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समयसार
























- कुन्दकुन्दाचार्य



nikkyjain@gmail.com
Date : 17-Nov-2022

Index


अधिकार

मंगलाचरण पीठिका नव-पदार्थ अधिकार जीव अधिकार
अजीव अधिकार कर्त्ता-कर्म अधिकार पुण्य-पाप अधिकार आस्रव अधिकार
संवर अधिकार निर्जरा अधिकार बंध अधिकार मोक्ष अधिकार
सर्व-विशुद्ध अधिकार परिशिष्ट







Index


गाथा / सूत्रविषय

मंगलाचरण

001) सिद्धों को नमस्कार

पीठिका

002) स्वसमय और परसमय का लक्षण
003) 'समय' की सुन्दरता
004) एकत्व की दुर्लभता
005) आचार्य की प्रतिज्ञा
006) शुद्धात्मा का स्वरूप
007) ज्ञानी आत्मा शुद्ध ज्ञायक है
008) व्यवहार की आवश्यकता
009-010) श्रुतकेवली
011) आत्म-भावना की प्रेरणा
012) आत्म-भावना से शीघ्र मुक्ति

नव-पदार्थ अधिकार

013) निश्चयनय भूतार्थ है और व्यवहार नय अभूतार्थ है

जीव अधिकार

014) व्यवहार नय भी प्रयोजनवान है
015) शुद्धनय से जानना सम्यक्त्व है
016) शुद्धनय का लक्षण
017) जो आत्मा को देखता है वही जिनशासन को जानता है
018) ध्यान में केवल आत्मा
019) रत्नत्रय ही आत्मा है
020-021) रत्नत्रय के सेवन का क्रम
022) आत्मा कब तक अज्ञानी रहता है?
023) आत्मा के बंध मोक्ष का कारण
024) निश्चय और व्यवहार से जीव का कर्तापना
025-026-027) अप्रतिबुद्ध - पर पदार्थ में अहंकार / ममकार
028-029-030) पर पदार्थ को जीव का कहना ठीक नहीं - तर्क
031) प्रश्न - आत्मा-शरीर एक नहीं तो शरीराश्रित स्तुति कैसे ?
032) व्यवहार से जीव और शरीर एक, निश्चय से नहीं
033-034) व्यवहार स्तुति निश्चय स्तुति नहीं
035) दृष्टांत - नगर का वर्णन राजा का वर्णन नहीं
036) निश्चय स्तुति - जितेन्द्रिय
037) निश्चय स्तुति - जितमोह
038) निश्चय स्तुति - क्षीणमोह
039-040) प्रतिबुद्ध द्वारा परभावों का त्याग - प्रत्याख्यान
041) मोह से निर्मम
042) धर्मादि ज्ञेय पदार्थ से निर्मम
043) मैं एक शुद्ध दर्शन-ज्ञानमयी

अजीव अधिकार

044-048) जीव-अजीव में एकता - मिथ्या-मत
049) जीव-अजीव में भिन्नता - मिथ्या-मत खण्डन
050) आठों कर्मों का फल -- अध्यवसान
051) अध्यवसान-भाव जीव है - व्यवहार
052-053) इस व्यवहार को दृष्टांत द्वारा समझाते हैं
054) शुद्ध जीव कैसा होता है?
055-060) शुद्ध जीव कैसा नहीं होता है?
061) व्यवहार से वर्णादि भाव जीव के, निश्चय से नहीं
062) जीव का वर्णादि के साथ संयोग सम्बन्ध
063-064-065) दृष्टांत द्वारा सम्बन्ध को बतलाते हैं
066) वर्णादि भाव के साथ जीव का तादात्म्य नहीं
067) जीव का वर्णादि से तादात्म्य में दोष
068-069) संसार अवस्था में जीव के वर्णादि से तादात्म्य में दोष
070-071) अत: नाम-कर्म का उदय जीव नहीं है
072) देह को जीव कहना व्यवहार
073) अन्तरंग गुणस्थानादि भी जीव नहीं

कर्त्ता-कर्म अधिकार

074-075) आस्रव और जीव का भेद ना जानना - अप्रतिबुद्ध / अज्ञानी
076) अब कर्त्ता-कर्म रूप प्रवृत्ति की निवृत्ति किस प्रकार होती है उसे कहते हैं --
077) ज्ञानी निर्बंध कैसे होता है ?
078) आस्रवों से निवृत्ति का उपाय
079) ज्ञान और आस्रवों से निवृत्ति का एक काल
080) ज्ञानी की पहचान
081) आत्मा पुण्य-पापादि परिणामों का कर्त्ता -- व्यवहार
082) कर्मों को जानते हुए इस जीव का पुद्गल के साथ अतादात्म्य
083) कर्मोदय के साथ अतादात्म्य
084) ज्ञानी के कर्म-फल में कर्ता-कर्म भाव नहीं
085) पुद्गल का भी जीव के साथ कर्ता-कर्मभाव नहीं
086-088) जीव-पुद्गल के निमित्त-नैमित्तिक संबंध होने पर भी कर्ता-कर्म का अभाव
089) जीव का कर्तृत्व और भोक्तृत्व अपने परिणामों के साथ ही
090) लोक-व्यवहार ऐसा होता है
091) द्विक्रियावादियों की मान्यता दूषित
092) द्विक्रियावादी मिथ्यादृष्टि क्यों ?
093) द्विक्रियावादी का विशेष व्याख्यान
094) शुद्ध-चैतन्य स्वभावी जीव में मिथ्या-दर्शनादि विकारी भाव कैसे ?
095) मिथ्यात्वादिक जीव अजीव कहे हैं वे कौन हैं ?
096) आत्म-भावों का कर्त्ता आत्मा और द्रव्य-कर्मादिमय पर-भावों का कर्ता पुद्गल
097) आत्मा के तीन-विकारी परिणामों का कर्त्तापना है
098) कर्म-वर्गणा योग्य पुद्गल-द्रव्य अपने उपादान से कर्म-रूप में परिणत होता है
099) वीतराग-स्वसंवेदन-ज्ञान के नहीं होने से नूतन कर्म बंध
100) ज्ञान से कर्मों का बंध नहीं होता
101-102) अज्ञान से ही नूतन कर्मों का बंध क्यों ?
103) कर्तृत्व का मूल कारण अज्ञान
104) सम्यग्ज्ञान होने पर कर्ता-कर्म भाव नष्ट
105-107) पर-भावों को भी आत्मा करता है -- व्यवहारियों का मोह
108) ज्ञानी परभाव का अकर्ता, ज्ञान का ही कर्ता
109) अज्ञानी भी पर-द्रव्य के भाव का अकर्ता
110) किसी के द्वारा परभाव किया जाना अशक्य
111) आत्मा पुद्गल-कर्मों का अकर्ता क्यों ?
112-113) 'आत्मा द्रव्य-कर्मों का कर्त्ता है' यह उपचार मात्र है
114-115) आत्मा पुद्गल कर्म का कर्त्ता-भोक्ता -- व्यवहार
116-119) पुद्गल के कथंचित परिणामी स्वभाव-पना
120-122) जीव और क्रोधादि प्रत्ययों का एकत्व नहीं
123-125) पुद्गल के कथंचित परिणामी स्वभावपना
126-130) जीव-द्रव्य में कथंचित परिणामित्व
131-133) ज्ञानी-जीव ज्ञानभाव का कर्ता
134) ज्ञानी और अज्ञानी के कर्तापन
135) ज्ञानमय या अज्ञानमय भाव से क्या होता है?
136-137) ज्ञानी के ज्ञानमय और अज्ञानी के अज्ञानमय ही भाव कैसे ?
138-139) दृष्टांत
140-144) अज्ञानी अज्ञान-मय भावों द्वारा आगामी भाव-कर्म को प्राप्त होता है
145-147) जीव का परिणाम पुद्गल-द्रव्य से पृथक् ही है
148) आत्मा में कर्म बद्धस्पृष्ट है कि अबद्धस्पृष्ट ?
149) नयविभाग जानने से क्या होता है ?
150) पक्षातिक्रान्त ज्ञानी का क्या स्वरूप है ?
151) पक्ष से दूरवर्ती ही समयसार है

पुण्य-पाप अधिकार

152) शुभाशुभ कर्म के स्वभाव का वर्णन
153) शुभ-अशुभ दोनों अविशेषता से बंध के कारण
154) शुभ-अशुभ दोनों ही कर्मों का निषेध
155-156) दोनों कर्मों के निषेध का दृष्टान्त
157) दोनों ही प्रकार के कर्म बंध के कारण होने से निषेध्य
158) अब ज्ञान को मोक्षका कारण सिद्ध करते हैं --
159-160) उस ज्ञान की विधि
161) पुण्यकर्म के पक्षपाती को प्रतिबोधन
162) परमार्थस्वरूप मोक्ष का कारण दिखलाते हैं
163) परमार्थरूप मोक्ष के कारण से भिन्न कर्म का निषेध
164-166) मोक्ष के कारणभूत दर्शन, ज्ञान और चारित्र का आच्छादक कर्म
167) कर्म स्वयमेव बंध है
168-170) कर्म का मोक्ष-हेतु-तिरोधायीपना

आस्रव अधिकार

171-172) आस्रव का स्वरूप
173) ज्ञानी के उन आस्रवों का अभाव
174) राग, द्वेष, मोह भावों के ही आस्रवपना
175) रागादिक से न मिले ज्ञानमय भाव संभव
176) ज्ञानी के द्रव्यास्रव का अभाव
177-178) ज्ञानी निरास्रव किस तरह ? उत्तर
179) ज्ञान-गुण के जघन्य-भाव परिणमन के रहते ज्ञानी निरास्रव कैसे
180-183) सभी द्रव्यास्रव की संतति के रहने पर भी ज्ञानी नित्य ही निरास्रव कैसे
184-185) ज्ञानी के राग-द्वेष-मोह नहीं अत: नवीन कर्मों का बंध नहीं
186-187) इसी का समर्थन दृष्टांत पूर्वक

संवर अधिकार

188-190) भेद-विज्ञान की अभिवन्दना
191-192) भेद-विज्ञान से ही शुद्धात्मा की प्राप्ति
193) शुद्ध आत्मा की प्राप्ति से ही संवर
194-196) संवर इस तरह से होता है
197) आत्मा परोक्ष है, फिर उसका ध्यान कैसे
199-201) संवर के क्रम का व्याख्यान

निर्जरा अधिकार

202) द्रव्य-निर्जरा का स्वरूप
203) भाव-निर्जरा का भी स्वरूप
204-205) ज्ञान-शक्ति का वर्णन
206) दृष्टांत
207) अब कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि अपने को और पर को विशेषरूप से इस प्रकार जानता है --
208) औपाधिक-भाव आत्म-स्वभाव क्यों नहीं ?
209) औपाधिक भावों की परभावता जानने का फल
210) सम्यग्दृष्टि अपने और पर के स्वभाव का ज्ञाता होता है
211-212) सम्यग्दृष्टि रागी कैसे नहीं होता? यदि ऐसा पूछें तो सुनिये --
213) ज्ञानी अनागत कर्मोदय के उपभोग की वांछा क्यों नहीं करता ?
214) इसका विस्तार करते हैं --
215) मिथ्यात्वादि अपध्यान मेरा परिग्रह नहीं
216) वह परमात्म-पद क्या है ? इसका समाधान आचार्य करते हैं --
217) अब पूछते हैं कि ज्ञानी पर-द्रव्य को क्यों नहीं ग्रहण करता ? उत्तर --
219) और क्या ?
220) मत्यादि ज्ञान विशेष एक ज्ञान सामान्य के ही रूप
222-227) इच्छा ही परिग्रह, जिसको इच्छा नहीं उसको परिग्रह नहीं
228) ज्ञानी के भोग का उदय वियोग बुद्धि पूर्वक, आगे भोगों की इच्छा नहीं
229-230) ज्ञानी के अलिप्तता के कारण कर्म-बन्ध नहीं, और अज्ञानी के लिप्तता के कारण कर्म बन्ध
231-233) अब पूर्व-बद्ध कर्मों की निर्जरा न होकर, किस प्रकार मोक्ष होगा ? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं --
234-238) अब ज्ञानी के कर्म-बंध नहीं होता, उसे शंख के दृष्टांत से बतलाते हैं --
239-242) सराग-वीतराग परिणाम से बंध-मोक्ष
243) सम्यक्त्वी भय-रहित होता है
244) नि:शंकित अंग का स्वरूप
245) नि:कांक्षित अंग का स्वरूप
246-247) निर्वचिकित्सा व अमूढदृष्टि अंग का स्वरूप
248-249) उपगूहन और स्थितिकरण अंग का स्वरूप
250-251) वात्सल्य और प्रभावना अंग का धारी सम्यग्दृष्टि का वर्णन

बंध अधिकार

252-256) मिथ्या-ज्ञान श्रंगार-सहित प्रवेश कर रहा है
257-261) आगे वीतराग सम्यग्दृष्टि जीव के कर्म-बंध नहीं होता है, ऐसा पांच गाथाओं से बतलाते हैं --
262-264) हिंस्य-हिंसकभाव रूप परिणमन अज्ञानी का लक्षण ज्ञानी का नहीं
265-268) सुख और दु:ख भी निश्चय से अपने ही कर्मों के उदय से होते हैं
269-270) दूसरे को जिला, मार, सुखी कर सकना ऐसी मान्यता बहिरात्मपना
271-273) पूर्व के दो सूत्र में कहा हुआ मिथ्याज्ञानरूपी भाव मिथ्यादृष्टि के बंध का कारण होता है
274) अध्यवसान से ही बंध प्राणियों को मारने अथवा न मारने से नहीं
275-276) अध्यवसाय ही पाप-पुण्य के बन्ध का कारण हैं, ऐसा दिखाते हैं
277) रागादिक-रूप परिणाम बंध का कारण होते हैं, बाह्य वस्तु नहीं
278-279) 'मैं जीवों को सुखी-दुखी, बांधता-मुक्त करता हूँ', यह मानना मूढ़ता है
280-284) इस प्रकार जो जीव दुखी होते है वे अपने पाप-कर्म के उदय से होते है, तुम्हारे विचारानुसार नहीं यह बतलाते हैं --
285-286) अध्यवसान से मोहित ही पर-द्रव्य से एकत्व करता है
287) तपोधन मोह भाव रहित
288) बाह्य वस्तुओं में संकल्प विकल्प कर्म का कारण
289) अध्यवसान के पर्यायवाची
290) निश्चयनय के द्वारा व्यवहार विकल्पों का निषेध
291-293) अभव्य जीव के अपने मिथ्या अभिप्राय के कारण सिद्धि नहीं
294-295) व्यवहार-नय व निश्चय-नय का स्वरूप
296-297) ज्ञानी के आहारकृत बन्ध नहीं
300-301) रागादि विकारी भाव कैसे बनते है ?
302) ज्ञानी जीव आस्रव का कर्त्ता नहीं होता
303-304) ज्ञानी के कर्म के उदय से राग द्वेष
305-307) ज्ञानी रागादि का अकर्ता कैसे ?

मोक्ष अधिकार

308-310) विशिष्ट भेद-ज्ञान के बल से बन्ध और आत्मा को पृथक् करना मोक्ष
311-315) इसी को और स्पष्ट करते हैं
316) आत्मा और बन्ध को भिन्न कैसे किया जाए ?
317-319) आत्मा और बन्ध के प्रथक्-करण कब होता है ?
320-322) भेद-भावना -- मैं बस जानने देखने देखने वाला
323) शुद्धात्मा मात्र ज्ञाता, पर भाव मेरे नहीं
324-326) पर भावों को अपना मानने से बन्ध और वीतरागता से मुक्ति
327) अपराध शब्द का अर्थ
328-329) परमार्थ से प्रतिक्रमण विष-कुम्भ, अप्रतिक्रमण अमृत-कुम्भ

सर्व-विशुद्ध अधिकार

330-333) अब यहाँ कहते हैं कि निश्चय से यह जीव कर्मों का कर्त्ता नहीं है --
334-335) ज्ञानावरणादि कर्म-प्रकृतियों का आत्मा के साथ जो बंध है, वह अज्ञान का ही महात्म्य है, ऐसा बताते हैं --
336-337) जब तक कर्मोदय से होने वाले रागादि-भाव को नहीं छोडे तब तक अज्ञानी अन्यथा ज्ञानी
338) कर्म-फल को भोगते रहना जीव का स्वभाव नहीं, अज्ञान भाव
339) ज्ञानी नि:श्शंक होता हुआ कर्म-फल जानता हुआ आराधना में तत्पर रहता है
340-341) अब यहाँ बताते हैं कि अज्ञानी जीव नियम से कर्मों का वेदक ही होता है --
342-343) अब इसी कर्तृत्व व भोक्तृत्व के अभाव का दृष्टांत पूर्वक समर्थन करते हैं --
344-346) अब यहाँ बताते हैं कि जो एकान्त से आत्मा को कर्ता मानते हैं उनके भी अज्ञानी लोगों के समान मोक्ष नहीं है ऐसा उपदेश करते हैं --
347-350) अब पूर्व-पक्ष के उत्तर में कथन करते हैं कि निश्चय से आत्मा का पुदगलद्रव्य के साथ में कर्त्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं है, तब आत्मा कैसे कर्त्ता बनता है ?
351-354) जो करता है वही भोगता है -- द्रव्यार्थिक-नय और अन्य ही कर्ता है और अन्य ही भोगता -- पर्यायार्थिक-नय
355-359) भाव-कर्म का कर्त्ता जीव ही है
360-372) आत्मा सर्वथा अकर्ता नहीं है, कथंचित् कर्त्ता भी है
373-378) सम्यग्दृष्टियों को विषयों के प्रति राग क्यों नहीं होता
379) शब्दादि अचेतन होने से रागादिक की उत्पत्ति में नियामक कारण नहीं
380-386) व्यवहार से कर्त्ता और कर्म भिन्न, निश्चय से अभिन्न
387-396) इस निश्चय-व्यवहार कथन का दृष्टांत
397-400) निश्चय-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान-आलोचना ही अभेद-नय से निश्चय-चारित्र
401-410) इन्द्रियों और मन के विषयों में रमणता -- मिथ्याज्ञान
411-413) अज्ञान-चेतना बंध का कारण
414-428) अब इसी अर्थ की गाथा कहते हैं --
429-431) ज्ञान आहारक क्यों नहीं?
432-435) द्रव्य-लिंग भी निश्चय से मुक्ति का कारण नहीं
436) आत्म-रमणता की प्रेरणा
437) भाव-लिंग के बिना द्रव्य-लिंग द्वारा समयसार का ग्रहण नहीं
438) परमार्थ से लिंग मोक्षमार्ग नहीं
439) ग्रन्थ समाप्ति और इसके पढ़ने का फल

परिशिष्ट

440-parishisht) परिशिष्ट



!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!

श्रीमद्‌-भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव-प्रणीत

श्री
समयसार

मूल प्राकृत गाथा, श्री अमृतचंद्राचार्य विरचित 'समय-व्याख्या' नामक संस्कृत टीका का हिंदी अनुवाद, श्री जयसेनाचार्य विरचित 'तात्पर्य-वृत्ति' नामक संस्कृत टीका का हिंदी अनुवाद सहित

आभार : पं जयचंदजी छाबडा, आ. ज्ञानसागर, क्षु. मनोहर वर्णी, पं हुकमचंद भारिल्ल, आ. ज्ञानमती, प्रो. पारसमल अग्रवाल, विजय कुमार जैन

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!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!

ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥


अर्थ : बिन्दुसहित ॐकार को योगीजन सर्वदा ध्याते हैं, मनोवाँछित वस्तु को देने वाले और मोक्ष को देने वाले ॐकार को बार बार नमस्कार हो । निरंतर दिव्य-ध्वनि-रूपी मेघ-समूह संसार के समस्त पापरूपी मैल को धोनेवाली है मुनियों द्वारा उपासित भवसागर से तिरानेवाली ऐसी जिनवाणी हमारे पापों को नष्ट करो । जिसने अज्ञान-रूपी अंधेरे से अंधे हुये जीवों के नेत्र ज्ञानरूपी अंजन की सलाई से खोल दिये हैं, उस श्री गुरु को नमस्कार हो । परम गुरु को नमस्कार हो, परम्परागत आचार्य गुरु को नमस्कार हो ।


॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥

सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्री-समयसार नामधेयं, अस्य मूल-ग्रन्थकर्तार: श्री-सर्वज्ञ-देवास्तदुत्तर-ग्रन्थ-कर्तार: श्री-गणधर-देवा: प्रति-गणधर-देवास्तेषां वचनानुसार-मासाद्य आचार्य श्री-कुन्द-कुन्दाचार्य-देव विरचितं ॥

(समस्त पापों का नाश करनेवाला, कल्याणों का बढ़ानेवाला, धर्म से सम्बन्ध रखनेवाला, भव्यजीवों के मन को प्रतिबुद्ध-सचेत करनेवाला यह शास्त्र समयसार नाम का है, मूल-ग्रन्थ के रचयिता सर्वज्ञ-देव हैं, उनके बाद ग्रन्थ को गूंथनेवाले गणधर-देव हैं, प्रति-गणधर देव हैं उनके वचनों के अनुसार लेकर आचार्य श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेव द्वारा रचित यह ग्रन्थ है । सभी श्रोता पूर्ण सावधानी पूर्वक सुनें । )


॥ श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥

मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्‌ ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम्‌ ॥


(देव वंदना)
सुध्यान में लवलीन हो जब, घातिया चारों हने ।
सर्वज्ञ बोध विरागता को, पा लिया तब आपने ॥
उपदेश दे हितकर अनेकों, भव्य निज सम कर लिये ।
रविज्ञान किरण प्रकाश डालो, वीर! मेरे भी हिये ॥
(शास्त्र वंदना)
स्याद्वाद, नय, षट् द्रव्य, गुण, पर्याय और प्रमाण का ।
जड़कर्म चेतन बंध का, अरु कर्म के अवसान का ॥
कहकर स्वरूप यथार्थ जग का, जो किया उपकार है ।
उसके लिये जिनवाणी माँ को, वंदना शत बार है ॥
(गुरु वंदना)
नि:संग हैं जो वायुसम, निर्लेप हैं आकाश से ।
निज आत्म में ही विहरते, जीवन न पर की आस से ॥
जिनके निकट सिंहादि पशु भी, भूल जाते क्रूरता ।
उन दिव्य गुरुओं की अहो! कैसी अलौकिक शूरता ॥

🏠

मंगलाचरण



+ सिद्धों को नमस्कार -
वंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गदिं पत्ते ।
वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवलीभणिदं ॥1॥
वंदित्वा सर्वसिद्धान् ध्रुवामचलामनौपम्यां गतिं प्राप्तान्
वक्ष्यामि समयप्राभृतमिदं अहो श्रुतकेवलिभणितम् ॥१॥
ध्रुव अचल अनुपम सिद्ध की कर वंदना मैं स्व-पर हित
यह समयप्राभृत कह रहा श्रुतकेवली द्वारा कथित ॥१॥
अन्वयार्थ : [धुवमचलमणोवमं] ध्रुव, अचल और अनुपम [गदिं] गति को [पत्ते] प्राप्त हुए [सव्वसिद्धे] सर्व सिद्धों को [वंदित्तु] नमस्कार करके [इणं ओ] अहो भव्यों ! [सुदकेवलीभणिदं] श्रुतकेवलियों के द्वारा कथित यह [समयपाहुडम्] समयसार नामक प्राभृत / शास्त्र [वोच्छामि] कहूँगा ।

अमृतचंद्राचार्य :

(कलश-दोहा)
निज अनुभूति से प्रगट, चित्स्वभाव चिद्रूप ।
सकलज्ञेय-ज्ञायक नमौं, समयसार सद्रूप ॥१॥

[स्वानुभूत्या चकासते] स्वानुभूति से प्रकाशित, [चित्स्वभावाय] चैतन्य-स्वभावी, [सर्वभावान्तरच्छिदे] सर्वपदार्थो को देखनेवाले [नमः समयसाराय] समयसार को नमस्कार हो ।

(कलश-दोहा)
देखे पर से भिन्न, अगणित गुणमय आतमा ।
अनेकान्तमयमूर्ति, सदा प्रकाशित ही रहे ॥२॥

[अनन्तधर्मणः प्रत्यगात्मनः तत्त्वं] जो अनन्त धर्ममय, पर से भिन्न आत्मा-तत्त्व को [पश्यन्ती] देखनेवाली [अनेकान्तमयी मूर्तिः] अनेकान्तमयी मूर्ति [नित्यम् एव प्रकाशताम्] सदा ही प्रकाशरूप हो ।

(कलश-रोला)
यद्यपि मैं तो शुद्धमात्र चैतन्यमूर्ति हूँ ।
फिर भी परिणति मलिन हुई है मोहोदय से ॥
परमविशुद्धि को पावे वह परिणति मेरी
समयसार की आत्मख्याति नामक व्याख्या से ॥३॥

[परपरिणतिहेतोः मोहनाम्नःअनुभावात्] परपरिणति का कारण जो मोह नामक कर्म है, उसके विपाक से [अविरतम् अनुभाव्य-व्याप्ति-कल्माषितायाः] निरंतर अनुभाव्य (रागादि परिणामों) की व्याप्ति द्वारा मैली [मम अनुभूतेः परमविशुद्धिः] मेरी अनुभूति की उत्कृष्ट विशुद्धि हो, [शुद्ध-चिन्मात्रमूर्तेः भवतु] शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति बने [समयसारव्याख्यया एव ] समयसार (शुद्धात्मा तथा ग्रन्थ) की व्याख्या (टीका) द्वारा ।

अब सूत्र प्रकट होता है -

यह पंचमगति (सिद्धदशा) धर्म, अर्थ और काम - इस त्रिवर्ग से भिन्न होने के कारण अपवर्ग है नाम जिसका, ऐसी पंचमगति को प्राप्त सर्वसिद्धों को; जो मेरे आत्मा की साध्यदशा के स्थान पर हैं (जैसा मुझे बनना है, जो मेरा आदर्श है, उसके स्थान पर हैं); उन सर्व-सिद्धों को भाव-स्तुति और द्रव्य-स्तुति के माध्यम से अपने और पर के आत्मा में स्थापित करके; सर्व-पदार्थों या शुद्धात्मा का प्रकाशक एवं अरहन्त भगवान के प्रवचनों का अवयव है जो - ऐसे इस समयसार नामक ग्रन्थ का अपने और पराये अनादिकालीन मोह के नाश के लिए भाव-वचन और द्रव्य-वचन के माध्यम से परिभाषण आरम्भ किया जाता है ।

जयसेनाचार्य :
अब शुद्ध परमात्म तत्त्व के प्रतिपादन को मुख्य लेकर विस्तार में रुचि रखने वाले शिष्यों के प्रतिबोधन के लिये श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव के बनाये हुये समयसार प्राभृत ग्रन्थ में अधिकार की शुद्धि-पूर्वक पातनिका (पीठिका) सहित व्याख्यान किया जा रहा है । वहाँ पर सबसे पहले [वंदित्तु सव्व सिद्धे] इस प्रकार नमस्कार गाथा को आरंभ में लेकर सूत्रपाठ के क्रम से पहले स्थल में छह स्वतन्त्र गाथायें हैं । इसके आगे द्वितीय स्थल में भेदाभेद-रत्नत्रय का प्रतिपादन करते हुए [ववहारेणुवदिस्सदि] इत्यादि दो गायायें हैं । फिर तीसरे स्थल में निश्चय व्यवहार श्रुतकेवली के व्याख्यान की मुख्यता से [जो हि सुदेण] इत्यादि दो गाथाये हैं । इसके आगे चौथे स्थल में भेदाभेद-रत्नत्रय की भावना के लिये और उस भावना के फल को दर्शाने करने के लिये [णाणम्हि भावणा] इत्यादि दो सूत्र हैं । इसके आगे पांचवें स्थल में निश्चय व्यवहार नामक दोनों नयों का व्याख्यान करते हुये [ववहारो भूदत्थो] इत्यादि दो गाथायें हैं । इस प्रकार पाँच स्थलों में चौदह गाथाओं के द्वारा समयसार ग्रंथ की पीठिका का व्याख्यान करने में समुदाय पातनिका है ।

अब सबसे प्रथम भगवान कुन्दकुन्द गाथा के पूर्वार्ध में मंगल के लिये इष्ट देवता को नमस्कार करके उत्तरार्द्ध में समयसार के व्याख्यान करने की प्रतिज्ञा का अभिप्राय मन में धरकर पहला सूत्र कहते हैं --

अब पदच्छेद करके अर्थ किया जाता है --

[वन्दित्तु] निश्चय-नय से तो अपने आप में ही आराधक-भाव को स्वीकार करने रूप निर्विकल्प-समाधि है लक्षण जिसका, ऐसे भाव-नमस्कार के द्वारा और व्यवहार-नय से वचनात्मक द्रव्य-नमस्कार के द्वारा वन्दना करके किनको ? [सव्वसिद्धे] स्वात्मोपलब्धि की सिद्धि है लक्षण जिनका ऐसे सम्पूर्ण सिद्धों को [गदिं पत्ते] जो सिद्ध गति को प्राप्त हो गए हैं । [धुवं] जो सिद्ध-गति टन्कोत्कीर्ण-एक-ज्ञायक-स्वभावरूप से अडिग है या अविनश्वर है [अमलम्] भाव-कर्म, द्रव्य-कर्म व नोकर्म से रहित होने के कारण तथा शुद्ध-स्वभाव सहित होने से निर्मल है अथवा [अचलम्] द्रव्य, क्षेत्र, कालादि पंच प्रकार संसार परिभ्रमण से रहित तथा अपने स्वरूप में निश्चल होने से चलपने से रहित है । [अणोवमं] संसार में कोई भी उपमा रहित है, ऐसी सिद्ध अवस्था को जो प्राप्त हो गए हैं । इस प्रकार गाथा के पूर्वार्द्ध से सिद्धों को नमस्कार करके व उत्तरार्द्ध से संबंधामिधेय और प्रयोजन की सूचना के लिए प्रतिज्ञा करते हैं कि [वोच्छामि] कहुंगा [समयपाहुडं] समयप्राभृत-ग्रन्थ को सम्यक्-समीचीन अय-बोध, ज्ञान है जिसके वह समय अर्थात् आत्मा । अथवा
समम्-एकीभावेनायनम्-गमनं 'समय:
अर्थात् एकमेक-रूप से जो गमन उसका नाम समय: प्राभृत अर्थात् सार-शुद्धात्मा, इस प्रकार समय नाम आत्मा उसका प्राभृत अर्थात् शुद्धात्मा वही हुआ समय-प्राभृत । अथवा समय जो है वही प्राभृत सो समयप्राभृत । [इणं ओ] अहो भव्यों ! वह समय-प्राभृत हमारे सामने है । [सुदकेवली भणिदं] प्राकृत भाषा के नियम अनुसार केवली शब्द दीर्घ है । श्रुत में -- परमागम में जो केवली हैं अर्थात सर्वज्ञ हैं, उनके द्वारा कहा गया है अथवा श्रुत-केवली जो गणधर-देव उनके द्वारा कहा गया है ।

अब संबंध, अभिधेय और प्रयोजन कहते हैं -- व्याख्यान तो वृत्ति ग्रन्थ (टीका) व्याख्येय -- व्याख्यान के प्रतिपादक सूत्र, इन दोनों का सम्बन्ध व्याख्यान-व्याख्येय सम्बन्ध है । सूत्र तो वाचक हैं और सूत्र का अभिधेय-वाच्य है इन दोनों का सम्बन्ध 'अभिधान-अभिधेय' सम्बन्ध है । निर्विकार स्व-सम्वेदन-ज्ञान के द्वारा शुद्धात्मा का जानना इसका 'प्रयोजन' है ॥१॥

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पीठिका



+ स्वसमय और परसमय का लक्षण -
जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिदो तं हि ससमयं जाण ।
पोग्गलकम्मपदेसट्ठिदं च तं जाण परसमयं ॥2॥
जीव: चरित्रदर्शनज्ञानस्थित: तं हि स्वसमयं जानीहि
पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितं च तं जानीहि परसमयम् ॥२॥
सद्ज्ञानदर्शनचरित परिणत जीव ही हैं स्वसमय
जो कर्मपुद्गल के प्रदेशों में रहें वे परसमय ॥२॥
अन्वयार्थ : [जीवो] जो जीव [चरित्तदंसणणाणट्ठिदो] दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थित हो रहा है [तं] उसे [हि] निश्चय से [ससमयं] स्वसमय [जाण] जानो [च] और जो जीव [पोग्गलकम्मपदेसट्ठिदं] पुदगल कर्म के प्रदेशों में स्थित है [तं] उसे [परसमयं] परसमय [जाण] जानो ।

अमृतचंद्राचार्य :
आगे गाथा के पूर्वार्द्ध से स्व-समय और उत्तरार्द्ध से पर-समय को कहता हूँ ऐसा अभिप्राय मन में रखकर आचार्य देव आगे का सूत्र कहते हैं -

वह समय नामक जीव पदार्थ ऐसा जीव नामक पदार्थ ही समय है ।

जब यह समय (जीव) सब पदार्थों का प्रकाशन करने में समर्थ केवल-ज्ञान को उत्पन्न करनेवाली भेद-विज्ञान-ज्योति के उदय होने से सभी पर-द्रव्यों से अपनापन तोड़कर, अपने दर्शन-ज्ञान-स्वभाव में है नियतवृत्ति जिसकी, ऐसे आत्म-तत्त्व में एकाकार होकर प्रवृत्ति करता है; तब दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित होने से अपने स्वरूप को एकत्व-रूप से एक ही समय में जानता तथा परिणमता हुआ स्व-समय कहलाता है ।

जब यह समय (जीव) अनादि अविद्यारूपी कंद के जड़ की गाँठ के समान (अनादि) परिपुष्ट मोह के उदयानुसार प्रवृत्ति की अधीनता से दर्शन-ज्ञान-स्वभाव में नियत-वृत्ति-रूप आत्म-तत्त्व से अपनापन तोड़कर पर-द्रव्य के निमित्त से उत्पन्न मोह-राग-द्वेषादि भावों में एकतारूप से लीन होकर प्रवृत्त होता है, तब पुद्गल-कर्म के प्रदेशों में स्थित होने से युगपत् ही पर में एकाकार होकर जानता और परिणमता हुआ परसमय कहलाता है ।

इसप्रकार इस समय (जीव) की स्वसमय और परसमय - यह द्विविधता (दोपना) प्रगट होती है ।

जयसेनाचार्य :
[जीवो] जो शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा से शुद्ध-बुद्ध एक-स्वभाव रूप निश्चय प्राण के द्वारा तथा अशुद्ध-निश्चय-नय से क्षायोपशमिक-रूप अशुद्ध-भाव-प्राणों द्वारा और असद्भूत व्यवहार-नय से यथासंभव द्रव्य-प्राणों द्वारा जो जी रहा है, आगे जीता रहेगा और जो पूर्व में जीता था, वह जीव है । [चरित्तदंसणणाणट्ठि दो तं हि ससमयं जाण] वह जीव जब चारित्र, दर्शन और ज्ञान में स्थित रहता है, उस समय उसे स्व-समय समझो । अर्थात् इस प्रकार कहे गये लक्षण वाले निश्चय रत्नत्रय के द्वारा परिणत-जीव-पदार्थ को हे शिष्य ! तू स्व-समय समझ । [पुग्गलकम्मुवदेसट्ठियं च तं जाण परसमयं] पुद्गल कर्मोदय में स्थित उसी जीव को तू पर-समय समझ । अर्थात् पुद्गल कर्मोदय के द्वारा उत्पन्न हुए जो नारकादि नामवाली संज्ञायें हैं उनमें पूर्वोक्त निश्चय-रत्नत्रय न होने से जो स्थित हैं उसे उस काल में पर-समय समझो । इस प्रकार स्व-समय और पर-समय का लक्षण जानने योग्य है ॥२॥

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+ 'समय' की सुन्दरता -
एयत्तणिच्छयगदो समओ सव्वत्थ सुन्दरो लोए ।
बंधकहा एयत्ते तेण विसंवादिणी होदि ॥3॥
एकत्वनिश्चयगत: समय: सर्वत्र सुन्दरो लोके
बंधकथैकत्वे तेन विसंवादिनी भवति ॥३॥
एकत्वनिश्चयगत समय सर्वत्र सुन्दर लोक में
विसंवाद है पर बंध की यह कथा ही एकत्व में ॥३॥
अन्वयार्थ : [एयत्तणिच्छयगदो] एकत्व निश्चय को प्राप्त जो [समओ] समय है वह [लोए] लोक में [सव्वत्थ] सर्वत्र / सब जगह [सुन्दरो] सुन्दर है [तेण] इसलिए [एयत्ते] एकत्व में दूसरे के साथ [बंधकहा] बंध की कथा [विसंवादिणी] विसंवाद / विरोध करनेवाली [होदि] होती है ।

अमृतचंद्राचार्य :
यहाँ समय शब्द से सामान्यत: सभी पदार्थ कहे जाते हैं; क्योंकि जो एकीभाव से स्वयं के गुण-पर्यायों को प्राप्त हो, उसे समय कहते हैं । इस व्युत्पत्ति के अनुसार धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव; लोक के ये सभी पदार्थ समय शब्द से अभिहित किये जाते हैं और एकत्व-निश्चय को प्राप्त होने से सुन्दरता को पाते हैं । तात्पर्य यह है कि ये सब अकेले ही शोभास्पद होते हैं; क्योंकि अन्य-प्रकार से उसमें सर्व-संकरादि दोष आ जायेंगे ।

वे सभी पदार्थ अपने-अपने द्रव्य में अन्तर्मग्न रहनेवाले अपने अनन्त धर्मों के चक्र को चुम्बन करते हैं, स्पर्श करते हैं; तथापि वे परस्पर एक-दूसरे को स्पर्श नहीं करते । अत्यन्त निकट एक-क्षेत्रावगाह-रूप से तिष्ठ रहे हैं; तथापि वे सदाकाल अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते हैं । पररूप परिणमन न करने से उनकी अनन्त व्यक्तिता नष्ट नहीं होती; इसलिए वे टंकोत्कीर्ण की भाँति सदा स्थित रहते हैं और समस्त विरुद्ध कार्य व अविरुद्ध कार्य की हेतुता से विश्व को सदा टिकाये रखते हैं, विश्व का उपकार करते हैं । इसप्रकार सर्व-पदार्थो का भिन्न-भिन्न एकत्व प्रतिष्ठित हो जाने पर, एकत्व सिद्ध हो जाने पर जीव नामक समय को बंध की कथा से ही विसंवाद की आपत्ति आती है ।

तात्पर्य यह है कि जब सभी पदार्थ परस्पर भिन्न ही हैं तो फिर यह बंधन की बात जीव के साथ ही क्यों ? जब बंध की बात ही नहीं टिकती तो फिर बंध के आधार पर कहा गया पुद्गल प्रदेशों में स्थित होना भी कैसे टिकेगा ? तथा उसके आधार पर होनेवाला पर-समयपना भी नहीं टिक सकता । जब पर-समयपना नहीं रहेगा तो फिर उसके आधार पर किया गया स्वसमय-परसमय का विभाग भी कैसे टिकेगा ? जब यह विभाग ही नहीं रहा तो फिर समय (जीव) के एकत्व होना ही सिद्ध हुआ और यही श्रेयस्कर भी है ।

जयसेनाचार्य :
[एयत्तणिच्छयगदो] अपने ही शुद्धगुण और पर्यायों में परिणमता हुआ अथवा अभेद-रत्नत्रय में परिणमता हुआ एकता के निश्चय में प्राप्त हुआ [समओ] आत्मा-समय शब्द से आत्मा लेना योग्य है क्योंकि इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है
सम्यक् अयते गच्छति परिणमति कान् स्वकीयगुणपर्यायान्
अर्थात् जो भले प्रकार अपने ही गुण और पर्यायों को परिणमन करे सो समय अर्थात् आत्मा [सव्वत्थ सुंदरो] सब ही ठिकाने सबको सुहावना है [लोगे] इस संसार में -- सब ही एकेन्द्रियादि-अवस्था में शुद्ध-निश्चयनय से सुन्दर है, उपादेय है । [बंधकहा] किन्तु कर्म बंध से होने वाली गुणस्थानादिरूप पर्यायों से [एयत्ते] तन्मय होकर रहने में बंध कथा प्रवर्तती है [तेण] पूर्वोक्त जीव-पदार्थ के साथ [विसंवादिणी] विसंवाद पैदा करने वाली अर्थात् गड़बड़ पैदा करने वाली [होदि] होती है, वह असत्य है अर्थात् प्रशंसा योग्य नहीं है क्योंकि वह शुद्ध-निश्चय-नय से शुद्ध जीव का स्वरूप नहीं हो सकता इससे यह सिद्ध हुआ कि स्वसमय ही आत्मा का स्वरूप है ॥३॥

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+ एकत्व की दुर्लभता -
सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा ।
एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ॥4॥
श्रुतपरिचितानुभूता सर्वस्यापि कामभोगबंधकथा
एकत्वस्योपलंभ: केवलं न सुलभो विभक्तस्य ॥४॥
सबकी सुनी अनुभूत परिचित भोग बंधन की कथा
पर से पृथक् एकत्व की उपलब्धि केवल सुलभ ना ॥४॥
अन्वयार्थ : [सव्वस्सवि] सर्व लोक को [कामभोगबंधकहा] कामभोग संबंधी बंध की कथा तो [सुद] सुनने मेँ आ गई है, [परिचिद] परिचय में आ गई है और [अणुभूदा] अनुभव मेँ भी आ गई है किन्तु [विहत्तस्स] रागादि रहित आत्मा के [एयत्तस्स] एकत्व को [उवलंभो] उपयोग में लाना [णवरि] एकमात्र वही [ण सुलहो] सुलभ नहीं है ।

अमृतचंद्राचार्य :
यद्यपि यह कामभोग सम्बन्धी (कामभोगानुबद्धा) कथा एकत्व से विरुद्ध होने से अत्यंत विसंवाद करानेवाली है; तथापि समस्त जीवलोक ने इसे अनन्तबार सुना है, अनन्तबार इसका परिचय प्राप्त किया है और अनन्तबार इसका अनुभव भी किया है । संसाररूपी चक्र के मध्य में स्थित; द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप अनन्त पंच-परावर्तन से भ्रमण को प्राप्त; अपने एक-छत्र राज्य से समस्त विश्व को वशीभूत करनेवाला महा-मोहरूपी भूत जिसे बैल की भाँति जोतता है, भार वहन कराता है; अत्यन्त वेगवान तृष्णारूपी रोग के दाह में संतप्त एवं आकुलित होकर जिसप्रकार मृग मृग-जल के वशीभूत होकर जंगल में भटकता है; उसीप्रकार पंचेन्द्रियों के विषयों से घिरा हुआ है या पंचेन्द्रियों के विषयों को घेर रखा है जिसने; ऐसा यह जीव-लोक इस विषय में परस्पर आचार्यत्व भी करता है, एक-दूसरे को समझाता है, सिखाता है, प्रेरणा देता है । यही कारण है कि काम-भोग-बंध-कथा सबको सुलभ है । किन्तु निर्मल भेद-ज्ञान-ज्योति से स्पष्ट भिन्न दिखाई देनेवाला आत्मा का एकत्व अथवा एकत्व-विभक्त आत्मा यद्यपि अंतरंग में प्रगटरूप से प्रकाशमान है; तथापि कषाय-चक्र के साथ एकरूप किये जाने से अत्यन्त तिरोभूत हो रहा है ।

जगत के जीव एक तो अपने को जानते नहीं हैं और जो आत्मा को जानते हैं, उनकी सेवा नहीं करते हैं, उनकी संगति में नहीं रहते हैं । इसकारण इस एकत्व-विभक्त आत्मा की बात जगत के जीवों ने न तो कभी सुनी है और न कभी इसका परिचय प्राप्त किया है और न कभी यह आत्मा जगत के जीवों के अनुभव में ही आया है; यही कारण है कि भिन्न आत्मा का एकत्व सुलभ नहीं है ।

जयसेनाचार्य :
[सुदा] अनन्त-बार सुनी गई है, [परिचिदा] अनन्त-बार परिचय में आई है [अणुभूदा] अनन्त-बार अनुभव में भी आई है [सव्वस्स वि] सब ही संसारी जीवों के [कामभोगबंधकहा] काम शब्द से स्पर्शन और रसना, इन्द्रिय के विषय और भोग शब्द से घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रिय के विषय लिये गये हैं । उनके बन्ध या सम्बन्ध की कथा अथवा बन्ध शब्द के द्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध एवं उसका फल नर-नारकादि-रूप लिया जा सकता है, इस प्रकार काम, भोग और बंध की कथा, जो पूर्वोक्त प्रकार से श्रुत-परिचित और अनुभूत है इसलिए दुर्लभ नहीं, किन्तु सुलभ है । [एयत्तस्स] परन्तु एकत्व का अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के साथ एकता को लिए हुए परिणमन रूप जो निर्विकल्प-समाधि उसके बल से अपने आपके अनुभव में आने योग्य शुद्धात्मा का स्वरूप है उस एकत्व का, [उवलम्भो] उपलम्भ / संप्राप्ति अर्थात् अपने उपयोग में ले आना [णवरि] वह केवल [ण सुलभो] सुलभ नहीं है [विहत्तस्स] कैसे एकत्व का ? रागादि-से रहित एकत्व का । क्योंकि वह न तो कभी सुना गया न कभी परिचय में आया और न अनुभव में ही लाया गया है ॥४॥

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+ आचार्य की प्रतिज्ञा -
तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण ।
जदि दाएज्ज पमाणं चुक्केज्ज छलं ण घेत्तव्वं ॥5॥
तमेकत्वविभक्तं दर्शयेहमात्मन: स्वविभवेन
यदि दर्शयेयं प्रमाणं स्खलेयं छलं न गृहीतव्यम् ॥५॥
निज विभव से एकत्व ही दिखला रहा करना मनन
पर नहीं करना छल ग्रहण यदि हो कहीं कुछ स्खलन ॥५॥
अन्वयार्थ : [तं] उस [एयत्तविहत्तं] एकत्व-विभक्त आत्मा को [अप्पणो] आत्मा के [सविहवेण] निज बुद्धि-वैभव से [दाएहं] मैं दिखाता हूँ [जदि] यदि मैं [दाएज्ज] दिखाऊँ तो [पमाणं] प्रमाण (स्वीकार) करना, [चुक्केज्ज] और यदि कहीँ चूक जाऊँ तो [छलं] छल [ण] नहीं [घेत्तव्वं] ग्रहण करना ।

अमृतचंद्राचार्य :
यहाँ वास्तव में

यों जिस-जिस प्रकारसे मेरा वैभव है उस समस्त वैभव को दिखाने का प्रयास करता हूँ । किन्तु यदि मैं दिखाऊँ तो तुम स्वयं के अनुभव प्रत्यक्ष से परीक्षा करके प्रमाण (स्वीकार) करना और यदि कहीं स्खलित हो जाऊँ तो तुम्हें छल ग्रहण करने में जागृत नहीं रहना चाहिए ।

जयसेनाचार्य :
[तं एयत्तविहत्त] उस पूर्वोक्त एकत्व-विभक्त शुद्धात्मा का जो कि अभेद-रत्नत्रय के साथ एकमेक होकर रहता है एवं मिथ्यात्व तथा रागादि से रहित है ऐसे उस परमात्मा के स्वरूप को [दाएहं] दिखलाता हूँ [अप्पणो सविहवेण] अपने आपकी बुद्धि के वैभव से अर्थात् आगम, तर्क और परम-गुरुओं के उपदेश के साथ होने वाले स्व-संवेदन-प्रत्यक्ष के द्वारा । [जदि दाएज्ज] यदि बतला सकूँ तो [पमाणं] अपने स्व-संवेदन-ज्ञान के द्वारा तौलकर हे भव्यों ! आप लोग उसे स्वीकार करना । [चुक्केज्ज] यदि चूक जाऊँ तो [छलं ण घेत्तव्वं] दुर्जन के समान उलटा अभिप्राय नहीं ग्रहण कर लेना ॥५॥

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+ शुद्धात्मा का स्वरूप -
णवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो ।
एवं भणंति सुद्धं णाओ जो सोउ सो चेव ॥6॥
नापि भवत्यप्रमत्तो न प्रमत्तो ज्ञायकस्तु यो भाव:
एवं भणंति शुद्धं ज्ञातो य: स तु स चैव ॥६॥
न अप्रमत्त है न प्रमत्त है बस एक ज्ञायकभाव है
इस भाँति कहते शुद्ध पर जो ज्ञात वह तो वही है ॥६॥
अन्वयार्थ : [जाणगो दु जो भावो] जो ज्ञायक भाव [अप्पमत्ते] अप्रमत्त [ण वि होदि] भी नहीं और [ण पमत्ते] प्रमत्त भी नहीं है, [एवं] इस प्रकार उसे [सुद्धं] शुद्ध [भणंति] कहते हैं [च] और [जो] जिसे [णाओ] ज्ञायक भाव द्वारा जान लिया है [सोउ सो चेव] वह वही है, और कोई नहीं ।

अमृतचंद्राचार्य :
जो स्वयं अपने से ही सिद्ध होने से (किसी से उत्पन्न हुआ न होने से) अनादि सत्तारूप है, कभी विनाश को प्राप्त न होने से अनन्त है, नित्य उद्योतरूप होने से क्षणिक नहीं है और स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति है; ऐसा जो ज्ञायक एक 'भाव' है, वह संसार की अवस्था में अनादि बंध-पर्याय की निरूपणा से (अपेक्षा से) क्षीर-नीर की भाँति कर्म-पुद्गलों के साथ एकरूप होने पर भी, द्रव्य के स्वभाव की अपेक्षा से देखा जाये तो दुरन्त कषाय-चक्र के उदय की (कषाय-समूह के अपार उदयों की) विचित्रता के वश से प्रवर्तमान पुण्य-पाप को उत्पन्न करनेवाले समस्त अनेकरूप शुभाशुभ भाव, उनके स्वभाव-रूप परिणमित नहीं होता (ज्ञायकभाव से जड़भावरूप नहीं होता), इसलिए वह प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है; वही समस्त अन्य द्रव्यों के भावों से भिन्नरूप से उपासित होता हुआ 'शुद्ध' कहलाता है ।

और जैसे दाह्य (जलने योग्य पदार्थ) के आकार होने से अग्नि को दहन कहते हैं, तथापि उसके दाह्यकृत अशुद्धता नहीं होती; उसीप्रकार ज्ञेयाकार होने से उस 'भाव' के ज्ञायकता प्रसिद्ध है, तथापि उसके ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है; क्योंकि ज्ञेयाकार अवस्था में जो ज्ञायकरूप से ज्ञात हुआ, वह स्वरूपप्रकाशन की (स्वरूप को जानने की) अवस्था में भी, दीपक की भाँति, कर्ता-कर्म का अनन्यत्व (एकता) होने से ज्ञायक ही है - स्वयं जाननेवाला है; इसलिए स्वयं कर्ता है और अपने को जाना, इसलिए स्वयं ही कर्म है । (जैसे दीपक घट-पटादि को प्रकाशित करने की अवस्था में भी दीपक है और अपने को - अपनी ज्योतिरूप शिखा को प्रकाशित करने की अवस्था में भी दीपक ही है, अन्य कुछ नहीं; उसीप्रकार ज्ञायक को समझना चाहिए ।)

जयसेनाचार्य :
[णवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो] शुद्ध द्रव्यार्थिक-नय से जिसमें शुभ और अशुभ रूप परिणमन करने का अभाव होने से जो न तो प्रमत्त ही है और न अप्रमत्त ही है । यहाँ पर प्रमत्त शब्द से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर प्रमत्तविरत गुणस्थान तक ६ गुणस्थान और अप्रमत्त शब्द से अप्रमत्तादि अयोगकेवली पर्यन्त ८ गुणस्थान समझने चाहिए । इनसे जो अतीत हैं [जाणगो दु जो भावो] वह केवल ज्ञायकभाव को प्राप्त हुआ ही शुद्धात्मा है । [एवं भणंति सुद्धा] शुद्ध-नय के जानने वाले कहते हैं [णादा जो सोदु सो चेव] कि उसे ज्ञाता कहो या शुद्धात्मा, एक ही बात है ॥६॥

इस प्रकार छ: स्वतन्त्र गाथाओं द्वारा प्रथम-स्थल पूर्ण हुआ ।

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+ ज्ञानी आत्मा शुद्ध ज्ञायक है -
ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्तं दंसणं णाणं ।
ण वि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो ॥7॥
व्यवहारेणोपदिश्यते ज्ञानिनश्चरित्रं दर्शनं ज्ञानम्
नापि ज्ञानं न चरित्रं न दर्शनं ज्ञायक: शुद्ध: ॥७॥
दृग ज्ञान चारित जीव के हैं - यह कहा व्यवहार से
ना ज्ञान दर्शन चरण ज्ञायक शुद्ध है परमार्थ से ॥७॥
अन्वयार्थ : [णाणिस्स] ज्ञानी (आत्मा) के [चरित्त दंसणं णाणं] चारित्र, दर्शन और ज्ञान - ये तीन भाव [ववहारेण] व्यवहार से [उवदिस्सदि] कहे जाते हैं; निश्चय से [णाणंवि] ज्ञान भी [ण] नहीं है, [दंसणं] दर्शन भी नहीं है और [चरित्तं] चारित्र भी नहीं है; ज्ञानी (आत्मा) तो एक [सुद्धो] रागादि रहित [जाणगो] ज्ञायक ही है ।

अमृतचंद्राचार्य :
इस ज्ञायक-भाव के बंध-पर्याय के निमित्त से अशुद्धता होती है - यह बात तो दूर ही रहो, इसके तो दर्शन-ज्ञान-चारित्र भी नहीं हैं; क्योंकि अनन्त धर्मोंवाले एक धर्मी में जो निष्णात नहीं हैं - ऐसे निकटवर्ती शिष्यों को, धर्मी को बतानेवाले कितने ही धर्मो के द्वारा उपदेश करते हुए आचार्यों का; यद्यपि धर्म और धर्मी का स्वभाव से अभेद है, तथापि नाम से भेद करके, व्यवहार-मात्र से ही ऐसा उपदेश है कि ज्ञानी के दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है; किन्तु परमार्थ से देखा जाये तो अनन्त पर्यायों को एक द्रव्य पी गया होने से, जो एक है - ऐसे कुछ मिले हुए आस्वाद-वाले, अभेद, एक-स्वभावी तत्त्व का अनुभव करनेवाले को दर्शन भी नहीं है, ज्ञान भी नहीं है और चारित्र भी नहीं है; एक शुद्ध ज्ञायक ही है ।

जयसेनाचार्य :
[ववहारेण] सदभूत-व्यवहारनय से [उवदिस्सदि] कहा जाता है [णाणिस्स] कि ज्ञानी जीव के [चरित्तदंसणं णाणं] चारित्र, दर्शन और ज्ञान है जो कि उसके स्वरूप में है । किन्तु, [ण वि णाणं ण चरितं ण दंसणं] शुद्ध-निश्चयनय से तो न ज्ञान, न चारित्र है और न दर्शन है । तो फिर क्या है ? कि [जाणगो] ज्ञायक मात्र है, शुद्ध चैतन्य-स्वभाव है [सुद्धो] जो कि रागादि रहित शुद्ध है । सार यह है कि -- जैसे अभेदरूप निश्चयनय से अग्नि एक ही है फिर भी भेदरूप व्यवहार के द्वारा इस प्रकार की व्युत्पत्ति के द्वारा विषय भेद से वही अग्नि तीन प्रकार भिन्न-भिन्न कर बतलाई जाती है, वैसे ही जीव भी अभेदरूप निश्चयनय से तो शुद्ध चैतन्य स्वरूप है फिर भी भेदरूप व्यवहार से इस प्रकार व्युत्पत्ति के द्वारा भिन्न-भिन्न कहा जाता है ॥७॥

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+ व्यवहार की आवश्यकता -
जह ण वि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा दु गाहेदुं ।
तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं ॥8॥
यथा नापि शक्योsनार्योsनार्यभाषां विना तु ग्राहयितु्
तथा व्यवहारेण विना परमार्थोपदेशनमशक्यम् ॥८॥
अनार्य भाषा के बिना समझा सके न अनार्य को
बस त्योंहि समझा सके ना व्यवहार बिन परमार्थ को ॥८॥
अन्वयार्थ : [जह] जिसप्रकार [अणज्जभासं] अनार्य (म्लेच्छ) भाषा के [विणा] बिना [अणज्जो] अनार्य (म्लेच्छ) जन को कुछ [वि] भी [गाहेदुं] समझाना [सक्कम्] संभव [ण] नहीं है; [तह] उसीप्रकार [ववहारेण] व्यवहार के [विणा] बिना [परमत्थ] परमार्थ (निश्चय) का [उवदेसणम्म] कथन [असक्कं] अशक्य है ।

अमृतचंद्राचार्य :
स्वस्ति शब्द से अपरिचित किसी म्लेच्छ (अनपढ़) को यदि कोई ब्राह्मण (पढ़ा-लिखा व्यक्ति) 'स्वस्ति' ऐसा कहकर आशीर्वाद दे, तो वह म्लेच्छ उसकी ओर मेंढे की भाँति आँखें फाड़-फाड़कर, टकटकी लगाकर देखता ही रहता है; क्योंकि वह 'स्वस्ति' शब्द के वाच्य-वाचक सम्बन्ध से पूर्णत: अपरिचित होता है । पर जब दोनों की भाषा को जाननेवाला कोई अन्य व्यक्ति या वही ब्राह्मण म्लेच्छ भाषा में उसे समझाता है कि स्वस्ति शब्द का अर्थ यह है कि तुम्हारा अविनाशी कल्याण हो; तब उसका भाव समझ में आ जाने से उसका चित्त आनन्दित हो जाता है, उसकी आँखों में आनन्द के अश्रु आ जाते हैं ।

इसीप्रकार आत्मा शब्द से अपरिचित लौकिक-जनों को जब कोई ज्ञानी धर्मात्मा आचार्यदेव 'आत्मा' शब्द से सम्बोधित करते हैं तो वे भी आँखें फाड़-फाड़कर - टकटकी लगाकर देखते ही रहते हैं; क्योंकि वे आत्मा शब्द के वाच्य-वाचक सम्बन्ध से पूर्णत: अपरिचित होते हैं । परन्तु जब सारथी की भाँति व्यवहार-परमार्थ मार्ग पर सम्यग्ज्ञान-रूपी महारथ को चलानेवाले प्रकार बतलाते हैं कि जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र को प्राप्त हो, वह आत्मा है; तब वे लौकिक-जन भी आत्मा शब्द के अर्थ को भली-भाँति समझ लेते हैं और तत्काल ही उत्पन्न होनेवाले अतीव आनन्द से उनके हृदय में बोध-तरंगें उछलने लगती हैं ।

इसप्रकार जगत म्लेच्छ के तथा व्यवहार-नय म्लेच्छ भाषा के स्थान पर होने से व्यवहार-नय परमार्थ का प्रतिपादक है और इसीलिए व्यवहार-नय स्थापित करने योग्य भी है; तथापि 'ब्राह्मण को म्लेच्छ तो नहीं बन जाना चाहिए' - इस वचन से व्यवहार-नय अनुसरण करने योग्य नहीं है ।

जयसेनाचार्य :
[जह अणज्जो] जैसे कि अनार्य पुरुष को [अणज्जभासं विणा] अनार्य-भाषा या म्लेच्छभाषा में बोले बिना [गाहेदुं णवि सक्कम्] अर्थ ग्रहण नहीं कराया जा सकता । यह तो दृष्टांत हुआ, अब दार्ष्टांत पर आते हैं । [तह ववहारेण विणा] उसी प्रकार व्यवहारनय के बिना [परमत्थुवदेसणमसक्कं] परमार्थ का उपदेश नहीं किया जा सकता ।

यहाँ यह अभिप्राय है कि कोई ब्राह्मण अथवा यति म्लेच्छों की बस्ती में चला गया, वहाँ किसी म्लेच्छ ने जब उन्हें नमस्कार किया तब उस ब्राह्मण या यति ने उसे 'स्वस्ति' इस प्रकार आशीर्वाद दिया तो 'स्वस्ति' का अर्थ जो 'नहीं नष्ट होना है' उसको नहीं जानने के कारण वह मेंढे के समान इधर-उधर देखता है कि ये क्या कह रहे हैं । उसी प्रकार यह अज्ञानी प्राणी 'आत्मा' इस प्रकार कहने पर आत्मा शब्द का क्या अर्थ है, इसको न जानता हुआ भ्रम में पड़कर इधर-उधर देखने लगता है कि ये क्या कह रहे हैं ? किन्तु जब किसी निश्चय और व्यवहार इन दोनों के अर्थ को जानने वाले पुरुष से सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र यह जीव शब्द का अर्थ है ऐसा समझाया जाने पर वह सन्तुष्ट होकर समझ जाता है ॥८॥

इस प्रकार दो गाथाओं द्वारा भेद-अभेद रत्नत्रय के व्याख्यान की मुख्यता से दूसरा स्थल पूर्ण हआ ।

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+ श्रुतकेवली -
जो हि सुदेणहिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं ।
तं सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा ॥9॥
जो सुदणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवलिं तमाहु जिणा ।
णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा ॥10॥
यो हि श्रुतेनाभिगच्छति आत्मानमिमं तु केवलं शुद्धम्
तं श्रुतकेवलिनमृषयो भणंति लोकप्रदीपकरा: ॥९॥
य: श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति श्रुतकेवलिनं तमाहुर्जिना:
ज्ञानमात्मा सर्वं यस्माच्छुतकेवली तस्मात् ॥१०॥
श्रुतज्ञान से जो जानते हैं शुद्ध केवल आतमा
श्रुतकेवली उनको कहें ऋषिगण प्रकाशक लोक के ॥९॥
जो सर्वश्रुत को जानते उनको कहें श्रुतकेवली
सब ज्ञान ही है आतमा बस इसलिए श्रुतकेवली ॥१०॥
अन्वयार्थ : [जो] जो जीव [हि] निश्चय से केवल [शुद्धम्] राग द्वेष रहित [अप्पमिणंतु] इस अनुभव गोचर आत्मा को [सुएण] श्रुतज्ञान के [हिगच्छइ] सम्मुख होता हुआ जानते हैं, [तं] उसे [लोएप्पईवयरा] लोक के प्रकाशक [मसिणो] ऋषिगण [सुकेवलिम्] (निश्चय) श्रुतकेवली [भणन्ति] कहते हैं और [यो] जो [सुयणाणं] सर्वश्रुतज्ञान को [जाणइ] जानते हैं, [तमजिणा] उन्हें जिनदेव [सुयकेवलिं] (व्यवहार) श्रुतकेवली [आहू] कहते हैं; [जम्हा] क्योंकि [सव्वं] सब [णाणं] ज्ञान [अप्पा] आत्मा ही है [तम्हा] इसलिए वह [सुदकेवली] श्रुत-केवली है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जो श्रुत-ज्ञान के बल से केवल शुद्ध आत्मा को जानते हैं, वे श्रुत-केवली हैं - यह परमार्थ कथन है और जो सर्व-श्रुतज्ञान को जानते हैं, वे श्रुत-केवली हैं - यह व्यवहार कथन है ।

अब यहाँ विचार करते हैं कि उपर्युक्त सर्वज्ञान आत्मा है कि अनात्मा ? अनात्मा कहना तो ठीक नहीं है; क्योंकि जड़ अनात्मा तो आकाशादि पाँच द्रव्य हैं, किन्तु उनका ज्ञान के साथ तादात्म्य नहीं है । अत: अन्य उपाय का अभाव होने से ज्ञान आत्मा ही है - यही सिद्ध होता है; इसलिए यह सहज ही सिद्ध हो गया कि सर्व-श्रुतज्ञान भी आत्मा ही है । ऐसा सिद्ध होने पर पारमार्थिक तथ्य सहज ही फलित हो गया कि जो आत्मा को जानता है, वही श्रुत-केवली है । इसप्रकार ज्ञान और ज्ञानी के भेद से कथन करनेवाला जो व्यवहार-नय है, उससे भी मात्र परमार्थ ही कहा जाता है, अन्य कुछ नहीं ।

'जो श्रुत से केवल शुद्ध आत्मा को जानते हैं, वे श्रुत-केवली हैं' - इस परमार्थ का प्रतिपादन अशक्य होने से 'जो सर्व-श्रुत को जानते हैं, वे श्रुत-केवली हैं' - ऐसा व्यवहार-कथन परमार्थ का ही प्रतिपादक होने से अपने को दृढ़ता-पूर्वक स्थापित करता है ।

जयसेनाचार्य :
[जो हि सुदेणहिगच्छदि] जो जीव कर्ता करणता को प्राप्त हुए निर्विकल्प-समाधि-रूप स्वसंवेदन-ज्ञानात्मक भाव-श्रुत के द्वारा पूर्णरूप से अपने अनुभव में लाता है [इणं अप्पाणम] इस प्रत्यक्षीभूत अपने आपकी आत्मा को, [केवलं] सहाय रहित, [सुद्धं] रागादि से रहित अनुभव में लाता है, [तं सुदकेवलि] उस पुरुष को निश्चय-श्रुत-केवली [भणंति] कहते हैं । कौन कहते हैं ? [लोगप्प-दीवयरा इसिणो] लोकालोक के प्रकाशक परम-ऋषि कहते हैं ।

इस प्रकार इस गाथा के द्वारा निश्चय श्रुत-केवली का लक्षण कहा गया ।

[जो सुदणाणं] किन्तु जो पुरुष द्वादशांग-द्रव्य-श्रुत-ज्ञान को [सव्वं] परिपूर्ण रूप [जाणदि] जानता है [तं] उसे [जिणा] जिन-भगवान् [सुदकेवलिं आहु] द्रव्य-श्रुतकेवली कहते हैं । [जम्हा] क्योंकि [सुदणाणं] द्रव्य-श्रुत के आधार से उत्पन्न हुआ जो भाव श्रुतज्ञान है वह [आद] आत्मा ही है [सव्वं] जो कि आत्मा की संवित्ति को विषय करने वाला और पर की परिछित्ति को विषय करने वाला होता है, [तम्हा] इसलिए [सुदकेवली] वह द्रव्य-श्रुतकेवली होता है ।

इसका अभिप्राय यह हुआ कि जो भावश्रुत रूप स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा केवल अपनी शुद्ध आत्मा को जानता है वह निश्चय-श्रुत-केवली होता है किन्तु जो अपनी शुद्ध आत्मा का अनुभव नहीं कर रहा है, न उसकी भावना कर रहा है, केवल बहिर्विषयक द्रव्यश्रुत के विषयभूत पदार्थों को जानता, वह व्यवहार-श्रुत-केवली होता है ।

प्रश्न – स्वसंवेदन ज्ञान के बल से इस काल में भी श्रुत-केवली हो सकते हैं, ऐसा समझना चाहिए क्या ?

समाधान – यह है कि नहीं हो सकता, क्योंकि जैसा शुक्ल-ध्यानात्मक स्व-संवेदनज्ञान पूर्व-पुरुषों को होता था वैसा इस समय नहीं होता, किन्तु इस समय तो यथायोग्य धर्म-ध्यान होता है । इस प्रकार निश्चय और व्यवहार-श्रुत-केवली का व्याख्यान करने वाली दो गाथाओं के द्वारा तृतीय स्थल पूर्ण हुआ ।

अब गाथा के पूर्वार्द्ध से भेद-रत्नत्रय की भावना और उतरार्द्ध से अभेद-रत्नत्रय की भावना का वर्णन करते हैं --

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+ आत्म-भावना की प्रेरणा -
णाणम्हि भावणा खलु कादव्वा दंसणे चरित्ते य ।
ते पूण तिण्णिवि आदा तम्हा कुण भावणं आदे ॥11॥
अन्वयार्थ : [णाणम्हि] ज्ञान में, [दंसणे] दर्शन में [य] और [चरित्ते] चारित्र में [खलु] अवश्य [भावणा] भावना [कादव्वा] करनी चाहिए [ते पूण] क्योंकि ये [तिण्णिवि] तीनों [आदा] आत्मा के स्वरूप हैं । [तम्हा] इसलिए [आदे] आत्मा की [भावणं] भावना बार-बार [कुण] करनी चाहिए ।

जयसेनाचार्य :
सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनों का पुन: पुन: अनुचिन्तन अवश्य ही स्पष्टरूप से करते रहना चाहिए । कयोंकि निश्चयनय से ये तीनों आत्मस्वरुप ही हैं । इसलिए शुद्धात्मा की भावना भी हे भव्य ! अवश्य करना चाहिए ।

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+ आत्म-भावना से शीघ्र मुक्ति -
जो आदभावणमिणं णिच्चुवजुत्तो मुणी समाचरदि ।
सो सव्य-दुक्ख-मोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ॥12॥
अन्वयार्थ : जो मुनि या तपोधन तत्परता के साथ इस आत्मभावना को स्वीकार करता है वह सम्पूर्ण दु:खों से थोडे ही काल में मुक्त हो जाता है ।

जयसेनाचार्य :
इस तात्पर्यवृत्ति का अर्थ मूल गाथा में आ चुका है । इस प्रकार निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय की भावना का फल बतलाते हुए दो गाथाओं के द्वारा चौथा स्थल पूर्ण हुआ ।

आगे कहते हैं कि जिस प्रकार कोई ब्राह्मण आदि विशिष्ट-पुरुष म्लेच्छों को समझाने के समय में ही म्लेच्छ-भाषा को बोला करता है, अन्य काल में नहीं । उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष भी अज्ञानी पुरुषों को प्रतिबोध देने के समय में ही व्यवहार का आश्रय लेता है और काल में नहीं, क्योंकि व्यवहार अभूतार्थ होता है, ऐसा बतलाते हैं --

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नव-पदार्थ अधिकार



+ निश्चयनय भूतार्थ है और व्यवहार नय अभूतार्थ है -
ववहारोभूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ । (11)
भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो ॥13॥
शुद्धनय भूतार्थ है अभूतार्थ है व्यवहारनय
भूतार्थ की ही शरण गह यह आतमा सम्यक् लहे
अन्वयार्थ : [ववहारो] 'व्यवहार-नय [अभूदत्थो] अभूतार्थ है, [सुद्धणओ] शुद्ध-नय [भूदत्थो] भूतार्थ है' - [देसिदो दु] ऐसा दिखलाया है । [भूदत्थमस्सिदो] भूतार्थ के आश्रित, [जीवो] जीव [खलु] निश्चय से [सम्मादिट्ठी] सम्यग्दृष्टि [हवदि] होता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
सब ही व्यवहार-नय अभूतार्थ होने से अभूत (अविद्यमान-असत्य) अर्थ को प्रगट करते हैं । एक शुद्ध-नय ही भूतार्थ होने से भूत (विद्यमान-सत्य) अर्थ को प्रगट करता है । अब इसी बात को उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं । यद्यपि प्रबल कीचड़ के मिलने से आच्छादित है निर्मल-स्वभाव जिसका, ऐसे समल जल का अनुभव करनेवाले एवं जल और कीचड़ के विवेक से रहित अधिकांश लोग तो उस जल को मलिन ही अनुभव करते हैं । वे यह नहीं समझ पाते कि स्वभाव से तो जल निर्मल ही है, मलिनता तो मात्र संयोग में है । इसकारण वे जल को ही मलिन मान लेते हैं; तथापि कुछ लोग अपने हाथ से डाले हुए कतक-फल के पड़ने मात्र से उत्पन्न जल-कीचड़ के विवेक से, अपने पुरुषार्थ से प्रगट किये हुए निर्मल-स्वभाव से उस जल को निर्मल ही अनुभव करते हैं ।

(तात्पर्य यह है कि अधिकांश लोग तो पंक-मिश्रित जल को स्वभाव से मैला मानकर वैसा ही पी लेते हैं और अनेक रोगों से आक्रान्त हो दु:खी होते हैं; किन्तु कुछ समझदार लोग अपने विवेक से इस बात को समझ लेते हैं कि जल मैला नहीं है, इस मैले जल में जल जुदा है और मैल जुदा है तथा कतकफल के जरिये जल और मैल को जुदा-जुदा किया जा सकता है । अत: वे स्वयं के हाथ से कतक-फल डालकर मैले जल को इतना निर्मल बना लेते हैं कि उसमें अपना पुरुषाकार भी स्पष्ट दिखाई देने लगता है और उस जल को पीकर नीरोग रहते हैं, आरोग्यता का आनन्द लेते हैं ।)

इसीप्रकार प्रबल कर्मोदय के संयोग से सहज एक ज्ञायक-भाव तिरोभूत (आच्छादित) हो गया है जिसका, ऐसे आत्मा का अनुभव करनेवाले एवं आत्मा और कर्म के विवेक से रहित, व्यवहार-विमोहित चित्तवाले अधिकांश लोग तो आत्मा को अनेक-भाव-रूप अशुद्ध ही अनुभव करते हैं; तथापि भूतार्थ-दर्शी लोग अपनी बुद्धि से प्रयुक्त शुद्धनय के प्रयोग से उत्पन्न आत्मा और कर्म के विवेक से अपने पुरुषार्थ द्वारा प्रगट किये गये सहज एक ज्ञायक-भाव को शुद्ध ही अनुभव करते हैं, एक ज्ञायक-भावरूप ही अनुभव करते हैं; अनेक-भावरूप नहीं करते । यहाँ शुद्धनय कतकफल के स्थान पर है; इसलिए जो शुद्धनय का आश्रय लेते हैं, वे ही सम्यक् अवलोकन करते हुए सम्यग्दृष्टि होते हैं; अन्य नहीं । इसलिए कर्मो से भिन्न आत्मा को देखनेवालों को व्यवहार-नय अनुसरण करने योग्य नहीं है ।

जयसेनाचार्य :
[ववहारो] व्यवहारनय [अभूदत्थो] अभूतार्थ अर्थात् असत्यार्थ है [भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ] किन्तु शुद्धनिश्चयनय भूतार्थ अर्थात सत्यार्थ कहा गया है । इन दोनों नयों में किसका आश्रय लेकर सम्यग्दृष्टि होता है ? इसका समाधान करते हैं कि [भूदत्यं] भूतार्थ सत्यार्थ-रूप जो निश्चय-नय है उसका [अस्सिदो] आश्रय लेकर उसमें पूर्णरूप से स्थिर होकर [सम्मादिट्ठी हवदि जीवो] यह जीव सम्यग्दृष्टि होता है इस प्रकार टीकाकार (अमृतचंद्राचार्य) का एक व्याख्यान है । अब दूसरा व्याख्यान करते हैं ।

[ववहारो अभूदत्थो भूदत्थो देसिदो] व्यवहारनय अभूतार्थ भी है और भूतार्थ भी है, ऐसे दो प्रकार का कहा गया है । केवल व्यवहारनय ही दो प्रकार का नहीं है किन्तु [सुद्धणओ] निश्चयनय भी शुद्ध-निश्चयनय और अशुद्ध-निश्चयनय के भेद से दो प्रकार है, ऐसा गाथा में आये हुए 'दु' शब्द से प्रकट होता ।

यहाँ यह तात्पर्य है कि जैसे कोई ग्रामीण पुरुष तो कीचड़ सहित तालाब आदि का जल पी लेता है किन्तु नागरिक विवेकी पुरुष तो उसमें कतल-फल / निर्मली डालकर उसे निर्मल बनाकर पीता है उसी प्रकार स्व-संवेदन-ज्ञानरूप भेद-भावना से रहित जो मनुष्य है वह तो मिथ्यात्व और रागादिरूप विभावपरिणाम सहित ही आत्मा का अनुभव करता है, किन्तु जो सम्यग्दृष्टि मनुष्य होता है वह तो अभेद-रत्नत्रय लक्षण निर्विकल्प-समाधि के बल से कतक स्थानीय निश्चयनय का आश्रय लेकर शुद्ध-आत्मा का अनुभव करता है ।

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जीव अधिकार



+ व्यवहार नय भी प्रयोजनवान है -
सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरिसीहिं । (12)
ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे ॥14॥
परमभाव को जो प्राप्त हैं वे शुद्धनय ज्ञातव्य हैं
जो रहें अपरमभाव में व्यवहार से उपदिष्ट हैं
अन्वयार्थ : [सुद्धो] शुद्धनय [सुद्धादेसो] शुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला है वह [परमभावदरिसीहिं] शुद्धात्मा को देखने वाले आत्मदर्शी द्वारा [णायव्वो] जानने-भावने योग्य है [पुण] और [जे] जो जीव [अपरमेभावे] अपरमभाव में [ट्ठिदा] स्थित हैं, वे [ववहारदेसिदा] व्यवहारनय द्वारा उपदेश करने योग्य हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
जो पुरुष अन्तिम पाक से उतरे हुए शुद्ध-स्वर्ण के समान वस्तु के उत्कृष्ट-भाव का अनुभव करते हैं; उन्हें प्रथम, द्वितीय आदि पाकों की परम्परा से पच्यमान अशुद्ध-स्वर्ण के समान अनुत्कृष्ट-मध्यम भावों का अनुभव नहीं होता । इसलिए उन्हें तो शुद्ध-द्रव्य का प्रतिपादक एवं अचलित-अखण्ड एक-स्वभाव-रूप भाव का प्रकाशक शुद्धनय ही सबसे ऊपर की एक प्रतिवर्णिका (स्वर्ण-वर्ण) समान होने से जानने में आता हुआ प्रयोजनवान है ।

परन्तु जो पुरुष प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकों की परम्परा से पच्यमान अशुद्ध-स्वर्ण के समान अनुत्कृष्ट-मध्यम भाव का अनुभव करते हैं; उन्हें अन्तिम ताव से उतरे हुए शुद्ध-स्वर्ण के समान उत्कृष्ट-भाव का अनुभव नहीं होता है; इसलिए उन्हें अशुद्ध-द्रव्य का प्रतिपादक एवं भिन्न-भिन्न एक-एक भाव-स्वरूप अनेक भावों का प्रकाशक व्यवहार-नय विचित्र अनेक वर्ण-मालाओं के समान होने से जानने में आता हुआ उस काल प्रयोजनवान है; क्योंकि तीर्थ और तीर्थ-फल की ऐसी ही व्यवस्था है । उक्तं च -

जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह
एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं ॥

कहा भी है -

(हरिगीत)
यदि चाहते हो जैनदर्शन प्रवर्ताना जगत में
व्यवहार-निश्चय-नयों में से किसी को छोड़ो नहीं ॥
व्यवहार-नय बिन तीर्थ का अर नियत-नय बिन तत्त्व का
ही लोप होगा इसलिए तुम किसी को छोड़ो नहीं ॥

यदि तुम जिनमत का प्रवर्तन करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों में से एक को भी मत छोड़ो; क्योंकि व्यवहार-नय के बिना तीर्थ का एवं निश्चय-नय के बिना तत्त्व का नाश हो जायेगा ।

(कलश)
उभयनयों में जो विरोध है उसके नाशक
स्याद्वादमय जिनवचनों में जो रमते हैं ॥
मोह वमन कर अनय-अखण्डित परमज्योतिमय
स्वयं शीघ्र ही समयसार में वे रमते हैं ॥४॥

[उभय-नय विरोध-ध्वंसिनि] (निश्चय और व्यवहार) दो नयों के विरोध का नाश करनेवाला [स्यात्-पद-अङ्के] 'स्यात्' पद से चिह्नित जो [जिनवचसि] जिन भगवान के वचन (वाणी) में [ये रमन्ते] जो रमते हैं [ते स्वयं वान्तमोहाः] वे अपनेआप ही मोह वमन करके [उच्चैः परं ज्योतिः समयसारं] इस अतिशयरूप परमज्योति प्रकाशमान शुद्ध आत्मा को [सपदि ईक्षन्ते एव] तत्काल ही देखते हैं । वह समयसाररूप शुद्ध आत्मा [अनवम्] नवीन उत्पन्न नहीं हुआ, किन्तु पहले कर्मों से आच्छादित था सो वह प्रगट व्यक्तिरूप हो गया है ।और वह [अनय-पक्ष-अक्षुण्णम्] सर्वथा एकान्तरूप कुनय के पक्ष से खण्डित नहीं होता, निर्बाध है ।

(कलश)
ज्यों दुर्बल को लाठी है हस्तावलम्ब त्यों
उपयोगी व्यवहार सभी को अपरमपद में ॥
पर उपयोगी नहीं रंच भी उन लोगों को
जो रमते हैं परम-अर्थ चिन्मय चिद्घन में ॥५॥

[व्यवहरण-नयः यद्यपि] व्यवहारनय यद्यपि [इह प्राक्-पदव्यां] इस पहली पदवी में [निहित-पदानां ] जिन्होंने अपना पैर रखा है, [हन्त हस्तावलम्बः स्यात्] अरेरे ! हस्तावलम्बन तुल्य कहा है, [तद्-अपि] तथापि [चित्-चमत्कार-मात्रं पर-विरहितं परमं अर्थं अन्तः पश्यतां] जो पुरुष चैतन्य-चमत्कारमात्र, पर-द्रव्य-भावों से रहित (शुद्धनयके विषयभूत) परम 'अर्थ' को अन्तरङ्ग में अवलोकन करते हैं, उसकी श्रद्धा करते हैं तथा उसरूप लीन होकर चारित्रभाव को प्राप्त होते हैं उनके लिए [एषः किञ्चित् न] यह (व्यवहारनय) कुछ भी नहीं है ।

(कलश)
नियत है जो स्वयं के एकत्व में नय शुद्ध से ।
वह ज्ञान का घनपिण्ड पूरण पृथक् है परद्रव्य से ॥
नवतत्त्व की संतति तज बस एक यह अपनाइये ।
इस आतमा का दर्श दर्शन आतमा ही चाहिए ॥६॥

[अस्य आत्मनः] इस आत्मा को [यद् इह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक्दर्शनम्] अन्य-द्रव्यों से पृथक् देखना (श्रद्धान करना) [एतत् एव नियमात् सम्यग्दर्शनम् ] ही नियम से सम्यग्दर्शन है । यह आत्मा [व्याप्तुः] अपने गुण-पर्यायों में व्याप्त (रहनेवाला) है, और [शुद्धनयतः एकत्वे नियतस्य] शुद्धनय से एकत्व में निश्चित किया गया है तथा [पूर्ण-ज्ञान-घनस्य] पूर्णज्ञानघन है । [] और [तावान् अयं आत्मा] जितना सम्यग्दर्शन है उतना ही यह आत्मा है । [तत् ] इसलिए आचार्य प्रार्थना करते हैं कि '[इमाम् नव-तत्त्व-सन्ततिंमुक्त्वा] इस नव-तत्त्व की परिपाटी को छोड़कर, [अयम् आत्मा एकः अस्तु नः] यह आत्मा एक ही हमें प्राप्त हो' ।

(कलश)
शुद्धनयाश्रित आतमा, प्रगटे ज्योतिस्वरूप ।
नवतत्त्वों में व्याप्त पर, तजे न एकस्वरूप ॥७॥

[अतः] तत्पश्चात् [शुद्धनय-आयत्तं] शुद्धनय के आधीन [प्रत्यग्-ज्योतिः] जो भिन्न आत्म-ज्योति है [तत्] वह [चकास्ति] प्रगट होती है [यद्] कि जो [नव-तत्त्व-गतत्वे अपि] नव-तत्त्वों में प्राप्त होने पर भी [एकत्वं] अपने एकत्व को [न मुंचति] नहीं छोड़ती ।

जयसेनाचार्य :
जो पूर्वोक्त गाथा में कहा गया है कि भूतार्थ-नय को आश्रय लेकर ही सम्यग्दृष्टि होता है किन्तु इस गाथा में स्पष्टीकरण करते हैं की निर्विकल्प समाधि में निरत रहने वाले सम्यग्दृष्टियों को भूतार्थ स्वरूप निश्चय-नय ही प्रयोजनवान हो, ऐसा नहीं है । किन्तु उन्हीं निर्विकल्प-समाधिरतों में किन्हीं-किन्हीं को कभी सविकल्प अवस्था में मिथ्यात्व, विषय-कषायरूप दुर्ध्यान को दूर करने के लिए व्यवहारनय भी प्रयोजनवान होता है । जैसे किसी को शुद्ध सोलहवानी के सुवर्ण का लाभ न हो तो नीचे के ही अर्थात् पंद्रह, चौदह वानी का सोना भी सम्मत समझा जाता है, ऐसा कहते हैं --

[सुद्धो सुद्धादेसो] शुद्ध-निश्चयनय शुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला है [णादव्वो परमभावदरिसीहिं] वह शुद्धता को प्राप्त हुए आत्म-दर्शियों के द्वारा जानने-भावने अर्थात् अनुभव करने योग्य है । क्योंकि वह सोलहवानी स्वर्ण के समान अभेद-रत्नत्रय स्वरूप समाधिकाल में प्रयोज़नवान् होता है । [ववहारदेसिदो] किन्तु व्यवहार अर्थात् विकल्प, भेद अथवा पर्याय के द्वारा कहा गया जो व्यवहारनय है वह [पुण] पन्द्रह, चौदह आदि वानी के स्वर्ण लाभ के समान उन लोगों के लिए प्रयोजनवान् है, [जे दु] जो लोग [अपरमे ट्ठिदा भावे] अशुद्ध रूप शुभोपयोग में, जो कि असंयत-सम्यग्दृष्टि अथवा श्रावक की अपेक्षा तो सराग-सम्यग्दृष्टि लक्षण वाला है और प्रमत्त-अप्रमत्तसंयत लोगों की अपेक्षा भेद-रत्नत्रय लक्षण वाला है ऐसे शुभोपयोग रूप जीव पदार्थ में स्थित है ।

इस प्रकार निश्चयनय व व्यवहारनय का व्याख्यान / प्रतिपादन करते हुए दो गाथाओं में पञ्चम स्थल पूर्ण हुआ । यहाँ तक १४ गाथाओं द्वारा पांच स्थलों में पीठिका पूर्ण हुई ।

कोई आसन्न भव्य जीव इस पीठिका मात्र व्याख्यान से हेय-उपादेय तत्त्व को जानकर विशुद्धज्ञान-दर्शन-स्वभाव वाले अपने स्वरूप को प्राप्त हो जाता है अर्थात् उसमें तल्लीन रहता है, किन्तु विस्तार रुचिवाला जीव नव अधिकारों से प्रस्तुत किये जाने वाले समयसार को जान-कर फिर आत्म-भावना करता है । इसलिये विस्तार-रुचि शिष्य को लक्ष्य में रखकर जीवादि नव अधिकारों से समयसार का व्याख्यान किया जाता है । वहाँ पर सबसे पहले नव पदार्थ के अधिकार रूप जो गाथा है, उस गाथा में आर्त-रौद्र का त्याग कर देना है लक्षण जिसका ऐसे निर्विकल्प-सामायिक-समाधि में स्थित रहने वाले जो जीव उनको, जो शुद्धात्मा के स्वरूप का दर्शन है, अनुभवन है, अवलोकन उपलब्धि संवित्ति है, प्रतीति है, ख्याति है, अनुभूति है वही निश्चय-नय से निश्चय-सम्यक्त्व या वीतराग-सम्यक्त्व कहा जाता है, जो कि निश्चय चारित्र के साथ अविनाभाव रखता है अर्थात उसे (वीतराग-सम्यक्त्व को) साथ में लिये हुए रहता है और वहीं गुण-गुणी में अभेदरूप जो निश्चयनय है उससे शुद्धात्मा का स्वरूप कहा जाता इस प्रकार एक उत्थानिका हुई । अथवा जीवादि-नवपदार्थ, जब भूतार्थ-नय से जाने जाते हैं तब ये ही भेद उपचारनय से सम्यक्त्व के विषय होने के कारण व्यवहार-सम्यक्त्व के निमित्त होते हैं । निश्चयनय से अपने शुद्धात्मा का परिणाम ही सम्यक्त्व है, यह दुसरी पातनिका है ।

इस प्रकार दोनों पातनिकाओं को मन में रखकर आगे का सूत्र कहते हैं --

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+ शुद्धनय से जानना सम्यक्त्व है -
भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च । (13)
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥15॥
चिदचिदास्रव पाप-पुण्य शिव बंध संवर निर्जरा
तत्त्वार्थ ये भूतार्थ से जाने हुए सम्यक्त्व हैं ॥१३॥
अन्वयार्थ : [भूदत्थेण] भूतार्थ / शुद्ध-नय से [अभिगदा] जाने हुए [जीवाजीवा] जीव, अजीव [य][पुण्णपावं] पुण्य, पाप, [च] और [आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य] आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष - ये नवतत्त्व ही [सम्मत्तं] सम्यग्दर्शन हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
भूतार्थनय से जाने हुए ये जीवादि नवतत्त्व सम्यग्दर्शन ही हैं; क्योंकि तीर्थ (व्यवहारधर्म) की प्रवृत्ति के लिए अभूतार्थनय से प्रतिपादित जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष नामक नवतत्त्वों में एकत्व प्रगट करनेवाले भूतार्थनय के द्वारा एकत्व प्राप्त करके शुद्धनयात्मक आत्मख्याति प्रगट होती है अर्थात् आत्मानुभूति प्राप्त होती है । क्योंकि दोनों में से किसी एक का अपने-आप अकेले पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्षरूप होना संभव नहीं है । वे दोनों जीव और अजीव हैं ।

तात्पर्य यह है कि प्रत्येक युगल में से पहला जीव है और दूसरा अजीव है । बाह्यदृष्टि से देखा जाये तो जीव-पुद्गल की अनादि-बंध-पर्याय के समीप जाकर एकरूप से अनुभव करने पर ये नवतत्त्व भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं और एक जीवद्रव्य के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं; अत: इन नवतत्त्वों में भूतार्थनय से एक जीव ही प्रकाशमान है ।

इसीप्रकार अन्तर्दृष्टि से देखा जाये तो एक ज्ञायकभाव जीव है और जीव के विकार का हेतु अजीव है । इनमें से पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्षरूप भाव केवल जीव के विकार हैं, जीव के विशेष भाव हैं, जीवरूप भाव हैं और जीव के विकार के हेतुभूत जो पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्षरूप तत्त्व हैं; वे सभी केवल अजीव हैं ।

ऐसे ये नवतत्त्व, जीवद्रव्य के स्वभाव को छोड़कर स्वयं और पर जिनके कारण हैं - ऐसे एक द्रव्य की पर्यायों के रूप में अनुभव करने पर भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं और सर्वकाल में अस्खलित एक जीवद्रव्य के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं । इसलिए इन नवतत्त्वों में भूतार्थनय से एक जीव ही प्रकाशमान है ।

इसप्रकार एकत्वरूप से प्रकाशित यह भगवान आत्मा शुद्धनय के रूप में अनुभव किया जाता है और यह अनुभूति आत्मख्याति ही है तथा यह आत्मख्याति सम्यग्दर्शन ही है । अत: भूतार्थनय से जाने हुए नवतत्त्व ही सम्यग्दर्शन हैं - यह कथन पूर्णत: निर्दोष है ।

(कलश-)
शुद्धकनक ज्यों छिपा हुआ है बानभेद में
नवतत्त्वों में छिपी हुई त्यों आत्मज्योति है ॥
एकरूप उद्योतमान पर से विविक्त वह
अरे भव्यजन! पद-पद पर तुम उसको जानो ॥८॥

[इति] इसप्रकार [चिरम् नव-तत्त्व-च्छन्नम् इदम् आत्मज्योतिः] नवतत्त्वों में बहुत समय से छिपी हुई यह आत्म-ज्योति [उन्नीयमानं] शुद्धनय से बाहर निकालकर प्रगट की गई है, [वर्णमाला-कलापे निमग्नं कनकम् इव] जैसे वर्णो के समूह में छिपे हुए एकाकार स्वर्ण को बाहर निकालते हैं; [अथ] अब [सततविविक्तं] इसे सदा (अन्यद्रव्यों से तथा उनसे होनेवाले नैमित्तिक भावों से) भिन्न, [एकरूपं] एकरूप [दृश्यताम्] देखो ।[प्रतिपदम् उद्योतमानम्] यह (ज्योति), पद-पद पर (प्रत्येक पर्याय में एकरूप चित्चमत्कारमात्र) उद्योतमान है ।

अब, जैसे नव-तत्त्वों में एक जीव को ही जानना भूतार्थ कहा है उसी प्रकार, एकरूप से प्रकाशमान आत्मा के अधिगम के उपाय जो प्रमाण, नय, निक्षेप हैं वे भी निश्चय से अभूतार्थ हैं, उनमें भी यह आत्मा एक ही भूतार्थ है । उनमें से पहले, प्रमाण दो प्रकार के हैं -- परोक्ष और प्रत्यक्ष । उपात्त (प्राप्त -- इन्द्रिय, मन) और अनुपात्त (अप्राप्त -- प्रकाश, उपदेश आदि) पर (पदार्थों) द्वारा प्रवर्ते वह परोक्ष है और केवल आत्मा से ही प्रतिनिश्चित-रूप से प्रवृत्ति करे सो प्रत्यक्ष है । वे दोनों (परोक्ष / प्रत्यक्ष) प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय के भेद का अनुभव करने पर तो भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं; और जिसमें सर्व-भेद गौण हो गए हैं ऐसे एक जीव के स्वभाव का अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं ।

नय दो प्रकार के हैं -- द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । वहां यह दोनों नय द्रव्य और पर्याय का पर्याय से (भेद से, क्रम से) अनुभव करने पर तो भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं; और द्रव्य तथा पर्याय दोनों से अनालिंगित शुद्ध वस्तुमात्र जीव के स्वभाव का अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं ।

निक्षेप के चार भेद हैं -- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । इन चारों निक्षेपों का अपने-अपने लक्षण-भेद से अनुभव किये जाने पर वे भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं; और [बिण] लक्षण से रहित एक अपने चैतन्य-लक्षण-रूप जीव-स्वभाव का अनुभव करने पर वे चारों ही अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं । इसप्रकार इन प्रमाण-नय-निक्षेपों में भूतार्थ-रूप से एक जीव ही प्रकाशमान है ।

(कलश-रोला)
निक्षेपों के चक्र विलय नय नहीं जनमते
अर प्रमाण के भाव अस्त हो जाते भाई ॥
अधिक कहें क्या द्वैतभाव भी भासित ना हो
शुद्ध आतमा का अनुभव होने पर भाई ॥९॥

[अस्मिन् सर्वंक षेधाम्नि अनुभवम् उपयाते] इन समस्त भेदों को गौण करनेवाला जो शुद्धनय के विषयभूत चैतन्य-चमत्कारमात्र तेजःपुञ्ज आत्मा है, उसका अनुभव होने पर [नयश्रीः न उदयति] नयों की लक्ष्मी उदित नहीं होती, [प्रमाणं अस्तम् एति] प्रमाण अस्त हो जाता है [अपि च] और [निक्षेपचक्रम् क्वचित् याति, न विद्मः] निक्षेपों का समूह कहां चाला जाता है सो हम नहीं जानते; [किम् अपरम् अभिदध्मः] इससे अधिक क्या कहें ? [द्वैतम् एव नभाति] द्वैत ही प्रतिभासित नहीं होता ।

(कलश-रोला)
परभाव से जो भिन्न है अर आदि-अन्त विमुक्त है
संकल्प और विकल्प के जंजाल से भी मुक्त है ॥
जो एक है परिपूर्ण है - ऐसे निजात्मस्वभाव को
करके प्रकाशित प्रगट होता है यहाँ यह शुद्धनय ॥१०॥

[शुद्धनयः आत्मस्वभावं प्रकाशयन् अभ्युदेति] शुद्धनय आत्म-स्वभाव को प्रगट करता हुआ उदयरूप होता हुआ [परभावभिन्नम्] (परद्रव्य, परद्रव्य के भाव तथा परद्रव्य के निमित्त से होने वाले अपने विभाव) ऐसे परभावों से भिन्न प्रगट करता है । और वह, [आपूर्णम् ] (आत्मस्वभाव) सम्पूर्णरूप से पूर्ण है और वह, [आदि-अन्त-विमुक्तम्] (आत्म-स्वभाव को) आदि-अन्त से रहित प्रगट करता है (किसी आदि से लेकर जो किसी से उत्पन्न नहीं किया गया, और कभी भी किसी से जिसका विनाश नही होता, ऐसे पारिणामिक भाव को वह प्रगट करता है) । और वह, [एकम् ] (आत्मस्वभाव को) एक (सर्व भेद-भावों से / द्वैतभावों से रहित, एकाकार) प्रगट करता है, और [विलीनसंकल्पविकल्पजालं] जिसमें समस्त संकल्प-विकल्प के समूह विलीन हो गये हैं, ऐसा प्रगट करता है ।

जयसेनाचार्य :
[भूदत्थेण] भूतार्थरूप निश्चयनय / शुद्ध-नय के द्वारा [अभिगदा] निर्णय किये हुए / निश्चय किये हुए / जाने हुए [जीवाजीवा य पुण्णपावं च आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य] जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध ओर मोक्ष स्वरूप जो नव पदार्थ हैं । वे ही [सम्मत्तं] अभेद उपचार के द्वारा सम्यक्त्व के विषय होने से सम्यक्त्व हैं, किन्तु अभेदरूप निश्चयनय से देखें, तब तो आत्मा का परिणाम ही सम्यक्त्व है । अब शिष्य कहता है कि भूतार्थनय के द्वारा जाने हुए नव पदार्थ सम्यक्त्व होते हैं, ऐसा जो आपने कहा उस भूतार्थ के ज्ञान का क्या स्वरूप है ? ऐसा पूछने पर आचार्य उत्तर देते कि तीर्थ की प्रवृति के लिए प्रारम्भिक शिष्य की अपेक्षा से नव पदार्थ भूतार्थ कहे जाते हैं । फिर अभेद-रत्नत्रय लक्षण निर्विकल्प-समाधि के काल में वे अभूतार्थ असत्यार्थ ठहरते हैं, अर्थात् वे शुद्धात्मा के स्वरूप नहीं होते, किन्तु इस परम-समाधिकाल में तो उन नव पदार्थों में शुद्ध निश्चयनय से एक शुद्धात्मा ही झलकता है / प्रकाशित होता / प्रतीति में आता है / अनुभव किया जाता है और जो वहाँ पर अनुभूति / प्रतीति अथवा शुद्धात्मा की उपलब्धि होती है वही निश्चय-सम्यक्त्व है । वह अनुभूति ही गुण और गुणी में निश्चयनय से अभेद विवक्षा करने पर शुद्धात्मा का स्वरूप है, ऐसा तात्पर्य है । और जो प्रमाण, नय, निक्षेप हैं, वे केवल परमात्मादि-तत्त्व विचारकाल में सम्यक्त्व के सहकारी कारणभूत होते हैं । वे भी सविकल्प अवस्था में ही भूतार्थ हैं, परम-समाधि काल में तो फिर वे भी अभूतार्थ हो जाते हैं, उन सबमें भूतार्थ-रूप से एक शुद्ध जीव ही प्रतीति में आता है ।

उन नव अधिकारों में सबसे पहले २८ गाथाओं से जीवाधिकार का वर्णन है ।

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+ शुद्धनय का लक्षण -
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णयं णियदं । (14)
अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ॥16॥
अबद्धपुट्ठ अनन्य नियत अविशेष जाने आत्म को
संयोग विरहित भी कहे जो शुद्धनय उसको कहें ॥१४॥
अन्वयार्थ : जो [अप्पाणं] आत्मा को [अबद्धपुट्ठं] बंध रहित, पर के स्पर्श रहित, [अणण्णयं] अनन्य, [णियदं] नित्य, [अविसेसम्] अविशेष और [असंजुत्तं] अन्य के संयोग रहित [पस्सदि] अवलोकन करता है, [तं] उसे [सुद्धणयं] शुद्ध-नय [वियाणीहि] जानो ।

अमृतचंद्राचार्य :
अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त आत्मा की अनुभूति शुद्धनय है और वह अनुभूति आत्मा ही है; इसप्रकार एक आत्मा ही प्रकाशमान है । शुद्धनय, आत्मा की अनुभूति या आत्मा सब एक ही है, अलग-अलग नहीं ।

प्रश्न – ऐसे आत्मा की अनुभूति कैसे हो सकती है ?

उत्तर – बद्धस्पृष्टादिभावों के अभूतार्थ होने से यह अनुभूति हो सकती है ।

अब इसी बात को पाँच दृष्टान्तों के द्वारा विस्तार से स्पष्ट करते हैं -
  1. जिसप्रकार जल में डूबे हुए कमलिनी पत्र का, जल से स्पर्शितपर्याय की ओर से अनुभव करने पर, देखने पर, जल से स्पर्शित होना भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि जल से किंचित्मात्र भी स्पर्शित न होने योग्य कमलिनी पत्र के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर जल से स्पर्शित होना अभूतार्थ है, असत्यार्थ है । इसीप्रकार अनादिकाल से बँधे हुए आत्मा का पुद्गलकर्मो से बँधने, स्पर्शित होनेरूप अवस्था से अनुभव करने पर बद्धस्पृष्टता भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि पुद्गल से किंचित्मात्र भी स्पर्शित न होने योग्य आत्मस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर बद्धस्पृष्टता अभूतार्थ है,असत्यार्थ है ।
  2. जैसे कुण्डा, घड़ा, खप्पर आदि पर्यायों से मिट्टी का अनुभव करने पर अन्यत्व (वे अन्य-अन्य हैं, जुदे-जुदे हैं - यह) भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि सर्वत: अस्खलित (सर्वपर्याय भेदों से किंचित्मात्र भी भेदरूप न होनेवाले) एक मिट्टी के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर अन्यत्व अभूतार्थ है, असत्यार्थ है । इसीप्रकार नर-नारकादि पर्यायों से आत्मा का अनुभव करने पर अन्यत्व भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि सर्वत: अस्खलित (सर्वपर्याय भेदों से किंचित्मात्र भेदरूप न होनेवाले) एक चैतन्याकार आत्मस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर अन्यत्व अभूतार्थ है; असत्यार्थ है ।
  3. जिसप्रकार समुद्र का वृद्धि-हानिरूप अवस्था से अनुभव करने पर अनियतता भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि समुद्र के नित्य स्थिरस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर अनियतता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है । इसीप्रकार आत्मा का वृद्धि-हानिरूप पर्यायभेदों से अनुभव करने पर अनियतता भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि नित्य स्थिर आत्मस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर अनियतता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है ।
  4. जिसप्रकार सोने का चिकनापन, पीलापन, भारीपन इत्यादि गुणरूप भेदों से अनुभव करने पर विशेषता भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि जिसमें सर्वविशेष विलय हो गये हैं - ऐसे सुवर्णस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर विशेषता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है । इसीप्रकार आत्मा का ज्ञान, दर्शन आदि गुणरूप भेदों से अनुभव करने पर विशेषता भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि जिसमें सर्व विशेष विलय हो गये हैं - ऐसे आत्मस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर विशेषता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है ।
  5. जिसप्रकार अग्नि जिसका निमित्त है - ऐसी उष्णता के साथ संयुक्ततारूप - तप्ततारूप अवस्था से जल का अनुभव करने पर जल की उष्णतारूप संयुक्तता भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि एकान्त शीतलतारूप जलस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर उष्णता के साथ जल की संयुक्तता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है । उसीप्रकार कर्म जिसका निमित्त है - ऐसे मोह के साथ संयुक्ततारूप अवस्था से आत्मा का अनुभव करने पर संयुक्तता भूतार्थ है, सत्यार्थ है; तथापि जो स्वयं एकान्त बोधरूप है, ज्ञानरूप है - ऐसे जीवस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर संयुक्तता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है ।

(कलश-रोला)
पावें न जिसमें प्रतिष्ठा बस तैरते हैं बाह्य में
ये बद्धस्पृष्टादि सब जिसके न अन्तरभाव में ॥
जो है प्रकाशित चतुर्दिक् उस एक आत्मस्वभाव का
हे जगतजन ! तुम नित्य ही निर्मोह हो अनुभव करो ॥११॥

[यत्र ] जहाँ [अमी बद्धस्पृष्टभावादयः] यह बद्धस्पृष्टादिभाव [एत्य स्फुटम् उपरि तरन्तः अपि] स्पष्टतया उस स्वभाव के ऊपर तैरने पर भी [प्रतिष्ठाम् न हि विदधति] प्रतिष्ठा नहीं पाते [समन्तात्द्योतमानं सम्यक्स्वभावम्] सर्व अवस्थाओं में प्रकाशमान सम्यक्स्वभाव का [जगत् तमेव] हे जगत तुम [अनुभवतु अपगतमोहीभूय] मोह रहित होकर अनुभव करो ।

(कलश-रोला)
अपने बल से मोह नाशकर भूत भविष्यत् ।
वर्तमान के कर्मबंध से भिन्न लखे बुध ॥
तो निज अनुभवगम्य आतमा सदा विराजित ।
विरहित कर्मकलंकपंक से देव शाश्वत ॥12॥

यदि [कः अपि सुधीः] कोई भी सुबुद्धि जीव [भूतंभान्तम् अभूतम् एव बन्धं] भूत, वर्तमान और भविष्य, तीनों काल के कर्मबन्ध को अपने आत्मा से [रभसात्] तत्काल / शीघ्र [निर्भिद्य] भिन्न करके तथा [मोहं] मोह (अज्ञान) को [हठात्] बलपूर्वक (पुरुषार्थ से) [व्याहत्य ] रोककर / नाश करके [अन्तः] अन्तरङ्गमें [किल अहो कलयति] अभ्यास करे / देखे तो [अयम् आत्मा] यह आत्मा [आत्म-अनुभव-एक-गम्य महिमा ] अपने अनुभव से ही जानने योग्य जिसकी प्रगट महिमा है ऐसा [व्यक्त:] व्यक्त (अनुभवगोचर), [ध्रुवं] निश्चल, [शाश्वतः] शाश्वत, [नित्यं कर्म-कलङ्क-पङ्क-विकलः] नित्य कर्मकलङ्क-कर्दम से रहित [स्वयं देवः] ऐसा स्वयं देव (स्तुति करने योग्य) [आस्ते] विराजमान है ।

(कलश)
शुद्धनयातम आतम की अनुभूति कही जो
वह ही है ज्ञानानुभूति तुम यही जानकर ॥
आतम में आतम को निश्चल थापित करके
सर्व ओर से एक ज्ञानघन आतम निरखो ॥१३॥

[इति या शुद्धनयात्मिका आत्म-अनुभूतिः] इसप्रकार जो शुद्धनय-स्वरूप आत्मा की अनुभूति है [इयम् एव किल ज्ञान-अनुभूतिः] वही वास्तव में ज्ञान की अनुभूति है [इति बुद्ध्वा] यह जानकर तथा [आत्मनि आत्मानम् सुनिष्प्रकम्पम् निवेश्य] आत्मा में आत्मा को निश्चल स्थापित करके, [नित्यम् समन्तात् एकः अवबोध-घनः अस्ति] 'सदा सर्व ओर एक ज्ञानघन आत्मा है' इसप्रकार देखना चाहिये ।

जयसेनाचार्य :
[जो पस्स्दि अप्पाणं] जो शुद्धात्मा को जानता है, किस प्रकार ? इस प्रकार जो आत्मा को जानता है [तं सुद्धणयं वियाणीहि] अभेदनय के द्वारा शुद्धनय का विषय होने से व शुद्धात्मा का साधक होने से और शुद्ध अभिप्राय में परिणत होने से उस पुरुष को ही शुद्धनय समझना चाहिये ।

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+ जो आत्मा को देखता है वही जिनशासन को जानता है -
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णमविसेसं । (15)
अपदेससंतमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं ॥17॥
अबद्धपुट्ठ अनन्य अरु अविशेष जाने आत्म को
द्रव्य एवं भावश्रुतमय सकल जिनशासन लहे ॥१५॥
अन्वयार्थ : जो [अप्पाणं] आत्मा को [अबद्धपुट्ठं] अबद्धस्पृष्ट, [अणण्णमविसेसं] अनन्य, अविशेष [पस्सदि] देखता है; वह [अपदेससुत्तमज्झं] द्रव्यश्रुत और भाव-श्रुत के मध्य होता हुआ [सव्वं] सम्पूर्ण [जिणसासणं] जिनशासन को [पस्सदि] देखता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जो यह अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त - ऐसे पाँच-भाव-स्वरूप आत्मा की अनुभूति है, वह निश्चय से समस्त जिनशासन की अनुभूति है; क्योंकि श्रुतज्ञानस्वयं आत्मा ही है, इसलिए ज्ञान की अनुभूति ही आत्मा की अनुभूति है । किन्तु जब सामान्यज्ञान के आविर्भाव और विशेष ज्ञेयाकार ज्ञान के तिरोभाव से ज्ञानमात्र का अनुभव किया जाता है; तब ज्ञान प्रगट अनुभव में आता है; तथापि जो अज्ञानी हैं, ज्ञेयों में आसक्त हैं; उन्हें वह स्वाद में नहीं आता । अब इसी बात को विस्तार से दृष्टान्त देकर समझाते हैं --

जिसप्रकार अनेक प्रकार के व्यंजनों के संबंध से उत्पन्न सामान्य लवण का तिरोभाव और विशेषलवण के आविर्भाव से अनुभव में आनेवाला जो लवण है, उसका स्वाद अज्ञानी व्यंजनलोलुप मनुष्यों को आता है; किन्तु अन्य के संबंधरहितता से उत्पन्न सामान्य के आविर्भाव और विशेष के तिरोभाव से अनुभव में आनेवाला जो एकाकार अभेदरूप लवण है, उसका स्वाद नहीं आता । यदि परमार्थ से देखें तो विशेष के आविर्भाव से अनुभव में आनेवाला लवण ही सामान्य के आविर्भाव से अनुभव में आनेवाला लवण है । इसीप्रकार अनेकप्रकार के ज्ञेयों के आकारों के साथ मिश्ररूपता से उत्पन्न सामान्य के तिरोभाव और विशेष के आविर्भाव से अनुभव में आनेवाला (विशेष भावरूप, भेदरूप, अनेकाकाररूप) ज्ञान, अज्ञानी-ज्ञेयलुब्ध जीवों के स्वाद में आता है; किन्तु अन्य ज्ञेयाकारों के संयोग की रहितता से उत्पन्न सामान्य के आविर्भाव और विशेष के तिरोभाव से अनुभव में आनेवाला एकाकार अभेदरूप ज्ञान स्वाद में नहीं आता । यदि परमार्थ से देखें तो जो ज्ञान विशेष के आविर्भाव से अनुभव में आता है, वही ज्ञान सामान्य के आविर्भाव से अनुभव में आता है । जिसप्रकार अन्यद्रव्य के संयोग से रहित केवल सैंधव (नमक) का अनुभव किये जाने पर सैंधव की डली सभी ओर से एक क्षाररसत्व के कारण क्षाररूप से ही स्वाद में आती है; उसी प्रकार परद्रव्य के संयोग का व्यवच्छेद करके केवल एक आत्मा का ही अनुभव किये जाने पर चारों ओर से एक विज्ञानघनता के कारण यह आत्मा भी ज्ञानरूप से ही स्वाद में आता है ।

(कलश--रोला)
खारेपन से भरी हुई ज्यों नमक डली है
ज्ञानभाव से भरा हुआ त्यों निज आतम है ॥
अन्तर-बाहर प्रगट तेजमय सहज अनाकुल
जो अखण्ड चिन्मय चिद्घन वह हमें प्राप्त हो ॥१४॥

[परमम् महः नः अस्तु] हमें वह उत्कृष्ट तेज-प्रकाश प्राप्त हो [यत् सकलकालम् चिद्-उच्छलन-निर्भरं] कि जो तेज सदाकाल चैतन्य के परिणमन से परिपूर्ण है, [उल्लसत्-लवण-खिल्य-लीलायितम्] जैसे नमक की डली एक क्षाररस की लीला का आलम्बन करती है, उसीप्रकार जो तेज [एक-रसम् आलम्बते] एक ज्ञान-रसस्वरूपका आलम्बन करता है; [अखण्डितम्] जो तेज अखण्डित है (जो ज्ञेयों के आकाररूप खण्डित नहीं होता), [अनाकुलं] जो अनाकुल है (जिसमें कर्मों के निमित्त से होनेवाले रागादि से उत्पन्न आकुलता नहीं है), [अनन्तम् अन्तः बहिः ज्वलत्] जो अविनाशीरूप से अन्तरङ्ग में और बाहर में प्रगट दैदीप्यमान है (जानने में आ रहा है), [सहजम्] जो स्वभाव से हुआ है (जिसे किसी ने नहीं रचा) और [सदा उद्विलासं] सदा जिसका विलास उदयरूप है (जो एकरूप प्रतिभासमान है)

(कलश--हरिगीत)
है कामना यदि सिद्धि की ना चित्त को भरमाइये
यह ज्ञान का घनपिण्ड चिन्मय आतमा अपनाइये ॥
बस साध्य-साधक भाव से इस एक को ही ध्याइये
अर आप भी पर्याय में परमातमा बन जाइये ॥१५॥

[एषः ज्ञानघनः आत्मा] यह (पूर्व-कथित) ज्ञानस्वरूप आत्मा, [सिद्ध्मि्अभीप्सुभिः] स्वरूप की प्राप्ति के इच्छुक पुरुषों को [साध्यसाधकभावेन] साध्य-साधक-भाव के भेद से [द्विधा] दो प्रकार से, [एकः] एक ही [नित्यम् समुपास्यताम्] नित्य सेवन करने योग्य है; उसका सेवन करो ।

जयसेनाचार्य :
[जो पस्सदि अप्पाणं] जो शुद्धात्मा को जानता है, अनुभव करता है की [अबद्धपुट्ठं] आत्मा अबद्ध-अस्पृष्ट है । यहाँ बंध शब्द से संश्लेष-रूप बंध और स्पृष्ट शब्द से संयोग मात्र का ग्रहण है । जो आत्मा द्रव्य-कर्म और नोकर्मों से जल में रहने वाले कमल के सामान अस्पृष्ट है, [अणण्णम्] घटादिक में मिट्टी के सामान अपनी पर्यायों में अनन्य होकर रहता है निश्चय-नय से पर-द्रव्य के संयोग से रहित है, [अविसेसं] कुण्डलादिक में स्वर्ण के समान अभिन्न है, समुद्र के समान नियत है, अवस्थित है, जैसे कि शीतल जल अग्नि के संयोग से रहित है । यहाँ पर गाथा में नियत और असंयुक्त शब्द यद्यपि नहीं है तो भी सामर्थ्य से ले लिये गये हैं क्योंकि सूत्रार्थ श्रुत और प्रकृत सामर्थ्य से युक्त होता है अर्थात् सूत्र में नहीं कही हुई बात भी प्रसंग से स्वीकार कर ली जाती है, ऐसी कहावत है । वह [पस्सदि जिणसासणं सव्वं] द्वादशांग-रुप सम्पूर्ण अर्थात्मक जिनशासन को जानता है । कैसे जानता है ? [अपदेससंतमज्झं] 'अपदिश्यते अर्थो येन' -- जिसके द्वारा पदार्थ कहा जाये वह अपदेश है इस प्रकार अपदेश का अर्थ शब्द होता है जिससे कि यहां पर द्रव्यश्रुत को ग्रहण करना और सूत्र शब्द से परिछित्ति रूप भावश्रुत जो कि ज्ञानात्मक है उसे ग्रहण करना, इस प्रकार जो द्रव्य-श्रुत के द्वारा वाच्य और भावश्रुत के द्वारा परिच्छेद्य हो वह अपदेश-सूत्र-मध्य कहा जाता है ।

इसका भाव यह है कि जिस प्रकार लवण की डली एक खारे रस वाली होती है फिर भी वह अज्ञानियों को फल, साग और पत्र साग आदि पर-द्रव्यों के संयोग से भिन्न-भिन्न स्वाद वाली जान पड़ती है, पर ज्ञानियों को तो वह एक खारी रस वाली ही प्रतीत होती है । उसी प्रकार आत्मा भी जो कि एक अखण्ड-ज्ञान स्वभाव वाली है वह निर्विकल्प-समाधि से भ्रष्ट होने वाले अज्ञानियों को तो स्पर्श, रस, गंध शब्द और नीलपीतादि वर्णमय ज्ञेय पदार्थ के भेद से खण्ड-खण्ड ज्ञान-रुप जान पड़ती है, किन्तु जो ज्ञानी (निर्विकल्प-समाधि में स्थित) हैं उनको वही आत्मा एक अखण्ड ज्ञान-स्वरूप प्रतीत होती है । इस प्रकार अखण्ड-ज्ञानस्वरुप शुद्धात्मा के जान लेने पर समस्त जिनशासन जान लिया जाता है, ऐसा समझकर समस्त मिथ्यात्व-रागादि विभाव-भावों को दूर करके इस शुद्धात्मा की ही भावना करना चाहिये । यहां मिथ्यात्व शब्द से दर्शनमोह और रागादि शब्द से चारित्र-मोह लिया गया है । ऐसा ही आगे जहाँ भी ये शब्द आयें तो उनका यही अर्थ लेना ।

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+ ध्यान में केवल आत्मा -
आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य ।
आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे ॥18॥
निज ज्ञान में है आतमा दर्शन चरित में आतमा
अर योग संवर और प्रत्याख्यान में भी आतमा ॥१८॥
अन्वयार्थ : [खु] निश्चय से [मज्झ] मेरे [णाणे] ज्ञान में [आदा] आत्मा ही है । मेरे [दंसणे] दर्शन में, [चरित्ते] चारित्र में [य] और [पच्चक्खाणे] प्रत्याख्यान में भी आत्मा ही है । इसीप्रकार [संवरे] संवर और [जोगे] योग / निर्विकल्प समाधि में भी आत्मा ही है ।

जयसेनाचार्य :
[आदा खु मज्झ] स्पष्ट रूप से मेरी तो एक शुद्धात्मा है । [णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे] सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान, संवर और योग इन सब ही भावनाओं में एक आत्मा ही है । योग का क्या अर्थ है ? यहाँ योग से निर्विकल्प-समाधि को लिया गया है जिसको परम-सामायिक या परम-ध्यान भी कहते हैं । उस परम समाधि में भोगाकांक्षा, निदान, बंध और शल्य आदि भाव से रहित शुद्धात्मा का ध्यान करने पर उपर्युक्त समस्त सम्यग्ज्ञानादि की प्राप्ति होती है । इस प्रकार शुद्ध-नय के व्याख्यान की मुख्यता से प्रथम स्थल में तीन गाथा हुई ।

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+ रत्नत्रय ही आत्मा है -
दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं । (16)
ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ॥19॥
चारित्र दर्शन ज्ञान को सब साधुजन सेवें सदा
ये तीन ही हैं आतमा बस कहे निश्चयनय सदा ॥१६॥
अन्वयार्थ : [साहुणा] साधुपुरुष को [दंसणणाणचरित्तणि] दर्शन-ज्ञान-चारित्र का [णिच्चं] सदा [सेविदव्वाणि] सेवन करना चाहिए [ताणि पुण] और उन [तिण्णि] तीनों को [णिच्छयदो] निश्चय से एक [अप्पाणं] आत्मा [वि] ही [जाण] जानो ।

अमृतचंद्राचार्य :
यह आत्मा जिस भाव से साध्य तथा साधन हो, उस भाव से ही नित्य सेवन करने योग्य है, उपासना करने योग्य है । इसप्रकार स्वयं विचार करके दूसरों को व्यवहार से समझाते हैं कि साधुपुरुष को दर्शन-ज्ञान-चारित्र सदा सेवन करने योग्य हैं, सदा उपासना करने योग्य हैं; किन्तु परमार्थ से देखा जाये तो ये तीनों एक आत्मा ही हैं, आत्मा की ही पर्यायें हैं; अन्य वस्तु नहीं हैं । जिसप्रकार देवदत्त नामक पुरुष के ज्ञान, दर्शन और आचरण, देवदत्त के स्वभाव का उल्लंघन न करने से देवदत्त ही हैं; अन्य वस्तु नहीं । उसीप्रकार आत्मा में भी घटित कर लेना चाहिए कि आत्मा के ज्ञान, श्रद्धान और आचरण आत्मा के स्वभाव का उल्लंघन न करने से आत्मा ही है, अन्य वस्तु नहीं । इसलिए यह स्वत: ही सिद्ध हो गया कि एक आत्मा ही उपासना करने योग्य है, सेवन करने योग्य है ।

(कलश--हरिगीत)
मेचक कहा है आतमा दृग-ज्ञान अर आचरण से
यह एक निज परमातमा बस है अमेचक स्वयं से ॥
परमाण से मेचक-अमेचक एक ही क्षण में अहा
यह अलौकिक मर्मभेदी वाक्य जिनवर ने कहा ॥१६॥

[प्रमाणतः] प्रमाण-दृष्टि से देखा जाये तो [आत्मा] यह आत्मा [समम्मेचकः अमेचकः च अपि] एक ही साथ अनेक अवस्थारूप (मेचक) भी है और एक अवस्थारूप (अमेचक) भी है, [दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः त्रित्वात्] क्योंकि इसे दर्शन-ज्ञान-चारित्र से तो त्रित्व (तीनपना) है और [स्वयम् एकत्वतः] अपने से अपने को एकत्व है ।

(कलश--हरिगीत)
आतमा है एक यद्यपि किन्तु नय व्यवहार से
त्रैरूपता धारण करे सद्ज्ञानदर्शनचरण से ॥
बस इसलिए मेचक कहा है आतमा जिनमार्ग में
अर इसे जाने बिन जगतजन ना लगें सन्मार्ग में ॥१७॥

[एकः अपि] आत्मा एक है, तथापि [व्यवहारेण] व्यवहार-दृष्टि से देखा जाय तो [त्रिस्वभावत्वात्] तीन-स्वभावरूपता के कारण [मेचकः] अनेकाकाररूप (मेचक) है, [दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः त्रिभिः परिणतत्वतः] क्योंकि वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र, इन तीन-भावोंरूप परिणमन करता है ।

(कलश--हरिगीत)
आतमा मेचक कहा है यद्यपि व्यवहार से
किन्तु वह मेचक नहीं है अमेचक परमार्थ से ॥
है प्रगट ज्ञायक ज्योतिमय वह एक है भूतार्थ से
है शुद्ध एकाकार पर से भिन्न है परमार्थ से ॥१८॥

[परमार्थेन तु] शुद्ध निश्चयनय से देखा जाये तो [व्यक्त -ज्ञातृत्व-ज्योतिषा] प्रगट ज्ञायकत्व-ज्योतिमात्र से [एककः] आत्मा एक-स्वरूप है, [सर्व-भावान्तर-ध्वंसि-स्वभावत्वात्] क्योंकि शुद्ध-द्रव्यार्थिक नय से सर्व अन्य द्रव्य के स्वभाव तथा अन्य के निमित्त से होनेवाले विभावों को दूर करनेरूप उसका स्वभाव है, इसलिये वह [अमेचकः] शुद्ध एकाकार 'अमेचक' है ।

(कलश--हरिगीत)
मेचक-अमेचक आतमा के चिन्तवन से लाभ क्या
बस करो अब तो इन विकल्पों से तुम्हें है साध्य क्या ॥
हो साध्यसिद्धि एक बस सद्ज्ञानदर्शनचरण से
पथ अन्य कोई है नहीं जिससे बचें संसरण से ॥१९॥

[आत्मनः] यह आत्मा [मेचक-अमेचकत्वयोः] मेचक (भेदरूप, अनेकाकार) है तथा अमेचक (अभेदरूप, एकाकार) है [चिन्तया एव अलं] ऐसी चिन्ता से तो बस हो । [साध्यसिद्धिः] साध्य (आत्मा) की सिद्धि तो [दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः] दर्शन, ज्ञान और चारित्र, (इन तीन भावों) से ही होती है, [न च अन्यथा] अन्य प्रकार से नहीं (यह नियम है)

जयसेनाचार्य :
[दंसणणाणचरित्तणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं] साधु को व्यवहारनय से सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों को भिन्न-भिन्न समझकर नित्य सदा ही इनकी उपासना करना चाहिये, अपने उपयोग में लाना चाहिये । [ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो] किन्तु शुद्ध-निश्चय-नय से वे तीनों एक शुद्धात्म स्वरूप ही हैं उससे भिन्न नहीं हैं ऐसा समझना चाहिये । इसका अर्थ यह है कि पंचेन्द्रियों के विषय और क्रोधादि-कषायों से रहित जो निर्विकल्प समाधि है उसमें ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों होते हैं ।


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+ रत्नत्रय के सेवन का क्रम -
जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि । (17)
तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण ॥20॥
एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सद्दहेदव्वो । (18)
अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण ॥21॥
यथा नाम कोऽपि पुरुषो राजानं ज्ञात्वा श्रद्दधाति
ततस्तमनुचरति पुनरर्थार्थिक: प्रयत्नेन ॥१७॥
एवं हि जीवराजो ज्ञातव्यस्तथैव श्रद्धातव्य:
अनुचरितव्यश्च पुन: स चैव तु मोक्षकामेन ॥१८॥
'यह नृपति है' - यह जानकर अर्थार्थिजन श्रद्धा करें
अनुचरण उसका ही करें अति प्रीति से सेवा करें ॥१७॥
यदि मोक्ष की है कामना तो जीवनृप को जानिए
अति प्रीति से अनुचरण करिए प्रीति से पहिचानिए ॥१८॥
अन्वयार्थ : [जह] जिसप्रकार [को वि] कोई [अत्थत्थीओ] धन का अर्थी [पुरिसो] पुरुष [रायाणं] राजा को [जाणिऊण] जानकर उसकी [सद्दहदि] श्रद्धा करता है और [पुणो] फिर [तं] उसका [पयत्तेण] प्रयत्नपूर्वक / लगन से [अणुचरदि] अनुचरण / सेवा करता है; [तह य] उसीप्रकार [मोक्खकामेण] मोक्ष के इच्छुक पुरुषों को [जीवराया] जीवरूपी राजा को [णादव्वो] जानना चाहिए और फिर उसका [सद्दहेदव्वो] श्रद्धान करना चाहिए, [य पुणो] उसके बाद [सो चेव] उसी का [अणुचरिदव्वो] अनुचरण करना चाहिए ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिसप्रकार धनार्थीपुरुष पहले तो राजा को प्रयत्नपूर्वक जानता है, फिर उसका श्रद्धान करता है और फिर उसी का अनुचरण करता है, सेवा करता है, उसकी आज्ञा में रहता है, उसे हर तरह से प्रसन्न रखता है; उसीप्रकार मोक्षार्थीपुरुष को पहले तो आत्मा को जानना चाहिए, फिर उसी का श्रद्धान करना चाहिए; और फिर उसी का अनुचरण करना चाहिए, अनुभव के द्वारा उसी में लीन हो जाना चाहिए; क्योंकि साध्य की सिद्धि की उपपत्ति इसीप्रकार सम्भव है, अन्यप्रकार से नहीं ।

अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं - जब आत्मा को, अनुभव में आने पर अनेक पर्यायरूप भेदभावों के साथ मिश्रितता होने पर भी सर्वप्रकार से भेदविज्ञान में प्रवीणता से 'जो यह अनुभूति है, सो ही मैं हूँ' - ऐसे आत्मज्ञान से प्राप्त होता हुआ इस आत्मा को जैसा जाना है, वैसा ही है - इसप्रकार की प्रतीति जिसका लक्षण है - ऐसा श्रद्धान उदित होता है; तब समस्त अन्यभावों का भेद होने से नि:शंक स्थिर होने में समर्थ होने से आत्मा का आचरण उदय होता हुआ आत्मा को साधता है । ऐसे साध्य आत्मा की सिद्धि की इसीप्रकार उपपत्ति है ।

परन्तु जब ऐसा अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा आबाल-गोपाल सबके अनुभव में सदा स्वयं ही आने पर भी अनादिबंध के वश परद्रव्यों के साथ एकत्व के निश्चय से मूढ़ - अज्ञानीजन को 'जो यह अनुभूति है, वही मैं हूँ' - ऐसा आत्मज्ञान उदित नहीं होता और उसके अभाव से, अज्ञात का श्रद्धान गधे के सींग के समान है, इसलिए श्रद्धान भी उदित नहीं होता; समस्त अन्यभावों के भेद से आत्मा में नि:शंक स्थिर होने की असमर्थता के कारण आत्मा का आचरण उदित न होने से आत्मा को साध नहीं सकता । इसप्रकार साध्य आत्मा की सिद्धि की अन्यथा अनुपपत्ति है ।

(कलश--हरिगीत)
त्रैरूपता को प्राप्त है पर ना तजे एकत्व को ।
यह शुद्ध निर्मल आत्मज्योति प्राप्त है जो स्वयं को ॥
अनुभव करें हम सतत ही चैतन्यमय उस ज्योति का
क्योंकि उसके बिना जग में साध्य की हो सिद्धि ना ॥२०॥

[अनन्तचैतन्यचिह्नं] अनन्त (अविनश्वर) चैतन्य जिसका चिह्न है ऐसी [इदम् आत्मज्योतिः] इस आत्म-ज्योति का [सततम् अनुभवामः] हम निरन्तर अनुभव करते हैं, [यस्मात्] क्योंकि [अन्यथा साध्यसिद्धिः न खलु न खलु] उसके अनुभव के बिना अन्य प्रकार से साध्य आत्मा की सिद्धि नहीं होती । वह आत्म-ज्योति ऐसी है कि [कथम् अपि समुपात्तत्रित्वम् अपि एकतायाः अपतितम्] जिसने किसी प्रकार से त्रित्व अङ्गीकार किया है तथापि जो एकत्व से च्युत नहीं हुई और [अच्छम् उद्गच्छत्] जो निर्मलता से उदय को प्राप्त हो रही है ।

प्रश्न – आत्मा तो ज्ञान के साथ तादात्म्य-स्वरूप है; अत: वह ज्ञान की उपासना निरन्तर करता ही है । फिर भी उसे ज्ञान की उपासना करने की प्रेरणा क्यों दी जाती है ?

उत्तर – ऐसी बात नहीं है । यद्यपि आत्मा ज्ञान के साथ तादात्म्य-स्वरूप है; तथापि वह एक क्षणमात्र भी ज्ञान की उपासना नहीं करता; क्योंकि ज्ञान की उत्पत्ति या तो स्वयं-बुद्धत्व से होती है या फिर बोधित-बुद्धत्व से होती है । तात्पर्य यह है कि या तो काललब्धि आने पर स्वयं ही जान ले या फिर कोई उपदेश देनेवाला मिल जाये, तब जाने ।

प्रश्न – तो क्या आत्मा तबतक अज्ञानी ही रहता है, जबतक कि वह या तो स्वयं नहीं जान लेता या फिर किसी के द्वारा समझाने पर नहीं जान लेता ?

उत्तर – हाँ, बात तो ऐसी ही है; क्योंकि उसे अनादि से सदा अप्रतिबुद्धत्व ही रहा है, अज्ञानदशा ही रही है ।

जयसेनाचार्य :
[जह णाम को वि पुरिसो] जैसे कोई भी पुरुष [रायाणं जाणिऊण सद्दहदि] छत्र-चमर आदि राज चिन्हों से राजा को जानकर 'यही राजा है' ऐसा निश्चय करता है, [तो तं अणुचरदि] तदनन्तर उसका आश्रय लेता है, उसकी आराधना करता है [अत्थत्थीओ पयत्तेण] पूर्ण प्रयत्न से, क्योंकि वह धन का इच्छुक है । इस प्रकार दृष्टान्त हुआ । [एवं हि] इसी प्रकार [जीवराया] शुद्ध जीवराजा [णादव्वो] निर्विकार-स्वसंवेदन-ज्ञान से जानने योग्य है । [तह य] वैसे ही [सद्दहेद्व्वो] नित्यानन्द स्वभाव वाला रागादि रहित ही शुद्धात्मा है ऐसा निर्णय करने योग्य है [अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु] तथा वही शुद्धात्मा आश्रय करने योग्य है -- निर्विकल्प-समाधि के द्वारा अनुभव करने योग्य है [मोक्खकामेण] मोक्ष के इच्छुक द्वारा, इस प्रकार यह दार्ष्टांत हुआ ।

तात्पर्य यह है कि हम संसारी आत्माओं का भेदाभेद-रत्नत्रयात्म्क भावनारूप परमात्म-चिंतन के द्वारा ही वांछित सिद्ध हो जाता है तो फिर इधर-उधर के शुभाशुभ-विकल्प जाल से क्या प्रयोजन है ?

इस प्रकार भेदाभेद-रत्नत्रय की मुख्यता से दूसरे स्थल में तीन गाथाएं पूर्ण हुईं । आगे स्वतन्त्र व्याख्यान की मुख्यता से तीन गाथायें कही जाती है ।

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+ आत्मा कब तक अज्ञानी रहता है? -
कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं । (19)
जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ॥22॥
कर्मणि नोकर्मणि चाहमित्यहकं च कर्म नोकर्म
यावदेषा खलु बुद्धिरप्रतिबुद्धो भवति तावत् ॥१९॥
मैं कर्म हूँ नोकर्म हूँ या हैं हमारे ये सभी
यह मान्यता जबतक रहे अज्ञानि हैं तबतक सभी ॥१९॥
अन्वयार्थ : [कम्मे] ज्ञानावरणी आदि द्रव्यकर्मों, मोह-राग-द्वेषादि भावकर्मों में [अहमिदि] अहंबुद्धि [य] एवं [णोकम्मम्हि] शरीरादि नोकर्मों में [अहकं च कम्म णोकम्मं] ममत्वबुद्धि; यह मानना कि 'ये सभी मैं हूँ और मुझमें ये सभी कर्म-नोकर्म हैं' - [जा एसा खलु बुद्धी] जबतक ऐसी बुद्धि बनाए रखता है [ताव] तबतक [अप्पडिबुद्धो] अप्रतिबुद्ध [हवदि] रहता है, अज्ञानी रहता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिसप्रकार स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि भावों में तथा चौड़ा, गहरा, अवगाहरूप उदरादि के आकार परिणत हुए पुद्गल-स्कन्धों में 'यह घट है' - इसप्रकार की अनुभूति होती है और घट में 'यह स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि भाव तथा चौड़े, गहरे, उदराकार आदि रूप परिणत पुद्गल-स्कन्ध है' - इसप्रकार वस्तु के अभेद से अनुभूति होती है ।

उसीप्रकार जो मोह आदि अन्तरंग परिणामरूप कर्म और शरीरादि बाह्य-वस्तु-रूप नोकर्म - सभी पुद्गल के परिणाम हैं और आत्मा का तिरस्कार करनेवाले हैं; उनमें 'यह मैं हूँ' - इसप्रकार तथा आत्मा में यह मोह आदि अन्तरंग परिणामरूप कर्म और शरीरादि बाह्यवस्तुरूप नोकर्म आत्मतिरस्कारी पुद्गल परिणाम हैं - इसप्रकार वस्तु के अभेद से जबतक अनुभूति है, तबतक आत्मा अप्रतिबुद्ध है, अज्ञानी है ।

जिसप्रकार रूपी दर्पण की स्वच्छता ही स्व-पर के आकार का प्रतिभास करनेवाली है और उष्णता तथा ज्वाला अग्नि की है । इसीप्रकार अरूपी आत्मा की तो अपने को और पर को जाननेवाली ज्ञातृता ही है और कर्म तथा नोकर्म पुद्गल के हैं ।

इसप्रकार स्वत: अथवा परोपदेश से, जैसे भी हो; जिसका मूल भेदविज्ञान है, ऐसी अनुभूति उत्पन्न होगी, तब ही आत्मा प्रतिबुद्ध होगा, ज्ञानी होगा ।

(कलश--रोला)
जैसे भी हो स्वत: अन्य के उपदेशों से
भेदज्ञान मूलक अविचल अनुभूति हुई हो ॥
ज्ञेयों के अगणित प्रतिबिम्बों से वे ज्ञानी
अरे निरन्तर दर्पणवत् रहते अविकारी ॥२१॥

[ये] जो पुरुष [स्वतः वा अन्यतः वा] अपने से ही अथवा पर के उपदेश से [कथम् अपि हि] किसी भी प्रकार से, [भेदविज्ञानमूलाम्] भेद-विज्ञान जिसका मूल उत्पत्ति कारण है ऐसी, अपने आत्मा की [अचलितम्] अविचल [अनुभूतिम्] अनुभूति को [लभन्ते] प्राप्त करते हैं, [ते एव] वे ही पुरुष [मुकुरवत्] दर्पण की भांति [प्रतिफ लन-निमग्न-अनन्त-भाव-स्वभावैः] अपने में प्रतिबिम्बित हुए अनन्त भावों के स्वभावों से [सन्ततं] निरन्तर [अविकाराः] विकार-रहित [स्युः] होते हैं (ज्ञान में जो ज्ञेयों के आकार प्रतिभासित होते हैं उनसे रागादि विकार को प्राप्त नहीं होते)

जयसेनाचार्य :
[कम्मे] ज्ञानावरणादि द्रव्य-कर्म और रागादि भाव-कर्म [णोकम्मम्हि य] तथा शरीरादि नोकर्म में [अहमिदि] 'मैं हूँ' ऐसी प्रतीति होती है [अहकं च कम्मणोकम्मं] अथवा 'ये कर्म व नोकर्म मेरे हैं', इस प्रकार प्रतीति होती है । जैसे कि घड़े में वर्णादि गुण, और घटाकार परिणत पुद्गल स्कन्ध होते हैं । अत: वर्णादिक में जब तक घट इस प्रकार की अभेद प्रतीति होती है । [जा एसा खलु बुद्धी] उसी प्रकार कर्म-नोकर्म के साथ शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव निज परमात्मा की एकता रूप स्पष्ट बुद्धि बनी रहती है । [अप्पडिबुद्धो हवदि ताव] तब तक यह जीव अप्रतिबुद्ध स्वसंवेदन से रहित बहिरात्मा होता है ।

यहाँ पर भेदविज्ञान-मूलक जो शुद्धात्मानुभूति है वह स्वयं-बुद्धों को तो अपने आप और बोधित-बुद्धों को दूसरे के द्वारा प्राप्त होती है । जब यह शुद्धात्मानुभूति जिनको प्राप्त होती है वे जीव, संसार के विद्यमान शुभाशुभ बाहरी पदार्थों में अर्थात आत्मा से भिन्न सभी पदार्थों में दर्पण के समान निर्विकार होकर रहते हैं ।

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+ आत्मा के बंध मोक्ष का कारण -
जीवेव अजीवे वा संपदि समयम्हि जत्थ उवजुत्तो ।
तत्थेव बंधमोक्खो हवदि समासेण णिद्दिट्ठो ॥23॥
अन्वयार्थ : [जीवेव] जीव तथा [अजीवे वा] अजीव-देहादिक में [संपदि समयम्हि] जिस समय यह आत्मा [जत्थ उवजुत्तो] जहाँ उपयुक्त रहता है [तत्थेव] तभी [बंधमोक्खो] मोक्ष तथा बंध [हवदि] होता है, ऐसा [समासेण णिद्दिट्ठो] संक्षेप से कथन किया है ।

जयसेनाचार्य :
[जीवेव] अपनी शुद्ध आत्मा में [अजीवे वा] अथवा देहादिक इतर पदार्थों में [संपदि समयम्हि] वर्तमान समय में [जत्थ उवजुत्तो] जहाँ पर उपयुक्त रहता है अर्थात् उपादेय बुद्धि से तन्मय होकर रहता है, [तत्थेव] वहीं पर अजीव में या जीव में [बंधमोक्खो हवदि] अजीवरूप देहादिक में परिणत होने पर बंध और शुद्ध जीव में परिणत होने पर मोक्ष होता है, [समासेण णिद्दिट्ठो] ऐसा सर्वज्ञ भगवान् ने संक्षेप से कहा है ।

ऐसा जानकर यहाँ सहजानन्द एक स्वभाव वाले निज आत्मा में रमण करना चाहिये और उससे विलक्षण जो परद्रव्य हैं उनसे विरक्त होकर रहना चाहिये, ऐसा आचार्यदेव का अभिप्राय है ॥२३॥

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+ निश्चय और व्यवहार से जीव का कर्तापना -
जं कुणदि भावामादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स ।
णिच्छयदो ववहारा पोग्गलकम्माण कत्तारं ॥24॥
अन्वयार्थ : [णिच्छयदो] निश्चयनय से [जं] जिस [भावामादा] भाव को आत्मा [कुणदि] करता है [तस्स] उस [भावस्स] भाव का [सो] वह [कत्ता] कर्ता [होदि] होता है और [ववहारा] व्यवहारनय से [पोग्गलकम्माण] पुद्गल-कर्मों का [कत्तारं] कर्ता होता है ।

जयसेनाचार्य :
[जं कुणदि भावामादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स] जिस रागादि भाव को आत्मा करता है उस समय उस भाव का अर्थात् परिणाम का करनेवाला होता है । [णिच्छयदो] अशुद्धनिश्चयनय से अशुद्ध-भावों का और शुद्ध-निश्चयनय से शुद्ध-भावों का कर्ता होता है, क्योंकि उन भावों के रूप में परिणमन करना ही कर्तापना है । [ववहारा] अनुपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय से [पोग्गलकम्माण] पुद्गलमय द्रव्यकर्मादि का [कत्तारं] कर्ता होता है ।

यहाँ 'कत्तारं' यह कर्मपद कर्ता के अर्थ में आया है, सो प्राकृत में कहीं-कहीं कारक व्यभिचार और लिंग व्यभिचार देखा जाता है । यहाँ ऐसा अभिप्राय है कि जिन रागादि भावों का कर्ता जीव को कहा गया है वे भाव संसार के कारण हैं इसलिये संसार से भयभीत तथा मोक्ष के इच्छुक पुरुष को समस्त प्रकार के रागादि विभाव भावों से रहित और शुद्ध-द्रव्य तथा गुण-पर्याय स्वरूप निज परमात्मा में भावना करना चाहिये ॥२४॥

इस प्रकार स्वतन्त्र व्याख्यान की मुख्यता से तृतीय स्थल में तीन गाथायें हुई ।

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+ अप्रतिबुद्ध - पर पदार्थ में अहंकार / ममकार -
अहमेदं एदमहं अहमेदस्सम्हि अत्थि मम एदं । (20)
अण्णं जं परदव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सं वा ॥25॥
आसि मम पुव्वमेदं एदस्स अहं पि आसि पुव्वं हि । (21)
होहिदि पुणो ममेदं एदस्स अहं पि होस्सामि ॥26॥
एयं तु असब्भूदं आदवियप्पं करेदि संमूढो । (22)
भूदत्थं जाणंतो ण करेदि दु तं असंमूढो ॥27॥
अहमेतदेतदहं अहमेतस्यास्मि अस्ति ममैतत्
अन्यद्यत्परद्रव्यं सचित्ताचित्तमिश्रं वा ॥२०॥
आसीन्मम पूर्वेतदेतस्याहमप्यासं पूर्व्
भविष्यति पुनर्मैतदेतस्याहमपि भविष्यामि ॥२१॥
एतत्त्वसद्भूतमात्मविकल्पं करोति सूंढ:
भूतार्थं जानन्न करोति तु तमसूंढ: ॥२२॥
सचित्त और अचित्त एवं मिश्र सब परद्रव्य ये
हैं मेरे ये मैं इनका हूँ ये मैं हूँ या मैं हूँ वे ही ॥२०॥
हम थे सभी के या हमारे थे सभी गतकाल में
हम होंयगे उनके हमारे वे अनागत काल में ॥२१॥
ऐसी असम्भव कल्पनाएँ मूढ़जन नित ही करें
भूतार्थ जाननहार जन ऐसे विकल्प नहीं करें ॥२२॥
अन्वयार्थ : जो पुरुष [अण्णं जं परदव्वं] अपने से भिन्न परद्रव्यों में - [सच्चित्तचित्तमिस्सं वा] सचित्त स्त्री-पुत्रादिक में, अचित्त धन-धान्यादिक में, मिश्र ग्राम-नगरादिक में ऐसा विकल्प करता है कि [अहमेदं] मैं ये हूँ, [एदमहं] ये सब द्रव्य मैं हूँ; [अहमेदस्सेव होमि मम एदं] मैं इनका हूँ, ये मेरे हैं; [आसि मम पुव्वमेदं] ये मेरे पहले थे, [अहमेदं चावि पुव्वकालह्मि] इनका मैं पहले था; तथा [होहिदि पुणोवि मज्झं] ये सब भविष्य में मेरे होंगे, [अहमेदं चावि होस्सामि] मैं भी भविष्य में इनका होऊँगा - [एवं तु] इसप्रकार [असंभूदं] मिथ्या-रूप [आदवियप्पं] विचारों को जो आत्मा [करेदि] करता है वह [संमूढो] मूढ़ है, अज्ञानी है; किन्तु जो पुरुष वस्तु का [भूदत्थं] वास्तविक स्वरूप [जाणंतो] जानता हुआ [ण करेदि दुतं] ऐसे झूठे विकल्प नहीं करता है, वह [असंमूढो] ज्ञानी है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिसप्रकार कोई पुरुष इंधन और अग्नि को मिला हुआ देखकर ऐसा झूठा विकल्प करे कि जो अग्नि है, वही इंधन है और जो इंधन है, वही अग्नि है; अग्नि का इंधन है और इंधन की अग्नि है; अग्नि का इंधन पहले था और इंधन की अग्नि पहले थी; अग्नि का इंधन भविष्य में होगा और इंधन की अग्नि भविष्य में होगी तो वह अज्ञानी है; क्योंकि इसप्रकार के विकल्पों से अज्ञानी पहिचाना जाता है ।

इसीप्रकार पर-द्रव्यों में - मैं ये पर-द्रव्य हूँ, ये पर-द्रव्य मुझरूप हैं; ये पर-द्रव्य मेरे हैं; मैं इन पर-द्रव्यों का हूँ; ये पहले मेरे थे, मैं पहले इनका था; ये भविष्य में मेरे होंगे और मैं भी भविष्य में इनका होऊँगा - इसप्रकार के झूठे विकल्पों से अप्रतिबुद्ध अज्ञानी पहिचाना जाता है ।अग्नि है, वह इंधन नहीं है और इंधन है, वह अग्नि नहीं है; अग्नि है, वह अग्नि ही है और इंधन है, वह इंधन ही है । अग्नि का इंधन नहीं है और इंधन की अग्नि नहीं है; अग्नि की अग्नि है और इंधन का इंधन है । अग्नि का इंधन पहले नहीं था, इंधन की अग्नि पहले नहीं थी; अग्नि की अग्नि पहले थी, इंधन का इंधन पहले था, अग्नि का इंधन भविष्य में नहीं होगा और इंधन की अग्नि भविष्य में नहीं होगी; अग्नि की अग्नि ही भविष्य में होगी और इंधन का इंधन ही भविष्य में होगा ।

इसप्रकार जैसे किसी को अग्नि में ही सत्यार्थ अग्नि का विकल्प हो तो वह उसके प्रतिबुद्ध होने का लक्षण है ।

इसीप्रकार मैं - ये पर-द्रव्य नहीं हूँ और ये पर-द्रव्य मुझस्वरूप नहीं हैं; मैं तो मैं ही हूँ और पर-द्रव्य हैं, वे पर-द्रव्य ही हैं; मेरे ये पर-द्रव्य नहीं हैं और इन पर-द्रव्यों का मैं नहीं हूँ; मैं मेरा हूँ और पर-द्रव्य के पर-द्रव्य हैं; ये पर-द्रव्य पहले मेरे नहीं थे और इन पर-द्रव्यों का मैं पहले नहीं था; मेरा ही मैं पहले था और पर-द्रव्यों के पर-द्रव्य ही पहले थे । ये पर-द्रव्य भविष्य में मेरे नहीं होंगे और न मैं भविष्य में इनका होऊँगा; मैं भविष्य में अपना ही रहूँगा और ये पर-द्रव्य भविष्य में इनके ही रहेंगे ।

इसप्रकार जो व्यक्ति स्व-द्रव्य में ही आत्म-विकल्प करते हैं, स्व-द्रव्य को निज जानते-मानते हैं; वे ही प्रतिबुद्ध हैं, ज्ञानी हैं । ज्ञानी का यही लक्षण है और इन्हीं लक्षणों से ज्ञानी पहिचाना जाता है ।

(कलश--हरिगीत)
आजन्म के इस मोह को हे जगतजन तुम छोड़ दो
रसिकजन को जो रुचे उस ज्ञान के रस को चखो ॥
तादात्म्य पर के साथ जिनका कभी भी होता नहीं
अर स्वयं का ही स्वयं से अन्यत्व भी होता नहीं ॥२२॥

[जगत्] जगत् (जगत् के जीवों) ! [आजन्मलीढं मोहम्] अनादि संसार से लेकर आज तक अनुभव किये गये मोह को [इदानीं त्यजतु] अब तो छोड़ो और [रसिकानां रोचनं] रसिक-जनों को रुचिकर, [उद्यत् ज्ञानम्] उदय हुआ जो ज्ञान उसका [रसयतु] आस्वादन करो; क्योंकि [इह] इस लोक में [आत्मा] आत्मा [किल] वास्तव में [कथम् अपि] किसीप्रकार भी [अनात्मना साकम्] अनात्मा (पर-द्रव्य) के साथ [क्व अपि काले] कदापि [तादात्म्यवृत्तिम् कलयति न] तादात्म्य-वृत्ति (एकत्व) को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि [एकः] आत्मा एक है (वह अन्य द्रव्य के साथ एकतारूप नहीं होता)

जयसेनाचार्य :
[अहमेदं एदमहं] 'मैं हूँ सो यह है, यह है सो मैं हूँ' इस प्रकार अहंकार भाव [अहमेदस्सेव होमि मम एदं] यह मेरा है और मैं इसका हूँ, इस प्रकार ममकारभाव [अण्णं जं परदव्वं] इसी प्रकार देह से भिन्न जो परद्रव्य हैं [सच्चित्तचित्तमिस्सं वा] वे सचित्त, अचित्त और मिश्र तीन प्रकार हैं । उनमें इस प्रकार वर्तमान-काल की अपेक्षा गाथा समाप्त हुई । अब [आसि मम पुव्वमेदं] ये सब मेरे पहले थे, [अहमेदं चावि पुव्वकालह्मि] मैं भी इनका पहले था, [होहिदि पुणोवि मज्झं] ये सब आगे भी मेरे होंगे [अहमेदं चावि होस्सामि] और मैं भी आगे इनका होऊंगा । इस प्रकार भूत और भविष्यत् काल की अपेक्षा गाथा समाप्त हुई । [एवं तु] इस प्रकार [असंभूदं] असद्भूत तीन काल सम्बन्धी परद्रव्यों से संसर्ग लिए हुए मिथ्यारूप [आदवियप्पं] अपने आपके विचार को अर्थात अशुद्ध-निश्चयनय से होने वाले जीव के परिणाम को [करेदि] जो करता है, [संमूढो] वह मोह को लिये हुए अज्ञानी बहिरात्मा होता है । किन्तु [भूदत्थं] जो भूतार्थ निश्चयनय को [जाणंतो] जानता हुआ [ण करेदि दुतं] तीन काल में होने वाले उपर्युक्त पर-द्रव्य सम्बन्धी मिथ्या-विकल्प को नहीं करता हैं वह [असंमूढो] मोह-भाव रहित सम्यग्दृष्टि, अन्तरात्मा, ज्ञानी होता है अर्थात भेदाभेद-रत्नत्रय की भावना में निरत होता है ।

जैसे कि कोई भी भोला प्राणी कहे कि तीनों कालों में अग्नि ही ईंधन है और ईंधन ही अग्नि है, ऐसा एकांत अभेदरूप से कहता है वैसे ही देह-रागादि पर-द्रव्य ही इस समय मैं हूँ, पहले भी मैं परद्रव्य-रागादिरूप था और आगे भी परद्रव्य रागादिरूप होऊंगा, ऐसा कहता है वह अज्ञानी बहिरात्मा है, किन्तु ज्ञानी सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा जीव इससे विपरीत विचार वाला है ।

इस प्रकार ज्ञानी और अज्ञानी जीव का लक्षण जानकर निर्विकार स्वसंवेदन है लक्षण जिसका ऐसे भेद-ज्ञान में निमग्न होकर भावना करनी चाहिए । इसी बात को फिर दृढ़ करते हैं की जैसे कोई राजपुरुष भी राजा के शत्रुओं के साथ संसर्ग रखता है तो वह राजा का आराधक नहीं कहला सकता । उसी प्रकार परमात्मा की आराधना करने वाला पुरुष आत्मा के प्रतिपक्षभूत जो मिथ्यात्व व रागादिभाव हैं उन रूप परिणमन करने वाला होता है, तब वह परमात्मा का आराधक नहीं हो सकता, यह इसका निचोड़ है ॥२५-२७॥

इस प्रकार अप्रतिबुद्ध के लक्षण के कथन रूप में चतुर्थ स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुईं ।

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+ पर पदार्थ को जीव का कहना ठीक नहीं - तर्क -
अण्णाणमोहिदमदी मज्झमिणं भणदि पोग्गलं दव्वं । (23)
बद्धमबद्धं च तहा जीवो बहुभावसंजुत्तो ॥28॥
सव्वण्हुणाणदिट्ठो जीवो उवओगलक्खणो णिच्चं । (24)
कह सो पोग्गलदव्वीभूदो जं भणसि मज्झमिणं ॥29॥
जदि सो पोग्गलदव्वीभूदो जीवत्तमागदं इदरं । (25)
तो सक्को वत्तुं जे मज्झमिणं पोग्गलं दव्वं ॥30॥
अज्ञानमोहितमतिर्मेदं भणति पुद्गलं द्रव्यम्
बद्धमबद्धं च तथा जीवो बहुभावसंयुक्त: ॥२३॥
सर्वज्ञज्ञानदृष्टो जीव उपयोगलक्षणो नित्यम्
कथं स पुद्गलद्रव्यीभूतो यद्भणसि ममेदम् ॥२४॥
यदि स पुद्गलद्रव्यीभूतो जीवत्वमागतमितरत्
तच्छक्तो वक्तुं यन्ममेदं पुद्गलं द्रव्यम् ॥२५॥
अज्ञान-मोहित-मती बहुविध भाव से संयुक्त जिय
अबद्ध एवं बद्ध पुद्गल द्रव्य को अपना कहे ॥२३॥
सर्वज्ञ ने देखा सदा उपयोग लक्षण जीव यह
पुद्गलमयी हो किसतरह किसतरह तू अपना कहे ? ॥२४॥
जीवमय पुद्गल तथा पुद्गलमयी हो जीव जब
'ये मेरे पुद्गल द्रव्य हैं'- यह कहा जा सकता है तब ॥२५॥
अन्वयार्थ : [अण्णाण] अज्ञान से [मोहिद] मोहित [मदी] बुद्धि वाला [जीवो] जीव [बद्धम्] बद्ध (शरीरादि) [च] और [अबद्धं] अबद्ध (धन-धान्यादि) [पुग्गलंदव्वं] पुद्गल द्रव्य को [मज्झमिणं] अपना [भणदि] कहता है [तहा] तथा [बहुभावसंजुत्तो] बहु भावों से युक्त हो रहा है । [सव्वण्हुणाण] सर्वज्ञ के ज्ञान में [दिट्ठो] देखा गया है कि यह [जीवो] जीव-द्रव्य [णिच्चं] नित्य / सदैव [उवओग] उपयोग [लक्खणो] लक्षण वाला है, [सो] यह [पुग्गलदव्वो] पुद्गल-द्रव्य [भूदो] रूप [कह] कैसे हो सकता है, [जंभणसि] जिससे कहता है कि [मज्झमिणं] ये मेरे हैं । [जदि] यदि [सो] वह (जीव) [पुग्गलदव्वो] पुद्गल-द्रव्य रूप [भूदो] हो जाये और [इदरं] अन्य (पुद्गल) [जीवत्तमागदं] जीवत्व को प्राप्त करे तब [वुत्तुं] कहना [सत्तो] शक्य होगा कि [जे] यह [पुग्गलदव्वं] पुद्गल द्रव्य [मज्झमिणं] मेरा है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिसप्रकार स्फेटक पाषाण में अनेकप्रकार के रंगों की निकटता के कारण अनेकरूपता दिखाई देती है, स्फेटक का निर्मलस्वभाव दिखाई नहीं देता; उसीप्रकार एक ही साथ अनेकप्रकार के बंधन की उपाधि की अतिनिकटता से वेगपूर्वक बहते हुए अस्वभाव-भावों के संयोगवश अपने स्वभावभाव के तिरोभूत हो जाने से, जिसकी भेद-ज्ञान-ज्योति पूर्णत: अस्त हो गई है और अज्ञान से विमोहित है हृदय जिसका - ऐसा अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) जीव स्व-पर का भेद न करके उन अस्वभाव-भावों को अपना मानता हुआ पुद्गल-द्रव्य में अपनापन स्थापित करता है ।

ऐसे अज्ञानी-जीव को समझाते हुए आचार्य-देव कहते हैं कि हे दुरात्मन् ! घास और अनाज को परम-अविवेकपूर्वक एकसाथ खानेवाले हाथी के समान तू स्व और पर को मिलाकर एक देखने के इस स्वभाव को छोड़ ! छोड़ !! संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से सम्पूर्णत: रहित एवं विश्व की एकमात्र अद्वितीय ज्योति - ऐसे सर्वज्ञ के ज्ञान में जाना गया नित्य उपयोगलक्षण जीवद्रव्य पुद्गल कैसे हो गया, जो तू कहता है, अनुभव करता है कि पुद्गलद्रव्य मेरा है । यदि किसी भी प्रकार से जीवद्रव्य पुद्गल-द्रव्यरूप हो और पुद्गलद्रव्य जीवरूप हो; तभी 'नमक के पानी' के अनुभव की भाँति तेरी यह अनुभूति ठीक हो सकती है कि यह पुद्गल-द्रव्य मेरा है; किन्तु ऐसा तो किसी भी प्रकार से बनता नहीं है ।

अब इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हैं । जिसप्रकार खारापन है लक्षण जिसका, ऐसा नमक पानीरूप होता दिखाई देता है और प्रवाहीपन है लक्षण जिसका, ऐसा पानी नमकरूप होता दिखाई देता है; क्योंकि खारेपन और प्रवाहीपन में एकसाथ रहने में कोई विरोध नहीं है, कोई बाधा नहीं है । किन्तु नित्य उपयोग-लक्षण-वाला जीव-द्रव्य पुद्गल-द्रव्य-रूप होता हुआ दिखाई नहीं देता और नित्य अनुपयोग-लक्षण-वाला पुद्गल-द्रव्य जीव-द्रव्यरूप होता हुआ दिखाई नहीं देता; क्योंकि प्रकाश और अन्धकार की भाँति उपयोग और अनुपयोग का एक ही साथ रहने में विरोध है । इसकारण जड़ और चेतन कभी एक नहीं हो सकते ।

इसलिए तू सर्वप्रकार प्रसन्न हो, अपने चित्त को उज्ज्वल करके सावधान हो और स्वद्रव्य को ही 'यह मेरा है' - इसप्रकार अनुभव कर ।

(कलश-रोला)
निजतत्त्व का कौतूहली अर पड़ौसी बन देह का ।
हे आत्मन् ! जैसे बने अनुभव करो निजतत्त्व का ॥
जब भिन्न पर से सुशोभित लख स्वयं को तब शीघ्र ही ।
तुम छोड़ दोगे देह से एकत्व के इस मोह को ॥२३॥

[अयि] हे भाई ! [कथम् अपि] किसीप्रकार (महा कष्टसे) अथवा [मृत्वा] मरकर भी [तत्त्वकौतूहली सन्] तत्त्वोंका कौतूहली होकर [मूर्तेः मुहूर्तम् पार्श्ववर्ती भव] इस शरीरादि मूर्त द्रव्य का एक मुहूर्त (दो घड़ी) पड़ौसी होकर [अनुभव] अनुभव कर [अथ येन] कि जिससे [स्वं विलसन्तं] अपने आत्मा को विलासरूप, [पृथक्] सर्व परद्रव्यों से भिन्न [समालोक्य] देखकर [मूर्त्या साकम्] इस शरीरादि मूर्तिक पुद्गल-द्रव्य के साथ [एकत्वमोहम्] एकत्व के मोह को [झगिति त्यजसि ] तू शीघ्र ही छोड़ देगा ।

जयसेनाचार्य :
[अण्णाणमोहिदमदी] अज्ञान से मोहित हो रहीं है / बिगड़ रही है बुद्धि जिसकी ऐसा जीव [मज्झमिणं भणदि पोग्गलं दव्वं] कहता है कि यह शरीरादि पुद्गल-द्रव्य मेरा है । कैसा है वह पुद्गल द्रव्य ? [बद्धमबद्धं च] बद्ध अर्थात् आत्मा से सम्बन्धित देह और अबद्ध देह से भिन्न पुत्र-कलत्रादि । [तहा जीवे बहुभावसंजुत्तो] उनमें यह संसारी जीव मिथ्यात्व-रागादिरूप विकारी भावों को लिये हुए है इसलिये उन देह-पुत्र-कलत्रादि पर-द्रव्य को मेरा है, इस प्रकार कहता है । यह पहला गाथा का अर्थ हुआ ।

आगे की गाथा में इसी अज्ञानी को समझाया जा रहा है कि हे दुरात्मन् ! [सव्वण्हुणाणदिट्ठो] सर्वज्ञ भगवान् के ज्ञान से देखा हुआ [जीवो] जीव नामा पदार्थ [उवओगलक्खणो णिच्चं] सब ही काल में मात्र ज्ञान और दर्शन उपयोग लक्षण वाला है फिर [कह सो पोग्गलदव्वीभूदो] वह पुद्गल-द्रव्य रूप कैसे हो सकता है ? कभी नहीं हो सकता [जं भणसि मज्झमिणं] जिससे कि तू पुद्गल-द्रव्य मेरा है -- ऐसा कहता है । इस प्रकार दूसरी गाथा पूर्ण हुई ।

[जदि सो पोग्गलदव्वीभूदो] यदि वह जीव पुद्गल-द्रव्य-रूप हो जाये तो [जीवत्तमागदं इदरं] शरीरादि पुद्गल-द्रव्य भी जीवपने को प्राप्त हो जाये [तो सक्को वत्तुं जे] तो तू फिर कह सकता है कि [मज्झमिणं पोग्गलं दव्वं] यह पुद्गल-द्रव्य मेरा है, किन्तु ऐसा होता नहीं ।

तात्पर्य यह है कि जैसे वर्षा-काल में लवण पिघलकर जलरूप हो जाता है और ग्रीष्म-काल में वही जल घन होकर लवण हो जाता है, वैसे ही कभी भी चेतनता को छोड़कर जीव यदि पुद्गल-द्रव्य रूप परिणत हो जाये और पुद्गल-द्रव्य अपने मूर्त्तपने को व अचेतन-पने को छोड़कर चेतन-रूप और अमूर्त्त बन जाये तो तेरा कहना सत्य हो सकता है, किन्तु हे दुरात्मन् ! ऐसा कभी होता नहीं, क्योंकि ऐसा मानने में प्रत्यक्ष-विरोध आता है । फलस्वरूप हम स्पष्ट देख रहे हैं कि जीव तो इस जड़-स्वरूप देह से भिन्न है जो की अमूर्त्त और शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव-वाला है । इस प्रकार देह और आत्मा में परस्पर भेद जानकर मोह के उदय से उत्पन्न होने वाले सभी प्रकार के विकल्प-जाल को छोड़कर निर्विकार-चैतन्य-मात्र निज-परमात्म-तत्त्व में भावना करनी चाहिए । इस प्रकार अप्रतिबुद्ध अज्ञानी को संबोधन के लिए पांचवें स्थल में तीन गाथाएं पूर्ण हुईं ॥२८-३०॥

आगे पूर्व-पक्ष (जीव व शरीर को एक मानने) के परिहार-रूप में आठ गाथाएं कही जाती हैं । वहां पहली गाथा में पूर्व-पक्ष का कथन है, फिर चार गाथाओं में निश्चय और व्यवहार के समर्थन रूप में उसका परिहार है तथा तीन गाथाओं में निश्चय-स्तुति रूप से पूर्व-पक्ष का परिहार है, इस प्रकार छट्ठे स्थल की समुदाय पातनिका है ।

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+ प्रश्न - आत्मा-शरीर एक नहीं तो शरीराश्रित स्तुति कैसे ? -
जदि जीवो ण सरीरं तित्थयरायरियसंथुदी चेव । (26)
सव्वा वि हवदि मिच्छा तेण दु आदा हवदि देहो ॥31॥
यदि जीवो न शरीरं तीर्थकराचार्यसंस्तुतिश्चैव
सर्वापि भवति मिथ्या तेन तु आत्मा भवति देह: ॥२६॥
यदि देह ना हो जीव तो तीर्थंकरों का स्तवन
सब असत् होगा इसलिए बस देह ही है आतमा ॥२६॥
अन्वयार्थ : [जदि] यदि [जीवो] जीव [सरीरं] शरीर [ण] नहीं है तो [तित्थ] तीर्थंकर [चेव] और [आयरायरिय] आचार्यों की [संथुदी] स्तुति [चेव] वगैरह [सव्वावि] सब [मिच्छा] मिथ्या / व्यर्थ ठहरती [हवदि] है, [तेण] अत: [आदा] आत्मा [देहो] शरीर [हवदि] ही है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जो आत्मा है वही पुद्गलद्रव्यस्वरूप यह शरीर है । यदि ऐसा न हो तो तीर्थंकर-आचार्यों की जो स्तुति की गई है वह सब मिथ्या सिद्ध होगी । वह स्तुति इसप्रकार है :

(कलश-रोला)
लोकमानस रूप से रवितेज अपने तेज से ।
जो हरें निर्मल करें दशदिश कान्तिमय तनतेज से ॥
जो दिव्यध्वनि से भव्यजन के कान में अमृत भरें ।
उन सहस अठ लक्षण सहित जिन-सूरि को वन्दन करें ॥२४॥

[ते तीर्थेश्वराः सूरयः वन्द्याः] वे तीर्थंकर-आचार्य वन्दनीय हैं; वे [ये कान्त्या एव दशदिशः स्नपयन्ति ] अपने शरीर की कान्ति से दसों दिशाओं को धोते (निर्मल करते) हैं, [ये धाम्ना उद्दाम-महस्विनां धाम निरुन्धन्ति] अपने तेज से उत्कृष्ट तेजवाले सूर्यादि के तेज को ढक देते हैं, [ये रूपेण जनमनः मुष्णन्ति] अपने रूप से लोगों के मन को हर लेते हैं, [दिव्येन ध्वनिना श्रवणयोः साक्षात् सुखं अमृतं क्षरन्तः] दिव्यध्वनि से (भव्यों के) कानों में साक्षात् सुखामृत बरसाते हैं और वे [अष्टसहस्रलक्षणधराः] एक हजार आठ लक्षणों के धारक हैं ।

-- इत्यादिरूप से तीर्थंकर-आचार्यों की जो स्तुति है वह सब ही मिथ्या सिद्ध होती है । इसलिये हमारा तो यही एकान्त निश्चय है कि जो आत्मा है वही शरीर है, पुद्गलद्रव्य है । इसप्रकारअप्रतिबुद्ध ने कहा ॥२६॥

जयसेनाचार्य :
हे भगवन, [जदि जीवो ण सरीरं] यदि जीव शारीर-रूप नहीं है [तित्थयरायरियसंथुदी] तो 'द्वौ कुन्देन्दुतुषारहारधवलौ' इत्यादि शरीर को आधार लेकर की गई तीर्थंकर की स्तुति और 'देसकुलजाइसुद्धा' इत्यादि आचार्यों की स्तुति [सव्वा वि हवदि मिच्छा] सब ही मिथ्या ठहरती है । [तेण दु आदा हवदि देहो] इसलिये आत्मा ही शरीर है या शरीर ही आत्मा है, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है । इस प्रकार यह पूर्व पक्ष की गाथा हुई ॥३१॥

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+ व्यवहार से जीव और शरीर एक, निश्चय से नहीं -
ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलुएक्को । (27)
ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदा वि एक्कट्ठो ॥32॥
व्यवहारनयो भाषते जीवो देहश्च भवति खल्वेक:
न तु निश्चयस्य जीवो देहश्च कदाप्येकार्थ: ॥२७॥
'देह-चेतन एक हैं' - यह वचन है व्यवहार का
'ये एक हो सकते नहीं' - यह कथन है परमार्थ का ॥२७॥
अन्वयार्थ : [ववहारणओ] व्यवहार-नय [भासदि] कहता है कि [जीवो देहो य] जीव और शरीर [खलुएक्को] एक ही [हवदि] हैं; [दु] किन्तु [णिच्छयस्स] निश्चय-नय से [जीवो देहो य] जीव और शरीर [कदा वि] कभी भी [एक्कट्ठो] एक पदार्थ [ण] नहीं हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
आचार्यदेव कहते हैं कि ऐसा नहीं है; तू नय-विभाग को नहीं जानता ।

जिसप्रकार लोक में सोने और चाँदी को गलाकर एक कर देने से एक पिण्ड का व्यवहार होता है; उसीप्रकार आत्मा और शरीर की एकक्षेत्र में एकसाथ रहने की अवस्था होने से एकपने का व्यवहार होता है । इसप्रकार मात्र व्यवहार से ही आत्मा और शरीर का एकपना है, परन्तु निश्चय से एकपना नहीं है; क्योंकि निश्चय से तो पीले स्वभाववाला सोना और सफेद स्वभाववाली चाँदी के परस्पर अत्यन्त भिन्नता होने से उनमें एक पदार्थपने की असिद्धि ही है; अत: उनमें अनेकत्व ही है ।

इसीप्रकार उपयोग-स्वभावी आत्मा और अनुपयोग-स्वभावी शरीर में अत्यन्त भिन्नता होने से एक-पदार्थपने की असिद्धि ही है; अत: अनेकत्व ही है - ऐसा यह प्रगट नयविभाग है; अत: यह सुनिश्चित ही है कि व्यवहारनय से ही शरीर के स्तवन से आत्मा का स्तवन होता है, निश्चयनय से नहीं ।

जयसेनाचार्य :
[ववहारणयो भासदि] व्यवहारनय कहता है कि [जीवो देहो य हवदि खलु इक्को] जीव और देह अवश्य ही एक है । [ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदावि एक्कट्ठो] किन्तु निश्चयनय के अभिप्राय से जीव और देह दोनों परस्पर कभी किसी काल में भी एक नहीं होते हैं । जैसे चाँदी और सोना मिली हुई दशा में व्यवहारनय से परस्पर एक हैं फिर भी निश्चयनय से वे अपने रूप, रंग को लिए हुए भिन्न-भिन्न हैं वैसे ही जीव और देह का व्यवहार है । इसलिये व्ययवहार-नय से देह के स्तवन से आत्मा का स्तवन मान लेना दोष कारक नहीं है ॥३२॥

इसी को फिर स्पष्ट करते हैं --

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+ व्यवहार स्तुति निश्चय स्तुति नहीं -
इणमण्णं जीवादो देहं पोग्गलमयं थुणित्तु मुणी । (28)
मण्णदि हु संथुदो वंदिदो मए केवली भयवं ॥33॥
तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो । (29)
केवलिगुणो थुणदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि ॥34॥
इदमन्यत् जीवाद्देहं पुद्गलमयं स्तुत्वा मुनि:
मन्यते खलु संस्तुतो वंदितो मया केवली भगवान् ॥२८॥
तन्निश्चये न युज्यते न शरीरगुणा हि भवंति केवलिन:
केवलिगुणान् स्तौति य: स तत्त्वं केवलिनं स्तौति ॥२९॥
इस आतमा से भिन्न पुद्गल रचित तन का स्तवन
कर मानना कि हो गया है केवली का स्तवन ॥२८॥
परमार्थ से सत्यार्थ ना वह केवली का स्तवन
केवलि-गुणों का स्तवन ही केवली का स्तवन ॥२९॥
अन्वयार्थ : [जीवादो] जीव से [अण्णं] भिन्न [इणम्] इस [देहं पोग्गलमयं] पुद्गलमय देह की [थुणित्तु] स्तुति करके [मुणी] साधु ऐसा [मण्णदि हु] मानते हैं कि [मए] मैंने [केवली भयवं] केवली भगवान की [संथुदो] स्तुति की और [वंदिदो] वन्दना की । [तं] वह स्तवन [णिच्छये] निश्चयनय से [ण जुज्जदि] योग्य नहीं है; [हि] क्योंकि [सरीरगुणा] शरीर के गुण [केवलिणो] केवली के [ण] नहीं [होंति] होते । जो [केवलिगुणो] केवली के गुणों की [थुणदि] स्तुति करता है, [सो] वह [तच्चं] परमार्थ से [केवलिं] केवली की [थुणदि] स्तुति करता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
यही बात इस गाथा में कहते हैं :-

यद्यपि परमार्थ से सोना तो पीला ही होता है; तथापि उसमें मिली हुई चाँदी की सफेदी के कारण सोने को भी सफेद सोना कह दिया जाता है; पर यह कथन व्यवहारमात्र ही है । उसीप्रकार सफेदी और लालिमा अथवा खून का सफेद होना आदि शरीर के ही गुण हैं । उनके आधार पर तीर्थंकर केवली भगवान को सफेद, लाल कहकर अथवा सफेद खून वाला कहकर स्तुति करना, मात्र व्यवहार स्तुति ही है । परमार्थ से विचार करें तो लाल-सफेद होना या सफेद खूनवाला होना तीर्थंकर केवली का स्वभाव नहीं है । इसलिए निश्चय से शरीर के स्तवन से आत्मा का स्तवन नहीं होता ।

जिसप्रकार चाँदी की सफेदी का सोने में अभाव होने से निश्चय से सफेद सोना कहना उचित नहीं है, सोना तो पीला ही होता है; अत: सोने को पीला कहना ही सही है । इसीप्रकार शरीर के गुणों का केवली में अभाव होने से श्वेत-लाल कहने से अथवा सफेद खूनवाला कहने से केवली का स्तवन नहीं होता; केवली के गुणों के स्तवन करने से ही केवली का स्तवन होता है ।

जयसेनाचार्य :
[इणमण्णं जीवादो देहं पोग्गलमयं थुणित्तु मुणी] जीव से भिन्न इस पुद्गल-मय देह का स्तवन करके मुनि [मण्णदि हु संथुदो वंदिदो मए केवली भयवं] व्यवहार से ऐसा मानता है कि मैंने केवली भगवान् की स्तुति और वंदना कर ली । तात्पर्य यह है कि जैसे चाँदी के साथ मिले हुए स्वर्ण को व्यवहार से सफेद सोना कहते हैं, पर वास्तव में सोना सफेद नहीं होता । उसी प्रकार अमुक केवली भगवान् श्वेत, लाल, या कमल के रंग वाले हैं इत्यादि रूप से उनके देह का स्तवन करने पर व्यवहार से उनकी आत्मा का स्तवन हो जाता है, किन्तु निश्चय से नहीं ॥३३॥

आगे इसी को दृढ़ करते हैं कि निश्चयनय से शरीर का स्तवन करने पर केवली भगवान् का स्तवन नहीं होता ---

[तं णिच्छये ण जुज्जदि] पूर्वोक्त प्रकार से देह का स्तवन करने पर जो केवली का स्तवन है वह निश्चय-नय को मान्य नहीं है, क्योंकि [ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो] शरीर के गुण जो शुक्ल, कृष्णादि हैं वे केवली के अपने-गुण नहीं हो सकते । तब केवली का स्तवन कैसा होता है ? [केवलिगुणो थुणदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि] जो जीव केवली के अनंत-ज्ञानादिक गुणों का वर्णन करता है वही वास्तव में केवली भगवान् का स्तवन करने वाला होता है ।

भावार्थ यह है कि जैसे शुक्ल-वर्ण वाली चांदी के कथन से स्वर्ण का कथन नहीं बन सकता; वैसे ही केवली के शरीर में होने वाले शुक्लादि वर्णों के स्तवन को चिदानंद एक स्वभाव वाले केवली भगवान् का स्तवन निश्चय से नहीं माना जा सकता ॥३४॥

आगे आत्मा शरीर का धारक होने पर भी शरीर मात्र के स्तवन करने से आत्मा का स्तवन निश्चय-नय से नहीं माना जा सकता । इसी को स्पष्ट करने के लिए दृष्टांत देते हैं --

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+ दृष्टांत - नगर का वर्णन राजा का वर्णन नहीं -
णयरम्मि वण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि । (30)
देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति ॥35॥
नगरे वर्णिते यथा नापि राज्ञो वर्णना कृता भवति
देहगुणे स्तूयमाने न केवलिगुणा: स्तुता भवन्ति ॥३०॥
वर्णन नहीं है नगरपति का नगर-वर्णन जिसतरह
केवली-वन्दन नहीं है देह-वन्दन उसतरह ॥३०॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे [णयरम्मि] नगर का [वण्णिदे वि] वर्णन करने पर भी [रण्णो] राजा का [वण्णणा] वर्णन [ण कदा होदि] कभी नहीं होता, [देहगुणे] शरीर के गुणों का [थुव्वंते] स्तवन करने पर [केवलिगुणा] केवली के गुणों का [थुदा] स्तवन [ण] नहीं [होंति] होता ।

अमृतचंद्राचार्य :
ऊपर की बात को गाथा में कहते हैं :-

जिसप्रकार नगर का वर्णन करने पर भी, वह वर्णन राजा का वर्णन नहीं हो जाता; उसीप्रकार शरीर के गुणों का स्तवन करने पर केवली के गुणों का स्तवन नहीं हो जाता ।

(कलश--हरिगीत)
प्राकार से कवलित किया जिस नगर ने आकाश को
अर गोल गहरी खाई से है पी लिया पाताल को ॥
सब भूमितल को ग्रस लिया उपवनों के सौन्दर्य से
अद्भुत अनूपम अलग ही है वह नगर संसार से ॥२५॥

[इदं नगरम् हि] यह नगर ऐसा है कि जिसने [प्राकार-कवलित -अम्बरम्] कोट के द्वारा आकाश को ग्रसित कर रखा है (अर्थात् इसका कोट बहुत ऊँचा है), [उपवन-राजी-निर्गीर्ण-भूमितलम्] बगीचों की पंक्तियों से जिसने भूमितल को निगल लिया है (अर्थात् चारों ओर बगीचों से पृथ्वी ढंक गई है) और [परिखावलयेन पातालम् पिबति इव] कोट के चारों ओर की खाई के घेरे से मानों पाताल को पी रहा है (अर्थात् खाई बहुत गहरी है)

(कलश--हरिगीत)
गम्भीर सागर के समान महान मानस मंग हैं
नित्य निर्मल निर्विकारी सुव्यवस्थित अंग हैं ॥
सहज ही अद्भुत अनूपम अपूरव लावण्य है
क्षोभ विरहित अर अचल जयवन्त जिनवर अंग हैं ॥२६॥

[जिनेन्द्ररूपं परं जयति] जिनेन्द्र का रूप उत्कृष्टतया जयवन्त वर्तता है, [नित्यम्-अविकार-सुस्थित-सर्वांगम्] जिसमें सभी अंग सदा अविकार और सुस्थित हैं, [अपूर्व -सहज-लावण्यम्] जिसमें (जन्मसे ही) अपूर्व और स्वाभाविक लावण्य है (जो सर्वप्रिय है) और [समुद्रं इव अक्षोभम्] जो समुद्र की भांति क्षोभ-रहित है (चलाचल नहीं है)

जयसेनाचार्य :
जैसे प्राकार, उपवन और खाई आदि के वर्णन से -- किसी राजा के नगर का वर्णन करने पर भी राजा का वर्णन नहीं हो सकता है, वैसे ही केवली भगवान् के श्वेतादि शरीर के गुणों का वर्णन करने पर केवली के अनन्त-ज्ञानादि गुणों का वर्णन नहीं हो जाता ॥३५॥

इस प्रकार निश्चय-व्यवहार रूप से चार गाथायें पूर्ण हुईं ।

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+ निश्चय स्तुति - जितेन्द्रिय -
जो इन्दिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं । (31)
तं खलु जिदिंदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू ॥36॥
य इन्द्रियाणि जित्वा ज्ञानस्वभावाधिकं जानात्यात्मानम् ।
तं खलु जितेन्द्रियं ते भणन्ति ये निश्चिताः साधवः ॥३१॥
कर इन्द्रियजय ज्ञानस्वभाव रु अधिक जाने आत्म को,
निश्चयविषैं स्थित साधुजन भाषैं जितेन्द्रिय उन्हीं को ॥३१॥
अन्वयार्थ : जो [इन्दिये] इन्द्रियों को [जिणित्ता] जीतकर [आदं] आत्मा को [णाणसहावाधियं] ज्ञान-स्वभाव द्वारा अन्य द्रव्यों से अधिक (भिन्न) [मुणदि] जानते हैं; [तं] वे [खलु] वस्तुत: [जिदिंदियं] जितेन्द्रिय हैं - ऐसा [णिच्छिदा] निश्चयनय में स्थित [साहू] साधुजन [भणंति] कहते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब, (तीर्थंकर-केवली की) निश्चय-स्तुति कहते हैं । उसमें पहले ज्ञेय-ज्ञायक के संकर-दोष का परिहार करके स्तुति कहते हैं :-

इसप्रकार द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों और उनके विषयभूत पदार्थो को जीतकर ज्ञेय-ज्ञायक संकर दोष दूर होने से; एकत्व में टंकोत्कीर्ण, विश्व के ऊपर तिरते हुए प्रत्यक्ष उद्योतपने से सदा अन्तरंग में प्रकाशमान, अविनश्वर, स्वत:सिद्ध और परमार्थरूप भगवान ज्ञान-स्वभाव के द्वारा परमार्थ से सर्व अन्य द्रव्यों से भिन्न अपने आत्मा का जो अनुभव करते हैं; वे निश्चय से जितेन्द्रिय-जिन हैं ।

जयसेनाचार्य :
[जो इन्दिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं] जो जीव द्रवेन्द्रिय -- भावेन्द्रिय-रूप पंचेंद्रियों के विषयों को जीतकर शुद्ध-ज्ञान-चेतना गुण से परिपूर्ण अपने शुद्ध आत्मा को मानता है, जानता है, अनुभव करता है, संचेतना है, अर्थात् शुद्धात्मा से तन्मय होकर रहता है, [तं खलु जिदिंदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू] उस पुरुष को ही निश्चय-नय के जानने वाले साधु लोग जितेन्दिय कहते हैं ।

भावार्थ यह है कि स्पर्श आदि पाँचों इंद्रियों के विषय तो ज्ञेय हैं और उनको जानने वाली द्रवेन्द्रिय, भावेन्द्रिय-रूप स्पर्शनादि पाँचों इन्दियाँ हैं और उनका जीव के साथ जो संकर है / संयोग सम्बन्ध है वहीं दोष है, उस दोष को जो परम समाधि के बल से जीत लेता है वही जिन है । यह पहली निश्चय-स्तुति हुई ।

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+ निश्चय स्तुति - जितमोह -
जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं । (32)
तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया बेंति ॥37॥
 मोहं तु जित्वा ज्ञानस्वभावाधिकं जानात्यात्मानम् ।
तं जितमोहं साधुं परमार्थविज्ञायका ब्रुवन्ति ॥३२॥
कर मोहजय ज्ञानस्वभाव रु अधिक जाने आतमा,
परमार्थ-विज्ञायक पुरुष ने उन हि जितमोही कहा ॥३२॥
अन्वयार्थ : जो [मोहं तु] मोह को [जिणित्ता] जीतकर [आदं] आत्मा को [णाणसहावाधियं] ज्ञानस्वभाव के द्वारा (अन्य द्रव्यभावों से) अधिक [मुणदि] जानता है [तं] उस [साहुं] साधु को, [परमट्ठवियाणया] परमार्थ के जाननेवाले, [जिदमोहं] जितमोह [बेंति] कहते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब, भाव्य-भावक संकर-दोष दूर करके स्तुति कहते हैं :-

जो मुनि फल देने की सामर्थ्य से उदयरूप होकर भावकपने से प्रगट होते हुए मोह-कर्म के अनुसार प्रवृत्तिवाले भाव्यरूप अपने आत्मा को भेद-ज्ञान के बल से दूर से ही अलग करके - इसप्रकार मोह का बलपूर्वक तिरस्कार करके, समस्त भाव्य-भावक संकर-दोष दूर करके एकत्व में टंकोत्कीर्ण, विश्व के ऊपर तिरते हुए, प्रत्यक्ष उद्योतपने से सदा अन्तरंग में प्रकाशमान, अविनश्वर, स्वत:सिद्ध और परमार्थरूप भगवान ज्ञान-स्वभाव के द्वारा परमार्थ से सर्व अन्य-द्रव्यों से भिन्न अपने आत्मा का अनुभव करते हैं; वे निश्चय से जितमोह-जिन हैं -- यह दूसरी निश्चय-स्तुति है ।

गाथाओं में जहाँ 'मोह' पद का प्रयोग हुआ है; उसके स्थान पर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय शब्दों को रखकर ग्यारह-ग्यारह गाथायें बनाकर; उनका भी इसीप्रकार व्याख्यान करना तथा कर्ण, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन - इन पाँच इन्द्रियों को भी 'मोह' पद के स्थान पर रखकर इन्द्रियसूत्र के रूप में पाँच-पाँच गाथायें पृथक् से बनाना और उनका भी पूर्ववत् व्याख्यान करना ।

जयसेनाचार्य :
[जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं] जो पुरुष उदय में आये हुए मोह को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकाग्रतारुप निर्विकल्प समाधि के बल से जीतकर अर्थात: दबाकर शुद्ध-ज्ञानगुण के द्वारा अधिक अर्थात् परिपूर्ण अपनी आत्मा को मानता है, जानता है और अनुभव करता है, [तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया बेंति] उस साधु को परमार्थ के जानने वाले 'जितमोह' अर्थात मोह से रहित जिन, इस प्रकार कहते हैं । यह दूसरी निश्चय स्तुति है ।

भावार्थ –- यहाँ कोई पूछता है कि आपने पातनिका में बतलाया था कि भाव्य-भावक में परस्पर जो संकर दोष है उसका निराकरण करने से दूसरी स्तुति होती है, सो यह बात यहाँ कैसे घटित होती है ? उसको स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं कि भाव्य तो रागादि रूप में परिणत आत्मा और भावक रागरूप करने वाला उदय में आया हुआ मोह-कर्म इन दोनों भाव्य-भावकों का जो शुद्ध-जीव के साथ संकर अर्थात संयोग सम्बन्ध है वही हुआ दोष उसको जो साधु स्व-संवेदन-ज्ञान के बल से परास्त कर देता है वह 'जिन' है । यह दूसरी स्तुति हुई ॥३७॥

इसी प्रकार यहाँ मोह पद के स्थान पर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, ये ग्यारह तो इस सूत्र द्वारा और श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना, स्पर्शन ये पाँच इन्द्रिय-सूत्र के द्वारा पृथक्-पृथक् लेकर व्याख्यान करना चाहिये और इसी प्रकार और भी असंख्यात-लोकप्रमाण विभाव परिणाम हैं उनको भी प्रासंगिक रूप से समझ लेना चाहिये ।

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+ निश्चय स्तुति - क्षीणमोह -
जिदमोहस्स दु जइया खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स । (33)
तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहिं ॥38॥
जितमोहस्य तु यदा क्षीणो मोहो भवेत्साधोः ।
तदा खलु क्षीणमोहो भण्यते स निश्चयविद्भिः ॥३३॥
जितमोह साधु पुरुष का जब मोह क्षय हो जाय है,
परमार्थविज्ञायक पुरुष क्षीणमोह तब उनको कहे ॥३३॥
अन्वयार्थ : [जिदमोहस्स] जिसने मोह को [जइया] जीत लिया है, ऐसे [साहुस्स] साधु के जब [मोहो] मोह [खीणो] क्षीण [हविज्ज] हो जाए, [तइया हु] तब [सो] उस साधु को [णिच्छयविदूहिं] निश्चयनय के जानकार [खीणमोहो] क्षीणमोह [भण्णदि] कहते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब, भाव्य-भावक भाव के अभाव से निश्चय-स्तुति बतलाते हैं :-

पूर्वोक्त विधान से आत्मा में से मोह का तिरस्कार करके, पूर्वोक्त ज्ञान-स्वभाव के द्वारा अन्य-द्रव्यों से भिन्न आत्मा का अनुभव करने से जो आत्मा जितमोह हुआ है; जब वही आत्मा अपने स्वभाव की भावना का भलीभाँति अवलम्बन करके मोह की सन्तति का ऐसा आत्यन्तिक विनाश करता है कि फिर उसका उदय ही न हो - इसप्रकार भावकरूप मोह पूर्णत: क्षीण हो, तब भाव्य-भावक भाव का अभाव होने से एकत्व में टंकोत्कीर्ण परमात्मा को प्राप्त हुआ वह आत्मा क्षीणमोहजिन कहलाता है । -- यह तीसरी निश्चय-स्तुति है ।

यहाँ भी पूर्व कथनानुसार, 'मोह' पद को बदलकर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, कर्ण, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन -- इन पदों को रखकर सोलह सूत्रों का व्याख्यान करना और इसप्रकार के उपदेश से अन्य भी विचार कर लेना ।

(कलश-हरिगीत)
इस आतमा अर देह का एकत्व बस व्यवहार से
यह शरीराश्रित स्तवन भी इसलिए व्यवहार से ॥
परमार्थ से स्तवन है चिद्भाव का ही अनुभवन
परमार्थ से तो भिन्न ही हैं देह अर चैतन्यघन ॥२७॥

[कायात्मनोः व्यवहारतः एकत्वं] शरीर और आत्मा के व्यवहार से एकत्व है, [तु पुनः निश्चयात् न] किन्तु निश्चय से नहीं; [वपुषः स्तुत्या नुः स्तोत्रं व्यवहारतः अस्ति] इसलिए शरीर के स्तवन से आत्मा-पुरुष का स्तवन व्यवहार से हुआ कहलाता है, [तत्त्वतः तत् न] परमार्थत: नहीं; [निश्चयतः चित्स्तुत्या एव] निश्चय से तो चैतन्य के स्तवन से ही [चितः स्तोत्रं भवति] चैतन्य का स्तवन होता है । [सा एवं भवेत्] (उस चैतन्य का स्तवन यहाँ जितेन्द्रिय, जितमोह, क्षीणमोह - इत्यादिरूप से कहा) वह ऐसा है । [अतःतीर्थकरस्तवोत्तरबलात्] अत: तीर्थंकर के स्तवन उत्तर के बल से [आत्म-अङ्गयोः एकत्वं न] आत्मा और शरीर में निश्चय से एकत्व नहीं है ॥२७॥

(कलश-हरिगीत)
इस आतमा अर देह के एकत्व को नय युक्ति से
निर्मूल ही जब कर दिया तत्त्वज्ञ मुनिवरदेव ने ॥
यदि भावना है भव्य तो फिर क्यों नहीं सद्बोध हो
भावोल्लसित आत्मार्थियों को नियम से सद्बोध हो ॥२८॥

[परिचित-तत्त्वैः] तत्वज्ञ [आत्म-काय-एकतायां] आत्मा और शरीर के एकत्व को [इति नय-विभजन-युक्त्या] इसप्रकार नयविभाग युक्ति के द्वारा [अत्यन्तम् उच्छादितायाम्] जड़मूल से उखाड़ फेकने पर [स्व-रस-रभस-कृष्टः प्रस्फुटन्एकः एव] निजरस के वेग से आकृष्ट हो प्रगट होनेवाले एक स्वरूप होनेपर [कस्य बोधः] किसका ज्ञान [अद्य एव] तत्काल (अभी) ही [बोधं न अवतरति] यथार्थपने (सम्यक्पने) को प्राप्त न होगा ?

इसप्रकार, अप्रतिबुद्धने जो यह कहाँ था कि - 'हमारा तो यह निश्चय है कि शरीर ही आत्मा है', उसका निराकरण किया ।

जयसेनाचार्य :
[जिदमोहस्स दु जइया खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स] पूर्व-गाथा में कहे हुए क्रम से जिसने मोह को परास्त कर दिया है, ऐसे शुद्धात्मा की अनुभूति करने वाले साधु के निर्विकल्प समाधि में जब मोह सर्वथा नष्ट हो जाता है, [तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहिं] उस समय गुप्ती-रूप समाधिकाल में वह साधु क्षीण-मोह-जिन होता है, ऐसा परमार्थ के जानने वाले गणधराधिक देव कहते हैं । इस प्रकार तीसरी निश्चय-स्तुति हुई । भाव्य-भावक भाव के अभाव-रूप से यह स्तवन कैसे हुआ ? इसका समाधान आचार्य करते हैं -- भाव्य तो रागादि परिणत आत्मा और भावक राग उत्पन्न करने वाला उदय में आया हुआ मोह-कर्म है । इन दोनों भाव्य-भावकों का जो सद्भाव अर्थात् स्वरूप उसका अभाव, विनाश या क्षय है, वही तीसरी निश्चय-स्तुति हुई ।

यहाँ पर भी उपर्युक्त गाथा में बताए हुए राग-द्वेषादिरूप जो दण्डक हैं वे सब यहाँ भी लगा लेना ।

इस प्रकार इस प्रकरण की प्रथम गाथा में देह और आत्मा को एक मानने रूप पूर्वपक्ष किया । फिर चार गाथाओं में निश्चय और व्ययवहारनय का समर्थन करते हुए उसका उत्तर दिया है फिर तीन गाथाओं से निश्चय स्तुति के कथन से उसी का विशेष समाधान किया । इस प्रकार पूर्वपक्ष और उसके परिहार रूप आठ गाथाओं का छट्ठवां स्थल पूर्ण हुआ ।

आगे रागादि विकल्पों की उपाधि से रहित जो स्वसंवेदन ज्ञान है, वहीं है लक्षण जिसका, ऐसे प्रत्याख्यान के वर्णन से चार गाथायें कही जाती हैं । तिनमें स्व-संवेदन ज्ञान ही प्रत्याखयान है ऐसा कथन करते हुए पहली गाथा है, फिर प्रत्याख्यान के विषय में दृष्टान्त रूप दूसरी गाथा है । फिर मोह के त्याग-रूप से पहली गाथा है और ज्ञेय पदार्थ के त्याग-रूप से दूसरी गाथा है, ऐसी दो गाथाएँ । इस प्रकार सातवें स्थल को चार गाथाओं में समुदाय पातनिका हुई ।

यहाँ यदि जीव और देह को एक नहीं माना जायेगा तो 'तीथंकर व आचार्य की जो स्तुति की गई है वह व्यर्थ होती है' इस प्रकार पूर्वपक्ष के बल से जीव और देह में एकपना मानना ठीक नहीं है ऐसा जानकर प्रतिबुद्ध होता हुआ शिष्य पूछता है कि हे भगवन् ! रागादिकों का प्रत्याख्यान किस प्रकार किया जाये ? ऐसा पूछने पर आचार्य उत्तर देते हैं --

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+ प्रतिबुद्ध द्वारा परभावों का त्याग - प्रत्याख्यान -
सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परेत्ति णादूणं । (34)
तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदव्वं ॥39॥
जह णाम कोवि पुरिसो परदव्वमिणंति जाणिदुं चयदि । (35)
तह सव्वे परभावे णाऊण विमुञ्चदे णाणी ॥40॥
सर्वान् भावान् यस्मात्प्रत्याख्याति परानिति ज्ञात्वा ।
तस्मात्प्रत्याख्यानं ज्ञानं नियमात् ज्ञातव्यम् ॥३४॥
यथा नाम कोऽपि पुरुषः परद्रव्यमिदमिति ज्ञात्वा त्यजति ।
तथा सर्वान् परभावान् ज्ञात्वा विमुञ्चति ज्ञानी ॥३५॥
परभाव को पर जानकर परित्याग उनका जब करे
तब त्याग हो बस इसलिए ही ज्ञान प्रत्याख्यान है ॥३४॥
जिसतरह कोई पुरुष पर जानकर पर परित्यजे
बस उसतरह पर जानकर परभाव ज्ञानी परित्यजे ॥३५॥
अन्वयार्थ : [जम्हा] जिसकारण यह आत्मा अपने आत्मा से भिन्न [सव्वे भावे] समस्त भावों को [परेत्ति] 'वे पर हैं' - ऐसा [णादूणं] जानकर [पच्चक्खाई] प्रत्याख्यान / त्याग करता है, [तम्हा] उसी कारण [पच्चक्खाणं] प्रत्याख्यान [णाणं] ज्ञान ही है -- ऐसा [णियमा] नियम से [मुणेदव्वं] जानना चाहिए । [जह] जिसप्रकार लोक में [कोवि पुरिसो] कोई पुरुष [परदव्वमिणंति] परवस्तु को 'यह परवस्तु है' - ऐसा [जाणिदुं] जानकर परवस्तु का [चयदि] त्याग करता है [तह] उसीप्रकार [णाणी] ज्ञानी पुरुष [सव्वे परभावे] समस्त पर-भावों को [णाऊण] जानकर [विमुञ्चदे] छोड़ देते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
इसप्रकार यह अज्ञानी जीव अनादिकालीन मोह के संतान से निरूपित आत्मा और शरीर के एकत्व के संस्कार से अत्यन्त अप्रतिबुद्ध था वह अब तत्त्वज्ञान-स्वरूप ज्योति का प्रगट उदय होने से और नेत्र के विकार की भांति (जैसे किसी पुरुष की आँखों में विकार था तब उसे वर्णादिक अन्यथा दीखते थे और जब नेत्र-विकार दूर हो गया तब वे ज्यों के त्यों -- यथार्थ दिखाई देने लगे, इसीप्रकार) पटल समान आवरणकर्मों के भलीभांति उघड़ जाने से प्रतिबुद्ध हो गया और साक्षात् द्रष्टा आप को अपने से ही जानकर तथा श्रद्धान करके, उसी का आचरण करने का इच्छुक होता हुआ पूछता है कि 'इस स्वात्माराम को अन्य द्रव्यों का प्रत्याख्यान (त्यागना) क्या है ?'

