान पहले किया जा चुका है ।

    शंका – इनका व्‍याख्‍यान पहले कहॉं किया है।

    समाधान – 'तत्‍वार्थश्रध्दानं सम्‍यग्‍दर्शनम्' इस सूत्र में सम्‍यग्‍दर्शन का व्‍याख्‍यान किया है । मिथ्‍यादर्शन इसका उल्‍टा है, अत: इससे उसका भी व्‍याख्‍यान हो जाता है । या आस्रव का कथन करते समय पच्‍चीस क्रियाओं में मिथ्‍यादर्शन क्रिया के समय उसका व्‍याख्‍यान किया है । विरति का व्‍याख्‍यान पहले कर आये हैं । उसकी उलटी अविरति लेनी चाहिए । प्रमाद का अन्‍तर्भाव आज्ञाव्‍यापादनक्रिया और अनाकांक्षाक्रिया इन दोनों में हो जाता है । अच्‍छे कार्यों के करने में आदरभाव न होना प्रमाद है । कषाय क्रोधादिक हैं जो अन्‍ततानुबन्‍धी, अप्रत्‍याख्‍यान, प्रत्‍याख्‍यान और संज्‍वलन के भेद से अनेक प्रकार की हैं । इनका भी पहले कथन कर आये हैं ।

    शंका – कहॉं पर ?

    समाधान – 'इन्द्रियकषाया' इत्‍यादि सूत्र का व्‍याख्‍यान करते समय । तथा कायादि के भेद से तीन प्रकार के योग का आख्‍यान भी पहले कर आये हैं ।

    शंका – कहॉं पर ?

    समाधान – 'कायवाड मन: कर्म योग:' इस सूत्र में ।

    मिथ्‍यादर्शन दो प्रकार का हैं- नैसर्गिक और परोपदेशपूर्वक । इनमें से जो परोपदेश बिना मिथ्‍यादर्शन कर्म के उदय से जीवादि पदार्थों का अश्रध्‍दानरूप भाव होता है वह नैसर्गिक मिथ्‍यादर्शन है । तथा परोपदेश के निमित्त से होने वाला मिथ्‍यादर्शन चार प्रकार का है- क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानी और वैनयिक । अथवा मिथ्‍यादर्शन पॉंच प्रकार का है- एकान्‍त मिथ्‍यादर्शन, विपरीत मिथ्‍यादर्शन, संशय मिथ्‍यादर्शन, वैनयिक मिथ्‍यादर्शन और अज्ञानिक मिथ्‍यादर्शन।

    यही है, इसी प्रकार का है इस प्रकार धर्म और धर्मी में एकान्‍तरूप अभिप्राय रखना एकान्‍त मिथ्‍यादर्शन है । जैसे यह सब जग परब्रह्मरूप ही है, या सब पदार्थ अनित्‍य ही है या नित्‍य ही है।

    सग्रन्‍थको निर्ग्रन्‍थ मानना, केवली को कवलाहारी मानना और स्‍त्री सिद्ध होती है इत्‍यादि मानना विपर्यय मिथ्‍यादर्शन है।

    सम्‍यग्‍दर्शन, सम्‍यग्‍ज्ञान और सम्‍यक्चारित्र ये तीनों मिलकर क्‍या मोक्षमार्ग हैं या नहीं इस प्रकार किसी एक पक्ष को स्‍वीकार नहीं करना संशय मिथ्‍यादर्शन है । सब देवता और सब मतों को एक समान मानना वैनयिक मिथ्‍यादर्शन है ।

    हिताहित की परीक्षा से रहित होना अज्ञानिक मिथ्‍यादर्शन हैं ।

    कहा भी है- क्रियावादियों के एक सौ अस्‍सी, अक्रियावादियों के चौरासी, अज्ञानियों के सडसठ और वैनयिकों के बत्तीस भेद है ।

    छहकाय के जीवों की दया न करने से और छह इन्द्रियों के विषय भेद से अविर‍ति बारह प्रकार की है । सोलह कषाय और नौ नोकषाय ये पच्‍चीस कषाय हैं। यद्यपि कषायों से नोकषायों में थोडा भेद है पर वह यहॉं विवक्षित नहीं हैं, इसलिये सबको कषाय कहा है । चार मनोयोग, चार वचनयोग और पॉंच काययोग ये योग के तेरह भेद हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्‍थान में आहारक ऋद्धिधारी मुनि के आहारककाययोग और और आहारक मिश्रकाययोग भी सम्‍भव हैं इस प्रकार योग पन्‍द्रह भी होते हैं । शुद्धयष्‍टक और उत्तमक्षमा आदि विषयक भेद से प्रमाद अनेक प्रकार का है । इस प्रकार ये मिथ्‍यादर्शन आदि पॉंचों मिलकर पृथक-पृथक बन्‍धके हेतु हैं । स्‍पष्‍टीकरण इस प्रकार है - मिथ्‍यादृष्टि जीव के पाँचों ही मिलकर बंध के हेतु हैं । सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्‍मिथ्यादृष्टि और अविरतसम्‍यग्‍दृष्टि के अविरति आदि चार बन्‍ध के हेतु हैं। संयतासंयत के विरति और अविरति ये दोनों मिश्ररूप तथा प्रमाद, कषाय और योग ये बन्‍ध के हेतु हैं। प्रमत्‍तसंयत के प्रमाद, कषाय और योग ये तीन बन्‍ध के हेतु हैं। अप्रमत्‍तसंयत आदि चार के योग और कषाय ये दो बन्‍ध के हेतु हैं। उपशान्‍तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली इनके एक योग ही बन्‍ध का हेतु है। अयोगकेवली के बन्‍ध का हेतु नहीं है।

    बन्‍ध के हेतु कहे। अब बन्‍ध का कथन करना चाहिये इसलिये आगे का सूत्र कहते हैं—

    राजवार्तिक :
    1-5. पञ्चीस क्रियाओं में आई हुई मिथ्यात्वक्रिया में मिथ्यादर्शन अन्तर्भूत है। अविरति का व्याख्यान 'इन्द्रियकषायावत' इसी सूत्र में किया गया है। आज्ञाव्यापादन क्रिया और अनाकांक्ष क्रिया में प्रमाद का अन्तर्भाव है । प्रमाद का अर्थ है - कुशल क्रियाओंमें अनादर अर्थात् मन को नहीं लगाना । क्रोधादि कषायों तथा मन-वचनऔर काय योगों का वर्णन पहिले किया जा चुका है।

    6-12. नैसर्गिक और परोपदेश के भेद से मिथ्यादर्शन दो प्रकार का है। परोपदेश के बिना मिथ्यात्वकर्म के उदय से जो तत्त्वार्थ-अश्रद्धान उत्पन्न होता है वह नैसर्गिक मिथ्यादर्शन है। परोपदेश से होनेवाला मिथ्यादर्शन क्रियावादीमत, अक्रियावादीमत, आज्ञानिकमत और वैनयिकमत के भेद से चार प्रकार का है। इस तरह कुल 363 मिथ्या मतवाद हैं।

    13-14. प्रश्न – बादरायण, वसु, जैमिनि आदि तो वेद-विहित क्रियाओं का अनुष्ठान करते हैं, ये आज्ञानिक कैसे हो सकते हैं ?

    उत्तर – इनने प्राणिवध को धर्म का साधन माना है। प्राणिवध तो पाप का ही साधन हो सकता है, धर्म का नहीं। कर्ता के दोषों की संभावना से रहित अपौरुषेय आगम से प्राणिवध को धर्महेतु सिद्ध करना उचित नहीं है; क्योंकि आगम समस्त प्राणियों के हित का अनुशासन करता है । हिंसा का विधान करनेवाले वचन जिसमें हों वह ठगों के वचन की तरह आगम ही नहीं हो सकता। फिर, वेद में ही कहीं हिंसा और कहीं अहिंसा का परस्पर विरोधी कथन मिलता है, वह स्वयं अनवस्थित है। जैसे 'पुनर्वसु पहिला है और पुष्य पहिला है' ये वचन परस्परविरोधी होने से अप्रमाण हैं उसी तरह 'पशुवध से समस्त इष्ट पदार्थ मिलते हैं, यज्ञ विभूति के लिए हैं अतः यज्ञ में होनेवाला वध अवध है' इस प्रकार एक जगह पशुवध का विधान करनेवाले वचन और दूसरी जगह 'अज-जिनमें अंकुर को उत्पन्न करने की शक्ति न हो ऐसे तीनवर्ष पुराने बीजों से पिष्टमय बलिपशु बनाकर यज्ञ करना चाहिए ये अहिंसक वचन भी परस्परविरोधी होने से प्रमाण नहीं कहे जा सकते। इस तरह अव्यवस्थित होने से वेद को प्रमाण नहीं कह सकते।

    15-19. अर्हन्त भगवान के द्वारा प्रभाषित परमागम में सर्वत्र प्राणिवध का निषेध किया है, अहिंसा को ही धर्म माना है अतः प्राणिवध धर्महेतु नहीं हो सकता। अर्हन्त के परमागम को पुरुषकृति होने से अप्रमाण कहना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि वह अतिशय ज्ञानों का आकर है । इस आगम में नय प्रमाण आदि अधिगम के उपायों से बन्ध-मोक्ष आदि का समर्थन तथा जीवादि तत्त्वों का निरूपण है। अतः रत्नाकर की तरह आर्हत आगम ही समस्त अतिशय ज्ञानों का आकर है।

    प्रश्न – कल्प, व्याकरण, छन्द, ज्योतिष आदि अतिशय ज्ञान अन्यत्र भी देखे जाते हैं अतः आर्हत आगम को ही ज्ञान का आकर कहना उपयुक्त नहीं है ?

    उत्तर – अन्यत्र देखे जानेवाले अतिशय ज्ञानों का मूल उद्भवस्थान आर्हत प्रवचन ही हैं जैसे कि रत्नों का मूल उद्भवस्थान समुद्र है। कहा भी है - "यह अच्छी तरह निश्चित है कि अन्य मतों में जो युक्तिवाद और अच्छी बातें चमकती हैं वे तुम्हारी ही हैं। वे सब चतुर्दश पूर्वरूपी महासागर से निकली हुई जिन वाक्यरूपी बिन्दुएँ हैं।" यह बात केवल श्रद्धामात्र गम्य नहीं है किन्तु युक्तिसिद्ध है। जैसे गाँव, नगर या बाजारों में कुछ रत्न देखे जाते हैं फिर भी उनकी उत्पत्ति का स्थान रत्नाकर समुद्र ही माना जाता है क्योंकि अधिकतर रत्न वहीं है उसी तरह सर्वातिशय ज्ञान के मूल निधान होने से जैन-प्रवचन ही उनका मूल आकर है ।

    यह शंका भी ठीक नहीं है कि - 'यदि वेद व्याकरण आदि आर्हत प्रवचन से निकले हुए हैं तो उनकी तरह प्रमाण भी होने चाहिये, और उनमें बताये गये हिंसादि अनुष्ठान दानादि की तरह निर्दोष माने जाने चाहिए। क्योंकि वे निःसार हैं । जैसे नकली रत्न क्षार और सीप आदि भी रत्नाकर से उत्पन्न होते हैं परन्तु निःसार होने से त्याज्य हैं उसी तरह जिनशासन समुद्र से उत्पन्न भी वेदादि निःसार होने से प्रमाण नहीं हैं।

    20-26. यदि हिंसा को धर्मसाधन माना जाय तो मछलीमार, चिड़ीमार आदि हत्यारों को भी धर्मप्राप्ति समान रूप से होनी चाहिये और तब अहिंसा को धर्म कहना अयुक्त हो जायगा। 'यज्ञ-हिंसा के सिवाय दूसरी हिंसा पाप का कारण है। यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि दोनों हिंसाओं में समानरूप से प्राणिवध होता है और दुःखहेतुता भी समान है अतः फल भी एक जैसा ही होना चाहिये । यज्ञ की वेदी में किया गया पशुवध पाप का कारण है, क्योंकि वह प्राणवियोग का हेतु है जैसे अन्यत्र किया गया पशुवध । अथवा यज्ञ में किये गये पशुवध की तरह बाहिर किये पशुवध को भी पुण्यहेतु मानना चाहिये ।

    "स्वयंभू ने पशुओं की सृष्टि यज्ञ में होमने के लिए की है, अतः यज्ञवध पापहेतु नहीं हो सकता" यह पक्ष असिद्ध है; क्योंकि पशुसृष्टि ब्रह्मा ने की है यही बात अभी सिद्ध नहीं हो सकी है। यदि ब्रह्मा ने पशुसृष्टि यज्ञ के लिए की है तो फिर उनका खरीद, बिक्री आदि अन्य उपयोग नहीं करना चाहिये, अन्यथा दोष होगा, जैसे कि कफनाशक औषधि का अन्यथा उपयोग होनेपर दोष होता है ।

    'जैसे मन्त्रसंस्कृत विष, मरण का कारण नहीं होता उसी तरह मन्त्र संस्कारपूर्वक होनेवाला पशुवध भी पापहेतु नहीं हो सकता' यह पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष विरोध देखा जाता है। जैसे कि मन्त्र से संस्कृत विष प्रत्यक्ष से ही अमृतमय देखा जाता है और जैसे रस्सी आदि के बिना केवल मन्त्र-बल से ही जल-स्तम्भन, मनुष्य-स्तम्भन आदि कार्य प्रत्यक्ष से देखे जाते हैं उसी तरह यदि केवल मन्त्रबल से ही यज्ञ-वेदी पर पशुओं का घात देखा जाता तो यहाँ मन्त्र-बल पर विश्वास किया जाता, परन्तु याज्ञिक लोग जिस निर्दयता से रस्सी आदि से बाँधकर पशुवध करते हैं वह किसी से छिपा नहीं है । अतः यहाँ मन्त्र-सामर्थ्य की कल्पना उचित नहीं है। और जिस प्रकार शस्त्र आदि से प्राणिहत्या करनेवाले दोषी हैं और उन्हें अशुभ-भावों के कारण पापबन्ध होता है उसी तरह मन्त्रों से पशुवध करनेवाले भी हिंसादोष के भागी हैं । शुभपरिणामों से पुण्य और अशुभपरिणामों से पापबन्ध नियत है, उसमें हेरफेर नहीं हो सकता । यदि हेरफेर किया जायगा तो असंचेतित कर्मबन्ध होने से बन्धमोक्षप्रक्रिया का ही अभाव हो जायगा।

    27. 'स्वर्गकामी अग्निहोत्र यज्ञ करें' इस अग्निहोत्र क्रिया का कर्ता भौतिक पिंड होगा या पुरुष ? भौतिक पिण्ड तो घटादि की तरह अचेतन है अतः उसमें पुण्य-पाप क्रिया का अनुभव नहीं हो सकता और इसीलिए वह कर्ता नहीं हो सकता। पुरुष यदि क्षणिक है; तो उसमें मन्त्रार्थ का अनुस्मरण, उनके प्रयोग का, अनुचिन्तन आदि अनुसन्धान न हो सकने के कारण कर्तृत्व नहीं बन सकता। यदि पुरुष नित्य है; तो उसमें पूर्व और उत्तरकाल में कोई परिणमन नहीं होगा, इसलिए वह जैसे का तैसा रहने से कर्ता नहीं बन सकता। इस तरह कर्ता न होने से किस को क्रिया का फल मिलेगा ? "जो कुछ हो चुका और आगे होगा वह सब पुरुष रूप है - ब्रह्मरूप है" इस एक ब्रह्मवाद में 'यह वध्य है और यह वधक' यह भेद नहीं हो सकता। चेतनशक्ति (ब्रह्म) का ही परिणाम यदि माना जाता है तो घट, पट आदि दृश्य जगत् का लोप हो जायगा। प्रमाण और प्रमाणाभास का भेद भी नहीं रहेगा, क्योंकि यह भेद बाह्यपदार्थ की प्राप्ति और अप्राप्तिपर निर्भर है। निर्विकल्प पुरुषतत्त्व की कल्पना में 'निर्विकल्प है' यह विकल्प यदि होता है तो वह निर्विकल्प कैसा ? यदि नहीं होता तो 'निर्विकल्प न होने से' वह सविकल्प ही हो जायगा तब प्रतिज्ञाविरोध दोष होता है। इस तरह अनेक दोषयुक्त होने से वैदिक वचन प्रमाण नहीं कहे जा सकते। इस प्रकार परोपदेशनिमित्तक मिथ्यादर्शन के अन्य भी संख्यात विकल्प होते हैं । इसके परिणामों और अनुभाग की दृष्टि से असंख्य और अनन्त भी भेद होते हैं। नैसर्गिक मिथ्यादर्शन भी एकन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी-पंचेन्द्रिय संज्ञी-पंचेन्द्रिय तिर्यंच, म्लेच्छ, शवर और पुलिन्द आदि स्वामियों के भेद से अनेक प्रकार का है।

    28. अथवा -- एकान्त, विपरीत, संशय, वैनयिक और आज्ञानिक के भेद से मिथ्यादर्शन पाँच प्रकार का है ।

    29. पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय का हनन तथा स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र और मनविषयक असंयम, इस प्रकार बारह प्रकार की अविरति होती है। सोलह कषाय और नौ-नोकषाय ये पच्चीस कषाय है। अतः कुल पन्द्रह योग होते हैं।

    30. भाव-शुद्धि, काय-शुद्धि, विनय-शुद्धि, ईर्यापथ-शुद्धि, भैक्ष्य-शुद्धि, शयनासन-शुद्धि, प्रतिष्ठापन-शुद्धि और वाक्य-शुद्धि इन आठ शुद्धियों तथा उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन दस धर्मों में अनुत्साह या अनादर के भाव होना प्रमाद है। इस तरह यह प्रमाद अनेक प्रकार का है।

    31. मिथ्यादर्शन आदि समुदित और पृथक्-पृथक भी बन्ध के हेतु होते हैं । वाक्य की समाप्ति अनेक प्रकार से देखी जाती है। इसी तरह मिथ्यादर्शन आदि के जितने भेद-प्रभेद हैं सब प्रत्येक बन्ध के हेतु है।

    32-33. विरत के भी विकथा, कषाय, इन्द्रिय, निद्रा और प्रणय ये पन्द्रह प्रमादस्थान देखे जाते हैं, अतः प्रमाद और अविरति पृथक्-पृथक् हैं । कषाय कारण हैं और हिंसादि अविरति कार्य, अतः कारणकार्य की दृष्टि से कषाय और अविरति भिन्न हैं।

    प्रश्न – अमूर्तिक आत्मा के जब हाथ आदि नहीं हैं तब वह मूर्त कर्मों का ग्रहण कैसे कर सकता है ?

    उत्तर – यहाँ 'पहिले आत्मा और बाद में कर्मबन्ध' इस प्रकार सादि व्यवस्था नहीं है, जिससे आत्मा के ऐकान्तिक अमूर्त मानने में यह प्रसंग दिया जाय, किन्तु अनादि कार्मण शरीर के सम्बन्ध होने के कारण गरमलोहे के गोला जैसे पानी को खींचता है उसी तरह कषायसन्तप्त आत्मा कर्मों को ग्रहण करता है ।

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    + बन्‍ध -
    सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बंध: ॥2॥
    अन्वयार्थ : कषाय सहित होने से जीव कर्म के योग्‍य पुद्गलों को ग्रहण करता है वह बन्‍ध है ॥२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    कषाय के साथ रहता है इसलिये सकषाय कहलाता है और सकषाय का भाव सकषायत्‍व है । इससे अर्थात सकषाय होने से । यह हेतुनिर्देश है। जिस प्रकार जठरा‍ग्नि के अनुरूप आहार का ग्रहण होता है । उसी प्रकार तीव्र, मन्‍द और मध्‍यम कषायाशय के अनुरूप ही स्थिति और अनुभाग होता है। इस प्रकार इस विशेषता का ज्ञान कराने के लिये सूत्र में 'सकषायत्‍वात्' इस पद द्वारा पुन: हेतु का निर्देश किया है। अमूर्ति और बिना हाथवाला आत्‍मा कर्मों को कैसे ग्रहण करता है इस प्रश्‍न का उत्‍तर देने के अभिप्राय से सूत्र में 'जीव' पद कहा है । जीव शब्‍द का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है- जीवनाज्‍जीव: - जो जीता है अर्थात जो प्राणों को धारण करता है, जिसके आयु का सद्भाव है, आयु का अभाव नहीं है वह जीव है। सूत्र में 'कर्मयोग्‍यान्' इस प्रकार लघु निर्देश करने से काम चल जाता फिर भी 'कर्मणो योग्‍यान' इस प्रकार पृथक विभक्ति का उच्‍चारण वाक्‍यान्‍तर का ज्ञान कराने के लिये किया है। वह वाक्‍यान्‍तर क्‍या है ? 'कर्मणो जीव: सकषायो भवति' यह एक वाक्‍य है। इसका यह अभिप्राय है कि 'कर्मण:' यह हेतुपरक निर्देश है जिसका अर्थ है कि कर्म के कारण जीव कषायसहित होता है। कर्मरहित जीव के कषाय का लेप नहीं होता । इससे जीव और कर्म का अनादि सम्‍बन्‍ध है यह कथन निष्‍पन्‍न होता है। और इससे अमूर्त जीव मूर्त के साथ कैसे बँधता है इस प्रश्‍न का निराकरण हो जाता है। अन्‍यथा बन्‍ध को सादि मानने पर आत्‍यन्तिक शुद्धि को धारण करनेवाले सिद्ध जीव के समान संसारी जीव के बन्‍ध का अभाव प्राप्‍त होता हे। 'कर्मणो योग्‍यान् पुद्‍गलानादत्‍ते' यह दूसरा वाक्‍य है, क्‍योंकि अर्थ के अनुसार विभक्ति बदल जाती है इसलिये पहले जो हेत्‍वर्थ में विभक्ति थी वह अब 'कर्मणो योग्‍यान्' इस प्रकार षष्‍ठी अर्थ को प्राप्‍त होती है । सूत्र में 'पुद्गल' पद कर्म के साथ तादात्म्य दिखलाने लिए दिया है । इससे अदृष्‍ट आत्‍मा का गुण है इस बात का निराकरण हो जाता है, क्‍योंकि उसे आत्‍मा का गुण मानने पर वह संसार का कारण नहीं बन सकता । सूत्र में 'आदत्ते' पद हेतुहेतुमद्‍भाव का ख्‍यापन करने के लिये दिया है । इससे मिथ्‍यादर्शन आदि के अभिनिवेशवश गीले किये गये आत्‍मा के सब अवस्‍थाओं में योग विशेष से उन सूक्ष्‍म, एक क्षेत्रावगाही अनन्‍तानन्‍त कर्मभाव को प्राप्‍त होने योग्‍य पुद्गलों का उपश्‍लेष होना बन्‍ध है यह कहा गया है । जिस प्रकार पात्रविशेष में प्रक्षिप्‍त हुए विविध रस वाले बीज, फ़ूल और फ़लों का मदिरारूप से परिणमन होता है उसी प्रकार आत्मा में स्थित हुए पुद्गलों का भी योग और कषाय के निमित्त से कर्मरूप से परिणमन जानना चाहिए । सूत्र में 'स:' पद अन्‍य का निराकरण करने के लिए दिया है कि यह बन्‍ध है अन्‍य नहीं । इससे गुणगुणी बन्‍ध का निराकरण हो जाता है । यहॉं 'बन्‍ध' शब्‍द का कर्मादि साधन में व्‍याख्‍यान कर लेना चाहिए ।

    यह बन्‍ध क्‍या एक है या इसके भेद हैं यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. 'जैसे जठराग्नि के अनुसार आहारपाक होता है उसी तरह तीव्र, मन्द और मध्यम कषायों के अनुसार स्थिति और अनुभाग पड़ते हैं' इस तत्त्व की प्रतिपत्ति के लिए बन्ध के कारणों में निर्दिष्ट भी कषाय का यहाँ पुनः ग्रहण किया है।

    2-3. जीवन-आयु, आयु-सहित जीव ही कर्मबन्ध करता है, आयु से रहित सिद्ध नहीं।

    4. 'कर्मणो योग्यान्' इस पृथक विभक्ति से दो पृथक वाक्यों का ज्ञापन होता है - 'कर्म से जीव सकषाय होता है' और 'कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है' । पहिले वाक्य में 'कर्मणः' शब्द हेतुवाचक है, अर्थात् पूर्वकर्म से जीव सकषाय होता है, अकर्मक के कषायलेप नहीं होता, जीव और कर्म का अनादि सम्बन्ध है। दूसरे वाक्य में 'कर्मण' शब्द षष्ठीविभक्तिवाला है अर्थात सकषाय-जीव कर्मों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। अर्थवश विभक्ति का परिणमन हो जाता है।

    5. 'कर्म पौद्गलिक है' यह पुद्गल शब्द से सूचित होता है। वैशेषिक का कर्म अदृष्ट को आत्मा का गुण मानना उचित नहीं है क्योंकि अमूर्तिक गुण अनुग्रह और उपघात नहीं कर सकता उसी तरह अमूर्तकर्म अमूर्त आत्मा के अनुग्रह और उपघात के कारण नहीं हो सकते।

    7-10. आदत्त - ग्रहण करता है, बन्ध का अनुभव करता है । तात्पर्य यह कि मिथ्यादर्शन आदि के आवेश से आर्द्र आत्मा में चारों ओर से योगविशेष से सूक्ष्म अनन्तप्रदेशी एक क्षेत्रावगाही कर्म-योग्य-पुद्गलों का अविभावात्मक बन्ध हो जाता है। जैसे किसी बर्तन में अनेक प्रकार के रसवाले बीजफल फूल आदि का मदिरारूप से परिणमन होता है उसी तरह आत्मा में ही स्थित पुद्गलों का योग और कषाय से कर्मरूप परिणमन हो जाता है। 'यही बन्ध है, अन्य नहीं' यह सूचना देने के लिए 'स' शब्द दिया है। इससे गुणगुणिबन्ध का तात्पर्य है अदृष्टनाम के गुण का आत्मानामक गुणी में समवाय से सम्बन्ध हो जाना । यदि गुणगुणिबन्ध माना जाता है तो मुक्ति का अभाव हो जायगा; क्योंकि गुणी कभी भी अपने गुण-स्वभाव को नहीं छोड़ता। यदि स्वभाव को छोड़ दे तो गुणी का ही अभाव हो जायगा । तात्पर्य यह कि मुक्त का ही अभाव हो जाएगा ।

    11. बन्धशब्द करणादि साधन है। 'बध्यतेऽनेन-बँधता है जिनके द्वारा' ऐसी करणसाधन विवक्षा में मिथ्यादर्शन आदि को बँध कहते हैं। यद्यपि मिथ्यादर्शन आदि बन्ध के कारण है फिर भी पूर्वोपात्त कर्म के वे परिणाम हैं अतः कार्यरूप से आत्मा को परतन्त्र करने के कारण बन्ध कहे जाते हैं । 'बध्यते इति बन्धः' अर्थात् मिथ्यादर्शनादि रूप से जो बँधे वह बन्ध यह कर्मसाधन भी बन जाता है। इसी तरह 'ज्ञान दर्शन अव्याबाध अनाम अगोत्र और अनन्तराय आदि पुरुषशक्तियों का जो प्रतिबन्ध करे वह बन्ध' यह कर्तृसाधन बन जाता है। मात्र परतन्त्र करने की विवक्षा में 'बन्धनं बन्धः' यह भावसाधन बनता है। भावसाधन में भी 'ज्ञान ही आत्मा' की तरह अभेदविवक्षा में सामानाधिकरण्य बन जाता है।

    12. जैसे भण्डार से पुराने धान्य निकाल लिये जाते हैं और नये भर दिये जाते हैं उसी तरह अनादि कार्मण शरीर रूप भण्डार में कर्मों का आना-जाना होता रहता है। पुराने कर्म फल देकर झड़ जाते हैं और नये कर्म आ जाते हैं । इस तरह उपचय-अपचय होता रहता है।

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    + बंध के भेद -
    प्रकृति स्थित्यनुभव-प्रदेशास्तद्विधय: ॥3॥
    अन्वयार्थ : उसके प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेश ये चार भेद हैं ॥३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    प्रकृति का अर्थ स्‍वभाव है । जिस प्रकार नीम की क्‍या प्रकृति है । ? कडुआपन । गुड की क्‍या प्रकृति है । ? मीठापन। उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म की क्‍या प्रकृति है ? अर्थ का ज्ञान न होना । दर्शनावरण कर्म की क्‍या प्रकृति है ? अर्थ का आलोकन नहीं होना । सुख-दु:ख का संवेदन कराना साता और असाता वेदनीय की प्रकृति है । तत्त्वार्थ का श्रद्वान न होने देना दर्शन मोह की प्रकृति है । असंयमभाव चारित्रमोह की प्रकृति है । भवधारण आयु कर्म की प्रकृति है । नारक आदि नामकरण नामकर्म की प्रकृति है । उच्‍च और नीच स्‍थान का संशब्‍दन गोत्र कर्म की प्रकृति है । तथा दानादि में विघ्‍न करना अंतराय कर्म की प्रकृति है । इस प्रकार का कार्य किया जाता है अर्थात जिसमें होता है वह प्रकृति है ।

    जिसका जो स्‍वभाव है उससे च्‍युत न होना स्थिति है जिस प्रकार बकरी, गाय और भैंस आदि के दूध का माधुर्य स्‍वभाव से च्‍युत न होना स्थिति है । उसी प्रकार ज्ञारावरण आदि कर्मों का अर्थ का ज्ञान न होने देना आदि स्‍वभाव से च्‍युत न होना स्थिति है ।

    इन कर्मों के रस विशेष का नाम अनुभव है । जिस प्रकार बकरी, गाय और भैंस आदि के दूध का अलग-अलग तीव्र मन्‍द आदि रूप से रसविशेष होता है उसी प्रकार कर्म पुद्गलों का अलग अलग स्‍वगत सामर्थ्‍य विशेष अनुभव है । तथा इयत्ताका अवधारण करना प्रदेश है । अर्थात कर्मरूप से परिणत पुद्गलस्‍कन्‍धों के परमाणुओं की जानकारी करके निश्‍चय करना प्रदेशबन्‍ध है । 'विधि' शब्‍द प्रकारवाची है । ये प्रकृति आदिक चार उस बन्‍ध के प्रकार हैं । इनमें से योग के निमित्त से प्रकृतिबन्‍ध और प्रदेशबन्‍ध होता है तथा कषाय के निमित्त से स्थितिबन्‍ध और अनुभवबन्‍ध होता है । योग और कषाय में जैसा प्रकर्षाप्रकर्ष भेद होता है उसके अनुसार बन्‍ध भी नाना प्रकार का होता है । कहा भी है- 'यह जीव योग से प्रकृति और प्रदेश बन्‍ध को तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग बन्‍ध को करता है। किन्‍तु जो जीव योग और कषायरूप से परिणित नहीं हैं और जिनके योग और कषायका उच्‍छेद हो गया है उनके कर्मबन्‍ध की स्थिति का कारण नहीं पाया जाता ।'

    अब प्रकृतिबन्‍ध के भेद दिखलाने के लिये आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1 3. स्त्रियां क्तिः' इस सूत्र में 'अकर्तरि' की अनुवृत्ति आती है । अतः ज्ञानावरणादि की अर्थानवगम आदि प्रकृति की जाय जिससे वह प्रकृति है। प्रकृति शब्द अपादानसाधन है। स्थिति-अवस्थान । अनुभव-अनुभवन । ये दोनों शब्द भावसाधन हैं। 'प्रदिश्यते इति प्रदेशः' यह प्रदेश शब्द कर्मसाधन है।

    4-7. प्रकृति अर्थात् स्वभाव। जैसे नीम की प्रकृति कडुआपन और गुड़ की प्रकृति मधुरता है उसी तरह है । यह जिससे हो वह प्रकृतिबन्ध है । जैसे बकरी, गाय और भैंस आदि के दूध अपने मधुर स्वभाव को नहीं छोड़ते उसी तरह ज्ञानावरण आदि का अपने अर्थानवगम आदि स्वभाव से च्युत नहीं होना स्थिति है। जैसे बकरी आदि के दूधों में तीव्र, मन्द और मध्यम रूप से रसविशेष होता है उसी तरह कर्म-पुद्गलों की फलदान शक्ति अनुभव कहलाती है । कर्मरूप से परिणत पुद्गलस्कन्धों के परमाणुओं की गिनती प्रदेश बन्ध है। विध शब्द प्रकारार्थक है । अर्थात् प्रकृति-आदि बन्ध के चार प्रकार हैं।

    8-10. प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगों से होते हैं तथा स्थिति और अनुभाग कषायों से। इनके तारतम्य से बन्ध में विचित्रता होती है, क्योंकि कारण के अनुरूप ही कार्य होता है।

    11. प्रकृतिबन्ध मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृति के भेद से दो प्रकार का है।

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    + प्रकृतिबन्‍ध के रूप -
    आद्यो ज्ञान-दर्शनावरणवेदनीय-मोहनीयायुर्नाम-गोत्रान्तराया: ॥4॥
    अन्वयार्थ : पहला अर्थात प्रकृतिबन्‍ध ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्‍तरायरूप है ॥४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    आदि का प्रकृतिबन्ध ज्ञानावरणादि आठ प्रकार का जानना चाहिए । जो आवृत करता है या जिसके द्वारा आवृत किया जाता है वह आवरण कहलाता है । वह प्रत्‍येक के साथ सम्‍बन्‍ध को प्राप्‍त होता है यथा- ज्ञानावरण और दर्शनावरण । जो वेदन कराता है या जिसके द्वारा वेदा जाता है वह वेदनीय कर्म है। जो मोहित करता है या जिसके द्वारा मोहा जाता है वह मोहनीय कर्म है । जिसके द्वारा नारक आदि भव को जाता है वह आयुकर्म है । जो आत्‍मा को नमाता है या जिसके द्वारा आत्‍मा नमता है वह नामकर्म है । जिसके द्वारा जीव उच्‍च नीच गूयते अर्थात कहा जाता है वह गोत्र कर्म है । जो दाता और देय आदि का अन्‍तर करता है अर्थात बीच में आता है वह गोत्र कर्म है । एक बार खाये गये अन्‍न का जिस प्रकार रस, रूधिर आदि रूप से अनेक प्रकार का परिणमन होता है उसी प्रकार एक आत्‍म-परिणाम के द्वारा ग्रहण किये गये पुद्गल ज्ञानावरण आदि अनेक भेदों को प्राप्‍त होते हैं ।

    मूल प्रकृतिबन्‍ध आठ प्रकार का कहा । अब उत्तर प्र‍कृतिबन्‍ध का कथन करते हैं –

    राजवार्तिक :
    1. द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से सामान्यतया एक ही प्रकृतिबन्ध है, अतः आद्य शब्द में एकवचन दिया गया है । उसी के भेद ज्ञानावरण आदि हैं, अतः उनमें बहुवचन का प्रयोग किया है। समानाधिकरण होने पर भी वचनभेद हो जाता है जैसे कि 'श्रोतारः प्रमाणम्, गावो धनम्' यहाँ, अतः आद्यशब्द में बहुवचन की आशंका नहीं करनी चाहिये।

    2. ज्ञानावरण आदि शब्दों की यथासम्भव कर्तृसाधन आदि में व्युत्पत्ति करनी चाहिये। जो आवरण करे या जिसके द्वारा आवरण किया जाय वह आवरण है। आवरण शब्द का सम्बन्ध ज्ञान और दर्शन में कर लेना चाहिये । बहुलापेक्षया कर्ता में भी अनट् प्रत्यय होता है। 'वेद्यते' जो अनुभव किया जाय वह वेदनीय है । जो मोहन करे या जिसके द्वारा मोह हो वह मोहनीय है। बहुलापेक्षया कर्ता में 'अनीय' प्रत्यय करने से ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय शब्द भी सिद्ध हो जाते हैं । जिससे नरकादि पर्यायों को प्राप्त हो वह आयु है । जो आत्मा का नरकादि रूप से नामकरण करे या जिसके द्वारा नामकरण हो वह नाम है । उच्च और नीच रूप से शब्द-व्यवहार जिससे हो वह गोत्र है। दाता और पात्र आदि के बीच में विघ्न आवे जिसके द्वारा वह अन्तराय है। अथवा, जिसके रहने पर दाता आदि दानादि क्रियाएँ न कर सकें, दानादि की इच्छा से पराङ्मुख हो जाय वह अन्तराय है।

    3. जिस प्रकार खाये हुए भोजन का अनेक विकार में समर्थ वात, पित्त, श्लेष्म, खल, रस आदि रूप से परिणमन हो जाता है उसी तरह बिना किसी प्रयोग के कर्म आवरण, अनुभव, मोहापादन, नानाजाति, नाम, गोत्र और अन्तराय आदि शक्तियों से युक्त होकर आत्मा से बँध जाते हैं।

    4-5. प्रश्न – मोह के होने पर भी हिताहित का विवेक नहीं होता अतः मोह को ज्ञानावरण से भिन्न नहीं कहना चाहिये ?

    उत्तर – पदार्थ का यथार्थ बोध करके भी 'यह ऐसा ही है' इस प्रकार सद्भूत अर्थ का अश्रद्धान मोह है, पर ज्ञानावरण से ज्ञान तथा या अन्यथा ग्रहण ही नहीं करता, अतः दोनों में अन्तर है । जैसे अंकुररूप कार्य के भेद से कारणभूत बीजों में भिन्नता है उसी तरह अज्ञान और मोह आदि कार्यभेद से उनके कारण ज्ञानावरण और मोह में भेद होना ही चाहिये।

    6-7. ज्ञान और दर्शन रूप कार्यभेद होने से ज्ञानावरण और दर्शनावरण में भेद है। जैसे मेघ का जल पात्र-विशेष में पड़कर विभिन्न रसों में परिणमन कर जाता है उसी तरह ज्ञान-शक्ति का उपरोध करने से ज्ञानावरण सामान्यतः एक होकर भी अवान्तर शक्तिभेद से मत्यावरण, श्रुतावरण आदि रूप से परिणमन करता है । इसी तरह अन्य कर्मों का भी मूल और उत्तर प्रकृतिरूप से परिणमन हो जाता है।

    8-14. प्रश्न – पुद्गलद्रव्य जब एक है तो वह आवरण और सुख-दुःख आदि अनेक कार्यों का निमित्त नहीं हो सकता ?

    उत्तर – ऐसा ही स्वभाव है। जैसे एक ही अग्नि में दाह, पाक, प्रताप और प्रकाश की सामर्थ्य है उसी तरह एक ही पुद्गल में आवरण और सुख-दुःखादि में निमित्त होने की शक्ति है, इसमें कोई विरोध नहीं है। प्रत्येक पदार्थ अनेकान्त रूप है। द्रव्यदृष्टि से पुद्गल एक होकर भी अनेक परमाणु के स्निग्ध-रूक्ष-बन्ध से होनेवाली विभिन्न स्कन्ध पर्यायों की दृष्टि से अनेक है, इसमें कोई विरोध नहीं है। जिस प्रकार वैशेषिक के यहाँ पृथिवी, जल, अग्नि और वायु परमाणुओं से निप्पन्न भिन्नजातीय इन्द्रियों का एक ही दूध या घी उपकारक होता है उसी तरह यहाँ भी समझना चाहिये। जैसे इन्द्रियाँ भिन्न-भिन्न हैं वैसे उनमें होनेवाली वृद्धियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं। जैसे पृथिवीजातीय दूध से तेजोजातीय चक्षु का उपकार होता है उसी तरह अचेतन कर्म से भी चेतन आत्मा का अनुग्रह आदि हो सकता है । अतः भिन्नजातीय द्रव्यों में परस्पर उपकार मानने में कोई विरोध नहीं है।

    15. बन्ध के एक से लेकर संख्यात तक भेद होते हैं। जैसे सैनिक, हाथी, घोड़ा आदि भेदों की विवक्षा न होने से सामान्यतया सेना एक कही जाती है अथवा अशोक, आम, तिलक, वकुल आदि वृक्षों की भेद-विवक्षा न होने से सामान्यतया वन एक कहा जाता है उसी तरह भेदों की विवक्षा न होने से सामान्यरूप से कर्मबन्ध एक ही प्रकार का है । जैसे आफिसर और साधारण सैनिक के भेद से सेना दो भागों में बँट जाती है उसी तरह इस तरह संख्यात विकल्प शब्द की दृष्टि से समझना चाहिये। अध्यवसाय-स्थानों की दृष्टि से असंख्येय और अनन्तानन्त प्रदेशी स्कन्धों की दृष्टि से या ज्ञानावरणादि के अनुभव के अविभागप्रतिच्छेदों की दृष्टि से अनन्त प्रकार का भी है। च शब्द से इन सबका समुच्चय हो जाता है।

    16-23.

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    + मूल कर्म प्रकृतियों के भेद -
    पञ्च-नव-द्वयष्टाविंशति-चतुर्-द्विचत्वारिंशद्-द्वि-पञ्च-भेदा-यथाक्रमम् ॥5॥
    अन्वयार्थ : आठ मूल प्रकृतियों के अनुक्रम से पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, ब्‍यालीस, दो और पॉंच भेद हैं ॥५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    शंका – यहॉं द्वितीय पद का ग्रहण करना चाहिए, जिससे मालूम पड़े कि द्वितीय उत्तर प्रक़तिबन्‍ध इतने प्रकार का है ?

    समाधान – नहीं करना चाहिए, क्‍योंकि पारिशेष्‍य न्‍याय से उसकी सिद्वि हो जाती है । आदि का मूल प्रकृतिबन्‍ध आठ प्रकार का कह आये है, इसलिये पारिशेष्‍य न्‍याय से ये उत्तर प्रकतिबन्‍ध के भेद समझने चाहिए । भेद शब्‍द पॉंच आदि शब्‍दों के साथ क्रम से सम्‍बन्‍ध को प्राप्‍त होता है । यथा - पाँच भेदवाला ज्ञानावरण, नौ भेदवाला दर्शनावरण, दो भेदवाला वेदनीय, अट्ठार्इस भेद वाला मोहनीय, चार भेदवाला आयु, ब्‍यालीस भेद वाला नाम, दो भेदवाला गोत्र और पॉंच भेदवाला अन्‍तराय ।


    यदि ज्ञानावरण कर्म पाँच प्रकार का है, तो उसका ज्ञान कराना है, अत: आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    पञ्च आदि संख्या-शब्दों का द्वन्द्व करके पीछे बहुव्रीहि समास कर लेना चाहिए । पहिले सूत्र में 'आय' पद दिया है, अतः 'द्वितीय' शब्द के बिना भी इस सूत्र में द्वितीय उत्तर प्रकृतिबन्ध का बोध अर्थात् ही हो जाता है। भेदशब्द प्रत्येक में लगा देना चाहिए - पञ्चभेद, नवभेद आदि । यथाक्रम अर्थात् सूत्र में निर्दिष्ट ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि क्रम से ज्ञानावरण के पाँच भेद, दर्शनावरण के नव भेद आदि हैं।

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    + ज्ञानावरण कर्म के भेद -
    मतिश्रुतावधि-मन:पर्यय केवलानाम् ॥6॥
    अन्वयार्थ : मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान इनको आवरण करने वाले कर्म पाँच ज्ञानावरण हैं ॥६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    मति आदि ज्ञानों का व्‍याख्‍यान कर आये हैं । उनका आवरण करने से आवरणों में भेद होता है, इसलिये ज्ञानावरण कर्म की पॉंच उत्तर प्रकृतियॉं जानना चाहिए ।

    शंका – अभव्‍य जीव के मन:पर्ययज्ञानशक्ति और केवलज्ञानशक्ति होती है या नहीं होती । यदि होती है तो उसके अभव्‍यपना नहीं बनता । यदि नहीं होती है तो उसके उक्‍त दो आवरण-कर्मों की कल्‍पना करना व्‍यर्थ है ?

    समाधान – आदेश वचन होने से कोई दोष नहीं है । अभव्‍य के द्रव्‍यार्थिक नय की अपेक्षा मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान शक्ति पायी जाती है पर पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा उसके उसका अभाव है ।

    शंका – यदि ऐसा है तो भव्‍याभव्‍य विकल्प नहीं बन सकता है क्‍योंकि दोनों के मन:पर्ययज्ञान और केवनज्ञान शक्ति पायी जाती है ?

    समाधान – शक्ति के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा भव्‍याभव्‍य विकल्‍प नहीं कहा गया हैं ।

    शंका – तो किस आधार से यह विकल्‍प कहा गया है ?

    समाधान – व्‍यक्ति की सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा यह विकल्‍प कहा गया है । जिसके कनक पाषाण और इतर पाषाण की तरह सम्‍यग्‍दर्शनादि रूप से व्‍यक्ति होगी वह भव्‍य है और जिसके नहीं होगी व अभव्‍य है ।

    ज्ञानावरण कर्म के उत्तर प्रकृति वि‍कल्‍प कहे। अब दर्शनावरण कर्म के कहने चाहिए, इसलिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-3. मतिज्ञान आदि के लक्षण प्रथम अध्याय में कहे जा चुके हैं। यदि 'मत्यादीनाम्' ऐसा लघु पाठ रखते तो 'मति आदि का एक आवरण है' इस अनिष्टार्थ का प्रसंग होता अतः प्रत्येक से मत्यावरण श्रुतावरण आदि सम्बन्ध करने के लिए सब का पृथक ग्रहण किया है । 'ज्ञानावरण की पाँच उत्तर प्रकृतियाँ हैं' । यहाँ 'पाँच' संख्या का निर्देश करने से मति आदि पाँच ज्ञानों का क्रमशः सम्बन्ध हो जायगा' यह समाधान ठीक नहीं है। क्योंकि इसमें मति आदि प्रत्येक के पाँच आवरणों का प्रसंग होगा। अतः इष्टार्थ की प्रतीति के लिए प्रत्येक मति श्रुत आदि का ग्रहण किया गया है।

    4-6. प्रश्न – विद्यमान मति आदि का आवरण होगा या अविद्यमान ? यदि विद्यमान का तो जब वह स्वरूपलाभ करके विद्यमान ही है तब आवरण कैसा ? अविद्यमान का भी खर-विषाण की तरह आवरण नहीं हो सकता ?

    उत्तर – द्रव्यार्थदृष्टि से सत् और पर्यायदृष्टि से असत् मति आदि का आवरण होता है। यदि सर्वथा सत् माना जाय तो फिर इन्हें क्षयोपशम-जन्य नहीं कह सकेंगे। और यदि सर्वथा 'असत् हैं' तब भी ये क्षयोपशम-जन्य नहीं हो सकते। जैसे सत् आकाश का मेघपटल आदि से आवरण देखा जाता है उसी तरह विद्यमान भी मति आदि का आवरण मानने में क्या विरोध है ? जैसे प्रत्याख्यान कोई प्रत्यक्ष पदार्थ नहीं है जिसके आवरण से प्रत्याख्यानावरण हो किन्तु प्रत्याख्यानावरण के उदय से आत्मा में प्रत्याख्यान पर्याय उत्पन्न नहीं होती इसीलिए वह प्रत्याख्यानावरण कहा जाता है उसी तरह मति आदि का कहीं प्रत्यक्षीभूत ढेर नहीं लगा है जिसको ढंक देने से मत्यावरण आदि कहे जाते हों, किन्तु मत्यावरण आदिक उदय से आत्मा में मतिज्ञान आदि उत्पन्न नहीं होते इसीलिए उन्हें आवरण संज्ञा दी गई है।

    7-9. द्रव्यदृष्टि से अभव्यों में भी मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान की शक्ति है, इसीलिए अभव्यों के भी मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण माने जाते हैं। मात्र इनकी शक्ति होने से उनमें भव्यत्व का प्रसंग भी नहीं दिया जा सकता; क्योंकि भव्यत्व और अभव्यत्व विभाग ज्ञान, दर्शन और चारित्र की शक्ति के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा नहीं है किन्तु उस शक्ति की प्रकट होने की योग्यता और अयोग्यता की अपेक्षा है । जैसे जिसमें सुवर्णपर्याय के प्रकट होने की योग्यता है वह कनकपाषाण कहा जाता है और अन्य अन्धपाषाण, उसी तरह सम्यग्दर्शनादि पर्यायों की अभिव्यक्ति की योग्यतावाला भव्य तथा अन्य अभव्य हैं। अतः द्रव्य-दृष्टि से मनःपर्यय और केवलज्ञान की शक्ति विद्यमान रहते हुए भी जिनके उदय से वे प्रकट नहीं हो पाते वे मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण अभव्य के भी हैं।

    10. ज्ञानावरण के उदय से आत्मा के ज्ञान सामर्थ्य लुप्त हो जाती है, वह स्मृतिशून्य और धर्मश्रवण से निरुत्सुक हो जाता है और अज्ञानजन्य अवमान से अनेक दुःख पाता है ।

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    + दर्शनावरण कर्म के भेद -
    चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला-प्रचलाप्रचला-स्त्यानगृद्धयश्च ॥7॥
    अन्वयार्थ : चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन इन चारों के चार आवरण तथा निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला और स्‍त्‍यानगृद्धि ये पाँच निद्राद्रिक ऐसे नौ दर्शनावरण है ॥७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    चक्षु, अचक्षु, अ‍वधि और केवल का दर्शनावरण की अपेक्षा भेदनिर्देश किया है, यथा – चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण । मद, खेद और परिश्रमजन्‍य थकावट को दूर करने के लिए नींद लेना निद्रा है । इसकी उत्तरोत्तर प्रवृत्ति होना निद्रानिद्रा है । जो शोक, श्रम और मद आदि के कारण उत्‍पन्‍न हुई है और जो बैठे हुए प्राणी के भी नेत्र, गोत्र की विक्रिया की सूचक है ऐसी क्रिया आत्‍मा को चलायमान करती है वह प्रचला है । तथा उसकी पुन:पुन: आवृत्ति होना प्रचलाप्रचला है । जिसके निमित्त से स्‍वप्‍न में वीर्यविशेष का आविर्भाव होता है वह स्‍त्‍यानगृद्धि है । 'स्‍त्‍यायति' धातु के अनेक अर्थ हैं । उनमें से यहॉं स्‍वप्‍न अर्थ लिया है और 'गृद्धि' दीप्‍यते जो स्‍वप्‍न में प्रदीप्‍त होती है वह 'स्‍त्‍यानगृद्धि' का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है – 'स्‍त्‍याने स्‍वप्‍ने' गृद्धयति धातु का दी‍प्ति अर्थ लिया गया है । अर्थात जिसके उदय से रौद्र बहु कर्म करता है व स्‍त्‍यानगृद्धि है । यहाँ निद्रादि पदों के साथ दर्शनावरण पद का समानाधिकरण रूप से सम्‍बन्‍ध होता है यथा – निद्रादर्शनावरण, निद्रानिद्रादर्शनावरण आदि ।

    तृतीय प्रकृति की उत्तर प्रकृतियों को बतलाने के लिये कहते है –

    राजवार्तिक :
    1. चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल का दर्शनावरण से सम्बन्ध करना है अतः उनमें पृथक विभक्ति दी गई है।

    2-6.

    7-8. वीप्सार्थक द्वित्व नाना अधिकरण में होता है। निद्रानिद्रा आदि निर्देश में भी काल आदि के भेद से एक भी आत्मा में नाना अधिकरणता बन जाती है। जैसे एक ही व्यक्ति में कालभेद से गुणभेद होने पर 'गत वर्ष यह पटु था और इस वर्ष पटुतर है' यह प्रयोग हो जाता है तथा देशभेद से मथुरा में देखे गये व्यक्ति को पटना में देखने पर 'तुम तो बदल गये' यह प्रयोग होता है उसी तरह यहाँ भी कालभेद से भेद होकर वीप्सार्थक द्वित्व बन जायगा। अथवा, अभीक्ष्ण सततप्रवृत्ति-बार-बार प्रवृत्ति-अर्थ में द्वित्व होकर निद्रा-निद्रा प्रयोग बन जाता है जैसे कि घर में घुस-घुसकर बैठा है अर्थात् बार-बार घर में घुस जाता है यहाँ।

    9. निद्रादि कर्म और सातावेदनीय के उदय से निद्रा आदि आती है । नींद से शोक क्लम, श्रम आदि हट जाते हैं अतः साता का उदय तो स्पष्ट ही है, असाता का मन्दोदय भी रहता है ।

    10-11. दर्शनावरण की अनुवृत्ति करके निद्रा आदि का उससे अभेद सम्बन्ध कर लेना चाहिये अर्थात् निद्रा आदि दर्शनावरण हैं । यद्यपि चक्षु-अचक्षु आदि का भिन्न-भिन्न निर्देश है और उनसे षष्ठी-विभक्ति होने से भेदरूप से ही दर्शनावरण का सम्बन्ध करना है और निद्रादि के साथ अभेद रूप से; फिर भी कोई विरोध नहीं है क्योंकि भेद और अभेद रूप से सम्बन्ध करना विवक्षाधीन है। जहाँ जैसी विवक्षा होगी वहाँ वैसा सम्बन्ध हो जायगा।

    12-16. चक्षुदर्शनावरण और अचक्षुदर्शनावरण के उदय से आत्मा के चक्षुरादि इन्द्रियजन्य आलोचन नहीं हो पाता । इन इन्द्रियों से होनेवाले ज्ञान के पहिले जो सामान्यालोचन होता है उस पर इन दर्शनावरणों का असर होता है। अवधिदर्शनावरण के उदय से अवधिदर्शन और केवलदर्शनावरण के उदय से केवलदर्शन नहीं हो पाता। निद्रा के उदय से तम-अवस्था और निद्रा-निद्रा के उदय से महातम-अवस्था होती है। प्रचला के उदय से बैठे-बैठे ही घूमने लगता है, नेत्र और शरीर चलने लगते हैं, देखते हुए वह भी नहीं देख पाता । प्रचला-प्रचला के उदय से अत्यन्त ऊँघता है, बाण आदि से शरीर के छिद जाने पर भी कुछ नहीं देख पाता।

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    + वेदनीय कर्म के भेद -
    सदसद्वेद्ये ॥8॥
    अन्वयार्थ : सद्वेद्य और असद्वेद्य ये दो वेदनीय हैं ॥८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिसके उदय से देवादि गतियों में शरीर और मनसम्‍बन्‍धी सुख की प्राप्ति होती है वह सद्वेद्य है । प्रशस्‍त वेद्य का नाम सद्वेद्य है । जिसके फलस्‍वरूप अनेक प्रकार के दु:ख मिलते हैं व‍ह असद्वेद्य है । अप्रशस्‍त वेद्य का नाम असद्वेद्य है।

    अब चौथी मूल प्रकृति के उत्तर प्रकृति विकल्‍प दिखलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    जिसके उदय से अनेक प्रकार की देव आदि विशिष्ट गतियों में इष्ट सामग्री के सनिधान की अपेक्षा प्राणियों के अनेक प्रकार के शारीरिक और मानस सुखों का अनुभवन होता है वह सातावेदनीय है और जिसके उदय से नरक आदि गतियों में अनेक प्रकार के कायिक मानस अतिदुःसह जन्म-जरा-मरण, प्रियवियोग, अप्रियसंयोग, व्याधि, वध और बन्ध आदि से जन्य दुःख का अनुभव होता है वह असातावेदनीय है।

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    + मोहनीय कर्म के भेद -
    दर्शनचारित्र-मोहनीयाकषाय-कषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्वि-नव-षोडशभेदा: सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-तदुभयान्यकषाय-कषायौ हास्यरत्यरति-शोक-भय-जुगुप्सा-स्त्री-पुन्नपुंसक-वेदा अनन्तानुबंध्य-प्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान-संज्वलन-विकल्पाश्चैकश: क्रोध-मान-माया-लोभा: ॥9॥
    अन्वयार्थ : दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, अकषायवेदनीय और कषाय वेदनीय इनके क्रम से तीन, दो, नौ और सोलह भेद हैं । सम्‍यक्‍त्‍व, मिथ्‍यात्‍व और तदुभय ये तीन दर्शनमोहनीय हैं । अ‍कषाय वेदनीय और कषायवेदनीय ये दो चारित्र-मोहनीय हैं । हास्‍य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्‍सा, स्‍त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद ये नौ अकषावेदनीय हैं । तथा अनन्‍तानुबन्‍धी, अप्रत्‍याख्‍यान, प्रत्‍याख्‍यान और संज्‍वलन ये प्रत्‍येक क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से सोलह कषायवेदनीय हैं ॥९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    दर्शन आदिक चार हैं और तीन आदिक भी चार हैं । वहॉं इनका यथाक्रम से सम्‍बन्‍ध होता है । यथा - दर्शनमोहनीय तीन प्रकार का है, चारित्रमोहनीय दो प्रकार का है, अकषायवेदनीय नौ प्रकार का है और कषायवेदनीय सोलह प्रकार का है ।


    उनमें से दर्शनमोहनीय के तीन भेद ये हैं - सम्‍यक्‍त्‍व, मिथ्‍यात्‍व और तदुभय । वह बन्‍ध की अपेक्षा एक होकर सत्‍कर्म की अपेक्षा तीन प्रकार का है । इन तीनों में से जिसके उदय से यह जीव सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से विमुख, तत्त्‍वार्थों के श्रद्धान करने में निरूत्‍सुक, हिताहित का विचार करने में असमर्थ ऐसा मिथ्‍यादृष्टि होता है वह‍ मिथ्‍यात्‍व दर्शनमोहनीय है । वहीं मिथ्‍यात्‍व जब शुभ परिणामों के कारण अपने स्‍वरस (विपाक) को रोक देता है और उदासीनरूप से अवस्थित रहकर आत्‍मा के श्रद्धान को नहीं रोकता है तब व‍ह सम्‍यक्‍त्‍व है । इसका वेदन करने वाला पुरूष सम्‍यग्‍दृष्टि कहा जाता है । वही मिथ्‍यात्‍व प्रक्षालन विशेष के कारण क्षीणाक्षीण मदशक्ति वाले कोदों के समान अर्धशुद्ध स्‍वरसवाला होने पर तदुभय कहा जाता है । इसी का दूसरा नाम सम्‍यग्मिथ्‍यात्‍व है । इसके उदय से अर्धशुद्ध मदशक्ति वाले कोदों और ओदन के उपयोग से प्राप्‍त हुए मिश्र परिणाम के समान उभयात्‍मक परिणाम होता है ।

    चारित्रमोहनीय दो प्रकार का है- अकषायवेदनीय और कषायवेदनीय । यहाँ ईषद् अर्थात् किंचित् अर्थ में 'न‌ञ्‌' का प्रयोग होने से किंचित् कषाय को अकषाय कहा है । हास्य आदि के भेद से अकषायवेदनीय के नौ भेद हैं । जिसके उदय से हँसी आती है वह हास्य है । जिसके उदय से देश आदि में उत्सुकता होती है वह रति है । अरति इससे विपरीत है । जिसके उदय से शोक होता है वह शोक है । जिसके उदय से उद्वेग होता है वह भय है । जिसके उदय से आत्म-दोषों का संवरण और परदोषों का आविष्करण होता है वह जुगुप्सा है । जिसके उदय से स्त्रीसम्बंधी भावों को प्राप्त होता है वह स्त्रीवेद है । जिसके उदय से पुरुषसम्बन्धी भावों को प्राप्त होता है वह पुंवेद है और जिसके उदय से नपुंसकसम्बन्धी भावों को प्राप्त होता है वह नपुंसकवेद है ।

    अनन्तानुबन्धी आदि के विकल्प से कषायवेदनीय के सोलह भेद हैं । यथा- क्रोध, मान, माया और लोभ ये कषाय हैं । इनकी चार अवस्थाएँ हैं - अनन्तानुबन्धी,अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन । अनन्त संसार का कारण होने से मिथ्यादर्शन अनन्त कहलाता है तथा जो कषाय उसके अर्थात् अनन्त के अनुबन्धी हैं वे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ हैं । जिनके उदय से जिसका दूसरा नाम संयमासंयम है ऐसी देशविरति को यह जीव स्वल्प भी करने में समर्थ नहीं होता है वे देशप्रत्याख्यान को आवृत करने वाले अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ हैं । जिनके उदय से संयम नामवाली परिपूर्ण विरति को यह जीव करने में समर्थ नहीं होता है वे सकल प्रत्याख्यान को आवृत करने वाले प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ हैं । 'सं' एकीभाव अर्थ में रहता है । संयम के साथ अवस्थान होने में एक होकर जो ज्वलित होते हैं अर्थात् चमकते हैं या जिनके सद्भाव में संयम चमकता रहता है वे संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ हैं । ये सब मिलकर सोलह कषाय होते हैं ।

    मोहनीय के अनन्‍तर उद्देशभाक् आयु कर्म की उत्‍तर प्रकृतियों का विशेष ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. दर्शन आदि का तीन आदि से क्रमशः सम्बन्ध कर लेना चाहिए। अर्थात्

