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प्रवचनसार
























- कुन्दकुन्दाचार्य



nikkyjain@gmail.com
Date : 30-Jun-2024

Index


अधिकार

ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन-अधिकार ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन-अधिकार चरणानुयोग-चूलिका-अधिकार परिशिष्ट







Index


गाथा / सूत्रविषय
000_index) विषयानुक्रमणिका
000_मंगलाचरण) टीकाकार (अमृतचंद्रआचार्य और जयसेनाचार्य) द्वारा मंगलाचरण

ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन-अधिकार

001) तीर्थ-नायक को प्रणमन
002) पंच परमेष्ठी को नमस्कार
003) वर्तमान तीर्थंकरों को नमन
004-005) साम्य का आश्रय
006) सराग और वीतरागचारित्र में हेय-उपादेय
007) चारित्र का स्वरूप
008) आत्मा ही चारित्र है
009) जीव ही शुभ, अशुभ और शुद्ध
010) परिणाम वस्तु का स्वभाव
011) शुद्ध परिणाम के ग्रहण और शुभ परिणाम के त्याग के लिये उनका फल विचारते हैं
012) अत्यन्त हेय है ऐसे अशुभ परिणाम का फल विचारते हैं
013)  शुद्धोपयोग के फल की आत्मा के प्रोत्साहन के लिये प्रशंसा करते हैं
014) शुद्धोपयोग परिणत आत्मा का स्वरूप
015) शुद्धोपयोग द्वारा तत्काल ही होनेवाली शुद्ध आत्मस्वभाव प्राप्ति की प्रशंसा
016) शुद्धात्म स्वभाव की प्राप्ति अन्य कारकों से निरपेक्ष होने से अत्यन्त आत्माधीन
017) शुद्धात्म-स्वभाव के अत्यन्त अविनाशीपना और कथंचित् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्तता
018) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सर्व द्रव्यों के साधारण, शुद्ध आत्मा के भी
019) सर्वज्ञ को जो मानते हैं, वो सम्यग्दृष्टी
020) आत्मा के इन्द्रियों के बिना ज्ञान और आनन्द कैसे?
021) शुद्ध आत्मा के शारीरिक सुख दुःख नहीं
022) केवली भगवान के सब प्रत्यक्ष
023) भगवान को कुछ भी परोक्ष नहीं
024) आत्मा का ज्ञान प्रमाणपना और ज्ञान का सर्वगतपना
025-026) आत्मा को ज्ञान प्रमाण न मानने में दोष
027) ज्ञान की भाँति आत्मा का भी सर्वगतत्व न्याय-सिद्ध
028) आत्मा और ज्ञान के एकत्व-अन्यत्व का विचार
029) ज्ञान ज्ञेय के समीप नहीं जाता
030) ज्ञेय-पदार्थों में प्रविष्ट नहीं हुआ होने पर भी प्रविष्ट की भाँति ज्ञात होता है
031) उसी अर्थ को दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं
032) पदार्थ ज्ञान में वर्तते हैं
033) ज्ञानी की ज्ञेय पदार्थों के साथ भिन्नता ही है
034) भाव-श्रुतज्ञान से भी आत्मा का परिज्ञान होता है
035) पदार्थों की जानकारी-रूप भावश्रुत ही ज्ञान है
036) भिन्न ज्ञान से आत्मा ज्ञानी नहीं होता
037) आत्मा ज्ञान है और शेष ज्ञेय हैं
038) भूत-भावि पर्यायें वर्तमान ज्ञान में विद्यमान--वर्तमान की भांति दिखाई देती हैं
039) भूत-भावि पर्यायों की असद्भूत--अविद्यमान संज्ञा है
040) वर्तमान ज्ञान के असद्भूत पर्यायों का प्रत्यक्षपना दृढ़ करते हैं
041) भूत-भावि सूक्ष्मादि पदार्थों को इन्द्रिय ज्ञान नहीं जानता है
042) अतीन्द्रिय ज्ञान भूत-भावि सूक्ष्मादि पदार्थों को जानता है
043) जिसके कर्मबन्ध के कारणभूत हितकारी-अहितकारी विकल्परूप से, जानने योग्य विषयों में परिणमन है, उसके क्षायिकज्ञान नहीं है
044) ज्ञान और रागादि रहित कर्म का उदय बंध का कारण नहीं है
045) केवली के रागादि का अभाव होने से धर्मोपदेशादि भी बंध के कारण नहीं हैं
046) रागादि रहित कर्मोदय तथा विहारादि क्रिया बंध का कारण नहीं है
047) केवली-भगवान की भाँति समस्त जीवों के स्वभाव विघात का अभाव होने का निषेध
048) पुन: चालु विषय का अनुसरण करके अतीन्द्रिय ज्ञान को सर्वज्ञरूप से अभिनन्दन करते हैं
049) जो सबको नहीं जानता वह एक को भी नहीं जानता
050) एक को न जानने वाला सबको नहीं जानता
051) क्रमश: प्रवर्तमान ज्ञान की सर्वगतता सिद्ध नहीं होती
052) युगपत् प्रवृत्ति के द्वारा ही ज्ञान का सर्वगतत्व
053) केवलज्ञानी के ज्ञप्तिक्रिया का सद्भाव होने पर भी उसके क्रिया के फलरूप बन्ध का निषेध
054) ज्ञान-प्रपंच व्याख्यान के बाद आधारभूत सर्वज्ञ को नमस्कार
055) ज्ञान और सुख की हेयोपादेयता
056) अतीन्द्रिय सुख का साधनभूत अतीन्द्रिय ज्ञान उपादेय है
057) इन्द्रिय-सुख का साधनभूत इन्द्रिय-ज्ञान हेय है
058) इन्द्रियाँ मात्र अपने विषयों में भी युगपत् प्रवृत्त नहीं होतीं, इसलिये इन्द्रियज्ञान हेय ही है
059) इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है
060) परोक्ष और प्रत्यक्ष के लक्षण बतलाते हैं
061) प्रत्यक्ष-ज्ञान पारमार्थिक सुख-रूप
062) ऐसे अभिप्राय का खंडन करते हैं कि 'केवलज्ञान को भी परिणाम के द्वारा' खेद का सम्भव होने से केवलज्ञान ऐकान्तिक सुख नहीं है
063) 'केवलज्ञान सुखस्वरूप है' ऐसा निरूपण करते हुए उपसंहार
064) केवलज्ञानियों को ही पारमार्थिक सुख होता है
065) परोक्षज्ञान वालों के अपारमार्थिक इन्द्रिय-सुख
066) जहाँ तक इन्द्रियाँ हैं वहाँ तक स्वभाव से ही दुःख है
067) मुक्त आत्मा के सुख की प्रसिद्धि के लिये, शरीर सुख का साधन होने की बात का खंडन
068) इसी बात को दृढ़ करते हैं
069) जैसे निश्चय से शरीर सुख का साधन नहीं है, उसी प्रकार निश्चय से विषय भी सुख के करण नहीं
070) आत्मा के सुख-स्वभावता और ज्ञान-स्वभावता अन्य दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं
071) श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव पूर्वोक्त लक्षण अनन्त-सुख के आधारभूत सर्वज्ञ को वस्तुस्तवनरूप से नमस्कार करते हैं
072) उन्हीं भगवान को सिद्धावस्था सम्बन्धी गुणों के स्तवनरूप से नमस्कार
073) इन्द्रिय-सुख स्वरूप सम्बन्धी विचारों को लेकर, उसके साधन (शुभोपयोग) का स्वरूप
074) शुभोपयोग साधन है और उनका साध्य इन्द्रियसुख है
075) इसप्रकार इन्द्रिय-सुख की बात उठाकर अब इन्द्रिय-सुख को दुखपने में डालते हैं
076) इन्द्रिय-सुख के साधनभूत पुण्य को उत्पन्न करनेवाले शुभोपयोग की, दुःख के साधनभूत पाप को उत्पन्न करनेवाले अशुभोपयोग से अविशेषता
077) शुभोपयोग-जन्य फलवाला जो पुण्य है उसे विशेषत: दूषण देने के लिये उस पुण्य को (उसके अस्तित्व को) स्वीकार करके, उसकी (पुण्य की) बात का खंडन
078) इस प्रकार स्वीकार किये गये पुण्य दु:ख के बीज (तृष्णा) के कारण हैं
079) पुण्य में दुःख के बीज की विजय घोषित करते हैं
080) पुन: पुण्य-जन्य इन्द्रिय-सुख को अनेक पकार से दुःखरूप प्रकाशित करते हैं
081) पुण्य और पाप की अविशेषता का निश्चय करते हुए उपसंहार
082) इस प्रकार शुभ और अशुभ उपयोग की अविशेषता अवधारित करके, अशेष दुःख का क्षय करने का मन में दृढ़ निश्चय करके शुद्धोपयोग में निवास
083) शुद्धोपयोग के अभाव में शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं करता है - व्यतिरेक रूप से दृढ करते हैं
084) शुद्धोपयोग का अभाव होने पर जैसे (जिन के समान) जिन सिद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं करता है
085) इस प्रकार के उन निर्दोषी परमात्मा की जो श्रद्धा करते हैं - उन्हे मानते हैं - वे अक्षय सुख को प्राप्त करते हैं, एसा प्रज्ञापन करते हैं - ज्ञान कराते हैं
086) 'मैं मोह की सेना को कैसे जीतूं' - ऐसा उपाय विचारता है
087) इसप्रकार मैने चिंतामणि-रत्न प्राप्त कर लिया है तथापि प्रमाद चोर विद्यमान है, ऐसा विचार कर जागृत रहता है
088) यही एक, भगवन्तों ने स्वयं अनुभव करके प्रगट किया हुआ मोक्ष का पारमार्थिक पंथ है
090) शुद्धात्म-लाभ के परिपंथी (शत्रु) मोह का स्वभाव और उसमें प्रकारों को व्यक्त करते हैं
091) तीनों प्रकार के मोह को अनिष्ट कार्य का कारण कहकर उसका क्षय करने को सूत्र द्वारा कहते हैं
092) इस मोह-राग-द्वेष को इन चिन्हों के द्वारा पहिचान कर उत्पन्न होते ही नष्ट कर देना चाहिये
093) मोह-क्षय करने का उपायान्तर (दूसरा उपाय) विचारते हैं
094) जिनेन्द्र के शब्द ब्रह्म में अर्थों की व्यवस्था (पदार्थों की स्थिति) किस प्रकार है सो विचार करते हैं
095) इस प्रकार मोहक्षय के उपायभूत जिनेश्वर के उपदेश की प्राप्ति होने पर भी पुरुषार्थ अर्थक्रियाकारी है, इसलिये पुरुषार्थ करता है
096) स्व-पर के विवेक की सिद्धि से ही मोह का क्षय हो सकता है, इसलिये स्व-पर के विभाग की सिद्धि के लिये प्रयत्न करते हैं
097) सब प्रकार से स्व-पर के विवेक की सिद्धि आगम से करने योग्य है, ऐसा उपसंहार करते हैं
098) न्याय-पूर्वक ऐसा विचार करते हैं कि- जिनेन्द्रोक्त अर्थों के श्रद्धान बिना धर्म-लाभ (शुद्धात्म-अनुभवरूप धर्म-प्राप्ति) नहीं होता
099) दूसरी पातनिका - सम्यक्त्व के अभाव में श्रमण (मुनि) नहीं है, उस श्रमण से धर्म भी नहीं है । तो कैसे श्रमण हैं? एसा प्रश्न पूछने पर उत्तर देते हुए ज्ञानाधिकार का उपसंहार करते हैं
100) ऐसे निश्चय रत्नत्रय परिणत महान तपोधन (मुनिराज) की जो वह भक्ति करता है, उसका फल दिखाते हैं
101) उस पुण्य से दूसरे भव में क्या फल होता है, यह प्रतिपादन करते हैं

ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन-अधिकार

102) अब सम्यक्त्व (अधिकार) कहते हैं -
103) ज्ञेयतत्त्व का प्रज्ञापन करते हैं अर्थात् ज्ञेयतत्त्व बतलाते हैं । उसमें (प्रथम) पदार्थ का सम्यक् (यथार्थ) द्रव्यगुणपर्यायस्वरूप वर्णन करते हैं
104) अनुषंगिक (पूर्व-गाथा के कथन के साथ सम्बन्ध वाली) ऐसी यह ही स्‍वसमय-परसमय की व्‍यवस्‍था (भेद) निश्‍च‍ित (उसका) उपसंहार करते हैं
105) द्रव्य का लक्षण बतलाते हैं
106) अनुक्रम से दो प्रकार का अस्तित्व कहते हैं । स्वरूप-अस्तित्व और सादृश्य अस्तित्व । इनमें से यह स्वरूपास्तित्व का कथन है
107) यह (नीचे अनुसार) सादृश्य-अस्तित्व का कथन है
108) द्रव्यों से द्रव्यान्तर की उत्पत्ति होने का और द्रव्य से सत्ता का अर्थान्तरत्व होने का खण्डन करते हैं ।
109) अब, यह बतलाते हैं कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक होने पर भी द्रव्य सत् है
110) अब, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का परस्पर अविनाभाव दृढ़ करते हैं
111) अब, उत्पादादि का द्रव्य से अर्थान्तरत्व को नष्ट करते हैं; (अर्थात् यह सिद्ध करते हैं कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य द्रव्य से पृथक् पदार्थ नहीं हैं)
112) अब, और भी दुसरी पद्धति से द्रव्य के साथ उत्पादि के अभेद का समर्थन करते हैं और समय भेद का निराकरण करते हैं -
113) अब, द्रव्य के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य को अनेक द्रव्यपर्याय के द्वारा विचार करते हैं
114) अब, द्रव्य के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य एक द्रव्य पर्याय द्वारा विचार करते हैं
115) अब, सत्ता और द्रव्य अर्थान्तर (भिन्न पदार्थ, अन्य पदार्थ) नहीं हैं, इस सम्बन्ध में युक्ति उपस्थित करते हैं
116) अब, पृथक्‍त्‍व और अन्यत्व का लक्षण स्पष्ट करते हैं
117) अब अतद्‌भाव को उदाहरण पूर्वक स्पष्ट बतलाते हैं
118) अब, सर्वथा अभाव अतद्‌भाव का लक्षण है, इसका निषेध करते हैं
119) अब, सत्ता और द्रव्य का गुण-गुणि‍त्‍व सिद्ध करते हैं
120) अब गुण और गुणी के अनेकत्व का खण्डन करते हैं
121) अब, द्रव्य के सत्-उत्पाद और असत्-उत्पाद होने में अविरोध सिद्ध करते हैं
122) अब (सर्व पर्यायों में द्रव्‍य अन्‍वय है अर्थात् वह का वही है, इसलिये उसके सत्‌-उत्‍पाद है — इसप्रकार) सत्-उत्‍पाद को अनन्‍यत्‍व के द्वारा नि‍श्‍चि‍त करते हैं
123) अब, असत्-उत्पाद को अन्यत्व के द्वारा निश्‍चित करते हैं
124) अब, एक ही द्रव्य के अनन्यपना और अन्यपना होने में जो विरोध है, उसे दूर करते हैं --
125) अब, समस्त विरोधों को दूर करने वाली सप्तभंगी प्रगट करते हैं
126) अब, जिसका निर्धारण करना है, इसलिये जिसे उदाहरणरूप बनाया गया है ऐसे जीव की मनुष्यादि पर्यायें क्रिया का फल हैं इसलिये उनका अन्यत्व (अर्थात् वे पर्यायें बदलती रहती हैं, इस प्रकार) प्रकाशित करते हैं
127) अब, यह व्यक्त करते हैं कि मनुष्यादि पर्यायें जीव को क्रिया के फल हैं
128) अब यह निर्णय करते हैं कि मनुष्यादिपर्यायों में जीव के स्वभाव का पराभव किस कारण से होता है?
129) अब, जीव की द्रव्यरूप से अवस्थितता होने पर भी पर्यायों से अनवस्थितता (अनित्यता-अस्थिरता) प्रकाशते हैं
130) अब, जीव की अनवस्थितता का हेतु प्रगट करते हैं
131) अब परिणामात्मक संसार में किस कारण से पुद्‌गल का संबंध होता है—कि जिससे वह (संसार) मनुष्यादि पर्यायात्मक होता है? — इसका यहाँ समाधान करते हैं
132) अब, परमार्थ से आत्मा के द्रव्यकर्म का अकर्तृत्व प्रकाशित करते हैं
133) अब, यह कहते हैं कि वह कौनसा स्वरूप है जिसरूप आत्मा परिणमित होता है?
134) अब ज्ञान, कर्म और कर्मफल का स्वरूप वर्णन करते हैं
135) अब ज्ञान, कर्म और कर्मफल को आत्मारूप से निश्‍चित करते हैं
136) अब, इस प्रकार ज्ञेयपने को प्राप्त आत्मा की शुद्धता के निश्चय से ज्ञानतत्त्व की सिद्धि होने पर शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि (अनुभव, प्राप्ति) होती है; इस प्रकार उसका अभिनन्दन करते हुए (अर्थात् आत्मा की शुद्धता के निर्णय की प्रशंसा करते हुए धन्यवाद देते हुए), द्रव्यसामान्य के वर्णन का उपसंहार करते हैं
137) अब, द्रव्यविशेष का प्रज्ञापन करते हैं (अर्थात् द्रव्यविशेषों को द्रव्य को भेदों को बतलाते हैं) । उसमें (प्रथम) द्रव्य के जीवाजीवपनेरूप विशेष को निश्‍चित करते हैं, (अर्थात् द्रव्य के जीव और अजीव-ऐसे दो भेद बतलाते हैं)
138) अब द्रव्य के लोकालोक स्वरूप-विशेष (भेद) निश्चित करते हैं
139) अब, ‘क्रिया’ रूप और ‘भाव’ रूप ऐसे जो द्रव्य के भाव हैं उनकी अपेक्षा से द्रव्य का भेद निश्‍चित करते हैं
140) अब, यह बतलाते हैं कि गुण विशेष से (गुणों के भेद से) द्रव्य विशेष (द्रव्यों का भेद) होता है
141) अब, मूर्त और अमूर्त गुणों के लक्षण तथा संबंध (अर्थात् उनका किन द्रव्यों के साथ संबंध है यह) कहते हैं
142) अब, मूर्त पुद्‌गल द्रव्य के गुण कहते हैं
143-144) अब, शेष अमूर्त द्रव्यों के गुण कहते हैं और द्रव्‍य का प्रदेशवत्‍व और अप्रदेशवत्‍वरूप विशेष (भेद) बतलाते हैं
145) अब, यह कहते हैं कि प्रदेशवत्त्व और अप्रदेशवत्त्व किस प्रकार से संभव है
146) अब उसी अर्थ को दृढ करते हैं
147) अब, यह बतलाते हैं की प्रदेशी और अप्रदेशी द्रव्य कहाँ रहते हैं
148) अब, यह कहते हैं की प्रदेशवतत्त्व और अप्रदेशवतत्त्व किस प्रकार से संभव है
149) अब, 'कालाणु अप्रदेशी ही है' ऐसा नियम करते हैं (अर्थात दर्शाते हैं)
150) अब काल-पदार्थ के द्रव्य और पर्याय को बतलाते हैं
151) अब, आकाश के प्रदेश का लक्षण सूत्र द्वारा कहते हैं
152) अब, तिर्यकप्रचय तथा ऊर्ध्वप्रचय बतलाते हैं
153) अब, कालपदार्थ का ऊर्ध्वप्रचय निरन्वय है, इस बात का खंडन करते हैं
154) अब, (जैसे एक वृत्यंश में कालपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाला सिद्ध किया है उसी प्रकार) सर्व वृत्यंशों में कालपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाला है यह सिद्ध करते हैं
155) अब, कालपदार्थ के अस्तित्व अन्यथा अनुपपत्ति होने से (अन्य प्रकार से) नहीं बन सकता; इसलिये उसका प्रदेशमात्रपना सिद्ध करते हैं
156) अब, इस प्रकार ज्ञेयतत्त्व कहकर, ज्ञान और ज्ञेय के विभाग द्वारा आत्मा को निश्‍चित करते हुए, आत्मा को अत्यन्त विभक्त (भिन्न) करने के लिये व्यवहारजीवत्व के हेतु का विचार करते हैं
157) अब, प्राण कौन-कौन से हैं, सो बतलाते हैं
158) अब, वे ही प्राण भेद-नय से दस प्रकार के होते हैं, ऐसा आवेदन करते हैं (मर्यादा पूर्वक ज्ञान कराते हैं) --
159) अब, व्युत्पत्ति से प्राणों को जीवत्व का हेतुपना और उनका पौद्‌गलिकपना सूत्र द्वारा कहते हैं
160) अब, प्राणों का पौद्‌गलिकपना सिद्ध करते हैं
161) अब, प्राणों के पौद्‌गलिक कर्म का कारणत्‍व प्रगट करते हैं
162) अब पौद्‌गलिक प्राणों की संतति की (प्रवाह-परम्परा) की प्रवृत्ति का अन्तरंग हेतु सूत्र द्वारा कहते हैं
163) अब पौद्‌गलिक प्राणों की संतति की निवृत्ति का अन्‍तरङ्ग हेतु समझाते है
164) अब फिर भी, आत्मा की अत्यन्त विभक्तता सिद्ध करने के लिये, व्यवहार जीवत्व के हेतु ऐसी जो गतिविशिष्ट (देव-मनुष्यादि) पर्यायों का स्वरूप कहते हैं
165) अब पर्याय के भेद बतलाते हैं
166) अब, आत्मा का अन्य द्रव्य के साथ संयुक्तपना होने पर भी अर्थ निश्रायक अस्तित्व को स्व-पर विभाग के हेतु के रूप में समझाते हैं
167) अब, आत्मा को अत्यन्त विभक्त करने के लिये परद्रव्य के संयोग के कारण का स्वरूप कहते हैं
168) अब कहते हैं कि इनमें कौनसा उपयोग परद्रव्य के संयोग का कारण है
169) अब शुभोपयोग का स्वरूप कहते हैं
170) अब अशुभोपयोग का स्वरूप कहते हैं
171) अब, परद्रव्य के संयोग का जो कारण (अशुद्धोपयोग) उसके विनाश का अभ्यास बतलाते हैं
172) अब शरीरादि परद्रव्य के प्रति भी मध्यस्थपना प्रगट करते हैं
173) अब, शरीर, वाणी और मन का परद्रव्यपना निश्‍चित करते हैं
174) अब आत्मा के परद्रव्यत्व का अभाव और परद्रव्य के कर्तृत्व का अभाव सिद्ध करते हैं
175) अब इस संदेह को दूर करते हैं कि 'परमाणुद्रव्यों को पिण्डपर्यायरूप परिणति कैसे होती है?'
176) अब यह बतलाते हैं कि परमाणु के वह स्निग्ध-रूक्षत्व किस प्रकार का होता है
177) अब यह बतलाते हैं कि कैसे स्निग्धत्व-रूक्षत्व से पिण्डपना होता है
178) अब यह निश्‍चित करते हैं कि परमाणुओं के पिण्डत्‍व में यथोक्त (उपरोक्त) हेतु है
179) अब, आत्मा के पुद्‌गलों के पिण्ड के कर्तृत्व का अभाव निश्‍चित करते हैं
180) अब ऐसा निश्‍चित करते हैं कि आत्मा पुद्‌गलपिण्ड का लानेवाला नहीं है
181) अब ऐसा निश्‍चित करते हैं कि आत्मा पुद्‌गलपिण्डों को कर्मरूप नहीं करता
182) अब आत्‍मा के कर्मरूप परिणत पुद्‌गलद्रव्‍यात्‍मक शरीर के कर्तत्‍व का अभाव निश्‍चि‍त करते हैं (अर्थात् यह निश्‍च‍ित करते हैं कि कर्मरूपपरिणतपुद्‌गलद्रव्‍यस्‍वरूप शरीर का कर्ता आत्‍मा नहीं है)
183) अब आत्मा के शरीरपने का अभाव निश्‍चित करते हैं
184) तब फिर जीव का, शरीरादि सर्वपरद्रव्यों से विभाग का साधनभूत, असाधारण स्वलक्षण क्या है, सो कहते हैं
185) अब, अमूर्त ऐसे आत्मा के, स्निग्धरूक्षत्व का अभाव होने से बंध कैसे हो सकता है ? ऐसा पूर्व पक्ष उपस्थित करते हैं
186) अब ऐसा सिद्धान्त निश्‍चित करते हैं कि आत्मा अमूर्त होने पर भी उसको इस प्रकार बंध होता है
187) अब भावबंध का स्वरूप बतलाते हैं
188) भावबंध की युक्ति और द्रव्यबन्ध का स्वरूप
189) अब पुद्‌गलबंध, जीवबंध और उन दोनों के बंध का स्वरूप कहते हैं
190) अब, ऐसा बतलाते हैं कि द्रव्यबंध का हेतु भावबंध है
191) अब, यह सिद्ध करते हैं कि—राग परिणाममात्र जो भावबंध है सो द्रव्यबन्ध का हेतु होने से वही निश्‍चयबन्ध है
192) अब, परिणाम का द्रव्यबन्ध के साधकतम राग से विशिष्टपना सविशेष प्रगट करते हैं (अर्थात् परिणाम द्रव्यबंध के उत्कृष्ट हेतुभूत राग से विशेषता वाला होता है ऐसा भेद सहित प्रगट करते हैं)
193) अब विशिष्ट परिणाम के भेद को तथा अविशिष्ट परिणाम को, कारण में कार्य का उपचार कार्यरूप से बतलाते हैं
194) अब, जीव की स्वद्रव्य में प्रवृत्ति और परद्रव्य से निवृत्ति की सिद्धि के लिये स्व-पर का विभाग बतलाते हैं
195) अब, यह निश्‍चित करते हैं कि—जीव को स्वद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त स्व-पर के विभाग का ज्ञान है, और परद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त स्व-पर के विभाग का अज्ञान है
196) अब, आत्मा का निश्चय से रागादि स्व-परिणाम ही कर्म है और द्रव्य-कर्म उसका कर्म नहीं है, ऐसा प्रारूपित करते हैं -- कथन करते हैं -
197) अब, पुद्‌गलपरिणाम आत्मा का कर्म क्यों नहीं है—ऐसे सन्देह को दूर करते हैं
198) पुद्गल-परिणाम आत्मा का कर्म नहीं
199) पुद्‌गल कर्मों की विचित्रता को कौन करता है?
200) अब, पहले (१९९वीं गाथा में) कही गई प्रकृतियों के, जघन्य अनुभाग और उत्कृष्ट अनुभाग का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं
201) अकेला ही आत्मा बंध है
202) निश्चय और व्यवहार का अविरोध
203) अशुद्धनय से अशुद्ध आत्मा की ही प्राप्ति
204) शुद्धनय से शुद्धात्मा की ही प्राप्ति
205) शुद्धात्मा ही उपलब्ध करने योग्य क्यों?
206) दूसरा कुछ भी उपलब्ध करने योग्य क्यों नहीं?
207) शुद्धात्मा की उपलब्धि से क्या होता है?
208) मोहग्रंथि टूटने से क्या होता है?
209) ध्यान आत्मा में अशुद्धता नहीं लाता
210) सकलज्ञानी क्या ध्याते हैं?
211) सकलज्ञानी परम सौख्य का ध्यान करता है
212) शुद्ध आत्मा की उपलब्धि मोक्ष का मार्ग
213) मैं (आचार्यदेव) स्वयं भी शुद्धात्मप्रवृत्ति करता हूँ
214) मध्य-मंगल

चरणानुयोग-चूलिका-अधिकार

215) श्रमणार्थी की भावना
216) श्रमणार्थी पहले क्या-क्या करता है?
217) दीक्षार्थी भव्य जैनाचार्य का आश्रय लेता है
218) गुरु द्वारा स्वीकृत श्रमणार्थी की अवस्था कैसी?
219-220) श्रमण-लिंग का स्वरूप
221) अब इन दोनों लिंगों को ग्रहणकर पहले भावि नैगमनय से कहे गये पंचाचार के स्वरूप को अब स्वीकार कर उसके आधार से उपस्थित स्वस्थ-स्वरूप लीन होकर वह श्रमण होता है ऐसा प्रसिद्ध करते हैं -
222-223) अब, जब विकल्प रहित सामायिक संयम से च्युत होता है, तब विकल्प सहित छेदोपस्थापन चारित्र को स्वीकार करता है, ऐसा कथन करते हैं -
224) अब इन मुनिराज के दीक्षा देनेवाले गुरु के समाननिर्यापक नामक दूसरे भी गुरु हैं इसप्रकार गुरु व्यवस्था का निरूपण करते हैं -
225-226)  अब पहले (२२४ वीं) गाथा में कहे गये दोनो प्रकार के छेदक का प्रायश्चित्त विधान कहते हैं -
227) अब विकार रहित श्रामण्य में छेद को उत्पन्न करनेवाले पर द्रव्यों के सम्बन्ध का निषेध करते हैं -
228) अब श्रमणता की परिपूर्ण कारणता होने से अपने शुद्धात्मद्रव्य में हमेशा स्थिति करना चाहिये, ऐसा प्रसिद्ध करते हैं-
229)  अब, श्रमणता के छेद की कारणता होने से प्रासुक आहार आदि में भी ममत्व का निषेध करते हैं -
230) अब शुद्धोपयोगरूप भावना को रोकनेवाले छेद को कहते हैं -
231) अब अन्तरंग-बहिरंग हिंसारूप से दो प्रकार के छेद को प्रसिद्ध करते हैं
232-233) अब उसी अर्थ को दृष्टान्त और दार्ष्टान्त द्वारा दृढ़ करते हैं -
234) अब, निश्चय हिंसारूप अन्तरंग छेद, पूर्णरूप से निषेध करने योग्य है; ऐसा उपदेश देते हैं-
235) अब बाह्य में जीव का घात होने पर बन्ध होता है, अथवा नहीं होता है; परन्तु परिग्रह होने पर नियम से बन्ध होता है, ऐसा प्रतिपादन करते हैं -
236) निरपेक्ष त्याग से ही कर्मक्षय
237-238-239) परिग्रह त्याग
240) सपरिग्रह के नियम से चित्त-शुद्धि नष्ट
241) अपवाद-संयम
242) उपकरण का स्वरूप
243) उपकरण अशक्य अनुष्ठान हैं
244) स्त्री पर्याय से मुक्ति का निराकरण
253) दीक्षाग्रहण में वर्ण व्यवस्था
254) निश्चयनय का अभिप्राय
255) उपकरण रूप अपवाद व्याख्यान का विशेष
256) युक्त आहार-विहार
257) प्रमाद
258) युक्ताहार-विहार
260) युक्ताहारत्व का विस्तार
261-262) मांस के दोष
263) हाथ में आया हुआ प्रासुक आहार भी देय नहीं
264) सापेक्ष उत्सर्ग और अपवाद से चारित्र की रक्षा
265) उत्सर्ग और अपवाद में विरोध से असंयम
266) आगम के परिज्ञान से ही एकाग्रता
267) आगम के परिज्ञान से हीन के कर्मों का क्षय नहीं
268) अब मोक्षमार्ग चाहने वालों को आगम ही दृष्टि-आँख है, ऐसा प्रसिद्ध करते हैं -
269) अब, आगमरूपी नेत्र से सभी दिखाई देता है, ऐसा विशेषरूप से ज्ञान कराते हैं -
270) दर्शन-रहित के संयतपना नहीं
271) अब आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतत्व की युगपतता का अभाव होने पर मोक्ष नहीं है, ऐसी व्यवस्था बताते हैं -
272) आत्मज्ञानी ही मोक्षमार्गी
273) अब पहले (२७२ वीं) गाथा में कहे गये आत्मज्ञान से रहित जीव के, सम्पूर्ण आगम का ज्ञान, तत्त्वार्थ-श्रद्धान और संयतत्व की युगपतता भी अकिंचित्कर है, ऐसा उपदेश देते है -
274) अब, द्रव्य-भाव संयम का स्वरूप कहते हैं -
275) आत्मज्ञानी संयत
276) आत्मज्ञानी संयत का लक्षण
277) युगपत आत्मज्ञान और संयत ही मोक्षमार्ग
278) एकाग्रता के अभाव से मोक्ष का अभाव
279) अब, जो वे अपने शुद्धात्मा में एकाग्र हैं उनका ही मोक्ष होता है; ऐसा उपदेश देते हैं -
280) लौकिक संसर्ग का निषेध
281) लौकिक का लक्षण
282) उत्तम संसर्ग का उपदेश
283) लौकिक संसर्ग कथंचित् अनिषिद्ध
284) शुभोपयोग मुनियों के गौण और श्रावकों को मुख्य
285) शुभोपयोगियों की श्रमणरूप में गौणता
286) शुभोपयोगी श्रमण
287) प्रवृत्ति शुभोपयोगियो के ही है
289) वैयावृत्ति संयम की विराधना-रहित होकर करें
290) प्रवृत्ति में विशेषता
291) अनुकम्पा का लक्षण
292) प्रवृत्ति का काल
293) पात्र-विशेष से वही शुभोपयोग में फल-विशेषता
294) कारण-विपरीतता से फल-विपरीतता
297) पात्रभूत मुनि का लक्षण
299) सामान्य विनय तथा उसके बाद विशेष विनय व्यवहार
301) श्रमणभासों के प्रति समस्त प्रवृत्तियों का निषेध
302) शुभोपयोगियों की शुभप्रवृत्ति
303) श्रमणाभास
304) मोक्षमार्गी पर दोष लगाने में दोष
305) अधिक गुणवा्लों से विनय चाहने से गुणों का विनाश
306) हीन गुणवालों के साथ वर्तने से गुणों का विनाश
307) संसार-स्वरूप
308) मोक्ष का स्वरूप
309) मोक्ष का कारण
310) मोक्षमार्ग
311) शास्त्र का फल और समाप्ति

परिशिष्ट

312) परिशिष्ट



!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!

श्रीमद्‌-भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव-प्रणीत

श्री
प्रवचनसार

मूल प्राकृत गाथा, श्री अमृतचंद्राचार्य विरचित 'तत्त्वदीपिका' नामक संस्कृत टीका का हिंदी अनुवाद, श्री जयसेनाचार्य विरचित 'तात्पर्य-वृत्ति' नामक संस्कृत टीका का हिंदी अनुवाद सहित

आभार : पं जयचंदजी छाबडा, पं हुकमचंद भारिल्ल

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!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!

ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥


अर्थ : बिन्दुसहित ॐकार को योगीजन सर्वदा ध्याते हैं, मनोवाँछित वस्तु को देने वाले और मोक्ष को देने वाले ॐकार को बार बार नमस्कार हो । निरंतर दिव्य-ध्वनि-रूपी मेघ-समूह संसार के समस्त पापरूपी मैल को धोनेवाली है मुनियों द्वारा उपासित भवसागर से तिरानेवाली ऐसी जिनवाणी हमारे पापों को नष्ट करो । जिसने अज्ञान-रूपी अंधेरे से अंधे हुये जीवों के नेत्र ज्ञानरूपी अंजन की सलार्इ से खोल दिये हैं, उस श्री गुरु को नमस्कार हो । परम गुरु को नमस्कार हो, परम्परागत आचार्य गुरु को नमस्कार हो ।


॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥

सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्री-प्रवचनसार नामधेयं, अस्य मूल-ग्रन्थकर्तार: श्री-सर्वज्ञ-देवास्तदुत्तर-ग्रन्थ-कर्तार: श्री-गणधर-देवा: प्रति-गणधर-देवास्तेषां वचनानुसार-मासाद्य आचार्य श्री-कुन्द-कुन्दाचार्य-देव विरचितं ॥

(समस्त पापों का नाश करनेवाला, कल्याणों का बढ़ानेवाला, धर्म से सम्बन्ध रखनेवाला, भव्यजीवों के मन को प्रतिबुद्ध-सचेत करनेवाला यह शास्त्र प्रवचनसार नाम का है, मूल-ग्रन्थ के रचयिता सर्वज्ञ-देव हैं, उनके बाद ग्रन्थ को गूंथनेवाले गणधर-देव हैं, प्रति-गणधर देव हैं उनके वचनों के अनुसार लेकर आचार्य श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेव द्वारा रचित यह ग्रन्थ है । सभी श्रोता पूर्ण सावधानी पूर्वक सुनें । )


॥ श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥

मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्‌ ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम्‌ ॥


आर्हत भक्ति
पण्डित-जुगल-किशोर कृत
तुम चिरंतन, मैं लघुक्षण
लक्ष वंदन, कोटी वंदन ॥

जागरण तुम, मैं सुषुप्ति, दिव्यतम आलोक हो प्रभु,
मैं तमिस्रा हूँ अमा की, क्षीण अन्तर, क्षीण तन-मन ।
लक्ष वंदन, कोटी वंदन ॥

शोध तुम, प्रतिशोध रे ! मैं, क्षुद्र-बिन्दु विराट हो तुम,
अज्ञ मैं पामर अधमतम, सर्व जग के विज्ञ हो तुम,
देव ! मैं विक्षिप्त उन्मन, लक्ष वंदन, कोटी वंदन ॥

चेतना के एक शाश्वत, मधु मंदिर उच्छ्वास ही हो
पूर्ण हो, पर अज्ञ को तो, एक लघु प्रतिभास ही हो
दिव्य कांचन, मैं अकिंचन, लक्ष वंदन, कोटी वंदन ॥

व्याधि मैं, उपचार अनुपम, नाश मैं, अविनाश हो रे !
पार तुम, मँझधार हूँ मैं, नाव मैं, पतवार हो रे !
मैं समय, तुम सार अर्हन् !, लक्ष वंदन, कोटी वंदन

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+ विषयानुक्रमणिका -
वि ष या नु क्र म णि का
अन्वयार्थ : गाथा सारिणि - ज्ञानतत्व प्रज्ञापन (सम्यग्ज्ञान) महाधिकार - १०१ गाथा

जयसेनाचार्य :
ग्रंथ की गाथा-सारणी
क्रम अधिकार संख्या आ. जयसेन कृत अधिकार का नाम गाथा कुल गाथाऐं आ. अमृतचंद्र कृत अधिकार का नाम गाथा कुल गाथाऐं
1 प्रथम महाधिकार सम्यग्ज्ञान 1 से 101 101 ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन 1 से 92 92
2 द्वितीय महाधिकार सम्यग्दर्शन 102 से 214 113 ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन 93 से 200 108
3 तृतिय महाधिकार सम्यक्चारित्र 215 से 311 97 चरणानुयोग सूचक चूलिका 201 से 275 75
3 अधिकार 311 275

अधिकार अन्तराधिकार स्थल कुल गाथा
शुद्धोपयोग - ७२ (१ - ७२) पीठिका - १४ (१ - १४) नमस्कार मुख्यता (१ - ५)
चरित्र कथन (६ - ८)
तीन उपयोग कथन (९ - १०)
उपयोग फल कथन (११ - १२)
शुद्धोपयोग फल तथा लक्षण (१३ - १४)
सामान्य सर्वज्ञ सिद्धि - ७ (१५ - २१) सर्वज्ञ स्वभाव कथन (१५ - १६)
सर्वज्ञ की उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्थापना (१७ - १८)
सर्वज्ञ श्रद्धा से अनन्त सुख ( १९)
अतीन्द्रिय ज्ञान तथा केवली कवलाहार निषेध (२० - २१)
ज्ञानप्रपंच - ३३ (२२ - ५४) केवलज्ञान मे सब प्रत्यक्ष हैं (२२ - २३)
आत्मा व्यवहार से सर्वगत है (२४ - २८)
ज्ञान ज्ञेय का परस्पर गमन निराकरण (२९ - ३३)
निश्चय व्यवहार केवली प्रतिपादन (३४ - ३७)
वर्त्तमान ज्ञान त्रिकालज्ञ (३८ - ४२)
बंधकारक ज्ञान नहीं, राग है (४३ - ४७)
केवलज्ञान - सर्वज्ञता (४८ - ५२)
ज्ञानप्रपंच उपसंहार (५३ - ५४)
सुखप्रपंच - १८ (५५ -७२) अधिकार गाथा (५५)
अतीन्द्रिय ज्ञान की प्रधानता परक (५६)
इन्द्रिय ज्ञान की प्रधानता परक (५७ - ६०)
अतीन्द्रिय सुख की प्रधानता परक (६१ - ६४)
इन्द्रिय सुख प्रतिपादन परक (६५ - ७२)
ज्ञानकण्डिका चतुष्टय प्रतिपादक - २५ (७३ -९७) शुभाशुभ मूढता निराकरण - १० (७३ - ८२) स्वतंत्र व्याख्यान (७३ - ७६)
तृष्णोत्पादक पुण्य (७७ - ८०)
उपसंहार (८१ - ८२)
आप्त-आत्मा के स्वरूप परिज्ञान विषयक मूढता निराकरण - ७ (८३ -८१) शुद्धात्मा प्राप्ति का उपाय एकमात्र शुद्धोपयोग (८३)
सिद्ध दशा प्राप्ति का उपाय एकमात्र शुद्धोपयोग (८४)
निर्दोषी परमात्मा की श्रद्धा का फल अक्षय सुख (८५)
मोह क्षय का उपाय (८६)
शुद्धात्मारूप चिंतामणि की रक्षा का उपाय (८७)
मोक्ष प्राप्ति का अनाद्यानंत एक उपाय (८८)
रत्नत्रय आराधक पुरुष ही पुजादी के योग्य (८९)
द्रव्य गुण पर्याय परिज्ञान विषयक मूढ़ता का निराकरण - ६ (१० - १५) मोह के स्वरुप और भेद का प्रतिपादन (९०)
दुःख और बंध के कारक रागादी निर्मूल नष्ट करने योग्य (९१ - ९२)
आत्मा की जानकारी आगमाभ्यास की अपेक्षा रखता है (९३)
द्रव्य गुण पर्यायों की अर्थ संज्ञा है (९४)
संपूर्ण दुखों का क्षय, मोहादी का नष्ट करना है (९५)
स्व पर तत्व परिज्ञान विषयक मूढता निराकरण - २ (१६,१७) मोह क्षय का उपाय स्वपर भेद विज्ञान (९६)
स्वपर भेद विज्ञान का उपाय आगम (९७)
स्वतंत्र गाथा चतुष्टय - ४ (९८ - १०१) तत्वश्रद्धान रहित श्रमण के शुद्धोपयोग लक्षण धर्म नहीं होता है (९८)
शुद्धोपयोगी आत्मा ही धर्म है (९९)
शुद्धोपयोगी मुनि के प्रति भक्ति का फल (१००)
उस पुण्य से दुसरे भव मे फल (१०१)


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+ टीकाकार (अमृतचंद्रआचार्य और जयसेनाचार्य) द्वारा मंगलाचरण -
सर्वव्याप्येकचिद्रूपस्वरूपाय परात्मने
स्वोपलब्धिप्रसिद्धाय ज्ञानानन्दात्मने नम: ॥1-अ॥

हेलोल्लुप्तमहामोहतमस्तोमं जयत्यद:
प्रकाशयज्जगत्तत्त्वमनेकान्तमयं मह: ॥2-अ॥

परमानन्दसुधारसपिपासितानां हिताय भव्यानाम्‌
क्रियते प्रकटिततत्त्वा प्रवचनसारस्य वृत्तिरियम्‌ ॥3-अ॥

नम: परमचैतन्यस्वात्मोत्थसुख्सम्पदे
परमागमसाराय सिद्धाय परमेष्ठिने ॥1-ज॥
स्वानुभूति से जो प्रगट सर्वव्यापि चिद्रूप ।
ज्ञान और आनन्दमय नमो परात्मस्वरूप ॥१-अ॥

महामोहतम को करे क्रीड़ा में निस्तेज ।
सब जग आलोकित करे अनेकान्तमय तेज ॥२-अ॥

प्यासे परमानन्द के भव्यों के हित हेतु ।
वृत्ति प्रवचनसार की करता हूँ भवसेतु ॥३-अ॥
अन्वयार्थ : [सर्वव्याप्येकचिद्रूपस्वरूपाय] सर्वव्यापी (सबका ज्ञाता) होने पर भी एक चैतन्यरूप (भाव चैतन्य ही) जिसका स्वरूप है - (जो ज्ञेयाकार हाने पर भी ज्ञाना- कार है अथांत् सर्वज्ञता को लिये हुए आत्मज्ञ हैं) जो [स्वोपलब्धिप्रसिद्धाय] स्वानुभव प्रसिद्ध है (शुद्ध आत्मोपलब्धि से प्रसिद्ध है), और जो [ज्ञानानन्दात्मने] ज्ञानानन्दात्मक है (अतीन्द्रिय पूर्ण-ज्ञान तथा अतीन्द्रिय पूर्ण-सुख-स्वरूप हैं) ऐसे उस [परमात्मने] परमात्मा (उत्कृष्ट आत्मा) के लिये [नम:] नमस्कार हो ॥१-अ॥
[हेलोल्लुप्तमहामोहतमस्तोमं] क्रीडा मात्र में महा-मोहरूप अन्धकार समूह को नष्ट करने वाला (ज्ञान) [जगत्तत्त्वं] जगत् (लोक अलोक) के स्वरूप को [प्रकाशयत्] प्रकाशित करता है, [अद:] वह [मह:] तेज [जयति] जयवन्त है, उसके लिये नमस्कार है ॥२-अ॥
[परमानन्द-सुधारसपिपासितानां] परमानन्दरूप सुधा-रस के पिपासु (अतीन्द्रियसुखरूप अमृत के प्यासे) [भव्यानां] भव्यों के [हिताय] हित के लिये [प्रकटि ततत्त्वा] तत्त्व को प्रगट करने वाली [इयं] यह [प्रवचनसारस्य] श्री प्रवचनसार की [वृत्ति:] टीका [क्रियते] (मुझ अमृतचन्द्राचार्य द्वारा) की जाती है ॥३-अ॥
जिनकी सम्पत्ति परम अतीन्द्रिय सुख है, जो सुख परम चैतन्य-स्वरूप निजात्मा से उत्पन्न हुआ है, ऐसे परमागम के साररूप सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार हो ॥१-ज॥

अमृतचंद्राचार्य :
(सर्व प्रथम, ग्रंथ के प्रारंभ में श्रीमद्‌भगवत्‍कुन्‍दकुन्‍दाचार्यदेवविचरित प्राकृत गाथाबद्ध श्री प्रवचनसार नामक शास्‍त्र की 'तत्त्वदीपिका' नामक संस्‍कृत टीका के रचयिता श्री अमृतचन्‍द्राचार्यदेव उपरोक्‍त श्‍लोकों के द्वारा मङ्गलाचरण करते हुए ज्ञानानन्‍दस्‍वरूप परमात्‍मा को नमस्‍कार करते हैं : )

सर्वव्यापी (अर्थात् सबका ज्ञाता-द्रष्टा) एक चैतन्यरूप (मात्र चैतन्य ही) जिसका स्वरूप है और जो स्वानुभव प्रसिद्ध है (अर्थात् शुद्ध आत्मानुभव से प्रकृष्टतया सिद्ध है) उस ज्ञानानन्दात्मक (ज्ञान और आनन्दस्वरूप) उत्कृष्ट आत्मा को नमस्कार हो ।

(अब अनेकान्तमय ज्ञान की मंगल के लिये लोक द्वारा स्तुति करते हैं : )

जो महामोहरूपी अंधकारसमूह को लीलामात्र में नष्ट करता है और जगत के स्वरूप को प्रकाशित करता है ऐसा अनेकांतमय तेज सदा जयवंत है ।

(अब श्री अमृतचंद्राचार्यदेव (तीसरे श्‍लोक द्वारा) अनेकांतमय जिन प्रवचन के सारभूत इस प्रवचनसार शास्त्र की टीका करने की प्रतिज्ञा करते हैं : )

परमानन्दरूपी सुधारस के पिपासु भव्य जीवों के हितार्थ, तत्त्व को (वस्तुस्वरूप को) प्रगट करने वाली प्रवचनसार की यह टीका रची जा रही है ।

अब, यहां (भगवत्‍कुन्‍दकुन्‍दाचार्यविरचित) गाथासूत्रों का अवतरण किया जाता है।


  • प्रवर्तमान तीर्थ के नायक (श्री महावीर स्वामी) पूर्वक भगवन्त पंचपरमेष्ठी को प्रणाम और वन्दना से होने वाला (भेदाभेदात्मक नमस्कार के द्वारा) सम्मान करके (काय के विशेष नमन द्वारा और वचन के द्वारा उनके प्रति मन में बहुमान लाकर)

  • सम्पूर्ण पुरुषार्थ से मोक्ष मार्ग के चारित्र को आश्रय करते हुए, (कश्चित्) कोई निकट भव्यात्मा प्रतिज्ञा करते हैं-

  • जयसेनाचार्य :
    इस प्रवचनसार की व्याख्या में मध्यम-रुचि-धारी शिष्य को समझाने के लिये मुख्य तथा गौण रूप से अन्तरंग-तत्त्व (निज आत्मा) बाह्य-तत्त्व (अन्य पदार्थ) को वर्णन करने के लिये सर्वप्रथम एक सौ एक गाथा मे ज्ञानाधिकार को कहेंगे । इसके बाद एक सौ तेरह गाथाओं में दर्शन का अधिकार कहेंगे । अनन्तर सत्तानवे गाथाओं में चारित्र का अधिकार कहेंगे । इस तरह समुदाय से तीन सौ ग्यारह गाथाओं मे ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप तीन महा-अधिकार हैं । अथवा टीका के अभिप्राय से सम्यग्ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र अधिकार चूलिका सहित तीन अधिकार हैं ।

    इन तीन अधिकारों मे पहले ही ज्ञान नाम के महा अधिकार में इस तरह एक सौ एक गाथाओं के द्वारा प्रथम महा-अधिकार में समुदाय-पातनिका जाननी चाहिए ।

    प्रथम शुद्धोपयोग अधिकार की सारणी (72 गाथाऐं)
    अन्तराधिकार क्रम अन्तराधिकार का नाम गाथा कुल गाथा
    प्रथम पीठिका 1 से 14 14
    द्वितीय सामान्य सर्वज्ञ सिद्धि 14 से 21 7
    तृतीय ज्ञानप्रपंच 22 से 54 33
    चतुर्थ सुखप्रपंच 55 से 72 18

    यहाँ पहली पातनिका के अभिप्राय: से इस तरह पीठिका नाम के पहले अन्तराधिकार मे पाँच स्थलों के द्वारा चौदह गाथाओं से समुदाय पातनिका कही है ।

    पीठिका नामक प्रथम अंतराधिकार की सारणी (14 गाथाऐं)
    स्थल क्रम स्थल विषय गाथा कुल गाथा
    प्रथम स्थल नमस्कार मुख्यता 1 से 5 5
    द्वितीय स्थल चारित्र कथन 6 से 8 3
    तृतीय स्थल तीन उपयोग कथन 9 व 10 2
    चतुर्थ स्थल उपयोग कल कथन 11 व 12 2
    पंचम स्थल शुद्धोपयोग फल तथा लक्षण 13 व 14 2

    अनन्तर शिवकुमार नामक कोई निकट भव्य, जो स्वसंवेदन से उतन्न होने वाले परमानन्दमयी एक लक्षण के धारी सुखरूपी अमृत से विपरीत चतुर्गति रूप संसार के दुःखों से भयभीत है, जिसे परमभेद विज्ञान के प्रकाश का माहात्म्य प्रकट हो गया है जिसने समस्त दुर्नय रूपी एकान्त के दुराग्रह को दूर कर दिया तथा सर्व शत्रु-मित्र आदि का पक्षपात छोड़कर व अत्यन्त मध्यस्थ होकर धर्म-अर्थ-काम पुरुषार्थों की अपेक्षा अत्यन्त सार और आत्महितकारी अविनाशी व पंचपरमेष्ठी के प्रसाद से उत्पन्न होने वाले मोक्ष- लक्ष्मीरूपी पुरुषार्थ को अंगीकार करते हुए श्री वर्धमान स्वामी तीर्थंकर परमदेव प्रमुख भगवान् पंच-परमेष्ठियों को द्रव्य और भाव नमस्कार कर परम चारित्र का आश्रय ग्रहण करता हूँ, ऐसी प्रतिज्ञा करता है ।

    ऐसे निकट भव्य शिवकुमार को सम्बोधन करने के लिये श्री कुन्दकुन्दाचार्य इस ग्रन्थ की रचना करते हैं ।


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    ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन-अधिकार



    + तीर्थ-नायक को प्रणमन -
    एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं ।
    पणमामि वड्‌ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ॥1॥
    एष सुरासुरमनुष्येन्द्रवन्दितं धौतघातिकर्ममलम् ।
    प्रणमामि वर्धमानं तीर्थं धर्मस्य कर्तारम् ॥१॥
    सुर असुर इन्द्र नरेन्द्र वंदित कर्ममल निर्मलकरन
    वृषतीर्थ के करतार श्री वर्द्धमान जिन शत-शत नमन ॥१॥
    अन्वयार्थ : [एष:] यह मैं [सुरासुरमनुष्येन्द्रवंदितं] जो *सुरेन्द्रों, *असुरेन्द्रों और *नरेन्द्रों से वन्दित हैं तथा जिन्होंने [धौतघातिकर्ममलं] घाति कर्म-मल को धो डाला है ऐसे [तीर्थं] तीर्थ-रूप और [धर्मस्य कर्तारं] धर्म के कर्ता [वर्धमानं] श्री वर्धमानस्वामी को [प्रणमामि] नमस्कार करता हूँ ॥१॥
    *सुरेन्द्र = ऊर्ध्वलोक-वासी देवों के इन्द्र
    *असुरेन्द्र = अधोलोक-वासी देवों के इन्द्र
    *नरेन्द्र = चक्रवर्ती, मनुष्यों के अधिपति

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, यहाँ (भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य विरचित) गाथा-सूत्रों का अवतरण किया जाता है --

    यह *स्वसंवेदनप्रत्यक्ष *दर्शन-ज्ञान-सामान्यस्वरूप मैं, जो ऐसे श्री वर्धमान देव को प्रवर्तमान तीर्थ की नायकता के कारण प्रथम ही, प्रणाम करता हूँ ॥१॥

    *स्वसंवेदनप्रत्यक्ष = स्वानुभवसे प्रत्यक्ष (दर्शनज्ञानसामान्य स्वानुभवसे प्रत्यक्ष है)
    *दर्शन-ज्ञान-सामान्यस्वरूप = दर्शनज्ञानसामान्य अर्थात् चेतना जिसका स्वरूप है ऐसा

    जयसेनाचार्य :
    [एस] यह जो मैं ग्रन्थकार इस ग्रन्थ को करने का उद्यमी हुआ हूं और अपने ही द्वारा अपने आत्मा का अनुभव करने में लवलीन हूँ सो श्री वर्धमान तीर्थंकर परमदेव को [पणमामि] नमस्कार करता हूँ ॥१॥


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    + पंच परमेष्ठी को नमस्कार -
    सेसे पुण तित्थयरे ससव्वसिद्धे विसुद्धसब्भावे ।
    समणे य णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे ॥2॥
    शेषान् पुनस्तीर्थकरान् ससर्वसिद्धान् विशुद्धसद्भावान् ।
    श्रमणांश्च ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारान् ॥२॥
    अवशेष तीर्थंकर तथा सब सिद्धगण को कर नमन
    मैं भक्तिपूर्वक नमूँ पंचाचारयुत सब श्रमणजन ॥२॥
    अन्वयार्थ : [पुन:] और [विशुद्धसद्भावान्] विशुद्ध *सत्तावाले [शेषान् तीर्थकरान्] शेष तीर्थंकरों को [ससर्वसिद्धान्] सर्व सिद्ध-भगवन्तों के साथ ही, [च] और [ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारान्] ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार युक्त [श्रमणान्] *श्रमणों को नमस्कार करता हूँ ॥२॥
    *सत्ता = अस्तित्व
    *श्रमण = आचार्य, उपाध्याय और साधु

    अमृतचंद्राचार्य :
    तत्पश्चात जो विशुद्ध सत्तावान् होने से ताप से उत्तीर्ण हुए (अन्तिम ताव दिये हुए अग्नि में से बाहर निकले हुए) उत्तम सुवर्ण के समान शुद्ध दर्शन-ज्ञान स्वभाव को प्राप्त हुए हैं, ऐसे शेष *अतीत तीर्थंकरों को और सर्व सिद्धों को तथा ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार युक्त होने से जिन्होंने परम शुद्ध उपयोग भूमिका को प्राप्त किया है, ऐसे श्रमणों को-- जो कि आचार्यत्व, उपाध्यायत्व और साधुत्वरूप विशेषों से विशिष्ट (भेदयुक्त) हैं उन्हें -- नमस्कार करता हूँ ॥२॥

    अतीत = गत, हो गये, भूतकालीन

    जयसेनाचार्य :
    इसके बाद प्रणाम करता हूँ । किन्हें प्रणाम करता हूँ? [सेसे पुण तित्थयरे ससव्वसिद्धे] वृषभादि पार्श्व पर्यन्त शेष सभी तीर्थकरों तथा शुद्ध आत्म-स्वभाव की प्राप्ति है लक्षण जिनका, ऐसे सभी सिद्धों को प्रणाम करता हूँ । ये सभी कैसे हैं? [विसुद्धसब्भावे] सर्व मल रहित आत्मा की प्राप्ति के बल से सम्पूर्ण आवरणों के पूर्णतया विनष्ट हो जाने के कारण तथा केवलज्ञान, केवलदर्शन स्वभाव सम्पन्न होने के कारण विशुद्ध सत्तावाले हैं । [समणे य] तथा श्रमण शब्द से कहने योग्य आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को प्रणाम करता हूँ । वे श्रमण किन लक्षणों वाले हैं? [णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे] सर्व विशुद्ध द्रव्य-गुण-पर्याय स्वरूप चेतन वस्तु में जो वह रागादि विकल्प रहित चंचलता रहित स्थिरता; उसमें अन्तर्भूत व्यवहार पंचाचार-रूप सहकारी कारण से उत्पन्न निश्चय पंचाचार-रूप से परिणमित होने के कारण सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप-वीर्याचार सहित (उन श्रमणों) को (नमस्कार करता हूँ)

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    + वर्तमान तीर्थंकरों को नमन -
    ते ते सव्वे समगं समगं पत्तेगमेव पत्तेगं ।
    वंदामि य वट्टंते अरहंते माणुसे खेत्ते ॥3॥
    तांस्तान् सर्वान् समकं समकं प्रत्येकमेव प्रत्येकम् ।
    वन्दे च वर्तमानानर्हतो मानुषे क्षेत्रे ॥३॥
    उन सभी को युगपत तथा प्रत्येक को प्रत्येक को
    मैं नमूँ विदमान मानस क्षेत्र के अरहंत को ॥३॥
    अन्वयार्थ : [तान् तान् सर्वान्] उन उन सबको [च] तथा [मानुषे क्षेत्रे वर्तमानान्] मनुष्य क्षेत्र में विद्यमान [अर्हत:] अरहन्तों को [समकं समकं] साथ ही साथ--समुदायरूप से और [प्रत्येकं एव प्रत्येकं] प्रत्येक प्रत्येक को--व्यक्तिगत [वंदे] वन्दना करता हूँ ॥३॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    तत्पश्चात् इन्हीं पंचपरमेष्ठियों को, उस-उस व्यक्ति में (पर्याय में) व्याप्त होनेवाले सभी को, वर्तमान में इस क्षेत्र में उत्पन्न तीर्थंकरों का अभाव होने से और महाविदेहक्षेत्र में उनका सद्भाव होने से मनुष्य-क्षेत्र में प्रवर्तमान तीर्थ-नायक युक्त वर्तमान काल गोचर करके, (-महाविदेहक्षेत्र में वर्तमान श्री सीमधरादि तीर्थंकरों की भाँति मानों सभी पंच परमेष्ठी भगवान वर्तमान काल में ही विद्यमान हों, इस प्रकार अत्यन्त भक्ति के कारण भावना भाकर-चिंतवन करके उन्हें) युगपद्‌ युगपद् अर्थात् समुदायरूप से और प्रत्येक प्रत्येक को अर्थात् व्यक्तिगत रूप से *संभावना करता हूँ । किस प्रकार से संभावना करता हूँ? मोक्षलक्ष्मी के स्वयंवर समान जो परम निर्ग्रंथता की दीक्षा का उत्सव (आनन्दमय प्रसंग) है उसके उचित मंगलाचरण-भूत जो *कृतिकर्म शास्त्रोपदिष्ट वन्दनोच्चार (कृतिकर्मशास्त्र मे उपदेशे हुए स्तुति-वचन) के द्वारा सम्भावना करता हूँ ॥३॥

    *संभावना = संभावना करना, सन्मान करना, आराधन करना
    *कृतिकर्म = अंगबाह्य १४ प्रकीर्णकों में छट्टा प्रकीर्णक कृतिकर्म है जिसमें नित्य-नैमित्तिक क्रिया का वर्णन है

    जयसेनाचार्य :
    अब, [ते ते सव्वे] पहले कहे हुये उन सभी पंच-परमेष्ठियों को । [वंदामि च] कर्ता-रूप मैं नमस्कार करता हूँ । उन सभी को कैसे नमस्कार करता हूँ? [समगं समगं] सामूहिक वन्दना-रूप से अर्थात् सभी को एक साथ नमस्कार करता हूँ । उन सभी को और कैसे नमस्कार करता हूँ? [पत्तेगमेव पत्तेगं] व्यक्तिगत वन्दनारूप से अर्थात प्रत्येक को पृथक्‌-पृथक्‌ नमस्कार करता हूँ । मैं मात्र पूर्वोक्त इन्हें ही नमस्कार नहीं करता हूँ, वरन्‌ । [अरहंते] अरहन्तों को भी नमस्कार करता हूँ । वे अरहंत कैसे है? [वट्टंते माणुसे खेत्ते] विद्यमान हैं । वे अरहंत कहाँ विद्यमान हैं? मानुष क्षेत्र में (ढ़ाई द्वीप में) विद्यमान हैं ।

    वह इसप्रकार- अभी यहीं भरतक्षेत्र में तीर्थकरों का अभाव होने से पाँच महाविदेहों में विद्यमान श्री सीमन्धर-स्वामी तीर्थंकर परमदेव आदि तीर्थंकरों के साथ उन्हीं पंच-परमेष्ठियों को नमस्कार करता हूँ । पूर्वोक्त सभी को कैसे नमस्कार करता हूँ? मोक्ष-लक्ष्मी के स्वयंवर मण्डपभूत जिनदीक्षा के अवसर पर साधनभूत मंगलाचार स्वरूप, सिद्ध भगवान के अनन्त ज्ञानादि गुणों की भावनारूप सिद्ध-भक्ति से, और उसी-प्रकार निर्मल समाधि-रूप परिणमित परमयोगियों के गुणों की भावना लक्षण योग-भक्ति से; उन सभी को नमस्कर करता हूँ ।

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    + साम्य का आश्रय -
    किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं ।
    अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव सव्वेसिं ॥4॥
    तेसिं विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं समासेज्ज ।
    उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती ॥5॥
    कृत्वार्हद्भयः सिद्धेभ्यस्तथा नमो गणधरेभ्यः ।
    अध्यापकवर्गेभ्यः साधुभ्यश्चैव सर्वेभ्यः ॥४॥
    तेषां विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानाश्रमं समासाद्य ।
    उपसम्पद्ये साम्यं यतो निर्वाणसम्प्राप्तिः ॥५॥
    अरहंत सिद्धसमूह गणधरदेवयुत सब सूरिगण
    अर सभी पाठक साधुगण इन सभी को करके नमन ॥४॥
    परिशुद्ध दर्शनज्ञानयुत समभाव आश्रम प्राप्त कर
    निर्वाणपद दातार समताभाव को धारण करूँ ॥५॥
    अन्वयार्थ : [अर्हद्भय:] इस प्रकार अरहन्तों को, [सिद्धेभ्य:] सिद्धों को, [तथा गणधरेभ्य:] आचार्यों को, [अध्यापकवर्गेभ्य:] उपाध्याय-वर्ग को [च एवं] और [सर्वेभ्यः साधुभ्य:] सर्व साधुओं को [नम: कृत्वा] नमस्कार करके [तेषां] उनके [विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानाश्रमं] *विशुद्ध दर्शन-ज्ञान प्रधान आश्रम को [समासाद्य] प्राप्त करके [साम्यं उपसंपद्ये] मैं *साम्य को प्राप्त करता हूँ [यत:] जिससे [निर्वाण संप्राप्ति:] निर्वाण की प्राप्ति होती है ॥४-५॥
    *विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधान = विशुद्ध दर्शन और ज्ञान जिसमें प्रधान (मुख्य) हैं, ऐसे
    *साम्य = समता, समभाव

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब इस प्रकार अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधुओं को प्रणाम और वन्दनोच्चार से प्रवर्तमान द्वैत के द्वारा, भाव्यभावक भाव से उत्पन्न अत्यन्त गाढ इतरेतर मिलन के कारण समस्त स्वपर का विभाग विलीन हो जाने से जिसमें अद्वैत प्रवर्तमान है, ऐसा नमस्कार करके, उन्हीं अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व-साधुओं के आश्रम को , --जो कि (आश्रम) विशुद्ध-ज्ञान-दर्शन-प्रधान होने से सहजशुद्ध-दर्शन-ज्ञान स्वभाव वाले आत्म तत्त्व का श्रद्धान और ज्ञान जिसका लक्षण है ऐसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का सम्पादक है उसे-- प्राप्त करके, सम्यग्दर्शन-ज्ञान सम्पन्न होकर, जिसमें कषाय-कण विद्यमान होने से जीव को जो पुण्य बंध की प्राप्ति का कारण है ऐसे सराग चारित्र को -- वह (सराग चारित्र) क्रम से आ पड़ने पर भी (गुणस्थान-आरोहण के क्रम में बलात् अर्थात् चारित्रमोह के मन्द उदय से आ पड़ने पर भी) -- दूर उल्लंघन करके, जो समस्त कषाय-क्लेश-रूपी कलंक से भिन्न होने से निर्वाण प्राप्ति का कारण है ऐसे वीतराग-चारित्र नामक साम्य को प्राप्त करता हूँ । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की ऐक्य स्वरूप एकाग्रता को मैं प्राप्त हुआ हूँ यह (इस) प्रतिज्ञा का अर्थ है । इस प्रकार तब इन्होंने (श्रीमद्भगवत्कृन्दकुन्दाचार्य देव ने) साक्षात् मोक्षमार्ग को अंगीकार किया ॥४-५॥

    जयसेनाचार्य :
    अब, [किच्चा] करके । क्या करके? [णमो] नमस्कार करके । किन्हे नमस्कार करके? [अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव] अरहन्त-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय और साधुओं को नमस्कार करके । कितनी संख्या वाले अरहन्तादि को नमस्कार करके? [सव्वेसिं] सभी को नमस्कार करके ॥४॥

    इस प्रकार पंच-परमेष्ठियों को नमस्कार करके क्या करता हूँ ? [उवसंपयामि] आश्रय लेता हूँ । किसका आश्रय लेता हूँ ? [सम्मं] साम्य-चारित्र का । उस चारित्र का आश्रय लेने से क्या होता है? [जत्तो णिव्वाणसंपत्ति] उससे निर्वाण की प्राप्ति होती है । उसका आश्रय लेने से पूर्व क्या करके? [समासेज] प्राप्त करके । किसे प्राप्त करके? [विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं] विशुद्ध ज्ञान दर्शन है लक्षण जिसका, ऐसे प्रधान आश्रम को प्राप्त करके । किनसे सम्बन्धित उस प्रधान आश्रम को प्राप्त करके? [तेसिं] उन पूर्वोक्त पंच-परमेष्ठियों के उस प्रधान आश्रम को प्राप्त करके ।