उसको आचार्य इसप्रकार कहते हैं कि :-

यह ज्ञाता-दृष्टा भगवान आत्मा अन्य-द्रव्यों के स्वभाव से होनेवाले अन्य समस्त पर-भावों को, अपने स्वभाव-भाव से व्याप्त न होने के कारण पररूप जानकर त्याग देता है; इसलिए यह सिद्ध हुआ कि जो पहले जानता है, वही बाद में त्याग करता है; अन्य कोई त्याग करनेवाला नहीं है । -- इसप्रकार आत्मा में निश्चय करके प्रत्याख्यान के समय प्रत्याख्यान करने योग्य परभाव की उपाधिमात्र से प्रवर्तमान त्याग के कर्तृत्व का नाम होने पर भी परमार्थ से देखा जाय तो परभाव के त्याग के कर्तृत्व का नाम अपने को नहीं है; क्योंकि स्वयं तो ज्ञान-स्वभाव से च्युत नहीं हुआ है । इसलिए प्रत्याख्यान ज्ञान ही है -- ऐसा अनुभव करना चाहिए ।

अब यहाँ यह प्रश्न होता है कि ज्ञाता का प्रत्याख्यान ज्ञान ही कहा है, तो उसका दृष्टान्त क्या है ? उसके उत्तर में दृष्टान्त-दार्ष्टान्तरूप गाथा कहते हैं :-

जिसप्रकार कोई पुरुष धोबी के घर से भ्रम-वश दूसरे का वस्त्र लाकर, उसे अपना समझकर ओढ़कर सो रहा है और अपने आप ही अज्ञानी हो रहा है; किन्तु जब दूसरा व्यक्ति उस वस्त्र का छोर पकड़कर खींचता है, उसे नंगा कर कहता है कि 'तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह मेरा वस्त्र बदले में आ गया है; अत: मुझे दे दे' - तब बारम्बार कहे गये इस वाक्य को सुनता हुआ उस वस्त्र की सर्वचिह्नों से भली-भाँति परीक्षा करके 'अवश्य यह वस्त्र दूसरे का ही है' - ऐसा जानकर ज्ञानी होता हुआ उस वस्त्र को शीघ्र ही त्याग देता है ।

इसीप्रकार आत्मा भी भ्रम-वश पर-द्रव्य के भावों को ग्रहण करके, उन्हें अपना जानकर, अपना मानकर, अपने में एकरूप करके सो रहा है और अपने आप अज्ञानी हो रहा है ।

किन्तु जब श्रीगुरु परभाव का विवेक करके, भेदज्ञान करके; उसे एक आत्म-भावरूप करते हैं और कहते हैं कि 'तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह तेरा आत्मा एक ज्ञानमात्र ही है, अन्य सब परद्रव्य के भाव हैं'; तब बारम्बार कहे गये इस आगम वाक्य को सुनता हुआ वह समस्त स्व-पर के चिह्नों से भली-भाँति परीक्षा करके, 'अवश्य ये भाव परभाव ही हैं, मैं तो एक ज्ञानमात्र ही हूँ' - यह जानकर ज्ञानी होता हुआ सर्व परभावों को तत्काल ही छोड़ देता है ।

(कलश--हरिगीत)
परभाव के परित्याग की दृष्टि पुरानी ना पड़े
अर जबतलक हे आत्मन् वृत्ति न हो अतिबलवती ॥
व्यतिरिक्त जो परभाव से वह आतमा अतिशीघ्र ही
अनुभूति में उतरा अरे चैतन्यमय वह स्वयं ही ॥२९॥

[अपर-भाव-त्याग-दृष्टान्त-दृष्टिः] यह परभाव के त्याग के दृष्टान्त की दृष्टि, [अनवम् अत्यन्त-वेगात् यावत् वृत्तिम् न अवतरति] पुरानी न हो इसप्रकार अत्यन्त वेग से जब तक प्रवृत्ति को प्राप्त न हो, [तावत्] उससे पूर्व ही [झटिति] तत्काल [सकल-भावैः अन्यदीयैः विमुक्ता] सकल अन्यभावों से रहित [स्वयम् इयम् अनुभूतिः] स्वयं ही यह अनुभूति तो [आविर्बभूव ] प्रगट हो गई ।

जयसेनाचार्य :
[णाणं भावे सव्वे पच्चक्खाई परेत्ति णादूणं] इस प्रकार ज्ञान शब्द की व्युत्पत्ति है । अत: स्व-संवेदन ज्ञान ही आत्मा नाम से कहा जाता है । वह ज्ञान जब मिथ्यात्व और रागादि भावों को 'ये परस्वरूप हैं' ऐसा जान लेता है तब उन्हें छोड़ देता है, उनसे दूर हो जाता है । [तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदव्वं] इसलिये निर्विकल्प स्व-संवेदन ज्ञान ही नियम से प्रत्याख्यान है ऐसा मानना चाहिये, जानना चाहिये और अनुभव करना चाहिये ।

तात्पर्य यह है कि परम समाधि काल में स्व-संवेदन ज्ञान के बल से आत्मा अपने आप को शुद्ध अनुभव करता है, वह अनुभव ही निश्चय-प्रत्याख्यान है ॥३९॥

[जह णाम कोवि पुरिसो परदव्वमिणंति जाणिदुं चयदि] जैसे कोई भी पुरुष जब वस्त्र-आभरण आदि वस्तु को 'यह परद्रव्य है' ऐसा स्पष्ट रूप से जान लेता है तब उसे छोड़ देता है । [तह सव्वे परभावे णाऊण विमुञ्चदे णाणी] उसी प्रकार मिथ्यात्व और रागादि सब ही परभावों को अर्थात पर्यायों को अपने स्व-संवेदन ज्ञान के बल से जानकर उन्हें विशेष-रूप से अर्थात् मन-वचन-काय-रूप त्रिशुद्धि द्वारा छोड़ देता है, तब ही वह स्वसंवेदन ज्ञानी होता है अन्यथा नहीं ।

भावार्थ यह है कि जैसे कोई देवदत्त नाम का पुरुष भ्रम से दूसरे के वस्त्र को अपना समझकर धोबी के घर से उसे ले आया और पहनकर सो गया । पीछे उस वस्त्र का स्वामी आकर उस वस्त्र को पकड़कर खींचता है और उतारना चाहता है तो उस वस्त्र के विशेष चिह्न को देखकर जब उसे दूसरे का समझ लेता है तब उसे उतार देता है । उसी प्रकार ज्ञानी जीव भी परम वैरागी गुरुदेव के द्वारा यह सब मिथ्यात्व व रागादि विभाव भाव तेरे स्वरूप नहीं हैं, तू एक (शुद्धात्मा) ही है, ऐसा समझाया जाने पर, उनको पर जान छोड़ देता है ओर शुद्धात्मा का अनुभव करने लगता है । इस प्रकार दो गाथाएं पूर्ण हुईं ।

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+ मोह से निर्मम -
णत्थि मम को वि मोहो बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को । (36)
तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति ॥41॥
नास्ति मम कोऽपि मोहो बुध्यते उपयोग एवाहमेकः ।
तं मोहनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञायका ब्रुवन्ति ॥३६॥
मोहादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय
है मोह-निर्ममता यही वे कहें जो जानें समय ॥३६॥
अन्वयार्थ : '[मोहो] मोह [मम] मेरा [को वि] कुछ भी [णत्थि] नहीं है, [अहमेक्को] मैं तो एक [उवओग] उपयोगमय [एव] ही हूँ' - [तं] ऐसा [बुज्झदि] जानने को [समयस्स वियाणया] सिद्धांत अथवा स्व-पर के जानने वाले [मोहणिम्ममत्तं] मोह से निर्मम [बेंति] कहते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब, 'इस अनुभूति से परभाव का भेदज्ञान कैसे हुआ?' ऐसी आशंका करके, पहले तो जो भावक-भाव / मोहकर्म के उदय-रूप भाव, उसके भेदज्ञान का प्रकार कहते हैं --

निश्चय से फलदान की सामर्थ्य से प्रगट होकर भावकरूप होनेवाले पुद्गलद्रव्य से रचित मोह मेरा कुछ भी नहीं है; क्योंकि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावभाव का परमार्थ से पर के भाव द्वारा भाया जाना (भाव्यरूप करना) अशक्य है । दूसरी बात यह है कि स्वयं ही निरन्तर विश्व को प्रकाशित करने में चतुर और विकासरूप शाश्वत प्रताप संपत्ति सहित वह भगवान आत्मा ही चैतन्यशक्तिमात्र स्वभावभाव के द्वारा जानता है कि 'परमार्थ से मैं एक हूँ ।' यद्यपि समस्त द्रव्यों के परस्पर साधारण अवगाह का निवारण करना अशक्य होने से मेरा आत्मा और जड़पदार्थ श्रीखण्ड की भाँति एकमेक हो रहे हैं; तथापि श्रीखण्ड की ही भाँति स्पष्ट अनुभव में आनेवाले स्वादभेद के कारण 'मैं मोह के प्रति निर्मम ही हूँ'; क्योंकि सदा अपने एकत्व में प्राप्त होने से समय ज्यों का त्यों ही स्थित रहता है ।

इसप्रकार भावक-भाव से भेदज्ञान हुआ ।

(कलश--हरिगीत)
सब ओर से चैतन्यमय निजभाव से भरपूर हूँ
मैं स्वयं ही इस लोक में निजभाव का अनुभव करूँ ॥
यह मोह मेरा कुछ नहीं चैतन्य का घनपिण्ड हूँ
हूँ शुद्ध चिद्घन महानिधि मैं स्वयं एक अखण्ड हूँ ॥३०॥

[इह अहं स्वयं] यहाँ मैं स्वतः ही [एकं स्वं] अपने एक आत्म-स्वरूप का [चेतये] अनुभव करता हूँ [सर्वतः स्व-रस-निर्भर-भावं] कि जो स्वरूप सर्वतः अपने निजरसरूप चैतन्य से पूर्ण भरे हुए भाववाला है; इसलिये [मोहः मम कश्चन] यह मोह मेरा कुछ भी [नास्ति नास्ति] नहीं, कुछ भी नहीं । [शुद्ध-चिद्घन-महः-निधिः अस्मि] मैं तो शुद्ध-चैतन्य के समूहरूप तेजःपुंज का निधि हूँ ।

जयसेनाचार्य :
[णत्थि मम को वि मोहो] शुद्धनिश्चयनय से टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभाववाला जो मैं, उसको रंजायमान करने के लिए रागादि परभाव कभी समर्थ नहीं हैं । इसलिये द्रव्य और भावरूप कोई भी मोह मेरा नहीं है । [बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को] किन्तु ज्ञान-दर्शन-उपयोगरूप लक्षणवाला होने से मेरा आत्मा तो इस प्रकार जानता है कि मैं तो केवल उपयोग स्वरूप ही हूँ । अतएव मैं तो मोह से दूर हूँ, निर्मम हूँ, इस प्रकार जो अपने आपको केवल विशुद्ध-ज्ञान-दर्शन-उपयोगमयी जानता है [तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति] उसे ही शुद्धात्मा के स्वरूप को जानने वाले लोग मोह से निर्ममत्व हुआ (शुद्धात्मस्वरूप हुआ) बतलाते हैं, जानते हैं ।

सार यह है कि आचार्यदेव ने स्व-संवेदन-ज्ञान को ही प्रत्याख्यान बतलाया था उसी का यह निर्मोह रूप से विशेष व्याख्यान है । यहाँ पर जहाँ मोह पद लगाया है उसी के स्थान पर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना, स्पर्शन ये सोलह सूत्र क्रम से लगाकर व्याख्यान करना चाहिये । इसी प्रकार अन्य भी असंख्यात-लोक-परिमित जो विभाव-भाव हैं उन्हे भी समझना चाहिये ।


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+ धर्मादि ज्ञेय पदार्थ से निर्मम -
णत्थि मम धम्म आदी बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को । (37)
तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति ॥42॥
नास्ति मम धर्मादिर्बुध्यते उपयोग एवाहमेकः ।
तं धर्मनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञायका ब्रुवन्ति ॥३७॥
धर्मादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय
है धर्म-निर्ममता यही वे कहें जो जानें समय ॥३७॥
अन्वयार्थ : [बुज्झदि] यह जाने की [धम्म आदी] धर्म आदि द्रव्य [णत्थि मम] मेरे कुछ भी नहीं लगते, [उवओग एव] उपयोग ही [अहमेक्को] एक मैं हूँ -- [तं] ऐसा जानने को [समयस्स वियाणया] सिद्धांत अथवा स्व-पर के जानने वाले [धम्मणिम्ममत्तं] धर्म-द्रव्य के प्रति निर्ममत्व [बेंति] कहते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
निज-रस से प्रगट, अनिवार्य विस्तार और समस्त पदार्थो को ग्रसित करने के स्वभाववाली, प्रचण्ड चिन्मात्र शक्ति के द्वारा कवलित (ग्रासीभूत) किये जाने से मानो अत्यन्त अन्तर्मग्न हो रहे हों, ज्ञान में तदाकार होकर डूब रहे हों - इसप्रकार आत्मा में प्रकाशमान - ये धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीव - ये समस्त पर-द्रव्य मेरे कुछ भी नहीं हैं; क्योंकि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-स्वभावत्व से परमार्थत: अंतरंग-तत्त्व तो मैं हूँ और वे पर-द्रव्य मेरे स्वभाव से भिन्न स्वभाववाले होने से परमार्थत: बाह्य-तत्त्वरूपता को छोड़ने में पूर्णत: असमर्थ हैं ।

दूसरे चैतन्य में स्वयं ही नित्य उपयुक्त और परमार्थ से एक अनाकुल आत्मा का अनुभव करता हुआ भगवान आत्मा ही जानता है कि मैं प्रगट निश्चय से एक ही हूँ; इसलिए ज्ञेय-ज्ञायक-भावमात्र से उत्पन्न पर-द्रव्य के साथ परस्पर मिले होने पर भी, प्रगट स्वाद में आते हुए स्वभाव के कारण धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीवों के प्रति मैं निर्मम हूँ; क्योंकि सदा ही अपने एकत्व में प्राप्त होने से समय ज्यों का त्यों स्थित रहता है, अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता । - इसप्रकार ज्ञेयभावों से भेद-ज्ञान हुआ ।

(कलश--हरिगीत)
बस इसतरह सब अन्यभावों से हुई जब भिन्नता
तब स्वयं को उपयोग ने स्वयमेव ही धारण किया ॥
प्रकटित हुआ परमार्थअर दृग ज्ञान वृत परिणत हुआ
तब आतमा के बाग में आतम रमण करने लगा ॥३१॥

[इति] इसप्रकार (पूर्वोक्तरूप से भावक भाव और ज्ञेयभावोंसे भेदज्ञान होनेपर) [सर्वैः अन्यभावैः सह विवेके सति] सर्व अन्यभावों से जब भिन्नता हुई तब [अयं उपयोगः] यह उपयोग [स्वयं] स्वयं ही [एकं आत्मानम्] अपने एक आत्मा को ही [बिभ्रत्] धारण करता हुआ, [प्रकटितपरमार्थैः दर्शनज्ञानवृत्तैः कृतपरिणतिः] जिनका परमार्थ प्रगट हुआ है ऐसे दर्शन-ज्ञान-चारित्र से जिसने परिणति की है ऐसा, [आत्म-आरामे एव प्रवृत्तः] अपने आत्मारूपी बाग (क्रीड़ावन) में ही प्रवृत्ति करता है, अन्यत्र नहीं जाता ।

जयसेनाचार्य :
[णत्थि मम धम्म आदी] धर्मास्तिकाय आदि जो समस्त ज्ञेय पदार्थ हैं, वे सब मेरे नहीं हैं, [बुज्झदि] ऐसा ज्ञानी-जीव जानता है । वह जानता है कि [उवओग एव अहमेक्को ] मैं तो केवल विशुद्ध-ज्ञान-दर्शन-उपयोगमयी हूँ अथवा वह जानता है कि ज्ञान-दर्शन-उपयोगमय होने से मैं तो उपयोग के साथ अभिन्न हूँ, उपयोगमयी हूँ, क्योंकि मैं एक टंकोत्कीर्ण-ज्ञायक-स्वभाव हूँ इसलिये व्यवहारनय से परद्रव्य के साथ दधि-खांड और शिखिरिणी के समान भले ही मेरे साथ एकता हो, फिर भी शुद्ध-निश्चयनय से यह सब मेरा स्वरूप नहीं है, इसलिये मैं तो इन सब पर-द्रव्यों से निर्मम हूँ । [तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति] ऐसे शुद्धात्म-तत्त्व या शुद्धात्म-स्वरूप के अनुभव करने वाले को सिद्धांत के जानकार पुरुष पर-द्रव्य से निर्मम हुआ कहते हैं ।

यहाँ परद्रव्य से निर्ममपना बताया गया है, वह भी उसी का विशेष व्याख्यान है जो पूर्व में कह आये हैं कि स्वसंवेदन ज्ञान ही प्रत्याख्यान है, ऐसा समझना चाहिये ।

इस प्रकार दो गाथायें कही गईं । इस प्रकार समुदाय रूप से चार गाथाओं द्वारा सातवाँ स्थल पूर्ण हआ ।

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+ मैं एक शुद्ध दर्शन-ज्ञानमयी -
अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइयो सदारूवी । (38)
ण वि अत्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तं पि ॥43॥
अहमेकः खलु शुद्धो दर्शनज्ञानमयः सदाऽरूपी ।
नाप्यस्ति मम किञ्चिदप्यन्यत्परमाणुमात्रमपि ॥३८॥
मैं एक दर्शन-ज्ञानमय नित शुद्ध हूँ रूपी नहीं
ये अन्य सब परद्रव्य किंचित् मात्र भी मेरे नहीं ॥३८॥
अन्वयार्थ : [अहमेक्को] मैं एक हूँ, [खलु] स्पष्ट रूप से [सुद्धो] शुद्ध [दंसणणाणमइयो] दर्शन-ज्ञान-चारित्र परिणत [सदारूवी] सदा अरूपी हूँ और [अण्णं] अन्य [परमाणुमेत्तंपि] परमाणुमात्र द्रव्य [किंचिवि] किंचित्मात्र भी [मज्झ] मेरे [ण अत्थि] नहीं हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब, इसप्रकार दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप परिणत इस आत्मा को स्वरूप का संचेतन कैसा होता है यह कहते हुए आचार्य इस कथन को समेटते हैं :-

जिसप्रकार कोई पुरुष अपनी मुट्ठी में रखे सोने को भूल गया हो, पर किसी के ध्यान दिलाने पर या स्वयं स्मरण आ जाने पर उसे देखे और आनन्दित हो; उसीप्रकार (उसी न्याय से) अनादि मोहरूप अज्ञान से उन्मत्तता के कारण जो आत्मा अत्यन्त अप्रतिबुद्ध था, अपने परमेश्वर आत्मा को भूल गया था; विरक्त गुरु के द्वारा निरन्तर समझाये जाने पर, किसीप्रकार समझकर, सावधान होकर; अपने आत्मा को जानकर, उसका श्रद्धान कर और उसका आचरण करके, उसमें तन्मय होकर, जो सम्यक्प्रकार एक आत्माराम हुआ, दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमित हुआ; अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त हुआ; वह मैं ऐसा अनुभव करता हूँ कि - इसप्रकार सबसे भिन्न निज स्वरूप का अनुभव करता हुआ मैं प्रतापवन्त हूँ ।

इसप्रकार प्रतापवन्त वर्तते हुए मुझमें मेरी विचित्र स्वरूप-सम्पदा के द्वारा यद्यपि बाह्य समस्त पर-द्रव्य स्फुरायमान हैं; तथापि मुझे कोई भी पर-द्रव्य परमाणुमात्र भी मुझ-रूप भासते नहीं कि जो भावक-रूप और ज्ञेय-रूप से मेरे साथ होकर मुझमें पुन: मोह उत्पन्न करें; क्योंकि निजरस से ही मोह को, पुन: अंकुरित न हो - इसप्रकार मूल से ही उखाड़कर, नाश करके; महान ज्ञान-प्रकाश मुझे प्रगट हुआ है ।

(कलश--हरिगीत)
सुख शान्तरस से लबालब यह ज्ञानसागर आतमा
विभरम की चादर हटा सर्वांग परगट आतमा ॥
हे भव्यजन ! इस लोक के सब एक साथ नहाइये
अर इसे ही अपनाइये इसमें मगन हो जाइये ॥३२॥

[एषः भगवान् अवबोधसिन्धुः] यह ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा [विभ्रम-तिरस्करिणीं भरेण आप्लाव्य] विभ्रमरूपी आड़ी चादरको समूलतया डूबोकर (दूर करके) [प्रोन्मग्नः] स्वयं सर्वांग प्रगट हुआ है; [अमी समस्ताः लोकाः] इसलिये अब यह समस्त लोक [शान्तरसे] उसके शान्त रस में [समम् एव] एक साथ ही [निर्भरम्] अत्यन्त [मज्जन्तु] मग्न हो जाओ, कि जो शान्त-रस [आलोकम् उच्छलति] समस्त लोक-पर्यन्त उछल रहा है ।

इसप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्रीसमयसार परमागमकी (श्रीमद्अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित) आत्मख्याति नामक टीकामें पूर्वरङ्ग समाप्त हुआ ।

जयसेनाचार्य :
[अहं] अनादिकाल से देह और आत्मा की एक मान्यता रूप भ्रमात्मक अज्ञान-भाव से जो पहले अप्रतिबुद्ध था किन्तु जिस प्रकार हाथ में रखे हुए सोने को भूल जाता है, या निद्रा में मग्न होकर सो जाता है फिर निद्रा के दूर हटने पर उस स्वर्ण का स्मरण आ जाने से प्रसन्न हो जाता है, वैसे ही मैं भी परम-गुरु के प्रसाद से प्रतिबुद्ध होकर अब शुद्धात्मा में तल्लीन हो रहा हूँ एवं वीतराग-चेतनामात्र-ज्योति स्वरूप हूँ । [इक्को] यद्यपि व्यवहार से नर-नारकादि-रूप पर्यायों से अनेक-रूप हूँ, [खलु] ऐसा स्पष्ट है । [सुद्धो] शुद्ध-निश्चय-नय की अपेक्षा व्यावहारिक जीवादि नव पदार्थों से मैं भिन्न हूँ अथवा रागादि विभाव भावों से भिन्न हूँ । [दंसणणाणमइयो] केवल दर्शन-ज्ञानमय हूँ, [सदारूवी] निश्चय-नय से रूप, रस, गंध और स्पर्श का अभाव होने से मैं सदा ही अमूर्तिक हूँ । [णवि अत्थि मज्झ किंचिवि अण्णं परमाणुमेत्तंपि] इस प्रकार इन पर-द्रव्यों में से मेरे पास एक परमाणु मात्र भी नहीं है, जो कि एकत्व रूप से रंजायमान करने वाला होकर या ज्ञेय-रूप होकर मेरी आत्मा में मोह उत्पन्न कर सके । क्योंकि मैं तो परम-विशुद्ध-ज्ञान रूप में परिणत हो रहा हूँ, अर्थात् परम समाधि में तत्पर होकर अपने आप में लीन हो रहा हूँ ।

अब इसके आगे श्रृंगार किये हुए नाटक-पात्र के समान जीव और अजीव दोनों एक रूप होकर आते हैं । यहाँ तीन स्थलों से तीस गाथाओं पर्यन्त अजीवाधिकार कहा जाता है । उनमें पहले स्थल में [अप्पाणमयाणंता] इत्यादि दस गाथाओं पर्यन्त तो मुख्यता से यह बतलाते हैं कि शुद्ध-निश्चयनय से देह और रागादि पर-द्रव्य जीव के स्वरूप नहीं हो सकते । उन दस गाथाओं में से भी पर-द्रव्य को आत्मा मानने रूप पूर्व-पक्ष की मुख्यता से प्रथम पाँच गाथायें हैं, तत्पश्चात एक गाथा से उसका निराकरण है । उसके आगे आठ प्रकार के कर्म भी पुद्गल-द्रव्य हैं ऐसा एक गाथा से कथन किया गया है, फिर व्यवहार-नय का समर्थन करते हुए तीन गाथाएँ कहीं हैं । इस प्रकार समुदाय पातनिका हुई ।

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अजीव अधिकार



+ जीव-अजीव में एकता - मिथ्या-मत -
अप्पाणमयाणंता मूढा दु परप्पवादिणो केई । (39)
जीवं अज्झवसाणं कम्मं च तहा परूवेंति ॥44॥
अवरे अज्झवसाणेसु तिव्वमंदाणुभागगं जीवं । (40)
मण्णंति तहा अवरे णोकम्मं चावि जीवोत्ति ॥45॥
कम्मस्सुदयं जीवं अवरे कम्माणुभागमिच्छंति । (41)
तिव्वत्तणमंदत्तणगुणेहिं जो सो हवदि जीवो ॥46॥
जीवो कम्मं उहयं दोण्णि वि खलु केइ जीवमिच्छंति । (42)
अवरे संजोगेण दु कम्माणं जीवमिच्छंति ॥47॥
एवंविहा बहुविहा परमप्पाणं वदंति दुम्मेहा । (43)
ते ण परमट्ठवादी णिच्छयवादीहिं णिद्दिठ्ठा ॥48॥
आत्मानमजानन्तो मूढास्तु परात्मवादिनः केचित् ।
जीवमध्यवसानं कर्म च तथा प्ररूपयन्ति ॥३९॥
अपरेऽध्यवसानेषु तीव्रमन्दानुभागगं जीवम् ।
मन्यन्ते तथाऽपरे नोकर्म चापि जीव इति ॥४०॥
कर्मण उदयं जीवमपरे कर्मानुभागमिच्छन्ति ।
तीव्रत्वमन्दत्वगुणाभ्यां यः स भवति जीवः ॥४१॥
जीवकर्मोभयं द्वे अपि खलु केचिज्जीवमिच्छन्ति ।
अपरे संयोगेन तु कर्मणां जीवमिच्छन्ति ॥४२॥
एवंविधा बहुविधाः परमात्मानं वदन्ति दुर्मेधसः ।
ते न परमार्थवादिनः निश्चयवादिभिर्निर्दिष्टाः ॥४३॥
को मूढ़, आत्म-अजान जो, पर-आत्मवादी जीव है,
'है कर्म, अध्यवसान ही जीव' यों हि वो कथनी करे ॥३९॥
अरु कोई अध्यवसान में अनुभाग तीक्षण-मन्द जो,
उसको ही माने आतमा, अरु अन्य को नोकर्म को ! ॥४०॥
को अन्य माने आतमा बस कर्म के ही उदय को,
को तीव्रमन्द गुणों सहित कर्मों हि के अनुभाग को ! ॥४१॥
को कर्म-आत्मा उभय मिलकर जीव की आशा धरे,
को कर्म के संयोग से अभिलाष आत्मा की करें ॥४२॥
दुर्बुद्धि यों ही और बहुविध, आतमा पर को कहै ।
वे सर्व नहिं परमार्थवादी ये हि निश्चयविद् कहै ॥४३॥
अन्वयार्थ : [अप्पाणमयाणंता] आत्मा को न जानते हुए [परप्पवादिणो] पर को आत्मा कहने वाले [केई मूढा दु] कोई मूढ़, मोही, अज्ञानी तो [अज्झवसाणं] अध्यवसान को [च तहा] और कोई [कम्मं] कर्म को [जीवं परूवेंति] जीव कहते हैं । [अवरे] अन्य कोई [अज्झवसाणेसु] अध्यवसानों में [तिव्वमंदाणुभागगं] तीव्रमंद अनुभागगत को [जीवं मण्णंति] जीव मानते हैं [तहा] और [अवरे] दूसरे कोई [णोकम्मं चावि] नोकर्म को [जीवोत्ति] जीव मानते हैं [अवरे] अन्य कोई [कम्मस्सुदयं] कर्म के उदय को [जीवम्] जीव मानते हैं, कोई जो [तिव्वत्तणमंदत्तणगुणेहिं] तीव्र-मन्दता-रूप गुणों से भेद को प्राप्त होता है [सो] वह [हवदि जीवो] जीव है' इसप्रकार [कम्माणुभागम्] कर्म के अनुभाग को [इच्छन्ति] जीव इच्छते हैं (मानते हैं) [केइ] कोई [जीवो कम्मं उहयं] जीव और कर्म [दोण्णि वि खलु] दोनों मिले हुओं को ही [जीवम् इच्छन्ति] जीव मानते है [दु] और [अवरे] अन्य कोई [कम्माणं संजोगेण] कर्म के संयोग से ही [जीवम् इच्छन्ति] जीव मानते हैं । [एवंविहा] इस प्रकार के तथा [बहुविहा] अन्य भी अनेक प्रकार के [दुम्मेहा] दुर्बुद्धि-मिथ्यादृष्टि जीव [परमप्पाणं] पर को आत्मा [वदन्ति] कहते हैं । [ते] उन्हें [णिच्छयवादीहिं] निश्चयवादियों ने (सत्यार्थवादियों ने) [परमट्ठवादी] परमार्थवादी [सत्यार्थवक्ता ण णिटि्ठा] नहीं कहा है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य — वे दोनों एक होकर रंगभूमि में प्रवेश करते हैं ।

(कलश-सवैया इकतीसा)
जीव और अजीव के विवेक से है पुष्ट जो,
ऐसी दृष्टि द्वारा इस नाटक को देखता ।
अन्य जो सभासद हैं उन्हें भी दिखाता और,
दुष्ट अष्ट कर्माें के बंधन को तोड़ता ॥
जाने लोकालोक को पै निज में मगन रहे,
विकसित शुद्ध नित्य निज अवलोकता ।
ऐसो ज्ञानवीर धीर मंग भरे मन में,
स्वयं ही उदात्त और अनाकुल सुशोभता ॥३३॥

[ज्ञानं] ज्ञान है वह [मनो ह्लादयत्] मन को आनन्दरूप करता हुआ [विलसति] प्रगट होता है । वह [पार्षदान्] जीव-अजीव के स्वांग को देखनेवाले महापुरुषों को [जीव-अजीव-विवेक-पुष्कल-दृशा] जीव-अजीव के भेद को देखनेवाली अति उज्ज्वल निर्दोष दृष्टि के द्वारा [प्रत्याययत्] भिन्न द्रव्य की प्रतीति उत्पन्न कर रहा है । [आसंसार-निबद्ध-बन्धन-विधि-ध्वंसात्] अनादि संसार से जिनका बन्धन दृढ़ बन्धा हुआ है ऐसे ज्ञानावरणादि कर्मों के नाश से [विशुद्धं स्फुटत्] विशुद्ध, खिला है । और [आत्म-आरामम्] उसका रमण करने का क्रीड़ावन आत्मा ही है, [अनन्तधाम] उसका प्रकाश अनन्त है; और वह [अध्यक्षेण महसा नित्य-उदितं] प्रत्यक्ष तेज से नित्य उदयरूप है । तथा वह [धीरोदात्तम्] धीर है, उदात्त (उच्च) है और इसीलिए [अनाकुलं]अनाकुल है ।

अब जीव-अजीव का एक रूप वर्णन करते हैं --

इस जगत में आत्मा का असाधारण लक्षण न जानने के कारण नपुंसकता से अत्यन्त विमूढ़ होते हुए, तात्त्विक (परमार्थभूत) आत्मा को न जाननेवाले बहुत से अज्ञानीजन अनेक प्रकार से पर को भी आत्मा कहते हैं, बकते हैं ।
  1. कोई (वेदान्त-मत) तो ऐसा कहते हैं कि स्वाभाविक अर्थात् स्वयमेव उत्पन्न हुए राग-द्वेष के द्वारा मलिन जो अध्यवसान (मिथ्या अभिप्राय युक्त विभावपरिणाम) वह ही जीव है क्योंकि जैसे कालेपन से अन्य अलग कोई कोयला दिखाई नहीं देता उसीप्रकार अध्यवसान से भिन्न अन्य कोई आत्मा दिखाई नहीं देता ॥१॥
  2. कोई (मीमांसक) कहते हैं कि अनादि जिसका पूर्व अवयव है और अनन्त जिसका भविष्य का अवयव है ऐसी एक संसरणरूप (भ्रमणरूप) जो क्रिया है उस रूप से क्रीड़ा करता हुआ कर्म ही जीव है क्योंकि कर्म से भिन्न अन्य कोई जीव दिखाई नहीं देता ॥२॥
  3. कोई (सांख्य) कहते हैं कि तीव्र मंद अनुभव से भेदरूप होते हुए, दुरन्त (जिसका अन्त दूर है ऐसा) रागरूप रस से भरे हुवे अध्यवसानों की संतति (परिपाटी) ही जीव है क्योंकि उससे अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता ॥३॥
  4. कोई (वैषेषिक) कहता है कि नई और पुरानी अवस्था इत्यादि भाव से प्रवर्तमान नोकर्म ही जीव है क्योंकि इस शरीर से अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता ॥४॥
  5. कोई (बौद्ध-मत) यह कहते हैं कि समस्त लोक को पुण्यपापरूप से व्याप्त करता हुआ कर्म का विपाक ही जीव है क्योंकि शुभाशुभ भाव से अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता ॥५॥
  6. कोई (योग-मत) कहते हैं कि साता- असाता रूप से व्याप्त समस्त तीव्र-मन्दत्व-गुणों से भेद-रूप होनेवाला कर्म का अनुभव ही जीव है क्योंकि सुख-दुख से अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता ॥६॥
  7. कोई (नैयायिक-मत) कहते हैं कि श्रीखण्ड की भाँति उभयरूप मिले हुए आत्मा और कर्म, दोनों ही मिलकर जीव हैं क्योंकि सम्पूर्ण-कर्मों से भिन्न कोई जीव दिखाई नहीं देता ॥७॥
  8. कोई (चार्वाक-मत) कहते है अर्थ-क्रिया में (प्रयोजनभूत क्रिया में) समर्थ ऐसा जो कर्म का संयोग वह जीव है क्योंकि जैसे - आठ लकड़ियों के संयोग से भिन्न अलग कोई पलंग दिखाई नहीं देता । इसी प्रकार कर्मों के संयोग से अन्य अलग कोई जीव दिखाई नहीं देता । (आठ लकड़ियाँ मिलकर पलंग बना तब वह अर्थक्रिया में समर्थ हुआ; इसीप्रकार यहाँ भी जानना) ॥८॥
इसप्रकार आठ प्रकार तो यह कहे और ऐसे-ऐसे अन्य भी अनेक प्रकार के दुर्बुद्धि (विविध प्रकार से) पर को आत्मा कहते हैं; परन्तु परमार्थ के ज्ञाता उन्हें सत्यार्थवादी नहीं कहते ।

जयसेनाचार्य :
[अप्पाणंमयाणंता मूढा दु परप्पवादिणो केई] आत्मा को न जानने वाले अज्ञानी जीव तो परद्रव्य को आत्मा कहते हैं - ऐसे कोई परात्मवादी जीव हैं ।
  1. [जीवं अज्झवसाणं कम्मं च तहा परूविंति] जैसे अङ्गार से कालापन कोई भिन्न नहीं है, वैसे रागादि से भिन्न जीव नहीं है इसप्रकार रागादि अध्यवसान एवं कर्म को जीव कहते हैं और
  2. [अवरे- अज्झवसाणेसु तिव्वमंदाणुभागगं जीवं मण्णंति] दूसरे कोई एकान्तवादी रागादि अध्यवसानों में तीव्रता-मंदता रूप तारतम्य लिए हुए अनुभव या अनुभाग स्वरूप की शक्ति के माहात्म्यरूप तीव्र- मंद अनुभाग को [जो] प्राप्त होता ही है उसे ही जीव मानते हैं ।
  3. [तहाअवरे णोकम्म चावि जीवोत्ति] उसीप्रकार दूसरे चार्वाक आदि जो कर्म-नोकर्म से रहित एवं आत्मा और पर के भेदज्ञान से रहित हैं, वे शरीर आदि नोकर्म को जीव मानते है
  4. और [कम्मस्सुदयं जीवं अवरे] दूसरे कोई कर्म के उदय को जीव मानते हैं ।
  5. [कम्माणुभागमिच्छन्ति] अन्य कोई कर्म के अनुभाग जो कि लता, दारू, अस्थि और पाषाण रूप जो कर्मों का फल है, उसको जीव मानते हैं ।
  6. वह अनुभाग कैसा है ? [तिव्वत्तण मंदत्तण गुणेहिं जो सो हवदि जीवो] वह अनुभाग तीव्रपने- मन्दपने गुणरूप वर्तता है, उसको जीव मानते हैं
  7. और [जीवो कम्मं उदयं दोण्णवि खलु के वि जीवमिच्छन्ति] कोई जीव और कर्म दोनों को शिखरिणी की तरह मिले हुए को जीव मानते हैं ।
  8. [अवरे संजोगेण दु कम्माणं जीव मिच्छन्ति] और कोई लोग आठ काठों के परस्पर मिलने से एक खाट बन जाती है वैसे ही आठ कर्मों के संयोग से जीव हो जाता है ऐसा मानते हैं ।
किस कारण से ऐसा मानते हैं ? क्योंकि आठ कर्मों के संयोग से भिन्न शुद्ध जीव की उपलब्धि नहीं है । [एवं विहा बहुविधा परमप्पाणं वदंति दुम्मेहा] इसप्रकार अनेक प्रकार से देह, रागादि परद्रव्य को दुर्बुद्धि जन आत्मा कहते हैं । [तेण दु परप्पवादी णिच्छयवादीहिं णि टि्ठा] इसकारण से जो देह रागादि परद्रव्य को आत्मा कहते हैं । ऐसा कहने वाले परात्मवादी हैं । ऐसा निश्चयवादी सर्वज्ञ भगवान कहते हैं -- इसप्रकार पांच गाथाओं द्वारा पूर्वपक्ष रखा गया ॥४४-४८॥

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+ जीव-अजीव में भिन्नता - मिथ्या-मत खण्डन -
एदे सव्वे भावा पोग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा । (44)
केवलिजिणेहिं भणिया कह ते जीवो त्ति वुच्चंति ॥49॥
एते सर्वे भावाः पुद्गलद्रव्यपरिणामनिष्पन्नाः ।
केवलिजिनैर्भणिताः कथं ते जीव इत्युच्यन्ते ॥४४॥
पुद्गलदरव परिणाम से, उपजे हुए सब भाव ये
सब केवलीजिन भाषिया, किस रीत जीव कहो उन्हें ॥४४॥
अन्वयार्थ : [एदे] यह पूर्वकथित अध्यवसान आदि [सव्वे भावा] भाव हैं वे सभी [पोग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा] पुद्गलद्रव्य के परिणाम से उत्पन्न हुए हैं इसप्रकार [केवलिजिणेहिं] केवली सर्वज्ञ जिनेन्द्रदेव ने [भणिया] कहा है [ते] उन्हें [जीवोत्ति] जीव ऐसा [कह वुच्चंति] कैसा कहा जा सकता है ?

अमृतचंद्राचार्य :
ऐसा कहनेवाले सत्यार्थवादी क्यों नहीं हैं सो कहते हैं :-

यह समस्त अध्यवसानादि भाव, विश्व के (समस्त पदार्थों के) साक्षात् देखनेवाले भगवान (वीतराग सर्वज्ञ) अरिहन्तदेवों के द्वारा, पुद्गलद्रव्य के परिणाममय कहे गये हैं, इसलिए वे चैतन्यस्वभावमय जीवद्रव्य होने के लिए समर्थ नहीं हैं कि जो जीवद्रव्य चैतन्यभाव से शून्य ऐसे पुद्गलद्रव्य से अतिरिक्त (भिन्न) कहा गया है; इसलिए
  1. (वेदान्त-मत खण्डन) जो इन अध्यवसानादिक को जीव कहते हैं वे वास्तव में परमार्थवादी नहीं हैं क्योंकि आगम, युक्ति और स्वानुभव से उनका पक्ष बाधित है । उसमें, 'वे जीव नहीं हैं' यह सर्वज्ञ का वचन है वह तो आगम है और यह (निम्नोक्त) स्वानुभव-गर्भित युक्ति है:- स्वयमेव उत्पन्न हुए रागद्वेष के द्वारा मलिन अध्यवसान हैं वे जीव नहीं हैं क्योंकि, कालिमा से भिन्न सुवर्ण की भाँति ; अध्यवसान से भिन्न अन्य चित्स्वभावरूप जीव भेद-ज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे चैतन्य-भाव को प्रत्यक्ष भिन्न अनुभव करते हैं
  2. (मीमांसक-मत खण्डन) अनादि जिसका पूर्व अवयव है और अनन्त जिसका भविष्य का अवयव है ऐसी एक संसरणरूप क्रिया के रूप में क्रीड़ा करता हुआ कर्म भी जीव नहीं है क्योंकि कर्म से भिन्न अन्य चैतन्य-स्वभावरूप जीव भेद-ज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं
  3. (सांख्य-मत खण्डन) तीव्र-मन्द अनुभव से भेदरूप होने पर, दुरन्त रागरस से भरे हुये अध्यवसानों की संतति भी जीव नहीं है क्योंकि उस संतति से अन्य पृथक् चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं
  4. (वैषेषिक-मत खण्डन) नई पुरानी अवस्थादिक के भेद से प्रवर्तमान नोकर्म भी जीव नहीं हैं क्योंकि शरीर से अन्य पृथक् चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे उसे प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं
  5. (बौद्ध-मत खण्डन) समस्त जगत को पुण्य-पापरूप से व्याप्त करता कर्म-विपाक भी जीव नहीं है क्योंकि शुभाशुभ भाव से अन्य पृथक् चैतन्य स्वभाव-रूप जीव भेद-ज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं
  6. (योग-मत खण्डन) साता- असातारूप से व्याप्त समस्त तीव्र-मंदतारूप गुणों के द्वारा भेदरूप होनेवाला कर्म का अनुभव भी जीव नहीं है क्योंकि सुखदु:ख से भिन्न अन्य चैतन्य-स्वभावरूप जीव भेद-ज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं
  7. (नैयायिक-मत खण्डन) श्रीखण्ड की भाँति उभयात्मकरूप से मिले हुए आत्मा और कर्म दोनों मिलकर भी जीव नहीं हैं क्योंकि सम्पूर्णतया कर्मों से भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं
  8. (चार्वाक-मत खण्डन) अर्थ-क्रिया में समर्थ कर्म का संयोग भी जीव नही है क्योंकि आठ लकड़ियों के संयोग से (पलङ्ग से) भिन्न पलङ्ग पर सोनेवाले पुरुष की भाँति, कर्मसंयोग से भिन्न अन्य चैतन्य-स्वभावरूप जीव भेद-ज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान है । अर्थात् वे स्वयं उसका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ।

(कलश-हरिगीत )
हे भव्यजन ! क्या लाभ है इस व्यर्थ के बकवाद से ।
अब तो रुको निज को लखो अध्यात्म के अभ्यास से ॥
यदि अनवरत छहमास हो निज आतमा की साधना ।
तो आतमा की प्राप्ति हो सन्देह इसमें रंच ना ॥34॥

[अपरेण] अन्य [अकार्य-कोलाहलेन] व्यर्थ ही कोलाहल करने से [किम्] क्या ? [विरम] (इस कोलाहल से) विरक्त हो और [एकम्] एक (चैतन्यमात्र वस्तु) को [स्वयम् अपि] स्वयं [निभृतः सन्] निश्चल लीन होकर [पश्य षण्मासम्] देख; ऐसा छह मास अभ्यास कर करने से [हृदय-सरसि] अपने हृदय-सरोवर में, [पुद्गलात् भिन्नधाम्नः] जिसका तेज-प्रताप-प्रकाश पुद्गल से भिन्न है ऐसे उस [पुंसः] आत्मा की [ननु किम् अनुपलब्धिः भाति] प्राप्ति नहीं होती है [किं च उपलब्धिः] या होती है ?

जयसेनाचार्य :
[एदे सव्वे भावा पुग्गलदव्वपरिणाम णिप्पण्णा] ये सभी देह रागादिक कर्म-जनित पर्यायें पुद्गल-द्रव्य-कर्म के उदयरूप परिणाम से निष्पन्न उत्पन्न हैं । [केवलि जिणोहिं भणिया कह ते जीवो त्ति वुच्चन्ति] सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवन्तों ने (देह रागादिक को) कर्म-जनित कहा है अत: निश्चयनय से इन्हें कैसे जीव कहा जा सकता है ? किसी भी प्रकार से उन्हें जीव नहीं कहा जा सकता ।

और विशेष कहते हैं -- जैसे अङ्गार से कालापना भिन्न नहीं है, वैसे रागादि से भिन्न आत्मा नहीं है- ऐसा जो पूर्वपक्ष कहा था, वह सही नहीं है । कैसे सही नहीं है ? शुद्ध जीव रागादि से भिन्न है, यह पक्ष है, क्योंकि समाधि में स्थित पुरुषों के द्वारा शरीर और रागादि से सर्वथा भिन्न ऐसे चिदानन्द एकस्वभाववाले शुद्ध जीव की उपलब्धि देखी जाती है, यह हेतु है । जिस प्रकार किट्टकालिमा से स्वर्ण भिन्न है, यह उदाहरण है ।

विशेष यह है कि अङ्गार से कालापना भिन्न नहीं है, यह दृष्टान्त भी घटित नही होता है । कैसे घटित नहीं होता है ? जैसे सोने का पीलापना, अग्नि का उष्णपना, (उनका) स्वभाव है, वैसे अङ्गारे का भी कृष्णपना स्वभाव है, उसे पृथक् नहीं कर सकते । परन्तु स्फटिक की उपाधि के समान रागादिक तो विभाव-भाव हैं, अत: निर्विकार शुद्धात्मा की अनुभूति के बल से उनका अलग किया जाना सम्भव है । इसीतरह जो यह कहा गया है कि आठ काठों के संयोग से खाट बन जाती है, उसीप्रकार आठ कर्मों के संयोग से जीव बन जाता है सो वह अनुचित (ठीक नहीं) है क्योंकि आठ कर्मों के संयोग से भिन्न शुद्ध जीवद्रव्य है यह पक्ष है । जैसे आठ काठ के संयोग रूप खाट पर सोने वाला पुरुष उससे भिन्न होता है । यह उदाहरण हैं । परम समाधि में स्थित रहने वाले महा-पुरुषों के द्वारा आठ कर्मों के संयोग से पृथग्भूत शुद्धबुद्ध एक स्वभाव वाले जीव की उपलब्धि होती देखी जाती है इसप्रकार यह दृष्टान्त सहित हेतु है और विशेष कहते हैं कि देह और आत्मा में भेद है यह पक्ष हैं, क्योंकि दोनों का लक्षण भिन्न हैं । यह हेतु है । जैसे शीतल-स्वभाव-वाला जल और उष्ण-स्वभाव-वाली अग्नि में भेद है यह उदाहरण है ।

इस प्रकार निराकरण करने वाली गाथा पूर्ण हुई ॥४९॥

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+ आठों कर्मों का फल -- अध्यवसान -
अठ्ठविहं पि य कम्मं सव्वं पोग्गलमयं जिणा बेंति । (45)
जस्स फलं तं वुच्चदि दुक्खं ति विपच्चमाणस्स ॥50॥
अष्टविधमपि च कर्म सर्वं पुद्गलमयं जिना बु्रवन्ति
यस्य फलं तदुच्यते दु:खमिति विपच्यमानस्य ॥४५॥
रे ! कर्म अष्ट प्रकार का, जिन सर्व पुद्गलमय कहे ।
परिपाकमें जिस कर्मका फल दु:ख नाम प्रसिद्ध है ॥४५॥
अन्वयार्थ : [अठ्ठविहं पि य] आठों प्रकार का [कम्मं] कर्म [सव्वं] सब [पोग्गलमयं] पुद्गलमय है ऐसा [जिणा] जिनेन्द्रभगवान सर्वज्ञदेव [बेंति] कहते हैं - [जस्स विपच्चमाणस्स] जो पक्व होकर उदय में आनेवाले कर्म का [फलं] फल [तं] प्रसिद्ध [दुक्खं] दु:ख है [ति वुच्चदि] ऐसा कहा है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब शिष्य पूछता है कि इन अध्यवसानादि भावों को जीव नहीं कहा, अन्य चैतन्यस्वभाव को जीव कहा; तो यह भाव भी चैतन्य के साथ सम्बन्ध रखनेवाले प्रतिभासित होते हैं, (वे चैतन्य के अतिरिक्त जड़ के तो दिखाई नहीं देते) तथापि उन्हें पुद्गल के स्वभाव क्यों कहा ? उसके उत्तरस्वरूप गाथासूत्र कहते हैं :-

अध्यवसानादि समस्त भावों को उत्पन्न करनेवाला जो आठों प्रकार का ज्ञानावरणादि कर्म है वह सभी पुद्गल-मय है ऐसा सर्वज्ञ का वचन है । विपाक की मर्यादा को प्राप्त उस कर्म के फलरूप से जो कहा जाता है वह, (अर्थात् कर्मफल) अनाकुलता-लक्षण सुखनामक आत्मस्वभाव से विलक्षण है इसलिए, दु:ख है । उस दु:ख में ही आकुलता-लक्षण अध्यवसानादि भाव समाविष्ट हो जाते हैं; इसलिए, यद्यपि वे चैतन्य के साथ सम्बन्ध होने का भ्रम उत्पन्न करते हैं तथापि वे आत्म-स्वभाव नहीं हैं किन्तु पुद्गल-स्वभाव हैं ।

जयसेनाचार्य :
[अट्ठविहं पि य कम्मं सव्वे पुग्गलमयं जिणाविंति] सभी आठ प्रकार के कर्म पुद्गलमय हैं ऐसा जिनेन्द्र वीतराग सर्वज्ञदेव कहते हैं । वे कर्म पुद्गलमय कैसे हैं ? [जस्स फलं तं वुच्चदि दुक्खं त्ति विपच्चमाणस्स] जिनकर्मों का फल प्रसिद्ध है ऐसा कहा गया है ।

प्रश्न – क्या कहा गया है ?

उत्तर – व्याकुलपना स्वभाव होने से दुख कहा गया है ।

प्रश्न – किसप्रकार के कर्मों का फल दु:ख है ?

उत्तर – विशेष रूप से उदय में आये हुए कर्मों का फल दु:ख है ।

यहां तात्पर्य यह है कि आठ प्रकार के पुद्गल कर्मों का कार्य, अनाकुलता लक्षण वाले परमार्थिक सुख से विलक्षण आकुलता उत्पन्न करनेवाला दु:ख है और रागादिभाव भी आकुलता उत्पन्न करनेवाले दु:ख लक्षण रूप है । इसकारण से रागादिकभाव भी पुद्गल के ही कार्य हैं इसलिए शुद्ध-निश्चयनय से वे पौद्गलिक हैं । आठ प्रकार के कर्म पुद्गल-द्रव्य ही हैं- ऐसा कथन करनेवाली गाथा पूर्ण हुई ॥५०॥

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+ अध्यवसान-भाव जीव है - व्यवहार -
ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं । (46)
जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा ॥51॥
व्यवहारस्य दर्शनमुपदेशो वर्णितो जिनवरै:
जीवा एते सर्वेऽध्यवसानादयो भावा: ॥४६॥
व्यवहार ये दिखला दिया, जिनदेव के उपदेश में
ये सर्व अध्यवसान आदिक, भाव को जँह जिव कहे ॥४६॥
अन्वयार्थ : [एदे सव्वे] यह सब [अज्झवसाणादओ भावा] अध्यवसानादि भाव [जीवा] जीव हैं इसप्रकार [जिणवरेहिं] जिनेन्द्र-देव ने [उवएसो] जो उपदेश दिया है सो [ववहारस्स दरीसणमु] व्यवहारनय [वण्णिदो] दिखाया है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब प्रश्न होता है कि यदि अध्यवसानादि भाव हैं वे पुद्गल-स्वभाव हैं तो सर्वज्ञ के आगम में उन्हें जीवरूप क्यों कहा गया है ? उसके उत्तर-स्वरूप गाथासूत्र कहते हैं :-

यह सब अध्यवसानादि भाव जीव हैं ऐसा जो भगवान सर्वज्ञ-देव ने कहा है वह, यद्यपि व्यवहार-नय अभूतार्थ है तथापि, व्यवहार-नय को भी बताया है; क्योंकि जैसे म्लेच्छों की म्लेच्छ-भाषा वस्तु-स्वरूप बतलाती है उसीप्रकार व्यवहारनय व्यवहारी जीवों को परमार्थ का कहने वाला है इसलिए अपरमार्थ-भूत होने पर भी, धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करने के लिए वह (व्यवहारनय) बतलाना न्याय-सङ्गत ही है । परन्तु यदि व्यवहारनय न बताया जाये तो, परमार्थ से (निश्चय-नय से ) शरीर से जीव को भिन्न बताया जाने पर भी, जैसे भस्म को मसल देने से हिंसा का अभाव है उसीप्रकार, त्रस-स्थावर जीवों को नि:शङ्कतया मसल देने कुचल देने (घात करने) में भी हिंसा का अभाव ठहरेगा और इस कारण बन्ध का ही अभाव सिद्ध होगा; तथा परमार्थ के द्वारा जीव राग-द्वेष-मोह से भिन्न बताया जाने पर भी, 'रागी, द्वेषी, मोही जीव कर्म से बंधता है उसे छुड़ाना'- इसप्रकार मोक्ष के उपाय के ग्रहण का अभाव हो जायेगा और इससे मोक्ष का ही अभाव होगा ॥४६॥

(इसप्रकार यदि व्यवहार-नय न बताया जाय तो बन्ध-मोक्ष का ही अभाव ठहरता है ।)

जयसेनाचार्य :
[ववहारस्य दरीसणं] व्यवहारनय का स्वरूप दिखाया है । किसके द्वारा व्यवहार दिखाया गया है ? [उवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं] जिनेन्द्र भगवन्तों द्वारा उपदेशवर्णन किया गया है, कथन किया गया है । किसप्रकार का उपदेश वर्णन किया है ? [जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा] ये सब अध्यवसानादि भाव या परिणाम जीवरूप कहे गये है ।

अब विशेष कहते हैं- यद्यपि यह व्यवहार-नय बाह्य-द्रव्यों के अवलम्बन वाला होने से अभूतार्थ है तथापि रागादि बाह्य-द्रव्यों के अवलम्बन से रहित, विशुद्ध ज्ञान-दर्शन-स्वभाव स्वालम्बन सहित ऐसे परमार्थ का प्रतिपादक होने से उसका दिखाया जाना उचित है । यदि व्यवहार-नय नहीं होता तब तो शुद्ध निश्चय-नय से त्रस स्थावर जीव नहीं है ऐसा मानकर उनका नि:शङ्क होकर लोग मर्दन करते । इससे पुण्य रूप (व्यवहार) धर्म का अभाव होता, यह एक दूषण है । उसीप्रकार शुद्ध-निश्चय-नय से तो जीव राग-द्वेष-मोह-रहित पहले से ही हैं, इसलिए मुक्त ही हैं ऐसा मानकर फिर मोक्ष के लिए कोई भी अनुष्ठान नहीं करता । इससे मोक्ष का अभाव होता, यह दूसरा दूषण है । इसलिए व्यवहार-नय का व्याख्यान करना उचित है, ऐसा अभिप्राय है ॥४६॥

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+ इस व्यवहार को दृष्टांत द्वारा समझाते हैं -
राया हु णिग्गदो त्ति य एसो बलसमुदयस्स आदेसो । (47)
ववहारेण दु उच्चदि तत्थेक्को णिग्गदो राया ॥52॥
एमेव य ववहारो अज्झवसाणादिअण्णभावाणं । (48)
जीवो त्ति कदो सुत्ते तत्थेक्को णिच्छिदो जीवो ॥53॥
राजा खलु निर्गत इत्येष बलसमुदयस्यादेश:
व्यवहारेण तूच्यते तत्रैको निर्गतो राजा ॥४७॥
एवमेव च व्यवहारोऽध्यवसानाद्यन्यभावानाम् ।
जीव इति कृत: सूत्रे तत्रैको निश्चितो जीव: ॥४८॥
'निर्गमन इस नृपका हुआ', निर्देश सैन्य-समूह में
व्यवहार से कहलाय यह, पर भूप इसमें एक है ॥४७॥
त्यों सर्व अध्यवसान आदिक, अन्यभाव जु जीव हैं ।
शास्त्रन किया व्यवहार, पर वहाँ जीव निश्चय एक ॥४८॥
अन्वयार्थ : जैसे कोई राजा सेनासहित निकला वहाँ [राया हु णिग्गदो] यह राजा निकला [त्ति य एसो] इसप्रकार जो यह [बलसमुदयस्स] सेना के समुदाय को [आदेसो] कहा जाता है सो वह [ववहारेण दु उच्चदि] व्यवहार से कहा जाता है, [तत्] उस सेना में [एक्को णिग्गदो राया] राजा तो एक ही निकला है; [एमेव य] इसीप्रकार [अज्झवसाणादिअण्णभावाणं] अध्यवसानादि अन्य भावों को [जीवो त्ति] '(यह) जीव है' इसप्रकार [सुत्ते] परमागम में कहा है सो [ववहारो कदो] व्यवहार किया है, [तत् णिच्छिदो] यदि निश्चय से विचार किया जाये तो उनमें [एक्को जीवो] जीव तो एक ही है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब शिष्य पूछता है कि यह व्यवहारनय किस दृष्टान्त से प्रवृत्त हुआ है ? उसका उत्तर कहते हैं :-

जैसे यह कहना कि यह राजा पाँच योजन के विस्तार में निकल रहा है सो यह व्यवहारी-जनों का सेना समुदाय में राजा कह देने का व्यवहार है, क्योंकि एक राजा का पाँच योजन में फैलना अशक्य है; परमार्थ से तो राजा एक ही है, (सेना राजा नहीं है); उसीप्रकार यह जीव समग्र (समस्त) राग-ग्राम में (राग के स्थानों में ) व्याप्त होकर प्रवृत्त हो रहा है ऐसा कहना वह, व्यवहारी-जनों का अध्यवसानादिक भावों में जीव कहने का व्यवहार है, क्योंकि एक जीव का समग्र राग-ग्राम में व्याप्त होना अशक्य है; परमार्थ से तो जीव एक ही है ॥४८॥

जयसेनाचार्य :
[राया हु णिग्गदो त्ति य एसो बलसमुदयस्स आदेसो] सेना के निकलने पर यह राजा ही निकला है और [ववहारेण दु वुच्चदि तत्थेको णिग्गदो राया] पांच योजन के विस्तार में सेना समूह को देखकर राजा जाता है ऐसा व्यवहार से ही कहा जाता है । निश्चयनय से तो वहां एक ही राजा जाता है- इसप्रकार दृष्टांत पूर्ण हुआ ।

अब दार्ष्टान्त (सिद्धान्त) कहते हैं । [एमेव य ववहारो अज्झवसाणदि अण्णभावाणं] इसीप्रकार राजा के दृष्टांत की तरह व्यवहार है ।

प्रश्न – किसका व्यवहार है ?

उत्तर – जीव से भिन्न अध्यवसानादि तथा रागादि भावों का व्यवहार है ।

प्रश्न – किसप्रकार व्यवहार है ?

उत्तर – कि रागादिभाव व्यवहार से परमागम या सूत्र में जीव कहे गये हैं ।

[तत्थेको णिच्छदो जीवो] वहां उन रागादि परिणामों के बीच जीव कौन है ? कैसा है ? यह निश्चित रूप से जानना चाहिए । शुद्ध-निश्चय-नय से भाव-कर्म द्रव्य-कर्म, नोकर्म रहित, शुद्ध-बुद्ध एक-स्वभाव वाला जीव द्रव्य है ॥५२-५३॥

इस प्रकार व्यवहार-नय के समर्थन रूप से तीन गाथाएं पूर्ण हुईं । इसप्रकार अजीव अधिकार के बीच शुद्ध-निश्चय-नय से देह, रागादि परद्रव्य जीव-स्वरूप नहीं हैं -- इसप्रकार के कथन की मुख्यता से दस गाथाओं द्वारा प्रथम अन्तराधिकार का व्याख्यान हुआ ।

इसके बाद वर्ण रसादि पुद्गल स्वरूप से रहित, अनन्तगुणादिमय शुद्धजीव ही उपादेय है ऐसी भावभासना की मुख्यता से बारह गाथाओं तक व्याख्यान करते हैं । वहां बारह गाथाओं के बीच यह द्वितीय स्थल की समूह रूप पीठिका है ।

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+ शुद्ध जीव कैसा होता है? -
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं । (49)
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ॥54॥
अरसमरुपमगन्धमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम् ।
जानीह्यलिंगग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम् ॥४९॥
जीव चेतनागुण, शब्द-रस-रूप-गन्ध-व्यक्तिविहीन है ।
निर्दिष्ट नहिं संस्थान उसका, ग्रहण नहिं है लिङ्ग से ॥४९॥
अन्वयार्थ : [जीवम्] जीव को [अरसम्] रस-रहित, [अरूवम्] रूप-रहित, [अगन्धम्] गन्ध-रहित, [अव्वत्तं] अव्यक्त अर्थात् इन्द्रिय-गोचर नहीं ऐसा, [चेदणागुणम्] चेतना जिसका गुण है ऐसा, [असद्दम्] शब्दरहित, [अलिंगग्गहणं] किसी चिह्न से ग्रहण न होनेवाला और [अणिद्दिट्ठसंठाणम्] जिसका कोई आकार नहीं कहा जाता ऐसा [जाण] जान ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब शिष्य पूछता है कि यह अध्यवसानादि भाव जीव नहीं हैं तो वह एक, टंकोत्कीर्ण, परमार्थ-स्वरूप जीव कैसा है ? उसका लक्षण क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर कहते हैं :-

जीव
  1. निश्चय से पुद्गल-द्रव्य से भिन्न है इसलिए उसमें रस-गुण विद्यमान नहीं है अत: वह अरस है
  2. पुद्गल-द्रव्य के गुणों से भी भिन्न होने से स्वयं भी रसगुण नहीं है इसलिए अरस है
  3. परमार्थ से पुद्गल-द्रव्य का स्वामित्व भी उसके नहीं है इसलिए वह द्रव्येन्द्रिय के आलम्बन से भी रस नहीं चखता अत: अरस है
  4. अपने स्वभाव की दृष्टि से देखा जाये तो उसके क्षायोपशमिक भाव का भी अभाव होने से वह भावेन्द्रिय के आलम्बन से भी रस नहीं चखता इसलिये अरस है
  5. समस्त विषयों के विशेषों में साधारण ऐसे एक ही संवेदन-परिणामरूप उसका स्वभाव होने से वह केवल एक रस वेदना-परिणाम को पाकर रस नहीं चखता इसलिये अरस है
  6. (उसे समस्त ज्ञेयों का ज्ञान होता है परन्तु) सकल ज्ञेयज्ञायक के तादात्म्यका (एकरूप होने का) निषेध होने से रस के ज्ञानरूप में परिणमित होने पर भी स्वयं रसरूप परिणमित नहीं होता इसलिये अरस है
इसप्रकार छह तरह के रस के निषेध से वह अरस है ।

इसप्रकार, जीव
  1. वास्तव में पुद्गल-द्रव्य से अन्य होने के कारण उसमें रूपगुण विद्यमान नहीं है इसलिये अरूप है
  2. पुद्गल-द्रव्य के गुणों से भी भिन्न होने के कारण स्वयं भी रूपगुण नहीं है इसलिये अरूप है
  3. परमार्थ से पु्द्गल-द्रव्य का स्वामीपना भी उसे नहीं होने से वह द्रव्येन्द्रिय के आलम्बन द्वारा भी रूप नहीं देखता इसलिये अरूप है
  4. अपने स्वभाव की दृष्टि से देखने में आवे तो क्षायोपशमिक-भाव का भी उसे अभाव होने से वह भावेन्द्रिय के आलम्बन द्वारा भी रूप नहीं देखता इसलिये अरूप है
  5. सकल विषयों के विशेषों में साधारण ऐसे एक ही संवेदन-परिणाम रूप उसका स्वभाव होने से वह केवल एक रूप वेदना- परिणाम को प्राप्त होकर रूप नहीं देखता इसलिये अरूप है
  6. (उसे समस्त ज्ञेयों का ज्ञान होता है परन्तु ) सकल ज्ञेय-ज्ञायक के तादात्म्य का निषेध होने से रूप के ज्ञानरूप परिणमित होने पर भी स्वयं रूप-रूप से नहीं परिणमता इसलिये अरूप है
इसतरह छह प्रकार से रूप के निषेध से वह अरूप है ।

इसप्रकार, जीव
  1. वास्तव में पुद्गल-द्रव्य से अन्य होने के कारण उसमें गन्ध-गुण विद्यमान नहीं है इसलिए अगन्ध है
  2. पुद्गल-द्रव्य के गुणों से भी भिन्न होने के कारण स्वयं भी गन्ध-गुण नहीं है इसलिए अगन्ध है
  3. परमार्थ से पुद्गल-द्रव्य का स्वामीपना भी उसे नहीं होने से वह द्रव्येन्द्रिय के आलम्बन द्वारा भी गन्ध नहीं सूंघता इसलिए अगन्ध है
  4. अपने स्वभाव की दृष्टि से देखने में आवे तो क्षायोपशमिक भाव का भी उसे अभाव होने से वह भावेन्द्रिय के आलम्बन द्वारा भी गन्ध नहीं सूंघता अत: अगन्ध है
  5. सकल विषयों के विशेषों में साधारण ऐसा एक ही संवेदन-परिणाम-रूप उसका स्वभाव होने से वह केवल एक गन्ध-वेदना-परिणाम को प्राप्त होकर गन्ध नहीं सूंघता अत: अगन्ध है
  6. (उसे समस्त ज्ञेयों का ज्ञान होता है परन्तु) सकल ज्ञेय-ज्ञायक के तादात्म्य का निषेध होने से गन्ध के ज्ञानरूप परिणमित होने पर भी स्वयं गन्ध-रूप नहीं परिणमता अत: अगन्ध है
इसतरह छह प्रकार से गन्ध के निषेध से वह अगन्ध है ।

इसप्रकार, जीव
  1. वास्तव में पुद्गल द्रव्य से अन्य होने के कारण उसमें स्पर्श-गुण विद्यमान नही है इसलिए अस्पर्श है
  2. पुद्गल-द्रव्य के गुणों से भी भिन्न होने के कारण स्वयं भी स्पर्श-गुण नहीं है अत: अस्पर्श है
  3. परमार्थ से पुद्गल-द्रव्य का स्वामीपना भी उसे नहीं होने से वह द्रव्येन्द्रिय के आलम्बन द्वारा भी स्पर्श को नहीं स्पर्शता अत: अस्पर्श है
  4. अपने स्वभाव की दृष्टि से देखने में आवे तो क्षायोपशमिक भाव का भी उसे अभाव होने से वह भावेन्द्रिय के आलम्बन द्वारा भी स्पर्श को नहीं स्पर्शता अत: अस्पर्श है
  5. सकल विषयों के विशेषों में साधारण ऐसा एक ही संवेदन-परिणाम-रूप उसका स्वभाव होने से वह केवल एक स्पर्श-वेदना-परिणाम को प्राप्त होकर स्पर्श को नहीं स्पर्शता अत: अस्पर्श है
  6. (उसे समस्त ज्ञेयों का ज्ञान होता है परन्तु) सकल ज्ञेय-ज्ञायक के तादात्म्य का निषेध होने से स्पर्श के ज्ञान-रूप परिणमित होने पर भी स्वयं स्पर्श-रूप नहीं परिणमता अत: अस्पर्श है
इसतरह छह प्रकार से स्पर्श के निषेध से वह अस्पर्श है ।

इसप्रकार, जीव
  1. वास्तव में पुद्गल-द्रव्य से अन्य होने के कारण उसमें शब्द-पर्याय विद्यमान नहीं है अत: अशब्द है
  2. पुद्गल-द्रव्य की पर्यायों से भी भिन्न होने के कारण स्वयं भी शब्द पर्याय नहीं है अत: अशब्द है
  3. परमार्थ से पुद्गल-द्रव्य का स्वामीपना भी उसे नहीं होने से वह द्रव्येन्द्रिय के आलम्बन द्वारा भी शब्द नहीं सुनता अत: अशब्द है
  4. अपने स्वभाव की दृष्टि से देखने में आवे तो क्षायोपशमिक भाव का भी उसे अभाव होने से वह भावेन्द्रिय के आलम्बन द्वारा भी शब्द नहीं सुनता अत: अशब्द है
  5. सकल विषयों के विशेषों में साधारण ऐसे एक ही संवेदन-परिणाम-रूप उसका स्वभाव होने से वह केवल एक शब्द-वेदना-परिणाम को प्राप्त होकर शब्द नहीं सुनता अत: अशब्द है
  6. (उसे समस्त ज्ञेयों का ज्ञान होता है परन्तु) सकल ज्ञेय-ज्ञायक के तादात्म्य का निषेध होने से शब्द के ज्ञानरूप परिणमित होने पर भी स्वयं शब्दरूप नहीं परिणमता अत: अशब्द है
इसतरह छह प्रकार से शब्द के निषेध से वह अशब्द है ।

(अब 'अनिर्दिष्टसंस्थान' विशेषण को समझाते हैं:-)
  1. पुद्गल-द्रव्य-रचित शरीर के संस्थान (आकार) से जीव को संस्थान-वाला नहीं कहा जा सकता इसलिए जीव अनिर्दिष्ट-संस्थान है
  2. अपने नियत स्वभाव से अनियत संस्थानवाले अनन्त शरीरों में रहता है इसलिए अनिर्दिष्ट-संस्थान है
  3. संस्थान नामकर्म का विपाक (फल) पुद्गलों में ही कहा जाता है (इसलिए उसके निमित्त से भी आकार नहीं है) इसलिए अनिर्दिष्ट संस्थान है
  4. भिन्न-भिन्न संस्थान-रूप से परिणमित समस्त वस्तुओं के स्वरूप के साथ जिसकी स्वाभाविक संवेदन-शक्ति सम्बन्धित (अर्थात् तदाकार) है ऐसा होने पर भी जिसे समस्त लोक के मिलाप से (सम्बन्ध से) रहित निर्मल (ज्ञानमात्र) अनुभूति हो रही है ऐसा होने से स्वयं अत्यन्तरूप से संस्थान रहित है इसलिए अनिर्दिष्टसंस्थान है
इसप्रकार चार हेतुओं से संस्थान का निषेध कहा ।

(अब 'अव्यक्त' विशेषण को सिद्ध करते हैं:-)
  1. छह द्रव्य-स्वरूप लोक जो ज्ञेय है और व्यक्त है उससे जीव अन्य है इसलिए अव्यक्त है
  2. कषायों का समूह जो भावकभाव व्यक्त है उससे जीव अन्य है इसलिए अव्यक्त है
  3. चित्सामान्य में चैतन्य की समस्त व्यक्तियाँ निमग्न (अन्तर्भूत) हैं इसलिए अव्यक्त है
  4. क्षणिक व्यक्ति-मात्र नहीं है इसलिए अव्यक्त है
  5. व्यक्तता और अव्यक्तता एकमेक मिश्रित-रूप से प्रतिभासित होने पर भी वह केवल व्यक्तता को ही स्पर्श नहीं करता इसलिए अव्यक्त है
  6. स्वयं अपने से ही बाह्याभ्यन्तर स्पष्ट अनुभव में आ रहा है तथापि व्यक्तता के प्रति उदासीन-रूप से प्रकाशमान है इसलिए अव्यक्त है
इसप्रकार छह हेतुओं से अव्यक्तता सिद्ध की है ।

इसप्रकार रस, रूप, गन्ध, स्पर्श, शब्द, संस्थान और व्यक्तता का अभाव होने पर भी स्व-संवेदन के बल से स्वयं सदा प्रत्यक्ष होने से अनुमान-गोचर मात्रता के अभाव के कारण (जीव को) अलिङ्ग-ग्रहण कहा जाता है ।

अपने अनुभव में आनेवाले चेतना-गुण के द्वारा सदा अन्तरङ्ग में प्रकाशमान है इसलिए (जीव) चेतना-गुण-वाला है । वह चेतना-गुण समस्त विप्रतिपत्तियों को (जीव को अन्य-प्रकार से मानने-रूप झगड़ों को) नाश करने वाला है, जिसने अपना सर्वस्व भेद-ज्ञानी जीवों को सौंप दिया है, जो समस्त लोकालोक को ग्रासीभूत करके मानों अत्यन्त तृप्ति से उपशान्त हो गया हो इसप्रकार (अर्थात् अत्यन्त स्वरूप सौख्य से तृप्त तृप्त होने के कारण स्वरूप में से बाहर निकलने का अनुद्यमी हो इसप्रकार) सर्व-काल में किञ्चित्मात्र भी चलायमान नहीं होता और इसतरह सदा लेश-मात्र भी नहीं चलित अन्य-द्रव्य से असाधारणता होने से जो (असाधारण) स्वभाव-भूत है । ऐसा चैतन्य-रूप परमार्थ-स्वरूप जीव है । जिसका प्रकाश निर्मल है ऐसा यह भगवान इस लोक में एक, टङ्कोत्कीर्ण, भिन्न ज्योति-रूप विराजमान है ।

(कलश-३५ -- मालिनी)
चैतन्यशक्ति से रहित परभाव सब परिहार कर
चैतन्य-शक्ति से सहित निजभाव नित अवगाह कर
है श्रेष्ठतम जो विश्व में सुन्दर सहज शुद्धातमा
अब उसी का अनुभव करो तुम स्वयं हे भव्यातमा ॥३५॥

[चित्-शक्ति-रिक्तं] चित्शक्ति से रहित [सकलम् अपि] अन्य समस्त भावों को [अह्नाय] मूल से [विहाय] छोड़कर [] और [स्फुटतरम्] प्रगटरूप से [स्वं चित्-शक्तिमात्रम्] अपने चित्शक्तिमात्र भाव का [अवगाह्य] अवगाहन करके, [विश्वस्य उपरि] समस्त पदार्थसमूहरूप लोक के ऊपर [चारु चरन्तं] सुन्दर रीति से प्रवर्तमान ऐसे [इमम्] यह [परम्] एकमात्र [अनन्तम्] अविनाशी [आत्मानम्] आत्मा का [आत्मा] भव्यात्मा [आत्मनि] आत्मा में ही [साक्षात् कलयतु] अभ्यास करो, साक्षात् अनुभव करो ।

(कलश-३७ -- शालिनी)
चित् शक्ति सर्वस्व जिन, केवल वे हैं जीव
उन्हें छोडकर और सब, पुद्गलमयी अजीव ॥३६॥

[चित्-शक्ति-व्याप्त-सर्वस्व-सार:] चैतन्य-शक्ति से व्याप्त जिसका सर्वस्व-सार है ऐसा [अयम् जीव:] यह जीव [इयान्] इतना मात्र ही है; [अत: अतिरिक्ता:] इस चित्शक्ति से शून्य [अमी भावा:] जो ये भाव हैं [सर्वे अपि] वे सभी [पौद्गलिका:] पुद्गल-जन्य हैं -- पुद्गल के ही हैं ॥३६॥

जयसेनाचार्य :
[अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसं] निश्चय-नय से रस, रूप, गन्ध, स्पर्श एवं शब्द-रहित और मनोगत काम-क्रोध आदि विकल्प-रहित होने से अव्यक्त, सूक्ष्म है । और भी क्या विशेषता है ? शुद्ध चेतना गुण-वाला है । और किस रूप है ? [जाण-अलिंगग्गहणं-जीवमणि टि्ठसंठाणं] निश्चय-नय से स्व-संवेदन का विषय होने से अलिङ्ग-ग्रहण स्वरूप वाला है और समचतुरस्र आदि छह संस्थानों से रहित है, ऐसा जो पदार्थ [आत्मा] है, उन गुणों वाले, शुद्धात्मा को ही हे शिष्य ! उपादेय जानो ।

इसका तात्पर्य यह है कि शुद्ध-निश्चय-नय से पुद्गल-द्रव्य सम्बन्धी वर्णादि गुण और शब्दादि सभी पर्यायों से रहित, सभी भावेन्द्रियों तथा मनोगत विकल्पों से रहित, धर्म, अधर्म, आकाश, काल तथा अन्य-जीवों से भिन्न और अनन्त-दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्यवाला जो शुद्धात्मा है, वह शुद्धात्मा समस्त पदार्थ, सर्व-देश तथा काल, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि नाना वर्ण-भेद से भिन्न, लोगों के समस्त मन, वचन, काय के व्यापारों में यह शुद्धात्मा दुर्लभ है । वह शुद्धात्मा अपूर्व है, उपादेय है ऐसा जानकर निर्विकार निर्मोह, निरञ्जन, निज-शुद्धात्म समाधि से प्रगट होने वाले सुखामृत रस की अनुभूति लक्षणवाले एवं गिरि-गुफा दराररूप एकान्त स्थान में स्थिर होकर शुद्धात्मानुभव करना चाहिए । इसतरह यह गाथा पूर्ण हुई ॥५४॥

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+ शुद्ध जीव कैसा नहीं होता है? -
जीवस्स णत्थि वण्णो ण वि गंधो ण वि रसो ण वि य फासो । (50)
ण वि रूवं ण सरीरं ण वि संठाण ण संहणणं ॥55॥
जीवस्स णत्थि रागो ण वि दोसो णेव विज्जदे मोहो । (51)
णो पच्चया ण कम्मं णोकम्मं चावि से णत्थि ॥56॥
जीवस्स णत्थि वग्गो ण वग्गणा णेव फड्ढया केई । (52)
णो अज्झप्पट्ठाणा णेव य अणुभागठाणाणि ॥57॥
जीवस्य णत्थि केई जोयट्ठाणा ण बंधठाणा वा । (53)
णेव य उदयट्ठाणा ण मग्गणट्ठाणया केई ॥58॥
णो ठिदिबंधट्ठाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा । (54)
णेव विसोहिट्ठाणा णो संजमलद्धिठाणा वा ॥59॥
णेव य जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अत्थि जीवस्स । (55)
जेण दु एदे सव्वे पोग्गलदव्वस्स परिणामा ॥60॥
जीवस्य नास्ति वर्णो नापि गन्धो नापि रसो नापि च स्पर्श:
नापि रूपं न शरीरं नापि संस्थानं न संहननम् ॥५०॥
जीवस्य नास्ति रागो नापि द्वेषो नैव विद्यते मोह:
नो प्रत्यया न कर्म नोकर्म चापि तस्य नास्ति ॥५१॥
जीवस्य नास्ति वर्गो न वर्गणा नैव स्पर्धकानि कानिचित्
नो अध्यात्मस्थानानि नैव चानुभागस्थानानि ॥५२॥
जीवस्य न संति कानिचिद्योगस्थानानि न बन्धस्थानानि वा
नैव चोदयस्थानानि न मार्गणास्थानानि कानिचित् ॥५३॥
नो स्थितिबन्धस्थानानि जीवस्य न संक्लेशस्थानानि वा
नैव विशुद्धिस्थानानि नो संयमलब्धिस्थानानि वा ॥५४॥
नैव च जीवस्थानानि न गुणस्थानानि वा संति जीवस्य
येन त्वेते सर्वे पुद्गलद्रव्यस्य परिणामा: ॥५५॥
नहिं वर्ण जीव के, गन्ध नहिं, नहिं स्पर्श, रस जीव के नहीं
नहिं रूप अर संहनन नहिं, संस्थान नहिं, तन भी नहीं ॥५०॥
नहिं राग जीव के , द्वेष नहिं,अरु मोह जीव के है नहीं
प्रत्यय नहीं, नहिं कर्म अरु नोकर्म भी जीव के नहीं ॥५१॥
नहीं वर्ग जीव के, वर्गणा नहिं, कर्म-स्पर्द्धक है नहीं
अध्यात्म-स्थान न जीव के, अनुभाग-स्थान भी हैं नहीं ॥५२॥
जीव के नहीं कुछ योगस्थान रू, बन्ध-स्थान भी है नहीं
नहिं उदय-स्थान न जीव के, अरु स्थान मार्गणा के नहीं ॥५३॥
स्थितिबन्ध-स्थान न जीव के, संक्लेश-स्थान भी हैं नहीं
जीव के विशुद्धि-स्थान, संयमलब्धि-स्थान भी हैं नहीं ॥५४॥
नहिं जीवस्थान भी जीव के गुणस्थान भी जीव के नहीं
ये सब ही पुद्गल-द्रव्य के, परिणाम हैं जानो यही ॥५५॥
अन्वयार्थ : [जीवस्स] जीव के [वण्णो] वर्ण [णत्थि] नहीं, [ण वि गंधो] गन्ध भी नहीं, [ण वि रसो] रस भी नहीं [य] और [ण वि फासो] स्पर्श भी नहीं, [ण वि रूवं] रूप भी नहीं, [ण सरीरं] शरीर भी नहीं, [ण वि संठाण] संस्थान भी नहीं, [ण संहणणं] संहनन भी नहीं; [जीवस्स] जीव के [णत्थि रागो] राग भी नहीं, [ण वि दोसो] द्वेष भी नहीं, [मोहो] मोह भी [णेव विज्जदे] विद्यमान नहीं, [णो पच्चया] प्रत्यय (आस्रव) भी नहीं, [ण कम्मं] कर्म भी नहीं [च] और [णोकम्मं वि] नोकर्म भी [से णत्थि] उसके नहीं है; [जीवस्स णत्थि वग्गो] जीव के वर्ग नहीं, [ण वग्गणा] वर्गणा नहीं, [णेव फड्ढया केई] कोई स्पर्धक भी नहीं, [णो अज्झप्पट्ठाणा] अध्यात्मस्थान भी नहीं [य] और [अणुभागठाणाणि] अनुभागस्थान भी [णेव] नहीं है; [जीवस्य] जीव के [णत्थि केई जोयट्ठाणा] कोई योगस्थान भी नहीं [वा] अथवा [ण बंधठाणा] बन्धस्थान भी नहीं, [य] और [उदयट्ठाणा] उदयस्थान भी [णेव] नहीं, [ण मग्गणट्ठाणया केई] कोई मार्गणास्थान भी नहीं हैं; [जीवस्य] जीव के [णो ठिदिबंधट्ठाणा] स्थितिबन्धस्थान भी नहीं [वा] अथवा [ण संकिलेसठाणा] संक्लेशस्थान भी नहीं, [विसोहिट्ठाणा] विशुद्धिस्थान भी [णेव] नहीं [वा] अथवा [संजमलद्धिठाणा] संयमलब्धिस्थान भी [णो] नहीं हैं; [य] और [जीवस्य] जीव के [जीवट्ठाणा] जीवस्थान भी [णेव] नहीं [वा] अथवा [गुणट्ठाणा] गुणस्थान भी [ण अत्थि] नहीं हैं; [जेण दु] क्योंकि [एदे सव्वे] यह सब [पोग्गलदव्वस्स] पुद्गलद्रव्य के [परिणामा] परिणाम हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :

  1. जो काला, हरा, पीला, लाल और सफेद वर्ण हैं वे सर्व ही जीव के नहीं हैं क्योंकि वे पुद्गल-द्रव्य के परिणाममय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  2. जो सुगन्ध और दुर्गन्ध हैं वे सब ही जीव के नहीं हैं क्योंकि वे पुद्गल-द्रव्य के परिणाममय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  3. जो कडुवा, कषायला, चरपरा, खट्टा और मीठा रस हैं वे सर्व ही जीव के नहीं हैं क्योंकि वे पुद्गल-द्रव्य के परिणाममय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  4. जो चिकना, रूखा, ठण्डा, गर्म, भारी, हलका, कोमल अथवा कठोर स्पर्श हैं वे सर्व ही जीव के नहीं है क्योंकि वे पुद्गल-द्रव्य के परिणाममय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  5. जो स्पर्शादि सामान्य परिणाम मात्र रूप है वह जीव का नहीं है क्योंकि वह पुद्गल-द्रव्य के परिणामय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  6. जो औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस अथवा कार्मण शरीर हैं वे सर्व ही जीव के नहीं हैं क्योंकि वह पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  7. जो समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति, कुब्जक, वामन अथवा हुण्डक संस्थान हैं वे सर्व ही जीव का नहीं हैं क्योंकि वे पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  8. जो वज्र-ऋषभनाराच, वज्र-नाराच, नाराच, अर्द्ध-नाराच, कीलिका अथवा असंप्राप्तासृपाटिका संहनन हैं, वे सर्व ही जीव के नही हैं क्योंकि वे पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  9. जो प्रीतिरूप राग है वे सर्व ही जीव के नहीं हैं क्योंकि वे पुद्गल-परिणाम-मय हैं इसलिए (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  10. जो अप्रीति-रूप द्वेष है वे सर्व ही जीव के नहीं हैं क्योंकि वे पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  11. जो यथार्थ तत्त्व की अप्रतिपत्तिरूप (अप्राप्तिरूप) मोह है वे सर्व ही जीव के नहीं हैं क्योंकि वह पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न है
  12. मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग जिसके लक्षण हैं ऐसे जो प्रत्यय (आस्रव) वे सर्व ही जीव के नहीं हैं क्योंकि वह पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  13. जो ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायरूप कर्म हैं वे सर्व ही जीव के नहीं हैं क्योंकि वे पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  14. जो छह पर्याप्तियोग्य और तीन शरीरयोग्य वस्तु (पुद्गलस्कन्ध) रूप नोकर्म है वह सर्व ही जीव के नहीं है क्योंकि वे पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  15. जो कर्म के रस की शक्तियों का (अर्थात् अविभागप्रतिच्छेदों का) समूह-रूप वर्ग है वह सर्व ही जीव के नहीं हैं क्योंकि वह पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न है
  16. जो वर्गों के समूह-रूप वर्गणा हैं वह सर्व ही जीव का नहीं है क्योंकि वह पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न है
  17. जो मन्द-तीव्र-रस-वाले कर्म-समूह के विशिष्ट न्यास (जमाव) रूप (वर्गणा के समूहरूप) स्पर्धक हैं वह सर्व ही जीव के नहीं हैं; क्योंकि वे पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  18. स्वपर के एकत्व के अध्यास (निश्चय) हो तब (वर्तने पर), विशुद्ध चैतन्य-परिणाम से भिन्न-रूप जिनका लक्षण है ऐसे जो अध्यात्म-स्थान हैं वे सर्व ही जीव के नहीं हैं क्योंकि वे पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  19. भिन्न भिन्न प्रकृतियों के रस के परिणाम जिनका लक्षण है ऐसे जो अनुभाग-स्थान हैं वे सर्व ही जीव के नहीं हैं, क्योंकि वे पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  20. काय, वचन और मनोवर्गणा का कम्पन जिनका लक्षण हैं ऐसे जो योगस्थान वे सर्व ही जीव के नहीं हैं क्योंकि वे पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  21. भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के परिणाम जिनका लक्षण है ऐसे जो बन्ध-स्थान वे सर्व ही जीव के नहीं हैं क्योंकि वे पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  22. अपने फल के उत्पन्न करने में समर्थ कर्म-अवस्था जिनका लक्षण है ऐसे जो उदय-स्थान वे सर्व ही जीव के नहीं है क्योंकि वह पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  23. गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहार जिनका लक्षण है ऐसे जो मार्गणा-स्थान हैं वे सर्व ही जीव के नहीं हैं, क्योंकि वे पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  24. भिन्न-भिन्न प्रकृतियों का अमुक मर्यादा तक कालान्तर में साथ रहना जिनका लक्षण है ऐसे जो स्थिति-बन्ध-स्थान वे सर्व ही जीव के नहीं हैं क्योंकि वे पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  25. कषायों के विपाक की अतिशयता जिनका लक्षण है ऐसे जो संक्लेश-स्थान वे सर्व ही जीव के नहीं हैं क्योंकि वे पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  26. कषायों के विपाक की मन्दता जिनका लक्षण है ऐसे जो विशुद्धि-स्थान हैं वे सर्व ही जीव के नहीं हैं क्योंकि वे पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  27. चारित्र-मोह के विपाक की क्रमश: निवृत्ति जिनका लक्षण हैं ऐसे जो संयम-लब्धि-स्थान हैं वे सर्व ही जीव के नहीं हैं क्योंकि वे पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  28. पर्याप्त एवं अपर्याप्त ऐसे बादर-सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी-असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जिनका लक्षण हैं, ऐसे जो जीव-स्थान हैं वे सर्व ही जीव के नहीं हैं क्योंकि वह पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
  29. मिथ्यादृष्टि, सासन-सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत-सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण-उपशमक तथा क्षपक, अनिवृत्तिबादर-साम्पराय-उपशमक तथा क्षपक, सूक्ष्म साम्पराय-उपशमक तथा क्षपक, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली और अयोगकेवली जिनका लक्षण है ऐसे जो गुणस्थान हैं वे सर्व ही जीव के नहीं हैं क्योंकि वह पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से (अपनी) अनुभूति से भिन्न हैं
(इसप्रकार ये समस्त ही पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय भाव हैं; वे सब, जीव के नहीं हैं । जीव तो परमार्थ से चैतन्य-शक्तिमात्र है ।)

जयसेनाचार्य :
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श जो रूप शब्द से वाच्य हैं और स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण वाली मूर्ति और औदारिक आदि पांच शरीर समचतुरस्र आदि छह संस्थान, वज्रवृषभनाराच आदि छह सहनन हैं - ये सभी वर्णादिक शुद्ध-निश्चय-नय से धर्मी जीव के नहीं है । यह साध्य अथवा धर्म हुआ । धर्म और धर्मी दोनों मिलकर समुदाय रूप पक्ष हुआ । जिसको आस्था, संधा या प्रतिज्ञा नाम से भी कहा जाता है । ये सब जीव के नहीं हैं । क्योंकि ये पुद्गल-द्रव्य परिणाम-मय होने से शुद्धात्मानुभूति से भिन्न हैं, यह हेतु है । इसप्रकार यहां व्याख्यान में पक्ष, हेतु रूप से दो अंगोंवाला अनुमान जानना चाहिए ।

अब राग-द्वेष-मोह और मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच प्रत्यय तथा मूल प्रकृतियों एवं उत्तर प्रकृतियों के भेद से भिन्न किए जाने वाले ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्म और औदारिक वैक्रियक आहारक ये तीन शरीर, आहार आदि छह पर्याप्ति रूप नोकर्म ये सभी शुद्ध-निश्चय-नय से जीव के नहीं हैं ।

प्रश्न – किस कारण से जीव के नहीं हैं ?

उत्तर – क्योंकि ये सभी पुद्गल-परिणाम-मय होने से शुद्धात्मानुभूति से भिन्न हैं ।

अब परमाणु के अविभाग-प्रतिच्छेद-रूप शक्ति के समूह को वर्ग कहते हैं । वर्गों के समूह को वर्गणा कहते हैं तथा वर्गणा के समूह को स्पर्द्धक कहते हैं, ये सभी जीव के नहीं है । अथवा कर्मशक्ति की क्रमश: जो विशेष बृद्धि ही स्पर्द्धक का लक्षण है । इसी-प्रकार वर्ग, वर्गणा और स्पर्द्धक तीनों का लक्षण आगम में कहा गया है - 'अणु की शक्ति के समूह को वर्ग कहते हैं, बहुत से वर्गों के समूह को वर्गणा कहते हैं और वर्गणाओं के समूह को स्पर्द्धक कहते हैं इन तीनों का लक्षण स्पर्द्धकों को नाश करने वालों द्वारा कथित है ।'

शुभाशुभ रागादि विकल्प-रूप अध्यवसान कहे गये हैं वे भी जीव के नहीं हैं । लता, दारू, अस्थि, पाषाण शक्ति-रूप चार घातिया-कर्मों के अनुभाग-स्थान कहे गये हैं । गुड़, खाण्ड, शर्करा, अमृत के समान शुभ अघाति-कर्मों के अनुभाग-स्थान कहे गये हैं । निम्ब, कांजीर, विष, हलाहल के समान अशुभ अघाति कर्मों के अनुभाग-स्थान कहे गये हैं । ये सभी अनुभाग-स्थान शुद्ध-नय से जीव के नहीं है ।

प्रश्न – किस कारण से जीव के नहीं हैं ?

उत्तर – क्योंकि पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से शुद्धात्मानुभूति से भिन्न हैं ।

अब वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले मन, वचन, काय की वर्गणा के आलम्बन से कर्म ग्रहण करने को हेतुभूत जो आत्म-प्रदेशों का परिस्पन्दन-कम्पन है लक्षण जिनका ऐसे योग-स्थान हैं । प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप चार प्रकार के बन्ध-स्थान हैं; सुख-दु:ख रूप फल के अनुभव रूप उदय-स्थान हैं और गति आदि मार्गणा-स्थान हैं । ये सर्व ही शुद्ध-निश्चय-नय से जीव के नहीं है ।

प्रश्न – किस कारण से जीव के नहीं हैं ?

उत्तर – क्योंकि ये सभी पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से शुद्धात्मानुभूति से भिन्न हैं ।

अब जीव के साथ कुछ काल तक रहने वाले स्थिति-बन्ध-स्थान हैं, कषाय के उद्रेक आवेग-रूप संक्लेश-स्थान हैं, कषाय के मंद उदय रूप विशुद्धि-स्थान हैं, कषाय की क्रमश: हानि रूप संयम-लब्धि-स्थान हैं । ये सर्व ही शुद्ध-निश्चय-नय से जीव के नहीं हैं ।

प्रश्न – किस कारण से जीव के नहीं हैं ?

उत्तर – क्योंकि ये सभी पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से शुद्धात्मानुभूति से भिन्न हैं ।

अब शुद्ध-निश्चयनय नय से -

बादर सुहमेंइदी वितिचउरिंदी असण्णिसण्णीणं
पज्जतापज्जता एवं ते चउदसा होन्ति ॥ (गो.जी.-७२)

इसप्रकार गाथा में कहे गये क्रम से बादर एकेन्द्रिय (सूक्ष्म एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असैनी पञ्चेन्द्रिय, सैनी पञ्चेन्द्रिय) आदि (सात पर्याप्त तथा सात अपर्याप्त ऐसे) चौदह जीवस्थान, मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थान ये सभी जीव के नहीं है ।

प्रश्न – किस कारण से जीव के नहीं हैं ?

उत्तर – क्योंकि ये सभी पुद्गल-द्रव्य के परिणाम-मय होने से शुद्धात्मानुभूति से भिन्न हैं ।

प्रश्न – कैसे भिन्न हैं ?

उत्तर – कारण कि ये वर्णादि से लेकर गुणस्थानान्त-पर्यन्त परिणाम शुद्ध-निश्चय-नय से पुद्गल-द्रव्य की पर्यायें हैं । -- यहां यह भावार्थ है सिद्धान्त ग्रन्थों (आगम ग्रन्थों) में अशुद्ध-पर्यायार्थिक-नय से अन्तरङ्ग में होने वाले रागादि-भाव तथा बहिरङ्ग में शरीर के वर्ण की अपेक्षा से वर्णादिक भावों को जीव कहा है । परन्तु यहां अध्यात्म शास्त्र (परमागम) में शुद्ध-निश्चय-नय से उनको (वर्णादि-गुणस्थानान्त-पर्यन्त भावों को) जीव मानने को निषेध किया है । यहां नय-विवक्षा की अपेक्षा विरोध नहीं है । इस-प्रकार वर्णादि भाव के विशेष कथन रूप से छह गाथा सूत्र पूर्ण हुए ॥५५-६०॥

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+ व्यवहार से वर्णादि भाव जीव के, निश्चय से नहीं -
ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया । (56)
गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स ॥61॥
व्यवहारेण त्वेते जीवस्य भवन्ति वर्णाद्या:
गुणस्थानान्ता भावा न तु केचिन्निश्चयनयस्य ॥५६॥
वर्णादि गुणस्थानान्त भाव जु, जीव के व्यवहार से
पर कोई भी ये भाव नहिं हैं, जीव के निश्चयविषैं ॥५६॥
अन्वयार्थ : [एदे] यह [वण्णमादीया] वर्ण को आदि लेकर [गुणठाणंता] गुणस्थान-पर्यन्त जो [भावा] भाव कहे गये वे [ववहारेण दु] व्यवहार-नय से तो [जीवस्स हवंति] जीव के हैं [दु] किन्तु [णिच्छयणयस्स] निश्चय-नय से [केई ण] कोई भी नहीं हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब शिष्य पूछता है कि - यदि यह वर्णादिक भाव जीव के नहीं हैं तो अन्य सिद्धान्त-ग्रन्थों में ऐसा कैसे कहा गया है कि 'वे जीव के हैं' ? उसका उत्तर गाथा में कहते हैं :-

यहाँ, व्यवहार-नय पर्यायाश्रित होने से, सफेद रूई से बना हुआ वस्त्र जो कि कुसुम्बी (लाल) रङ्ग से रँगा हुआ है ऐसे वस्त्र के औपाधिक भाव (लाल रङ्ग) की भाँति, पुद्गल के संयोगवश अनादिकाल से जिसकी बन्धपर्याय प्रसिद्ध है ऐसे जीव के औपाधिक भाव (वर्णादिक) का अवलम्बन लेकर प्रवर्तमान होता हुआ, (वह व्यवहार-नय) दूसरे के भाव को दूसरे का कहता है; और निश्चय-नय द्रव्याश्रित होने से, केवल एक जीव के स्वाभाविक भाव का अवलम्बन लेकर प्रवर्तमान होता हुआ, दूसरे के भाव को किञ्चित्मात्र भी दूसरे का नहीं कहता, निषेध करता है । इसलिए वर्ण से लेकर गुणस्थान पर्यन्त जो भाव हैं वे व्यवहार-नय से जीव के हैं और निश्चय-नय से जीव के नहीं हैं ऐसा (भगवान का स्याद्वादयुक्त) कथन योग्य है ।

जयसेनाचार्य :
ये वर्णादि गुणस्थान पर्यन्त भाव-पर्यायें व्यवहारनय से जीव के हैं परन्तु निश्चयनय से वे कोई भी जीव के नहीं हैं । इसप्रकार निश्चय-व्यवहार के समर्थनरूप से गाथा पूर्ण हुई ॥६१॥

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+ जीव का वर्णादि के साथ संयोग सम्बन्ध -
एदेहिं य सम्बन्धो जहेव खीरोदयं मुणेदव्वो । (57)
ण य होंति तस्स ताणि दु उवओगगुणाधिगो जम्हा ॥62॥
एतैश्च सम्बन्धो यथैव क्षीरोदकं ज्ञातव्य: ।
न च भवन्ति तस्य तानि तूपयोगगुणाधिको यस्मात् ॥५७॥
इन भाव से सम्बन्ध जीव का, क्षीर जलवत् जानना
उपयोग गुण से अधिक, तिससे भाव कोई न जीव का ॥५७॥
अन्वयार्थ : [एदेहिं य सम्बन्धो] इन वर्णादिक भावों के साथ जीव का सम्बन्ध [जहेव खीरोदयं] दूध और पानी जैसा (एक-क्षेत्रावगाह-रूप संयोग-सम्बन्ध) [मुणेदव्वो] जानना [य] और [ताणि] वे [तस्स दु ण होंति] उस जीव के नहीं हैं [जम्हा] क्योंकि जीव [उवओगगुणाधिगो] उनसे उपयोग-गुण से अधिक / भिन्न है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब फिर शिष्य प्रश्न पूछता है कि वर्णादिक निश्चय से जीव के क्यों नहीं हैं इसका कारण कहिये । इसका उत्तर गाथारूप से कहते हैं :-

जैसे जल-मिश्रित दूध का, जल के साथ परस्पर अवगाह-स्वरूप सम्बन्ध होने पर भी, स्व-लक्षण-भूत दुग्धत्व-गुण के द्वारा व्याप्त होने से दूध जल से अधिकपने से प्रतीत होता है; इसलिए जैसा अग्नि का उष्णता के साथ तादात्म्य-स्वरूप सम्बन्ध है वैसा जल के साथ दूध का सम्बन्ध न होने से, निश्चय से जल दूध का नहीं है; इसप्रकार वर्णादिक पुद्गल-द्रव्य के परिणामों के साथ मिश्रित इस आत्मा का, पुद्गल-द्रव्य के साथ परस्पर अवगाह-स्वरूप सम्बन्ध होने पर भी, स्व-लक्षण-भूत उपयोग गुण के द्वारा व्याप्त होने से आत्मा सर्व द्रव्यों से अधिकपने से (परिपूर्णपने से) प्रतीत होता है; इसलिए जैसा अग्नि का उष्णता के साथ तादात्म्य-स्वरूप सम्बन्ध है वैसा वर्णादिक के साथ आत्मा का सम्बन्ध नहीं है, इसलिए निश्चय से वर्णादिक पुद्गल परिणाम आत्मा के नहीं है ।

जयसेनाचार्य :
[एदेहिं य सम्बन्धो जहेव खीरोदयं मुणेदव्वो] इन पूर्वोक्त पर्यायरूप वर्णादि से लेकर गुणस्थान के अन्तर्गत आनेवाले भावों के साथ जीव का वैसा ही संश्लेष सम्बन्ध है, जैसा कि दूध एवं जल में संश्लेष सम्बन्ध होता है । ऐसा मानना योग्य है परन्तु अग्नि और उष्णता की तरह तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है

प्रश्न – तादात्म्य सम्बन्ध क्यों नहीं है ? [ण य होंति तस्स ताणि दु ]

उत्तर – वर्णादिक से लेकर गुणस्थान-पर्यन्त भाव उस जीव के नहीं हैं ।

प्रश्न – किस कारण से जीव के नहीं हैं ?

उत्तर – [उवओग गुणाधिगो जम्हा] क्योंकि जैसे अग्नि उष्णता से परिपूर्ण है, वैसे जीव केवल-ज्ञान केवल-दर्शन गुण से अधिक है, परिपूर्ण है ।

प्रश्न – यहां जो बहिरंग वर्णादिक हैं उनका जीव के साथ संश्लेष सम्बन्ध क्षीर-नीर (दूध-पानी) की तरह व्यवहार से भले होने परन्तु अभ्यन्तर में होने वाले रागादिक भावों का संयोग सम्बन्ध नहीं होना चाहिए ।

उत्तर – ऐसा नहीं है, क्योंकि द्रव्य-कर्म बन्ध की अपेक्षा जो असद्भूत-व्यवहार है उसकी अपेक्षा से तारतम्यता दिखलाने के लिए रागादिक भावों को अशुद्ध निश्चय से कहा जाता है परन्तु वस्तुत: शुद्ध-निश्चय-नय की अपेक्षा से तो अशुद्ध-निश्चय-नय भी व्यवहार ही है, ऐसा भावार्थ है ॥५७॥

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+ दृष्टांत द्वारा सम्बन्ध को बतलाते हैं -
पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी । (58)
मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई ॥63॥
तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं । (59)
जीवस्स एस वण्णो जिणेहिं ववहारदो उत्तो ॥64॥
गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य । (60)
सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति ॥65॥
पथि मुष्यमाणं द्य्ष्ट्वा लोका भणन्ति व्यवहारिण:
मुष्यते एष पन्था न च पन्था मुष्यते कश्चित ॥५८॥
तथा जीवे कर्मणां नोकर्मणां च द्य्ष्ट्वा वर्णम्
जीवस्यैष वर्णो जिनैर्व्यवहारत: उक्त:॥५९॥
गंधरसस्पर्शरूपाणि देह: संस्थानादयो ये च
सर्वे व्यवहारस्य च निश्चयद्रष्टारो व्यपदिशन्ति ॥६०॥
देखा लुटाते पंथमें को, पन्थ ये लुटात है-
जनगण कहे व्यवहार से, नहिं पन्थ को लुटात है ॥५८॥
त्यों वर्ण देखा जीव में इन कर्म अरु नोकर्म का
जिनवर कहें व्यवहार से, 'यह वर्ण है इस जीव का' ॥५९॥
त्यों गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, तन, संस्थान इत्यादिक सबैं
भूतार्थदृष्टा पुरुष ने, व्यवहारनय से वर्णये ॥६०॥
अन्वयार्थ : [पंथे मुस्संतं] जैसे मार्ग में जाते हुए व्यक्ति को लुटता हुआ [पस्सिदूण] देखकर '[एसो पंथो] यह मार्ग [मुस्सदि] लुटता है,' इसप्रकार [ववहारी लोगा] व्यवहारीजन [भणंति] कहते हैं; किन्तु परमार्थ से विचार किया जाये तो [कोई पंथो] कोई मार्ग तो [ण य मुस्सदे] नहीं लुटता, (मार्ग में जाता हुआ मनुष्य ही लुटता है) [तह] इसीप्रकार [जीवे] जीव में [कम्माणं णोकम्माणं च] कर्मों का और नोकर्मों का [वण्णं] वर्ण [पस्सिदुं] देखकर '[जीवस्य] जीव का [एस वण्णो] यह वर्ण है' इसप्रकार [जिणेहिं] जिनेन्द्रदेव ने [ववहारदो] व्यवहार से [उत्तो] कहा है [एवं] इसीप्रकार [गंधरसफासरूवा] गन्ध, रस, स्पर्श, रूप, [देहो संठाणमाइया] देह, संस्थान आदि [जे य सव्वे] जो सब हैं, [ववहारस्स] वे सब व्यवहार से [णिच्छयदण्हू] निश्चय के देखनेवाले [ववदिसंति] कहते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब यहाँ प्रश्न होता है कि इसप्रकार तो व्यवहारनय और निश्चयनय का विरोध आता है,अविरोध कैसे कहा जा सकता है ? इसका उत्तर दृष्टान्त द्वारा तीन गाथाओं में कहते हैं :-

जैसे व्यवहारी जन, मार्ग में जाते हुए किसी सार्थ (धनी) को लुटता हुआ देखकर, धनी की मार्ग में स्थिति होने से उसका उपचार करके, 'यह मार्ग लुटता है' ऐसा कहते हैं, तथापि निश्चय से देखा जाये तो, जो आकाश के अमुक भागस्वरूप है वह मार्ग तो कुछ नहीं लुटता; इसीप्रकार भगवान अरहन्त-देव, जीव में बन्ध-पर्याय से स्थिति को प्राप्त कर्म और नोकर्म का वर्ण देखकर, कर्म-नोकर्म की जीव में स्थिति होने से उसका उपचार करके, 'जीव का यह वर्ण है' ऐसा व्यवहार से प्रगट करते हैं; तथापि निश्चय से सदा ही जिसका अमूर्त स्वभाव है और जो उपयोग गुण के द्वारा अन्य-द्रव्यों से अधिक है ऐसे जीव का कोई भी वर्ण नहीं है । इसीप्रकार गन्ध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ण, वर्गणा, स्पर्द्धक, अध्यात्म-स्थान, अनुभाग-स्थान, योग-स्थान, बन्ध-स्थान, उदय-स्थान, मार्गणा-स्थान, स्थिति-बन्ध-स्थान, संक्लेश-स्थान, विशुद्धिस्थान, संयम-लब्धि-स्थान, जीव-स्थान और गुणस्थान यह सब ही (भाव) व्यवहार से अरहन्त भगवान जीव के कहते हैं, तथापि निश्चय से, सदा ही जिसका अमूर्त स्वभाव है और जो उपयोग गुण के द्वारा अन्य से अधिक है ऐसे जीव के वे सब नहीं हैं, क्योंकि इन वर्णादि भावों के और जीव के तादात्म्य-लक्षण सम्बन्ध का अभाव है ।

जयसेनाचार्य :
[पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी] मार्ग में सार्थ (धनी पुरुष) को लुटा हुआ देखकर व्यवहारी-जन कहते हैं । क्या कहते हैं ? [मुस्सदि ऐसो पंथो] यह सामने वाला मार्ग चोरों से लुटता है । [ण य पंथो मुस्सदि कोई] शुद्ध आकाश लक्षण वाला मार्ग किसी से भी लुटता नहीं हैं यह दृष्टान्त गाथा पूर्ण हुई । [तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं] उसीप्रकार उस मार्ग के धनी के दृष्टान्त से आधार-भूत जीव में कर्मों-नोकर्मों का सफेद आदि वर्ण देखकर [जीवस्स एस वण्णो जिणेहि ववहार दो उत्तो] जीव का यह वर्ण है ऐसा जिनेन्द्र द्वारा व्यवहार से कहा गया है । इसतरह यह दृष्टान्त गाथा पूर्ण हुई ।

[एवं रस गंध फासा संठाणादीय जे समु टि्ठा] इसीप्रकार दृष्टान्त - दार्ष्टान्त न्याय से रस, गन्ध, स्पर्श, संस्थान, संहनन, रागद्वेष मोह आदि जो पूर्वोक्त छह गाथाओं में कहे गये हैं । [सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदणहूं ववदिसन्ति] वे सभी व्यवहारनय के अभिप्राय से जीव के हैं ऐसा निश्चय के जानने वाले कहते हैं, उसमें व्यवहार से विरोध नहीं है ।

इसतरह दृष्टान्त-दार्ष्टान्तरूप से व्यवहारनय के समर्थन रूप तीन गाथाएं पूर्ण हुईं । इसतरह शुद्ध जीव ही उपादेय है, ऐसे प्रतिपादन की मुख्यता से बारह गाथाओं द्वारा दूसरा अन्तराधिकार कहा गया है ॥६३-६५॥

इसके बाद जीव के निश्चय से वर्णादि के साथ तादात्म्य-सम्बन्ध नहीं हैं । ऐसा पुन: दृढ़ करने के लिए आठ गाथा पर्यन्त व्याख्यान करते हैं । वहां इसप्रकार आठ गाथाओं द्वारा तीसरे स्थल में यह समुदाय पीठिका है । वह इस प्रकार है :-

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+ वर्णादि भाव के साथ जीव का तादात्म्य नहीं -
तत्थ भवे जीवाणं संसारत्थाण होंति वण्णादि । (61)
संसारपमुक्काणं णत्थि हु वण्णादओ केई ॥66॥
तत्र भवे जीवानां संसारस्थानां भवन्ति वर्णादय:
संसारप्रमुक्तानां न सन्ति खलु वर्णादय: केचित् ॥६१॥
संसारी जीव के वर्ण आदिक, भाव हैं संसार में
संसार से परिमुक्त के नहिं, भाव को वर्णादिके ॥६१॥
अन्वयार्थ : [वण्णादि] वर्णादि भाव [संसारत्थाण] संसार में स्थित [जीवाणं] जीवों के [तत्थ भवे] उस संसार में [होंति] होते हैं, और [संसारपमुक्काणं] संसार से मुक्त हुए जीवों के [हु] निश्चय से [वण्णादओ केई] वर्णादिक कोई भी (भाव) [णत्थि] नहीं ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब यहाँ प्रश्न होता है कि वर्णादि के साथ जीव का तादात्म्य-लक्षण सम्बन्ध क्यों नहीं है ? उसके उत्तरस्वरूप गाथा कहते हैं :-

जो निश्चय से समस्त ही अवस्थाओं में यद्आत्मकपने (जिस-स्वरूपपने) से व्याप्त हो और तद्आत्मपने (उस स्वरूपपने) की व्याप्ति से रहित न हो, उसका उनके साथ तादात्म्य-लक्षण सम्बन्ध होता है । (जो वस्तु सर्व अवस्थाओं में जिस भाव-स्वरूप हो और किसी अवस्था में उस भाव-स्वरूपता को न छोड़े, उस वस्तु का उन भावों के साथ तादात्म्य-सम्बन्ध होता है ।) इसलिए सभी अवस्थाओं में जो वर्णादि-स्वरूपता से व्याप्त होता है और वर्णादि-स्वरूपता की व्याप्ति से रहित नहीं होता ऐसे पुद्गल का वर्णादिभावों के साथ तादात्म्य-लक्षण सम्बन्ध है; और यद्यपि संसारावस्था में कथञ्चित् वर्णादि-स्वरूपता से व्याप्त होता है तथा वर्णादि-स्वरूपता की व्याप्ति से रहित नहीं होता तथापि मोक्ष-अवस्था में जो सर्वथा वर्णादि-स्वरूपता की व्याप्ति से रहित होता है और वर्णादि-स्वरूपता से व्याप्त नहीं होता ऐसे जीव का वर्णादि भावों के साथ किसी भी प्रकार से तादात्म्य-लक्षण सम्बन्ध नहीं है ।

जयसेनाचार्य :
[तत्थभवे जीवाणं संसारत्था होंति वण्णादि ] वहां विवक्षित (वर्तमान) भव तथा अविवक्षित (भूत एवं भविष्यकालीन) भव में जो संसार में स्थित हैं, उन्हीं जीवों के अशुद्ध-नय से वर्णादिक हैं । [संसार पमुक्काणं] लेकिन संसार से मुक्त जीवों का [णत्थि हु वण्णादओ केई] पुद्गल में पाये जाने वाले वर्णादि के साथ तादात्म्य सम्बन्ध का अभाव है । अथवा केवलज्ञानादि गुण का सिद्धत्वादि पर्याय के साथ जैसा तादात्म्य सम्बन्ध है वैसे तादात्म्य सम्बन्ध का अभाव होने से अशुद्धनय से भी वर्णादिक का जीव के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । इसप्रकार जीव का वर्णादि के साथ तादात्म्य सम्बन्ध के निषेध रूप से गाथा पूर्ण हुई ॥६६॥

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+ जीव का वर्णादि से तादात्म्य में दोष -
जीवो चेव हि एदे सव्वे भाव त्ति मण्णसे जदि हि । (62)
जीवस्साजीवस्स य णत्थि विसेसो दु दे कोई ॥67॥
जीवश्चैव ह्येते सर्वे भावा इति मन्यसे यदि हि
जीवस्याजीवस्य च नास्ति विशेषस्तु ते कश्चित् ॥६२॥
वर्णादिमय ही जीव हैं तुम यदी मानो इस तरह
तब जीव और अजीव में अन्तर करोगे किस तरह ॥६२॥
अन्वयार्थ : [जदि हि] यदि ऐसा ही [त्ति मण्णसे] मानोगे कि [एदे सव्वे भाव] यह (वर्णादिक) सर्वभाव [जीवो चेव हि] जीव ही हैं, [दु] तो [दे] तुम्हारे मत में [जीवस्साजीवस्स य] जीव और अजीव का [कोई] कोई [विसेसो] भेद [णत्थि] नहीं रहता ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब, यदि कोई ऐसा मिथ्या अभिप्राय व्यक्त करे कि जीव का वर्णादि के साथ तादात्म्य है, तो उसमें यह दोष आता है ऐसा इस गाथा द्वारा कहते हैं :-

जैसे वर्णादिक भाव, क्रमश: आविर्भाव (प्रगट होना, उपजना) और तिरोभाव (छिप जाना, नाश हो जाना) को प्राप्त होती हुई ऐसी उन-उन व्यक्तियों के द्वारा (पर्यायों के द्वारा) पुद्गल-द्रव्य के साथ ही साथ रहते हुए, पुद्गल का वर्णादिक के साथ तादात्म्य प्रसिद्ध करते हैं -- विस्तारते हैं, इसीप्रकार वर्णादिक भाव, क्रमश: आविर्भाव और तिरोभाव को प्राप्त होती हुईं ऐसी उन-उन व्यक्तियों के द्वारा जीव के साथ ही साथ रहते हुए, जीव का वर्णादि के साथ तादात्म्य प्रसिद्ध करते हैं, ऐसा जिसका अभिप्राय है उसके मत में, अन्य शेष द्रव्यों से असाधारण ऐसी वर्णादि स्वरूपता जो पुद्गल-द्रव्य का लक्षण है उसका जीव के द्वारा अङ्गीकार किया जाता है इसलिए जीव-पुद्गल के अविशेष का प्रसङ्ग आता है, और ऐसा होने से पुद्गलों से भिन्न ऐसा कोई जीव-द्रव्य न रहने से, जीव का अवश्य अभाव होता है ।

जयसेनाचार्य :
[जीवो चेव हि एदे सव्वे भावा त्ति मण्णसे जदि हि] जैसे अनन्तज्ञान, अव्याबाध सुख आदि गुण ही जीव हैं और वर्णादि गुण पुद्गल हैं वैसे ही स्पष्ट रूप से ये वर्णादिसर्वभाव जीव ही हैं ऐसा यदि तू मानता है या माना जावे [जीवस्याजीवस्स य णत्थि विसेसो दु दे कोई] तो क्या दोष है ? विशद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाले जीव का और जड़त्व स्वभाव लक्षणवाले अजीव का उसके मत में कोई भेद नहीं रहता है । तब जीव के अभावरूप दोष को प्राप्त होता है, ऐसा सूत्र का अर्थ है ॥६७॥

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+ संसार अवस्था में जीव के वर्णादि से तादात्म्य में दोष -
अह संसारत्थाणं जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी । (63)
तम्हा संसारत्था जीवा रूवित्तमावण्णा ॥68॥
एवं पोग्गलदव्वं जीवो तहलक्खणेण मूढमदी । (64)
णिव्वाणमुवगदो वि य जीवत्तं पोग्गलो पत्तो ॥69॥
अथ संसारस्थानां जीवानां तव भवन्ति वर्णादय:
तस्मात् - संसारस्था जीवा रूपित्वमापन्ना: ॥६३॥
एवं पुद्गलद्रव्यं जीवस्तथालक्षणेन मूढमते
निर्वाणमुपगतोऽपि च जीवत्वं पुद्गल: प्राप्त: ॥६४॥
मानो उन्हें वर्णादिमय जो जीव हैं संसार में ।
तब जीव संसारी सभी वर्णादिमय हो जायेंगे ॥६३॥
यदि लक्षणों की एकता से जीव हों पुद्गल सभी ।
बस इसतरह तो सिद्ध होंगे सिद्ध भी पुद्गलमयी ॥६४॥
अन्वयार्थ : [अह] अथवा यदि [तुज्झ] तुम्हारा मत यह हो कि [संसारत्थाणं जीवाणं] संसार में स्थित जीवों के ही [वण्णादी] वर्णादिक (तादात्म्य-स्वरूप से) [होंति] हैं, [तम्हा] तो इस कारण से [संसारत्था जीवा] संसार में स्थित जीव [रूवित्तमावण्णा] रूपित्व को प्राप्त हुये; [एवं] ऐसा होने से, [तहलक्खणेण] वैसा लक्षण (अर्थात् रूपित्व-लक्षण) तो पुद्गल-द्रव्य का होने से, [मूढमदी] हे मूढ़बुद्धि ! [पोग्गलदव्वं] पुद्गल-द्रव्य ही [जीवो] जीव कहलाया [य] और (मात्र संसार-अवस्था में ही नहीं किन्तु) [णिव्वाणमुवगदो वि] निर्वाण प्राप्त होने पर भी [पोग्गलो] पुद्गल ही [जीवत्तं] जीवत्व को [पत्तो] प्राप्त हुआ ।

अमृतचंद्राचार्य :
फिर, जिसका यह अभिप्राय है कि संसार अवस्था में जीव का वर्णादिभावों के साथ तादात्म्य-सम्बन्ध है, उसके मत में संसार-अवस्था के समय वह जीव अवश्य रूपित्व को प्राप्त होता है; और रूपित्व तो किसी द्रव्य का, शेष द्रव्यों से असाधारण ऐसा लक्षण है, इसलिए रूपित्व (लक्षण) से लक्षित (लक्षय-रूप होता हुआ) जो कुछ हो वही जीव है । रूपित्व से लक्षित तो पुद्गल-द्रव्य ही है । इसप्रकार पुद्गल-द्रव्य ही स्वयं जीव है, किन्तु उसके अतिरिक्त दूसरा कोई जीव नहीं है । ऐसा होने पर, मोक्ष-अवस्था में भी पुद्गल-द्रव्य ही स्वयं जीव (सिद्ध होता) है, किन्तु उसके अतिरिक्त अन्य कोई जीव (सिद्ध होता) नहीं; क्योंकि सदा अपने स्व-लक्षण से लक्षित ऐसा द्रव्य सभी अवस्थाओं में हानि अथवा ह्रासको न प्राप्त होने से अनादि अनन्त होता है । ऐसा होने से, उसके मत में भी (संसार-अवस्था में ही जीव का वर्णादि के साथ तादात्म्य माननेवाले के मत में भी) पुद्गलों से भिन्न ऐसा कोई जीवद्रव्य न रहने से जीव का अवश्य अभाव होता है ।

जयसेनाचार्य :
[जदि संसारत्थाणं जीवाणंतुज्झ होंति वण्णादि] संसार अवस्था में स्थित जीवों के पुद्गल की तरह ही वर्णादि गुण हैं, यदि तेरे मत या अभिप्राय से एकान्त मान लिया जाये [तम्हा संसारत्था जीवा रूवित्तमावणा] तो संसार में स्थित जीवों के अमूर्त अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय लक्षण छोड़कर, शुक्ल कृष्ण आदि लक्षणवाले मूर्तिकपने को प्राप्त होते हैं यह दोष प्राप्त होता है । [एवं पुग्गलदव्वं जीवो लक्खणेणमूढ़मदी] हे मूढ़मति जीव ! तेरे अभिप्राय से पूर्वोक्त प्रकार से जीव के रूपीपना होने पर पुद्गलद्रव्य ही जीव है, इससे भिन्न विशुद्ध चैतन्य चमत्कार वाला जीव कोई अन्य नहीं ठहरा । इतना ही नहीं कि संसार अवस्था में पुद्गल ही जीवपने को प्राप्त हुआ । [णिव्वाणमुवगदो वि य जीवत्तं पुग्गलो पत्तो] अपितु मोक्ष को प्राप्त होने पर भी पुद्गल ही जीवपने को प्राप्त हुआ, इससे अन्य कोई भी चिद्रूप जीव (मोक्ष में) नहीं रहा ।

प्रश्न – किस कारण से चिद्रूप जीव नहीं रहा ?

उत्तर – क्योंकि वर्णादि का तादात्म्य पुद्गल के साथ है, इसका निषेध अशक्य होने से जीव का अभाव (सिद्ध) हुआ ।

विशेष यह कि संसार अवस्था में एकान्त से जीव का वर्णादि के साथ तादात्म्य होने पर मोक्ष ही घटित नहीं होता ।

प्रश्न – क्यों घटित नहीं होता है ?

उत्तर – क्योंकि केवलज्ञान आदि चतुष्टय की व्यक्ति (प्रगट) रूप कार्य समयसार की मोक्ष संज्ञा है और जीव को पुद्गलपना प्राप्त होने से सम्भव नहीं है, ऐसा भावार्थ है ।

इस प्रकार वर्णादि का जीव के साथ तादात्म्य मानने पर जीव के अभावरूप दोष प्राप्त होता है, इस प्रकार तीन गाथाएं पूर्ण हुईं ॥६८-६९॥

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+ अत: नाम-कर्म का उदय जीव नहीं है -
एक्कं च दोण्णि तिप्णि य चत्तारि य पंच इन्दिया जीवा । (65)
बादरपज्जत्तिदरा पयडीओ णामकम्मस्स ॥70॥
एदाहि य णिव्वत्ता जीवट्ठाणा उ करणभूदाहिं । (66)
पयडीहिं पोग्गलमइहिं ताहिं कहं भण्णदे जीवो ॥71॥
एकं वा द्वे त्रीणि च चत्वारि च पञ्चेन्द्रियाणि जीवा:
बादरपर्याप्तेतरा: प्रकृतयो नामकर्मण: ॥६५॥
एताभिश्च निर्वृत्तानि जीवस्थानानि करणभूताभि:
प्रकृतिभि: पुद्गलमयीभिस्ताभि: कथं भण्यते जीव: ॥६६॥
जीव एक-दो-त्रय-चार-पञ्चेन्द्रिय, बादर, सूक्ष्म हैं
पर्याप्त अनपर्याप्त जीव जु नामकर्म की प्रकृति है ॥६५॥
जो प्रकृति यह पुद्गलमयी, वह करणरूप बने अरे
उससे रचित जीवथान जो हैं, जीव क्यों हि कहाय वे ॥६६॥
अन्वयार्थ : [एक्कं च] एकेन्द्रिय, [दोण्णि] द्वीन्द्रिय, [तिप्णि य] और त्रीन्द्रिय, [चत्तारि य] चतुरिन्द्रिय, और [पंच इन्दिया] पन्चेन्द्रिय, [बादरपज्जत्तिदरा] बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त [जीवा] जीव ये [णामकम्मस्स] नामकर्म की [पयडीओ] प्रकृतियाँ हैं; [एदाहि य] इन [पयडीहिं] प्रकृतियों [पोग्गलमइहिं ताहिं] जो कि पुद्गल-मय-रूप से प्रसिद्ध हैं उनके द्वारा [करणभूदाहिं] करणस्वरूप होकर [णिव्वत्ता] रचित [जीवट्ठाणा] जो जीवस्थान (जीवसमास) हैं वे [जीवो] जीव [कहं] कैसे [भण्णदे] कहे जा सकते हैं ?

अमृतचंद्राचार्य :
इसप्रकार यह सिद्ध हुआ कि वर्णादिक भाव जीव नहीं हैं, यह अब कहते हैं :-

निश्चयनय से कर्म और करण की अभिन्नता होने से, 'जो जिससे किया जाता है (होता है) वह वही है' -- यह समझकर (निश्चय करके), जैसे सुवर्ण-पत्र सुवर्ण से किया जाता होने से सुवर्ण ही है, अन्य कुछ नहीं है, इसीप्रकार जीवस्थान बादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्त, अपर्याप्त नामक पुद्गलमयी नामकर्म की प्रकृतियों से किये जाते होने से पुद्गल ही हैं, जीव नहीं हैं । और नामकर्म की प्रकृतियों की पुद्गलमयता तो आगम से प्रसिद्ध है तथा अनुमान से भी जानी जा सकती है क्योंकि प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले शरीर आदि जो मूर्तिक भाव हैं वे कर्म-प्रकृतियों के कार्य हैं इसलिए कर्म-प्रकृतियाँ पुद्गलमय हैं ऐसा अनुमान हो सकता है ।

इसीप्रकार गन्ध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान और संहनन भी पुद्गलमय नामकर्म की प्रकृतियों के द्वारा रचित होने से पुद्गल से अभिन्न है; इसलिए मात्र जीवस्थानों को पुद्गलमय कहने पर इन सबको भी पुद्गलमय ही कथित समझना चाहिए ।

इसलिए वर्णादिक जीव नहीं हैं यह निश्चयनय का सिद्धान्त है ।

(कलश-३८ -- दोहा)
जिस वस्तु से जो बने, वह हो वही न अन्य ।
स्वर्णम्यान तो स्वर्ण है, असि है उससे अन्य ॥३८॥

[येन] जिस वस्तु से [अत्र यद् किञ्चित् निर्वर्त्यते] जो भाव बने, [तत:] वह भाव [तद्एव स्यात्] वह वस्तु ही है, [कथञ्चन] किसी भी प्रकार [अन्यत् न] अन्य वस्तु नहीं हैं; [इह] जैसे जगत में [रुक्मेण निर्वृत्तम् असिकोशं] स्वर्णनिर्मित म्यान को [रुक्मं पश्यन्ति] लोग स्वर्ण ही देखते हैं, (उसे) [कथञ्चन] किसीप्रकार से [न असिम्] तलवार नहीं देखते ॥३८॥

(कलश-३९ -- उपजाति)
वर्णादिक जो भाव हैं, वे सब पुद्गलजन्य ।
एक शुद्ध विज्ञानघन, आतम इनसे भिन्न ॥३९॥

अहो ज्ञानी जनों ! [इदं वर्णादिसामग्र्यम्] वे वर्णादिक से लेकर गुणस्थान पर्यन्त भाव हैं उन समस्त को [एकस्य पुद्गलस्य हि निर्माणम्] एक पुद्गल की रचना [विदन्तु] जानो; [तत:] इसलिए [इदं] यह भाव [पुद्गल: एव अस्तु] पुद्गल ही हों, [न आत्मा] आत्मा न हों ; [यत:] क्योंकि [स: विज्ञानघन:] आत्मा तो विज्ञानघन है, ज्ञान का पुञ्ज है, [तत:] इसलिए [अन्य:] वह इन वर्णादिक भावों से अन्य ही है ॥३९॥

जयसेनाचार्य :
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय और पञ्चेन्द्रिय, संज्ञी, असंज्ञी, बादर (सूक्ष्म), पर्याप्त और अपर्याप्त नामक प्रकृतियां है ।

प्रश्न – किससे सम्बन्धित प्रकृतियां हैं ?

उत्तर – नामकर्म से सम्बन्धित प्रकृतियां हैं ।

अब अमूर्त, अतीन्द्रिय, निरञ्जन परमात्म-तत्त्व से भिन्न इन पुद्गल-मयी कर्म प्रकृतियों से निर्मित चौदह जीव-स्थान निश्चय-नय से जीव कैसे हो सकते हैं ? किसी भी प्रकार से जीव नहीं हो सकते हैं ।

विशेष यह है कि जिसप्रकार स्वर्ण के द्वारा निर्मित तलवार की म्यान स्वर्ण ही है, उसीप्रकार पुद्गल-मय प्रकृतियों से निर्मित जीव-स्थान पुद्गल-द्रव्य स्वरूप ही हैं और वे जीव स्वरूप नहीं हैं । इसप्रकार उस जीव-स्थान के उदाहरण द्वारा उसके आश्रय-भूत (पुद्गलाश्रित) वर्णादि भी पुद्गल-स्वरूप ही हैं, जीव स्वरूप नहीं हैं ऐसा आशय है ।

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+ देह को जीव कहना व्यवहार -
पज्जत्तापज्जत्ता जे सुहुमा बादरा य जे चेव । (67)
देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता ॥72॥
पर्याप्तापर्याप्ता ये सूक्ष्मा बादराश्च ये चैव
देहस्य जीवसंज्ञा: सूत्रे व्यवहारत: उक्ता: ॥६७॥
पर्याप्त अनपर्याप्त जो, हैं सूक्ष्म अरु बादर सभी
व्यवहार से कही जीवसंज्ञा, देह को शास्त्रन महीं ॥६७॥
अन्वयार्थ : [जे] जो [पज्जत्तापज्जत्ता] पर्याप्त, अपर्याप्त [सुहुमा बादरा य] सूक्ष्म और बादर आदि [जे चेव] जितनी [देहस्य] देह की [जीवसण्णा] जीवसंज्ञा कही हैं वे सब [सुत्ते] सूत्र में [ववहारदो] व्यवहार से [उत्ता] कही हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब, यह कहते हैं कि ज्ञानघन आत्मा के अतिरिक्त जो कुछ है उसे जीव कहना सो सब व्यवहार मात्र है :-

बादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्त, अपर्याप्त -- इन शरीर की संज्ञाओं को (नामों को) सूत्र में जीवसंज्ञारूप से कहा है, वह 'पर' की प्रसिद्धि के कारण, 'घी के घड़े' की भाँति व्यवहार है -- कि जो व्यवहार अप्रयोजनार्थ है (अर्थात् उसमें प्रयोजनभूत वस्तु नहीं है)। इसी बात को स्पष्ट कहते हैं :-

जैसे किसी पुरुष को जन्म से लेकर मात्र 'घी का घड़ा' ही प्रसिद्ध (ज्ञात) हो ,उसके अतिरिक्त वह दूसरे घड़े को न जानता हो, उसे समझाने के लिए "जो यह 'घी का घड़ा' है सो मिट्टीमय है, घीमय नहीं'' इसप्रकार (समझाने वाले के द्वारा) घड़े में घी के घड़े का व्यवहार किया जाता है, क्योंकि उस पुरुष को 'घी का घड़ा' ही प्रसिद्ध (ज्ञात) है; इसीप्रकार इस अज्ञानी लोक को अनादि संसार से लेकर 'अशुद्ध-जीव' ही प्रसिद्ध (ज्ञात) है, वह शुद्ध-जीव को नहीं जानता, उसे समझाने के लिये (शुद्ध-जीव का ज्ञान कराने के लिये) जो यह "वर्णादिमान जीव है सो ज्ञानमय है, वर्णादिमय नहीं" इसप्रकार (सूत्र में) जीव मे वर्णादिमानपने का व्यवहार किया गया है, क्योंकि उस अज्ञानी लोक को 'वर्णादिमान जीव' ही प्रसिद्ध (ज्ञात) है ।

(कलश-४० -- दोहा)
कहने से घी का घड़ा, घड़ा न घीमय होय ।
कहने से वर्णादिमय, जीव न तन्मय होय ॥४०॥

[चेत्] यदि [घृतकुम्भाभिधाने अपि] 'घी का घड़ा' ऐसा कहने पर भी [कुम्भ: घृतमय: न] घड़ा है वह घी-मय नहीं है (मिट्टीमय ही है), [वर्णादिमत्-जीवजल्पने अपि] तो इसीप्रकार 'वर्णादिमान् जीव' ऐसा कहने पर भी [जीव: न तन्मय:] जीव है वह वर्णादिमय नहीं है (ज्ञानघन ही है)

जयसेनाचार्य :
[पज्जत्तापज्जता जे सुहमा बादरा य जे जीवा] पर्याप्त तथा अपर्याप्त, सूक्ष्म और बादर जो जीव कहे गये हैं । [देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता] वे पर्याप्त-अपर्याप्त शरीर को देखकर पर्याप्त अपर्याप्त, बादर-सूक्ष्म से भिन्न परम चैतन्य ज्योति लक्षण रूप शुद्धात्म स्वरूप से पृथक-रूप शरीर की वह जीव-संज्ञा कही गई है ।

प्रश्न – कहां कही गई है ?

उत्तर – सूत्र में अथवा परमागम में कही गई है ।

प्रश्न – किस से कही गई है ?

उत्तर – व्यवहार नय से कही गई है, इसमें दोष नहीं है ।

इसप्रकार जीवस्थान और जीवस्थान के आश्रित वर्णादि निश्चय से जीवस्वरूप नहीं हैं, इसप्रकार कथन रूप से तीन गाथाएं पूर्ण हुईं ॥७२॥

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+ अन्तरंग गुणस्थानादि भी जीव नहीं -
मोहणकम्मस्सुदया दु वण्णिया जे इमे गुणट्ठाणा । (68)
ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता ॥73॥
मोहनकर्मण उदयात्तु वर्णितानि यानीमानि गुणस्थानानि
तानि कथं भवन्ति जीवा यानि नित्यमचेतनान्युक्तानि ॥६८॥
मोहनकरम के उदय से, गुणस्थान जो ये वर्णये
वे क्यों बने आत्मा, निरन्तर जो अचेतन जिन कहे ? ॥६८॥
अन्वयार्थ : [जे इमे] जो यह [गुणट्ठाणा] गुणस्थान हैं वे [मोहणकम्मस्सुदया दु] मोहकर्म के उदय से होते हैं [वण्णिया] ऐसा (सर्वज्ञ द्वारा) वर्णन किया गया है; [ते] वे [जीवा] जीव [कह] कैसे [हवंति] हो सकते हैं कि जो [णिच्चम] सदा [अचेदणा] अचेतन [उत्ता] कहे गये हैं ?

अमृतचंद्राचार्य :
अब कहते हैं कि (जैसे वर्णादि भाव जीव नहीं हैं यह सिद्ध हुआ उसीप्रकार) यह भी सिद्ध हुआ कि रागादि भाव भी जीव नहीं हैं :-

ये मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान पौद्गलिक मोहकर्म की प्रकृति के उदयपूर्वक होते होने से, सदा ही अचेतन होने से, 'कारण जैसा ही कार्य होता है' ऐसा समझकर (निश्चय कर) 'जौ पूर्वक होने वाले जो जौ, वे जौ ही होते हैं' इसी न्याय से, वे पुद्गल ही हैं -- जीव नहीं । और गुणस्थानों का सदा ही अचेतनत्व तो आगम से सिद्ध होता है तथा चैतन्य-स्वभाव से व्याप्त जो आत्मा उससे भिन्नपने से वे गुणस्थान भेदज्ञानियों के द्वारा स्वयं उपलभ्यमान हैं, इसलिए भी उनका सदा ही अचेतनत्व सिद्ध होता है ।

इसीप्रकार राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ण, वर्गणा, स्पर्द्धक, अध्यात्म-स्थान, अनुभाग-स्थान, योग-स्थान, बन्ध-स्थान, उदय-स्थान, मार्गणा-स्थान, स्थितिबन्ध-स्थान, संक्लेश-स्थान, विशुद्धि-स्थान और संयमलब्धि-स्थान भी पुद्गलकर्म-पूर्वक होते होने से, सदा ही अचेतन होने से, पुद्गल ही हैं, जीव नहीं -- ऐसा स्वत: सिद्ध हो गया । इससे यह सिद्ध हुआ कि रागादिभाव जीव नहीं हैं ।

इस प्रकार जीव और अजीव अलग-अलग होकर (रङ्गभूमि में से) बाहर निकल गये ।

अब यहाँ प्रश्न होता है कि वर्णादिक और रागादिक जीव नहीं हैं तो जीव कौन है ? उसके उत्तररूप श्लोक कहते हैं -

(कलश-दोहा)
स्वानुभूति में जो प्रगट, अचल अनादि अनन्त
स्वयं जीव चैतन्यमय, जगमगात अत्यन्त ॥४१॥

[अनादि] जो अनादि है, [अनन्तम्] अनन्त है, [अचलं] अचल है, [स्वसंवेद्यम्] स्वसंवेद्य है [तु] और [स्फुटम्] प्रगट है- ऐसा जो [इदं चैतन्यम्] यह चैतन्य [उच्चै:] अत्यन्त [चकचकायते] चकचकित- प्रकाशित हो रहा है, [स्वयं जीव:] वह स्वयं ही जीव है ।

(कलश-सवैया इकतीसा)
मूर्तिक अमूर्तिक अजीव द्रव्य दो प्रकार,
इसलिए अमूर्तिक लक्षण न बन सके
सोचकर विचारकर भलीभाँति ज्ञानियों ने,
कहा वह निर्दोष लक्षण जो बन सके ॥
अतिव्याप्ति अव्याप्ति दोषों से विरहित,
चैतन्यमय उपयोग लक्षण है जीव का
अत: अवलम्ब लो अविलम्ब इसका ही,
क्योंकि यह भाव ही है जीवन इस जीव का ॥४२॥

[यत: अजीव: अस्ति द्वेधा] अजीव दो प्रकार के हैं- [वर्णाद्यै: सहित:] वर्णादिसहित [तथा विरहित:] और वर्णादिरहित; [तत:] इसलिए [अमूर्तत्वम् उपास्य] अमूर्तत्व का आश्रय लेकर भी (अर्थात् अमूर्तत्व को जीव का लक्षण मानकर भी) [जीवस्य तत्त्वं] जीव के यथार्थ स्वरूप को [जगत् न पश्यति] जगत् नहीं देख सकता;- [इति आलोच्य] इसप्रकार परीक्षा करके [विवेचकै:] भेदज्ञानी पुरुषों ने [न अव्यापि अतिव्यापि वा] अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दूषणों से रहित [चैतन्यम्] चेतनत्व को जीव का लक्षण कहा है [समुचितं] वह योग्य है । [व्यक्तं] वह चैतन्यलक्षण प्रगट है, [व्यज्जित-जीव- तत्त्वम्] उसने जीव के यथार्थ स्वरूप को प्रगट किया है और [अचलं] वह अचल है- चलाचलता रहित, सदा विद्यमान है । [आलम्ब्यताम्] जगत् उसी का अवलम्बन करो ! (उससे यथार्थ जीव का ग्रहण होता है ।) ॥४२॥

(कलश-हरिगीत)
निज लक्षणों की भिन्नता से जीव और अजीव को
जब स्वयं से ही ज्ञानिजन भिन-भिन्न ही हैं जानते ॥
जग में पडे अज्ञानियों का अमर्यादित मोह यह
अरे तब भी नाचता क्यों खेद है आश्चर्य है ॥४३॥

[इति लक्षणत:] यों पूर्वोक्त भिन्न लक्षण के कारण [जीवात् अजीवम् विभिन्नं] जीव से अजीव भिन्न है [स्वयम् उल्लसन्तम्] उसे (अजीव को) अपने आप ही (स्वतंत्रपने, जीव से भिन्नपने) विलसित होता हुआ-परिणमित होता हुआ [ज्ञानी जन:] ज्ञानीजन [अनुभवति] अनुभव करते हैं, [तत्] तथापि [अज्ञानिन:] अज्ञानी को [निरवधि-प्रविजृम्भित: अयं मोह: तु] अमर्यादरूप से फैला हुआ यह मोह (स्वपर के एकत्व की भ्रान्ति) [कथम् नानटीति] क्यों नाचता है- [अहो बत] यह हमें महा आश्चर्य और खेद है ! ॥४३॥

(कलश-हरिगीत)
अरे काल अनादि से अविवेक के इस नृत्य में
बस एक पुद्गल नाचता चेतन नहीं इस कृत्य में ॥
यह जीव तो पुद्गलमयी रागादि से भी भिन्न है
आनन्दमय चिद्भाव तो दृगज्ञानमय चैतन्य है ॥४४॥

[अस्मिन् अनादिनि महति अविवेक- नाट्ये] इस अनादिकालीन महा अविवेक के नाटक में अथवा नाच में [वर्णादिमान् पुद्गल: एव नटति] वर्णादिमान पुद्गल ही नाचता है, [न अन्य:] अन्य कोई नहीं; (अभेद ज्ञान में पुद्गल ही अनेकप्रकार का दिखाई देता है, जीव अनेकप्रकार का नहीं हैं) [] और [अयंजीव:] यह जीव तो रागादिक पुद्गल विकारों से विलक्षण, शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति है ।

(कलश-हरिगीत)
जब इसतरह धाराप्रवाही ज्ञान का आरा चला
तब जीव और अजीव में अतिविकट विघटन हो चला
अब जबतलक हों भिन्न जीव-अजीव उसके पूर्व ही
यह ज्ञान का घनपिण्ड निज ज्ञायक प्रकाशित हो उठा ॥४५॥

[इत्थं] इसप्रकार [ज्ञान- क्रकच- कलना- पाटनं] ज्ञानरूपी करवत का जो बारम्बार अभ्यास है उसे [नाटयित्वा] नचाकर [यावत्] जहाँ [जीवाजीवौ] जीव और अजीव दोनों [स्फुट-विघटनं न एव प्रयात:] प्रगटरूप से अलग नहीं हुए, [तावत्] वहाँ तो [ज्ञातृद्रव्यं] ज्ञाताद्रव्य, [प्रसभ-विकसत्-व्यक्त-चिन्मात्रशक्त्या] अत्यन्त विकासरूप होती हुई अपनी प्रगट चिन्मात्रशक्ति से [विश्वं-व्याप्य] विश्व को व्याप्त करके, [स्वयम्] अपने आप ही [अतिरसात्] अतिवेग से [उच्चै:] उग्रतया (आत्यंतिक रूप से) [चकाशे] प्रकाशित हो उठा ।

इसप्रकार जीव और अजीव अलग अलग होकर (रङ्गभूमि में से) बाहर निकल गये ।

इसप्रकार श्री समयसार की (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य देव प्रणीत श्री समयसार परमागम की) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्य देव विरचित आत्मख्याति नामक टीका में जीव-अजीव का प्ररूपक पहला अङ्क समाप्त हुआ ।

जयसेनाचार्य :
[मोहणकम्मस्सुदया दु वण्णिदा जे इमे गुणट्ठाणा] निर्मोह परमचैतन्य प्रकाश लक्षणवाले परमात्म-तत्त्व से विरुद्ध पक्षवाले, अनादि अविद्या रूप केले के कन्द के समान परम्परा से आने वाले मोहकर्म के उदय से होने वाले ये गुणस्थान कहे हैं । और जैसा कि गोम्मटसार में कहा गया है । [गुणसण्णा सा च मोह जोग भवा] मोह और योग से उत्पन्न होने वाले जीव के परिणाम को गुणस्थान कहते हैं । [ते कह हवंति जीवा] वे गुणस्थान जीव कैसे हैं ? किसी भी प्रकार से वे जीव नहीं हो सकते हैं । वे कैसे हैं ? [जे णिच्चमचेदणा उत्ता] यद्यपि अशुद्धनिश्चयनय से वे गुणस्थान चेतन हैं तथापि शुद्धनिश्चय नय से नित्य- सर्वकाल अचेतन है । परन्तु वस्तुत: अशुद्धनिश्चयनय से यद्यपि द्रव्यकर्म की अपेक्षा से अभ्यन्तर रागादिक भाव चेतन हैं ऐसा मानकर वे निश्चय संज्ञा को प्राप्त होते हैं । तथापि शुद्ध निश्चयनय अपेक्षा से अशुद्ध निश्चयनय भी व्यवहार है । ऐसा व्याख्यान निश्चय व्यवहारनय के विचार काल में सर्वत्र जानना चाहिए ।

इसप्रकार अभ्यन्तर में जैसे मिथ्यात्वादि गुणस्थान जीव का स्वरूप नहीं हैं वैसे ही रागादि भी शुद्ध जीवका स्वरूप नहीं हैं । इसप्रकार के कथन रूप से आठवीं गाथा पूर्ण हुई । इसप्रकार आठ गाथाओं द्वारा तीसरे अन्तराधिकार का व्याख्यान पूर्ण हुआ ।

यहां कोई शंका करता है कि रागादि जीव का स्वरूप नहीं हैं ऐसा - जीवाधिकार में कहा गया है, वही बात इस अजीवाधिकार में फिर से क्यों कही गई है, यह तो पुनरक्त दोष है ! (समाधान) नहीं यहां पुनरूक्त दोष नहीं हैं क्योंकि विस्ताररूचि वाले शिष्य को नव अधिकारों द्वारा उसी समयसार का ही व्याख्यान किया गया है अन्य का नहीं । इस प्रतिज्ञा के अनुसार वहां भी समयसार का व्याख्यान संक्षेप में किया था, यहां भी उसी समयसार का व्याख्यान है । यदि समयसार को छोड़कर, दूसरा व्याख्यान किया जाता तो प्रतिज्ञा भंग का दोष आता । अत: यहाँ पुनरूक्त दोष नहीं है । (अपितु पुनरूक्ति अध्यात्मग्रन्थों में गुण है ।)

अथवा भावना ग्रन्थों में समाधिशतक, परमात्मप्रकाश आदि आध्यात्मिक ग्रन्थ हैं । जैसे रागियों को श्रृङ्गार कथा बार-बार कही जाती है उसमें पुनरूक्त दोष नहीं आता, उसीप्रकार अध्यात्म ग्रन्थों में पुनरूक्त दोष नहीं आता ।

अथवा जीवाधिकार में जीव की मुख्यता है तथा अजीवाधिकार में अजीव की मुख्यता है । विवक्षित को मुख्य कहते हैं ऐसा वचन है । अथवा वहां जीवाधिकार में सामान्य व्याख्यान है, यहां अजीवाधिकार में विशेष विस्तार व्याख्यान है ।

अथवा वहां रागादि से भिन्न जीव है ऐसा विधि की मुख्यता से व्याख्यान है । यहां रागादि जीवस्वरूप नहीं है ऐसा निषेध की मुख्यता से व्याख्यान है ।

प्रश्न – किसप्रकार से विधि निषेध की मुख्यता कही है ?

उत्तर – जैसे एकत्व अनुप्रेक्षा में विधिकथन की मुख्यता है तथा अन्यत्व अनुप्रेक्षा में निषेध कथन की मुख्यता है । इसप्रकार शंका का निराकरण पांच प्रकार से किया गया है जो ज्ञातव्य है ।

इसप्रकार जीव और अजीव, जीव-अजीवाधिकार रङ्गभूमि में श्रृङ्गार सहित पात्र के समान व्यवहारनय से एकरूप होकर प्रविष्ट हुए परन्तु निश्चयनय से श्रृंगार रहित पात्र की तरह भिन्न होकर चले गये ॥७३॥

इसप्रकार श्री जयसेनाचार्यकृत शुद्धात्मानुभूति लक्षणवाली तात्पर्यवृत्ति नाम की समयसार व्याख्या में तीन स्थलों के समुदाय रूप से तीस गाथाओं द्वारा यह अजीवाधिकार पूर्ण हुआ ॥२॥

अब पूर्वोक्त जीवाधिकार की रंगभूमि में यद्यपि शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा से कर्त्ता-कर्म भाव रहित जीव और अजीव हैं किन्तु व्ययवहार-नय की अपेक्षा से वही जीव और अजीव कर्ता और कर्म के भेष में श्रृंगार सहित पात्र के समान प्रवेश करते हैं । इस प्रकार के दण्डकों को छोड़कर ७८ गाथाओं पर्यन्त नव-स्थलों से व्याख्यान करते हैं । इस प्रकार पुण्य-पापादि सप्त-पदार्थों की पीठिका के रूप में तीसरे अधिकार में यह समुदाय पातनिका हुई है अथवा यों कहो कि [जो खलु संसारत्थो जीवो] इत्यादि तीन गाथाओं के द्वारा पुण्य-पापादि रूप सप्त-पदार्थ जो कि जीव और पुद्गल के संयोगरूप परिणाम से उत्पन्न हुए हैं, वे शुद्ध-निश्चयनय से शुद्ध जीव के स्वरूप नहीं हैं, इस प्रकार का व्याख्यान पंचास्तिकाय-प्राभृत ग्रंथ में जो पहले संक्षेप से कह आये हैं, उन्हीं पुण्य-पापादि सप्त-पदार्थों का स्पष्ट वर्णन करने के लिए ये पीठिका का समुदाय-रूप कथन किया जाता है यह दूसरी पातनिका हुई । वहाँ सबसे पहले [जाव ण वेदि विसेसंतरं] इत्यादि गाथा से प्रारम्भ करके पाठ के क्रम से छह गाथाओं पर्यन्त व्याख्यान करते हैं । वहाँ दो गाथाएं तो अज्ञानी जीव की मुख्यता से और चार गाथायें ज्ञानी जीव की मुख्यता से कहीं गई हैं । इस प्रकार पहले स्थल में समुदाय पातनिका हुई ।

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कर्त्ता-कर्म अधिकार



+ आस्रव और जीव का भेद ना जानना - अप्रतिबुद्ध / अज्ञानी -
जाव ण वेदि विसेसंतरं तु आदासवाण दोह्णं पि । (69)
अण्णाणी ताव दु सो कोहादिसु वट्टदे जीवो ॥74॥
कोहादिसु वट्टंतस्स तस्स कम्मस्स संचओ होदी । (70)
जीवस्सेवं बंधो भणिदो खलु सव्वदरिसीहिं ॥75॥
यावन्न वेत्ति विशेषांतरं त्वात्मास्रवयोर्द्वयोरपि
अज्ञानी तावत्स क्रोधादिषु वर्तते जीव: ॥६९॥
क्रोधादिषु वर्तानस्य तस्य कर्मण: संचयो भवति
जीवस्यैवं बंधो भणित: खलु सर्वदर्शिभि: ॥७०॥
आतमा अर आस्रवों में भेद जब जाने नहीं
हैं अज्ञ तबतक जीव सब क्रोधादि में वर्तन करें ॥६९॥
क्रोधादि में वर्तन करें तब कर्म का संचय करें
हो कर्मबंधन इसतरह इस जीव को जिनवर कहें ॥७०॥
अन्वयार्थ : [जीवो] यह जीव [जाव] जब तक [तु आदासवाण दोह्णं पि] आत्मा और आस्रव इन दोनों के [विसेसंतरं] भिन्न-भिन्न लक्षणों को [ण वेदि] नहीं जानता [ताव] तब तक [सो अण्णाणी] वह अज्ञानी हुआ [कोहादिसु] क्रोधादिक आस्रवों में [वट्टदे] प्रवर्तता है । [कोहादिसु] क्रोधादिकों में [वट्टंतस्स तस्स] वर्तते हुए उसके [कम्मस्स] कर्मों का [संचओ होदी] संचय होता है । [खलु] निश्चयत: [एवं] इस प्रकार [जीवस्य] जीव के [बंधो] कर्मों का बंध [सव्वदरिसीहिं] सर्वज्ञदेवों ने [भणिदो] कहा है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब जीव-अजीव ही एक कर्ता-कर्म के वेष में प्रवेश करते हैं -

(कलश-हरिगीत)
मैं एक कर्ता आत्मा क्रोधादि मेरे कर्म सब ।
बस यही कर्ताकर्म की है प्रवृत्ति अज्ञानमय ॥
शमन करती इसे प्रगटी सर्व विश्व विकाशिनी ।
अतिधीर परमोदात्त पावन ज्ञानज्योति प्रकाशिनी ॥४६॥

[इह अहम् चिद् एकःकर्ता अमी कोपादयः मे कर्म] 'इस लोक में मैं चैतन्य एक कर्ता हूँ और यह क्रोधादि भाव मेरे कर्म हैं' [इति अज्ञानां कर्तृकर्मप्रवृत्तिम्] ऐसी अज्ञानियों के जो कर्ता-कर्म की प्रवृत्ति है उसे [अभितः शमयत्] सब ओर से शमन करती (मिटाती) हुई [ज्ञानज्योतिः स्फुरति] ज्ञान-ज्योति स्फुरायमान होती है । वह ज्ञान-ज्योति [परम-उदात्तम्] परम उदात्त (ऊंची, महान) है , [अत्यन्तधीरं] अत्यन्त धीर (शांत, नम्र, विनीत) है [निरुपधि-पृथग्द्रव्य-निर्भासि] पर की सहायता के बिना-भिन्न भिन्न द्रव्यों को प्रकाशित करनेवाला होने से [विश्वम् साक्षात् कुर्वत् ] वह समस्त लोकालोक को साक्षात् करती (प्रत्यक्ष जानती) है ।

अब, जब तक यह जीव आस्रव के और आत्मा के विशेष को (अन्तर को) नहीं जाने तब तक वह अज्ञानी रहता हुआ, आस्रवों में स्वयं लीन होता हुआ, कर्मों का बन्ध करता है यह गाथा द्वारा कहते हैं :-

यह आत्मा तादात्म्य संबंधवाले आत्मा और ज्ञान में विशेष अन्तर न होने से उनमें परस्पर भिन्नता न देखता हुआ ज्ञान में आत्मपने (अपनेपन से) नि:शंकतया प्रवर्तता है । सो ठीक ही है; क्योंकि ज्ञानक्रिया आत्मा की स्वभाव-भूत क्रिया है, इसकारण उसमें नि:शंकतया प्रवर्तन का निषेध नहीं किया गया है; किन्तु यह आत्मा संयोगसिद्ध संबंधवाले आत्मा और क्रोधादि में भी अपने अज्ञान से भेद न जानता हुआ क्रोधादि में भी ज्ञान के समान ही आत्मपने (अपनेपन से) नि:शंकतया प्रवर्तता है, वह ठीक नहीं है; क्योंकि क्रोधादि क्रिया आत्मा की स्वभाव-भूत क्रिया नहीं है, परभाव-भूत (विभावभूत) क्रिया है - इसकारण उसमें नि:शंकतया प्रवर्तन का निषेध किया है ।

यद्यपि परभावभूत होने से क्रोधादि क्रिया का निषेध किया गया है, तथापि अज्ञानी को उसमें स्वभाव-भूतपने का अध्यास (भ्रमात्मक अनुभव) होने से अज्ञानी क्रोधरूप परिणमित होता है, राग-रूप परिणमित होता है, द्वेष-रूप परिणमित होता है ।

अपने अज्ञान-भाव के कारण ज्ञान-भवन-रूप सहज उदासीन अवस्था का त्याग करके अज्ञान-भवन व्यापार-रूप अर्थात् क्रोधादि व्यापार-रूप प्रवर्तित होता हुआ अज्ञानी आत्मा कर्ता है और ज्ञान-भवन व्यापार-रूप प्रवृत्ति से भिन्न, अंतरंग में उत्पन्न क्रोधादि उसके कर्म हैं ।

इसप्रकार अनादिकालीन अज्ञान से होनेवाली यह कर्ताकर्म की प्रवृत्ति है ।

इसप्रकार अपने अज्ञान के कारण, कर्ताकर्म-भाव से क्रोधादि में प्रवर्तमान इस आत्मा के, क्रोधादि की प्रवृत्ति-रूप परिणाम को निमित्त-मात्र करके, स्वयं अपने भाव से ही परिणमित होता हुआ पौद्गलिक कर्म इकट्ठा होता है ।

इसप्रकार इस जीव के जीव और पुद्गल के परस्पर अवगाह लक्षणवाला संबंध-रूप बंध सिद्ध होता है ।

अनेकान्तात्मक होने पर भी अनादि एक प्रवाहपना होने से इसमें इतरेतराश्रय दोष भी नहीं आता है । यह बंध कर्ताकर्म की प्रवृत्ति के निमित्तभूत अज्ञान का निमित्त है ।

जयसेनाचार्य :
[जाव ण वेदि विसेसंतरं तु आदासवाण दोह्णं पि] शुद्धात्मा और क्रोधादि आस्रवों के स्वरूप में जो विशेषता है उसको यह जीव जब तक नहीं जान लेता / समझ लेता, [अण्णाणी तावदु सो] तब तक यह अज्ञानी और बहिरात्मा बना रहता है । अज्ञानी होकर वह क्या करता है कि [कोहादिसु वट्टदे जीवो] जैसे 'मैं ज्ञान हूँ अर्थात् ज्ञान मेरा स्वभाव है' इस प्रकार ज्ञान के साथ एकता को लिए हुए है वैसे ही क्रोधादिक आस्रव भावों से रहित ऐसी निर्मल-आत्मानुभूति है लक्षण जिसका ऐसे शुद्धात्म-स्वभाव से पृथग्भूत क्रोधादिक-भाव हैं उनमें भी 'मैं क्रोध हूँ क्रोध करना मेरा स्वभाव है' इस प्रकार एकता को लिए हुए रहता है परिणमन करता है । [कोधादिसु वट्टंतस्स तस्स] उत्तम-क्षमादि-स्वरूप जो परमात्मा उससे विलक्षण जो क्रोधादिभाव उनमें प्रवर्तन करने वाले इस जीव के [कम्मस्स संचओ होदी] परमात्म-स्वरूप को तिरोहित करने वाले कर्म का संचय, आस्रव, आगमन होता रहता है । [जीवस्सेवं बंधो भणिदो खलु सव्वदरिसीहिं] जैसे तेल लगाये हुए जीव के शरीर में धूलि का समागम हो जाता है, वैसे ही नूतन कर्मों का आस्रव होने पर फिर तेल के सम्बन्ध से मैल के चिपक जाने के समान प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश लक्षण वाला जो कि अपने शुद्धात्मा की प्राप्ति-स्वरूप-मोक्ष से विलक्षण है, ऐसा बंध अवश्य ही होता है ।

सर्वज्ञ भगवान, ने नूतन-बंध का ऐसा वर्णन किया है और जब तक अपने शुद्धात्म-स्वरूप को स्व-संवेदन ज्ञान के बल से क्रोधादिक से पृथक् करके नहीं जानता है, अपने अनुभव में नहीं लाता है, तब तक अज्ञानी रहता है । जब तक अज्ञानी रहता है तब तक अज्ञान के द्वारा उत्पन्न होने वाली कर्त्ता-कर्मरूप प्रवृत्ति को भी नहीं छोड़ता है इसलिए बंध होता रहता है । बंध से संसार परिभ्रमण होता रहता है ऐसा अभिप्राय है ।

इस प्रकार अज्ञानी जीव के स्वरूप का कथन करने वाली दो गाथायें हुई ।

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+ अब कर्त्ता-कर्म रूप प्रवृत्ति की निवृत्ति किस प्रकार होती है उसे कहते हैं -- -
जइया इमेण जीवेण अप्पणो आसवाण य तहेव । (71)
णादं होदि विसेसंतरं तु तइया ण बंधो से ॥76॥
यदानेन जीवेनात्मन: आस्रवाणां च तथैव
ज्ञातं भवति विशेषांतरं तु तदा न बन्धस्तस्य ॥७१॥
आतमा अर आस्रवों में भेद जाने जीव जब
जिनदेव ने ऐसा कहा कि नहीं होवे बंध तब ॥७१॥
अन्वयार्थ : [जइया] जब [इमेण] यह [जीवेण] जीव [अप्पणो] आत्मा [य] और [आसवाण] आस्रवों का [विसेसंतरं] अन्तर और भेद [णादं] जानता [होदि] है, [तइया ण बंधो से] तब उसे बंध नहीं होता ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब प्रश्न करता है कि इस कर्ता-कर्म की प्रवृत्ति का अभाव कब होता है ? इसका उत्तर कहते हैं :-

इस लोक में वस्तु अपने स्वभावमात्र ही होती है और स्व का भवन (होना-परिणमना) ही स्वभाव है । इससे यह निश्चय हुआ कि ज्ञान का होना-परिणमना आत्मा है और क्रोधादि का होना-परिणमना क्रोधादि है । ज्ञान का होना-परिणमना क्रोधादि का होना-परिणमना नहीं है; क्योंकि ज्ञान के होते (परिणमन के) समय जिसप्रकार ज्ञान होता हुआ मालूम पड़ता है, उसप्रकार क्रोधादि होते मालूम नहीं पड़ते । इसीप्रकार जो क्रोधादि का होना (परिणमना) है, वह ज्ञान का होना (परिणमना) नहीं है; क्योंकि क्रोधादि के होते समय जिसप्रकार क्रोधादि होते हुए मालूम पड़ते हैं, उसप्रकार ज्ञान होता हुआ मालूम नहीं पड़ता ।

इसप्रकार आत्मा और क्रोधादि का निश्चय से एक वस्तुत्व नहीं है । तात्पर्य यह है कि आत्मा और क्रोधादि एक वस्तु नहीं है ।

इसप्रकार आत्मा और आस्रवों का विशेष अन्तर देखने से जब यह आत्मा उनमें भेद (भिन्नता) जानता है, तब इस आत्मा के अज्ञान से उत्पन्न हुई कर्ताकर्म की प्रवृत्ति अनादि होने पर भी निवृत्त होती है । उसकी निवृत्ति होने पर अज्ञान के निमित्त से होता हुआ पौद्गलिक द्रव्यकर्म का बंध भी निवृत्त होता है । ऐसा होने पर ज्ञानमात्र से ही बंध का निरोध सिद्ध होता है ।

जयसेनाचार्य :
[जइया] जब सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्रात्मक रत्नत्रय-धर्म की प्राप्ति के काल में [इमेण जीवेण] इस प्रत्यक्ष-भूत जीव के द्वारा [अप्पणो आसवाण य तहेव णादं होदि विसेसंतरं तु] जैसा शुद्धात्मा का तथा काम-क्रोधादि आस्रव-भावों का जो भेद है / परस्पर में विलक्षणपन है -- वैसा ही जब जान लेता है अर्थात अपने उपयोग में उतार लेता है । पर स्वरूप जो क्रोधादिक भाव हैं उनको करने से रह जाता है । [तइया] उस समय सम्यग्ज्ञानी होता है । सम्यग्ज्ञानी होकर क्या करता है ? मैं तो करने वाला हूँ और भाव-क्रोधादिक जो अन्तरंग में होते हैं वे मेरे कर्म हैं इस प्रकार जो अज्ञानजन्य कर्ता-कर्म की प्रवृत्ति है, उसे छोड़ देता है, और उस कर्ता-कर्म की प्रवृति का अभाव हो जाने पर निर्विकल्प समाधि होती है, तब [ण बंधो से] उस जीव के नूतन बंध नहीं होता ।

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+ ज्ञानी निर्बंध कैसे होता है ? -
णादूण आसवाणं असुचित्तं च विवरीयभावं च । (72)
दुक्खस्स कारणं ति य तदो णियत्तिं कुणदि जीवो ॥77॥
ज्ञात्वा आस्रवाणामशुचित्वं च विपरीतभावं च
दु:खस्य कारणानीति च ततो निवृत्तिं करोति जीव: ॥७२॥
इन आस्रवों की अशुचिता विपरीतता को जानकर
आतम करे उनसे निवर्तन दु:ख कारण मानकर ॥७२॥
अन्वयार्थ : [आसवाणं] आस्रवों की [असुचित्तं] अशुचिता [च] एवं [विवरीयभावं] विपरीतता [णादूण] जानकर [च] और वे [दुक्खस्स कारणं] दु:ख के कारण हैं - [इति य] अत: [जीवो] जीव [तदो] उनसे [णियत्तिं] निवृत्ति [कुणदि] करता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब पूछता है कि ज्ञानमात्र से ही बन्ध का निरोध कैसे होता है ? उसका उत्तर कहते हैं :-

जब यह आत्मा, आत्मा और आस्रवों में इसप्रकार का भेद जानता है, अन्तर जानता है, तब उसी समय क्रोधादि आस्रवों से निवृत्त हो जाता है; क्योंकि उनसे निवृत्त हुए बिना आत्मा और आस्रवों के पारमार्थिक भेद-ज्ञान की सिद्धि ही नहीं होती है । इसलिए क्रोधादि आस्रव-भावों से निवृत्ति के साथ अविनाभावी रूप से रहनेवाले ज्ञान-मात्र से ही अज्ञान-जन्य पौद्गलिक कर्म के बंध का निरोध सिद्ध होता है ।

अब इसी बात को तर्क और युक्ति से सिद्ध करते हुए आचार्य-देव पूछते हैं कि आत्मा और आस्रवों का उक्त भेद-ज्ञान ज्ञान है कि अज्ञान है ? यदि अज्ञान है तो फिर आत्मा और आस्रवों के बीच अभेदज्ञान-रूप अज्ञान से उसमें क्या अन्तर रहा अर्थात् कोई अन्तर नहीं रहा और यदि वह ज्ञान है तो हम पूछते हैं कि वह आस्रवों में प्रवृत्त है या उनसे निवृत्त है ? यदि वह ज्ञान आस्रवों में प्रवृत्त है तो भी आस्रवों और आत्मा के अभेदज्ञान रूप अज्ञान से उसमें कोई अन्तर नहीं रहा और यदि वह ज्ञान आस्रवों से निवृत्त है तो फिर ज्ञान से ही बंध का निरोध सिद्ध क्यों नहीं होगा ? अर्थात् ज्ञान से ही बंध का निरोध सिद्ध हो ही गया । इसप्रकार अज्ञान का अंश जो क्रियानय, उसका खण्डन हो गया ।

'यदि आत्मा और आस्रवों का भेदज्ञान आस्रवों से निवृत्त न हो तो वह ज्ञान ही नहीं है' - ऐसा सिद्ध होने से ज्ञान के अंश एकान्त ज्ञाननय का भी खण्डन हो गया ।

(कलश-हरिगीत)
परपरिणति को छोड़ती अर तोड़ती सब भेदभ्रम ।
यह अखण्ड प्रचण्ड प्रगटित हुई पावन ज्योति जब ॥
अज्ञानमय इस प्रवृत्ति को है कहाँ अवकाश तब ।
अर किसतरह हो कर्मबंधन जगी जगमग ज्योति जब ॥47॥

[परपरिणतिम् उज्झत्] परपरिणति को छोड़ता हुआ, [भेदवादान्खण्डयत्] भेद के कथनों को तोड़ता हुआ, [इदम् अखण्डम् उच्चण्डम् ज्ञानम्] यह अखण्ड और अत्यंत प्रचण्ड ज्ञान [उच्चैः उदितम्] प्रत्यक्ष उदय को प्राप्त हुआ है । [ननु इह कर्तृकर्मप्रवृत्तिः] अहो ! ऐसे ज्ञान में (पर-द्रव्य के) कर्ता-कर्म की प्रवृत्ति का [कथम् अवकाशः] अवकाश कैसे हो सकता है ? [वा पौद्गलः कर्मबन्धः कथं भवति] तथा पौद्गलिक कर्म-बंध भी कैसे हो सकता है ?

जयसेनाचार्य :
क्रोधादि-आस्रवों के कलुषतारूप अशुचिपने को, जड़तारूप-विपरीतपने को, और व्याकुलता लक्षणरूप दु:ख के कारणपने को जानकर एवं अपनी आत्मा की निर्मल आत्मानूभूतिरूप शुचिपने को, सहज-शुद्ध-अखण्ड केवलज्ञानरूप ज्ञातापन को और अनाकुलता लक्षण अनंत-सुखरूप स्वभाव को जानकर उसके द्वारा स्व-संवेदन-ज्ञान को प्राप्त होने के अनंतर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र में एकाग्रतारूप परम-सामायिक में स्थित होकर यह जीव क्रोधादिक-आस्रवों की निवृत्ति करता है अर्थात् अपने आप दूर रहता है । इस प्रकार ज्ञानमात्र से ही बंध का निरोध सिद्ध हो जाता है । यहाँ सांख्यमत सरीखा ज्ञानमात्र से बंध का निरोध नहीं माना गया है । किं च ? हम तुमसे पूछते हैं कि आत्मा और आस्रव सम्बन्धी जो भेदज्ञान है वह रागादि आस्रवों से निवृत्त है या नहीं ? यदि कहो कि निवृत्त है तब तो उस भेदज्ञान में पानक-पीने की वस्तु ठंडाई इत्यादि के समान अभेदनय से वीतराग-चारित्र और वीतराग सम्यक्त्व भी है ही । इसी प्रकार सम्यग्ज्ञान से ही बंध का निरोध सिद्ध हो जाता है, और यदि वह भेदज्ञान रागादि से निवृत्त नहीं है तो वह सम्यग्भेदज्ञान ही नहीं है ।

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+ आस्रवों से निवृत्ति का उपाय -
अहमेक्को खलु सुद्धो णिम्ममओ णाणदंसणसमग्गो । (73)
तम्हि ठिदो तच्चित्तो सव्वे एदे खयं णेमि ॥78॥
अहमेक: खलु शुद्ध: निर्म त: ज्ञानदर्शनसमग्र:
तस्मिन् स्थितस्तच्चित्त: सर्वानेतान् क्षयं नयामि ॥७३॥
मैं एक हूँ मैं शुद्ध निर्मम ज्ञान-दर्शन पूर्ण हूँ
थित लीन निज में ही रहूँ सब आस्रवों का क्षय करूँ ॥७३॥
अन्वयार्थ : [अहमेक्को खलु सुद्धो] मैं एक होने से निश्चयत: शुद्ध हूं [णिम्ममओ णाणदंसणसमग्गो] ममतारहित ज्ञान दर्शन से पूर्ण हूं [तम्हि ठिदो तच्चित्ते] ऐसे स्थित उस चैतन्य द्वारा [एदे सव्वे] इन सब (क्रोधादिक आस्रवों) को [खयं णेमि] क्षय को प्राप्त कराता हूं ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब प्रश्न करता है कि यह आत्मा किस विधि से आस्रवों से निवृत्त होता है ? उसके उत्तररूप गाथा कहते हैं :-

यह मैं आत्मा प्रत्यक्ष अखंड, अनंत, चैतन्यमात्र ज्योतिस्वरूप, अनादि, अनंत नित्य उदयरूप, विज्ञानघन स्वभाव रूप से तो एक हूं और समस्त कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरण-स्वरूप जो कारकों का समूह उसकी प्रक्रिया से उत्तीर्ण याने दूरवर्ती निर्मल चैतन्य अनुभूति-मात्र रूप से शुद्ध हूं । तथा जिनका पुद्गल-द्रव्य स्वामी है ऐसे क्रोधादि भावों की विश्व-रूपता (समस्त-रूपता) के स्वामित्व से सदा ही नहीं परिणमने के कारण उनसे ममतारहित हूं । तथा वस्तु का स्वभाव सामान्य-विशेष-स्वरूप है और चैतन्यमात्र तेज पुंज भी वस्तु है, इस कारण सामान्य-विशेष-स्वरूप जो ज्ञान-दर्शन उनसे पूर्ण हूं । ऐसा आकाशादि द्रव्य की तरह परमार्थ-स्वरूप वस्तु-विशेष हूं । इस कारण मैं इसी आत्म-स्वभाव में समस्त परद्रव्य से प्रवृत्ति की निवृत्ति करके निश्चल स्थित हुआ समस्त पर-द्रव्य के निमित्त से जो विशेषरूप चैतन्य में चंचल कल्लोलें होती थी, उनके निरोध से इस चैतन्य-स्वरूप को ही अनुभव करता हुआ अपने ही अज्ञान से आत्मा में उत्पन्न होते हुए क्रोधादिक भावों का क्षय करता हूं ऐसा आत्मा में निश्चय कर तथा जैसे बहुत काल का ग्रहण किया जो जहाज था, उसे जिसने छोड़ दिया है, ऐसे समुद्र के भंवर की तरह शीघ्र ही दूर किये हैं समस्त विकल्प जिसने, ऐसा निर्विकल्प, अचलित, निर्मल आत्मा का अवलंबन करता हुआ विज्ञान-घनभूत यह आत्मा आस्रवों से निवृत्त होता है ।

जयसेनाचार्य :
[अहं] निश्चय-नय से मैं स्व-संवेदन ज्ञान के प्रत्यक्ष शुद्ध-चिन्मात्र-ज्योतिस्वरूप हूँ, [इक्को] अनादि अनंत टंकोत्कीर्ण अर्थात् टाँकी से उकेरे हुए के समान अटल एक ज्ञायक स्वभाव वाला होने से एक हूँ, [खलु सुद्धो] कर्त्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान और अधिकरण रूप षट्कारक के विकल्प समूह से रहित हूँ इसलिये शुद्ध हूँ, [णिम्मओ] मोह-रहित शुद्धात्म-तत्त्व उससे विलक्षण, मोह के उदय से होने वाले क्रोधादि कषायों का समूह, उसका स्वामी न होने से मैं ममत्व रहित हूँ । [णाणदंसण समग्गो] प्रत्यक्ष प्रतिभासमय विशुद्ध-ज्ञान, दर्शन से परिपूर्ण हूँ, इस प्रकार मैं तो इन गुणों से विशिष्ट हूँ । इसलिये [तम्हि ठिदो] इन उपर्युक्त लक्षण वाले शुद्धात्मा-स्वरूप में स्थित होता हुआ तथा [तच्चित्तो] सहजानन्द है एक लक्षण जिसका ऐसे सुखरूप-समरसी-भाव के साथ तन्मय होकर [सव्वे एदे खयं णेमि] निरास्रव-रूप जो परमात्म-तत्त्व उससे पृथक्भूत जो काम-क्रोधादि आस्रव-भाव हैं, उन सब भावों को नष्ट कर रहा हूँ -- दूर हटा रहा हूँ ।

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+ ज्ञान और आस्रवों से निवृत्ति का एक काल -
जीवणिबद्धा एदे अधुव अणिच्चा तहा असरणा य । (74)
दुक्खा दुक्खफलात्ति य णादूण णिवत्तदे तेहिं ॥79॥
जीवनिबद्धा एते अध्रुवा अनित्यास्तथा अशरणाश्च
दु:खानि दु:खफला इति च ज्ञात्वा निवर्तते तेभ्य: ॥७४॥
ये सभी जीवनिबद्ध अध्रुव शरणहीन अनित्य हैं
दु:खरूप दु:खफल जानकर इनसे निवर्तन बुध करें ॥७४॥
अन्वयार्थ : [एते] ये (आस्रव) [जीवणिबद्धा] जीव के साथ निबद्ध है [अधु्व] अध्रुव है [तहा] तथा [अणिच्चा] अनित्य है [य] और [असरणा] अशरण है [दुक्खा] दुःखरूप हैं [य] और [दुक्खफला] दुःखफल वाले हैं [इति णादूण] ऐसा जानकर ज्ञानी पुरुष [तेहिं] उनसे [णिवत्तदे] अलग हो जाता है ।

अमृतचंद्राचार्य :

  1. लाख और वृक्ष इन दोनों की तरह बध्य-घातक स्वभाव-रूप होने से आस्रव जीव के साथ निबद्ध हैं, सो वे अविरुद्ध-स्वभाव-पने का अभाव होने के कारण अर्थात् जीवगुण के घातक-रूप विरुद्ध स्वभाव वाले होने के कारण जीव ही नहीं हैं ।
  2. आस्रव तो मृगी के वेग की तरह बढ़ने वाले व फिर घटने वाले होने के वे कारण अध्रुव हैं, किन्तु जीव चैतन्य भावमात्र है सो ध्रुव है ।
  3. आस्रव तो शीत-दाह-ज्वर के स्वभाव की तरह क्रम से उत्पन्न होते हैं इसलिये अनित्य हैं और जीव विज्ञान-घन स्वभाव है इस कारण नित्य है ।
  4. आस्रव अशरण हैं, जैसे काम सेवन में वीर्य छूटता है, उस समय अत्यंत काम का संस्कार क्षीण हो जाता है, किसी से नहीं रोका जाता, उसी प्रकार उदयकाल आने के बाद आस्रव झड़ जाते हैं, रोके नहीं जा सकते, इसलिये अशरण हैं, और जीव अपनी स्वाभाविक चित्त-शक्ति रूप से आप ही रक्षारूप है, इसलिये शरण-सहित है ।
  5. आस्रव सदा ही आकुलित स्वभाव को लिये हुए हैं, इसलिये दुःखरूप हैं, और जीव सदा ही निराकुल स्वभाव रूप है, इस कारण अदुःखरूप है ।
  6. आस्रव आगामी कालमें आकुलता के उत्पन्न कराने वाले पुद्गल परिणाम में कारण हैं, इसलिये वे दुःखफल स्वरूप हैं और जीव समस्त ही पुद्गल-परिणाम का कारण नहीं हैं इसलिये दुःख फल-स्वरूप नहीं है ।
ऐसा आस्रवों का और जीव का भेदज्ञान होने से जिसके कर्म का उदय शिथिल हो गया है ऐसा यह आत्मा जैसे दिशा बादलों की रचना के अभाव होने से निर्मल हो जाती है उस भाँति अमर्याद विस्तृत तथा स्वभाव से ही प्रकाशमान हुई चित्शक्ति रूप से जैसा-जैसा विज्ञानघन स्वभाव होता है वैसा-वैसा आस्रवों से निवृत्त होता जाता है तथा जैसा-जैसा आस्रवों से निवृत्त होता जाता है वैसा-वैसा विज्ञान-घन-स्वभाव होता जाता है । सो उतना विज्ञान-घन-स्वभाव होता है जितना कि आस्रवों से सम्यक् निवृत्त होता है । तथा उतना आस्रवों से सम्यक् निवृत्त होता है, जितना कि सम्यक् विज्ञान-घन-स्वभाव होता है । इस प्रकार ज्ञान और आस्रव की निवृत्ति के समकालता है ।

(कलश-सवैया इकतीसा)
इसप्रकार जान भिन्नता विभावभाव की,
कर्तृत्व का अहं विलीयमान हो रहा ।
निज विज्ञानघनभाव गजारूढ़ हो,
निज भगवान शोभायमान हो रहा ॥
जगत का साक्षी पुरुषपुराण यह,
अपने स्वभाव में विकासमान हो रहा ।
अहो सद्ज्ञानवंत दृष्टिवंत यह पुमान,
जग-मग ज्योतिमय प्रकाशमान हो रहा ॥48॥

[इति एवं] इसप्रकार पूर्व-कथित विधान से, [सम्प्रति परद्रव्यात्] अधुना (तत्काल) ही पर-द्रव्य से [परां निवृत्तिं विरचय्य] उत्कृष्ट निवृत्ति कराके, [विज्ञानघनस्वभावम् परम् स्वं अभयात् आस्तिघ्नुवानः] विज्ञानघन-स्वभाव के बल अपने पर निर्भयता से आरूढ होता हुआ, [अज्ञानोत्थितकर्तृकर्मकलनात् क्लेशात् निवृत्तः] अज्ञान से उत्पन्न हुई कर्ता-कर्म की प्रवृत्ति के अभ्यास से उत्पन्न खेद से निवृत्त हुआ, [स्वयं ज्ञानीभूतः जगतः साक्षी] स्वयं ज्ञानस्वरूप होता हुआ, जगत का साक्षी (ज्ञाता-द्रष्टा), [पुराणः पुमान् इतः चकास्ति] पुराण पुरुष (आत्मा) अब यहाँ से प्रकाशमान होता है ।

जयसेनाचार्य :
[एदे जीवणिबद्धा] ये क्रोधादिक आस्रव-भाव जो जीव के साथ निबद्ध हैं, औपाधिक रूप हैं, पर संयोग से उत्पन्न हुए हैं, किन्तु उपाधि-रहित शुद्ध स्फटिक सरीखे शुद्ध जीव के स्वभाव नहीं हैं । [अधुवा] बिजली के चमत्कार के समान चंचल है, अत्यन्त क्षणिक हैं किन्तु शुद्ध जीव ही ध्रुव है -- अटल है । [अणिच्चा] शीतोष्ण ज्वर के वेग के समान एक से रहने वाले नहीं हैं, कभी कम कभी अधिक होते हैं, स्थिरता को प्राप्त नहीं होते हैं, विनश्वर हैं, किन्तु चैतन्य चमत्कार मात्र एक शुद्ध जीव ही नित्य है । [तहा असरणा य] वैसे ही अशरण हैं क्योंकि तीव्र कामवेग के समान इनको नियंत्रित करके रखा नहीं जा सकता, किन्तु शुद्ध जीव ही निर्विकार-बोधस्वरूप-शरणभूत है । [दुक्खा] आकुलता के उत्पादक होने से काम-क्रोधादिक आस्रव-भाव स्वयं दुख-स्वरूप हैं । किन्तु शुद्ध जीव ही अनाकुलत्व लक्षण वाला होने से वास्तविक सुख-स्वरूप ही है । [दु:खफलाणि य] भविष्य काल में होने वाले नारकादि-दुखों के कारण-भूत होने से क्रोधादिक आस्रव-भाव दुःख-फल रूप किन्तु शुद्ध जीव ही वास्तव में सुखफल स्वरूप है । [णादूण णिवत्तदे तेहिं] इस प्रकार के भेद-ज्ञान के अनंतर समय में ही जब कि मिथ्यात्व-रागादी-आस्रव-भावों को उपर्युक्त प्रकार जानकर, जिस समय, मेघपटल रहित सूर्य के समान इन सबसे दूर हो जाता है उस ही क्षण में यह जीव ज्ञानी होता है । इस प्रकार भेदज्ञान के साथ आस्रव-भावों की निवृत्ति का सामान काल सिद्ध होता है ।

यहाँ शिष्य शंका करता है कि हे प्रभो ! इस प्रकरण के पूर्व में आपने प्रतिज्ञा तो यह की थी कि अब पुण्य-पापादि सात-पदार्थों की पीठिका का व्याख्यान किया जाता है और यहाँ व्याख्यान में सम्यग्ज्ञानी और अज्ञानी जीव का स्वरूप मुख्यता से कहा गया, तब यहाँ पुण्यपापादि सात पदार्थ, की पीठिका का व्याख्यान कैसे हुआ ? इसका समाधान आचार्य करते हैं कि -- यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि यदि जीव और अजीव एकांतरूप से अपरिणामी ही, हों परिणमनशील नहीं हों तब तो दो ही पदार्थ ठहरे और यदि सर्वथा परिणमनशील ही हों-एक दूसरे के साथ सर्वथा तन्मय होकर रहने वाले हों तो एक ही पदार्थ ठहरे । इसलिए ये दोनों ही कथंचित् परिणमनशील हैं । कथंचित् का क्या अर्थ है ? इसको स्पष्ट कर बतलाते हैं कि यह जीव शुद्ध निश्चय-नय से अपने स्वरूप की नहीं छोड़ता है तथापि व्यवहार से कर्मों के उदय के वश होकर रागद्वेषादि-औपाधिक विकारी परिणामों को ग्रहण करता है । यद्यपि स्कटिक के समान यह जीव रागादि-विकारी-परिणामों को अंगीकार करता है फिर भी अपने स्वरूप को नहीं छोड़ता है जबकि इसमें कथंचित् परिणामीपना सिद्ध है । इसलिये जबतक अज्ञानी बहिरात्मा-मिथ्यादृष्टि की अवस्था में रहता है तबतक प्रधानता से विषय-कषायरूप अशुभ परिणाम करता रहता है किन्तु कभी-कभी चिदानंद-स्वरूप शुद्धात्मा को प्राप्त किये बिना उससे शून्य केवल भोगाकांक्षा के निदान-बंध-स्वरूप शुभ परिणाम भी करता है । उस समय इस अज्ञान दशा में इसके द्रव्य और भावरूप पुण्य-पापमय-आस्रव पदार्थ का और बंध पदार्थ का कर्त्ता-पना घटित होता है । यहाँ पर जो भावरूप पुण्य-पापादि होते हैं वे जीव के परिणाम होते हैं और द्रव्य-रूप पुण्य-पापादि हैं वे अजीव के अर्थात् पुद्गल के परिणाम होते हैं । किन्तु जो सम्यग्दृष्टि अर्थात अन्तरात्मा या ज्ञानी होता है वह प्रधानता से निश्चय-रत्नत्रय है लक्षण जिसका ऐसे शुद्धोपयोग के बल से निश्चय-चारित्र के साथ अविनाभाव रखनेवाले वीतराग-सम्यग्दर्शन वाला होता हुआ निर्विकल्प-समाधिरूप परिणाम में परिणमन करता है तो उस परिणाम से द्रव्य-भावरूप संवर, निर्जरा और मोक्ष-पदार्थ का कर्त्ता होता है । किन्तु कभी-कभी निर्विकल्प समाधिरूप-परिणामों का अभाव हो जाने पर विषय-कषाय-रूप-परिणामों से बचने के लिए और शुद्धात्मा की भावना को पुन: प्राप्त करने के लिए बहिर्दृष्टि होते हुए भी ख्याति, लाभ, पूजा, भोग-आकांक्षा निदान बंध से रहित होता हुआ वह शुद्धात्मा है लक्षण जिनका ऐसे अर्हन्त, सिद्ध और शुद्धात्मा की आराधना करनेवाले और उसी का प्रतिपादन करनेवाले एवं उसी शुद्धात्मा के साधक ऐसे आचार्य, उपाध्याय और साधुओं का गुण-स्मरणादि-रूप शुभोपयोगरूप-परिणाम को भी करता है । इसी बात को दृष्टांत से समझाते हैं -- जैसे कोई पुरुष जिसकी स्त्री देशांतर में है उस स्त्री का समाचार जानने के लिए उसके पास से आये हुए लोगों का सम्मान करता है, उसकी बात पूछता है, और उनको अपनाकर व उनसे प्रेम दिखलाकर उनको दानादिक भी देता है यह उसका सारा बर्ताव केवल स्त्री का परिचय प्राप्त करने के निमित्त होता है । वैसे ही सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव भी जिस काल में स्वयं शुद्धात्मा की आराधना रहित होता है उस समय शुद्धात्मा के स्वरूप की उपलब्धि के लिए शुद्धात्मा के आराधक व प्रति-प्रादक ऐसे आचार्य, उपाध्याय व साधु हैं उनका गुण-स्मरण-दान-सन्मानादि करता है । इस प्रकार ज्ञानी और अज्ञानी जीव के स्वरूप का व्याख्यान कर लेने पर जो पुण्य-पापादि सात पदार्थ हैं वे जीव और पुद्गल के संयोग-रूप परिणाम से संपन्न हुए है ऐसा ज्ञान हो जाने से उपर्युक्त पीठिका का व्याख्यान अपने आप आ जाता है और इसमें कोई विरोध भी नहीं है । इस प्रकार ज्ञानी जीव की मुख्यता से चार गाथायें पूर्ण हुईं । इस प्रकार पुण्य पापादि सप्त पदार्थों के अधिकार में छह गाथाओं से प्रथम अधिकार पूर्ण हुआ ।

इसके आगे ग्यारह गाथाओं तक क्रम से उसी ज्ञानी जीव का विशेष व्याख्यान करते हैं । वहाँ ग्यारह गाथाओं में भी
  1. [कम्मस्स य परिणामं] इत्यादि प्रथम गाथा में यह बतलाया है कि जिस प्रकार कलश का उपादान रूप से कर्त्ता मिट्टी का लोंदा है, उसी प्रकार निश्चय रूप से जीव कर्म और नोकर्मों का कर्त्ता नहीं है ऐसा समझकर जो पुरुष अपने स्व-संवेदन ज्ञान से जो अपने शुद्धात्मा को जानता है, वही ज्ञानी होता है ।
  2. इसके आगे प्रधानता से एक गाथा में यह बतलाया है कि यह जीव व्यवहार से पुण्य पापादिपरिणामों का कर्ता है निश्चय से नहीं ।
  3. इसके आगे कर्मपने को अर्थात अपने आपके परिणमन स्वरूपता को और सुख-दुखादि रूप कर्म के फल को जानता हुआ भी यह आत्मा उदय में आए हुए पर-द्रव्य को नहीं करता है इस प्रकार का कथन करते हुए [ण वि परिणमदि] इत्यादि तीन गाथा सूत्र हैं ।
  4. इसके आगे [ण वि परिणमदि] इत्यादि रूप से एक गाथा सूत्र है जिसमें बतलाया है कि पुद्गल भी वर्णादि-रूप अपने परिणाम का ही कर्त्ता है, किन्तु ज्ञानादि रूप जीव के परिणाम का कर्ता नहीं है ऐसा कथन है ।
  5. आगे [जीवपरिणाम] इत्यादि तीन गाथा हैं उनमें बतलाया है कि यद्यपि जीव और पुद्गल में परस्पर निमित्त कर्त्तापना तो है किंतु परस्पर में उपादान-कर्त्तापन तो किसी भी दशा में नहीं है ।
  6. उसके आगे [णिच्छयणयस्स] इस प्रकार जिसमें यह बतलाया है कि निश्चय से इस जीव का कर्त्ता-कर्म-भाव और भोक्ता-भोग्य-भाव भी अपने परिणामों के साथ ही है ।
  7. इसके आगे [ववहारस्स दु] इत्यादि एक सूत्र है जिसमें कहा गया है कि व्यवहार-नय से जीव पुद्गल-कर्मों का कर्त्ता और भोक्ता भी है ।
इस प्रकार ज्ञानी जीव की विशेष व्याख्यान की मुख्यता से ग्यारह गाथाओं में दूसरा स्थल पूर्ण होता है, उसकी यह समुदाय पातनिका हुई ।

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+ ज्ञानी की पहचान -
कम्मस्स य परिणामं णोकम्मस य तहेव परिणामं । (75)
ण करेदि एदमादा जो जाणदि सो हवदि णाणी ॥80॥
कर्मणश्च परिणामं नोकर्मणश्च तथैव परिणामम्
न करोत्येनमात्मा यो जानाति स भवति ज्ञानी ॥७५॥
करम के परिणाम को नोकरम के परिणाम को
जो ना करे बस मात्र जाने प्राप्त हो सद्ज्ञान को ॥८०॥
अन्वयार्थ : [य] जो [आदा] जीव [एनं] इस [कम्मस्स य परिणामं] कर्म के परिणाम को [य तहेव] और उसी भांति [णोकम्मस परिणामं] नोकर्म के परिणाम को [ण करेदि] नहीं करता है, परंतु [जाणदि] जानता है [सो] वह [णाणी] ज्ञानी [हवदि] है ।

अमृतचंद्राचार्य :
वस्तुतः आत्मा मोह, राग, द्वेष, सुख-दुःख आदि स्वरूप से अन्तरंग में उत्पन्न होने वाले कर्म के परिणाम को और स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, बंध, संस्थान, स्थौल्य, सूक्ष्म आदि रूप से बाहर उत्पन्न होने वाले नोकर्म के परिणाम को नहीं करता है, किन्तु उनके परिणमनों के ज्ञानरूप से परिणममान अपने को ही जानता है, ऐसा जो जानता है वह ज्ञानी है । इसका विवरण इस प्रकार है --

ये मोहादिक वे स्पर्शादिक परिणाम परमार्थतः पुद्गल के ही हैं । सो जैसे घड़े के और मिट्टी के व्याप्य-व्यापक-भाव के सद्भाव से कर्ता-कर्मपना है, उसी प्रकार के पुद्गल-द्रव्य से स्वतंत्र व्यापक कर्ता होकर किये गये हैं और वे आप अंतरंग व्याप्य रूप होकर व्याप्त हैं, इस कारण पुद्गल के कर्म हैं । परंतु पुद्गल-परिणाम और आत्मा का घट और कुम्हार की तरह व्याप्य-व्यापक रूप नहीं है, इसलिये कर्ता-कर्मत्व की असिद्धि है । इसी कारण कर्म व नोकर्म के परिणाम को आत्मा नहीं करता । किन्तु परमार्थ से पुद्गल-परिणाम विषयक ज्ञान का और पुद्गल का घट और कुम्हार की तरह व्याप्य-व्यापक भाव का अभाव है, अतः उन दोनों में कर्ता-कर्मत्व की सिद्धि न होने पर आत्म-परिणाम के और आत्मा के घट मृतिका की तरह व्याप्य-व्यापक भाव के सद्भाव से आत्म-द्रव्य कर्ता ने आप स्वतंत्र व्यापक होकर ज्ञान नामक कर्म किया है, इसलिये वह ज्ञान आप ही आत्मा से व्याप्यरूप होकर कर्मरूप हुआ है, इसी कारण पुद्गल परिणाम विषयक ज्ञान को कर्म (कर्मकारक) रूप से करते हुए आत्मा को आप जानता है, ऐसा आत्मा पुद्गल-परिणाम-रूप कर्म-नोकर्म से अत्यंत भिन्न ज्ञान-रूप हुआ ज्ञानी ही है, कर्ता नहीं है । ऐसा होने पर कहीं ज्ञाता-पुरुष के पुद्गल-परिणाम व्याप्य-स्वरूप नहीं हैं क्योंकि पुद्गल और आत्मा का ज्ञेय-ज्ञायक-संबंध व्यवहार-मात्र से होता हुआ भी पुद्गल-परिणाम निमित्तक ज्ञान ही ज्ञाता के व्याप्य है ।

इसलिये वह ज्ञान ही ज्ञाता का कर्म है ।

(कलश-सवैया इकतीसा)
तत्स्वरूप भाव में ही व्याप्य-व्यापक बने,
बने न कदापि वह अतत्स्वरूप भाव में ।
कर्ता-कर्म भाव का बनना असंभव है,
व्याप्य-व्यापकभाव संबंध के अभाव में ॥
इस भाँति प्रबल विवेक दिनकर से ही,
भेद अंधकार लीन निज ज्ञानभाव में ।
कर्तृत्व भार से शून्य शोभायमान,
पूर्ण निर्भार मगन आनन्द स्वभाव में ॥49॥

[व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेत्] व्याप्यव्यापकता तत्स्वरूपमें ही होती है, [अतदात्मनि अपि न एव] अतत्स्वरूप में नहीं ही होती । और [व्याप्यव्यापकभावसम्भवम् ऋते] व्याप्य-व्यापक भाव के सम्भव बिना [कर्तृकर्मस्थितिः का] कर्ताकर्मकी स्थिति कैसी ? [इति उद्दाम-विवेक-घस्मर-महोभारेण] ऐसे प्रबल विवेकरूप, और सबको ग्रासीभूत करने के स्वभाववाले ज्ञान-प्रकाश के भार से [तमः भिन्दन्] अज्ञानांधकार को भेदता हुआ, [सः एषः पुमान्] यह आत्मा [ज्ञानीभूय तदा] ज्ञानस्वरूप होकर, उस समय [कर्तृत्वशून्यः लसितः] कर्तृत्वरहित हुआ शोभित होता है ।

जयसेनाचार्य :
[कम्मस्स य परिणामं णोकम्मस य तहेव परिणामं ण करेदि एदमादा] जिस प्रकार कलश का उपादान कर्ता मिट्टी है, उसी प्रकार कर्म और नोकर्म के परिणाम का कर्ता पुद्गल द्रव्य है, परन्तु आत्मा उनका उपादान कर्ता नहीं है । इस प्रकार [जो जाणदि सो हवदि णाणी] जो जानता है वह निश्चय शुद्ध-आत्मा का परम समाधि के द्वारा अनुभव करता हुआ ज्ञानी होता है ।

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+ आत्मा पुण्य-पापादि परिणामों का कर्त्ता -- व्यवहार -
कत्ता आदा भणिदो ण य कत्ता केण सो उवाएण ।
धम्मादी परिणामे जो जाणदि सो हवदि णाणी ॥81॥
अन्वयार्थ : किसी एक नय (व्यवहार नय) से आत्मा पुण्य-पापादि परिणामों का कर्त्ता है और किसी एक नय (निश्चय नय) से आत्मा इन परिणामों का कर्त्ता नहीं है, इस प्रकार जो जानता है वह ज्ञानी है ।

जयसेनाचार्य :
[कत्ता आदा भणिदो ण य कत्ता सो] आत्मा कर्त्ता भी है और अकर्त्ता भी है, [केण उवाएण] किसी एक नय विभाग से अर्थात् निश्चय-नय से अकर्त्ता और व्यवहार-नय से कर्त्ता [धम्मादी परिणामे] पुण्य-पापादि कर्म जनित विकारी-भावों का है । इस प्रकार [जो जाणदि सो हवदि णाणी] ख्याति-लाभ-पूजादि समस्त रागादि विकल्पमय औपाधिक परिणामों से रहित समाधि में स्थित होकर जो जानता है, वह ज्ञानी होता है । इस प्रकार निश्चय-नय से अकर्त्तापन और व्यवहार-नय से कर्त्तापन का व्याख्यान करने वाली गाथा हुई ।

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+ कर्मों को जानते हुए इस जीव का पुद्गल के साथ अतादात्म्य -
ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि णपरदव्वपज्जाए । (76)
णाणी जाणंतो वि हु पोग्गलकम्मं अणेयविहं ॥82॥
नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये ।
ज्ञानी जानन्नपि खलु पुद्गलकर्मानेकविधम् ॥७६॥
परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें
बहुभाँति पुद्गल कर्म को ज्ञानी पुरुष जाना करें ॥७६॥
अन्वयार्थ : [णाणी] ज्ञानी [अणेयविहं] अनेक प्रकार के [पोग्गलकम्मं] पुद्गल-द्रव्य के पर्याय रूप कर्मों को [जाणंतो वि] जानता हुआ भी [हु] निश्चय से [परदव्वपज्जाए] पर द्रव्य के पर्यायों में [ण वि परिणमदि] न ही परिणमित होता है [ण गिण्हदि] न ग्रहण करता है [उप्पज्जदि ण] और न उत्पन्न होता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
चूंकि प्राप्य, विकार्य, निर्वर्त्य ऐसे व्याप्य-लक्षण वाले पुद्गल परिणाम को, जो कि स्वयं अन्तर्व्यापक होकर आदि-मध्य-अन्तमें व्यापकर पुद्गल-द्रव्य के ही द्वारा ही किया जाता है, उसको जानता हुआ भी ज्ञानी स्वयं अन्तर्व्यापक होकर बाह्य-स्थित पर-द्रव्य के परिणाम को आदि और मध्य अन्त में व्यापकर जैसे कि मिट्टी इस कारण प्राप्य, विकार्य निर्वर्त्य स्वरूप व्याप्य-लक्षण पर-द्रव्य का परिणाम स्वरूप कर्म को नहीं करते हुए मात्र पुद्गल-कर्म को जानते हुए भी ज्ञानी का पुद्गल के साथ कर्तृ-कर्म भाव नहीं है ।

जयसेनाचार्य :
[पुग्गलकम्मं अणेयविहं] उपादान कारणभूत कर्म-वर्गणा योग्य पुद्गल-द्रव्य द्वारा किया हुआ है ऐसे मूल और उत्तर प्रकृति के भेद से अनेक प्रकार होने वाले पुद्गल-कर्म को [जाणंतो वि हु] विशिष्ट-भेदज्ञान के द्वारा स्पष्टरूप से जानता हुआ भी जाणी सहजानंद स्वरूप-एक-स्वभाव-वाला निज शुद्धात्मा और रागादि-आस्रव इन दोनों के भेद का ज्ञान रखनेवाला जीव, [ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि णपरदव्वपज्जाए] न तो परद्रव्य-पर्याय स्वरूप पूर्वोक्त कर्म के रूप में निश्चय से परिणमन ही करता है; जैसे कि मिट्टी-कलशरूप में परिणमन कर जाती है, और न तादात्म्य सम्बन्ध से ग्रहण ही करता है और न उसके आकार होकर उत्पन्न ही होता है । क्योंकि जिस प्रकार मिट्टी और कलश में परस्पर तादात्म्य संबंध है वैसा तादात्म्य संबंध जीव का पुद्गल-कर्म के साथ नहीं है ।

इसका अर्थ यह हुआ कि पुद्गल-कर्म को जानने वाले जीव का पुद्गल के साथ निश्चय से कर्त्ता-कर्म भाव नहीं है ॥८२॥

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+ कर्मोदय के साथ अतादात्म्य -
ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए । (77)
णाणी जाणंतो वि हु सगपरिणामं अणेयविहं ॥83॥
नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये ।
ज्ञानी जानन्नपि खलु स्वकपरिणाममनेकविधम् ॥७७॥
परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें
बहुभाँति निज परिणाम सब ज्ञानी पुरुष जाना करें ॥७७॥
अन्वयार्थ : [णाणी] ज्ञानी [अणेयविहं] अनेक प्रकार के [सगपरिणामं] अपने परिणामों को [जाणंतो वि] जानता हुआ भी [हु] निश्चय से [परदव्वपज्जाए] पर द्रव्य के पर्यायों में [ण वि परिणमदि] न ही परिणमित होता है [ण गिण्हदि] न ग्रहण करता है [उप्पज्जदि ण] और न उत्पन्न होता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिस कारण प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा व्याप्य लक्षण वाले आत्म-परिणाम को अपने आप स्वयं अन्तर्व्यापक होकर आदि, मध्य और अन्त में व्याप्त कर अपने आपके द्वारा किये गये अपने परिणामरूप कर्म को जानता हुआ भी ज्ञानी स्वयं अन्तर्व्यापक होकर बाह्य स्थित पर-द्रव्य के परिणाम को 'जैसे मिट्टी कलष को व्याप्त होकर करती है' उस प्रकार आदि, मध्य, अंत में व्याप्त होकर इस कारण प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य तीन प्रकार के व्याप्य लक्षण वाले पर-द्रव्य-परिणामरूप कर्म को न करते हुए व अपने परिणाम को जानते हुए भी ज्ञानी का पुद्गल के साथ कर्तृ-कर्मभाव नहीं हैं ।

जयसेनाचार्य :
[सगपरिणामं अणेयविहं] क्षयोपशम-भाव के कारण होने वाले संकल्प-विकल्प रूप अपने परिणाम, जिसको आत्मा ने स्वयं उपादान-रूप होकर किया है और जो अनेक प्रकार हैं उनको [णाणी जाणंतो वि हु] अपने परमात्म-स्वरूप विशेष-भेदज्ञान के बल से स्पष्ट जानता हुआ भी वह निर्विकार-स्वसंवेदन-ज्ञानी जीव [ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए] उन पूर्वोक्त अपने परिणामों के निमित्त-भूत उदय में आये हुए पुद्गल कर्म की पर्याय-रूप में जैसे मिट्टी कलश-रूप में परिणमन करती है वैसे शुद्ध-निश्चयनय से न तो परिणमन ही करता है और न तन्मयता के साथ उसे ग्रहण ही करता है और न उस रूप से उत्पन्न ही होता है । क्योंकि मिट्टी ओर कलश में परस्पर जिस प्रकार उपादान और उपादेय भाव है, उसी प्रकार पुद्गल-कर्म के साथ आत्मा का उपादान-उपादेय भाव नहीं है । इसलिये अपने क्षायोपशमिक परिणाम के निमित्त से उदय में आये हुए कर्म को जानते हुए जीव का भी उस कर्म के साथ निश्चय से कर्ता-कर्म भाव नहीं है ।

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+ ज्ञानी के कर्म-फल में कर्ता-कर्म भाव नहीं -
ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए । (78)
णाणी जाणंतो वि हु पोग्गलकम्मप्फलमणंतं ॥84॥
नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये ।
ज्ञानी जानन्नपि खलु पुद्गलकर्मफलमनन्तम् ॥७८॥
परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें
पुद्गल करम का नंतफल ज्ञानी पुरुष जाना करें ॥७८॥
अन्वयार्थ : [णाणी] ज्ञानी [अणेयविहं] अनेक प्रकार के [पोग्गलकम्मप्फलमणंतं] अनन्त पुद्गल-कर्म के फलों को [जाणंतो वि] जानता हुआ भी [हु] निश्चय से [परदव्वपज्जाए] पर द्रव्य के पर्यायों में [ण वि परिणमदि] न ही परिणमित होता है [ण गिण्हदि] न ग्रहण करता है [उप्पज्जदि ण] और न उत्पन्न होता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिस कारण प्राप्य, विकार्य, और निर्वर्त्य ऐसे जिसका लक्षण व्याप्य है ऐसा तीन प्रकार का सुख-दुःखादिरूप पुद्गल-कर्म का फल जो कि स्वयं अंतर्व्यापक होकर, आदि-मध्य-अंत में व्याप्त होकर पुद्गल-द्रव्य के द्वारा क्रियमाण को जानता हुआ भी ज्ञानी, आप अंतर्व्यापक होकर बाह्य स्थित पर-द्रव्य के परिणाम को मिट्टी और घड़े की भांति आदि, मध्य और अन्त में व्याप्त कर इस कारण प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्यरूप व्याप्य-लक्षण पर-द्रव्य के परिणाम-रूप कर्म को नहीं करते हुए, मात्र सुख-दुःखरूप कर्म के फल को जानते हुए भी ज्ञानी का पुद्गल के साथ कर्तृ-कर्म-भाव नहीं है ।

जयसेनाचार्य :
[पोग्गलकम्मप्फलमणंतं] पौद्गलिक कर्मों का फल जो कि उपादान-कारण रूप से उदयागत द्रव्य-कर्म के द्वारा किया जाता है तथा सुख-दुःखरूप-शक्ति की अपेक्षा से अनंत प्रकार का होता है, उसको [णाणी जाणंतो वि हु] वीतराग-रूप जो शुद्धात्मा उसके संवेदन से समुत्पन्न-सुखामृत रस उससे तृप्त होता हुआ भेदज्ञानी जीव अपने निर्मल-विवेकरूप-भेद-ज्ञान से स्पष्ट रूप जानता हुआ भी [ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए] वर्तमान सुख-दुःखरूप शक्ति की अपेक्षा का निमित्त-उपादान रूप में उदय में आया हुआ पुद्गल-कर्म जो की पर-द्रव्य पर्याय-स्वरूप है उसके रूप में जैसे मिट्टी-कलश के रूप में परिणमन करती है वैसे शुद्ध-नय की अपेक्षा से न तो परिणमन ही करता है, न तन्मयता के साथ उसे ग्रहण ही करता है और न उसकी पर्यायरूप से उत्पन्न ही होता है क्योंकि मृत्तिका और कलश में परस्पर जैसा तादात्म्य लक्षण संबंध है वैसा संबंध ज्ञानी जीव का द्रव्य-कर्म के साथ नहीं है ।

यहाँ कोई प्रश्न करता है कि जब पुद्गल-द्रव्यकर्म के रूप में न तो परिणमन ही करता है, न उसे ग्रहण ही करता है और न तदाकाररूप से उत्पन्न ही होता है, तब वह ज्ञानी जीव क्या करता है ? इसका उत्तर आचार्य देते हैं कि वह तो मिथ्यात्व-विषय-कषाय-ख्याति-पूजा-लाभ और भोगों की आकांक्षा रूप निदानबंध-शल्यादि-विभाव-परिणामों के कर्तापन और भोक्तापन के विकल्प से रहित अपनी शुद्धात्मा का स्वरूप जो कि जल के भरे हुए कलश के समान केवल एक-चिदानंद स्वभाव से परिपूर्ण है उसी का निर्विकल्प-समाधि में स्थित होकर ध्यान करता है ।

इस प्रकार निश्चय-नय से आत्मा द्रव्य-कर्मादि स्वरूप-परद्रव्य के रूप में कभी नहीं परिणमता इस प्रकार का व्याख्यान करने वाली तीन गाथाएँ हुईं ।

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+ पुद्गल का भी जीव के साथ कर्ता-कर्मभाव नहीं -
ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए । (79)
पोग्गलदव्वं पि तहा परिणमदि सएहिं भावेहिं ॥85॥
नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये ।
पुद्गलद्रव्यमपि तथा परिणमति स्वकैर्भावैः ॥७९॥
परद्रव्य की पर्याय में उपजे ग्रहे ना परिणमें
इस ही तरह पुद्गल दरव निजभाव से ही परिणमें ॥७९॥
अन्वयार्थ : [पोग्गलदव्वं पि] पुद्गल द्रव्य भी [परदव्वपज्जाए] पर-द्रव्य के पर्याय में [तहा] उस प्रकार [ण वि परिणमदि] न तो परिणमन करता है, [ण गिण्हदि] उसको ग्रहण भी नहीं करता और [उप्पज्जदि ण] न उत्पन्न होता है, किन्तु [सएहिं भावेहिं] अपने भावों से ही [परिणमदि] परिणमन करता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिस कारण जीव के परिणाम को, अपने परिणाम को तथा अपने परिणाम के फल को न जानता हुआ पुद्गल-द्रव्य पर-द्रव्य (जीव) के परिणाम-रूप कर्म को मृत्ति का कलष की तरह आप अंतर्व्यापक होकर आदि, मध्य और अन्त में व्याप्त कर परन्तु प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्यरूप व्याप्य-लक्षण अपने स्वभाव-रूप कर्म को अन्तर्प्यापक होकर आदि, मध्य और अन्त में व्याप्य इस कारण प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य-रूप व्याप्य-लक्षण पर-द्रव्य (जीव) के परिणाम-स्वरूप कर्म को न करते हुए जीव के परिणाम को, अपने परिणाम को तथा अपने परिणाम के फल को नहीं जानते हुए पुद्गल-द्रव्य का जीव के साथ कर्तृ-कर्म-भाव नहीं है ।

अब इसी अर्थ के समर्थन का कलषरूप काव्य कहते हैं --

(कलश-सवैया इकतीसा)
निजपरपरिणति जानकार जीव यह,
परपरिणति को करता कभी नहीं ।
निजपरपरिणति अजानकार पुद्गल,
परपरिणति को करता कभी नहीं ॥
नित्य अत्यन्त भेद जीव-पुद्गल में,
करता-करमभाव उनमें बने नहीं,
ऐसो भेदज्ञान जबतक प्रगटे नहीं,
करता-करम की प्रवृत्ती मिटे नहीं ॥५०॥

[ज्ञानी इमां स्वपरपरिणति] ज्ञानी अपनी और पर की परिणति को [जानन् अपि च] जानता हुआ भी और [पुद्गलः अपि अजानन्] पुद्गल-द्रव्य न जानता हुआ प्रवर्तता है; [नित्यम् अत्यन्त-भेदात्] इसप्रकार उनमें सदा अत्यन्त भेद होने से, [अन्तः व्याप्तृव्याप्यत्वम्] परस्पर में व्याप्यव्यापकभाव को [कलयितुम् असहौ] प्राप्त होने में असमर्थ हैं । [अनयोः कर्तृकर्मभ्रममतिः] जीव-पुद्गल को कर्ता-कर्मभाव है ऐसी भ्रमबुद्धि [अज्ञानात् तावत् भाति] अज्ञानवश वहाँ तक होती है कि [यावत् विज्ञानार्चिः] जहाँ तक (भेदज्ञान करनेवाली) विज्ञान-ज्योति [क्रकचवत् अदयं] करवत् की भाँति निर्दयता से (उग्रता से) [सद्यः भेदम् उत्पाद्य] जीव-पुद्गल का तत्काल भेद उत्पन्न करके [न चकास्ति] प्रकाशित नहीं होती ।

जयसेनाचार्य :
[ण वि परिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए] जैसे निश्चय-नय से जीव अपने अनंत-सुखादि स्वरूप को छोड़कर पुद्गल-द्रव्य के रूप में न तो परिणमन ही करता है, न तन्मयता से ग्रहण ही करता है और न उसके आकार-रूप उत्पन्न ही होता है, [पोग्गलदव्वं पि तहा] उसी प्रकार पुद्गल-द्रव्य भी स्वयं तादात्म्य स्वरूप से जिस प्रकार मिट्टी-कलश रूप में परिणमन करती है, उसी प्रकार चिदानंद है लक्षण जिसका ऐसे जीव-स्वरूप में न तो परिणमन ही करता है, न तन्मयता के साथ ग्रहण ही करता है और न जीव के आकार ही बनता है, किन्तु [परिणमदि सएहिं भावेहिं] वह भी सदा अपने वर्णादि स्वभाव-रूप गुण-धर्मों के द्वारा ही परिणमन करता है, क्योंकि मृत्तिका और कलश में जैसा तादात्म्य संबंध है वैसा पुद्गल-द्रव्य का जीव के साथ नहीं है ।

इस प्रकार पुद्गल-द्रव्य भी जीव के साथ उस रूप होकर परिणमन नहीं करता है इत्यादि व्याख्यान की मुख्यता करके गाथा पूर्ण हुई ।

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+ जीव-पुद्गल के निमित्त-नैमित्तिक संबंध होने पर भी कर्ता-कर्म का अभाव -
जीवपरिणामहेदुं कम्मत्तं पोग्गला परिणमंति । (80)
पोग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि ॥86॥
ण वि कुव्वदि कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । (81)
अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणामं जाण दोण्हं पि ॥87॥
एदेण कारणेण दु कत्त आदा सएण भावेण । (82)
पोग्गलकम्मकदाणं ण दु कत्त सव्वभावाणं ॥88॥
जीवपरिणामहेतुं कर्मत्वं पुदगला: परिणमंति
पुद्गलकर्मनिमित्तं तथैव जीवोऽपि परिणमति ॥८०॥
नापि करोति कर्मगुणान् जीव: कर्म तथैव जीवगुणान्
अन्योन्यनिमित्तेन तु परिणामं जानीहि द्वयोरपि ॥८१॥
एतेन कारणेन तु कर्ता आत्मा स्वकेन भावेन
पुद्गलकर्मकृतानां न तु कर्ता सर्वभावानाम् ॥८२॥
जीव के परिणाम से जड़कर्म पुद्गल परिणमें
पुद्गल करम के निमित्त से यह आतमा भी परिणमें ॥८०॥
आतम करे ना कर्मगुण ना कर्म आतमगुण करे
पर परस्पर परिणमन में दोनों परस्पर निमित्त हैं ॥८१॥
बस इसलिए यह आतमा निजभाव का कर्ता कहा
अन्य सब पुद्गलकरमकृत भाव का कर्ता नहीं ॥८२॥
अन्वयार्थ : [पोग्गला] पुद्गल [जीवपरिणामहेदुं] जीव के परिणाम का निमित्त पाकर [कम्मत्तं] कर्मत्व-रूप [परिणमंति] परिणमन करते हैं [तहेव] उसी प्रकार [जीवो वि] जीव भी [पोग्गलकम्मणिमित्तं] पुद्गल-कर्म का निमित्त पाकर [परिणमदि] परिणमन करता है । तो भी [जीवो] जीव [कम्मगुणे] कर्म के गुणों को [ण वि] नहीं [कुव्वदि] करता [तहेव] उसी भांति [कम्मं] कर्म [जीवगुणे] जीव के गुणों को नहीं करता । [दु] किंतु [दोण्हं पि] इन दोनों के [अण्णोण्णणिमित्तेण] परस्पर निमित्त-मात्र से [परिणामं] परिणाम [जाण] जानो [एदेण कारणेण दु] इसी कारण से [सएण भावेण] अपने भावों से [आदा] आत्मा [कत्त] कर्ता कहा जाता है [दु] परंतु [पोग्गलकम्मकदाणं] पुद्गल कर्म द्वारा किये गये [सव्वभावाणं] समस्त ही भावों का [ण कत्त] कर्ता नहीं है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिस कारण जीव-परिणाम को निमित्त-मात्र करके पुद्गल कर्म-भाव से परिणमन करते हैं और पुद्गल-कर्म को निमित्त-मात्र कर जीव भी परिणमन करता है । ऐसे जीव के परिणाम का तथा पुद्गल के परिणाम का परस्पर हेतुत्व का स्थापन होने पर भी जीव और पुद्गल के परस्पर व्याप्य-व्यापक भाव के अभाव से जीव के तो पुद्गल-परिणामों का और पुद्गल-कर्म के जीव-परिणामों का कर्तृ-कर्मपने की असिद्धि होने पर निमित्त-नैमित्तिक भाव-मात्र का निषेध नहीं है, क्योंकि परस्पर निमित्त-मात्र होने से ही दोनों का परिणाम है । इस कारण मृत्तिका के कलष की तरह अपने भाव द्वारा अपने भाव के करने से जीव अपने भाव का कर्ता सदा काल होता है । तथा मृत्तिका जैसे कपड़े की कर्ता नहीं है, वैसे ही जीव अपने भाव द्वारा पर के भावों के करने की असमर्थता से पुद्गल के भावों का तो कर्ता कभी नहीं है ऐसा निश्चय है ।

जयसेनाचार्य :
[जीवपरिणामहेदुं कम्मत्तं पोग्गला परिणमंति] जैसे कुंभकार के निमित्त से मिट्टी घडे के रूप में परिणमन करती है उसी प्रकार जीव संबंधी मिथ्यात्त्व व रागादि परिणामों का निमित्त पाकर कर्मवर्गणा-योग्य-पुदगल-द्रव्य भी कर्म-रूप में परिणमन करता है । [पोग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि] जिस प्रकार घट का निमित्त पाकर कुम्हार 'मैं घडे को बनाता हूँ' -- इस प्रकार भाव-रूप परिणमन करता है, वैसे ही उदय में आये हुए द्रव्य-कर्मों का निमित्त पाकर अपने विकार-रहित चेतन-मात्र परिणति को प्राप्त नहीं होता हुआ जीव भी मिथ्यात्व और राग-रूप-विभाव-परिणाम रूप परिणमन करता है । [ण वि कुव्वदि कम्मगुणे जीवो] यद्यपि परस्पर एक दूसरे के निमित्त से इन दोनों का परिणमन होता है तो भी निश्चय-नय से जीव पुद्गल-कर्म के वर्णादि गुणों को पैदा नहीं करता है । [कम्मं तहेव जीवगुणे] वैसे कर्म भी जीव के अनंत-ज्ञानादि-गुणों को उत्पन्न नहीं करता है । [अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणामं जाण दोण्हं पि] यद्यपि उपादान रूप से नहीं करता फिर भी घट और कुम्हार की भाँति इन दोनों जीव और पुद्गल-द्रव्यों का परस्पर में एक दूसरे के निमित्त से परिणमन होता है । [एदेण कारणेण दु कत्त आदा सएण भावेण] इस प्रकार पूर्वोक्त दो सूत्रों में जैसा बतलाया गया है उस रूप जीव जब निर्मल-आत्मा की अनुभूति है लक्षण जिसका ऐसा शुद्ध-उपादान है कारण-भूत जिसमें अथवा शुद्ध-उपादान का कारण-भूत जो परिणाम उससे यह जीव अव्याबाध और अनंत-सुखादिरूप शुद्ध-भावों का कर्ता होता है और इससे विलक्षण एक अशुद्ध-उपादान ही है कारण जिसमें या अशुद्ध-उपादान का कारण-भूत ऐसे विकारी-परिणमन के द्वारा रागादि-अशुद्धभावों का कर्त्ता होता है, जैसे मिट्टी कलश का कर्ता होती है । [पोग्गलकम्मकदाणं ण दु कत्त सव्वभावाणं] किन्तु पुद्गल-कर्म के किये हुए ज्ञानावरणादि पुद्गल-कर्म-पर्याय रूप जो सब भाव हैं उन सबका कर्ता आत्मा नहीं है ।

इस प्रकार जीव और पुद्गल के परस्पर में निमित्त-कारणपना है इस व्यायाख्यान की मुख्यता से तीन गाथाएँ पूर्ण हुईं ।

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+ जीव का कर्तृत्व और भोक्तृत्व अपने परिणामों के साथ ही -
णिच्छयणयस्स एवं आदा अप्पाणमेव हि करेदि । (83)
वेदयदि पुणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्ताणं ॥89॥
निश्चयनयस्यैवमात्मात्मानमेव हि करोति
वेदयते पुनस्तं चैव जानीहि आत्मा त्वात्मानम् ॥८३॥
हे भव्यजन ! तुम जान लो परमार्थ से यह आतमा
निजभाव को करता तथा निजभाव को ही भोगता ॥८३॥
अन्वयार्थ : [णिच्छयणयस्स] निश्चय-नय के मत में [एवं] इस प्रकार [आदा] आत्मा [अप्पाणमेव हि] अपने को ही [करेदि] करता है [पुणो दु] और फिर [अत्ता] वह आत्मा [तं चेव अत्ताणं] अपने को ही [वेदयदि] भोगता है ऐसा तू [जाण] जान ।

अमृतचंद्राचार्य :
जैसे पवन के चलने और न चलने का निमित्त पाकर तरंगों का उठना और विलय होना रूप दो अवस्था होने पर भी पवन और समुद्र के व्याप्य-व्यापक-भाव के अभाव से कर्ता-कर्म-पने की असिद्धि होने पर समुद्र ही आप उन अवस्थाओं में अंतर्व्यापक होकर आदि, मध्य और अंत में उन अवस्थाओं में व्याप्त होकर उत्तरंग-निस्तरंग रूप अपने एक को ही करता हुआ प्रतिभासित होता है, किसी दूसरे को करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता और जैसे कि वही समुद्र उस पवन और समुद्र के भाव्य-भावक भाव के अभाव से परभाव को पररूप से अनुभव करने के असामर्थ्य से उत्तरंग-निस्तरंग-स्वरूप अपने को ही अनुभवता हुआ प्रतिभासित होता है, अन्य को अनुभवता हुआ प्रतिभासित नहीं होता । उसी प्रकार पुद्गल-कर्म के उदय के होने व न होने का निमित्त पाकर जीव की ससंसार और निःसंसार ये दो अवस्था होने पर भी पुद्गल-कर्म और जीव के व्याप्य-व्यापक-भाव के अभाव से कर्ता-कर्म-रूप की असिद्धि होने पर जीव ही आप अंतर्व्यापक होकर आदि, मध्य और अन्त में ससंसार निःसंसार अवस्था में व्याप्त होकर ससंसार निःसंसार रूप आत्मा को करता हुआ अपने एक को ही करता हुआ प्रतिभासित होओ, अन्य को करता हुआ प्रतिभासित मत होओ । उसी प्रकार यह जीव भाव्य-भावक-भाव के अभाव से परभाव का पर के द्वारा अनुभव करने की असामर्थ्य होने से ससंसार निःसंसार रूप एक अपने को ही अनुभवता हुआ प्रतिभासित होओ, अन्य को करता हुआ प्रतिभासित मत होओ ।

जयसेनाचार्य :
[णिच्छयणयस्स एवं आदा अप्पाणमेव हि करेदि] जैसे समुद्र की तरंगों के उत्पन्न होने में पवन निमित्त-कारण है फिर भी निश्चय-नय से समुद्र ही तरंगों को उत्पन्न करता है, उसी प्रकार द्रव्य-कर्मों के उदय का सद्भाव आत्मा के अशुद्ध-भावों में निमित्त होता है और द्रव्य-कर्म के उदय का न होना आत्मा के शुद्ध भावों में निमित्त होता है । फिर भी निश्चय-नय की अपेक्षा उपादान-रूप से तो स्वयं आत्मा ही जब निर्विकार परम स्व-संवेदन ज्ञानरूप परिणत होता है तब केवल-ज्ञान आदि शुद्ध-भावों को उत्पन्न करता है और अशुद्ध रूप में परिणत हुआ आत्मा ही उपादान रूप से सांसारिक सुख-दुखादि रूप अशुद्ध भावों को उत्पन्न करता है । यहाँ पर उन परिणामों के रूप में परिज्ञान करना ही कर्तापन से विवक्षित है । आत्मा केवल अपने भावों का कर्ता ही हो इतना ही नहीं है किन्तु, [वेदयदि पुणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्ताणं] अपने शुद्ध-आत्मा की भावना से उत्पन्न सुख-रूप शुद्ध-उपादान के द्वारा अनुभव भी अपने शुद्धात्मा का ही करता है, उसी को भोगता है, और उसी का संवेदन करता है, और उसी रूप में परिणमन करता है, किन्तु अशुद्ध-उपादान से अपनी अशुद्ध-आत्मा का ही अनुभव या संवेदन करता हुआ उसी रूप परिणमन करता है -- ऐसा हे शिष्य ! तुम समझो ।

इस प्रकार निश्चय-कर्तत्व-भोक्तृत्व का व्याख्यान करने वाली गाथा हुई ॥८९॥

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+ लोक-व्यवहार ऐसा होता है -
ववहारस्स दु आदा पोग्गलकम्मं करेदि णेयविहं । (84)
तं चेव पुणो वेयइ पोग्गलकम्मं अणेयविहं ॥90॥
व्यवहारस्य त्वात्मा पुद्गलकर्म करोति नैकविधम्
तच्चैव पुनर्वेदयते पुद्गलकर्मानेकविधम् ॥८४॥
अनेक विध पुद्गल करम को करे भोगे आतमा
व्यवहारनय का कथन है यह जान लो भव्यात्मा ॥८४॥
अन्वयार्थ : [ववहारस्स दु] परंतु व्यवहारनय के दर्शन में [आदा] आत्मा [णेयविहं] अनेक प्रकार के [पोग्गलकम्मं] पुद्गल कर्म को [करेदि] करता है [तं चेव पुणो] और फिर उस ही [अणेयविहं] अनेक प्रकार के [पोग्गलकम्मं] पुद्गल-कर्म को [वेयइ] भोगता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जैसे अन्तर्व्याप्य-व्यापक-भाव से मिट्टी घड़े को करती है तथा भाव्य-भावक-भाव से मिट्टी घड़े को भोगती है तो भी बाह्य व्याप्य-व्यापक-भाव से कलष होने के अनुकूल व्यापार को अपने हस्तादिक से करने वाला तथा कलष में भरे जल के उपयोग से हुए तृप्तिभाव को भाव्य-भावक भाव से अनुभव करने वाला कुम्हार इस कलष को बनाता तथा भोगता है, ऐसा लोकों का अनादि से प्रसिद्ध व्यवहार रहा है । उसी प्रकार अन्तर्व्याप्यापक-भाव से पुद्गल-द्रव्य पौद्गलिक कर्म को करता है और भाव्य-भावक भाव से पुद्गल-द्रव्य ही उस कर्म को अनुभवता (भोगता) है तो भी बाह्य व्याप्य-व्यापक-भाव से अज्ञान से पुद्गल कर्म के होने के अनुकूल अपने रागादि परिणाम को करता हुआ और पुद्गल-कर्म के उदय होने से उत्पन्न विषयों की समीपता में होने वाली अपनी सुख-दुःख-रूप परिणति को भाव्य-भावक-भाव से अनुभव करने वाला जीव पुद्गलकर्म को करता है और भोगता है । ऐसा अज्ञानी लोकों का अनादिसंसार से व्यवहार प्रसिद्ध है ।

जयसेनाचार्य :
[ववहारस्स दु आदा पोग्गलकम्मं करेदि णेयविहं] जैसा देखने में आता है कि घड़े का उपादान-कारण मिट्टी का पिण्ड है उसी का घड़ा बनता है तथापि घडे को बनाने वाला कुम्हार है और जल धारण करना, उसका मूल्य लेना आदि फल का भोक्ता भी वही कुम्हार है, ऐसा अनादिकाल से लोगों का व्यवहार चला आ रहा है । वैसा ही उपादान-रूप से कर्मों का पैदा करनेवाला भी कार्माण-वर्गणा योग्य पुद्गल-द्रव्य है, जो अनेक प्रकार के मूल-उत्तर प्रकृति भेद लिए हुए नाना प्रकार ज्ञानावरणादि पुद्गल-कर्म हैं उसका करने वाला व्यवहार-नय से आत्मा है, ऐसा समझा जाता है । [तं चेव य वेदयदे पुग्गलकम्मं अणेयविहं] और उदय में आये हुए उसी अनेक प्रकार के पौदगलिक कर्मों को व अनिष्ट जो पंचेन्द्रिय के विषय उनके रूप में आत्मा अनुभवन करने वाला होता है, ऐसा अन्य विषय से रहित शुद्धात्मा के उपलम्भ से समुत्पन्न जो सुखामृत रस उसके आस्वाद से रहित रहने वाले अज्ञानी लोगों का अनादि काल का व्यवहार चला आता है ॥९०॥

ज्ञानी जीव का विशेष व्याख्यान करने के लिए ग्यारह गाथाओं द्वारा दूसरा अधिकार पूर्ण हुआ ।

इसके पश्चात् २५ गाथाओं पर्यन्त चेतन और अचेतन इन दोनों का एक ही उपादान कर्ता है ऐसा कहने वाले द्विक्रियावादियों का निराकरण करते हुए इस प्रकार समुदाय पातनिका रूप से २५ गाथाओं द्वारा तीसरा स्थल है ।

पहले कर्म का कर्त्तापन और भोक्तापन के बारे में जो नय विभाग कहा गया है वह अनेकांत सम्मत है । किन्तु एकान्त-नय से जो ऐसा मानता है कि यह जीव भावकर्म-राग-द्वेषादि को जैसे करता है वैसे ही निश्चय से द्रव्य-कर्मों को भी करता है । इस प्रकार चेतन और अचेतन कार्यों का एक ही उपादान कारण है -- ऐसी द्विक्रियावादियों की मान्यता को दूषित बतलाते हैं --

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+ द्विक्रियावादियों की मान्यता दूषित -
जदि पोग्गलकम्ममिणं कुव्वदि तं चेव वेदयदि आदा । (85)
दोकिरियावदिरित्ते पसज्जदे सो जिणावमदं ॥91॥
यदि पुद्गलकर्मेदं करोति तच्चैव वेदयते आत्मा
द्विक्रियाव्यतिरिक्त: प्रसजति स जिनावमतम् ॥८५॥
पुद्गल करम को करे भोगे जगत में यदि आतमा
द्विक्रिया अव्यतिरिक्त हों सम्मत न जो जिनधर्म में ॥८५॥
अन्वयार्थ : [जदि] यदि [आदा] आत्मा [इणं] इस [पोग्गलकम्म] पुद्गल-कर्म को [कुव्वदि] करे [च] और [तं चेव] उसी को [वेदयदि] भोगे तो [सो] वह [दोकिरियावदिरित्ते] आत्मा दो क्रियासे अभिन्न [पसज्जदे] प्रसक्त होता है सो यह [जिणावमदं] जिनदेव का अवमत है याने जिनमत से अलग है ।

अमृतचंद्राचार्य :
निश्चयत: यही सारी ही क्रिया परिणाम-स्वरूप होने के कारण परिणाम से कुछ भिन्न वस्तु नहीं है और परिणाम भी, परिणाम तथा परिणामी द्रव्य दोनों की अभिन्न-वस्तुता होने से, परिणामी से पृथक् नहीं है । इस प्रकार क्रिया और क्रियावान् की अभिन्नता है । ऐसी वस्तु की मर्यादा होने पर जैसे जीव व्याप्य-व्यापक-भाव से अपने परिणाम को करता है और भाव्य-भावक-भाव से उसी अपने परिणाम को अनुभवता है, भोगता है, उसी तरह व्याप्य-व्यापक भाव से पुद्गल-कर्म को भी करे तथा भाव्य-भावक-भाव से पुद्गल-कर्म का ही अनुभव करे, भोगे तो अपनी और पर की मिली दो क्रियाओं का अभेद सिद्ध हुआ । ऐसा होने पर अपने और पर के भेद का अभाव हुआ । इस प्रकार अनेक-द्रव्य-स्वरूप एक आत्मा को अनुभवने वाला जीव मिथ्यादृष्टि होता है । परन्तु ऐसा वस्तु-स्वरूप जिनदेव ने नहीं कहा है, इसलिये जिनदेव के मत के बाहर है ।

जयसेनाचार्य :
[जदि पोग्गलकम्ममिणं कुव्वदि तं चेव वेदयदि आदा] यदि पुद्गल-कर्मों का भी उपादान-रूप से करने वाला और भोगने वाला / अनुभव करने वाला भी आत्मा ही है तब [दोकिरियावादित्तं पसजदि] चेतन और अचेतन इन दोनों क्रियाओं का एक उपादान कर्ता-रूप से द्विक्रियावादीपने का प्रसंग आता है । अथवा पाठांतर से [दो किरियाविदिरित्तो पसजदि] सो इसका ऐसा होता है कि चेतन-क्रिया और अचेतन-क्रिया इन दोनों से आत्मा अभिन्न ठहरता है । [संम्मं जिणावमदं] यह व्याख्यान जिन भगवान्, के द्वारा सम्मत नहीं है प्रत्युत जिन भगवान, द्वारा इसका निराकरण किया गया है । किंतु जो उपर्युक्त द्वि-क्रियावादी के व्याख्यान को मानता है वह जीव निश्चय-सम्यक्त्व जो कि निज-शुद्धात्मा में ही उपादेय रूप से रुचि-स्वरूप हैं और विकार रहित-चिच्चमत्कार-लक्षण-वाला है एवं शुद्ध-उपादान-रूप कारण से उत्पन्न है ऐसे निश्चय-सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त होता हुआ मिथ्यादृष्टि होता है ।

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+ द्विक्रियावादी मिथ्यादृष्टि क्यों ? -
जम्हा दु अत्तभावं पोग्गलभावं च दो वि कुव्वंति । (86)
तेण दु मिच्छादिट्ठी दोकिरियावादिणो होंति ॥92॥
यस्मात्त्वात्मभावं पुद्गलभावं च द्वावपि कुर्वंति
तेन तु मिथ्यादृष्टयो द्विक्रियावादिनो भवंति ॥८६॥
यदि आतमा जड़भाव चेतनभाव दोनों को करे
तो आतमा द्विक्रियावादी मिथ्यादृष्टि अवतरे ॥८६॥
अन्वयार्थ : [जम्हा दु] जिस कारण [अत्तभावं] आत्मा के भाव को [च] और [पोग्गलभावं] पुद्गल के भाव को [दो वि] दोनों ही को आत्मा [कुव्वंति] करते हैं ऐसा कहते हैं [तेण दु] इसी कारण [दोकिरियावादिणो] दो क्रियाओं को एक के ही कहने वाले [मिच्छादिट्ठी] मिथ्यादृष्टि ही [हुंति] हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
चूंकि द्विक्रियावादी आत्मा और पुद्गल दोनों के परिणामों का कर्ता आत्मा को मानते हैं, इस कारण वे मिथ्यादृष्टि ही हैं, ऐसा सिद्धान्त है । सो एक द्रव्य के द्वारा दोनों द्रव्यों का परिणमन किया जा रहा है, ऐसा मुझे प्रतिभासित मत होवे । जैसे कुम्हार के घड़े के होने के अनुकूल अपना व्यापाररूप हस्तादिक क्रिया तथा इच्छारूप परिणाम अपने से अभिन्न तथा अपने से अभिन्न-परिणति-मात्र-क्रिया से किये हुए को करता हुआ प्रतिभासित होता है और घट बनाने के अहंकार से सहित होने पर भी स्व-व्यापार के अनुकूल मिट्टी से अभेदरूप तथा मिट्टी से अभिन्न मृत्तिकापरिणतिमात्र क्रिया द्वारा किये हुए मिट्टी के घट-परिणाम को करता हुआ नहीं मालूम होता । उसी प्रकार आत्मा भी अज्ञान से पुद्गल-कर्म के अनुकूल अपने से अभिन्न, अपने से अभिन्न अपनी परिणति-मात्र क्रिया से किये हुए आत्म-परिणाम को करता हुआ प्रतिभासित होवे, परन्तु पुद्गल-परिणाम के करने के अहंकार से युक्त होने पर भी स्व-परिणाम के अनुकूल, पुद्गल से अभिन्न तथा पुद्गल से अभिन्न पुद्गल की परिणति-मात्र क्रिया से किये हुए पुद्गल के परिणाम को करता हुआ आत्मा मत प्रतिभासो ।

(हरिगीत )
कर्ता वही जो परिणमे परिणाम ही बस कर्म है ।
है परिणति ही क्रिया बस तीनों अभिन्न अखण्ड हैं ॥५१॥

[यः परिणमति स कर्ता] जो परिणमित होता है सो कर्ता है, [यःपरिणामः भवेत् तत् कर्म] जो परिणाम है सो कर्म है [तु या परिणतिः सा क्रिया] और जो परिणति है सो क्रिया है; [त्रयम् अपि वस्तुतया भिन्नं न] यह तीनों ही वस्तुरूप से भिन्न नहीं हैं ।

(हरिगीत )
अनेक होकर एक है हो परिणमित बस एक ही ।
परिणाम हो बस एक का हो परिणति बस एक की ॥५२॥

[एकः परिणमति सदा] एक ही सदा परिणमित होता है, [एकस्यसदा परिणामः जायते] एक का ही सदा परिणाम होता है और [एकस्य परिणतिः स्यात्] एक की ही क्रिया होती है; [यतः अनेकम् अपि एकम् एव] क्योंकि अनेकरूप होने पर भी एक ही वस्तु है ।

(हरिगीत )
परिणाम दो का एक ना मिलकर नहीं दो परिणमें ।
परिणति दो की एक ना बस क्योंकि दोनों भिन्न हैं ॥५३॥

[न उभौ परिणमतः खलु] दो मिलकर परिणमित नहीं होते, [उभयोः परिणामः न प्रजायेत] दो का मिलकर एक परिणाम नहीं होता और [उभयोः परिणति न स्यात् ] दो की मिलकर क्रिया नहीं होती; [यत् अनेकम् सदा अनेकम्एव] क्योंकि अनेक सदा अनेक ही हैं ।

(हरिगीत )
कर्ता नहीं दो एक के हों एक के दो कर्म ना ।
ना दो क्रियायें एक की हों क्योंकि एक अनेक ना ॥५४॥

[एकस्य हि द्वौ कर्तारौ न स्तः] एक के दो कर्ता नहीं होते, [च एकस्य द्वे कर्मणी न] और एक के दो कर्म नहीं होते [च एकस्य द्वे क्रिये न] तथा एक की दो क्रियाएँ नहीं होती; [यतः एकम् अनेकं न स्यात्] क्योंकि एक अनेकरूप नहीं होता ।

(हरिगीत)
'पर को करूँ मैं' यह अहं अत्यन्त ही दुर्वार है ।
यह है अखण्ड अनादि से जीवन हुआ दु:स्वार है ॥
भूतार्थनय के ग्रहण से यदि प्रलय को यह प्राप्त हो ।
तो ज्ञान के घनपिण्ड आतम को कभी ना बंध हो: ॥५५॥

[इह मोहिनाम्] यहाँ मोही (अज्ञानी) जीवों का '[परं अहम्कुर्वे] पर को मैं करता हूँ' [इति महाहंकाररूपं तमः] ऐसा महा-अहंकाररूप अज्ञानान्धकार, [ननु उच्चकैः दुर्वारं] जो अत्यन्त दुर्निवार है वह [आसंसारतः एवधावति ] अनादि संसार से चला आ रहा है । [अहो भूतार्थपरिग्रहेण] अहो ! परमार्थ का ग्रहण करने से [यदि तत् एकवारं विलयं व्रजेत्] यदि वह एक बार भी नाश को प्राप्त हो [तत् ज्ञानघनस्य आत्मनः] तो ज्ञानघन आत्मा को [भूयः बन्धनम् किं भवेत्] पुनः बन्धन कैसे हो सकता है ?