    2. दर्शनमोहनीय के तीन भेद हैं - सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और मिश्र । दर्शनमोहनीय-कर्म बन्ध की अपेक्षा एक होकर भी सत्ता की अपेक्षा तीन प्रकार का है। जिसके उदय से सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से पराङमुख होकर तत्त्वश्रद्धान से निरुत्सुक और हिताहित विभाग में असमर्थ मिथ्यादृष्टि हो जाता है, वह मिथ्यात्व है। शुभ-परिणामों से जब उसका अनुभाग रोक दिया जाता है और जब वह उदासीन रूप से स्थित रहकर आत्मश्रद्धान को नहीं रोकता तब वही सम्यक्त्व प्रकृति रूप बन जाता है और उसके उदय में भी सम्यग्दर्शन हो सकता है। जब वही मिथ्यात्व आधा शुद्ध और आधे अशुद्ध रसवाला होता है तब धोने से क्षीणाक्षीण मदशक्तिवाले कोदों की तरह मिश्र या तदुभय कहा जाता है । इसके उदय से आधे शुद्ध कोदों से जिस प्रकार का मद होता है उसी तरह के मिश्रभाव होते हैं।

    3. चारित्रमोहनीय अकषाय और कषाय के भेद से दो प्रकार का है। जैसे 'अलोमिका' कहने से रोम का सर्वथा निषेध नहीं होता किन्तु काटने लायक बड़े रोमों का अभाव ही होता है उसी तरह अकषाय शब्द से कषाय का निषेध नहीं है किन्तु ईषत् कषाय विवक्षित है। ये स्वयं कषाय न होकर दूसरे के बल पर कषाय बन जाती हैं। जैसे कुत्ता स्वामी का इशारा पाकर काटने को दौड़ता है और स्वामी के इशारे से ही वापिस आ जाता है उसी तरह क्रोधादि कषायों के बल पर ही हास्य आदि नोकषायों की प्रवृत्ति होती है, क्रोधादि के अभाव में ये निर्बल रहती हैं, इसीलिए इन्हें ईषत्कषाय, अकषाय या नोकषाय कहते हैं।

    4. अकषायवेदनीय हास्य आदि के भेद से नव प्रकार का है।

    5. कषायवेदनीय अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि के भेद से सोलह प्रकार का है। इन क्रोध, मान, माया और लोभ की अनन्तानुबन्धी आदि चार अवस्थाएँ होती हैं। इस तरह 4x4=सोलह कषायें होती हैं।

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    + आयु कर्म के भेद -
    नारकतैर्यग्योन-मानुष-दैवानि ॥10॥
    अन्वयार्थ : नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्‍यायु और देवायु ये चार आयु हैं ॥१०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    नारक आदि गतियों में भव के सम्‍बन्‍ध से आयुकर्म का नामकरण किया जाता है। यथा - नरकों में होने वाली नारक आयु है, तिर्यग्‍योनि वालों में होने वाली तैर्यग्‍योन आयु है, मनुष्‍यों में होने वाली मानुष आयु है और देवों में होने वाली देवायु है। तीव्र शीत और उष्‍ण वेदना वाले नरकों में जिसके नि‍मित्‍त से दीर्घ जीवन होता है व‍ह नारक आयु है। इसी प्रकार शेष आयुओं में भी जानना चाहिए।

    चार प्रकार के आयु का व्‍याख्‍यान किया। इसके अनन्‍तर जो नामकर्म कहा गया है उसकी उत्‍तर प्रकृतियों का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-4. नरकादिपर्यायों के सम्बन्ध से आयु भी नारक तैर्यग्योन आदि कही जाती है, अर्थात् नरकादि में होनेवाली आयुएँ । जिसके होने पर जीवित और जिसके अभाव में मृत कहा जाता है वह भवधारण में कारण आयु है। अन्न आदि तो आयु के अनुग्राहक हैं। जैसे घट की उत्पत्ति में मृत्पिण्ड मूल कारण है और दण्ड आदि उसके उपग्राहक हैं उसी तरह भवधारण का अभ्यन्तर कारण आयु है और अन्न आदि उपग्राहक। फिर सर्वत्र अन्नादि अनुग्राहक भी नहीं होते; क्योंकि देवों और नारकियों के अन्न का आहार नहीं होता, अतः भवधारण आयु के ही अधीन है।

    5-8. जिसके उदय से तीव्र शीत और तीव्र उष्ण वेदनावाले नरकों में भी दीर्घजीवन होता है वह नरकायु है । क्षुधा, तृष्णा, शीत, उष्ण, दंशमशक आदि अनेक दुःखों के स्थानभूत तिर्यंचों में जिसके उदय से भवधारण हो वह तैर्यग्योन है। शारीरिक और मानस सुख दुःख से समाकुल मानुष पर्याय में जिसके उदय से भवधारण हो वह मनुष्यायु है । शारीर और मानस अनेक सुखों से प्रायः युक्त देवों में जिसके उदय से भवधारण हो वह देवायु है । कभी-कभी देवों में भी प्रिय देवांगना के वियोग और दूसरे देवों की विभूति को देखकर तथा देवपर्याय की समाप्ति के सूचक माला का मुरझाना, आभूषण और देह की कान्ति का मलिन पड़ जाने आदि को देखकर मानस दुःख उत्पन्न होता है। इसलिए 'प्राय:' पद दिया है।

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    + नामकर्म के भेद -
    गति-जाति-शरीराङ्गोपाङ्गनिर्माण-बंधन-संघात-संस्थान-संहनन-स्पर्श-रस-गंध-वर्णानुपूर्व्यागुरुलघूपघात-परघातातपोद्योतोच्छ्वास-विहायोगतय: प्रत्येक-शरीर-त्रस-सुभग-सुस्वर-शुभ-सूक्ष्म-पर्याप्ति-स्थिरादेय यश: कीर्ति-सेतराणि तीर्थकरत्वं च ॥11॥
    अन्वयार्थ : गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, निर्माण, बन्‍धन, संघात, संस्थान, संहनन, स्‍पर्श, रस, गन्‍ध, वर्ण, आनुपूर्व्‍य, अगुरूलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्‍छवास, और विहायोगति तथा प्रतिपक्षभूत प्रकृतियों के साथ अर्थात्‌ साधारण शरीर और प्रत्‍येक शरीर, स्‍‍थावर और त्रस, दुर्भग और सुभग, दु:स्‍वर और सुस्‍वर, अशुभ और शुभ, बादर और सूक्ष्‍म, अपर्याप्‍त और पर्याप्‍त, अस्थिर और स्थिर, अनादेय और आदेय, अयश:कीर्ति और यश:कीर्ति एवं तीर्थंकरत्‍व ये ब्‍यालीस नामकर्म के भेद हैं ॥११॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिसके उदय से आत्‍मा भवान्‍तर को जाता है वह गति है। वह चार प्रकार की है – नरकगति, तिर्यग्‍गति, मनुष्‍यगति और देवगति। जिसका निमित्‍त पाकर आत्‍मा का नारक भाव होता है वह नरकगति नामकर्म है। इसी प्रकार शेष गतियों में भी योजना करनी चाहिए।

    उन नरकादि गतियों में जिस अव्‍यभिचारी सादृश्‍य से एकपने रुप अर्थ की प्राप्ति होती है वह जाति है । और इसका निमित्‍त जाति नामकर्म है। वह पाँच प्रकार का है - एकेन्द्रिय जाति नामकर्म, द्वीन्द्रिय जाति नामकर्म, त्रीन्द्रिय जाति नामकर्म, चतुरिन्द्रिय जाति नामकर्म और पंचेन्द्रिय जाति नामकर्म। जिसके उदयसे आत्‍मा एकेन्द्रिय कहा जाता है वह एकेन्द्रिय जाति नामकर्म है। इसी प्रकार शेष जातियों में भी योजना करनी चाहिए।

    जिसके उदयसे आत्‍मा के शरीर की रचना होती है वह शरीर नामकर्म है। वह पाँच प्रकार का है – औदारिक शरीर नामकर्म, वैक्रियिक शरीर नामकर्म, आहारक शरीर नामकर्म, तैजस शरीर नामकर्म और कार्मण शरीर नामकर्म। इनका विशेष व्‍याख्‍यान पहले कर आये हैं।

    जिसके उदय से अगोपांग का भेद होता है वह अंगोपांग नामकर्म है। वह तीन प्रकार का है- औदारिक शरीर अंगोपांग नामकर्म, वैक्रियिक शरीर अंगोपांग नामकर्म और आहारक शरीर अंगोपांग नामकर्म।

    जिसके निमित्‍त से परिनिष्‍पत्ति अर्थात् रचना होती है, वह निर्माण नामकर्म है। वह दो प्रकार का है- स्‍थाननिर्माण और प्रमाणनिर्माण्‍। वह जाति नामकर्म के उदय का अवलम्‍बन लेकर चक्षु आदि अवयवों के स्‍थान और प्रमाण की रचना करता है। निर्माण शब्‍द का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ है - 'निर्मीयतेऽनेनेति निर्माणम', जिसके द्वारा रचना की जाती है वह निर्माण कहलाता है।

    शरीर नामकर्म के उदय से प्राप्‍त हुए पुद्गलों का अन्‍योन्‍य प्रदेश संश्‍लेष जिसके निमित्‍तसे होता है वह बन्‍धन नामकर्म है।

    जिसके उदय से औदारिक आदि शरीरों की छिद्र रहित होकर परस्‍पर प्रदेशों के अनुप्रवेश द्वारा एकरुपता आती है वह संघात नामकर्म है।

    जिसके उदय से औदारिक आदि शरीरों की आकृति बनती है वह संस्‍थान नामकर्म है। वह छह प्रकार का है- समचतुरस्‍त्र संस्‍थान नामकर्म, न्‍यग्रोधपरिमण्‍डल संस्‍थान नमकर्म, स्‍वाति संस्‍थान नामकर्म, कुब्‍जकसंस्‍थान नामकर्म, वामनसंस्‍‍थान नामकर्म और हुण्‍डसंस्‍थान नामकर्म ।

    जिसके उदयसे अस्थियों का बंधन विशेष होता है वह संहनन नामकर्म है। वह छह प्रकार का है – वज्रर्षभनाराचसंहनन नामकर्म, वज्रनाराचसंहनन नामकर्म, नाराचसंहनन नामकर्म, अर्धनाराचसंहनन नामकर्म, कीलिकासंहनन नामकर्म, और असम्‍प्रातासृपाटिकासंहनन नामकर्म।

    जिसके उदय से स्पर्श की उत्‍पति होती है वह स्‍पर्श नामकर्म है। वह आठ प्रकार का है- कर्कश नामकर्म, मृदु नामकर्म, गुरु नामकर्म, लघु नामकर्म, स्निग्‍ध नामकर्म, रुक्ष नामकर्म, शीत नामकर्म और उष्‍ण नामकर्म।

    जिसके उदय से रस में भेद होता है वह रस नामकर्म है । वह पाँच प्रकार का है – तिक्‍त नामकर्म, कटु नामकर्म, कषाय नामकर्म, आम्‍ल नामकर्म, और मधुर नामकर्म।

    जिसके उदय से गंध की उत्‍पत्ति होती है वह गंध नामकर्म है। वह दो प्रकार का है – सुरभिगन्‍ध नामकर्म और असुरभिगन्‍ध नामकर्म।

    जिसके निमित्‍त से वर्ण में विभाग होता है वह वर्ण नामकर्म है। वह पाँच प्रकार का है--- कृष्‍णवर्ण नामकर्म, नीलवर्ण नामकर्म, रक्तवर्ण नामकर्म, हारिद्रवर्ण नामकर्म और शुक्‍लवर्ण नामकर्म ।

    जिसके उदय से पूर्व शरीर के आकार का विनाश नहीं होता है वह आनुपूर्व्‍य नामकर्म है। वह चार प्रकार का है— नरकगतिप्रायोग्‍यानुपूर्व्‍य नामकर्म, तिर्यग्‍गतिप्रायोग्‍यानूपूर्व्‍य नामकर्म, मनुष्‍यगतिप्रायोग्‍यानुपूर्व्‍य नामकर्म और देवगतिप्रायोग्‍यानुपूर्व्‍य नामकर्म ।

    जिसके उदय से लोहे के पिण्‍ड के समान गुरु होने से न तो नीचे गिरता है और न अर्कतूल के समान लघु होने से ऊपर जाता है वह अगुरुलघु नामकर्म है। जिसके उदय से स्‍वयंकृत उद्‍बन्‍धन और मरुस्‍थल में गिरना आदि निमित्‍तक उपघात होता है वह उपघात नामकर्म है।

    जिसके उदय से परशस्‍त्रादिक का निमित्‍त पाकर व्‍याघात होता है वह परघात नामकर्म है।

    जिसके उदय से शरीर में आतप की रचना होती है वह आतप नामकर्म है । वह सूर्यबिम्‍ब में होता है।

    जिसके निमित्‍त से शरीर में उद्योत होता है वह उद्योत नामकर्म है। वह चन्‍द्रबिम्‍ब और जुगूनू आदि में होता है।

    जिसके निमित्‍त से उच्‍छ्‍वा‌स होता है वह उच्छ्‍वास नामकर्म है।

    विहायस्‌ का अर्थ आकाश है। उसमें गति का निर्वर्तक कर्म विहायोगति नामकर्म है। प्रशस्‍त और अप्रशस्‍त के भेद से वह दो प्रकार का है।

    शरीर नामकर्म के उदय से रचा जानेवाला जो शरीर जिसके निमित्‍त से एक आत्‍मा के उपभोग का कारण होता है वह प्रत्‍येकशरीर नामकर्म हैं।

    बहुत आत्‍माओं के अपभोग का हेतुरुप से साधारण शरीर जिसके निमितसे होता है वह साधारणशरीर नामकर्म है।

    जिसके उदय से द्वीन्द्रियादिक में जन्‍म होता है वह त्रस नामकर्म है।

    जिसके निमित्‍त से एकेन्द्रियों में उत्‍पत्ति होती है वह स्‍‍थावर नामकर्म है।

    जिसके उदय से अन्‍यजन प्रीतिकर अवस्‍था होती है वह सुभग नामकर्म है।

    जिसके उदय से रुपादि गुणों से युक्‍त होकर भी अप्रीतिकर अवस्‍था होती है वह दुर्भग नामकर्म है ।

    जिसके निमित्‍त से मनोज्ञ स्‍वर की रचना होती है वह सुस्‍वर नामकर्म है। इससे विपरीत दु:स्‍वर नामकर्म है।

    जिसके उदय से रमणीय होता है वह शुभ नामकर्म है। इससे विपरीत अशुभ नामकर्म है।

    सूक्ष्‍म शरीर का निर्वर्तक कर्म सूक्ष्‍म नामकर्म है। अन्‍य बाधाकर शरीर का निर्वर्तक कर्म बादर नामकर्म है।

    जिसके उदय से आहार आदि पर्याप्तियों की रचना होती है वह पर्याप्ति नामकर्म है। वह छह प्रकार का है – आहारपर्याप्ति नामकर्म, शरीरपर्याप्ति नामकर्म, इन्द्रियपर्याप्ति नामकर्म, प्राणापानपर्याप्ति नामकर्म, भाषापर्याप्ति नामकर्म और मन:पर्याप्ति नामकर्म।

    जो छह प्रकार की पर्याप्तियों के अभाव का हेतु है वह अपर्याप्ति नामकर्म है।

    स्थिरभाव का निर्वर्तक कर्म स्थिर नामकर्म है। इससे विपरीत अस्थिर नामकर्म है ।

    प्रभायुक्‍तशरीर का कारण आदेय नामकर्म है। निष्‍प्रभ शरीर का कारण अनादेय नामकर्म है।

    पुण्‍य गुणों की प्रसिद्धि का कारण यश:कीर्ति नामकर्म है। इससे विपरीत फलवाला अयश:कीर्ति नामकर्म है ।

    आर्हन्‍त्‍य का कारण तीर्थंकर नामकर्म है।

    नामकर्म के उत्‍तर प्रकृतिविकल्प कहे। इसके बाद कहने योग्‍य गोत्रकर्म के प्रकृतिविकल्पों का व्‍याख्‍यान करते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. जिसके उदय से आत्मा पर्यायान्तर के ग्रहण करने के लिए गमन करता है वह गति है। 'गम्यते इति गतिः' ऐसी व्युत्पत्ति करने पर भी गति शब्द गो शब्द की तरह रूढि से एक गतिविशेष में प्रयुक्त होता है। अन्यथा जब आत्मा गमन नहीं करता उस समय तथा कर्म की सत्ता अवस्था में गतिव्यपदेश नहीं हो सकेगा। नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति और देवगति ये चार गतियाँ हैं। जिसके निमित्त से आत्मा में नारक भाव हों वह नरक गति है । इसी तरह उन-उन तिर्यच आदि भावों को प्राप्त करानेवाली तिर्यग्गति आदि हैं।

    2. नरकादि गतियों में अव्यभिचारी सादृश्य से एकीकृत स्वरूप जाति है। जातिव्यवहार में निमित्त जाति नामकर्म है । जाति पाँच प्रकार की है - एकेन्द्रिय-जाति, द्वीन्द्रिय-जाति, त्रीन्द्रिय-जाति, चतुरिन्द्रिय-जाति और पंचेन्द्रिय-जाति । जिसके उदय से आत्मा 'एकेन्द्रिय' कहा जाय वह एकेन्द्रिय जाति है। इसी तरह अन्य भी समझना चाहिए।

    3. जिसके उदय से आत्मा की शरीर रचना होती है वह शरीर नामकर्म है। औदारिक वैक्रियिक आहारक तैजस और कार्मण के भेद से शरीर पाँच प्रकार का है।

    4. जिसके उदय से सिर, पीठ, जाँघ, बाहु, उदर, नल, हाथ और पैर ये आठ अंग तथा ललाट नासिका आदि उपांगों का विवेक हो वह अंगोपांग नाम कर्म है । वह तीन प्रकार का है - औदारिक शरीराङ्गोपाङ्ग, वैक्रियिक शरीराङ्गोपाङ्ग, और आहारक शरीराङ्गोपाङ्ग ।

    5. जिसके निमित्त से अङ्ग और उपाङ्गों की रचना हो वह निर्माण नाम कर्म है। वह दो प्रकार है - स्थान निर्माण और प्रमाण निर्माण । यह जाति नाम कर्म के उदय की अपेक्षा चक्षु आदिके स्थान और प्रमाण की रचना करता है । जिससे रचना की जाय वह निर्माण है।

    6. शरीर नाम-कर्म के उदय से गृहीत पुद्गलों का परस्पर प्रदेश-संश्लेष जिससे हो वह बन्धन नाम कर्म है। इसके अभाव में शरीर लकड़ियों के ढेर जैसा हो जाता।

    7. जिसके उदय से औदारिकादि शरीरों का निश्छिद्र परस्पर-संश्लिष्ट संगठन होता है वह संघात नाम कर्म है।

    8. जिसके उदय से औदारिक आदि शरीरों के आकार बने वह संस्थान नाम कर्म है। वह छह प्रकार का है।

    9. जिसके उदय से हड़ियों के बन्धन-विशेष होते हैं वह संहनन नाम कर्म है । यह भी छह प्रकार का है।

    10. जिसके उदय से विलक्षण स्पर्श आदि का प्रादुर्भाव हो वे स्पर्श आदि नामकर्म हैं । इन नाम कर्मों के उदय से शरीर में उस-उस जाति के स्पर्श आदि होते हैं। यद्यपि ये पुद्गल के स्वभाव हैं पर शरीर में इनका अमुक रूप में प्रादुर्भाव कर्मोदयकृत है।

    11. जिसके उदय से विग्रहगति में पूर्व-शरीर का आकार बना रहता है, वह नष्ट नहीं होता वह आनुपूर्व्य नाम कर्म है । जिस समय मनुष्य या तिर्यञ्च अपनी आयु को पूर्ण कर पूर्व शरीर को छोड़ नरक गति के अभिमुख होता है उस समय विग्रहगति में उदय तो नरकगत्यानुपूर्व्यका होता है परन्तु उस समय आत्मा का आकार पूर्व शरीर के अनुसार मनुष्य या तिर्यञ्च का बना रहता है। इसी तरह देवगत्यानुपूर्व्य, मनुष्यगत्यानुपूर्व्य और तिर्यग्गत्यानुपूर्व्य समझ लेना चाहिये। यह निर्माण नाम कर्म का कार्य नहीं है क्योंकि पूर्व शरीर के नष्ट होते ही निर्माण नाम-कर्म का उदय समाप्त हो जाता है। उसके नष्ट होने पर भी आठ कर्मों का पिण्ड कार्मण शरीर और तैजसशरीर से सम्बन्ध रखनेवाले आत्मप्रदेशों का आकार विग्रहगति में पूर्व-शरीर के आकार बना रहता है। विग्रह-गति में इसका काल अधिक से अधिक तीन समय है। हाँ, ऋजुगति में पूर्व-शरीर के आकार का विनाश होने पर तुरन्त उत्तर-शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण हो जाता है, अतः वहाँ निर्माण-कर्म का ही व्यापार है।

    12. जिसके उदय से लोहपिण्ड की तरह गुरु होकर न तो पृथ्वी में नीचे ही गिरता है और न रूई की तरह लघु होकर ऊपर ही उड़ जाता है वह अगुरुलघु नामकर्म है। धर्म-अधर्म आदि अजीवों में अनादि पारिणामिक अगुरुलघुत्व गुण के कारण अगुरुलघुत्व है। अनादि कर्मबन्धनबद्ध जीवों में कर्मोदय से अगुरुलघुत्व है और कर्मबन्धनरहित मुक्त जीवों में स्वाभाविक अगुरुलघुत्व है।

    13-14. जिसके उदय से स्वयंकृत बन्धन और पर्वत से गिरना आदि उपघात हो वह उपघात नाम कर्म है। कवच आदि के रहने पर भी जिसके उदय से परकृत शस्त्र आदि से उपघात होता है वह परघात नामकर्म है।

    15-16. जिसके उदय से सूर्य आदि में ताप हो वह आतप नाम-कर्म है तथा जिससे चन्द्र, जुगुनू आदि में उद्योत-प्रकाश हो वह उद्योत नाम-कर्म है।

    17. जिसके उदय से श्वासोच्छास हों वह उच्छ्वास नाम कर्म है।

    18. आकाश में गति का प्रयोजक विहायोगति नामकर्म है। हाथी, बैल आदि की प्रशस्त गति में कारण प्रशस्त विहायोगति नाम-कर्म होता है तथा ऊँट, गधा आदि की अप्रशस्त गति में कारण अप्रशस्त विहायोगति नामकर्म है। मुक्तजीव और पुद्गलों की गति स्वाभावि की है । विहायोगति नामकर्म आकाशगामी पक्षियों में ही नहीं है किन्तु सभी प्राणियों में है क्योंकि सबकी आकाश में ही गति होती है।

    19-20. शरीर नामकर्म के उदय से बना हुआ शरीर जिसके उदय से एक ही आत्मा के उपभोग्य हो वह प्रत्येक शरीर नाम कर्म है तथा बहुत आत्माओं के उपभोग्य हो वह साधारण शरीर नाम कर्म है । साधारण जीवों के साधारण आहार आदि चार पर्याप्तियाँ और साधारण ही जन्म-मरण, श्वासोच्छवास, अनुग्रह और उपघात आदि होते हैं । जब एक के आहार, शरीर, इन्द्रिय और प्राणापान पर्याप्ति होती है, उसी समय शेष अनन्त जीवों की पर्याप्तियाँ होती है। जब एक जन्मता या मरता है उसी समय शेष अनन्त जीवों के जन्म-मरण हो जाते हैं। जिस समय एक श्वासोच्छवास लेता या आहार करता या अग्नि विष आदि से उपहत होता है उसी समय शेष अनन्त जीवों के भी श्वासोच्छवास, आहार और उपघात आदि होते हैं ।

    21-22. जिसके उदय से द्वीन्द्रिय आदि जंगम-प्राणियों में जन्म होता है वह त्रस नाम-कर्म है तथा जिसके उदय से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकाय में उत्पत्ति होती है वह स्थावर नाम कर्म है।

    23-24. रूपवान् या अरूपी कैसा भी हो पर जिसके उदय से दूसरों को प्यारा लगे वह सुभग नाम कर्म है और रूपवान् होकर भी जिसके उदय से दूसरों को प्यारा न लगे किन्तु अप्रीतिकर प्रतीत हो वह दुर्भग नाम कर्म है।

    25-26. जिसके उदय से सुन्दर स्वर हो वह सुस्वर और जिसके उदय से भद्दा स्वर हो वह दुःस्वर नामकर्म है।

    27-28. जिसके उदय से देखने या सुनने पर रमणीय प्रतीत हो वह शुभ तथा रमणीय प्रतीत न हो वह अशुभ है।

    29-30 जिसके उदय से अन्य जीवों के अनुग्रह या उपघात के अयोग्य सूक्ष्म शरीर की प्राप्ति हो वह सूक्ष्म है तथा अन्य को बाधाकर स्थूल शरीर मिले वह बादर है।

    31-33. जिसके उदय से आत्मा अन्तर्मुहूर्त में आहार आदि पाप्तियों की पूर्णता कर लेता है वह पर्याप्ति तथा जिससे पर्याप्तियों की पूर्णता न कर सके वह अपर्याप्ति नामकर्म है। आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन ये छह पर्याप्तियाँ हैं। श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति तो सर्वसंसारी जीवों के होती है पर वह अतीन्द्रिय है - कान या स्पर्श से अनुभव में नहीं आती, पर उच्वास नामकर्म के उदय से पंचेन्द्रिय जीव के जो शीत, उष्ण आदि से लम्बे उच्छवासनिश्वास होते हैं वे श्रोत्र और स्पर्शन से ग्राह्य होते हैं। यही दोनों में अन्तर है।

    34-35. जिसके उदय से दुष्कर उपवास आदि तप करने पर भी अंग-उपांग आदि स्थिर बने रहते हैं, कुश नहीं होते वह स्थिर नामकर्म है तथा जिससे एक उपवास से या साधारण शीत उष्ण आदि से ही शरीर में अस्थिरता आ जाय, कृश हो जाय वह अस्थिर नामकर्म है।

    36-37. जिसके उदय से प्रभायुक्त शरीर हो वह आदेय तथा निष्प्रभ शरीर हो वह अनादेय है। सूक्ष्म तैजस-शरीर-निमित्सक सर्वसंसारी जीवों के होनेवाली साधारण कान्ति आदेय नहीं है, अन्यथा सभी संसारी जीवों के इसका उदय प्राप्त होगा किन्तु आदेय-कर्म-निमित्तक लावण्य या सलौनापन जुदा ही है।

    38-39. जिसके उदय से पुण्य गुणख्यापन हो वह यशस्कीर्ति तथा पाप दोषख्यापन हो वह अयशस्कीर्ति है । यश को कीर्ति अर्थात् ख्याति प्रसिद्धि फैलाव हो जिससे वह यशस्कीर्ति है। यश और कीर्ति दोनों शब्द एकार्थक नहीं है।

    40-42. जिसके उदय से अचिन्त्य विशेषविभूतियुक्त आर्हन्त्यपद प्राप्त होता है वह तीर्थंकर नाम है । गणधरत्वपद प्रकृष्ट श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से होता है, चक्रवर्तित्व, वासुदेव, बलदेव आदि पद उच्च-गोत्र-निमित्तक हैं अतः इनका पृथक् निर्देश नहीं किया है । तीर्थ की प्रवृत्ति करना तीर्थंकर प्रकृति का फल है। यह उच्चगोत्र से नहीं हो सकता; क्योंकि उच्चगोत्री चक्रवर्ती आदि के नहीं पाया जाता । अतः इसका पृथक निर्देश किया है।

    43-45. गति आदि विहायोगति पर्यन्त प्रकृतियाँ अकेली-अकेली हैं और प्रत्येक शरीर आदि प्रकृतियों का सेतर-पतिपक्ष सहित से सम्बन्ध करना है अतः सबका एक समास नहीं किया है। तीर्थंकर प्रकृति सर्वोत्कृष्ट है और अन्त्य है, चरमशरीरी के ही इसका उदय देखा जाता है अतः पृथक् इसका निर्देश किया गया है।

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    + गोत्रकर्म के भेद -
    उच्चैर्नीचैश्च ॥12॥
    अन्वयार्थ : उच्‍चगोत्र और नीचगोत्र ये दो गोत्रकर्म हैं ॥१२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    गोत्रकर्म दो प्रकार का है - उच्‍चगोत्र और नीचगोत्र। जिसके उदय से लोकपूजित कुलों में जन्‍म होता है वह उच्‍चगोत्र है। जिसके उदय से गर्हित कुलों में जन्‍म होता है वह नीचगोत्र है।

    आठवीं कर्मप्रकृति की उत्‍तर प्रकृतियों का निर्देश करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    जिसके उदय से लोकपूजित महत्त्वशाली इक्ष्वाकु, उग्र, कुरु, हरि और ज्ञाति आदि वंशों में जन्म हो वह उच्चगोत्र है । जिसके उदय से निन्द्य, दरिद्र, अप्रसिद्ध और दुःखाकुल कुलों में जन्म हो वह नीचगोत्र है।

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    + अन्‍तराय कर्म के भेद -
    दान-लाभ-भोगोपभोग-वीर्याणाम् ॥13॥
    अन्वयार्थ : दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य इनके पाँच अन्‍तराय हैं ॥१३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    यहाँ अन्‍तराय की अपेक्षा भेदनिर्देश किया है। यथा- दान का अन्‍तराय, लाभ का अन्‍तराय इत्‍यादि। इन्‍हें दानादि परिणाम के व्‍याघात का कारण होने से यह संज्ञा मिली है। जिनके उदय से देने की इच्‍छा करता हुआ भी नहीं देता है, प्राप्‍त करने की इच्‍छा रखता हुआ भी नहीं प्राप्‍त करता हैं, भोगने की इच्छा करता हुआ भी नहीं भोग सकता है, उपभोग करने की इच्‍छा करता हुआ भी उपभोग नहीं ले सकता है और उत्‍साहित होने की इच्‍छा रखता हुआ भी उत्‍साहित नहीं होता है इस प्रकार ये पाँच अन्‍तराय के भेद हैं।

    प्रकृतिबन्‍ध के भेद कहे । इस समय स्थितिबन्‍ध के भेद कहने चाहिए । वह स्थिति दो प्रकार की है - उत्‍कृष्‍ट स्थिति और जघन्‍य स्थिति । उनमें जिन कर्मप्रकृतियों की उत्‍कृष्‍ट स्थिति समान है उनका निर्देश करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    अन्तराय शब्द की अनुवृत्ति करके उससे दानादि का सम्बन्ध कर लेना चाहिये -- दानान्तराय आदि । वे दानान्तराय आदि पाँच अन्तराय हैं । यद्यपि भोग और उपभोग दोनों सुखानुभव में निमित्त होते हैं फिर भी एक बार भोगे जानेवाले गन्ध, माला, स्नान, वस्त्र और अन्न-पान आदि में भोग-व्यवहार तथा शय्या, आसन, स्त्री, हाथी, रथ, घोड़ा आदि में उपभोग-व्यवहार होता है। इस तरह उत्तर प्रकृतियों की संख्या है । ज्ञानावरण और नामकर्म की असंख्यात भी प्रकृतियाँ होती हैं। जबतक ये कर्म फल देकर नहीं झड़ जाते तबतक के काल को स्थिति कहते हैं। प्रकृष्ट प्रणिधान से उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है तथा निकृष्ट प्रणिधान से जघन्य ।

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    + मूल कर्मों में उत्कृष्ट स्थिति -
    आदितस्तिसृणा-मंतरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्य: परा स्थिति: ॥14॥
    अन्वयार्थ : आदि की तीन प्रकृतियाँ अर्थात्‌ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वेदनीय तथा अन्तराय इन चार की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम है ॥१४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    बीच में या अन्‍त में तीन का ग्रहण न होवे इसलिए सूत्र में 'आदित:' पद कहा है। अन्‍तरायकर्म का पाठ प्रारम्‍भ के तीन कर्मों के पाठ से व्‍यवहित है उसका ग्रहण करने के लिए, 'अन्‍तरायस्‍य' वचन दिया है। सागरोपम का परिमाण पहले कह आये हैं। कोटियों की कोटि कोटाकोटि कहलाती है। पर शब्‍द उत्कृष्‍ट वाची है। उक्‍त कथन का यह अभिप्राय है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्‍तरायकर्म की उत्‍कृष्‍ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम होती हैं।

    शंका – यह उत्‍कृष्‍ट स्थिति किसे होती है ?

    समाधान – मिथ्‍यादृष्टि, संज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्‍तक जीव को प्राप्‍त होती है। अन्‍य जीवों के आगम से देखकर ज्ञान कर लेना चाहिए ।

    मोहनीय की उत्‍कृष्‍ट स्थिति का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-3. आदि के ही (मध्य और अन्त के नहीं) तीन ही (चार या दो नहीं) कर्म अर्थात ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वेदनीय तथा अन्तराय की तीस कोड़ाकोड़ी सागर उत्कृष्ट स्थिति है। समान स्थिति होने से सूत्रक्रम का उल्लंघन कर अन्तराय का निर्देश किया है।

    4. 'कोटीकोट्यः' में वीप्सार्थक द्वित्व नहीं है, वैसी अवस्था में बहुवचन की आवश्यकता नहीं थी किन्तु राजपुरुष की तरह कोटियों की कोटी ऐसा षष्ठीसमास है।

    5-7. परा अर्थात उत्कृष्टस्थिति । संज्ञी पञ्चेन्द्रिय-पर्याप्तक के यह उत्कृष्ट-स्थिति समझनी चाहिये ।

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    सप्तति-र्मोहनीयस्य ॥15॥
    अन्वयार्थ : मोहनीय की उत्‍कृष्‍ट स्थिति सत्‍तर कोटाकोटि सागरोपम है ॥१५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    इस सूत्र में 'सागरोपमकोटीकोटय: परा स्थिति:' पद की अनुवृत्ति होती है। यह भी उत्‍कृष्‍ट स्थिति मिथ्‍यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्‍तक जीव के जानना चाहिए । इतर जीवों के आगम के अनुसार ज्ञान कर लेना चाहिए ।

    नाम और गोत्रकर्म की उत्‍कृष्‍ट स्थिति का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    संज्ञिपंचेन्द्रिय पर्याप्तक के मोहनीय की उत्कृष्ट-स्थिति 70 कोड़ाकोड़ी सागर है। पर्याप्तक, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियों के क्रमशः एक सागर, पच्चीससागर, पचाससागर और सौ सागर स्थिति है । अपर्याप्तक एकेन्द्रिय के पल्योपम के असंख्येयभाग कम स्वपर्याप्तक की उत्कृष्टस्थिति तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियों के पल्योपम के संख्यातभाग से कम स्वपर्याप्तक की स्थिति-प्रमाण उत्कृष्ट-स्थिति समझनी चाहिये । असंज्ञि-पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के एक हजार सागर तथा अपर्याप्तक के पल्योपम के संख्यातभाग कम एक हजार सागर स्थिति है । अपर्याप्तक-संज्ञी के अन्त:कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है।

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    विंशतिर्नाम-गोत्रयो: ॥116॥
    अन्वयार्थ : नाम और गोत्र की उत्‍कृष्‍ट स्थिति बीस कोटाकोटि सागरोपम है ॥१६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    'सागरोपमकोटीकोटय: परा स्थिति:' पद की अनुवृत्ति होती है। यह भी उत्‍कृष्‍ट स्थिति मिथ्‍यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्‍तक जीव के जानना चाहिए । इतर जीवों के आगम के अनुसार जान लेना चाहिए।

    अब आयु कर्म की उत्‍कृष्‍ट स्थिति क्‍या है यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    संज्ञिपंचेन्द्रिय पर्याप्तक के नाम और गोत्र की उत्कृष्ट-स्थिति 20 कोडाकोड़ी सागर है। एकेन्द्रियअपर्याप्तक के पल्य के असंख्येय भाग से कम सागर तथा द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक असंज्ञियों के पल्योपम के संख्यात भाग से कम स्वपर्याप्तक की स्थिति ही उत्कृष्ट-स्थिति समझनी चाहिए।

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    त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुष: ॥17॥
    अन्वयार्थ : आयु की उत्‍कृष्‍ट स्थिति तैंतीस सागरोपम है॥१७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    इस सूत्र में पुन: 'सागरोपम' पद का ग्रहण कोटाकोटी पद की निवृत्ति के लिए दिया है। यहाँ 'परा स्थिति:' पद की अनुवृत्ति होती है। यह भी पूर्वोक्‍त जीव के होती है । शेष जीवों के आगम से जान लेना चाहिए।


    विशेषार्थ – यहाँ टीका में आयुकर्म का उत्‍कृष्‍ट स्थितिबन्‍ध का स्‍वामी मिथ्‍यादृष्टि कहा है। सो यह इस अभिप्राय से कहा है कि मिथ्‍यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्‍तक जीव भी नरकायु बन्‍ध के योग्‍य उत्‍कृष्‍ट संक्‍लेश परिणमों के होने पर नरकायु का उकृष्‍ट स्थितिबन्‍ध करता है। इसका यह अभिप्राय नहीं कि अन्‍य गुणस्‍थानवाले के आयुकर्म का उत्कृष्‍ट स्थितिबन्‍ध नहीं होता। देवायु का तैंतीस सागरोपम उत्‍कृष्‍ट स्थितिबन्‍ध सकल संयम के धारी सम्‍यग्‍दृष्टि के ही होता है। पर टीकाकार ने यहाँ उसके कहने की विवक्षा नहीं की ।

    उत्‍कृष्‍ट स्थिति कही । अब जघन्‍य स्थिति कहनी चाहिए । उसमें समान जघन्‍य स्थितिवाली पाँच प्रकृतियों को स्थगित करके थोड़े में कहने के अभिप्राय से तीन प्रकृतियों की जघन्‍य स्थिति का ज्ञान कराने के लिए दो सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    सागरोपम पद से अब कोड़ाकोड़ी सागर की व्यावृत्ति हो जाती है। संक्षिपर्याप्तक के आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति 33 सागर प्रमाण है। असंज्ञि-पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के पल्योपम के असंख्यातवें भाग तथा शेष के पूर्व-कोटिप्रमाण उत्कृष्ट-स्थिति है।

    अन्य कर्मों की जघन्यस्थितियों से जिनकी कुछ विशेष जघन्य-स्थिति है उनका निरूपण करते हैं।

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    + मूल कर्मों में जघन्य स्थिति -
    अपरा द्वादश मुहूर्ता वेदनीयस्य ॥18॥
    अन्वयार्थ : वेदनीय की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है ॥१८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अपरा अर्थात् जघन्‍य । यह वेदनीय की बारह मुहूर्त है।

    राजवार्तिक :
    सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में वेदनीय की जघन्यस्थिति 12 मुहूर्त प्रमाण है।

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    नाम-गोत्रयोरष्टौ ॥19॥
    अन्वयार्थ : नाम और गोत्र की जघन्‍य स्थिति आठ मुहूर्त है ॥१९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    यहाँ 'मुहूर्ता' पद की अनुवृत्ति होती है और 'अपरा स्थिति:' पद की भी ।

    अब स्‍थगित की गयीं प्रकृतियों की जघन्‍य स्थिति का कथन क‍रने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में नाम और गोत्र की जघन्य-स्थिति 8 मुहूर्त है।

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    शेषाणामन्तर्मुहूर्ता ॥20॥
    अन्वयार्थ : बाकी के पाँच कर्मों की जघन्‍य स्थिति अन्‍तर्मुहूर्त है ॥२०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    शेष पाँच प्रकृतियों की अन्‍तर्मुहूर्त जघन्‍य स्थिति है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्‍तराय की जघन्‍य स्थिति सूक्ष्‍मसाम्‍पराय गुणस्‍थान में, मोहनीय की जघन्‍य स्थिति अनिवृत्ति बादरसाम्‍पराय गुणस्‍थान में और आयु की जघन्‍य स्थिति संख्‍यात वर्ष की आयुवाले तिर्यंचों और मनुष्‍यों में प्राप्‍त होती है।

    दोनों प्रकारकी स्थिति कही। अब ज्ञानावरणादिक के अनुभव का क्‍या स्‍वरूप है इसलिए आगे का सूत्र कहते हैं –

    राजवार्तिक :
    ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय की सूक्ष्मसाम्पराय में तथा मोहनीय की अनिवृत्तिबादर साम्पराय में और आयु की संख्यातवर्ष की आयुवाले तिर्यचों और मनुष्यों में जघन्य-स्थिति अन्तर्मुहूर्त है।

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    + विपाक -
    विपाकोऽनुभव: ॥21॥
    अन्वयार्थ : विपाक अर्थात् विविध प्रकार के फल देने की शक्ति का पड़ना ही अनुभव है ॥२१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    विशिष्‍ट या नाना प्रकार के पाकका नाम विपाक है। पूर्वोक्‍त कषायों के तीव्र, मन्‍द आदिरूप भावास्रव के भेद से विशिष्‍ट पाक का होना विपाक है। अथवा द्रव्‍य, क्षेत्र, काल, भव और भावलक्षण निमित्‍तभेद से उत्‍पन्‍न हुआ वैश्‍वरूप नाना प्रकार का पाक विपाक है। इसी को अनुभव कहते हैं। शुभ परिणामों के प्रकर्षभाव के कारण शुभ प्रकृतियों का प्रकृष्‍ट अनुभव होता है और अशुभ प्रकृतियों का निकृष्‍ट अनुभव होता है। तथा अशुभ परिणामों के प्रकर्षभाव के कारण अशुभ प्रकृतियों का प्रकृष्‍ट अनुभव होता है और शुभ प्रकृतियों का निकृष्‍ट अनुभव होता है। इस प्रकार कारणवश से प्राप्‍त हुआ वह अनुभव दो प्रकारसे प्रवृत्‍त होता है - स्‍वमुख और परमुख से। सब मूल प्रकृतियों का अनुभव स्‍वमुख से ही प्रवृत्‍त होता है। आयु, दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के सिवा तुल्‍यजातीय उत्‍तरप्रकृतियों का अनुभव परमुख से भी प्रवृत्‍त होता है। नरकायु के मुख से तिर्यंचायु या मनुष्‍यायु का विपाक नहीं होता। और दर्शनमोह चारित्रमोहरूप से और चारित्रमोह दर्शनमोहरूप से विपाक को नहीं प्राप्‍त होता।


    शंका – पहले संचित हुए नाना प्रकार के कर्मों का विपाक अनुभव है यह हम स्‍वीकार करते हैं किन्‍तु यह नहीं जानते कि क्‍या यह प्रसंख्‍यात होता है या अप्रसंख्‍यात होता है ?

    समाधान – हम कहते हैं कि यह प्रसंख्‍यात अनुभव में आता है।

    शंका – किस कारण से ?

    समाधान – यत: -

    राजवार्तिक :
    1. ज्ञानावरण आदि कर्म प्रकृतियों के जो कि अनुग्रह और उपघात करनेवाली हैं, तीव्र मन्दभावनिमित्तक विशिष्ट पाक को विपाक कहते हैं । अथवा, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन निमित्तों के भेद से नाना प्रकार के पाक को विपाक कहते हैं। इसी को अनुभव कहते हैं। शुभ परिणामों की प्रकर्षता में शुभ-प्रकृतियों का उत्कृष्ट और अशुभ प्रकृतियों का निकृष्ट तथा अशुभपरिणामों की प्रकर्षता में अशुभप्रकृतियों का उत्कृष्ट और शुभ प्रकृतियों का निकृष्ट अनुभाग बन्ध होता है। अनुभव अर्थात् फलविपाक दो प्रकार से होता है - स्वमुख से और परमुख से । सभी मूल प्रकृतियों का स्वमुख से ही विपाक होता है। उत्तर प्रकृतियों में आयु दर्शनमोह और चारित्र मोह को छोड़कर शेष सजातीय प्रकृतियों का परमुख से भी विपाक होता है। नरकायु नरकायु रूप से ही फल देगी मनुष्यायु या तिर्यंचायु आदि रूप से नहीं। इसी तरह दर्शनमोह चारित्रमोह रूप से या चारित्रमोह दर्शनमोह रूप से फल नहीं देगा। यह अनुभाग कर्मों के अपने नाम के अनुसार होता है।

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    + विपाक का स्वभाव -
    स यथानाम् ॥22॥
    अन्वयार्थ : वह जिस कर्म का जैसा नाम है उसके अनुरूप होता है ॥२२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    ज्ञानावरण का फल ज्ञान का अभाव करना है। दर्शनावरण का भी फल दर्शनशक्ति का उपरोध करना है इत्‍यादि रूप से सब कर्मों की सार्थक संज्ञा का निर्देश किया है अतएव अपने अवान्‍तर भेदसहित उनमें किसका क्‍या अनुभव है इसका ज्ञान हो जाता है।

    यदि विपाक का नाम अनुभव है ऐसा स्‍वीकार करते हो तो अनुभूत होने पर वह कर्म आभरण के समान अवस्थित रहता है या फल भोग लेने के बाद वह झर जाता है ? इस बात को बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    ज्ञानावरण आदि जिसका जैसा नाम है उसी के अनुसार ज्ञान का आवरण, दर्शन का आवरण आदि फल देते हैं। उत्तर प्रकृतियों में भी इसी तरह समझना चाहिए। सभी कर्म यथा नाम तथा गुणवाले हैं।

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    + निर्जरा -
    ततश्च निर्जरा ॥23॥
    अन्वयार्थ : इसके बाद निर्जरा होती है॥२३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिस प्रकार भात आदि का मल निवृत्‍त होकर निजीर्ण हो जाता है उसी प्रकार आत्‍मा को भला-बुरा फल देकर पूर्व प्राप्‍त स्थिति का नाश हो जाने से स्थिति न रहने के कारण कर्म की निवृत्ति का होना निर्जरा है। वह दो प्रकार की है - विपाकजा और अविपाकजा। उसमें अनेक जाति विशेषरूपी भँवर युक्‍त चार गतिरूपी संसार महासमुद्र में चिरकाल तक परिभ्रमण करने वाले इस जीव के क्रम से परिपाक काल को प्राप्‍त हुए और अनुभवोदयावलिरूपी सोते में प्रविष्‍ट हुए ऐसे शुभाशुभ कर्म का फल देकर जो निवृत्ति होती है वह विपाकजा निर्जरा है। तथा आम और पनस को औपक्रमिक क्रियाविशेष के द्वारा जिस प्रकार अकाल में पका लेते हैं उसी प्रकार जिसका विपाककाल अभी नहीं प्राप्‍त हुआ है फिर भी औपक्रमिक क्रियाविशेष की सामर्थ्‍य से उदयावलि के बाहर स्थित जो कर्म बलपूर्वक उदीरणा द्वारा उदयावलि में प्रविष्‍ट कराके अनुभवा जाता है वह अविपाकजा निर्जरा है। सूत्रमें 'च' शब्‍द अन्‍य निमित्‍त का समुच्‍चय करने के लिए दिया है। 'तपसा निर्जरा च' यह आगे कहेंगे, इसलिए 'च' शब्‍द के देने का यह प्रयोजन है कि पूर्वोक्‍त प्रकार से निर्जरा होती है और अन्‍य प्रकार से भी।

    शंका – यहाँ निर्जरा का उल्‍लेख किसलिए किया है, क्‍यों कि उद्देश्‍य के अनुसार उसका संवर के बाद उल्‍लेख करना ठीक होता ?

    समाधान – थोड़े में बोध कराने के लिए यहाँ निर्जरा का उल्‍लेख किया है। संवर के बाद पाठ देने पर 'विपाकोऽनुभव:' इसका फिरसे अनुवाद करना पड़ता।


    अनुभवबन्‍ध का कथन किया। अब प्रदेशबन्‍ध का कथन करना है। उसका कथन करते समय इतनी बातें निर्देश करने योग्‍य हैं - प्रदेशबन्‍ध का हेतु क्‍या है, वह कब होता है, उसका निमित्‍त क्‍या है, उसका स्‍वभाव क्‍या है, वह किसमें होता है और उसका परिणमन क्‍या है। इस प्रकार क्रम से इन प्रश्‍नों को लक्ष्‍य में रखकर आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-2. आत्मा को सुख या दुःख देकर, खाये हुए आहार के मल की तरह स्थिति के क्षय होने से झड़ जाना निर्जरा है। निर्जरा दो प्रकार की है - विपाकजा और अविपाकजा। चतुर्गतिमहासागर में चिर-परिभ्रमणशील प्राणी के शुभ-अशुभ कर्मों का औदयिकभावों से उदयावलि में यथाकाल प्रविष्ट होकर जिसका जिस-रूप में बन्ध हुआ है उसका उसी रूप में स्वाभाविक क्रम से फल देकर स्थिति समाप्त करके निवृत्त हो जाना विपाकजा निर्जरा है । जिन कर्मों का उदयकाल नहीं आया है उन्हें भी तपविशेष आदि से बलात् उदयावलि में लाकर पका देना अविपाक निर्जरा है। जैसे कि कच्चे आम या पनस फल (कटहल) को प्रयोग से पका दिया जाता है।

    3-5. 'च' शब्द से संवर के प्रकरण में कहे जानेवाले 'तप' का संग्रह हो जाता है। अर्थात् फल देकर भी निर्जरा होती है तथा तप से भी। यद्यपि संवर के बाद निर्जरा के वर्णन का क्रम आता है फिर भी लाघव के विचार से विपाक के बाद ही निर्जरा का वर्णन कर दिया है। अनुभाग-बन्ध में पुण्य-पाप की तरह निर्जरा का अन्तर्भाव नहीं हो सकता क्योंकि दोनों का अर्थ जुदा-जुदा है । फलदान शक्ति को अनुभव कहते हैं और जिनका फलानुभव किया जा चुका है ऐसे निर्वीर्य कर्मपुद्गलों की निवृत्ति निर्जरा कहलाती है। इसीलिए 'ततश्च' यह अपादान निर्देश बन जाता है । यदि भेद न होता तो अपादान प्रयोग नहीं हो सकता था।

    6-7. प्रश्न – यहाँ 'ततो निर्जरा तपसा च' ऐसा लघुसूत्र बना देना चाहिए, इसमें आगे 'निर्जरा' पद का ग्रहण नहीं करना पड़ेगा ?

    उत्तर – संवरहेतुता का द्योतन करने के लिए तप को संवर के प्रकरण में ही ग्रहण करना उचित है, अर्थात् तप से निर्जरा भी होती है और संवर भी। यद्यपि उत्तम-क्षमा आदि धर्मों में किया गया तप का निर्देश संवरहेतुता का द्योतन कर देता है और यहाँ कह देने से उसकी निर्जराहेतुता मालूम पड़ जाती है अतः पृथक् 'तपसा निर्जरा च' सूत्र बनाना निरर्थक सा ज्ञात होता है फिर भी सभी संवर और निर्जरा के कारणों में तप की प्रधानता सूचित करने के लिए तप को पृथक रूप से ग्रहण किया है । कहा भी है -'काय, मन और अनेक प्रकार के तप करता है वह मनुष्य विपुल कर्म निर्जरा को करता है'। अतः यहाँ तप का निर्देश करने में गौरव होता। ये कर्म प्रकृतियाँ घाती और अघाती के भेद से दो प्रकार की हैं। घाती भी सर्वघाती और देशघाती इन दो भेदोंवाली है। केवलज्ञानावरण, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा, प्रचला, केवलदर्शनावरण, बारह कषाय और दर्शनमोह ये बीस प्रकृतियाँ सर्वघाती हैं। शेष चार ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, संज्वलन और नव नोकषायें देशघाती हैं। बाकी प्रकृतियाँ अघाती हैं । शरीरनाम से लेकर स्पर्श पर्यन्त नाम प्रकृतियाँ अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ और निर्माण ये प्रकृतियाँ पुद्गलविपाकी हैं । आनुपूर्व्य क्षेत्रविपाकी है । आयु का कार्य भवधारण कराना है। शेष प्रकृतियाँ जीवविपाकी हैं।

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    + प्रदेश बन्ध -
    नाम-प्रत्यया: सर्वतो योग-विशेषात्-सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाह-स्थिता: सर्वात्म-प्रदेशेष्वनन्तानन्त-प्रदेशा: ॥24॥
    अन्वयार्थ : कर्म प्रकृतियों के कारणभूत प्रति‍समय योगविशेष से सूक्ष्‍म, एकक्षेत्रावगाही और स्थित अनन्‍तानन्‍त पुद्गल परमाणु सब आत्‍मप्रदेशों में (सम्‍बन्‍ध को प्राप्‍त) होते हैं ॥२४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    नामप्रत्‍यया: - नाम के कारणभूत कर्मपरमाणु नामप्रत्‍यय कहलाते हैं। 'नाम' इस पद द्वारा सब कर्मप्रकृतियाँ कही जाती हैं। जिसकी पुष्टि 'स यथानाम' इस सूत्रवचन से होती है। इस पद द्वारा हेतु का कथन किया गया है।

    सर्वत: - प्रदेशबन्‍ध सब भवों में होता है। 'सर्वेषु भवेषु इति सर्वत:' यह इसकी व्‍युत्‍पत्ति है। सर्व शब्‍द से 'दृश्‍यन्‍तेऽन्‍यतोऽपि' इस सूत्र द्वारा तसि प्रत्‍यय करने पर सर्वत: पद बनता है। इस पद द्वारा काल का ग्रहण किया गया है। एक-एक जीव के व्‍यतीत हुए अनन्‍तानन्‍त भव होते हैं और आगामी संख्‍यात, असंख्‍यात व अनन्‍तानन्‍त भव होते हैं।

    योगविशेषात् - योगविशेषरूप निमित्‍त से कर्मरूप पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं। इस पद द्वारा निमित्‍तविशेष का निर्देश किया गया है। कर्मरूप से ग्रहण योग्‍य पुद्गलों का स्‍वभाव दिखलाने के लिए सूक्ष्म आदि पद का ग्रहण किया है। ग्रहणयोग्‍य पुद्गल सूक्ष्‍म होते हैं स्‍थूल नहीं होते। क्षेत्रान्‍तर का निराकरण करने के लिए 'एकक्षेत्रावगाह' वचन दिया है। क्रियान्‍तर की निवृत्ति के लिए 'स्थिता:' वचन दिया है। ग्रहणयोग्‍य पुद्गल स्थित हेते हैं गमन करते हुए नहीं। आधारनिर्देश करन के लिए 'सर्वात्‍मप्रदेशेषु' वचन दिया है। एक प्रदेश आदि में कर्मप्रदेश नहीं रहते। फिर कहाँ रहते हैं ? ऊपर, नीचे, तिरछे सब आत्‍मप्रदेशों में व्‍याप्‍त होकर स्थित होते हैं। दूसरे परिमाण का वारण करने के लिए अनन्‍तानन्‍तप्रदेश वचन दिया है। ये न संख्‍यात होते हैं, न असंख्‍यात होते हैं और न अनन्‍त होते हैं। अभव्‍यों से अनन्‍तगुणे और सिद्धों के अनन्‍तवें भागप्रमाण संख्‍यावाले, घनांगुल के असंख्‍यातवें भागप्रमाण क्षेत्र की अवगाहनावाले, एक, दो, तीन, चार, संख्‍यात और असंख्‍यात समय की स्थितिवाले तथा पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्‍ध और चार स्‍पर्श वाले वे आठ प्रकार की कर्मप्रकृतियों के योग्‍य कर्मस्‍कन्‍ध योगविशेष से आत्‍माद्वारा आत्‍मसात् किये जाते हैं। इस प्रकार संक्षेप में प्रदेशबन्‍ध जानना चाहिए।

    बन्‍ध पदार्थ के अनन्‍तर पुण्‍य और पाप की गणना की है और उसका बन्‍ध में अन्‍तर्भाव किया है, इसलिए यहाँ यह बतलाना चाहिए कि पुण्‍यबन्‍ध क्‍या है और पापबन्‍ध क्‍या है। उसमें सर्वप्रथम पुण्‍य प्रकृतियों की परिगणना करने के लिए यह सूत्र आरम्‍भ करते हैं –

    राजवार्तिक :
    1-8. 'नामकर्म है प्रत्यय जिनका' ऐसा विग्रह नहीं करके नाम के अनुसार यही अर्थ करना चाहिये । सर्वतः-सभी भूत-भावी भवों में, योगविशेष-मन वचन कायरूप निमित्त से कर्म पुद्गलों का आगमन होता है। सूक्ष्म शब्द से ग्रहणयोग्य पुद्गलों का निर्देश किया गया है अर्थात् सूक्ष्म-पुद्गल ही ग्रहण योग्य होते हैं स्थूल नहीं। एकक्षेत्रावगाह का अर्थ है कि आत्मप्रदेश और कर्मपुद्गल एक ही आकाश प्रदेश में हैं, क्षेत्रान्तर में नहीं। स्थिति का तात्पर्य है कि कर्म पुद्गल ठहरे हुए हैं चलते आदि नहीं हैं। सर्वात्मप्रदेशेषु का अर्थ है कि आत्मा को कोई भी ऐसा प्रदेश बाकी नहीं है जहाँ कर्म पुद्गल न हों, किन्तु ऊपर-नीचे-बीच में सब जगह प्रत्येक आत्मप्रदेश में स्थित हैं। वे अनन्तानन्त हैं न तो संख्यात, न असंख्यात और न अनन्त ही। वे पुदलस्कन्ध अभव्यों से अनन्तगुणें और सिद्धों के अनन्तवें भाग हैं । वे धनांगुल के असंख्येय भागरूप क्षेत्रावगाही एक-दो-तीन-चार संख्यात, असंख्यात समय की स्थितिवाले, पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और चार स्पर्शवाले तथा आठ प्रकार के कर्मरूप से परिणमन करने के योग्य हैं। वे योग-क्रिया से जाते हैं और आत्मप्रदेशों पर ठहर जाते हैं । यही प्रदेशबन्ध है।

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    + पुण्य प्रकृतियाँ -
    सद्वेद्यशुभायुर्नाम-गोत्राणि पुण्यम् ॥25॥
    अन्वयार्थ : साता वेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र ये प्रकृतियाँ पुण्‍यरूप हैं ॥२५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    शुभ का अर्थ प्रशस्‍त है। यह आगे के प्रत्‍येक पद के साथ सम्‍बन्ध को प्राप्त होता है। यथा - शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र। शुभ आयु तीन है - तिर्यंचायु, मनुष्‍यायु और देवायु। शुभ नाम के सैंतीस भेद हैं। यथा - मनुष्‍यगति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, पाँच शरीर, तीन अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्‍थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्‍त वर्ण, प्रशस्‍त रस, प्रशस्‍त गन्‍ध और प्रशस्‍त स्‍पर्श, मनुष्‍यगत्‍यानुपूर्वी और देवगत्‍यानुपूर्वी ये दो, अगुरुलघु, परघात, उच्‍छ्वास, आतप उद्योत, प्रशस्‍तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्‍त, प्रत्‍येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्‍वर, आदेय, यश:कीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर। एक उच्‍च गोत्र शुभ है और सातावेदनीय ये बयालीस प्रकृतियाँ पुण्‍यसंज्ञक हैं।


    राजवार्तिक :
    1-3. शुभ-प्रशस्त । तिर्यगायु मनुष्यायु और देवायु ये तीन शुभ आयुएँ, मनुष्य-गति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, पाँच-शरीर, तीन अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, वर्षभनाराच-संहनन, प्रशस्त वर्ण-रस-गन्ध-स्पर्श, मनुष्यगत्यानुपू्र्वी, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, अच्छास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्ति, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशस्कीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर ये सैंतीस नामकर्म, उच्चगोत्र और सातावेदनीय, सब मिलकर 42 पुण्य प्रकृतियाँ हैं।

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    + पाप प्रकृतियाँ -
    अतोऽन्यत्पापम् ॥26॥
    अन्वयार्थ : इनके सिवा शेष सब प्रकृतियाँ पापरूप हैं ॥२६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    इस पुण्‍यसंज्ञावाले कर्मप्रकृतिसमूह से जो भिन्‍न कर्मसमूह है वह पापरूप कहा जाता है। वह बयासी प्रकार का है। यथा – ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियाँ, दर्शनावरण की नौ प्रकृतियाँ, मोहनीय की छब्‍बीस प्रकृतियाँ, अन्‍तराय की पाँच प्रकृतियाँ, नरकगति, तिर्यंचगति, चार जाति, पाँच संस्‍थान, पाँच संहनन, अप्रशस्‍त वर्ण, अप्रशस्‍त रस, अप्रशस्‍त गन्‍ध और अप्रशस्‍त स्‍पर्श, नरकगत्‍यानुपूर्वी और तिर्यग्‍गत्‍यानुपूर्वी ये दो, उपघात, अप्रशस्‍त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्‍म, अपर्याप्ति, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्‍वर, अनादेय और अयश:-कीर्ति ये नामकर्म की चौंतीस प्रकृतियाँ, असाता वेदनीय, नरकायु और नीच गोत्र। इस प्रकार विस्‍तार के साथ बन्‍ध पदार्थ का व्‍याख्‍यान किया। यह अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान प्रत्‍यक्ष प्रमाणगम्‍य है और इन ज्ञानवाले जीवों द्वारा उपदिष्‍ट आगम से अनुमेय है।

    इस प्रकार सर्वार्थसिद्धिसंज्ञक तत्‍त्‍वार्थवृत्ति में आठवाँ अध्‍याय समाप्‍त हुआ ।।8।।