    वह इसप्रकार- मैं आराधक हूँ, और ये अरहंत आदि आराध्य हैं- इसप्रकार आराधक-आराध्य की भिन्नता-रूप नमस्कार को द्वैत नमस्कार कहते हैं, तथा रागादि उपाधि-रूप विकल्पों से रहित परम समाधि के बल से स्वयं में ही आराध्य-आराधक भाव अद्वैत नमस्कार कहलाता है ।

    इसप्रकार पूर्वोक्त ३ गाथाओं द्वारा कहे गये पंच-परमेष्ठियों को पूर्वोक्त लक्षण द्वैताद्वैत नमस्कार करके । पंचपरमेष्ठियों को द्वैताद्वैत नमस्कार करके क्या करता हूँ? मठ-चैत्यालय आदि रूप व्यवहार आश्रम से भिन्न लक्षण वाले रागादि से भिन्न अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न यह सुख स्वभावी परमात्मा है- ऐसा भेदज्ञान तथा वह सुख स्वभावी आत्मा ही पूर्णत: उपादेय है- ऐसी रुचिरूप सम्यक्त्व इन लक्षणों वाले ज्ञान-दर्शन स्वभावी भावाश्रम-रूप प्रधान आश्रम को प्राप्त कर उस पूर्वक होने वाला सराग-चारित्र क्रमापतित अवश्यम्भावी होने पर भी पुण्य बंध का कारण है, ऐसा जानकर उसे छोड़कर शुद्धात्मा में स्थिर अनुभूति स्वरूप वीतराग-चारित्र का मैं आश्रय लेता हूँ- यह गाथा का भाव है ॥५॥

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    + सराग और वीतरागचारित्र में हेय-उपादेय -
    संपज्जदि णिव्वाणं देवासुरमणुयरायविहवेहिं ।
    जीवस्स चरित्तादो दंसणणाणप्पहाणादो ॥6॥
    सम्पद्यते निर्वाणं देवासुरमनुजराजविभवैः ।
    जीवस्य चरित्राद्दर्शनज्ञानप्रधानात् ॥६॥
    निर्वाण पावैं सुर-असुर-नरराज के वैभव सहित
    यदि ज्ञान-दर्शनपूर्वक चारित्र सम्यक् प्राप्त हो ॥६॥
    अन्वयार्थ : [जीवस्य] जीवको [दर्शनज्ञानप्रधानात्] दर्शनज्ञानप्रधान [चारित्रात्] चारित्र से [देवासुरमनुजराजविभवै:] देवेन्द्र, असुरेन्द्र और नरेन्द्र के वैभवों के साथ [निर्वाणं] निर्वाण [संपद्यते] प्राप्त होता है ॥६॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब वे ही (कुन्दकुन्दाचार्यदेव) वीतरागचारित्र इष्ट-फल वाला है इसलिये उसकी उपादेयता और सरागचारित्र अनिष्ट फलवाला है इसलिये उसकी हेयता का विवेचन करते हैं : -

    दर्शन-ज्ञान प्रधान चारित्र से, यदि वह (चारित्र) वीतराग हो तो मोक्ष प्राप्त होता है; और उससे ही, यदि वह सराग हो तो देवेन्द्र-असुरेन्द्र-नरेन्द्र के वैभव--क्लेश रूप बन्ध की प्राप्ति होती है । इसलिये मुमुक्षुओं को इष्ट फल-वाला होने से वीतराग चारित्र ग्रहण करने योग्य (उपादेय) है, और अनिष्ट फलवाला होने से सराग-चारित्र त्यागने योग्य (हेय) है ॥६॥

    जयसेनाचार्य :
    [संपज्जदि] प्राप्ति होती है । किसकी प्राप्ति होती है? [णिव्व्वणं] मोक्ष की प्राप्ति होती है । कैसे मोक्ष की प्राप्ति होती है? इनके साथ मोक्ष की प्राप्ति होती है । किनके साथ उसकी प्राप्ति होती है? [देवासुरमणुयरायविहवेहिं] देवेन्द्र, असुरेन्द्र एवं नरेन्द्र सम्बन्धी वैभवों के साथ मोक्ष की प्राप्ति होती है । उसकी प्राप्ति किसे होती है? [जीवस्स] जीव को उसकी प्राप्ति होती है । जीव को उसकी प्राप्ति किससे होती है? [चरित्तादो] चारित्र से उसकी प्राप्ति होती है । कैसे चारित्र से होती है? [दंसणणाणप्पहाणादो] सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रधान चारित्र से जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है ।

    वह इसप्रकार - स्वाधीन ज्ञान-सुख स्वभावी शुद्धात्म-द्रव्य में चंचलता रहित निर्विकार अनुभूतिरूप स्थिरता लक्षण वाले निश्चय चारित्र से जीव के उत्पन्न होता है । क्या उत्पन्न होता है? पराधीन इन्द्रिय जनित ज्ञान-सुख से भिन्न लक्षण वाला स्वाधीन अतीन्द्रिय-रूप उत्कृष्ट ज्ञान-सुख सम्पन्न मोक्ष उत्पन्न होता है । सराग-चारित्र से मुख्यतया देवेन्द्र, असुरेन्द्र एवं नरेन्द्र सम्बन्धी वैभव को उत्पन्न करने वाला विशिष्ट पुण्य बंध होता है, एवं परम्परा से मोक्ष प्राप्त होता है ।

    असुरों में सम्यग्दृष्टि कैसे उत्पन्न होता है? यदि ऐसी शंका हो, तो निदान बंध से सम्यक्त्व की विराधना करके वहाँ उत्पन्न होता है- ऐसा जानना चाहिये ।

    यहाँ निश्चय से वीतराग-चारित्र उपादेय और सराग-चारित्र हेय है- यह गाथा का भाव है ।

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    + चारित्र का स्वरूप -
    चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो ।
    मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥7॥
    चारित्रं खलु धर्मो धर्मो यस्तत्साम्यमिति निर्दिष्टम् ।
    मोहक्षोभविहीनः परिणाम आत्मनो हि साम्यम् ॥७॥
    चारित्र ही बस धर्म है वह धर्म समताभाव है
    दृगमोह-क्षोभविहीन निज परिणाम समताभाव है ॥७॥
    अन्वयार्थ : [चारित्रं] चारित्र [खलु] वास्तव में [धर्म:] धर्म है । [यः धर्म:] जो धर्म है [तत् साम्यम्] वह साम्य है [इति निर्दिष्टम्] ऐसा (शास्त्रों में) कहा है । [साम्यं हि] साम्य [मोहक्षोभविहीनः] मोह-क्षोभ रहित ऐसा [आत्मनः परिणाम:] आत्मा का परिणाम (भाव) है ॥७॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब चारित्र का स्वरूप व्यक्त करते हैं :-

    स्वरूप में चरण करना (रमना) सो चारित्र है । स्वसमय में प्रवृत्ति करना (अपने स्वभाव में प्रवृत्ति करना) ऐसा इसका अर्थ है । यही वस्तु का स्वभाव होने से धर्म है । शुद्ध चैतन्य का प्रकाश करना यह इसका अर्थ है । वही यथावस्थित आत्म गुण होने से (विषमता-रहित सुस्थित आत्मा का गुण होने से) साम्य है । और साम्य, दर्शन-मोहनीय तथा चारित्र-मोहनीय के उदय से उत्पन्न होने वाले समस्त मोह और क्षोभ के अभाव के कारण अत्यन्त निर्विकार ऐसा जीव का परिणाम है ॥७॥

    जयसेनाचार्य :
    [चारित्तं] चारित्र-रूप कर्ता (इस गाथामें चारित्र 'कर्ता कारक' के स्थान पर है) [खलु धम्मो] स्पष्ट रूप से धर्म है । [धम्मो जो तो समो त्ति णिद्दिट्ठो] जो धर्म है वह शम कहा गया है । [समो] और जो शम है वह [मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु] मोह-क्षोभ से रहित परिणाम है । मोह-क्षोभ से रहित वह शम किसका परिणाम है? वह आत्मा का परिणाम है । [हु] स्पष्टरूप से ।

    वह इसप्रकार - शुद्ध चैतन्य स्वरूप मे चरण-प्रवृत्ति-लीनता चारित्र है, वही चारित्र, मिथ्यात्व-रागादि परिणमन रूप भाव संसार में डूबे हुये प्राणियों को निकालकर निर्विकार शुद्ध चैतन्य स्वरूप में धरता है, अत: धर्म है । वही धर्म स्वात्मा के आश्रय से उत्पन्न होने वाले सुखमयी अमृतरूप शीतल जल के द्वारा काम-क्रोधादि-रूप अग्नि से उत्पन्न सांसारिक दुखों-रूप जलन को शान्त करनेवाला होने से शम है; और इसलिये शुद्धात्मा के श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन को नष्ट करनेवाला होने से दर्शनमोहनीय नामक (कर्म) मोह कहलाता है, तथा वीतराग स्थिर परिणमन-रूप चारित्र को नष्ट करनेवाला होने से चारित्र-मोहनीय नामक (कर्म) क्षोभ कहलाता है; मोह और क्षोभ- इन दोनों को पूर्णत: नष्ट करने वाला होने से वही शम, मोह-क्षोभ रहित शुद्धात्मा का परिणाम कहलाता है - यह अभिप्राय है ॥७॥

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    + आत्मा ही चारित्र है -
    परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मयं त्ति पण्णत्तं ।
    तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो ॥8॥
    परिणमति येन द्रव्यं तत्कालं तन्मयमिति प्रज्ञप्तम् ।
    तस्माद्धर्मपरिणत आत्मा धर्मो मन्तव्यः ॥८॥
    जिसकाल में जो दरव जिस परिणाम से हो परिणमित
    हो उसीमय वह धर्मपरिणत आतमा ही धर्म है ॥८॥
    अन्वयार्थ : [द्रव्यं] द्रव्य जिस समय [येन] जिस भावरूप से [परिणमति] परिणमन करता है [तत्कालं] उस समय [तन्मयं] उस मय है [इति] ऐसा [प्रज्ञप्तं] (जिनेन्द्र देव ने) कहा है; [तस्मात्] इसलिये [धर्मपरिणत: आत्मा] धर्मपरिणत आत्मा को [धर्म: मन्तव्य:] धर्म समझना चाहिये ॥८॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब आत्मा की चारित्रता (अर्थात् आत्मा ही चारित्र है ऐसा) निश्चय करते हैं :-

    वास्तव में जो द्रव्य जिस समय जिस भावरूप से परिणमन करता है, वह द्रव्य उस समय उष्णता रूप से परिणमित लोहे के गोले की भाँति उस मय है, इसलिये यह आत्मा धर्मरूप परिणमित होने से धर्म ही है । इसप्रकार आत्मा की चारित्रता सिद्ध हुई ॥८॥

    जयसेनाचार्य :
    [परिणमदि जेण दव्वं तक्काले तम्मय त्ति पण्णत्तं] द्रव्यरूप कर्ता (इस गाथा में द्रव्य कर्ताकारक के स्थान पर है) जिस पर्याय से परिणमित होता है, [यत:] उस समय उस पर्याय से तन्मय होता है ऐसा कहा गया है, [तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेदव्वो] अत: धर्म पर्याय से परिणत आत्मा ही धर्म मानना चाहिये ।

    वह इसप्रकार- निज शुद्धात्म परिणति रूप निश्चय धर्म, तथा पंच परमेष्ठी आदि के प्रति भक्ति के परिणाम-रूप व्यवहार धर्म कहा गया है क्योंकि उस विवक्षित-अविवक्षित पर्याय से परिणत द्रव्य उस पर्याय- रूप होता है, इसलिये तपे हुए लोहे के गोले के समान, अभेदनय की अपेक्षा पूर्वोक्त दो प्रकार के धर्मरूप परिणत आत्मा ही धर्म है - ऐसा जानना चाहिये ।

    धर्मरूप से परिणत आत्मा धर्म क्यों जानना चाहिये? उपादान कारण के समान ही कार्य होता है- ऐसा वचन होने से धर्मरूप परिणत आत्मा धर्म जानना चाहिये । शुद्ध और अशुद्ध उपादान के भेद से वह उपादान कारण भी दो प्रकार का है । आगम भाषा में जिसे शुक्लध्यान कहते हैं वह रागादि विकल्प रहित स्वसंवेदन ज्ञान केवलज्ञान की उत्पत्ति का शुद्ध उपादान कारण है; तथा अशुद्ध निश्चयनय से अशुद्धात्मा रागादि का अशुद्ध उपादान कारण है । यह गाथा का भाव है ।

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    + जीव ही शुभ, अशुभ और शुद्ध -
    जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो ।
    सुद्धेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसब्भावो ॥9॥
    जीवः परिणमति यदा शुभेनाशुभेन वा शुभोऽशुभः ।
    शुद्धेन तदा शुद्धो भवति हि परिणामस्वभावः ॥९॥
    स्वभाव से परिणाममय जिय अशुभ परिणत हो अशुभ
    शुभभाव परिणत शुभ तथा शुधभाव परिणत शुद्ध है ॥९॥
    अन्वयार्थ : [जीव:] जीव [परिणामस्वभाव:] परिणामस्वभावी होने से [यदा] जब [शुभेन वा अशुभेन] शुभ या अशुभ भावरूप [परिणमति] परिणमन करता है [शुभ: अशुभ:] तब शुभ या अशुभ (स्वयं ही) होता है, [शुद्धेन] और जब शुद्धभावरूप परिणमित होता है [तदा शुद्ध: हि भवति] तब शुद्ध होता है ॥९॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब यहाँ जीव का शुभ, अशुभ और शुद्धत्व (अर्थात् यह जीव ही शुभ, अशुभ और शुद्ध है ऐसा) निश्चित करते हैं -

    जब यह आत्मा शुभ या अशुभ राग भाव से परिणमित होता है तब जपा कुसुम या तमाल पुष्प के (लाल या काले) रंग-रूप परिणमित स्फटिक की भाँति, परिणाम-स्वभाव होने से शुभ या अशुभ होता है (उस समय आत्मा स्वयं ही शुभ या अशुभ है); और जब वह शुद्ध अरागभाव से परिणमित होता है तब शुद्ध अरागपरिणत (रंग रहित) स्फटिक की भाँति, परिणाम-स्वभाव होने से शुद्ध होता है । (उस समय आत्मा स्वयं ही शुद्ध है) । इस प्रकार जीव का शुभत्व, अशुभत्व और शुद्धत्व सिद्ध हुआ ॥९॥

    जयसेनाचार्य :
    [जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा] जीवरूपी कर्ता जब शुभ या अशुभ परिणाम से परिणमित होता है, [सुहो असुहो हवदि] तब शुभ से शुभ-रूप वा अशुभ से अशुभ-रूप होता है । [सुद्धेण तदा सुद्धो हि] और जब शुद्ध परिणाम से परिणमित होता है, तब स्पष्ट-रूप से शुद्ध होता है । जीव कैसा होता हुआ शुभादि-रूप होता है? [परिणामसब्भावो] परिणाम सद्भाव वाला होता हुआ- परिणाम स्वभावी होने से शुभादि-रूप होता है ।

    वह इसप्रकार- जैसे अत्यन्त निर्मल स्फटिक-मणि भी जपा के फूल आदि लाल, काले और सफेद रंग रूप उपाधि के वश से लाल, काला व सफेद रंग वाला हो जाता है; उसीप्रकार स्वभाव से शुद्ध-बुद्ध एक स्वरूप वाला होने पर भी यह जीव व्यवहार से गृहस्थ दशा की अपेक्षा यथासंभव सराग सम्यक्त्व-पूर्वक दान-पूजा आदि शुभ क्रिया से, तथा मुनिदशा अपेक्षा मूलगुण-उत्तरगुण आदि शुभ क्रिया से परिणमता हुआ शुभ जानना चाहिये । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग इन पांच (बंध के) कारणों रूप अशुभोपयोग से परिणमता हुआ अशुभ जानना चाहिये; तथा निश्चय रत्नत्रय स्वरूप शुद्धोपयोग से परिणमता हुआ शुद्ध जानना चाहिये ।

    विशेष यह कि सिद्धान्त ग्रन्थों में असंख्यात लोक प्रमाण जीव के परिणाम, मध्यम-रूप से जानकारी कराने की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानरूप से कहे गये हैं । यहाँ प्राभृतशास्त्र (अध्यात्मशास्त्र) में वे ही गुणस्थान संक्षिप्तरूप से अशुभोपयोग, शुभोपयोग और शुद्धोपयोग रूप से कहे गये हैं ।

    प्राभृतशास्त्र में तीन उपयोग किस प्रकार से कहे गये हैं? - यह भाव है ॥९॥

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    + परिणाम वस्तु का स्वभाव -
    णत्थि विणा परिणामं अत्थो अत्थं विणेह परिणामो ।
    दव्वगुणपज्जयत्थो अत्थो अत्थित्तणिव्वत्तो ॥10॥
    नास्ति विना परिणाममर्थोऽर्थं विनेह परिणामः ।
    द्रव्यगुणपर्ययस्थोऽर्थोऽस्तित्वनिर्वृत्तः ॥१०॥
    परिणाम बिन ना अर्थ है अर अर्थ बिन परिणाम ना
    अस्तित्वमय यह अर्थ है बस द्रव्यगुणपर्यायमय ॥१०॥
    अन्वयार्थ : [इह] इस लोक में [परिणामं विना] परिणाम के बिना [अर्थ: नास्ति] पदार्थ नहीं है, [अर्थं विना] पदार्थ के बिना [परिणाम:] परिणाम नहीं है; [अर्थ:] पदार्थ [द्रव्यगुणपर्ययस्थ:] द्रव्य-गुण-पर्याय में रहने-वाला और [अस्तित्वनिर्वृत्त:] (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-मय) अस्तित्व से बना हुआ है ॥१०॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब परिणाम वस्तु का स्वभाव है यह निश्चय करते हैं :-

    परिणाम के बिना वस्तु अस्तित्व धारण नहीं करती, क्योंकि वस्तु द्रव्यादि के द्वारा (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से) परिणाम से भिन्न अनुभव में (देखने में) नहीं आती, क्योंकि
    1. परिणाम रहित वस्तु गधे के सींग के समान है
    2. तथा उसका, दिखाई देने वाले गोरस इत्यादि (दूध, दही वगैरह) के परिणामों के साथ 1विरोध आता है ।
    (जैसे-परिणाम के बिना वस्तु अस्तित्व धारण नहीं करती उसी प्रकार) वस्तु के बिना परिणाम भी अस्तित्व को धारण नहीं करता, क्योंकि स्वाश्रय-भूत वस्तु के अभाव में (अपने आश्रय-रूप जो वस्तु है वह न हो तो) निराश्रय परिणाम को शून्यता का प्रसंग आता है । और वस्तु तो 2ऊर्ध्वतासामान्यस्वरूप द्रव्य में, सहभावी विशेष-स्वरूप (साथ ही साथ रहनेवाले विशेष- भेद जिनका स्वरूप है ऐसे) गुणों में तथा क्रमभावी विशेष-स्वरूप पर्यायों में रही हुई और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमय अस्तित्व से बनी हुई है; इसलिये वस्तु परिणाम-स्वभाववाली ही है ॥१०॥

    1यदि वस्तुको परिणाम रहित माना जावे तो गोरस इत्यादि वस्तुओंके दूध, दही आदि जो परिणाम प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं उनके साथ विरोध आयेगा
    2कालकी अपेक्षासे स्थिर होनेको अर्थात् कालापेक्षित प्रवाहको ऊर्ध्वता अथवा ऊँचाई कहा जाता है । ऊर्ध्वतासामान्य अर्थात् अनादि- अनन्त उच्च (कालापेक्षित) प्रवाहसामान्य द्रव्य है

    जयसेनाचार्य :
    [णत्थि विणा परिणामं अत्थो] सबसे पहले मुक्त जीव में कहते हैं- सिद्ध पर्याय रूप शुद्ध परिणाम के बिना शुद्ध जीव पदार्थ नहीं है । सिद्ध पर्याय के बिना शुद्ध जीव पदार्थ क्यों नहीं है? सिद्ध पर्याय और शुद्ध जीव में नाम लक्षण, प्रयोजन आदि भेद होने पर भी दोनों में प्रदेश-भेद नहीं होने से सिद्ध पर्याय के बिना शुद्ध जीव नहीं है । [अत्थं विणेह परिणामो] इस लोक में मुक्त-स्वरूपी आत्म-पदार्थ के बिना शुद्धात्मा की प्राप्ति लक्षण सिद्ध पर्याय-रूप शुद्ध परिणाम नहीं है । मुक्त जीव के बिना सिद्ध पर्याय क्यों नहीं है? मुक्त जीव और सिद्ध पर्याय में नामादि (पूर्वोक्त) भेद होने पर भी प्रदेशभेद नहीं होने से मुक्त जीव के बिना सिद्ध पर्याय नही होती । [दव्वगुणपज्जयत्थो] आत्मस्वरूप द्रव्य, उसमें ही केवलज्ञानादि गुण और सिद्धरूप पर्याय; इसप्रकार कहे गये लक्षण वाले द्रव्य-गुण-पर्याय में रहता है- द्रव्य-गुण-पर्याय में स्थित है । द्रव्य-गुण-पर्यायों में स्थिति करने वाला कर्तारूप वह कौन है? [अत्थो] जैसे सुवर्ण पदार्थ सुवर्ण द्रव्य, पीलेपन आदि गुणों तथा कुण्डल आदि पर्यायों में स्थित है उसीप्रकार परमात्म पदार्थ पूर्वोक्त अपने द्रव्य-गुण-पर्यायों में स्थित है । वह परमात्म-पदार्थ और कैसा है? [अत्थित्तणिव्वत्तो] जैसे सुवर्ण पदार्थ सुवर्ण द्रव्य सुवर्ण-मय गुण और सुवर्णमय पर्यायों रूप अस्तित्व से बना हुआ है, उसीप्रकार परमात्मपदार्थ भी शुद्ध द्रव्य, शुद्ध गुणों, शुद्ध पर्यायों के आधारभूत शुद्ध अस्तित्व से बना होने के कारण अस्तित्व से रचित है ।

    यहाँ तात्पर्य यह है कि जैसे मुक्त जीव में द्रव्य-गुण-पर्याय, इन तीनों का परस्पर अविनाभाव दिखाया गया है, उसीप्रकार नय-भेद से संसारी-जीव में भी मतिज्ञानादि विभाव-गुणों और मनुष्य-नारकी आदि विभाव-पर्यायों में परस्पर अविनाभाव यथा-योग्य जान लेना चाहिये । उसी प्रकार पुद्गलादि शेष द्रव्यों में भी द्रव्य-गुण-पर्याय का परस्पर अविनाभाव जान लेना चाहिये ॥१०॥

    🏠
    + शुद्ध परिणाम के ग्रहण और शुभ परिणाम के त्याग के लिये उनका फल विचारते हैं -
    धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो ।
    पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो य सग्गसुहं ॥11॥
    धर्मेण परिणतात्मा आत्मा यदि शुद्धसंप्रयोगयुतः ।
    प्राप्नोति निर्वाणसुखं शुभोपयुक्तो वा स्वर्गसुखम् ॥११॥
    प्राप्त करते मोक्षसुख शुद्धोपयोगी आतमा
    पर प्राप्त करते स्वर्गसुख हि शुभोपयोगी आतमा ॥११॥
    अन्वयार्थ : [धर्मेण परिणतात्मा] धर्म से परिणमित स्वरूप वाला [आत्मा] आत्मा [यदि] यदि [शुद्धसंप्रयोगयुक्त:] शुद्ध उपयोग में युक्त हो तो [निर्वाणसुख] मोक्ष सुख को [प्राप्नोति] प्राप्त करता है [शुभोपयुक्त: च] और यदि शुभोपयोग वाला हो तो [स्वर्गसुखम्‌] स्वर्ग के सुख को (बन्ध को) प्राप्त करता है ॥११॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब जिनका चारित्र परिणाम के साथ सम्पर्क (सम्बन्ध) है ऐसे जो शुद्ध और शुभ (दो प्रकार के) परिणाम हैं उनके ग्रहण तथा त्याग के लिये (शुद्ध परिणाम के ग्रहण और शुभ परिणाम के त्याग के लिये) उनका फल विचारते हैं :-

    जब यह आत्मा धर्म-परिणत स्वभाव वाला होता हुआ शुद्धोपयोग परिणति को धारण करता है-बनाये रखता है तब, जो विरोधी शक्ति से रहित होने के कारण अपना कार्य करने के लिये समर्थ है ऐसा चारित्रवान होने से, (वह) साक्षात् मोक्ष को प्राप्त करता है; और जब वह धर्मपरिणत स्वभाव वाला होने पर भी शुभोपयोग परिणति के साथ युक्त होता है तब जो *विरोधी शक्ति सहित होने से स्वकार्य करने में असमर्थ है और कथंचित् विरुद्ध कार्य करनेवाला है ऐसे चारित्र से युक्त होने से, जैसे अग्नि से गर्म किया हुआ घी किसी मनुष्य पर डाल दिया जावे तो वह उसकी जलन से दुःखी होता है, उसी प्रकार वह स्वर्ग सुख के बन्ध को प्राप्त होता है, इसलिये शुद्धोपयोग उपादेय है और शुभोपयोग हेय है ।

    *दान, पूजा, पंच-महाव्रत, देवगुरुधर्म प्रति राग इत्यादिरूप जो शुभोपयोग है वह चारित्रका विरोधी है इसलिये सराग (शुभोपयोगवाला) चारित्र विरोधी शक्ति सहित है और वीतरग चारित्र विरोधी शक्ति रहित है

    जयसेनाचार्य :
    [धम्मेण परिणदप्पा अप्पा] धर्मरूप से परिणत स्वरूप वाला होता हुआ यह आत्मा, [जदि सुद्धसंपयोगजुदो] यदि शुद्धोपयोग है नाम जिसका ऐसे शुद्धसंप्रयोग परिणामरूप परिणत होता है, [पावदि णिव्वाणसुहं] तो मोक्षसुख प्राप्त करता है । [सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं] शुभोपयोग से परिणत होता हुआ स्वर्ग-सुख प्राप्त करता है ।

    यहाँ इसका विस्तार करते है- इस गाथा में धर्म शब्द से अहिंसा लक्षण धर्म, गृहस्थ धर्म, मुनि धर्म, उत्तम क्षमादि लक्षण रत्नत्रय स्वरूप धर्म, मोह-क्षोभ रहित आत्मा के परिणाम अथवा वस्तु का शुद्ध स्वभाव ग्रहण किया जाता है । ''चारित्र ही वास्तविक धर्म है'' ऐसा वचन होने से, वही धर्म दूसरे शब्दों में चारित्र कहा जाता है । और वह चारित्र अपहृत संयम-उपेक्षा संयम भेद से अथवा सराग-वीतराग भेद से और शुभोपयोग-शुद्धोपयोग भेद से दो प्रकार का है । वहाँ जो शुद्धसंप्रयोग शब्द से कहा जाने वाला शुद्धोपयोग स्वरूप वीतराग चारित्र है उससे मोक्ष की प्राप्ति होती है । निर्विकल्प समाधि रूप शुद्धोपयोग में रहने की शक्ति का अभाव होने पर जब (पूर्वोक्त जीव) शुभोपयोगरूप सराग-चारित्र से परिणत होता है, तो अनाकुलता लक्षण पारमार्थिक सुख से विपरीत आकुलता पैदा करने वाला स्वर्ग-सुख प्राप्त करता है । तथा बाद में परम समाधिरूप मोक्ष की कारणभूत वीतराग चारित्ररूप सामग्री के सद्भाव में मोक्ष प्राप्त करता है- यह गाथा का भाव है ॥११॥

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    + अत्यन्त हेय है ऐसे अशुभ परिणाम का फल विचारते हैं -
    असुहोदएण आदा कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो ।
    दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिद्‌दुदो भमदि अच्चंतं ॥12॥
    अशुभोदयेनात्मा कुनरस्तिर्यग्भूत्वा नैरयिकः ।
    दुःखसहस्रैः सदा अभिद्रुतो भ्रमत्यत्यन्तम् ॥१२॥
    अशुभोपयोगी आतमा हो नारकी तिर्यग कुनर
    संसार में रुलता रहे अर सहस्त्रों दुख भोगता ॥१२॥
    अन्वयार्थ : [अशुभोदयेन] अशुभ उदयसे [आत्मा] आत्मा [कुनर:] कुमनुष्य [तिर्यग्‌] तिर्यंच [नैरयिक:] और नारकी [भूत्वा] होकर [दुःखसहस्रै:] हजारों दुःखों से [सदा अभिद्रुतः] सदा पीडित होता हुआ [अत्यंत भ्रमति] (संसारमें) अत्यन्त भ्रमण करता है ॥१२॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब चारित्र परिणाम के साथ सम्पर्क रहित होने से जो अत्यन्त हेय है ऐसे अशुभ-परिणाम का फल विचारते हैं :-

    जब यह आत्मा किंचित् मात्र भी धर्मपरिणति को प्राप्त न करता हुआ अशुभोपयोग परिणति का अवलम्बन करता है, तब वह कुमनुष्य, तिर्यंच और नारकी के रूप में परिभ्रमण करता हुआ (तद्रूप) हजारों दुःखों के बन्धन का अनुभव करता है; इसलिये चारित्रके लेशमात्र का भी अभाव होने से यह अशुभोपयोग अत्यन्त हेय ही है ॥१२॥

    इसप्रकार यह भाव (भगवान कुन्दकुन्दाचार्य देव) समस्त शुभाशुभोपयोग-वृत्ति को (शुभ उपयोगरूप और अशुभ उपयोगरूप परिणति को) अपास्त कर (हेय मानकर, तिरस्कार करके, दूर करके) शुद्धोपयोग-वृत्ति को आत्मसात् (आत्मरूप, अपने-रूप) करते हुए शुद्धोपयोग अधिकार प्रारम्भ करते हैं । उसमें (पहले) शुद्धोपयोग के फल की आत्मा के प्रोत्साहन के लिये प्रशंसा करते हैं ।

    जयसेनाचार्य :
    [असुहोदयेण] अशुभ-कर्म के उदय से, [आदा] आत्मा, [कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो] कुमनुष्य, तिर्यंच, नारकी होकर । इन रूप होकर आत्मा क्या करता है? [दुक्ससहस्सेहिं सदा अभिंधुदो भमदि अच्चंतं] हजारों दु:खों से हमेशा पीड़ित होता हुआ संसार में दीर्घ काल तक घूमता रहता है ।

    वह इसप्रकार- निर्विकार शुद्धात्म तत्त्व की रुचि-रूप निश्चय सम्यग्दर्शन तथा उसी मे निर्विकल्प मनोवृत्तिरूप निश्चयचारित्र से विरुद्ध लक्षण वाले विपरीत मान्यता के उत्पादक, देखे हुए, सुने हुए, भोगे हुए विषयों की इच्छा सम्बन्धी तीव्र संक्लेश परिणाम-रूप अशुभोपयोग से बंधे हुये पाप-कर्मों के उदय में यह आत्मा सहज-शुद्धात्मा के आश्रय से उत्पन्न आनन्द है स्वलक्षण जिसका, ऐसे पारमार्थिक-सुख से विपरीत दुःख से दुखी होता हुआ आत्मस्वभाव की भावना से रहित होकर संसार में दीर्घकाल तक घूमता रहता है- यह तात्पर्य है ॥१२॥

    इस प्रकार शुभादि तीनों उपयोगों के फल को बताने वाले चौथे सथल में दो गाथायें समाप्त हुई ।

    (अब शुद्धोपयोग के फल अनन्तसुख और शुद्धोपयोगी पुरुषका लक्षण बताने वाला, दो गाथाओं में निबद्ध पाँचवाँ स्थल प्रारम्भ होता है ।)

    अब
    1. शुभोपयोग और अशुभोपयोग- इन दोनों को निश्चयनय से हेय जानकर अधिकार प्रारम्भ करते हुए शुद्धात्म-भावना को आत्मसात्‌ करने वाले-शुद्धोपयोगी जीव के प्रोत्साहन के लिये शुद्धोपयोग का फल प्रकाशित करते हैं-
    2. अथवा द्रितीय पातनिका- यद्यपि शुद्धोपयोग का फल ज्ञान और सुख आगे संक्षेप-विस्तार से कहेंगे तथापि यहाँ पीठिका में भी सूचना करते हैं -
    3. अथवा तृतीय पातनिका- पहले (ग्यारहवीं गाथा मे) शुद्धोपयोग का फल निर्वाण कहा था, अब निर्वाण का फल अनन्त सुख कहते हैं -

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    +  शुद्धोपयोग के फल की आत्मा के प्रोत्साहन के लिये प्रशंसा करते हैं -
    अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणंतं ।
    अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धवओगप्पसिद्धाणं ॥13॥
    अतिशयमात्मसमुत्थं विषयातीतमनौपम्यमनन्तम् ।
    अव्युच्छिन्नं च सुखं शुद्धोपयोगप्रसिद्धानाम् ॥१३॥
    शुद्धोपयोगी जीव के है अनूपम आत्मोत्थसुख
    है नंत अतिशयवंत विषयातीत अर अविछिन्न है ॥१३॥
    अन्वयार्थ : [शुद्धोपयोगप्रसिद्धानां] शुद्धोपयोग से *निष्पन्न हुए आत्माओं को (केवली और सिद्धों का) [सुखं] सुख [अतिशयं] अतिशय [आत्मसमुत्थं] आत्मोत्पन्न [विषयातीतं] विषयातीत (अतीन्द्रिय) [अनौपम्यं] अनुपम [अनन्तं] अनन्त (अविनाशी) [अव्युच्छिन्नं च] और अविच्छिन्न (अटूट) है ॥१३॥
    *निष्पन्न होना = उत्पन्न होना; फलरूप होना; सिद्ध होना । (शुद्धोपयोग से निष्पन्न हुए अर्थात् (शुद्धोपयोग कारण से कार्यरूप हुए)

    अमृतचंद्राचार्य :
    इसप्रकार यह भाव (भगवान कुन्दकुन्दाचार्य देव) समस्त शुभाशुभोपयोगवृत्ति को(शुभउपयोगरूप और अशुभ उपयोगरूप परिणति को) अपास्त कर (हेय मानकर, तिरस्कार करके, दूर करके) शुद्धोपयोगवृत्ति को आत्मसात् (आत्मरूप, अपनेरूप) करते हुए शुद्धोपयोग अधिकार प्रारम्भ करते हैं । उसमें (पहले) शुद्धोपयोग के फल की आत्मा के प्रोत्साहन के लिये प्रशंसा करते हैं -
    1. अनादि संसार से जो पहले कभी अनुभव में नहीं आया ऐसे अपूर्व, परम अद्भुत आह्लादरूप होने से 'अतिशय',
    2. आत्मा का ही आश्रय लेकर (स्वाश्रित) प्रवर्तमान होने से 'आत्मोत्पन्न',
    3. पराश्रय से निरपेक्ष होने से (स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द के तथा संकल्प-विकल्प के आश्रय की अपेक्षा से रहित होने से) 'विषयातीत',
    4. अत्यन्त विलक्षण होने से (अन्य सुखों से सर्वथा भिन्न लक्षण वाला होने से) 'अनुपम',
    5. समस्त आगामी काल में कभी भी नाश को प्राप्त न होने से 'अनन्त' और
    6. बिना ही अन्तर के प्रवर्तमान होने से 'अविच्छिन्न'
    सुख शुद्धोपयोग से निष्पन्न हुए आत्माओं के होता है, इसलिये वह (सुख) सर्वथा प्रार्थनीय (वांछनीय) है ॥१३॥

    जयसेनाचार्य :
    [सुहं] इसप्रकार कहे हुये विशेषण सम्पन्न सुख होता है । ऐसा सुख किन्हें होता है? [सुद्धवओवप्पसिद्धाणं] वीतराग परम सामायिक शब्द से कहने योग्य शुद्धोपयोग से प्रसिद्ध उत्पन्न हुए जो अरहंत और सिद्ध हैं उन्हें होता है ।

    यहाँ यही सुख उपादेय रूप से निरन्तर भावना करने योग्य है - यह भाव है ।

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    + शुद्धोपयोग परिणत आत्मा का स्वरूप -
    सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो ।
    समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति ॥14॥
    सुविदितपदार्थसूत्रः संयमतपः संयुतो विगतरागः ।
    श्रमणः समसुखदुःखो भणितः शुद्धोपयोग इति ॥१४॥
    हो वीतरागी संयमी तपयुक्त अर सूत्रार्थ विद्
    शुद्धोपयोगी श्रमण के समभाव भवसुख-दुक्ख में ॥१४॥
    अन्वयार्थ : [सुविदितपदार्थसूत्र:] जिन्होंने (निज शुद्ध आत्मादि) पदार्थों को और सूत्रों को भली भाँति जान लिया है, [संयमतप:संयुत:] जो संयम और तपयुक्त हैं, [विगतराग:] जो वीतराग अर्थात् राग रहित हैं [समसुखदुःख:] और जिन्हें सुख-दुःख समान हैं, [श्रमण:] ऐसे श्रमण को (मुनिवर को) [शुद्धोपयोग: इति भणित:] 'शुद्धोपयोगी' कहा गया है ॥१४॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब शुद्धोपयोग-परिणत आत्मा का स्वरूप कहते हैं :-

    सूत्रों के अर्थ के ज्ञानबल से स्वद्रव्य और परद्रव्य के विभाग के परिज्ञान में, श्रद्धान में, और विधान में (आचरण में) समर्थ होने से (स्वद्रव्य और परद्रव्य की भिन्नता का ज्ञान, श्रद्धान और आचरण होने से) जो श्रमण पदार्थों को और (उनके प्रतिपादक) सूत्रों को जिन्होंने भली-भाँति जान लिया है ऐसे हैं, समस्त छह जीव-निकाय के हनन के विकल्प से और पंचेन्द्रिय सम्बन्धी अभिलाषा के विकल्प से आत्मा को व्यावृत्त करके आत्मा का शुद्धस्वरूप में संयमन करने से, और स्वरूप-विश्रान्त निस्तरंग चैतन्य-प्रतपन होने से जो संयम और तप-युक्त हैं, सकल मोहनीय के विपाक से भेद की भावना की उत्कृष्टता से (समस्त मोहनीय कर्म के उदय से भिन्नत्व की उत्कृष्ट भावना से) निर्विकार आत्म-स्वरूप को प्रगट किया होने से जो वीतराग हैं, और परमकला के अवलोकन के कारण साता वेदनीय तथा असाता वेदनीय के विपाक से उत्पन्न होनेवाले जो सुख-दुख उन सुख-दुख जनित परिणामों की विषमता का अनुभव नहीं होने से (परम सुख-रस में लीन, निर्विकार स्वसंवेदन रूप परमकला के अनुभव के कारण इष्टानिष्ट संयोगों में हर्ष-शोकादि विषय परिणामों का अनुभव न होने से) जो समसुखदुःख हैं, ऐसे श्रमण शुद्धोपयोगी कहलाते हैं ॥१४॥

    परिज्ञान = पूरा ज्ञान; ज्ञान
    व्यावृत्त करके = विमुख करके; रोककर; अलग करके
    स्वरूपविश्रान्त = स्वरूपमें स्थिर हुआ
    निस्तरंग = तरंग रहित; चंचलता रहित; विकल्प रहित; शांत
    प्रतपन होना = प्रतापवान होना, प्रकाशित होना, दैदीप्यमान होना

    जयसेनाचार्य :
    [सुविदिदपयत्थसुत्तो] जिसने संशयादि रहित होने के कारण अच्छी तरह से निज शुद्धात्मा आदि पदर्थों और उनके प्रतिपादक सूत्रों (आगम-जिनवाणी) को जान लिया है, और उनका श्रद्धान किया है, उसे पदार्थों और सूत्रों को अच्छी तरह जाननेवाला कहते हैं । [संजमतवसंजुदो] बाह्य में द्रव्येन्द्रियों से निवृत्त होकर छहकाय के जीवों की रक्षा से और अन्तरंग में अपने शुद्धात्मा के अनुभव के बल से स्वरूप में संयमित होने से जो संयम-सम्पन्न हैं तथा बहिरंग और अन्तरंग तप के बल से काम-क्रोधादि शत्रुओं के द्रारा जिसका प्रताप खण्डित नहीं हुआ है, ऐसे निज शुद्धात्मा मे प्रतापवंत-विजयवंत होने से (स्वरूपलीन होने से) जो तप-सम्पन्न हैं । [विगदरागो] वीतराग शुद्धात्म-भावना के बल से समस्त रागादि दोषों से रहित होने के कारण जो विगतराग हैं । [समसुहदुक्खो] वीतराग निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न उसीप्रकार परमानन्द सुख-रस में लीन जो निर्विकार स्व-संवेदनरूप उत्कृष्ट कला, उसके अवलम्बन से इष्ट-अनिष्ट पंचेन्द्रिय विषयों में हर्ष-विषाद रहित होने के कारण जो समसुख-दु:ख हैं । [समणो] ऐसे गुणों से समृद्ध श्रमण-उत्कृष्ट मुनि, [भणिदो सुद्धोवओगो त्ति] शुद्धोपयोग कहे गये हैं - यह अभिप्राय है ॥१४॥

    इसप्रकार पाँचवें स्थल में शुद्धोपयोग के फलभूत अनन्त-सुख का और शुद्धोपयोगी पुरुष का स्वरूप बताने वाली दो गाथायें समाप्त हुई ।

    इसप्रकार यहाँ चौदह गाथाओं द्वारा पाँच स्थलों में विभक्त 'पीठिका' नामक प्रथम अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।

    इसके बाद सात गाथाओं में निबद्ध सामान्य से सर्वज्ञसिद्धि-ज्ञान विचार और संक्षेप में शुद्धोपयोग का फल बताने वाला दूसरा अन्तराधिकार है । वहाँ चार स्थल हैं-
    1. उनमें से पहले स्थल में सर्वज्ञ का स्वरूप बताने वाली पहली गाथा और स्वयंभू का कथन करनेवाली दूसरी- इसप्रकार [उवओगविसुद्धो] इत्यादि दो गाथायें हैं ।
    2. दूसरे स्थल में उन्हीं सर्वज्ञ भगवान के उत्पाद-व्यय-धौव्य की स्थापना करने के लिये पहली गाथा तथा उन्हीं उत्पाद-व्यय-धौव्य को दृढ़ करने के लिये दूसरी- इसप्रकार [भंग विहीणो] इत्यादि दो गाथायें हैं ।
    3. तीसरे स्थल में सर्वज्ञ की श्रद्धा से अनन्त-सुख होता, इसे दिखाने के लिये [तं सव्वट्ठवरिट्ठं] इत्यादि एक गाथा है ।
    4. इसके बाद चौथे स्थल में अतीन्द्रिय ज्ञान-सुख रूप परिणमन को बताने की मुख्यता से पहली गाथा तथा केवली भगवान के कवलाहार निषेध की मुख्यता से दूसरी गाथा- इसप्रकार [पक्खीणघाइकम्मो] इत्यादि दो गाथायें हैं ।
    इसप्रकार चार स्थलों द्वारा दूसरे अन्तराधिकार में समुदाय पातनिका (सामूहिक उत्थानिका) है ।

    सामान्य सर्वज्ञ -सिद्धि नामक द्वितीयान्तराधिकार का स्थल-विभाजन
    स्थल क्रम विषय गाथा कुल
    प्रथम सर्वज्ञ एवं स्वयंभू स्वरूप प्रतिपादक 15-16 2
    द्वीतीय सर्वज्ञ के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सिद्धि एवं पुष्टि 17-18 2
    तृतीय सर्वज्ञ श्रद्धा का फल 19 1
    चतुर्थ अतीन्द्रिय ज्ञान-सुख रूप परिणमन तथा केवली कवलाहार निषेध 20-21 2
    कुल ४     कुल 7

    अब, दूसरे अन्तराधिकार में दो गाथाओं वाला सर्वज्ञ एवं स्वयम्भू प्रतिपादक प्रथम स्थल प्रारम्भ होता वह इसप्रकार -

    अब -
    1. शुद्धोपयोग की प्राप्ति के बाद केवलज्ञान होता है, यह कहते हैं -
    2. अथवा दूसरी पातनिका - 'कुन्दकुन्दाचार्यदेव’ सम्बोधन करते हैं कि हे 'शिवकुमार महाराज' संक्षिप्त रुचिवाला कोई आसन्न-भव्य पीठिका के व्याख्यान को ही सुनकर अपना कार्य (स्वरूप-लीनतारूप कार्य) कर लेता है । विस्तार रुचि वाला कोई दूसरा, शुद्धोपयोग से उत्पन्न सर्वज्ञ के ज्ञान-सुखादिक का विचार कर बाद में (स्वरूप-लीनतारूप) अपना कार्य करता है; अत: सर्वज्ञ के ज्ञान-सुखादिक की व्याख्या करते हैं -

    🏠
    + शुद्धोपयोग द्वारा तत्काल ही होनेवाली शुद्ध आत्मस्वभाव प्राप्ति की प्रशंसा -
    उवओगविसुद्धो जो विगदावरणंतरायमोहरओ ।
    भूदो सयमेवादा जादि परं णेयभूदाणं ॥15॥
    उपयोगविशुद्धो यो विगतावरणान्तरायमोहरजाः ।
    भूतः स्वयमेवात्मा याति पारं ज्ञेयभूतानाम् ॥१५॥
    शुद्धोपयोगी जीव जग में घात घातीकर्मरज
    स्वयं ही सर्वज्ञ हो सब ज्ञेय को हैं जानते ॥१५॥
    अन्वयार्थ : [यः] जो [उपयोगविशुद्ध:] उपयोग विशुद्ध (शुद्धोपयोगी) है [आत्मा] वह आत्मा [विगतावरणान्तरायमोहरजा:] ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहरूप रज से रहित [स्वयमेव भूत:] स्वयमेव होता हुआ [ज्ञेयभूतानां] ज्ञेयभूत पदार्थों के [पारं याति] पार को प्राप्त होता है ॥१५॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, शुद्धोपयोग की प्राप्ति के बाद तत्काल (अन्तर पड़े बिना) ही होनेवाली शुद्धआत्मस्वभाव (केवलज्ञान) प्राप्ति की प्रशंसा करते हैं :-

    जो (आत्मा) चैतन्य परिणाम-स्वरूप उपयोग के द्वारा यथा-शक्ति विशुद्ध होकर वर्तता है, वह (आत्मा) जिसे पद-पद पर (प्रत्येक पर्याय में) विशिष्ट (असाधारण) विशुद्ध शक्ति प्रगट होती जाती है, ऐसा होने से, अनादि संसार से बँधी हुई दृढ़तर मोह-ग्रंथी छूट जाने से अत्यन्त निर्विकार चैतन्यवाला और समस्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय के नष्ट हो जाने से निर्विघ्न विकसित आत्म-शक्तिवान स्वयमेव होता हुआ ज्ञेयता (पदार्थों) के अन्त को पा लेता है ।

    यहाँ (यह कहा है कि) आत्मा ज्ञान-स्वभाव है, और ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है; इसलिये समस्त ज्ञेयों के भीतर प्रवेश को प्राप्त (ज्ञाता) ज्ञान जिसका स्वभाव है ऐसे आत्मा को आत्मा शुद्धोपयोग के ही प्रसाद से प्राप्त करता है ।

    जयसेनाचार्य :
    [उवओगविसुद्धो जो] शुद्धोपयोग रूप परिणाम से विशुद्ध होकर जो हैं [विगदावरणंतरायमोहरओ] ज्ञानावरण, दर्शनावरण अन्तराय और मोहरज रहित होते हुये वर्तते हैं । वे शुद्धोपयोग से विशुद्ध ज्ञानावरणादि रज से रहित कैसे हुये? [सयमेव] निश्चय से स्वयं ही ऐसे हुये । [आदा] वे पूर्वोक्त परमात्मा, [जादि] जाते हैं । वे सर्वज्ञ परमात्मा कहाँ जाते हैं? [पारं] अन्त तक जाते हैं । वे परमात्मा किनके अन्त तक जाते हैं? [णेयभूदाणं] जानने योग्य पदार्थों के अन्त तक जाते हैं । सबको जानते है - यह इसका अर्थ है ।

    यहाँ इसका विस्तार करते हैं- आगम भाषा में जिसे पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान कहते हैं, ऐसे निर्मोह स्वभावी निज शुद्धात्मा मे स्थिरतारूप शुद्धोपयोग नामक परिणामों से, पहले सम्पूर्ण मोह का क्षय कर उसके बाद रागादि विकल्परूप उपाधि रहित स्वसम्वेदन सम्पन्न एकत्ववितर्क अवीचार नामक दूसरे शुक्लध्यान के साथ क्षीणकषाय गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त काल ठहरकर उसके ही अन्तिम समय में उन शुद्धोपयोगी जीव के ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वीर्यान्तराय नामक तीन घातिकर्म एक साथ नष्ट हो जाते हैं और तीन-लोक तीन-कालवर्ती सम्पूर्ण वस्तुओं में रहनेवाले अनन्त धर्मों को एक साथ प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान प्रगट हो जाता है ।

    इससे फलित हुआ कि शुद्धोपयोग से ही सर्वज्ञ होते हैं ॥१५॥

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    + शुद्धात्म स्वभाव की प्राप्ति अन्य कारकों से निरपेक्ष होने से अत्यन्त आत्माधीन -
    तह सो लद्धसहावो सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिदो ।
    भूदो सयमेवादा हवदि सयंभु त्ति णिद्दिट्ठो ॥16॥
    तथा स लब्धस्वभावः सर्वज्ञः सर्वलोकपतिमहितः ।
    भूतः स्वयमेवात्मा भवति स्वयम्भूरिति निर्दिष्टः ॥१६॥
    त्रैलोक्य अधिपति पूज्य लब्धस्वभाव अर सर्वज्ञ जिन
    स्वयं ही हो गये तातैं स्वयम्भू सब जन कहें ॥१६॥
    अन्वयार्थ : [तथा] इसप्रकार [सः आत्मा] वह आत्मा [लब्धस्वभाव:] स्वभाव को प्राप्त [सर्वज्ञ:] सर्वज्ञ [सर्वलोकपतिमहित:] और *सर्व (तीन) लोक के अधिपतियों से पूजित [स्वयमेव भूत:] स्वयमेव हुआ होने से [स्वयंभू: भवति] 'स्वयंभू' है [इति निर्दिष्ट:] ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ॥१६॥
    *सर्वलोक के अधिपति = तीनों लोक के स्वामी - सुरेन्द्र, असुरेन्द्र और चक्रवर्ती

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, शुद्धोपयोग से होनेवाली शुद्धात्मस्वभाव की प्राप्ति अन्य कारकों से निरपेक्ष (स्वतंत्र) होने से अत्यन्त आत्माधीन है (लेशमात्र पराधीन नहीं है) यह प्रगट करते हैं :-

    शुद्ध उपयोग की भावना के प्रभाव से समस्त घाति-कर्मों के नष्ट होने से जिसने शुद्ध अनन्त-शक्तिवान चैतन्य स्वभाव को प्राप्त किया है, ऐसा यह (पूर्वोक्त) आत्मा,
    1. शुद्ध अनन्त शक्ति युक्त ज्ञायक स्वभाव के कारण स्वतंत्र होने से जिसने कर्तृत्व के अधिकार को ग्रहण किया है ऐसा,
    2. शुद्ध अनन्त-शक्ति युक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव के कारण स्वयं ही प्राप्य होने से (स्वयं ही प्राप्त होता होने से) कर्मत्व का अनुभव करता हुआ,
    3. शुद्ध अनन्त शक्ति युक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव से स्वयं ही साधकतम (उत्कृष्ट साधन) होने से करणता को धारण करता हुआ,
    4. शुद्ध अनन्त शक्ति युक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव के कारण स्वयं ही कर्म द्वारा समाश्रित होने से (अर्थात् कर्म स्वयं को ही देने में आता होने से) सम्प्रदानता को धारण करता हुआ,
    5. शुद्ध अनन्त-शक्तिमय ज्ञानरूप से परिणमित होने के समय पूर्व में प्रवर्तमान विकलज्ञान स्वभाव का नाश होने पर भी सहज ज्ञान स्वभाव से स्वयं ही ध्रुवता का अवलम्बन करने से अपादान को धारण करता हुआ, और
    6. शुद्ध अनन्त-शक्ति युक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव का स्वयं ही आधार होने से अधिकरणता को आत्मसात् करता हुआ
    (इस प्रकार) स्वयमेव छह कारक-रूप होने से अथवा उत्पत्ति- अपेक्षा से द्रव्य-भाव भेद से भिन्न घातिकर्मों को दूर करके स्वयमेव आविर्भूत होने से, 'स्वयंभू' कहलाता है ।

    यहाँ यह कहा गया है कि - निश्चय से पर के साथ आत्मा का कारकता का सम्बन्ध नहीं है, कि जिससे शुद्धात्म-स्वभाव की प्राप्ति के लिये सामग्री (बाह्य साधन) ढूँढने की व्यग्रता से जीव (व्यर्थ ही) परतंत्र होते हैं ।

    जयसेनाचार्य :
    [तह सो लद्धसहावो] जैसे निश्चय रत्नत्रय लक्षण शुद्धोपयोग के प्रसाद से (यह आत्मा) सभी को जानता है, उसी प्रकार पूर्वोक्त (पन्द्रहवीं गाथा में कहे) शुद्धात्मस्वभाव को प्राप्त करता हुआ, [आदा] यह आत्मा [हवदि सयंभु त्ति णिद्दिट्ठो] स्वयंभू है, ऐसा कहा गया है । वह आत्मा कैसा होता हुआ स्वयंभू है ? [सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिदो भूदो] सर्वज्ञ और सम्पूर्ण लोक के (विविध) राजाओं द्वारा पूजित होता हुआ स्वयंभू है । वह स्वयंभू कैसे है? [सयमेव] वह निश्चय से स्वयं ही स्वयंभू है ।

    वह इसप्रकार-
    1. अभिन्न कारकरूप ज्ञानानंद एक स्वभाव से स्वतंत्र होने के कारण कर्ता है ।
    2. नित्यानन्द एक स्वभाव से स्वयं को प्राप्त होने के कारण कर्म कारक है ।
    3. शुद्ध चैतन्य स्वभाव से साधकतम होने के कारण करण कारक है ।
    4. वीतराग परमानन्द एक परिणति लक्षण कर्म से समाश्रित होने के कारण (स्वयं को दिया गया होने से) सम्प्रदान है ।
    5. उसी प्रकार पहले के मति आदि ज्ञान के भेदों का अभाव होने पर भी अखण्डित एक चैतन्य-प्रकाश से अविनाशी होने के कारण अपादान है ।
    6. निश्चय से शुद्ध चैतन्य आदि गुण स्वभावी आत्मा का स्वयं ही आधार होने के कारण अधिकरण है;
    इसप्रकार अभेद स्वरूप से स्वयं ही परिणमता हुआ यह आत्मा परमात्म-स्वभावरूप केवलज्ञान की उत्पत्ति के समय भिन्न कारकों की अपेक्षा नहीं करता, इसलिये स्वयंभू है -- यह भाव है ॥१६॥

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    + शुद्धात्म-स्वभाव के अत्यन्त अविनाशीपना और कथंचित् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्तता -
    भंगविहूणो य भवो संभवपरिवज्जिदो विणासो हि ।
    विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवाओ ॥17॥
    भङ्गविहीनश्च भवः संभवपरिवर्जितो विनाशो हि ।
    विद्यते तस्यैव पुनः स्थितिसंभवनाशसमवायः ॥१७॥
    यद्यपि उत्पाद बिन व्यय व्यय बिना उत्पाद है
    तथापी उत्पादव्ययथिति का सहज समवाय है ॥१७॥
    अन्वयार्थ : [भङ्गविहिन: च भव:] उसके (शुद्धात्मस्वभाव को प्राप्त आत्मा के) विनाश रहित उत्पाद है, और [संभवपरिवर्जित: विनाश: हि] उत्पाद रहित विनाश है । [तस्य एव पुन:] उसके ही फिर [स्थितिसंभवनाशसमवाय: विद्यते] स्थिति, उत्पाद और विनाश का समवाय मिलाप, एकत्रपना विद्यमान है ॥१७॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब इस स्वयंभू के शुद्धात्मस्वभाव की प्राप्ति के अत्यन्त अविनाशीपना और कथंचित्(कोई प्रकार से) उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य युक्तता का विचार करते हैं :-

    वास्तव में इस (शुद्धात्म-स्वभाव को प्राप्त) आत्मा के शुद्धोपयोग के प्रसाद से हुआ जो शुद्धात्म-स्वभाव से (शुद्धात्म-स्वभावरूप से) उत्पाद है वह, पुन: उस रूप से प्रलय का अभाव होने से विनाश रहित है; और (उस आत्मा के शुद्धोपयोग के प्रसाद से हुआ) जो अशुद्धात्म-स्वभाव से विनाश है वह पुन: उत्पत्ति का अभाव होने से, उत्पाद रहित है । इससे (यह कहा है कि) उस आत्मा के सिद्ध-रूप से अविनाशीपन है । ऐसा होने पर भी आत्मा के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का समवाय विरोध को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि वह विनाश रहित उत्पाद के साथ, उत्पाद रहित विनाश के साथ और उन दोनों के आधार-भूत द्रव्य के साथ समवेत (तन्मयता से युक्त-एकमेक) है ।

    जयसेनाचार्य :
    [भंगविहीणो य भवो] विनाश रहित उत्पाद जीवन-मरण आदि में समता-भाव लक्षण परम-उपेक्षा संयम-रूप शुद्धोपयोग से उत्पन्न जो वह केवलज्ञान रूप उत्पाद । वह केवलज्ञानरूप उत्पाद किस विशेषता वाला है ? वह केवलज्ञानरूप उत्पाद विनाश रहित है । [संभवपरिवज्जिदो विणासो त्ति] उत्पाद रहित विनाश है । जो वह मिथ्यात्व रागादि परिवर्तनरूप संसार पर्याय का विनाश है । वह संसार पर्याय का विनाश किस विशेषता वाला है? वह संसार पर्याय का विनाश उत्पाद से रहित है- वीतरागी आत्मतत्त्व से विरुद्ध लक्षण वाले रागादि परिणामों का अभाव होने से उत्पाद से रहित है । इससे जाना जाता है कि उन्हीं भगवान के द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा सिद्ध-स्वरूप से विनाश नहीं है । [विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवाओ] फिर भी उन्हीं के ध्रौव्य-उत्पाद-व्यय का समवाय (संग्रह) विद्यमान है । उन्हीं भगवान के पर्यायार्थिकनय से शुद्ध व्यंजन पर्याय की अपेक्षा सिद्ध पर्यायरूप से उत्पाद संसार पर्यायरूप से विनाश और केवलज्ञानादि गुणों के आधारभूत द्रव्यपने से धौव्य है ।

    इससे सिद्ध हुआ कि द्रव्यार्थिकनय से नित्यपना होने पर भी पर्यायार्थिकनय से उत्पाद-व्यय-धौव्य तीनों पाये जाते हैं ।

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    + उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सर्व द्रव्यों के साधारण, शुद्ध आत्मा के भी -
    उप्पादो य विणासो विज्जदि सव्वस्स अट्ठजादस्स ।
    पज्जाएण दु केणवि अट्ठो खलु होदि सब्भूदो ॥18॥
    उत्पादश्च विनाशो विद्यते सर्वस्यार्थजातस्य ।
    पर्यायेण तु केनाप्यर्थः खलु भवति सद्भूतः ॥१८॥
    सभी द्रव्यों में सदा ही होंय रे उत्पाद-व्यय
    ध्रुव भी रहे प्रत्येक वस्तु रे किसी पर्याय से ॥१८॥
    अन्वयार्थ : [उत्पाद:] किसी पर्याय से उत्पाद [विनाश: च] और किसी पर्याय से विनाश [सर्वस्य] सर्व [अर्थजातस्य] पदार्थमात्र के [विद्यते] होता है; [केन अपि पर्यायेण तु] और किसी पर्याय से [अर्थ:] पदार्थ [सद्भूत: खलु भवति] वास्तव में ध्रुव है ॥१८॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, उत्पाद आदि तीनों (उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य) सर्व द्रव्यों के साधारण है इसलिये शुद्धआत्मा (केवली भगवान और सिद्ध भगवान) के भी अवश्यम्भावी है ऐसा व्यक्त करते हैं :-

    जैसे उत्तम स्वर्ण की बाजूबन्द रूप पर्याय से उत्पत्ति दिखाई देती है, पूर्व अवस्था रूप से वर्तने वाली अँगूठी इत्यादिक पर्याय से विनाश देखा जाता है और पीलापन इत्यादि पर्याय से दोनों में (बाजूबन्द और अँगूठी में) उत्पत्ति-विनाश को प्राप्त न होने से ध्रौव्यत्व दिखाई देता है । इस प्रकार सर्व द्रव्यों के किसी पर्याय से उत्पाद, किसी पर्याय से विनाश और किसी पर्याय से ध्रौव्य होता है, ऐसा जानना चाहिए । इससे (यह कहा गया है कि) शुद्ध आत्मा के भी द्रव्य का लक्षण-भूत उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप अस्तित्व अवश्यम्भावी है ।

    जयसेनाचार्य :
    [उप्पादो य विणासो विज्जदि सव्वस्स अट्ठजादस्स] सभी पदार्थ समूह के उत्पाद और व्यय विद्यमान हैं । सभी पदार्थों के उत्पाद-व्यय किस रूप में विद्यमान हैं? [पज्जाएण दु केणवि] अर्थ-व्यंजन पर्याय-रूप अथवा स्वभाव-विभाव पर्याय-रूप किसी विवक्षित पर्याय से उनके उत्पाद-व्यय विद्यमान है । उत्पाद-व्यय वाले वे पदार्थ किस विशेषता वाले हैं? [अट्ठो खलु होदि सब्भूदो] वास्तव में पदार्थ सत्ताभूत-सत्ता से आभिन्न होते हैं ।

    वह इसप्रकार - जैसे लोक में सुवर्ण, गोरस, मिट्टी, पुरुष आदि मूर्त पदार्थों में उत्पाद आदि तीनों प्रसिद्ध हैं, उसीप्रकार अमूर्त मुक्तजीव में भी जानना चाहिये । यद्यपि संसार के विनाश से उत्पन्न शुद्धात्मा में रुचि, जानकारी, निश्चल अनुभूति लक्षण कारण-समयसाररूप पर्याय का विनाश होता है और उसी प्रकार केवल-ज्ञानादि की व्यक्ति (प्रगटता) रूप कार्य-समयसार पर्याय का उत्पाद होता है; तथापि पदार्थ होने के कारण उत्पाद-व्यय दोनों ही पर्यायों रूप से परिणत आत्मद्रव्यत्व की अपेक्षा मुक्त जीव धौव्य रूप हैं ।

    अथवा जैसे ज्ञेय पदार्थ प्रतिसमय उत्पाद-व्यय-धौव्य तीनभंग रूप से परिणमन करते हैं उसीप्रकार ज्ञान भी (ज्ञेय पदार्थ सम्बन्धी) जानकारी की अपेक्षा उत्पाद-व्यय-धौव्य तीनभंग रूप से परिणमित होता है, अथवा षटस्थानगत अगुरुलघुक गुण सम्बन्धी वृद्धि-हानि की अपेक्षा उत्पादादि तीनों भंग जानना चाहिये - यह गाथा का तात्पर्य है ॥१८॥

    इस प्रकार सिद्ध जीव में द्रव्यार्थिक-नय से नित्यपना होने पर भी विवक्षित पर्याय से उत्पाद-व्यय-धौव्य की स्थापना रूप से दूसरे स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुई ।

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    + सर्वज्ञ को जो मानते हैं, वो सम्यग्दृष्टी -
    तं सव्वट्ठवरिट्ठं इट्ठं अमरासुरप्पहाणेहिं ।
    ये सद्दहंति जीवा तेसिं दुक्खाणि खीयंति ॥19॥
    असुरेन्द्र और सुरेन्द्र को जो इष्ट सर्व वरिष्ठ हैं
    उन सिद्ध के श्रद्धालुओं के सर्व कष्ट विनष्ट हों ॥१९॥
    अन्वयार्थ : जो जीव सर्व पदार्थों में श्रेष्ठ, देव-असुरों में प्रधान इन्द्रों के द्वारा स्वीकृत, उन सर्वज्ञ भगवान की श्रद्धा करते हैं, उनके सभी दु:ख नष्ट हो जाते हैं ॥१९॥

    जयसेनाचार्य :
    [तं सव्व्ट्ठवरिट्ठं] वे सम्पूर्ण पदार्थों में श्रेष्ठ, [इट्ठं] स्वीकृत हैं । वे सर्वोत्कृष्ट (सर्वज्ञ) किनसे स्वीकृत है? [अमरासुरप्पहाणेहिं] देवों और असुरों में प्रधान इन्द्रों से स्वीकृत हैं । [ये सद्दहन्ति] जो श्रद्धा-रुचि करते हैं [जीवा] भव्य जीव; जो भव्य जीव उनकी श्रद्धा करते हैं [तेसिं] उन श्रद्धालु भव्य जीवों के [दुक्खाणि] वीतराग-पारमार्थिक-सुख से भिन्न लक्षणवाले दुःख [खीयंति] नष्ट हो जाते हैं- यह गाथा का अर्थ है ॥१९॥

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    + आत्मा के इन्द्रियों के बिना ज्ञान और आनन्द कैसे? -
    पक्खीणघादिकम्मो अणंतवरवीरिओ अहियतेजो । (19)
    जादो अदिंदिओ सो णाणं सोक्खं च परिणमदि ॥20॥
    प्रक्षीणघातिकर्मा अनन्तवरवीर्योऽधिकतेजाः ।
    जातोऽतीन्द्रियः स ज्ञानं सौख्यं च परिणमति ॥१९॥
    अतीन्द्रिय हो गये जिनके ज्ञान सुख वे स्वयंभू
    जिन क्षीणघातिकर्म तेज महान उत्तम वीर्य हैं ॥२०॥
    अन्वयार्थ : [प्रक्षीणघातिकर्मा] जिसके घाति-कर्म क्षय हो चुके हैं, [अतीन्द्रिय: जात:] जो अतीन्द्रिय हो गया है, [अनन्तवरवीर्य:] अनन्त जिसका उत्तम वीर्य है और [अधिकतेजा:] अधिक (उत्कृष्ट) जिसका [केवल-ज्ञान और केवल-दर्शनरूप] तेज है [सः] ऐसा वह (स्वयंभू आत्मा) [ज्ञानं सौख्यं च] ज्ञान और सुख-रूप [परिणमति] परिणमन करता है ॥१९॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, शुद्धोपयोगके प्रभाव से स्वयंभू हुए इस (पूर्वोक्त) आत्मा के इन्द्रियों के बिना ज्ञान और आनन्द कैसे होता है ? ऐसे संदेह का निवारण करते हैं :-

    शुद्धोपयोग के सामर्थ्य से जिसके घाति-कर्म क्षय को प्राप्त हुए हैं, क्षायोपशमिक ज्ञान-दर्शन के साथ असंपृक्त (संपर्क रहित) होने से जो अतीन्द्रिय हो गया है, स्वयमेव स्वपर-प्रकाशकता लक्षण ज्ञान और अनाकुलता लक्षण सुख होकर परिणमित होता है । इस प्रकार आत्मा का, ज्ञान और आनन्द स्वभाव ही है । और स्वभाव पर से अनपेक्ष (स्वतंत्र, अपेक्षा रहित) होने के कारण इन्द्रियों के बिना भी आत्मा के ज्ञान और आनन्द होता है ॥१९॥

    जयसेनाचार्य :
    [पक्खीणघादिकम्मो] ज्ञानादि अनन्त चतुष्टय स्वरूप परमात्म-द्रव्य की भावना लक्षण शुद्धोपयोग के बल से घातिकर्म रहित होते हुये । [अणंतवरवीरिओ] अनन्त उत्कृष्ट वीर्यवाले है । घातिकर्मों से रहित और अनन्तवीर्य सम्पन्न वे और किन विशेषताओं सहित है? [अहियतेजो] अधिक तेज युक्त हैं । यहाँ तेज शब्द से केवलज्ञान और केवलदर्शन- ये दोनों ग्रहण करना चाहिये । [जादो सो] वे घातिकर्म रहित इत्यादि पूर्वोक्त लक्षण सम्पन्न आत्मा उत्पन्न हुये हैं । वे आत्मा कैसे उत्पन्न हुये हैं? [अणिंदियो] अनिन्द्रिय-इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति से रहित-रूप से उत्पन्न हुये हैं । अनिन्द्रिय होकर वे क्या करते हैं? [णाणं सोक्खं च परिणमदि] केवलज्ञान और अनन्त सुख रूप से परिणमित हैं ।

    वह इसप्रकार- इस व्याख्यान से क्या कहा गया है? निश्चय से अनन्त ज्ञान-सुख स्वभावी आत्मा भी व्यवहार से संसार अवस्था में कर्मों से ढंके हुये ज्ञान-सुख रूप होता हुआ, पश्चात् इन्द्रियों के आधार से कुछ थोड़े से ज्ञान और सुख रूप परिणमित होता है । जब निर्विकल्प स्व-संवेदन के बल से कर्म का अभाव होता है, तब क्षयोपशम का अभाव हो जाने से इन्द्रियाँ नहीं होने पर भी अपने अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख का अनुभव करता है ।

    इससे यह फलित हुआ कि इन्द्रियों का अभाव होने पर भी अपने अनन्त ज्ञान और सुख का अनुभव होता है । इन्द्रियों के अभाव में अनन्त ज्ञानादि का अनुभव कैसे हो सकता है? स्वभाव को पर की अपेक्षा नहीं होती; अत: इन्द्रियों के बिना भी अनन्त ज्ञानादि का अनुभव हो जाता है- ऐसा अभिप्राय है ॥२०॥

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    + शुद्ध आत्मा के शारीरिक सुख दुःख नहीं -
    सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स णत्थि देहगदं । (20)
    जम्हा अदिंदियत्तं जादं तम्हा दु तं णेयं ॥21॥
    सौख्यं वा पुनर्दुःखं केवलज्ञानिनो नास्ति देहगतम् ।
    यस्मादतीन्द्रियत्वं जातं तस्मात्तु तज्ज्ञेयम् ॥२०॥
    अतीन्द्रिय हो गये हैं जिन स्वयंभू बस इसलिए
    केवली के देहगत सुख-दु:ख नहीं परमार्थ से ॥२१॥
    अन्वयार्थ : [केवलज्ञानिन:] केवलज्ञानी के [देहगतं] शरीर-सम्बन्धी [सौख्यं] सुख [वा पुन: दुःखं] या दुःख [नास्ति] नहीं है, [यस्मात्] क्योंकि [अतीन्द्रियत्व जातं] अतीन्द्रियता उत्पन्न हुई है [तस्मात् तु तत् ज्ञेयम्] इसलिये ऐसा जानना चाहिये ॥२०॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब अतीन्द्रियता के कारण ही शुद्ध-आत्मा के (केवली भगवान के) शारीरिक सुख-दुःख नहीं है यह व्यक्त करते हैं :-

    जैसे अग्नि को लोह-पिण्ड के तप्त पुद्गलों का समस्त विलास नहीं है (अर्थात् अग्नि लोहे के गोले के पुद्गलों के विलास से-उनकी क्रियासे- भिन्न है) उसी प्रकार शुद्ध आत्मा के (अर्थात् केवलज्ञानी भगवान के) इन्द्रिय-समूह नहीं है; इसीलिये जैसे अग्नि को घन के घोर आघातों की परम्परा नहीं है (लोहे के गोले के संसर्ग का अभाव होने पर घन के लगातार आघातों की भयंकर मार अग्नि पर नहीं पड़ती) इसी प्रकार शुद्ध आत्मा के शरीर सम्बन्धी सुख दुःख नहीं हैं ॥२०॥

    जयसेनाचार्य :
    [सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स णत्थि] सुख अथवा दुःख केवलज्ञानी के नहीं हैं । केवलज्ञानी के कैसे सुख-दुख नहीं हैं? [देहगदं] देह सम्बन्धी- देह के आधारवाली जिह्वा (जीभ) इन्द्रिय आदि से उत्पन्न ग्रासाहार आदि सुख और असाता के उदय से उत्पन्न भूख आदि दुःख केवली-भगवान के नहीं हैं । ये देहगत सुख-दुःख केवली भगवान के क्यों नहीं हैं ? [जम्हा अदिंदियत्तं जादं] क्योंकि वे मोहादि घातिकर्मों का अभाव होने पर पाँच इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति से रहित होते हुये उत्पन्न हुये हैं, अत: उन्हें ये सुख-दुःख नहीं हैं । [तम्हा दु तं णेयं] इसलिये अतीन्द्रियता होने के कारण उनके ज्ञान और सुख अतीन्द्रिय ही जानने चाहिये ।

    वह इसप्रकार- जैसे लोहे के गोले के संसर्ग का अभाव होने से अग्नि घन के आघात को प्राप्त नहीं होती, उसीप्रकार यह आत्मा भी लोह-पिण्ड के समान इन्द्रिय-समूह का अभाव होने से सांसारिक सुख-दुःख का अनुभव नहीं करता - यह अर्थ है ॥

    यहाँ कोई कहता है- औदारिक शरीर विद्यमान होने से केवली के भोजन है अथवा असातावेदनीय कर्म का उदय होने से हम लोगों के समान उनके भी भोजन होता है? आचार्य इसका निराकरण करते हैं - उन भगवान का शरीर औदारिक नहीं परमौदारिक है । कहा भी है -

    'क्षीण दोषवाले वीतराग-सर्वज्ञ जीव के सात-धातु रहित, शुद्ध स्फटिक मणि के समान, अत्यन्त तेजस्वी शरीर होता है ।'

    तथा असाता-वेदनीय का उदय होने से उनके भोजन है, ऐसा जो कहते है- वहाँ निराकरण करते हैं - जैसे धान्य आदि बीज जलरूप सहकारी कारण से सहित होने पर अंकुर आदि कार्य को उत्पन्न करता है, उसी प्रकार असाता वेदनीय कर्म, मोहनीय कर्मरूप सहकारी कारण सहित होने पर ही भूख आदि कार्य उत्पन्न करता है । मोहनीय के सद्भाव में असातावेदनीय भूख आदि कार्य करता है; यह कैसे जाना?