(दोहा)
परभावों को पर करे, आतम आतमभाव ।
आप आपके भाव हैं, पर के हैं परभाव ॥५६॥

[आत्मा सदा आत्मभावान्] आत्मा सदा अपने भावों को और [परः परभावान् करोति] पर-द्रव्य पर के भावों को करता है; [हि आत्मनः भावाः] क्योंकि अपने भाव [आत्मा एव] आप ही है और जो [परस्य ते परः एव] पर वे पर ही है ।

जयसेनाचार्य :
[जम्हा दु अत्तभावं पोग्गलभावं च दो वि कुव्वंति] जबकि आत्मा के भाव चेतनपन को और पुद्गल भाव अचेतनपन रूपादिस्वरूप-जड़भाव को इन दोनों को आत्मा ही उपादानरूप से करने वाला एक ही है, [तेण दु मिच्छादिट्ठी दोकिरियावादिणो होंति] ऐसा मानता है वह चेतन और अचेतन क्रियाओं का एक आधार मानने वाला जीव मिथ्यादृष्टि होता है । तात्पर्य यह है कि जैसे कुम्हार अपने ही आत्मभाव को उपादान रूप से करता है वैसे ही उपादान रूप से घड़े का भी करनेवाला मान लिया जाय तब कुम्हार को घटपना या अचेतनपना प्राप्त हो जायगा अथवा घड़े को चेतनपना-कुम्हारपना प्राप्त हो जायगा । इसी प्रकार जीव भी यदि उपादान रूप से कर्मों का कर्ता हो जाय तो जीव को अचेतन पुद्गल-द्रव्यपना प्राप्त हो जायगा अथवा पुद्गल-कर्म को जीवपना व चेतनपना मानना पडेगा । प्रयोजन यह है कि शुभ और अशुभ कर्मों का करने वाला 'मैं ही हूँ' इस प्रकार का अहंकार रूप अन्धकार अज्ञानियों का नष्ट नहीं होता । तब किनका नष्ट होता है ? सो सुनो, जो जीव पंचेन्द्रिय-विषयसुख के अनुभव-लेप-आनन्द से रहित किन्तु वीतराग-स्वसंवेदन के द्वारा अनुभव करने योग्य तथा निश्चयनय से अपने एक स्वरूप में लवलीन चिदानंदमयी एक-स्वभाव-शुद्ध-परमात्म-द्रव्य में तिष्ठते हुए हैं उन्हीं सम्यग्ज्ञानियों का वह अज्ञानान्धकार या अहंकार रूप भाव दूर होता है, जो कि समस्त प्रकार के शुभाशुभभावों से शुन्य और निर्विकल्प-समाधि लक्षण वाले एवं शुद्धोपयोग की भावना के बलवाले होते हैं, उनके निर्मल भाव के द्वारा वह नष्ट होता है । उस अज्ञानरूप या अहंकाररूप विकल्प जाल के नष्ट हो जाने पर फिर कर्म का नया बंध भी नहीं होता है । ऐसा जानकर इन दृश्यमान बाह्य द्रव्यों के सम्बन्ध में 'मैं करता हूँ मैं नहीं करता हूँ' इस प्रकार के दुराग्रह को छोड़कर रागादि-विकल्प जालों से सर्वथा रहित किन्तु पूर्ण कलश के समान चिदानंदरूप शुद्धभाव से परिपूर्ण अपने परमात्म द्रव्य में निरन्तर भावना करनी चाहिये ।

इस प्रकार द्विक्रियावादी के संक्षेप व्याख्यान की मुख्यता से दो गाथाएँ पूर्ण हुई ।

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+ द्विक्रियावादी का विशेष व्याख्यान -
पुग्गलकम्मणिमित्तं जह आदा कुणदि अप्पणो भावं ।
पुग्गलकम्मणिमित्तं तह वेददि अप्पणो भावं ॥93॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे यह [आदा] आत्मा [पुग्गलकम्मणिमित्तं] पौदगलिक ज्ञानावरणादि कर्म के उदय के निमित्त से होने वाले [अप्पणो भावं] अपने भावों को [कुणदि] करता है [तह] उसी प्रकार [पुग्गलकम्मणिमित्तं] पौदगलिक कर्म के निमित्त से होने वाले [अप्पणो भावं] अपने भावों को [वेददि] भोगता भी है ।

जयसेनाचार्य :
[पुग्गलकम्मणिमित्तं जह आदा कुणदि अप्पणो भावं] उदय में आये हुए द्रव्य कर्मों का निमित्त पाकर निर्विकार-स्वसंवेदन परिणाम से रहित होता हुआ यह आत्मा सुख-दुखादि रूप अपने भावों को करता है, [पुग्गलकम्मणिमित्तं तह वेददि अप्पणो भावं] उसी प्रकार उदय में आये हुए द्रव्य-कर्म का निमित्त पाकर अपने स्व-शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न हुआ जो वास्तविक-सुख उसका आस्वाद नहीं लेता हुआ उसी कर्मोदय-जनित अपने रागादि भावों को संवेदन करने वाला या अनुभव' करने वाला भी होता है । किन्तु द्रव्य-कर्मरूप जो परभाव है उसका कर्ता आत्मा नहीं होता -- ऐसा समझना चाहिये ।

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+ शुद्ध-चैतन्य स्वभावी जीव में मिथ्या-दर्शनादि विकारी भाव कैसे ? -
मिच्छत्तं पुण दुविहं जीवमजीवं तहेव अण्णाणं । (87)
अविरदि जोगो मोहो कोहादीया इमे भावा ॥94॥
मिथ्यात्वं पुनर्द्विविधं जीवोऽजीवस्तथैवाज्ञानम्
अविरतिर्योगो मोह: क्रोधाद्या इमे भावा: ॥८७॥
मिथ्यात्व-अविरति-जोग-मोहाज्ञान और कषाय हैं
ये सभी जीवाजीव हैं ये सभी द्विविधप्रकार हैं ॥८७॥
अन्वयार्थ : [पुण] और [मिच्छत्तं] जो मिथ्यात्व कहा गया था वह [दुविहं] दो प्रकार का है [जीवमजीवं] एक जीव मिथ्यात्व, एक अजीव मिथ्यात्व [तहेव] और उसी प्रकार [अण्णाणं] अज्ञान [अविरदि] अविरति [जोगो] योग [मोहो] मोह और [कोहादीया] क्रोधादि कषाय [इमे भावा] ये सभी भाव जीव अजीव के भेद से दो-दो प्रकार के हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादिक जो भाव हैं वे प्रत्येक पृथक्-पृथक् मयूर और दर्पण की भाँति जीव अजीव के द्वारा भाए गये हैं, इसलिये जीव भी हैं और अजीव भी हैं । जैसे मयूर के नीले, काले, हरे, पीले आदि वर्ण रूप भाव मयूर के निज स्वभाव से भाये हुए मयूर ही हैं । और, जैसे दर्पण में उन वर्णों के प्रतिबिम्ब दिखते हैं, वे दर्पण की स्वच्छता (निर्मलता) के विकार मात्र से भाये हुए दर्पण ही है । उसी प्रकार मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादिक भाव अपने अजीव के द्रव्य-स्वभाव से (अजीवरूप से) भाये हुए अजीव ही हैं तथा वे मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति आदि भाव चैतन्य के विकार-मात्र से (जीव से) भाये हुए जीव ही हैं ।

जयसेनाचार्य :
[मिच्छत्तं पुण दुविहं जीवमजीवं] जीव-स्वभाव और अजीव-स्वभाव के भेद से मिथ्यात्व दो प्रकार का है । [तहेव अण्णाणं अविरदि जोगो मोहो कोहादीया इमे भावा] अज्ञान, अविरति, योग, मोह और क्रोधादि ये सब ही भाव अर्थात् पर्याय मयूर और दर्पण के समान जीव-स्वरूप और अजीव-स्वरूप भी होते हैं । जैसे मयूर और दर्पण में मयूर के द्वारा पैदा किये हुए अनुभव में आने वाले नील-पीतादि आकार विशेष जो कि मयूर के शरीर के आकार परिणत हो रहे हैं वे मयूर ही हैं, चेतनमय हैं, वैसे ही निर्मल-आत्मानुभूति से च्युत हुए जो जीव के द्वारा उत्पन्न किये हुए अनुभव में आने वाले सुख-दुखादि-विकल्प रूप भाव हैं, वे अशुद्ध निश्चयनय से जीवरूप ही हैं, चेतनामय हैं । और जैसे स्वच्छतारूप दर्पण के द्वारा उत्पन्न किये हुए प्रकाशमान मुख का प्रतिबिम्बादि रूप विकार वे सब दर्पणमयी हैं अतएव अचेतन हैं उसी प्रकार उपादान-भूत कर्मवर्गणारूप पुद्गल-कर्म के द्वारा किये हुए ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म-रूप पर्याय तो पुद्गल-मय ही है, अतएव अचेतन ही है ।

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+ मिथ्यात्वादिक जीव अजीव कहे हैं वे कौन हैं ? -
पोग्गलकम्मं मिच्छं जोगो अविरदि अणाणमज्जीवं । (88)
उवओगो अण्णाणं अविरदि मिच्छं च जीवो दु ॥95॥
पुद्गलकर्म मिथ्यात्वं योगोऽविरतिरज्ञानमजीव:
उपयोगोऽज्ञानमविरतिर्मिथ्यात्वं च जीवस्तु ॥८८॥
मिथ्यात्व आदि अजीव जो वे सभी पुद्गल कर्म हैं
मिथ्यात्व आदि जीव हैं जो वे सभी उपयोग हैं ॥८८॥
अन्वयार्थ : [मिच्छं] जो मिथ्यात्व [जोगो] योग [अविरदि] अविरति [अणाणमज्जीवं] अज्ञान अजीव है वह तो [पोग्गलकम्मं] पुद्गल-कर्म है [च] और जो [अण्णाणं] अज्ञान [अविरदि] अविरति [मिच्छं] मिथ्यात्व [जीवो] जीव है [दु] सो [उवओगो] उपयोग है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जो निश्चय से मिथ्या-दर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि अजीव हैं वे अमूर्तिक चैतन्य के परिणाम से अन्य मूर्तिक पुद्गल-कर्म हैं और जो मिथ्या-दर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि जीव हैं वे मूर्तिक पुद्गल-कर्म से अन्य चैतन्य-परिणाम के विकार हैं ।

जयसेनाचार्य :
[पोग्गलकम्मं मिच्छं जोगो अविरदि अणाणमज्जीवं] पुद्गल-कर्म रूप जो मिथ्यात्व, योग, अविरति और अज्ञान है, वह तो अजीव है, किन्तु [उवओगो अण्णाणं अविरदि मिच्छं च जीवो दु] उपयोग रूप भाव जो कि शुद्धात्मादि तत्त्वों के विषय में विपरीत जानकारीमय रूप विकार भाव है वह जीव का अज्ञान-भाव है और निर्विकार-स्व-संवेदन विपरीतात्मक अविरतिरूप विकारी परिणाम है वह जीव का अविरति भाव है, और शुद्ध-जीवादि पदार्थ के विषय में विपरीत अभिप्राय लिए हुए उपयोगात्मक विकारमय-विपरीत-श्रद्धान रूप भाव है वह जीव का मिथ्यात्व भाव है । अर्थात् ये सब जीव के विकार रूप परिणाम हैं ।

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+ आत्म-भावों का कर्त्ता आत्मा और द्रव्य-कर्मादिमय पर-भावों का कर्ता पुद्गल -
उवओगस्स अणाई परिणामा तिण्णि मोहजुत्तस्स । (89)
मिच्छत्तं अण्णाणं अविरदिभावो य णादव्वो ॥96॥
उपयोगस्यानादय: परिणामास्त्रयो मोहयुक्तस्य
मिथ्यात्वमज्ञानमविरतिभावश्च ज्ञातव्य: ॥८९॥
मोहयुत उपयोग के परिणाम तीन अनादि से
जानो उन्हें मिथ्यात्व अविरतभाव अर अज्ञान ये ॥८९॥
अन्वयार्थ : [मोहजुत्तस्स] मोहयुक्त [उवओगस्स] उपयोग के [अणाई] अनादि से लेकर [तिण्णि परिणामा] तीन परिणाम हैं वे [मिच्छत्तं] मिथ्यात्व [अण्णाणं] अज्ञान [च अविरदिभावो] और अविरति-भाव [य णादव्वो] (ये तीन) जानना चाहिये ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब पुनः प्रश्न करता है कि - मिथ्यादर्शनादि चैतन्य परिणाम का विकार कहाँ से हुआ ? इसका उत्तर कहते हैं :-

निश्चय से समस्त वस्तुओं का स्व-रस-परिणमन से स्वभाव-भूत स्वरूप-परिणमन में समर्थता होने पर भी उपयोग का अनादि से ही अन्य वस्तु-भूत मोह-युक्त होने से मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति ऐसे तीन प्रकार का परिणाम-विकार है । और वह स्फटिक-मणि की स्वच्छता में 'पर' के डंक से परिणाम-विकार हुए की भांति पर से भी होता हुआ देखा गया है । जैसे स्फटिक की स्वच्छता में अपना स्वरूप उज्ज्वलतारूप परिणाम की सामर्थ्य होने पर भी किसी समय काला, हरा, पीला जो तमाल, केर, सुवर्ण-पात्र समीपवर्ती आश्रय की युक्तता से काला, हरा, पीला ऐसा तीन प्रकार परिणाम का विकार दीखता है, उसी प्रकार आत्मा के (उपयोग के) अनादि मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति स्वभाव-रूप अन्य वस्तु-भुत मोह की युक्तता होने से मिथ्या-दर्शन, अज्ञान, अविरति ऐसे तीन प्रकार परिणाम-विकार निरख लेना चाहिये ।

जयसेनाचार्य :
[उवओगस्स अणाई परिणामा तिण्णि मोहजुत्तस्स] उपयोग लक्षण-वाला होने से यहाँ पर उपयोग शब्द से आत्मा को लिया गया है । एवं जो आत्मा मोह से युक्त है उसके संतान परम्परा से ये तीन परिणाम अनादि से चले आ रहे हैं । [मिच्छत्तं अण्णाणं अविरदिभावो य णादव्वो] वे परिणाम मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति भाव हैं -- ऐसा जानना चाहिये । इसी को स्पष्टतया समझाते हैं कि -- यद्यपि शुद्ध-निश्चयनय से यह जीव शुद्ध-बुद्ध-एक-स्वभाववाला है तथापि अनादि-कालीन मोहनीयादि कर्म-बंध के वश से मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति रूप तीन विकारी-परिणाम जीव के हो रहे हैं ।

यहाँ पर शुद्ध जीव का स्वरूप तो उपादेय है अर्थात् प्राप्त करने योग्य है और मिथ्यात्वादि-विकारी भाव छोड़ने योग्य हैं ऐसा तात्पर्य है ॥९६॥

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+ आत्मा के तीन-विकारी परिणामों का कर्त्तापना है -
एदेसु य उवओगो तिविहो सुद्धो णिरंजणो भावो । (90)
जं सो करेदि भावं उवओगो तस्स सो कत्ता ॥97॥
एतेषु चोपयोगस्त्रिविध: शुद्धो निरंजनो भाव:
यं स करोति भावमुपयोगस्तस्य स कर्ता ॥९०॥
यद्यपी उपयोग तो नित ही निरंजन शुद्ध है
जिसरूप परिणत हो त्रिविध वह उसी का कर्ता बने ॥९०॥
अन्वयार्थ : [सुद्धो] यद्यपि शुद्धनय से [णिरंजणो] निरंजन / शुद्ध [उवओगो] उपयोग (आत्मा) है तो भी [एदेसु य] मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति इन तीनों के निमित्तभूत होने पर [तिविहो भावो] तीन प्रकार परिणाम वाला होता है । [सो] सो वह आत्मा [जं] जब जिस [भावं] भाव को [करेदि] स्वयं करता है [तस्स] उसी का [सो] वह [कत्ता] कर्ता होता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब आत्मा के तीन प्रकार के परिणाम-विकार का कर्तृत्व बतलाते हैं :-

अब पूर्वोक्त प्रकार से अनादि अन्य-वस्तुभूत मोह-सहित होने से आत्मा में उत्पन्न हुए जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति भावरूप तीन परिणाम विकार उनके निमित्तभूत होने पर, यद्यपि आत्मा का स्वभाव परमार्थ से देखा जाय तो शुद्ध, निरंजन, एक, अनादिनिधन वस्तु का सर्वस्व-भूत चैतन्य-भावरूप से एक प्रकार है, तो भी अशुद्ध सांजन अनेक भावपने को प्राप्त हुआ तीन प्रकार होकर आप अज्ञानी हुआ कर्तृत्व को प्राप्त होता हुआ विकार रूप परिणाम से जिस जिस भाव को आप करता है, उस उस भाव का उपयोग निश्चय से कर्ता होता है ।

जयसेनाचार्य :
[एदेसु य] उदयागत मिथ्या-दर्शन मिथ्या-ज्ञान और मिथ्या-चारित्र के होने पर उनके निमित्त से, [उवओगो] यहाँ उपयोग शब्द से आत्मा ही लिया है । क्योंकि ज्ञान-दर्शनमय जो उपयोग है वह आत्मा से अभिन्न होते हुए उसका लक्षण-स्वरूप है । [तिविहो] जिस प्रकार कृष्ण, नील, पीत उपाधि के द्वारा स्फटिक कृष्ण, नील, पीतरूप हो जाता है, वैसे ही आत्मा भी तीन प्रकार का हो रहा है । किन्तु वस्तुत: तो वह [सुद्धो] रागादि-भाव कर्मों से रहित शुद्ध है, [णिरंजणो] ज्ञानावरणादि द्रव्य-कर्मरूपी अंजन रहित है । [भावो] वह आत्म-पदार्थ एक-अखंड-प्रतिभास-रूप होने वाला ज्ञान-स्वभावमय होने के कारण एक प्रकार का होने पर भी पूर्व-कथित मिथ्या-दर्शन, मिथ्या-ज्ञान और मिथ्या-चारित्ररूप परिणाम विकार से तीन प्रकार का होकर [जं सो करेदि भावं] उनमें से जिस किसी परिणाम को करता है, वह [उवओगो] चैतन्य परिणमन रूप उपयोग का धारक आत्मा [तस्स सो कत्ता] निर्विकार स्व-संवेदन ज्ञानरूप परिणाम से च्युत होता हुआ उसी मिथ्यात्वादि तीन प्रकार के विकारी-परिणाम का कर्ता होता है, किन्तु द्रव्य-कर्म का कर्ता नहीं होता ॥९७॥

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+ कर्म-वर्गणा योग्य पुद्गल-द्रव्य अपने उपादान से कर्म-रूप में परिणत होता है -
जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स । (91)
कम्मत्तं परिणमदे तम्हि सयं पोग्गलं दव्वं ॥98॥
यं करोति भावमात्मा कर्ता स भवति तस्य भावस्य
कर्मत्वं परिणमते तस्मिन् स्वयं पुद्गलं द्रव्यम् ॥९१॥
आतम करे जिस भाव को उस भाव का कर्ता बने
बस स्वयं ही उस समय पुद्गल कर्मभाव से परिणमे ॥९१॥
अन्वयार्थ : [आदा] आत्मा [जं भावम्] जिस भाव को [कुणदि] करता है [तस्स भावस्स] उस भाव का [कत्ता] कर्ता [सो] वह [होदि] होता है [तम्हि] उसके कर्ता होने पर [पोग्गलं दव्वं] पुद्गल-द्रव्य [सयं] अपने आप [कम्मत्तं] कर्मरूप [परिणमदे] परिणमन करता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब, यह कहते हैं कि जब आत्मा के तीन प्रकार के परिणाम-विकार का कर्तृत्व होता है तब पुद्गलद्रव्य अपने आप ही कर्मरूप परिणमित होता है :-

आत्मा निश्चय से आप हो उस प्रकार परिणमन कर प्रगट रूप से जिस भाव को करता है उसका यह कर्ता होता है, जैसे मंत्र साधने वाला पुरुष जिस प्रकार के ध्यान-रूप-भाव से स्वयं परिणमन करता है, उसी ध्यान का कर्ता होता है और समस्त उस साधक के साधने योग्य भाव की अनुकूलता से उस ध्यान-भाव के निमित्त-मात्र होने पर उस साधक के बिना ही अन्य सर्पादिक की विष की व्याप्ति स्वयमेव मिट जाती है, स्त्री जन विडम्बना रूप हो जाती हैं और बंधन खुल जाते हैं इत्यादि कार्य मंत्र के ध्यान की सामर्थ्य से हो जाते हैं । उसी प्रकार यह आत्मा अज्ञान से मिथ्यादर्शानादि-भाव से परिणमन करता हुआ मिथ्यादर्शनादि भाव का कर्ता होता है, तब उस मिथ्यादर्शनादि भाव के अपनी अनुकूलता से निमित्तमात्र होने पर आत्मा कर्ता के बिना पुद्गल-द्रव्य आप ही मोहनीयादि कर्म-रूप से परिणमन करता है ।

जयसेनाचार्य :
[जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स] जब यह आत्मा शुद्ध-स्वभाव से च्युत होता है उस समय मिथ्यात्वादि तीन प्रकार के विकारी परिणामों में से जिस विकार-रूप परिणाम को करता है उस समय वह उसी विकारी-भाव का कर्ता हो जाता है । [कम्मतं परिणमदे तम्हि सयं पोग्गलं दव्वं] और जब यह आत्मा उपर्युक्त तीन प्रकार के परिणाम का कर्ता होता है तब कर्म-वर्गणा योग्य जो पुद्गल-द्रव्य वह अपने आप उपादान रूप से द्रव्य-कर्म रूप में परिणमन कर जाता है । जैसे गारुड़ आदि मंत्र को सिद्ध करने वाला एकाग्र-चित्त होकर उस मंत्र को सिद्ध करता है तब उसके सिद्ध हो जाने पर विषापहार, बंध, विध्वंस या स्त्री-विडंबना आदि-आदि जिस उद्देश्य को लेकर वह उस मंत्र को सिद्ध कर रहा था वह कार्य देशान्तर में उस मंत्र-साधक के अन्य किसी प्रकार के व्यापार के बिना सिद्ध हो जाता है । उसी प्रकार मिथ्यात्व और रागादिरूप विभाव के विनाश के काल में निश्चय-रत्नत्रय स्वरूप शुद्धोपयोग परिणाम के होने पर पूर्व-बद्ध द्रव्य-कर्म नीरस होकर अपने आप जीव से पृथक होकर निर्जीर्ण हो जाते हैं । जैसे कि गारुडी मंत्र के सामर्थ्य से विष निर्विष-रूप में परिणत हो जाता है । ऐसा इस गाथा का भावार्थ है ॥९८॥

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+ वीतराग-स्वसंवेदन-ज्ञान के नहीं होने से नूतन कर्म बंध -
परमप्पाणं कुव्वं अप्पाणं पि य परं करिंतो सो । (92)
अण्णाणमओ जीवो कम्माणं कारगो होदि ॥99॥
परमात्मानं कुर्वन्नात्मानमपि च परं कुर्वन् स:
अज्ञानमयो जीव: कर्मणां कारको भवति ॥९२॥
पर को करे निजरूप जो पररूप जो निज को करे
अज्ञानमय वह आतमा पर करम का कर्ता बने ॥९२॥
अन्वयार्थ : [अण्णाणमओ] अज्ञानमय [सो जीवो] वह जीव [परमप्पाणं] पर को आपरूप [कुव्वं] करता है [य] और [अप्पाणं पि] अपने को भी [परं] पररूप [करिंतो] करता हुआ [कम्माणं] कर्मों का [कारगो] कर्ता [होदि] होता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब, यह तात्पर्य कहते हैं कि अज्ञान से ही कर्म उत्पन्न होता है :-

यह आत्मा अज्ञान से पर के और अपने विशेष का भेद-ज्ञान न होने पर अन्य को तो अपने करता है, और अपने को अन्य के करता है, इस प्रकार स्वयं अज्ञानी हुआ कर्मों का कर्ता होता है । जैसे शीत-उष्ण का अनुभव कराने में समर्थ जो पुद्गल-परिणाम की शीत-उष्ण अवस्था है वह पुद्गल से अभिन्न होने से आत्मा से नित्य ही अत्यंत भिन्न है, वैसे उस प्रकार का अनुभव कराने में समर्थ जो राग-द्वेष सुख-दुःखादिरूप पुद्गल परिणाम की अवस्था वह पुद्गल की अभिन्नता के कारण आत्मा से नित्य ही अत्यन्त भिन्न है । तथा उस पौद्गलिक-कर्म-विपाक के निमित्त से हुए उस प्रकार के राग-द्वेषादिक के अनुभव का आत्मा से अभिन्नता के कारण पुद्गल से नित्य ही अत्यन्त भिन्नता है, तो भी उस पुद्गल परिणामरूप राग-द्वेषादिक का और उसके अनुभव का अज्ञान से परस्पर भेद-ज्ञान न होने से एकत्व के निश्चय से यद्यपि जिस प्रकार शीत उष्ण-रूप से आत्मा परिणमन करने में असमर्थ है, उसी प्रकार राग-द्वेष सुख-दुःखादिरूप भी अपने आप परिणमन करने में असमर्थ है तो भी राग-द्वेषादिक पुद्गल परिणाम की अवस्था को उसके अनुभव का निमित्त-मात्र होने से अज्ञान-स्वरूप राग-द्वेषादिरूप परिणमन करता हुआ अपने ज्ञान की अज्ञानता को प्रकट करता आप अज्ञानी हुआ 'यह मैं रागी हूं' इत्यादि विधानकर ज्ञान विरुद्ध रागादिक-कर्म का कर्ता प्रतिभासित होता है ।

जयसेनाचार्य :
[परं] भाव-कर्म रूप व द्रव्य-कर्म रूप पर-द्रव्य को [अप्पाणं कुव्वदि] पर-द्रव्य और आत्मा में परस्पर भेद-ज्ञान न होने के कारण आपरूप किये रहता है । [अप्पाणं वि य परं करंतो] तथा अपनी शुद्धात्मा को भी पर-रूप विकारी करता है । [सो अण्णाणमओ जीवो कम्माणं कारगो होदि] वह अज्ञानी-जीव नूतनकर्मों का करने वाला अर्थात् बांधने वाला होता है । जैसे कोई पुरुष शीत या उष्ण पुदुगलों के परिणामों की अवस्था में और उसी प्रकार शीतोष्ण रूप अनुभव में जो भेद है उसको, एकता के अभ्यास के कारण नहीं जानता हुआ, 'मैं शीतरूप हूँ या उष्णरूप हूं -- मुझे ठण्ड लगती है या गर्मी लगती है', इस प्रकार शीतोष्ण रूप परिणति का कर्ता बन जाता है, वैसे ही यह संसारी जीव भी अपनी शुद्धात्मा की अनुभूति से भिन्न जो उदयागत पुद्गल कर्म की अवस्था और उसके निमित्त से होने वाले सुख-दुख-रूप-अनुभव में एकता आरोप कर लेने से उन समस्त प्रकार के रागादि-विकल्प से रहित स्व-संवेदन ज्ञान के न होने पर पर-द्रव्य में और आत्मा में जो भेद है उसे नहीं जानता है । इसलिये 'मैं सुखी हूँ, मैं दु:खी हूँ' इस प्रकार से परिणमन करता हुआ कर्मों का कर्ता बनता है ॥९९॥

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+ ज्ञान से कर्मों का बंध नहीं होता -
परमप्पाणमकुव्वं अप्पाणं पि य परं अकुव्वंतो । (93)
सो णाणमओ जीवो कम्माणमकारगो होदि ॥100॥
परमात्मानमकुर्वन्नात्मानमपि च परमकुर्वन्
स ज्ञानमयो जीव: कर्मणामकारको भवति ॥९३॥
पररूप ना निज को करे पर को करे निज रूप ना
अकर्ता रहे पर करम का सद्ज्ञानमय वह आतमा ॥९३॥
अन्वयार्थ : [जीवो] जीव [परमप्पाणमकुव्वं] अपने को पररूप नहीं करता हुआ [य] और [परं] पर को [अप्पाणं पि] अपने रूप भी [अकुव्वंतो] नहीं करता हुआ [सो] वह [णाणमओ] ज्ञानमय [जीवो] जीव [कम्माणमकारगो] कर्मों का करने वाला नहीं [होदि] है ।

अमृतचंद्राचार्य :
यह जीव ज्ञान से पर का और अपना परस्पर भेद-ज्ञान होने से पर को तो आत्म-रूप नहीं करता हुआ और अपने को पर-रूप नहीं करता हुआ आप ज्ञानी हुआ कर्मों का अकर्ता प्रतिभासित होता है । उसी को स्पष्ट करते हैं --

जैसे शीत-उष्ण अनुभव कराने में समर्थ शीत-उष्ण-स्वरूप पुद्गल-परिणाम की अवस्था पुद्गल से अभिन्न होने के कारण आत्मा से नित्य ही अत्यंत भिन्न है, उसी प्रकार राग-द्वेष सुख-दुःखादिरूप अनुभव कराने में समर्थ राग-द्वेष सुख-दुःखादिरूप पुद्गल-परिणाम की अवस्था पुद्गल से अभिन्न होने के कारण आत्मा से नित्य ही, अत्यंत भिन्न है, तथा ऐसी पुद्गल-विपाक अवस्था के निमित्त से हुआ उस प्रकार का अनुभव आत्मा से अभिन्नता के कारण पुद्गल से अत्यंत सदा ही भिन्न है । ऐसी दोनों की भिन्नता के ज्ञान से परस्पर विशेष का भेद-ज्ञान होने पर नानात्व के विवेक से, जैसे शीत-उष्ण रूप आत्मा स्वयं परिणमन में असमर्थ है, उसी प्रकार राग-द्वेष सुख-दुःखादिरूप भी स्वयं परिणमन करने में असमर्थ है । इस प्रकार अज्ञान-स्वरूप जो राग-द्वेष सुख-दुःखादिक उन रूप से न परिणमन करता, ज्ञान के ज्ञानत्व को प्रकट करता, ज्ञान-मय हुआ ज्ञानी ऐसा जानता है कि 'यह मैं राग-द्वेषादिक को जानता ही हूं और ये पुद्गल रागरूप होते हैं' । इत्यादि विधान से सर्व ही ज्ञान-विरुद्ध रागादिक-कर्म का अकर्ता प्रतिभासित होता है ।

जयसेनाचार्य :
आगे कहते हैं कि वीतराग-स्वसंवेदन के प्रभाव से कर्मों का बंध नहीं होता --

[परं] बाह्य में देहादिक और अभ्यन्तर में रागादिक रूप जो पर-द्रव्य हैं अथवा द्रव्य-कर्म और भाव-कर्म रूप जो पर द्रव्य हैं उनको [अप्पाणमकुव्वं] अपने भेद-विज्ञान के बल से नहीं अपनाता है -- उनसे किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखता है [अप्पाणं पि य परं अकुव्वंतो] और शुद्ध -- द्रव्य, गुण और पर्याय-स्वरूप-आत्मा को पर-रूप विकारी नहीं करता है, [सो णाणमओ जीवो कम्माणमकारगो होदि] निर्मल-आत्मा की अनुभूति ही है लक्षण जिसका ऐसे भेद-विज्ञान-वाला जीव कर्मों का उत्पन्न करने वाला नहीं होता । जैसे कोई पुरुष शीत-उष्ण रूप पुदुगल-परिणाम की अवस्था का तथा उससे होने वाले शीतोष्ण रूप अनुभव का और आत्मा का भेद-ज्ञान रखने के कारण से 'मैं शीतरूप हूँ या उष्णरूप हूँ' इस परिणति का कर्ता नहीं होता है । वैसे ही निज शुद्धात्मा की अनुभूति से भिन्न स्वरूप जो पुद्गल-परिणाम की अवस्था तथा उसके निमित्त से होनेवाले सुख या दुख के अनुभव का और अपने शुद्ध-आत्मा की भावना से उत्पन्न सुख के अनुभव का भेद-ज्ञान का अभ्यास रखने के कारण पर और आत्मा का भेद ज्ञान होने पर राग-द्वेष-मोहरूप परिणाम को नहीं करता है वह नूतन कर्मों का कर्ता नहीं होता है ।

इससे यह बात सिद्ध हुई कि ज्ञान से कर्मों का बंध नहीं होता है ॥१००॥

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+ अज्ञान से ही नूतन कर्मों का बंध क्यों ? -
तिविहो एसुवओगो अप्पवियप्पं करेदि कोहोऽहं । (94)
कत्ता तस्सुवओगस्स होदि सो अत्तभावस्स ॥101॥
तिविहो एसुवओगो अप्पवियप्पं करेदि धम्मादी । (95)
कत्ता तस्सुवओगस्स होदि सो अत्तभावस्स ॥102॥
त्रिविध यह उपयोग जब 'मैं क्रोध हूँ' इम परिणमें
तब जीव उस उपयोगमय परिणाम का कर्ता बने ॥९४॥
त्रिविध यह उपयोग जब 'मैं धर्म हूँ' इम परिणमें
तब जीव उस उपयोगमय परिणाम का कर्ता बने ॥९५॥
अन्वयार्थ : [एस] यह [तिविहो] तीन प्रकार का [उवओगो] उपयोग [अप्पवियप्पं] अपने में विकल्प [करेदि] करता है कि [कोहोऽहं] मैं क्रोध-स्वरूप हूं, सो वह [तस्स] उस [उवओगस्स] उपयोगरूप [अत्तभावस्स] अपने भाव का [कत्ता] कर्ता [होदि] होता है ।
[एस] यह [तिविहो] तीन प्रकार का [उवओगो] उपयोग [धम्मादी] धर्म आदिक द्रव्य-रूप [अप्पवियप्पं] आत्म-विकल्प [करेदि] करता है याने उनको अपने जानता है सो वह [तस्स] उस [उवओगस्स] उपयोग-रूप [अत्तभावस्स] अपने भाव का [कत्ता] कर्ता [होदि] होता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
वास्तव में यह सामान्यतः अज्ञानरूप मिथ्यादर्शन अज्ञान और अविरतिरूप तीन प्रकार का सविकार चैतन्य परिणाम पर और आत्मा की अभेदश्रद्धा से, अभेदज्ञान से और अभेदरूप रति से सब भेद को ओझल कर भाव्य-भावक-भाव को प्राप्त हुए चेतन अचेतन दोनों को समान अनुभव करने से 'मैं क्रोध हूं' ऐसा असद्भूत आत्म-विकल्प उत्पन्न करता है याने वह क्रोध को ही अपना जानता है । इस कारण यह आत्मा 'मैं क्रोध हूं' ऐसी भ्रांति से विकार सहित चैतन्य-परिणाम से परिणमन करता हुआ, उस विकार-सहित चैतन्य-परिणामरूप अपने भाव का कर्ता होता है ।

इसी प्रकार क्रोध पद के परिवर्तन से मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन, इन सोलह सूत्रों का व्याख्यान करना चाहिये । और इसी उपदेश से अन्य भी विचार लेना चाहिये ।

सामान्य से मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरतिरूप तीन प्रकार का अज्ञान-रूप सविकार चैतन्य-परिणाम ही पर के और अपने परस्पर अविशेष दर्शन से, अविशेष ज्ञान से और अविशेष चारित्र से समस्त भेदों को लोप करके ज्ञेय-ज्ञायक-भाव को प्राप्त धर्मादि द्रव्यों के अपने और उनके एक समान आधार के अनुभव करने से ऐसा मानता है कि मैं धर्म-द्रव्य हूं, मैं अधर्म-द्रव्य हूं, मैं आकाश-द्रव्य हूं, मैं काल-द्रव्य हूं, मैं पुद्गल-द्रव्य हूं, मैं अन्य जीव भी हूं, ऐसे भ्रम से उपाधि-सहित अपने चैतन्य-परिणाम से परिणमन करता हुआ उस उपाधि-सहित चैतन्य-परिणमनरूप अपने भाव का कर्ता होता है । इस कारण यह निर्णय रहा कि कर्तृत्व का मूल अज्ञान है ।

जयसेनाचार्य :
[तिविहो एसुवओगो] उपर्युक्त मिथ्या-दर्शनादि रूप तीन प्रकार का उपयोग है लक्षण जिसका ऐसी आत्मा [अप्पवियप्पं करेदि] स्वस्थ-भाव के न होने के कारण असत्-मिथ्या विकल्प करता है, कि [कोहोऽहं] मैं क्रोध रूप हूँ इत्यादि [कत्ता तस्सुवओगस्स होदि सो] तब उस समय वह जीव क्रोधादि विकल्प-रूप उपयोग का कर्ता होता है । वह उपयोग कैसा है ? [अत्तभावस्स] अशुद्ध-निश्चय-नय से वह उस जीव का अपना ही परिणाम है । स्पष्ट यह है कि सामान्य रूप में जिसे अज्ञान नाम से कहा जाता है ऐसा एक प्रकार का उपयोग भी विशेष विवक्षा में मिथ्या-दर्शन, अज्ञान और अचारित्र रूप से तीन प्रकार का होता है वह अपने को और क्रोधादि-भावों को भाव्य-भावक-भाव से प्राप्त करता है । भाव्य-भावक को प्राप्त करता है, इसका क्या अर्थ है ? इन दोनों में भाव्य शब्द से क्रोधादि-परिणत आत्मा और भावक शब्द से अन्तरात्मपन से विलक्षण-रूप जो भाव-क्रोध है उसको लेना । इस प्रकार इन दोनों में जो भेद है उस भेदज्ञान के न होने से अर्थात् उस भेद-ज्ञान को नहीं जानता हुआ निर्विकल्प-स्वरूप से भ्रष्ट होता हुआ संसारी आत्मा 'मैं क्रोध हूँ' इत्यादि रूप से अपने आप में विकल्प उत्पन्न करता है, उस समय वह अशुद्ध-निश्चय-नय से उसी क्रोधादि-रूप अपने आत्म-परिणाम का करने वाला होता है ।

इस गाथा में जो क्रोध शब्द आया है उसके स्थान में मान, माया, लोभ, मोह, राग, द्वेष, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घाण, रसना और स्पर्शन इनको भी क्रम से लगाकर उसी प्रकार का व्यायाख्यान करना । इसी प्रकार से अविक्षिप्त शांतचित्त-स्वभाववाला जो शुद्ध-आत्म-तत्त्व से विलक्षण ऐसे असंख्यात-लोक-प्रमाण-विभावभाव होते हैं उनको लगा लेना ॥१०१॥

[तिविहो एसुवओगो] सामान्यतया अज्ञान नाम से कहा जाने वाला एक प्रकार का विकारी भाव भी विशेष अपेक्षा से मिथ्या-दर्शन अज्ञान और अचारित्र-रूप तीन प्रकार का हो जाता है, ऐसे उस विकारी-परिणाम-वाला आत्मा [अप्पवियप्पं करेदि धम्मादी] जिन धर्मादि पर-द्रव्यों के साथ में आत्मा का ज्ञेय-ज्ञायक-मात्र-सम्बन्ध है उनके भी विशेष को न जानने से, न देखने से और न विशेष-रूप परिणमन करने से, प्राप्त हुए भेद-ज्ञान के अभाव के कारण भेद को नहीं जानता हुआ यह छ्द्मस्थ आत्मा 'मैं धर्मास्तिकाय हूँ' इस प्रकार का व्यर्थ विकल्प करता है । [कत्ता तस्सुवओगस्स होदि सो अत्तभावस्स] उस समय वह अशुद्ध-निश्चयनय से उस निर्मल-आत्मानुभूति से रहित होने वाले मिथ्या-विकल्परूप अपने परिणाम का कर्ता होता है । यहां ऐसी शंका हो सकती है कि -- 'मैं धर्मास्तिकाय हूँ' ऐसा कोई नहीं कहता तब ऐसा कहना कैसे घटित हो सकता है ? उसका समाधान यह है कि -- यह धर्मास्तिकाय है, ऐसा ज्ञान-रूप जो विकल्प मन में उठता है उसको ही उपचार से यहाँ धर्मास्तिकाय कहा गया है । जैसे कि घटाकर-परिणत-ज्ञान को घट कहा जाता है । एवं जब ज्ञेय-तत्त्व के विचार-काल में यह जीव 'धर्मास्तिकाय है' इस प्रकार का विकल्प करता है उस समय शुद्धात्म-स्वरूप को विस्मरण कर देता है । इस प्रकार से इस विकल्प के उत्पन्न होने पर 'मैं धर्मास्तिकाय हूँ' ऐसा विकल्प उपचार से घटित हो जाता है । इस वर्णन से यह बात सिद्ध हुई कि शुद्धात्मा के अनुभव का न होना ही अज्ञान है और वह अज्ञान ही कर्ता-कर्मभाव का कारण होता है ॥१०२॥

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+ कर्तृत्व का मूल कारण अज्ञान -
एवं पराणि दव्वाणि अप्पय कुणदि मंदबुद्धीओ । (96)
अप्पाणं अवि य परं करेदि अण्णाणभावेण ॥103॥
एवं पराणि द्रव्याणि आत्मानं करोति मंदबुद्धिस्तु
आत्मानमपि च परं करोति अज्ञानभावेन ॥९६॥
इसतरह यह मंदबुद्धि स्वयं के अज्ञान से
निज द्रव्य को पर करे अरु परद्रव्य को अपना करे ॥९६॥
अन्वयार्थ : [एवं] ऐसे पूर्वकथित रीति से [मंदबुद्धीओ] अज्ञानी [अण्णाणभावेण] अज्ञान-भाव से [पराणि दव्वाणि] पर-द्रव्यों को [अप्पय] अपने-रूप [कुणदि] करता है [अवि य] और [अप्पाणं] अपने को [परं करेदि] पररूप करता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
यह आत्मा मैं क्रोध हूं, मैं धर्म-द्रव्य हूं इत्यादि पूर्वोक्त प्रकार से पर-द्रव्यों को आत्म-रूप करता है और अपने को पर-द्रव्य-रूप करता है, ऐसा यह आत्मा यद्यपि समस्त वस्तु के सम्बन्ध से रहित अमर्याद-रूप शुद्ध चैतन्य धातुमय है तो भी अज्ञान से सविकार सोपाधिरूप किये अपने चैतन्य परिणामरूप से उस प्रकार का अपने परिणाम का कर्ता प्रतिभासित होता है । इस प्रकार आत्मा के भूताविष्ट पुरुष की भांति तथा ध्यानाविष्ट पुरुष की भांति कर्तापने का मूल अज्ञान प्रतिष्ठित हुआ । यही अब स्पष्ट करते हैं --

भूताविष्ट पुरुष (अपने शरीर में भूत प्रवेश किया हुआ) अज्ञान से भूत को और अपने को एक-रूप करता हुआ जैसी मनुष्य के योग्य चेष्टा न हो, वैसी चेष्टा के आलम्बन रूप अत्यन्त भयकारी आरंभ से भरा अमानुष व्यवहार से उस प्रकार चेष्टा-रूप भाव का कर्ता प्रतिभासित होता है, उसी प्रकार यह आत्मा भी अज्ञान से ही पर और आत्मा को भाव्य-भावकरूप एक करता हुआ निर्विकार अनुभूतिमात्र भावक के अयोग्य अनेक प्रकार भाव्यरूप क्रोधादि विकार से मिले चैतन्य के विकार सहित परिणाम से उस प्रकार के भाव का कर्ता प्रतिभासित होता है ।

तथा जैसे किसी अपरीक्षक आचार्य के उपदेश से भैंसे का ध्यान करने वाला कोई भोला पुरुष अज्ञान से भैंसे को और अपने को एकरूप करता हुआ अपने में गगन-स्पर्शी सींग वाले महान् भैंसापने के अध्यास से मनुष्य के योग्य छोटी कुटीके द्वार से निकलने से च्युत रहा उस प्रकार के भाव का कर्ता प्रतिभासित होता है । उसी प्रकार यह आत्मा भी अज्ञान से ज्ञेयज्ञायकरूप पर और आत्मा को एकरूप करता हुआ आत्मा में पर-द्रव्य के अध्यास से (निश्चय से) मन के विषय-रूप किये धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीव-द्रव्य शुद्ध चैतन्य-धातु रुकी होने से तथा इंद्रियों के विषय-रूप किये गये रूपी पदार्थों के द्वारा अपना केवल (एक) ज्ञान ढका गया होने से तथा मृतक शरीर में परम अमृत-रूप विज्ञान-घन आत्मा के मूर्छित होने से उस प्रकार के भाव का कर्ता प्रतिभासित होता है ।

जयसेनाचार्य :
[एवं] जैसा कि, पहले दो गाथाओं में कहा जा चुका है, उस प्रकार से [पराणि दव्वाणि अप्पयं कुणदि] मैं क्रोध हूँ इत्यादि, अथवा मैं धर्मास्तिकाय हूँ इत्यादि, क्रोधादिक अपने परिणामरूप अथवा धर्मास्तिकायादि ज्ञेय-रूप पर-द्रव्य हैं, उनको अपना लेता है । [मंदबुद्धीओ] वह निर्विकल्प-समाधि है लक्षण जिसका, ऐसे भेदज्ञान से रहित मन्दबुद्धि-जीव [अप्पाणं अवि य परं करेदि] शुद्ध-बुद्ध-स्वरूप एक-स्वभाव वाले अपने आत्मा को भी 'पर' बना देता है -- अर्थात् अपने स्वरूप से भ्रष्ट कर लेता है, रागादिक संयुक्त कर लेता है । [अण्णाणभावेण] अपने अज्ञानभाव से पराधीन होता है ।

इससे यह सिद्ध हुआ कि भूताविष्ट दृष्टांत के द्वारा जिस प्रकार क्रोधादिक के विषय में, उसी प्रकार ध्यानाविष्ट दृष्टांत के द्वारा धर्मादि ज्ञेय-पदार्थ के विषय में जो इस जीव का अपने शुद्धात्मा के संवेदन से पृथक् भाव-रूप अज्ञान होता है, वही कर्ता-कर्मभाव का कारण होता है । जैसे -- किसी पुरुष के भूत-आदि ग्रह लग गया हो, तो वह भूत में और अपने आप में भेद को नहीं जानता हुआ, मनुष्य से न करने योग्य ऐसी बडी भारी शिला उठाना आदि आश्चर्यजनक व्यापार को करता हुआ दिख पड़ता है, उसी प्रकार यह जीव भी वीतरागमय-परमसामायिकभाव में परिणत होने वाला शुद्धोपयोग है लक्षण जिसका, ऐसे भेदज्ञान के न होने से काम-क्रोधादिभावों में और शुद्धात्मा में जो भेद है उसको न जानता हुआ 'मैं क्रोध रूप हूँ, मैं काम का रूप हूँ' इत्यादि विकारों को करता हुआ कर्मों का करने वाला बनता है । यह तो क्रोधादिक के विषय में भूताविष्ट का दृष्टान्त हुआ ।

अथवा जैसे भैंसा आदि का ध्यान करनेवाला जीव भैसा आदि में और अपने आप में भेद को नहीं जानता हुआ उसे भुलाकर, 'मैं भैंसा हूँ, मैं गारुड़ हूँ, मैं कामदेव हूँ, मैं अग्नि हूँ, या दूध की धारा के समान, अमृत की राशि हूँ' इत्यादि आत्म-विकल्पों को करता हुआ वह इन विकल्पों का करने वाला बनता है ।

वैसे ही छद्मस्थ जीव भी सुख-दुख में समता-भावना को लिये हुए जो शुद्धोपयोग है, वही है लक्षण जिसका, ऐसे भेदज्ञान के न होने से धर्मादिक-ज्ञेय-पदार्थों में और अपने आपकी शुद्धात्मा में जो भेद है उसको नहीं जानता हुआ 'मैं धर्मास्तिकाय हूँ' इत्यादिरूप आत्म-विकल्प करता है तो वह उस विकल्प का कर्ता होता है, और उस विकल्प के करने पर उस जीव के नूतन द्रव्य-कर्मों का बन्ध भी अवश्य होता है । इस प्रकार धर्मास्तिकायादि ज्ञेय पदार्थों में ध्यान का दृष्टान्त हुआ ।

इस पर यदि कोई ऐसा कहे कि 'हे भगवन् ! यह धर्मास्तिकाय है, यह जीव है, इत्यादि ज्ञेय तत्त्व का विचार रूप विकल्प करने पर भी यदि कर्मों का बन्ध होता है तो फिर ज्ञेय तत्त्वों का विचार करना वृथा है अत; वह नहीं करना चाहिए ? इस पर आचार्य देव उत्तर देते हैं की हे भाई ! ऐसा नहीं है, अपितु बात ऐसी है कि त्रिगुप्ति रूप निर्विकल्प समाधिकाल में तो ऐसा विकल्प नहीं करना चाहिये, किन्तु उस त्रिगुप्ति रूप ध्यान के अभाव में अध्यात्म भाषा में शुद्धात्मा को ही उपादेय मान कर व आगम भाषा में मोक्ष को उपादेय मानकर सराग-सम्यक्त्व के काल में विषय-कषायों से दूर होने के लिए ऐसा विकल्प करना ही चाहिये । क्योंकि उस उपर्युक्त तत्त्व विचार के द्वारा मुख्यता से पुण्य-बंध होता है और परम्परा से निर्वाण लाभ होता है, इसलिये वैसा विचार करने में कोई दोष नहीं है । हाँ, उस तत्व के विचार के काल में भी वीतराग स्व-संवेदन ज्ञान परिणत साक्षात् शुद्धात्मा ही उपादेय होता है, ऐसा समझना चाहिये ।

यहाँ कोई शंका करे कि हे भगवन् ! वीतराग स्व-संवेदन के विचार-काल में आपने जो बार-बार वीतराग विशेषण दिया है वह क्यों देते आ रहे हैं, क्या कोई सराग स्व-संवेदन ज्ञान भी होता है ?

इसका आचार्य देव उत्तर देते हैं कि -- हाँ भाई ! विषय-सुखानुभव के आनन्द रूप स्व-संवेदन ज्ञान होता है वह सर्वजन प्रसिद्ध है (वह सब लोगों के अनुभव में आया करता है) । वह सराग होता है किन्तु जो शुद्धात्मा के सुखानुभव रूप स्व-संवेदन ज्ञान होता है वह वीतराग होता है ऐसा स्व-संवेदन ज्ञान के व्याख्यान काल में सब ही स्थान पर समझना चाहिये ॥१०३॥

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+ सम्यग्ज्ञान होने पर कर्ता-कर्म भाव नष्ट -
एदेण दु सो कत्ता आदा णिच्छयविदूहिं परिकहिदो । (97)
एवं खलु जो जाणदि सो मुञ्चदि सव्वकत्तितं ॥104॥
एतेन तु स कर्तात्मा निश्चयविद्भि: परिकथित:
एवं खलु यो जानाति सो मुंचति सर्वकर्तृत्वम् ॥९७॥
बस इसतरह कर्ता कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा
जो जानते यह तथ्य वे छोड़ें सकल कर्तापना ॥९७॥
अन्वयार्थ : [एदेण दु] इस पूर्वकथित कारण से [णिच्छयविदूहिं] निश्चय के जानने वाले ज्ञानियों के द्वारा [सो आदा] वह आत्मा [कत्ता परिकहिदो] कर्ता कहा गया है [एवं खलु] इस प्रकार निश्चय से [जो जाणदि] जो जानता है [सो] वह ज्ञानी हुआ [सव्वकत्तितं] सब कर्तृत्व को [मुञ्चदि] छोड़ देता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिस कारण से यह आत्मा अज्ञान से पर के और आत्मा के एकत्व का विकल्प करता है, उस कारण से निश्चय से कर्ता प्रतिभासित होता है, ऐसा जो जानता है, वह समस्त कर्तृत्व को छोड़ देता है, इस कारण वह अकर्ता प्रतिभासित होता है । यही स्पष्ट कहते हैं --

इस जगत में यह आत्मा अज्ञानी हुआ अज्ञान से अनादि संसार से लगाकर पुद्गल कर्मरस और अपने भाव के मिले हुए आस्वाद का स्वाद लेने से जिसकी अपने भिन्न अनुभव की शक्ति मुद्रित हो गई है, ऐसा अनादिकाल से ही है, इस कारण वह पर को और अपने को एकरूप जानता है । इसी कारण 'मैं क्रोध हूं' इत्यादिक विकल्प अपने में करता है, इसलिए निर्विकल्प रूप अकृत्रिम अपने विज्ञान-घन-स्वभाव से भ्रष्ट हुआ बारम्बार अनेक विकल्पों से परिणमन करता हुआ कर्ता प्रतिभासित होता है । और जब ज्ञानी हो जाय, तब सम्यग्ज्ञान से उस सम्यग्ज्ञान को आदि लेकर प्रसिद्ध हुआ जो पुद्गल-कर्म के स्वाद से अपना भिन्न स्वाद, उसके आस्वादन से जिसकी भेद के अनुभव की शक्ति प्रकट हो गई है, तब ऐसा जानता है कि अनादिनिधन निरंतर स्वाद में आता हुआ समस्त अन्य रस के स्वादों से विलक्षण, अत्यन्त मधुर एक चैतन्य-रस स्वरूप तो यह आत्मा है, और कषाय इससे भिन्न रस हैं, कषैले हैं, बेस्वाद हैं, उनसे युक्त एकत्व का जो विकल्प करना है; वह अज्ञान से है । इस प्रकार पर को और आत्मा को पृथक्-पृथक् नानारूप से जानता है । इसलिए अकृत्रिम, नित्य, एक ज्ञान ही मैं हूं और कृत्रिम, अनित्य, अनेक जो ये क्रोधादिक हैं, वे मैं नहीं हूं ऐसा जाने तब 'क्रोधादिक मैं हूं' इत्यादिक विकल्प अपने में किंचिन्मात्र भी नहीं करता । इस कारण समस्त ही कर्तृत्व को छोड़ता हुआ सदा ही उदासीन वीतराग अवस्था स्वरूप होकर ज्ञायक ही रहता है, इसीलिए निर्विकल्प-स्वरूप, अकृत्रिम, नित्य, एक, विज्ञानघन हुआ अत्यन्त अकर्ता प्रतिभासित होता है ।

(कलश--कुण्डलिया)
नाज सम्मिलित घास को, ज्यों खावे गजराज ।
भिन्न स्वाद जाने नहीं, समझे मीठी घास ॥
समझे मीठी घास नाज को ना पहिचाने ।
त्यों अज्ञानी जीव निजातम स्वाद न जाने ॥
पुण्य-पाप में धार एकता शून्य हिया है ।
अरे शिखरणी पी मानो गो-दूध पिया है ॥५७॥

[किल स्वयं ज्ञानं भवन् अपि] निश्चय से स्वयं ज्ञान-स्वरूप होने पर भी [अज्ञानतः तु यः] अज्ञान के कारण जो (जीव) [सतृणाभ्यवहारकारी] घास के साथ एकमेक हुए सुन्दर भोजन को खानेवाले हाथी आदि पशुओं की भाँति, [रज्यते] राग करता है [असौ दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद्धया] वह, श्रीखंड के खट्टे-मीठे स्वाद की अति लोलुपता से [रसालम् पीत्वा] श्रीखण्ड को पीता हुआ भी [गां दुग्धम् दोग्धि इव नूनम्] स्वयं गाय का दूध पी रहा है ऐसा माननेवाले पुरुष के समान है ।

(कलश--हरिगीतिका)
अज्ञान से ही भागते मृग रेत को जल मानकर ।
अज्ञान से ही डरें तम में रस्सी विषधर मानकर ॥
ज्ञानमय है जीव पर अज्ञान के कारण अहो ।
वातोद्वेलित उदधिवत् कर्ता बने आकुलित हो ॥५८॥

[अज्ञानात् मृगतृष्णिकां जलधिया] अज्ञान से मृग-मरीचिका में जल की बुद्धि होने से [मृगाः पातुं धावन्ति] हिरण उसे पीने को दौड़ते हैं; [अज्ञानात्] अज्ञान के कारण ही [तमसि रज्जौ भुजगाध्यासेन] अन्धकार में पड़ी हुई रस्सी में सर्प का अध्यास होने से [जनाः द्रवन्ति] लोग (भय से) भागते हैं; [च अज्ञानात्] और अज्ञान से [अमी वातोत्तरंगाब्धिवत्] ये जीव पवन से तरंगित समुद्र की भाँति [विकल्पचक्रकरणात्] विकल्पों के समूह को करने से [शुद्धज्ञानमयाः अपि] यद्यपि वे स्वयं शुद्धज्ञानमय हैं तथापि [आकुलाः] आकुलित होते हुए [स्वयम् कर्त्रीभवन्ति] अपने आप ही कर्ता होते हैं ।

(कलश--हरिगीतिका)
दूध जल में भेद जाने ज्ञान से बस हंस ज्यों ।
सद्ज्ञान से अपना-पराया भेद जाने जीव त्यों ॥
जानता तो है सभी करता नहीं कुछ आतमा ।
चैतन्य में आरूढ़ नित ही यह अचल परमातमा ॥५९॥

[हंसः वाः पयसोः इव] जैसे हंस दूध और पानी के विशेष -(अन्तर) को जानता है उसीप्रकार [यः ज्ञानात् विवेचकतया] जो जीव ज्ञान के कारण विवेकवाला (भेदज्ञानवाला) होने से [परात्मनोः तु विशेषम् जानाति] पर के और अपने विशेष को जानता है [सः] वह (जैसे हंस मिश्रित हुए दूध और पानी को अलग करके दूध को ग्रहण करता है उसीप्रकार) [अचलं चैतन्यधातुम् सदा] अचल चैतन्यधातु में सदा [अधिरूढः] आरूढ़ होता हुआ (उसका आश्रय लेता हुआ) [जानीत एव हि] मात्र जानता ही है, [किंचन अपि न करोति] किंचित्मात्र भी कर्ता नहीं होता (अर्थात् ज्ञाता ही रहता है, कर्त्ता नहीं होता)

(कलश--आडिल्ल)
उष्णोदक में उष्णता है अग्नि की ।
और शीतलता सहज ही नीर की ॥
व्यंजनों में है नमक का क्षारपन ।
ज्ञान ही यह जानता है विज्ञजन ॥
क्रोधादिक के कर्तापन को छेदता ।
अहंबुद्धि के मिथ्यातम को भेदता ॥
इसी ज्ञान में प्रगटे निज शुद्धातमा ।
अपने रस से भरा हुआ यह आतमा ॥६०॥

[ज्वलन-पयसोः औष्ण्य-शैत्य-व्यवस्था] (गर्म पानी में) अग्नि की उष्णता का और पानी की शीतलता का भेद [ज्ञानात् एव] ज्ञान से ही प्रगट होता है; [लवणस्वादभेदव्युदासः ज्ञानात् एव उल्लसति] नमक के स्वादभेद का निरसन (निराकरण, अस्वीकार, उपेक्षा) ज्ञान से ही होता है; [स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः च क्रोधादेःभिदा] निज-रस से विकसित होनेवाली नित्य चैतन्यधातु का और क्रोधादि भावों का भेद [कर्तृभावम् भिन्दती] कर्तृत्व को (कर्तापन के भाव को) भेदता हुआ [ज्ञानात् एव प्रभवति] ज्ञान से ही प्रगट होता है ।

(कलश--सोरठा)
करे निजातम भाव, ज्ञान और अज्ञानमय ।
करे न पर के भाव, ज्ञानस्वभावी आतमा ॥६१॥

[एवं अञ्जसा] इसप्रकार वास्तव में [आत्मानम् अज्ञानंज्ञानम् अपि कुर्वन्] अपने को अज्ञानरूप या ज्ञानरूप करता हुआ [आत्मा आत्मभावस्य कर्ता स्यात्] आत्मा अपने ही भाव का कर्ता है, [परभावस्य] परभाव का (पुद्गल के भावों का) कर्ता तो [क्वचित् न] कदापि नहीं है ।


अब आगे की गाथा की सूचनिकारूप श्लोक कहते हैं --

(कलश--सोरठा)
ज्ञानस्वभावी जीव, करे ज्ञान से भिन्न क्या ?
कर्ता पर का जीव, जगतजनों का मोह यह ॥६२॥

[आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं] आत्मा ज्ञानस्वरूप है, स्वयं ज्ञान ही है, [ज्ञानात् अन्यत् किम् करोति] वह ज्ञान के अतिरिक्त अन्य क्या करे ? [परभावस्य कर्ता आत्मा] परभाव का कर्ता आत्मा है [अयं व्यवहारिणाम् मोहः] यह व्यवहारी जीवों का मोह (अज्ञान) है ।

जयसेनाचार्य :
[एदेण दु सो कत्ता आदा णिच्छयविदूहिं परिकहिदो] पूर्वोक्त तीन गाथाओं में जैसा कहा है उस अज्ञान-भाव से यह आत्मा कर्त्ता बनता है ऐसा निश्चय के जानने वाले सर्वज्ञ-भगवान ने कहा है । तात्पर्य यह है कि जब यह आत्मा वीतराग-परम-सामासिक-स्वरूप-संयम-भावात्मक-अभेद-रत्नत्रय का प्रतिपक्षीभूत जो अज्ञान-भाव, जिसका उपर्युक्त तीन गाथाओं में व्याख्यान किया गया है, उस रूप परिणत होता है तब उसी मिथ्यात्त्व और रागादिभाव का कर्ता होता है, जिससे इसके द्रव्य-कर्म का बंध हुआ करता है । किन्तु जब यह आत्मा चिदानन्दमय एक स्वभाव वाले शुद्धात्मा के अनुभव परिणाम में परिणत होता है उस समय यह सम्यग्ज्ञानी होकर मिथ्यात्त्व और रागाद्यात्मक भाव-कर्म रूप अज्ञान-भाव का करने वाला नहीं होता है । तब इस कर्तापन के अभाव होने पर उसके द्रव्य-कर्मों का भी बंध नहीं होता है । [एवं खलु जो जाणदि सो मुञ्चदि सव्वकत्तितं] गाथा के पूर्वार्द्ध में कहे अनुसार मन में जो वस्तु-स्वरूप जानता है वह सराग-सम्यग्दृष्टि होता हुआ अशुभ-कर्म के कर्तापन को छोड़ता है / उससे दूर हो जाता है । किन्तु जब वही निश्चय-चारित्र के साथ में अविनाभाव रखने वाले वीतराग-सम्यग्दर्शन का धारक होता है तब शुभ-अशुभ सभी प्रकार के कर्म के कर्तापन को छोड़ देता है । इस प्रकार जीव के रागादिरूप-अज्ञानभाव से तो कर्मबंध होता है और वीतराग-भावरूप सम्यग्ज्ञान से कर्म बंध का अभाव होता है । यह बात निश्चित हई ॥१०४॥

इस प्रकार अज्ञानी और सम्यग्ज्ञानी जीव के स्वरूप प्रतिपादन की मुख्यता से दूसरे स्थल में छह गाथायें पूर्ण हुईं । इस प्रकार द्विक्रियावादी का निराकरण करते हुए विशेष उपाख्यान के रूप में कहीं हुई बारह गाथायें पूर्ण हुई । अब फिर भी ११ गाथाओं से उपसंहाररूप में आचार्यदेव इसी द्विक्रियावादी के निराकरण के विषय में और भी विशेष व्यायाख्यान करते हैं ।

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+ पर-भावों को भी आत्मा करता है -- व्यवहारियों का मोह -
ववहारेण दु आदा करेदि घडपडरधाणि दव्वाणि । (98)
करणाणि य कम्माणि य णोकम्माणीह विविहाणि ॥105॥
जदि सो परदव्वाणि य करेज्ज णियमेण तम्मओ होज्ज । (99)
जम्हा ण तम्मओ तेण सो ण तेसिं हवदि कत्ता ॥106॥
जीवो ण करेदि घडं णेव पडं णेव सेसगे दव्वे । (100)
जोगुवओगा उप्पादगा य तेसिं हवदि कत्ता ॥107॥
व्यवहारेण त्वात्मा करोति घटपटरथान् द्रव्याणि ।
करणानि च कर्माणि च नोकर्माणीह विविधानि ॥९८॥
यदि स परद्रव्याणि च कुर्यान्नियमेन तन्मयो भवेत् ।
यस्मान्न तन्मयस्तेन स न तेषां भवति कर्ता ॥९९॥
जीवो न करोति घटं नैव पटं नैव शेषकानि द्रव्याणि ।
योगोपयोगावुत्पादकौ च तयोर्भवति कर्ता ॥१००॥
व्यवहार से यह आतमा घटपटरथादिक द्रव्य का
इन्द्रियों का कर्म का नोकर्म का कर्ता कहा ॥९८॥
परद्रव्यमय हो जाय यदि पर द्रव्य में कुछ भी करे
परद्रव्यमय होता नहीं बस इसलिए कर्ता नहीं ॥९९॥
ना घट करे ना पट करे ना अन्य द्रव्यों को करे
कर्ता कहा तत्रूपपरिणत योग अर उपयोग का ॥१००॥
अन्वयार्थ : [आदा] आत्मा [ववहारेण] व्यवहार से [घडपडरधाणि दव्वाणि] घट पट रथ इन वस्तुओं को [करणाणि य] और इंद्रियादिक करणपदार्थों को [कम्माणि य] और ज्ञानावरणादिक तथा क्रोधादिक द्रव्यकर्म, भावकर्मों को [इह] तथा इस लोक में [विविहाणि] अनेक प्रकार के [णोकम्माण] शरीरादि नोकर्मों को [करेदि] करता है ।
[जदि] यदि [सो] वह आत्मा [परदव्वाणि] पर-द्रव्यों को [करेज्ज] करे [य] तो [णियमेण] नियम से वह आत्मा उन परद्रव्यों से [तम्मओ] तन्मय [होज्ज] हो जाय [जम्हा] परन्तु [ण तम्मओ] आत्मा तन्मय नहीं होता [तेण] इसी कारण [सो] वह [तेसिं] उनका [कत्ता] कर्ता [ण हवदि] नहीं है ।
[जीवो] जीव [घडं] घड़े को [ण करेदि] नहीं करता [णेव पडं] और पट को भी नहीं करता [णेव सेसगे दव्वे] शेष द्रव्यों को भी नहीं करता [जोगुवओगा] किन्तु जीव के योग और उपयोग दोनों [उप्पादगा] घटादिक के उत्पन्न करने वाले निमित्त हैं [तेसिं] सो उन दोनों (योग और उपयोग) का यह जीव [हवदि कत्ता] कर्ता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिस कारण व्यवहारी जीवों को यह आत्मा अपने विकल्प और व्यापार इन दोनों के द्वारा घट आदि पर-द्रव्य स्वरूप बाह्य-कर्म को करता हुआ प्रतिभासित होता है, इस कारण उसी प्रकार क्रोधादिक पर-द्रव्य-स्वरूप समस्त अंतरंग कर्म को भी करता है । क्योंकि दोनों पर-द्रव्य-स्वरूप हैं, परत्व की दृष्टि से इनमें भेद नहीं । सो यह व्यवहारी जीवों का अज्ञान है ।

यदि वास्तव में यह आत्मा पर-द्रव्य-स्वरूप कर्म को करे, तो परिणाम-परिणामी-भाव की अन्यथा अप्राप्ति होने से नियम से तन्मय हो जाय, किन्तु अन्य द्रव्य की अन्य द्रव्य में तन्मयता होने पर अन्य द्रव्य के नाश की आपत्ति का प्रसंग आने से तन्मय है ही नहीं । इसलिये व्याप्य-व्यापक भाव से तो उस द्रव्य का कर्ता आत्मा नहीं है ।

वास्तव में घटादिक तथा क्रोधादिक परद्रव्य-स्वरूप जो कर्म हैं उनको यह आत्मा व्याप्य-व्यापक-भाव से नहीं करता । क्योंकि यदि ऐसे करे तो उनसे तन्मयता का प्रसंग आ जायगा । तथा यह आत्मा घट-पटादि को निमित्त-नैमित्तिक भाव से भी नहीं करता, क्योंकि ऐसे करे तो सदा सब अवस्थाओं में कर्तृत्व का प्रसंग आ जायगा । तब इन कर्मों को कौन करता है, सो कहते हैं । इस आत्मा के अनित्य योग और उपयोग ये दोनों जो कि सब अवस्थाओं में व्यापक नहीं हैं, वे उन घटाटिक के तथा क्रोधादि परद्रव्य-स्वरूप कर्मों के निमित्तमात्र से कर्ता कहे जाते हैं । योग तो आत्मा के प्रदेशों का चलनरूप व्यापार है और उपयोग आत्मा के चैतन्य का रागादि विकाररूप परिणाम है । सो कदाचित् अज्ञान से इन दोनों को करने से इनका आत्मा को भी कर्ता कहा जावे, तो भी वह परद्रव्य-स्वरूप कर्म का तो कर्ता कभी भी नहीं है ।

जयसेनाचार्य :
[ववहारेण दु आदा करेदि घडपडरधाणि दव्वाणि] यह आत्मा आपस के व्यवहार से घट-पट-रथादि बाह्य-वस्तुओं को नाना प्रकार की इच्छा-पूर्वक जैसे करता रहता है, [करणाणि य कम्माणि य णोकम्माणीह विविहाणि] उसी प्रकार भीतर में नाना प्रकार की स्पर्शनादि इन्दियों को और बाह्य में नोकर्म शरीरादिक को तथा क्रोधादि-रूप भाव-कर्मों को और नाना प्रकार के ज्ञानावरणादि द्रव्य-कर्मों को निरन्तर इच्छा-पूर्वक करता रहता है । ऐसा जो व्यवहारी लोग मानते हैं वह उन व्यवहारियों का व्यामोह (मूढ़पना) है ॥१०५॥

यह मूढ़ता क्यों है सो आचार्य बताते हैं --

[जदि सो परदव्वाणि य करेज्ज णियमेण तम्मओ होज्ज] यदि आत्मा घट, पट आदि पर-द्रव्यों को भी नियम-पूर्वक अवश्य ही करने वाला हो तो वह उनसे तन्मय हो जाये, [जम्हा ण तम्मओ तेण सो ण तेसिं हवदि कत्ता] क्योंकि यह आत्मा शुद्ध-स्वाभाविक ऐसे अपने अनंत-सुख और ध्यानादि को छोड़कर पर द्रव्य के साथ तन्मय तो होता नहीं है । इसलिए आत्मा पर-द्रव्यों का उपादान रूप से कर्ता नहीं होता है ॥१०६॥

आगे कहते हैं कि केवल उपादान रूप से कर्त्ता नहीं होता, यह बात नहीं है किन्तु निमित्त रूप से भी आत्मा घटपटादि का कर्ता नहीं होता --

[जीवो ण करेदि घडं णेव पडं णेव सेसगे दव्वे] उपादान रूप से ही क्या किन्तु निमित्त रूप से भी जीव घट, पटादि शेष द्रव्यों का कर्त्ता नहीं होता । यदि वह उनका कर्त्ता हो तो हर समय अविच्छिन्न रूप से उन्हें करता ही रहे । तब उनका कर्त्ता कौन है ? [जोगुवओगा उप्पादगा य] आत्मा का विकल्प और व्यापार रूप जो योग और उपयोग है जो कि स्वयं विनश्वर हैं वे उनके उत्पादक होते हैं । [सो तेसिं हवदि कत्त] सुख और दुख, जीवन और मरण इत्यादि परस्पर विरुद्ध बातों में समभाव धारण रूप अभेद-रत्नत्रय ही है लक्षण जिसका ऐसे भेद-विज्ञान के न होने पर जिस काल में यह आत्मा अपने शुद्ध-बुद्ध एकस्वभाव वाले परमात्मा स्वरूप से भ्रष्ट होता है, उस समय यह जीव उपर्युक्त योग और उपयोग का किसी समय कर्ता होता है, सर्वदा नहीं । यहाँ पर योग शब्द से बाह्य-अवयव-हस्तादिक का हिलना-डुलना और उपयोग शब्द से अन्तरंग के विकल्प को ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार घटादिक के विषय में जीव का निमित्त रूप में कर्त्तापना परम्परा से है, क्योंकि यदि मुख्य-रूप से साक्षात् निमित्त कर्त्तापना जीव के मान लिया जाये तब फिर जीव तो नित्य शाश्वत है, अत: वह कर्म करता ही रहेगा तब मोक्ष का अभाव हो जायेगा । इस प्रकार व्यवहार के व्यायाख्यान की मुख्यता से तीन गाथायें समाप्त हुईं ॥१०७॥

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+ ज्ञानी परभाव का अकर्ता, ज्ञान का ही कर्ता -
जे पोग्गलदव्वाणं परिणामा होंति णाणआवरणा । (101)
ण करेदि ताणि आदा जो जाणदि सो हवदि णाणी ॥108॥
ज्ञानावरण आदिक जु पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं
उनको करे ना आतमा जो जानते वे ज्ञानि हैं ॥१०१॥
अन्वयार्थ : [पोग्गलदव्वाणं परिणामा] पुद्गल द्रव्यों के परिणाम ये जो [णाणआवरणा] ज्ञानावरणादिक [होंति] हैं [ताणि] उनको [आदा] आत्मा [ण करेदि] नहीं करता, ऐसा जो [जाणदि] जानता है [सो] वह [णाणी] ज्ञानी [हवदि] है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब यह कहते हैं कि ज्ञानी ज्ञान का ही कर्ता है -

वास्तव में जो पुद्गल-द्रव्य के परिणाम गोरस में व्याप्त दही दूध मीठा खट्टा परिणाम की भांति पुद्गल-द्रव्य से व्याप्त होने से ज्ञानावरणादिक हैं उनको निकट बैठा गोरसाध्यक्ष की तरह ज्ञानी कुछ भी नहीं करता है । किन्तु जैसे वह गोरसाध्यक्ष गोरस के दर्शन को अपने परिणाम से व्यापकर मात्र देखता ही है, उसी प्रकार ज्ञानी पुद्गल-परिणाम-निमित्तक अपने ज्ञान को जो कि अपने व्याप्य-रूप से हुआ उसको व्यापकर जानता ही है । इस प्रकार ज्ञानी ज्ञान का ही कर्ता होता है । इसी प्रकार ज्ञानावरण पद के स्थान में कर्म-सूत्र के विभाग की स्थापना से दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय इनके सात सूत्रों से और उनके साथ मोह, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन और स्पर्शन ये सोलह सूत्र व्याख्यान के योग्य हैं । तथा इसी रीति से अन्य भी विचार किये जाने योग्य हैं ।

जयसेनाचार्य :
[जे पोग्गलदव्वाणं परिणामा होंति णाणआवरणा] जो कर्मवर्गणा योग्य पुदुगल द्रव्यों का परिणमन ज्ञानावरणादि द्रव्य-कर्म रूप होता है, [ण करेदि ताणि आदा] उसको भी आत्मा व्याप्य-व्यापक भाव से जैसे मिट्टी कलश को करती है, वैसे नहीं करता है । जिस प्रकार ग्वाले से गोरस भिन्न है, उसी प्रकार ज्ञानावरणादि-द्रव्यकर्म आत्मा से भिन्न है । [जो जाणदि सो हवदि णाणी] इस प्रकार मिथ्यात्व और विषय-कषायों का त्याग करके निर्विकल्प-समाधि में स्थित होकर जो जानता है, वह ज्ञानी होता है, जानने मात्र से ही ज्ञानी नहीं हो जाता । तात्पर्य यह है कि वीतराग-स्वसंवेदन-ज्ञानी जीव शुद्ध-उपादानरूप शुद्धनय से शुद्धज्ञान का ही कर्ता होता है, जैसे कि स्वर्ण अपने पीतत्वादि गुणों का, अग्नि अपने उष्णत्वादि गुणों का और सिद्ध-परमेष्ठी अनन्त-ज्ञानादि गुणों का कर्ता होता है किन्तु मिथ्यात्व और रागादिरूप-अज्ञानभाव का कर्ता ज्ञानी नहीं होता । यहाँ पर कर्तापन और भोक्तापन जो बताया गया है वह शुद्ध उपादानरूप से शुद्ध-ज्ञानादिभावों का और अशुद्ध-उपादान-रूप से मिथ्यात्व तथा रागादिरूप विकारीभावों का उन-उन रूप से परिणमन करना ही कर्तापन व भोक्तापन है -- बताया गया है । किन्तु घट और कुंभकार के समान इच्छा पूर्वक हस्तादिक का व्यापार करने रूप कर्तापन या भोक्तापन को यहाँ नहीं लिया गया है, ऐसा समझना चाहिये । गाथा में मूल ग्रन्थकार ने जो ज्ञानावरण शब्द दिया है वह उपलक्षण रूप है, इसलिए उसके स्थान पर दर्शनावरण, वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय रूप सात-कर्मों के साथ इन मोह, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, तथा नोकर्म और मन, वचन, काय तथा श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन इन सोलह को भी लगाकर क्रम से व्याख्यान करना चाहिए । इसी प्रकार शुद्धात्मा की अनुभूति से विलक्षण-रूप और असंख्यात-लोकप्रमाण विभाव-भाव हैं -- ऐसा समझना चाहिए ।

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+ अज्ञानी भी पर-द्रव्य के भाव का अकर्ता -
जं भावं सुहमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता । (102)
तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्पा ॥109॥
यं भावं शुभमशुभं करोत्यात्मा स तस्य खलु कर्ता
तत्तस्य भवति कर्म स तस्य तु वेदक आत्मा ॥१०२॥
निजकृत शुभाशुभभाव का कर्ता कहा है आतमा
वे भाव उसके कर्म हैं वेदक है उनका आतमा ॥१०२॥
अन्वयार्थ : [आदा] आत्मा [जं] जिस [सुहमसुहं] शुभ अशुभ [भावं करेदि] भाव को करता है [खलु] वास्तव में [स] वह [तस्स] उस भाव का [कत्ता] कर्ता होता है [तं] वह भाव [तस्स] उसका [कम्मं] कर्म [होदि] होता है [सो दु अप्पा] और वही आत्मा [तस्स] उस भाव-रूप कर्म का [वेदगो] भोक्ता होता है।

अमृतचंद्राचार्य :
इस लोक में आत्मा अनादि-काल से अज्ञान से पर और आत्मा के एकत्व के निश्चय से तीव्र-मंद स्वाद-रूप पुद्गल कर्म की दोनों दशाओं से स्वयं अचलित विज्ञान-घन-रूप एक स्वाद-रूप आत्मा के होने पर भी स्वाद को भेद-रूप करता हुआ शुभ तथा अशुभ अज्ञान-रूप भाव को अज्ञानी करता है । वह आत्मा उस समय उस भाव से तन्मय होने से उस भाव के व्यापकता के कारण उस भाव का कर्ता होता है । तथा वह भाव भी उस समय उस आत्मा की तन्मयता से उस आत्मा का व्याप्य होता है, इसलिये उसका कर्म होता है । वही आत्मा उस समय उस भाव की तन्मयता से उस भाव का भावक होने के कारण उसका अनुभव करने वाला होता है । वह भाव भी उस समय उस आत्मा के तन्मयपने से आत्मा के भावने योग्य होने के कारण अनुभवने योग्य होता है । इस प्रकार अज्ञानी भी परभाव का कर्ता नहीं है ।

जयसेनाचार्य :
[जं भावं सुहमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता] चिदानंद-एक-स्वभाव-रूप से जो आत्मा एक है, उसी के साता व असाता के रूप में, तीव्र-मन्द के रूप में, अथवा सुख-दुख के रूप में दो भेद करते हुए यह छद्मस्थ जीव जैसा शुभ व अशुभभाव करता है, उसके प्रति स्वतन्त्रतया व्यापक होने से वह उसका कर्ता होता है, [तं तस्स होदि कम्मं] और वह भाव इस आत्मा का कर्म होता है; क्योंकि वह भाव उसी के द्वारा किया गया है [सो तस्स दु वेदगो अप्पा] और इसलिए यह आत्मा उसी शुभ या अशुभ-भाव का भोगने वाला होता है क्योंकि स्वतंत्र-रूप से उसका ही संवेदन करता है किन्तु द्रव्य-कर्म का कर्ता और भोक्ता आत्मा नहीं होता है । तात्पर्य यह है कि अज्ञानी-जीव अशुद्ध-उपादान-रूप अशुद्ध-निश्चय-नय से मिथ्यात्व अथवा रागादिभावों का ही कर्त्ता होता है ज्ञानावरणादि द्रव्य-कर्म का नहीं । आत्मा को द्रव्य-कर्म का कर्ता असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा से कहा गया है । इस कारण इस अशुद्ध-निश्चयनय को निश्चय की संज्ञा दी गई है । तो भी शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा से वह व्यवहार ही है । यहाँ कोई शिष्य पूछता है -- कि हे भगवन् ! आपने अशुद्ध-उपादान से आत्मा को रागादिक का कर्त्ता बताया है तो क्या उपादान भी शुद्ध-अशुद्ध के भेद से दो प्रकार का होता है ? इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि अग्नि के द्वारा गर्म किये हुए लोहे के पिण्ड के समान आत्मा औपाधिक भावों को स्वीकार किये हुए है वह अशुद्ध-उपादान होता है । किन्तु जो निरुपाधिक (सहज) भाव को स्वीकार किये हुए है वह शुद्ध-उपादान कहलाता है । जैसे सोना अपने पीतत्वादि गुणों का, सिद्ध-जीव अपने अनंतज्ञानादि गुणों का और अग्नि अपने उष्णत्वादि गुणों का उपादान है । इस प्रकार शुद्ध या अशुद्ध उपादान स्वरूप के व्याख्यान के समय सभी स्थान पर स्मरण रखना चाहिये ॥१०९॥

आगे आचार्य बताते हैं कोई भी किसी भी प्रकार के उपादान से पर-भाव का कर्ता नहीं होता---

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+ किसी के द्वारा परभाव किया जाना अशक्य -
जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि दु ण संकमदि दव्वे । (103)
सो अण्णमसंकंतो कह तं परिणामए दव्वं ॥110॥
यो यस्मिन् गुणे द्रव्ये सोऽन्यस्मिंस्तु न संक्रामति द्रव्ये
सोऽन्यदसंक्रांत: कथं तत्परिणामयति द्रव्यम् ॥१०३॥
जब संक्रमण ना करे कोई द्रव्य पर-गुण-द्रव्य में
तब करे कैसे परिणमन इक द्रव्य पर-गुण-द्रव्य में ॥१०३॥
अन्वयार्थ : जो द्रव्य [जम्हि] जिस अपने [दव्वे] द्रव्य-स्वभाव में [गुणे] तथा अपने जिस गुण में वर्तता है [सो] वह [अण्णम्हि दु] अन्य [दव्वे] द्रव्य में तथा गुण में [ण संकमदि] संक्रमण नहीं करता (पलटकर अन्य में नहीं मिल जाता) [सो] वह [अण्णमसंकंतो] अन्य में नहीं मिलता हुआ [तं] वह (द्रव्य), (अन्य) [दव्वं] द्रव्य को [कह] कैसे [परिणामए] परिणमा सकता है ?

अमृतचंद्राचार्य :
इस लोक में जो कोई वस्तु-विशेष अपने चेतन-स्वरूप तथा अचेतन-स्वरूप द्रव्य में तथा अपने गुण में, अपने निज-रस में ही अनादि से वर्तता है, वह वास्तव में अपनी अचलित वस्तुस्थिति की मर्यादा को भेदने के लिये असमर्थ होने के कारण अपने ही द्रव्य गुण में रहते हैं । द्रव्यांतर तथा गुणांतररूप संक्रमण नहीं करता हुआ वह अन्य वस्तु-विशेष को कैसे परिणमन करा सकता अर्थात् कभी नहीं परिणमन करा सकता । इसी कारण परभाव किसी के भी द्वारा नहीं किया जा सकता ।

जयसेनाचार्य :
[जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि दु ण संकमदि दव्वे] चेतनरूप या अचेतनरूप गुण जिस चेतन या अचेतन द्रव्य में अनादि सम्बन्ध से स्वभावता प्रवर्तमान है, वह उसे छोड़कर कभी भी किसी अन्य द्रव्य में नहीं जाता, [सो अण्णमसंकंतो कह तं परिणामए दव्वं] जब वह चेतन या अचेतन गुण अन्य में नहीं जाता, तब वह उस अन्य द्रव्य को उपादान रूप से कैसे परिणमा सकता है, कभी नहीं परिणमा सकता । इसलिए यह बात निश्चित हुई कि यह आत्मा पुद्गल-द्रव्यों का कर्ता नहीं है ॥११०॥

यहीं बात आचार्यदेव आगे की गाथा में कहते हैं --

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+ आत्मा पुद्गल-कर्मों का अकर्ता क्यों ? -
दव्वगुणस्स य आदा ण कुणदि पुग्गलमयह्मि कम्मह्मि । (104)
तं उभयमकुव्वंतो तम्हि कहं तस्स सो कत्ता ॥111॥
द्रव्यगुणस्य चात्मा न करोति पुद्गलमये कर्मणि ।
तदुभयमकुर्वंस्तस्मिन्कथं तस्य स कर्ता ॥१०४॥
कुछ भी करे ना जीव पुद्गल कर्म के गुण-द्रव्य में
जब उभय का कर्ता नहीं तब किसतरह कर्ता कहें ? ॥१०४॥
अन्वयार्थ : [आदा] आत्मा [पोग्गलमयम्हि कम्मम्हि] पुद्गल-मय कर्म में [दव्वगुणस्स य] द्रव्य का तथा गुण का कुछ भी [ण कुणदि] नहीं करता [तम्हि] उसमें (पुद्गलमय कर्म में) [तं उभयम्] उन दोनों को [अकुव्वंतो] नहीं करता हुआ [तस्स] उसका [सो कत्ता] वह कर्ता [कहं] कैसे हो सकता है?

अमृतचंद्राचार्य :
जैसे मृत्तिकामय-कलश नामक कर्म जहाँ कि मृत्तिका-द्रव्य और मृत्तिका-गुण अपने निजरस के द्वारा ही वर्तमान है, उसमें कुम्हार अपने द्रव्य-स्वरूप को तथा अपने गुण को नहीं मिला पाता, क्योंकि किसी द्रव्य का अन्य द्रव्य-गुण-रूप परिवर्तन का निषेध वस्तुस्थिति से ही है । अन्य द्रव्य-रूप हुए बिना अन्य वस्तु का परिणमन कराये जाने की असमर्थता से उन द्रव्यों को तथा गुणों को अन्य में नहीं धारता हुआ परमार्थ से उस मृत्तिकामय कलश-नामक कर्म का निश्चय से कुम्भकार कर्ता नहीं प्रतिभासित होता । उसी प्रकार पुद्गलमय ज्ञानावरणादि कर्म जो कि पुद्गल-द्रव्य और पुद्गल के गुणों में अपने रस से ही वर्तमान हैं, उनमें आत्मा अपने द्रव्य-स्वभाव को और अपने गुण को निश्चय से नहीं धारण कर सकता । क्योंकि अन्य द्रव्य का अन्य द्रव्य में तथा अन्य द्रव्य का अन्य द्रव्य के गुणों में संक्रमण होने की असमर्थता है । इस प्रकार अन्य द्रव्य का अन्य द्रव्य में संक्रमण के बिना अन्य वस्तु को परिणमाने की असमर्थता होने से उन द्रव्य और गुण दोनों को उस अन्य में नहीं रखता हुआ आत्मा उस अन्य पुद्गल-द्रव्य का कैसे कर्ता हो सकता है, कभी नहीं हो सकता । इस कारण यह निश्चय हुआ कि आत्मा पुद्गल-कर्मों का अकर्ता है ।

जयसेनाचार्य :
[दव्वगुणस्स य आदा ण कुणदि पुग्गलमयह्मि कम्मह्मि] जैसे मिट्टी का कलश करने के समय मिट्टी कलश को तन्मय होकर करती है, वैसे कुम्हार मृत्तिका द्रव्य सम्बन्धी जड़-स्वरूप वर्णादिक को तन्मय होकर नहीं करता, उसी प्रकार आत्मा भी पुद्गल-मय द्रव्य-कर्म के विषय में पुद्गल द्रव्य सम्बन्धी स्वरूपवाले वर्णादि को तन्मय होकर नहीं करता, [तं उभयमकुव्वंतो तम्हि कहं तस्स सो कत्ता] और जब आत्मा पुद्गल-द्रव्य कर्म सम्बन्धी स्वरूप को और उसके गुण वर्णादि को तन्मय होकर नहीं करता तब उस पुद्गल द्रव्य-कर्म के विषय में जीव कर्ता कैसे कहा जा सकता है ? कभी नहीं कहा जा सकता । क्योंकि चेतन पर-स्वरूप अर्थात अचेतन स्वरूप से कभी भी परिणमन नहीं करता है । आचार्य के इस कथन का मूल आशय यह है की जैसे स्फटिक स्वयं निर्मल है पर वही जपा-पुष्पादि किसी उपाधि के निमित्त से अन्यथा परिणमन कर जाता है, वैसे ही कोई सदाशिव नाम का व्यक्ति, जो कि सदा से मुक्त है, अमूर्त है, वह पर की उपाधि से अन्यथा रूप होकर जगत् को बनाता है ऐसी किन्हीं की जो मान्यता है वह ठीक नहीं है ।

क्योंकि स्कटिक मूर्तिक है, अत: उसका मूर्तिक पदार्थ के साथ सम्बन्ध घटित हो जाता है, किन्तु सदामुक्त और अमूर्त सदाशिव के साथ मूर्त उपाधि का सम्बन्ध कैसे घटित हो सकता है? कभी नहीं हो सकता, जैसे कि शुद्ध-जीव के साथ उपाधि का सम्बन्ध नहीं होता । किन्तु अनादि बंधन बद्धजीव शुद्ध-निश्चयनय से शक्तिरूप से अमूर्त है पर व्यक्ति रूप से व्यवहारनय से मूर्त है, उसके साथ मूर्त उपाधि का सम्बन्ध ठीक बन जाता है -- ऐसा आचार्य का अभिप्राय है । इस प्रकार चार गाथाओं द्वारा निश्चय-नय की मुख्यता से व्याख्यान किया गया ॥१११॥

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+ 'आत्मा द्रव्य-कर्मों का कर्त्ता है' यह उपचार मात्र है -
जीवम्हि हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदूण परिणामं । (105)
जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमेत्तेण ॥112॥
जोधेहिं कदे जुद्धे राएण कदंति जंपदे लोगो । (106)
ववहारेण तह कदं णाणावरणादि जीवेण ॥113॥
जीवे हेतुभूते बंधस्य तु दृष्ट्वा परिणामम्
जीवेन कृतं कर्म भण्यते उपचारमात्रेण ॥१०५॥
योधै: कृते युद्धे राज्ञा कृतमिति जल्पते लोक:
व्यवहारेण तथा कृतं ज्ञानावरणादि जीवेन ॥१०६॥
बंध का जो हेतु उस परिणाम को लख जीव में
करम कीने जीव ने बस कह दिया उपचार से ॥१०५॥
रण में लड़े भट पर कहे जग युद्ध राजा ने किया
बस उसतरह द्रवकर्म आतम ने किये व्यवहार से ॥१०६॥
अन्वयार्थ : [जीवम्हि] जीवके [हेदुभूदे] निमित्तरूप होनेपर होने वाले [बंधस्स दु] कर्मबन्ध के [परिणामं] परिणाम को [पस्सिदूण] देखकर [जीवेण] जीव के द्वारा [कदं कम्मं] कर्म किया गया यह [उवयारमेत्तेण] उपचार-मात्र से [भण्णदि] कहा जाता है ।
[जोधेहिं] योद्धाओं के द्वारा [कदे जुद्धे] युद्ध किये जाने पर [लोगो] लोक [इति] [जंपदे] ऐसा कहते हैं कि [राएण कदं] राजा ने युद्ध किया सो यह [ववहारेण] व्यवहार से कहना है [तह] उसी प्रकार [णाणावरणादि] ज्ञानावरणादि कर्म [कदं जीवेण] जीवके द्वारा किया गया, ऐसा कहना व्यवहार से है ।

अमृतचंद्राचार्य :
इस लोक में आत्मा निश्चयतः स्वभाव से पुद्गल-कर्म का निमित्त-भूत नहीं है, तो भी अनादि अज्ञान से उसका निमित्त-रूप हुआ जो अज्ञान भाव, उस रूप से परिणमन करने से पुद्गल-कर्म का निमित्त-रूप होने पर पौद्गलिक कर्म के उत्पन्न होने से पुद्गल-कर्म को आत्मा ने किया, ऐसा विकल्प होता है, वह विकल्प निर्विकल्प विज्ञान-घन-स्वभाव से भ्रष्ट और विकल्पों में तत्पर अज्ञानियों के होता है । वह विकल्प उपचार ही है, परमार्थ नहीं है ।

जैसे युद्ध परिणाम से स्वयं परिणमन करने वाले योद्धाओं द्वारा किए गए युद्ध के होने पर युद्ध परिणाम से स्वयं नहीं परिणत हुए राजा को लोक कहते हैं कि युद्ध राजा ने किया । यह कथन उपचार है, परमार्थ नहीं है । उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मपरिणाम से स्वयं परिणमन करने वाले पुद्गल-द्रव्य के द्वारा किए गए ज्ञानावरणादि कर्म के होने पर ज्ञानावरणादि कर्म परिणाम से स्वयं नहीं परिणमन करने वाले आत्मा के सम्बन्ध में कहते हैं कि यह ज्ञानावरणादि कर्म आत्मा के द्वारा किया गया, यह कथन उपचार है, परमार्थ नहीं है ।

जयसेनाचार्य :
[जीवम्हि हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदूण परिणामं] जैसे निमित्त रूप से बादलों का विस्तार अथवा चाँद-सूर्य का परिवेष आदि के योग्य काल होने पर पानी का बरसना और इन्द्रधनुष आदि में परिणत पुद्गलों का परिणाम होता देखा जाता है, वैसे ही कर्मवर्गणा योग्य पुद्गलों का ज्ञानावरणादि रूप से द्रव्य-कर्म बंधमय परिणाम / पर्याय को देखकर [जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमेत्तेण] कर्म जीव के द्वारा किये गये हैं ऐसा उपचार मात्र से कहा जाता है ॥११२॥

[जोधेहिं कदे जुद्धे राएण कदंति जप्पदे लोगो] जैसे योद्धाओं के द्वारा किये हुए युद्ध को लोग राजा के द्वारा किया हुआ कहा करते हैं, [तह ववहारेण कदं णाणावरणादि जीवेण] वैसे ही ज्ञानावरणादि-कर्म जीव के द्वारा किये हुए हैं, यह व्यवहार-नय से कहा जाता है । अत: यह बात निश्चित हुई कि शुद्ध-निश्चयनय से यह जीव शुद्ध-बुद्ध-एक-स्वभाव है, इस कारण यह न तो किसी को उपजाता है, न करता है, न बाँधता है, न परिणमाता है और न ग्रहण ही करता है ॥११३॥

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+ आत्मा पुद्गल कर्म का कर्त्ता-भोक्ता -- व्यवहार -
उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणामएदि गिण्हदि य । (107)
आदा पोग्गलदव्वं ववहारणयस्स वत्तव्वं ॥114॥
जह राया ववहारा दोसगुणुप्पादगो त्ति आलविदो । (108)
तह जीवो ववहारा दव्वगुणुप्पादगो भणिदो ॥115॥
उत्पादयति करोति च बध्नाति परिणामयति गृह्णाति च
आत्मा पुद्गलद्रव्यं व्यवहारनयस्य वक्तव्यम् ॥१०७॥
यथा राजा व्यवहारात् दोषगुणोत्पादक इत्यालपित:
तथा जीवो व्यवहारात् द्रव्यगुणोत्पादको भणित: ॥१०८॥
ग्रहे बाँधे परिणमावे करे या पैदा करे
पुद्गल दरव को आतमा व्यवहारनय का कथन है ॥१०७॥
गुण-दोष उत्पादक कहा ज्यों भूप को व्यवहार से
त्यों जीव पुद्गल द्रव्य का कर्ता कहा व्यवहार से ॥१०८॥
अन्वयार्थ : [आदा] आत्मा [पोग्गलदव्वं] पुद्गल-द्रव्य को [उप्पादेदि] उत्पन्न करता है [य] और [करेदि] करता है [बंधदि] बाँधता है [परिणामएदि] परिणमाता है [य] तथा [गिण्हदि] ग्रहण करता है ऐसा [ववहारणयस्स] व्यवहार-नय का [वत्तव्वं] वचन है ।
[जह] जैसे [राया] राजा [दोसगुणुप्पादगो] प्रजा के दोष और गुणों का उत्पन्न करने वाला है [इति] ऐसा [ववहारा] व्यवहार से [आलविदो] कहा है [तह] उसी प्रकार [जीवो] जीव [दव्वगुणुप्पादगो] पुद्गल-द्रव्य में द्रव्य गुण का उत्पादक है, ऐसा [ववहारा] व्यवहार से [भणिदो] कहा गया है ।

अमृतचंद्राचार्य :
यह आत्मा निश्चय से व्याप्य-व्यापकभाव के अभाव से प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य पुद्गल-द्रव्यात्मक कर्म को न ग्रहण करता, न परिणमाता है, न उपजाता है, न करता है और न बाँधता है । व्याप्य-व्यापक भाव के अभाव होने पर भी प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसे तीन प्रकार के पुद्गल-द्रव्यात्मक कर्म को यह आत्मा ग्रहण करता है, उपजाता है, करता है और बाँधता है । ऐसा जो विकल्प होता है, वह प्रकट उपचार है ।

यहाँ प्रश्न होता है कि यह उपचार किस तरहसे है, उसका उत्तर दृष्टांत द्वारा देते हैं--

जैसे प्रजा के व्याप्य-व्यापक भाव से स्वभाव से ही उत्पन्न जो गुण और दोष उनमें राजा के व्याप्य-व्यापक-भाव का अभाव है तो भी लोक कहते हैं कि गुण दोष का उपजाने वाला राजा है, ऐसा उपचार (व्यवहार) है, उसी प्रकार पुद्गल-द्रव्य के व्याप्य-व्यापकभावसे ही उत्पन्न गुण, दोषों में जीव के व्याप्य-व्यापक-भाव का अभाव है तो भी उन गुण दोषों का उपजाने वाला जीव है, ऐसा उपचार है ।

जयसेनाचार्य :
अनादिकालीन-बंध-पर्याय के वशवर्तीपने से वीतराग-स्व-संवेदन-लक्षण वाले भेद-ज्ञान के न होने के कारण रागादि-परिणाम से स्निग्ध होता हुआ आत्मा कर्म-वर्गणा-योग्य-पुद्गल-द्रव्य को द्रव्य-कर्म के रूप में उत्पन्न करता है, जैसे कि कुम्हार घड़े को उत्पन्न करता है । द्रव्य-कर्मों को -- ऐसा व्यवहारनय का अभिप्राय है । अथवा जैसे गर्म किया हुआ लोहे का गोला अपने सम्पूर्ण प्रदेशों से जल ग्रहण करता है वैसे ही रागी आत्मा अपने सम्पूर्ण आत्म-प्रदेशों से प्रदेश-बंध को ग्रहण करता है ऐसा अभिप्राय है ॥११४॥

अब इस ही व्याख्यान को दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं --

[जह राया ववहारा दोसगुणुप्पादगो त्ति आलविदो] जैसे व्यवहार से प्रजा में होने वाले सदोष और निर्दोष लोगों के दोष और गुणों का उत्पादक राजा को कहा जाता है, [तह जीवो ववहारा दव्वगुणुप्पादगो भणिदो] उसी प्रकार पुद्गल-द्रव्य में पुण्य-पाप-रूप गुणों का उत्पादक जीव होता है, यह भी व्यवहार-नय से कहा गया है । इस प्रकार व्यवहार-नय की मुख्यता से चार गाथायें कहीं गई ॥११५॥

इस प्रकार द्विक्रियावादी के निराकरण के उपसंहार की मुख्यता से ग्यारह गाथायें पूर्ण हुई ।

यहाँ पर कोई शंका कर सकता है कि निश्चय-नय से आत्मा द्रव्य-कर्म को नहीं करता है, ऐसा व्याख्यान बहुत बार किया है, उसी से द्विक्रियावादी का निराकरण अपने-आप हो जाता है, फिर यह व्याख्यान करके पिष्टपेषण क्यों किया ? आचार्य समाधान करते हैं कि -- यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि निश्चय-नय में और द्विक्रियावादीपने में हेतुभाव और हेतुमद्भाव को बतलाने के लिए ऐसा किया है । निश्चय से आत्मा द्रव्य-कर्म का कर्ता नहीं है इसी हेतु से द्विक्रियावादीपने का निराकरण भी सिद्ध है, इस प्रकार इनमें परस्पर हेतु-हेतुमद्भाव है ।

इस प्रकार पुण्य-पापादि सात पदार्थों की पीठिकारूप महाधिकार में पूर्वोक्त प्रकार से इस प्रकार समुदाय से २५ गाथाओं से यह द्विक्रियावादी का निषेध-रूप तीसरा अवान्तर अधिकार समाप्त हुआ ।

अथानंतर [सामण्णपच्चया] इत्यादि गाथा को आदि लेकर पाठ्य-क्रम से सात-गाथाओं पर्यन्त मूल-प्रत्यय चतुष्टय को कर्म का कर्ता बताने की मुख्यता से व्यायाख्यान करते हैं । इन सात गाथाओं में से चार गाथाओं में यह बताया गया है कि इसके पश्चात् यह बतलाया है कि यह चौथे अन्तर अधिकार की सामुदायिक-पातनिका हुई ।

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+ पुद्गल के कथंचित परिणामी स्वभाव-पना -
सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तरो । (109)
मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ॥116॥
तेसिं पुणो वि य इमो भणिदो भेदो दु तेरसवियप्पो । (110)
मिच्छादिट्ठी आदी जाव सजोगिस्स चरमंतं ॥117॥
एदे अचेदणा खलु पोग्गलकम्मुदयसंभवा जम्हा । (111)
ते जदि करेंति कम्मं ण वि तेसिं वेदगो आदा ॥118॥
गुणसण्णिदा दु एदे कम्मं कुव्वंति पच्चया जम्हा । (112)
तम्हा जीवोऽकत्त गुणा य कुव्वंति कम्माणि ॥119॥
सामान्यप्रत्ययाः खलु चत्वारो भण्यन्ते बन्धकर्तारः ।
मिथ्यात्वमविरमणं कषाययोगौ च बोद्धव्याः ॥१०९॥
तेषां पुनरपि चायं भणितो भेदस्तु त्रयोदशविकल्पः ।
मिथ्यादृष्टयादिः यावत् सयोगिनश्चरमान्तः ॥११०॥
एते अचेतनाः खलु पुद्गलकर्मोदयसम्भवा यस्मात् ।
ते यदि कुर्वन्ति कर्म नापि तेषां वेदक आत्मा ॥१११॥
गुणसंज्ञितास्तु एते कर्म कुर्वन्ति प्रत्यया यस्मात् ।
तस्माज्जीवोऽकर्ता गुणाश्च कुर्वन्ति कर्माणि ॥११२॥
मिथ्यात्व अरु अविरमण योग कषाय के परिणाम हैं
सामान्य से ये चार प्रत्यय कर्म के कर्ता कहे ॥१०९॥
मिथ्यात्व आदि सयोगि-जिन तक जो कहे गुणथान हैं
बस ये त्रयोदश भेद प्रत्यय के कहे जिनसूत्र में ॥११०॥
पुद्गल करम के उदय से उत्पन्न ये सब अचेतन
करम के कर्ता हैं ये वेदक नहीं है आतमा ॥१११॥
गुण नाम के ये सभी प्रत्यय कर्म के कर्ता कहे
कर्ता रहा ना जीव ये गुणथान ही कर्ता रहे ॥११२॥
अन्वयार्थ : [चउरो] चार [सामण्णपच्चया] सामान्य प्रत्यय [खलु] वास्तव में [बंधकत्तारो] बंध के कर्ता [भण्णंति] कहे गये हैं वे [मिच्छत्तं] मिथ्यात्व [अविरमणं] अविरमण [कसायजोगा य] कषाय और योग [बोद्धव्वा] जानने चाहिये [य पुणो] और फिर [तेसिं वि] उनका भी [तेरसवियप्पो] तेरह प्रकार का [इमो] यह [भेदो] भेद [भणिदो] कहा गया है जो कि [मिच्छादिट्ठी आदी] मिथ्यादृष्टि को आदि लेकर [सजोगिस्स चरमंतं जाव] सयोग केवली तक है । [एदे] ये [खलु] निश्चय से [अचेदणा] अचेतन हैं [जम्हा] क्योंकि [पोग्गलकम्मुदयसंभवा] पुद्गल-कर्म के उदय से हुए हैं [जदि] यदि [ते] वे [करेंति कम्मं] कर्म को करते हैं तो करें, किन्तु [तेसिं वेदगो] उनका भोक्ता [वि] भी [ण आदा] आत्मा नहीं होता [जम्हा] क्योंकि [गुणसण्णिदा] गुण नाम वाले [दु एदे पच्चया] ये प्रत्यय [कम्मं कुव्वंति] कर्म को करते हैं [तम्हा] इस कारण [जीवोऽकत्ता] जीव तो कर्म का कर्ता नहीं है [य] और [गुणा] ये गुण ही [कुव्वंति कम्माणि] कर्मों को करते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
निश्चय से पुद्गल-कर्म का एक पुद्गल-द्रव्य ही कर्ता है । उस पुद्गल-द्रव्य के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार बंध के सामान्य-हेतु होने से बंध के कर्ता हैं । वे ही मिथ्यादृष्टि को आदि लेकर सयोग-केवली एक भेदरूप हुए तेरह कर्ता हैं । अब ये पुद्गल-कर्म-विपाक के भेद होने से अत्यंत अचेतन होते हुए केवल ये 13 गुणस्थान पुद्गल-कर्म के कर्ता होकर व्याप्य-व्यापक-भाव से कुछ भी पुद्गल-कर्म को करें तो करें, जीव का इसमें क्या आया ? कुछ भी नहीं । अथवा यहाँ यह तर्क है कि पुद्गल-मय मिथ्यात्वादि का वेदन करता हुआ जीव स्वयं ही मिथ्यादृष्टि होकर पुद्गल कर्म को करता है । यह तर्क बिल्कुल अज्ञान है, क्योंकि आत्मा भाव्य-भावक भाव के अभाव से मिथ्यात्वादि पुद्गल-कर्मों का भोक्ता भी निश्चय से नहीं है तो पुद्गल-कर्म का कर्ता कैसे हो सकता है ? इसलिये यह सिद्ध हुआ कि पुद्गल द्रव्यमय सामान्य चार प्रत्यय व उनके विशेष भेद-रूप तेरह प्रत्यय जो कि गुण शब्द से कहे गये हैं वे ही केवल कर्मों को करते हैं । इस कारण जीव पुद्गल-कर्मों का अकर्ता है और वे गुणस्थान ही उनके कर्ता हैं, क्योंकि वे गुण पुद्गल-द्रव्यमय ही हैं । इससे पुद्गल-कर्म का पुद्गल-द्रव्य ही एक कर्ता है यह सिद्ध हुआ ।

जयसेनाचार्य :
[सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो] निश्चयनय से अभेद-विवक्षा में तो एक पुद्गल ही कर्मों का कर्ता है और भेद-विवक्षा में सामान्य मूल-प्रत्यय चार हैं जो कि बंध करने वाले हें ऐसा सर्वज्ञदेव ने कहा है । उत्तर-प्रत्यय तो बहुत हैं । विवक्षा का न होना यहाँ पर सामान्य शब्द का अर्थ है -- यह सामान्य व्याख्यान के काल में सब स्थान पर लगाया जा सकता है । [मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा] सामान्य-प्रत्यय मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन नाम वाले हैं । [तेसिं पुणो वि य इमो भणिदो भेदो दु तेरसवियप्पो] उन्हीं प्रत्ययों के उत्तर-भेद गुणस्थान के नाम से तेरह प्रकार के बताये गये हैं जो कि [मिच्छादिट्ठी आदी जाव सजोगिस्स चरमंतं] मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को आदि लेकर अंतिम सयोगी-गुणस्थान तक हैं ।

[एदे अचेदणा खलु पोग्गलकम्मुदयसंभवा जम्हा] ये सभी मिथ्यात्वादि-प्रत्यय द्रव्यरूप-प्रत्यय तो अचेतन हैं किंतु मिथ्यात्वादि भाव-प्रत्यय भी शुद्ध-निश्चयनय की विवक्षा में अचेतन ही हैं, क्योंकि ये सभी पौदगलिक-कर्म के उदय से होने वाले हैं । जैसे पुत्र जो उत्पन्न होता है वह स्त्री और पुरुष दोनों के सहयोग से होता है । अत: विवक्षा-वश से माता की अपेक्षा से देवदत्ता का यह पुत्र है ऐसा कोई कहते हैं, दूसरे पिता की अपेक्षा से यह देवदत्त का पुत्र है, ऐसा कहते हैं । परन्तु इस कथन में कोई दोष नहीं है क्योंकि विवक्षा-भेद से दोनों ही ठीक है । वैसे ही जीव और पुदुगल इन दोनों के संयोग से उत्पन्न होने वाले मिथ्यात्व-रागादिरूप जो भाव-प्रत्यय हैं, वे अशुद्ध-उपादान-रूप अशुद्ध-निश्चय-नय से चेतन हैं, क्योंकि जीव से सम्बद्ध हैं, किन्तु शुद्ध-उपादान-रूप शुद्ध-निश्चय-नय से ये सभी अचेतन हैं क्योंकि पौद्गलिक-कर्म के उदय से हुए हैं । किन्तु वस्तु-स्थिति में ये सभी एकांत से न जीवरूप ही हैं और न पुद्गल ही हैं, किन्तु चूना और हल्दी के संयोग से उत्पन्न हुई कुंकुम के समान ये प्रत्यय भी जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न होने वाले संयोगीभाव हैं । और जब गहराई से सोचे तो सूक्ष्म-रूप शुद्ध-निश्चय-नय की दृष्टि में इनका अस्तित्व ही नहीं है, क्योंकि ये अज्ञान द्वारा उत्पन्न हैं अतएव कल्पित हैं ।

इस सब कथन का सार यह है कि जो एकांत से रागादिकों को जीव-संबंधी कहते हैं अथवा जो इनको पुद्गल-सम्बन्धी कहते हैं उन दोनों का कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ये सभी जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न हुए हैं जैसे, पहले स्त्री और पुरुष के संयोग से पैदा हुए पुत्र के दृष्टान्त द्वारा बताया जा चुका है ।

यदि यहाँ कोई प्रश्न करे कि सूक्ष्मरूप शुद्ध-निश्चय-नय की अपेक्षा से ये किसके हैं तो इसका उत्तर तो हम पहले ही दे चुके हैं कि सूक्ष्म-रूप शुद्ध-निश्चय-नय में तो इन सबका अस्तित्व ही नहीं है । [ते जदि करेंति कम्मं] ये मिथ्यात्वादि-प्रत्यय ही कर्म करते हैं तो करते रहे इसमें क्या हानि-लाभ है, कुछ नहीं ऐसा शुद्ध-निश्चय-नय के द्वारा सम्मत ही है, क्योंकि 'सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया' शुद्धनय की दृष्टि में सब शुद्ध हैं ऐसा आर्ष वचन है । यदि यहाँ कोई कहे कि मिथ्यात्व के उदय से यह जीव मिथ्यादृष्टि होकर मिथ्यात्व और रागादिरूप भाव-कर्म को भोगता रहता है, अत: उनका कर्ता भी है ऐसा मानना चाहिए । इसका उत्तर यह है कि [ण वि तेसिं वेदगो आदा] शुद्ध-निश्चय की विवक्षा में आत्मा कर्मों का वेदक भी नहीं है और जब वेदक ही नहीं तब कर्त्ता कैसे हो सकता है -- कभी नहीं हो सकता, ऐसा शुद्ध निश्चय-नय का मत है ।

इस उपर्युक्त बात को लेकर जो लोग आत्मा को सर्वथा अकर्ता ही कहते हैं उनके प्रति यह दोष अवश्य है कि यदि आत्मा सर्वथा अकर्ता ही है तब तो शुद्ध-निश्चय-नय से जैसे अकर्ता हुआ, वैसे व्यवहार से भी अकर्ता हुआ और इस प्रकार सर्वथा अकर्तापन होने पर संसार का अभाव हुआ, जो कि एक बड़ा भारी दूषण है । तथा उनके मत में आत्मा कर्ता नहीं है तो कर्मों का वेदक भी नहीं हो सकता, यह दूसरा दूषण है । इस प्रकार आत्मा को केवल वेदक मानने वाले जो सांख्य लोग हैं, उनके लिए स्वमत-व्याघात रूप दूषण है । [गुणसण्णिदा दु एदे कम्मं कुव्वंति पच्चया जम्हा] इसलिये गुणस्थान ही है संज्ञा जिनकी, ऐसे प्रत्यय ही कर्म करते हैं, जैसा कि पूर्व सूत्र में बताया है । [तम्हा जीवोऽकत्त गुणा य कुव्वंति कम्माणि] अत: यह कहना ठीक ही है कि शुद्ध-निश्चयनय से इन कर्मों का कर्त्ता जीव नहीं है, अपितु गुणस्थान-नाम वाले प्रत्यय ही कर्म करते हैं । इस प्रकार शुद्ध-निश्चय-नय से कर्म करने वाले प्रत्यय ही हैं -- इसके व्याखयान में चार गाथायें हुई ॥११६-११९॥

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+ जीव और क्रोधादि प्रत्ययों का एकत्व नहीं -
जह जीवस्स अणण्णुवओगो कोहो वि तह जदि अणण्णो । (113)
जीवस्साजीवस्स य एवमणण्णत्तमावण्णं ॥120॥
एवमिह जो दु जीवो सो चेव दु णियमदो तहाऽजीवो । (114)
अयमेयत्ते दोसो पच्चयणोकम्मकम्माणं ॥121॥
अह दे अण्णो कोहो अण्णुवओगप्पगो हवदि चेदा । (115)
जह कोहो तह पच्चय कम्मं णोकम्ममवि अण्णं ॥122॥
यथा जीवस्यानन्य उपयोग: क्रोधोऽपि तथा यद्यनन्य:
जीवस्याजीवस्य चैवमनन्यत्वमापन्नम् ॥११३॥
एवमिह यस्तु जीव: स चैव तु नियमतस्तथाऽजीव:
अयमेकत्वे दोष: प्रत्ययनोकर्मकर्मणाम् ॥११४॥
अथ ते अन्य: क्रोधोऽन्य: उपयोगात्मको भवति चेतयिता
यथा क्रोधस्तथा प्रत्यया: कर्म नोकर्माप्यन्यत् ॥११५॥
उपयोग जीव अनन्य ज्यों यदि त्यों हि क्रोध अनन्य हो
तो जीव और अजीव दोनों एक ही हो जायेंगे ॥११३॥
यदि जीव और अजीव दोनों एक हों तो इसतरह
का दोष प्रत्यय कर्म अर नोकर्म में भी आयगा ॥११४॥
क्रोधान्य है अर अन्य है उपयोगमय यह आतमा
तो कर्म अरु नोकर्म प्रत्यय अन्य होंगे क्यों नहीं ? ॥११५॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे [जीवस्स] जीव के [अणण्णुवओगो] उपयोग एकरूप है [तह] उसी प्रकार [जदि] यदि [कोहो वि] क्रोध भी [अणण्णो] एकरूप हो जाय तो [एवम्] इस तरह [जीवस्साजीवस्स य] जीव और अजीव के [अणण्णत्तम्] एकत्व [आवण्णं] प्राप्त हुआ [एवमिह] ऐसा होने से इस लोक में [य दु] जो [जीवो] जीव है [सो एव] वही [णियमदो] नियम से [तहा] वैसा ही [अजीवो] अजीव हुआ [एयत्ते] ऐसे दोनों के एकत्व होने में [अयं दोसो] यह दोष प्राप्त हुआ । [पच्चयणोकम्मकम्माणं] इसी प्रकार प्रत्यय नोकर्म-कर्म इनमें भी यही दोष जानना । [अह] अब इस दोष के भयसे [दे] तेरे मत में [कोहो] क्रोध [अण्णो] अन्य है और [उवओगप्पगो] उपयोग-स्वरूप [चेदा] आत्मा [अण्णु] अन्य [हवदि] है तो [जह कोहो] जैसे क्रोध है [तह] उसी प्रकार [पच्चय] प्रत्यय [कम्मं] कर्म [णोकम्ममवि] और नोकर्म ये भी [अण्णं] आत्मा से अन्य ही हैं, ऐसा निश्चय करो ।

अमृतचंद्राचार्य :
जैसे जीव के साथ तन्मयता से जीव से उपयोग अनन्य (एकरूप) है, उसी प्रकार जड़ क्रोध भी अनन्य ही है, ऐसी प्रतीति हो जाय तो चिद्रूप की और जड़ की अनन्यता से जीव के उपयोगमयता की तरह जड़ क्रोध-मय होने की भी प्राप्ति हुई । ऐसा होने पर जो जीव है, वही अजीव है, इस प्रकार द्रव्यान्तर का लोप हो गया । इसी प्रकार प्रत्यय नोकर्म और कर्मों की भी जीव के साथ एकत्व की प्रतीति में यही दोष आता है । इस दोष के भय से यदि ऐसा माना जाय कि उपयोग-स्वरूप जीव तो अन्य है और जड़-स्वरूप क्रोध अन्य है तो जैसे उपयोग-स्वरूप जीव से जड़-स्वभाव क्रोध अन्य है, उसी प्रकार प्रत्यय नोकर्म और कर्म भी अन्य ही हैं, क्योंकि जैसा जड़-स्वभाव क्रोध है, उसी प्रकार प्रत्यय नोकर्म, कर्म ये भी जड़ हैं, इनमें विशेषता नहीं है । इस प्रकार जीव और प्रत्यय में एकत्व नहीं है ।

जयसेनाचार्य :
[जह जीवस्स अणण्णुवओगो] जैसे ज्ञान-दर्शन-उपयोग-रूप जीव से तन्मय है क्योंकि अग्नि से उष्णता के समान वह आत्मा के साथ अनन्य ही देखने में आता है, कभी किसी भी प्रकार उससे पृथक, देखने में नहीं आता । [कोहो वि तह जदि अणण्णो] उसी प्रकार यदि एकान्त से क्रोध को भी जीव के साथ अनन्य ही मान लिया जायेगा तो [जीवस्साजीवस्स य एवमणण्णत्तमावण्णं] ऐसा मान लेने पर सहज-शुद्ध-अखण्ड-ज्ञान-दर्शन-उपयोग वाला जीव और अजीव, ये दोनों एक हो जाएंगे । [एवमिह जो दु जीवो सो चेव दु णियमदो तहाऽजीवो] इस प्रकार जो जीव है वही नियम से अजीव समझा जायेगा अर्थात फिर जीव का अभाव ठहरेगा, यह बड़ा दूषण आयेगा । [अयमेयत्ते दोसो पच्चयणोकम्मकम्माणं] और वही जीवाभाव रूप दोष एकांत रूप से निरंजन-चिदानन्द रूप-लक्षण वाले जीव के साथ मिथ्यात्वादि-प्रत्यय, कर्म तथा नोकर्म एकमेक मानने में होंगे । यहाँ प्राकृत भाषा के कारण प्रत्यय शब्द ह्रस्व आया है । [अह पुण अण्णो कोहो अण्णुवओगप्पगो हवदि चेदा] अब जब पूर्वोक्त दोष से बचने के लिये क्रोध को जीव से भिन्न मानोगे और क्रोध से विशुद्ध-दर्शन-ज्ञानमय आत्मा को भिन्न मानोगे, तो [जह कोहो तह पच्चय कम्मं णोकम्ममवि अण्णं] जड़-रूप क्रोध जिस प्रकार निर्मल-चैतन्य-स्वभाव जीव से भिन्न है, उसी प्रकार प्रत्यय, कर्म और नोकर्म भी आत्मा से भिन्न हैं ऐसा शुद्ध-निश्चय-नय से मानना ही चाहिये ।

इस प्रकार शुद्ध-निश्चय-नय से जीव को अकर्त्ता और अभोक्ता तथा क्रोधादि से भिन्न बताने पर दूसरे पक्ष में व्यवहार-नय से जीव का कर्त्तापन, भोक्तापन और क्रोधादिक से अभिन्नपना भी अपने आप आ जाता है । क्योंकि निश्चय-नय और व्यवहार-नय इन दोनों में परस्पर सापेक्षपना है ।

जैसे किसी ने कहा कि देवदत्त अपनी दाहिनी आंख से देखता है, तब ऐसा कहने में यह बात भी अपने-आप आ जाती है कि वह बांई आंख से नहीं देखता । हां, सांख्य या सदाशिव मतानुयायी लोग इस प्रकार के परस्पर-सापेक्ष नय-विभाग को नहीं मानते हैं । अत: उनके मत में जिस प्रकार शुद्ध-निश्चय से जीव कर्ता नहीं होता और क्रोधादि से भिन्न होता है वैसे ही व्यवहार से भी वह अकर्ता और क्रोधादिक से भिन्न ही ठहरता है, ऐसी दशा में जीव का क्रोधादि रूप-परिणाम न होने पर जिस प्रकार सिद्धों को कर्म बंध नहीं होता, उसी प्रकार किसी भी जीव को कर्मबंध नहीं होना चाहिये । कर्म-बन्ध न होने से संसार का अभाव और उसके अभाव से सदा ही मुक्तपने का प्रसंग प्राप्त होता है, जो कि प्रत्यक्ष में विरुद्ध है क्योंकि संसार तो प्रत्यक्ष देखने में आ रहा है । इस प्रकार प्रत्यय और जीव दोनों में एकान्त रूप से एकता मानने का निराकरण तीन गाथाओं में किया ।

यहाँ शिष्य शंका करता है कि आपने ऐसा बहुत बार कहा है कि शुद्ध-निश्चयनय से जीव अकर्ता है किन्तु व्यवहारनय से कर्ता भी है । तब आपके कहने से जीव व्यवहारनय से जिस प्रकार द्रव्य-कर्मों का कर्ता है उसी प्रकार रागादि-भावकर्मों का भी कर्ता है । तब द्रव्य-कर्म और भाव-कर्म दोनों एक हो जायेगे । आचार्य कहते हैं कि ऐसी बात नहीं है अपितु दोनों एक न होकर भिन्न हैं । इस भेद को बताने के लिये ही रागादि-भाव-कर्मों का कर्त्तापना बताने वाले व्यवहार-नय की अशुद्ध-निश्चय-नय संज्ञा है जो द्रव्य-कर्म और भाव-कर्मों में तारतम्य से भेद स्थापन करता है । जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि द्रव्य-कर्म तो अचेतन जड़ हैं जबकि भाव-कर्म विकारमय चेतन-रूप हैं तथापि शुद्ध-निश्चय-नय की अपेक्षा से इन भाव-कर्मों को अचेतन ही कहते हैं क्योंकि यह अशुद्ध-निश्चय-नय भी शुद्ध-निश्चय-नय की अपेक्षा से व्यवहार की कोटि में ही गिना जाता है ।

तात्पर्य यह है कि द्रव्य-कर्मों का कर्त्ता-पन और भोक्ता-पन जीव में अनुपचरित-असद्भुत-व्यवहारनय से है, किन्तु रागादि-भाव-कर्मों का कर्त्तापन और भोक्तापन अशुद्ध-निश्चय-नय से है जो कि शुद्ध-निश्चय-नय की अपेक्षा से व्यवहार ही है । इस प्रकार पुण्य-पापादि सात पदार्थों की पीठिका रूप महाधिकार में सात गाथाओं से चौथा अन्तर-अधिकार समाप्त हुआ ॥१२०-१२२॥

अब इसके आगे [जीवे ण सयं बद्धं] इत्यादि गाथा को आदि लेकर आठ गाथाओं पर्यन्त सांख्य-मतानुसारी शिष्य को समझाने के लिये जीव और पुद्गल के एकान्त से अपरिणामीपन का निषेध करते हुए इनमें किसी अपेक्षा परिणामीपना है, ऐसा स्थापित करते हैं । इन आठ गाथाओं में पुद्गल के परिणामीपने की मुख्यता से तीन गाथायें हैं । तत्पश्चात् जीव के परिणामीपने की मुख्यता से पाँच गाथाएँ हैं । इस प्रकार पाँचवें स्थल में समुदाय पातनिका है ।

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+ पुद्गल के कथंचित परिणामी स्वभावपना -
जीवे ण सयं बद्धं ण सयं परिणमदि कम्मभावेण । (116)
जइ पोग्गलदव्वमिणं अप्परिणामी तदा होदि ॥123॥
कम्मइयवग्गणासु य अपरिणमंतीसु कम्मभावेण । (117)
संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा ॥124॥
जीवो परिणामयदे पोग्गलदव्वाणि कम्मभावेण । (118)
ते सयमपरिणमंते कहं णु परिणामयदि चेदा ॥125॥
अह सयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पोग्गलं दव्वं । (119)
जीवो परिणामयदे कम्मं कम्मत्तमिदि मिच्छा ॥
णियमा कम्मपरिणदं कम्मं चिय होदि पोग्गलं दव्वं । (120)
तह तं णाणावरणाइपरिणदं मुणसु तच्चेव ॥
जीवे न स्वयं बद्धं न स्वयं परिणमते कर्मभावेन
यदि पुद्गलद्रव्यमिदमपरिणामि तदा भवति ॥११६॥
कार्मणवर्गणासु चापरिणममानासु कर्मभावेन
संसारस्याभाव: प्रसजति सांख्यसमयो वा ॥११७॥
जीव: परिणामयति पुद्गलद्रव्याणि कर्मभावेन
तानि स्वयमपरिणममानानि कथं नु परिणामयति चेतयिता ॥११८॥
अथ स्वयमेव हि परिणमते कर्मभावेन पुद्गलं द्रव्यम्
जीव: परिणामयति कर्म कर्मत्वमिति मिथ्या ॥११९॥
नियमात्कर्मपरिणतं कर्म चैव भवति पुद्गलं द्रव्यम्
तथा तद्ज्ञानावरणादिपरिणतं जानीत तच्चैव ॥१२०॥
यदि स्वयं ही कर्मभाव से परिणत न हो ना बँधे ही
तो अपरिणामी सिद्ध होगा कर्ममय पुद्गल दरव ॥११६॥
कर्मत्व में यदि वर्गणाएँ परिणमित होंगी नहीं
तो सिद्ध होगा सांख्यमत संसार की हो नास्ति ॥११७॥
यदि परिणमावे जीव पुद्गल दरव को कर्मत्व में
पर परिणमावे किसतरह वह अपरिणामी वस्तु को ॥११८॥
यदि स्वयं ही परिणमें वे पुद्गल दरव कर्मत्व में
मिथ्या रही यह बात उनको परिणमावें आतमा ॥११९॥
जड़कर्म परिणत जिसतरह पुद्गल दरव ही कर्म है
जड़ज्ञान-आवरणादि परिणत ज्ञान-आवरणादि हैं ॥१२०॥॥
अन्वयार्थ : [जइ पोग्गलदव्वमि] यदि पुद्गलद्रव्य [जीवे] जीव में [सयं] स्वयं [ण बद्धं] नहीं बँधा [कम्मभावेण] कर्मभाव से [सयं] स्वयं [ण परिणमदि] नहीं परिणमन करता है [इणं तदा] ऐसा मानो तो यह पुद्गलद्रव्य [अप्परिणामी] अपरिणामी [होदि] प्रसक्त होता है [य] और [कम्मइयवग्गणासु] कार्माणवर्गणाओं के [कम्मभावेण] कर्मभाव से [अपरिणमंतीसु] नहीं परिणमने पर [संसारस्स] संसार का [अभावो] अभाव [पसज्जदे] ठहरेगा [वा] अथवा [संखसमओ] सांख्य मत का प्रसंग आयेगा । [जीवो] यदि जीव ही [पोग्गलदव्वाणि] पुद्गल-द्रव्यों को [कम्मभावेण] कर्मभाव से [परिणामयदे] परिणमन कराता है ऐसा माना जाय तो [सयमपरिणमंते] आप ही परिणमन न करते [ते] उन पुद्गल-द्रव्यों को [चेदा] यह चेतन जीव [कहं णु] कैसे [परिणामयदि] परिणमा सकता है ? [अह] अथवा [पोग्गलं दव्वं] पुद्गल-द्रव्य [सयमेव हि] आप ही [कम्मभावेण] कर्मभाव से [परिणमदि] परिणमता है, ऐसा माना जाय तो [जीवो] जीव [कम्मं] कर्मरूप पुद्गलको [कम्मत्तम्] कर्म रूप से [परिणामयदे] परिणमाता है [इदि] ऐसा कहना [मिच्छा] झूठ हो जाता है । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि [पोग्गलं दव्वं] पुद्गल-द्रव्य [कम्मपरिणदं] कर्म-रूप परिणत हुआ [णियमा चैव] नियम से ही [कम्मं] कर्म-रूप [होदि] होता है [तह] ऐसा होने पर [चिय] वह पुद्गल-द्रव्य ही [णाणावरणाइपरिणदं] ज्ञानावरणादिरूप परिणत [तं] पुद्गल-द्रव्य को [तच्चेव] ज्ञानावरणादि ही हैं, ऐसा [मुणसु] जानो ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब सांख्यमतानुयायी शिष्य के प्रति पुद्गल-द्रव्य का परिणाम-स्वभावत्व सिद्ध करते हैं (अर्थात् सांख्यमत वाले प्रकृति और पुरुष को अपरिणामी मानते हैं उन्हें समझाते हैं) :-

यदि पुद्गल-द्रव्य जीव में आप नहीं बँधा हुआ कर्मभाव से स्वयमेव नहीं परिणमन करता है तो पुद्गल-द्रव्य अपरिणामी ही सिद्ध हो जायगा । ऐसा होने पर संसार का अभाव हो जायगा । यदि कोई ऐसा तर्क करे कि जीव पुद्गल-द्रव्य को कर्मभाव से परिणमाता है, इसलिये संसार का अभाव नहीं हो सकता, उसके समाधान में प्रश्न है कि यदि जीव पुद्गल को परिणमित कराता है तो वह स्वयं अपरिणमित को परिणमित कराता है या स्वयं परिणमित को परिणमित कराता है ? यदि इनमें से पहला पक्ष लिया जाय तो स्वयं अपरिणमित को कोई नहीं परिणमा सकता, क्योंकि स्वयं अपरिणमित को पर के द्वारा परिणमाने की सामर्थ्य नहीं होती । स्वतः शक्ति जिसमें नहीं होती, वह पर के द्वारा भी नहीं आ सकती । यदि स्वयं परिणमित पुद्गल-द्रव्य को जीव कर्म-भाव से परिणमाता है, ऐसा दूसरा पक्ष लिया जाय तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि अपने आप परिणमित हुए को अन्य परिणमाने वाले की आदश्यकता ही नहीं, क्योंकि वस्तु की शक्ति पर की अपेक्षा नहीं करती । इसलिये पुद्गल-द्रव्य परिणाम-स्वभाव स्वयमेव होवे । ऐसा होने पर जैसे कलशरूप परिणत हुई मिट्टी अपने आप कलष ही है, उसी भाँति जड-स्वभाव ज्ञानावरण आदि कर्म-रूप परिणत हुआ पुद्गल-द्रव्य ही आप ज्ञानावरण आदि कर्म ही है । इस प्रकार पुद्गल द्रव्य का परिणाम-स्वभावपना सिद्ध हुआ ।

(कलश--हरिगीत)
सब पुद्गलों में है स्वभाविक परिणमन की शक्ति जब ।
और उनके परिणमन में है न कोई विघ्न जब ॥
क्यों न हो तब स्वयं कर्ता स्वयं के परिणमन का ।
सहज ही यह नियम जानो वस्तु के परिणमन का ॥६४॥

[इति] इसप्रकार [पुद्गलस्य] पुद्गल-द्रव्य की [स्वभावभूता परिणामशक्तिः] स्वभावभूत परिणमन-शक्ति [खलु अविघन स्थिता] निर्विघ्न सिद्ध हुई । [तस्यांस्थितायां] उसके सिद्ध होने पर, [सः आत्मनः यम् भावं करोति] पुद्गल-द्रव्य अपने जिस भाव को करता है [तस्य सः एव कर्ता] उसका वह पुद्गल-द्रव्य ही कर्ता है ।

जयसेनाचार्य :
[जीवे ण सयं बद्धं] पुद्गल-द्रव्य-रूप कर्म अधिकरण-भूत जीव में न तो स्वयं बद्ध है क्योंकि जीव तो सदा शुद्ध है और [ण सयं परिणमदि कम्मभावेण] अपने-आप कर्म-रूप से भी अर्थात् द्रव्य-कर्म के पर्याय-रूप से भी नहीं परिणमता है, क्योंकि वह पुद्गल-द्रव्य भी सदा नित्य है । [जइ पोग्गलदव्वमिणं] यदि इस प्रकार पुद्गल-द्रव्य को माना जायेगा तो [अप्परिणामी तदा होदि] सांख्य-मतवालों के मत से यह पुद्गल-द्रव्य अपरिणामी ही हुआ । ऐसी दशा में [कम्मइयवग्गणासु य अपरिणमंतीसु कम्मभावेण] कार्मण-वर्गणाओं के ज्ञानावरणादि-द्रव्य-कर्म रूप नहीं परिणमन करने पर [संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा] इस संसार का सांख्य-मत के समान अभाव प्राप्त हो जायेगा । [जीवो परिणामयदे पोग्गलदव्वाणि कम्मभावेण] यदि ऐसा कहा जाय कि जीव हठात् कर्म-वर्गणा-योग्य-पुद्गल द्रव्यों को ज्ञानावरणादि-कर्म रूप से परिणमा लेता है अत: संसार का अभाव नहीं होगा, [तं सयमपरिणमंते कहं णु परिणामयदि चेदा] तो वहाँ यह प्रश्न होता है कि ज्ञानी जीव जो स्वयं अपरिणमनशील है वह उस पुद्गल-द्रव्य को जो परिणमाता है, वह नहीं परिणमन करते हुए को परिणमाता है या परिणमन करते हुए को ? यदि कहा जाये कि नहीं परिणमते हुए को परिणमाता है सो यह बात तो बन नहीं सकती क्योंकि जहाँ जो शक्ति स्वयं में नहीं है वहाँ वह शक्ति दूसरे द्वारा भी नहीं की जा सकती, यह अटल नियम है । जैसे जपा-पुष्पादिक स्फटिक-मणि में उपाधि को पैदा कर सकते है, वैसे काष्ठ के खंभे आदि में नहीं कर सकते, क्योंकि उसमें वैसी शक्ति नहीं है । यदि कहा जाये कि एकान्त रूप से परिणमन करते हुए को ही परिणमाता है तो यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि वस्तु में जो शक्तियाँ होती हैं वे अपने परिणमन में दूसरे की अपेक्षा नहीं रखती, ऐसा नियम है । अत: जबकि पुदुगल को स्वयं परिणमन करते रहना चाहिए, ऐसी दशा में फिर कार्मण-वर्गणायें जिस प्रकार ज्ञानावरणादि-कर्म के रूप में परिणमन करती हैं वैसे ही घट-पटादि-रुप-पुद्गल भी कर्म-रूप में परिणमन करें यह प्रत्यक्ष-विरोध-रूप दूषण आयेगा । अत: यह बात स्वयं सिद्ध हो जाती है कि पुद्गलों में कथंचित् परिणमने की शक्ति सहज-स्वभाव से है । जब उनमें यह शक्ति है तो उसका कर्ता स्वयं पुद्गल ही है । इस प्रकार अपने सम्बन्धी ज्ञानावरणादि-द्रव्यकर्म उनमें जिस परिणाम को करता है उसका उपादान पुद्गल ही होता है, जैसे कि कलश का उपादान कारण मिट्टी का पिण्ड है, किंतु ज्ञानावरणादि कर्मों का उपादान जीव नहीं है । जीव तो उसका निमित्त कारण मात्र है जो कि हेय-तत्त्व है अर्थात् जीव का जो भाव, कर्मों का निमित्त कारण होता है वह भी आस्रव-रूप होने से हेय-तत्त्व है, उपादेय रूप तत्त्व तो शुद्ध-निश्चय-नय की अपेक्षा से निज-शुद्धात्मा ही है जो उस उपर्युक्त पुद्गल से भिन्न एवं शुद्ध-परमात्म-भावना-रूप में परिणत, ऐसा अभेद-रत्नत्रय ही है लक्षण जिसका, ऐसे भेद-ज्ञान के द्वारा जानने योग्य है और चिदानन्द रूप एक-स्वभाव-वाला है । हाँ, इस अभेद-रत्नत्रय का साधक होने से व्यवहार-नय से भेद-रत्नत्रय भी उपादेय है । इस प्रकार तीन गाथाओं के शब्दार्थ के व्याख्यान से शब्दार्थ जानना चाहिए, व्यवहार-निश्चय-रूप से नयार्थ को भी जानना चाहिए । सांख्य के लिए मतार्थ का व्याख्यान हुआ । इस प्रकार शब्द, नय, मत, आगम और भावार्थ इन पाँच अर्थों से कथन किया, यह व्याख्यान-काल में यथासंभव सर्व ही ठिकाने जानते रहना चाहिए ।

इस प्रकार पुद्गल को परिणाम-शील बताने के रूप में तीन गाथाओं का व्याख्यान हुआ ॥१२३-१२५॥

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+ जीव-द्रव्य में कथंचित परिणामित्व -
ण सयं बद्धो कम्मे ण सयं परिणमदि कोहमादीहिं । (121)
जइ एस तुज्झ जीवो अप्परिणामी तदा होदि ॥126॥
अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहिं भावेहिं । (122)
संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा ॥127॥
पोग्गलकम्मं कोहो जीवं परिणामएदि कोहत्तं । (123)
तं सयमपरिणमंतं कहं णु परिणामयदि कोहो ॥128॥
अह सयमप्पा परिणमदि कोहभावेण एस दे बुद्धी । (124)
कोहो परिणामयदे जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा ॥129॥
कोहुवजुत्ते कोहो माणवजुत्ते य माणमेवादा । (125)
माउवजुत्ते माया लोहुवजुत्ते हवदि लोहो ॥130॥
न स्वयं बद्ध: कर्मणि न स्वयं परिणमते क्रोधादिभि:
यद्येष: तव जीवोऽपरिणामी तदा भवति ॥१२१॥
अपरिणममाने स्वयं जीवे क्रोधादिभि: भावै:
संसारस्याभाव: प्रसजति सांख्यसमयो वा ॥१२२॥
पुद्गलकर्म क्रोधो जीवं परिणामयति क्रोधत्वम्
तं स्वयमपरिणममानं कथं नु परिणामयति क्रोध: ॥१२३॥
अथ स्वयमात्मा परिणमते क्रोधभावेन एषा ते बुद्धि:
क्रोध: परिणामयति जीवं क्रोधत्वमिति मिथ्या ॥१२४॥
क्रोधोपयुक्त: क्रोधो मानोपयुक्तश्च मान एवात्मा
मायोपयुक्तो माया लोभोपयुक्तो भवति लोभ: ॥१२५॥
यदि स्वयं ही ना बँधे अर क्रोधादिमय परिणत न हो
तो अपरिणामी सिद्ध होगा जीव तेरे मत विषें ॥१२१॥
स्वयं ही क्रोधादि में यदि जीव ना हो परिणमित
तो सिद्ध होगा सांख्यमत संसार की हो नास्ति ॥१२२॥
यदि परिणमावे कर्मजड़ क्रोधादि में इस जीव को
पर परिणमावे किसतरह वह अपरिणामी वस्तु को ॥१२३॥
यदि स्वयं ही क्रोधादि में परिणमित हो यह आतमा
मिथ्या रही यह बात उसको परिणमावे कर्म जड़ ॥१२४॥
क्रोधोपयोगी क्रोध है मानोपयोगी मान है
मायोपयोगी माया है लोभोपयोगी लोभ है ॥१२५॥
अन्वयार्थ : [एस जीवो] यह जीव [कम्मे] कर्म में [ण सयं बद्धो] स्वयं बँधा नहीं है और [कोहमादीहिं] क्रोधादि भावों से [ण सयं परिणमदि] स्वयं नहीं परिणमता [जइ] यदि [एस] एसा [तुज्झ] तेरा मत है [तदा] तो [अप्परिणामी] वह जीव अपरिणामी [होदि] प्रसक्त होता है और [जीवे] जीव के [कोहादिएहिं भावेहिं] क्रोधादि भावों द्वारा [अपरिणमंतम्हि सयं] स्वयं परिणत न होने पर [संसारस्स अभावो] संसार का अभाव [पसज्जदे] प्रसक्त हो जायगा [वा] अथवा [संखसमओ] सांख्यमत प्रसक्त हो जावेगा । यदि कोई कहे कि [पोग्गलकम्मं] पुद्गल-कर्म जो [कोहो] क्रोध है वह [जीवं] जीव को [कोहत्तं] क्रोध-भाव-रूप [परिणामएदि] परिणमाता है तो [सयमपरिणमंतं] स्वयं न परिणत हुए [तं] जीव को [कोहो] क्रोधकर्म [कहं णु] कैसे [परिणामयदि] परिणमा सकता है ? [अह] यदि [एस दे बुद्धी] तेरी ऐसी समझ है कि [सयमप्पा] आत्मा अपने आप [कोहभावेण] क्रोध-भाव से [परिणमदि] परिणमन करता है तो [कोहो] पुद्गल-कर्म-रूप क्रोध [जीवं] जीव को [कोहत्तम्] क्रोधभावरूप [परिणामयदे] परिणमाता है [इदि मिच्छा] ऐसा करना मिथ्या ठहरता है । (इसलिये यह सिद्धान्त है कि) [कोहुवजुत्ते] क्रोध में उपयुक्त अर्थात् जिसका उपयोग क्रोधाकाररूप परिणमता है, ऐसा [आदा] आत्मा [कोहो] क्रोध ही है [य] और [माणवजुत्ते] मान से उपयुक्त होता हुआ [माणम्] मान ही है, [माउवजुत्ते] माया से उपयुक्त [माया] माया ही है [य] और [लोहुवजुत्ते] लोभ से उपयुक्त होता हुआ [लोहो] लोभ ही [हवदि] है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब जीव का परिणामित्व सिद्ध करते हैं :-

जीव कर्म में स्वयं नहीं बँधा क्रोधादि भाव से आप नहीं परिणमे तो वह जीव वास्तव में अपरिणामी ही सिद्ध होगा । ऐसा होने पर संसार का अभाव आता है अथवा कोई ऐसा तर्क करे कि पुद्गल-कर्म क्रोधादिक ही जीव को क्रोधादिक भाव से परिणमाते हैं इस लिये संसार का अभाव नहीं हो सकता । ऐसा करने में दो पक्ष पुष्टव्य हैं कि पुद्गल-कर्म क्रोधादिक अपने आप अपरिणमते जीव को परिणमाते हैं या परिणमते को परिणमाते हैं ? प्रथम तो जो आप नहीं परिणमता हो, उसमें पर के द्वारा कुछ भी परिणमन नहीं कराया जा सकता है क्योंकि आप में जो शक्ति नहीं, वह पर के द्वारा नहीं की जा सकती तथा जो स्वयं परिणमता हो, वह अन्य परिणमाने वाले की अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं करती । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि जीव परिणमन स्वभाव वाला स्वयमेव है । ऐसा होने पर जैसे कोई मंत्र-साधक गरुड का ध्यान करता हुआ याने उस गरुड-भाव-रूप परिणत हुआ गरुड ही है, उसी भाँति यह जीवात्मा अज्ञान-स्वभाव क्रोधादिरूप परिणत उपयोग-रूप हुआ स्वयमेव क्रोधादिक ही होता है । इस प्रकार जीव का परिणाम-स्वभाव होना सिद्ध हुआ ।

(कलश--हरिगीत)
आत्मा में है स्वभाविक परिणमन की शक्ति जब ।
और उसके परिणमन में है न कोई विघ्न जब ॥
क्यों न हो तब स्वयं कर्ता स्वयं के परिणमन का ।
सहज ही यह नियम जानो वस्तु के परिणमन का ॥६५॥

[इति] इसप्रकार [जीवस्य] जीवकी [स्वभावभूता परिणामशक्तिः] स्वभावभूत परिणमनशक्ति [निरन्तराया स्थिता] निर्विघ्न सिद्ध हुई । [तस्यां स्थितायां] यह सिद्ध होने पर, [सः स्वस्य यं भावं करोति] जीव अपने जिस भाव को करता है [तस्य एव सः कर्ता भवेत्] उसका वह कर्ता होता है ।

जयसेनाचार्य :
[ण सयं बद्धो कम्मे] जीव स्वयं अपने भाव से अधिकरणभूत-कर्मों से बंधा हुआ नहीं है क्योंकि वह एकांत से सदा मुक्त है । [ण सयं परिणमदि कोहमादीहिं] और वह जीव द्रव्य-कर्म के उदय के बिना स्वयं भाव-क्रोध-रूप से भी परिणमन नहीं करता है क्योंकि वह एकांत से अपरिणामी है । [जदि एस तुज्झ जीवो अप्परिणामी तदा होदि] इस प्रकार यह प्रत्यक्षरूप संसारी-जीव भी तेरे अभिप्राय से अपरिणामी ही हुआ, सदा एकसा रहने वाला हुआ । और सदा एक-सा मान लेने पर [अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहिं भावेहिं] उसका स्वयं क्रोधादिक-भावरूप से परिणमन न होने पर [संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा] सांख्यमत के अनुसार संसार का अभाव ठहरेगा । यदि यों कहें कि [पोग्गलकम्मं कोहो जीवं परिणामएदि कोहत्तं] उदय में आया हुआ पुद्गल-मयी द्रव्य-क्रोध हठात् इस जीव को भाव-क्रोधरूप में परिणमा देता है / क्रोधी बना देता है । यदि ऐसा माना जाएगा तो द्रव्य-क्रोध [तं सयमपरिणमंतं कहं णु परिणामयदि कोहो] इस जीव को क्रोधरूप में न परिणमन करते हुए को क्रोधरूप से परिणमाता है या क्रोध-रूप में परिणमन करते हुए को ? यदि कहो कि स्वयं क्रोध रूप में न परिणमन करते हुए को क्रोधरूप परिणमाता है तो यह बन नहीं सकता । क्योंकि जिसमें जो शक्ति नहीं है वह दूसरे के द्वारा कभी उत्पन्न नहीं की जा सकती । देखो, जैसे जपा-पुष्पादिक का डांक स्फटिक आदि में विकार पैदा करता है, वैसे काष्ट के खम्भे आदिक में नहीं कर सकता । यदि एकान्त से यह कहा जाय कि स्वयं ही क्रोधादिक से परिणत होते हुए जीव को ही पौद्गलिक कर्म क्रोधादि रूप से परिणमाने वाला होता है तब तो उदयागत द्रव्य-क्रोधाधिक के निमित्त बिना ही भाव-क्रोधादि रूप से जीव को परिणमन कर जाना चाहिए, क्योंकि वस्तु की शक्तियाँ दूसरे की अपेक्षा नहीं किया करतीं, ऐसा अटल नियम है । ऐसा होने पर कर्मोदय के बिना होने वाले भाव-क्रोधादिक विकार मुक्तात्मा में भी होने का प्रसंग आवेगा । जो ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा आगम नहीं कहता । [अह सयमप्पा परिणमदि कोहभावेण एस दे बुद्धी] और यदि पूर्वोक्त दूषण के भय से हे भाई ! अगर तुम ऐसा कहो कि द्रव्य-कर्मोदय की अपेक्षा के बिना ही जीव अपने आप भाव कोधादिरूप से परिणमन करता है तो [कोहो परिणामयदे जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा] द्रव्य-क्रोध जीव को भाव-क्रोधरूप से परिणमाता है, ऐसा जो तुमने ऊपर कहा है वह मिथ्या ठहरेगा । इससे यह बात आयी कि घटाकर रूप से परिणत मिट्टी के परमाणु ही जैसे घट है अथवा अग्निरूप में परिणत लोह पिण्ड ही स्वयं अग्नि हो जाता है वैसे ही [कोहुवजुत्ते कोहो माणवजुत्ते य माणमेवादा माउवजुत्ते माया लोहुवजुत्ते हवदि लोहो] इस प्रकार से यह बात सिद्ध हो जाती है कि -- जीव की परिणमन-शक्ति स्वभावभूत है । इस परिणमन-शक्ति के रहते हुए यह जीव अपने जिस परिणाम को करता है उस भाव का उपादान कर्त्ता वह स्वयं होता है, द्रव्य-कर्म का उदय उसमें निभित्त-मात्र ही है । और जब यह जीव निर्विकार चिच्चमत्कार रूप शुद्ध-भाव से परिणत होता है उस समय यह सिद्ध बन जाता है ।

इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि 'जाव ण वेदि विसेसंतरं' इत्यादि रूप से अज्ञानी और ज्ञानी जीव का संक्षेप में व्याख्यान करते हुए पूर्व में जो छ: गाथायें कहीं थीं, वहाँ बताया था कि पुण्य-पापादि जो सात पदार्थ हैं, वे जीव और पुद्गल के परस्पर संयोग रूप परिणाम से सम्पन्न होते हैं । इस प्रकार का कहना तब ही बन सकता है जब जीव और पुद्गल में कथंचित् परिणामीपना माना जावे, सो यहाँ उसी ही कथंचित् परिणामीपने का ही यह विशेष व्याख्यान है । अथवा [सामण्णपच्चया खलु चउरो] इत्यादि सात गाथाओं में जो पहले बताया था कि शुद्ध-निश्चय से मिथ्यात्व आदि सामान्य प्रत्यय ही नूतन कर्म उत्पन्न करते हैं, जीव नहीं करता, ऐसा जैन मत है । इसको लेकर जीव को सर्वथा एकान्त रूप से अकर्ता ही मान लिया जाये तो सांख्यों की भाँति संसार के अभाव होने का प्रसंग आवेगा । उसी संसार अभाव रूप दूषण का यह विशेष विवरण है । क्योंकि वहाँ एकान्त रूप से अकर्ता मानने पर संसार अभाव का प्रसंग आया था और यहाँ एकान्त रूप से अपरिणामीपना मानने पर भी संसार अभाव-रूप दूषण है । क्योंकि भावकर्म रूप से परिणमन करना ही कर्तापन है और उसी का नाम भोक्तापन है ॥१२६-१३०॥

इस प्रकार जीव का परिणामीपना सिद्ध करने के व्याख्यान की मुख्यता से ये पाँच गाथाएँ पूरी हुई ।

इस प्रकार पुण्य-पापादि रूप जो सात पदार्थ हैं उनकी पीठिकारूप इस महाधिकार में जीव और पुद्गल के परिणामीपने की मुख्यता से कथन करते हुए आठ-गाथाओं से यह पांचवां अंतराधिकार समाप्त हुआ ।

अब [जाव ण वेदि विसेसंतरं तु आदासवाण दोण्हंपि । अण्णाणी तावदु] इत्यादि दो गाथाओं से जो पहले अज्ञानी का स्वरूप बता चुके हैं, वही अज्ञानी जीव जब [विसयकसाओगाढ़] इत्यादि विषय-कषायमय अशुभोपयोग में परिणत होता है तब तक पाप, आस्रव और बंध इन तीन पदार्थों का कर्ता होता है, और जब वही अज्ञानी-जीव मिथ्यात्व और कषायों का मंद उदय होने पर भोगों की इच्छारूप-निदानबंधादिरूप से दान-पूजादिमय परिणमन करता है, उस समय पुण्य-पदार्थ का भी कर्ता होता है । यह कथन संक्षेप में पहले सूचित किया है । इसके आगे [जइया इमेण जीवेण आदासवाण दोण्हंपि । णादं होदि विशेसंतरं तु] इत्यादि चार गाथाओं में ज्ञानी जीव का स्वरूप भी पहले बता चुके हैं । वही ज्ञानी-जीव शुद्धोपयोगरूप से परिणत होने वाला अभेद-रत्नत्रय है लक्षण जिसका ऐसे भेदज्ञान रूप में जब परिणत होता है, तब निश्चय-चारित्र के साथ अविनाभाव रखने वाला जो वीतराग-सम्यग्दर्शन उस रूप होकर संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तीनों पदार्थों का कर्ता होता है । ऐसा संक्षेप में पहले बता चुके हैं, किन्तु निश्चय-सम्यक्त्व के अभाव में जब वह सराग-सम्यक्त्व के रूप में परिणत रहता है उस समय शुद्धात्मा को उपादेय मानकर परंपरा से निर्वाण के लिए कारण ऐसे तीर्थकर प्रकृति आदि पुण्य-पदार्थ का कर्ता भी होता है, यह भी पहले कह चुके हैं । ये सब बातें जीव और पुदुगल इन दोनों में कथंचित् परिणामीपना होने पर ही हो सकती हैं । यह कथंचित् परिणामीपना भी पुण्य-पापादि सात पदार्थों के संक्षेप में वर्णन की सूचना के लिए पहले संक्षेप में कह चुके हैं । जिसका विशेष व्याख्यान फिर जीव और पुद्गल के परिणामीपने के व्यायाख्यान के काल में किया है । वहाँ इस प्रकार कथंचित् परिणामीपना सिद्ध होने पर ही अज्ञानी और ज्ञानी-जीव जो कि गुण के धारक हैं इन दोनों जीवों के पुण्य-पापादि सात पदार्थों के होने की संक्षेपरुप में सूचना देने के लिए ही संक्षेप-व्याख्यान किया है । अब यहाँ ज्ञानमय और अज्ञानमय-गुणों की मुख्यता से व्याख्यान किया जाता है किन्तु जीव और अजीव के गुणों की मुख्यता से नहीं, क्योंकि यह कथन भी उन्हीं पुण्य-पापादि सात पदार्थों की संक्षेप सूचना करने के लिए प्रयास है ।

यहाँ जो [संगं तु मुइत्ता] इत्यादि गाथा को लेकर पाठक्रम से नौ गाथाओं पर्यन्त वर्णन करते हैं । उसमें सबसे पहले तीन गाथाओं में ज्ञानभाव की मुख्यता से वर्णन है, उसके पश्चात् छह गाथाओं में ज्ञानी-जीव का ज्ञानमय-भाव ही होता है और अज्ञानी-जीव का अज्ञानमय-भाव होता है, ऐसा वर्णन है । इस प्रकार छट्ठे अन्तर-अधिकार में समुदाय पातनिका हुई ।

कथंचित् परिणामीपना सिद्ध होने पर ही ज्ञानी-जीव ज्ञानभाव का कर्ता होता है ऐसा अभिप्राय मन में रखकर आगे तीन सूत्र कहते हैं --

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+ ज्ञानी-जीव ज्ञानभाव का कर्ता -
जो संगं तु मुइत्ता जाणदि उवओगमप्पगं सुद्धं ।
तं णिस्संगं साहुं परमट्ठवियाणया विन्ति ॥131॥
जो मोहं तु मुइत्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं ।
तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया विन्ति ॥132॥
जो धम्मं तु मुइत्ता जाणदि उवओगमप्पगं सुद्धं ।
तं धम्मसंगमुक्कं परमट्ठवियाणया विन्ति ॥133॥
अन्वयार्थ : जो साधु बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकार के सम्पूर्ण परिग्रह को छोड़कर अपने आपकी आत्मा को दर्शन-ज्ञानोपयोग-स्वरूप शुद्ध अनुभव करता है, उसको परमार्थ स्वरूप के जानने वाले गणधरादिक-देव निर्ग्रन्थ-साधु कहते हैं ।
जो साधु पर-पदार्थों में होने वाले मोह को छोड़कर अपने आप को निर्विकल्प-ज्ञान-स्वभाव-मय अनुभव करता है, उसको परमार्थ के जानने वाले तीर्थंकरादिक-परमेष्ठी मोह-रहित कहते हैं ।
जो कोई साधु व्यावहारिक-धर्म को छोड़कर शुद्ध-ज्ञान-दर्शानोपयोग-रूप आत्मा को जानता है उनको परमार्थ के ज्ञाता धर्म के परिग्रह से भी रहित कहते हैं ।

जयसेनाचार्य :
[जो संगं तु मुइत्ता जाणदि उवओगमप्पगं सुद्धं] जो परमसाधु बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग कर वीतराग-चारित्र के साथ अविनाभाव रखने वाले भेदज्ञान से अपनी आत्मा को जानता है । कैसा अनुभव करता है ? कि आत्मा विशुद्ध-ज्ञान-दर्शनोपयोग-स्वभाव वाला होने से उपयोगमय है; ज्ञानदर्शन-उपयोग को लिये हुए है । फिर कैसा है ? शुद्ध है, भाव-कर्म, द्रव्य-कर्म और नोकर्म से रहित है इस प्रकार समाधि में स्थित होकर अनुभव करता है । [तं णिस्संगं साहुं परमट्ठवियाणया विन्ति] उस साधु को परमार्थ के जाननेवाले गणधर देवादिक निस्संग अर्थात् परिग्रह-रहित साधु कहते हैं ॥१३१॥

[जो मोहं तु मुइत्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं] जो परम ऋषि समस्त प्रकार के चेतन या अचेतन, शुभ व अशुभ पर-द्रव्यों में मोह को छोड़कर शुभ व अशुभ मन, वचन, काय के व्यापार रूप तीनों योगों के परिहार न होने देना-करने रूप अभेद-रत्नत्रय लक्षण के धरने वाले भेद-ज्ञान के द्वारा आत्मा का अनुभव करता है । किस प्रकार करता है कि -- आत्मा विकार-रहित शुद्ध स्वसंवेदन ज्ञान से सहित है, परिपूर्ण है, तद्रूप परिणत है इस प्रकार का अनुभव करता है । [तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया विन्ति] परमार्थ के जाननेवाले तीर्थंकर परमदेवादिक उस साधु को ही मोह से रहित हुआ मानते हैं ।

यहाँ पर जिस प्रकार मोह पद दिया है उसी प्रकार राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, बुद्धि, उदय, शुभ परिणाम, अशुभ परिणाम, श्रोत, चक्षु, घ्राण, रसना, स्पर्शन, इस प्रकार २० पद क्रम से रखकर २० सूत्रों का व्याख्यान कर लेना चाहिये । इस प्रकार निर्मल परम ज्योति की परिणति से विलक्षण / विरुद्ध असंख्यात लोकप्रमाण विभाव भाव हैं ऐसा समझ लेना चाहिए ॥१३२॥

[जो धम्मं तु मुइत्ता जाणदि उवओगमप्पगं सुद्धं] जो योगीन्द्र शुभोपयोगरूप-धर्म-परिणाम को भी जीतकर अपने शुद्धात्मा के रूप में परिणत अभेद-रत्नत्रय-लक्षणवाले भेद-ज्ञान के द्वारा अपने आपको अनुभव करता है कि 'मैं विशुद्ध-ज्ञान-दर्शन-उपयोगमय हूँ', तथा शुभ-अशुभरूप जो संकल्प-विकल्प हैं, उनसे रहित शुद्ध हूँ । [तं धम्मसंगमुक्कं परमट्ठवियाणया विन्ति] उसी परम-साधु को परमार्थ के जानने वाले प्रत्यक्ष ज्ञानी लोग विकार रहित अपनी शुद्धात्मा के उपलंभरूप जो निश्चय-धर्म, उससे विलक्षणता को लिए भोग, आकांक्षा-स्वरूप निदान-बंध आदि पुण्यमय परिग्रहवाले व्यवहार-धर्म से दूर होने वाला मानते हैं ।

जीव के कथंचित् परिणामीपना सिद्ध होने पर ही उपर्युक्त प्रकार का शुद्धोपयोग में परिणमन सिद्ध हो सकता है । परिणामीपना न मानने पर जीव बँधा हुआ और बँधा ही रहना चाहिये । वहाँ पर फिर उसका शुद्धोपयोगरूप से परिणमन विशेष होता है वह कभी बन नहीं सकता । अत: ऐसी दशा में मोक्ष का अभाव हो जाता है । इस प्रकार शुद्धोपयोगरूप ज्ञानमय परिणाम गुण के व्याख्यान की मुख्यता से तीन गाथाएँ पूर्ण हुईं ॥१३३॥

आगे कहते हैं कि जीव ज्ञानमयी तथा अज्ञानमयी दोनों प्रकार के भावों का कर्ता कैसे होता है --

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+ ज्ञानी और अज्ञानी के कर्तापन -
जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स कम्मस्स । (126)
णाणिस्स स णाणमओ अण्णाणमओ अणाणिस्स ॥134॥
यं करोति भावमात्मा कर्ता स भवति तस्य कर्मणः ।
ज्ञानिनः स ज्ञानमयोऽज्ञानमयोऽज्ञानिनः ॥१२६॥
जो भाव आतम करे वह उस कर्म का कर्ता बने
ज्ञानियों के ज्ञानमय अज्ञानि के अज्ञानमय ॥१२६॥
अन्वयार्थ : [आदा] आत्मा [जं भावम्] जिस भाव को [कुणदि] करता है [तस्स कम्मस्स] उस भावरूप कर्म का [सो] वह [कत्ता] कर्ता [होदि] होता है । वहाँ [णाणिस्स] ज्ञानी के तो [स] वह भाव [णाणमओ] ज्ञान-मय है और [अणाणिस्स] अज्ञानी के [अण्णाणमओ] अज्ञानमय है ।

अमृतचंद्राचार्य :
इस प्रकार यह आत्मा स्वयमेव परिणमन-स्वभाव वाला होनेपर भी जिस भाव को अपने करता है, कर्मत्व को प्राप्त हुए उस भाव का ही कर्तापना प्राप्त होता है । सो वह भाव ज्ञानी का ज्ञानमय ही है, क्योंकि उसको अच्छी प्रकार से स्व-पर का भेद-ज्ञान हो गया है, जिससे सब परद्रव्य भावों से भिन्न आत्मा की ख्याति अत्यन्त उदित हो गई है । परंतु अज्ञानी के अज्ञानमय भाव ही है, क्योंकि उसके भली-भाँति स्व-पर के भेद-ज्ञान का अभाव होने से भिन्न आत्मा की ख्याति अत्यंत अस्त हो गई है ।

जयसेनाचार्य :
[जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स] यह आत्मा जो भाव करता है उस समय वह अपने भाव रूप कर्म का कर्ता होता है । [णाणिस्स स णाणमओ] अनन्त-ज्ञानादि चतुष्टय है लक्षण जिसका, ऐसे कार्य समयसार का उत्पादक होने से, निर्विकल्प-समाधि रूप परिणाम से परिणत रहने वाला जो कारण समयसार है लक्षण जिसका, उस भेदज्ञान के द्वारा सभी प्रकार के आरंभ से रहित होने के कारण ज्ञानी जीव का वह भाव शुद्धात्मा की ख्याति, प्रतीति, संवित्ति, उपलब्धि या अनुभूति रूप से ज्ञानमय ही होता है । [अण्णाणमओ अणाणिस्स] किन्तु अज्ञानी जीव को पूर्वोक्त भेद-ज्ञान न होने से शुद्धात्मा की अनुभूति स्वरूप का अभाव होने से उसका वह भाव अज्ञान होता है ॥१३४॥

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+ ज्ञानमय या अज्ञानमय भाव से क्या होता है? -
अण्णाणमओ भावो अणाणिणो कुणदि तेण कम्माणि । (127)
णाणमओ णाणिस्स दु ण कुणदि तम्हा दु कम्माणि ॥135॥
अज्ञानमयो भावोऽज्ञानिनः करोति तेन कर्माणि ।
ज्ञानमयो ज्ञानिनस्तु न करोति तस्मात्तु कर्माणि ॥१२७॥
अज्ञानमय हैं भाव इससे अज्ञ कर्ता कर्म का
बस ज्ञानमय हैं इसलिए ना विज्ञ कर्ता कर्म का ॥१२७॥
अन्वयार्थ : [अणाणिणो] अज्ञानी का [अण्णाणमओ भावो] अज्ञानमय भाव है [तेण] इस कारण [कम्माणि] अज्ञानी कर्मों को [कुणदि] करता है [दु] और [णाणिस्स] ज्ञानी के [णाणमओ] ज्ञानमय भाव होता है [तम्हा] इसलिये वह ज्ञानी [कम्माणि] कर्मों को [ण] नहीं [कुणदि] करता ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब यह कहते हैं कि ज्ञानमय भाव से क्या होता है और अज्ञानमय भाव से क्या होता है :-

अज्ञानी के अच्छी प्रकार स्व-पर का भेद-ज्ञान न होने से विविक्त आत्मा की ख्याति अत्यंत अस्त हो जाने के कारण अज्ञानमय ही भाव होता है । उस अज्ञानमय भाव के होने पर आत्मा के और पर के एकत्व का अध्यास होने से ज्ञान-मात्र अपने आत्म-स्वरूप से भ्रष्ट हुआ पर-द्रव्य-स्वरूप राग-द्वेष के साथ एक होकर अहंकार में प्रवृत्त हुआ अज्ञानी ऐसा मानता है कि 'मैं रागी हूं, द्वेषी हूं' इस प्रकार वह रागी द्वेषी होता है । उस रागादि स्वरूप अज्ञानमय भाव से अज्ञानी हुआ पर-द्रव्य-स्वरूप जो राग-द्वेष उन रूप अपने को करता हुआ कर्मों को करता है । और ज्ञानी के अच्छी तरह अपना पर का भेद-ज्ञान हो गया है इसलिये जिसके भिन्न आत्मा की प्रकटता--'ख्याति' अत्यंत उदित हो गई है, उस भाव के कारण ज्ञानमय ही भाव होता है । उस भाव के होने पर अपने व पर को भिन्नपने का ज्ञान भेद-ज्ञान होने से ज्ञानमात्र अपने आत्म-स्वरूप में ठहरा हुआ वह ज्ञानी पर-द्रव्य-स्वरूप राग-द्वेषों से पृथग्भूत हो जाने के कारण अपने रस से ही पर में अहंकार निवृत्त हो गया है, ऐसा हुआ निश्चय से केवल जानता ही है, राग-द्वेषरूप नहीं होता । इसलिये ज्ञानमय भाव से ज्ञानी हुआ पर-द्रव्य-स्वरूप जो राग-द्वेष उन-रूप आत्मा को नहीं करता हुआ कर्मों को नहीं करता है ।

(कलश--रोला)
ज्ञानी के सब भाव शुभाशुभ ज्ञानमयी हैं ।
अज्ञानी के वही भाव अज्ञानमयी हैं॥
ज्ञानी और अज्ञानी में यह अन्तर क्यों है ।
तथा शुभाशुभ भावों में भी अन्तर क्यों है ॥६६॥

[ज्ञानिनः कुतः ज्ञानमयः एव भावः भवेत्] यहाँ प्रश्न यह है कि ज्ञानी को ज्ञानमय भाव ही क्यों होता है [पुनः] और [अन्यः न] अन्य (अज्ञानमय भाव) क्यों नहीं होता ? [अज्ञानिनः कुतः सर्वः अयम् अज्ञानमयः] तथा अज्ञानी के सभी भाव अज्ञानमय ही क्यों होते हैं तथा [अन्यः न] अन्य (ज्ञानमय भाव) क्यों नहीं होते ?

जयसेनाचार्य :
आगे ज्ञानमय भाव से क्या फल होता है और अज्ञानमय भाव से क्या होता है सो कहते हैं-

[अण्णाणमओ भावो अणाणिणो कुणदि तेण कम्माणि] अज्ञानी-जीव के आत्मा की उपलब्धिरुप-भावना से विलक्षणपना होने के कारण अज्ञानमय-भाव ही होता है जिससे कि वह उस अज्ञान-भाव से कर्मों को करता है । [अण्णाणमओ भावो अणाणिणो कुणदि तेण कम्माणि] किन्तु ज्ञानी जीव तो विकार रहित चेतना की चमत्काररूप-भावना होकर रहता है, अत: उसके ज्ञानमयी भाव होता है । उस ज्ञानमयी भाव से ज्ञानी-जीव कर्मों को नहीं करता है -- अर्थात स्वस्थ होकर रहता है ।

भावार्थ यह है कि जैसे थोडी सी अग्नि बडे भारी तृण-काठ के ढेर को क्षणमात्र में भस्म कर देती है उसी प्रकार तीन गुप्तिरूप-समाधि-लक्षण को रखने वाली भेद-ज्ञानरूपी-अग्नि एक-अन्तमुहूर्त मात्र में अनेक भवों में संचित किये हुए कर्म-समूह को नष्ट कर देती है । यह जानकर जिस प्रकार हो सके मुमुक्षु साधु को उस परमसमाधि में भावना करनी योग्य है ॥१३५॥

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+ ज्ञानी के ज्ञानमय और अज्ञानी के अज्ञानमय ही भाव कैसे ? -
णाणमया भावाओ णाणमओ चेव जायदे भावो । (128)
जम्हा तम्हा णाणिस्स सव्वे भावा हु णाणमया ॥136॥
अण्णाणमया भावा अण्णाणो चेव जायदे भावो । (129)
जम्हा तम्हा भावा अण्णाणमया अणाणिस्स ॥137॥
ज्ञानमयाद्भावात् ज्ञानमयश्चैव जायते भाव:
यस्मात्तस्माज्ज्ञानिन: सर्वे भावा: खलु ज्ञानमया: ॥१२८॥
अज्ञानमयाद्भावादज्ञानश्चैव जायते भाव:
यस्मात्तस्माद्भावा अज्ञानमया अज्ञानिन: ॥१२९॥
ज्ञानमय परिणाम से परिणाम हों सब ज्ञानमय
बस इसलिए सद्ज्ञानियों के भाव हों सद्ज्ञानमय ॥१२८॥
अज्ञानमय परिणाम से परिणाम हों अज्ञानमय
बस इसलिए अज्ञानियों के भाव हों अज्ञानमय ॥१२९॥
अन्वयार्थ : [जम्हा] जिस कारण [णाणमया भावाओ च] ज्ञानमय भाव से [णाणमओ एव] ज्ञानमय ही [जायदे भावो] भाव उत्पन्न होता है । [तम्हा] इस कारण [णाणिस्स] ज्ञानी के [हु] निश्चय से [सव्वे भावा] सब भाव [णाणमया] ज्ञानमय हैं । और [जम्हा] जिस कारण [अण्णाणमया भावा च] अज्ञानमय भाव से [अण्णाणो एव] अज्ञानमय ही [जायदे भावो] भाव उत्पन्न होता है [तम्हा] इस कारण [अणाणिस्स] अज्ञानी के [अण्णाणमया] अज्ञानमय ही [भावा] भाव उत्पन्न होते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिस कारण निश्चय से अज्ञानमय भाव से जो कुछ भाव होता है, वह सभी अज्ञान-मयपने को उल्लंघन नहीं करता हुआ अज्ञानमय ही होता है; इसलिए अज्ञानी के सभी भाव अज्ञानमय हैं । और जिस कारण ज्ञानमयभाव से जो कुछ भाव होता है, वह सभी ज्ञानमयपने को नहीं उल्लंघन करता हुआ ज्ञानमय ही होता है, इसलिये ज्ञानी के सभी भाव ज्ञानमय हैं ।

(कलश--रोला)
ज्ञानी के सब भाव ज्ञान से बने हुए हैं ।
अज्ञानी के सभी भाव अज्ञानमयी हैं ॥
उपादान के ही समान कारज होते हैं ।
जौ बौने पर जौ ही तो पैदा होते हैं ॥६७॥

[ज्ञानिनः] ज्ञानी के [सर्वे भावाः] समस्त भाव [ज्ञाननिर्वृत्ताः हि] ज्ञान से रचित [भवन्ति] होते हैं [तु] और [अज्ञानिनः] अज्ञानी के [सर्वे अपि ते] समस्त भाव [अज्ञाननिर्वृत्ताः] अज्ञान से रचित [भवन्ति] होते हैं ।

जयसेनाचार्य :
ज्ञानी-जीव के ज्ञानमयी भाव ही होता है, अज्ञानमयी-भाव नहीं। वैसे ही अज्ञानी-जीव के अज्ञानमयी ही भाव होता है ज्ञानमयी नहीं, ऐसा आगे कहते हैं --

[णाणमया भावाओ णाणमओ चेव जायदे भावो जम्हा] क्योंकि निश्चय-रत्नत्रयात्मक-जीवपदार्थरूप-ज्ञानमयभाव से स्व-शुद्धात्मा की प्राप्ति है लक्षण जिसका, ऐसा मोक्ष-पर्यायरूप-ज्ञानमय भाव उत्पन्न होता है । [तम्हा णाणिस्स सव्वे भावा हु णाणमया] इसलिये स्व-संवेदन रूप भेद-ज्ञान वाले जीव के सभी भाव उस ज्ञान के द्वारा संपन्न हुए ज्ञानमय ही होते हैं । क्योंकि उपादान कारण के सदृश कार्य होता है -- यह महापुरुषों की मानी हुई बात है । देखो कि यव (जौ) के बोने पर बासमती चावल पैदा नहीं हो सकता, अपितु जौ के बोने से जौ ही पैदा होता है । इसी प्रकार [अण्णाणमया भावा अण्णाणो चेव जायदे भावो] अज्ञानमय राग-द्वेष विशिष्ट जीव से अज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होता है । इसलिए [तम्हा भावा अण्णाणमया अणाणिस्स] शुद्धात्मा की उपलब्धि से रहित ऐसे अज्ञानी-मिथ्यादृष्टि-जीव के सभी भाव मिथ्यात्व या रागादिरूप-अज्ञानमय-परिणाम ही होते हैं ॥१३६-१३७॥

अब उपर्युक्त कथन को ही दृष्टान्त और दार्ष्टान्त द्वारा समझाते हैं --

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+ दृष्टांत -
कणयमया भावादो जायंते कुण्डलादओ भावा । (130)
अयमयया भावादो जह जायंते दु कडयादी ॥138॥
अण्णाणमया भावा अणाणिणो बहुविहा वि जायंते । (131)
णाणिस्स दु णाणमया सव्वे भावा तहा होंति ॥139॥
कनकमयाद्भावाज्जायंते कुंडलादयो भावा:
अयोयकाद्भावाद्यथा जायंते तु कटकादय: ॥१३०॥
अज्ञानमया भावा अज्ञानिनो बहुविधा अपि जायंते
ज्ञानिनस्तु ज्ञानमया: सर्वे भावास्तथा भवंति ॥१३१॥
स्वर्णनिर्मित कुण्डलादि स्वर्णमय ही हों सदा
लोहनिर्मित कटक आदि लोहमय ही हों सदा ॥१३०॥
इस ही तरह अज्ञानियों के भाव हों अज्ञानमय
इस ही तरह सब भाव हों सद्ज्ञानियों के ज्ञानमय ॥१३१॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे [कणयमया भावादो] सुवर्णमय भाव से [कुण्डलादओ भावा] सुवर्णमय कुंडलादिक भाव [जायंते] उत्पन्न होते हैं [दु] और [अयमयया भावादो] लोहमय भाव से [कडयादी] लोहमयी कड़े इत्यादिक भाव [जायंते] उत्पन्न होते हैं [तहा] उसी प्रकार [अणाणिणो] अज्ञानी के [अण्णाणमया भावा] अज्ञानमय भाव से [बहुविहा वि] अनेक तरह के [अण्णाणमया भावा] अज्ञानमय भाव [जायंते] उत्पन्न होते हैं [दु] परन्तु [णाणिस्स] ज्ञानी के [सव्वे] सभी [णाणमया भावा] ज्ञानमय भाव [होंति] होते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
जैसे कि पुद्गल-द्रव्य स्वयं परिणाम-स्वभावी होने पर भी जैसा कारण हो, उस स्वरूप कार्य होते हैं, अतः सुवर्णमय भाव से सुवर्ण जाति का उल्लंघन न करने वाले होने से सुवर्णमय ही कुंडल आदिक भाव होते हैं, सुवर्ण से लोहमयी कड़ा आदिक भाव नहीं होते । और लोहमय भाव से लोह की जाति को उल्लंघन न करने वाले लोहमय कड़े आदिक भाव होते हैं, लोह से सुवर्णमय कुण्डल आदिक भाव नहीं होते, उसी प्रकार जीव के स्वयं परिणाम-स्वभावरूप होने पर भी 'जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है' इस न्याय से अज्ञानी के स्वयमेव अज्ञानमय भावसे अज्ञान की जाति को नहीं उल्लंघन करने वाले अनेक प्रकार के अज्ञानमय ही भाव होते हैं, ज्ञानमय भाव नहीं होते, और ज्ञानी के ज्ञान की जाति को नहीं उल्लंघन करने वाले सब ज्ञानमय ही भाव होते हैं, अज्ञानमय नहीं होते ।

जयसेनाचार्य :
उपादान-कारण के समान ही कार्य होता है इस सिद्धान्त को लेकर स्वर्णमय पदार्थ से स्वर्णमय कुंडलादिक पर्यायें ही उत्पन्न होती हैं परन्तु लोहे के टुकड़े से लोहमय कड़ा आदि ही बनते हैं । उसी प्रकार पूर्वोक्त लोहे के दृष्टान्त को लेकर अज्ञानमय जीव के अनेक प्रकार की मिथ्यात्व या रागादिक रूप अज्ञानमय अवस्थायें होती हैं, और स्वर्ण के दृष्टान्त से विकार-रहित ज्ञानी जीव के सभी परिणमन ज्ञानमय होते हैं । इस कथन का विस्तार यह है की वीतराग स्व-संवेदनरूप भेद-ज्ञानी जीव जिस शुद्धात्मा के भावना-रूप-परिणाम को करता है वह परिणाम सर्व ही ज्ञानमय होता है, जिससे कि वह संसार की स्थिति को कम करके देवेन्द्र या लौकांतिक आदि सरीखा महद्धिक-देव उत्पन्न होता है, वहाँ दो घडी में ही सुमति, सुश्रुत और अवधिज्ञानरूप ज्ञानमय अवस्था को प्राप्त होता है । तब वह उस प्राप्त हुई विमान और परिवारादि की विभूति को जीर्ण-तृण के समान मानता हुआ पंच-महाविदेह-क्षेत्रों में जाता है, वहाँ वह देखता है की यह समवशरण है, ये वीतराग-सर्वज्ञ-देव हैं, तथा ये सब भेदाभेद रत्नत्रय की आराधना करने वाले गणधरादिक देव हैं, जिनका वर्णन पहले परमागम में सुना था, वे मैं प्रत्यक्ष देख रहा हुँ । ऐसा जानकर वह धर्म में धर्ममय-दृढ़विचारवाला हो जाता है । इस प्रकार चौथे गुणस्थान के योग्य-शुद्धभावना को नहीं छोड़ता हुआ वह उस देवलोक में धर्मध्यान से समय व्यतीत करता है । उसके बाद मनुष्य होते हैं तब राजाधिराज, महाराज, अर्द्धमंडलीक, महामंडलीक, बलदेव, कामदेव, चक्रवर्ती, और तीर्थकर-परमदेव आदि पद के प्राप्त होने पर भी पूर्व-भव की वासना को लिये हुये शुद्धात्म-स्वरूप भेद-भावना के बल से मोह को प्राप्त नहीं होता । जैसे राम और पाण्डव आदि । फलत: वह अन्त तक जिन-दीक्षा को ग्रहण करके सप्तऋद्धि / सात प्रकार की ऋद्धियों सहित, चार-ज्ञानरूप अवस्था को प्राप्त कर लेता है । फिर समस्त प्रकार के पुण्य और पाप-परिणामों के त्याग-स्वरूप-अभेद-रत्नत्रयात्मक-द्वितीय शुक्लध्यानमय-विशिष्ट-भेदज्ञान के बल से अपने आत्मा की भावना से उत्पन्न हुये सुखामृत-रस से तृप्त होकर सब तरह के अतिशयों से परिपूर्ण तथा तीन-लोक के स्वामियों द्वारा भी आराधना करने योग्य एवं परम अचिन्त्य विभूति-विशेष से युक्त केवल-ज्ञानात्मक-पर्याय को प्राप्त कर लेता है । किन्तु अज्ञानी जीव मिथ्यात्व और रागादिमय-अज्ञानभाव को प्राप्त करके नर-नारकादि रूप अवस्था को ही प्राप्त होता रहता है ॥१३८-१३९॥

इस प्रकार ज्ञानमय भाव और अज्ञानमय भाव के कथन की मुख्यता से छह गाथायें पूर्ण हुईं । इसके साथ ही साथ उक्त प्रकार से पुण्य-पापादि सप्त-पदार्थों की पीठिकारूप जो महाधिकार शुरू किया गया था उसमें यह बताते हुये कि कथंचित् परिणामित्व होने पर ही ज्ञानी जीव अपने ज्ञानभाव का और अज्ञानी जीव अपने अज्ञानभाव का कर्ता हो सकता है । इस प्रकार के व्यायाख्यान की मुख्यता से नौ गाथाओं के द्वारा छठा अन्तराधिकार भी समाप्त हो गया ।

अब आगे यह बताते हैं कि वह पूर्वोक्त अज्ञानभाव ही द्रव्य और भावरूपात्मक मिथ्यात्वादि प्रत्ययों के द्वारा पाँच प्रकार का होता है । वह अज्ञानभाव 'शुद्ध आत्मा ही उपादेय है' इस प्रकार की रुचि को नहीं रखने वाले तथा उसी अपनी शुद्धात्मा को स्व-संवेदन ज्ञान के द्वारा नहीं जानने वाले एवं शुद्धात्मा को परम समाधि रूप-निर्विकल्प भाव से नहीं अनुभव करने वाले अज्ञानी जीव के कर्म-बंध का कारण होता है; यह सप्तम महाधिकार में बताया जायेगा उसकी यह उत्थानिका है ।

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+ अज्ञानी अज्ञान-मय भावों द्वारा आगामी भाव-कर्म को प्राप्त होता है -
अण्णाणस्स स उदओ जा जीवाणं अतच्चउवलद्धी । (132)
मिच्छत्तस्स दु उदओ जीवस्स असद्दहाणत्तं ॥140॥
उदओ असंजमस्स दु जं जीवाणं हवेइ अविरमणं । (133)
जो दु कलुसोवओगो जीवाणं सो कसाउदओ ॥141॥
तं जाण जोग उदयं जो जीवाणं तु चिट्ठउच्छाहो । (134)
सोहणमसोहण वा कायव्वो विरदिभावो वा ॥142॥
एदेसु हेदुभूदेसु कम्मइयवग्गणागदं जं तु । (135)
परिणमदे अट्ठविहं णाणावरणादिभावेहिं ॥143॥
तं खलु जीवणिबद्धं कम्मइयवग्गणागदं जइया । (136)
तइया दु होदि हेदू जीवो परिणामभावाणं ॥144॥
अज्ञानस्य स उदयो या जीवानामतत्त्वोपलब्धि:
मिथ्यात्वस्य तूदयो जीवस्याश्रद्दधानत्वम् ॥१३२॥
उदयोऽसंयमस्य तु यज्जीवानां भवेदविरमणम्
यस्तु कलुषोपयोगो जीवानां स कषायोदय: ॥१३३॥
तं जानीहि योगोदयं यो जीवानां तु चेष्टोत्साह:
शोभनोऽशोभनो वा कर्तव्यो विरतिभावो वा ॥१३४॥
एतेषु हेतुभूतेषु कार्मणवर्गणागतं यत्तु
परिणमतेऽष्टविधं ज्ञानावरणादिभावै: ॥१३५॥
तत्खलु जीवनिबद्धं कार्मणवर्गणागतं यदा
तदा तु भवति हेतुर्जीव: परिणामभावानाम् ॥१३६॥
निजतत्त्व का अज्ञान ही बस उदय है अज्ञान का
निजतत्त्व का अश्रद्धान ही बस उदय है मिथ्यात्व का ॥१३२॥
अविरमण का सद्भाव ही बस असंयम का उदय है
उपयोग की यह कलुषिता ही कषायों का उदय है ॥१३३॥
शुभ अशुभ चेष्टा में तथा निवृत्ति में या प्रवृत्ति में
जो चित्त का उत्साह है वह ही उदय है योग का ॥१३४॥
इनके निमित्त के योग से जड़ वर्गणाएँ कर्म की
परिणमित हों ज्ञान-आवरणादि वसुविध कर्म में ॥१३५॥
इस तरह वसुविध कर्म से आबद्ध जिय जब हो तभी
अज्ञानमय निजभाव का हो हेतु जिय जिनवर कही ॥१३६॥
अन्वयार्थ : [जीवाणं] जीवों के [जा] जो [अतच्चउवलद्धी] अन्यथा-स्वरूप का जानना है [स] वह [अण्णाणस्स] अज्ञान का [उदओ] उदय है [दु] और [जीवस्स] जीव के [असद्दहाणत्तं] जो तत्त्व का अश्रद्धान है वह [मिच्छत्तस्स] मिथ्यात्व का [उदओ] उदय है [दु] और [जीवाणं] जीवों के [जं] जो [अविरमणं] अत्यागभाव [हवेइ] है [असंजमस्स] वह असंयम का [उदओ] उदय है [दु] और [जीवाणं] जीवों के जो [कलुसोवओगो] मलिन उपयोग है [सो] वह [कसाउदओ] कषाय का उदय है [जो तु] और जो [जीवाणं] जीवों के [सोहणमसोहण वा] शुभरूप अथवा अशुभरूप [कायव्वो] प्रवृत्तिरूप [वा] अथवा [विरदिभावो] निवृत्ति-रूप [चिट्ठउच्छाहो] मन वचन काय की चेष्टा का उत्साह है [तं] उसे [जोग उदयं] योग का उदय [जाण] जानो । [एदेसु] इनके [हेदुभूदेसु] हेतुभूत होने पर [जं तु] जो [कम्मइयवग्गणागदं] कार्मण-वर्गणागत पुद्गल-द्रव्य [णाणावरणादिभावेहिं अट्ठविहं] ज्ञानावरण आदि भावों से आठ प्रकार [परिणमदे] परिणमन करता है [तं] वह [कम्मइयवग्गणागदं] कार्मणवर्गणागत पुद्गल-द्रव्य [जइया खलु] जब वास्तव में [जीवणिबद्धं] जीव में निबद्ध होता है [तइया दु] उस समय [परिणामभावाणं] उन अज्ञानादिक परिणाम भावों का [हेदू] कारण [जीवो] जीव [होदि] होता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अयथार्थ वस्तु-स्वरूप की उपलब्धि से ज्ञान में स्वादरूप होता हुआ अज्ञान का उदय है । और नवीन कर्मों के हेतुभूत मिथ्यात्व, असंयम, कषाय, योगोदय ये अज्ञानमय चार भाव हैं । उनमें से इन पौद्गलिक मिथ्यात्वादि के उदय-स्वरूप चारों भावों के हेतु-भूत होने पर कार्माण-वर्गणागत पुद्गल-द्रव्य ज्ञानावरणादि भावों से अष्ट प्रकार से स्वयमेव परिणमता है । वह कर्म-वर्गणागत ज्ञानावरणादिक कर्म जब जीव में निबद्ध होता है, तब जीव स्वयमेव अपने अज्ञानभाव से पर और आत्मा के एकत्व का निश्चय कर अज्ञानमय अतत्त्व-श्रद्धानादिक अपने परिणाम-स्वरूप भावों का कारण होता है ।

जयसेनाचार्य :
[एदेसु हेदुभूदेसु कम्मइयवग्गणागदं जं तु] इन निमित्त-भूत मिथ्यात्वादि पाँच प्रत्ययों के होने पर कर्म-वर्गणा-रूप नूतन-पुदगल-द्रव्य [परिणमदे अट्ठविहं णाणावरणादिभावेहिं] जीव के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकतारूप परिणति को लिये हुये जो परम-सामायिक-भाव है, उसके न होने पर ज्ञानावरणादि द्रव्य-कर्म के रूप में आठ-प्रकार का परिणमन करता है । [तं खलु जीवणिबद्धं कम्मइयवग्गणागदं जइया] वह पूर्व सूत्र-कथित कर्म-वर्गणा योग्य नूतन-पुदगल-द्रव्य योग के द्वारा आकर अवश्य ही जीव के साथ में जब सम्बद्ध होता है, [तइया दु होदि हेदू जीवो परिणामभावाणं] उस समय पूर्वकथित उन उदय में आये हुये पाँच-प्रत्ययों के निमित्त-रूप होने पर अपने-अपने गुणस्थान के अनुसार होने वाले अपने परिणाम-भाव-प्रत्ययों का यह जीव कारण बनता है अर्थात उदय में आये हुये द्रव्य-प्रत्ययों के निमित्त से जब यह जीव मिथ्यात्व या रागादिकरूप-भाव-प्रत्ययों के रूप में परिणमन करता है तब नूतन-कर्मबंध का कारण होता है ।

इस कथन का सारांश यह है कि द्रव्य-प्रत्ययों का उदय होने पर यदि यह जीव अपने सहज-स्वभाव को छोड़कर रागादिरूप-भावप्रत्ययों के रूप में परिणमन करता है, तभी नूतन-बंध होता है, केवल द्रव्य-प्रत्ययों के उदयमात्र से किसी भी संकट के समय में भी नूतन-बंध नहीं होता । जैसा कि पाण्डवों के नहीं हुआ । यदि उदयमात्र से ही बंध मान लिया जाये तब तो इस जीव के संसार सदा ही बना रहेगा, क्योंकि संसारी-जीव के कर्म का उदय तो सदा बना ही रहता है ॥१४०-१४४॥

इस प्रकार पुण्य-पापादि सप्त-पदार्थों की पीठिका-रूप इस महाधिकार में पाँच-प्रत्ययों के रूपों से जो शुद्धात्मा के स्वरूप से च्युत होने वाले जीवों के अज्ञानभाव होता है, वही बंध का कारण होता है, इस प्रकार के व्याख्यान की मुख्यता से पाँच गाथाओं द्वारा सातवां उत्तराधिकार समाप्त हुआ ।

अब इसके आगे आठवाँ अधिकार है उसमें जीव और पुदुगल ये दोनों परस्पर में उपादान-कारण नहीं होते इस प्रकार के कथन की मुख्यता से तीन गाथायें हैं । उनमें आचार्यदेव प्रथम यह बताते है कि निश्चय-नय से देखा जाय तो जीव का जो परिणाम है वह कर्म-पुद्गलों से पृथग्भूत ही है ---

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+ जीव का परिणाम पुद्गल-द्रव्य से पृथक् ही है -
जीवस्स दु कम्मेण य सह परिणामा हु होंति रागादी । (137)
एवं जीवो कम्मं च दो वि रागादिमावण्णा ॥145॥
एकस्स दु परिणामो जायदि जीवस्स रागमादीहिं । (138)
ता कम्मोदयहेदूहिं विणा जीवस्स परिणामो ॥146॥
जइ जीवेण सह च्चिय पोग्गलदव्वस्सकम्मपरिणामो । (139)
एवं पोग्गलजीवा हु दो वि कम्मत्तमावण्णा ॥
एकस्स दु परिणामो पोग्गलदव्वस्स कम्मभावेण । (140)
ता जीवभावहेदूहिं विणा कम्मस्स परिणामो ॥147॥
जीवस्य तु कर्मणा च सह परिणामा: खलु भवंति रागादय:
एवं जीव: कर्म च द्वे अपि रागादित्वमापन्ने ॥१३७॥
एकस्य तु परिणामो जायते जीवस्य रागादिभि:
तत्कर्मोदयहेतुभिर्विना जीवस्य परिणाम: ॥१३८॥
यदि जीवेन सह चैव पुद्गलद्रव्यस्य कर्मपरिणाम:
एवं पुद्गलजीवौ खलु द्वावपि कर्मत्वमापन्नौ ॥१३९॥
एकस्य तु परिणाम: पुद्गलद्रव्यस्य कर्मभावेन
तज्जीवभावहेतुभिर्विना कर्मण: परिणाम: ॥१४०॥
इस जीव के रागादि पुद्गलकर्म में भी हों यदी
तो जीववत् जड़कर्म भी रागादिमय हो जायेंगे ॥१३७॥
किन्तु जब जड़कर्म बिन ही जीव के रागादि हों
तब कर्मजड़ पुद्गलमयी रागादिमय कैसे बनें ॥१३८॥
यदि कर्ममय परिणाम पुद्गल द्रव्य का जिय साथ हो
तो जीव भी जड़कर्मवत् कर्मत्व को ही प्राप्त हो ॥१३९॥
किन्तु जब जियभाव बिन ही एक पुद्गल द्रव्य का
यह कर्ममय परिणाम है तो जीव जड़मय क्यों बने ? ॥१४०॥
अन्वयार्थ : [दु जीवस्स] यदि ऐसा माना जाय कि जीव के [रागादी] रागादिक [परिणामा] परिणाम [हु] वास्तव में [कम्मेण य सह] कर्म के साथ [होंति] होते हैं [एवं] इस प्रकार तो [जीवो कम्मं च] जीव और कर्म [दो वि] ये दोनों ही [रागादिमावण्णा] रागादि परिणाम को प्राप्त हो पड़ते हैं । [दु] परन्तु [रागमादीहिं] रागादिकों से [परिणामो] परिणमन तो [एकस्स जीवस्स] एक जीव का ही [जायदि] उत्पन्न होता है [ता] वह [कम्मोदयहेदूहिं विणा] कर्म के उदयरूप कारण से पृथक् [जीवस्स परिणामो] जीव का ही परिणाम है । [जइ] यदि [जीवेण सह च्चिय] जीव के साथ ही [पोग्गलदव्वस्सकम्मपरिणामो] पुद्गल-द्रव्य का कर्मरूप परिणाम होता है, तो [एवं] इस प्रकार [पोग्गलजीवा दो वि] पुद्गल और जीव दोनों [हु] ही [कम्मत्तमावण्णा] कर्मत्व को प्राप्त हो जावेंगे [दु] परंतु [कम्मभावेण] कर्मरूप से [परिणामो] परिणाम [एकस्स] एक [पोग्गलदव्वस्स] पुद्गल-द्रव्य का होता है [ता] इसलिये [जीवभावहेदूहिं विणा] जीवभाव कारण से पृथक् [कम्मस्स] कर्म का [परिणामो] परिणाम है ।

अमृतचंद्राचार्य :
यदि जीव का रागादि अज्ञान परिणाम अपने निमित्त-भूत उदय में आये हुए पुद्गल-कर्म के साथ ही होता है, यह तर्क किया जाय तो हल्दी और फिटकरी की भाँति याने जैसे रंग में हल्दी और फिटकरी साथ डालने से उन दोनों का एक रंग-स्वरूप परिणाम होता है वैसे ही जीव और पुद्गल-कर्म दोनों के ही रागादि अज्ञान-परिणाम का प्रसंग आ जायगा (किन्तु ऐसा तथ्य नहीं है) । यदि रागादि अज्ञान-परिणाम एक जीव के ही माना जाय तो इस मन्तव्य से ही यह सिद्ध हुआ कि पुद्गल-कर्म का उदय जो कि जीव के रागादि अज्ञान परिणामों का कारण है, उससे पृथग्भूत ही जीव का परिणाम है ।

यदि पुद्गल-द्रव्य का कर्म-परिणाम उसके निमित्त-भूत रागादि अज्ञान-परिणाम रूप परिणत जीव के साथ ही होता है, इस प्रकार तर्क उपस्थित किया जाय तो जैसे मिली हुई हल्दी और फिटकरी दोनों का साथ ही लाल रंग का परिणाम होता है, उसी प्रकार पुद्गल-द्रव्य और जीव दोनों के ही कर्म-परिणाम की प्राप्ति का प्रसंग आ जायगा, किन्तु एक पुद्गल-द्रव्य के ही कर्मत्व परिणाम होता है । इस कारण कर्म-बन्ध के निमित्त-भूत जीव के रागादि-स्वरूप अज्ञान-परिणाम से पृथक् ही पुद्गल-कर्म का परिणाम है ।

जयसेनाचार्य :
[जीवस्स दु कम्मेण य सह परिणामा हु होंति रागादी] रागादि भाव जो होते हैं उनका उपादान कारण जीव होता है, कर्म का उदय नहीं, किन्तु कर्मोदय तो निमित्त-रूप से उसके साथ रहता है । यदि कर्मोदय को भी रागादि का उपादान कारण मान लिया जाये तब तो [एवं जीवो कम्मं च दो वि रागादिमावण्णा] जीव और पुद्गल इन दोनों में ही रागादिक होते हुए प्रतीत होने चाहिये । जैसे कि चूना और हल्दी इन दोनों के मेल से पैदा हुई लालिमा दोनों की होती है । वैसे ही कर्म और जीव दोनों ही रागादि के उपादान कारण हों तो दोनों में राग भाव आना चाहिये । ऐसा होने पर फिर पुद्गल को भी चेतनपना प्राप्त हो जाता है, जो कि प्रत्यक्ष में विरुद्ध है ।

[एकस्स दु परिणामो जायदि जीवस्स रागमादीहिं] और उपर्युक्त दोष से बचने के लिये यदि ऐसा कहा जाये कि रागादिक परिणाम उपादानभूत एक जीव का ही परिणाम है, उसमें कर्मोदय का कुछ भी हाथ नहीं है । [ता कम्मोदयहेदूहिं विणा जीवस्स परिणामो] तब तो फिर कर्मोदय के न होने पर शुद्ध-जीव में भी वह रागादि रूप परिणाम पाया जाना चाहिये, जो कि प्रत्यक्ष व आगम इन दोनों के विरुद्ध है । अथवा दूसरी प्रकार से ऐसा भी कहा जा सकता है कि, उपादान रूप में तो रागादि भावों का कारण जीव ही होता है, कर्मोदय रागादिक में उपादान कारण नहीं होता, यह ठीक ही है ।

सारांश यह है कि द्रव्य-कर्मों का कर्ता तो यह जीव अनुपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय से होता है और रागादि भाव-कर्मों का कर्ता अशुद्ध-निश्चयनय से होता है । अशुद्ध-निश्चयनय जीव को द्रव्य-कर्मों का कर्त्तापना बताने वाले अनुपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय की अपेक्षा से यद्यपि निश्चय नाम को पाता है, फिर भी शुद्धात्म-द्रव्य को विषय करने वाले शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा से वह वास्तव में व्ययवहार-नय ही माना गया है ।

आगे बताते हैं कि पुद्गल कर्म का जो परिणाम है वह वास्तव में जीव से पृथक् ही है --

[एकस्स दु परिणामो पोग्गलदव्वस्स कम्मभावेण] उपादानभूत कर्मवर्गणा-योग्य अकेले पुदगल-द्रव्य का ही परिणमन कर्मरूप में होता हो तो, [ता जीवभावहेदूहिं विणा कम्मस्स परिणामो] फिर जीव में होने वाले मिथ्यात्व और रागादिरूप-परिणामों के उपादान-हेतुभूत जीव के विकारीभाव उनके बिना भी पुद्गलों का द्रव्य-कर्म-रूप परिणाम हो जाना चाहिये । किन्तु ऐसा होता नहीं है । इसलिये वहाँ पर निमित्त-रूप से जीव के विकारीभावों को मानना ही पड़ता है; फिर भी कर्मरूप-परिणमन तो कार्मण द्रव्यरूप-पुद्गलों का ही होता है । जो कि वास्तव में जीव के रागादि भावों से भिन्न होता है ॥१४५-१४७॥

इस प्रकार पुण्य-पापादि सप्त-पदार्थों की पीठिका रूप इस महाधिकार में जीव और पुद्गल का परस्पर में उपादान-उपादेय भाव नहीं है, इस प्रकार का कथन करने वाली तीन गाथाओं के द्वारा आठवां अंतराधिकार समाप्त हुआ । अब इसके आगे नवम अधिकार में आचार्यदेव चार गाथाओं से शुद्ध-समयसार का कथन करते हैं की, यह जीव शुद्ध पारिणामिक रूप परमभाव ग्राहक शुद्ध-द्रव्यार्थिकनय से पुण्य-पापादि पदार्थों से भिन्न ही है जो कि व्यवहारनय से कर्मों से बंधा हुआ है किन्तु निश्चय-नय से बंधा हुआ नहीं है; इत्यादि विकल्प रूप नय पक्षपात से भी रहित है ।

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+ आत्मा में कर्म बद्धस्पृष्ट है कि अबद्धस्पृष्ट ? -
जीवे कम्मं बद्धं पुट्ठं चेदि ववहारणयभणिदं । (141)
सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्धपुट्ठं हवदि कम्मं ॥148॥
जीवे कर्म बद्धं स्पृष्टं चेति व्यवहारनयभणितम्
शुद्धनयस्य तु जीवे अबद्धस्पृष्टं भवति कर्म ॥१४१॥
कर्म से आबद्ध जिय यह कथन है व्यवहार का
पर कर्म से ना बद्ध जिय यह कथन है परमार्थ का ॥१४१॥
अन्वयार्थ : [जीवे कम्मं बद्धं] जीव में कर्म बँधा हुआ है [च पुट्ठं] तथा छुआ हुआ है [इदि ववहारणयभणिदं] ऐसा व्यवहारनय कहता है [दु जीवे कम्मं] और जीव में कर्म [अबद्धपुट्ठं हवदि] न बँधा है, न छुआ है ऐसा [सुद्धणयस्स] शुद्धनय का कथन है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जीव और पुद्गल-कर्म को एक बंध-पर्याय-रूप से देखने पर उस समय भिन्नता का अभाव होने से जीव में कर्म बँधे हैं और छुए हैं ऐसा कहना तो व्यवहारनय का पक्ष है और जीव तथा पुद्गल-कर्म के अनेक-द्रव्यपना होने से अत्यन्त भिन्नता है, अतः जीव में कर्म बद्धस्पृष्ट नहीं है, ऐसा कथन निश्चयनय का पक्ष है ।

जयसेनाचार्य :
आगे जब शिष्य ने प्रश्न किया कि आत्मा कर्मों से बद्ध है या नहीं है, और बद्ध है तो कौन से नय से है तथा अबद्ध है तो कौन से नय से है उसका उत्तर देते हुये आचार्य कहते हैं --

[जीवे कम्मं बद्धं पुट्ठं चेदि ववहारणयभणिदं] कर्म अधिकरणभूत जीव में नीर और क्षीर की तरह एकमेक होकर सम्बद्ध हैं, परस्पर मिले हुये हैं तथा योग मात्र के द्वारा आत्मा में लगे हैं, यह व्यवहारनय का अभिप्राय है । [सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्धपुट्ठं हवदि कम्मं] शुद्ध-नय के अभिप्राय से अधिकरण रूप जीव में कर्म न तो बद्ध ही हैं और न स्पृष्ट ही हैं । इस प्रकार निश्चयनय और व्यवहारनय इन दोनों नयों से उत्पन्न होने वाला विकल्प वास्तव में शुद्धात्मा का स्वरूप नहीं है ॥१४८॥

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+ नयविभाग जानने से क्या होता है ? -
कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाण णयपक्खं । (142)
पक्खादिक्कंतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो ॥149॥
कर्म बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जानीहि नयपक्षम्
पक्षातिक्रांत: पुनर्भण्यते य: स समयसार: ॥१४२॥
अबद्ध है या बद्ध है जिय यह सभी नयपक्ष हैं
नयपक्ष से अतिक्रान्त जो वह ही समय का सार है ॥१४२॥
अन्वयार्थ : [जीवे] जीवमें [कम्मं बद्धमबद्धं] कर्म बँधा हुआ है अथवा नहीं बँधा हुआ है [एवं तु] इस प्रकार तो [णयपक्खं] नयपक्ष [जाण] जानो [पुण जो] और जो [पक्खादिक्कंतो] पक्ष से पृथक् हुआ [भण्णदि] कहा जाता है [सो समयसारो] वह समयसार है, निर्विकल्प आत्म-तत्त्व है।

अमृतचंद्राचार्य :
जीव में कर्म बँधा हुआ है ऐसा कहना तथा जीव में कर्म नहीं बँधा हुआ है ऐसा कहना ये दोनों ही विकल्प नयपक्ष हैं । जो इस नयपक्ष के विकल्प को लांघ जाता है अर्थात् छोड़ देता है, वही समस्त विकल्पों से दूर रहता हुआ स्वयं निर्विकल्प एक विज्ञान-घन-स्वभाव-रूप होकर साक्षात् समयसार हो जाता है । वहाँ जो जीव में कर्म बँधा है ऐसा विकल्प करता है वह 'जीव में कर्म नहीं बँधा है' ऐसे एक पक्ष को छोड़ता हुआ भी विकल्प को नहीं छोड़ता । और जो जीवमें कर्म नहीं बँधा है, ऐसा विकल्प करता है वह 'जीव में कर्म बँधा है' ऐसे विकल्प रूप एक पक्ष को छोड़ता हुआ भी विकल्प को नहीं छोड़ता, और जो 'जीव में कर्म बँधा भी है तथा नहीं भी बँधा है' ऐसा विकल्प करता है वह उन दोनों ही नयपक्षों को नहीं छोड़ता हुआ विकल्प को नहीं छोड़ता । इसलिये जो सभी नयपक्षों को छोड़ता है, वही समस्त विकल्पों को छोड़ता है तथा वही समयसार को जानता है, अनुभवता है ।