    अथ नवमोध्‍याय:

    राजवार्तिक :
    पुण्य प्रकृतियों से भिन्न शेष 82 पाप प्रकृतियाँ हैं। पाँच ज्ञानावरण, नव दर्शनावरण, छब्बीस मोहनीय, पाँच अन्तराय, नरकगति, तिर्यचगति, एकेन्द्रिय आदि चार गतियाँ, पाँच-संस्थान, पाँच-संहनन, अप्रशस्त वर्ण-रस-गन्ध-स्पर्श, नरकगत्यानुपूर्व्य, तिर्यग्गत्यानुपूर्व्य, उपघात, अप्रशस्त-विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशस्कीर्ति -- ये चौतीस नामकर्म, असातावेदनीय, नरकायु और नीचगोत्र ये 82 पाप प्रकृतियाँ हैं । यह सब बन्ध पदार्थ अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञानरूप प्रत्यक्षप्रमाण से गम्य है और उनके द्वारा उपदिष्ट आगम से अनुमेय है।

    आठवाँ अध्याय समाप्त

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    9-संवर-निर्जराधिकार



    + संवर -
    आस्रव-निरोध: संवर: ॥1॥
    अन्वयार्थ : आस्रव का निरोध संवर है ॥१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    नूतन कर्म के ग्रहण में हेतु रूप आस्रव का व्‍याख्‍यान किया। उसका निरोध होना संवर है। वह दो प्रकार का है – भाव संवर और द्रव्‍य संवर। संसार की निमित्‍तभूत क्रिया की निवृत्ति होना भावसंवर है और इसका (संसार की निमित्‍तभूत क्रिया का) निरोध होने पर तत्‍पूर्वक होने वाले कर्म-पुद्गलों के ग्रहण का विच्‍छेद होना द्रव्‍यसंवर है।

    अब जिस कर्म का आस्रव होता है उसका मिथ्‍यादर्शन के अभाव में शेष रहे सासादन सम्‍यग्‍दृष्टि आदि में संवर होता है। वह कर्म कौन है ? मिथ्‍यात्‍व, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्‍डक संस्‍थान, असम्‍प्राप्तासृपाटिका संहनन, नरकगतिप्रायोग्‍यानुपूर्वी, आतप, स्‍थावर, सूक्ष्‍म, अपर्याप्‍तक और साधारण शरीर यह सोलह प्रकृतिरूप कर्म हैं।

    असंयमके तीन भेद हैं - अनन्‍तानुबन्‍धी का उदय, अप्रत्‍याख्‍यानावरण का उदय और प्रत्‍याख्‍यानावरण का उदय। इसलिए इसके निमित्‍त से जिस कर्म का आस्रव होता है उसका इसके अभाव में संवर जानना चाहिए। यथा – अनन्‍तानुबन्‍धी कषाय के उदय से होने वाले असंयम की मुख्‍यता से आस्रव को प्राप्‍त होने वाली निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, स्‍त्‍यानगृद्धि, अनन्‍तानुबन्‍धी क्रोध, अनन्‍तानुबन्‍धी मान, अनन्‍तानुबन्‍धी माया, अनन्‍तानुबन्‍धी लोभ, स्‍त्रीवेद, तिर्यांचायु, तिर्यंचगति, मध्‍यके चार संस्‍थान, मध्‍यके चार संहनन, तिर्यंचगतिप्रायोग्‍यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्‍त विहायोगति, दुर्भग, दु:स्‍वर, अनादेय और नीचगोत्र इन पच्‍चीस प्रकृतियों का एकेन्द्रिय से लेकर सासादन सम्‍यग्‍दृष्टि गुणस्‍थान तक के जीव बन्‍ध करते हैं, अत: अनन्‍तानुबन्‍धी के उदय से होने वाले असंयम के अभावमें आगे इनका संवर होता है। अप्रत्‍याख्‍यानावरण कषाय के उदय से होने वाले असंयम की मुख्‍यता से आस्रव को प्राप्‍त होने वाली अप्रत्‍याख्‍यानावरण क्रोध, अप्रत्‍याख्‍यानावरण मान, अप्रत्‍याख्‍यानावरण माया, अप्रत्‍याख्‍यानावरण लोभ; मनुष्‍यायु, मनुष्‍यगति, औदारिकशरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्‍यगतिप्रायोग्‍यानुपूर्वी इन दश प्रकृतियों का एकेन्द्रियों से लेकर असंयतसम्‍यग्‍दृष्टि गुणस्‍थान तक के जीव बन्‍ध करते हैं, अत: अप्रत्‍याख्‍यानावरण कषाय के उदय से होने वाले असंयम का अभाव होने पर आगे इनका संवर होता है। सम्‍यग्मिथ्‍यात्‍व गुण के होने पर आयुकर्म का बन्‍ध नहीं होता यहाँ इतनी विशेष बात है। प्रत्‍याख्‍यानावरण कषायके उदय से होने वाले असंयम से आस्रव को प्राप्‍त होने वाली प्रत्‍याख्‍यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियों का एकेन्द्रियों से लेकर संयतासंयत गुणस्‍थान तक के जीव बन्‍ध करते हैं, अत: प्रत्‍याख्‍यानावरण कषायके उदय से होने वाले असंयम के अभाव में आगे इनका संवर होता है। प्रमाद के निमित्‍त से आस्रव को प्राप्‍त होने वाले कर्म का उसके अभाव में संवर होता है। जो कर्म प्रमाद के निमित्‍त से आस्रव को प्राप्‍त होता है उसका प्रमत्‍तसंयत गुणस्‍थान के आगे प्रमाद न रहने के कारण संवर जानना चाहिए। वह कर्म कौन है ? असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश:कीर्तिरूप प्रकृतियों के भेद से वह कर्म छह प्रकार का है। देवायु के बन्‍ध का आरम्‍भ प्रमाद हेतुक भी होता है और उसके नजदीक का अप्रमाद हेतुक भी, अत: इसका अभाव होने पर आगे उसका संवर जानना चाहिए। जिस कर्म का मात्र कषाय के निमित्‍त से आस्रव होता है प्रमादादिक के निमित्‍त से नहीं उसका कषाय का अभाव होने पर संवर जानना चाहिए। प्रमादादिक के अभाव में होने वाला वह कषाय तीव्र, मध्‍यम और जघन्‍यरूप से तीन गुणस्‍थानों में अवस्थित है। उनमें से अपूर्वकरण गुणस्‍थान के प्रारम्भिक संख्‍येय भाग में निद्रा और प्रचला ये दो कर्मप्रकृतियाँ बन्‍ध को प्राप्‍त होती हैं। इससे आगे संख्‍येय भाग में देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्‍थान, वैक्रियिक शरीर अंगोपांग, आहारक शरीर अंगोपांग, वर्ण, गन्‍ध, रस, स्‍पर्श, देवगति प्रायोग्‍यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्‍छ्वास, प्रशस्‍त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्‍त, प्रत्‍येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्‍वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर ये तीस प्रकृतियाँ बन्‍ध को प्राप्‍त होती हैं। तथा इसी गुणस्‍थान के अन्तिम समय में हास्‍य, रति, भय और जुगुप्‍सा ये चार प्रकृतियाँ बन्‍ध को प्राप्‍त होती हैं। ये तीव्र कषाय से आस्रव को प्राप्‍त होने वाले प्रकृतियाँ हैं, इसलिए तीव्र कषाय का उत्‍तरोत्‍तर अभाव होने से विवक्षित भाग के आगे उनका संवर होता है। अनिवृत्ति बादर साम्‍पराय के प्रथम समय से लेकर उसके संख्‍यात भागों में पुंवेद और क्रोध संज्‍वलन का बन्‍ध होता है। इससे आगे शेष रहे संख्‍यात भागों में मान संज्‍वलन और माया संज्‍वलन ये दो प्रकृतियाँ बन्‍ध को प्राप्‍त होती हैं और उसी के अन्तिम समय में लोभ संज्‍वलन बन्‍ध को प्राप्‍त होती है। इन प्रकृतियोंका मध्‍यम कषाय के निमित्‍त से आस्रव होता है, अतएव मध्‍यम कषाय का उत्‍तरोत्‍तर अभाव होने पर विवक्षित भाग के आगे उनका संवर होता है। मन्‍द कषाय के निमित्‍त से आस्रव को प्राप्‍त होने वाले पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, यश:कीर्ति, उच्‍चगोत्र और पाँच अन्‍तराय इन सोलह प्रकृतियों का सूक्ष्‍मसाम्‍पराय जीव बन्‍ध करता है, अत: मन्‍द कषाय का अभाव होने से आगे इनका संवर होता है। केवल योग के निमित्‍त से आस्रव को प्राप्‍त होने वाली साता वेदनीय का उपशान्‍तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली जीवों के बन्‍ध होता है। योग का अभाव हो जाने से अयोगकेवली के उसका संवर होता है।

    संवर का कथन किया। अब उसके हेतुओं का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-3. कर्मों के आगमन के निमित्तों-मन-वचन और काय के प्रयोगों का उत्पन्न नहीं होना आस्रव-निरोध है। आस्रव का निरोध होने पर तत्पूर्वक अनेक सुख-दुःखों के बीजभूत कर्मों का ग्रहण नहीं होना संवर है। यहाँ 'अभिमतः' ऐसा वाक्य अध्याहृत होता है। जैसे अन्न को प्राण का कारण होने से अन्न के कार्यभूत प्राणों में अन्न का उपचार कर लिया जाता है उसी तरह आस्रव-निरोध के कार्यभूत संवर में आस्रव-निरोध का उपचार कर लिया जाता है । अतः 'आस्रव के निरोध होने पर संवर होता है' इस अर्थ में आस्रवनिरोध को ही संवर कह दिया है।

    4-5. निरोध शब्द और संवर शब्द दोनों ही करणसाधन हैं अतः इनमें सामानाधिकरण्य बन जाता है। अथवा, इस सूत्र में दो पद स्वतन्त्र मानकर योगविभाग कर लेना चाहिये। आस्रवनिरोध के साथ 'हितार्थी को करना चाहिये' इस वाक्य का अध्याहार करके एक वाक्य बनाना चाहिये । उसका प्रयोजन संवर है अर्थात् संवर है प्रयोजन जिसका वह संवर।

    6-9. मिथ्यादर्शन आदि आस्रव के प्रत्ययों का निरोध होने से उनसे आनेवाले कर्मों का रुक जाना संवर है। द्रव्यसंवर और भावसंवर के भेद से संवर दो प्रकार का है। आत्मा को द्रव्यादि निमित्तों से पर्यायान्तर-भवान्तर की प्राप्ति होना संसार है। इस संसार में कारणभूत क्रिया और परिणामों की निवृत्ति भाव-संवर है। इस तरह भाव-बन्धक निरोध से तत्पूर्वक आनेवाले कर्म-पुद्गलों का रुक जाना द्रव्य-संवर है।

    10-11. संवरके स्वरूप का विशेष परिज्ञान करने के लिए चौदह गुणस्थानों का विवेचन आवश्यक है। गुणस्थान चौदह हैं - मिथ्यादृष्टि, सासादन-सम्यग्दृष्टि, सम्यक-मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण-उपशमक-क्षपक, अनिवृत्तिबादर-उपशमक-क्षपक, सूक्ष्मसाम्पराय-उपशमक-क्षपक, उपशान्तकषाय वीतराग-छद्मस्थ, क्षीणकषायवीतराग-छद्मस्थ, सयोगकवली और अयोगकेवली।

    12. जिसके मिथ्यादर्शन का उदय हो वह मिथ्यादृष्टि है। इसके कारण जीवों का तत्स्वार्थश्रद्धान नहीं होता । मिथ्यादृष्टि के ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होनेवाले तीनों ज्ञान मिथ्याज्ञान होते हैं। सामान्यतया मिथ्यादृष्टि हिताहितपरीक्षा से रहित और परीक्षक इन दो श्रेणियों में बाँटे जा सकते हैं । संक्षिपर्याप्तक को छोड़कर सभी एकेन्द्रिय आदि हिताहितपरीक्षा से रहित हैं। संक्षिपर्याप्तक हिताहितपरीक्षा से रहित और परीक्षक दोनों प्रकार के होते हैं।

    13. मिथ्यादर्शन के उदय का अभाव होने पर भी जिनका आत्मा अनन्तानुबन्धी के उदय से कलुषित हो रहा है वे सासादन-सम्यग्दृष्टि हैं। अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के मोह की छब्बीस प्रकृतियों का सत्त्व होता है और सादि-मिथ्यादृष्टि के 26, 27 या 28 प्रकृतियों का सत्त्व होता है। ये जब प्रथम सम्यक्त्व को प्रहण करने के उन्मुख होते हैं तब निरन्तर अनन्तगुणी विशुद्धि को बढ़ाते हुए शुभपरिणामों से संयुक्त होते जाते हैं। उस समय ये चार मनोयोगों में से किसी एक मनोयोग, चार वचनयोगों में से किसी एक वचनयोग, औदारिक और वैक्रियिक में से किसी एक काययोग से युक्त होते हैं । इनके कोई एक कषाय अत्यन्त हीन हो जाती है। साकारोपयोग और तीनों वेदों से किसी एक वेद से युक्त होकर भी संक्लेश-रहित हो, प्रवर्धमान शुभपरिणामों से सभी कर्म-प्रकृतियों की स्थिति को कम करते हुए, अशुभ कर्म प्रकृतियों के अनुभाग का खण्डन कर शुभप्रकृतियों के अनुभागरस को बढ़ाते हुए तीन करणों को प्रारम्भ करते हैं। अथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीनों करणों का काल अन्तर्मुहूर्त है।

    कालादि लब्धियों से संयुक्त वह मिथ्यादृष्टि कर्मों की स्थिति अन्तःकोटाकोटी सागर प्रमाण करके अथाप्रवृत्तकरण करने को तैयार होता है । यह करण पहिले कभी नहीं हुआ अतः इसे अथाप्रवृत्तकरण कहते हैं। प्रथम समय में अल्प-विशद्धि होती है, द्वितीय समय में जघन्य अनन्तगुणी, तृतीय समय में जघन्य अनन्तानन्तगुणी इस तरह अन्तर्मुहूर्त की समाप्ति तक विशुद्धि बढ़ती जाती है। फिर प्रथम समय में उत्कृष्ट अनन्तगुणी, द्वितीय समय में उत्कृष्ट अनन्तानन्तगुणी आदि अथाप्रवृत्त के चरम-समय तक विशुद्धि बढ़ती जाती है। इस करण को करनेवाले असंख्य लोकप्रमाण नाना-जीवों के परिणाम सम और विषम होते हैं। यह अथाप्रवृत्तकरण है।

    अपूर्वकरण के प्रथम समय में अल्प जघन्य विशुद्धि होती है, द्वितीय समय में उत्कृष्ट उसकी अनन्तगुणी, फिर जघन्य अनन्तगुणी फिर उत्कृष्ट अनन्तगुणी इस तरह अन्तर्मुहूर्त की परिसमाप्ति तक क्रम समझना चाहिये । इस करण के धारी असंख्य लोक प्रमाण नानाजीवों के परिणाम नियम से विषम होते हैं। इनका समदायरूप अपूर्वकरण है । अपूर्व-अपूर्व स्वाद होने से इसकी अपूर्वकरण संज्ञा सार्थक है।

    अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में नानाजीवों के परिणाम एकरूप ही होते हैं, द्वितीय समय में उससे अनन्तगुणे विशुद्ध होकर भी एकरूप ही रहते हैं। इस तरह अन्तर्मुहूर्त काल तक उत्तरोत्तर विशुद्ध परिणाम होते हैं । इन सबका समुदाय अनिवृत्तिकरण है । परस्पर निवृत्ति-भेद न होने से इसकी अनिवृत्तिकरण संज्ञा सार्थक है । अथाप्रवृत्तकरण में स्थितिखण्डन, अनुभागखण्डन, गुणश्रेणी और गुणसंक्रमण नहीं होता, केवल अनन्तगुणी विशुद्धि होने से वह अप्रशस्त प्रकृतियों को अनन्तगुण अनुभागहीन और प्रशस्त प्रकृतियों को अनन्तगुण रस समृद्धरूप से बाँधता है। स्थिति भी पल्योपम के संख्येयभाग से हीन बाँधता है । अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में स्थितिखण्डन आदि होते हैं । स्थितिबन्ध भी उत्तरोत्तर न्यून होता जाता है । अशुभप्रकृतियों का अनुभाग अनन्तगुणहीन और शुभप्रकृतियों का अनन्तगुणसमृद्ध होता जाता है । अनिवृत्तिकरणकाल के संख्येयभाग जाने पर अन्तरकरण प्रारम्भ होता है। इससे मिथ्यादर्शन का उदयघात किया जाता है। अन्तिम समय में मिथ्यादर्शन के तीन खण्ड किये जाते हैं - सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व । इन तीन प्रकृतियों का तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ के उदय का अभाव होने पर अन्तर्मुहूर्त काल तक प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है। उसके काल में जब अधिक से अधिक वह आवली और कम से कम एक समय शेष रहता है तब यदि अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया और लोभ में से किसी एक का उदय आ जाता है तब सासादन सम्यग्दृष्टि होता है। आसादन-विराधना, आसादन के साथ होनेवाला सासादन कहलाता है। मिथ्यादर्शन का उदय न होने पर भी इसके तीनों मति, श्रुत और अवधिज्ञान अज्ञान कहे जाते हैं। अनन्तमिथ्यादर्शन को बाँधनेवाली कषाय अनन्तनुबन्धी कही जाती है। यह कषाय मिथ्यादर्शन के फलों को उत्पन्न करती है अतः मिथ्यादर्शन को उदय में आने का रास्ता खोल देती है।

    14. क्षीणाक्षीण मदशक्तिवाले कोदों के उपभोग से जैसे कुछ मिला हुआ मदपरिणाम होता है उसीतरह सम्यमिथ्यात्व प्रकृति के उदय से तत्त्वार्थश्रद्धान और अश्रद्धानरूप मिला हुआ परिणाम होता है । यह तीसरा सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। इसके तीनों ज्ञान अज्ञान से मिश्रित होते हैं।

    15. औपशमिक क्षायिक या क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन से युक्त होकर भी जो चारित्रमोह के उदय से अत्यन्त अविरत परिणामवाला होता है वह असंयत सम्यग्दृष्टि है । इसके तीनों ज्ञान सम्यग्ज्ञान होते हैं। तत्त्वार्थश्रद्धान होने से आगे के सभी गुणस्थानों में नियम से सम्यक्त्व होता है।

    16. पाँचवाँ तथा आगे के गुणस्थान चारित्रमोह के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से होते हैं। अनन्तानुबन्धि-कषाय क्षीण हों या अक्षीण ये तथा अप्रत्याख्यानावरण कषाय सर्वघाती हैं, इनका उदयक्षय या सदवस्थारूप उपशम होनेपर, तथा सर्वघाती प्रत्याख्यानावरणके उदयसे संयमलब्धि का अभाव होनेपर एवं देशघाती संज्वलन और नौ नोकषायों के उदय में संयमासंयम लब्धि होती है । इसके होने पर प्राणी और इन्द्रिय विषयक विरताविरत परिणामवाला संयतासंयत कहलाता है।

    17. क्षीण या अक्षीण अनन्तानुबन्धी कषायों का उदयक्षय होने पर तथा अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायों का उदयक्षय या सदवस्था उपशम होने पर और संज्वलन तथा नोकषायों का उदय होने पर संयमलब्धि होती है। आभ्यन्तर संयम परिणामों के अनुसार बाह्यसाधनों के सन्निधान को स्वीकार करता हुआ यह प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम को पालता हुआ भी पन्द्रह प्रकार के प्रमादों के वश कहीं कभी चारित्रपरिणामों से स्खलित सा होता रहता है। अतः प्रमत्तसंयत कहलाता है।

    18. प्रमाद का अभाव होने से अविचलित संयमी अप्रमत्तसंयत कहलाता है। इसके आगेके चार गुणस्थानोंकी दो श्रेणियाँ हो जाती हैं - उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी। जहाँ मोहनीयकर्म का उपशम करता हुआ आत्मा आगे बढ़ता है वह उपशमश्रेणी है और जहाँ क्षय करता हुआ आगे जाता है वह क्षपकश्रेणी है।

    19. अपूर्व करणरूप परिणामों की विशुद्धि से श्रेणी चढ़नेवाला अपूर्वकरण है यद्यपि यहाँ न तो कर्मप्रकृतियों का उपशम होता है और न क्षय फिर भी आगे होनेवाले उपशम या क्षय की दृष्टि से इस गुणस्थान में भी उपशमक और क्षपक व्यवहार घी के घड़े की तरह हो जाता है।

    20. अनिवृत्तिकरण रूप परिणामों की विशुद्धि से कर्मप्रकृतियों को स्थूलरूप से उपशम या क्षय करनेवाला उपशमक-क्षपक अनिवृत्तिकरण होता है।

    21. सम्पराय-कषायों को सूक्ष्मरूप से भी उपशम या क्षय करनेवाला सूक्ष्म-साम्पराय उपशमक-क्षपक है।

    22. समस्त मोह का उपशम करनेवाला उपशान्त-कषाय तथा क्षय करनेवाला क्षीण-कषाय होता है।

    23. चार घातिया कर्मों के अत्यन्त क्षय से जिन्हें अचिन्त्य केवल-ज्ञानातिशय प्रकट हुआ है वे केवली भगवान है।

    24. 'योग सहित सयोग केवली तथा योगरहित-अयोगकेवली' इस प्रकार केवली दो प्रकार के है।

    25. मिथ्यात्व की प्रधानता से जो कर्म आते हैं, मिथ्यात्व का निरोध हो जाने से उनका सासादन सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में संवर होता है। मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजाति, हुंडकसंस्थान, असंप्राप्तामृपाटिकासंहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक और साधारण शरीर ये सोलह प्रकृतियाँ मिथ्यात्वनिमित्तक हैं।

    26-27. अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान के भेद से असंयम तीन प्रकार का है । अतः इन कषायनिमित्तक कर्मों का इनके अभाव में संवर होता है। निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंचायु, तिर्यञ्चगति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, उद्योत, अप्रशस्त-विहायोगति, दुर्भग, दु:स्वर, अनादेय और नीचगोत्र इन अनन्तानुबन्धी निमित्तक पञ्चीस प्रकृतियों का एकेन्द्रिय आदि सासादन सम्यग्दृष्टि-पर्यन्त जीव बन्धक होते हैं । अनन्तानुबन्धी के अभाव में आगे इनका संवर हो जाता है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ, मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिक-शरीर, औदारिक-अंगोपांग, वज्रऋषभनाराचसंहनन और मनुष्यगति-प्रायोग्यानुपूर्व्य इन अप्रत्याख्यानावरण कषाय-हेतुक दश प्रकृतियों को एकेन्द्रिय आदि असंयत-सम्यग्दृष्टि पर्यन्त बन्धक होते हैं, उसके अभाव में आगे के गुणस्थानों में इनका संवर हो जाता है । सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में आयु-बन्ध नहीं होता। प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया और लोभ इन चार प्रत्याख्यानावरणनिमित्तक प्रकृतियों के एकेन्द्रिय आदि संयतासंयत पर्यन्त बन्धक होते हैं, उसके अभाव में आगे के गुणस्थानों में इनका संवर हो जाता है।

    28. असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशस्कीर्ति इन प्रमादनिमित्तक कर्म-प्रकृतियों का प्रमत्तसंयत से आगे संवर हो जाता है। देवायु के बन्ध के आरम्भ का प्रमाद ही हेतु होता है और उसके समीप का अप्रमाद भी । अतः अप्रमत्त के आगे उसका भी संवर हो जाता है।

    29. कषायमात्रहेतुक कर्म-प्रकृतियों का कषाय के अभाव में संवर होता है। प्रमादादिरहित कषाय तीनों गुणस्थानों में तीव्र, मध्य और जघन्यरूप से विद्यमान रहता है। अपूर्वकरण के आदि संख्येयभाग में निद्रा और प्रचला ये दो कर्मप्रकृतियाँ बँधती हैं । उससे आगे संख्यातभाग में देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक-आहारक-तैजस-कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकअंगोपांग, आहारक-अंगोपांग, वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, प्रशस्त-विहायोगति, त्रस-बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, तीर्थंकर और निर्माण ये तीस प्रकृतियाँ बँधती हैं। उसी के चरमसमय में हास्य, रति, भय और जुगुप्सा ये चार प्रकृतियाँ बँधती हैं। ये तीव्रकषाय की आस्रवप्रकृतियाँ उसके अभाव में निर्दिष्ट भाग से आगे संवर को प्राप्त हो जाती हैं। अनिवृत्तिबादरसाम्पराय के प्रथम समय से लेकर संख्यात भागों में पुंवेद और क्रोध-संज्वलन बँधते हैं, उसके आगे शेष संख्येय भागों में मान-संज्वलन और माया-संज्वलन बँधते हैं, अन्तिमभाग में लोभ-संज्वलन बन्ध को प्राप्त होता है। ये मध्य-कषाय की आस्रव-प्रकृतियाँ हैं । अतः निर्दिष्ट भागों से ऊपर इनका संवर हो जाता है । पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, यशस्कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय ये मन्दकषाय की आस्रव-प्रकृतियाँ हैं और सूक्ष्मसाम्पराय में इनका बन्ध होता है । उससे आगे इनका संवर हो जाता है।

    30. सातावेदनीय का उपशान्त-कषाय, क्षीण-कषाय और सयोगकेवली के केवल योग से बन्ध होता है अतः अयोगकेवली के इसका संवर हो जाता है।

    संवर के कारण --

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    + संवर का कारण -
    स गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परीषहजय-चारित्रै: ॥2॥
    अन्वयार्थ : वह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्र से होता है ॥२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिसके बल से संसार के कारणों से आत्माा का गोपन अर्थात् रक्षा होती है वह गुप्ति है।

    प्राणिपीड़ा का परिहार करने के लिए भले प्रकार आना-जाना, उठाना-धरना, ग्रहण करना व मोचन करना समिति है।

    जो इष्ट स्थान में धरता है वह धर्म है।

    शरीरादिक के स्वभाव का बार बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।

    क्षुधादि वेदना के होने पर कर्मों की निर्जरा करने के लिए उसे सह लेना परिषह है और परिषह का जीतना परिषहजय है।

    चारित्र शब्द का प्रथम सूत्र में व्याख्यान कर आये हैं। ये गुप्ति आदिक संवररूप क्रिया के अत्यंत सहकारी हैं, अतएव सूत्र में इनका करण रूप से निर्देश किया है। संवर का अधिकार है तथापि गुप्ति आदिक के साथ साक्षात् सम्बन्ध दिखलाने के लिए इस सूत्र में उसका 'स:' इस पद के द्वारा निर्देश किया है।

    शंका – इसका क्या प्रयोजन है ?

    समाधान – अवधारण करना इसका प्रयोजन है। यथा – वह संवर गुप्ति आदिक द्वारा ही हो सकता है, अन्य उपायसे नहीं हो सकता। इस कथन से तीर्थ यात्रा करना, अभिषेक करना, दीक्षा लेना, उपहार स्वरूप सिर को अर्पण करना और देवता की आराधना करना आदि का निराकरण हो जाता है, क्योंकि राग, द्वेष और मोह के निमित्त से ग्रहण किये गये कर्म का अन्यथा अभाव नहीं किया जा सकता।

    राजवार्तिक :
    1-7. संसार के कारणों से आत्मा के गोपन-रक्षण को गुप्ति कहते हैं। 'जिससे गोपन हो वह गुप्ति' यह अपादान साधन अथवा 'जो रक्षण करे वह गुप्ति' यह कर्तृसाधन भी गति शब्द बनता है।

    दूसरे प्राणियों की रक्षा की भावना से सम्यक प्रवृत्ति करने को समिति कहते हैं। भाव या कर्तृसाधन में 'क्ति' प्रत्यय होने पर समिति शब्द निष्पन्न होता है।

    आत्मा को इष्ट नरेन्द्र, सुरेन्द्र, मुनीन्द्र आदि स्थानों में धारण करे वह धर्म । धर्म शब्द उणादि से निष्पन्न होता है।

    शरीर आदि के स्वभाव का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। अनुप्रपूर्व ईक्षि धातु से भावसाधन में अकार होने से अनुप्रेक्षा शब्द बनता है।

    जो सहीं जायँ वे परीषह हैं, परीषहों का जय परीषहजय है। कर्म में घन करके तथा अनुबन्धकृत अनित्य मानकर दीर्घ का निषेध करके परीषह शब्द बन जाता है।

    जो आचरण किया जाय वह चारित्र है।

    8-9 संवर करनेवाले की संवरण क्रिया में गुप्ति आदि साधकतम होने से करण हैं। 'गुप्ति आदि संवर ही हैं अतः भेदनिर्देश नहीं होना चाहिये' यह शंका ठीक नहीं है। क्योंकि संवर शब्द करणसाधन न होकर 'संवरणं संवर' ऐसा भावसाधन है अर्थात आस्रवनिमित्त कर्मों के संवरण करने में गुप्ति आदि करण होते हैं । अथवा 'संव्रियते इति संवरः' ऐसा कर्मसाधन मानने पर भी गुप्ति आदि पृथक सिद्ध होते हैं, क्योंकि गुप्ति के द्वारा संवर होता है।

    10. यद्यपि संवर का अधिकार है फिर भी 'सः' पद विशेष रूप से संवर का गुप्ति आदि से साक्षात् सम्बन्ध जोड़ता है । इससे यह नियम हो जाता है कि यह संवर गुप्ति आदि से ही होता है अन्य तीर्थस्नान, दीक्षा, शीर्षोपहार (बलिदान), देवताराधन आदि उपायों से नहीं होता है क्योंकि राग-द्वेष और मोह से ग्रहण किये गये कर्मों की दूसरे प्रकार से निवृत्ति नहीं हो सकती। यदि तीर्थस्नान से संवर हो तो सदा तीर्थजल में डूबी रहनेवाली मछलियों को संवरपूर्वक मोक्ष सहज ही हो जाना चाहिये और रागी-द्वेषी-मोही जीवों को भी मात्र तीर्थस्नान से मुक्ति मिल जानी चाहिये । इसी तरह बलिदान आदि भी संवर कारण नहीं हो सकते।

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    + तप -
    तपसा निर्जरा च ॥3॥
    अन्वयार्थ : तप से निर्जरा होती है और संवर भी होता है ॥३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    तप का धर्म में अन्तर्भाव होता है फिर भी वह संवर और निर्जरा इन दोनों का कारण है और संवर का प्रमुख कारण है यह बतलाने के लिए उसका अलग से कथन किया है ।

    शंका – तप को अभ्युदय का कारण मानना इष्ट है, क्योंकि वह देवेन्द्र आदि स्थान विशेष की प्राप्ति के हेतुरूप से स्वीकार किया गया है, इसलिए वह निर्जरा का कारण कैसे हो सकता है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अग्नि के समान एक होते हुए भी इसके अनेक कार्य देखे जाते हैं । जैसे अग्नि एक है तो भी उसके विक्लेदन, भस्म और अंगार आदि अनेक कार्य उपलब्ध होते हैं वैसे ही तप अभ्युदय और कर्मक्षय इन दोनों का हेतु है ऐसा होने में क्या विरोध है ।


    गुप्ति का संवर के हेतुओं के प्रारम्भ में निर्देश किया है, अत: उसके स्वरूप का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-5. यद्यपि तप दस धर्मों में अन्तर्भूत है फिर भी विशेष-रूप से निर्जरा का कारण बताने के लिए तथा सभी संवर के हेतुओं में तप की प्रधानता जताने के लिए उसका यहाँ खास तौर से पृथक् निर्देश किया है । 'च' शब्द 'तप संवरहेतु भी होता है। इस संवरहेतुता का समुचय करता है । तप के द्वारा नूनन कर्म-बन्ध रुककर पूर्वोपचित कर्मों का क्षय भी होता है; क्योंकि तप से अविपाक निर्जरा होती है। इसी तरह तप सरीखे ध्यान आदि भी निर्जरा के कारण होते है। जैसे एक ही अग्नि पाक और भस्म करना आदि अनेक कार्य करती है उसी तरह तप से देवेन्द्र आदि अभ्युदय स्थानों की प्राप्ति भी होती है तथा कर्मों का क्षय भी होता है। एक ही कारण से अनेकों कार्य होते हैं। अथवा जैसे किसान मुख्यरूप से धान्य के लिए खेती करता है पयाल तो उसे यों ही मिल जाता है उसी तरह मुख्यतः तपक्रिया कर्मक्षयके लिए ही है, अभ्युदय की प्राप्ति तो पयाल की तरह आनुषंगिक ही है, गौण है। किसी को विशेष अभिप्राय से उसकी सहज प्राप्ति हो जाती है।

    गुप्ति का लक्षण -

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    + गुप्ति -
    सम्यग्योगनिग्रहो गुप्ति: ॥4॥
    अन्वयार्थ : योगों का सम्यक् प्रकार से निग्रह करना गुप्ति है ॥४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    'कायवाङ्मन:कर्म योग:' इस सूत्र में योग का व्याख्यान कर आये हैं । उसकी स्वच्छन्द प्रवृत्ति का बन्द होना निग्रह है । विषय-सुख की अभिलाषा के लिए की जाने वाली प्रवृत्ति का निषेध करने के लिए 'सम्यक्' विशेषण दिया है । इस सम्यक् विशेषण युक्त संक्लेश को नहीं उत्पन्न होने देने रूप योग निग्रह से कायादि योगों का निरोध होने पर तन्निमित्तक कर्म आस्रव नहीं होता है, इसलिए संवर की प्रसिद्धि जान लेना चाहिए । वह गुप्ति तीन प्रकार की है - कायगुप्ति, वचनगुप्ति और मनोगुप्ति ।

    अब गुप्ति के पालन करने में अशक्त मुनि के निर्दोष प्रवृत्ति की प्रसिद्धि के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-4. पूजापूर्वक क्रिया सत्कार है, 'यह संयत महान है' ऐसी लोकप्रसिद्धि लोकपंक्ति है इस तरह सत्कार, लोकपंक्ति तथा परलोक में विषय-सुख की आंकाक्षा आदि हेतुओं से परे रहकर जो मन-वचन-काय का यथेच्छ विचरण रोका जाता है वह योगनिग्रह गुप्ति है । इस संक्लेश से रहित सम्यक् योग निरोध होने पर तन्निमित्तक कर्मों का आस्रव रुक जाता है, यही संवर है । गुप्ति तीन हैं - कायगुप्ति, वचनगुप्ति और मनोगुप्ति । जो अयत्नाचारी के बिना देखे - बिना शोधे भूमि पर घूमना, दूसरी वस्तु रखना, उठाना, सोना, बैठना आदि शारीरिक क्रियाएँ होती हैं और इस निमित्तक कर्मों का आस्रव होता है वह काययोग के निग्रही अप्रमत्त संयमी के नहीं होता। इसी तरह असंवरी-संवररहित जीव के असत्प्रलाप अप्रिय वचन बोलने आदि से जो वाचिक व्यापारनिमित्तक कर्म आते हैं वे वचननिग्रही के नहीं आँयगे । जो राग-द्वेषादि से अभिभूत प्राणी के अतीत-अनागत विषयाभिलाषा आदि से मनोव्यापारनिमित्तक कर्म आते हैं वे मनोनिग्रही के नहीं आयेंगे । अतः योगनिग्रही के संवर सिद्ध है।

    'शरीर का परित्याग सम्पूर्ण रूप से जबतक नहीं हुआ तबतक इसे प्राणयात्रा के लिए कुछ न कुछ बोलना, खाना, पीना, रखना, उठाना, मलमूत्र आदि विसर्जन करना ही पड़ेगा अतः संवर अशक्य है' इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए समिति-सम्यक प्रवृत्ति का उपदेश देते हैं --

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    + समिति -
    ईर्याभाषैषणा-दाननिक्षेपोत्सर्गा: समितय: ॥5॥
    अन्वयार्थ : ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप और उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ हैं ॥५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    यहाँ 'सम्यक्' इस पद की अनुवृत्ति होती है । उससे ईर्यादिक विशेष्यपने को प्राप्त होते हैं - सम्यगीर्या, सम्यग्भाषा, सम्यगेषणा, सम्यगादाननिक्षेप और सम्यतगुत्सर्ग । इस प्रकार कही गयी ये पाँच समितियाँ जीवस्थानादि विधि को जानने वाले मुनि के प्राणियों की पीड़ा को दूर करने के उपाय जानने चाहिए । इस प्रकार से प्रवृत्ति करने वाले के असंयमरूप परिणामों के निमित्त से जो कर्मों का आस्रव होता है उसका संवर होता है ।

    तीसरा संवर का हेतु धर्म है । उसके भेदों का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-2. पूर्वसूत्र से 'सम्यक' पद का अनुवर्तन कर प्रत्येक से उसका सम्बन्ध कर देना चाहिये - सम्यक-ईर्या, सम्यक-भाषा आदि । समिति - अर्थात् सम्यक्-प्रवृत्ति । यह संज्ञा पाँचों की आगमसिद्ध है।

    3-4. जीवस्थान और विधि को जाननेवाले, धर्मार्थ प्रयत्नशील साधु का सूर्योदय होने पर चक्षरिन्द्रिय के द्वारा दिखने योग्य मनुष्य आदि के आवागमन के द्वारा कुहरा, क्षुद्र-जन्तु आदि से रहित मार्ग में सावधानचित्त हो शरीर-संकोच करके धीरे-धीरे चार हाथ जमीन आगे देखकर गमन करना ईर्यासमिति है। इसमें पृथ्वी आदि सम्बन्धी आरम्भ नहीं होते । सूक्ष्मैकेन्द्रिय, ,बादरएकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञीपञ्चेन्द्रिय और संज्ञीपञ्चेन्द्रिय इन सात के पर्याप्तक और अपर्याप्त के भेद से चौदह जीवस्थान होते हैं । ये जीवस्थान पाँचो जाति सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तक नाम कर्मों के यथा सम्भव उदय से होते हैं।

    5. स्व और पर को मोक्ष की ओर ले जानेवाले स्व-पर-हितकारक, निरर्थक बकवास-रहित, मित, स्फुटार्थ, व्यक्ताक्षर और असन्दिग्ध वचन बोलना भाषासमिति है। मिथ्याभिधान, असूया, प्रियभेदक, अल्पसार, शंकित, संभ्रान्त, कषाययुक्त, परिहासयुक्त, अयुक्त, असभ्य, निष्ठुर, अधर्मविधायक, देशकालविरोधी और चापलूसी आदि वचनदोषों से रहित भाषण करना चाहिये।

    6. गुण रत्नों को ढोनेवाली शरीर रूपी गाड़ी को समाधिनगर की ओर ले जाने की इच्छा रखनेवाले साधु का जठराग्नि के दाह को शमन करने के लिए औषधि की तरह या गाड़ी में ओंगन देने की तरह अन्न आदि आहार को बिना स्वाद के ग्रहण करना एषणा समिति है। देशकाल तथा शक्ति आदि से युक्त अगर्हित, उद्गम, उत्पादन, एषणा संयोजन, प्रमाण कारण, अङ्गार, धूम और प्रत्यय इन नवकोटियों से रहित आहार ग्रहण किया जाता है।

    7. धर्माविरोधी और परानुपरोधी ज्ञान और संयम के साधक उपकरणों को देखकर और शोधकर रखना और उठाना आदाननिक्षेपणसमिति है।

    8. जहाँ स्थावर या जंगम जीवों को विराधना न हो ऐसे निर्जन्तु-स्थान में मलमूत्र आदि का विसर्जन करना और शरीर का रखना उत्सर्ग समिति है।

    9. यद्यपि वाग्गुप्ति में भी सावधानी है पर उनमें भाषासमिति और ईर्यासमिति आदि का अन्तर्भाव नहीं होता; क्योंकि जब गुप्ति में असमर्थ हो जाता है तब कुशल कर्मों में प्रवृत्ति करना समिति है । अतः जाना, बोलना, खाना, रखना, उठना और मलोत्सर्ग आदि क्रियाओं में अप्रमत्तसावधानी से प्रवृत्ति करने पर इन निमित्तों से आनेवाले कर्मों का संवर हो जाता है।

    10-12. प्रश्न – पात्र के अभाव में पाणिपात्र से आहार लेनेवाले साधु को अन्न आदि के नीचे गिरने से हिंसा आदि दोषों की संभावना है, अतः एषणा समिति नहीं बन सकती ?

    उत्तर – पात्र के ग्रहण करने में परिग्रह का दोष होता है। निर्ग्रंथ-अपरिग्रही चर्या को स्वीकार करने वाला भिक्षु यदि पात्र ग्रहण करता है तो उसकी रक्षा आदि में अनेक दोष होते हैं। अतः स्वाधीन करपात्र से ही निर्बाध देश में सावधानी से एकाग्रचित्त हो आहार करने में किसी दोष की संभावना नहीं है। कपाल या अन्य पात्र को लेकर भिक्षा के लिए जाने में दीनता का दोष तो है ही। गृहस्थजनों से लाये गये पात्र सर्वत्र सुलभ होने पर भी उनके धोने आदि में पाप का होना अवश्यम्भावी है। अपने पात्र को लेकर भिक्षार्थ जाने में आशा-तृष्णा की संभावना है। पहिले जैसे विशिष्ट-पात्र के न मिलने पर जिस किसी पात्र में भोजन करने से चित्त में दीनता और हीनता का अनुभव होना अनिवार्य है। अतः स्वावलम्बी भिक्षु को करपात्र के सिवाय अन्य प्रकार उपयुक्त नहीं हैं। 'जिस प्रकार पहिले प्राप्त हुए संस्कृत सुस्वादु अन्न को छोड़कर अन्य के घर में जैसा-तैसा नीरस-भोजन करने में भिक्षु को दीनता नहीं आती उसी तरह कपाल आदि के ग्रहण करने में कोई दोष नहीं हैं' -- यह समाधान ठीक नहीं है क्योंकि चिरतपस्वी संयत की शरीरयात्रा आहार के बिना नहीं चल सकती, अतः नीरस, प्रासुक आहार कभी-कभी ले लिया जाता है उस तरह पात्र की आवश्यकता अनिवार्य नहीं है।

    धर्म का वर्णन --

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    + धर्म -
    उत्तमक्षमा-मार्दवार्जव-शौच-सत्य-संयमतपस्त्यागाकिञ्चन्य-ब्रह्मचर्याणि धर्म: ॥6॥
    अन्वयार्थ : उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य यह दस प्रकार का धर्म है ॥६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    शंका – यह किसलिए कहा है ?

    समाधान – संवर का प्रथम कारण प्रवृत्ति का निग्रह करने के लिए कहा है। जो वैसा करनेमें असमर्थ है उन्हें प्रवृत्ति का उपाय दिखलाने के लिए दूसरा कारण कहा है। किन्तु यह दश प्रकार के धर्म का कथन समितियों में प्रवृत्ति करने वाले के प्रमाद का परिहार करने के लिये कहा है।

    शरीर की स्थिति के कारण की खोज करने के लिए पर कुलों में जाते हुए भिक्षु को दुष्ट-जन गाली-गलौज करते हैं, उपहास करते हैं, तिरस्कार करते हैं, मारते पीटते हैं और शरीर को तोड़ते-मरोड़ते हैं तो भी उनके कलुषता का उत्पन्न न होना क्षमा है।

    जाति आदि मदों के आवेशवश होने वाले अभिमान का अभाव करना मार्दव है। मार्दव का अर्थ है मान का नाश करना।

    योगों का वक्र न होना आर्जव है।

    प्रकर्ष प्राप्त लोभ का त्याग करना शौच है।

    अच्छे पुरुषों के साथ साधु वचन बोलना सत्य है।

    शंका – इसका भाषासमिति में अन्तर्भाव होता है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्यों कि समिति के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला मुनि साधु और असाधु दोनों प्रकार के मनुष्यों में भाषा व्यवहार करता हुआ हितकारी परिमित वचन बोले, अन्यथा राग होने से अनर्थदण्ड का दोष लगता है यह वचनसमिति का अभिप्राय है । किन्तु सत्य धर्म के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला मुनि सज्जन पुरुष, दीक्षित या उनके भक्तों में साधु सत्य वचन बोलता हुआ भी ज्ञान चारित्र के शिक्षण आदि के निमित्त से बहुविध कर्त्तव्यों की सूचना देता है और यह सब धर्म की अभिवृद्धि के अभिप्राय से करता है, इसलिए सत्य धर्म का भाषासमिति में अन्तर्भाव नहीं होता ।

    समितियों में प्रवृत्ति करने वाले मुनि के उनका परिपालन करने के लिए जो प्राणियों का और इन्द्रियों का परिहार होता है वह संयम है ।

    कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है वह तप है । वह आगे कहा जानेवाला बारह प्रकारका जानना चाहिए ।

    संयत के योग्य ज्ञानादि का दान करना त्याग है ।

    जो शरीरादिक उपात्त हैं उनमें भी संस्कार का त्याग करने के लिए 'यह मेरा है' इस प्रकार के अभिप्राय का त्याग करना आकिंचन्य है। जिसका कुछ नहीं है वह अकिंचन है और उसका भाव या कर्म आकिंचन्य है ।

    अनुभूत स्त्री का स्मरण न करनेसे, स्त्री-विषयक कथा के सुनने का त्याग करने से और स्त्री से सटकर सोने व बैठने का त्याग करने से परिपूर्ण ब्रह्मचर्य होता है । अथवा स्वतन्त्र-वृत्ति का त्याग करने के लिए गुरुकुल में निवास करना ब्रह्मचर्य है ।

    दिखाई देनेवाले प्रयोजन का निषेध करने के लिए क्षमादि के पहले उत्तम विशेषण दिया है । इस प्रकार जीवन में उतारे गये और स्वगुण तथा प्रतिपक्षभूत दोषोंके सद्भाव में यह लाभ और यह हानि है इस तरह की भावना से प्राप्त हुए ये धर्मसंज्ञा वाले उत्तम क्षमादिक संवर के कारण होते हैं ।

    क्षमादि विशेष और उनके उलटे कारणों का अवलम्बन आदि करने से क्रोधादि की उत्पत्ति नहीं होती है यह पहले कह आये हैं। उसमें किस कारणसे यह जीव क्षमादिक का अवलम्बिन लेता है, अन्यथा प्रवृत्ति नहीं करता है इसका कथन करते हैं । यत: तपाये हुए लोहे के गोले के समान क्षमादिरूप से परिणत हुए आत्महहितैषी को करने योग्य ---

    राजवार्तिक :
    1. गुप्तियों में प्रवृत्ति का सर्वथा निरोध होता है। जो उसमें असमर्थ है उन्हें प्रवृत्ति के सम्यक प्रकार बताने के लिए एषणा आदि समितियों का उपदेश है । प्रवृत्ति करने वाले के प्रमाद-परिहार के लिए - सावधानी से बरतने के लिए उत्तम-क्षमा आदि धर्मों का उपदेश है।

    2. शरीर-यात्रा के लिए पर-घर जाते समय भिक्षु को दुष्ट-जनों के द्वारा गाली, हँसी, अवज्ञा, ताड़न, शरीर-छेदन आदि क्रोध के असह्य निमित्त मिलनेपर भी कलुषता का न होना उत्तम क्षमा है।

    3. उत्तम जाति, कुल, रूप, विज्ञान, ऐश्वर्य, श्रुत, लाभ और शक्ति से युक्त होकर भी इनका मद नहीं करना, दूसरे के द्वारा परिभव के निमित्त उपस्थित किये जाने पर भी अभिमान नहीं होना मानहारी मार्दव है।

    4. मन, वचन और काय में कुटिलता न होना आर्जव (सरलता) है।

    5-8. आत्यन्तिक लोभ की निवृत्ति को शौच कहते हैं। शुचि का भाव या कर्म शौच है। मनोगुप्ति में मन के व्यापार का सर्वथा निरोध किया जाता है। जो पूर्ण मनोनिग्रह में असमर्थ हैं उन्हें पर-वस्तुओं सम्बन्धी अनिष्ट विचारों की शान्ति के लिए शौच-धर्म का उपदेश है । अतः इसका मनोगुप्ति में अन्तर्भाव नहीं होता। आकिंचन्य धर्म स्व-शरीर आदि में संस्कार आदि की अभिलाषा दूर करके निर्ममत्व बढ़ाने के लिए है और शौच-धर्म लोभ की निवृत्ति के लिए, अतः दोनों पृथक् हैं । स्व और पर विषयक जीवनलोभ, आरोग्यलोभ, इन्द्रियलोभ, और उपभोगलोभ इस तरह मुख्यतः चार प्रकार का लोभ होता है। इसीलिए शौच धर्म मुख्यतः चार प्रकार का होता है।

    9-10. सत्जनों से साधुवचन बोलना सत्य है। भाषा-समिति में संयत साधु या असाधु किसी से भी वचन-व्यवहार यदि करे तो हित और मित करे अन्यथा राग और अनर्थदण्ड आदि दोष होते है परन्तु सत्य धर्म में अपने सहधर्मी-साधुओं या भक्तों से धर्मवृद्धि-निमित्त या ज्ञान, चारित्र आदि की शिक्षा के लिए बहुत बोलना भी स्वीकृत हैं।

    11-14. ईर्यासमिति आदि में प्रवर्तमान मुनि को उनकी प्रतिपालना के लिए प्राणिपीड़ा का परिहार और इन्द्रियों से विरक्ति को संयम कहते हैं।अतः भाषादि की निवृत्ति को संयम नहीं कह सकते; क्योंकि इसका निवृत्तिरूप गुप्तियों में अन्तर्भाव है। विशिष्ट कायादिप्रवृत्ति को भी संयम नहीं कह सकते क्योंकि वह समिति में अन्तर्भूत हो जाती है। इसी तरह आत्यन्तिक त्रस-स्थावर-वध का निषेध भी संयम नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह परिहारविशुद्धि चारित्र में अन्तर्भूत हो जाता है।

    15. संयम दो प्रकार का होता है - एक उपेक्षा संयम और दूसरा अपहृत संयम ।

    16. इस अपहृत संयम के प्रतिपादन के लिए ही इन आठ-शुद्धियों का उपदेश दिया गया है - भावशुद्धि, कायशुद्धि, विनयशुद्धि, ईर्यापथशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, प्रतिष्ठापनशुद्धि, शयनासनशुद्धि और वाक्यशुद्धि ।

    27. कर्मक्षय के लिए जो तपा जाय वह तप है।

    18-20. सचेतन या अचेतन परिग्रह की निवृत्ति को त्याग कहते हैं। आभ्यन्तर तपों में आये हुए उत्सर्ग में नियत-समय के लिए सर्वोत्सर्ग किया जाता है पर त्यागधर्म में यथाशक्ति और अनियतकालिक त्याग होता है अतः दोनों पृथक पृथक हैं। इसी तरह शौचधर्म में परिग्रह के न रहने पर भी कर्मोदय से होनेवाली तृष्णा की निवृत्ति की जाती है पर त्याग में विद्यमान-परिग्रह छोड़ा जाता है। अथवा त्याग का अर्थ है स्वयोग्य दान देना । संयत के योग्य ज्ञानादि दान देना त्याग है।

    21. शरीर आदि में संस्कार और राग आदि की निवृत्ति के लिए 'ममेदम्-यह मेरा है' इसप्रकार के अभिप्राय का त्याग आकिञ्चन्य है। 'इसके कुछ नहीं' इस प्रकार अकिंचन भाव को आकिञ्चन्य कहते है।

    22-23. 'मैंने उस कलागुण विशारदा स्त्री को भोगा था' इस प्रकार अनुभूतांगना का स्मरण स्त्री-कथाश्रवण, रतिकालीन गन्ध द्रव्यों की सुवास और स्त्री संसक्त शय्या आसन स्थान आदि का परिवर्जन करने पर परिपूर्ण ब्रह्मचर्य होता है । अथवा, ब्रह्मा अर्थात् गुरु, उसके अधीन अपनी वृत्ति रखना ब्रह्मचर्य है। गुरु की आज्ञापूर्वक चलना भी ब्रह्मचर्य ही है।

    24-25. यद्यपि ये सभी यथासंभव गुप्ति और समितियों में अन्तर्भूत हो जाते हैं फिर भी इन धर्मों में चूँकि संवर को धारण करने की सामर्थ्य है इसलिए 'धारण करने से धर्म' इस सार्थक संज्ञावाले धर्मों का पृथक उपदेश किया है। अतः पुनरुक्ति दोष नहीं है। जैसे ऐर्यापथिक, रात्रिन्दिनीय, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, उत्तमस्थानिक ये सात प्रतिक्रमण गुप्ति आदि की प्रतिष्ठा के लिए किये जाते हैं उसी तरह उत्तम क्षमा आदि दस प्रकार के धर्म की भावना भी गुप्ति आदि के परिपालन के लिए ही है, अतः इनका पृथक उपदेश किया है।

    26. 'ये क्षमा आदि धर्म किसी इष्टप्रयोजन की प्राप्ति के लिए धारण नहीं किये जाते और इसलिए ये संवर के कारण होते हैं। इस विशेषता की सूचना देने के लिए उत्तम विशेषण दिया जाता है - उत्तम-क्षमा, उत्तम-मार्दव आदि ।

    27. इन उत्तम-क्षमा आदि धर्मों में स्वगुण प्राप्ति तथा प्रतिपक्षी दोष की निवृत्ति की भावना की जाती है अतः ये संवरहेतु हैं। व्रतशील का रक्षण, इहलोक और परलोक में दुःख न होना और समस्त जगत् में सम्मान-सत्कार होना आदि क्षमा के गुण हैं। धर्म अर्थ काम और मोक्ष का नाश करना आदि क्रोध के दोष हैं। यह विचार कर क्षमा धारण करनी चाहिए अपने ऊपर क्रोध करता है और गाली देता है तो सोचना चाहिये कि ये दोष मुझमें विद्यमान ही हैं, यह क्या मिथ्या कहता है ? यदि वे दोष अपने मन में न हों तो सोचना चाहिये कि यह बिचारा अज्ञान से ऐसा कहता है, अतः क्षमा ही करनी चाहिये । जैसे कोई बालक यदि परोक्ष में गाली देता है तो क्षमा ही करनी चाहिये । सोचना चाहिये कि बालकों का यह स्वभाव ही है। भाग्यवश हमें पीठ-पीछे ही गाली देता है सामने तो नहीं। बालक तो मुँह पर गाली देते हैं अतः लाभ ही है। सामने गाली देने पर सोचना चाहिये कि गाली ही तो दी है मारा तो नहीं है। बाल तो मारते भी हैं । मारने पर सोचना चाहिये कि इसने मारा ही तो है प्राण तो नहीं ले लिये। बाल तो प्राण भी ले लेते हैं। प्राण ले लेने पर भी क्षमा ही करना चाहिये । सोचना चाहिये कि इसने प्राण ही लिये हैं धर्म तो नहीं ले लिया। इस तरह बाल-स्वभाव के चिन्तन द्वारा चित्त में क्षमाभाव को पुष्ट करना चाहिये । सोचना चाहिये कि हमने ही ऐसा खोटा-कर्म बाँधा था जिसके फलस्वरूप गाली सुननी पड़ रही है, यह तो इसमें निमित्तमात्र है। निरभिमानी और मार्दव गुण-युक्त व्यक्ति पर गुरुओं का अनुग्रह होता है । साधुजन भी उसे साधु मानते हैं । गुरु के अनुग्रह से सम्यग्ज्ञान आदि की प्राप्ति होती है और उससे स्वर्गादि सुख मिलते हैं । मलिन मन में व्रतशील आदि नहीं ठहरते; साधुजन उसे छोड़ देते हैं। तात्पर्य यह कि अहंकार समस्त विपदाओं की जड़ है। सरल-हृदय गुणों का आवास है, वे मायाचार से डरते हैं। मायाचारी की निन्धगति होती है । शुचि आचारवाले निर्लोभ-व्यक्ति का इस-लोक में सन्मान होता है। विश्वास आदि गुण उसमें रहते हैं । लोभी के हृदय में गुण नहीं रहते । वह इसलोक और परलोक में अनेक आपत्तियों और दुर्गति को प्राप्त होता है। सभी गुणसम्पदाएँ सत्यवक्ता में प्रतिष्ठित होती हैं । झूठे का बन्धुजन भी तिरस्कार करते हैं। उसके कोई मित्र नहीं रहते। जिह्वा-छेदन सर्वस्व-हरण आदि दण्ड उसे भुगतने पड़ते हैं ।

    संयम आत्मा का हितकारी है । संयमी पुरुष की यहीं पूजा होती है, परलोक की तो बात ही क्या ? असंयमी निरन्तर हिंसा आदि व्यापारों में लिप्त होने से अशुभ-कर्म का संचय करता है।

    तप से सभी अर्थों की सिद्धि होती है। इससे ऋद्धियों की प्राप्ति होती है। तपस्वियों की चरणरज से पवित्र स्थान ही तीर्थ बने हैं। जिसके तप नहीं वह तिनके से भी लघु है। उसे सब गुण छोड़ देते हैं, वह संसार से मुक्त नहीं हो सकता ।

    परिग्रह का त्याग करना पुरुष के हित के लिए है । जैसे-जैसे वह परिग्रह से रहित होता है वैसे-वैसे उसके खेद के कारण हटते जाते हैं । खेद-रहित मन में उपयोग की एकाग्रता और पुण्य-संचय होता है । परिग्रह की आशा बड़ी बलवती है वह समस्त दोषों की उत्पत्ति का स्थान है । जैसे पानी से समुद्र का बडवानल शान्त नहीं होता उसी तरह परिग्रह से आशासमुद्र की तृप्ति नहीं हो सकती । यह आशा का गड्ढा दुष्पूर है। इसका भरना बहुत कठिन है। प्रतिदिन जो उसमें डाला जाता है वही समा कर मुँह बाने लगता है । शरीर आदि से ममत्वशून्य व्यक्ति परम सन्तोष को प्राप्त होता है। शरीरादि में राग करने वाले के सदा संसार परिभ्रमण सुनिश्चित है।

    ब्रह्मचर्य को पालन करनेवाले के हिंसा आदि दोष नहीं लगते। नित्य गुरुकुलवासी को गुण सम्पदाएँ अपने आप मिल जाती हैं। स्त्रीविलास, विभ्रम आदि का शिकार हुआ प्राणी पापों का भी शिकार बनता है। संसार में अजितेन्द्रियता बड़ा अपमान कराती है। इस तरह उत्तम क्षमा आदि गुणों का तथा क्रोधादि दोषों का विचार करने से क्रोधादि की निवृत्ति होने पर तन्निमित्तक कर्मों का आस्रव रुककर महान् संवर होता है।

    28. सभी उत्तम क्षमादि में एक संवर रूप धर्मभाव पाया जाता है अतः उसकी प्रधानता से धर्म शब्द में एकवचन दिया गया है । धर्म शब्द नित्य पुल्लिंग है अतः 'ब्रह्मचर्याणि' के साथ भी वह अपना लिंग नहीं छोड़ता।

    अनुप्रक्षाओं का वर्णन --

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    + अनुप्रेक्षा -
    अनित्याशरण-संसारैकत्वान्य-त्वाशुच्यास्रवसंवर-निर्जरा-लोक-बोधिदुर्लभ-धर्म-स्वाख्यातत्त्वानु-चिन्तन-मनुप्रेक्षा: ॥7॥
    अन्वयार्थ : अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यातत्व का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षाएँ हैं ॥७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    ये समुदाय रूप शरीर, इन्द्रियविषय, उपभोग और परिभोग द्रव्य जल के बुलबुले के समान अनवस्थित स्व‍भाव वाले हैं । मोहवश अज्ञ प्राणी इनमें नित्यता का अनुभव करता है पर वस्तुत: आत्मा के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग स्वभाव के सिवा इस संसार में अन्य कोई पदार्थ ध्रुव नहीं है इस प्रकार चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है । इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस भव्य के उन शरीरादि में आसक्ति का अभाव होने से भोगकर छोड़े हुए गन्ध और माला आदि के समान वियोग काल में भी सन्ताप नहीं होता है ।

    जिस प्रकार एकान्त में क्षुधित और मांस के लोभी बलवान व्याघ्र के द्वारा दबोचे गये मृग शावक के लिए कुछ भी शरण नहीं होता इसी प्रकार जन्म, जरा, मृत्यु और व्याधि आदि दु:खों के मध्य में परिभ्रमण करने वाले जीव का कुछ भी शरण नहीं है। परिपुष्ट हुआ शरीर ही भोजन के प्रति सहायक है, दु:खों के प्राप्त होने पर नहीं। यत्न से संचित किया हुआ धन भी भवान्तर में साथ नहीं जाता। जिन्होंने सुख और दु:ख को समानरूप से बाँट लिया है ऐसे मित्र भी मरण के समय रक्षा करने में असमर्थ होते हैं। यदि सुचरित धर्म हो तो वह ही दु:खरूपी महासमुद्र में तरने का उपाय हो सकता है। मृत्यु से ले जाने वाले इस जीव के सहस्रनयन आदि भी शरण नहीं हैं, इसलिए संसार विपत्तिरूप स्थान में धर्म ही शरण है। वही मित्र है और वही कभी भी न छूटनेवाला अर्थ है, अन्य कुछ शरण नहीं है इस प्रकारकी भावना करना अशरणानुप्रेक्षा है। इस प्रकार विचार करने वाले इस जीव के 'मैं सदा अशरण हूँ' इस तरह अतिशय उद्विग्न होने के कारण संसार के कारणभूत पदार्थों में ममता नहीं रहती और वह भगवान अरहंत सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग में ही प्रयत्नशील होता है ।