    'वेदनीय कर्म मोह के बल से जीव का घात करता है' - ऐसा वचन होने से । और यदि मोह के अभाव में भी वेदनीयकर्म क्षुधादि परिषह उत्पन्न करता है, तो वह वध-रोगादि परिषहों को भी उत्पन्न करे, परन्तु नहीं करता । मोह के अभाव में वेदनीयकर्म वध आदि परिषहों को उत्पन्न नहीं करता- यह कैसे जाना? 'भोजन और उपसर्ग का अभाव होने से' इस वचन से यह जानकारी होती हैं ।

    'केवली के भोजन' मानने पर और भी दोष आते हैं । यदि केवली भगवान के क्षुधा की बाधा है तो क्षुधा की उत्पत्तिरूप शक्ति की क्षीणता से उनके अनन्त वीर्य नहीं है; उसीप्रकार क्षुधा से दुःखित जीव के अनन्त सुख भी नहीं है; जिह्वा इन्द्रिय की जानकारीरूप मतिज्ञान से परिणत जीव के केवल-ज्ञान भी सम्भव नही है । अथवा और भी कारण हैं । केवली के असाता-वेदनीय के उदय की अपेक्षा साता-वेदनीय का उदय अनन्तगुणा है । इसलिये शक्कर की राशि में नीम की कणिका के समान असाता-वेदनीय का उदय होने पर भी ज्ञात नहीं होता ।

    इसीप्रकार (केवली कवलाहार के विषय मे) और भी बाधक (कारण) हैं-जैसे वेद कषाय का उदय होने पर भी मोह का मंद उदय होने से अखण्ड ब्रह्मचारी प्रमतसंयत आदि मुनिराजों के स्त्री परिषह सम्बन्धी बाधा नहीं होती है; और जैसे नव-ग्रैवियक आदि अहमिन्द्र देवों के वेद कषाय का उदय होने पर भी, मोह का मंद उदय होने से स्त्री विषयक बाधा नहीं होती है; उसीप्रकार भगवान में असातावेदनीय का उदय विद्यमान होने पर भी मोह का पूर्णत: अभाव हो जाने से क्षुधा की बाधा नहीं होती है ।

    हमारे ऐसा कहने पर यदि आपके द्वारा फिर से ऐसा कहा जाता है कि मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोग केवली पर्यन्त तेरह गुणस्थानवर्ती जीव आहारक हैं '- ऐसा आहारक मार्गणा के प्रकरण में आगम में कहा गया है- इसलिये केवली के आहार है; परन्तु आपका यह कथन उचित नहीं है ।

    'नोकर्माहार, कर्माहार, कवलाहार, लेपाहार, ओजाहार और मानसिक आहार- क्रमश: ये छह प्रकार के आहार जानना चाहिये ।'

    इसप्रकार गाथा में कहे हुये क्रमानुसार यद्यपि आहार छह प्रकार के है, तथापि केवली के नोकर्माहार अपेक्षा आहारकपना जानना चाहिये; कवलाहार की अपेक्षा नहीं ।

    वह इसप्रकार- लाभान्तरायकर्म के सम्पूर्ण क्षय हो जाने से अन्य मनुष्यों के असम्भव कवलाहार के बिना भी कुछ कम पूर्व कोटी पर्यन्त शरीर स्थिति के कारणभूत, सप्तधातु से रहित परमौदारिक शरीर सम्बन्धी नोकर्माहार के योग्य सूक्ष्म, सुरस सुगन्धमय पुद्गल प्रतिक्षण आते रहते हैं '' -ऐसा नव केवललब्धि व्याख्यान के प्रंसग में कहा गया है । इससे ज्ञात होता है कि नोकर्माहार की अपेक्षा ही केवली के आहारकपना है ।

    यहाँ फिर प्रश्न है कि आपकी कल्पना से केवली के आहारक - अनाहारकपना नोकर्माहार की अपेक्षा है, कवलाहार की अपेक्षा नहीं है- यह कैसे ज्ञात होता है?

    आचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसा नहीं है । 'एक दो अथवा तीन समय तक ही अनाहारक होता है' ऐसा तत्वार्थसूत्र में कहा गया है । इस सूत्र का भाव कहते है- दूसरे भव के प्रति गमन के समय विग्रहगति में शरीर का अभाव होने पर नवीन शरीर ग्रहण करने के लिये तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल-स्कन्धों का ग्रहण नोकर्माहार कहलाता है; और वह विग्रहगति में कर्माहार विद्यमान होने पर भी एक, दो अथवा तीन समय तक नहीं होता । इसलिये नोकर्माहार की अपेक्षा ही आगम में आहारक और अनाहारकपना जानना चाहिये । यदि यह कवलाहार की अपेक्षा मानते हो तो भोजन के समय को छोड़कर हमेशा अनाहारक ही है, तब तीन समय का नियम घटित नहीं होता ।

    यदि आपका यह मत हो कि वर्तमान मनुष्यों के समान, केवलियों के भी मनुष्यपना होने से कवलाहार है। तो (यह भी) उचित नहीं हैं, क्योंकि तब तो यह कहा जा सकता है कि वर्तमान मनुष्यों के समान, पूर्वकालीन पुरुषों के भी सर्वज्ञपना नहीं हैं, और राम-रावण आदि पुरुषों के विशेष सामर्थ्य नहीं है; परन्तु ऐसा तो नहीं है ।

    दूसरा तथ्य यह है कि सात धातु रहित परमौदारिक शरीर के अभाव में 'छटवें गुणस्थान तक प्रथम आहार संज्ञा होती है ।' - ऐसा वचन होने से यद्यपि प्रमत्तसंयत नामक छटवें गुणस्थानवर्ती छद्मस्थ मुनिराज भी आहार ग्रहण करते हैं; तथापि ज्ञान, संयम और ध्यान की सिद्धि के लिये ही; देह के प्रति ममत्व के लिये वे आहार ग्रहण नहीं करते ।

    'शरीर की स्थिति के लिये आहार है, शरीर ज्ञान के लिये माना गया है, ज्ञान कर्म नष्ट करने के लिये है और कर्मो के नाश से परमसुख होता है ।'

    'मुनिराज शरीर के बल व आयु के हेतु से और शरीर के चय (हृष्ट-पुष्टता) के लिये तथा तेज के लिये भोजन नहीं करते; अपितु ज्ञान, संयम और ध्यान की सिद्धि के लिये भोजन करते हैं ।' (यहाँ 'ण बलाउसाहणट्ठं' के स्थान पर 'ण बलाउसाउअट्ठं' भी पाठ हैं; जिसका अर्थ है - बल, आयु और स्वाद के लिये भोजन नहीं करते ।) उन भगवान के ज्ञान, संयम, ध्यान आदि गुण स्वभाव से ही हैं; आहार के बल से नहीं (अत: एतदर्थ तो कवलाहार नहीं हैं) और यदि देह के ममत्व से आहार ग्रहण करते है, तो वे छद्यस्थों से भी हीनता को प्राप्त होते हैं ।

    यहाँ पुन: कोई कहता है कि उनके विशिष्ट अतिशय होने से प्रगट भोजन नहीं है, गुप्त भोजन है ।

    आचार्य इसका उत्तर देते हैं कि यदि ऐसा है तो परमौदारिक शरीरपना होने से भोजन ही नहीं है, यही अतिशय क्यों नहीं हो जाता है । वहाँ गुप्त भोजन में मायास्थान (छल) दीनता तथा और भी भोजन सम्बंधी कहे गये अनेक दोष आते हैं । वे अन्यत्र तर्क शास्त्र से जानना चाहिये । यह अध्यात्मग्रन्थ होने से यहाँ नहीं कहे हैं ।

    यहाँ भाव यह है कि यह वस्तु का स्वरूप ही है, ऐसा जानकर यहाँ आग्रह नहीं करना चाहिये । आग्रह क्यों नहीं करना चाहिये? दुराग्रह होने पर राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है और उससे वीतराग ज्ञानानन्द स्वभावी परमात्मा की भावना नष्ट होती है; अत: आग्रह नहीं करना चाहिये ॥२१॥

    इस प्रकार सात गाथाओं वाले चार स्थलों के द्वारा 'सामन्य से सर्वज्ञसिद्धि' नामक दूसरा अन्तराधिकार समाप्त हुआ ।

    अब, 'ज्ञान-प्रपञ्च' नामक तीसरे अन्तराधिकार में ३३ गाथायें हैं । वहाँ आठ स्थल हैं । उनमें से

    इसप्रकार आठ स्थलों में विभक्त ३३ गाथाओं में निबद्ध ज्ञानप्रपंच नामक तीसरे अन्तराधिकार की समुदायपातनिका (सामूहिक उत्थानिका) समाप्त हुई ।

    ज्ञान-प्रपंच नामक तीसरे अंतराधिकार की सामुदायिक पातनिका
    स्थलक्रम प्रतिपादित संक्षिप्त विषय वस्तु गाथायें कहाँ से कहाँ तक कुल गाथायें
    प्रथम केवलज्ञान के सर्व प्रत्यक्ष है 22 से 23 2
    द्वितीय आत्मा और ज्ञान-निश्चय से आत्मगत, व्यवहार से सर्वगत 24 से 28 5
    तृतीय ज्ञान-ज्ञेय का परस्पर गमन निराकरण 29 से 33 5
    चतुर्थ निश्चय व्यवहार केवली प्रतिपादन 34 से 37 4
    पंचम वर्तमान ज्ञान त्रिकालज्ञ 38 से 42 5
    षष्टम बंधकारक-ज्ञान नहीं राग है 43 से 47 5
    सप्तम केवलज्ञान सर्वज्ञता 48 से 52 4
    अष्टम उपसंहार एवं नमस्कार परक 52 से 54 2
    कुल आठ स्थल कुल 33

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    + केवली भगवान के सब प्रत्यक्ष -
    परिणमदो खलु णाणं पच्चक्खा सव्वदव्वपज्जाया । (21)
    सो णेव ते विजाणदि उग्गहपुव्वाहिं किरियाहिं ॥22॥
    परिणममानस्य खलु ज्ञानं प्रत्यक्षाः सर्वद्रव्यपर्यायाः ।
    स नैव तान् विजानात्यवग्रहपूर्वाभिः क्रियाभिः ॥२१॥
    केवली भगवान के सब द्रव्य गुण-पर्याययुत
    प्रत्यक्ष हैं अवग्रहादिपूर्वक वे उन्हें नहीं जानते ॥२२॥
    अन्वयार्थ : [खलु] वास्तव में [ज्ञानं परिणममानस्य] ज्ञानरूपसे (केवलज्ञानरूप से) परिणमित होते हुए केवली-भगवान के [सर्वद्रव्यपर्याया:] सर्व द्रव्य-पर्यायें [प्रत्यक्षा:] प्रत्यक्ष हैं; [सः] वे [तान्] उन्हें [अवग्रहपूर्वाभि: क्रियाभि:] अवग्रहादि क्रियाओं से [नैव विजानाति] नहीं जानते ॥२१॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ज्ञान के स्वरूप का विस्तार और सुख के स्वरूप का विस्तार क्रमशः प्रवर्तमान दो अधिकारों के द्वारा कहते हैं । इनमें से (प्रथम) अतीन्द्रिय ज्ञानरूप परिणमित होने से केवली-भगवान के सब प्रत्यक्ष है, यह प्रगट करते हैं :-

    केवली-भगवान इन्द्रियों के आलम्बन से अवग्रह-ईहा-अवाय पूर्वक क्रम से नहीं जानते, (किन्तु) स्वयमेव समस्त आवरण के क्षय के क्षण ही, अनादि-अनन्त, अहेतुक और असाधारण ज्ञान-स्वभाव को ही कारण-रूप ग्रहण करने से तत्काल ही प्रगट होने वाले केवल-ज्ञानोपयोग रूप होकर परिणमित होते हैं; इसलिये उनके समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का अक्रमिक ग्रहण होने से समक्ष संवेदन की (प्रत्यक्ष ज्ञान की) आलम्बन-भूत समस्त द्रव्य-पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं ॥२१॥

    जयसेनाचार्य :
    [पच्चक्खा सव्वदव्वपज्जाया] - सभी द्रव्य-पर्यायें प्रत्यक्ष हैं । सभी द्रव्य-पर्यायें किनके प्रत्यक्ष हैं? केवली भगवान के । वे क्या करते हुये केवली के प्रत्यक्ष हैं? [परिणमदो] - वे परिणमन करते हुए केवली भगवान के प्रत्यक्ष हैं । [खलु] - वास्तव में । वे सर्व द्रव्य- पर्यायें किस रूप से परिणमन करते हुये केवली के प्रत्यक्ष है? [णाणं] - अनन्त पदार्थों को जानने में समर्थ केवलज्ञानरूप से परिणमन करते हुये केवली के वे प्रत्यक्ष हैं । तो क्या वे उन्हें क्रम से जानते हैं? [सो णेव ते विजाणदि उग्गहपुव्वाहिं किरियाहिं] - और वे भगवान उन्हें अवग्रह पूर्वक क्रियाओं से नहीं जानते हैं, वरन् एक साथ जानते हैं - यह अर्थ है ।

    यहाँ इसका विस्तार करते हैं - अनाद्यनन्त, अहेतुक ज्ञानानन्द एक स्वभावी निज शुद्धात्मा को उपादेय कर केवलज्ञान की उत्पत्ति के बीजभूत आगम- भाषा की अपेक्षा शुक्लध्यान नामक रागादि विकल्पजाल रहित स्वसंवेदनज्ञानरूप से जब यह आत्मा परिणमित होता है, तब स्वसंवेदनज्ञान के फलभूत केवलज्ञान स्वरूप जानकारीरूप से परिणत उस आत्मा के उसी क्षण क्रम से प्रवृत्ति करनेवाले क्षायोपशमिक ज्ञान का अभाव होने से; एक साथ स्थित सम्पूर्ण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप से सभी द्रव्य-गुण-पर्यायें प्रत्यक्ष होती है - यह अभिप्राय है ।

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    + भगवान को कुछ भी परोक्ष नहीं -
    णत्थि परोक्खं किंचि वि समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स । (22)
    अक्खातीदस्स सदा सयमेव हि णाणजादस्स ॥23॥
    नास्ति परोक्षं किंचिदपि समन्ततः सर्वाक्षगुणसमृद्धस्य ।
    अक्षातीतस्य सदा स्वयमेव हि ज्ञानजातस्य ॥२२॥
    सर्वात्मगुण से सहित हैं अर जो अतीन्द्रिय हो गये
    परोक्ष कुछ भी है नहीं उन केवली भगवान के ॥२३॥
    अन्वयार्थ : [सदा अक्षातीतस्य] जो सदा इन्द्रियातीत हैं, [समन्तत: सर्वाक्षगुण-समृद्धस्य] जो सर्व ओर से (सर्व आत्म-प्रदेशों से) सर्व इन्द्रिय गुणों से समृद्ध हैं [स्वयमेव हि ज्ञानजातस्य] और जो स्वयमेव ज्ञानरूप हुए हैं, उन केवली भगवान को [किंचित् अपि] कुछ भी [परोक्ष नास्ति] परोक्ष नहीं है ॥२२॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब अतीन्द्रिय ज्ञानरूप परिणमित होने से ही इन भगवान को कुछ भी परोक्ष नहीं है, ऐसा अभिप्राय प्रगट करते हैं :-

    समस्त आवरण के क्षय के क्षण ही ऐसे इन (केवली) भगवान को समस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का अक्रमिक ग्रहण होने से कुछ भी परोक्ष नहीं है ।

    जयसेनाचार्य :
    अब पूर्व गाथा (बाईसवीं गाथा) में सब प्रत्यक्ष है- ऐसा अन्वय (अस्ति-विधि) रूप से कथन किया था; यहाँ परोक्ष कुछ भी नहीं है, इसप्रकार उसी अर्थ को व्यतिरेक (नास्ति-निषेध) रूप से दृढ़ करते है -

    [णत्थि परोक्खं किंचि वि] - उन भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं है । किस विशेषता वाले उन भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं है? [समंत सव्वक्खगुणसमिद्धस्स] - सभी आत्मप्रदेशों से अथवा पूर्णरूप से स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द की जानकारीरूप सभी इन्द्रियों के गुणों से समृद्ध उन केवली भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं है । तो क्या इन्द्रियसहित केवली के, कुछ भी परोक्ष नहीं है? ऐसा नहीं है । [अक्खातीदस्स] - इन्द्रिय व्यापार से रहित केवली के, कुछ भी परोक्ष नहीं है ।

    अथवा दूसरा व्याख्यान- जो ज्ञान से व्याप्त होता है, जानता है; वह आत्मा है; उस आत्मा के गुणों से समृद्ध इन्द्रिय व्यापार से रहित केवली भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं हैं । [सदा] - हमेशा ही उन्हें कुछ भी परोक्ष नहीं हैं । वे केवली भगवान किस विशेषता वाले हैं? [सयमेव हि णाणजादस्स] - स्वयं ही वास्तव में केवलज्ञानरूप से परिणत उन केवली भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं है ।

    वह इसप्रकार-अतीन्द्रिय स्वभावी परमात्मा से विपरीत क्रम से प्रवृति की कारणभूत इन्द्रियों से रहित तीनलोक, तीनकालवर्ती समस्त पदार्थों को एक-साथ जानने में समर्थ, अविनाशी, अखण्ड एक-प्रतिभासमय (ज्योतिस्वरूप) केवलज्ञानरूप से परिणत उन भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं है, यह भाव है |

    इसप्रकर केवली के सभी प्रत्यक्ष है- इस कथनरूप से प्रथम स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुई ।

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    + आत्मा का ज्ञान प्रमाणपना और ज्ञान का सर्वगतपना -
    आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ठं । (23)
    णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं ॥24॥
    आत्मा ज्ञानप्रमाणं ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणमुद्दिष्टम् ।
    ज्ञेयं लोकालोकं तस्माज्ज्ञानं तु सर्वगतम् ॥२३॥
    यह आत्म ज्ञानप्रमाण है अर ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है
    हैं ज्ञेय लोकालोक इस विधि सर्वगत यह ज्ञान है ॥२४॥
    अन्वयार्थ : [आत्मा] आत्मा [ज्ञानप्रमाणं] ज्ञान प्रमाण है; [ज्ञानं] ज्ञान [ज्ञेयप्रमाणं] ज्ञेय प्रमाण [उद्दिष्टं] कहा गया है । [ज्ञेयं लोकालोकं] ज्ञेय लोकालोक है [तस्मात्] इसलिये [ज्ञानं तु] ज्ञान [सर्वगतं] सर्वगत-सर्व व्यापक है ॥२३॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, आत्मा का ज्ञान-प्रमाणपना और ज्ञान का सर्वगतपना उद्योत करते हैं :-

    'समगुणपर्यायं द्रव्यं (गुण-पर्यायें अर्थात् युगपद् सर्वगुण और पर्यायें ही द्रव्य है)' इस वचन के अनुसार आत्मा ज्ञान से हीनाधिकता-रहित-रूप से परिणमित होने के कारण ज्ञान-प्रमाण है, और ज्ञान ज्ञेयनिष्ठ होनेसे, दाह्य-निष्ठ दहन की भाँति, ज्ञेय प्रमाण है । ज्ञेय तो लोक और अलोक के विभाग से विभक्त, अनन्त पर्याय-माला से आलिंगित स्वरूप से सूचित (प्रगट, ज्ञान), नाशवान दिखाई देता हुआ भी ध्रुव ऐसा षट्द्रव्य-समूह, अर्थात् सब कुछ है (ज्ञेय छहों द्रव्यों का समूह अर्थात् सब कुछ है) इसलिये निःशेष आवरण के क्षय के समय ही लोक और अलोक के विभाग से विभक्त समस्त वस्तुओं के आकारों के पार को प्राप्त करके इसीप्रकार अच्युत-रूप रहने से ज्ञान सर्वगत है ।

    ज्ञेयनिष्ठ = ज्ञेयों का अवलम्बन करने वाला; ज्ञेयों में तत्पर
    दहन = जलाना; अग्नि
    विभक्त = विभागवाला (षट्द्रव्यों के समूह में लोक-अलोक रूप दो विभाग हैं)
    अनन्त पर्यायें द्रव्य को आलिंगित करती है (द्रव्य में होती हैं) ऐसे स्वरूप-वाला द्रव्य ज्ञात होता है

    जयसेनाचार्य :
    (अब, आत्मा और ज्ञान के निश्चय से आत्मगतपना तथा व्यवहार से सर्वगतपना बताने वाली पाँच गाथाओं में निबद्ध दूसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)

    अब, आत्मा ज्ञान प्रमाण है और ज्ञान व्यवहार से सर्वगत है; ऐसा उपदेश देते हैं-

    [आदा णाणपमाणं] - ज्ञान के साथ हीनाधिकता का अभाव होने से आत्मा ज्ञान प्रमाण है ।

    वह इसप्रकार- [समगुणयर्यायं द्रव्यं भवति] - गुण-पर्यायों के बराबर द्रव्य होता है' - ऐसा वचन होने से, जैसे यह आत्मा वर्तमान मनुष्य भव में वर्तमान मनुष्य पर्याय के बराबर है और वैसे ही मनुष्य पर्याय के प्रदेशवर्ती ज्ञानगुण के बराबर प्रत्यक्षरूप से दिखाई देता है; उसी प्रकार यह आत्मा निश्चय से सदैव अव्याबाध अक्षयसुख आदि अनन्त गुणों के आधारभूत केवलज्ञान-गुण के बराबर है ।


    [णाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ठम्] - ईंधन-निष्ठ अग्नि के समान ज्ञान ज्ञेयों के बराबर कहा गया है । [णेयं लोयालोयं] - ज्ञेय लोकालोक है । सर्व प्रकार से आश्रय करने योग्य शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी परमात्मद्रव्य आदि छह द्रव्य स्वरूप लोक है, लोक से बाह्य भाग में शुद्ध (मात्र) आकाश अलोक है, और ये लोक एवं अलोक दोनों अपनी-अपनी अनन्त पर्यायों रूप से परिणमन करने के कारण अनित्य भी हैं और द्रव्यार्थिक नय से नित्य भी हैं । [तम्हा णाणं तु सव्वगयं] - जिस कारण से निश्चय रत्नत्रय स्वरूप शुद्धोपयोग की भावना के बल से उत्पन्न जो केवलज्ञान वह टंकोत्कीर्ण (टाँकी से उकेरे गये) आकार को जाननेरूप न्याय से हमेशा ज्ञेयों को जानता है, उसकारण व्यवहार से ज्ञान सर्वगत कहा गया है ।

    इससे यह सिद्ध हुआ कि आत्मा ज्ञान प्रमाण है और ज्ञान सर्वगत है ।

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    + आत्मा को ज्ञान प्रमाण न मानने में दोष -
    णाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह तस्स सो आदा । (24)
    हीणो वा अहिओ वा णाणादो हवदि धुवमेव ॥25॥
    हीणो जदि सो आदा तण्णाणमचेदणं ण जाणादि । (25)
    अहिओ वा णाणादो णाणेण विणा कहं णादि ॥26॥
    ज्ञानप्रमाणमात्मा न भवति यस्येह तस्य स आत्मा ।
    हीनो वा अधिको वा ज्ञानाद्भवति ध्रुवमेव ॥२४॥
    हीनो यदि स आत्मा तत् ज्ञानमचेतनं न जानाति ।
    अधिको वा ज्ञानात् ज्ञानेन विना कथं जानाति ॥२५॥
    अरे जिनकी मान्यता में आत्म ज्ञानप्रमाण ना
    तो ज्ञान से वह हीन अथवा अधिक होना चाहिए ॥२५॥
    ज्ञान से हो हीन अचेतन ज्ञान जाने किसतरह
    ज्ञान से हो अधिक जिय किसतरह जाने ज्ञान बिन ॥२६॥
    अन्वयार्थ : [इह] इस जगत में [यस्य] जिसके मत में [आत्मा] आत्मा [ज्ञानप्रमाणं] ज्ञानप्रमाण [न भवति] नहीं है, [तस्य] उसके मत में [सः आत्मा] वह आत्मा [ध्रुवम्‌ एव] अवश्य [ज्ञानात् हीन: वा] ज्ञान से हीन [अधिक: वा भवति] अथवा अधिक होना चाहिये ॥२४॥
    [यदि] यदि [सः आत्मा] वह आत्मा [हीन:] ज्ञान से हीन हो [तत्] तो वह [ज्ञानं] ज्ञान [अचेतनं] अचेतन होने से [न जानाति] नहीं जानेगा, [ज्ञानात् अधिक: वा] और यदि [आत्मा] ज्ञान से अधिक हो तो [वह आत्मा] [ज्ञानेन विना] ज्ञान के बिना [कथं जानाति] कैसे जानेगा? ॥२५॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब आत्मा को ज्ञान प्रमाण न मानने में दो पक्ष उपस्थित करके दोष बतलाते हैं :-

    यदि यह स्वीकार किया जाये कि यह आत्मा ज्ञान से हीन है तो आत्मा से आगे बढ़ जाने-वाला ज्ञान (आत्मा के क्षेत्रसे आगे बढ़कर उससे बाहर व्याप्त होने-वाला ज्ञान) अपने आश्रय-भूत चेतन-द्रव्य का समवाय (सम्बन्ध) न रहने से अचेतन होता हुआ रूपादि गुण जैसा होने से नहीं जानेगा; और यदि ऐसा पक्ष स्वीकार किया जाये कि यह आत्मा ज्ञान से अधिक है तो अवश्य (आत्मा) ज्ञान से आगे बढ़ जाने से (ज्ञान के क्षेत्र से बाहर व्यास होने से) ज्ञान से पृथक् होता हुआ घट-पटादि जैसा होने से ज्ञान के बिना नहीं जानेगा । इसलिये यह आत्मा ज्ञान-प्रमाण ही मानना योग्य है ।

    जयसेनाचार्य :
    [णाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह] इस लोक में जिस वादी के मत में ज्ञान के बराबर आत्मा नहीं है । [तस्स सो आदा] उसके मत में वह आत्मा [हीणो वा अहिओ वा णाणादो हवदि धुवमेव] - निश्चित ही ज्ञान से कम अथवा ज्यादा है ॥२५॥

    [हीणो जदि सो आदा तं णाणमचेदणं ण जाणादि] जैसे अग्नि का अभाव होने पर उसका उष्णगुण ठंडा हो जाता है; उसीप्रकार यदि आत्मा को ज्ञान से कम माना जावे तो अपने आधारभूत चेतनात्मक द्रव्य के संयोग का अभाव हो जाने से, उस आत्मा का ज्ञान अचेतन होता हुआ कुछ भी नहीं जानता है । [अहिओ वा णाणादो णाणेण विणा कहं णादि] और जैसे उष्ण गुण के नहीं होने पर अग्नि ठंडी होती हुई जलाने का कार्य करने में असमर्थ है; उसीप्रकार यदि आत्मा को ज्ञान से अधिक माना जावे, तो ज्ञान गुण के बिना आत्मा भी अचेतन होता हुआ कैसे जानने में समर्थ हो सकता है, अर्थात् जानने में समर्थ नहीं हो सकता ।

    यहाँ भाव यह है कि जो कोई आत्मा को अंगूठे के पर्व (पोर) जितना श्यामाक (सावाँ) चावल जितना अथवा वटक कणिका (छोटे पिण्ड के अत्यन्त छोटे हिस्से) जितना - इत्यादि आकार वाला मानते हैं; उन सभी की मान्यताओं का इस कथन से निराकरण हुआ; तथा जो सात समुद्घातों को छोड़कर देह प्रमाण से भी अधिक प्रमाणवाला आत्मा को मानते हैं; उनकी मान्यताओं का निराकरण भी इस कथन से हो गया ॥२६॥


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    + ज्ञान की भाँति आत्मा का भी सर्वगतत्व न्याय-सिद्ध -
    सव्वगदो जिणवसहो सव्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा । (26)
    णाणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते भणिदा ॥27॥
    सर्वगतो जिनवृषभः सर्वेऽपि च तद्गता जगत्यर्थाः ।
    ज्ञानमयत्वाच्च जिनो विषयत्वात्तस्य ते भणिताः ॥२६॥
    हैं सर्वगत जिन और सर्व पदार्थ जिनवरगत कहे
    जिन ज्ञानमय बस इसलिए सब ज्ञेय जिनके विषय हैं ॥२७॥
    अन्वयार्थ : [जिनवृषभ:] जिनवर [सर्वगत:] सर्वगत हैं [च] और [जगति] जगत के [सर्वे अपि अर्था:] सर्व पदार्थ [तद्गता:] जिनवरगत (जिनवर में प्राप्त) हैं; [जिन: ज्ञानमयत्वात्] क्योंकि जिन ज्ञानमय हैं [च] और [ते] वे सब पदार्थ [विषयत्वात्] ज्ञान के विषय होने से [तस्य] जिन के विषय [भणिता:] कहे गये हैं ॥२६॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ज्ञान की भाँति आत्मा का भी सर्वगतत्व न्यायसिद्ध है ऐसा कहते हैं :-

    ज्ञान त्रिकाल के सर्व द्रव्य-पर्याय रूप प्रवर्तमान समस्त ज्ञेयाकारों को पहुँच जाने से (जानता होने से) सर्वगत कहा गया है; और ऐसे (सर्वगत) ज्ञानमय होकर रहने से भगवान भी सर्वगत ही हैं । इसप्रकार सर्व पदार्थ भी सर्वगत ज्ञान के विषय होने से, सर्वगत ज्ञान से अभिन्न उन भगवान के वे विषय हैं ऐसा (शास्त्र में) कहा है; इसलिये सर्व पदार्थ भगवान-गत ही ( भगवान में प्राप्त ही) हैं ।

    वहाँ (ऐसा समझना कि) - निश्चयनय से अनाकुलता लक्षण सुख का जो संवेदन उस सुख-संवेदन के अधिष्ठानता जितना ही आत्मा है और उस आत्मा के बराबर ही ज्ञान स्वतत्त्व है; उस निज-स्वरूप आत्म-प्रमाण ज्ञान को छोड़े बिना, समस्त ज्ञेयाकारों के निकट गये बिना, भगवान (सर्व पदार्थों को) जानते हैं । निश्चयनय से ऐसा होने पर भी व्यवहारनय से यह कहा जाता है कि भगवान सर्वगत हैं । और नैमित्तिक-भूत ज्ञेयाकारों को आत्मस्थ (आत्मा में रहे हुए) देखकर ऐसा उपचार से कहा जाता है; कि 'सर्व पदार्थ आत्मगत (आत्मा में) हैं'; परन्तु परमार्थत: उनका एक दूसरे में गमन नहीं होता, क्योंकि सर्व द्रव्य स्वरूप-निष्ठ (अर्थात् अपने-अपने स्वरूप में निष्चल अवस्थित) हैं ।

    यही क्रम ज्ञान में भी निश्चित करना चाहिये । (अर्थात् आत्मा और ज्ञेयों के सम्बन्ध में निश्चय-व्यवहार से कहा गया है, उसी प्रकार ज्ञान और ज्ञेयों के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए) ॥२६॥

    अधिष्ठान = आधार, रहनेका स्थान (आत्मा सुख-संवेदन का आधार है । जितने में सुख का वेदन होता है उतना ही आत्मा है)
    ज्ञेयाकार = पर पदार्थों के द्रव्य-गुण-पर्याय जो कि ज्ञेय हैं । (यह ज्ञेयाकार परमार्थत: आत्मा से सर्वथा भिन्न है ।)
    नैमित्तिकभूत ज्ञेयाकार = ज्ञान में होनेवाले (ज्ञान की अवस्था-रूप) ज्ञेयाकार । (इन ज्ञेयाकारो को ज्ञानाकार भी कहा जाता है, क्योंकि ज्ञान इन ज्ञेयाकार-रूप परिणमित होते हैं । यह ज्ञेयाकार नैमित्तिक हैं और पर पदार्थों के द्रव्य-गुण-पर्याय उनके निमित्त हैं । इन ज्ञेयाकारों को आत्मा में देखकर 'समस्त पर पदार्थ आत्मा में हैं', इसप्रकार उपचार किया जाता है । यह बात ३१ वीं गाथा में दर्पण का दृष्टान्त देकर समझाई गई है ।)

    जयसेनाचार्य :
    अब जैसे पहले (२४ वीं गाथा में) ज्ञान को सर्वगत कहा था, उसीप्रकार सर्वगत ज्ञान की अपेक्षा भगवान भी सर्वगत हैं यह ज्ञान कराते हैं -

    [सव्वगदो] सर्वगत हैं । कर्तारूप वे सर्वगत कौन हैं? [जिणवसहो] - सर्वज्ञ सर्वगत हैं । सर्वज्ञ सर्वगत क्यों हैं? [जिणो णाणमयादो य] - सर्वज्ञ-जिन ज्ञानमय होने के कारण सर्वगत हैं । [सव्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा] - और वे जगत् के सभी पदार्थ, दर्पण में बिम्ब के समान, व्यवहार से उन भगवान में गये हैं । वे पदार्थ भगवान में गये हैं, यह कैसे जाना? [ते भणिया] - वे पदार्थ वहाँ गये हैं - ऐसा कहा गया है । [विषयादो] - ज्ञान के विषय - ज्ञेय होने से वे पदार्थ भगवान में गये हैं - ऐसा कहा गया है । किसके ज्ञेय होने से वे गये हुये कहे गये हैं? [तस्स] - भगवान के ज्ञेय होने से वे भगवान में गये हुये कहे गये हैं ।

    वह इसप्रकार - जो अनन्तज्ञान और अनाकुलता लक्षण अनन्तसुख का आधार है वह आत्मा है ।

    ऐसा होने से आत्मप्रमाण ज्ञान आत्मा का अपना स्वरूप है । ऐसे अपने स्वरूप को तथा शरीर में रहने रूप स्थिति को नहीं छोड़ते हुये ही वे सर्वज्ञ लोकालोक को जानते हैं । इसलिये व्यवहार से भगवान सर्वगत कहे गये हैं । और दर्पण में बिम्ब के समान क्योंकि नीले, पीले आदि बाह्य पदार्थ जानकारी-रूप से ज्ञान में प्रतिबिम्बित होते हैं (झलकते है), इसलिये पदार्थों के कार्यभूत पदार्थाकार भी पदार्थ कहलाते हैं और वे ज्ञान में स्थित हैं - ऐसे कथन में दोष नही है - यह अभिप्राय है ।

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    + आत्मा और ज्ञान के एकत्व-अन्यत्व का विचार -
    णाणं अप्प त्ति मदं वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं । (27)
    तम्हा णाणं अप्पा अप्पा णाणं व अण्णं वा ॥28॥
    ज्ञानमात्मेति मतं वर्तते ज्ञानं विना नात्मानम् ।
    तस्मात् ज्ञानमात्मा आत्मा ज्ञानं वा अन्यद्वा ॥२७॥
    रे आतमा के बिना जग में ज्ञान हो सकता नहीं
    है ज्ञान आतम किन्तु आतम ज्ञान भी है अन्य भी ॥२८॥
    अन्वयार्थ : [ज्ञानं आत्मा] ज्ञान आत्मा है [इति मतं] ऐसा जिन-देव का मत है । [आत्मानं विना] आत्मा के बिना (अन्य किसी द्रव्य में) [ज्ञानं न वर्तते] ज्ञान नहीं होता, [तस्मात्] इसलिये [ज्ञानं आत्मा] ज्ञान आत्मा है; [आत्मा] और आत्मा [ज्ञानं वा] (ज्ञान गुण द्वारा) ज्ञान है [अन्यत् वा] अथवा (सुखादि अन्य गुण द्वारा) अन्य है ॥२७॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, आत्मा और ज्ञान के एकत्व-अन्यत्व का विचार करते हैं :-

    क्योंकि शेष समस्त चेतन तथा अचेतन वस्तुओं के साथ समवाय सम्बन्ध (अभिन्न-प्रदेशरूप सम्बन्ध; तादात्म्य सम्बन्ध) नहीं है, इसलिये जिसके साथ अनादि अनन्त स्वभाव-सिद्ध समवाय-सम्बन्ध है ऐसे एक आत्मा का अति निकटतया [अभिन्न प्रदेश-रूप से] अवलम्बन करके प्रवर्तमान होने से ज्ञान आत्मा के बिना अपना अस्तित्व नहीं रख सकता; इसलिये ज्ञान आत्मा ही है । और आत्मा तो अनन्त धर्मों का अधिष्ठान (आधार) होने से ज्ञान-धर्म के द्वारा ज्ञान है और अन्य धर्म के द्वारा अन्य भी है ।

    और फिर, इसके अतिरिक्त (विशेष समझना कि) यहाँ अनेकान्त बलवान है । यदि यह माना जाय कि एकान्त से ज्ञान आत्मा है तो, (ज्ञानगुण आत्मद्रव्य हो जाने से) ज्ञान का अभाव हो जायेगा, (और ज्ञान-गुण का अभाव होने से) आत्मा के अचेतनता आ जायेगी अथवा विशेष-गुण का अभाव होने से आत्मा का अभाव हो जायेगा । यदि यह माना जाये कि सर्वथा आत्मा ज्ञान है तो, (आत्म-द्रव्य एक ज्ञान-गुणरूप हो जाने पर ज्ञानका कोई आधार-भूत द्रव्य नहीं रहने से) निराश्रयता के कारण ज्ञान का अभाव हो जायेगा अथवा (आत्मद्रव्य के एक ज्ञान-गुणरूप हो जाने से) आत्मा की शेष पर्यायों का (सुख, वीर्यादि गुणों का) अभाव हो जायेगा और उनके साथ ही अविनाभावी सम्बन्ध वाले आत्मा का भी अभाव हो जायेगा । (क्योंकि सुख, वीर्य इत्यादि गुण न हों तो आत्मा भी नहीं हो सकता)

    जयसेनाचार्य :
    अब ज्ञान आत्मा है, परन्तु आत्मा ज्ञान अथवा सुखादि भी है, ऐसा प्रतिपादित करते हैं -

    [णाणं अप्प त्ति मदं] - ज्ञान आत्मा है, यह स्वीकृत है । ज्ञान आत्मा है - ऐसा क्यों स्वीकार किया गया है ? [वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं] - ज्ञानरूप कर्ता स्वजीव के बिना अन्यत्र घड़े, कपड़े आदि में नहीं रहता हैं । [तम्हा णाणं अप्पा] - इससे जाना जाता है कि कथंचित् ज्ञान आत्मा ही है । इसप्रकार गाथा के तीन चरणों से ज्ञान का कथंचित् आत्मत्व स्थित हुआ । [अप्पा णाणं व अण्णं वा] - आत्मा ज्ञानधर्म की अपेक्षा ज्ञान है; सुख, वीर्य आदि धर्मों की अपेक्षा अन्य भी है; नियम नही है ।

    वह इसप्रकार - यदि एकान्त से "ज्ञान आत्मा है" - यह कहा जाये तो ज्ञान गुण मात्र ही आत्मा प्राप्त होता है, सुखादि धर्मों के लिये स्थान नहीं रहता । ऐसी स्थिति में सुख, वीर्य आदि धर्म-समूहों का अभाव होने से आत्मा का अभाव होगा । आधारभूत आत्मा का अभाव होने पर आधेयभूत ज्ञानगुण का भी अभाव होगा - इसप्रकार एकान्त मानने पर दोनों का ही अभाव हो जाएगा । इसलिये आत्मा कथंचित् ज्ञान है, सर्वथा नहीं ।

    यहाँ अभिप्राय यह है कि आत्मा व्यापक है और ज्ञान व्याप्य; इसलिये ज्ञान आत्मा हो परन्तु आत्मा ज्ञान भी है और अन्य भी है ।

    वैसा ही कहा भी है - 'व्यापक तद् और अतद् दोनों में रहता है परन्तु व्याप्य मात्र तद् में ही रहता है । '

    इसप्रकार (क्षेत्र अपेक्षा) आत्मा और ज्ञान का एकत्व तथा व्यवहार से ज्ञान का सर्वगतत्व इत्यादि कथनरूप से दूसरे स्थल में पाँच गाथायें पूर्ण हुईं ।

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    + ज्ञान ज्ञेय के समीप नहीं जाता -
    णाणी णाणसहावो अट्ठा णेयप्पगा हि णाणिस्स । (28)
    रूवाणि व चक्खूणं णेवण्णोण्णेसु वट्टंति ॥29॥
    ज्ञानी ज्ञानस्वभावोऽर्था ज्ञेयात्मका हि ज्ञानिनः ।
    रूपाणीव चक्षुषोः नैवान्योन्येषु वर्तन्ते ॥२८॥
    रूप को ज्यों चक्षु जाने परस्पर अप्रविष्ठ रह
    त्यों आत्म ज्ञानस्वभाव अन्य पदार्थ उसके ज्ञेय हैं ॥२९॥
    अन्वयार्थ : [ज्ञानी] आत्मा [ज्ञानस्वभाव:] ज्ञान स्वभाव है [अर्था: हि] और पदार्थ [ज्ञानिनः] आत्मा के [ज्ञेयात्मका:] ज्ञेय स्वरूप हैं [रूपाणि इव चक्षुषो:] जैसे कि रूप (रूपी पदार्थ) नेत्रों का ज्ञेय है वैसे [अन्योन्येषु] वे एक-दूसरे में [न एव वर्तन्ते] नहीं वर्तते ॥२८॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ज्ञान और ज्ञेय के परस्पर गमन का निषेध करते हैं (अर्थात् ज्ञान और ज्ञेय एक-दूसरे में प्रवेश नहीं करते ऐसा कहते हैं ।) :-

    आत्मा और पदार्थ स्वलक्षण-भूत पृथक्त्व के कारण एक दूसरे में नहीं वर्तते परन्तु उनके मात्र नेत्र और रूपी पदार्थ की भाँति ज्ञान-ज्ञेय स्वभाव-सम्बन्ध से होने वाली एक दूसरे में प्रवृत्ति पाई जाती है । (प्रत्येक द्रव्य का लक्षण अन्य द्रव्यों से भिन्नत्व होने से आत्मा और पदार्थ एक दूसरे में नहीं वर्तते, किन्तु आत्मा का ज्ञान स्वभाव है और पदार्थों का ज्ञेय स्वभाव है, ऐसे ज्ञान-ज्ञेयभावरूप सम्बन्ध के कारण ही मात्र उनका एक दूसरे में होना नेत्र और रूपी पदार्थों की भाँति उपचार से कहा जा सकता है) । जैसे नेत्र और उनके विषय-भूत रूपी पदार्थ परस्पर प्रवेश किये बिना ही ज्ञेयाकारों को ग्रहण और समर्पण करने के स्वभाव-वाले हैं, उसी प्रकार आत्मा और पदार्थ एक दूसरे में प्रविष्ट हुए बिना ही समस्त ज्ञेयाकारों के ग्रहण और समर्पण करने के स्वभाव-वाले हैं । (जिस प्रकार आँख रूपी पदार्थों में प्रवेश नहीं करती और रूपी पदार्थ आँख में प्रवेश नहीं करते तो भी आँख रूपी पदार्थों के ज्ञेयाकारो के ग्रहण करने-जानने के स्वभाव-वाली है और रूपी पदार्थ स्वयं के ज्ञेयाकारों को समर्पित होने-जनाने के स्वभाववाले हैं, उसीप्रकार आत्मा पदार्थों में प्रवेश नहीं करता और पदार्थ आत्मा में प्रवेश नहीं करते तथापि आत्मा पदार्थों के समस्त ज्ञेयाकारों को ग्रहण कर लेने, जान लेने के स्वभाव-वाला है और पदार्थ स्वयं के समस्त ज्ञेयाकारों को समर्पित हो जाने-ज्ञात हो जाने के स्वभाव-वाले हैं ।)

    जयसेनाचार्य :
    अब ज्ञान और ज्ञेय का परस्पर गमन-निराकरण प्रतिपादक (एक दूसरे में जाने के निषेध परक) पाँच गाथाओं में निबद्ध तीसरा स्थल आरम्भ होता है ।

    अब ज्ञान ज्ञेय के समीप नहीं जाता; यह निश्चित करते हैं -

    [णाणी णाणसहावो] - ज्ञानी सर्वज्ञ केवलज्ञान स्वभावी ही हैं । [अट्ठा णेयप्पगा हि णाणिस्स] - तीनलोक, तीनकालवर्ती पदार्थ ज्ञेयस्वरूप ही हैं, ज्ञानस्वरूप नहीं हैं । वे सभी पदार्थ किसके ज्ञेय स्वरूप हैं? वे ज्ञानी के ज्ञेय स्वरूप हैं । [रूवाणि व चक्खूणं णेवण्णोण्णेसु वट्टन्ति] - ज्ञानी और पदार्थ परस्पर में एकपने से प्रवृत्ति नहीं करते । ज्ञानी और पदार्थ किसके समान, किससे सम्बन्धित परस्पर में प्रवृत्ति नहीं करते? जैसे नेत्र और रूप परस्पर में प्रवृत्ति नहीं करते, उसीप्रकार वे दोनों आपस में प्रवृत्ति नहीं करते हैं ।

    वह इसप्रकार - जैसे रूपी द्रव्य नेत्र के साथ परस्पर में सम्बन्ध का अभाव होने पर भी अपने आकार को समर्पित करने में समर्थ हैं और नेत्र भी उनके आकार को ग्रहण करने में समर्थ हैं, उसी प्रकार तीनलोक रूपी उदरविवर (छिद्र) में स्थित, तीनकाल सम्बन्धी पर्यायों से परिणमित पदार्थ, ज्ञान के साथ परस्पर प्रदेशों का सम्बन्ध नहीं होने पर भी अपने आकार को समर्पित करने में समर्थ हैं; अखण्ड एक प्रतिभासमय केवलज्ञान भी उनके आकारों को ग्रहण करने में समर्थ है - यह भाव है ।

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    + ज्ञेय-पदार्थों में प्रविष्ट नहीं हुआ होने पर भी प्रविष्ट की भाँति ज्ञात होता है -
    ण पविट्ठो णाविट्ठो णाणी णेयेसु रूवमिव चक्खू । (29)
    जाणदि पस्सदि णियदं अक्खातीदो जगमसेसं ॥30॥
    न प्रविष्टो नाविष्टो ज्ञानी ज्ञेयेषु रूपमिव चक्षुः ।
    जानाति पश्यति नियतमक्षातीतो जगदशेषम् ॥२९॥
    प्रविष्ठ रह अप्रविष्ठ रह ज्यों चक्षु जाने रूप को
    त्यों अतीन्द्रिय आत्मा भी जानता सम्पूर्ण जग ॥३०॥
    अन्वयार्थ : [चक्षु: रूपं इव] जैसे चक्षु रूप को (ज्ञेयों में अप्रविष्ट रहकर तथा अप्रविष्ट न रहकर जानती-देखती है) उसी प्रकार [ज्ञानी] आत्मा [अक्षातीतः] इन्द्रियातीत होता हुआ [अशेषं जगत्] अशेष जगत को (समस्त लोकालोक को) [ज्ञेयेषु] ज्ञेयों में [न प्रविष्ट:] अप्रविष्ट रहकर [न अविष्ट:] तथा अप्रविष्ट न रहकर [नियतं] निरन्तर [जानाति पश्यति] जानता-देखता है ॥२१॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, आत्मा पदार्थों में प्रवृत्त नहीं होता तथापि जिससे (जिस शक्ति-वैचित्र्य से) उसका पदार्थों में प्रवृत्त होना सिद्ध होता है उस शक्तिवैचित्र्य को उद्योत करते हैं :-

    जिस प्रकार चक्षु रूपी द्रव्यों को स्वप्रदेशों के द्वारा अस्पर्श करता हुआ अप्रविष्ट रहकर (जानता-देखता है) तथा ज्ञेय आकारों को आत्मसात् (निजरूप) करता हुआ अप्रविष्ट न रहकर जानता-देखता है; इसीप्रकार आत्मा भी इन्द्रियातीतता के कारण *प्राप्यकारिता की विचारगोचरता से दूर होता हुआ ज्ञेयभूत समस्त वस्तुओं को स्वप्रदेशों से अस्पर्श करता है, इसलिये अप्रविष्ट रहकर (जानता-देखता है) तथा शक्ति वैचित्र के कारण वस्तु में वर्तते समस्त ज्ञेयाकारों को मानों मूल में से उखाड़कर ग्रास कर लेने से अप्रविष्ट न रहकर जानता- देखता है । इसप्रकार इस विचित्र शक्तिवाले आत्माके पदार्थोंमें अप्रवेश की भाँति प्रवेश भी सिद्ध होता है ।

    *प्राप्यकारिता = ज्ञेय विषयों को स्पर्श करके ही कार्य कर सकना-जान सकना । (इन्द्रियातीत हुए आत्मामें प्राप्यकारिता के विचार का भी अवकाश नहीं है)

    जयसेनाचार्य :
    [ण पविट्ठो] - निश्चयनय से प्रविष्ट नहीं है । [णाविट्ठो] - व्यवहार से अप्रविष्ट नहीं, वरन् प्रविष्ट ही है । प्रविष्ट-अप्रविष्ट नहीं होने वाला कर्तारूप वह कौन है? [णाणी] - ज्ञानीरूप कर्ता प्रविष्ट और अप्रविष्ट नहीं है । ज्ञानी प्रविष्ट- अप्रविष्ट किनमें नहीं है? [णेयेसु] - वह ज्ञेय पदार्थो में प्रविष्ट-अप्रविष्ट नहीं है । ज्ञानी किसके समान उनमें प्रविष्ट-अप्रविष्ट नहीं है? [रूवमिवचक्खू] - रूप के सम्बन्ध में नेत्र के समान ज्ञानी उनमें प्रविष्ट-अप्रविष्ट नहीं है । ऐसा होता हुआ ज्ञानी क्या करता है? [जाणदि पस्सदि] - उन्हें जानता और देखता है । [णियदं] - वह उन्हें संशयरहित जानता-देखता है । वह जानने-देखने वाला ज्ञानी किस विशेषता वाला है? वह [अक्खातीदो] - अक्षातीत-इन्द्रिय रहित है । वह किसे जानता-देखता है? [जगमसेसं] - वह समूर्ण जगत् को जानता-देखता है ।

    वह इसप्रकार - जैसे नेत्ररुपी कर्ता यद्यपि निश्चय से रूपी द्रव्यों को स्पर्श नहीं करता, तथापि व्यवहार से लोक में स्पर्श करते हुए के समान ज्ञात होता है; उसीप्रकार यह आत्मा केवलज्ञान से पूर्व मिथ्यात्व-रागादि आस्रव और आत्मा के बीच में होने वाले विशिष्ट भेदज्ञान से उत्पन्न होनेवाले केवलज्ञान और केवलदर्शन से तीनलोक और तीनकालवर्ती पदार्थों को निश्चय से स्पर्श नहीं करता हुआ भी व्यवहार से स्पर्श करता है; तथा स्पर्श करते हुए के समान ज्ञान से जानता और दर्शन से देखता है । वह आत्मा कैसा होता हुआ जानता और देखता है ? अतीन्द्रिय सुखरूप आस्वाद से परिणत (स्वाद का आस्वादी) होता हुआ अक्षातीत होता हुआ उन सबको जानता और देखता है ।

    इससे ज्ञात होता है कि निश्चय से अप्रवेश के समान ज्ञेय पदार्थों में व्यवहार से प्रवेश भी घटित होता है ।

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    + उसी अर्थ को दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं -
    रयणमिह इन्दणीलं दुद्धज्झसियं जहा सभासाए । (30)
    अभिभूय तं पि दुद्धं वट्टदि तह णाणमट्ठेसु ॥31॥
    रत्नमिहेन्द्रनीलं दुग्धाध्युषितं यथा स्वभासा ।
    अभिभूय तदपि दुग्धं वर्तते तथा ज्ञानमर्थेषु ॥३०॥
    ज्यों दूध में है व्याप्त नीलम रत्न अपनी प्रभा से
    त्यों ज्ञान भी है व्याप्त रे निश्शेष ज्ञेय पदार्थ में ॥३१॥
    अन्वयार्थ : [यथा] जैसे [इह] इस जगत में [दुग्धाध्युषितं] दूध में पड़ा हुआ [इन्द्रनीलं रत्नं] इन्द्रनील रत्न [स्वभासा] अपनी प्रभा के द्वारा [तद् अपि दुग्धं] उस दूध में [अभिभूय] व्याप्त होकर [वर्तते] वर्तता है, [तथा] उसीप्रकार [ज्ञानं] ज्ञान [अर्थेषु] पदार्थों में व्याप्त होकर वर्तता है ॥३०॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, यहाँ इसप्रकार (दृष्टान्तपूर्वक) यह स्पष्ट करते हैं कि ज्ञान पदार्थों में प्रवृत्त होता है :-

    जैसे दूध में पड़ा हुआ इन्द्रनील रत्न अपने प्रभा-समूह से दूध में व्याप्त होकर वर्तता हुआ दिखाई देता है, उसी प्रकार संवेदन (ज्ञान) भी आत्मा से अभिन्न होने से कर्ता-अंश से आत्मता को प्राप्त होता हुआ ज्ञान-रूप कारण-अंश के द्वारा कारण-भूत पदार्थों के कार्य भूत समस्त ज्ञेयाकारो में व्याप्त होता हुआ वर्तता है, इसलिये कार्य में कारण का (ज्ञेयाकारों में पदार्थों का) उपचार करके यह कहने में विरोध नहीं आता कि 'ज्ञान पदार्थों में व्याप्त होकर वर्तता है ।'

    प्रमाणदृष्टिसे संवेदन अर्थात् ज्ञान कहने पर अनन्त गुणपर्यायोंका पिंड समझमें आता है । उसमें यदि कर्ता, करण आदि अंश किये जायें तो कर्ता-अंश वह अखंड आत्मद्रव्य है और करण- अंश वह ज्ञानगुण है ।
    पदार्थ कारण हैं और उनके ज्ञेयाकार [द्रव्य-गुण-पर्याय] कार्य हैं ।

    जयसेनाचार्य :
    [रयणं] - रत्न, [इह] - इस लोक में । इस लोक में किस नाम वाला रत्न? [इंदणीलं] - इन्द्रनील नामक रत्न । वह इन्द्रनील नामक रत्न किस विशेषता वाला है? [दुद्धज्झसियं] - दूध में पड़ा हुआ इन्द्रनील रत्न, [जहा] - जैसे [सभासाए] - अपनी प्रभा से [अभीभूय] - तिरस्कृत कर । इन्द्रनील रत्न अपनी प्रभा से किसे तिरस्कृत कर ? [तं पि दुद्धं] - वह रत्न अपनी प्रभा से उस पूर्वोक्त दूध को तिरस्कृत कर, [वट्टदि] - वर्तता है । इसप्रकार दृष्टान्त पूर्ण हुआ । [तह णाणमत्त्थेसु] - उसी प्रकार ज्ञान पदार्थों में वर्तता है ।

    वह इसप्रकार- जैसे इन्द्रनील रत्नरूप कर्ता अपनी नील प्रभारूप साधन से दूध को नीला करके वर्तता है, उसी प्रकार निश्चय रत्नत्रय स्वरूप परमसामायिक संयम से उत्पन्न हुआ जो केवलज्ञान वह स्व-पर को जाननेरूप सामर्थ्य से सम्पूर्ण अज्ञान-रूपी अन्धकार को तिरस्कृत कर एक साथ ही सभी पदार्थों में ज्ञानाकार रूप से वर्तता है ।

    यहाँ भाव यह है - कारणभूत सभी पदार्थों के कार्यभूत ज्ञानाकार उपचार से 'अर्थ' कहलाते हैं और उनमें ज्ञान वर्तता है; अत: अर्थों मे ज्ञान वर्तता है - इस कथन में भी व्यवहार से दोष नहीं है ।

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    + पदार्थ ज्ञान में वर्तते हैं -
    जदि ते ण संति अट्ठा णाणे णाणं ण होदि सव्वगयं । (31)
    सव्वगयं वा णाणं कहं ण णाणट्ठिया अट्ठा ॥32॥
    यदि ते न सन्त्यर्था ज्ञाने ज्ञानं न भवति सर्वगतम् ।
    सर्वगतं वा ज्ञानं कथं न ज्ञानस्थिता अर्थाः ॥३१॥
    वे अर्थ ना हों ज्ञान में तो ज्ञान न हो सर्वगत
    ज्ञान है यदि सर्वगत तो क्यों न हों वे ज्ञानगत ॥३२॥
    अन्वयार्थ : [यदि] यदि [ते अर्था:] वे पदार्थ [ज्ञाने न संति] ज्ञान में न हों तो [ज्ञानं] ज्ञान [सर्वगत] सर्वगत [न भवति] नहीं हो सकता [वा] और यदि [ज्ञानं सर्वगतं] ज्ञान सर्वगत है तो [अर्था:] पदार्थ [ज्ञानस्थिता:] ज्ञानस्थित [कथं न] कैसे नहीं हैं? (अर्थात् अवश्य हैं) ॥३१॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ऐसा व्यक्त करते हैं कि इस प्रकार पदार्थ ज्ञान में वर्तते हैं :-

    यदि समस्त स्व-ज्ञेयाकारों के समर्पण द्वारा (ज्ञान में) अवतरित होते हुए समस्त पदार्थ ज्ञान में प्रतिभासित न हों तो वह ज्ञान सर्वगत नहीं माना जाता । और यदि वह (ज्ञान) सर्वगत माना जाये, तो फिर (पदार्थ) साक्षात् ज्ञानदर्पण-भूमिका में अवतरित बिम्ब की भाँति अपने-अपने ज्ञेयाकारों के कारण (होने से) और परम्परा से प्रतिबिम्ब के समान ज्ञेयाकारों के कारण होने से पदार्थ कैसे ज्ञान-स्थित निश्चित् नहीं होते? (अवश्य ही ज्ञान-स्थित निश्चित होते हैं) ॥३१॥

    बिम्ब = जिसका दर्पण में प्रतिबिंब पड़ा हो वह । (ज्ञान को दर्पण की उपमा दी जाये तो, पदार्थों के ज्ञेयाकार बिम्ब समान हैं और ज्ञान में होनेवाले ज्ञान की अवस्थारूप ज्ञेयाकार प्रतिबिम्ब समान हैं)
    पदार्थ साक्षात् स्वज्ञेयाकारों के कारण हैं, अर्थात् पदार्थ अपने-अपने द्रव्य-गुण-पर्यायों के साक्षात् कारण हैं और परम्परा से ज्ञान की अवस्था-रूप ज्ञेयाकारों के (ज्ञानाकारों के) कारण हैं ।

    जयसेनाचार्य :
    [जइ] - यदि [ते अट्ठा न सन्ति] - वे पदार्थ अपने ज्ञानाकार समर्पण की अपेक्षा दर्पण में बिम्ब के समान नहीं हैं । दर्पण में बिम्ब के समान वे पदार्थ कहाँ नहीं हैं? [णाणे] - यदि वे पदार्थ केवलज्ञान में नहीं हैं । [णाणं ण होदि सव्वगयं] - तो ज्ञान सर्वगत नहीं हो सकता । [सव्वगयं वा णाणं] - यदि आपको व्यवहार से सर्वगत ज्ञान स्वीकृत है, [कहं ण णाणट्ठिया अट्ठा] - तो अपने ज्ञेयाकारों को जानकारी रूप से समर्पित करने की अपेक्षा व्यवहारनय से वे पदार्थ ज्ञान में स्थित कैसे नहीं हैं, वरन् हैं ही ।

    यहाँ अभिप्राय यह है कि जिस कारण व्यवहार से ज्ञेय सम्बन्धी ज्ञानाकारों को ग्रहण करने की अपेक्षा ज्ञान सर्वगत कहलाता है, उसी कारण व्यवहार से ज्ञेय सम्बन्धी ज्ञानाकार समर्पण की अपेक्षा पदार्थ भी ज्ञानगत कहलाते हैं ।

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    + ज्ञानी की ज्ञेय पदार्थों के साथ भिन्नता ही है -
    गेण्हदि णेव ण मुंचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं । (32)
    पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं ॥33॥
    गृह्णाति नैव न मुञ्चति न परं परिणमति केवली भगवान् ।
    पश्यति समन्ततः स जानाति सर्वं निरवशेषम् ॥३२॥
    केवली भगवान पर ना ग्रहे छोड़े परिणमें
    चहुं ओर से सम्पूर्णत: निरवशेष वे सब जानते ॥३३॥
    अन्वयार्थ : [केवली भगवान्] केवली भगवान [परं] पर को [न एव गृह्णाति] ग्रहण नहीं करते, [न मुंचति] छोड़ते नहीं, [न परिणमति] पररूप परिणमित नहीं होते; [सः] वे [निरवशेष सर्वं] निरवशेषरूप से सबको (सम्पूर्ण आत्मा को, सर्व ज्ञेयों को) [समन्तत:] सर्व ओर से (सर्व आत्मप्रदेशों से) [पश्यति] देखते-जानते हैं ॥३२॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, इसप्रकार (व्यवहार से) आत्मा की पदार्थों के साथ एक दूसरे में प्रवृत्ति होने पर भी, (निश्चय से) वह पर का ग्रहण -त्याग किये बिना तथा पररूप परिणमित हुए बिना सबको देखता-जानता है इसलिये उसे (पदार्थों के साथ) अत्यन्त भिन्नता है ऐसा बतलाते हैं :-

    यह आत्मा, स्वभाव से ही परद्रव्य के ग्रहण-त्याग का तथा पर-द्रव्यरूप से परिणमित होने का (उसके) अभाव होने से, स्व-तत्त्वभूत केवल-ज्ञानरूप से परिणमित होकर निष्कंप निकलने वाली ज्योति-वाला उत्तम मणि जैसा होकर रहता हुआ, इसप्रकार (पूर्वोक्त दोनों प्रकार से) उसका (आत्मा का पदार्थों से) अत्यन्त भिन्नत्व ही है ।