(कलश-सोरठा)
जो निज से निज माहिं, छोड़ सभी नय पक्ष को ।
करे सुधारस पान, निर्विकल्प चित शान्त हो ॥६९॥

[ये एव नयपक्षपातं मुक्त्वा] जो नयपक्षपात को छोड़कर [स्वरूपगुप्ताः नित्यम् निवसन्ति] स्वरूप में गुप्त होकर सदा निवास करते हैं [ते एव विकल्पजालच्युतशान्तचित्ताः] वे ही जिनका चित्त विकल्पजाल से रहित शान्त होने से [साक्षात् अमृतं पिबन्ति] साक्षात् अमृत को पीते हैं ।

(कलश--रोला)
एक कहे ना बँधा दूसरा कहे बँधा है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥७०॥

[बद्धः एकस्य] बँधा हुआ है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं बँधा हुआ है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चैतन्य को लेकर [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो कथन के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं] उसके लिए निरन्तर [चित् खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप जीव चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--रोला)
एक कहे ना मूढ़ दूसरा कहे मूढ़ है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥७१॥

[मूढः एकस्य] मूढ़ (मोही) है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चेतना के सम्बन्ध में [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो नयों के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं चित्] उसे निरन्तर चैतन्य [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--रोला)
एक कहे ना रक्त दूसरा कहे रक्त है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥७२॥

[रक्तः एकस्य] रागी है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चेतना के सम्बन्ध में [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो नयों के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं] उसे निरन्तर चैतन्य [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--रोला)
एक कहे ना दुष्ट दूसरा कहे दुष्ट है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥७३॥

[दुष्टः एकस्य] द्वेषी है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चेतना के सम्बन्ध में [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो नयों के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं] उसे निरन्तर चैतन्य [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--रोला)
एक अकर्ता कहे दूसरा कर्ता कहता,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥७४॥

[कर्ता एकस्य] कर्ता है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चेतना के सम्बन्ध में [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो नयों के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं] उसे निरन्तर चैतन्य [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--रोला)
एक अभोक्ता कहे दूसरा भोक्ता कहता,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥७५॥

[भोक्ता एकस्य] भोक्ता है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चेतना के सम्बन्ध में [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो नयों के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं] उसे निरन्तर चैतन्य [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--रोला)
एक कहे ना जीव दूसरा कहे जीव है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥७६॥

[जीव एकस्य] जीव है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चेतना के सम्बन्ध में [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो नयों के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं] उसे निरन्तर चैतन्य [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--रोला)
एक कहे ना सूक्ष्म दूसरा कहे सूक्ष्म है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥७७॥

[सूक्ष्म एकस्य] सूक्ष्म है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चेतना के सम्बन्ध में [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो नयों के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं] उसे निरन्तर चैतन्य [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--रोला)
एक कहे ना हेतु दूसरा कहे हेतु है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥७८॥

[हेतु एकस्य] कारण है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चेतना के सम्बन्ध में [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो नयों के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं] उसे निरन्तर चैतन्य [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--रोला)
एक कहे ना कार्य दूसरा कहे कार्य है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥७९॥

[कार्य एकस्य] कार्य है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चेतना के सम्बन्ध में [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो नयों के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं] उसे निरन्तर चैतन्य [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--रोला)
एक कहे ना भाव दूसरा कहे भाव है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥८०॥

[भाव एकस्य] भाव है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चेतना के सम्बन्ध में [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो नयों के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं] उसे निरन्तर चैतन्य [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--रोला)
एक कहे ना एक दूसरा कहे एक है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥८१॥

[एक एकस्य] एक है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चेतना के सम्बन्ध में [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो नयों के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं] उसे निरन्तर चैतन्य [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--रोला)
एक कहे ना सान्त दूसरा कहे सान्त है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥८२॥

[सांत एकस्य] अन्त सहित है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चेतना के सम्बन्ध में [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो नयों के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं] उसे निरन्तर चैतन्य [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--रोला)
एक कहे ना नित्य दूसरा कहे नित्य है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥८३॥

[नित्य एकस्य] नित्य है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चेतना के सम्बन्ध में [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो नयों के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं] उसे निरन्तर चैतन्य [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--रोला)
एक कहे ना वाच्य दूसरा कहे वाच्य है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥८४॥

[वाच्य एकस्य] वाच्य (कहा जा सके) है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चेतना के सम्बन्ध में [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो नयों के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं] उसे निरन्तर चैतन्य [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--रोला)
नाना कहता एक दूसरा कहे अनाना,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥८५॥

[नाना एकस्य] नानारूप है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चेतना के सम्बन्ध में [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो नयों के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं] उसे निरन्तर चैतन्य [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--रोला)
एक कहे ना चेत्य दूसरा कहे चेत्य है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥८६॥

[चेत्य एकस्य] चेत्य (चेता जा सके) है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चेतना के सम्बन्ध में [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो नयों के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं] उसे निरन्तर चैतन्य [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--रोला)
एक कहे ना दृश्य दूसरा कहे दृश्य है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥८७॥

[द्रश्य एकस्य] दृश्य (देखा जा सके) है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चेतना के सम्बन्ध में [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो नयों के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं] उसे निरन्तर चैतन्य [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--रोला)
एक कहे ना वेद्य दूसरा कहे वेद्य है,
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥८८॥

[वेद्य एकस्य] वेद्य (वेदा जा सके) है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चेतना के सम्बन्ध में [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो नयों के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं] उसे निरन्तर चैतन्य [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--रोला)
एक कहे ना भात दूसरा कहे भात है
किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है ।
पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं,
उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥८९॥

[भात: एकस्य] भात (प्रकाशमान अर्थात् वर्तमान प्रत्यक्ष) है ऐसा एक और [न तथा परस्य] नहीं है ऐसा दूसरा, [इति चिति] इसप्रकार चेतना के सम्बन्ध में [द्वयोः द्वौ पक्षपातौ] दो नयों के दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपात-रहित है [तस्य नित्यं] उसे निरन्तर चैतन्य [खलु चित् एव अस्ति] चित्स्वरूप ही है ।

(कलश--हरिगीत)
उठ रहा जिसमें अनन्ते विकल्पों का जाल है ।
वह वृहद् नयपक्षकक्षा विकट है विकराल है ॥
उल्लंघन कर उसे बुध अनुभूतिमय निजभाव को ।
हो प्राप्त अन्तर्बाह्य से समरसी एक स्वभाव को ॥९०॥

[एवं स्वेच्छा-समुच्छलद्-अनल्प-विकल्प-जालाम्] इसप्रकार जिसमें बहुत से विकल्पों का जाल अपने आप उठता है ऐसी [महतीं नयपक्षकक्षाम् व्यतीत्य] बड़ी नय-पक्ष कक्षा को (नयपक्ष की भूमि को) उल्लंघन करके (तत्त्ववेत्ता) [अन्तः बहिः समरसैकरसस्वभावं] भीतर और बाहर समता-रसरूपी एक रस ही जिसका स्वभाव है ऐसे [अनुभूतिमात्रम् एकम् स्वं भावम् उपयाति] अनुभूतिमात्र एक अपने भाव को ( स्वरूपको) प्राप्त करता है ।

(कलश--दोहा)
इन्द्रजाल से स्फुरें, सब विकल्प के पुंज ।
जो क्षणभर में लय करे, मैं हूँ वह चित्पुंज ॥९१॥

[पुष्कल-उत्-चल-विकल्प-वीचिभिः उच्छलत्] विपुल, महान, चञ्चल विकल्परूपी तरंगों के द्वारा उठते हुए [इद्म् एवम् कृत्स्नम् इन्द्रजालम्] इस समस्त इन्द्रजाल को [यस्य विस्फुरणम् एव] जिसका स्फुरण मात्र ही [तत्क्षणं अस्यति] तत्क्षण उड़ा देता है [तत् चिन्महः अस्मि] वह चिन्मात्र तेजःपुञ्ज मैं हूँ ।

जयसेनाचार्य :
जब कि बद्धादि-विकल्परूप व्यवहारनय का पक्ष है और अबद्धादि-विकल्परूप निश्चयनय का पक्ष है; किन्तु पारिणामिक-परमभाव का ग्राहक शुद्ध-द्रव्यार्थिकनय के द्वारा देखने पर जीव बद्धाबद्धादिरूप विकल्प से सर्वथा दूर है ऐसा कथन करते हैं --

[कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाण णयपक्खं] अधिकरणभूत जीव में कर्म सम्बद्ध हैं, और सम्बद्ध नहीं हैं, ऐसा कथन तो एक-सुनय का पक्ष है । [पक्खादिक्कंतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो] किन्तु शुद्धात्म-तत्त्व का वास्तविक स्वरूप जो कि समयसार नाम से कहा जाता है वह तो इन दोनों पक्षों से भिन्न प्रकार का ही है; क्योंकि व्यवहारनय के कहने के अनुसार जीव कर्मों से बंधा हुआ है जो कि शुद्ध-जीव का स्वरूप नहीं है और निश्चयनय से जीव कर्मों से अबद्ध है, यह भी नय का विकल्प है जो कि शुद्ध-जीव का स्वरूप नहीं है इसलिये निश्चय और व्यवहार के द्वारा जीव को बद्ध या अबद्ध कहना, यह जीवमात्र का स्वरूप नहीं है -- यह नय का विकल्प है ।

नय जितने भी होते हैं वे सब श्रुतज्ञान के विकल्परूप होते हैं; यह सिद्धान्त की बात है, और श्रुतज्ञान है सो क्षायोपशमिक है; वह क्षयोपशम, ज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशम से प्रकट होने के कारण यद्यपि व्यवहारनय के द्वारा छद्मस्थ जीव की अपेक्षा से जीव का स्वरूप होता है तथापि केवलज्ञान की अपेक्षा से वह शुद्ध-जीव का स्वरूप नहीं है तब फिर जीव का स्वरूप क्या है ? इस प्रश्न के होने पर आचार्य उत्तर देते हुये कहते हैं कि -- पक्षपात से रहित जो स्व-संवेदन-ज्ञानी जीव है उसके विचारानुसार जीव का स्वरूप बद्धाबद्ध या मूढामूढ आदि नय के विकल्पों से रहित चिदानंद-स्वरूप होता है जैसा कि आत्मख्यातिकार ने कहा है, जो लोग नय के पक्षपात को छोड़कर सदा अपने आपके स्वरूप में तल्लीन रहते हैं एवं सभी प्रकार के विकल्पजाल से रहित शांत-चित्त वाले होते हैं, वे लोग ही साक्षात अमृत का / समयसार का, व्यवहारनय उन दोनों नयों के पक्षपात से रहित होने के कारण, [ण दु णयपक्खं गिण्हदि किंचिवि] पान करते हैं । जीव व्यवहारनय की अपेक्षा से बद्ध होता है और निश्चयनय की अपेक्षा से वह बद्ध नहीं होता अत: यह इन दोनों नयों के विचार में अपना-अपना पक्षपात है ।

इसलिए पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी पुरुष के ज्ञान में तो चेतन, चेतन ही है । बात यहाँ ऐसी है कि आगम के व्याख्यान के समय मनुष्य की बुद्धि निश्चय और व्यवहार इन दोनों नय को लेकर चलती है, किन्तु तत्त्व को जान लेने के बाद स्वस्थ हो जाने पर ऊहापोहात्मक बुद्धि दूर हो जाती है । निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों के द्वारा हेय और उपादेय-तत्त्व का निर्णय कर लेने पर हेय का त्याग करके उपादेय-तत्व में लगे रहना साधु-संतों को अभीष्ट है ॥१४९॥

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+ पक्षातिक्रान्त ज्ञानी का क्या स्वरूप है ? -
दोण्ह वि णयाण भणिदं जाणदि णवरं तु समयपडिबद्धो । (143)
ण दु णयपक्खं गिण्हदि किंचि वि णयपक्खपरिहीणो ॥150॥
द्वयोरपि नययोर्भणितं जानाति केवलं तु समयप्रतिबद्ध:
न तु नयपक्षं गृह्णाति किंचिदपि नयपक्षपरिहीन: ॥१४३॥
दोनों नयों को जानते पर ना ग्रहे नयपक्ष को
नयपक्ष से परिहीन पर निज समय से प्रतिबद्ध वे ॥१४३॥
अन्वयार्थ : [णयपक्खपरिहीणो] नयपक्ष से रहित [समयपडिबद्धो] अपने शुद्धात्मा से प्रतिबद्ध ज्ञानी पुरुष [दोण्ह वि] दोनों ही [णयाण] नयों के [भणिदं] कथन को [णवरं] केवल [जाणदि तु] जानता ही है [दु] परन्तु [णयपक्खं] नयपक्ष को [किंचि वि] किंचितमात्र भी [ण गिण्हदि] नहीं ग्रहण करता ।

अमृतचंद्राचार्य :
जैसे केवली भगवान विश्व-साक्षी होने से श्रुतज्ञान के अवयव-भूत व्यवहार निश्चय-नय के पक्ष-रूप दो नय के स्वरूप को केवल जानते ही हैं, परन्तु किसी भी नय के पक्ष को ग्रहण नहीं करते, क्योंकि केवली भगवान निरंतर सतुल्लसित स्वाभाविक निर्मल केवलज्ञान-स्वभाव हैं, इसलिये नित्य ही स्वयमेव विज्ञान-घन-स्वरूप हैं, और इसी कारण श्रुतज्ञान की भूमिका से अतिक्रान्त होने के कारण समस्त नयपक्षों के परिग्रह से दूरवर्ती हैं उसी प्रकार जो श्रुतज्ञान के अवयवभूत व्यवहार निश्चय-रूप दोनों नयों के स्वरूप को क्षयोपशम विजृम्भित श्रुतज्ञान-स्वरूप विकल्पों की उत्पत्ति होने पर भी ज्ञेयों के ग्रहण करने में उत्सुकता की निवृत्ति होने से केवल जानता है, परन्तु तीक्ष्ण ज्ञान-दृष्टि से ग्रहण किये गये निर्मल नित्य उदित चैतन्य-स्वरूप अपने शुद्धात्मा से प्रतिबद्धता के कारण उस स्वरूप के अनुभवने के समय स्वयमेव केवली की तरह विज्ञान-घन-रूप होने से श्रुतज्ञान-स्वरूप समस्त अंतरंग और बाह्य अक्षर-स्वरूप विकल्प की भूमिका से अतिक्रांत होने से समस्त नयपक्ष को ग्रहण नहीं करता है । वह मति-श्रुत-ज्ञानी भी निश्चय से समस्त विकल्पों से दूरवर्ती परमात्मा, ज्ञानात्मा, प्रत्यग्ज्योति, आत्मख्यातिरूप अनुभूतिमात्र समयसार है ।

(कलश--रोला)
मैं हूँ वह चित्पुंज कि भावाभावभावमय ।
परमारथ से एक सदा अविचल स्वभावमय ॥
कर्मजनित यह बंधपद्धति करूँ पार मैं ।
नित अनुभव यह करूँ कि चिन्मय समयसार मैं ॥९२॥

[चित्स्वभाव-भर-भावित-भाव-अभाव-भाव-परमार्थतया एकम्] चित्-स्वभाव के पुंज द्वारा ही अपने उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य किये जाते हुए भी जो एक है ऐसे [अपारम् समयसारम्] अपार समयसार को [समस्तां बन्धपद्धतिम्] समस्त बन्ध-पद्धति (विकल्प जाल) को [अपास्य चेतये] दूर करके अनुभव करता हूँ ।

जयसेनाचार्य :
अब आचार्यदेव नयपक्ष से दूरवर्ती शुद्धजीव के स्वरूप को कहते हैं --

[दोण्ह वि णयाण भणिदं जाणदि] जो कोई नयों के पक्षपात से दूर स्व-संवेदन-ज्ञानी है वह बद्ध-अबद्ध, मूढ-अमूढ आदि नय के विकल्पों से रहित चिदानंदमयी एक स्वभाव को उसी प्रकार जानता है जैसा भगवान केवली, निश्चयनय तथा व्यवहारनय के विषय द्रव्य-पर्याय रूप अर्थ को जानते हैं । [णवरं तु समयपडिबद्धो] किन्तु सहज परमानन्द स्वभाव जो शुद्धात्मा उसके अधीन होते हुए केवली भगवान, [णयपक्खपरिहीणो] निरन्तर केवलज्ञान के रूप में वर्तमान होने से श्रुत-ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले विकल्प जाल रूप जो निश्चयनय और व्यवहारनय किसी भी नय के पक्ष रूप विकल्प को कभी स्वीकार नहीं करते अर्थात् उसे छूते भी नहीं हैं । वैसे ही गणधरदेव आदि छद्मस्थ महर्षि लोग भी दोनों नयों के द्वारा बताये हुए वस्तु के स्वरूप को जानते अवश्य हैं फिर भी चिदानन्दैक स्वभावरूप शुद्धात्मा के अधीन होते हुये अर्थात शुद्धात्म-स्वरूप का अनुभव करने में लीन होते हुए श्रुत-ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न विकल्पों का जालरूप जो दोनों नयों का पक्षपात उससे शुद्ध-निश्चय के द्वारा दूर होकर नय के पक्षपात रूप विकल्प को निर्विकल्प समाधिकाल में अपने आत्मरूप से ग्रहण नहीं करते हैं ॥१५०॥

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+ पक्ष से दूरवर्ती ही समयसार है -
सम्मद्दंसणणाणं एसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं । (144)
सव्वणयपक्खरहिदो भणिदो जो सो समयसारो ॥151॥
सम्यग्दर्शनज्ञानमेष लभत इति केवलं व्यपदेशम्
सर्वनयपक्षरहितो भणितो य: स समयसार: ॥१४४॥
विरहित सभी नयपक्ष से जो वह समय का सार है
है वही सम्यग्ज्ञान एवं वही समकित सार है ॥१४४॥
अन्वयार्थ : जो [सव्वणयपक्खरहिदो] सब नयपक्षों से रहित है [सो समयसारो] वही समयसार [भणिदो] कहा गया है । [एसो] यह समयसार ही [णवरि] केवल [सम्मद्दंसणणाणं] सम्यग्दर्शन ज्ञान [त्ति] ऐसे [ववदेसं] नाम को [लहदि] पाता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जो निश्चय से समस्त नय-पक्ष से खण्डित न होने से जिसमें समस्त विकल्पों के व्यापार विलय हो गए हैं, ऐसा समयसार शुद्ध स्वरूप है सो यही एक केवल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ऐसे नाम को पाता है । ये परमार्थ से एक ही हैं, क्योंकि आत्मा, प्रथम तो श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञान-स्वभाव आत्मा का निश्चय कर, पीछे निश्चय से आत्मा की प्रकट प्रसिद्धि होने के लिए पर-पदार्थ की ख्याति होने के कारण-भूत इन्द्रिय और मन के द्वारा हुई प्रवृत्ति-रूप बुद्धि को गौण कर जिसने मति-ज्ञान का स्वरूप आत्मा के सन्मुख किया है ऐसा होता हुआ तथा नाना प्रकार के नयों के पक्षों को अवलम्बन कर अनेक विकल्पों से आकुलता उत्पन्न कराने वाली श्रुतज्ञान की बुद्धि को भी गौण कर तथा श्रुत-ज्ञान को भी आत्म-तत्त्व के स्वरूप में सन्मुख करता हुआ अत्यन्त निर्विकल्प-रूप होकर तत्काल अपने निजरस से से ही प्रकट हुआ आदि, मध्य और अन्त के भेद से रहित अनाकुल एक (केवल) समस्त पदार्थ समूह-रूप लोक के ऊपर तैरते की तरह अखंड प्रतिभास-मय, अविनाशी, अनन्त विज्ञान-घन परमात्म-स्वरूप समयसार को ही अनुभवता हुआ सम्यक् प्रकार देखा जाता है, श्रद्धान किया जाता है, सम्यक् प्रकार जाना जाता है । इस कारण सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान समयसार ही है ।

(कलश--हरिगीत)
यह पुण्य पुरुष पुराण सब नयपक्ष बिन भगवान है ।
यह अचल है अविकल्प है बस यही दर्शन ज्ञान है ॥
निभृतजनों का स्वाद्य है अर जो समय का सार है ।
जो भी हो वह एक ही अनुभूति का आधार है ॥९३॥

[नयानां पक्षैः विना] नयों के पक्षों के रहित, [अचलं अविकल्पभावम् आक्रामन्]अचल निर्विकल्पभाव को प्राप्त होता हुआ [यः समयस्य सारः भाति] जो समय (आत्मा) का सार प्रकाशित होता है [सः एषः] वह यह [निभृतैःस्वयम् आस्वाद्यमानः] निभृत (निश्चल, आत्मलीन) पुरुषों के द्वारा स्वयं अनुभवमें आता है, [विज्ञान-एक-रसः भगवान्] विज्ञान ही जिसका एक रस है ऐसा भगवान् है, [पुण्यः पुराणः पुमान्] पवित्र पुराण पुरुष है; उसे [ज्ञानं दर्शनम् अपि अयं] ज्ञान दर्शन भी यह [अथवा किम्] अथवा क्या कहें ? [यत् किंचन अपि अयम् एकः] जो कुछ है सो यह एक ही है ।

(कलश--हरिगीत )
निज औघ से च्युत जिसतरह जल ढालवाले मार्ग से ।
बलपूर्वक यदि मोड़ दें तो आ मिले निज औघ से ॥
उस ही तरह यदि मोड़ दें बलपूर्वक निजभाव को ।
निजभाव से च्युत आत्मा निजभाव में ही आ मिले ॥९४॥

[तोयवत्] पानी के जैसे [अयं निज-ओघात् च्युतः] यह (आत्मा) अपने विज्ञानघन स्वभाव से च्युत होकर [भूरि-विकल्प-जाल-गहने दूरं भ्राम्यन्] प्रचुर विकल्पजालों के गहन वन में दूर परिभ्रमण कर रहा था उसे [दूरात् एव विवेक-निम्न-गमनात्] दूर से ही विवेकरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा [निज-ओघं बलात् नीतः] अपने विज्ञानघन-स्वभाव की ओर बलपूर्वक मोड़ दिया गया; इसलिए [तद्-एक-रसिनाम्] केवल विज्ञानघन के ही रसिक पुरुषों को [विज्ञान-एक-रसः आत्मा] जो एक विज्ञान रसवाला ही अनुभव में आता हुआ आत्मा, [आत्मानम् आत्मनि एव आहरन्] आत्मा को आत्मा में ही खींचता हुआ [सदा गतानुगतताम् आयाति] सदा विज्ञानघन स्वभाव में आ मिलता है ।

(कलश--रोला)
है विकल्प ही कर्म विकल्पक कर्ता होवे ।
जो विकल्प को करे वही तो कर्ता होवे ॥
नित अज्ञानी जीव विकल्पों में ही होवे ।
इस विधि कर्ताकर्मभाव का नाश न होवे ॥९५॥

[विकल्पकः परं कर्ता] विकल्प करनेवाला ही कर्ता है और [विकल्पः केवलम् कर्म] विकल्प ही केवल कर्म है; [सविकल्पस्य कर्तृकर्मत्वं] विकल्प-सहित का कर्ता-कर्मभाव [जातु नश्यति न] नष्ट नहीं होता ।

(कलश--रोला)
जो करता है वह केवल कर्ता ही होवे ।
जो जाने बस वह केवल ज्ञाता ही होवे ॥
जो करता वह नहीं जानता कुछ भी भाई ।
जो जाने वह करे नहीं कुछ भी हे भाई ॥९६॥

[यः करोति सः केवलं करोति] जो करता है सो केवल करता ही है [तु यः वेत्ति सः तु केवलम् वेत्ति] और जो जानता है सो केवल जानता ही है; [यः करोति सः क्वचित् न हि वेत्ति] जो करता है वह कभी जानता नहीं [तु यः वेत्ति सः क्वचित् न करोति] और जो जानता है वह कभी करता नहीं ।

(कलश--रोला)
करने रूप क्रिया में जानन भासित ना हो ।
जानन रूप क्रिया में करना भासित ना हो ॥
इसीलिए तो जानन-करना भिन्न-भिन्न हैं ।
इसीलिए तो ज्ञाता-कर्ता भिन्न-भिन्न हैं ॥९७॥

[करोतौ अन्तः ज्ञप्तिः न हि भासते] करनेरूप क्रिया के भीतर जाननेरूप क्रिया भासित नहीं होती [च ज्ञप्तौ अन्तः करोतिः न भासते] और जाननेरूप क्रिया के भीतर करनेरूप क्रिया भासित नहीं होती; [ततः ज्ञप्तिः करोतिः च विभिन्ने] इसलिये ज्ञप्तिक्रिया और करनेरूप क्रिया दोनों भिन्न है; [च ततः इति स्थितं] और इससे यह सिद्ध हुआ कि [ज्ञाता कर्ता न] जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं है ।

(कलश--हरिगीत)
कर्म में कर्ता नहीं अर कर्म कर्ता में नहीं ।
इसलिए कर्ताकरम की थिति भी कभी बनती नहीं ॥
कर्म में है कर्म ज्ञाता में रहा ज्ञाता सदा ।
यदि साफ है यह बात तो फिर मोह है क्यों नाचता?॥९८॥

[कर्ता कर्मणि नास्ति, कर्म तत् अपि नियतं कर्तरि नास्ति] निश्चय से न तो कर्ता कर्म में है, और न कर्म कर्ता में ही है [यदि द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते] यदि इसप्रकार परस्पर दोनों का निषेध किया जाये [तदा कर्तृकर्मस्थितिः का] तो कर्ता-कर्म की क्या स्थिति होगी ? (अर्थात् जीव-पुद्गल के कर्ताकर्मपन कदापि नहीं हो सकेगा ।) [ज्ञाता ज्ञातरि, कर्म सदा कर्मणि ]इसप्रकार ज्ञाता सदा ज्ञाता में ही है और कर्म सदा कर्म में ही है [ इति वस्तुस्थितिः व्यक्ता ] ऐसी वस्तु-स्थिति प्रगट है [तथापि बत ] तथापि अरे ! [नेपथ्ये एषः मोहः किम् रभसा नानटीति ] नेपथ्य में यह मोह क्यों अत्यन्त वेगपूर्वक नाच रहा है ? (इसप्रकार आचार्यको खेद और आश्चर्य होता है ।)

यदि मोह नाचता है तो भले नाचे, तथापि -

(कलश--सवैया इकतीसा)
जगमग जगमग जली ज्ञानज्योति जब,
अति गंभीर चित् शक्तियों के भार से ॥
अद्भुत अनूपम अचल अभेद ज्योति,
व्यक्त धीर-वीर निर्मल आर-पार से ॥
तब कर्म कर्म अर कर्ता कर्ता न रहा ।
ज्ञान ज्ञानरूप हुआ आनन्द अपार से ॥
और पुद्गलमयी कर्म कर्मरूप हुआ,
ज्ञानी पार हुए भवसागर अपार से ॥९९॥

[अचलं व्यक्तं] अचल, व्यक्त और [चित्-शक्तीनां निकर-भरतः अत्यन्त-गम्भीरम्] चित्शक्तियों के समूह के भार से अत्यन्त गम्भीर [एतत् ज्ञानज्योतिः] यह ज्ञान-ज्योति [अन्तः उच्चैः तथा ज्वलितम्] अन्तरङ्ग में उग्रता से ऐसी जाज्वल्यमान हुई [यथा कर्ता कर्ता न भवति] जिससे कर्ता कर्ता नहीं होता और [कर्म कर्म अपि न एव] कर्म भी कर्म नहीं होता [यथा ज्ञानं ज्ञानं भवति च] जिससे ज्ञान ज्ञान ही रहता है तथा [पुद्गलः पुद्गलः अपि] पुद्गल पुद्गल ही रहता है ।

इसप्रकार जीव और अजीव कर्ता-कर्म का वेष त्यागकर बाहर निकल गये ।

इसप्रकार श्री समयसार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य देव प्रणीत श्री समयसार परमागम की) श्रीमद्अमृतचन्द्राचार्यदेव विरचित आत्मख्याति नामक टीका में कर्ता-कर्म का प्ररूपक दूसरा अंक समाप्त हुआ ।

जयसेनाचार्य :
यदि शुद्ध पारिणामिक परमभाव के ग्रहण करने वाले शुद्ध-द्रव्यार्थिकनय से सोचा जाय तो नय के विकल्प स्वरूप जो समस्त प्रकार के पक्षपात, उनसे रहित ही समय सार होता है ऐसा नीचे की गाथा में कहते हैं --

[सव्वणयपक्खरहिदो भणिदो जो सो समयसारो] जब कि आत्मा, निर्विकल्प-समाधि-पुरुषों के द्वारा इन्दियानिंद्रियजनित बाह्य-विषयक समस्त-मतिज्ञान के विकल्पों से रहित ही देखा और जाना जाता है । तथा वही आत्मा बद्धाबद्धादिक-विकल्पनय के पक्षपात से रहित ऐसे समयसार का अनुभव करता हुआ देखा और जाना जाता है । इसलिए [सम्मद्दंसणणाणं एसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं] मात्र सकल-विमल-केवल-ज्ञान और केवल-दर्शनरूप व्यपदेश को वह स्वीकार करता है, न कि बद्धाबद्धादिरूप व्यपदेशों को ॥१५१॥

इस प्रकार निश्चय-नय और व्यवहार-नय इन दोनों नयों के पक्षपात से रहित शुद्ध-समयसार के व्यायाख्यान की मुख्यता से चार गाथाओं द्वारा यह नवम अंतराधिकार समाप्त हुआ ।

इस प्रकरण के द्वारा [जाव ण वेदि विसेसंतरं] इत्यादि गाथा से शुरू करके पाठ के क्रम से इस प्रकार समस्त ७८ गाथाओं के द्वारा और ९ अन्तराधिकारों के द्वारा यह कर्त्ता-कर्म नाम का महाधिकार समाप्त हुआ ।

वहाँ जीव और अजीव के अधिकार-रूप इस ग्रन्थ की रंगभूमि में भेषधारी दो पात्र नृत्य करते हैं; और बाद में वे पृथक्-पृथक् हो जाते हैं । वैसे ही यहाँ शुद्ध-निश्चय-नय के द्वारा जीव और अजीव ये दोनों अपने-अपने कर्ता और कर्म भेष को छोड़कर निकल गये हैं ।

इति श्री जयसेनाचार्यकृत समयसार की 'तात्पर्यवृत्ति' नाम की व्याख्या के हिंदी अनुवाद में यह पुण्यपापादि सात पदार्थों से सम्बन्ध रखने वाला पीठिकारूप तीसरा महाधिकार समाप्त हुआ ।

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पुण्य-पाप अधिकार



+ शुभाशुभ कर्म के स्वभाव का वर्णन -
कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं । (145)
कह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि ॥152॥
कर्म अशुभं कुशीलं शुभकर्म चापि जानीथ सुशीलम्
कथं तद्भवति सुशीलं यत्संसारं प्रवेशयति ॥१४५॥
सुशील हैं शुभ कर्म और अशुभ करम कुशील हैं ।
संसार के हैं हेतु वे कैसे कहें कि सुशील हैं ? ॥१४५॥
अन्वयार्थ : [कम्ममसुहं] अशुभ कर्म [कुसीलं] पाप-रूप (बुरा) [चावि] और [सुहकम्मं] शुभकर्म [सुसीलं] पुण्य-रूप (भला) [जाणह] ऐसा सर्व-साधारण जानते हैं, (परन्तु परमार्थ-दृष्टि से कहते हैं कि) [जं] जो प्राणी को [संसारं] संसार में ही [पवेसेदि] प्रवेश कराता है [तं] वह कर्म [सुसीलं] शुभ, अच्छा [कह] कैसे [होदि] हो सकता है ?

अमृतचंद्राचार्य :

(हिंदी--दोहा)
पुण्य-पाप दोऊ करम, शिवमग रोकनहार
पुण्य-पाप से पार है, आतम धरम अपार ॥

अब एक ही कर्म दो पात्ररूप होकर पुण्य-पापरूपसेप्रवेश करते हैं --

(कलश--हरिगीत)
शुभ अर अशुभ के भेद से जो दोपने को प्राप्त हो ।
वह कर्म भी जिसके उदय से एकता को प्राप्त हो ॥
जब मोहरज का नाश कर सम्यक् सहित वह स्वयं ही ।
जग में उदय को प्राप्त हो वह सुधानिर्झर ज्ञान ही ॥१००॥

[अथ शुभ-अशुभ-भेदतः] अब, शुभ और अशुभ के भेद से [द्वितयतां गतम् तत् कर्म] द्वित्व को प्राप्त उस कर्म को [ऐक्यम् उपानयन्] एक रूप करता हुआ, [ग्लपित-निर्भर-मोहरजा] जिसने अत्यंत मोहरज को दूर कर दिया है ऐसा [अयं अवबोध-सुधाप्लवः] यह अनुभवगोचर ज्ञानसुधांशु (सम्यग्ज्ञानरूपी चन्द्रमा) [स्वयम् उदेति] स्वयं उदय को प्राप्त होता है ।

(कलश--रोला)
दोनों जन्मे एक साथ शूद्रा के घर में ।
एक पला बामन के घर दूजा निज घर में ॥
एक छुए ना मद्य ब्राह्मणत्वाभिमान से ।
दूजा डूबा रहे उसी में शूद्रभाव से ॥
जातिभेद के भ्रम से ही यह अन्तर आया ।
इस कारण अज्ञानी ने पहिचान न पाया ॥
पुण्य-पाप भी कर्म जाति के जुड़वा भाई ।
दोनों ही हैं हेय मुक्ति मारग में भाई ॥१०१॥

[एक: ब्राह्मणत्व-अभिमानात्] एक तो ('मैं ब्राह्मण हूँ' इसप्रकार) ब्राह्मणत्व के अभिमान से [दूरात् मदिरां त्यजति] दूर से ही मदिरा का त्याग करता है, उसे स्पर्श तक नहीं करता; तब [अन्यः अहम् स्वयम् शूद्रः इति] दूसरा 'मैं स्वयं शूद्र हूँ' यह मानकर [नित्यं तया एव स्नाति] नित्य मदिरा से ही स्नान करता है । [एतौ द्वौ अपि] यद्यपि वे दोनों [शूद्रिकायाः उदरात् युगपत् निर्गतौ] शूद्रा के पेट से एक ही साथ उत्पन्न होने से [साक्षात् शूद्रौ] साक्षात् शूद्र हैं, [अपि च जातिभेदभ्रमेण चरतः] तथापि जाति-भेद के भ्रमवश प्रवृत्ति करते हैं ।

कितने ही लोगों का ऐसा पक्ष है कि कर्म एक होने पर भी शुभ-अशुभ के भेद से दो भेदरूप है, क्योंकि
  1. शुभ और अशुभ जो जीवके परिणाम हैं, वे उसको निमित्त हैं उस रूप से कारण के भेद से भेद हैं ।
  2. शुभ और अशुभ पुद्गल परिणाम-मय होने से स्वभाव के भेद से भेद है और
  3. कर्म का जो शुभ-अशुभ फल है, उसके रसास्वाद के भेद से भेद है तथा
  4. शुभ-अशुभ मोक्ष तथा बंध के मार्ग की आश्रितता होने पर आश्रय में भेद से भेद है ।
इस प्रकार इन चारों हेतुओं से कोई कर्म शुभ है, कोई कर्म अशुभ है, ऐसा किसी का पक्ष है । परन्तु वह पक्ष उसका निषेध करने वाले प्रतिपक्षसे सहित है । अब यही कहते हैं --

  1. शुभ व अशुभ जीव का परिणाम केवल अज्ञान-मय होने से एक ही है, सो उसके एक होने पर कारण का अभेद होने से कर्म भी एक ही है तथा
  2. शुभ अथवा अशुभ पुद्गल का परिणाम केवल पुद्गलमय होने से एक ही है और उसके एक होने पर स्वभाव के अभेद से कर्म भी एक ही है ।
  3. शुभ अथवा अशुभ कर्म के फल का रस केवल पुद्गल-मय होने से एक है और उसके एक होने पर आस्वाद के अभेद से कर्म भी एक ही है ।
  4. शुभ अशुभ-रूप मोक्ष और बंध का मार्ग ये दोनों पृथक् हैं, केवल जीव-मय तो मोक्ष का मार्ग है और केवल पुद्गल-मय बंध का मार्ग है अतः वे अनेक हैं, एक नहीं है और उनके एक न होने पर केवल पुद्गल-मय बंध-मार्ग की आश्रितता के कारण आश्रय के अभेद कर्म एक ही है ।

(कलश--रोला)
अरे पुण्य अर पाप कर्म का हेतु एक है ।
आश्रय अनुभव अर स्वभाव भी सदा एक है ॥
अत: कर्म को एक मानना ही अभीष्ट है ।
भले-बुरे का भेद जानना ठीक नहीं है ॥१०२॥

[हेतु-स्वभाव-अनुभव-आश्रयाणां] हेतु, स्वभाव, अनुभव और आश्रय इन चारों का [सदा अपि अभेदात्] सदा ही अभेद होने से [न हि कर्मभेदः] कर्म में निश्चय से भेद नहीं है; [तद् समस्तं स्वयं] इसलिये, समस्त कर्म स्वयं [खलु बन्धमार्ग-आश्रितम्] निश्चय से बंधमार्ग के आश्रित है और [बन्धहेतुः एकम् इष्टं] बंध का कारण है, अतः कर्म एक ही मानना चाहिए ।

जयसेनाचार्य :
तदनंतर निश्चयनय से जो पुद्गल-कर्म एक-रूप हैं वही व्यवहारनय के द्वारा पुण्य और पाप के भेद से दो रूप होकर इस रंगभूमि में प्रवेश करता है ।

[कम्ममसुहं कुसीलं] इत्यादि गाथा से शुरू करके क्रम से १९ गाथाओं तक पुण्य-पाप का व्याख्यान करते हैं; वहाँ यह पुण्य-पाप-पदार्थ के अधिकार की समुदाय पातनिक हुई ।

यहाँ अब आचार्यदेव बतलाते हैं कि किसी एक ब्राह्मणी के दो पुत्र हुए, उनमें से एक का उपनयन संस्कार हो जाने से वह ब्राह्मण हो गया किन्तु दूसरे का उपनयन संस्कार नहीं हुआ, अत: वह शूद्र हो गया । इसी प्रकार जो पुद्गल-कर्म निश्चय से एकरूप है, वही जीव के शुभाशुभ परिणामों के निमित्त से व्यवहार में दो प्रकार का हो जाता है ।

[कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं] जो अशुभ-कर्म है वह तो निन्दनीय है, बुरा है अत: छोड़ने योग्य है, किन्तु शुभ-कर्म सुहावना है, सुखदायक है, इसलिये उपादेय है -- ग्रहण करने योग्य है, ऐसा कुछ व्यवहारवादी लोगों का कहना है; जो कि निश्चय-रूप दूसरे पक्ष के द्वारा निषेध किया जाता है । [किह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि] निश्चयवादी बोलता है की जो जीव को संसार में ही बनाये रखता है वह पुण्य-कर्म सुहावना और सुख देने वाला कैसे हो सकता है (क्योंकि संसार तो सारा ही दुखरूप है) । कर्म के हेतु, स्वभाव, अनुभव और बंध रूप आश्रय का जब विचार किया जाये तो उसमें कोई भेद प्रतीत नहीं होता इसलिए वास्तव में कर्म में कोई पुण्य-पाप रूप भेद नहीं है । वही स्पष्ट कर बताते हैं -- इस प्रकार पुण्य-कर्म और पाप-कर्म के हेतु, स्वभाव, अनुभव और आश्रय में कहीं कोई भेद नहीं है, किन्तु सदा अभेद ही है । यद्यपि व्यवहार से देखें तो उसमें भेद होता है फिर भी निश्चयनय से वहाँ शुभ और अशुभ कर्म रूप कोई भेद नहीं है । इसलिए व्यवहारी लोगों का जो पक्ष है वह बाधित हो जाता है ॥१५२॥

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+ शुभ-अशुभ दोनों अविशेषता से बंध के कारण -
सोवण्णियं पि णियलं बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं । (146)
बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ॥153॥
सौवर्णिकमपि निगलं बध्नाति कालायसमपि यथा पुरुषम्
बध्नात्येवं जीवं शुभमशुभं वा कृतं कर्म ॥१४६॥
ज्यों लोह बेड़ी बाँधती त्यों स्वर्ण की भी बाँधती
इस भाँति ही शुभ-अशुभ दोनों कर्म बेड़ी बाँधती ॥१४६॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे [कालायसं णियलं] लोहे की बेड़ी [पुरिसं बंधदि] पुरुष को बांधती है [पि] और [सोवण्णियं पि] सुवर्ण की बेड़ी भी पुरुष को बाँधती है [एवं] इसी प्रकार [सुहमसुहं वा] शुभ तथा अशुभ [कदं कम्मं] किया हुआ कर्म [बंधदि जीवं] जीव को बांधता ही है ।

अमृतचंद्राचार्य :
शुभ और अशुभ कर्म अविशेष-रूप से ही आत्मा को बांधते हैं, क्योंकि दोनों में ही बंध-रूपपने की अविषेषता है जैसे कि सुवर्ण की बेड़ी और लोहे की बेड़ी में बंध की अपेक्षा भेद नहीं है ।

जयसेनाचार्य :
शुभ और अशुभ रूप दोनों ही कर्म सामान्यतया बंध-रूप हैं, ऐसा बताते हैं --

जैसे सोने की बनी बेडी हो चाहे लोहे की, दोनों ही तरह की बेड़ियाँ पुरुष को साधारण रूप में जकड़ कर रखती हैं, इसी प्रकार, चाहे शुभ कर्म हो या अशुभ कर्म वह साधारण रूप से जीव को संसार में रखता है । भावार्थ –- शुभ और अशुभ इन दोनों कर्मों में बंध या संसार भाव की अपेक्षा कोई भी अंतर नहीं है । दोनों कर्म संसार रूप ही हैं । अत: जो कोई पुरुष भोगों की आकांक्षा रूप निदान करते हुए 'सौन्दर्य, सौभाग्य, कामदेव-पद, देवेन्द्र-पद, अहमिन्द्र-पद, ख्याति, पूजा, लाभ आदि मुझे प्राप्त हों', इस निमित्त से व्रत, तपश्चरण या दान-पूजादि करता है वह पुरुष अपने उस व्रत, तपश्चरण आदि रूप आचरण को व्यर्थ ही खोता है । जैसे कि यह ठीक है कि जो शुद्धात्मा की भावना को बनाये रखने के लिए बहिरंग-व्रत-तपश्चरण या दान-पूजादि करता है, वह परम्परा से मोक्ष को प्राप्त होता है ॥१५३॥

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+ शुभ-अशुभ दोनों ही कर्मों का निषेध -
तम्हा दु कुसीलेहि य रागं मा कुणह मा व संसग्गं । (147)
साहीणो हि विणासो कुसीलसंसग्गरायेण ॥154॥
तस्मात्तु कुशीलाभ्यां च रागं मा कुरुत मा वा संसर्ग्
स्वाधीनो हि विनाश: कुशीलसंसर्गरागेण ॥१४७॥
दु:शील के संसर्ग से स्वाधीनता का नाश हो
दु:शील से संसर्ग एवं राग को तुम मत करो ॥१४७॥
अन्वयार्थ : [तम्हा दु] इस कारण [कुसीलेहि] उन दोनों कुशीलों से [रागं मा कुणह] प्रीति मत करो [व] अथवा [संसग्गं य] संबंध भी [मा] मत करो [हि] क्योंकि [कुसीलसंसग्गरायेण] कुशील के संसर्ग और राग से [साहीणो विणासो] स्वाधीनता का विनाश होता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
कुशील शुभ-अशुभ कर्म के साथ राग और संसर्ग करना दोनों ही निषिद्ध हैं, क्योंकि ये दोनों ही कर्म-बंध के कारण हैं । जैसे कुशील, मन को रमाने वाली अथवा नहीं रमाने वाली कुट्टनी हथिनी के साथ राग और संगति करने वाले हाथी का विनाश अपने आप है सो राग व संसर्ग उस हाथी को नहीं करने चाहिये ।

जयसेनाचार्य :
शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म मोक्षमार्ग में रोड़ा अटकाने वाले हैं, अत: दोनों ही निषिद्ध हैं ऐसा कहते हैं --

[तम्हा दु कुसीलेहि य रागं मा कुणह मा व संसग्गं] इसलिए खोटे-स्वभाव वाले शुभ या अशुभ किसी भी प्रकार के कर्मों के साथ मानसिक-प्रेम मत करो, बाह्य-वचन एवं काय-गत संसर्ग भी मत करो । क्योंकि [साहीणो हि विणासो कुसीलसंसग्गरायेण] कुशीलों के साथ प्रेम करने से स्वाधीनता का अवश्य ही नाश होता है, निर्विकल्प-समाधि का विघात होता है । अत: अपना अहित होता है अर्थात स्वाधीन जो आत्म-सुख है उसका नाश होता है ॥१५४॥

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+ दोनों कर्मों के निषेध का दृष्टान्त -
जह णाम कोवि पुरिसो कुच्छियसीलं जणं वियाणित्त । (148)
वज्जेदि तेण समयं संसग्गं रागकरणं च ॥155॥
एमेव कम्मपयडीसीलसहावं च कुच्छिदं णादुं । (149)
वज्जंति परिहरंति य तस्संसग्गं सहावरदा ॥156॥
यथा नाम कोऽपि पुरुष: कुत्सितशीलं जनं विज्ञाय
वर्जयति तेन समकं संसर्गं रागकरणं च ॥१४८॥
एवमेव कर्मप्रकृतिशीलस्वभावं च कुत्सितं ज्ञात्वा
वर्जयंति परिहरंति च तत्संसर्गं स्वभावरता: ॥१४९॥
जगतजन जिसतरह कुत्सितशील जन को जानकर
उस पुरुष से संसर्ग एवं राग करना त्यागते ॥१४८॥
बस उसतरह ही कर्म कुत्सित शील हैं - यह जानकर
निजभावरत जन कर्म से संसर्ग को हैं त्यागते ॥१४९॥
अन्वयार्थ : [जह णाम] जैसे [कोवि पुरिसो] कोई पुरुष [कुच्छियसीलं] खोटे स्वभाव वाले [जणं वियाणित्त] किसी पुरुष को जानकर [तेण समयं] उसके साथ [संसग्गं रागकरणं च] संगति और राग करना [वज्जेदि] छोड़ देता है [एमेव च] उसी तरह [सहावरदा] स्वभाव में प्रीति रखने वाले ज्ञानी जीव [कम्मपयडीसीलसहावं] कर्म-प्रकृतियों के शील स्वभाव को [कुच्छिदं णादुं] निन्दनीय जानकर [वज्जंति] उससे राग छोड़ देते हैं [य] और [तस्संसग्गं] उसकी संगति भी [परिहरंति] छोड़ देते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
जैसे कोई चतुर वन का हाथी अपने बन्धन के लिये समीप आने वाली, चंचल मुख को लीला रूप करती मन को रमाने वाली, सुन्दर अथवा असुन्दर कुट्टिनी हथिनी को बुरी समझकर उसके साथ राग तथा संसर्ग के नहीं करता, उसी प्रकार रागरहित ज्ञानी आत्मा अपने बन्ध के लिये समीप उदय आतीं शुभ-रूप अथवा अशुभ-रूप सभी कर्म-प्रकृतियों को परमार्थ में बुरी जानकर उनके साथ राग और संसर्ग को नहीं करता ।

जयसेनाचार्य :
अब आचार्य कुन्दकुन्द देव स्वयं दृष्टान्त देकर इसी बात को और स्पष्ट करते हैं कि दोनों ही कर्म निषिद्ध हैं --

[जह णाम कोवि पुरिसो कुच्छियसीलं जणं वियाणित्त] जबकि कोई पुरुष किसी को बुरे स्वभाव वाला अच्छी तरह समझ लेता है तो [वज्जेदि तेण समयं संसग्गं रागकरणं च] उसके साथ शरीर से संसर्ग छोड़ देता है साथ ही बोलना भी छोड़ देता है तथा उसके साथ किसी भी प्रकार का मानसिक प्रेम भी नहीं रखता । [एमेव कम्मपयडीसीलसहावं च कुच्छिदं णादुं] उसी प्रकार कर्म-प्रकृतियों के शील-स्वभाव को निन्दनीय जानकर [वज्जंति परिहरंति य तस्संसग्गं सहावरदा] उनके साथ वचन और काय से भी संसर्ग छोड़ देते हैं और मन से भी राग करना छोड़ देते हैं । कौन छोड़ देते है ? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि समस्त प्रकार के द्रव्य और भावगत पुण्य-पाप के परिणाम का परिहार करने में परिणत ऐसे अभेद-रत्नत्रय लक्षण वाले निर्विकल्प समाधि में जो लोग तत्पर रहते हैं, वे साधु छोड़ देते हैं ॥१५५-१५६॥

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+ दोनों ही प्रकार के कर्म बंध के कारण होने से निषेध्य -
रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि जीवो विरागसंपत्तो । (150)
एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥157॥
रक्तो बध्नाति कर्म मुच्यते जीवो विरागसंप्राप्त:
एषो जिनोपदेश: तस्मात् कर्मसु मा रज्यस्व ॥१५०॥
विरक्त शिवरमणी वरें अनुरक्त बाँधें कर्म को
जिनदेव का उपदेश यह मत कर्म में अनुरक्त हो ॥१५०॥

अन्वयार्थ : [रत्ते] रागी जीव [बंधदि कम्मं] कर्म बाँधता है और [विरागसंपत्ते] वैराग्य को प्राप्त [जीवो] जीव [मुच्चदि] कर्मों से छूटता है; [एसो] यह [जिणोवदेसो] जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है, [तम्हा] इसलिए [कम्मेसु] कर्मों (शुभाशुभ कर्मों) से [मा रज्ज] राग मत करो ।

अमृतचंद्राचार्य :
रागी जीव कर्म बाँधता है, वैराग्य को प्राप्त जीव कर्मों से छूटता है - यह आगम-वचन सामान्यपने रागीपन की निमित्तता से शुभाशुभ दोनों कर्मों को अविशेषतया बंध का कारण-रूप सिद्ध करता है और इसी कारण दोनों कर्मों का निषेध करता है ।

(कलश--दोहा)
जिनवाणी का मर्म यह, बंध करें सब कर्म ।
मुक्तिहेतु बस एक ही, आत्मज्ञानमय धर्म ॥१०३॥

[यद् सर्वविदः] क्योंकि सर्वज्ञ-देव [सर्वम् अपि कर्म अविशेषात्] समस्त कर्म को अविशेषतया [बन्धसाधनम् उशन्ति] बंध का साधन (कारण) कहते हैं, [तेन सर्वम् अपि तत् प्रतिषिद्धं] इसलिये समस्त कर्म का निषेध किया है और [ज्ञानम् एव शिवहेतुः विहितं] ज्ञान को ही मोक्ष का कारण कहा है ।

(कलश--रोला)
सभी शुभाशुभभावों के निषेध होने से ।
अशरण होंगे नहीं रमेंगे निज स्वभाव में ॥
अरे मुनीश्वर तो निशदिन निज में ही रहते ।
निजानन्द के परमामृत में ही नित रमते ॥१०४॥

[सुकृतदुरिते सर्वस्मिन् कर्मणि किल निषिद्धे] शुभ और अशुभ आचरणरूप कर्म - ऐसे समस्त कर्म का निषेध कर देने पर और [नैष्कर्म्ये प्रवृत्ते] इसप्रकार निष्कर्म अवस्था प्रवर्तमान होने पर [मुनयः खलु अशरणाः न सन्ति] मुनिजन कहीं अशरण नहीं हैं; [तदा ] (क्योंकि) तब [ज्ञाने प्रतिचरितम् ज्ञानं हि] ज्ञान में आचरण (रमण, परिणमन) करता हुआ ज्ञान ही [एषां शरणं] उन मुनियों को शरण है; [एते तत्र निरताः] वे उस उस (ज्ञान) में लीन होते हुए [परमम् अमृतं स्वयं विन्दन्ति] परम अमृत का स्वयं अनुभव करते (स्वाद लेते) हैं ।

जयसेनाचार्य :
अब दोनों ही कर्म शुद्ध-निश्चयनय से न केवल बंध के ही कारण हैं अपितु निषेध करने योग्य भी हैं ऐसा आगम से सिद्ध करते हैं --

[रत्ते बंधदि कम्मं मुच्चदि जीवो विरागसंपत्ते] क्योंकि जो रागी जीव होता है वह निरंतर कर्म-बंध करता रहता है और कर्म-जनित भावों में जो विराग-सम्पन्न होता है वह मुक्त हो जाता है [एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज] यह स्पष्ट रूप से जिन भगवान् का उपदेश है कि शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार का कर्म बन्ध का हेतु है, इसलिए वह हेय भी है । फलत: शुभ और अशुभ दोनों ही तरह के संकल्प-विकल्प से रहित होते हुये अपनी शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न जो निर्विकार सुखामृत रूप रस, उसका स्वाद लेने से तृप्त होकर तुम शुभ और अशुभ दोनों ही तरह के कर्म में रुचि मत करो अर्थात् राग करना छोड़ दो । इस प्रकार यद्यपि अनुपचरितासदभूत-व्यवहारनय के द्वारा द्रव्य रूप पुण्य और पाप में भेद है तथापि अशुद्ध-निश्चयनय से देखा जाये तो कोई भेद नहीं है । इस प्रकार के व्याख्यान की मुख्यता से छ: गाथायें हुई ॥१५७॥

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+ अब ज्ञान को मोक्षका कारण सिद्ध करते हैं -- -
परमट्ठो खलु समओ सुद्धो जो केवली मुणी णाणी । (151)
तम्हि ट्ठिदा सहावे मुणिणो पावंति णिव्वाणं ॥158॥
परमार्थ: खलु समय: शुद्धो य: केवली मुनिर्ज्ञानी
तस्मिन् स्थिता: स्वभावे मुनय: प्राप्नुवंति निर्वाणम् ॥१५१॥
परमार्थ है है ज्ञानमय है समय शुध मुनि केवली
इसमें रहें थिर अचल जो निर्वाण पावें वे मुनी ॥१५१॥
अन्वयार्थ : [खलु] निश्चय से जो [सुद्धो] शुद्ध है, केवली है, [मुणी] मुनि है, [णाणी] ज्ञानी है, [परमट्ठो] परमार्थ है, [समओ] समय है, [तम्हि सहावे] उस (ज्ञान) स्वभाव में [ट्ठिदा] स्थित [मुणिणो] मुनि [पावंति णिव्वाणं] मोक्ष को प्राप्त करते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
ज्ञान ही मोक्ष का कारण है, क्योंकि ज्ञान के ही शुभ अशुभ कर्म-बंध की हेतुता न होने पर मोक्ष की हेतुता ज्ञान के ही बनती है । ऐसे शब्दों के भेद होने पर भी वस्तु भेद नहीं हैं ।

जयसेनाचार्य :
अब आगे विशुद्ध-ज्ञान नाम वाला परमात्म-तत्त्व ही मोक्ष का कारण है, ऐसा बताते हैं --

[परमट्ठो खलु समओ] वास्तव में शुद्धात्मा ही परमार्थ है, सर्वोत्कृष्ट अर्थ है, क्योंकि धर्म, अर्थ और मोक्ष-स्वरूप है वह परमात्मरूप ही है अथवा मति श्रुत अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान इन भेदों से रहित होते हुये ज्ञान-स्वरूप है, वही निश्चय से परमार्थ है । वह भी परमात्म-स्वरूप ही है । क्योंकि समय शब्द की व्युत्पत्ति ही ऐसी है कि 'सम्यक् अयते शुद्ध-गुण-पर्यायान् परिणमति स समय:' अर्थात् जो भले प्रकार से अपने गुण और पर्यायों में रहता है वह समय कहलाता है अथवा 'सम्यक अय:' संशयादि रहित ज्ञान जिसको होता है वह समय है अथवा 'सम्' यह एकता का नाम है अत: एक-रूप से परम-समरस-भाव से जो अपने शुद्ध स्वरूप में 'अयन' अर्थात गमन / परिणमन करना वह समय कहलाता है । [सुद्धो] शुद्ध है रागादि-भाव-कर्म से रहित है । [केवली] केवली शब्द का अर्थ होता है सहाय-रहित, अत: पर-द्रव्य की सहायता से रहित होने के कारण वही केवली भी है । [मुणी] वह परमात्मा ही मुनि भी है । [णाणी] विशुद्ध-ज्ञान जिसको हो वह ज्ञानी होता है अत: वह प्रत्यक्षज्ञानी परमात्मा भी है । [तम्हि ट्ठिदा सहावे मुणिणो पावंति णिव्वाणं] उसी परमात्म-स्वभाव में स्थित रहने वाले / तन्मयता रखने वाले वीतराग-स्वसंवेदन ज्ञान में लीन मुनि / तपोधन ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं ॥१५८॥

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+ उस ज्ञान की विधि -
परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेदि । (152)
तं सव्वं बालतवं बालवदं बेंति सव्वण्हू ॥159॥
वदणियमाणि धरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता । (153)
परमट्ठबाहिरा जे णिव्वाणं ते ण विंदंति ॥160॥
परमार्थे त्वस्थित: य: करोति तपो व्रतं च धारयति
तत्सर्वं बालतपो बालव्रतं ब्रुवन्ति सर्वज्ञा: ॥१५२॥
व्रतनियमान् धारयंत: शीलानि तथा तपश्च कुर्वंत:
परमार्थबाह्या ये निर्वाणं ते न विंदंति ॥१५३॥
परमार्थ से हों दूर पर तप करें व्रत धारण करें
सब बालतप हैं बालव्रत वृषभादि सब जिनवर कहें ॥१५२॥
व्रत नियम सब धारण करें तप शील भी पालन करें
पर दूर हों परमार्थ से ना मुक्ति की प्राप्ति करें ॥१५३॥
अन्वयार्थ : [परमट्ठम्हि दु] ज्ञान-स्वरूप आत्मा में [अठिदो] अस्थित जो [तवं कुणदि] तप करता है [च] और [वदं धारेदि] व्रत को धारण करता है [तं सव्वं] उस सब तप व्रत को [सव्वण्हू] सर्वज्ञदेव [बालतवं] अज्ञान तप और [बालवदं] अज्ञान व्रत [बेंति] कहते हैं । [वदणियमाणि] व्रत और नियमों को [धरंता] धारण करते हुए [तहा] तथा [सीलाणि तवं च कुव्वंता] शील और तप को करते हुए भी [जे] जो [परमट्ठबाहिरा] परमार्थभूत ज्ञान-स्वरूप आत्मा से बाह्य हैं [ते] वे [णिव्वाणं] मोक्ष को [ण] नहीं [विंदंति] पाते ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब ज्ञान को स्थापित कराते हैं --

ज्ञान ही मोक्ष का कारण कहा गया है, क्योंकि परमार्थ-भूत ज्ञान से शून्य अज्ञान से किये तप और व्रत-रूप कर्म ये दोनों बंध के कारण हैं, इसलिये बाल-तप व बाल-व्रत उन दोनों का 'बाल' ऐसा नाम कहकर प्रतिषेध किये जाने पर पूर्वकथित ज्ञान के ही मोक्ष का कारणपना बनता है ।

अब ज्ञान और अज्ञान दोनों को क्रमश: मोक्ष और बंध का हेतु निश्चित करते हैं--

ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है, क्योंकि ज्ञान का अभाव होने पर स्वयं अज्ञानरूप हुए अज्ञानियों के अन्तरंग में व्रत, नियम, शील, तप आदि शुभ-कर्म का सद्भाव होने पर भी मोक्ष का अभाव है । अज्ञान ही बंध का हेतु है, क्योंकि अज्ञान का अभाव होने पर स्वयं ज्ञान-रूप हुए ज्ञानियों के बाह्य व्रत, नियम, शील, तप आदि शुभ-कर्म का असद्भाव होने पर भी मोक्ष का सद्भाव है ।

(कलश--रोला)
ज्ञानरूप ध्रुव अचल आतमा का ही अनुभव ।
मोक्षरूप है स्वयं अत: वह मोक्षहेतु है ॥
शेष भाव सब बंधरूप हैं बंधहेतु हैं ।
इसीलिए तो अनुभव करने का विधान है ॥१०५॥

[यद् एतद् ध्रुवम् अचलम् ज्ञानात्मा भवनम् आभाति] जो यह ज्ञान-स्वरूप आत्मा ध्रुवरूप से और अचलरूप से ज्ञान-स्वरूप होता (परिणमता) हुआ भासित होता है [अयंशिवस्य हेतुः] यही मोक्ष का हेतु है, [यतः तत् स्वयम् अपि शिवः इति] क्योंकि वह स्वयमेव मोक्ष-स्वरूप है; [अतः अन्यत् बन्धस्य] इससे अन्य बन्ध है, [यतः तत् स्वयम् अपि बन्धः इति] क्योंकि वह स्वयमेव बन्ध-स्वरूप है । [ततः ज्ञानात्मत्वं भवनम्] इसलिये ज्ञान-स्वरूप होने का अर्थात् [अनुभूतिः हि विहितम्] अनुभूति करने का ही (आगम में) विधान है ।

जयसेनाचार्य :
अब उपर्युक्त परमात्म-स्वरूप में अस्थिर रहने वाले एवं स्व-संवेदन ज्ञान से रहित अज्ञानी जीवों का व्रत-तपश्चरणादि पुण्य-बन्ध का कारण है, ऐसा कहते हैं --

[परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेदि] उपर्युक्त परमार्थ लक्षण-वाले परमात्म-स्वरुप में जो स्थित नहीं है, अर्थात उससे दूर हो रहा है फिर भी जो तपश्चरण करता है और व्रतादि को धारण करता है । [तं सव्वं बालतवं बालवदं बेंति सव्वण्हू] उस तप को बाल-तप / अज्ञान-तप और उसके व्रत को बाल-व्रत / अज्ञान-व्रत नाम से सर्वज्ञ भगवान कहते हैं । क्योंकि उसका वह तप और व्रत, पुण्य-पाप के उदय से होने वाले, समस्त इंद्रिय जनित सुख के अधिकार से रहित जो अभेद-रत्नत्रय सो ही है लक्षण जिसका एसे विशिष्ट ज्ञान के आनंद से रहित है ॥१५९॥

आगे स्वसंवेदन ज्ञान को मोक्ष का कारण और अज्ञान को बंध का कारण क्रमश: बतलाते हैं --

[वदणियमाणि धरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता] जिसमें तीन गुप्तियों का पालन हुआ करता है ऐसी परम-समाधि ही है लक्षण जिसका उस भेद ज्ञान से जो दूरवर्ती है, वे व्रत और नियमों को धारण करते हुये और तपश्चरण करते हुये भी मुक्ति को प्राप्त नहीं होते हैं । क्योंकि [परमट्ठबाहिरा जेण तेण ते होंति अण्णाणी] पूर्वोक्त भेदज्ञान के न होने से वे परमार्थ से दूर रहने वाले होते है, इसलिये अज्ञानी होते हैं । फलत: अज्ञानियों को मोक्ष कैसे हो सकता है ? हाँ, जो परम-समाधि स्वरूप-भेदज्ञान से युक्त हैं, वे व्रत, नियम और शीलों को बिना धारण किये भी और बाह्य-द्रव्य रूप तपश्चरण को न करते हुये भी मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं, क्योंकि वे पूर्वोक्त भेदज्ञान-रूप परमार्थ से युक्त होते हैं; इसलिये वे ही ज्ञानी भी होते हैं । और जब ज्ञानी होते हैं तो ज्ञानियों को मोक्ष होना ही चाहिये । वहां पर कोई शंका कर सकता है कि व्रत नियम, शील और बहिरंग तपश्चरण न करते हुये भी मोक्ष होता है तो संकल्प-विकल्प-रहित जीवों के विषयों के व्यापार होते हुये भी पाप नहीं है तथा तपश्चरण के बिना ही मोक्ष हो जाता है तब तो फिर सांख्य और शैव मतानुसारी लोगों का कहना ही ठीक हो गया ? परन्तु ऐसी बात नहीं है, क्योंकि अनेक बार ऐसा बताया जा चुका है कि निर्विकल्प रूप तीन गुप्तियों से युक्त ऐसी जो परम-समाधि, वही है लक्षण जिसका इस प्रकार के भेद-ज्ञान के काल में जो शुभ-रूप मन, वचन, काय के व्यापार है जो कि परंपरा से मुक्ति के कारण होते है, वे भी नहीं रहते तो फिर अशुभ-विषय-कषाय के व्यापार रूप जो मन, वचन, काय की चेष्ठा है वह तो वहाँ रहेगी ही कैसे ? क्योंकि चित्त में होने वाले राग-भाव के नष्ट हो जाने पर वहाँ बाहरी-विषयों में होने वाला व्यापार नहीं देखा जाता । जैसे कि तुष के भीतर और तंदुल के ऊपर की ललाई जहाँ दूर हो गई वहाँ फिर तुष का सदभाव कैसा ? इसी प्रकार निर्विकल्प-समाधि के समय बाह्य-विषय सम्बन्धी-व्यापार कभी नहीं रह सकता । क्योंकि जैसे शीत और उष्ण में परस्पर-विरोध है वैसे ही निर्विकल्प-समाधि-लक्षण-भेदज्ञान और विषय-कषाय-रूप-व्यापार इन दोनों में परस्पर-विरोध है; दोनों एक जगह एक काल में नहीं रह सकते ॥१६०॥

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+ पुण्यकर्म के पक्षपाती को प्रतिबोधन -
परमट्ठबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति । (154)
संसारगमणहेदुं पि मोक्खहेदुं अजाणंता ॥161॥
परमार्थबाह्या ये ते अज्ञानेन पुण्यमिच्छन्ति ।
संसारगमनहेतुमपि मोक्षहेतुमजानन्तः ॥१५४॥
परमार्थ से हैं बाह्य वे जो मोक्षमग नहीं जानते
अज्ञान से भवगमन-कारण पुण्य को हैं चाहते ॥१५४॥
अन्वयार्थ : [जे] जो [परमट्ठबाहिरा] परमार्थ से बाह्य हैं [ते] वे जीव [मोक्खहेदुं] मोक्ष का कारण (ज्ञानस्वरूप आत्मा को) [अजाणंता] नहीं जानते हुए [संसारगमणहेदुं पि] संसार में गमन का हेतुभूत होने पर भी [पुण्णमिच्छंति अण्णाणेण] पुण्य को अज्ञान से चाहते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब फिर भी, पुण्य-कर्म के पक्षपाती को समझाने के लिये उसका दोष बतलाते हैं :-

समस्त कर्म के पक्ष का नाश करने से उत्पन्न होनेवाला जो आत्मलाभ (निजस्वरूप की प्राप्ति) उस आत्मलाभ स्वरूप मोक्ष को इस जगत में कितने ही जीव चाहते हुए भी, मोक्ष के कारणभूत सामायिक की, जो (सामायिक) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वभाववाले परमार्थभूत ज्ञान के ❃भवनमात्र है, एकाग्रता लक्षणयुक्त है और समयसार स्वरूप है उसकी, प्रतिज्ञा लेकर भी, दुरन्त कर्मचक्र को पार करने की नपुंसकता (असमर्थता) के कारण परमार्थभूत ज्ञान के भवनमात्र जो सामायिक उस सामायिक स्वरूप आत्मस्वभाव को न प्राप्त होते हुए, जिनके अत्यन्त स्थूल संक्लेश परिणामरूप कर्म निवृत्त हुए हैं और अत्यन्त स्थूल विशुद्ध परिणामरूप कर्म प्रवर्त रहे हैं ऐसे वे, कर्म के अनुभव के गुरुत्व-लघुत्व की प्राप्तिमात्र से ही सन्तुष्ट चित्त होते हुए भी (स्वयं) स्थूल लक्ष्यवाले होकर (संक्लेश परिणाम को छोड़ते हुए भी) समस्त कर्म-काण्ड को मूल से नहीं उखाड़ते । इसप्रकार वे, स्वयं अपने अज्ञान से केवल अशुभ-कर्म को ही बन्ध का कारण मानकर, व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभ-कर्म भी बन्ध के कारण होने पर भी उन्हें बन्ध के कारण न जानते हुए, मोक्ष के कारणरूप में अंगीकार करते हैं -- मोक्ष के कारणरूप में उनका आश्रय करते हैं ।

भवन = होना; परिणमन ।

जयसेनाचार्य :
अब जो वीतराग सम्यक्त्व स्वरूप शुद्ध-भावना को छोडकर एकांत रूप से पुण्यरूप-शुभ-चेष्ठा को ही मुक्ति का कारण बताते है, उनके निराकरण करने के लिये आगे स्पष्ट करते हैं --

यहाँ कितने ही ऐसे जीव हैं जो सकल-कर्म के क्षय रूप मोक्ष को चाहते हुये भी और आरम्भ में दीक्षा के समय निज परमात्म-भावना में परिणत जो अभेद-रत्नत्रय वही है लक्षण जिसका, उस परम-सामायिक को प्राप्त करने की प्रतिज्ञा करके भी, नहीं प्राप्त होने से उस पूर्वोक्त परम सामायिक को प्राप्त नहीं हो सकते है । अत: परमार्थ से वंचित रहते हुये संसार को ही बनाये रखने का हेतु, ऐसे पुण्य को ही अपने अज्ञान-भाव के द्वारा करते रहते है; क्योंकि वे लोग अभेद-रत्नत्रयात्मक जो मोक्ष का कारण है, उसे प्राप्त नहीं कर पाते है ।

अथवा दूसरी तरह से यों कहो कि जो पुण्य, कर्म-बंध का हेतु है उसको मोक्ष का हेतु मानते हैं; क्योंकि वे पूर्वोक्त अभेद-रत्नत्रयात्मक परम-सामायिक रूप, जो मोक्ष का कारण है, उसे नहीं प्राप्त कर पाते हैं । दूसरी बात यह है कि निर्विकल्प-समाधि के काल में व्रत या अव्रत का किसी भी प्रकार के संकल्प-विकल्प का अवसर ही नहीं रहता, इसी का नाम वास्तविक-व्रत या निश्चय-व्रत है । इसका अभिप्राय यह है कि वीतराग-सम्यक्त्व रूप जो शुद्धात्मा की उपादेय भावना है उसके बिना किया हुआ व्रत, तपश्चरणादिक रूप अनुष्ठान केवल पुण्य का कारण होता है । किंतु उस शुद्धात्मा की भावना सहित जो अनुष्ठान है वह मुक्ति का बाहरी साधन है, इसलिये वह भी परम्परा से मुक्ति का कारण कहा जाता है । इस प्रकार के व्याख्यान की मुख्यता से चार गाथायें समाप्त हुई । इस प्रकार दश गाथाओं द्वारा पुण्याधिकार समाप्त हो गया ॥१६१॥

अब इसके आगे इस तरह से आगे आने वाले तीसरे स्थल की ९ गाथाओं की यह समुदाय पातनिका है ।

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+ परमार्थस्वरूप मोक्ष का कारण दिखलाते हैं -
जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं । (155)
रागादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो ॥162॥
जीवादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं तेषामधिगमो ज्ञानम्
रागादिपरिहरणं चरणं एषस्तु मोक्षपथ: ॥१५५॥
जीवादि का श्रद्धान सम्यक् ज्ञान सम्यग्ज्ञान है
रागादि का परिहार चारित - यही मुक्तिमार्ग है ॥१५५॥
अन्वयार्थ : [जीवादीसद्दहणं] जीवादिक पदार्थों का श्रद्धान तो [सम्मत्तं] सम्यक्त्व है और [तेसिमधिगमो] उन जीवादि पदार्थों का अधिगम [णाणं] ज्ञान है तथा [रागादीपरिहरणं] रागादिक का त्याग [चरणं] चारित्र है [एसो दु मोक्खपहो] सो यही मोक्ष का मार्ग है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब जीवों को मोक्ष का परमार्थ (वास्तविक) कारण बतलाते हैं :-

मोक्ष का कारण निश्चय से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है । उनमें इस कारण ज्ञान ही परमार्थरूप से मोक्ष का कारण है ।

जयसेनाचार्य :
अब पूर्वोक्त अज्ञानी-जीवों के लिए जो वास्तव में मोक्ष का हेतु है उसे स्पष्ट कर बताते हैं --

[एसो दु मोक्खपहो] यह व्यवहार-मोक्षमार्ग है । हाँ, भूतार्थनय के द्वारा जाने हुए इस प्रकार यह निश्चय-मोक्षमार्ग हुआ ॥१६२॥

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+ परमार्थरूप मोक्ष के कारण से भिन्न कर्म का निषेध -
मोत्तूण णिच्छयट्ठं ववहारेण विदुसा पवट्टंति । (156)
परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ विहिओ ॥163॥
मुक्त्वा निश्चयार्थं व्यवहारेण विद्वांस: प्रवर्तंते
परमार्थाश्रितानां तु यतीनां कर्मक्षयो विहित: ॥१५६॥
विद्वानगण भूतार्थ तज वर्तन करें व्यवहार में
पर कर्मक्षय तो कहा है परमार्थ-आश्रित संत के ॥१५६॥
अन्वयार्थ : [विदुसा] पंडित जन [णिच्छयट्ठं] निश्चयनय के विषय को [मोत्तूण] छोड़कर [ववहारेण] व्यवहार में [पवट्टंति] प्रवृत्ति करते हैं [दु] किन्तु [परमट्ठमस्सिदाण] परमार्थभूत-आत्मस्वरूप का आश्रय करने वाले [जदीण] यतीश्वरों के ही [कम्मक्खओ विहिओ] कर्म का नाश कहा गया है ।

अमृतचंद्राचार्य :
परमार्थ-भूत मोक्ष के कारण से रहित और व्रत तप आदिक शुभ-कर्म-स्वरूप ही किन्हीं के मत में मोक्ष का हेतु है सो वह सभी निषिद्ध किया गया है, क्योंकि व्रत तप आदि अन्य-द्रव्य-स्वभाव है, उस स्वभाव से ज्ञान का परिणमन नहीं होता तथा परमार्थ-भूत मोक्ष का कारण एक द्रव्य-स्वभाव-रूप होने के कारण स्वभाव से ही ज्ञान का परिणमन होता है ।

(कलश--दोहा)
ज्ञानभाव का परिणमन, ज्ञानभावमय होय ।
एकद्रव्यस्वभाव यह, हेतु मुक्ति का होय ॥१०६॥

[एक द्रव्यस्वभावत्वात्] ज्ञान एक द्रव्य-स्वभावी होने से [ज्ञानस्वभावेन सदा] ज्ञान के स्वभाव से सदा [ज्ञानस्य भवनं वृत्तं] ज्ञान का भवन बनता है; [तत् तद् एव मोक्षहेतुः] इसलिये ज्ञान ही मोक्ष का कारण है ।

(कलश--दोहा)
कर्मभाव का परिणमन, ज्ञानरूप ना होय ।
द्रव्यान्तरस्वभाव यह, इससे मुकति न होय ॥१०७॥

[द्रव्यान्तरस्वभावत्वात्] कर्म अन्य द्रव्य-स्वभावी होने से [कर्मस्वभावेन] कर्म के स्वभाव से [ज्ञानस्य भवनं न हि वृत्तं] ज्ञान का भवन नहीं बनता; [तत्] इसलिये [कर्म मोक्षहेतुः न] कर्म मोक्ष का कारण नहीं है ।

(कलश--दोहा)
बंधस्वरूपी कर्म यह, शिवमग रोकनहार ।
इसीलिए अध्यात्म में, है निषिद्ध शतबार ॥१०८॥

[मोक्षहेतुतिरोधानात्] कर्म मोक्ष के कारण का तिरोधान करनेवाला है, और [स्वयम् एव बन्धत्वात्] वह स्वयं ही बन्ध-स्वरूप है [] तथा [मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वात्] वह मोक्ष के कारण का तिरोधायिभाव-स्वरूप है, इसीलिये [तत् निषिध्यते] उसका निषेध किया गया है ।

जयसेनाचार्य :
अब निश्चय-मोक्षमार्ग का कारण ऐसा जो शुद्धात्मा का स्वरूप उससे भिन्न जो शुभाशुभ मन, वचन, काय के व्यापार रूप कर्म है वह वास्तव में मोक्ष-मार्ग नहीं हो सकता है ऐसा आगे बतलाते हैं --

[मोत्तूण णिच्छयट्ठं ववहारेण विदुसा पवट्टंति] निश्चय के विषय को छोड़कर व्यवहार के विषय में विद्वान-ज्ञानी-जीव प्रवृत्त नहीं होते हैं, क्योंकि [परमट्ठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ होदि] सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की एकाग्रता परिणति है लक्षण जिसका, ऐसा अपने शुद्धात्मा की भावनारूप परमार्थ को आश्रय करने वाले यतियों के ही कर्मों का क्षय होता है ॥१६३॥

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+ मोक्ष के कारणभूत दर्शन, ज्ञान और चारित्र का आच्छादक कर्म -
वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो । (157)
मिच्छत्तमलोच्छण्णं तह सम्मत्तं खु णादव्वं ॥164॥
वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो । (158)
अण्णाणमलोच्छण्णं तह णाणं होदि णादव्वं ॥165॥
वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो । (159)
कसायमलोच्छण्णं तह चारित्तं पि णादव्वं ॥166॥
वस्त्रस्य श्वेतभावो यथा नश्यति मलमेलनासक्त:
मिथ्यात्वमलावच्छन्नं तथा सम्यक्त्वं खलु ज्ञातव्यम् ॥१५७॥
वस्त्रस्य श्वेतभावो यथा नश्यति मलमेलनासक्त:
अज्ञानमलावच्छन्नं तथा ज्ञानं भवति ज्ञातव्यम् ॥१५८॥
वस्त्रस्य श्वेतभावो यथा नश्यति मलमेलनासक्त:
कषायमलावच्छन्नं तथा चारित्रमपि ज्ञातव्यम् ॥१५९॥
ज्यों श्वेतपन हो नष्ट पट का मैल के संयोग से
सम्यक्त्व भी त्यों नष्ट हो मिथ्यात्व मल के लेप से ॥१५७॥
ज्यों श्वेतपन हो नष्ट पट का मैल के संयोग से
सद्ज्ञान भी त्यों नष्ट हो अज्ञानमल के लेप से ॥१५८॥
ज्यों श्वेतपन हो नष्ट पट का मैल के संयोग से
चारित्र भी त्यों नष्ट होय कषायमल के लेप से ॥१५९॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे [वत्थस्स] वस्त्र का [सेदभावो] श्वेतपना [मलमेलणासत्ते] मल के मिलने से लिप्त होता हुआ [णासेदि] नष्ट हो जाता है [तह] उसी भांति [मिच्छत्तमलोच्छण्णं] मिथ्यात्व-मल से व्याप्त हुआ [सम्मत्तं] आत्मा का सम्यक्त्व-गुण [खु] निश्चय से [णादव्वं] (आच्छादित हो रहा है ऐसा) जानना चाहिए । [जह] जैसे [वत्थस्स सेदभावो] वस्त्र का श्वेतपना [मलमेलणासत्ते] मल के मेल से लिप्त होता हुआ [णासेदि] नष्ट हो जाता है [तह] उसी प्रकार [अण्णाणमलोच्छण्णं] अज्ञान-मल से व्याप्त हुआ [णाणं] आत्मा का ज्ञान भाव [होदि णादव्वं] (आच्छादित होता है ऐसा) जानना चाहिये तथा [जह] जैसे [वत्थस्स सेदभावो] कपड़े का श्वेतपना [मलमेलणासत्ते] मल के मिलने से व्याप्त होता हुआ [णासेदि] नष्ट हो जाता है [तह] उसी तरह [कसायमलोच्छण्णं] कषाय-मल से व्याप्त हुआ [चारित्तं पि] आत्मा का चारित्र भाव भी (आच्छादित हो जाता है ऐसा) [णादव्वं] जानना चाहिये ।

अमृतचंद्राचार्य :
इस कारण मोक्ष के कारण-रूप सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र का तिरोधान करने से कर्म का निषेध किया गया है ।

जयसेनाचार्य :
अब मोक्ष के कारणभूत सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र जो जीव के गुण हैं उनका मिथ्यात्व आदि विपरीत कर्मों द्वारा वस्त्र के मैल के समान आच्छादन होता है इसे बतलाते हैं --

इस प्रकार मोक्ष के हेतुभूत आत्मा के सम्यक्त्वादि गुण हैं उनके प्रतिविरोधी मिथ्यात्व, अज्ञान और कषायभाव हैं, जो कि आत्मा के सम्यक्त्वादि गुणों को रोके हुए हैं, होने नहीं देते ।

इस प्रकार का कथन करने वाली तीन गाथाएँ हुईं ।

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+ कर्म स्वयमेव बंध है -
सो सव्वणाणदरिसी कम्मरएण णियेणावच्छण्णो । (160)
संसारसमावण्णो ण विजाणदि सव्वदो सव्वं ॥167॥
स सर्वज्ञानदर्शी कर्मरजसा निजेनावच्छन्न:
संसारसमापन्नो न विजानाति सर्वत: सर्व् ॥१६०॥
सर्वदर्शी सर्वज्ञानी कर्मरज आछन्न हो
संसार को सम्प्राप्त कर सबको न जाने सर्वत: ॥१६०॥
अन्वयार्थ : [सो] वह आत्मा स्वभावतः [सव्वणाणदरिसी] सबका जानने देखने वाला है तो भी [कम्मरएण णियेणावच्छण्णो] अपने कर्मरूपी रज से आच्छादित हुआ [संसारसमावण्णो] संसार को प्राप्त होता हुआ [सव्वदो] सब प्रकार से [सव्वं] सब वस्तु को [ण विजानाति] नहीं जानता ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिस कारण स्वयमेव ज्ञानरूप होने से सब पदार्थों को सामान्य विशेषता से जानने के स्वभाव वाला होने पर भी ज्ञान अनादिकाल से अपने पुरुषार्थ के अपराध से प्रवर्तमान कर्म-रूप मल से आच्छादितपना होने के कारण परभाव-बन्धरूप बंधावस्था में सब प्रकार के सब ज्ञेयाकार-रूप अपने स्वरूप को नहीं जानता हुआ अज्ञान-भाव से ही यह आप स्थित है । इस कारण निश्चय हुआ कि कर्म स्वयं ही बंध-स्वरूप है । इसीलिये स्वयं बंध-रूप होने से कर्म का प्रतिषेध किया गया है ।

जयसेनाचार्य :
जबकि कर्म स्वयं बंध का हेतु है फिर वह मोक्ष का कारण कैसे हो सकता है ऐसा आगे बताते हैं --

[सो सव्वणाणदरिसी कम्मरएण णियेणावच्छण्णो] वह आत्मा शुद्ध-निश्चयनय से समस्त पदार्थों के देखने-जाननेरूप दर्शन और ज्ञानस्वभाव वाला है फिर भी अपने किये हुए कर्मरूपी मैल से ढंका हुआ है । [संसारसमावण्णो ण विजाणदि सव्वदो सव्वं] संसार-सम्पन्न है -- रागी-द्वेषी हो रहा है, अत: संसार में उलझा हुआ है इसलिए सर्व-वस्तुओं को सब प्रकार से नहीं जान रहा है । इसलिए यह मानना पड़ता है कि कर्म स्वयं ही जीव के लिए बंध-स्वरूप है इससे यह कर्म मोक्ष का कारण कैसे हो सकता है ? और जब मोक्ष का कारण नहीं हो सकता तो फिर वह कर्म चाहे पापरूप हो या पुण्यरूप सारा का सारा बंध का ही कारण समझना चाहिए । इस प्रकार जैसे पाप बंध का कारण है वैसे पुण्य भी बंध का कारण है इस प्रकार का कथन गाथा में हुआ ॥१६७॥

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+ कर्म का मोक्ष-हेतु-तिरोधायीपना -
सम्मत्तपडिणिबद्धं मिच्छत्तं जिणवरेहि परिकहियं । (161)
तस्सोदयेण जीवो मिच्छादिट्ठि त्ति णादव्वो ॥168॥
णाणस्स पडिणिबद्धं अण्णाणं जिणवरेहि परिकहियं । (162)
तस्सोदयेण जीवो अण्णाणी होदि णादव्वो ॥169॥
चारित्तपडिणिबद्धं कसायं जिणवरेहि परिकहियं । (163)
तस्सोदयेण जीवो अचरितत्तो होदि णादव्वो ॥170॥
सम्यक्त्वप्रतिनिबद्धं मिथ्यात्वं जिनवरै: परिकथितम्
तस्योदयेन जीवो मिथ्यादृष्टिरिति ज्ञातव्य: ॥१६१॥
ज्ञानस्य प्रतिनिबद्धं अज्ञानं जिनवरै: परिकथितम्
तस्योदयेन जीवोऽज्ञानी भवति ज्ञातव्य: ॥१६२॥
चारित्रप्रतिनिबद्ध: कषायो जिनवरै: परिकथित:
तस्योदयेन जीवोऽचारित्रो भवति ज्ञातव्य: ॥१६३॥
सम्यक्त्व प्रतिबंधक करम मिथ्यात्व जिनवर ने कहा
उसके उदय से जीव मिथ्यादृष्टि होता है सदा ॥१६१॥
सद्ज्ञान प्रतिबंधक करम अज्ञान जिनवर ने कहा
उसके उदय से जीव अज्ञानी बने - यह जानना ॥१६२॥
चारित्र प्रतिबंधक करम जिन ने कषायों को कहा
उसके उदय से जीव चारित्रहीन हो यह जानना ॥१६३॥

अन्वयार्थ : [सम्मत्तपडिणिबद्धं] सम्यक्त्व को रोकने वाला [मिच्छत्तं] मिथ्यात्व है ऐसा [जिणवरेहि] जिनवर-देवों ने [परिकहियं] कहा है [तस्सोदयेण] उसके उदय से [जीवो] यह जीव [मिच्छादिट्ठि] मिथ्यादृष्टि हो जाता है [त्ति णादव्वो] ऐसा जानना चाहिये । [णाणस्स पडिणिबद्धं] ज्ञान को रोकने वाला [अण्णाणं] अज्ञान है ऐसा [जिणवरेहि परिकहियं] जिनवर देवों ने कहा है [तस्सोदयेण] उसके उदय से [जीवो] यह जीव [अण्णाणी होदि] अज्ञानी होता है ऐसा [णादव्वो] जानना चाहिए । [चारित्तपडिणिबद्धं] चारित्र को रोकने वाला [कसायं] कषाय है ऐसा [जिणवरेहि परिकहियं] जिनेन्द्र-देवों ने कहा है [तस्सोदयेण] उसके उदय से [जीवो] यह जीव [अचरित्तो होदि] अचारित्री हो जाता है ऐसा [णादव्वो] जानना चाहिये ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब, यह बतलाते हैं कि कर्म मोक्ष के कारण के तिरोधायिभाव-स्वरूप है -

इसलिये, स्वयं मोक्ष के कारण का तिरोधायिभाव-स्वरूप होने से कर्म का निषेध किया गया है ।

(कलश--हरिगीत)
त्याज्य ही हैं जब मुमुक्षु के लिए सब कर्म ये ।
तब पुण्य एवं पाप की यह बात करनी किसलिए ॥
निज आतमा के लक्ष्य से जब परिणमन हो जायगा ।
निष्कर्म में ही रस जगे तब ज्ञान दौड़ा आएगा ॥१०९॥

[मोक्षार्थिना इदं समस्तम् अपि तत् कर्म एव संन्यस्तव्यम्] मोक्षार्थी को यह समस्त ही कर्ममात्र त्याग करने योग्य है । [संन्यस्ते सति तत्र पुण्यस्य पापस्य वा किल का कथा] जहाँ समस्त कर्म का त्याग किया जाता है फिर वहाँ पुण्य या पाप की क्या बात है ? [सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनात् मोक्षस्य हेतुः भवन्] सम्यक्त्वादि अपने स्वभावरूप होने (परिणमन करने) से मोक्ष का कारणभूत होता हुआ, [नैष्कर्म्यप्रतिबद्धम् उद्धतरसं] निष्कर्म अवस्था के साथ जिसका उद्धत (उत्कट) रस प्रतिबद्ध है ऐसा [ज्ञानं स्वयं धावति] ज्ञान अपने आप दौड़ा चला आता है ।

(कलश--हरिगीत)
यह कर्मविरति जबतलक ना पूर्णता को प्राप्त हो ।
हाँ, तबतलक यह कर्मधारा ज्ञानधारा साथ हो ॥
अवरोध इसमें है नहीं पर कर्मधारा बंधमय ।
मुक्तिमारग एक ही है, ज्ञानधारा मुक्तिमय ॥११०॥

[यावत् ज्ञानस्य कर्मविरतिः] जब तक ज्ञान द्वारा कर्म-विरति [सासम्यक् पाकम् न उपैति] भलिभाँति परिपूर्णता को प्राप्त नहीं होती [तावत् ] तब तक [कर्मज्ञानसमुच्चयः अपि विहितः, न काचित् क्षतिः ] कर्म और ज्ञान का एकत्रितपना शास्त्र में कहा है; उसके एकत्रित रहने में कोई भी क्षति या विरोध नहीं है । [किन्तु अत्र अपि] किन्तु यहाँ भी [अवशतः यत् कर्म समुल्लसति] अवशपनें जो कर्म प्रगट होता है [तत् बन्धाय] वह तो बंध का कारण है, और [मोक्षाय] मोक्ष का कारण तो, [एकम्एव परमं ज्ञानं स्थितम्] जो एक परम ज्ञान है वह एक ही है - [स्वतः विमुक्तं] जो कि अपने आप में मुक्त है ।

(कलश--हरिगीत)
कर्मनय के पक्षपाती ज्ञान से अनभिज्ञ हों ।
ज्ञाननय के पक्षपाती आलसी स्वच्छन्द हों ॥
जो ज्ञानमय हों परिणमित परमाद के वश में न हों ।
कर्म विरहित जीव वे संसार-सागर पार हों ॥१११॥

[कर्मनयावलम्बनपराः मग्नाः ] कर्मनय के आलम्बन में तत्पर (अर्थात् कर्मनय के पक्षपाती) पुरुष डूबे हुए हैं, [यत् ज्ञानं न जानन्ति] क्योंकि वे ज्ञान को नहीं जानते । [ज्ञाननय-एषिणः अपि मग्नाः] ज्ञाननय के इच्छुक (पक्षपाती) पुरुष भी डूबे हुए हैं, [यत् अतिस्वच्छन्दमन्द-उद्यमाः] क्योंकि वे स्वच्छंदता से अत्यन्त मन्द-उद्यमी हैं । [ते विश्वस्य उपरितरन्ति] वे जीव विश्व के ऊपर तैरते हैं [ये स्वयं सततं ज्ञानं भवन्तः कर्म न कुर्वन्ति] जो कि स्वयं निरन्तर ज्ञानरूप होते हुए कर्म नहीं करते [च जातु प्रमादस्य वशंन यान्ति] और कभी भी प्रमादवश भी नहीं होते ।

(कलश--हरिगीत)
जग शुभ अशुभ में भेद माने मोह मदिरापान से ।
पर भेद इनमें है नहीं जाना है सम्यग्ज्ञान से ॥
यह ज्ञान-ज्योति तमविरोधी खेले केवलज्ञान से ।
जयवंत हो इस जगत में जगमगे आतमज्ञान से ॥११२॥

[पीतमोहं] मोहरूपी मदिरा के पीने से [भ्रमरस-भरात् भेदोन्मादं नाटयत्] भ्रमरस के भार से (अतिशयपने से) शुभाशुभ कर्म के भेदरूपी उन्माद को जो नचाता है [तत् सकलम् अपि कर्म] ऐसे समस्त कर्म को [बलेन मूलोन्मूलं कृत्वा] बलपूर्वक जड़ से उखाड़कर [ज्ञानज्योतिः भरेण प्रोज्जजृम्भे] ज्ञान-ज्योति अत्यन्त सामर्थ्य सहित प्रगट होने से [कवलिततमः] अज्ञानरूपी अंधकार को ग्रस लिया, [हेला-उन्मिलत्] जो लीलामात्र से (सहज पुरुषार्थ से) विकसित होती जाती है और [परमकलया सार्धम् आरब्धकेलि] जिसने परम कला (केवलज्ञान) के साथ क्रीड़ा प्रारम्भ की है ।

पुण्य-पापरूप से दो पात्रों के रूप में नाचनेवाला कर्म एक पात्ररूप होकर (रंगभूमि में से) बाहर निकल गया ।

इसप्रकार श्री समयसार की (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसारपरमागम की) श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेव विरचित आत्मख्याति नामक टीका में पुण्य-पाप का प्ररूपक तीसरा अङ्क समाप्त हुआ ।

जयसेनाचार्य :
अभी तक यह बतलाया गया है कि मोक्ष के हेतुभूत जो जीव के सम्यक्त्वादि-गुण हैं, वे मिथ्यात्वादिकर्म के द्वारा ढंके हुए हैं, किन्तु अब आगे यह बतलाते हैं की उन सम्यक्त्वादि-गुणों का आधारभूत जो गुणी जीव है, वह मिथ्यात्वादि कर्मों से अच्छादित हो रहा है --

जिन भगवान ने बतलाया है कि सम्यक्त्व को रोकने वाला उसका प्रतिपक्षभूत मिथ्यात्व नाम का कर्म है जिसके उदय से यह जीव मिथ्यादृष्टि बन रहा है ऐसा जानना चाहिये । ज्ञान को रोकने वाला उसका प्रतिपक्षभूत अज्ञान है ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है । उसके उदय से जीव अज्ञानी है ऐसा जानना चाहिए । इसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान, ने बतलाया है कि चारित्र को रोकने वाला उसका प्रतिपक्षभूत क्रोधादि-कषाय है जिसके उदय से यह जीव चारित्र से रहित अचारित्री हो रहा है ऐसा जानना चाहिये । इस प्रकार मोक्ष का कारणभूत जो यह जीव गुणी है, उसके आवरण के कथन की मुख्यता से तीन गाथायें पूर्ण हुई ।

साराँश यह है कि सम्यकत्वादि जीव के गुण हैं सो ये मुक्ति के कारण हैं अथवा उन गुणों में परिणमन करने वाला जीव स्वयं मोक्ष का कारण है । किन्तु उस शुद्धजीव से पृथग्भूत जो शुभ व अशुभ मन-वचन-काय के व्यायापाररूप-कर्म हैं अथवा उस व्यापार से उपार्जित किये हुए अदृष्टरूप शुभाशुभ-कर्म हैं वे मोक्ष के कारण नहीं हैं । अत: वे हेय हैं, त्याज्य हैं इस प्रकार के व्याख्यान से नव-गाथायें पूर्ण हुईं । दुसरी पातनिका के अभिप्राय से पापाधिकार के व्याख्यान की मुख्यता से कथन पूर्ण हुआ ॥१६८-१७०॥

यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि इस अधिकार में आचार्य ने [जावादीसद्दहणं] इत्यादि रूप से व्यवहार-रत्नत्रय का कथन किया है फिर यह पापाधिकार कैसे हो सकता है ? इस शंका का उत्तर यह है कि यद्यपि व्यवहार-मोक्षमार्ग, निश्चय-रत्नत्रय जो उपादेयभूत है, उसका कारण होने से उपादेय है / ग्रहण करने योग्य है तथा परम्परा से जीव की पवित्रता का कारण है, इससे पवित्र भी है तथापि बाह्य-द्रव्यों के अवलम्बन को लिए हुए होता है इसलिए पराधीन होने से वह नाश को प्राप्त होता है यह एक कारण है । दूसरा कारण यह है कि निर्विकल्प-समाधि में तत्पर होने वाले योगियों का अपने शुद्धात्म-स्वरूप से पतन व्यवहार-विकल्पों के अवलंबन से हो जाता है । इसलिए व्यवहार-मोक्षमार्ग पाप रूप है अथवा इस अधिकार से सम्यक्त्वादि जीव के गुणों से प्रतिपक्षी मिथ्यात्व आदि भावना का व्याख्यान किया गया है इससे भी यह पापाधिकार है ।

इस प्रकार व्यवहारनय से कर्म यद्यपि पुण्य-पापरुप दो प्रकार का है तथापि निश्चयनय की अपेक्षा तो श्रंगार-रहित पात्र के समान पुदुगल-रूप से एक-रूप होकर रंग-भूमि से निकल गया ।

इस प्रकार श्री जयसेनाचार्य कृत शुद्धात्मा की अनुभूति लक्षण को रखने वाली तात्पर्यवृत्ति नाम की समयसार के व्याख्यान में तीन स्थल के समुदायरूप से १९ गाथाओं द्वारा यह पुण्य-पापाधिकार नाम का चौथा प्रकरण समाप्त हुआ । इति चतुर्थाधिकार: समाप्त: ।

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आस्रव अधिकार



+ आस्रव का स्वरूप -
मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य सण्णसण्णा दु । (164)
बहुविहभेया जीवे तस्सेव अणण्णपरिणामा ॥171॥
णाणावरणादीयस्स ते दु कम्मस्स कारणं होंति । (165)
तेसिं पि होदि जीवो य रागदोसादिभावकरो ॥172॥
मिथ्यात्वमविरमणं कषाययोगौ च संज्ञासंज्ञास्तु
बहुविधभेदा जीवे तस्यैवानन्यपरिणामा: ॥१६४॥
ज्ञानावरणाद्यस्य ते तु कर्मण: कारणं भवंति
तेषामपि भवति जीवश्च रागद्वेषादिभावकर: ॥१६५॥
मिथ्यात्व अविरति योग और कषाय चेतन-अचेतन
चितरूप जो हैं वे सभी चैतन्य के परिणाम हैं ॥१६४॥
ज्ञानावरण आदिक अचेतन कर्म के कारण बने
उनका भी तो कारण बने रागादि कारक जीव यह ॥१६५॥
अन्वयार्थ : [मिच्छत्तं अविरमणं] मिथ्यात्व, अविरति [य कसायजोगा] और कषाय योग [सण्णसण्णा दु] ये (चार आस्रव) संज्ञ व असंज्ञ हैं (चेतना के विकाररूप और जड़-पुद्गल के विकाररूप ऐसे भिन्न-भिन्न हैं); [जीवे बहुविहभेया] जीव में प्रकट हुए बहुत भेद वाले (संज्ञ आस्रव हैं वे) [तस्सेव अणण्णपरिणामा] उस जीव के ही अभेदरूप परिणाम हैं [दु ते] परन्तु वे (असंज्ञ आस्रव) [णाणावरणादीयस्स] ज्ञानावरण आदि [कम्मस्स कारणं होंति] कर्म के बंधने के कारण हैं और [तेसिं पि] उन का (असंज्ञ आस्रवों के नवीन कर्मबंध का निमित्तपना होने का निमित्त) भी [रागदोसादिभावकरो] राग-द्वेष आदि भावों का करने वाला [जीवो होदि] जीव होता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब आस्रव प्रवेश करता है --

(कलश--हरिगीत)
सारे जगत को मथ रहा उन्मत्त आस्रवभाव यह ।
समरांगण में समागत मदमत्त आस्रवभाव यह ॥
मर्दन किया रणभूमि में इस भाव को जिस ज्ञान ने ।
वह धीर है गंभीर है हम रमें नित उस ज्ञान में ॥११३॥

[अथ समररंगपरागतम्] अब समरांगण में आये हुए, [महामदनिर्भरमन्थरं आस्रवम्] महामद से भरे हुए मदोन्मत्त आस्रव को [अयम् दुर्जयबोधधनुर्धरः जयति] यह दुर्जय ज्ञान-धनुर्धर जीत लेता है - [उदारगभीरमहोदयः] कि जिस ज्ञानरूप बाणावली का महान् उदय उदार है (आस्रव को जीतनेके लिये जितना पुरुषार्थ चाहिए उतना वह पूरा करता है) और गंभीर है (अर्थात् छद्मस्थ जीव जिसका पार नहीं पा सकते)

राग-द्वेष मोह ही आस्रव हैं जो कि अपने परिणाम के निमित्त से हुए हैं सो जड़पना न होने पर वे चिदाभास हैं याने उनमें चैतन्य का आभास है क्योंकि मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग पुद्गल के परिणाम ज्ञानावरण आदि पुद्गलों के आने के निमित्त होने से वे प्रकट आस्रव तो हैं, किन्तु उन असंज्ञ आस्रवों में ज्ञानावरणादि कर्मों के आगमन के निमित्तपना के निमित्त हैं, आत्मा के अज्ञानमय राग, द्वेष, मोह परिणाम । इस कारण नवीन मिथ्यात्व आदिक कर्म के आस्रव के निमित्तपना का निमित्तपना होनेसे राग द्वेष मोह ही आस्रव हैं और वे अज्ञानी के ही होते हैं ऐसा तात्पर्य गाथा के अर्थ में से ही प्राप्त होता है ।

जयसेनाचार्य :
जहां पर सम्यक्-रूप से भेदभावना में परिणत जो कारण-समयसार रूप संवर नहीं होता, वहां आस्रव होता है, जो कि संवर का प्रतिपक्षी है । उसी आस्रव का व्याख्यान आचार्य देव १७ गाथाओं में करते हैं । उसमें इस प्रकार सब मिला कर पाँच स्थानों की १७ गाथाओं से आने वाले आस्रव-अधिकार की समुदाय पातनिका हुई ।

आगे द्रव्य और भाव आस्रव का स्वरूप कहते हैं --

[मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य सण्णसण्णा दु] यहाँ 'सण्णसण्णा' इसमें प्राकृत व्याकरण के अनुसार अकार का लोप हो गया है । मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगरूप बंध के कारण ये भाव और द्रव्य के भेद से दो प्रकार के होते है । उनमें से भाव-प्रत्यय चेतन-स्वरूप व द्रव्य-प्रत्यय जड़-स्वरूप हैं, अथवा आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार संज्ञायें है । और, इहलोक की आकांक्षा, परलोक की आकांक्षा तथा कुधर्म की आकांक्षा-रूप तीन असंज्ञायें है अर्थात ईषत् संज्ञायें है । ये कैसी है कि ? [बहुविहभेया जीवे] आधारभूत जीव में वे संज्ञायें उत्तर-भेद से अनेक प्रकार की होती हैं । [तस्सेव अणण्णपरिणामा] जो कि अशुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा से उस जीव के परिणाम-स्वरूप उससे अभिन्न होते हैं । [णाणावरणादीयस्स ते दु कम्मस्स कारणं होंति] उदय में आये हुए जो पूर्वोक्त मिथ्यात्वादि द्रव्य-प्रत्यय हैं, वे निश्चय-चारित्र के साथ में अविनाभाव रखने वाले अर्थात् उसके बिना नहीं होने वाले वीतराग-सम्यग्दर्शन के अभाव में शुद्धात्मीक-स्वरूप से च्युत होने वाले जीवों के ज्ञानावरणादि आठ प्रकार द्रव्य-क्रर्मास्रव के कारण होते हैं । [तेसिं पि होदि जीवो य रागदोसादिभावकरो] और इन द्रव्य-प्रत्ययों का भी कारण, राग-द्वेषादि भावों का करने वाला तद्रूप परिणत रहने वाला संसारी-जीव होता है ।

भावार्थ यह है कि पूर्व में बाँधे हुए द्रव्य-कर्मों का उदय होने पर जब यह जीव अपने शुद्धात्म-स्वरूप की भावना को छोड़कर रागादिरूप में परिणमन करता है, तब इसके नवीन-द्रव्य-कर्मों का बंध होता है । किन्तु केवल द्रव्य-प्रत्ययों के उदयमात्र से बन्ध नहीं होता । क्योंकि यदि उदयमात्र से ही बंध होने लगे तो संसार बना ही रहेगा-कभी उसका अन्त नहीं हो सकता, क्योंकि संसारी जीवों के कर्मों का उदय सदा ही बना रहता है । इस पर शिष्य शंका करता है कि कर्मोदय तो बंध का कारण नहीं ठहरा ? आचार्य समाधान करते हैं कि यह बात नहीं है क्योंकि निर्विकल्प-समाधि से भ्रष्ट होने वाले जीवों के कर्म का उदय मोह सहित ही होता है, जो कि व्यवहार से कर्म-बंध का निमित्त होता है, किन्तु निश्चयनय से तो अशुद्ध-उपादान है कारण जिसका ऐसा जीव का अपना रागादि-अज्ञान भाव ही कर्म-बंध का कारण है ॥१७१-१७२॥

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+ ज्ञानी के उन आस्रवों का अभाव -
णत्थि दु आसवबंधो सम्मादिट्ठिस्स आसवणिरोहो । (166)
संते पुव्वणिबद्धे जाणदि सो ते अबंधंतो ॥173॥
नास्ति त्वास्रवबन्ध: सम्यग्दृष्टेरास्रवनिरोध:
संति पूर्वनिबद्धानि जानाति स तान्यबध्नन् ॥१६६॥
है नहीं आस्रव बंध क्योंकि आस्रवों का रोध है
सद्दृष्टि उनको जानता जो कर्म पूर्वनिबद्ध हैं ॥१६६॥
अन्वयार्थ : [सम्मादिट्ठिस्स] सम्यग्दृष्टि के [आसवबंधो] आस्रव बंध [णत्थि] नहीं है [दु] किंतु [आसवणिरोहो] आस्रव का निरोध है [ते] उनको [अबंधंतो] नहीं बांधता हुआ [सो] वह [संते] सत्ता में मौजूद [पुव्वणिबद्धे] पहले बाँधे हुए कर्मों को [जाणदि] मात्र जानता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
चूँकि वास्तव में ज्ञानी के ज्ञानमय भावों से परस्पर विरोधी अज्ञानमय भाव रुक जाते हैं इस कारण आस्रवभूत राग, द्वेष, मोह भावों के निरोध से ज्ञानी के आस्रव का निरोध होता ही है । इसलिये ज्ञानी, आस्रव-निमित्तक ज्ञानावरण आदि पुद्गल कर्मों को नहीं बांधता । किन्तु सदा उन कर्मों का अकर्ता होने से नवीन कर्मों को नहीं बाँधता हुआ पहले बंधे हुए सत्तारूप अवस्थित उन कर्मों को केवल जानता ही है ।

जयसेनाचार्य :
अब आगे बतलाते हैं कि वीतराग स्व-संवेदन-ज्ञान के धारक जीव के रागद्वेष-मोहरूप-भावास्रवों का अभाव है---

[णत्थि] इत्यादि पदों का पृथक्-पृथक् अर्थ बतलाते हैं की [णत्थि दु आसवबंधो सम्मादिट्ठिस्स आसवणिरोहो] यहाँ गाथा में आस्रव और बंध इन दोनों को समाहार-द्वंद्व समास-रूप किया है, अत: द्विवचन के स्थान पर एक वचन है । कर्मों का आस्रव और बंध सम्यग्दृष्टि जीव के नहीं होता उसके तो, आस्रव का निरोध ही है लक्षण जिसका ऐसा, संवर होता है ।

[सो ते] वह सम्यग्दृष्टि जीव [संते ते पुव्वणिबद्धे] सत्ता में विद्यमान पूर्व निबद्ध-ज्ञानावरणादि कर्म उनको अथवा प्रत्ययों की अपेक्षा से कहें तो पूर्व-निबद्ध-मिथ्यात्वादि-प्रत्ययों को, [जाणदि] जैसा उनका स्वरूप है वैसा ही जानता रहता है । क्या करता हुआ जानता है कि [अबंधंतो] विशिष्ट भेद-ज्ञान के बल से वह नवीन-कर्मों को नहीं बांधता हुआ जानता है । भावार्थ यह कि सम्यग्दृष्टि-जीव सराग और वीतराग के भेद से दो प्रकार के हैं । उनमें से वीतराग सम्यग्दृष्टि-जीव तो नवीन-कर्म-बंध को सर्वथा नहीं करता, जिसको कि लक्ष्य में लेकर यहाँ कथन किया गया है, किन्तु सराग-सम्यग्दृष्टि जीव अपने-अपने गुणस्थान के क्रम से बंध-व्युच्छित्ति करने वाला होता है जैसा कि "सोलसपणवीसणभं दसचउछक्केक बंधवोच्छिन्ना । दुगतीसचदुरपुव्वेपणसोलसजोगिणो इक्को ।" इत्यादि बंध त्रिभंगि में बताये हुये बंध विच्छेद के क्रम से विचार कर देखें तो चतुर्थ-गुणस्थानवर्ती अविरत-सम्यग्दृष्टि-जीव मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में व्युच्छिन्न हुई ४३ प्रकृतियों का बन्ध करने वाला नहीं होता, किंतु ७७ प्रकृतियों का अल्पस्थिति-अनुभाग के रूप में बंधक भी होते हुए वह संसार की स्थिति का छेदक होता है परीत-संसारी बन कर रहता है । इस कारण से वह अबंधक ईषत् बंधकार होता है । इसप्रकार अविरत-चतुर्थ-गुणस्थान से ऊपर के गुणस्थानों में भी जहाँ तक सराग-सम्यग्दर्शन रहता है वहाँ तक जहाँ जैसा संभव है वहाँ तारतम्य-रूप से निचले गुणस्थानों की अपेक्षा से अबंधक होता जाता है । किन्तु उपरिम गुणस्थानों की अपेक्षा से देखने पर वह बंधक भी है । हां, जहाँ सराग-सम्यकत्व के आगे वीतराग-सम्यकत्व होता है वह साक्षात् स्पष्ट रूप से अबंधक होता है । इससे यह निष्कर्ष निकला कि हम भी सम्यग्दृष्टि हैं और सम्यग्दृष्टि के बंध नहीं होता इसलिये हमें भी बंध नहीं होता ऐसा नहीं समझना चाहिये । क्योंकि यहाँ पर जितना भी कथन है वह वीतराग सम्यग्दृष्टि को लक्ष्य में लेकर किया गया है जैसा कि आचार्य देव ने स्थान-स्थान पर वर्णन किया है ॥१७३॥

इस प्रकार आस्रव का विपक्षी जो संवर, उसकी संक्षेप से सूचना के व्याख्यान की मुख्यता से तीन गाथायें पूर्ण हुईं ।

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+ राग, द्वेष, मोह भावों के ही आस्रवपना -
भावो रागादिजुदो जीवेण कदो दु बंधगो भणिदो । (167)
रागादिविप्पमुक्को अबंधगो जाणगो णवरि ॥174॥
भावो रागादियुतो जीवेन कृतस्तु बंधको भणित:
रागादिविप्रमुक्तोऽबंधको ज्ञायक: केवलम् ॥१६७॥
जीवकृत रागादि ही बंधक कहे हैं सूत्र में
रागादि से जो रहित वह ज्ञायक अबंधक जानना ॥१६७॥
अन्वयार्थ : [जीवेण कदो] जीव के द्वारा किया गया [रागादिजुदो भावो] रागादियुक्त भाव [बंधगो भणिदो] नवीन कर्म का बंध करने वाला कहा गया है [दु] परंतु [रागादिविप्पमुक्को] रागादिक भावों से रहित भाव [अबंधगो] बंध करने वाला नहीं है, [णवरि] केवल [जाणगो] जानने वाला ही है ।

अमृतचंद्राचार्य :
वास्तव में इस आत्मा में राग, द्वेष, मोह के मिलाप से उत्पन्न हुआ भाव (अज्ञान मय ही भाव) आत्मा को कर्म करने के लिये प्रेरित करता है जैसे कि चुंबक-पत्थर के सम्बन्ध से उत्पन्न हुआ भाव लोहे की सुई को चलाता है, परन्तु उन रागादिकों के भेदज्ञान से उत्पन्न हुआ ज्ञानमय भाव स्वभाव से ही आत्मा को कर्म करने में अनुत्सुक रखता है जैसे कि चुम्बक-पाषाण के संसर्ग बिना सुई का स्वभाव चलने रूप नहीं है इस कारण रागादिकों से मिला हुआ अज्ञानमय भाव ही कर्म के कर्तृत्व में प्रेरक होने के कारण नवीन बंध का करने वाला है, परन्तु रागादिक से न मिला हुआ भाव अपने स्वभाव का प्रगट करने वाला होने से केवल जानने वाला ही है, वह नवीन कर्म का किन्चित्मात्र भी बंध करने वाला नहीं है ।

जयसेनाचार्य :
इससे आगे यह निश्चय करते हैं कि राग-द्वेष और मोह, ये ही आस्रव हैं --

[भावो रागादिजुदो जीवेण कदो दु बंधगो होवि] जैसे कि चुम्बक-पाषाण के संसर्ग से उत्पन्न हुआ परिणाम-विशेष वह लोहे की सूची को हिलाने-डुलाने वाला होता है, वैसे ही जीव के द्वारा किया हुआ रागादिरूप अज्ञान-भाव ही / जीव का वह परिणाम विशेष ही, जो यह जीव अपने सहज शुद्ध भाव के द्वारा सदानन्दमय, कभी भी नष्ट नहीं होने वाला, सदा से बना रहने वाला, अनन्त-शक्ति का धारक एवं किसी भी प्रकार के दु:संसर्ग से रहित, स्वयं उद्योतमान होने वाला है, उस जीव को उसके शुद्ध रूप से चिगाकर कर्म-बन्ध करने के लिए प्रेरित करता है । [रागादिविप्पमुक्को अबंधगो जाणगो णवरि] किन्तु जिस प्रकार चुम्बक पत्थर के संसर्ग से रहित भाव लोहे की सुई को नहीं हिलाता है, उसी प्रकार रागादि से रहित जो भाव है वह अबन्धक होता है, वह जीव को कर्म-बन्ध करने के लिए प्रेरित नहीं करता, वह तो इसे पूर्वोक्त शुद्ध-स्वभाव में ही स्थिर कर रखता है, अर्थात् ज्ञाता-दृष्टा रखता है ।

इस कथन से यह जाना जाता है कि किसी भी प्रकार के संसर्ग से रहित चिच्चमत्कार मात्र जो परमात्मा पदार्थ है उससे भिन्न स्वरूप जो राग-द्वेष-मोह रूप भाव, वे बन्ध के कारण हैं ॥१७४॥

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+ रागादिक से न मिले ज्ञानमय भाव संभव -
पक्के फलम्हि पडिए जह ण फलं बज्झए पुणो विंटे । (168)
जीवस्स कम्मभावे पडिए ण पुणोदयमुवेदि ॥175॥
पक्वे फले पतिते यथा न फलं बध्यते पुनर्वृन्तै:
जीवस्य कर्मभावे पतिते न पुनरुदयमुपैति ॥१६८॥
पक्वफल जिसतरह गिरकर नहीं जुड़ता वृक्ष से
बस उसतरह ही कर्म खिरकर नहीं जुड़ते जीव से ॥१६८॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे [पक्के फलम्हि पडिए] पके फल के गिर जाने पर [पुणो] फिर [फलं] वह फल [विंटे] उस डंठल में [ण बज्झए] नहीं बंधता, उसी तरह [जीवस्स] जीव के [कम्मभावे] कर्मभाव के [पडिए] झड़ जाने पर [पुणोदयमुवेदि] फिर वह उदय को प्राप्त नहीं होता ।

अमृतचंद्राचार्य :
जैसे पका हुआ फल गुच्छे से एक बार पृथक् होता हुआ वह फल फिर गुच्छे से सम्बन्धित नहीं होता, उसी प्रकार कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ भाव एक बार भी जीवभाव से पृथक् होता हुआ फिर जीव भाव को प्राप्त नहीं होता । इस प्रकार रागादिक से न मिला हुआ भाव ज्ञानमय ही संभव है ।

(कलश--हरिगीत)
इन द्रव्य कर्मों के पहाड़ों के निरोधक भाव जो ।
हैं राग-द्वेष-विमोह बिन सद्ज्ञान निर्मित भाव जो ॥
भावास्रवों से रहित वे इस जीव के निजभाव हैं ।
वे ज्ञानमय शुद्धात्ममय निज आत्मा के भाव हैं ॥११४॥

[जीवस्य यः रागद्वेषमोहैः बिना] जीवका जो राग-द्वेष-मोह रहित, [ज्ञाननिर्वृत्तः एव भावः] ज्ञान से ही रचित भाव [स्यात्] है और [सर्वान् द्रव्यकर्मास्रव-ओघान्रुन्धन्] जो सर्व द्रव्य-कर्म के आस्रव-समूह को रोकनेवाला है, [एषः सर्व-भावास्रवाणाम् अभावः] वह (ज्ञानमय) भाव सर्व भावास्रव के अभाव-स्वरूप है ।

जयसेनाचार्य :
यह रागादि से रहित शुद्ध-भाव कैसे होता है यह आगे बतलाते हैं --

[पक्के फलम्हि पडिए जह ण फलं बज्झए पुणो विंटे] जैसे पक्के फल के गिर जाने पर फिर वह टहनी में वापिस नहीं लगता । [जीवस्स कम्मभावे पडिए ण पुणोदयमुवेदि] उसी प्रकार तत्वज्ञानी जीव के साता-वेदनीय व असाता-वेदनीय के उदय-जनित सुख-दु:खरूप कर्मों की अवस्था, फल देकर झड़ जाने पर फिर वह कर्म-बंध को प्राप्त नहीं होता और न फिर उदय में ही आता है । क्योंकि ज्ञानी जीव के राग-द्वेष और मोहभाव नहीं होता है इसलिए रागादि भावों के नहीं होने से उसके शुद्ध-भाव हो जाता है अत: उस सम्यग्दृष्टि जीव के, विकार से रहित स्व-संवेदन ज्ञान के बल से संवर पूर्वक निर्जरा ही होती है -- ऐसा समझना चाहिए ॥१७५॥

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+ ज्ञानी के द्रव्यास्रव का अभाव -
पुढवीपिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दु पच्चया तस्स । (169)
कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सव्वे वि णाणिस्स ॥176॥
पृथ्वीपिंडसमाना: पूर्वनिबद्धास्तु प्रत्ययास्तस्य
कर्मशरीरेण तु ते बद्धा: सर्वेऽपि ज्ञानिन: ॥१६९॥
जो बँधे थे भूत में वे कर्म पृथ्वीपिण्ड सम
वे सभी कर्म शरीर से हैं बद्ध सम्यग्ज्ञानि के ॥१६९॥
अन्वयार्थ : [तस्स णाणिस्स] उस ज्ञानी के [पुव्वणिबद्धा] पहले बँधे हुए [सव्वे वि] सभी [पच्चया] कर्म [पुढवीपिंडसमाणा] पृथ्वी के पिंड समान हैं [दु] और [ते] वे [कम्मसरीरेण] कार्मण शरीर के साथ [बद्धा] बंधे हुए हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
जो पहले अज्ञान से बाँधे मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग रूप द्रव्यास्रव-भूत प्रत्यय हैं वे ज्ञानी के अन्य द्रव्यरूप अचेतन पुद्गल-द्रव्य के परिणाम होने से पृथिवी के पिंड समान हैं । और वे सभी अपने पुद्गल-स्वभाव से कार्मण शरीर से ही एक होकर बँधे हैं, परन्तु जीव से नहीं बँधे हैं । इस कारण ज्ञानी के द्रव्यास्रव का अभाव स्वभाव से ही सिद्ध है ।

(कलश--दोहा)
द्रव्यास्रव से भिन्न है, भावास्रव को नाश ।
सदा ज्ञानमय निरास्रव, ज्ञायकभाव प्रकाश ॥११५॥

[भावास्रव-अभावम् प्रपन्नः ] भावास्रवों के अभाव को प्राप्त और [द्रव्यास्रवेभ्यः स्वतः एव भिन्नः] द्रव्यास्रवों से तो स्वभाव से ही भिन्न [अयं ज्ञानी] यह ज्ञानी [सदा ज्ञानमय-एक -भावः] जो कि सदा एक ज्ञानमय भाववाला है [निरास्रवः] निरास्रव ही है, [एक : ज्ञायक : एव] मात्र एक ज्ञायक ही है ।

जयसेनाचार्य :
आगे, ज्ञानी जीव के नवीन द्रव्यास्रव भी नहीं होता ऐसा दिखलाते हैं --

[पुढवीपिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दु पच्चया तस्स] उस वीतराग-सम्यग्दृष्टि-जीव के पूर्वकाल में निबद्ध मिथ्यात्वादि-द्रव्य-प्रत्यय रागादिभावों के जनक न होने से पृथ्वी-पिंड के समान अकार्यकारी होते हैं क्योंकि वे उसके नवीन-द्रव्यकर्म का बंध नहीं करते । अब जबकी वे नवीन द्रव्य-कर्म का बंध नहीं करते तो पृथ्वीपिंड के समान कैसे रहते हैं ? [कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सव्वे वि णाणिस्स] निर्मल आत्मानुभूति / शुद्धात्मा के साथ तन्मयता ही है लक्षण जिसका, ऐसा भेदज्ञान जिसके है, उस ज्ञानी के सर्व ही कर्म शरीररूप से ही रहते हैं । रागद्वेषादि-भावों में जीव को परिणमन नहीं कराते हैं । यद्यपि उस ज्ञानी-जीव के द्रव्य-प्रत्यय मुट्ठी में रखे हुए विष-समान कार्मण-शरीर से सम्बद्ध रहते हैं, तो भी उदय का अभाव होने से फलदान-शक्ति के नहीं होने पर, वे सब उसको सुख या दुखरूपी विकारमयी बाधा को नहीं कर पाते है । इसी कारण से ज्ञानी जीव के नवीन कर्मों का आस्रव नहीं होता ॥१७६॥

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+ ज्ञानी निरास्रव किस तरह ? उत्तर -
चउविह अणेयभेयं बंधंते णाणदंसणगुणेहिं । (170)
समए समए जम्हा तेण अबंधो ति णाणी दु ॥177॥
जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणो वि परिणमदि । (171)
अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो ॥178॥
चतुर्विधा अनेकभेदं बध्नंति ज्ञानदर्शनगुणाभ्याम्
समये समये यस्मात् तेनाबंध इति ज्ञानी तु ॥१७०॥
यस्मात्तु जघन्यात् ज्ञानगुणात् पुनरपि परिणमते
अन्यत्वं ज्ञानगुण: तेन तु स बंधको भणित: ॥१७१॥
प्रतिसमय विध-विध कर्म को सब ज्ञान-दर्शन गुणों से
बाँधे चतुर्विध प्रत्यय ही ज्ञानी अबंधक इसलिए ॥१७०॥
ज्ञानगुण का परिणमन जब हो जघन्यहि रूप में
अन्यत्व में परिणमे तब इसलिए ही बंधक कहा ॥१७१॥
अन्वयार्थ : [जम्हा] जिस कारण [चउविह] चार प्रकार के (आस्रव याने मिथ्यात्व, अविरमण, कषाय व योग) [णाणदंसणगुणेहिं] ज्ञान दर्शन गुणों के द्वारा [समए समए] समय-समय पर [अणेयभेयं] अनेक भेद के कर्मों को [बंधंते] बाँधते हैं [तेण] इस कारण [णाणी दु] ज्ञानी तो [अबंधो ति] अबंध-रूप है ऐसा जानना चाहिये । [पुणो वि] फिर भी [जम्हा दु] जिस कारण [णाणगुणादो] ज्ञान-गुण [जहण्णादो] जघन्य ज्ञानगुण के कारण [अण्णत्तं] अन्य रूप [परिणमदि] परिणमन करता है [तेण दु] इसी कारण [णाणगुणो सो] वह ज्ञान-गुण [बंधगो भणिदो] कर्म का बंधक कहा गया है।

अमृतचंद्राचार्य :
ज्ञानी तो आस्रव-भाव की भावना के अभिप्राय के अभाव से निरास्रव ही है, किन्तु उस ज्ञानी के भी द्रव्यास्रव प्रति समय अनेक प्रकार के पुद्गल-कर्म को बाँधता है, सो उसमें ज्ञानगुण का परिणमन ही कारण है ।

ज्ञान-गुण का जब तक जघन्य भाव है याने क्षयोपशम-रूप भाव है, तब तक ज्ञान अंतमुहूर्त विपरिणामी होने से बार बार अन्य प्रकार परिणमन करता है । सो वह यथाख्यात चारित्र अवस्था से नीचे अवश्यंभावी राग का सद्भाव होने से बंध का कारण ही है ।

जयसेनाचार्य :
आगे कहते है कि ज्ञानी जीव आस्रव रहित किस प्रकार होता है --

[चउविह अणेयभेयं बंधंते णाणदंसणगुणेहिं] यहाँ पर 'चहुविह' यह शब्द बहुवचन है फिर ह्रस्वान्त पाठ है क्योंकि प्राकृत के व्याकरण के अनुसार ऐसा होता है । मिथ्यात्वादिरूप चार प्रकार के मूल प्रत्यय हैं, वे ज्ञानावरणादि के भेद से अनेक प्रकार के ज्ञान और दर्शन गुण के द्वारा बंध को करने वाले हैं । यदि यहाँ कोई शंका करे कि ज्ञान-गुण और दर्शन-गुण तो आत्मा के गुण हैं, अत: वे बन्ध के कारण कैसे हो सकते हैं ? उसका समाधान करते हैं कि उदय में आये हुए मिथ्यात्वादि द्रव्य प्रत्यय आत्मा के ज्ञान और दर्शन गुण को रागादिमय अज्ञानभाव के रूप में परिणमा देते है । उस समय वह अज्ञानभाव में परिणत हुआ ज्ञान और दर्शन बंध का कारण होता है । वास्तव में वह रागादिरूप अज्ञानभाव में परिणत हुआ ज्ञान और दर्शन अज्ञान कहलाता है । इसलिए कुछ लोग 'अण्णाणदंसणगुणेहिं' ऐसा पाठान्तर करके पढ़ते हैं । [समये समये जम्हा तेण अबंधुत्ति णाणी दु] जबकि ज्ञान और दर्शन गुण को रागादिमय अज्ञान में परिणत करके मिथ्यात्वादि प्रत्यय ही नूतन कर्म-बन्ध करते हैं । इसलिए भेद-ज्ञानी जीव बन्धक नहीं होता, किन्तु ज्ञान और दर्शन का रंजक -- राग-कारक होने से उपर्युक्त प्रत्यय ही बंधक होते हैं । इस प्रकार से ज्ञानी जीव का निरास्रवत्व सिद्ध हो जाता है ॥१७७॥

अब ज्ञान-गुण का परिणमन भी बंध का कारण कैसे होता है सो बतलाते हैं --

[जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणो वि परिणमदि अण्णत्तं णाणगुणो] क्योंकि स्पष्टतया यथाख्यात-चारित्र से पूर्व-अवस्था का ज्ञान जघन्य अर्थात हीनदशावाला--कषायसहित-वृत्तिवाला होता है इसलिए ज्ञान-गुण की जघन्यता के कारण से यह जीव अन्तर्मुहूर्त के पीछे निर्विकल्प-समाधि में ठहर नहीं सकता है, इसलिए वह जीव का ज्ञान-गुण अन्यरूपता को सविकल्परूप-पर्यायांतर को स्वीकार करता है । [तेण दु सो बंधगो भणिदो] उस विकल्प-सहित कषाय-भाव के कारण वह गुण नूतन-बंध करने वाला होता है । अथवा इस गाथा का इस प्रकार भी अर्थ लिया जा सकता है कि जघन्य से अर्थात् मिथ्यादृष्टि के ज्ञान-गुण से काल-लब्धि के द्वारा सम्यक्त्व प्राप्त होने पर वह ज्ञान मिथ्यापने को त्यागकर अन्यपने को अर्थात सम्यग्ज्ञानपने को प्राप्त कर लेता है । [तेण दु सो बंधगो भणिदो] इसलिए वह ज्ञान-गुण अथवा ज्ञान-गुण के स्वरूप में परिणत जीव अबन्धक कहा जाता है ॥१७८॥

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+ ज्ञान-गुण के जघन्य-भाव परिणमन के रहते ज्ञानी निरास्रव कैसे -
दंसणणाणचरित्तं जं परिणमदे जहण्णभावेण । (172)
णाणी तेण दु बज्झदि पोग्गलकम्मेण विविहेण ॥179॥
दर्शनज्ञानचारित्रं यत्परिणमते जघन्यभावेन
ज्ञानी तेन तु बध्यते पुद्गलकर्मणा विविधेन ॥१७२॥
ज्ञान-दर्शन-चरित गुण जब जघनभाव से परिणमे
तब विविध पुद्गल कर्म से इसलोक में ज्ञानी बँधे ॥१७२॥
अन्वयार्थ : [जं] क्योंकि [दंसणणाणचरित्तं] दर्शन-ज्ञान-चारित्र [जहण्णभावेण] जघन्य-भाव से [परिणमदे] परिणमन करता है [तेण दु] इस कारण से [णाणी] ज्ञानी [विविहेण] अनेक प्रकार के [पोग्गलकम्मेण] पुद्गल कर्म से [बज्झदि] बँधता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जो वास्तव में ज्ञानी है वह बुद्धि-पूर्वक राग द्वेष मोहरूप आस्रव-भाव के अभाव से निरास्रव ही है । किन्तु वह ज्ञानी जब तक ज्ञान को सर्वोत्कृष्ट भाव से देखने को, जानने को, आचरण करने को असमर्थ होता हुआ जघन्य-भाव से ही ज्ञान को देखता है, जानता है, आचरण करता है तब तक उस ज्ञानी के भी ज्ञान के जघन्य-भाव की अन्यथा अनुपपत्ति होने से अनुमीयमान अबुद्धि-पूर्वक कर्म-मल-कलंक का सद्भाव होने से पुद्गल-कर्म का बन्ध होता है । इस कारण तब तक ज्ञान को देखना, जानना और आचरण करना, जब तक ज्ञान का जितना पूर्ण भाव है उतना देखा, जाना, आचरण किया अच्छी तरह न हो जाय । उसके बाद साक्षात् ज्ञानी हुआ सर्वथा निरास्रव ही होता है ।

(कलश--कुण्डलिया)
स्वयं सहज परिणाम से, कर दीना परित्याग ।
सम्यग्ज्ञानी जीव ने, बुद्धिपूर्वक राग ॥
बुद्धिपूर्वक राग त्याग दीना है जिसने ।
और अबुद्धिक राग त्याग करने को जिसने ॥
निजशक्तिस्पर्श प्राप्त कर पूर्णभाव को ।
रहे निरास्रव सदा उखाड़े परपरिणति को ॥११६॥

[आत्मा यदा ज्ञानी स्यात् तदा] आत्मा जब ज्ञानी होता है तब, [स्वयं निजबुद्धिपूर्वम् समग्रं रागं] स्वयं अपने समस्त बुद्धिपूर्वक रागको [अनिशं संन्यस्यन्] निरन्तर छोड़ता हुआ अर्थात् न करता हुआ, [अबुद्धिपूर्वम् तं अपि] और जो अबुद्धिपूर्वक राग है उसे भी [जेतुं वारम्वारम्] जीतनेके लिये बारम्बार [स्वशक्तिं स्पृशन्] (ज्ञानानुभवनरूप) स्व-शक्ति को स्पर्श करता हुआ और (इसप्रकार) [सकलां परवृत्तिम् एव उच्छिन्दन्] समस्त परवृत्ति (परपरिणति) को उखाड़ता हुआ [ज्ञानस्य पूर्णः भवन्] ज्ञान के पूर्णभावरूप होता हुआ, [हि नित्यनिरास्रवः भवति] वास्तव में सदा निरास्रव है ।

(कलश--दोहा)
द्रव्यास्रव की संतति, विद्यमान सम्पूर्ण ।
फिर भी ज्ञानी निरास्रव, कैसे हो परिपूर्ण ॥११७॥

[सर्वस्याम् एव द्रव्यप्रत्ययसंततौ जीवन्त्यां] 'ज्ञानी के समस्त द्रव्यास्रव की सन्तति विद्यमान होने पर भी [कुतः ज्ञानी] यह क्यों कहा है कि ज्ञानी [नित्यम् एव निरास्रवः] सदा ही निरास्रव है ?' - [इति चेत् मतिः] यदि तेरी यह मति (आशंका) है तो अब उसका उत्तर कहा जाता है ।

जयसेनाचार्य :
जब कि यथाख्यात-चारित्र होने से पहले, यदि ज्ञानी के बन्ध होता ही है तो ऐसी दशा में ज्ञानी आस्रव से रहित कैसे होता है, सो बताते हैं --

[दंसणणाणचरित्तं जं परिणमदे जहण्णभावेण] ज्ञानी-विरागी-जीव इच्छापूर्वक-चलाकर किसी भी वस्तु के प्रति रागादि-रूप-विकल्प को अमुक वस्तु मेरी है इत्यादि रूप विचार को कभी नहीं करता, इसलिए बुद्धि-पूर्वक रागादि नहीं होने से वह निरास्रव ही होता है, किन्तु जब तक उस ज्ञानी-जीव को भी परम-समाधि का अनुष्ठान नहीं हो पाता तब तक वह भी शुद्धात्मा को देखने में, जानने में और वहाँ स्थिर रहने में असमर्थ होता है, अत: तब तक उसका दर्शन, ज्ञान और चारित्र भी जघन्य भाव को -- अबुद्धिपूर्वक-कषायभाव को व्यक्त रागभाव को लिए हुए होता है -- परिणमन करता हुआ रहता है । [णाणी तेण दु बज्झदि पोग्गलकम्मेण विविहेण] इस कारण से वह भेद-ज्ञानी-जीव भी परम्परा से मुक्ति में कारण-रुप होने वाले ऐसे तीर्थंकर-नाम-कर्मादिरूप पुद्गल-प्रकृतिमय नाना प्रकार के पुण्य-कर्म से अपने-अपने गुणस्थान के अनुसार बँधता ही रहता है । ऐसा समझकर प्रत्येक मुमुक्ष को चाहिए कि वह किसी भी प्रकार की बढ़ाई, पूजा, प्रतिष्ठा का लाभ तथा भोगों की आकांक्षारूप निदानबंधादि-विभाव-परिणामों को त्याग कर साथ-साथ निर्विकल्प-समाधि में स्थित होकर तब तक शुद्धात्मा के स्वरूप को देखता, मानता रहे, जानता रहे एवं उसमें लगा रहे जहाँ तक शुद्धात्मा के परिपूर्ण केवलज्ञानरूप-भाव का दर्शन, ज्ञान और आचरण प्राप्त न कर ले अर्थात् स्वयं केवलज्ञानरूप-अवस्था को न पा लेवे बस यही इस कथन का तात्पर्य है ॥१७९॥

इस प्रकार ज्ञानी जीव के भावास्रव के निषेध की मुख्यता से तीन गाथाएं हुईं ।

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+ सभी द्रव्यास्रव की संतति के रहने पर भी ज्ञानी नित्य ही निरास्रव कैसे -
सव्वे पुव्वणिबद्धा दु पच्चया अत्थि सम्मदिट्ठिस्स । (173)
उवओगप्पाओगं बंधंते कम्मभावेण ॥180॥
होदूण णिरुवभोज्जा तह बंधदि जह हवंति उवभोज्जा । (174)
सत्तट्ठविहा भूदा णाणावरणादिभावेहिं ॥181॥
संता दु णिरुवभोज्जा बाला इत्थी जहेह पुरिसस्स । (175)
बंधदि ते उवभोज्जे तरुणी इत्थी जह णरस्स ॥182॥
एदेण कारणेण दु सम्मादिट्ठी अबंधगो भणिदो । (176)
आसवभावाभावे ण पच्चया बंधगा भणिदा ॥183॥
सर्वे पूर्वनिबद्धास्तु प्रत्यया: संति सम्यग्दृष्टे: ।
उपयोगप्रायोग्यं बध्नंति कर्मभावेन ॥१७३॥
संति तु निरुपभोग्यानि बाला स्त्री यथेह पुरुषस्य
बध्नाति तानि उपभोग्यानि तरुणी स्त्री यथा नरस्य ॥१७४॥
भूत्वा निरुपभोग्यानि तथा बध्नाति यथा भवंत्युपभोग्यानि
सप्ताष्टविधानि भूतानि ज्ञानावरणादिभावै: ॥१७५॥
एतेन कारणेन तु सम्यग्दृष्टिरबंधको भणित:
आस्रवभावाभावे न प्रत्यया बंधका भणिता: ॥१७६॥
पहले बँधे सद्दृष्टिओं के कर्मप्रत्यय सत्त्व में
उपयोग के अनुसार वे ही कर्म का बंधन करें ॥१७३॥
बालवनिता की तरह वे सत्त्व में अनभोग्य हैं
पर तरुणवनिता की तरह उपभोग्य होकर बाँधते ॥१७४॥
अनभोग्य हो उपभोग्य हों वे सभी प्रत्यय जिसतरह
ज्ञान-आवरणादि वसुविध कर्म बाँधे उसतरह ॥१७५॥
बस इसलिए सद्दृष्टियों को अबंधक जिन ने कहा
क्योंकि आस्रवभाव बिन प्रत्यय न बंधन कर सके ॥१७६॥
अन्वयार्थ : [सम्मदिट्ठिस्स] सम्यग्दृष्टि के [सव्वे पुव्वणिबद्धा] समस्त पूर्व (अज्ञान अवस्था) में बांधे गये [पच्चया अत्थि] (मिथ्यात्वादि) आस्रव सत्तारूप हैं वे [उवओगप्पाओगं] उपयोग के प्रयोग करने रूप जैसे हों वैसे [कम्मभावेण] कर्मभाव से [बंधंते] बन्ध करते हैं । [दु] और [संता] सत्तारूप रहते हुए वे पूर्वबद्ध प्रत्यय उदय आये बिना [णिरुवभोज्जा] भोगने के अयोग्य होकर स्थित हैं [दु] लेकिन [तह बंधदि] वे उस तरह बँधते हैं [जह] जैसे कि [णाणावरणादिभावेहिं] ज्ञानावरणादि भावों के द्वारा [सत्तट्ठविहा] सात आठ प्रकार फिर [उवभोज्जा] भोगने योग्य [हवंति] हो जायें । [दु] क्योंकि [जहेह] जैसे इस लोक में [पुरिसस्स] पुरुष के [बाला इत्थी] बालिका स्त्री भोगने योग्य नहीं होती उस प्रकार [णिरुवभोज्जा] उपभोग के अयोग्य [होदूण] होकर भी [ते उवभोज्जे] वे ही जब भोगने योग्य होते हैं तब [बंधदि] जीव को, पुरुष को बांधते हैं अर्थात् जीव पराधीन हो जाता है, [जह] जैसे कि [तरुणी इत्थी] वही बाला स्त्री जवान होकर [णरस्स] पुरुष को बाँध लेती है अर्थात् पुरुष उसके आधीन हो जाता है यही बँधना है। [एदेण कारणेण दु] इसी कारणसे [सम्मादिट्ठी] सम्यग्दृष्टि [अबंधगो भणिदो] अबंधक कहा गया है क्योंकि [आसवभावाभावे] आस्रवभाव (राग-द्वेष-मोह) का अभाव होने पर [पच्चया] प्रत्यय (मिथ्यात्व आदि सत्ता में होने पर भी) [बंधगा] आगामी कर्म बंधके करने वाले [ण भणिदा] नहीं कहे गये हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
जैसे सत्ता अवस्था में तत्काल की विवाहित बाल स्त्री की तरह पहिले अनुपभोग्य होने पर भी विपाक अवस्था में यौवन अवस्था को प्राप्त उसी पूर्व परिणीत स्त्री की तरह भोगने योग्य होने से जैसा आत्मा का उपयोग विकार सहित हो उसी योग्यता के अनुसार पुद्गल कर्म-रूप द्रव्य-प्रत्यय सत्ता-रूप होने पर भी कर्म के उदयानुसार जीव के भावों के सद्भाव से ही बंध को प्राप्त होते हैं । इस कारण ज्ञानी के द्रव्य-कर्म-रूप प्रत्यय (आस्रव) सत्ता में मौजूद हैं तो भी वह ज्ञानी तो निरास्रव ही है, क्योंकि कर्मके उदय के कार्य-रूप राग-द्वेष-मोह रूप आस्रव-भाव के अभाव होने पर द्रव्य-प्रत्ययों के बन्ध-कारणपना नहीं है ।

(कलश--हरिगीत)
पूर्व में जो द्रव्यप्रत्यय बँधे थे अब वे सभी ।
निजकाल पाकर उदित होंगे सुप्त सत्ता में अभी ॥
यद्यपी वे हैं अभी पर राग-द्वेषाभाव से ।
अंतर अमोही ज्ञानियों को बंध होता है नहीं ॥११८॥

[यद्यपि समयम् अनुसरन्तः] यद्यपि (अपने-अपने) समय का अनुसरण करनेवाला (उदय में आनेवाले) [पूर्वबद्धाः] पहले बांधे हुए [द्रव्यरूपाः प्रत्ययाः] द्रव्यरूप प्रत्यय [सत्तां] अपनी सत्ता को [न हि विजहति] नहीं छोड़ते, [तदपि सकलरागद्वेषमोहव्युदासात्] तथापि सर्व राग-द्वेष-मोह का अभाव होने से [ज्ञानिनः कर्मबन्धः] ज्ञानी के कर्मबन्ध [जातु अवतरति न] कदापि अवतार नहीं धरता (होता)

(कलश--दोहा)
राग-द्वेष अर मोह ही, केवल बंधकभाव ।
ज्ञानी के ये हैं नहीं, तातैं बंध अभाव ॥११९॥

[यत् ज्ञानिनः रागद्वेषविमोहानां असम्भवः] क्योंकि ज्ञानी के राग-द्वेष-मोह का असम्भव है, [ततः एव अस्य बन्धः न] इसलिये उसको बन्ध नहीं है; [ते हि बन्धस्य कारणम्] वे (राग-द्वेष-मोह) ही बंध का कारण है ।

जयसेनाचार्य :
अब प्रश्न होता है कि ज्ञानी-जीव द्रव्य-प्रत्यय रूप बन्ध के कारण विद्यमान रहने पर भी निरास्रव कैसे होता है, सो बताते हैं --

[सव्वे पुव्वणिबद्धा दु पच्चया अत्थि सम्मदिट्ठिस्स] उपशम श्रेणी में प्राप्त हुए वीतराग सम्यग्दृष्टि-जीव के पूर्व में बंधे हुए सब ही मिथ्यात्वादि-कर्म सत्ता में विद्यमान होते हैं । [उवओगप्पाओगं बंधंते कम्मभावेण] वे सब उपयोग में आने पर-तत्काल उदय को प्राप्त होने पर आत्मा में रागद्वेषादि पैदा करने से नूतन-कर्मबन्ध के करने वाले होते हैं । किन्तु पूर्व-द्रव्य-कर्मों की सत्ता मात्र से बंध करनेवाले नहीं होते । [संतावि णिरुवभोज्जा बाला इत्थी जहेव पुरिसस्स] कहीं प्राकृत में लिंग-व्यभिचार भी होता है । नपुंसक-लिंग के स्थान में पुल्लिंग का और पुल्लिंग के स्थान में नपुंसक-लिंग का और कारक में कारकान्तर का निर्देश भी हो जाया करता है । जैसे मनुष्य के लिए बालस्त्री उपभोग योग्य नहीं होती वैसे ही उदय से पहले अनुदय-दशा में रहने वाले पूर्व-बद्ध-कर्म फलकारक नहीं होते [बंधदि ते उवभोज्जे तरुणी इत्थी जह णरस्स] किन्तु उदय-काल में ही वे सब कर्म उपभोग के योग्य होते हैं -- फलकारक होते हैं, रागादिरूप-विकारभाव पैदा करने से नूतन-कर्म का बंध करने वाले होते हैं, जैसे स्त्री, तरुण होने पर मनुष्य को रागी बनाकर विवश करने वाली होती है । [होदूण णिरुवभोज्जा तह बंधदि जह हवंति उवभोज्जा] उदय होने से पूर्वकाल में अपने-अपने गुणस्थान के अनुसार निरुपभोग्य होकर अर्थात् फलकारक न होकर जब उदय-काल को प्राप्त होते हैं तब उपभोग होते हुए फलदायक हुआ करते हैं तब [सत्तट्ठविहा भूदा णाणावरणादिभावेहिं] यह जीव अपने रागादिभावों के अनुसार आयु-बन्ध के काल में तो ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मों को और शेष काल में आयुष्य के बिना सात प्रकार के कर्मों को नूतन-कर्म के रूप में बांधता रहता है । किन्तु अस्तित्व मात्र से ही पुरातन-कर्म नूतन-कर्म-बन्ध करने में कारण नहीं हुआ करते अर्थात् बिना रागादिकभाव के द्रव्य-कर्म (प्रत्यय) विद्यमान होते हुए भी कर्म-बन्ध के कारण नहीं होते इसलिए सम्यग्दृष्टि-जीव अबन्धक होता है -- ऐसा कहा है । खुलासा इसका यह है कि यह संसारी जीव जब अनन्त-संसारात्मक मिथ्यादृष्टिपन को पारकर चतुर्थ-गुणस्थान में पहुँचता है तथा अविरत--सराग-सम्यग्दृष्टि बनता है तो इसके मिथ्यात्वादि ४३ प्रकृतियों का नूतन-बंध होने से रह जाता है शेष ७७ प्रकृतियों का बंध करता रहता है किन्तु पूर्व की अपेक्षा स्वल्प-स्थिति और अनुभाग को लिए हुए बांधता है, एवं संसार की स्थिति को छेदकर उसे परीत-संसार बना लेता है । जैसा कि सिद्धांत में कहा है --
  1. परिपूर्ण द्वादशांग का ज्ञान प्राप्त होना
  2. अरहन्त भगवान के प्रति भक्ति अर्थात सम्यग्दर्शन का लाभ होना
  3. शुद्धात्म स्वरूप से एकाग्रतारूप अविचलित परिणाम होना और
  4. केवली समुद्धात का होना
ये चार कारण संसार की स्थिति को छेदने के लिए होते हैं ।

वहाँ द्वादशांग के विषय में जो ज्ञान हैं वह व्यवहार-नय से इतर जीवादि बाह्य समस्त पदार्थों का श्रुत के द्वारा ज्ञान हो जाना है और निश्चय-नय से वीतराग रूप स्वसंवेदनात्मक ज्ञान का हो जाना सो द्वादशांगावगम कहलाता है । भक्ति नाम सम्यक्त्व का है जो व्यवहार से तो पंचपरमेष्ठी की समाराधनारूप होती है वह सराग सम्यग्दृष्टि जीवों के हुआ करती है, किन्तु निश्चय से तो वह भक्ति वीतराग-सम्यग्दृष्टि जीवों के शुद्धात्म-तत्व की भावना के रूप में हुआ करती है । निवृति / वापिस लौटना - न होना सो अनिवृत्ति कहलाता है अर्थात शुद्धात्मा के स्वरूप से च्युत न होना, एकाग्रता रूप परिणमन हो सो अनिवृत्ति है । इस प्रकार द्वादशांग का निश्चय और व्यवहार रूप दोनों प्रकार का ज्ञान हो जाना सो द्वादाशांगावगम कहलाता है । निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकार के सम्यक्त्व का होना सो भक्ति कहलाती है । सराग-चारित्र हो जाने पर वीतराग-चारित्र का भी होना सो अनिवृत्ति परिणाम है । इस प्रकार भेद-रत्नत्रय और अभेद-रत्नत्रय के रूप में जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र होते हैं वह संसार की स्थिति के छेदने के कारण होते हैं जो कि छ्द्मस्थ जीवों के हुआ करते है किन्तु केवली भगवान् के दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण जो केवली समुद्घात होता है वह संसार की स्थिति छेदने में कारण होता है -- यह तात्पर्य है । इस प्रकार द्रव्य-प्रत्यय होकर भी रागादिरूप भाव आस्रव के न होने पर नूतन-बंध करने वाले नहीं होते । इस प्रकार के कथन की मुख्यता से चार गाथायें पूर्ण हुईं ॥१८०-१८३॥

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+ ज्ञानी के राग-द्वेष-मोह नहीं अत: नवीन कर्मों का बंध नहीं -
रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स । (177)
तम्हा आसवभावेण विणा हेदू ण पच्चया होंति ॥184॥
हेदू चदुव्वियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं । (178)
तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बज्झंति ॥185॥
रागो द्वेषो मोहश्च आस्रवा न संति सम्यग्दृष्टे:
तस्मादास्रवभावेन विना हेतवो न प्रत्यया भवंति ॥१७७॥
हेतुश्चतुर्विकल्प: अष्टविकल्पस्य कारणं भणितम्
तेषामपि च रागादयस्तेषामभावे न बध्यंते ॥१७८॥
रागादि आस्रवभाव जो सद्दृष्टियों के वे नहीं
इसलिए आस्रवभाव बिन प्रत्यय न हेतु बंध के ॥१७७॥
अष्टविध कर्मों के कारण चार प्रत्यय ही कहे
रागादि उनके हेतु हैं उनके बिना बंधन नहीं ॥१७८॥
अन्वयार्थ : [रागो दोसो मोहो य] राग द्वेष और मोह [आसवा] ये आस्रव [णत्थि सम्मदिट्ठिस्स] सम्यग्दृष्टि के नहीं हैं [तम्हा] इसलिये [आसवभावेण विणा] आस्रव-भाव के बिना [पच्चया] द्रव्य-प्रत्यय [हेदू ण होंति] कर्म-बन्ध का कारण नहीं है । [चदुव्वियप्पो] मिथ्यात्व आदि चार प्रकार का [हेदू] हेतु [अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं] आठ प्रकार के कर्म के बँधने का कारण कहा गया है [तेसिं पि य] और उनमें (चार प्रकार के हेतुओं में) भी [रागादी] जीव के रागादिकभाव कारण हैं सो सम्यग्दृष्टि के [तेसिमभावे] उन रागादिक भावों का अभाव होने पर [ण बज्झंति] कर्म नहीं बँधते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
सम्यग्दृष्टि के राग-द्वेष मोह नहीं हैं; अन्यथा सम्यग्दृष्टिपना नहीं बन सकता । राग-द्वेष मोह का अभाव होने पर उस सम्यग्दृष्टि के द्रव्य-प्रत्यय पुद्गल-कर्म-बंध के कारणपने को नहीं धारण करते । क्योंकि द्रव्य-प्रत्ययों के पुद्गल-कर्म-बंध का कारणपना रागादि-हेतुक ही है, इसलिये कारण के कारण का अभाव होने पर कार्य का अभाव प्रसिद्ध होने से ज्ञानी के बन्ध नहीं है ।

(कलश--हरिगीत)
सदा उद्धत चिन्ह वाले शुद्धनय अभ्यास से ।
निज आत्म की एकाग्रता के ही सतत् अभ्यास से ॥
रागादि विरहित चित्तवाले आत्मकेन्द्रित ज्ञानिजन ।
बंधविरहित अर अखण्डित आत्मा को देखते ॥१२०॥

[उद्धतबोधचिह्नम् शुद्धनयम् अध्यास्य] उद्धत ज्ञान (किसी के दबाये नहीं दब सकता ऐसा उन्नत ज्ञान) जिसका लक्षण है ऐसे शुद्ध-नय में रहकर अर्थात् शुद्धनय का आश्रय लेकर [ये सदा एव] जो सदा ही [ऐकाग्र्यमेव कलयन्ति] एकाग्रता का ही अभ्यास करते हैं [ते सततं] वे निरन्तर [रागादिमुक्तमनसः भवन्तः] रागादि से रहित चित्तवाले वर्तते हुए, [बन्धविधुरं समयस्य सारम्] बंध-रहित समय के सार को (अपने शुद्ध-आत्मस्वरूप को) [पश्यन्ति] देखते (अनुभवते) हैं ।

(कलश--हरिगीत)
च्युत हुए जो शुद्धनय से बोध विरहित जीव वे ।
पहले बँधे द्रव्यकर्म से रागादि में उपयुक्त हो ॥
अरे विचित्र विकल्पवाले और विविध प्रकार के ।
विपरीतता से भरे विध-विध कर्म का बंधन करें ॥१२१॥

[इह ये] जगत् में जो [शुद्धनयतः प्रच्युत्य] शुद्धनय से च्युत होकर [पुनः एव तु रागादियोगम्] पुनः रागादि के सम्बन्ध को [उपयान्ति ते] प्राप्त होते हैं ऐसे जीव, [विमुक्तबोधाः] जिन्होंने ज्ञान को छोड़ा है ऐसे होते हुए, [पूर्वबद्धद्रव्यास्रवैः] पूर्वबद्ध द्रव्यास्रवों के द्वारा [कृत-विचित्र-विकल्प-जालम्] अनेक प्रकार के विकल्प-जाल को करके [कर्मबन्धम् विभ्रति] कर्म-बंध को धारण करते (बाँधते) हैं ।

जयसेनाचार्य :
[रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स] सम्यग्दृष्टि जीव के राग, द्वेष और मोहभाव नहीं होते हैं क्योंकि इन भावों के होने पर सम्यग्दृष्टिपन बन ही नहीं सकता है इसे स्पष्ट कर बतला रहे हैं -- जैसा कि
आद्या: सम्यक्त्वचारित्र, द्वितीया ध्नंत्यणुव्रतं ।
तृतीया संयमं तुर्या यथाख्यातं क्रुधादय:
इसमें बताया है कि
  1. अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ तो सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों को ही नहीं होने देते ।
  2. दूसरे -- अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ सम्यक्त्व को नहीं रोकते पर चारित्र के एकदेश / अंशरूप अणुव्रतात्मक चारित्र को नहीं होने देते ।
  3. तीसरे -- प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ सकल-संयम / महाव्रत-रूप-चारित्र को नहीं होने देते एवं
  4. चौथे -- संज्वलनात्मक क्रोध, मान, माया और लोभकषाय, यथाख्यातचारित्र को नहीं होने देते
इस प्रकार यह मूल-ग्रन्थ की पूर्वार्द्ध गाथा का व्याख्यान हुआ । [तम्हा आसवभावेण विणा हेदू ण पच्चया होंति] जैसा कि पूर्वार्द्ध गाथा में बताया है उसी क्रम से सम्यग्दृष्टि जीव के राग-द्वेष-मोहरूपभाव नहीं होते । एवं उनके न होने से सत्ता में होने वाले या उदय में होने वाले मिथ्यात्वादि द्रव्य-प्रत्यय-कर्मबंध के कारण नहीं होते हैं । [हेदू चदुव्वियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं होदि] क्योंकि मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार कारण ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के नवीन-कर्मबंध के कारण हैं । [तेसिंपि य रागादी] उन उदय में आए हुए मिथ्यात्वादि-द्रव्य-प्रत्ययों के भी कारण जीवगत-रागादिभाव-रूप प्रत्यय होते हैं । [तेसिमभावे ण बज्झंति] उन जीवगत रागादि-भावप्रत्ययों के न होने पर पूर्वोक्त द्रव्य-प्रत्यय भले ही उदय में आये हुए क्यों न हों तो भी वीतराग-रूप परम-सामायिक-भावना में परिणत रहने वाले अभेद-रत्नत्रय है लक्षण जिसका ऐसे भेद-ज्ञान के होने पर यह जीव नवीन-कर्मों से नहीं बंधता है । इसलिए यह बात माननी पड़ती है कि यद्यपि उदय में आए हुए मिथ्यात्वादि द्रव्य-प्रत्यय नवीन-कर्मों के आस्रव के कारण होते हैं, किन्तु उनके भी कारण जीवगत-रागादि-भाव-प्रत्यय होते हैं । इस प्रकार कारण से कारण का व्याख्यान जानना योग्य है ॥१८४-१८५॥

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+ इसी का समर्थन दृष्टांत पूर्वक -
जह पुरिसेणाहारो गहिदो परिणमदि सो अणेयविहं । (179)
मंसवसारुहिरादी भावे उदरग्गिसंजुत्ते ॥186॥
तह णाणिस्स दु पुव्वं जे बद्धा पच्चया बहुवियप्पं । (180)
बज्झंते कम्मं ते णयपरिहीणा दु ते जीवा ॥187॥
यथा पुरुषेणाहारो गृहीत: परिणमति सोऽनेकविधम्
मांसवसारुधिरादीन् भावान् उदराग्निसंयुक्त: ॥१७९॥
तथा ज्ञानिनस्तु पूर्वं ये बद्धा: प्रत्यया बहुविकल्पम्
बध्नंति कर्म ते नयपरिहीनास्तु ते जीवा:॥१८०॥
जगजन ग्रसित आहार ज्यों जठराग्नि के संयोग से
परिणमित होता वसा में मज्जा रुधिर मांसादि में ॥१७९॥
शुद्धनय परिहीन ज्ञानी के बँधे जो पूर्व में
वे कर्म प्रत्यय ही जगत में बाँधते हैं कर्म को ॥१८०॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे [पुरिसेणाहारो गहिदो] पुरुष के द्वारा ग्रहण किया गया आहार [सो उदरग्गिसंजुत्ते] वह उदराग्नि से युक्त हुआ [अणेयविहं] अनेक प्रकार [मंसवसारुहिरादी] मांस वसा रुधिर आदि [भावे परिणमदि] भावों रूप परिणमता है [तह दु णाणिस्स] उसी प्रकार ज्ञानी के [पुव्वं जे बद्धा] पूर्व बँधे जो [पच्चया] द्रव्य-प्रत्यय [ते] वे [बहुवियप्पं] बहुत भेदों वाले [बज्झंते कम्मं] कर्म को बांधते हैं । [ते जीवा] वे जीव [दु णयपरिहीणा] शुद्ध-नय से रहित हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिस समय ज्ञानी शुद्धनय से छूट जाता है उस समय उसके रागादि भावों के सद्भाव से पूर्व बँधे हुए द्रव्य-प्रत्यय अपने हेतुत्व के हेतु का सद्भाव होनेसे कार्यभाव का होना अनिवार्य होने के कारण ज्ञानावरणादि भावों से पुद्गल-कर्म को बंध-रूप परिणमाते हैं । और यह बात अप्रसिद्ध नहीं है । पुरुष द्वारा ग्रहण किया गया आहार भी उदराग्नि से रस, रुधिर, मासं आदि भावों से परिणमन करना देखने में आता है ।

(कलश--हरिगीत)
इस कथन का सार यह कि शुद्धनय उपादेय है ।
अर शुद्धनय द्वारा निरूपित आत्मा ही ध्येय है ॥
क्योंकि इसके त्याग से ही बंध और अशान्ति है ।
इसके ग्रहण में आत्मा की मुक्ति एवं शान्ति है ॥१२२॥

[अत्र इदम् एव तात्पर्यं] यहाँ यही तात्पर्य है कि [शुद्धनयः न हिहेयः] शुद्धनय त्यागने योग्य नहीं है; [हि तत्-अत्यागात् बन्धः नास्ति] क्योंकि उसके अत्याग से (कर्म का) बन्ध नहीं होता और [तत्-त्यागात् बन्धः एव] उसके त्याग से बन्ध ही होता है ।

(कलश--हरिगीत)
धीर और उदार महिमायुत अनादि-अनंत जो ।
उस ज्ञान में थिरता करे अर कर्मनाशक भाव जो ॥
सद्ज्ञानियों को कभी भी वह शुद्धनय ना हेय है ।
विज्ञानघन इक अचल आतम ज्ञानियों का ज्ञेय है ॥१२३॥

[धीर-उदार-महिम्नि अनादिनिधने बोधे धृतिं निबध्नन् शुद्धनयः] धीर (चलाचलता रहित) और उदार (सर्व पदार्थों में विस्तार युक्त) जिसकी महिमा है ऐसे अनादिनिधन ज्ञान में स्थिरता को बाँधता हुआ (ज्ञान में परिणति को स्थिर रखता हुआ) शुद्धनय [कर्मणाम् सर्वंकषः] जो कि कर्मों का समूल नाश करनेवाला है [कृतिभिः] पवित्र धर्मात्मा (सम्यग्दृष्टि) पुरुषों के द्वारा [जातु न त्याज्यः] कभी भी छोड़ने योग्य नहीं है । [तत्रस्थाः] उस (शुद्धनय) में स्थित (वे पुरुष), [बहिः निर्यत् स्व-मरीचि-चक्रम् अचिरात् संहृत्य] बाहार निकलती हुई अपनी ज्ञान किरणों के समूह को (अर्थात् कर्म के निमित्त से परोन्मुख जानेवाली ज्ञान की विशेष व्यक्तियों को) अल्पकाल में ही समेटकर, [पूर्णं ज्ञान-घन-ओघम् एकम् अचलं शान्तं महः] पूर्ण, ज्ञानघन के पुञ्जरूप, एक, अचल, शान्त-तेज (तेजःपुंज) को [पश्यन्ति ] देखते (अनुभवते) हैं ।

(कलश--हरिगीत)
निज आतमा जो परमवस्तु उसे जो पहिचानते ।
अर उसी में जो नित रमें अर उसे ही जो जानते ॥
वे आस्रवों का नाश कर नित रहें आतमध्यान में ।
वे रहें निज में किन्तु लोकालोक उनके ज्ञान में ॥१२४॥

[नित्य-उद्योतं] जिसका उद्योत (प्रकाश) नित्य है ऐसी [किम् अपि परमंवस्तु] किसी परम वस्तु को [अन्तः सम्पश्यतः] अन्तरंग में देखनेवाले पुरुष को, [रागादीनां आस्रवाणां] रागादि आस्रवों का [झगिति सर्वतः अपि] शीघ्र ही सर्व-प्रकार [विगमात् एतत् ज्ञानम् उन्मग्नम्] नाश होने से, यह ज्ञान प्रगट हुआ [स्फारस्फारैः] कि जो ज्ञान अत्यन्तात्यन्त (अनन्तानन्त) विस्तार को प्राप्त [स्वरसविसरैः] निज-रस के प्रसार से [आलोक-अन्तात्] लोक के अन्त तक के [सर्वभावान् प्लावयत्] सर्व भावोंको व्याप्त कर देता है (सर्व पदार्थोंको जानता है), [अचलम् अतुलं] वह ज्ञान चलायमान नहीं होता, और अतुल (उसके समान दूसरा कोई नहीं) है ।

इसप्रकार आस्रव (रंगभूमि में से) बाहर निकल गया ।

इसप्रकार श्री समयसार की (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य देव प्रणीत श्री समयसार परमागम की) श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्य देव विरचित आत्मख्याति नामक टीका में आस्रव का प्ररूपक चौथा अंक समाप्त हुआ ।

जयसेनाचार्य :
अब आचार्यदेव, ऊपर जो कह आये हैं कि रागादि-विकल्परूप-उपाधि से रहित परम-चैतन्य-चमत्कार ही लक्षण जिसका ऐसा जो निज-परमात्म-तत्व उसकी भावना से रहित, बहिर्मुख-वाले संसारी जीवों के पूर्व-बद्ध-द्रव्य-प्रत्यय होते हैं, वे सब नवीन-कर्मबन्ध किया करते हैं । उसी का समर्थन दो दृष्टांतों के द्वारा कर रहे हैं --

[जह पुरिसेणाहारो गहिदो परिणमदि सो अणेयविहं] जैसे पुरुष के द्वारा ग्रहण किया हुआ भोजन अनेक प्रकार की अवस्थाओं में परिणमन करता है जो कि [मंसवसारुहिरादी भावे उदरग्गिसंजुत्ते] उदर की अग्नि का संयोग पाकर माँस, चर्बी, लोह आदि के रूप में परिणमन करता है -- यह दृष्टान्त हुआ ।

[तह णाणिस्स दु पुव्वं जे बद्धा पच्चया बहुवियप्पं बज्झंते कम्मं ते] उसी प्रकार इस चेतना लक्षण वाले संसारी अविवेकी जीव के पूर्व-बद्ध मिथ्यात्वादि द्रव्य-प्रत्यय उदराग्नि स्थानीय रागादि परिणाम को पाकर बहुत भेदवाले कर्म का बन्ध किया करते हैं । [णयपरिहीणा दु ते जीवा] जिन जीवों के द्रव्य-प्रत्यय नवीन बन्ध करने वाले होते हैं, वे जीव कैसे होते हैं ? इस का आचार्य समाधान करते हैं, वे लोग परम-समाधि ही है लक्षण जिसका, ऐसे भेद-ज्ञान स्वरूप शुद्धनय से दूर रहने वाले हैं अथवा इस वाक्य का दूसरा व्याख्यान इस प्रकार भी होता है कि -- वे द्रव्य-प्रत्यय अशुद्ध-नय की अपेक्षा से उस जीव से परिहीन नहीं हैं, भिन्न नहीं है किन्तु उस जीव के साथ एक क्षेत्रावगाह होकर रहने वाले हैं ।

तात्पर्य यह है कि जिसमें अपना शुद्धात्मा ही ध्यान करने योग्य ध्येय होता है तथा जो सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट कर डालने में समर्थ होता है, ऐसा शुद्धनय विवेकियों द्वारा त्यागने योग्य नहीं है ॥१८६-१८७॥

इस प्रकार कारण के व्याख्यान की मुख्यता से चार गाथायें पूर्ण हुईं ।

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संवर अधिकार



+ भेद-विज्ञान की अभिवन्दना -
उवओगे उवओगो कोहादिसु णत्थि को वि उवओगो । (181)
कोहो कोहे चेव हि उवओगे णत्थि खलु कोहो ॥188॥
अट्ठवियप्पे कम्मे णोकम्मे चावि णत्थि उवओगो । (182)
उवओगम्हि य कम्मं णोकम्मं चावि णो अत्थि ॥189॥
एदं दु अविवरीदं णाणं जइया दु होदि जीवस्स । (183)
तइया ण किंचि कुव्वदि भावं उवओगसुद्धप्पा ॥190॥
उपयोगे उपयोग: क्रोधादिषु नास्ति कोऽप्युपयोग:
क्रोध: क्रोधे चैव हि उपयोगे नास्ति खलु क्रोध: ॥१८१॥
अष्टविकल्पे कर्मणि नोकर्मणि चापि नास्त्युपयोग:
उपयोगे च कर्म नोकर्म चापि नो अस्ति ॥१८२॥
एतत्त्वविपरीतं ज्ञानं यदा तु भवति जीवस्य
तदा न किंचित्करोति भावमुपयोगशुद्धात्मा ॥१८३॥
उपयोग में उपयोग है क्रोधादि में उपयोग ना
बस क्रोध में है क्रोध पर उपयोग में है क्रोध ना ॥१८१॥
अष्टविध द्रवकर्म में नोकर्म में उपयोग ना
इस ही तरह उपयोग में भी कर्म ना नोकर्म ना ॥१८२॥
विपरीतता से रहित इस विधि जीव को जब ज्ञान हो
उपयोग के अतिरिक्त कुछ भी ना करे तब आतमा ॥१८३॥
अन्वयार्थ : [उवओगे उवओगो] उपयोग (शुद्ध-आत्मा) में उपयोग है [कोहादिसु] क्रोध आदिकों में [णत्थि को वि उवओगो] कोई भी उपयोग नहीं है [च ही कोहो एव कोहे] और निश्चय से क्रोध में ही क्रोध है [उवओगे णत्थि खलु कोहो] उपयोग में निश्चयत: क्रोध नहीं है, [अट्ठवियप्पे कम्मे] आठ प्रकार के( ज्ञानावरण आदि) कर्मों में [च णोकम्मे अवि] तथा (शरीर आदि) नोकर्मों में भी [णत्थि उवओगो] उपयोग नहीं है [य उवओगम्हि] और उपयोग में [कम्मं णोकम्मं चावि] कर्म और नोकर्म भी [णो अत्थि] नहीं है [एदं दु अविवरीदं णाणं] ऐसा सत्यार्थ ज्ञान [जीवस्स जइया] जीव के जब [होदि तइया] होता है तब [उवओगसुद्धप्पा] शुद्धोपयोगी आत्मा [किंचि भावं] कुछ भी भाव [ण कुव्वदि] नहीं करता ।

अमृतचंद्राचार्य :

(मंगलाचरण--दोहा)
अपनापन शुद्धात्म में, अपने में ही लीन ।
होना ही संवर कहा, जिनवर परम प्रवीण ॥

अब संवर प्रवेश करता है ।

(कलश--हरिगीत)
संवरजयी मदमत्त आस्रवभाव का अपलाप कर ।
व्यावृत्य हो पररूप से सद्बोध संवर भास्कर ॥
प्रगटा परम आनन्दमय निज आत्म के आधार से ।
सद्ज्ञानमय उज्ज्वल धवल परिपूर्ण निजरसभार से ॥१२५॥

[आसंसार-विरोधि-संवर-जय-एकान्त-अवलिप्त-आस्रव-न्यक्कारात्] अनादि संसार से लेकर अपने विरोधी संवर को जीतने से जो एकान्त-गर्वित (अत्यन्त अहंकार-युक्त) हुआ है ऐसे आस्रव का तिरस्कार करने से [प्रतिलब्ध-नित्य-विजयं संवरम्] जिसने सदा विजय प्राप्त की है ऐसे संवर को [सम्पादयत्] उत्पन्न करती हुई, [पररूपतः व्यावृत्तं] पररूप से भिन्न (परद्रव्य और परभावों से भिन्न), [सम्यक्-स्वरूपे नियमितं स्फुरत्] अपने सम्यक् स्वरूप में निश्चलता से प्रकाश करती हुई, [चिन्मयम् उज्ज्वलं] चेतनामय, उज्ज्वल (निराबाध, निर्मल, दैदीप्यमान) और [निज-रस-प्राग्भारम्] निजरस के (अपने चैतन्य-रस के) भार (अतिशयता) से युक्त [ज्योतिः उज्जृम्भते] ज्योति प्रसारित होती है ।

वास्तव में एक द्रव्य का दूसरा द्रव्य कुछ भी नहीं है, क्योंकि दोनों का भिन्न भिन्न प्रदेश होने से एक सत्त्व नहीं बनता और सत्त्व के एक न होने से उसके साथ आधाराधेय सम्बन्ध भी नहीं है । इस कारण द्रव्य का अपने स्वरूप में ही प्रतिष्ठारूप आधाराधेय सम्बन्ध ठहरता है, इसलिए ज्ञान जानन-क्रिया-रूप अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित है, क्योंकि जाननपना याने जाननक्रिया ज्ञान से अभिन्न स्वरूप होने के कारण ज्ञान में ही है और क्रोधादिक हैं वे क्रोध आदि क्रिया-रूप अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हैं, क्योंकि क्रोधादिरूप क्रिया क्रोधादिक से अभिन्न-प्रदेषी होने के कारण क्रोधादि रूप क्रिया क्रोधादि में ही है तथा क्रोधादिक में अथवा कर्म नोकर्म में ज्ञान नहीं है और ज्ञान में क्रोधादिक अथवा कर्म नोकर्म नहीं है, क्योंकि ज्ञान का तथा क्रोधादिक और कर्म-नोकर्म का आपस में स्वरूप का अत्यन्त विपरीतपना है उनका स्वरूप एक नहीं है । इसलिए परमार्थ-रूप आधाराधेय सम्बन्ध का शून्यपना है । तथा ज्ञान का जैसे जानन-क्रिया-रूप जानपना स्वरूप है वैसे ही क्रोधादि रूप क्रियापना स्वरूप बन जाय व क्रोधादिक का क्रोधत्व आदिक क्रियापना जैसे स्वरूप है उस तरह जानन क्रिया स्वरूप बन जाय यह किसी तरह से भी स्थापन नहीं किया जा सकता है । क्योंकि जाननक्रिया और क्रोधादि क्रिया स्वभाव-भेद से भिन्न-भिन्न ही प्रकट प्रतिभासमान हैं, और स्वभाव के भेद से ही वस्तु का भेद है यह नियम है । इस कारण ज्ञान का और अज्ञान-स्वरूप क्रोधादिक का आधाराधेय भाव नहीं है ।

और क्या? देखिये जैसे एक ही आकाश-द्रव्य को अपनी बुद्धि में स्थापित करके जब आधाराधेय-भाव निरखा जाता है तब आकाश के सिवाय अन्य द्रव्यों का अधिकरण-रूप आरोप का निरोध होने से बुद्धि को भिन्न आधार की अपेक्षा नहीं रहती । और भिन्न आधार की अपेक्षा न रहने पर एक ही आकाश को एक आकाश में ही प्रतिष्ठित निरखने वाले को आकाश का आधार अन्य द्रव्य नहीं प्रतिभात होता है । इसी तरह जब एक ही ज्ञान को अपनी बुद्धि में स्थापित कर आधाराधेय भाव निरखा जाता है तब शेष अन्य द्रव्यों का अधिरोप करने के निरोध से ही (आरोपण अशक्य होने से) बुद्धि को भिन्न आधार की अपेक्षा नहीं रहती । भिन्न आधार की अपेक्षा बुद्धि में न रहने पर एक ज्ञान ही ज्ञान में प्रतिष्ठित निरखने वाले को अन्य का अन्य में आधाराधेय भाव प्रतिभासित नहीं होता ।

इसलिए ज्ञान ही ज्ञान में ही है और क्रोधादिक ही क्रोधादिक में ही है । इस प्रकार ज्ञान का और क्रोधादिक व कर्म-नोकर्म का भेदज्ञान अच्छी तरह सिद्ध हुआ ।

(कलश--हरिगीत)
यह ज्ञान है चिद्रूप किन्तु राग तो जड़रूप है ।
मैं ज्ञानमय आनन्दमय पर राग तो पररूप है ॥
इसतरह के अभ्यास से जब भेदज्ञान उदित हुआ ।
आनन्दमय रसपान से तब मनोभाव मुदित हुआ ॥१२६॥

[चैद्रूप्यं जडरूपतां च दधतोः ज्ञानस्य रागस्य च] चिद्रूपता को धारण करनेवाला ज्ञान और जड़रूपता को धारण करनेवाला राग [द्वयोः अन्तः दारुणदारणेन] दोनों का, अन्तरंग में दारुण विदारण के द्वारा (भेद करनेवाला उग्र अभ्यास के द्वारा), [परितः विभागं कृत्वा] सभी ओर से विभाग करके (सम्पूर्णतया दोनों को अलग करके), [इदं निर्मलम्भेदज्ञानम् उदेति] यह निर्मल भेदज्ञान उदय को प्राप्त हुआ है; [अधुना] इसलिये अब [एकम् शुद्ध-ज्ञानघन-ओघम् अध्यासिताः] एक शुद्ध विज्ञानघन के पुञ्ज में स्थित और [द्वितीय-च्युताः] अन्य (राग) से रहित [सन्तः मोदध्वम्] हे सत्पुरुषों ! मुदित होओ ।

इसप्रकार जब यह भेदविज्ञान ज्ञान को अणुमात्र भी (रागादिविकाररूप) विपरीतता को न प्राप्त कराता हुआ अविचलरूप से रहता है, तब शुद्ध-उपयोगमयात्मकता के द्वारा ज्ञान केवल ज्ञानरूप ही रहता हुआ किंचित्मात्र भी राग-द्वेष-मोहरूप भाव को नहीं करता; इसलिये (यह सिद्ध हुआ कि) भेद-विज्ञान से शुद्ध-आत्मा की उपलब्धि (अनुभव) होती है और शुद्ध-आत्मा की उपलब्धि से राग-द्वेष-मोह का (आस्रव-भाव का) अभाव जिसका लक्षण है ऐसा संवर होता है ।

जयसेनाचार्य :
अब संवर प्रवेश करता है । इस संवर के अधिकार में जहाँ पर मिथ्यादर्शन और रागादि में परिणमन होता हुआ बहिरात्मा की भावना रूप जो आस्रव भाव नहीं है, वहाँ संवर होता है । इस प्रकार आस्रव के विपक्षरूप-वीतराग-सम्यकत्वरूप संवर का व्याख्यान चौदह गाथाओं में करते हैं । इस प्रकार आस्रव के प्रतिपक्षरूप में संवर का व्याख्यान हुआ है उसकी यह समुदाय पातनिका है ।

अब यहाँ पर सबसे पहले, निर्विकार स्व-संवेदन ज्ञान है लक्षण जिसका ऐसे, भेदविज्ञान का निरूपण करते है । वह भेद-ज्ञान शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्मों के संवर का परमोत्तम कारण है --

[उवओगे उवओगो] क्योंकि ज्ञान और दर्शनरूप उपयोग ही आत्मा का स्वरूप है अत: अभेद-विवक्षा से यहाँ पर उपयोग शब्द से आत्मा को लिया गया है, उस उपयोग-स्वरूप-शुद्धात्मा में ज्ञान-दर्शना-उपयोग मात्र ही होता है अर्थात् उसमें क्रोधादिक-विकारभाव नहीं होते हैं । [कोहादिसु णत्थि को वि उवओगो] शुद्ध-निश्चयनय से क्रोधादिक-परिणामों के होने पर कोई भी उपयोग अर्थात् आत्मा नहीं रहता -- वह अनात्मा, भ्रष्टात्मा बन जाता है । [कोहो कोहे चेव हि] क्योंकि क्रोध होने पर आत्मा स्वयं ही क्रोधरूप होता है । [उवओगे णत्थि खलु कोहो] परन्तु उपयोग अर्थात शुद्धात्मा में निश्चय से जरा-सा भी क्रोधभाव नहीं होता है [अट्ठवियप्पे कम्मे णोकम्मे चावि णत्थि उवओगो] वैसे ही ज्ञानावरणादि-रूप आठ प्रकार के द्रव्य-कर्म तथा औदारिकादि शरीर-रूप नोकर्म के रहने पर भी शुद्ध-बुद्ध एक-स्वरूप परमात्मा नहीं रह पाता है । । [उवओगम्हि य कम्मं णोकम्मं चावि णो अत्थि] उपयोगमय शुद्धात्मा में शुद्ध-निश्चयनय से द्रव्य-कर्म और नोकर्म भी नहीं हैं । [एदं दु अविवरीदं णाणं जइया दु होदि जीवस्स] इस प्रकार का चिदानंदमय एक शुद्धात्मा विपरीत-अभिप्राय से रहित स्व-संवेदनरूप-भेदज्ञान जब इस जीव को हो जाता है, [तइया ण किंचि कुव्वदि भावं उवओगसुद्धप्पा] तब इस प्रकार के भेद-ज्ञान के होने से इसे स्वात्मा की उपलब्धि हो जाने पर फिर वह मिथ्यात्व और रागादिरूप विकार भावों में से किसी भी प्रकार के भाव को नहीं करता है, नहीं परिणमता है । क्योंकि फिर तो वह निर्विकार चिदानंद रूप जो एक शुद्ध-उपयोग उससे शुद्ध-आत्मा होता हुआ शुद्ध-स्वभाव का धारक बना रहता है । जहाँ पर इस प्रकार का संवर नहीं होता वहाँ पर वह आस्रव होता है, इस प्रकार इस अधिकार में सब स्थान पर जानना ।

इस प्रकार पूर्व में कहे अनुसार भेद-ज्ञान से शुद्धात्मा की उपलब्धि होती है । जिसके होने पर यह जीव मिथ्यात्व और रागादिरूप विकार भाव नहीं करता है, तब इसके नूतन कर्मों का संवर हो जाता है, इस प्रकार संक्षेप व्याख्यान की मुख्यता से तीन गाथायें पूर्ण हुईं ॥१८८-१९०॥

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+ भेद-विज्ञान से ही शुद्धात्मा की प्राप्ति -
जह कणयमग्गितवियं पि कणयभावं ण तं परिच्चयदि । (184)
तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णाणी दु णाणित्तं ॥191॥
एवं जाणदि णाणी अण्णाणी मुणदि रागमेवादं । (185)
अण्णाणतमोच्छण्णो आदसहावं अयाणंतो ॥192॥
यथा कनकमग्नितप्तमपि कनकभावं न तं परित्यजति
तथा कर्मोदयतप्तो न जहाति ज्ञानी तु ज्ञानित्वम् ॥१८४॥
एवं जानाति ज्ञानी अज्ञानी मनुते रागमेवात्मानम्
अज्ञानतमोऽवच्छन्न: आत्मस्वभावमजानन् ॥१८५॥
ज्यों अग्नि से संतप्त सोना स्वर्णभाव नहीं तजे
त्यों कर्म से संतप्त ज्ञानी ज्ञानभाव नहीं तजे ॥१८४॥
जानता यह ज्ञानि पर अज्ञानतम आछन्न जो
वे आतमा जानें न मानें राग को ही आतमा ॥१८५॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे [कणयमग्गितवियं पि] सुवर्ण अग्नि से तप्त हुआ भी [तं] अपने [कणयभावं] सुवर्णपने को [ण परिच्चयदि] नहीं छोड़ता [तह] उसी तरह [णाणी] ज्ञानी [कम्मोदयतविदो] कर्मों के उदय से तप्त हुआ भी [णाणित्तं] ज्ञानीपने के स्वभाव को [ण जहदि] नहीं छोड़ता [एवं] इस तरह [णाणी जाणदि] ज्ञानी जानता है और [अण्णाणी] अज्ञानी [अण्णाणतमोच्छण्णो] अज्ञानरूप अंधकार से व्याप्त होता हुआ [आदसहावं] आत्मा के स्वभाव को [अयाणंतो] नहीं जानता हुआ [रागमेवादं मुणदि] राग को ही आत्मा मानता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिसके यथोदित भेद-विज्ञान है, वही उस भेद-ज्ञान के सद्भाव से ज्ञानी होता हुआ ऐसा जानता है । जैसे प्रचंड अग्नि से तपाया हुआ भी सुवर्ण अपने सुवर्णपने को नहीं छोड़ता उसी तरह तीव्र-कर्म के उदय से घिरा हुआ भी ज्ञानी अपने ज्ञानपने को नहीं छोड़ता, क्योंकि जो जिसका स्वभाव है वह हजारों कारण मिलने पर भी अपने स्वभाव को छोड़ने के लिये असमर्थ है । क्योंकि उसके छोड़ने पर उस स्वभाव-मात्र वस्तु का ही अभाव हो जायगा, परन्तु वस्तु का अभाव होता नहीं, क्योंकि सत्ता का नाश होना असंभव है । ऐसा जानता हुआ ज्ञानी कर्मों से व्याप्त हुआ भी राग-रूप, द्वेष-रूप और मोह-रूप नहीं होता । किन्तु वह तो एक शुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है। परंतु

जिसके यथोदित भेदविज्ञान नहीं है, वह उस भेद-विज्ञान के अभाव से अज्ञानी हुआ अज्ञान-रूप अंधकार से आच्छादित होने के कारण चैतन्य-चमत्कार मात्र आत्मा के स्वभाव को नहीं जानता हुआ राग-स्वरूप ही आत्मा को मानता हुआ रागी होता है, द्वेषी होता है, मोही होता है, परंतु शुद्ध आत्मा को कभी नहीं पाता ।

इससे सिद्ध हुआ कि भेद-विज्ञान से ही शुद्ध आत्मा की प्राप्ति है ।

जयसेनाचार्य :
आगे भेद-विज्ञान से ही शुद्धात्मा की समुपलब्धि कैसे होती है, सो बतलाते हैं --

[जह कणयमग्गितवियं पि कणयभावं ण तं परिच्चयदि] जिस प्रकार अग्नि से तपाया हुआ भी स्वर्ण अपने स्वर्णपने को नहीं छोड़ता है । [तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णाणी दु णाणित्तं] वैसे ही तीव्र परीषह या उपसर्गरूप घोर कर्म के उदय से सताया हुआ भी अभेद-रत्नत्रय ही है लक्षण जिसका ऐसे, भेद-ज्ञान का धारी जीव राग-द्वेष और मोह रूप परिणामों को न होने देने में तत्पर होता हुआ पाण्डव और गजकुमार के समान अपने शुद्धात्मा के संवेदन रूप ज्ञानीपने को नहीं त्यागता है । [एवं जाणदि णाणी] अपितु वह वीतराग स्व-संवेदन स्वरूप भेद-ज्ञान वाला जीव तो पूर्व प्रकार से समाधिस्थ हुआ अपने शुद्धात्मा के स्वरूप को जानता ही रहता है, उसी पर जमा रहता है । [ अण्णाणी मुणदि रागमेवादं] किन्तु अज्ञानी जीव को पूर्वोक्त भेद-ज्ञान नहीं होता, इसलिये वह अपने आपको मिथ्यात्व और रागादिरूप ही मानता और जानता रहता है, [अण्णाणतमोच्छण्णो] क्योंकि वह अज्ञानरूप अन्धकार से ढंका हुआ है । [आदसहावं अयाणंतो] और विकल्प-रहित समाधि के न होने से विकारों से वर्जित परम चैतन्य-चमत्कार ही है लक्षण जिसका ऐसे शुद्ध -आत्मा को नहीं जान पाता है, उसका अनुभव नहीं कर पाता ॥१९१-१९२॥

इस प्रकार भेद-ज्ञान से ही शुद्धात्मा की समुपलब्धि कैसे हो जाती है, इस प्रश्न के उत्तर में ये दो गाथायें कहीं गई हैं

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+ शुद्ध आत्मा की प्राप्ति से ही संवर -
सुद्धं तु वियाणंतो सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो । (186)
जाणंतो दु असुद्धं असुद्धमेवप्पयं लहदि ॥193॥
शुद्धं तु विजानन् शुद्धं चैवात्मानं लभते जीव:
जानंस्त्वशुद्धमशुद्धमेवात्मानं लभते ॥१८६॥
जो जानता मैं शुद्ध हूँ वह शुद्धता को प्राप्त हो
जो जानता अविशुद्ध वह अविशुद्धता को प्राप्त हो ॥१८६॥
अन्वयार्थ : [सुद्धं तु] शुद्ध-आत्मा को [वियाणंतो] जानता हुआ [जीवो] जीव [सुद्धं चेव] शुद्ध ही [अप्पयं लहदि] आत्मा को प्राप्त करता है [दु] और [असुद्धं] अशुद्ध आत्मा को [जाणंतो] जानता हुआ [असुद्धमेवप्पयं] अशुद्ध आत्मा को ही प्राप्त करता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जो पुरुष सदा ही अविच्छेदरूप धारावाही ज्ञानसे शुद्ध आत्मा को पाता हुआ स्थित है वह पुरुष 'ज्ञान-मय भाव से ज्ञान-मय ही भाव होते हैं' ऐसे न्याय कर आगामी कर्म के आस्रव के निमित्त-भूत राग-द्वेष-मोह की संतान (परिपाटी) के निरोध से शुद्ध-आत्मा को ही पाता है । और जो जीव नित्य ही अज्ञान से अशुद्ध-आत्मा को पाता हुआ स्थित है वह जीव 'अज्ञानमय भाव से अज्ञानमय ही भाव होता हैं' इस न्याय से आगामी कर्म के आस्रव के निमित्त-भूत राग-द्वेष-मोह की संतान का निरोध न होने से अशुद्ध-आत्मा को ही पाता है । इस कारण शुद्ध-आत्मा की प्राप्ति से ही संवर होता है ।

(कलश--रोला)
भेदज्ञान के इस अविरल धाराप्रवाह से ।
कैसे भी कर प्राप्त करे जो शुद्धातम को ॥
और निरन्तर उसमें ही थिर होता जावे ।
पर परिणति को त्याग निरंतर शुध हो जावे ॥१२७॥

[यदि कथम् अपि] यदिे किसी भी प्रकार से (तीव्र पुरुषार्थ करके) [धारावाहिना बोधनेन] धारावाही ज्ञान से [शुद्धम् आत्मानम्] शुद्ध आत्मा को [ध्रुवम् उपलभमानः आस्ते] निश्चलतया अनुभव किया करे [तत् अयम् आत्मा] तो यह आत्मा, [उदयत्-आत्म-आरामम् आत्मानम् ] जिसका आत्मानंद प्रगट होता जाता है (जिसकी आत्म-स्थिरता बढ़ती जाती है) ऐसे आत्मा को [पर-परिणति-रोधात्] परपरिणति के निरोध से [शुद्धम् एव अभ्युपैति] शुद्ध ही प्राप्त करता है ।

जयसेनाचार्य :
आगे यह बताते हैं कि शुद्धात्मा की समुपलब्धि हो जाने से संवर कैसे हो जाता है-

[सुद्धं तु वियाणंतो सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो] क्रोधादि-भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्य-कर्म, और औदारिक शरीरादि-नोकर्म इस प्रकार तीनों प्रकार के कर्मों से रहित तथा अनन्त-ज्ञानादि गुणरूप शुद्धात्मा को, निर्विकार-सुख की अनुभूति ही लक्षण जिसका ऐसे भेदज्ञान के द्वारा अर्थात ध्यान के द्वारा जो जानता है, अनुभव करता है, वह ज्ञानी-जीव कहलाता है । क्योंकि जैसे गुणों से विशिष्ट जैसी आत्मा का अर्थात् शुद्धात्मा का ध्यान करता है, अपने उपयोग में दृढ़ता से उतरता है, वह अपने आपको भी वैसा ही बना लेता है क्योंकि उपादान के समान ही कार्य होता है, यह नियम बना हुआ है । [जाणंतो दु असुद्धं असुद्धमेवप्पयं लहदि] परन्तु जो अपने आपको मिथ्यात्वादि-विकारभावों में परिणत हुआ अशुद्ध जानता है, अनुभव करता है वह अज्ञानी-जीव अपने-आपको नर-नारकादि-पर्यायरूप में अशुद्ध ही पाता है ॥१९३॥

अब संवर होने का प्रकार कौन-सा है, इसी का विशेष स्पष्टीकरण करते हैं --

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+ संवर इस तरह से होता है -
अप्पाणमप्पणा रुंधिऊण दोपुण्णपावजोएसु । (187)
दंसणणाणाह्मि ठिदो इच्छाविर ओ य अण्णह्मि ॥194॥
जो सव्वसंगमुक्को झायदि अप्पाणमप्पणो अप्पा । (188)
णवि कम्मं णोकम्मं चेदा चेयेइ एयत्तं ॥195॥
अप्पाणं झायंतो दंसणणाणमओ अणण्णमओ । (189)
लहइ अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मपविमुक्कं ॥196॥
आत्मानमात्मना रुन्ध्वा द्विपुण्यपापयोगयो:
दर्शनज्ञाने स्थित: इच्छाविरतश्चान्यस्मिन् ॥१८७॥
य: सर्वसंगमुक्तो ध्यायत्यात्मानमात्मनात्मा
नापि कर्म नोकर्म चेतयिता चिंतयत्येकत्वम् ॥१८८॥
आत्मानं ध्यायन् दर्शनज्ञानमयोऽनन्यमय:
लभतेऽचिरेणात्मानमेव स कर्मप्रविमुक्तम् ॥१८९॥
पुण्य एवं पाप से निज आतमा को रोककर
अन्य आशा से विरत हो ज्ञान-दर्शन में रहें ॥१८७॥
विरहित करम नोकरम से निज आत्म के एकत्व को
निज आतमा को स्वयं ध्यावें सर्व संग विमुक्त हो ॥१८८॥
ज्ञान-दर्शन मय निजातम को सदा जो ध्यावते
अत्यल्पकाल स्वकाल में वे सर्व कर्म विमुक्त हों ॥१८९॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [अप्पा] जीव [अप्पाणमप्पणा] आत्मा को आत्मा के द्वारा [दोपुण्णपावजोगेसु] दो पुण्य-पाप योगों से [रुंधिऊण] रोककर [दंसणणाणम्हि] दर्शन-ज्ञान में [ठिदो] ठहरा हुआ [अण्णम्हि इच्छाविरदो] अन्य वस्तु में इच्छारहित [य] और [सव्वसंगमुक्को] सब परिग्रह से रहित हुआ [अप्पाणमप्पणो] आत्मा के द्वारा आत्मा को [झायदि] ध्याता है तथा [कम्मं णोकम्मं] कर्म नोकर्म को [ण वि] नहीं ध्याता और आप [चेदा] चेतनहार होता हुआ [एयत्तं] एकत्व को [चिंतेदि] विचारता है [सो] वह जीव [दंसणणाणमओ] दर्शन-ज्ञानमय और [अणण्णमओ] अनन्यमय होकर [अप्पाणं झायंतो] आत्मा का ध्यान करता हुआ [अचिरेण] थोड़े समय में [एव] ही [कम्मपविमुक्कं] कर्म-रहित [अप्पाणम्] आत्मा को [लहदि] प्राप्त करता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
राग-द्वेष-मोहरूप मूल वाले शुभाशुभ योगों में प्रवर्तमान अपने आत्मा को जो जीव दृढ़तर भेद-विज्ञान के बल से आपसे ही अत्यन्त रोककर शुद्ध ज्ञानदर्शनात्मक आत्म-द्रव्य में अच्छी तरह ठहराकर समस्त पर-द्रव्यों की इच्छा के परिहार से समस्त संग-रहित होकर नित्य ही निष्चल हुआ किंचिन्मात्र भी कर्म को नहीं स्पर्ष करके अपने आत्मा को आत्मा के द्वारा ही ध्याता हुआ स्वयं चेतने वाला होने से अपने चेतनारूप एकत्व को ही अनुभवता है वह जीव निश्चय से एकत्व को चेतने से पर-द्रव्य से अत्यन्त भिन्न चैतन्य चमत्कार-मात्र अपने आत्मा को ध्याता हुआ, शुद्ध दर्शन-ज्ञान-मय आत्म-द्रव्य को प्राप्त हुआ शुद्धात्मा का उपलम्भ होने पर समस्त पर-द्रव्यमयता से अतिक्रान्त होता हुआ अल्प समय में ही सब कर्मों से रहित आत्मा को प्राप्त करता है । यह संवर का प्रकार है ।

(कलश--रोला)
भेदज्ञान की शक्ति से निजमहिमा रत को ।
शुद्धतत्त्व की उपलब्धि निश्चित हो जावे ॥
शुद्धतत्त्व की उपलब्धि होने पर उसके ।
अतिशीघ्र ही सब कर्मों का क्षय हो जावे ॥१२८॥

[भेदविज्ञानशक्त्या निजमहिमरतानां एषां ] जो भेद-विज्ञान की शक्ति के द्वारा निज (स्वरूप की) महिमा में लीन रहते हैं उन्हें [नियतम् शुद्धतत्त्वोपलम्भः भवति] नियम से शुद्ध-तत्त्व की उपलब्धि होती है; [तस्मिन् सति च] शुद्ध तत्त्व की उपलब्धि होने पर, [अचलितम् अखिल-अन्यद्रव्य-दूरे-स्थितानां] अचलितरूप से समस्त अन्य-द्रव्यों से दूर वर्तते हैं उनको [अक्षयः कर्ममोक्षः भवति] अक्षय कर्म-मोक्ष होता है ।

जयसेनाचार्य :
जो [अप्पाणमप्पणा रुंधिऊण दोपुण्णपावजोएसु] पुण्य और पाप के आधारभूत दोनों प्रकार की शुभाशुभ-क्रियाओं से अपनी आत्मा को प्रवर्तमान अपने करण-साधनभूत स्व-संवेदन-ज्ञान के बल से दूर हटा कर [दंसणणाणाह्मि ठिदो] दर्शन और ज्ञान में स्थित होता हुआ; [इच्छाविर ओ य अण्णह्मि] इन देहादिक और रागादिक सभी प्रकार के अन्य द्रव्यों में इच्छा रहित होता है । यह पहली गाथा हुई । [जो सव्वसंगमुक्को झायदि अप्पाणमप्पणो अप्पा] इस प्रकार सर्वप्रकार के परिग्रह से रहित जो आत्म-तत्त्व है, उससे विलक्षण बाह्य और अभ्यन्तर-रूप सर्व प्रकार के परिग्रह से रहित होता हुआ करणभूत अपनी शुद्धात्मा से अपने शुद्ध-स्वरूप का ध्यान करता है । [णवि कम्मं णोकम्मं] किन्तु कर्म और नोकर्म का चिंतवन नहीं करता है । तो फिर वह आत्मा का ध्यान करने वाला क्या करता है ? कि [चेदा चेयेइ एयत्तं] उपर्युक्त गुणों से विशिष्ट वह चेतना-गुणधारी-आत्मा केवल एकत्व का चितवन करता है जैसा कि -- 'एकोsहं निर्मम: शुद्धो, ज्ञानी योगीन्द्रगोचर: । बाह्या: संयोगजा भाव: मत्त: सर्वेपि सर्वथा ।' इस श्लोक में बताया गया है की -- मैं तो एक हूँ, मेरा यहाँ कोई नहीं है, किसी भी प्रकार के सम्पर्क से दूर रहने वाला हूँ, केवल ज्ञान गुण का धारक हूँ मुझे योगी लोग ही ध्यान के बल से जान-पहचान सकते हैं और कोई नहीं, इसके सिवाय जितने भी संयोगज भाव हैं अर्थात शरीरादिक हैं, वे मेरे से सर्वथा भिन्न हैं, इस प्रकार चिंतवन करता है । यह दूसरी गाथा का अर्थ हुआ ।

[सो अप्पाणं झायंतो] पूर्वसूत्रोक्त पुरुष, उपर्युक्त प्रकार से आत्मा का चिन्तवन करता हुआ-निर्विकल्प रूप से आत्मा का ध्यान करता हुआ । [दंसणणाणमओ] दर्शन और ज्ञानमयी होकर [अणण्णमणो] तथा अपने आत्मा में एक चित्त होकर [लहइ अप्पाणमेव सो] अपने आप को ही प्राप्त कर पाता है । किस प्रकार कर पाता है ? कि [अचिरेण कम्मपविमुक्कं] बहुत ही शीघ्र भाव-कर्म, द्रव्य-कर्म और नोकर्म के भेद से जो तीन प्रकार के कर्म है उनसे रहित कर पाता है ।

संवर किस प्रकार होता है, इस प्रश्न का विशेष स्पष्टीकरण करने के रूप ये ये तीन गाथायें पूर्ण हईं ॥१९४-१९६॥

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+ आत्मा परोक्ष है, फिर उसका ध्यान कैसे -
उवदेसेण परोक्खं रूवं जह पस्सिदूण णादेदि ।
भण्णदि तहेव घिप्पदि जीवो दिट्ठो य णादो य ॥197॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे किसी के [परोक्खं रूवं] परोक्षरूप [उवदेसेण] उपदेश द्वारा तथा लिखा [पस्सिदूण] देखकर [णादेदि] जाना जाता है, [तहेव] वैसे ही [जीवो] यह जीव [भण्णदि] वचनों के द्वारा कहा जाता है तथा [घिप्पदि] मन के द्वारा ग्रहण किया जाता है, वह मानों प्रत्यक्ष [दिट्ठो य णादो य] देखा गया व जाना गया है ।

जयसेनाचार्य :
[उवदेसेण परोक्खं रूवं जह पस्सिदूण णादेदि] जैसे लोक व्यवहार में किसी परोक्ष देव के रूप को भी किसी दूसरे के कहने से या कहीं लिखा हुआ देखकर कि यह अमुक देवता का रूप है, देवदत्त आदिक जाना जाता है । [भण्णदि तहेव घिप्पदि जीवो दिट्ठो य णादो य] उसी प्रकार यह जीव वचनों के द्वारा कहा जाता है तथा यह जीव मेरे द्वारा देखा गया और जाना गया, ऐसा मन के द्वारा ग्रहण किया जाता है । इस प्रकार विश्वास किया जा सकता है, समझा जा सकता है । ऐसा ही अन्य ग्रन्थ में कहा गया है कि 'गुरूपदेशाभ्यासात् संवित्ते: स्वपरान्तरं, जानाति य: स जानाति मोक्षसौख्यं निरन्तरं' । अर्थात् -- जो गुरु महाराज के उपदेश से उनके बताये हुए मार्ग के द्वारा अभ्यास करने से अपनी बुद्धि के विवेक द्वारा अपने आपके तथा औरों के अंतरंग तत्त्व को जानता है, वह निरन्तर होने वाले मोक्ष सुख को जानता है ॥१९७॥

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कोविदिदच्छो साहू संपडिकाले भणिज्ज रूवमिणं ।
पच्चक्खमेव दिट्ठं परोक्खणाणे पवट्ठंतं ॥198॥
अन्वयार्थ : [कोविदिदच्छो साहू] कौन समझदार साधु यह [भणिज्ज] कह सकता है कि [रूवमिणं पच्चक्खमेव दिट्ठं] आत्म तत्त्व [संपडिकाले] वर्तमान काल में इस छद्मस्थ के प्रत्यक्ष हो जाता है क्योंकि इसका साक्षात्कार तो केवलज्ञान में ही होता है । परन्तु परोक्ष [परोक्खणाणे] मानसिक-ज्ञान के द्वारा वह छद्मस्थ ज्ञान से भी [पवट्ठंतं] जाना जाता है ।

जयसेनाचार्य :
[कोविदिदच्छो साहू संपडिकाले भणिज्ज] कौन समझदार साधु इस समय ऐसा कह सकता है कि [रूवमिणं पच्चक्खमेव दिट्ठं] आत्मा के स्वरूप को मैंने प्रत्यक्ष ही देख लिया है, जैसा कि चतुर्थकाल में केवलज्ञानी देख लिया करते थे परन्तु ऐसा तो कोई भी नहीं कहता । कहना तो यह है कि वह आत्म-स्वरुप [परोक्खणाणे पवट्ठंतं] केवलज्ञान की अपेक्षा से जो परोक्ष है ऐसा श्रुतज्ञान में अर्थात मानसिक-ज्ञान में प्रगट हो जाता है । भावार्थ यह है कि यद्यपि शुद्ध-निश्चयनय से रागादि-विकल्प रहित स्वसंवेदनरूप-भावश्रुतज्ञान, केवलज्ञान की अपेक्षा से परोक्ष ही है तथापि सर्व-साधारण को होने वाला जो इन्द्रिय--मनोजनित सविकल्प-ज्ञान होता है, उसकी अपेक्षा से वह प्रत्यक्ष है । अत: स्व-संवेदनज्ञान के द्वारा जाना जाता है इसलिये प्रत्यक्ष होता है पर केवल-ज्ञान की दृष्टि में तो वह परोक्ष ही होता है । किन्तु सर्वथा परोक्ष ही है ऐसा नहीं कहा जा सकता, अपितु सोचो कि चतुर्थ काल में भी केवली भगवान क्या आत्मा को हाथ में लेकर दिखलाते हैं ? अर्थात नहीं, वे अपनी दिव्य-ध्वनि के द्वारा कहकर चले जाते हैं । तो भी दिव्य-ध्वनि सुनने के काल में सुननेवालों के लिए आत्मा का स्वरूप परोक्ष ही होता है । तत्पश्चात् श्रोता लोग परम-समाधि स्वीकार करते हैं उस ध्यानस्थ अवस्था में ही वह उनके प्रत्यक्ष होता है -- अनुभव गोचर होता है वैसा ही आज भी हो सकता है । इस प्रकार परोक्ष आत्मा का किस प्रकार ध्यान किया जाता है । इसका समाधान करते हुए दो गाथाएँ समाप्त हुईं ॥१९८॥

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+ संवर के क्रम का व्याख्यान -
तेसिं हेदू भणिदा अज्झवसाणाणि सव्वदरिसीहिं । (190)
मिच्छत्तं अण्णाणं अविरयभावो य जोगो य ॥199॥
हेदुअभावे णियमा जायदि णाणिस्स आसवणिरोहो । (191)
आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स वि णिरोहो ॥200॥
कम्मस्साभावेण य णोकम्माणं पि जायदि णिरोहो । (192)
णोकम्मणिरोहेण य संसारणिरोहणं होदि ॥201॥
तेषां हेतवो भणिता अध्यवसानानि सर्वदर्शिभि:
मिथ्यात्वमज्ञानमविरतभावश्च योगश्च ॥१९०॥
हेत्वभावे नियमाज्जायते ज्ञानिन आस्रवनिरोध:
आस्रवभावेन विना जायते कर्मणोऽपि निरोध: ॥१९१॥
कर्मणोऽभावेन च नोकर्मणामपि जायते निरोध:
नोकर्मनिरोधेन च संसारनिरोधनं भवति ॥१९२॥
बंध के कारण कहे हैं भाव अध्यवसान ही
मिथ्यात्व अर अज्ञान अविरत-भाव एवं योग भी ॥१९०॥
इनके बिना है आस्रवों का रोध सम्यग्ज्ञानि के
अर आस्रवों के रोध से ही कर्म का भी रोध है ॥१९१॥
कर्म के अवरोध से नोकर्म का अवरोध हो
नोकर्म के अवरोध से संसार का अवरोध हो ॥१९२॥
अन्वयार्थ : [तेसिं] पूर्वोक्त राग-द्वेष-मोहरूप आस्रवों के [हेदू] हेतु [मिच्छत्तं अण्णाणं अविरयभावो] मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति भाव [जोगो य] और योग ये चार [अज्झवसाणाणि] अध्यवसान [सव्वदरिसीहिं] सर्वज्ञ-देवों ने [भणिदा] कहे हैं सो [णाणिस्स] ज्ञानी के [हेदुअभावे] इन हेतुओं का अभाव होने से [णियमा] नियम से [आसवणिरोहो] आस्रव का निरोध [जायदि] होता है और [आसवभावेण विणा] आस्रवभाव के बिना [कम्मस्स वि] कर्म का भी [णिरोहो] निरोध [जायदि] होता है [य] और [कम्मस्साभावेण] कर्म के अभाव से [णोकम्माणं पि] नोकर्मों का भी [णिरोहो] निरोध [जायदि] होता है [य] तथा [णोकम्मणिरोहेण] नोकर्म के निरोध होने से [संसारणिरोहणं] संसार का निरोध [होदि] होता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
योग-स्वरूप अध्यवसान मोही जीव के विद्यमान हैं ही, वे अध्यवसान राग-द्वेष-मोहस्वरूप आस्रव भाव के कारणभूत हैं, आस्रवभाव कर्म का कारण है, कर्म नोकर्म का कारण है और नोकर्म संसार का कारण है । इस कारण आत्मा नित्य ही आत्मा और कर्म के एकत्व के अध्यास से आत्मा को मिथ्यात्व अज्ञान अविरति योगमय मानता है । उस अध्यास से राग-द्वेष-मोहरूप आस्रव भावों को भाता है उससे कर्म का आस्रव होता है, कर्म से नोकर्म होता है और नोकर्म से संसार प्रगट होता है । परंतु जिस समय यह आत्मा, आत्मा और कर्म के भेद-ज्ञान से शुद्ध चैतन्य चमत्कार मात्र आत्मा को अपने में पाता है उस समय मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति, योग स्वरूप, आस्रवभावों के कारणभूत अध्यवसानों का इसके अभाव होता है, मिथ्यात्व आदि का अभाव होने से राग-द्वेष मोहरूप आस्रव भाव का अभाव होता है, राग-द्वेष-मोह का अभाव होने से कर्म का अभाव होता है, कर्म का अभाव होने पर नोकर्म का अभाव होता है और नोकर्म का अभाव होने से संसार का अभाव होता है । ऐसा यह संवर का अनुक्रम है ।

(कलश--रोला)
आत्मतत्त्व की उपलब्धि हो भेदज्ञान से ।
आत्मतत्त्व की उपलब्धि से संवर होता ॥
इसीलिए तो सच्चे दिल से नितप्रति करना ।
अरे भव्यजन ! भव्य-भावना भेद-ज्ञान की ॥१२९॥

[एषः साक्षात् संवरः] यह साक्षात् संवर [किल] वास्तव में [शुद्ध-आत्म-तत्त्वस्य उपलम्भात्] शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि से [सम्पद्यते] होता है; और [सः भेदविज्ञानतः एव] उसकी उपलब्धि भेद-विज्ञान से ही है [तस्मात् तत् भेदविज्ञानम्] इसलिये वह भेदविज्ञान [अतीव भाव्यम्] अत्यंत भाने योग्य है ।

(कलश--रोला)
अरे भव्यजन ! भव्यभावना भेदज्ञान की ।
सच्चे मन से बिन विराम के तबतक भाना ॥
जबतक पर से हो विरक्त यह ज्ञान ज्ञान में ।
ही थिर ना हो जाय अधिक क्या कहें जिनेश्वर ॥१३०॥

[इदम् भेदविज्ञानम् अच्छिन्न-धारया] यह भेदविज्ञान अखण्ड प्रवाहरूप से [तावत् भावयेत्] तब तक भाना चाहिये [यावत् परात् च्युत्वा] जब तक परभावों से छूटकर [ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते] ज्ञान ज्ञान में ही स्थिर हो जाये ।

(कलश--रोला)
अबतक जो भी हुए सिद्ध या आगे होंगे ।
महिमा जानो एकमात्र सब भेदज्ञान की ॥
और जीव जो भटक रहे हैं भव-सागर में ।
भेदज्ञान के ही अभाव से भटक रहे हैं ॥१३१॥

[ये केचन किल सिद्धाः] जो कोई सिद्ध हुए हैं [भेदविज्ञानतः सिद्धाः] भेदविज्ञान से सिद्ध हुए हैं; [ये केचन किल बद्धाः] जो कोई बँधे हैं [अस्य एव अभावतः बद्धाः] वे उसी के अभाव से बँधे हैं ।

(कलश--रोला)
भेद-ज्ञान से शुद्ध-तत्त्व की उपलब्धि हो ।
शुद्ध-तत्त्व की उपलब्धि से रागनाश हो ॥
राग-नाश से कर्म-नाश अर कर्म-नाश से ।
ज्ञान ज्ञान में थिर होकर शाश्वत हो जावे ॥१३२॥

[भेदज्ञान-उच्छलन-कलनात्] भेदज्ञान प्रगट करने के अभ्यास से [शुद्धतत्त्व उपलम्भात्] शुद्ध-तत्त्व की उपलब्धि होने से [रागग्रामप्रलयकरणात्] राग-समूह का विलय होने से [कर्मणां संवरेण] कर्मों का संवर होने से, [ज्ञाने नियतम् एतत् ज्ञानं उदितं] ज्ञान में ही निश्चल हुआ ऐसा यह ज्ञान उदय को प्राप्त हुआ [बिभ्रत् परमम् तोषं] कि जो ज्ञान परम-संतोष को धारण करता है, [अमल-आलोकम्] जिसका प्रकाश निर्मल है, [अम्लानम्] जो अम्लान है, [एकं] जो एक है और [शाश्वत-उद्योतम्] जिसका उद्योत शाश्वत है ।

इसप्रकार संवर रंगभूमि से बाहर निकल गया है ।

इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार की आचार्य अमृतचन्द्रकृत आत्मख्याति नामक संस्कृत टीका में संवर का प्ररूपक पाँचवाँ अंक समाप्त हुआ ।

जयसेनाचार्य :
अब उदय में प्राप्त हुए द्रव्य-प्रत्यय ही हैं स्वरुप जिनका ऐसे, रागादि-अध्यवसान-भाव, उनका अभाव हो जाने पर जीवगत रागादि-भाव-कर्मरूप-अध्यवसानों का भी अभाव हो जाता है इत्यादि रूप से संवर के क्रम का व्याख्यान करते हैं --

[तेसिं हेदू भणिदा अज्झवसाणाणि सव्वदरिसीहिं] प्रसिद्धि को प्राप्त हुए जीवगत रागादि विभाव-रूप भावास्रवों के भी हेतु उदय को प्राप्त हुए द्रव्य-प्रत्ययों में होने वाले रागादि अध्यवसान सर्वज्ञ-देव ने बतलाये हैं । यहाँ शंका हो सकती है कि अध्यवसान तो भाव-कर्म रूप होते हैं जो कि जीवगत ही हो सकते हैं । उदय को प्राप्त द्रव्य-प्रत्ययगत भाव-प्रत्यय कैसे हो सकते हैं ? इसका समाधान करते हैं कि शंका ठीक नहीं है, क्योंकि भाव-कर्म जीवगत और पुद्गल कर्मगत दो प्रकार का होता है । जैसा कि कहा है -- 'दव्वं पुग्गलपिंडो दव्वं कोहादी भाव तु' यह जीवगत भाव-कर्म की बात हुई और 'पुगलपिंडो दव्वं तस्सत्ती भावकम्मंतु' यह पुद्गल द्रव्यगत भाव-कर्म की बात हुई । उसी को दृष्टांत द्वारा समझाते हैं कि -- किसी मीठे या कड़वे पदार्थ को खाने के समय में उसके मधुर या कटुक स्वाद को चखनेरूप जो जीव का विकल्प होता है वह जीवगत-भाव कहलाता है किन्तु उसकी अभिव्यक्ति में कारणभूत ऐसा उस मधुर या कटुक द्रव्य में रहने वाला शक्ति का अंश-विशेष होता है वह पुद्गल-द्रव्यगत-भाव कहा जाता है । इस प्रकार भाव-कर्म का स्वरूप जीवगत और पुद्गलगत के भेद से दो प्रकार का होता है । ऐसा भाव-कर्म के व्याख्यान में सर्व ही तौर जानना चाहिये । वे अध्यवसान कौन से हैं ? [मिच्छत्तं अण्णाणं अविरयभावो य जोगो य] मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योग के भेद से चार प्रकार के है । यह पहला गाथा का अर्थ हुआ । [हेदुअभावे णियमा जायदि णाणिस्स आसवणिरोहो] ऊपर जिनका वर्णन कर चुके है ऐसे जीवगत भावास्रवों के जो हेतु कहे गये हैं, उन द्रव्य-कर्म स्वरूप उदय में आये हुए द्रव्य-प्रत्ययों का वीतराग-स्वसंवेदन-ज्ञानी जीव के अभाव हो जाता है एवं उनके न होने पर नियम से उसके अवश्य ही रागादि-भावास्रवों के निरोध-स्वरूप-संवर हो जाता है । [आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स वि णिरोहो] और इस प्रकार आस्रव से रहित जो परमात्म-तत्त्व उससे विलक्षणरूप जीवगत-भावास्रव के न होने से परमात्म-तत्त्व को आच्छादन करने वाले नवीन द्रव्य-कर्मों का भी निरोध अर्थात् संवर हो जाता है, यह दूसरी गाथा का अर्थ हुआ । [कम्मस्साभावेण य णोकम्माणं पि जायदि णिरोहो] इस प्रकार नवीन-कर्म के अभावरूप संवर के हो जाने पर शरीरादिकरूप-नोकर्म का भी निरोधात्मक संवर हो जाता है । [णोकम्मणिरोहेण य संसारणिरोहणं होदि] इस प्रकार नोकर्म का अभाव हो जाने पर संसार से दूरवर्ती ऐसा जो शुद्धात्म-तत्त्व उसका प्रतिपक्षभूत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप पंच प्रकार के संसार का भी अभाव हो जाता है ॥१९९-२०१॥