    कर्म के विपाक के वश से आत्मा को भवान्तर की प्राप्ति होना संसार है । उसका पहले पाँच प्रकार के परिवर्तनरूप से व्याख्यान कर आये हैं । अनेक योनि और कुल कोटिलाख से व्याप्त इस संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्मयन्त्र से प्रेरित होकर पिता होकर भाई, पुत्र और पौत्र होता है । माता होकर भगिनी, भार्या और लड़की होता है । स्वामी होकर दास होता है तथा दास होकर स्वामी भी होता है । जिस प्रकार रंगस्थल में नट नाना रूप धारण करता है उस प्रकार यह होता है । अथवा बहुत कहने से क्या प्रयोजन, स्वयं अपना पुत्र होता है । इत्यादि रूप से संसार के स्वभाव का चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है । इस प्रकार चिन्तन करते हुए संसार के दु:ख के भय से उद्विग्न हुए इसके संसार से निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर संसार का नाश करने के लिए प्रयत्न करता है ।

    'जन्म, जरा और मरण की आवृत्तिरूप महादु:ख का अनुभवन करने के लिए अकेला मैं ही हूँ, न कोई मेरा स्व है और न पर है, अकेला ही मैं जन्मता हूँ और अकेला ही मरता हूँ । मेरा कोई स्वजन या परजन व्याधि, जरा और मरण आदि दु:खों को दूर नहीं करता । बन्धु और मित्र श्मशान से आगे नहीं जाते । धर्म ही मेरा कभी साथ न छोड़नेवाला सदाकाल सहायक है ।' इस प्रकार चिन्तन करना एकत्वानुप्रेक्षा है । इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस जीव के स्वजनों में प्रीति का अनुबन्ध नहीं होता और परजनों में द्वेष का अनुबन्ध नहीं होता, इसलिए नि:संगता को प्राप्त होकर मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करता है ।

    शरीर से अन्यत्व का चिन्तन करना अन्यत्वा्नुप्रेक्षा है - यथा बन्ध के प्रति अभेद होने पर भी लक्षण के भेद से 'मैं' अन्य‍ हूँ । शरीर ऐन्द्रियिक हैं, मैं अतीन्द्रिय हूँ । शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञाता हूँ । शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ । शरीर आदि-अन्तवाला है और मैं अनाद्यनन्त हूँ । संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों शरीर अतीत हो गये । उनसे भिन्न वह ही मैं हूँ । इस प्रकार शरीर से भी जब मैं अन्य हूँ तब हे वत्स ! मैं बाह्य पदार्थों से भिन्न होऊँ तो इसमें क्या आश्चर्य ? इस प्रकार मनको समाधान युक्त करने वाले शरीरादिक में स्पृहा उत्पन्न नहीं होती है और इससे तत्वज्ञानकी भावनापूर्वक वैराग्य का प्रकर्ष होने पर आत्यन्तिक मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है ।

    यह शरीर अत्यन्त अशुचि पदार्थों का योनि है । शुक्र और शोणितरूप अशुचि पदार्थों से वृद्धि को प्राप्त हुआ है, शौचगृह के समान अशुचि पदार्थों का भाजन है । त्वचामात्र से आच्छादित है । अति दुर्गन्धा रस को बहाने वाला झरना है । अंगार के समान अपने आश्रय में आये हुए पदार्थ को भी शीघ्र ही नष्ट करता है । स्नान, अनुलेपन, धूपका मालिश और सुगन्धिमाला आदि के द्वारा भी इसकी अशुचिता को दूर कर सकना शक्य नहीं है, किन्तु अच्छी तरह भावना किये गये सम्यग्दर्शन आदिक जीव की आत्यन्तिक शुद्धि को प्रकट करते हैं । इस प्रकार वास्तविकरूप से चिन्तन करना अशुचि अनुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इसके शरीर से निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर जन्मो‍दधि को तरने के लिए चित्त को लगाता है ।

    आस्रव, संवर और निर्जरा का कथन पहले कर आये हैं तथापि उनके गुण और दोषों का विचार करनेके लिए यहाँ उनका फिरसे उपन्यास किया गया है । यथा - आस्रव इस लोक और परलोक में दु:खदायी है । महानदी के प्रवाह के वेग के समान तीक्ष्ण हैं तथा इन्द्रिय, कषाय और अव्रतरूप हैं । उनमें से स्पर्शनादिक इन्द्रियाँ वनगज, कौआ, सर्प, पतंग और हरिण आदि को दु:खरूप समुद्र में अवगाहन कराती हैं । कषाय आदिक भी इस लोक में वध, बन्धी अपयश और क्लेशादिक दु:खों को उत्पन्न करते हैं, तथा परलोक में नाना प्रकार के दु:ख से प्रज्वलित नाना गतियों में परिभ्रमण कराते हैं । इस प्रकार आस्रव के दोषों का चिन्तन करना आस्रवानुप्रेक्षा है । इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस जीव के क्षमादिक में कल्याणरूप बुद्धि का त्याग नहीं होता है, तथा कछुए के समान जिसने अपनी आत्मा को संवृत कर लिया है उसके ये सब आस्रव के दोष नहीं होते हैं ।

    जिस प्रकार महार्णव में नाव के छिद्र के नहीं ढके रहने पर क्रम से झिरे हुए जल से व्याप्त होने पर उसके आश्रय से बैठे हुए मनुष्यों का विनाश अवश्यम्भावी है और छिद्र के ढँके रहने पर निरुपद्रवरूप से अभिलषित देशान्‍तर का प्राप्त होना अवश्यम्भावी है उसी प्रकार कर्मागम के द्वार के ढँके होने पर कल्याण का प्रतिबन्ध नहीं होता । इस प्रकार संवर के गुणों का चिन्तन करना संवरानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस जीव के संवर में निरन्तर उद्युक्तता होती है और इससे मोक्षपद की प्राप्ति होती है ।

    वेदना विपाक का नाम निर्जरा है यह पहले कह आये हैं । वह दो प्रकार के है - अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला । नरकादि गतियों में कर्मफल के विपाक से जायमान जो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है वह अकुशलानुबन्धा है । तथा परीषह के जीतने पर जो निर्जरा होती है वह कुशलमूला निर्जरा है । वह शुभानुबन्धा और निरनुबन्धा होती है । इस प्रकार निर्जरा के गुणदोष का चिन्तन करना निर्जरानुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इसकी कर्मनिर्जरा के लिए प्रवृत्ति होती है ।

    लोकसंस्थान आदि की विधि पहले कह आये हैं । अर्थात् चारों ओर से अनन्तर अलोकाकाश के बहुमध्य देश में स्थित लोक के संस्थान आदि की विधि पहले कह आये हैं । उसके स्वभाव का अनुचिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा है । इस प्रकार विचार करने वाले इसके तत्वज्ञान की विशुद्धि हेाती है ।

    एक निगोद शरीर में सिद्धों से अनंतगुणे जीव हैं । इस प्रकार स्थावर जीवों से सब लोक निरन्तर भरा हुआ है । अत: इस लोक में त्रस पर्याय का प्राप्त होना इतना दुर्लभ है जितना कि बालुका के समुद्र में पड़ी हुई वज्रसिकता की कणिका का प्राप्त होना दुर्लभ होता है । उसमें भी विकलेन्दिय जीवों की बहुलता होने के कारण गुणों में जिस प्रकार कृतज्ञता गुण का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ होता है उसी प्रकार पंचेन्द्रिय पर्याय का प्राप्त होना दुर्लभ है । उसमें भी पशु, मृग, पक्षी और सरीसृप तिर्यंचों की बहुलता होने के कारण गुणों में जिस प्रकार चौपथ पर रत्नराशि का प्राप्त होना अति कठिन है उसी प्रकार मनुष्य पर्याय का प्राप्त होना भी अति कठिन है । और मनुष्य पर्याय के मिलने के बाद उसके च्यु्त हो जाने पर पुन: उसकी उत्पत्ति होना इतना कठिन है जितना कि जले हुए वृक्ष के पुद्गलों का पुन: उस वृक्ष पर्यायरूप से उत्पन्न‍ होना कठिन होता है । कदाचित् पुन: इसकी प्राप्ति हो जाये तो देश, कुल, इन्द्रियसम्पत् और नीरोगता इनका प्राप्त होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है । इन सबके मिल जाने पर भी यदि समीचीन धर्मकी प्राप्ति न होवे तो जिस प्रकार दृष्टि के बिना मुख व्यर्थ होता है उसी प्रकार मनुष्य जन्म प्राप्त होना व्यर्थ है। इस प्रकार अतिकठिनता से प्राप्त होने योग्य उस धर्म को प्राप्त कर विषयसुख में रमण होना भस्म के लिए चन्दन को जलाने के समान निष्फल है । कदाचित् विषयसुख से विरक्त हुआ तो भी इसके लिए तप की भावना, धर्म की प्रभावना और सुखपूर्वक मरणरूप समाधि का प्राप्त होना अति दुर्लभ है । इसके होने पर ही बोधिलाभ सफल है ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है । इस प्रकार विचार करने वाले इस जीव के बोधि को प्राप्त कर कभी भी प्रमाद नहीं होता ।

    जिनेन्द्रदेव ने यह जो अहिंसा लक्षण धर्म कहा है, सत्य उसका आधार है, विनय उसकी जड़ है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से रक्षित है, उपशम की उसमें प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, परिग्रह रहितपना उसका आलम्बन है । इसकी प्राप्ति नहीं होनेसे दुष्कर्म विपाक से जायमान दु:ख को अनुभव करते हुए ये जीव अनादि संसारमें परिभ्रमण करते हैं । परन्तु इसका लाभ होने पर नाना प्रकारके अभ्युदयों की प्राप्तिपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होना निश्चित है ऐसा चिन्तन करना धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है । इस प्रकार चिन्तन करने वाले इस जीव के धर्मानुरागवश उसकी प्राप्ति के लिए सदा यत्न होता है ।

    इस प्रकार अनित्या‍दि अनुप्रेक्षाओं का सान्निध्य मिलने पर उत्तमक्षमादि के धारण करने से महान संवर होता है । अनुप्रेक्षा दोनों का निमित्ति है इसलिए 'अनुप्रेक्षा' वचन मध्य में दिया है । अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता हुआ यह जीव उत्तमक्षमादि का ठीक तरह से पालन करता है और परीषहों को जीतने के लिए उत्साहित होता है ।

    वे परीषह कौन-कौन हैं और वे किसलिए सहन किये जाते हैं, यह बतलाने के लिए यह सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1. आत्मा ने रागादि परिणामों से कर्म और नोकर्म रूप में जिन पुद्गल द्रव्यों का ग्रहण किया है वे उपात्त पुद्गलद्रव्य तथा परमाणु आदि अनुप्राप्त पुद्गल सभी द्रव्य-दृष्टि से नित्य होकर भी पर्याय-दृष्टि से प्रतिक्षण पर्याय परिवर्तन होने से अनित्य हैं। शरीर, इन्द्रियों के विषयभोग आदि जलबुद्बुद की तरह विनश्वर हैं। गर्भादि अवस्थाओं में जो संयोग थे वे आज नहीं है। इनमें अज्ञानवश मोही जीव नित्यता का भ्रम करता है। आत्मा के ज्ञानदर्शनोपयोग स्वभाव को छोड़कर अन्यपदार्थ ध्रुव नहीं है। इस प्रकार संसार के पदार्थों में अनित्य भावना भानी चाहिये । इस प्रकार विचार करने से भोगकर फेंकी गई माला, गन्ध आदि द्रव्यों की तरह इन पदार्था के वियोग में भी मनस्ताप नहीं होगा।

    2. शरण दो प्रकार की है एक लौकिक दूसरी लोकोत्तर। यह प्रत्येक जीव, अजीव और मिश्र के भेद से तीन-तीन प्रकार की है। राजा या देवता आदि लौकिक जीव शरण हैं। कोट आदि अजीव शरण हैं तथा गाँव नगर आदि मिश्र शरण हैं । पंचपरमेष्ठी लोकोत्तर जीवशरण हैं उनके प्रतिबिम्ब आदि अजीवशरण हैं तथा धर्मोपकरणसहित साधुजन मिश्र शरण हैं । भूखे मांसखोर व्याघ्र के पंजों से एकान्त में पकड़े गये हिरण के बच्चे की तरह जन्म, जरा, रोग, मृत्यु, प्रियवियोग, अप्रिय संयोग, अलाभ और दारिद्य आदि दुःखों से ग्रस्त इस जन्तु को कोई शरण नहीं है। यह परिपुष्ट शरीर मात्र भोजन करने में सहायक है आपत्ति पड़ने पर नहीं। प्रयत्न से संचित धन अदि भी पर्यायान्तर तक नहीं जाते। सुख-दुख के साथी-मित्र भी मरण से रक्षा नहीं कर सकते । आस-पास जुटे बन्धुजन भी रोग से नहीं बचा सकते । यदि कोई एकमात्र तरणोपाय है तो वह अच्छी तरह आचरण किया गया धर्म ही है। यही आपत्ति-सागर से पार उतार सकता है। मृत्यु के पाश से इन्द्र आदि भी नहीं बचा सकते । अतः भवव्यसनों से बचानेवाला एकमात्र धर्म ही शरण है। मित्र, धन आदि कोई शरण नहीं हैं। इस प्रकार की विचारधारा अशरण भावना है। इस प्रकार 'मैं अशरण हूँ' इस भावना से भय या उद्वेग के आने पर सांसारिक भावों में ममत्व नहीं रहता और केवली भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञ के द्वारा प्रणीत वचनों की ओर ही चित्त जाता है।

    3. द्रव्यादि के निमित्त से आत्मा की पर्यायान्तर प्राप्ति को संसार कहते हैं। आत्मा की चार अवस्थाएँ होती हैं - संसार, असंसार, नोसंसार और इन तीनों से विलक्षण । जबतक शरीर-परिस्पन्द न होनेपर भी आत्मप्रदेशों का चलन होता रहता है तबतक संसार है। सिद्ध और अयोगकेवलियों के आत्म-प्रदेश-परिस्पन्द नहीं है। अन्य जीवों के मन-वचन-काययोग निमित्तक प्रदेश-परिस्पन्द होता रहता है। अभव्य तथा भव्यसामान्य की दृष्टि से संसार अनादि-अनन्त है, भव्य-विशेष की अपेक्षा अनादि और उच्छेदवाला है। नो संसार सादि और सान्त है। असंसार सादि अनन्त है। त्रितय विलक्षण का काल अन्तर्मुहूत है। कर्म, नोकर्म, वस्तु और विषयाश्रय के भेद से द्रव्य-संसार चार प्रकार का है। स्वक्षेत्र और परक्षेत्र के भेद से क्षेत्र-संसार दो प्रकार का है।

    काल परमार्थ और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का है। परमार्थकाल के निमित्त से होनेवाले परिस्पन्द और अपरिस्पन्दरूप परिणमन जिनमें व्यवहारकाल का विभाग भी होता है कालसंसार है।

    भवनिमित्त संसार बत्तीस प्रकार का है - सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक, और अपर्याप्तक के भेद से चार-चार प्रकार के पृथिवी, जल, तेज, और वायुकायिक, पर्याप्तक और अपर्याप्तक प्रत्येक वनस्पति, सूक्ष्म बादर पर्याप्तक और अर्याप्तक ये चार साधारण वनस्पति, पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से दो-दो प्रकार के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय, संज्ञी असंज्ञी पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये चार पंचेन्द्रिय, इस प्रकार बत्तीस प्रकार का भवसंसार है।

    भावनिमित्तक संसार के दो भेद हैं -- स्वभाव और परभाव । मिथ्यादर्शन आदि स्वभाव संसार हैं तथा ज्ञानावरणादि कर्मों का रस परभाव संसार हैं ।

    इस तरह इस अनेक सहस्र योनियों से संकुल संसार में कर्मयन्त्र पर चढ़ा हुआ यह जीव परिभ्रमण करता हुआ कभी पिता होकर भाई, पुत्र या पौत्र होता है, माता होकर बहिन, स्त्री या लड़की होता है । अधिक क्या कहा जाय स्वयं अपना भी पुत्र हो जाता है। इस तरह संसार के स्वभाव का चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है । इस प्रकार भावना करते हुए संसार के दुःखों से भय और उद्वेग होकर वैराग्य हो जाता है और यह जीव संसार के नाश के लिए प्रयत्नशील होता है।

    4. एकत्व और अनेकत्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से चार-चार प्रकार के हैं। द्रव्यैकत्व प्रत्येक जीवादि द्रव्य में है। आकाश का एक परमाणु के द्वारा रोका गया प्रदेश क्षेत्रैकत्व है । एक समय कालैकत्व है और मोक्षमार्ग निश्चय से भावैकत्व है। इसी तरह भेदविषयक अनेकत्व भी है । कोई एक या अनेक निश्चित नहीं है। सामान्य दृष्टि से एक होकर भी विशेष दृष्टि से अनेक हो जाता है। बाह्य-अभ्यन्तर परिग्रह का त्यागकर सम्यग्ज्ञान से एकत्व निश्चय को प्राप्त करनेवाले व्यक्ति के यथाख्यात चारित्र रूप से एक मोक्षमार्ग भावैकत्व है। इसकी प्राप्ति के लिए मुझे अकेले ही प्रयत्न करना है, मेरे न कोई स्व है और न कोई पर । मैं अकेला ही उत्पन्न होता हूँ और अकेले ही मरता हूँ, न मेरा कोई स्वजन है और न परजन जो व्याधि जरामरण आदि के दुःखों को हटा सके । बन्धु और मित्र शमसान से आगे नहीं जाते । धर्म ही एक शाश्वत सदा का साथी है । इत्यादि विचार एकत्वानुप्रेक्षा है। इस भावना से स्वजनों में राग और पर में द्वेष नहीं होता और अपरिग्रहत्व को स्वीकार कर यह मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करने लगता है।

    5. नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से अन्यत्व भी चार प्रकार का है। आत्मा जीव यह नाम भेद है। काष्ट प्रतिमा यह स्थापनाभेद है। जीवद्रव्य अजीवद्रव्य यह द्रव्य-भेद एक ही जीव में बाल, युवा, मनुष्य, देव आदि पर्यायभेद भावभेद है। बन्ध की दृष्टि से शरीर और आत्मा में भेद न होने पर भी लक्षण की अपेक्षा भेद है। कुशल पुरुष के चारित्र आदि प्रयोगों से शरीर से अत्यन्त भिन्न रूप में अपने स्वाभाविक ज्ञान आदि अनन्त अहेय गुणों में अवस्थान को मुक्ति अन्यत्व या शिवपद कहते हैं। इस परम अन्यत्व की प्राप्ति के लिए 'शरीर ऐन्द्रियक है, मैं अतीन्द्रिय हूँ; शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञ हूँ; शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ; शरीर सादिसान्त है, मैं अनादि अनन्त हूँ; मैंने लाखों शरीर धारण किये हैं, मैं उनसे भिन्न एक चेतन हूँ; जब शरीर से ही मैं भिन्न हूँ तब बाह्यपरिग्रहों की तो बात ही क्या ?' इस प्रकार विचार करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। अन्यत्व भावना से शरीर आदि में स्पृहा नहीं होती और यह मोक्षप्राप्ति के लिए प्रयत्न करने लगता है।

    6. लौकिक और लोकोत्तर के भेद से शुचित्व दो प्रकार का है। कर्ममल-कलंकों को धोकर आत्मा का आत्मा में ही अवस्थान लोकोत्तर शुचित्व है। इसके साधन सम्यग्दर्शन आदि, रत्नत्रयधारी साधुजन तथा उनसे अधिष्ठित निर्वाणभूमि आदि मोक्ष प्राप्ति के उपाय होने से शुचि हैं। काल, अग्नि, भस्म, मृत्तिका, गोबर, पानी, ज्ञान और निर्विचिकित्सा-ग्लानिरहितपना, इस प्रकार लौकिक-लोकप्रसिद्ध शुचित्व आठ प्रकार का है। कोई भी उपाय इस शरीर को पवित्र नहीं कर सकता क्योंकि यह अत्यन्त अशुचि है । आदि और उत्तर दोनों ही कारण इसके अत्यन्त अशुचि हैं। शरीर के आदि कारण वीर्य और रज हैं जो कि अत्यन्त अशुचि हैं, उत्तरकारण आहार का परिणमन आदि है । कवल-कवलकर खाया हुआ भोजन श्लेष्माशयमें पहुँचकर श्लेष्म जैसा पतला और अशुचि हो जाता है, फिर पित्ताशय को प्राप्त होकर अम्ल बनता है, फिर वाताशय को प्राप्त होते ही वायु से विभक्त होकर खल और रस रूप से विभाजित हो जाता है। खलभाग मूत्र, मल, पसीना आदि मलविकार रूप से तथा रसभाग शोणित, मांस, मेद, हड्डी, मन्ना और शुक्ररूप से परिणत होता है । ये सब दशाएँ अत्यन्त अपवित्र हैं। इन सबका स्थानभूत शरीर मैलाघर के समान है। इसकी अशुचिता के हटाने का कोई उपाय नहीं है। स्नान, अनुलेपन, धूप, घिसना, सुवास, और माला आदि के द्वारा भी इसकी अशुचिता नहीं हटती। अंगार की तरह अपने संसर्ग में आये हुए पदार्थों को अपनी ही तरह बना लेता है । जलादि पदार्थ उसके संसर्ग से स्वयं अपवित्र हो जाते हैं। बार-बार भावित सम्यग्दर्शन आदि जीव की आत्यन्तिक शुद्धि को प्रकट करते हैं। इस तरह वस्तु-विचार करना अशुचि भावना है । इस तरह स्मरण और अनुचिन्तन करने से शरीर से निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर जन्मसमुद्र से पार उतरने के लिए चित्त तैयार होता है।

    7. यद्यपि आस्रव संवर और निर्जरा के स्वरूप का निरूपण हो चुका है फिर भी भावनाओं में उनका ग्रहण उनके गुण-दोष विचार के लिए किया गया है। आस्रव के दोषों का विचार करना आस्रवानुप्रेक्षा है । आस्रव इसलोक और परलोक में अपाय से युक्त हैं । इन्द्रिय आदि का उन्माद महानदी के प्रवाह की तरह तीक्ष्ण है। बहुत यवयुक्त पानीदार और प्रमाथी आदि गुणों से सहित वनविहारी मदान्ध हाथी कृत्रिम हथिनियों को देखकर स्पर्शनेन्द्रिय के ज्वार से मत्त हो गड्ढे में गिरकर मनुष्य के अधीन हो जाते हैं और वध, बन्ध, वाहन, अंकुशताडन, महावत का आघात आदि के तीव्र दुःखों को भोगते हैं। प्रतिक्षण अपने झुण्ड में स्वच्छन्द वनविहार तथा हथिनी के प्रवीचार सुख का स्मरण करके महान दुःखी होते हैं । जिह्वेन्द्रिय के विषय में लोल मरे हुए हाथी के मदजल में डुबकी लगानेवाले पक्षियों की तरह अनेक आपत्तियों के शिकार होते हैं। घ्राणेन्द्रिय के वशंगत प्राणी जड़ी की गन्ध से लुब्ध साँप की तरह नाश को प्राप्त होते हैं। चक्षुइन्द्रिय के वशंगत दीपक पर मरनेवाले पतंगों की तरह आपत्ति के सागर में पड़कर दुःख उठाते हैं। श्रोत्रेन्द्रिय के वशंगत प्राणी गीत ध्वनि के सुनने से तृणों के चरने को भूलकर जाल में फँसनेवाले हरिणों की तरह अनर्थों के शिकार होते हैं। परलोक में बहुविध दुःखों से प्रज्वलित अनेक योनियों में परिभ्रमण करते हैं। इसप्रकार आस्रव दोषों का विचार करने से इसको उत्तम क्षमा आदि धर्मों में श्रेयस्त्व की बुद्धि बनी रहती है।

    कछुवे की तरह संकुचित अंगवाले संवरयुक्त जीव के ये आस्रव दोष नहीं होते। जैसे महासमुद्र में पड़ी हुई महानाव में यदि छेद हो जाय और उसे बन्द न किया जाय तो क्रमशः जलविप्लव होनेपर तदाश्रित प्राणियों का विनाश अवश्यम्भावी है और छेद बन्द कर देने पर निरुपद्रव इष्टदेश तक पहुँच जाते हैं उसी तरह कर्मागमन द्वारों का संवरण होने पर कोई श्रेयः प्रतिबन्ध नहीं हो सकता। इस तरह संवर के गुणों का अनुचिन्तन संवरानुप्रेक्षा है। इन विचारों से मनुष्य संवर की ओर प्रयत्नशील होता है। निर्जरा वेदना के विपाक को कहते हैं । निर्जरा दो प्रकार की है अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला। नरकादिगतियों में कर्मफलविपाक से होनेवाली अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है जिससे आगे अकुशल का ही बन्ध होता है । परीषहजय और तप आदि से कुशलमूला निर्जरा होती है जो शुभ का बन्ध करती है या बन्ध बिलकुल ही नहीं करती। इस तरह निर्जरा के गुण-दोषों की भावना करना निर्जरानुप्रेक्षा है। इससे चित्त निर्जरा के लिए उद्युक्त होता है।

    8. अनन्त अलोकाकाश के मध्य में पुरुषाकार लोक है, उसके संस्थान आदि का वर्णन किया जा चुका है । उसका स्वरूपचिन्तन लोकानुप्रेक्षा है। इससे तत्त्वज्ञानादि की शुद्धि होती है चित्त से रागद्वेष हटते हैं।

    9. त्रसत्व आदि का पाना अत्यन्त दुर्लभ है और बोधिलाभ अत्यन्त दुर्लभ है यह विचार बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है। 'एक निगोद शरीर में द्रव्यप्रमाण से जीवों की संख्या, सिद्धों की संख्या से और समस्त अतीतकाल के समयों की संख्या से अनन्तगुणी है।' इस आगमप्रमाण से अनन्त निगोदिया हैं। इन अनन्त स्थावरों में त्रसपर्याय का पाना उसी तरह दुर्लभ है जिस प्रकार अनन्त रेत के समुद्र में गिरी हुई हीरा की कनीका फिर मिल जाना । त्रसों में भी विकलेन्द्रिय बहुत होते हैं अतः पञ्चेन्द्रियत्व का पाना उसी तरह दुर्लभ है जिस प्रकार गुणों में कृतज्ञता का मिलना। पञ्चेन्द्रियों में भी पशु, मृग, पक्षी, सरीसृप आदि अनेक प्रकार की पर्यायों में मनुष्य पर्याय का पाना चौराहे पर रखे हुए रत्न की तरह दुर्लभ है। मनुष्यपर्याय नष्ट करके उसे पुनः पाना जले हुए पेड़ में अंकुर निकलने के समान कठिन है । मनुष्यपर्याय मिल भी जाय तो भी हिताहितविचार से रहित असंख्य मानव समुद्र में सुदेश की प्राप्ति पाषाणों में मणि की तरह कठिन है। सुदेश मिलने पर भी सुकुल की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। सुकुलजन्म से शील, विनय और आचार की परम्परा मिल जाती है। उसमें भी दीर्घायु, इन्द्रियबल, रूप, आरोग्य आदि उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। इन सबके मिलने पर भी सद्धर्म की प्राप्ति यदि नहीं हुई तो नेत्र-रहित मुख की तरह वह व्यर्थ ही है । उस सुदुर्लभ धर्म को पाकर भी विषयसुख में समय बिताना भस्म के लिए चन्दन जलाने के समान है। विषयविरक्त होने पर भी तपोभावना, धर्मप्रभावना, सुखमरण आदि रूप समाधि अत्यन्त कठिन है । इस समाधि से ही बोधिलाभ सफल कहा जा सकता है। इस प्रकार चिन्तन करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है इससे बोधि को प्राप्त करके जीव अप्रमादी बना रहकर स्वकल्याण में लगा रहता है।

    10-11. जीवस्थान और गुणस्थान का गत्यादि मार्गणाओं में अन्वेषण करना रूप धर्म जिनशासन में अच्छी तरह कहा गया है यह भावना धर्मस्वाख्यातत्व है। गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार ये चौदह मार्गणाएँ हैं । नरकादि गतियाँ कर्मोदयकृत हैं तथा मोक्षगति क्षायिकी है। इन्द्र अर्थात् आत्मा का चिह्न या इन्द्र अर्थात् नामकर्म से सृष्ट इन्द्रियाँ हैं । द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय के भेद से इन्द्रियाँ दो प्रकार की हैं । स्पर्शनादि इन्द्रियाँ और एकेन्द्रियादि भेद कर्मकृत हैं, आत्मा की अतीन्द्रियता क्षायिक है । आत्मा की प्रवृत्ति से उपचित पुद्गलपिण्ड काय है। कायसम्बन्धी जीव छह प्रकार के हैं -- पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक । त्रस और स्थावर नामकर्म के उदय से ये होते हैं। नामकर्म का अत्यन्त उच्छेद कर देने से सिद्ध अकाय हैं। वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से प्राप्त वीर्यलब्धि योग का प्रयोजक होती है । उस सामर्थ्यवाले आत्मा का मन, वचन और काय वर्गणानिमित्तक आत्मप्रदेश का परिस्पन्द योग है। वह पन्द्रह प्रकार का है। सत्य, मृषा, उभय और अनुभय के भेद से मनोयोग और वचनयोग चार-चार प्रकार के हैं। औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण ये सात काययोग हैं। आत्मा में सम्मोहरूप प्रवृत्ति उत्पन्न होना वेद है। वह नोकषाय के उदय से तीन प्रकार का है - स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद । आत्मा में अपगतवेद अवस्था औपशमिक भी होती है और क्षायिक भी। जो चारित्रपर्याय को कषे वह कषाय है । क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं । अकषायत्व औपशमिक भी है और क्षायिक भी । तत्त्वार्थबोध ज्ञान है । मति आदि पाँच प्रकार के ज्ञान हैं । मिथ्यादर्शन के उदय से मति, श्रुत और अवधि कुज्ञान भी होते हैं । व्रत, समिति, कषायनिग्रह, दण्डत्याग और इन्द्रियजय आदि संयम है । संयम और संयमासंयम आदि चारित्रमोह के उपशम क्षय और क्षयोपशम से होते हैं। सबसे अतीत सिद्धत्व क्षायिक है । दर्शनावरण के क्षय और क्षयोपशम से होनेवाला आलोचन दर्शन है। चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल के भेद से चार प्रकार का दर्शन है । कषाय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति लेश्या है। वह कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल के भेद से छह प्रकार की है। निर्वाण पाने की योग्यता जिसमें प्रकट हो सके वह भव्य और अन्य अभव्य हैं । ये दोनों पारिणामिक हैं। मुक्तजीव भव्य और अभव्य उभय से अतीत हैं । तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यक्त्व है । वह दर्शनमोह के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से होता है । मिथ्यात्व औदयिक है । सासादनसम्यक्त्व अनन्तानुबन्धी के उदय से होता है अतः औदयिक है। सम्यकृमिथ्यात्व क्षायोपशमिक है। शिक्षा, क्रिया और आलाप आदि को ग्रहण करनेवाला संज्ञी और विपरीत असंज्ञी है । संशित्व क्षायोपशमिक है असंशित्व औदयिक है और उभय से परे की अवस्था क्षायिक है । उपभोग्य शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण आहार है, विपरीत अनाहार है। शरीर नाम कर्म के उदय और विग्रह गति नाम के उदय से आहार होता है। तीनों शरीर नाम कर्म के उदय के अभाव तथा विग्रहगति नाम के उदय से अनाहार होता है। ये चौदह मार्गणाएँ हैं। इनमें जीव स्थानों की सत्ता का विचार करते हैं । तिर्यञ्च गति में चौदह ही जीवस्थान हैं। अन्य तीन गतियों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो ही जीवस्थान हैं। एकेन्द्रिय में, चार विकलेन्द्रियों में दो-दो और पञ्चेन्द्रियों में चार होते हैं। पृथिवी, जल, अग्नि, और वायुकायिकों में प्रत्येक के चार, वनस्पति कायिकों में छह और त्रस कायिकों में दस जीवस्थान होते हैं । मनोयोग में एक संज्ञिपर्याप्ततक जीवस्थान हैं। वाग्योग में द्वि, त्रि, चतुरिन्द्रिय, संज्ञि-असंज्ञि पर्याप्तक ये पाँच जीवस्थान हैं। काययोग के चौदह ही जीवस्थान हैं । स्त्रीवेद, पुरुषवेद में संज्ञि, असंज्ञि, पर्याप्तक, अपर्याप्तक ये चार जीवस्थान हैं । नपुंसकवेद में चौदह हैं । अवेद में एक संज्ञिपर्याप्तक स्थान है। चारों कषायों में चौदह और अकषाय में एक संज्ञिपर्याप्तक स्थान है। मत्यज्ञान और श्रुताज्ञान में चौदह, विभंगावधि और मनःपर्यय में एक संज्ञिपर्याप्तक, तथा मति, श्रुत, अवधिज्ञान में संज्ञिपर्याप्तक और अपर्याप्तक दो और केवलज्ञान में एक संज्ञिपर्याप्तक जीवस्थान हैं। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय, यथाख्यात संयम में एक ही संज्ञिपर्याप्तक जीवस्थान हैं। असंयम में चौदह ही जीवस्थान हैं। अचक्षुदर्शन में चौदह, चक्षुदर्शन में चतुरिन्द्रिय संज्ञि असंज्ञिपर्याप्तक ये तीन जीवस्थान होते हैं। इनके लब्ध्यपर्याप्तक होते हैं निवृत्त्यपर्याप्तक नहीं। अवधि दर्शन में संज्ञिपर्याप्तक और अपर्याप्तक दो जीवस्थान होते हैं। केवलदर्शन में एक संज्ञिपर्याप्तक ही स्थान होता है। आदि की तीन लेश्याओं में चौदह, तेज, पद्म और शुक्ल लेश्या में संज्ञिपर्याप्तक और अपर्याप्तक दो जीवस्थान होते हैं। अलेश्यों में एक संज्ञिपर्याप्तक स्थान है । भव्य और अभव्य में चौदह ही जीवस्थान हैं। औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और सासादनसम्यक्त्व में संज्ञिपर्याप्तक और अपर्याप्तक दो जीवस्थान, सम्यकमिथ्यात्व में एक संज्ञिपर्याप्तक और मिथ्यात्व में चौदह ही जीवस्थान हैं। संज्ञियों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये दो तथा असंज्ञियों में शेष बारह जीवस्थान होते हैं । संज्ञि असंज्ञिव्यवहार रहित स्थान में एक पर्याप्तक जीवस्थान होता है। कर्मोदयापेक्ष आहार में चौदह ही जीवस्थान होते हैं । अनाहार अवस्था अपर्याप्तक सम्बन्धी सात में, पर्याप्तक के केवलिसमुद्धातकाल में तथा कर्मोदय की अपेक्षा अयोगकवली में होती है। सिद्ध अतीतजीवस्थान हैं।

    मार्गणाओं में गुणस्थान निरूपण -- नरक गति में पर्याप्तक नारकों में आदि के चार गुणस्थान होते हैं। प्रथम नरक में अपर्याप्तक के पहला और चौथा दो गुणस्थान, अन्य पृथिवियों में अपर्याप्तक के एक मिथ्यात्व गणस्थान ही होता है। तिर्यंच गति में तिर्यंच पर्याप्तकों के आदि के पाँच गुणस्थान, अपर्याप्तकों के मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयत सम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान होते हैं। पर्याप्त तिर्यंचियों के आदि के पाँच गुणस्थान अपर्याप्तिकाओं में मिथ्यादृष्टि और सासादन ये दो गणस्थान होते हैं । स्त्रीतिर्यंचों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होता अतः सम्यग्दृष्टि गुणस्थान नहीं होता। मनुष्यगति में पर्याप्त मनुष्यों के चौदह ही गुणस्थान होते हैं तथा अपर्याप्तकों के मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयत सम्यग्दृष्टि ये तीन गणस्थान हैं । पर्याप्त मनुषिणियों के भावलिंग की अपेक्षा चौदह ही गुणस्थान होते हैं। द्रव्यलिंग की अपेक्षा तो आदि के पाँच ही गुणस्थान हैं। अपर्याप्त स्त्रियों में आदि के दो मिथ्यादृष्टि और सासादन ही गुणस्थान होते हैं क्योंकि सम्यग्दृष्टि स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता। भवअपर्याप्तक तिर्यंच और मनुष्यों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। देवगति में पर्याप्तक भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में आदि के चार गुणस्थान अपर्यातकों आदि के दो गुणस्थान होते हैं। इनकी देवियों और सौधर्म ईशानस्वर्ग की देवियों में भी पूर्वोक्त क्रम हैं । सौधर्म ईशान आदि अन्तिम ग्रैवेयक तक के पर्याप्तकों में आदि के चार गुणस्थान होते हैं। अनुदिश, अनुत्तरवासी पर्याप्तक और अपर्याप्तकों में एक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान होता है। एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञिपञ्चेन्द्रियों तक में एक ही मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । पञ्चेन्द्रियसंज्ञियों में चौदह ही गुणस्थान होते हैं। पृथिवीकायिक आदि वनस्पति पर्यन्त स्थावरकायिकों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है, त्रसकायिकों में चौदह ही गुणस्थान होते हैं। सत्यमनोयोग और अनुभय मनोयोग में संज्ञिमिथ्यादृष्टि से तेरहवाँ गुणस्थान तक होता है। सत्यमनोयोग और उभय मनोयोग में संज्ञिमिथ्यादृष्टि आदि बारहवाँ गुणस्थान तक होता है। अनुभय वाग्योग में द्वीन्द्रिय आदि सयोगकेवली पर्यन्त सत्यवाग्योग में संज्ञिमिथ्यादृष्टि आदि सयोगकेवली पर्यन्त, मृषावाग्योग और उभयवाग्योग में संज्ञिमिथ्यादृष्टि आदि क्षीणकषाय पर्यन्त गुणस्थान होते हैं । औदारिक मिश्रकाययोग में मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगकेवली ये चार गुणस्थान होते हैं। वैक्रियिककाययोग में आदि के चार गुणस्थान और मिश्र में मिश्रगुणस्थान से रहित तीन ही गुणस्थान होते हैं। आहारक और आहारकमिश्र में एक ही प्रमत्तसंयत गुणस्थान होता है । कार्मण काययोग में मिथ्यादृष्टि, सासादन, असंयत सम्यग्दृष्टि और सयोगकेवली ये चार गुणस्थान होते हैं । अयोग में एक अयोगी गुणस्थान है। स्त्रीवेद और पुंवेद में असंज्ञी पंचेन्द्रिय आदि अनिवृत्ति बादरसाम्पराय तक नवगुणस्थान और नपुंसक वेद में एकेन्द्रिय से लेकर अनिवृत्तिबादरसाम्पराय तक नव गुणस्थान होते हैं। नपुंसकवेद में नारकियों के चार गुणस्थान एकेन्द्रिय आदि चतुरिन्द्रिय पर्यन्त के एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। असंज्ञिपंचेन्द्रिय आदि संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यञ्च तीनों वेदवाले होते हैं । मनुष्य तीनों वेदों में अनिवृत्तिबादर तक नव गुणस्थानवाले होते हैं । इसके आगे के मनुष्य अपगतवेद हैं। देव चारों गुणस्थानों में स्त्रीवेदी या पुंवेदी होते हैं। क्रोध मान और माया में एकेन्द्रिय आदि अनिवृत्तिबादर गुणस्थानतक तथा लोभकषाय में सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान तक के जीव होते हैं। इससे आगे के जीव अकषाय होते हैं। मत्यज्ञान और श्रुताज्ञान में एकेन्द्रिय आदि सासादनसम्यग्दृष्टि पर्यन्त जीव होते हैं। विभंगावधि में संज्ञिमिथ्यादृष्टि या सासादनसम्यग्दृष्टि पर्याप्तक ही होते हैं अपर्याप्तक नहीं । सम्यमिथ्यादृष्टि अज्ञान से मिश्रित तीनों ज्ञानों में होते हैं क्योंकि कारणसदृश कार्य होता है। मतिश्रुत और अवधिज्ञान में असंयत सम्यग्दृष्टि आदि क्षीणकषाय गुणस्थान तक, मनःपर्ययज्ञान में प्रमत्तसंयत आदि क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त तथा केवलज्ञान में सयोगी और अयोगी ये दो गुणस्थान होते हैं। सामायिक, छेदोपस्थापनाशुद्धि संयम में प्रमत्तसंयत से अनिवृत्तिबादरसाम्पराय तक, परिहारविशुद्धि में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत, सूक्ष्मसाम्पराय में एक सूक्ष्मसाम्पराय, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम में उपशान्तकषाय क्षीणकषाय सयोगी और अयोगी ये चार गुणस्थान, और संयमासंयम में एक संयतासयत गुणस्थान होता है । असंयम में आदि के चार गुणस्थान होते हैं। चक्षुदर्शन में चतुरिन्द्रिय से लेकर बारहवें क्षीणकषाय गुणस्थान तक, अचक्षुदर्शन में एकेन्द्रिय से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक, अवधिदर्शन में असंयत सम्यग्दृष्टि से क्षीणकषाय गुणस्थान तक और केवलदर्शन में सयोगी और अयोगी ये दो गुणस्थान होते हैं । आदि की तीन लेश्याओं में एकेन्द्रिय आदि असंयत सम्यग्दृष्टि तक, तेज और पद्मलेश्या में संज्ञिमिथ्यादृष्टि से अप्रमत गुणस्थान तक और शुक्ललेश्या में संज्ञिमिथ्यादृष्टि से सयोगकेवली तक होते हैं । अयोगकेवली अलेश्य हैं । भव्यों में चौदहों गुणस्थान तथा अभव्यों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। क्षायिक सम्यक्त्व में असंयत सम्यग्दृष्टि आदि अयोगकेवली तक, वेदक सम्यक्त्व में असंयत सम्यग्दृष्टि-आदि अप्रमत्त संयत तक, औपशमिक सम्यक्त्व में असंयत सम्यग्दृष्टि आदि उपशान्त कषाय तक तथा सासादन सम्यक्त्व, सम्यकमिथ्यात्व और मिथ्यात्व में एक अपना-अपना गुणस्थान होता है। नारकों में प्रथमपृथिवी में क्षायिक, वेदक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि तथा अन्य पृथिवियों में वेदक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि होते हैं। तिर्यचों में असंयत सम्यग्दृष्टि स्थान में क्षायिक, वेदक और औपशमिक तीनों सम्यक्त्व है। संयतासंयत स्थान में क्षायिक नहीं है अन्य दो है; क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व के साथ पूर्वबद्ध तिर्यञ्चायु प्राणी भोगभूमि में ही उत्पन्न होता है । तिर्यञ्चियों में दोनों स्थानों में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता क्योंकि क्षपणा को आरम्भ करनेवाला पुरुषलिंगी मनुष्य ही होता है। मनुष्यों में असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत स्थानों में क्षायिक, वेदक और औपशमिक तीनों सम्यक्त्व हैं । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी देवों और उनकी देवियों में तथा सौधर्म ऐशान कल्पवासिनी देवियों में असंयत सम्यग्दृष्टि स्थान में क्षायिक-सम्यक्त्व नहीं होता अन्य दो होते हैं । सौधर्म आदि उपरिम ग्रैवेयक पर्यन्त क्षायिक, वेदक और औपशमिक तीनों सम्यक्त्व हैं। अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देवों में क्षायिक और वेदक सम्यक्त्व हैं, औपशामक भी उपशम श्रेणी में मरनेवालों की अपेक्षा हो सकता है। संज्ञित्व में संज्ञिमिथ्यादृष्टि आदि क्षीणकषायपर्यन्त तथा असंज्ञित्व में एकेन्द्रिय आदि असंज्ञि पञ्चेन्द्रिय तक होते हैं। संज्ञिअसंज्ञि उभय विकल्प से परे जीवों में सयोगी और अयोगी दो गुणस्थान होते हैं। आहार में एकेन्द्रिय आदि सयोगकेवली पर्यन्त तथा अनाहार में विग्रहगति में मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि, प्रतर और लोकपूरण अवस्था में सयोगकेवली और अयोगकेवली ये पाँच गुण स्थान होते हैं । सिद्ध गुणस्थानातीत हैं।

    इस प्रकार निःश्रेयसहेतु धर्म का भगवान् अर्हन्त ने कितना सुन्दर व्याख्यान किया है, यह विचार करना धर्मस्वाख्यातत्व अनुप्रेक्षा है। इससे धर्म के प्रति अनुराग होता है। इसतरह अनुप्रेक्षाओं से उत्तमक्षमा आदि धर्मो का संधारण होता है तथा महान् संयम होता है।

    12-16. 'स्वाख्यात' में 'सु' उपसर्ग के साथ समास है अतः उसके योग में अकृच्छ्रार्थक युच् प्रत्यय का प्रसंग नहीं है। अनुप्रेक्षा शब्द भावसाधन है। कृदन्त से अभिहित भाव द्रव्य के समान होता है अतः अनुप्रेक्षितव्य के भेद से भावभेद होकर बहुवचन निर्देश बन जाता है। कर्मसाधन मानकर भी अनुचिन्तन के साथ सामानाधिकरण्य में कोई विरोध नहीं है क्योंकि 'अनुचिन्त्यते इत्यनुचिन्तनम्' इस तरह अनुचिन्तन शब्द भी कर्मसाधन है । अनित्यत्व आदि स्वभावों का अनुचिन्तन अनुप्रेक्षा है। लिंग और वचनभेद तो 'गावो धनम्' की तरह बन जाता है, क्योंकि उपात्तलिंग और वचनवाले शब्दों के परस्पर सम्बन्ध का नियम है।

    17. अनुप्रेक्षाओं की भावना करनेवाला उत्तम क्षमा आदि धर्मों का परिपालन करता है और परीषहों के जीतने के लिए उत्साहित होता है अतः दोनों के बीच में अनुप्रक्षा का कथन किया है।

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    + परीषह जय का उद्देश्य -
    मार्गाच्यवन-निर्जरार्थं परिषोढव्या: परीषहा: ॥8॥
    अन्वयार्थ : मार्ग से च्युत न होने के लिए और कर्मों की निर्जरा करने के लिए जो सहन करने योग्य हों वे परीषह हैं ॥८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    संवर का प्रकरण होने से वह मार्ग का विशेषण है, इसलिए सूत्र में आये हुए 'मार्ग' पद से संवर मार्ग का ग्रहण करना चाहिए। उससे च्युत न होने के लिए और निर्जरा के लिए सहन करने योग्य परीषह होते हैं। क्षुधा, पिपासा आदि को सहन करने वाले, जिनदेव के द्वारा कहे हुए मार्ग से नहीं च्युत होने वाले, मार्ग के सतत अभ्यासरूप परिचय के द्वारा कर्मागम द्वार को संवृत करने वाले तथा औपक्रमिक कर्मफल को अनुभव करने वाले क्रम से कर्मों की निर्जरा करके मोक्ष को प्राप्त होते हैं ।

    अब उन परीषहों के स्वरूप और संख्या का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-3. नाम छोटे से छोटा रखा जाता है। यहाँ 'परीषह' इतना बड़ा नाम रखने का तात्पर्य है कि यह सार्थक नाम है - जो सहे जाँय वे परीषह । मार्ग अर्थात् कर्मागमद्वार को रोकनेवाले संवर के जैनेन्द्र प्रोक्त मार्ग से च्युत न हो जाँय इसके पहिले से ही परीषहों पर विजय प्राप्त की जाती है। परीषहजयी संवरमार्ग के द्वारा क्षपकश्रेणी पर चढ़ने की सामर्थ्य को प्राप्त कर, उत्तरोत्तर उत्साह को सकल कषायों की प्रध्वंस शक्ति से कर्मों की जड़ को काटकर, जिनके पंखों पर जमी हुई धूली झड़ गई है उन उन्मुक्त पक्षियों की तरह पंखों को फडफडाकर ऊपर उठ जाते हैं । इस तरह संवरमार्ग और निर्जरा की सिद्धि के लिए परीषहों को सहना चाहिये । 'परिसोढव्याः' में 'सोढ' इस सूत्र से षत्व का निषेध हो जाता है।

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    + परीषह के प्रकार -
    क्षुत्पिपासा-शीतोष्णदंशमशक-नाग्न्यारति-स्त्री-चर्या-निषद्या-शय्याक्रोशवधयाचनालाभ-रोग-तृणस्पर्श-मल-सत्कारपुरस्कार-प्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ॥9॥
    अन्वयार्थ : क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण‍, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन इन नाम वाले परीषह हैं ॥९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    क्षुधादिक वेदना विशेष बाईस हैं। मोक्षार्थी पुरुष को इनको सहन करना चाहिए। यथा –

    जो भिक्षु निर्दोष आहार का शोध करता है, जो भिक्षा के नहीं मिलने पर या अल्प मात्रा में मिलने पर क्षुधावेदना को नहीं प्राप्त होता, अकाल में या अदेश में जिसे भिक्षा लेने की इच्छा नहीं हेाती, आवश्यकों की हानि को जो थोड़ा भी सहन नहीं करता, जो स्वाध्याय और ध्यानभावना में तत्पर रहता है, जिसने बहुत बार स्वकृत और परकृत अनशन व अवमौदर्य तप किया है, जो नीरस आहार को लेता है, अत्यन्त गरम भांड में गिरी हुई जल की कतिपय बूँदों के समान जिसका गला सूख गया है और क्षुधावेदना की उदीरणा होने पर भी जो भिक्षा लाभ की अपेक्षा उसके अलाभ को अधिक गुणकारी मानता है उसका क्षुधाजन्य बाधा का चिन्तन नहीं करना क्षुधापरीषहजय है।

    जिसने जल से स्नान करने, उसमें अवगाहन करने और उससे सिंचन करने का त्यााग कर दिया है, जिसका पक्षी के समान आसन और आवास नियत नहीं है, जो अति खारे, अतिस्निग्ध और अतिरूक्ष प्रकृति विरुद्ध आहार, ग्रीष्मकालीन आतप, पित्त ज्वर और अनशन आदि के कारण उत्पन्न हुई तथा शरीर और इन्द्रियों को मथने वाली पिपासा का प्रतीकार करने में आदर भाव नहीं रखता और जो पिपासारूप अग्निशिखा को सन्तोष रूपी नूतन मिट्टी के घड़े में भरे हुए शीतल सु‍गन्धि समाधिरूपी जल से शान्त कर रहा है उसके पिपासाजय प्रशंसा के योग्य है।

    जिसने आवरण का त्याग कर दिया है, पक्षी के समान जिसका आवास निश्चित नहीं हैं, वृक्षमूल, चौपथ और शिलातल आदि पर निवास करते हुए बर्फ के गिरने पर और शीतल हवा का झोंका आने पर उसका प्रतीकार करने की इच्छा से जो निवृत्ति है, पहले अनुभव किये गये शीत के प्रतीकार के हेतुभूत वस्तु्ओं का जो स्मरण नहीं करता और जो ज्ञानभावनारूपी गर्भागार में निवास करता है उसके शीतवेदनाजय प्रशंसा के योग्य है।

    निर्वात और निर्जल तथा ग्रीष्म कालीन सूर्य की किरणों से सूख कर पत्तों के गिर जाने से छायारहित वृक्षों से युक्त ऐसे वन के मध्य जो अपनी इच्छानुसार प्राप्त हुआ है, अनशन आदि आभ्यन्तर साधनवश जिसे दाह उत्पन्न हुई है, दावाग्नि-जन्य दाह, अति-कठोर वायु और आतप के कारण जिसे गले और तालु में शोष उत्पन्न हुआ है, जो उसके प्रतीकार के बहुत-से अनुभूत हेतुओं को जानता हुआ भी उनका चिन्तन नहीं करता है तथा जिसका प्राणियों की पीडा के परिहार में चित्त लगा हुआ है उस साधु के चारित्र के रक्षणरूप उष्णपरीषहजय कही जाती है।

    सूत्र में 'दंशमशक' पद का ग्रहण उपलक्षण है। जैसे 'कौओं से घी की रक्षा करनी चाहिये' यहाँ 'काक' पद का ग्रहण उपघात जितने जीव हैं उनका उपलक्षण है, इसलिये 'दंशमशक' पद से दंशमशक, मक्खी, पिस्सू, छोटी मक्खी, खटमल, कीट, चींटी और बिच्छु आदि का ग्रहण होता है। जो इनके द्वारा की गयी बाधा को बिना प्रतीकार किये सहन करता है, मन वचन और काय से उन्हें बाधा नहीं पहुँचाता है और निर्वाण की प्राप्तिमात्र संकल्प ही जिसका ओढ़ना है उसके उनकी वेदना को सह लेना दंशमशक परीषहजय कहा जाता है।

    बालक के स्वरूप के समान जो निष्कलंक जातरूप को धारण करने रूप है, जिसका याचना करने से प्राप्त होना अशक्य है, जो याचना, रक्षा करना और हिंसा आदि दोषों से रहित है, जो निष्परिग्रहरूप होने से निर्वाण प्राप्ति का एक-अनन्य साधन है और जो दिन-रात अखण्ड ब्रह्मचर्य को धारण करता है उसके निर्दोष अचेलव्रत धारण जानना चाहिये।

    जो संयत इन्द्रियों के इष्ट विषय सम्बन्ध के प्रति निरूत्सुक है, जो गीत, नृत्य और वादित्र आदि से रहित शून्यघर, देवकुल, तरूकोटर और शिलागुफा आदि में स्वाध्याय, ध्यान और भावना में लीन है, पहले देखे हुए, सुने हुए और अनुभव किये हुए विषयभोग के स्मरण, विषयभोग सम्बन्धी कथा के श्रवण और कामशर प्रवेश के लिए जिसका ह्रदय निश्छिद्र है और जो प्राणियों के ऊपर सदाकाल सदय है उसके अरतिपरीषहजय जानना चाहिये।

    एकान्त ऐसे बगीचा और भवन आदि स्थानों नवयौवन, मदविभ्रम और मदिरापान से प्रमत्त हुई स्त्रियों के द्वारा बाधा पहुँचाने पर कछुए के समान जिसने इन्द्रिय और ह्रदय के विकार को रोक लिया है तथा जिसने मन्द मुस्कान, कोमल सम्भाषण, तिरछी नजरों से देखना, हँसना, मदभरी धीमी चाल से चलना, और कामबाण मारना आदि को विफल कर दिया है उसके स्त्रीबाधा परीषहजय जानना चाहिये।

    जिसने दीर्घकाल तक गुरूकुल में रहकर ब्रह्मचर्य को धारण किया है, जिसने बन्ध-मोक्ष पदार्थों के स्वरूप को जान लिया है, संयम के आयतन शरीर को भोजन देने के लिए जो देशान्तर का अतिथि बना है, गुरू के द्वारा जिसे स्वीकृति मिली है, जो वायु के समान नि:संगता को स्वीकार करता है, बहुत बार अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान और रसपरित्याग आदि जन्य बाधा के कारण जिसका शरीर परिक्लान्त है, देश और काल के प्रमाण से रहित तथा संयम विरोधी मार्ग गमन का जिसने परिहार कर दिया है, जिसने खड़ाऊँ आदि का त्याग कर दिया है, तीक्ष्ण कंकड़ और काँटे आदि के बिंधने से चरणों में खेद के उत्पन्न होने पर भी पहले योग्य यान और वाहन आदि से गमन करने का जो स्मरण नहीं करता है तथा जो यथाकाल आवश्यकों का परिपूर्ण परिपालन करता है उसके चर्यापरीषहजय जानना चाहिए।

    जिनमें पहले रहने का अभ्यास नहीं किया है ऐसे श्म‍शान, उद्यान, शून्य घर गिरिगुफा और गह्वर आदि में जो निवास करता है, आदित्य के प्रकाश और स्वेन्द्रिय ज्ञान से परीक्षित प्रदेश में जिसने नियम क्रिया की है, जो नियतकाल निषद्या लगाकर बैठता है, सिंह और व्याघ्र आदि की नानाप्रकार की भीषण ध्वनि के सुनने से जिसे किसी प्रकार का भय नहीं होता, चार प्रकार के उपसर्ग के सहन करने से जो मोक्षमार्ग से च्युत नहीं हुआ है तथा वीरासन और उत्कुटिका आदि आसन के लगाने से जिसका शरीर चलायमान नहीं हुआ है उसके निषद्याकृत बाधा का सहन करना निषद्यापरीषहजय निश्चित होता है।

    स्वाध्याय, ध्यान और अध्वश्रम के कारण थककर जो कठोर, विषम तथा प्रचुर मात्रा में कंकड़ और खपरों के टुकड़ों से व्याप्त ऐसे अतिशीत तथा अत्युष्ण भूमिप्रदेशों में एक मुहूर्त प्रमाण निद्रा का अनुभव करता है, जो यथाकृत एक पार्श्व भाग से या दण्डायित आदि रूप से शयन करता है, करवट लेने से प्राणियों को होने वाली बाधा का निवारण करने के लिए जो गिरे हुए लकड़ी के कुन्दे के समान या मुर्दा के समान करवट नहीं बदलता, जिसका चित्त ज्ञानभावना में लगा हुआ है, व्यंतरादि के द्वारा किये गये नाना प्रकार के उपसर्गों से भी जिसका शरीर चलायमान नहीं होता और जो अनियतकालिक तत्कृत बाधा को सहन करता है उसके शय्यापरीषहजय कहा जाता है।

    मिथ्यादर्शन के उद्रेक से कहे गये जो क्रोधाग्नि की शिखा को बढ़ाते हैं ऐसे क्रोधरूप, कठोर, अवज्ञाकर, निन्दा रूप और असभ्य वचनों को सुनते हुए भी जिसका उनके विषय में चित्त नहीं जाता है, यद्यपि तत्का‍ल उनका प्रतीकार करने में समर्थ है फिर भी यह सब पापकर्म का विपाक है इस तरह जो चिन्तन करता है, जो उन शब्दों को सुनकर तपश्चरण की भावना में तत्पर रहता है और जो कषायविष के लेशमात्र को भी अपने ह्रदय में अवकाश नहीं देता उसके आक्रोशपरीषहसहन निश्चित होता है।

    तीक्ष्ण तलवार, मूसर और मुद्गर आदि अस्त्रों के द्वारा ताड़न और पीड़न आदि से जिसका शरीर तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है तथापि मारने वालों पर जो लेशमात्र भी मन में विकार नहीं लाता, यह मेरे पहले किये गये दुष्कर्म का फल है, ये बेचारे क्या कर सकते हैं, यह शरीर जल के बुलबुले के समान विशरण-स्वभाव है, दु:ख के कारण को ही ये अतिशय बाधा पहुँचाते हैं, मेरे सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र को कोई नष्ट नहीं कर सकता इस प्रकार जो विचार करता है वह बसूला से छीलने और चन्दन से लेप करने में समदर्शी होता है, इसलिये उसके वधपरीषहजय माना जाता है।

    जो बाह्य और आभ्यंतर तप के अनुष्ठान करने में तत्पर है, जिसने तप की भावना के कारण अपने शरीर को सुखा डाला है, जिसका तीक्ष्ण सूर्य के ताप के कारण सार व छाया रहित वृक्ष के समान त्वचा,अस्थि और शिराजाल मात्र से युक्त शरीरयन्त्र रह गया है, जो प्राणी का वियोग होने पर भी आहार, वसति और दवाई आदि की दीन शब्द कहकर, मुख की विवर्णता दिखाकर व संज्ञा आदि के द्वारा याचना नहीं करता तथा भिक्षा के समय भी जिसकी मूर्ति बिजली की चमक के समान दुरूपलक्ष्य रहती है ऐसे साधु के याचना परीषहजय जानना चाहिये।

    वायु के समान नि:संग होने से जो अनेक देशोंमें विचरण करता है, जिसने दिन में एक काल के भोजन को स्वीकार किया है, जो मौन रहता है या भाषासमिति का पालन करता है, एक बार अपने शरीर को दिखलाना मात्र जिसका सिद्धान्त, है, पाणिपुट ही जिसका पात्र है, बहुत दिन तक या बहुत घरों में भिक्षा के नहीं प्राप्त होने पर भी जिसका चित्त संक्लेश से रहित है, दाताविशेष की परीक्षा करने में जो निरूत्सुक है तथा लाभ से भी अलाभ मेरे लिए परम तप है इस प्रकार जो सन्तुलष्ट है उसके अलाभ परीषहजय जानना चाहिये।