    निःशेषरूप से = कुछ भी किंचित् मात्र शेष न रहे इस प्रकार से
    साक्षात्कार करना = प्रत्यक्ष जानना
    ज्ञप्ति-क्रिया का बदलते रहना = अर्थात् ज्ञान में एक ज्ञेय को ग्रहण करना और दूसरे को छोड़ना सो ग्रहण-त्याग है; इस प्रकार का ग्रहण-त्याग वह क्रिया है, ऐसी क्रिया का केवली-भगवान के अभाव हुआ है
    आकारान्तर = अन्य आकार

    जयसेनाचार्य :
    अब, यद्यपि व्यवहार से ज्ञानी का पदार्थों के साथ ग्राह्यग्राहक-ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध है, तथापि संश्लेषादि सम्बन्ध नहीं है, अत: ज्ञेय पदार्थों के साथ उनकी भिन्नता ही है; ऐसा प्रतिपादित करते हैं -


    [गेण्हदि णेव ण मुंचदि] - ग्रहण नहीं करते, छोड़ते नहीं हैं, [ण परं परिणमदि] - परद्रव्य रूप ज्ञेय पदार्थों का परिणमन नहीं करते । ग्रहण करने, छोड़ने और परिणमन करनेरूप क्रिया को नहीं करने वाले कर्तारूप वे कौन हैं? [केवली भगवं] - केवली भगवान--सर्वज्ञ परद्रव्य को इससे ज्ञात होता है कि परद्रव्य के साथ भिन्नता ही है । तो क्या वे सर्वज्ञ परद्रव्य को जानते नहीं हैं ? [पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं] - तो भी वे सर्वज्ञ व्यवहारनय से अशेष सर्व को सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप से जानते और देखते हैं ।

    अथवा दूसरा व्याख्यान - यतः सर्वज्ञ अन्तरंग में काम-क्रोधादि को एवं बाह्य विषयों में पंचेन्द्रिय विषयादिक बाह्य द्रव्य को ग्रहण नहीं करते, अपने अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय को छोड़ते नहीं हैं, अत: ये जीव केवलज्ञान की उत्पत्ति के समय से ही एक साथ सबको जानते हुए अन्य विकल्परूप परिणमित नहीं होते । ऐसे होते हुये वे केवली क्या करते हैं? आत्मतत्त्व से उत्पन्न केवलज्ञानरुपी ज्योति द्वारा स्फटिक मणि के समान अत्यन्त स्थिर चैतन्य-प्रकाशरूप होकर अपने आत्मा को, अपने आत्मा द्वारा, अपने आत्मा में अनुभव करते हैं।

    इस कारण भी परद्रव्य के साथ ज्ञान की पृथकता ही है - यह अभिप्राय है ।

    इसप्रकार ज्ञान ज्ञेयरूप से परिणमित नहीं होता, इत्यादि व्याख्यानरूप तीसरे स्थल में पाँच गाथायें पूर्ण हुईं ।

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    + भाव-श्रुतज्ञान से भी आत्मा का परिज्ञान होता है -
    जो हि सुदेण विजाणादि अप्पाणं जाणगं सहावेण । (33)
    तं सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा ॥34॥
    यो हि श्रुतेन विजानात्यात्मानं ज्ञायकं स्वभावेन ।
    तं श्रुतकेवलिनमृषयो भणन्ति लोकप्रदीपकराः ॥३३॥
    श्रुतज्ञान से जो जानते ज्ञायकस्वभावी आतमा
    श्रुतकेवली उनको कहें ऋषिगण प्रकाशक लोक के ॥३४॥
    अन्वयार्थ : [यः हि] जो वास्तव में [श्रुतेन] श्रुतज्ञान के द्वारा [स्वभावेन ज्ञायकं] स्वभाव से ज्ञायक (अर्थात् ज्ञायक-स्वभाव) [आत्मानं] आत्मा को [विजानाति] जानता है [तं] उसे [लोकप्रदीपकरा:] लोक के प्रकाशक [ऋषय:] ऋषीश्वरगण [श्रुतकेवलिन भणन्ति] श्रुतकेवली कहते हैं ॥३३॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब केवलज्ञानी को और श्रुतज्ञानी को अविशेषरूप से दिखाकर विशेष आकांक्षा के क्षोभ का क्षय करते हैं (अर्थात् केवलज्ञानी में और श्रुतज्ञानी में अन्तर नहीं है ऐसा बतलाकर विशेष जानने की इच्छा के क्षोभ को नष्ट करते हैं ) :-

    जैसे भगवान, युगपत् परिणमन करते हुए समस्त तथा जो चेतक-स्वभाव से एकत्व होने से केवल (अकेला, शुद्ध, अखंड) है ऐसे आत्मा को, आत्मा से, आत्मा में अनुभव करने के कारण केवली हैं; उसीप्रकार ये लोग (गणधर आदि) भी, क्रमश परिणमित होते हुए कितने ही चैतन्य-विशेषों से युक्त श्रुतज्ञान के द्वारा, अनादि-निधन- निष्कारण- असाधारण- स्वसंवेद्यमान- चैतन्यसामान्य जिसकी महिमा है तथा जो चेतक स्वभाव के द्वारा एकत्व होने से केवल (अकेला) है ऐसे आत्मा को, आत्मा से, आत्मा में, अनुभव करने के कारण श्रुतकेवली हैं । (इसलिये) विशेष आकांक्षा के क्षोभ से बस हो; (हम तो) स्वरूप-निश्चल ही रहते हैं ।

    अनादिनिधन = अनादि- अनन्त (चैतन्यसामान्य आदि तथा अन्त रहित है)
    निष्कारण = जिसका कोई कारण नहीं हैं ऐसा; स्वयंसिद्ध; सहज
    असाधारण = जो अन्य किसी द्रव्यमें न हो, ऐसा
    स्वसंवेद्यमान = स्वत: ही अनुभवमें आनेवाला
    चेतक = चेतनेवाला; दर्शकज्ञायक
    आत्मा निश्चय से परद्रव्य के तथा राग-द्वेषादि के संयोगों तथा गुण-पर्याय के भेदों से रहित, मात्र चेतक-स्वभावरूप ही है, इसलिये वह परमार्थ से केवल (अकेला, शुद्ध, अखंड) है

    जयसेनाचार्य :
    (अब निश्चय-व्यवहार केवली के प्रतिपादन की मुख्यता वाला चार गाथाओं में निबद्ध चौथा स्थल प्रारम्भ होता है ।)

    अब, जैसे निरावरण, परिपूर्ण प्रगट स्वरूप केवलज्ञान से आत्मा का परिज्ञान होता है; उसी प्रकार सावरण, अल्पप्रगट-स्वरूप केवलज्ञान की उत्पत्ति के बीजभूत, स्वसंवेदन ज्ञानरूप भाव-श्रुतज्ञान से भी आत्मा का परिज्ञान होता है - यह निश्चित करते हैं ।

    अथवा द्वितीय पातनिका - जैसा केवलज्ञान प्रमाण है, उसीप्रकार केवलज्ञान द्वारा दर्शाये गये पदार्थों को प्रकाशित करने वाला श्रुतज्ञान भी परोक्ष प्रमाण है । इसप्रकार दोनों पातनिकाओं को मन में धारण कर इस गाथा का प्रतिपादन करते हैं -

    [जो] - जो कर्ता, [हि] - स्पष्टरूप से, [सुदेण] - निर्विकार स्वसंवेदनरूप भाव-श्रुत परिणाम द्वारा [विजाणदि] - विशेषरूप से जानता है -- विषय सुख सम्बन्धी आनन्द से विलक्षण निज शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न परमानन्द एक स्वरूपी सुखरस के आस्वादरूप अनुभव करते हैं । भाव-श्रुत परिणाम द्वारा किसका अनुभव करता है? [अप्पाणं] - निजात्मद्रव्य का भाव-श्रुतजान द्वारा अनुभव करता है । ऐसे निजात्मद्रव्य का अनुभव कैसे करता है? [सहावेण] - सम्पूर्ण विभाव रहित अपने स्वभाव से अनुभव करता है । [तं सुयकेवलिं] - उन आत्मानुभवी महायोगीन्द्र को श्रुतकेवली [भणंति] - कहते हैं । उन्हें श्रुतकेवली कर्तारूप कौन कहते हैं? [इसिणो] - ऋषी उन्हें श्रुतकेवली कहते हैं । वे ऋषी किस विशेषता वाले हैं? [लोयप्पदीवयरा] - वे लोक को प्रकाशित करने वाले हैं ।

    यहाँ विस्तार करते हैं - परद्रव्य से रहितपने रूप एक साथ परिपूर्ण सम्पूर्ण चैतन्य की समृद्धि से सम्पन्न केवलज्ञान द्वारा जैसे, अनादि-अनन्त, अहेतुक, अन्य द्रव्यों से असाधारण स्वानुभूति-गम्य परम चैतन्य सामान्य स्वरूपवाले मात्र आत्मा का आत्मा में स्वानुभव करने से भगवान केवली हैं, उसीप्रकार ये गणधरदेव आदि निश्चय रत्नत्रय के आराधक मनुष्य भी पूर्वोक्त लक्षण वाले आत्मा का भाव-श्रुतज्ञान द्वारा स्वसंवेदन करने से निश्चय श्रुतकेवली हैं ।

    विशेष यह है कि जैसे कोई देवदत्त दिन में सूर्य का उदय होने से देखता है, रात्रि में दीपक से कुछ देखता है; उसीप्रकार केवली भगवान सूर्य के उदय के समान केवलज्ञान से दिन के समान मोक्ष पर्याय में भगवान आत्मा को देखते हैं तथा संसारी ज्ञानीजन रात्रि के समान संसार पर्याय में दीपक के समान रागादि विकल्पों से रहित परम समाधि से निजात्मा को देखते हैं ।

    यहाँ अभिप्राय यह है कि आत्मा परोक्ष है, कैसे ध्यान कर सकते हैं, ऐसे संदेह को धारण कर परमात्म-भावना नहीं छोड़ना चाहिये ।

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    + पदार्थों की जानकारी-रूप भावश्रुत ही ज्ञान है -
    सुत्तं जिणोवदिट्ठं पोग्गलदव्वप्पगेहिं वयणेहिं । (34)
    तं जाणणा हि णाणं सुत्तस्स य जाणणा भणिया ॥35॥
    सूत्रं जिनोपदिष्टं पुद्गलद्रव्यात्मकैर्वचनैः ।
    तज्ज्ञप्तिर्हि ज्ञानं सूत्रस्य च ज्ञप्तिर्भणिता ॥३४॥
    जिनवरकथित पुद्गल वचन ही सूत्र उसकी ज्ञप्ति ही
    है ज्ञान उसको केवली जिनसूत्र की ज्ञप्ति कहें ॥३५॥
    अन्वयार्थ : [सूत्रं] सूत्र अर्थात् [पुद्गलद्रव्यात्मकै: वचनै:] पुद्गल-द्रव्यात्मक वचनों के द्वारा [जिनोपदिष्टं] जिनेन्द्र भगवान के द्वारा उपदिष्ट वह [तज्ज्ञप्ति: ही] उसकी ज्ञप्ति [ज्ञानं] ज्ञान है [च] और उसे [सूत्रस्य ज्ञप्ति:] सूत्र की ज्ञप्ति (श्रुतज्ञान) [भणिता] कहा गया है ॥३४॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ज्ञान के श्रुत-उपाधिकृत भेद को दूर करते हैं (अर्थात् ऐसा बतलाते हैं कि श्रुतज्ञान भी ज्ञान ही है, श्रुतरूप उपाधि के कारण ज्ञान में कोई भेद नहीं होता) :-

    प्रथम तो श्रुत ही सूत्र है; और वह सूत्र भगवान अर्हन्त-सर्वज्ञ के द्वारा स्वयं जानकर उपदिष्ट स्यात्कार चिन्हयुक्त, पौदगलिक शब्दब्रह्म है । उसकी ज्ञप्ति (शब्दब्रह्म को जाननेवाली ज्ञातृ-क्रिया) सो ज्ञान है; श्रुत (सूत्र) तो उसका (ज्ञान का) कारण होने से ज्ञान के रूप में उपचार से ही कहा जाता है (जैसे कि अन्न को प्राण कहा जाता है) । ऐसा होने से यह फलित हुआ कि 'सूत्र की ज्ञप्ति' सो श्रुतज्ञान है । अब यदि सूत्र तो उपाधि होने से उसका आदर न किया जाये तो 'ज्ञप्ति' ही शेष रह जाती है; ('सूत्र की ज्ञप्ति' कहने पर निश्चय से ज्ञप्ति कहीं पौद्गलिक सूत्र की नहीं, किन्तु आत्मा की है; सूत्र ज्ञप्ति का स्वरूप-भूत नहीं, किन्तु विशेष वस्तु अर्थात् उपाधि है; क्योंकि सूत्र न हो तो वहाँ भी ज्ञप्ति तो होती ही है । इसलिये यदि सूत्र को न गिना जाय तो 'ज्ञप्ति' ही शेष रहती है ।) और वह (ज्ञप्ति) केवली और श्रुतकेवली के आत्मानुभवन में समान ही है । इसलिये ज्ञान में श्रुत-उपाधिकृत भेद नहीं है ॥३४॥

    स्यात्कार = 'स्यात्‌' शब्द । (स्यात्‌ = कथंचित्‌; किसी अपेक्षा से)
    ज्ञप्ति = जानना; जानने की क्रिया; जानन-क्रिया

    जयसेनाचार्य :
    अब, व्यवहार से शब्दरूप द्रव्यश्रुत ज्ञान है, तथा निश्चय से पदार्थों की जानकारी रूप भावश्रुत ही ज्ञान है, ऐसा कहते है ।

    अथवा, आत्मभावना में लीन निश्चय श्रुतकेवली हैं ऐसा पिछली गाथा (गाथा ३४) में कहा था । इस गाथा में ये व्यवहार-श्रुतकेवली हैं ऐसा कहते हैं -

    [सुत्तं] - द्रव्यश्रुत । वह द्रव्यश्रुत कैसा है? [जिणोवदिट्ठम्] - जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया है । वह द्रव्यश्रुत जिनेन्द्र भगवान ने कैसे कहा है? [पोग्गलदव्वप्पगेहिं वयणेहिं] - पुद्गलद्रव्यात्मक दिव्यध्वनि-रूप वचनों से वह द्रव्यश्रुत जिनेन्द्र भगवान ने कहा है । [तं जाणणा हिणाणं] - उस पूर्वोक्त शब्दश्रुत के आधार से ज्ञप्ति-पदार्थों की जानकारी ज्ञान कहलाती है, [हि] - वास्तव में । [सुत्तस्स य जाणणा भणिया] - इसलिये व्यवहार से पूर्वोक्त द्रव्यश्रुत की भी ज्ञान संज्ञा है, परन्तु निश्चय से नहीं । वह इसप्रकार --

    जैसे निश्चय से शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव सम्पन्न जीव है, पश्चात् व्यवहार से नर-नारकादि रूप भी जीव कहा जाता है, उसीप्रकार निश्चय से समस्त वस्तुओं को जाननेवाला अखण्ड एक प्रतिभासरूप ज्ञान कहा गया है, पश्चात् व्यवहार से मेघसमूह से ढंके हुये सूर्य की विशिष्ट अवस्था के समान कर्मसमूह से ढंके हुये अखण्ड एक ज्ञानरूप जीव के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि नाम होते हैं - यह भाव है ।

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    + भिन्न ज्ञान से आत्मा ज्ञानी नहीं होता -
    जो जाणदि सो णाणं ण हवदि णाणेण जाणगो आदा । (35)
    णाणं परिणमदि सयं अट्‌टा णाणट्ठिया सव्वे ॥36॥
    यो जानाति स ज्ञानं न भवति ज्ञानेन ज्ञायक आत्मा ।
    ज्ञानं परिणमते स्वयमर्था ज्ञानस्थिताः सर्वे ॥३५॥
    जो जानता सो ज्ञान आतम ज्ञान से ज्ञायक नहीं
    स्वयं परिणत ज्ञान में सब अर्थ थिति धारण करें ॥३६॥
    अन्वयार्थ : [यः जानाति] जो जानता है [सः ज्ञानं] सो ज्ञान है (अर्थात् जो ज्ञायक है वही ज्ञान है), [ज्ञानेन] ज्ञान के द्वारा [आत्मा] आत्मा [ज्ञायक: भवति] ज्ञायक है [न] ऐसा नहीं है । [स्वयं] स्वयं ही [ज्ञानं परिणमते] ज्ञान-रूप परिणमित होता है [सर्वे अर्था:] और सर्व पदार्थ [ज्ञानस्थिता:] ज्ञान-स्थित हैं ॥३५॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, आत्मा और ज्ञान का कर्त्तृत्व-करणत्वकृत भेद दूर करते हैं (अर्थात् परमार्थतः अभेद आत्मा में, 'आत्मा ज्ञातृक्रिया का कर्ता है और ज्ञान करण है' ऐसा व्यवहार से भेद किया जाता है, तथापि आत्मा और ज्ञान भिन्न नहीं हैं इसलिये अभेदनय से 'आत्मा ही ज्ञान है' ऐसा समझाते हैं) :-

    आत्मा अपृथग्भूत कर्तृत्व और करणत्व की शक्ति-रूप पारमैश्वर्यवान होने से जो स्वयमेव जानता है (अर्थात् जो ज्ञायक है) वही ज्ञान है; जैसे - जिसमें साधकतम उष्णत्व-शक्ति अन्तर्लीन है, ऐसी स्वतंत्र अग्नि के दहन-क्रिया की प्रसिद्धि होने से उष्णता कही जाती है । परन्तु ऐसा नहीं है कि जैसे पृथग्वर्ती हँसिये से देवदत्त काटने वाला कहलाता है उसीप्रकार (पृथग्वर्ती) ज्ञान से आत्मा जानने-वाला (ज्ञायक) है । यदि ऐसा हो तो दोनों के अचेतनता आ जायेगी और अचेतनों का संयोग होने पर भी ज्ञप्ति उत्पन्न नहीं होगी । आत्मा और ज्ञान के पृथग्वर्ती होने पर भी यदि आत्मा के ज्ञप्ति का होना माना जाये तो पर-ज्ञान के द्वारा पर को ज्ञप्ति हो जायेगी और इसप्रकार राख इत्यादि के भी ज्ञप्ति का उद्भव निरंकुश हो जायेगा । ('आत्मा और ज्ञान पृथक् हैं किन्तु ज्ञान आत्मा के साथ युक्त हो जाता है इसलिये आत्मा जानने का कार्य करता है' यदि ऐसा माना जाये तो जैसे ज्ञान आत्मा के साथ युक्त होता है, उसीप्रकार राख, घड़ा, स्तंभ इत्यादि समस्त पदार्थों के साथ युक्त हो जाये और उससे वे सब पदार्थ भी जाननेका कार्य करने लगें; किन्तु ऐसा तो नहीं होता, इसलिये आत्मा और ज्ञान पृथक् नहीं हैं) और, अपने से अभिन्न ऐसे समस्त ज्ञेयाकाररूप परिणमित जो ज्ञान है उसरूप स्वयं परिणमित होनेवाले को, कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारों के कारणभूत समस्त पदार्थ ज्ञानवर्ति ही कथंचित् हैं । (इसलिये) ज्ञाता और ज्ञान के विभाग की क्लिष्ट कल्पना से क्या प्रयोजन है? ॥३५॥

    पारमैश्वर्य = परम सामर्थ्य; परमेश्वरता
    साधकतम = उत्कृष्ट साधन वह करण
    जो स्वतंत्र रूपसे करे वह कर्ता
    अग्नि जलानेकी क्रिया करती है, इसलिये उसे उष्णता कहा जाता है

    जयसेनाचार्य :
    अब भिन्न ज्ञान से आत्मा ज्ञानी नहीं होता, ऐसा उपदेश देते हैं -

    [जो जाणदि सो णाणं] - कर्तारूप (जानने की क्रिया करनेवाला) जो जानता है वह ज्ञान है । वह इसप्रकार - जैसे नाम, लक्षण, प्रयोजन आदि के भेद होने पर भी अभेदनय से जलाने की क्रिया करने में समर्थ उष्णगुण से परिणत अग्नि भी उष्ण कहलाती है, उसी प्रकार पदार्थों को जानने सम्बन्धी क्रिया करने में समर्थ ज्ञान गुण से परिणत आत्मा भी ज्ञान कहलाता है ।

    वैसे ही कहा है - "[जानातीति ज्ञानमात्मा] - जो जानता है वह ज्ञान-आत्मा है ।'' [ण हवदि णाणेण जाणगो आदा] - आत्मा सर्वथा ही भिन्न ज्ञान से ज्ञानी नहीं है । यहाँ कोई कहता है - जैसे देवदत्त स्वयं से भिन्न दात्र (हंसिया) से लावक (काटने-छेदने वाला) है, उसीप्रकार आत्मा भी भिन्न ज्ञान से ज्ञायक हो, क्या दोष है? आचार्य कहते हैं - ऐसा नहीं है । छेदन क्रिया के विषय में बहिरंग साधनरूप दात्र देवदत्त से भिन्न (भले ही) हो, परन्तु छेदन क्रिया के विषय में अंतरंग साधनरूप देवदत्त की शक्ति विशेष उससे अभिन्न ही है; उसी प्रकार पदार्थों की जानकारी के विषय में अंतरंग साधनरूप ज्ञान आत्मा से अभिन्न ही है, बहिरंग साधनरूप उपाध्याय-अध्यापक, प्रकाश आदि आत्मा से भिन्न भी हों, दोष नहीं है । और यदि भिन्न ज्ञान से आत्मा ज्ञानी है तो दूसरे के ज्ञान से घड़े, खम्भे आदि सभी जड़ पदार्थ भी ज्ञानी हो जावें, परन्तु वे ज्ञानी नहीं होते ।

    [णाणं परिणमदि सयं] - क्योंकि भिन्न ज्ञान से आत्मा ज्ञानी नहीं है, इसलिये घट की उत्पत्ति में मिट्टी के पिण्ड समान उपादान रूप से स्वयं जीव ही ज्ञानरूप परिणमन करता है । [अट्ठा णाणट्ठियो सव्वे] - दर्पण में झलकने वाले बिम्ब के समान व्यवहार से ज्ञेय पदार्थ जानकारी रूप से ज्ञान में स्थित हैं - यह अभिप्राय है ।

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    + आत्मा ज्ञान है और शेष ज्ञेय हैं -
    तम्हा णाणं जीवो णेयं दव्वं तिहा समक्खादं । (36)
    दव्वं ति पुणो आदा परं च परिणामसंबद्धं ॥37॥
    तस्मात् ज्ञानं जीवो ज्ञेयं द्रव्यं त्रिधा समाख्यातम् ।
    द्रव्यमिति पुनरात्मा परश्च परिणामसंबद्धः ॥३६॥
    जीव ही है ज्ञान ज्ञेय त्रिधावर्णित द्रव्य हैं
    वे द्रव्य आतम और पर परिणाम से संबद्ध हैं ॥३७॥
    अन्वयार्थ : [तस्मात्] इसलिये [जीव: ज्ञानं] जीव ज्ञान है [ज्ञेयं] और ज्ञेय [त्रिधा समाख्यातं] तीन प्रकार से वर्णित (त्रिकालस्पर्शी) [द्रव्यं] द्रव्य है । [पुन: द्रव्यं इति] (वह ज्ञेयभूत) द्रव्य अर्थात् [आत्मा] आत्मा (स्वात्मा) [पर: च] और पर [परिणामसम्बद्ध] जो कि परिणाम वाले हैं ॥३६॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, यह व्यक्त करते हैं कि ज्ञान क्या है और ज्ञेय क्या है :-

    (पूर्वोक्त प्रकार) ज्ञानरूप से स्वयं परिणमित होकर स्वतंत्रतया ही जानता है इसलिये जीव ही ज्ञान है, क्योंकि अन्य द्रव्य इसप्रकार (ज्ञानरूप) परिणमित होने तथा जानने में असमर्थ हैं । और ज्ञेय, वर्त चुकी, वर्त रही और वर्तनेवाली ऐसी विचित्र पर्यायों की परम्परा के प्रकार से त्रिविध काल-कोटि को स्पर्श करता होने से अनादि-अनन्त ऐसा द्रव्य है । (आत्मा ही ज्ञान है और ज्ञेय समस्त द्रव्य हैं) वह ज्ञेयभूत द्रव्य आत्मा और पर (स्व और पर) ऐसे दो भेद से दो प्रकारका है । ज्ञान स्व-पर ज्ञायक है, इसलिये ज्ञेय की ऐसी द्विविधता मानी जाती है ।

    प्रश्न – अपने में क्रिया के हो सकने का विरोध है, इसलिये आत्मा के स्व-ज्ञायकता कैसे घटित होती है?

    उत्तर – कौन सी क्रिया है और किस प्रकार का विरोध है? जो यहाँ (प्रश्न में) विरोधी क्रिया कही गई है वह या तो उत्पत्ति-रूप होगी या ज्ञप्ति-रूप होगी । प्रथम, उत्पत्ति-रूप क्रिया तो 'कहीं स्वयं अपने में से उत्पन्न नहीं हो सकती' इस आगम-कथन से, विरुद्ध ही है; परन्तु ज्ञप्ति-रूप क्रिया में विरोध नहीं आता, क्योंकि वह, प्रकाशन क्रिया की भाँति, उत्पत्ति-क्रिया से विरुद्ध प्रकार से (भिन्न प्रकार से) होती है । जैसे जो प्रकाश्य-भूत पर को प्रकाशित करता है ऐसे प्रकाशक दीपक को स्व प्रकाश्य को प्रकाशित करने के सम्बन्ध में अन्य प्रकाशक की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि उसके स्वयमेव प्रकाशन क्रिया की प्राप्ति है; उसी प्रकार जो ज्ञेय-भूत पर को जानता है ऐसे ज्ञायक आत्मा को स्व-ज्ञेय के जानने के सम्बन्ध में अन्य ज्ञायक की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि स्वयमेव ज्ञान-क्रिया की प्राप्ति है । (इससे सिद्ध हुआ कि ज्ञान स्व को भी जान सकता है ।)

    प्रश्न – आत्मा को द्रव्यों की ज्ञानरूपता और द्रव्यों को आत्मा की ज्ञेयरूपता कैसे (किस प्रकार घटित) है?

    उत्तर – वे परिणाम-वाले होने से । आत्मा और द्रव्य परिणाम-युक्त हैं, इसलिये आत्मा के, द्रव्य जिसका आलम्बन हैं ऐसे ज्ञानरूप से (परिणति), और द्रव्यों के, ज्ञान का अवलम्बन लेकर ज्ञेयाकार-रूप से परिणति अबाधित रूप से तपती है-प्रतापवंत वर्तती है ।

    (आत्मा और द्रव्य समय- समय पर परिणमन किया करते हैं, वे कूटस्थ नहीं हैं; इसलिये आत्मा ज्ञान स्वभाव से और द्रव्य ज्ञेय स्वभाव से परिणमन करता है, इसप्रकार ज्ञान स्वभाव में परिणमित आत्मा ज्ञान के आलम्बनभूत द्रव्यों को जानता है और ज्ञेय-स्वभाव से परिणमित द्रव्य ज्ञेय के आलम्बनभूत ज्ञान में, आत्मा में, ज्ञात होते हैं ।) ॥३६॥

    कोई पर्याय स्वयं अपने में से उत्पन्न नहीं हो सकती, किन्तु वह द्रव्यके आधार से -- द्रव्य में से उत्पन्न होती है; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो द्रव्यरूप आधार के बिना पर्यायें उत्पन्न होने लगें और जल के बिना तरंगें होने लगें; किन्तु यह सब प्रत्यक्ष विरुद्ध है; इसलिये पर्याय के उत्पन्न होने के लिये द्रव्यरूप आधार आवश्यक है । इसीप्रकार ज्ञान-पर्याय भी स्वयं अपने में से उत्पन्न नहीं हो सकती; वह आत्म-द्रव्य में से उत्पन्न हो सकती है - जो कि ठीक ही है । परन्तु ज्ञान पर्याय स्वयं अपने से ही ज्ञात नहीं हो सकती यह बात यथार्थ नहीं है । आत्म द्रव्य में से उत्पन्न होनेवाली ज्ञान-पर्याय स्वयं अपने से ही ज्ञात होती है । जैसे दीपक-रूपी आधार में से उत्पन्न होने वाली प्रकाश-पर्याय स्व-पर को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार आत्मारूपी आधार में से उत्पन्न होनेवाली ज्ञान-पर्याय स्व-पर को जानती है । और यह अनुभव सिद्ध भी है कि ज्ञान स्वयं अपने को जानता है ।
    ज्ञान के ज्ञेयभूत द्रव्य आलम्बन अर्थात् निमित्त हैं । यदि ज्ञान ज्ञेय को न जाने तो ज्ञान का ज्ञानत्व क्या?
    ज्ञेय का ज्ञान आलम्बन अर्थात् निमित्त है । यदि ज्ञेय ज्ञान में ज्ञात न हो तो ज्ञेय का ज्ञेयत्व क्या?

    जयसेनाचार्य :
    अब आत्मा ज्ञान है और शेष ज्ञेय हैं, ऐसा निरूपण करते हैं -

    [तम्हा णाणं जीवो] - क्योंकि आत्मा ही उपादान रूप से ज्ञानरूप परिणमित है, उसी प्रकार पदार्थों को जानता है, ऐसा पहले गाथा (३६) में कहा था, अत: आत्मा ही ज्ञान है । आत्मा का ज्ञेय कौन है? द्रव्य आत्मा का ज्ञेय है । [तिहा समक्खादं] - और वह द्रव्य तीन कालवर्ती पर्यायों की परिणति रूप से अथवा द्रव्य-गुण-पर्याय रूप से और उसी प्रकार उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप से तीन प्रकार का कहा गया है । [दव्वं ति पुणो आदा परं च] - और वह ज्ञेयभूत द्रव्य आत्मा और पर है । ज्ञेयभूत द्रव्य आत्मा और पर कैसे है? दीपक के समान ज्ञान स्व और पर को जानता है; अत: ज्ञेयभूत् द्रव्य स्व और पर हैं । और वे स्व-पर द्रव्य कैसे हैं? [परिणामसंबद्धं] - वे स्व-पर द्रव्य कथंचित् परिणामी हैं - यह अर्थ है ।

    यहाँ नैयायिक मत का अनुसरण करने वाला कोई कहता है - घट आदि के समान प्रमेयता होने से ज्ञान ज्ञानान्तर से (अन्य ज्ञान से) जानने योग्य है? आचार्य उसका निराकरण करते है - आपका यह कथन दीपक के साथ दोष को प्राप्त है । जिसप्रकार दीपक प्रमेय-परिच्छेद्य-ज्ञेय -- जानने योग्य होने पर भी दूसरे दीपक से प्रकाशित नही होता (अपितु स्वयं प्रकाशित है); उसी प्रकार ज्ञान भी स्वयं ही स्वयं को प्रकाशित करता है, दूसरे ज्ञान से प्रकाशित नही होता । यदि वह ज्ञान स्वयं को प्रकाशित न करता हुआ दूसरे ज्ञान से प्रकाशित हो तो आकाश व्यापी महान दुर्निवार अनवस्था प्राप्त होती है - यह गाथा का अर्थ है ।

    इसप्रकार निश्चय-श्रुतकेवली - व्यवहार-श्रुतकेवली कथन की मुख्यता से, भिन्न ज्ञान निराकरण और ज्ञान-ज्ञेय स्वरूप कथन से चौथे स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुईं ।

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    + भूत-भावि पर्यायें वर्तमान ज्ञान में विद्यमान--वर्तमान की भांति दिखाई देती हैं -
    तक्कालिगेव सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जया तासिं । (37)
    वट्‌टन्ते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं ॥38॥
    तात्कालिका इव सर्वे सदसद्भूता हि पर्यायास्तासाम् ।
    वर्तन्ते ते ज्ञाने विशेषतो द्रव्यजातीनाम् ॥३७॥
    असद्भूत हों सद्भूत हों सब द्रव्य की पर्याय सब
    सद्ज्ञान में वर्तमानवत् ही हैं सदा वर्तमान सब ॥३८॥
    अन्वयार्थ : [तासाम् द्रव्यजातीनाम्‌] उन (जीवादि) द्रव्य-जातियों की [ते सर्वे] समस्त [सदसद्भूता: हि] विद्यमान और अविद्यमान [पर्याया:] पर्यायें [तात्कालिका: इव] तात्कालिक (वर्तमान) पर्यायों की भाँति, [विशेषत:] विशिष्टता-पूर्वक (अपने-अपने भिन्न-भिन्न स्वरूप में) [ज्ञाने वर्तन्ते] ज्ञान में वर्तती हैं ॥३७॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ऐसा उद्योत करते हैं कि द्रव्यों की अतीत और अनागत पर्यायें भी तात्कालिकपर्यायों की भाँति पृथक्रूप से ज्ञान में वर्तती हैं :-

    (जीवादिक) समस्त द्रव्य-जातियों की पर्यायों की उत्पत्ति की मर्यादा तीनों काल की मर्यादा जितनी होने से (वे तीनो-काल में उत्पन्न हुआ करती हैं इसलिये), उनकी (उन समस्त द्रव्य-जातियों की), क्रम-पूर्वक तपती हुई स्वरूप-सम्पदा वाली (एक के बाद दूसरी प्रगट होने वाली), विद्यमानता और अविद्यमानता को प्राप्त जो जितनी पर्यायें हैं, वे सब तात्कालिक (वर्तमान-कालीन) पर्यायों की भाँति, अत्यन्त मिश्रित होने पर भी सब पर्यायों के विशिष्ट लक्षण स्पष्ट ज्ञात हों इस प्रकार, एक क्षण में ही, ज्ञान-मंदिर में स्थिति को प्राप्त होती हैं । यह (तीनों काल की पर्यायों का वर्तमान पर्यायों की भाँति ज्ञान में ज्ञात होना) अयुक्त नहीं है; क्योंकि
    1. उसका दृष्टान्त के साथ (जगत में जो दिखाई देता है-अनुभव में आता है उसके साथ) अविरोध है । (जगत में) दिखाई देता है कि छद्मस्थ के भी, जैसे वर्तमान वस्तु का चिंतवन करते हुए ज्ञान उसके आकार का अवलम्बन करता है उसी प्रकार भूत और भविष्यत वस्तु का चितवन करते हुए (भी) ज्ञान उसके आकार का अवलम्बन करता है ।
    2. और ज्ञान चित्रपट के समान है । जैसे चित्रपट में अतीत, अनागत और वर्तमान वस्तुओं के आलेख्याकार साक्षात् एक क्षण में ही भासित होते हैं; उसीप्रकार ज्ञान-रूपी भित्ति में (ज्ञान-भूमिका में, ज्ञान-पट में) भी अतीत, अनागत और वर्तमान पर्यायों के ज्ञेयाकार साक्षात् एक क्षण में ही भासित होते हैं ।
    3. और सर्व ज्ञेयाकारों की तात्कालिकता (वर्तमानता, साम्प्रतिकता) अविरुद्ध है । जैसे नष्ट और अनुत्पन्न वस्तुओं के आलेख्याकार वर्तमान ही हैं, उसीप्रकार अतीत और अनागत पर्यायों के ज्ञेयाकार वर्तमान ही हैं ॥३७॥

    ज्ञान में समस्त द्रव्यों की तीनों-काल की पर्यायें एक ही साथ ज्ञात होने पर भी प्रत्येक पर्याय का विशिष्ट स्वरूप-प्रदेश, काल, आकार इत्यादि विशेषतायें-स्पष्ट ज्ञात होता है; संकर-व्यतिकर नहीं होते
    आलेख्य = आलेखन योग्य; चित्रित करने योग्य

    जयसेनाचार्य :
    (अब वर्तमान ज्ञान तीन काल को जानता है, इस तथ्य का प्रतिपादक पाँच गाथाओं में निबद्ध पाँचवां स्थल प्रारम्भ होता है)

    अब, भूत-भावि पर्यायें वर्तमान ज्ञान में विद्यमान--वर्तमान की भांति दिखाई देती हैं; ऐसा निरूपण करते हैं -

    [सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जया] - जो सभी विद्यमान और अविद्यमान पर्यायें हैं, [हि] - वास्तव में, [वट्टन्ते ते] - वे पूर्वोक्त सभी पर्यायें वर्तती हैं, प्रतिभासित होती हैं, ज्ञात होती हैं । विद्यमान-अविद्यमान वे सभी पर्यायें कहाँ वर्तती हैं? [णाणे]- वे सभी पर्यायें केवलज्ञान में वर्तती हैं । वे पर्यायें किसके समान केवलज्ञान में वर्तती हैं? [तक्कालिगेव] - वे वर्तमान पर्यायों के समान केवलज्ञान में वर्तती हैं । वे पर्यायें किनसे सम्बन्धित--किनकी हैं? [तासिं दव्वजादीणं] - उन प्रसिद्ध शुद्ध जीवद्रव्य आदि द्रव्य-जातियों--समूहों की वे पर्यायें हैं । केवलज्ञान में एक साथ वर्तते हुये भी वे सभी पर्यायें परस्पर सम्बन्ध रहित हैं । युगपत् वर्तती हुई वे पर्यायें सम्बन्ध रहित कैसे हैं? [विसेसदो] - अपने-अपने प्रदेश, काल, आकार रूप विशेषों के द्वारा संकर, व्यतिकर दोषों के निराकरण रूप रहने के कारण वे सर्व पर्यायें परस्पर सम्बन्ध रहित हैं - यह अर्थ है ।

    विशेष यह है कि जैसे मन में विचार करते हुये छद्मस्थ पुरुष के भूत-भावि पर्यायें स्फुरायमान होती हैं, और जैसे चित्र-दीवाल पर (दीवाल पर बने हुये चित्रों में) बाहुबली-भरत आदि भूतकालीन रूप और श्रेणिक-तीर्थंकर आदि भावि रूप वर्तमान के समान प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, उसीप्रकार चित्र-दीवाल के स्थानीय (समान) केवलज्ञान में भूत-भावि पर्यायें एक साथ प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं, एक साथ दिखाई देने में कुछ भी विरोध नही है ।

    जैसे ये केवली भगवान परद्रव्य-पर्यायों को जानकारी मात्र से जानते हैं, तन्मयरूप से नहीं, निश्चय से केवलज्ञानादि गुणों की आधारभूत अपनी सिद्ध-पर्याय को ही केवली-भगवान स्वसंवित्ति आकार से तन्मय होकर जानते हैं; उसीप्रकार आसन्न-भव्य जीव को भी निज शुद्धात्मा के सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप निश्चय रत्नत्रय पर्याय ही सर्व प्रयोजन से जानने योग्य है - यह तात्पर्य है ।

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    + भूत-भावि पर्यायों की असद्भूत--अविद्यमान संज्ञा है -
    जे णेव हि संजाया जे खलु णट्‌ठा भवीय पज्जया । (38)
    ते होंति असब्भूदा पज्जाया णाणपच्चक्खा ॥39॥
    ये नैव हि संजाता ये खलु नष्टा भूत्वा पर्यायाः ।
    ते भवन्ति असद्भूताः पर्याया ज्ञानप्रत्यक्षाः ॥३८॥
    पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या नष्ट जो हो गई हैं
    असद्भावी वे सभी पर्याय ज्ञानप्रत्यक्ष हैं ॥३९॥
    अन्वयार्थ : [ये पर्याया:] जो पर्यायें [हि] वास्तव में [न एव संजाता:] उत्पन्न नहीं हुई हैं, तथा [ये] जो पर्यायें [खलु] वास्तव में [भूत्वा नष्टा:] उत्पन्न होकर नष्ट हो गई हैं, [ते] वे [असद्भूता: पर्याया:] अविद्यमान पर्यायें [ज्ञानप्रत्यक्षा: भवन्ति] ज्ञान प्रत्यक्ष हैं ॥३८॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, अविद्यमान पर्यायों की (भी) कथंचित् (किसी प्रकार से; किसी अपेक्षा से) विद्यमानता बतलाते हैं :-

    जो (पर्यायें) अभी तक उत्पन्न भी नहीं हुई और जो उत्पन्न होकर नष्ट हो गई हैं, वे (पर्यायें) वास्तव में अविद्यमान होने पर भी, ज्ञान के प्रति नियत होने से (ज्ञान में निश्चित-स्थिर-लगी हुई होने से, ज्ञान में सीधी ज्ञात होने से) *ज्ञानप्रत्यक्ष वर्तती हुई, पाषाण स्तम्भ में उत्कीर्ण, भूत और भावी देवों (तीर्थकर-देवो) की भाँति अपने स्वरूप को अकम्पतया (ज्ञान को) अर्पित करती हुई (वे पर्यायें) विद्यमान ही हैं ॥३८॥

    *प्रत्यक्ष = अक्ष के प्रति-अक्ष के सन्यूख-अक्ष के निकट में- अक्ष के सम्बन्ध में हो ऐसा, अक्ष = ज्ञान; आत्मा

    जयसेनाचार्य :
    [जे णेव हि संजाया जे खलु णट्ठा भवीय पज्जाया] - जो आज तक उत्पन्न नहीं हुई हैं, अर्थात् भविष्य-कालीन पर्यायें और वास्तव में नष्ट हुई पर्यायें । वे पर्यायें क्या करके नष्ट हुई हैं ? उत्पन्न हो कर वे पर्यायें नष्ट हुई हैं । [ते होंति असब्भूदा पज्जाया] - वे पूर्वोक्त भूत-भावि पर्यायें विद्यमान नहीं होने से असद्भूत कही जाती हैं । [णाणपच्चक्खा] - विद्यमान नहीं होने से वे असद्भूत हैं तो भी वर्तमान ज्ञान की विषय होने के कारण व्यवहार से भूतार्थ कही जाती हैं, और उसीप्रकार वे ज्ञान प्रत्यक्ष भी होती हैं ।

    जैसे ये भगवान निश्चय से परमानन्द एक लक्षण सुख स्वभावमय मोक्ष-पर्याय को ही तन्मयतापूर्वक जानते हैं परद्रव्य-पर्यायों को तो व्यवहार से जानते हैं; उसीप्रकार आत्मा की भावना करने वाले पुरुष के द्वारा रागादि विकल्पों की उपाधि रहित स्वसंवेदन पर्याय ही प्रधानता से जानने योग्य है, बाह्य द्रव्य और पर्यायें तो गौणरूप से हैं - यह भाव है ।

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    + वर्तमान ज्ञान के असद्भूत पर्यायों का प्रत्यक्षपना दृढ़ करते हैं -
    जदि पच्चक्खमजादं पज्जयं पलयिदं च णाणस्स । (39)
    ण हवदि वा तं णाणं दिव्वं ति हि के परूवेंति ॥40॥
    यदि प्रत्यक्षोऽजातः पर्यायः प्रलयितश्च ज्ञानस्य ।
    न भवति वा तत् ज्ञानं दिव्यमिति हि के प्ररूपयन्ति ॥३९॥
    पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या हो गई हैं नष्ट जो
    फिर ज्ञान की क्या दिव्यता यदि ज्ञात होवें नहीं वो ॥४०॥
    अन्वयार्थ : [यदि वा] यदि [अजात: पर्याय:] अनुत्पन्न पर्याय [च] तथा [प्रलयितः] नष्ट पर्याय [ज्ञानस्य] ज्ञान के (केवलज्ञान के) [प्रत्यक्ष: न भवति] प्रत्यक्ष न हो तो [तत् ज्ञानं] उस ज्ञान को [दिव्यं इति हि] 'दिव्य' [के प्ररूपयंति] कौन प्ररूपेगा? ॥३९॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, इन्हीं अविद्यमान पर्यायों की ज्ञानप्रत्यक्षता को दृढ़ करते हैं :-

    जिसने अस्तित्व का अनुभव नहीं किया और जिसने अस्तित्व का अनुभव कर लिया है ऐसी (अनुत्पन्न और नष्ट) पर्याय-मात्र को यदि ज्ञान अपनी निर्विघ्न विकसित, अखंडित प्रताप-युक्त प्रभु-शक्ति के (महा सामर्थ्य) द्वारा बलात् अत्यन्त आक्रमित करे (प्राप्त करे), तथा वे पर्यायें अपने स्वरूप-सर्वस्व को अक्रम से अर्पित करें (एक ही साथ ज्ञानमें ज्ञात हों) इसप्रकार उन्हें अपने प्रति नियत न करे (अपने में निश्चित न करे, प्रत्यक्ष न जाने), तो उस ज्ञानकी दिव्यता क्या है? इससे (यह कहा गया है कि) पराकाष्ठा को प्राप्त ज्ञान के लिये यह सब योग्य है ॥३९॥

    जयसेनाचार्य :
    [जइ पच्चक्खमजायं पज्जायं पलइयं च णाणस्स ण हवदि वा] - यदि प्रत्यक्ष नहीं है । वह कौन प्रत्यक्ष नहीं है ? भविष्यकालीन पर्याय । भविष्यकालीन पर्याय ही नहीं, अपितु भूतकालीन पर्याय भी । भूत-भावि पर्याय किसके प्रत्यक्ष नहीं है? भूत-भावि पर्याय ज्ञान (केवलज्ञान) के प्रत्यक्ष नहीं है (तो)[तं णाणं दिव्वं ति हि के परूवेंति] - उस ज्ञान को दिव्य कौन कहेगें? कोई भी नहीं कहेगें ।

    वह इसप्रकार - क्रम और साधन सम्बन्धी बाधा से रहित होने के कारण यदि ज्ञानरूप कर्ता वर्तमान पर्याय के समान भूत-भावि पर्यायों को साक्षात् प्रत्यक्ष नहीं करता, तो वह ज्ञान दिव्य नहीं है । वास्तव में वह ज्ञान ही नहीं है ।

    जैसे, केवली भगवान यद्यपि परद्रव्य-पर्यायों को जानकारी-मात्र से जानते हैं, तथापि निश्चयनय से सहजानन्द एक स्वभावी स्वशुद्धात्मा में तन्मयरूप से उसकी जानकारी करते हैं; उसी प्रकार निर्मल भेदज्ञानी जीव भी यद्यपि व्यवहार से परद्रव्य-गुण-पर्यायों का ज्ञान करते हैं, तथापि निश्चय से स्व-विषय होने से निर्विकार स्वसंवेदन पर्याय में पर्याय द्वारा परिज्ञान करते हैं - यह गाथा का तात्पर्य है ।

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    + भूत-भावि सूक्ष्मादि पदार्थों को इन्द्रिय ज्ञान नहीं जानता है -
    अत्थं अक्खणिवदिदं ईहापुव्वेहिं जे विजाणंति । (40)
    तेसिं परोक्खभूदं णादुमसक्कं ति पण्णत्तं ॥41॥
    अर्थमक्षनिपतितमीहापूर्वैर्ये विजानन्ति ।
    तेषां परोक्षभूतं ज्ञातुमशक्यमिति प्रज्ञप्तम् ॥४०॥
    जो इन्द्रियगोचर अर्थ को ईहादिपूर्वक जानते
    वे परोक्ष पदार्थ को जाने नहीं जिनवर कहें ॥४१॥
    अन्वयार्थ : [ये] जो [अक्षनिपतितं] अक्षपतित अर्थात् इन्द्रिय-गोचर [अर्थं] पदार्थ को [ईहापूवैं:] ईहादिक द्वारा [विजानन्ति] जानते हैं, [तेषां] उनके लिये [परोक्षभूतं] परोक्षभूत पदार्थ को [ज्ञातुं] जानना [अशक्यं] अशक्य है [इति प्रज्ञप्तं] ऐसा सर्वज्ञ-देव ने कहा है ॥४०॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, इन्द्रियज्ञान के लिये नष्ट और अनुत्पन्न का जानना अशक्य है (अर्थात् इन्द्रियज्ञान नष्ट और अनुत्पन्न पदार्थों को-पर्यायों को नहीं जान सकता) ऐसा न्याय से निश्चित करते हैं -

    विषय और विषयी का सन्निपात जिसका लक्षण (स्वरूप) है, ऐसे इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष को प्राप्त करके, जो अनुक्रम से उत्पन्न ईहादिक के क्रम से जानते हैं वे उसे नहीं जान सकते जिसका स्व-अस्तित्व काल बीत गया है तथा जिसका स्व-अस्तित्वकाल उपस्थित नहीं हुआ है क्योंकि (अतीत-अनागत पदार्थ और इन्द्रिय के) यथोक्त लक्षण (यथोक्तस्वरूप, ऊपर कहा गया जैसा) ग्राह्यग्राहक सम्बन्ध का असंभव है ।

    सन्निपात = मिलाप; संबंध होना वह
    सन्निकर्ष = सम्बन्ध; समीपता
    इन्द्रियगोचर पदार्थ ग्राह्य है और इन्द्रियाँ ग्राहक हैं

    जयसेनाचार्य :
    [अत्थं] - घट, पट आदि ज्ञेय पदार्थ । वे ज्ञेय पदार्थ कैसे हैं ? [अक्खणिवदिदं] - इन्द्रियों से सम्बन्धित वे पदार्थ हैं । इसप्रकार के पदार्थ को [ईहापुब्व्वेहिं जे विजाणंति] - जो पुरुष अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा आदि क्रम से वास्तव में जानते हैं । [तेसिं परोक्खभूदं] - उनका वह ज्ञान परोक्ष होता हुआ [णादुमसक्कं ति पण्णत्तं] - सूक्ष्मादि पदार्थों को जानने में असमर्थ है - ऐसा कहा है । वह परोक्ष ज्ञान उनको जानने में असमर्थ है - ऐसा किनने कहा है? ऐसा ज्ञानियों ने कहा है ।

    वह इसप्रकार - नेत्र आदि इन्द्रियाँ घट, पट आदि पदार्थो के निकट जाकर बाद में पदार्थ को जानती हैं - ऐसा सन्निकर्ष का लक्षण नैयायिक मत में कहा गया है । अथवा संक्षेप से, इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध ही सन्निकर्ष है, और वही प्रमाण है । और वह सन्निकर्ष उसी प्रकार अत्यंत सूक्ष्म परकीय मनोवृत्ति तथा पुद्गल परमाणु आदि में प्रवृत्ति नही करता । सन्निकर्ष इन विषयों में प्रवृत्ति क्यों नही करता ? इन्द्रियों से स्थूल विषय और मूर्तिक विषय मात्र ज्ञात होने के कारण इन विषयों मे सन्निकर्ष प्रवृत्ति नहीं करता । इस कारण इन्द्रिय ज्ञान से सर्वज्ञ नही होते हैं ।

    इसलिये ही अतीन्द्रिय ज्ञान की उत्पत्ति के कारणभूत, रागादि विकल्प रहित, स्वसंवेदन ज्ञान को छोड़कर जो पंचेन्द्रिय-सुख के साधनभूत इन्द्रिय ज्ञान में और विविध इच्छाओं के विकल्प-जालरूप मानस ज्ञान में स्नेह करते हैं, वे सर्वज्ञ-पद प्राप्त नहीं करते - यह गाथा का अभिप्राय है ।

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    + अतीन्द्रिय ज्ञान भूत-भावि सूक्ष्मादि पदार्थों को जानता है -
    अपदेसं सपदेसं मुत्तममुत्तं च पज्जयमजादं । (41)
    पलयं गदं च जाणदि तं णाणमदिंदियं भणियं ॥42॥
    अप्रदेशं सप्रदेशं मूर्तममूर्तं च पर्ययमजातम् ।
    प्रलयं गतं च जानाति तज्ज्ञानमतीन्द्रियं भणितम् ॥४१॥
    सप्रदेशी अप्रदेशी मूर्त और अमूर्त को
    अनुत्पन्न विनष्ट को जाने अतीन्द्रिय ज्ञान ही ॥४२॥
    अन्वयार्थ : [अप्रदेशं] जो ज्ञान अप्रदेश को, [सप्रदेशं] सप्रदेश को, [मूर्तं] मूर्त को, [अमूर्त: च] और अमूर्त को तथा [अजातं] अनुत्पन्न [च] और [प्रलयंगतं] नष्ट [पर्यायं] पर्याय को [जानाति] जानता है, [तत् ज्ञानं] वह ज्ञान [अतीन्द्रियं] अतीन्द्रिय [भणितम्‌] कहा गया है ॥४१॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ऐसा स्पष्ट करते हैं कि अतीन्द्रिय-ज्ञान के लिये जो जो कहा जाता है वह (सब) संभव है :-

    इन्द्रिय-ज्ञान उपदेश, अन्तःकरण और इन्द्रिय इत्यादि को विरूप-कारणता से (ग्रहण करके) और उपलब्धि (क्षयोपशम), संस्कार इत्यादिको अंतरंग स्वरूप-कारणता से ग्रहण करके प्रवृत्त होता है; और वह प्रवृत्त होता हुआ सप्रदेश को ही जानता है क्योंकि वह स्थूल को जाननेवाला है, अप्रदेश को नहीं जानता, (क्योंकि वह सूक्ष्म को जाननेवाला नहीं है); वह मूर्त को ही जानता है क्योंकि वैसे (मूर्तिक) विषय के साथ उसका सम्बन्ध है, वह अमूर्त को नहीं जानता (क्योंकि अमूर्तिक विषय के साथ इन्द्रियज्ञान का सम्बन्ध नहीं है); वह वर्तमान को ही जानता है, क्योंकि विषय-विषयी के सन्निपात सद्भाव है, वह प्रवर्तित हो चुकनेवाले को और भविष्य में प्रवृत्त होनेवाले को नहीं जानता (क्योंकि इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष का अभाव है)

    परन्तु जो अनावरण अतीन्द्रिय ज्ञान है उसे अपने अप्रदेश, सप्रदेश, मूर्त और अमूर्त (पदार्थ मात्र) तथा अनुत्पन्न एवं व्यतीत पर्यायमात्र, ज्ञेयता का अतिक्रमण न करने से ज्ञेय ही है-जैसे प्रज्वलित अग्नि को अनेक प्रकार का ईंधन, दाह्यता का अतिक्रमण न करने से दाह्य ही है । (जैसे प्रदीप्त अग्नि दाह्यमात्र को-ईंधनमात्र को - जला देती है, उसीप्रकार निरावरण ज्ञान ज्ञेयमात्र को - द्रव्य-पर्याय मात्र को - जानता है)

    विरूप = ज्ञान के स्वरूप से भिन्न स्वरूपवाले । (उपदेश, मन और इन्द्रियाँ पौद्गलिक होने से उनका रूप ज्ञान के स्वरूप से भिन्न है । वे इन्द्रियज्ञान में बहिरंग कारण हैं)
    उपलब्धि = ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के निमित्त से पदार्थों को जानने की शक्ति (यह 'लब्ध' शक्ति जब 'उपयुक्त' होती हैं तभी पदार्थ जानने में आते है)
    संस्कार = भूतकाल में जाने हुये पदार्थों की धारणा ।

    जयसेनाचार्य :
    [अपदेसं] अप्रदेशी--कालाणु, परमाणु आदि (एक प्रदेशी द्रव्य), [सपदेसं] शुद्ध जीवास्तिकाय आदि पाँच अस्तिकाय स्वरूप (बहुप्रदेशी द्रव्य), [मुत्तं] मूर्तिक पुद्गल द्रव्य, [अमुत्तं च] और शुद्ध जीव द्रव्यादि अमूर्तिक द्रव्य [पज्जयमजादं पलयं गयं च] अनुत्पन्न भावि तथा नष्ट हुई भूतकालीन पर्यायें -- पूर्वोक्त इन सभी ज्ञेय वस्तुओं को, [जाणदि] जो ज्ञानरूप कर्ता जानता है, [तं णाणमदिंदियं भणियं] उस ज्ञान को अतीन्द्रिय ज्ञान कहते हैं उससे ही सर्वज्ञ होते हैं ।

    इसलिये पहले (४१ वी) गाथा में कहे गये इन्द्रिय-ज्ञान और मानस-ज्ञान को छोड़कर जो समस्त विभाव परिणामों के त्याग पूर्वक निर्विकल्प समाधिरूप स्वसंवेदन-ज्ञान में प्रीति करते हैं, वे ही परमाह्लाद एक लक्षण स्वभाव वाले सर्वज्ञ पद को प्राप्त करते हैं - यह अभिप्राय है ।

    इसप्रकार भूत-भावि पर्यायें वर्तमान ज्ञान में प्रत्यक्ष नहीं होती है - इस मान्यता वाले बौद्धमत के निराकरण की मुख्यता से तीन गाथायें, और उसके बाद नैयायिक मतानुसारि शिष्य के सम्बोधन के लिए इन्द्रिय-ज्ञान से सर्वज्ञ नहीं होते अतीन्द्रिय-ज्ञान से सर्वज्ञ होते हैं - इसप्रकार दो गाथायें -- इसप्रकार समूहरूप से पाँचवें स्थल में पाँच गाथायें पूर्ण हुईं ।

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    + जिसके कर्मबन्ध के कारणभूत हितकारी-अहितकारी विकल्परूप से, जानने योग्य विषयों में परिणमन है, उसके क्षायिकज्ञान नहीं है -
    परिणमदि णेयमट्ठं णादा जदि णेव खाइगं तस्स । (42)
    णाणं ति तं जिणिंदा खवयंतं कम्ममेवुत्ता ॥43॥
    परिणमति ज्ञेयमर्थं ज्ञाता यदि नैव क्षायिकं तस्य ।
    ज्ञानमिति तं जिनेन्द्राः क्षपयन्तं कर्मैवोक्तवन्तः ॥४२॥
    ज्ञेयार्थमय जो परिणमे ना उसे क्षायिक ज्ञान हो
    कहें जिनवरदेव कि वह कर्म का ही अनुभवी ॥४३॥
    अन्वयार्थ : [ज्ञाता] ज्ञाता [यदि] यदि [ज्ञेयं अर्थं] ज्ञेय पदार्थ-रूप [परिणमति] परिणमित होता हो तो [तस्य] उसके [क्षायिकं ज्ञानं] क्षायिक ज्ञान [न एव इति] होता ही नहीं । [जिनेन्द्रा:] जिनेन्द्र देवों ने [तं] उसे [कर्म एव] कर्म को ही [क्षपयन्तं] अनुभव करने वाला [उक्तवन्तः] कहा है ॥४२॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ऐसी श्रद्धा व्यक्त करते हैं कि ज्ञेय पदार्थरूप परिणमन जिसका लक्षण है ऐसी (ज्ञेयार्थ-परिणमन-स्वरूप) क्रिया ज्ञान में से उत्पन्न नहीं होती :-

    यदि ज्ञाता ज्ञेय पदार्थरूप परिणमित होता हो, तो उसे सकल कर्म-वन के क्षय से प्रवर्तमान स्वाभाविक जानपने का कारण (क्षायिक ज्ञान) नहीं है; अथवा उसे ज्ञान ही नहीं है; क्योंकि प्रत्येक पदार्थरूप से परिणति के द्वारा मृगतृष्णा में जलसमूह की कल्पना करने की भावना वाला वह (आत्मा) अत्यन्त दुःसह कर्म-भार को ही भोगता है ऐसा जिनेन्द्रों ने कहा है ॥४२॥

    जयसेनाचार्य :
    (अब छठवॉ स्थल प्रारम्भ होता है ।)

    अब राग-द्वेष-मोह बंध के कारण हैं, ज्ञान नही - इत्यादि कथनरूप से पाँच गाथा पर्यन्त व्याख्यान करते हैं । वह इसप्रकार है -

    [परिणमदि णेयमट्ठम् णादा जदि] - यदि ज्ञाता आत्मा यह नीला, यह पीला इत्यादि विकल्प-रूप से ज्ञेय-पदार्थों के प्रति परिणमन करता है, [णेव खाइगं तस्स णाणं ति] - तो उस आत्मा को क्षायिक-ज्ञान नहीं है । अथवा ज्ञान ही नही है । ज्ञेयार्थ परिणत उस आत्मा को ज्ञान कैसे नहीं है? [तं जिणिन्दा खवयंतं कम्ममेवुत्ता] - उस कर्मतापन्न पुरुष को (कर्म कारक में प्रयुक्त पुरुष को) जिनेन्द्र-भगवानरूपी कर्ता कहते हैं । जिनेन्द्र-भगवान उस पुरुष को क्या करता हुआ कहते हैं? वे उसे अनुभव करता हुआ कहते हैं । वे उसे किसका अनुभव करता हुआ ही कहते हैं? वे उसे कर्म का अनुभव करता हुआ ही कहते हैं । निर्विकार सहजानन्द एक सुख-स्वभाव के अनुभव से रहित होता हुआ वह उदय में आये हुये अपने कर्मों का ही अनुभव करता रहता है, ज्ञान का अनुभव नहीं करता - यह अर्थ है ।

    अथवा दूसरा व्याख्यान - यदि ज्ञाता, पदार्थ के प्रति परिणमन कर बाद में पदार्थ को जानता है तो पदार्थों के अनन्त होने से (उसे) सभी पदार्थों की जानकारी नहीं है ।

    अथवा तीसरा व्याख्यान - छद्मस्थ-अवस्था में जब बाह्य ज्ञेय पदार्थों का विचार किया जाता है, तब रागादि विकल्प रहित स्वसंवेदन ज्ञान नहीं है, उसके अभाव में क्षायिक ज्ञान ही उत्पन्न नहीं होता है - यह अभिप्राय है ।

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    + ज्ञान और रागादि रहित कर्म का उदय बंध का कारण नहीं है -
    उदयगदा कम्मंसा जिणवरवसहेहिं णियदिणा भणिया । (43)
    तेसु विमूढो रत्तो दुट्‌ठो वा बंधमणुभवदि ॥44॥
    उदयगताः कर्मांशा जिनवरवृषभैः नियत्या भणिताः ।
    तेषु विमूढो रक्तो दुष्टो वा बन्धमनुभवति ॥४३॥
    जिनवर कहें उसके नियम से उदयगत कर्मांश हैं
    वह राग-द्वेष-विमोह बस नित बंध का अनुभव करे ॥४४॥
    अन्वयार्थ : [उदयगता: कर्मांशा:] (संसारी जीव के) उदय-प्राप्त कर्मांश (ज्ञानावरणीय आदि पुद्गल-कर्म के भेद) [नियत्या] नियम से [जिनवरवृषभै:] जिनवर वृषभों ने [भणिता:] कहे हैं । [तेषु] जीव उन कर्मांशों के होने पर [विमूढ: रक्त: दुष्ट: वा] मोही, रागी अथवा द्वेषी होता हुआ [बन्धं अनुभवति] बन्ध का अनुभव करता है ॥४३॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    (यदि ऐसा है) तो फिर ज्ञेय पदार्थरूप परिणमन जिसका लक्षण है ऐसी(ज्ञेयार्थ-परिणमनस्वरूप) क्रिया और उसका फल कहाँ से (किस कारण से) उत्पन्न होता है, ऐसा अब विवेचन करते हैं :-

    प्रथम तो, संसारी के नियम से उदयगत पुद्गल कर्मांश होते ही हैं । अब वह संसारी, उन उदयगत कर्मांशों के अस्तित्व में, चेतते-जानते- अनुभव करते हुए, मोह-राग- द्वेष में परिणत होने से ज्ञेय पदार्थों में परिणमन जिसका लक्षण है ऐसी (ज्ञेयार्थ परिणमन-स्वरूप) क्रिया के साथ युक्त होता है; और इसीलिये क्रिया के फलभूत बन्ध का अनुभव करता है । इससे (ऐसा कहा है कि) मोह के उदय से ही (मोह के उदय में युक्त होने के कारण से ही) क्रिया और क्रिया फल होता है, ज्ञान से नहीं ॥४३॥

    जयसेनाचार्य :
    अब, अनन्त पदार्थों की जानकारी रूप से परिणत होने पर भी ज्ञान बंध का कारण नहीं है, इसी प्रकार रागादि रहित कर्म का उदय भी बंध का कारण नहीं है; ऐसा निश्चित करते हैं -

    [उदयगदा कम्मंसा जिणवरवसहेहिं णियदिणा भणिया] उदय को प्राप्त ज्ञानावरणादि मूल-उत्तर कर्म प्रकृति भेद वाले कर्मांश तीर्थंकरों ने स्वभाव से कहे हैं, किन्तु (वे) अपने-अपने शुभाशुभ फल को देकर चले जाते हैं, रागादि परिणामों से रहित होने पर बंध नहीं करते हैं । तो फिर जीव बंध कैसे करता है? यदि यह प्रश्न हो तो? [तेसु विमूढो रत्तो दुट्ठो वा बन्धमणुभवदि] मोह, राग, द्वेष से विलक्षण निज शुद्धात्मतत्व की भावना से रहित होता हुआ उदय में आये हुये कर्मांशों में विशेष रूप से मोह, राग, द्वेष रूप होता है, वह केवलज्ञानादि अनन्त गुणों की प्रगटता स्वरूप मोक्ष से विलक्षण प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश भेदवाले बंध का अनुभव करता है ।

    इससे यह निश्चय हुआ कि ज्ञान बंध का कारण नहीं, इसी प्रकार कर्म का उदय भी बंध का कारण नहीं है; किन्तु रागादि बंध के कारण हैं ।

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    + केवली के रागादि का अभाव होने से धर्मोपदेशादि भी बंध के कारण नहीं हैं -
    ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं । (44)
    अरहंताणं काले मायाचारो व्व इत्थीणं ॥45॥
    ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं ।
    अरहंताणं काले मायाचारो व्व इत्थीणं ॥४४॥
    यत्न बिन ज्यों नारियों में सहज मायाचार त्यों
    हो विहार उठना-बैठना अर दिव्यध्वनि अरिहंत के ॥४५॥
    अन्वयार्थ : [तेषाम् अर्हता] उन अरहन्त भगवन्तों के [काले] उस समय [स्थाननिषद्याविहारा:] खड़े रहना, बैठना, विहार [धर्मोपदेश: च] और धर्मोपदेश- [स्त्रीणां मायाचार: इव] स्त्रियों के मायाचार की भाँति, [नियतय:] स्वाभाविक ही-प्रयत्न बिना ही- होता है ॥४४॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ऐसा उपदेश देते हैं कि केवली-भगवान के क्रिया भी क्रिया-फल (बन्ध) उत्पन्न नहीं करती :-

    जैसे स्त्रियों के, प्रयत्न के बिना भी, उस प्रकार योग्यता का सद्धाव होने से स्वभावभूत ही माया के ढक्कन से ढँका हुआ व्यवहार प्रवर्तता है, उसी प्रकार केवली भगवान के, प्रयत्न के बिना ही (प्रयत्न न होने पर भी) उस प्रकार की योग्यता का सद्धाव होने से खड़े रहना, बैठना, विहार और धर्मदेशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते हैं और यह (प्रयत्न के बिना ही विहारादि का होना), बादल के दृष्टान्त से अविरुद्ध है । जैसे बादल के आकाररूप परिणमित पुद्गलों का गमन, स्थिरता, गर्जन और जलवृष्टि पुरुष-प्रयत्न के बिना भी देखी जाती है, उसीप्रकार केवली-भगवान के खड़े रहना इत्यादि अबुद्धिपूर्वक ही (इच्छा के बिना ही) देखा जाता है । इसलिये यह स्थानादिक (खड़े रहने-बैठने इत्यादि का व्यापार), मोहोदय-पूर्वक न होने से, क्रिया-विशेष (क्रिया के प्रकार) होने पर भी केवली भगवान के क्रिया-फलभूत बन्ध के साधन नहीं होते ॥४४॥