इस प्रकार संवर के क्रम का व्याख्यान करने वाली तीन गाथायें पूर्ण हुईं । इसके साथ-साथ यह संवर का प्रकरण भी समाप्त हुआ जो कि छह स्थलों में आई हुईं चौदह गाथाओं द्वारा वर्णित है ।

इस प्रकार श्री जयसेनाचार्य की समयसार की टीका, जिसमें की शुद्धात्मा की अनुभूति का लक्षण बतलाया गया है, जिसका कि नाम तात्पर्यवृत्ति है, उसकी हिन्दी टीका में चौदह गाथाओं द्वारा आस्रव के विरोधरूप में छह स्थलों में संवरनामा छट्ठा अधिकार पूर्ण हुआ ।

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निर्जरा अधिकार



+ द्रव्य-निर्जरा का स्वरूप -
उवभोगमिंदियेहिं दव्वाणमचेदणाणमिदराणं । (193)
जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ॥202॥
उपभोगमिंद्रियै: द्रव्याणामचेतनानामितरेषाम्
यत्करोति सम्यग्दृष्टि: तत्सर्वं निर्जरानिमित्तम् ॥१९३॥
चेतन अचेतन द्रव्य का उपभोग सम्यग्दृष्टि जन
जो इन्द्रियों से करें वह सब निर्जरा का हेतु है ॥१९३॥
अन्वयार्थ : [सम्मदिट्ठी] सम्यग्दृष्टि जीव [जं इंदियेहिम्] जो इंद्रियों से [अचेदणाणम्] अचेतन और [इदराणं] अन्य चेतन [दव्वाणम्] द्रव्यों का [उवभोगम्] उपभोग [कुणदि] करता है [तं सव्वं] वह सब [णिज्जरणिमित्तं] निर्जरा का निमित्त है ।

अमृतचंद्राचार्य :

(मंगलाचरण--दोहा)
शुद्धातम में रत रहो, यही श्रेष्ठ आचार ।
शुद्धातम की साधना, कही निर्जरा सार ॥

अब निर्जरा प्रवेश करती है -

(कलश--हरिगीत)
आगामि बंधन रोकने संवर सजग सन्नद्ध हो ।
रागादि के अवरोध से जब कमर कस के खड़ा हो ॥
अर पूर्वबद्ध करम दहन को निरजरा तैयार हो ।
तब ज्ञानज्योति यह अरे नित ही अमूर्छित क्यों न हो ॥१३३॥

[परः संवरः] परम संवर, [रागादि-आस्रव-रोधतः] रागादि आस्रवों को रोकने से [निज-धुरां धृत्वा] अपनी कार्य-धुरा को धारण करके (अपने कार्य को यथार्थतया सँभालकर), [समस्तम् आगामि कर्म] समस्त आगामी कर्म को [भरतः दूरात् एव] अत्यंततया दूर से ही [निरुन्धन् स्थितः] रोकता हुआ खड़ा है; [तु प्राग्बद्धं] और पूर्व-बद्ध (संवर होने के पहेले बँधे हुए) [तत् एव दग्धुम्] कर्म को जलाने के लिये [अधुना निर्जरा व्याजृम्भते] अब निर्जरा (निर्जरारूप अग्नि) फैल रही है [यतः ज्ञानज्योतिः] जिससे ज्ञान-ज्योति [अपावृतं] निरावरण होती हुई (पुनः) [रागादिभिः न हि मूर्छति] रागादिभावों के द्वारा मूर्छित नहीं होती ।

विरागी का उपभोग निर्जरा के लिए ही होता है । मिथ्यादृष्टि का जो ही चेतन अचेतन-द्रव्य का उपभोग रागादिभावों का सद्भाव होने से बंध का निमित्त ही होता है, वही उपभोग रागादिभावों के अभाव से सम्यग्दृष्टि के निर्जरा का निमित्त ही होता है । इस कथन से द्रव्य-निर्जरा का स्वरूप बताया गया है ।

जयसेनाचार्य :
अब यहाँ श्रंगार रहित पात्र के समान शुद्ध-जीव-स्वरूप जो संवर है वह तो इस रंग-भूमि में से चला गया और वीतराग निर्विकल्प समाधि स्वरूप शुद्धोपयोग लक्षण को रखने वाली संवर-पूर्वक-निर्जरा प्रवेश करती है ।

वहाँ [उवभोगमिंदियेहिं] इत्यादि गाथा को आदि लेकर दंडकों को छोड़ पाठ-क्रम से पचास गाथाओं पर्यन्त छह स्थलों से निर्जरा का व्याख्यान करते हैं । उनमें से इस प्रकार छह अंतिराधिकारों से इस निर्जरा-अधिकार में समुदाय पातनिका पूर्ण हुई ।

[उवभोगमिंदियेहिं दव्वाणमचेदणाणमिदराणं जं कुणदि सम्मदिट्ठी] सम्यग्दृष्टि जीव अपनी पाँचों इन्द्रियों के द्वारा चेतन और अचेतन द्रव्यों में भोग्य और उपभोग्य वस्तु का जो उपभोग करता है, [तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं] वह सब उसके लिये निर्जरा का ही निमित्त होता है । जो वस्तु मिथ्यादृष्टि जीव के लिए राग-द्वेष और मोह भाव होने के कारण बंध में निमित्त कारण होती है वही वस्तु सम्यग्दृष्टि जीव के लिए राग, द्वेष और मोह भाव के न होने के कारण निर्जरा की निमित्त होती है । यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि राग, द्वेष और मोह भाव न होने पर सब ही निर्जरा का कारण बताया गया है सो ठीक, परन्तु गुरुमहाराज ! सम्यग्दृष्टि के तो राग-द्वेष-भाव होते हैं सब ही सम्यग्दृष्टि जीव वीतरागी नहीं होते हैं, इससे उसके कर्म की निर्जरा कैसे हो सकती है ? इसका समाधान आचार्य करते हैं कि इस ग्रंथ में वास्तविक में वीतराग-सम्यग्दृष्टि का ही ग्रहण किया गया है, परन्तु चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत-सम्यग्दृष्टि का कथन यहाँ गौण है । यदि इसे भी यहाँ लिया जाये तो इस प्रश्न का समाधान पहले किया जा चुका है कि मिथ्यादृष्टि प्रथम गुणस्थान्वर्ती जीव की अपेक्षा से चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत-सम्यग्दृष्टि जीव कम राग वाला होता है क्योंकि उसके मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधी-क्रोध, मान, माया और लोभ-जनित रागादिक नहीं होते हैं तथा श्रावक के अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ-जनित रागादिक नहीं होते हैं इत्यादि । तथा सम्यग्दृष्टि के जो भी निर्जरा होती है वह संवर-पूर्वक होती है, किन्तु मिथ्यादृष्टि के वह हाथी-स्नान के समान बन्धभाव पूर्वक हुआ करती है, इसलिये भी मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि अबन्धक होता है ॥२०२॥

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+ भाव-निर्जरा का भी स्वरूप -
दव्वे उवभुंजंते णियमा जायदि सुहं व दुक्खं वा । (194)
तं सुहदुक्खमुदिण्णं वेददि अध णिज्जरं जादि ॥203॥
द्रव्ये उपभुज्यमाने नियमाज्जायते सुखं वा दु:खं वा
तत्सुखदु:खमुदीर्णं वेदयते अथ निर्जरां याति ॥१९४॥
सुख-दुख नियम से हों सदा परद्रव्य के उपभोग से
अर भोगने के बाद सुख-दुख निर्जरा को प्राप्त हों ॥१९४॥
अन्वयार्थ : [दव्वे उवभुंजंते] द्रव्य-कर्म के व वस्तु के भोगे जाने पर [सुहं व दुक्खं] सुख अथवा दुःख [णियमा जायदि] नियम से उत्पन्न होता है । [वा] और [उदिण्णं] उदय में आये हुए [तं सुहदुक्खम्] उस सुख दुःख को [वेददि] अनुभव करता है [अध] फिर वह सुख-दुःख-रूप भाव [णिज्जरं जादि] निर्जरा को प्राप्त होता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
पर-द्रव्य के भोगने में आने पर तन्निमित्त्क सुख-रूप अथवा दुःख-रूप भाव नियम से उदय होते हैं, क्योंकि वह वेदना साता तथा असाता इन दोनों भावों का अतिक्रमण नहीं करती । सो यह सुख-दुःख-रूप भाव जिस समय अनुभवा जाता है उस समय मिथ्यादृष्टि के तो रागादिभावों के होने से आगामी कर्म-बन्ध का निमित्त होकर झड़ता हुआ भी निर्जरा-रूप नहीं होता हुआ बन्ध ही कहना चाहिये । और सम्यग्दृष्टि के उस सुख-दुःख के अनुभव से रागादि भावों का अभाव होने से आगामी बंध का निमित्त न होने से केवल निर्जरा रूप ही होता है सो निर्जरा-रूप हुआ निर्जरा ही कहना चाहिये, बन्ध नहीं कहा जा सकता ।

(कलश--हरिगीत)
ज्ञानी बँधे ना कर्म से सब कर्म करते-भोगते ।
यह ज्ञान की सामर्थ्य अर वैराग्य का बल जानिये ॥१३४॥

[किल तत् सामर्थ्यं] वास्तव में वह (आश्चर्यकारक) सामर्थ्य [ज्ञानस्यएव वा] ज्ञान से ही है अथवा [विरागस्य एव] विराग से ही है [यत् कः अपि] कि कोई (सम्यग्दृष्टि जीव) [कर्म भुञ्जानः अपि] कर्म को भोगता हुआ भी [कर्मभिः न बध्यते] कर्मों से नहीं बन्धता ।

जयसेनाचार्य :
इस प्रकार द्रव्य-निर्जरा का व्याख्यान एक गाथा के द्वारा करके अब भावनिर्जरा का भी स्वरूप निम्न गाथा में स्पष्ट करते हैं---

[दव्वे उवभुंजंते णियमा जायदि सुहं व दुक्खं वा] उदय में आये हुए द्रव्य-कर्म को यह जीव जब भोगता है, तब नियम से साता और असाता वेदनीय-कर्म के उदय के वश से सुख और दु:ख अपने वस्तु के स्वभाव से ही उत्पन्न होते हैं । [तं सुहदुक्खमुदिण्णं वेददि] जो कि रागरहित स्व-संवेदनभाव से उत्पन्न होने वाले पारमार्थिक-सुख से भिन्न प्रकार का होता है । उस उदय में आये हुए सुख या दुख को सम्यग्दृष्टि-जीव भी भोगता है, किन्तु वहाँ कुछ भी भला-बुरापन न मानकर राग-द्वेष किए बिना, उपेक्षा बुद्धि से उसे भोग लेता है -- उसको पार कर जाता है -- उसके साथ तन्मय होकर मैं सुखी हूँ या दुखी हूँ इत्यादि रूप से अनुभव नहीं करता । [अथ णिज्जरं जादि] इसलिए वह उसके स्वस्थ-भाव से निर्जरा को प्राप्त हो जाता है, झड़ ही जाता है -- प्रत्युत बन्ध नहीं कर पाता । किन्तु मिथ्यादृष्टि-जीव तो मैं सुखी हूँ या दुखी हूँ इत्यादि रूप से उपादेय-बुद्धि से उसे भोगता है, इसलिए उसके वह बन्ध का कारण होता है । जैसे कोई भी चोर स्वयं कभी मरना नहीं चाहता किन्तु कोतवाल से जब पकड़ लिया जाता है और मारा जाता है तो मरण का अनुभव करता है । वैसे ही सम्यग्दृष्टि-जीव भी यद्यपि आत्मोत्थ-सहज-सुख को उपादेय मानता है और विषय-सुख को हेय, फिर भी चारित्र-मोह कर्म के उदयरूप कोतवाल से पकड़ा हुआ वह उस विषय-सुख का अनुभव भी करता है इसलिए वह कर्म उसके लिए निर्जरा का निमित्त होता है । इस प्रकार यह भाव-निर्जरा का व्याख्यान हुआ ॥२०३॥

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+ ज्ञान-शक्ति का वर्णन -
जह विसमुवभुंजंतो वेज्जो पुरिसो ण मरणमुवयादि । (195)
पोग्गलकम्मस्सुदयं तह भंजुदि णेव बज्झदे णाणी ॥204॥
जह मज्जं पिबमाणो अरदीभावेण मज्जदि ण पुरिसो । (196)
दव्वुवभोगे अरदो णाणी वि ण बज्झदि तहेव ॥205॥
यथा विषमुपभुंजानो वैद्य: पुरुषो न मरणमुपयाति
पुद्गलकर्मण उदयं तथा भुंक्ते नैव बध्यते ज्ञानी ॥१९५॥
यथा मद्यं पिबन् अरतिभावेन माद्यति न पुरुष:
द्रव्योपभोगेऽरतो ज्ञान्यपि न बध्यते तथैव ॥१९६॥
ज्यों वैद्यजन मरते नहीं हैं जहर के उपभोग से
त्यों ज्ञानिजन बँधते नहीं हैं कर्म के उपभोग से ॥१९५॥
ज्यों अरुचिपूर्वक मद्य पीकर मत्त जन होते नहीं
त्यों अरुचि से उपभोग करते ज्ञानिजन बँधते नहीं ॥१९६॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे [विसमुवभुंजंतो वेज्जो पुरिसो] विष को भोगता हुआ वैद्य पुरुष [ण मरणमुवयादि] मरण को नहीं प्राप्त होता [तह] उसी तरह [पोग्गलकम्मस्सुदयं] पुद्गल कर्म के उदय को [भंजुदि] भोगता हुआ [णाणी] ज्ञानी भी [णेव बज्झदे] बंधता नहीं है । [जह] जैसे [पुरिसो] कोई पुरुष [मज्जं] मदिरा को [अरदीभावेण] अप्रीति से [पिबमाणो] पीता हुआ [मज्जदि ण] मतवाला नहीं होता [तहेव] उसी तरह [णाणी वि] ज्ञानी भी [दव्वुवभोगे अरदो] द्रव्य के उपभोग में विरक्त होता हुआ [ण बज्झदि] कर्मों से नहीं बँधता ।

अमृतचंद्राचार्य :
जैसे कोई वैद्य, दूसरे के मरण का कारणभूत विष को भोगता हुआ भी अव्यर्थ विद्या की सामर्थ्य से विष की मारण-शक्ति के निरुद्ध हो जाने से विष से मरण को प्राप्त नहीं होता, उसी तरह अज्ञानियों को रागादि भावों के सद्भाव से बंध के कारणभूत पुद्गल-कर्म के उदय को भोगता हुआ भी ज्ञानी ज्ञान की अमोघ सामर्थ्य से रागादिभावों के अभाव होने पर कर्म के उदय की आगामी बंध करने वाली शक्ति निरुद्ध हो जाने से आगामी कर्मों से नहीं बंधता ।

जैसे कोई पुरुष मदिरा के तीव्र अप्रीतिभाव वाला होता हुआ मदिरा (शराब) को पीता हुआ भी तीव्र अरतिभाव के सामर्थ्य से मतवाला नहीं होता, उसी तरह ज्ञानी भी रागादिभावों के अभाव से सब द्रव्यों के उपभोग के प्रति तीव्र विरागभाव में वर्तता हुआ विषयों को भोगता हुआ भी तीव्र विरागभाव की सामर्थ्य द्वारा कर्मों से नहीं बँधता ।

(कलश--दोहा)
बँधे न ज्ञानी कर्म से, बल विराग अर ज्ञान ।
यद्यपि सेवें विषय को, तदपि असेवक जान ॥१३५॥

[यत् ना] क्योंकि यह (ज्ञानी) [विषयसेवने अपि] विषय सेवन करता हुआ भी [ज्ञानवैभव-विरागता-बलात्] ज्ञान-वैभव के और विरागता के बल से [विषयसेवनस्य स्वं फलं] विषयसेवन के निजफल को (रंजित परिणाम को) [न अश्नुते] नहीं भोगता (प्राप्त नहीं होता), [तत् असौ] इसलिये यह (पुरुष) [सेवकः अपि असेवकः] सेवक होने पर भी (विषयों का) असेवक है ।

जयसेनाचार्य :
अब यहाँ पर उनमें से पहले ज्ञान-शक्ति का वर्णन करते हैं :-

[जह विसमुवभुंजंतो वेज्जो पुरिसो ण मरणमुवयादि] जैसे मंत्र-विद्या के जानकार पुरुष विष को खाकर निर्दोष-मन्त्र की सामर्थ्य से मरण को प्राप्त नहीं होते हैं । [पोग्गलकम्मस्सुदयं तह भंजुदि णेव बज्झदे णाणी] वैसे ही परम-तत्त्वज्ञानी-जीव शुभ व अशुभरूप कर्म के फल को भोगता हुआ भी वह, निर्विकल्प-समाधि है लक्षण जिसका, ऐसे भेद-ज्ञानरूप-अमोघ कभी भी निष्कल नहीं होने वाले मन्त्र के बल से कर्म-बन्ध को प्राप्त नहीं होता । इस प्रकार ज्ञान-शक्ति का व्याख्यान पूर्ण हुआ ॥२०४॥

[जह मज्जं पिबमाणो अरदीभावेण मज्जदि ण पुरिसो] जैसे कोई पुरुष अपने बवासीर आदि रोग को मिटाने के लिये भांग आदि मादक पदार्थ पीता है । उसमें उसकी मादकता को दबानेवाली औषधि डालकर अरुचि भाव से पीता है अत: वह उन्मत्त नहीं बनता है । [दव्वुवभोगे अरदो णाणी वि ण बज्झदि तहेव] वैसे ही परमार्थ तत्त्व का जानकार पुरुष पंचेन्द्रियों के विषयभूत खान-पान आदि द्रव्य को उपभोग करने के समय में भी निर्विकार स्व-संवेदन से रहित होने वाले बहिरात्मा जीव की अपेक्षा से जिस-जिस प्रकार के रागभाव को नहीं करता है उस-उस प्रकार का कर्म-बन्ध उसके नहीं होता । जब हर्ष-विषाद आदि रूप समस्त विकल्प जालों से रहित परम आत्म-ध्यान वही है लक्षण जिसका, ऐसे भेद-ज्ञान के बल से सर्वथा वीतराग हो जाता है उस समय नूतन कर्म-बन्ध नहीं करता है । यह उसकी वैराग्य शक्ति की विशेषता है ॥२०५॥

इस प्रकार यथाक्रम से द्रव्य-निर्जरा, भाव-निर्जरा, ज्ञान-शक्ति और वैराग्य-शक्ति का वर्णन करते हुए इस निर्जरा-अधिकार में तात्पर्य-व्याख्यान की मुख्यता से ४ गाथायें पूर्ण हुईं ।

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+ दृष्टांत -
सेवंतो वि ण सेवदि असेवमाणो वि सेवगो कोई । (197)
पगरणचेट्ठा कस्स वि ण य पायरणो त्ति सो होदि ॥206॥
सेवमानोऽपि न सेवते असेवमानोऽपि सेवक: कश्चित्
प्रकरणचेष्टा कस्यापि न च प्राकरण इति स भवति ॥१९७॥
ज्यों प्रकरणगत चेष्टा करें पर प्राकरणिक नहीं बनें
त्यों ज्ञानिजन सेवन करें पर विषय सेवक नहीं बनें ॥१९७॥
अन्वयार्थ : [कोई] कोई तो [सेवंतो वि] विषयों को सेवता हुआ भी [ण सेवदि] नहीं सेवन करता है और [असेवमाणो वि] कोई नहीं सेवन हुआ भी [सेवगो] सेवने वाला कहा जाता है [कस्स] जैसे किसी पुरुष के [पगरणचेट्ठा वि] किसी कार्य के करने की चेष्टा तो है [य सो] किन्तु वह [पायरणोत्] कार्य करने वाला स्वामी हो [इति ण होदि] ऐसा नहीं है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जैसे कोई पुरुष किसी कार्य की प्रकरणक्रिया में व्याप्रियमाण होकर भी याने उस सम्बंधी सब क्रियाओं को करता हुआ भी उस कार्य का स्वामी नहीं है । किन्तु दूसरा कोई पुरुष उस प्रकरण में व्याप्रियमाण न होकर भी याने उस कार्य सम्बंधी क्रिया को नहीं करता हुआ भी उस कार्य का स्वामीपन होने से उस प्रकरण का करने वाला कहा जाता है । उसी तरह सम्यग्दृष्टि भी पूर्व-संचित कर्मों के उदयसे प्राप्त हुए इन्द्रियों के विषयों को सेवता हुआ भी रागादिक भावों का अभाव होने के कारण से विषय सेवन के फल के स्वामीपन का अभाव होनेसे असेवक ही है । किन्तु, मिथ्यादृष्टि विषयों को नहीं सेवता हुआ भी रागादिभावों का सद्भाव होने के कारण विषय सेवने के फलका स्वामीपना होनेसे विषयों का सेवक ही है ।

(कलश--हरिगीत)
निजभाव को निज जान अपनापन करें जो आतमा ।
परभाव से हो भिन्न नित निज में रमें जो आतमा ॥
वे आतमा सद्दृष्टि उनके ज्ञान अर वैराग्य बल ।
हो नियम से-यह जानिये पहिचानिये निज आत्मबल ॥१३६॥

[सम्यग्दृष्टेः नियतं ज्ञान-वैराग्य-शक्तिः भवति] सम्यग्दृष्टि के नियम से ज्ञान और वैराग्य की शक्ति होती है; [यस्मात् अयं] क्योंकि यह (सम्यग्दृष्टि जीव) [स्व-अन्य-रूप-आप्ति-मुक्त्या] स्वरूप का ग्रहण और पर का त्याग करने की विधि के द्वारा [स्वं वस्तुत्वं कलयितुम्] अपने वस्तुत्व का (यथार्थ स्वरूप का) अभ्यास करनेके लिये, [इदं स्वं च परं] 'यह स्व है (अर्थात् आत्मस्वरूप है) और यह पर है' [व्यतिकरम् तत्त्वतः] इस भेद को परमार्थ से [ज्ञात्वा स्वस्मिन् आस्ते] जानकर स्व में स्थिर होता है और [परात् रागयोगात्] पर (रागके योग) से [सर्वतः विरमति] सर्वतः विरमता है ।

जयसेनाचार्य :
आगे उस ही वैराग्य-शक्ति का स्वरूप बताते हैं :-

[सेवंतो वि ण सेवदि असेवमाणो वि सेवगो कोई] निर्विकार स्व-संवेदन ज्ञान का धारक जीव अपने-अपने गुणस्थान के योग्य खानपानादि रूप पंचेन्द्रियों के भोगों को भोगने वाला होकर भी उसका भोक्ता नहीं होता किन्तु अज्ञानी जीव उसे न सेवन करता हुआ भी उसके प्रति रागभाव होने से उसका सेवनवाला बना रहता है । इसी बात को दृष्टांत देकर अच्छी प्रकार से समझाते हैं --

[पगरणचेट्ठा कस्स वि ण य पायरणो त्ति सो होदि] जैसे कि जिसका विवाहादि नहीं होना है अत: वह विवाहादि प्रकरण का प्राकरणिक तो नहीं है, जो कि दूसरे घर से आया हुआ पहुना आदि है फिर भी वह उस विवाहादि का काम करता है किन्तु जो प्राकरणिक है, जिसका विवाहादि होना है, वह गीत-नृत्य आदि कोई भी प्रकार का काम नहीं करता है फिर भी उन -- वैवाहिक कामों के प्रति उसका राग होने से वही प्राकरणिक कहलाता है । उसी प्रकार तात्त्वज्ञानी जीव किसी विषय का सेवन करने वाला होकर भी वह उसका भोक्ता नहीं होता, किन्तु अज्ञानी जीव किसी वस्तु का न सेवन करने वाला होकर भी अपने रागभाव के कारण वह उसका भोक्ता बना रहता है ॥२०६॥

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+ अब कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि अपने को और पर को विशेषरूप से इस प्रकार जानता है -- -
पोग्गलकम्मं रागो तस्स विवागोदओ हवदि एसो । (199)
ण दु एस मज्ज भावो जाणगभावो हु अहमेक्को ॥207॥
पुद्गलकर्म रागस्तस्य विपाकोदयो भवति एष:
न त्वेष मम भावो ज्ञायकभाव: खल्वहमेक: ॥१९९॥
पुद्गल करम है राग उसके उदय ये परिणाम हैं
किन्तु ये मेरे नहीं मैं एक ज्ञायकभाव हूँ ॥१९९॥
अन्वयार्थ : [पोग्गलकम्मं रागो] राग पुद्गल-कर्म है [तस्स विवागोदओ] उसका विपाकोदय [हवदि एसो] यह है सो [एस] यह [मज्ज भावो] मेरा भाव [ण] नहीं है, क्योंकि [हु] निश्चय से [अहमेक्को जाणगभावो] मैं तो एक ज्ञायक-भाव-स्वरूप हूं ।

अमृतचंद्राचार्य :
वास्तव में राग नामक पुद्गल-कर्म है, उस पुद्गल-कर्म के उदय के विपाक से उत्पन्न यह प्रत्यक्ष अनुभव-गोचर राग-रूप भाव है वह मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-भाव-स्वरूप हूं । इसी प्रकार राग इस पद के परिवर्तन द्वारा द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन ये सोलह सूत्र व्याख्यान किये जाना चाहिये और इसी रीति से अन्य भी विचार किये जाने चाहिये । इस तरह सम्यग्दृष्टि अपने को जानता हुआ और राग को छोड़ता हुआ नियम से ज्ञान व वैराग्य से सम्पन्न होता है ।

जयसेनाचार्य :
आगे सम्यग्दृष्टि जीव अपने आपके और पर के स्वरूप को विशेषतया अनेक प्रकार से जानता है --

[पुग्गलकम्मं रागो तस्स विवागोदओ हवदि एसो] पुदगल कर्मरूप द्रव्य-क्रोध जो इस जीव में पहले से ही बद्ध हो रहा है उसका विशेष विपाक अर्थात् फलरूप उदय होता है जो कि शान्तरूप आत्म-तत्त्व उससे पृथग्भूत / भिन्न अक्षमारूप भाव है वह भाव-क्रोध; [ण दु एस मज्ज भावो जाणगभावो हु अहमेक्को] मेरा भाव नहीं है क्योंकि मैं तो एक टांकी से उकीरे हुए के समान एक-परमानन्द रूप-ज्ञायक-स्वभाववाला हूँ और इस प्रकार पुद्गल-कर्म के पिण्डरूप तो द्रव्य-क्रोध है और उसके उदय से उपजा हुआ जो अक्षमारूप भाव है वह भाव-क्रोध है यह व्याख्यान पहले भी किया जा चुका है । वह कहाँ पर है ? कि 'पुग्गलपिण्डो दव्वं तस्सत्ती भावकम्मं तु' इसमें बताया है । इसी प्रकार क्रोध के स्थान पर मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, क्षोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन नाम बदलकर सोलह सूत्र भिन्न-भिन्न रूप से व्याख्यान करने योग्य हैं और इस प्रकार असंख्यात लोक परिमाण और भी जो जीव के परिणाम हैं वे सभी दूर करने योग्य हैं । सम्यग्दृष्टि जीव के लिए मिटा देने योग्य हैं ॥२०७॥

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+ औपाधिक-भाव आत्म-स्वभाव क्यों नहीं ? -
कह एस तुज्झ ण हवदि विविहो कम्मोदयफलविवागो ।
परदव्वाणुवओगो ण हु देहो हवदि अण्णाणी ॥208॥
अन्वयार्थ : [विविहो] नाना प्रकार के [कम्मोदयफलविवागो] कर्मोदय के फल का विपाकरूप औपाधिक परिणाम [कह एस] वह क्यों [तुज्झ] तेरा स्वरूप [ण हवदि] नहीं है, कि [परदव्वाणुवओगो] पर-द्रव्य आत्म-स्वभाव [ण] नहीं है क्योंकि [देहो] देह तो [हु] स्पष्ट ही [हवदि अण्णाणी] जड़-स्वरूप है ॥२०८॥

जयसेनाचार्य :
यदि कोई सम्यग्दृष्टि से पूछता है कि यह सब तेरा स्वभाव क्यों नहीं है तो वह इसका उत्तर भेद-ज्ञान भावना के द्वारा इस प्रकार देता है --

[कह एस तुज्झ ण हवदि विविहो कम्मोदयफलविवागो] नाना प्रकार के कर्मोदय का विपाक वह तेरा स्वरूप क्यों नहीं है ? ऐसा यदि कोई पूछता है तो सम्यग्दृष्टि उत्तर देता है कि [परदव्वाणुवओगो] विकार रहित परम प्रसन्न भाव ही है लक्षण जिसका ऐसे शुद्धात्म द्रव्य से भिन्न द्रव्य रूप पौद्गलिक कर्म जो मेरी आत्मा में लगे हुए हैं उनके उदय से होने वाला यह क्रोधादिक तो औपाधिक भाव है जैसे की डांक के कारण से होने वाला स्फटिक का काला, पीलापन है । अत: क्रोधादिक रूप भाव मेरा स्वभाव नहीं है । इतना ही नहीं किन्तु [ण हु देहो हवदि अण्णाणी] यह शरीर भी मेरे शुद्धात्मा का स्वरूप नहीं है क्योंकि यह अज्ञानी है, जड़-स्वरूप है और मैं अनन्त-ज्ञानादि गुण स्वरूप हूँ ॥२०८॥

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+ औपाधिक भावों की परभावता जानने का फल -
एवं सम्माद्दिट्ठी अप्पाणं मुणदि जाणगसहावं । (200)
उदयं कम्मविवागं च मुयदि तच्चं वियाणंतो ॥209॥
एवं सम्यग्दृष्टि: आत्मानं जानाति ज्ञायकस्वभावम्
उदयं कर्मविपाकं च मुंचति तत्त्वं विजानन् ॥२००॥
इसतरह ज्ञानी जानते ज्ञायकस्वभावी आतमा
कर्मोदयों को छोड़ते निजतत्त्व को पहिचान कर ॥२००॥
अन्वयार्थ : [एवं] इस तरह [सम्माद्दिट्ठी] सम्यग्दृष्टि [अप्पाणं] अपने को [जाणगसहावं] ज्ञायक-स्वभाव [मुणदि] जानता है [च] और [तच्चं] वस्तु के यथार्थ स्वरूप को [वियाणंतो] जानता हुआ [कम्मविवागं] कर्म-विपाक-रूप [उदयं] उदय को [मुयदि] छोड़ता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
इस प्रकार सम्यग्दृष्टि, सामान्य तथा विशेष से सभी पर-स्वभाव-रूप भावों से भिन्न होकर टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-भाव स्वभाव-रूप आत्मा के तत्त्व को अच्छी तरह जानता है और उस प्रकार तत्त्व को अच्छी तरह जानता हुआ स्वभाव का ग्रहण और परभाव का त्याग द्वारा निष्पाद्य अपने वस्तुपने को फैलाता हुआ कर्म के उदय के विपाक से उत्पन्न हुए सब भावों को छोड़ता है । इस कारण यह सम्यग्दृष्टि नियम से ज्ञान व वैराग्य से सम्पन्न होता है ।

(कलश-हरिगीत)
मैं स्वयं सम्यग्दृष्टि हूँ ,हूँ बंध से विरहित सदा ।
यह मानकर अभिमान में, पुलकित वदन मस्तक उठा ॥
जो समिति आलंबें महाव्रत, आचरें पर पापमय ।
दिग्मूढ़ जीवों का अरे जीवन नहीं अध्यात्ममय ॥१३७॥

[अयम् अहं स्वयम् सम्यग्दृष्टिः, मे जातुः बन्धः न स्यात्] 'यह मैं स्वयं सम्यग्दृष्टि हूँ, मुझे कभी बन्ध नहीं होता (क्योंकि शास्त्र में सम्यग्दृष्टि को बन्ध नहीं कहा है)' [इति उत्तान-उत्पुलक-वदनाः] ऐसा मानकर जिसका मुख गर्व से ऊँचा और पुलकित हो रहा है ऐसे [रागिणः अपि] रागी जीव (पर-द्रव्य के प्रति राग-द्वेष-मोह भाव वाले जीव) भले ही [आचरन्तु] (महाव्रताादि का) आचरण करें तथा [समितिपरतांआलम्बन्तां] समितियों की उत्कृष्टता का आलम्बन करें [अद्य अपि ते पापाः] तथापि वे पापी (मिथ्यादृष्टि) ही हैं, [यतः ] क्योंकि वे [आत्म-अनात्म-अवगम-विरहात् ] आत्मा और अनात्मा के ज्ञान से रहित होने से [सम्यक्त्व-रिक्ताः सन्ति ] सम्यक्त्व से रहित है ।

जयसेनाचार्य :
[एवं सम्माद्दिट्ठी अप्पाणं मुणदि जाणगसहावं] इस उपर्युक्त प्रकार से सम्यग्दृष्टि जीव अपने आप को टांकी से उकीरे हुए के समान सदा एक-सा रहने वाला ऐसा परमानन्द स्वभाव रूप जानता है । [उदयं कम्मविवागं च मुयदि तच्चं वियाणंतो] और यह उदय है वह मेरा स्वरूप नहीं है किंतु यह तो कर्म का विपाक है ऐसा मानकर उसे छोड़ देता है क्योंकि वह त्रिगुप्ति-समाधि में स्थित होकर नित्यानन्द एक स्वभाव वाले परमात्म-तत्त्व को जानता रहता है ॥२०९॥


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+ सम्यग्दृष्टि अपने और पर के स्वभाव का ज्ञाता होता है -
उदयविवागो विविहो कम्माणं वण्णिदो जिणवरेहिं । (198)
ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमेक्को ॥210॥
उदयविपाको विविध: कर्मणां वर्णितो जिनवरै:
न तु ते मम स्वभावा: ज्ञायकभावस्त्वहमेक: ॥१९८॥
उदय कर्मों के विविध-विध सूत्र में जिनवर कहें ।
किन्तु वे मेरे नहीं मैं एक ज्ञायकभाव हूँ ॥१९८॥
अन्वयार्थ : [जिणवरेहिं] जिनेन्द्र भगवान ने [कम्माणं] कर्मों के [उदयविवागो] उदय का विपाक (फल) [विविहो] अनेक प्रकार का [वण्णिदो] कहा है; किन्तु [ते] वे [मज्झ] मेरे [सहावा] स्वभाव [ण दु] नहीं हैं; [अहमेक्को] मैं तो एक [जाणगभावो] ज्ञायक-भाव [दु] ही हूँ ।

अमृतचंद्राचार्य :
जो कर्म के उदय के विपाक से उत्पन्न हुए अनेक प्रकार के भाव हैं वे मेरे स्वभाव नहीं है । मैं तो यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-भाव-स्वभाव हूं ।


जयसेनाचार्य :
आगे कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि सामान्य रूप से अपने और पर के स्वभाव को अनेक प्रकार से जानता है :-

[उदयविवागो विविहो कम्माणं वण्णिदो जिणवरेहिं] ज्ञानावरणादि कर्मों के उदय का फल ज्ञान को ढंकने आदि के भेद से अनेक प्रकार का श्री जिनेन्द्र भगवान, ने बतलाया है । [ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमेक्को] वह कर्मोदय का प्रकार ज्ञानावरणादि भेद रूप से वह मेरा स्वभाव नहीं है, क्योंकि मैं तो टांकी से उकेरी हुई वस्तु जैसे सदा एक-सी रहती है वैसे ही सदा बने रहने वाले परमानन्द और ज्ञायक एक स्वभाव का धारक हूँ । इस प्रकार से सम्यग्दृष्टि विरागी जीव सामान्य रूप से अपने और पर के स्वभाव को जानता है । सामान्य रूप से क्यों कहा ? कारण-मैं क्रोध रूप हूँ या मान रूप हूँ इस प्रकार की विवक्षा का अभाव है । जिसमें विवक्षा का अभाव हो उसे सामान्य कहते हैं ऐसा नियम है ।

इस प्रकार भेदभाव रूप से ज्ञान और वैराग्य दोनों के सामान्य व्याख्यान की मुख्यता से पाँच गाथाएँ पूर्ण हुई । इसके आगे १० गाथाओं तक और भी ज्ञान और वैराग्य शक्ति का विशेष वर्णन करते हैं ॥२१०॥

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+ सम्यग्दृष्टि रागी कैसे नहीं होता? यदि ऐसा पूछें तो सुनिये -- -
परमाणुमित्तयं पि हु रागादीणं तु विज्जदे जस्स । (201)
ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरो वि ॥211॥
अप्पाणमयाणंतो अणप्पयं चावि सो अयाणंतो । (202)
कह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणंतो ॥212॥
परमाणुात्रमपि खलु रागादीनां तु विद्यते यस्य
नापि स जानात्यात्मानं तु सर्वागमधरोऽपि ॥२०१॥
आत्मानमजानन् अनात्मानं चापि सोऽजानन्
कथं भवति सम्यग्दृष्टिर्जीवाजीवावजानन् ॥२०२॥
अणुमात्र भी रागादि का सद्भाव है जिस जीव के
वह भले ही हो सर्व आगमधर न जाने जीव को ॥२०१॥
जो न जाने जीव को वे अजीव भी जानें नहीं
कैसे कहें सद्दृष्टि जीवाजीव जब जानें नहीं? ॥२०२॥
अन्वयार्थ : [हु जस्स] निश्चय से जिसके [रागादीणं] रागादिकों का [परमाणुमित्तयं पि] लेषमात्र भी [तु विज्जदे सो] मौजूद है तो वह [सव्वागमधरो वि] सर्व आगम को धारण करता हुआ भी [अप्पाणयं तु] आत्मा को [ण वि जाणदि] नहीं जानता [च] और [अप्पाणमयाणंतो] आत्मा को नहीं जानता हुआ [अणप्पयंवि अयाणंतो] पर को भी नहीं जानता हुआ, [जीवाजीवे अयाणंतो] जीव और अजीव को नहीं जानता हुआ [कह होदि सम्मदिट्ठी] सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है?

अमृतचंद्राचार्य :
जिस जीव के अज्ञानमय रागादिक भावों का लेषमात्र है वह जीव प्रायः श्रुतकेवली के समान होने पर भी ज्ञानमय भाव के अभाव के कारण आत्मा को नहीं जानता । और जो अपने आत्मा को नहीं जानता है वह अनात्मा (पर) को भी नहीं जानता । क्योंकि स्वरूप के सत्त्व और पर-स्वरूप के असत्त्व से एक वस्तु निश्चय में आता है । इस कारण जो आत्मा और अनात्मा दोनों को नहीं जानता है वह जीव अजीव वस्तु को ही नहीं जानता तथा जो जीव अजीव को नहीं जानता वह सम्यग्दृष्टि नहीं है । इस कारण रागी ज्ञान के अभाव से सम्यग्दृष्टि नहीं है ।

(कलश--हरिगीत)
अपदपद में मत्त नित अन्धे जगत के प्राणियों ।
यह पद तुम्हारा पद नहीं निज जानकर क्यों सो रहे ॥
जागो इधर आओ रहो नित मगन परमानन्द में ।
हो परमपदमय तुम स्वयं तुम स्वयं हो चैतन्यमय ॥१३८॥

[अन्धाः आसंसारात्] हे अन्ध प्राणियों ! अनादि संसार से लेकर [प्रतिपदम् अमी रागिणः] पर्याय-पर्याय में यह रागी जीव [नित्यमत्ताः यस्मिन् सुप्ताः] सदा मत्त वर्तते हुए जिस पद में सो रहे हैं [तत् अपदम् अपदं] वह पद (स्थान) अपद है, अपद है, (तुम्हारा स्थान नहीं है) [विबुध्यध्वम्] ऐसा तुम समझो । [इतः एत एत ] इधर आओ, आओ, [पदम् इदम् इदम्] तुम्हारा पद यह है, यह है, [यत्र शुद्धः शुद्धःचैतन्यधातुः] जहाँ शुद्ध-चैतन्य धातु [स्व-रस-भरतः] निज रस की अतिशयता के कारण [स्थायिभावत्वम् एति] स्थायीभावत्व (स्थिरता, अविनाशी) को प्राप्त है ।

जयसेनाचार्य :
आगे कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि जीव रागी नहीं होता है :-

[परमाणुमित्तयं पि हु रागादीणं तु विज्जदे जस्स] जिसके हृदय में रागादि-विकारी-भावों का स्पष्टरूप से जरा-सा लेश भी यदि विद्यमान है; [ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरो वि] तो वह परमात्म-तत्त्व को नहीं जानने वाला होने से द्वादशांगमय सम्पूर्ण-शास्त्रों का पारगामी होकर भी शुद्ध-बुद्धरूप-एकस्वभाव-वाले-आत्मा को नहीं जानता-अनुभव नहीं करता है ।

अत: [अप्पाणमयाणंतो अणप्पयं चावि सो अयाणंतो] स्व-संवेदन-ज्ञान के बल से सहजानन्दरूप-एक-स्वभाववाले शुद्धात्मा को नहीं जानता हुआ तथा भावना नहीं करता हुआ वह शुद्धात्मा से भिन्न जो रागादिरूप अनात्मा को भी नहीं जानता हुआ, [कह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणंतो] जब जीव और अजीव के स्वरूप को नहीं जानता है तो वह सम्यग्दृष्टि किस प्रकार हो सकता है ?

इस पर यह शंका हो सकती है कि जब रागी सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता है तब क्या चतुर्थ व पञ्चम गुणस्थानवर्ती कुमार-अवस्था के तीर्थकर, भरत, सगरचक्री, रामचन्द्र व पाण्डवादि सम्यग्दृष्टि नहीं होने चाहिये ? क्योंकि उनके राग तो स्पष्ट ही होता है । इसका उत्तर आचार्य देते है कि यह बात नहीं है । मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा से अल्प बन्ध होता है क्योंकि मिथ्यात्वादि ४३ प्रकृतियों का उनके बन्ध नहीं होता । इसलिए सराग-सम्यग्दृष्टि चतुर्थ-गुणस्थानवर्ती जीवों के अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ और मिथ्यात्व के उदय से होने वाली पाषाण रेखा के समान रागादिभावों का अभाव होता है तथा पञ्चम गुणस्थानवर्ती जीवों के अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ के उदय से होने वाली भूमि रेखा के समान रागादिकों का अभाव होता है, यह बात पहले भी समझा चुके हैं । किन्तु इस ग्रन्थ में तो पञ्चम गुणस्थानवर्ती जीवों से ऊपर के गुणस्थानवर्ती वीतराग-सम्यग्दृष्टि जीवों को ही मुख्यता से ग्रहण किया है ।

सराग-सम्यग्दृष्टि को यहाँ पर गौण रखा गया है । जहाँ भी इस ग्रन्थ में सम्यग्दृष्टि का प्रसंग आवे वहाँ सर्व ठिकाने ऐसा समझना चाहिए ॥२११-२१२॥

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+ ज्ञानी अनागत कर्मोदय के उपभोग की वांछा क्यों नहीं करता ? -
जो वेददि वेदिज्जदि समए समए विणस्सदे उभयं । (216)
तं जाणगो दु णाणी उभयं पि ण कंखदि कयावि ॥213॥
यो वेदयते वेद्यते समये समये विनश्यत्युभयम्
तद्ज्ञायकस्तु ज्ञानी उभयमपि न कांक्षति कदापि ॥२१६॥
वेद्य-वेदक भाव दोनों नष्ट होते प्रतिसमय ।
ज्ञानी रहे ज्ञायक सदा ना उभय की कांक्षा करे ॥२१६॥
अन्वयार्थ : [जो वेददि] वेदन करनेवाला भाव और [वेदिज्जदि] वेदन में आनेवाला भाव - [उभयं] दोनों ही [समए समए विणस्सदे] समय-समय पर नष्ट हो जाते हैं । [तं जाणगो दु] इसप्रकार जाननेवाला [णाणी] ज्ञानी उन [उभयं पि] दोनों भावों को [ण कंखदि कयावि] कभी भी नहीं चाहता ।

अमृतचंद्राचार्य :
स्वभाव के ध्रुव होने से ज्ञानी तो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-स्वभाव-स्वरूप नित्य है और विभाव-भावों के उत्पाद-व्ययरूप होने से वेद्य-वेदक-भाव क्षणिक हैं । यहाँ कांक्षमाण (जिसकी कांक्षा की जावे, उस) वेद्यभाव का वेदन करनेवाला वेदक-भाव जबतक उत्पन्न होता है, तबतक कांक्षमाण वेद्य-भाव नष्ट हो जाता है । उस वेद्य-भाव के नष्ट हो जाने पर वेदक-भाव किसका वेदन करे ? यदि यह कहा जाये कि कांक्षमाण वेद्य-भाव के बाद होनेवाले अन्य वेद्य-भाव का वेदन करता है तो यह बात भी संभव नहीं है; क्योंकि उस अन्य वेद्य-भाव के उत्पन्न होने के पूर्व ही वह वेदक-भाव नष्ट हो जाता है । ऐसी स्थिति में उस अन्य वेद्य-भाव का वेदन कौन करता है ? इसके उत्तर में यदि यह कहा जाये कि उस वेदक-भाव के बाद होनेवाला अन्य वेदक-भाव उसका वेदन करता है तो यह भी संभव नहीं है; क्योंकि उस अन्य वेदक-भाव के उत्पन्न होने के पूर्व ही वह वेद्य-भाव विनष्ट हो जाता है । ऐसी स्थिति में वह दूसरा वेदक-भाव किसका वेदन करता है ? इसप्रकार कांक्षमाण भाव के वेदन में अनवस्था दोष आता है । उस अनवस्था को जानता हुआ ज्ञानी कुछ भी नहीं चाहता ।

(कलश--हरिगीत)
हम जिन्हें चाहें अरे उनका भोग हो सकता नहीं ।
क्योंकि पल-पल प्रलय पावें वेद्य-वेदक भाव सब ॥
बस इसलिए सबके प्रति अति ही विरक्त रहें सदा ।
चाहें न कुछ भी जगत में निजतत्त्वविद विद्वानजन ॥१४७॥

[वेद्य-वेदक-विभाव-चलत्वात्] वेद्य-वेदक रूप विभावभावों की चलता (अस्थिरता) होने से [खलु कांक्षितम् एव वेद्यते न] वास्तव में वाँछित का वेदन नहीं होता; [तेन विद्वान् किञ्चन कांक्षति न] इसलिये ज्ञानी कुछ भी वाँछा नहीं करता; [सर्वतः अपि अतिविरक्तिम् उपैति] सबके प्रति अत्यन्त विरक्तता को (वैराग्यभाव को) प्राप्त होता है ।

जयसेनाचार्य :
आगे कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि भोगों की वांछा नहीं करता है --

[जो वेददि वेदिज्जदि समए समए विणस्सदे उभयं] जो कोई रागादि रूप विकल्प है वह तो वेदन करने वाला, अर्थात अनुभव करने वाला है अत: कर्ता है, और जो साता के उदय से होने वाला कर्म-रूप-भाव रागादि-विकल्प से अनुभव किया जाता है, वे दोनों ही भाव, अर्थ-पर्याय की अपेक्षा से अपने-अपने समय में होकर नष्ट हो जाते हैं, क्षणिक हैं । [तं जाणगो दु णाणी उभयं पि ण कंखदि कयावि] अतएव वर्तमान में व आगामी काल में भी होने वाले वेध्य-वेदक-रूप दोनों भावों को विनश्वर जानता हुआ तत्त्वज्ञानी जीव उन दोनों में से किसी को कभी नहीं चाहता है ॥२१३॥

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+ इसका विस्तार करते हैं -- -
बंधुवभोगणिमित्ते अज्झवसाणोदएसु णाणिस्स । (217)
संसारदेहविसएसु णेव उप्पज्जदे रागो ॥214॥
बंधोपभोगनिमित्तेषु अध्यवसानोदयेषु ज्ञानिन:
संसारदेहविषयेषु नैवोत्पद्यते राग: ॥२१७॥
बंध-भोग-निमित्त में अर देह में संसार में
सद्ज्ञानियों को राग होता नहीं अध्यवसान में ॥२१७॥
अन्वयार्थ : [बंधुवभोगणिमित्ते] बंध और उपभोग के निमित्तभूत [संसारदेहविसएसु] संसार-संबंधी और देह-संबंधी [अज्झवसाणोदएसु] अध्यवसान के उदयों में [णाणिस्स] ज्ञानी को [णेव उप्पज्जदे रागो] राग उत्पन्न नहीं होता ।

अमृतचंद्राचार्य :
इस लोक में जो भी अध्यवसान के उदय हैं, उनमें कुछ तो संसारसंबंधी हैं और कुछ शरीर संबंधी । उनमें से जो संसारसंबंधी हैं, वे तो बंध के निमित्त हैं और जो शरीरसंबंधी हैं, वे उपभोग के निमित्त हैं । जो बंध के निमित्त हैं, वे राग-द्वेष-मोहादिरूप हैं और जो उपभोग के निमित्त हैं, वे सुख-दु:खादिरूप हैं । इन सभी में ज्ञानी को राग नहीं है; क्योंकि उनके नाना द्रव्यस्वभाववाले होने से टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वभाव वाले ज्ञानी के उनका निषेध है ।

(कलश--हरिगीत)
जबतक कषायित ना करें सर्वांग फिटकरि आदि से ।
तबतलक सूती वस्त्र पर सर्वांग रंग चढ़ता नहीं ॥
बस उसतरह ही रागरस से रिक्त सम्यग्ज्ञानिजन ।
सब कर्म करते पर परिग्रहभाव को ना प्राप्त हों ॥१४८॥

[इह अकषायितवस्त्रे] जैसे (लोध और फिटकरी इत्यादि से) जो कसायला नहीं किया गया हो ऐसे वस्त्र में [रंगयुक्तिः अस्वीकृता] रंग का संयोग, (वस्त्र के द्वारा) अंगीकार न किया जाने से, [बहिः एव हि लुठति] ऊपर ही लौटता है (वस्त्र के भीतर प्रवेश नहीं करता), [ज्ञानिनः रागरसरिक्ततया कर्म परिग्रहभावं न हि एति] इसीप्रकार ज्ञानी रागरूप रस से रहित है, इसलिये कर्मोदय का भोग उसे परिग्रहत्व को प्राप्त नहीं होता ।

(कलश--हरिगीत)
रागरस से रहित ज्ञानी जीव इस भूलोक में ।
कर्मस्थ हों पर कर्मरज से लिप्त होते हैं नहीं ॥१४९॥

[यतः ज्ञानवान्] क्योंकि ज्ञानी [स्वरसतः अपि] निज रस से ही [सर्वरागरसवर्जनशीलः] सर्व रागरस के त्यागरूप स्वभाववाला [स्यात् ततः] है, इसलिये [एषः कर्ममध्यपतितः अपि] वह कर्म के बीच पड़ा हुआ भी [सकलकर्मभिः न लिप्यते] सर्व कर्मों से लिप्त नहीं होता ।

जयसेनाचार्य :
आगे कहते हैं कि जो रागादिरूप अध्यवसान भाव हैं वे सभी दुर्ध्यानात्मक हैं अत: संसार में निष्प्रयोजन बंध के कारण बनते हैं उनमें से जो शरीर के संबंध को लेकर भोग के निमित्त बनते हैं उन सभी भावों को परमात्म-तत्त्व-वेदी जीव कभी नहीं चाहता है --

[बंधुवभोगणिमित्ते अज्झवसाणोदएसु णाणिस्स णेव उप्पज्जदे रागो] स्व-संवेदन ज्ञानी जीव के रागादि भावों के उदय रूप अध्यवसान बन्ध के निमित्त और भोग के निमित्त राग पैदा नहीं करता । वे अध्यवसान कैसे होते हैं? [संसारदेहविसएसु] कुछ तो संसार को लक्ष्य में लेकर बिना प्रयोजन ही बंध के करने वाले रहते हैं और कुछ वर्तमान शरीर को लक्ष्य में लेकर भोगों के निमित्त बनते हैं ।

यहाँ यह तात्पर्य है कि यह जीव भोगों के निमित्त तो बहुत कम पाप करता है किन्तु शालिमत्स्य के समान बिना ही प्रयोजन अपने दुर्विचार से घोर पाप करता है । जैनागम में अपध्यान का लक्षण ऐसा कहा गया है --

वधबन्धच्छेदादेर्द्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः
आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदा: ॥र.क.श्रा.७८॥

किसी भी प्रकार के बैर के कारण या अपने विषय साधने के राग के वश हो कर दूसरों के स्त्री-पुत्रादिक का बांधना, मार डालना या नाक आदि छेद डालना आदि का चिन्तन करना उसको जिनशासन में प्रवीण लोगों ने अपध्यान कहा है । इससे यह जीव घोर कर्म-बन्ध करता है, जैसा कि लिखा है --

संकल्प कल्पतरु संश्रयणात् त्वदीयं, चेतो निमज्जति मनोरथसागरेsस्मिन्
तत्रार्थतस्तव चकास्ति न किंचनापि, पक्ष: परं भवसि कल्मषसंश्रयस्य ॥

संसार की मोहमाया में फंसे हुए प्राणी को लक्ष्य में लेकर आचार्य महाराज कहते हैं कि हे भाई ! अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प में फंसकर जो तेरा मन नाना प्रकार की इच्छाएं करता रहता है, उससे तेरा प्रयोजन तो कोई सिद्ध होता नहीं मात्र पाप का संचय होता रहता है ।

दौर्विध्य-दग्ध-मनसोऽन्तरुपात्तभुक्ते, शिचतं यथाल्लसति ते स्फुरितान्तरङ्गम्
धाम्नि रुफुरेद्यदि तथा परमात्मसंज्ञे, कौतुस्तुती तव भवेद्विफला प्रसूति: ॥

हे भाई ! दुर्भाग्य से खाने-पीने आदि के विषय में लालायित होकर जैसा तेरा मन दौड़-धूप मचाता फिरता है, वैसा ही यदि परमात्मा स्मरण में लग जाये तो फिर सारे झंझट दूर हो जावें । इसी प्रकार आचारशास्त्र में भी लिखा है --

कंखदि-कलुसिद-भूदो, दु कामभोगेहिं मुच्छिदो संतो
ण य भुंजंतो भोगे बंधदि भावेण कम्माणि ॥

इन दुष्ट काम भोगों की वासनाओं में फंसा हुआ मनुष्य का मलीन मन नाना प्रकार की इच्छायें करता है, उससे भोगों को न भोगता हुआ भी अपने उस दुर्भाव के द्वारा कर्म-बंध करता ही रहता है, ऐसा जानकर अपध्यान को त्यागकर शुद्धात्मा के स्वरूप में लगे रहना चाहिए ॥२१४॥

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+ मिथ्यात्वादि अपध्यान मेरा परिग्रह नहीं -
मज्झं परिग्गहो जइ तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज । (208)
णादेव अहं जह्मा तह्मा ण परिग्गहो मज्झ ॥215॥
मम परिग्रहो यदि ततोऽहमजीवतां तु गच्छेयम्
ज्ञातैवाहं यस्मात्तस्मान्न परिग्रहो मम ॥२०८॥
यदि परिग्रह मेरा बने तो मैं अजीव बनूँ अरे ।
पर मैं तो ज्ञायकभाव हूँ इसलिए पर मेरे नहीं ॥२०८॥
अन्वयार्थ : [जदि] यदि [मज्झं परिग्गहो] परिग्रह मेरा हो [तदो] तो [अहमजीवदं] मैं अजीवपने को [गच्छेज्ज] प्राप्त हो जाऊँगा [तु जम्हा] तो चूंकि [अहं] मैं [णादेव] ज्ञाता ही हूं [तम्हा] इस कारण [ण परिग्गहो मज्झ] कुछ भी परिग्रह मेरा नहीं है ।

अमृतचंद्राचार्य :
'इसलिये मैं भी पर-द्रव्य का परिग्रहण नहीं करूँगा' इसप्रकार अब (मोक्षाभिलाषी जीव) कहता है -

यदि मैं अजीव पर-द्रव्य को ग्रहण करूं तो यह अजीव मेरा स्व अवश्य हो जाय और मैं भी उस अजीव का अवश्य स्वामी ठहरूं । परन्तु अजीव का जो स्वामी है वह निश्चय से अजीव ही होता है इस तरह मेरे विवशपने से अजीवना आ पड़ेगा । किन्तु मेरा तो एक ज्ञायक-भाव ही स्व है, उसी का मैं स्वामी हूं, इस कारण मेरे अजीवपना मत होओ, मैं तो ज्ञाता ही होऊँगा पर-द्रव्य को नहीं ग्रहण करूँगा यह मेरा निश्चय है ।

जयसेनाचार्य :
[मज्झं परिग्गहो जइ तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज] मैं तो सहज-शुद्ध-केवल-ज्ञान और दर्शन स्वभाव-वाला हूँ । अत: मिथ्यात्व व रागादिक-रूप पर-द्रव्य मेरा परिग्रह हो जाये तो मैं अजीवपने को अर्थात् जड़पने को प्राप्त हो जाऊँ, परन्तु मैं अजीव नहीं हूँ । [णादेव अहं जह्मा तह्मा ण परिग्गहो मज्झं] मैं तो परमात्म-स्वरूप-शुद्ध-ज्ञानमयी हूँ, इसलिये यह शरीरादिक पर-द्रव्य मेरा परिग्रह नहीं है ॥२१५॥

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+ वह परमात्म-पद क्या है ? इसका समाधान आचार्य करते हैं -- -
आदह्मि दव्वभावे अपदे मोत्तूण गिण्ह तह णियदं । (203)
थिरमेगमिमं भावं उवलब्भंतं सहावेण ॥216॥
आत्मनि द्रव्यभावानपादानि मुक्त्वा गृहाण तथा नियतम्
स्थिरमेकमिमं भावमुपलभ्यमानं स्वभावेन ॥२०३॥
स्वानुभूतिगम्य है जो नियत थिर निजभाव ही
अपद पद सब छोड़ ग्रह वह एक नित्यस्वभाव ही ॥२०३॥
अन्वयार्थ : [आदह्मि] आत्मा में [अपदे] अपदरूप [दव्वभावे] द्रव्य-भाव-रूप सभी भावों को [मोत्तूण] छोड़कर [णियदं] निश्चित [थिरमेगम्] स्थिर, एक [तह][उवलब्भंतं सहावेण] स्वभाव से ही ग्रहण किये जाने वाले [इमं] इस प्रत्यक्ष अनुभव-गोचर [भावं] चैतन्य-मात्र भाव को हे भव्य! तू [गिण्ह] ग्रहण कर, वही तेरा पद है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब यहाँ पूछते हैं कि (हे गुरुदेव !) वह पद क्या है ? उसका उत्तर देते हैं -

वास्तव में इस भगवान् आत्मा में जो द्रव्य-भाव-रूप बहुत भावों में से आत्मा के स्वभाव से रहित रूपसे उपलभ्यमान, अनिश्चित अवस्थारूप, अनेक, क्षणिक व्यभिचारी भाव हैं, वे सभी स्वयं अस्थायी होने से ठहरने वाले आत्मा के ठहरने का स्थान होने के लिये अशक्य होने के कारण अपद-स्वरूप हैं और जो भाव आत्म-स्वभाव से ग्रहण में आने वाला, निश्चित अवस्थारूप एक, नित्य अव्यभिचारी है ऐसा एक चैतन्यमात्र ज्ञान भाव स्वयं स्थायी भाव-स्वरूप होने के कारण स्थित होने वाले आत्मा के ठहरने का स्थान होने से पदभूत है । इस कारण सभी अस्थायी भावों को छोड़कर स्थायीभूत परमार्थ-रस-रूप से स्वाद में आता हुआ यह ज्ञान ही एक आस्वादन करने योग्य है ।

(कलश--हरिगीत)
अरे जिसके सामने हों सभी पद भासित अपद ।
सब आपदाओं से रहित आराध्य है वह ज्ञानपद ॥१३९॥

[तत् एकम् एव हि पदम् स्वाद्यं] वह एक ही पद आस्वादन के योग्य है [विपदाम् अपदं] जो कि विपत्तियों का अपद है (जिसमें आपदायें स्थान नहीं पातीं ) और [यत्पुरः अन्यानि पदानि] जिसके आगे अन्य (सर्व) पद [अपदानि एव भासन्ते] अपद ही भासते हैं ।

(कलश--हरिगीत)
उस ज्ञान के आस्वाद में ही नित रमे जो आतमा ।
अर द्वन्द्वमय आस्वाद में असमर्थ है जो आतमा ॥
आत्मानुभव के स्वाद में ही मगन है जो आतमा ।
सामान्य में एकत्व को धारण करे वह आतमा ॥१४०॥

[एक-ज्ञायकभाव-निर्भर-महास्वादं समासादयन्] एक ज्ञायकभाव से भरे हुए महा-स्वाद को लेता हुआ, (इसप्रकार ज्ञानमें ही एकाग्र होने पर दूसरा स्वाद नहीं आता, इसलिये) [द्वन्द्वमयं स्वादं विधातुम् असहः] द्वन्दमय स्वाद के लेने में असमर्थ (अर्थात् वर्णादिक , रागादिक तथा क्षायोपशमिक ज्ञान के भेदों का स्वाद लेने में असमर्थ), [आत्म-अनुभव-अनुभाव-विवशः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन्] आत्मानुभव के प्रभाव से आधीन होने से निज-वस्तुवृत्ति को (आत्माकी शुद्ध परिणति को) जानता (आस्वादता) हुआ (आत्मा के अद्वितीय स्वाद के अनुभवन में से बाहर न आता हुआ) [एषः आत्मा] यह आत्मा [विशेष-उदयं भ्रश्यत्] ज्ञान के विशेषों के उदय को गौण करता हुआ, [सामान्यं कलयन् किल] सामान्यमात्र ज्ञान का अभ्यास करता हुआ, [सकलं ज्ञानं] सकल ज्ञान को [एकताम् नयति] एकत्व में लाता है ।

जयसेनाचार्य :
[आदह्मि दव्वभावे अपदे मोत्तूण] अधिकरण-भूत आत्म-द्रव्य में द्रव्य-कर्म और भाव-कर्म हैं उनको विनाश होने वाले, अस्थिर जानकर छोड़ दे । [गिण्ह तह णियदं थिरमेगमिमं भावं उवलब्भंतं सहावेण] और हे भव्य ! तू अपने स्वभाव को ग्रहण कर जो कि तेरा स्वभाव निश्चित है, सदा एक सा रहनेवाला है, पर की सहायता से रहित है और स्पष्ट रूप से तेरे अनुभव में आने वाला है । अर्थात् परमोत्कृष्ट आत्म-सम्बन्ध-सुख का संवेदन ही है स्वरूप जिसका ऐसे स्वसंवेदन-ज्ञानस्वभाव के द्वारा जाना जाता है ॥२१६॥

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+ अब पूछते हैं कि ज्ञानी पर-द्रव्य को क्यों नहीं ग्रहण करता ? उत्तर -- -
को णाम भणिज्ज बुहो परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं । (207)
अप्पाणमप्पणो परिगहं तु णियदं वियाणंतो ॥217॥
को नाम भणेद्बुध: परद्रव्यं ममेदं भवति द्रव्यम्
आत्मानमात्मन: परिग्रहं तु नियतं विजानन् ॥२०७॥
आतमा ही आतमा का परिग्रह - यह जानकर ।
'पर द्रव्य मेरा है' - बताओ कौन बुध ऐसा कहे? ॥२०७॥
अन्वयार्थ : [अप्पाणम् तु] अपने आत्मा को ही [णियदं] निश्चित रूप से [अप्पणो परिगहं] अपना परिग्रह [वियाणंतो] जानता हुआ [को णाम बुहो] ऐसा कौन ज्ञानी पंडित है? जो [इमं परदव्वं] यह पर-द्रव्य [मम दव्वं] मेरा द्रव्य [हवदि] है [भणिज्ज] ऐसा कहे ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब प्रश्न करता है कि ज्ञानी पर को क्यों ग्रहण नहीं करता ? इसका उत्तर कहते हैं -

चूंकि ज्ञानी 'जो जिसका निज-भाव है वही उसका स्व है, और उसी स्व-भाव रूप द्रव्य का वह स्वामी है' ऐसे सूक्ष्म तीक्ष्ण तत्त्व-दृष्टि के अवलंबन से आत्मा का परिग्रह अपने आत्म-स्वभाव को ही जानता है, इस कारण 'यह मेरा स्व नहीं, मैं इसका स्वामी नहीं' यह जानकर पर-द्रव्य को ग्रहण नहीं करता ।

जयसेनाचार्य :
आगे ज्ञानी परद्रव्य को जानता है, ग्रहण नहीं करता, इस भेदभावना को बतलाते हैं-

[को णाम भणिज्ज बुहो परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं] वह कौन-सा ज्ञानी है जो पर-द्रव्य को भी, 'यह मेरा द्रव्य है' ऐसा स्पष्टरूप से कहता रहे? किन्तु कोई ज्ञानी भी ऐसा नहीं । [अप्पाणमप्पणो परिगहं तु णियदं वियाणंतो] क्योंकि वह तो निश्चितरूप से चिदानन्द ही है एकस्वभाव जिसका, ऐसे शुद्धात्मा को ही अपना परिग्रह जानता रहता है ॥२१७॥

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छिज्जदु वा भिज्जदु वा णिज्जदु वा अहव जादु विप्पलयं । (209)
जम्हा तम्हा गच्छदु तहवि हु ण परिग्गहो मज्झ ॥218॥
छिद्यतां वा भिद्यतां वा नीयतां वाथवा यातु विप्रलयम्
यस्मात्तस्मात् गच्छतु तथापि खलु न परिग्रहो मम ॥२०९॥
छिद जाय या ले जाय कोइ अथवा प्रलय को प्राप्त हो ।
जावे चला चाहे जहाँ पर परिग्रह मेरा नहीं ॥२०९॥
अन्वयार्थ : [छिज्जदु वा] छिद जावे [भिज्जदु वा] अथवा भिद जावे [णिज्जदु वा] अथवा कोई ले जावे [अहव जादु विप्पलयं] अथवा नष्ट हो जावे [जम्हा तम्हा] चाहे जिस तरह से [गच्छदु तह वि] चला जावे, तो भी [हु] वास्तव में [ण परिग्गहो मज्झ] पर-द्रव्य परिग्रह मेरा नहीं है ।

अमृतचंद्राचार्य :
'और मेरा तो यह (निम्नोक्त) निश्चय है' यह अब कहते हैं -

पर-द्रव्य चाहे छिद जावे या भिद जावे या कोई ले जावे, या नाश को प्राप्त हो जावे, या जिस तिस प्रकार याने कैसे ही चला जावे तो भी मैं पर-द्रव्य को ग्रहण नहीं करता, क्योंकि पर-द्रव्य मेरा स्व नहीं है और न मैं पर-द्रव्य का स्वामी हूं, पर-द्रव्य ही पर-द्रव्य का स्व है, पर-द्रव्य ही पर-द्रव्य का स्वामी है, मैं ही मेरा स्व है, मैं ही मेरा स्वामी हूं ऐसा मैं जानता हूं ।

(कलश--सोरठा)
सभी परिग्रह त्याग, इसप्रकार सामान्य से ।
विविध वस्तु परित्याग, अब आगे विस्तार से ॥१४५॥

[इत्थं समस्तम् एव परिग्रहम्] इसप्रकार समस्त परिग्रह को [सामान्यतः अपास्य अधुना] सामान्यतः छोड़कर अब [स्वपरयोः अविवेकहेतुम् अज्ञानम् उज्झितुमनाः अयं] स्व-पर के अविवेक के कारणरूप अज्ञान को छोड़ने का जिसका मन है ऐसा यह [भूयः तम् एव] पुनः उसी (परिग्रह) को [विशेषात् परिहर्तुम् प्रवृत्तः] विशेषतः छोड़ने को प्रवृत्त होता है ।

जयसेनाचार्य :
आगे कहते हैं कि ये शरीरादि पर-द्रव्य मेरा परिग्रह नहीं है । इसी बात को और भी दृढ़ता से कहते हैं --

[छिज्जदु वा भिज्जदु वा णिज्जदु वा अहव जादु विप्पलयं] भले ही यह शरीर छिद जावे, दो टुकड़े हो जावे, चाहे यह भिद जावे अर्थात् नाना छेद वाला बन जावे, इसे कोई कहीं ले जावे, अथवा नष्ट हो जावे । [जम्हा तम्हा गच्छदु तहवि हु ण परिग्गहो मज्झ] भले ही इसकी कैसी भी दशा क्यों न हो जावे, इसका मुझे कोई भी विचार नही क्योंकि यह शरीर मेरा परिग्रह नहीं है । मैं तो टांकी से उकेरे हुए के समान सदा एक-सा रहने वाला एवं परमानन्द ज्ञायक एक-स्वभाव का धारक हूँ अर्थात मैं तो इससे सर्वथा भिन्न स्वभाव वाला हूँ -- यह मेरा दृढ़ निश्चय है ॥२१८॥

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+ और क्या ? -
एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि । (206)
एदेण होहि तित्ते होहदि तुह उत्तमं सोक्खं ॥219॥
एतस्मिन् रतो नित्यं संतुष्टो भव नित्यमेतस्मिन्
एतेन भव तृप्तो भविष्यति तवोत्तमं सौख्यम् ॥२०६॥
इस ज्ञान में ही रत रहो सन्तुष्ट नित इसमें रहो
बस तृप्त भी इसमें रहो तो परमसुख को प्राप्त हो ॥२०६॥
अन्वयार्थ : [एदम्हि] इस ज्ञान में [णिच्चं] सदा [रदो होहि] रुचि से लीन होओ और [णिच्चमेदम्हि] सदा इसी में [संतुट्ठो होहि] संतुष्ट होओ और [एदेण] इसी से [होहि तित्ते] तृप्त होओ; [तुह] तेरे [उत्तमं सोक्खं] उत्तम सुख [होहदि] होगा ।

अमृतचंद्राचार्य :
इस प्रकार नित्य ही आत्मा में रत, आत्मा में संतुष्ट, आत्मा में तृप्त हुए तेरे वचनातीत नित्य उत्तम सुख होगा, और उस सुख को उसी समय तुम स्वयमेव ही देखोगे, दूसरों को मत पूछो ।

(कलश--दोहा)
अचिंत्यशक्ति धारक अरे, चिन्तामणि चैतन्य ।
सिद्धारथ यह आतमा, ही है कोई न अन्य ॥
सभी प्रयोजन सिद्ध हैं, फिर क्यों पर की आश ।
ज्ञानी जाने यह रहस, करे न पर की आश ॥१४४॥

[यस्मात् एषः] क्योंकि यह (ज्ञानी) [स्वयम् एव] स्वयं ही [अचिन्त्यशक्तिः देवः] अचिंत्य शक्तिवाला देव है और [चिन्मात्र-चिन्तामणिः] चिन्मात्र चिंतामणि है, इसलिये [सर्व-अर्थ-सिद्ध-आत्मतया] जिसके सर्व अर्थ (प्रयोजन) सिद्ध हैं ऐसे स्वरूप होने से [ज्ञानी अन्यस्य परिग्रहेण] ज्ञानी दूसरे के परिग्रह से [किम् विधत्ते] क्या करेगा ?

जयसेनाचार्य :
अब आत्म-सुख में ही संतोष है ऐसा बतलाते हैं --

[एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि एदेण होहि तित्तो] हे भव्य ! तू पंचेन्द्रिय-जन्य सुख को छोड़कर निर्विकल्प-स्वरूप आत्म-ध्यान के बल से सहज-स्वाभाविक और आत्म-सुख में लीन हो, सन्तुष्ट बन एवं सदा के लिए तृप्त हो रह । तो [होहदि तुह उत्तमं सोक्खं] उस सर्वोत्कृष्ट आत्म-सुख के अनुभव करने से तुझे सदा बना रहने वाला मोक्ष-सुख प्राप्त होगा ॥२१९॥

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+ मत्यादि ज्ञान विशेष एक ज्ञान सामान्य के ही रूप -
आभिणिसुदोधिमणकेवलं च तं होदि एक्कमेव पदं । (204)
सो ऐसो परमट्ठो जं लहिदुं णिव्वुदिं जादि ॥220॥
आभिनिबोधिक श्रुतावधिमन:पर्ययकेवलं च तद्भवत्येकमेव पदम्
स एष परमार्थो यं लब्ध्वा निर्वृत्तिं याति ॥२०४॥
मतिश्रुतावधिमन:पर्यय और केवलज्ञान भी
सब एक पद परमार्थ हैं पा इसे जन शिवपद लहें ॥२०४॥
अन्वयार्थ : [आभिणिसुदोधिमणकेवलं च] मतिज्ञान श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान [तं होदि एक्कमेव पदं] वह सब एक ज्ञान ही पद है [सो ऐसो परमट्ठो] यह वह परमार्थ है [जं लहिदुं] जिसको पाकर आत्मा [णिव्वुदिं जादि] मोक्ष-पद को प्राप्त होता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
वास्तव में आत्मा ही परमार्थ है, परम पदार्थ है और वह ज्ञान ही है । आत्मा एक ही पदार्थ है; इसलिए ज्ञान भी एक पद है । यह ज्ञान नामक पद ही परमार्थ स्वरूप साक्षात् मोक्ष का उपाय है । मतिज्ञानादि ज्ञान के भेद इस एक पद को नहीं भेदते; किन्तु वे भी इसी एक पद का अभिनन्दन करते हैं । अब इसी बात को सोदाहरण स्पष्ट करते हैं - जिसप्रकार इस जगत में बादलों से ढंका हुआ सूर्य बादलों के विघटन के अनुसार प्रगटता को प्राप्त होता है और उस सूर्य के प्रकाश करने की हीनाधिकतारूप भेद, उसके सामान्य प्रकाशस्वभाव को नहीं भेदते; उसीप्रकार कर्मपटल के उदय से ढका हुआ आत्मा, कर्म के विघटन (क्षयोपशम) के अनुसार प्रगटता को प्राप्त होता है और उस ज्ञान के हीनाधिकतारूप भेद उसके सामान्य ज्ञान-स्वभाव को नहीं भेदते, प्रत्युत अभिनन्दन करते हैं ।

इसलिए समस्त भेदों से पार आत्म-स्वभावभूत एक ज्ञान का ही अवलम्बन करना चाहिए । उस ज्ञान के अवलम्बन से निजपद की प्राप्ति होती है, भ्रान्ति का नाश होता है, आत्मा का लाभ और अनात्मा का परिहार होता है । ऐसा होने पर कर्म मूर्च्छित नहीं करते, राग-द्वेष-मोह उत्पन्न नहीं होते । राग-द्वेष-मोह के बिना कर्मों का आस्रव नहीं होता । आस्रव न होने से फिर कर्म-बन्ध भी नहीं होता और पूर्वबद्ध कर्म उपभुक्त होते हुए निर्जरित हो जाते हैं; तब सभी कर्मों का अभाव हो जाने से साक्षात् मोक्ष हो जाता है ।

(कलश--हरिगीत)
सब भाव पी संवेदनाएँ मत्त होकर स्वयं ही ।
हों उछलती जिस भाव में अद्भुतनिधि वह आतमा ॥
भगवान वह चैतन्य रत्नाकर सदा ही एक है ।
फिर भी अनेकाकार होकर स्वयं में ही उछलता ॥१४१॥

[निष्पीत-अखिल-भाव-मण्डल-रस-प्राग्भार-मत्ताः इव] समस्त पदार्थों के समूहरूप रस को पी लेने की अतिशयता से मानों मत्त हो गई हो ऐसी [यस्य इमाः अच्छ-अच्छाः संवेदनव्यक्तयः] जिसकी यह निर्मल से भी निर्मल संवेदन-व्यक्ति (ज्ञानपर्याय, अनुभवमें आनेवाले ज्ञान के भेद) [यद् स्वयम् उच्छलन्ति] अपने आप उछलती हैं, [सः एषः भगवान् अद्भुतनिधिः चैतन्यरत्नाकरः] वह यह भगवान अद्भुत निधिवाला चैतन्यरत्नाकर, [अभिन्नरसः] (ज्ञानपर्यायरूप तरंगों के साथ) जिसका रस अभिन्न है ऐसा, [एकः अपि अनेकीभवन्] एक होने पर भी अनेक होता हुआ, [उत्कलिकाभिः वल्गति] (ज्ञानपर्यायरूप) तरंगों के द्वारा दोलायमान (उछलता) होता है ।

(कलश--हरिगीत)
पंचाग्नि तप या महाव्रत कुछ भी करो सिद्धि नहीं ।
जाने बिना निज आतमा जिनवर कहें सब व्यर्थ हैं ॥
मोक्षमय जो ज्ञानपद वह ज्ञान से ही प्राप्त हो ।
निज ज्ञान गुण के बिना उसको कोई पा सकता नहीं ॥१४२॥

[दुष्करतरैः] अति-दुष्कर और [मोक्ष-उन्मुखैः कर्मभिः] मोक्ष से पराङ्मुख कर्मों के द्वारा [स्वयमेव क्लिश्यन्तां] अपने आप ही क्लेश पाते हैं [] और [परे] अन्य [महाव्रत-तपः-भारेण] महाव्रत और तप के भार से [चिरम् भग्नाः क्लिश्यन्तां] बहुत समय तक भग्न (पराजित) होते हुए क्लेश प्राप्त करते हैं; [साक्षात् मोक्षः] जो साक्षात् मोक्ष-स्वरूप है, [निरामयपदं ] निरामय (रोगादि समस्त क्लेशों से रहित) पद है और [स्वयं संवेद्यमानं इदं ज्ञानं] स्वयं संवेद्यमान है, ऐसे इस ज्ञान को [ज्ञानगुणं विना कथम् अपि] ज्ञानगुण के बिना किसी भी प्रकार से [प्राप्तुं न हि क्षमन्ते] वे प्राप्त नहीं करेंगे ।

जयसेनाचार्य :
आगे कहते हैं कि जिस परमार्थ-मोक्ष के कारणभूत पद में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान भेद नहीं है वह परमात्म-पद हर्ष-विषाद आदि सभी प्रकार के विकल्प-जाल से रहित है । उस परम-पद को यह आत्मा परमयोगाभ्यास से ही अनुभव करता है :-

[आभिणिसुदोधिमणकेवलं च तं होदि एक्कमेव पदं] ज्ञान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान के नाम से भेद होकर भी वास्तव में एक रूप ही रहता है । जैसे मेघों के द्वारा आच्छादन होने के तारतम्य के भेद से सूर्य प्रकाश में भेद हो जाते है वैसे ही मतिज्ञानावरणादि भेद वाले कर्म के वश से जिसमें मतिश्रुतादि भेद हो जाते है । [सो ऐसो परमट्ठो जं लहिदुं णिव्वुदिं जादि] इन लोक-प्रसिद्ध पाँच भेदों द्वारा भी जो भेद को प्राप्त नहीं होता वह परमार्थरूप ज्ञान सामान्य है, जिसको प्राप्त करके यह जीव निर्वाण को प्राप्त होता है ॥२२०॥

इस प्रकार ज्ञान-शक्ति और वैराग्य-शक्ति का विशेष वर्णन करने में दश गाथायें पूर्ण हुईं ।

आगे आठ गाथाओं में उस ही परमात्म-पद का प्रकाश करने वाला जो ज्ञान-गुण है उसका सामान्य वर्णन करते हैं ।

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णाणगुणेण विहीणा एदं तु पदं बहुवि ण लहंते । (205)
तं गिण्ह णियदमेदं जदि इच्छसि कम्मपरिमोक्खं ॥221॥
ज्ञानगुणेण विहीना एतत्तु पदं बहवोऽपि न लभंते
तद्गृहाण नियतमेतद् यदीच्छसि कर्मपरिमोक्षम् ॥२०५॥
इस ज्ञानगुण के बिना जन प्राप्ति न शिवपद की करें
यदि चाहते हो मुक्त होना ज्ञान का आश्रय करो ॥२०५॥
अन्वयार्थ : [जदि] यदि तुम [कम्मपरिमोक्खं] कर्म का सब तरफ से मोक्ष करना [इच्छसि] चाहते हो [तु] तो [तं णियदमेदं] उस इस निश्चित ज्ञान को [गिण्ह] ग्रहण कर । क्योंकि [णाणगुणेण विहीणा] ज्ञान गुण से रहित [बहु वि] अनेकों पुरुष भी [एदं पदं] इस ज्ञान-स्वरूप पद को [ण लहंते] नहीं प्राप्त करते ।

अमृतचंद्राचार्य :
समस्त कर्मों (क्रियाकाण्डों) में प्रकाशन का अभाव होने से कर्मों (क्रियाकाण्डों) से ज्ञान (आत्मा) की प्राप्ति नहीं होती; किन्तु ज्ञान (आत्मानुभव) से ही ज्ञान (आत्मा) का प्रकाशन होता है; इसलिए मात्र ज्ञान से ही ज्ञान की प्राप्ति होती है । इसकारण बहुत से ज्ञानशून्य जीव अनेकप्रकार के कर्म (क्रियाकाण्ड) करने पर भी इस ज्ञानपद (आत्मा) को प्राप्त नहीं कर पाते और इस ज्ञानपद को प्राप्त नहीं कर पाने से वे कर्मों से मुक्त भी नहीं होते । इसलिए जो जीव कर्मों से मुक्त होना चाहते हैं; उन्हें एकमात्र इस ज्ञान (आत्मज्ञान) के अवलम्बन से इस नियत एकपद (आत्मा) को प्राप्त करना चाहिए ।

(कलश--दोहा)
क्रियाकाण्ड से ना मिले, यह आतम अभिराम ।
ज्ञानकला से सहज ही, सुलभ आतमाराम ॥
अत: जगत के प्राणियो ! छोड़ जगत की आश ।
ज्ञानकला का ही अरे ! करो नित्य अभ्यास ॥१४३॥

[इदं पदम्] यह (ज्ञानस्वरूप) पद [ननु कर्मदुरासदं] कर्म (क्रिया-काण्ड) से वास्तव में दुरासद (दुष्प्राप्य) है और [सहज-बोध-कला-सुलभं किल] सहज ज्ञान की कला के द्वारा वास्तव में सुलभ है; [ततः निज-बोध-कला-बलात् ] अत: निजबोध की कला के बल से [इदं कलयितुं] इस पद का अभ्यास करने के लिये [जगत् सततं यततां] जगत सतत प्रयत्न करो ।

जयसेनाचार्य :
अब सबसे प्रथम यह बताते है कि मत्यादि पाँच ज्ञानों के द्वारा भी जिसका भेद नहीं हो पाता है, जो साक्षात् मोक्ष का कारणभूत है और परमात्मा पद स्वरूप है, उस पद को शुद्धात्मा की अनुभूति से शून्य केवल कायक्लेशादि रूप व्रत तपश्चरणादि करने वाले प्राप्त नहीं कर सकते क्योंकि वे स्व-संवेदन ज्ञान से हीन हैं --

[णाणगुणेहिं विहीणा एदं तु पदं बहुवि ण लहंति] सभी प्रकार के विकार से वर्जित जो परमात्मा-तत्व उसकी उपलब्धि होना ही है लक्षण जिसका, ऐसे ज्ञान-गुण से रहित बहुत से पुरुष, शुद्धात्मा ही उपादेय है इस स्व-संवेदन ज्ञान से रहित ऐसे घोर-काय-क्लेश आदि तपश्चरण को करते हुए भी मत्यादि-पाँच प्रकार के ज्ञानों से भी, जिसमें भेद नहीं हो सके ऐसे, साक्षात् मोक्ष के कारणभूत तथा शुद्धात्मा की संवित्ति है लक्षण जिसका, ऐसे अपने आपके द्वारा ही अनुभव करने योग्य पद को नहीं पा सकते हैं । [तं गिण्ह णियदमेदं जदि इच्छसि कम्मपरिमोक्खं] इसलिए हे भव्य ! यदि तू कर्मों से मुक्त होना चाहता है तो उस उत्तम-पद को स्वीकार कर ॥२२१॥

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+ इच्छा ही परिग्रह, जिसको इच्छा नहीं उसको परिग्रह नहीं -
अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे धम्मं । (210)
अपरिग्गहो दु धम्मस्स जाणगो तेण सो होदि ॥222॥
अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदि अधम्मं । (211)
अपरिग्गहो अधम्मस्स जाणगो तेण सो होदि ॥223॥
धम्मच्थि अधम्मच्थी आयासं सुत्तमंग-पुव्वेसु ।
संगं च तहा णेयं दुयमणु अतिरियणेरइयं ॥224॥
अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे असणं । (212)
अपरिग्गहो दु असणस्स जाणगो तेण सो होदि ॥225॥
अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे पाणं । (213)
अपरिग्गहो दु पाणस्स जाणगो तेण सो होदि ॥226॥
एमादिए दु विविहे सव्वे भावे य णेच्छदे णाणी । (214)
जाणगभावो णियदो णीरालंबो दु सव्वत्थ ॥227॥
अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छति धर्म् ।
अपरिग्रहस्तु धर्मस्य ज्ञायकस्तेन स भवति ॥२१०॥
अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छत्यधर्म् ।
अपरिग्रहोऽधर्मस्य ज्ञायकस्तेन स भवति ॥२११॥
अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छत्यशनम् ।
अपरिग्रहस्त्वशनस्य ज्ञायकस्तेन स भवति ॥२१२॥
अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छति पानम् ।
अपरिग्रहस्तु पानस्य ज्ञायकस्तेन स भवति ॥२१३॥
एवमादिकांस्तु विविधान् सर्वान् भावांश्च नेच्छति ज्ञानी ।
ज्ञायकभावो नियतो निरालंबस्तु सर्वत्र ॥२१४॥
है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे धर्म को ।
है परीग्रह ना धर्म का वह धर्म का ज्ञायक रहे ॥२१०॥
है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे अधर्म को ।
है परिग्रह ना अधर्म का वह अधर्म का ज्ञायक रहे ॥२११॥
है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे असन को ।
है परिग्रह ना असन का वह असन का ज्ञायक रहे ॥२१२॥
है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे पेय को ।
है परिग्रह ना पेय का वह पेय का ज्ञायक रहे ॥२१३॥
इत्यादि विध-विध भाव जो ज्ञानी न चाहे सभी को ।
सर्वत्र ही वह निरालम्बी नियत ज्ञायकभाव है ॥२१४॥
अन्वयार्थ : [अणिच्छो] इच्छारहित आत्मा [अपरिग्गहो] परिग्रह-रहित [भणिदो] कहा गया है [णाणी य] और ज्ञानी [णेच्छदे धम्मं] धर्म अर्थात् पुण्य को नहीं चाहता है [तेण सो] इस कारण वह [धम्मस्स] धर्म का याने पुण्य का [अपरिग्गहो] परिग्रही नहीं है [दु] वह तो [जाणगो] मात्र ज्ञायक [होदि] होता है ।
[अणिच्छो] इच्छारहित आत्मा [अपरिग्गहो] परिग्रह-रहित [भणिदो] कहा गया है [णाणी य] और ज्ञानी [णेच्छदे अधम्मं] अधर्म अर्थात् पाप को नहीं चाहता है [तेण सो] इस कारण वह [अधम्मस्स] अधर्म का याने पाप का [अपरिग्गहो] परिग्रही नहीं है [दु] वह तो [जाणगो] मात्र ज्ञायक [होदि] होता है ।
[अणिच्छो] इच्छारहित आत्मा [अपरिग्गहो] परिग्रह-रहित [भणिदो] कहा गया है [णाणी य] और ज्ञानी [णेच्छदे असणं] भोजन को नहीं चाहता है [तेण सो] इस कारण वह [असणस्स] भोजन का [अपरिग्गहो] परिग्रही नहीं है [दु] वह तो [जाणगो] मात्र ज्ञायक [होदि] होता है ।
[अणिच्छो] इच्छारहित आत्मा [अपरिग्गहो] परिग्रह-रहित [भणिदो] कहा गया है [णाणी य] और ज्ञानी [णेच्छदे पाणं] कुछ पीने को नहीं चाहता है [तेण सो] इस कारण वह [पाणस्स] पान का [अपरिग्गहो] परिग्रही नहीं है [दु] वह तो [जाणगो] मात्र ज्ञायक [होदि] होता है ।
[एमादिए दु] इस प्रकार याने पूर्वोक्त प्रकार इत्यादिक [विविहे] नाना प्रकार के [सव्वे भावे य] समस्त भावों को [णाणी] ज्ञानी [णेच्छदे] नहीं चाहता है । [दु] क्योंकि ज्ञानी [णियदो] नियत [जाणगभावो] ज्ञायकभावस्वरूप है, अतः [सव्वत्थ] सब में [णीरालंबो] निरालम्ब है ।

अमृतचंद्राचार्य :
इच्छा परिग्रह है; जिसको इच्छा नहीं है, उसको परिग्रह भी नहीं है । इच्छा तो अज्ञानमय भाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानी के नहीं होता, ज्ञानी के ज्ञानमय भाव ही होता है; अत: ज्ञानी के अज्ञानमयभाव रूप इच्छा का अभाव होने से ज्ञानी पुण्य को नहीं चाहता, पाप को नहीं चाहता, भोजन को नहीं चाहता, पेय पदार्थ को नहीं चाहता तथा अनेक प्रकार के अन्य सभी भावों को भी नहीं चाहता; इसकारण ज्ञानी के पुण्य-पाप और खान-पान तथा अन्य सभी भावों का परिग्रह नहीं है । ज्ञानी तो ज्ञानमय एक ज्ञायकभाव के सद्भाव के कारण पुण्य-पाप, खान-पान और अन्य सभी भावों का ज्ञायक ही है ।

गाथा में समागत धर्म, अधर्म, असन और पान पदों के स्थान पर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन - ये सोलह पद लगाकर सोलह गाथायें बनाकर उनका व्याख्यान करना चाहिए । इस उपदेश से और दूसरे भी विचार कर लेना चाहिए ।

इसप्रकार ज्ञानी के अत्यन्त निष्परिग्रहत्व सिद्ध हुआ ।

अब इसप्रकार समस्त अन्य भावों के परिग्रह से शून्यत्व के कारण जिसने समस्त अज्ञान का वमन कर डाला है, ऐसा ज्ञानी सर्वत्र अत्यन्त निरालम्ब होकर नियत टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावरूप रहता हुआ साक्षात् विज्ञानघन आत्मा का अनुभव करता है ।

(कलश--दोहा)
होंय कर्म के उदय से, ज्ञानी के जो भोग ।
परिग्रहत्व पावे नहीं, क्योंकि रागवियोग ॥१४६॥

[पूर्वबद्ध-निज-कर्म-विपाकाद्] पूर्वबद्ध अपने कर्म के विपाक के कारण [ज्ञानिनः यदि उपभोगः भवति तत् भवतु] ज्ञानी के यदि उपभोग हो तो हो, [अथ च रागवियोगात्] परंतु राग के वियोग (अभाव) के कारण [नूनम् परिग्रहभावम् न एति] निश्चय ही (वह उपभोग) परिग्रह भाव को प्राप्त नहीं होता ।

जयसेनाचार्य :
आगे विशेष परिग्रह के त्याग कराने के अभिप्राय से उस ही ज्ञान-गुण का विशेष वर्णन करते हैं --

[अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे धम्मं] जो इच्छा-रहित होता है वह अपरिग्रही होता है । जिसके बाह्य द्रव्यों की इच्छा नहीं होती अर्थात बाह्य पदार्थों से उसका कोई लगाव नहीं होता । इससे स्व-संवेदन ज्ञानी जीव शुद्धोपयोग रूप निश्चय-धर्म को छोड़कर शुभोपयोग रूप धर्म अर्थात् पुण्य को नहीं चाहता है । [अपरिग्गहो दु धम्मस्स जाणगो तेण सो होदि] इसलिए पुण्य रूप धर्म का परिग्रहवान् न होकर, किन्तु पुण्य मेरा स्वरूप नहीं है ऐसा जानकर उस पुण्य रूप से परिणमन नहीं करता हुआ / तन्मय नहीं होता हुआ, वह दर्पण में आये हुए प्रतिबिम्ब के समान उसका जानने वाला ही होता है ॥२२२॥

[अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदि अधम्मं] जिसके बाह्य द्रव्यों में वांछा नहीं है वह परिग्रह-रहित है । इसलिये तत्त्वज्ञानी जीव विषय-कषाय-रूप अधर्म को, पाप को कभी नहीं चाहता । [अपरिग्गहो अधम्मस्स जाणगो तेण सो होदि] इसलिए वह विषय-कषाय-रूप पाप का ग्राहक न होता हुआ, यह पाप मेरा स्वरूप नहीं है ऐसा जानकर पाप-रूप से परिणमन नहीं करता हुआ वह दर्पण में आये हुए प्रतिबिम्ब के समान उसका ज्ञायक ही होता है ।

इस प्रकार अधर्म के स्थान पर राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म मन, वचन, काय, श्रोत, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन ऐसे १७ सूत्र पृथक्-पृथक् व्याख्यान करने योग्य हैं । इसी प्रकार शुभ व अशुभ संकल्प-विकल्प से रहित व अनंत-ज्ञानादि गुण सहित है स्वरूप जिसका, ऐसे शुद्धात्मा का विरोध करने वाले और भी असंख्यात लोक-प्रमाण विभाव-परिणाम-स्थान त्यागने योग्य हैं ॥२२३॥

परम-तत्त्वज्ञानी जीव परिग्रह-रहित होता है क्योंकि वह इच्छा-रहित होता है, जिसके बाह्य पदार्थों में आकांक्षा नहीं होती उसके परिग्रह भी नहीं होता, यह नियम है । इसलिए परम-तत्त्वज्ञानी जीव चिदानन्द ही है एक स्वभाव जिसका, ऐसी शुद्धात्मा को छोड़कर धर्म, अधर्म और आकाश आदि अंग-पूर्वात्मक श्रुत में बताते हुए बाह्य और अंतरंग परिग्रह तथा देव, मनुष्य तिर्यंच और नारकादि विभाव-पर्यायों को नहीं चाहता है, ऐसा समझना चाहिए । इस कारण इस विषय में परिग्रह रहित होता हुआ, उस रूप से परिणमन नहीं करता हुआ, वह दर्पण में आये हुए प्रतिबिम्ब के समान उसका मात्र ज्ञायक ही होता है ॥२२४॥

[अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो असणं च णिच्छदे णाणी] जिसके बाह्य द्रव्यों में इच्छा, मूर्छा, ममत्व परिणाम नहीं है, वह अपरिग्रहवान् कहा गया है, क्योंकि इच्छा अज्ञानमय भाव है । इससे इसका होना ज्ञानी के संभव नहीं है अत: ज्ञानी के भोजन की भी इच्छा नहीं होती । इसलिये वह [अपरिग्गहो दु असणस्स जाणगो तेण सो होदि] आत्म-सुख में संतुष्ट होकर भोजन व तत्संबंधी पदार्थों में परिग्रह-रहित होता हुआ, जैसे दर्पण में आये हुए प्रतिबिम्ब के समान केवल आहार में ग्रहण करने के योग्य वस्तु का, उस वस्तु के रूप से ज्ञायक ही होता है । किन्तु रागरूप से उसका ग्रहण करने वाला नहीं होता ॥२२५॥

[अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो पाणं च णिच्छदे णाणी] जो इच्छा रहित है वह परिग्रह रहित कहलाता है अर्थात जिसके बाह्य-पदार्थों में इच्छा, मूर्छा व ममत्व-परिणाम नहीं है वह अपरिग्रहवान् कहा गया है । अत: इच्छा जो अज्ञानमय भावरूप है, वह ज्ञानी के कभी सम्भव नहीं है । अतएव उसके पीने योग्य वस्तु की भी इच्छा नहीं हो सकती इसलिए [अपरिग्गहो दु पाणस्स जाणगो तेण सो होदि] स्वाभाविक परमानन्द सुख में सन्तुष्ट होकर नाना प्रकार के पानक के विषय में परिग्रह रहित होता हुआ ज्ञानी जीव तो दर्पण में आये हुए प्रतिबिम्ब के समान वस्तु-स्वरूप से उस पानक का ज्ञायक ही होता है, राग से उसका ग्राहक नहीं होता ॥२२६॥

अब परिग्रह त्याग के व्याख्यान का उपसंहार करते हैं --

[इच्चादि एदु विविहे सव्वे भावे य णिच्छदे णाणी] परमात्म-तत्त्व का जानने वाला जीव ऊपर कहे हुए पुण्य-पाप और भोजन-पानादि इन बाह्य में होने वाले सभी भावों को कभी भी नहीं चाहता है । [जाणगभावो णियदो णीरालंबो दु सव्वत्थ] क्योंकि वह तो नियम से टांकी से उकेरे हुए के समान सदा एक-सा रहने वाला और परमानन्द-स्वरूप-ज्ञायकभाव है, उस-मय ही रहता है । वह ऊर्ध्व, मध्य और अधोरूप तीनों जगत् एवं भूत, भावी, वर्तमानरूप तीनों कालों में होने वाले बाह्य-अभ्यंतर-परिग्रहरूप चेतनाचेतनात्मक सभी पर-पदार्थों में मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना से निरालम्ब होकर अनन्त-ज्ञानादि गुण-स्वरूप अपने स्वभाव में पूर्ण-कलश के समान निश्चल अवलम्बन सहित ठहरता है ॥२२७॥

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+ ज्ञानी के भोग का उदय वियोग बुद्धि पूर्वक, आगे भोगों की इच्छा नहीं -
उप्पण्णोदय भोगो वियोगबुद्धीए तस्स सो णिच्चं । (215)
कंखामणागदस्स य उदयस्स ण कुव्वदे णाणी ॥228॥
उत्पन्नोदयभोगो वियोगबुद्ध्या तस्य स नित्यम्
कांक्षामनागतस्य च उदयस्य न करोति ज्ञानी ॥२१५॥
उदयगत जो भोग हैं उनमें वियोगीबुद्धि है ।
अर अनागत भोग की सद्ज्ञानि के कांक्षा नहीं ॥२१५॥
अन्वयार्थ : [उप्पण्णोदय भोगो] वर्तमान में उत्पन्न उदय का भोग है, [तस्स सो] वह ज्ञानी के [णिच्चं] सदा ही [वियोगबुद्धीए] वियोग-बुद्धि-पूर्वक होता है और [कंखामणागदस्स य उदयस्स] आगामी उदय की वांछा [ण कुव्वदे णाणी] ज्ञानी नहीं करता ।

अमृतचंद्राचार्य :
कर्मोदय से होनेवाला उपभोग अतीत, वर्तमान और अनागत के भेद से तीन प्रकार का होता है । अतीत का उपभोग तो अतीत (समाप्त) हो जाने से परिग्रह-भाव को प्राप्त नहीं होता । अनागत (भविष्य का) उपभोग वांछित होने पर ही और वर्तमान का उपभोग राग बुद्धिपूर्वक प्रवर्तमान होने पर ही परिग्रह भाव को धारण करता है । वर्तमान-कालिक कर्मोदय-जन्य उपभोग ज्ञानी के राग बुद्धि-पूर्वक होता दिखाई नहीं देता; क्योंकि उसके अज्ञानमय भाव-रूप राग-बुद्धि का अभाव है । केवल वियोग-बुद्धि-पूर्वक राग होने से उसके परिग्रह नहीं है । इसकारण ज्ञानी के वर्तमान कर्मोदय-जन्य उपभोग परिग्रह-रूप नहीं है । अनागत उपभोग तो वस्तुत: ज्ञानी के वांछित ही नहीं है; क्योंकि ज्ञानी के अज्ञानमय भाव-रूप वांछा का अभाव है । इसलिए अनागत कर्मोदय-जन्य उपभोग ज्ञानी के परिग्रह-रूप नहीं है ।

जयसेनाचार्य :
आगे कहते हैं कि ज्ञानी वर्तमान व भविष्य के भोगों की इच्छा नहीं करता है --

[उप्पण्णोदय भोगो वियोगबुद्धीए तस्स सो णिच्चं] उत्पन्न हुए कर्मोदय के भोगने में स्व-संवेदन ज्ञानी जीव सदा ही वियोगबुद्धि एवं हेयबुद्धि वाला होता है । [कंखामणागदस्स य उदयस्स ण कुव्वदे णाणी] वही ज्ञानी आगामी काल में उदय में आनेवाले निदानबंध स्वरूप भविष्यकालीन भोगों का उदय, उसकी वांछा कैसे कर सकता है ? अर्थात् नहीं करता । इसका स्पष्ट विवेचन यह है कि भोग, उपभोग आदि चेतन और अचेतनात्मक जितने भी द्रव्य हैं उन सबके विषय में निरालंबन रूप आत्मा के जो परिणाम हैं उसी का नाम स्व-संवेदन ज्ञान गुण है । इस स्व-संवेदन ज्ञान गुण के आलम्बन से जो पुरुष ख्याति, पूजा, लाभ व भोगों की इच्छारूप निदानबंध आदि विभाव परिणाम से रहित होता हुआ तीन-लोक और तीन-काल में भी अपने मन, वचन, काय तथा कृत, कारित और अनुमोदन द्वारा विषयों के सुख में आनन्द की वासना से वासित होने वाले चित्त का त्याग कर अर्थात् विषय-सुख की अभिलाषा से रहित चित्तवाला होकर शुद्ध-आत्मा की भावना से उत्पन्न हुए वीतराग-परमानन्द सु:ख के द्वारा वासित अर्थात् रंजित व मूर्छित रूप में परिणत अर्थात उसी रूप अपने मन को संतृप्त, व तल्लीन बनाकर रहता है, वही जीव शुद्ध-आत्मा की संवित्ति है लक्षण जिसका तथा जिसमें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान का भेद नहीं है, परमार्थ नाम से कहा जाने योग्य है, मोक्ष का साक्षात् कारण है तथा जो परमागम की भाषा में वीतराग धर्म-ध्यान तथा शुक्ल-ध्यान स्वरूप कहा जाता है और अपने ही द्वारा संवेदन करने योग्य शुद्ध-आत्मा का स्थान है ऐसे ज्ञान को परम समरसी-भाव के द्वारा अनुभव करता है । दूसरा जीव उसका अनुभव नहीं कर सकता है एवं वह जैसे परमात्म-पद का अनुभव करता है उसी प्रकार परमात्म-स्वरूप मोक्ष को प्राप्त करता है । क्योंकि उपादान कारण के समान ही कार्य हुआ करता है ऐसा नियम है । इस उपर्युक्त स्व-संवेदन ज्ञान-गुण के बिना मत्यादि पाँच ज्ञानों के विकल्प से रहित अखण्ड परमात्मपद को कभी प्राप्त नहीं होता । इस प्रकार संक्षेप से व्याख्यान करने की मुख्यता से आठ गाथाओं का वर्णन हुआ ॥२२८॥

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+ ज्ञानी के अलिप्तता के कारण कर्म-बन्ध नहीं, और अज्ञानी के लिप्तता के कारण कर्म बन्ध -
णाणी रागप्पजहो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो । (218)
णो लिप्पदि रजएण दु कद्दममज्झे जहा कणयं ॥229॥
अण्णाणी पुण रत्ते सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो । (219)
लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममज्झे जहा लोहं ॥230॥
ज्ञानी रागप्रहायक: सर्वद्रव्येषु कर्म ध्यगत:
नो लिप्यते रजसा तु कर्दमध्ये यथा कनकम् ॥२१८॥
अज्ञानी पुना रक्त: सर्वद्रव्येषु कर्म ध्यगत:
लिप्यते कर्मरजसा तु कर्दमध्ये यथा लोहम् ॥२१९॥
पंकगत ज्यों कनक निर्मल कर्मगत त्यों ज्ञानिजन
राग विरहित कर्मरज से लिप्त होते हैं नहीं ॥२१८॥
पंकगत ज्यों लोह त्यों ही कर्मगत अज्ञानिजन
रक्त हों परद्रव्य में अर कर्मरज से लिप्त हों ॥२१९॥
अन्वयार्थ : [जहा] जिसप्रकार [कद्दममज्झे] कीचड़ में पड़ा हुआ भी [कणयं] सोना [रजएण दु] कीचड़ से [णो लिप्पदि] लिप्त नहीं होता; उसीप्रकार [सव्वदव्वेसु] सर्व-द्रव्यों के प्रति [रागप्पजहो] राग छोड़नेवाला [णाणी] ज्ञानी [कम्ममज्झगदो] कर्मों के मध्य में रहा हुआ भी कर्मरज से लिप्त नहीं होता ।
[पुण] वैसे ही [सव्वदव्वेसु] सर्व-द्रव्यों के प्रति [रत्ते] रागी और [कम्ममज्झगदो] कर्मरज के मध्य स्थित [अण्णाणी] अज्ञानी [लिप्पदि कम्मरएण दु] कर्मरज से लिप्त हो जाता है [जहा] जिसप्रकार [कद्दममज्झे] कीचड़ में पड़ा हुआ [लोहं] लोहा ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिसप्रकार अपने अलेप-स्वभाव के कारण कीचड़ में पड़ा हुआ सोना कीचड़ से लिप्त नहीं होता; उसीप्रकार सर्व-द्रव्यों के प्रति होनेवाले राग के त्याग-स्वभावी अलेप-स्वभाववाला होने से ज्ञानी कर्मों के मध्यगत होने पर भी कर्मों से लिप्त नहीं होता । जिसप्रकार अपने लेप-स्वभाव के कारण कीचड़ में पड़ा हुआ लोहा कीचड़ से लिप्त हो जाता है; उसीप्रकार सर्व पर-द्रव्यों के प्रति होनेवाले राग के ग्रहण-स्वभावी लेप-स्वभाववाला होने से अज्ञानी कर्मों के मध्यगत होने पर कर्मों से लिप्त हो जाता है ।

(कलश--हरिगीत)
स्वयं ही हों परिणमित स्वाधीन हैं सब वस्तुयें ।
अर अन्य के द्वारा कभी वे नहीं बदली जा सकें ॥
जिम परजनित अपराध से बँधते नहीं जन जगत में ।
तिम भोग भोगें किन्तु ज्ञानीजन कभी बँधते नहीं ॥१५०॥

[इह] इस लोक में [यस्य याद्रक् यः हि स्वभावः ताद्रक् तस्य वशतःअस्ति] जिस वस्तु का जैसा स्वभाव होता है उसका वैसा स्वभाव उस वस्तु के अपने वश से ही (अपने आधीन ही) होता है । [एषः] यह (वस्तु का स्वभाव) , [परैः] पर के द्वारा [कथंचनअपि हि] किसी भी प्रकार से [अन्याद्रशः] अन्य जैसा [कर्तुं न शक्यते] नहीं किया जा सकता । [हि] इसलिये [सन्ततं ज्ञानं भवत्] जो निरन्तर ज्ञानरूप परिणमित होता है वह [कदाचन अपि अज्ञानं न भवेत्] कभी भी अज्ञान नहीं होता; [ज्ञानिन्] इसलिये हे ज्ञानी ! [भुंक्ष्व] तू (कर्मोदय-जनित) उपभोग को भोग, [इह] इस जगत में [पर-अपराध-जनितः बन्धः तव नास्ति] पर के अपराध से उत्पन्न होनेवाला बन्ध तुझे नहीं है ।

जयसेनाचार्य :
अथानन्तर इस ही ज्ञानगुण का चौदह गाथाओं द्वारा विशेष व्याख्यान करते हैं --

सबसे प्रथम यह बताते हैं कि ज्ञानी सभी द्रव्यों में रागरहित वीतरागी होता है इसलिए नूतन कर्म-बंध नहीं करता किन्तु अज्ञानी जीव राग सहित होता है अत: कर्म बन्ध करता है --

स्व-संवेदन ज्ञानी जीव हर्ष-विषादादि विकल्पभावों की झंझट से रहित होता हुआ सभी द्रव्यों के प्रति होने वाले रागादिक विकारभावों का त्यागी होता है इसलिए कीचड़ में पड़े हुए सोने के समान वह नवीन कर्मरूप रज से लिप्त नहीं होता । किन्तु अज्ञानी स्व-संवेदन ज्ञान के न होने से पंचेन्द्रिय के विषयादि सभी प्रकार के पर-द्रव्यों में रागभाव-युक्त, आकांक्षा-युक्त मूर्छावान् एवं मोही रहता है इसलिए वह कीचड़ में पड़े हुए लोहे के समान नवीन-कर्मरूप रज से बँध जाता है ॥२२९-२३०॥

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+ अब पूर्व-बद्ध कर्मों की निर्जरा न होकर, किस प्रकार मोक्ष होगा ? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं -- -
णागफणीए मूलं णाइणितोएण गब्भणागेण ।
णागं होइ सुवण्णं धम्मंत्तं भच्छवाएण ॥231॥
कम्मं हवेइ किट्टं रागादि कालिया अह विभाओ ।
सम्मत्तणाणचरणं परमोसहमिदि वियाणाहि ॥232॥
झाणं हवेइ अग्गी तवयरणं भत्तली समक्खादो ।
जीवो हवेइ लोहं धमियव्वो परमजोईहिं ॥233॥
अन्वयार्थ : [णागफणीए मूलं] नागफणी की जड़, हथिनी का मूत्र, [णागं होइ भच्छवाएण] सिन्दूर एवं सीसा नामक धातु को धौंकनी से [धम्मंत्तं] धौंक कर अग्नि पर तपाने से [सुवण्णं] सुवर्ण बन जाता है ।
[कम्मं हवेइ किट्टं] कर्म कीट है, [रागादि कालिया अह विभाओ] रागादि कालिमा है, [सम्मत्तणाणचरणं परमोसहमिदि] सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र परम औषधि है, [झाणं हवेइ अग्गी] ध्यान को अग्नि [वियाणाहि] जानो, [तवयरणं भत्तली समक्खादो] बारह प्रकार का तप धौंकनी है, [जीवो हवेइ लो] जीव लोहा है ।
मुक्ति की प्राप्ति के लिए [हं] उक्त धौंकनी को [धमियव्वो परमजोईहिं] परमयोगियों को धौंकना चाहिए ।

जयसेनाचार्य :
नागफणी, थूहर की जड़, हथिनी का मूत्र, गर्भनाग अर्थात् सिन्दूर-द्रव्य और नाग अर्थात् सीसा धातु इनको धोंकनी से अग्नि पर तपाने पर यदि पुण्योदय हो तो स्वर्ण बन जाता है ॥२३१॥ वैसे ही उस भव्य (लोहे) का पूर्वोक्त सम्यक्त्वादि-रूप (औषध) तथा ध्यान-रूप (अग्नि) के साथ संयोग मिलाकर परम-योगी लोगों को बारह प्रकार के तपश्चरण-रूप (धमनी) में धमना चाहिये इस प्रकार करने से जैसे लोहा स्वर्ण बन जाता है वैसे ही मोक्ष भी हो जाता है । इसमें भट्ट और चार्वाक मत वालों को सन्देह नहीं करना चाहिये ॥२३२-२३३॥

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+ अब ज्ञानी के कर्म-बंध नहीं होता, उसे शंख के दृष्टांत से बतलाते हैं -- -
भुंजंतस्स वि विविहे सच्चित्तचित्तामिस्सिए दव्वे । (220)
संखस्स सेदभावो ण वि सक्कदि किण्हगो कादुं ॥234॥
तह णाणिस्स वि विविहे सच्चित्तचित्तामिस्सिए दव्वे । (221)
भुंजंतस्स वि णाणं ण सक्कमण्णाणदं णेदुं ॥235॥
जइया स एव संखो सेदसहावं तयं पजहिदूण । (222)
गच्छेज्ज किण्हभावं तइया सुक्कत्तणं पजहे ॥236॥
तह णाणी वि हु जइया णाणसहावं तयं पजहिदूण । (223)
अण्णाणेण परिणदो तइया अण्णाणदं गच्छे ॥238॥
भुंजानस्यापि विविधानि सचित्ताचित्तमिश्रितानि द्रव्याणि
शंखस्य श्वेतभावो नापि शक्यते कृष्णक: कर्तु् ॥२२०॥
तथा ज्ञानिनोऽपि विविधानि सचित्ताचित्तमिश्रितानिद्रव्याणि
भुंजानस्याऽपि ज्ञानं न शक्यमज्ञानतां नेतु् ॥२२१॥
यदा स एव शंख: श्वेतस्वभावं तकं प्रहाय
गच्छेत् कृष्णभावं तदा शुक्लत्वं प्रजह्यात् ॥२२२॥
तथा ज्ञान्यपि खलु यदा ज्ञानस्वभावं तकं प्रहाय
अज्ञानेन परिणतस्तदा अज्ञानतां गच्छेत् ॥२२३॥
ज्यों अचित्त और सचित्त एवं मिश्र वस्तु भोगते
भी शंख के शुक्लत्व को ना कृष्ण कोई कर सके ॥२२०॥
त्यों अचित्त और सचित्त एवं मिश्र वस्तु भोगते
भी ज्ञानि के ना ज्ञान को अज्ञान कोई कर सके ॥२२१॥
जब स्वयं शुक्लत्व तज वह कृष्ण होकर परिणमे
तब स्वयं ही हो कृष्ण एवं शुक्ल भाव परित्यजे ॥२२२॥
इस ही तरह जब ज्ञानिजन निजभाव को परित्याग कर
अज्ञानमय हों परिणमित तब स्वयं अज्ञानी बनें ॥२२३॥
अन्वयार्थ : जिसप्रकार [विविहे] अनेक प्रकार के [सच्चित्तचित्तमिस्सिए दव्वे] सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों को [भुंजंतस्स वि] भोगते हुए, खाते हुए भी [संखस्स] शंख का [सेदभावो] श्वेतभाव [किण्हगो कादुं] कृष्णभाव को प्राप्त करने में [ण वि सक्कदि] शक्य नहीं है; [तह] उसीप्रकार [णाणिस्स वि] ज्ञानी भी [विविहे] अनेक प्रकार के [सच्चित्तचित्तमिस्सिए दव्वे] सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों को [भुंजंतस्स वि] भोगे तो भी उसके [णाणं] ज्ञान को [सक्कमण्णाणदं ण णेदुं] अज्ञानरूप नहीं किया जा सकता ।
[जइया स एव संखो] जब वही शंख स्वयं [तयं] उस [सेदसहावं] श्वेत स्वभाव को [पजहिदूण] छोड़कर [किण्हभावं] कृष्णभाव (कालेपन) को [गच्छेज्ज] प्राप्त होता है; [तइया] तब [सुक्कत्तणं पजहे] काला हो जाता है; [तह] उसीप्रकार [णाणी वि] ज्ञानी भी [जइया] जब [तयं] स्वयं [णाणसहावं] ज्ञानस्वभाव को [पजहिदूण] छोड़कर [अण्णाणेण] अज्ञानरूप [परिणदो] परिणमित होता है, [तइया] तब [अण्णाणदं गच्छे] अज्ञानता को प्राप्त हो जाता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिसप्रकार पर-द्रव्य के भोगने पर, पर-पदार्थों को खाने पर भी वे पर-पदार्थ शंख के श्वेतपन को कालेपन में नहीं बदल सकते; क्योंकि परद्रव्य किसी भी अन्यद्रव्य को पर-भावरूप करने का निमित्त (कारण) नहीं हो सकता; उसीप्रकार पर-द्रव्यरूप भोगों के भोगे जाने पर भी ज्ञानी के ज्ञान को वे परद्रव्य अज्ञानरूप नहीं कर सकते; क्योंकि परद्रव्य किसी भी अन्य द्रव्य को पर-भावरूप करने का कारण नहीं हो सकता; इसीलिए ज्ञानी को दूसरे के अपराध के निमित्त (कारण) से बंध नहीं होता । और जब वही शंख पर-द्रव्य को भोगता हुआ अथवा नहीं भोगता हुआ स्वयं ही श्वेत-भाव को छोड़कर कृष्ण-भावरूप (कालेपनरूप) परिणमित होता है, तब उसका श्वेत-भाव स्वयंकृत कृष्ण-भाव को प्राप्त होता है । इसीप्रकार जब वही ज्ञानी पर-द्रव्यों को भोगता हुआ अथवा नहीं भोगता हुआ ज्ञान-भाव को छोड़कर स्वयं ही अज्ञान-भावरूप परिणमित होता है, तब उसका ज्ञान स्वयंकृत अज्ञान-भावरूप हो जाता है ।

इसीलिए ज्ञानी के यदि बंध हो तो वह स्वयंकृत ही होता है, परकृत नहीं ।

(कलश--हरिगीत)
कर्म करना ज्ञानियों को उचित हो सकता नहीं ।
फिर भी भोगासक्त जो दुर्भुक्त ही वे जानिये ॥
हो भोगने से बंध ना पर भोगने के भाव से ।
तो बंध है बस इसलिए निज आतमा में रत रहो ॥१५१॥

[ज्ञानिन्] हे ज्ञानी, [जातु किचिंत् कर्म कर्तुम् उचितं न] तुझे कभी भी कोई भी कर्म करना उचित नहीं है [तथापि यदि उच्यते] तथापि यदि तू यह कहे कि [परं मे जातु न, भुंक्षे] 'पर-द्रव्य मेरा कभी भी नहीं है और मैं उसे भोगता हूँ', [भोः दुर्भुक्तः एव असि] तो तू खराब प्रकार से भोगनेवाला है; [हन्त] यह महा खेद है ! [यदि उपभोगतः बन्धः न स्यात्] यदि 'परद्रव्य के उपभोग से बन्ध नहीं हो सकता', [तत् किं ते कामचारः अस्ति] तो क्या तुझे भोगने की इच्छा है ? [ज्ञानं सन् वस] तू ज्ञानरूप होकर निवास कर, [अपरथा] अन्यथा [ध्रुवम् स्वस्य अपराधात् बन्धम् एषि] तू निश्चयतः अपने अपराध से बन्ध को प्राप्त होगा ।

(कलश--हरिगीत)
तू भोग मुझको ना कहे यह कर्म निज करतार को ।
फलाभिलाषी जीव ही नित कर्मफल को भोगता ॥
फलाभिलाषाविरत मुनिजन ज्ञानमय वर्तन करें ।
सब कर्म करते हुए भी वे कर्मबंधन ना करें ॥१५२॥

[यत् किल कर्म एव कर्तारं स्वफलेन बलात् नो योजयेत्] कर्म ही उसके कर्ता को अपने फल के साथ बलात् नहीं जोड़ता, [फललिप्सुः एव हि कुर्वाणः कर्मणः यत् फलं प्राप्नोति] फल की इच्छावाला ही कर्म को करता हुआ कर्म के फल को पाता है; [ज्ञानं सन्] इसलिए ज्ञानरूप रहता हुआ और [तद्-अपास्त-रागरचनः] जिसने कर्म के प्रति राग की रचना दूर की है ऐसा [मुनिः] मुनि, [तत्-फल-परित्याग-एक-शीलः] कर्म-फल के परित्यागरूप ही एक स्वभाववाला होने से, [कर्म कुर्वाणः अपि हि] कर्म करता हुआ भी [कर्मणा नो बध्यते] कर्म से नहीं बन्धता ।

जयसेनाचार्य :
जैसे भोगने में आने वाले सचित्त, अचित्त या मिश्ररूप नाना प्रकार के द्रव्यों को खाने वाले शंख का श्वेतपना किसी भी द्रव्य द्वारा काला नहीं किया जा सकता है । यह व्यतिरेक दृष्टान्त की गाथा हुई । उसी प्रकार ज्ञानी जीव का वीतराग-स्व-संवेदन-रूप-ज्ञान को अज्ञानरूप अर्थात राग-रूप कोई नहीं किया जा सकता है भले ही वह अपने गुणस्थान अनुसार सचित्त अचित्त, या मिश्र-रूप नाना प्रकार के द्रव्यों का उपभोग करता है क्योंकि किसी के स्वभाव को नहीं बदला जा सकता है एवं जब वह ज्ञान-स्वरूप ही रहता है, राग-रूप नहीं होता तब उसके पहले बँधे हुए कर्मों की निर्जरा ही होती है, नवीन बंध नहीं होता है । यह व्यतिरेक दृष्टांत गाथा हुई ।

जहाँ अन्वय और व्यतिरेक शब्द आते हैं वहाँ क्रमश: विधि-रूप व निषेध-रूप अर्थ लिया जाता है -- ऐसा जानना चाहिए । हाँ, जहाँ वहीं पूर्वोक्त सजीव शंख किसी भी पर-द्रव्य के लेप के वश से अपने अन्तरंग-रूप उपादान परिणाम के आधीन होता हुआ श्वेतपने को छोड़कर काला बनने चले तो श्वेतपन को छोड़ देता है । यह अन्वय दृष्टांत गाथा हुई । इसी प्रकार निर्जीव शंख भी कृष्ण-स्वभाव पर-द्रव्य के लेप के वश से अपने अंतरंग उपादान परिणाम के अधीन होता हुआ श्वेत स्वभाव को छोड़कर काला बनने चले तो श्वेतपने को छोड़ ही देता है । इस प्रकार निर्जीव शंख को निमित्त लेकर कही हुई अन्वय-रूप दूसरी दृष्टांत गाथा हुई । उसी प्रकार उस शंख के समान ज्ञानी जीव भी अपनी बुद्धि को बिगाड़ लेने से वीतराग-ज्ञान-स्वभाव को छोड़कर मिथ्यात्व तथा रागादिरूप अज्ञानतया, परिणत होता है तब अपने स्वभाव से च्युत होता हुआ अज्ञानपने को प्राप्त होता है, यह स्पष्ट ही है, फिर उसके संवर पूर्वक निर्जरा भी नहीं होती है । यह दार्ष्टान्त गाथा हुई ॥२३४-२३८॥

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+ सराग-वीतराग परिणाम से बंध-मोक्ष -
पुरिसो जह को वि इहं वित्तिणिमित्तं तु सेवदे रायं । (224)
तो सो वि देदि राया विविहे भोगे सुहुप्पाए ॥239॥
एमेव जीवपुरिसो कम्मरयं सेवदे सुहणिमित्तं । (225)
तो सो वि देदि कम्मो विविहे भोगे सुहुप्पाए ॥240॥
जह पुण सो च्चिय पुरिसो वित्तिणिमित्तं ण सेवदे रायं । (226)
तो सो ण देदि राया विविहे भोगे सुहुप्पाए ॥241॥
एमेव सम्मदिट्ठी विसयत्थं सेवदे ण कम्मरयं । (227)
तो सो ण देदि कम्मो विविहे भोगे सुहुप्पाए ॥242॥
पुरुषो यथा कोऽपीह वृत्तिनिमित्तं तु सेवते राजानम्
तत्सोऽपि ददाति राजा विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान् ॥२२४॥
एवमेव जीवपुरुष: कर्मरज: सेवते सुखनिमित्तम्
तत्तदपि ददाति कर्म विविधान् भोगान्सुखोत्पादकान् ॥२२५॥
यथा पुन: स एव पुरुषो वृत्तिनिमित्तं न सेवते राजानम्
तत्सोऽपि न ददाति राजा विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान् ॥२२६॥
एवमेव सम्यग्दृष्टि: विषयार्थं सेवते न कर्मरज:
तत्तन्न ददाति कर्म विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान् ॥२२७॥
आजीविका के हेतु नर ज्यों नृपति की सेवा करे ।
तो नरपती भी सबतरह उसके लिए सुविधा करे ॥२२४॥
इस ही तरह जब जीव सुख के हेतु सेवे कर्मरज ।
तो कर्मरज भी सबतरह उसके लिए सुविधा करे ॥२२५॥
आजीविका के हेतु जब नर नृपति सेवा ना करे ।
तब नृपति भी उसके लिए उसतरह सुविधा ना करे ॥२२६॥
त्यों कर्मरज सेवे नहीं जब जीव सुख के हेतु से ।
तो कर्मरज उसके लिए उसतरह सुविधा ना करे ॥२२७॥
अन्वयार्थ : [पुरिसो जह को वि इहं] जैसे यहाँ कोई भी पुरुष [वित्तिणिमित्तं तु सेवदे रायं] आजीविका के लिए राजा की सेवा करता है [तो सो वि राया] तो वह राजा भी उसे [देदि विविहे भोगे सुहुप्पाए] सुख उत्पन्न करने वाले अनेक भोग देता है [एमेव जीवपुरिसो कम्मरयं] ऐसे ही जीव पुरुष कर्म-राज की [सेवदे सुहणिमित्तं] सुख-प्राप्ति के लिए सेवा करता है [तो सो वि कम्मो] तो वह कर्म भी [देदि विविहे भोगे सुहुप्पाए] सुख उत्पन्न करने वाले अनेक भोग देता है ।
[जह पुण सो च्चिय पुरिसो] जैसे फिर वही पुरुष [वित्तिणिमित्तं ण सेवदे रायं] आजीविका के लिए राजा की सेवा नहीं करता [तो सो राया] तो वह राजा भी उसे [ण देदि विविहे भोगे सुहुप्पाए] सुख उत्पन्न करने वाले अनेक भोग नहीं देता [एमेव सम्मदिट्ठी] इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि [विसयत्थं] विषय के लिए [सेवदे ण कम्मरयं] कर्म-राज की सेवा नहीं करता [तो सो कम्मो] तो वह कर्म भी उसे [ण देदि विविहे भोगे सुहुप्पाए] सुख उत्पन्न करने वाले अनेक भोग नहीं देता ।

अमृतचंद्राचार्य :
आगे दृष्टांत और दार्ष्टान्त के द्वारा बतलाते हैं की सराग परिणाम से बंध और वीतराग परिणाम से मोक्ष होता है --

जिसप्रकार कोई पुरुष फल के लिए राजा की सेवा करता है तो राजा उसे फल देता है; उसीप्रकार जीव फल के लिए कर्म का सेवन करता है तो कर्म उसे फल देता है तथा जिसप्रकार वही पुरुष फल के लिए राजा की सेवा नहीं करता तो वह राजा भी उसे फल नहीं देता; इसीप्रकार सम्यग्दृष्टि फल के लिए कर्म का सेवन नहीं करता तो वह कर्म भी उसे फल नहीं देता - यह तात्पर्य है ।

(कलश--हरिगीत)
जिसे फल की चाह ना वह करे - यह जँचता नहीं ।
यदि विवशता वश आ पड़े तो बात ही कुछ और है ॥
अकंप ज्ञानस्वभाव में थिर रहें जो वे ज्ञानिजन ।
सब कर्म करते या नहीं - यह कौन जाने विज्ञजन ॥१५३॥

[येन फलं त्यक्तं सः कर्म कुरुते इति वयं न प्रतीमः] जिसने कर्म का फल छोड़ दिया है वह कर्म करता है ऐसी प्रतीति तो हम नहीं कर सकते । [किन्तु] किन्तु वहाँ इतना विशेष है कि - [अस्य अपि कुतः अपि किंचित् अपि तत् कर्म अवशेन आपतेत्] उसे (ज्ञानी को) भी किसी कारण से कोई ऐसा कर्म अवशता से (उसके वश बिना) आ पड़ता है । [तस्मिन् आपतिते तु] उसके आ पड़ने पर भी, [अकम्प-परम-ज्ञानस्वभावे स्थितः ज्ञानी] जो अकंप परम-ज्ञान-स्वभाव में स्थित है ऐसा ज्ञानी [कर्म] कर्म [किं कुरुते अथ किं न कुरुते] करता है या नहीं [इति कः जानाति] यह कौन जानता है ?

(कलश--हरिगीत)
वज्र का हो पात जो त्रैलोक्य को विह्वल करे ।
फिर भी अरे अतिसाहसी सद्दृष्टिजन निश्चल रहें ॥
निश्चल रहें निर्भय रहें नि:शंक निज में ही रहें ।
नि:सर्ग ही निजबोधवपु निज बोध से अच्युत रहें ॥१५४॥

[यत् भय-चलत्-त्रैलोक्य-मुक्त-अध्वनि वज्रे पतति अपि] जिसके भय से चलायमान होते हुए (खलबलाते हुवे) तीनों लोक अपने मार्ग को छोड़ देते हैं ऐसा वज्रपात होने पर भी, [अमी] ये (सम्यग्दृष्टि जीव), [निसर्ग-निर्भयतया] स्वभावतः निर्भय होने से, [सर्वाम् एव शंकां विहाय] समस्त शंका को छोड़कर, [स्वयं स्वम् अवध्य-बोध-वपुषं जानन्तः] स्वयं अपने को (आत्मा को) जिसका ज्ञानरूप शरीर अवध्य है ऐसा जानते हुए, [बोधात् च्यवन्ते न हि] ज्ञान से च्युत नहीं होते । [इदं परं साहसम् सम्यग्दृष्टयः एव कर्तुं क्षमन्ते] ऐसा परम साहस करने के लिये मात्र सम्यग्दृष्टि ही समर्थ हैं ।

जयसेनाचार्य :
जैसे कोई पुरुष आजीविका के लिए राजा की सेवा करता है तो उस सेवक को राजा नाना प्रकार की सुख-दायक वस्तुएँ देता है -- यह अज्ञानी जीव के विषय में अन्वय दृष्टान्त का वर्णन करने वाली गाथा हुई । इसी प्रकार शुद्धात्मा से उत्पन्न होने वाले सुख से दूर होता हुआ अज्ञानी जीव भी विषय-सुख के लिए कर्म रूपी राजा की सेवा करता है । अत: वह पूर्वोपार्जित पुण्य कर्मरूपी राजा भी उसे विषय सुख को उत्पन्न करने वाले भोगों की अभिलाषा वाले एवं शुद्धात्मा की भावना को नष्ट करने वाले रागादि परिणामों को उत्पन्न कर देता है । इसी गाथा का दूसरा अर्थ करते हैं कि कोई जीव नवीन पुण्य-कर्म बंध के निमित्त भोगों की इच्छामय निदान भाव से शुभ-कर्म का अनुष्ठान करता है तो वह पापानुबंधी पुण्य-रूपी राजा कालान्तर में उसे भोग उत्पन्न कर देता है, परन्तु वे निदान बंध से प्राप्त हुए भोग रावण आदि के समान उसे अन्त में नरक में गिराने वाले होते हैं और उसे दुखों की परम्परा को प्राप्त कराते हैं । यह अज्ञानी जीव के प्रति अन्वय दृष्टांत गाथा हुई ।

अब यदि वही पुरुष किसी भी आजीविका के लिए राजा की सेवा नहीं करता है तो वह राजा भी नाना प्रकार के सुख उत्पन्न करने वाले भोग नहीं देता । यह ज्ञानी जीव के संबंध में व्यतिरेक दृष्टांत पूर्ण हुआ । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव पहले के बाँधे हुए एवं उदय में आये हुए कर्म को शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न वीतराग सुख से दूर हटकर विषय-सुख के लिए उपादेय-बुद्धि से अर्थात प्रयत्न-पूर्वक अपने विचार से उसे सेवन नहीं करता । इसलिए वह कर्म भी उसके लिए नाना प्रकार के सुख को उत्पन्न करने तथा भोगों की अभिलाषा-रूप तथा शुद्धात्मीक भावना को नष्ट करने वाले राग-द्वेषादि परिणामों को नहीं उपजाता है । इसी का अब दूसरे प्रकार से व्याख्यान यह है कि कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव निर्विकल्प समाधि के न होने से अशक्यानुष्ठान के रूप में विषय-कषायों से बचने के लिए व्रत-शील या दान पूजादि शुभ-कर्म का अनुष्ठान करता है, किंतु भोगों की आकांक्षा रूप निदान बंध के साथ उस पुण्य-कर्म का अनुष्ठान नहीं करता, तो वह पुण्यानुबंधी पुण्य-कर्म आगे के भव में तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेवादि के अभ्युदय-रूप में उदय में आया हुआ भी पूर्व-भव में भाये हुये भेद-विज्ञान की भावना के बल से शुद्धात्मा की भावना का मूलोच्छेद करने वाले भोगों की अकांक्षा रूप निदान बंध वाले ऐसे विषय सुखों को उपजाने वाले रागादि परिणामों को पैदा नहीं करता है । जैसे कि भरतेश्वर चक्रवर्ती आदि के पैदा नहीं किया । यह सम्यग्ज्ञानी जीव के प्रति दार्ष्टान्त गाथा पूर्ण हुई ।

इस प्रकार जिस परमात्म-पद का वर्णन इन विशेषणों से किया जा चुका है वह पद जिस विकार रहित स्व-संवेदन लक्षण वाले भेद-विज्ञान गुण के बिना नहीं प्राप्त किया जा सकता है उसी भेद-विज्ञान गुण का विशेष व्याख्यान इन चौदह गाथाओं में पूर्ण हुआ ॥२३९-२४२॥

अब इसके आगे नव गाथाओं में नि:शंकितादि आठ गुणों का वर्णन करते हैं । उसमें भी सबसे प्रथम पहली गाथा में यह बताते हैं की जो सम्यक्त्वी जीव निज परमात्मा की भावना से उत्पन्न हुए सुख-रूप अमृत-रस के आस्वादन से संतुष्ट रहते हैं, वे घोर उपसर्ग के आने पर भी सात प्रकार के भय से रहित होने के कारण निर्विकार रूप स्वानुभव ही है स्वरूप जिसका ऐसे अपने स्वभाव की नहीं छोड़ते हैं उसी में तल्लीन रहते हैं ।

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+ सम्यक्त्वी भय-रहित होता है -
सम्माद्दिट्ठी जीवा णिस्संका होंति णिब्भया तेण । (228)
सत्तभयविप्पमुक्का जम्हा तम्हा दु णिस्संका ॥243॥
सम्यग्द्रष्टयो जीवा निश्शंका भवन्ति निर्भयास्तेन ।
सप्तभयविप्रमुक्ता यस्मात्तस्मात्तु निश्शंकाः ॥२२८॥
नि:शंक हों सद्दृष्टि बस इसलिए ही निर्भय रहें ।
वे सप्त भय से मुक्त हैं इसलिए ही नि:शंक हैं ॥२२८॥
अन्वयार्थ : [सम्माद्दिट्ठी जीवा णिस्संका होंति] सम्यग्दृष्टि जीव नि:शंक होते हैं, [णिब्भया तेण] इसीकारण निर्भय भी होते हैं [सत्तभयविप्पमुक्का जम्हा] चूँकि वे सप्तभयों से रहित होते हैं [तम्हा दु णिस्संका] इसलिए नि:शंक होते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
चूँकि सम्यग्दृष्टि जीव सदा ही सर्वकर्मों के फल के प्रति निरभिलाष होते हैं; इसलिए वे कर्मों के प्रति अत्यन्त निरपेक्षतया वर्तते हैं । अत्यन्त सुदृढ़ निश्चयवाले होने से वे अत्यन्त निर्भय होते हैं ।

(कलश--हरिगीत)
इहलोक अर परलोक से मेरा न कुछ सम्बन्ध है ।
अर भिन्न पर से एक यह चिल्लोक ही मम लोक है ॥
जब जानते यह ज्ञानिजन तब होंय क्यों भयभीत वे ।
वे तो सतत नि:शंक हो निजज्ञान का अनुभव करें ॥१५५॥

[एषः] यह चित्स्वरूप लोक ही [विविक्तात्मनः] (पर से) भिन्न आत्मा का [शाश्वतः एक: सकल-व्यक्त: लोक:] शाश्वत, एक और सकल व्यक्त (सर्व काल में प्रगट) लोक है; [यत्] क्योंकि [केवलम् चित्-लोकं] मात्र चित्स्वरूप लोक को [अयं स्वयमेव एकक: लोक यति] यह ज्ञानी आत्मा स्वयमेव एकाकी देखता है । [तद्-अपरः] उससे भिन्न दूसरा कोई लोक [अयं लोक: अपरः] यह लोक या परलोक [तव न] तेरा नहीं है, [तस्य तद्-भीः कुतः अस्ति] इसलिये ज्ञानी को इस लोक का तथा परलोक का भय कहाँ से हो ? [सः स्वयं सततं निश्शंक: सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] वह तो स्वयं निरन्तर निःशङ्क वर्तता हुआ सहज ज्ञान का सदा अनुभव करता है ।

(कलश--हरिगीत)
चूँकि एक-अभेद में ही वेद्य-वेदक भाव हों ।
अतएव ज्ञानी नित्य ही निजज्ञान का अनुभव करें ॥
अन वेदना कोइ है नहीं तब होंय क्यों भयभीत वे ।
वे तो सतत नि:शंक हो निजज्ञान का अनुभव करें ॥१५६॥

[निर्भेद-उदित-वेद्य-वेदक -बलात्] अभेदस्वरूप वर्तनेवाले वेद्य-वेदक के बल से [यद् एकं अचलं ज्ञानं स्वयं अनाकुलैः सदा वेद्यते] एक अचल ज्ञान ही स्वयं निराकुल पुरुषों (ज्ञानयों) के द्वारा सदा वेदन में आता है, [एषा एका एव हि वेदना] यह एक ही वेदना (ज्ञानवेदन) ज्ञानीयों के है । [ज्ञानिनः अन्या आगत-वेदनाएव हि न एव भवेत्] ज्ञानी के दूसरी कोई आगत (पुद्गल से उत्पन्न) वेदना होती ही नहीं,[तद्-भीः कुतः] इसलिए उसे वेदना का भय कहाँ से हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंक: सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] वह तो स्वयं निरन्तर निःशङ्क वर्तता हुआ सहज ज्ञान का सदा अनुभव करता है ।

(कलश--हरिगीत)
निज आतमा सत् और सत् का नाश हो सकता नहीं ।
है सदा रक्षित सत् अरक्षाभाव हो सकता नहीं ॥
जब जानते यह ज्ञानिजन तब होंय क्यों भयभीत वे ।
वे तो सतत नि:शंक हो निजज्ञान का अनुभव करें ॥१५७॥

[यत् सत् तत् नाशं न उपैति इति वस्तुस्थितिः नियतं व्यक्ता] जो सत् है वह नष्ट नहीं होता ऐसी वस्तु-स्थिति नियमरूप से प्रगट है । [तत् ज्ञानं किल स्वयमेव सत्] यह ज्ञान भी स्वयमेव सत् (सत्स्वरूप वस्तु) है (इसलिये नाश को प्राप्त नहीं होता), [ततः अपरैः अस्य त्रातं किं] इसलिये पर के द्वारा उसका रक्षण कैसा ? [अतः अस्य किंचन अत्राणं न भवेत्] इसप्रकार (ज्ञान निज से ही रक्षित है, इसलिये) उसका किञ्चित्मात्र भी अरक्षण नहीं हो सकता [ज्ञानिनः तद्-भी कुतः] इसलिये (ऐसा जाननेवाले) ज्ञानी को अरक्षा का भय कहाँ से हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञान का सदा अनुभव करता है ।

(कलश--हरिगीत)
कोई किसी का कुछ करे यह बात संभव है नहीं ।
सब हैं सुरक्षित स्वयं में अगुप्ति का भय है नहीं ॥
जब जानते यह ज्ञानिजन तब होंय क्यों भयभीत वे ।
वे तो सतत नि:शंक हो निजज्ञान का अनुभव करें ॥१५८॥

[किल स्वं रूपं वस्तुनः परमा गुप्तिः अस्ति] वास्तव में वस्तु का स्व-रूप ही (निज रूप ही) वस्तु की परम 'गुप्ति' है, [यत् स्वरूपे कः अपि परः प्रवेष्टुम् न शक्त:] क्योंकि स्वरूप में कोई दूसरा प्रवेश नहीं कर सकता; [] और [अकृतं ज्ञानं नुः स्वरूपं] अकृत ज्ञान (जो किसीके द्वारा नहीं किया गया, स्वाभाविक ज्ञान) पुरुष का अर्थात् आत्मा का स्वरूप है; [अतः अस्य न काचन अगुप्तिः भवेत्] इसलिये आत्मा की किंचित्मात्र भी अगुप्तता न होनेसे [ज्ञानिनः तद्-भीः कुतः] ज्ञानी को अगुप्ति का भय कहाँ से हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञान का सदा अनुभव करता है ।

(कलश--हरिगीत)
मृत्यु कहे सारा जगत बस प्राण के उच्छेद को ।
ज्ञान ही है प्राण मम उसका नहीं उच्छेद हो ॥
तब मरणभय हो किसतरह हों ज्ञानिजन भयभीत क्यों ।
वे तो सतत नि:शंक हो निज ज्ञान का अनुभव करें ॥१५९॥

[प्राणोच्छेदम् मरणं उदाहरन्ति] प्राणों के नाश को (लोग) मरण कहते हैं [अस्य आत्मनः प्राणाः किल ज्ञानं] निश्चय से आत्मा के प्राण तो ज्ञान है । [तत् स्वयमेव शाश्वततयाजातुचित् न उच्छिद्यते] वह (ज्ञान) स्वयमेव शाश्वत होने से उसका कदापि नाश नहीं होता; [अतः तस्य मरणं किंचन न भवेत्] इसलिये आत्मा का मरण किञ्चित्मात्र भी नहीं होता । [ज्ञानिनः तद्-भीः कुतः] अतः (ऐसा जाननेवाले) ज्ञानी को मरण का भय कहाँ से हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंक : सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञान का सदा अनुभव करता है ।

(कलश--हरिगीत)
इसमें अचानक कुछ नहीं यह ज्ञान निश्चल एक है ।
यह है सदा ही एक-सा एवं अनादि-अनंत है ॥
जब जानते यह ज्ञानिजन तब होंय क्यों भयभीत वे ।
वे तो सतत नि:शंक हो निज ज्ञान का अनुभव करें ॥१६०॥

[एतत् स्वतः सिद्धं ज्ञानम् किल एकं] यह स्वतः-सिद्ध ज्ञान एक है, [अनादि] अनादि है, [अनन्तम्] अनन्त है, [अचलं] अचल है । [इदं यावत् तावत् सदा एवहि भवेत्] वह जब तक है तब तक सदा ही वही है, [अत्र द्वितीयोदयः न] उसमें दूसरे का उदय नहीं है । [तत्] इसलिये [अत्र आकस्मिकम् किंचन न भवेत्] इस ज्ञान में आकस्मिक कुछ भी नहीं होता । [ज्ञानिनः तद्-भीः कुतः] ऐसा जाननेवाले ज्ञानी को अकस्मात् का भय कहाँ से हो सकता है ? [सः स्वयं सततं निश्शंकः सहजं ज्ञानं सदा विन्दति] वह तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तता हुआ सहज ज्ञान का सदा अनुभव करता है ।

(कलश--दोहा)
नित नि:शंक सद्दृष्टि को, कर्मबंध न होय ।
पूर्वोदय को भोगते, सतत निर्जरा होय ॥१६१॥

[टंकोत्कीर्ण-स्वरस-निचित-ज्ञान-सर्वस्व-भाजः सम्यग्दृष्टेः] टंकोत्कीर्ण निज-रस से परिपूर्ण ज्ञान के सर्वस्व को भोगनेवाले सम्यग्दृष्टि के [यद् इह लक्ष्माणि] जो निःशंकित आदि चिह्न हैं वे [सकलं कर्म] समस्त कर्मों को [घन्न्ति] नष्ट करते हैं; [तत्] इसलिये, [अस्मिन्] कर्म का उदय वर्तता होने पर भी, [तस्य] सम्यग्दृष्टि को [पुनः] पुनः [कर्मणः बन्धः] कर्म का बन्ध [मनाक् अपि] किञ्चित्मात्र भी [नास्ति] नहीं होता, [पूर्वोपात्तं] परंतु जो कर्म पहले बन्धा था [तद्-अनुभवतः] उसके उदय को भोगने पर उसको [निश्चितं] नियम से [निर्जरा एव] उस कर्म की निर्जरा ही होती है ।

जयसेनाचार्य :
अब इसके आगे नव गाथाओं में नि:शंकितादि आठ गुणों का वर्णन करते हैं । उसमें भी सबसे प्रथम पहली गाथा में यह बताते हैं कि जो सम्यक्त्वी जीव निज परमात्मा की भावना से उत्पन्न हुए सुख-रूप अमृत-रस के आस्वादन से संतुष्ट रहते हैं वे घोर उपसर्ग के आने पर भी सात प्रकार के भय से रहित होने के कारण निर्विकार रूप स्वानुभव ही है स्वरूप जिसका ऐसे अपने स्वभाव की नहीं छोड़ते हैं उसी में तल्लीन रहते हैं ।

[सम्माद्दिट्ठी जीवा णिस्संका होंति] सम्यग्दृष्टि जीव शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव-रूप निर्दोष परमात्मा का आराधन करते हुए नि:शंक होते हैं [णिब्भया तेण] इसी से वे भय रहित होते हैं । [सत्तभयविप्पमुक्का जम्हा] क्योंकि इहलोक-भय, परलोक-भय, अत्राण-भय (अरक्षा-भय), अगुप्ति-भय, मरण-भय, वेदना-भय, और आकस्मिक-भय इन सात भयों से रहित होते हैं । [तम्हा दु णिस्संका] इसलिये वे घोर उपसर्ग के आ पड़ने पर भी पाण्डवादि के समान नि:शंक होते हैं अर्थात् शुद्धात्मा के स्वरूप में निश्चल रहते हुए उस परमात्म-स्वरूप से च्युत नहीं होते हैं ॥२४३॥

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+ नि:शंकित अंग का स्वरूप -
जो चत्तारि वि पाए छिंददि ते कम्मबंधमोहकरे । (229)
सो णिस्संको चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ॥244॥
यश्चतुरोऽपि पादान् छिनत्ति तान् कर्मबंधमोहकरान्
स निश्शंकश्चेतयिता सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्य: ॥२२९॥
जो कर्मबंधन मोह कर्ता चार पाये छेदते
वे आतमा नि:शंक सम्यग्दृष्टि हैं - यह जानना ॥२२९॥
अन्वयार्थ : जो [छिंददि ते कम्मबंधमोहकरे] कर्मबंध संबंधी मोह करनेवाले (मिथ्यात्वादि भावरूप) [चत्तारि वि पाए] चारों भेदों को छेदता है [सो णिस्संको चेदा] उस नि:शंक चेतयिता को [सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] सम्यग्दृष्टि जानो ।

अमृतचंद्राचार्य :
सम्यग्दृष्टि जीव टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-भावमय होने के कारण कर्म-बंध की शंका करनेवाले (जीव निश्चय से भी कर्मों से बँधा है, आदि रूप संदेह या भय करनेवाले) मिथ्यात्वादि भावों का अभाव होने से नि:शंक है, इसलिए उसे शंकाकृत बंध नहीं होता, किन्तु निर्जरा ही होती है ।

जयसेनाचार्य :
आगे कहते हैं कि वीतराग सम्यग्दृष्टि जीव के नि:शंक आदि आठ गुण नवीन बंध का निवारण करते रहते हैं इसलिये उसके बन्ध नहीं होता अपितु संवर पूर्वक निर्जरा होती है --

[जो चत्तारि वि पाए छिंददि ते कम्मबंधमोहकरे] जो कोई मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और शुभाशुभ योग भाव ही है लक्षण जिसका ऐसे संसार रूप वृक्ष के जड़ सरीखे हैं एवं निष्कर्म जो आत्म-तत्त्व से विलक्षणता लिए हुए होने से कर्मों को उत्पन्न करने वाले हैं अमोही, अव्याबाध और बाधा रहित सुख आदि गुणों का धारी जो परमात्मा पदार्थ है उससे पृथक् होने के कारण बाधा पैदा करने वाले हैं, ऐसे उन आगम प्रसिद्ध चारों पायों को शुद्धात्मा की भावना में शंका रहित होकर स्व-संवेदन नाम वाले ज्ञान-रूप खड़ग के द्वारा काट डालता है । [सो णिस्संको चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] वह चेतन-स्वरूप आत्मा ही निशंक सम्यग्दृष्टि माना गया है । उसके शुद्धात्मा के विषय में शंका को पैदा करने वाला बन्ध नहीं होता किन्तु पूर्व-बद्ध कर्म की निर्जरा ही निश्चित रूप से होती है ॥२४४॥

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+ नि:कांक्षित अंग का स्वरूप -
जो दु ण करेदि कंखं कम्मफलेसु तह सव्वधम्मेसु । (230)
सो णिक्कंखो चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ॥245॥
यस्तु न करोति कांक्षां कर्मफलेषु तथा सर्वधर्मेषु
स निष्कांक्षश्चेतयिता सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्य: ॥२३०॥
सब धर्म एवं कर्मफल की ना करें आकांक्षा
वे आतमा नि:कांक्ष सम्यग्दृष्टि हैं - यह जानना ॥२३०॥
अन्वयार्थ : [जो दु ण करेदि कंखं] जो दोनों आकांक्षा नहीं करता, [कम्मफलेसु तह सव्वधम्मेसु] कर्मों के फलों के प्रति और सर्व धर्मों के प्रति; [सो णिक्कंखो चेदा] उस नि:कांक्षित चेतायिता को [सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] सम्यग्दृष्टि जानो ।

अमृतचंद्राचार्य :
सम्यग्दृष्टि जीव टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-भावमय होने के कारण सभी कर्म-फलों एवं वस्तु-धर्मों के प्रति कांक्षा का अभाव होने से नि:कांक्षित अंग सहित होते हैं; इसलिए उन्हें कांक्षाकृत बंध नहीं होता; किन्तु निर्जरा ही होती है ।

जयसेनाचार्य :
[जो ण करेदि दु कंखं कम्मफलेसु तहय सव्वधम्मेसु] जो आत्मा शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न हुए परमानन्द सुख में संतुष्ट होकर कांक्षा अर्थात, कुछ भी वांछा नहीं करता है अर्थात् पाँचों इन्द्रियों के विषय सुख-रूप जो कर्मों के फल हैं उनमें तथा समस्त वस्तुओं के धर्मों में स्वभावों में या विषय-सुख के कारणभूत नानाप्रकार पुण्य-रूप धर्मों में अथवा इह-लोक व पर-लोक संबंधी इच्छाओं के कारणभूत समस्त परसमय हैं, उनके द्वारा प्ररूपित कुधर्मों में भी कुछ भी इच्छा नहीं रखता है । [सो णिक्कंखो चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] वह आत्मा सम्यग्दृष्टि इच्छा व कांक्षा रहित है ऐसा जानना चाहिये । ऐसे ज्ञानी जीव के विषयों के सुख की इच्छा नहीं होती इसलिये उसके वांछा-जन्य बन्ध नहीं होता किन्तु पूर्व संचित कर्म की निर्जरा ही होती है ॥२४५॥

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+ निर्वचिकित्सा व अमूढदृष्टि अंग का स्वरूप -
जो ण करेदि दुगुंछं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं । (231)
सो खलु णिव्विदिगिच्छो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ॥246॥
जो हवदि असम्मूढो चेदा सद्दिट्ठि सव्वभावेसु । (232)
सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ॥247॥
यो न करोति जुगुप्सां चेतयिता सर्वेषामेव धर्माणाम्
सो खलु निर्विचिकित्स: सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्य: ॥२३१॥
यो भवति असंमुढ: चेतयिता सद्दृष्टि: सर्वभावेषु
स खलु अमूढदृष्टि: सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्य: ॥२३२॥
जो नहीं करते जुगुप्सा सब वस्तुधर्मों के प्रति
वे आतमा ही निर्जुगुप्सक समकिती हैं जानना ॥२३१॥
सर्व भावों के प्रति सद्दृष्टि हैं असंमुढ़ हैं
अमूढ़दृष्टि समकिती वे आतमा ही जानना ॥२३२॥
अन्वयार्थ : [जो ण करेदि दुगुंछं चेदा] जो चेतयिता (ज्ञायक) जुगुप्सा (ग्लानि) नहीं करता [सव्वेसिमेव धम्माणं] सभी धर्मों के प्रति [सो खलु णिव्विदिगिच्छो] उस यथार्थ निर्विचिकित्सक को [सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] सम्यग्दृष्टि जानो ।
[जो हवदि असम्मूढो चेदा] जो चेतयिता (ज्ञायक) अमूढ़ है, [सद्दिट्ठि सव्वभावेसु] समस्त भावों में यथार्थ दृष्टिवाला है; [सो खलु अमूढदिट्ठी] उस यथार्थ अमूढ़-दृष्टा को [सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] सम्यग्दृष्टि जानो ।

अमृतचंद्राचार्य :
सम्यग्दृष्टि जीव टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-भावमय होने के कारण सभी वस्तु-धर्मों के प्रति जुगुप्सा का अभाव होने से निर्विचिकित्सा अंग का धारी और सभी भावों में मोह का अभाव होने से अमूढ़दृष्टि अंग का धारी है । इसलिए उसे निश्चय से विचिकित्सा-कृत एवं मूढ़दृष्टि-कृत बंध नहीं होता; अपितु निर्जरा ही होती है ।

जयसेनाचार्य :
[जो ण करेदि दुगुंछं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं] जो चेतन आत्मा परमात्म-तत्त्व की भावना के बल से सभी वस्तुओं के स्वभावों के प्रति जुगुप्सा, ग्लानि, निन्दा या विचिकित्सा नहीं करता, दुर्गन्ध के विषय में ग्लानि नहीं करता [सो खलु णिव्विदिगिच्छो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] वह ही ग्लानि-रहित सम्यग्दृष्टि माना गया है । उसके पर-पदार्थों के द्वेष-निमित्तक बन्ध नहीं होता किन्तु पूर्व-संचित कर्म की निर्जरा ही होती है ॥२४६॥

[जो हवदि असम्मूढो चेदा सव्वेसु कम्मभावेसु] जो चेतन आत्मा अपनी शुद्धात्मा में ही श्रद्धान, ज्ञान और आचरण रूप निश्चय-रत्नत्रयमय भावना का बल है उससे समाधि परिणामों से शुभ और अशुभ कर्मों से उपजाये हुए परिणाम स्वरूप इन बाह्य द्रव्यों के विषयों में सर्वथा असंमूढ़ है मोह-ममता नहीं रखता है, [सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] वास्तव में वही सम्यग्दृष्टि अमूढदृष्टि अंग का धारी माना जाना चाहिए । इस ज्ञानी जीव के बाह्य-पदार्थों में मूढ़ता / ममता से होने वाला कर्म-बन्ध नहीं होता, किन्तु पूर्व-कृत कर्मों की निर्जरा ही होती है ॥२४७॥


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+ उपगूहन और स्थितिकरण अंग का स्वरूप -
जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगूहणगो दु सव्वधम्माणं । (233)
सो उवगूहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ॥248॥
उम्मग्गं गच्छतं सगं पि मग्गे ठवेदि जो चेदा । (234)
सो ठिदिकरणाजुत्तो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ॥249॥
य: सिद्धभक्तियुक्त: उपगूहनकस्तु सर्वधर्माणाम्
स उपगूहनकारी सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्य: ॥२३३॥
उन्मार्ग गच्छंतं स्वकमपि मार्गे स्थापयति यश्चेतयिता
स स्थितिकरणयुक्त: सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्य: ॥२३४॥
जो सिद्धभक्ति युक्त हैं सब धर्म का गोपन करें
वे आतमा गोपनकरी सद्दृष्टि हैं यह जानना ॥२३३॥
उन्मार्गगत निजभाव को लावें स्वयं सन्मार्ग में
वे आतमा थितिकरण सम्यग्दृष्टि हैं यह जानना ॥२३४॥
अन्वयार्थ : [जो सिद्धभत्तिजुत्ते] जो सिद्धों की भक्ति से युक्त [उवगूहणगो दु सव्वधम्माणं] परवस्तुओं के सभी धर्मों को गोपनेवाला है; [सो उवगूहणकारी] उस उपगूहनधारक को [सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] सम्यग्दृष्टि जानो ।
[उम्मग्गं गच्छतं सगं पि] उन्मार्ग में जाते हुए अपने-आप को भी [मग्गे ठवेदि जो चेदा] जो चेतायिता (ज्ञायक) सन्मार्ग में स्थापित करता है, [सो ठिदिकरणाजुत्ते] उस स्थितिकरण से युक्त को [सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] सम्यग्दृष्टि जानो ।

अमृतचंद्राचार्य :
सम्यग्दृष्टि जीव टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-भावमय होने के कारण समस्त आत्म-शक्तियों की वृद्धि करनेवाला होने से उपबृंहक है, आत्म-शक्ति बढ़ानेवाला है, उपगूहन या उपबृंहण अंग का धारी है और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्ष-मार्ग से च्युत होने पर स्वयं को मोक्ष-मार्ग में स्थापित कर देने से स्थितिकरण अंग का धारी है । इसलिए उसे शक्ति की दुर्बलता से होनेवाला और मार्ग से च्युत होने से होनेवाला बंध नहीं होता; अपितु निर्जरा ही होती है ।

जयसेनाचार्य :
[जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगूहणगो दु सव्वधम्माणं] जो जीव शुद्धात्मा की भावना-रूप पारमार्थिक सिद्ध-भक्ति से युक्त है तो वह मिथ्यात्व और रागादिरूप-विभाव-भावों का उपगूहक अर्थात् दबाने-वाला है या नाश करने वाला ही है, [सो उवगूहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] तो ऐसा वह सम्यग्दृष्टि उपगुहनकारी माना जाना ही चाहिए । उस जीव के दोषों को नहीं छिपाने रूप अनुपगुहन के द्वारा किया हुआ बन्ध नहीं होता किन्तु उसके तो निश्चित रूप से पूर्व संचित कर्म की निर्जरा ही होती है ॥२४८॥

[उम्मग्गं गच्छतं सिवमग्गे जो ठवेदि अप्पाणं] जो कोई मिथ्यात्व और रागादिरूप उन्मार्ग की ओर जाते हुये अपने आप को परम-उत्तमरूप योगाभ्यास के बल से अपनी शुद्ध आत्मा की भावना स्वरूप जो मोक्ष-मार्ग, शिव-मार्ग है उसमें निश्चलतया स्थापन करता है । [सो ठिदिकरणेण जुदो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] वह सम्यग्दृष्टि जीव स्थितिकरण-गुण युक्त माना जाना चाहिये । उसके अस्थितीकरण रूप दोष का किया हुआ बन्ध नहीं होता किन्तु निश्चित-रूप से पूर्व-बद्ध कर्म की निर्जरा होती है ॥२४९॥

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+ वात्सल्य और प्रभावना अंग का धारी सम्यग्दृष्टि का वर्णन -
जो कुणदि वच्छलत्तं तिण्हं साहूण मोक्खमग्गम्हि । (235)
सो वच्छलभावजुदो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ॥250॥
विज्जारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा । (236)
सो जिणणाणपहावी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ॥251॥
य: करोति वत्सलत्वं त्रयाणां साधूनां मोक्षमार्गे
स वत्सलभावयुत: सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्य: ॥२३५॥
विद्यारथमारूढ़: मनोरथपथेषु भ्रति यश्चेतयिता
स जिनज्ञानप्रभावी सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्य: ॥२३६॥
मुक्तिमगगत साधुत्रय प्रति रखें वत्सल भाव जो
वे आतमा वत्सली सम्यग्दृष्टि हैं यह जानना ॥२३५॥
सद्ज्ञानरथ आरूढ़ हो जो भ्रमे मनरथ मार्ग में
वे प्रभावक जिनमार्ग के सद्दृष्टि उनको जानना ॥२३६॥
अन्वयार्थ : [जो कुणदि वच्छलत्तं] जो करता है वत्सल [तिण्हं साहूण मोक्खमग्गम्हि] तीनों मोक्षमार्ग के साधन (सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र) / साधक (आचार्य, उपाध्याय और साधु) के प्रति; [सो वच्छलभावजुदो] उस वात्सल्य भाव युक्त को [सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] सम्यग्दृष्टि जानो ।
[विज्जारहमारूढो] विद्यारूपी रथ पर आरूढ़, [मणोरहपहेसु भमइ] मनरूपी रथ के पथ में भ्रमण करने वाला [जो चेदा] जो चेतयिता (ज्ञायक); [सो जिणणाणपहावी] उस जिनेन्द्र भगवान के ज्ञान की प्रभावना करनेवाले को [सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] सम्यग्दृष्टि जानो ।

अमृतचंद्राचार्य :
सम्यग्दृष्टि जीव टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-भावमय होने के कारण सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को अपने से अभेद-बुद्धि से सम्यक्तया देखता है, अनुभव करता है; इसकारण मार्ग-वत्सल है, मोक्षमार्ग के प्रति अति प्रीतिवाला है, वात्सल्य अंग का धारी है और ज्ञान की समस्त शक्ति को प्रगट करके, विकसित करके स्वयं में प्रभाव उत्पन्न करता है, प्रभावना करता है; इसकारण प्रभावना अंग का धारी है । इसलिए उसे मार्ग की अनुपलब्धि से होनेवाला और ज्ञान की प्रभावना के अपकर्ष से होनेवाला बंध नहीं होता; अपितु निर्जरा ही होती है ।

(कलश--दोहा)
बंध न हो नव कर्म का, पूर्व कर्म का नाश ।
नृत्य करें अष्टांग में, सम्यग्ज्ञान प्रकाश ॥१६२॥

[इति नवम् बन्धं रुन्धन्] इसप्रकार नवीन बन्ध को रोकता हुआ और [निजैः अष्टाभिः अगैः संगतः निर्जरा-उज्जृम्भणेन प्राग्बद्धं तु क्षयम् उपनयम्] (स्वयं) अपने आठ अंगों से युक्त होने के कारण निर्जरा प्रगट होने से पूर्व-बद्ध कर्मों का नाश करता हुआ [सम्यग्दृष्टिः स्वयम्] सम्यग्दृष्टि जीव स्वयं [अतिरसात्] अति रस से (निजरस में मस्त हुआ) [आदि-मध्य-अन्तमुक्तं ज्ञानं भूत्वा] आदि-मध्य-अंत रहित (सर्वव्यापक , एकप्रवाहरूप धारावाही) ज्ञानरूप होकर [गगन-आभोग-रंगं विगाह्य] आकाश के विस्ताररूप रंगभूमि में अवगाहन करके (ज्ञान के द्वारा समस्त गगनमंडल में व्याप्त होकर) [नटति] नृत्य करता है ।

इसप्रकार निर्जरा (रंगभूमि में से) बाहर निकल गई ।

इसप्रकार श्री समयसार की (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य देव प्रणीत श्री समयसार परमागम की) श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्य देव विरचित आत्मख्याति नामक टीका में निर्जरा का प्ररूपक छठवाँ अंक समाप्त हुआ ।

जयसेनाचार्य :
[जो कुणदि वच्छलत्तं तिण्हं साहूण मोक्खमग्गम्हि] जो कोई मोक्ष-मार्ग में ठहरकर मोक्ष-मार्ग के साधन करने वाले इन तीन सम्यग्दर्शन, समयग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप अपने ही भावों की अथवा व्यवहार से उस रत्नत्रय के आधारभूत आचार्य, उपाध्याय और साधु इन तीनों की भक्ति करता है उनमें धार्मिक-प्रेम करता है, [सो वच्छलभावजुदो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] वह सम्यग्दृष्टि जीव वत्सल-भाव युक्त माना जाना चाहिए । उसके अवात्सल्य-भाव कृत बन्ध नहीं होता । किन्तु पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा ही होती है ॥२५०॥

[विज्जारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा] जो चेतन आत्मा अपने शुद्ध आत्मा की उपलब्धि स्वरूप विद्यामयी रथ पर आरूढ होकर मान-बड़ाई, पूजा-प्रतिष्ठा, लाभ तथा भोगों की इच्छा को आदि लेकर निदान-बंध आदि विभाव-रूप परिणाम होता है जो कि द्रव्य, क्षेत्रादि रूप पांच प्रकार सांसारिक दुखों के कारण होते हैं एवं जो आत्मा के शत्रु हैं ऐसे मनोरथ के वेगों को चित्त की तरंगों को स्वस्थ-भाव / समभाव रूप सारथी के बल से और दृढ़तर ध्यान-रूप-खड़ग के द्वारा नष्ट कर देता है । [सो जिणणाणपहावी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] वह सम्यग्दृष्टि जीव जिनेन्द्र भगवान के ज्ञान की प्रभावना करने वाला माना गया है । अत: उसके अप्रभावना से होने वाला बन्ध नहीं होता किन्तु निश्चित रूप से पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा ही होती है ।

इस प्रकार शुद्ध-नय का आश्रय लेकर संवर पूर्वक जो भाव-निर्जरा होती है उसके उपादान कारण-रूप तथा शुद्धात्मा की भावना स्वरूप जो नि:शंकितादि आठ गुण होते हैं उनके व्याख्यान करने की मुख्यता से नव गाथायें पूर्ण हुईं ।

यह नि:शंकितादि गुणों का जो व्याख्यान है वह निश्चय-नय की प्रधानता से किया गया है । इस व्याख्यान को निश्चय रत्नत्रय का साधक जो व्यवहार रत्नत्रय है उसमें स्थित होने वाले सराग सम्यग्दृष्टि के ऊपर भी अंजन चौरादिक की कथारूप जो व्यवहारनय है उसके द्वारा यथा संभव लगा लेना ।

टीकाकार के इस कथन को लेकर शंका पैदा होती है की निश्चय-नय का व्याख्यान करने के बाद भी व्यवहार-नय का व्याख्यान यहाँ क्यों किया ? टीकाकार इसका उत्तर देते हैं कि स्वर्ण और स्वर्ण-पाषाण में परस्पर कार्य कारण-भाव है वैसा ही कार्य-करण-भाव निश्चय-नय और व्यवहार-नय में है, व्यवहार-नय कारण है तो निश्चय-नय उसका कार्य है यह बात दिखलाने के लिए ही यहाँ यह प्रयास किया गया है जैसे कि --

जइ जिणमइ पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुणह ।
एक्केण विणा छिज्जइ, तित्थं अण्णेण पुण तिच्चं

यदि जिनमत का रहस्य प्राप्त करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय-नय इन दोनों में से किसी को मत भूलो क्योंकि व्यवहार-नय को छोड़ देने से अभीष्ट सिद्धि का मूल कारण जो तीर्थ है वह नष्ट हो जाता है और निश्चय-नय को भुला देने पर समुचित वस्तु-तत्त्व ही नहीं रह पाता है ।

सम्यग्दृष्टि जीव के जो संवर पूर्वक निर्जरा होती हुई बताई गई है वह भी प्रधानतया निर्विकल्प-समाधि के होने पर ही होती है । जो कि निर्विकल्प-समाधि, शुद्धात्मा के समीचीन तन्मयरूप श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान-रूप निश्चय-रत्नत्रय-स्वरूप होती है तथा आर्त्त और रौद्र-भाव से रहित धर्म्य-ध्यान और शुक्ल ध्यानमय होती है और शुभ और अशुभ रूप बाह्य-द्रव्यों के आलंबन से सर्वथा रहित होती है । यह निर्विकल्प-समाधि वास्तव में अत्यन्त-दुर्लभ है क्योंकि साधारण निगोद से निकलकर, एकेंद्रियपना, विकलेन्द्रियपना, पंचेन्द्रियपना, संज्ञीपना, संज्ञी में भी पर्याप्तपना, मनुष्यपना, उत्तमदेश, उत्तम-कुल, सुडौल-शरीर, इन्द्रियों की पूर्णता, रोग-रहित आयु, भली बुद्धि, समीचीन धर्म का सुनना, उसे विचार-पूर्वक अपने मन में उतारना और धारण करना, उस पर विश्वास लाना, संयम स्वीकार करना, वैषयिक सुख से दूर हटना, क्रोधादि-कषायों को दूर करना, अनशनादिक तप की भावना का होना एवं समाधी पूर्वक मरण -- यह सब बातें उत्तरोत्तर दुर्लभ है । क्योंकि उपर्युक्त बातों में रुकावट डालने वाले मिथ्यात्व, विषय-कषायरूप विकारी परिणामों की प्रबलता रहती है जिससे ख्याति, पूजा, लाभ और भोगों की आकांक्षा रूप निदान-बंध आदि विभाव परिणाम होते ही रहते हैं । इस प्रकार की दुर्लभता को जानकार समाधि के विषय में किसी भी प्रकार का प्रमाद नहीं करना चाहिए ।

जैसा के कहा भी है --

इत्यतिदुर्लभरूप बोधि लब्ध्वा यदि प्रमादी स्यात् ।
ससृतिभीमारण्ये, भ्रमति वराको नर सूचिर ॥

अर्थात् -- उपर्युक्त प्रकार से जिसका प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है उस बोधि भाव को प्राप्त करके भी यदि मनुष्य प्रमादी बना रहे और उसे हाथ से खो दे तब फिर वह बेचारा इस भयंकर संसार रूप वन में बहुत काल तक परिभ्रमण करता ही रहेगा । इस प्रकार श्रंगार-रहित पात्र की भांति शान्त-रस रूप जो निर्जरा है, वह चली गई ।

इस प्रकार श्री जयसेनाचार्य की बनाई हुई शुद्धात्मानुभूति के लक्षण वाली श्री समयसार जी की तात्पर्य नाम की टीका के हिन्दी अनुवाद में इस प्रकार सब मिलाकर ५० गाथाओं द्वारा छह अंतर-अधिकारों में सातवाँ निर्जरा नाम का अधिकार पूर्ण हुआ ।

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बंध अधिकार


रागादिकतैं कर्मकौ, बन्ध जानि मुनिराय । ।
तजैं तिनहिं समभाव करि, नमूँ सदा तिन पाँय ॥
अन्वयार्थ : अब बन्ध प्रवेश करता है --

अमृतचंद्राचार्य :

(कलश--हरिगीत)
मदमत्त हो मदमोह में इस बंध ने नर्तन किया ।
रसराग के उद्गार से सब जगत को पागल किया ॥
उदार अर आनन्दभोजी धीर निरुपधि ज्ञान ने ।
अति ही अनाकुलभाव से उस बंध का मर्दन किया ॥१६३॥

[राग-उद्गार-महारसेन सकलं जगत् प्रमत्तं कृत्वा] जो (बन्ध) राग के उदयरूप महारस (मदिरा) के द्वारा समस्त जगत को प्रमत्त (मतवाला) करके, [रस-भाव-निर्भर-महानाटयेन क्रीडन्तं बन्धं] रस के भाव से (रागरूप मतवालेपन से) भरे हुए महा-नृत्य के द्वारा खेल (नाच) रहा है ऐसे बन्ध को [धुनत्] उड़ाता (दूर करता) हुआ, [ज्ञानं] ज्ञान [समुन्मज्जति] उदय को प्राप्त होता है । वह ज्ञान [आनन्द-अमृत-नित्य-भोजि] आनंदरूप अमृत का नित्य भोजन करनेवाला है, [सहज-अवस्थां स्फुटं नाटयत्] अपनी (ज्ञातृक्रियारूप) सहज अवस्था को प्रगट नचा रहा है, [धीर-उदारम्] धीर है, उदार (महान विस्तारवाला, निश्चल) है, [अनाकुलं] अनाकुल है, [निरूपधि] उपाधि रहित (कर्म-कृत भाव रहित) है ।

जयसेनाचार्य :
अब बन्ध प्रवेश करता है । वहाँ जहणाम कोवि पुरुषो इत्यादि गाथा को आदि लेकर पाठ क्रम से ५६ गाथाओ मे इसका वर्णन है । उन ५६ गांथाओं मे से भी सबसे प्रथम इस प्रकार मिलाकर आठ अंतर अधिकारों और छप्पन गाथाओं के द्वारा बन्ध अधिकार पूर्ण होता है उसकी पातनिका हुई ।

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+ मिथ्या-ज्ञान श्रंगार-सहित प्रवेश कर रहा है -
जह णाम को वि पुरिसो णेहब्भत्ते दु रेणुबहुलम्मि । (237)
ठाणम्मि ठाइदूण य करेदि सत्थेहिं वायामं ॥252॥
छिंदति भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ । (238)
सच्चित्तचित्तणं करेदि दव्वाणमुवघादं ॥253॥
उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं । (239)
णिच्छयदो चिंतेज्ज हु किंपच्चयगो दु रयबंधो ॥254॥
जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो । (240)
णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं ॥255॥
एवं मिच्छादिट्ठी वट्टंतो बहुविहासु चिट्ठासु । (241)
रागादी उवओगे कुव्वंतो लिप्पदि रएण ॥256॥
यथा नाम कोऽपि पुरुष: स्नेहाभ्यक्तस्तु रेणुबहुले
स्थाने स्थित्वा च करोति शस्त्रैर्व्यायामम् ॥२३७॥
छिनत्ति भिनत्ति च तथा तालीतलकदलीवंशपिण्डी:
सचित्ताचित्तानां करोति द्रव्याणामुपघातम् ॥२३८॥
उपघातं कुर्वतस्तस्य नानाविधै: करणै:
निश्चयतश्चिंत्यतां खलु किंप्रत्ययिकस्तु रजोबंध: ॥२३९॥
sय: स तु स्नेहभावस्तस्मिन्नरे तेन तस्य रजोबंध:
निश्चयतो विज्ञेयं न कायचेष्टाभि: शेषाभि: ॥२४०॥
एवं मिथ्यादृष्टिर्वर्तानो बहुविधासु चेष्टासु
रागादीनुपयोगे कुर्वाणो लिप्यते रजसा ॥२४१॥
ज्यों तेल मर्दन कर पुरुष रेणु बहुल स्थान में
व्यायाम करता शस्त्र से बहुविध बहुत उत्साह से ॥२३७॥
तरु ताड़ कदली बाँस आदिक वनस्पति छेदन करे
सचित्त और अचित्त द्रव्यों का बहुत भेदन करे ॥२३८॥
बहुविध बहुत उपकरण से उपघात करते पुरुष को
परमार्थ से चिन्तन करो रजबंध किस कारण हुआ ॥२३९॥
चिकनाई ही रजबंध का कारण कहा जिनराज ने
पर कायचेष्टादिक नहीं यह जान लो परमार्थ से ॥२४०॥
बहुभाँति चेष्टारत तथा रागादि को करते हुए
सब कर्मरज से लिप्त होते हैं जगत में अज्ञजन ॥२४१॥
अन्वयार्थ : [जह णाम को वि पुरिसो] जिसप्रकार कोई पुरुष [णेहब्भत्ते दु] तेल आदि चिकने पदार्थ लगाकर [य] और [रेणुबहुलम्मि] बहुत धूलवाले [ठाणम्मि] स्थान में [ठाइदूण] रहकर [करेदि सत्थेहिं वायामं] शस्त्रों के द्वारा व्यायाम करता है ।
[छिंदति भिंददि य तहा] तथा छेदता है, भेदता है [तालीतलकयलिवंसपिंडीओ] ताड़, तमाल, केला, बाँस, अशोक आदि वृक्षों को; [सच्चित्तचित्तणं] सचित्त व अचित्त [करेदि दव्वाणमुवघादं] द्रव्यों का उपघात (नाश) करता है ।
[णाणाविहेहिं करणेहिं] नानाप्रकार के साधनों द्वारा [उवघादं कुव्वंतस्स तस्स] उपघात करते हुए उसे [णिच्छयदो चिंतेज्ज हु] निश्चय से इस बात का विचार करो कि [किंपच्चयगो दु रयबंधो] किसकारण से धूलि का बंध होता है ?
[तम्हि णरे] उस पुरुष में [जो सो दु णेहभावो] जो तेलादि की चिकनाहट है; [तेण तस्स रयबंधो] उससे ही उसे धूलि का बंध होता है, [णिच्छयदो विण्णेयं] ऐसा निश्चय से जानना चाहिए [ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं] शारीरिक चेष्टाओं आदि से नहीं ।
[एवं मिच्छादिट्ठी] इसप्रकार मिथ्यादृष्टि [वट्टंतो बहुविहासु चिट्ठासु] बहुतप्रकार की चेष्टाओं में वर्तता हुए [रागादी उवओगे कुव्वंतो] रागादिमय उपयोग से करता हुआ [लिप्पदि रएण] कर्मरूपी रज से लिप्त होता है, बँधता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिसप्रकार इस जगत में तेल की मालिश किये हुए कोई पुरुष स्वभाव से बहुधूलियुक्त भूमि में खड़े होकर शस्त्रों से व्यायाम करता हुआ अनेकप्रकार के साधनों के द्वारा सचित्त-अचित्त वस्तुओं का घात करता हुआ धूलि से धूसरित हो जाता है, लिप्त हो जाता है, बँध जाता है ।

यहाँ विचार करो कि उक्त कारणों में से उसके बंधन का कारण कौन है ? इसप्रकार यह बात न्यायबल से सिद्ध हो जाती है कि उक्त पुरुष के धूलिबंध का कारण तेल का मर्दन ही है ।

इसप्रकार अपने में रागादिभाव करता हुआ मिथ्यादृष्टि जीव स्वभाव से ही बहुत से कर्मयोग्य पुद्गलों (कार्मणवर्गणाओं) से भरे हुए इस लोक में काय, वचन और मन संबंधी कार्य करते हुए अनेकप्रकार के करणों (साधनों) के द्वारा सचित्त और अचित्त वस्तुओं का घात करता हुआ कर्मरूप रज से बँधता है ।

यहाँ विचार करो कि उक्त कारणों में से मिथ्यादृष्टि जीव को बंध होने का कारण कौन है ? इसप्रकार यह बात न्यायबल से ही सिद्ध हो जाती है कि उपयोग में रागादि का होना ही बंध का कारण है ।

(कलश--हरिगीत)
कर्म की ये वर्गणाएँ बंध का कारण नहीं ।
अत्यन्त चंचल योग भी हैं बंध के कारण नहीं ॥
करण कारण हैं नहीं चिद्-अचिद् हिंसा भी नहीं ।
बस बंध के कारण कहे अज्ञानमय रागादि ही ॥१६४॥

[बन्धकृत्] कर्म-बन्ध को करनेवाला कारण, [न कर्मबहुलं जगत्] न तो बहुत कर्म-योग्य पुद्गलों से भरा हुआ लोक है, [न चलनात्मकं कर्म वा] न चलन-स्वरूप कर्म (अर्थात् काय-वचन-मन की क्रियारूप योग) है, [न नैककरणानि] न अनेक प्रकार के करण हैं [वा न चिद्-अचिद्-वधः] और न चेतन-अचेतन का घात है । किन्तु [उपयोगभूः रागादिभिः यद्-ऐक्यम् समुपयाति] 'उपयोगभू' अर्थात् आत्मा रागादिक के साथ जो ऐक्य को प्राप्त होता है [सः एव केवलं] वही एक (मात्र रागादिक के साथ एकत्व प्राप्त करना वही) [किल] वास्तव में [नृणाम् बन्धहेतुः भवति] पुरुषों के बन्ध का कारण है ।

जयसेनाचार्य :
अब यह बताते हैं कि मिथ्यादृष्टि जीव के कर्म बन्ध का कारणभूत जो मिथ्यात्व है जो कि श्रंगार-सहित पात्र स्थानीय है जो कि नाटक रूप से प्रवेश कर रहा है उसका प्रतिरोध करने वाला भेद-विज्ञान है जो कि शान्त-रस से परिणत होकर रहने वाला है और वीतराग रूप सम्यक्त्व को साथ मे लिए हुए होता है ।

[जह णाम को वि पुरिसो] जैसे कोई भी पुरुष अपने शरीर में तेल आदि चिकना पदार्थ लगाकर बहुत-सी धूल वाले स्थान में जाकर मुद्गरादि शस्त्रों से व्यायाम का अभ्यास करता है -- यह एक गाथा का अर्थ हुआ । वह ताड़ का वृक्ष, तमाखू का पौधा, केले का पेड़, बाँसों का बीड़ा और अशोक वृक्ष आदि नाना वृक्षों को छेदता-भेदता है एवं उनसे सम्बन्ध रखने वाले सचेतन और अचेतन द्रव्यों का घात करता है -- यह दूसरी गाथा का अर्थ हुआ । उन नाना प्रकार के उपकरणों द्वारा उपघात करते हुए उस जीव को जो धूलि लगती है वह सोचो किस कारण से धूलि लगती है ? इस प्रकार पूर्वपक्ष के रूप में तीन गाथायें हुईं । उसका उत्तर यह है कि उसने अपने शरीर में तेल-मालिश से चिकनापन कर रखा है उसी से वह धूलि उसके चिपकती है । यह चौथी उत्तर रूप गाथा हुई । इस प्रकार प्रश्नोत्तर रूप चार सूत्रों द्वारा दृष्टान्त कहा गया । [एवं मिच्छादिट्ठी वट्टंतो बहुविहासु चिट्ठासु] उपर्युक्त दृष्टान्त के अनुसार ही मिथ्यादृष्टि जीव अर्थात् विरति- रहित जीव नाना प्रकार के शारीरिक व्यापार चेष्टाओं में प्रवर्तमान होता है तब वहाँ पर वह [रागादी उवओगे कुव्वंतो लिप्पदि रयेण] शुद्धात्म-तत्त्व का समीचीन रूप श्रद्धान, ज्ञान और आचरण रूप जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के न होने से मिथ्यात्व और रागादि-रूप उपयोगों को अर्थात विकारी परिणामों को करता है, वह कर्म-रूप रज से लिप जाता है, बंध जाता है -- ऐसा समझना चाहिये । जिस प्रकार तेल लगाये हुए पुरुष के जैसे धूलि चिपकती है वैसे ही मिथ्यात्व तथा रागादि रूप में परिणत जीव के कर्मबंध होता है । इस प्रकार कर्म-बंध के कारण का व्याख्यान करने के रूप में पाँच गाथायें पूर्ण हुईं ॥२५२-२५६॥

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+ आगे वीतराग सम्यग्दृष्टि जीव के कर्म-बंध नहीं होता है, ऐसा पांच गाथाओं से बतलाते हैं -- -
जह पुण सो चेव णरो णेहे सव्वम्हि अवणिदे संते । (242)
रेणुबहुलम्मि ठाणे करेदि सत्थेहिं वायामं ॥257॥
छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ । (243)
सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणमुवघादं ॥258॥
उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं । (244)
णिच्छयदो चिंतेज्ज हु किंपच्चयगो ण रयबंधो ॥259॥
जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो । (245)
णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं ॥260॥
एवं सम्मादिट्ठी वट्टंतो बहुविहेसु जोगेसु । (246)
अकरंतो उवओगे रागादी ण लिप्पदि रएण ॥261॥
यथा पुन: स चैव नर: स्नेहे सर्वस्मिन्नपनीते सति
रेणुबहुले स्थाने करोति शस्त्रैर्व्यायामम् ॥२४२॥
छिनत्ति भिनत्ति च तथा तालीतलकदलीवंशपिंडी:
सचित्ताचित्तानां करोति द्रव्याणामुपघातम् ॥२४३॥
उपघातं कुर्वतस्तस्य नानाविधै: करणै:
निश्चयतश्चिंत्यतां खलु किंप्रत्ययिको न रजोबन्ध: ॥२४४॥
य: स तु स्नेहभावस्तस्मिन्नरे तेन तस्य रजोबन्ध:
निश्चयतो विज्ञेयं न कायचेष्टाभि: शेषाभि: ॥२४५॥
एवं सम्यग्दृष्टिर्वर्तानो बहुविधेषु योगेषु
अकुर्वन्नुपयोगे रागादीन् न लिप्यते रजसा ॥२४६॥
ज्यों तेल मर्दन रहित जन रेणू बहुल स्थान में
व्यायाम करता शस्त्र से बहुविध बहुत उत्साह से ॥२४२॥
तरु ताल कदली बाँस आदिक वनस्पति छेदन करे
सचित्त और अचित्त द्रव्यों का बहुत भेदन करे ॥२४३॥
बहुविध बहुत उपकरण से उपघात करते पुरुष को
परमार्थ से चिन्तन करो रजबंध क्यों कर ना हुआ ? ॥२४४॥
चिकनाई ही रजबंध का कारण कहा जिनराज ने
पर कायचेष्टादिक नहीं यह जान लो परमार्थ से ॥२४५॥
बहुभाँति चेष्टारत तथा रागादि ना करते हुए
बस कर्मरज से लिप्त होते नहीं जग में विज्ञजन ॥२४६॥
अन्वयार्थ : [जह पुण सो चेव णरो] और जिसप्रकार वही पुरुष [णेहे सव्वम्हि अवणिदे संते] सभीप्रकार के तेल आदि स्निग्ध पदार्थों के दूर किये जाने पर [रेणुबहुलम्मि ठाणे करेदि] बहुत धूलिवाले स्थान में [सत्थेहिं वायामं] शस्त्रों के द्वारा व्यायाम करता है [तहा] तथा [तालीतलकयलिवंसपिंडीओ] ताल, तमाल, केला, बाँस और अशोक आदि वृक्षों को [छिंददि भिंददि य] छेदता है और भेदता है [सच्चित्तचित्तणं] सचित्त-अचित्त [करेदि दव्वाणमुवघादं] द्रव्यों का उपघात करता है ।
[णाणाविहेहिं करणेहिं] इसप्रकार नानाप्रकार के करणों द्वारा [उवघादं कुव्वंतस्स तस्स] उपघात करते हुए उसे [णिच्छयदो चिंतेज्ज हु] यह निश्चय से विचार करो कि [किंपच्चयगो ण रयबंधो] धूलि का बंध किसकारण से नहीं होता ।
[तम्हि णरे] उस पुरुष में [जो सो दु णेहभावो] जो वह तेल आदि चिकनाई [तेण तस्स रयबंधो] उससे उसके धूलि-बंध [णिच्छयदो विण्णेयं] निश्चय से जानना चाहिए [ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं] कायचेष्टादि कारणों से नहीं ।
[एवं] इसप्रकार [बहुविहेसु जोगेसु] बहुतप्रकार के योगों में [सम्मादिट्ठी वट्टंतो] वर्तता हुआ सम्यग्दृष्टि [अकरंतो उवओगे रागादी] उपयोग में रागादि को न करता हुआ [ण लिप्पदि रएण] कर्मरज से लिप्त नहीं होता ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिसप्रकार वही पुरुष सम्पूर्ण चिकनाहट को दूर कर देने पर उसी स्वभाव से ही धूलि से भरी हुई भूमि में वहीं शस्त्र-व्यायामरूपी कर्म (कार्य) को करता हुआ, उन्हीं अनेक प्रकार के करणों के द्वारा उन्हीं सचित्ताचित्त वस्तुओं का घात करता हुआ धूलि से लिप्त नहीं होता; क्योंकि उसके धूलि से लिप्त होने का कारण तेलादि के मर्दन का अभाव है । उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि अपने में रागादि को न करता हुआ, उसी स्वभाव से बहु कर्म-योग्य पुद्गलों से भरे हुए लोक में वही मन-वचन-काय की क्रिया करता हुआ, उन्हीं अनेकप्रकार के करणों के द्वारा उन्हीं सचित्ताचित्त वस्तुओं का घात करता हुआ, कर्मरूपी रज से नहीं बँधता; क्योंकि उसके बंध के कारणभूत राग के योग का अभाव है ।

(कलश--हरिगीत)
भले ही सब कर्मपुद्गल से भरा यह लोक हो ।
भले ही मन-वचन-तन परिस्पन्दमय यह योग हो ॥
चिद् अचिद् का घात एवं करण का उपभोग हो ।
फिर भी नहीं रागादि विरहित ज्ञानियों को बंध हो ॥१६५॥

[कर्मततः लोकः सः अस्तु] इसलिए वह (पूर्वोक्त) बहुत कर्मों से (कर्मयोग्य पुद्गलों से) भरा हुआ लोक है सो भले रहो, [परिस्पन्दात्मकं कर्म तत् च अस्तु] वह काय-वचन-मन का चलन-स्वरूप कर्म (योग) है सो भी भले रहो, [तानि करणानि अस्मिन् सन्तु] वे (पूर्वोक्त) करण भी उसके भले रहें [] और [तत् चिद्-अचिद्-व्यापादनं अस्तु] वह चेतन-अचेतन का घात भी भले हो, परंतु [अहो] अहो! [अयम् सम्यग्दृग्-आत्मा] यह सम्यग्दृष्टि आत्मा, [रागादीन् उपयोगभूमिम् अनयन्] रागादिक को उपयोग-भूमि में न लाता हुआ, [केवलं ज्ञानं भवन्] केवल (एक) ज्ञानरूप परिणमित होता हुआ, [कुतः अपि बन्धम् ध्रुवम् न एव उपैति] किसी भी कारण से निश्चयतः बन्ध को प्राप्त नहीं होता ।

(कलश--हरिगीत)
तो भी निरर्गल प्रवर्तन तो ज्ञानियों को वर्ज्य है ।
क्योंकि निरर्गल प्रवर्तन तो बंध का स्थान है ॥
वांछारहित जो प्रवर्तन वह बंध विरहित जानिये ।
जानना करना परस्पर विरोधी ही मानिये ॥१६६॥

[तथापि] तथापि (अर्थात् लोक आदि कारणों से बन्ध नहीं कहा और रागादिक से ही बन्ध कहा है तथापि) [ज्ञानिनां निरर्गलं चरितुम् न इष्यते] ज्ञानियों को निरर्गल (स्वच्छन्दतापूर्वक) प्रवर्तना योग्य नहीं है, [सा निरर्गला व्यापृतिः किल तद्-आयतनम् एव] क्योंकि वह निरर्गल प्रवर्तन वास्तव में बन्ध का ही स्थान है । [ज्ञानिनां अकाम-कृत-कर्म तत्अकारणम् मतम्] ज्ञानियों के वाँछा-रहित कर्म (कार्य) होता है वह बन्धका कारण नहीं कहा, क्योंकि [जानाति च करोति] जानता भी है और (कर्म को ) करता भी है [द्वयं किमु न हि विरुध्यते] यह दोनों क्रियाएँ क्या विरोधरूप नहीं हैं ?

(कलश--हरिगीत)
जो ज्ञानीजन हैं जानते वे कभी भी करते नहीं ।
करना तो है बस राग ही जो करें वे जानें नहीं ॥
अज्ञानमय यह राग तो है भाव अध्यवसान ही ।
बंध कारण कहे ये अज्ञानियों के भाव ही ॥१६७॥

[यः जानाति सः न करोति] जो जानता है सो करता नहीं [तु] और [यःकरोति अयं खलु जानाति न] जो करता है सो जानता नहीं । [तत् किल कर्मरागः] करना तो वास्तव में कर्म-राग है [तु] और [रागं अबोधमयम् अध्यवसायम् आहुः] राग को (मुनियों ने) अज्ञानमय अध्यवसाय कहा है; [सः नियतं मिथ्यादृशः] जो कि वह (अज्ञानमय अध्यवसाय) नियम से मिथ्यादृष्टि के होता है [] और [सः बन्धहेतुः] वह बन्ध का कारण है ।

जयसेनाचार्य :
जैसे वही पूर्वोक्त पुरुष शरीर से सर्व तैलादिरूप चिकने पदार्थ को सर्वथा दूर कर धूल भरे स्थान में भी अनेक हथियारों द्वारा व्यायाम / परिश्रम करता है । यह प्रथम गाथा हुई । वहाँ वह ताल, तमाल, तम्बाकू, केलां, बाँस का बीड़ा आदि वृक्षों को छेदता है भेदता है, उनमें होने वाले सचित्त और अचित्त पदार्थों को बिगाड़ता है । यह दूसरी गाथा का अर्थ हुआ । वैशाख आदि साधनों के द्वारा उपघात करते रहने वाले उस पुरुष के जो धूल नहीं चिपकती सो क्यों ? इस प्रकार प्रश्न करने रूप में तीसरी गाथा हुई । उसका उत्तर यह है कि उस पुरुष के शरीर में तेल चुपड़ने रूप चिकनापन था उसी से धूलि चिपकती थी यह निश्चित बात है । उसी की अन्य शारीरिक चेष्टाओं से धूलि नहीं चिपकती थी अब उसके शरीर में वह तैलादि-जनित चिकनापन नहीं रहा इसलिये उसके धूलि नहीं चिपकती यह सब उत्तररूप गाथा का अभिप्राय हुआ । इस प्रकार चार गाथाओं में दृष्टान्त हुआ । अब दार्ष्टान्त कहते हैं कि [एवं सम्मादिट्ठी वट्टंतो बहुविहेसु जोगेसु] पूर्वोक्त दृष्टान्त के अनुसार सम्यग्दृष्टि अर्थात् विरत जीव भी विविध प्रकार के योगों में अर्थात् अनेक प्रकार के मन, वचन, और काय सम्बन्धी व्यायापारों में प्रवर्तमान होता हुआ भी [अकरंतो उवओगे रागादी] निर्मल आत्मा का समीचीन श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र का सदभाव होने से रागादि के उपयोग स्वरूप विकारी परिणामों को नहीं करता है अत: [णेव बज्झदि रयेण] नूतन कर्मों से नहीं बंधता है । इस प्रकार तैलादिक की चिकनाहट न होने पर जैसे धूलि, नहीं चिपकने पाती वैसे ही वीतराग-सम्यग्दृष्टि जीव के रागादि-विकाररूप भाव न होने से बंध नहीं होता । इस प्रकार बंध के अभाव का कारण बताने के रूप में ये पाँच गाथायें आईं ।

जैसा यहाँ पातनिका में बताया था कि ज्ञानी-जीव का स्वामीपना अर्थात अधिकार तो एक शान्त-रस पर होता है किन्तु अध्यात्म के विषय में इस नाटक के प्रस्ताव में नवों रसों का स्वामीपना है -- ऐसा समझना चाहिये । इस प्रकार अज्ञानी के पाँच तथा ज्ञानी के पाँच मिलाकर दश गाथाओं में यह बन्ध अधिकार का पहला स्थल पूर्ण हुआ ॥२५७-२६१॥

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+ हिंस्य-हिंसकभाव रूप परिणमन अज्ञानी का लक्षण ज्ञानी का नहीं -
जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं । (247)
सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्ते दु विवरीदो ॥262॥
आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । (248)
आउं ण हरेसि तुमं कह ते मरणं कदं तेसिं ॥263॥
आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । (249)
आउं ण हरंति तुहं कह ते मरणं कदं तेहिं ।
जो मण्णदि जीवेमि य जीविज्जामि य परेहिं सत्तेहिं । (250)
सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्ते दु विवरीदो ।
आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू । (251)
आउं च ण देसि तुमं कहं तए जीविदं कदं तेसिं ।
आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू । (252)
आउं च ण दिंति तुहं कहं णु ते जीविदं कदं तेहिं ॥264॥
यो मन्यते हिनस्मि च हिंस्ये च परै: सत्त्वै:
स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीत: ॥२४७॥
आयु:क्षयेण मरणं जीवानां जिनवरै: प्रज्ञप्तम्
आयुर्न हरसि त्वं कथं त्वया मरणं कृतं तेषाम् ॥२४८॥
आयु:क्षयेण मरणं जीवानां जिनवरै: प्रज्ञप्तम्
आयुर्न हरंति तव कथं ते मरणं कृतं तै: ॥२४९॥
यो मन्यते जीवयामि च जीव्ये च परै: सत्त्वै:
स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीत: ॥२५०॥
आयुरुदयेन जीवति जीव एवं भणंति सर्वज्ञा:
आयुश्च न ददासि त्वं कथं त्वया जीवितं कृतं तेषाम् ॥२५१॥
आयुरुदयेन जीवति जीव एवं भणंति सर्वज्ञा: ।
आयुश्च न ददति तव कथं नु ते जीवितं कृतं तै: ॥२५२॥
मैं मारता हूँ अन्य को या मुझे मारें अन्यजन
यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन ॥२४७॥
निज आयुक्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही
तुम मार कैसे सकोगे जब आयु हर सकते नहीं ॥२४८॥
निज आयुक्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही
वे मरण कैसे करें तब जब आयु हर सकते नहीं ॥२४९॥
मैं हूँ बचाता अन्य को मुझको बचावे अन्यजन
यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन ॥२५०॥
सब आयु से जीवित रहें - यह बात जिनवर ने कही
जीवित रखोगे किसतरह जब आयु दे सकते नहीं ॥२५१॥
सब आयु से जीवित रहें यह बात जिनवर ने कही
कैसे बचावें वे तुझे जब आयु दे सकते नहीं ॥२५२॥
अन्वयार्थ : [जो मण्णदि हिंसामि] जो यह मानता है कि मैं (पर जीवों को) मारता हूँ [य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं] और पर जीव मुझे मारते हैं; [सो मूढो अण्णाणी] वह मूढ़ है, अज्ञानी है और [णाणी एत्ते दु विवरीदो] ज्ञानी इससे विपरीत होता है ।
[आउक्खयेण मरणं जीवाणं] आयु (कर्म) के क्षय से जीवों का मरण होता है ऐसा [जिणवरेहिं पण्णत्तं] जिनवरदेव ने कहा है [आउं ण हरेसि तुमं] आयु-कर्म को तो तू नहीं हरता [कह ते मरणं कदं तेसिं] फिर तूने उनका मरण कैसे किया ?
[आउक्खयेण मरणं जीवाणं] आयु (कर्म) के क्षय से जीवों का मरण होता है ऐसा [जिणवरेहिं पण्णत्तं] जिनवरदेव ने कहा है [आउं ण हरंति तुहं] वे तेरी आयु को हरते नहीं [कह ते मरणं कदं तेहिं] फिर उन्होंने तेरा मरण कैसे किया ?
[जो मण्णदि जीवेमि य] जो मानता है कि मैं परजीवों को जिलाता हूँ [जीविज्जामि य परेहिं सत्तेहिं] और परजीव मुझे जिलाते हैं; [सो मूढो अण्णाणी] वह मूढ़ है; अज्ञानी है [णाणी एत्ते दु विवरीदो] और ज्ञानी इससे विपरीत होता है ।
[आऊदयेण जीवदि जीवो] आयु (कर्म) के उदय से जीव जीता है [एवं भणंति सव्वण्हू] ऐसा सर्वज्ञदेव कहते हैं [आउं च ण देसि तुमं] और तू आयु (कर्म) देता नहीं है [कहं तए जीविदं कदं तेसिं] फिर तूने उनका जीवन कैसे किया ?
[आऊदयेण जीवदि जीवो] आयु (कर्म) के उदय से जीव जीता है [एवं भणंति सव्वण्हू] ऐसा सर्वज्ञदेव कहते हैं [आउं च ण दिंति तुहं] तुझे आयु (कर्म) कोई देते नहीं [कहं णु ते जीविदं कदं तेहिं] फिर उन्होंने तेरा जीवन कैसे किया ?

अमृतचंद्राचार्य :
मैं पर-जीवों को मारता हूँ और पर-जीव मुझे मारते हैं - ऐसा अध्यवसाय (मिथ्या अभिप्राय) नियम से अज्ञान है । वह अध्यवसाय जिसके है, वह अज्ञानीपने के कारण मिथ्यादृष्टि है और वह अध्यवसाय जिसके नहीं है, वह ज्ञानीपने के कारण सम्यग्दृष्टि है । वस्तुत: जीवों का मरण तो अपने आयुकर्म के क्षय से ही होता है; क्योंकि अपने आयु-कर्म के क्षय के अभाव में मरण होना अशक्य है तथा किसी के द्वारा किसी के आयु-कर्म का हरण अशक्य है; क्योंकि वह आयु-कर्म अपने उपभोग से ही क्षय होता है । इसप्रकार कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति का मरण किसी भी प्रकार से नहीं कर सकता है । इसलिए मैं पर-जीवों को मारता हूँ और परजीव मुझे मारते हैं - ऐसा अध्यवसाय ध्रुवरूप से अज्ञान है ।

इसीप्रकार परजीवों को मैं जिलाता हूँ और पर-जीव मुझे जिलाते हैं - इसप्रकार का अध्यवसाय भी ध्रुव-रूप से अज्ञान है । यह अध्यवसाय जिसके है, वह जीव अज्ञानीपने के कारण मिथ्यादृष्टि है और जिसके यह अध्यवसाय नहीं है, वह ज्ञानीपने के कारण सम्यग्दृष्टि है । जीवों का जीवन अपने आयु-कर्म के उदय से ही है; क्योंकि अपने आयु-कर्म के उदय के अभाव में जीवित रहना अशक्य है । अपना आयु-कर्म कोई किसी को दे नहीं सकता; क्योंकि वह स्वयं के परिणाम से ही उपार्जित होता है; इसकारण कोई किसी भी प्रकार से किसी का जीवन नहीं कर सकता है । इसलिए मैं पर को जिलाता हूँ और पर मुझे जिलाते हैं - इसप्रकार का अध्यवसाय ध्रुवरूप से अज्ञान है ।

जयसेनाचार्य :
[जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं सो मूढो अण्णाणी] जो कोई ऐसा मानता है कि मैं पर जीवों को मारता हूँ तथा पर जीवों के द्वारा मैं मारा जा रहा हूँ, तो उनका यह भाव-विचार नियम से अज्ञान-भाव है, जो कि बंध का कारण है । इस प्रकार जिस किसी के भी यह विचार / भाव होता है वही अज्ञानी / मूर्ख होता है । [णाणी एत्ते दु विवरीदो] किन्तु जो इससे उल्टे विचार वाला है जो कि जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, शत्रु-मित्र तथा निन्दा और प्रशंसा आदि विकल्पों में राग-द्वेष नहीं करता हुआ शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न हुआ जो परमानन्द सुख उसका आस्वादन करना ही है स्वरूप जिसका, ऐसे भेद-ज्ञान में तल्लीन होता है अर्थात उपर्युक्त सम-भाव से तन्मय होता है वह ही ज्ञानी जीव होता है ॥२६२॥

अध्यवसान, अज्ञान कैसे हैं ? इसे दिखाते हैं --

[आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू] प्रत्येक जीव अपनी आयु के उदय से जीवित है । इस प्रकार सर्वज्ञ भगवान् कहते हैं तू [आउं च ण दिंति तुहं कहं णु ते जीविदं कदं तेसिं] आयु-कर्म तो उन्हें देता नहीं है क्योंकि उनकी आयु तो उनके शुभ तथा अशुभ परिणामों के अनुसार उपजी है तो फिर तूने उन्हें कैसे जीवित कर दिया । अर्थात किसी भी प्रकार जीवित नहीं किया । इसलिये हो सके जहाँ तक इन सब विकल्पों को छोड़कर ज्ञानी जीव को स्व-संवेदन ही है लक्षण जिसका ऐसी त्रिगुप्ति रूप समाधि में लगा रहना चाहिये और जब इसका अभाव हो जाये अर्थात उसका उपयोग उस समाधि से हट जावे तो उस असमर्थ अवस्था में प्रमाद के कारण से 'मैं इस जीव को मार रहा हूँ या जिला रहा हूँ' ऐसा विकल्प आवे तो मन में ऐसा विचारना चाहिए कि इसके ऐसा होने में प्रधान कारण इसके शुभ तथा अशुभ कर्म का उदय है, मैं तो केवल निमित्त-मात्र हूँ, ऐसा विचार कर अपने मन में राग और द्वेष रूप अहंकार नहीं करना चाहिए इसका यही तात्पर्य है ॥२६४॥

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+ सुख और दु:ख भी निश्चय से अपने ही कर्मों के उदय से होते हैं -
जोअप्पणा दु मण्णदि दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्तेत्ति । (253)
सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्ते दु विवरीदो ॥265॥
कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे । (254)
कम्मं च ण देसि तुमं दुक्खिदसुहिदा कह कया ते ॥266॥
कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे । (255)
कम्मं च ण दिंति तुहं कदोसि कहं दुक्खिदो तेहिं ॥267॥
कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे । (256)
कम्मं च ण दिंति तुहं कह तं सुहिदो कदो तेहिं ॥268॥
य आत्मना तु मन्यते दु:खितसुखितान् करोमि सत्त्वानिति
स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीत: ॥२५३॥
कर्मोदयेन जीवा दु:खितसुखिता भवंति यदि सर्वे
कर्म च न ददासि त्वं दु:खितसुखिता: कथं कृतास्ते ॥२५४॥
कर्मोदयेन जीवा दु:खितसुखिता भवंति यदि सर्वे
कर्म च न ददति तव कृतोऽसि कथं दु:खितस्तै: ॥२५५॥
कर्मोदयेन जीवा दु:खितसुखिता भवंति यदि सर्वे
कर्म च न ददति तव कथं त्वं सुखित: कृतस्तै: ॥२५६॥
मैं सुखी करता दु:खी करता हूँ जगत में अन्य को ।
यह मान्यता अज्ञान है क्यों ज्ञानियों को मान्य हो ?॥२५३॥
हैं सुखी होते दु:खी होते कर्म से सब जीव जब ।
तू कर्म दे सकता न जब सुख-दु:ख दे किस भाँति तब ॥२५४॥
हैं सुखी होते दु:खी होते कर्म से सब जीव जब ।
दुष्कर्म दे सकते न जब दु:ख-दर्द दें किस भाँति तब ॥२५५॥
हैं सुखी होते दु:खी होते कर्म से सब जीव जब ।
सत्कर्म दे सकते न जब सुख-शांति दें किस भाँति तब ॥२५६॥
अन्वयार्थ : [जो अप्पणा दु मण्णदि] जो मानता है कि मैं स्वयं [दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्तेत्ति] परजीवों को सुखी-दु:खी करता हूँ [सो मूढो अण्णाणी] वह मूढ़ है, अज्ञानी है और [णाणी एत्ते दु विवरीदो] ज्ञानी इससे विपरीत होता है ।
[जदि सव्वे] यदि सभी [कम्मोदएण] कर्म के उदय से [जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति] सुखी-दु:खी होते हैं [कम्मं च ण देसि तुमं] तू उन्हें कर्म तो देता नहीं है [दुक्खिदसुहिदा कह कया ते] तो तूने उन्हें सुखी-दु:खी कैसे किया ?
[जदि सव्वे] यदि सभी [कम्मोदएण] कर्म के उदय से [जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति] सुखी-दु:खी होते हैं [कम्मं च ण दिंति तुहं] वे तुझे कर्म तो देते नहीं हैं [कदोसि कहं दुक्खिदो तेहिं] तो फिर उन्होंने तुझे दु:खी कैसे किया ?
[जदि सव्वे] यदि सभी [कम्मोदएण] कर्म के उदय से [जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति] सुखी-दु:खी होते हैं [कम्मं च ण दिंति तुहं] वे तुझे कर्म तो देते नहीं हैं [कह तं सुहिदो कदो तेहिं] तो फिर उन्होंने तुझे सुखी कैसे किया ?

अमृतचंद्राचार्य :
अब यह कहते हैं कि दुःख-सुख करने के अध्यवसाय की भी यही गति है -

पर-जीवों को मैं दु:खी तथा सुखी करता हूँ और पर-जीव मुझे दु:खी तथा सुखी करते हैं - इसप्रकार का अध्यवसाय नियम से अज्ञान है । वह अध्यवसाय जिसके है, वह जीव अज्ञानीपने के कारण मिथ्यादृष्टि है और जिसके वह अध्यवसाय नहीं है, वह जीव ज्ञानीपने के कारण सम्यग्दृष्टि है ।

जीवों के सुख-दु:ख वस्तुत: तो अपने कर्मोदय से ही होते हैं; क्योंकि स्वयं के कर्मोदय के अभाव में सुख-दु:ख का होना अशक्य है तथा अपना कर्म किसी का किसी को दिया नहीं जा सकता; क्योंकि वह अपने परिणाम से ही उपार्जित होता है । इसलिए किसी भी प्रकार से कोई किसी को सुखी-दु:खी नहीं कर सकता । इसलिए यह अध्यवसाय ध्रुवरूप से अज्ञान है कि मैं पर-जीवों को सुखी-दु:खी करता हूँ और परजीव मुझे सुखी-दु:खी करते हैं ।

(कलश--हरिगीत)
जीवन-मरण अर दुक्ख-सुख सब प्राणियों के सदा ही ।
अपने करम के उदय के अनुसार ही हों नियम से ॥
करे कोई किसी के जीवन-मरण अर दुक्ख-सुख ।
विविध भूलों से भरी यह मान्यता अज्ञान है ॥१६८॥

[इह] इस जगत में [मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम्] जीवों के मरण, जीवित, दुःख, सुख [सर्वं सदैव नियतं स्वकीय-कर्मोदयात् भवति] सब सदैव नियम से (निश्चितरूप से) अपने कर्मोदय से होता है; [परः पुमान् परस्य मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम्कुर्यात्] 'दूसरा पुरुष दूसरे के मरण, जीवन, दुःख, सुख को करता है' [यत् तु] ऐसा जो मानना, [एतत् अज्ञानम्] वह तो अज्ञान है ।

(कलश--हरिगीत)
करे कोई किसी के जीवन-मरण अर दुक्ख-सुख ।
मानते हैं जो पुरुष अज्ञानमय इस बात को ॥
कर्तृत्व रस से लबालब हैं अहंकारी वे पुरुष ।
भव-भव भ्रमें मिथ्यामती अर आत्मघाती वे पुरुष ॥१६९॥

[एतत् अज्ञानम् अधिगम्य] इस (पूर्व-कथित मान्यतारूप) अज्ञान को प्राप्त करके [ये परात् परस्य मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् पश्यन्ति] जो पुरुष पर से पर के मरण, जीवन, दुःख, सुख को देखते (मानते) हैं, [ते] वे [अहंकृतिरसेन कर्माणिचिकीर्षवः] जो कि इसप्रकार अहंकार-रस से कर्मों को करने के इच्छुक हैं वे [नियतम्] नियम से [मिथ्यादृशः आत्महनः भवन्ति] मिथ्यादृष्टि हैं,अपने आत्मा का घात करनेवाले हैं ।

जयसेनाचार्य :
[जो अप्पणा दु मण्णदि दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्तेत्ति] जो कोई अपने मन में ऐसा मानता है कि मैं इन जीवों को दुखी या सुखी करता हूँ या कर सकता हूँ [सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्ते दु विवरीदो] यह उपर्युक्त अहंकार रूप परिणाम नियम से अज्ञान भाव है जो कि बंध का कारण है और यह भाव जिसके है वह अज्ञानी, बहिरात्मा है । ज्ञानी जीव तो इससे विपरीत विचारवाला है वह परम उपेक्षा-रूप, सर्वथा निर्वृत्ति-रूप जो संयम-भाव उसकी भावना में परिणत हो रहने वाला अभेद-रत्नत्रय ही है लक्षण जिसका ऐसे भेदज्ञान में स्थित होता है ॥२६५॥

अस्तु, 'मैं पर को सुख या दुःख दे सकता हूँ' -- इस प्रकार के परिणाम करने वाला अज्ञानी कैसे है ? सो कहते हैं --

[कम्मणिमितं सव्वे दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सत्ता] यदि अपने-अपने कर्मोदय को निमित्त लेकर ही सब जीव सुखी और दु:खी होते हैं । [कम्मं च ण देसि तुमं दुक्खिदसुहिदा कह कया ते] अत: जबकि कर्म तो तुम देते नहीं हो फिर तुमने उन्हें दु:खी और सुखी कर दिया यह कैसे कहा जावे ? नहीं कहा जा सकता है । [कम्मणिमितं सव्वे दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सत्ता] और जबकी कर्मोंदय को निमित्त लेकर ही सब संसारी जीव दु:खी और सुखी होते हैं । [कम्मं च ण दिंति तुहं कदोसि कहं दुक्खिदो तेहिं] और इन संसारी जीवों ने जब वह कर्म तुझे दिया नहीं फिर उन्होंने तुझे सुखी बना दिया यह कैसे बन सकता है ? [कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंति जदि सव्वे] कर्म के उदय से ही सब जीव सुखी और दु:खी होते हैं । [कम्मं च ण दिंति तुहं कह तं सुहिदो कदो तेहिं] एवं जबकि कर्म उन्होंने तुझे दिया ही नहीं उन्होंने फिर हमें दु:खी बना दिया यह भी कैसे हो सकता है ? अर्थात कभी नहीं हो सकता । इस प्रकार सोच समझकर तत्वज्ञानी जीव 'मैं दूसरों को सुख-दुख दे सकता हूँ अथवा वे मुझे सुख-दुख दे सकते हैं' ऐसा विकल्प ही नहीं करता । जबकी प्रमाद से, उस समाधि के टूट जाने पर मैं किसी को सुखी या दु:खी करता हूँ इत्यादि विकल्प आता है तब वह मन में ऐसा विचारता है कि इस जीव के ऐसा ही अंतरंग पुण्य या पाप का उदय हो आया है, उसी से ऐसा हुआ है, मैं तो केवल निमित्त मात्र हूँ । इस प्रकार विचार कर मन में हर्ष-विषादमय परिणामों के द्वारा किसी प्रकार का अहंकार नहीं करता ॥२६६-२६८॥

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+ दूसरे को जिला, मार, सुखी कर सकना ऐसी मान्यता बहिरात्मपना -
जो मरदि जो य दुहिदो जायदि कम्मोदएण सो सव्वो । (257)
तम्हा दु मारिदो दे दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा ॥269॥
जो ण मरदि ण य दुहिदो सो वि य कम्मोदएण चेव खलु । (258)
तम्हा ण मारिदो णो दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा ॥270॥
यो म्रियते यश्च दु:खितो जायते कर्मोदयेन स सर्व: ।
तस्मात्तु मारितस्ते दु:खितश्चेति न खलु मिथ्या ॥२५७॥
यो न म्रियते न च दु:खित: सोऽपि च कर्मोदयेन चैवखलु ।
तस्मान्न मारितो नो दु:खितश्चेति न खलु मिथ्या ॥२५८॥
जो मरे या जो दु:खी हों वे सब करम के उदय से
'मैं दु:खी करता-मारता' - यह बात क्यों मिथ्या न हो ? ॥२५७॥
जो ना मरे या दु:खी ना हो सब करम के उदय से
'ना दु:खी करता मारता' - यह बात क्यों मिथ्या न हो ॥२५८॥
अन्वयार्थ : [जो मरदि जो य दुहिदो] जो मरता है और जो दु:खी होता है, [जायदि कम्मोदएण सो सव्वो] वह सब कर्मोदय से होता है [तम्हा दु मारिदो दे दुहाविदो चेदि] इसलिए 'मैंने मारा, मैंने दु:खी किया' आदि ऐसा [ण हु मिच्छा] वास्तव में मिथ्या नहीं है ?
[जो ण मरदि ण य दुहिदो] जो मरता नहीं है और दु:खी नहीं होता है, [सो वि य कम्मोदएण चेव खलु] वह सब भी कर्मोदयानुसार ही होता है; [तम्हा ण मारिदो णो दुहाविदो चेदि] इसलिए 'मैंने नहीं मारा, मैंने दु:खी नहीं किया' आदि ऐसा [ण हु मिच्छा] वास्तव में मिथ्या नहीं है ?