    यह सब प्रकार के अशुचि पदार्थों का आश्रय है, यह अनित्य है और परित्राण से रहित है इस प्रकार इस शरीर में संकल्प रहित होने से जो विगतसंस्कार हैं, गुणरूपी रत्नों के पात्र के संचय, वर्धन, संरक्षण और संधारण का कारण होने से जिसने शरीर की स्थितिविधान को भले प्रकार स्वीकार किया है, धुर को ओंगन लगाने के समान या व्रण पर लेप करने के समान जो बहुत उपकार वाले आहार को स्वीकार करता है, विरूद्ध आहार-पान के सेवनरूप विषमता से जिसके वातादि विकार रोग उत्पन्न हुए हैं, एक साथ सैकड़ों व्याधियों का प्रकोप होने पर भी जो उनके आधीन नहीं हुआ है तथा तपोविशेष से जल्लौषधि की प्राप्ति आदि अनेक ऋद्धियों का सम्बन्ध होने पर भी शरीर से निस्पृह होने के कारण जो उनके प्रतीकार की अपेक्षा नहीं करता उसके रोगपरीषहसहन जानना चाहिये।

    जो कोई विंधनेरूप दु:ख का कारण है उसका 'तृण' पद का ग्रहण उपलक्षण है। इसलिये सूखा तिनका, कठोर कंकड़, काँटा, तीक्ष्ण मिट्टी और शूल आदि के विंधने से पैरों में वेदना के होने पर उसमें जिसका चित्त उप्युक्त नहीं है तथा चर्या, शय्या और निषद्या में प्राणिपीडा का परिहार करने के लिए जिसका चित्त निरन्तर प्रमादरहित है उसके तृणस्पर्शादि बाधापरीषहजय जानना चाहिये।

    अप्कायिक जीवों की पीडाका परिहार करने के लिए जिसने मरणपर्यन्त अस्नानव्रत स्वीकार किया है, तीक्ष्ण सूर्य की किरणों के ताप से उत्पन्न हुए पसीना में जिसके पवन के द्वारा लाया गया धूलिसंचय चिपक गया है, सिध्म, खाज और दाद के होने से खुजली के होने पर भी जो खुजलाने, मर्दन करने और दूसरे पदार्थ से घिसनेरूप क्रिया से रहित है, स्वगत मल का उपचय और सम्यक्चारित्ररूपी विमल जल के प्रक्षालन द्वारा जो कर्ममलपंक को दूर करने के लिए निरन्तर उद्यतमति है उसके मलपीडासन कहा गया है।

    सत्कार का अर्थ पूजा-प्रशंसा है। तथा क्रिया-आरम्भ आदिक में आगे करना या आमन्त्रण देना पुरस्कार है। इस विषय में यह मेरा अनादर करता है। चिरकाल से मैंने ब्रह्मचर्य का पालन किया है, मैं महातपस्वी् हूँ, स्वसमय और परसमय का निर्णयज्ञ हूँ, मैंने बहुत बार परवादियों को जीता है तो भी कोई मुझे प्रणाम और भक्ति नहीं करता और उत्सााह से आसन नहीं देता, मिथ्यादृष्टि ही अत्यन्त भक्तिवाले होते हैं, कुछ नहीं जाननेवाले को भी सर्वज्ञ समझ कर आदर सत्कार करके अपने समय की प्रभावना करते हैं, व्यन्तरादिक पहले अत्यन्त, उग्र तप करने वालों की प्रत्यग्र पूजा रचते थे यह यदि मिथ्या श्रुति नहीं है तो इस समय वे हमारे समान तपस्वियों की क्यों नहीं करते हैं इस प्रकार खोटे अभिप्राय से जिसका चित्त रहित है उसके सत्कार पुरस्कारपरीषहजय जानना चाहिये।

    मैं अंग, पूर्व और प्रकीर्णक शास्त्रों में विशारद हूँ तथा शब्दशास्त्र , न्या‍यशास्त्र और अध्यात्मशास्त्र में निपुण हूँ। मेरे आगे दूसरे जन सूर्य की प्रभा से अभिभूत हुए खद्योत के उद्योत के समान बिलकुल नहीं सुशोभित होते हैं इस प्रकार विज्ञानमद का निरास होना प्रज्ञापरीषहजय जानना चाहिये।

    यह मूर्ख है, कुछ नहीं जानता है, पशु के समान है इत्यादि तिरस्कार के वचनों को मैं सहन करता हूँ, मैंने परम दुश्चर तप का अनुष्‍ठान किया है, मेरा चित्त निरन्तर अप्रमत्त रहता है, तो भी मेरे अभी तक भी ज्ञान का अतिशय नहीं उत्पन्न हुआ है इस प्रकार विचार नहीं करने वाले के अज्ञानपरीषजय जानना चाहिये।

    परम वैराग्य की भावना से मेरा ह्रदय शुद्ध है, मैंने समस्त पदार्थों के रहस्य को जान लिया है, मैं अरहन्त, आयतन, साधु और धर्म का उपासक हूँ, चिरकाल से मैं प्रव्रजित हूँ तो भी मेरे अभी ज्ञानातिशय नहीं उत्पन्न हुआ है। महोपवास आदि का अनुष्ठान करने वालों के प्रातिहार्य विशेष उत्पन्‍न हुए यह प्रलापमात्र है, यह प्रव्रज्या अनर्थक है, व्रतों का पालन करना निरर्थक है इत्यादि बातों का दर्शनविशुद्धि के योग से मन में नहीं विचार करने वाले के अदर्शनपरिषहसहन जानना चाहिये।

    इस प्रकार जो संकल्प के बिना उपस्थित हुए परीषहों को सहन करता है और जिसका चित्त संक्लेश रहित है उसके रागादि परिणामों के आस्रव का निरोध होने से महान संवर होता है।

    संसाररूपी महाअटवी को उल्लंघन करने के लिए उद्यत हुए पुरूषों को क्या ये सब परीषह प्राप्त हो‍ती हैं या कोई विशेषता है इसलिये यहाँ कहते हैं- जिनके लक्षण कह आये हैं ऐसे ये क्षुधादिक परीषह अलग-अलग चारित्र के प्रति विकल्प से होते हैं। उसमें भी इन दोनों में नियम से जानने योग्य–

    राजवार्तिक :
    क्षुधादि बाईस परीषह होती हैं । बाह्य और अभ्यन्तर द्रव्यों के परिणमन रूप शारीरिक और मानसिक पीड़ा को कारणभूत क्षुधादि बाईस परीषह हैं । मोक्षप्राप्ति के इच्छुक विद्वान् संयतों को इन परीषहों को जीतने का प्रयत्न करना चाहिये । जैसे -

    प्रकृष्ट क्षुधारूपी अग्नि की ज्वाला को धैर्यरूपी जल से शान्त करना, क्षुधाजय कहलाता है । जिसने शरीर के सब संस्कारों का त्याग कर दिया है, जो शरीर मात्र उपकरण में संतुष्ट है, तप ओर संयम के नाशक कारणों का परिहार करने वाला है, कृत, कारित, अनुमोदित, संकल्पित, उद्दिष्ट, संक्लिष्ट, खरीद कर लाया हुआ, परिवर्तन करके लाया हुआ (अपनी वस्तु देकर उसके बदले में दूसरी लाकर साधु को देना प्रत्यात्त कहलाता है), पूर्व कर्म (आहार लेने के पूर्व दाता को स्तुति करना), पश्चात् कर्म (आहारान्तर दाता की स्तुति करना), इन दस प्रकार के एषणा दाषों को टाल कर आहार करने वाला है । देशकाल, जनपद की व्यवस्था को जानने वाला है, ऐसे संयत को भी अनशन, मार्ग का श्रम, रोग, तप, स्वाध्याय का श्रम, कालातिक्रम, अवमौदर्य और असाता वेदनीय कर्म के उदय आदि कारणों से नाना आहार रूपी ईंधन के डालने पर जठराग्नि को प्रज्वलित करने वाली और वायु के झकोरों से चंचल अग्नि की शिखा के समान चारों तरफ शरीर और इन्द्रियों को क्षोभ उत्पन्न करने वाली क्षुधा उत्पन्न होती है । उसका प्रतीकार अकाल (भोजनकाल के सिवाय काल) में संयम के विरोधी द्रव्य के द्वारा न तो स्वयं करते हैं, न दूसरे से कराते हैं, न मन में यह विचार करते हैं कि - 'यह वेदना दुस्तर है, समय बहुत है, बहुत बडे-बडे दिन होते हैं' आदि । क्षुधा के कारण वे ज्ञानी साधु किसी प्रकार के विषाद को प्राप्त नही करके शरीर में अस्थि (हड्डी), सिरा-जाल, चमड़ा मात्र रह जाने पर भी आवश्यक क्रियाओं को बराबर नियम से करते हैँ तथा कारागार के बन्धन में पड़े हूए भूख से छटपटाते हुए मनुष्यों को और पिंजरे में बन्द पशु-पक्षियों को क्षुधा से पीडित एवं परतन्त्र देखकर उनकी दशा का विचार करके संयमरूपी कुम्भ मे भरे हुए धैयरूपी जल में क्षुधारूपी अग्नि को शमन करते हैं तथा उस भयंकर क्षुधा की पीड़ा को नहीं गिनते हुए क्षुधा को जीतते हैं । इसे क्षुधा परीषहजय कहते हैं ॥१॥

    तृषा (प्यास) की उदीरणा के कारण मिलने पर भी प्यास के वशीभूत नहीं होना, उसके प्रतीकार को नही चाहना पिपासा सहन है । स्नान अवगाहन (तालाब आदि में डुबकी लगाना आदि) के त्यागी, पक्षियों के समान अनियत आसन और स्थान वाले, अतिलवण, स्निग्ध, रूक्ष, प्रकृतिविरुद्ध आहार, गरमी, पित्त ज्वर और उपवास आदि में उत्पन्न शरीर और इन्द्रियों को मथने वाली पिपासा को कुछ न समझकर उसके प्रतीकार की इच्छा नहीं करने वाले, जेठ महीने के सूर्य का तीव्र ताप और जंगल में जलाशय के निकट रहने पर भी जलकायिक जीवों की हिंसा का परिहार करने की इच्छा से उन जलाशयों के जल से प्यास बुझाने की इच्छा नहीं करने वाले, पानी सींचने के अभाव में मुरझाई हुई लता के समान म्लानता को प्राप्त हुए शरीर की परवाह न करके तप का परिपालन करने वाले, भिक्षाकाल के समय भी संकेत आदि के द्वारा योग्य जल को भी नहीं चाहने वाले परम संयमी साधु धैर्य रूपी कुम्भ में भरे हुए, शील में सुगन्धित प्रज्ञा रूपी जल से तृष्णा रूपी अग्नि की ज्वाला को बुझाते हैं, शान्त करते हैं और संयम में तत्पर रहते हैं, वे पिपासा परीषहजयी होते हैं ॥२॥

    प्रश्न – क्षुधा और पिपासा को पृथक् ग्रहण करना व्यर्थ है, क्योंकि दोनों का एक ही अर्थ है ।

    उत्तर – सामर्थ्यभेद में(लक्षणभेद से) क्षुधा पिपासा एक नहीं है, क्योंकि क्षुधा का सामर्थ्य भिन्न है और पिपासा का सामर्थ्य भिन्न है अत: दोनों एक नहीं है ।

    प्रश्न – भूख और प्यास में अभ्यवहार (भोजन करना) सामान्य है अत: क्षुधा, तृषा परीषह एक ही है, पृथक्-पृथक् नहीं?

    उत्तर – भूख और प्यास पृथक्-पृथक् हैं, क्योंकि उन दोनों का अधिकरण भिन्न-भिन्न है, क्षुधा के प्रतीकार का अधिकरण (साधन) है और पिपासा का अधिकरण भिन्न है अत: अभ्यवहार सामान्य होते हुए भी पृथक्-पृथक् है ।

    शीत के कारणों के सन्निधान में शीत के प्रतिकार की अभिलाषा नहीं करना, संयम का परिपालन करना शीत परीषहजय कहलाता है । निर्वस्त्र पक्षियों के समान अनियत आवास वाले और शरीर मात्र आधार वाले साधुजन शिशिर, वसन्त और वर्षा के समय में वृक्षमूल, मार्ग तथा गुफा आदि निवास में गिरे हुए बर्फ़, तुषार आदि के कणों से व्याप्त शीतलपवन से तीव्र शरीर के कांपने पर भी उस शीत की प्रतिक्रिया करने में समर्थ अग्नि आदि द्रव्यान्तर की अभिलाषा नहीं करते हैं; किन्तु नरक सम्बन्धी दुःसह शीतजन्य तीव्र वेदना का स्मरण करके चित्त का समाधान करते हैं । शीत के प्रतिकार की चिकीर्षा में परमार्थ के लोप के भय के कारण विद्या, मंत्र, ओषध, पत्ते, वल्कल, तृण और चर्म आदि के सम्बन्ध से व्यावृत मन वाले (अभिलाषा नहीं करने वाले) साधुजन शरीर को पराया समझते हुए पूर्व में धूप में सुवासित, दीपकों से प्रज्वलित श्रेष्ठ अंगनाओं के नवयौवन, उष्ण घन स्तन, नितम्ब और भुजान्तर के द्वारा शीत की तर्जना करने वाले, गर्भगारों मे किये हुए निवास को तथा अनुभूत सुरत-सुख के रस के ज्ञान के द्वारा असार समझकर स्मरण नहीं करते हुए किसी प्रकार का विवाद नहीं करते हुए साधुगण धैर्य रूपी वस्त्र को धारण करके संयम का परिपालन करते हुए शीत को सहन करते हैं, उसे शीत परीषहजय कहते हैं ॥३॥

    चारित्र की रक्षा करने के लिये दाह का प्रतीकार करने की इच्छा का अभाव होना उष्ण परिषह सहन है । ज्येष्ठ मास के प्रखर सूर्य की किरणों के समूह से अंगार की तरह संतापित शरीर वाले; प्यास, अनशन, पित्तरोग, घाम, श्रम आदि से उत्पन्न उष्णता से सन्तप्त, स्वदेह (अपने शरीर) में असह्य गर्मी की वेदना से पसीना, शोष-दाह आदि से पीड़ित होने पर भी जलभवन, जलावगाहन, चन्दन आदि का अनुलेपन, जलसिंचन, आद्रभूमि, नीलकमल, केले के पत्र से उत्क्षपित शीतल वायु जलतूलिका (जल के फ़व्वारे), चन्दन, चन्द्रकिरण, कमल की माला और मुक्ताहार आदि पूर्व में अनुभूत शीतल उपचारों के प्रति तिरस्कार भाव रखने वाले, संयमीजन उस भयंकर महागर्मी में विचार करते हैं - 'मैंने बहुत बार नर्कों में परवश होकर अत्यन्त दुःसह उष्ण वेदना सही है, यह तप मेरे कर्मक्षय का कारण है, इसे स्वतन्त्र भाव से सहन करना चाहिये' इत्यादि पुनीत विचारों में उष्णविविरोधिनी क्रिया के प्रति अनादर करते हुए (उष्णता के प्रतीकार की इच्छा नहीं करते हुए) चारित्र का रक्षण करना उष्ण परीषहजय है ॥४॥

    दंशमशक की बाधा सहन करना, उसका प्रतीकार नहीं करना दंशमशक परीषहजय कहलाता है । त्याग किया है शरीर के आच्छादक वस्त्रादि का जिन्होंने, किसी भी पदार्थ मे जिनका मन आसक्त नहीं है, परकृत आवास गिरिगुफा आदि स्थानों में वास करने वाले, रात-दिन आतितीव्र वेदना के उत्पादक डांस, मच्छर, मक्खी, पिस्सू, कीडा, जुँआ, खटमल, चींटी और बिच्छू आदि के तीक्ष्णपात से काटे जाने पर भी दुःखित मन नहीं होने वाले, स्वकर्म के पाक का चिन्तन करने वाले, विद्या, मंत्र और औषधि आदि के द्वारा उस दंषमशक की बाधा के प्रतीकार की इच्छा न रखने वाले, शरीर के नाश पर्यन्त निश्चित दृढ़ात्मा बने रहने वाले साधुगण प्रबल प्रमर्दन के प्रति प्रवर्तमान रिपुजन प्रेरित विविध प्रकार के शस्त्रों के प्रतिघात से अपराङ्मुरव निर्विघ्न विजय को प्राप्त करने वाले मदान्ध हाथी के समान कर्मसेना को जीतने में तत्पर रहते हैं, उसे दंशमशक परीषहजयी वा दंशमशकबाधा अप्रतीकारी कहते हैं ॥५॥

    प्रश्न – सूत्र में दंशमशक को ही बाधा कारण ग्रहण किया है, अत: दंशमशक ही परीषह है, अन्य जन्तुकृत नहीं ?

    उत्तर – दंशमशक शब्द डंसने वाले जन्तुओं के उपलक्षण के लिये है । जैसे 'दही संरक्षण' में 'काक' शब्द दही खाने वाले प्राणियों का उपलक्षक होता है, अत: दशन- तापकारी सर्व जन्तुओं का दंशमशक से ग्रहण होता है । यदि उपलक्षण नहीं होता तो दंशमशक में से किसी एक शब्द का ग्रहण होता, अत: दंशमशक में से किसी एक का नाम लेने से उसी जन्तु के स्वरूप का बोध होने से दूसरा शब्द उपलक्षण के लिए दिया गया है ।

    जातरूप (जन्म-अवस्था के समान निराभरण निर्वस्त्र निर्विकार रूप) धारण करना नाग्न्य है । गुप्ति, समिति की अविरोधी परिग्रह निवृत्ति और परिपूर्ण ब्रह्मचर्यभूत अप्रार्थिक मोक्ष के साधन चारित्र का अनुष्ठान करना यथाजात रूप है । अविकारी (शरीर), संस्कारों से रहित, स्वाभाविक, मिथ्यादृष्टियों के द्वारा द्वेषकृत होने पर भी परम माङ्गल्य ऐसी यथाजातरूप नाग्न्य अवस्था के धारक, स्त्रीरूप का नित्य अशुचि, वीभत्स और शव-कंकाल के समान देखने वाले, वैराग्य भावनाओं से मनोविकार को जीतने वाले और सामान्य मनुष्यत्व के द्वारा असंभावित ऐसे विशिष्ट मानवरूपधारी साधुगणों के नाग्न्य दोषों (लिंगविकार, मनोविकार आदि दोषों) का स्पर्श नहीं होने से नाग्न्य परीषह के जय की सिद्धि होती है । अर्थात् नग्न हाने पर भी पुरुषविकार प्रकट न होने से नाग्न्य परीषहजय कहलाता है । जातरूप का धारण करना उत्तम है और मोक्षप्राप्ति का कारण कहा जाता है । अन्य तापसीगण मनोविकारों तथा मन विकारपूर्वक होने वाले अंगविकारों को रोकने में असमर्थ हैं अत: उस अङ्गविकृति को ढंकने के लिए कौपीन, फलक, चीवर आदि आवरणों को ग्रहण करते हैं । वे तापस केवल अंग का ही संवरण कर सकते हैं, कर्म का नहीं ॥६॥

    संयम में रति करना अरति परीषहजय कहलाता है । क्षुधा आदि की बाधा सताने पर संयम की रक्षा में, इन्द्रियों का बडी कठिनता से जीतने में, व्रतों के भले प्रकार पालन करने के भार की गुरुता प्राप्त होने पर, सदैव प्रमादरहित परिणामों की सम्हाल करने में, भिन्न-भिन्न देशभाषाओं के नहीं जानने पर विरुद्ध और चपल प्राणियों से भरे भयानक मार्गों में अथवा राज्य के कर्मचारियों आदि से भयानक परिस्थिति में नियत रूप में एकाकी विहार करने आदि से जो अरति (खेद) उत्पन्न होती है उसे वे धैर्यविशेष से निवारण करते हैं । संयमविषयक रति (अनुराग) भावना के बल से विषयसुख रति को (विषयानुराग को) विषमिश्रित आहार के सेवन के समान विपाक में कटु मानने वाले उन परम संयमिजन के रति परीषह बाधा का अभाव होने से अरति परीषहजय होता है; ऐसा जानना चाहिये ॥७॥

    प्रश्न – क्षुधादि सर्व ही परीषह अरति के हेतु हैं अत: अरति परीषह को पृथक् ग्रहण करना व्यर्थ है ।

    उत्तर – यद्यपि क्षुधा आदि सभी परीषह अरति उत्पन्न करती हैं तथापि श्रुधा आदि के न होने पर भी मोहकर्म के उदय से होने वाली संयम की अरति का संग्रह करने के लिये 'अरति' का पृथक् ग्रहण किया है; क्योंकि मोह के उदय से आकुलित चित्त वाले प्राणी के क्षुधादि के अभाव में ही संयम के प्रति अरति उत्पन्न होती है

    वराङ्गनाओं के रूप देखना, उनका स्पर्श करना आदि के भावों की निवृत्ति को स्त्री परिषह- जय कहते हैं । एकान्त, उद्यान, भवन आदि प्रदेशों मे राग द्वेष विशिष्ट यौवन का घमण्ड करने वाली, अपने सुन्दर रूप का गर्व करने वाली, विभ्रम और उन्माद को पैदा करने वाले मद्यादि का पान करने वाली स्त्रियों के द्वारा बाधा पहुँचाने पर भी, उन वनिताओं के नेत्र, मुख एवं भ्रूविकार, श्रंगार, आकार, विहार, हाव-भाव, विलास, हास, लीला, कटाक्ष-विक्षेप, सुकुमार-स्निग्ध-मृदु-पीन- उन्नत-स्तनकलश, नितान्तक्षीण उदर, पृथु जघन, रूप, गुण, आभरण, सुवास, वस्त्र, माल्य आदि के प्रति पूर्ण निग्रह के भाव होने से जो उनके दर्शन, स्पर्शन आदि की अभिलाषाओं सें पूर्णत: रहित हैं तथा स्निग्ध, मृदु, विशद, सुकुमार शब्द और तंत्री वीणा आदि से मिश्रित अतिमधुर गीत आदि के सुनने में निरुत्सुक हैं; तथा स्त्रीसम्बन्धी अनर्थों को संसार रूपी समुद्र के व्यसनपाताल भयंकर दु:ख, रौद्र भंवर आदि रूप विचार करने वाले हैं ऐसे परम संयमिजनों के स्त्री परीषहजय होता है । अन्य मिथ्यादृष्टियों के द्वारा कल्पित ब्रह्मादि देव तिलोत्तमा देवगणिका के रूप को देखकर विकार को प्राप्त हो गये थे, वे स्त्रीपरीषह रूपी पंक (कीचड़) से ऊपर नहीं उठ सके, अपने आत्मा का उद्धार करने में समर्थ नहीं हो सके ॥८॥

    गमन के दोषों का निग्रह करना चर्या परीषहजय कहलाता है । दीर्घकाल तक गुरुकुल में रहकर ब्रह्मचर्य का अभ्यास करने वाले, बन्ध, मोक्षतत्व के मर्म को जानने वाले, कषायों का निग्रह करने में तत्पर भावनाओं से सुभावित चित्त वाले, गुरु की आज्ञापूर्वक संयम आयतनों की भक्ति के लिये देशान्तर में गमन करने वाले और नाना जनपद (अनेक देशों के) व्यवहारों के ज्ञाता साधुओं को ग्राम में एक रात्रि और नगर में पांच रात्रि ही अधिक-से-अधिक रहना चाहिये । वहां एक व पांच दिन रहकर भी वायु के समान निसंग रहना चाहिये । ऐसा विचार करने वाले वा देशकाल प्रमाणोपेतमार्ग के अनुभव से क्लेश को सहन करने में समर्थ भयंकर अटवी प्रदेशों में सिंह के समान निर्भय होने से सहायक की अपेक्षा न करके परिभ्रमण करने वाले साधुजन मार्ग में कठोर कंकड आदि से पैरों के कट जाने पर और छिल जाने पर भी खेद का अनुभव नहीं करते हैं, वा इन साधुओं को खेद का अनुभव नहीं होता है । पूर्व में अनुभव किए हुए उचित यान-वाहन आदि का स्मरण नहीं करते हैं तथा सम्यक् प्रकार से गमन के दोषों का परिहार करते हैं, उन साधुओं के चर्या परीषह-जय होता है अर्थात् ऐसे साधु चर्या परीषहजयी होते हैं ॥९॥

    संकल्पित आसन से विचलित नहीं होना निषद्या परीषहजय होता है । श्मशान, उद्यान, शून्यगृह, गिरिगुहा, गह्वर आदि अनभ्यस्त (नये-नये) स्थानों में संयमविधिज्ञ, धैर्यशाली और उत्साह- सम्पन्न साधु जिस आसन से बैठते हैं, उपसर्ग, रोग-विकारादि के आने पर भी उस आसन से विचलित नहीं होते हैं और न मन्त्र-विद्या आदि से उपसर्गादि का प्रतीकार ही करना चाहते हैं वा उपसर्ग आदि को दूर करने के लिये मन्त्रविद्या आदि की अपेक्षा ही करते हैं । क्षुद्रजन्तुयुक्त विषम देश में भी काष्ठ या पत्थर के समान निश्चल आसन से बैठते हैं, उस समय वे पूर्वानुभूत मृदु शय्या आदि बिछौनों के सुख का स्मरण भी नहीं करते हैं, वे तो प्राणीपीडा के परिहार में तत्पर हैं, निशदिन ज्ञान-ध्यान में लीन रहते हैं अर्थात् जिनकी बुद्धी ज्ञान-ध्यान की भावना के आधीन है । वीरासन, उत्कुटिकासन आदि जिस आसन से बैठते है, उस संकल्पित आसन में दूसरे आसन की पलटना नहीं करते, हिलना आदि आसन-दोषों हो जीतते हैं, उन परम संयमीजनों को निषद्या परीषहजय होता है अर्थात् वे ही साधु निषद्या परीषह के विजयी होते हैं ॥१०॥

    आगम में कथित शयन से चलित नहीं होना, आगमानुसार शयन करना शयन परीषहजय , कहलाता है । स्वाध्याय, ध्यान और मार्ग-गमन के परिश्रम आदि से परिखेदित, खर, विषम, रेतीली, ककरीली, पथरीली, शीत तथा उष्णता से युक्त भूमिप्रदेशों में एक मुहूर्त्त तक एक करवट में सीधे डण्डे की भांति शयन करने वाले, बाधाविशेष के उत्पन्न होने पर भी संयम की रक्षा करने के लिये हलन-चलन न करके निश्चल रहने वाले, व्यन्तर आदि के द्वारा उपद्रव करने पर भी भागने या उसके प्रतीकार की इच्छा नहीं रखने वाले, मरण के भय में भी निशंक रहकर गिरी हुई लकडी के समान, निश्चल मरे हुए के समान पडे रहने वाले (मृतक प्रापावित् निश्चल), 'यह स्थान सिंह, व्याघ्र, सर्प आदि दुष्ट जीवों से भरा हुआ है, यहाँ से शीघ्र ही निकल जाना श्रेयस्कर है, कब यह रात्रि समाप्त होगी' इस प्रकार के संकल्प-विकल्पों को नहीं करने वाले, सुखस्थान के मिलने पर भी हर्ष से उन्मत्त नहीं होने वाले, पूर्व में अनुभूत नवनीत के समान मृदु शय्या का स्मरण न करके आगमोक्त विधि से शयन करने वाले तथा आगमोक्तविधि मे न्यून नहीं होने वाले साधुजनों के शय्या परीषहजय होता है अर्थात् उक्त विधि से शयन करने वाले ही संयमीजन शयन परीषह-विजयी होते हैं ॥११॥

    अनिष्ट वचनों को सहन करना आक्रोश परीषहजय है । तीव्र मोहाविष्ट, मिथ्यादृष्टि- आर्य, मलेच्छ, खल (दुष्ट) पापाचारी, मत्त (पागल), उददृप्त (घमण्डी), शंकित आदि दुष्टजनों के द्वारा प्रयुक्त मा शब्द, धिक्कार शब्द, तिरस्कार अवज्ञा के सूचक कठोर, कर्कश, कानों को बधिर करने वाले, हृदयभेदी, हृदय में शूल के उत्पादक, क्रोधरूपी अग्नि की ज्वालाओं को बढ़ाने वाले और अप्रिय गाली आदि वचनों को सुनकर भी स्थिरचित्त रहने वाले, भस्म करनें का सामर्थ्य होते हुए भी परमार्थ (तत्वविचार) में अवगाहित चित्तवाले, शब्द मात्र को श्रवण कर कटु शब्दों के अर्थ के विचार में पराङ्मुख, ''यह मेरे पूर्वोपार्जित अशुभ कर्म का उदय ही है जिससे मेरे प्रति इनका द्वेष है'', इत्यादि पुण्य भावनाओं के चिन्तन रूप उपायों के द्वारा सुभावित साधु का अनिष्ट वचनों का सहन करना आक्रोश परीषहजय है, ऐसा समझना चाहिये ॥१२॥

    मारने वालों के प्रति भी क्रोध नहीं करना वध परीषहजय है । ग्राम, उद्यान, अटवी, नगर आदि में रात-दिन एकाकी, निरावरण शरीर वाले, चारों तरफ घूमने वाले, चोर, कुतवाल, मलेच्छ, भील, कटोर, बधिर, पूर्व अपकारी, शत्रु और द्वेषाविष्ट मिथ्यादृष्टि तपस्वी आदि के द्वारा क्रोधपूर्वक ताडन, आकर्षण, बन्धन, शस्त्राभिघात आदि के द्वारा मारने पर भी बैर नहीं करने वाले, ’यह शरीर अवश्य ही नष्ट होने वाला है, यह कुशलता है कि शरीर ही इस पुरुष के द्वारा नष्ट किया जा रहा है, मेरे व्रत, शील-भावना आदि तो नष्ट नहीं किये जा रहे है’ इत्यादि शुभ भावनाओं को भाने वाले, जलने पर भी सुवास के फैलाने वाले चन्दन के समान शुभ परिणाम वाले, इसके मारण-ताडन से तो मेरे कर्मों की निर्जरा ही हो रही है, ऐसा विचार करने वाले, दृढमति और क्षमा रूपी औषधि के बल से मारने वाले में भी मित्रभाव रखने वाले या क्रोध नहीं करने वाले संयमी के वध परीषहजय कहा जाता है ॥१३॥


    प्राण जाने पर भी आहारादि की याचना नहीं करना, दीनता से निवृत्त होना याचना परीषहजय है । भूख, मार्ग के परिश्रम आदि के द्वारा शुष्क वृक्ष के समान जिसके सारे अवयव सूख गये हैं, (शरीर लकड़ी के समान हो गया है), जिसके अस्थि और स्नायु का समूह ऊपर चमक उठा है, नेत्र भीतर धँस गये हैं, ओठ शुष्क हो गये हैं, कपाल गड्ढे से युक्त सफेद हो गये हैं; चर्म के समान जिनके अंगोपाङ्ग संकुचित हो गये हैं, जंघा, पैर, कमर, बाहु आदि जिनके अत्यन्त शिथिल हो गये हैं, ऐसे देशकाल की अवस्था का विचार कर ही आहार के लिए निकलने वाले, मौनी, परम स्वाभिमानी, शरीर दिखाना मात्र व्यापार वाले, महाशक्तिशाली, प्रज्ञा से ओत-प्रोत मानसिक परिणति वाले, परम तपस्वीगण प्राण जाने की अवस्था हो जाने पर भी दीनता, मुख की विवर्णता, शरीर का संकेत, हीन वचन का प्रयोग आदि के द्वारा आहार, वसति, औषध आदि की याचना नहीं करते हैं, जैसै - जौहरी (रत्नों का व्यापारी) मणि को दिखाता है, उसी प्रकार स्व शरीर को दिखाना ही पर्याप्त है । जो अदीन हैं, वन्दना करने वाले के लिये ही जिनके हाथ ऊपर उठते हैं, अर्थात् वन्दना करने वाली को आशीर्वाद देने के लिए ही जिनके हाथ विकसित होते हैं, याचना के लिये नहीं, ऐसे साधुगण ही याचना परीषहविजयी होते हैं वा ऐसे महामना साधु के याचना परीषहजय होता है । अधुना (इस समय) कालदोष से दीन, अनाथ, पाखण्डियों से व्याप्त इस जगत् में मोक्षमार्ग को नहीं जानने वाले अनात्मज्ञों के द्वारा याचना की जाती है । (याचना- परोषहजयी के संवर होता है, याचना करने वाले के नहीं) ॥१४॥

    अलाभ में भी लाभ के समान संतुष्ट होने वाले तपस्वी के अलाभ परीषहजय होता है । वायु के समान अनेक देशों मे विहार करने वाले, अपनी शक्ति को प्रकाशित नहीं करने वाले, दिन में एक बार भोजन करन वाले, स्व शरीर दर्शन मात्र से भिक्षा स्वीकार करने वाले, 'देहि या देओ' इस प्रकार के असभ्य वचनों का प्रयोग नहीं करने वाले, शरीर की प्रतिक्रिया के (शरीर के ममत्व के) त्यागी, 'यह आज है और यह कल' इत्यादि संकल्पों से रहित, एक ग्राम में भिक्षा की प्राप्ति न होने पर ग्रामान्तर में आहार का अन्वेषण करने के लिये जाने में अनुत्सुक, पाणिपात्र में भोजन करने वाले ओर बहुत से घरों में बहुत दिनों तक भ्रमण करने पर भिक्षा के नहीं मिलने पर भी संक्लेश परिणाम नहीं करने वाले, रंचमात्र भी चित्त को मलिन नहीं करने वाले परम तपस्वी के अलाभ परीषहजय होता है, वे साधु यह न सोचते हैं और न कहते हैं कि 'यहां दाता नही है, वहां बडे-बडे दानी उदार दाता है', वे परम योगी लाभ से भी अलाभ में परम तप मानते हैं, इस प्रकार लाभ की अपेक्षा अलाभ में अधिक सन्तुष्ट होने वाले के अलाभ परीषहजय है, ऐसा जानना चाहिये ॥१५॥

    नाना व्याधियों के प्रतीकार की इच्छा नहीं करने वाले के रोग परीषहजय होता है । दुःख का कारण, अशुचि का भाजन, जीर्ण वस्त्र के समान छोड़ने योग्य, वात-पित्त-कफ और सन्निपातजन्य अनेक रोग और वेदनाओं से जकडे हुए इस शरीर को दूसरे के समान मानने वाले, इस शरीर से उपेक्षाभाव को धारण करने के कारण सर्व प्रकार की विचिकित्सा से चित्त को हटाकर शरीर की यात्रा की प्रसिद्धि के लिये व्रण (घाव) के लेपन के समान शास्त्रोक्त विधि से शुद्ध आहार लेने वाले, तप के प्रभाव से जल्लौषधि-प्राप्ति आदि अनेक तपविशेष ऋद्धियों के प्राप्त होने पर भी शरीर से अत्यन्त निस्पृह होने से रोग के प्रतीकार की इच्छा नहीं करने वाले 'यह पूर्वोपाजित पापकर्म का फल है, इसे भोगकर उऋण हो जाना ही अच्छा है', इत्यादि विचारों के द्वारा राग की वेदना को सहन करने वाले परम योगी के रोग परीषहजय होता है ॥१६॥

    तृणादि के निमित्त से वेदना के होने पर भी मन का निश्चल रहना उसमें दुःख नहीं मानना तृण परीषहजय है । यथाभिनिर्वृत्त अधिकरणों (जहां कहीं जैसी ऊंची-नीची पृथ्वी मिल गई उस) पर सोने वाले, शुष्कभूमि, तृण, पत्र, कण्टक, काष्ठ, फलक और शिलातल आदि किसी भी प्रासुक असंस्कृत आधार पर व्याधि, मार्गश्रम, शीत, उष्ण आदि कारणों से उत्पन्न क्लम (श्रम थकावट) को दूर करने के लिये शय्या वा आसन लगाने वाले तृणादि के द्वारा शरीर में बाधा होने तथा खुजली आदि विकार उत्पन्न होने पर भी दुःख नहीं मानकर निश्चल रहने वाले साधु के तृणादि के स्पर्श को बाधा के वशीभूत न होने से तृण-स्पर्श परीषहजय (सहन) जानना चाहिये, ऐसा साधु तृण परीषहजयी होता है ॥१७॥

    स्व और पर के द्वारा मल के अपचय और उपचय के संकल्प के अभाव को मलधारण परीषह-सहन कहते हैं । जलकायिक जीवों की पीड़ा का परिहार करने के लिए अस्नान जिनका व्रत है, ऎसे परम अहिंसक साधु पसीने के मैल से सारे अंगों के जल जाने पर दाद, खाज आदि चर्मरागों के प्रकुपित होने पर तथा नख, रोम, दाढ़ी, मूँछ, केश के विकृत होने में एवं अनेक बाह्य मल के सम्पर्क के कारण चर्मविकार होने पर भी स्वयं मल (शरीरगत मैल) को दूर करने की वा दूसरों से मल को दूर कराने की इच्छा नहीं करते हैं और सदा कर्ममल को दूर करने की चेष्टा करते हैं, जो पूर्व में अनुभूत स्नान, अनुलेपन आदि के स्मरण से पराङ्मुख हैं, उन संयमीजनों के मलधारण परीषहजय होता है, अर्थात् वे ही साधु मलपरीषह को सहन करने वाले होते हैं॥१८॥

    प्रश्न – केश लुन्चन करने में वा केशों का संस्कार नहीं करने पर महान खेद होता है अत: केश लुन्चन को सहन करना वा केशसंस्कार नहीं करना नाम एक परीषह और होना चाहिये ।

    उत्तर – यद्यपि केशलुन्चन और केशसंस्कार नहीं करने पर खेद होता है, पर यह मलपरीषह में अन्तर्भूत हो जाता है अत: इसको पृथक् ग्रहण नहीं किया है ।

    मान और अपमान में तुल्यभाव होना, सत्कार-पुरस्कार की भावना नहीं होना, सत्कार- पुरस्कार परीषहजय है । 'चिर काल में ब्रह्मचर्य व्रत के धारी महातपस्वी, स्व-पर-समय-निश्चयज्ञ, हितोपदेशी कथामार्गकुशल, अनेक बार परवादी के साथ शास्त्रार्थ करके विजय प्राप्त करने वाले ' मेरा कोई प्रणाम, भक्ति, आदर (आने पर खड़े होना-चलने पर पीछे-पीछे चलना) आसन-प्रदान आदि से सत्कार-पुरस्कार नहीं करता है', इस प्रकार की दुर्भावनाओं को मन मे न लाकर मान और अपमान में समवृत्ति रखने वाले सस्कार-पुरस्कार की आकांक्षा नहीं करने वाले और मात्र श्रेयोमार्ग का ध्यान करने वाले संयमी के सत्कार-पुरस्कार परीषहजय होता है । सत्कार-पुरस्कार में समभाव रखने वाला ही साधु सत्कार-पुरस्कार परीषहजयी होता है । पूजा प्रशंसात्मक सत्कार है और क्रिया के प्रारम्भ में मुखिया बनाना, प्रधानता देना, आमन्त्रण देना पुरस्कार है ॥१९॥

    प्रज्ञा (बुद्धि) का विकास होने पर भी प्रज्ञा मद नहीं करना प्रज्ञा परीषहविजय है । 'मैं अंग पूर्व प्रकीर्णक आदि में विशारद हूँ सारे ग्रन्थों के अर्थ का ज्ञाता हूँ, अनुत्तरवादी हूँ, त्रिकाल विषयार्थवेदी हूँ, शब्द (व्याकरण), न्याय, अध्यात्म में निपुण हूँ, मेरे समक्ष सूर्य के सामने खद्योत के समान अन्यवादी निस्तेज हो जाते हैं, इस प्रकार विज्ञान का मद नहीं होने देना प्रज्ञा परीषहजय है ॥२०॥

    अज्ञान के कारण होने वाले अपमान एवं ज्ञान की अभिलाषा को सहन करना अज्ञान परीषहजय है । 'यह अज है, कुछ नहीं जानता, पशु समान है' इत्यादि आक्षेप (तिरस्कार) वचनों को शान्तिपूर्वक सहने वाले, अध्ययन और अर्थग्रहण में श्रम करने वाले, चिरप्रव्रजित (बहुत काल का दीक्षित) विविध तपविशेष के भार से आक्रान्त मूर्त्ति (विविध प्रकार के घोर तपों को करने वाले), सर्व क्रियाओं में प्रमाद नहीं करने वाले और अशुभ मन, वचन, काय की क्रियाओं से रहित मुझे आज तक कोई ज्ञान का अतिशय उत्पन्न नहीं हुआ है, इस प्रकार अपने मन में अज्ञान से हीन भावना नहीं आने देना, मानसिक ताप से सन्तापित नहीं होना अज्ञान परीषहजय जानना चाहिये ॥२१॥

    ’दीक्षा लेना आदि अनर्थक है’, इस प्रकार मानसिक विचार नहीं होने देना, अदर्शन परीषह- सहन है । संयम पालन करने में प्रधान, दुष्कर तप तपने वाले, परम वैराग्य भावना से शुद्ध हृदय युक्त, सकल तत्वार्थवेदी, अर्हदायतन, साधु और धर्म के प्रतिपूजक चिरप्रव्रजित मुझ तपस्वी को आज तक कोई ज्ञानातिशय उत्पन्न नहीं हुआ है । 'महोपवास करने वालों को प्रातिहार्यविशेष (चमत्कारी ऋद्धियां) उत्पन्न हुए थे' यह सब प्रलाप मात्र है, असत्य है, यह दीक्षा लेना व्यर्थ है, व्रतों का पालन निरर्थक है । इस प्रकार से चित्त में अश्रद्धा उत्पन्न नहीं होने देना, अपने सम्यग्दर्शन को दृढ रखना, अदर्शन परीषह सहन करना जानना चाहिये । तप के बल पर ऋद्धियों के उत्पन्न न होने पर जिनवचन पर अश्रद्धान नहीं करना अदर्शन परीषहजय है । इस प्रकार असंकल्पित (बिना संकल्प के) उपस्थित परीषहों को संक्लेश परिणामरहित सहन करने वाले साधु के रागादि परिणाम रूप आस्रव का अभाव होने से महान संवर होता है ॥२२॥

    प्रश्न – श्रद्धान और आलोचन (अवलोकन) के भेद से दर्शन दो प्रकार का है अत: यहाँ अविशेषता से दोनों का ग्रहण होगा । क्योंकि यहां दर्शन का कोई विशेष लिंग आश्रित नहीं है?

    उत्तर – यद्यपि दर्शन के श्रद्धान और आलोचन ये दो अर्थ होते हैं, तथापि यहां अव्यभिचार दिखाने के लिये दर्शन का अर्थ 'श्रद्धान' ही ग्रहण करना चाहिये । क्योंकि यहां मति आदि पांच ज्ञानों के अव्यभिचारी श्रद्धान रूप दर्शन का ग्रहण है, आलोचन रूप दर्शन श्रुत और मनःपर्यय ज्ञानों में नहीं होता है अत: उसका ग्रहण नहीं है, अव्यभिचारी श्रद्धान का ही ग्रहण है ।

    प्रश्न – अदर्शन परीषह में दर्शन का अर्थ श्रद्धान करना स्व-मनोरथ कल्पना मात्र है ।

    उत्तर – आगे कहे जाने वाले दर्शनमोह के उदय से ही अदर्शन परीषह बताई जायेगी । 'दर्शनमोहान्तरायोरदर्शनालाभौ' अत: दर्शन का श्रद्धान अर्थ केवल कल्पनामात्र नहीं है।

    प्रश्न – अवधि आदि दर्शन को भी परीषह में ग्रहण करना चाहिये क्योंकि 'मेरी आंख अच्छा देखती है, इसकी आंख में कोई अतिशय नहीं है’, गुणप्रत्यय भी अवधि है, आगम में लिखा भी है कि 'इसमें उसके योग्य गुण नहीं है’ इत्यादि वचनों को सहन करना अवधि आदि दर्शन परीषहजय है अत: अवधिदर्शन परीषह को भी ग्रहण करना चाहिये ।

    उत्तर – यद्यपि अवधिदर्शन आदि के न होने पर 'इसमें यह गुण नहीं है' आदि रूप से अवधिदर्शन परीषह हो सकती है, परन्तु इसका अज्ञान परीषह में अन्तर्भाव हो जाता है; क्योंकि ये अवधि आदि दर्शन अपने-अपने ज्ञानों के सहचारी होते हैं । अवधि आदि ज्ञान के अभाव में उनके सहचारी दर्शन का भी अभाव रहता है । जैसे सूर्य के प्रकाश के अभाव में उसके प्रताप का अभाव रहता है इसलिये अज्ञान परीषह में ही उन-उन अवधिदर्शन अभाव आदि परीषहों का अन्तर्भाव है ।

    प्रश्न – यदि अज्ञान परीषह में अवधि- दर्शनाभाव आदि का अन्तर्भाव हो जाता है तो श्रद्धान भी ज्ञान का अविनाभावी है अत: अदर्शन परिषह का भी प्रज्ञा परीषह में अन्तर्भाव प्राप्त होता है ?

    उत्तर – इस प्रकार श्रद्धान रूप दर्शन को ज्ञान का अविनाभावी मानकर उसका प्रज्ञा मे अन्तर्भाव नही किया जा सकता । क्योंकि किसी में प्रज्ञा के होने पर भी तत्त्वार्थश्रद्धान का अभाव पाया जाता है, अत: व्यभिचारी है अर्थात् प्रज्ञा के साथ श्रद्धान का अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है ।

    शिष्य पूछता है कि परोषहों को जीतने से संवर होता है, ऐसा आपने कहा है, अब यह बताइये कि

    प्रश्न – संसार समुद्र से तिरने की इच्छा करने वाले इन मुनिगण को क्या ये सर्व परीषह एक साथ दुःख देती हैं कि इनमें कुछ विशेषता है?

    उत्तर – जिनका लक्षण कह चुके हैं ऐसी ये क्षुधादि परीषह भिन्न-भिन्न चारित्र के अनुसार विभक्त हो जाती है । इनमें विशेषता है परन्तु नीचे के सूत्र द्वारा तीन गुणस्थानों में नियम से चौदह परिषह होती हैं, वह सूत्र कहा जाता है -

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    + दसवें से बारहवें गुणस्थान में परीषह -
    सूक्ष्मसाम्पराय-छद्मस्थवीत-रागयोश्चतुर्दश ॥10॥
    अन्वयार्थ : सूक्ष्मसाम्पराय (दसवें) और छद्मस्थ-वीतराग (ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान) में चौदह परीषह होती हैं ॥१०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, प्रज्ञा और अज्ञान ये चौदह परीषह हैं। सूत्र में आये हुए 'चतुर्दश' इस वचन से अन्य परीषहों का अभाव जानना चाहिये।

    शंका – वीतरागछदमस्थ के मोहनीय के अभाव से तत्कृत आगे कहे जाने वाले आठ परीषहों का अभाव होने से चौदह परीषहों के नियम का वचन तो युक्त है, परन्तु सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में मोहनीय का उदय होने से चौदह परीषह होते हैं यह नियम नहीं बनता।

    समाधान – यह कहना अयुक्त है, क्योंकि वहाँ मोहनीय का सद्भाव है। वहाँ पर केवल लोभसंज्वनलन कषाय का उदय होता है और वह भी अतिसूक्ष्म होता है, इसलिये वीतराग छद्मस्थ के समान होने से सूक्ष्म्साम्पराय में चौदह परीषह होते हैं यह नियम वहाँ भी बन जाता है।

    शंका – इन स्थानों में मोह के उदय की सहायता नहीं होने से और मन्द उदय होने से क्षुधादि वेदना का अभाव है इसलिये इनके कार्यरूपसे 'परीषह' संज्ञा युक्ति को नहीं प्राप्त होती।

    समाधान – ऐसा नहीं है, क्योंकि यहाँ शक्तिमात्र विवक्षित है। जिस प्रकार सर्वार्थसिद्धि के देव के सातवीं पृथ्वी के गमन के सामर्थ्य का निर्देश करते हैं उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये।

    यदि शरीरवाले आत्मा में परीषहों के सन्निधान की प्रतिज्ञा की जाती है तो केवलज्ञान को प्राप्त और चार कर्मों के फल के अनुभव के वशवर्ती भगवान के कितने परीषह प्राप्त होते हैं इसलिये यहाँ कहते हैं। उनमें तो-

    राजवार्तिक :
    1-2. चौदह ही होती हैं कम बढ़ नहीं । यद्यपि सूक्ष्मसाम्पराय में सूक्ष्म लोभ संज्वलन का उदय है पर वह अत्यन्त सूक्ष्म होने से कार्यकारी नहीं है, मात्र उसका सद्भाव ही है अतः छमस्थ और वीतराग की तरह उसमें भी चौदह ही परीषह होती हैं।

    3. प्रश्न – जिसके क्षुधा की सम्भावना होती है उसी से उसको जीतने के कारण क्षुधा परीषहजय कहा जा सकता है। जब ११वें और १२वें गुणस्थान में मोह का मन्दोदय उपशम और क्षय है तब मोहोदय रूप बलाधायक के अभाव में वेदना न होने से परीषहों की सम्भावना ही नहीं है अतः उनका जय या अभाव कैसा ?

    उत्तर – जैसे सर्वार्थसिद्धि के देवों के उत्कृष्ट साता के उदय होने पर भी सप्तमपृथिवीगमन-सामर्थ्य की हानि नहीं है उसी तरह वीतराग छमस्थ के भी कर्मोदय-सद्भावकृत परीषह व्यपदेश हो सकता है।

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    + सयोग केवली के परीषह -
    एकादश जिने ॥11॥
    अन्वयार्थ : जिन में ग्यारह परीषह सम्भव हैं ॥११॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश कर दिया है ऐसे जिन भगवान में वेदनीय कर्म का सद्भाव होने से तन्निमित्त‍क ग्यारह परीषह होते हैं।

    शंका – मोहनीय के उदय की सहायता न होने से क्षुधादि वेदना के न होने पर परीषह संज्ञा युक्त नहीं है ?

    समाधान – यह कथन सत्य ही है तथापि वेदना का अभाव होने पर भी द्रव्यकर्म के सद्भाव की अपेक्षा से यहाँ परीषहों का उपचार किया जाता है। जिस प्रकार समस्त ज्ञानावरण के नाश हो जाने पर एक साथ समस्त पदार्थों के रहस्य को प्रकाशित करने वाले केवलज्ञानातिशय के होने पर चिन्ता-निरोध का अभाव होने पर भी कर्मों के नाश रूप उसके फल की अपेक्षा ध्यान का उपचार किया जाता है उसी प्रकार यहाँ परीषहों का उपचार से कथन जानना चाहिए, अथवा जिन भगवन में ग्यारह परीषह 'नहीं हैं' इतना वाक्य शेष कल्पित कर लेना चाहिये क्यों कि सूत्र उपस्कार सहित होते हैं । 'वाक्य शेष की कल्पना करनी चाहिये और वाक्य वक्ता के अधीन होता है' ऐसा स्वीकार भी किया गया है। मोह के उदय की सहायता से होने वाली क्षुधादि वेदनाओं का अभाव होने से 'नहीं' यह वाक्य शेष उपन्यस्त किया गया है।

    यदि सूक्ष्मपसाम्पराय आदि में अलग-अलग परीषह होते हैं तो मिलकर वे कहाँ होते हैं, यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    घातिया कर्मोदय की सहायता का अभाव होने से शक्ति क्षीण वेदनीय के सद्भावों में भी क्षुधादि परीषह नहीं हैं ?

    प्रश्न – घातिया-कर्मों का क्षय हो जाने से उनके उदय रूप निमित्त के अभाव में जिनेन्द्र भगवान के नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, अलाभ, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन परीषह मत होओ, परन्तु वेदनीय कर्म के उदय का सद्भाव होने से वेदनीय के आश्रय से होने वाली क्षुधा आदि परीषह तो जिनेन्द्र-भगवान में होनी ही चाहिये ?

    उत्तर – घातिया-कर्म के उदय रूप सहकारी कारण का अभाव हो जाने से अन्य-कर्मों का सामर्थ्य नष्ट हो जाता है । जैसे -- मन्त्र, औषधि के बल से (प्रयोग से) जिसकी मारण-शक्ति क्षीण हो गई है ऐसे विष-द्रव्य को खाने पर भी मरण नहीं होता है वा वह विष-द्रव्य मारने में समर्थ नहीं है; उसी प्रकार ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा घातिया-कर्म रूपी ईंधन के जल जाने पर अप्रतिहत (अनन्त) ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य रूप अनन्त चतुष्टय के धारी केवली-भगवान के अन्तराय कर्म का अभाव हो जाने से प्रतिक्षण शुभ-कर्म पुद्गलों का संचय होता रहता है अत: प्रक्षीण-सहाय वेदनीय-कर्म के उदय का सदभाव होने पर भी वह अपना कार्य नहीं कर सकता तथा सहकारी कारण के बिना स्वयोग्य प्रयोजन उत्पादन के प्रति असमर्थ होने से क्षुधादि का अभाव है । जैसे १३वें गुणस्थान में ध्यान को उपचार से कहा जाता है, वैसे ही वेदनीय का सदभाव होने से केवली में ११ परीषह उपचार में कही जाती हैं । अथवा, यह वाक्यशेष नहीं है कि केवली में ११ परीषह कोई मानते हैं ? अपितु केवली के ११ परीषह हैं ऐसा अर्थ करना चाहिये । जैसे -- समस्त ज्ञानावरण कर्म का नाश ही जाने के कारण परिपूर्ण केवल-ज्ञानी, केवली-भगवान में 'एकाग्रचिन्तानिरोध' का अभाव होने पर भी कर्मरज के विघ्न-रूप (कर्म-नाश रूपी) ध्यान के फल को देखकर उपचार से केवली में ध्यान का सद्भाव माना जाता है; उसी प्रकार क्षुधा आदि वेदना रूप वास्तविक परीषहों का अभाव होने पर भी वेदनीय कर्मोंदय रूप द्रव्य-परीषह का सद्भाव देखकर ग्यारह परीषहों का केवली-भगवान में उपचार कर लिया जाता है ।

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    + बादर साम्पराय गुणस्थान तक परीषह -
    बादर-साम्पराये सर्वे ॥12॥
    अन्वयार्थ : बादर साम्पराय गुणस्थान तक सभी परीषह सम्भव हैं ॥१२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    साम्पराय कषाय को कहते हैं। जिसके साम्पराय बादर होता है वह बादर साम्पराय कहलाता है। यह गुणस्थान विशेष का ग्रहण नहीं है। तो क्या है ? सार्थक निर्देश है। इससे प्रमत्त आदिक संयतों का ग्रहण होता है। इनमें कषाय और दोषों के अथवा कषाय दोष के क्षीण न होने से सब परीषह सम्भव हैं।

    शंका – तो किस चारित्र में सब परीषह सम्भव हैं ?

    समाधान – सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि संयम इनमें से प्रत्येक में सब परीषह सम्भव हैं।

    कहते हैं - इन परीषहों के स्थान विशेष का अवधारण किया, किन्तु हम यह नहीं जानते कि किस प्रकृति का क्या कार्य है इसलिये यहाँ पर कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    बादरसाम्पराय - अर्थात् प्रमत्तसंयत आदि बादरसाम्पराय तक के साधुओं के ज्ञानावरणादि समस्त निमित्तों के विद्यमान रहने से सभी परीषह होते हैं। सामायिक छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि के चारित्र में सभी परीषहों की संभावना है।

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    + ज्ञानावरण से परीषह -
    ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने ॥13॥
    अन्वयार्थ : ज्ञानावरण के सद्भाव में प्रज्ञा और अज्ञान, दो परीषह होती हैं ॥१३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    शंका – यह अयुक्त है ?

    उत्तर – यहाँ क्या अयुक्त है।

    शंका – माना कि ज्ञानावरण के होने पर अज्ञान परीषह उत्पन्न होता है, परन्तु प्रज्ञा परीषह उसके अभाव में होता है, इसलिये वह ज्ञानावरण के सद्भाव में कैसे हो सकता है ?

    समाधान – यहाँ कहते हैं - क्षयोपशमिकी प्रज्ञा अन्य ज्ञानावरण के होने पर मद को उत्पन्न करती है, समस्त ज्ञानावरण के क्षय होने पर नहीं, इसलिये ज्ञानावरण के होने पर प्रज्ञा परीषह होती है यह कथन बन जाता है।


    पुन: अन्य दो परीषहों की प्रकृति विशेष का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    ज्ञानावरण के उदय से प्रज्ञा और अज्ञान परीषह होती हैं। क्षायोपशमिकी प्रज्ञा अन्य ज्ञानावरण के उदय में मद उत्पन्न करती है, समस्त ज्ञानावरण का क्षय होने पर मद नहीं होता । अतः प्रज्ञा और अज्ञान दोनों ज्ञानावरण से उत्पन्न होते हैं । मोहनीयकर्म के भेद गिने हुए हैं और उनके कार्य भी दर्शन, चारित्र आदि का नाश करना सुनिश्चित है अतः 'मैं बड़ा विद्वान् हूँ' यह प्रज्ञामद मोह का कार्य न होकर ज्ञानावरण का कार्य है। चारित्रवालों के भी प्रज्ञापरीषह होती है।

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    + दर्शनमोह और अन्त‍राय से परीषह -
    दर्शन-मोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ॥14॥
    अन्वयार्थ : दर्शनमोह और अन्त‍राय के सद्भाव में क्रम से अदर्शन और अलाभ परीषह होते हैं ॥१४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    इस सूत्र में 'यथासंख्य‍' पद का सम्बन्ध होता है। दर्शनमोह के सद्भाव में अदर्शन परीषह होता है और लाभान्तराय के सद्भाव में अलाभ परीषह होता है।


    कहते हैं - यदि आदि के मोहनीय के भेद के होने पर एक परीषह होता है तो दूसरे भेद के होने पर कितने परीषह होते हैं, इसलिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    'दर्शनमोह' इस विशिष्ट कारण का निर्देश करने से अवधिदर्शन आदि का सन्देह नहीं रहता । अन्तराय सामान्य का निर्देश होने पर भी यहाँ सामर्थ्यात् लाभान्तराय ही विवक्षित है। अर्थात्, अदर्शन परीषह दर्शनमोह के उदय से और अलाभ परीषह लाभान्तराय के उदय से होती है।

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    + चारित्रमोह से परीषह -
    चारित्रमोहे नाग्न्यारति-स्त्री-निषद्या-क्रोश-याचना-सत्कारपुरस्कारा: ॥15॥
    अन्वयार्थ : चारित्रमोह के सद्भाव में नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कारपुरस्कार परीषह होते हैं ॥१५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    शंका – नाग्न्यादि परीषह पुंवेदोदय आदि के निमित्त से होते हैं, इसलिये मोहोदय को उनका निमित्त कहते हैं पर निषद्या परीषह मोहोदय के निमित्त से कैसे होता है ?

    समाधान – उसमें भी प्राणिपीड़ा के परिहार की मुख्यता होने से वह मोहोदय निमित्तक माना गया है, क्योंकि मोहोदय के होने पर प्राणिपीड़ारूप परिणाम होता है।


    अब अवशिष्ट परीषहों की प्रकृति विशेष का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    पुंवेद आदि चारित्रमोह के उदय से नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कारपुरस्कार परीषह होती हैं। मोह के उदय से ही प्राणिहिंसा के परिणाम होते हैं अतः निषधापरीषह भी मोहोदय-हेतुक ही समझनी चाहिये।

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    + वेदनीय से परीषह -
    वेदनीये शेषा: ॥16॥
    अन्वयार्थ : बाकी के सब परीषह वेदनीय के सद्भाव में होते हैं ॥१६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    ग्यारह परीषह पहले कह आये हैं। उनसे अन्य शेष परीषह हैं। वे वेदनीय के सद्भाव में होते हैं। यहाँ 'भवन्ति' यह वाक्य शेष है।

    शंका – वे कौन-कौन हैं ?

    समाधान – क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण , दंशमशक, चर्या, श्य्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मलपरीषह।

    कहते हैं, परीषहों के निमित्त, लक्षण और भेद कहे। प्रत्येक आात्मा में उत्पन्न होते हुए वे एक साथ कितने हो सकते हैं, इस बात को बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल ये शेष ग्यारह परीषह वेदनीय से होती हैं। 'वेदनीय' में सप्तमी विभक्ति कर्मसंयोगार्थक नहीं है किन्तु विद्यमानार्थक है। जैसे -- 'गोषु दुह्यमानासु गतः दुग्धासु आगतः' यहाँ सप्तमी है उसीतरह वेदनीय के रहनेपर ये परीषह होती हैं यहाँ समझना चाहिये।

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    + एक साथ एक जीव के परीषह -
    एकादयो भाज्या युगपदेक-स्मिन्नैकोनविंशते: ॥17॥
    अन्वयार्थ : एक साथ एक जीव के उन्नीस परीषह तक होती हैं ॥१७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    यहाँ 'आड्.' अभिविधि अर्थ में आया है। इससे किसी एक आत्मा में एक साथ उन्नीस भी सम्भव हैं यह ज्ञात होता है।

    शंका – यह कैसे ?