    जयसेनाचार्य :
    [ठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य] स्थान--ऊपर स्थिति--खड़ा होना, [निषद्या] आसन--बैठना, श्रीविहार और धर्मोपदेश [णियदयो] ये क्रियायें स्वाभाविक--बिना इच्छा के होती हैं । ये क्रियायें स्वाभाविक किनके होती है ? [तेसिं अरहंताणं] उन अरहन्त निर्दोषी परमात्मा के ये क्रियायें स्वाभाविक होती हैं । उनके ये कब होती हैं ? [काले] अरहन्त अवस्था में उनके ये होती हैं । उनके ये क्रियायें किसके समान होती हैं? [मायाचारो व्व ड़त्थीणं] स्त्रियों के मायाचार के समान उनके ये क्रियायें होती हैं ।

    वह इसप्रकार - जैसे स्त्रीवेद के उदय का सद्भाव होने से स्त्रियों के प्रयत्न के बिना भी मायाचार होता है, उसी प्रकार शुद्धात्म-तत्व के विरोधी मोह के उदय में होने वाले इच्छा पूर्वक प्रयत्न-रूप कार्य का अभाव होने पर भी भगवान के श्रीविहारादि होते हैं । अथवा बादलों के ठहरने, गमन करने, गरजने, पानी बरसाने आदि के समान भगवान के ये क्रियायें सहज होती हैं ।

    इससे यह सिद्ध हुआ कि मोहादि का अभाव होने पर क्रिया विशेष भी बंध का कारण नहीं है ।

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    + रागादि रहित कर्मोदय तथा विहारादि क्रिया बंध का कारण नहीं है -
    पुण्णफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया । (45)
    मोहादीहिं विरहिदा तम्हा सा खाइग त्ति मदा ॥46॥
    पुण्यफला अर्हन्तस्तेषां क्रिया पुनर्हि औदयिकी ।
    मोहादिभिः विरहिता तस्मात् सा क्षायिकीति मता ॥४५॥
    पुण्यफल अरिहंत जिन की क्रिया औदयिकी कही
    मोहादि विरहित इसलिए वह क्षायिकी मानी गई ॥४६॥
    अन्वयार्थ : [अर्हन्तः] अरहन्त भगवान [पुण्यफला:] पुण्य-फल वाले हैं [पुन: हि] और [तेषां क्रिया] उनकी क्रिया [औदयिकी] औदयिकी है; [मोहादिभि: विरहिता] मोहादि से रहित है [तस्मात्] इसलिये [सा] वह [क्षायिकी] क्षायिकी [इति मता] मानी गई है ॥४५॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    इसप्रकार होने से तीर्थंकरों के पुण्य का विपाक अकिंचित्कर ही है (कुछ करता नहीं है, स्वभाव का किंचित् घात नहीं करता) ऐसा अब निश्चित करते हैं :-

    अरहन्त भगवान जिनके वास्तव में पुण्यरूपी कल्पवृक्ष के समस्त फल भली-भाँति परिपक्व हुए हैं ऐसे ही हैं, और उनकी जो भी क्रिया है वह सब उसके (पुण्य के) उदय के प्रभाव से उत्पन्न होने के कारण औदयिकी ही है । किन्तु ऐसी (पुण्य के उदय से होनेवाली) होने पर भी वह सदा औदयिकी क्रिया महा-मोहराजा की समस्त सेना के सर्वथा क्षय से उत्पन्न होती है इसलिये मोह-राग-द्वेष रूपी *उपरंजकों का अभाव होने से चैतन्य के विकार का कारण नहीं होती इसलिये कार्यभूत बन्ध की अकारणभूतता से और कार्यभूत मोक्ष की कारणभूतता से क्षायिकी ही क्यों न माननी चाहिये? (अवश्य माननी चाहिये) और जब क्षायिकी ही माने तब कर्मविपाक (कर्मोदय) भी उनके (अरहन्तों के) स्वभाव-विघात का कारण नहीं होता (ऐसे निश्चित होता है) ॥४५॥

    *उपरंजकों = उपराग-मलिनता करनेवाले (विकारीभाव)

    जयसेनाचार्य :
    अब रागादि रहित कर्मोदय तथा विहारादि क्रिया बंध का कारण नहीं है - ऐसा जो पहले (४४- ४५ वीं गाथा में) कहा था; उसी अर्थ को अन्य प्रकार से दृढ़ करते हैं -

    [पुण्यफला अरहंता] महाकल्याणक पूजा को उत्पन्न करने वाला, तीनों लोकों में विजय को करने वाला जो तीर्थंकर नामक पुण्य नामकर्म, उसके फलस्वरूप अरहन्त तीर्थंकर होते हैं । [तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया] उनकी जो दिव्यध्वनि-रूप वचन व्यापारादि क्रिया, वह निःक्रिय शुद्धात्म-तत्व से विपरीत कर्मोदय से उत्पन्न होने के कारण वास्तव में सब ही औदयिकी है । [मोहादीहिं विरहिदा] क्योंकि निर्मोह शुद्धात्म-तत्व को आवृत्त करने वाले ममकार-अहंकार को उत्पन्न करने में समर्थ मोहादि से रहित है, [तम्हा सा खायग त्ति मदा] इसलिये यद्यपि वह औदयिकी है, तथापि निर्विकार शुद्धात्म-तत्व में विकार-उत्पादक नहीं होने से क्षायिकी मानी गई है ।

    यहाँ शिष्य कहता है- (तीर्थंकरों की औदयिकी क्रिया बंध-कारक नहीं होने से क्षायिकी मानने पर) 'औदयिक भाव बंध के कारण हैं' - यह आगम वचन व्यर्थ है ।

    आचार्य इसका निराकरण करते हैं - औदयिक भाव बंध के कारण हैं, किन्तु मोह के उदय से सहित औदयिक भाव ही; अन्य नहीं । द्रव्य मोह का उदय होने पर भी यदि शुद्धात्म-भावना के बल से भाव मोहरूप परिणमन नहीं करता तो बंध नहीं होता । यदि पुन: कर्मोदय मात्र से बंध होता तो संसारियों के सदैव कर्म के उदय की विद्यमानता होने से सदैव--सर्वदा बंध ही होगा, (कभी भी) मोक्ष नहीं हो सकेगा - यह अभिप्राय है ।

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    + केवली-भगवान की भाँति समस्त जीवों के स्वभाव विघात का अभाव होने का निषेध -
    जदि सो सुहो व असुहो ण हवदि आदा सयं सहावेण । (46)
    संसारो वि ण विज्जदि सव्वेसिं जीवकायाणं ॥47॥
    यदि स शुभो वा अशुभो न भवति आत्मा स्वयं स्वभावेन ।
    संसारोऽपि न विद्यते सर्वेषां जीवकायानाम् ॥४६॥
    यदी स्वयं स्वभाव से शुभ-अशुभरूप न परिणमें
    तो सर्व जीवनिकाय के संसार भी ना सिद्ध हो ॥४७॥
    अन्वयार्थ : [यदि] यदि (ऐसा माना जाये कि) [सः आत्मा] आत्मा [स्वयं] स्वयं [स्वभावेन] स्वभाव से (अपने भाव से) [शुभ: वा अशुभ:] शुभ या अशुभ [न भवति] नहीं होता (शुभाशुभ भाव में परिणमित ही नहीं होता) [सर्वेषां जीवकायाना] तो समस्त जीव-निकायों के [संसार: अपि] संसार भी [न विद्यते] विद्यमान नहीं है ऐसा सिद्ध होगा ॥४६॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, केवली-भगवान की भाँति समस्त जीवों के स्वभाव-विघात का अभाव होने का निषेध करते हैं :-

    यदि एकान्त से ऐसा माना जाये कि शुभाशुभ-भावरूप स्वभाव में (अपने भाव में) आत्मा स्वयं परिणमित नहीं होता, तो यह सिद्ध हुआ कि (वह) सदा ही सर्वथा निर्विघात शुद्धस्वभाव से ही अवस्थित है; और इसप्रकार समस्त जीवसमूह, समस्त बन्धकारणों से रहित सिद्ध होने से संसार अभावरूप स्वभाव के कारण नित्य-मुक्तता को प्राप्त हो जायेंगे अर्थात् नित्य-मुक्त सिद्ध होवेगे ! किन्तु ऐसा स्वीकार नहीं किया जा सकता; क्योंकि आत्मा परिणाम-धर्मवाला होने से, जैसे स्फटिकमणि जपाकुसुम और तमालपुष्प के रंग-रूप स्वभाव-युक्तता से प्रकाशित होता है उसीप्रकार, उसे (आत्मा के) शुभाशुभ-स्वभावयुक्तता प्रकाशित होती है । (जैसे स्फटिकमणि लाल और काले फूल के निमित्त से लाल और काले स्वभाव में परिणमित दिखाई देता है उसीप्रकार आत्मा कर्मोपाधि के निमित्त से शुभाशुभ स्वभावरूप परिणमित होता हुआ दिखाई देता है)

    जयसेनाचार्य :
    [जदि सो सुहो व असुहो ण हवदि आदा सयं सहावेण] - जैसे शुद्धनय से आत्मा शुभाशुभरूप परिणमित नहीं होता, उसी प्रकार यदि अशुद्धनय से भी स्वयं अपने उपादान कारण स्वभावरूप अशुद्ध निश्चय से भी नहीं परिणमता तो । अशुद्धनय से भी शुभाशुभरूप न परिणमने में क्या दोष होता? [संसारो वि ण विज्जदि] - नि:संसार शुद्धात्मस्वरूप से विपरीत संसार व्यवहारनय से भी नहीं होता । अशुद्धनय से भी उसरूप न परिणमने पर संसार किनके नहीं होता? [सव्वेसिं जीवकायाणं] - सभी जीव समूहों के संसार नहीं होता ।

    वह इसप्रकार - प्रथम तो आत्मा परिणामी है, और वह कर्मोपाधि का निमित्त होने पर स्फटिक मणि के समान उपाधि को ग्रहण करता है, इसकारण संसार का अभाव नहीं होता । और यदि ऐसा मत हो कि सांख्यों के लिये संसार का अभाव दोष नही, वरन् भूषण गुण ही है; तो ऐसा भी नहीं है । संसार का अभाव ही मोक्ष कहलाता है और वह प्रत्यक्ष विरोधरूप से संसारी जीवों के दिखाई नहीं देता - यह भाव है ।

    इसप्रकार रागादि बंध के कारण हैं, ज्ञान बंध का कारण नहीं है - इत्यादि व्याख्यान की मुख्यता से छठवें स्थल में पाँच गाथायें पूर्ण हुईं ।

    🏠
    + पुन: चालु विषय का अनुसरण करके अतीन्द्रिय ज्ञान को सर्वज्ञरूप से अभिनन्दन करते हैं -
    जं तक्कालियमिदरं जाणदि जुगवं समंतदो सव्वं । (47)
    अत्थं विचित्तविसमं तं णाणं खाइयं भणियं ॥48॥
    यत्तात्कालिकमितरं जानाति युगपत्समन्ततः सर्वम् ।
    अर्थं विचित्रविषमं तत् ज्ञानं क्षायिकं भणितम् ॥४७॥
    जो तात्कालिक अतात्कालिक विचित्र विषमपदार्थ
    चहुं ओर से इक साथ जाने वही क्षायिक ज्ञान है ॥४८॥
    अन्वयार्थ : [यत्] जो [युगपद्] एक ही साथ [समन्तत:] सर्वत: (सर्व आत्म-प्रदेशों से) [तात्कालिकं] तात्कालिक [इतरं] या अतात्कालिक, [विचित्रविषमं] विचित्र (अनेक पकार के) और विषम (मूर्त, अमूर्त आदि असमान जाति के) [सर्वं अर्थं] समस्त पदार्थों को [जानाति] जानता है [तत् ज्ञानं] उस ज्ञान को [क्षायिकं भणितम्] क्षायिक कहा है ॥४७॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, पुनः प्रकृत का (चालु विषय का) अनुसरण करके अतीन्द्रिय-ज्ञान को सर्वज्ञरूप से अभिनन्दन करते हैं (अर्थात् अतीन्द्रिय ज्ञान सबका ज्ञाता है ऐसी उसकी प्रशंसा करते हैं) -

    क्षायिक ज्ञान वास्तव में एक समय में ही सर्वत: (सर्व आत्मप्रदेशों से), वतर्मान में वर्तते तथा भूत-भविष्यत काल में वर्तते उन समस्त पदार्थों को जानता है जिनमें *पृथकरूप से वर्तते स्व-लक्षणरूप लक्ष्मी से आलोकित अनेक प्रकारों के कारण वैचित्र प्रगट हुआ है और जिनमें परस्पर विरोध से उत्पन्न होनेवाली असमानजातीयता के कारण वैषम्य प्रगट हुआ है ।

    (इसी बात को युक्ति-पूर्वक समझाते हैं) अथवा, अतिविस्तार से पूरा पड़े (कुछ लाभ नहीं)? जिसका अनिवार (रोका न जा सके ऐसा अमर्यादित) फैलाव है ऐसा प्रकाशमान होने से क्षायिक ज्ञान अवश्यमेव सर्वदा सर्वत्र सर्वथा सर्व को जानता है ॥४७॥

    *द्रव्यों के भिन्न-भिन्न वर्तनेवाले निज-निज लक्षण उन द्रव्यों की लक्ष्मी-सम्पत्ति-शोभा हैं

    जयसेनाचार्य :
    (अब सातवाँ स्थल प्रारम्भ होता है ।)

    अब सर्वप्रथम केवलज्ञान ही सर्वज्ञस्वरूप है, इसके बाद सभी की जानकारी होने पर एक की जानकारी, एक की जानकारी होने पर सर्व की जानकारी - इत्यादि कथनरूप से पाँच गाथा पर्यन्त व्याख्यान करते हैं । वह इसप्रकार -

    यहाँ ज्ञान प्रपंच का प्रकरण है, उस प्रकरण का अनुसरण कर फिर से केवलज्ञान को सर्वज्ञरूप से निरूपित करते हैं -

    [जं] जो ज्ञानरूप कर्ता [जाणदि] - जानता है । ज्ञान किसे जानता है? [अत्थं] - ज्ञान पदार्थ को जानता है । यहाँ पदार्थ यह विशेष पद है । किस विशेषता वाले पदार्थ को जानता है? [तक्कालियमिदरं] - तात्कालिक-वर्तमान, इतर-भूत-भावि काल सम्बन्धी पदार्थों को जानता है । ज्ञान इन पदार्थों को कैसे जानता है? [जुगवं] - एक साथ एक समय में और [समंतदो] - सब ओर से - सर्व आत्मप्रदेशों से अथवा सर्व प्रकार से ज्ञान उनको जानता है । ज्ञान कितनी संख्यावाले पदार्थों को जानता है? [सव्वमं] - सम्पूर्ण पदार्थों को वह जानता है । और किस विशेषतावाले पदार्थों को जानता है? [विचित्तं] - विविध भेदवाले पदार्थों को जानता है । वे पदार्थ और कैसे हैं? [विसमं] - मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन आदि विविध जाति विशेषों से असमान उन सभी पदार्थों को जानता है । [तं णाणं खाइयं भणियं] - जो इसप्रकार के गुणों से विशिष्ट ज्ञान है, वह ज्ञान क्षायिक कहा गया है । अभेदनय से वही सर्वज्ञ-स्वरूप है, वही उपादेयभूत अनन्त सुखादि अनन्त गुणों का आधारभूत ज्ञान सर्व प्रकार उपादेयरूप से भावना करने योग्य है - यह तात्पर्य है ।

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    + जो सबको नहीं जानता वह एक को भी नहीं जानता -
    जो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तिक्कालिगे तिहुवणत्थे । (48)
    णादुं तस्स ण सक्कं सपज्जयं दव्वमेगं वा ॥49॥
    यो न विजानाति युगपदर्थान् त्रैकालिकान् त्रिभुवनस्थान् ।
    ज्ञातुं तस्य न शक्यं सपर्ययं द्रव्यमेकं वा ॥४८॥
    जाने नहीं युगपद् त्रिकालिक अर्थ जो त्रैलोक्य के
    वह जान सकता है नहीं पर्यय सहित इक द्रव्य को ॥४९॥
    अन्वयार्थ : [य] जो [युगपद्] एक ही साथ [त्रैकालिकान् त्रिभुवनस्थान्] त्रैकालिक त्रिभुवनस्थ (तीनों काल के और तीनों लोक के) [अर्थान्] पदार्थों को [न विजानाति] नहीं जानता, [तस्य] उसे [सपर्ययं] पर्याय सहित [एकं द्रव्यं वा] एक द्रव्य भी [ज्ञातुं न शक्य] जानना शक्य नहीं है ॥४८॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ऐसा निश्चित करते हैं कि जो सबको नहीं जानता वह एक को भी नहीं जानता :-

    इस विश्व में एक आकाश-द्रव्य, एक धर्म-द्रव्य, एक अधर्म-द्रव्य, असंख्य काल-द्रव्य और अनन्त जीव-द्रव्य तथा उनसे भी अनन्तगुने पुद्गल द्रव्य हैं, और उन्हीं के प्रत्येक के अतीत, अनागत और वर्तमान ऐसे (तीन) प्रकारों से भेद वाली निरवधि वृत्ति-प्रवाह के भीतर पड़ने वाली (समा जाने वाली) अनन्त पर्यायें हैं । इस प्रकार यह समस्त (द्रव्यों और पर्यायों का) समुदाय ज्ञेय है । उसी में एक कोई भी जीव-द्रव्य ज्ञाता है । अब यहाँ, जैसे समस्त दाह्य को दहकती हुई अग्नि समस्त-दाह्यहेतुक (समस्त दाह्य जिसका निमित्त है ऐसा) समस्त दाह्याकार-पर्यायरूप परिणमित सकल एक दहन जिसका आकार (स्वरूप) है ऐसे अपने रूप में (अग्नि रूप में) परिणमित होती है, वैसे ही समस्त ज्ञेयों को जानता हुआ ज्ञाता (आत्मा) समस्त ज्ञेयहेतुक समस्त ज्ञेयाकार पर्यायरूप परिणमित सकल एक ज्ञान जिसका आकार (स्वरूप) है ऐसे निजरूपसे-जो चेतनता के कारण स्वानुभव-प्रत्यक्ष है उस-रूप-परिणमित होता है । इस प्रकार वास्तव में द्रव्य का स्वभाव है । किन्तु जो समस्त ज्ञेय को नहीं जानता वह (आत्मा), जैसे समस्त दाह्य को न दहती हुई अग्नि समस्त-दाह्यहेतुक समस्त-दाह्याकारपर्यायरूप परिणमित सकल एक दहन जिसका आकार है ऐसे अपने रूप में परिणमित नहीं होता उसीप्रकार समस्त-ज्ञेयहेतुक समस्त-ज्ञेयाकार पर्यायरूप परिणमित सकल एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे अपने रूपमें-स्वयं चेतना के कारण स्वानुभव-प्रत्यक्ष होने पर भी परिणमित नहीं होता, (अपने को परिपूर्ण-तया अनुभव नहीं करता-नहीं जानता) इस प्रकार यह फलित होता है कि जो सबको नहीं जानता वह अपने को (आत्मा को) नहीं जानता ॥४८॥

    निरवधि = अवधि-हद-मर्यादा अन्तरहित
    वृत्ति = वर्तन करना; उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य; अस्तित्व, परिणति
    दहन = जलाना, दहना
    सकल = सारा; परिपूर्ण

    जयसेनाचार्य :
    अब जो सबको नहीं जानता वह एक को भी नहीं जानता; ऐसा विचार करते हैं ।

    [जो ण विजाणदि] - कर्तारूप जो (इस वाक्य में कर्ता कारक में प्रयुक्त जो) नहीं जानता है । जो कैसे नहीं जानता है? [जुगवं] - जो एक साथ एक समय में नहीं जानता है । एक साथ किन्हें नहीं जानता है ? [अत्थे] - जो पदार्थों को एक साथ नहीं जानता है । कैसे पदार्थों को नहीं जानता? [तिक्कालिगे] - त्रिकालवर्ती पर्यायरूप परिणत पदार्थों के जो नहीं जानता है । और कैसे पदार्थों को नहीं जानता है? [तिहुवणत्थे] - तीनलोक में स्थित पदार्थों को नहीं जानता है । [णादुं तस्स ण सक्कं] - उस पुरुष का ज्ञान जानने में समर्थ नहीं है । किसे जानने में समर्थ नहीं है? [दव्वं] - ज्ञेयद्रव्य को जानने में समर्थ नहीं है । किस विशेषता वाले ज्ञेयद्रव्य को जानने में समर्थ नहीं है? [सपज्जयं] - अनन्त पर्याय सहित ज्ञेय द्रव्य को जानने में समर्थ नहीं है । कितनी संख्या सहित ज्ञेय द्रव्य को जानने में समर्थ नहीं है? [एगं वा] - एक भी ज्ञेयद्रव्य को जानने में समर्थ नहीं है ।

    वह इस प्रकार - आकाश द्रव्य एक, धर्म द्रव्य एक और इसीप्रकार अधर्म द्रव्य एक, लोकाकाश प्रमाण असंख्यात कालाणु, उससे अनंतगुणे जीव द्रव्य और उससे भी अनन्तगुणे पुद्गल द्रव्य हैं । उसीप्रकार सभी में से प्रत्येक की अनन्त पर्यायें; ये सब ज्ञेय हैं तथा उनमें से एक विवक्षित जीव द्रव्य ज्ञाता है । इसप्रकार वस्तु का स्वभाव है ।

    वहाँ जैसे अग्नि समस्त जलाने योग्य पदार्थों को जलाती हुई सम्पूर्ण दाह्य के निमित्त से होनेवाले सम्पूर्ण दाह्याकार पर्यायरूप से परिणत सम्पूर्ण एक दहन-स्वरुप उष्णरूप से परिणत घास-पत्ते आदि के आकाररूप स्वयं को परिणत करती है, उसीप्रकार यह आत्मा सम्पूर्ण ज्ञेयों को जानता हुआ सम्पूर्ण ज्ञेयों के निमित्त से होने वाले सम्पूर्ण ज्ञेयाकार पर्यायरूप से परिणत सकल एक अखण्ड ज्ञानरूप अपने आत्मा को परिणमित करता है, जानता है, निश्चित करता है ।

    और जैसे वही अग्नि पूर्वोक्त लक्षण दाह्य को नहीं जलाती हुई उस आकाररूप परिणत नही होती, उसीप्रकार आत्मा भी पूर्वोक्त लक्षणवाले सर्व ज्ञेयों को नहीं जानता हुआ पूर्वोक्त लक्षणवाले सकल एक अखण्ड ज्ञानाकाररूप अपने आत्मा को परिणमित नहीं करता, जानता नहीं, निश्चित नहीं करता है ।

    दूसरा भी उदाहरण देते हैं- जैसे कोई अन्धा सूर्य से प्रकाशित पदार्थों को नहीं देखता हुआ सूर्य को नहीं देखने के समान; दीपक से प्रकाशित पदार्थों को नहीं देखता हुआ दीपक को नहीं देखने के समान; दर्पण में स्थित बिम्ब को नहीं देखते हुये दर्पण को नहीं देखने के समान; अपनी दृष्टि से प्रकाशित पदार्थों को नहीं देखता हुआ हाथ-पैर आदि अंगों रूप से परिणत अपने शरीराकार स्वयं को अपनी दृष्टि से नहीं देखता; उसी-प्रकार यह विवक्षित आत्मा भी केवलज्ञान से प्रकाशित पदार्थों को नहीं जानता हुआ सम्पूर्ण अखण्ड एक केवलज्ञानरूप आत्मा को भी नहीं जानता है ।

    इससे यह निश्चित हुआ कि जो सबको नहीं जानता, वह आत्मा को भी नहीं जानता ।

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    + एक को न जानने वाला सबको नहीं जानता -
    दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दव्वजादाणि । (49)
    ण विजाणदि जदि जुगवं किध सो सव्वाणि जाणादि ॥50॥
    द्रव्यमनन्तपर्यायमेकमनन्तानि द्रव्यजातानि ।
    न विजानाति यदि युगपत् कथं स सर्वाणि जानाति ॥४९॥
    इक द्रव्य को पर्यय सहित यदि नहीं जाने जीव तो
    फिर जान कैसे सकेगा इक साथ द्रव्यसमूह को ॥५०॥
    अन्वयार्थ : [यदि] यदि [अनन्तपर्यायं] अनन्त पर्याय-वाले [एकं द्रव्यं] एक द्रव्य को (आत्मद्रव्य को) [अनन्तानि द्रव्यजातानि] तथा अनन्त द्रव्य-समूह को [युगपद्] एक ही साथ [न विजानाति] नहीं जानता [सः] तो वह पुरुष [सर्वाणि] सब को (अनन्त द्रव्य-समूह को) [कथं जानाति] कैसे जान सकेगा? (अर्थात् जो आत्म-द्रव्य को नहीं जानता हो वह समस्त द्रव्य-समूह को नहीं जान सकता) ॥४९॥
    प्रकारांतर से अन्वयार्थ - [यदि] यदि [अनन्तपर्यायं] अनन्त पर्यायवाले [एकं द्रव्यं] एक द्रव्य को (आत्म-द्रव्य को) [न विजानाति] नहीं जानता [सः] तो वह पुरुष [युगपद्] एक ही साथ [सर्वाणि अनन्तानि द्रव्यजातानि] सर्व अनन्त द्रव्य-समूह को [कथं जानाति] कैसे जान सकेगा? ॥४९॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ऐसा निश्चित करते हैं कि जो सबको नहीं जानता वह एक को भी नहीं जानता :-

    प्रथम तो आत्मा वास्तव में स्वयं ज्ञानमय होने से ज्ञातृत्व के कारण ज्ञान ही है; और ज्ञान प्रत्येक आत्मा में वर्तता (रहता) हुआ प्रतिभासमय महा-सामान्य है । वह प्रतिभासमय महा-सामान्य प्रतिभास-मय अनन्त विशेषों में व्याप्त होनेवाला है; और उन विशेषों के (भेदों के) निमित्त सर्व द्रव्य-पर्याय हैं । अब जो पुरुष सर्व द्रव्य-पर्याय जिनके निमित्त हैं ऐसे अनन्त विशेषों में व्याप्त होनेवाले प्रतिभास-मय महा-सामान्यरूप आत्मा का स्वानुभव प्रत्यक्ष नहीं करता, वह (पुरुष) प्रतिभासमय महासामान्यके द्वारा व्याप्य (व्याप्य होने योग्य) जो प्रतिभास-मय अनन्त विशेष है उनकी निमित्तभूत सर्व द्रव्य पर्यायों को कैसे प्रत्यक्ष कर सकेगा ? (नहीं कर सकेगा) इससे ऐसा फलित हुआ कि जो आत्मा को नहीं जानता वह सबको नहीं जानता ।

    अब, इससे ऐसा निश्चित होता है कि सर्व के ज्ञान से आत्मा का ज्ञान और आत्मा के ज्ञान से सर्व का ज्ञान (होता है); और ऐसा होने से, आत्मा ज्ञानमयता के कारण स्व-संचेतक होने से, ज्ञाता और ज्ञेय का वस्तुरूप से अन्यत्व होने पर भी, प्रतिभास और प्रतिभास्यमानकर, अपनी अवस्था में अन्योन्य मिलन होने के कारण (ज्ञान और ज्ञेय, आत्मा की-ज्ञान की अवस्था में परस्पर मिश्रित-एकमेकरूप होने से) उन्हें भिन्न करना अत्यन्त अशक्य होने से मानो सब कुछ आत्मा में निखात (प्रविष्ट) हो गया हो इसप्रकार प्रतिभासित (ज्ञात) होता है । (आत्मा ज्ञानमय होने से वह अपने को अनुभव करता है-जानता है, और अपने को जानने पर समस्त ज्ञेय ऐसे ज्ञात होते हैं-मानों वे ज्ञान में स्थित ही हों, क्योंकि ज्ञान की अवस्था में से ज्ञेयाकारों को भिन्न करना अशक्य है ।) यदि ऐसा न हो तो (यदि आत्मा सबको न जानता हो तो) ज्ञान के परिपूर्ण आत्म-संचेतन का अभाव होने से परिपूर्ण एक आत्मा का भी ज्ञान सिद्ध न हो ।

    ज्ञान सामान्य व्यापक है, और ज्ञान विशेष-भेद व्याप्य हैं । उन ज्ञान-विशेषों के निमित्त ज्ञेयभूत सर्व द्रव्य और पर्यायें हैं
    निखात = खोदकर भीतर गहरा उतर गया हुवा; भीतर प्रविष्ट हुआ

    जयसेनाचार्य :
    अब एक को नहीं जानता हुआ सबको नहीं जानता है, ऐसा निश्चित करते हैं -

    [दव्वं] - द्रव्य [अणंतपज्जयं] - अनन्त पर्याय [एगं] - एक [अणंताणि दव्वजादीणि] - अनन्त द्रव्य समूह को [जो ण विजाणदि] - जो नहीं जानता है, [किध सो सव्वाणि जाणादि] - वह सबको कैसे जान सकता है? [जुगवं] - युगपत् - एक समय में, किसी भी तरह नहीं जान सकता है ।

    वह इसप्रकार- ज्ञान आत्मा का लक्षण है और वह अखण्ड प्रतिभासमय सभी जीवों में सामान्यरूप से पाया जाने वाला महासामान्यरूप है । और वह महासामान्य ज्ञानमय अनन्त विशेषों में व्याप्त है । और वे ज्ञान विशेष विषयभूत, ज्ञेयभूत अनन्त द्रव्य-पर्यायों के ज्ञायक-ग्राहक-जाननेवाले हैं । अखण्ड एक प्रतिभासमय जो महासामान्य उस स्वभाववाले आत्मा को जो वह प्रत्यक्ष नहीं जानता, तो वह पुरुष प्रतिभासमय महासामान्य से व्याप्त जो अनन्त ज्ञानविशेष, उनके विषयभूत जो अनन्त द्रव्य-पर्यायें, उन्हें कैसे जान सकता है? किसी भी प्रकार नहीं जान सकता ।

    इससे यह निश्चित हुआ कि जो आत्मा को नहीं जानता वह सर्व को नहीं जानता । वैसा ही कहा है -

    ''एक भाव सर्वभाव-स्वभाववाला है, सभी भाव एकभाव-स्वभाववाले हैं; अत: जिसके द्वारा एक भाव वास्तविकरूप से जान लिया गया है, उसके द्वारा सभी भाव वास्तविकरूप से जान लिये गये हैं ।''

    यहाँ शिष्य कहता है - आत्मा की विशिष्ट जानकारी होने पर सभी की जानकारी होती है - ऐसा यहाँ कहा गया है, वहाँ पहले (४९वीं गाथा में) सर्व की जानकारी होने पर आत्मा की जानकारी होती है - ऐसा कहा था । यदि ऐसा है तो छद्मस्थजीवों को तो सभी की जानकारी नहीं है, उन्हें आत्मा की जानकारी कैसे होगी? आत्मा की जानकारी के अभाव में आत्मभावना कैसे होगी? और उसके अभाव में केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती है ।

    आचार्य इसका निराकरण करते हैं – परोक्ष प्रमाणभूत श्रुतज्ञान द्वारा सभी पदार्थ जाने जाते है । श्रुतज्ञान द्वारा सभी पदार्थ कैसे जाने जाते हैं ? यदि यह शंका हो तो कहते हैं – छद्मस्थों के भी व्याप्तिज्ञान (अनुमान ज्ञान) रूप से लोकालोकादि की जानकारी पायी जाती है। तथा केवलज्ञान सम्बन्धी विषय को ग्रहण करने वाला वह व्याप्तिज्ञान परोक्षरूप से कथंचित आत्मा ही कहा गया है । अथवा स्वसंवेदनज्ञान से आत्मा जाना जाता है, और उससे भावना की जाती है, और उस रागादि विकल्प रहित स्वसंवेदन ज्ञानरूप भावना से केवलज्ञान उत्पन्न होता है – इसप्रकार दोष नहीं है ।

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    + क्रमश: प्रवर्तमान ज्ञान की सर्वगतता सिद्ध नहीं होती -
    उप्पज्जदि जदि णाणं कमसो अट्ठे पडुच्च णाणिस्स । (50)
    तं णेव हवदि णिच्चं ण खाइगं णेव सव्वगदं ॥51॥
    उत्पद्यते यदि ज्ञानं क्रमशोऽर्थान् प्रतीत्य ज्ञानिनः ।
    तन्नैव भवति नित्यं न क्षायिकं नैव सर्वगतम् ॥५०॥
    पदार्थ का अवलम्ब ले जो ज्ञान क्रमश: जानता
    वह सर्वगत अर नित्य क्षायिक कभी हो सकता नहीं ॥५१॥
    अन्वयार्थ : [यदि] यदि [ज्ञानिनः ज्ञानं] आत्मा का ज्ञान [क्रमश:] क्रमश: [अर्थान् प्रतीत्य] पदार्थों का अवलम्बन लेकर [उत्पद्यते] उत्पन्न होता हो [तत्] तो वह (ज्ञान) [न एव नित्यं भवति] नित्य नहीं है, [न क्षायिकं] क्षायिक नहीं है, [न एव सर्वगतम्] और सर्वगत नहीं है ॥५०॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ऐसा निश्चित करते हैं कि क्रमशः प्रवर्तमान ज्ञान की सर्वगतता सिद्ध नहीं होती :-

    जो ज्ञान क्रमश: एक एक पदार्थ का अवलम्बन लेकर प्रवृत्ति करता है वह (ज्ञान) एक पदार्थ के अवलम्बन से उत्पन्न होकर दूसरे पदार्थ के अवलम्बन से नष्ट हो जाने से नित्य नहीं होता तथा कर्मोदय के कारण एक *व्यक्ति को प्राप्त करके फिर अन्य व्यक्ति को प्राप्त करता है इसलिये क्षायिक भी न होता हुआ, वह अनन्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को प्राप्त होने में (जानने में) असमर्थ होने के कारण सर्वगत नहीं है ॥५०॥

    *व्यक्ति = प्रगटता विशेष, भेद

    जयसेनाचार्य :
    अब क्रमप्रवृत्त (क्रम से पदार्थों को जाननेवाले) ज्ञान से सर्वज्ञ नहीं होते हैं, ऐसी व्यवस्था करते हैं - ऐसा निश्चित करते हैं -

    [उप्पज्जदि जदि णाणं] - यदि ज्ञान उत्पन्न होता है । [कमसो] - क्रम से । ज्ञान क्रम से क्या करके उत्पन्न होता है? [अट्ठे पडुच्च] - ज्ञेय पदार्थों का आश्रयकर यदि ज्ञान उत्पन्न होता है? [णाणिस्स] - ज्ञानी आत्मा का ज्ञान यदि क्रमश: ज्ञेयों का आश्रयकर उत्पन्न होता है, तो [तं णेव हवदि णिच्चं] - उत्पत्ति के निमित्तभूत पदार्थों का विनाश होने पर उसका भी विनाश हो जाता है; अत: वह ज्ञान नित्य नहीं है । [ण खाइगं] - ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की पराधीनता होने से क्षायिक भी नहीं है । [णेव सव्वगदं] - क्योंकि पूर्वोक्त प्रकार से पराधीन होने के कारण नित्य नहीं है, क्षयोपशम के अधीन होने के कारण क्षायिक नहीं है; इसलिए एक साथ सम्पूर्ण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों की जानकारीरूप सामर्थ्य का अभाव होने से सर्वगत नहीं है ।

    इससे यह निश्चित हुआ कि जो ज्ञान क्रम से पदार्थों का आश्रय लेकर उत्पन्न होता है, उस ज्ञान से सर्वज्ञ नहीं होते हैं ।

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    + युगपत् प्रवृत्ति के द्वारा ही ज्ञान का सर्वगतत्व -
    तिक्कालणिच्चविसमं सयलं सव्वत्थसंभवं चित्तं । (51)
    जुगवं जाणदि जोण्हं अहो हि णाणस्स माहप्पं ॥52॥
    त्रैकाल्यनित्यविषमं सकलं सर्वत्रसंभवं चित्रम् ।
    युगपज्जानाति जैनमहो हि ज्ञानस्य माहात्म्यम् ॥५१॥
    सर्वज्ञ जिन के ज्ञान का माहात्म्य तीनों काल के
    जाने सदा सब अर्थ युगपद् विषम विविध प्रकार के ॥५२॥
    अन्वयार्थ : [त्रैकाल्यनित्यविषमं] तीनों काल में सदा विषम (असमान जाति के), [सर्वत्र संभवं] सर्व क्षेत्र के [चित्रं] विचित्र (अनेक प्रकार के) [सकलं] समस्त पदार्थों को [जैनं] जिनदेव का ज्ञान [युगपत् जानाति] एक साथ जानता है [अहो हि] अहो ! [ज्ञानस्य माहात्म्यम्] ज्ञान का माहात्म्य ! ॥५१॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब ऐसा निश्चित होता है कि युगपत् प्रवृत्ति के द्वारा ही ज्ञान का सर्वगतत्व सिद्ध होता है (अर्थात् अक्रम से प्रवर्तमान ज्ञान ही सर्वगत हो सकता है ) :-

    वास्तव में क्षायिक ज्ञान का, सर्वोत्कृष्टता का स्थानभूत परम माहात्म्य है; और जो ज्ञान एक साथ ही समस्त पदार्थों का अवलम्बन लेकर प्रवृत्ति करता है वह ज्ञान- अपने में समस्त वस्तुओं के ज्ञेयाकार *टकोत्कीर्ण-न्याय से स्थित होने से जिसने नित्यत्व प्राप्त किया है और समस्त व्यक्ति को प्राप्त कर लेने से जिसने स्वभाव-प्रकाशक क्षायिक-भाव प्रगट किया है ऐसा-त्रिकाल में सदा विषम रहनेवाले (असमान जातिरूप से परिणमित होनेवाले) और अनन्त प्रकारों के कारण विचित्रता को प्राप्त सम्पूर्ण सर्व पदार्थों के समूह को जानता हुआ, अक्रम से अनन्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को प्राप्त होने से जिसने अद्भुत माहात्म्य प्रगट किया है ऐसा सर्वगत ही है ॥५१॥

    *टकोत्कीर्ण न्याय = पत्थर में टांकी से उत्कीर्ण आकृति की भाँति

    जयसेनाचार्य :
    अब एक साथ जानकारीरूप ज्ञान से ही सर्वज्ञ होते हैं ऐसा आवेदन करते हैं -

    [जाणदि] - जानता है । इस क्रिया का कर्ता कौन है? कौन जानता है? [जोण्हं] - जिनेन्द्र भगवान का ज्ञान जानता है । उनका ज्ञान कैसे जानता है? [जुगवं] - एक साथ-एक समय में जानता है । [अहो हि णाणस्स माहप्प्म] - अहो! स्पष्टरूप से यह जैन-ज्ञान केवलज्ञान की महिमा देखो । वह ज्ञान किसे जानता है? पदार्थ को जानता है । यहाँ अर्थ (पदार्थ) शब्द अध्याहार है अर्थात् पूर्व गाथा से लिया गया है । वे पदार्थ कैसे हैं? [तिक्कालणिच्चविसयं] - तीनकाल सम्बन्धी विषय-सर्वकाल स्थित हैं । वे पदार्थ और किस विशेषता वाले हैं? [सयलं] - सम्पूर्ण हैं । वे पदार्थ और कैसे हैं? [सव्वत्थसम्भवं] - लोक में सर्वत्र स्थित हैं । वे और कैसे हैं? [चित्तं] - अनेक जातियों के भेद से विचित्र हैं ।

    वह इसप्रकार- एक साथ सम्पूर्ण पदार्थों को जाननेवाले ज्ञान से सर्वज्ञ होते हैं- ऐसा जानकर क्या करना चाहिये? अज्ञानी जीवों के चित्त को चमत्कृत करने के कारण और परमात्मा सम्बन्धी भावना को नष्ट करने वाले जो ज्योतिष्क, मन्त्रवाद, रससिद्धि आदि खण्ड-विज्ञान-एकदेशज्ञान-क्षयोपशमज्ञान हैं; वहाँ आग्रह छोड़कर तीनलोक-तीनकालवर्ती सम्पूर्ण वस्तुओं को एक साथ प्रकाशित करनेवाले अविनश्वर, अखण्ड, एक प्रतिभासमय सर्वज्ञ शब्द से वाच्य जो केवलज्ञान उसकी उत्पत्ति का कारणभूत जो सम्पूर्ण रागादि विकल्प जाल रहित सहज शुद्धात्मा से अभेदरूप ज्ञान उसकी ही भावना करना चाहिये - यह तात्पर्य है ।

    इसप्रकार केवलज्ञान ही सर्वज्ञ है-इस कथनरूप से एक गाथा, इसके बाद सर्व पदार्थों की जानकारी से परमात्मज्ञान होता है-इस कथन परक पहली गाथा और परमात्मज्ञान से सभी पदार्थों की जानकारी होती है - इसप्रकार दूसरी गाथा है । इसके बाद क्रमप्रवृत्त ज्ञान से सर्वज्ञ नहीं होते है- इसप्रकार पहली गाथा तथा एक साथ सबको जाननेवाले ज्ञान से सर्वज्ञ होते हैं-इसप्रकार दूसरी गाथा-इसप्रकार सामूहिकरूप से सातवें स्थल में पाँच गाथायें पूर्ण हुई ।

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    + केवलज्ञानी के ज्ञप्तिक्रिया का सद्भाव होने पर भी उसके क्रिया के फलरूप बन्ध का निषेध -
    ण वि परिणमदि ण गेण्हदि उप्पज्जदि णेव तेसु अट्टेसु । (52)
    जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो ॥53॥
    नापि परिणमति न गृह्णाति उत्पद्यते नैव तेष्वर्थेषु ।
    जानन्नपि तानात्मा अबन्धकस्तेन प्रज्ञप्तः ॥५२॥
    सर्वार्थ जाने जीव पर उनरूप न परिणमित हो
    बस इसलिए है अबंधक ना ग्रहे ना उत्पन्न हो ॥५३॥
    अन्वयार्थ : [आत्मा] (केवलज्ञानी) आत्मा [तान् जानन् अपि] पदार्थों को जानता हुआ भी [न अपि परिणमति] उस रूप परिणमित नहीं होता, [न गृह्णति] उन्हें ग्रहण नहीं करता [तेषु अर्थेषु न एव उत्पद्यते] और उन पदार्थों के रूप में उत्पन्न नहीं होता [तेन] इसलिये [अबन्धक: प्रज्ञप्त:] उसे अबन्धक कहा है ॥५२॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ज्ञानी के (केवलज्ञानी आत्मा के) ज्ञप्ति-क्रिया का सद्भाव होने पर भी उसके क्रिया के फलरूप बन्ध का निषेध करते हुए उपसंहार करते हैं (अर्थात् केवलज्ञानी आत्मा के जानने की क्रिया होने पर भी बन्ध नहीं होता, ऐसा कहकर ज्ञान-अधिकार पूर्ण करते हैं)-

    यहाँ (ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापनकी ४३वी गाथा) इस गाथा सूत्र में, 'उदयगत पुद्गल-कर्मांशों के अस्तित्व में चेतित होने पर-जानने पर-अनुभव करने पर मोह-राग-द्वेष में परिणत होने से ज्ञेयार्थपरिणमन-स्वरूप क्रिया के साथ युक्त होता हुआ आत्मा क्रिया-फलभूत बन्ध का अनुभव करता है, किन्तु ज्ञान से नहीं' इसप्रकार प्रथम ही अर्थ-परिणमन-क्रिया के फलरूप से बन्ध का समर्थन किया गया है (अर्थात् बन्ध तो पदार्थरूप में परिणमनरूप क्रिया का फल है ऐसा निश्चित किया गया है) तथा इस गाथा सूत्र (ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापनकी ३२ वीं गाथा) में शुद्धात्मा के अर्थ परिणमनादि क्रियाओं का अभाव निरूपित किया गया है इसलिये जो (आत्मा) पदार्थरूप में परिणमित नहीं होता, उसे ग्रहण नहीं करता और उसरूप उत्पन्न नहीं होता उस आत्मा के ज्ञप्तिक्रिया का सद्धाव होने पर भी वास्तव में क्रिया-फलभूत बन्ध सिद्ध नहीं होता ।

    (कलश)
    जिसने किये हैं निर्मूल घातिकर्म सब ।
    अनंत सुख वीर्य दर्श ज्ञान धारी आतमा ॥
    भूत भावी वर्तमान पर्याय युक्त सब ।
    द्रव्य जाने एक ही समय में शुद्धातमा ॥
    मोह का अभाव पररूप परिणमें नहीं ।
    सभी ज्ञेय पीके बैठा ज्ञानमूर्ति आत्मा ॥
    पृथक्-पृथक् सब जानते हुए भी ये ।
    सदा मुक्त रहें अरिहंत परमातमा ॥४॥

    जिसने कर्मों को छेद डाला है ऐसा यह आत्मा भूत, भविष्यत और वर्तमान समस्त विश्‍व को (तीनों काल की पर्यायों से युक्त समस्त पदार्थों को) एक ही साथ जानता हुआ भी मोह के अभाव के कारण पररूप परिणमित नहीं होता, इसलिये अब, जिसके समस्त ज्ञेयाकारों को अत्यन्त विकसित ज्ञप्‍ति के विस्तार से स्वयं पी गया है ऐसे तीनों लोक के पदार्थों को पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ वह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है ।

    इस प्रकार ज्ञान-अधिकार समाप्त हुआ ।

    जयसेनाचार्य :
    [ण वि परिणमदि] - जैसे अपने आत्म-प्रदेशों के साथ समरसी भाव से परिणत होते हैं, वैसे ज्ञेयरूप से परिणत नहीं हैं । [ण गेण्हदि] - और जैसे अनन्त-ज्ञानादि चतुष्टय-स्वरूप स्वयं को स्वयं से ग्रहण करते हैं, वैसे ज्ञेयरूप को ग्रहण नहीं करते हैं । [उपज्जदि णेव अट्ठेसु] - और जैसे निर्विकार परमानन्द एक सुखरूप अपनी सिद्ध-पर्याय से उत्पन्न होते हैं, वैसे ही ज्ञेय पदार्थों में उत्पन्न नहीं होते । क्या करते हुए भी ये सब नहीं करते हैं? [जाणण्णवि ते] - स्वयं से पृथक्-रूप उन ज्ञेय पदार्थों को जानते हुये भी उन रूप परिणमन आदि क्रियाओं को नहीं करते हैं । उनको जानते हुये भी उनरूप परिणमन आदि कौन नहीं करते हैं - इस क्रिया का कर्ता कौन है? [आदा] - मुक्तात्मा-केवली भगवान, उन्हें जानते हुये भी उनरूप परिणमन आदि नहीं करते हैं । [अबंधगो तेण पण्णतो] - इस कारण उन्हें कर्मों का अबंधक कहा है ।

    वह इस प्रकार - रागादि रहित ज्ञान बन्ध का कारण नहीं हैं - ऐसा जानकर शुद्धात्मा की परिपूर्ण प्राप्ति लक्षण मोक्ष से विपरीत नारकादि दुःखों के कारणभूत कर्मबन्ध के कारण इन्द्रिय-मन से उत्पन्न एकदेश विज्ञान को छोड़कर, कर्मबंध के अकारणभूत परिपूर्ण निर्मल केवलज्ञान के बीजभूत निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञान में ही भावना करना चाहिये - यह अभिप्राय है ।

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    + ज्ञान-प्रपंच व्याख्यान के बाद आधारभूत सर्वज्ञ को नमस्कार -
    तस्स णमाइं लोगो देवासुरमणुअरायसंबंधो ।
    भत्तो करेदि णिच्चं उवजुत्तो तं तहा वि अहं ॥54॥
    नमन करते जिन्हें नरपति सुर-असुरपति भक्तगण
    मैं भी उन्हीं सर्वज्ञजिन के चरण में करता नमन ॥५४॥
    अन्वयार्थ : देवराज, असुरराज और मनुजराज सम्बन्धी भक्तलोक उपयोग-पूर्वक हमेशा उन सर्वज्ञ भजवान को नमस्कार करते हैं; मैं भी उसीप्रकार उनको नमस्कार करता हूँ ॥५४॥

    जयसेनाचार्य :
    [करेदि] - करता है । वह कौन करता है? [लोगो] - लोक करता है । कैसा लोक करता है? [देवासुरमणुअरायसंबंधो] - देवेन्द, असुरेन्द्र और नरेन्द्र सम्बन्धी लोक करता है । और वह लोक कैसा है? [भत्तो] - भक्त है । [णिच्चं] - सदैव । और वह लोक किस विशेषता वाला है? [उवजुत्तो] - उपयोगयुक्त अथवा प्रयत्नशील है । ऐसा लोक क्या करता है? [णमाइं] - नमस्कार करता है । किन्हें नमस्कार करता है? उन पूर्वोक्त सर्वज्ञ को नमस्कार करता है । [तं तहा वि अहं] - मैं ग्रन्थकर्ता भी उन सर्वज्ञ को उसी प्रकार से नमस्कार करता हूँ ।

    यहाँ अर्थ यह है कि जैसे देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि अनन्त, अक्षय सुखादि गुणों के स्थानभूत सर्वज्ञ स्वरूप को नमस्कार करते हैं; उसी प्रकार उस पद का अभिलाषी मैं भी परम भक्ति से उनको प्रणाम करता हूँ ।

    इस प्रकार आठ स्थलों द्वारा ३२ गाथायें और उसके बाद एक नमस्कार-गाथा - इस प्रकार सामूहिक रूप से ३३ गाथाओं द्वारा ज्ञानप्रपंच नामक तीसरा अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।

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    + ज्ञान और सुख की हेयोपादेयता -
    अत्थि अमुत्तं मुत्तं अदिंदियं इंदियं च अत्थेसु । (53)
    णाणं च तहा सोक्खं जं तेसु परं च तं णेयं ॥55॥
    अस्त्यमूर्तं मूर्तमतीन्द्रियमैन्द्रियं चार्थेषु ।
    ज्ञानं च तथा सौख्यं यत्तेषु परं च तत् ज्ञेयम् ॥५३॥
    मूर्त और अमूर्त इन्द्रिय अर अतीन्द्रिय ज्ञान-सुख
    इनमें अमूर्त अतीन्द्रियी ही ज्ञान-सुख उपादेय हैं ॥५५॥
    अन्वयार्थ : [अर्थेषु ज्ञानं] पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान [अमूर्तं मूर्तं] अमूर्त या मूर्त, [अतीन्द्रिय ऐन्द्रिय च अस्ति] अतीन्द्रिय या ऐन्द्रिय होता है; [च तथा सौख्यं] और इसी-प्रकार (अमूर्त या मूर्त, अतीन्द्रिय या ऐन्द्रिय) सुख होता है । [तेषु च यत् परं] उसमें जो प्रधान-उत्कृष्ट है [तत् ज्ञेयं] वह उपादेय-रूप जानना ॥५३॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ज्ञान से अभिन्न सुख का स्वरूप विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए ज्ञान और सुख की हेयोपादेयता का (अर्थात् कौनसा ज्ञान तथा सुख हेय है और कौनसा उपादेय है वह) विचार करते हैं :-

    यहाँ, (ज्ञान तथा सुख दो प्रकार का है-) एक ज्ञान तथा सुख मूर्त और इन्द्रियज है; और दूसरा (ज्ञान तथा सुख) अमूर्त और अतीन्द्रिय है । उसमें जो अमूर्त और अतीन्द्रिय है वह प्रधान होने से उपादेय-रूप जानना । वहाँ, पहला ज्ञान तथा सुख मूर्तरूप ऐसी क्षायोपशमिक उपयोग-शक्तियों से उस-उस प्रकार की इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न होता हुआ पराधीन होने से इसलिये गौण है ऐसा समझकर वह हेय है अर्थात् छोड़ने योग्य है; और दूसरा ज्ञान तथा सुख अमूर्तरूप ऐसी चैतन्यानुविधायी ऐकाकी आत्मपरिणाम शक्तियों से तथाविध अतीन्द्रिय स्वाभाविक चिदाकार-परिणामों के द्वारा उत्पन्न होता हुआ अत्यन्त आत्माधीन होने से इसलिये मुख्य है, ऐसा समझकर वह (ज्ञान और सुख) उपादेय अर्थात् ग्रहण करने योग्य है ॥५३॥

    इन्द्रियज = इन्द्रियों द्वारा उत्पन्न होनेवाला; ऐन्द्रिय
    कादाचित्क = कदाचित्-कभी कभी होनेवाला; अनित्य
    मूर्तिक इन्द्रियज ज्ञान क्रम से प्रवृत्त होता है; युगपत्‌ नहीं होता; तथा मूर्तिक इन्द्रियज सुख भी क्रमश: होता है, एक ही साथ सर्व इन्द्रियों के द्वारा या सर्व प्रकार से नहीं होता
    सप्रतिपक्ष = प्रतिपक्ष-विरोधी सहित (मूर्त-इन्द्रियज ज्ञान अपने प्रतिपक्ष अज्ञानसहित ही होता है, और मूर्त इन्द्रियज सुख उसके प्रतिपक्षभूत दु:ख सहित ही होता है)
    सहानिवृद्धि = हानिवृद्धि सहित
    चैतन्यानुविधायी = चैतन्य के अनुसार वर्तनेवाली; चैतन्य के अनुकूलरूप से, विरुद्धरूप से नहीं, वर्तने वाली

    जयसेनाचार्य :
    अब 'सुखप्रपंच' नामक चतुर्थान्तराधिकार में अठारह गाथायें हैं । यहाँ पाँच स्थल हैं - उनमें से इसप्रकार सुखप्रपंचाधिकार में समुदायपातनिका हुई ।

    (अब यहाँ अधिकार - गाथा रूप से पहला स्थल प्रारम्भ होता है ।)

    अब उपादेयभूत अतीन्द्रियसुख के स्वरूप का विस्तार करते हुये अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियसुख उपादेय हैं, तथा इन्द्रिय जन्य ज्ञान सुख हेय हैं - इसप्रकार प्रतिपादन रूप से सबसे पहले प्रथम अधिकार स्थल गाथा द्वारा चार स्थलों को सूत्रित करते हैं (व्यवस्थित करते हैं) -

    [अत्थि] - है । क्या है- इस क्रिया का कर्ता कौन है? [णाणं] - ज्ञान है - यहाँ भिन्न विशिष्ट क्रम परस्पर सम्बन्ध-रहितता का सूचक है । वह ज्ञान किस विशेषतावाला है? [अमुत्तं मुत्तं] - अमूर्त और मूर्त है । वह ज्ञान और किस विशेषतावाला है? [अदिंदियं इदियं च] - जो ज्ञान अमूर्त है, वह अतीन्द्रिय है और जो मूर्त है, वह इन्द्रियजन्य है । इन विशेषताओं वाला ज्ञान है । इन विशेषताओ वाला ज्ञान किन विषयों में है? [अत्थेसु] - ऐसा ज्ञान, ज्ञेय पदार्थों के सम्बन्ध में है । [तहा सोक्खं च] - उसीप्रकार ज्ञान के समान अमूर्त, अतीन्द्रिय और मूर्त, इन्द्रियजन्य सुख होता है । [जं तेसु परं च तं णेयं] - उन पूर्वोक्त ज्ञान और सुख के मध्य जो उत्कृष्ट अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख है, वह उपादेय है - ऐसा जानना चाहिये ।

    उसका ही विस्तार करते हैं – अमूर्त, क्षायिकी, अतीन्द्रिय, चिदानन्द एक लक्षणवाली शुद्धात्म-शक्तियों से उत्पन्न होने के कारण स्वाधीन और अविनश्वर होने से अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख उपादेय है; तथा पूर्वोक्त अमूर्त शुद्धात्म-शक्तियों से विरुद्ध लक्षणवाली क्षायोपशमिक इन्द्रिय- शक्तियों से उत्पन्न होने के कारण पराधीन और विनश्वर होने से इन्द्रियजन्य ज्ञान और सुख हेय है- यह तात्पर्य है ।

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    + अतीन्द्रिय सुख का साधनभूत अतीन्द्रिय ज्ञान उपादेय है -
    जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेसु अदिंदियं च पच्छण्णं । (54)
    सयलं सगं च इदरं तं णाणं हवदि पच्चक्खं ॥56॥
    यत्प्रेक्षमाणस्यामूर्तं मूर्तेष्वतीन्द्रियं च प्रच्छन्नम् ।
    सकलं स्वकं च इतरत् तद्ज्ञानं भवति प्रत्यक्षम् ॥५४॥
    अमूर्त को अर मूर्त में भी अतीन्द्रिय प्रच्छन्न को
    स्व-पर को सर्वार्थ को जाने वही प्रत्यक्ष है ॥५६॥
    अन्वयार्थ : [प्रेक्षमाणस्य यत्] देखने-वाले का जो ज्ञान [अमूर्तं] अमूर्त को, [मूर्तेषु] मूर्त पदार्थों में भी [अतीन्द्रियं] अतीन्द्रिय को, [च प्रच्छन्न] और प्रच्छन्न को, [सकलं] इन सबको- [स्वकं च इतरत] स्व तथा पर को - देखता है, [तद् ज्ञानं] वह ज्ञान [प्रत्यक्ष भवति] प्रत्यक्ष है ॥५४॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, अतीन्द्रिय-सुख का साधनभूत (कारणरूप) अतीन्द्रिय-ज्ञान उपादेय है - इसप्रकार उसकी प्रशंसा करते हैं :-

    जो अमूर्त है, जो मूर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय है, और जो प्रच्छन्न है, उस सबको-जो कि स्व और पर इन दो भेदों में समा जाता है उसे - अतीन्द्रिय ज्ञान अवश्य देखता है । अमूर्त धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय इत्यादि, मूर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय परमाणु इत्यादि, तथा उन सबका-जो कि स्व और पर के भेद से विभक्त हैं उनका वास्तव में उस अतीन्द्रिय ज्ञान के दृष्टापन है; (अर्थात् उन सबको वह अतीन्द्रिय ज्ञान देखता है) क्योंकि वह (अतीन्द्रिय ज्ञान) प्रत्यक्ष है । जिसे अनन्त शुद्धि का सद्धाव प्रगट हुआ है, ऐसे ऐसे उस प्रत्यक्ष ज्ञान को, जैसे दाह्याकार दहन का अतिक्रमण नहीं करते उसी प्रकार ज्ञेयाकार ज्ञान का अतिक्रम (उल्लंघन) न करने से - यथोक्त प्रभाव का अनुभव करते हुए (उपर्युक्त पदार्थों को जानते हुए) कौन रोक सकता है ? (अर्थात् कोई नहीं रोक सकता ।) इसलिये वह (अतीन्द्रिय ज्ञान) उपादेय है ॥५४॥

    प्रच्छन्न = गुप्त; अन्तरित; ढका हुआ
    असांप्रतिक = अतात्कालिक; वर्तमानकालीन नहि ऐसा; अतीत-अनागत
    अन्तर्लीन = अन्दर लीन हुए; अन्तर्मग्न
    अक्ष = आत्मा का नाम 'अक्ष' भी है । (इन्द्रियज्ञान अक्ष = अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा जानता है; अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान अक्ष अर्थात् आत्मा के द्वारा ही जानता है)
    ज्ञेयाकार ज्ञान को पार नहीं कर सकते-ज्ञान की हद से बाहर जा नहीं सकते, ज्ञान में जान ही लेते है

    जयसेनाचार्य :
    (अब यहाँ अतीन्द्रिय ज्ञान की प्रधानता परक दूसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)

    अब पूर्वोक्त उपादेयभूत अतीन्द्रिय ज्ञान को विशेषरूप से व्यक्त करते हैं -

    [जं] - जो अतीन्द्रिय ज्ञान रूप कर्ता है, अर्थात् इस वाक्य का कर्ता जो ज्ञान है । [पेच्छदो] - देखनेवाले पुरुष का वह ज्ञान जानता है । उसका वह ज्ञान क्या-क्या जानता है? [अमुत्तं] - अमूर्त अतीन्द्रिय, निरुपराग, सदानन्द एक सुख स्वभाववाले परमात्मद्रव्य प्रभृति सर्व अमूर्त द्रव्य-समूह को, [मुत्तेसु अर्दिदियं च] - मूर्त पुद्गल द्रव्यों में जो अतीन्द्रिय पुद्गल परमाणु आदि हैं उन्हें जानता है । [सयलं] - वे पूर्वोक्त सर्व ज्ञेय दो प्रकार के हैं । वे ज्ञेय दो प्रकार के कैसे हैं? [सगं च इदरं] - यथासंभव कोई ज्ञेय स्वद्रव्यगत है और अन्य पर द्रव्यगत हैं । उन दोनों को जिस कारण जानता है, उस कारण [तं णाणं] - वह पूर्वोक्त ज्ञान [हवदि] - है । वह ज्ञान कैसा है? वह ज्ञान [पच्चक्ख्म] - प्रत्यक्ष है ।

    यहाँ शिष्य कहता है-ज्ञानप्रपंचाधिकार पहले ही पूर्ण हो गया है, इस सुख-प्रपंचाधिकार में सुख ही कहना चाहिये । आचार्य उसका निराकरण करते है- जो अतीन्द्रिय-ज्ञान पहले कहा गया है, वही अभेदनय से सुख है- ऐसा बताने के लिये अथवा वहाँ ज्ञान की मुख्यता होने से हेयोपादेय विचार नहीं किया है -यह बताने के लिये सुखप्रपंचाधिकार में भी ज्ञान का स्वरूप स्पष्ट करते हैं ।

    इस प्रकार अतीन्द्रिय-ज्ञान उपादेय है - इस कथन की मुख्यता से एक गाथा द्वारा दूसरा स्थल पूर्ण हुआ ।

    (अब हेयभूत इन्द्रिय-ज्ञान की मुख्यता से चार गाथाओं में निबद्ध तीसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)

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    + इन्द्रिय-सुख का साधनभूत इन्द्रिय-ज्ञान हेय है -
    जीवो सयं अमुत्तो मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा मुत्तं । (55)
    ओगेण्हित्ता जोग्गं जाणदि वा तं ण जाणादि ॥57॥
    जीवः स्वयममूर्तो मूर्तिगतस्तेन मूर्तेन मूर्तम् ।
    अवगृह्य योग्यं जानाति वा तन्न जानाति ॥५५॥
    यह मूर्ततनगत जीव मूर्तपदार्थ जाने मूर्त से
    अवग्रहादिकपूर्वक अर कभी जाने भी नहीं ॥५७॥
    अन्वयार्थ : [स्वयं अमूर्त:] स्वयं अमूर्त ऐसा [जीव:] जीव [मूर्तिगतः] मूर्त शरीर को प्राप्त होता हुआ [तेन मूर्तेन] उस मूर्त शरीर के द्वारा [योग्य मूर्तं] योग्य मूर्त पदार्थ को [अवग्रह्य] *अवग्रह करके (इन्द्रिय-ग्रहण योग्य मूर्त पदार्थ का अवग्रह करके) [तत्] उसे [जानाति] जानता है [वा न जानाति] अथवा नहीं जानता (कभी जानता है और कभी नहीं जानता) ॥५५॥
    *अवग्रह = मतिज्ञान से किसी पदार्थ को जानने का प्रारम्भ होने पर पहले ही अवग्रह होता है क्योंकि मतिज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-इस क्रम से जानता है

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, इन्द्रिय-सुख का साधनभूत (कारणरूप) इन्द्रियज्ञान हेय है - इसप्रकार उसकी निन्दा करते हैं-

    इन्द्रियज्ञान को उपलम्भक भी मूर्त है और उपलभ्य भी मूर्त है । वह इन्द्रियज्ञान वाला जीव स्वयं अमूर्त होने पर भी मूर्त-पचेन्द्रियात्मक शरीर को प्राप्त होता हुआ, ज्ञप्ति उत्पन्न करने में बल-धारण का निमित्त होने से जो उपलम्भक है ऐसे उस मूर्त (शरीर) के द्वारा मूर्त ऐसी स्पर्शादि-प्रधान वस्तु को-जो कि योग्य हो अर्थात् जो (इन्द्रियों के द्वारा) उपलभ्य हो उसे- अवग्रह करके, कदाचित उससे आगे-आगे की शुद्धि के सद्धाव के कारण उसे जानता है और कदाचित अवग्रह से आगे आगे की शुद्धि के असद्भाव के कारण नहीं जानता, क्योंकि वह (इन्द्रिय ज्ञान) परोक्ष है । परोक्षज्ञान, चैतन्य-सामान्य के साथ (आत्मा का) अनादि-सिद्ध सम्बन्ध होने पर भी जो अति दृढ़तर अज्ञानरूप तमोग्रन्थि (अन्धकार-समूह) द्वारा आवृत हो गया है, ऐसा आत्मा पदार्थ को स्वयं जानने के लिये असमर्थ होने से उपात्त और अनुपात्त पर-पदार्थरूप सामग्री को ढूँढने की व्यग्रता से अत्यन्त चंचल-तरल-अस्थिर वर्तता हुआ, अनन्त-शक्ति से च्युत होने से अत्यन्त विक्लव वर्तता हुआ, महामोह-मल्ल के जीवित होने से परपरिणति का (पर को परिणमित करने का) अभिप्राय करने पर भी पद-पद पर ठगाता हुआ, परमार्थत: अज्ञान में गिने जाने योग्य है । इसलिये वह हेय है ॥५५॥

    उपलम्भक = बतानेवाला, जानने में निमित्त-भूत । (इन्द्रियज्ञान को पदार्थों के जानने में निमित्त-भूत मूर्त पचेन्द्रियात्मक शरीर है)
    उपलभ्य = जनाने योग्य
    स्पर्शादिप्रधान = जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण मुख्य हैं, ऐसी
    उपात्त = पास (इन्द्रिय, मन इत्यादि उपात्त पर पदार्थ हैं)
    अनुपात्त = अप्राप्त (प्रकाश इत्यादि अनुपात्त पर पदार्थ हैं)
    विक्लव = खिन्न; दुःखी, घबराया हुआ

    जयसेनाचार्य :
    अब हेयभूत इन्द्रिय-सुख का कारण होने से और अल्प-विषय होने से इन्द्रिय-ज्ञान हेय है ऐसा उपदेश देते हैं -

    [जीवो सयं अमुत्तो] - प्रथम तो जीव शक्तिरूप से शुद्ध-द्रव्यार्थिक-नय से अमूर्त, अतीन्द्रिय ज्ञान-सुख स्वाभावी है, बाद में अनादि बंध के वश से व्यवहार-नय से [मुत्तिगदो] – मूर्त शरीरगत – मूर्त शरीररूप से परिणत होता है । [तेण मुत्तिणा] – उस मूर्त शरीर से – मूर्त शरीर के आधार से उत्पन्न मूर्त द्रव्येंद्रिय-भावेंद्रिय के आधार से [मुत्तं] मूर्त वस्तु को [ओगेण्हित्ता] – अवग्रहादि रूप से क्रम और साधन सम्बन्धी व्यवधान रूप कर [जोग्गं] – उन स्पर्शादि मूर्त वस्तु को । कैसी स्पर्शादि मूर्त वस्तु को? इन्द्रिय ग्रहण के योग्य मूर्त वस्तुओं को [जाणदि वा तण्ण जाणादि]- स्वावरण कर्म के क्षयोपशम योग्य कुछ स्थूल को जानता है तथा विशेष क्षयोपशम का अभाव होने से सूक्ष्म को नहीं जानता है ।

    यहाँ भाव यह है – यद्यपि इन्द्रियज्ञान व्यवहार से प्रत्यक्ष कहा जाता है, तथापि निश्चय से केवलज्ञान की अपेक्षा परोक्ष ही है; और परोक्षज्ञान, जितने अंशों में सूक्ष्म पदार्थ को नहीं जानता उतने अंशों में मन के खेद का कारण होता है, और खेद दुःख हैं- इसप्रकार दुःख को उत्पन्न करने वाला होने से इन्द्रियज्ञान हेय है ।