अमृतचंद्राचार्य :
जो मरता है या जीता है, दु:खी होता है या सुखी होता है; वह वस्तुत: अपने कर्मोदय से ही होता है; क्योंकि अपने कर्मोदय के अभाव में उसका वैसा होना (मरना, जीना, दु:खी या सुखी होना) अशक्य है । इसकारण मैंने इसे मारा, इसे जिलाया या बचाया, इसे दु:खी किया, इसे सुखी किया - ऐसा माननेवाला मिथ्यादृष्टि है ।

(कलश--दोहा)
विविध कर्म बंधन करें, जो मिथ्याध्यवसाय ।
मिथ्यामति निशदिन करें, वे मिथ्याध्यवसाय ॥१७०॥

[अस्य मिथ्यादृष्टेः] मिथ्यादृष्टि के [यः एव अयम् अज्ञानात्मा अध्यवसायः दृश्यते] जो यह अज्ञानस्वरूप अध्यवसाय दिखाई देता है [सः एव] वह अध्यवसाय ही, [विपर्ययात्] विपर्ययस्वरूप (मिथ्या) होने से, [अस्य बन्धहेतुः] उस (मिथ्यादृष्टि) के बन्ध का कारण है ।

जयसेनाचार्य :
[जो मरदि जो य दुहिदो जायदि कम्मोदएण सो सव्वो] जो कोई मरता है अथवा दुखी होता है वह सब अपने कर्म के उदय से ही होता है अत: [तम्हा दु मारिदो दे दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा] इसलिये मैंने अमुक को मार दिया या अमुक को दुखी कर दिया यह तेरा विचार है, सो हे आत्मन् ! क्या झूँठा नहीं है ? अपितु झूँठा ही है । तथा [जो ण मरदि ण य दुहिदो सोवि य कम्मोदएण खलु जीवो] जो नहीं मरता है या दुखी नहीं होता है वह भी अपने कर्मोदय के द्वारा ही होता है ऐसा स्पष्ट है । [तम्हा ण मारिदो णो दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा] इसलिये मैंने उसे नहीं मरने दिया अथवा मैंने उसे दुखी नहीं होने दिया इस प्रकार का विचार हे आत्मन् ! क्या झूँठा नहीं है ? अपितु यह झूँठा ही है प्रत्युत इस अपध्यान के द्वारा तू अपने स्वस्थ-भाव से च्युत होकर कर्म-बन्ध ही करेगा -- यही इसका तात्पर्य है ॥२६९-२७०॥

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+ पूर्व के दो सूत्र में कहा हुआ मिथ्याज्ञानरूपी भाव मिथ्यादृष्टि के बंध का कारण होता है -
एसा दु जा मदी दे दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्तेत्ति । (259)
एसा दे मूढमदी सुहासुहं बंधदे कम्मं ॥271॥
दुक्खिदसुहिदे सत्ते करेमि जं एवमज्झवसिदं ते । (260)
तं पावबंधगं वा पुण्णस्स व बंधगं होदि ॥272॥
मारिमि जीवावेमि य सत्ते जं एवमज्झवसिदं ते । (261)
तं पावबंधगं वा पुण्णस्स व बंधगं होदि ॥273॥
एषा तु या मतिस्ते दु:खितसुखितान् करोमि सत्त्वानिति
एषा ते मूढ ति: शुभाशुभं बध्नाति कर्म ॥२५९॥
दु:खितसुखितान् सत्त्वान् करोमि यदेवमध्यवसितं ते
तत्पापबंधकं वा पुण्यस्य वा बंधकं भवति ॥२६०॥
मारयामि जीवयामि वा सत्त्वान् यदेवमध्यवसितं ते
तत्पापबंधकं वा पुण्यस्य वा बंधकं भवति ॥२६१॥
मैं सुखी करता दु:खी करता हूँ जगत में अन्य को
यह मान्यता ही मूढ़मति शुभ-अशुभ का बंधन करे ॥२५९॥
'मैं सुखी करता दु:खी करता' यही अध्यवसान सब
पुण्य एवं पाप के बंधक कहे हैं सूत्र में ॥२६०॥
'मैं मारता मैं बचाता हूँ' यही अध्यवसान सब
पाप एवं पुण्य के बंधक कहे हैं सूत्र में ॥२६१॥
अन्वयार्थ : [एसा दु जा मदी दे] यह जो तेरी बुद्धि है कि [दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्तेत्ति] जीवों को सुखी-दु:खी करता हूँ [एसा दे मूढमदी] तेरी यही मूढ़बुद्धि [सुहासुहं बंधदे कम्मं] शुभाशुभ-कर्म को बाँधती है ।
[दुक्खिदसुहिदे सत्ते करेमि] मैं जीवों को दुखी-सुखी करता हूँ - [जं एवमज्झवसिदं ते] ऐसा जो तेरा अध्यवसान [तं पावबंधगं वा] वही पाप-बंध [पुण्णस्स व बंधगं] अथवा पुण्य का बंधक [होदि] होता है ।
[मारिमि जीवावेमि य सत्ते] मैं जीवों को मारता हूँ और जिलाता हूँ - [जं एवमज्झवसिदं ते] ऐसा जो तेरा अध्यवसान [तं पावबंधगं वा] वही पाप-बंध [पुण्णस्स व बंधगं] अथवा पुण्य का बंधक [होदि] होता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
मिथ्यादृष्टि जीव के मैं परजीवों को मारता हूँ, नहीं मारता हूँ, दु:खी करता हूँ, सुखी करता हूँ आदि रूप जो अज्ञानमय अध्यवसाय हैं; वे अध्यवसाय ही रागादिरूप होने से मिथ्यादृष्टि जीव को शुभाशुभ-बंध के कारण हैं ।

अब अध्यवसाय (अध्यवसान) भाव बंध के हेतु हैं - यह सुनिश्चित करते हैं । मिथ्यादृष्टि जीव के अज्ञान से उत्पन्न होनेवाले रागादिभाव-रूप अध्यवसाय ही बंध के कारण हैं - यह बात भली-भाँति निश्चित करना चाहिए; इसमें पुण्य-पाप का भेद नहीं खोजना चाहिए । तात्पर्य यह है कि पुण्यबंध का कारण कुछ और है और पाप-बंध का कारण कुछ और है - ऐसा भेद करने की कोई आवश्यकता नहीं है; क्योंकि इस एक ही अध्यवसाय के दु:खी करता हूँ, मारता हूँ और सुखी करता हूँ, जिलाता हूँ - इसप्रकार दो प्रकार से शुभ-अशुभ अहंकार-रस से परिपूर्णता के द्वारा पुण्य और पाप दोनों के बंध के कारण होने में अविरोध है । तात्पर्य यह है कि इस एक अध्यवसाय से ही पाप और पुण्य दोनों के बंध होने में कोई विरोध नहीं है ।

इसप्रकार वास्तव में हिंसा का अध्यवसाय ही हिंसा है - यह फलित हो गया ।

जयसेनाचार्य :
[एसा दु जा मदी दे दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्तेत्ति] हे आत्मन् ! 'मैं इन जीवों को सुखी या दुखी करता हूँ या कर सकता हूँ' इस प्रकार की बुद्धि, [एसा दे मूढमदी सुहासुहं बंधदे कम्मं] यह तेरी मूढ़-बुद्धि है जो कि तुझे स्वस्थ-भाव से दूर रखकर तेरे शुभाशुभ कर्मों का बन्ध करने वाली है और इसका कुछ भी कार्य नहीं है ॥२७१॥

यह राग-द्वेष-रूप-अध्यवसान-भाव ही बन्ध करने वाला है ऐसा आगे बतलाते हैं-

मैं इन दृश्यमान जीवों को दुखी या सुखी करता हूँ या कर सकता हूँ', इस प्रकार जो अध्यवसित अर्थात् रागादिरूप विकार-भाव तेरे होता है वही उस समय शुद्धात्मा की भावना से गिरा हुआ होने के कारण तेरे पाप या पुण्य के बंध का कारण बनता है । वहीं तुझे दु:ख देता है इसके सिवाय और कोई भी तुझे दु:खादि देने के लिए नहीं आता, क्योंकि जीव के जो सुख या दुख-रूप परिणाम होता है वह अपने से ही उत्पन्न किये हुये शुभाशुभ-रूप कर्मों के आधीन होता है । तथा 'मैं पर जीवों को मार रहा हूँ, मार सकता हूँ, एवं जिला रहा हूँ या जिला सकता हूँ', ऐसा जो तेरा अध्यवसान है वह शुद्धात्मा के श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान से रहित होने वाले तुझको केवल पाप व पुण्य के बंध का करने वाला है और तेरे इस विचार से और कुछ भी होना जाना नहीं है क्योंकि पर जीव का मरना और जीना आदि तो उसी के उपार्जित किये हुए कर्म के आधीन होता है ॥२७२-२७३॥

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+ अध्यवसान से ही बंध प्राणियों को मारने अथवा न मारने से नहीं -
अज्झवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा व मारेउ । (262)
एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स ॥274॥
अध्यवसितेन बंध: सत्त्वान् मारयतु मा वा मारयतु
एष बंधसमासो जीवानां निश्चयनयस्य ॥२६२॥
मारो न मारो जीव को हो बंध अध्यवसान से
यह बंध का संक्षेप है तुम जान लो परमार्थ से ॥२६२॥
अन्वयार्थ : [अज्झवसिदेण बंधो] अध्यवसान से (कर्म) बंध होता है [सत्ते मारेउ मा व मारेउ] जीवों को मारो अथवा न मारो [जीवाणं णिच्छयणयस्स] निश्चय से जीवों के [एसो बंधसमासो] यह बंध का संक्षेप है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अपने कर्मों की विचित्रता के वश से पर-जीवों के प्राणों का व्यपरोपण (उच्छेद-वियोग) कदाचित् हो, कदाचित् न भी हो; तो भी 'मैं मारता हूँ' - ऐसा अहंकार-रस से भरा हुआ हिंसा का अध्यवसाय ही निश्चय से उसके बंध का कारण है; क्योंकि निश्चय से पर के प्राणों का व्यपरोपणरूप परभाव किसी अन्य के द्वारा किया जाना शक्य नहीं है ।

जयसेनाचार्य :
[अज्झवसिदेण बंधो सत्ते मारेहिं मा व मारेहिं] किसी जीव को मारो या न मारो परन्तु जहाँ किसी को मारने का विकल्प हुआ कि उस विकल्प परिणाम से हिंसा होकर कर्मों का बंध होता ही है । [एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स] जीवों के लिए निश्चय-नय से यही प्रत्यक्ष बंध-तत्त्व का संक्षेप है और इससे विपरीत उपाधि रहित चिदानन्द-मयी एक लक्षण को रखने वाली विकल्प रहित समाधि से मोक्ष होता है । यह मोक्ष तत्व का संक्षेप कथन है ।

इसी प्रकार मैं दूसरे जीवों को जीवन-दान देना, मार डालना एवं सुख-दुख देना आदि कर सकता हूँ यह सब अध्यवसान है, विचार है वही बंध का कारण है किसी के प्राणों का अपहरण करने रूप आदि चेष्ठा हो, भले ही मत हो, ऐसा जानकर रागादि दुर्भाव-रूप अपध्यान का त्याग करना चाहिये ॥२७४॥

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+ अध्यवसाय ही पाप-पुण्य के बन्ध का कारण हैं, ऐसा दिखाते हैं -
एवमलिए अदत्ते अबंभचेरे परिग्गहे चेव । (263)
कीरदि अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झदे पावं ॥275॥
तह वि य सच्चे दत्ते बंभे अपरिग्गहत्तणे चेव । (264)
कीरदि अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झदे पुण्णं ॥276॥
एवमलीकेऽदत्तेऽब्रह्मचर्ये परिग्रहे चैव s
क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पापम् ॥२६३॥
तथापि च सत्ये दत्ते ब्रह्मणि अपरिग्रहत्वे चैव
क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पुण्यम् ॥२६४॥
इस ही तरह चोरी असत्य कुशील एवं ग्रंथ में
जो हुए अध्यवसान हों वे पाप का बंधन करें ॥२६३॥
इस ही तरह अचौर्य सत्य सुशील और अग्रंथ में
जो हुए अध्यवसान हों वे पुण्य का बंधन करें ॥२६४॥
अन्वयार्थ : [एवमलिए] इसप्रकार असत्य, [अदत्ते] चोरी, [अबंभचेरे] अब्रह्मचर्य [परिग्गहे चेव] और परिग्रह में भी [जं] यदि [कीरदि अज्झवसाणं] अध्यवसान किया जाता है [तेण दु बज्झदे पावं] उनसे ही पाप का बंध होता है [तह वि य] और उसी प्रकार [सच्चे] सत्य, [दत्ते] अचौर्य, [बंभे] ब्रह्मचर्य [अपरिग्गहत्तणे चेव] और अपरिग्रह में भी [जं] यदि [कीरदि अज्झवसाणं] अध्यवसान किया जाता है [तेण दु बज्झदे पुण्णं] उनसे ही पुण्य का बंध होता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिसप्रकार अज्ञान से हिंसा के संदर्भ में अध्यवसाय किया जाता है; उसीप्रकार असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह के संदर्भ में भी जो अध्यवसाय किये जाते हैं; वे सब पापबंध के एकमात्र कारण हैं और जिसप्रकार अज्ञान से अहिंसा के संदर्भ में अध्यवसाय किया जाता है; उसीप्रकार सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के संदर्भ में अध्यवसान किया जाता है; वह सब पुण्यबंध का एकमात्र कारण है ।


जयसेनाचार्य :
अब इसके आगे परिणामों की मुख्यता से इन्हीं दो गाथाओं का तेरह गाथाओं से विशेष वर्णन करते हैं । उसमें पहले यह बताते हैं कि बाह्य वस्तु तो रागादि परिणामों के लिए कारण होती है तथा रागादिकरूप परिणाम बंध का कारण होते हैं --

जिस प्रकार हिंसा के विषय में किया हुआ विचार पाप-बंध का कारण होता है । उसी प्रकार झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के विषय में किया हुआ विचार भी पाप-बंध का कारण होता है जिस प्रकार अहिंसा के विषय में किया हुआ विचार पुण्य-बंध करने वाला है वैसे ही सत्य बोलने, चोरी न करने, ब्रह्मचर्य पालने और अपरिग्रह के विषय का विचार भी पुण्य के बंध का करने वाला है ॥२७५-२७६॥

इस प्रकार अव्रत पाप-बंध करने वाला है व व्रत पुण्य-बंध करने वाला है -- ऐसा कथन करने वाली दो गाथाएं पूर्ण हुईं ।

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+ रागादिक-रूप परिणाम बंध का कारण होते हैं, बाह्य वस्तु नहीं -
वत्थुं पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होदि जीवाणं । (265)
ण य वत्थुदो दु बंधो अज्झवसाणेण बंधोत्थि ॥277॥
वस्तु प्रतीत्य यत्पुनरध्यवसानं तु भवति जीवानाम्
न च वस्तुतस्तु बन्धोऽध्यवसानेन बन्धोऽस्ति ॥२६५॥
ये भाव अध्यवसान होते वस्तु के अवलम्ब से
पर वस्तु से ना बंध हो हो बंध अध्यवसान से ॥२६५॥
अन्वयार्थ : [पुण] और [जं अज्झवसाणं] जो अध्यवसान [वत्थुं पडुच्च] वस्तु के अवलम्बन-पूर्वक [तु होदि जीवाणं] ही जीवों के होते हैं [ण य वत्थुदो दु बंधो] तथापि वस्तु से बंध नहीं होता, [अज्झवसाणेण बंधोत्थि] अध्यवसान से ही बंध होता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अध्यवसान ही बंध का कारण है, बाह्यवस्तु नहीं; क्योंकि बंध के कारणभूत अध्यवसानों से ही बाह्य-वस्तु की चलितार्थता है । तात्पर्य यह है कि बंध के कारणभूत अध्यवसान का कारण होने में ही बाह्यवस्तु का कार्यक्षेत्र पूरा हो जाता है, वह वस्तु बंध का कारण नहीं होती ।

प्रश्न – यदि बाह्यवस्तु बंध का कारण नहीं है तो बाह्यवस्तु के त्याग का उपदेश किसलिए दिया जाता है ?

उत्तर – अध्यवसान के निषेध के लिए बाह्य-वस्तु का निषेध किया जाता है । बाह्य-वस्तु अध्यवसान की आश्रय-भूत है; क्योंकि बाह्य-वस्तु के आश्रय के बिना अध्यवसान उत्पन्न नहीं होता, अपने स्वरूप को प्राप्त नहीं होता । यदि बाह्य-वस्तु के आश्रय बिना ही अध्यवसान उत्पन्न हों तो जिसप्रकार वीरजननी के पुत्र के सद्भाव में ही किसी को ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न होता है कि 'मैं वीर-जननी के पुत्र को मारता हूँ'; उसीप्रकार आश्रयभूत बंध्यापुत्र के असद्भाव में भी किसी को ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न होना चाहिए कि मैं बंध्यापुत्र को मारता हूँ; परन्तु ऐसा अध्यवसाय तो किसी को उत्पन्न होता नहीं है । इसलिए यह नियम है कि बाह्य-वस्तुरूप आश्रय के बिना अध्यवसान नहीं होता ।

इसकारण ही अध्यवसान की आश्रयभूत बाह्य-वस्तु के त्याग का उपदेश दिया जाता है; क्योंकि कारण के प्रतिषेध से ही कार्य का प्रतिषेध होता है ।

यद्यपि बाह्यवस्तु बंध के कारण का कारण है, तथापि वह बंध का कारण नहीं है; क्योंकि ईर्या-समिति पूर्वक गमन करते हुए मुनिराज के पैरों के नीचे काल-प्रेरित उड़ते हुए तेजी से आ पड़नेवाले कीटाणु की भाँति बंध के कारण की कारणरूप बाह्य-वस्तु को बंध का कारण मानने में अनेकान्तिक हेत्वाभास होता है, व्यभिचार नामक दोष आता है । इसप्रकार निश्चय से बाह्यवस्तु को बंध का हेतुत्व निर्बाधतया सिद्ध नहीं होता ।

इसलिए अतद्भावरूप बाह्यवस्तु बंध का कारण नहीं है, अपितु तद्भावरूप अध्यवसाय-भाव ही बंध के कारण हैं ।

जयसेनाचार्य :
अब इसके आगे परिणामों की मुख्यता से इन्हीं दो गाथाओं का तेरह गाथाओं से विशेष वर्णन करते हैं है उसमें पहले यह बताते हैं कि बाह्य वस्तु तो रागादि परिणामों के लिए कारण होती है तथा रागादिक-रूप परिणाम बंध का कारण होते हैं --

[वत्थुं पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होदि जीवाणं] जीवों के रागादिरूप से प्रसिद्ध होने वाला विकारी भाव इन पंचेन्द्रियों के विषय-भूत चेतन और अचेतनात्मक बाह्य वस्तुओं के आश्रय से होता है । [ण य वत्थुदो दु बंधो] फिर भी वह वस्तु बंध का कारण नहीं होती । फिर बंध का कारण क्या है ? कि [अज्झवसाणेण बंधोत्थि] बंध तो श्री वीतराग परमात्म-तत्त्व से भिन्नता रखने वाला रागादि-रूप अध्यवसान-भाव / विकारी परिणाम से होता है ।

वस्तु से बंध क्यों नहीं होता है ? ऐसा कहो तो उसका समाधान यह है कि वस्तु के साथ में बंध का अन्वय-व्यतिरेक पूरी प्रकार नहीं बैठता, उसमें व्यभिचार आता है । क्योंकि जहाँ बाह्य वस्तु हो वहाँ बंध भी अवश्य हो इस प्रकार तो अन्वय और जहाँ बाह्य वस्तु न रहे वहाँ बंध भी न होवे इस प्रकार का व्यतिरेक भी नहीं पाया जाता ।

इस पर शंका होती है कि फिर बाह्य वस्तु के त्याग की आवश्यकता ही क्या रह जाती है ? तो इसका उत्तर यह है कि रागादिरूप-अध्यवसान-भाव को न होते देने के लिए बाह्य वस्तु के त्याग की आवश्यकता है क्योंकि पंचेंद्रियों की विषय-भूत बाह्य वस्तु के होने पर ही अज्ञान भाव के कारण रागादि-रूप अध्यवसान भाव होते हैं जिस अध्यवसान भाव से नूतन कर्म-बंध होता है । इस प्रकार परम्परा से बाह्य वस्तु भी कर्म-बंध का कारण होती है किन्तु साक्षात् बाह्य वस्तु ही बंध का कारण होती हो ऐसा नहीं है, अपितु ऐसा साक्षात सम्बन्ध तो अध्यवसान के ही साथ में है इसलिये निश्चय से बंध का कारण अध्यवसान भाव को ही माना जाता है ॥२७७॥

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+ 'मैं जीवों को सुखी-दुखी, बांधता-मुक्त करता हूँ', यह मानना मूढ़ता है -
दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि । (266)
जा एसा मूढमदी णिरत्थया सा हु दे मिच्छा ॥278॥
अज्झवसाणणिमित्तं जीवा बज्झंति कम्मणा जदि हि । (267)
मुच्चंति मोक्खमग्गे ठिदा य ता किं करेसि तुमं ॥279॥
दु:खितसुखितान् जीवान् करोमि बन्धयामि तथा विमोचयामि ।
या एषा मूढति: निरर्थिका सा खलु ते मिथ्या ॥२६६॥
अध्यवसाननिमित्तं जीवा बध्यंते कर्मणा यदि हि ।
मुच्यंते मोक्षमार्गे स्थिताश्च तत् किं करोषि त्वम् ॥२६७॥
मैं सुखी करता दु:खी करता बाँधता या छोड़ता
यह मान्यता हे मूढ़मति मिथ्या निरर्थक जानना ॥२६६॥
जिय बँधे अध्यवसान से शिवपथ-गमन से छूटते
गहराई से सोचो जरा पर में तुम्हारा क्या चले ? ॥२६७॥
अन्वयार्थ : [दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि] मैं जीवों को दु:खी-सुखी करता हूँ, [बंधेमि तह विमोचेमि] बँधाता हूँ, छुड़ाता हूँ - [जा एसा मूढमदी] ऐसी जो मूढ़मति [णिरत्थया सा हु दे मिच्छा] वह निरर्थक होने से वास्तव में मिथ्या है ।
[जदि हि] यदि वास्तव में [अज्झवसाणणिमित्तं] अध्यवसान के निमित्त से [जीवा बज्झंति कम्मणा] जीव कर्म से बंधते हैं [मोक्खमग्गे ठिदा य] और मोक्षमार्ग में स्थित जीव [मुच्चंति] मुक्ति को प्राप्त करते हैं [ता किं करेसि तुमं] तो तू क्या करता है ?

अमृतचंद्राचार्य :
मैं पर-जीवों को दु:खी करता हूँ, सुखी करता हूँ - इत्यादि तथा बँधाता हूँ, छुड़ाता हूँ - इत्यादि जो अध्यवसान हैं; वे सब पर-भाव का पर में व्यापार न होने के कारण अपनी अर्थ-क्रिया करनेवाले नहीं हैं; इसलिए 'मैं आकाश-पुष्प को तोड़ता हूँ' - ऐसे अध्यवसान की भाँति मिथ्यारूप हैं, मात्र अपने अनर्थ के लिए ही हैं ।

यदि कोई यह कहे कि अध्यवसान अपनी क्रिया करने से अकार्यकारी है - इसका आधार क्या है तो उससे कहते हैं कि 'मैं बँधाता हूँ, छुड़ाता हूँ' - ऐसे अध्यवसान की अपनी अर्थ-क्रिया जीवों को बाँधना-छोड़ना है; किन्तु वह जीव तो हमारे इस अध्यवसाय का सद्भाव होने पर भी स्वयं के सराग परिणाम के अभाव से नहीं बँधता और स्वयं के वीतराग-परिणाम के अभाव से मुक्त नहीं होता; तथा हमारे उस अध्यवसाय के अभाव होने पर भी स्वयं के सराग-परिणाम के सद्भाव से बँधता है और स्वयं के वीतराग-परिणाम के सद्भाव से मुक्त होता है ।

इसलिए पर में अकिंचित्कर होने से हमारे ये अध्यवसानभाव अपनी अर्थ-क्रिया करनेवाले नहीं हैं; इसीलिए मिथ्या भी हैं - ऐसा भाव है ।

(कलश--दोहा)
निष्फल अध्यवसान में, मोहित हो यह जीव ।
सर्वरूप निज को करे, जाने सब निजरूप ॥१७१॥

[अनेन निष्फलेन अध्यवसायेन मोहितः] इस निष्फल (निरर्थक)अध्यवसाय से मोहित होता हुआ [आत्मा] आत्मा [तत् किञ्चन अपि न एव अस्ति यत् आत्मानं न करोति] ऐसा कुछ भी नहीं है जिसरूप अपनेको न करता हो (अपने को सर्वरूप करता है)

जयसेनाचार्य :
[दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि] मैं इन जीवों को दुखी या सुखी कर रहा हैं, बांध रहा हूँ या छुडा रहा हूँ । [जा एसा मूढमदी णिरत्थया सा हु दे मिच्छा] यह जो तेरी बुद्धि है वह निरर्थक है, कोई भी प्रयोजन सिद्ध करने वाली नहीं है, यह स्पष्ट है इसलिये यह मिथ्या है, झूठी है व्यर्थ है । क्योंकि जब तक उन जीवों को साता-वेदनीय तथा असाता-वेदनीय का उदय न हो तब तक तेरे विचार मात्र से उनको सुख या दु:ख नहीं हो सकता है । इसी प्रकार जब तक उनका अपना विचार अशुद्ध या शुद्ध न हो तब तक तेरे विचार मात्र से उनका बँध जाना और मुक्त हो जाना नहीं हो सकता है ॥२७८॥

इस पर शिष्य प्रश्न करता है अध्यवसान क्रियाकारी क्यों नहीं है ?

[अज्झवसाणणिमित्तं जीवा बज्झंति कम्मणा जदि हि] जब कि सब ही संसारी जीव अपने में होने वाले मिथ्यात्व या रागादि अध्यवसान का निमित्त लेकर ही नवीन कर्म के बंध से जकड़ लिये जाते हैं -- ऐसा ही नियम है [मुच्चंति मोक्खमग्गे ठिदा य ते] शुद्धात्मा के समीचीन श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र रूप निश्चय-रत्नत्रय ही है लक्षण जिसका, उस मोक्षमार्ग में स्थित होने पर अर्थात आत्म-ध्यान में तल्लीन होकर मुक्त हो सकते हैं तब [किं करेसि तुमं] हे दुरात्मन् ! तू वहाँ क्या कर सकता है ? कुछ भी नहीं, अपितु तेरा विचार व्यर्थ ही ठहरता है ॥२७९॥

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+ इस प्रकार जो जीव दुखी होते है वे अपने पाप-कर्म के उदय से होते है, तुम्हारे विचारानुसार नहीं यह बतलाते हैं -- -
कायेण दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि । ।
सव्वावि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता ॥280॥
वाचाए दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि । ।
सव्वावि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता ॥281॥
मणसाए दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि । ।
सव्वावि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता ॥282॥
सच्छेण दुक्खवेमिय सत्ते एवं तु जं मदिं कुणसि । ।
सव्वावि एस मिच्छा दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता ॥283॥
कायेण च वाया वा मणेण सुहिदे करेमि सत्ते ति । ।
एवं पि हवदि मिच्छा सुहिदा कम्मेण जदि सत्ता ॥284॥
यदि जीव कर्मों से दु:खी 'मैं दु:खी करता काय से' ।
यह मान्यता अज्ञान है जिनमार्ग के आधार से ॥२८०॥
यदि जीव कर्मों से दु:खी 'मैं दु:खी करता वचन से' ।
यह मान्यता अज्ञान है जिनमार्ग के आधार से ॥२८१॥
यदि जीव कर्मों से दु:खी 'मैं दु:खी करता हृदय से' ।
यह मान्यता अज्ञान है जिनमार्ग के आधार से ॥२८२॥
यदि जीव कर्मों से दु:खी 'मैं दु:खी करता शस्त्र से' ।
यह मान्यता अज्ञान है जिनमार्ग के आधार से ॥२८३॥
यदि जीव कर्मों से सुखी तो मन-वचन से काय से ।
'मैं सुखी करता अन्य को' यह मान्यता अज्ञान है ॥२८४॥
अन्वयार्थ : [दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता] यदि जीव अपने कर्मों से दु:खी होते हैं तो [कायेण दुक्खवेमिय सत्ते] 'मैं जीवों को काय से दु:खी करता हूँ' [एवं तु जं मदिं कुणसि] इसप्रकार की तेरी मति (विकल्पमयबुद्धि-मान्यता) [सव्वावि एस मिच्छा] पूर्णत: मिथ्या है ।
[दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता] यदि जीव अपने कर्मों से दु:खी होते हैं तो [वाचाए दुक्खवेमिय सत्ते] 'मैं जीवों को वाणी से दु:खी करता हूँ' [एवं तु जं मदिं कुणसि] इसप्रकार की तेरी मति [सव्वावि एस मिच्छा] पूर्णत: मिथ्या है ।
[दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता] यदि जीव अपने कर्मों से दु:खी होते हैं तो [मणसाए दुक्खवेमिय सत्ते] 'मैं जीवों को मन से दु:खी करता हूँ' [एवं तु जं मदिं कुणसि] इसप्रकार की तेरी मति [सव्वावि एस मिच्छा] पूर्णत: मिथ्या है ।
[दुहिदा कम्मेण जदि सत्ता] यदि जीव अपने कर्मों से दु:खी होते हैं तो [सच्छेण दुक्खवेमिय सत्ते] 'मैं जीवों को शस्त्रों (हथियारों) से दु:खी करता हूँ' [एवं तु जं मदिं कुणसि] इसप्रकार की तेरी मति [सव्वावि एस मिच्छा] पूर्णत: मिथ्या है ।
[सुहिदा कम्मेण जदि सत्ता] यदि जीव अपने कर्मों से सुखी होते हैं तो [कायेण च वाया वा मणेण] मन से, वचन से या काय से [सुहिदे करेमि सत्ते ति] मैं जीवों को सुखी करता हूँ - [एवं पि हवदि मिच्छा] ऐसी बुद्धि भी मिथ्या है ।

जयसेनाचार्य :
हे दुरात्मन् ! भोले प्राणी ! यदि जीव अपने ही पाप कर्म के उदय से दु:खी होते हैं एवं तुम उन जीवों के विषय में कुछ कर ही नहीं सकते तो फिर 'मैं इन जीवों को मन से, वचन से, काय से और शस्त्रों के द्वारा भी दुखी कर सकता हूँ या कर रहा हूँ' यह जो तेरी बुद्धि है, वह झूठी है प्रत्युत ऐसी बुद्धि के द्वारा स्वस्थ-भाव सहज-निराकुल-आत्मभाव से च्युत होकर तू पाप बंध ही करेगा ॥२८०-२८४॥

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+ अध्यवसान से मोहित ही पर-द्रव्य से एकत्व करता है -
सव्वे करेदि जीवो अज्झवसाणेण तिरियणेरइए । (268)
देवमणुए य सव्वे पुण्णं पावं च णेयविहं ॥285॥
धम्माधम्मं च तहा जीवाजीवे अलोगलोगं च । (269)
सव्वे करेदि जीवो अज्झवसाणेण अप्पाणं ॥286॥
यह जीव अध्यवसान से तिर्यंच नारक देव नर
अर पुण्य एवं पाप सब पर्यायमय निज को करे ॥२६८॥
वह जीव और अजीव एवं धर्म और अधर्ममय
अर लोक और अलोक इन सबमय स्वयं निज को करे ॥२६९॥
अन्वयार्थ : [जीवो अज्झवसाणेण] जीव अध्यवसान द्वारा [तिरियणेरइए] तिर्यंच, नारक, [देवमणुए य] देव और मनुष्य - इन [सव्वे] सब (पर्यायों) और [णेयविहं] अनेकप्रकार के [पुण्णं पावं च] पुण्य और पाप [सव्वे करेदि] सब-रूप (स्वयं को) करता है ।
[अप्पाणं अज्झवसाणेण] आत्मा अध्यवसान से [धम्माधम्मं च तहा] धर्म और अधर्म, [जीवाजीवे] जीव-अजीव [अलोगलोगं च] और लोक-अलोक [सव्वे करेदि जीवो] सबरूप (स्वयं को) करता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिसप्रकार यह आत्मा क्रिया जिसका गर्भ है - ऐसे हिंसा के अध्यवसान से अपने को हिंसक करता है और अन्य अध्यवसानों से अपने को अन्य करता है; उसीप्रकार इसीप्रकार इसप्रकार आत्मा अध्यवसान से अपने को सर्वरूप करता है ।

(कलश--रोला)
यद्यपि चेतन पूर्ण विश्व से भिन्न सदा है,
फिर भी निज को करे विश्वमय जिसके कारण ।
मोहमूल वह अधवसाय ही जिसके ना हो,
परमप्रतापी दृष्टिवंत वे ही मुनिवर हैं ॥१७२॥

[विश्वात् विभक्तः अपि हि] विश्व से (समस्त द्रव्यों से) भिन्न होने पर भी [आत्मा] आत्मा [यत्-प्रभावात् आत्मानम् विश्वम् विदधाति] जिसके प्रभाव से अपने को विश्वरूप करता है [एषः अध्यवसायः] ऐसा यह अध्यवसाय [मोह-एक-कन्दः] कि जिसका मोह ही एक मूल है वह [येषां इह नास्ति] जिनके नहीं है [ते एव यतयः] वे ही यति (मुनि) हैं ।

जयसेनाचार्य :
आगे कहते हैं कि यह जीव अपने आत्मा में स्थितिरूप स्वस्थभाव के विरोधी रागादिरूप अध्यवसान से मोहित होता है तब यह सब ही परद्रव्य को अपना मानने लगता है --

उदय में आये हुए नरकगति आदि कर्म के वश से यह जीव नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवरूप अवस्थाओं को तथा पुण्य-पाप रूप और भी सभी अवस्थाओं को जो कि कर्म-जनित अवस्थायें हैं उनको अपने आप के साथ लगा कर अपना लेता है, अपनी कर लेता है । अर्थात् निर्विकाररुप जो परमात्म-तत्त्व, उसके ज्ञान से भ्रष्ट होता हुआ वह उन उदयागत कर्म से उत्पन्न विभाव रूप परिणामों को 'मैं नारकी हूँ' इत्यादि रूप से अपने ऊपर लाद लेता है तथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीव, अजीव, लोक और अलोक रूप जो ज्ञेय-पदार्थ हैं उनको भी अपनी परिच्छित्ति करने के विकल्परूप अध्यवसान के द्वारा अपनेआप से जोड़ करके अपना लेता है ।

अभिप्राय यह है कि जैसे घटाकार में परिणत हुआ ज्ञान भी उपचार से अर्थात विषय-विषयी के सम्बन्ध से घट कहा जाता है, वैसे ही धर्मास्तिकायादि ज्ञेय-पदार्थों के विषय में 'यह धर्मास्तिकाय है' इत्यादि परिच्छित्तिरूप - जानतरूप विकल्प है, वह भी उपचार से धर्मास्तिकायादि कहलाता है क्योंकि उस विकल्प का विषय धर्मास्तिकायादि है । अत: जब स्वस्थ-भाव से च्युत होकर यह आत्मा 'मैं धर्मास्तिकाय हूँ' इत्यादि रूप विकल्प करता है उस समय उपचार से धर्मास्तिकाय आदि ही किया हुआ होता है ॥२८५-२८६॥

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+ तपोधन मोह भाव रहित -
एदाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि । (270)
ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणी ण लिप्पंति ॥287॥
ये और इनसे अन्य अध्यवसान जिनके हैं नहीं
वे मुनीजन शुभ-अशुभ कर्मों से न कबहूँ लिप्त हों ॥२७०॥
अन्वयार्थ : [एदाणि] ऐसे [एवमादीणि] तथा इसप्रकार के अन्य और भी [अज्झवसाणाणि] अध्यवसानभाव [णत्थि जेसिं] जिनके नहीं हैं [ते मुणी] वे मुनि [असुहेण सुहेण व कम्मेण] अशुभ अथवा शुभ कर्मों से [ण लिप्पंति] लिप्त नहीं होते ।

अमृतचंद्राचार्य :
ये जो तीन प्रकार के अध्यवसान हैं, वे सभी स्वयं अज्ञानादिरूप (अज्ञान, मिथ्यादर्शन और अचारित्ररूप) होने से शुभाशुभ कर्मबंध के निमित्त हैं । अब इसे ही यहाँ विस्तार से समझाते हैं - 'मैं परजीवों को मारता हूँ' इत्यादि जो अध्यवसान है; उस अध्यवसानवाले जीव को ज्ञानमयपने के सद्भाव से सत्-रूप अहेतुक ज्ञप्ति ही जिसकी क्रिया है - ऐसे आत्मा का और राग-द्वेष के उदयमयी हनन आदि क्रियाओं का अन्तर नहीं जानने के कारण पर से 'मैं नारक हूँ' इत्यादि जो अध्यवसान है, वह अध्यवसानवाले जीव को भी ज्ञानमयपने के सद्भाव से सत्-रूप अहेतुक ज्ञायक ही जिसका एक भाव है - ऐसा आत्मा का और कर्मोदय-जनित नारक आदि भावों का अन्तर न जानने के कारण 'धर्मद्रव्य का ज्ञान होता है' इत्यादि जो अध्यवसान हैं, उन अध्यवसानवाले जीव को भी ज्ञानमयपने के सद्भाव से सत्रूप अहेतुक ज्ञान ही जिसका एक रूप है - ऐसे आत्मा का और ज्ञेयमय धर्मादिकरूपों का अन्तर न जानने के कारण इसलिए ये समस्त अध्यवसान बंध के ही निमित्त हैं ।

मात्र जिनके ये अध्यवसान विद्यमान नहीं हैं, वे ही कोई विरले मुनिकुंजर -- ऐसे स्वच्छ और स्वच्छन्दतया उदयमान - ऐसी अमन्द अन्तर्ज्योति को अज्ञानादिरूपता का अत्यन्त अभाव होने से शुभ या अशुभ कर्म से वास्तव में लिप्त नहीं होते ।

जयसेनाचार्य :
आगे यह बताते हैं कि निश्चय से यह आत्मा शरीरादि पर-द्रव्य से भिन्न है किन्तु जिस मोह के प्रभाव से यह अपने आपको पर-द्रव्य के साथ सम्बन्ध जोड़ता है, वह मोह भाव जिसके नहीं है, वह तपोधन है --

[एदाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि] ये ऊपर बतलाये गये तथा इसी प्रकार के और भी जो अध्यवसान हैं वे ही कर्म-बन्ध के निमित्तभूत होते, हैं जो कि शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार के हैं । ये अध्यवसान भाव जिनके नहीं होते [ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणी ण लिप्पंति] वे ही मुनीश्वर शुभ और अशुभ कर्म के द्वारा लिप्त नहीं होते हैं ।

इसका स्पष्ट तात्पर्य यह है कि जिस समय इस जीव को शुद्धात्मा का समीचीन-रूप श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान स्वरूप निश्चय-रत्नत्रय ही है लक्षण जिसका ऐसा भेद-विज्ञान नहीं होता तब उस समय वह जीव अर्थात जो कि शुद्धात्मा से भिन्न वस्तु है, उसको जानता है तब उस समय वह उस हिंसा अध्यवसान रूप विकल्प के साथ अपने आपको अभेदरूप अर्थात् एकमेक रूप से जानता हुआ वैसे ही श्रद्धान करता अर्थात् जानता है, वैसे ही मानता है और वैसे ही आचरण भी करता है इसलिये मिथ्यादृष्टि होता है, मिथ्याज्ञानी होता और है मिथ्याचारित्री भी होता है इसीलिए उसके कर्म-बन्ध होता है और जब पूर्वोक्त भेद-विज्ञान होता है तब वह सम्यग्दृष्टि होता है, सम्यग्ज्ञानी होता है और सम्यक्-चारित्रवान् होता है उस समय कर्म का बन्ध नहीं होता है यह भावार्थ है ॥२८७॥

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+ बाह्य वस्तुओं में संकल्प विकल्प कर्म का कारण -
जा संकप्पवियप्पो ता कम्मं कुणदि असुहसुहजणयं । ।
अप्पसरूवा रिद्धी जाव ण हियए परिफ्फुरई ॥288॥
इस आतमा में जबतलक संकल्प और विकल्प हैं ।
तबतलक अनुभूति ना तबतक शुभाशुभ कर्म हों ॥२८८॥
अन्वयार्थ : [जा संकप्पवियप्पो] जबतक संकल्प-विकल्प हैं, [ता] तबतक [असुहसुहजणयं] शुभ-अशुभ [कम्मं कुणदि] कर्म करता है [अप्पसरूवा रिद्धी] आत्मस्वभावमय ऋद्धि (स्वानुभूति) [जाव ण हियए परिफ्फुरई] तब-तक हृदय में प्रगट नहीं होती ।

जयसेनाचार्य :
अब यह बताते हैं की यह आत्मा इन पदार्थों को अपने ऊपर कब तक लादता है --

जबतक यह आत्मा बाह्यविषयरूप शरीर, स्त्री-पुत्र आदि में 'ये मेरे हैं' - इत्यादि रूप ममत्वमय संकल्प करता है और अन्तर में हर्ष-विषाद-रूप विकल्प करता है; तबतक अनन्त ज्ञानादि से समृद्ध आत्म-तत्त्व को हृदय में नहीं जानता है । जबतक इसप्रकार का आत्मा अन्तर में स्फुरायमान नहीं होता, तबतक शुभाशुभ-भावों को उत्पन्न करनेवाले कर्म करता है ।

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+ अध्यवसान के पर्यायवाची -
बुद्धी ववसाओ वि य अज्झवसाणं मदी य विण्णाणं । (271)
एक्कट्ठमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो ॥289॥
व्यवसाय बुद्धी मती अध्यवसान अर विज्ञान भी
एकार्थवाचक हैं सभी ये भाव चित परिणाम भी ॥२७१॥
अन्वयार्थ : [बुद्धी] बुद्धि, [ववसाओ वि य] और व्यवसाय भी, [अज्झवसाणं] अध्यवसान, [मदी य] मति और [विण्णाणं] विज्ञान, [चित्तं] चित्त, [भावो य परिणामो] भाव और परिणाम - [एक्कट्ठमेव सव्वं] ये सब एकार्थवाची (पर्यायवाची) हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
स्व-पर का अविवेक होने पर जीव

(कलश--अडिल्ल)
सब ही अध्यवसान त्यागने योग्य हैं,
यह जो बात विशेष जिनेश्वर ने कही ।
इसका तो स्पष्ट अर्थ यह जानिये,
अन्याश्रित व्यवहार त्यागने योग्य है ॥
परमशुद्धनिश्चयनय का जो ज्ञेय है,
शुद्ध निजातमराम एक ही ध्येय है ।
यदि ऐसी है बात तो मुनिजन क्यों नहीं,
शुद्धज्ञानघन आतम में निश्चल रहें ॥१७३॥

[सर्वत्र यद् अध्यवसानम्] सर्व वस्तुओं में जो अध्यवसान होते हैं, [अखिलं जिनैः] वे सभी जिनेन्द्र भगवान ने [एवम् त्याज्यं उक्तं] पूर्वोक्त रीति से त्यागने योग्य कहे हैं, [तत् मन्ये] इसलिये हम यह मानते हैं कि [अन्य-आश्रयः व्यवहारः एव निखिलः अपि त्याजितः] 'पर जिसका आश्रय है ऐसा व्यवहार ही सम्पूर्ण छुड़ाया है' । [तत् अमी सन्तः] तब फिर, यह सत्पुरुष [एकम् सम्यक् निश्चयम् एव निष्कम्पम् आक्रम्य] एक सम्यक् निश्चय को ही निश्चलतया अंगीकार करके [शुद्धज्ञानघने निजे महिम्नि] शुद्ध ज्ञानघन स्वरूप, निज महिमा में (आत्म-स्वरूप में) [धृतिम् किं नबध्नन्ति] स्थिरता क्यों धारण नहीं करते ?

जयसेनाचार्य :
अब आगे की गाथा में आचार्यदेव अध्यवसान के पर्याय नाम गिनाते हैं --

इस प्रकार यहाँ शब्द भेद तो है किन्तु अर्थ भेद नहीं है । यदि समभिरूढ़नय से देखें तो इन सब का अर्थ अध्यवसान ही होता है जैसे कि इन्द्र, शक्र और पुरन्दर का एक ही देवराज ऐसा अर्थ होता है ॥२८९॥

इस प्रकार व्रतों के द्वारा पुण्य होता है और अव्रतों के द्वारा पाप, इस प्रकार का कथन दो गाथाओं में हुआ । उसी का विशेष वर्णन करने के लिये बाह्य-वस्तु रागादिरूप अध्यवसान का कारण होती है और रागादिरूप अध्यवसान ही बन्ध का कारण होता है, इस प्रकार के कथन को मुख्य लेकर शेष तेरह गाथायें हुई' । इस प्रकार पन्द्रह गाथाओं में यह चतुर्थ स्थल पूर्ण हुआ ।

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+ निश्चयनय के द्वारा व्यवहार विकल्पों का निषेध -
एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणएण । (272)
णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाण ॥290॥
इस तरह ही परमार्थ से कर नास्ति इस व्यवहार की
निश्चयनयाश्रित श्रमणजन प्राप्ती करें निर्वाण की ॥२७२॥
अन्वयार्थ : [एवं ववहारणओ] इसप्रकार व्यवहारनय [णिच्छयणएण] निश्चयनय के द्वारा [पडिसिद्धो] निषिद्ध [जाण] जानो [पुण] तथा [णिच्छयणयासिदा] निश्चयनय के आश्रित [मुणिणो] मुनिराज [पावंति णिव्वाण] निर्वाण को प्राप्त होते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
आत्माश्रित निश्चयनय है और पराश्रित व्यवहारनय । बंध का कारण होने से पराश्रित समस्त अध्यवसानों को मुमुक्षुओं के लिए निषेध करते हुए आचार्यदेव ने पराश्रितता की समानता होने से निश्चयनय से एकप्रकार से समस्त व्यवहार का ही निषेध कर दिया है । इसप्रकार यह व्यवहारनय निषेध करने योग्य ही है; क्योंकि मुक्ति तो आत्माश्रित निश्चयनय का आश्रय करनेवालों को ही प्राप्त होती है तथा पराश्रित व्यवहारनय का आश्रय तो एकान्तत: मुक्त नहीं होनेवाला अभव्य भी करता है ।

जयसेनाचार्य :
अब इसके आगे यह कथन करते हैं कि अभेद-रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प-समाधि है स्वरूप जिसका, ऐसे उस निश्चय-नय के द्वारा विकल्पात्मक जो व्यवहार है, वह दबा दिया जाता है, इस प्रकार के कथन की मुख्यता से छह गाथाओं में वर्णन करते हैं --

[एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणएण] हे आत्मन् ! उपर्युक्त व्यवहार जो कि पराश्रित है वह शुद्ध-द्रव्य के आश्रित होने वाले निश्चयनय से हटा देने योग्य है ऐसा तुम समझो, क्योंकि [णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाण] निश्चयनय का आश्रय लेने वाले, उसमें लीन रहने वाले, स्थित रहने वाले मुनि लोग ही निर्वाण को प्राप्त होते हैं ।

भावार्थ यह है कि यद्यपि व्यवहारनय निश्चयनय का साधक है इसलिए प्रारंभ में, प्रथम सविकल्पदशा में, प्रयोजनवान् है । उसे प्राप्त करना आवश्यक है फिर भी जो लोग विशुद्ध-ज्ञानदर्शनरूप जो शुद्धात्मा, उसमें स्थित हैं, चिगते नहीं हैं, उनको व्यवहारनय से कोई प्रयोजन नहीं होता है ॥२९०॥

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+ अभव्य जीव के अपने मिथ्या अभिप्राय के कारण सिद्धि नहीं -
वदसमिदीगुत्तीओ सीलतवं जिणवरेहि पण्णत्तं । (273)
कुव्वंतो वि अभव्वो अण्णाणी मिच्छदिट्ठी दु ॥291॥
मोक्खं असद्दहंतो अभवियसत्तो दु जो अधीएज्ज । (274)
पाठो ण करेदि गुणं असद्दहंतस्स णाणं तु ॥292॥
सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि । (275)
धम्मं भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥293॥
व्रत-समिति-गुप्ती-शील-तप आदिक सभी जिनवरकथित
करते हुए भी अभव्यजन अज्ञानि मिथ्यादृष्टि हैं ॥२७३॥
मोक्ष के श्रद्धान बिन सब शास्त्र पढ़कर भी अभवि
को पाठ गुण करता नहीं है ज्ञान के श्रद्धान बिन ॥२७४॥
अभव्यजन श्रद्धा करें रुचि धरें अर रच-पच रहें
जो धर्म भोग निमित्त हैं न कर्मक्षय में निमित्त जो ॥२७५॥
अन्वयार्थ : [जिणवरेहि पण्णत्तं] जिनवरदेव के द्वारा कहे गये [वदसमिदीगुत्तीओ] व्रत, समिति, गुप्ति, [सीलतव] शील और तप [कुव्वंतो वि अभव्वो] करते हुए भी अभव्यजीव [अण्णाणी मिच्छदिट्ठी दु] अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि है ।
[मोक्खं असद्दहंतो] मोक्ष की श्रद्धा से रहित [अभवियसत्तो दु] वह अभव्यजीव [जो अधीएज्ज] यद्यपि शास्त्रों को पढ़ता है; तथापि [असद्दहंतस्स णाणं तु] ज्ञान की श्रद्धा से रहित उसको [पाठो ण करेदि गुणं] शास्त्र-पठन गुण (लाभ) नहीं करता ।
[सद्दहदि य] श्रद्धा करता है, [पत्तेदि य] प्रतीति करता है, [रोचेदि य] रुचि करता है [तह पुणो य फासेदि] और फिर वह स्पर्श भी करता है [धम्मं भोगणिमित्तं] धर्म को -- भोग के कारण [ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं] कर्मक्षय का कारण नहीं ।

अमृतचंद्राचार्य :
ऐसा होने पर निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय निषेध योग्य ही है ।

जयसेनाचार्य :
[वदसमिदीगुत्तीओ सीलतव जिणवरेहि पण्णत्तं] श्री जिन-भगवान के द्वारा बताए हुए व्रत, समिति, गुप्ति, शील, तपश्चरण, आदि को [कुव्वंतो वि अभव्वो अण्णाणी मिच्छदिट्ठी दु] मिथ्यात्व तथा कषाय का मन्द उदय होने से, करते रहने पर भी अभव्य-जीव अज्ञानी तथा मिथ्यादृष्टि बना रहता है । क्योंकि उसके मिथ्यात्वादि सात-प्रकृतियों का उपशम, क्षय वा क्षयोपशम नहीं हो पाता, इसलिए 'शुद्ध-आत्म तत्त्व ही उपादेय है', इस प्रकार का श्रद्धान उसके नहीं होता ॥२९१॥

यद्यपि उसके ग्यारह-अंग का ज्ञान हो जाता है फिर भी वह अज्ञानी बना रहता है, ऐसा नीचे बताते हैं --

[मोक्खं असद्दहंतो अभवियसत्तो दु जो अधीएज्ज] मोक्ष की जिसको श्रद्धा, नहीं है अर्थात अशुद्ध आत्मा भी शुद्ध हो सकती है इस प्रकार की आत्म-विशुद्धि पर जिसका विश्वास नहीं जमता है, ऐसा अभव्य जीव यद्यपि अपनी ख्याति, पूजा, लाभादि के लिए ग्यारह-अंग-श्रुत का अध्ययन भी करता है तो करे । [पाठो ण करेदि गुणं] तो भी शास्त्र का पढ़ना उसके लिये शुद्धात्मा के परिज्ञान रूप गुण का करने वाला नही होता । [असद्दहंतस्स णाणं तु] क्योंकि वह ज्ञान पर अपनी रुचि नहीं लाता है, विश्वास नहीं लाता, अर्थात् वह शुद्धात्मा के श्रद्धान, ज्ञान, और अनुष्ठान जो निर्विकल्प समाधि है, उसके द्वारा प्राप्त करने योग्य, जानने योग्य जो शुद्धात्मा का स्वरूप है उसको नहीं मानता, नहीं स्वीकार करता है क्योंकि उसके दर्शन-मोहनीय और चारित्र-मोहनीय के भेद से दो प्रकार के मोहनीय कर्म का उपशम, क्षयोपशम व क्षय नहीं होता । उसका भी यह कारण है कि वह अभव्य है -- यह भावार्थ है ॥२९२॥

फिर यहाँ शंका होती है कि वह पुण्य-रूप धर्मादि को क्यों मानता है ?

[सद्दहदि य] श्रद्धान करता है, उसे [पत्तेदि य] ज्ञान के द्वारा प्रतीति में लाता है, उसकी जानकारी प्राप्त करता है [रोचेदि य] विशेषरूप से विश्वास लाता है [तह पुणो य फासेदि] तथा उसे छूता है अर्थात् आचरण में लाता है । कौन से धर्म को लाता है ? कि [धम्मं भोगणिमित्तं] अहमिन्द्रादि का कारण होने से जो धर्म भोगों का विशेष रूप से साधन है उस पुण्यरूप-धर्म को भोगों की अभिलाषा से ही धारण करता है, [ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं] किन्तु शुद्धात्मा की संवित्ति है लक्षण जिसका, ऐसा जो निश्चय-धर्म जो कि कर्मों के नाश करने में निमित्त होता है, उस धर्म को नहीं मानता नहीं जानता आदि ॥२९३॥

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+ व्यवहार-नय व निश्चय-नय का स्वरूप -
आयारादी णाणं जीवादी दंसणं च विण्णेयं । (276)
छज्जीवणिकं च तहा भणदि चरित्तं तु व्यवहारो ॥294॥
आदा खु मज्झ णाणं आदा मे दंसणं चरित्तं च । (277)
आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो ॥295॥
आचारादि ज्ञानं जीवादि दर्शनं च विज्ञेयम् ।
षड्जीवनिकायं च तथा भणति चरित्रं तु व्यवहारः ॥२७६॥
आत्मा खलु मम ज्ञानमात्मा मे दर्शनं चरित्रं च ।
आत्मा प्रत्याख्यानमात्मा मे संवरो योगः ॥२७७॥
जीवादि का श्रद्धान दर्शन शास्त्र-अध्ययन ज्ञान है
चारित्र है षट्काय रक्षा - यह कथन व्यवहार है ॥२७६॥
निज आतमा ही ज्ञान है दर्शन चरित भी आतमा
अर योग संवर और प्रत्याख्यान भी है आतमा ॥२७७॥
अन्वयार्थ : [आयारादी णाणं] आचारांगादि शास्त्र ज्ञान है, [जीवादी दंसणं च विण्णेयं] जीवादि तत्त्व दर्शन जानो [च] और [छज्जीवणिकं] छह जीवनिकाय [चरित्तं] चारित्र है - [तहा भणदि तु व्यवहारो] ऐसा व्यवहारनय कहता है ।
[आदा खु मज्झ णाणं] निश्चय से मेरा आत्मा ही ज्ञान, [आदा मे दंसणं चरित्तं च] मेरा आत्मा ही दर्शन, चारित्र है, [आदा पच्चक्खाणं] आत्मा प्रत्याख्यान [आदा मे संवरो जोगो] मेरा आत्मा ही संवर व योग है ।

अमृतचंद्राचार्य :
 - यह व्यवहारनय का कथन है ।- यह निश्चयनय का कथन है । इनमें आचारांगादि को ज्ञानादि का आश्रयत्व अनैकान्तिक है, अनैकान्तिक हेत्वाभास है, व्यभिचार नामक दोष से संयुक्त है । इसलिए व्यवहारनय प्रतिषेध्य है, निषेध करने योग्य है और निश्चयनय व्यवहारनय का प्रतिषेधक है; क्योंकि शुद्धात्मा को ज्ञानादि का आश्रयत्व ऐकान्तिक है । तात्पर्य यह है कि शुद्धात्मा को ज्ञानादि के आश्रयत्व में अनैकान्तिक हेत्वाभास नहीं है, व्यभिचार नामक दोष नहीं है; क्योंकि शुद्धात्मा के आश्रय से ज्ञान-दर्शन-चारित्र होते हैं ।

अब इसी बात को हेतुपूर्वक विस्तार से समझाते हैं - शुद्धात्मा ही ज्ञान का आश्रय है; क्योंकि

(कलश--सोरठा)
कहे जिनागम माहिं, शुद्धातम से भिन्न जो ।
रागादिक परिणाम, कर्मबंध के हेतु वे ॥
यहाँ प्रश्न अब एक, उन रागादिक भाव का ।
यह आतम या अन्य, कौन हेतु है अब कहैं ॥१७४॥

[रागादयः बन्धनिदानम् उक्ताः] 'रागादि को बन्ध का कारण कहा और [तेशुद्ध-चिन्मात्र-महः-अतिरिक्ताः] उन्हें शुद्ध चैतन्यमात्र ज्योति से (शूद्धात्मा से) भिन्न कहा; [तद्-निमित्तम्] तब फिर उस रागादि का निमित्त [किमु आत्मा वा परः] आत्मा है या कोई अन्य ?' [इति प्रणुन्नाः पुनः एवम् आहुः] इसप्रकार (शिष्य के) प्रश्न से प्रेरित होते हुए आचार्य भगवान पुनः इसप्रकार (निम्नप्रकार से) कहते हैं ।

जयसेनाचार्य :
आगे प्रतिषेध्य जो व्यवहार-नय व प्रतिषेधक जो निश्चय-नय उसका क्या स्वरूप है, सो बताते हैं --

इस प्रकार यह मोक्षमार्ग का स्वरूप हुआ । किन्तु इस प्रकार स्व-शुद्धात्मा के ही आश्रय होने से यह निश्चय-मोक्षमार्ग है ऐसा समझना चाहिए । इस प्रकार व्यवहार-मोक्षमार्ग व निश्चय-मोक्षमार्ग का स्वरूप कहा । वहाँ निश्चय-मोक्षमार्ग तो प्रतिषेधक है और व्यवहार-मोक्षमार्ग प्रतिषेध्य है । क्योंकि जो निश्चय-मोक्षमार्ग में स्थित हैं, उनको नियम से मोक्ष होता है किन्तु व्यवहार मोक्षमार्ग में स्थित होने वालों को मोक्ष होता भी है और नहीं भी होता है । क्योंकि यदि मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय होने से शुद्धात्मा को उपादेय मानकर वह व्यवहार-मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होता है तब तो मोक्ष होता है और यदि उन्हीं सात प्रकृतियों के उपशमादि के न होने पर शुद्धात्मा को उपादेय न मानकर ही वह व्यवहार-मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हुआ है तो उसके फिर कभी मोक्ष नहीं हो सकता है सो उसके मोक्ष नहीं होने का यही कारण है कि उसमें मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियों का उपशमादिभाव न होने से जो अनन्तज्ञानादि गुण स्वरूप शुद्धात्मा है उसकी उपादेयता वहाँ नहीं होती । हाँ, जो जीव शुद्धात्मा को उपादेय मानता है उसका विश्वास करता है अर्थात जो कोई रागद्वेष मिटाना चाहे तो मिटाकर सदा के लिए वीतराग रूप बन सकता है; तो उसके मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों का उपशमादि भी अवश्य होता है, वह भव्य जीव होता है । किंतु जो पूर्वोक्त शुद्धात्मा के स्वरूप को नहीं मानता उस पर विश्वास नहीं रखता, तो उसके मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियों का उपशमादि भी नही है एवं वह मिथ्यादृष्टि है, ऐसा समझना चाहिये । अभव्यजीव भी वही होता है जिसके मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियों का उपशमादिक न है और न हो सकेगा, यह भावार्थ है । हाँ, यहाँ यह बात है कि निश्चय-माक्षमार्ग तो निर्विकल्प-समाधि रूप है त्रिगुप्तिरूप मोक्षमार्ग में स्थित होने पर प्रवृत्तिरूप व्यवहार-मोक्षमार्ग छोड़ दिया जाता है उसका भी अर्थ यह है कि निश्चय-मोक्षमार्ग तो निर्विकल्प-समाधिरूप है, इस त्रिगुप्तिरूप मोक्षमार्ग में स्थित होने पर प्रवृत्ति रूप व्यवहार मोक्षमार्ग स्वयं नहीं रहता यह इन गाथाओं का तात्पर्य है । इस प्रकार निश्चयनय से व्यवहार के प्रतिषेधरूप कथन की मुख्यता से छह सूत्रों से पंचम स्थल पूर्ण हुआ ॥२९४-२९५॥

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+ ज्ञानी के आहारकृत बन्ध नहीं -
आधाकम्मादीया पुग्ग्लदव्वस्स जे इमे दोसा । (286)
कह ते कुव्वदि णाणी परदव्वगुणा हु जे णिच्चं ॥296॥
आधाकम्मादीया पुग्ग्लदव्वस्स जे इमे दोसा । (287)
कहमणुमण्णदि अण्णेण कीरमाणा परस्स गुणा ॥297॥
अधःकर्माद्याः पुद्गलद्रव्यस्य य इमे दोषाः ।
कथं तान् करोति ज्ञानी परद्रव्यगुणास्तु ये नित्यम् ॥२८६॥
अधःकर्मोद्देशिकं च पुद्गलमयमिदं द्रव्यं ।
कथं तन्मम भवति कृतं यन्नित्यमचेतनमुक्तम् ॥२८७॥
अध:कर्मक आदि जो पुद्गल दरब के दोष हैं
पर-द्रव्य के गुणरूप उनको ज्ञानिजन कैसे करें ? ॥२८६॥
उद्देशिक अध:कर्म जो पुद्गल दरबमय अचेतन
कहे जाते वे सदा मेरे किये किस भाँति हों ? ॥२८७॥
अन्वयार्थ : [आधाकम्मादीया] आधाकर्मादिक [पुग्ग्लदव्वस्स] पुद्गल-द्रव्य के [जे इमे] जो यह [दोसा] दोष [कह ते] उसे कैसे [कुव्वदि] कर सकता है [णाणी] ज्ञानी [जे] जो कि [णिच्चं] नित्य [परदव्वगुणा हु] पर-द्रव्य के ही गुण हैं ॥२९६॥
[आधाकम्मादीया] आधाकर्मादिक [पुग्ग्लदव्वस्स] पुद्गल-द्रव्य के [जे इमे] जो इन [दोसा] दोषों की [कहमणुमण्णदि] अनुमोदना कैसे कर सकता है जो कि [अण्णेण कीरमाणा] अन्य द्वारा किये हुए [परस्स गुणा] पर-द्रव्य के गुण हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिसप्रकार अध:कर्म और उद्देश्य से उत्पन्न निमित्तभूत आहारादि पुद्गल-द्रव्य का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा (मुनि) नैमित्तिकभूत बंधसाधक भाव का प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग नहीं करता; उसीप्रकार समस्त पर-द्रव्यों का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा उनके निमित्त से होनेवाले भाव को भी नहीं त्यागता । अध:कर्म आदि पुद्गल-द्रव्य के दोषों को आत्मा वस्तुत: तो करता ही नहीं; क्योंकि वे पर-द्रव्य के परिणाम हैं; इसलिए उन्हें आत्मा के कार्यत्व का अभाव है । इसकारण अध:कर्म और उद्देशिक पुद्गल-कर्म मेरे कार्य नहीं हैं; क्योंकि वे सदा ही अचेतन हैं; इसलिए उनको मेरे कार्यत्व का अभाव है ।

इसप्रकार तत्त्व-ज्ञानपूर्वक निमित्तभूत पुद्गल-द्रव्य का प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा (मुनि) जिसप्रकार नैमित्तिकभूत बंधसाधकभाव का प्रत्याख्यान करता है; उसीप्रकार समस्त पर-द्रव्य का प्रत्याख्यान करता हुआ (त्याग करता हुआ) आत्मा उनके निमित्त से होनेवाले भावों का भी प्रत्याख्यान करता है । इसप्रकार द्रव्य और भाव को निमित्त-नैमित्तिकता है ।

(कलश--सवैया इकतीसा)
परद्रव्य हैं निमित्त परभाव नैमित्तिक,
नैमित्तिक भावों से कषायवान हो रहा ।
भावी कर्म-बंधन हो इन कषाय भावों से,
बंधन में आतमा विलीयमान हो रहा॥
इसप्रकार जान परभावों की संतति को,
जड़ से उखाड़ स्फुरायमान हो रहा ।
आनन्दकन्द निज-आतम के वेदन में,
निजभगवान शोभायमान हो रहा ॥१७८॥

[इति] इसप्रकार (पर-द्रव्य और अपने भाव की निमित्त-नैमित्तिकता को) [आलोच्य] विचार करके, [तद्-मूलां इमाम् बहुभावसन्ततिम् समम् उद्धर्तुकामः] पर-द्रव्य-मूलक बहुभावों की सन्तति को एक ही साथ उखाड़ फेंकने का इच्छुक पुरुष, [तत् किल समग्रं परद्रव्यं बलात् विवेच्य] उस समस्त पर-द्रव्य को बलपूर्वक (उद्यमपूर्वक, पराक्रमपूर्वक) भिन्न करके (त्याग करके), [निर्भरवहत्-पूर्ण-एक-संविद्-युतं आत्मानं] अतिशयता से बहते हुए (धारावाही) पूर्ण एक संवेदन से युक्त अपने आत्मा को [समुपैति] प्राप्त करता है, [येन] कि जिससे [उन्मूलितबन्धः एषः भगवान् आत्मा] जिसने कर्म-बन्धन को मूल से उखाड़ फेंका है, ऐसा यह भगवान आत्मा [आत्मनि] अपने में ही (आत्मामें ही) [स्फूर्जति] स्फुरायमान (प्रकट) होता है ।

(कलश - सवैया इकतीसा)
बंध के जो मूल उन रागादिक भावों को,
जड़ से उखाड़ने उदीयमान हो रही ।
जिसके उदय से चिन्मयलोक की,
यह कर्मकालिमा विलीयमान हो रही ॥
जिसके उदय को कोई ना रोक सके,
अद्भुत शौर्य से विकासमान हो रही ।
कमर कसे हुए धीर-वीर गंभीर,
ऐसी दिव्यज्योति प्रकाशमान हो रही ॥१७९॥

[कारणानां रागादीनाम् उदयं] बन्ध के कारणरूप रागादि के उदय को [अदयम्] निर्दयता पूर्वक (उग्र पुरुषार्थ से) [दारयत्] विदारण करती हुई, [कार्यं विविधम् बन्धं] उस रागादिके कार्यरूप (ज्ञानावरणादि) अनेक प्रकार के बन्ध को [अधुना] अब [सद्यः एव] तत्काल ही [प्रणुद्य] दूर करके, [एतत् ज्ञानज्योतिः] यह ज्ञानज्योति [क्षपिततिमिरं] कि जिसने अज्ञानरूप अन्धकार का नाश किया है वह [साधु] भलीभाँति [सन्नद्धम्] सज्ज हुई, [तद्-वत् यद्-वत्] ऐसी सज्ज हुई कि [अस्य प्रसरम् अपरः कः अपि न आवृणोति] उसके विस्तारको अन्य कोई आवृत नहीं कर सकता ।

इसप्रकार बन्ध (रंगभूमिसे) बाहर निकल गया ।

इसप्रकार श्री समयसार की (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य देव प्रणीत श्री समयसार परमागम की) श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्य देव विरचित आत्मख्याति नामक टीका में बन्ध का प्ररूपक ७वाँ अंक समाप्त हुआ ।

जयसेनाचार्य :
आगे कहते हैं कि आहार लेने के विषय में मान, अपमान, सरस, नीरस आदि की चिन्तारूप राग-द्वेष न करने के कारण आहार लेते हुए भी ज्ञानी जीव के आहारकृत बन्ध नहीं होता --

स्वयं अपने बनाने से संपन्न हुआ आहार आधाकर्म शब्द से कहा जाता है । उसी को प्रथम लेकर कहते हैं कि आधाकर्मादिक जो दोष हैं वह सब शुद्धात्मा से पृथग्भूत आहाररूप पुद्गल-द्रव्य के गुण हैं, क्योंकि वह सब उसी आहार रूप पुद्गल-द्रव्य के पकाने-पकाने आदि क्रियारूप होते हैं, अत: निश्चय से ज्ञानी उसे कैसे कर सकता है ? एवं किसी दूसरे गृहस्थ के द्वारा उन सबकी वह अनुमोदना भी वह कैसे कर सकता है ? कभी नहीं कर सकता । क्योंकि ज्ञानी के तो निर्विकल्प समाधि होती है, उसके होने पर उसके आहार विषयक मन, वचन, काय और कृत, कारित और अनुमोदना का अभाव होता है । इसप्रकार आधाकर्म दोष के व्याख्यान रूप में दो गाथाएं कहीं गईं ।

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आधाकम्मं उद्देसियं च पुग्गलमयं इमं दव्वं ।
कह तं मम होदि कदं जं णिच्चमचेदणं वुत्तं ॥298॥
आधाकम्मं उद्देसियं च पुग्गलमयं इमं दव्वं ।
कह तं मम कारविदं जं णिच्चमचेणं वुत्तं ॥299॥
उद्देशिक अध:कर्म जो पुद्गल दरबमय अचेतन
कहे जाते वे सदा मेरे किये किस भाँति हों ? ॥२९८॥
उद्देशिक अध:कर्म जो पुद्गलदरबमय अचेतन
कहे जाते वे सदा मेरे कराये किसतरह ? ॥२९९॥
अन्वयार्थ : पर के उद्देश्य से किया हुआ यह आधाकर्म पुद्गल-मयी द्रव्य है तथा नित्य ही अचेतन है ऐसा कहा गया है सो यह मेरी की हुई कैसे हो सकती है अथवा मेरी कराई हुई कैसे हो सकती है ।

जयसेनाचार्य :
जो अध:कर्मरूप तथा औद्देशिकरूप आहारमय पुद्गल-द्रव्य है वह चेतनात्मक शुद्ध आत्म-द्रव्य से पृथक होने के कारण सर्वथा अचेतन कहा गया है तथा वह मेरे द्वारा किया हुआ कैसे हो सकता है ? कराया हुआ भी कैसे हो सकता है ? कभी नहीं हो सकता है, क्योंकि निश्चय रत्नत्रय ही है लक्षण जिसका, ऐसे भेद-ज्ञान के होने पर आहार के विषय में मन, वचन, काय और कृत कारित, अनुमोदना का अभाव होता है । इसप्रकार औद्देशिक दोष के व्याख्यान की मुख्यता से दो गाथाएं पूर्ण हुईं । तात्पर्य तह है कि बाद में, पहले या वर्तमान में कभी भी योग्य आहार आदि के विषय में मन, वचन, काय और कृत कारित, अनुमोदना रूप नव प्रकार के विकल्पों से जो शुद्ध है, रहित है उनके दूसरे के द्वारा बनाए हुए आहारादि विषयक बन्ध कभी हो नहीं सकता है मन, वचन, काय और कृत कारित, अनुमोदना यदि दूसरे के परिणामों द्वारा बन्ध हो जाय तो कभी भी किसी को निर्वाण नहीं हो सकेगा, सो कहा भी है --

णव-कोडी-कम्म-सुद्धो पच्छा पुरदो ये संपदियकाले
पर-सुह-दुक्ख-णिमित्तं बज्झदि जदि णत्थि णिव्वाणं

अर्थ – त्रिकाल सम्बन्धी कार्यों से मन, वचन, काय और कृत कारित, अनुमोदना रूप नव कोटितया जो दूर है ऐसा जीव भी दूसरों के सु:ख-दु:ख का निमित्त लेकर यदि कर्म बांधता होवे तब तो किसी को भी मुक्ति नहीं हो सकेगी । अत: जो ज्ञानी जीव हैं अर्थात् जो आत्म-समाधि में लीन हैं उनके आहार ग्रहण करने से होने वाला बन्ध भी नहीं होता

ऐसा व्याख्यान वाली चार गाथाओं से यह छठ्ठा स्थल पूर्ण हुआ ।

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+ रागादि विकारी भाव कैसे बनते है ? -
जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमदि रागामादीहिं । (278)
रंगिज्जदि अण्णेहिं दु सो रत्तादीहिं दव्वेहिं ॥300॥
एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमदि रागामादीहिं । (279)
राइज्जदि अण्णेहिं दु सो रागादीहिं दोसेहिं ॥301॥
यथा स्फटिकमणिः शुद्धो न स्वयं परिणमते रागाद्यैः ।
रज्यतेऽन्यैस्तु स रक्तादिभिर्द्रव्यैः ॥२७८॥
एवं ज्ञानी शुद्धो न स्वयं परिणमते रागाद्यैः ।
रज्यतेऽन्यैस्तु स रागादिभिर्दोषैः ॥२७९॥
ज्यों लालिमामय स्वयं परिणत नहीं होता फटिकमणि
पर लालिमायुत द्रव्य के संयोग से हो लाल वह ॥२७८॥
त्यों ज्ञानिजन रागादिमय परिणत न होते स्वयं ही
रागादि के ही उदय से वे किये जाते रागमय ॥२७९॥
अन्वयार्थ : [जह फलिहमणी] जिसप्रकार स्फटिकमणि [सुद्धो] शुद्ध होने से [रागामादीहिं] रागादिरूप (लालिमारूप) [ण सयं परिणमदि] अपने आप नहीं परिणमता [अण्णेहिं] अन्य [रत्तादीहिं दव्वेहिं] द्रव्यों की लालिमादि द्वारा [दु सो] ही वह [रंगिज्जदि] रंगा जाता है ।
[एवं णाणी सुद्धो] उसीप्रकार ज्ञानी (आत्मा) शुद्ध होने से [रागामादीहिं] रागादिरूप [ण सयं परिणमदि] अपने आप नहीं परिणमता [अण्णेहिं रागादीहिं दोसेहिं] अन्य के रागादि दोषों से [दु सो] ही वह [राइज्जदि] रागादि रूप किया जाता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिसप्रकार स्वयं परिणमन स्वभाववाला होने पर भी स्फटिक-मणि अपने शुद्ध-स्वभावत्व के कारण स्वयं में रागादि का निमित्तत्व न होने से अपने आप लालिमा आदि रूप परिणमित नहीं होता; अपितु उस पर-द्रव्य के द्वारा ही शुद्ध-स्वभाव से च्युत होता हुआ लालिमा आदि रूप परिणमित किया जाता है; जो पर-द्रव्य स्वयं लालिमा आदि रूप होने से स्फटिक-मणि की लालिमा में निमित्त होता है ।

उसीप्रकार स्वयं परिणमन स्वभाववाला होने पर भी यह शुद्ध आत्मा अपने शुद्ध-स्वभाव के कारण स्वयं में रागादि का निमित्तत्व न होने से अपने आप रागादिरूप परिणमित नहीं होता; अपितु उस परद्रव्य के द्वारा ही शुद्ध-स्वभाव से च्युत होता हुआ रागादिरूप परिणमित किया जाता है; जो पर-द्रव्य स्वयं रागादिरूप होने से आत्मा के रागादिरूप परिणमन में निमित्त होता है -- ऐसा वस्तु का स्वभाव है ।

(कलश--सोरठा)
अग्निरूप न होय, सूर्यकान्तमणि सूर्य बिन ।
रागरूप न होय, यह आतम परसंग बिन ॥१७५॥

[यथा अर्ककान्तः] सूर्यकान्तमणि की भाँति (जैसे सूर्यकान्तमणि स्वतःही अग्निरूप परिणमित नहीं होता, उसके अग्निरूप परिणमन में सूर्यबिम्ब निमित्त है, उसीप्रकार) [आत्मा आत्मनः रागादिनिमित्तभावम् जातु न याति] आत्मा अपने को रागादि का निमित्त कभी भी नहीं होता, [तस्मिन् निमित्तं परसंगः एव] उसमें निमित्त परसंग ही (पर-द्रव्य का संग ही) है [अयम् वस्तुस्वभावः उदेति तावत्] ऐसा वस्तु-स्वभाव प्रकाशमान है ।

(कलश--दोहा)
ऐसे वस्तुस्वभाव को, जाने विज्ञ सदीव ।
अपनापन ना राग में, अत: अकारक जीव ॥१७६॥

[इति स्वं वस्तुस्वभावं ज्ञानी जानाति] ज्ञानी ऐसे अपने वस्तु-स्वभाव को जानता है, [तेन सः रागादीन् आत्मनः न कुर्यात्] इसलिये वह रागादि को निजरूप नहीं करता, [अतः कारकः न भवति] अतः वह (रागादि का) कर्ता नहीं है ।

जयसेनाचार्य :
अब यह बताते हैं कि जिन रागादिभावों से आत्मा को बन्ध होता है वे, रागादि विकारी भाव कैसे बनते है ? --

जैसे स्कटिक-मणि जो कि निर्मल होता है वह किसी बाहरी लगाव के बिना अपने आप ही लाल आदि रूप परिणमन नहीं करता है किन्तु ज़पा-पुष्पादि बाह्य दूसरे-दूसरे द्रव्य के द्वारा वह लाल आदि बनता है उसी प्रकार ज्ञानी जीव भी उपाधि से रहित अपने चिच्चमत्कार रूप स्वभाव से वह शुद्ध ही होता है जो कि जपा-पुष्प स्थानीय कर्मोदयरूप-उपाधि के बिना रागादिरूप विभावों के रूप में परिणमन नहीं करता है । हाँ, जब कर्मोदय से होने वाले रागादिरूप-दोषभावों से अपनी सहज स्वच्छता से च्युत होता है तब वह रागी बनता है । इससे यह बात मान लेनी पड़ती है कि जो रागादिक हैं वे सब कर्मोदय जनित हैं, किन्तु ज्ञानी जीव के स्वयं के भाव नहीं हैं ॥३००-३०१॥

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+ ज्ञानी जीव आस्रव का कर्त्ता नहीं होता -
ण य रागदोसमोहं कुव्वदि णाणी कसायभावं वा । (280)
सयमप्पणो ण सो तेण कारगो तेसिं भावाणं ॥302॥
न च रागद्वेषमोहं करोति ज्ञानी कषायभावं वा ।
स्वयमात्मनो न स तेन कारकस्तेषां भावानाम् ॥२८०॥
ना स्वयं करता मोह एवं राग-द्वेष-कषाय को
इसलिए ज्ञानी जीव कर्ता नहीं है रागादि का ॥२८०॥
अन्वयार्थ : [च] और [णाणी] ज्ञानी [रागदोसमोहं] राग-द्वेष-मोह [कसायभावं वा] अथवा कषायभाव [सयमप्पणो] स्वयं से अपने में नहीं करता [सो ते] इसकारण वह [ण कारगो तेसिं भावाणं] उन भावों का कारक (कर्ता) नहीं है ।

अमृतचंद्राचार्य :
यथोक्त वस्तु-स्वभाव को जानता हुआ ज्ञानी स्वयं के शुद्ध-स्वभाव से च्युत नहीं होता; इसकारण वह मोह-राग-द्वेष भावों रूप स्वयं परिणमित नहीं होता और दूसरे के द्वारा भी परिणमित नहीं किया जाता । यही कारण है कि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-भावरूप ज्ञानी रागद्वेष-मोह आदि भावों का अकर्ता ही है - ऐसा नियम है ।

(कलश -- दोहा)
ऐसे वस्तु स्वभाव को ना जाने अल्पज्ञ ।
धरे एकता राग में नहीं अकारक अज्ञ ॥१७७॥

जयसेनाचार्य :
इस प्रकार चिदानन्द ही है एक लक्षण जिसका, ऐसे अपने स्वभाव को जानता हुआ ज्ञानी जीव रागादि नहीं करता है इसलिये वह नूतन-रागादि की उत्पत्ति के कारणभूत कर्मों का करता भी नहीं होता, ऐसा आगे बतलाते हैं --

[णवि रागदोसमोहं कुव्वदि णाणी कसायभावं वा] रागादि दोषों से रहित जो शुद्धात्मा, उसके स्वभाव से पृथक् रहने वाले राग-द्वेष-मोह भाव को तथा किसी भी प्रकार के कषाय-भाव को क्रोधादि रूप परिणाम को ज्ञानी जीव नहीं करता क्योंकि वह [सयमप्पणो ण सो तेण कारगो तेसिं भावाणं] कर्मोदय रूप सहकारी कारण के बिना अपने-आप ही अपने उन विकार भावों का कर्ता शुद्ध भाव के द्वारा नहीं हो सकता ॥३०२॥

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+ ज्ञानी के कर्म के उदय से राग द्वेष -
रागम्हि य दोसम्हि य कसायकम्मेसु चेव जे भावा । (281)
तेहिं दु परिणमंतो रागादि बंधदि पुणो वि ॥303॥
रागम्हि य दोसम्हि य कसायकम्मेसु चेव जे भावा । (282)
तेहिं दु परिणमंतो रागादी बंधदे चेदा ॥304॥
रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु चैव ये भावाः ।
तैस्तु परिणममानो रागादीन् बध्नाति पुनरपि ॥२८१॥
रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु चैव ये भावाः ।
तैस्तु परिणममानो रागादीन् बध्नाति चेतयिता ॥२८२॥
राग-द्वेष-कषाय कर्मों के उदय में भाव जो
उनरूप परिणत जीव फिर रागादि का बंधन करे ॥२८१॥
राग-द्वेष-कषाय कर्मों के उदय में भाव जो
उनरूप परिणत आतमा रागादि का बंधन करे ॥२८२॥
अन्वयार्थ : [रागम्हि य दोसम्हि य] राग और द्वेष और [कसायकम्मेसु चेव जे भावा] कषाय कर्मों के (उदय) होने पर जो भाव, [तेहिं दु परिणमंतो] उनरूप परिणमता हुआ [रागादि बंधदि पुणो वि] रागादि द्वारा बंधता है ।
[रागम्हि य दोसम्हि य] राग और द्वेष और [कसायकम्मेसु चेव जे भावा] कषाय कर्मों के (उदय) होने पर जो भाव, [तेहिं दु परिणमंतो] उनरूप परिणमता हुआ [रागादी बंधदे चेदा] आत्मा रागादि को बाँधता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
यथोक्त वस्तुस्वभाव को नहीं जाननेवाला अज्ञानी अनादिकाल से अपने शुद्धस्वभाव से च्युत ही है; इसकारण कर्मोदय से उत्पन्न राग-द्वेष-मोह आदि भावरूप परिणमता हुआ, रागद्वेष-मोहादि भावों का कर्ता होता हुआ कर्मों से बँधता ही है - ऐसा नियम है ।

अत: यह निश्चित हुआ कि निश्चय से अज्ञानी को पौद्गलिक कर्मों के निमित्त से होनेवाले राग-द्वेष-मोहादि परिणाम ही आगामी पौद्गलिक कर्मों के बंध के कारण हैं ।

जयसेनाचार्य :
जब यह जीव शुद्ध-स्वभावरूप आत्मा को नहीं जानता हुआ अज्ञानी होता है, तब रागादिकों को करने लगता है तो वह उनसे रागादिकों को पैदा करने वाले नवीन-कर्मों का कर्ता बनता है ऐसा बताते हैं --

[रागम्हि य दोसम्हि य कसायकम्मेसु चेव जे भावा] राग-द्वेषादि कषायरूप द्रव्य-कर्म के उदय में आने पर अपने सहज भाव से चिगे हुए इस जीव के उस कर्मोदय के निमित्त से जो आत्मगत रागादि भाव अर्थात विकारी परिणाम होते हैं, [तेहिं दु परिणमंतो रागादी बंधदे चेदा] उनसे मैं रागादिरूप हूँ इस प्रकार के अभेद को लिए हुए परिणमन करता हुआ अर्थात् राग-द्वेषरूप होता हुआ वह फिर से भावी रागादिरूप परिणामों के उत्पादक द्रव्य-कर्मों का बंध करने लग जाता है । इस प्रकार वह अज्ञानी जीव उन रागादिकों का कर्त्ता बनता है ॥३०३॥

इसी बात को आगे की गाथा से दृढ़ करते हैं --

पहली गाथा में तो मैं स्वयं रागादिरूप हूँ इस प्रकार उन रागादि से अभिन्न परिणति करता हुआ आत्मा रागादि के उत्पन्न करने वाले उन नवीन-द्रव्यकर्मों का बन्ध करता है ऐसा बतलाया गया है, किन्तु इस गाथा में यह बता रहे हैं की शुद्धात्मा की भावना से रहित होने से यह जीव 'यह रागभाव मेरा है' इस प्रकार राग के साथ सम्बन्ध करता है इतनी विशेषता है । हाँ, यहाँ पर यह बात जान लेने की है की जहाँ पर रागद्वेष और मोह ये तीनों शब्द एक साथ आवें वहाँ पर मोह शब्द से दर्शनमोह जो कि मिथ्यात्व का जनक है उसे लेना चाहिये और रागद्वेष शब्द से क्रोधादि कषायों के उत्पन्न करने वाले चारित्रमोह को समझना चाहिये । यहाँ शिष्य पूछता है कि मोह शब्द से मिथ्यात्वादिजनक दर्शनमोह लिया जाये यह ठीक ही है, इसमें दोष नहीं है किन्तु रागद्वेष शब्द से चारित्रमोह कैसे लिया ? इसका उत्तर यह है कि कषायवेदनीय नाम वाले चारित्रमोह के भीतर क्रोध और मान ये दोनों द्वेष के उत्पादक होने से द्वेष के अंग हैं और माया और लोभ ये दोनों रागजनक होने से रागरूप है । इसी प्रकार नोकषाय-वेदनीय नामक चारित्रमोह में इस प्रकार मोह शब्द से दर्शनमोह (मिथ्यात्व) और राग-द्वेष शब्द से चारित्रमोह, ऐसा सभी स्थान पर समझना चाहिये । इस प्रकार कर्मबंध के कारण रागादिभाव हैं और रागादि भावों का कारण नियम से कर्म का उदय है, किन्तु ज्ञानी जीव नहीं, इस प्रकार के व्याख्यान की मुख्यता से इस सातवें स्थल में पाँच गाथायें कहीं गयी ॥३०४॥

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+ ज्ञानी रागादि का अकर्ता कैसे ? -
अप्पडिकमणं दुविहं अपच्चखाणं तहेव विण्णेयं । (283)
एदेणुवदेसेण य अकारगो वण्णिदो चेदा ॥305॥
अप्पडिकमणं दुविहं दव्वे भावे अपच्चखाणं पि । (284)
एदेणुवदेसेण य अकारगो वण्णिदो चेदा ॥306॥
जावं अप्पडिकमणं अपच्चखाणं च दव्वभावाणं । (285)
कुव्वदि आदा तावं कत्ता सो होदि णादव्वो ॥307॥
अप्रतिक्रमणं द्विविधमप्रत्याख्यानं तथैव विज्ञेयम् ।
एतेनोपदेशेन चाकारको वर्णितश्चेतयिता ॥२८३॥
अप्रतिक्रमणं द्विविधं द्रव्ये भावेऽपिऽप्रत्याख्यान ।
एतेनोपदेशेन चाकारको वर्णितश्चेतयिता ॥२८४॥
यावदप्रतिक्रमणमप्रत्याख्यानं च द्रव्यभावयोः ।
करोत्यात्मा तावत्कर्ता स भवति ज्ञातव्यः ॥२८५॥
है द्विविध अप्रतिक्रमण एवं द्विविध है अत्याग भी
इसलिए जिनदेव ने अकारक कहा है आतमा ॥२८३॥
अत्याग अप्रतिक्रमण दोनों द्विविध हैं द्रवभाव से
इसलिए जिनदेव ने अकारक कहा है आतमा ॥२८४॥
द्रवभाव से अत्याग अप्रतिक्रमण होवें जबतलक
तबतलक यह आतमा कर्ता रहे - यह जानना ॥२८५॥
अन्वयार्थ : [अप्पडिकमणं दुविहं] अप्रतिक्रमण दो प्रकार का है [अपच्चखाणं तहेव विण्णेयं] इसीप्रकार अप्रत्याख्यान भी दो प्रकार का जानो [एदेणुवदेसेण य] इस उपदेश से [अकारगो वण्णिदो चेदा] आत्मा अकारक कहा गया है ।
[अप्पडिकमणं दुविहं] अप्रतिक्रमण दो प्रकार का है - [दव्वे भावे] द्रव्य और भाव, [अपच्चखाणं पि] अप्रत्याख्यान भी (दो प्रकार का जानो) [एदेणुवदेसेण य] इस उपदेश से [अकारगो वण्णिदो चेदा] आत्मा अकारक कहा गया है ।
[जावं अप्पडिकमणं] जबतक अप्रतिक्रमण [अपच्चखाणं च दव्वभावाणं] और अप्रत्याख्यान द्रव्य और भाव का [कुव्वदि आदा] आत्मा करता है [तावं कत्ता सो होदि णादव्वो] तबतक वह कर्ता होता है, ऐसा जानो ।

अमृतचंद्राचार्य :
यह आत्मा स्वयं से तो रागादिभावों का अकारक ही है; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान की द्विविधता का उपदेश नहीं हो सकता । अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान का जो द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का उपदेश (कथन) है, वह द्रव्य और भाव के निमित्त-नैमित्तिकत्व को प्रगट करता हुआ आत्मा के अकर्तृत्व को ही बतलाता है । इसलिए यह निश्चित हुआ कि परद्रव्य निमित्त है और आत्मा के रागादिभाव नैमित्तिक हैं । यदि ऐसा न माना जाये तो द्रव्य अप्रतिक्रमण और द्रव्य अप्रत्याख्यान के कर्तृत्व के निमित्तत्व का उपदेश निरर्थक ही होगा । उसके निरर्थक हो जाने पर एक आत्मा को ही रागादिभावों का निमित्तत्व आ जायेगा, जिससे नित्यकर्तृत्व का प्रसंग आयेगा और उससे मोक्ष का अभाव सिद्ध होगा ।

इसलिए परद्रव्य ही आत्मा के रागादिभावों का निमित्त हो । इससे यह सिद्ध हुआ कि आत्मा रागादि का अकारक ही है ।

इसप्रकार यद्यपि आत्मा रागादिभावों का अकारक ही है; तथापि जबतक वह निमित्तभूत परद्रव्य का प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान नहीं करता; तबतक नैमित्तिकभूत रागादिभावों का प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान नहीं होता । इसीप्रकार जबतक इन रागादिभावों का प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान नहीं करता; तबतक वह इन भावों का कर्ता ही है ।

जब आत्मा निमित्तभूत द्रव्य का प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करता है; तभी नैमित्तिकभूत रागादिभावों का प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान होता है और जब इन भावों का प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान होता है; तब वह साक्षात् अकर्ता ही है ।

जयसेनाचार्य :
अब, सम्यग्ज्ञानी जीव रागादि विकारी भावों का अकर्ता कैसे है ? सो बताते हैं --

[अप्पडिकमणं दुविहं अपच्चखाणं तहेव विण्णेयं] पूर्वकाल में अनुभव किये हुए विषयों का अनुभव करने रूप रागादि का स्मरण करना सो अप्रतिक्रमण दो प्रकार का है । एवं आगामी काल में होने वाले रागादि के विषयों की आकांक्षा रूप जो अप्रत्याख्यान वह भी दो प्रकार का है । [एदेणुवदेसेण य अकारगो वण्णिदो चेदा] इस प्रकार के परमागम के उपदेश से जाना जाता है कि आत्मा दोनों प्रकार के अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यानों से रहित है इसलिये वह कर्मों का अकर्ता है । [अप्पडिकमणं दुविहं दव्वे भावे अपच्चखाणं पि] द्रव्य और भाव के रूप में अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान भी दो-दो प्रकार के है । [एदेणुवदेसेण य अकारगो वण्णिदो चेदा] वह अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान ही तो बंध का कारण है, ऐसा आगम का उपदेश है जिससे यह जान लिया जाता है कि द्रव्य और भावरूप जो अप्रतिक्रमण तथा अप्रत्याख्यान है उसमें परिणत होता हुआ आत्मा शुद्धात्मा की भावना से च्युत होता है, वह अज्ञानी ही कर्मों का करने वाला होता है किन्तु उससे विपरीत स्वभाव वाला अर्थात शुद्धात्मा की भावना में लीन रहता हुआ प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यानमय जो ज्ञानी है वह बंध कारक नहीं होता है, इसी को दृढ़ता से कहते हैं कि [जाव ण पच्चखाणं] जितने काल तक द्रव्य और भावरूप प्रत्याख्यान जो कि विकार-रहित स्व-संवेदन लक्षण वाला है, वह नहीं होता है [अप्पडिकमणं दु दव्वभावाणं कुव्वदि] और जितने काल तक द्रव्य और भावरूप अप्रतिक्रमण भी करता रहता है [आदा तावं कत्ता सो होदि णादव्वो] तब तक परमसमाधि के न होने से वह जीव अज्ञानी होता है, जो कि कर्मों का करनेवाला होता है -- ऐसा समझना चाहिये ।

यहाँ यह तात्पर्य है -- जीव की अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान रूप परिणति ही कर्मों को करने वाली होती है । ज्ञानी जीव कर्मों का करने वाला नहीं होता, यह बात स्पष्ट है । यदि वह जीव कर्ता हो तो कर्त्तापन सदा बना रहे क्योंकि जीव जो कि ज्ञान-स्वभाव वाला है, सदा ही बना रहता है । अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान-रूप-भाव रागादि-विकल्प-भाव हैं अत: वे अनित्य हैं, क्योंकि वे स्वस्थभाव से च्युत हुए जीवों के ही होते हैं, इसलिए सदा नहीं होते हैं ।

इससे यह बात सिद्ध हो गई कि जब यह स्वस्थ-भाव से च्युत होता हुआ अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान के रूप में परिणत होता है उस समय में कर्मों का करने वाला होता है, और स्वस्थ-भाव में रहने पर फिर अकर्ता होता है यह तात्पर्य है । इस प्रकार अज्ञानी जीव की परिणतिरुप जो अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान है, वही बन्ध का कारण है, किन्तु ज्ञानी जीव के बन्ध का कारण नहीं । इस कथन की मुख्यता से इस आठवें स्थल में तीन गायायें पूर्ण हुईं ।

अब निर्विकल्प समाधि रूप निश्चय-प्रतिक्रमण और निश्चय-प्रत्याख्यान इन दोनों से रहित जो जीव हैं, उनके बन्ध बताया गया है, यह त्यागने योग्य है, सम्पूर्ण नरक आदि के दुखों का कारण है, इसलिये हेय है अत: उस बन्ध-नाश के लिए जो भावना होती है उसे कह रहे हैं कि -- 'मैं सहज-शुद्ध ज्ञानानन्दरूप एक-स्वभाव वाला हूँ, विकल्प रहित हूँ उदासीन हूँ, निरंजन-जो निज-शुद्धात्मा उसके समीचीन श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान-रूप जो निश्चय-रत्नत्रय-स्वरूप-निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न हुआ जो वीतराग-सहजानन्दरुप सुख उसकी अनुभूति-मात्र ही है लक्षण जिसका, ऐसे स्व-संवेदन के द्वारा संवेद्य है, जानने योग्य है, प्राप्त करने योग्य है -- वह मैं हूँ, भरित अर्थात् संतृप्त अवस्था वाला हूँ, राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ एवं पंचेन्द्रियों के विषयों में होने वाला मन, वचन और काय का व्यापार तथा भावकर्म, नोकर्म, द्रव्यकर्म, ख्याति, लाभ, पूजा एवं देखे गये, सुने गये तथा अनुभव में लाए गये जो भोग उनकी आकांक्षा-रूप निदान-शल्य, माया-शल्य, और मिथ्या-शल्य इन तीनों शल्यों से रहित तथा और भी सब प्रकार के विभाव परिणामों से रहित हूँ, शून्य हूँ, तीन लोक और तीन काल में मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना द्वारा शुद्ध-निश्चयनय से तो मैं ऐसा ही हूँ और ऐसे ही सब जीव हैं' -- इस प्रकार की भावना निरन्तर करनी चाहिये ॥३०५-३०७॥

इस प्रकार श्री जयसेनाचार्य की बनाई हुई शुद्धात्मानुभूति के लक्षण वाली श्री समयसार जी की तात्पर्य नाम की टीका के हिन्दी रुपान्तर में जैसा कि लिख आये हैं इस प्रकार समुदाय से छप्पन गाथाओं में आठ अन्तर अधिकारों द्वारा यह आठवां बन्धाधिकार समाप्त हुआ ।

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मोक्ष अधिकार



+ विशिष्ट भेद-ज्ञान के बल से बन्ध और आत्मा को पृथक् करना मोक्ष -
जह णाम को वि पुरिसो बंधणयम्हि चिरकालपडिबद्धो । (288)
तिव्वं मंदसहावं कालं च वियाणदे तस्स ॥308॥
जइ णवि कुणदि च्छेदं ण मुच्चदे तेण बंधणवसो सं । (289)
कालेण उ बहुगेण वि ण सो णरो पावदि विमोक्खं ॥309॥
इय कम्मबंधणाणं पदेसठिइपयडिमेवमणुभागं । (290)
जाणंतो वि ण मुच्चदि मुच्चदि सो चेव जदि सुद्धो ॥310॥
(कलश--शिखरिणी)
द्विधाकृत्य प्रज्ञाक्रकचदलनाद्बंधपुरुषौ
नयन्मोक्षं साक्षात्पुरुषमुपलंभैकनियतम् ।
इदानी-मुन्मज्जत्सहज-परमानंद-सरसं
परं पूर्णं ज्ञानं कृतसकलकृत्यं विजयते ॥१८०॥

आत्मबन्धयोर्द्विधाकरणं मोक्षः । बन्धस्वरूपज्ञानमात्रं तद्धेतुरित्येके, तदसत्; न कर्मबद्धस्यबन्धस्वरूपज्ञानमात्रं मोक्षहेतुः, अहेतुत्वात्, निगडादिबद्धस्य बन्धस्वरूपज्ञानमात्रवत् । एतेनकर्मबन्धप्रपंचरचनापरिज्ञानमात्रसन्तुष्टा उत्थाप्यन्ते ॥२८८-२९०॥
कोई पुरुष चिरकाल से आबद्ध होकर बंध के
तीव्र-मन्दस्वभाव एवं काल को हो जानता ॥२८८॥
किन्तु यदि वह बंध का छेदन न कर छूटे नहीं
तो वह पुरुष चिरकाल तक निज मुक्ति को पाता नहीं ॥२८९॥
इस ही तरह प्रकृति प्रदेश स्थिति अर अनुभाग को
जानकर भी नहीं छूटे शुद्ध हो तब छूटता ॥२९०॥
अन्वयार्थ : [जह णाम को वि पुरिसो] जिसप्रकार कोई पुरुष [बंधणयम्हि] बंधन में [चिरकालपडिबद्धो] बहुत काल से बँधा हुआ [तस्स] उस बंधन के [तिव्वं मंदसहावं] तीव्र-मन्दस्वभाव को [कालं च वियाणदे] और उसकी कालावधि को जानता हुआ [जइ णवि कुणदि] यदि [णवि कुणदि च्छेदं] उस बंधन को काटता नहीं है [ण मुच्चदे तेण] तो वह उससे मुक्त नहीं होता [बंधणवसो सं] तथा बंधन में रहता हुआ [कालेण उ बहुगेण] बहुत काल में [वि सो णरो] भी वह पुरुष [ण पावदि विमोक्खं] मुक्ति को प्राप्त नहीं करता । [इय कम्मबंधणाणं] उसीप्रकार (यह आत्मा) कर्म-बंधनों के [पदेसठिइपयडिमेवमणुभागं] प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग को [जाणंतो वि ण मुच्चदि] जानता हुआ भी (कर्मबंधन से) नहीं छूटता [मुच्चदि सो चेव जदि सुद्धो] किन्तु यदि (रागादि को दूर कर) वह स्वयं शुद्ध होता है तो कर्म-बंधन से छूट जाता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब मोक्ष प्रवेश करता है ।

(कलश-हरिगीत)
निज आतमा अर बंध को कर पृथक् प्रज्ञाछैनि से ।
सद्ज्ञानमय निज आत्म को कर सरस परमानन्द से ॥
उत्कृष्ट है कृतकृत्य है परिपूर्णता को प्राप्त है ।
प्रगटित हुई वह ज्ञानज्योति जो स्वयं में व्याप्त है ॥१८०॥

[इदानीम्] अब (बन्ध पदार्थ के पश्चात्), [प्रज्ञा-क्रकच-दलनात् बन्ध-पुरुषौ द्विधाकृत्य] प्रज्ञारूपी करवत से विदारण द्वारा बन्ध और पुरुष को द्विधा (भिन्न भिन्न-दो) करके, [पुरुषम् उपलम्भ-एक-नियतम्] पुरुष को, कि जो पुरुष मात्र अनुभूति द्वारा ही निश्चित है उसे, [साक्षात् मोक्षं नयत्] साक्षात् मोक्ष प्राप्त कराता हुआ, [पूर्णं ज्ञानं विजयते] पूर्ण ज्ञानजयवंत प्रवर्तता है । वह ज्ञान [उन्मज्जत्-सहज-परम-आनन्द-सरसं] प्रगट होनेवाले सहज परमानंद के द्वारा सरस (रसयुक्त) है, [परं] उत्कृष्ट है, और [कृत-सकल-कृत्यं] जिसने करने योग्य समस्त कार्य कर लिये हैं (जिसे कुछ भी करना शेष नहीं है) ऐसा है ।

आत्मा और बंध को अलग-अलग कर देना मोक्ष है । कोई कहता है कि बंध के स्वरूप का ज्ञानमात्र ही मोक्ष का कारण है; किन्तु यह बात ठीक नहीं है । कर्म से बँधे हुए जीव को बंध के स्वरूप का ज्ञानमात्र मोक्ष का कारण नहीं है; क्योंकि जिसप्रकार बेड़ी आदि से बँधे हुए जीव को बंध के स्वरूप का ज्ञानमात्र बंधन से मुक्त होने का कारण नहीं है; उसीप्रकार कर्म से बँधे हुए जीव को कर्मबंध के स्वरूप का ज्ञानमात्र कर्मबंधन से मुक्त होने का कारण नहीं है । इस कथन से उनका खण्डन हो गया, जो कर्मबंध के विस्तार के ज्ञान से ही संतुष्ट हैं ।

जयसेनाचार्य :
इस प्रकार पात्र के स्थान पर जो शुद्धात्मा है उसके पास में से श्रृंगार स्थानीय जो बंध है वह तो चला गया है । अब मोक्ष प्रवेश कर रहा है सो [जह णाम कोवि पुरिसो] इत्यादि गाथा से प्रारम्भ करके बावीस गाथा पर्यंत मोक्ष-पदार्थ का व्याख्यान कर रहे हैं । वहाँ इस प्रकार बावीस गाथाओं से चार स्थल वाले मोक्ष अधिकार की यह समुदाय पातनिका है ।

यहाँ विशिष्ट भेदज्ञान के बल से बंध और आत्मा को पृथक् करना मोक्ष है, ऐसा बताते हैं --

[जह णाम] जैसे कोई पुरुष चिरकाल से बंधन में बंधा हुआ उसके तीव्र या मन्द स्वभाव को भी जानता है एवं उसके काल को भी जानता है । यह एक गाथा हुई । इस प्रकार से जानता हुआ भी यदि वह बंध को नहीं छेदता है तो उससे वह नहीं छूटता है एवं उस बन्धन से नहीं छूटता हुआ वह पुरुष चिरकाल तक भी मोक्ष को प्राप्त नहीं होता है । दो गाथाओं में दृष्टान्त हुआ । [इय कम्मबंधणाणं पदेसठिइपयडिमेवमणुभागं जाणंतो वि ण मुच्चदि] उसी प्रकार ज्ञाना-वरणादि मूलोत्तर प्रकृतियों के भेद से नाना भेद वाले जो कर्मों के बन्धन हैं उनके प्रदेश, प्रकृति, स्थिति और अनुभाग को जानता हुआ भी जीव कर्म से मुक्त नहीं होता है । [मुंचदि सव्वे जदि विसुद्धो] जब कि मिथ्यात्व और रागादि से रहित हो जाता है तो अनन्त-ज्ञानादि गुणात्मक परमात्मा के स्वरूप में स्थित होता हुआ वह सभी कर्मों को छोड़ देता है, उनसे रहित हो जाता है । इसका दूसरा पाठ यह है कि [मुंचदि सव्वे जदि स बंधे] हाँ, यदि उन सभी कर्मबन्धों को छेद डालता है तो कर्मबन्ध से मुक्त हो जाता है । इस कथन से आचार्यदेव ने जो प्रकृति, स्थिति आदि रूप कर्म-बन्ध के परिज्ञान मात्र से संतुष्ट हुए बैठे हैं, उनको समझाया है कि हे भाई ! स्वरूप की उपलब्धिरूप वीतराग चारित्र से रहित जीवों के बन्ध के परिज्ञान-मात्र से स्वर्गादिक के सुख का निमित्तभूत पुण्य बंध ही होता है, मोक्ष नहीं होता । इस प्रकार यह दार्ष्टान्त की गाथा हुई । इस कथन से उन लोगों का निराकरण किया है जो कर्मबन्ध प्रपंच की रचना बन्धोदयादिरूप के विषय में चिन्ता कर लेने रूप ज्ञान मात्र से संतृष्ट हुए बैठे हैं ॥३०८-३१०॥

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+ इसी को और स्पष्ट करते हैं -
जह बंधे चिंतंतो बंधणबद्धो ण पावदि विमोक्खं । (291)
तह बंधे चिंतंतो जीवो वि ण पावदि विमोक्खं ॥311॥
जह बंधे छेत्तूणय बंधणबद्धो दु पावदि विमोक्खं । (292)
तह बंधे छेत्तूणय जीवो संपावदि विमोक्खं ॥312॥
जह बंधे भित्तूणय बंधणबद्धो दु पावदि विमोक्खं ।
तह बंधे भित्तूणय जीवो संपावदि विमोक्खं ॥313॥
जह बंधे मुत्तूणय बंधणबद्धो दु पावदि विमोक्खं ।
तह बंधे मुत्तूणय जीवो संपावदि विमोक्खं ॥314॥
बंधाणं च सहावं वियाणिदुं अप्पणो सहावं च । (293)
बंधेसु जो विरज्जदि सो कम्मविमोक्खणं कुणदि ॥315॥
यथा बन्धांश्चिन्तयन् बन्धनबद्धो न प्राप्नोति विमोक्षम् ।
तथा बन्धांश्चिन्तयन् जीवोऽपि न प्राप्नोति विमोक्षम् ॥२९१॥
यथा बन्धांश्छित्वा च बन्धनबद्धस्तु प्राप्नोति विमोक्षम् ।
तथा बन्धांश्छित्वा च जीवः सम्प्राप्नोति विमोक्षम् ॥२९२॥
बन्धानां च स्वभावं विज्ञायात्मनः स्वभावं च ।
बन्धेषु यो विरज्यते स कर्मविमोक्षणं करोति ॥२९३॥
चिन्तवन से बंध के ज्यों बँधे जन ना मुक्त हों
त्यों चिन्तवन से बंध के सब बँधे जीव न मुक्त हों ॥२९१॥
छेदकर सब बंधनों को बद्धजन ज्यों मुक्त हों
त्यों छेदकर सब बंधनों को बद्धजिय सब मुक्त हों ॥२९२॥
जो जानकर निजभाव निज में और बंधस्वभाव को
विरक्त हों जो बंध से वे जीव कर्मविमुक्त हों ॥२९३॥
अन्वयार्थ : [जह] जिसप्रकार [बंधे चिंतंतो] बंधन का विचार-मात्र करने वाला [बंधणबद्धो] बंधन से बद्ध (पुरुष) को [ण पावदि विमोक्खं] (बंधन से) मुक्ति नहीं पाता [तह] उसीप्रकार [बंधे चिंतंतो] बंधनों का विचार-मात्र करनेवाला [जीवो वि] जीव भी [ण पावदि विमोक्खं] मुक्ति नहीं पाता ।
[जह] जिसप्रकार [बंधणबद्धो] बंधनबद्ध (पुरुष) [बंधे छेत्तूणय दु] बंधनों को छेदकर ही [पावदि विमोक्खं] मुक्ति पाता है [तह बंधे छेत्तूणय] उसीप्रकार बंधनों को छेदकर ही [जीवो संपावदि विमोक्खं] जीव मुक्ति को पाता है ।
[जह] जिसप्रकार [बंधणबद्धो] बंधनबद्ध (पुरुष) [बंधे मुत्तूणय दु] बंधनों को काटकर ही [पावदि विमोक्खं] मुक्ति पाता है [तह बंधे मुत्तूणय] उसीप्रकार बंधनों को काटकर ही [जीवो संपावदि विमोक्खं] जीव मुक्ति को पाता है ।
[बंधाणं च सहावं वियाणिदुं] बंध के स्वभाव को और [अप्पणो सहावं च] आत्मा के स्वभाव को जानकर [बंधेसु जो विरज्जदि] बंध के प्रति जो विरक्त होता है [सो कम्मविमोक्खणं कुणदि] उसे कर्म मुक्त करता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अन्य अनेक लोग ऐसा कहते हैं कि बंधसंबंधी विचार-श्रंखला ही मोक्ष का कारण है; किन्तु यह भी ठीक नहीं है । कर्म से बँधे हुए जीवों को बंध-संबंधी विचार-श्रंखला भी मोक्ष का कारण नहीं है; क्योंकि जिसप्रकार बेड़ी आदि से बँधे हुए पुरुष को उक्त बंधन संबंधी विचार-श्रंखला बंध से छूटने का कारण (उपाय) नहीं है; उसीप्रकार कर्म से बँधे हुए पुरुष को कर्म-बंध-संबंधी विचार-श्रंखला कर्म-बंध से मुक्ति का कारण (उपाय) नहीं है । इस कथन से कर्म-संबंधी विचार-श्रंखला-रूप विशुद्ध (शुभ) भाव-रूप धर्म-ध्यान से जिनकी बुद्धि अंध है; उन्हें समझाया है ।

यदि बंध-संबंधी विचार-श्रंखला भी मोक्ष का हेतु नहीं है तो फिर मोक्ष का हेतु क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि कर्म से बँधे हुए जीव को बंध का छेद ही मोक्ष का कारण है; क्योंकि जिस प्रकार बेड़ी आदि से बँधे हुए पुरुष को बंधन का छेद ही बंधन से छूटने का उपाय है; उसीप्रकार कर्म से बँधे हुए जीव को कर्म-बंधन का छेद ही कर्म-बंधन से छूटने का उपाय है । इस कथन से पूर्व-कथित बंध के स्वरूप के ज्ञान-मात्र से ही संतुष्ट और बंध का विचार करनेवाले - इन दोनों को आत्मा और बंध के द्विधाकरण के व्यापार में लगाया जाता है । मात्र यही मोक्ष का कारण क्यों है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि जो निर्विकार चैतन्य-चमत्कार-मात्र आत्म-स्वभाव को और उस आत्मा को विकृत करनेवाले बंध के स्वभाव को जानकर बंध से विरक्त होता है; वही समस्त कर्मों से मुक्त होता है । इस कथन से ऐसा नियम (सुनिश्चित) किया जाता है कि आत्मा और बंध का द्विधाकरण (पृथक्करण) ही मोक्ष का कारण है ।

जयसेनाचार्य :
[जह बंधे चिंतंतो बंधणबद्धो ण पावदि विमोक्खं] जैसे बंधन से बँधा हुआ कोई भी पुरुष उसके विषय में विचार करने मात्र से ही बंधन-मुक्त नहीं हो जाता है । [तह बंधे चिंतंतो जीवो वि ण पावदि विमोक्खं] उसी प्रकार जीव भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप बंध के विषय का मात्र विचार करता हुआ ही स्व-शुद्धात्मा की प्राप्ति रूप है लक्षण जिसका, उस मोक्ष को कभी प्राप्त नहीं हो सकता है ।

भावार्थ यह है कि समस्त शुभ और अशुभ बाह्य-द्रव्यों के आलम्बन से रहित चिदानंदैकरूप शुद्धात्मा के आलम्बन-स्वरूप जो वीतराग-धर्म-ध्यान या शुक्ल-ध्यान से रहित जीव, बंध-प्रपंच की रचना की चिंतारूप सराग-धर्म-ध्यान स्वरूप-शुभोपयोग से, स्वर्गादि-सुख का कारणभूत पुण्य-बंध प्राप्त करता है परन्तु मोक्ष नहीं पाता है ॥३११॥

इस पर प्रश्न होता है की फिर मोक्ष कैसे होगा ? इसका उत्तर देते हैं :-

[जह बंधे छेत्तूणय बंधणबद्धो दु पावदि विमोक्खं] जैसे बंधन में बँधा हुआ कोई पुरुष रस्सी के बंध को, सांकल के बंध को, व काठ की बेडी के बंध को किसी को तोड़कर, किसी को छोडकर एवं किसी को खोल कर अपने विज्ञान और पुरुषार्थ के बल से उस बंधन से छुटकारा पाता है [तह बंधे छेत्तूणय जीवो संपावदि विमोक्खं] उसी प्रकार यह जीव भी वीतराग एवं विकल्प रहित स्व-संवेदन-ज्ञान के बल से बंध को छेद कर, उसे दो रूप कर अर्थात् भिन्न-भिन्न, खोलकर, विदारण कर अपने शुद्धात्मा के उपलंभ स्वरूप मोक्ष को प्राप्त करता है । यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि इस प्राभृत-ग्रन्थ में निर्विकल्प स्व-संवेदन ज्ञान होता हुआ बताया गया है वह तो किसी भी प्रकार घटित नहीं होता है क्योंकि चक्षु आदि के द्वारा दर्शन होता है जो कि सत्तामात्र अवलोकन स्वरूप है, उसे जैनमत में निर्विकल्प कहा है । हाँ, बौद्धमत में ज्ञान को निर्विकल्प कहा गया है, किन्तु वह भी उत्तर क्षण में विकल्प का जनक होता है परन्तु जैनमत में ज्ञान विकल्प का उत्पादक न होकर अपने स्वरुप से ही सविकल्प तथा स्व-पर प्रकाशक कहा गया है? इसका उत्तर यह है कि जैनमत अनेकान्तात्मक है इसलिए उसमें ज्ञान को कथंचित् सविकल्प और कथंचित् निर्विकल्प कहा गया है । जैसे विषयानन्द रूप सराग स्वसंवेदन ज्ञान होता है वह सराग-संवित्ति के विकल्प-रूप है अत: सविकल्प होता है किन्तु वहीं पर शेष अनिच्छित सूक्ष्म-विकल्पों का सद्भाव होने पर भी वहाँ पर उनकी मुख्यता नहीं होती इसलिए उसे निर्विकल्प भी कहा जाता है । वैसे ही अपनी शुद्धात्मा की संवित्तिरूप वीतराग स्व-संवेदन ज्ञान होता है वह भी स्व-संवित्तिरूप एक आकार से तो सविकल्प होता है, फिर भी वहाँ पर बाह्य विषयों के अनिच्छित सूक्ष्म विकल्प भी होते हैं उनके होनेपर भी उनकी वहाँ मुख्यता नहीं होती इसलिए उसे निर्विकल्प भी कहते हैं। और जहाँ ईहापूर्वक स्वसंवित्याकार जो अंतर्मुख प्रतिभास होता है वहीं पर बहिर्विषयों के भी अनिश्चित सूक्ष्म विकल्प भी होते हैं इसलिए वह स्व-पर प्रकाशक भी होता है, यही निर्विकल्प व सविकल्प ज्ञान का तथा स्व-पर प्रकाशक ज्ञान का व्याख्यान स्पष्ट सिद्ध है । इसी का आगम, अध्यात्म तर्क और शास्त्र के अनुसार विशेष व्याख्यान किया जावे तब तो बहुत विस्तार हो जावे सो इस अध्यात्म शास्त्र में नहीं किया गया है ॥३११-३१५॥

इस प्रकार मोक्ष-पदार्थ की संक्षेप सूचना करते हुए सात गाथाओं द्वारा प्रथम स्थल पूर्ण हुआ । क्या यही मोक्ष का मार्ग है ? इसका समाधान करते हैं :-

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+ आत्मा और बन्ध को भिन्न कैसे किया जाए ? -
जीवो बंधो य तहा छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं । (294)
पण्णाछेदणएण दु छिण्णा णाणत्तमावण्णा ॥316॥
जीवो बन्धश्च तथा छिद्येते स्वलक्षणाभ्यां नियताभ्याम्
प्रज्ञाछेदनकेन तु छिन्नौ नानात्वमापन्नो ॥२९४॥
जीव एवं बंध निज-निज लक्षणों से भिन्न हों
दोनों पृथक् हो जायें प्रज्ञाछैनि से जब छिन्न हों ॥२९४॥
अन्वयार्थ : [जीवो बंधो य तहा] जीव तथा बंध [णियएहिं] नियत [सलक्खणेहिं] स्वलक्षणों से [छिज्जंति] छेदे जाते हैं । [पण्णाछेदणएण] प्रज्ञारूपी छैनी से [दु छिण्णा] छेदे जाने पर [णाणत्तमावण्णा] वे नानात्व (भिन्नपने) को प्राप्त होते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
'आत्मा और बन्ध किस (साधन) के द्वारा द्विधा (अलग) किये जाते हैं ?' ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं -

आत्मा और बंध के द्विधा करनेरूप कार्य का कर्ता तो आत्मा है; किन्तु करण कौन है - इस बात पर गंभीरता से विचार करने पर यह सुनिश्चित होता है कि भगवती प्रज्ञा ही छेदनात्मक करण है; क्योंकि निश्चय से करण कर्ता से भिन्न नहीं होता । प्रज्ञा के द्वारा आत्मा और बंध का छेद करने पर वे अवश्य ही भिन्नता को प्राप्त होते हैं; इसलिए यह सुनिश्चित ही है कि प्रज्ञा द्वारा ही आत्मा और बंध का द्विधाकरण होता है ।

प्रश्न – आत्मा चेतक है और बंध चेत्य है । ये दोनों अज्ञानदशा में चेत्य-चेतकभाव की अत्यन्त निकटता के कारण एक जैसे हो रहे हैं, एक जैसे ही अनुभव में आ रहे हैं और भेदविज्ञान के अभाव के कारण मानो वे दोनों चेतक ही हों - ऐसा व्यवहार किया जाता है, उन्हें व्यवहार में एकरूप में ही माना जाता है - ऐसी स्थिति में उन्हें प्रज्ञा द्वारा कैसे छेदा जा सकता है?

उत्तर – आत्मा और बंध के नियत स्वलक्षणों की सूक्ष्म अन्त:संधि में प्रज्ञाछैनी को सावधानी से पटकने से उनको छेदा जा सकता है - ऐसा हम मानते हैं ।

अन्य समस्त द्रव्यों में असाधारण होने से, अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाने से चैतन्य आत्मा का लक्षण (स्व-लक्षण) है । वह चैतन्य प्रवर्तमान होता हुआ जिस-जिस पर्याय में व्याप्त होकर प्रवर्तता है और निवर्तमान होता हुआ जिस-जिस पर्याय को ग्रहण करके निवर्तता है; वे समस्त सहवर्ती और क्रमवर्ती पर्यायें आत्मा हैं - इसप्रकार लक्षित करना चाहिए; क्योंकि आत्मा उसी एक चैतन्य-लक्षण से लक्षित है ।

इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि समस्त सहवर्ती और क्रमवर्ती अनन्त पर्यायों के साथ अविनाभावी सम्बन्ध होने से आत्मा चिन्मात्र ही है - ऐसा निश्चय करना चाहिए ।

बंध का लक्षण आत्मद्रव्य से असाधारण - ऐसे रागादिभाव हैं; ये रागादिभाव आत्म-द्रव्य के साथ साधारणता (एकत्वरूप) को धारण करते हुए प्रतिभासित नहीं होते, अपितु वे सदा चैतन्य-चमत्कार से भिन्नरूप ही प्रतिभासित होते हैं । तात्पर्य यह है कि जिन-जिन गुण-पर्यायों में चैतन्य-लक्षण व्याप्त होता है; वे सब गुण और पर्यायें आत्मा ही हैं - ऐसा जानना चाहिए ।

और यह चैतन्य आत्मा अपनी समस्त पर्यायों में व्याप्त होता हुआ जितना प्रतिभासित होता है, उतने ही रागादिक प्रतिभासित नहीं होते; क्योंकि जहाँ रागादिक नहीं होते, वहाँ भी चैतन्य का आत्म-लाभ होता है अर्थात् आत्मा होता है । और जो चैतन्य के साथ रागादिभावों की उत्पत्ति भासित होती है; वह तो चेत्य-चेतक-भाव (ज्ञेय-ज्ञायक-भाव) की अति निकटता के कारण ही भासित होती है, रागादि और आत्मा के एकत्व के कारण नहीं ।

जिसप्रकार दीपक के द्वारा प्रकाशित किये जानेवाले घटादिक पदार्थ दीपक के प्रकाशत्व को ही प्रगट करते हैं, घटत्वादिक को नहीं; उसीप्रकार आत्मा के ज्ञान में ज्ञात होनेवाले रागादिभाव आत्मा के चेतकत्व को ही प्रकट करते हैं, रागादिकत्व को नहीं । ऐसा होने पर भी आत्मा और बंध की अति निकटता के कारण भेदसंभावना का अभाव होने से अर्थात् भेद दिखाई न देने से अज्ञानी को अनादिकाल से आत्मा और रागादि में एकत्व का व्यामोह (भ्रम) है; जो कि प्रज्ञा द्वारा अवश्य ही छेदा जा सकता है ।

तात्पर्य यह है कि उक्त एकत्व के व्यामोह को आत्मसन्मुख ज्ञान की पर्याय द्वारा अवश्य ही मिटाया जा सकता है ।

(कलश--हरिगीत)
सूक्ष्म अन्त:संधि में अति तीक्ष्ण प्रज्ञाछैनि को ।
अति निपुणता से डालकर अति निपुणजन ने बंध को ॥
अति भिन्न करके आतमा से आतमा में जम गये ।
वे ही विवेकी धन्य हैं जो भवजलधि से तर गये ॥१८१॥

[इयं शिता प्रज्ञाछेत्री] यह प्रज्ञारूप तीक्ष्ण छैनी [निपुणैः] प्रवीण पुरुषों के द्वारा [कथम् अपि] किसी भी प्रकार से (यत्नपूर्वक) [सावधानैः] सावधानतया (निष्प्रमादतया) [पातिता] पटकने पर, [आत्म-कर्म-उभयस्य सूक्ष्मे अन्तःसन्धिबन्धे] आत्मा और कर्म - दोनों के सूक्ष्म अन्तरंग में सन्धि के बन्ध में [रभसात्] शीघ्र [निपतति] पड़ती है । किस प्रकार पड़ती है ? [आत्मानम् अन्तः-स्थिर-विशद-लसद्-धाम्नि चैतन्यपूरे मग्नम्] वह आत्मा को तो जिसका तेज अन्तरंग में स्थिर और निर्मलतया देदीप्यमान है, ऐसे चैतन्य-प्रवाह में मग्न करती हुई [] और [बन्धम् अज्ञानभावे नियमितम्] बन्ध को अज्ञानभाव में निश्चल (नियत) करती हुई [अभितः भिन्नभिन्नौ कुर्वती] इसप्रकार आत्मा और बन्ध को सर्वतः भिन्न-भिन्न करती हुई पड़ती है ।

जयसेनाचार्य :
इस पर प्रश्न होता है कि आत्मा और बंध को किस प्रकार भिन्न-भिन्न किया जाए ?

[जीवो बंधो य तहा छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं] जैसे जीव और बंध ये दोनों अपने-अपने लक्षणों द्वारा पृथक् किये जाते हैं । [पण्णाछेदणएण दु छिण्णा णाणत्तमावण्णा] उसी प्रकार प्रज्ञारूपी छैनी है लक्षण जिसका, ऐसे भेद-ज्ञान के द्वारा भिन्नता को प्राप्त हो जाते हैं । क्योंकि जीव का लक्षण शुद्ध-चैतन्य है और बंध का लक्षण मिथ्यात्व-रागादिक है उनके द्वारा भिन्न-भिन्न कर लिये जाते हैं । किससे पृथक् किये जाते हैं ? कि शुद्धात्मा की अनुभूति है लक्षण जिसका, ऐसी भेद-ज्ञान रूपी प्रज्ञा वही है छेदने वाली छैनी, उससे पृथक् किये जाते हैं । छिन्न-छिन्न होने पर वह नानापन को प्राप्त हो जाते हैं ॥३१६॥

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+ आत्मा और बन्ध के प्रथक्-करण कब होता है ? -
जीवो बंधो य तहा छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं । (295)
बंधो छेददव्वो सुद्धा अप्पा य घेत्तव्वो ॥317॥
कह सो घिप्पदि अप्पा पण्णाए सो दु घिप्पदे अप्पा । (296)
जह पण्णाइ विभत्ते तह पण्णाएव घेत्तव्वो ॥318॥
पण्णाए घित्तव्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो । (297)
अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णायव्वा ॥319॥
बन्धश्छेत्तव्य: शुद्ध आत्मा च गृहीतव्य: ॥२९५॥
कथं स गृह्यते आत्मा प्रज्ञया स तु गृह्यते आत्मा
यथा प्रज्ञया विभक्तस्तथा प्रज्ञयैव गृहीतव्य: ॥२९६॥
प्रज्ञया गृहीतव्यो यश्चेतयिता सोऽहं तु निश्चयत:
अवशेषा ये भावा: ते मम परा इति ज्ञातव्या: ॥२९७॥
जीव एवं बंध निज-निज लक्षणों से भिन्न हों
बंध को है छेदना अर ग्रहण करना आतमा ॥२९५॥
जिस भाँति प्रज्ञाछैनी से पर से विभक्त किया इसे
उस भाँति प्रज्ञाछैनी से ही अरे ग्रहण करो इसे ॥२९६॥
इस भाँति प्रज्ञा ग्रहे कि मैं हूँ वही जो चेतता
अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह जानना ॥२९७॥
अन्वयार्थ : [जीवो बंधो य तहा] जीव तथा बंध [णियएहिं] नियत [सलक्खणेहिं] स्वलक्षणों से [छिज्जंति] छेदे जाते हैं । [बंधो छेददव्वो] बंध को छेदो [च] और [सुद्धा अप्पा] शुद्ध आत्मा को [घेत्तव्वो] ग्रहण करो ।
[कह सो घिप्पदि अप्पा] वह आत्मा को कैसे ग्रहण करें ? [पण्णाए सो दु घिप्पदे अप्पा] उस आत्मा को प्रज्ञा से ही ग्रहण करो । [जह पण्णाइ विभत्ते] जिस प्रज्ञा से भिन्न किया [तह पण्णाएव घेत्तव्वो] उसी प्रज्ञा से ही ग्रहण भी करो ।
[पण्णाए घित्तव्वो] प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण करना चाहिए कि [जो चेदा] जो चेतनेवाला है, [सो अहं तु णिच्छयदो] वह निश्चय से मैं ही हूँ । [अवसेसा जे भावा] शेष जो सभी भाव हैं [ते मज्झ परे त्ति णायव्वा] वे मुझसे भिन्न हैं, ऐसा जानो ।

अमृतचंद्राचार्य :
'आत्मा और बन्ध को द्विधा करके क्या करना चाहिए' ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं :

प्रथम तो आत्मा और बंध को उनके नियत स्व-लक्षणों के विज्ञान से सर्वथा ही छेद देना चाहिए, भिन्न-भिन्न कर देना चाहिए और उसके बाद रागादि लक्षणवाले समस्त बंध को छोड़ देना चाहिए तथा उपयोग लक्षणवाले शुद्धात्मा को ग्रहण कर लेना चाहिए; क्योंकि बंध के त्याग से शुद्धात्मा का ग्रहण ही बंध और आत्मा के द्विधाकरण का मूल प्रयोजन है ।

प्रश्न – यह शुद्धात्मा किसके द्वारा ग्रहण किया जाना चाहिए ?

उत्तर – प्रज्ञा के द्वारा ही शुद्धात्मा को ग्रहण करना चाहिए; क्योंकि जिसप्रकार बंध से भिन्न करने में एकमात्र प्रज्ञा ही करण थी; उसीप्रकार ग्रहण करने में भी एकमात्र प्रज्ञा ही करण है । इसलिए जिसप्रकार प्रज्ञा से विभक्त किया; उसीप्रकार प्रज्ञा से ही ग्रहण करना चाहिए ।

प्रश्न – इस आत्मा को प्रज्ञा के द्वारा किसप्रकार ग्रहण करना चाहिए ?

उत्तर – नियत स्वलक्षण का अवलम्बन करनेवाली प्रज्ञा के द्वारा भिन्न किया गया चेतक मैं हूँ और अन्य लक्षणों से लक्ष्य व्यवहाररूप भाव चेतकरूपी व्यापक के व्याप्य नहीं होने से मुझसे अत्यन्त भिन्न हैं । इसलिए मैं ही, अपने द्वारा ही, अपने लिए ही, अपने में से ही, अपने मेंही, अपने को ही ग्रहण करता हूँ ।

आत्मा की चेतन ही एक क्रिया है; इसलिए अथवा किन्तु मैं सर्व-विशुद्ध-चिन्मात्र-भाव हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
स्व-लक्षणों के प्रबल-बल से भेदकर पर-भाव को ।
चिद्लक्षणों से ग्रहण कर चैतन्यमय निजभाव को ॥
यदि भेद को भी प्राप्त हो गुण धर्म कारक आदि से ।
तो भले हो पर मैं तो केवल शुद्ध चिन्मय-मात्र हूँ ॥१८२॥

[यत् भेत्तुं हि शक्यते सर्वम् अपि स्वलक्षणबलात् भित्त्वा] जो कुछ भी भेदा जा सकता है उस सबको स्व-लक्षण के बल से भेदकर, [चिन्मुद्रा-अंकित-निर्विभाग-महिमा शुद्धः चिद् एव अहम् अस्मि] जिसकी चिन्मुद्रा से अंकित निर्विभाग महिमा है (चैतन्य की मुद्रा से अंकित विभाग रहित जिसकी महिमा है) ऐसा शुद्ध चैतन्य ही मैं हूँ । [यदिकारकाणि वा यदि धर्माः वा यदि गुणाः भिद्यन्ते, भिद्यन्ताम्] यदि कारकों के, अथवा धर्मों के, या गुणों के भेद हों तो भले हों; [विभौ विशुद्धे चिति भावे काचन भिदा न अस्ति ] किन्तु विभु ऐसे शुद्ध (समस्त विभावों से रहित) चैतन्यभाव में तो कोई भेद नहीं है ।

जयसेनाचार्य :
आत्मा और बंध इन दोनों का पृथक्करण होने पर क्या सिद्धि होती है ?

[जीवो बंधो य तहा छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं] जीव और बन्ध ये दोनों पूर्वोक्त अपने-अपने लक्षणों द्वारा ऊपर लिखे अनुसार पृथक् कर लिये जाते हैं उसका फल यह है कि [बंधो छेददव्वो] विशुद्धज्ञान और दर्शन ही है स्वभाव जिसका ऐसे परमात्मतत्त्व का समीचीन-श्रद्धान ज्ञान और आचरणरूप जो निश्चयरत्नत्रय, तत्त्वरूप जो भेदविज्ञान, वही हुई छैनी, उसके द्वारा मिथ्यात्व और रागादिरूप बन्ध वह तो छेद डाला जावे, शुद्धात्मा से पृथक् कर दिया जावे । [सुद्धा अप्पा य घेत्तव्वो] किन्तु वीतराग-सहज-परमानन्द है लक्षण जिसका, ऐसे शुद्धात्मा के सुख समरसी-भाव के द्वारा ग्रहण कर लिया जावे यही आत्मा तथा बन्ध को पृथक् करने का प्रयोजन है ॥३१७॥

आत्मा तथा बन्ध को पृथक् करने का प्रयोजन यह है कि बन्ध को त्याग कर शुद्धात्मा ग्रहण कर लिया जावे ऐसा आगे बताते हैं --

[कह सो घिप्पदि अप्पा] आत्मा तो अमूर्त है अत: वह दृष्टि का तो विषय नहीं है तब फिर वह कैसे ग्रहण किया जा सकता है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि [पण्णाए सो दु घिप्पदे अप्पा] वह बुद्धि के द्वारा, भेदज्ञान के द्वारा ही, ग्रहण किया जा सकता है ।

[जह पण्णाइ विभत्ते] जैसे पूर्वसूत्र में प्रज्ञा के द्वारा ही वह विभक्त किया गया है रागादि से पृथक् किया गया है [तह पण्णाएव घेत्तव्वो] उसी प्रकार प्रज्ञा से ही उसे ग्रहण कर लेना चाहिये । तात्पर्य निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर अनुभव करना चाहिए यह अर्थ है । इस प्रकार सामान्य से भेद-ज्ञान की मुख्यता में दूसरे स्थान से चार गाथायें पूर्ण हुईं ॥३१८॥

इस आत्मा को प्रज्ञा से कैसे ग्रहण करना, सो बताते हैं --

[पण्णाए घित्तव्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो] स्व-संवेदन ज्ञान के द्वारा जो ग्रहण करने योग्य है अर्थात् परम-समरसीभाव से अनुभव करने योग्य है, निश्चय से मैं वही चेतयिता-शुद्धात्मा हूँ । [अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णायव्वा] मुझसे सम्बन्ध रखने वाले शेष जो मिथ्यात्व तथा रागादिभाव हैं, वे पर-स्वरूप हैं, मेरे ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव से भिन्न, विभाव भाव हैं । सविकल्प दशा में ऐसा अनुभव होता है कि अर्थात् षट् कारक रूप विकल्पजाल से अभिभूत हो आत्मा को कर्ता-कर्म आदिरूप अनुभवता हूँ और निर्विकल्प अवस्था में 'मैं क्रिया-कारकरूप समस्त विकल्पों से रहित चैतन्य मात्र हूँ', ऐसा अनुभव करने के योग्य है ॥३१९॥

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+ भेद-भावना -- मैं बस जानने देखने देखने वाला -
पण्णाए घित्तव्वो जो दट्ठा सो अहं तु णिच्छयदो । (298)
अवसेसा जे भावा ते मज्झ परेत्ति णादव्वा ॥320॥
पण्णाए घित्तव्वो जो णादा सो अहं तु णिच्छयदो । (299)
अवसेसा जे भावा ते मज्झ परेत्ति णादव्वा ॥321॥
पण्णाए घित्तव्वो जो उवलद्धो सो अहं तु णिच्छयदो ।
अवसेसा जे भावा ते मज्झ परेत्ति णादव्वा ॥322॥
प्रज्ञया गृहीतव्यो यो द्रष्टा सोऽहं तु निश्चयत:
अवशेषा ये भावा: ते मम परा इति ज्ञातव्या: ॥२९८॥
प्रज्ञया गृहीतव्यो यो ज्ञाता सोऽहं तु निश्चयत:
अवशेषा ये भावा: ते मम परा इति ज्ञातव्या: ॥२९९॥
इस भाँति प्रज्ञा ग्रहे कि मैं हूँ वही जो देखता ।
अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह जानना ॥२९८॥
इस भाँति प्रज्ञा ग्रहे कि मैं हूँ वही जो जानता ।
अवशेष जो हैं भाव वे मेरे नहीं यह जानना ॥२९९॥
अन्वयार्थ : [पण्णाए घित्तव्वो] प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण करो कि [जो दट्ठा] जो देखनेवाला है, [सो अहं तु णिच्छयदो] वह निश्चय से मैं ही हूँ; [अवसेसा जे भावा] शेष जो सभी भाव हैं [ते मज्झ परे त्ति णायव्वा] वे मुझसे भिन्न हैं, ऐसा जानो ।
[पण्णाए घित्तव्वो] प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण करो कि [जो णादा] जो जाननेवाला है, [सो अहं तु णिच्छयदो] वह निश्चय से मैं ही हूँ; [अवसेसा जे भावा] शेष जो सभी भाव हैं [ते मज्झ परे त्ति णायव्वा] वे मुझसे भिन्न हैं, ऐसा जानो ।
[पण्णाए घित्तव्वो] प्रज्ञा के द्वारा ग्रहण करो कि [जो उवलद्धो] जो अनुभव में आनेवाला है, [सो अहं तु णिच्छयदो] वह निश्चय से मैं ही हूँ; [अवसेसा जे भावा] शेष जो सभी भाव हैं [ते मज्झ परे त्ति णायव्वा] वे मुझसे भिन्न हैं, ऐसा जानो ।

अमृतचंद्राचार्य :
चेतना दर्शन-ज्ञानरूप भेदों का उल्लंघन नहीं करती; इसलिए चेतकत्व की भाँति दर्शकत्व और ज्ञातृत्व भी आत्मा के स्वलक्षण ही हैं । इसलिए मैं अथवा किन्तु मैं सर्व-विशुद्ध-दर्शन-मात्र भाव हूँ ।

इसीप्रकार मैं अथवा - किन्तु मैं सर्व-विशुद्ध-ज्ञप्ति (जानन-क्रिया) मात्र भाव हूँ ।

प्रश्न – चेतना दर्शनज्ञान भेदों का उल्लंघन क्यों नहीं करती कि जिससे चेतनेवाला दृष्टा व ज्ञाता होता है ?

उत्तर – प्रथम तो चेतना प्रतिभासरूप है और वह चेतना द्विरूपता का उल्लंघन नहीं करती; क्योंकि सभी वस्तुएँ सामान्यविशेषात्मक हैं । उसके जो दो रूप हैं, वे दर्शन और ज्ञान हैं । इसलिए वह चेतना ज्ञान-दर्शन - इन दो रूपों का उल्लंघन नहीं करती । यदि चेतना ज्ञानदर्शन का उल्लंघन करे तो सामान्यविशेष का उल्लंघन करने से चेतना ही न रहे । उसके अभाव में दो दोष आते हैं -
  1. अपने गुण का नाश होने से चेतन को अचेतनत्व हो जायेगा ।
  2. व्यापक चेतना के अभाव में व्याप्य चेतन का अभाव हो जायेगा ।
इसलिए इन दोषों के भय से चेतना को ज्ञानदर्शनस्वरूप ही अंगीकार करना चाहिए ।

(कलश--हरिगीत)
है यद्यपि अद्वैत ही यह चेतना इस जगत में ।
किन्तु फिर भी ज्ञान-दर्शन भेद से दो रूप है ॥
यह चेतना दर्शन सदा सामान्य अवलोकन करे ।
पर ज्ञान जाने सब विशेषों को तदपि निज में रहे ॥
अस्तित्व ही ना रहे इनके बिना चेतन द्रव्य का ।
चेतना के बिना चेतन द्रव्य का अस्तित्व क्या ?
चेतन नहीं बिन चेतना चेतन बिना ना चेतना ।
बस इसलिए हे आत्मन् ! इनमें सदा ही चेत ना ॥१८३॥

[जगति हि चेतना अद्वैता] जगत में निश्चयतः चेतना अद्वैत है [अपि चेत्सा दृग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत्] तथापि यदि वह दर्शनज्ञानरूप को छोड़ दे [तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्] तो सामान्य-विशेषरूप के अभाव से (वह चेतना) [अस्तित्वम् एव त्यजेत्] अपने अस्तित्व को छोड़ देगी; और [तत्-त्यागे] इसप्रकार (चेतना अपने अस्तित्व को) छोड़ने पर, [चितः अपि जडता भवति] चेतन के जड़त्व आ जायेगा (आत्मा जड़ हो जाय), [च व्यापकात् विना व्याप्यः आत्मा अन्तम् उपैति] और व्यापक (चेताना) के बिना व्याप्य जो आत्मा वह नष्ट हो जायेगा [तेन चित् नियतं दृग्ज्ञप्तिरूपा अस्तु ] इसलिये चेतना नियम से दर्शनज्ञानरूप ही हो ।

(कलश--दोहा)
चिन्मय चेतनभाव हैं, पर हैं पर के भाव ।
उपादेय चिद्भाव हैं, हेय सभी परभाव ॥१८४॥

[चितः एकः चिन्मयः एव भावः] चैतन्य (आत्मा) का तो एक चिन्मय ही भाव है, और [ये परे भावाः] जो अन्य भाव हैं [ते किल परेषाम्] वे वास्तव में दूसरों के भाव हैं; [तत: चिन्मयः भावः एव ग्राह्यः] इसलिए (एक) चिन्मय भाव ही ग्रहण करने योग्य है, [परे भावाः सर्वतः एव हेयाः] अन्य भाव सर्वथा त्याज्य हैं ।

जयसेनाचार्य :
अब उसी भेदभावना को आत्मा के विशुद्ध-दर्शनज्ञान और सुखगुण में प्ररूप से दिखाते हैं --

प्रज्ञा-स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा जो चेतन स्वरूप आत्मा ज्ञाता-द्रष्टा और परमानन्द लक्षण वाले सुख से सहित अनुभव में आता है निश्चय से वही मैं हूँ शेष जो रागादि-भावरूप विभाव-परिणाम हैं, वे चिदानन्द स्वभाव वाले मुझसे भिन्न हैं, ऐसा जानना चाहिये ।

यहाँ शिष्य कहता है कि -- चेतना के ज्ञान-चेतना और दर्शन-चेतना ऐसे दो भेद नहीं हैं एक ही चेतना है अत: ज्ञाता-द्रष्टा इस प्रकार दो भेद वाली आत्मा कैसे घटित होती है ?

इस पूर्वपक्ष-शंकापक्ष का परिहार इस प्रकार है -- सामान्य को ग्रहण करनेवाला दर्शन है और विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान है । वस्तु सामान्य विशेषात्मक है । इसे यदि सामान्य विशेषात्मक न माना जावे तो चेतना का अभाव हो जावेगा । चेतना का अभाव होने पर आत्मा में जड़ता / अचेतनता आ जावेगी अथवा चेतना रूप विशेष गुण का अभाव होने से चेतना लक्षण वाली आत्मा का ही अभाव हो जावेगा । परन्तु आत्मा की न जड़ता दिखाई देती है और न उसका अभाव ही दिखायी देता है, क्योंकि ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष विरोध आता है । इससे सिद्ध है कि यद्यपि अभेदनय से चेतना एक रूप है तथापि सामान्य-विशेष रूप विषय भेद होने से वह दर्शन और ज्ञान के भेद से दो प्रकार की होती है -- ऐसा अभिप्राय जानना चाहिये ॥३२०-३२२॥

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+ शुद्धात्मा मात्र ज्ञाता, पर भाव मेरे नहीं -
को णाम भणिज्ज बुहो णादुं सव्वे पराइए भावे । (300)
मज्झमिणंति य वयणं जाणंतो अप्पयं सुद्धं ॥323॥
को नाम भणेद्बुधः ज्ञात्वा सर्वान् परकीयान् भावान् ।
ममेदमिति च वचनं जानन्नात्मानं शुद्धम् ॥300॥
निज आतमा को शुद्ध अर पररूप पर को जानता ।
है कौन बुध जो जगत में परद्रव्य को अपना कहे ॥३००॥
अन्वयार्थ : [जाणंतो अप्पयं सुद्धं] अपने को शुद्ध आत्मा जाननेवाला [य] और [णादुं सव्वे पराइए भावे] सर्व परभावों को जाननेवाला [को णाम भणिज्ज बुहो वयणं] कौन ज्ञानी वचनों से यह कहेगा कि [मज्झमिणंति] ये (परपदार्थ) मेरे हैं ?

अमृतचंद्राचार्य :
जो पुरुष पर के और आत्मा के नियत स्वलक्षणों के विभाग में पड़नेवाली प्रज्ञा के द्वारा ज्ञानी हुआ है; वह वास्तव में एक चिन्मात्रभाव को अपना जानता है और शेष सभी भावों को दूसरों के जानता है । ऐसा जानता वह पुरुष परभावों को 'ये मेरे हैं' - ऐसा क्यों कहेगा; क्योंकि पर में और अपने में निश्चय से स्व-स्वामीसंबंध संभव नहीं है । इसलिए सर्वथा चिद्भाव ही ग्रहण करने योग्य है, शेष समस्त भाव छोड़ने योग्य हैं - ऐसा सिद्धान्त है ।

(कलश--हरिगीत)
मैं तो सदा ही शुद्ध परमानन्द चिन्मयज्योति हूँ ।
सेवन करें सिद्धान्त यह सब ही मुमुक्षु बन्धुजन ॥
जो विविध परभाव मुझमें दिखें वे मुझ से पृथक् ।
वे मैं नहीं हूँ क्योंकि वे मेरे लिए परद्रव्य हैं ॥१८५॥

[उदात्तचित्तचरितैः मोक्षार्थिभिः] जिनके चित्त का चरित्र उदात्त (उदार, उच्च, उज्ज्वल) है ऐसे मोक्षार्थी [अयम् सिद्धान्तः] इस सिद्धांत का [सेव्यताम्] सेवन करें कि [अहम् शुद्धं चिन्मयम् एकम् परमं ज्योतिः एव सदा एव अस्मि] 'मैं तो सदा ही शुद्ध चैतन्यमय एक परम ज्योति ही हूँ; [तु] और [एते ये पृथग्लक्षणाः विविधाः भावाः समुल्लसन्ति ते अहं न अस्मि] जो यह भिन्न लक्षणवाले विविध प्रकार के भाव प्रगट होते हैं वे मैं नहीं हूँ, [यतः अत्र ते समग्राः अपि मम परद्रव्यम्] क्योंकि वे सभी मेरे लिए पर-द्रव्य हैं' ।

(कलश-दोहा)
परग्राही अपराधिजन, बाँधें कर्म सदीव ।
स्व में ही संवृत्त जो, वह ना बँधे कदीव ॥१८६॥

[परद्रव्यग्रहं कुर्वन्] जो पर-द्रव्य को ग्रहण करता है [अपराधवान्] वह अपराधी है, [बध्येत एव] इसलिये बन्ध में पड़ता है, और [स्वद्रव्ये संवृतः यतिः] जो स्व-द्रव्य में ही संवृत है (अर्थात् जो अपने द्रव्य में ही गुप्त है, मग्न है, संतुष्ट है, पर-द्रव्य का ग्रहण नहीं करता) ऐसा यति [अनपराधः] निरपराधी है, [न बध्येत] इसलिये बँधता नहीं है ।

जयसेनाचार्य :
आगे बताते हैं कि शुद्ध-बुद्ध एक-स्वभाव वाले परमात्मा का एक-शुद्ध-चैतन्य एक ही भाव है, रागादिक नहीं है --

[को णाम भणिज्ज बुहो] कौन ज्ञानी विवेकी बुद्धिमान ऐसा कहे ? कोई भी नहीं कहे [मज्झमिणंति य वयणं] कि ये सब मेरे हैं । क्या करके ? कि [णादुं] निर्मल आत्मा की अनुभूति वही है लक्षण जिसका ऐसे भेदज्ञान के द्वारा जानकर, किनको जानकर ? कि [सव्वे परोदए भावे] सभी मिथ्यात्व और रागादिरूप-विभावपरिणामों को जानकर । कैसे जानकर ? कि परोदयान् अर्थात् शुद्धात्मा से पृथक् जो कर्मोदय उससे ये सब पैदा हुए हैं ऐसा जानकर । क्या करता हुआ ? कि [जाणंतो अप्पयं सुद्धं] परम-समरस-भाव के द्वारा जानता हुआ, अनुभव करता हुआ । किसको ? आत्मा को, कैसी आत्मा को ? भाव-कर्म, द्रव्य-कर्म और नोकर्म रहित शुद्धात्मा को, किससे जानता हुआ ? कि शुद्धात्मा की भावना में परिणत जो अभेद-रत्नत्रय वही है लक्षण जिसका, उस भेदज्ञान के द्वारा जानता हुआ ॥३२३॥

इस प्रकार विशेष भेद-भावना के व्याख्यान की मुख्यता से इस तीसरे स्थल में पाँच सूत्र कहे गये हैं ।

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+ पर भावों को अपना मानने से बन्ध और वीतरागता से मुक्ति -
थेयादी अवराहे जो कुव्वदि सो उ संकिदो भमइ । (301)
मा बज्झेज्जं केण वि चोरी त्ति जणम्हि वियरंतो ॥324॥
जो ण कुणदि अवराह सो णिस्संको दु जणवदि भमदि । (302)
ण वि तस्स बज्झिदुं जे चिंता उप्पज्जदि कयाइ ॥325॥
एवम्हि सावराहो बज्झामि अहं तु संकिदो चेदा । (303)
जइ पुण णिरावराहो णिस्संकोहं ण बज्झामि ॥326॥
स्तेयादीनपराधान् यः करोति स तु शङ्कितो भ्रमति ।
मा बध्ये केनापि चौर इति जने विचरन् ॥३०१॥
यो न करोत्यपराधान् स निश्शङ्कस्तु जनपदे भ्रमति ।
नापि तस्य बद्धुं यच्चिन्तोत्पद्यते कदाचित् ॥३०२॥
एवमस्मि सापराधो बध्येऽहं तु शङ्कितश्चेतयिता ।
यदि पुनर्निरपराधो निश्शङ्कोऽहं न बध्ये ॥३०३॥
अपराध चौर्यादिक करें जो पुरुष वे शंकित रहें ।
कि चोर है यह जानकर कोई मुझे ना बाँध ले ॥३०१॥
अपराध जो करता नहीं नि:शंक जनपद में रहे ।
बँध जाऊँगा ऐसी कभी चिन्ता न उसके चित रहे ॥३०२॥
अपराधि जिय 'मैं बँधूँगा' इसतरह नित शंकित रहे ।
पर निरपराधी आतमा भयरहित है नि:शंक है ॥३०३॥
अन्वयार्थ : [थेयादी अवराहे] चोरी आदि अपराध [जो कुव्वदि] जो करता है, [सो उ संकिदो भमइ] वह शंकित घूमता है [मा बज्झेज्जं केण वि चोरी त्ति] 'चोर समझकर कोई मुझे पकड़ न ले' इसप्रकार [जणम्हि वियरंतो] लोक में घूमता है ।
[जो ण कुणदि अवराह] जो अपराध नहीं करता, [सो णिस्संको दु जणवदि भमदि] वह लोक में नि:शंक घूमता है; क्योंकि [तस्स] उसे [बज्झिदुं] 'बन्धुंगा' [जे चिंता] ऐसी चिन्ता [कयाइ] कभी [ण वि उप्पज्जदि] भी उत्पन्न नहीं होती ।
[एवम्हि] इसीप्रकार [सावराहो] अपराधी (आत्मा) [अहं तु बज्झामि] 'मैं बँधूँगा' - इसप्रकार शंकित होता है [जइ पुण] और यदि वह [णिरावराहो] निरपराध हो तो [णिस्संकोहं ण बज्झामि] 'मैं नहीं बँधूँगा' - इसप्रकार नि:शंक होता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिसप्रकार जगत में जो पुरुष परद्रव्य के ग्रहणरूप अपराध को करता है, उसको बँधने की शंका होती ही है और जो इसप्रकार के अपराध नहीं करता, उसे बँधने की शंका भी नहीं होती; उसीप्रकार यह आत्मा भी अशुद्ध वर्तता हुआ परद्रव्य के ग्रहणरूप अपराध करता है तो उसे बंध की शंका होती है तथा जो आत्मा शुद्ध वर्तता हुआ उक्तप्रकार का अपराध नहीं करता, उसे बंध की शंका नहीं होती - ऐसा नियम है ।

इसलिए समस्त परकीय भावों के सर्वथा परिहार द्वारा शुद्ध आत्मा को ग्रहण करना चाहिए; क्योंकि ऐसा करने पर ही निरपराधता होती है ।


जयसेनाचार्य :
आगे प्रकाश करते हैं की मिथ्यात्व व राग-द्वेषादि पर भावों को अपना मानने से यह जीव कर्मों से बँधता है और वीतराग परम-चैतन्य है लक्षण जिसका, ऐसे स्वस्थ-भाव को स्वीकार करने से मुक्त होता है --

[तेयादी अवराहे कुव्वदि सो ससंकिदो होदि] जो पुरुष चोरी परदार-गमनादि अपराधों का करने वाला है, वह सशंकित रहता है । किस प्रकार से सशंक रहता है ? कि [मा बज्झेज्जं केणवि चोरीत्ति जणम्हि विचरंतो] लोगों में विचरण करता हुआ मैं चोर समझा जाकर किसी कोटपाल आदि के द्वारा कभी बाँध न लिया जाऊं । इस प्रकार यह अन्वय-दृष्टांत की गाथा हुई । [जो ण कुणदि अवराहे सो णिस्संको दु जणवदे भमदि] किन्तु जो कोई चोरी आदि अपराध नहीं करता वह निश्शंक होता हुआ गाँव में लोगों के बीच में घूमता रहता है [ण वि तस्स बज्झिदुं जे चिंता उप्पज्जदि कदावि] क्योंकि वह निरपराध है इसलिए उसके कभी कोई चिंता नहीं उपजती कि मैं चोर समझकर किसी के द्वारा बाँधा जा सकता हूँ, ऐसा समझे हुए होता है । यह व्यतिरेक-दृष्टांत हुआ । [एवम्हि सावराहो बज्झामि अहं तु संकिदो चेदा] इसी प्रकार जो कोई जीव रागादि रूप पर-द्रव्यों को ग्रहण करता है, स्वीकार करता है, वह स्वस्थ-भाव से च्युत होता हुआ अपराध युक्त होता है और अपराध-युक्त होने के कारण शंकाशील भी होता है । किस प्रकार शंकाशील होता है कि मैं ज्ञानावरणादि कर्म के द्वारा बाँधा जा रहा हूँ । इसलिये कर्म-बन्ध के भय से प्रतिक्रमण व प्रायश्चित, दण्ड देता है अर्थात उसे भोगता है । [जो पुण णिरवराहो णिस्संकोहं ण बज्झामि] किन्तु जो निरपराध है, वह तो देखे गये, सुने गये और अनुभव में आये ऐसे भोगों की आकांक्षा रूप निदान-बंध आदि समस्त विभाव-परिणामों से रहित होने के कारण निश्शंक होता है ? किस प्रकार निश्शंक होता है ? कि मैं तो रागादि-रूप अपराध से रहित हूँ इसलिये मैं किसी भी कर्म से नहीं बँध सकता हूँ इसलिये वह प्रतिक्रमणादि-रूप दंड-विधान के बिना भी अनन्त-ज्ञानादि-रूप निर्दोष-परमात्मा की भावना के द्वारा ही शुद्ध हो जाता है । इस प्रकार यह अन्वय-व्यतिरेक रूप दार्ष्टान्त गाथा हुई ॥३२४-३२६॥

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+ अपराध शब्द का अर्थ -
संसिद्धिराधसिद्धं साधियमाराधिय च एयट्ठं । (304)
अवगदराधो जो खलु चेदा सो होदि अवराधो ॥327॥
जो पुण णिरावराधो चेदा णिस्संकिओ उ सो होइ । (305)
आराहणाइ णिच्चं वट्टेइ अहं ति जाणंतो ॥॥
संसिद्धिराधसिद्धं साधितमाराधितं चैकार्थ्
अपगतराधो य: खलु चेतयिता स भवत्यपराध: ॥३०४॥
य: पुनिर्निरपराधश्चेतयिता निश्शंकितस्तु स भवति
आराधनया नित्यं वर्तते अहमिति जानन् ॥३०५॥
साधित अराधित राध अर संसिद्धि सिद्धि एक है ।
बस राध से जो रहित है वह आतमा अपराध है ॥३०४॥
निरपराध है जो आतमा वह आतमा नि:शंक है ।
'मैं शुद्ध हूँ' - यह जानता आराधना में रत रहे ॥३०५॥
अन्वयार्थ : [संसिद्धिराधसिद्धं] संसिद्धि, राध, सिद्ध, [साधियमाराधिय] साधित [च] और आराधित - [एयट्ठं] ये एकार्थवाची हैं, [जो] जो [खलु चेदा] आत्मा निश्चय से [अवगदराधो] अपगतराध (राध से रहित) है [सो होदि अवराधो] वह (आत्मा) अपराध होता है ।
[जो पुण] और जो [चेदा] आत्मा [णिरावराधो] निरपराध है, [णिस्संकिओ] वह नि:शंक [उ सो होइ] होता है । [अहं ति जाणंतो] ऐसा (आत्मा) ही मैं हूँ - ऐसा जानता हुआ (आत्मा) [आराहणाइ] आराधना में [णिच्चं वट्टेइ] सदा वर्तता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
पर-द्रव्य के परिहार से शुद्ध आत्मा की सिद्धि अथवा साधन ही राध है और जो आत्मा अपगतराध है अर्थात् राधरहित है, वह आत्मा अपराध है अथवा जो भाव राधरहित हो, वह भाव अपराध है । उस अपराध में वर्तनेवाला आत्मा सापराध है । परद्रव्य के ग्रहण के सद्भाव के द्वारा शुद्ध आत्मा की सिद्धि के अभाव के कारण उस आत्मा को बंध की शंका होती है; इसलिए वह स्वयं अशुद्ध होने से अनाराधक ही है । समग्र परद्रव्य के परिहार से शुद्ध आत्मा की सिद्धि के सद्भाव के कारण बंध की शंका नहीं होने से निरपराधी आत्मा - 'उपयोग लक्षणवाला शुद्धात्मा मैं ही हूँ' - इसप्रकार का निश्चय करता हुआ शुद्धात्मा की सिद्धिरूप आराधनापूर्वक सदा वर्तता है; इसलिए वह आराधक ही है ।

(कलश--हरिगीत)
जो सापराधी निरन्तर वे कर्मबंधन कर रहे ।
जो निरपराधी वे कभी भी कर्मबंधन ना करें ॥
अशुद्ध जाने आतमा को सापराधी जन सदा ।
शुद्धात्मसेवी निरपराधी शान्ति सेवें सर्वदा ॥१८७॥

[सापराधः] सापराध आत्मा [अनवरतम्] निरन्तर [अनन्तैः] अनंत (पुद्गल-परमाणुरूप कर्मों) से [बध्यते] बँधता है; [निरपराधः] निरपराध आत्मा [बन्धनम्] बन्धन को [जातु] कदापि [स्पृशति न एव] स्पर्श नहीं करता । [अयम्] जो सापराध आत्मा है वह तो [नियतम्] नियम से [स्वम् अशुद्धं भजन्] अपने को अशुद्ध सेवन करता हुआ [सापराधः] सापराध है; [निरपराधः] निरपराध आत्मा तो [साधु] भली-भाँति [शुद्धात्मसेवी भवति] शुद्ध आत्मा का सेवन करनेवाला होता है ।

यहाँ शंकाकार कहता है कि आप शुद्धात्मा की उपासना से निरपराध होने की बात कह रहे हैं; पर प्रश्न यह है कि शुद्ध आत्मा की उपासना का प्रयास करने की क्या आवश्यकता है; क्योंकि आत्मा निरपराध तो प्रतिक्रमण आदि से ही होता है ।

यह तो सर्वविदित ही है कि अपराधी के अप्रतिक्रमण आदि विषकुंभ हैं; क्योंकि वे अपराध को दूर करनेवाले नहीं हैं और इसीलिए प्रतिक्रमणादि को अमृतकुंभ कहा है; क्योंकि वे अपराध को दूर करनेवाले हैं ।

व्यवहार का कथन करनेवाले आचारसूत्र में भी कहा है । व्यवहारसूत्र की गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -

(हिंदी--हरिगीत)
अप्रतिक्रमण अप्रतिसरण अर अपरिहार अधारणा ।
अनिन्दा अनिवृत्त्यशुद्धि अगर्हा विषकुंभ हैं ॥
प्रतिक्रमण अर प्रतिसरण परिहार निवृत्ति धारणा ।
निन्दा गरहा और शुद्धि अष्टविधामृतकुंभ हैं ॥

अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिन्दा, अगर्हा और अशुद्धि - ये आठ प्रकार के विषकुम्भ हैं । प्रतिक्रमण (कृत दोषों का निराकरण), प्रतिसरण (सम्यक्त्वादि गुणों में प्रेरणा) , परिहार (मिथ्यात्वादि दोषों का निवारण), धारणा (पंचनमस्कारादि मंत्र, प्रतिमा इत्यादि बाह्य द्रव्योंके आलम्बन द्वारा चित्तको स्थिर करना), निवृत्ति (बाह्य विषयकषायादि इच्छा में प्रवर्तमान चित्त को हटा लेना), निन्दा (आत्मसाक्षी पूर्वक दोषों का प्रगट करना), गर्हा (गुरुसाक्षी से दोषों का प्रगट करना) और शुद्धि (दोष होने पर प्रायश्चित्त लेकर विशुद्धि करना) - ये आठ प्रकार के अमृतकुम्भ हैं ।

जयसेनाचार्य :
आगे अपराध शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हैं --

[संसिद्धिराधसिद्धं साधियमाराधिय च एयट्ठो] तीन-काल में होने वाले मिथ्यात्व, विषय-कषायादि परिणाम से रहित होने के द्वारा निर्विकल्प-समाधी में स्थित होकर अपनी शुद्ध-आत्मा का आराधन / सेवन, वह राध कहलाता है; संसिद्धि, सिद्धि, साधित तथा आराधित ये शब्द उस राध के पर्यायवाची नाम हैं । [अवगदराधो जो खलु चेदा सो होदि अवराहो] अपगत अर्थात् नष्ट हो गया है राध अर्थात् शुद्धात्मा का आराधन जिस पुरुष का, वह पुरुष ही अभेद-विवक्षा से सापराध ठहरता है । अथवा अपगत है, अर्थात् नष्ट हो गया है, राध अर्थात शुद्धात्मा की आराधना जिसके वह रागादि-विभाव परिणाम वहीं अपराध है और उस सहित जो है वह सापराध है । किन्तु उससे विपरीत जो आत्मा त्रिगुप्ति-रूप-समाधि में स्थित होता है वह निरपराध है । इस पर शिष्य कहता है कि हे भगवन् ! शुद्धात्मा की आराधना के प्रयास का क्या प्रयोजन है, जब कि प्रतिक्रमण आदि अनुष्ठान से ही आत्मा निरपराध हो जाता है ? अपराधी के जो अप्रतिक्रमणादिक हैं, वे 'दोष' शब्द का वाच्य जो अपराध उसके नष्ट न करने वाले होने से विष-कुंभ स्वरूप कहे जाते हैं और जो प्रतिक्रमणादिक हैं व दोष शब्द के वाच्य अपराध का नाश करने वाले होने से अमृत-कुंभ-स्वरूप कहे जाते हैं । जैसा कि पुराने प्रायश्चित नाम के ग्रंथ में कहा गया है --

अपडिकमणं अपडिसरणं अप्पडिहारो अधारणा चेव ।
अणियत्तीय अणिंदा अगरुहाsसोहीय विसकुंभो ॥
पडिकमणं परिसरणं पडिसरणं धारणा णियत्तीय ।
णिंदा गरुहा सोही अट्ठविहो अमयकुंभो दु ॥

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+ परमार्थ से प्रतिक्रमण विष-कुम्भ, अप्रतिक्रमण अमृत-कुम्भ -
पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य । (306)
णिंदा गरहा सोही अट्ठविहो होदि विसकुंभो ॥328॥
अप्पडिकमणप्पडिसरणं अप्परिहारो अधारणा चेव । (307)
अणियत्ती य अणिंदागरहासोही अमयकुंभो ॥329॥
प्रतिक्रमणं प्रतिसरणं परिहारो धारणा निवृत्तिश्च
निंदा गर्हा शुद्धि: अष्टविधो भवति विषकुम्भ: ॥३०६॥
अप्रतिक्रमणमप्रतिसरणमपरिहारोऽधारणा चैव
अनिवृत्ति-श्चानिंदा-ऽगर्हा-ऽशुद्धि-रमृत-कुम्भ: ॥३०७॥
प्रतिक्रमण अर प्रतिसरण परिहार निवृत्ति धारणा ।
निन्दा गरहा और शुद्धि अष्टविध विषकुंभ हैं ॥३०६॥
अप्रतिक्रमण अप्रतिसरण अर अपरिहार अधारणा ।
अनिन्दा अनिवृत्त्यशुद्धि अगर्हा अमृतकुंभ हैं ॥३०७॥
अन्वयार्थ : [पडिकमणं] प्रतिक्रमण, [पडिसरणं] प्रतिसरण, [परिहारो] परिहार, [धारणा] धारणा, [णियत्ती य] और निवृत्ति, [णिंदा गरहा] निन्दा, गर्हा और [सोही] शुद्धि - ये [अट्ठविहो] आठ प्रकार का [होदि विसकुंभो] विषकुंभ होता है ।
[अप्पडिकमणप्पडिसरणं] अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, [अप्परिहारो] अपरिहार, [अधारणा चेव] और अधारणा, [अणियत्ती य] और अनिवृत्ति, [अणिंदागरहासोही] अनिन्दा, अगर्हा और अशुद्धि - ये (आठ प्रकार के) [अमयकुंभो] अमृतकुंभ हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
उपरोक्त तर्क का समाधान करते हुए आचार्यदेव (निश्चयनय की प्रधानता से) गाथा द्वारा कहते हैं :-

सबसे पहली बात तो यह है कि अज्ञानीजनों में पाये जानेवाले अप्रतिक्रमणादि तो शुद्धात्मा की सिद्धि के अभावरूप स्वभाववाले होने से स्वयमेव ही अपराधस्वरूप हैं; इसलिए वे (अज्ञानी के अप्रतिक्रमणादि) तो विषकुंभ ही हैं; उनके संबंध में विचार करने से क्या प्रयोजन है ?

तात्पर्य यह है कि यहाँ अज्ञानी के अप्रतिक्रमणादि को अमृतकुंभ नहीं कहा जा रहा है; क्योंकि वे तो स्पष्टरूप से विषकुंभ ही हैं, हेय ही हैं, त्यागने योग्य ही हैं, बंध के ही कारण हैं ।

जो द्रव्यरूप प्रतिक्रमणादि हैं, वे सम्पूर्ण अपराधरूपी विष के दोष को क्रमश: कम करने में समर्थ होने से व्यवहार-आचार सूत्र के कथनानुसार अमृतकुंभरूप होने पर भी प्रतिक्रमण और अप्रतिक्रमण - इन दोनों से विलक्षण ऐसी अप्रतिक्रमणादिरूप तीसरी भूमिका को न देख पानेवाले पुरुषों को वे द्रव्य-प्रतिक्रमणादि अपना कार्य करने में असमर्थ होने एवं विपक्ष (बन्ध) का कार्य करनेवाले होने से विषकुंभ ही हैं ।

अप्रतिक्रमणादिरूप तीसरी भूमि स्वयं शुद्धात्मा की सिद्धिरूप होने के कारण समस्त अपराधरूपी विष के दोषों को सर्वथा नष्ट करनेवाली होने से स्वयं साक्षात् अमृतकुंभ है । इस प्रकार वह तीसरी भूमि व्यवहार से द्रव्यप्रतिक्रमणादि को भी अमृतकुंभत्व साधती है ।

उस तीसरी भूमि से ही आत्मा निरपराध होता है । उस तीसरी भूमि के अभाव में द्रव्य-प्रतिक्रमणादि भी अपराध ही हैं; इसलिए यह सिद्ध होता है कि तीसरी भूमि से ही निरपराधत्व है । उसकी प्राप्ति के लिए ये द्रव्य-प्रतिक्रमणादि हैं ।

उक्त वस्तु-स्थिति के संदर्भ में ऐसा नहीं माना जाना चाहिए कि यह शास्त्र (समयसार) द्रव्य-प्रतिक्रमणादि को छुड़ाता है ।

यदि ऐसा नहीं है तो फिर क्या कहता है यह शास्त्र ?

इस शास्त्र का कहना तो यह है कि यहाँ द्रव्य-प्रतिक्रमणादि को छोड़ने की बात नहीं कही जा रही है; अपितु यह कहा जा रहा है कि इन द्रव्य-प्रतिक्रमणादि के अतिरिक्त भी इन प्रतिक्रमणादि और अप्रतिक्रमणादि से अगोचर अन्य अप्रतिक्रमणादि हैं; जो शुद्धात्मा की सिद्धिरूप अतिदुष्कर कुछ करवाता है ।

इस ग्रन्थ में ही आगे कहेंगे कि -

कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं ।
तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं ॥इत्यादि.. ॥३०६-३०७॥

अनेक प्रकार के विस्तारवाले पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों से जो अपने आत्मा को निवृत्त कराता है, वह आत्मा प्रतिक्रमण है ।

(कलश--हरिगीत)
अरे मुक्तिमार्ग में चापल्य अर परमाद को ।
है नहीं कोई जगह कोई और आलंबन नहीं ॥
बस इसलिए ही जबतलक आनन्दघन निज आतमा ।
की प्राप्ति न हो तबतलक तुम नित्य ध्याओ आतमा ॥१८८॥

[अतः] इस कथन से, [सुख-आसीनतां गताः] सुखासीन (सुख से बैठे हुए) [प्रमादिनः] प्रमादी जीवों को [हताः] हत (पापी) कहा है, [चापलम् प्रलीनम्] चापल्य का (अविचारित कार्य का) प्रलय किया है (आत्मभान से रहित क्रियाओं को मोक्ष के कारण में नहीं माना), [आलम्बनम् उन्मूलितम्] आलंबन को उखाड़ फेंका है (द्रव्य प्रतिक्रमण इत्यादि के आलंबन को छुडाकर), [आसम्पूर्ण-विज्ञान-घन-उपलब्धेः] जब तक सम्पूर्ण विज्ञानघन आत्मा की प्राप्ति न हो तब तक [आत्मनि एव चित्तम् आलानितं च] (शुद्ध) आत्मारूप स्तम्भ से ही चित्त को बाँध रखा है ।

(कलश--रोला)
प्रतिक्रमण भी अरे जहाँ विष-जहर कहा हो ।
अमृत कैसे कहें वहाँ अप्रतिक्रमण को ॥
अरे प्रमादी लोग अधोऽध: क्यों जाते हैं ?
इस प्रमाद को त्याग ऊर्ध्व में क्यों नहीं जाते ? ॥१८९॥

[यत्र प्रतिक्रमणम् एव विषं प्रणीतं] जहाँ प्रतिक्रमण को ही विष कहा है, [तत्र अप्रतिक्रमणम् एव सुधा कुतः स्यात्] वहाँ अप्रतिक्रमण अमृत कहाँसे हो सकता है ? [तत्] तब फिर [जनः अधः अधःप्रपतन् किं प्रमाद्यति] मनुष्य नीचे ही नीचे गिरते हुए प्रमादी क्यों होते हैं ? [निष्प्रमादः] निष्प्रमादी होते हुए [ऊर्ध्वम् ऊर्ध्वम् किं न अधिरोहति] ऊपर ही ऊपर क्यों नहीं चढ़ते ?

(कलश--रोला)
कषायभाव से आलस करना ही प्रमाद है,
यह प्रमाद का भाव शुद्ध कैसे हो सकता ?
निजरस से परिपूर्ण भाव में अचल रहें जो,
अल्पकाल में वे मुनिवर ही बंधमुक्त हों ॥१९०॥

[कषाय-भर-गौरवात् अलसता प्रमादः] कषाय के भार से भारी होने से आलस्य का होना सो प्रमाद है, [यतः प्रमादकलितः अलसः शुद्धभावः कथं भवति] इसलिये यह प्रमाद-युक्त आलस्यभाव शुद्धभाव कैसे हो सकता है ? [अतः स्वरसनिर्भरे स्वभावे नियमितः भवन् मुनिः] इसलिये निज-रस से परिपूर्ण स्वभाव में निश्चल होनेवाला मुनि [परमशुद्धतां व्रजति] परम शुद्धता को प्राप्त होता है [वा] अथवा [अचिरात् मुच्यते] शीघ्र (अल्प काल में) मुक्त हो जाता है ।

(कलश--रोला)
अरे अशुद्धता करनेवाले परद्रव्यों को,
अरे दूर से त्याग स्वयं में लीन रहे जो ।
अपराधों से दूर बंध का नाश करें वे,
शुद्धभाव को प्राप्त मुक्त हो जाते हैं वे ॥१९१॥

[यः किल अशुद्धिविधायि परद्रव्यं तत् समग्रं त्यक्त्वा] जो पुरुष वास्तव में अशुद्धता करनेवाले समस्त पर-द्रव्य को छोड़कर [स्वयं स्वद्रव्ये रतिम् एति] स्वयं स्व-द्रव्य में लीन होता है, [सः] वह [नियतम्] नियम से [सर्व-अपराध-च्युतः] सर्व अपराधों से रहित होता हुआ, [बन्ध-ध्वंसम् उपेत्य नित्यम् उदितः] बन्ध के नाश को प्राप्त होकर नित्य-उदित (सदा प्रकाशमान) होता हुआ, [स्व-ज्योतिः-अच्छ-उच्छलत्-चैतन्य-अमृत-पूर-पूर्ण-महिमा] अपनी ज्योति से (आत्मस्वरूप के प्रकाश से) निर्मलतया उछलता हुआ जो चैतन्यरूप अमृत का प्रवाह उसके द्वारा जिसकी पूर्ण महिमा है ऐसा [शुद्धः भवन्] शुद्ध होता हुआ, [मुच्यते] कर्मों से मुक्त होता है ।

(कलश--रोला)
बंध-छेद से मुक्त हुआ यह शुद्ध आतमा,
निजरस से गंभीर धीर परिपूर्ण ज्ञानमय ।
उदित हुआ है अपनी महिमा में महिमामय,
अचल अनाकुल अज अखण्ड यह ज्ञानदिवाकर ॥१९२॥

[बन्धच्छेदात् अतुलम् अक्षय्यम् मोक्षम् कलयत्] कर्म-बन्ध के छेदने से अतुल अक्षय (अविनाशी) मोक्ष का अनुभव करता हुआ, [नित्य-उद्योत-स्फु टित-सहज-अवस्थम्] नित्य उद्योतवाली (जिसका प्रकाश नित्य है ऐसी) सहज अवस्था जिसकी खिल उठी है ऐसा, [एकान्त-शुद्धम्] एकान्त शुद्ध (कर्म-मल के न रहनेसे अत्यन्त शुद्ध), और [एकाकार-स्व-रस-भरतः अत्यन्त-गम्भीर-धीरम्] एकाकार (एक ज्ञानमात्र आकार में परिणमित) निज-रस की अतिशयता से जो अत्यन्त गम्भीर और धीर है ऐसा, [एतत् पूर्णं ज्ञानम्] यह पूर्ण ज्ञान [ज्वलितम्] प्रकाशित हो उठा है; और [स्वस्य अचले महिम्नि लीनम्] अपनी अचल महिमा में लीन हुआ है ।

इसप्रकार मोक्ष भी रंगभूमि से निकल गया ।

इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार की आचार्य अमृतचन्द्रकृत आत्मख्याति नामक संस्कृत टीका में मोक्ष का प्ररूपक आठवाँ अंक समाप्त हुआ ।

जयसेनाचार्य :
[पडिकमणमित्यादि । पडिकमणं] -- किये हुए दोषों का निराकरण करना, [पडिसरणं] -- सम्यक्त्वादि गुणों में प्रवृत्त होना, [पडिहरणं] -- मिथ्यात्व तथा रागादि दोषों का निवारण करना, [धारणा] -- पंच-नमस्कार आदि मंत्र तथा प्रतिमा आदि बाह्य-द्रव्य के आलम्बन से चित्त को स्थिर करना, [णियत्तीय] -- बहिरंग-विषय-कषायादि में जो इच्छा-युक्त चित्त होता है उसका निवारण करना, [निंदा] -- अपने आपकी साक्षी से दोषों का प्रकट करना, [गरुहा] -- गुरु की साक्षी से दोषों को प्रकट करना, [सोहीय] -- कोई भी प्रकार का दोष हो जाने पर प्रायश्चित लेकर उसका शोधन करना । इन आठ शुभ-विकल्पों वाला शुभोपयोग यद्यपि मिथ्यात्वादि-विषय-कषाय-परिणितिरूप अशुभोपयोग की अपेक्षा तो विकल्प-सहित सराग-चारित्र की अवस्था में तो अमृत-कुंभ ही है । तो भी जो अवस्था राग-द्वेष और मोह-भाव तथा ख्याति, पूजा, लाभ व देखे हुए, सुने हुए और अनुभूति में आये हुए ऐसे भोगों की आकांक्षारूप-निदानबंध इत्यादि समस्त पर-द्रव्यों के आलंबन से होनेवाले सब ही प्रकार के विभाव परिणामों से शून्य है तथा जो चिदानंदैक स्वभाववाले विशुद्ध-आत्मा के आलंबन से भरी और निर्विकल्परूप-शुद्धोपयोग लक्षण वाली अवस्था है एवं जो '[अपडिकमणं]' इत्यादि गाथा में कहे हुये क्रम से ज्ञानीजनों के द्वारा आश्रय करने योग्य जो निश्चय-प्रतिक्रमणादि रूप जो तीसरी अवस्था है उसकी अपेक्षा लिये हुये जो वीतराग-चारित्र में स्थित हो रहे हैं, उन लोगों के लिये तो उपर्युक्त द्रव्य-प्रतिक्रमणादि विष-कुंभ ही हैं । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है --

अप्रतिक्रमण दो प्रकार है एक तो ज्ञानीजनों के आश्रय-रूप दूसरा अज्ञानी लोगों के द्वारा आश्रित । उसमें अज्ञानी जनाश्रित अप्रतिक्रमण तो विषय-कषाय की परिणति-रूप होता है किन्तु ज्ञानी जनाश्रित अप्रतिक्रमण तो शुद्धात्मा के समीचीन श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान-रूप त्रिगुप्तिमय होता है । वह ज्ञानी जनाश्रित अप्रतिक्रमण यद्यपि सराग-चारित्र है लक्षण जिसका, ऐसे शुभोपयोग की अपेक्षा तो अप्रतिक्रमण कहा जाता है किन्तु वीतराग-चारित्र की अपेक्षा उसी का नाम निश्चय-प्रतिक्रमण है क्योंकि वही शुभ और अशुभ आस्रव-रूप दोष के निराकरण रूप होता है इसलिये यही निश्चय-प्रतिक्रमण है । यह व्यवहार-प्रतिक्रमण की अपेक्षा अप्रतिक्रमण शब्द के द्वारा कहा जाकर भी ज्ञानी-जनों के लिये मोक्ष का कारण होता है ।

व्यवहार-प्रतिक्रमण यदि शुद्धात्मा को उपादेय मानकर निश्चय-प्रतिक्रमण का साधक होने से विषय-कषायों से बचने के लिये करता है तो वह परम्परा से मोक्ष का कारण होता है अन्यथा वह स्वर्गादि के सुख का निमित्त-भूत पुण्य का ही कारण होता है । अज्ञानी-जन संबंधी अप्रतिक्रमण तो मिथ्यात्व और विषय कषायों को परिणति रूप होने से नरकादि के दु:ख का ही कारण है ।

इस प्रकार प्रतिक्रमण आदि अष्ट विकल्प रूप शुभोपयोग यद्यपि सविकल्प अवस्था में अमृत-कुंभ होता है तो भी सुख-दुख आदि में समता-भावमय परमोपेक्षारूप-संयम की अपेक्षा से तो वह विष-कुंभ ही है । इस प्रकार के व्याखयान की मुख्यता से इस चतुर्थ स्थल में छह गाथायें हुई ॥३२८-३२९॥

वहाँ इस प्रकार श्रंगार रहित पात्र के समान रागादि-रहित शान्तरस में परिणत शुद्धात्मा के रूप में मोक्ष भी यहाँ से चला गया ।

इति श्री जयसेनाचार्य की बनाई शुद्धात्मा की अनुभूति रूप लक्षण वाली श्री समयसार की तात्पर्यवत्ति नाम की टीका के हिन्दी अनुवाद में बाईस गाथाओं द्वारा चार अन्तराधिकारों में यह नवम मोक्ष नाम का अधिकार समाप्त हुआ ।

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सर्व-विशुद्ध अधिकार



+ अब यहाँ कहते हैं कि निश्चय से यह जीव कर्मों का कर्त्ता नहीं है -- -
दवियं जं उप्पज्जइ गुणेहिं तं तेहिं जाणसु अणण्णं । (308)
जह कडयादीहिं दु पज्जएहिं कणयं अणण्णमिह ॥330॥
जीवस्साजीवस्स दु जे परिणामा दु देसिदा सुत्ते । (309)
तं जीवमजीवं वा तेहिमणण्णं वियाणाहि ॥331॥
ण कुदोचि वि उप्पण्णो जम्हा कज्जं ण तेण सो आदा । (310)
उप्पादेदि ण किंचि वि कारणमवि तेण ण स होदि ॥332॥
कम्मं पडुच्च कत्त कत्तारं तह पडुच्च कम्माणि । (311)
उप्पज्जंति य णियमा सिद्धी दु ण दीसदे अण्णा ॥333॥
द्रव्यं यदुत्पद्यते गुणैस्तत्तैर्जानीह्यनन्यत्
यथा कटकादिभिस्तु पर्यायै: कनकमनन्यदिह ॥३०८॥
जीवस्याजीवस्य तु ये परिणामास्तु दर्शिता: सूत्रे
तं जीवमजीवं तैरनन्यं विजानीहि ॥३०९॥
न कुतश्चिदप्युत्पन्नो यस्मात्कार्यं न तेन स आत्मा
उत्पादयति न किंचिदपि कारणमपि तेन न स भवति ॥३१०॥
कर्म प्रतीत्य कर्ता कर्तारं तथा प्रतीत्य कर्माणि
उत्पद्यंते च नियमात्सिद्धिस्तु न दृश्यतेऽन्या ॥३११॥
है जगत में कटकादि गहनों से सुवर्ण अनन्य ज्यों ।
जिन गुणों में जो द्रव्य उपजे उनसे जान अनन्य त्यों ॥३०८॥
जीव और अजीव के परिणाम जो जिनवर कहे ।
वे जीव और अजीव जानो अनन्य उन परिणाम से ॥३०९॥
ना करे पैदा किसी को बस इसलिए कारण नहीं ।
किसी से ना हो अत: यह आतमा कारज नहीं ॥३१०॥
कर्म आश्रय होय कर्ता कर्ता आश्रय कर्म भी ।
यह नियम अन्यप्रकार से सिद्धि न कर्ता-कर्म की ॥३११॥
अन्वयार्थ : [दवियं जं उप्पज्जइ गुणेहिं] जो द्रव्य जिन गुणों से उत्पन्न होता है, [तं तेहिं जाणसु अणण्णं] उसे उन गुणों से अनन्य जानो [जह कडयादीहिं दु पज्जएहिं] जैसे कड़ा आदि पर्यायों से [कणयं अणण्णमिह] सोना अनन्य है ।
[जीवस्साजीवस्स दु] जीव और अजीव के [जे परिणामा दु] जो परिणाम [देसिदा सुत्ते] सूत्र में बताये गये हैं [तं जीवमजीवं वा] उस जीव या अजीव को [तेहिमणण्णं वियाणाहि] उन (परिणामों) से अनन्य जानो ।
[ण कुदोचि वि उप्पण्णो] किसी से उत्पन्न नहीं हुआ [जम्हा] इसकारण [कज्जं ण तेण सो आदा] यह आत्मा किसी का कार्य नहीं है [उप्पादेदि ण किंचि वि] किसी को उत्पन्न नहीं करता [कारणमवि तेण ण स होदि] इसकारण किसी का कारण भी नहीं है ।
[कम्मं पडुच्च कत्त] कर्म के आश्रय से कर्ता होता है [तह] तथा [कत्तरं पडुच्च कम्माणि उप्पज्जंति] कर्ता के आश्रय से कर्म उत्पन्न होते हैं [य णियमा] ऐसा नियम है [सिद्धी दु ण दीसदे अण्णा] अन्य किसी भी प्रकार से (कर्ता-कर्म की) सिद्धि नहीं देखी जाती ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब सर्व-विशुद्ध-ज्ञान प्रवेश करता है

(कलश--रोला)
जिसने कर्तृ-भोक्तृभाव सब नष्ट कर दिये,
बंध-मोक्ष की रचना से जो सदा दूर है ।
है अपार महिमा जिसकी टंकोत्कीर्ण जो
ज्ञानपुंज वह शुद्धातम शोभायमान है ॥१९३॥

[अखिलान् कर्तृ-भोक्तृ-आदि-भावान् सम्यक् प्रलयम् नीत्वा] समस्त कर्ता-भोक्ता आदि भावों को सम्यक् प्रकार से (भलीभाँति) नाश को प्राप्त करा कर [प्रतिपदम्] पद-पद पर (कर्मों के क्षयोपशम के निमित्त से होनेवाली प्रत्येक पर्याय में) [बन्ध-मोक्ष-प्रक्लृप्तेः दूरीभूतः] बन्ध-मोक्ष की रचना से दूर वर्तता हुआ, [शुद्धः शुद्धः] शुद्ध-शुद्ध (रागादि मल तथा आवरण से रहित), [स्वरस-विसर-आपूर्ण-पुण्य-अचल-अर्चिः] जिसका पवित्र अचल तेज निजरस के (ज्ञानरस के, ज्ञानचेतनारूप रस के) विस्तार से परिपूर्ण है ऐसा, और [टंकोत्कीर्ण-प्रकट-महिमा] जिसकी महिमा टंकोत्कीर्ण प्रगट है ऐसा, [अयं ज्ञानपुंजः स्फूर्जति] यह ज्ञानपुञ्ज आत्मा प्रगट होता है ।

(कलश--दोहा)
जैसे भोक्तृ स्वभाव नहीं, वैसे कर्तृ स्वभाव ।
कर्तापन अज्ञान से, ज्ञान अकारकभाव ॥१९४॥

[कर्तृत्वं अस्य चितः स्वभावः न] कर्तृत्व इस चित्स्वरूप आत्मा का स्वभाव नहीं है, [वेदयितृत्ववत्] जैसे भोक्तृत्व स्वभाव नहीं है । [अज्ञानात् एव अयं कर्ता] वह अज्ञान से ही कर्ता है, [तद्-अभावात् अकारकः] अज्ञान का अभाव होने पर अकर्ता है ।

प्रथम तो यह जीव क्रमनियमित अपने परिणामों से उत्पन्न होता हुआ जीव ही है, अजीव नहीं; इसीप्रकार अजीव भी क्रमनियमित अपने परिणामों से उत्पन्न होता हुआ अजीव ही है, जीव नहीं; क्योंकि जिसप्रकार सुवर्ण का कंकण आदि परिणामों के साथ तादात्म्य है; उसीप्रकार सर्व द्रव्यों का अपने-अपने परिणामों के साथ तादात्म्य है । इसप्रकार अपने परिणामों से उत्पन्न होते हुए जीव का अजीव के साथ कार्य-कारणभाव सिद्ध नहीं होता; क्योंकि सर्व-द्रव्यों का अन्य द्रव्यों के साथ उत्पाद्य-उत्पादकभाव का अभाव है । भिन्न द्रव्यों का परस्पर कार्य-कारणभाव सिद्ध न होने पर अजीव जीव का कर्म (कार्य) है - यह भी सिद्ध नहीं होता । 'अजीव जीव का कर्म है' - यह सिद्ध नहीं होने पर 'जीव अजीव का कर्ता है' - यह भी सिद्ध नहीं होता; क्योंकि कर्ता-कर्म अनन्य ही होते हैं । इसप्रकार जीव अकर्ता ही सिद्ध होता है ।

(कलश--रोला)
निजरस से सुविशुद्ध जीव शोभायमान है ।
झलके लोकालोक ज्योति स्फुरायमान है ॥
अहो अकर्ता आतम फिर भी बंध हो रहा ।
यह अपार महिमा जानो अज्ञानभाव की ॥१९५॥

[स्वरसतः विशुद्धः] जो निजरस से विशुद्ध है, और [स्फुरत्-चित्-ज्योतिर्भिः छुरित-भुवन-आभोग-भवनः] जिसकी स्फुरायमान होती हुई चैतन्य-ज्योतियों के द्वारा लोक का समस्त विस्तार व्याप्त हो जाता है ऐसा जिसका स्वभाव है, [अयं जीवः] ऐसा यह जीव [इति] पूर्वोक्त प्रकार से (पर-द्रव्य का तथा पर-भावों का) [अकर्ता स्थितः] अकर्ता सिद्ध हुआ, [तथापि] तथापि [अस्य] उसे [इह] इस जगत में [प्रकृतिभिः] कर्म-प्रकृतियों के साथ [यद् असौ बन्धः किल स्यात्] जो यह (प्रगट) बन्ध होता है, [सः खलु अज्ञानस्य कः अपि गहनः महिमा स्फुरति] सो वह वास्तव में अज्ञान की कोई गहन महिमा स्फुरायमान है ।

जयसेनाचार्य :
अब यहाँ 'सर्व-विशुद्धज्ञान' प्रवेश करता है । वहाँ संसार पर्याय का आश्रय लेकर यह जीव अशुद्ध-उपादान अशुद्ध-निश्चय-नय से यद्यपि कर्तापन, भोक्तापन एवं बन्ध और मोक्षादि परिणाम सहित है तो भी सर्व-विशुद्ध-पारिणामिक-रूप परम-भाव का ग्राहक जो शुद्ध-द्रव्यार्थिक-नय है जो कि शुद्ध उपादान रूप है उससे कर्त्तापन, भोक्तापन, बन्ध या मोक्ष आदि कारण-भूत परिणामों के रहित है इसलिये [दवियं जं उप्पज्जइ] इत्यादि गाथा को आदि लेकर १४ गाथाओं पर्यन्त मोक्ष-पदार्थ की चूलिका का व्यायाख्यान करते हैं । इस प्रकार मोक्ष पदार्थ की चूलिका की यह समुदाय पातनिका है ।

अब यहाँ कहते हैं कि निश्चय से यह जीव कर्मों का कर्ता नहीं है --

जैसे स्वर्ण यहाँ पर अपनी कटकादि पर्यायों से अनन्य अर्थात भिन्न नहीं है वैसे ही द्रव्य भी जो उत्पन्न होता है, परिणमन करता है, वह अपने गुणों के साथ अनन्य अर्थात् अभिन्न-रूप से ही उत्पन्न होता है यह पहली गाथा हुई । [जीवस्साजीवस्स दु जे परिणामा दु देसिदा सुत्ते] जीव-द्रव्य और अजीव-द्रव्य के भी परिणाम या पर्याय जो सूत्र-रूप परमागम में बताये हैं, उपर्युक्त दृष्टांत के अनुसार उन परिणामों के साथ यह जीव या अजीव-द्रव्य अनन्य-अभिन्न ही होता है ऐसा हे भव्य ! तुम समझो यह दूसरी गाथा हुई । क्योंकि शुद्ध-निश्चयनय से यह जीव नर-नारकादि विभाव पर्यायों के रूप में पैदा नहीं हुआ अर्थात् कर्मों के द्वारा आत्मा पैदा नहीं हुआ है इसलिये आत्मा कर्म और नोकर्मों का कार्य नहीं है । वैसे ही आत्मा उपादान के रूप में किसी भी कर्म और नोकर्म को भी उत्पन्न नहीं करता है इसलिये कर्म और नोकर्मों का कारण भी वह नहीं है । क्योंकि आत्मा कर्मों का कर्ता भी नहीं है तो मोचक भी नहीं है इसलिये आत्मा शुद्ध-निश्चय-नय से बन्ध और मोक्ष दोनों का ही कर्त्ता नहीं है । यह तीसरी गाथा का अर्थ हुआ । [कम्मं पडुच्च कत्त कत्तरं तह पडुच्च कम्माणि उप्पज्जंति य णियमा] जैसा कि पहले कहा है कि स्वर्ण का कुण्डलादि रूप परिणाम के साथ में अभिन्न संबंध है वैसे ही जीव और पुद्गल का भी अपने परिणामों के साथ अभिन्नपना है । और कर्त्तारूप कर्म और नोकर्म के द्वारा जीव पैदा नहीं किया जाता है वैसे ही कर्म और नोकर्म को जीव पैदा नहीं करता है । इस पर से यह जाना जाता है कि कर्म को प्रतीति में लाकर उपचार से जीव कर्म का कर्ता होता है तथा जीव को कर्त्ता-रूप में आश्रय करके उपचार से कर्म उत्पन्न होते हैं ऐसा नियम है, निश्चय है इसमें संदेह नहीं है । [सिद्धी दु ण दीसदे अण्णा] इस प्रकार परस्पर के निमित्त-भाव को छोड़कर शुद्ध-उपादान से शुद्ध निश्चय-नय से जीव के कर्म-कर्तापने के विषय में सिद्धी नहीं होती है अर्थात् बात घटित होती नहीं देखी जाती, तथा कर्म-वर्गणा-योग्य-पुद्गलों को भी कर्मपना और प्रकार से नहीं देखा जाता । इसलिये यह बात सिद्ध हुई कि शुद्ध-निश्चय-नय से जीव कर्मों का कर्ता नहीं है यह चौथी गाथा हुई । इस प्रकार निश्चय-नय से जीव कर्मों का कर्ता नहीं है इस प्रकार के व्याख्यान की मुख्यता के प्रथम स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुई ॥३३०-३३३॥

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+ ज्ञानावरणादि कर्म-प्रकृतियों का आत्मा के साथ जो बंध है, वह अज्ञान का ही महात्म्य है, ऐसा बताते हैं -- -
चेदा दु पयडीअट्ठं उप्पज्जइ विणस्सइ । (312)
पयडी वि चेययट्ठं उप्पज्जइ विणस्सइ ॥334॥
एवं बंधो उ दोण्हं पि अण्णोण्णप्पच्चया हवे । (313)
अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे ॥335॥
चेतयिता तु प्रकृत्यर्थुत्पद्यते विनश्यति
प्रकृतिरपि चेतकार्थुत्पद्यते विनश्यति ॥३१२॥
एवं बंधस्तु द्वयोरपि अन्योन्यप्रत्ययाद्भवेत्
आत्मन: प्रकृतेश्च संसारस्तेन जायते ॥३१३॥
उत्पन्न होता नष्ट होता जीव प्रकृति निमित्त से ।
उत्पन्न होती नष्ट होती प्रकृति जीव निमित्त से ॥३१२॥
यों परस्पर निमित्त से हो बंध जीव रु कर्म का ।
बस इसतरह ही उभय से संसार की उत्पत्ति हो ॥३१३॥
अन्वयार्थ : [चेदा दु] चेतयिता (आत्मा) [पयडीअट्ठं] प्रकृति के निमित्त से [उप्पज्जइ विणस्सइ] उत्पन्न होता है और नष्ट होता है । इसीप्रकार [पयडी वि चेययट्ठं] प्रकृति भी चेतन आत्मा के निमित्त से [उप्पज्जइ विणस्सइ] उत्पन्न होती है और नष्ट होती है ।
[एवं] इसप्रकार [अण्णोण्णप्पच्चया हवे] परस्पर निमित्त से [अप्पणो पयडीए य] आत्मा और प्रकृति [बंधो उ दोण्हं पि] दोनों का बंध होता है [संसारो तेण जायदे] उससे संसार होता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अनादि से ही अपने और पर के निश्चित लक्षणों का ज्ञान न होने से स्व और पर के एकत्व का अध्यास करने से कर्ता बनता हुआ यह आत्मा प्रकृति के निमित्त से उत्पत्ति और विनाश को प्राप्त होता है और प्रकृति भी आत्मा के निमित्त से उत्पत्ति और विनाश को प्राप्त होती है । इसप्रकार आत्मा और प्रकृति के कर्ता-कर्मभाव का अभाव होने पर भी परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभाव से दोनों के बंध देखा जाता है । इससे ही संसार है और इसी से आत्मा और प्रकृति के कर्ता-कर्म का व्यवहार है ।

जयसेनाचार्य :
स्वस्थ-भाव से च्युत होता हुआ आत्मा प्रकृति के निमित्त से अर्थात् कर्मोदय का निमित्त पाकर अपने विभाव-परिणामों से उत्पन्न भी होता है और नाश को प्राप्त होता है । प्रकृति भी इस चेतयिता के लिये जीव सम्बन्धी रागादि परिणामों का निमित्त पाकर ज्ञानावरणादि-रूप कर्म-पर्यायों के द्वारा उपजती है और नाश को प्राप्त होती है । इस प्रकार स्वस्थ-भाव से च्युत आत्मा का और कर्म-वर्गणायोग्य--पुद्गल-पिण्डरूप ज्ञानावरणादि-प्रकृति का भी पूर्वोक्त रीति से बंध होता है । उनका बन्ध कैसे होता है ? जैसा कि अन्योन्य-रूप से एक दूसरे में परस्पर-निमित्त-कारणरूप वालों का बन्ध होता है इस प्रकार रागादि-रूप अज्ञान-भाव से बन्ध होता है और उस बन्ध से संसार होता है ।

तात्पर्य यह है कि अपने स्वरूप से बन्ध नहीं होता है ॥३३४-३३५॥

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+ जब तक कर्मोदय से होने वाले रागादि-भाव को नहीं छोडे तब तक अज्ञानी अन्यथा ज्ञानी -
जा एस पयडीअट्ठं चेदा णेव विमुञ्चए । (314)
अयाणओ हवे ताव मिच्छादिट्ठी असंजओ ॥336॥
जदा विमुञ्चए चेदा कम्मफलमणंतयं । (315)
तदा विमुत्ते हवदि जाणओ पासओ मुणी ॥337॥
यावदेष प्रकृत्यर्थं चेतयिता नैव विमुंचति
अज्ञायको भवेत्तावन्मिथ्यादृष्टिरसंयत: ॥३१४॥
यदा विमुंचति चेतयिता कर्मफलमनंतकम्
तदा विमुक्तो भवति ज्ञायको दर्शको मुनि: ॥३१५॥
जबतक न छोड़े आतमा प्रकृति निमित्तक परिणमन ।
तबतक रहे अज्ञानि मिथ्यादृष्टि एवं असंयत ॥३१४॥
जब अनन्ता कर्म का फल छोड़ दे यह आतमा ।
तब मुक्त होता बंध से सद्दृष्टि ज्ञानी संयमी ॥३१५॥
अन्वयार्थ : [जा एस] जबतक यह [चेदा] आत्मा [पयडीअट्ठं] प्रकृति के निमित्त (से उपजना-विनशना) [णेव विमुञ्चए] नहीं छोड़ता; [अयाणओ हवे ताव] तबतक वह अज्ञानी है, [मिच्छादिट्ठी] मिथ्यादृष्टि है, [असंजओ] असंयत है ।
[जदा चेदा] जब यह आत्मा [कम्मफलमणंतयं] अनंत कर्मफल [विमुञ्चए] छोड़ता है; [तदा] तब वह [जाणओ] ज्ञायक है, ज्ञानी है, [पासओ] दर्शक है, [मुणी] मुनि है और [विमुत्ते हवदि] विमुक्त (बंध-रहित) होता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
स्व और पर के भिन्न-भिन्न निश्चित स्वलक्षणों का ज्ञान नहीं होने से जबतक यह आत्मा बंध के निमित्तभूत प्रकृतिस्वभाव को नहीं छोड़ता; तबतक तभी तक स्व और पर के एकत्व का अध्यास करने से कर्ता है । जब वही आत्मा स्व और पर के भिन्न-भिन्न निश्चित स्व-लक्षणों के ज्ञान से बंध के निमित्तभूत प्रकृति-स्वभाव को छोड़ देता है, तब तथा तभी स्व-पर के एकत्व का अध्यास नहीं करने से अकर्ता है ।

(कलश--दोहा)
जैसे कर्तृस्वभाव नहीं, वैसे भोक्तृस्वभाव ।
भोक्तापन अज्ञान से, ज्ञान अभोक्ताभाव ॥१९६॥

[कर्तृत्ववत्] कर्तृत्व की भाँति [भोक्तृत्वं अस्य चितः स्वभावः स्मृतः न] भोक्तृत्व भी इस चैतन्य का (चित्स्वरूप आत्मा का) स्वभाव नहीं कहा है । [अज्ञानात् एव अयंभोक्ता] वह अज्ञान से ही भोक्ता है, [तद्-अभावात् अवेदकः] अज्ञान का अभाव होने पर वह अभोक्ता है ।

जयसेनाचार्य :
आगे यह बताते हैं कि शुद्धात्मा की संवित्ति से च्युत हुआ जीव जब तक प्रकृति के अर्थ अर्थात कर्मोदय से होने वाले रागादि-भाव को नहीं छोड़ता है तब तक अज्ञानी रहता है किन्तु उन रागादि के अभाव में ज्ञानी होता है --

जब तक यह चेतन स्वभाव-वाला जीव चिदानन्द एक स्वभाव है जिसका ऐसे परमात्मा के समीचीन श्रद्धान, ज्ञान और अनुभव सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक, चारित्र के अभाव से प्रकृति के अर्थ को अर्थात् कर्मोदय रूप रागादिक को नहीं छोड़ता है तब तक आत्मा को रागादिरूप ही मानता है, रागादिरूप ही जानता है, और रागादिरूप ही अनुभवता है इसलिये मिथ्यादृष्टि होता है, अज्ञानी होता है और असंयत होता है इस प्रकार होता हुआ वह मोक्ष को नहीं पाता है । किन्तु जब वही चेतयिता शक्ति-रूप से अनन्त विशेष भेदवाले मिथ्यात्व रागादि-रूप कर्म-फल को सर्व-प्रकार से छोड़ देता है उस समय शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव जो आत्म-तत्त्व उसका सम्यक्श्रद्धान, ज्ञान और अनुभव रूप जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के सद्भाव होने से मिथ्यात्व और रागादि से भिन्न आत्मा को मानने, जानने और अनुभव करने लगता है तब वह सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञानी और संयत मुनि होता है । ऐसा होता हुआ विशेष प्रकार से वह द्रव्य और भाव रूप से होने वाली मूल और उत्तर प्रकृति के नाश से मुक्त हो जाता है । यद्यपि शुद्ध-निश्चय-नय से देखें तो आत्मा कर्त्ता नहीं है फिर भी अनादि कालीन कर्म-बंध के वश से मिथ्यात्व और रागादि रूप अज्ञान-भाव के द्वारा कर्म-बंध करता ही है । इस प्रकार अज्ञान की सामर्थ्य बतलाने के लिये चार गाथायें कहीं गई ॥३३६-३३७॥

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+ कर्म-फल को भोगते रहना जीव का स्वभाव नहीं, अज्ञान भाव -
अण्णाणी कम्मफलं पयडिसहावट्ठिदो दु वेदेदि । (316)
णाणी पुण कम्मफलं जाणदि उदिदं ण वेदेदि ॥338॥
अज्ञानी कर्मफलं प्रकृतिस्वभावस्थितस्तु वेदयते ।
ज्ञानी पुनः कर्मफलं जानाति उदितं न वेदयते ॥३१६॥
प्रकृतिस्वभावस्थित अज्ञजन ही नित्य भोगें कर्मफल ।
पर नहीं भोगें विज्ञजन वे जानते हैं कर्मफल ॥३१६॥
अन्वयार्थ : [अण्णाणी] अज्ञानी [पयडिसहावट्ठिदो] प्रकृति के स्वभाव में स्थित रहता हुआ [कम्मफलं] कर्मफल को [वेदेदि] वेदता (भोगता) है [णाणी पुण] और ज्ञानी तो [कम्मफलं] कर्मफल को [जाणदि उदिदं] (कर्म का) उदय-मात्र जानता है, [ण वेदेदि] भोगता नहीं ।

अमृतचंद्राचार्य :
शुद्धात्मा के ज्ञान के अभाव के कारण अज्ञानी प्रकृति के स्वभाव में स्थित होने से प्रकृति के स्वभाव को भी अहंरूप से अनुभव करता हुआ कर्मफल को भोगता है और ज्ञानी शुद्धात्मा के ज्ञान के सद्भाव के कारण प्रकृति के स्वभाव से निवृत्त होने से शुद्धात्मा के स्वभाव को ही अहंरूप से अनुभव करता हुआ उदित कर्मफल को उसकी ज्ञेयमात्रता के कारण मात्र जानता ही है, अहंरूप से अनुभव में आना अशक्य होने से उसे भोगता नहीं ।

(कलश--रोला)
प्रकृतिस्वभावरत अज्ञानी हैं सदा भोगते ।
प्रकृतिस्वभाव से विरत ज्ञानिजन कभी न भोगें ॥
निपुणजनो ! निजशुद्धातममय ज्ञानभाव को ।
अपनाओ तुम सदा त्याग अज्ञानभाव को ॥१९७॥

[अज्ञानी प्रकृति-स्वभाव-निरतः नित्यं वेदकः भवेत्] अज्ञानी प्रकृति-स्वभाव में लीन (रक्त) होने से (उसी को अपना स्वभाव जानता है इसलिये) सदा वेदक है, [तु] परन्तु [ज्ञानी प्रकृति-स्वभाव-विरतः जातुचित् वेदकः नो] ज्ञानी तो प्रकृति-स्वभाव से विरक्त होने से (उसे पर का स्वभाव जानता है इसलिए) कदापि वेदक नहीं है । [इति एवं नियमं निरूप्य] इसप्रकार के नियम को भलीभाँति विचार करके (निश्चय करके) [निपुणैः अज्ञानिता त्यज्यताम्] निपुण पुरुषों अज्ञानीपन को छोड़ दो और [शुद्ध-एक-आत्ममये महसि] शुद्ध-एक-आत्मामय तेज में [अचलितैः] निश्चल होकर [ज्ञानिता आसेव्यताम्] ज्ञानीपने का सेवन करो ।

जयसेनाचार्य :
आगे यह बतलाते हैं कि शुद्ध-निश्चय-नय से कर्म-फल को भोगते रहना जीव का स्वभाव नहीं है क्योंकि वह तो अज्ञान भाव है --

[अण्णाणी कम्मफलं पयडिसहावट्ठिदो दु वेदेदि] विशुद्ध-ज्ञान-दर्शन-स्वभाव वाले आत्म-तत्त्व के समीचीन श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान-रूप अभेद-रत्नत्रय-स्वरूप-भेदज्ञान के न होने से अज्ञानी जीव उदय में आए हुए कर्म-प्रकृति के स्वभाव में अर्थात् सुख-दु:ख स्वरूप में स्थित होकर हर्ष-विषादमय होकर उस कर्म के फल को वेदता है, अनुभव करता है । [णाणी पुण कम्मफलं जाणदि उदिदं ण वेदेदि] और ज्ञानी तो पूर्वोक्त भेद-ज्ञान के सद्भाव से वीतराग-सहज-परमानन्द-स्वरूप-सुखरस के आस्वादन द्वारा परम-समरसी-भावरूप में परिणत होता हुआ, उदय में आये हुए फल को वस्तु का जैसा स्वरूप है उसी प्रकार जानता ही है । किन्तु हर्ष-विषादमय होकर उसे वेदता अर्थात भोगता नहीं है ॥३३८॥

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+ ज्ञानी नि:श्शंक होता हुआ कर्म-फल जानता हुआ आराधना में तत्पर रहता है -
जो पुण णिरवराहो चेदा णिस्संकिदो दु सो होदि ।
आराहणाए णिच्चं वट्टदि अहमिदी वियाणन्तो ॥339॥
अन्वयार्थ : [जो पुण णिरवराहो] पुन: जो अपराध रहित [चेदा] आत्मा है, [णिस्संकिदो दु सो] वह निश्शंक ही [होदि] होता हुआ [अहमिदी वियाणन्तो] अपने आपको जानता (अनुभवता) हुआ [आराहणाए णिच्चं] निरन्तर आराधना में ही [वट्टदि] वर्तता है ॥३३९॥

जयसेनाचार्य :
अज्ञानी जीव अपराधी होता है इसलिये वह सशंकित होता हुआ कर्म-फल को तन्मय होकर भोगता है किन्तु जो निरपराध ज्ञानी होता है वह कर्मोदय होने पर क्या करता है ? सो बताते हैं --

[जो पुण णिरवराहो चेदा णिस्संकिदो दु सो होदि] जो चेतयिता ज्ञानी जीव निरपराध होता हुआ परमात्मा के आराधन में निश्शंक होता है । वह निश्शंक होकर क्या करता है ? कि [आराहणाए णिच्चं वट्टदि अहमिदी वियाणन्तो] निर्दोष परमात्मा की आराधना तत्स्वरूप जो निश्चय-आराधना उससे युक्त होकर निरन्तर सदा काल रहता है । क्या करता हुआ रहता है कि 'मैं अनन्त-ज्ञान स्वरूप हूँ' इस प्रकार विचार करके निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर शुद्ध-आत्मा को अच्छी प्रकार से जानता हुआ, वह परम समरसी भाव के द्वारा उसी का अनुभव करता रहता है ॥३३९॥

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+ अब यहाँ बताते हैं कि अज्ञानी जीव नियम से कर्मों का वेदक ही होता है -- -
ण मुयदि पयडिमभव्वो सुट्‌ठु वि अज्झाइदूण सत्थाणि । (317)
गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिव्विसा होंति ॥340॥
णिव्वेयसमावण्णो णाणी कम्मप्फलं वियाणेदि । (318)
महुरं कडुयं बहुविहमवेयओ तेण सो होइ ॥341॥
न मुंचति प्रकृतिमभव्य: सुष्ठ्वपि अधीत्य शास्त्राणि
गुडदुग्धमपि पिबंतो न पन्नगा निर्विषा भवंति ॥३१७॥
निर्वेदसमापन्नो ज्ञानी कर्मफलं विजानाति
मधुरं कटुकं बहुविधमवेदकस्तेन स भवति ॥३१८॥
गुड़-दूध पीता हुआ भी निर्विष न होता सर्प ज्यों ।
त्यों भलीभाँति शास्त्र पढ़कर अभवि प्रकृति न तजे ॥३१७॥
निर्वेद से सम्पन्न ज्ञानी मधुर-कड़वे नेक विध ।
वे जानते हैं कर्मफल को हैं अवेदक इसलिए ॥३१८॥
अन्वयार्थ : [सुट्‌ठु वि] भली-भाँति [अज्झाइदूण सत्थाणि] शास्त्रों का अध्ययन करके भी (अभव्य जीव) [पयडिमभव्वो] प्रकृति के स्वभाव को [ण मुयदि] नहीं छोड़ता [गुडदुद्धं] गुड़ मिश्रित दूध [पिबंता] पीते हुए [पि] भी [ण पण्णया] सर्प नहीं [णिव्विसा होंति] निर्विष होते ।
[णिव्वेयसमावण्णो] निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त [णाणी] ज्ञानी [कम्मप्फलं] कर्म के फल को [महुरं कडुयं] मीठा-कड़वा [बहुविहम] अनेक प्रकार का [वियाणेदि] जानता हुआ, [अवेयओ तेण सो होइ] वह उनका अवेदक ही है ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब, यह नियम करते हैं कि - ज्ञानी तो कर्मफल का अवेदक ही है -

जिसप्रकार इस जगत में सर्प स्वयं तो विषभाव को छोड़ता ही नहीं है; किन्तु विषभावों को मिटाने में समर्थ मिश्री से मिश्रित दुग्ध के पीने-पिलाने पर भी विषभाव को नहीं छोड़ता है; उसीप्रकार अभव्य-जीव भी स्वयं तो प्रकृति-स्वभाव को छोड़ता ही नहीं है; किन्तु प्रकृति को छुड़ाने में समर्थ द्रव्यश्रुत के ज्ञान से भी प्रकृति-स्वभाव को नहीं छोड़ता है; क्योंकि उसे भाव-श्रुत-ज्ञान-स्वरूप शुद्धात्म-ज्ञान के अभाव के कारण सदा ही अज्ञानीपन है । इसकारण यह नियम ही है कि अज्ञानी प्रकृति-स्वभाव में स्थिर होने से वेदक ही है, कर्मों को भोगता ही है । निरस्त हो गये हैं समस्त भेद जिसमें ऐसे अभेद भावश्रुतज्ञानरूप शुद्धात्मज्ञान के सद्भाव के कारण ज्ञानी तो पर से अत्यन्त विरक्त होने से प्रकृति के स्वभाव को स्वयमेव ही छोड़ देता है; इसप्रकार उदयागत अमधुर या मधुर कर्म-फल को ज्ञातापने के कारण मात्र जानता ही है; किन्तु ज्ञान के होने पर भी पर-द्रव्य को अपनेपन से अनुभव करने की अयोग्यता होने से उस कर्म-फल को वेदता नहीं है, भोगता नहीं है ।

इसलिए ज्ञानी प्रकृति-स्वभाव से विरक्त होने से अवेदक ही है, अभोक्ता ही है ।

(कलश--सोरठा)
निश्चल शुद्ध-स्वभाव, ज्ञानी करे न भोगवे ।
जाने कर्म-स्वभाव, इस कारण वह मुक्त है ॥१९८॥

[ज्ञानी कर्म न करोति च न वेदयते] ज्ञानी कर्म को न तो करता है और न वेदता (भोगता) है, [तत्स्वभावम् अयं किल केवलम् जानाति] वह कर्म के स्वभाव को मात्र जानता ही है । [परं जानन्] इसप्रकार मात्र जानता हुआ [करण-वेदनयोः अभावात्] करने और वेदने के (भोगने के) अभाव के कारण [शुद्ध-स्वभाव-नियतः सः हि मुक्त: एव] शुद्ध स्वभाव में निश्चल ऐसा वह वास्तव में मुक्त ही है ।

जयसेनाचार्य :
जैसे सर्प शक्कर सहित दूध को पीते हुये भी विष-रहित नहीं होते, उसी तरह अज्ञानी जीव मिथ्यात्व रागादिरूप कर्म प्रकृतियों के उदय के स्वभाव को नहीं छोड़ता हैं । क्या करके ? अच्छी तरह से शास्त्रों का अध्ययन करके भी रागादिभावों को नहीं छोड़ता है क्योंकि वीतराग स्व-संवेदन ज्ञान के अभाव से कर्मों का उदय आने पर मिथ्यात्व रागादि भावों से तन्मय हो जाता है -- ऐसा समझना ॥३४०॥

परम तत्त्व-ज्ञानी जीव संसार, शरीर और भोग इन तीनों से विरक्ति रूप तीन प्रकार के वैराग्य से सम्पन्न होकर उदय में आये हुये शुभ-अशुभ कर्मों के फल-रूप वस्तु को वस्तु-स्वरूप से विशेष-रूप से -- निर्विकार शुद्धात्मा से भिन्न-रूप ही जानता है । कैसा जानता है ? अशुभ कर्म के फल नीम, कांजीर, विष और हलाहल विष-रूप हैं, कडुवे हैं -- ऐसा जानता है और शुभ-कर्मों के फल गुड़, खांड, शक्कर तथा अमृत रूप से मधुर है ऐसा जानता है किंतु वह ज्ञानी शुद्धात्मा से उत्पन्न हुये सहज, परमानंद-रूप अतीन्द्रिय-सृख को छोड़कर पंचेन्द्रियों के सुख में परिणमन नहीं करता है इसी कारण से ज्ञानी आत्मा वेदक -- भोक्ता नहीं होता है, ऐसा नियम है । इस प्रकार से ज्ञानी शुद्ध निश्चय-नय से शुभ-अशुभ कर्मों के फ़ल का भोक्ता नहीं होता है इस व्याख्यान की मुख्यता से तृतीय-स्थल में चार गाथा सूत्र पूर्ण हुये हैं ॥३४१॥

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+ अब इसी कर्तृत्व व भोक्तृत्व के अभाव का दृष्टांत पूर्वक समर्थन करते हैं -- -
ण वि कुव्वइ ण वि वेयइ णाणी कम्माइं बहुपयाराइं । (319)
जाणइ पुण कम्मफलं बंधं पुण्णं च पावं च ॥342॥
दिट्ठी जहेव णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव । (320)
जाणइ य बंधमोक्खं कम्मुदयं णिज्जरं चेव ॥343॥
नापि करोति नापि वेदयते ज्ञानी कर्माणि बहुप्रकाराणि
जानाति पुन: कर्मफलं बंधं पुण्यं च पापं च ॥३१९॥
दृष्टि: यथैव ज्ञानमकारकं तथाऽवेदकं चैव
जानाति च बंधमोक्षं कर्मोदयं निर्जरां चैव ॥३२०॥
ज्ञानी करे-भोगे नहीं बस सभी विध-विध करम को ।
वह जानता है कर्मफल बंध पुण्य एवं पाप को ॥३१९॥
ज्यों दृष्टि त्यों ही ज्ञान जग में है अकारक अवेदक ।
जाने करम के बंध उदय मोक्ष एवं निर्जरा ॥३२०॥
अन्वयार्थ : [णाणी] ज्ञानी [कम्माइं बहुपयाराइं] अनेकप्रकार के कर्मों को [ण वि कुव्वइ] करता भी नहीं है और [ण वि वेयइ] भोगता भी नहीं है [पुण] किन्तु [पुण्णं च पावं च] शुभ और अशुभ [कम्मफलं] कर्मफल और [बंधं] कर्म-बंध को [जाणइ] मात्र-जानता ही है ।
[जहेव] जिसप्रकार [दिट्ठी] दृष्टि (नेत्र दृश्य पदार्थों को देखती ही है, उन्हें करती-भोगती नहीं है) [णाणंअकारयं तह] उसीप्रकार ज्ञान अकारक [अवेदयं चेव] और अवेदक है और [बंधमोक्खं] बंध, मोक्ष, [कम्मुदयं णिज्जरं चेव] कर्मोदय और निर्जरा को [जाणइ य] मात्र जानता ही है ।

अमृतचंद्राचार्य :
ज्ञानी कर्मचेतना से रहित होने से स्वयं अकर्ता और कर्म-फल-चेतना से रहित होने से स्वयं अभोक्ता है; इसलिए वह न तो कर्मों को करता ही है और न भोगता ही है; किन्तु ज्ञान-चेतनामय होने से शुभ या अशुभ कर्म-बंध को और शुभ या अशुभ कर्म-फल को मात्र जानता ही है । यदि कोई यह कहे कि यह किसप्रकार है तो उससे कहते हैं कि जिसप्रकार इस जगत में दृष्टि (नेत्र) दृश्य-पदार्थों से अत्यन्त भिन्न है और इसीकारण वह दृश्य पदार्थों को करने और भोगने में भी पूर्णत: असमर्थ है । इसप्रकार वह दृष्टि (नेत्र) दृश्य-पदार्थों को न तो करती ही है और न भोगती ही है ।

यदि ऐसा नहीं मानें तो जिसप्रकार जलानेवाला पुरुष अग्नि को जलाता है और लोहे का गोला अग्नि की उष्णता को भोगता है; उसीप्रकार दृष्टि अर्थात् नेत्र को भी दिखाई देनेवाली अग्नि को जलाना चाहिए और उसकी उष्णता का अनुभव भी करना चाहिए, उसे भोगना भी चाहिए; पर ऐसा नहीं होता; अपितु अग्नि को देखनेवाला नेत्र मात्र उसे देखता ही है, जलाता नहीं और जलन का अनुभव भी नहीं करता ।

इसीप्रकार ज्ञान भी ज्ञेय-पदार्थों से अत्यन्त भिन्न है और इसीकारण वह ज्ञेयपदार्थों को करने और भोगने में पूर्णत: असमर्थ है । इसकारण वह ज्ञान ज्ञेय-पदार्थों का कर्ता-भोक्ता नहीं है; किन्तु ज्ञेयों को जानने के स्वभाववाला होने से वह ज्ञान ज्ञेयरूप कर्मबंध, कर्मोदय, निर्जरा एवं मोक्ष को मात्र जानता ही है; उनका कर्ता-भोक्ता नहीं है ।

(कलश--हरिगीत)
निज आतमा ही करे सबकुछ मानते अज्ञान से ।
हों यद्यपि वे मुमुक्षु पर रहित आतमज्ञान से ॥
अध्ययन करें चारित्र पालें और भक्ति करें पर ।
लौकिकजनों वत् उन्हें भी तो मुक्ति की प्राप्ति न हो ॥१९९॥

[ये तु तमसा तताः आत्मानं कर्तारम् पश्यन्ति] जो अज्ञान-अंधकार से आच्छादित होते हुए आत्मा को कर्ता मानते हैं, [मुमुक्षताम् अपि] वे भले ही मोक्ष के इच्छुक हों तथापि [सामान्यजनवत्] सामान्य (लौकिक) जनों की भाँति [तेषां मोक्षः न] उनकी भी मुक्ति नहीं होती ।

जयसेनाचार्य :
जो तीन गुप्तिरूप गुप्ति के बल से ख्याति, पूजा, लाभ, देखे, सुने और अनुभव में आये हुये भोगों की आकांक्षारूप निदान-बंध आदि समस्त पर-द्रव्यों के अवलंबन से शून्य है, अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख वीर्य-स्वरूप के अवलंबन-सहित, पूर्णभरित अवस्थारूप, निर्विकल्प समाधि में स्थित है, वही ज्ञानी है । ऐसा ज्ञानी जीव ज्ञानावरण आदि मूल प्रकृतियों और उत्तर प्रकृतियों के भेदों से युक्त ऐसे बहुत प्रकार के कर्मों को निश्चय-नय से नहीं करता है और न तन्मय होकर उनको भोगता है / अनुभव करता है ।

प्रश्न – तो क्या करता है ?