    समाधान – एक आत्मा में शीत और उष्ण परीषहों में से कोई एक तथा शय्या, निषद्या और चर्या इन तीनों के एक साथ होने में विरोध आता है। इन तीनों के निकाल देने पर एक साथ एक आतमा में इतर परीषह सम्भव होने से वे सब मिलकर उन्नीस परीषह जानना चाहिए।

    शंका – प्रज्ञा और अज्ञान परीषह में भी विरोध है, इसलिये इन दोनों का एक साथ होना असम्भव है?

    समाधान – एक साथ एक आत्मा में श्रुतज्ञान की अपेक्षा प्रज्ञा परीषह और अवधिज्ञान आदि के अभाव की अपेक्षा अज्ञान परीषह रह सकते हैं, इसलिये कोई विरोध नहीं है।


    कहते हैं, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परीषहजय ये पाँच संवर के हेतु कहे। अब चारित्रसंज्ञक संवर का हेतू कहना चाहिये, इसलिये उसके भेद दिखलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-2. 'आङ्' अभिविधि अर्थ में है, अतः किसी के 19 भी परीषह होती हैं। शीत और उष्ण में से कोई एक तथा शय्या, निषद्या और चर्या में से कोई एक परीषह होने से 19 परीषह होती हैं।

    3-6. श्रुतज्ञान की अपेक्षा प्रज्ञाप्रकर्ष होनेपर भी अवधि आदि की अपेक्षा अज्ञान हो सकता है अतः दोनों को एक साथ होने में कोई विरोध नहीं है। 'प्रज्ञा और अज्ञान का विरोध होने पर भी दंश और मशक को जुदी-जुदी परीषह मानकर उन्नीस संख्या का निर्वाह किया जा सकता है' यह समाधान ठीक नहीं है क्योंकि 'दंशमशक' यह एक ही परीषह है। मशक शब्द तो प्रकारवाची है। दंश शब्द से ही तुल्य जातियों का बोध करके मशक शब्द को निरर्थक कहना उचित नहीं है, क्योंकि इससे श्रुतिविरोध होता है। जो शब्द जिस अर्थ को कहे वही प्रमाण मानना चाहिये । दंश शब्द प्रकारार्थक तो है नहीं । यद्यपि मशक शब्द का भी सीधा प्रकार अर्थ नहीं होता पर जब दंश शब्द डाँस अर्थ को कहकर परीषह का निरूपण कर देता है तब मशक शब्द प्रकार अर्थ का ज्ञापन करा देता है।

    7. प्रश्न – चर्यादि तीन परिषह समान हैं, एक साथ नहीं हो सकतीं, क्योंकि बैठने में परीषह आने पर सो सकता है, सोने में परीषह आने पर चल सकता है, और सहनविधि एक जैसी है तब इन्हें एक परीषह मान लेना चाहिये और दंशमशक को दो स्वतन्त्र परीषह मानकर परीषहों की कुल संख्या 21 रखनी चाहिये। फिर एक काल में शीत-उष्ण में से एक तथा शय्या-चर्या और निषद्या की प्रतिनिधि एक इस तरह दो परीषहों को कम कर 17 की संख्या का निर्वाह कर लेना चाहिये ?

    उत्तर – अरति यदि रहती है तो परीषहजय नहीं कहा जा सकता। यदि साधु चर्या कष्ट से उद्विग्न होकर बैठ जाता है या बैठने से उद्विग्न होकर लेट जाता है तो परीषहजय कैसा ? यदि 'परीषहों को जीतूंगा' इस प्रकार की रुचि नहीं है तो वह परीषहजयी नहीं कहा जा सकता । अतः तीनों क्रियाओं के कष्टों को जीतना और एक के कष्ट के निवारण के लिए दूसरे की इच्छा न करना ही परीषहजय है । अतः तीनों को स्वतन्त्र और दंशमशक को एक ही परीषहजय मानना उचित है।


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    + चारित्र के प्रकार -
    सामायिकच्छेदोपस्थापना-परिहारविशुद्धि-सूक्ष्मसाम्पराय-यथाख्यात-मितिचारित्रम् ॥18॥
    अन्वयार्थ : सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात यह पाँच प्रकार का चारित्र है ॥१८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    शंका – दश प्रकार के धर्म में संयम का कथन कर आये हैं और वह ही चारित्र है, इसलिये उसका फिर के ग्रहण करना निरर्थक है ?

    समाधान – निरर्थक नहीं है, क्योंकि धर्म में अन्तर्भाव होने पर भी चारित्र मोक्ष-प्राप्ति का साक्षात कारण है यह दिखलाने के लिए उसका अन्त में ग्रहण किया है।

    सामायिक का कथन पहले कर आये हैं।

    शंका – कहाँ पर?

    समाधान –'दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिक' –इस सूत्र का व्यानख्यान करते समय। वह दो प्रकार का है- नियतकाल और अनियतकाल। स्वाध्याय आदि नियतकाल सामायिक है और ईर्यापथ आदि अनियतकाल सामायिक है।

    प्रमाद कृत अनर्थप्रबन्ध का अर्थात हिंसादि अव्रतों के अनुष्ठान का विलोप अर्थात सर्वथा त्याग करने पर जो भले प्रकार प्रतिक्रिया अर्थात पुन: व्रतोंका ग्रहण होता है वह छेदोपस्थापना चारित्र है। अथवा विकल्पों की निवृत्ति का नाम छेदोपस्थाापना चारित्र है।

    प्राणि वध से निवृत्ति को परिहार कहते हैं। इससे युक्त शुद्धि जिस चारित्र में होती है वह परिहारविशुद्धि चारित्र है। जिस चारित्र में कषाय अतिसूक्ष्म हो जाता है वह सूक्ष्म साम्परायचारित्र है। समस्त मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से जैसा आत्मा का स्वभाव है उस अवस्था स्वरूप अपेक्षा लक्षण जो चारित्र होता है वह अथाख्यातचारित्र कहा जाता है। पूर्व चारित्र का अनुष्ठान करने वालों ने जिसका कथन किया है पर मोहनीय के क्षय या उपशम होने के पहले जिसे प्राप्त नहीं किया, इसलिये उसे अथाख्यात कहते हैं। 'अथ' शब्द 'अनन्तर' अर्थवर्ती होने से समस्त मोहनीय कर्म के क्षय या उपशम के अनन्तर वह आविर्भूत होता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है। अथवा इस चारित्र का एक नाम यथाख्यात भी है। जिस प्रकार आत्मा का स्वभाव अवस्थित है उसी प्रकार यह कहा गया है, इसलिये इसे यथाख्यात कहते हैं।

    सूत्र में आया हुआ 'इति' शब्द परिसमाप्ति अर्थ में जानना चाहिये। इसलिये इससे यथाख्यात चारित्र से समस्त कर्मों के क्षय की परिसमाप्ति होती है यह जाना जाता है। उत्तरोत्तर गुणों के प्रकर्ष का ख्यापन करने के लिए सामायिक, छेदोपस्थापना इत्यादि क्रम से इनका नाम निर्देश किया है।


    कहते हैं, चारित्र का कथन किया। संवर के हेतुओं का निर्देश करने के बाद 'तपसा निर्जरा च' यह सूत्र कहा है, इसलिये यहाँ तप का विधान करना चाहिये, अत: यहाँ कहते हैं- वह दो प्रकार का है- बाह्य और आभ्यन्तर। उसमें भी यह प्रत्येक छह प्रकार का है। उनमें से पहले बाह्य तप के भेदों का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-5. आय-अनर्थ हिंसादि, उनसे सतर्क रहना । सभी सावद्य-योगों का अभेदरूप से सार्वकालिक त्याग अथवा नियत-समय तक त्याग सामायिक है। सामायिक को गुप्ति नहीं कह सकते क्योंकि गुप्ति में तो मन के व्यापार का भी निग्रह किया जाता है जब कि सामायिक में मानस प्रवृत्ति होती है । इसे प्रवृत्तिरूप होने से समिति भी नहीं कह सकते क्योंकि सामायिक चारित्र में समर्थ व्यक्ति को ही समितियों में प्रवृत्ति का उपदेश है । सामायिक कारण है और समिति कार्य । यद्यपि संयमधर्म में चारित्र का अन्तर्भाव हो सकता है; पर चारित्र मोक्ष-प्राप्ति का साक्षात् कारण है और वह समस्त कर्मों का अन्त करनेवाला है इस बात की सूचना देने के लिए उसका पृथक् और अन्त में वर्णन किया है।

    6-7. त्रस-स्थावर जीवों की उत्पत्ति और हिंसा के स्थान चूँकि छद्मस्थ के अप्रत्यक्ष हैं अतः प्रमादवश स्वीकृत निरवद्य क्रियाओं में दूषण लगने पर उसका सम्यक् प्रतीकार करना छेदोपस्थापना है। अथवा, सावद्यकर्म हिंसादि के भेद से पाँच प्रकार के हैं, इत्यादि विकल्पों का होना छेदोपस्थापना है।

    8. जिसमें प्राणिवध के परिहार के साथ ही साथ विशिष्ट शुद्धि हो वह परिहारविशुद्धि चारित्र है। यह चारित्र साधु के ही होता है अन्य के नहीं।

    9-10.

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    + तप के प्रकार -
    अनशनावमौदर्य-वृत्तिपरिसंख्यान-रस-परित्याग-विविक्तशय्यासन-कायक्लेशा बाह्यं तप: ॥19॥
    अन्वयार्थ : अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश यह छह प्रकार का बाह्य तप है ॥१९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    दृष्टफल मन्त्र साधना आदि की अपेक्षा किये बिना संयम की सिद्धि, राग का उच्छेद, कर्मों का विनाश, ध्यान और आगम की प्राप्ति के लिए अनशन तप किया जाता है।

    संयम को जागृत रखने, दोषों के प्रशम करने, सन्तोष और स्वाध्याय आदि की सुखपूर्वक सिद्धि के लिए अवमौदर्य तप किया जाता है।

    भिक्षा के इच्छुक मुनि का एक घर आदि विषयक संकल्प अर्थात चिन्ता का अवरोध करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है। आशा की निवृत्ति इसका फल जानना चाहिये।

    इन्द्रियों के दर्प का निग्रह करने के लिए, निद्रा पर विजय पाने के लिए और सुख पूर्वक स्वाध्याय की सिद्धि के लिए घृतादि गरिष्ठ रस का त्याग करना चौथा तप है।

    एकांत, जन्तुओं की पीडा से रहित शून्य घर आदि में निर्बाध ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान आदि की प्रसिद्धि के लिए संयत को शय्यासन लगाना चाहिये। ये पांचवा तप है।

    आतापन योग, वृक्ष के मूल में निवास, निरावरण शयन और नाना प्रकार के प्रतिमास्थान इत्यादि करना कायक्लेश है, यह छठा तप है। यह किसलिए किया जाता है यह देह-दु:ख को सहन करने के लिए, सुखविषयक आसक्ति को कम करने के लिए और प्रवचन की प्रभावना करने के लिए किया जाता है।

    शंका – परीषह और कायक्लेश में क्या अन्तर है ?

    समाधान – अपने आप प्राप्त हुआ परीषह और स्वयं किया गया कायक्लेश है, यही इन दोनों में अन्तर है।

    शंका – इस तप को बाह्य क्यों कहते हैं ?

    समाधान – यह बाह्य-द्रव्य के आलम्बन से होता है। और दूसरों के देखने में आता है, इसलिये इसे बाह्य तप कहते हैं।

    अब आभ्यन्त‍र तप के भेदों को दिखलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    1-2. अनशन दो प्रकार का है - एक बार भोजन या एक दिन बाद भोजन आदि नियतकालिक अनशन है और शरीरत्याग पर्यन्त अनशन अनवधृतकालिक है । मन्त्रसाधन इष्टफल की अपेक्षा के बिना किया गया उपवास अनशन कहलाता है। संयमप्रसिद्धि, रागोच्छेद, कर्मविनाश, ध्यान और आगमबोध आदि के लिए अनशन की सार्थकता है।

    3. तृप्ति के लिए पर्याप्त भोजन में से चौथाई या दो चार ग्रास कम खाना अवमोदर्य है। इससे संयम की जागरूकता, दोषप्रशम सन्तोष और स्वाध्यायसुख आदि प्राप्त होते हैं।

    4. आशा-तृष्णा की निवृत्ति के लिए भिक्षा के समय साधु का एक, दो या तीन घर का नियम कर लेना वृत्तिपरिसंख्यान है।

    5-8. जितेन्द्रियत्व, तेजोवृद्धि और संयमबाधानिवृत्ति आदि के लिए घी, दही, गुड़ और तैल आदि का त्याग करना रस-परित्याग है। रस शब्द गुणवाची है, चूँकि गुण का त्याग न होकर गुणवान् द्रव्य का त्याग होता है, अतः यहाँ 'शुक्लः पटः' की तरह मतुप् का लोप समझ लेना चाहिये । अथवा गुणी को छोड़कर गुण भिन्न तो होता नहीं है, अत: सामर्थ्य से गुणवान का बोध हो जाता है। द्रव्यत्याग से ही गुणत्याग की सम्भावना है। यद्यपि सभी पुद्गल रसवाले हैं पर यहाँ प्रकर्षरसवाले द्रव्य की विवक्षा है जैसे कि 'अभिरूप को कन्या देनी चाहिये' यहाँ सुन्दर या विशिष्ट रूपवान की विवक्षा होती है । अतः सभी द्रव्यों के त्याग का प्रसंग नहीं है।

    9-11. प्रश्न – अनशन, अवमोदर्य और रस-परित्याग का भिक्षानियमकारी वृत्तिपरिसंख्यान में ही अन्तर्भाव कर देना चाहिये। क्योंकि ये भी भिक्षा का नियम नहीं करते हैं । यदि वृत्तिपरिसंख्यान के भेद मानकर भी इन्हें पृथक गिनाया जाता है तो फिर गिनती की कोई व्यवस्था ही नहीं रहेगी ?

    उत्तर – भिक्षा के लिए गया हुआ साधु इतने घरों तक या इतने क्षेत्र तक कायचेष्टा करे; कभी यथाशक्ति विषय नियम भी करे इस प्रकार कायचेष्टा आदि का नियमन वृत्तिपरिसंख्यान में होता है, अनशन में भोजनमात्रा की निवृत्ति और अवमोदर्य और रसपरित्याग में भोजन की आंशिक निवृत्ति होती है। अतः तीनों में महान् भेद है।

    12. बाधानिवारण, ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान आदि के लिए निर्जन्तु, शून्यागार, गिरिगुफा आदि एकान्त स्थान में बैठना, सोना आदि विविक्तशय्यासन है।

    13-16. अनेक प्रकार के प्रतिमायोग धारण करना, मौन रहना, आतापन, वृक्षमूलनिवास आदि से शरीरपरिवेद करना कायक्लेश है। इससे अचानक दुःख आने पर सहनशक्ति बनी रहती है और विषय सुख में अनासक्ति होती है। प्रवचनप्रभावना भी क्लेश का एक उद्दश्य है। अन्यथा ध्यान आदि के समय सुखशील व्यक्ति को द्वन्द्व आने पर चित्त का समाधान नहीं हो सकेगा । कायक्लेश तप परीषहजातीय नहीं है। क्योंकि परीषह जब चाहे आते हैं और कायक्लेश बुद्धिपूर्वक किया जाता है। सभी तपों में ऐहलौकिक फल की कामना नहीं होनी चाहिये । 'सम्यक्' पद की अनुवृत्ति आने से इष्टफल निरपेक्षता का होना तपों में अनिवार्य है। बाह्य अशन आदि द्रव्यों की अपेक्षा रखने से, बाह्यजन, अन्य मतवाले और गृहस्थ भी चूँकि इन तपों को करते हैं तथा दूसरों के द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञेय होने से इन तपों को बाह्यतप कहते हैं। जैसे अग्नि संचित तृण आदि ईंधन को भस्म कर देती है उसी तरह अनशनादि अर्जित मिथ्यादर्शन आदि कर्मों का दाह करते हैं तथा देह और इन्द्रियों की विषयप्रवृत्ति रोककर उन्हें, तपा देते हैं अतः ये तप कहे जाते हैं । इनसे इन्द्रिय-निग्रह सहज हो जाता है।

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    + आभ्यन्तर तप -
    प्रायश्चित्त-विनय-वैयावृत्त्य-स्वाध्याय-व्युत्सर्ग-ध्यानान्युत्तरम् ॥20॥
    अन्वयार्थ : प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्यु‍त्सर्ग और ध्यान यह छह प्रकार का आभ्यन्तर तप है ॥२०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    शंका – इसे आभ्य‍न्त‍र तप क्यों कहते हैं ?

    समाधान – मन का नियमन करने वाला होने से इसे आभ्यन्त‍र तप कहते हैं।

    प्रमादजन्य दोष का परिहार करना प्रायश्चित्त तप है।

    पूज्य पुरूषों का आदर करना विनय तप है।

    शरीर की चेष्टा या दूसरे द्रव्य द्वारा उपासना करना वैयावृत्य तप है।

    आलस्य का त्याग कर ज्ञान की आराधना करना स्वाध्याय तप है।

    अहंकार और ममकाररूप संकल्प का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है, तथा

    चित्त के विक्षेप का त्याग करना ध्यान तप है।


    अब इनके भेदों को दिखलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    प्रायश्चित्त आदि तप चूँकि बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नहीं करते, अन्तःकरण के व्यापार से होते हैं तथा अन्य मतवालों से अनभ्यस्त और अप्राप्तपार हैं अतः ये उत्तर अर्थात् आभ्यन्तर तप है।

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    + आभ्यन्तर तपों के उपभेद -
    नवचतुर्दश-पञ्च द्विभेदा यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् ॥21॥
    अन्वयार्थ : ध्यान से पूर्व के आभ्यन्तर तपों के अनुक्रम से नौ, चार, दश, पांच और दो भेद हैं ॥२१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सूत्र में 'यथाक्रमम्' यह वचन दिया है। इससे प्रायश्चित्त नौ प्रकार का है, विनय चार प्रकार का है, वैयावृत्य दश प्रकार का है, स्वाध्याय पाँच प्रकार का है, और व्युरत्सर्ग दो प्रकार का है । ऐसा सम्बन्ध होता है। सूत्र में-'प्रागध्यानात्' यह वचन दिया है, क्योंकि ध्यान के विषय में बहुत कुछ कहना है, इसलिये उसका आगे कथन करेंगे।

    अब पहले आभ्यन्तर तप के भेदों के स्वरूप का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-2. नव आदि संख्यापदों की भेद शब्द के साथ अन्य पदार्थ प्रधान समास है। यद्यपि द्वन्द्व में स्वन्त और अल्पाच्तर तथा अल्प संख्या का पूर्व निपात होता है फिर भी पूर्व सूत्र में निर्दिष्ट प्रायश्चित्त आदि से क्रमशः सम्बन्ध करने के लिए द्वि शब्द का पूर्वनिपात नहीं किया। यदि यही आग्रह है कि प्रयोजन रहने पर भी व्याकरण का उल्लंघन नहीं किया जा सकता तो 'राजदन्तादि' में पाठ करके निर्वाह कर लिया जायगा। ध्यान से पहिले-पहिले क्रमशः नव आदि संख्याओं का सम्बन्ध कर लेना चाहिये।

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    + प्रायश्चित्त के प्रकार -
    आलोचना-प्रतिक्रमण-तदुभय-विवेक-व्युत्सर्ग-तपश्छेदपरिहारो-पस्थापना: ॥22॥
    अन्वयार्थ : आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्था‍पना यह नव प्रकार का प्रायश्चित्त है ॥२२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    गुरू के समक्ष दश दोषों को टालकर अपने प्रमाद का निवेदन करना आलोचना है।

    'मेरा दोष मिथ्या हो' गुरू से ऐसा निवेदन करके अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना प्रतिक्रमण है।

    आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनों का संसर्ग होने पर दोषों का शोधन होने से तदुभय प्रायश्चित्त है।

    संसक्त‍ हुए अन्न, पान और उपकरण आदि का विभाग करना विवेक प्रायश्चित्त है।

    कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है।

    अनशन, अवमौदर्य आदि करना तप प्रायश्चित्त है।

    दिवस, पक्ष और महीना आदि की प्रव्रज्या का छेद करना छेद प्रायश्चित्त है।

    पक्ष, महीना आदि के विभाग से संघ से दूर रखकर त्याग करना परिहार प्रायश्चित्त है।

    पुन: दीक्षा का प्राप्त करना उपस्थापना प्रायश्चित्त है।

    विनय के भेदों का ज्ञान कराने के लिये आगे का सूत्र कहते हैं :-

    राजवार्तिक :
    1. प्रायः साधुलोक, जिस क्रिया में साधुओं का चित्त हो वह प्रायश्चित्त । अथवा, प्रायअपराध, उसका शोधन जिससे हो वह प्रायश्चित्त । प्रमाद, दोष, व्युदास, भावप्रसाद, निःशल्यत्व, अव्यवस्थानिवारण, मर्यादा का पालन, संयम की दृढ़ता, आराधना सिद्धि आदि के लिए प्रायश्चित्त से विशुद्ध होना आवश्यक है।

    2. एकान्त में विराजमान प्रसन्नचित्त गुरु के समक्ष देशकालज्ञ शिष्य के द्वारा सविनय आत्मदोषों का निवेदन करना आलोचन है। आलोचना दस दोष रहित करनी चाहिये। वे दोष ये हैं - अपने मन में दोषों को अधिक समय तक न रखकर निष्कपट वृत्ति से बालक की तरह सरलतापूर्वक दोष निवेदन करने में न तो ये दोष होते हैं और न अन्य ही। साधु का आलोचन तो एकान्त में आलोचक और आचार्य इन दो की उपस्थितिमें हो जाता है पर आर्यिका का आलोचन खुले सार्वजनिक स्थान में तीन व्यक्तियों की उपस्थिति में होता है। लज्जा और परतिरस्कार आदि के कारण दोषों का निवेदन करके भी यदि उनका शोधन नहीं किया जाता है तो अपनी आमदनी और खर्च का हिसाब न रखनेवाले कर्जदार की तरह दुःख का पात्र होना पड़ता है। बड़ी भारी दुष्कर तपस्याएँ भी आलोचना के बिना उसी तरह इष्टफल नहीं दे सकतीं जिस प्रकार विरेचन से शरीर की मलशुद्धि किये बिना खाई गई औषधि । आलोचन करके भी यदि गुरु के द्वारा दिये गये प्रायश्चित्त का अनुष्ठान नहीं किया जाता है तो वह बिना संवारे धान्य की तरह महाफलदायक नहीं हो सकता। आलोचनायुक्त चित्त से किया गया प्रायश्चित्त माँजे हुए दर्पण में रूप की तरह निखरकर चमक जाता है।

    3. कर्मवश या प्रमाद आदि से हुए दोषों का 'मिथ्या मे दुष्कृतम्' इस रूप से प्रतीकार करना प्रतिक्रमण है।

    4. कुछ दोष आलोचनामात्र से शुद्ध होते हैं, कुछ प्रतिक्रमण से तथा कुछ दोनों से शुद्ध होते हैं। यह तदुभय है। सभी प्रतिक्रमण नियम से आलोचनपूर्वक होते हैं । यह गुरु की आज्ञा से शिष्य करता है। जहाँ केवल प्रतिक्रमण से दोषशुद्धि होती है वहाँ वह स्वयं गुरु के द्वारा ही किया जाता है; क्योंकि गुरु स्वयं किसी अन्य से आलोचना नहीं करता।

    5-10. प्राप्त अन्न-पान और उपकरण आदि का त्याग विवेक है। काल का नियम करके कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग है। अनशन और अवमोदर्य आदि तप हैं। चिर-प्रव्रजित साधु की अमुक दिन पक्ष और माह आदि की दीक्षा का छेद करना छेद है। पक्ष, माह आदि तक संघ से बाहिर रखना परिहार है। महाव्रतों का मूलच्छेद करके फिर दीक्षा देना उपस्थापना है ।

    विद्या और ध्यान के साधनों के ग्रहण करने आदि में प्रश्न-विनय के बिना प्रवृत्ति करना दोष है, उसका प्रायश्चित्त मात्र आलोचना है। देश और काल के नियम से अवश्यकर्तव्य विधानों को धर्मकथा आदि के कारण भूल जाने पर पुनः करने के समय प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है। भय, शीघ्रता, विस्मरण, अज्ञान, अशक्ति और आपत्ति आदि कारणों से महाव्रतों में अतिचार लगने पर छेद से पहिले के छहों प्रायश्चित्त होते हैं । शक्ति को न छिपाकर प्रयत्न से परिहार करते हुए भी किसी कारणवश अप्रासुक के स्वयं ग्रहण करने या ग्रहण कराने छोड़े हुए प्रासुक का विस्मरण हो जाय और करने पर उसका स्मरण आ जाय तो उसका पुनः उत्सर्ग करना ही प्रायश्चित्त है। दुःस्वप्न, दुश्चिन्ता, मलोत्सर्ग, मूत्र का अतिचार, महानदी और महाअटवी के पार करने आदि में व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है । बार-बार प्रमाद, बहुदृष्ट अपराध, आचार्यादि के विरुद्ध वर्तन करना तथा विरुद्धदृष्टि-सम्यग्दर्शन की विराधना होने पर क्रमशः अनुपस्थापन और पारंचिक विधान किया जाता है । ये नवों प्रायश्चित्त देश, काल, शक्ति और संयम आदि के अविरोध रूप से अपराध के अनुसार दोषप्रशमन के लिये औषधि की तरह ग्रहण करने चाहिये । यद्यपि जीव के परिणाम असंख्येय-लोक-प्रमाण हैं और अपराध भी उतने ही हैं पर प्रायश्चित्त तो उतने प्रकार के नहीं हो सकते। अतः व्यवहारनय से वर्गीकरण करके प्रायश्चित्तों का स्थूल निर्देश किया है।

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    + विनय के प्रकार -
    ज्ञान-दर्शन-चारित्रोपचारा: ॥23॥
    अन्वयार्थ : ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय और उपचार विनय यह चार प्रकार का विनय है ॥२३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अधिकार के अनुसार 'विनय' इस पद का सम्बन्ध होता है- ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचार विनय।

    बहुत आदर के साथ मोक्ष के लिए ज्ञान का ग्रहण करना, उसका अभ्यास करना और स्मरण करना आदि ज्ञानविनय है।

    शंकादि दोषों से रहित तत्वार्थ का श्रद्धान करना दर्शनविनय है।

    सम्यग्दृष्टि का चारित्र में चित्त का लगना चारित्रविनय है। तथा

    आचार्य आदिक के समक्ष आने पर खड़े हो जाना, उनके पीछे-पीछे चलना और नमस्कार करना आदि उपचार विनय है तथा उनके परोक्ष में भी काय, वचन और मन से नमस्कार करना, उनके गुणों का कीर्तन करना और स्मरण करना आदि उपचार विनय है।


    अब वैयावृत्य‍ के भेदों का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1. विनय की अनुवृत्ति करके प्रत्येक से उसका सम्बन्ध कर देना चाहिये - ज्ञान-विनय, दर्शन-विनय, चारित्र-विनय और उपचार-विनय आदि ।

    2. आलस्यरहित हो देशकालादि की विशुद्धि के अनुसार शुद्धचित्त से बहुमानपूर्वक यथाशक्ति मोक्ष के लिये ज्ञानग्रहण अभ्यास और स्मरण आदि करना ज्ञानविनय है।

    3. जिनेन्द्रभगवान् ने सामायिक आदि लोकबिन्दुसार पर्यन्त श्रुतमहासमुद्र में पदार्थों का जैसा उपदेश दिया है उसका उसी रूप से श्रद्धान करने आदि में निःशंक आदि होना दर्शनविनय है।

    4. ज्ञान और दर्शनशाली पुरुष के पाँच प्रकार के दुश्चर चारित्रों का वर्णन सुनकर रोमांच आदि के द्वारा अन्तर्भक्ति प्रकट करना, प्रणाम करना, मस्तक पर अंजलि रखकर आदर प्रकट करना और उसका भावपूर्वक अनुष्ठान करना चारित्रविनय है।

    5-6. पूज्य आचार्यादि को सामने देखकर खड़े हो जाना, उनके पीछे चलना अंजलि जोड़ना और वन्दना आदि करना उपचार-विनय हैं। यदि आचार्य परोक्ष हैं तब भी उनके प्रति अंजलि धारण करना, उनके गुणों का संकीर्तन, अनुस्मरण और मन-वचन-काय से उनकी आज्ञा का पालन करना उपचारविनय है।

    7. ज्ञानलाभ, आचारविशुद्धि और सम्यगआराधना आदि की सिद्धि विनय से होती है और अन्त में मोक्षसुख भी इसी से मिलता है, अतः विनयभाव अवश्य ही रखना चाहिये।

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    + वैयावृत्य के प्रकार -
    आचार्योपाध्याय-तपस्वि-शैक्ष्य-ग्लान-गण-कुल-संघ-साधु-मनोज्ञानाम् ॥24॥
    अन्वयार्थ : आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इनकी वैयावृत्य के भेद से वैयावृत्य दश प्रकार का है ॥२४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    वैयावृत्य के दश भेद हैं, क्योंकि उसका विषय दश प्रकार का है। यथा- आचार्य-वैयावृत्य और उपाध्याय-वैयावृत्य आदि।

    जिसके निमित्त से व्रतों का आचरण करते हैं वह आचार्य कहलाता है।

    मोक्ष के लिए पास जाकर जिससे शास्त्र पढ़ते हैं वह उपाध्याय कहलाता है।

    महोपवास आदि का अनुष्ठान करने वाला तपस्वी कहलाता है।

    शिक्षाशील शैक्ष कहलाता है।

    रोग आदि से क्लान्त शरीर वाला ग्लान कहलाता है।

    स्थविरों की सन्तति को गण कहते हैं।

    दीक्षकाचार्य के शिष्य समुदाय को कुल कहते हैं।

    चार वर्ण के श्रमणों के समुदाय को संघ कहते हैं।

    चिरकाल से प्रव्रजित को साधु कहते हैं।

    लोकसम्म‍त साधु को मनोज्ञ कहते हैं।

    इन्हें व्याधि होने पर, परीषह के होने पर व मिथ्यात्व आदि के प्राप्त होने पर शरीर की चेष्टा द्वारा या अन्य द्रव्य द्वारा उनका प्रतीकार करना वैयावृत्य तप है। यह समाधि की प्राप्ति, विचिकित्सा का अभाव और प्रवचनवात्सल्य की अभिव्यक्ति के लिए किया जाता है।

    स्वाध्याय के भेदों का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-2. वैयावृत्त्य की अनुवृत्ति करके उसका आचार्य वैयावृत्त्य आदि रूप से प्रत्येक के साथ सम्बन्ध कर लेना चाहिये। कामचेष्टा या अन्य द्रव्यों से व्यावृत्त पुरुष का भाव या कर्म वैयावृत्त है।

    3-14.

    15-16. इनपर व्याधि परीषह मिथ्यात्व आदि का उपद्रव होने पर उसका प्रासुक-औषधि, आहारपान, आश्रय, चौकी, तख्ता, और संथरा आदि धर्मोपकरणों से प्रतीकार करना तथा सम्यक्त्वमार्ग में दृढ़ करना वैयावृत्त्य है। औषध आदि के अभाव में अपने हाथ से खकार, नाक आदि भीतरी मल को साफ करना और उनके अनुकूल वातावरण को बना देना आदि भी वैयावृत्त्य है।

    17-18. समाधिधारण, ग्लानि का जय, प्रवचनवात्सल्य तथा दूसरों में सनाथवृत्ति जताने आदि के लिये वैयावृत्त्य का करना आवश्यक है। यद्यपि संघ-वैयावृत्त्य या गण-वैयावृत्त्य इस संक्षिप्त कथन से कार्य चल सकता था फिर भी वैयावृत्त्य के योग्य अनेक पात्रों का निर्देश इसलिये किया है कि इनमें से किसी में किसी की प्रवृत्ति हो सकती है तथा करनी चाहिये ।

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    + स्वाध्याय के प्रकार -
    वाचना-पृच्छनानुप्रेक्षाम्नाय-धर्मोपदेशा: ॥25॥
    अन्वयार्थ : वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश यह पाँच प्रकार का स्वाध्याय है ॥२५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    ग्रन्थ, अर्थ और दोनों का निर्दोष प्रदान करना वाचना है।

    संशय का उच्छेद करने के लिए अथवा निश्चित बल को पुष्ट करने के लिए प्रश्न करना प्रच्छना है।

    जाने हुए अर्थ का मन में अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है।

    उच्चारण की शुद्धिपूर्वक पाठ को पुन:-पुन: दुहराना आम्नाय है और

    धर्मकथा आदि का अनुष्ठान करना धर्मोपदेश है।

    शंका – यह पूर्वोक्त पाँच प्रकार का स्वाध्याय किसलिए किया जाता है?

    समाधान – प्रज्ञा में अतिशय लाने के लिए, अध्यवसाय को प्रशस्त‍ करने के लिए, परम संवेग के लिए, तप में वृद्धि करने के लिए और अतीचारों में विशुद्धि लाने आदि के लिए किया जाता है।


    अब व्युत्सर्ग तप के भेदों का ज्ञान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    प्रज्ञातिशय, प्रशस्त-अध्यवसाय, प्रवचनस्थिति, संशयोच्छेद, परवादियों की शंका का अभाव, परमसंवेग, तपोवृद्धि और अतिचारशुद्धि आदि के लिए स्वाध्याय करना आवश्यक है।

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    + व्युत्सर्ग के प्रकार -
    बाह्याभ्यन्तरोपध्यो: ॥26॥
    अन्वयार्थ : बाह्य और अभ्यन्त‍र उपधि का त्याग यह दो प्रकार का व्युत्सर्ग है ॥२६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    व्यु्त्सर्जन करना व्युत्सर्ग है जिसका अर्थ त्याग होता है। वह दो प्रकार का है- बाह्य उपधि त्याग और अभ्यन्तर उपधि त्याग। आत्मा से एकत्व को नहीं प्राप्त हुए ऐसे वास्तु , धन और धान्य आदि बाह्य उपधि है क्रोधादिरूप आत्मभाव अभ्यन्तर उपधि है। तथा नियत काल तक या यावज्जीवन तक काय का त्याग करना भी अभ्यन्तर उपधि त्या‍ग कहा जाता है। यह नि:संगता, निर्भयता और जीविताशा का व्युदास आदि करने के लिये किया जाता है।

    जो बहुवक्तव्य ध्यान पृथक स्थापित कर आये हैं उसके भेदों का कथन करना इस समय प्राप्त काल है तथापि उसे उल्लंघन करके इस समय ध्यान के प्रयोक्ता, स्वरूप और काल निर्धारण करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1. व्युत्सर्जन को व्युत्सर्ग कहते हैं । इसकी अपेक्षा षष्ठी विभक्ति दी गई है।

    2-5. जो पदार्थ अन्य में बलाधान के लिए ग्रहण किये जाते हैं वे उपधि हैं। जो बाह्य पदार्थ आत्मा के साथ एकत्व अवस्था को प्राप्त नहीं हुए उनका त्याग बाह्योपधिव्युत्सर्ग है। क्रोध-मान-माया-लोभ मिथ्यात्व, हास्य, रति, अरति, भय और जुगुप्सा आदि अभ्यन्तर दोषों की निवृत्ति अभ्यन्तरोपधिव्युत्सर्ग है। नियतकाल या यावज्जीवन शरीर के प्रति ममत्व का त्याग भी अभ्यन्तर व्युत्सर्ग है।

    6-10. परिग्रह-त्याग महाव्रत में सोना, चाँदी आदि के त्याग का उपदेश है और त्यागधर्म प्रासुक निर्दोष आहार, औषधि आदि का अमुक समय तक त्याग के लिये है, अतः व्युत्सर्ग उनसे पृथक् है । प्रायश्चित्तों में गिनाया गया व्युत्सर्ग अतिचार होने पर उसकी शुद्धि के लिये किया जाता है पर यह व्युत्सर्ग स्वयं निरपेक्षभाव से किया जाता है । 'यहाँ उसका वर्णन होने से अन्य अनेक जगह उसका ग्रहण निरर्थक है' यह आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि विभिन्न शक्ति आदि की अपेक्षा उसके विभिन्न प्रयोजन हैं । कहीं सावद्य का प्रत्याख्यान होता है और कहीं निरवद्य भी पदार्थ अमुक-काल के लिये या अनियत-काल के लिये छोड़े जाते है । तात्पर्य यह कि त्याग पुरुष की शक्ति के अनुसार ही होता है । उत्तरोत्तर गुणों में प्रकृष्ट उत्साह उत्पन्न करने के लिये इसको सार्थकता है। निःसंगत्व, निर्भयत्व, जीविताशात्याग, दोषोच्छेद और मोक्ष-मार्गाभावना-तत्परत्व आदि के लिये दोनों प्रकार का व्युत्सर्ग करना अत्यावश्यक है।

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    + ध्यान के स्वामी और काल -
    उत्तम-संहननस्यैकाग्र-चिन्ता-निरोधो ध्यानमान्त-र्मुहूर्तात्॥27॥
    अन्वयार्थ : उत्तम संहनन वाले का एक विषय में चित्त‍वृत्ति का रोकना ध्यान है जो अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है ॥२७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    आदि के वज्रवृषभनाराच संहनन, वज्रनाराच संहनन और नाराच संहनन ये तीन संहनन उत्तम हैं। ये तीनों ही ध्यान के साधन हैं। मोक्ष का साधन तो प्रथम ही है। जिसके ये उत्तम संहनन होते हैं वह उत्तम संहनन वाला कहलाता है उस उत्तम संहनन वाले के। यहाँ इस पद द्वारा प्रयोक्ता का निर्देश किया है। 'अग्र' पद का अर्थ मुख है। जिसका एक अग्र होता है वह एकाग्र कहलाता है। नाना पदार्थों का अवलम्बन लेने से चिन्ता परिस्पन्दवती होती है। उसे अन्य अशेष मुखों से लौटाकर एक अग्र अर्थात एक विषय में नियमित करना एकाग्रचिन्‍तानिरोध कहलाता है। इस द्वारा ध्यान का स्वरूप कहा गया है। मुहूर्त यह काल का विवक्षित परिमाण है। जो मुहूर्त के भीतर होता है वह अन्तर्मुहूर्त कहलाता है। 'अन्तर्मुहूर्त काल तक' इस पद द्वारा काल की अवधि की गयी है। इतने काल के बाद एकाग्रचिन्ता दुर्धर होती है।

    शंका – यदि चिन्ता के निरोध का नाम ध्यान है निरोध अभाव स्वरूप होता है, इसलिये गधे के सींग के समान ध्याान असत्‌ ठहरता है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अन्य चिन्ता की निवृत्ति की अपेक्षा वह असत कहा जाता है और अपने विषयरूप से प्रवृत्ति होने के कारण वह सत कहा जाता है, क्यों कि अभाव भावान्तर स्वभाव होता है और अभाव वस्तु का धर्म है यह बात सपक्ष सत्व विपक्ष व्यावृत्ति इत्यादि हेतु के अंग आदि के द्वारा सिद्ध होती है। अथवा, यह निरोध शब्द 'निरोधनं निरोधः' इस प्रकार भाव साधन नहीं है। तो क्या है ? 'निरुध्यत इति निरोधः' -- जो रोका जाता है, इस प्रकार कर्म साधन है। चिंता का जो निरोध वह चिंतानिरोध है। आशय यह है कि निश्‍चल अग्नि शिखा के समान निश्‍चल रूप से अवभासमान ज्ञान ही ध्यान है।

    अब उसके भेद दिखलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-7. वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच और नाराच ये तीन उत्तम संहनन हैं। इनमें मोक्ष का कारण प्रथम संहनन होता है और ध्यान के कारण तो तीनों हैं। अग्र अर्थात मुख, लक्ष्य । चिन्ता - अन्तःकरणव्यापार। गमन, भोजन, शयन और अध्ययन आदि विविध क्रियाओं में भटकनेवाली चित्तवृत्ति का एक क्रिया में रोक देना निरोध है। जिस प्रकार वायुरहित प्रदेश में दीपशिखा अपरिस्पन्द-स्थिर रहती है उसी तरह निराकुल-देश में एक लक्ष्य में बुद्धि और शक्तिपूर्वक रोकी गई चित्तवृत्ति बिना व्याक्षेप के वहीं स्थिर रहती है, अन्यत्र नहीं भटकती। अथवा अपशब्द अर्थवाची है, अर्थात् एक द्रव्यपरमाणु या भावपरमाणु या अन्य किसी अर्थ में चित्तवृत्ति को केन्द्रित करना ध्यान है।

    8-9. ध्येय के प्रति अव्यापृत उदासीन भावमात्र की विवक्षा होने पर 'ध्यातिः ध्यानम्' इस प्रकार ध्यान शब्द भावसाधन होता है। 'ध्यायतीति ध्यानम्' ऐसा कर्तृसाधन भी बहुल की अपेक्षा होता है। करण की विशेष प्रशंसा करने के हेतु जैसे 'तलवार अच्छी तरह छेदती है' यहाँ करण में कर्तृत्व धर्म का आरोप किया जाता है उसी तरह ध्यान करनेवाले आत्मा का ध्यान परिणाम चूँकि ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम के आधीन है अतः उसी को कर्ता कह दिया है। जब पर्याय और पर्यायी में भेद की विवक्षा होती है तब जैसे दाह्यादि में प्रवृत्त अग्नि की स्वपर्याय ही करण कह दी जाती है उसी तरह आत्मा की ही पर्याय करण कही जाती है। यह समस्त व्यवस्था अनेकान्तवाद में ही बन सकती है ; क्योंकि एकान्त पक्ष में अनेक दोष दिये जा चुके हैं।

    10-15. मुहूर्त 48 मिनिट का होता है । उत्तम संहननवाला जीव ही इतने समय तक ध्यान धारण कर सकता है अन्य संहननवाले नहीं। 'एकाग्र' शब्द व्यग्रता की निवृत्ति के लिये है । ज्ञान व्यग्र होता है और ध्यान एकाग्र । आहारादि का समय आ जाने से चित्तवृत्ति ध्यान से च्युत हो जाती है अतः ध्यान का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसके बाद एक ही ध्यान लगातार नहीं रह सकता।

    16-17. चिन्तानिरोध तुच्छ अभाव नहीं है किन्तु भावान्तररूप है । अन्य चिन्ताओं के अभाव की अपेक्षा ध्यान असत् होकर भी विवक्षित लक्ष्य के सद्भाव की अपेक्षा सत् है । अभाव भी वस्तु है क्योंकि वह (विपक्षाभाव) हेतु का अङ्ग होता है । अतः कोई दोष नहीं है।

    18-22. स्पष्टता के लिये 'एकार्थचिन्तानिरोध' पद देने में अनिष्ट प्रसङ्ग होता है। ध्यान में अर्थसंक्रम स्वीकार किया है। 'वीचारोऽर्थव्यजनयोगसंक्रान्तिः' इस सूत्र में द्रव्य से पर्याय और पर्याय से द्रव्य में संक्रम का विधान किया गया है। एकाग्र पद देने में यह दोष नहीं है; क्योंकि अग्र का अर्थ मुख होता है, अतः ध्यान अनेकमुखी न होकर एकमुखी रहता है और उस एक-मुख में ही संक्रम होता रहता है। अथवा, अग्रशब्द प्राधान्यवाची है अर्थात् प्रधान आत्मा को लक्ष्य बनाकर चिन्ता का निरोध करना। अथवा, 'अङ्गतीति अग्रम् आत्मा' इस व्युत्पत्ति में द्रव्यरूप से एक आत्मा को लक्ष्य बनाना स्वीकृत ही है। ध्यान स्ववृत्ति होता है, इसमें बाह्य चिन्ताओं से निवृत्ति होती है। एक दिन या माहभर तक जो ध्यान की बात सुनी जाती है वह ठीक नहीं है। क्योंकि इतने समय तक एक ही ध्यान रहने से इन्द्रियों का उपघात ही हो जायगा।

    23-24. श्वासोच्छ्वास के निग्रह को ध्यान नहीं कहते ; क्योंकि इसमें श्वासोच्छ्वास रोकने की वेदना से शरीरपात होने का प्रसंग है । अतः ध्यानावस्था में श्वासोच्छवास का प्रचार स्वाभाविक होना चाहिये । इसी तरह समय-मात्राओं का गिनना भी ध्यान नहीं है क्योंकि इसमें एकाग्रता नहीं है। गिनती करने में व्यग्रता स्पष्ट ही है।

    25-27. ध्यान की सिद्धि तथा विधि विधान बताने के लिये ही गुप्ति समिति आदि के प्रकरण हैं। जैसे धान्य के लिये बनाई गई तलैया से धान भी सींचा जाता है पानी भी पिया जाता है और आचमन भी किया जाता है उसी तरह गुप्ति आदि संवर के लिये भी हैं और ध्यान की भूमिका बनाने के लिये भी। ध्यानप्राभृत आदि ग्रन्थों में ध्यान के समस्त विधिविधानों का कथन है यहाँ तो उसका केवल लक्षण ही किया है।

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    + ध्‍यान के प्रकार -
    आर्त्त-रौद्र-धर्म्य-शुक्लानि ॥28॥
    अन्वयार्थ : आर्त, रौद्र, धर्म्‍य और शुक्‍ल ये ध्‍यान के चार भेद हैं ॥२८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    आर्त शब्‍द 'ऋत' अथवा 'अर्ति' इनमें से किसी एक से बना है। इनमें से ऋत का अर्थ दु:ख है और अर्तिकी 'अर्दनं अर्ति:' ऐसी निरुक्ति होकर उसका अर्थ पीड़ा पहुँचाना है। इसमें (ऋत में या अर्ति में) जो होता है वह आर्त है। रुद्र का अर्थ क्रूर आशय है। इसका कर्म या इसमें होने वाला रौद्र है। धर्म का व्‍याख्‍यान पहले कर आये हैं। जो धर्म से युक्‍त होता है वह धर्म्‍य है। तथा जिसमें शुचि गुण का सम्‍बन्‍ध है वह शुक्‍ल है। यह चार प्रकार का ध्‍यान दो भागों में विभक्‍त है, क्‍योंकि प्रशस्‍त और अप्रशस्‍त के भेद से वह दो प्रकार का है। जो पापास्रव का कारण है वह अप्रशस्‍त है और जो कर्मों के निर्दहन करने की सामर्थ्‍य से युक्‍त है वह प्रशस्‍त है।

    तो वह क्‍या है ऐसा प्रश्‍न करने पर आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-4. ऋत-दुःख अथवा अर्दन-आर्ति, इनसे होनेवाला ध्यान आर्तध्यान है। रुलानेवाले को रुद्र-क्रूर कहते हैं, रुद्र का कर्म या रुद्र में होनेवाला ध्यान रौद्रध्यान है। धर्मयुक्त ध्यान धर्म्य ध्यान है । जैसे मैल हट जाने से वन शुचि होकर शुक्ल कहलाता है उसी तरह निर्मलगुणरूप आत्मपरिणति भी शुक्ल है। इनमें आदि के दो ध्यान अपुण्यास्रव के कारण होने से अप्रशस्त हैं और शेष दो कर्मनिर्दहन में समर्थ होने से प्रशस्त हैं।

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    + मोक्ष के हेतु ध्यान -
    परे मोक्षहेतू ॥29॥
    अन्वयार्थ : उनमें से पर अर्थात् अन्‍त के दो ध्‍यान मोक्ष के हेतु हैं ॥२९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    पर, उत्तर और अन्‍त्‍य इनका एक अर्थ है। अन्तिम शुक्‍लध्‍यान है और इसका समीपवर्ती होने से धर्म्‍यध्‍यान भी पर है ऐसा उपचार किया जाता है, क्‍योंकि सूत्र में 'परे' यह द्विवचन दिया है, इसलिए उसकी सामर्थ्‍य से गौण का भी ग्रहण होता है। 'पर अर्थात् धर्म्‍य और शुक्‍ल ये मोक्षके हेतु हैं' इस वचनसे अर्थात् आर्त और रौद्र ये संसार के हेतु हैं यह तात्‍पर्य फलित होता है, क्‍योंकि मोक्ष और संसार के सिवा और कोई तीसरा साध्‍य नहीं है।

    उनमें आर्तध्‍यान चार प्रकार का है। उनमें से प्रथम भेद के लक्षण का निर्देश करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    द्वि-वचन-निर्देश होने से अन्तिम शुक्ल और उसके समीपवर्ती धर्मध्यान का पर शब्द से प्रहण होता है । व्यवहित में भी परशब्द का प्रयोग होता है। धर्म्य और शुक्लध्यान मोक्ष के हेतु हैं और पूर्व के दो ध्यान संसार के हेतु, तीसरा कोई प्रकार नहीं है।

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    + अनिष्ट संयोगज आर्तध्‍यान -
    आर्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृति-समन्वाहार: ॥30॥
    अन्वयार्थ : अमनोज्ञ पदार्थ के प्राप्‍त होने पर उसके वियोग के लिए चिन्‍तासातत्‍य का होना प्रथम आर्तध्‍यान है ॥३०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अमनोज्ञ का अर्थ अप्रिय है। विष, कण्‍टक, शत्रु और शस्‍त्र आदि जो अप्रिय पदार्थ हैं वे बाधा के कारण होने से अमनोज्ञ कहे जाते हैं। उनका संयोग होने पर वे मेरे कैसे न हों इस प्रकार का संकल्‍प चिन्‍ताप्रबन्‍ध अर्थात् स्‍मृति समन्‍वाहार यह प्रथम आर्तध्‍यान कहलाता है।

    अब दूसरे भेद के लक्षण का निर्देश करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    विष, कण्टक, शत्रु और शस्त्र आदि बाधाकारी अप्रिय वस्तुओं के मिल जाने पर 'ये मुझसे कैसे दूर हों' इस प्रकार की सबल चिन्ता आर्त है । स्मृति को दूसरे पदार्थ की ओर न जाने देकर बार-बार उसी में लगाये रखना समन्वाहार है।

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    + इष्ट वियोगज आर्तध्‍यान -
    विपरीतं मनोज्ञस्य ॥31॥
    अन्वयार्थ : मनोज्ञ वस्‍तु के वियोग होने पर उसकी प्राप्ति की सतत चिन्‍ता करना दूसरा आर्तध्‍यान है ॥३१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    किससे वितरीत ? पूर्व में कहे हुए से। इससे यह तात्‍पर्य निकलता है कि मनोज्ञ अर्थात् इष्‍ट अपने पुत्र, स्‍त्री और धनादिक के वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिए संकल्‍प अर्थात् निरन्‍तर चिन्‍ता करना दूसरा आर्तध्‍यान जानना चाहिए।

    अब तीसरे भेद के लक्षण का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    विपरीत अर्थात् मनोज्ञ वस्तु का वियोग होने पर उसकी पुनः प्राप्ति के लिए जो अत्यधिक चिन्ताधारा चलती है वह भी आर्त है।

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    + पीड़ा चिंतन आर्तध्‍यान -
    वेदनायाश्च ॥32॥
    अन्वयार्थ : वेदना के होने पर उसे दूर करने के लिए सतत चिन्‍ता करना तीसरा आर्तध्‍यान है ॥३२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    वेदना शब्‍द यद्यपि सुख और दु:ख दोनों अर्थों में विद्यमान है पर यहाँ आर्तध्‍यान का प्रकरण होने से उससे दु:ख वेदना ली गयी है। वातादि विकारजनित दु:ख वेदना के होने पर उसका अभाव मेरे कैसे होगा इस प्रकार विकल्‍प अर्थात् निरन्‍तर चिन्‍ता करना तीसरा आर्तध्‍यान कहा जाता है।

    अब चौथे आर्तध्‍यान के लक्षण का निर्देश करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    वेदना अर्थात् दुःखवेदना के होने पर उसके दूर करने के लिए धैर्य खोकर जो अंगविक्षेप, शोक, आक्रन्दन और अश्रुपात आदि से युक्त विकलता और चिन्ता होती है वह वेदनाजन्य आर्तध्यान है।

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    + निदान आर्तध्‍यान -
    निदानं च ॥33॥
    अन्वयार्थ : निदान नाम का चौथा आर्तध्‍यान है ॥३३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    भोगों की आकांक्षा के प्रति आतुर हुए व्‍यक्ति के आगामी विषयों की प्राप्ति के लिए मन:प्रणिधान का होना अर्थात् संकल्‍प तथा निरंतर चिन्‍ता करना निदान नाम का चौथा आर्तध्‍यान कहा जाता है।

    इस चार प्रकार के आर्तध्‍यान का स्‍वामी कौन है यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    प्रीतिविशेष या तीव्र कामादिवासना से आगे के भव में भी कायक्लेश के बदले विषयसुखों की आकांक्षा करना निदान है। 'विपरीतं मनोज्ञस्य' सूत्र से निदान का संग्रह नहीं होता; क्योंकि निदान अप्राप्त की प्राप्ति के लिए होता है, इसमें पारलौकिक विषयसुख की गृद्धि से अनागत अर्थप्राप्ति के लिए सतत चिन्ता चलती है। ये चारों आर्तध्यान कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालों के होते हैं। ये अज्ञानमूलक, तीव्रपुरुषार्थजन्य, पापप्रयोगाधिष्ठान, नानासंकल्पों से आकुल, विषयतृष्णा से परिव्याप्त, धर्माश्रयपरित्यागी, कषायस्थानों से युक्त, अशान्तिवर्धक, प्रमादमूल, अकुशलकर्म के कारण, कटुकफलवाले असाता के बन्धक और तिर्यञ्च-गति में ले जानेवाले हैं।

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    + आर्तध्‍यान के स्वामी -
    तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानां ॥34॥
    अन्वयार्थ : यह आर्तध्‍यान अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत जीवों के होता है ॥३४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    असंयतसम्‍यग्‍दृष्टि गुणस्‍थान तक के जीव अविरत कहलाते हैं, संयतासंयत जीव देशविरत कहलाते हैं और पन्‍द्रह प्रकार के प्रमाद से युक्‍त क्रिया करने वाले जीव प्रमत्तसंयत कहलाते हैं। इनमें से अविरत और देशविरत जीवों के चारों ही प्रकारका आर्तध्‍यान होता है, क्‍योंकि ये असंयमरूप परिणामसे युक्‍त होते हैं। प्रमत्तसंयतों के तो निदान के सिवा बाकी के तीन प्रमाद के उदय की तीव्रतावश कदाचित् होते हैं।

    संज्ञा आदि के द्वारा आर्तध्‍यान का व्‍याख्‍यान किया। अब दूसरे ध्‍यान की संज्ञा, हेतु और स्‍वामी का निश्‍चय करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    ये ध्यान अविरत अर्थात् अविरत सम्यग्दृष्टि पर्यन्त, देशविरत-संयतासंयत और प्रमत्तसंयत-पन्द्रह प्रकार के प्रमादों से युक्त संयतों के होते हैं। प्रमत्तसंयतों के प्रमाद के तीव्र उद्रेक से निदान को छोड़कर बाकी के तीन आर्तध्यान कभी-कभी हो सकते हैं।

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    + रौद्रध्‍यान और उसके स्वामी -
    हिंसानृत-स्तेय-विषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरत-देशविरतयो: ॥35॥
    अन्वयार्थ : हिंसा, असत्‍य, चोरी और विषयसंरक्षण के लिए सतत चिन्‍तन करना रौद्रध्‍यान है। वह अविरत और देशविरत के होता है ॥३५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    हिंसादिक के लक्षण पहले कह आये हैं। वे रौद्रध्‍यान की उत्‍पत्ति के निमित्त होते हैं। इससे हेतुनिर्देश जाना जाता है। हेतु का निर्देश करने वाले इन हिंसादिक के साथ अनुवृत्ति को प्राप्‍त होने वाले 'स्‍मृतिसमन्‍वाहार' पद का सम्‍बन्‍ध होता है। यथा- हिंसा का स्‍मृतिसमन्‍वाहार आदि। यह रौद्रध्‍यान अविरत और देशविरत के जानना चाहिए।

    शंका – रौद्र ध्यान अविरत के होओ देशविरत के कैसे हो सकता है?

    समाधान – हिंसादिक के आवेश से या वित्तादि के संरक्षण के परतन्‍त्र होने से कदाचित् उसके भी हो सकता है। किन्‍तु देशविरत के होने वाला वह रौद्रध्‍यान नारकादि दुर्गतियों का कारण नहीं है, क्‍योंकि सम्‍यग्‍दर्शन की ऐसी ही सामर्थ्‍य है। परन्‍तु संयत के तो वह होता ही नहीं है, क्‍योंकि उसका आरम्‍भ होने पर संयमसे पतन हो जाता है।

    कहते हैं, अन्‍तके दो ध्‍यान मोक्षके हेतु हैं यह कह आये। उनमें से मोक्ष के हेतुरूप प्रथम ध्‍यानके भेद, स्‍वरूप और स्‍वामी का निर्देश करना चाहिए, इसलिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    हिंसा आदि को निमित्त लेकर ध्यान की धारा चलती है अतः हिंसादि का हेतु रूप से निर्देश किया है। हिंसादि के आवेश और परिग्रह आदि के संरक्षण के कारण देशविरत को भी रौद्रध्यान होता है । पर यह नरकादि गतियों का कारण नहीं होता; क्योंकि वह सम्यग्दर्शन के साथ है। संयत के रौद्रध्यान नहीं होता; क्योंकि रौद्र भावों में संयम रह ही नहीं सकता। हिंसानन्द, अनृतानन्द, स्तेयानन्द और परिग्रहानन्द ये चारों रौद्रध्यान अतिकृष्ण, नील और कापोत लेश्या वालों के होते हैं। ये प्रमादाधिष्ठान और नरक गति में ले जानेवाले हैं। आत्मा इन अशुभ ध्यानों से संक्लिष्ट होकर तप्त लौहपिण्ड जैसे जल को खींचता है उसी तरह कर्मों को खींचता है।

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    + धर्म-ध्‍यान -
    आज्ञापाय-विपाक-संस्थान-विचयाय धर्म्यम् ॥36॥
    अन्वयार्थ : आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्‍थान इनकी विचारणा के निमित्त मन को एकाग्र करना धर्म्‍यध्‍यान है ॥३६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    विचयन करना विचय है। विचय, विवेक और विचारणा ये पर्याय नाम हैं। आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्‍थान इनका परस्‍पर द्वन्‍द्व समास होकर विचय शब्‍द के साथ षष्‍ठीतत्‍पुरुष समास है और इस प्रकार 'आज्ञापायविपाकसंस्‍थानविचय:' पद बना है। 'स्‍मृतिसमन्‍वाहार:' पद की अनुवृत्ति होती है। और उसका प्रत्‍येक के साथ सम्‍बन्‍ध होता है। यथा- आज्ञाविचय के लिए स्‍मृतिसमन्‍वाहार आदि। स्‍पष्‍टीकरण इस प्रकार है-

    उपदेश देने वाले का अभाव होने से, स्‍वयं मन्‍दबुद्धि होने से, कर्मों का उदय होने से तथा पदार्थों के सूक्ष्‍म होने से तत्त्‍व के समर्थन में हेतु और दृष्‍टान्‍त का अभाव होने पर सर्वज्ञप्रणीत आगम को प्रमाण करके 'यह इसी प्रकार है, क्‍योंकि जिन अन्‍यथावादी नहीं होते' इस प्रकार गहन पदार्थ के श्रद्धान द्वारा अर्थ का अवधारण करना आज्ञाविचय धर्म्‍यध्‍यान है। अथवा स्‍वयं पदार्थों के रहस्‍य को जानता है और दूसरों के प्रति उसका प्रतिपादन करना चाहता है, इसलिए स्‍व-सिद्धांत के अविरोध द्वारा तत्त्‍व का समर्थन करने के लिए उसका जो तर्क, नय और प्रमाण की योजनरूप निरन्‍तर चिन्‍तन होता है वह सर्वज्ञ की आज्ञा को प्रकाशित करने वाला होने से आज्ञाविचय कहा जाता है।

    मिथ्‍यादृष्टि जीव जन्‍मान्‍ध पुरुष के समान सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से विमुख होते हैं, उन्‍हें सन्‍मार्ग का परिज्ञान न होने से वे मोक्षार्थी पुरुषों को दूर से ही त्‍याग देते हैं इस प्रकार सन्‍मार्ग के अपाय का चिन्‍तन करना अपायविचय धर्म्‍यध्‍यान है। अथवा, ये प्राणी मिथ्‍यादर्शन, मिथ्‍याज्ञान और मिथ्‍याचारित्र से कैसे दूर होंगे इस प्रकार निरन्‍तर चिन्‍तन करना अपायविचय धर्म्‍यध्‍यान है।

    ज्ञानावरणादि कर्मों के द्रव्‍य, क्षेत्र, काल, भव और भावनिमित्तक फल के अनुभव के प्रति उपयोग का होना विपाकविचय धर्म्‍यध्‍यान है। तथा

    लोक के आकार और स्‍वभाव का निरन्‍तर चिन्‍तन करना संस्‍थानविचय धर्म्‍यध्‍यान है।

    पहले उत्तम क्षमादिरूप धर्मका स्‍वरूप कह आये हैं। उससे अनपेत अर्थात् युक्‍त धर्म्‍यध्‍यान चार प्रकार का जानना चाहिए। यह अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवों के होता है।

    तीन ध्‍यानों का कथन किया, इस समय शुक्‍लध्‍यान का कथन करना चाहिए, उसके आगे चार भेद कहने वाले हैं उनमें-से आदि के दो भेदों के स्‍वामीका कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-3 विचय विवेक और विचारणा सभी एकार्थक हैं। आज्ञा आदि के विचय के लिये जो स्मृतिसमन्वाहार-चिन्तनधारा है वह धर्म्य-ध्यान है।

    4-5. इस काल में उपदेष्टा का अभाव है, बुद्धि मन्द है, कर्मों का तीव्र उदय है, पदार्थ सूक्ष्म हैं, उनकी सिद्धि के लिये हेतु और दृष्टान्त मिलते नहीं हैं, अतः सर्वज्ञप्रणीत आगम को प्रमाण मानकर 'यह ऐसा ही है, जिनेन्द्र अन्यथावादी नहीं हो सकते' इस प्रकार गहन पदार्थों का श्रद्धान करके पदार्थों का निश्चय करना आज्ञाविचय है। अथवा, स्व-समय, पर-समय के रहस्य के जानकार और विशुद्ध सम्यग्दृष्टि वक्ता के द्वारा सर्वज्ञप्रणीत अतिसूक्ष्म धर्मास्तिकाय आदि पदार्थों का दृढ़ निश्चय करके स्वसिद्धान्ताविरोधी हेतु, प्रमाण, नय, दृष्टान्त आदि की सम्यक योजना से परवादियों के तर्क-जाल का भेदन कर उन्हें अपने मत के प्रति सहिष्णु बनाना और ऐसी धर्म-कथा करना जिससे श्रुत की प्रभावना हो, वह सर्वज्ञ की आज्ञा की प्रकाशक होने से आज्ञाविचय धर्म्य ध्यान है।

    6-7. मिथ्यादर्शन से जिनके ज्ञाननेत्र अन्धकाराच्छन्न हो रहे हैं उनकी आचार, विनय, अप्रमाद आदि विधियाँ अविद्याबहुल होने से संसार को ही बढ़ाती हैं। जैसे बलवान भी जात्यन्ध सत्पथ से प्रच्युत होकर कुशल मार्गदर्शक के बताये पथ पर न चलने के कारण ऊँचे-नीचे कंकरीले-पथरीले जंगली मार्ग में भटक जाते हैं, वे प्रयत्न करने पर भी सन्मार्ग को नहीं पा पाते उसी तरह सर्वज्ञप्रणीत आज्ञा से विमुख मोक्षार्थी सम्यक् पथ का ज्ञान न होने से सन्मार्ग से दूर ही भटक रहे हैं, इस प्रकार सन्मार्ग के अपाय का चिन्तन अपायविचय ध्यान है । अथवा, मिथ्यादर्शन से आकुलित चित्तवाले प्रवादियों के द्वारा प्रचारित कुमार्ग से ये प्राणी कैसे हटकर सुमार्ग में लगें और अनायतन-सेवा से विरक्त हों, कैसे ये पापकारी वचन और भावनाओं से निवृत होकर सुपथगामी बनें इस प्रकार अपायचिन्तन अपायविचय ध्यान है।

    ८.