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    + इन्द्रियाँ मात्र अपने विषयों में भी युगपत् प्रवृत्त नहीं होतीं, इसलिये इन्द्रियज्ञान हेय ही है -
    फासो रसो य गंधो वण्णो सद्दो य पोग्गला होंति । (56)
    अक्खाणं ते अक्खा जुगवं ते णेव गेण्हंति ॥58॥
    स्पर्शो रसश्च गन्धो वर्णः शब्दश्च पुद्गला भवन्ति ।
    अक्षाणां तान्यक्षाणि युगपत्तान्नैव गृह्णन्ति ॥५६॥
    पौद्गलिक स्पर्श रस गंध वर्ण अर शब्दादि को
    भी इन्द्रियाँ इक साथ देखो ग्रहण कर सकती नहीं ॥५८॥
    अन्वयार्थ : [स्पर्श:] स्पर्श, [रस: च] रस, [गंध:] गंध, [वर्ण:] वर्ण [शब्द: च] और शब्द [पुद्गला:] पुद्गल हैं, वे [अक्षाणां भवन्ति] इन्द्रियों के विषय हैं [तानि अक्षाणि] (परन्तु) वे इन्द्रियाँ [तान्] उन्हें (भी) [युगपत्] एक साथ [न एव गृह्णन्ति] ग्रहण नहीं करतीं (नहीं जान सकतीं) ॥५६॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, इन्द्रियाँ मात्र अपने विषयों में भी युगपत् प्रवृत्त नहीं होतीं, इसलिये इन्द्रियज्ञान हेय ही है, ऐसा निश्चय करते हैं :-

    मुख्य ऐसे स्पर्श-रस-गंध-वर्ण तथा शब्द-जो कि पुद्गल हैं वे- इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण होने योग्य (ज्ञात होने योग्य), हैं । (किन्तु) इन्द्रियों के द्वारा वे भी युगपद् (एक साथ) ग्रहण नहीं होते (जानने में नहीं आते) क्योंकि क्षयोपशम की उसप्रकार की शक्ति नहीं है । इन्द्रियों के जो क्षयोपशम नाम की अन्तरंग ज्ञातृशक्ति है वह कौवे की आँख की पुतली की भाँति क्रमिक प्रवृत्ति-वाली होने से अनेकत: प्रकाश के लिये (एक ही साथ अनेक विषयों को जानने के लिये) असमर्थ है, इसलिये द्रव्येन्द्रिय द्वारों के विद्यमान होने पर भी समस्त इन्द्रियों के विषयों का (विषयभूत पदार्थों का) ज्ञान एक ही साथ नहीं होता, क्योंकि इन्द्रिय ज्ञान परोक्ष है ॥५६॥

    स्पर्श, रस, गंध और वर्ण-यह पुद्गलके मुख्य गुण हैं

    जयसेनाचार्य :
    अब, चक्षु आदि इन्द्रिय-ज्ञान, रूपादि अपने विषय को भी एक साथ नहीं जानता है, अत: हेय है; ऐसा निश्चय करते हैं -

    [फासो रसो य गंधो वण्णो सद्दो व पुग्गला होंति] - स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द पुद्गल मूर्त हैं । और वे विषय हैं । वे किनके विषय हैं? [अक्खाणं] - वे स्पर्शनादि इन्द्रियों के विषय हैं । [ते अक्खा] - वे इन्द्रियरूप कर्ता (इस वाक्य में कर्ता के स्थानीय वे इन्द्रियाँ) [जुगवं ते णेव गेण्हंति]- एक साथ उन अपने विषयों को भी ग्रहण नहीं करतीं - जानती नहीं हैं ।

    यहाँ अभिप्राय यह है - जैसे सर्व प्रकार से उपादेयभूत (प्रगट करने योग्य) अनन्त सुख का उपादान कारणभूत केवलज्ञान, एक साथ सम्पूर्ण वस्तुओं को जानता हुआ जीव के सुख का कारण है, वैसे अपने विषय में भी एक साथ जानकारी का अभाव होने से यह इन्द्रिय-ज्ञान, सुख का कारण नहीं है ।

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    + इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है -
    परदव्वं ते अक्खा णेव सहावो त्ति अप्पणो भणिदा । (57)
    उवलद्धं तेहि कधं पच्चक्खं अप्पणो होदि ॥59॥
    परद्रव्यं तान्यक्षाणि नैव स्वभाव इत्यात्मनो भणितानि ।
    उपलब्धं तैः कथं प्रत्यक्षमात्मनो भवति ॥५७॥
    इन्द्रियाँ परद्रव्य उनको आत्मस्वभाव नहीं कहा
    अर जो उन्हीं से ज्ञात वह प्रत्यक्ष कैसे हो सके ?॥५९॥
    अन्वयार्थ : [तानि अक्षाणि] वे इन्द्रियाँ [परद्रव्यं] पर द्रव्य हैं [आत्मनः स्वभाव: इति] उन्हें आत्म-स्वभावरूप [न एव भणितानि] नहीं कहा है; [तै:] उनके द्वारा [उपलब्धं] ज्ञात [आत्मनः] आत्मा को [प्रत्यक्षं] प्रत्यक्ष [कथं भवति] कैसे हो सकता है ? ॥५७॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, यह निश्चय करते हैं कि इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है :-

    जो केवल आत्मा के प्रति ही नियत हो वह (ज्ञान) वास्तव में प्रत्यक्ष है । यह (इन्द्रियज्ञान) तो, जो भिन्न अस्तित्ववाली होने से परद्रव्यत्व को प्राप्त हुई है, और आत्म-स्वभावत्व को किंचित्मात्र स्पर्श नहीं करतीं (आत्मस्वभावरूप किंचित्मात्र भी नहीं हैं) ऐसी इन्द्रियों के द्वारा उपलब्धि करके (ऐसी इन्द्रियों के निमित्त से पदार्थों को जानकर) उत्पन्न होता है, इसलिये वह (इन्द्रियज्ञान) आत्मा के लिये प्रत्यक्ष नहीं हो सकता ॥५७॥

    जयसेनाचार्य :
    अब, इन्द्रिय-ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है,यह निश्चित करते हैं -

    [परदव्वं ते अक्खा] – वे प्रसिद्ध इन्द्रियाँ परद्रव्य हैं ।वे किसके परद्रव्य हैं? वे आत्मा के परद्रव्य हैं । [णेव सहावो त्ति अप्पणो भणिदा] – आत्मा का जो वह विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव है, इन्द्रियाँ निश्चय से उस स्वभाव रूप नहीं कही गई है ।वे आत्मस्वभावरूप क्यों नही कही गई हैं? वे इन्द्रियाँ पृथक अस्तित्व से रचित होने के कारण उसरूप नहीं कही गई है। [उवलद्धं तेहिं] जो पंचेन्द्रिय विषयभूत वस्तु उनके द्वारा ज्ञात है, [कधं पच्चक्खं अप्पणो होदि] – वह वस्तु आत्मा के प्रत्यक्ष कैसे हो सकती है? (किसी भी प्रकार नहीं हो सकती)

    और उसी प्रकार विविध मनोरथों की व्याप्ति के विषय में प्रतिपाद्य-प्रतिपादकादि(विषय-विषयी आदि) विकल्प-जालरूप जो मन वह भी इन्द्रिय ज्ञान के समान निश्चय से परोक्ष है-ऐसा जान कर क्या करना चाहिये? सम्पूर्ण एक अखण्ड प्रत्यक्ष प्रतिभासमय उत्कृष्ट ज्योति-केवलज्ञान के कारणभूत शुद्धात्म-स्वरूप की भावना से उत्पन्न परमाह्लाद एक लक्षण सुखसंवित्ति (आनन्दानुभूति) के आकार परिणतिरूप रागादि विकल्पों की उपाधि रहित स्वसंवेदन ज्ञान में (उसी एक शुद्धात्मस्वरूप की) भावना करना चाहिये – यह अभिप्राय है ।

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    + परोक्ष और प्रत्यक्ष के लक्षण बतलाते हैं -
    जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्खं ति भणिदमट्‌ठेसु । (58)
    जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पच्चक्खं ॥60॥
    यत्परतो विज्ञानं तत्तु परोक्षमिति भणितमर्थेषु ।
    यदि केवलेन ज्ञातं भवति हि जीवेन प्रत्यक्षम् ॥५८॥
    जो दूसरों से ज्ञात हो बस वह परोक्ष कहा गया
    केवल स्वयं से ज्ञात जो वह ज्ञान ही प्रत्यक्ष है ॥६०॥
    अन्वयार्थ : [परत:] पर के द्वारा होने वाला [यत्] जो [अर्थेषु विज्ञानं] पदार्थ सम्बन्धी विज्ञान है [तत् तु] वह तो [परोक्षं इति भणितं] परोक्ष कहा गया है, [यदि] यदि [केवलेन जीवेण] मात्र जीव के द्वारा ही [ज्ञात भवति हि] जाना जाये तो [प्रत्यक्षं] वह ज्ञान प्रत्यक्ष है ॥५८॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, परोक्ष और प्रत्यक्ष के लक्षण बतलाते हैं :-

    यहाँ (इस गाथा में) सहज सुख का साधनभूत ऐसा यही महा-प्रत्यक्ष ज्ञान इच्छनीय माना गया है - उपादेय माना गया है (ऐसा आशय समझना) ॥५८॥

    परोपदेश = अन्य का उपदेश
    उपलब्धि = ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के निमित्त से उत्पन्न पदार्थों को जानने की शक्ति (यह 'लब्ध' शक्ति जब 'उपर्युक्त' होती है, तभी पदार्थ ज्ञात होता है)
    संस्कार = पूर्व ज्ञात पदार्थ की धारणा
    चक्षुइन्द्रिय द्वारा रूपी पदार्थ को देखने में प्रकाश भी निमित्तरूप होता है
    प्रादुर्भाव को प्राप्त = प्रगट उत्पन्न

    जयसेनाचार्य :
    अब, पुन: अन्य विधि से प्रत्यक्ष- परोक्ष का लक्षण कहते हैं -

    [जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्ख त्ति भणिदं] - जो पर से ज्ञान होता है वह परोक्ष कहा गया है । किन विषयों सम्बन्धी ज्ञान को परोक्ष कहा गया है? [अट्ठेसु] –ज्ञेय पदार्थों सम्बन्धी पर से होनेवाले ज्ञान को परोक्ष कहा गया है । [जदि केवलेण णादं हवदि हि] - यदि केवल - बिना किसी की सहायता के स्पष्टरूप से ज्ञात होता है । किस कर्ता द्वारा ज्ञात होता है? जीव द्वारा ज्ञात होता है । तो [पच्चक्खं] - प्रत्यक्ष है ।

    यहाँ विस्तार करते हैं – इन्द्रिय, मन, परोपदेश, प्रकाश आदि बाह्य कारणभूत और इसीप्रकार ज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न पदार्थों को ग्रहण करने की शक्तिरूप उपलब्धि – लब्धि से और अन्तरंग कारणभूत पदार्थ-ज्ञान के अवधारणरूप संस्कार से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह पराधीन होने से परोक्ष कहा गया है । और यदि पूर्वोक्त सर्व परद्रव्यों से निरपेक्ष मात्र शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी परमात्मा से उत्पन्न होता है, तो वह ज्ञान अक्ष नामक आत्मा को लेकर (आत्मा के आश्रय से) उत्पन्न होने से प्रत्यक्ष है - यह गाथा का अभिप्राय है ।

    इसप्रकार हेयभूत इन्द्रिय-ज्ञान के कथन की मुख्यता से चार गाथाओं में निबद्ध तीसरा स्थल पूर्ण हुआ ।

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    + प्रत्यक्ष-ज्ञान पारमार्थिक सुख-रूप -
    जादं सयं समंतं णाणमणंतत्थवित्थडं विमलं । (59)
    रहिदं तु ओग्गहादिहिं सुहं ति एगंतियं भणिदं ॥61॥
    जातं स्वयं समंतं ज्ञानमनन्तार्थविस्तृतं विमलम् ।
    रहितं त्ववग्रहादिभिः सुखमिति ऐकान्तिकं भणितम् ॥५९॥
    स्वयं से सर्वांग से सर्वार्थग्राही मलरहित
    अवग्रहादि विरहित ज्ञान ही सुख कहा जिनवरदेव ने ॥६१॥
    अन्वयार्थ : [स्वयं जात] अपने आप ही उत्पन्न [समंतं] समंत (सर्व प्रदेशों से जानता हुआ) [अनन्तार्थविस्तृतं] अनन्त पदार्थों में विस्तृत [विमलं] विमल [तु] और [अवग्रहादिभि: रहितं] अवग्रहादि से रहित- [ज्ञानं] ऐसा ज्ञान [ऐकान्तिकं सुखं] ऐकान्तिक सुख है [इति भणित] ऐसा (सर्वज्ञ-देव ने) कहा है ॥५९॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, इसी प्रत्यक्षज्ञान को पारमार्थिक सुखरूप बतलाते हैं :-

    1. स्वयं उत्पन्न होने से,
    2. समंत होने से,
    3. अनन्त-पदार्थों में विस्तृत होने से,
    4. विमल होने से और
    5. अवग्रहादि रहित होने से,
    प्रत्यक्षज्ञान ऐकान्तिक सुख है यह निश्चित होता है, क्योंकि एक मात्र अनाकुलता ही सुख का लक्षण है । (इसी बात को विस्तार-पूर्वक समझाते हैं -- )

    1. पर के द्वारा उत्पन्न होता हुआ पराधीनता के कारण
    2. असमंत होने से इतर द्वारों के आवरण के कारण
    3. मात्र कुछ पदार्थों में प्रवर्तमान होता हुआ अन्य पदार्थों को जानने की इच्छा के कारण,
    4. समल होने से असम्यक् अवबोध के कारण (--कर्ममल-युक्त होने से संशय-विमोह-विभ्रम सहित जानने के कारण), और
    5. अवग्रहादि सहित होने से क्रमश: होने वाले पदार्थ-ग्रहण के खेद के कारण
    (इन कारणों को लेकर), परोक्ष ज्ञान अत्यन्त आकुल है; इसलिये वह परमार्थ से सुख नहीं है ।

    और यह प्रत्यक्ष ज्ञान तो अनाकुल है, क्योंकि-
    1. अनादि ज्ञान-सामान्यरूप स्वभाव पर महा विकास से व्याप्त होकर स्वत: ही रहने से स्वयं उत्पन्न होता है, इसलिये आत्माधीन है, (और आत्माधीन होने से आकुलता नहीं होती);
    2. समस्त आत्म-प्रदेशों में परम समक्ष ज्ञानोपयोग रूप होकर, व्याप्त होनेसे समंत है, इसलिये अशेष द्वार खुले हुए हैं (और इसप्रकार कोई द्वार बन्द न होने से आकुलता नहीं होती);
    3. समस्त वस्तुओं के ज्ञेयाकारों को सर्वथा पी जाने से परम विविधता में व्याप्त होकर रहने से अनन्त पदार्थों में विस्तृत है, इसलिये सर्व पदार्थों को जानने की इच्छा का अभाव है (और इस प्रकार किसी पदार्थ को जानने की इच्छा न होने से आकुलता नहीं होती);
    4. सकल शक्ति को रोकनेवाला कर्मसामान्य (ज्ञान में से) निकल जाने से (ज्ञान) अत्यन्त स्पष्ट प्रकाश के द्वारा प्रकाशमान (तेजस्वी) स्वभाव में व्याप्त होकर रहने से विमल है इसलिये सम्यक रूप से (बराबर) जानता है (और इसप्रकार संशयादि रहितता से जानने के कारण आकुलता नहीं होती); तथा
    5. जिनने त्रिकाल का अपना स्वरूप युगपत् समर्पित किया है (-एक ही समय बताया है) ऐसे लोकालोक मे व्याप्त होकर रहने से अवग्रहादि रहित है इसलिये क्रमश: होने वाले पदार्थ ग्रहण के खेद का अभाव है ।
    -इसप्रकार (उपरोक्त पाँच कारणों से) प्रत्यक्ष ज्ञान अनाकुल है । इसलिये वास्तव में वह पारमार्थिक सुख है ॥५९॥

    समन्त = चारों ओर-सर्व भागों में वर्तमान; सर्व आत्म-प्रदेशों से जानता हुआ; समस्त; सम्पूर्ण, अखण्ड
    ऐकान्तिक = परिपूर्ण; अन्तिम, अकेला; सर्वथा
    परोक्ष ज्ञान खंडित है अर्थात् (वह अमुक प्रदेशों के द्वारा ही जानता है); जैसे-वर्ण आँख जितने प्रदेशों के द्वारा ही (इन्द्रियज्ञान से) ज्ञात होता है; अन्य द्वार बन्द हैं
    इतर = दूसरे; अन्य; उसके सिवाय के
    पदार्थग्रहण अर्थात् पदार्थ का बोध एक ही साथ न होने पर अवग्रह, ईहा इत्यादि क्रमपूर्वक होने से खेद होता है
    समक्ष = प्रत्यक्ष
    परमविविधता = समस्त पदार्थ समूह जो कि अनन्त विविधतामय है

    जयसेनाचार्य :
    (अब चार गाथाओं में निबद्ध मुख्यतया अतीन्द्रिय सुख का प्रतिपादक चौथा स्थल प्रारम्भ होता है ।)

    अब, अभेद नय से पाँच विशेषणों से विशिष्ट केवलज्ञान ही सुख है, ऐसा प्रतिपादन करते हैं -

    [जादं] - उत्पन्न है । कर्तारूप कौन उत्पन्न है - इस वाक्य में कर्ता कौन है ? [णाणं] - केवलज्ञान उत्पन्न है । वह कैसे उत्पन्न हैं? [सयं] - स्वयं ही वह उत्पन्न है? । वह केवलज्ञान और किस विशेषता वाला है? [समत्तं] – परिपूर्ण है । किस स्वरूपवाला है? [अणंतत्थवित्थडं] – वह अनन्त पदार्थों में विस्तृत है । वह और कैसा है? [रहियं तु ओग्गहादिहिं] - और वह अवग्रहादि से रहित है । वह और कैसा है? [विमलं] - संशयादि मल से रहित है । इसप्रकार पांच विशेषणों सहित जो केवलज्ञान है [सुहं ति एगंतियं भणियं] - वह सुख कहा गया है । वह सुख कहा गया है? वह नियम से (सर्वथा) सुख कहा गया है ।

    वह इसप्रकार - - इसप्रकार पांच विशेषणों से विशिष्ट जो क्षायिक ज्ञान है, वह अनाकुलता लक्षण वाले उत्कृष्ट आनन्दमय एकरूप वास्तविक सुख से नाम, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा भिन्न होने पर भी निश्चय से अभिन्न होने से पारमार्थिक सुख कहलाता है - यह अभिप्राय है ।

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    + ऐसे अभिप्राय का खंडन करते हैं कि 'केवलज्ञान को भी परिणाम के द्वारा' खेद का सम्भव होने से केवलज्ञान ऐकान्तिक सुख नहीं है -
    जं केवलं ति णाणं तं सोक्खं परिणमं च सो चेव । (60)
    खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा ॥62॥
    यत्केवलमिति ज्ञानं तत्सौख्यं परिणामश्च स चैव ।
    खेदस्तस्य न भणितो यस्मात् घातीनि क्षयं जातानि ॥६०॥
    अरे केवलज्ञान सुख परिणाममय जिनवर कहा
    क्षय हो गये हैं घातिया रे खेद भी उसके नहीं ॥६२॥
    अन्वयार्थ : [यत्] जो [केवलं इति ज्ञानं] 'केवल' नाम का ज्ञान है [तत् सौख्यं] वह सुख है [परिणाम: च] परिणाम भी [सः च एव] वही है [तस्य खेद: न भणित:] उसे खेद नहीं कहा है (अर्थात् केवलज्ञान में सर्वज्ञ-देव ने खेद नहीं कहा) [यस्मात्] क्योंकि [घातीनि] घाति-कर्म [क्षयं जातानि] क्षय को प्राप्त हुए हैं ॥६०॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ऐसे अभिप्राय का खंडन करते हैं कि 'केवलज्ञान को भी परिणाम के द्वारा खेद का सम्भव होने से केवलज्ञान ऐकान्तिक सुख नहीं है' :-

    यहाँ (केवलज्ञान के सम्बन्ध में), (१) खेद क्या, (२) परिणाम क्या तथा (३) केवलज्ञान और सुखका व्यतिरेक (भेद) क्या, कि जिससे केवलज्ञान को ऐकान्तिक सुखत्व न हो ?
    1. खेद के आयतन (स्थान) घाति-कर्म हैं, केवल परिणाम मात्र नहीं । घाति-कर्म महा मोह के उत्पादक होने से धतूरे की भाँति अतत्‌ में तत् बुद्धि धारण करवाकर आत्मा को ज्ञेयपदार्थ के प्रति परिणमन कराते हैं; इसलिये वे घातिकर्म, प्रत्येक पदार्थ के प्रति परिणमित हो-होकर थकने वाले आत्मा के लिये खेद के कारण होते हैं । उनका (घाति-कर्मों का) अभाव होने से केवलज्ञान में खेद कहाँ से प्रगट होगा ?
    2. और तीन-कालरूप तीन भेद जिसमें किये जाते हैं ऐसे समस्त पदार्थों की ज्ञेयाकाररूप (विविधता को प्रकाशित करने का स्थानभूत केवलज्ञान, चित्रित-दीवार की भाँति, स्वयं) ही अनन्त-स्वरूप स्वयमेव परिणमित होने से केवलज्ञान ही परिणाम है । इसलिये अन्य परिणाम कहाँ हैं कि जिनसे खेद की उत्पत्ति हो?
    3. और, केवलज्ञान समस्त स्वभाव-प्रतिघात के अभाव के कारण निरंकुश अनन्त शक्ति के उल्लसित होने से समस्त त्रैकालिक लोकालोक के- आकार में व्याप्त होकर कूटस्थतया अत्यन्त निष्कंप है, इसलिये आत्मा से अभिन्न ऐसा सुख-लक्षणभूत अनाकुलता को धारण करता हुआ केवलज्ञान ही सुख है, इसलिये केवलज्ञान और सुख का व्यतिरेक कहाँ है?
    इससे, यह सर्वथा अनुमोदन करने योग्य है (आनन्द से संमत करने योग्य है) कि केवलज्ञान ऐकान्तिक सुख है ॥६०॥

    अतत्‌ में तत्बुद्धि = वस्तु जिस स्वरूप नहीं है उस स्वरूप होने की मान्यता; जैसे कि- जड में चेतन बुद्धि (जड में चेतन की मान्यता), दुःख में सुख-बुद्धि वगैरह ।
    प्रतिघात = विघ्न; रुकावट; हनन; घात
    कूटस्थ = सदा एकरूप रहनेवाला; अचल (केवलज्ञान सर्वथा अपरिणामी नहीं है, किन्तु वह एक ज्ञेय से दूसरे ज्ञेय के प्रति नहीं बदलता-सर्वथा तीनों काल के समस्त ज्ञेयाकारों को जानता है, इसलिये उसे कूटस्थ कहा है)

    जयसेनाचार्य :
    अब, अनन्त पदार्थों की जानकारी होने से केवलज्ञान में भी खेद है, ऐसा पूर्व पक्ष (प्रश्न) होने पर निराकरण करते हैं -

    [जं केवलं ति णाणं तं सोक्खं] - जो केवलज्ञान है वही सुख है, इसलिये [खेदो तस्स ण भणिदो] -उस केवलज्ञान के खेद-दुःख नहीं कहा है । केवलज्ञान के दुःख क्यों नही कहा है? [जम्हा घादी खयं जादा] - क्योंकि मोहादि घातिकर्म क्षय को प्राप्त हुये हैं इसलिये उसे खेद नहीं कहा है । तब फिर उसके अनन्त पदार्थों की जानकारीरूप परिणाम दुःख का कारण होता होगा? ऐसा नहीं है । [परिणमं च सो चेव] - उस केवलज्ञान का वह परिणाम भी सुखरूप ही है ।

    यहाँ उसका विस्तार करते है- ज्ञानावरण - दर्शनावरण के उदय होने पर एक साथ पदार्थों को जानने में असमर्थ होने से क्रम-करण व्यवधान (बाधा) रूप से ग्रहण होने पर खेद होता है । दोनों आवरण कर्मों का अभाव हो जाने पर (पदार्थों को) एक साथ ग्रहण करने (जानने) में केवल-ज्ञान को खेद नही है, अपितु सुख ही है । वैसे ही उन भगवान के तीन-लोक तीन-कालवर्ती सर्व पदार्थों को एक साथ जानने में समर्थ अखण्ड एक रूप प्रत्यक्ष जानकारी स्वरूप परिणमता हुआ केवलज्ञान ही परिणाम है; केवलज्ञान से भिन्न कोई परिणाम नही है जिससे खेद होगा ।

    अथवा परिणाम के विषय में दूसरा व्याख्यान करते हैं - एक साथ अनन्त पदार्थों की जानकारीरूप परिणाम होने पर भी, वीर्यान्तराय के पूर्ण क्षय से अनन्त वीर्यता हो जाने के कारण खेद का हेतु नहीं है; और उसीप्रकार शुद्धात्मा के सम्पूर्ण प्रदेशों में समरसी भाव से परिणमित होते हुये सहज शुद्ध आनन्द एक स्वरूप सुखरस के आस्वादनरूप परिणमित आत्मा से अभिन्न अनाकुलता की अपेक्षा खेद नहीं है।

    इसप्रकार संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि कृत भेद होने पर भी निश्चय से अभेदरूप से परिणमन करता हुआ केवलज्ञान ही सुख कहा गया है । इससे यह निश्चित हुआ कि केवलज्ञान से भिन्न सुख नहीं है । इसीलिये केवलज्ञान में खेद संभव नहीं है।

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    + 'केवलज्ञान सुखस्वरूप है' ऐसा निरूपण करते हुए उपसंहार -
    णाणं अत्थंतगयं लोयालोएसु वित्थडा दिट्ठी । (61)
    णट्ठमणिट्ठं सव्वं इट्ठं पुण जं तु तं लद्धं ॥63॥
    ज्ञानमर्थान्तगतं लोकालोकेषु विस्तृता दृष्टिः ।
    नष्टमनिष्टं सर्वमिष्टं पुनर्यत्तु तल्लब्धम् ।।६१॥
    अर्थान्तगत है ज्ञान लोकालोक विस्तृत दृष्टि है
    नष्ट सर्व अनिष्ट एवं इष्ट सब उपलब्ध हैं॥६३॥
    अन्वयार्थ : [ज्ञानं] ज्ञान [अर्थान्तगतं] पदार्थों के पार को प्राप्त है [दृष्टि:] और दर्शन [लोकालोकेषु विस्तृता:] लोकालोक में विस्तृत है; [सर्वं अनिष्टं] सर्व अनिष्ट [नष्टं] नष्ट हो चुका है [पुन:] और [यत् तु] जो [इष्टं] इष्ट है [तत्] वह सब [लब्धं] प्राप्त हुआ है । (इसलिये केवल, अर्थात् केवलज्ञान सुखस्वरूप है) ॥६१॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, पुनः 'केवल (अर्थात् केवलज्ञान) सुखस्वरूप है' ऐसा निरूपण करते हुए उपसंहार करते हैं :-

    सुख का कारण स्वभाव-प्रतिघात का अभाव है । आत्मा का स्वभाव दर्शन-ज्ञान है; (केवल दशा में) उनके (दर्शन-ज्ञान के) प्रतिघात का अभाव है, क्योंकि दर्शन लोकालोक मे विस्तृत होने से और ज्ञान पदार्थों के पार को प्राप्त होने से वे (दर्शन-ज्ञान) स्वच्छन्दता-पूर्वक (स्वतंत्रतापूर्वक, बिना अंकुश, किसी से बिना दबे) विकसित हैं (इस प्रकार दर्शन-ज्ञान रूप स्वभाव के प्रतिघात का अभाव है) इसलिये स्वभाव के प्रतिघात का अभाव जिसका कारण है ऐसा सुख अभेद-विवक्षा से केवलज्ञान का स्वरूप है ।

    (प्रकारान्तर से केवलज्ञान की सुखस्वरूपता बतलाते हैं) और, केवल अर्थात् केवलज्ञान सुख ही है, क्योंकि सर्व अनिष्टों का नाश हो चुका है और सम्पूर्ण इष्ट की प्राप्ति हो चुकी है । केवल-अवस्था में, सुखोपलब्धि के विपक्षभूत दुःखों के साधनभूत अज्ञान का सम्पूर्णतया नाश हो जाता है और सुख का साधनभूत परिपूर्ण ज्ञान उत्पन्न होता है, इसलिये केवल ही सुख है । अधिक विस्तार से बस हो ॥६१॥

    जयसेनाचार्य :
    अब और भी केवलज्ञान की सुखस्वरूपता दूसरी पद्धति से दृढ़ करते हैं -

    [णाणं अत्थंतगयं] - केवलज्ञान ज्ञेय पदार्थों के अन्त-पार को प्राप्त है, [लोयालोएसु वित्थडा दिट्ठी] - दृष्टि-केवलदर्शन लोकालोक में विस्तृत है । [णट्ठमणिट्ठम सव्वं] - अनिष्ट- दुःख और अज्ञान सभी नष्ट हैं, [इट्ठम पुण जं हि तं लद्धं] - और जो वास्तविक इष्ट ज्ञान और सुख है, वे सभी प्राप्त हुये हैं ।

    वह इसप्रकार -- स्वभाव- घात के अभाव से सुख होता है - स्वभाव का घात नहीं होना सुख है । केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों स्वभाव हैं, उनका घात करने वाले दो आवरण कर्म हैं केवली के उन आवरण कर्मों का अभाव है; इसलिये स्वभाव-घात के अभाव में होनेवाला अक्षयानन्तसुख है । और क्योंकि परमानन्द एक लक्षण सुख से विपरीत, आकुलता के उत्पादक अनिष्टरूप दुःख और अज्ञान नष्ट हुये हैं; तथा क्योंकि पूर्वोक्त लक्षण सुख के अविनाभावी तीन लोक के उदर-विवर (छिद्र) में स्थित सम्पूर्ण पदार्थों को एक साथ प्रकाशित करनेवाला- जाननेवाला इष्ट ज्ञान प्राप्त है - इससे ज्ञात होता है कि केवली का ज्ञान ही सुख है - यह अभिप्राय है ।

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    + केवलज्ञानियों को ही पारमार्थिक सुख होता है -
    न श्रद्दधति सौख्यं सुखेषु परममिति विगतघातिनाम्‌ । (62)
    श्रुत्वा ते अभव्या भव्या वा तत्प्रतीच्छन्ति ॥64॥
    न श्रद्दधति सौख्यं सुखेषु परममिति विगतघातिनाम् ।
    श्रुत्वा ते अभव्या भव्या वा तत्प्रतीच्छन्ति ॥६२॥
    घातियों से रहित सुख ही परमसुख यह श्रवण कर
    भी न करें श्रद्धान तो वे अभवि भवि श्रद्धा करें ॥६४॥
    अन्वयार्थ : ’[विगतघातिनां] जिनके घाति-कर्म नष्ट हो गये हैं उनका [सौख्यं] सुख [सुखेषु परमं] (सर्व) सुखों में परम अर्थात् उत्कृष्ट है' [इति श्रुत्वा] ऐसा वचन सुनकर [न श्रद्दधति] जो श्रद्धा नहीं करते [ते अभव्या:] वे अभव्य हैं; [भव्या: वा] और भव्य [तत्] उसे [प्रतीच्छन्ति] स्वीकार (आदर) करते हैं - उसकी श्रद्धा करते हैं ॥६२॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ऐसी श्रद्धा कराते हैं कि केवलज्ञानियों को ही पारमार्थिक-सुख होता है :-

    इस लोक में मोहनीय आदि कर्मजाल वालों के स्वभाव प्रतिघात के कारण और आकुलता के कारण सुखाभास होने पर भी उस सुखाभास को 'सुख' कहने की अपारमार्थिक रूढ़ि है; और जिनके घाति-कर्म नष्ट हो चुके हैं ऐसे केवली-भगवान के, स्वभाव-प्रतिघात के अभाव के कारण और अनाकुलता के कारण सुख के यथोक्त कारण का और लक्षण का सद्धाव होने से पारमार्थिक सुख है - ऐसी श्रद्धा करने योग्य है । जिन्हें ऐसी श्रद्धा नहीं है वे - मोक्षसुख के सुधापान से दूर रहने वाले अभव्य-मृगतृष्णा के जलसमूह को ही देखते (अनुभव करते) हैं; और जो उस वचन को इसी समय स्वीकार (श्रद्धा) करते हैं वे- शिवश्री के (मोक्ष-लक्ष्मी के) भाजन- आसन्न-भव्य हैं, और जो आगे जाकर स्वीकार करेंगे वे दूर-भव्य हैं ॥६२॥

    सुख का कारण स्वभाव प्रतिघात का अभाव है
    सुख का लक्षण अनाकुलता है

    जयसेनाचार्य :
    अब परमार्थिक सुख केवली के ही है, जो उसे संसारियों के मानते हैं, वे अभव्य हैं; ऐसा निरूपण करते हैं -

    [णो सद्दहंति] - जो नहीं मानते हैं । किसे नहीं मानते हैं ? [सोक्खं] - निर्विकार परमाह्लादमय एक सुख को जो नही मानते हैं । उस सुख को कैसा नहीं मानते हैं? [सुहेसुपरमंति] – सुखों में वही निर्विकार परमाह्लादमय सुख ही सर्वोत्कृष्ट है - उस सुख को जो ऐसा नहीं मानते हैं । ऐसा सुख किन्हें होता है? [विगदघादीणं] - घाति कर्मों से रहित भगवान को ऐसा सुख होता है । क्या करके भी नहीं मानते हैं? [सुणिदूण – “जाद सयं समत्तं“] वह सुख स्वोत्पन्न है, परिपूर्ण है..... इत्यादि पूर्वोक्त (६१ से ६३) तीन गाथाओं में कही पद्धति से सुनकर भी जो नहीं मानते हैं । [ते अभव्वा] - वे अभव्य हैं । वे जीव वर्तमान समय में सम्यक्त्वरूपी भव्यत्व की प्रगटता का अभाव होने से अभव्य कहे जाते हैं, सर्वथा अभव्य नहीं हैं । [भव्वा वा तं पडिच्छंति] - जो वर्तमान काल में सम्यक्त्वरूप भव्यत्व की प्रगटतारूप से भविष्य में परिणमित हैं, वे उस अनंत-सुख को अभी मानते हैं । और जो सम्यक्त्वरूप भव्यत्व की प्रगटतारूप से भविष्य में परिणमित होंगे, वे दूरभव्य आगे श्रद्धान करेंगे ।

    यहाँ अर्थ यह है- जैसे मारने के लिये कोतवाल द्वारा पकड़े गये चोर को मरण अच्छा नहीं लगता; उसीप्रकार यद्यपि इन्द्रिय-सुख इष्ट नहीं है; तथापि कोतवाल के समान चारित्र-मोहनीय के उदय से मोहित होता हुआ उपराग रहित अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न सुख को प्राप्त नहीं करता हुआ, आत्म-निन्दा आदि रूप से परिणत सरागसम्यग्दृष्टि, हेयरूप से उसका अनुभव करता है । और जो वीतराग सम्यग्दृष्टि शुद्धोपयोगी हैं उनको, मछलियों के भूमि पर आने के समान अथवा अग्नि में प्रवेश के समान निर्विकार शुद्धात्म-सुख से च्युत होना भी दुःख प्रतीत होता है ।

    वैसा ही कहा है- ''समतारूपी सुख का अनुभव करनेवाले मनुष्य को समता से च्युत होना ही अच्छा नहीं लगता, तब पंचेन्द्रिय विषय-भोगों की तो बात ही क्या? अर्थात् वे वहाँ कैसे रम सकते हैं? नहीं रम सकते । जैसे मछलियों को जब भूमि ही जलाती है, तब अग्नि-अंगारों का तो कहना ही क्या? वे तो जलायेंगे ही ।''

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    + परोक्षज्ञान वालों के अपारमार्थिक इन्द्रिय-सुख -
    मणुआसुरामरिंदा अहिद्‌दुदा इन्दिएहिं सहजेहिं । (63)
    असहंता तं दुक्खं रमंति विसएसु रम्मेसु ॥65॥
    मनुजासुरामरेन्द्रा अभिद्रुता इन्द्रियैः सहजैः ।
    असहमानास्तद्दुःखं रमन्ते विषयेषु रम्येषु ॥६३॥
    नरपती सुरपति असुरपति इन्द्रियविषयदवदाह से
    पीड़ित रहें सह सके ना रमणीक विषयों में रमें ॥६५॥
    अन्वयार्थ : [मनुजासुरामरेन्द्रा:] मनुष्येन्द्र (चक्रवर्ती) असुरेन्द्र और सुरेन्द्र [सहजै: इन्द्रियै:] स्वाभाविक (परोक्ष-ज्ञानवालो को जो स्वाभाविक है ऐसी) इन्द्रियों से [अभिद्रुता:] पीड़ित वर्तते हुए [तद् दुःखं] उस दुःख को [असहमाना:] सहन न कर सकने से [रम्येषु विषयेषु] रम्य विषयों में [रमन्ते] रमण करते हैं ॥६३॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, परोक्षज्ञानवालों के अपारमार्थिक इन्द्रिय-सुख का विचार करते हैं :-

    प्रत्यक्ष ज्ञान के अभाव के कारण परोक्ष ज्ञान का आश्रय लेने वाले इन प्राणियों को उसकी (परोक्ष ज्ञान की) सामग्री रूप इन्द्रियों के प्रति निजरस से ही (स्वभाव से ही) मैत्री प्रवर्तती है । अब इन्द्रियों के प्रति मैत्री को प्राप्त उन प्राणियों को, उदय-प्राप्त महा-मोहरूपी कालाग्नि ने ग्रास बना लिया है, इसलिये तप्त लोहे के गोले की भाँति (जैसे गरम किया हुआ लोहे का गोला पानी को शीघ्र ही सोख लेता है) अत्यन्त तृष्णा उत्पन्न हुई है; उस दुःख के वेग को सहन न कर सकने से उन्हें व्याधि के प्रतिकार के समान (रोग में थोड़ा सा आराम जैसा अनुभव कराने वाले उपचार के समान) रम्य विषयों में रति उत्पन्न होती है । इसलिये इन्द्रियाँ व्याधि समान होने से और विषय व्याधि के प्रतिकार समान होने से छद्मस्थों के पारमार्थिक सुख नहीं है ॥६३॥

    जयसेनाचार्य :
    (अब इन्द्रिय-सुख के प्रतिपादन की मुख्यता से आठ गाथाओं में निबद्ध पाँचवा स्थल प्रारम्भ होता है । यह स्थल चार भागों में विभक्त है । उनमें से सर्वप्रथम इन्द्रिय-सुख दुःख है - इस तथ्य का प्रतिपादक दो गाथाओं वाला प्रथम भाग प्रारम्भ होता है ।)

    अब, संसारियों के साधक इन्द्रिय-ज्ञान के साध्यभूत इन्द्रिय-सुख का विचार करते हैं -

    [मणुआसुरामरिंदा] - मनुष्येन्द्र – चक्रवर्ती, असुरेन्द्र और देवेन्द्र । ये सभी कैसे हैं? [अहिद्दुदा इन्दियेहिं सहजेहिं] - कदर्थित - दु:खित-पीड़ित हैं । ये सभी किनसे पीड़ित हैं? ये सभी स्वाभाविक इन्द्रियों से पीड़ित हैं । [असहंता तं दुक्खं] - ये दु:खोद्रेक - दुःखों की तीव्रता को सहन नहीं करते हुये, [रमंते विसएसु रम्मेसु] - रम्याभास विषयों में रमण करते हैं ।

    अब विस्तार करते हैं- मनुष्य आदि जीव अमूर्त, अतीन्द्रिय ज्ञान-सुख के आस्वाद को प्राप्त नहीं करते हुये, मूर्त, इन्द्रिय ज्ञान-सुख के लिये उनके कारणभूत पंचेन्द्रियों में (पंचेन्द्रिय विषयों में) मित्रता करते हैं और इससे तप्त लोहे के गोले के जल खींचने (सोखने) के समान विषयों में तीव तृष्णा उत्पन्न होती है । उस तृष्णा को सहन नहीं करते हुए, वे विषयों का अनुभव करते हैं । इससे ज्ञात होता है कि पाँचों इन्द्रियाँ रोग (बीमारी) के समान हैं और विषय उनके निराकरण के लिये औषध के समान है - इस प्रकार संसारियों के वास्तविक सुख नहीं है ।

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    + जहाँ तक इन्द्रियाँ हैं वहाँ तक स्वभाव से ही दुःख है -
    जेसिं विसएसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं । (64)
    जइ तं ण हि सब्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं ॥66॥
    येषां विषयेषु रतिस्तेषां दुःखं विजानीहि स्वाभावम् ।
    यदि तन्न हि स्वभावो व्यापारो नास्ति विषयार्थम् ॥६४॥
    पंचेन्द्रियविषयों में रती वे हैं स्वभाविक दु:खीजन
    दु:ख के बिना विषविषय में व्यापार हो सकता नहीं ॥६६॥
    अन्वयार्थ : [येषां] जिन्हें [विषयेषु रति:] विषयों में रति है, [तेषां] उन्हें [दुःख] दुःख [स्वाभावं] स्वाभाविक [विजानीहि] जानो; [हि] क्योंकि [यदि] यदि [तद्] वह दुःख [स्वभावं न] स्वभाव न हो तो [विषयार्थं] विषयार्थ में [व्यापार:] व्यापार [न अस्ति] न हो ॥६४॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, जहाँ तक इन्द्रियाँ हैं वहाँ तक स्वभाव से ही दुःख है, ऐसा न्याय से निश्चित करते हैं :-

    जिनकी हत (निकृष्ट, निंद्य) इन्द्रियाँ जीवित (विद्यमान) हैं, उन्हें उपाधि के कारण (बाह्य संयोगों के कारण, औपाधिक) दुख नहीं है किन्तु स्वाभाविक ही है, क्योंकि उनकी विषयों में रति देखी जाती है । जैसे-
    1. हाथी हथिनी रूपी कुट्टनी के शरीर स्पर्श की ओर,
    2. मछली बंसी में फँसे हुए मांस के स्वाद की ओर,
    3. भ्रमर बन्द हो जाने वाले कमल के गंध की ओर,
    4. पतंगा दीपक की ज्योति के रूप की ओर और
    5. हिरन शिकारी के संगीत के स्वर की ओर दौड़ते हुए दिखाई देते हैं
    उसी प्रकार - दुर्निवार इन्द्रिय-वेदना के वशीभूत होते हुए वे यद्यपि विषयों का नाश अति निकट है (अर्थात् विषय क्षणिक हैं) तथापि, विषयों की ओर दौड़ते दिखाई देते हैं । और यदि 'उनका दुख स्वाभाविक है' ऐसा स्वीकार न किया जाये तो जैसे-
    1. जिसका शीत-ज्वर उपशांत हो गया है, वह पसीना आने के लिये उपचार करता तथा जिसका दाह-ज्वर उतर गया है वह काँजी से शरीर के ताप को उतारता तथा
    2. जिसकी आखों का दुख दूर हो गया है वह वटाचूर्ण (शंख इत्यादि का चूर्ण) आँजता तथा
    3. जिसका कर्णशूल नष्ट हो गया हो वह कान में फिर बकरे का मूत्र डालता दिखाई नहीं देता और
    4. जिसका घाव भर जाता है वह फिर लेप करता दिखाई नहीं देता
    -इसीप्रकार उनके विषय व्यापार देखने में नहीं आना चाहिये; किन्तु उनके वह (विषय-प्रवृत्ति) तो देखी जाती है । इससे (सिद्ध हुआ कि) जिनके इन्द्रियाँ जीवित हैं ऐसे परोक्ष-ज्ञानियों के दुख स्वाभाविक ही है ॥६४॥

    जयसेनाचार्य :
    अब जो इन्द्रिय व्यापार है वह दुःख ही है, ऐसा कहते हैं -

    [जेसिं विसएसु रदी] - जिनके निर्विषय अतीन्द्रिय परमात्मस्वरूप से विपरीत विषयों में प्रीति है, [तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं] - उन बर्हिमुख जीवों के निज शुद्धात्मद्रव्य की संवित्ति से उत्पन्न निरुपाधि पारमार्थिक सुख से विपरीत दुःख स्वभाव से ही है - ऐसा जानना चाहिये । उनके स्वभाव से दुःख है- यह कैसे ज्ञात होता है? पंचेन्द्रिय विषयों में प्रीति दिखाई देने से यह ज्ञात होता है । [जइ तं ण हि सब्भावं] - यदि वास्तव में वह दुःख उनके स्वभाव से नहीं होता [वावारो णत्थि विसयत्थम] - तो उनका विषयों के लिए व्यापार घटित नहीं होता । व्याधि-निवारण के लिये औषधि में प्रवृत्ति के समान यत: उनका विषयों में प्रवर्तन देखा जाता है- इससे ही यह ज्ञात होता है कि उनके दुःख है - यह अभिप्राय है ।

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    + मुक्त आत्मा के सुख की प्रसिद्धि के लिये, शरीर सुख का साधन होने की बात का खंडन -
    पप्पा इट्ठे विसये फासेहिं समस्सिदे सहावेण । (65)
    परिणममाणो अप्पा सयमेव सुहं ण हवदि देहो ॥67॥
    प्राप्येष्टान् विषयान् स्पर्शैः समाश्रितान् स्वभावेन ।
    परिणममान आत्मा स्वयमेव सुखं न भवति देहः ॥६५॥
    इन्द्रिय विषय को प्राप्त कर यह जीव स्वयं स्वभाव से
    सुखरूप हो पर देह तो सुखरूप होती ही नहीं ॥६७॥
    अन्वयार्थ : [स्पशैं: समाश्रितान्] स्पर्शनादिक इन्द्रियाँ जिनका आश्रय लेती हैं ऐसे [इष्टान् विषयान्] इष्ट विषयों को [प्राप्य] पाकर [स्वभावेन] (अपने शुद्ध) स्वभाव से [परिणममानः] परिणमन करता हुआ [आत्मा] आत्मा [स्वयमेव] स्वयं ही [सुख] सुखरूप (इन्द्रिय-सुखरूप) होता है [देह: न भवति] देह सुखरूप नहीं होती ॥६५॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, मुक्त आत्माके सुखकी प्रसिद्धिके लिये, शरीर सुखका साधन होनेकी बातकाखंडन करते हैं । (सिद्ध-भगवान के शरीर के बिना भी सुख होता है यह बात स्पष्ट समझाने के लिये, संसारावस्था में भी शरीर - सुख का -- इन्द्रियसुख का - साधन नहीं है, ऐसा निश्चित करते हैं) :-

    वास्तव में इस आत्मा के लिये सशरीर अवस्था में भी शरीर सुख का साधन हो ऐसा हमें दिखाई नहीं देता; क्योंकि तब भी, मानों उन्माद-जनक मदिरा का पान किया हो ऐसी, प्रबल मोह के वश वर्तने-वाली, 'यह (विषय) हमें इष्ट है' इस प्रकार विषयों की ओर दौड़ती हुई इन्द्रियों के द्वारा असमीचीन (अयोग्य) परिणति का अनुभव करने से जिसकी 'शक्ति की उत्कृष्टता (परम शुद्धता) रुक गई है ऐसे भी (अपने) ज्ञान-दर्शन-वीर्यात्मक स्वभाव में- जो कि (सुख के) निश्चय-कारणरूप है-परिणमन करता हुआ यह आत्मा स्वयमेव सुखत्व को प्राप्त करता है, (सुख-रूप होता है;) और शरीर तो अचेतन ही होने से सुखत्व-परिणति का निश्चय-कारण न होता हुआ किंचित् मात्र भी सुखत्व को प्राप्त नहीं करता ॥६५॥

    जयसेनाचार्य :
    (अब, शरीर सुख का कारण नहीं है - इस तथ्य की प्रतिपादक दो गाथाओं वाला पाँचवे स्थल का दूसरा भाग प्रारम्भ होता है ।)

    अब सिद्धात्माओं के शरीर का अभाव होने पर भी सुख है - यह बताने के लिये शरीर सुख का कारण नहीं है, यह स्पष्ट करते हैं –

    [पप्पा] - प्राप्तकर । किन्हें प्राप्तकर? [इट्ठे विसये] - इष्ट-पंचेन्द्रिय विषयों को प्राप्त कर । कैसे विषयों को प्राप्त कर? [फासेहि समस्सिदे] - स्पर्शनादि इन्द्रियों से रहित शुद्धात्मतत्व से विलक्षण स्पर्शनादि इन्द्रियों द्वारा अच्छी तरह से प्राप्त-ग्रहण करने के योग्य विषयों को प्राप्तकर । उन विषयों को वह कौन प्राप्त कर? [अप्पा] - आत्मारूप कर्ता- इस वाक्य का कर्ता आत्मा उन्हें प्राप्त कर । वह आत्मा किस विशेषता वाला है? [सहावेण परिणममानो] – अनंत-सुख के उपादानभूत शुद्धात्म-स्वभाव से विपरीत अशुद्ध-सुख के उपादानभूत अशुद्धात्म-स्वभाव से परिणमित होता हुआ - ऐसा होता हुआ [सयमेव सुहं] - स्वयं ही इन्द्रिय-सुखरूप परिणमित होता है । [ण हवदि देहो] - तथा शरीर अचेतन होने से सुखरूप नहीं है ।

    यहाँ अर्थ यह है-कर्म से आच्छादित संसारी जीवों के जो इन्द्रिय-सुख है, उसमें भी जीव उपादान कारण है; शरीर नहीं । और शरीर तथा कर्म से रहित मुक्तात्माओं के जो अनन्त अतीन्द्रिय-सुख है, उसमें तो विशेष रूप से आत्मा ही कारण है ।


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    + इसी बात को दृढ़ करते हैं -
    एगंतेण हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि सग्गे वा । (66)
    विसयवसेण दु सोक्खं दुक्खं वा हवदि सयमादा ॥68॥
    एकान्तेन हि देहः सुखं न देहिनः करोति स्वर्गे वा ।
    विषयवशेन तु सौख्यं दुःखं वा भवति स्वयमात्मा ॥६६॥
    स्वर्ग में भी नियम से यह देह देही जीव को
    सुख नहीं दे यह जीव ही बस स्वयं सुख-दुखरूप हो ॥६८॥
    अन्वयार्थ : [एकान्तेन हि] एकांत से अर्थात् नियम से [स्वर्गे वा] स्वर्ग में भी [देह:] शरीर [देहिनः] शरीरी (आत्मा को) [सुखं न करोति] सुख नहीं देता [विषयवशेन तु] परन्तु विषयों के वश से [सौख्य दुःखं वा] सुख अथवा दुःखरूप [स्वयं आत्मा भवति] स्वयं आत्मा होता है ॥६६॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, इसी बात को दृढ़ करते हैं :-

    यहाँ यह सिद्धांत है कि - भले ही दिव्य वैक्रियिकता प्राप्त हो तथापि 'शरीर सुख नहीं दे सकता'; इसलिये, आत्मा स्वयं ही इष्ट अथवा अनिष्ट विषयों के वश से सुख अथवा दुःखरूप स्वयं ही होता है ॥६६॥

    जयसेनाचार्य :
    अब मनुष्य-शरीर सुख का कारण भले ही न हो, परन्तु देवों का दिव्य शरीर तो सुख का कारण होगा? ऐसी आशंका का निराकरण करते हैं -

    [एगंतेण हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि] - एकान्त से-नियमरूप से वास्तव में देहरूप कर्ता सुख को नहीं करता है । किसके सुख को नहीं करता है? संसारी जीव के सुख को नहीं करता है । [सग्गे वा] - मनुष्यों का मानव शरीर सुख नहीं करता - यह तथ्य तो रहने दो अर्थात् इसे तो सुखकारक कोई नहीं मानेगा, परन्तु स्वर्ग में जो वह देवों का दिव्य शरीर है - वैक्रियिक शरीर है; वह भी उपचार को छोड़कर (मात्र उपचार से सुख का कारण कहा जाता है, वास्तव में) सुख को नहीं करता । [विसयवसेण दु सोक्खं दुक्खं वा हवदि सयमादा] - किन्तु निश्चय से निर्विषय अमूर्त स्वाभाविक सदानन्द एक सुख-स्वभावी होने पर भी, व्यवहार से अनादि कर्म-बन्ध के वश विषयाधीन-रूप परिणमन कर स्वयं आत्मा ही सांसारिक सुख-दुःख रूप होता है, शरीर सुख-दुःख रूप नहीं होता - यह अभिप्राय है ।

    इसप्रकार मुक्तात्माओं के शरीर का अभाव होने पर भी सुख है - इस परिज्ञान के लिये संसारियों के भी शरीर सुख का कारण नहीं है - इस कथनरूप से दो गाथाये पूर्ण हुईं ।


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    + जैसे निश्चय से शरीर सुख का साधन नहीं है, उसी प्रकार निश्चय से विषय भी सुख के करण नहीं -
    तिमिरहरा जइ दिट्ठी जणस्स दीवेण णत्थि कायव्वं । (67)
    तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति ॥69॥
    तिमिरहरा यदि दृष्टिर्जनस्य दीपेन नास्ति कर्तव्यम् ।
    तथा सौख्यं स्वयमात्मा विषयाः किं तत्र कुर्वन्ति ॥६७॥
    तिमिरहर हो दृष्टि जिसकी उसे दीपक क्या करें
    जब जिय स्वयं सुखरूप हो इन्द्रिय विषय तब क्या करें ॥६९॥
    अन्वयार्थ : [यदि] यदि [जनस्य दृष्टि:] प्राणी की दृष्टि [तिमिरहरा] तिमिर-नाशक हो तो [दीपेन नास्ति कर्तव्यं] दीपक से कोई प्रयोजन नहीं है, अर्थात् दीपक कुछ नहीं कर सकता, [तथा] उसी प्रकार जहाँ [आत्मा] आत्मा [स्वयं] स्वयं [सौख्यं] सुख-रूप परिणमन करता है [तत्र] वहाँ [विषया:] विषय [किं कुर्वन्ति] क्या कर सकते हैं? ॥६७॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, आत्मा स्वयं ही सुखपरिणाम की शक्तिवाला होने से विषयों की अकिंचित्करता बतलाते हैं :-

    जैसे किन्हीं निशाचरों के (उल्लू, सर्प, भूत इत्यादि) नेत्र स्वयमेव अन्धकार को नष्ट करने की शक्ति वाले होते हैं इसलिये उन्हें अंधकार नाशक स्वभाव-वाले दीपक-प्रकाशादि से कोई प्रयोजन नहीं होता, (उन्हें दीपक-प्रकाश कुछ नहीं करता,) इसी प्रकार- यद्यपि अज्ञानी 'विषय सुख के साधन हैं' ऐसी बुद्धि के द्वारा व्यर्थ ही विषयों का अध्यास (आश्रय) करते हैं तथापि-संसार में या मुक्ति में स्वयमेव सुखरूप परिणमित इस आत्मा को विषय क्या कर सकते हैं? ॥६७॥

    जयसेनाचार्य :
    (अब इन्द्रिय-विषय भी सुख के कारण नहीं हैं - इस तथ्य की प्रतिपादक दो गाथाओं वाला पाँचवे स्थल का तीसरा भाग प्रारम्भ होता है ।)

    अब आत्मा का, स्वयं ही सुख स्वभाव होने से, जैसे निश्चय से शरीर सुख का साधन नहीं है, उसी प्रकार निश्चय से विषय भी सुख के करण नहीं है; ऐसा प्रतिपादन करते हैं -

    [जइ] यदि [दिट्ठी] निशाचर प्राणियों की दृष्टि [तिमिरहरा] अन्धकार को नष्ट करने वाली है, तो [जणस्स] प्राणी को [दीवेण णत्थि कायव्वं] दीपक से कोई कर्तव्य नहीं रहता । उसे जैसे दीपक से प्रयोजन ही नहीं है [तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति] उसी प्रकार निश्चय से आत्मा ही निर्विषय, अमूर्त, सर्व प्रदेशों से आह्लाद को उत्पन्न करने वाला सहजानन्द एक लक्षण सुख स्वभावी है, वहाँ मुक्त अथवा संसारी दशा में विषय क्या करते हैं? कुछ भी नहीं - यह भाव है ।

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    + आत्मा के सुख-स्वभावता और ज्ञान-स्वभावता अन्य दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं -
    सयमेव जहादिच्चो तेजो उण्हो य देवदा णभसि । (68)
    सिद्धो वि तहा णाणं सुहं च लोगे तहा देवो ॥70॥
    स्वयमेव यथादित्यस्तेजः उष्णश्च देवता नभसि ।
    सिद्धोऽपि तथा ज्ञानं सुखं च लोके तथा देवः ॥६८॥
    जिसतरह आकाश में रवि उष्ण तेजरु देव है
    बस उसतरह ही सिद्धगण सब ज्ञान सुखरु देव हैं ॥७०॥
    अन्वयार्थ : [यथा] जैसे [नभसि] आकाश में [आदित्य:] सूर्य [स्वयमेव] अपने आप ही [तेज:] तेज, [उष्ण:] उष्ण [च] और [देवता] देव है, [तथा] उसी प्रकार [लोके] लोक में [सिद्ध: अपि] सिद्ध भगवान भी (स्वयमेव) [ज्ञानं] ज्ञान [सुखं च] सुख [तथा देव:] और देव हैं ॥६८॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, आत्मा का सुख-स्वभावत्व दृष्टान्त देकर दृढ़ करते हैं -

    जैसे आकाश में अन्य कारण की अपेक्षा रखे बिना ही सूर्य
    1. स्वयमेव अत्यधिक प्रभा-समूह से चमकते हुए स्वरूप के द्वारा विकसित प्रकाश-युक्त होने से तेज है,
    2. कभी उष्णतारूप परिणमित लोहे के गोले की भाँति सदा उष्णता-परिणाम को प्राप्त होने से उष्ण है, और
    3. देवगति-नामकर्म के धारावाहिक उदय के वशवर्ती स्वभाव से देव है;
    इसी प्रकार लोक में अन्य कारण की अपेक्षा रखे बिना ही भगवान आत्मा स्वयमेव ही
    1. स्व-पर को प्रकाशित करने में समर्थ निर्वितथ (सच्ची) अनन्त शक्ति-युक्त सहज संवेदन के साथ तादात्म्य होनेसे ज्ञान है,
    2. आत्म-तृप्ति से उत्पन्न होने वाली जो परिनिवृत्ति है; उसमें प्रवर्तमान अनाकुलता में सुस्थितता के कारण सौख्य है, और
    3. जिन्हें आत्म-तत्त्व की उपलब्धि निकट है ऐसे बुध जनों के मनरूपी शिलास्तंभ में जिसकी अतिशय द्युति स्तुति उत्कीर्ण है ऐसा दिव्य आत्म-स्वरूपवान होने से देव है ।
    इसलिये इस आत्मा को सुख-साधनाभास (जो सुख के साधन नहीं हैं परन्तु सुख के साधन होने का आभास-मात्र जिनमें होता है ऐसे) विषयों से बस हो ।

    जैसे लोहे का गोला कभी उष्णता-परिणाम से परिणमता है वैसे सूर्य सदा ही उष्पता-परिणाम से परिणमा हुआ है
    परिनिर्वृत्ति = मोक्ष; परिपूर्णता; अन्तिम सम्पूर्ण सुख (परिनिर्वृत्ति आत्म-तृप्ति से होती है अर्थात् आत्म-तृप्ति की पराकाष्ठा ही परिनिर्वृत्ति है)
    शिलास्तंभ = पत्थर का खंभा
    द्युति = दिव्यता; भव्यता, महिमा (गणधरदेवादि बुध जनों के मन में शुद्धात्म-स्वरूप की दिव्यता का स्तुतिगान उत्कीर्ण हो गया है)

    जयसेनाचार्य :
    [सयमेव जहादिच्चो तेजो उण्हो य देवदा णभसि] - अन्य कारणों की अपेक्षा नहीं करके जैसे सूर्य स्वयं ही स्व-पर प्रकाशरूप से तेज है, उसीप्रकार स्वयं ही उष्ण है और वैसे ही अज्ञानी मनुष्यों का देवता है। कहाँ स्थित सूर्य इनरूप है? आकाश में स्थित सूर्य इनरूप है । [सिद्धो वा तहा णाणं सुहं च] - उसी प्रकार सिद्ध भगवान भी अन्य कारणों की अपेक्षा नहीं करके स्वभाव से ही स्व-पर प्रकाशक केवलज्ञान-मय और उसी प्रकार परम संतुष्टि स्वरूप अनाकुलता लक्षण सुखमय हैं । सिद्ध भगवान इनमय कहाँ है? [लोगे] - वे लोक में इनमय हैं । [तहा देवो] - और उसी प्रकार निज-शुद्धात्मा के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप अभेद रत्नत्रय स्वरूप निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न सुन्दर आनन्द के तीव्र प्रवाह-रूप सुखामृत पान के पिपासु गणधर देव आदि परम-योगियों और देवेन्द्र आदि आसन्न-भव्य जीवों के मन में निरन्तर परम आराध्य और वैसे ही अनन्त ज्ञानादि गुणों के स्तवन से स्तुत्य जो पवित्र आत्म-स्वरूप - उस स्वभाव के कारण देव हैं ।

    इससे ज्ञात होता है कि मुक्तात्माओं को विषयों से भी प्रयोजन नहीं है ।

    इसप्रकार स्वभाव से ही सुख-स्वभावी होने से विषय भी मुक्तात्माओं को सुख के कारण नहीं - इस कथनरूप दो गाथायें पूर्ण हुईं ।

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    + श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव पूर्वोक्त लक्षण अनन्त-सुख के आधारभूत सर्वज्ञ को वस्तुस्तवनरूप से नमस्कार करते हैं -
    तेजो दिट्ठी णाणं इड्ढी सोक्खं तहेव ईसरियं ।
    तिहुवणपहाणदैयं माहप्पं जस्स सो अरिहो ॥71॥
    तेजो दिट्ठी णाणं इड्ढी सोक्खं तहेव ईसरियं
    तिहुवणपहाणदैयं माहप्पं जस्स सो अरिहो ॥७१॥
    प्राधान्य है त्रैलोक्य में ऐश्वर्य ऋद्धि सहित हैं
    तेज दर्शन ज्ञान सुख युत पूज्य श्री अरिहंत हैं ॥७१॥
    अन्वयार्थ : जिनके भामण्डल, केवलदर्शन, केवलज्ञान, ऋद्धि, अतीन्द्रिय सुख, ईश्वरता, तीन लोक में प्रधान देव आदि माहात्म्य हैं; वे अरहंत भगवान हैं ॥७१॥

    जयसेनाचार्य :
    (अब सर्वज्ञ-नमस्कार परक दो गाथाओं वाला पाँचवे स्थल का चौथा भाग प्रारम्भ होता है ।)

    [तेजो दिट्ठी णाणं इड्ढी सोक्खं तहेव ईसरियं तिहुवणपहाणदइयं] - [माहप्पं जस्स सो अरिहो] - इसप्रकार का माहात्म्य जिनका है, वे अरहंत कहलाते हैं ।

    इसप्रकार वस्तु-स्तवनरूप से नमस्कार किया गया है ।

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    + उन्हीं भगवान को सिद्धावस्था सम्बन्धी गुणों के स्तवनरूप से नमस्कार -
    तं गुणदो अधिगदरं अविच्छिदं मणुवदेवपदिभावं ।
    अपुणब्भावणिबद्धं पणमामि पुणो पुणो सिद्धं ॥72॥
    तं गुणदो अधिगदरं अविच्छिदं मणुवदेवपदिभावं
    अपुणब्भावणिबद्धं पणमामि पुणो पुणो सिद्धं ॥७२॥
    हो नमन बारम्बार सुरनरनाथ पद से रहित जो
    अपुनर्भावी सिद्धगण गुण से अधिक भव रहित जो ॥७२॥
    अन्वयार्थ : उन गुणों से परिपूर्ण, मनुष्य व देवों के स्वामित्व से रहित, अपुनर्भाव निबद्ध-मोक्ष स्वरूप सिद्ध भगवान को बारंबार प्रणाम करता हूँ ॥७२॥

    जयसेनाचार्य :
    [पणमामि] - नमस्कार करता हूँ । [पुणो पुणो] - बारम्बार । बारम्बार किन्हें नमस्कार करता हूँ? [तं सिद्धं] - परमागम में प्रसिद्ध उन सिद्धों को नमस्कर करता हूँ । वे सिद्ध कैसे हैं? [गुणदो अधिगदरं] -अव्याबाध- अनन्त सुखादि गुणों से अधिकतर-अच्छी तरह विशिष्टाधिक-परिपूर्ण गुणवाले हैं । वे सिद्ध और कैसे हैं? [अविच्छिदं मणुवदेवपदिभावं] - जैसे पहले अरहन्त अवस्था में चक्रवर्ती, देवेन्द्र आदि समवशरण में आकर नमस्कार करते हैं, उससे प्रभुता होती है; उससे उल्लंघित हो जाने के कारण मानवपति, देवपति भाव से रहित हैं । वे सिद्ध और किस विशेषतावाले हैं? [अपुणब्भावणिबद्धं] - द्रव्य क्षेत्रादि पाँच प्रकार के भवों से विलक्षण शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी निजात्मा की प्राप्ति लक्षण जो मोक्ष, उसके अधीन होने से अपुनर्भावनिबद्ध हैं - यह भाव है ।

    इस प्रकार नमस्कार की मुख्यता से दो गाथायें पूर्ण हुईं ।

    इस प्रकार आठ गाथाओं वाला पाँचवा स्थल जानना चाहिये ।

    इसप्रकार अठारह गाथाओं द्वारा पाँच स्थलों में विभक्त 'सुख प्रपंच' नामक चतुर्थ अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।

    इसप्रकार पूर्वोक्त प्रकार से ['एस सुरासुर'] इत्यादि चौदह गाथाओं द्वारा पीठिका पूर्ण हुई उसके बाद सात गाथाओं द्वारा (सामान्य-सर्वज्ञसिद्धि), तदनन्तर तेंतीस गाथाओं द्वारा (ज्ञानप्रपंच) और उसके बाद अठारह गाथाओं द्वारा (सुखप्रपंच) - इसप्रकार सामूहिक बहत्तर गाथाओं द्वारा चार अन्तराधिकार रूप से प्रथम (शुद्धोपयोग अधिकार) पूर्ण हुआ ।

    इसके आगे पच्चीस गाथा पर्यन्त चलनेवाला ['ज्ञानकण्डिका चतुष्टय'] नामक द्वितीयाधिकार प्रारम्भ होता है । वहाँ पच्चीस गाथाओं में सबसे पहले शुभाशुभ के विषय में मूढता-निराकरण के लिये ['देवदजदिगुरु'] इत्यादि दस गाथा पर्यन्त पहली ज्ञानकण्डिका कहते हैं । उसके बाद आप्त और आत्मा के स्वरूप परिज्ञान के विषय में मूढता-निराकरण के लिये ['चत्ता पावारंभं'] इत्यादि सात गाथा पर्यन्त दूसरी ज्ञान कण्डिका, अब उसके बाद द्रव्य-गुण-पर्याय सम्बन्धी परिज्ञान के विषय में मूढता-निराकरण के लिये ['दव्वादिएसु'] इत्यादि छह गाथा पर्यन्त तीसरी ज्ञान कण्डिका है । तत्पश्चात् स्व-पर तत्त्व परिज्ञान सम्बन्धी विषय में मूढता-निराकरण के लिये ['णाणप्पग'] इत्यादि दो गाथाओं द्वारा चौथी ज्ञान कण्डिका कही गई है ।

    इसप्रकार ज्ञानकण्डिका चतुष्टय नामक दूसरे अधिकार में सामूहिक पातनिका हुई ।

    अब, इस समय पहली ज्ञान कण्डिका अन्तराधिकार में स्वतंत्र व्याख्यानरूप से चार गाथायें, उसके बाद पुण्य जीव को विषयतृष्णा का उत्पादक है - इस कथनरूप से चार गाथायें, उसके बाद उपसंहार रूप से दो गाथायें - इसप्रकार तीन स्थल पर्यन्त क्रम से व्याख्यान करते हैं ।