उत्तर – परमात्मा की भावना से उत्पन्न हुये सुख में तृप्त होकर वस्तु-स्वरूप से उनको जानता ही है ।

प्रश्न – क्या जानता है ?

उत्तर – सुख-दुःख स्वरूप कर्मों के फल को जानता है और प्रकृति, स्थिति आदि बंधों से भेद-रूप कर्म-बंध को जानता है । साता-वेदनीय, शुभ-आयु, शुभ-नाम और उच्च-गोत्र-रूप पुण्य-प्रकृतियाँ है, इनसे भिन्न आसाता-वेदनीय, अशुभ-आयु अशुभ-नाम और नीच-गोत्र-रूप पाप-प्रकृतियां है । इत्यादि नाना प्रकारों को जानता ही है ॥३४२॥

[दिट्ठी सयंपि णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव] जैसे चक्षु अग्नि-रूप दृष्य को देखता है किन्तु जलाने वाले पुरुष के समान वह उसे जलाता नहीं है, तथा तप्तायमान लौह-पिंड के समान वह उसे अनुभव-रूप से वेदता भोक्ता भी नहीं है । वैसे ही शुद्ध-ज्ञान भी अथवा अभेद-विवक्षा से शुद्ध-ज्ञान में परिणत हुआ जीव भी शुद्ध-उपादान रूप से (अन्य द्रव्यों को) न करता ही है और न वेदता ही है -- अनुभवता ही है । अथवा दुसरा पाठ यह है [दिट्टी खयंपि णाण] इसका अर्थ यह है कि केवल दृष्टि ही नहीं किन्तु क्षायिक-ज्ञान भी निश्चय-रूप से कर्मों का नहीं करने वाला और नहीं वेदनेवाला / अनुभवनेवाला होता है । ऐसा होता हुआ वह क्या करता है ? [जाणदि य बंधमोक्खं] बंध और मोक्ष को जानता है । केवल बंध-मोक्ष को ही नहीं किन्तु [कम्मुदयं णिज्जरं चेव] शुभाशुभ-रूप-कर्म के उदय को, तथा सविपाक-अविपाकरूप अथवा सकाम और अकाम-रूप से होनेवाली दो प्रकार की निर्जरा को भी जानता है । इस प्रकार शुद्ध-पारिणामिक-रूप-परमभाव का ग्राहक एवं जो उपादान स्वरूप है ऐसे शुद्ध-द्रव्यार्थिक-नय के द्वारा कर्तापन, भोक्तापन, बंध, मोक्षादि के कारणभूत परिणाम से रहित यह जीव है -- ऐसा सूचित किया है । इस प्रकार समुदाय पातनिका में इस प्रकार कर्तापन-बंध-मोक्षादि का कारण-भूत परिणाम का निषेध १२ गाथाओं में हुआ है जो कि शुद्ध-निश्चयनय से किया गया है उसी का उपसंहार दो गाथाओं में हुआ है ॥३४३॥

इस प्रकार श्री जयसेनाचार्य की बनाई हुई शुद्धात्मानुभूति लक्षणवाली तात्पर्य नाम की श्री समयसारजी की व्याख्या के हिन्दी अनुवाद में मोक्षाधिकार से सम्बन्ध रखने वाली यह चूलिका समाप्त हुई । अथवा दूसरे व्याख्यान के द्वारा मोक्ष अधिकार समाप्त हुआ ।

अब यहाँ पर विचार किया जाता है कि जीव के औपशमिक आदि पाँच भावों में से किस भाव के द्वारा मोक्ष होता है । सो वहाँ औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और औदयिक ऐसे चार भाव तो पर्यायरूप हैं और एक शुद्ध-पारिणामिक भाव द्रव्य-रूप है । पदार्थ परस्पर अपेक्षा लिये द्रव्य-पर्याय रूप है । वहाँ जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व तीन प्रकार का पारिणामिक भाव है । उसमें भी शक्ति लक्षणरूप शुद्ध-जीवत्व-पारिणामिकभाव है, वही शुद्ध-द्रव्यार्थिक-नय का आश्रय होने से निरावरण शुद्धपारिणामिक है नाम जिसका, ऐसा जानना चाहिये, जो कि बंध और मोक्ष-रूप पर्याय की परिणति से रहित है । और दश-प्राण-रूप जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये सब पर्यायार्थिक-नय के आश्रय होने से अशुद्ध-पारिणामिक नाम वाले हैं । यहाँ प्रश्न होता है कि अशुद्धपारिणामिक क्यों है ? इसका उत्तर यह है कि दश-प्राण-रूप जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व इन तीनों का सिद्धों में तो सर्वथा अभाव है, किन्तु संसारी जीवों में भी शुद्ध-निश्चय-नय से अभाव है ।

वहाँ इन तीनों में से भव्यत्व लक्षणवाला पारिणामिक भाव है उसका तो पर्यायार्थिक-नय से मोहादिक कर्म-सामान्य आच्छादक है जो देशघाती और सर्वघाती नाम वाला है एवं सम्यवत्वादि जीव के गुणों का घातक है -- ऐसा समझना चाहिये । वहाँ जब काल आदि लाब्धियों के वश से भव्यत्व-शक्ति की अभिव्यक्ति होती है तब यह जीव सहज-शुद्ध-पारिणामिक भाव-रूपी लक्षण को रखने वाली ऐसे निज-परमात्म-द्रव्य के सम्यक्श्रद्धान, ज्ञान और आचरण की पर्याय के रूप में परिणमन करता है उसी ही परिणमन को आगम भाषा में औपशमिक, क्षायोपशिक, और क्षायिकभाव इन तीनों नामों से कहा जाता है । वही अध्यात्म-भाषा में शुद्धात्मा के अभिमुख परिणाम कहलाता है जिसको शुद्धोपयोग इत्यादि पर्यायरूप नाम से कहते हैं । वह शुद्धोपयोग-रूप पर्याय भी शुद्ध-पारिणामिक-भाव है लक्षण जिसका ऐसे शुद्धात्म-द्रव्य से कथंचिंत् भिन्न रूप होती है क्योंकि वह भावना-रूप होता है । किन्तु शुद्ध-पारिणामिक भाव भावना-रूप नहीं होता है । यदि इस भावना-रूप परिणाम को एकान्त से शुद्ध-पारिणामिक-भाव से अभिन्न ही मान लिया जाय तो मोक्ष का कारण-भूत भावना-रूप परिणाम का तो, मोक्ष हो जाने पर नाश हो जाता है तब उसके नाश हो जाने पर शुद्ध-पारिणामिक-भाव का भी नाश हो जाना चाहिये ? सो ऐसा है नहीं । इसलिये यह निश्चित है कि शुद्ध-पारिणामिक-भाव के विषय में जो भावना है उसरूप जो औपशमिकादि तीन भाव हैं सो रागादिक समस्त विकार-भावों से रहित होने से शुद्ध-उपादान के कारण-रूप हैं इसलिये मोक्ष के कारण होते हैं, किन्तु शुद्ध-पारिणामिक-भाव मोक्ष का कारण नहीं है । हाँ, जो शक्ति-रूप मोक्ष है वह तो शुद्ध-पारिणामिक-रूप पहले से ही प्रवर्तमान है किन्तु यहाँ पर तो व्यक्ति-रूप मोक्ष का विचार चल रहा है, ऐसा ही सिद्धान्त में लिखा हुआ कि 'निष्क्रिय: शुद्धपारिणामिक:' अर्थात् शुद्ध-पारिणामिक-भाव तो निष्क्रिय होता है । निष्क्रिय कहने का भी क्या अर्थ है ? रागादिमय-परिणति वाली एवं बंध की कारण-भूत क्रिया से रहित है तथा मोक्ष की कारण-भूत जो क्रिया, शुद्ध-स्वरूप की भावना-रूप परिणति है उससे भी रहित है । इससे यह जाना जाता है कि शुद्ध-पारिणामिक-भाव ध्येय-रूप है परन्तु ध्यान-रूप नहीं है क्योंकि विनाशशील है । जैसा कि योगीन्द्रदेव ने भी अपने परमात्म-प्रकाश में लिखा है --

ण वि उप्पज्जइ ण वि मरइ बंधु ण मोक्खु करेइ ।
जिउ परमत्थेँ जोइया जिणवरु एउँ भणेइ ॥प.प्र.६८॥

हे योगी ! सुन, परमार्थ-दृष्टि से देखने पर यह जीव न तो उपजता है, न मरता है, न बंध ही करता है, न मोक्ष ही प्राप्त करता है ऐसा श्री जिनेन्द्र भगवान कहते हैं ।

तात्पर्य यह है कि -- विवक्षा में ली हई एकदेश-शुद्ध-नय के आश्रित होने वाली भावना निर्विकार-स्वसंवेदन ही है लक्षण जिसका, ऐसे क्षायोपशमिक ज्ञान से पृथक्पने के कारण यद्यपि एकदेश-व्यक्ति-रूप है फिर भी ध्यान करने वाला पुरुष यही भावना करता है कि जो सभी-प्रकार के आवरणों से रहित अखंड-एक-प्रत्यक्ष-प्रतिभासमय तथा नाश-रहित और शुद्ध-पारिणामिक लक्षणवाला निज-परमात्म-द्रव्य है वही मैं हूँ अपितु खंड-ज्ञान-रूप मैं नहीं हूँ, यह सब व्याख्यान यहाँ परस्पर की अपेक्षा को लिये हुये हैं जो आगम और अध्यात्मनय इन दोनों का विरोध नहीं करने से ही सिद्ध होता है । इस प्रकार विवेकी ज्ञानियों को समझना चाहिये ।

इसके आगे जीव आदि नव अधिकारों में जीव के कर्तापन और भोक्तापन आदि के विषय से निश्चय-नय और व्यवहार-नय के विभाग द्वारा सामान्यपने का जो पूर्व में वर्णन किया है उसी का अब विशेष वर्णन करने के लिये [लोगस्स कुणदि विण्हु] इत्यादि गाथा को आदि लेकर पाठ-क्रम से ९६ गाथाओं में चूलिका का व्याख्यान करते हैं ।

चूलिका शब्द का अर्थ करते हैं -- इस प्रकार तीन प्रकार का व्याख्यान चूलिका शब्द से कहा जाता है ।

इस प्रकार १३ अन्तर-अधिकारों से समयसारजी की चूलिका के अधिकार में यह समुदाय-पातनिका हुई । आगे इन तेरह अधिकारों का क्रम से व्याख्यान किया जाता है ।

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+ अब यहाँ बताते हैं कि जो एकान्त से आत्मा को कर्ता मानते हैं उनके भी अज्ञानी लोगों के समान मोक्ष नहीं है ऐसा उपदेश करते हैं -- -
लोयस्स कुणदि विण्हू सुरणारयतिरियमाणुसे सत्ते । (321)
समणाणं पि य अप्पा जदि कुव्वदि छव्विहे काऐ ॥344॥
लोयसमणाणमेयं सिद्धंतं जइ ण दीसदि विसेसो । (322)
लोयस्स कुणइ विण्हू समणाण वि अप्पओ कुणदि ॥345॥
एवं ण को वि मोक्खो दीसदि लोयसमणाणं दोण्ह पि । (323)
णिच्चं कुव्वंताणं सदेवमणुयासुरे लोए ॥346॥
लोकस्य करोति विष्णु: सुरनारकतिर्यङ्मानुषान् सत्त्वान्
श्रमणानामपि चात्मा यदि करोति षड्विधान् कायान् ॥३२१॥
लोकश्रमणानामेक: सिद्धांतो यदि न दृश्यते विशेष:
लोकस्य करोति विष्णु: श्रमणानामप्यात्मा करोति ॥३२२॥
एवं न कोऽपि मोक्षो दृश्यते लोकश्रमणानां द्वयेषामपि
नित्यं कुर्वतां सदेवमनुजासुरान् लोकान् ॥३२३॥
जगत-जन यों कहें विष्णु करे सुर-नरलोक को ।
रक्षा करूँ षट्काय की यदि श्रमण भी माने यही ॥३२१॥
तो ना श्रमण अर लोक के सिद्धान्त में अन्तर रहा ।
सम मान्यता में विष्णु एवं आतमा कर्ता रहा ॥३२२॥
इसतरह कर्तृत्व से नित ग्रसित लोक रु श्रमण को ।
रे मोक्ष दोनों का दिखाई नहीं देता है मुझे ॥३२३॥
अन्वयार्थ : [लोयस्स] लौकिकजनों के मत में [सुरणारयतिरियमाणुसे] देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्य रूप [सत्ते] प्राणियों को [विण्हू] विष्णु [कुणदि] करता है [समणाणं पि य] और श्रमणों के मत में भी [छव्विहे काऐ] छहकाय के जीवों को [अप्पा जदि कुव्वदि] यदि आत्मा करता हो तो फिर तो [लोयसमणाणमेयं सिद्धंतं] लौकिकजनों और श्रमणों का एक सिद्धान्त होने से [विसेसो] दोनों में अन्तर [जइ ण दीसदि] दिखाई नहीं देता । [लोयस्स कुणइ विण्हू] लोक के मत में विष्णु करता है और [समणाण वि अप्पओ कुणदि] श्रमणों के मत में भी आत्मा करता है ।
[एवं] इसप्रकार [सदेवमणुयासुरे लोए] देव, मनुष्य और असुरलोक को [णिच्चं कुव्वंताणं] सदा करते हुए [लोयसमणाणं दोण्ह पि] लोक और श्रमण - दोनों में से [ण को वि] कोई का भी [मोक्खो दीसदि] मोक्ष दिखाई नहीं देता ।

अमृतचंद्राचार्य :
अब इसी अर्थ को गाथा द्वारा कहते हैं -

जो आत्मा को कर्ता ही देखते हैं; वे लोकोत्तर हों तो भी लौकिकता का अतिक्रमण नहीं करते; क्योंकि लौकिकजनों के मत में परमात्मा विष्णु देव-नारकादि कार्य करता है और इन लोकोत्तर मुनियों के मत में स्वयं का आत्मा वे कार्य करता है - इसप्रकार दोनों में अपसिद्धान्त की समानता है । इसलिए आत्मा के नित्यकर्तृत्व की उनकी मान्यता के कारण लौकिकजनों के समान लोकोत्तर पुरुषों (मुनियों) का भी मोक्ष नहीं होता ।

(कलश--दोहा)
जब कोई संबंध ना, पर अर आतम माहिं ।
तब कर्ता परद्रव्य का, किसविध आत्म कहाहिं ॥२००॥

[परद्रव्य-आत्मतत्त्वयोः सर्वः अपि सम्बन्धः नास्ति] पर-द्रव्य और आत्म-तत्त्व का सम्पूर्ण ही (कोई भी) सम्बन्ध नहीं है; [कर्तृ-कर्मत्व-सम्बन्ध-अभावे] इसप्रकार कर्तृ-कर्मत्व के सम्बन्ध का अभाव होने से, [तत्कर्तृता कुतः] आत्मा के पर-द्रव्य का कर्तृत्व कहाँ से हो सकता है ?

जयसेनाचार्य :
[लोयस्स कुणदि विण्हू सुरणारयतिरियमाणुसे सत्ते] लोकों के मत में तो विष्णु -- देव, नारक, तिर्यच और मनुष्य नाम के जीवों को करता है । [समणाणं पि य अप्पा जदि कुव्वदि छव्विहे काऐ] उसी प्रकार श्रमणों के मत में आत्मा छह काय के जीवों को करता है । [लोयसमणाणमेयं सिद्धंतं जइ ण दीसदि विसेसो] इस पूर्वोक्त रीति से लोक और श्रमणों में सिद्धान्त के प्रति और आगम के प्रति फिर कोई भेद नहीं दिखता है । [लोयस्स कुणइ विण्हू समणाण वि अप्पओ कुणदि] क्योंकि लोगों के मत में तो कल्पित किया हुआ विष्णु नाम का पुरुष-विशेष करता है और श्रमणों के मत में आत्मा करता है, सो वहाँ करने वाले का नाम विष्णु है और श्रमणों के मन में उस करने वाले का नाम आत्मा है । नाम भेद है पर अर्थ में कोई भेद नहीं है । [एवं ण को वि मोक्खो दीसदि दोण्ह पि समणलोयाणं] इस प्रकार के कर्तृत्व में दोष क्या आता है ? कि फिर लोक और श्रमणों में मोक्ष होना नहीं ठहरता है । कब और कहाँ ? [णिच्चं कुव्वंताणं सदेवमणुयासुरे लोगे] निरंतर सब ही काल में कर्म करने वालों को देव, मनुष्य और असुर सहित लोक में मोक्ष नहीं ठहरता ।

भावार्थ यह है कि राग-द्वेष और मोह के रूप में परिणमन करने का नाम ही कर्त्तापन है राग-द्वेष और मोहरूप परिणमन होने पर शुद्ध-स्वभाव-आत्मतत्त्व का समीचीन-श्रद्धान, ज्ञान और आचरण-रूप जो निश्चय-रत्नत्रय तद्रूप जो मोक्ष-मार्ग उससे च्युत होता है तब वहाँ मोक्ष नहीं होता है । इस प्रकार पूर्व-पक्ष-रूप से तीन गाथायें हुई ॥३४४-३४६॥

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+ अब पूर्व-पक्ष के उत्तर में कथन करते हैं कि निश्चय से आत्मा का पुदगलद्रव्य के साथ में कर्त्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं है, तब आत्मा कैसे कर्त्ता बनता है ? -
ववहारभासिदेण दु परदव्वं मम भणंति अविदिदत्था । (324)
जाणंति णिच्छएण दु ण य मह परमाणुमित्तमवि किंचि ॥347॥
जह को वि णरो जंपदि अम्हं गामविसयणयररट्ठं । (225)
ण य होंति जस्स ताणि दु भणदि य मोहेण सो अप्पा ॥348॥
एमेव मिच्छदिट्ठी णाणी णीसंसयं हवदि एसो । (326)
जो परदव्वं मम इदि जाणंतो अप्पयं कुणदि ॥349॥
तम्हा ण मे त्ति णच्चा दोण्ह वि एदाण कत्तविवसायं । (327)
परदव्वे जाणंतो जाणेज्जो दिट्ठिरहिदाणं ॥350॥
व्यवहारभाषितेन तु परद्रव्यं मम भणंत्यविदितार्था:
जानंति निश्चयेन तु न च मम परमाणुमात्रमपि किं चित् ॥३२४॥
यथा कोऽपि नरो जल्पति अस्माकं ग्रामविषयनगरराष्ट्र्
न च भवंति तस्य तानि तु भणति च मोहेन स आत्मा ॥३२५॥
एवमेव मिथ्यादृष्टिर्ज्ञानी नि:संशयं भवत्येष:
य: परद्रव्यं ममेति जानन्नात्मानं करोति ॥३२६॥
तस्मान्न मे इति ज्ञात्वा द्वयेषामप्येतेषां कर्तृव्यवसायम्
परद्रव्ये जानन् जानीयान् दृष्टिरहितानाम् ॥३२७॥
अतत्त्वविद् व्यवहार ग्रह परद्रव्य को अपना कहें ।
पर तत्त्वविद् जाने कि पर परमाणु भी मेरा नहीं ॥३२४॥
ग्राम जनपद राष्ट मेरा कहे कोई जिसतरह ।
किन्तु वे उसके नहीं हैं मोह से ही वह कहे ॥३२५॥
इसतरह जो 'परद्रव्य मेरा' - जानकर अपना करे ।
संशय नहीं वह ज्ञानि मिथ्यादृष्टि ही है जानना ॥३२६॥
'मेरे नहीं ये' - जानकर तत्त्वज्ञ ऐसा मानते ।
है अज्ञता कर्तृत्व-बुद्धि लोक एवं श्रमण की ॥३२७॥
अन्वयार्थ : [अविदिदत्था] अज्ञानीजन [ववहारभासिदेण दु] व्यवहारमूढ़ होकर [परदव्वं मम भणंति] परद्रव्य मेरा है, ऐसा कहते हैं; [णिच्छएण दु] निश्चय-प्रतिबुद्ध (ज्ञानी) [ण य मह परमाणुमित्तमवि किंचि] कोई (पर-पदार्थ) परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है, [जाणंति] ऐसा जानते हैं ।
[जह को वि णरो] जैसे किसी मनुष्य के [अम्हं गामविसयणयररट्ठं] 'ग्राम, देश, नगर और राष्ट्र मेरा है', ऐसा [जंपदि] कहने से [य] वे [जस्स] उसके [ण होंति] नहीं होते [य मोहेण सो अप्पा] इसे मोह से वह जीव [ताणि दु भणदि] ऐसा कहता है (कि वे मेरे हैं)
[एमेव] इसीप्रकार [णाणी] ज्ञानी भी [परदव्वं मम इदि जाणंतो] 'परद्रव्य मेरा है', ऐसा जानता हुआ उन्हें [अप्पयं कुणदि] अपना करता है [एसो] तो वह [णीसंसयं] नि:संदेह [मिच्छदिट्ठी] मिथ्यादृष्टि [हवदि] होता है ।
[तम्हा] इसलिए [ण मे त्ति णच्चा] (परद्रव्य) मेरे नहीं हैं - यह जानकर [दोण्ह वि एदाण] इन दोनों (लोक और श्रमण) ही के [परदव्वे] परद्रव्य में [कत्तविवसायं] कर्तृत्व के व्यवसाय को [जाणंतो] जानकर [जाणेज्जो दिट्ठिरहिदाणं] उनको सम्यग्दर्शन से रहित जानते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
व्यवहारविमूढ़ अज्ञानीजन ही पर-द्रव्य के संदर्भ में ऐसा मानते हैं कि 'यह मेरा है' और निश्चय में प्रतिबुद्ध ज्ञानीजन परद्रव्य के संदर्भ में ऐसा ही मानते हैं कि 'यह मेरा नहीं है' । जिसप्रकार इस लोक में कोई व्यवहारविमूढ़ दूसरे ग्राम का रहनेवाला व्यक्ति किसी दूसरे गाँव के बारे में यह कहे कि यह मेरा गाँव है तो उसकी वह मान्यता मिथ्या ही है, वह तत्संबंधी मिथ्यादृष्टि ही है; उसीप्रकार यदि कोई ज्ञानी भी कथंचित् व्यवहार-विमूढ़ होकर परद्रव्य को 'यह मेरा है' - इसप्रकार देखे, जाने, माने तो उस समय वह भी नि:संशय रूप से परद्रव्य को निजरूप करता हुआ मिथ्यादृष्टि ही होता है । इसलिए तत्त्वज्ञ 'समस्त पर-द्रव्य मेरे नहीं हैं' - यह जानकर यह निश्चित-रूप से जानता है कि लोक और श्रमणों - दोनों के ही पर-द्रव्य में कर्तृत्व का व्यवसाय, उनकी सम्यग्दर्शन-रहितता के कारण ही है ।

(कलश--रोला)
जब कोई संबंध नहीं है दो द्रव्यों में,
तब फिर कर्ताकर्मभाव भी कैसे होगा ?
इसीलिए तो मैं कहता हूँ निज को जानो
सदा अकर्ता अरे जगतजन अरे मुनीजन ॥२०१॥

[यतः] क्योंकि [इह] इस लोक में [एकस्य वस्तुनः अन्यतरेण सार्धंसकलः अपि सम्बन्धः एव निषिद्धः] एक वस्तु का अन्य वस्तु के साथ सम्पूर्ण सम्बन्ध ही निषेध किया गया है, [तत्] इसलिये [वस्तुभेदे] जहाँ वस्तुभेद है (भिन्न वस्तुएँ हैं) वहाँ [कर्तृकर्मघटना अस्ति न] कर्ता-कर्म घटना नहीं होती [मुनयः च जनाः च] इसप्रकार मुनिजन और लौकिक जन [तत्त्वम् अकर्तृ पश्यन्तु] तत्त्व को (आत्मा / वस्तु को) अकर्ता देखो ।

(कलश--रोला)
इस स्वभाव के सहज नियम जो नहीं जानते,
अरे विचारे वे तो डूबे भवसागर में ।
विविध कर्म को करते हैं बस इसीलिए वे,
भावकर्म के कर्ता होते अन्य कोई ना ॥२०२॥

[बत] अरे रे ! [ये तु इमम्स्वभावनियमं न कलयन्ति] जो इस वस्तु-स्वभाव के नियम को नहीं जानते [ते वराकाः] वे बेचारे, [अज्ञानमग्नमहसः] जिनका (पुरुषार्थरूप – पराक्रमरूप) तेज अज्ञान में डूब गया है ऐसे, [कर्मकुर्वन्ति] कर्म को करते हैं; [ततः एव हि] इसलिये [भावकर्मकर्ता चेतनः एव स्वयं भवति] भावकर्म का कर्ता चेतन ही स्वयं होता है, [अन्यः न] अन्य कोई नहीं ।

जयसेनाचार्य :
[ववहारभासिदेण दु परदव्वं मम भणंति अविदिदत्था] जो विदितार्थ हैं -- तत्व के जानने वाले हैं, वे लोग भी पर-द्रव्य को 'मेरा है' ऐसा व्यवहार-नय के द्वारा, व्यवहार की भाषा में कहा करते हैं । [जाणंति णिच्छएण दु ण य मह परमाणुमित्तमवि किंचि] किन्तु निश्चय-नय से जानते हैं कि यहाँ जो पर-द्रव्य है उनमें से परमाणु-मात्र भी मेरा नहीं है । [जह को वि णरो जंपदि अम्हं गामविसयणयररट्ठं] जैसे कोई पुरुष ऐसा स्पष्ट कहे कि 'बाडी से घिरा हुआ ग्राम, देशनामवाला विषय, नगर है नाम जिसका वह पुर, देश का एक हिस्सा, वह राष्ट्र, ये सब हमारे हैं' [ण य होंति जस्स ताणि दु भणदि य मोहेण सो अप्पा] उसके कहने मात्र से वे सब उसके नहीं हो जाते हैं कि ग्रामादिक उस देश के राजा के हैं फिर भी मोह-भाव के निमित्त से वह ऐसा कहता है जो कि 'अमुक ग्रामादिक तो मेरे हैं' यह दृष्टांत हुआ । अब दार्ष्टान्त कहते हैं -- इसी प्रकार पूर्वोक्त दृष्टांत के द्वारा ज्ञानी जीव भी व्यवहार-विमूढ़ होकर यदि पर-द्रव्य को अपना कहता है तो उस समय मिथ्यात्व को प्राप्त होता हुआ वह अवश्य मिथ्यादृष्टि हो जाता है इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये । [तम्हा] इत्यादि चौथी गाथा का अर्थ यह है कि परकीय ग्रामादि दृष्टांत के द्वारा ही स्वात्मानुभूति की भावना पर से च्युत हुआ जीव पर-द्रव्य को व्यवहार से अपना कहता है वह मिथ्यादृष्टि होता है, ऐसा पहले ही कहा जा चुका है । इस कारण से जाना जाता है कि [दोण्ह वि एदाण कत्तविवसायं] पर-द्रव्य अर्थात् आत्मा से इतर वस्तुओं के बारे में पूर्वोक्त लौकिक (जन और जैन जन) इन दोनों का ही आत्मा पर-द्रव्य को करता है । इस रूप से जो कर्त्तापन का व्यवसाय है, उसको कोई तीसरा तटस्थ पुरुष [ण मेत्ति णच्चा] विकार रहित जो स्व और पर परिच्छिति, रूप ज्ञान के द्वारा पर-द्रव्य मेरा सम्बन्धी नहीं हो सकता । इस बात को जानकर [जाणंतो जाणेज्जो दिट्ठिरहिदाणं] लौकिक-जन और जैन-जन इन दोनों के पर-द्रव्य के बारे में होने वाले कर्त्तापन के व्यवसाय को जानता हुआ, इस प्रकार जाने कि वीतराग सम्यक्त्व है नाम जिसका ऐसी, निश्चय-दृष्टि जिनके नहीं है उन लोगों का यह अध्यवसाय है ।

इस पर शंका होती है कि ज्ञानी होकर भी व्यवहार से जो पर द्रव्य को अपना कहता है वह अज्ञानी कैसे हो सकता है ?

उसका उत्तर यह है कि व्यवहार तो प्राथमिक लोगों को सम्बोधन करने के लिये उस समय ही अनुसरण करने योग्य है जैसे कि म्लेच्छों को समझाने के लिए म्लेच्छ भाषा बोली जाती है । प्राथमिक जन के सम्बोधन-काल को छोड़कर अन्य-काल में भी यदि कोई ज्ञानी जीव कतक-फल के समान आत्मा का संशोधन करने वाला शुद्धनय, उससे च्युत होकर पर-द्रव्य को अपना करता है, कहता है उस समय वह मिथ्यादृष्टि होता है । अब इसका विस्तार से वर्णन करते हैं --

जैसा पहले की तीन गाथाओं में कह आये हैं कि लोगों के मत में विष्णु ही सृष्टि का कर्ता है सो वह लोक व्यवहार को लेकर कही हुई बात है किन्तु अनादि स्वरूप इस देव, मनुष्यादि प्राणियों से भरे हुये लोक का विष्णु या महेश्वर नाम का कोई भी एक कर्त्ता नहीं है । क्योंकि यह सारा लोक ही एकेंद्रियादि जीवों से भरा हुआ है उन सभी जीवों में निश्चय-नय से विष्णु के रूप से, ब्रह्मा के रूप से, महेश्वर के रूप से और जिन के रूप से परिणमन करने की शक्ति विद्यमान है इसलिये आत्मा ही विष्णु है, आत्मा ही ब्रह्मा है, आत्मा ही महेश्वर है और आत्मा ही जिन भी है । वह कैसे है सो बताते हैं --

देखो, कोई जीव अपने पूर्व मनुष्य भव में जिन-दीक्षा लेकर भोगों की आकांक्षा रूप निदान बंध के द्वारा पापानुबंधी पुण्य करके स्वर्ग में जा उत्पन्न हुआ, वहाँ से आकर मनुष्य भव में तीन खण्ड का अधिपति अर्द्धचक्री बनता है उसी ही की विष्णु, संज्ञा होती है और कोई लोक का कर्ता अन्य विष्णु, नहीं है । इसी प्रकार कोई जिन-दीक्षा लेकर रत्नत्रय की आराधना द्वारा पापानुबन्धी पुण्य उपार्जन करके विद्यानुवाद नाम के दशवें पूर्व को पढ़कर चारित्र-मोह के उदय से तपश्चरण से भ्रष्ट होकर हुँडावसर्पिणी काल के प्रभाव से और अपनी विद्या के बल से 'मैं इस लोक का कर्ता हूँ' ऐसा चमत्कार दिखाकर मूढ़ लोगों में आश्चर्य पैदा करके महेश्वर बनता है, सो यह सभी अवसर्पिणीयों में नहीं होता किन्तु हुण्डावसर्पिणी में होता है जो कि असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अवसर्पिणी कालों के बीतने के पर ही आया करता है । जैसा कि लिखा हुआ है --

संखातीदवसप्पिणी गयासु हुण्डावसप्पिणी एइ ।
परसमयहं उप्पती तहिं जिणवर एव पभणेइ ॥

अर्थात असंख्यात अवसर्पिणी कालों के बीत जाने पर एक हुण्डावसर्पिणी काल आता है । जिसमें जैनेतर मतों की भी उत्पत्ति हो जाती है ऐसा जिनेन्द्र-भगवान कहते हैं तो उसी में महेश्वर पैदा होता है । इसके सिवाय जगत् का कर्ता महेश्वर नाम का पुरुष नहीं है । इसी प्रकार कोई एक विशिष्ट तपश्चरण करके पश्चात् इस तपश्चरण के प्रभाव से स्त्री-विषय का निमित्त पाकर चार-मुख वाला हो जाता है उसी का ब्रह्मा नाम है, और कोई व्यापक एक रूप वाला होकर जगत् का कर्ता हो ऐसा ब्रह्म कोई नहीं है । इसी प्रकार कोई एक दर्शन-विशुद्धि, विनय-सम्पन्नता आदि सोलह भावना के फल से देवेन्द्रादि द्वारा की हुई पंच-महाकाल्याण-पूजा के योग्य तीर्थंकर नाम पुण्य को उपार्जन कर जिनेश्वर नाम वाला वीतराग सर्वज्ञ होता है -- ऐसा वस्तु का स्वरूप है सो जानना चाहिये ॥३४७-३५०॥

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+ जो करता है वही भोगता है -- द्रव्यार्थिक-नय और अन्य ही कर्ता है और अन्य ही भोगता -- पर्यायार्थिक-नय -
केहिंचि दु पज्जएहिं विणस्सए णेव केहिंचि दु जीवो । (345)
जम्हा तम्हा कुव्वदि सो वा अण्णो व णेयंतो ॥351॥
केहिंचि दु पज्जएहिं विंणस्सए णेव केहिंचि दु जीवो । (346)
जम्हा तम्हा वेददि सो वा अण्णो व णेयंतो ॥352॥
जो चेव कुणदि सो चिय ण वेदए जस्स एस सिद्धंतो । (347)
सो जीवो णादव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो ॥353॥
अण्णो करेदि अण्णो परिभुंजदि जस्स एस सिद्धंतो । (348)
सो जीवो णादव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो ॥354॥
कैश्चित्तु पर्यायैर्विनश्यति नैव कैश्चित्तु जीव:
यस्मात्तस्मात्करोति स वा अन्यो वा नैकांत: ॥३४५॥
कैश्चित्तु पर्यायैर्विनश्यति नैव कैश्चित्तु जीव:
यस्मात्तस्माद्वेदयते स वा अन्यो वा नैकांत: ॥३४६॥
यश्चैव करोति स चैव य वेदयते यस्य एष सिद्धांत:
स जीवो ज्ञातव्यो मिथ्यादृष्टिरनार्हत: ॥३४७॥
अन्य: करोत्यन्य: परिभुंक्ते यस्य एष सिद्धांत:
स जीवो ज्ञातव्यो मिथ्यादृष्टिरनार्हत: ॥३४८॥
यह आतमा हो नष्ट कुछ पर्याय से कुछ से नहीं ।
जो भोगता वह करे अथवा अन्य यह एकान्त ना ॥३४५॥
यह आतमा हो नष्ट कुछ पर्याय से कुछ से नहीं ।
जो करे भोगे वही अथवा अन्य यह एकान्त ना ॥३४६॥
जो करे, भोगे नहीं वह; सिद्धान्त यह जिस जीव का ।
वह जीव मिथ्यादृष्टि आर्हतमत विरोधी जानना ॥३४७॥
कोई करे कोई भरे यह मान्यता जिस जीव की ।
वह जीव मिथ्यादृष्टि आर्हतमत विरोधी जानना ॥३४८॥
अन्वयार्थ : [जम्हा] क्योंकि [केहिंचि दु पज्जएहिं विणस्सए] कदाचित् पर्यायों से नष्ट होता है और [णेव केहिंचि दु जीवो] कदाचित् नष्ट नहीं होता है जीव [तम्हा] इसलिए [कुव्वदि सो वा] वही करता है अथवा [अण्णो व] अन्य ही (करता है) - [णेयंतो] ऐसा एकान्त नहीं है ।
[जम्हा] क्योंकि [केहिंचि दु पज्जएहिं विणस्सए] कदाचित् पर्यायों से नष्ट होता है और [णेव केहिंचि दु जीवो] कदाचित् नष्ट नहीं होता है जीव [तम्हा] इसलिए [वेददि सो वा] वही भोगता है अथवा [अण्णो व] अन्य ही (भोगता है) - [णेयंतो] ऐसा एकान्त नहीं है ।
[जो चेव कुणदि] जो करता है, [सो चिय ण वेदए] वह नहीं भोगता - [जस्स एस सिद्धंतो] ऐसा जिसका सिद्धान्त है, [सो जीवो] उस जीव को [अणारिहदो] अरहन्त के मत के बाहर [णादव्वो मिच्छादिट्ठी] मिथ्यादृष्टि जानो ।
[अण्णो करेदि अण्णो परिभुंजदि] अन्य करता है और अन्य भोगता है - [जस्स एस सिद्धंतो] ऐसा जिसका सिद्धान्त है, [सो जीवो] उस जीव को [अणारिहदो] अरहन्त के मत के बाहर [णादव्वो मिच्छादिट्ठी] मिथ्यादृष्टि जानो ।

अमृतचंद्राचार्य :
प्रतिसमय होनेवाले अगुरुलघुत्व-गुण के परिणमन द्वारा क्षणिक होने से और अचलित चैतन्य के अन्वयगुण द्वारा नित्य होने से जीव कितनी ही पर्यायों द्वारा नष्ट होता है और कितनी पर्यायों द्वारा नष्ट नहीं होता है । इसप्रकार जीव दो स्वभाववाला है । इसलिए जो करता है, वही भोगता है अथवा दूसरा ही भोगता है तथा जो भोगता है, वही करता है अथवा दूसरा ही करता है - ऐसा एकान्त नहीं है ।

ऐसा अनेकान्त होने पर भी जो पर्याय उससमय है, वही परमार्थ वस्तु है; इसप्रकार वस्तु के अंश में पूर्ण की मान्यता करके शुद्धनय के लोभ से ऋजुसूत्रनय के एकान्त में रहकर जो यह मानता है कि जो करता है, वह नहीं भोगता; दूसरा करता है और दूसरा भोगता है; उसे मिथ्यादृष्टि ही समझना चाहिए; क्योंकि पर्यायों का क्षणिकत्व होने पर भी पर्यायी आत्मा अंतरंग में नित्य ही भासित होता है ।

(कलश--रोला)
यह आतम है क्षणिक क्योंकि यह परमशुद्ध है ।
जहाँ काल की भी उपाधि की नहीं अशुद्धि ॥
इसी धारणा से छूटा त्यों नित्य आतमा ।
ज्यों डोरा बिन मुक्तामणि से हार न बनता ॥२०८॥

[आत्मानं परिशुद्धम् ईप्सुभिः परैः अन्धकैः] आत्मा को सम्पूर्णतया शुद्ध चाहनेवाले अन्य किन्हीं अन्धों ने [पृथुकैः] बालिशजनों ने (बौद्धों ने) [काल-उपाधि-बलात्अपि तत्र अधिकाम् अशुद्धिम् मत्वा] काल की उपाधि के कारण भी आत्मा में अधिक अशुद्धि मानकर [अतिव्याप्तिं प्रपद्य] अतिव्याप्ति को प्राप्त होकर, [शुद्ध-ऋजुसूत्रे रतैः] शुद्ध ऋजुसूत्रनय में रत होते हुए [चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य] चैतन्य को क्षणिक कल्पित करके, [अहो एषः आत्मा व्युज्झितः] इस आत्मा को छोड़ दिया; [निःसूत्र-मुक्ता-ईक्षिभिः हारवत्] जैसे हार के सूत्र (डोरे) को न देखकर मोतियों को ही देखनेवाले हार को छोड़ देते हैं ।

(कलश--रोला)
कर्ता-भोक्ता में अभेद हो युक्तिवश से,
भले भेद हो अथवा दोनों ही ना होवें ।
ज्यों मणियों की माला भेदी नहीं जा सके,
त्यों अभेद आतम का अनुभव हमें सदा हो ॥२०९॥

[कर्तुः च वेदयितुः युक्ति वशतः भेदः अस्तु वा अभेदः अपि] कर्ता काऔर भोक्ता का युक्ति के वश से भेद हो या अभेद हो, [वा कर्ता च वेदयिता मा भवतु] अथवा कर्ता और भोक्ता दोनों न हों; [वस्तु एव संचिन्त्यताम्] वस्तु का ही अनुभव करो । [निपुणैः सूत्रेइव इह आत्मनि प्रोता चित्-चिन्तामणि-मालिका क्वचित् भेत्तुं न शक्या] जैसे चतुर पुरुषों के द्वारा डोरे में पिरोई गई मणियों की माला भेदी नहीं जा सकती, उसीप्रकार आत्मा में पिरोई गई चैतन्यरूप चिन्तामणि की माला भी कभी किसी से भेदी नहीं जा सकती; [इयम् एका] ऐसी यह आत्मारूप माला एक ही, [नः अभितः अपि चकास्तु एव] हमें समस्ततया प्रकाशमान हो (अर्थात् नित्यत्व, अनित्यत्व आदि के विकल्प छूटकर हमें आत्मा का निर्विकल्प अनुभव हो)

(कलश--दोहा)
अरे मात्र व्यवहार से, कर्म रु कर्ता भिन्न ।
निश्चयनय से देखिये, दोनों सदा अभिन्न ॥२१०॥

[केवलं व्यावहारिकदृशा एव कर्तृ च कर्म विभिन्नम् इष्यते] केवल व्यावहारिक दृष्टि से ही कर्ता और कर्म भिन्न माने जाते हैं; [निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते] यदि निश्चय से वस्तु का विचार किया जाये, [कर्तृ च कर्म सदा एकम् इष्यते] तो कर्ता और कर्म सदा एक माना जाता है ।

जयसेनाचार्य :
[केहिंचि दु पज्जएहिं विणस्सए णेव केहिंचि दु जीवो] पर्यायार्थिक-नय के द्वारा जिनका विभाग किया जाता है ऐसी देव-मनुष्यादि पर्यायों के द्वारा यह जीव नाश को प्राप्त होता है, किन्तु द्रव्यार्थिक-नय के द्वारा जिनका विभाग किया जाता है ऐसी कुछ अवस्थाओं के द्वारा नाश को प्राप्त नहीं होता । [जम्हा] क्योंकि जीव का स्वरूप नित्य और अनित्य स्वभाव वाला है [तम्हा] इसलिये [कुववदि सो वा] द्रव्यार्थिक-नय की दृष्टि से तो वही जीव काम करने वाला है । वही कौन ? जो कि भोगता है वह । [अण्णो वा] किन्तु पर्यायार्थिक-नय से दूसरा करने वाला है । [णेयंतो] इस विषय में एकांत नहीं है । [केहिंचि दु पज्जएहिं विंणस्सए णेव केहिंचि दु जीवो] पर्यायार्थिक-नय के द्वारा जिनका ग्रहण होता है उन कुछ देव-मनुष्यादि अवस्थाओं के द्वारा तो यह जीव नष्ट होता है किन्तु द्रव्यार्थिक-नय के द्वारा जिनका ग्रहण होता है उन अवस्थाओं के द्वारा नष्ट नहीं होता अर्थात बना रहता है । [तम्हा] जबकि जीव का स्वरूप इस प्रकार नित्या-नित्यात्मक है [तम्हा] इस कारण [वेददि सो वा] अपनी शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न हुआ जो सुखामृत-रस उसको नहीं प्राप्त होने वाला जीव है वही जीव कर्म-फल को वेदता है / अनुभव करता है । वही कौन सा जीव ? जिसने पहले कर्म किया है [अण्णो वा] किन्तु पर्यायार्थिक-नय से दूसरा ही जीव कर्म के फल को भोगता है । [णेयंतो] इस प्रकार इस विषय में भी एकांत नहीं है । इस प्रकार भोक्ता की मुख्यता लेकर यह दूसरी गाथा का अर्थ हुआ ।

भावार्थ यह है कि जिसने मनुष्य जन्म में जो शुभाशुभ कर्म किया था वही जीव द्रव्यार्थिक-नय की अपेक्षा इस लोक में या नरक में जाकर उसके फल को भोगता है और पर्यायार्थिक-नय से उसी भव की अपेक्षा से अपने बालकाल में किये हुए कर्म को यौवनादि अवस्थाओं में भोगता है । अति-संक्षेप से कहा जाय तो अन्तमुहूर्त के बाद भोगता है । किन्तु भवांतर को अपेक्षा देखें तो मनुष्य पर्याय में किये हुए कर्म को देव पर्याय में जाकर भोगता है इस प्रकार इन दो गाथाओं से अनेकान्त की व्यवस्था करते हुये आचार्य-देव ने अपने सयाद्वाद की सिद्धि की ।

अब इसके आगे जो एकान्त से ऐसा मानता है कि जो कर्ता है वही भोगता है अथवा जो ऐसा मानता है कि कर्ता दूसरा है व भोक्ता दूसरा है इस प्रकार जो एकान्त करता है वह मिथ्यादृष्टि है इस प्रकार कथन आगे कर रहे हैं । [जो चेव कुणदि सो चिय ण वेदए जस्स एस सिद्धंतो] जिसका एकांत से ऐसा सिद्धांत है कि जो शुभ या अशुभ-कर्म करता है वही उसके फल को भोगता है, दूसरा नहीं । [सो जीवो णादव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो] वह जीव मिथ्यादृष्टि है, जैन मत से बाह्य है ।

प्रश्न – वह मिथ्यादृष्टि क्यों है ?

उत्तर – जब एकान्त से यह आत्मा सांख्य-मत के समान नित्य-कूटस्थ है, अपरिणामी है और टंकोत्कीर्ण है, तब जिसने मनुष्य-भव में नरक-गति के योग्य पाप-कर्म किया था या स्वर्ग-गति के योग्य पुण्य-कर्म किया था पुन: उसी जीव का नरक में या स्वर्ग में गमन नहीं हो सकेगा, तथा शुद्धात्मा के अनुष्ठान से मोक्ष भी कैसे हो सकेगा क्योंकि नित्य एकान्त को आपने स्वीकार किया है -- आपके यहाँ आत्मा एकान्त से नित्य ही है पुन: उसका गमनागमन या उसमें परिवर्तन कैसे हो सकेगा, यहाँ यह अभिप्राय हुआ ।

यदि कोई एकान्त से ऐसा कहता है कि अन्य ही कर्म करता है और कोई अन्य ही उसका फल भोगता है तब तो जिसने मनुष्य भव में पुण्य-कर्म किया या पाप-कर्म किया या मोक्ष के लिये शुद्धात्म-भावना का अनुष्ठान किया, उस पुण्य कर्म का स्वर्ग-लोक में कोई अन्य ही भोगने वाला होगा न कि वही जीव, नरक में भी अन्य ही कोई पाप का भोगने वाला होगा न कि वही जीव, और केवल-ज्ञान आदि की प्रगटता-रूप मोक्ष भी कोई अन्य ही प्राप्त करेगा न कि वही जीव और इस प्रकार से तो -- कोई करे और फल अन्य दूसरा ही भोगे, तब तो पुण्य, पाप और मोक्ष का अनुष्ठान व्यर्थ ही हो जावेगा, इस तरह बौद्ध के मत में दूषण दिया गया है । यहाँ तो गाथाओं द्वारा नित्य-एकान्त और क्षणिक-एकांत मत का खंडन किया गया है । ऐसे द्वितीय-स्थल में चार गाथा-सूत्र हुये है ॥३५१-३५४॥

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+ भाव-कर्म का कर्त्ता जीव ही है -
मिच्छत्तं जदि पयडी मिच्छादिट्ठी करेदि अप्पाणं । (328)
तम्हा अचेदणा ते पयडी णणु कारगो पत्ते ॥355॥
सम्मत्ता जदि पयडी सम्मादिट्ठी करेदि अप्पाणं ।
तम्हा अचेदणा ते पयडी णणु कारगा पत्ता ॥356॥
अहवा एसो जीवो पोग्गलदव्वस्स कुणदि मिच्छत्तं । (329)
तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छादिट्ठी ण पुण जीवो ॥357॥
अह जीवो पयडी तह पोग्गलदव्वं कुणंति मिच्छत्तं । (330)
तम्हा दोहिं कदं तं दोण्णि वि भुंजंति तस्स फलं ॥358॥
अह ण पयडी ण जीवो पोग्गलदव्वं करेदि मिच्छत्तं । (331)
तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छत्तं तं तु ण हु मिच्छा ॥359॥
मिथ्यात्वं यदि प्रकृतिर्मिथ्यादृष्टिं करोत्यात्मानम्
तस्मादचेतना ते प्रकृतिर्ननु कारका प्राप्ता ॥३२८॥
अथवैष जीव: पुद्गलद्रव्यस्य करोति मिथ्यात्वम्
तस्मात्पुद्गलद्रव्यं मिथ्यादृष्टिर्न पुनर्जीव: ॥३२९॥
अथ जीव: प्रकृतिस्तथा पुद्गलद्रव्यं कुरुत: मिथ्यात्वम्
तस्मात् द्वाभ्यां कृतं तत् द्वावपि भुंजाते तस्य फलम् ॥३३०॥
अथ न प्रकृतिर्न जीव: पुद्गलद्रव्यं करोति मिथ्यात्वम्
तस्मात्पुद्गलद्रव्यं मिथ्यात्वं तत्तु न खलु मिथ्या ॥३३१॥
मिथ्यात्व नामक प्रकृति मिथ्यात्वी करे यदि जीव को ।
फिर तो अचेतन प्रकृति ही कर्तापने को प्राप्त हो ॥३२८॥
अथवा करे यह जीव पुद्गल दरब के मिथ्यात्व को ।
मिथ्यात्वमय पुद्गल दरब ही सिद्ध होगा जीव ना ॥३२९॥
यदि जीव प्रकृति उभय मिल मिथ्यात्वमय पुद्गल करे ।
फल भोगना होगा उभय को उभयकृत मिथ्यात्व का ॥३३०॥
यदि जीव प्रकृति ना करें मिथ्यात्वमय पुद्गल दरब ।
मिथ्यात्वमय पुद्गल सहज, क्या नहीं यह मिथ्या कहो ? ॥३३१॥
अन्वयार्थ : [जदि] यदि [मिच्छत्तं पयडी] मिथ्यात्व (कर्म) प्रकृति [मिच्छादिट्ठी करेदि] मिथ्यादृष्टि करे [अप्पाणं] आत्मा को [तम्हा] तो [ते] उसे (मिथ्यात्वभाव को) [अचेदणा] अचेतनपना हो [पयडी णणु कारगो पत्ते] प्रकृति का कारण प्राप्त होने से ।
[जदि] यदि [सम्मत्ता पयडी] सम्यक्त्व (कर्म) प्रकृति [सम्मादिट्ठी करेदि] सम्यग्दृष्टि करे [अप्पाणं] आत्मा को [तम्हा] तो [ते] उसे (सम्यक्त्व को) [अचेदणा] अचेतनपना हो [पयडी णणु कारगो पत्ते] प्रकृति का कारण प्राप्त होने से ।
[अहवा] अथवा [एसो] प्रत्यक्ष-भूत [जीवो] जीव [पोग्गलदव्वस्स] पुद्गल-द्रव्य के [कुणदि मिच्छत्तं] मिथ्यात्व को करे [तम्हा] तो [पोग्गलदव्वं] पुद्गल-द्रव्य [मिच्छादिट्ठी] मिथ्यादृष्टि होगा [ण पुण जीवो] फिर जीव नहीं ।
[अह] अथवा [जीवो पयडी तह] जीव और प्रकृति - दोनों मिलकर [पोग्गलदव्वं कुणंति मिच्छत्तं] पुद्गल-द्रव्य को मिथ्यात्वभावरूप करते हैं - [तम्हा] तो [दोहिं कदं तं] जो दोनों ने किया [तस्स फलं] उसका फल [दोण्णि वि भुंजंति] दोनों को ही भोगना चाहिए ।
[अह] अथवा [ण पयडी ण जीवो] न प्रकृति और न जीव [पोग्गलदव्वं करेदि मिच्छत्तं] पुद्गल-द्रव्य को मिथ्यात्व-भावरूप करता है [तम्हा] तो [पोग्गलदव्वं] पुद्गल-द्रव्य [मिच्छत्तं] (स्वयं) मिथ्यात्वभावरूप होगा [तं तु ण हु मिच्छा] क्या यह वास्तव में मिथ्या नहीं है ?

अमृतचंद्राचार्य :


(कलश--रोला)
अरे कार्य कर्ता के बिना नहीं हो सकता,
भावकर्म भी एक कार्य है सब जग जाने ।
और पौद्गलिक प्रकृति सदा ही रही अचेतन
वह कैसे कर सकती चेतन भावकर्म को ॥
प्रकृति-जीव दोनों ही मिलकर उसे करें यदि,
तो फिर दोनों मिलकर ही फल क्यों ना भोगें?
भावकर्म तो चेतन का ही करे अनुसरण,
इसकारण यह जीव कहा है उनका कर्ता ॥२०३॥

[कर्म कार्यत्वात् अकृतं न] जो कर्म (अर्थात् भावकर्म) है वह कार्य है, इसलिये वह अकृत नहीं हो सकता (किसी के द्वारा किये बिना नहीं हो सकता) [] और [तत् जीव-प्रकृत्योः द्वयोः कृतिः न] ऐसे भी नहीं है कि वह (भावकर्म) जीव और प्रकृति दोनों की कृति हो, [अज्ञायाः प्रकृतेः स्व-कार्य-फल-भुग्-भाव-अनुषंगात्] क्योंकि यदि वह दोनों का कार्य हो तो ज्ञान-रहित (जड़) प्रकृति को भी अपने कार्य का फल भोगने का प्रसंग आ जायेगा । [एकस्याः प्रकृतेः न] और वह (भावकर्म) एक प्रकृति की कृति (अकेली प्रकृति का कार्य) भी नहीं है, [अचित्त्वलसनात्] क्योंकि प्रकृति का तो अचेतनत्व प्रगट है (अर्थात् प्रकृति तो अचेतन है और भावकर्म चेतन है)[ततः] इसलिये [अस्य कर्ता जीवः] उस भाव-कर्म का कर्ता जीव ही है [] और [चिद्-अनुगं] चेतन का अनुसरण करनेवाला (चेतन के साथ अन्वयरूप, चेतन के परिणामरूप) ऐसा [तत्] वह (भाव-कर्म) [जीवस्य एव कर्म] जीव का ही कर्म है, [यत्] क्योंकि [पुद्गलः ज्ञाता न] पुद्गल तो ज्ञाता नहीं है (इसलिये वह भाव-कर्म पुद्गल का कर्म नहीं हो सकता)

(कलश--रोला)
कोई कर्ता मान कर्म को भावकर्म का,
आतम का कर्तृत्व उड़ाकर अरे सर्वथा ।
और कथंचित् कर्ता आतम कहनेवाली
स्याद्वादमय जिनवाणी को कोपित करते ॥
उन्हीं मोहमोहितमतिवाले अल्पज्ञों के,
संबोधन के लिए सहेतुक स्याद्वादमय ।
वस्तु का स्वरूप समझाते अरे भव्यजन,
अब आगे की गाथाओं में कुन्दकुन्द मुनि ॥२०४॥

[कैश्चित् हतकैः] कोई आत्मा के घातक (सर्वथा एकान्तवादी) [कर्मएव कर्तृ प्रवितर्क्य] कर्म को ही कर्ता विचार कर [आत्मनः कर्तृतां क्षिप्त्वा] आत्मा के कर्तृत्व को उड़ाकर, [एषः आत्मा कथंचित् कर्ता] 'यह आत्मा कथंचित् कर्ता है' [इति अचलिता श्रुतिः कोपिता] ऐसा कहनेवाली अचलित श्रुति को कोपित करते हैं (निर्बाध जिनवाणी की विराधना करते हैं); [उद्धत-मोह-मुद्रित-धियां तेषाम् बोधस्य संशुद्धये] जिनकी बुद्धि तीव्र मोह से मुद्रित हो गई है ऐसे उन आत्मघातकों के ज्ञान की संशुद्धि के लिये (निम्नलिखित गाथाओं द्वारा) [वस्तुस्थितिः स्तूयते] वस्तुस्थिति कही जाती है [स्याद्वाद-प्रतिबन्ध-लब्ध-विजया] जिस वस्तु-स्थिति ने स्याद्वाद के प्रतिबन्ध से विजय प्राप्त की है (अर्थात् जो वस्तु-स्थिति स्याद्वादरूप नियम से निर्बाधतया सिद्ध होती है)

जयसेनाचार्य :
[मिच्छत्तं जदि पयडी मिच्छादिट्ठी करेदि अप्पाणं] जो आत्मा स्वयं नहीं परिणमन करने वाला है उसको द्रव्य-मिथ्यात्व-प्रकृति हठात् मिथ्यादृष्टि बना देती है । [तम्हा अचेदणादे पयडी णणु कारगो पत्ता] तब हे सांख्यमतिन् ! तेरे मत से तो अचेतन-रूप यह द्रव्य-मिथ्यात्व नाम की प्रकृति ही भाव-मिथ्यात्व की करने वाली ठहरी, जीव तो फिर सर्वथा अकर्ता ही ठहरा । तब फिर उसको तो कर्म-बंध नहीं होना चाहिये, और जब कर्म-बंध नहीं, तो संसार का अभाव आया, सो यह प्रत्यक्ष विरुद्ध है ।

इसी प्रकार [सम्मत्ता जदि पयडी सम्मादिट्ठी करेदि अप्पाणं] सम्यक्त्व-नाम वाली प्रकृति स्वयं नहीं परिणमन करने वाले आत्मा को सम्यग्दृष्टि बना देती है [तम्हा अचेदणा ते पयडी णणु कारगा पत्ता] तो फिर चैतन्य-शून्य-प्रकृति ही तेरे मत में कर्ता ठहरी, जीव तो सम्यक्त्व परिणाम का कर्ता नहीं ठहरा अपितु अकर्ता ही रहा तो वेदक-सम्यक्त्व का अभाव ही रहा, और वेदक सम्यक्त्व के अभाव में क्षायिक-सम्यक्त्व का भी अभाव ठहरा और उससे मोक्ष का भी अभाव हुआ, तब यह प्रत्यक्ष विरोध व आगम विरोध हुआ । इस पर प्रश्न होता है कि सम्यक्त्व-प्रकृति तो कर्म का भेद है जो कि सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक्-मिथ्यात्व के भेद से तीन प्रकार के होने वाले दर्शन-मोह का प्रथम भेद है वह सम्यग्दर्शन कैसे हो सकता है ? क्योंकि सम्यक्त्व तो भव्य जीव का परिणाम होता है जो कि निर्विकार-सदानन्द: है लक्षण जिसका ऐसा जो परमात्मा-तत्त्व उसे आदि लेकर जीवादि-सातों तत्वों के श्रद्धानरूप होकर मोक्ष का बीजभूत होता है ? इसका उत्तर यह है कि यद्यपि सम्यक्त्व-प्रकृति कर्म विशेष है यह ठीक है किन्तु निर्विष किया हुआ विष जैसे मारने वाला नहीं होता है वैसे ही मन्त्र स्थानीय विशुद्धि-विशेष मात्र शुद्धात्मा के अभिमुख परिणाम के द्वारा नष्ट कर दी गई है मिथ्यात्व शक्ति जिसकी, ऐसा वह सम्यक्त्व नामकर्म विशेष है वह क्षायोपशमिक आदि पाँच-लब्धियों के द्वारा उत्पन्न हुआ प्रथमोपशम-सम्यक्त्व उसके अनन्तर उत्पन्न जो वेदक-सम्यक्त्व उसका स्वभाव जो तत्वार्थ-श्रद्धानरूप आत्म-परिणाम उसको नष्ट नहीं करता है, इसलिये उपचार से सम्यक्त्व का हेतु होने के कारण यह कर्म विशेष भी सम्यक्त्व कहा जाता है, जो कि तीर्थंकर-नामकर्म के समान परम्परा से मुक्ति का कारण भी होता है । इसमें कोई दोष नहीं है । [अहवा एसो जीवो पोग्गलदव्वस्स कुणदि मिच्छत्तं] अब यदि उपर्युक्त दूषण से बचने के लिए यह कहा जाय कि यह प्रत्यक्ष-भूत जीव-द्रव्य-कर्मरूप-पुद्गल-द्रव्य के शुद्धात्म-तत्त्वादिक के विषय में विपरीत अभिप्राय को पैदा करने वाले भाव-मिथ्यात्व को कर देता है किंतु स्वयं भाव-मिथ्यात्व रूप परिणमन नहीं करता है ऐसा तेरा मत है ? [तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छादिट्ठी ण पुण जीवो] तो फिर एकांत रूप से वह पुद्गल-द्रव्य ही मिथ्यादृष्टि होना चाहिये, जीव मिथ्यादृष्टि नहीं होना चाहिये । ऐसी दशा में कर्म-बंध भी उसी के होना चाहिये, संसार भी उसी के, अपितु जीव के तो फिर कुछ नहीं होना चाहिये, यह प्रत्यक्ष विरोध है ।

[अह जीवो पयडी तह पोग्गलदव्वं कुणंति मिच्छत्तं] फिर इस दूषण से बचने के लिये भी यह कहा जाय कि जीव और प्रकृति दोनों कर्म-रूप पुद्गल-द्रव्य को भाव-मिथ्यात्व-रूप कर देते हैं । [तम्हा दोहिं कदंतं] उन दोनों के द्वारा किये हुये उस मिथ्यात्व के [दोण्णि वि भुंजंति तस्स फलं] फल को जीव और पुद्गल दोनों ही भोगें, ऐसा होना चाहिये सो इसमें अचेतन-प्रकृति के भी भोक्तापन का प्रसंग आया, यह प्रत्यक्ष में विरोध है । [अह ण पयडी ण जीवो पोग्गलदव्वं करेदि मिच्छत्तं] यदि ऐसा कहा जाय कि एकांत से न तो प्रकृति ही करती है और न अकेला जीव ही इस कर्म को भाव मिथ्यात्व रूप करता है, [तम्हा पोग्गलदव्वं मिच्छत्तं तं तु ण हु मिच्छा] तब पुद्गल-द्रव्य ही मिथ्यात्व ठहरा, सो ऐसा कहना क्या मिथ्यापन नहीं है ? किन्तु मिथ्या ही है, क्योंकि यह [अहवा एसो जीवो पोग्गलदव्वस्स कुणदि मिच्छत्तं] इस पूर्वोक्त वाक्य से विरुद्ध ही है ।

स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि यद्यपि शुद्ध-निश्चयनय से जीव शुद्ध ही है फिर भी पर्यायार्थिक-नय से कथंचित् परिणामीपना होने पर अनादि काल से धारा प्रवाह रूप से चले आये कर्मों के उदय के वश से यह जीव स्फटिक-पाषाण के समान ही रागादिरूप उपाधि-परिणाम को ग्रहण करता है । यदि एकांत से यह अपरिणामी ही हो तो फिर इसमें उपाधिरूप-परिणाम कभी घटित नहीं हो सकता है । स्फटिक-पाषाण में जपा-पुष्प की उपाधि के द्वारा परिणमन कर जाने की शक्ति है इसलिये जपा-पुष्प उस स्फटिक में उपाधि पैदा कर देता है किन्तु वही जपा-पुष्प काष्ठादिक में उपाधि पैदा नहीं करता क्योंकि वहाँ उपाधि रूप से परिणमन-शक्ति का अभाव है । ऐसी ही बात जीव के विषय में है । इस प्रकार एकांत से यदि ऐसा मान लिया जाय कि द्रव्य रूप मिथ्यात्व-प्रकृति ही कर्ता बनकर भाव-मिथ्यात्व को कर देती है तब फिर जीव भाव-मिथ्यात्व का कर्ता नहीं ठहरता है, एवं जीव में भाव-मिथ्यात्व के न होने पर कर्म का अभाव आ जाता है और कर्म के अभाव से संसार का अभाव आता है सो यह प्रत्यक्ष विरोध है । इत्यादि रूप से व्याख्यान द्वारा तृतीय स्थल में पाँच गाथाएँ पूर्ण हुई ॥३५५-३५९॥

आगे ज्ञान, अज्ञान, सुख, दुख आदि कर्म एकांत से कर्म ही करता है, आत्मा नहीं करता, ऐसे सांख्य-मत के अनुसार चलने वाले कहते है । उन्हों के प्रति नय-विभाग से यह सिद्ध करते हैं कि यह जीव कथंचित् कर्ता है । इसकी तेरह गाथायें हैं । इस प्रकार चार अन्तर-अधिकार में तीसरे स्थान के द्वारा समुदाय पातनिका हुई ।

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+ आत्मा सर्वथा अकर्ता नहीं है, कथंचित् कर्त्ता भी है -
कम्मेहि दु अण्णाणी किज्जदि णाणी तहेव कम्मेहिं । (332)
कम्मेहि सुवाविज्जदि जग्गाविज्जदि तहेव कम्मेहिं ॥360॥
कम्मेहि सुहाविज्जदि दुक्खाविज्जदि तहेव कम्मेहिं । (333)
कम्मेहि य मिच्छत्तं णिज्जदि णिज्जदि असंजमं चेव ॥361॥
कम्मेहि भमाडिज्जदि उड्‌ढमहो चावि तिरियलोयं च । (334)
कम्मेहि चेव किज्जदि सुहासुहं जेत्तियं किंचि ॥362॥
जम्हा कम्मं कुव्वदि कम्मं देदि हरदि त्ति जं किंचि । (335)
तम्हा उ सव्वजीवा अकारगा होंति आवण्णा ॥363॥
पुरिसित्थियाहिलासी इत्थीकम्मं च पुरिसमहिलसदि । (336)
एसा आयरियपरंपरागदा एरिसी दु सुदी ॥364॥
तम्हा ण को वि जीवो अबंभचारी दु अम्ह उवदेसे । (337)
जम्हा कम्मं चेव हि कम्मं अहिलसदि इदि भणिदं ॥365॥
जम्हा घादेदि परं परेण घादिज्जदे य सा पयडी । (338)
एदेणत्थेण किर भण्णदि परघादणामेत्ति ॥366॥
तम्हा ण को वि जीवो वघादेओ अत्थि अम्ह उवदेसे । (339)
जम्हा कम्मं चेव हि कंमं घादेदि इवि भणिदं ॥367॥
एवं संखुवएसं जे उ परूवेंति एरिसं समणा । (340)
तेसिं पयडी कुव्वदि अप्पा य अकारगा सव्वे ॥368॥
अहवा मण्णसि मज्झं अप्पा अप्पाणमप्पणो कुणदि । (341)
ऐसो मिच्छसहावो तुम्हं एयं मुणंतस्स ॥369॥
अप्पा णिच्चोऽसंखेज्जपदेसो देसिदो दु समयम्हि । (342)
ण वि सो सक्कदि तत्ते हीणो अहिओ य कादुं जे ॥370॥
जीवस्स जीवरूवं वित्थरदो जाण लोगमेत्तं खु । (343)
तत्ते सो किं हीणो अहिओ य कहं कुणदि दव्वं ॥371॥
अह जाणगो दु भावो णाणसहावेण अच्छदे त्ति मदं । (344)
तम्हा ण वि अप्पा अप्पयं तु सयमप्पणो कुणदि ॥372॥
कर्मभिस्तु अज्ञानी क्रियते ज्ञानी तथैव कर्मभि: ।
कर्मभि: स्वाप्यते जागर्यते तथैव कर्मभि: ॥३३२॥
कर्मभि: सुखी क्रियते दु:खी क्रियते तथैव कर्मभि: ।
कर्मभिश्च मिथ्यात्वं नीयते नीयतेऽसंयमं चैव ॥३३३॥
कर्मभिर्भ्राम्यते ऊर्ध्वधश्चापि तिर्यग्लोकं च ।
कर्मभिश्चैव क्रियते शुभाशुभं यावद्यत्किंचित् ॥३३४॥
यस्मात्कर्म करोति कर्म ददाति हरतीति यत्किंचित् ।
तस्मात्तु सर्वजीवा अकारका भवन्त्यापन्ना: ॥३३५॥
पुरुष: स्त्र्यभिलाषी स्त्रीकर्म च पुरुषमभिलषति ।
एषाचार्यपरंपरागतेदृशी तु श्रुति: ॥३३६॥
तस्मान्न कोऽपि जीवोऽब्रह्मचारी त्वस्माकमुपदेशे ।
यस्मात्कर्म चैव हि कर्माभिलषतीति भणितम् ॥३३७॥
यस्माद्धंति परं परेण हन्यते च सा प्रकृति: ।
एतेनार्थेन किल भण्यते परघातनामेति ॥३३८॥
तस्मान्न कोऽपि जीव उपघातकोऽस्त्यस्माकमुपदेशे ।
यस्मात्कर्म चैव हि कर्म हंतीति भणितम् ॥।३३९॥
एवं सांख्योपदेशं ये तु प्ररूपयंतीदृशं श्रमणा: ।
तेषां प्रकृति: करोत्यात्मानश्चाकारका: सर्वे ॥३४०॥
अथवा मन्यसे ममात्मात्मानमात्मन: करोति ।
एष मिथ्यास्वभाव: तवैतज्जानत: ॥३४१॥
आत्मा नित्योऽसंख्येयप्रदेशो दर्शितस्तु समये ।
नापि स शक्यते ततो हीनोऽधिकश्च कर्तुं यत् ॥३४२॥
जीवस्य जीवरूपं विस्तरतो जानीहि लोकमात्रं खलु ।
तत: स किं हीनोऽधिको वा कथं करोति द्रव्यम् ॥३४३॥
अथ ज्ञायकस्तु भावो ज्ञानस्वभावेन तिष्ठतीति मतम् ।
तस्मान्नाप्यात्मात्मानं तु स्वयमात्मन: करोति ॥३४४॥
कर्म अज्ञानी करे अर कर्म ही ज्ञानी करे ।
जिय को सुलावे कर्म ही अर कर्म ही जाग्रत करे ॥३३२॥
कर्म करते सुखी एवं दु:खी करते कर्म ही ।
मिथ्यात्वमय कर्महि करे अर असंयमी भी कर्म ही ॥३३३॥
कर्म ही जिय भ्रमाते हैं ऊर्ध्व-अध-तिरलोक में ।
जो कुछ जगत में शुभ-अशुभ वह कर्म ही करते रहें ॥३३४॥
कर्म करते कर्म देते कर्म हरते हैं सदा ।
यह सत्य है तो सिद्ध होंगे अकारक सब आतमा ॥३३५॥
नरवेद है महिलाभिलाषी नार चाहे पुरुष को ।
परम्परा आचार्यों से बात यह श्रुतपूर्व है ॥३३६॥
अब्रह्मचारी नहीं कोई हमारे उपदेश में ।
क्योंकि ऐसा कहा है कि कर्म चाहे कर्म को ॥३३७॥
जो मारता है अन्य को या मारा जावे अन्य से ।
परघात नामक कर्म की ही प्रकृति का यह काम है ॥३३८॥
परघात करता नहीं कोई हमारे उपदेश में ।
क्योंकि ऐसा कहा है कि कर्म मारे कर्म को ॥३३९॥
सांख्य के उपदेशसम जो श्रमण प्रतिपादन करें ।
कर्ता प्रकृति उनके यहाँ पर है अकारक आतमा ॥३४०॥
या मानते हो यह कि मेरा आतमा निज को करे ।
तो यह तुम्हारा मानना मिथ्यास्वभावी जानना ॥३४१॥
क्योंकि आतम नित्य है एवं असंख्य-प्रदेशमय ।
ना उसे इससे हीन अथवा अधिक करना शक्य है ॥३४२॥
विस्तार से भी जीव का जीवत्व लोकप्रमाण है ।
ना होय हीनाधिक कभी कैसे करे जिय द्रव्य को ॥३४३॥
यदी माने रहे ज्ञायकभाव ज्ञानस्वभाव में ।
तो भी आतम स्वयं अपने आतमा को ना करे ॥३४४॥
अन्वयार्थ : [कम्मेहि दु अण्णाणी किज्जदि] कर्म ही अज्ञानी करता है [णाणी तहेव कम्मेहिं] तथा कर्म ही ज्ञानी, [कम्मेहि सुवाविज्जदि] कर्म ही सुलाता है [जग्गाविज्जदि तहेव कम्मेहिं] तथा कर्म ही जगाता है, [कम्मेहि सुहाविज्जदि] कर्म ही सुखी करता है [दुक्खाविज्जदि तहेव कम्मेहिं] तथा कर्म ही दु:खी करता है; [कम्मेहि य मिच्छत्तं णिज्जदि] कर्म ही उसे मिथ्यात्व को प्राप्त कराते हैं [णिज्जदि असंजमं चेव] तथा कर्म ही असंयमी बनाते हैं । [कम्मेहि भमाडिज्जदि] कर्म ही भ्रमाता है [उड्‌ढमहो चावि तिरियलोयं च] ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक में । [जेत्तियं किंचि] जो कुछ भी [सुहासुहं] शुभ और अशुभ है [कम्मेहि चेव किज्जदि] कर्म ही करते हैं । [जम्हा कम्मं कुव्वदि] इसलिए कर्म ही करता है, [कम्मं देदि] कर्म ही देता है [हरदि त्ति जं किंचि] हर लेता है इत्यादि जो कुछ है (सब कर्म ही करता है)[तम्हा उ सव्वजीवा] इसप्रकार सभी जीव [अकारगा होंति आवण्णा] सर्वथा अकारक ही सिद्ध होते हैं । [पुरिसित्थियाहिलासी] पुरुष-वेद कर्म स्त्री का अभिलाषी है [इत्थीकम्मं च पुरिसमहिलसदि] और स्त्री-वेद कर्म पुरुष की अभिलाषा करता है - [एसा आयरियपरंपरागदा] ऐसी यह आचार्यों की परम्परागत [एरिसी दु सुदी] श्रुति है । [तम्हा] इसप्रकार [अम्ह उवदेसे] हमारे उपदेश में तो [ण को वि जीवो] कोई भी जीव [अबंभचारी दु] अब्रह्मचारी नहीं है; [जम्हा कम्मं चेव हि कम्मं अहिलसदि] क्योंकि कर्म ही कर्म की अभिलाषा करता है - [इदि भणिदं] ऐसा कहा है । [जम्हा घादेदि परं] जो पर को मारता है [परेण घादिज्जदे य] और जो पर के द्वारा मारा जाता है; [सा पयडी] वह प्रकृति है, [एदेणत्थेण किर भण्णदि] इस अर्थ में जिसे [भण्णदि परघादणामेत्ति] परघात नामक कर्म कहा जाता है । [तम्हा] इसलिए [अम्ह उवदेसे] हमारे उपदेश में [को वि जीवो] कोई भी जीव [ण वघादेओ अत्थि] उपघातक (मारनेवाला) नहीं है; [जम्हा कम्मं चेव हि कंमं] क्योंकि कर्म ही कर्म को [घादेदि] मारता है - [इवि भणिदं] ऐसा कहा गया है ।
[एवं] इसप्रकार [संखुवएसं] ऐसा सांख्य-मत का उपदेश [जे उ परूवेंति एरिसं समणा] जो श्रमण (जैन मुनि) प्ररूपित करते हैं, [तेसिं पयडी कुव्वदि] उनके यहाँ (मत में) प्रकृति ही करती है [अप्पा य अकारगा सव्वे] और आत्मा तो पूर्णत: अकारक है । [अहवा] अथवा [मण्णसि] यदि तुम यह मानते हो कि [मज्झं अप्पा] मेरा आत्मा [अप्पाणमप्पणो कुणदि] अपने (द्रव्य-रूप) आत्मा को करता है [ऐसो तुम्हं एयं मुणंतस्स] तो तुम्हारा यह मानना [मिच्छसहावो] मिथ्या-भाव है; क्योंकि [समयम्हि] सिद्धान्त में [अप्पा णिच्चोऽसंखेज्जपदेसो] आत्मा को नित्य और असंख्यात-प्रदेशी [देसिदो दु] बताया गया है, [सो] वह [तत्ते] उससे [हीणो अहिओ य] हीन या अधिक [ण वि] नहीं [कादुं जे] किया जा [सक्कदि] सकता और [जीवस्स जीवरूवं] जीव का जीवरूप [वित्थरदो] विस्तार [जाण लोगमेत्तं खु] निश्चय से लोक-मात्र जानो; [तत्ते सो किं हीणो अहिओ] क्या वह उससे हीन या अधिक होता है? [य कहं कुणदि दव्वं] (यदि नहीं) तो फिर वह द्रव्य को कैसे करता है ? [अह जाणगो दु भावो] अथवा ज्ञायक-भाव तो [णाणसहावेण] ज्ञान-स्वभाव में [अच्छदे त्ति मदं] स्थित रहता है - यदि ऐसा माना जाये [तम्हा] तो इससे [सयमप्पणो] आत्मा स्वयं [अप्पा अप्पयं तु] अपने आत्मा को [ण वि कुणदि] नहीं करता - (यह सिद्ध होगा)

अमृतचंद्राचार्य :

  1. कर्म ही आत्मा को अज्ञानी करता है -- क्योंकि ज्ञानावरण नामक कर्म के उदय के बिना अज्ञान की अनुपपत्ति है ।
  2. कर्म ही आत्मा को ज्ञानी करता है -- क्योंकि ज्ञानावरण नामक कर्म के क्षयोपशम के बिना उसकी अनुपपत्ति है ।
  3. कर्म ही सुलाता है -- क्योंकि निद्रा नामक कर्म के उदय के बिना उसकी अनुपपत्ति है ।
  4. कर्म ही जगाता है -- क्योंकि निद्रा नामक कर्म के क्षयोपशम के बिना उसकी अनुपपत्ति है ।
  5. कर्म ही सुखी करता है -- क्योंकि साता-वेदनीय नामक कर्म के उदय के बिना उसकी अनुपपत्ति है ।
  6. कर्म ही दु:खी करता है -- क्योंकि असाता-वेदनीय नामक कर्म के उदय के बिना उसकी अनुपपत्ति है ।
  7. कर्म ही मिथ्यादृष्टि करता है -- क्योंकि मिथ्यात्व-कर्म के उदय के बिना उसकी अनुपपत्ति है ।
  8. कर्म ही असंयमी करता है -- क्योंकि चारित्र-मोह नामक कर्म के उदय के बिना उसकी अनुपपत्ति है ।
  9. कर्म ही ऊर्ध्व-लोक में, अधो-लोक में और तिर्यग्लोक में भ्रमण कराता है -- क्योंकि आनुपूर्वी नामक कर्म के उदय के बिना उसकी अनुपपत्ति है ।
  10. दूसरा भी जो कुछ जितना शुभ-अशुभ है, वह सब कर्म ही करता है -- क्योंकि प्रशस्त-अप्रशस्त राग नामक कर्म के उदय के बिना उनकी अनुपपत्ति है ।
इसप्रकार सबकुछ स्वतंत्रतया कर्म ही करता है, कर्म ही देता है, कर्म ही हर लेता है; इसलिए हम यह निश्चय करते हैं कि सभी जीव सदा एकान्त से अकर्ता ही हैं ।

दूसरी बात यह है कि श्रुति (भगवान की वाणी, शास्त्र) भी इसी अर्थ को कहती है; क्योंकि (वह श्रुति) 'पुरुषवेद नामक कर्म स्त्री की अभिलाषा करता है और स्त्रीवेद नामक कर्म पुरुष की अभिलाषा करता है' - इस वाक्य से कर्म को ही कर्म की अभिलाषा के कर्तृत्व के समर्थन द्वारा जीव को अब्रह्मचर्य के कर्तृत्व का निषेध करती है तथा 'जो पर को हनता है और जो पर के द्वारा हना जाता है; वह परघात-कर्म है' - इस वाक्य से कर्म को ही कर्म के घात का कर्तृत्व होने के समर्थन द्वारा जीव के घात के कर्तृत्व का निषेध करती है और इसप्रकार (अब्रह्मचर्य के तथा घात के कर्तृत्व के निषेध द्वारा) जीव का सर्वथा ही अकर्तृत्व बतलाती है ।

इसप्रकार ऐसे सांख्यमत को, अपनी प्रज्ञा (बुद्धि) के अपराध से सूत्र के अर्थ को न जाननेवाले कुछ श्रमणाभास प्ररूपित करते हैं; उनकी एकान्त से प्रकृति के कर्तृत्व की मान्यता से समस्त जीवों के एकान्त से अकर्तृत्व आ जाता है । इसलिए 'जीव कर्ता है' - ऐसी जो श्रुति है, उसका कोप दूर करना अशक्य हो जाता है ।

'कर्म आत्मा के पर्यायरूप अज्ञानादि सर्व भावों को करता है और आत्मा तो आत्मा को ही करता है, इसलिए जीव कर्ता है; इसप्रकार श्रुति का कोप नहीं होता' - ऐसा जो अभिप्राय है, वह भी मिथ्या ही है; क्योंकि जीव तो द्रव्य-रूप से नित्य है, असंख्यात-प्रदेशी है और लोक परिमाण है । उसमें नित्य का कार्यत्व नहीं बन सकता; क्योंकि कृतकत्व और नित्यत्व के एकत्व का विरोध है ।

तात्पर्य यह है कि स्कन्ध अनेक परमाणुओं का बना हुआ है, इसलिए उसमें से परमाणु निकल जाते हैं तथा उसमें आते भी हैं; परन्तु आत्मा निश्चित असंख्यातप्रदेशवाला एक ही द्रव्य है, इसलिए वह अपने प्रदेशों को निकाल नहीं सकता तथा अधिक प्रदेशों को ले नहीं सकता । और सकल लोकरूपी घर के विस्तार से परिमित जिसका निश्चित निज-विस्तार संग्रह है (अर्थात् जिसका लोक जितना निश्चित माप है) उसके (आत्मा के) प्रदेशों के संकोच-विकास द्वारा भी कार्यत्व नहीं बन सकता; क्योंकि प्रदेशों के संकोच-विस्तार होने पर भी, सूखे-गीले चमड़े की भाँति, निश्चित निज विस्तार के कारण उसे (आत्मा को) हीनाधिक नहीं किया जा सकता । इसप्रकार आत्मा के द्रव्यरूप आत्मा का कर्तृत्व नहीं बन सकता । और 'वस्तुस्वभाव का सर्वथा मिटना अशक्य होने से ज्ञायकभाव ज्ञानस्वभाव से ही सदा स्थित रहता है और इसप्रकार स्थित रहता हुआ, ज्ञायकत्व और कर्तृत्व के अत्यन्त विरुद्धता होने से, मिथ्यात्वादि भावों का कर्ता नहीं होता; और मिथ्यात्वादि भाव तो होते हैं; इसलिए उनका कर्ता कर्म ही है ।

ऐसी जो वासना (अभिप्राय-झुकाव) प्रगट की जाती है, वह भी 'आत्मा आत्मा को करता है' - इस (पूर्वोक्त) मान्यता का अतिशयता-पूर्वक घात करती है; क्योंकि सदा ज्ञायक मानने से आत्मा अकर्ता ही सिद्ध हुआ ।

इसलिए, ज्ञायक-भाव सामान्य अपेक्षा से ज्ञान-स्वभाव से अवस्थित होने पर भी, कर्म से उत्पन्न होते हुए मिथ्यात्वादि भावों के ज्ञान के समय, अनादिकाल से ज्ञेय और ज्ञान के भेद-विज्ञान से शून्य होने से, पर को आत्मा के रूप में जानता हुआ वह (ज्ञायक-भाव) विशेष अपेक्षा से अज्ञान-रूप ज्ञान-परिणाम को करता है; इसलिए उसके कर्तृत्व को स्वीकार करना चाहिए अर्थात् ऐसा स्वीकार करना कि वह कथंचित् कर्ता है; वह भी तबतक कि जबतक भेद-विज्ञान के प्रारम्भ से ज्ञेय और ज्ञान के भेद-विज्ञान से पूर्ण होने के कारण आत्मा को ही आत्मा के रूप में जानता हुआ वह (ज्ञायक-भाव), विशेष अपेक्षा से भी ज्ञानरूप ही ज्ञान-परिणाम से परिणमित होता हुआ मात्र ज्ञातृत्व के कारण साक्षात् अकर्ता नहीं हो जाता ।

(कलश--रोला)
अरे जैन होकर भी सांख्यों के समान ही,
इस आतम को सदा अकर्ता तुम मत जानो ।
भेदज्ञान के पूर्व राग का कर्ता आतम
भेदज्ञान होने पर सदा अकर्त्ता जानो ॥२०५॥

[अमी आर्हताः अपि] इस आर्हत् मत के अनुयायी (जैन) भी [पुरुषं] आत्मा को, [सांख्याः इव] सांख्यमतियों की भाँति, [अकर्तारम् मा स्पृशन्तु] (सर्वथा) अकर्ता मत मानो; [भेद-अवबोधात् अधः] भेदज्ञान होने से पूर्व [तं किल] उसे [सदा] निरन्तर [कर्तारं कलयन्तु] कर्ता मानो, [तु] और [ऊर्ध्वं] उसके (भेदज्ञान) बाद [उद्धत-बोध-धाम-नियतं स्वयं प्रत्यक्षम् एनम्] उद्धत ज्ञानधाम में निश्चित इस स्वयं प्रत्यक्ष आत्मा को [च्युत-कर्तृभावम् अचलं एकं परम् ज्ञातारम्] कर्तृत्व रहित, अचल, एक परम ज्ञाता ही [पश्यन्तु] देखो ।

(कलश--रोला)
जो कर्ता वह नहीं भोगता इस जगती में,
ऐसा कहते कोई आतमा क्षणिक मानकर ।
नित्यरूप से सदा प्रकाशित स्वयं आतमा,
मानो उनका मोह निवारण स्वयं कर रहा ॥२०६॥

[इह] इस जगत में [एकः] कोई एक तो (क्षणिक वादी बौद्धमती तो) [इदम् आत्मतत्त्वं क्षणिकम् कल्पयित्वा] इस आत्म-तत्त्व को क्षणिक कल्पित करके [निज-मनसि] अपने मन में [कर्तृ-भोक्त्रोः विभेदम् विधत्ते] कर्ता और भोक्ता का भेद करते हैं (कर्ता अन्य है और भोक्ता अन्य है, ऐसा मानते हैं); [तस्य विमोहं] उनके मोह को (अज्ञानको) [अयम् चित्-चमत्कारः एव स्वयम्] यह चैतन्य-चमत्कार ही स्वयं [नित्य-अमृत-ओघैः] नित्यतारूप अमृत के ओघ (समूह) के द्वारा [अभिषिंचं] अभिसिंचन करता हुआ, [अपहरति] दूर करता है ।

(कलश--सोरठा)
वृत्तिमान हो नष्ट, वृत्त्यंशों के भेद से ।
कर्ता भोक्ता भिन्न, इस भय से मानो नहीं ॥२०७॥

[वृत्ति-अंश-भेदतः] वृत्त्यंशों (पर्यायों) के भेद के कारण [अत्यन्तंवृत्तिमत्-नाश-कल्पनात्] 'वृत्तिमान् अर्थात् द्रव्य अत्यन्त (सर्वथा) नष्ट हो जाता है' ऐसी कल्पना के द्वारा [अन्यः करोति अन्यः भुंक्ते] 'अन्य करता है और अन्य भोगता है' [इति एकान्तः मा चकास्तु] ऐसा एकान्त प्रकाशित मत करो ।

जयसेनाचार्य :


कर्म ही करता है इस प्रकार का उपर्युक्त सिद्धान्त सांख्य-मतवादियों का है ऐसा बताकर श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव फिर भी उसका समर्थन इस प्रकार करते हैं कि हम यह बात मात्र द्वेष के वश होकर ही नहीं कहते हैं । आपके मत में ऐसा लिखा हुआ है कि पूंवेद-नाम का कर्म स्त्री-वेद-कर्म की अभिलाषा करता है और स्त्री-वेद नाम का कर्म एकान्त-रूप से पुंवेद नाम कर्म की अभिलाषा करता है, जीव ऐसी अभिलाषा नहीं करता है । इस प्रकार यह आचार्य परम्परा से आई हुई श्रुति है । श्रुति है इसका क्या अर्थ है ? आप सांख्य लोगों का यह आगम है । इस प्रकार यह पहली गाथा हुई । अब ऐसा होने पर क्या दूषण आयेगा ? कि आपके मत में (सांख्यमत में) कोई भी जीव व्यभिचारी नहीं ठहरेगा किन्तु जैसे शुद्ध-निश्चय-नय से सभी जीव ब्रह्मचारी हैं वैसे ही एकांतरूप से अशुद्ध-निश्चय-नय से भी वे सब ब्रह्मचारी ही ठहरेंगे क्योंकि स्त्री-वेद नाम वाले कर्म की अभिलाषा तो पुंवेद नाम का कर्म करता है जीव तो कुछ करता नहीं है यह पूर्व में कहा है सो यह प्रत्यक्ष विरुद्ध पड़ता है । इस प्रकार दो गाथाओं में अब्रह्मचर्य का कथन किया गया है । और क्योंकि किसी दूसरे कर्म के स्वरूप को जो प्रकृति नाश करती है वह प्रकृति भी दूसरे कर्म के द्वारा नष्ट कर दी जाती है अपितु जीव नष्ट नहीं किया जाता है । इस अर्थ को लिये हुए ही जैनमत में परघात-नाम का कर्म कहा गया है किन्तु ऐसा कहकर भी जैनमत में तो वहाँ पर जीव ही हिंसा के रूप में परिणमन करता है, परघात नाम का कर्म तो उसका सहकारी कारण होता है, इसलिये वहाँ कोई विरोध नहीं है । यह पहली गाथा हुई । यद्यपि जैनमत में शुद्ध-पारिणामिक-रूप जो परम-भाव को ग्रहण करने वाला शुद्ध-द्रव्यार्थिक-नय है उसके द्वारा जीव हिंसा-परिणाम से रहित अपरिणामी कहा गया है जैसे कि 'सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया' इस सूत्र से स्पष्ट होता है, फिर भी व्यवहार से वही जीव परिणामी भी माना गया है ।

किन्तु आप सांख्यों के मत में तो वह जैसे शुद्ध-नय से वैसे ही अशुद्ध-नय से भी उपघातक या हिंसक रूप कभी कोई भी जीव नहीं होता है, क्योंकि आपके यहाँ तो स्पष्ट एकांतरूप से कर्म ही कर्म को मारता है किन्तु आत्मा नहीं मारता ऐसा पूर्व सूत्र में कहा गया है । इस प्रकार हिंसा के विचार की मुख्यता से दो गाथायें कहीं गई है [एवं संखुवएसं जे उ परूवेंति एरिसं समणा] इस प्रकार पूर्वोक्त सांख्य-मत के उपदेश को लेकर जो द्रव्यलिंगी-श्रमणाभास परमागम में कहे हुए नय-विभाग को नहीं जानने वाले हैं, वे लोग एकांत पकड़ कर उसका कथन करते हैं । [तेसिं पयडी कुव्वदि अप्पा य अकारगा सव्वे] तब उनके एकांत मत के द्वारा प्रकृति ही सब कुछ करने वाली होती है, आत्माएँ तो कुछ भी करने वाली नहीं ठहरती हैं । इस प्रकार जब आत्मा के कर्त्तापन का अभाव होने पर संसार का भी अभाव हो जाता है, तब मोक्ष का प्रसंग भी नहीं है इन सबका न होना प्रत्यक्ष से विरुद्ध है । किन्तु जैनमत में तो परस्पर सापेक्ष निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों के द्वारा यह सब बातें घट जाती हैं इसमें कोई दोष नहीं आता है । इस प्रकार सांख्य-मत के संवाद को दिखला कर जीव को एकांत रूप से अकर्ता मानने में जो दूषण आता है उसका कथन पांच गाथाओं में हुआ । [अहवा मण्णसि मज्झं अप्पा अप्पाणमप्पणो कुणदि] आचार्यदेव उसी सांख्यमत को लक्ष्य में लेकर फिर कहते हैं कि पूर्वोक्त दूषण के भय से तू ऐसा कहे कि मेरे मत में तो जीव ज्ञानी ही है और जब ज्ञानी ही है तो वहाँ कर्म के कर्त्तापन की कोई बात ही नहीं घटती है क्योंकि कर्म-बंध तो अज्ञानी के होता है । किन्तु आत्मारूप कर्त्ता आत्मा को ही करता है और करणभूत आत्मा के द्वारा ही करता है इसलिये हमारे यहाँ आत्मा को अकर्ता मानने में कोई दोष नहीं आता, तो [ऐसो मिच्छसहावो तुम्हं एयं मुणंतस्स] इस प्रकार मानने वाले तेरा यह भी मिथ्यात्व-भाव ही है । इस प्रकार यह पूर्वपक्ष गाथा हुई । अब इसके आगे तीन सूत्रों से इसका परिहार करते हैं । अर्थात उपर्युक्त तेरा मिथ्यात्व भाव क्यों है ?

[अप्पा णिच्चोऽसंखेज्जपदेसो देसिदो दु समयम्हि] द्रव्यार्थिक-नय से आत्मा नित्य है और वह असंख्यात-प्रदेशी है ऐसा परमागम में कहा गया है सो उस आत्मा का असंख्यात-प्रदेशीपना और शुद्ध-चैतन्यपने का अन्वय ही है लक्षण जिसका ऐसा द्रव्यपना भी उसमें पहले से ही है । [ण वि सो सक्कदि तत्ते हीणो अहिओ य कादुं जे] सो उस असंख्यात-प्रदेशीपन तथा द्रव्य-पन को उस परिमाण से हीनाधिक तो किया नहीं जा सकता इसलिये आत्मा आत्मा को करती है यह वचन मिथ्या ही रहा । इस पर यदि यह कहा जाये कि असंख्यात का परिमाण तो जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट के भेद से बहुत प्रकार का है अतएव यह जीव उस असंख्यात प्रदेशपने को जघन्य-मध्यम-उत्कृष्ट के रूप में अनेक प्रकार से करता रहता है तो इस प्रकार का कहना भी घटित नहीं होता क्योंकि [जीवस्स जीवरूवं वित्थरदो जाण लोगमेत्तं खु] जीव का जो जीव रूप है वह प्रदेशों की अपेक्षा से जब विस्तार को प्राप्त हो तब महा-मत्स्य के काल में, या लोक-पूरण काल में, और जघन्य-रूप से सूक्ष्म-निगोदिया के शरीर के काल में, अथवा नाना प्रकार के मध्यम अवगाहन-वाले शरीरों के ग्रहण के काल में दीपक के प्रकाश के समान विस्तार और उपसंहार के वश में होकर भी लोकमात्र-प्रदेशवाला ही रहता है ऐसा जानना चाहिये । [तत्ते सो किं हीणो अहिओ य कहं कुणदि दव्वं] ऐसी दशा में जीव लोकमात्र-प्रदेश के परिमाण से भी हीन या अधिक किया जा सकता है क्या जिससे कि तू आत्म-द्रव्य को किया गया हुआ कह रहा है ? किन्तु आत्मा तो कभी हीन या अधिक नहीं होता, लोक-प्रमाण-प्रदेश वाला होकर रहता है । [अह जाणगो दु भावो णाणसहावेण अच्छदे त्ति मदं] और हे भाई ! ज्ञायक-भाव अर्थात पदार्थ जो आत्मा है वह तो ज्ञान-रूप में पहले से सदा से ही है यह बात भी मानी हुई है । [तम्हा ण वि अप्पा अप्पयं तु सयमप्पणो कुणदि] और जब निर्मल और आनन्द-रूप एक ज्ञान ही है स्वभाव जिसका, ऐसा शुद्धात्मा तो पहले से है ही तब फिर आत्मा को अपने आप आत्मा के द्वारा करता है यह नहीं कहा जा सकता, एक दोष तो यह हुआ । दूसरा दोष तुम्हारे कहने में यह है कि निर्विकार-परमतत्त्व का जानने वाला जीव कर्ता नहीं होता यह भी पहले कहा जा चुका है । इस प्रकार जो शिष्य ने प्रश्न किया था उसका परिहार करते हुए इस तीसरे स्थल में चार गाथायें कहीं गईं ।

अब यहाँ कोई कहता है कि जीव से प्राण भिन्न हैं या अभिन्न है यदि जीव से प्राण अभिन्न हैं तब तो जैसे जीव का नाश नहीं होता वैसे ही प्राणों का भी नाश नहीं होना चाहिये तो फिर हिंसा कैसे ? यदि प्राण जीव से भिन्न हैं ऐसा कहा जाय तो प्राणों के घात होने पर भी आत्मा का क्या बिगाड़ हुआ अत: फिर भी वहाँ हिंसा नहीं है ? अब इसका आचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसी बात नहीं क्योंकि कायादि रूप प्राणों के साथ इस जीव का कथंचित् भेद और कथन्चित अभेद है । कैसे है ? सो बताते हैं -- जैसे तप्तायमान लोहे के गोले में से उसी समय अग्नि को पृथक् नहीं किया जा सकता उसी प्रकार वर्तमान काल में कायादि प्राणों को जीव से पृथक् नहीं किया जा सकता इसलिये व्यवहार-नय के द्वारा तो कायादि प्राणों का जीव के साथ अभेद है किन्तु निश्चय-नय से यह जीव मरण-काल में जब परलोक जाता है तो कायादि प्राण इस जीव के साथ नहीं जाते इसलिये कायादिक प्राणों के साथ जीव का भेद भी है । यदि एकान्त से भेद ही मान लिया जाय तब तो जैसे दूसरे के शरीर के छिन्न-भिन्न होने पर किसी को दु:ख नहीं होता उसी प्रकार अपने शरीर के छिन्न-भिन्न होने पर भी दुख नहीं होना चाहिये है किन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि इसमें तो प्रत्यक्ष विरोध आता है । इस पर फिर शंकाकार का कहना है कि फिर जो हिंसा हुई वह व्यवहार से ही हुई निश्चय से नहीं । आचार्य उत्तर देते हैं कि यह ठीक बात है अर्थात् तुमने ठीक ही कहा है कि व्यवहार से ही हिंसा होती है, और पाप भी व्यवहार से ही होता है, नारकादिकों का दुख भी व्यवहार से ही होता है यह बात तो हमको मान्य ही है । हाँ, वह नारकादिकों का दु:ख तुम्हें इष्ट है तो हिंसा करते रहो और यदि नरकादिक से तुम्हे डर लगता है तो हिंसा करना छोड़ दो । बस ! इस सारे विवेचन से यह बात सिद्ध हुई कि सांख्य-मत के समान जैन-मत में आत्मा एकांत से अकर्ता नहीं है किंतु रागादि रूप विकल्प से रहित जो समाधि है लक्षण जिसका ऐसे भेद-ज्ञान के समय में तो आत्मा कर्मों का कर्ता नहीं होता अवशेष काल में वह कर्मों का कर्ता होता है ।

इस प्रकार के व्याख्यान की मुख्यता से इस चौथे स्थल में तीन अन्त:स्थलों के द्वारा तेरह गाथायें पूर्ण हुईं ॥३६०-३७२॥

आगे कहते हैं की जब तक अपने शुद्ध-आत्मा को आत्मारूप से नहीं जानता है और पाँचों इन्दियों के विषय आदिक पर-द्रव्य को अपने से भिन्न पर-रुप नहीं जानता है तब तक यह जीव राग-द्वेषों से परिणमन करता है । अथवा बाहर में पाँचों इन्दियों के विषय त्याग की सहायता से क्षोभ-रहित चित्त की भावना से पैदा हुआ जो विकार-रहित सुखमयी अमृत-रस का स्वाद उसके बल से 'मैं इन्दियों के विषय, कर्म और शरीर का घात करूँ' इस बात को नहीं जानता हुआ स्व-संवेदन ज्ञान से रहित, काय-क्लेश के द्वारा जो अपना दमन करता है, उस जीव को भेद-ज्ञान की प्राप्ति होने के अर्थ सिद्धान्त को कहते हैं --

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+ सम्यग्दृष्टियों को विषयों के प्रति राग क्यों नहीं होता -
दंसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे विसए । (366)
तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तेसु विसएसु ॥373॥
दंसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे कम्मे । (367)
तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तम्हि कम्मम्हि ॥374॥
दंसणणाणचरित्तं किंचि वि णत्थि दु अचेदणे काए । (368)
तम्हा किं घादयदे चेदयिदा तेसु काएसु ॥375॥
णाणस्स दंसणस्स य भणिदो घादो तहा चरित्तस्स । (369)
ण वि तहिं पोग्गलदव्वस्स को वि घादो दु णिद्दिट्ठो ॥376॥
जीवस्स जे गुणा केइ णत्थि खलु ते परेसु दव्वेसु । (370)
तम्हा सम्मादिट्ठिस्स णत्थि रागो दु विसएसु ॥377॥
रागो दोसो मोहो जीवस्सेव य अणण्णपरिणामा । (371)
एदेण कारणेण दु सद्दादिसु णत्थि रागादी ॥378॥
दर्शनज्ञानचारित्रं किंचिदपि नास्ति त्वचेतने विषये ।
तस्मात्किं हंति चेतयिता तेषु विषयेषु ॥३६६॥
दर्शनज्ञानचारित्रं किंचिदपि नास्ति त्वचेतने कर्मणि ।
तस्मात्किं हंति चेतयिता तत्र कर्मणि ॥३६७॥
दर्शनज्ञानचारित्रं किंचिदपि नास्ति त्वचेतने काये ।
तस्मात्किं हंति चेतयिता तेषु कायेषु ॥३६८॥
ज्ञानस्य दर्शनस्य च भणितो घातस्तथा चारित्रस्य ।
नापि तत्र पुद्गलद्रव्यस्य कोऽपि घातस्तु निर्दिष्ट: ॥३६९॥
जीवस्य ये गुणा: केचिन्न संति खलु ते परेषु द्रव्येषु ।
तस्मात्सम्यग्दृष्टेर्नास्ति रागस्तु विषयेषु ॥३७०॥
रागो द्वेषो मोहो जीवस्यैव चानन्यपरिणामा: ।
एतेन कारणेन तु शब्दादिषु न संति रागादय: ॥३७१॥
ज्ञान-दर्शन-चरित ना किंचित् अचेतन विषय में ।
इसलिए यह आतमा क्या कर सके उस विषय में ॥३६६॥
ज्ञान-दर्शन-चरित ना किंचित् अचेतन कर्म में ।
इसलिए यह आतमा क्या कर सके उस कर्म में ॥३६७॥
ज्ञान-दर्शन-चरित ना किंचित् अचेतन काय में ।
इसलिए यह आतमा क्या कर सके उस काय में ॥३६८॥
सद्ज्ञान का सम्यक्त्व का उपघात चारित्र का कहा ।
अन्य पुद्गल द्रव्य का ना घात किंचित् भी कहा ॥३६९॥
जीव के जो गुण कहे वे हैं नहीं परद्रव्य में ।
बस इसलिए सद्दृष्टि को है राग विषयों में नहीं ॥३७०॥
अनन्य हैं परिणाम जिय के राग-द्वेष-विमोह ये ।
बस इसलिए शब्दादि विषयों में नहीं रागादि ये ॥३७१॥
अन्वयार्थ : [दंसणणाणचरित्तं] दर्शन, ज्ञान और चारित्र [अचेदणे विसए] अचेतन विषयों में [किंचि वि णत्थि दु] किंचित्मात्र भी नहीं हैं, [तम्हा] इसलिए [चेदयिदा] आत्मा [तेसु विसएसु] उन विषयों में [किं घादयदे] क्या घात करेगा ?
[दंसणणाणचरित्तं] दर्शन, ज्ञान और चारित्र [अचेदणे कम्मे] अचेतन कर्मों में [किंचि वि णत्थि दु] किंचित्मात्र भी नहीं हैं, [तम्हा] इसलिए [चेदयिदा] आत्मा [तेसु कम्मम्हि] उन कर्मों में [किं घादयदे] क्या घात करेगा ?
[दंसणणाणचरित्तं] दर्शन, ज्ञान और चारित्र [अचेदणे काए] अचेतन काय में [किंचि वि णत्थि दु] किंचित्मात्र भी नहीं हैं, [तम्हा] इसलिए [चेदयिदा] आत्मा [तेसु काएसु] उन कायों में [किं घादयदे] क्या घात करेगा ?
[णाणस्स दंसणस्स य] दर्शन, ज्ञान [तहा चरित्तस्स] और चारित्र का [भणिदो घादो] घात कहा [तहिं] वहाँ [पोग्गलदव्वस्स] पुद्गल-द्रव्य का [को वि घादो दु] किंचित्मात्र भी घात [ण णिद्दिट्ठो] नहीं कहा है ।
[जीवस्स जे गुणा केइ] जो कोई जीव के गुण हैं (वे) [खलु] वस्तुत: परद्रव्य में [णत्थि] नहीं हैं [तम्हा सम्मादिट्ठिस्स] इसलिए सम्यग्दृष्टि को [णत्थि रागो दु विसएसु] विषयों के प्रति राग नहीं होता ।
[रागो दोसो मोहो य] राग, द्वेष और मोह [जीवस्सेव] जीव के ही [अणण्णपरिणामा] अनन्य परिणाम हैं [एदेण कारणेण दु] इसकारण ही [सद्दादिसु णत्थि रागादी] रागादि शब्दादि विषयों में नहीं हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
जो जिसमें होता है, वह उसका घात होने पर नष्ट होता ही है अर्थात् आधार का घात होने पर आधेय का घात हो ही जाता है । जिसप्रकार दीपक के घात होने पर प्रकाश नष्ट हो जाता है । इसीप्रकार जिसमें जो होता है, वह उसका नाश होने पर अवश्य नष्ट हो जाता है अर्थात् आधेय का घात होने पर आधार का घात हो ही जाता है । जिसप्रकार प्रकाश का घात होने पर दीपक का घात हो जाता है । जो जिसमें नहीं होता, वह उसका घात होने पर नष्ट नहीं होता । जिसप्रकार घड़े का नाश होने पर घटप्रदीप (घड़े मे रखे हुए दीपक) का नाश नहीं होता । इसीप्रकार जिसमें जो नहीं होता, वह उसका घात होने पर नष्ट नहीं होता । जिसप्रकार घटप्रदीप के नष्ट होने पर घट का नाश नहीं होता । इसी न्याय से आत्मा के धर्म - दर्शन-ज्ञान-चारित्र पुद्गलद्रव्य के घात होने पर भी नष्ट नहीं होते और दर्शन-ज्ञान-चारित्र का घात होने पर भी पुद्गलद्रव्य का नाश नहीं होता ।

इसप्रकार यह सिद्ध होता है कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र पुद्गलद्रव्य में नहीं हैं; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो दर्शन-ज्ञान-चारित्र का घात होने पर पुद्गलद्रव्य का घात और पुद्गलद्रव्य का घात होने पर दर्शन-ज्ञान-चारित्र का घात अवश्य होना चाहिए । ऐसी स्थिति होने से यह भली-भाँति स्पष्ट है कि जीव के जो जितने गुण हैं; वे सभी परद्रव्यों में नहीं हैं; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो यहाँ भी जीव के गुणों का घात होने पर पुद्गलद्रव्य का घात और पुद्गलद्रव्य के घात होने पर जीव के गुणों का घात होना अनिवार्य हो जायेगा; किन्तु ऐसा होता नहीं है । इससे सिद्ध है कि जीव का कोई गुण पुद्गलद्रव्य में नहीं है ।

प्रश्न – यदि ऐसा है तो सम्यग्दृष्टि को विषयों में राग क्यों होता है ?

उत्तर – किसी भी कारण से नहीं होता ।

प्रश्न – यदि ऐसा है तो फिर राग की खान कौन-सी है ? तात्पर्य यह है कि राग की उत्पत्ति कहाँ से होती है, राग की उत्पत्ति का स्थान कौन-सा है ?

उत्तर – राग-द्वेष-मोह जीव के ही अज्ञानमय परिणाम हैं; वे राग-द्वेष-मोह विषयों में नहीं हैं; क्योंकि विषय तो परद्रव्य हैं और वे सम्यग्दृष्टि के भी नहीं हैं; क्योंकि उसके अज्ञान का अभाव है । इसप्रकार वे राग-द्वेष-मोह परिणाम विषयों में न होने से और सम्यग्दृष्टि के भी न होने से हैं ही नहीं ।

(कलश--रोला)
यही ज्ञान अज्ञानभाव से राग-द्वेषमय ।
हो जाता पर तत्त्वदृष्टि से वस्तु नहीं ये ॥
तत्त्वदृष्टि के बल से क्षयकर इन भावों को ।
हो जाती है अचल सहज यह ज्योति प्रकाशित ॥२१८॥

[इह ज्ञानम् हि अज्ञानभावात् राग-द्वेषौ भवति] इस जगत में ज्ञान ही अज्ञानभाव से राग-द्वेषरूप परिणमित होता है; [वस्तुत्व-प्रणिहित-दशा दृश्यमानौ तो किंचित् न] वस्तुत्व में स्थापित (एकाग्र की गई) दृष्टि से देखने पर (द्रव्य-दृष्टि से देखने पर), वे राग-द्वेष कुछ भी नहीं हैं। [ततः सम्यग्दृष्टिः तत्त्वदृष्टया तौ स्फुटंक्षपयतु] इसलिये सम्यग्दृष्टि पुरुष तत्त्व-दृष्टि से उन्हें (राग-द्वेष को) स्पष्टतया क्षय करो, [येन पूर्ण-अचल-अर्चिः सहजं ज्ञानज्योतिः ज्वलति] कि जिससे, पूर्ण और अचल जिसका प्रकाश है ऐसी (दैदीप्यमान) सहज ज्ञान-ज्योति प्रकाशित हो ।

(कलश--रोला)
तत्त्वदृष्टि से राग-द्वेष भावों का भाई ।
कर्ता-धर्ता कोई अन्य नहीं हो सकता ॥
क्योंकि है अत्यन्त प्रगट यह बात जगत में ।
द्रव्यों का उत्पाद स्वयं से ही होता है ॥२१९॥

[तत्त्वदृष्टया] तत्त्व-दृष्टि से देखा जाये तो, [राग-द्वेष-उत्पादकं अन्यत् द्रव्यंकिंचन अपि न वीक्ष्यते] राग-द्वेष को उत्पन्न करनेवाला अन्य द्रव्य किंचित्मात्र भी दिखाई नहीं देता, [यस्मात् सर्व-द्रव्य-उत्पत्तिः स्वस्वभावेन अन्तः अत्यन्तं व्यक्ता चकास्ति] क्योंकि सर्व द्रव्यों की उत्पत्ति अपने स्वभाव से ही होती हुई अन्तरंग में अत्यन्त प्रगट (स्पष्ट) प्रकाशित होती है ।

जयसेनाचार्य :
दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों में से कुछ भी नहीं हैं । कहाँ नहीं हैं ? शब्दादिरूप पंचेंद्रियों के विषय में, ज्ञानावरणादि-द्रव्य-कर्मों में औदारिकादि पाँच शरीरों में नहीं है, क्योंकि शब्दादिक विषय, ज्ञानावरणादि कर्म और औदारिकादि शरीर अचेतन हैं । इसलिये चेतन आत्मा इन ज़ड़-स्वरूप विषय, कर्म और शरीरों में से किसी का क्यों घात करे ? किन्तु शब्दादिक पंचेंद्रिय-विषयों के अभिलाष रूप जो भाव हैं जो कि शरीर के ममत्व-रूप हैं और ज्ञानावरणादि द्रव्य-कर्म के बन्ध के कारण-भूत हैं एवं जो मिथ्यात्व व रागादि-स्वरूप हैं ऐसे विभाव-परिणाम इस आत्मा के मन में स्थान किये हुये हैं उनका घात करना चाहिये । हाँ, ये शब्दादिक भी उन्हीं रागादि-विभावों के पैदा होने में बहिरंग कारण-भूत हैं । इसलिये इनका भी त्याग करना चाहिये, ऐसा आचार्य के कथन का तात्पर्य है । अब इससे आगे उपर्युक्त गाथा में कहे हुये विषय का ही और विशेष विवरण किया जाता है । वह ऐसे है [णाणस्स दंसणस्स य भणिदो घादो तहा चरित्तस्स] शब्दादि पंचेंद्रियों के विषयों की अभिलाषा-रूप और शरीर के साथ ममत्व-रूप से होने वाला अनान्तानुबंधादि राग-द्वेष-रूप मिथ्या-ज्ञान है वह ज्ञानावरणादि कर्मों के बन्ध का निमित्त-कारण है और इस आत्मा के मन में निवास करता है । उस मिथ्या-ज्ञान का निर्विकल्प-समाधिरूप-हथियार से घात करना चाहिये, ऐसा सर्वज्ञ भगवान ने कहा है । हाँ, केवल मिथ्या-ज्ञान का ही नहीं, किन्तु उसके साथ मिथ्या-दर्शन और मिथ्या-चारित्र का भी घात करना चाहिये । [ण वि तम्हि पोग्गलदव्वस्स को वि घादो दु णिद्दिट्ठो] क्योंकि उस अचेतन शब्द आदि विषय-रूप, व द्रव्य-कर्म और शरीर-रूप पुद्गल-द्रव्य में कुछ भी घात नहीं कहा गया है । देखो, घड़े का आधार-भूत जो कुछ भी है उसको नष्ट कर देने पर भी घड़ा नष्ट नहीं होता है, वैसे ही रागादि-भावों का निमित्त भूत जो पन्चेंद्रियों के विषय शब्दादिक हैं उसके नष्ट कर देने पर भी मन में होने वाले जो रागादिक हैं उनका नाश नहीं होता है । क्योंकि अन्य के घात कर देने पर भी अन्य का घात नहीं होता, ऐसा न्याय है; अन्यथा फिर अति-प्रसंग दोष आता है कोई भी व्यवस्था नहीं बनती है [जीवस्स जे गुणा केइ णत्थि खलु ते परेसु दव्वेसु] क्योंकि जीव के जो सम्यक्त्वादि गुण हैं वे शब्दादिक पर-द्रव्यों में नहीं हैं अर्थात् उनका उनके साथ वास्तविक कोई संबन्ध नहीं है यह बात स्पष्ट है । [तम्हा सम्मादिट्ठिस्स णत्थि रागो दु विसएसु] इसलिये विषयों से रहित अपने शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न जो सुख, उसी में तृप्त होने वाला जो सम्यग्दृष्टि है उसका विषयों में राग नहीं होता । [रागो दोसो मोहो जीवस्सेव य अणण्णपरिणामा] क्योंकि राग, द्वेष और मोह अज्ञानी जीव के परिणाम हैं जो कि अशुद्ध-निश्चय से उससे अभिन्न हैं अर्थात अशुद्ध अवस्था में जीव के साथ तन्मय होते हैं । [एदेण कारणेण दु सद्दादिसु णत्थि रागादी] इसलिये यद्यपि अज्ञानी जीव भ्रान्त-ज्ञान के वश होकर अचेतन रूप शब्दादिमय मनोज्ञ और अमनोज्ञ पाँचों इन्दियों के विषय हैं उन्हीं में रागादिक की कल्पना करता है, उन्हीं में रागादिक का आरोप करता है (कि अमुक वस्तु में मेरा राग है) तो भी शब्दादिक में रागादिक नहीं होते हैं क्योंकि शब्दादिक तो स्वयं अचेतन हैं । इसलिये इस विवेचन से यह बात निश्चित हुई कि राग-द्वेष ये दोनों तभी तक उत्पन्न होते हैं जब तक यह आत्मा बहिर्दृष्टि वाला रहता है और इसके मन में त्रिगुप्ति-रूप स्व-संवेदन ज्ञान उत्पन्न नहीं हो पाता । यह छह गाथाओं का अर्थ हुआ ॥३७३-३७८॥

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+ शब्दादि अचेतन होने से रागादिक की उत्पत्ति में नियामक कारण नहीं -
अण्णदविएण अण्णदवियस्स णो कीरए गुणुप्पाओ । (372)
तम्हा दु सव्वदव्वा उप्पज्जंते सहावेण ॥379॥
गुणोत्पादन द्रव्य का कोई अन्य द्रव्य नहीं करे ।
क्योंकि सब ही द्रव्य निज-निज भाव से उत्पन्न हों ॥३७२॥
अन्वयार्थ : [अण्णदविएण] अन्य द्रव्य से [अण्णदवियस्स] अन्य द्रव्य के [गुणुप्पाओ] गुणों की उत्पत्ति [णो कीरए] नहीं की जा सकती है [तम्हा दु] इससे (यह सिद्धान्त प्रतिफलित होता है कि) [सव्वदव्वा] सर्व द्रव्य [सहावेण] स्वभाव से [उप्पज्जंते] उत्पन्न होते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
और ऐसी आशंका भी नहीं करनी चाहिए कि परद्रव्य जीव को रागादिरूप परिणमाते हैं; क्योंकि अन्य द्रव्यों में अन्य द्रव्यों के गुणों को उत्पन्न करने की अयोग्यता है; क्योंकि सभी द्रव्यों का स्वभाव से ही उत्पाद होता है । अब इसी बात को विस्तार से दृष्टान्तपूर्वक समझाते हैं -

यहाँ एक प्रश्न संभव है कि घटभावरूप से उत्पन्न होती हुई मिट्टी कुम्हार के स्वभाव से उत्पन्न होती है या मिट्टी के स्वभाव से ?

यदि यह कहा जाये कि कुम्हार के स्वभाव से मिट्टी घटभावरूप से उत्पन्न होती है तो उस घट को उस कुम्हाररूप पुरुष के शरीराकार होना चाहिए, जो कुम्हार घट बनाने के अहंकार से भरा हुआ है और जिसका हाथ घट बनाने का व्यापार कर रहा है; परन्तु ऐसा तो होता नहीं है, वह घट पुरुषाकार तो होता नहीं है; क्योंकि अन्य-द्रव्य के स्वभाव से किसी अन्य-द्रव्य के परिणाम का उत्पाद देखने में नहीं आता । यदि ऐसा हो तो फिर मिट्टी कुम्हार के स्वभाव से उत्पन्न नहीं होती; किन्तु मिट्टी के स्वभाव से ही उत्पन्न होती है - यही निश्चित रहा; क्योंकि प्रत्येक द्रव्य के परिणाम का अपने स्वभाव-रूप से ही उत्पाद देखा जाता है ।

ऐसा होने पर यह निश्चित हुआ कि मिट्टी अपने स्वभाव का उल्लंघन नहीं करती; इसलिए मिट्टी ही कुम्हार के स्वभाव को स्पर्श न करती हुई अपने स्वभाव से ही कुंभ (घट) भावरूप से उत्पन्न होती है; कुम्हार कुंभ का उत्पादक है ही नहीं ।

यह बात तो द्रष्टान्त पर घटित हुई है; अब इसी बात को दार्ष्टान्त पर घटित करते हैं - यहाँ एक प्रश्न संभव है कि स्व-परिणामरूप पर्याय से उत्पन्न होते हुए सभी द्रव्य निमित्तभूत अन्यद्रव्यों के स्वभाव से उत्पन्न होते हैं या अपने स्वभाव से ?

यदि यह कहा जाये कि निमित्तभूत अन्यद्रव्यों के स्वभाव से सभी द्रव्य उत्पन्न होते हैं तो उनके परिणामों को निमित्त-भूत अन्य-द्रव्यों के आकार का होना चाहिए; परन्तु ऐसा तो होता नहीं है, द्रव्यों के परिणाम निमित्त-भूत अन्य द्रव्यों के आकार के तो होते नहीं हैं; क्योंकि अन्य-द्रव्य के स्वभाव से किसी अन्य-द्रव्य के परिणाम का उत्पाद देखने में नहीं आता । यदि ऐसा है तो फिर सर्व-द्रव्य निमित्त-भूत अन्य-द्रव्यों के स्वभाव से उत्पन्न नहीं होते; परन्तु अपने स्वभाव से ही उत्पन्न होते हैं - यही निश्चित रहा; क्योंकि प्रत्येक द्रव्य के परिणाम का अपने स्वभाव से ही उत्पाद देखा जाता है ।

ऐसा होने पर यह निश्चित हुआ कि सर्व-द्रव्य अपने स्वभाव का उल्लंघन नहीं करते; इसलिए सर्व-द्रव्य ही निमित्त-भूत अन्य-द्रव्यों के स्वभाव का स्पर्श न करते हुए अपने स्वभाव से ही अपने परिणाम से पर्याय-रूप से उत्पन्न होते हैं; निमित्त-भूत अन्य-द्रव्य उनके परिणामों के उत्पादक हैं ही नहीं । अत: आचार्यदेव अन्त में कहते हैं कि हम जीव में उत्पन्न होनेवाले रागादिभावों का उत्पादक पर-द्रव्यों को देखते ही नहीं हैं, मानते ही नहीं हैं, जानते ही नहीं हैं; फिर उन पर-द्रव्यों पर क्रोध क्यों करें ?

(कलश--रोला)
राग-द्वेष पैदा होते हैं इस आतम में ।
उसमें परद्रव्यों का कोई दोष नहीं है ॥
यह अज्ञानी अपराधी है इनका कर्ता ।
यह अबोध हो नष्ट कि मैं तो स्वयं ज्ञान हूँ ॥२२०॥

[इह] इस आत्मा में [यत् राग-द्वेष-दोष-प्रसूतिः भवति] जो राग-द्वेषरूप दोषों की उत्पत्ति होती है [तत्र परेषां कतरत् अपि दूषणं नास्ति] उसमें पर-द्रव्य का कोई भी दोष नहीं है, [तत्र स्वयम् अपराधी अयम् अबोधः सर्पति] वहाँ तो स्वयं अपराधी यह अज्ञान ही फैलता है; [विदितम् भवतु] इसप्रकार विदित हो और [अबोधः अस्तंयातु] अज्ञान अस्त हो जाये; [बोधः अस्मि] मैं तो ज्ञान हूँ ।

(कलश--रोला)
अरे राग की उत्पत्ति में परद्रव्यों को ।
एकमात्र कारण बतलाते जो अज्ञानी ॥
शुद्धबोध से विरहित वे अंधे जन जग में ।
अरे कभी भी मोहनदी से पार न होंगे ॥२२१॥

[ये तु राग-जन्मनि परद्रव्यम् एव निमित्ततां कलयन्ति] जो राग की उत्पत्ति में पर-द्रव्य का ही निमित्तत्व (कारणत्व) मानते हैं, (अपना कुछ भी कारणत्व नहीं मानते,) [ते शुद्ध-बोध-विधुर-अन्ध-बुद्धयः] वे, जिनकी बुद्धि शुद्ध-ज्ञान से रहित अंध है ऐसे (जिनकी बुद्धि शुद्धनय के विषयभूत शुद्ध आत्म-स्वरूप के ज्ञान से रहित अंध है ऐसे), [मोह-वाहिनीं न हि उत्तरन्ति] मोहनदी को पार नहीं कर सकते ।

जयसेनाचार्य :
[अण्णदविएण अण्णदवियस्स णो कीरए गुणुप्पाओ] बहिरंग निमित्त जो कुंभकार आदि अन्य-द्रव्य हैं उनके द्वारा उपादान-रूप जो मिट्टी आदि अन्य द्रव्य हैं, उसके चेतन का अचेतन-रूप से और अचेतन का चेतन-रूप से इस प्रकार चेतन या अचेतन गुण का घात अर्थात् विनाश नहीं किया जा सकता । [तम्हा दु सव्वदव्वा उप्पज्जंते सहावेण] इसलिये मिट्टी आदिक सब द्रव्य जो घटादि के रूप में उपजते हैं वे सब मृत्तिकादि-रूप अपने-अपने उपादान-कारण के रूप में उपजते हैं बहिरंग निमित्त कारण कुंभकारादि के रूप में नहीं उपजते क्योंकि उपादान-कारण के सदृश ही कार्य होता है -- ऐसा अटल नियम है । इस कथन से यह बात सिद्ध हुई कि यद्यपि अज्ञानी जीव के जो रागादि उत्पन्न होते हैं वे सब बहिरंग में निमित्त-भूत पंचेन्द्रिय के विषय रूप जो शब्दादि हैं उन्हीं के द्वारा उपजते हैं फिर भी वे (रागादि) शब्दादि-रूप अचेतन नहीं होते किन्तु चेतनतामय जीव-स्वरूप होते हैं ।

इस प्रकार कोई नया शिष्य अपने चित्त में ठहरे हुए राग-द्वेषादि भावों को तो जानता नहीं है किन्तु उन रागादिकों में निमित्त पड़ने वाले बहिरंग-भूत शब्दादि विषयों का घात करने की चेष्ठा करता है (क्योंकि वह मानता है कि इन शब्दादिकों ने ही मेरे रागादि पैदा किया है अत: इनको नष्ट कर दूं ऐसा सोचता है) क्योंकि उसके, निर्विकल्प समाधि ही है लक्षण जिसका ऐसा, जो भेद-ज्ञान है उसका अभाव है । उस शिष्य को संबोधन करने के लिए ही आचार्य देव ने इससे पूर्व वाली ६ गाथाओं के साथ-साथ यह सातवीं गाथा कही है ॥३७९॥

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+ व्यवहार से कर्त्ता और कर्म भिन्न, निश्चय से अभिन्न -
जह सिप्पिओ दु कम्मं कुव्वदि ण य सो दु तम्मओ होदि । (349)
तह जीवो वि य कम्मं कुव्वदि ण य तम्मओ होदि ॥380॥
जह सिप्पिओ दु करणेहिं कुव्वदि ण य सो दु तम्मओ होदि । (350)
तह जीवो करणेहिं कुव्वदि ण य तम्मओ होदि ॥381॥
जह सिप्पिओ दु करणाणि गिण्हदि ण सो दु तम्मओ होदि । (351)
तह जीवो करणाणि दु गिण्हदि ण य तम्मओ होदि ॥382॥
जह सिप्पि दु कम्मफलं भुंजदि ण सो दु तम्मओ होदि । (352)
तह जीवो कम्मफलं भुंजदि ण य तम्मदो होदि ॥383॥
एवं ववहारस्स दु वत्तव्वं दरिसणं समासेण । (353)
सुणु णिच्छयस्स वयणं परिणामकदं तु जं होदि ॥384॥
जह सिप्पिओ दु चेट्ठं कुव्वदि हवदि य तहा अणण्णो से । (354)
तह जीवो वि य कम्मं कुवदि हवदि य अणण्णो से ॥385॥
जह चेट्ठं कुव्वंतो दु सिप्पिओ णिच्चदुक्खिओ होदि । (355)
तत्तो सिया अणण्णो तह चेट्ठंतो दुही जीवो ॥386॥
यथा शिल्पिकस्तु कर्म करोति न च स तु तन्मयो भवति ।
तथा जीवोऽपि च कर्म करोति न च तन्मयो भवति ॥३४९॥
यथा शिल्पिकस्तु करणै: करोति न च स तु तन्मयो भवति ।
तथा जीव: करणै: करोति न च तन्मयो भवति ॥३५०॥
यथा शिल्पिकस्तु करणानि गृह्णाति न च स तु तन्मयो भवति ।
तथा जीव: करणानि तु गृह्णाति न च तन्मयो भवति ॥३५१॥
यथा शिल्पी तु कर्मफलं भुंक्ते न च स तु तन्मयो भवति ।
तथा जीव: कर्मफलं भुंक्ते न च तन्मयो भवति ॥३५२॥
एवं व्यवहारस्य तु वक्तव्यं दर्शनं समासेन ।
शृणु निश्चयस्य वचनं परिणामकृतं तु यद्भवति ॥३५३॥
यथा शिल्पिकस्तु चेष्टां करोति भवति च तथानन्यस्तस्या: ।
तथा जीवोऽपि च कर्म करोति भवति चानन्यस्तस्मात् ॥३५४॥
यथा चेष्टां कुर्वाणस्तु शिल्पिको नित्यदु:खितो भवति ।
तस्माच्च स्यादनन्यस्तथा चेष्टानो दु:खी जीव: ॥३५५॥
ज्यों शिल्पि कर्म करे परन्तु कर्ममय वह ना बने ।
त्यों जीव कर्म करे परन्तु कर्ममय वह ना बने ॥३४९॥
ज्यों शिल्पि करणों से करे पर करणमय वह ना बने ।
त्यों जीव करणों से करे पर करणमय वह ना बने ॥३५०॥
ज्यों शिल्पि करणों को ग्रहे पर करणमय वह ना बने ।
त्यों जीव करणों को ग्रहे पर करणमय वह ना बने ॥३५१॥
ज्यों शिल्पि भोगे कर्मफल तन्मय परन्तु होय ना ।
त्यों जीव भोगे कर्मफल तन्मय परन्तु होय ना ॥३५२॥
संक्षेप में व्यवहार का यह कथन दर्शाया गया ।
अब सुनो परिणाम विषयक कथन जो परमार्थ का ॥३५३॥
शिल्पी करे जो चेष्टा उससे अनन्य रहे सदा ।
जीव भी जो करे वह उससे अनन्य रहे सदा ॥३५४॥
चेष्टा में मगन शिल्पी नित्य ज्यों दु:ख भोगता ।
यह चेष्टा रत जीव भी त्यों नित्य ही दु:ख भोगता ॥३५५॥
अन्वयार्थ : [जह सिप्पिओ दु कम्मं कुव्वदि] जिसप्रकार शिल्पी (कुण्डलादि) कर्म करता हुआ [ण य सो दु तम्मओ होदि] तो भी वह उनसे तन्मय नहीं होता [तह जीवो वि य कम्मं कुव्वदि] उसीप्रकार जीव भी (पुण्य-पापरूप) कर्म करता हुआ [ण य तम्मओ होदि] उन से तन्मय नहीं होता ।
[जह सिप्पिओ दु करणेहिं कुव्वदि] जिसप्रकार शिल्पी के (छैनी-आदि) करण द्वारा करता है [ण य सो दु तम्मओ होदि] तो भी वह उनसे तन्मय नहीं होता [तह जीवो करणेहिं कुव्वदि] उसीप्रकार जीव भी (इन्द्रिय-मन-रूप) करण द्वारा करता हुआ [ण य तम्मओ होदि] उन से तन्मय नहीं होता ।
[जह सिप्पिओ दु करणाणि गिण्हदि] जिसप्रकार शिल्पी (छैनी-आदि) करण को ग्रहण करता हुआ [ण सो दु तम्मओ होदि] तो भी वह उनसे तन्मय नहीं होता [तह जीवो करणाणि दु गिण्हदि] उसीप्रकार जीव भी (इन्द्रिय-मन-रूप) करण को ग्रहण करता हुआ [ण य तम्मओ होदि] (उनसे) तन्मय नहीं होता ।
[जह सिप्पि दु कम्मफलं भुंजदि] जिसप्रकार शिल्पी (कुण्डलादि) कर्म के फल को भोगता हुआ [ण सो दु तम्मओ होदि] वह उससे तन्मय नहीं होता [तह जीवो कम्मफलं भुंजदि] उसीप्रकार जीव (सुख-दु:खादि) कर्म के फल को भोगता हुआ [ण य तम्मदो होदि] उनसे (सुख-दु:खादि से) तन्मय नहीं होता ।
[एवं ववहारस्स दु] इसप्रकार व्यवहार के [वत्तव्वं दरिसणं समासेण] वक्तव्य (मत) को संक्षेप में दर्शाकर [सुणु णिच्छयस्स वयणं] निश्चय का मत (मान्यता) सुनो [परिणामकदं तु जं होदि] जो परिणाम करने से होता है ।
[जह सिप्पिओ दु चेट्ठं कुव्वदि] जिसप्रकार शिल्पी चेष्टारूप कर्म करते हुए [हवदि य तहा अणण्णो से] वह उससे अनन्य होता है [तह जीवो वि य कम्मं कुवदि] उसीप्रकार जीव भी (अपने परिणामरूप) कर्म को करते हुए, [हवदि य अणण्णो से] उससे (अपने परिणामरूप कर्म से) वह (जीव) अनन्य है ।
[जह चेट्ठं कुव्वंतो दु] जिसप्रकार चेष्टा (कर्म) करता हुआ [सिप्पिओ] शिल्पी [णिच्चदुक्खिओ होदि] नित्य दु:खी होता है [तत्तो] उसीप्रकार [तह चेट्ठंतो दुही जीवो] (अपने परिणामरूप) चेष्टा को करता हुआ जीव दु:ख से [सिया अणण्णो] कदाचित् अनन्य है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जिसप्रकार शिल्पी किन्तु अनेक-द्रव्यत्व के कारण वह शिल्पी कर्म, करण आदि भिन्न होने से उनसे तन्मय (कर्मकरणादि मय) नहीं होता; इसलिए वहाँ कर्तृ-कर्मत्व और भोक्ता-भोक्तृत्व का व्यवहार मात्र निमित्त-नैमित्तिकभाव से ही है । उसीप्रकार आत्मा भी परन्तु अनेक-द्रव्यत्व के कारण उनसे अन्य होने से तन्मय नहीं होता; इसलिए वहाँ कर्तृ-कर्मत्व और भोक्ता-भोक्तृत्व का व्यवहार मात्र निमित्त-नैमित्तिकभाव से ही है ।

जिसप्रकार वही शिल्पी करने का इच्छुक होता हुआ चेष्टारूप अर्थात् कुण्डलादि करने के अपने परिणामरूप और हस्तादि के व्यापाररूप जो स्व-परिणामात्मक कर्म करता है तथा चेष्टा-रूप दु:ख-स्वरूप कर्म के स्व-परिणामात्मक फल को भोगता है और एक-द्रव्यत्व के कारण कर्म और कर्म-फल से अनन्य होने से तन्मय (कर्म-मय और कर्म-फल-मय) है; इसलिए परिणाम-परिणामीभाव से कर्ता-कर्मपने और भोक्ता-भोग्यपने का निश्चय है । उसीप्रकार आत्मा भी करने का इच्छुक होता हुआ चेष्टा-रूप अर्थात् रागादि परिणाम-रूप और प्रदेशों के व्यापार-रूप जो आत्म-परिणामात्मक कर्म करता है, चेष्टा-रूप कर्म के आत्म-परिणामात्मक दु:ख-रूप फल को भोगता है और एक-द्रव्यत्व के कारण उनसे अनन्य होने से तन्मय है; इसलिए परिणाम-परिणामीभाव से वही कर्ता-कर्मपन और भोक्ता-भोग्यपन का निश्चय है ।

(कलश--दोहा)
अरे कभी होता नहीं, कर्त्ता के बिन कर्म ।
निश्चय से परिणाम ही, परिणामी का कर्म ॥
सदा बदलता ही रहे, यह परिणामी द्रव्य ।
एकरूप रहती नहीं, वस्तु की थिति नित्य ॥२११॥

[ननु परिणाम एव किल विनिश्चयतः कर्म] वास्तव में परिणाम ही निश्चय से कर्म है, और [सः परिणामिन एव भवेत्, अपरस्य न भवति] परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामी का ही होता है, अन्य का नहीं (क्योंकि परिणाम अपने-अपने द्रव्य के आश्रित हैं, अन्य के परिणाम का अन्य आश्रय नहीं होता); [इह कर्म कर्तृशून्यम् न भवति] और कर्म कर्ता के बिना नहीं होता, [च वस्तुनः एकतया स्थितिः इह न] तथा वस्तु की एकरूप (कूटस्थ) स्थिति नहीं होती; [ततः तद् एव कर्तृ भवतु] इसलिये वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप कर्म की कर्ता है (यह निश्चयसिद्धांत है)

(कलश--रोला)
यद्यपि आतमराम शक्तियों से है शोभित ।
और लोटता बाहर-बाहर परद्रव्यों के ॥
पर प्रवेश पा नहीं सकेगा उन द्रव्यों में ।
फिर भी आकुल-व्याकुल होकर क्लेश पा रहा ॥२१२॥

[स्वयं स्फुटत्-अनन्त-शक्ति:] जिसकी स्वयं अनंत शक्ति प्रकाशमान है, ऐसी वस्तु [बहिः यद्यपि लुठति] अन्य वस्तु के बाहर यद्यपि लोटती है [तथापि अन्य-वस्तु अपरवस्तुनः अन्तरम् न विशति] तथापि अन्य वस्तु अन्य वस्तु के भीतर प्रवेश नहीं करती, [यतः सकलम् एव वस्तु स्वभाव-नियतम् इष्यते] क्योंकि समस्त वस्तुएँ अपने-अपने स्वभाव में निश्चित हैं, ऐसा माना जाता है । [इह] ऐसा होने पर भी, [मोहितः] मोहितजीव, [स्वभाव-चलन-आकुलः] अपने स्वभाव से चलित होकर आकुल होता हुआ, [किम् क्लिश्यते] क्यों क्लेश पाता है ?

(कलश--रोला)
एक वस्तु हो नहीं कभी भी अन्य वस्तु की ।
वस्तु वस्तु की ही है - ऐसा निश्चित जानो ॥
ऐसा है तो अन्य वस्तु यदि बाहर लोटे ।
तो फिर वह क्या कर सकती है अन्य वस्तु का ॥२१३॥

[इह च] इस लोक में [येन एकम् वस्तु अन्यवस्तुनः न] एक वस्तु अन्य वस्तु की नहीं है, [तेन खलु वस्तु तत् वस्तु] इसलिये वास्तव में वस्तु वस्तु ही है - [अयम्निश्चयः] यह निश्चय है । [कः अपरः] ऐसा होने से कोई अन्य वस्तु [अपरस्य बहिः लुठन् अपिहि] अन्य वस्तु के बाहर लोटती हुई भी [किं करोति] उसका क्या कर सकती है ?

(कलश--रोला)
स्वयं परिणमित एक वस्तु यदि परवस्तु का ।
कुछ करती है - ऐसा जो माना जाता है ॥
वह केवल व्यवहारकथन है निश्चय से तो ।
एक दूसरे का कुछ करना शक्य नहीं है ॥२१४॥

[वस्तु] एक वस्तु [स्वयम् परिणामिनः अन्य-वस्तुनः] स्वयं परिणमित होती हुई अन्य वस्तु का [किंचन अपि कुरुते] कुछ भी कर सकती है [यत् तु] ऐसा जो माना जाता है, [तत् व्यावहारिक-दृशा एव मतम्] वह व्यवहार-दृष्टि से ही माना जाता है । [निश्चयात्] निश्चय से [इह अन्यत् किम् अपि न अस्ति] इस लोक में अन्य वस्तु को अन्य वस्तु कुछ भी नहीं (अर्थात् एक वस्तु को अन्य वस्तु के साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं) है ।

जयसेनाचार्य :
जैसे भूतलपर हम देखते हैं कि सुनार आदि कारीगर स्वर्ण के कुण्डलादि आभूषण को बनाता है । किन से बनाता है ? हथौड़े आदि उपकरणों के द्वारा बनाता है । उन हथौड़े आदि उपकरणों को अपने हाथ में ग्रहण करता है तव उन सोने के कुण्डलादि आभूषणों से और हथौड़े आदि उपकरणों से वह तन्मय नहीं हो जाता । वैसे ही ज्ञानी जीव भी निश्चय वीतराग स्व-संवेदन ज्ञान से च्युत होता हुआ द्रव्य-कर्मों को करता है । किन के द्वारा करता है ? कर्मों के उत्पादन करने वाले मन-वचन-काय के उपकरणों द्वारा करता है । वैसे ही यह जीव भी कर्मोदय के वश होकर कर्मों के उत्पादन करने वाले मन-वचन-काय के व्यापार-रूप कर्मों के उत्पादन करने वाले उपकरणों के साथ तन्मय नहीं होता, किन्तु अपने टंकोत्कीर्ण ज्ञायक-पने से यह जीव उनसे भिन्न ही रहता है । जैसे सुनारादि कारीगर सोने के कुण्डलादि बन जाने पर उनका आहार-पानादि-रूप जो कुछ मूल्य प्राप्त करता है और उसे भोगता भी है, फिर भी वह उस अशन-पानादि से तन्मय नहीं होता है । वैसे ही जीव भी अपनी शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न हुए मनोहर आनन्द-मयी सुख के स्वाद को नहीं पाता हुआ बाह्य में दीखने वाले अशन-पानादि-रूप शुभ और अशुभ कर्म के फल को भोगता है फिर भी वह अशन-पानादिरूप नहीं बन जाता । [एवं ववहारस्स दु वत्तव्वं दरिसणं समासेण] इस पूर्वोक्त रीति से चार गाथाओं द्वारा हे भाई द्रव्य-कर्म के कर्त्तापन और भोक्तापन रूप जो व्यवहार-नय है उसका मत या दृष्टांत या उदाहरण संक्षेप में बताया गया है । [सुणु णिच्छयस्स वयणं परिणामकदं तु जं होदि] अब इसके आगे निश्चय-नय का वचन रूप व्याख्यान कहा जाता है उसको सुनो, जो की रागादि विकल्प के द्वारा सम्पादित एवं आत्मा के परिणाम द्वारा किया होता है । [जह सिप्पिओ दु चेट्ठं कुव्वदि हवदि य तहा अणण्णो से] जैसे सुनारादि कारीगर अपने मन में जब इस प्रकार का विचार करता है कि मैं इस-इस प्रकार के कुण्डलादि बनाऊँ तब वह उस विचार-रूप चेष्ठा से अभिन्न अर्थात तन्मय होता है । [तह जीवो वि य कम्मं कुवदि हवदि य अणण्णो से] वैसे ही केवलज्ञानादि की अभिव्यक्ति होना है स्वरूप जिसका ऐसा जो कार्य-समयसार उसका जो साधक निर्विकल्प समाधि रूप कारण-समयसार उसका अभाव हो जाने पर यह अज्ञानी जीव अशुद्ध-उपादान अशुद्ध-निश्चयनय के द्वारा मिथ्यात्व-रागादिरूप भाव-कर्म को करने वाला होता है तब उस समय उस भाव-कर्म के साथ अभिन्न होता है । यह भाव-कर्म के कर्तापन की गाथा हुई । [जह चेट्ठं कुव्वंतो दु सिप्पिओ णिच्चदुक्खिओ होदि] जैसे कि कारीगर अपने मन में यह विचार करता है कि मैं अमुक-अमुक प्रकार के कुण्डलादि बनाऊं ऐसा विचार करता हुआ वह नियम से अपने चित्त में आकुल-व्याकुलतारूप दु:ख को प्राप्त होता है उस विचार से वह केवल दु:खी ही नहीं होता, किन्तु [तत्तो सिया अणण्णो] उसके अनुभव में आने वाले दुख-रूप विकल्प से अभिन्न ही रहता है । [तह चेट्ठंतो दुही जीवो] उसी प्रकार अज्ञानी-जीव भी विशुद्ध-ज्ञान-दर्शनादि की अभिव्यक्ति रूप जो कार्य-समयसार व उस कार्य-समयसार का साधक जो निश्चय रत्नत्रयात्मक कारण-समयसार है उसके लाभ में अर्थात् अभाव में, सुख-दुखादि के भोक्तापन के काल में हर्ण-विषादादि-रूप चेष्ठा को करता हुआ वह अपने मन में दुखी होता है, तब वह उस हर्ष-विषादादि रूप चेष्ठा के साथ अशुद्ध-उपादान रूप अशुद्ध-निश्चयनय के द्वारा अभिन्न अर्थात तन्मय होकर रहता है ।

इस प्रकार पूर्व-कथित रीति से सुनार आदि के दृष्टांत द्वारा जैसे बताया गया है वैसे यह अज्ञानी जीव निर्विकल्प-रूप स्व-संवेदन ज्ञान से च्युत होकर व्यवहार-नय के द्वारा तो द्रव्य-कर्म को करता है व उसे भोगता है इसी प्रकार अशुद्ध-निश्चय-नय के द्वारा भाव-कर्म को करता है और भोगता है, इस प्रकार के व्याख्यान को लेकर इस छठे स्थल में ये सात गाथायें पूर्ण हुईं ॥३८०-३८६॥

इस प्रकार आत्मा के भिन्न कर्तृत्व और अभिन्न कर्तृत्व को बताकर आगे यह बतलाते हैं कि ज्ञान ज्ञेय-वस्तु को जानता है फिर भी निश्चय-नय से उससे तन्मय नहीं होता । जैसे कि सफेद मिट्टी दीवाल को सफेद करती है फिर भी वह मिट्टी दीवाल से भिन्न रहती है । इस प्रकार निश्चय की मुख्यता से पाँच गाथाएँ कहकर, आगे की पाँच गाथाओं में यह बतलाते हैं कि खडिया दीवाल को सफेद कर देती है -- यह व्यवहार है, वैसे ही ज्ञान भी ज्ञेय-वस्तु को जानता है -- यह व्यवहार है । इस प्रकार दोनों मिलाकर दस गाथायें हैं --

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+ इस निश्चय-व्यवहार कथन का दृष्टांत -
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि । (356)
तह जाणगो दु ण परस्स जाणगो जाणगो सो दु ॥387॥
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि । (357)
तह पासगो दु ण परस्स पासगो पासगो सो दु ॥388॥
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि । (358)
तह संजदो दु ण परस्स संजदो संजदो सो दु ॥389॥
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि । (359)
तह दंसणं दु ण परस्स दंसणं दंसणं तं तु ॥390॥
एवं तु णिच्छयणयस्स भासिदं णाणदंसणचरित्ते । (360)
सुणु ववहारणयस्य य वत्तव्वं से समासेण ॥391॥
जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण । (361)
तह परदव्वं जाणदि णादा वि सएग भावेण ॥392॥
जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण । (362)
तह परदव्वं पस्सदि जीवो वि सएण भावेण ॥393॥
जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण । (363)
तह परदव्वं विजहदि णादा वि सएण भावेण ॥394॥
जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण । (364)
तह परदव्वं सद्दहदि सम्मदिट्ठी सहावेण ॥395॥
एवं ववहारस्स दु विणिच्छओ णाणदंसणचरित्ते । (365)
भणिदो अण्णेसु वि पज्जएसु एमेव णादव्वो ॥396॥
यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति ।
तथा ज्ञायकस्तु न परस्य ज्ञायको ज्ञायक: स तु ॥३५६॥
यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति ।
तथा दर्शकस्तु न परस्य दर्शको दर्शक: स तु ॥३५७॥
यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सटिका च सा भवति ।
तथा संयतस्तु न परस्य संयत: संयत: स तु ॥३५८॥
यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति ।
तथा दर्शनं तु न परस्य दर्शनं दर्शनं तत्तु ॥३५९॥
एवं तु निश्चयनयस्य भाषितं ज्ञानदर्शनचरित्रे ।
शृणु व्यवहारनयस्य च वक्तव्यं तस्य समासेन ॥३६०॥।
यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मन: स्वभावेन ।
तथा परद्रव्यं जानाति ज्ञातापि स्वकेन भावेन ॥३६१॥
यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मन: स्वभावेन ।
तथा परद्रव्यं पश्यति जीवोऽपि स्वकेन भावेन ॥३६२॥
यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मन: स्वभावेन ।
तथा परद्रव्यं विजहाति ज्ञातापि स्वकेन भावेन ॥३६३॥
यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मन: स्वभावेन ।
तथा परद्रव्यं श्रद्धते सम्यग्दृष्टि: स्वभावेन ॥३६४॥
एवं व्यवहारनयस्य तु विनिश्चयो ज्ञानदर्शनचरित्रे ।
भणितोऽन्येष्वपि पर्यायेषु एवमेव ज्ञातव्य: ॥३६५॥
ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है ।
ज्ञायक नहीं त्यों अन्य का ज्ञायक तो बस ज्ञायक ही है ॥३५६॥
ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है ।
दर्शक नहीं त्यों अन्य का दर्शक तो बस दर्शक ही है ॥३५७॥
ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है ।
संयत नहीं त्यों अन्य का संयत तो बस संयत ही है ।३५८॥
ज्यों कलई नहीं है अन्य की यह कलई तो बस कलई है ।
दर्शन नहीं त्यों अन्य का दर्शन तो बस दर्शन ही है ॥३५९॥
यह ज्ञान-दर्शन-चरण विषयक कथन है परमार्थ का ।
अब सुनो अतिसंक्षेप में तुम कथन नय व्यवहार का ॥३६०॥
पर-द्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से ।
बस त्योंहि ज्ञाता जानता पर-द्रव्य को निजभाव से ॥३६१॥
पर-द्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से ।
बस त्योंहि दृष्टा देखता पर-द्रव्य को निजभाव से ॥३६२॥
पर-द्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से ।
बस त्योंहि ज्ञाता त्यागता पर-द्रव्य को निजभाव से ॥३६३॥
पर-द्रव्य को ज्यों श्वेत करती कलई स्वयं स्वभाव से ।
सुदृष्टि त्यों ही श्रद्धता पर-द्रव्य को निजभाव से ॥३६४॥
यह ज्ञान-दर्शन-चरण विषयक कथन है व्यवहार का ।
अर अन्य पर्यय विषय में भी इसतरह ही जानना ॥३६५॥
अन्वयार्थ : [जह सेडिया दु ण परस्स] जिसप्रकार सेटिका (खड़िया मिट्टी या पोतने का चूना या कलई) पर (दीवाल) की नहीं है [सेडिया सेडिया य सा होदि] कलई, वह तो कलई ही है [तह जाणगो दु ण परस्स] उसीप्रकार ज्ञायक (आत्मा) परद्रव्यों (ज्ञेयरूप) का नहीं है, [जाणगो जाणगो सो दु] ज्ञायक तो ज्ञायक ही है ।
[जह सेडिया दु ण परस्स] जिसप्रकार सेटिका (खड़िया मिट्टी या पोतने का चूना या कलई) पर (दीवाल) की नहीं है [सेडिया सेडिया य सा होदि] कलई, वह तो कलई ही है [तह पासगो दु ण परस्स] उसीप्रकार दर्शक पर का नहीं है [पासगो पासगो सो दु] दर्शक तो दर्शक ही है ।
[जह सेडिया दु ण परस्स] जिसप्रकार सेटिका (खड़िया मिट्टी या पोतने का चूना या कलई) पर (दीवाल) की नहीं है [सेडिया सेडिया य सा होदि] कलई, वह तो कलई ही है [तह संजदो दु ण परस्स] उसीप्रकार संयत (पर का त्याग करनेवाला) पर का नहीं है, [संजदो संजदो सो दु] संयत तो संयत ही है ।
[जह सेडिया दु ण परस्स] जिसप्रकार सेटिका (खड़िया मिट्टी या पोतने का चूना या कलई) पर (दीवाल) की नहीं है [सेडिया सेडिया य सा होदि] कलई, वह तो कलई ही है [तह दंसणं दु ण परस्स] उसीप्रकार दर्शन (श्रद्धान) पर का नहीं है, [दंसणं दंसणं तं तु] दर्शन तो दर्शन ही है ।
[एवं तु] इसप्रकार [णाणदंसणचरित्ते] ज्ञान, दर्शन और चारित्र के संदर्भ में [णिच्छयणयस्स भासिदं] निश्चयनय द्वारा कहा [य] और [ववहारणयस्य वत्तव्वं] व्यवहारनय द्वारा कथन को [से] उस संबंध में [सुणु समासेण] संक्षेप से सुनो ।
[जह परदव्वं सेडिया] जिसप्रकार कलई परद्रव्यों (दीवाल आदि) को [अप्पणो सहावेण] अपने स्वभाव से [सेडदि हु] सफेद करती है [तह] उसीप्रकार [णादा वि] आत्मा भी [अप्पणो सहावेण] अपने स्वभाव से [परदव्वं जाणदि] परद्रव्यों को जानता है ।
[जह परदव्वं सेडिया] जिसप्रकार कलई परद्रव्यों (दीवाल आदि) को [अप्पणो सहावेण] अपने स्वभाव से [सेडदि हु] सफेद करती है [तह] उसीप्रकार [जीवो वि] आत्मा भी [सएग सहावेण] अपने स्वभाव से [परदव्वं पस्सदि] परद्रव्यों को देखता है ।
[जह परदव्वं सेडिया] जिसप्रकार कलई परद्रव्यों (दीवाल आदि) को [अप्पणो सहावेण] अपने स्वभाव से [सेडदि हु] सफेद करती है [तह] उसीप्रकार [णादा वि] आत्मा भी [सएण सहावेण] अपने स्वभाव से [परदव्वं विजहदि] परद्रव्यों को त्यागता है ।
[जह परदव्वं सेडिया] जिसप्रकार कलई परद्रव्यों (दीवाल आदि) को [अप्पणो सहावेण] अपने स्वभाव से [सेडदि हु] सफेद करती है [तह] उसीप्रकार [सम्मदिट्ठी सहावेण] सम्यग्दृष्टि स्वभाव से [परदव्वं सद्दहदि] परद्रव्यों का श्रद्धान करता है ।
[एवं दु] इस प्रकार [णाणदंसणचरित्ते] ज्ञान-दर्शन-चारित्र में [ववहारस्स विणिच्छओ] व्यवहार द्वारा निश्चय [भणिदो] कहा है [अण्णेसु वि पज्जएसु] अन्य भी पर्यायों में [एमेव णादव्वो] ऐसा ही जानो ॥३९६॥

अमृतचंद्राचार्य :
सेटिका अर्थात् कलई श्वेत (सफेद) पदार्थ है और दीवार आदि श्वेत्य (सफेद किये जाने योग्य-पोते जाने योग्य) पदार्थ हैं । अब श्वेत करनेवाली कलई श्वेत किये जाने योग्य दीवाल आदि परद्रव्यों की है या नहीं ? - इसप्रकार यहाँ उनके तात्त्विक (पारमार्थिक) संबंध की मीमांसा की जा रही है ।

अब सबसे पहले यह विचार किया जाता है कि यदि कलई दीवार आदि पर-द्रव्यों की हो तो क्या हो ?

जिसका जो होता है, वह वही होता है । जैसे कि ज्ञान आत्मा का होने से ज्ञान आत्मा ही है । इसप्रकार के तात्त्विक संबंध के जीवित (विद्यमान) होने से कलई यदि दीवाल आदि की हो तो फिर वह कलई दीवार ही होगी । ऐसा होने पर कलई के स्व-द्रव्य का उच्छेद हो जायेगा, परन्तु द्रव्य का उच्छेद तो होता नहीं; क्योंकि एक द्रव्य का अन्य द्रव्यरूप में संक्रमण होने का निषेध तो पहले ही किया जा चुका है । इससे यह सिद्ध हुआ कि कलई दीवार आदि की नहीं है ।

अब आगे विचार करते हैं कि कलई दीवार आदि की नहीं है तो फिर वह कलई किसकी है ?

यदि यह कहा जाये कि वह कलई कलई की ही है तो प्रश्न उपस्थित होता है कि उस कलई से भिन्न दूसरी कौन-सी कलई है कि जिसकी वह कलई है । इसके उत्तर में यह कहा जा रहा है कि उस कलई से भिन्न अन्य कोई कलई नहीं है; किन्तु वे दो स्व-स्वामीरूप अंश ही हैं । यहाँ स्व-स्वामीरूप अंशों के व्यवहार से क्या साध्य है ? अर्थात् कुछ भी साध्य नहीं है । ऐसी स्थिति में कलई किसी की भी नहीं है, कलई तो कलई ही है - यह निश्चय है । यह तो दृष्टान्त है; अब इसी बात को दार्ष्टान्त पर घटित करते हैं -

इस जगत में चेतयिता अर्थात् चेतनेवाला आत्मा ज्ञानगुण से परिपूर्ण स्वभाववाला द्रव्य है और पुद्गलादि पर-द्रव्य व्यवहार से उसके ज्ञेय हैं ।

अब ज्ञायक आत्मा पुद्गलादि ज्ञेयों का है या नहीं - इस बात का तात्त्विक विचार किया जाता है ।

यदि चेतयिता आत्मा पुद्गलादि ज्ञेयों का हो तो क्या हो - सर्वप्रथम इसका विचार करते हैं? जिसका जो होता है, वह वही होता है । जैसे ज्ञान आत्मा का होने से ज्ञान आत्मा ही है - ऐसा तात्त्विक संबंध जीवित होने से चेतयिता आत्मा यदि पुद्गलादि का हो तो आत्मा को पुद्गलादि ही होना चाहिए और ऐसा होने पर आत्मा के स्व-द्रव्य का उच्छेद हो जायेगा; किन्तु द्रव्य का उच्छेद तो होता नहीं; क्योंकि एक द्रव्य का अन्य द्रव्यरूप होने का निषेध तो पहले ही किया जा चुका है । इसप्रकार यह सिद्ध हुआ कि चेतयिता आत्मा पुद्गलादि का नहीं है । अब आगे विचार करते हैं कि चेतयिता आत्मा पुद्गलादि का नहीं है तो किसका है ? यदि यह कहा जाये कि चेतयिता का ही चेतयिता है तो फिर प्रश्न उठता है कि चेतयिता से भिन्न ऐसा दूसरा कौन-सा चेतयिता है कि जिसका यह चेतयिता है ?

चेतयिता से भिन्न दूसरा कोई चेतयिता नहीं है; किन्तु वे दो स्व-स्वामीरूप अंश ही हैं - यदि यह कहा जाये तो फिर यह प्रश्न उठता है कि यहाँ स्व-स्वामीरूप अंशों के व्यवहार से क्या साध्य है?

तात्पर्य यह है कि कुछ भी साध्य नहीं है । इसप्रकार ज्ञायक किसी का नहीं है; ज्ञायक तो ज्ञायक ही है - यह निश्चय है ।

इसप्रकार यह बताया गया है कि आत्मा पर-द्रव्य को जानता है - यह व्यवहार कथन है और आत्मा अपने को जानता है - इस कथन में भी स्व-स्वामी अंशरूप व्यवहार है; निश्चय तो यह है कि ज्ञायक ज्ञायक ही है । जिसप्रकार ज्ञायक पर घटित किया गया; अब उसीप्रकार दर्शक पर भी घटित किया जा रहा है ।

सेटिका अर्थात् कलई श्वेत (सफेद) पदार्थ है और दीवार आदि श्वेत्य (सफेद किये जाने योग्य - पोते जाने योग्य) पदार्थ हैं । अब श्वेत करनेवाली कलई श्वेत किये जाने योग्य दीवाल आदि पर-द्रव्यों की है या नहीं ? इसप्रकार यहाँ उनके तात्त्विक (पारमार्थिक) संबंध की मीमांसा की जा रही है ।

अब सबसे पहले यह विचार किया जाता है कि यदि कलई दीवार आदि पर-द्रव्यों की ही हो तो क्या हो -

जिसका जो होता है, वह वही होता है । जैसे कि ज्ञान आत्मा का होने से ज्ञान आत्मा ही है । इसप्रकार के तात्त्विक संबंध के जीवित (विद्यमान) होने से कलई यदि दीवाल आदि की हो तो फिर वह कलई दीवार ही होगी - ऐसा होने पर कलई के स्व-द्रव्य का उच्छेद हो जायेगा; परन्तु द्रव्य का उच्छेद तो होता नहीं; क्योंकि एक द्रव्य का अन्य द्रव्यरूप में संक्रमण होने का निषेध तो पहले ही किया जा चुका है । इससे यह सिद्ध हुआ कि कलई दीवार आदि की नहीं है । अब आगे विचार करते हैं कि कलई दीवार आदि की नहीं है तो फिर वह कलई किसकी है ? यदि यह कहा जाये कि वह कलई कलई की ही है तो प्रश्न उपस्थित होता है कि उस कलई से भिन्न दूसरी कौन-सी कलई है कि जिसकी वह कलई है ? इसके उत्तर में यह कहा जा रहा है कि उस कलई से भिन्न अन्य कोई कलई नहीं है; किन्तु वे दो स्व-स्वामीरूप अंश ही हैं । यहाँ स्व-स्वामीरूप अंशों के व्यवहार से क्या साध्य है ? अर्थात् कुछ भी साध्य नहीं है । ऐसी स्थिति में कलई किसी की भी नहीं है, कलई तो कलई ही है - यह निश्चय है । यह तो दृष्टान्त है; अब इसी बात को दार्ष्टान्त पर घटित करते हैं -

इस जगत में चेतयिता अर्थात् चेतनेवाला आत्मा दर्शनगुण से परिपूर्ण स्वभाववाला द्रव्य है और पुद्गलादि पर-द्रव्य व्यवहार से उसके दृश्य हैं । अब दर्शक आत्मा पुद्गलादि दृश्यों का है या नहीं - इस बात का तात्त्विक विचार किया जाता है ।

यदि चेतयिता आत्मा पुद्गलादि दृश्यों का हो तो क्या हो - सर्वप्रथम इसका विचार करते हैं । जिसका जो होता है, वह वही होता है । जैसे दर्शन आत्मा का होने से दर्शन आत्मा ही है - ऐसा तात्त्विक संबंध जीवित होने से चेतयिता आत्मा यदि पुद्गलादि का हो तो आत्मा को पुद्गलादि ही होना चाहिए और ऐसा होने पर आत्मा के स्व-द्रव्य का उच्छेद हो जायेगा, किन्तु द्रव्य का उच्छेद तो होता नहीं; क्योंकि एक द्रव्य का अन्य द्रव्यरूप होने का निषेध तो पहले ही किया जा चुका है । इसप्रकार यह सिद्ध हुआ कि चेतयिता आत्मा पुद्गलादि का नहीं है ।

अब आगे विचार करते हैं कि चेतयिता आत्मा पुद्गलादि का नहीं है तो किसका है ? यदि यह कहा जाये कि चेतयिता का ही चेतयिता है तो फिर प्रश्न उठता है कि चेतयिता से भिन्न ऐसा दूसरा कौन-सा चेतयिता है कि जिसका यह चेतयिता है ? चेतयिता से भिन्न दूसरा कोई चेतयिता नहीं है; किन्तु वे दो स्व-स्वामीरूप अंश ही हैं - यदि यह कहा जाये तो फिर प्रश्न उठता है कि यहाँ स्व-स्वामीरूप अंशों के व्यवहार से क्या साध्य है? तात्पर्य यह है कि कुछ भी साध्य नहीं है । जिसप्रकार दर्शक किसी का नहीं है; दर्शक तो दर्शक ही है - यह निश्चय है ।

इसप्रकार यह बताया गया है कि 'आत्मा पर-द्रव्य को देखता है अथवा श्रद्धा करता है' - यह व्यवहार कथन है और 'आत्मा अपने को देखता है और श्रद्धा करता है' - इस कथन में भी स्व-स्वामी अंशरूप व्यवहार है; निश्चय तो यह है कि दर्शक दर्शक ही है । जिसप्रकार ज्ञायक और दर्शक पर घटित किया गया, अब उसीप्रकार अपोहक (त्यागी) पर भी घटित किया जा रहा है । सेटिका अर्थात् कलई श्वेत (सफेद) पदार्थ है और दीवार आदि श्वेत्य (सफेद किये जाने योग्य - पोते जाने योग्य) पदार्थ है ।

अब श्वेत करनेवाली कलई श्वेत किये जाने योग्य दीवाल आदि पर-द्रव्यों की है या नहीं ? इसप्रकार यहाँ उनके तात्त्विक (पारमार्थिक) संबंध की मीमांसा की जा रही है ।

अब सबसे पहले यह विचार किया जाता है कि यदि कलई दीवार आदि पर-द्रव्यों की हो तो क्या हो -

जिसका जो होता है, वह वही होता है । जैसे कि ज्ञान आत्मा का होने से ज्ञान आत्मा ही है । इसप्रकार के तात्त्विक संबंध के जीवित (विद्यमान) होने से कलई यदि दीवाल आदि की हो तो फिर वह कलई दीवार ही होगी - ऐसा होने पर कलई के स्व-द्रव्य का उच्छेद हो जायेगा; परन्तु द्रव्य का उच्छेद तो होता नहीं; क्योंकि एक द्रव्य का अन्य द्रव्यरूप में संक्रमण होने का निषेध तो पहले ही किया जा चुका है । इससे यह सिद्ध हुआ कि कलई दीवार आदि की नहीं है ।

अब आगे विचार करते हैं कि कलई दीवार आदि की नहीं है तो फिर वह कलई किसकी है ? यदि यह कहा जाये कि वह कलई कलई की है तो प्रश्न उपस्थित होता है कि उस कलई से भिन्न दूसरी कौन-सी कलई है कि जिसकी वह कलई है ? इसके उत्तर में यह कहा जा रहा है कि उस कलई से भिन्न अन्य कोई कलई नहीं है; किन्तु वे दो स्व-स्वामीरूप अंश ही हैं । यहाँ स्व-स्वामीरूप अंशों के व्यवहार से क्या साध्य है ? अर्थात् कुछ भी साध्य नहीं है । ऐसी स्थिति में कलई किसी की भी नहीं है, कलई तो कलई ही है - यह निश्चय है । यह तो दृष्टान्त है; अब इसी बात को दार्ष्टान्त पर घटित करते हैं -

इस जगत में चेतयिता अर्थात् चेतनेवाला आत्मा अपोहनगुण से परिपूर्ण स्वभाववाला द्रव्य है और पुद्गलादि पर-द्रव्य व्यवहार से उसके अपोह्य हैं ।

अब अपोहक आत्मा पुद्गलादि अपोह्यों का है या नहीं - इस बात का तात्त्विक विचार किया जाता है ।

यदि चेतयिता आत्मा पुद्गलादि अपोह्यों का हो तो क्या हो - सर्वप्रथम इसका विचार करते हैं - जिसका जो होता है, वह वही होता है । जैसे अपोहन आत्मा होने से अपोहन आत्मा ही है - ऐसा तात्त्विक संबंध जीवित होने से चेतयिता आत्मा यदि पुद्गलादि का हो तो आत्मा को पुद्गलादि ही होना चाहिए और ऐसा होने पर आत्मा के स्व-द्रव्य का उच्छेद हो जायेगा; किन्तु द्रव्य का उच्छेद तो होता नहीं; क्योंकि एक द्रव्य का अन्य द्रव्यरूप होने का निषेध तो पहले ही किया जा चुका है ।

इसप्रकार यह सिद्ध हुआ कि चेतयिता आत्मा पुद्गलादि का नहीं है ।

अब आगे विचार करते हैं कि चेतयिता आत्मा पुद्गलादि का नहीं है तो किसका है ?

यदि यह कहा जाये कि चेतयिता का ही चेतयिता है तो फिर प्रश्न उठता है कि चेतयिता से भिन्न ऐसा दूसरा कौन-सा चेतयिता है, जिसका यह चेतयिता है ? चेतयिता से भिन्न दूसरा कोई चेतयिता नहीं है; किन्तु वे दो स्व-स्वामीरूप अंश ही हैं । यदि यह कहा जाये तो फिर प्रश्न उठता है कि यहाँ स्व-स्वामीरूप अंशों के व्यवहार से क्या साध्य है? तात्पर्य यह है कि कुछ भी साध्य नहीं है । इसप्रकार अपोहक किसी का नहीं है; अपोहक तो अपोहक ही है - यह निश्चय है । इसप्रकार यह बताया गया है कि 'आत्मा पर-द्रव्य को त्यागता है' - यह व्यवहार कथन है और 'आत्मा अपने को ग्रहण करता है' - इस कथन में भी स्व-स्वामी अंशरूप व्यवहार है; निश्चय तो यह है कि अपोहक अपोहक ही है । अब व्यवहार का विवेचन किया जाता है - जिसप्रकार श्वेतगुण से परिपूर्ण स्वभाववाली यह कलई स्वयं दीवाल आदि पर-द्रव्यों के स्वभावरूप परिणमित न होती हुई और दीवाल आदि पर-द्रव्यों को अपने स्वभावरूप परिणमित न कराती हुई दीवाल आदि पर-द्रव्यों के निमित्त से अपने श्वेतगुण से परिपूर्ण स्वभाव के परिणाम के द्वारा उत्पन्न होती हुई यह कलई; कलई के निमित्त से अपने स्वभावपरिणाम द्वारा उत्पन्न होते हुए दीवाल आदि पर-द्रव्यों को अपने (कलई के) स्वभाव से श्वेत करती है - ऐसा व्यवहार किया जाता है ।

इसीप्रकार ज्ञानगुण से परिपूर्ण स्वभाववाला चेतयिता भी स्वयं पुद्गलादि पर-द्रव्यों के स्वभावरूप परिणमित न होता हुआ और पुद्गलादि पर-द्रव्यों को अपने स्वभावरूप परिणमन न कराता हुआ पुद्गलादि पर-द्रव्यों के निमित्त से अपने ज्ञानगुण से परिपूर्ण स्वभाव के परिणाम द्वारा उत्पन्न होता हुआ; चेतयिता के निमित्त से अपने स्वभाव के परिणाम द्वारा उत्पन्न होते हुए पुद्गलादि पर-द्रव्यों को अपने स्वभाव से जानता है - ऐसा व्यवहार किया जाता है । जिसप्रकार ज्ञानगुण के संदर्भ में व्यवहार का विवेचन किया, अब उसीप्रकार दर्शनगुण के संदर्भ में भी विवेचन किया जाता है ।

जिसप्रकार श्वेतगुण से परिपूर्ण स्वभाववाली यह कलई स्वयं दीवाल आदि पर-द्रव्यों के स्वभावरूप परिणमित न होती हुई और दीवाल आदि पर-द्रव्यों को अपने स्वभावरूप परिणमित न कराती हुई दीवाल आदि पर-द्रव्यों के निमित्त से अपने श्वेतगुण से परिपूर्ण स्वभाव के परिणाम के द्वारा उत्पन्न होती हुई यह कलई; कलई के निमित्त से अपने स्वभावपरिणाम द्वारा उत्पन्न होते हुए दीवाल आदि पर-द्रव्यों को अपने (कलई के) स्वभाव से श्वेत करती है - ऐसा व्यवहार किया जाता है । इसीप्रकार दर्शनगुण से परिपूर्ण स्वभाववाला चेतयिता भी स्वयं पुद्गलादि पर-द्रव्यों के स्वभावरूप परिणमित न होता हुआ और पुद्गलादि पर-द्रव्यों को अपने स्वभावरूप परिणमन न कराता हुआ पुद्गलादि पर-द्रव्यों के निमित्त से अपने दर्शनगुण से परिपूर्ण स्वभाव के परिणाम द्वारा उत्पन्न होता हुआ; चेतयिता के निमित्त से अपने स्वभाव के परिणाम द्वारा उत्पन्न होते हुए पुद्गलादि पर-द्रव्यों को अपने स्वभाव से देखता है अथवा श्रद्धा करता है - ऐसा व्यवहार किया जाता है । जिसप्रकार ज्ञान और दर्शनगुण के संदर्भ में व्यवहार का विवेचन किया, अब उसीप्रकार चारित्रगुण के संदर्भ में भी विवेचन किया जाता है ।

जिसप्रकार श्वेतगुण से परिपूर्ण स्वभाववाली यह कलई स्वयं दीवाल आदि पर-द्रव्यों के स्वभावरूप परिणमित न होती हुई और दीवाल आदि पर-द्रव्यों को अपने स्वभावरूप परिणमित न कराती हुई दीवाल आदि पर-द्रव्यों के निमित्त से अपने श्वेतगुण से परिपूर्ण स्वभाव के परिणाम के द्वारा उत्पन्न होती हुई यह कलई; कलई के निमित्त से अपने स्वभावपरिणाम द्वारा उत्पन्न होते हुए दीवाल आदि पर-द्रव्यों को अपने (कलई के) स्वभाव से श्वेत करती है - ऐसा व्यवहार किया जाता है । इसीप्रकार चारित्रगुण से परिपूर्ण स्वभाववाला चेतयिता भी स्वयं पुद्गलादि पर-द्रव्यों के स्वभावरूप परिणमित न होता हुआ और पुद्गलादि पर-द्रव्यों को अपने स्वभावरूप परिणमन न कराता हुआ पुद्गलादि पर-द्रव्यों के निमित्त से अपने चारित्रगुण से परिपूर्ण स्वभाव के परिणाम द्वारा उत्पन्न होता हुआ; चेतयिता के निमित्त से अपने स्वभाव के परिणाम द्वारा उत्पन्न होते हुए पुद्गलादि पर-द्रव्यों को अपने स्वभाव से अपोहता (त्याग करता) है - ऐसा व्यवहार किया जाता है ।

(कलश--रोला)
एक द्रव्य में अन्य द्रव्य रहता हो - ऐसा ।
भासित कभी नहीं होता है ज्ञानिजनों को ॥
शुद्धभाव का उदय ज्ञेय का ज्ञान, न जाने ।
फिर भी क्यों अज्ञानीजन आकुल होते हैं ॥२१५॥

[शुद्ध-द्रव्य-निरूपण-अर्पित-मतेः तत्त्वं समुत्पश्यतः] जिसने शुद्ध-द्रव्य के निरूपण में बुद्धि को लगाया है, और जो तत्त्व का अनुभव करता है, उस पुरुष को [एक-द्रव्य-गतं किम्-अपि द्रव्य-अन्तरं जातुचित् न चकास्ति] एक द्रव्य के भीतर कोई भी अन्य द्रव्य रहता हुआ कदापि भासित नहीं होता । [यत् तु ज्ञानं ज्ञेयम् अवैति तत् अयं शुद्ध-स्वभाव-उदयः] ज्ञान ज्ञेय को जानता है वह तो यह ज्ञान के शुद्ध स्वभाव का उदय है । (जब कि ऐसा है तब फिर) [जनाः] लोग [द्रव्य-अन्तर-चुम्बन-आकुल-धियः] ज्ञान को अन्य द्रव्य के साथ स्पर्श होने की मान्यता से आकुल बुद्धिवाले होते हुए [तत्त्वात्] तत्त्व से (शुद्ध स्वरूप से) [किं च्यवन्ते] क्यों च्युत होते हैं ?

(कलश--रोला)
शुद्धद्रव्य का निजरसरूप परिणमन होता ।
वह पररूप या पर उसरूप नहीं हो सकते ॥
अरे चाँदनी की ज्यों भूमि नहीं हो सकती ।
त्यों ही कभी नहीं हो सकते ज्ञेय ज्ञान के ॥२१६॥

[शुद्ध-द्रव्य-स्वरस-भवनात्] शुद्ध-द्रव्य का (आत्मा आदि द्रव्य का) निजरस रूप (-ज्ञानादि स्वभावरूप) परिणमन होता है इसलिये, [शेषम् अन्यत्-द्रव्यं किं स्वभावस्य भवति] क्या शेष कोई अन्य द्रव्य उस (ज्ञानादि) स्वभाव का हो सकता है ? [यदि वा स्वभावः किं तस्य स्यात्] अथवा क्या वह (ज्ञानादि) स्वभाव किसी अन्य द्रव्य का हो सकता है ? [ज्योत्स्नारूपं भुवं स्नपयति] चाँदनी का रूप पृथ्वी को उज्ज्वल करता है [भूमिः तस्यन एव अस्ति] तथापि पृथ्वी चाँदनी की कदापि नहीं होती; [ज्ञानं ज्ञेयं सदा कलयति] इसप्रकार ज्ञान ज्ञेय को सदा जानता है [ज्ञेयम् अस्य अस्ति न एव] तथापि ज्ञेय ज्ञान का कदापि नहीं होता ।

(कलश--रोला)
तबतक राग-द्वेष होते हैं जबतक भाई !
ज्ञान-ज्ञेय का भेद ज्ञान में उदित नहीं हो ॥
ज्ञान-ज्ञेय का भेद समझकर राग-द्वेष को,
मेट पूर्णत: पूर्ण ज्ञानमय तुम हो जाओ ॥२१७॥

[तावत् राग-द्वेष-द्वयम् उदयते] राग-द्वेष का द्वन्द्व तब तक उदय को प्राप्त होता है [यावद् एतत् ज्ञानं ज्ञानं न भवति] कि जब तक यह ज्ञान ज्ञानरूप न हो [पुनः बोध्यम् बोध्यतां न याति] और ज्ञेय ज्ञेयत्व को प्राप्त न हो । [तत् इदं ज्ञानं न्यक्कृत-अज्ञानभावं ज्ञानं भवतु] इसलिये यह ज्ञान, अज्ञान-भाव को दूर करके, ज्ञानरूप हो [येनभाव-अभावौ तिरयन् पूर्णस्वभावः भवति] कि जिससे भाव-अभाव (राग-द्वेष) को रोकता हुआ पूर्ण-स्वभाव (प्रगट) हो जाये ।

जयसेनाचार्य :
जैसे संसार में हम देखेते हैं कि श्वेतिका अर्थात सफेद खडिया मिट्टी निश्चय से पर-द्रव्यरुप भीत आदि की नहीं हो जाती अर्थात् उससे लगकर भी भिन्न रहती है तन्मय नहीं होती किन्तु बाहर में ही रहती है अर्थात् श्वेतिका तो श्वेतिका ही है और अपने आपके स्वरूप में ही रहती है । इसी श्वेत मिट्टी के दृष्टांत द्वारा ज्ञानात्मा भी निश्चय के द्वारा घट-पटादि ज्ञेय-पदार्थों का ज्ञायक नहीं होता है अर्थात उन्हें जानते हुए भी उनसे तन्मय नहीं होता । फिर क्या होता है ? कि ज्ञायक तो ज्ञायक ही होता है अपने स्वभाव में रहता है । इस प्रकार यहां पर आचार्य-देव ने यह बतलाया है कि ज्ञान ज्ञेय के रूप में परिणमन नहीं करता जैसा की ब्रह्म-अद्वैतवादियों के यहाँ ज्ञान ज्ञेय-रूप स्वभाव विशेष में परिणमन कर जाता है । इस प्रकार की कथन करने वाली गाथा हुई ।

इसी प्रकार श्वेत मिट्टी के दृष्टांत को लेकर दर्शक आत्मा भी निश्चय से दृश्यरूप जो घट-पटादि पदार्थ हैं उनका दर्शक नहीं होता अर्थात उनके साथ में तन्मय नहीं होता । तो क्या होता है ? कि दर्शक तो दर्शक ही होता है अपने स्वरूप में रहता है । इस प्रकार सत्तावलोकन-रूप दर्शन दृश्यमान पदार्थों के द्वारा पर-रूप में परिणमन नहीं कर जाता, इस प्रकार के कथन की मुख्यता से दुसरी गाथा हुई ।

उसी श्वेत मिट्टी के दृष्टांत को लेकर संयत आत्मा त्याज्य जो परिग्रहादि पर-द्रव्य हैं उनका निश्चय से त्यागने वाला नहीं होता अर्थात उनके साथ में तन्मय नहीं होता । तो क्या होता है ? कि संयत तो संयत ही रहता है अर्थात् निर्विकार अपना मनोहर आनन्द है लक्षण जिसका, ऐसे अपने स्वरूप में ही रहता है । इस प्रकार वीतराग चारित्र की मुख्यता से तीसरी गाथा हुई ।

उसी श्वेत मिट्टी के दृष्टांत द्वारा जो तत्त्वार्थ श्रद्धान-रूप सम्यग्दर्शन है, वह श्रद्धान करने योग्य जो बहिर्भूत जीवादि पदार्थ हैं उनका श्रद्धान करने वाला निश्चय से नहीं होता अर्थात उनके साथ तन्मय नहीं होता । तो क्या होता है ? सम्यग्दर्शन तो सम्यग्दर्शन ही है अपने स्वरूप में रहता है । इस प्रकार तत्त्वार्थ श्रद्धान-रूप सम्यग्दर्शन की मुख्यता से यह चौथी गाथा हुई ।

[एवं तु णिच्छयणयस्स भासिदं णाणदंसणचरित्ते] इस प्रकार पूर्व की चार गाथाओं द्वारा ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विषय में निश्चय सम्बन्धी कथन का व्याख्यान हुआ । [सुणु ववहारणयस्य य वत्तव्वं] अब हे शिष्य ! तुम व्यवहार के व्याख्यान को सुनो । जो कि व्यवहार-नय का व्याख्यान पूर्वोक्त ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विषय में है । [समासेण] जिसको मैं संक्षेप में कहता हूँ । इस प्रकार निश्चय-नय के व्याख्यान की मुख्यता से पाँच सूत्र कहे अब व्यवहार का कथन किया जाता है --

जैसे लौकिक में पर-द्रव्य भीत आदि है उनको श्वेत खडिया मिट्टी अपने श्वेत भाव के द्वारा सफेद करती है फिर भी उन भीत आदि पर-द्रव्य के साथ तन्मय नहीं हो जाती । उसी श्वेत-मिट्टी के दृष्टांत से समझना चाहिये की ज्ञाता-आत्मा पर-द्रव्य घट-पटादि जो ज्ञेय-द्रव्य हैं उनको व्यवहार से जानता है फिर भी पर-द्रव्यों के साथ तन्मय नहीं हो जाता, मात्र अपने ज्ञान-भाव के द्वारा उन्हे जानता ही है । यह पहली गाथा का अर्थ हुआ ।

उसी प्रकार उसी श्वेत मिट्टी के दृष्टांत को लेकर ज्ञान स्वरूप आत्मा दृश्यमान घट-पटादि पर-द्रव्य को व्यवहार से देखता है किन्तु उस पर-द्रव्य के साथ तन्मय नहीं होता अपितु मात्र अपने दर्शन-गुण के द्वारा उसे देखता है । यह दूसरी गाथा हुई ।

उसी प्रकार उसी श्वेत-मिट्टी के दृष्टांत को लेकर ज्ञाता-आत्मा परिग्रहादिक जो पर-द्रव्य हैं उनको व्यवहार से त्यागता है किन्तु वह पर-द्रव्यों के साथ तन्मय नहीं होता । तो फिर वह छोड़ता कैसे है ? कि अपने निर्विकल्प-रूप समाधि परिणाम के द्वारा उनसे उदासीन हो जाता है । यह तीसरी गाथा हुई ।

उसी प्रकार उस श्वेत-मिट्टी के दृष्टांत को लेकर यह सम्यग्दृष्टि जीव, जीवादिक पर-द्रव्यों को व्यवहार से अर्थात् भेद-रूप से श्रद्धान करता है किन्तु वह उनके साथ तन्मय नहीं हो जाता है । किसके द्वारा नहीं होता है ? कि अपने श्रद्धान-परिणाम के द्वारा वह सम्यग्दृष्टि जीव पर-द्रव्य को पर-द्रव्य समझते हुए अपने श्रद्धान में अपने से भिन्न मानता है इस प्रकार यह चौथी गाथा का अर्थ हुआ ।

[एवं ववहारस्स दु विणिच्छओ णाणदंसणचरित्ते भणिदो] यह प्रसंग प्राप्त हुआ जो कि पूर्वोक्त चार गाथाओं से कहा गया है वह विनिश्चय अर्थात व्यवहार अनुयायी निर्णय कहा गया है । किसके विषय में ? ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विषय में अर्थात व्यवहार-नय के द्वारा उपर्युक्त प्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्र का निर्णय किया जाता है । [अण्णेसु वि पज्जएसु एमेव णादव्वो] जैसा व्यवहार ऊपर ज्ञान-दर्शन-चारित्र के विषय में बतलाया गया है वैसा और भी अवस्थाओं में लगा लेना कि जैसे यह भातादि मेरे द्वारा खाया गया, यह साँप का विष व कंटकादि मेरे द्वारा छोड़ दिया गया, यह घर मेरे द्वारा बनाया गया यह सब तो व्यवहार है, यदि निश्चय से कहें तो इस प्रकार कहना चाहिये कि इन ओदनादिक को खाने का मैंने अपना रागरूप परिणाम किया और उसी को भोगा । इसी प्रकार और सब स्थानों में भी निश्चय-नय और व्यवहार-नय के विभाग को समझ लेना चाहिये ।

इस पर फिर भी प्रश्न होता है कि यदि पर-द्रव्य का जानना व्यवहार से ही होता है तब फिर सर्वज्ञ भी व्यवहार से ही कहे जायेंगे, निश्चय से नहीं ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि -- हे भाई ! जिस प्रकार आत्मा अपने सुखादि को तन्मय होकर जानता है, वैसे बाह्य-द्रव्यों को तन्मय होकर नहीं जानता इसलिये उस जानने को व्यवहार से जानना कहा है । यदि दूसरे के सुखादि को भी यह आत्मा अपने सुखादि के समान तन्मय होकर जाने तब तो जैसे अपने संवेदन में सुखी होता है उसी प्रकार पर के सुख-दुःख के संवेदन काल में भी सुखी-दुखी होना चाहिये, सो वह होता नहीं है । यद्यपि सर्वज्ञ का ज्ञान स्वकीय सुख-संवेदन की अपेक्षा तो निश्चय रूप है किन्तु परकीय सुख के संवेदन की अपेक्षा से वही सर्वज्ञ का ज्ञान व्यवहार-रूप है अर्थात् परकीय सुख को जानता है फिर भी उससे भिन्न है इसलिये उसे व्यवहार-रूप कहा गया है, किन्तु छद्मस्थ की अपेक्षा तो दूसरे के सुख को जानने वाला सर्वज्ञ का ज्ञान भी वास्तविक है -- निश्चय है (काल्पनिक नहीं है)

यहाँ पर शंकाकार फिर शंका करता है कि बौद्ध-मती भी ऐसा कहते हैं कि हमारे सौगत बुद्ध-भगवान, व्यवहार से सर्वज्ञ होते हैं, फिर आप उनको दूषण क्यों देते हो ? इसका परिहार करते हैं कि सौगत आदि के मत में जैसे निश्चय की अपेक्षा व्यवहार सत्य नहीं है वैसे ही व्यवहार से भी व्यवहार इनके यहाँ झूठा ही है, किन्तु जैन-मत में तो व्यवहार-नय यद्यपि निश्चय-नय की अपेक्षा मिथ्या है किन्तु व्यवहार-रूप में तो सत्य ही है । यदि लोक-व्यवहार-रूप में भी सत्य न हो तो फिर सारा लोक-व्यवहार मिथ्या हो जाये, ऐसा होने पर कोई भी व्यवस्था नहीं बने । इसलिए जैसा ऊपर कहा गया है वह ठीक ही है कि पर-द्रव्य को तो आत्मा व्यवहार से जानता है देखता है किन्तु निश्चय से अपने आपको देखता जानता है । इससे यह निष्कर्ष निकला कि ब्रह्म-अदैतवादी जो कहा करते हैं कि ग्राम, बगीचा आदि जो वस्तुयें हैं वे सब ब्रह्म-स्वरूप ही है ब्रह्म के सिवाय कोई भी ज्ञेय-वस्तु नहीं है इस बात का यहाँ पर निषेध किया गया है । सौगत लोग (बौद्धमती) जो कहते हैं कि ज्ञान ही घटपटादि रूप परिणमन कर जाता है, ज्ञान से भिन्न कोई भी ज्ञेय-वस्तु नहीं है, इस कहने का भी निराकरण हो जाता है क्योंकि ज्ञान यदि ज्ञेय-रूप में परिणमन करता है तो ज्ञान के अभाव का प्रसंग आता है और ज्ञेय-ज्ञान रूप से परिणमन करता है तो ज्ञेय के अभाव का प्रसंग आता है एवं दोनों का अभाव ठहरता है सो प्रत्यक्ष विरोध है । इस प्रकार निश्चय और व्यवहार की मुख्यता से समुदाय रूप से इस सातवें स्थल में दस सूत्र हुए ॥३८७-३९६॥

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+ निश्चय-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान-आलोचना ही अभेद-नय से निश्चय-चारित्र -
कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं । (383)
तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं ॥397॥
कम्मं जं सुहमसुहं जम्हि य भावम्हि बज्झदि भविस्सं । (384)
तत्तो णियत्तदे जो सो पच्चक्खाणं हवदि चेदा ॥398॥
जं सुहमसुहमुदिण्णं संपडि य अणेयवित्थरविसेसं । (385)
तं दोसं जो चेददि सो खलु आलोयणं चेदा ॥399॥
णिच्चं पच्चक्खाणं कुव्वदि णिच्चं पडिक्कमदि जो य । (386)
णिच्चं आलोचेयदि सो हु चरित्तं हवदि चेदा ॥400॥
कर्म यत्पूर्वकृतं शुभाशुभमनेकविस्तरविशेषम् ।
तस्मान्निवर्तयत्यात्मानं तु य: स प्रतिक्रमणम् ॥३८३॥
कर्म यच्छुभमशुभं यस्मिंश्च भावे बध्यते भविष्यत् ।
तस्मान्निवर्तते य: स प्रत्याख्यानं भवति चेतयिता ॥३८४॥
यच्छुभमशुभमुदीर्णं संप्रति चानेकविस्तरविशेषम् ।
तं दोषं य: चेतयते स खल्वालोचनं चेतयिता ॥३८५॥
नित्यं प्रत्याख्यानं करोति नित्यं प्रतिक्रामति यश्च ।
नित्यमालोचयति स खलु चरित्रं भवति चेतयिता ॥३८६॥
शुभ-अशुभ कर्म अनेकविध हैं जो किये गतकाल में ।
उनसे निवर्तन जो करे वह आतमा प्रतिक्रमण है ॥३८३॥
बँधेंगे जिस भाव से शुभ-अशुभ कर्म भविष्य में ।
उससे निवर्तन जो करे वह जीव प्रत्याख्यान है ॥३८४॥
शुभ-अशुभ भाव अनेकविध हो रहे सम्प्रति काल में ।
इस दोष का ज्ञाता रहे वह जीव है आलोचना ॥३८५॥
जो करें नित प्रतिक्रमण एवं करें नित आलोचना ।
जो करें प्रत्याख्यान नित चारित्र हैं वे आतमा ॥३८६॥
अन्वयार्थ : [जं] जो [पुव्वकयं] पूर्वकाल में किये गये [सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं] अनेकप्रकार के विस्तार से विशेषित (भेद-प्रभेद सहित) वाला शुभाशुभ [कम्मं] कर्म, [तत्ते] उनसे [जो] जो [अप्पयं तु] अपने आप को [णियत्तदे] दूर रखता है, [जो सो पडिक्कमणं] वह (आत्मा) प्रतिक्रमण है ।
[जम्हि य भावम्हि] जिस भाव से [भविस्सं] भविष्यकालीन [कम्मं जं सुहमसुहं] शुभाशुभकर्म [बज्झदि] बँधता है, [तत्ते] उनसे (उन भाव से) जो [चेदा] आत्मा [णियत्तदे] निवृत्त है [सो पच्चक्खाणं हवदि] वह प्रत्याख्यान होता है ।
[संपडि य] वर्तमानकालीन [अणेयवित्थरविसेसं] अनेकप्रकार के विस्तार से विशेषित (भेद-प्रभेद सहित) [सुहमसुहमुदिण्णं] शुभाशुभकर्मों के उदय हैं,[तं दोसं जो] उनके दोषों को जो [चेददि] चेतनेवाला (भेद-ज्ञान-पूर्वक अनुभव करने वाला) है [सो खलु आलोयणं चेदा] वह आत्मा वास्तव में आलोचना है ।
[जो] जो [णिच्चं] सदा [पच्चक्खाणं] प्रत्याख्यान [कुव्वदि] करता है [य] और [णिच्चं] सदा [पडिक्कमदि] प्रतिक्रमण करता है और [णिच्चं] सदा [आलोचेयदि] आलोचना करता है [सो हु चरित्तं हवदि चेदा] वह आत्मा ही चारित्र है ।

अमृतचंद्राचार्य :
जो आत्मा पुद्गलकर्म के विपाक से हुए भावों से स्वयं को छुड़ाता है, दूर रखता है; वह आत्मा उन भावों के कारणभूत पूर्वकर्मों का प्रतिक्रमण करता हुआ स्वयं ही प्रतिक्रमण है, वही आत्मा उन भावों के कार्यभूत उत्तर-कर्मों का प्रत्याख्यान करता हुआ स्वयं ही प्रत्याख्यान है और वही आत्मा वर्तमान कर्मविपाक को अपने से भिन्न अनुभव करता हुआ आलोचना है ।

इसप्रकार वह आत्मा सदा प्रतिक्रमण करता हुआ, सदा प्रत्याख्यान करता हुआ और सदा आलोचना करता हुआ पूर्वकर्मों के कार्यरूप और उत्तरकर्मों के कारणरूप भावों से अत्यन्त निवृत्त होता हुआ और वर्तमान कर्म-विपाक को अपने से अत्यन्त भिन्न अनुभव करता हुआ अपने में ही, अपने ज्ञान-स्वभाव में ही निरन्तर चरने से, लीन रहने से चारित्र है । इसप्रकार चारित्र-स्वरूप होता हुआ आत्मा स्वयं को ज्ञान-मात्र चेतनारूप अनुभव करता है; इसलिए स्वयं ही ज्ञान-चेतना है - ऐसा आशय है ।

(कलश--रोला)
ज्ञान-चेतना शुद्ध ज्ञान को करे प्रकाशित ।
शुद्धज्ञान को रोके नित अज्ञान-चेतना ॥
और बंध की कर्ता यह अज्ञान-चेतना ।
यही जान चेतो आतम नित ज्ञान-चेतना ॥२२४॥

[नित्यं ज्ञानस्य संचेतनया एव ज्ञानम् अतीव शुद्धम् प्रकाशते] निरन्तर ज्ञान की संचेतना से ही ज्ञान अत्यन्त शुद्ध प्रकाशित होता है; [तु] और [अज्ञानसंचेतनया] अज्ञान की संचेतना से [बन्धः धावन्] बंध दौड़ता हुआ [बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि] ज्ञान की शुद्धता को रोकता है, अर्थात् ज्ञान की शुद्धता नहीं होने देता।

जयसेनाचार्य :
अब इसके आगे निश्चय-प्रतिक्रमण, निश्चय-प्रत्याख्यान और निश्चय-आलोचना के रूप परिणत हुआ स्वयं तपोधन ही अभेद-नय से निश्चय-चारित्र होता है ऐसा व्याख्यान आगे की गाथाओं में करते हैं --

[णियत्तदे अप्पयं तु जो] जो कारण-समयसार ऐसे उस कारण-समयसार में स्थित होकर अपने आपको दूर कर लेता है ।

प्रश्न – किससे दूर करता है ?

उत्तर – [कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं तत्तो] अनेक प्रकार के विस्तार से विस्तीर्ण जो पूर्वकाल के किए शुभाशुभ कर्म हैं उनसे दूर कर लेता है । [सो पडिक्कमणं] वह पुरुष ही अभेद-नय से निश्चय-प्रतिक्रमण होता है । तथा [णियत्तदे जो] अनन्त-ज्ञानादि स्वरूप जो आत्म-द्रव्य, उसका समीचीन श्रद्धान, ज्ञान और अनुभव स्वरूप अभेद-रत्नत्रय ही है लक्षण जिसका, ऐसे परम सामायिक में स्थित होकर आत्मा को बचा लेता है ।

प्रश्न – किससे बचा लेता है ?

उत्तर – [कम्मं जं सुहमसुहं जम्हि य भावम्हि बज्झदि भविस्सं तत्ते] शुभ और अशुभ-रूप अनेक प्रकार के फैलाव में फैला हुआ भविष्यत-कालीन कर्म जिस मिथ्यात्व या रागादि-रूप परिणाम के होने पर बनाता है उस परिणाम से बचा लेता है, दूर कर रखता है । [सो पच्चक्खाणं हवे चेदा] इस प्रकार के गुणवाला वह तपोधन ही अभेद-नय से निश्चय-रूप प्रत्याख्यान होता है ऐसा जानना चाहिये । तथा [जो चेददि] सदा बना रहने वाला जो आनन्द, वही है एक स्वभाव जिसका ऐसे शुद्धात्मा के समीचीन श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान रूप जो अभेद-रत्नत्रय-वाले एवं सुख और दु:ख तथा जीवन और मरण आदि के विषय में समभाव रखने वाले, सब ओर उपेक्षा रखने वाले, संयम में स्थित होकर वेदता है, अनुभव करता है जानता है । क्या जानता है ? कि [जं तं] जो कोई कर्म है वह [दोसं] मेरा किया हुआ दोष है, किंतु वह मेरा स्वरूप नहीं है ।

प्रश्न – वह कौन सा कर्म ?

उत्तर – [उदिण्णं] जो कि उदय में आ रहा है ।

प्रश्न – फिर वह कैसा है ?

उत्तर – कि [सुहमसुहं] शुभ और अशुभ-रूप है ।

प्रश्न – फिर वह कैसा है

उत्तर – कि [अणेयवित्थरविसेसं] मूल और उत्तर प्रकृति के भेद से अनेक प्रकार के फैलाव में फैला हुआ है । [संपडि य] जो कि वर्तमान-काल में स्पष्ट हो रहा है [सो आलोयणं चेदा] सो वह उपर्युक्त प्रकार से जानने वाला आत्मा ही अभेद-नय से आलोचना रूप होता है ऐसा जानना चाहिये । [णिच्चं पच्चक्खाणं कुव्वदि णिच्चं पडिक्कमदि जो य णिच्चं आलोचेयदि] निश्चय-रत्नत्रय है लक्षण जिसका, ऐसा जो शुद्धात्मा का स्वरूप है उसमें स्थित होकर जो जीव उपर्युक्त निश्चय-प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण और आलोचना रूप अनुष्ठान, नित्य ही सदा काल करता रहता है, [सो दु चरित्तं हवदि चेदा] वह सचेतन पुरुष ही अभेद-नय निश्चय-चारित्र होता है क्योंकि शुद्धात्मा के स्वरूप में चरण करना तल्लीन होना सो चारित्र है, इस प्रकार का आर्ष-वचन है ।

इस प्रकार निश्चय-प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना और चारित्र के व्याख्यान रूप से इस आठवें स्थल में चार गाथाय पूर्ण हुईं ॥३९७-४००॥

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+ इन्द्रियों और मन के विषयों में रमणता -- मिथ्याज्ञान -
णिंदिदसंथुदवयणाणि पोग्गला परिणमंति बहुगाणि । (373)
ताणि सुणिदूय रूसदि तूसदि य पुणो अहं भणिदो ॥401॥
पोग्गलदव्वं सद्दत्तपरिणदं तस्स जदि गुणो अण्णो । (374)
तम्हा ण तुमं भणिदो किंचि वि किं रूससि अबुद्धो ॥402॥
असुहो सुहो व सद्दो ण तं भणदि सुणसु मं ति सो चेव । (375)
ण य एदि विणिग्गहिदुं सोदविसयमागदं सद्दं ॥403॥
असुहं सुहं व रूवं ण तं भणदि पेच्छ मं ति सो चेव । (376)
ण य एदि विणिग्गहिदुं चक्खुविसयमागदं रूवं ॥404॥
असुहो सुहो व गंधो ण तं भणदि जिग्घ मं ति सो चेव । (377)
ण य एदि विणिग्गहिदुं घाणविसयमागदं गंधं ॥405॥
असुहो सुहो व रसो ण तं भणदि रसय मं ति सो चेव । (378)
ण य एदि विणिग्गहिदुं रसणविसयमागदं तु रसं ॥406॥
असुहो सुहो व फासो ण तं भणदि फुससु मं ति सो चेव । (379)
ण य एदि विणिग्गहिदुं कायविसयमागदं फासं ॥407॥
असुहो सुहो व गुणो ण तं भणदि बुज्झ मं ति सो चेव । (380)
ण य एदि विणिग्गहिदुं बुद्धिविसयमागदं तु गुणं ॥408॥
असुहं सुहं व दव्वं ण तं भणदि बुज्झ मं ति सो चेव । (381)
ण य एदि विणिग्गहिदुं बुद्धिविसयमागदं दव्वं ॥409॥
एयं तु जाणिऊणं उवसमं णेव गच्छदे मूढो । (382)
णिग्गहमणा परस्स य सयं च बुद्धिं सिवमपत्ते ॥410॥
निंदितसंस्तुतवचनानि पुद्गला: परिणमंति बहुकानि ।
तानि श्रुत्वा रुष्यति तुष्यति च पुनरहं भणित: ॥३७३॥
पुद्गलद्रव्यं शब्दत्वपरिणतं तस्य यदि गुणोऽन्य: ।
तस्मान्न त्वं भणित: किंचिदपि किं रुष्यस्यबुद्ध: ॥३७४॥
अशुभ: शुभो वा शब्दो न त्वां भणति शृणु मामिति स एव ।
न चैति विनिर्ग्रहीतुं श्रोत्रविषयमागतं शब्दम् ॥३७५॥
अशुभं शुभं वा रूपं न त्वां भणति पश्य मामिति स एव ।
न चैति विनिर्ग्रहीतुं चक्षुर्विषयमागतं रूपम् ॥३७६॥
अशुभ: शुभो वा गंधो न त्वां भणति जिघ्र मामिति स एव ।
न चैति विनिर्ग्रहीतुं घ्राणविषयमागतं गन्धम् ॥३७७॥
अशुभ: शुभो वा रसो न त्वां भणति रसय मामिति स एव ।
न चैति विनिर्ग्रहीतुं रसनविषयमागतं तु रसम् ॥३७८॥
अशुभ: शुभो वा स्पर्शो न त्वां भणति स्पृश मामिति स एव ।
न चैति विनिर्ग्रहीतुं कायविषयमागतं स्पर्श् ॥३७९॥
अशुभ: शुभो वा गुणो न त्वां भणति बुध्यस्व मामिति स एव ।
न चैति विनिर्ग्रहीतुं बुद्धिविषयमागतं तु गुणम् ॥३८०॥
अशुभं शुभं वा द्रव्यं न त्वां भणति बुध्यस्व मामिति स एव ।
न चैति विनिर्ग्रहीतुं बुद्धिविषयमागतं द्रव्यम् ॥३८१॥
एतत्तु ज्ञात्वा उपशमं नैव गच्छति मूढ: ।
विनिर्ग्रहमना: परस्य च स्वयं च बुद्धिं शिवामप्राप्त: ॥३८२॥
स्तवन निन्दा रूप परिणत पुद्गलों को श्रवण कर ।
मुझको कहे यह मान तोष-रु-रोष अज्ञानी करें ॥३७३॥
शब्दत्व में परिणमित पुद्गल द्रव्य का गुण अन्य है ।
इसलिए तुम से ना कहा तुष-रुष्ट होते अबुध क्यों ?॥३७४॥
शुभ या अुशभ ये शब्द तुझसे ना कहें कि हमें सुन ।
अर आतमा भी कर्णगत शब्दों के पीछे ना भगे ॥३७५॥
शुभ या अशुभ यह रूप तुझसे ना कहे कि हमें लख ।
यह आतमा भी चक्षुगत वर्णों के पीछे ना भगे ॥३७६॥
शुभ या अशुभ यह गंध तुम सूँघो मुझे यह ना कहे ।
यह आतमा भी घ्राणगत गंधों के पीछे ना भगे ॥३७७॥
शुभ या अशुभ यह सरस रस यह ना कहे कि हमें चख ।
यह आतमा भी जीभगत स्वादों के पीछे ना भगे ॥३७८॥
शुभ या अशुभ स्पर्श तुझसे ना कहें कि हमें छू ।
यह आतमा भी कायगत स्पर्शों के पीछे ना भगे ॥३७९॥
शुभ या अशुभ गुण ना कहें तुम हमें जानो आत्मन् ।
यह आतमा भी बुद्धिगत सुगुणों के पीछे ना भगे ॥३८०॥
शुभ या अशुभ द्रव्य ना कहें तुम हमें जानो आत्मन् ।
यह आतमा भी बुद्धिगत द्रव्यों के पीछे ना भगे ॥३८१॥
यह जानकर भी मूढ़जन ना ग्रहें उपशमभाव को ।
मंगलमती को ना ग्रहें पर के ग्रहण का मन करें ॥३८२॥
अन्वयार्थ : [पोग्गला] पुद्गल [बहुगाणि] बहुत प्रकार के [णिंदिदसंथुदवयणाणि] निन्दा और स्तुति वचनों रूप [परिणमंति] परिणमता है [ताणि सुणिदूय] उन्हें सुनकर [पुणो अहं भणिदो] 'मुझसे कहे' ऐसा मानकर फिर [रूसदि तूसदि य] रुष्ट (नाराज) और तुष्ट (प्रसन्न) होता है । [सद्दत्तपरिणदं] शब्द-रूप परिणमित [पोग्गलदव्वं] पुद्गल-द्रव्य और [तस्स जदि गुणो अण्णो] उसके गुण यदि अन्य (तुझसे भिन्न) हैं [तम्हा ण तुमं भणिदो किंचि वि] तो तुझसे तो कुछ भी नहीं कहा गया, [किं रूससि अबुद्धो] अज्ञानी तू रोष क्यों करता है ?
[असुहो सुहो व सद्दो] शुभ या अशुभ शब्द [ण तं भणदि] तुझसे नहीं कहते कि [सुणसु मं] तू मुझे सुन और [सोदविसयमागदं सद्दं] कर्ण इन्द्रिय के विषय में आये हुए शब्दों द्वारा [ति सो चेव ण य एदि विणिग्गहिदुं] तू (आत्मा) भी खिंचकर (अपने स्थान से च्युत होकर, जबरदस्ती) उन्हें ग्रहण नहीं करता ।
[असुहं सुहं व रूवं] शुभ या अशुभ रूप [ण तं भणदि] तुझसे नहीं कहते कि [पेच्छ मं] तू मुझे देख और [चक्खुविसयमागदं रूवं] चक्षु इन्द्रिय के विषय में आये हुए रूप द्वारा [ति सो चेव ण य एदि विणिग्गहिदुं] तू (आत्मा) भी खिंचकर (अपने स्थान से च्युत होकर, जबरदस्ती) उन्हें ग्रहण नहीं करता ।
[असुहो सुहो व गंधो] शुभ या अशुभ गन्ध [ण तं भणदि] तुझसे नहीं कहते कि [जिग्घ मं] तू मुझे सूँघ और [घाणविसयमागदं गंधं] घ्राण इन्द्रिय के विषय में आये हुए गन्ध द्वारा [ति सो चेव ण य एदि विणिग्गहिदुं] तू (आत्मा) भी खिंचकर (अपने स्थान से च्युत होकर, जबरदस्ती) उन्हें ग्रहण नहीं करता ।
[असुहो सुहो व रसो] शुभ या अशुभ रस [ण तं भणदि] तुझसे नहीं कहते कि [रसय मं] तू मेरा रस ले और [रसणविसयमागदं तु रसं] रसना इन्द्रिय के विषय में आये हुए रस द्वारा [ति सो चेव ण य एदि विणिग्गहिदुं] तू (आत्मा) भी खिंचकर (अपने स्थान से च्युत होकर, जबरदस्ती) उन्हें ग्रहण नहीं करता ।
[असुहो सुहो व फासो] शुभ या अशुभ स्पर्श [ण तं भणदि] तुझसे नहीं कहते कि [फुससु मं] तू मुझे स्पर्श कर और [कायविसयमागदं फासं] स्पर्श इन्द्रिय के विषय में आये हुए स्पर्श द्वारा [ति सो चेव ण य एदि विणिग्गहिदुं] तू (आत्मा) भी खिंचकर (अपने स्थान से च्युत होकर, जबरदस्ती) उन्हें ग्रहण नहीं करता ।
[असुहो सुहो व गुणो] शुभ या अशुभ गुण [ण तं भणदि] तुझसे नहीं कहते कि [बुज्झ मं] तू मुझे जान और [बुद्धिविसयमागदं तु गुणं] बुद्धि के विषय में आये हुए गुणों द्वारा [ति सो चेव ण य एदि विणिग्गहिदुं] तू (आत्मा) भी खिंचकर (अपने स्थान से च्युत होकर, जबरदस्ती) उन्हें ग्रहण नहीं करता ।
[असुहो सुहो व दव्वं] शुभ या अशुभ द्रव्य [ण तं भणदि] तुझसे नहीं कहते कि [बुज्झ मं] तू मुझे जान और [बुद्धिविसयमागदं दव्वं] बुद्धि के विषय में आये हुए द्रव्यों द्वारा [ति सो चेव ण य एदि विणिग्गहिदुं] तू (आत्मा) भी खिंचकर (अपने स्थान से च्युत होकर, जबरदस्ती) उन्हें ग्रहण नहीं करता ।
[एयं तु जाणिऊणं] ऐसा जानकर भी [मूढो] मूढ़ (जीव) [उवसमं णेव गच्छदे] उपशम-भाव को प्राप्त नहीं होता और [बुद्धिं सिवमपत्ते] कल्याणकारी बुद्धि (सम्यग्ज्ञान / बोध) को प्राप्त नहीं होता [च] और [य सयं] स्वयं [णिग्गहमणा परस्स] पर-पदार्थों को ग्रहण करने का मन करता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
आगे कहते हैं कि मिथ्या-ज्ञान में परिणमन करता हुआ यह जीव पंचेन्द्रिय और मन के विषयों में राग और द्वेष करता है --

जिसप्रकार इस जगत में देवदत्त नामक पुरुष यज्ञदत्त नामक पुरुष को हाथ पकड़कर किसी कार्य में लगाता है; उसप्रकार घट-पटादि बाह्य पदार्थ दीपक को स्व-प्रकाशन (बाह्य पदार्थों को प्रकाशित करने के कार्य) में नहीं लगाते अर्थात् ऐसा नहीं कहते कि तू हमें प्रकाशित कर और दीपक भी चुम्बक से खींची गई लोहे की सुई के समान अपने स्थान से च्युत होकर घट-पटादि बाह्य-पदार्थों को प्रकाशित करने नहीं जाता; परन्तु न तो वस्तु-स्वभाव दूसरों से उत्पन्न किया जा सकता है और न दूसरों को उत्पन्न ही कर सकता है; इसलिए जिसप्रकार दीपक बाह्य पदार्थों के समीप न होने पर भी उन्हें अपने स्वरूप से ही प्रकाशता है; उसीप्रकार बाह्य-पदार्थों की समीपता में भी उन्हें अपने स्वरूप से ही प्रकाशता है ।

इसीप्रकार वस्तुस्वभाव से ही विभिन्न परिणति को प्राप्त होते हुए मनोहर और अमनोहर घट-पटादि बाह्य-पदार्थों को अपने स्वरूप से प्रकाशित करते हुए दीपक में वे बाह्य पदार्थ किंचित्मात्र भी विक्रिया उत्पन्न नहीं करते । अब इसी बात को दार्ष्टान्त पर घटित करते हैं --

जिसप्रकार देवदत्त यज्ञदत्त नामक पुरुष को हाथ पकड़कर किसी कार्य में लगाता है; उसप्रकार शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श तथा गुण और द्रव्य-रूप बाह्य पदार्थ आत्मा को स्वज्ञान में (बाह्य-पदार्थों को जानने के कार्य में) नहीं लगाते अर्थात् बाह्य-पदार्थ आत्मा से ऐसा नहीं कहते कि तू हमें सुन, देख, सूँघ, चख, छू और जान और आत्मा भी चुम्बक से खींची गई लोहे की सुई के समान अपने स्थान से च्युत होकर उन बाह्य पदार्थों को जानने नहीं जाता; परन्तु न तो वस्तु-स्वभाव दूसरों से उत्पन्न किया जा सकता है और न दूसरों को उत्पन्न ही कर सकता है; इसलिए जिसप्रकार आत्मा बाह्य-पदार्थों के समीप न होने पर भी उन्हें अपने स्वरूप से ही जानता है; उसीप्रकार बाह्य-पदार्थों की समीपता में भी उन्हें अपने स्वरूप से ही जानता है । इसप्रकार वस्तु-स्वभाव से ही विभिन्न परिणति को प्राप्त होते हुए मनोहर और अमनोहर घट-पटादि बाह्य-पदार्थों को अपने स्वरूप से ही जानते हुए आत्मा में वे बाह्य-पदार्थ किंचित्मात्र भी विक्रिया उत्पन्न नहीं करते ।

इसप्रकार दीपक की भाँति आत्मा भी पर के प्रति उदासीन ही है । यद्यपि ऐसी वस्तु-स्थिति सदा ही रहती है; तथापि जो राग-द्वेष होता है, वह अज्ञान ही है, अज्ञान का ही फल है ।

(कलश--रोला)
जैसे दीपक दीप्य वस्तुओं से अप्रभावित ।
वैसे ही ज्ञायक ज्ञेयों से विकृत ना हो ॥
फिर भी अज्ञानीजन क्यों असहज होते हैं ।
ना जाने क्यों व्याकुल हो विचलित होते हैं ॥२२२॥

[पूर्ण-एक-अच्युत-शुद्ध-बोध-महिमा अयं बोधो] पूर्ण, एक, अच्युत और (निर्विकार) ज्ञान जिसकी महिमा है ऐसा यह ज्ञायक आत्मा [ततः इतः बोध्यात्] उन(असमीपवर्ती) या इन (समीपवर्ती) ज्ञेय पदार्थों से [काम् अपि विक्रियां न यायात्] किंचित् मात्र भी विक्रिया को प्राप्त नहीं होता, [दीपः प्रकाश्यात् इव] जैसे दीपक प्रकाश्य (प्रकाशित होनेयोग्य घटपटादि) पदार्थों से विक्रिया को प्राप्त नहीं होता। तब फिर [तद्-वस्तुस्थिति-बोध-वन्ध्य-धिषणाः एते अज्ञानिनः] जिनकी बुद्धि ऐसी वस्तु-स्थिति के ज्ञान से रहित है, ऐसे यह अज्ञानी जीव [किम् सहजाम् उदासीनताम् मुंचन्ति, रागद्वेषमयीभवन्ति] अपनी सहज उदासीनता को क्यों छोड़ते हैं तथा राग-द्वेषमय क्यों होते हैं ?