    5. अयथाकाल-बिना समय आगे होनेवाला कर्मविपाक उदीरणोदय है ।

    लोक के स्वभाव संस्थान तथा द्वीप नदी आदि के स्वरूप का विचार संस्थान विचय है।

    11-12. उत्तमक्षमा आदि दस धर्मों से ओत-प्रोत होने के कारण यह धर्म्यध्यान कहलाता है। उत्तमक्षमादि भावनावाले के यह होता है। अनित्य आदि अनुप्रेक्षाओं में जब बार-बार चिन्तनधारा चालू रहती है तब वे ज्ञानरूप हैं पर जब उनमें एकाग्रचिन्तानिरोध होकर चिन्तनधारा केन्द्रित हो जाती है तब वे ध्यान कहलाती हैं।

    13. तत्त्वार्थाधिगमभाष्यसम्मत सूत्रपाठ में धर्म्यध्यान अप्रमत्तसंयत के बताया है, पर वह ठीक नहीं है, क्योंकि धर्म्यध्यान सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है अतः वह असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत के भी होता है। यदि उक्त अवधारण किया जाता है तो इनकी निवृत्ति हो जायगी।

    14-15. उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय में शुक्लध्यान माना जाता है, उनमें धर्म्यध्यान नहीं होता। दोनों मानना उचित नहीं है। क्योंकि आगम में श्रेणियों में शक्ल-ध्यान ही बताया है धर्म्यध्यान नहीं।

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    + प्रथम दो शुक्‍लध्‍यान के स्वामी -
    शुक्ले चाद्ये पूर्व-विद:॥37॥
    अन्वयार्थ : आदि के दो शुक्‍लध्‍यान पूर्वविद्‍ के होते हैं ॥३७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    आगे कहे जाने वाले शुक्‍लध्‍यान के भेदों में से आदि के दो शुक्‍लध्‍यान पूर्वविद् अर्थात् श्रुतकेवली के होते हैं। सूत्र में 'च' शब्‍द आया है उससे धर्म्‍यध्‍यानका समुच्‍चय होता है। 'व्‍याख्‍यान से विशेष ज्ञान होता है' इस नियम के अनुसार श्रेणि चढ़नेसे पूर्व धर्म्‍यध्‍यान होता है और दोनों श्रेणियों में आदि के दो शुक्‍लध्‍यान होते हैं ऐसा व्‍याख्‍यान करना चाहिए।

    शेष के दो शुक्‍लध्‍यान किसके होते हैं यह बतलानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1. आदि के दो शुक्ल-ध्यान धारण करने का सामर्थ्य सकल श्रुत के धारी के है, अन्य के नहीं । इस बात की सूचना देने के लिये पूर्वविद विशेषण का ग्रहण किया गया है ।

    2. पूर्वकथित धर्म-ध्यान के समुच्चय के लिये 'व' शब्द का उल्लेख किया है कि पूर्वविद (श्रुत-केवली) के आदि के पृथक्-वितर्क-वीचार और एकत्व-वितर्क ये दो ध्यान होते हैं और धर्भ-ध्यान भी होता है ।

    3. प्रश्न – 'च' शब्द से धर्म-ध्यान को ग्रहण करने पर विषय का भेद नहीं रहेगा कि किसके धर्म-ध्यान होता है और किसके शुक्ल-ध्यान ?

    उत्तर – 'च' शब्द से धर्म-ध्यान को ग्रहण करने पर विषय के भेद का अभाव नहीं होता; क्योंकि धर्म-ध्यान श्रेणी-आरोहण के पहले होता है तथा श्रेण्यारोहण-काल में शुक्ल-ध्यान होता है, यह बात व्याख्यान से ज्ञात हो जाती है ।

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    + शेष दो शुक्‍लध्‍यान के स्वामी -
    परे केवलिन: ॥38॥
    अन्वयार्थ : शेष के दो शुक्‍लध्‍यान केवली के होते हैं ॥३८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिसके समस्‍त ज्ञानावरण का नाश हो गया है ऐसे सयोगकेवली और अयोगकेवली के पर अर्थात् अन्‍त के दो शुक्‍लध्‍यान होते हैं।

    अब क्रम से शुक्‍लध्‍यान के भेदों का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    अंतिम के दो शुक्ल-ध्यान केवलज्ञानी के होते हैं

    प्रश्न – यदि आदि के दो शुक्लध्यान उपशान्त-काषायी और क्षीण-मोही के नियम से होते हैं तो शेष दो शुक्ल-ध्यान किसके होते हैं ?

    उत्तर – 'केवली' यह शब्द सामान्य है, अत: इस केवली शब्द से अचिंत्य विभूति रूप केवलज्ञान साम्राज्य का अनुभव करने वाले सयोग-केवली और अयोग-केवली इन दोनों का ग्रहण करना चाहिये । इससे यह फलितार्थ हुआ की उपशांत-मोही के पृथकत्व-वितर्क शुक्ल-ध्यान, क्षीणमोही (बारहवें गुणस्थान) के एकत्व-वितर्क शुक्ल-ध्यान, सयोग-केवली के सूक्ष्म-क्रिया-प्रतिपाती और अयोग-केवली के व्युपरत-क्रिया-निवृत्ति शुक्ल-ध्यान होता है । अत: अन्तिम दो शुक्ल-ध्यान केवली के गुणस्थान होते हैं, छद्मस्थों के नहीं ।

    प्रश्न – अंधकार को मुष्टि से घात करने के समान इस शुक्लध्यान का अनुष्ठान करने वालों की प्रक्रिया के प्रति हमारी प्रवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि उनके लक्षण विशेष के निर्देश की उपलब्धि नहीं होती ?

    उत्तर – यदि इनके लक्षण-विशेष का निर्देश नहीं होता तो इनके परस्पर विशिष्ट पर्यायान्तर नहीं होते, परन्तु परस्पर जो पर्यायान्तर हैं, उन्हें कहते हैं -

    🏠
    + शुक्‍लध्‍यान के प्रकार -
    पृथक्त्वैकत्व-वितर्क-सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपाति-व्युपरत-क्रिर्यानिवर्तीनि ॥39॥
    अन्वयार्थ : पृथक्‍त्‍ववितर्क, एकत्‍ववितर्क, सूक्ष्‍मक्रियाप्रतिपाति और व्‍युपरतक्रियानिवर्ति ये चार शुक्‍लध्‍यान हैं ॥३९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    पृथक्‍त्‍ववितर्क, एकत्‍ववितर्क, सूक्ष्‍मक्रियाप्रतिपाति और व्‍युपरतक्रियानिवर्ति ये चार शुक्‍लध्‍यान हैं। आगे कहे जानेवाले लक्षण की अपेक्षा सबका सार्थक नाम जानना चाहिए।

    अब उसके आलम्‍बन विशेष का निश्‍चय करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    आगे कहे जाने वाले लक्षण की अपेक्षा से ये चारों ही ध्यान सार्थक नाम वाले हैं । जैसे -- पृथक्‍ वितर्क=श्रुत और वीचार=अर्थ व्यंजन का परिवर्तन जिसमें हो अर्थात पृथक-पृथक श्रुत का परिवर्तन जिसमें होता है वह पृथक-वितर्क-वीचार है, इनका लक्षण आगे कहेंगे ।

    यदि ये चार प्रकार के शुक्ल-ध्यान हैं तो उनका आलम्बन क्या है ? विषय क्या है ? सो कहते हैं --

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    + शुक्ल-ध्‍यान का योग-आलंबन -
    त्र्येकयोग-काययोगायोगानाम् ॥40॥
    अन्वयार्थ : वे चार ध्‍यान क्रम से तीन योगवाले, एक योगवाले, काययोगवाले और अयोग के होते हैं ॥४०॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    'कायवाङ्मन:कर्म योग:' इस सूत्र में योग शब्‍द का व्‍याख्‍यान कर आये हैं। पूर्व में कहे गये शुक्‍लध्‍यान के चार भेदों के साथ त्रियोग आदि चार पदों का क्रम से सम्‍बन्‍ध जान लेना चाहिए। तीन योग वाले के पृथक्‍त्‍ववितर्क होता है। तीन योगों में-से एक योग वाले के एकत्‍ववितर्क होता है। काययोगवाले के सूक्ष्‍मक्रियाप्रतिपाति ध्‍यान होता है और अयोगी के व्‍युपरतक्रियानिवर्ति ध्‍यान होता है।

    अब इन चार भेदों में-से आदि के दो भेदों के सम्‍बन्‍ध में विशेष ध्‍यान कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    इस तत्त्वार्थ-सूत्र के छठे अध्याय के प्रथम सूत्र "काय-वाङ्मन: कर्मयोग:" में योग का अर्थ कर दिया गया है ॥१॥

    इन चारों ध्यानों का सम्बन्ध क्रमश: लगाना चाहिये अर्थात शुक्लध्यान के चार विकल्प कहे हैं । उन विकल्पों के साथ यथासंभव सम्बन्ध होता है -- जैसे पृथक्‍त्‍व-वितर्क-वीचार शुक्ल-ध्यान तीनों के साथ हो सकता है । एकत्व-वितर्क तीनों योगों में से किसी एक योग के साथ होता है, सूक्ष्म-क्रिया-प्रतिपाती शुक्ल-ध्यान काय-योग वाले के होता है और अयोगी के व्युपरत-क्रिया-निवर्ती ध्यान होता है ॥२॥

    पृथक्‍त्‍व-वितर्क-वीचार ध्यान का विशेष ज्ञान कराने के लिये कहते हैं --

    🏠
    + प्रथम दो शुक्ल-ध्यान की विशेषता -
    एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥41॥
    अन्वयार्थ : पहले के दो ध्‍यान एक आश्रय वाले, सवितर्क और सवीचार होते हैं ॥४१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिन दो ध्‍यानों का एक आश्रय होता है वे एक आश्रयवाले कहलाते हैं। जिसने सम्‍पूर्ण श्रुतज्ञान प्राप्‍त कर लिया है उसके द्वारा ही ये दो ध्‍यान आरम्‍भ किये जाते हैं। यह उक्‍त कथन का तात्‍पर्य है। जो वितर्क और वीचार के साथ रहते हैं वे सवितर्कवीचार ध्‍यान कहलाते हैं। सूत्र में आये हुए पूर्व पद से पृथक्‍त्‍ववितर्क और एकत्‍ववितर्क ये दो ध्‍यान लिये गये हैं।

    पूर्व सूत्र में यथासंख्‍य का प्रसंग होने पर अनिष्‍ट अर्थ की निवृत्ति करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    आदि के दो शुक्लध्यान श्रुतकेवली के द्वारा आरम्भ किये जाते हैं अतः एकाश्रय हैं तथा वितर्क और वीचार से युक्त हैं।

    🏠
    + अपवाद -
    अवीचारं द्वितीयम् ॥42॥
    अन्वयार्थ : दूसरा ध्‍यान अवीचार है ॥४२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    पहले के दो ध्‍यानों में जो दूसरा ध्‍यान है वह अवीचार जानना चाहिए। अभिप्राय यह है कि पहला शुक्‍लध्‍यान सवितर्क और सवीचार होता है तथा दूसरा शुक्‍लध्‍यान सवितर्क और अवीचार होता है।

    अब वितर्क और वीचार में क्‍या भेद है यह दिखलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    दूसरा शुक्लध्यान सवितर्क और अविचार है।

    🏠
    + वितर्क का लक्षण -
    वितर्क: श्रुतम् ॥43॥
    अन्वयार्थ : वितर्क का अर्थ श्रुत है ॥४३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    विशेष रूप से तर्कणा करना अर्थात् ऊहा करना वितर्क श्रुतज्ञान कहलाता है।

    अब वीचार किसे कहते हैं यह बात अगले सूत्र द्वारा कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    विशेष प्रकार से तर्कणा करना वितर्क है। वितर्क अर्थात् श्रुतज्ञान ।

    🏠
    + वीचार का लक्षण -
    वीचारोऽर्थव्यंजन-योगसंक्रान्ति: ॥44॥
    अन्वयार्थ : अर्थ, व्‍यञ्जन और योग की संक्रान्ति वीचार है ॥४४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    अर्थ ध्‍येय को कहते हैं। इससे द्रव्‍य और पर्याय लिये जाते हैं। व्‍यञ्जन का अर्थ वचन है तथा काय, वचन और मन की क्रिया को योग कहते हैं। संक्रान्ति का अर्थ परिवर्तन है।

    द्रव्‍य को छोड़कर पर्याय को प्राप्‍त होता है और पर्याय को छोड़ द्रव्‍य को प्राप्‍त होता है-यह अर्थसंक्रान्ति है।

    एक श्रुतवचन का आलम्‍बन लेकर दूसरे वचन का आलम्‍बन लेता है और उसे भी त्‍यागकर अन्‍य वचन का आलम्‍बन लेता है-यह व्‍यंजन-संक्रान्ति है।

    काययोग को छोड़कर दूसरे योग को स्‍वीकार करता है और दूसरे योग को छोड़कर काययोग को स्‍वीकार करता है-यह योगसंक्रान्ति है। इस प्रकार के परिवर्तन को वीचार कहते हैं। सामान्‍य और विशेष रूप से कहे गये इस चार प्रकार के धर्म्‍यध्‍यान और शुक्‍लध्‍यान को पूर्वोक्‍त गुप्ति आदि बहुत प्रकार के उपायों से युक्‍त होने पर संसार का नाश करने के लिए जिसने भले प्रकार से परिकर्म को किया है ऐसा मुनि ध्‍यान करने के योग्‍य होता है। जिस प्रकार अपर्याप्‍त उत्‍साह से युक्‍त बालक अव्‍यवस्थित और मौथरे शस्‍त्र के द्वारा भी चिरकाल में वृक्ष को छेदता है उसी प्रकार चित्त की सामर्थ्‍य को प्राप्‍तकर जो द्रव्‍यपरमाणु और भावपरमाणु का ध्‍यान कर रहा है वह अर्थ और व्‍यंजन तथा काय और वचन में पृथक्त्‍व रूपसे संक्रमण करने वाले मन के द्वारा मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशमन और क्षय करता हुआ पृथक्‍त्‍ववितर्क वीचार ध्‍यान को धारण करने वाला होता है। पुन: जो समूल मोहनीय कर्म का दाह करना चाहता है, जो अनन्‍तगुणी विशुद्धि विशेष को प्राप्‍त होकर बहुत प्रकार की ज्ञानवरण की सहायीभूत प्रकृतियों के बन्‍ध को रोक रहा है, जो कर्मों की स्थिति को न्‍यून और नाश कर रहा है, जो श्रुतज्ञान के उपयोग से युक्‍त है, जो अर्थ, व्‍यंजन और योग की संक्रान्ति से रहित है, निश्‍चल मनवाला है, क्षीणकषाय है और वैडूर्यमणि के समान निरुपलेप है वह ध्‍यान करके पुन- नहीं लौटता है। इस प्रकार उसके एकत्‍ववितर्क ध्‍यान कहा गया है। इस प्रकार एकत्‍ववितर्क शुक्‍लध्‍यान रूपी अग्नि के द्वारा जिसने चार घातिया कर्मरूपी ईंधन को जला दिया है, जिसके केवलज्ञानरूपी किरणसमुदाय प्रकाशित हो गया है, जो मेघमण्‍डल का निरोध कर निकले हुए सूर्य के समान भासमान हो रहा है ऐसे भगवान्, तीर्थंकर केवली या सामान्‍य केवली इन्‍द्रों के द्वारा आदरणीय और पूज्‍यनीय होते हुए उत्‍कृष्‍टरूप से कुछ कम पूर्व कोटि काल तक विहार करते हैं। वह जब आयु में अन्‍तर्मुहूर्त काल शेष रहता है तथा वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति आयुकर्म के बराबर शेष रहती है तब सब प्रकार के वचनयोग, मनोयोग और बादरकाययोग को त्‍यागकर तथा सूक्ष्‍म काययोग का अवलम्‍बन लेकर सूक्ष्‍मक्रियाप्रतिपाति ध्‍यान को स्‍वीकार करता है, परन्‍तु जब उन सयोगी जिन के आयु अन्‍तर्मुहूर्त शेष रहती है और शेष तीन कर्मों की स्थिति उससे अधिक शेष रहती है तब जिन्‍हें सातिशय आत्‍मोपयोग प्राप्‍त है, जिन्‍हें सामायिक का अवलम्‍बन है, जो विशिष्‍ट करण से युक्‍त हैं, जो कर्मों का महासंवर कर रहे हैं और जिनके स्‍वल्‍पमात्रा में कर्मों का परिपाचन हो रहा है ऐसे वे अपने आत्‍मप्रदेशों के फैलने से कर्मरज को परिशातन करने की शक्तिवाले दण्‍ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात को चार समयों के द्वारा करके अनन्‍तर प्रदेशों के विसर्पण का संकोच करके तथा शेष चार कर्मों की स्थिति को समान करके अपने पूर्व शरीरप्रमाण होकर सूक्ष्‍म काययोग के द्वारा सूक्ष्‍मक्रियाप्रतिपाति ध्‍यान को स्‍वीकार करते हैं। इसके बाद चौथे समुच्छिन्‍न क्रियानिवर्ति ध्‍यान को आरम्‍भ करते हैं। इसमें प्राणापान के प्रचाररूप क्रिया का तथा सब प्रकार के कर्मबन्‍ध के आस्रव का निरोध हो जाने से तथा बाकी के बचे सब कर्मों के नाश करने की शक्ति के उत्‍पन्‍न हो जाने से अयोगिकेवली के संसार के सब प्रकार के दु:खजाल के सम्‍बन्‍ध का उच्‍छेद करने वाला सम्‍पूर्ण यथाख्‍यातचारित्र, ज्ञान और दर्शनरूप साक्षात् मोक्ष का कारण उत्‍पन्‍न होता है। वे अयोगिकेवली भगवान् उस समय ध्‍यानातिशयरूप अग्नि के द्वारा सब प्रकार के मल-कलंक बन्‍धन को जलाकर और किट्ट धातु व पाषाण का नाश कर शुद्ध हुए सोने के समान अपने आत्‍मा को प्राप्‍तकर परिनिर्वाणको प्राप्‍त होते हैं। इस प्रकार यह दोनों प्रकार का तप नूतन कर्मों के आस्रव के निरोध का हेतु होने से संवर का कारण है और प्राक्‍तन कर्मरूपी रज के नाश करने का हेतु होने से निर्जरा का भी हेतु है।

    यहाँ कहते हैं कि सब सम्‍यग्‍दृष्टि क्‍या समान निर्जरावाले होते हैं या कुछ विशेषता है यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    अर्थ--ध्येय द्रव्य या पर्याय, व्यञ्जन--शब्द, और योग--मन-वचन-काय के परिवर्तन को वीचार कहते हैं। द्रव्य को छोडकर पर्याय को और पर्याय को छोड़कर द्रव्य को विषय बनाना अर्थसंक्रान्ति है। किसी एक श्रुतवचन का ध्यान करते-करते वचनान्तर में पहुँचना और उसे छोड़कर अन्य का ध्यान करना व्यञ्जनसंक्रान्ति है। काययोग को छोड़कर मनोयोग या वचनयोग का अवलम्बन लेना तथा उन्हें छोड़कर काययोग का आलम्बन लेना योगसंक्रान्ति है। इस तरह गुप्ति आदि की भूमिका पर ध्याये गये ये ध्यान कर्म-बन्धन काटने में समर्थ होते हैं। इनका प्रारम्भ करने के लिए यह परिकर्म अर्थात् तैयारी अपेक्षित होती है उत्तम-शरीर-संहनन होकर भी परीषहों के सहने की क्षमता का आत्म-विश्वास हुए बिना ध्यान-साधना नहीं हो सकती। परीषहों की बाधा सहकर ही ध्यान प्रारम्भ किया जा सकता है। पर्वत, गुफा, वृक्ष की खोह, नदी, तट, पुल, श्मशान, जीर्ण-उद्यान और शून्यागार आदि किसी स्थान में व्याघ्र, सिंह, मृग, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि के अगोचर, निर्जन्तु, समशीतोष्ण, अतिवायुरहित, वर्षा, आतप आदि से रहित, तात्पर्य यह कि सब तरफ से बाह्य-आभ्यन्तर बाधाओं से शून्य और पवित्र भूमि पर सुखपूर्वक पल्यंकासन से बैठना चाहिये । उस समय शरीर को सम ऋजु और निश्चल रखना चाहिये। बाएँ हाथ पर दाहिना रखकर न खुले हुए और न बन्द किन्तु कुछ खुले हुए दाँतों पर दाँतों को रखकर, कुछ ऊपर किये हुए सीधी कमर और गम्भीर गर्दन किये हुए प्रसन्न मुख और अनिमिष स्थिर सौम्यदृष्टि होकर निद्रा, आलस्य, कामराग, रति, अरति, शोक, हास्य, भय, द्वेष, विचिकित्सा आदि को छोड़कर मन्द-मन्द श्वासोच्छास लेनेवाला साधु ध्यान की तैयारी करता है । वह नाभि के ऊपर हृदय, मस्तक या और कहीं अभ्यासानुसार चित्तवृत्त को स्थिर रखने का प्रयत्न करता है । इस तरह एकाग्रचित्त होकर राग, द्वेष, मोह का उपशम कर कुशलता से शरीरक्रियाओं का निग्रह कर मन्द श्वासोच्छ्वास लेता हुआ निश्चित लक्ष्य और क्षमाशील हो बाह्य आभ्यन्तर द्रव्य पर्यायों का ध्यान करता हुआ वितर्क की सामर्थ्ययुक्त हो अर्थ और व्यंजन तथा मन-वचन-काय की पृथक-पृथक संक्रान्ति करता है। वह असीम बल और उत्साह से मन को सबल बनाकर अव्यवस्थित और भौथरे शस्त्र से वृक्ष को छेदने की तरह मोह-प्रकृतियों का उपशम या क्षय करनेवाला पृथक्त्व-वितर्क-वीचार ध्यान ध्याता है। फिर शक्ति की कमी से योग से योगान्तर, व्यंजन से व्यंजनान्तर और अर्थ से अर्थान्तर को प्राप्त कर मोहरज का विधूनन कर ध्यानसे निवृत्त होता है । यह पृथक्त्ववितर्क-वीचार ध्यान है। इसी विधि से मोहनीय का समूलतल उच्छेद करने की तीव्र इच्छा से अनन्तगुणविशुद्ध योग सहित हो ज्ञानावरण के सहायभूत बहुत-सी मोहनीय प्रकृतियों के बन्ध को रोकता हुआ उनकी स्थिति का ह्रास और क्षय करके श्रुत-ज्ञानोपयोगवाला वह अर्थ, व्यंजन और योग संक्रान्ति को रोककर एकाग्र निश्चल चित्त हो वैडूर्यमणि की तरह निर्लेप क्षीणकषाय हो ध्यान धारण कर फिर वापिस नहीं होता। यह एकत्ववितर्क ध्यान है।

    इस तरह एकत्ववितर्क शुक्लध्यानाग्नि से जिसने घातिकर्मरूपी ईंधन को जला दिया है, प्रज्वलित केवलज्ञानसूर्य जिसका प्रकाशमान है, मेघ-समूह को भेदकर निकले हुए किरणों से सर्वतः भासमान भगवान् तीर्थकर या अन्यकेवली लोकेश्वरों द्वारा अभिवन्दनीय अर्चनीय और अभिगमनीय होते हैं। वे कुछ कम पूर्वकोटिकाल तक उपदेश देते रहते है। जब उनकी आयु अन्तमुहूर्त शेष रह जाती है और वेदनीय नाम और गोत्र की स्थिति भी उतनी ही रहती है तब सभी वचन और मनोयोग तथा बादरकाययोग को छोड़कर सूक्ष्मयोग का आलम्बन ले सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान प्रारम्भ करते हैं। जब आयु अन्तर्मुहूर्त हो तथा वेदनीय, नाम और गोत्र की स्थिति अधिक हो तब विशिष्ट आत्मोपयोगवाली परमसामायिकपरिणत महासंवररूप और जल्दी कर्मों का परिपाक करनेवाली समुद्घातक्रिया की जाती है । वह इस क्रिया से शेष कर्मरेणुओं का परिपाक करने के लिये चार समयों में दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूर्ण अवस्था में आत्मप्रदेशों को पहुँचाकर फिर क्रमशः चार ही समयों में उन प्रदेशों का संहरण कर चारों कर्मों की स्थिति समान कर लेता है । इस दशा में वह फिर अपने शरीरपरिमाण हो जाता है । इस तरह सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म-क्रियाप्रतिपाति ध्यान ध्याया जाता है।

    इसके बाद समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति ध्यान प्रारम्भ होता है। श्वासोच्छास आदि समस्त काय, वचन और मन-सम्बन्धी व्यापारों का निरोध होने से यह ध्यान समुच्छिन्नक्रियानिवर्ति कहलाता है। इस ध्यान में समस्त आस्रव-बन्ध का निरोध होकर समस्त कर्मों के नष्ट करने की सामर्थ्य उत्पन्न हो जाती है। इसके धारक अयोगकवली के संसार दुःखजाल के उच्छेदक साक्षात् मोक्षमार्ग के कारण सम्पूर्ण यथाख्यातचारित्र ज्ञान और दर्शन आदि प्राप्त हो जाते हैं। वे ध्यानाग्नि से समस्त मल कलंक कर्मबन्धों को जलाकर निर्मल और किट्टरहित सुवर्ण की तरह परिपूर्ण स्वरूपलाभ करके निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं। इस तरह यह तप संवर और निर्जरा दोनों का कारण होता है।

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    + सम्यग्दृष्टियों में निर्जरा का क्रम -
    सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरता-नन्तवियोजक-दर्शनमोह-क्षपकोपशम-कोपशांत-मोहक्षपक-क्षीणमोह-जिना: क्रमशोऽसंख्येय-गुण-निर्जरा: ॥45॥
    अन्वयार्थ : सम्‍यग्‍दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्‍तानुबन्धिवियोजक, दर्शनमोहक्षपक, उपशमक, उपशान्‍तमोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिन ये क्रम से असंख्‍यगुण निर्जरावाले होते हैं ॥४५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    सम्‍यग्‍दृष्टि आदि ये दश क्रम से असंख्‍येयगुण निर्जरा वाले होते हैं। यथा- जिसे पूर्वोक्‍त काललब्धि आदि की सहायता मिली है और जो परिणामों की विशुद्धि द्वारा वृद्धि को प्राप्‍त हो रहा है ऐसा भव्‍य पंचेन्द्रिय जीव क्रम से अपूर्वकरण आदि सोपान पंक्ति पर चढ़ता हुआ बहुतर कर्मों की निर्जरा करने वाला होता है।

    सर्वप्रथम वह ही प्रथम सम्‍यक्‍त्‍व की प्राप्ति के निमित्त के मिलने पर सम्‍यग्‍दृष्टि होता हुआ असंख्‍येयगुण कर्मनिर्जरा वाला होता है।

    पुन: वह ही चारित्र मोहनीय कर्म के एक भेद अप्रत्‍याख्‍यानावरण कर्मके क्षयोपशम निमित्तक परिणामों की प्राप्ति के समय विशुद्धि का प्रकर्ष होने से श्रावक होता हुआ उससे असंख्‍येयगुण निर्जरा वाला होता है।

    पुन: वह ही प्रत्‍याख्‍यानावरण कर्म के क्षयोपशम निमित्तक परिणामों की विशुद्धिवश विरत संज्ञा को प्राप्‍त होता हुआ उससे असंख्‍येयगुण निर्जरा वाला होता है।

    पुन: वह ही जब अनन्‍तानुबन्‍धी क्रोध, मान, माया और लोभ की विसंयोजना करता है तब परिणामों की विशुद्धि के प्रकर्षवश उससे असंख्‍येयगुण निर्जरा वाला होता है।

    पुन: वह ही दर्शनमोहनीयत्रिकरूपी तृणसमूह को भस्‍मसात् करता हुआ परिणामों की विशुद्धि के अतिशयवश दर्शनमोह क्षपक संज्ञा को प्राप्‍त होता हुआ पहले से असंख्‍येयगुण निर्जरा वाला होता है।

    इस प्रकार वह क्षायिक सम्‍यग्‍दृष्टि होकर श्रेणि पर आरोहण करने के सम्‍मुख होता हुआ तथा चारित्र मोहनीय के उपशम करने के लिए प्रयत्‍न करता हुआ विशद्धि के प्रकर्षवश उपशमक संज्ञा को अनुभव करता हुआ पहले कही गयी निर्जरा से असंख्‍येयगुण निर्जरा वाला होता है।

    पुन: वह ही समस्त चारित्रमोहनीय के उपशमक निमित्त मिलने पर उपशांत कषाय संज्ञा को प्राप्त होता हुआ पहले कही गयी निर्जरा से असंख्येय गुण निर्जरा वाला होता है।

    पुनः वह ही चारित्रमोहनीय की क्षपणा के लिए सम्‍मुख होता हुआ तथा परिणामों की विशुद्धि से वृद्धि को प्राप्‍त होकर क्षपक संज्ञा को अनुभव करता हुआ पहले कही गयी निर्जरा से असंख्‍येयगुण निर्जरा वाला होता है।

    पुन: वह ही समस्‍त चारित्रमोहनीय की क्षपणा के कारणों से प्राप्‍त हुए परिणामों के अभिमुख होकर क्षीणकषाय संज्ञा को प्राप्‍त करता हुआ पहले कही गयी निर्जरा से असंख्‍येय गुण निर्जरा वाला होता है।

    पुन: वह ही द्वितीय शुक्‍लध्‍यान रूपी अग्नि के द्वारा घातिकर्म समूह का नाश करके जिन संज्ञा को प्राप्‍त होता हुआ पहले कही गयी निर्जरा से असंख्‍येयगुण निर्जरा वाला होता है।

    कहते हैं, सम्‍यग्‍दर्शन का सान्निध्‍य होने पर भी यदि असंख्‍येयगुण निर्जरा के कारण ये परस्‍पर में समान नहीं है तो क्‍या श्रावक के समान ये विरत आदिक भी केवल गुणभेद के कारण निर्ग्रन्‍थपने को नहीं प्राप्‍त हो सकते हैं, इसलिए कहते हैं कि यह बात ऐसी नहीं है, क्‍योंकि यत: गुणभेद के कारण परस्‍पर भेद होने पर भी नैगमादि नय की अपेक्षा वे सभी होते हैं-

    राजवार्तिक :
    प्रथम सम्यक्त्व आदि का लाभ होने पर अध्यवसाय (परिणामों) की विशुद्धि की प्रकर्षता से ये दसों स्थान क्रमश: असंख्येय-गुणी निर्जरा-वाले हैं । जैसे मद्यपायी के शराब का कुछ नशा उतरने पर अव्यक्त ज्ञान-शक्ति प्रकट होती है, या दीर्घ निद्रा के हटने पर जैसे ऊँघते-ऊँघते भी अल्प स्मृति होती है, या विष-मूर्च्छित व्यक्ति को विष का एकदेश वेग कम होने पर चेतना आती है, अथवा पित्तादि विकार से मूर्च्छित व्यक्ति को मूर्च्छा हटने पर अव्यक्त चेतना आती है -- उसी प्रकार अनन्त-काय आदि एकेन्द्रियों में बार-बार जन्म-मरण-परिभ्रमण करते-करते विशेष लब्धि से दो-इन्द्रिय आदि से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त त्रस-पर्याय मिलती है । कदाचित पुन: वहीं एकेन्द्रियों में परिभ्रमण करना पड़ता है । अर्थात् कोई प्राणी निगोद से निकलकर द्विन्द्रिय आदि में भ्रमण कर पुन: निगोद में चले जाते हैं । इस प्रकार अनेक बार चढ-उतर कर (कभी एकेंद्रिय, कभी दो इन्द्रिय, कभी तीन इन्द्रिय आदि में हजारों बार परिभ्रमण करके) नरकादि पर्यायों में दीर्घकाल तक पंचेंद्रियत्व का अनुभव करके घुणोत्कीर्ण अक्षर (घुण चलता है, उसने अक्षर का आकार बन जाना घुणाक्षर न्याय है) के समान अतीव कठिनता से मानव-जन्म प्राप्त करता है । फिर भी (मानुषभव प्राप्त करके) संसार में भ्रमण कर मानुष पर्याय से भी अति-दुर्लभ उत्तम देश, उत्तम कुल, आदि को प्राप्त करके अल्प संक्लेश के कारण वह भव्यजीव प्रतिभा शक्ति वाला हो थोडी सी विशुद्धि को पा लेता है, परिणामों की विशुद्धि से अन्तरात्मा का प्रक्षालन होने पर भी यदि योग्य उपदेश नहीं मिलता तो उसे सन्मार्ग की प्राप्ति नहीं होती और वह कुतीर्थों के द्वारा प्रतिपादित मिथ्या पदार्थों को मानकर मिथ्यादृष्टि होकर मिध्या-मार्गों में भटककर पुन: जन्माटवी में परिभ्रमण करता है, यानी संसार का अतिथि बना रहता है । इस प्रकार पूर्वोक्त क्रम से ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न विशुद्धि, उपदेश, लब्धि-सम्पन्न (क्षयोपशम-लब्धि, विशुद्धि-लब्धि, देशना-लब्धि को प्राप्त करता है) होता है । अथवा कभी मुनिराज-कथित जिन-धर्म को सुनता है तथा कदाचित् प्रतिबन्धी कर्मों के दब जाने से उस पर श्रद्धान भी करता है; जैसे कतक-फल के सम्पर्क से जल का कीचड़ नीचे बैठ जाता है, और जल निर्मल बन जाता है उसी प्रकार मिथ्या उपदेश से अतिमलिन मिथ्यात्व के उपशम से आत्मा निर्मलता को प्राप्त कर श्रद्धानाभिमुख होकर तत्त्वार्थ-श्रद्धान की अभिलाषा के सन्मुख होकर कर्मों की असंख्यात-गुणी निर्जरा करता है और अभूतपूर्वकरण (अनिवृत्ति-करण परिणामों) से प्रथम सम्यक्त्व के सम्मुख होता है तथा जिनेन्द्र के वचनों में परम रुचि एवं श्रद्धान करता हुआ उपशम सम्यग्दृष्टि होता है । अर्थात उपशम सम्यक्त्व का अनुभव करता है । पुन: सम्यक्त्व भावना रूप अमृत रस से विशुद्धि को बढाता हुआ मिथ्यात्व की घातक शक्ति का आविर्भाव होने से, धान्य को कूटने से जैसे तुष, कण और चावल पृथक्-पृथकु हो जाते हैं, उसी प्रकार मिथ्या-दर्शन के मिथ्यात्व, सम्यक्त्व-मिथ्यात्व और सम्यक्त्व, ये तीन विभाग कर के सम्यक्त्व प्रकृति का वेदन करता हुआ सद्भूत पदार्थों का श्रद्धान करना जिसका फल है ऐसा क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि होता है । पुन: प्रशम, संवेग, अनुकम्पादि गुणों का धारी जिनेन्द्र-भक्ति से बढी हुई विपुल भावनाओं का आगार यह वेदक सम्यग्दृष्टि जहाँ केवली है वहाँ उनके चरणमूल में मोह (दर्शनमोह) का क्षय करना प्रारम्भ करता है । उस क्षायिक सम्यक्त्व की पूर्णता पूर्व में बाँधे हुए आयुकर्म के अनुसार चारों गतियों में से किसी भी गति में करता है, (परन्तु प्रारम्भ कर्म-भूमिया मनुष्य ही करता है) इस प्रकार मिथ्यात्व का निराकरण करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है । (अर्थात जिन्होंने मिथ्यात्व अवस्था में नरकायु, तिर्यन्चायु, मनुष्यायु का बन्ध कर लिया हो, पुन: क्षायिक-सम्यक्त्व करना प्रारम्भ किया हो तथा अनन्तानुबंधी चार मिथ्यात्व और सम्यक्त्व मिथ्यात्व-प्रकृति का क्षय करके मर गया हो, पुन: चारों गतियों में से किसी में जन्म लेकर सम्यक्त्व-प्रकृति का क्षय करता है अत: मोह के क्षय की समाप्ति चारों गतियों में है) अथवा, पूर्व-कथित शंकादि दोषों से रहित, कुसमयों (कुशास्त्रों) से अक्षुब्ध बुद्धि वाला, सत्पदार्थों की उपलब्धि करने वाला और मोहतिमिर पटलसे विमुक्तदृष्टियुक्त यह जैनेन्द्रपूजा, प्रवचनवात्सल्य और संयमादि प्रशंसा में तत्पर रहकर देशघातिकर्मों के क्षयोपशम से संयमासंयम को प्राप्त कर श्रावक हो जाता है। फिर विशुद्धिप्रकर्ष से समस्त गृहस्थ-सम्बन्धी परिग्रहों से मुक्त हो निर्ग्रन्थता का अनुभव कर महाव्रती बन जाता है। इसी तरह आगे-आगे विशुद्धिप्रकर्ष से असंख्यातगुणी निर्जरा होती है।

    क्षै धातु से आत्व और मित्संज्ञा होकर ह्रस्वत्व होनेपर क्षपक शब्द बन जाता है।

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    + निर्ग्रन्‍थ के भेद -
    पुलाक-वकुश-कुशील-निर्ग्रन्थ-स्नातका निर्ग्रंथा: ॥46॥
    अन्वयार्थ : पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्‍थ और स्‍नातक ये पाँच निर्ग्रन्‍थ हैं ॥४६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    जिन का मन उत्तरगुणों की भावनासे रहित है, जो कहीं पर और कदाचित् व्रतों में भी परिपूर्णता को नहीं प्राप्त होते हैं वे अविशुद्धपुलाक (मुरझाये हुए धान्‍य) के समान होने से पुलाक कहे जाते हैं।

    जो निर्ग्रन्‍थ होते हैं, व्रतोंका अखण्‍डरूप से पालन करते हैं, शरीर और उपकरणों की शोभा बढ़ाने में लगे रहते हैं, परिवार से घिरे रहते हैं और विविध प्रकार के मोह से युक्‍त होते हैं वे बकुश कहलाते हैं। यहाँ पर बकुश शब्‍द 'शबल' (चित्र-विचित्र) शब्‍द का पर्यायवाची है।

    कुशील दो प्रकारके होते हैं-प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील। जो परिग्रह से घिरे रहते हैं, जो मूल और उत्तरगुणों में परिपूर्ण हैं लेकिन कभी-कभी उत्तरगुणों की विराधना करते हैं वे प्रतिसेवनाकुशील कहलाते हैं। जिन्‍होंने अन्‍य कषायों के उदयको जीत लिया है और जो केवल संज्‍वलन कषायके अधीन हैं वे कषायकुशील कहलाते हैं।

    जिस प्रकार जलमें लकड़ी से की गयी रेखा अप्रकट रहती है उसी प्रकार जिनके कर्मों का उदय अप्रकट हो और जो अन्‍तर्मुहूर्त के बाद प्रकट होनेवाले केवलज्ञान और केवलदर्शनको प्राप्‍त करते हैं वे निर्ग्रन्‍थ कहलाते हैं।

    जिन्‍होंने चार घातिया कर्मों का नाश कर दिया है ऐसे दोनों केवली स्‍नातक कहलाते हैं। ये पाँचों ही निर्ग्रन्‍थ होते हैं। इनमें चारित्ररूप परिणामों की न्‍यूनाधिकता के कारण भेद होने पर भी नैगम और संग्रह आदि नयों की अपेक्षा वे सब निर्ग्रन्‍थ कहलाते हैं।

    अब उन पुलाक आदि के सम्‍बन्‍ध में पुनरपि ज्ञान प्राप्‍त कराने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1. उत्तरगुणों की भावनारहित व्रतों में भी कभी-कभी पूर्णता को न पानेवाले बिना पके धान्य की तरह पुलाक होते हैं।

    2. वकुश शब्द शबल का पर्यायवाची है। जो निर्ग्रंथ मूलव्रतों का अखण्ड भाव से पालन करते हैं, शरीर और उपकरण की सजावट में जिनका चित्त है, ऋद्धि और यश की कामना रखते हैं, सात और गौरव के आधार हैं, चित्त से जिनके परिवारवृत्ति नहीं निकली है और छेद से जिनका चित्त शबल अर्थात चित्रित है, वे वकुश हैं।

    3. कुशील दो प्रकार हैं - प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील ।

    4. जैसे पानी में खींची गई रेखा शीघ्र ही विलीन हो जाती है उसी तरह जिनके कर्मों का उदय अत्यन्त अनभिव्यक्त है और जिनके अन्तर्मुहूर्त में ही केवलज्ञान और दर्शन प्रकट होनेवाले हैं, वे निर्ग्रंथ हैं।

    5. ज्ञानावरण आदि घातिया कर्मों के क्षय से जिनके केवलज्ञानादि अतिशय प्रकट हुए हैं वे शील के परिपूर्णस्वामी कृतकृत्य सयोगकेवली स्नातक हैं।

    6-12. प्रश्न – जैसे गृहस्थ चारित्र-भेद से निर्ग्रंथ नहीं कहा जाता उसी तरह पुलाक आदि को भी प्रकृष्ट, अप्रकृष्ट, मध्यम आदि चारित्रभेद होने पर भी निर्ग्रन्थ नहीं कहना चाहिये ?

    उत्तर – जैसे चारित्र अध्ययन आदि का भेद होने पर भी सभी ब्राह्मणों में जाति की दृष्टि से ब्राह्मण शब्द का प्रयोग समानरूप से होता है उसी तरह पुलाक आदि में भी निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग हो जाता है । संग्रह और व्यवहार नय की अपेक्षा गुणहीनों में भी उस शब्द का प्रयोग सर्वसंग्रहार्थ कर लिया जाता है । भूषा, वेष और आयुध से रहित निर्ग्रन्थरूप और शुद्ध सम्यग्दर्शन ये सभी पुलाक आदि में समान है अतः इनमें निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग सकारण है। हम निर्ग्रन्थ रूप को प्रमाण मानते हैं, अतः भग्नव्रत निर्ग्रन्थ में निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग करके भी श्रावक में उसका प्रयोग नहीं कर सकते; क्योंकि उसमें निर्ग्रन्थ रूप नहीं है।

    यह आशंका भी नहीं करनी चाहिये कि - 'जिस किसी मिथ्यादृष्टि नंगे में निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग होने लगेगा'; क्योंकि उसमें सम्यग्दर्शन नहीं पाया जाता । जहाँ सम्यग्दर्शन सहित निर्गन्थरूप है वही निर्ग्रन्थ है। चारित्रगुण का क्रमविकास और क्रमप्रकर्ष दिखाने के लिए इन पुलाकादि भेदों की चर्चा की है।

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    + पुलाक आदि मुनियों की विशेषता -
    संयम-श्रुत-प्रतिसेवना-तीर्थलिङ्ग-लेश्योपपाद-स्थान-विकल्पत: साध्या: ॥47॥
    अन्वयार्थ : संयम, श्रुत, प्रतिसेवना, तीर्थ, लिंग, लेश्‍या, उपपाद और स्‍थान के भेद से इन निर्ग्रन्‍थों का व्‍याख्‍यान करना चाहिए ॥४७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    ये पुलाक आदि संयम आदि आठ अनुयोगों के द्वारा साध्‍य हैं अर्थात् व्‍याख्‍यान करने योग्‍य हैं। यथा --

    संयम- पुलाक, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील सामायिक और छेदोपस्‍थापना इन दो संयमों में रहते हैं। कषायकुशील पूर्वोक्‍त दो संयमों के साथ परिहारविशुद्धि और सूक्ष्‍मसाम्‍पराय इन दो संयमों में रहते हैं। निर्ग्रन्‍थ और स्‍नातक एक मात्र यथाख्‍यात संयम में रहते हैं।

    श्रुत- पुलाक, बकुश और प्रतिसेवनाकुशील उत्‍कृष्‍टरूप से अभिन्‍नाक्षर दश पूर्वधर होते हैं। कषायकुशील और निर्ग्रन्‍थ चौदह पूर्वधर होते हैं। जघन्‍यरूप से पुलाक का श्रुत आचार वस्‍तुप्रमाण होता है। बकुश, कुशील और निर्ग्रन्‍थों का श्रुत पाठ प्रवचनमातृका प्रमाण होता है। स्‍नातक श्रुतज्ञान से रहित केवली होते हैं।

    प्रतिसेवना- दूसरों के दबाववश जबरदस्‍ती से पाँच मूलगुण और रात्रिभोजन वर्जन व्रत में से किसी एक को प्रतिसेवना करने वाला पुलाक होता है। बकुश दो प्रकार के होते हैं, उपकरणबकुश और शरीरबकुश। उनमें से अनेक प्रकार की विशेषताओं को लिये हुए उपकरणों को चाहने वाला उपकरणबकुश होता है तथा शरीर का संस्‍कार करने वाला शरीरबकुश होता है। प्रतिसेवना कुशील मूलगुणों को विराधना न करता हुआ उत्तरगुणों की किसी प्रकार की विराधना की प्रतिसेवना करनेवाला होता है। कषायकुशील, निर्ग्रन्‍थ और स्‍नातकों के प्रतिसेवना नहीं होती।

    तीर्थ- ये सब निर्ग्रन्‍थ सब तीर्थंकरों के तीर्थों में होते हैं।

    लिंग- लिंग दो प्रकार का है, द्रव्‍यलिंग और भावलिंग। भावलिंग की अपेक्षा पाँचों ही साधु निर्ग्रन्‍थ लिंगवाले होते हैं। द्रव्‍यलिंग अर्थात् शरीरकी ऊँचाई, रंग व पीछी आदि की अपेक्षा उनमें भेद है।

    लेश्‍या- पुलाक के आगे की तीन लेश्‍याएँ होती हैं। बकुश और प्रतिसेवना-कुशील के छहों लेश्‍याएँ होती हैं। कषायकुशील के अन्‍त की चार लेश्‍याएँ होती हैं। सूक्ष्‍मसाम्‍पराय कषायकुशील के तथा निर्ग्रन्‍थ और स्‍नातक के केवल शुक्‍ल लेश्‍या होती है और अयोगी लेश्‍यारहित होते हैं।

    उपपाद- पुलाक का उत्‍कृष्‍ट उपपाद सहस्रार कल्‍प के उत्‍कृष्‍ट स्थिति वाले देवों में होता है। बकुश और प्रतिसेवना कुशील का उत्‍कृष्‍ट उपपाद आरण और अच्‍युत कल्‍प में बाईस सागरोपम की स्थिति वाले देवों में होता है। कषायकुशील और निर्ग्रन्‍थ का उत्‍कृष्‍ट उपपाद सर्वार्थसिद्धि में तैंतीस सागरोपम की स्थिति वाले देवों में होता है। इन सभी का जघन्‍य उपपाद सौधर्म कल्‍प में दो सागरोपम की स्थिति वाले देवों में होता है। तथा स्‍नातक मोक्ष जाते हैं।

    स्‍थान- कषायनिमित्तक असंख्‍यात संयमस्‍थान होते हैं। पुलाक और कषायकुशील के सबसे जघन्‍य लब्धिस्‍थान होते हैं। वे दोनों असंख्‍यात स्‍थानों तक एक साथ जाते हैं। इसके बाद पुलाक की व्‍युच्छित्ति हो जाती है। आगे कषायकुशील असंख्‍यात स्‍थानों तक अकेला जाता है। इससे आगे कषायकुशील, प्रतिसेवना कुशील और बकुश असंख्‍यात स्‍थानों तक एक साथ जाते हैं। यहाँ बकुश की व्‍युच्छित्ति हो जाती है। इससे भी असंख्‍यात स्‍थान आगे जाकर प्रतिसेवना कुशील की व्‍य‍ुच्छित्ति हो जाती है। पुन: इससे भी असंख्‍यात स्‍थान आगे जाकर कषाय कुशील की व्‍य‍ुच्छित्ति हो जाती है। इससे आगे अकषाय स्‍थान है जिन्‍हें निर्ग्रन्‍थ प्राप्‍त होता है। उसकी भी असंख्‍यातस्‍थान आगे जाकर व्‍युच्छित्ति हो जाती है। इससे आगे एक स्‍थान जाकर स्‍नातक निर्वाण को प्राप्‍त होता है। इनकी संयमलब्धि अनन्‍तगुणी होती है।

    इस प्रकार सर्वार्थसिद्धिनामक तत्त्‍वार्थवृत्ति में नौवां अध्‍याय समाप्‍त हुआ।

    राजवार्तिक :
    प्रश्न – अलक्षण होने से 'तस्‌' प्रत्यय का निर्देश करना युक्त नही है, अर्थात्‌ 'तस्‌' प्रत्यय का उत्पत्तिलक्षण नहीं है अतः 'तस्‌' प्रत्यय का निर्देश नही करना चाहिये ?

    उत्तर – 'तस्‌' प्रत्यय अलक्षय नही है - क्योंकि 'तस्‌' प्रत्यय अन्य से भी होता है ॥१॥

    भवति आदि के योग मे भी 'तस्‌' प्रत्यय होता है अन्यत्र नहीं, ऐसी आशंका करना भी उपयुक्त नहीं है, क्योंकि भवति आदि के योग के बिना भी 'तस्‌' प्रत्यय का प्रयोग सिद्ध है। 'तस्‌' प्रत्यय का प्रयोग भवति आदि को छोडकर अन्य शब्दों मे भी देखा जाता है, जैसे -- नार्थतः (अर्थ से नहीं), न शब्दतः (शब्द से नहीं), वाभिधानतः (अभिधान से नहीं), सुमध्यम है; इस प्रकार इन शब्दों मे भी 'तस्‌' प्रत्यय का प्रयोग है ॥२॥

    क्रियान्तर के अभिसम्बन्ध से प्रतिसेवना में 'षत्व' का अभाव है । जैसे --'विगतसेवक-ग्राम' का नाम विसेवक है । इसमे नामि परे 'स' 'प' नहीं हुआ, उसी प्रकार प्रतिगतासेवना में प्रतिसेवना है, इसमें भी क्रियान्तर का अभिसम्बन्ध होने से 'स' का षत्व नही होता है ॥३॥

    ये पुलाकादि संयमादि के द्वारा साध्य हैं । ये पुलाकादि पाँच निर्ग्रंथ विशेष संयमादि आठ अनुयोगों के द्वारा साध्य होते हैं, विशेष रूप से सिद्ध करने योग्य होते हैं । जैसे किसमे कौनसा संयम होता है?

    संयम -- श्रुत की दृष्टि से -- प्रतिसेवना : तीर्थ : सभी तीर्थंकरों के तीर्थ मे पुलाक आदि मुनि होते हैं ।

    लिग : लिंग दो प्रकार का है -- द्रव्यलिंग और भावलिंग । भावलिंग की अपेक्षा ये पाँचो ही निर्ग्रंथलिंगी होते है, परन्तु द्रव्यलिंग की अपेक्षा भाज्य है, अर्थात्‌ भाव की अपेक्षा पांचों ही प्रकार के मुनि भावलिंगी सम्यग्दृष्टि निष्प्रमादी हैं । द्रव्यलिंग की अपेक्षा पुलाक आदि भेद है ।

    लेश्या :

    उपपाद -- स्थान -- कषाय के निमित्त से असंख्यात संयमस्थान होते हैं ।

    नवाँ अध्याय समाप्त

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    10-मोक्षाधिकार



    + केवलज्ञान की उत्पत्ति -
    मोहक्षयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तराय-क्षयाच्च केवलम् ॥1॥
    अन्वयार्थ : मोह का क्षय होने से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्‍तराय कर्म का क्षय होने से केवलज्ञान प्रकट होता है ॥१॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    कहते हैं अन्‍त में कहे गये मोक्ष के स्‍वरूप के कथन का अब समय आ गया है। यह कहना सही है तथापि केवलज्ञान की उत्‍पत्ति होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, इसलिए पहले केवलज्ञान की उत्‍पत्ति के कारणों का निर्देश करने के लिए आगे का सूत्र कहते है-

    मोह का क्षय होने से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्‍तराय कर्म का क्षय होने से केवलज्ञान प्रकट होता है।।1।।

    इस सूत्र में समास करना उचित है, क्‍योंकि इससे सूत्र लघु हो जाता है।

    शंका – कैसे ? प्रतिशंका - क्‍योंकि ऐसा करने से एक क्षय शब्‍द नहीं देना पड़ता है और अन्‍य विभक्ति के निर्देश का अभाव हो जाने से 'च' शब्‍द का प्रयोग नहीं करना पड़ता है, इसलिए सूत्र लघु हो जाता है। यथा -'मोहज्ञानदर्शनावरणान्‍तरायक्षयात्‍केवलम्'।

    समाधान – यह कहना सही है तथापि क्षय के क्रम का कथन करने के लिए वाक्‍यों का भेद करके निर्देश किया है। पहले ही मोह का क्षय करके और अन्‍तर्मुहूर्त काल तक क्षीणकषाय संज्ञा को प्राप्‍त होकर अनन्‍तर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्‍तराय कर्म का एक साथ क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्‍त होता है। इन कर्मों का क्षय केवलज्ञान की उत्‍पत्ति का हेतु है ऐसा जानकर 'हेतुरूप' विभक्ति का निर्देश किया है।

    शंका – पहले ही मोह के क्षय को कैसे प्राप्‍त होता है ?