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    + इन्द्रिय-सुख स्वरूप सम्बन्धी विचारों को लेकर, उसके साधन (शुभोपयोग) का स्वरूप -
    देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु । (69)
    उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा ॥73॥
    देवतायतिगुरुपूजासु चैव दाने वा सुशीलेषु ।
    उपवासादिषु रक्तः शुभोपयोगात्मक आत्मा ॥६९॥
    देव-गुरु-यति अर्चना अर दान उपवासादि में
    अर शील में जो लीन शुभ उपयोगमय वह आतमा ॥७३॥
    अन्वयार्थ : [देवतायतिगुरुपूजासु] देव, गुरु और यति की पूजा में, [दाने च एव] दान में [सुशीलेषु वा] एवं सुशीलों में [उपवासादिषु] और उपवासादिक में [रक्त: आत्मा] लीन आत्मा [शुभोपयोगात्मक:] शुभोपयोगात्मक है ॥६९॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    जब यह आत्मा दुःख की साधनभूत ऐसी द्वेष-रूप तथा इन्द्रिय विषय की अनुराग-रूप अशुभोपयोग भूमिका का उल्लंघन करके, देव-गुरु-यति की पूजा, दान, शील और उपवासादिक के प्रीति-स्वरूप धर्मानुराग को अंगीकार करता है तब वह इन्द्रिय-सुख की साधन-भूत शुभोपयोग-भूमिका में आरूढ़ कहलाता है ॥६९॥

    जयसेनाचार्य :
    (अब यहाँ द्वितीयाधिकार के अन्तर्गत प्रथम ज्ञानकण्डिका रूप प्रथम अन्तराधिकार का चार स्वतंत्र गाथा प्रतिपादक चार गाथाओं में निबद्ध पहला स्थल प्रारम्भ होता है ।)

    वह इसप्रकार - अब यद्यपि पहले छह गाथाओं (६५ से ७०) द्वारा इन्द्रिय-सुख का स्वरूप कहा गया है, तथापि उसे ही और भी विस्तार से कहते हुये उसके साधक शुभोपयोग का प्रतिपादन करते हैं ।

    अथवा दूसरी पातनिका - पीठिका में जिस शुभोपयोग के स्वरूप की सूचना दी थी उसका इस समय इन्द्रिय-सुख का साधक होने से इन्द्रिय-सुख के विशेष विचार के प्रसंग में विशेष विवरण करते हैं -

    [देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु] - देवता, यति और गुरु की पूजा में तथा दान और सुशीलों में [उववासादिसु रत्तो] - और उसी प्रकार उपवासादि में आसक्त-लीन [अप्पा] - जीव [सुहोवओगप्पगो] - शुभोपयोगात्मक कहा गया है ।

    वह इसप्रकार -

    पूर्वोक्त देवता, यति, गुरुओं तथा उनके प्रतिबिम्बादि के प्रति यथासम्भव द्रव्य - भावादि पूजा और आहारादि चार प्रकार का दान तथा आचारादि ग्रंथों (चरणानुयोग के ग्रंथों) में कहे हुये शील व्रत और उसी प्रकार जिनगुणसम्पत्ति आदि विधि-विशेषरूप उपवासादि । जो इन शुभ अनुष्ठानों में लीन है और द्वेषरूप, विषयानुरागरूप अशुभ-अनुष्ठानों से विरक्त है, वह जीव शुभोपयोगी है - यह गाथा का अर्थ है ।

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    + शुभोपयोग साधन है और उनका साध्य इन्द्रियसुख है -
    जुत्तो सुहेण आदा तिरिओ वा माणुसो व देवो वा । (70)
    भूदो तावदि कालं लहदि सुहं इन्दियं विविहं ॥74॥
    युक्तः शुभेन आत्मा तिर्यग्वा मानुषो वा देवो वा ।
    भूतस्तावत्कालं लभते सुखमैन्द्रियं विविधम् ॥७०॥
    अरे शुभ उपयोग से जो युक्त वह तिर्यग्गति
    अर देव मानुष गति में रह प्राप्त करता विषयसुख ॥७४॥
    अन्वयार्थ : [शुभेन युक्त:] शुभोपयोग-युक्त [आत्मा] आत्मा [तिर्यक् वा] तिर्यंच, [मानुष: वा] मनुष्य [देव: वा] अथवा देव [भूत:] होकर, [तावत्कालं] उतने समय तक [विविधं] विविध [ऐन्द्रियं सुखं] इन्द्रिय-सुख [लभते] प्राप्त करता है ॥७०॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    यह आत्मा इन्द्रिय-सुख के साधनभूत शुभोपयोग की सामर्थ्य से उसके अधिष्ठान-भूत (इन्द्रियसुख के स्थानभूत-आधारभूत ऐसी) तिर्यंच, मनुष्य और देवत्व की भूमिकाओं में से किसी एक भूमिका को प्राप्त करके जितने समय तक (उसमें) रहता है, उतने समय तक अनेक प्रकार का इन्द्रिय-सुख प्राप्त करता है ॥७०॥

    जयसेनाचार्य :
    अब पूर्वोक्त शुभोपयोग द्वारा साध्य इन्द्रिय-सुख को कहते हैं -

    [सुहेण जुत्तो आदा] - जैसे निश्चय रत्नत्रयात्मक शुद्धोपयोग से सहित यह जीव, मुक्त होकर अनन्तकाल तक अतीन्द्रिय सुख पाता रहता है; उसी प्रकार पूर्व गाथा (७३ गाथा) में कहे लक्षण वाले शुभोपयोग से सहित - परिणत यह आत्मा [तिरियो वा माणुसो वा देवो वा भूदो] - तिर्यंच, मनुष्य अथवा देव होकर [तावदि कालं] - अपनी आयु पर्यन्त [लहदि सुहं इंदियं विविहं] - इन्द्रियजन्य विविध सुखों को प्राप्त करता है - यह गाथा का अभिप्राय है ।

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    + इसप्रकार इन्द्रिय-सुख की बात उठाकर अब इन्द्रिय-सुख को दुखपने में डालते हैं -
    सोक्खं सहावसिद्धं णत्थि सुराणं पि सिद्धमुवदेसे । (71)
    ते देहवेदणट्ठा रमंति विसएसु रम्मेसु ॥75॥
    सौख्यं स्वभावसिद्धं नास्ति सुराणामपि सिद्धमुपदेशे ।
    ते देहवेदनार्ता रमन्ते विषयेषु रम्येषु ॥७१॥
    उपदेश से है सिद्ध देवों के नहीं है स्वभावसुख
    तनवेदना से दुखी वे रमणीक विषयों में रमे ॥७५॥
    अन्वयार्थ : [उपदेशे सिद्धं] (जिनेन्द्र-देव के) उपदेश से सिद्ध है कि [सुराणाम्‌ अपि] देवों के भी [स्वभावसिद्धं] स्वभाव-सिद्ध [सौख्यं] सुख [नास्ति] नहीं है; [ते] वे [देहवेदनार्ता] (पंचेन्द्रियमय) देह की वेदना से पीड़ित होने से [रम्येसु विषयेसु] रम्य विषयों में [रमन्ते] रमते हैं ॥७१॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    इन्द्रिय-सुख के भाजनों में प्रधान देव हैं; उनके भी वास्तव में स्वाभाविक सुख नहीं है, उल्टा उनके स्वाभाविक दुःख ही देखा जाता है; क्योंकि वे पचेन्द्रियात्मक शरीर-रूपी पिशाच की पीड़ा से परवश होने से भृगुप्रपात के समान मनोज्ञ विषयों की ओर दौड़ते हैं ॥७१॥

    भृगुप्रपात = अत्यंत दुःख से घबराकर आत्मघात करने के लिये पर्वत के निराधार उच्च शिखर से गिरना । (भृगु = पर्वत का निराधार उच्च-स्थान-शिखर प्रपात= गिरना)

    जयसेनाचार्य :
    [सोक्खं सहावसिद्धं] - उपादान-कारणभूत ज्ञानानन्द एक स्वभाव से उत्पन्न जो रागादि उपाधि रहित स्वाभाविक सुख, वह स्वभाव-सिद्ध सुख कहलाता है । [तच्च णत्थि सुराणं पि] - वह सुख मनुष्यादि के तो दूर ही रहो, देवेन्द्रादि के भी नहीं है । [सिद्धमुवदेसे] - ऐसा परमागम में कहा गया है । [ते देहवेदणट्ठा रमंति विसएसु रम्मेसु] - उस प्रकार के स्वभावसिद्ध सुख का अभाव होने से वे देवादि शरीर सम्बन्धी वेदना से पीड़ित-दु:खित होते हुये रम्याभास विषयों में रमण करते हैं ।

    अब इसका विस्तार करते हैं - जैसे कोई पुरुष विशेष सुख मानता है; वैसा यह संसार का सुख है । पूर्वोक्त मोक्षसुख इससे विपरीत है - यह तात्पर्य है ।

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    + इन्द्रिय-सुख के साधनभूत पुण्य को उत्पन्न करनेवाले शुभोपयोग की, दुःख के साधनभूत पाप को उत्पन्न करनेवाले अशुभोपयोग से अविशेषता -
    णरणारयतिरियसुरा भजन्ति जदि देहसंभवं दुक्खं । (72)
    किह सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवाणं ॥76॥
    नरनारकतिर्यक्सुरा भजन्ति यदि देहसंभवं दुःखम् ।
    कथं स शुभो वाऽशुभ उपयोगो भवति जीवानाम् ॥७२॥
    नर-नारकी तिर्यंच सुर यदि देहसंभव दु:ख को
    अनुभव करें तो फिर कहो उपयोग कैसे शुभ-अशुभ ? ॥७६॥
    अन्वयार्थ : [नरनारकतिर्यक्सुरा:] मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव (सभी) [यदि] यदि [देहसंभवं] देहोत्पन्न [दुःखं] दुःख को [भजंति] अनुभव करते हैं, [जीवानां] तो जीवों का [सः उपयोग:] वह (शुद्धोपयोग से विलक्षण- अशुद्ध) उपयोग [शुभ: वा अशुभ:] शुभ और अशुभ-दो प्रकार का [कथं भवति] कैसे है? (अर्थात् नहीं है) ॥७२॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    यदि शुभोपयोग-जन्य उदयगत पुण्य की सम्पत्ति वाले देवादिक (अर्थात् शुभोपयोग-जन्य पुण्य के उदय से प्राप्त होने वाली ऋद्धि वाले देव इत्यादि) और अशुभोपयोग-जन्य उदयगत पाप की आपदा वाले नारकादिक-यह दोनों स्वाभाविक सुख के अभाव के कारण अविशेषरूपसे (बिना अन्तर के) पचेन्द्रियात्मक शरीर सम्बन्धी दुःख का ही अनुभव करते हैं, तब फिर परमार्थ से शुभ और अशुभ उपयोग की पृथक्त्व व्यवस्था नहीं रहती ॥७२॥

    जयसेनाचार्य :
    [णरणारयंतिरियसुरा भजंति जदि देहसंभवं दुक्खं] - सहज अतीन्द्रिय, अमूर्त, सदानन्द एक लक्षण वास्तविक सुख को प्राप्त नहीं करते हुये मनुष्य, नारकी, तिर्यंच, देव यदि समानरूप से पूर्वोक्त पारमार्थिक सुख से विलक्षण पंचेन्द्रियात्मक शरीर से उत्पन्न दुःख को ही निश्चयनय से भोगते हैं, [किह सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवाणं] - व्यवहार से विशेष भेद होने पर भी निश्चय से शुद्धोपयोग से विलक्षण वह प्रसिद्ध शुभ-अशुभ उपयोग भिन्नता को कैसे प्राप्त हो सकता है? किसी भी प्रकार प्राप्त नहीं हो सकता - यह भाव है ।

    इस प्रकार स्वतंत्र चार गाथाओं द्वारा प्रथम स्थल पूर्ण हुआ ।

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    + शुभोपयोग-जन्य फलवाला जो पुण्य है उसे विशेषत: दूषण देने के लिये उस पुण्य को (उसके अस्तित्व को) स्वीकार करके, उसकी (पुण्य की) बात का खंडन -
    कुलिसाउहचक्कधरा सुहोवओगप्पगेहिं भोगेहिं । (73)
    देहादीणं विद्धिं करेंति सुहिदा इवाभिरदा ॥77॥
    कुलिशायुधचक्रधराः शुभोपयोगात्मकैः भोगैः ।
    देहादीनां वृद्धिं कुर्वन्ति सुखिता इवाभिरताः ॥७३॥
    वज्रधर अर चक्रधर सब पुण्यफल को भोगते
    देहादि की वृद्धि करें पर सुखी हों ऐसे लगे ॥७७॥
    अन्वयार्थ : [कुलिशायुधचक्रधरा:] वज्रधर और चक्रधर (इन्द्र और चक्रवर्ती) [शुभोपयोगात्मकै: भोगै:] शुभोपयोग-मूलक (पुण्यों के फलरूप) भोगों के द्वारा [देहादीनां] देहादि की [वृद्धिं कुर्वन्ति] पुष्टि करते हैं और [अभिरता:] (इस प्रकार) भोगों में रत वर्तते हुए [सुखिता: इव] सुखी जैसे भासित होते हैं । (इसलिये पुण्य विद्यमान अवश्य है) ॥७३॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    शक्रेन्द्र और चक्रवर्ती अपनी इच्छानुसार प्राप्त भोगों के द्वारा शरीरादि को पुष्ट करते हुए-जैसे गोंच (जोंक) दूषित रक्त में अत्यन्त आसक्त वर्तती हुई सुखी जैसी भासित होती है, उसी प्रकार-उन भोगों में अत्यन्त आसक्त वर्तते हुए सुखी जैसे भासित होते हैं; इसलिये शुभोपयोग-जन्य फलवाले पुण्य दिखाई देते हैं । (अर्थात् शुभोपयोगजन्य फलवाले पुण्यों का अस्तित्व दिखाई देता है) ॥७३॥

    जयसेनाचार्य :
    (अब तृष्णोत्पादक पुण्य प्रतिपादक चार गाथाओं में निबद्ध दूसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)

    अब पुण्य देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि पद देता है - इस प्रकार पहले प्रशंसा करते है । पुण्य की प्रशंसा किसलिये करते हैं? उसके फल के आधार से आगे तृष्णा की उत्पत्तिरूप दुःख दिखाने के लिये पहले उसकी प्रशंसा करते हैं -

    [कुलिसाउहचक्कधरा] - देवेन्द्र और चक्रवर्ती रूप कर्ता - इस वाक्य में कर्ता कारक में प्रयुक्त देवेन्द्र और चक्रवर्ती । [सुहोवओगप्पगेहिं भोगेहिं] - शुभोपयोग के फल से उत्पन्न भोगों द्वारा [देहादीणं वृद्धिं करेंति] - विशेष क्रियाओं के माध्यम से शरीर-परिवार आदि की वृद्धि करते हैं । वे कैसे होते हुये इनकी वृद्धि करते हैं? [सुहिदा इवाभिरदा] - वे सुखी के समान आसक्त होते हुये शरीरादि की वृद्धि करते हैं।

    यहाँ अर्थ यह है - जो परम अतिशय संतुष्टि को उत्पन्न करने वाला और विषय-तृष्णा को नष्ट करने वाला स्वाभाविक सुख है, उसे प्राप्त नहीं करने वाले दूषित रक्त में आसक्त जलयूका (जोंक) के समान आसक्त होते हुये सुखाभास से देहादि की वृद्धि करते हैं । इससे ज्ञात होता है कि उन्हें स्वाभाविक सुख नहीं है।

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    + इस प्रकार स्वीकार किये गये पुण्य दु:ख के बीज (तृष्णा) के कारण हैं -
    जदि संति हि पुण्णाणि य परिणामसमुब्भवाणि विविहाणि । (74)
    जणयंति विसयतण्हं जीवाणं देवदंताणं ॥78॥
    यदि सन्ति हि पुण्यानि च परिणामसमुद्भवानि विविधानि ।
    जनयन्ति विषयतृष्णां जीवानां देवतान्तानाम् ॥७४॥
    शुभभाव से उत्पन्न विध-विध पुण्य यदि विद्यमान हैं
    तो वे सभी सुरलोक में विषयेषणा पैदा करें ॥७८॥
    अन्वयार्थ : [यदि हि] (पूर्वोक्त पकार से) यदि [परिणामसमुद्भवानी] (शुभोपयोग-रूप) परिणाम से उत्पन्न होने वाले [विविधानि पुण्यानि च] विविध पुण्य [संति] विद्यमान हैं, [देवतान्तानां जीवानां] तो वे देवों तक के जीवों को [विषयतृष्णां] विषयतृष्णा [जनयन्ति] उत्पन्न करते हैं ॥७४॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    यदि इस प्रकार शुभोपयोग परिणाम से उत्पन्न होने वाले अनेक पकार के पुण्य विद्यमान हैं ऐसा स्वीकार किया है, तो वे (पुण्य) देवों तक के समस्त संसारियों को विषय-तृष्णा अवश्यमेव उत्पन्न करते हैं (ऐसा भी स्वीकार करना पड़ता है) वास्तव में तृष्णा के बिना; जैसे जोंक (गोंच) को दूषित रक्त में, उसी प्रकार समस्त संसारियों को विषयों में प्रवृत्ति दिखाई न दे; किन्तु वह तो दिखाई देती है । इसलिये पुण्यों की तृष्णायतनता अबाधित ही है (अर्थात् पुण्य तृष्णा के घर हैं ऐसा अविरोध रूप से सिद्ध होता है) ॥७४॥

    जयसेनाचार्य :
    [जदि संति हि पुण्णाणि य] - यदि निश्चय से पुण्य-पाप रहित परमात्मा से विपरीत पुण्य हैं । और वे भी पुण्य किस विशेषता वाले हैं? [परिणामसमुब्भवाणि] - निर्विकार स्वसंवेदन से विलक्षणशुभ परिणामों से उत्पन्न [विविहाणि] - अपने अनन्त भेदों से अनेक प्रकार वाले हैं । तब वे पुण्य क्या करते हैं? [जणयंति विसयतण्हं] - उत्पन्न करते हैं । वे पुण्य क्या उत्पन्न करते हैं? वेविषय-तृष्णा उत्पन्न करते हैं । वे किनकी विषय-तृष्णा उत्पन्न करते हैं? [जीवाणं देवदंताणं] - देखे हुये, सुने हुये, अनुभव किये हुये भोगों की आकांक्षा रूप निदान बंध से लेकर विविध प्रकार के इच्छा रूपी घोड़ों और विकल्प जालों से रहित परमसमाधि (स्वरूपलीनता) से उत्पन्न, सम्पूर्ण आत्म-प्रदेशों में परमाह्लाद को उत्पन्न करने वाले एकाकार परम समरसीभाव स्वरूप, विषयेच्छा रूप अग्नि से उत्पन्न तीव्रदाह की विनाशक, सुखामृत स्वरूप तृप्ति को प्राप्त नहीं करने वाले देवेन्द्रों से लेकर बहिर्मुख संसारी जीवों की विषय-तृष्णा को उत्पन्न करते हैं ।

    यहाँ तात्पर्य यह है कि यदि (उक्त बहिर्मुखी जीवों के) उस प्रकार की विषय-तृष्णा नहीं होती, तो वे दूषित रक्त में आसक्त जलयूका (जोंक) के समान विषयों में प्रवृत्ति कैसे करते? और यदि वे करते है, तो तृष्णा के उत्पादक होने से पुण्य दुःख के कारण ज्ञात होते हैं।

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    + पुण्य में दुःख के बीज की विजय घोषित करते हैं -
    ते पुण उदिण्णतण्हा दुहिदा तण्हाहिं विसयसोक्खाणि । (75)
    इच्छंति अणुभवंति य आमरणं दुक्खसंतत्ता ॥79॥
    ते पुनरुदीर्णतृष्णाः दुःखितास्तृष्णाभिर्विषयसौख्यानि ।
    इच्छन्त्यनुभवन्ति च आमरणं दुःखसंतप्ताः ॥७५॥
    अरे जिनकी उदित तृष्णा दु:ख से संतप्त वे
    हैं दुखी फिर भी आमरण वे विषयसुख ही चाहते ॥७९॥
    अन्वयार्थ : [पुन:] और, [उदीर्णतृष्णा: ते] जिनकी तृष्णा उदित है ऐसे वे जीव [तृष्णाभि: दुःखिता:] तृष्णाओं के द्वारा दुःखी होते हुए, [आमरणं] मरणपर्यंत [विषय सौख्यानि इच्छन्ति] विषय-सुखों को चाहते हैं [च] और [दुःखसन्तसा:] दुःखों से संतप्त होते हुए (दुःख-दाह को सहन न करते हुए) [अनुभवंति] उन्हें भोगते हैं ॥७५॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    जिनके तृष्णा उदित है ऐसे देवपर्यन्त समस्त संसारी, तृष्णा दुःख का बीज होने से, पुण्य-जनित तृष्णाओं के द्वारा भी अत्यन्त दुखी होते हुए मृगतृष्णा में से जल की भाँति विषयों में से सुख चाहते हैं और उस दुख-संताप के वेग को सहन न कर सकने से विषयों को तब-तक भोगते हैं, जब तक कि विनाश (मरण) को प्राप्त नहीं होते । जैसे जोंक (गोंच), तृष्णा जिसका बीज है ऐसे विजय को प्राप्त दु:खांकुर से क्रमश: आक्रान्त होने से दूषित रक्त को चाहती है और उसी को भोगती हुई मरण-पर्यन्त क्लेश को पाती है, उसी प्रकार यह पुण्यशाली जीव भी, पापशाली जीवों की भाँति, तृष्णा जिसका बीज है ऐसे विजय-प्राप्त दु:खांकुरों के द्वारा क्रमश: आक्रांत होने से, विषयों को चाहते हुए और उन्ही को भोगते हुए विनाश-पर्यन्त (मरणपर्यन्त) क्लेश पाते हैं ।

    इससे पुण्य सुखाभास ऐसे दुःखका ही साधन है ॥७५॥

    जैसे मृगजल में से जल नहीं मिलता वैसे ही इन्द्रिय-विषयों में से सुख प्राप्त नहीं होता
    दुःखसंताप = दुःखदाह; दुःख की जलन-पीड़ा

    जयसेनाचार्य :
    [ते पुण उदिण्णतण्हा] - सहज शुद्धात्म-तृप्ति का अभाव होने से सर्व संसारी जीव तृष्णा की प्रगटता वाले होते हुये [दुहिदा तण्हाहिं] - स्वसंवेदन से उत्पन्न पारमार्थिक सुख का अभाव होने से पूर्वोक्त तृष्णा से दुःखित होते हुये । तृष्णा से दुःखी वे क्या करते है? [विसयसोक्साणि इच्छंति] - उससे दुःखी वे निर्विषय परमात्मसुख से विलक्षण विषय-सुख की इच्छा करते हैं । वे मात्र उसकी इच्छा ही नहीं करते, अपितु [अणुभंवति य] - अनुभव भी करते हैं । वे विषय-सुख का अनुभव कब तक करते हैं? [आमरण] - वे उसका अनुभव मरण पर्यन्त करते हैं । कैसे होते हुये वे उसका अनुभव करते है? [दुक्खसंतत्ता] - दुःख से संतप्त होते हुये वे उसका अनुभव करते हैं ।

    यहाँ अर्थ यह है - जैसे तृष्णा की वृद्धि से प्रेरित दूषित रक्त की इच्छा करते हुये जलौकस (जोंक) उसके ही अनुभव करते हुये मरण पर्यन्त दुःखी होते है; उसी प्रकार स्वशुद्धात्मा के संवेदन से रहित जीव भी, मृगतृष्णा के कारण जल की इच्छा के समान विषयों को चाहते हुये तथा उनका ही अनुभव करते हुये मरण पर्यन्त दु:खी होते हैं ।

    इससे यह निश्चित हुआ कि तृष्णा रूपी रोग को उत्पन्न करने वाले होने से पुण्य वास्तव में दुःख के कारण हैं ।

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    + पुन: पुण्य-जन्य इन्द्रिय-सुख को अनेक पकार से दुःखरूप प्रकाशित करते हैं -
    सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । (76)
    जं इंदिएहि लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ॥80॥
    सपरं बाधासहितं विच्छिन्नं बन्धकारणं विषमम् ।
    यदिन्द्रियैर्लब्धं तत्सौख्यं दुःखमेव तथा ॥७६॥
    इन्द्रियसुख सुख नहीं दुख है विषम बाधा सहित है
    है बंध का कारण दुखद परतंत्र है विच्छिन्न है ॥८०॥
    अन्वयार्थ : [यत्] जो [इन्द्रियै: लब्धं] इन्द्रियों से प्राप्त होता है [तत् सौख्य] वह सुख [सपरं] पर-सम्बन्ध-युक्त, [बाधासहितं] बाधासहित [विच्छिन्नं] विच्छिन्न [बंधकारणं] बंधका कारण [विषमं] और विषम है; [तथा] इस प्रकार [दुःखम् एव] वह दुःख ही है ॥७६॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    पर-सम्बन्ध-युक्त होने से, बाधा सहित होने से, विच्छन्न होने से, बन्ध का कारण होने से, और विषम होने से - इन्द्रियसुख, पुण्यजन्य होने पर भी, दुःख ही है ।

    इन्द्रियसुख
    1. 'पर के सम्बन्धवाला' होता हुआ पराश्रयता के कारण पराधीन है,
    2. बाधासहित होता हुआ खाने, पीने और मैथुन की इच्छा इत्यादि तृष्णा की व्यक्तियों से (तृष्णा की प्रगटताओं से) युक्त होने से अत्यन्त आकुल है,
    3. 'विच्छिन्न' होता हुआ असाता-वेदनीय का उदय जिसे च्युत कर देता है ऐसे साता-वेदनीय के उदय से प्रवर्तमान होता हुआ अनुभव में आता है, इसलिये विपक्ष की उत्पत्तिवाला है,
    4. 'बन्ध का कारण' होता हुआ विषयोपभोग के मार्ग में लगी हुई रागादि दोषों की सेना के अनुसार कर्म-रज के घन-पटल का सम्बन्ध होने के कारण परिणाम से दु:सह है, और
    5. 'विषम' होता हुआ हानि- वृद्धि में परिणमित होने से अत्यन्त अस्थिर है;
    इसलिये वह (इन्द्रियसुख) दुःख ही है । जब कि ऐसा है (इन्द्रियसुख दुःख ही है) तो पुण्य भी, पाप की भाँति, दुख का साधन है ऐसा फलित हुआ ॥७६॥

    च्युत करना = हटा देना; पदभ्रष्ट करना; (साता-वेदनीय का उदय उसकी स्थिति अनुसार रहकर हट जाता है और असाता-वेदनीय का उदय आता है)
    घन पटल = सघन (गाढ) पर्त, बड़ा झुण्ड

    जयसेनाचार्य :
    [जं इंदियेहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा] - जो इन्द्रियों से प्राप्त संसार-सुख है, वह सुख जिस प्रकार पूर्वोक्त पाँच विशेषणों सहित है, उसी प्रकार दुःख ही है - यह अभिप्राय है ।

    इस प्रकार पुण्य जीव की तृष्णा के उत्पादक होने से दुःख के कारण हैं - इस कथनरूप से दूसरे स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुईं ।

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    + पुण्य और पाप की अविशेषता का निश्चय करते हुए उपसंहार -
    ण हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं । (77)
    हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो ॥81॥
    न हि मन्यते य एवं नास्ति विशेष इति पुण्यपापयोः ।
    हिण्डति घोरमपारं संसारं मोहसंछन्नः ॥७७॥
    पुण्य-पाप में अन्तर नहीं है - जो न माने बात ये
    संसार-सागर में भ्रमें मद-मोह से आच्छन्न वे ॥८१॥
    अन्वयार्थ : [एवं] इसप्रकार [पुण्यपापयो:] पुण्य और पाप में [विशेष: नास्ति] अन्तर नहीं है [इति] ऐसा [यः] जो [न हि मन्यते] नहीं मानता, [मोहसंछन्न:] वह मोहाच्छादित होता हुआ [घोर अपारं संसारं] घोर अपार संसार में [हिण्डति] परिभ्रमण करता है ॥७७॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    यों पूर्वोक्त प्रकार से, शुभाशुभ उपयोग के द्वैत की भाँति और सुख-दुःख के द्वैत की भाँति, परमार्थ से पुण्य-पाप का द्वैत नहीं टिकता-नहीं रहता, क्योंकि दोनों में अनात्म-धर्मत्व अविशेष अर्थात् समान है । (परमार्थ से जैसे शुभोपयोग और अशुभोपयोग रूप द्वैत विद्यमान नहीं है, जैसे सुख और दुःखरूप द्वैत विद्यमान नहीं है, उसीप्रकार पुण्य और पाप-रूप द्वैत का भी अस्तित्व नहीं है; क्योंकि पुण्य और पाप दोनों आत्मा के धर्म न होने से निश्चय से समान ही हैं ।) ऐसा होने पर भी, जो जीव उन दोनों मे-सुवर्ण और लोहे की बेड़ी की भाँति- अहंकारिक अन्तर मानता हुआ, अहमिन्द्र-पदादि सम्पदाओं के कारणभूत धर्मानुराग पर अत्यन्त निर्भरमयरूप से (गाढरूप से) अवलम्बित है, वह जीव वास्तव में चित्तभूमि के उपरक्त होने से (चित्त की भूमि कर्मोपाधि के निमित्त से रंगी हुई-मलिन विकृत होने से) जिसने शुद्धोपयोग शक्ति का तिरस्कार किया है, ऐसा वर्तता हुआ संसार-पर्यन्त (-जब तक इस संसार का अस्तित्व है तब तक अर्थात् सदा के लिये) शारीरिक दुःख का ही अनुभव करता है ॥७७॥

    सुख = इन्द्रियसुख
    पुण्य और पाप में अन्तर होने का मत अहंकार-जन्य (अविद्या-जन्य, अज्ञान-जन्य) है

    जयसेनाचार्य :
    (अब उपसंहार परक दो गाथाओं वाला तीसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)

    [ण हि मण्णदि जो एवं] - जो इसप्रकार नहीं मानता है । क्या नहीं मानता है? [णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं] - निश्चय से पुण्य और पाप मे विशेष (भेद-अन्तर) नहीं है - ऐसा नहीं मानता है । वह क्या करता है? [हिंडदि घोरमपारं संसारं] - वह घूमता है । कहाँ घूमता है? संसार में घूमता है । कैसे संसार में घूमता है? अभव्य की अपेक्षा से - वह घोर अपार संसार में घूमता है । वह ऐसे संसार में कैसा होता हुआ घूमता है? [मोहसंछण्णो] - वह मोह से आच्छादित होता हुआ (घिरा हुआ) ऐसे संसार में घूमता है ।

    वह इसप्रकार - व्यवहार से द्रव्य पुण्य-पाप में भेद है, अशुद्ध निश्चयनय से भाव पुण्य-पाप और उनके फलस्वरूप होनेवाले सुख-दुख में भेद है, परन्तु शुद्ध निश्चय से शुद्धात्मा से भिन्न होने के कारण (इनमें) भेद नहीं है । इसप्रकार शुद्ध निश्चयनय से पुण्य और पाप में अभेद को जो नहीं मानता है, वह देवेन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, कामदेव आदि पदों के निमित्त निदानबन्धरूप से पुण्य को चाहता हुआ, निर्मोह शुद्धात्मतत्त्व से विपरीत दर्शनमोह-चारित्रमोह से आच्छादित होता हुआ सोने की बेड़ी और लोहे की बेड़ी के समान पुण्य और पाप दोनों से बंधा हुआ, संसार रहित शुद्धात्मा से विपरीत संसार में भ्रमण करता है - यह अर्थ है ।

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    + इस प्रकार शुभ और अशुभ उपयोग की अविशेषता अवधारित करके, अशेष दुःख का क्षय करने का मन में दृढ़ निश्चय करके शुद्धोपयोग में निवास -
    एवं विदिदत्थो जो दव्वेसु ण रागमेदि दोसं वा । (78)
    उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहुब्भवं दुक्खं ॥82॥
    विदितार्थजन परद्रव्य में जो राग-द्वेष नहीं करें
    शुद्धोपयोगी जीव वे तनजनित दु:ख को क्षय करें ॥८२॥
    अन्वयार्थ : [एवं] इसप्रकार [विदितार्थ:] वस्तु-स्वरूप को जानकर [यः] जो [द्रव्येषु] द्रव्यों के प्रति [रागं द्वेषं वा] राग या द्वेष को [न एति] प्राप्त नहीं होता, [स] वह [उपयोगविशुद्ध:] उपयोगविशुद्ध होता हुआ [देहोद्भवं दुःखं] देहोत्पन्न दुःख का [क्षपयति] क्षय करता है ॥७८॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    जो जीव शुभ और अशुभ भावों के अविशेष दर्शन से (समानता की श्रद्धा से) वस्तु-स्वरूप को सम्यक-प्रकार से जानता है, स्व और पर दो विभागों में रहने वाली, समस्त पर्यायों सहित समस्त द्रव्यों के प्रति राग और द्वेष को निरवशेष रूप से छोड़ता है, वह जीव, एकान्त से उपयोग-विशुद्ध (सर्वथा शुद्धोपयोगी) होने से जिसने पर-द्रव्य का आलम्बन छोड़ दिया है ऐसा वर्तता हुआ-लोहे के गोले में से लोहे के सार का अनुसरण न करने वाली अग्नि की भाँति-प्रचंड घन के आघात समान शारीरिक दुःख का क्षय करता है । (जैसे अग्नि लोहे के तप्त गोले में से लोहे के सत्व को धारण नहीं करती इसलिये अग्नि पर प्रचंड घन के प्रहार नहीं होते, उसी प्रकार पर-द्रव्य का आलम्बन न करने वाले आत्मा को शारीरिक दुःख का वेदन नहीं होता ।) इसलिये यही एक शुद्धोपयोग मेरी शरण है ॥७८॥

    सार = सत्व, घनता, कठिनता

    जयसेनाचार्य :
    [एवं विदिदत्थो जो] - इसप्रकार ज्ञानानन्द एक स्वभावरूप परमात्म-तत्त्व ही उपादेय है, अन्य सर्व हेय हैं - इसप्रकार हेयोपादेय के परिज्ञान से अर्थ--तत्त्व को जानकर, जो [दव्वेसु ण रागमेदि दोसं वा] - निज शुद्धात्म-द्रव्य से भिन्न शुभाशुभ सम्पूर्ण द्रव्यों में राग अथवा द्वेष को प्राप्त नहीं होता है, [उवओगविसुद्धो सो] - रागादि रहित शुद्धात्मानुभूति लक्षण शुद्धोपयोग से विशुद्ध होकर वह [खवेदि देहुब्भवं दुक्खं] - अनाकुलता लक्षण पारमार्थिक सुख से विलक्षण तपे हुये लोह-पिण्ड के समान देह से उत्पन्न तीव्र आकुलता के उत्पादक शारीरिक दुःख को, लोह-पिण्ड से रहित अग्नि के समान, घनघात परम्परा के स्थानीय देह रहित होकर नष्ट कर देता है - यह अभिप्राय है ।

    इसप्रकार उपसंहार रूप से तीसरे स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुईं ।

    इसप्रकार शुभाशुभ विषयक मूढ़ता के निराकरण के लिये १० गाथा पर्यन्त ३ स्थलों के समूह द्वारा प्रथम ज्ञानकण्डिका नामक पहला अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।

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    + शुद्धोपयोग के अभाव में शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं करता है - व्यतिरेक रूप से दृढ करते हैं -
    चत्ता पावारंभं समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्मि । (79)
    ण जहदि जदि मोहादी ण लहदि सो अप्पगं सुद्धं ॥83॥
    त्यक्त्वा पापारम्भं समुत्थितो वा शुभे चरित्रे ।
    न जहाति यदि मोहादीन्न लभते स आत्मकं शुद्धम् ॥७९॥
    सब छोड़ पापारंभ शुभचारित्र में उद्यत रहें
    पर नहीं छोड़े मोह तो शुद्धातमा को ना लहें ॥८३॥
    अन्वयार्थ : [पापारम्भं] पापरम्भ को [त्यक्त्वा] छोड़कर [शुभे चरित्रे] शुभ चारित्र में [समुत्थित: वा] उद्यत होने पर भी [यदि] यदि जीव [मोहादीन्] मोहादि को [न जहाति] नहीं छोड़ता, तो [सः] वह [शुद्धं आत्मकं] शुद्ध आत्मा को [न लभते] प्राप्त नहीं होता ॥७९॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    जो जीव समस्त सावद्य-योग के प्रत्याख्यान-स्वरूप परम-सामायिक नामक चारित्र की प्रतिज्ञा करके भी धूर्त अभिसारिका (नायिका) की भांति शुभोपयोग-परिणति से अभिसार (मिलन) को प्राप्त होता हुआ (अर्थात् शुभोपयोग-परिणति के प्रेम में फँसता हुआ) मोह की सेना के वश-वर्तनपने को दूर नहीं कर डालता-जिसके महा दुःख संकट निकट हैं ऐसा वह, शुद्ध (विकार रहित, निर्मल) आत्मा को कैसे प्राप्त कर सकता है? (नहीं प्राप्त कर सकता) इसलिये मैने मोह की सेना पर विजय प्राप्त करने को कमर कसी है ॥७९॥

    अभिसारिका = संकेत अनुसार प्रेमी से मिलने जाने वाली स्त्री
    अभिसार = प्रेमी से मिलने जाना

    जयसेनाचार्य :
    (अब आप्त-आत्मा के स्वरूप परिज्ञान विषयक मूढ़ता निराकरण की प्रधानता वाला सात गाथाओं में निबद्ध द्वितीय ज्ञानकण्डिका नामक दूसरा अन्तराधिकार प्रारम्भ होता है ।)

    [चत्ता पावारंभं] - पहले घर में निवास आदि रूप पापारम्भ को छोड़कर [समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्हि] - फिर अच्छी तरह स्थित होता है । अच्छी तरह कहाँ स्थित होता है? शुभचारित्र में स्थित होता है। [ण जहदि जदि मोहादि] - यदि राग-द्वेष-मोह को नहीं छोड़ता है, [ण लहदि सो अप्पगं सुद्धं] - वह शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं करता है ।

    यहाँ विस्तार करते हैं - यदि कोई मोक्षार्थी, पहले परम-उपेक्षा लक्षण परम सामायिक की प्रतिज्ञा लेकर, बाद में विषय-सुख की साधक शुभोपयोग परिणति से मोहित चित्तवाला होता हुआ, निर्विकल्प समाधि स्वरूप पूर्वोक्त सामायिक का अभाव होने पर निर्मोह शुद्धात्म-तत्त्व से विरुद्ध मोहादि को नहीं छोड़ता है, तो जिन रूप सिद्ध-भगवान के समान निज-शुद्धात्मा को प्राप्त नही करता है -- यह गाथा का अर्थ है ।

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    + शुद्धोपयोग का अभाव होने पर जैसे (जिन के समान) जिन सिद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं करता है -
    तवसंजमप्पसिद्धो सुद्धो सग्गापवग्गमग्गकरो ।
    अमरासुरिंदमहिदो देवो सो लोयसिहरत्थो ॥84॥
    हो स्वर्ग अर अपवर्ग पथदर्शक जिनेश्वर आपही
    लोकाग्रथित तपसंयमी सुर-असुर वंदित आपही ॥८४॥
    अन्वयार्थ : तप और संयम से सिद्ध हुए वे देव स्वर्ग तथा मोक्षमार्ग के प्रदर्शक, देवेन्द्रों-असुरेन्द्रों से पूजित तथा लोक के शिखर पर स्थित हैं ॥८४॥

    जयसेनाचार्य :
    [तवसंजमप्पसिद्धो] - सम्पूर्ण रागादि परभावों की इच्छा के त्याग से, स्व-स्वरूप में प्रतपन-विजयन तप है; बाह्य में इन्द्रिय-संयम और प्राणसंयम के बल से शुद्धात्मा में संयमन पूर्वक समरसी भाव से परिणमन संयम है । उन दोनों से प्रसिद्ध-उत्पन्न-इसप्रकार तप और संयम से प्रसिद्ध [सुद्धो] - क्षुधादि अठारह दोषों से रहित, [सग्गापवग्गमग्गकरो] - स्वर्ग और प्रसिद्ध केवलज्ञानादि अनन्त चतुष्टय लक्षण मोक्ष - उन दोनों का मार्ग करते हैं अर्थात् मार्ग का उपदेश देते हैं - इसप्रकार स्वर्ग-मोक्ष मार्गकर, [अमरासुरिंदमहिदो] - उस पद के इच्छुक देवेन्द्रों-असुरेन्द्रों द्वारा पूजित हैं - इसप्रकार अमरासुरेन्द्र महित, [देवो सो] - इन गुणों से विशिष्ट वे अरहंत देव हैं । [लोयसिहरत्थो] - वे ही भगवान लोक के अग्र शिखर पर स्थित होते हुये सिद्ध हैं - इसप्रकार जिनरूप सिद्ध भगवान का स्वरूप जानना चाहिये ।

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    + इस प्रकार के उन निर्दोषी परमात्मा की जो श्रद्धा करते हैं - उन्हे मानते हैं - वे अक्षय सुख को प्राप्त करते हैं, एसा प्रज्ञापन करते हैं - ज्ञान कराते हैं -
    तं देवदेवदेवं जदिवरवसहं गुरुं तिलोयस्स ।
    पणमंति जे मणुस्सा ते सोक्खं अक्खयं जंति ॥85॥
    देवेन्द्रों के देव यतिवरवृषभ तुम त्रैलोक्यगुरु
    जो नमें तुमको वे मनुज सुख संपदा अक्षय लहें ॥८५॥
    अन्वयार्थ : जो मनुष्य देवेन्द्रों के भी देव - देवाधिदेव, मुनिवरों में श्रेष्ठ, तीनलोकके गुरु (उन निर्दोषी परमात्मा) को नमस्कार करते हैं; वे अक्षय सुख प्राप्त करते हैं ॥८५॥

    जयसेनाचार्य :
    [तं देवदेवदेवं] - सौधर्मेन्द्रादि देवों के भी देव-देवेन्द्र हैं, उनके देव-आराध्य - उन देवाधिदेव को, [जदिवरवसहं] - जितेन्द्रियत्व होने से निजशुद्धात्मा में प्रयत्नशील यति हैं, उनमें श्रेष्ठ गणधर देवादि हैं, उनमें भी प्रधान यतिवर वृषभ--उन यतिवर-वृषभ को [गुरुम् तिलोयस्स] - अनन्त ज्ञानादि महान गुणों के द्वारा तीन लोक के भी गुरु - उन त्रिलोकगुरु को [पणमंति जे मणुस्सा] - इसप्रकार के उन भगवान को जो मनुष्यादि द्रव्य-भाव नमस्कार पूर्वक प्रणाम करते हैं - उनकी आराधना करते हैं, [ते सोक्खं अक्खयं जंति] - वे उस आराधना के फल-स्वरूप परम्परा से अक्षय-अनन्त सौख्य को प्राप्त करते हैं - यह गाथा का भाव है ।

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    + 'मैं मोह की सेना को कैसे जीतूं' - ऐसा उपाय विचारता है -
    जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं । (80)
    सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥86॥
    यो जानात्यर्हन्तं द्रव्यत्वगुणत्वपर्ययत्वैः ।
    स जानात्यात्मानं मोहः खलु याति तस्य लयम् ॥८०॥
    द्रव्य गुण पर्याय से जो जानते अरहंत को
    वे जानते निज आतमा दृगमोह उनका नाश हो ॥८६॥
    अन्वयार्थ : [यः] जो [अर्हन्तं] अरहन्त को [द्रव्यत्व-गुणत्वपर्ययत्वै:] द्रव्यपने गुणपने और पर्यायपने [जानाति] जानता है, [सः] वह [आत्मानं] (अपने) आत्मा को [जानाति] जानता है और [तस्य मोह:] उसका मोह [खलु] अवश्य [लयं याति] लय को प्राप्त होता है ॥८०॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    जो वास्तव में अरहंत को द्रव्य-रूप से, गुण-रूप से और पर्याय-रूप से जानता है वह वास्तव में आत्मा को जानता है, क्योंकि दोनों में निश्चय से अन्तर नहीं है; और अरहन्त का स्वरूप, अन्तिम ताव को प्राप्त सोने के स्वरूप की भाँति, परिस्पष्ट (सर्वप्रकार से स्पष्ट) है, इसलिये उसका ज्ञान होने पर सर्व आत्मा का ज्ञान होता है । वहाँ अन्वय वह द्रव्य है, अन्वय का विशेषण वह गुण है और अन्वय के व्यतिरेक (भेद) वे पर्यायें हैं । सर्वत: विशुद्ध भगवान अरहंत में (अरहंत के स्वरूप का ख्याल करने पर) जीव तीनों प्रकार-युक्त समय को (द्रव्य-गुण-पर्यायमय निज आत्मा को) अपने मन से जान लेता है-समझ लेता है । यथा 'यह चेतन है' इस प्रकार का अन्वय वह द्रव्य है, अन्वय के आश्रित रहनेवाला 'चैतन्य' विशेषण वह गुण है, और एक समय मात्र की मर्यादा वाला काल-परिमाण होने से परस्पर अप्रवृत्त अन्वय-व्यतिरेक वे पर्यायें हैं-जो कि चिद्विवर्तन (आत्मा के परिणमन) की ग्रंथियां (गाठें) हैं ।

    अब, इस प्रकार त्रैकालिक को भी (त्रैकालिक आत्मा को भी) एक काल में समझ लेने वाला वह जीव, जैसे मोतियों को झूलते हुए हार में अन्तर्गत माना जाता है, उसी प्रकार चिद्‌विवर्तों का चेतन में ही संक्षेपण (अंतर्गत) करके, तथा विशेषण-विशेष्यता की वासना का अन्तर्धान होने से-जैसे सफेदी को हार में अन्तर्हित किया जाता है, उसी प्रकार-चैतन्य को चेतन में ही अन्तर्हित करके, जैसे मात्र हार को जाना जाता है, उसीप्रकार केवल आत्मा को जानने पर, उसके उत्तरोत्तर क्षण में कर्ता-कर्म-क्रिया का विभाग क्षय को प्राप्त होता जाता है इसलिये निष्किय चिन्मात्र भाव को प्राप्त होता है; और इस प्रकार मणि की भाँति जिसका निर्मल प्रकाश अकम्प-रूप से प्रवर्तमान है ऐसे उस (चिन्मात्र भाव को प्राप्त) जीव के मोहान्धकार निराश्रयता के कारण अवश्यमेव प्रलय को प्राप्त होता है ।

    यदि ऐसा है तो मैने मोह की सेना को जीतने का उपाय प्राप्त कर लिया है ॥८०॥

    चेतन = आत्मा
    अन्वयव्यतिरेक = एक दूसरे में नहीं प्रवर्तते ऐसे जो अन्वय के व्यतिरेक
    विशेषण गुण है और विशेष्य वो द्रव्य है
    अंतर्धान = अदृश्य हो जाना
    अंतर्हित = गुप्त; अदृश्य
    हार को खरीदने वाला मनुष्य हार को खरीदते समय हार, उसकी सफेदी और उनके मोतियों इत्यादि की परीक्षा करता है, किन्तु बाद में सफेदी और मोतियों को हार में ही समाविष्ट करके उनका लक्ष छोड्कर वह मात्र हार को ही जानता है । यदि ऐसा न करे तो हार के पहिनने पर भी उसकी सफेदी आदि के विकल्प बने रहने से हार को पहनने के सुख का वेदन नहीं कर सकेगा

    जयसेनाचार्य :
    [जो जाणदि अरहंतं] - कर्तारूप जो जानता है - इस कथन में कर्ता कारक में प्रयुक्त जो जानता है । किसे जानता है? जो अरहन्त को जानता है । किस रूप से अरहंत को जानता है? [दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं] - जो द्रव्यरूप से, गुणरूप से और पर्यायरूप से अरहन्त को जानता है । [सो जाणदि अप्पाणं] - वह पुरुष अरहन्त के परिज्ञान के बाद आत्मा को जानता है, [मोहो खलु जादि तस्स लयं] - उस आत्म-परिज्ञान से उसका मोह-दर्शनमोह विनाश को प्राप्त होता है ।

    वह इसप्रकार - केवलज्ञानादि विशेषगुण, अस्तित्वादि सामान्यगुण, परमौदारिक शरीराकार-रूप जो आत्म-प्रदेशों का अवस्थान (आकार) वह व्यंजन-पर्याय, अगुरुलघुक गुण की षडवृद्धि-हानि रूप से प्रति-समय होने वाली अर्थ-पर्यायें - इन लक्षण वाले गुण-पर्यायों का आधारभूत अमूर्त असंख्यात प्रदेशी शुद्ध चैतन्य के अन्वयरूप (नित्य-वही-वही) द्रव्य है ।

    इसप्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय स्वरूप को पहले कहे हुये अरहन्त नामक परमात्मा में जानकर, तदनन्तर निश्चय नय से उसी आगम के सारपदभूत अध्यात्म-भाषा (की अपेक्षा) से स्वशुद्धात्म-भावना के सम्मुख रूप सविकल्प 'स्वसंवेदन ज्ञान से', - उसीप्रकार आगम भाषा (की अपेक्षा) से अध:प्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण नामक दर्शनमोह के क्षय में समर्थ परिणाम-विशेष के बल से पश्चात् (अपने ज्ञान को) आत्मा में जोड़ता है ।

    इसके बाद निर्विकल्प स्वरूप प्राप्त होने पर, जैसे अभेदनय से पर्याय स्थानीय मुक्ताफल (मोती) और गुण स्थानीय धवलता (सफेदी) हार ही है, उसीप्रकार अभेद नय से पूर्वोक्त द्रव्य-गुण-पर्याय आत्मा ही हैं - इसप्रकार परिणमित होता हुआ (उसका) दर्शन-मोहरूप अन्धकार विनाश को प्राप्त होता है - यह गाथा का भाव है ।

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    + इसप्रकार मैने चिंतामणि-रत्न प्राप्त कर लिया है तथापि प्रमाद चोर विद्यमान है, ऐसा विचार कर जागृत रहता है -
    जीवो ववगदमोहो उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्मं । (81)
    जहदि जदि रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्धं ॥87॥
    जीवो व्यपगतमोह उपलब्धवांस्तत्त्वमात्मनः सम्यक् ।
    जहाति यदि रागद्वेषौ स आत्मानं लभते शुद्धम् ॥८१॥
    जो जीव व्यपगत मोह हो - निज आत्म उपलब्धि करें
    वे छोड़ दें यदि राग रुष शुद्धात्म उपलब्धि करें ॥८७॥
    अन्वयार्थ : [व्यपगतमोह:] जिसने मोह को दूर किया है और [सम्यक् आत्मन: तत्त्वं] आत्मा के सम्यक् तत्त्व को (सच्चे स्वरूप को) [उपलब्धवान्] प्राप्त किया है ऐसा [जीव:] जीव [यदि] यदि [रागद्वेषौ] रागद्वेष को [जहाति] छोड़ता है, [सः] तो वह [शुद्धं आत्मानं] शुद्ध आत्मा को [लभते] प्राप्त करता है ॥८१॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    इस प्रकार जिस उपाय का स्वरूप वर्णन किया है, उस उपाय के द्वारा मोह को दूर करके भी सम्यक् आत्म-तत्त्व को (यथार्थ स्वरूप को) प्राप्त करके भी यदि जीव राग-द्वेष को निर्मूल करता है, तो शुद्ध आत्मा का अनुभव करता है । (किन्तु) यदि पुन:-पुन: उनका अनुसरण करता है, -रागद्वेषरूप परिणमन करता है, तो प्रमाद के अधीन होने से शुद्धात्म-तत्त्व के अनुभव रूप चिंतामणि-रत्न के चुराये जाने से अन्तरंग में खेद को प्राप्त होता है । इसलिये मुझे रागद्वेष को दूर करने के लिये अत्यन्त जाग्रत रहना चाहिये ॥८१॥

    जयसेनाचार्य :
    [जीवो] जीवरूप कर्ता - इस गाथा में कर्ता कारक में प्रयुक्त जीव । वह जीव किस विशेषता वाला है । [ववगदमोहो] शुद्धात्म-तत्त्व की रुचि को रोकने वाले दर्शन-मोह से रहित है । वह और किस विशेषता वाला है? [उवलद्धो] जानने वाला है । किसे जानने वाला है? [तच्चं] परमानन्द एक स्वभावी आत्म-तत्त्व को जानने वाला है । किसके आत्म-तत्त्व को जाननेवाला है? [अप्पणो] निज शुद्धात्मा सम्बन्धी आत्म-तत्त्व को जानने वाला है । निज शुद्धात्म-तत्व को कैसे जानता है? [सम्मं] संशयादि दोषों से रहित होने के कारण अच्छी तरह जानता है । [जहदि जदि रागदोसे] यदि शुद्धात्मानुभूति लक्षण वीतराग-चारित्र को रोकने वाले चारित्र-मोह नामक राग-द्वेष को छोड़ता है, [सो अप्पाणं लहदि सुद्धं] वही अभेद रत्नत्रय परिणत जीव शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी आत्मा को प्राप्त करता है - मुक्त होता है ।

    यहाँ प्रश्न है कि पहली ज्ञान कण्डिका में -

    उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहुब्भवं दुक्खं -- (गाथा ८२ उत्तरार्द्ध)

    उपयोग की विशुद्धि (शुद्धोपयोग) वाला वह जीव, देहज दुःखों का क्षय करता है।

    - ऐसा कहा गया है और यहाँ -

    जहदि जदि रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्धं -- (प्रकृत गाथा उत्तरार्द्ध)

    यदि वह राग-द्वेष को छोड़ता है तो शुद्धात्मा को प्राप्त करता है - ऐसा कहा गया है । दोनों ही गाथाओं से मोक्ष फलित होता है; अन्तर क्या है?

    आचार्य उसके प्रति उत्तर कहते हैं -- वहाँ (गाथा ८२ मे) निश्चय से शुभाशुभ में समानता जानकर, बाद में शुभ रहित निज शुद्धस्वरूप में लीन होकर मोक्ष प्राप्त करता है, इस कारण शुभाशुभ-मूढ़ता के निराकरण के लिये (वह) ज्ञानकण्डिका कही गई है । और यहाँ द्रव्य-गुण-पर्याय से आप्त का स्वरूप जानकर, बाद में उसरूप स्व-शुद्धात्मा में लीन होकर मोक्ष प्राप्त करता है, इस कारण यह आप्त और आत्म-स्वरूप विषयक मूढ़ता के निराकरण के लिए ज्ञान-कण्डिका है - इन दोनों में इतना ही अन्तर है ।

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    + यही एक, भगवन्तों ने स्वयं अनुभव करके प्रगट किया हुआ मोक्ष का पारमार्थिक पंथ है -
    सव्वे वि य अरहंता तेण विधाणेण खविदकम्मंसा । (82)
    किच्चा तधोवदेसं णिव्वादा ते णमो तेसिं ॥88॥
    सर्वेऽपि चार्हन्तस्तेन विधानेन क्षपितकर्मांशाः ।
    कृत्वा तथोपदेशं निर्वृतास्ते नमस्तेभ्यः ॥८२॥
    सर्व ही अरहंत ने विधि नष्ट कीने जिस विधी
    सबको बताई वही विधि हो नमन उनको सब विधी ॥८८॥
    अन्वयार्थ : [सर्वे अपि च] सभी [अर्हन्तः] अरहन्त भगवान [तेन विधानेन] उसी विधि से [क्षपितकर्मांशा:] कर्मांशों का क्षय करके [तथा] तथा उसी प्रकार से [उपदेशं कृत्वा] उपदेश करके [निवृता: ते] मोक्ष को प्राप्त हुए हैं [नम: तेभ्य:] उन्हें नमस्कार हो ॥८२॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अतीत काल में क्रमश हुए समस्त तीर्थंकर भगवान, प्रकारान्तर का असंभव होने से जिसमें द्वैत संभव नहीं है; ऐसे इसी एक प्रकार से कर्मांशों (ज्ञानावरणादि कर्म भेदों) का क्षय स्वयं अनुभव करके (तथा) परमाप्तता के कारण भविष्यकाल में अथवा इस (वर्तमान) काल में अन्य मुमुक्षुओं को भी इसीप्रकार से उसका (कर्म क्षय का) उपदेश देकर नि:श्रेयस (मोक्ष) को प्राप्त हुए हैं; इसलिये निर्वाण का अन्य (कोई) मार्ग नहीं है ऐसा निश्चित होता है । अथवा अधिक प्रलाप से बस होओ! मेरी मति व्यवस्थित हो गई है । भगवन्तों को नमस्कार हो ॥८२॥

    प्रकारान्तर = अन्य प्रकार (कर्म-क्षय एक ही पकार से होता है, अन्य-प्रकार से नहीं होता, इसलिये उस कर्म-क्षय के प्रकार में द्वैत अर्थात् दो-रूपपना नहीं है)
    परमाप्त = परम आप्त; परम विश्वासपात्र (तीर्थंकर भगवान सर्वज्ञ और वीतराग होने से परम आप्त हैं, अर्थात् उपदेष्टा हैं)

    जयसेनाचार्य :
    [सव्वे वि य अरहंता] - और सभी अरहन्त [तेण विधाणेण] - द्रव्य-गुण-पर्याय द्वारा पहले अरहन्त को जानकर बाद में वैसे ही अपने आत्मा में स्थितिरूप-लीनतारूप - उस पूर्वोक्त प्रकार से [खविदकम्मंसा] - विविध कर्मों से रहित होकर [किच्चा तधोवदेसं] - हे भव्यों! निश्चय रत्नत्रयात्मक शुद्धात्मा की प्राप्ति लक्षण यह ही मोक्षमार्ग है, दूसरा नहीं है - ऐसा उपदेश देकर [णिव्वादा] - अक्षय-अनन्त सुख से तृप्त हुये हैं - मुक्त हुये हैं [ते] - वे अरहन्त भगवान । [णमो तेसिं] - इसप्रकार मोक्षमार्ग का निश्चय करके, मोक्ष और मोक्ष-मार्ग - उन दोनों के इच्छुक ('श्री कुंदकुंदाचार्यदेव') उस निज शुद्धात्मानुभूति स्वरूप मोक्षमार्ग तथा उसके उपदेशक अरहंतों को 'उन्हें नमस्कार हो' इस पद द्वारा नमस्कार करते हैं -- यह अभिप्राय है ।

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    दंसणसुद्धा पुरिसा णाणपहाणा समग्गचरियत्था ।
    पूजासक्काररिहा दाणस्स य हि ते णमो तेसिं ॥89॥
    अरे समकित ज्ञान सम्यक्चरण से परिपूर्ण जो
    सत्कार पूजा दान के वे पात्र उनको नमन हो ॥८९॥
    अन्वयार्थ : जो पुरुष सम्यग्दर्शन से शुद्ध, ज्ञान में प्रधान और परिपूर्ण चारित्र में स्थित हैं, वे ही पूजा, सत्कार और दान के योग्य हैं; उन्हें नमस्कार हो ॥८९॥

    जयसेनाचार्य :
    [दंसणसुद्धा] - निज शुद्धात्मा की रुचिरूप, निश्चय सम्यकत्व को साधनेवाले, तीन मूढता आदि पच्चीस दोषों से रहित तत्वार्थ-श्रद्धान लक्षण, दर्शन से शुद्ध - दर्शनशुद्ध हैं । [पुरिसा] - जीव । और वे जीव कैसे हैं? [णाणपहाणा] - उपराग रहित स्वसंवेदन-ज्ञान को साधने वाले वीतराग - सर्वज्ञ द्वारा कहे गये परमागम का अभ्यास लक्षण ज्ञान से प्रधान - ज्ञान से समर्थ - ज्ञान में प्रौढ - ज्ञान प्रधान हैं । और वे जीव कैसे हैं? [समग्गचरियत्था] - विकार रहित, चंचलता रहित आत्मानुभूति लक्षण निश्चय चारित्र को साधने वाले आचारादि शास्त्रों में कहे गये मूलगुणों व उत्तरगुणों के अनुष्ठानादिरूप चारित्र से समग्र - परिपूर्ण - समग्र चारित्रवान हैं, [पूजासक्काररिहा] - द्रव्य व भाव रूप पूजा व गुण - प्रशंसारूप सत्कार - उन दोनों के योग्य हैं । [दाणस्सय हि] - और स्पष्टरूप से दान के योग्य हैं [ते] - वे पहले कहे हुये रत्नत्रय के आधारभूत जीव । [णमो तेसिं] - उन्हें नमस्कार हो - इसप्रकार वे ही नमस्कार-योग्य हैं ।

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    + शुद्धात्म-लाभ के परिपंथी (शत्रु) मोह का स्वभाव और उसमें प्रकारों को व्यक्त करते हैं -
    दव्वादिएसु मूढो भावो जीवस्स हवदि मोहो त्ति । (83)
    खुब्भदि तेणुच्छण्णो पप्पा रागं व दोसं वा ॥90॥
    द्रव्यादिकेषु मूढो भावो जीवस्य भवति मोह इति ।
    क्षुभ्यति तेनावच्छन्नः प्राप्य रागं वा द्वेषं वा ॥८३॥
    द्रव्यादि में जो मूढ़ता वह मोह उसके जोर से
    कर राग रुष परद्रव्य में जिय क्षुब्ध हो चहुंओर से ॥९०॥
    अन्वयार्थ : [जीवस्य] जीवके [द्रव्यादिकेषु मूढ: भाव:] द्रव्यादि सम्बन्धी मूढ़ भाव (द्रव्य-गुण-पर्याय सम्बन्धी जो मूढ़तारूप परिणाम) [मोह: इति भवति] वह मोह है [तेन अवच्छन्न:] उससे आच्छादित वर्तता हुआ जीव [रागं वा द्वेषं वा प्राप्य] राग अथवा द्वेष को प्राप्त कर के [क्षुभ्यति] क्षुब्ध होता है ॥८३॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    धतूरा खाये हुए मनुष्यकी भांति, जीवके जो पूर्व वर्णित द्रव्य-गुण-पर्याय हैं उनमें होनेवाला तत्त्व -अप्रतिपत्तिलक्षण मूढ़ भाव वह वास्तव में मोह है । उस मोह से निजरूप आच्छादित होने से यह आत्मा पर-द्रव्य को स्व-द्रव्य रूप से, पर-गुण को स्व-गुण रूप से, और पर-पर्यायों को स्व-पर्याय रूप समझकर-अंगीकार करके, अति रूढ-दृढ़तर संस्कार के कारण पर-द्रव्य को ही सदा ग्रहण करता हुआ, 'दग्ध इन्द्रियों की रुचि के वश से' अद्वैत में भी द्वैत प्रवृत्ति करता हुआ, रुचिकर-अरुचिकर विषयों में राग-द्वेष करके अति प्रचुर जल-समूह के वेग से प्रहार को प्राप्त सेतु-बन्ध (पुल) की भाँति दो भागों में खंडित होता हुआ अत्यन्त क्षोभ को प्राप्त होता है । इससे मोह, राग और द्वेष -- इन भेदों के कारण मोह तीन प्रकार का है ॥८३॥

    तत्त्व अप्रतिपत्ति लक्षण = तत्त्व की अप्रतिपत्ति (अप्राप्ति, अज्ञान, अनिर्णय) जिसका लक्षण है ऐसा ।
    दग्ध = जली हुई; हलकी; शापित । (’दग्ध’ तिरस्कार-वाचक शब्द है)
    इन्द्रियविषयोंमे-पदार्थों में 'यह अच्छे हैं और यह बुरे' इस प्रकार का द्वैत नहीं है; तथापि वहाँ भी मोहाच्छादित जीव अच्छे-बुरे का द्वैत उत्पन्न कर लेते हैं

    जयसेनाचार्य :
    [दव्वादिएसु] - शुद्धात्मादि द्रव्यों में, उन द्रव्यों के अनंत-ज्ञानादि और अस्तित्वादि विशेष - सामान्य लक्षण गुणों में और शुद्वात्म - परिणति लक्षण सिद्धत्वादि पर्यायों में तथा यथासंभव पहले कहे गये तथा आगे कहे जाने वाले द्रव्य-गुण-पर्यायों में [मूढो भावो] - इन पूर्वोक्त द्रव्य-गुण-पर्यायों में, विपरीत अभिप्राय रूप से तत्त्व में संशय उत्पन्न करनेवाला मूढभाव [जीवस्स हवदि मोहो त्ति] - जीव का इसप्रकार का भाव दर्शनमोह है । [खुब्भदि तेणुच्छण्णो] - उस दर्शनमोह से घिरा हुआ, निराकुल आत्म-तत्त्व से विपरीत आकुलता द्वारा क्षोभ, स्वरूप चंचलता, विपरीतता को प्राप्त होता है । क्या करके स्वरूप विपरीतता को प्राप्त होता है? [पप्पा रागं व दोसं वा] - विकार रहित शुद्धात्मा से विपरीत इष्टानिष्ट इन्द्रिय - विषयों में हर्ष-विषाद रूप चारित्रमोह नामक राग-द्वेष को प्राप्तकर स्वरूप-विपरीतता को प्राप्त होता है ।

    इससे क्या कहा गया है - यह सब कहने का तात्पर्य क्या है? मोह - दर्शनमोह और राग-द्वेष दोनों चारित्रमोह - इसप्रकर मोह तीन भूमिकावाला - तीन भेदवाला है ।

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    + तीनों प्रकार के मोह को अनिष्ट कार्य का कारण कहकर उसका क्षय करने को सूत्र द्वारा कहते हैं -
    मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स । (84)
    जायदि विविहो बंधो तम्हा ते संखवइदव्वा ॥91॥
    मोहेन वा रागेण वा द्वेषेण वा परिणतस्य जीवस्य ।
    जायते विविधो बन्धस्तस्मात्ते संक्षपयितव्याः ॥८४॥
    बंध होता विविध मोहरु क्षोभ परिणत जीव के
    बस इसलिए सम्पूर्णत: वे नाश करने योग्य हैं ॥९१॥
    अन्वयार्थ : [मोहेन वा] मोहरूप [रागेण वा] रागरूप [द्वेषेण वा] अथवा द्वेषरूप [परिणतस्य जीवस्य] परिणमित जीव के [विविध: बंध:] विविध बंध [जायते] होता है; [तस्मात्] इसलिये [ते] वे (मोह-राग-द्वेष) [संक्षपयितव्या:] सम्पूर्णतया क्षय करने योग्य हैं ॥८४॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    इस प्रकार तत्त्व-अप्रतिपत्ति (वस्तु-स्वरूप के अज्ञान) से बंद हुए, मोह-रूप, राग-रूप या द्वेष-रूप परिणमित होते हुए इस जीव को-
    1. घास के ढेर से ढँके हुए खड्डे का संग करने वाले हाथी की भाँति,
    2. हथिनी-रूपी कुट्टनी के शरीर में आसक्त हाथी की भाँति और
    3. विरोधी हाथी को देखकर, उत्तेजित होकर (उसकी ओर) दौड़ते हुए हाथी की भाँति
    विविध प्रकार का बंध होता है; इसलिये मुमुक्षु जीव को अनिष्ट कार्य करने वाले इस मोह, राग और द्वेष का यथावत् निर्मूल नाश हो इस प्रकार क्षय करना चाहिये ॥८४॥