(कलश--रोला)
राग-द्वेष से रहित भूत-भावी कर्मों से ।
मुक्त स्वयं को वे नित ही अनुभव करते हैं ॥
और स्वयं में रत रह ज्ञानमयी चेतनता ।
को धारण कर निज में नित्य मगन रहते हैं ॥२२३॥

[राग-द्वेष-विभाव-मुक्त-महसः] जिनका तेज राग-द्वेषरूपी विभाव से रहित है, [नित्यं स्वभाव-स्पृशः] जो सदा (अपने चैतन्य चमत्कार-मात्र) स्वभाव को स्पर्श करनेवाले हैं, [पूर्व-आगामि-समस्त-कर्म-विकलाः] जो भूतकाल के तथा भविष्यकाल के समस्त कर्मों से रहित हैं और [तदात्व-उदयात् भिन्नाः] जो वर्तमान काल के कर्मोदय से भिन्न हैं, [दूर-आरूढ-चरित्र-वैभव-बलात् ज्ञानस्य सञ्चेतनाम् विन्दन्ति] वे (ऐसे ज्ञानी) अति प्रबल चारित्र के वैभव के बल से ज्ञान की संचेतना का अनुभव करते हैं [चंचत्-चिद्-अर्चिर्मयीं] जो ज्ञान-चेतना चमकती हुई चैतन्य-ज्योतिमय है और [स्व-रस-अभिषिक्त-भुवनाम्] जिसने अपने (ज्ञानरूपी) रस से समस्त लोक को सींचा है ।

जयसेनाचार्य :
[रूसदि तूसदि य] इत्यादि -- एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय आदि की उत्तरोत्तर दुर्लभ-परम्परा उसके क्रम से भूतकालीन अर्थात् बीते हुए अनन्तकाल में देखे, सुने और अनुभव किये मिथ्यात्व और कषायादि-रूप विभाव-परिणाम, उसके वशवर्तीपने से जो अत्यन्त दुर्लभ हैं, और जो कथंचित् कालादि लब्धि के वश से मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों का और चारित्र-मोहनीय-कर्म वहाँ पर राग-द्वेष क्यों कर लेता है ? यह राग-द्वेष करना या उसे अच्छा-बुरा मान लेना ही तेरा अज्ञान-भाव है । हाँ, पूर्वोक्त व्यवहार कारण-समयसार और निश्चय कारण-समयसार को जानने वाला ज्ञानी होता है, वह वहाँ हर्ष-विषाद नहीं करता है -- यही तात्पर्य है । [एवं तु] इसप्रकार जानने योग्य पंचेंद्रियों के विषय भले और बुरे शब्दादि तथा मन के विषय जो पर के गुण और द्रव्य [जाणिदव्वस्स] उन मन और इन्दियों के विषय को जानकर भी मूढ़ अज्ञानी जीव [उवसमं णेव गच्छदे] उपशम-भाव को प्राप्त नहीं होता है, शान्त नहीं रहता है । किन्तु [णिग्गहमणा] वह तो अपने जानने में आये हुये [परस्स य] दूसरे के शब्दादि गुण या द्रव्य-रूप उन पंचेन्द्रिय और मन के विषय-भूत वस्तु का निग्रह करना चाहता है । क्योंकि [सयं च बुद्धिं सिवमपत्तो] स्वयं शुद्धात्मा के संवेदन स्वरूप निर्दोष बुद्धि को प्राप्त नहीं हो रहा है अर्थात 'शिव' शब्द के द्वारा कहे जाने योग्य वीतराग और सहज-परमानन्द स्वरूप सुख को नहीं पा रहा है ।

सारांश यह है कि जैसे चुम्बक-पाषाण से खैंची हुई लोह-श्लाका अपने स्थान से च्युत होकर चुम्बक-पाषाण के पास पहुँच जाती है, वैसे ही शब्दादि इस जीव के चित्त को विकृत बनाने के लिए जीव के पास नहीं जाया करते हैं तथा जीव भी उनके पास नहीं जाता है अपितु अपने स्थान में अपने ही रूप रहता है -- ऐसा वस्तु का स्वभाव है । फिर भी यह अज्ञानी जीव अपने उदासीन-भाव को छोड़ कर राग-द्वेष करने लगता है, यह इसका अज्ञान भाव है ।

इस पर कोई शंका करता है कि -- हे भगवन् ! आपने बंधाधिकार में तो यह बताया था कि

एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमदि रायमादीहिं ।
राइज्जदि आण्णेहिं दु सो रत्तोदिएहिं भावेहिं ।

अर्थात ज्ञानी जीव रागादिकों का करने वाला नहीं किन्तु रागादि-भाव तो पर-द्रव्य-जनित होते हैं । अब आप ही यहाँ कह रहे हैं कि रागादि-भाव इस आत्मा की अपनी ही बुद्धि के दोष से पैदा हुए हैं, इसमें दूसरों का (किन्हीं का भी) कोई दोष नहीं है, सो यह बात तो पूर्वा-पर विरुद्ध है ?

आचार्य देव इसका उत्तर देते हैं कि हे भाई ! वहाँ बंधाधिकार के व्याख्यान में ज्ञानी जीव की मुख्यता है सो ज्ञानी जीव तो रागादिरूप में परिणमन करता नहीं है, इसलिये वहाँ पर उनको पर-द्रव्य जनित बता आये हैं । किन्तु यहाँ पर तो अज्ञानी की मुख्यता है जो कि अज्ञानी जीव अपनी बुद्धि के दोष से पर-द्रव्य को निमित्त-मात्र लेकर रागादि के रूप परिणमन करता है इसलिये पर-वस्तु जो शब्दादि-रूप पंचेंद्रियों के विषय उनका कोई दोष नहीं है -- ऐसा कहा है, इसमें पूर्वापर विरोध नहीं है ।

इस प्रकार निश्चय और व्यवहार मोक्ष-मार्ग स्वरूप जो निश्चय कारण-समयसार और व्यवहार कारण-समयसार है उन दोनों को नहीं जानता हुआ अज्ञानी जीव अपनी ही बुद्धि के दोष से रागादि के रूप में परिणमन करता है । पर-पदार्थ-रूप जो शब्दादि हैं उनका इसमें कोई दोष नहीं है । इस प्रकार के व्याख्यान की मुख्यता से नवमें स्थान में दश गाथाएँ पूर्ण हुई ॥४०१-४१०॥

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+ अज्ञान-चेतना बंध का कारण -
वेदंतो कम्मफलं अप्पाणं कुणदि जो दु कम्मफलं । (387)
सो तं पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं ॥411॥
वेदंतो कम्मफलं मए कदं मुणदि जो दु कम्मफलं । (388)
सो तं पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं ॥412॥
वेदंतो कम्मफलं सुहिदो दुहिदो य हवदि जो चेदा । (389)
सो तं पुणो वि बंधदि बीयं दुक्खस्स अट्ठविहं ॥413॥
वेदयमान: कर्मफलमात्मानं करोति यस्तु कर्मफलम् ।
स तत्पुनरपि बध्नाति बीजं दु:खस्याष्टविधम् ॥३८७॥
वेदयमान: कर्मफलं मया कृतं जानाति यस्तु कर्मफलम् ।
स तत्पुनरपि बध्नाति बीजं दु:खस्याष्टविधम् ॥३८८॥
वेदयमान: कर्मफलं सुखितो दु:खितश्च भवति यश्चेतयिता ।
स तत्पुनरपि बध्नाति बीजं दु:खस्याष्टविधम् ॥३८९॥
जो कर्मफल को वेदते निजरूप मानें करमफल ।
हैं बाँधते वे जीव दु:ख के बीज वसुविध करम को ॥३८७॥
जो कर्मफल को वेदते मानें करमफल मैं किया ।
हैं बाँधते वे जीव दु:ख के बीज वसुविध करम को ॥३८८॥
जो कर्मफल को वेदते हों सुखी अथवा दु:खी हों ।
हैं बाँधते वे जीव दु:ख के बीज वसुविध करम को ॥३८९॥
अन्वयार्थ : [वेदंतो कम्मफलं] कर्म के फल को वेदता हुआ [जो दु] जो भी [कम्मफलं] कर्म के फल को [अप्पाणं कुणदि] निज-रूप (एकत्व-बुद्धि) करता है [सो तं पुणो वि] तो फिर वह [अट्ठविहं] आठ प्रकार के [दुक्खस्स बीयं] दु:ख के बीज (कर्मों) से [बंधदि] बंधता है ।
[वेदंतो कम्मफलं] कर्म के फल को वेदता हुआ [जो दु] जो भी [मए कदं मुणदि] मैंने (कर्म-फल) किया ऐसा मानता है [सो तं पुणो वि] तो फिर वह [अट्ठविहं] आठ प्रकार के [दुक्खस्स बीयं] दु:ख के बीज (कर्मों) से [बंधदि] बंधता है ।
[वेदंतो कम्मफलं] कर्म के फल को वेदता हुआ [जो चेदा] जो आत्मा [सुहिदो दुहिदो य] सुखी और दु:खी होता है [सो तं पुणो वि] तो फिर वह [अट्ठविहं] आठ प्रकार के [दुक्खस्स बीयं] दु:ख के बीज (कर्मों) से [बंधदि] बंधता है ।

अमृतचंद्राचार्य :
आगे कहते हैं कि मिथ्यात्व व रागादि परिणत जीव के अज्ञान-चेतना होती है, वह केवल-ज्ञानादि गुणों को प्रच्छादन करने वाले कर्म-बंध को पैदा करती है --

ज्ञान-स्वभावी अपने आत्मा से भिन्न भावों में इसप्रकार चेतना - सोचना, जानना-मानना कि 'ये मैं हूँ' अज्ञान-चेतना है ।

यह अज्ञान-चेतना दो प्रकार की होती है - इनमें ज्ञान (आत्मा) से अन्य भावों में यह समस्त अज्ञान-चेतना संसार की बीज है; क्योंकि संसार के बीजरूप जो ज्ञानावरणादि आठ कर्म हैं, यह अज्ञान-चेतना उनका बीज है । इसलिए मोक्षार्थी पुरुष को इस अज्ञान-चेतना के प्रलय के लिए, जड़-मूल से उखाड़ फेंकने के लिए सम्पूर्ण कर्मों से संन्यास की भावना को और सम्पूर्ण कर्म-फल से संन्यास की भावना को नचाकर, बारम्बार भाकर; स्वभावभूत भगवती ज्ञान-चेतना को ही सदा नचाना चाहिए, भाना चाहिए ।

(कलश--रोला)
भूत भविष्यत वर्तमान के सभी कर्म कृत ।
कारित अर अनुमोदनादि मैं सभी ओर से ॥
सबका कर परित्याग हृदय से, वचन-काय से ।
अवलम्बन लेता हूँ मैं निष्कर्मभाव का ॥२२५॥

[त्रिकालविषयं] त्रिकाल के (अर्थात् अतीत, वर्तमान और अनागत काल संबंधी) [सर्व कर्म] समस्त कर्म को [कृत-कारित-अनुमननैः] कृत-कारित-अनुमोदना से और [मनः-वचन-कायैः] मन-वचन-काय से [परिहृत्य] त्याग करके [परमं नैष्कर्म्यम्अवलम्बे] मैं परम नैष्कर्म्य का (उत्कृष्ट निष्कर्म अवस्था का) अवलम्बन करता हूँ ।

मन-वचन-काय आदि ७ भंगों में से प्रत्येक को कृत-कारित-अनुमोदनादि ७ भंगों पर घटित करने पर ४९ भंग हो जायेंगे । जैसे -

  1. मैंने पूर्व में मन-वचन-काय से जो दुष्कृत किया, कराया और अनुमोदन किया; वह मिथ्या हो ।
  2. मैंने पूर्व में मन-वचन-काय से जो दुष्कृत किया और कराया; वह मिथ्या हो ।
  3. मैंने पूर्व में मन-वचन-काय से जो दुष्कृत किया और अनुमोदन किया; वह मिथ्या हो ।
  4. मैंने पूर्व में मन-वचन-काय से जो दुष्कृत कराया और अनुमोदन किया; वह मिथ्या हो ।
  5. मैंने पूर्व में मन-वचन-काय से जो दुष्कृत किया; वह मिथ्या हो ।
  6. मैंने पूर्व में मन-वचन-काय से जो दुष्कृत कराया; वह मिथ्या हो ।
  7. मैंने पूर्व में मन-वचन-काय से जो दुष्कृत अनुमोदन किया; वह मिथ्या हो ।

जिसप्रकार मन-वचन-काय के ये ७ भंग बनते हैं; उसीप्रकार मन-वचन, मन-काय, वचन-काय तथा मन, वचन और काय - इनमें से प्रत्येक के सात-सात भंग बनेंगे; इसप्रकार ४९ भंग बन जायेंगे । ये ४९ भंग प्रतिक्रमण के हैं, इसीप्रकार ४९ भंग आलोचना के एवं ४९ भंग प्रत्याख्यान के बन जायेंगे ।

इसप्रकार इन १४७ भंगों का पृथक्-पृथक् उल्लेख करते हुए इनके त्याग की भावना बारम्बार भाना, दुहराना, नचाना ही कर्मचेतना के त्यागरूप ज्ञानचेतना का नृत्य है और १४८ कर्म-प्रकृतियों के फल के त्याग की भावना भाना, बारम्बार दुहराना ही कर्मफल के त्यागरूप ज्ञान-चेतना का नृत्य है ।

प्रश्न – प्रतिक्रमणकल्प, आलोचनाकल्प एवं प्रत्याख्यानकल्प के ४९-४९ भंग कौनकौन से हैं ?

उत्तर – आत्मख्याति टीका में इस कलश के उपरान्त ४९-४९ भंगों को इसप्रकार प्रस्तुत किया गया है -

प्रतिक्रमण करनेवाला कहता है --

  1. मैंने पूर्व में मन-वचन-काय से जो दुष्कृत किया, कराया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  2. मैंने पूर्व में मन-वचन से जो दुष्कृत किया, कराया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  3. मैंने पूर्व में मन-काय से जो दुष्कृत किया, कराया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  4. मैंने पूर्व में वचन-काय से जो दुष्कृत किया, कराया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  5. मैंने पूर्व में मन से जो दुष्कृत किया, कराया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  6. मैंने पूर्व में वचन से जो दुष्कृत किया, कराया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  7. मैंने पूर्व में काय से जो दुष्कृत किया, कराया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  8. मैंने पूर्व में मन-वचन-काय से जो दुष्कृत किया, कराया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  9. मैंने पूर्व में मन-वचन-काय से जो दुष्कृत किया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  10. मैंने पूर्व में मन-वचन-काय से जो दुष्कृत कराया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  11. मैंने पूर्व में मन-वचन से जो दुष्कृत किया, कराया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  12. मैंने पूर्व में मन-वचन से जो दुष्कृत किया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  13. मैंने पूर्व में मन-वचन से जो दुष्कृत कराया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  14. मैंने पूर्व में मन-काय से जो दुष्कृत किया और कराया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  15. मैंने पूर्व में मन-काय से जो दुष्कृत किया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  16. मैंने पूर्व में मन-काय से जो दुष्कृत कराया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  17. मैंने पूर्व में वचन-काय से जो दुष्कृत किया और कराया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  18. मैंने पूर्व में वचन-काय से जो दुष्कृत किया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  19. मैंने पूर्व में वचन-काय से जो दुष्कृत कराया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  20. मैंने पूर्व में मन से जो दुष्कृत किया और कराया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  21. मैंने पूर्व में मन से जो दुष्कृत किया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  22. मैंने पूर्व में मन से जो दुष्कृत कराया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  23. मैंने पूर्व में वचन से जो दुष्कृत किया और कराया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  24. मैंने पूर्व में वचन से जो दुष्कृत किया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  25. मैंने पूर्व में वचन से जो दुष्कृत कराया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  26. मैंने पूर्व में काय से जो दुष्कृत किया और कराया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  27. मैंने पूर्व में काय से जो दुष्कृत किया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  28. मैंने पूर्व में काय से जो दुष्कृत कराया और अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  29. मैंने पूर्व में मन-वचन-काय से जो दुष्कृत किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  30. मैंने पूर्व में मन-वचन-काय से जो दुष्कृत कराया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  31. मैंने पूर्व में मन-वचन-काय से जिस दुष्कृत का अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  32. मैंने पूर्व में मन-वचन से जो दुष्कृत किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  33. मैंने पूर्व में मन-वचन से जो दुष्कृत कराया; वह दुष्कृत्य मिथ्या हो ।
  34. मैंने पूर्व में मन-वचन से जिस दुष्कृत का अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  35. मैंने पूर्व में मन-काय से जो दुष्कृत किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  36. मैंने पूर्व में मन-काय से जो दुष्कृत कराया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  37. मैंने पूर्व में मन-काय से जिस दुष्कृत का अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  38. मैंने पूर्व में वचन-काय से जो दुष्कृत किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  39. मैंने पूर्व में वचन-काय से जो दुष्कृत कराया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  40. मैंने पूर्व में वचन-काय से जिस दुष्कृत का अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  41. मैंने पूर्व में मन से जो दुष्कृत किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  42. मैंने पूर्व में मन से जो दुष्कृत कराया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  43. मैंने पूर्व में मन से जिस दुष्कृत का अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  44. मैंने पूर्व में वचन से जो दुष्कृत किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  45. मैंने पूर्व में वचन से जो दुष्कृत कराया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  46. मैंने पूर्व में वचन से जिस दुष्कृत का अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  47. मैंने पूर्व में काय से जो दुष्कृत किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  48. मैंने पूर्व में काय से जो दुष्कृत कराया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
  49. मैंने पूर्व में काय से जिस दुष्कृत का अनुमोदन किया; वह दुष्कृत मिथ्या हो ।

(कलश--रोला)
मोहभाव से भूतकाल में कर्म किये जो ।
उन सबका ही प्रतिक्रमण करके अब मैं तो ॥
वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के ।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ॥२२६॥

[यद् अहम् मोहात् अकार्षम्] मैंने जो मोह से अथवा अज्ञान से (भूतकाल में) कर्म किये हैं, [तत् समस्तम् अपि कर्म प्रतिक्रम्य] उन समस्त कर्मों का प्रतिक्रमण करके [निष्कर्मणि चैतन्य-आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते] मैं निष्कर्म (अर्थात् समस्त कर्मो सें रहित) चैतन्य-स्वरूप आत्मा में आत्मा से ही (निज से ही) निरन्तर वर्त रहा हूँ ।

इसप्रकार प्रतिक्रमणकल्प समाप्त हुआ ।

  1. मैं वर्तमान में मन-वचन-काय से कर्म न तो करता हूँ, न कराता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  2. मैं वर्तमान में मन-वचन से कर्म न तो करता हूँ, न कराता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  3. मैं वर्तमान में मन-काय से कर्म न तो करता हूँ, न कराता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  4. मैं वर्तमान में वचन-काय से कर्म न तो करता हूँ, न कराता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  5. मैं वर्तमान में मन से कर्म न तो करता हूँ, न कराता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  6. मैं वर्तमान में वचन से कर्म न तो करता हूँ, न कराता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  7. मैं वर्तमान में काय से कर्म न तो करता हूँ, न कराता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  8. मैं वर्तमान में मन-वचन-काय से कर्म न तो करता हूँ, न कराता हूँ ।
  9. मैं वर्तमान में मन-वचन-काय से कर्म न तो करता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  10. मैं वर्तमान में मन-वचन-काय से कर्म न तो कराता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  11. मैं वर्तमान में मन-वचन से कर्म न तो करता हूँ, न कराता हूँ ।
  12. मैं वर्तमान में मन-वचन से कर्म न तो करता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  13. मैं वर्तमान में मन-वचन से कर्म न कराता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  14. मैं वर्तमान में मन व काय से कर्म न तो करता हूँ, न कराता हूँ ।
  15. मैं वर्तमान में मन व काय से कर्म न तो करता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  16. मैं वर्तमान में मन व काय से कर्म न कराता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  17. मैं वर्तमान में वचन व काय से कर्म न तो करता हूँ, न कराता हूँ ।
  18. मैं वर्तमान में वचन व काय से कर्म न तो करता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  19. मैं वर्तमान में वचन व काय से कर्म न तो कराता हूँ और अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  20. मैं वर्तमान में मन से कर्म न तो करता हूँ, न कराता हूँ ।
  21. मैं वर्तमान में मन से कर्म न तो करता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  22. मैं वर्तमान में मन से कर्म न कराता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  23. मैं वर्तमान में वचन से कर्म न तो करता हूँ, न कराता हूँ ।
  24. मैं वर्तमान में वचन से कर्म न तो कराता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  25. मैं वर्तमान में वचन से कर्म न कराता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  26. मैं वर्तमान में काय से कर्म न तो करता हूँ, न कराता हूँ ।
  27. मैं वर्तमान में काय से कर्म न तो करता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  28. मैं वर्तमान में काय से कर्म न कराता हूँ और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करता हूँ ।
  29. मैं वर्तमान में मन-वचन-काय से कर्म नहीं करता हूँ ।
  30. मैं वर्तमान में मन-वचन-काय से कर्म नहीं कराता हूँ ।
  31. मैं वर्तमान में मन-वचन-काय से अन्य के करते हुए कर्म का अनुमोदन नहीं करता हूँ ।
  32. मैं वर्तमान में मन-वचन से कर्म नहीं करता हूँ ।
  33. मैं वर्तमान में मन-वचन से कर्म नहीं कराता हूँ ।
  34. मैं वर्तमान में मन-वचन से अन्य के करते हुए कर्म का अनुमोदन नहीं करता हूँ ।
  35. मैं वर्तमान में मन-काय से कर्म नहीं करता हूँ ।
  36. मैं वर्तमान में मन-काय से कर्म नहीं कराता हूँ ।
  37. मैं वर्तमान में मन-काय से अन्य के करते हुए कर्म का अनुमोदन नहीं करता हूँ ।
  38. मैं वर्तमान में वचन-काय से कर्म नहीं करता हूँ ।
  39. मैं वर्तमान में वचन-काय से कर्म नहीं कराता हूँ ।
  40. मैं वर्तमान में वचन-काय से अन्य के करते हुए कर्म का अनुमोदन नहीं करता हूँ ।
  41. मैं वर्तमान में मन से कर्म नहीं करता हूँ ।
  42. मैं वर्तमान में मन से कर्म नहीं कराता हूँ ।
  43. मैं वर्तमान में मन से अन्य के करते हुए का अनुमोदन नहीं करता हूँ ।
  44. मैं वर्तमान में वचन से कर्म नहीं करता हूँ ।
  45. मैं वर्तमान में वचन से कर्म नहीं कराता हूँ ।
  46. मैं वर्तमान में वचन से अन्य के करते हुए कर्म का अनुमोदन नहीं करता हूँ ।
  47. मैं वर्तमान में काय से कर्म नहीं करता हूँ ।
  48. मैं वर्तमान में काय से कर्म नहीं कराता हूँ ।
  49. मैं वर्तमान में काय से अन्य के करते हुए कर्म का अनुमोदन नहीं करता हूँ ।

(कलश--रोला)
मोहभाव से वर्तमान में कर्म किये जो ।
उन सबका आलोचन करके ही अब मैं तो ॥
वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के ।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ॥२२७॥

[मोह-विलास-विजृम्भितम् इदम् उदयत् कर्म] मोह के विलास से फैला हुआ जो यह उदयमान (उदय में आता हुआ) कर्म [सकलम् आलोच्य] उस सब की आलोचना करके (उन सर्व कर्मों की आलोचना करके) [निष्कर्मणि चैतन्य-आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते] मैं निष्कर्म (अर्थात् सर्व कर्मों से रहित) चैतन्य-स्वरूप आत्मा में आत्मासे ही निरन्तर वर्त रहा हूँ ।

इसप्रकार आलोचनाकल्प समाप्त हुआ ।

  1. मैं भविष्य में मन-वचन-काय से कर्म न तो करूँगा, न कराऊँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  2. मैं भविष्य में मन-वचन से कर्म न तो करूँगा, न कराऊँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  3. मैं भविष्य में मन-काय से कर्म न तो करूँगा, न कराऊँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  4. मैं भविष्य में वचन-काय से कर्म न तो करूँगा, न कराऊँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  5. मैं भविष्य में मन से कर्म न तो करूँगा, न कराऊँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  6. मैं भविष्य में वचन से कर्म न तो करूँगा, न कराऊँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  7. मैं भविष्य में काय से कर्म न तो करूँगा, न कराऊँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  8. मैं भविष्य में मन-वचन-काय से कर्म न तो करूँगा और न कराऊँगा ।
  9. मैं भविष्य में मन-वचन-काय से कर्म न तो करूँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  10. मैं भविष्य में मन-वचन-काय से कर्म न तो कराऊँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  11. मैं भविष्य में मन-वचन से कर्म न तो करूँगा और न कराऊँगा ।
  12. मैं भविष्य में मन-वचन से कर्म न तो करूँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  13. मैं भविष्य में मन-वचन से कर्म न तो कराऊँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  14. मैं भविष्य में मन-काय से कर्म न तो करूँगा और न कराऊँगा ।
  15. मैं भविष्य में मन-काय से कर्म न तो करूँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  16. मैं भविष्य में मन-काय से कर्म न तो कराऊँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  17. मैं भविष्य में वचन-काय से कर्म न तो करूँगा और न कराऊँगा ।
  18. मैं भविष्य में वचन-काय से कर्म न तो करूँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  19. मैं भविष्य में वचन-काय से कर्म न तो कराऊँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  20. मैं भविष्य में मन से कर्म न तो करूँगा और न कराऊँगा ।
  21. मैं भविष्य में मन से कर्म न तो करूँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  22. मैं भविष्य में मन से कर्म न तो कराऊँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  23. मैं भविष्य में वचन से कर्म न तो करूँगा और न कराऊँगा ।
  24. मैं भविष्य में वचन से कर्म न तो करूँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  25. मैं भविष्य में वचन से कर्म न तो कराऊँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  26. मैं भविष्य में काय से कर्म न तो करूँगा और न कराऊँगा ।
  27. मैं भविष्य में काय से कर्म न तो करूँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  28. मैं भविष्य में काय से कर्म न तो कराऊँगा और न अन्य करते हुए का अनुमोदन करूँगा ।
  29. मैं भविष्य में मन-वचन-काय से कर्म नहीं करूँगा ।
  30. मैं भविष्य में मन-वचन-काय से कर्म नहीं कराऊँगा ।
  31. मैं भविष्य में मन-वचन-काय से अन्य करते हुए कर्म का अनुमोदन नहीं करूँगा ।
  32. मैं भविष्य में मन-वचन से कर्म नहीं करूँगा ।
  33. मैं भविष्य में मन-वचन से कर्म नहीं कराऊँगा ।
  34. मैं भविष्य में मन-वचन से अन्य करते हुए कर्म का अनुमोदन नहीं करूँगा ।
  35. मैं भविष्य में मन-काय से कर्म नहीं करूँगा ।
  36. मैं भविष्य में मन-काय से कर्म नहीं कराऊँगा ।
  37. मैं भविष्य में मन-काय से अन्य करते हुए कर्म का अनुमोदन नहीं करूँगा ।
  38. मैं भविष्य में वचन-काय से कर्म नहीं करूँगा ।
  39. मैं भविष्य में वचन-काय से कर्म नहीं कराऊँगा ।
  40. मैं भविष्य में वचन-काय से अन्य करते हुए कर्म का अनुमोदन नहीं करूँगा ।
  41. मैं भविष्य में मन से कर्म नहीं करूँगा ।
  42. मैं भविष्य में मन से कर्म नहीं कराऊँगा ।
  43. मैं भविष्य में मन से अन्य करते हुए कर्म का अनुमोदन नहीं करूँगा ।
  44. मैं भविष्य में वचन से कर्म नहीं करूँगा ।
  45. मैं भविष्य में वचन से कर्म नहीं कराऊँगा ।
  46. मैं भविष्य में वचन से अन्य करते हुए कर्म का अनुमोदन नहीं करूँगा ।
  47. मैं भविष्य में काय से कर्म नहीं करूँगा ।
  48. मैं भविष्य में काय से कर्म नहीं कराऊँगा ।
  49. मैं भविष्य में काय से अन्य करते हुए कर्म का अनुमोदन नहीं करूँगा ।

(कलश--रोला)
नष्ट हो गया मोहभाव जिसका ऐसा मैं ।
करके प्रत्याख्यान भाविकर्मों का अब तो ॥
वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के ।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ॥२२८॥

[भविष्यत् समस्तं कर्मप्रत्याख्याय] भविष्य के समस्त कर्मों का प्रत्याख्यान (त्याग) करके, [निरस्त-सम्मोहः निष्कर्मणिचैतन्य-आत्मनि आत्मनि आत्मना नित्यम् वर्ते] जिसका मोह नष्ट हो गया है ऐसा मैं निष्कर्म (अर्थात् समस्त कर्मो से रहित) चैतन्य-स्वरूप आत्मा में आत्मा से ही (अपने से ही) निरन्तर वर्त रहा हूँ ।

(कलश--रोला)
तीन काल के सब कर्मों को छोड़ इसतरह ।
परमशुद्धनिश्चयनय का अवलम्बन लेकर ॥
निर्मोही हो वर्त रहा हूँ स्वयं स्वयं के ।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ॥२२९॥

[इति एवम्] पूर्वोक्त प्रकार से [त्रैकालिकं समस्तम् कर्म] तीनों-काल के समस्त कर्मों को [अपास्य] दूर करके (छोड़कर),[शुद्धनय-अवलंबी] शुद्धनयावलंबी (अर्थात् शुद्धनय का अवलंबन करनेवाला) और [विलीन-मोहः] विलीन मोह (जिसका मोह नष्ट हो गया है) ऐसा मैं [अथ] अब [विकारैः रहितं चिन्मात्रम् आत्मानम्] (सर्व) विकारों से रहित चैतन्यमात्र आत्मा का [अवलम्बे] अवलम्बन करता हूँ ।

अब, समस्त कर्म-फल संन्यास की भावना को नचाते हैं :-

(कलश--रोला)
कर्म वृक्ष के विषफल मेरे बिन भोगे ही ।
खिर जायें बस यही भावना भाता हूँ मैं ॥
क्योंकि मैं तो वर्त रहा हूँ स्वयं स्वयं के ।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ॥२३०॥

[कर्म-विष-तरु-फलानि] कर्मरूपी विषवृक्ष के फल [मम भुक्तिम् अन्तरेण एव] मेरे द्वारा भोगे बिना ही, [विगलन्तु] खिर जायें; [अहम् चैतन्य-आत्मानम् आत्मानम् अचलं सञ्चेतये] मैं (अपने) चैतन्य-स्वरूप आत्मा का निश्चलतया संचेतन (अनुभव) करता हूँ ।

  1. मैं मतिज्ञानावरणी कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  2. मैं श्रुतज्ञानावरणी कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  3. मैं अवधिज्ञानावरणी कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  4. मैं मन:पर्ययज्ञानावरणी कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  5. मैं केवलज्ञानावरणी कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  6. मैं चक्षुर्दर्शनावरणी कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  7. मैं अचक्षुर्दर्शनावरणी कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  8. मैं अवधिदर्शनावरणी कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  9. मैं केवलदर्शनावरणी कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  10. मैं निद्रादर्शनावरणी कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  11. मैं निद्रानिद्रादर्शनावरणी कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  12. मैं प्रचलादर्शनावरणी कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  13. मैं प्रचलाप्रचलादर्शनावरणी कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  14. मैं स्त्यानगृद्धिदर्शनावरणी कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  15. मैं सातावेदनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  16. मैं असातावेदनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  17. मैं सम्यक्त्वमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  18. मैं मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  19. मैं सम्यक्त्वमिथ्यात्वमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  20. मैं अनन्तानुबंधिक्रोधकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  21. मैं अप्रत्याख्यानावरणीक्रोधकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  22. मैं प्रत्याख्यानावरणीक्रोधकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  23. मैं संज्वलनक्रोधकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  24. मैं अनन्तानुबंधिमानकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  25. मैं अप्रत्याख्यानावरणीमानकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  26. मैं प्रत्याख्यानावरणीमानकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  27. मैं संज्वलनमानकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  28. मैं अनन्तानुबंधिमायाकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  29. मैं अप्रत्याख्यानावरणीयमायाकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  30. मैं प्रत्याख्यानावरणीमायाकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  31. मैं संज्वलनमायाकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  32. मैं अनन्तानुबंधिलोभकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  33. मैं अप्रत्याख्यानावरणीलोभकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  34. मैं प्रत्याख्यानावरणीलोभकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  35. मैं संज्वलनलोभकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  36. मैं हास्यनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  37. मैं रतिनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  38. मैं अरतिनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्य-स्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  39. मैं शोकनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  40. मैं भयनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  41. मैं जुगुप्सानोकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  42. मैं स्त्रीवेदनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  43. मैं पुरुषवेदनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  44. मैं नपुंसकवेदनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  45. मैं नरक-आयुकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  46. मैं तिर्यंच-आयुकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  47. मैं मनुष्य-आयुकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  48. मैं देव-आयुकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  49. मैं नरकगति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  50. मैं तिर्यंचगति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  51. मैं मनुष्यगति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  52. मैं देवगति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  53. मैं एकेन्द्रियजाति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  54. मैं द्वीन्द्रियजाति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  55. मैं त्रीन्द्रियजाति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  56. मैं चतुरिन्द्रियजाति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  57. मैं पंचेन्द्रियजाति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  58. मैं औदारिकशरीर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  59. मैं वैक्रियिकशरीर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  60. मैं आहारकशरीर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  61. मैं तैजसशरीर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  62. मैं कार्मणशरीर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  63. मैं औदारिकशरीर-अंगोपांग नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  64. मैं वैक्रियिकशरीर-अंगोपांग नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  65. मैं आहारकशरीर-अंगोपांग नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  66. मैं औदारिकशरीरबंधन नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  67. मैं वैक्रियिकशरीरबंधन नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  68. मैं आहारकशरीरबंधन नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  69. मैं तैजसशरीरबंधन नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  70. मैं कार्मणशरीरबंधन नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  71. मैं औदारिकशरीरसंघात नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  72. मैं वैक्रियिकशरीरसंघात नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  73. मैं आहारकशरीरसंघात नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  74. मैं तैजसशरीरसंघात नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  75. मैं कार्मणशरीरसंघात नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  76. मैं समचतुरस्रसंस्थान नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  77. मैं न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  78. मैं स्वातिसंस्थान नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  79. मैं कुब्जकसंस्थान नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  80. मैं वामनसंस्थान नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  81. मैं हुंडकसंस्थान नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  82. मैं वज्रऋषभनाराचसंहनन नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  83. मैं वज्रनाराचसंहनन नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  84. मैं नाराचसंहनन नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  85. मैं अर्धनाराचसंहनन नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  86. मैं कीलिकसंहनन नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  87. मैं असंप्राप्तासृपाटिकासंहनन नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  88. मैं स्निग्धस्पर्श नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  89. मैं रूक्षस्पर्श नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  90. मैं शीतस्पर्श नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  91. मैं उष्णस्पर्श नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  92. मैं गुरुस्पर्श नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  93. मैं लघुस्पर्श नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  94. मैं मृदुस्पर्श नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  95. मैं कर्कशस्पर्श नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  96. मैं मधुररस नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  97. मैं आम्लरस नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  98. मैं तिक्तरस नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  99. मैं कटुकरस नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  100. मैं कषायरस नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  101. मैं सुरभिगंध नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  102. मैं असुरभिगंध नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  103. मैं शुक्लवर्ण नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  104. मैं रक्तवर्ण नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  105. मैं पीतवर्ण नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  106. मैं हरितवर्ण नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  107. मैं कृष्णवर्ण नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  108. मैं नरकगत्यानुपूर्वी नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  109. मैं तिर्यंचगत्यानुपूर्वी नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  110. मैं मनुष्यगत्यानुपूर्वी नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  111. मैं देवगत्यानुपूर्वी नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  112. मैं निर्माण नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  113. मैं अगुरुलघु नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  114. मैं उपघात नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  115. मैं परघात नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  116. मैं आतप नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  117. मैं उद्योत नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  118. मैं उच्छ्वास नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  119. मैं प्रशस्तविहायोगति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  120. मैं अप्रशस्तविहायोगति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  121. मैं साधारणशरीर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  122. मैं प्रत्येकशरीर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  123. मैं स्थावर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  124. मैं त्रस नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  125. मैं सुभग नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  126. मैं दुर्भग नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  127. मैं सुस्वर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  128. मैं दु:स्वर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  129. मैं शुभ नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  130. मैं अशुभ नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  131. मैं सूक्ष्मशरीर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  132. मैं बादरशरीर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  133. मैं पर्याप्त नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  134. मैं अपर्याप्त नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  135. मैं स्थिर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  136. मैं अस्थिर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  137. मैं आदेय नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  138. मैं अनादेय नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  139. मैं यश:कीर्ति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  140. मैं अयश:कीर्ति नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  141. मैं तीर्थंकर नामकर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  142. मैं उच्चगोत्र कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  143. मैं नीचगोत्र कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  144. मैं दानांतराय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  145. मैं लाभांतराय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  146. मैं भोगान्तराय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  147. मैं उपभोगान्तराय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।
  148. मैं वीर्यान्तराय कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ; क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप आत्मा का ही संचेतन करता हूँ ।

(कलश--रोला)
सब कर्मों के फल से संन्यासी होने से ।
आतम से अतिरिक्त प्रवृत्ति से निवृत्त हो ॥
चिद्लक्षण आतम को अतिशय भोग रहा हूँ ।
यह प्रवृत्ति ही बनी रहे बस अमित कालतक ॥२३१॥

[एवं] पूर्वोक्त प्रकार से [निःशेष-कर्म-फल-संन्यसनात्] समस्त कर्म के फल का संन्यास करने से [चैतन्य-लक्ष्म आत्मतत्त्वं भृशम् भजतः सर्व-क्रियान्तर-विहारनिवृत्त-वृत्तेः] मैं चैतन्य-लक्षण आत्म-तत्त्व को अतिशयतया भोगता हूँ और उसके अतिरिक्त अन्य सर्व क्रिया में विहार से मेरी वृत्ति निवृत्त है (अर्थात् आत्म-तत्त्व के उपभोग से अतिरिक्त अन्य जो उपयोग की क्रिया - विभावरूप क्रिया उसमें मेरी परिणति विहार - प्रवृत्ति नहीं करती); [अचलस्य मम] इसप्रकार आत्म-तत्त्व के उपभोग में अचल ऐसे मुझे, [इयम् काल-आवली] यह काल की आवली जो कि [अनन्ता] प्रवाहरूप से अनन्त है वह, [वहतु] आत्म-तत्त्व के उपभोग में ही बहती रहे (उपयोग की प्रवृत्ति अन्य में कभी भी न जाये)

(कलश--वसंततिलका)
रे पूर्वभावकृत कर्मजहरतरु के ।
अज्ञानमय फल नहीं जो भोगते हैं ॥
अर तृप्त हैं स्वयं में चिरकाल तक वे ।
निष्कर्म सुखमय दशा को भोगते हैं ॥२३२॥

[पूर्व-भाव-कृत-कर्म-विषद्रुमाणां फलानि यः न भुङ्क्ते] पहले अज्ञान-भाव से उपार्जित कर्मरूपी विष-वृक्षों के फल को जो पुरुष (उसका स्वामी होकर) नहीं भोगता और [खलु स्वतः एव तृप्तः] वास्तव में अपने से ही (आत्म-स्वरूप से ही) तृप्त है, [सः आपात-काल-रमणीयम् उदर्क-रम्यम् निष्कर्म-शर्ममयम् दशान्तरम् एति] वह पुरुष, जो वर्तमानकाल में रमणीय है और भविष्यकाल में भी जिसका फल रमणीय है ऐसे निष्कर्म - सुखमय दशांतर को प्राप्त होता है (अर्थात् जो पहले संसार अवस्था में कभी नहीं हुई थी, ऐसी भिन्न प्रकार की कर्म-रहित स्वाधीन सुखमय दशा को प्राप्त होता है)

(कलश--वसंततिलका)
रे कर्म कर्मफल से संन्यास लेकर ।
सद्ज्ञान चेतना को निज में नचाओ ॥
प्याला पियो नित प्रशमरस का निरन्तर ।
सुख में रहो अभी से चिरकाल तक तुम ॥२३३॥

[अविरतं कर्मणः तत्फलात् च विरतिम् अत्यन्तं भावयित्वा] ज्ञानीजन, अविरतपने से कर्म से और कर्म-फल से विरति को अत्यन्त भाकर, (अर्थात् कर्म और कर्म-फल के प्रति अत्यन्त विरक्त भाव को निरन्तर भा कर), [अखिल-अज्ञान-संचेतनायाः प्रलयनम् प्रस्पष्टं नाटयित्वा] (इस भाँति) समस्त अज्ञान-चेतना के नाश को स्पष्टतया नचाकर, [स्व-रस-परिगतं स्वभावं पूर्णं कृत्वा] निज-रस से प्राप्त अपने स्वभाव को पूर्ण करके, [स्वां ज्ञानसञ्चेतनां सानन्दं नाटयन्तः इतः सर्व-कालं प्रशमरसम् पिबन्तु] अपनी ज्ञान-चेतना को आनन्द-पूर्वक नचाते हुए अब से सदाकाल प्रशम-रस को पीओ (कर्म के अभावरूप आत्मिक-रस को, अमृत-रस को, अभी से लेकर अनन्त-काल तक सेवन करो)

(कलश--दोहा)
अपने में ही मगन है, अचल अनाकुल ज्ञान ।
यद्यपि जाने ज्ञेय को, तदपि भिन्न ही जान ॥२३४॥

[इतः इह] यहाँ से अब (इस सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार में आगे की गाथाओं में यह कहते हैं कि) [समस्त-वस्तु-व्यतिरेक-निश्चयात् विवेचितं ज्ञानम्] समस्त वस्तुओं के भिन्नत्व के निश्चय द्वारा पृथक् किया गया ज्ञान, [पदार्थ-प्रथन-अवगुण्ठनात् कृतेः विना] पदार्थ के विस्तार के साथ गुथित होने से (अनेक पदार्थों के साथ, ज्ञेय-ज्ञान सम्बन्ध के कारण; एक जैसा दिखाई देने से) उत्पन्न होनेवाली (अनेक प्रकार की) क्रिया उनसे रहित [एकम् अनाकुलं ज्वलत्] एक ज्ञान-क्रियामात्र, अनाकुल (सर्व आकुलता से रहित) और देदीप्यमान होता हुआ, [अवतिष्ठते] निश्चल रहता है ।

जयसेनाचार्य :
ज्ञान और अज्ञानके भेद से चेतना दो प्रकार की होती है एक ज्ञान-चेतना और दूसरी अज्ञान-चेतना । अब यहाँ पर तीन गाथाओं से अज्ञान-चेतना का वर्णन किया जाता है -- उदय में आये हुए शुभ या अशुभ-कर्म को भोगता हुआ यह अज्ञानी जीव अपने स्वस्थ भाव से भ्रष्ट होकर इस प्रकार कहता जानता है कि यह मेरा कर्म है तथा इसको मैंने ही किया है ऐसा सोचने वाला जीव फिर से आठ प्रकार के ज्ञानावरणादि कर्म को बाँधता है ।

कैसा है वह कर्म ?

बीज है, कारण है,

किसका ?

दु:ख का । इस प्रकार दो गाथाओं में कर्म-चेतना का व्याख्यान हुआ ।

कर्म-चेतना का क्या अर्थ है ?

कि यह मेरा है, मैंने ही इसे किया है, इस प्रकार अज्ञान-भाव विषयों के द्वारा वीतराग-मय जो शुद्धात्मानुभूति है उससे च्युत हुए जीव का जो इष्ट-अनिष्ट रूप से इच्छा-पूर्वक मन, वचन और काय की चेष्टा करता है वह कर्म-चेतना कहलाती है जो नवीन-बंध का कारण होती है । इसी प्रकार उदय में आये हुए कर्म के फल को भोगता हुआ अतएव शुद्धात्मा के स्वरूप को नहीं अनुभव करता हुआ जो जीव मनोहर अथवा अमनोहर रूप इन्द्रियों के निमित्त से सुखी अथवा दुखी होता है वह जीव दुख के बीज या कारण-भूत ज्ञानावरणादि आठ-कर्मों को फिर से बाँधने लग जाता है । इस प्रकार एक गाथा से कर्म-फल-चेतना का व्याख्यान हुआ । कर्म-फल-चेतना का यह अर्थ है कि स्वस्थ भाव से रहित अज्ञान-भाव के द्वारा यथा-सम्भव व्यक्त अथवा अव्यक्त (अप्रकट) रूप से इच्छा पूर्वक इष्ट और अनिष्ट विकल्प के रूप में हर्ष-विषादमय सुख या दुख का अनुभव होना सो कर्म-फल-चेतना कहलाती है जो बंध का कारण है । इस प्रकार कर्म-चेतना और कर्म-फल-चेतना, ये दोनों प्रकार की चेतना, बंध का कारण होने से त्यागने योग्य हैं । कर्म-चेतना और कर्म-फल-चेतना इन दोनों में पहले कर्म-चेतना के सन्यास की भावना को बताते हैं अर्थात् कर्म-बंध को निवारण करने के लिये कर्म-चेतना के त्याग की भावना करते हैं सो निश्चय-प्रतिक्रमण, निश्चय-प्रत्याख्यान और निश्चय-आलोचना है जिनका स्वरूप, पहले बताया जा चुका है उसमें स्थित होकर शुद्ध-ज्ञान-चेतना के बल द्वारा उस कर्म-चेतना के त्याग की भावना करते हैं । इसका स्पष्टीकरण करते हैं --

जो
  1. मैंने पहले किया,
  2. मैंने पहले किसी से करवाया अथवा
  3. करते हुए को भला माना,
  4. मन से,
  5. वचन से अथवा
  6. काय से किसी भी प्रकार
वह सब मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो जाये, इस प्रकार यह छहों के संयोग: पहला भंग हुआ । मैंने किया, अथवा किसी से करवाया और किसी भी करते हुए को भला माना, मन से और वचन से वह सब मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो जाये, इस प्रकार यह पाँच संयोग का भंग हुआ । एक को हटा देने से तीन भंग पाँच संयोगी होंगे । इस प्रकार संयोग करने पर अक्ष-संचार के द्वारा सारे उनचास (४९) भंग हो जाते हैं यही टीकाकार के कहने का अभिप्राय है । जैसा कि श्री अमृतचंद्राचार्य ने अपनी टीका में बताया है । अब यहाँ और भी सरल रूप से बताया जा रहा है । देखो -- इस प्रकार सब मिलकर एक सप्त-भंगी हुई । उसी प्रकार इस प्रकार यह दूसरी सप्तभंग हुई । इस प्रकार कृत का निरुद्ध अर्थात् निषेध होने पर तीसरी सप्त-भंगी हुई । जिस प्रकार कृत की सप्त-भंगी बतलाई उसी प्रकार कारित पर, अनुमत पर, तथा कृत कारित इन दोनों पर, कृत और अनुमति इन दोनों पर, और कारित, अनुमति इन दोनों पर, तथा कृत, कारित और अनुमति इन तीनों पर भी प्रत्येक से इस क्रम से सप्त-भंगी लगा लेना चाहिए इस प्रकार ये सब मिलकर उनचास (४९) भंग होते हैं । प्रतिक्रमण-कल्प समाप्त हुआ ।

अब प्रत्याख्यान-कल्प का वर्णन करते हैं -- यह मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो जाय यह छहों के संयोग रूप पहले के अनुसार एक पहला भंग हुआ । इसी प्रकार मैं करूँगा, मैं कराऊँगा और मैं करते हुए किसी अन्य को भला मानूँगा -- मन से और वचन से सो मेरा दुष्कृत्य मिथ्या होवे यह पंच संयोगी भंग भी पूर्व कहे अनुसार एकएक को हटा देने पर तीन प्रकार का होता है । इसी प्रकार पहले कहे अनुसार इसको फला लेने से उनचास (४९) भंग हो जाते हैं । प्रत्याख्यान कल्प समाप्त हआ ।

अब आलोचना-कल्प को कहते हैं वह इस प्रकार है-जैसे कि यह सब मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो जाये यह पहले के समान छहों के संयोग रूप पहला भंग हुआ । इसी प्रकार जो मैं करता हूँ, कराता हूँ, और करते हुये अन्य प्राणी को भला मानता हूँ मन से, वचन से, सो सब मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो जाये, इस प्रकार क्रम से एक-एक को कम करने पर पंच संयोगात्मक तीन भंग होते हैं । इस प्रकार पूर्वोक्त कहे अनुसार सारे मिलकर उनचास (४९) भंग हो जाते हैं । यह आलोचना-कल्प समाप्त हुआ । कल्प कहो, पर्व कहो, अधिकार कहो, अध्याय कहो, परिच्छेद कहो इत्यादि सब एकार्थ नाम हैं ।

इस प्रकार निश्चय-प्रतिक्रमण, निश्चय-प्रत्याख्यान, और निश्चय-आलोचना रूप जो शुद्ध-ज्ञान-चेतना की भावना इन दो गाथाओं के व्याख्यान से कर्म-चेतना के त्याग की भावना समाप्त हुई । अब इसके आगे शुद्ध ज्ञान-चेतना की भावना के बल से ही कर्म-फल-चेतना संन्यास अर्थात् त्याग की भावना को करते हैं --

जैसे कि मैं मति-ज्ञानावरण कर्म के फल को नहीं भोगता हूँ । तब फिर क्या करते हो ? कि मैं तो शुद्ध-चैतन्य-स्वभाव आत्मा को ही भले प्रकार अनुभव करता हूँ । मैं श्रुत-ज्ञानावरण कर्म के फल को नहीं भोगता । तब फिर क्या करते हो ? कि शुद्ध-चैतन्य-स्वभाववाली अपनी आत्मा का ही अनुभव करता हूँ । अवधिज्ञानावरण कर्म के फल को नहीं भोगता । तब फिर क्या करते हो ? कि शुद्ध-चैतन्य-स्वभाववाली अपनी आत्मा का ही अनुभव करता हूँ । मैं मन:पर्यय-ज्ञानावरणकर्म के फल को भी नहीं भोगता । तब फिर क्या करते हो ? कि शुद्ध-चैतन्य-स्वभाव-वाली अपनी आत्मा का ही अनुभव करता हूँ । मैं केवल-ज्ञानावरण कर्म के फल को भी नहीं भोगता । तब फिर क्या करते हो ? शुद्ध-चैतन्य-स्वभाव-वाली अपनी आत्मा का ही अनुभव करता हूँ । इस प्रकार पाँच प्रकार के ज्ञानावरणी कर्म के रूप में कर्म-फल-चेतना सन्यास संज्ञा वाली भावना का वर्णन हुआ । मैं चक्षु-दर्शनावरण कर्म के फल को भी नहीं भोगता । तब फिर क्या करते हो ? कि शुद्ध-चैतन्य-स्वभाव-वाली अपनी आत्मा का ही अनुभव करता हूँ । इस प्रकार टीका में बताये हुये क्रम के अनुसार --
पणणवदुअट्ठवीसा चउतियणउदीय दुण्णि पंचेव ।
वावण्णहीण वियसय पयडिविणासेण होंति ते सिद्धा ।
-- पाँच ज्ञानावरण कर्म की है, नव दर्शनावरण की, दो वेदनीय की, अट्ठाईस मोहनीय की, चार आयु की, तेराणव (९३) नाम की, दो गोत्र की, व पाँच अंतराय की इस प्रकार सब मिलाकर बावन (५२) कम दोसौ (२००) अर्थात् एक सौ अड़तालीस (१४८) कर्म-प्रकृतियाँ हुई । इन सब प्रकृतियों का नाशकर सिद्ध होते हैं । इस गाथा का आशय लेकर १४८ संख्या वाली कर्म की उत्तर प्रकृतियों के फल के त्याग की भावना करने योग्य है ।

भावार्थ यह है कि तीन-लोक और तीन-काल से सम्बन्ध रखने वाले ऐसे जो मन, वचन, काय तथा कृत, कारित और अनुमत तथा ख्याति, पूजा और लाभ एवं देखे, सुने और अनुभव किये हुए भोगों की आकांक्षा-रूप निदान-बंध उसको आदि लेकर जो समस्त पर-द्रव्य हैं उनके आलम्बन से उत्पन्न जो शुभाशुभ संकल्प-विकल्प हैं उनसे जो रहित हैं और चिदानन्द एक स्वभाव वाले शुद्धात्म तत्त्व के समीचीन श्रद्धान, ज्ञान और आचरण रूप जो अभेद-रत्नत्रय, उस अभेद-रत्नत्रयात्मक-निर्विकल्प-समाधि से उत्पन्न हुआ जो वीतराग-सहज-परमानन्द उसके रस का आस्वाद, वही हुआ परम-समरसीभाव, उसके अनुभव के आलम्बन से जो भरा-पूरा है जो केवल-ज्ञानादि अनन्त-चतुष्टय के अभिव्यक्ति-रूप साक्षात् उपादेय-भूत कार्य-समयसार का उत्पादक है और जिसमें शुद्ध-ज्ञान-चेतना की भावना का बल है, ऐसे निश्चय-कारण-समयसार के द्वारा मोक्षार्थी जीव को कर्म-चेतना के त्याग की भावना और कर्म-फल चेतना के त्याग की भावना करनी योग्य है ।

इस प्रकार इस दसवें स्थल में दो गाथाएँ कर्म-चेतना के त्याग की भावना की प्रधानता लेकर और एक गाथा कर्म-फल चेतना के त्याग की भावना की प्रधानता लेकर, इस प्रकार तीन गाथाएँ पूर्ण हुईं ॥४११-४१३॥

अब यहाँ आगे उस परमात्म-तत्त्व का प्रकाश करते हैं जो व्यवहार-नय से कहे हुए जीव आदि नव-पदार्थों से पृथक् रहने वाला है तो भी टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भाव-रूप जो पारमार्थिक-पदार्थ ऐसा नामवाला है । तथा गद्य-पद्य आदि विचित्र रचना से हुए शास्त्रों से व शब्द आदि पांचों इन्द्रियों के विषय को लेकर जो समस्त पर-द्रव्य हैं उनसे भी शून्य है तो भी राग-द्वेषादि विकल्पों की उपाधि से रहित सदा आनन्द-मयी एक लक्षण को रखने वाले सुखामृत रस के आस्वाद से भरा पूरा है --

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+ अब इसी अर्थ की गाथा कहते हैं -- -
सत्थं णाणं ण हवदि जम्हा सत्थं ण याणदे किंचि । (390)
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं सत्थं जिणा बेंति ॥414॥
सद्दो णाणं ण हवदि जम्हा सद्दो ण याणदे किंचि । (391)
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं सद्दं जिणा बेंति ॥415॥
रूवं णाणं ण हवदि जम्हा रूवं ण याणदे किंचि । (392)
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं रूवं जिणा बेंति ॥416॥
वण्णो णाणं ण हवदि जम्हा वण्णो ण याणदे किंचि । (393)
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं वण्णं जिणा बेंति ॥417॥
गंधो णाणं ण हवदि जम्हा गंधो ण याणदे किंचि । (394)
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं गंधं जिणा बेंति ॥418॥
ण रसो दु हवदि णाणं जम्हा दु रसो ण याणदे किंचि । (395)
तम्हा अण्णं णाणं रसं च अण्णं जिणा बेंति ॥419॥
फासो ण हवदि णाणं जम्हा फासो य याणदे किंचि । (396)
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं फासं जिणा बेंति ॥420॥
कम्मं णाणं ण हवदि जम्हा कम्मं ण याणदे किंचि । (397)
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं कम्मं जिणा बेंति ॥421॥
धम्मो णाणं ण हवदि जम्हा धम्मो ण याणदे किंचि । (398)
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं धम्मं जिणा बेंति ॥422॥
णाणमधम्मो ण हवदि जम्हाधम्मो ण याणदे किंचि । (399)
तम्हा अण्णं णाणं अण्णमधम्मं जिणा बेंति ॥423॥
कालो णाणं ण हवदि जम्हा कालो ण याणदे किंचि । (400)
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं कालं जिणा बेंति ॥424॥
आयासं पि ण णाणं जम्हायासं ण याणदे किंचि । (401)
तम्हायासं अण्णं अण्णं णाणं जिणा बेंति ॥425॥
णज्झ्वसाणं णाणं अज्झवसाणं अचेदणं जम्हा । (402)
तम्हा अण्णं णाणं अज्झवसाणं तहा अण्णं ॥426॥
जम्हा जाणदि णिच्चं तम्हा जीवो दु जाणगो णाणी । (403)
णाणं च जाणयादो अव्वदिरित्तं मुणेयव्वं ॥427॥
णाणं सम्मादिट्ठिं दु संजमं सुत्तमंगपुव्वगयं । (404)
धम्माधम्मं च तहा पव्वज्जं अब्भुवंति बुहा ॥428॥
शास्त्रं ज्ञानं न भवति यस्माच्छास्त्रं न जानाति किंचित् ।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यच्छास्त्रं जिना ब्रुवन्ति ॥३९०॥
शब्दो ज्ञानं न भवति यस्माच्छब्दो न जानाति किंचित् ।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं शब्दं जिना ब्रुवन्ति ॥३९१॥
रूपं ज्ञानं न भवति यस्माद्रूपं न जानाति किंचित् ।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यद्रूपं जिना ब्रुवन्ति ॥३९२॥
वर्णो ज्ञानं न भवति यस्माद्वर्णो न जानाति किंचित् ।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं वर्णं जिना ब्रुवन्ति ॥३९३॥
गंधो ज्ञानं न भवति यस्माद्गन्धो न जानाति किंचित् ।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं गंधं जिना ब्रुवन्ति ॥३९४॥
न रसस्तु भवति ज्ञानं यस्मात्तु रसो न जानाति किंचित् ।
तस्मादन्यज्ज्ञानं रसं चान्यं जिना ब्रुवन्ति ॥३९५॥
स्पर्शो न भवति ज्ञानं यस्मात्स्पर्शो न जानाति किंचित् ।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं स्पर्शं जिना ब्रुवन्ति ॥३९६॥
कर्म ज्ञानं न भवति यस्मात्कर्म न जानाति किंचित् ।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यत्कर्म जिना ब्रुवन्ति ॥३९७॥
धर्मो ज्ञानं न भवति यस्माद्धर्मो न जानाति किंचित् ।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं धर्मं जिना ब्रुवन्ति ॥३९८॥
ज्ञानमधर्मो न भवति यस्मादधर्मो न जानाति किंचित् ।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यमधर्मं जिना बु्रवन्ति ॥३९९॥
कालो ज्ञानं न भवति यस्मात्कालो न जानाति किंचित् ।
तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं कालं जिना ब्रुवन्ति ॥४००॥
आकाशमपि न ज्ञानं यस्मादाकाशं न जानाति किंचित् ।
तस्मादाकाशमन्यदन्यज्ज्ञानं जिना ब्रुवन्ति ॥४०१॥
नाध्यवसानं ज्ञानमध्यवसानमचेतनं यस्मात् ।
तस्मादन्यज्ज्ञानमध्यवसानं तथान्यत् ॥४०२॥
यस्माज्जानाति नित्यं तस्माज्जीवस्तु ज्ञायको ज्ञानी ।
ज्ञानं च ज्ञायकादव्यतिरिक्तं ज्ञातव्यम् ॥४०३॥
ज्ञानं सम्यग्दृष्टिं तु संयमं सूत्रमंगपूर्वगतम् ।
धर्माधर्मं च तथा प्रव्रज्यामभ्युपयान्ति बुधा: ॥४०४ ॥
शास्त्र ज्ञान नहीं है क्योंकि शास्त्र कुछ जाने नहीं ।
बस इसलिए ही शास्त्र अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ॥३९०॥
शब्द ज्ञान नहीं है क्योंकि शब्द कुछ जाने नहीं ।
बस इसलिए ही शब्द अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ॥३९१॥
रूप ज्ञान नहीं है क्योंकि रूप कुछ जाने नहीं ।
बस इसलिए ही रूप अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ॥३९२॥
वर्ण ज्ञान नहीं है क्योंकि वर्ण कुछ जाने नहीं ।
बस इसलिए ही वर्ण अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ॥३९३॥
गंध ज्ञान नहीं है क्योंकि गंध कुछ जाने नहीं ।
बस इसलिए ही गंध अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ॥३९४॥
रस नहीं है ज्ञान क्योंकि रस भी कुछ जाने नहीं ।
बस इसलिए ही रस अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ॥३९५॥
स्पर्श ज्ञान नहीं है क्योंकि स्पर्श कुछ जाने नहीं ।
बस इसलिए ही स्पर्श अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ॥३९६॥
कर्म ज्ञान नहीं है क्योंकि कर्म कुछ जाने नहीं ।
बस इसलिए ही कर्म अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ॥३९७॥
धर्म ज्ञान नहीं है क्योंकि धर्म कुछ जाने नहीं ।
बस इसलिए ही धर्म अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ॥३९८॥
अधर्म ज्ञान नहीं है क्योंकि अधर्म कुछ जाने नहीं ।
बस इसलिए ही अधर्म अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ॥३९९॥
काल ज्ञान नहीं है क्योंकि काल कुछ जाने नहीं ।
बस इसलिए ही काल अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ॥४००॥
आकाश ज्ञान नहीं है क्योंकि आकाश कुछ जाने नहीं ।
बस इसलिए ही आकाश अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ॥४०१॥
अध्यवसान ज्ञान नहीं है क्योंकि वे अचेतन जिन कहे ।
इसलिए अध्यवसान अन्य रु ज्ञान अन्य श्रमण कहें ॥४०२॥
नित्य जाने जीव बस इसलिए ज्ञायकभाव है ।
है ज्ञान अव्यतिरिक्त ज्ञायकभाव से यह जानना ॥४०३॥
ज्ञान ही समदृष्टि संयम सूत्र पूर्वगतांग भी ।
सद्धर्म और अधर्म दीक्षा ज्ञान हैं - यह बुध कहें ॥४०४॥
अन्वयार्थ : [सत्थं णाणं ण हवदि] शास्त्र ज्ञान नहीं होता [जम्हा] क्योंकि [सत्थं ण याणदे किंचि] शास्त्र कुछ जानता नहीं है [तम्हा] वैसे ही [अण्णं णाणं] ज्ञान अन्य है [अण्णं सत्थं] शास्त्र अन्य है [जिणा बेंति] ऐसा जिनदेव कहते हैं ।
[सद्दो णाणं ण हवदि] शब्द ज्ञान नहीं होता [जम्हा] क्योंकि [सद्दो ण याणदे किंचि] शब्द कुछ जानता नहीं है [तम्हा] वैसे ही [अण्णं णाणं] ज्ञान अन्य है [अण्णं सद्दं] शब्द अन्य है [जिणा बेंति] ऐसा जिनदेव कहते हैं ।
[रूवं णाणं ण हवदि] रूप ज्ञान नहीं होता [जम्हा] क्योंकि [रूवं ण याणदे किंचि] रूप कुछ जानता नहीं है [तम्हा] वैसे ही [अण्णं णाणं] ज्ञान अन्य है [अण्णं रूवं] रूप अन्य है [जिणा बेंति] ऐसा जिनदेव कहते हैं ।
[वण्णो णाणं ण हवदि] वर्ण ज्ञान नहीं होता [जम्हा] क्योंकि [वण्णो ण याणदे किंचि] वर्ण कुछ जानता नहीं है [तम्हा] वैसे ही [अण्णं णाणं] ज्ञान अन्य है [अण्णं वण्णं] वर्ण अन्य है [जिणा बेंति] ऐसा जिनदेव कहते हैं ।
[गंधो णाणं ण हवदि] गंध ज्ञान नहीं होता [जम्हा] क्योंकि [गंधो ण याणदे किंचि] गंध कुछ जानती नहीं है [तम्हा] वैसे ही [अण्णं णाणं] ज्ञान अन्य है [अण्णं गंधं] गन्ध अन्य है [जिणा बेंति] ऐसा जिनदेव कहते हैं ।
[ण रसो दु हवदि णाणं] रस ज्ञान नहीं होता [जम्हा दु] क्योंकि [रसो ण याणदे किंचि] रस कुछ जानता नहीं है [तम्हा] वैसे ही [अण्णं णाणं] ज्ञान अन्य है [अण्णं रसं च] और रस अन्य है [जिणा बेंति] ऐसा जिनदेव कहते हैं ।
[फासो ण हवदि णाणं] स्पर्श ज्ञान नहीं होता [जम्हा] क्योंकि [फासो य याणदे किंचि] स्पर्श कुछ जानता नहीं है [तम्हा] वैसे ही [अण्णं णाणं] ज्ञान अन्य है [अण्णं फासं] स्पर्श अन्य है [जिणा बेंति] ऐसा जिनदेव कहते हैं ।
[कम्मं णाणं ण हवदि] कर्म ज्ञान नहीं होता [जम्हा] क्योंकि [कम्मं ण याणदे किंचि] कर्म कुछ जानता नहीं है [तम्हा] वैसे ही [अण्णं णाणं] ज्ञान अन्य है [अण्णं कम्मं] कर्म अन्य है [जिणा बेंति] ऐसा जिनदेव कहते हैं ।
[धम्मो णाणं ण हवदि] धर्म ज्ञान नहीं होता [जम्हा] क्योंकि [धम्मो ण याणदे किंचि] धर्म कुछ जानता नहीं है [तम्हा] वैसे ही [अण्णं णाणं] ज्ञान अन्य है [अण्णं धम्मं] धर्म अन्य है [जिणा बेंति] ऐसा जिनदेव कहते हैं ।
[णाणमधम्मो ण हवदि] अधर्म ज्ञान नहीं होता [जम्हा] क्योंकि [अधम्मो ण याणदे किंचि] अधर्म कुछ जानता नहीं है [तम्हा] वैसे ही [अण्णं णाणं] ज्ञान अन्य है [अण्णं अधम्मं] अधर्म अन्य है [जिणा बेंति] ऐसा जिनदेव कहते हैं ।
[कालो णाणं ण हवदि] काल ज्ञान नहीं होता [जम्हा] क्योंकि [कालो ण याणदे किंचि] काल कुछ जानता नहीं है [तम्हा] वैसे ही [अण्णं णाणं] ज्ञान अन्य है [अण्णं कालं] काल अन्य है [जिणा बेंति] ऐसा जिनदेव कहते हैं ।
[आयासं पि ण णाणं] आकाश भी ज्ञान नहीं [जम्हा] क्योंकि [आयासं ण याणदे किंचि] आकाश कुछ जानता नहीं है [तम्हा] वैसे ही [आयासं अण्णं] आकाश अन्य है [अण्णं णाणं] ज्ञान अन्य है [जिणा बेंति] ऐसा जिनदेव कहते हैं ।
[णज्झ्वसाणं णाणं] अध्यवसान ज्ञान नहीं [जम्हा] क्योंकि [अज्झवसाणं अचेदणं] अध्यवसान अचेतन है [तम्हा] वैसे ही [अण्णं णाणं] ज्ञान अन्य है [अज्झवसाणं तहा अण्णं] तथा अध्यावसान अन्य है (ऐसा जिनदेव कहते हैं)
[जम्हा जाणदि णिच्चं] चूँकि निरन्तर जानता है [तम्हा] इसलिए यह [जाणगो] ज्ञायक [जीवो दु] जीव [णाणी] ज्ञानी (ज्ञानस्वरूप) है [णाणं च जाणयादो] और ज्ञान ज्ञायक से [अव्वदिरित्तं मुणेयव्वं] अव्यतिरिक्त (अभिन्न) है - ऐसा जानो ।
[बुहा] बुधजन (ज्ञानीजन) [णाणं सम्मादिट्ठिं दु] ज्ञान को ही सम्यग्दृष्टि, [संजमं] संयम, [सुत्तमंगपुव्वगयं] अंगपूर्वगत सूत्र, [धम्माधम्मं च] धर्म-अधर्म (पुण्य-पाप) [तहा पव्वज्जं] और प्रव्रज्या (दीक्षा) [अब्भुवंति] मानते हैं ।

अमृतचंद्राचार्य :
इसप्रकार ज्ञान का अन्य सब पर-द्रव्यों के साथ व्यतिरेक निश्चय-साधित देखना चाहिए ।

तात्पर्य यह है कि निश्चय से विचार करें तो ज्ञान पर-द्रव्यों से भिन्न ही है । अब यह निश्चित करते हैं कि जीव ही एक ज्ञान है; क्योंकि जीव चेतन है; इसलिए ज्ञान के और जीव के अव्यतिरेक (अभेद) है । इस बात की रंचमात्र भी आशंका नहीं करना चाहिए कि ज्ञान और जीव में किंचित्मात्र भी व्यतिरेक होगा; क्योंकि जीव स्वयं ही ज्ञान है । इसप्रकार ज्ञान और जीव के अभिन्न होने से इसप्रकार ज्ञान का जीव की पर्यायों के साथ भी अव्यतिरेक (अभेद) निश्चय-साधित देखना चाहिए । तात्पर्य यह है कि जीव-पर्यायों का जीव के साथ अभेद निश्चय से ही है । इसप्रकार सर्व पर-द्रव्यों के साथ व्यतिरेक और सर्व दर्शनादि जीव-स्वभावों के साथ अव्यतिरेक के द्वारा अतिव्याप्ति और अव्याप्ति को दूर करते हुए; साक्षात् समयसार-भूत, परमार्थ-रूप एक शुद्ध-ज्ञान को निश्चल देखना चाहिए अर्थात् प्रत्यक्ष स्व-संवेदन से निश्चल अनुभव करना चाहिए ।

(हिंदी--हरिगीत)
है अन्य द्रव्यों से पृथक् विरहित ग्रहण अर त्याग से ।
यह ज्ञाननिधि निज में नियत वस्तुत्व को धारण किये ॥
है आदि-अन्त विभाग विरहित स्फुरित आनन्दघन ।
हो सहज महिमा प्रभाभास्वर शुद्ध अनुपम ज्ञानघन ॥२३५॥

[अन्येभ्यः व्यतिरिक्तम्] अन्य द्रव्यों से भिन्न, [आत्म-नियतं] अपने में ही नियत, [पृथक्-वस्तुताम्-बिभ्रत्] पृथक् वस्तुत्व को धारण करता हुआ (वस्तु का स्वरूप सामान्य-विशेषात्मक होने से स्वयं भी सामान्य-विशेषात्मकता को धारण करता हुआ), [आदान-उज्झन-शून्यम्] ग्रहण-त्याग से रहित, [एतत् अमलं ज्ञानं] यह अमल (रागादिक-मल से रहित) ज्ञान [तथा-अवस्थितम् यथा] इसप्रकार अवस्थित (निश्चल) अनुभव में आता है कि जैसे [मध्य-आदि-अंत-विभाग-मुक्त-सहज-स्फार-प्रभा-भासुरः अस्य शुद्ध-ज्ञान-घनः महिमा] आदि-मध्य-अन्तरूप विभागों से रहित ऐसी सहज फैली हुई प्रभा के द्वारा देदीप्यमान ऐसी उसकी शुद्ध ज्ञान-घन-स्वरूप महिमा [नित्य-उदितः-तिष्ठति] नित्य-उदित रहे (शुद्ध ज्ञान की पुंजरूप महिमा सदा उदयमान रहे)

(कलश--हरिगीत)
जिनने समेटा स्वयं ही सब शक्तियों को स्वयं में ।
सब ओर से धारण किया हो स्वयं को ही स्वयं में ॥
मानो उन्हीं ने त्यागने के योग्य जो वह तज दिया ।
अर जो ग्रहण के योग्य वह सब भी उन्हीं ने पा लिया ॥२३६॥

[संहृत-सर्व-शक्तेः पूर्णस्य आत्मनः] जिसने सर्व शक्तियों को समेट लिया है (अपने में लीन कर लिया है) ऐसे पूर्ण आत्मा का [आत्मनि इह] आत्मा में [यत् सन्धारणम्] धारण करना [तत् उन्मोच्यम् अशेषतः उन्मुक्तम्] वही छोड़ने योग्य सब कुछ छोड़ा है [तथा] और [आदेयम् तत् अशेषतः आत्तम्] ग्रहण करने योग्य सब ग्रहण किया है ।

(कलश--दोहा)
ज्ञानस्वभावी जीव, परद्रव्यों से भिन्न ही ।
कैसे कहें सदेह, जब आहारक ही नहीं ॥२३७॥

[एवं ज्ञानम् परद्रव्यात् व्यतिरिक्तं अवस्थितम्] इसप्रकार (पूर्वोक्त रीति से) ज्ञान पर-द्रव्य से पृथक् अवस्थित (निश्चल रहा हुआ) है; [तत् आहारकं कथम् स्यात् येन अस्यदेहः शंक्यते] वह (ज्ञान) आहारक (अर्थात् कर्म-नोकर्मरूप आहार करनेवाला) कैसे हो सकता है कि जिससे उसके देह की शंका की जा सके ?

जयसेनाचार्य :

  • गद्य पद्यादि ग्रन्थ-रचनारूप शास्त्र,
  • करणेंद्रिय का विषयभूत शब्द,
  • रूप शब्द के द्वारा वाच्य स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण वाली मूर्ति,
  • कृष्ण-नील-लाल-पीत और शुक्ल इन पांच भेद वाला वर्ण,
  • सुगन्ध-दुर्गन्ध के भेद से दो प्रकार की गन्ध,
  • कडुवा, चिरपरा, कषायला, खट्टा और मधुर भेद वाला रस,
  • शीत-उष्ण-स्निग्ध-रूक्ष-गुरु-लघु-मृदु और कठोर भेद वाला स्पर्श,
  • ज्ञानावरणादि आठ प्रकृतियों तथा एक सौ अड़तालीस उत्तर-प्रकृतियों के भेद वाला कर्म,
  • धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय, काल और आकाश नामक ज्ञेय द्रव्य । ये सब पूर्व में कहे गये शास्त्रादिक ज्ञान नहीं हो सकते क्योंकि अचेतन हैं । जिस कारण ये अचेतन हैं उस कारण ज्ञान जुदा है और ये जुदे हैं -- ऐसा जिनेन्द्र भगवान् जानते हैं अथवा कहते हैं । शुद्ध-उपादान-रुप निश्चय-नय से रागादि विकल्प-रूप अध्यवसान-भाव भी ज्ञान नहीं हैं, कारण कि ये अचेतन हैं अर्थात् अचेतन कर्म के निमित्त से होने के कारण शुद्ध-चेतन रूप नहीं है । इसलिये अज्ञान और अध्यवसान-भाव अन्य नहीं -- ऐसा जिनेन्द्र देव कहते हैं । तो फिर ज्ञान क्या है ? इसका उत्तर यह है कि जो निरन्तर सदा ज्ञेय-रूप वस्तु को जानता है ऐसा जीव ज्ञायक है तथा ज्ञानी है । यह जीव कौन ? जो ज्ञान-रूप है । यह ज्ञान यद्यपि जीव से अव्यतिरिक्त / अभिन्न है तथा संज्ञा, लक्षण तथा प्रयोजन आदि के भेद से भिन्न है । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार अग्नि उष्ण-स्पर्श से अभिन्न है उसी प्रकार निश्चय से जीव भी ज्ञान-गुण से अभिन्न है । इसके सिवाय अपवाद-विशेष व्याख्यान यह है -- कि ज्ञानीजन ज्ञान को आत्म-स्वरूप मानते हैं । सम्यग्दृष्टि, जीव के गुण स्वरूप सम्यग्दर्शन को, इन्दिय-संयम तथा प्राणि-संयम रूप बाह्य-संयम के बल से प्रकट शुद्धात्मानुभूति-रूप संयम को, अंग-पूर्व ज्ञान के बल से प्रकट शुद्धात्मादि की परिच्छित्ति-रूप भाव-श्रुत को, भाव पुण्य-पाप को, तथा रागादि-रूप इच्छा के निरोध-रूप लक्षण से युक्त स्वरूप की लीनता रूप प्रव्रज्या को विवक्षा-वश आत्म-स्वरूप मानते हैं ।

  • यहां कोई प्रश्न करता है कि यह सब तो तपश्चरण है सो इसको ज्ञान किस नय के द्वारा कहा जाता है ?

    इसका उत्तर यह है कि मिथ्यादृष्टि को आदि लेकर क्षीण-कषाय बारहवें गुणस्थान पर्यंत अपने-अपने गुणस्थान के योग्य शुभ, अशुभ अथवा शुद्धोपयोग के साथ अविनाभाव रखने वाला जो विवक्षित अशुद्ध-निश्चय-नय है जो कि अशुद्ध उपादानरूप है । उस अशुद्ध-नय के द्वारा यह सब ज्ञान माना जाता है । इस सब कथन से यह बात निश्चित हुई कि शुद्ध-पारिणामिक रूप जो परमभाव उसका ग्रहण करनेवाला जो शुद्ध-द्रव्यायार्थिक-नय है वह शुद्ध-उपादान-स्वरूप है । उस शुद्ध-द्रव्यार्थिक-नय के द्वारा शुद्ध-ज्ञान है स्वभाव जिसका, ऐसा शुद्धात्म-तत्त्व ही श्रद्धान करने योग्य, जानने योग्य और ध्यान करने योग्य होता है । वह शुद्धात्म-तत्त्व जीवादिक व्यवहारिक नव-पदार्थों से भिन्न है और आदि-मध्य-अंत, इन कल्पनाओं से रहित है । एक अखंड प्रतिभास रूप है ।

    अपने निरंजन सहज शुद्ध परम-समयसार इस प्रकार के नाम वाला है । जो सब प्रकार से उपादेयता है, उस शुद्धात्म-तत्व का श्रद्धान, ज्ञान तथा ध्यान करना चाहिये । इस प्रकार व्यावहारिक नव पदार्थों में भूतार्थ-नय से वास्तव में एक शुद्ध-जीव ही स्थित है -- इस प्रकार के व्याख्यान की मुख्यता से इस ग्यारहवें-स्थल में इन पन्द्रह गाथाओं का कथन किया गया ।

    अब विचार करते हैं -- जीव में मत्यादि पाँच प्रकार के ज्ञान होते हैं वे तो पर्याय-रूप हैं, किन्तु शुद्ध-पारिणामिक-भाव द्रव्य है, जीव-पदार्थ न केवल द्रव्य-रूप है और न केवल पर्याय-रूप ही, किन्तु परस्पर सापेक्ष द्रव्य-पर्यायरूप धर्मों का आधारभूत धर्मी है । मोक्ष कौन से धर्म से होता है अब यह विचार किया जाता है -- इसलिये क्षायोपशमिक-रूप है, ऐसा जो विशिष्ट भेद-ज्ञान होता है वही मुक्ति का कारण होता है । क्योंकि वह विशिष्ट भेद-ज्ञान ही सब प्रकार के मिथ्यात्व और रागादिरूप विकल्पों की उपाधि से रहित ऐसी जो अपनी शुद्धात्मा, उसकी भावना से उत्पन्न हुआ परम आह्लाद, वही है लक्षण जिसका, ऐसा जो सुखामृत-रस उसके आस्वादन के साथ एकाकाररूप जो परम-समरसी-भाव परिणाम, उस परिणाम के कार्यभूत जो अनंत-ज्ञान-सुखादि-स्वरूप मोक्ष का फल है उसका विवक्षित एक (प्रधान) शुद्ध-नय के द्वारा शुद्धोपादान कारण-रूप है । यही बात अमृतचन्द्राचार्य स्वामी ने कही है --
    भेद विज्ञानत सिद्धा: सिद्धा ये किल केचर
    तत्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल के वन ।
    जो कोई भी सिद्ध होते हैं वे सब नियम-पूर्वक भेद-विज्ञान के द्वारा ही अर्थात् निर्विकल्प शुद्ध आत्म-ध्यान के द्वारा ही होते हैं जब वह शुद्ध आत्म-ध्यान नहीं रह पाता उस समय फिर से कर्म-बंध करने लगते हैं अर्थात कर्म-बंधन से छूटने का उपाय एक निर्विकल्प शुद्धात्मा का ध्यान भेद-विज्ञान ही है ॥४१४-४२८॥

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    + ज्ञान आहारक क्यों नहीं? -
    अत्ता जस्सामुत्ते ण हु सो आहारगो हवदि एवं । (405)
    आहारो खलु मुत्ते जम्हा सो पोग्गलमओ दु ॥429॥
    णवि सक्कदि घेत्तुं जं ण विमोत्तुं जं च जं परद्दव्वं । (406)
    सो कोवि य तस्स गुणो पाउगिओ विस्ससो वा वि ॥430॥
    तम्हा दु जो विसुद्धो चेदा सो णेव गेण्हदे किंचि । (407)
    णेव विमुंचदि किंचि वि जीवाजीवाण दव्वाणं ॥431॥
    आहार पुद्गलमयी है बस इसलिए है मूर्तिक ।
    ना अहारक इसलिए ही यह अमूर्तिक आतमा ॥४०५॥
    परद्रव्य का ना ग्रहण हो ना त्याग हो इस जीव के ।
    क्योंकि प्रायोगिक तथा वैस्रसिक स्वयं गुण जीव के ॥४०६॥
    इसलिए यह शुद्धातमा पर जीव और अजीव से ।
    कुछ भी ग्रहण करता नहीं कुछ भी नहीं है छोड़ता ॥४०७॥
    अन्वयार्थ : [अत्ता] आत्मा [जस्सामुत्ते] चूंकि अमूर्तिक है [एवं] इसप्रकार [हु सो] वह वस्तुत: [आहारगो] आहारक [ण] नहीं [हवदि] होती [आहारो] आहार [खलु] स्पष्टत: [मुत्ते] मूर्तिक है [जम्हा] क्योंकि [सो पोग्गलमओ दु] वह (आहार) पुद्गलमय है ।
    [परद्दव्वं] परद्रव्य को [णवि] न तो [जं] उसे [घेत्तुं] ग्रहण कर [सक्कदि] सकते हैं [च] और [ण विमोत्तुं जं] न वह छोड़ा जा सकता है क्योंकि [सो कोवि य तस्स] उस (आत्मा) के कोई ऐसे ही [पाउगिओ विस्ससो वा] प्रायोगिक और वैस्रसिक [गुणो] गुण हैं ।
    [तम्हा दु] इसलिए [जो विसुद्धो चेदा] जो विशुद्धात्मा है [सो] वह [जीवाजीवाण दव्वाणं] जीव और अजीव (पर) द्रव्यों में [णेव गेण्हदे किंचि] कुछ भी ग्रहण नहीं करते [णेव विमुंचदि किंचि वि] न कुछ छोड़ते ही हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    परमात्मा शुद्ध-बुद्ध-रूप एक स्वभाव-वाला है, ऐसी हालत में जब परमात्मा के देह नहीं है तो उसके आहार कैसे होगा ? यह बतलाते हैं --

    ज्ञान परद्रव्य को किंचित्मात्र भी न तो ग्रहण करता है और न छोड़ता ही है; क्योंकि प्रायोगिक और वैस्रसिक गुण की सामर्थ्य से ज्ञान के द्वारा पर-द्रव्य का ग्रहण तथा त्याग अशक्य है । ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य का कर्म-नोकर्मरूप परद्रव्य आहार नहीं है; क्योंकि वह मूर्तिक पुद्गल-द्रव्य है, इसलिए ज्ञान आहारक नहीं है । इसीलिए ऐसी आशंका भी नहीं करनी चाहिए कि ज्ञान (आत्मा) के देह होगी ।

    (कलश--सोरठा)
    शुद्ध-ज्ञानमय जीव, के जब देह नहीं कही ।
    तब फिर देही लिंग, शिवमग कैसे हो सके ॥२३८॥

    [एवं शुद्धस्य ज्ञानस्य देहः एव न विद्यते] इसप्रकार शुद्ध-ज्ञान के देह ही नहीं है; [ततः ज्ञातुः देहमयं लिङ्गं मोक्षकारणम् न] इसलिए ज्ञाता को देहमय चिह्न मोक्ष का कारण नहीं है ।

    जयसेनाचार्य :
    यह आत्मा जिस शुद्ध-नय के अभिप्राय से मूर्तिक नहीं है ऐसी अमूर्तिक होने पर स्पष्टतया यह आत्मा उस शुद्ध-नय के अभिप्राय से ही आहारक भी नहीं है क्योंकि वह आहार तो मूर्तिक है इसलिये वह नोकर्म-शरीर-योग्य पुद्गलों का ग्रहण पुद्गल-मय ही है । यह कोई उस आत्मा का कर्म-संयोग से होने वाला प्रायोगिक गुण है और स्वभाव से उत्पन्न होने वाला वैस्रसिक-गुण है कि जिससे वह आत्मा आहारक-वर्गणा आदि पर-द्रव्यों को न ग्रहण ही कर सकता है और न छोड़ ही सकता है ।

    प्रश्न – हे भगवन् ! कर्म से होने वाले प्रायोगिक गुण के निमित्त से आहार को ग्रहण करते हुये ये सभी आत्मा अनाहारक कैसे होते हैं ?

    उत्तर – हे शिष्य ! तुमने बहुत ही अच्छा कहा है, किंतु निश्चय-नय से यह आत्मा तन्मय -- उन आहारक वर्गणादिरूप नहीं होता है, जो वह आहार ग्रहण करता है वह व्यवहार-नय का कथन है यहाँ तो निश्चय-नय का व्याख्यान किया गया है । जिस कारण निश्चय-नय से यह आत्मा अनाहारक है उस कारण से यह विशेष-रूप से शुद्ध है -- रागादि भावों से रहित है अत: यह जीव-अजीव द्रव्यों में से किंचित् भी सचित्त-अचित्त आहार को न ग्रहण करता है और न छोड़ता ही है । आहार के छह भेद हैं -- कर्म-आहार, नोकर्म-आहार, कवलाहार, लेप्य-आहार, ओज-आहार और मानस-आहार । यहाँ यह समझना कि उस कारण से, निश्चय-नय की अपेक्षा से नोकर्म आहार-मय शरीर जीव का स्वरूप नहीं है । शरीर के अभाव में शरीरमय द्रव्य-लिंग भी जीव का स्वरूप नहीं है । इस तरह 'निश्चय-नय से जीव के आहार नहीं है' इस व्याख्यान की मुख्यता से बारहवें-स्थान में तीन गाथायें हुई है ॥४२९-४३१॥

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    + द्रव्य-लिंग भी निश्चय से मुक्ति का कारण नहीं -
    पासंडीलिंगाणि व गिहिलिंगाणि व बहुप्पयाराणि । (408)
    घेत्तुं वदंति मूढा लिंगमिणं मोक्खमग्गो त्ति ॥432॥
    ण दु होदि मोक्खमग्गो लिंगं जं देहणिम्ममा अरिहा । (409)
    लिंगं मुइत्तु दंसणणाणचरित्तणि सेवंति ॥433॥
    ण वि एस मोक्खमग्गो पासंडीगिहिमयाणि लिंगाणि । (410)
    दंसणणाणचरित्तणि मोक्खमग्गं जिणा बेंति ॥434॥
    तम्हा जहित्तु लिंगे सागारणगारएहिं वा गहिदे । (411)
    दंसणणाणचरित्ते अप्पाणं जुंज मोक्खपहे ॥435॥
    पाषण्डिलिंगानि वा गृहिलिंगानि वा बहुप्रकाराणि ।
    गृहीत्वा वदन्ति मूढा लिंगमिदं मोक्षमार्ग इति ॥४०८॥
    न तु भवति मोक्षमार्गो लिंगं यद्देहनिर्मा अर्हत: ।
    लिंगं मुक्त्वा दर्शनज्ञानचारित्राणि सेवन्ते ॥४०९॥
    नाप्येष मोक्षमार्ग: पाषंडिगृहिमयानि लिंगानि ।
    दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गं जिना ब्रुवन्ति ॥४१०॥
    तस्मात् जहित्वा लिंगानि सागारैरनगारकैर्वा गृहीतानि ।
    दर्शनज्ञानचारित्रे आत्मानं युंक्ष्व मोक्षपथे ॥४११॥
    ग्रहण कर मुनिलिंग या गृहिलिंग विविध प्रकार के ।
    यह लिंग ही है मुक्तिमग यह कहें कतिपय मूढ़जन ॥४०८॥
    पर मुक्तिमग ना लिंग क्योंकि लिंग तज अरिहंत जिन ।
    निज आत्म अरु सद्-ज्ञान-दर्शन-चरित का सेवन करें ॥४०९॥
    बस इसलिए गृहिलिंग या मुनिलिंग ना मग मुक्ति का ।
    जिनवर कहें बस ज्ञान-दर्शन-चरित ही मग मुक्ति का ॥४१०॥
    बस इसलिए अनगार या सागार लिंग को त्यागकर ।
    जुड़ जा स्वयं के ज्ञान-दर्शन-चरणमय शिवपंथ में ॥४११॥
    अन्वयार्थ : बहुत प्रकार के [पासंडीलिंगाणि व गिहिलिंगाणि व] पाखण्डी (मुनि) लिंगों अथवा गृहस्थ लिंगों को [घेत्तुं] ग्रहण करके [मूढा] मूढ़जन यह [वदंति] कहते हैं कि यह [लिंगमिणं] लिंग ही [मोक्खमग्गो त्ति] मोक्षमार्ग है ।
    [तु] परन्तु [लिंगं] लिंग [मोक्खमग्गो] मोक्षमार्ग [ण दु होदि] नहीं होता क्योंकि [अरिहा] अरिहंतदेव [देहणिम्ममा] देह से निर्मम वर्तते हुए [लिंगं मुइत्तु] लिंग को छोड़कर (दृष्टि हटाकर) [दंसणणाणचरित्तणि] दर्शन-ज्ञान-चारित्र का [सेवंति] सेवन करते हैं ।
    [पासंडीगिहिमयाणि लिंगाणि] मुनियों और गृहस्थों के लिंग (वेष) [ण वि एस मोक्खमग्गो ] यह मोक्षमार्ग नहीं है [दंसणणाणचरित्तणि] दर्शन-ज्ञानचारित्र को ही [मोक्खमग्गं] मोक्षमार्ग [जिणा] जिनदेव [बेंति] कहते हैं ।
    [तम्हा] इसलिए [सागारणगारएहिं वा] गृहस्थों और मुनियों द्वारा [गहिदे] ग्रहण किये गये [जहित्तु लिंगे] लिंगों को छोड़कर [मोक्खपहे] मोक्षमार्गरूप [दंसणणाणचरित्ते] दर्शन-ज्ञान-चारित्र में [अप्पाणं जुंज] आत्मा (अपने) को लगा ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    कितने ही लोग अज्ञान से द्रव्य-लिंग को मोक्ष-मार्ग मानते हुए मोह से द्रव्य-लिंग को ही धारण करते हैं, परन्तु यह ठीक नहीं है; क्योंकि सभी अरिहंत भगवन्तों के शुद्ध-ज्ञानमयता होने से द्रव्य-लिंग के आश्रय-भूत शरीर के ममत्व का त्याग होता है । इसलिए शरीराश्रित द्रव्य-लिंग के त्याग से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की मोक्षमार्ग-रूप से उपासना देखी जाती है । वस्तुत: बात यह है कि द्रव्य-लिंग मोक्ष-मार्ग नहीं है; क्योंकि वह द्रव्य-लिंग शरीराश्रित होने से पर-द्रव्य है । दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मोक्ष-मार्ग है; क्योंकि वे आत्माश्रित होने से स्व-द्रव्य हैं । चूँकि द्रव्य-लिंग मोक्षमार्ग नहीं है; इसलिए सभी द्रव्य-लिंगों का त्याग करके दर्शन-ज्ञानत-चारित्र में ही स्थित होओ । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मोक्षमार्ग होने से इनमें ही आत्मा को लगाना योग्य है - ऐसी सूत्र की अनुक्ति है ।

    (कलश--दोहा)
    मोक्षमार्ग बस एक ही, रत्नत्रयमय होय ।
    अत: मुमुक्षु के लिए, वह ही सेवन योग ॥२३९॥

    [आत्मनः तत्त्वम् दर्शन-ज्ञान-चारित्र-त्रय-आत्मा] आत्मा का तत्त्व दर्शन-ज्ञान-चारित्र-त्रयात्मक है (अर्थात् आत्माका यथार्थ रूप दर्शन, ज्ञान और चारित्र के त्रिकस्वरूप है); [मुमुक्षुणा मोक्षमार्गः एकः एव सदा सेव्यः] इसलिये मोक्ष के इच्छुक पुरुष को (यह दर्शन-ज्ञान-चारित्र-स्वरूप) मोक्ष-मार्ग एक ही सदा सेवन करने योग्य है ।

    जयसेनाचार्य :
    उपर्युक्त लिखे अनुसार विशुद्ध-ज्ञान-दर्शन-स्वभाव वाले परमात्मा के नोकर्म आदि आहार के अभाव होने पर आहारमय देह नहीं है । देह के अभाव में देहमयी द्रव्य-लिंग भी निश्चय से मुक्ति का कारण नहीं है --

    जो मोही हैं अर्थात् रागादि-विकल्प की उपाधि से रहित परम-समाधिरूप भाव-लिंग के विषय के जानकर नहीं हैं, ये नाना प्रकार के बनावटी साधुओं के भेष अथवा गृहस्थों के भेष लेकर मान बैठते हैं कि यह द्रव्य-मय मेरा भेष मुझे मुक्ति प्राप्त करा देगा । उसके लिये आचार्य कहते हैं कि [ण य होदि मोक्खमग्गो लिंगं] भाव-लिंग से रहित अर्थात् अंतरंग-शुद्धि से रहित केवल-मात्र शरीर पर स्वीकार किया हुआ द्रव्य-लिंग ही मोक्ष का मार्ग नहीं हो सकता । क्योंकि [जं देहणिम्ममा अरिहा] अर्हन्त-भगवान देह से निर्ममत्व होते हुए और [लिंगं मुइत्तु] लिंग का आधार जो शरीर उसके ममत्त्व को मन-वचन-काय से छोड़कर [दंसणणाणचरित्तणि सेवंते] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की सेवा करते हैं । अर्थात चिदानंद ही है एक स्वभाव जिसका, ऐसा जो शुद्धात्म-तत्त्व उसके विषय में जो श्रद्धान, ज्ञान और आचरण-रूप सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं, उनको बार-बार उपार्जन करते हैं ॥४३२-४३३॥

    [ण वि एस मोक्खमग्गो] यह मोक्ष का मार्ग नहीं है । कौन मोक्ष का मार्ग नहीं है ? कि [पासंडीगिहिमयाणि लिंगाणि] निर्विकल्प समाधि-रुप भाव-लिंग से सर्वथा रहित जो पाखंडी या गृहस्थों के द्वारा स्वीकार किये जो नाना भेष हैं, वे मोक्ष-मार्ग नहीं हैं । ये भेष कौन-कौन से हैं ? कि बाह्य में सर्वथा निर्ग्रन्थ होकर रहता अथवा कोपीन धारण करना आदि-रूप बहिरंग आकार के चिह्न-रूप हैं, ये सब मोक्ष-मार्ग नहीं हैं । मोक्ष-मार्ग कब है ? कि [दंसणणाणचरित्तणि मोक्खमग्गं जिणा बेंति] शुद्ध-बुद्ध-रूप एक-स्वभाव-वाला जो परमात्म-तत्त्व उसका श्रद्धान, ज्ञान और अनुभव ही है स्वरूप जिसका, ऐसा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्ष का मार्ग है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ॥४३४॥

    [तम्हा जहित्तु लिंगे सागारणगारएहिं वा गहिदे] जब कि ऊपर लिखे अनुसार सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ही मोक्ष का मार्ग है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान, प्रतिपादन करते हैं तो निर्विकार स्व-संवेदन-ज्ञानरूप जो भाव-लिंग है उससे रहित होने वाले सागार गृहस्थ और अनगार त्यागी मुनियों के द्वारा मात्र बाह्य में ग्रहण किये हुए द्रव्य-लिंगों को छोड़कर [दंसणणाणचरित्ते अप्पाणं जुंज मोक्खपहे] हे भव्य ! केवल-ज्ञानादि अनंत-चतुष्टय स्वरूप जो शुद्ध आत्मा उसका समीचीन श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान रूप जो अभेद-रत्नत्रय ही है लक्षण जिसका, ऐसे मोक्ष-मार्ग में अर्थात मोक्ष के उपाय में अपने आपको युक्त करो अर्थात तल्लीन बन जावो ॥४३५॥

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    + आत्म-रमणता की प्रेरणा -
    मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेय । (412)
    तत्थेव विहर णिच्चं मा विहरसु अण्णदव्वसु ॥436॥
    मोक्षपथे आत्मानं स्थापय तं चैव ध्यायस्व तं चेतयस्व ।
    तत्रैव विहर नित्यं मा विहार्षीरन्यद्रव्येषु ॥४१२॥
    मोक्षपथ में थाप निज को चेतकर निज ध्यान धर ।
    निज में ही नित्य विहार कर परद्रव्य में न विहार कर ॥४१२॥
    अन्वयार्थ : हे भव्य ! तू [मोक्खपहे] मोक्षमार्ग में [अप्पाणं] अपने (आत्मा) को [ठवेहि] स्थापित कर [तं चेव झाहि तं चेय] उसका ही ध्यान कर, उसी को चेत (अनुभव कर) और [तत्थेव विहर णिच्चं] उसमें (निज-आत्मा में) ही सदा विहार कर [मा विहरसु अण्णदव्वसु] पर-द्रव्यों में विहार मत कर ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब आचार्य यह उपदेश करते हैं कि मोक्षार्थी जीव को शुद्धात्मानुभूति रूप लक्षण वाले निश्चय-रत्नत्रयात्मक मोक्ष-मार्ग का सेवन करना चाहिए --

    यद्यपि यह अपना आत्मा अनादिकाल से अपनी प्रज्ञा के दोष से परद्रव्य और राग-द्वेषादि में निरन्तर स्थित है; तथापि हे आत्मन् ! तू अपनी प्रज्ञा के गुण के द्वारा

    (कलश--हरिगीत)
    दृगज्ञानमय वृत्त्यात्मक यह एक ही है मोक्षपथ ।
    थित रहें अनुभव करें अर ध्यावें अहिर्निश जो पुरुष ॥
    जो अन्य को न छुयें अर निज में विहार करें सतत ।
    वे पुरुष ही अतिशीघ्र ही समैसार को पावें उदित ॥२४०॥

    [दृग्-ज्ञप्ति-वृत्ति-आत्मकः यः एषः एकः नियतः मोक्षपथः] दर्शनज्ञान-चारित्र स्वरूप जो यह एक नियत मोक्षमार्ग है, [तत्र एव यः स्थितिम् एति] उसी में जो पुरुष स्थिति प्राप्त करता है (स्थित रहता है), [तम् अनिशं ध्यायेत्] उसी का निरन्तर ध्यान करता है, [तं चेतति] उसी को चेतता है (उसी का अनुभव करता है), [च द्रव्यान्तराणि अस्पृशन् तस्मिन् एवनिरन्तरं विहरति] और अन्य द्रव्यों को स्पर्श न करता हुआ उसी में निरन्तर विहार करता है [सः नित्य-उदयं समयस्य सारम् अचिरात् अवश्यं विन्दति] वह पुरुष, जिसका उदय नित्य रहता है ऐसे समय के सार को (अर्थात् परमात्मा के रूप को) अल्प-काल में ही अवश्य प्राप्त करता है अर्थात् उसका अनुभव करता है ।

    (कलश--हरिगीत)
    जो पुरुष तज पूर्वोक्त पथ व्यवहार में वर्तन करें ।
    तर जायेंगे यह मानकर द्रव्यलिंग में ममता धरें ॥
    वे नहीं देखें आतमा निज अमल एक उद्योतमय ।
    अर अखण्ड अभेद चिन्मय अज अतुल आलोकमय ॥२४१॥

    [ये तु एनं परिहृत्य संवृति-पथ-प्रस्थापितेन आत्मना द्रव्यमये लिंङ्गे ममतांवहन्ति] जो पुरुष इस पूर्वोक्त परमार्थ-स्वरूप मोक्ष-मार्ग को छोड़कर व्यवहार मोक्ष-मार्ग में स्थापित अपने आत्मा के द्वारा द्रव्यमय लिंग में ममता करते हैं, [ते तत्त्व-अवबोध-च्युताः अद्य अपि समयस्य सारम् न पश्यन्ति] वे पुरुष तत्त्व के यथार्थ-ज्ञान से रहित होते हुए अभी तक समय के सार को (अर्थात् शुद्ध आत्मा को) नहीं देखते (अनुभव नहीं करते) । वह समयसार अर्थात् शुद्धात्मा कैसा है ? [नित्य-उद्योतम्] नित्य प्रकाशमान है (अर्थात् कोई प्रतिपक्षी होकर उसके उदय का नाश नहीं कर सकता), [अखण्डम्] अखण्ड है (अर्थात् जिसमें अन्य ज्ञेय आदि के निमित्त खण्ड नहीं होते), [एकम्] एक है (अर्थात् पर्यायों से अनेक अवस्थारूप होने पर भी जो एकरूपत्व को नहीं छोड़ता), [अतुल-आलोकं] अतुल (उपमा-रहित) प्रकाशवाला है, (क्योंकि ज्ञान-प्रकाश को सूर्यादि के प्रकाश की उपमा नहीं दी जा सकती), [स्वभाव-प्रभा-प्राग्भारं] स्वभाव प्रभा का पुंज है (अर्थात् चैतन्य-प्रकाश का समूहरूप है), [अमलं] अमल है (अर्थात् रागादि-विकाररूपी मल से रहित है)

    जयसेनाचार्य :
    [मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि] हे भव्य ! शुद्धज्ञान-दर्शन स्वभाव-वाले आत्म-तत्त्व का समीचीन श्रद्धान, ज्ञान और आचरण-रूप जो अभेद-रत्नत्रय, वही है स्वरूप जिसका ऐसे

    🏠
    + भाव-लिंग के बिना द्रव्य-लिंग द्वारा समयसार का ग्रहण नहीं -
    पासंडीलिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु । (413)
    कुव्वंति जे ममत्तिं तेहिं ण णादं समयसारं ॥437॥
    पाषंडिलिंगेषु वा गृहिलिंगेषु वा बहुप्रकारेषु ।
    कुर्वंति ये ममत्वं तैर्न ज्ञात: समयसार: ॥४१३॥
    ग्रहण कर मुनिलिंग या गृहिलिंग विविध प्रकार के ।
    उनमें करें ममता, न जानें वे समय के सार को ॥४१३॥
    अन्वयार्थ : [बहुप्पयारेसु] बहुत प्रकार के [पासंडीलिंगेसु व] मुनिलिंगों या [गिहिलिंगेसु व] गृहस्थलिंगों में [कुव्वंति जे ममत्तिं] जो ममत्व करते हैं [तेहिं ण णादं समयसारं] उन्होनें समयसार को नहीं जाना ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    आगे कहते हैं कि जो सहज शुद्ध परमात्मानुभूति लक्षण वाले भाव-लिंग से तो रहित हैं, किन्तु द्रव्य-लिंग में ही ममता करते हैं वे आज भी समयसार को नहीं जानते --

    मैं श्रमण हूँ या मैं श्रमणोपासक (श्रावक) हूँ - इसप्रकार द्रव्य-लिंग में ही जो पुरुष ममत्व-भाव से मिथ्या अहंकार करते हैं; अनादिरूढ़ व्यवहार-विमूढ़, प्रौढ़-विवेक-वाले निश्चय पर अनारूढ़ वे पुरुष निश्चित-रूप से परमार्थ-सत्य समयसार (शुद्धात्मा) को नहीं देखते हैं ।

    (कलश--हरिगीत)
    तुष माहिं मोहित जगतजन ज्यों एक तुष ही जानते ।
    वे मूढ़ तुष संग्रह करें तन्दुल नहीं पहिचानते ॥
    व्यवहारमोहित मूढ़ त्यों व्यवहार को ही जानते ।
    आनन्दमय सद्ज्ञानमय परमार्थ नहीं पहिचानते ॥२४२॥

    [व्यवहार-विमूढ-दृष्टयः जनाः परमार्थ नो कलयन्ति] जिनकी दृष्टि (बुद्धि) व्यवहार में ही मोहित है ऐसे पुरुष परमार्थ को नहीं जानते, [इह तुष-बोध-विमुग्ध-बुद्धयः तुषं कलयन्ति, न तण्डुलम्] जैसे जगत में जिनकी बुद्धि तुष के ज्ञान में ही मोहित है (मोह को प्राप्त हुई है) ऐसे पुरुष तुष को ही जानते हैं, तंदुल (चावल) को नहीं जानते ।

    (हिंदी--हरिगीत)
    यद्यपी परद्रव्य है द्रवलिंग फिर भी अज्ञजन ।
    बस उसी में ममता धरें द्रवलिंग मोहित अन्धजन ॥
    देखें नहीं जानें नहीं सुख-मय समय के सार को ।
    बस इसलिए ही अज्ञजन पाते नहीं भवपार को ॥२४३॥

    [द्रव्यलिङ्ग-ममकार-मीलितैः समयसारः एव न दृश्यते] जो द्रव्यलिंग में ममकार के द्वारा अंध (विवेक रहित) हैं, वे समयसार को ही नहीं देखते; [यत् इह द्रव्यलिंगम्किल अन्यतः] क्योंकि इस जगत में द्रव्यलिंग तो वास्तव में अन्य द्रव्य से होता है, [इदम् ज्ञानम् एव हि एकम् स्वतः] मात्र यह ज्ञान ही निज से (आत्म-द्रव्य से) होता है ।

    जयसेनाचार्य :
    [पासंडीलिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु कुव्वंति जे ममत्तिं] वीतराग-स्वरूप स्व-संवेदन-ज्ञान लक्षण वाले ऐसे भाव-लिंग से जो रहित हैं ऐसे निर्ग्रन्थ-रूप पाखण्डियों के द्रव्य-लिंगों में और कोपीन आदि चिह्न-वाले गृहस्थ के द्रव्य-लिंगों में, जो कि अनेक प्रकार के हैं, उनमें जो ममता किये बैठे हैं, [तेहिं ण णादं समयसारं] वे लोग निश्चय-समयसार को नहीं जानते । वह निश्चय-कारण-समयसार कैसा है ? कि जो तीन-लोक और तीन-काल में ख्याति, पूजा, लाभ, मिथ्यात्व, काम और क्रोधादि समस्त पर-द्रव्यों के आलम्बन से उत्पन्न होने वाले शुभ तथा अशुभ-संकल्प-विकल्प से रहित है और चिदानंदमयी एक स्वभाव-रूप शुद्धात्म-तत्त्व का समीचीन श्रद्धान, ज्ञान और आचरण तद्रूप जो अभेद-रत्नत्रयमयी निर्विकल्प-समाधि, उससे उत्पन्न हुआ वीतराग सहज अपूर्व परम-आह्लाद-रूप सुख-रस का अनुभवन करना, वही हुआ परम समरसी-भाव-रूप परिणाम, उसके आलम्बन से पूर्ण-कलश के समान भरा-पूरा है और केवल-ज्ञानादि अनंत-चतुष्टय की प्रकटता-रूप साक्षात् उपादेय-भूत कार्य-समयसार का उत्पादक है ऐसा जो निश्चय कारण-समयसार है, उसको नहीं जानते ॥४३७॥

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    + परमार्थ से लिंग मोक्षमार्ग नहीं -
    ववहारिओ पुण णओ दोण्णि वि लिंगाणि भणदि मोक्खपहे । (414)
    णिच्छयणओ ण इच्छदि मोक्खपहे सव्वलिंगाणि ॥438॥
    व्यावहारिक: पुनर्नयो द्वे अपि लिंगे भणति मोक्षपथे ।
    निश्चयनयो नेच्छति मोक्षपथे सर्वलिंगानि ॥४१४॥
    व्यवहार से ये लिंग दोनों कहे मुक्तीमार्ग में ।
    परमार्थ से तो नहीं कोई लिंग मुक्तीमार्ग में ॥४१४॥
    अन्वयार्थ : [ववहारिओ पुण णओ] व्यवहारनय [दोण्णि वि लिंगाणि] दोनों ही लिंगों (मुनिलिंग और गृहीलिंग) को [भणदि मोक्खपहे] मोक्षमार्ग कहता है; परन्तु [णिच्छयणओ] निश्चयनय [सव्वलिंगाणि] सभी लिंगों को [मोक्खपहे] मोक्षमार्ग [ण इच्छदि] नहीं मानता ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    मुनि-लिंग और गृहस्थ-लिंग व्यवहार से मोक्ष-मार्ग, निश्चय से कोई भी लिंग मोक्षमार्ग नहीं --

    श्रमण और श्रमणोपासक के भेद से द्रव्यलिंग दो प्रकार का कहा गया है; उसे मोक्षमार्ग बतानेवाला कथन मात्र व्यवहार-कथन है, परमार्थ-कथन नहीं है; क्योंकि उक्त कथन स्वयं अशुद्ध-द्रव्य के अनुभवन-स्वरूप होने से अपरमार्थ है; उसके परमार्थत्व का अभाव है । श्रमण और श्रमणोपासक के विकल्प से अतिक्रान्त दर्शन-ज्ञान-स्वभाव में प्रवृत्त परिणति मात्र शुद्ध-ज्ञान का ही एक निस्तुष (निर्मल) अनुभवन परमार्थ है; क्योंकि वह अनुभवन स्वयं शुद्धद्रव्य का अनुभवन-स्वरूप होने से वस्तुत: परमार्थ है । इसलिए जो व्यवहार को ही परमार्थ-बुद्धि से परमार्थ मानकर अनुभव करते हैं; वे समयसार का ही अनुभव नहीं करते; किन्तु जो परमार्थ को परमार्थ-बुद्धि से अनुभव करते हैं; वे ही समयसार का अनुभव करते हैं ।

    (कलश--हरिगीत)
    क्या लाभ है ऐसे अनल्प विकल्पों के जाल से ।
    बस एक ही है बात यह परमार्थ का अनुभव करो ॥
    क्योंकि निजरसभरित परमानन्द के आधार से ।
    कुछ भी नहीं है अधिक सुन लो इस समय के सार से ॥२४४॥

    [अतिजल्पैः अनल्पैः दुर्विकल्पैः अलम् अलम्] बहुत कथन से और बहुत दुर्विकल्पों से बस होओ, बस होओ; [इह] यहाँ मात्र इतना ही कहना है कि [अयम् परमार्थः एकः नित्यम् चेत्यताम्] इस एकमात्र परमार्थ का ही निरन्तर अनुभव करो; [स्वरस-विसर-पूर्ण-ज्ञान-विस्फूर्ति-मात्रात् समयसारात् उत्तरं खलु किञ्चित् न अस्ति] क्योंकि निजरस के प्रसार से पूर्ण जो ज्ञान उसके स्फुरायमान होनेमात्र जो समयसार (परमात्मा) उससे उच्च वास्तव में दूसरा कुछ भी नहीं है ।

    (कलश--दोहा)
    ज्ञानानन्दस्वभाव को, करता हुआ प्रत्यक्ष ।
    अरे पूर्ण अब हो रहा, यह अक्षय जगचक्षु ॥२४५॥

    [आनन्दमयम् विज्ञानघनम् अध्यक्षताम् नयत्] आनन्दमय विज्ञानघन को (शुद्ध परमात्मा को, समयसार को) प्रत्यक्ष करता हुआ, [इदम् एकम् अक्षयं जगत्-चक्षुः] यह एक (अद्वितीय) अक्षय जगत-चक्षु (समयप्राभृत) [पूर्णताम् याति] पूर्णता को प्राप्त होता है ।

    जयसेनाचार्य :
    अब इसके आगे आचार्य बतलाते हैं कि विकार रहित शुद्धात्मा का संवेदन ही है लक्षण जिसका ऐसे भाव-लिंग से युक्त जो निर्ग्रन्थ-यति-लिंग होता है और कोपीन आदि से युक्त जो बहुत प्रकार का गृहस्थ-लिंग होता है, उन दोनों को व्यवहारनय मोक्ष-मार्ग मानता है, किन्तु निश्चय-नय तो सब ही द्रव्य-लिंगों को मोक्ष-मार्ग नहीं मानता --

    [ववहारिओ पुण णओ दोण्णि वि लिंगाणि भणदि मोक्खपहे] व्यवहारिक-नय मोक्ष-मार्ग में निर्ग्रन्थ-दिगम्बर-लिंग और उत्तम-श्रावक का लिंग, इन दोनों लिंगों को मोक्ष-मार्ग में उपयोगी मानता है । क्योंकि वह निर्विकार स्व-संवेदन लक्षणवाले भाव-लिंग का बहिरंग सहकारी-कारण है किन्तु [णिच्छयणओ ण इच्छदि मोक्खपहे सव्वलिंगाणि] निश्चय-नय तो स्वयं निर्विकल्प-समाधिरूप है इसलिये निर्विकल्प समाधिरूप होने से वह -- 'मैं निर्ग्रन्थ लिंगी हूँ अथवा कोपीन धारक हूँ' इस प्रकार के मन में पैदा होने वाले सभी द्रव्य-लिंगों के विकल्प को सर्वथा नहीं चाहता, जैसे कि वह रागादि-विकल्प को नहीं चाहता ।

    अब यहाँ आचार्य शिष्य को संबोधन कर कहते हैं कि हे शिष्य ! यहाँ पर [पाखंडीलिंगाणि य] इत्यादि सात गाथाओं के द्वारा जो द्रव्य-लिंग का निषेध किया है उसे सर्वथा निषिद्ध ही मत मान लेना, किन्तु निश्चय-रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प-समाधिरूप भाव-लिंग है, उससे रहित होनेवाले यतियों को संबोधन किया है कि -- हे तपोधन लोगों ! तुम अपने इस द्रव्य-लिंग-मात्र से ही संतोष मत कर बैठना किन्तु द्रव्य-लिंग के आधार से निश्चय-रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प-समाधिरूप भावना को प्राप्त करने की चेष्ठा करना ।

    इस पर शिष्य फिर कहता है कि यह आपका कहना है कि 'यहाँ द्रव्यलिग का निषेध नहीं किया है' किन्तु यहाँ तो स्पष्ट रूप से [ण य होदि मोक्खमग्गो लिंगमित्यादि] लिखा हुआ है । जिसका अर्थ होता है कि द्रव्य-लिंग मोक्ष-मार्ग नहीं है इत्यादि ।

    आचार्य कहते हैं कि तुम कहते हो सो बात नहीं है किन्तु [ण य होदि मोक्खमग्गो लिंगमित्यादि] इस वचन से भाव-लिंग-रहित द्रव्य-लिंग का निषेध किया है, न कि भाव-सहित द्रव्य-लिंग का, क्योंकि द्रव्य-लिंग का आधार-भूत जो देह है उसके ममत्व का यहाँ निषेध किया है, न कि द्रव्य-लिंग का । क्योंकि पहले जब दीक्षा ली गई उस समय सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग किया गया था, तब वहाँ देह का त्याग नहीं किया गया, क्योंकि देह के आधार से ध्यान और ज्ञानानुष्ठान होता है । और शेष-परिग्रह के समान देह को पृथक् भी नहीं किया जा सकता, अत: फिर वीतराग-रूप-ध्यान के काल में 'यह मेरा देह है, मैं लिंगी हूँ' इत्यादि विकल्प व्यवहार के द्वारा भी नहीं करना योग्य है । इस कथन से देह का ममत्व छुड़ाया है ।

    यह कैसे जाना जाये ?

    इसका उत्तर यह है कि [जं देह णिम्ममा अरिहा दंसणाणचरित्ताणि सेवंते] इत्यादि मूल-ग्रन्थकार का वचन है, इससे स्पष्ट जाना जाता है कि यहाँ देह का ममत्व छुडाया है और वह ठीक भी है । क्योंकि शालि-तंदुल के बाहर में जब तक तुष लगा रहे तब तक अंतरंग के तुष को नहीं छुडाया जा सकता । जहाँ अंतरंग तुष का त्याग होता है वहाँ उसके बहिरंग तुष का त्याग अवश्य होता ही है । इस न्याय से जहाँ सर्व-संग अर्थात परिग्रह के त्याग-स्वरूप बहिरंग द्रव्य-लिंग होता है, वहाँ भाव-लिंग होता भी है और नहीं भी होता, कोई एक नियम नहीं है । किन्तु अंतरंग भाव-लिंग जहाँ होता है वहाँ सर्व-परिग्रह त्यागरूप द्रव्य-लिंग अवश्य होता ही है ऐसा नियम है ।

    यहाँ पर शिष्य फिर प्रश्न करता है कि हे भगवन् ! जहाँ भाव-लिंग होता है वहाँ बहिरंग द्रव्य-लिंग भी होता ही है ऐसा भी नियम नहीं है क्योंकि [साहारणासाहारण] इत्यादि आगम का वचन मिलता है । आचार्य इसका परिहार करते हैं कि बात ऐसी है कि कोई तपस्वी ध्यान लगाये बैठा है वहाँ कोई दुष्ट आकर दुष्ट-भाव से उस ध्यान में बैठे हुए तपस्वी के कपडा लपेट जाय या उसे कोई आभूषण आदि पहना दे तो भी वह तो निर्ग्रन्थ ही रहता है क्योंकि उसके बुद्धि-पूर्वक ममत्व का अभाव है जिसके लिए पाण्डवादिक उदाहरण स्पष्ट है । तथा भरत-चक्रवर्ती आदि भी दो घडी काल में ही मुक्त हो गये हैं वे भी निर्ग्रन्थ-रूप धारण करके ही मुक्त हुये हैं, परन्तु उनसे परिग्रह के त्यागरूप अवस्था का काल स्वल्प होने से साधारण लोग उनके परिग्रह के त्याग को नहीं जानते हैं, ऐसा यहाँ आशय है । इस प्रकार भाव-लिंग से रहित मात्र द्रव्य-लिंग से मोक्ष नहीं होता किन्तु जो भाव-लिंग सहित हैं उनका वहाँ द्रव्य-लिंग सहकारी कारण है इस प्रकार के व्याख्यान की मुख्यता से यहाँ तेरहवें स्थल में सात गाथायें कहीं गई ।

    यहाँ पर शिष्य फिर प्रश्न करता है कि केवल-ज्ञान तो शुद्ध होता है और छद्मस्थ का ज्ञान अशुद्ध, वह छद्मस्थ का ज्ञान अशुद्ध-रूप केवल-ज्ञान का कारण नहीं हो सकता क्योंकि
    सुद्धं तु वियाणंतो सुद्धमेवप्पयं लहदि जीवो
    इस प्रकार इसी समयसार में वचन आया है, अर्थात् शुद्ध को जानने वाला ही आत्मा शुद्ध बनता है ऐसा समयसार में लिखा है । इसका आचार्य महाराज समाधान करते हैं कि हे भाई ! तुम जैसा कहते हो ऐसा नहीं है, अपितु छद्मस्थ का ज्ञान कथंचित् शुद्ध भी होता है तो कथंचित् अशुद्ध भी । केवल-ज्ञान की अपेक्षा तो छद्मस्थ का ज्ञान अशुद्ध ही होता है किन्तु मिथ्यात्व और रागादि से रहित हो जाने के कारण और वीतराग-सम्यक्त्व और चारित्र-सहित होने के कारण वह शुद्ध भी होता है । अभेद-नय से वह छद्मस्थ सम्बन्धित भेद-विज्ञान आत्म-स्वरूप ही होता है, इसलिये एकदेश व्यक्ति-रूप उस ज्ञान के द्वारा सकल-देश व्यक्ति-रूप केवल-ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, इसमें कोई दोष नहीं है, इसलिये 'वह शुद्ध नहीं होता' ऐसा आशय लेने पर तो फिर मोक्ष ही नहीं हो सकता क्योंकि छद्मस्थों का ज्ञान एकदेश निरावरण तो होता है, किन्तु केवलज्ञान की अपेक्षा वह नियम-पूर्वक आवरण सहित और क्षायोपशमिक ही होता है । इस पर यदि तुम ऐसा कहो कि परिणामिक भाव शुद्ध हैं उससे मोक्ष हो सकता है, तो यह भी तुम्हारा कहना ठीक नहीं बैठता क्योंकि केवल-ज्ञान होने के पहले तो पारिणामिक भाव भी व्यक्ति रूप से नहीं किन्तु शक्तिरूप से ही शुद्ध होता है । देखो, पारिणामिक-भाव जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व के भेद से तीन प्रकार का है । उसमें अभव्यत्व भाव तो मुक्ति का कारण नहीं हो सकता है । शेष दो जीवत्व और भव्यत्व, इन दोनों में शुद्धता तब होती है जबकी यह जीव दर्शन-मोहनीय के उपशम, क्षय या क्षयोपशम को प्राप्त कर लेने से वीतराग-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के रूप में परिणत होता है । वह शुद्धता वहां पर मुख्य रूप से औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक भाव संबंधी होती है । पारिणामिक भाव की तो वहाँ गौणता रहती है । दूसरी बात यह है कि शुद्ध-पारिणामिक-भाव तो बंध-मोक्ष का कारण ही नहीं होता ऐसा पंचास्तिकाय के निम्न श्लोक में कहा है --

    मोक्ष कुर्वन्ति मिश्रौपशमिकक्षायिकाभिधा:
    बन्धमौदयिको भावो निष्किय: पारिणामिक: ।

    अर्थ – जीव के भाव औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, औदयिक और पारिणामिक के भेद से पाँच प्रकार के हैं । उनमें से औदयिक-भाव तो बंध करने वाला है, और औपशमिक-भाव, क्षायोपशमिक-भाव क्षायिक-भाव मुक्ति देने वाले हैं । पारिणामिक-भाव निष्किय होता है ।

    अतएव यह बात निश्चित होती है कि मोक्ष का कारण तो क्षायोपशमिक-रूप भाव-श्रुतज्ञान ही है जो कि वीतराग-सम्यक्त्व और चारित्र के साथ में नियम से होता है और जो निर्विकल्प रूप शुद्धात्मा की परिच्छित्ति-रूप लक्षण-वाला है । अतएव अभेद-नय से वही शुद्धात्मा शब्द से कहा जाता है । ऐसा वह भाव-श्रुत-ज्ञान, जो कि क्षायोपशमिक होता है वही मोक्ष का कारण होता है । शुद्ध-पारिणामिक-भाव कथंचित् भेदाभेदात्मक द्रव्य-पर्याय स्वरूप जो जीव-पदार्थ है उसकी एकदेश अभिव्यक्ति वाला शुद्ध-भावना-रूप अवस्था में ध्येय-रूप द्रव्य के रूप में रहता है, न कि ध्यान पर्याय के रूप में, क्योंकि ध्यान तो विनश्वर हुआ करता है ॥४३८॥

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    + ग्रन्थ समाप्ति और इसके पढ़ने का फल -
    जो समयपाहुडमिणं पढिदूणं अत्थतच्चदो णादुं । (415)
    अत्थे ठाही चेदा सो होही उत्तमं सोक्खं ॥439॥
    य: समयप्राभृतमिदं पठित्वा अर्थतत्त्वतो ज्ञात्वा ।
    अर्थे स्थास्यति चेतयिता स भविष्यत्युत्तमं सौख्यम् ॥४१५॥
    पढ़ समयप्राभृत ग्रंथ यह तत्त्वार्थ से जो जानकर ।
    निज अर्थ में एकाग्र हों वे परमसुख को प्राप्त हों ॥४१५॥
    अन्वयार्थ : [जो चेदा] ज्ञायक (चेतयिता) [समयपाहुडमिणं] इस समयसार को [पढिदूणं] पढ़कर [अत्थतच्चदो णादुं] अर्थ और तत्त्व को जानकर [अत्थे ठाही] अर्थ में स्थित होगा [सो होही उत्तमं सोक्खं] वह उत्तम सुखी होगा ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    जो विश्व-प्रकाशक होने से विश्वमय समयसारभूत भगवान आत्मा का प्रतिपादन करता है; इसलिए स्वयं शब्द-ब्रह्म के समान है; ऐसे इस समयसार शास्त्र को जो आत्मा भलीभाँति पढ़कर विश्व को प्रकाशित करने में समर्थ परमार्थ-भूत, चैतन्य-प्रकाशरूप आत्मा का निश्चय करता हुआ इस शास्त्र को अर्थ से और तत्त्व से जानकर; उसी के अर्थभूत एक पूर्ण विज्ञान-घन भगवान परम-ब्रह्म में सर्व उद्यम से स्थित होगा; वह आत्मा उसी समय साक्षात् प्रगट होनेवाले एक चैतन्य-रस से परिपूर्ण स्वभाव से सुस्थित और निराकुल होने से जो परमानन्द शब्द से वाच्य उत्तम और अनाकुल सुख-स्वरूप स्वयं ही हो जायेगा ।

    (दोहा)
    इस प्रकार यह आतमा अचल अबाधित एक ।
    ज्ञानमात्र निश्चित हुआ जो अखण्ड स्वसंवेद्य ॥२४६॥

    [इति इदम् आत्मनः तत्त्वं ज्ञानमात्रम् अवस्थितम्] इसप्रकार यह आत्मा-तत्त्व (परमार्थभूत स्वरूप) ज्ञान-मात्र निश्चित हुआ जो [अखण्डम्] अखण्ड है (अनेक ज्ञेयाकारों से और प्रतिपक्षी कर्मों से यद्यपि खण्ड-खण्ड दिखाई देता है तथापि ज्ञानमात्र में खण्ड नहीं है), [एकम्] एक है (अखण्ड होने से एकरूप है), [अचलं] अचल है (ज्ञानरूप से चलित नहीं होता, ज्ञेयरूप नहीं होता), [स्वसंवेद्यम्] स्वसंवेद्य है (अपने से ही ज्ञात होने योग्य है), [अबाधितम्] और अबाधित है (किसी मिथ्यायुक्ति से बाधा नहीं पाता) ॥२४६॥

    (कलश--कुण्डलिया)
    यद्यपि सब कुछ आ गया, कुछ भी रहा न शेष ।
    फिर भी इस परिशिष्ट में, सहज प्रमेय विशेष ॥
    सहज प्रमेय विशेष उपायोपेय भावमय ।
    ज्ञानमात्र आतम समझाते स्याद्वाद से ॥
    परमव्यवस्था वस्तुतत्त्व की प्रस्तुत करके ।
    परम ज्ञानमय परमातम का चिन्तन करते ॥२४७॥

    [अत्र] यहाँ [स्याद्वाद-शुद्धि-अर्थं] स्याद्वाद की शुद्धि के लिये [वस्तु-तत्त्व-व्यवस्थितिः] वस्तु-तत्त्व की व्यवस्था [] और [उपाय-उपेय-भावः] (एक ही ज्ञान में उपाय-उपेयत्व कैसे घटित होता है यह बतलाने के लिये) उपाय-उपेय भाव का [मनाक् भूयःअपि] जरा फिर से भी [चिन्त्यते] विचार करते हैं ।

    स्याद्वाद समस्त वस्तुओं के स्वरूप को सिद्ध करनेवाला सर्वज्ञ अरहंत भगवान का अस्खलित (निर्बाध) शासन है । समस्त वस्तुएँ अनेकान्त-स्वभावी होने से वह स्याद्वाद यह कहता है कि सब वस्तुएँ अनेकान्तात्मक हैं । अब यहाँ यह सिद्ध करते हैं कि आत्मा नामक वस्तु को ज्ञानमात्र कहने पर भी स्याद्वाद का कोप नहीं है; क्योंकि ज्ञानमात्र आत्मवस्तु के स्वयमेव अनेकान्तात्मकत्व (अनन्तधर्मात्मक-पना) है ।

    अनेकान्त का स्वरूप ऐसा है कि इसप्रकार एक वस्तु में वस्तुत्व की निष्पादक (उपजानेवाली) परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है । इसलिए यद्यपि आत्मवस्तु ज्ञानमात्र है; तथापि उसमें उक्त तत्-अतत्पना आदि भी विद्यमान ही हैं; क्योंकि उक्त ज्ञानमात्र आत्मवस्तु के अंतरंग में चकचकायमान ज्ञानस्वरूप से तत्पना और उसमें प्रकाशित होनेवाले अनंत पररूप ज्ञेयों के उससे भिन्न होने के कारण उनसे या उनकी अपेक्षा अतत्पना है ।

    तात्पर्य यह है कि इसप्रकार ज्ञानमात्र आत्मवस्तु में तत्पना-अतत्पना, एकपना-अनेकपना, सत्त्वपना-असत्त्वपना और नित्यपना-अनित्यपना आदि परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाली दो-दो शक्तियाँ (धर्म) स्वयमेव प्रकाशित होती हैं; इसलिए अनेकान्त भी स्वयेव ही प्रकाशित होता है ।

    शंका – यदि ज्ञानमात्रता होने पर भी आत्मा के अनेकान्त स्वयमेव प्रकाशित होता है तो फिर अरहंत भगवान उसके साधन के रूप में अनेकान्त (स्याद्वाद) का उपदेश क्यों देते हैं?

    समाधान – ज्ञानमात्र आत्मवस्तु अज्ञानियों की भी समझ में आ जाये - इस उद्देश्य से स्याद्वाद का स्वरूप समझाया जाता है - ऐसा हम कहते हैं; क्योंकि स्याद्वाद के बिना ज्ञानमात्र आत्म-वस्तु की सिद्धि-प्रसिद्धि संभव नहीं है । अब इसी बात को विस्तार से समझाते हैं -

    स्वभाव से ही बहुत से भावों (पदार्थों) से भरे इस विश्व में सर्व भावों (पदार्थों) का स्वभाव से (सत्स्वभाव से - अस्तित्व की अपेक्षा - महासत्ता की अपेक्षा) अद्वैत होने पर भी द्वैत का निषेध करना अशक्य होने से समस्त वस्तुयें स्वरूप में प्रवृत्ति और पररूप से व्यावृत्ति के द्वारा दोनों भावों (अस्तित्व और नास्तित्व) से सहित हैं ।

    1. तत्-अतत् - जब यह ज्ञानमात्रभाव (आत्मा) शेष भावों (पदार्थों) के साथ निजरस के भार से प्रवर्तित ज्ञाता-ज्ञेय संबंध के कारण अनादिकाल से ज्ञेयाकार परिणमन के द्वारा ज्ञानतत्त्व (आत्मा) को ज्ञेयरूप (परज्ञेयरूप) जानकर अज्ञानी होता हुआ नाश को प्राप्त होता है; तब उस ज्ञानमात्रभाव में स्वरूप (ज्ञानरूप) से तत्पना प्रकाशित करके ज्ञातारूप (ज्ञानाकार) परिणमन के कारण ज्ञानी करता हुआ अनेकान्त (स्याद्वाद) ही उसका उद्धार करता है । और जब वही ज्ञानमात्रभाव (आत्मा) अज्ञानतत्त्व को (आत्मा से भिन्न पदार्थों को) 'वस्तुत: यह सब आत्मा ही है' - इसप्रकार स्वरूप (ज्ञानरूप) से अंगीकार करके विश्व के ग्रहण द्वारा अपना नाश करता है; तब पररूप से अतत्पना प्रकाशित करके ज्ञान को विश्व से भिन्न दिखाता हुआ अनेकान्त ही उसे (ज्ञानमात्रभाव को) अपना नाश नहीं करने देता ।
    2. एक-अनेक -जब यह ज्ञानमात्रभाव अनेक ज्ञेयाकारों (ज्ञेय के आकारों) के द्वारा अपना सकल (सम्पूर्ण-अखण्ड) एक ज्ञानाकार (ज्ञान के आकार) को खण्डित हुआ मानकर नाश को प्राप्त होता है; तब उस ज्ञानमात्रभाव का द्रव्य से एकत्व प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जीवित रखता है, नष्ट नहीं होने देता । और जब यह ज्ञानमात्रभाव एक ज्ञानाकार (ज्ञान के आकार) को ग्रहण करने के लिए अनेक ज्ञेयाकारों के त्याग द्वारा अपना नाश करता है; तब उस ज्ञानमात्रभाव का पर्यायों से अनेकत्व प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता ।
    3. स्वद्रव्य-परद्रव्य - जब यह ज्ञानमात्रभाव परद्रव्यों के जाननेरूप परिणमन के कारण ज्ञातृद्रव्यरूप अपने आत्मा को परद्रव्यरूप मानकर नाश को प्राप्त होता है; तब उस ज्ञानमात्रभाव को स्वद्रव्य से सत्त्व (अस्तित्व) प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जीवित रखता है, नष्ट नहीं होने देता । और जब यह ज्ञानमात्रभाव 'सभी ज्ञेयद्रव्य मैं ही हूँ या सभी द्रव्य आत्मा ही हैं' - इसप्रकार परद्रव्य को ज्ञातृद्रव्यरूप से मानकर अपना नाश करता है; तब परद्रव्य से असत्त्व (नास्तित्व) प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता ।
    4. स्वक्षेत्र-परक्षेत्र - जब यह ज्ञानमात्रभाव परक्षेत्रगत ज्ञेय पदार्थों के परिणमन के कारण परक्षेत्र से ज्ञान को सत् मानकर नाश को प्राप्त होता है; तब उस ज्ञानमात्रभाव का स्वक्षेत्र से अस्तित्व प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जीवित रखता है, नष्ट नहीं होने देता । इसीप्रकार जब यह ज्ञानमात्रभाव स्वक्षेत्र में होने के लिए, रहने के लिए, परिणमने के लिए परक्षेत्रगत ज्ञेयों के आकारों के त्याग द्वारा ज्ञान को तुच्छ करता हुआ अपना नाश करता है; तब स्वक्षेत्र में रहकर ही परक्षेत्रगत ज्ञेयों के आकाररूप से परिणमन करने का ज्ञान का स्वभाव होने से परक्षेत्रगत से नास्तित्व प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जीवित रखता है, अपना नाश नहीं करने देता ।
    5. स्वकाल-परकाल - जब यह ज्ञानमात्रभाव पहले जाने हुए पदार्थों के नष्ट होने पर ज्ञान का भी असत्पना मानकर नाश को प्राप्त होता है; तब उस ज्ञानमात्रभाव का स्वकाल से सत्पना प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जिलाता है । जब यह ज्ञानमात्रभाव पदार्थों के जानते समय ही ज्ञान का सत्पना मानकर अपना नाश करता है; तब उस ज्ञानमात्रभाव का परकाल से असत्पना प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जीवित रखता है, नष्ट नहीं होने देता ।
    6. स्वभाव-परभाव - जब यह ज्ञानमात्रभाव जानने में आते हुए परभावों के परिणमन के कारण ज्ञायकस्वभाव को परभावरूप से मानकर नाश को प्राप्त होता है; तब उस ज्ञानमात्रभाव का स्वभाव से सत्पना प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जीवित रखता है, नष्ट नहीं होने देता । जब यह ज्ञानमात्रभाव 'सर्वभाव मैं ही हूँ' - इसप्रकार परभाव को ज्ञायकभावरूप से मानकर अपना नाश करता है; तब उस ज्ञानमात्रभाव का परभाव से असत्पना प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता ।
    7. नित्य-अनित्य - जब यह ज्ञानमात्रभाव अनित्य ज्ञानविशेषों के द्वारा अपना नित्य ज्ञानसामान्य स्वभाव को खण्डित हुआ मानकर नाश को प्राप्त होता है; तब उस ज्ञानमात्रभाव का ज्ञानसामान्यरूप से नित्यत्व प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे जीवित रखता है, नष्ट नहीं होने देता । जब यह ज्ञानमात्रभाव नित्य ज्ञानसामान्य का ग्रहण करने के लिए अनित्य ज्ञानविशेषों के त्याग द्वारा अपना नाश करता है; तब उस ज्ञानमात्रभाव का ज्ञानविशेषरूप से अनित्यत्व प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता ।

    (अब, 'तत्'-भंग का कलशरूप काव्य कहते हैं :-)

    (कलश--हरिगीत)
    बाह्यार्थ ने ही पी लिया निज व्यक्तता से रिक्त जो ।
    वह ज्ञान तो सम्पूर्णत: पररूप में विश्रान्त है ॥
    पर से विमुख हो स्वोन्मुख सद्ज्ञानियों का ज्ञान तो ।
    'स्वरूप से ही ज्ञान है' - इस मान्यता से पुष्ट है ॥२४८॥

    [बाह्य-अर्थैः परिपीतम्] बाह्य पदार्थों के द्वारा सम्पूर्णतया पिया गया, [उज्झित-निज-प्रव्यक्ति-रिक्तीभवद्] अपनी व्यक्ति (प्रगटता) को छोड़ देने से रिक्त (शून्य) हुआ, [परितः पररूपे एव विश्रान्तं] सम्पूर्णतया पर-रूप में ही विश्रांत (पररूप के ऊपर ही आधार रखता हुआ) ऐसे [पशोः ज्ञानं] पशु का ज्ञान (पशुवत् एकान्तवादी का ज्ञान) [सीदति] नाश को प्राप्त होता है; [स्याद्वादिनः तत् पुनः] और स्याद्वादी का ज्ञान तो, ['यत् तत् तत् इह स्वरूपतः तत्' इति] 'जो तत् है वह स्वरूप से तत् है (प्रत्येक तत्त्व को / वस्तु को स्वरूप से तत्पना है)' ऐसी मान्यता के कारण [दूरउन्मग्न-घन-स्वभाव-भरतः] अत्यन्त प्रगट हुए ज्ञान-घनरूप स्वभाव के भार से, [पूर्णं समुन्मज्जति] सम्पूर्ण उदित (प्रगट) होता है ।

    (अब, 'अतत्'-भंग का कलशरूप काव्य कहते हैं :-)

    (कलश--हरिगीत)
    इस ज्ञान में जो झलकता वह विश्व ही बस ज्ञान है ।
    अबुध ऐसा मानकर स्वच्छन्द हो वर्तन करें ॥
    अर विश्व को जो जानकर भी विश्वमय होते नहीं ।
    वे स्याद्वादी जगत में निजतत्त्व का अनुभव करें ॥२४९॥

    [पशुः] पशु (सर्वथा एकन्तवादी अज्ञानी), ['विश्वं ज्ञानम्' इतिप्रतर्क्य] 'विश्व ज्ञान है (सर्व ज्ञेय-पदार्थ आत्मा हैं)' ऐसा विचार करके [सकलं स्वतत्त्व-आशया दृष्टवा] सबको (समस्त विश्व को) निज-तत्त्व की आशा से देखकर [विश्वमयः भूत्वा] विश्वमय (समस्त ज्ञेय-पदार्थमय) होकर, [पशुः इव स्वच्छन्दम् आचेष्टते] पशु की भाँति स्वच्छंदतया चेष्टा करता है / प्रवृत्त होता है; [पुनः] और [स्याद्वाददर्शी] स्याद्वाद का देखनेवाला तो यह मानता है कि - ['यत् तत् तत् पररूपतः न तत्' इति] 'जो तत् है वह पररूप से तत् नहीं है' (अर्थात् प्रत्येक तत्त्व को स्वरूप से तत्पना होने पर भी पररूप से अतत्पना है), इसलिये [विश्वात् भिन्नम् अविश्वविश्वघटितं] विश्व से भिन्न ऐसे तथा विश्व से (विश्व के निमित्त से) रचित होने पर भी विश्वरूप न होनेवाले ऐसे (समस्त ज्ञेय वस्तुओं के आकाररूप होने पर भी समस्त ज्ञेय वस्तु से भिन्न ऐसे) [तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत्] अपने स्व-तत्त्व का स्पर्श (अनुभव) करता है ।

    (अब, 'एक'-भंग का कलशरूप काव्य कहते हैं :-)

    (कलश--हरिगीत)
    खण्ड-खण्ड होकर नष्ट होता स्वयं अज्ञानी पशु ।
    छिन-भिन्न हो चहुँ ओर से बाह्यार्थ के परिग्रहण से ॥
    एकत्व के परिज्ञान से भ्रमभेद जो परित्याग दें ।
    वे स्याद्वादी जगत में एकत्व का अनुभव करें ॥२५०॥

    [पशुः] पशु (सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी), [बाह्य-अर्थ-ग्रहण-स्वभाव-भरतः] बाह्य पदार्थों को ग्रहण करने के (ज्ञान के) स्वभाव की अतिशयता के कारण, [विष्वग्-विचित्र-उल्लसत्-ज्ञेयाकार-विशीर्ण-शक्तिः] चारों ओर (सर्वत्र) प्रगट होनेवाले अनेक प्रकार के ज्ञेयाकारों से जिसकी शक्ति विशीर्ण (छिन्न-भिन्न) हो गई ऐसा होकर (अनेक ज्ञेयों के आकार ज्ञान में ज्ञात होने पर ज्ञान की शक्ति को छिन्न-भिन्न / खंड-खंडरूप हो गई मानकर) [अभितः त्रुटयन्] सम्पूर्णतया खण्ड-खण्डरूप होता हुआ (खंड-खंडरूप / अनेकरूप होता हुआ) [नश्यति] नष्ट हो जाता है; [अनेकान्तवित्] और अनेकान्त का जानकार तो, [सदा अपि उदितया एक-द्रव्यतया] सदैव उदित (प्रकाशमान) एक द्रव्यत्व के कारण [भेदभ्रमं ध्वंसयन्] भेद के भ्रम को नष्ट करता हुआ (ज्ञेयों के भेद से ज्ञान में सर्वथा भेद पड़ जाता है ऐसे भ्रम को नाश करता हुआ), [एकम् अबाधित-अनुभवनं ज्ञानम्] जो एक है (सर्वथा अनेक नहीं है) और जिसका अनुभवन निर्बाध है ऐसे ज्ञान को [पश्यति] देखता (अनुभवता) है ।

    (अब, 'अनेक'-भंग का कलशरूप काव्य कहते हैं :-)

    (कलश--हरिगीत)
    जो मैल ज्ञेयाकार का धो डालने के भाव से ।
    स्वीकृत करें एकत्व को एकान्त से वे नष्ट हों ॥
    अनेकत्व को जो जानकर भी एकता छोड़े नहीं ।
    वे स्याद्वादी स्वत:क्षालित तत्त्व का अनुभव करें ॥२५१॥

    [पशुः] पशु (सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी), [ज्ञेयाकार-कलङ्क-मेचक-चिति प्रक्षालनं कल्पयन्] ज्ञेयाकाररूपी कलङ्क से (अनेकाकाररूप) मलिन ऐसे चेतन में प्रक्षालन की कल्पना करता हुआ (चेतन की अनेकाकाररूप मलिनता को धो डालने की कल्पना करता हुआ), [एकाकार-चिकीर्षया स्फुटम् अपि ज्ञानं न इच्छति] एकाकार करने की इच्छा से ज्ञान को, यद्यपि वह ज्ञान अनेकाकाररूप से प्रगट है तथापि, नहीं चाहता (ज्ञान को सर्वथा एकाकार मानकर ज्ञान का अभाव करता है); [अनेकान्तवित्] और अनेकान्त का जाननेवाला तो, [पर्यायैः तद्-अनेकतां परिमृशन्] पर्यायों से ज्ञान की अनेकता को जानता (अनुभवता) हुआ, [वैचित्र्ये अपि अविचित्रताम् उपगतं ज्ञानम्] विचित्र होने पर भी अविचित्रता को प्राप्त (अनेकरूप होने पर भी एकरूप) ऐसे ज्ञान को [स्वतः क्षालितं] स्वतः क्षालित (स्वयमेव धुला हुआ शुद्ध) [पश्यति] देखता (अनुभवता) है ।

    (अब, 'स्व-द्रव्य'-भंग का कलशरूप काव्य कहते हैं :-)

    (कलश--हरिगीत)
    इन्द्रियों से जो दिखे ऐसे तनादि पदार्थ में ।
    एकत्व कर हों नष्ट जन निजद्रव्य को देखें नहीं ॥
    निजद्रव्य को जो देखकर निजद्रव्य में ही रत रहें ।
    वे स्याद्वादी ज्ञान से परिपूर्ण हो जीवित रहें ॥२५२॥

    [पशुः] पशु (सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी), [प्रत्यक्ष-आलिखित-स्फुट-स्थिर-परद्रव्य-अस्तिता-वञ्चितः] प्रत्यक्ष आलिखित ऐसे प्रगट (स्थूल) और स्थिर (निश्चल) पर-द्रव्यों के अस्तित्व से ठगाया हुआ, [स्वद्रव्य अनवलोकनेन परितः शून्यः] स्व-द्रव्य को (स्व-द्रव्य के अस्तित्व को) नहीं देखता होने से सम्पूर्णतया शून्य होता हुआ [नश्यति] नाश को प्राप्त होता है; [स्याद्वादी तु] और स्याद्वादी तो, [स्वद्रव्य-अस्तितया निपुणं निरूप्य] आत्मा को स्व-द्रव्यरूप से अस्तिपने से निपुणतया देखता है, इसलिये [सद्यः समुन्मज्जता विशुद्ध-बोध-महसा पूर्णः भवन्] तत्काल प्रगट विशुद्ध ज्ञान-प्रकाश के द्वारा पूर्ण होता हुआ [जीवति] जीता है (नाश को प्राप्त नहीं होता)

    (अब, 'पर-द्रव्य'-भंग का कलशरूप काव्य कहते हैं :-)

    (कलश--हरिगीत)
    सब द्रव्यमय निज आतमा यह जगत की दुर्वासना ।
    बस रत रहे परद्रव्य में स्वद्रव्य के भ्रमबोध से ॥
    परद्रव्य के नास्तित्व को स्वीकार कर सब द्रव्य में ।
    निजज्ञान बल से स्याद्वादी रत रहें निजद्रव्य में ॥२५३॥

    [पशुः] पशु (सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी), [दुर्वासनावासितः] दुर्वासना से (कुनय की वासना से) वासित होता हुआ, [पुरुषं सर्वद्रव्यमयं प्रपद्य] आत्मा को सर्व-द्रव्यमय मानकर, [स्वद्रव्य-भ्रमतः परद्रव्येषु किल विश्राम्यति] (पर-द्रव्यों में) स्व-द्रव्य के भ्रम से पर-द्रव्यों में विश्रान्त करता है; [स्याद्वादी तु] और स्याद्वादी तो, [समस्तवस्तुषु परद्रव्यात्मना नास्तितां जानन्] समस्त वस्तुओं में पर-द्रव्य स्वरूप से नास्तित्व को जानता हुआ, [निर्मल-शुद्ध-बोध-महिमा] जिसकी शुद्ध ज्ञान-महिमा निर्मल है ऐसा वर्तता हुआ, [स्वद्रव्यम् एव आश्रयेत्] स्व-द्रव्य का ही आश्रय करता है ।

    (अब, 'स्व-क्षेत्र'-भंग का कलशरूप काव्य कहते हैं :-)

    (कलश--हरिगीत)
    परक्षेत्रव्यापी ज्ञेय-ज्ञायक आतमा परक्षेत्रमय ।
    यह मानकर निजक्षेत्र का अपलाप करते अज्ञजन ॥
    जो जानकर परक्षेत्र को परक्षेत्रमय होते नहीं ।
    वे स्याद्वादी निजरसी निजक्षेत्र में जीवित रहें ॥२५४॥

    [पशुः] पशु (सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी), [भिन्न-क्षेत्र-निषण्ण-बोध्य-नियत-व्यापार-निष्ठः] भिन्न क्षेत्र में रहे हुए ज्ञेय-पदार्थों में जो ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्धरूप निश्चित व्यापार है उसमें प्रवर्तता हुआ, [पुमांसम् अभितः बहिः पतन्तम् पश्यन्] आत्मा को सम्पूर्णतया बाहर (पर-क्षेत्र में) पड़ता देखकर (स्व-क्षेत्र से आत्मा का अस्तित्व न मानकर) [सदा सीदति एव] सदा नाश को प्राप्त होता है; [स्याद्वादवेदी पुनः] और स्याद्वाद के जाननेवाले तो [स्वक्षेत्र-अस्तितया निरुद्ध-रभसः] स्व-क्षेत्र से अस्तित्व के कारण जिसका वेग रुका हुआ है ऐसा होता हुआ (स्व-क्षेत्र में वर्तता हुआ), [आत्म-निखात-बोध्य-नियत-व्यापार-शक्तिः भवन्] आत्मा में ही आकाररूप हुए ज्ञेयों में निश्चित व्यापार की शक्तिवाला होकर, [तिष्ठति] टिकता है (जीता है, नाश को प्राप्त नहीं होता)

    (अब, 'पर-क्षेत्र'-भंग का कलशरूप काव्य कहते हैं :-)

    (कलश--हरिगीत)
    मैं ही रहूँ निजक्षेत्र में इस भाव से परक्षेत्रगत ।
    जो ज्ञेय उनके साथ ज्ञायकभाव भी परित्याग कर ॥
    हों तुच्छता को प्राप्त शठ पर ज्ञानिजन परक्षेत्रगत ।
    रे छोड़कर सब ज्ञेय वे निजक्षेत्र को छोड़ें नहीं ॥२५५॥

    [पशुः] पशु (सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी), [स्वक्षेत्र - स्थितयेपृथग्विध-परक्षेत्र-स्थित-अर्थ-उज्झनात्] स्व-क्षेत्र में रहने के लिये भिन्न-भिन्न पर-क्षेत्र में रहे हुए ज्ञेय-पदार्थों को छोड़ने से, [अर्थैः सह चिद् आकारान् वमन्] ज्ञेय-पदार्थों के साथ चैतन्य के आकारों का भी वमन करता हुआ (ज्ञेय पदार्थों के निमित्त से चैतन्य में जो आकार होता है उनको भी छोड़ता हुआ) [तुच्छीभूय] तुच्छ होकर [प्रणश्यति] नाश को प्राप्त होता है; [स्याद्वादी तु] और स्याद्वादी तो [स्वधामनि वसन्] स्व-क्षेत्र में रहता हुआ, [परक्षेत्रे नास्तितां विदन्] पर-क्षेत्र में अपना नास्तित्व जानता हुआ [त्यक्त-अर्थः अपि] (पर-क्षेत्र में रहे हुए) ज्ञेय-पदार्थों को छोड़ता हुआ भी [परान् आकारकर्षी] वह पर-पदार्थों में से चैतन्य के आकारों को खींचता है (ज्ञेय-पदार्थों के निमित्त से होनेवाले चैतन्य के आकारों को नहीं छोड़ता) [तुच्छताम् अनुभवति न] इसलिये तुच्छता को प्राप्त नहीं होता ।

    (अब, 'स्व-काल'-भंग का कलशरूप काव्य कहते हैं :-)

    (कलश--हरिगीत)
    निजज्ञान के अज्ञान से गतकाल में जाने गये ।
    जो ज्ञेय उनके नाश से निज नाश मानें अज्ञजन ॥
    नष्ट हों परज्ञेय पर ज्ञायक सदा कायम रहे ।
    निजकाल से अस्तित्व है - यह जानते हैं विज्ञजन ॥२५६॥

    [पशुः] पशु (सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी), [पूर्व-आलम्बित-बोध्य-नाश-समये ज्ञानस्य नाशं विदन्] पूर्वालम्बित ज्ञेय पदार्थों के नाश के समय ज्ञान का भी नाश जानता हुआ, [न किञ्चन अपि कलयन्] और इसप्रकार ज्ञान को कुछ भी (वस्तु) न जानता हुआ (ज्ञान वस्तु का अस्तित्व ही नहीं मानता हुआ), [अत्यन्ततुच्छः] अत्यन्त तुच्छ होता हुआ [सीदति एव] नाश को प्राप्त होता है; [स्याद्वादवेदी पुनः] और स्याद्वाद का ज्ञाता तो [अस्य निज-कालतः अस्तित्वं कलयन्] आत्मा का निज-काल से अस्तित्व जानता हुआ, [बाह्यवस्तुषु मुहुः भूत्वा विनश्यत्सु अपि] बाह्य वस्तुएं बारम्बार होकर नाश को प्राप्त होती हैं, फिर भी [पूर्णः तिष्ठति] स्वयं पूर्ण रहता है ।

    (अब, 'पर-काल'-भंग का कलशरूप काव्य कहते हैं :-)

    (कलश--हरिगीत)
    अर्थावलम्बनकाल में ही ज्ञान का अस्तित्व है ।
    यह मानकर परज्ञेयलोभी लोक में आकुल रहें ॥
    परकाल से नास्तित्व लखकर स्याद्वादी विज्ञजन ।
    ज्ञानमय आनन्दमय निज आतमा में दृढ़ रहें ॥२५७॥

    [पशुः] पशु (अज्ञानी एकान्तवादी), [अर्थ-आलम्बन-काले एवज्ञानस्य सत्त्वं कलयन्] ज्ञेय-पदार्थों के आलम्बन-काल में ही ज्ञान का अस्तित्व जानता हुआ, [बहिः ज्ञेय-आलम्बन-लालसेन-मनसा भ्राम्यन्] बाह्य ज्ञेयों के आलम्बन की लालसावाले चित्त से (बाहर) भ्रमण करता हुआ [नश्यति] नाश को प्राप्त होता है; [स्याद्वादवेदी पुनः] और स्याद्वाद का ज्ञाता तो [परकालतः अस्य नास्तित्वं कलयन्] पर-काल से आत्मा का नास्तित्व जानता हुआ, [आत्म-निखात-नित्य-सहज-ज्ञान-एक-पुञ्जीभवन्] आत्मा में दृढ़तया रहा हुआ नित्य सहज-ज्ञान के पुंजरूप वर्तता हुआ [तिष्ठति] टिकता है (नष्ट नहीं होता)

    (अब, 'स्व-भाव'-भंग का कलशरूप काव्य कहते हैं :-)

    (कलश--हरिगीत)
    परभाव से निजभाव का अस्तित्व मानें अज्ञजन ।
    पर में रमें जग में भ्रमें निज आतमा को भूलकर ॥
    पर भिन्न हो परभाव से ज्ञानी रमें निजभाव में ।
    बस इसलिए इस लोक में वे सदा ही जीवित रहें ॥२५८॥

    [पशुः] पशु (एकान्तवादी अज्ञानी), [परभाव-भाव-कलनात्] परभावों के भवन को ही जानता है (पर-भाव से ही अपना अस्तित्व मानता है), इसलिये [नित्यं बहिः-वस्तुषु विश्रान्तः] सदा बाह्य-वस्तुओं में विश्राम करता हुआ, [स्वभाव-महिमनि एकान्त-निश्चेतनः] (अपने) स्वभाव की महिमा में अत्यन्त निश्चेतन (जड़) वर्तता हुआ, [नश्यति एव] नाश को प्राप्त होता है; [स्याद्वादी तु] और स्याद्वादी तो [नियत-स्वभाव-भवन-ज्ञानात् सर्वस्मात् विभक्तः भवन्] (अपने) नियत स्वभाव के भवन-स्वरूप ज्ञान के कारण सब (पर-भावों) से भिन्न वर्तता हुआ, [सहज-स्पष्टीकृत-प्रत्ययः] जिसने सहज-स्वभाव का प्रतीतिरूप ज्ञातृत्व स्पष्ट / प्रत्यक्ष / अनुभवरूप किया है ऐसा होता हुआ, [नाशम् एति न] नाश को प्राप्त नहीं होता ।

    (अब, 'पर-भाव'-भंग का कलशरूप काव्य कहते हैं :-)

    (कलश--हरिगीत)
    सब ज्ञेय ही हैं आतमा यह मानकर स्वच्छन्द हो ।
    परभाव में ही नित रमें बस इसलिए ही नष्ट हों ॥
    पर स्याद्वादी तो सदा आरूढ़ हैं निजभाव में ।
    विरहित सदा परभाव से विलसें सदा निष्कम्प हो ॥२५९॥

    [पशुः] पशु (अज्ञानी एकान्तवादी), [सर्व-भाव-भवनं आत्मनि अध्यास्य शद्ध-स्वभाव-च्युतः] सर्व भावरूप भवन का आत्मा में अध्यास करके (आत्मा सर्व ज्ञेय-पदार्थों के भावरूप है, ऐसा मानकर) शुद्ध स्वभाव से च्युत होता हुआ, [अनिवारितः सर्वत्र अपि स्वैरं गतभयः क्रीडति] किसी पर-भाव को शेष रखे बिना सर्व पर-भावों में स्वच्छन्दतापूर्वक निर्भयता से (निःशंकतया) क्रीड़ा करता है; [स्याद्वादी तु] और स्याद्वादी तो [स्वस्य स्वभावं भरात् आरूढः] अपने स्वभाव में अत्यन्त आरूढ़ होता हुआ, [परभाव-भाव-विरह-व्यालोक-निष्कम्पितः] पर-भावरूप भवन के अभाव की दृष्टि के कारण (आत्मा पर-द्रव्यों के भावरूप से नहीं है, ऐसा जानता होने से) निष्कम्प वर्तता हुआ, [विशुद्धः एव लसति] शुद्ध ही विराजित रहता है ।

    (अब, 'नित्य'-भंग का कलशरूप काव्य कहते हैं :-)

    (कलश--हरिगीत)
    उत्पाद-व्यय के रूप में बहते हुए परिणाम लख ।
    क्षणभंग के पड़ संग निज का नाश करते अज्ञजन ॥
    चैतन्यमय निज आतमा क्षणभंग है पर नित्य भी-
    यह जानकर जीवित रहें नित स्याद्वादी विज्ञजन ॥२६०॥

    [पशुः] पशु (एकान्तवादी अज्ञानी), [प्रादुर्भाव-विराम-मुद्रित-वहत्-ज्ञान-अंश-नाना-आत्मना निर्ज्ञानात्] उत्पाद-व्यय से लक्षित ऐसे बहते (परिणमित होते) हुए ज्ञान के अंशरूप अनेकात्मकता के द्वारा ही (आत्मा का) निर्णय (ज्ञान) करता हुआ, [क्षणभङ्ग-संग-पतितः] क्षण-भंग के संग में पड़ा हुआ, [प्रायः नश्यति] बहुलता से नाश को प्राप्त होता है, [स्याद्वादी तु] और स्याद्वादी तो [चिद्-आत्मना चिद्-वस्तु नित्य-उदितं परिमृशन्] चैतन्यात्मकता के द्वारा चैतन्य-वस्तु को नित्य-उदित अनुभव करता हुआ, [टंकोत्कीर्ण-घन-स्वभाव-महिम ज्ञानं भवन्] टंकोत्कीर्ण घन-स्वभाव (टंकोत्कीर्ण पिंडरूप स्वभाव) जिसकी महिमा है ऐसे ज्ञानरूप वर्तता हुआ, [जीवति] जीता है ।

    (अब, 'अनित्य'-भंग का कलशरूप काव्य कहते हैं :-)

    (कलश--हरिगीत)
    है बोध जो टंकोत्कीर्ण विशुद्ध उसकी आश से ।
    चिद्परिणति निर्मल उछलती से सतत् इनकार कर ॥
    अज्ञजन हों नष्ट किन्तु स्याद्वादी विज्ञजन ।
    अनित्यता में व्याप्त होकर नित्य का अनुभव करें ॥२६१॥

    [पशुः] पशु (एकान्तवादी अज्ञानी), [टंकोत्कीर्ण विशुद्धबोध-विसर-आकार-आत्म-तत्त्व-आशया] टंकोत्कीर्ण विशुद्ध ज्ञान के विस्ताररूप एक-आकार (सर्वथा नित्य) आत्म-तत्त्व की आशा से, [उच्छलत्-अच्छ-चित्परिणतेः भिन्नं किञ्चन वाञ्छति] उछलती हुई निर्मल चैतन्य परिणति से भिन्न कुछ (आत्म-तत्त्व को) चाहता है (किन्तु ऐसा कोई आत्म-तत्त्व है नहीं); [स्याद्वादी] और स्याद्वादी तो, [चिद्-वस्तु-वृत्ति-क्रमात् तद्-अनित्यतां परिमृशन्] चैतन्य-वस्तु की वृत्ति के (परिणति के, पर्याय के) क्रम द्वारा उसकी अनित्यता का अनुभव करता हुआ, [नित्यम् ज्ञानं अनित्यता परिगमे अपि उज्ज्वलं आसादयति] नित्य ऐसे ज्ञान को अनित्यता से व्याप्त होने पर भी उज्ज्वल (निर्मल) मानता (अनुभवता) है ।

    (कलश--दोहा)
    मूढ़जनों को इसतरह, ज्ञानमात्र समझाय ।
    अनेकान्त अनुभूति में, उतरा आतमराय ॥२६२॥
    अनेकान्त जिनदेव का, शासन रहा अलंघ्य ।
    वस्तुव्यवस्था थापकर, थापित स्वयं प्रसिद्ध ॥२६३॥

    [इति] इसप्रकार [अनेकान्तः] अनेकान्त (स्याद्वाद) [अज्ञान-विमूढानां ज्ञानमात्रं आत्मतत्त्वम् प्रसाधयन्] अज्ञानमूढ़ प्राणियों को ज्ञानमात्र आत्म-तत्त्व प्रसिद्ध करता हुआ, [स्वयमेव अनुभूयते] स्वयमेव अनुभव में आता है । [एवं] इसप्रकार [अनेकान्तः] अनेकान्त, [जैनम् अलङ्घयं शासनम्] कि जो जिनदेव का अलंघ्य (किसी से तोड़ा न जाय ऐसा) शासन है वह, [तत्त्व-व्यवस्थित्या] वस्तु के यथार्थ स्वरूप की व्यवस्थिति (व्यवस्था) द्वारा [स्वयम् स्वं व्यवस्थापयन्] स्वयं अपने आपको स्थापित करता हुआ [व्यवस्थितः] स्थित (निश्चित / सिद्ध) हुआ ।

    जयसेनाचार्य :
    [जो समयपाहुडमिणं पढिदूणं] श्री कुन्द-कुन्दाचार्य देव इस समयसार ग्रन्थ को समाप्त करते हुये इसका फल दर्शाते हैं कि कोई भी जीव इस समय-प्राभृत नाम के ग्रन्थ को पढ़कर, केवल पढ़कर ही नहीं [अत्थतच्चदो णादुं] अर्थ और तत्व से भी जानकर अर्थात उसके भाव को भी समझकर [अत्थे ठाहिदि] पश्चात् शुद्धात्म लक्षण वाले उपादेय पदार्थ में अर्थात निर्विकल्प-समाधि में लग रहेगा [चेदा सो पावदि उत्तमं सोक्खं] वह आत्मा आगामी-काल में वीतराग-रूप सहज अपूर्व परम आह्लाद-रूप सुख को प्राप्त करेगा । वह सुख कैसा है -

    आत्मोपादानसिद्धं स्वयमतिशयवद्वितबाधं विशालं,
    वृद्धिह्रासव्यपेतं विषयविरहितं नि:प्रतिद्वंद्वभावं ।
    अन्यद्रव्यानपेक्षं निरुपममितं शाश्वतं सर्वकाल-
    मुत्कृष्टांनतसारं परमसुखमतस्तस्य सिद्धस्य जातम् ॥

    अर्थ – (इस समयसार के पढ़ने और अपने जीवन में उतारने से) जो सिद्ध होता है उसको वह परम-सुख होता है जिसका कि आत्मा ही उपादान है अर्थात् आत्मा से ही उत्पन्न होता है, अपने आप अतिशय सहित है, सभी प्रकार की बाधाओं से रहित है, विशाल है, अर्थात् उससे अच्छा सुख दूसरा कोई नहीं है, हानि और वृद्धि से रहित है, विषयों की वासना से रहित है, जिसमें दु:ख का लेश भी नहीं है, जो अन्य द्रव्यों की अपेक्षा नहीं रखने वाला है, निरुपम है अर्थात् जिसकी तुलना करने वाला दूसरा सुख नहीं है, अमित है अर्थात् सीमातीत है, सर्वकाल रहने वाला है, उत्कृष्ट है और अनन्तसार वाला है ।

    यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि हे प्रभो ! आपने अनेक बार अतीन्द्रिय-सुख की बात कही है किन्तु वह अतीन्द्रिय-सुख कैसा है ऐसा लोग नहीं जानते । आचार्य-देव उसका उत्तर देते हैं -- देखो, कोई व्यक्ति स्त्री-प्रसंग आदि पंचेन्द्रिय के विषय-सुख व्यापार से रहित अवस्था में सभी प्रकार की आकुल-व्याकुलता से दूर होकर बैठा हुआ है उसको किसी ने आकर पूछा कि कहो भाई देवदत्त ! सुख से तो हो ? इस पर वह उत्तर देता है कि सुख से हूँ, तो यह सुख अतीन्दिय है क्योंकि सांसारिक सुख विषयों के सेवन से पैदा होता है और यहाँ पंचेन्द्रियों के विषय के व्यापार का अभाव होते हुये भी सुख दिख रहा है वह अतीन्द्रिय है । किन्तु यह जो सुख हो रहा है वह सामान्यात्मक साधारण-सा अतीन्द्रिय-सुख है । किन्तु जो पाँचों इन्द्रियों से और मन से होने वाले सभी प्रकार के विकल्प-जालों से रहित ऐसे जो समाधिस्थ परम योगीराज को स्व-संवेदनात्मक अतीन्द्रिय-सुख होता है, वह विशेष रूप से होता है, अर्थात् इससे भी और अपूर्व विशेषता लिये हुए होता है । जो मुक्तात्माओं को अतीन्द्रिय-सुख है, वह हम तुम सरीखे लोगों के या तो अनुमान-गम्य है या आगम-गम्य है । देखो, मुक्तात्माओं को इन्दिय-विषयों के व्यापार से रहित निर्विकल्प समाधि में रत होकर रहने वाले परम-मुनीश्वरों को स्व-संवेदात्मक-सुख की उपलब्धि होती है, यह हेतु हुआ । यह पक्ष और हेतु रूप दो अंग-वाला अनुमान हुआ ऐसा जानना चाहिये ।

    आगम में तो जैसा 'आत्मोपादान सिद्धं' इत्यादि वचन से ऊपर कह आये हैं वह वचन अतीन्द्रिय-सुख का वर्णन करने वाला प्रसिद्ध ही है । इसलिये अतीन्द्रिय-सुख के विषय में सन्देह नहीं करना चाहिए -- यही बात और स्थान पर भी कही है --
    यद्देव मनुजा: सर्वे सौख्यमक्षार्थ संभवं,
    निर्विशंति निराबाधं सर्वाक्षप्रीणनक्षमं ।
    सर्वेणातीतकालेन यच्च भुक्तं महर्द्धिकं,
    भाविनो ये च भोक्ष्यन्ति स्वादिष्टं स्वांतरंजकं ।
    अनंतगुणिनं तस्मादत्यक्षं स्वस्वभावजं ।
    एकस्मिन् समये भुंक्ते तत्सुखं परमेश्वर: ॥
    अर्थात् -- वर्तमान में जो पुण्याधिकारी-देव और मनुष्य हैं वे सब निरर्गल-रूप से अपनी सभी इन्द्रियों को प्रसन्न करने वाले इन्द्रिय-जन्य और ऋद्धि आदि से प्राप्त हुए सुख भोग रहे हैं । और जो महर्दिक सुख पहले भूत-काल में पुण्याधिकारी-देव और मनुष्यों ने भोगा है तथा आगे होने वाले पुण्याधिकारी-देव और मनुष्य इन्द्रिय-जन्य स्वादिष्ट और मनोरंजक सुख को भोगेंगे, उस समस्त-सुख से भी अनन्त-गुणा अतीन्द्रिय-जन्य, अपने स्वभाव से उत्पन्न होने वाला सुख परमेश्वर सिद्ध-भगवान् को एक समय में होता है ।

    जैसा कि पूर्व में वर्णन कर आये हैं --

    इस प्रकार इस समयसार ग्रंथ की श्री जयसेनाचार्य कृत शुद्धात्मानुभूति लक्षण वाली तात्पर्य नाम की व्याख्या के हिन्दी अनुवाद में मात्र छियानवे (९६) गाथाओं के द्वारा तेरह अन्तर अधिकारों में यह समयसार चूलिका है दूसरा नाम जिसका, ऐसा सर्व-विशुद्धिज्ञान नाम का दसवां अधिकार समाप्त हुआ ।

    अब थोडा फिर भी इस बात का विचार किया जाता है कि वस्तु-तत्त्व की व्यवस्थिति (व्याख्या) किस प्रकार की है ? यह विचार भी स्याद्वाद की सिद्धि के लिए अर्थात उसके निर्णय के लिए किया जा रहा है । यहां इस समयसार के व्याख्यान में समाप्ति के अवसर पर केवल वस्तु-तत्त्व की व्यवस्था का ही विचार नहीं किया जा रहा है किन्तु इसके साथ में, उपाय-उपेय भाव का भी विचार किया जा रहा है । यहां उपेय तो मोक्ष है और उपाय उस मोक्ष का मार्ग है । अब यहां प्रश्न होता है कि स्याद्वाद शब्द का क्या अर्थ है ? आचार्य इसका उत्तर देते हैं -- कि 'स्यात् अर्थात कथंचित् विवक्षित प्रकार से (अपनी विवक्षा को लिए हुए) अनेकांत रूप से बोलना (कथन करना) सो स्याद्वाद है । यह स्याद्वाद भगवान अरहंत देव का शासन है ।

    भगवान् का यह शासन सम्पूर्ण वस्तुओं को अनेकान्तात्मक बतलाता है । अब अनेकान्त का क्या अर्थ है ? सो स्पष्ट बतलाते हैं -- एक ही वस्तु में वस्तुत्व को निष्पन्न करने वाली अस्तित्व-नास्तित्व सरीखी दो परस्पर-विरुद्ध सापेक्ष शक्तियों का जो प्रतिपादन किया जाता है उसका नाम अनेकान्त है । वह अनेकान्त यह बताता है कि 'ज्ञानमात्न जो भाव है अर्थात् जीव पदार्थ है, शुद्धात्मा है, वह स्वभावात्मक है ।'

    इसका स्पष्टीकरण यह है की आत्मा ज्ञान-रूप से तद्रूप है, तो ज्ञेय-रूप से वही अतद्रूप भी है । द्रव्यार्थिक-नय से एक है तो पर्यायार्थिक-नय से वही अनेक भी है । अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव चतुष्टय के द्वारा जो सद्रूप है वही पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-रूप चतुष्टय के द्वारा असद्-रूप भी है । आदि और भी जो विभाव-परिणाम हैं, इन सबसे मैं रहित हूँ । मैं तो शुद्ध-निश्चय-नय के द्वारा तीनों-लोकों में और तीनों-कालों में मन-वचन-काय के द्वारा और कृत-कारित और अनुमोदन, के द्वारा पूर्वोक्त विभाव-परिणामों से सर्वथा शुन्य हूँ, वैसे ही निश्चय-नय से और भी सब जीव हैं ।

    यह स्थाद्वाद अधिकार समाप्त हुआ ।

    यहाँ इस ग्रन्थ में लोगों को सरलता से ज्ञान प्राप्त हो जाये इसलिये प्राय: पदों की सन्धि नहीं की गई है और वाक्य भी भिन्न-भिन्न रखे गये हैं, इसलिए विवेकियों को यहां पर लिंग, वचन, क्रिया, कारक, सन्धि, समास, विशेष्य-विशेषण और वाक्य परिसमाप्ति आदि विषय की कहीं कमी दीख पड़े तो ध्यान नहीं देना चाहिये, तथा शुद्ध-आत्मादि तत्वों के प्रतिपादन के विषय में अज्ञान के कारण से कहीं कोई भूल रह गई हो तो क्षमा कर देने योग्य है ।

    अब टीकाकार अन्तिम मंगलाचरण करते हैं । जिन महर्षि-पद्मनन्दी ने अपने बुद्धिरूपी सिर से महा-तत्त्व-पाहुड अर्थात समयसार पाहुड रूप पर्वत को उठाकर भव्य-जीवों के लिये अर्पण कर दिया वे पद्यनन्दी महर्षि जयवंत रहो ॥१॥ जिसका आश्रय लेकर भव्य-लोग अनंत संसार सागर को पार कर जाते हैं, वह सब जीवों के लिये शरणभूत हो रहने वाला जिन-शासन चिरकाल तक जयवन्त रहे ॥२॥ (यहां वृत्तिकार आशीर्वाद सूचक मंगलाचरण करते हैं) आत्मरस के रसिकों के द्वारा वर्णन किया हुआ यह तात्पर्य नाम का प्राभृत-शास्त्र है इसको जो कोई आदर-पूर्वक सुनेगा, अभ्यास करेगा और इसे फैलावेगा वह जीव सदा रहने वाला अद्भुत सकलज्ञान-स्वरूप समर्थ केवल-ज्ञान को प्राप्त करके उसके आगे सदा के लिये मुक्ति-रूपी स्त्री में आसक्त हो रहेगा ।

    इस प्रकार श्री कुंदकुंदाचार्य के द्वारा रचे गए समयसार प्राभृत नाम के ग्रंथ के श्री जयसेनाचार्य के द्वारा बनाई हुई चार-सौ-उनतालीस गाथाओं द्वारा दश अधिकार वाली इस तात्पर्यवृत्ति टीका का हिन्दी अर्थ 108 आचार्य श्री ज्ञानमूर्ती चारित्रभूषण ज्ञानसागरजी महाराज द्वारा समाप्त हुआ ।

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    परिशिष्ट



    + परिशिष्ट -
    परिशिष्ट

    अमृतचंद्राचार्य :
    प्रश्न – अनेकान्तात्मक होने पर भी यहाँ आत्मा को ज्ञानमात्र क्यों कहा गया है; क्योंकि ज्ञानमात्र कहने से तो ज्ञान को छोड़कर अन्य धर्मों-गुणों का निषेध समझा जाता है ।

    उत्तर – लक्षण की प्रसिद्धि के द्वारा लक्ष्य की प्रसिद्धि-सिद्धि करने के लिए यहाँ आत्मा को ज्ञानमात्र कहा जा रहा है । ज्ञान आत्मा का लक्षण है; क्योंकि ज्ञान आत्मा का असाधारण गुण है । आत्मा सेभिन्न पुद्गलादि द्रव्यों में ज्ञान नहीं पाया जाता है । इसलिए ज्ञानलक्षण की प्रसिद्धि से ज्ञान के लक्ष्यभूत आत्मद्रव्य की सिद्धि होती है, प्रसिद्धि होती है ।

    प्रश्न – इस ज्ञानलक्षण की प्रसिद्धि से क्या प्रयोजन है, क्या लाभ है ? मात्र लक्ष्य ही प्रसिद्धि करने योग्य है, लक्ष्यभूत आत्मा की प्रसिद्धि करना ही उपयोगी है; क्योंकि आत्मा का कल्याण तो आत्मा के जानने से होगा ।

    उत्तर – जिसे लक्षण अप्रसिद्ध हो; उसे लक्ष्य की प्रसिद्धि नहीं हो सकती । जिसे लक्षण प्रसिद्ध होता है; उसे ही लक्ष्य की प्रसिद्धि होती है । यही कारण है कि पहले लक्षण को समझाते हैं, तदुपरान्त लक्षण द्वारा लक्ष्य को समझायेंगे ।

    प्रश्न – ज्ञान से भिन्न ऐसा कौन-सा लक्ष्य है कि जो ज्ञान की प्रसिद्धि द्वारा प्रसिद्ध किया जाता है ?

    उत्तर – ज्ञान से भिन्न कोई लक्ष्य नहीं है; क्योंकि ज्ञान और आत्मा द्रव्य की अपेक्षा से अभिन्न ही हैं ।

    प्रश्न – यदि ऐसी बात है तो फिर लक्षण और लक्ष्य का विभाग किसलिए किया गया है ?

    उत्तर – प्रसिद्धत्व और प्रसाध्यमानत्व के कारण लक्षण और लक्ष्य का विभाग किया गया है । ज्ञान प्रसिद्ध है; क्योंकि ज्ञानमात्र के स्वसंवेदन से सिद्धपना है । तात्पर्य यह है कि ज्ञान सभी प्राणियों को स्वसंवेदनरूप अनुभव में आता है । इस प्रसिद्ध ज्ञान लक्षण से उसके साथ अविनाभावीरूप से रहनेवाला अनंत धर्मों के समूहरूप आत्मा प्रसाध्यमान है । इसलिए ज्ञानमात्र में अचलित स्थापित दृष्टि के द्वारा कुछ क्रम और अक्रमरूप से प्रवर्तमान एवं उस ज्ञान के साथ अविनाभावीरूप से रहनेवाला अनन्तधर्मों के समुदायरूप जो भी लक्षित होता है, पहिचाना जाता है; वह सब वास्तविक आत्मा है । यही कारण है कि यहाँ आत्मा को ज्ञानमात्र कहा गया है ।

    प्रश्न – अरे भाई ! जिस आत्मा में क्रम और अक्रम से प्रवर्तमान अनन्तधर्म हैं; उस आत्मा को ज्ञानमात्र कैसे कहा जा सकता है ? उसमें ज्ञानमात्रता किसप्रकार घटित होती है ?

    उत्तर – परस्पर भिन्न अनंत धर्मों के समुदायरूप से परिणत एक ज्ञप्तिमात्रभावरूप स्वयं होने से यह भगवान आत्मा ज्ञानमात्रभावरूप है । यही कारण है कि उसमें ज्ञानमात्रभाव की अन्त:-पातिनी अनंत शक्तियाँ उछलती हैं । तात्पर्य यह है कि आत्मा के अनंत धर्मों में परस्पर लक्षणभेद होने पर भी प्रदेशभेद नहीं है । आत्मा के एक परिणाम में सभी गुणों का परिणमन रहता है । यही कारण है कि आत्मा के एक ज्ञानमात्रभाव में अनंत शक्तियाँ उछलती हैं, परिणमित होती हैं ।

    १. जीवत्वशक्ति - आत्मद्रव्य के हेतुभूत चैतन्यभाव को धारण करना है लक्षण जिसका, वह जीवत्वशक्ति है ।

    २. चितिशक्ति - अजड़त्व अर्थात् जड़रूप नहीं होना, चेतनरूप होना है लक्षण जिसका, उसे चितिशक्ति कहते हैं ।

    ३-४. दृशिशक्ति और ज्ञानशक्ति - अनाकार उपयोगमयी दृशिशक्ति है और साकार उपयोगमयी ज्ञानशक्ति है ।

    ५. सुखशक्ति - अनाकुलता लक्षणवाली सुखशक्ति है ।

    ६. वीर्यशक्ति - स्वरूप की रचना की सामर्थ्यरूप वीर्यशक्ति है ।

    ७. प्रभुत्वशक्ति - अखण्डितप्रताप और स्वतंत्रता से सम्पन्न होना है लक्षण जिसका; वह प्रभुत्वशक्ति है ।

    ८. विभुत्वशक्ति - विभुत्वशक्ति सर्वभावों में व्यापक एक भावरूप होती है ।

    ९-१०. सर्वदर्शित्व और सर्वज्ञत्वशक्ति - सर्वदर्शित्वशक्ति समस्त विश्व के सामान्य भाव को देखनेरूप से परिणत आत्मदर्शनमयी है और सर्वज्ञत्वशक्ति समस्त विश्व के विशेषभावों को जाननेरूप से परिणत आत्मज्ञानमयी है ।

    ११. स्वच्छत्वशक्ति - अमूर्तिक प्रदेशों में प्रकाशमान लोकालोक के आकारों से मेचक अर्थात् अनेकाकार उपयोग है लक्षण जिसका, वह स्वच्छत्वशक्ति है ।

    १२. प्रकाशशक्ति - जो स्वयंप्रकाशमान है, विशद, स्पष्ट और निर्मल स्वसंवेदनमय स्वानुभव से युक्त है; वह प्रकाशशक्ति है ।

    १३. असंकुचितविकासत्वशक्ति - असंकुचितविकासत्वशक्ति क्षेत्र और काल से अमर्यादित चिद्विलासात्मक (चैतन्य के विलासस्वरूप) है ।

    १४. अकार्यकारणत्वशक्ति - इस भगवान आत्मा में एक शक्ति ऐसी भी है कि जिसके कारण यह आत्मा न तो अन्य से किया जाता है और न अन्य को करता ही है ।

    १५. परिणम्य-परिणामकत्वशक्ति - परनिमित्तिक ज्ञेयाकारों के ग्रहण करने और स्वनिमित्तिक ज्ञानाकारों के ग्रहण कराने के स्वभावरूप परिणम्य-परिणामकत्वशक्ति है ।

    १६. त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति - जो न तो कम है और न अधिक ही है - ऐसे सुनिश्चित स्वरूप में रहने रूप है स्वरूप जिसका, वह त्यागोपादानशून्यत्वशक्ति है ।

    १७. अगुरुलघुत्वशक्ति - अगुरुलघुत्वशक्ति षट्स्थानपतित वृद्धि-हानि रूप से परिणमित स्वरूप प्रतिष्ठत्व का कारणरूप विशेष गुणात्मक है ।

    १८. उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्वशक्ति - क्रमवृत्ति और अक्रमवृत्तिरूप वर्तना है लक्षण जिसका, वह उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्वशक्ति है ।

    १९. परिणामशक्ति - द्रव्य के स्वभावभूत उत्पादव्ययध्रौव्य से आलिंगित सदृश और विसदृश एक रूप वाली अस्तित्वमयी परिणामशक्ति है ।

    २०. अमूर्तत्वशक्ति - यह अमूर्तत्वशक्ति कर्मबंध के अभाव से व्यक्त सहज स्पर्शादिशून्य आत्मप्रदेशात्मक है ।

    २१-२२. अकर्तृत्वशक्ति और अभोक्तृत्वशक्ति - ज्ञानभाव से भिन्न, कर्मोदय से होनेवाले रागादि विकारी भावों के कर्तृत्व से रहित होनेरूप अकर्तृत्वशक्ति है । इसीप्रकार ज्ञानभाव से भिन्न, कर्मोदय से होनेवाले रागादि विकारी परिणामों के अनुभव से, भोक्तृत्व से रहित होनेरूप अभोक्तृत्वशक्ति है ।

    २३. निष्क्रियत्वशक्ति - निष्क्रियत्वशक्ति समस्त कर्मों के उपरम (अभाव) से प्रवर्तित होनेवाली आत्मप्रदेशों की निस्पन्दतास्वरूप है ।

    २४. नियतप्रदेशत्वशक्ति - अनादिकाल से संसार-अवस्था में संकोच-विस्तार से लक्षित और सिद्ध-अवस्था में चरम शरीर से किंचित् न्यून परिमाण तथा लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या के समान असंख्यात प्रदेशवाला आत्मा का अवयव है लक्षण जिसका, वह नियतप्रदेशत्वशक्ति है ।

    २५. स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति - सभी शरीरों में एकरूप रहनेवाली स्वधर्मव्यापकत्वशक्ति है ।

    २६. साधारण-असाधारण-साधारणासाधारणधर्मत्वशक्ति - स्व और पर - दोनों में परस्पर समान, असमान और समानासमान - ऐसे तीन प्रकार के भावों के धारण करनेरूप यह साधारण-असाधारण-साधारणासाधारणधर्मत्वशक्ति है ।

    २७. अनंतधर्मत्वशक्ति - परस्पर भिन्न लक्षणोंवाले अनंत स्वभावों से भावित - ऐसा एक भाव है लक्षण जिसका - ऐसी अनंतधर्मत्वशक्ति है ।

    २८. विरुद्धधर्मत्वशक्ति - तद्रूपमयता और अतद्रूपमयता जिसका लक्षण है, उस शक्ति का नाम विरुद्धधर्मत्वशक्ति है ।

    २९-३०. तत्त्वशक्ति और अतत्त्वशक्ति - तद्भवनरूप तत्त्वशक्ति और अतद्भवनरूप अतत्त्वशक्ति है ।

    ३१-३२. एकत्वशक्ति और अनेकत्वशक्ति - अनेक पर्यायों में व्यापक और एकद्रव्यमयपने को प्राप्त एकत्वशक्ति है और एक द्रव्य से व्याप्त (व्यापने योग्य) अनेक पर्यायोंमय अनेकत्वशक्ति है ।

    ३३-३८. भाव-अभावादि छह शक्तियाँ -

    ३९-४०. भावशक्ति और क्रियाशक्ति - कारकों के अनुसार होनेवाली क्रिया से रहित भवनमात्रमयी भावशक्ति है और कारकों के अनुसार परिणमित होनेरूप भावमयी क्रियाशक्ति है ।

    ४१-४२. कर्मशक्ति और कर्तृत्वशक्ति - कर्मशक्ति प्राप्यमाणसिद्धरूपभावमयी है और कर्तृत्वशक्ति होनेरूप और सिद्धरूप भाव के भावकत्वमयी है ।

    ४३. करणशक्ति - करणशक्ति प्रवर्तमान भाव के होने में साधकतममयी है ।

    ४४-४५. सम्प्रदानशक्ति और अपादानशक्ति - सम्प्रदानशक्ति अपने द्वारा दिये जानेवाले भाव की उपेयत्वमयी है और अपादानशक्ति उत्पाद-व्यय से आलिंगित भाव से नाश होने से हानि को प्राप्त न होनेवाली ध्रुवत्वमयी है ।

    ४६. अधिकरणशक्ति - अधिकरणशक्ति आत्मा में भाव्यमानभाव के आधारपनेरूप है ।

    ४७. सम्बन्धशक्ति - अपना स्वभाव ही अपना स्वामी है - ऐसी स्वस्वामित्वमयी संबंधशक्ति है ।

    (कलश--रोला)
    इत्यादिक अनेक शक्ति से भरी हुई है ।
    फिर भी ज्ञानमात्रमयता को नहीं छोड़ती ॥
    और क्रमाक्रमभावों से जो मेचक होकर ।
    द्रव्य और पर्यायमयी चिद्वस्तु लोक में ॥२६४॥

    [इत्यादि-अनेक-निज-शक्ति-सुनिर्भरः अपि] इत्यादि (पूर्व-कथित ४७ शक्तियाँ इत्यादि) अनेक निज-शक्तियों से भली-भाँति परिपूर्ण होने पर भी [यः भावः ज्ञानमात्रमयतां न जहाति] जो भाव ज्ञान-मात्रमयता को नहीं छोड़ता, [तद्] ऐसा वह, [एवं क्रम-अक्रम-विवर्ति-विवर्त-चित्रम्] पूर्वोक्त प्रकार से क्रमरूप और अक्रमरूप से वर्तमान विवर्त्त से (रूपान्तर से, परिणमन से) अनेक प्रकार का, [द्रव्य-पर्ययमयं] द्रव्य-पर्यायमय [चिद्] चैतन्य (ऐसा वह चैतन्य भाव / आत्मा) [इह] इस लोक में [वस्तु अस्ति] वस्तु है ।

    (कलश--रोला)
    अनेकान्त की दिव्यदृष्टि से स्वयं देखते ।
    वस्तुतत्त्व की उक्त व्यवस्था अरे सन्तजन ॥
    स्याद्वाद की अधिकाधिक शुद्धि को लख अर ।
    नहीं लाँघकर जिननीति को ज्ञानी होते ॥२६५॥

    [इति वस्तु-तत्त्व-व्यवस्थितिम् नैकान्त-सङ्गत-दृशा स्वयमेवप्रविलोकयन्तः] ऐसी (अनेकान्तात्मक) वस्तु-तत्त्व की व्यवस्थिति को अनेकान्त-संगत (अनेकान्त के साथ सुसंगत, अनेकान्त के साथ मेलवाली) दृष्टि के द्वारा स्वयमेव देखते हुए, [स्याद्वाद-शुद्धिम् अधिकाम् अधिगम्य] स्याद्वाद की अत्यन्त शुद्धि को जानकर, [जिन-नीतिम् अलङ्घयन्तः] जिननीति का (जिनेश्वरदेव के मार्ग का) उल्लंघन न करते हुए, [सन्तः ज्ञानीभवन्ति] सत्पुरुष ज्ञान-स्वरूप होते हैं ।

    उपायोपेयाधिकार

    यद्यपि आत्मवस्तु ज्ञानमात्र ही है; तथापि उसमें उपाय-उपेयभाव विद्यमान रहता ही है; क्योंकि एक होने पर भी आत्मा साधकरूप से और साध्यरूप से स्वयं ही परिणमित होता है । उसमें जो साधकरूपभाव है, वह उपाय है और जो सिद्धरूपभाव है, वह उपेय है । तात्पर्य यह है कि मोक्षमार्ग उपाय है और मोक्ष उपेय है । अनादिकाल से मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र द्वारा स्वरूप से च्युत होने के कारण संसार में परिभ्रमण करते हुए भलीभाँति ग्रहण किये गये व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र के पाक के प्रकर्ष की परम्परा से क्रमश: स्वरूप में आरोहण कराये जाते इस आत्मा को, अन्तर्मग्न निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप भेद की तद्रूपता के द्वारा स्वयं साधकरूप से परिणमित होता हुआ परमप्रकर्ष की पराकाष्ठा को प्राप्त रत्नत्रय की अतिशयता से प्रवर्तित सकल कर्मक्षय से प्रज्वलित हुए अस्खलित विमल स्वभावभावत्व से स्वयं सिद्धरूप से परिणमता हुआ एक ज्ञानमात्रभाव ही उपाय-उपेयभाव को सिद्ध करता है ।

    इसप्रकार ये उपाय और उपेय - दोनों भाव ज्ञानमात्र आत्मा से अनन्य ही हैं । इसलिए सदा अस्खलित एक ज्ञानमात्र आत्मवस्तु के निष्कम्प ग्रहण से, जिनको अनादि संसार से निर्मलभावरूप भूमिका की प्राप्ति न हुई हो; उन मुमुक्षुओं को भी तत्क्षण ही साधक भूमिका की प्राप्ति होती है ।

    फिर उसी में नित्य लीन रहते हुए क्रमरूप से और अक्रमरूप से प्रवर्तमान अनेक धर्मों के अधिष्ठाता वे मुमुक्षु साधकभाव से उत्पन्न होनेवाले परम प्रकर्षरूप साध्यभाव के भाजन होते हैं । परन्तु जो अनेक धर्मों से गर्भित ज्ञानमात्रभाव की इस भूमिका को प्राप्त नहीं कर पाते हैं; वे सदा ही अज्ञानी रहते हुए ज्ञानमात्रभाव को स्वरूप से अभवन और पररूप से भवन देखते हुए, जानते हुए और आचरण करते हुए मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञानी और मिथ्याचारित्री होते हुए उपाय-उपेयभाव से अत्यन्त भ्रष्ट होते हुए संसार में ही परिभ्रण करते हैं ।

    (कलश)
    रे ज्ञानमात्र निज भाव अकंपभूमि ।
    को प्राप्त करते जो अपनीत-मोही ॥
    साधकपने को पा वे सिद्ध होते ।
    अर अज्ञ इसके बिना परिभ्रमण करते ॥२६६॥

    [ये] जो पुरुष, [कथम् अपि अपनीत-मोहाः] किसी भी प्रकार से जिनका मोह दूर हो गया है ऐसा होता हुआ, [ज्ञानमात्र-निज-भावमयीम् अकम्पां भूमिं] ज्ञानमात्र निज भावमय अकम्प भूमिका का (ज्ञानमात्र जो अपना भाव उस-मय निश्चल भूमिका का) [श्रयन्ति] आश्रय लेते हैं [ते साधकत्वम् अधिगम्य सिद्धाः भवन्ति] वे साधकत्व को प्राप्त करके सिद्ध हो जाते हैं; [तु] परन्तु [मूढाः] जो मूढ़ (मोही, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि) हैं वे [अमूम्अनुपलभ्य] इस भूमिका को प्राप्त न करके [परिभ्रमन्ति] संसार में परिभ्रमण करते हैं ।

    (कलश)
    स्याद्वाद कौशल तथा संयम सुनिश्चल ।
    से ही सदा जो निज में जमे हैं ॥
    वे ज्ञान एवं क्रिया की मित्रता से ।
    सुपात्र हो पाते भूमिका को ॥२६७॥

    [यः] जो पुरुष, [स्याद्वाद-कौशल-सुनिश्चल-संयमाभ्यां] स्याद्वाद में प्रवीणता तथा (रागादिक अशुद्ध परिणति के त्यागरूप) सुनिश्चल संयम - इन दोनों के द्वारा [इहउपयुक्तः] अपने में उपयुक्त रहता हुआ (अपने ज्ञान-स्वरूप आत्मा में उपयोग को लगाता हुआ) [अहः अहः स्वम् भावयति] प्रतिदिन अपने को भाता है (निरन्तर अपने आत्मा की भावना करता है), [सः एकः] वही एक (पुरुष); [ज्ञान-क्रिया-नय-परस्पर-तीव्र-मैत्री-पात्रीकृतः] ज्ञाननय और क्रियानय की परस्पर तीव्र-मैत्री का पात्ररूप होता हुआ, [इमाम् भूमिम् श्रयति] इस (ज्ञान मात्र निजभावमय) भूमिका का आश्रय करता है ।

    (कलश)
    उदितप्रभा से जो सुप्रभात करता ।
    चित्पिण्ड जो है खिला निज रमणता से ॥
    जो अस्खलित है आनन्दमय वह ।
    होता उदित अद्भुत अचल आतम ॥२६८॥

    [तस्य एव] (पूर्वोक्त प्रकार से जो पुरुष इस भूमिका का आश्रय लेता है) उसी के, [चित्-पिण्ड-चण्डिम-विलासि-विकास-हासः] चैतन्यपिंड के निरर्गल विलसित विकासरूप जिसका खिलना है (चैतन्य-पुंज का अत्यन्त विकास होना ही जिसका खिलना है), [शुद्ध-प्रकाश-भर-निर्भर-सुप्रभातः] शुद्ध-प्रकाश की अतिशयता के कारण जो सुप्रभात के समान है, [आनन्द-सुस्थित-सदा-अस्खलित-एक-रूपः] आनन्द में सुस्थित ऐसा जिसका सदा अस्खलित एक रूप है [] और [अचल-अर्चिः] जिसकी ज्योति अचल है ऐसा [अयम् आत्मा उदयति] यह आत्मा उदय को प्राप्त होता है ।

    (कलश)
    महिमा उदित शुद्धस्वभाव की नित ।
    स्याद्वाददीपित लसत् सद्ज्ञान में जब ॥
    तब बंध-मोक्ष मग में आपतित भावों ।
    से क्या प्रयोजन है तुम ही बताओ ॥२६९॥

    [स्याद्वाद-दीपित-लसत्-महसि] स्याद्वाद द्वारा प्रदीप्त किया गया जगमगाहट करता जिसका तेज है और [शुद्ध-स्वभाव-महिमनि] जिसमें शुद्ध-स्वभावरूप महिमा है ऐसा [प्रकाशे उदिते मयि इति] यह प्रकाश (ज्ञान-प्रकाश) जहाँ मुझमें उदय को प्राप्त हुआ है, वहाँ [बन्ध-मोक्ष-पथ-पातिभिः अन्य-भावैः किं] बंध-मोक्ष के मार्ग में पड़नेवाले अन्य भावों से मुझे क्या प्रयोजन है ? [नित्य-उदयः परम् अयं स्वभावः स्फुरतु] मुझे तो मेरा नित्य उदित रहनेवाला केवल यह (अनन्तचतुष्टयरूप) स्वभाव ही स्फुरायमान हो ।

    (कलश)
    निज शक्तियों का समुदाय आतम ।
    विनष्ट होता नयदृष्टियों से ॥
    खंड-खंड होकर खण्डित नहीं मैं ।
    एकान्त शान्त चिन्मात्र अखण्ड हूँ मैं ॥२७०॥

    [चित्र-आत्मशक्ति-समुदायमयः अयम् आत्मा] अनेक प्रकारकी निज शक्तियों का समुदायमय यह आत्मा [नय-ईक्षण-खण्डयमानः] नयों की दृष्टि से खण्ड-खण्डरूप किये जाने पर [सद्यः] तत्काल [प्रणश्यति] नाश को प्राप्त होता है; [तस्मात्] इसलिये मैं ऐसा अनुभव करता हूँ कि - [अनिराकृत-खण्डम् अखण्डम्] जिसमें से खण्डों को निराकृत (बहिष्कृत / दूर) नहीं किया गया है तथापि जो अखण्ड है, [एकम्] एक है, [एकान्त-शान्तम्] एकान्त शांत है (जिसमें कर्मोदय का लेशमात्र भी नहीं है ऐसा अत्यन्त शांत भावमय है) और [अचलम्] अचल है (कर्मोदय से चलायमान च्युत नहीं होता) ऐसा [चिद्महः अहम् अस्मि] चैतन्यमात्र तेज मैं हूँ ।

    मैं अपने शुद्धात्मा को न तो द्रव्य से खण्डित करता हूँ, न क्षेत्र से खण्डित करता हूँ, न काल से खण्डित करता हूँ और न भाव से ही खण्डित करता हूँ; क्योंकि मैं तो एक सुविशुद्ध ज्ञानमात्र भाव हूँ ।

    (कलश--रोला)
    परज्ञेयों के ज्ञानमात्र मैं नहीं जिनेश्वर ।
    मैं तो केवल ज्ञानमात्र हूँ निश्चित जानो ॥
    ज्ञेयों के आकार ज्ञान की कल्लोलों से ।
    परिणत ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेयमय वस्तुमात्र हूँ ॥२७१॥

    [यः अयं ज्ञानमात्रः भावः अहम् अस्मि सः ज्ञेय-ज्ञानमात्रः एव न ज्ञेयः] जो यह ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ वह ज्ञेयों के ज्ञानमात्र ही नहीं जानना चाहिये; [ज्ञेय-ज्ञान-कल्लोल-वल्गन्] (परन्तु) ज्ञेयों के आकार से होनेवाले ज्ञान की कल्लोलों के रूप में परिणमित होता हुआ वह [ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातृमत्-वस्तुमात्रः ज्ञेयः] ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातामय वस्तुमात्र जानना चाहिये (स्वयं ही ज्ञान, स्वयं ही ज्ञेय और स्वयं ही ज्ञाता - इसप्रकार ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञातारूप तीनों भावयुक्त वस्तुमात्र जानना चाहिये)

    (कलश--रोला)
    अरे अमेचक कभी कभी यह मेचक दिखता ।
    कभी मेचकामेचक यह दिखाई देता है ॥
    अनंत शक्तियों का समूह यह आतम फिर भी ।
    दृष्टिवंत को भ्रमित नहीं होने देता है ॥२७२॥

    [मम तत्त्वं सहजम् एव] मेरे तत्त्व का ऐसा स्वभाव ही है कि [क्वचित् मेचकं लसति] कभी तो वह (आत्मतत्त्व) मेचक (अनेकाकार, अशुद्ध) दिखाई देता है, [क्वचित् मेचक-अमेचकं] कभी मेचक-अमेचक (दोनोंरूप) दिखाई देता है [पुनः क्वचित् अमेचकं] और कभी अमेचक (एकाकार शुद्ध) दिखाई देता है; [तथापि] तथापि [परस्पर-सुसंहत-प्रगट-शक्ति-चक्रं स्फुरत् तत्] परस्पर सुसंहत (सुमिलित, सुग्रथित) प्रगट शक्तियों के समूहरूप से स्फुरायमान वह आत्मतत्त्व [अमलमेधसां मनः] निर्मल बुद्धिवालों के मन को [न विमोहयति] विमोहित (भ्रमित) नहीं करता ।

    (कलश--रोला)
    एक ओर से एक स्वयं में सीमित अर ध्रुव ।
    अन्य ओर से नेक क्षणिक विस्तारमयी है ॥
    अहो आतमा का अद्भुत यह वैभव देखो ।
    जिसे देखकर चकित जगतजन ज्ञानी होते ॥२७३॥

    [अहो आत्मनः तद् इदम् सहजम् अद्भुतं वैभवम्] अहो ! आत्मा का तो यह सहज अद्भुत वैभव है कि - [इतः अनेकतां गतम्] एक ओर से देखने पर वह अनेकता को प्राप्त है और [इतः सदा अपि एकताम् दधत्] एक ओर से देखने पर सदा एकता को धारण करता है, [इतः क्षणविभंगुरम्] एक ओर से देखने पर क्षणभंगुर है और [इतः सदा एव उदयात् ध्रुवम्] एक ओर से देखने पर सदा उसका उदय होने से ध्रुव है, [इतः परम-विस्तृतम्] एक ओर से देखने पर परम विस्तृत है और [इतः निजैः प्रदेशैः धृतम्] एक ओर से देखने पर अपने प्रदेशों से ही धारण कर रखा हुआ है ।

    (कलश--रोला)
    एक ओर से शान्त मुक्त चिन्मात्र दीखता ।
    अन्य ओर से भव-भव पीड़ित राग-द्वेषमय ॥
    तीन लोकमय भासित होता विविध नयों से ।
    अहो आतमा का अद्भुत यह वैभव देखो ॥२७४॥

    [एकतः कषाय-कलिः स्खलति] एक ओर से देखने पर कषायों का क्लेश दिखाई देता है और [एकतः शान्तिः अस्ति] एक ओर से देखने पर शांति (कषायों के अभावरूप शांतभाव) है; [एकतः भव-उपहतिः] एक ओर से देखने पर भव की (सांसारिक) पीड़ा दिखाई देती है और [एकतः मुक्तिः अपि स्पृशति] एक ओर से देखने पर (संसार के अभावरूप) मुक्ति भी स्पर्श करती है; [एकतः त्रितयम् जगत् स्फुरति] एक ओर से देखने पर तीनों लोक स्फुरायमान होते हैं (प्रकाशित होता है, दिखाई देता है) और [एकतः चित् चकास्ति] एक ओर से देखने पर केवल एक चैतन्य ही शोभित होता है । [आत्मनः अद्भुतात् अद्भुतः स्वभाव-महिमा विजयते] (ऐसी) आत्मा की अद्भुत से भी अद्भुत स्वभाव-महिमा जयवन्त वर्तती है (किसीसे बाधित नहीं होती)

    (कलश--सोरठा)
    झलकें तीनो लोक, सहज तेज के पुंज में ।
    यद्यपि एक स्वरूप, तदपी भेद दिखाई दें ॥
    सहज तत्त्व उपलब्धि, निजरस के विस्तार से ।
    नियत ज्योति चैतन्य, चमत्कार जयवंत है ॥२७५॥

    [सहज-तेजःपुञ्ज-मज्जत्-त्रिलोकी-स्खलत्-अखिल-विकल्पः अपिएकः एव स्वरूपः] सहज (अपने स्वभावरूप) तेजः-पुञ्ज में त्रिलोक के पदार्थ मग्न हो जाते हैं, इसलिये जिसमें अनेक भेद होते हुए दिखाई देते हैं तथापि जिसका एक ही स्वरूप है (केवलज्ञान में सर्व पदार्थ झलकते हैं, इसलिये जो अनेक ज्ञेयाकाररूप दिखाई देता है तथापि जो चैतन्यरूप ज्ञानाकार की दृष्टि में एक-स्वरूप ही है), [स्व-रस-विसर-पूर्ण-अच्छिन्न-तत्त्व-उपलम्भः] जिसमें निज-रस के विस्तारसे पूर्ण अच्छिन्न तत्त्वोपलब्धि है (प्रतिपक्षी-कर्म का अभाव हो जाने से जिसमें स्वरूपानुभवन का अभाव नहीं होता) [प्रसभ-नियमित-अर्चिः] और जिसकी ज्योति अत्यन्त नियमित है (जो अनन्तवीर्य से निष्कम्प रहता है) [एषः चित्-चमत्कारः जयति] ऐसा यह (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) चैतन्य-चमत्कार जयवन्त वर्तता है (किसीसे बाधित नहीं किया जा सकता ऐसा सर्वोत्कृष्टरूप से विद्यमान है)

    (कलश--दोहा)
    मोह रहित निर्मल सदा, अप्रतिपक्षी एक ।
    अचल चेतनारूप में, मग्न रहे स्वयमेव ॥
    परिपूरण आनन्दमय, अर अद्भुत उद्योत ।
    सदा उदित चहुँ ओर से, अमृचन्द्रज्योति ॥२७६॥

    [अविचलित-चिदात्मनि आत्मनि आत्मानम् आत्मना अनवरत-निमग्नंधारयत्] जो अचल चेतनास्वरूप आत्मा में आत्मा को अपने आप ही निरन्तर निमग्न रखती है (प्राप्त किये गये स्वभाव को कभी नहीं छोड़ती), [ध्वस्त-मोहम्] जिसने मोह का (अज्ञानांधकार का) नाश किया है, [निःसपत्नस्वभावम्] जिसका स्वभाव निःसपत्न (प्रतिपक्षी कर्मों से रहित) है, [विमल-पूर्णं] जो निर्मल है और पूर्ण है; ऐसी [एतत् उदितम् अमृतचन्द्र-ज्योतिः] यह उदय को प्राप्त अमृत-चन्द्र-ज्योति (अमृतमय चन्द्रमा के समान ज्योति, ज्ञान, आत्मा) [समन्तात् ज्वलतु] सर्वतः जाज्वल्यमान रहो ।

    (कलश--हरिगीत)
    गतकाल में अज्ञान से एकत्व पर से जब हुआ ।
    फलरूप में रस-राग अर कर्तृत्व पर में तब हुआ ॥
    उस क्रियाफल को भोगती अनुभूति मैली हो गई ।
    किन्तु अब सद्ज्ञान से सब मलिनता लय हो गई ॥२७७॥

    [यस्मात्] जिससे (जिस पर-संयोगरूप बन्ध-पर्याय-जनित अज्ञान से) [पूरा] प्रथम [स्व-परयोः द्वैतम् अभूत्] अपना और पर का द्वैत हुआ, [यतः अत्र अन्तरं भूतं] द्वैतभाव होने पर जिससे स्वरूप में अन्तर पड़ गया (बन्ध-पर्याय ही निजरूप ज्ञात हुई), [यतः राग-द्वेष-परिग्रहे सति] स्वरूप में अन्तर पड़ने पर जिससे राग-द्वेष का ग्रहण हुआ, [क्रिया-कारकैः जातं] राग-द्वेष का ग्रहण होने पर जिससे क्रिया के कारक उत्पन्न हुए (क्रिया और कर्त्ता-कर्मादि कारकों का भेद पड़ गया), [यतः च अनुभूतिः क्रियायाः अखिलं फलं भुञ्जाना खिन्ना] कारक उत्पन्न होने पर जिससे अनुभूति क्रिया के समस्त फल को भोगती हुई खिन्न हो गई, [तत् विज्ञान-घन-ओघ-मग्नम्] वह अज्ञान अब विज्ञानघन के समूह में मग्न हुआ (ज्ञानरूप में परिणमित हुआ) [अधुना किल किञ्चित् न किञ्चित्] इसलिए अब वह सब वास्तव में कुछ भी नहीं है ।

    (कलश--हरिगीत)
    ज्यों शब्द अपनी शक्ति से ही तत्त्व प्रतिपादन करें ।
    त्यों समय की यह व्याख्या भी उन्हीं शब्दों ने करी ॥
    निजरूप में ही गुप्त अमृतचन्द्र श्री आचार्य का ।
    इस आत्मख्याति में अरे कुछ भी नहीं कर्तृत्व है ॥२७८॥

    [स्व-शक्ति-संसूचित-वस्तु-तत्त्वैः शब्दैः] जिनने अपनी शक्ति से वस्तु के तत्त्व (यथार्थ-स्वरूप) को भलीभाँति कहा है ऐसे शब्दों ने [इयं समयस्य व्याख्या] इस समय की व्याख्या (आत्म-वस्तु का व्याख्यान अथवा समयप्राभृत शास्त्र की टीका) [कृता] की है; [स्वरूप-गुप्तस्य अमृतचन्द्रसूरेः] स्वरूपगुप्त (अमूर्तिक ज्ञानमात्र स्वरूप में गुप्त) अमृतचन्द्रसूरि का (इसमें) [किञ्चित् एव कर्तव्यम् न अस्ति] कुछ भी कर्तव्य नहीं है ।

    इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार की आचार्य अमृतचन्द्रकृत आत्मख्याति नामक संस्कृत टीका समाप्त होती है ।

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