    समाधान – परिणामों की विशुद्धि द्वारा वृद्धि को प्राप्‍त होता हुआ असंयत सम्‍यग्‍दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, और अप्रमत्तसंयत इन चार गुणस्‍थानों में-से किसी एक गुणस्‍थान में मोहनीय की सात प्रकृतियों का क्षय करके क्षायिक सम्‍यग्‍दृष्टि होकर क्षपक श्रेणि पर आरोहण करने के लिए सम्‍मुख होता हुआ अप्रमत्तसंयत गुणस्‍थान में अध:प्रवृत्तकरण को प्राप्‍त होकर अपूर्वकरण के प्रयोग द्वारा अपूर्वकरण क्षपक गुणस्‍थान संज्ञा का अनुभव करके और वहाँ पर नूतन-परिणामों की विशुद्धिवश पापप्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग को कृश करके तथा शुभकर्मों के अनुभाग की वृद्धि करके अनिवृत्तिकरण की प्राप्ति द्वारा अनिवृत्तिबादरसाम्‍पराय क्षपकगुणस्‍थान पर आरोहण करके तथा वहाँ आठ कषायोंका नाश करके तथा नपुंसकवेद और स्‍त्रीवेद का क्रम से नाश करके, छह नोकषाय का पुरुषवेद में संक्रमण द्वारा नाश करके तथा पुरुषवेद का क्रोधसंज्‍वलन में, क्रोधसंज्‍वलन का मानसंज्‍वलन में, मानसंज्‍वलन का मायासंज्‍वलन में और मायासंज्‍वलन का लोभसंज्‍वलन में क्रम से बादरकृष्टिविभाग के द्वारा संक्रमण करके तथा लोभसंज्‍वलन को कृश करके, सूक्ष्‍मसाम्‍पराय क्षपकत्‍व का अनुभव करके, समस्‍त मोहनीय का निर्मूल नाश करके, क्षीणकषाय गुणस्‍थान पर आरोहण करके, मोहनीय के भार को उतारकर क्षीणकषाय गुणस्‍थान के उपान्‍त्‍य समय में निद्रा और प्रचला का नाश करके तथा अन्तिम समय में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्‍तराय कर्मों का अन्‍त करके तदनन्‍तर ज्ञानदर्शनस्‍वभाव अवितर्क्‍य विभूति विशेषरूप केवलपर्याय को प्राप्त होता है।

    कहते हैं कि किस कारण से मोक्ष प्राप्‍त होता है और उसका लक्षण क्‍या है यह बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं -

    राजवार्तिक :
    संवर के द्वारा जिसकी परम्परा की जड़ काट दी गई है और चारित्र-ध्यानाग्नि के द्वारा जिसकी सत्ता का सर्वथा लोप कर दिया है उस मोहनीय का क्षय हो जाने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का क्षय होते ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है । यहाँ 'उत्पन्न' होता है ऐसा उपदेश दिया गया है । इस वाक्यशेष का अन्वय कर लेना चाहिये ।

    1-2. मोहक्षय का पृथक-प्रयोग क्रमिक क्षय की सूचना देने के लिए है । पहिले मोहक्षय करके अन्तर्मुहूर्त तक क्षीणकषाय पद को पाकर फिर एक साथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, और अन्तराय का क्षय कर कैवल्य प्राप्त करता है । मोह का क्षय ही मुख्यतया केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण है, यह जताने के लिए पंचमी-विभक्ति से मोहक्षय की हेतुता का द्योतन किया है ।

    3. मोहादि का क्षय परिणाम-विशेषों से होता है । पूर्वोक्त तैयारी के साथ परम-तप को धारण कर प्रशस्त-अध्यवसाय से उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हुए साधक के शुभ-प्रकृतियों का अनुभाग बढ़ता है और अशुभ प्रकृतियाँ कृश होकर विलीन हो जाती हैं । कोई वेदक-सम्यग्दृष्टि अप्रमत्त-गुणस्थान में सात प्रकृतियों के उपशम का प्रारम्भ करता है । कोई साधक असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत या अप्रमत्त-संयत किसी भी गुणस्थान में सात प्रकृतियों का क्षयकर क्षायिक-सम्यग्दृष्टि हो चारित्रमोह का उपशम प्रारम्भ करता है । फिर अथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण करके उपशमश्रेणी चढ़कर अपूर्वकरण-उपशमक व्यपदेश को प्राप्तकर वहाँ नवीन परिणामों से पाप-कर्मों के प्रकृति, स्थिति और अनुभाग को क्षीणकर शुभ-कर्मों के अनुभाग को बढ़ाता हुआ अनिवृत्तिबादर साम्परायक गुणस्थान में जा पहुँचता है । वहाँ नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, नव नोकषाय, पुंवेद, अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान दो क्रोध, दो माया, दो लोभ, क्रोध-संज्वलन और मान-संज्वलन इन प्रकृतियों का क्रमशः उपशमन कर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में पहुँचता है । वहाँ प्रथम समय में माया संज्वलन को उपशमकर, लोभ-संज्वलन को क्षीणकर, सूक्ष्मसाम्परायोपशमक कहलाता है । फिर उपशान्तकषाय के प्रथम समय में लोभ-संज्वलन का उपशम कर समस्त मोह का उपशम होने से उपशान्त-कषाय कहलाता है । यहाँ आयु के क्षय से मरण हो सकता है । अथवा फिर कषायों की उदीरणा होने से नीचे गिर जाता है । वही या अन्य कोई विशुद्ध अध्यवसाय से अपूर्व उत्साह को धारण करता हुआ पहिले की तरह क्षायिक-सम्यग्दृष्टि होकर बड़ी भारी विशुद्धि से क्षपक श्रेणी चढ़ता है । अथाप्रवृत्त आदि तीन करणों से अपूर्वकरण-क्षपक अवस्था को प्राप्त कर उससे आगे आठ कषायों का नाश कर नपुंसक-वेद और स्त्री-वेद को उखाड़कर छह नोकषायों को पुंवेद में, पुंवेद को क्रोध-संज्वलन में, क्रोध-संज्वलन को मान में, मान को माया में, माया को लोभ में डालकर क्रमश: क्षय करके अनिवृत्तिबादर साम्परायक क्षपक गुणस्थान में पहुँचता हुआ लोभ-संज्वलन को सूक्ष्म करके सूक्ष्मसाम्परायक हो जाता है । उससे आगे समस्त मोहनीय-कर्म का निर्मूल क्षय करके क्षीणकषायगुणस्थान में मोहनीय का समस्त भार उतार कर फेंक देता है । वह उपान्त्य-समय में निद्रा-प्रचला का क्षय करके पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायों का अन्त समय में विनाश कर अचिन्त्य विभूतियुक्त केवलज्ञान दर्शनस्वभाव को निष्प्रतिपक्षीरूप से प्राप्त कर कमल की तरह निर्लिप्त और निरुपलेप होकर साक्षात् त्रिकालवर्ती सर्वद्रव्य पर्यायों का ज्ञाता सर्वत्र अप्रतिहत अनन्तदर्शनशाली कृतकृत्य मेघ-पटलों से विमुक्त, शरत्कालीन पूर्णचन्द्र की तरह सौम्यदर्शन और प्रकाशमानमूर्ति केवली हो जाता है । इन केवल ज्ञानदर्शनवाले सशरीरी ऐश्वर्यशाली घातिया कर्मों के नाशक और वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र-कर्म की सत्तावाले केवली के बन्ध के कारणों का अभाव और निर्जरा के द्वारा समस्त कर्मों का मोक्ष होने को मोक्ष कहा है ।

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    + मोक्ष का लक्षण और कारण -
    बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्न-कर्म-विप्रमोक्षो मोक्ष: ॥2॥
    अन्वयार्थ : बन्‍ध-हेतुओं के अभाव और निर्जरा से सब कर्मों का आत्‍यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है ॥२॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    मिथ्‍यादर्शनादिक हेतुओं का अभाव होने से नूतन कर्मों का अभाव होता है और पहले कही गयी निर्जरारूप हेतु के मिलने पर अर्जित कर्मों का नाश होता है। इन दोनों से, 'बन्‍धहेत्‍वभावनिर्जराभ्‍याम्' यह हेतुपरक विभक्ति का निर्देश है, जिसने भवस्थिति के हेतुभूत आयुकर्म के बराबर शेष कर्मों की अवस्‍था को कर लिया है उसके उक्‍त कारणों से एक साथ समस्‍त कर्मों का आत्‍यन्तिक वियोग होना मोक्ष है ऐसा जानना चाहिए। कर्म का अभाव दो प्रकार का है - यत्‍नसाध्‍य और अयत्‍नसाध्‍य। इनमें-से चरम देहवाले के नरकायु, तिर्यंचायु और देवायु का अभाव यत्‍नसाध्‍य नहीं होता, क्‍योंकि चरम देहवाले के उनका सत्‍व नहीं उपलब्‍ध होता।

    आगे यत्‍न-साध्‍य अभाव कहते हैं - असंयतसम्‍यग्‍दृष्टि आदि चार गुणस्‍थानों में से किसी एक गुणस्‍थान में सात प्रकृतियों का क्षय करता है। पुन: निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्‍त्‍यानगृद्धि, नरकगति, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, नरकगतिप्रायोग्‍यानुपूर्वी, तिर्यंचगतिप्रायोग्‍यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्‍थावर, सूक्ष्‍म और साधारण नामवाली सोलह कर्मप्रकृतियों का अनिवृत्तिबादरसाम्‍पराय गुणस्‍थान में एक साथ क्षय करता है। इसके बाद उसी गुणस्‍थान में आठ कषायों का नाश करता है। पुन: वहीं पर नपुंसकवेद और स्‍त्रीवेद का क्रम से क्षय करता है। तथा छह नोकषायों को एक ही प्रहार के द्वारा गिरा देता है। तदनन्‍तर पुरुषवेद संज्‍वलनक्रोध, संज्‍वलनमान और संज्‍वलनमाया का वहाँ पर क्रम से अत्‍यन्‍त क्षय करता है। तथा लोभसंज्‍वलन सूक्ष्‍मसाम्‍पराय गुणस्‍थान के अन्‍त में विनाश को प्राप्‍त होता है। निद्रा और प्रचला क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्‍थ गुणस्‍थान के उपान्‍त्‍य समय में प्रलय को प्राप्‍त होते हैं। पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्‍तराय कर्मों का उसी गुणस्‍थान के अन्तिम समय में क्षय होता है। कोई एक वेदनीय, देवगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, पाँच बन्‍धन, पाँच संघात, छह संस्‍थान, औदारिक शरीर अंगोपांग, वैक्रियिक शरीर अंगोपांग, आहारक शरीर अंगोपांग, छह संहनन, पाँच प्रशस्‍त वर्ण, पाँच अप्रशस्‍त वर्ण, दो गन्‍ध, पाँच प्रशस्‍त रस, पाँच अप्रशस्‍त रस, आठ स्‍पर्श, देवगति प्रायोग्‍यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्‍छ्वास, प्रशस्‍त विहायोगति, अप्रशस्‍त विहायोगति, अपर्याप्‍त, प्रत्‍येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, सुस्‍वर, दु:स्‍वर, अनादेय, अयश:कीर्ति, निर्माण और नीचगोत्र नामवाली बहत्तर प्रकृतियों का अयोगकेवली गुणस्‍थान के उपान्‍त्‍य समय में विनाश होता है तथा कोई एक वेदनीय, मनुष्‍य आयु, मनुष्‍यगति, पंचेन्द्रियजाति, मनुष्‍यगति-प्रायोग्‍यानुपूर्वी, त्रस, बादर, पर्याप्‍त, सुभग, आदेय, यश:कीर्ति, तीर्थंकर और उच्‍चगोत्र नामवाली तेरह प्रकृतियों को अयोगकेवली गुणस्‍थान के अन्तिम समय में वियोग होता है।

    कहते हैं कि क्‍या इन पौद्गलिक द्रव्‍यकर्म प्रकृतियोंके वियोग से ही मोक्ष मिलता है या भावकर्मों के भी अभाव से मोक्ष मिलता है इस बातको बतलाने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-2. मिथ्यादर्शन आदि बन्ध-हेतुओं के अभाव से नूतन कर्मों का आना रुक जाता है। कारण के अभाव से कार्य का अभाव होता हो है। पूर्वोक्त निर्जरा के कारणों से संचित कर्मों का विनाश होता है । इन कारणों से आयु के बराबर जिनकी स्थिति कर ली गई है ऐसे वेदनीय आदि शेष कर्मों का युगपत् आत्यन्तिक क्षय हो जाता है ।

    63. प्रश्न – कर्मबन्ध सन्तान जब अनादि है तो उसका अन्त नहीं होना चाहिये ?

    उत्तर – जैसे बीज और अंकुर की सन्तान अनादि होने पर भी अग्नि से अन्तिम बीज को जला देने पर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता उसी तरह मिथ्यादर्शनादि प्रत्यय तथा कर्मबन्ध सन्तति के अनादि होने पर भी ध्यानाग्नि से कर्मबीजों के जला देने पर भवांकुर का उत्पाद नहीं होता । यही मोक्ष है । कहा भी है - "जैसे बीज के जल जाने पर अंकुर उत्पन्न नहीं होता उसी तरह कर्मबीज के जल जाने पर भवांकुर उत्पन्न नहीं होता।" कृत्स्न का कर्मरूप से क्षय हो जाना ही कर्मक्षय है; क्योंकि विद्यमान द्रव्य का द्रव्यरूप से अत्यन्त विनाश नहीं होता । पर्यायें उत्पन्न और विनष्ट होतीं हैं अतः पर्यायरूप से द्रव्य का व्यय होता है। अतः पुदलद्रव्य की कर्मपर्याय का प्रतिपक्षी कारणों के मिलने से निवृत्ति होना क्षय है। उस समय पुद्गल-द्रव्य अकर्म पर्याय से परिणत हो जाता है।

    4. मोक्षशब्द भावसाधन है। वह मोक्तव्य और मोचक की अपेक्षा द्विविषयक है, क्योंकि वियोग दो का होता है। कृत्स्न अर्थात् सत्ता, बन्ध, उदय और उदीरणा रूप से चार भागों में बँटे हुए आठों कर्म । कर्म का अभाव दो प्रकार का होता है - एक यत्नसाध्य और दूसरा अयत्नसाध्य । चरमशरीर के नारक तिर्यंच और देवायु का अभाव अयत्नसाध्य है, क्योंकि इनका स्वयं अभाव है। यत्नसाध्य इस प्रकार है - असंयत सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में किसी में अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ, मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सात प्रकृतियों का विषवृक्षवन शुभाध्यवसायरूप तीक्ष्ण फरसे से समूल काटा जाता है। निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरकगति, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियों की सेना को अनिवृत्तिबादरसाम्पराय युगपत् अपने समाधिचक्र से जीतता है और उसका समूल उच्छेद कर देता है। इसके बाद प्रत्याख्यान और अप्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ इन आठ कषायों का नाश करता है। वहीं नपुंसकवेद, स्त्रीवेद तथा छह नोकषायों का क्रम से क्षय होता है। इसके बाद पुंवेद, संज्वलन क्रोध, मान और माया क्रम से नष्ट होती हैं। लोभ-संज्वलन, सूक्ष्मसाम्पराय के अन्त में नाश को प्राप्त होता है। क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ के उपान्त्य-समय में निद्रा और प्रचला क्षय को प्राप्त होते हैं । पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायों का बारहवें के अन्त में क्षय होता है । कोई एक वेदनीय, देवगति, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस, कार्मणशरीर, छह संस्थान, औदारिक-वैक्रियिक-आहारक अंगोपांग, छह-संहनन, पाँच-प्रशस्तवर्ण, पाँच-अप्रशस्तवर्ण, दो-गन्ध, पाँच-प्रशस्तरस, पाँच-अप्रशस्तरस, आठ स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्य, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, अपर्याप्तक, प्रत्येक-शरीर, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, दुर्भग, सुस्वर-दुःस्वर, अनादेय, अयशस्कीर्ति, निर्माण और नीच-गोत्रसंज्ञक 72 प्रकृतियों का अयोगकेवली के उपान्त्य समय में विनाश होता है। कोई एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, त्रस, बादर, पर्याप्तक, सुभग, आदेय, यशस्कीर्ति, तीर्थंकर और उच्चगोत्र इन तेरह प्रकृतियों का अयोगकेवली के चरम समय में व्युच्छेद होता है।

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    + किन भावों के नाश से मोक्ष? -
    औपशमिकादि-भव्यत्वानां च ॥3॥
    अन्वयार्थ : तथा औपशमिक आदि भावों और भव्‍यत्‍व भाव के अभाव होने से मोक्ष होता है ॥३॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    क्‍या होता है ? मोक्ष होता है। यहाँ पर 'मोक्ष' इस पद की अनुवृत्ति होती है। अन्‍य पारिणामिक भावों की निवृत्ति करने के लिए सूत्र में भव्‍यत्‍व पद का ग्रहण किया है। इससे पारिणामिक भावों में भव्‍यत्‍व का और औपशमिक आदि भावों का अभाव होने से मोक्ष होता है यह स्‍वीकार किया जाता है।

    कहते हैं, यदि भावोंके अभाव होने से मोक्ष की प्रतिज्ञा करते हो तो औपशमिक आदि भावों की निवृत्ति के समान समस्‍त क्षायिक भावों की निवृत्ति मुक्‍त जीव के प्राप्‍त होती है ? यह ऐसा होवे यदि इसके सम्‍बन्‍धमें कोई विशेष बात न कही जावे तो। किन्‍तु इस सम्‍बन्‍धमें विशेषता हैं इसलिए अपवादका विधान करने के लिए यह आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1. भव्यत्व का ग्रहण इसलिये किया है कि जीवत्व आदि की निवृत्ति का प्रसंग न आवे। अतः पारिणामिकों में भव्यत्व तथा औपशमिक आदि भावों का अभाव भी मोक्ष में हो जाता है।

    प्रश्न – कर्मद्रव्य का निरास होने से तन्निमित्तक भावों की निवृत्ति अपने आप ही हो जायगी, फिर इस सूत्र के बनाने की क्या आवश्यकता है ?

    उत्तर – निमित्त के अभाव में नैमित्तिक का अभाव हो ही ऐसा नियम नहीं है। फिर जिसका अर्थात ही ज्ञान हो जाता है उसकी साक्षात् प्रतिपत्ति कराने के लिए और आगे के सूत्र की संगति बैठाने के लिए औपशमिकादि भावों का नाम लिया है।

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    + किन भावों का मोक्ष में सद्भाव है? -
    अन्यत्र केवलसम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शन-सिद्धत्वेभ्य: ॥4॥
    अन्वयार्थ : पर केवल सम्‍यक्‍त्‍व, केवलज्ञान और सिद्धत्‍व भाव का अभाव नहीं होता ॥४॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    यहाँ पर अन्‍यत्र शब्‍द की अपेक्षा पंचमी वि‍भक्ति का निर्देश किया है। केवल सम्‍यक्‍त्‍व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्‍व इनके सिवा अन्‍य भावों में यह विधि होती है।

    शंका – सिद्धों के यदि चार ही भाव शेष रहते हैं तो अनन्‍तवीर्य आदि की निवृत्ति प्राप्‍त होती है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है क्‍योंकि ज्ञान-दर्शन के अविनाभावी होने से अनन्‍तवीर्य आदिक भी सिद्धों में समानरूप से पाये जाते हैं, क्‍योंकि अनन्‍त सामर्थ्‍य से हीन व्‍यक्ति के अनन्‍तज्ञान की वृत्ति नहीं हो सकती और सुख ज्ञानमय होता है।

    शंका – अनाकार होने से मुक्‍त जीवोंका अभाव प्राप्‍त होता है ?

    समाधान – नहीं। क्‍योंकि उनके अतीत अनन्‍तर शरीर का आकार उपलब्‍ध होता है।

    शंका – यदि जीव शरीर के आकारका अनुकरण करता है तो शरीर का अभाव होने से उसके स्‍वाभाविक लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर होने के कारण जीव तत्प्रमाण प्राप्‍त होता है ?

    समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्‍योंकि जीव के तत्‍प्रमाण होने का कोई कारण नहीं उपलब्‍ध होता। नामकर्म का सम्‍बन्‍ध जीव के संकोच और विस्‍तार का कारण है, किन्‍तु उसका अभाव हो जाने से जीव के प्रदेशों का संकोच और विस्‍तार नहीं होता।

    यदि कारण का अभाव हो जाने से प्रदेशों का संकोच और विस्‍तार नहीं होता तो गमनके कारण का अभाव हो जाने से जिस प्रकार यह जीव तिरछा और नीचे की ओर गमन नहीं करता है उसी प्रकार उसका ऊर्ध्‍वगमन भी नहीं प्राप्‍त होता है, इसलिए जिस स्‍थान पर मुक्‍त होता है उसी स्‍थान पर उसका अवस्‍थान प्राप्‍त होता है, ऐसी शंकाके होनेपर आगेके सूत्र द्वारा उसका समाधान करते हैं।

    राजवार्तिक :
    1-2. अन्यत्र शब्द 'वर्जन' के अर्थ में है, इसीलिए पंचमी विभक्ति भी दी गई है। यद्यपि अन्य शब्द का प्रयोग करके पंचमी विभक्ति का निर्वाह हो सकता था पर 'त्र' प्रत्यय स्वार्थिक है, अर्थात् केवल सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन और सिद्धत्व से भिन्न के लिए उक्त प्रकरण है।

    3. ज्ञान दर्शन के अविनाभावी अनन्तवीर्य आदि 'अनन्त' संज्ञक गुण भी गृहीत हो जाते हैं अर्थात्, उनकी भी निवृत्ति नहीं होती । अनन्तवीर्य से रहित व्यक्ति के अनन्तज्ञान नहीं हो सकता और न अनन्त सुख ही; क्योंकि सुख तो ज्ञानमय ही है।

    4-6. जैसे घोड़ा एक बन्धन से छूट कर भी फिर दूसरे बन्धन से बँध जाता है उस तरह जीव में पुनर्बन्ध की आशंका नहीं है, क्योंकि मिथ्यादर्शन आदि कारणों का उच्छेद होने से बन्धनरूप कार्य का सर्वथा अभाव हो जाता है। इसी तरह भक्ति, स्नेह, कृपा और स्पृहा आदि रागविकल्पों का अभाव हो जाने से वीतराग के जगत के प्राणियों को दुःखी और कष्ट अवस्था में पड़ा हुआ देखकर करुणा और तत्पूर्वक बन्ध नहीं होता। उनके समस्त आस्रवों का परिक्षय हो गया है। बिना कारण के ही यदि मुक्त जीवों को बन्ध माना जाय तो कभी मोक्ष ही नहीं हो सकेगा। मुक्तिप्राप्ति के बाद भी बन्ध हो जाना चाहिये।

    7-8. स्थानवाले होने से मुक्त जीवों का पात नहीं हो सकता; क्योंकि वे अनास्रव हैं। आस्रववाले ही यानपात्र का अधःपात होता है। अथवा, वजनदार ताड़फल आदि का प्रतिबन्धक-डण्ठल संयोग आदि के अभाव में पतन होता है, गुरुत्वशून्य आकाशप्रदेश आदि का नहीं। मुक्तजीव भी गुरुत्वरहित हैं। यदि मात्र स्थानवाले होने से पात हो तो सभी धर्मादिद्रव्यों का पात होना चाहिये।

    9-11. अवगाहनशक्ति होने के कारण अल्प भी अवकाश में अनेक सिद्धों का अवगाह हो जाता है। जब मूर्तिमान भी अनेक प्रदीप-प्रकाशों का अल्प आकाश में अविरोधी अवगाह देखा गया है तब अमूर्त सिद्धों की तो बात ही क्या है ? इसीलिये उनमें जन्म-मरण आदि द्वन्द्वों की बाधा नहीं है। क्योंकि मूर्त अवस्था में ही प्रीति, परिताप आदि बाधाओं की सम्भावना थी, पर सिद्ध अव्याबाध होने से परमसुखी हैं। जैसे परिमाण एक प्रदेश से बढ़ते-बढ़ते आकाश में अनन्तत्व को प्राप्त हो जाता है और उसका कोई उपमान नहीं रहता उसी तरह संसारी जीवों का सुख सान्त और सोपमान तथा प्रकर्ष अप्रकर्षवाला हो सकता है पर सिद्धों का सुख परम अनन्तपरिमाणवाला निरतिशय है।

    12-16. मुक्त जीव चूंकि अनन्तर अतीत शरीर के आकार होते हैं अतः अनाकार होने के कारण उनका अभाव नहीं किया जा सकता। लोकाकाश के समान असंख्य प्रदेशी जीव को शरीरानुविधायी मानने पर शरीर के अभाव में विसर्पण-फैलने का प्रसंग भी नहीं आता; क्योंकि नामकर्म के सम्बन्ध से आत्मप्रदेशों का गृहीत शरीर के अनुसार छोटे-बड़े सकोरे, घड़े आदि आवरणों में दीपक की तरह संकोच और विस्तार होता है, पर मुक्त जीव के फिर फैलने का कोई कारण नहीं है । मूर्त दीपक का दृष्टान्त आत्मा में भी लागू हो जाता है ; क्योंकि आत्मा उपयोगस्वभाव की दृष्टि से अमूर्त होकर भी कर्मबन्ध की दृष्टि से मूर्त है। कहा भी है -- "बन्ध की दृष्टि से एकत्व होकर भी लक्षण की दृष्टि से शरीर और जीव जुदे-जुदे हैं । अतः आत्मा में एकान्त से अमूर्तभाव नहीं है।" अतः कथश्चित् मूर्त होने से दृष्टान्त समान ही है। जैसे चन्द्रमुखी कन्या कहने से एक प्रियदर्शनत्व के सिवाय अन्य चन्द्रगुणों की विवक्षा नहीं है उसी तरह प्रदीप की तरह संहारविसर्प कहने से आत्मा में अनित्यत्व का प्रसंग नहीं आ सकता, क्योंकि दृष्टान्त के सभी धर्म दार्ष्टान्त में नहीं आते, यदि सभी धर्म आ जायँ तो वह दृष्टान्त ही नहीं कहा जा सकता।

    17. प्रश्न – जैसे बत्ती तेल और अग्नि आदि सामग्री से जलनेवाला दीपक सामग्री के अभाव में किसी दिशा या विदिशा को न जाकर वहीं अत्यन्त विनाश को प्राप्त हो जाता है उसी तरह कारणवश स्कन्ध सन्ततिरूप से प्रवर्तमान स्कन्धसमूह - जिसे जीव कहते हैं, क्लेश का क्षय हो जाने से किसी दिशा या विदिशा को न जाकर वहीं अत्यन्त प्रलय को प्राप्त हो जाता है ?

    उत्तर – प्रदीप का निरन्वय विनाश भी असिद्ध है जैसे कि मुक्त जीवों का । दीपक रूप से परिणत पुद्गलद्रव्य का भी विनाश नहीं होता। उनकी पुद्गलजाति बनी रहती है । जैसे हथकड़ी-बेड़ी आदि से मुक्त देवदत्त का स्वरूपावस्थान देखा जाता है उसी तरह कर्मबन्ध के अभाव से आत्मा का स्वरूपावस्थान होता है, इसमें कोई विरोध नहीं है । अतः यह शंका भी निर्मूल है कि जहाँ कर्मबन्ध का अभाव हो वहीं मुक्तजीव को ठहरना चाहिये; क्योंकि अभी यह प्रश्न विचारणीय है कि उसे वहीं ठहरना चाहिए या बन्धाभाव और अनाश्रित होने से उसे गमन करना चाहिये। 'गौरव न होने से अधोगति तो उसकी होती नहीं और योग न होने से तिरछी आदि भी गति नहीं हैं; अतः वहीं ठहरना चाहिये', इस आशंका के निवारणार्थ सूत्र कहते हैं --

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    + मुक्त जीव का निवास -
    तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्या-लोकान्तात् ॥5॥
    अन्वयार्थ : तदनन्‍तर मुक्‍त जीव लोक के अन्‍त तक ऊपर जाता है ॥५॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    उसके अनन्‍तर।

    शंका – किसके ?

    समाधान – सब कर्मों के वियोग होने के। सूत्रमें 'आङ्' पद अभिविधि अर्थ में आया है। लोक के अन्‍त तक ऊपर जाता है।

    जीव ऊर्ध्‍वगमन क्‍यों करता है इसका कोई हेतु नहीं बतलाया, इसलिए इसका निश्‍चय कैसे होता है, अत: इसी बात का निश्‍चय करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1-2. तत्-कर्मों का विप्रमोक्ष होते ही आत्मा समस्त कर्मभार से रहित होने के कारण लोकाकाश पर्यन्त ऊर्ध्व गमन करता है । यहाँ आङ, अभिविधि अर्थ में है । कैसे ?

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    + ऊर्ध्‍वगमन का कारण -
    पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद्-बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ॥6॥
    अन्वयार्थ : पूर्वप्रयोग से, संग का अभाव होने से, बन्‍धन के टूटने से और वैसा गमन करना स्‍वभाव होने से मुक्‍त जीव ऊर्ध्‍वगमन करता है ॥६॥

    सर्वार्थसिद्धि :
     कहते हैं, पुष्‍कल (बहुत) भी हेतु दृष्टान्त द्वारा समर्थन के बिना अभिप्रेत अर्थ की सिद्धि करने में समर्थ नहीं होते इसलिए आगे का सूत्र कहते हैं --

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    + प्रत्येक कारण का उदाहरण -
    आविद्धकुलालचक्रवद्-व्यपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च ॥7॥
    अन्वयार्थ : घुमाये गये कुम्‍हार के चक्र के समान, लेप से मुक्‍त हुई तूमड़ी के समान, एरण्‍ड के बीज के समान और अग्नि की शिखा के समान ॥७॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    पिछले सूत्र में कहे गये हेतुओं का और इस सूत्र में कहे गये दृष्‍टान्‍तों का क्रम से सम्‍बन्‍ध होता है। यथा-

    कुम्‍हार के प्रयोग से किया गया हा‍थ, दण्‍ड और चक्र के संयोगपूर्वक जो भ्रमण होता है उसके उपरत हो जाने पर पूर्व प्रयोगवश संस्‍कारका क्षय होने तक चक्र घूमता रहता है। इसी प्रकार संसार में स्थित आत्‍मा ने मोक्ष की प्राप्ति के लिए जो अनेक बार प्रणिधान किया है उसका अभाव होने पर भी उसके आवेश पूर्वक मुक्‍त जीव का गमन जाना जाता है।

    असंगत्‍वात्- जिस प्रकार मृत्तिका के लेप से तूमड़ी में जो भारीपन आ जाता है उससे जल के नीचे पड़ी हुई तूमड़ी जल से मिट्टी के गीले हो जाने के कारण बन्‍धन के शिथिल होने से शीघ्र ही ऊपर ही जाती है उसी प्रकार कर्मभार के आक्रमण से आधीन हुआ आत्‍मा उसके आवेशवश संसार में अनियम से गमन करता है किन्‍तु उसके संग से मुक्‍त होने पर ऊपर ही जाता है।

    बन्‍धच्‍छेदात्- जिस प्रकार बीजकोश के बन्‍धन के टूटने से एरण्‍ड बीज की ऊर्ध्‍व गति देखी जाती है उसी प्रकार मनुष्‍यादि भव को प्राप्‍त कराने वाले गतिनाम और जातिनाम आदि समस्‍त कर्मों के बन्‍ध का छेद स्‍वभाववाले वायु के सम्‍बन्‍ध से रहित प्रदीपशिखा स्‍वभाव से ऊपर की ओर गमन करती है उसी प्रकार मुक्‍त आत्‍मा भी नानागति रूप विकार के कारणभूत कर्म का अभाव होने पर ऊर्ध्‍वगति स्‍वभाव होने से ऊपर की ओर ही आरोहण करता है।

    कहते हैं कि यदि मुक्‍त जीव ऊर्ध्‍व गति स्‍वभाववाला है तो लोकान्‍त से ऊपर भी किस कारण से नहीं गमन करता है, इसलिए यहाँ आगे का सूत्र कहते हैं-

    राजवार्तिक :
    1. हेतु और दृष्टान्तों का क्रमशः सम्बन्ध कर लेना चाहिये।

    2. जैसे कुम्हार के हाथ हटा लेने पर भी चक्र पूर्वप्रयोग के कारण संस्कारक्षय तक बराबर घूमता रहता है उसी तरह संसारी आत्मा ने जो अपवर्ग प्राप्ति के लिए अनेकबार प्रणिधान और यत्न किये हैं उनके कारण उसका ऊर्ध्वगमन होता है।

    3-4. जैसे मिटी के लेप से वजनदार लँबड़ी पानी में डूब जाती है पर ज्योंही मिट्टी का लेप घुल जाता है त्योंही वह ऊपर आ जाती है उसी तरह कर्मभार से परवश आत्मा कर्मवश संसार में इधर-उधर भटकता था पर जैसे ही वह कर्म-बन्धन से मुक्त होता है वैसे ही ऊर्ध्व-गमन करता है। जीव की दण्ड की तरह अनियतगति नहीं हो सकती; क्योंकि जीवों को ऊर्ध्वगौरव धर्मवाला बताया है । अतः वे ऊपर ही जाते हैं।

    5. जैसे ऊपर के छिलके के हटते ही एरंडबीज छिटक कर ऊपर को जाता है उसी तरह मनुष्यादिभवों को प्राप्त करानेवाली गति आदि नाम कर्म के बन्धनों के हटते ही मुक्त की स्वाभाविक ऊर्ध्वगति होती है। जैसे तिरछी बहनेवाली वायु के अभाव में दीपशिखा स्वभाव से ऊपर को जलती है उसी तरह मुक्तात्मा भी नाना गतिविकार के कारण कर्म के हटते ही ऊर्ध्वगतिस्वभाव से ऊपर को ही जाता है।

    7. परस्परप्रवेश होकर एकमेक हो जाना बन्ध है और परस्पर प्राप्तिमात्र संग है, अतः दोनों में भेद है । अतः क्रिया के कारण पुण्य-पाप के हट जाने पर मुक्त के स्वगति-परिणाम से ऊर्ध्वगति होती है।

    8. अलाबू - तूंबड़ी वायु के कारण ऊपर नहीं आती; क्योंकि वायु का तिरछा चलने का स्वभाव है अतः उसे तिरछा चलना चाहिये था। अतः मिट्टी के लेप के अभाव में ही ऊर्ध्वगमन मानकर अलाबू का दृष्टान्त संगत है।

    9-10. प्रश्न – सिद्ध-शिला पर पहुँचने के बाद चूंकि मुक्त जीव में ऊर्ध्वगमन नहीं होता अतः उष्ण-स्वभाव के अभाव में अग्नि के अभाव की तरह मुक्त-जीव का भी अभाव हो जाना चाहिये ?

    उत्तर – 'मुक्त का ऊर्ध्व ही गमन होता है तिरछा आदि गमन नहीं' यह स्वभाव है न कि ऊर्ध्वगमन करते ही रहना। जैसे अग्नि कभी ऊर्ध्वज्वलन नहीं करती तब भी अग्नि बनी रहती है उसी तरह मुक्त में भी लक्ष्य प्राप्ति के बाद ऊर्ध्वगमन न होने पर भी अभाव नहीं होता है। अथवा, 'अग्नि के तो तिर्यक् पवन के संयोग से ऊर्ध्वज्वलन का अभावमाना जा सकता है पर मुक्त आत्मा के आगे गमन न करने में क्या कारण है ?' इस शंका के समाधान के लिए सूत्र कहते हैं --

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    + मुक्त जीव लोकांत में क्यों ठहरते हैं? -
    धर्मास्तिकायाभावात् ॥8॥
    अन्वयार्थ : धर्मास्तिकाय का अभाव होने से मुक्‍त जीव लोकान्‍त से और ऊपर नहीं जाता ॥८॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    गति के उपकार का कारणभूत धर्मास्तिकाय लोकान्‍त के ऊपर नहीं है, इसलिए मुक्‍त जीव का अलोक में गमन नहीं होता। और यदि आगे धर्मास्तिकाय का अभाव होने पर भी अलोक में गमन माना जाता है तो लोकालोक के विभाग का अभाव प्राप्‍त होता है।

    कहते हैं कि निर्वाण को प्राप्‍त हुए ये जीव गति, जाति आदि भेद के कारणों का अभाव होने से भेद व्‍यवहार से रहित ही हैं। फिर भी इनमें कथंचित् भेद भी है क्‍योंकि-

    राजवार्तिक :
    लोकाकाश से आगे गति-उपग्रह करने में कारणभूत धर्मास्तिकाय नहीं हैं । अतः आगे गति नहीं होती। आगे धर्मद्रव्य का सद्भाव मानने पर लोक-अलोक विभाग का अभाव ही हो जायगा।

    सिद्धों में भेद -

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    + मुक्त जीवों में भेद-व्यवहार -
    क्षेत्र-काल-गति-लिङ्ग-तीर्थचारित्र-प्रत्येकबुद्धबोधित-ज्ञानावगाहनान्तर-संख्याल्पबहुत्वत: साध्या: ॥9॥
    अन्वयार्थ : क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्‍येकबुद्ध, बोधितबुद्ध, ज्ञान, अवगाहना, अन्‍तर, संख्‍या और अल्‍पबहुत्‍व इन द्वारा सिद्ध जीव विभाग करने योग्‍य हैं ॥९॥

    सर्वार्थसिद्धि :
    क्षेत्रादिक तेरह अनुयोगों के द्वारा सिद्ध जीव साध्‍य हैं अर्थात् विभाग करने योग्‍य हैं और यह विभाग वर्तमान और भूत का अनुग्रह करने वाले दो नयों की विवक्षा से किया गया है।

    यथा- क्षेत्र की अपेक्षा किस क्षेत्र में सिद्ध होते हैं ? वर्तमान को ग्रहण करने वाले नय की अपेक्षा सिद्धि क्षेत्र में, अपने प्रदेश में या आकाश-प्रदेश में सिद्धि होती है। अतीत को ग्रहण करने वाले नय की अपेक्षा जन्‍म की अपेक्षा पन्‍द्रह कर्मभूमियों में और अपहरण की अपेक्षा मानुष क्षेत्र में सिद्धि होती है।

    काल- काल की अपेक्षा किस काल में सिद्धि होती है ? वर्तमानग्राही नय की अपेक्षा एक समय में सिद्ध होता हुआ सिद्ध होता है। अतीतग्राही नय की अपेक्षा जन्‍म की अपेक्षा सामान्‍य रूप में उत्‍सर्पिणी और अवसर्पिणी में उत्‍पन्‍न हुआ सिद्ध होता है। विशेष रूप से अवसर्पिणी काल में सुषमा-दु:षमा में सिद्ध नहीं होता। इस कालको छोड़कर अन्‍यकालमें सिद्ध होता है।

    गति- गति की अपेक्षा किस गति में सिद्धि होती है ? सिद्धगति में या मनुष्‍यगति में सिद्धि होती है।

    लिंग- किस लिंग से सिद्धि होती है ? अवेद भाव से या तीनों वेदों से सिद्धि होती है। यह कथन भाव की अपेक्षा है द्रव्‍य की अपेक्षा नहीं। द्रव्‍य की अपेक्षा पुलिंग से ही सिद्धि होती है अथवा निर्ग्रन्‍थलिंग से सिद्धि होती है। भूतपूर्वनय की अपेक्षा सग्रन्‍थ लिंग से सिद्धि होती है।

    तीर्थ- तीर्थ सिद्धि दो प्रकारकी है- तीर्थं- करसिद्ध और इतरसिद्ध। इतर दो प्रकार के हैं, कितने ही जीव तीर्थंकर के रहते हुए सि‍द्ध होते हैं और कितने ही जीव तीर्थंकर के अभाव में सिद्ध होते हैं।

    चारित्र- किस चारित्र से सिद्धि होती है ? नामरहित चारित्र से सिद्धि होती है या एक, चार और पाँच प्रकार के चारत्रि से सिद्धि होती है।

    प्रत्‍येकबुद्ध-बोधितबुद्ध- अपनी शक्तिरूप निमित्त से होने वाले ज्ञान के भेद से प्रत्‍येकबुद्ध होते हैं और परोपदेशरूप निमित्त से होने वाले ज्ञान के भेद से बोधितबुद्ध होते हैं, इस प्रकार ये दो प्रकार के हैं।

    ज्ञान- किसी ज्ञान से सि‍द्धि होती है। एक, दो, तीन और चार प्रकार के ज्ञान विशेषों से सिद्धि होती है।

    अवगाहना- आत्‍मप्रदेश में व्‍याप्‍त करके रहना इसका नाम अवगाहना है। वह दो प्रकार की है- जघन्‍य और उत्‍कृष्‍ट। उत्‍कृष्‍ट अवगाहना पाँच सौ पच्चीस धनुष है और जघन्‍य अवगाहना कुछ कम साढ़े तीन अरत्नि है। बीच के भेद अनेक हैं। किसी एक अवगाहना में सिद्धि होती है।

    अन्‍तर- क्‍या अन्‍तर है ? सिद्धि को प्राप्‍त होने वाले सिद्धों का जघन्‍य अन्‍तर का अभाव दो समय है और उत्‍कृष्‍ट अन्‍तर का अभाव आठ समय। जघन्‍य अन्‍तर एक समय है और उत्‍कृष्‍ट अन्‍तर छह महीना।

    संख्‍या- जघन्‍य रूप से एक समय में एक जीव सिद्ध होता है और उत्‍कृष्‍ट रूप से एक समय में एक सौ आठ जीव सिद्ध होते हैं।

    अल्‍पबहुत्‍व- क्षेत्रादि की अपेक्षा भेदों को प्राप्‍त जीवों की परस्‍पर संख्‍या का विशेष प्राप्‍त करना अल्‍पबहुत्‍व है। यथा- वर्तमान नय की अपेक्षा सिद्धिक्षेत्र में सिद्ध होने वाले जीवों का अल्‍पबहुत्‍व नहीं है। भूतपूर्व नय की अपेक्षा विचार करते हैं- क्षेत्र सिद्ध जीव दो प्रकारके हैं- जन्‍मसिद्ध और संहरणसिद्ध। इनमें-से संहरणसि‍द्ध जीव सबसे अल्‍प हैं। इनसे जन्‍मसिद्ध जीव संख्‍यातगुणे हैं। क्षेत्रों का विभाग इस प्रकार है- कर्मभूमि, अकर्मभूमि, समुद्र, द्वीप, ऊर्ध्‍वलोक, अधोलोक और तिर्यग्‍लोक। इनमें से ऊर्ध्‍वलोक सिद्ध सबसे स्‍तोक हैं। इनसे अधोलोक सिद्ध संख्‍यातगुणे हैं, इनसे तिर्यग्‍लो‍क सिद्ध संख्‍यातगुणे हैं। समुद्रसिद्ध सबसे स्‍तोक हैं। इनसे द्वीपसिद्ध संख्‍यातगुण हैं। यह सामान्‍य रूपसे कहा है। विशेष रूप से विचार करने पर लवण समुद्रसिद्ध सबसे स्‍तोक हैं। इनसे कालोद सिद्ध संख्‍यातगुण हैं। इनसे जम्‍बूद्वीप सिद्ध संख्‍यातगुणे हैं। इनसे धातकी खण्‍ड सिद्ध संख्‍यातगुण हैं। इनसे पुष्‍करार्द्ध द्वीप सिद्ध संख्‍यातगुण हैं। इसी प्रकार कालादि का विभाग करने पर भी आगम के अनुसार अल्‍पबहुत्‍व जान लेना चाहिए।

    इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे दशमोऽध्याय:॥१०॥

    अक्षर-मात्र पद-स्वर-हीनं, व्यंजन-संधि-विवर्जित-रेफम्। साधुभिरत्र मम क्षमितव्यं, को न विमुह्यति शास्त्रसमुदे्र॥१॥

    दशाध्याये परिच्छिन्ने, तत्त्वार्थे पठिते सति। फलं स्यादुपवासस्य, भाषितं मुनिपुंगवै:॥२॥

    तत्त्वार्थ - सूत्र - कत्र्तारं, गृद्धपिच्छोपलक्षितम्। वन्दे गणीन्द्र - संजातमुमास्वामि - मुनीश्वरम्॥३॥

    राजवार्तिक :
    1. इन क्षेत्र आदि बारह अनुयोगों को प्रत्युत्पन्न और अतीत की अपेक्षा लगाकर सिद्धों में भेद करना चाहिये।

    2. प्रत्युत्पन्ननय से सिद्धिक्षेत्र स्वप्रदेश या आकाशप्रदेश में सिद्धि होती है । भूतनय की अपेक्षा पन्द्रह कर्मभूमियों और संहरण की अपेक्षा मनुष्यलोक में सिद्धि होती है । ऋजुसूत्र तथा शब्द नय प्रत्युत्पन्नग्राही हैं और शेष नय उभय को ग्रहण करते हैं।

    3. प्रत्युत्पन्न की अपेक्षा एक समय में ही सिद्ध होता है । भूतप्रज्ञापननय से जन्म की अपेक्षा सामान्यतया उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है। विशेषरूप से अवसर्पिणी के सुषम-सुषमा के अन्तभाग और दुषमसुषमा में उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है । दुषमसुषमा में उत्पन्न दुषमा में सिद्ध हो सकता है पर दुषमा में उत्पन्न हुआ कभी सिद्ध नहीं हो सकता। संहरण की दृष्टि से सभी कालों में सिद्ध हो सकता है।

    4. प्रत्युत्पन्न दृष्टि से सिद्धगति में सिद्धि होती है और भूतनय की दृष्टि से अनन्तर गति की अपेक्षा केवल मनुष्यगति से सिद्धि होती है और एकान्तरगति की अपेक्षा चारों गतियों से सिद्धि होती है अर्थात् किसी भी गति से मनुष्य होकर सिद्ध हो सकता है।

    5. वर्तमान नय की अपेक्षा अवेद अवस्था में सिद्धि होती है । अतीत की अपेक्षा साधारण रूप से तीनों वेदों से सिद्धि होती है - भाव वेद की अपेक्षा द्रव्यवेद की अपेक्षा नहीं। द्रव्यवेद की अपेक्षा तो पुल्लिंग से ही सिद्धि होती है । अथवा लिंग दो प्रकार का है एक सग्रंथ-लिंग और दूसरा निर्ग्रन्थ-लिंग । प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा निर्ग्रन्थ-लिंग से सिद्धि होती है और भूतपूर्वनय की अपेक्षा विकल्प है।

    6. तीर्थ सिद्धि दो प्रकार की होती है - एक तीर्थंकर रूप से तथा दूसरी तीर्थकर भिन्न रूप में । वे दोनों तीर्थंकर की मौजूदगी में भी सिद्ध होते हैं और गैरमौजूदगी में भी।

    7. प्रत्युत्पन्ननय की दृष्टि से न तो चारित्र से सिद्धि होती है और न अचारित्र से किन्तु निर्विकल्पभाव से सिद्धि होती है। भूतपूर्वनय में अनन्तरदृष्टि से यथाख्यात चारित्र से सिद्धि होती है। व्यवधान से सामायिक, छेदोपस्थापना, सूक्ष्मसाम्पराय इन सहित चार से या परिहारविशुद्धि सहित पाँच से सिद्धि होती है।

    8. कुछ प्रत्येकबुद्ध सिद्ध होते हैं जो परोपदेश के बिना स्वशक्ति से ही ज्ञानातिशय - प्राप्त करते हैं। कुछ बोधितबुद्ध होते हैं जो परोपदेशपूर्वक ज्ञान प्राप्त करते हैं।

    9 प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा एक केवलज्ञान से सिद्धि होती है। भूतपूर्व गति से मति और श्रुत दो से मति, श्रुत और अवधि या मति, श्रुत और मनःपर्यय इन तीन से अथवा मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय इन चार ज्ञानों से सिद्धि होती है।

    10. अत्मप्रदेश का व्यापित्व अर्थात् अवगाहन शरीरपरिमाण है । उत्कृष्ट अवगाहना 525 धनुष और जघन्य साढ़े तीन अरत्नि प्रमाण है। मध्य में अनेक भेद होते हैं। भूतपूर्वनय से इन अवगाहनाओं में सिद्धि होती है और प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा कुछ कम इन्हीं अवगाहनाओं में ।

    11-12. एक सिद्ध से दूसरे सिद्ध होने के मध्य का काल अन्तर है। अनन्तर जघन्य से दो समय तक और उत्कृष्ट से आठ समय तक सिद्ध होते रहते हैं। अन्तर जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से छह मास है।

    13. एक समय में जघन्य से एक और उत्कृष्ट से 108 तक सिद्ध होते हैं ।

    14. क्षेत्रादि अनुयोगों के भेद से भिन्नों का परस्पर संख्यातारतम्य अल्पबहुत्व है। प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा सिद्धिक्षेत्र में सिद्धि होती है अतः अल्पबहुत्व नहीं है । भूतपूर्वनय की अपेक्षा क्षेत्रसिद्ध दो प्रकारके हैं - एक जन्म की दृष्टि से और दूसरे संहरण की दृष्टि से । संहरणसिद्ध कम हैं, जन्मसिद्ध संख्यातगुणे हैं। संहरण दो प्रकार का है - एक स्वकृत और दूसरा परकृत । देवों द्वारा या चारण विद्याधरों से किया गया संहरण परकृत है और चारण विद्याधरों का स्वयं संहरण स्वकृत है।

    क्षेत्र -- कर्मभूमि और अकर्मभूमि, समुद्र-द्वीप ऊपर, नीचे, तिरछे आदि अनेक प्रकार के हैं। उनमें ऊर्ध्वलोकसिद्ध सबसे कम हैं। अधोलोकसिद्ध संख्येयगुणें हैं । तिर्यग्लोकसिद्ध संख्येयगुणें हैं । लवणोदसिद्ध सबसे कम हैं। कालोदसिद्ध संख्येयगुणें हैं। जम्बूद्वीपसिद्ध संख्येयगुणें हैं । धातकीखण्डसिद्ध संख्येयगुणें हैं । पुष्करद्वीपार्धसिद्ध संख्येयगुणें हैं।

    काल विभाग तीन प्रकारका है - उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी और अनुत्सर्पिणी-अनवसर्पिणी। उत्सर्पिणीसिद्ध सबसे कम हैं, अवसर्पिणीसिद्ध विशेषाधिक हैं, अनुत्सर्पिणी-अनवसर्पिणीसिद्ध संख्येयगुणें हैं। प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा एक समय में सिद्ध होते हैं अतः अल्पबहुत्व नहीं हैं। गति की दृष्टि से प्रत्युत्पन्ननय से सिद्धगति में सिद्धि होती है अतः अल्पबहुत्व नहीं है। भूतविषयकनय की अपेक्षा अनन्तरगति मनुष्यगति में सिद्धि होती है अतः अल्पबहुत्व नहीं है । एकान्तर गति में अल्पबहुत्व है - सबसे कम तिर्यग्योनि से मनुष्य होकर सिद्ध होनेवाले हैं। मनुष्ययोनि से मनुष्य होकर सिद्ध होनेवाले संख्यातगुणें हैं। नरक योनि से आकर मनुष्य होकर सिद्ध होनेवाले संख्येयगुणें हैं।

    वेद की दृष्टि से - प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा अवेद अवस्था में ही सिद्धि होती है। भूतपूर्वनय की अपेक्षा सबसे कम नपुंसकवेदसिद्ध हैं, स्त्रीवेदसिद्ध संख्येयगुणें हैं और पुंवेदसिद्ध संख्येयगुणें हैं।

    तीर्थानुयोग से तीर्थंकरसिद्ध कम हैं और इतरसिद्ध संख्येयगुणें हैं।

    चारित्रानुयोग से - प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा निर्विकल्प चारित्र से सिद्धि होती है अतः अल्पवहुत्व नहीं है । भूतपूर्वनय की दृष्टि से अनन्तर चारित्र की अपेक्षा सभी यथाख्यात चारित्र से सिद्ध होते हैं अतः अल्पबहुत्व नहीं हैं।

    व्यवधान की दृष्टि से पंच चारित्रसिद्ध कम हैं और चतुश्चारित्रसिद्ध संख्येयगुणें हैं।

    प्रत्येकबुद्धबोधितबुद्धानुयोग से - प्रत्येकबुद्ध कम हैं और बोधितबुद्ध संख्येय ज्ञानानुयोग से - प्रत्युत्पन्ननय की दृष्टि से केवली ही सिद्ध होते हैं, अतः अन्तर नहीं है । पूर्वभावप्रज्ञापननय से द्विज्ञानसिद्ध सबसे कम हैं, चतुर्ज्ञानसिद्ध संख्येयगुणें हैं, त्रिज्ञानसिद्ध संख्येयगुणें हैं । मतिश्रुतमनःपर्ययज्ञानसिद्ध सबसे कम हैं, मतिश्रुतज्ञानसिद्ध संख्येयगुणें हैं, मतिश्रुतअवधिमनःपर्ययज्ञानसिद्ध संख्येयगुणें हैं और मतिश्रुतअवधिज्ञानसिद्ध संख्येयगुणें हैं।

    अवगाहनानुयोग से - जघन्य अवगाहनासिद्ध सबसे कम हैं, उत्कृष्ट अवगाहनासिद्ध संख्येयगुणें हैं। यवमध्यसिद्ध संख्येयगुणें हैं, अधोयवसिद्ध संख्येयगुणें हैं। उपरि यवसिद्ध विशेषाधिक हैं।

    अनन्तरानुयोग से - आठ समयानन्तरसिद्ध सबसे कम हैं । सात समयअनन्तरसिद्ध संख्येयगुणें हैं। इस तरह दो समयअनन्तरसिद्ध तक समझना चाहिये । सान्तरों में छह माह के अन्तर से सिद्ध होनेवाले सबसे कम हैं, एकसमयान्तरसिद्ध संख्येयगुणें हैं। यवमध्यान्तर सिद्ध संख्येयगुणे हैं । अधोयवमध्यान्तरसिद्ध संख्येयगुणे और उपरियवमध्यान्तरसिद्ध विशेषाधिक हैं।

    संख्यानुयोगसे - १०८ सिद्ध होनेवाले सबसे कम हैं, १०८से लेकर 50 तक सिद्ध होनेवाले अनन्तगुणें हैं, 49 से 25 तक सिद्ध होनेवाले असंख्येयगुणें हैं, चौबीससे एक तक सिद्ध होनेवाले संख्येयगुणें हैं।

    इस प्रकार निसर्ग और अधिगम से उत्पन्न होने वाला, तत्त्वार्थश्रद्धान रूप, शंकादि अतिचारों से रहित, प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य भाव से जिसका लक्षण प्रकट है, ऐसे उस विशुद्ध सम्यग्दर्शन और सम्यग्दर्शन से विशुद्ध सम्यगज्ञान को प्राप्त कर, निक्षेप, प्रमाण, निर्देश, सत्संख्यादि उपायों (अनुयोगों) के द्वारा जीवों के पारिणामिक औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक भावों के स्वतत्त्व को जानकर, चेतन-अचेतन भोग-साधनों की उत्पत्ति एवं विनाश स्वभाव को जानकर, विरक्त वितृष्ण त्रिगुप्तियुक्त, पंचसमिति-सहित, दशलक्षण धर्मानुष्ठान और उसका फल देखकर निर्वाण-प्राप्ति की दिशा में श्रद्धा, संवेग, भावना आदि की वृद्धि से आत्मा को भावित कर, अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन से चित्त को स्थिर कर, विषयों से विरक्तमन होकर, आत्मा को चारों-ओर से संवरयुक्त करके, आस्नवशून्य होने से अभिनव (नवीन) कर्मों के उपचय को नष्ट करता हुआ, परीषहजय बाह्य-आभ्यन्तर तपोऽनुष्ठान और अनुभव से सम्यग्दृष्टि विरस आदि जिनपर्यन्त परिणामविशुद्धि अध्यवसानविशुद्धि आदि स्थानों को प्राप्त करके, असंख्यात गुणी उत्कर्ष की प्राप्ति से पूर्वोपाजित कर्मों की निर्जरा करता है । वह सामायिक आदि से लेकर सूक्ष्मसाम्पराय पर्यन्त संयमविशुद्धि स्थानों को उत्तरोत्तर प्राप्त करके, पुलाक से लेकर निर्ग्रन्थ पर्यन्त संयमानुपालन-विशुद्धिस्थान आदि को उत्तरोत्तर चढ़ता हुआ, आर्त-रौद्र-ध्यान से रहित होकर, घर्मध्यान की विजय से समाधि बल प्राप्त करके, पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क शुक्लघ्यान में से किसी एक शुक्लध्यान को ध्याता हुआ, पूर्वोक्त नानाविध ऋद्धियों के मिलने पर भी उनमें अनासक्त चित्त हो, पूर्वोक्त क्रम से मोहादि का क्षय करके, सर्वज्ञज्ञानलक्ष्मी का (अर्हन्तावस्था का) अनुभव करके, तत्‌पश्चात्‌ शेष अधातिया कर्मों को ईंधन-रहित अग्नि के समान क्षय करता हुआ, पूर्व शरीर का नाश हो जाने से तथा नवीन शरीर की उत्पत्ति का कारण न होने से भवबन्धन से मुक्त अशरीरी होकर, संसारदु:खों से परे आत्यन्तिक, ऐकान्तिक, निरुपम और निरतिशय निर्वाणसुख प्राप्त करता है । यही तत्त्वार्थभावना का फल हैं। कहा भी है कि --

    इस प्रकार तत्त्वपरिज्ञान करके अत्यन्त विरक्त आत्मा आस्रव-रहित होने से नूतन कर्म-सन्‍तति के नष्ट हो जाने पर पूर्वोक्त कारणों के द्वारा पूर्वोजित कर्मों का क्षय कर संसार के बीजभूत मोहनीय कर्म को पूर्ण रूप से नष्ट कर देता है ॥१-२॥

    उसके बाद ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय, ये तीनों कर्म अशेषरूप से एक साथ नष्ट हो जाते हैं । जैसे-गर्भसूची-मस्तकछत्र के (या जड़ के) नष्ट हो जाने पर (नष्ट होते ही) तालवृक्ष नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म के नष्ट होते ही शेष तीन घातिया कर्म नष्ट हो जाते हैं ॥३-४॥

    इसके बाद चार घातिया कर्मों का नाश कर अथा (यथा) ख्यातसंयम को प्राप्त और बीजबन्धन (कर्मबीज बन्धन) से विमुक्त आत्मा स्नातक परमेश्वर बन जाता है ॥५॥

    शेष चार अघातिया कर्मों का उदय रहते हुए भी आत्मा शुद्ध-बुद्ध निरामय सर्वज्ञ, सर्वदर्शी केवली जिन हो जाता है ॥६॥

    जैसे जली हुई अग्नि ईंधन आदि उपादान न रहने पर बुझ जाती है, उसी प्रकार सम्पूर्ण कर्मों के क्षय हो जाने से आत्मा निर्वाण को प्राप्त हो जाती है, ऊर्ध्वगमन कर जाती है ॥७॥

    जैसे बीज के अत्यन्त जल जाने पर अंकुर उत्पन्न नहीं होता है, उसी प्रकार कर्मबीज के भस्म हो जाने पर भवांकुर उत्पन्न नहीं हो सकता ॥८॥

    कर्मक्षय के अनन्‍तर आत्मा पुर्वप्रयोग, असंगत्व, बन्धच्छेद और ऊर्ध्वगौरव घर्म के कारण लोकान्त तक ऊर्ध्वगमन करता है ॥९॥

    जैसे-कुम्भकार के चक्र या वाण में पूर्वप्रयोगवश क्रिया होती रहती है, उसी प्रकार पूर्वप्रयोगवश कर्मों से छूटते ही आत्मा का ऊर्ध्वगमन बताया गया है । जिस प्रकार मिट्टी का लेप छूट जाने पर पानी में डूबी हुई अलाबू (तूंबड़ी) ऊपर आ जाती है वैसे ही कर्मलेप के हट जाने पर स्वाभाविक सिद्ध गति होती है अर्थात्‌ कर्मों के लेप से रहित आत्मा ऊर्ध्वगमन करती है ॥१०-११॥

    एरण्डबीज, यन्त्र तथा पेला आदि में जैसे बन्धच्छेद होने पर ऊर्ध्वगमन होता है, उसी प्रकार कर्मबन्ध का उच्छेद होने पर आत्मा का ऊर्ध्वगमन होता है, सिद्धपद की प्राप्ति होती है ॥१२॥

    जिनेन्द्र भगवान ने जीव को ऊर्ध्वगौरवधर्मा तथा पुद्गल को अधोगौरवधर्मा कहा है । जिस प्रकार लोष्ठ, वायु और अग्निशिखा स्वभाव से ही नीचे, तिरछे और ऊपर को जाती है,

    उसी प्रकार आत्मा को स्वभावत: ऊर्ध्वगति होती है । संसारी जीवों की जो विकृत गति पाई जाती है वह या तो प्रयोग से है या फिर कर्मों के प्रतिघात से है ॥१३-१५॥

    संसारी जोवों को कर्मजा (कर्मों से होने वाली) गति अध: (नीचे), तिरछे और ऊपर भी होती है, परन्तु क्षीणकर्मा जीवों की गति स्वभाव से ऊर्ध्व होती है ॥१६॥

    जिस प्रकार परमाणुद्रव्य में लोकान्तगामिनी क्रिया की उत्पत्ति, आरम्भ और समाप्ति युगपत्‌ (एक साथ) होती है उसी प्रकार संसार के क्षय हो जाने से मुक्तात्मा की गति की उत्पत्ति, आरम्भ और समाप्ति एक साथ होती है । जैसे -- प्रकाश की उत्पत्ति और अन्धकार का विनाश एक ही साथ (एक ही समय में) होता है, उसी प्रकार निर्वाण की प्राप्ति और कर्मों का नाश एक ही समय में होता है ॥१७-१८॥

    लोक के शिखर पर अतिशय मनोज्ञ, तन्‍वी, सुरभि, पुण्या और परमभासुरी प्राग्भारा नाम की वसुधा प्रवस्थित है ।यह मनुष्यलोक के समान विस्तार वाली (४५ लाख योजन विस्तृत) शुभ एवं शुक्ल छत्र के समान है । लोकान्त में इस पृथ्वी पर सिद्ध विराजमान होते हैं । वे सिद्ध भगवान केवलज्ञान, केवलदर्शन, सम्यक्त्व और सिद्धत्व में तद्रूप से उपयुक्त हैं और क्रिया के कारणों का अभाव होने से निष्किय हैं ॥१९-२१॥

    उससे भी ऊपर उनकी गति क्यों नहीं होती है? इसका समाधान यह है कि धर्मास्तिकाय का अभाव होने से लोकाकाश के बाहर सिद्धों का गमन नहीं होता । परम ऋषियों ने सिद्धों का सुख संसार के विषयों से अतीत, अव्यय (विनाशरहित) और अव्याबाध (बाधारहित) कहा है ॥२२-२३॥

    अशरीरी, नष्ट-अष्टकर्मा मुक्तजीवों के कैसे, क्या सुख होता है ? इसका समाधान सुनिये -- इस लोक में चार अर्थों में सुख शब्द का प्रयोग होता है । विषयवेदना का अभाव, विपाक, कर्मफल औरमोक्ष । 'अग्निसुखकर है' 'वायु सुखकारी है', इत्यादि में सुख शब्द विषयार्थक है । रोगादि दु:खों के अभाव में पुरुष 'मैं सुखी हूँ' ऐसा समझता है, वह वेदनाभाव सुख है, पुण्यकर्म के विपाक (उदय) से जो इष्ट इन्द्रिय विषयों से सुखानुभूति होती है वह विपाकज सुख है और कर्म और क्लेश के विमोक्ष (नष्ट) होने से मोक्ष का अनुपम सुख प्राप्त होता है -- वह मोक्षसुख है ॥२४-२७॥

    कोई मोक्षसुख को सुप्तावस्था के समान मानते हैं, परन्तु सुप्तावस्था के समान सुख मानना ठीक नहीं है, क्‍योंकि मोक्षसुख में सुखानुभव रूप क्रिया होती रहती है और सुप्तावस्था तो दर्शनावरणीय कर्म के उदय से श्रम-क्लम-मद, भय, व्याधि, काम आदि निमित्तों से उत्पन्न होती है और मोहोत्पत्ति का विकार है ॥२८-२९॥

    सारे संसार में ऐसा कोर्ई पदार्थ ही नहीं है जिससे उस सुख (मोक्षसुख) की उपमा दी जाय । अतः मोक्षसुख परम निरुपम है । लिंग और प्रसिद्धि में, अनुमान और उपमान में प्रामाण्य उत्पन्न होता है परन्तु यह सिद्धों का सुख न तो लिंग से अनुमित होता है न किसी प्रसिद्ध पदार्थ मे उपमित होता है अत: यह सिद्धों का सुख अलिङ्ग एवं अप्रसिद्ध होने से निरूपम कहा है ॥३०-३१॥

    वह सिद्धों का सुख भगवान अर्हंत के प्रत्यक्ष है और सर्वज्ञ के द्वारा कथित है अतः हम छद्मथ-जन उन्हीं के वचन-प्रामाण्य से उनके अस्तित्व को जानते हैं । उनका अखण्ड स्वरूप अल्पज्ञानी की परीक्षा का सर्वथा विषय नहीं हो सकता है । इस प्रकार उत्तम पुरुषों ने तत्त्वार्थसू्त्रों का भाष्य कहा है । इसमें तर्क है और न्याय तथा आगम से निर्णय है ॥३२-३३॥

    इस प्रकार तस्वार्थवात्तिक व्याख्यानालंकार में दसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ।

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