    जयसेनाचार्य :
    [मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स] - मोहादि रहित परमात्मस्वरूप परिणति से रहित मोह, राग, द्वेष परिणत बाह्यदृष्टिवाले (बहिरात्मा) जीव के [जायदि विविहो बंधो] - शुद्धोपयोग लक्षण भाव-मोक्ष तथा उसके बल से जीव-प्रदेश और कर्म-प्रदेशों का अत्यन्त पृथक् होना द्रव्यमोक्ष है -- इसप्रकार द्रव्य-भाव मोक्ष से विलक्षण सभी प्रकार से उपादेयभूत - प्रगट करने योग्य स्वाभाविक सुख से विपरीत नारकादि दुःखों के कारणभूत विविध प्रकार के बंध होते हैं । [तम्हा ते संखवइदव्वा] - क्योंकि राग-द्वेष-मोह परिणत जीव के इसप्रकार बन्ध होता है, इसलिये रागादि से रहित शुद्धात्मा के ध्यान द्वारा, वे राग-द्वेष-मोह अच्छी तरह नष्ट करने योग्य हैं -- यह तात्पर्य है ।

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    + इस मोह-राग-द्वेष को इन चिन्हों के द्वारा पहिचान कर उत्पन्न होते ही नष्ट कर देना चाहिये -
    अट्ठे अजधागहणं करुणाभावो य तिरियमणुएसु । (85)
    विसएसु य प्पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि ॥92॥
    अर्थे अयथाग्रहणं करुणाभावश्च तिर्यङ्मनुजेषु ।
    विषयेषु च प्रसङ्गो मोहस्यैतानि लिङ्गानि ॥८५॥
    अयथार्थ जाने तत्त्व को अति रती विषयों के प्रति
    और करुणाभाव ये सब मोह के ही चिह्न हैं ॥९२॥
    अन्वयार्थ : [अर्थे अयथाग्रहणं] पदार्थ का अयथाग्रहण (अर्थात् पदार्थों को जैसे हैं वैसे सत्य-स्वरूप न मानकर उनके विषय में अन्यथा समझ) [च] और [तिर्यङ्मनुजेषु करुणाभाव:] तिर्यच-मनुष्यों के प्रति करुणाभाव, [विषयेषु प्रसंग: च] तथा विषयों की संगति (इष्ट विषयों में प्रीति और अनिष्ट विषयों में अप्रीति) - [एतानि] यह सब [मोहस्य लिंगानि] मोह के चिह्न-लक्षण हैं ॥८५॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    पदार्थों की अयथा-तथ्य रूप प्रतिपत्ति के द्वारा और तिर्यंच-मनुष्य प्रेक्षायोग्य होने पर भी उनके प्रति करुणा-बुद्धि से मोह को (जानकर), इष्ट विषयों की आसक्ति से राग को और अनिष्ट विषयों की अप्रीति से द्वेष को (जानकर) -इस प्रकार तीन लिंगों के द्वारा (तीन पकार के मोह को) पहिचानकर तत्काल ही उत्पन्न होते ही तीनो प्रकार का मोह नष्ट कर देने योग्य है ॥८५॥

    पदार्थों की अयथातथ्य रूप प्रतिपत्ति = पदार्थ जैसे नहीं है उन्हें वैसा समझना अर्थात् उन्हें अन्यथा स्वरूप से अंगीकार करना
    प्रेक्षायोग्य = मात्र प्रेक्षक भाव से- दृष्टा-ज्ञाता रूप से- मध्यस्थ भाव से देखने योग्य

    जयसेनाचार्य :
    [अट्ठे अजधागहणं] - यथास्वरूप (अपने-अपने स्वरूप मे) स्थित होने पर भी शुद्धात्मादि पदार्थों में विपरीत अभिप्राय के कारण जैसा नहीं है, वैसा ग्रहण करना (विपरीत जानना/मानना), [करुणाभावो य] - शुद्धात्मा की प्राप्ति लक्षण परम उपेक्षा संयम से विपरीत करुणा भाव - दया परिणाम अथवा व्यवहार से करुणा का अभाव - किन विषयों में करुणा या करुणा का अभाव भाव? [मणुवतिरिएसु] - मनुष्य और तिर्यंच जीवों में करुणा भाव या करुणा का अभाव
    मोहस्सेदाणि लिंगाणि
    - ये दर्शन मोह के चिन्ह हैं । [विसएसु च प्पसंगो] - विषय रहित सुखरूपी स्वाद से रहित बहिरात्मा जीवों को रुचिकर और अरुचिकर विषयों में जो वह विशेषरूप से संग-संसर्ग प्रवृत्ति है, उसे देखकर प्रीति और अप्रीति के चिन्हों से विवेकियों द्वारा चारित्रमोह नामक राग और द्वेष जाने जाते हैं; इसलिये उनके परिज्ञान के तत्काल बाद ही, निर्विकार निज शुद्धात्मा की भावना से, राग-द्वेष-मोह पूर्णरूप से नष्ट करने योग्य हैं - यह गाथा का अर्थ है ।

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    + मोह-क्षय करने का उपायान्तर (दूसरा उपाय) विचारते हैं -
    जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा । (86)
    खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं ॥93॥
    जिनशास्त्रादर्थान् प्रत्यक्षादिभिर्बुध्यमानस्य नियमात् ।
    क्षीयते मोहोपचयः तस्मात् शास्त्रं समध्येतव्यम् ॥८६॥
    तत्त्वार्थ को जो जानते प्रत्यक्ष या जिनशास्त्र से
    दृगमोह क्षय हो इसलिए स्वाध्याय करना चाहिए ॥९३॥
    अन्वयार्थ : [जिनशास्त्रात्] जिनशास्त्र द्वारा [प्रत्यक्षादिभि:] प्रत्यक्षादि प्रमाणों से [अर्थान्] पदार्थों को [बुध्यमानस्य] जानने वाले के [नियमात्] नियम से [मोहोपचय:] *मोहोपचय [क्षीयते] क्षय हो जाता है [तस्मात्] इसलिये [शास्त्रं] शास्त्र का [समध्येतव्यम्] सम्यक् प्रकार से अध्ययन करना चाहिये ॥८६॥
    *मोहोपचय = मोह का उपचय । (उपचय = संचय; समूह)

    अमृतचंद्राचार्य :
    द्रव्य-गुण-पर्याय स्वभाव से अर्हन्त के ज्ञान द्वारा आत्मा का उस प्रकार का ज्ञान मोह-क्षय के उपाय के रूप में पहले (८० वीं गाथा में) प्रतिपादित किया गया था, वह वास्तव में इस (निम्न-लिखित) उपायान्तर की अपेक्षा रखता है । (वह उपायान्तर क्या है सो कहा जाता है) : -

    जिसने प्रथम भूमिका में गमन किया है ऐसे जीव को, जो सर्वज्ञोपज्ञ होने से सर्व प्रकार से अबाधित है ऐसे, शब्द प्रमाण को (द्रव्य श्रुत-प्रमाण को) प्राप्त करके क्रीड़ा करने पर, उसके संस्कार से विशिष्ट संवेदन (ज्ञान) शक्ति रूप सम्पदा प्रगट करने पर, सहृदय-जनों के हृदय को आनन्द का उद्भेद देने वाले प्रत्यक्ष प्रमाण से अथवा उससे (प्रत्यक्ष प्रमाण से) अविरुद्ध अन्य प्रमाण समूह से तत्त्वतः समस्त वस्तु-मात्र को जानने पर अतत्त्व-अभिनिवेश के संस्कार करने वाला मोहोपचय (मोहसमूह) अवश्य ही क्षय को प्राप्त होता है । इसलिये मोह का क्षय करने में, परम शब्द-ब्रह्म की उपासना का भाव-ज्ञान के अवलम्बन द्वारा दृढ़ किये गये परिणाम से सम्यक् प्रकार अभ्यास करना सो उपायान्तर है । (जो परिणाम भाव-ज्ञान के अवलम्बन से दृढ़ीकृत हो ऐसे परिणाम से द्रव्य-श्रुत का अभ्यास करना सो मोह-क्षय करने के लिये उपायान्तर है) ॥८६॥

    सर्वज्ञोपज्ञ = सर्वज्ञ द्वारा स्वयं जाना हुआ (और कहा हुआ)
    सहृदय = भावुक; शास्त्र में जिस समय जिस भाव का प्रसंग होय उस भाव को हृदय में ग्रहण करने वाला; बुध; पंडित
    उद्भेद = स्फुरण; प्रगटता; फुवारा

    जयसेनाचार्य :
    [जिणसत्थादो अट्ठे पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा] जिन-शास्त्र से प्रत्यक्षादि प्रमाणों द्वारा शुद्धात्मादि पदार्थों को जाननेवाले जीव का निश्चय से । उन्हें जानने का क्या फल है? [खीयदि मोहोवचयो] - उन्हें जानने से विपरीत अभिप्रायरूप संस्कार करनेवाला मोह समूह नष्ट हो जाता है । [तम्हा सत्थं समधिदव्वं] - इसलिये शास्त्र का अच्छी तरह से अध्ययन करना चाहिये ।

    वह इसप्रकार - कोई भव्य, वह इसप्रकार -- निश्चयनय से शरीर में शुद्ध- बुद्ध एकस्वभाव-परमात्मा (त्रिकाली निज भगवान आत्मा) है । शरीर में ही निज परमात्मा है - यह कैसे जाना? सुखादि के समान विकार-रहित स्व-संवेदन प्रत्यक्षरूप से यह जाना जाता है, उसीप्रकार अन्य भी पदार्थ यथासंभव आगम-अभ्यास के बल से उत्पन्न प्रत्यक्ष अथवा अनुमान से जाने जाते हैं । इसलिये भव्य मोक्षार्थी को आगम का अभ्यास करना चाहिये - यह तात्पर्य है ।

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    + जिनेन्द्र के शब्द ब्रह्म में अर्थों की व्यवस्था (पदार्थों की स्थिति) किस प्रकार है सो विचार करते हैं -
    दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठसण्णया भणिया । (87)
    तेसु गुणपज्जयाणं अप्पा दव्व त्ति उवदेसो ॥94॥
    द्रव्याणि गुणास्तेषां पर्याया अर्थसंज्ञया भणिताः ।
    तेषु गुणपर्यायाणामात्मा द्रव्यमित्युपदेशः ॥८७॥
    द्रव्य-गुण-पर्याय ही हैं अर्थ सब जिनवर कहें
    अर द्रव्य गुण-पर्यायमय ही भिन्न वस्तु है नहीं ॥९४॥
    अन्वयार्थ : [द्रव्याणि] द्रव्य, [गुणा:] गुण [तेषां पर्याया:] और उनकी पर्यायें [अर्थसंज्ञया] 'अर्थ' नाम से [भणिता:] कही गई हैं । [तेषु] उनमें, [गुणपर्यायाणाम्‌ आत्मा द्रव्यम्] गुण-पर्यायों का आत्मा द्रव्य है (गुण और पर्यायों का स्वरूप-सत्त्व द्रव्य ही है, वे भिन्न वस्तु नहीं हैं) [इति उपदेश:] इसप्रकार (जिनेन्द्र का) उपदेश है ॥८७॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    द्रव्य, गुण और पर्यायों में अभिधेय-भेद होने पर भी अभिधान का अभेद होने से वे 'अर्थ' हैं (अर्थात् द्रव्यों, गुणों और पर्यायों में वाच्य का भेद होने पर भी वाचक में भेद न दखें तो 'अर्थ' ऐसे एक ही वाचक-शब्द से ये तीनों पहिचाने जाते हैं) । उसमें (इन द्रव्यों, गुणों और पर्यायों में से), जैसे इसीप्रकार अन्यत्र भी है, (इस दृष्टान्त की भाँति सर्व द्रव्य-गुण-पर्यायों में भी समझना चाहिये)

    और जैसे इन सुवर्ण, पीलापन इत्यादि गुण और कुण्डल इत्यादि पर्यायों में (इन तीनों में, पीलापन इत्यादि गुणों का और कुण्डल पर्यायों का) सुवर्ण से अपृथक्त्व होने से उनका (पीलापन इत्यादि गुणों का और कुण्डल इत्यादि पर्यायों का) सुवर्ण ही आत्मा है, उसी प्रकार उन द्रव्य-गुण-पर्यायों में गुण-पर्यायों का द्रव्य से अपृथक्त्व होने से उनका द्रव्य ही आत्मा है (अर्थात् द्रव्य ही गुण और पर्यायों का आत्मा-स्वरूप-सर्वस्व-सत्य है)

    'ऋ' धातु में से 'अर्थ' शब्द बना है । 'ऋ' अर्थात् पाना, प्राप्त करना, पहुँचना, जाना । 'अर्थ' अर्थात् (१) जो पाये-प्राप्त करे-पहुँचे, अथवा (२) जिसे पाया जाये-प्राप्त किया जाये-पहुँचा जाये ।
    जैसे सुवर्ण, पीलापन आदिको और कुण्डल आदि को प्राप्त करता है अथवा पीलापन आदि और कुण्डल आदि के द्वारा प्राप्त किया जाता है (अर्थात् पीलापन आदि और कुण्डल आदिक सुवर्ण को प्राप्त करते हैं) इसलिये सुवर्ण 'अर्थ' है, वैसे द्रव्य 'अर्थ'; जैसे पीलापन आदि आश्रय-भूत सुवर्ण को प्राप्त करता है अथवा आश्रय-भूत सुवर्ण द्वारा प्राप्त किये जाते है (अर्थात् आश्रय-भूत सुवर्ण पीलापन आदि को प्राप्त करता है) इसलिये पीलापन आदि 'अर्थ' हैं, वैसे गुण 'अर्थ' हैं; जैसे कुण्डल आदि सुवर्ण को क्रम-परिणाम से प्राप्त करते हैं अथवा सुवर्ण द्वारा क्रम-परिणाम से प्राप्त किया जाता है (अर्थात् सुवर्ण कुण्डल आदि को क्रम-परिणाम से प्राप्त करता है) इसलिये कुण्डल आदि 'अर्थ' हैं, वैसे पर्यायें 'अर्थ' हैं

    जयसेनाचार्य :
    [दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठसण्णया भणिया] - द्रव्य-गुण और उन द्रव्यों की पर्यायें- तीनों को 'अर्थ' नाम से कहा गया है - इन सभी का अर्थ नाम है - यह अर्थ – भाव है । [तेसु] - उन तीनों द्रव्य-गुण-पर्यायों के मध्य [गुणपज्जयाणं अप्पा] - गुण-पर्यायों का सम्बन्धी आत्मा - स्वभाव है । गुण-पर्यायों का सम्बन्धी आत्मा कौन है? ऐसा पूछने पर [दव्व त्ति उवदेसो] - द्रव्य ही उन गुण-पर्यायों का आत्मा-स्वभाव है - ऐसा उपदेश है । अथवा - द्रव्य का क्या स्वभाव है? ऐसा पूछने पर गुण-पर्यायों का आत्मा - स्वरूप ही उसका स्वभाव है - ऐसा उपदेश है ।

    अब यहाँ उसका विस्तार करते है- जिस कारण अनन्तज्ञान-सुख आदि गुणों को और उसीप्रकार अमूर्तत्व, अतीन्द्रियत्व, सिद्धत्व आदि पर्यायों को प्राप्त करता है - उसरूप से परिणमन करता है - उनका आश्रय लेता है, उसकारण अर्थ कहलाता है । अर्थ कौन कहलाता है? शुद्धात्म-द्रव्य अर्थ कहलाता है ।

    जिस कारण आधारभूत उस शुद्धात्मद्रव्य को प्राप्त करते हैं - उसरूप से परिणमन करते है - उसका आश्रय लेते हैं, उस कारण वे अर्थ कहलाते हें। वे अर्थ कहलाने वाले कौन हैं? वे अर्थ कहलाने वाले ज्ञानत्व आदि गुण तथा सिद्धत्वादि पर्यायें हैं ।

    ज्ञानत्व-सिद्धत्वादि गुण-पर्यायों का आत्मा अर्थात् स्वभाव क्या है? ऐसा पूछने पर शुद्धात्मद्रव्य ही स्वभाव है, अथवा शुद्धात्मद्रव्य का स्वभाव क्या है? ऐसा पूछने पर पूर्वोक्त गुण-पर्यायें ही उसका स्वभाव है।

    इसीप्रकार शेष द्रव्य-गुण-पर्यायों की भी अर्थ संज्ञा जानना चाहिये - यह अर्थ है ।

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    + इस प्रकार मोहक्षय के उपायभूत जिनेश्वर के उपदेश की प्राप्ति होने पर भी पुरुषार्थ अर्थक्रियाकारी है, इसलिये पुरुषार्थ करता है -
    जो मोहरागदोसे णिहणदि उवलब्भ जोण्हमुवदेसं । (88)
    सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ॥95॥
    यो मोहरागद्वेषान्निहन्ति उपलभ्य जैनमुपदेशम् ।
    स सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोत्यचिरेण कालेन ॥८८॥
    जिनदेव का उपदेश यह जो हने मोहरु क्षोभ को
    वह बहुत थोड़े काल में ही सब दुखों से मुक्त हो ॥९५॥
    अन्वयार्थ : [यः] जो [जैनं उपदेशं] जिनेन्द्र के उपदेश को [उपलभ्य] प्राप्त करके [मोहरागद्वेषान्] मोह-राग-द्वेष को [निहंति] हनता है, [सः] वह [अचिरेण कालेन] अल्प काल में [सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोति] सर्व दुःखों से मुक्त हो जाता है ॥८८॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    इस अति दीर्घ, सदा उत्पात-मय संसार-मार्ग मे किसी भी प्रकार से जिनेन्द्र-देव के इस तीक्ष्ण असिधारा समान उपदेश को प्राप्त करके भी जो मोह-राग-द्वेष पर अति दृढता पूर्वक प्रहार करता है, वही हाथ में तलवार लिये हुए मनुष्य की भांति शीघ्र ही समस्त दुःखों से परिमुक्त होता है; अन्य (कोई) व्यापार (प्रयत्न; क्रिया) समस्त दुःखों से परिमुक्त नहीं करता । (जैसे मनुष्य के हाथ में तीक्ष्ण तलवार होने पर भी वह शत्रुओं पर अत्यन्त वेग से उसका प्रहार करे तभी वह शत्रु सम्बन्धी दुःख से मुक्त होता है अन्यथा नहीं, उसी प्रकार इस अनादि संसार में महाभाग्य से जिनेश्वर-देव के उपदेश-रूपी तीक्ष्ण तलवार को प्राप्त करके भी जो जीव मोह-राग-द्वेष रूपी शत्रुओं पर अतिदृढ़ता पूर्वक उसका प्रहार करता है वही सर्व दुःखों से मुक्त होता है अन्यथा नहीं) इसीलिये सम्पूर्ण आरम्भ से (प्रयत्नपूर्वक) मोह का क्षय करने के लिये मैं पुरुषार्थ का आश्रय ग्रहण करता हूँ ॥८८॥

    जयसेनाचार्य :
    [जो मोहरागदोसे णिहणदि] - जो मोह-राग-द्वेष को नष्ट करता है । क्या करके उन्हें नष्ट करता है ? [उवलब्भ] - प्राप्तकर उन्हें नष्ट करता है । क्या प्राप्त कर उन्हें नष्ट करता है ? [जोण्हमुवदेसं] - जिनेन्द्र भगवान का उपदेश प्राप्त कर उन्हें नष्ट करता है । [सो सव्वदुक्खमोक्खं पवदि]- वह सर्व दु:खों से मोक्ष (छुटकारा) प्राप्त करता है । कैसे-कब प्राप्त करता है? [अचिरेण कालेण] अल्प समय में--थोड़े ही समय में मोक्ष प्राप्त करता है ।

    वह इस प्रकार - एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियादि (जीवों की) दुर्लभ परम्परा से जिनेन्द्र भगवान का उपदेश प्राप्त कर मोह-राग-द्वेष से विलक्षण अविनाभावी निश्चय-सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान युक्त अपने शुद्धात्मा की निश्चल अनुभूति लक्षण वीतराग चारित्र नामक तीक्ष्ण (पैनी) तलवार को जो मोह-राग-द्वेष रूपी शत्रुओं के ऊपर दृढ़ता से गिराता है, वही वास्तविक अनाकुलता लक्षण सुख से विपरीत दुःखों का क्षय करता है -- यह अर्थ है ।

    इस प्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय के विषय में मूढ़ता निराकरण के लिये छह गाथाओं द्वारा तीसरी ज्ञान-कण्डिका पूर्ण हुई ।

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    + स्व-पर के विवेक की सिद्धि से ही मोह का क्षय हो सकता है, इसलिये स्व-पर के विभाग की सिद्धि के लिये प्रयत्न करते हैं -
    णाणप्पगमप्पाणं परं च दव्वत्तणाहिसंबद्धं । (89)
    जाणदि जदि णिच्छयदो जो सो मोहक्खयं कुणदि ॥96॥
    ज्ञानात्मकमात्मानं परं च द्रव्यत्वेनाभिसंबद्धम् ।
    जानाति यदि निश्चयतो यः स मोहक्षयं करोति ॥८९॥
    जो जानता ज्ञानात्मक निजरूप अर परद्रव्य को
    वह नियम से ही क्षय करे दृगमोह एवं क्षोभ को ॥९६॥
    अन्वयार्थ : [यः] जो [निश्चयत:] निश्चय से [ज्ञानात्मकं आत्मानं] ज्ञानात्मक ऐसे अपने को [च] और [परं] पर को [द्रव्यत्वेन अभिसंबद्धम्] निज-निज द्रव्यत्व से संबद्ध (संयुक्त) [यदि जानाति] जानता है, [सः] वह [मोह क्षयं करोति] मोह का क्षय करता है ॥८९॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    जो निश्चय से अपने को स्वकीय (अपने) चैतन्यात्मक द्रव्यत्व से संबद्ध (संयुक्त) और पर को परकीय (दूसरे के) यथोचित द्रव्यत्व से संबद्ध जानता है, वही (जीव), जिसने कि सम्यक्त्व-रूप से स्व-पर के विवेक को प्राप्त किया है, सम्पूर्ण मोह का क्षय करता है । इसलिये मैं स्व-पर के विवेक के लिये प्रयत्नशील हूँ ॥८९॥

    यथोचित = यथायोग्य-चेतन या अचेतन (पुद्गलादि द्रव्य परकीय अचेतन द्रव्यत्व से और अन्य आत्मा परकीय चेतन द्रव्यत्व से संयुक्त हैं)

    जयसेनाचार्य :
    (अब स्व-पर तत्त्व परिज्ञान विषयक मूढ़ता का निराकरण करनेवाला दो गाथाओं में निबद्ध चतुर्थ ज्ञान-कण्डिका नामक चौथा अन्तराधिकार प्रारम्भ होता है ।)

    [णाणप्पगमप्पाणं परं च दव्वत्तणाहिसंबद्धं जाणदि जदि] - यदि ज्ञान-स्वरूपी आत्मा को जानता है । कैसे ज्ञान-स्वरूपी आत्मा को जानता है? अपने शुद्ध चैतन्य द्रव्यत्व से अभिसम्बद्ध - बँधे हुये - जुड़े हुये आत्मा को जानता है । मात्र अपने आत्मा को ही नहीं जानता अपितु अपने-अपने द्रव्यरूप से सम्बन्धित चेतन-अचेतन दूसरे द्रव्यों को जानता है । इन सबको कैसे जानता है? [णिच्छयदो] - निश्चयनय के अनुकूल भेदज्ञान का आश्रय लेकर जानता है । [जो] - जो कर्ता - इस वाक्य का कर्ता जो, [सो] - वह [मोहक्खयं कुणदि] - मोह रहित परमानन्द एक स्वभावी शुद्धात्मा से विपरीत मोह का क्षय करता है - यह गाथा का अर्थ है ।

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    + सब प्रकार से स्व-पर के विवेक की सिद्धि आगम से करने योग्य है, ऐसा उपसंहार करते हैं -
    तम्हा जिणमग्गादो गुणेहिं आदं परं च दव्वेसु । (90)
    अभिगच्छदु णिम्मोहं इच्छदि जदि अप्पणो अप्पा ॥97॥
    तस्माज्जिनमार्गाद्गुणैरात्मानं परं च द्रव्येषु ।
    अभिगच्छतु निर्मोहमिच्छति यद्यात्मन आत्मा ॥९०॥
    निर्मोह होना चाहते तो गुणों की पहिचान से
    तुम भेद जानो स्व-पर में जिनमार्ग के आधार से ॥९७॥
    अन्वयार्थ : [तस्मात्] इसलिये (स्व-पर के विवेक से मोह का क्षय किया जा सकता है इसलिये) [यदि] यदि [आत्मा] आत्मा [आत्मनः] अपनी [निर्मोहं] निर्मोहता [इच्छति] चाहता हो तो [जिनमार्गात्] जिनमार्ग से [गुणै:] गुणों के द्वारा [द्रव्येषु] द्रव्यों में [आत्मानं परं च] स्व और पर को [अभिगच्छतु] जानो (अर्थात् जिनागम के द्वारा विशेष गुणों से ऐसा विवेक करो कि- अनन्त द्रव्यों में से यह स्व है और यह पर है) ॥९०॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    मोह का क्षय करने के प्रति प्रवण बुद्धि वाले बुध-जन इस जगत में आगम में कथित अनन्त गुणों में से किन्हीं गुणों के द्वारा, जो गुण अन्य के साथ योग रहित होने से असाधारणता धारण करके विशेषत्व को प्राप्त हुए हैं उनके द्वारा, अनन्त द्रव्य-परम्परा में स्व-पर के विवेक को प्राप्त करो । (अर्थात् मोह का क्षय करने के इच्छक पंडित-जन आगम कथित अनन्त गुणों में से असाधारण और भिन्न लक्षण-भूत गुणों के द्वारा अनन्त द्रव्य परम्परा में 'यह स्व-द्रव्य हैं और यह परद्रव्य हैं' ऐसा विवेक करो), जो कि इसप्रकार हैं :-

    सत् और अकारण होने से स्वत:सिद्ध, अन्तर्मुख और बहिर्मुख प्रकाश वाला होने से स्व-पर का ज्ञायक-ऐसा जो यह, मेरे साथ सम्बन्ध-वाला, मेरा चैतन्य है उसके द्वारा-जो (चैतन्य) समान-जातीय अथवा असमान-जातीय अन्य द्रव्य को छोडकर मेरे आत्मा में ही वर्तता है, उसके द्वारा - मैं अपने आत्मा को सकल-त्रिकाल में ध्रुवत्व का धारक द्रव्य जानता हूँ । इस प्रकार पृथक् रूप से वर्तमान स्व-लक्षणों के द्वारा-जो अन्य द्रव्य को छोड़कर उसी द्रव्य में वर्तते हैं उनके द्वारा-आकाश, धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और अन्य आत्मा को सकल त्रिकाल में ध्रुवत्व धारक द्रव्य के रूप में निश्चित करता हूँ (जैसे चैतन्य लक्षण के द्वारा आत्मा को ध्रुव द्रव्य के रूप में जाना, उसीप्रकार अवगाहहेतुत्व, गतिहेतुत्व इत्यादि लक्षणों से-जो कि स्व-लक्ष्यभूत द्रव्य के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों में नहीं पाये जाते उनके द्वारा-आकाश, धर्मास्तिकाय, इत्यादि को भिन्न-भिन्न ध्रुव द्रव्यों के रूपमें जानता हूँ) इसलिये मैं आकाश नहीं हूँ, मैं धर्म नहीं हूँ, अधर्म नहीं हूँ, काल नहीं हूँ, पुद्गल नहीं हूँ, और आत्मान्तर नहीं हूँ; क्योंकि -- मकान के एक कमरे में जलाये गये अनेक दीपकों के प्रकाशों की भाँति यह द्रव्य इकट्ठे होकर रहते हुए भी मेरा चैतन्य निज-स्वरूप से अच्युत ही रहता हुआ मुझे पृथक् बतलाता है ।

    इसप्रकार जिसने स्व-पर का विवेक निश्चित किया है ऐसे इस आत्मा को विकारकारी मोहांकुर का प्रादुर्भाव नहीं होता ॥९०॥

    प्रवण = ढलती हुई; अभिमुख; रत
    कितने ही गुण अन्य द्रव्यों के साथ सम्बन्ध रहित होने से अर्थात् अन्य द्रव्यों में न होने से असाधारण हैं और इसलिये विशेषणभूत-भिन्न लक्षणभूत है; उसके द्वारा द्रव्यों की भिन्नता निश्चित की जा सकती है
    सत् = अस्तित्ववाला; सत्‌रूप; सत्तावाला
    अकारण = जिसका कोई कारण न हो ऐसा अहेतुक, (चैतन्य सत् और अहेतुक होनेसे स्वयंसे सिद्ध है ।)
    सकल = पूर्ण, समस्त, निरवशेष (आत्मा कोई काल को बाकी रखे बिना संपूर्ण तीनों काल ध्रुव रहता ऐसा द्रव्य है ।)
    जैसे किसी एक कमरे में अनेक दीपक जलाये जायें तो स्थूल-दृष्टि से देखने पर उनका प्रकाश एक दूसरे में मिला हुआ मालूम होता है, किन्तु सूक्ष्म-दृष्टि से विचार पूर्वक देखने पर वे सब प्रकाश भिन्न-भिन्न ही हैं; (क्योंकि उनमें से एक दीपक बुझ जाने पर उसी दीपक का प्रकाश नष्ट होता है; अन्य दीपकों के प्रकाश नष्ट नहीं होते) उसी प्रकार जीवादिक अनेक द्रव्य एक ही क्षेत्र में रहते हैं फिर भी सूक्ष्म-दृष्टि से देखने पर वे सब भिन्न-भिन्न ही हैं, एकमेक नहीं होते ।

    जयसेनाचार्य :
    [तम्हा जिणमग्गादो] - जिस कारण पहले (९६ वीं गाथा मे) स्व-पर भेद-विज्ञान से मोह-क्षय होता है - ऐसा कहा था उस कारण जिनमार्ग से - जिनागम/जिनवाणी से [गुणेहिं] - गुणों द्वारा [आदं] - आत्मा को - स्वयं को, मात्र आत्मा को ही नहीं [परं च] - अपितु परद्रव्य को भी । गुणों द्वारा आत्मा और पर को किनके बीच जानो? [दव्वेसु] - शुद्धात्मादि छह द्रव्यों में [अभिगच्छदु] - जानो । यदि क्या चाहते हो? [णिम्मोहं इच्छदि जदि] - यदि निर्मोह भाव को चाहते हो तो । वह कौन निर्मोह भाव को चाहता है? [अप्पा] - आत्मा निर्मोह भाव को चाहता है तो । किस सम्बन्धी उसे चाहता है? [अप्पणो] - आत्मा का - स्वयं का निर्मोह भाव चाहता है तो ।

    वह इस प्रकार - जो यह मेरा स्व-पर को जानने वाला चैतन्य है, उसके द्वारा मैं कर्तारूप विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी अपने आत्मा को जानता हूँ तथा पुद्गलादि पाँच द्रव्य और शेष दूसरे जीव-रूप पर को पररूप से जानता हूँ, इस कारण एक अपवरक - अन्दर के कमरे में जलते हुए अनेक दीपकों के प्रकाश के समान एक साथ रहने पर भी सहज-शुद्ध चिदानन्द एक स्वभावी मेरा सभी द्रव्यों मे किसी के साथ भी मोह नहीं है - यह अभिप्राय है ।

    इसप्रकार स्व और पर की जानकारी के विषय मे मूढ़ता-निराकरण के लिये दो गाथाओं द्वारा चतुर्थ ज्ञान-कण्डिका पूर्ण हुई ।

    इसप्रकार पच्चीस गाथाओं द्वारा ज्ञान-कण्डिका चतुष्टय नामक दूसरा अधिकार पूर्ण हुआ ।

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    + न्याय-पूर्वक ऐसा विचार करते हैं कि- जिनेन्द्रोक्त अर्थों के श्रद्धान बिना धर्म-लाभ (शुद्धात्म-अनुभवरूप धर्म-प्राप्ति) नहीं होता -
    सत्तासंबद्धेदे सविसेसे जो हि णेव सामण्णे । (91)
    सद्दहदि ण सो समणो सत्तो धम्मो ण संभवदि ॥98॥
    सत्तासंबद्धानेतान् सविशेषान् यो हि नैव श्रामण्ये ।
    श्रद्दधाति न स श्रमणः ततो धर्मो न संभवति ॥९१॥
    द्रव्य जो सविशेष सत्तामयी उसकी दृष्टि ना
    तो श्रमण हो पर उस श्रमण से धर्म का उद्भव नहीं ॥९८॥
    अन्वयार्थ : [यः हि] जो (जीव) [श्रामण्ये] श्रमणावस्था में [एतान् सत्ता-संबद्धान् सविशेषतान्] इन 'सत्तासंयुक्त' सविशेष (सामान्य-विशेष) पदार्थों की [न एव श्रद्दधाति] श्रद्धा नहीं करता, [सः] वह [श्रमण: न] श्रमण नहीं है; [ततः धर्म: न संभवति] उससे धर्म का उद्भव नहीं होता (अर्थात् उस श्रमणाभास के धर्म नहीं होता) ॥९१॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    जो (जीव) इन द्रव्यों को-कि जो (द्रव्य) सादृश्य-अस्तित्व के द्वारा समानता को धारण करते हुए स्वरूप-अस्तित्व के द्वारा विशेष-युक्त हैं उन्हें स्व-पर के भेदपूर्वक न जानता हुआ और श्रद्धा न करता हुआ यों ही (ज्ञान-श्रद्धा के बिना) मात्र श्रमणता से (द्रव्य-मुनित्व से) आत्मा का दमन करता है वह वास्तव में श्रमण नहीं है; इसलिये, जैसे जिसे रेती और स्वर्ण-कणों का अन्तर ज्ञात नहीं है, उसे धूलधोये को-उसमें से स्वर्ण-लाभ नहीं होता, इसी प्रकार उसमें से (श्रमणाभास में से) निरुपराग आत्म-तत्त्व की उपलब्धि (प्राप्ति) लक्षण वाले धर्म-लाभ का उद्भव नहीं होता ॥९१॥

    'उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती' इस प्रकार (पाँचवीं गाथा में) प्रतिज्ञा करके, 'चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो’ इस प्रकार (७वीं गाथा में) साम्य का धर्मत्व (साम्य ही धर्म है) निश्चित करके ‘परिणमदि जेण दव्यं तक्‍कालं तम्मय त्ति‍ पण्णत्तं, तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्‍वो’ इस प्रकार (८वीं गाथा में) जो आत्मा का धर्मत्व कहना प्रारम्भ किया और जिसकी सिद्धि के लिये ‘धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो, पावदि णिव्‍वाणसुहं’ इस प्रकार (११वीं गाथा में) निर्वाणसुख के साधनभूत शुद्धोपयोग का अधिकार प्रारम्भ किया, विरोधी शुभाशुभ उपयोग को नष्ट किया (हेय बताया), शुद्धोपयोग का स्वरूप वर्णन किया, शुद्धोपयोग के प्रसाद से उत्‍पन्‍न होने वाले ऐसे आत्मा के सहज ज्ञान और आनन्द को समझाते हुए ज्ञान के स्वरूप का और सुख के स्वरूप का विस्तार किया, उसे (आत्मा के धर्मत्व को) अब किसी भी प्रकार शुद्धोपयोग के प्रसाद से सिद्ध करके, परम निस्पृह, आत्मतृप्त (ऐसी) पारमेश्वरी प्रवृत्ति को प्राप्त होते हुये, कृतकृत्यता को प्राप्त करके अत्यन्त अनाकुल होकर, जिनके भेदवासना की प्रगटता का प्रलय हुआ है, ऐसे होते हुए, (आचार्य भगवान) ‘मैं स्वयं साक्षात् धर्म ही हूँ’ इस प्रकार रहते हैं, (-ऐसे भाव में निश्‍चल-स्थित होते हैं)

    अस्तित्व दो प्रकार का है : -सादृश्य-अस्तित्व और स्वरूप-अस्तित्व । सादृश्य-अस्तित्व की अपेक्षा से सर्व द्रव्यों में समानता है, और स्वरूप-अस्तित्व की अपेक्षा से समस्त द्रव्यों में विशेषता है
    निरुपराग = उपराग (मलिनता, विकार) रहित

    जयसेनाचार्य :
    (अब चार स्वतंत्र गाथायें प्रारम्भ होती हैं ।)

    [सत्ता संबद्धे] - महासत्ता के सम्बन्ध से सहित [एदे] - इन पूर्वोक्त (९४, ९६ एवं १७ वीं गाथा में कहे हुये) शुद्ध जीवादि पदार्थों की । वे जीवादि पदार्थ और किस विशेषता वाले हैं? [सविसेसे] - विशेषसत्ता - अवान्तरसत्ता अर्थात् अपनी-अपनी स्वरूप सत्ता से सहित जीवादि पदार्थों की [जो हि णेव सामण्णे सद्दहदि] - जो कर्ता - इस वाक्य का जो कर्ता है वह, द्रव्य श्रामण्य (द्रव्य-मुनिपना) में स्थित होते हुये भी श्रद्धान नहीं करता है, तो वास्तव में [ण सो समणो] - निज शुद्धात्मा की रुचि-रूप निश्चय-सम्यग्दर्शन पूर्वक परमसामायिक-संयम लक्षण श्रामण्य का अभाव होने से वह श्रमण नहीं है । इसप्रकार की भाव-श्रमणता का अभाव होने से [तत्तो धम्मो ण संभवदि] - उस पहले कहे हुये द्रव्यश्रमण से रागादि मलिनता रहित शुद्धात्मानुभूति लक्षण धर्म भी संभव नहीं है - यह गाथा का अर्थ है ।

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    + दूसरी पातनिका - सम्यक्त्व के अभाव में श्रमण (मुनि) नहीं है, उस श्रमण से धर्म भी नहीं है । तो कैसे श्रमण हैं? एसा प्रश्न पूछने पर उत्तर देते हुए ज्ञानाधिकार का उपसंहार करते हैं -
    जो णिहदमोहदिट्ठी आगमकुसलो विरागचरियम्हि । (92)
    अब्भुट्ठिदो महप्पा धम्मो त्ति विसेसिदो समणो ॥99॥
    यो निहतमोहदृष्टिरागमकुशलो विरागचरिते ।
    अभ्युत्थितो महात्मा धर्म इति विशेषितः श्रमणः ॥९२॥
    आगमकुशल दृगमोहहत आरुढ़ हों चारित्र में
    बस उन महात्मन श्रमण को ही धर्म कहते शास्त्र में ॥९९॥
    अन्वयार्थ : [यः आगमकुशल:] जो आगम में कुशल हैं, [निहतमोहदृष्टि:] जिसकी मोह-दृष्टि हत हो गई है और [विरागचरिते अभ्युत्थित:] जो वीतराग-चारित्र में आरुढ़ है, [महात्मा श्रमण:] उस महात्मा श्रमण को [धर्म: इति विशेषित:] (शास्त्र में) 'धर्म' कहा है ॥९२॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    यह आत्मा स्वयं धर्म हो, यह वास्तव में मनोरथ है । उसमें विघ्न डालने वाली एक बहिर्मोह-दृष्टि ही है । और वह (बहिर्मोह-दृष्टि) तो आगम-कौशल्य तथा आत्म-ज्ञान से नष्ट हो जाने के कारण अब मुझ में पुन: उत्पन्न नहीं होगी । इसलिये वीतराग-चारित्र रूप से प्रगटता को प्राप्त (वीतराग-चारित्र रूप पर्याय में परिणत) मेरा यह आत्मा स्वयं धर्म होकर, समस्त विघ्नों का नाश हो जाने से सदा निष्कंप ही रहता है । अधिक विस्तार से बस हो ! जयवंत वर्तो स्याद्वाद-मुद्रित जैनेन्द्र शब्दब्रह्म; जयवंत वर्तो शब्दब्रह्म-मूलक आत्म-तत्त्वोपलब्धि-कि जिसके प्रसाद से, अनादि संसार से बंधी हुई मोह-ग्रंथि तत्काल ही छूट गई है; और जयवंत वर्तो परम वीतराग-चारित्र-स्वरूप शुद्धोपयोग कि जिसके प्रसाद से यह आत्मा स्वयमेव धर्म हुआ है ॥९२॥

    (कलश)
    विलीन मोह-राग-द्वेष मेघ चहुँ ओर के, चेतना के गुणगण कहाँ तक बखानिये ।
    अविचल जोत निष्कंप रत्नदीप सम, विलसत सहजानन्द मय जानिये ॥
    नित्य आनंद के प्रशमरस में मगन, शुद्ध उपयोग का महत्त्व पहिचानिये ।
    नित्य ज्ञानतत्त्व में विलीन यह आत्मा, स्वयं धर्मरूप परिणत पहिचानिये ॥५॥

    इसप्रकार शुद्धोपयोग को प्राप्त करके आत्मा स्वयं धर्म होता हुआ अर्थात् स्वयं धर्मरूप परिणमित होता हुआ नित्य आनन्द के प्रसार से सरस (अर्थात् जो शाश्वत आनन्द के प्रसार से रस-युक्त) ऐसे ज्ञान-तत्त्व में लीन होकर, अत्यन्त अविचलता के कारण, दैदीप्यमान ज्योतिमय और सहजरूप से विलसित (स्वभाव से ही प्रकाशित) रत्न-दीपक की निष्कंप-प्रकाशमय शोभा को पाता है । (अर्थात् रत्न-दीपक की भाँति स्वभाव से ही निष्कंपतया अत्यन्त प्रकाशित होता-जानता-रहता है)

    (कलश)
    आत्मा में विद्यमान ज्ञान तत्त्व पहिचान, पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के शुद्धभाव से ।
    ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन के उपरान्त स अब, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन करते हैं चाव से ॥
    सामान्य और असामान्य ज्ञेय तत्त्व सब, जानने के लिए द्रव्य गुण पर्याय से
    मोह अंकुर उत्पन्न न हो इसलिए, ज्ञेय का स्वरूप बतलाते विस्तार से ॥६॥

    आत्मा-रूपी अधिकरण में रहने वाले अर्थात् आत्मा के आश्रित रहने वाले ज्ञान-तत्त्व का इस प्रकार यथार्थतया निश्चय करके, उसकी सिद्धि के लिये (केवल-ज्ञान प्रगट करने के लिये) प्रशम के लक्ष से (उपशम प्राप्त करने के हेतु से) ज्ञेय-तत्त्व को जानने का इच्छुक (जीव) सर्व पदार्थों को द्रव्य-गुण-पर्याय सहित जानता है, जिससे कभी मोहांकुर की किंचित् मात्र भी उत्पत्ति न हो ।

    इस प्रकार (श्रीमद्भगवत्कृन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री प्रवचनसार शास्त्र की श्रीमद् अमृतचंद्राचार्य-देव विरचित तत्त्व-दीपिका नामक टीका में ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन नामक प्रथम श्रुतस्कंध समाप्त हुआ ।

    बहिर्मोहदृष्टि = बहिर्मुख ऐसी मोहदृष्टि (आत्मा को धर्मरूप होने में विम्न डालने वाली एक बहिर्मोह-दृष्टि ही है)
    आगम-कौशल्य = आगम में कुशलता-प्रवीणता
    स्याद्वाद-मुद्रित जैनेन्द्र शब्दब्रह्म = स्याद्वादकी छापवाला जिनेन्द्र का द्रव्यश्रुत
    शब्दब्रह्म-मूलक = शब्दब्रह्म जिसका मूल कारण है

    जयसेनाचार्य :
    अब, "[उवसंपयामि सम्मं] - साम्य का आश्रय ग्रहण करता हूँ'', इत्यादि नमस्कार गाथा में जो प्रतिज्ञा की थी, उसके बाद "[चारित्तं खलु धम्मो] - चारित्र वास्तविक धर्म है" - इत्यादि गाथा द्वारा चारित्र का धर्मपना स्थापित किया था । इसके बाद "[परिणमदि जेण दव्वं] - द्रव्य जिसरूप से परिणमित होता है" - इत्यादि गाथा द्वारा आत्मा का धर्मपना कहा था - इत्यादि । वह सब शुद्धोपयोग के प्रसाद से सिद्ध करने योग्य है । अब निश्चय रत्नत्रय परिणत आत्मा ही धर्म है, यह सिद्ध है ।

    अथवा दूसरी पातनिका - सम्यक्त्व के अभाव में श्रमण(मुनि) नहीं है, उस श्रमण से धर्म भी नहीं है । तो कैसे श्रमण हैं? ऐसा प्रश्न पूछने पर उत्तर देते हुये ज्ञानाधिकार का उपसंहार करते हैं -

    [जो णिहदमोहदिट्ठी] - तत्वार्थ-श्रद्धान लक्षण व्यवहार-सम्यक्त्व से उत्पन्न निज शुद्धात्मा की रुचिरूप निश्चय-सम्यक्त्व रूप से परिणत होने के कारण जो मोहदृष्टि - दर्शनमोह से रहित है । और जो किस स्वरूप वाले हैं? [आगमकुसलो] - सर्व-दोष रहित परमात्मा द्वारा कहे गये परमागम के अभ्यास से उपाधि रहित स्व-संवेदन ज्ञान मे होने से आगम में कुशल - चतुर हैं । और जो किस स्वरूप वाले हैं? [विराग चरियम्हि अब्भुट्ठिदो] - व्रत, समित, गुप्ति आदि बाह्य चारित्र के अनुष्ठान के वश से स्व-शुद्धात्मा में निश्चल परिणति रूप वीतराग चारित्रमय परिणत होने के कारण परमवीतराग चारित्र में अच्छी तरह से स्थित हैं - तत्पर हैं । जो और कैसे हैं? [महप्पा] - मोक्ष लक्षण रूप महान अर्थ – पुरुषार्थ के साधक होने से महात्मा हैं, [धम्मो त्ति विसेसिदो समणो] - जीवन-मरण, लाभ-अलाभ आदि में समता भावरूप परिणत जो आत्मा हैं, वे श्रमण (मुनिराज) ही अभेदनय से धर्म हैं - ऐसा मोह और क्षोभ से रहित आत्मपरिणाम-रूप निश्चय धर्म कहा गया है - ऐसा अर्थ है ।

    🏠
    + ऐसे निश्चय रत्नत्रय परिणत महान तपोधन (मुनिराज) की जो वह भक्ति करता है, उसका फल दिखाते हैं -
    जो तं दिट्ठा तुट्ठो अब्भुट्ठित्ता करेदि सक्कारं ।
    वंदणणमंसणादिहिं तत्तो सो धम्ममादियदि ॥100॥
    देखकर संतुष्ट हो उठ नमन वन्दन जो करे
    वह भव्य उनसे सदा ही सद्धर्म की प्राप्ति करे ॥१००॥
    अन्वयार्थ : जो कोई उन्हें (पूर्वोक्त मुनिराज को) देखकर संतुष्ट होता हुआ वन्दन नमस्कार आदि द्वारा सत्कार करता है, वह उनसे धर्म ग्रहण करता है ॥१००॥

    जयसेनाचार्य :
    [जो तं दिट्ठो तुट्ठो] - जो भव्यों में प्रधान जीव उपराग रहित शुद्धात्मा की प्राप्ति लक्षण निश्चय धर्म परिणत पहले (९९ वीं गाथा मे) कहे (स्वरूप वाले) मुनिराज को देखकर (विद्यमान) गुणों से पूर्ण भरे हुये होने के कारण अनुराग से संतुष्ट होता हुआ । संतुष्ट होता हुआ क्या करता है? [अब्भुट्ठित्ता करेदि सक्कारं] - उठकर मोक्ष के साधक सम्यक्त्वादि गुणों की प्रशंसा करता है । [वंदणणमंसणादिहिं तत्तो सो धम्ममादियादि] - "तप से सिद्ध, नय से सिद्ध'' इत्यादि रूप से वन्दना करता है, ''आपको नमस्कार हो", इसप्रकार नमस्कार करता है, इत्यादि रूप से उनके प्रति विशेष भक्ति द्वारा वह भव्य उन मुनिवरों से पुण्य ग्रहण करता है - उनके माध्यम से उस समय पुण्य बन्ध करता है ।

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    + उस पुण्य से दूसरे भव में क्या फल होता है, यह प्रतिपादन करते हैं -
    तेण णरा व तिरिच्छा देविं वा माणुसिं गदिं पप्पा ।
    विहविस्सरियेहिं सया संपुण्णमणोरहा होंति ॥101॥
    उस धर्म से तिर्यंच नर नरसुरगति को प्राप्त कर
    ऐश्वर्य-वैभववान अर पूरण मनोरथवान हों ॥१०१॥
    अन्वयार्थ : मनुष्य और तिर्यंच उस पुण्य द्वारा देव या मनुष्य गति को प्राप्त कर वैभव और ऐश्वर्य से सदा परिपूर्ण मनोरथ वाले होते हैं ॥१०१॥

    जयसेनाचार्य :
    [तेण णरा व तिरिच्छा] - उस पूर्वोक्त पुण्य से इस वर्तमान भव में मनुष्य और तिर्यंच [देविं वा माणुसिं गदिं पप्पा] - दूसरे भव में देव अथवा मनुष्य गति प्राप्त कर [विहविस्सरियेहिं सया संपुण्णमणोरहा होंति] - राजाधिराज, रूप, लावण्य, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री आदि परिपूर्ण सम्पत्ति विभव कहलाती है, आज्ञा के फल को ऐश्वर्य कहते हैं । उन विभव और ऐश्वर्य द्वारा परिपूर्ण मनोरथ वाले होते हैं । वही पुण्य भोगादि निदान रहित होने से यदि सम्यक्त्व पूर्वक है तो उससे परम्परा मोक्ष प्राप्त करते हैं - यह भाव है ।

    (इस प्रकार चार स्वतंत्र गाथायें पूर्ण हुई)

    इसप्रकार [श्री जयसेनाचार्य] कृत [तात्पर्य वृत्ति] में पूर्वोक्त प्रकार से [एस सुरासुरमणुसिंदवंदिय] इस प्रकार इस गाथा को आदि लेकर बहत्तर द्वारा शुद्धोपयोगाधिकार; उसके बाद [देवदजदिगुरुपूजासु] - इत्यादि पच्चीस गाथाओं द्वारा 'ज्ञानकण्डिका चतुष्टय' नामक दूसरा अधिकार; और उसके बाद [सत्ता सम्बद्धदे] इत्यादि सम्यक्त्व कथन रूप से पहली गाथा, रत्नत्रय के आधारभूत पुरुष के ही धर्म संभव है, इसप्रकार दो स्वतंत्र गाथाएं; उन निश्चय धर्मधारी मुनिराज की जो भक्ति करता है, उसके फल कथनरूप से [जो तं दिट्ठा] 'इत्यादि दो गाथायें - इस प्रकार पृथग्भूत चार गाथाओं से सहित दो अधिकारों द्वारा एक सौ एक गाथाओं में निबद्ध [ज्ञानतत्व प्रतिपादक] नामक पहला महाधिकार पूर्ण हुआ ।

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    ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन-अधिकार



    + अब सम्यक्त्व (अधिकार) कहते हैं - -
    तम्हा तस्स णमाईं किच्चा णिच्चं पि तम्मणो होज्ज ।
    वोच्छामि संगहादो परमट्ठविणिच्छयाधिगमं ॥102॥
    समकित सहित चारित्रयुत मुनिराज में मन जोड़कर
    नमकर कहूँ संक्षेप में सम्यक्त्व का अधिकार यह ॥१०२॥
    अन्वयार्थ : इसलिये उन्हे (सम्यकचारित्र युक्त पूर्वोक्त मुनिराजों को) नमस्कार करके तथा हमेशा उनमें ही मन लगाकर, संक्षेप से परमार्थ का निश्चय करानेवाला सम्यक्त्व (अधिकार) कहुंगा ॥

    जयसेनाचार्य :
    [तम्हा तस्स णमाइं किच्चा] क्योंकि सम्यक्त्व के बिना श्रमण नहीं होते इसकारण उन सम्यक्चारित्र युक्त पूर्वोक्त मुनिराजों को नमस्कार करके, [णिच्चं पि तम्मणो होज्ज] हमेशा उनमें ही मन लगाकर [वोच्छामि] मै कर्ता (इस क्रिया को करने वाला मै) कहूँगा [संगहादो] संक्षेप से । नमस्कारादि करके क्या कहेंगे? [परमट्ठविणिच्छयाधिगमं] परमार्थ (त्रिकाली धुवतत्त्व निज भगवान आत्मा) का निश्चय करानेवाले अधिगम-सम्यक्त्व को कहूँगा ।

    परमार्थ का निश्चय कराने वाले अधिगम शब्द से सम्यक्त्व कैसे कहते है? यदि यह प्रश्न हो तो परम अर्थ-परमार्थ-शुद्ध बुद्ध एक स्वभावी परमात्मा, परमार्थ का विशेषरूप से - संशय आदि से रहित निश्चय - परमार्थ विनिश्चयरूप अधिगम है, जो शंका आदि आठ दोषों से रहित, क्योंकि यथार्थरूप से पदार्थों की जानकारी स्वरूप है, इसलिये परमार्थ विनिश्चय अधिगम सम्यक्त्व है - उसे कहूँगा ।

    अथवा, परमार्थ विनिश्चय अर्थात् अनेकान्तात्मक - अनन्त गुणों अथवा परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्म-युगल सहित अनन्त धर्मयुगलों स्वरूप पदार्थ समूह, उनका अधिगम- सम्यग्ज्ञान जिससे होता है, उसे कहूँगा ॥१०२॥


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    + ज्ञेयतत्त्व का प्रज्ञापन करते हैं अर्थात् ज्ञेयतत्त्व बतलाते हैं । उसमें (प्रथम) पदार्थ का सम्यक् (यथार्थ) द्रव्यगुणपर्यायस्वरूप वर्णन करते हैं -
    अत्थो खलु दव्वमओ दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि । (93)
    तेहिं पुणो पज्जाया पज्जयमूढा हि परसमया ॥103॥
    अर्थः खलु द्रव्यमयो द्रव्याणि गुणात्मकानि भणितानि ।
    तैस्तु पुनः पर्यायाः पर्ययमूढा हि परसमयाः ॥९३॥
    गुणात्मक हैं द्रव्य एवं अर्थ हैं सब द्रव्यमय
    गुण-द्रव्य से पर्यायें पर्ययमूढ़ ही हैं परसमय ॥१०३॥
    अन्वयार्थ : पदार्थ वास्तव में द्रव्यमय हैं, द्रव्य गुणात्मक कहे गये हैं, द्रव्य तथा गुणों से पर्यायें होती हैं; और पर्यायमूढ जीव ही परसमय है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    इस विश्‍व में जो कोई जानने में आने वाला पदार्थ है वह समस्त ही विस्तार-सामान्य समुदायात्मक और आयत-सामान्य समुदायात्मक द्रव्य से रचित होने से द्रव्यमय (द्रव्यस्वरूप) है । और द्रव्य एक जिनका आश्रय है ऐसे विस्तार-विशेष स्वरूप गुणों से रचित (गुणों से बने हुए) होने से गुणात्मक है ।

    और पर्यायें — जो कि आयत-विशेषस्वरूप हैं वे—जिनके लक्षण (ऊपर) कहे गये हैं ऐसे द्रव्यों से तथा गुणों से रचित होने से द्रव्यात्मक भी हैं गुणात्मक भी हैं । उसमें, अनेक-द्रव्यात्मक एकता की प्रतिपत्ति की कारणभूत द्रव्यपर्याय है । वह दो प्रकार है । (१) समानजातीय और (२) असमानजातीय । उसमें
    1. समानजातीय वह है—जैसे कि अनेक पुद्‌गलात्मक द्विअणुक, त्रिअणुक इत्यादि;
    2. असमानजातीय वह है,—जैसे कि जीवपुद्‌गलात्मक देव, मनुष्य इत्यादि ।
    गुण द्वारा आयत की अनेकता की प्रतिपत्ति की कारणभूत गुणपर्याय है । वह भी दो प्रकार है । (१) स्वभावपर्याय और (२) विभावपर्याय ।
    1. उसमें समस्त द्रव्यों के अपने-अपने अगुरुलघुगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होने वाली षट्‌स्‍थानपतित हानि-वृद्धिरूप अनेकत्व की अनुभूत वह स्वभावपर्याय है;
    2. रूपादि के या ज्ञानादि के स्व-पर के कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होने वाले तारतम्य के कारण देखने में आने वाले स्वभाव-विशेष-रूप अनेकत्व की आपत्ति विभावपर्याय है ।

    अब यह (पूर्वोक्त कथन) दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं :— वास्तव में यह, सर्व पदार्थों के द्रव्य-गुण-पर्याय स्वभाव की प्रकाशक ११पारमेश्‍वरी व्यवस्था भली-उत्तम-पूर्ण-योग्य है, दूसरी कोई नहीं; क्योंकि बहुत से (जीव) पर्यायमात्र का ही अवलम्बन करके, तत्त्व की अप्रतिपत्ति जिसका लक्षण है ऐसे, मोह को प्राप्‍त होते हुए पर-समय होते हैं ॥१०३॥

    विस्तार-सामान्य-समुदाय = विस्तारसामान्य-रूप समुदाय । विस्तार का अर्थ है कि चौड़ाई । द्रव्य की चौड़ाई की अपेक्षा के (एक-साथ रहने वाले सहभावी) भेदों को (विस्तार-विशेषों को) गुण कहा जाता है; जैसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र इत्यादि जीव-द्रव्य के विस्तार-विशेष अर्थात् गुण हैं । उन विस्तार-विशेषों में रहने वाले विशेषत्व को गौण करें तो इन सबमें एक आत्म-स्वरूप सामान्यत्व भासित होता है । यह विस्तारसामान्य (अथवा विस्तार-सामान्य-समुदाय) वह द्रव्य है ।
    आयतसामान्यसमुदाय = आयतसामान्यरूप समुदाय । आयत का अर्थ है लम्बाई अर्थात् कालापेक्षित-प्रवाह । द्रव्य के लम्बाई की अपेक्षा के (एक के बाद एक प्रवर्तमान, क्रमभावी, कालापेक्षित) भेदों को (आयत विशेषों को) पर्याय कहा जाता है । उन क्रमभावी पर्यायों में प्रवर्तमान विशेषत्व को गौण करें तो एक द्रव्यत्वरूप सामान्यत्व ही भासित होता है । यह आयतसामान्य (अथवा आयतसामान्य समुदाय) वह द्रव्य है ।
    अनन्त गुणों का आश्रय एक द्रव्य है ।
    प्रतिपत्ति = प्राप्ति; ज्ञान; स्वीकार ।
    द्विअणुक = दो अणुओं से बना हुआ स्कंध ।
    स्व उपादान और पर निमित्त है ।
    पूर्वोत्तर = पहले की और बाद की ।
    आपत्ति = आपतित, आपड़ना ।
    पट = वस्त्र
    १०द्विपटिक = दो थानों को जोड़कर (सीकर) बनाया गया एक वस्त्र (यदि दोनों थान एक ही जाति के हों तो समान-जातीय द्रव्य-पर्याय कहलाता है, और यदि दो थान भिन्न जाति के हों (जैसे एक रेशमी दूसरा सूती) तो असमान-जातीय द्रव्य-पर्याय कहलाता है ।
    ११परमेश्वर की कही हुई

    जयसेनाचार्य :
    अर्थ, ज्ञान का विषयभूत पदार्थ, वास्तव में द्रव्यमय है । पदार्थ द्रव्यमय कैसे है? तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य लक्षण द्रव्य से रचित होने के कारण पदार्थ द्रव्यमय है । तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य का लक्षण कहते हैं -- अथवा अनेक गाय शरीरों में यह गाय, यह गाय- इसप्रकार गो जाति का ज्ञान तिर्यक् सामान्य है और जैसे एक ही पुरुष सम्बन्धी बाल कुमार आदि अवस्थाओं में 'यह वही देवदत्त है ' -- इसप्रकार का ज्ञान ऊर्ध्वता सामान्य है ।

    द्रव्य गुणात्मक गुणस्वभावी कहे गये है । यह वही-यह वही गुण हैं अथवा साथ-साथ रहने वाले गुण हैं- इसप्रकार गुण का लक्षण है । जैसे सिद्ध जीव द्रव्य अनन्त ज्ञान, सुख आदि विशेष गुणों के साथ और उसीप्रकार अगुरुलघुक आदि सामान्य गुणों के साथ अभिन्नता होने के कारण गुणात्मक हैं । उसीप्रकार अपने-अपने विशेष-सामान्य गुणों के साथ अभिन्नता होने से सभी द्रव्य गुणात्मक हैं ।

    उन पूर्वोक्त लक्षण द्रव्य और गुणों से पर्यायें होती हैं । जो व्यतिरेकि (भिन्न-भिन्न) है, वे पर्यायें हैं अथवा जो क्रम से होती हैं वे पर्यायें है - इसप्रकार पर्याय का लक्षण है । जैसे एक मुक्तात्मा द्रव्य में गति मार्गणा से विलक्षण अन्तिम शरीर के आकार से कुछ कम आकार वाली सिद्ध गति पर्याय तथा अगुरुलघुक गुण की षडवृद्धि-हानि रूप साधारण स्वभाव गुणपर्यायें हैं; उसीप्रकार सभी द्रव्यों में स्वभाव द्रव्य पर्यायें और स्वजातीय-विजातीय विभाव द्रव्य पर्यायें होती हैं और उसीप्रकार 'पंचास्तिकाय' ग्रन्थ में पहले कहे हुये क्रम से 'जिनका अस्ति स्वभाव है' -- इत्यादि गाथा में और उसीप्रकार 'जीवादिक द्रव्य भाव है' इत्यादि गाथा में यथासंभव जानना चाहिये ।

    क्योंकि इसप्रकार द्रव्य -गुण-पर्याय की जानकरी के सम्बन्ध में जो मूढ (अज्ञानी) हैं अथवा 'नारकादि पर्याय रूप मैं नहीं हूँ' - इसप्रकार के भेद-विज्ञान में जो अज्ञानी हैं - वे परसमय मिथ्यादृष्टि हैं । इसलिए यह परमेश्वर (वीतराग-सर्वज्ञ देव) द्वारा कही गई द्रव्य-गुण-पर्याय की व्याख्या समीचीन कल्याणकारी है -- यह अभिप्राय है ॥१०३॥


    🏠
    + अनुषंगिक (पूर्व-गाथा के कथन के साथ सम्बन्ध वाली) ऐसी यह ही स्‍वसमय-परसमय की व्‍यवस्‍था (भेद) निश्‍च‍ित (उसका) उपसंहार करते हैं -
    जे पज्जएसु णिरदा जीवा परसमइग त्ति णिद्दिट्ठा । (94)
    आदसहावम्हि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा ॥104॥
    ये पर्यायेषु निरता जीवाः परसमयिका इति निर्दिष्टाः ।
    आत्मस्वभावे स्थितास्ते स्वकसमया ज्ञातव्याः ॥९४॥
    पर्याय में ही लीन जिय परसमय आत्मस्वभाव में
    थित जीव ही हैं स्वसमय - यह कहा जिनवरदेव ने ॥१०४॥
    अन्वयार्थ : जो जीव पर्यायों में लीन हैं वे परसमय हैं -ऐसा कहा गया है; जो जीव आत्म-स्वभाव में स्थित हैं वे स्वसमय जानना चाहिये ॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    जो जीव पुद्‌गलात्मक असमान-जातीय द्रव्य-पर्याय का जो कि सकल अविद्याओं का एक जड़ है उसका आश्रय करते हुए वास्तव में परसमय होते हैं अर्थात् परसमय-रूप परिणमित होते हैं ।

    और जो असंकीर्ण द्रव्य-गुण-पर्यायों से सुस्थित भगवान आत्मा के स्वभाव का जो कि सकल विद्याओं का एक मूल है उसका आश्रय करके वास्तव में १०स्वसमय होते हैं अर्थात् स्वसमयरूप परिणमित होते हैं ।

    इसलिये स्वसमय ही आत्मा का तत्त्व है ॥१०४॥

    यथोक्त = पूर्व गाथा में कहा जैसा ।
    संभावना = संचेतन; अनुभव; मान्यता; आदर ।
    निरर्गल = अंकुश बिना की; बेहद (जो मनुष्यादि पर्याय में लीन हैं, वे बेहद एकांत-दृष्टि-रूप हैं)
    आत्मव्यवहार = आत्मारूप वर्तन, आत्मारूप कार्य, आत्मारूप व्यापार ।
    मनुष्यव्यवहार = मनुष्यरूप वर्तन (मैं मनुष्य ही हूँ - ऐसी मान्यता-पूर्वक वर्तन)
    जो जीव पर के साथ एकत्व की मान्यता-पूर्वक युक्त होता है, उसे परसमय कहते हैं ।
    असंकीर्ण = एकमेक नहीं ऐसे; स्पष्टतया भिन्न (भगवान आत्म-स्वभाव स्पष्ट भिन्न -- पर के साथ एकमेक नहीं -- ऐसे द्रव्य-गुण-पर्यायों से सुस्थित है)
    परिग्रह = स्वीकार; अंगीकार ।
    संचारित = ले जाये गये । (जैसे भिन्न-भिन्न कमरों में ले जाया गया रत्न-दीपक एकरूप ही है, वह किंचितमात्र भी कमरे के रूप में नहीं होता, और न कमरे की क्रिया करता है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न शरीरों में प्रविष्ट होने वाला आत्मा एकरूप ही है, वह किंचितमात्र भी शरीर रूप नहीं होता और न शरीर की क्रिया करता है - इसप्रकार ज्ञानी जानता है ।)
    १०जो जीव स्व के साथ एकत्व की मान्यता-पूर्वक (स्वके साथ) युक्त होता है उसे स्व-समय कहा जाता है ।

    जयसेनाचार्य :
    [जे पज्जयेसु णिरदा जीवा] जो पर्यायों में लीन-आसक्त जीव हैं, [परसमयिग त्ति णिद्दिट्ठा] वे परसमय है- ऐसा कहा गया है । वह इसप्रकार -- मनुष्यादि पर्यायरूप मैं हूँ - ऐसी परिणति को अहंकार कहते हैं । मनुष्यादि शरीर, उस शरीर के आधार से उत्पन्न पाँच इन्द्रियाँ, उनके विषय तथा तज्जन्य सुख -ये मेरे है- ऐसी परिणति ममकार हैं, ममकार- अहंकार रहित परम चैतन्य चमत्कार परिणति से रहित जो जीव उन दोनों रूप परिणत हैं वे जीव कर्म के उदय में उत्पन्न पर-पर्याय में लीन - आसक्त होने से परसमय- मिथ्यादृष्टि कहे गये हैं । [आदसहावम्मिठिदा] और जो आत्म- स्वरूप में स्थित है- लीन हैं [ते सगसमया मुणेदव्वा] वे स्वसमय हैं, ऐसा मानना-जानना चाहिये । वह इसप्रकार-जो अनेक कमरों में ले जाये गये एक रत्नदीप के समान अनेक शरीरों में भी 'मैं एक हूँ' इसप्रकार के दृढ़ संस्कार से निज शुद्धात्मा में स्थित रहते हैं -लीन रहते हैं वे कर्म के उदय से उत्पन्न पर्यायरूप परिणमन से रहित होने के कारण स्वसमय हैं- यह अर्थ है ॥१०४॥

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    + द्रव्य का लक्षण बतलाते हैं -
    अपरिच्चत्त-सहावेणुप्पा-दव्वयधुवत्त-संबद्धं । (95)
    गुणवं च सपज्जयं जं तं दव्वं ति वुच्चंति ॥105॥
    अपरित्यक्तस्वभावेनोत्पादव्ययध्रुवत्वसंबद्धम् ।
    गुणवच्च सपर्यायं यत्तद्द्रव्यमिति ब्रुवन्ति ॥९५॥
    निजभाव को छोड़े बिना उत्पादव्ययध्रुवयुक्त गुण-
    पर्ययसहित जो वस्तु है वह द्रव्य है जिनवर कहें ॥१०५॥
    अन्वयार्थ : जो स्वभाव को छोड़े बिना उत्पाद-व्यय-धौव्य संयुक्त तथा गुणयुक्त और पर्याय सहित है, वह द्रव्य है -- ऐसा जिनेन्द्र भगवान कहते हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    यहाँ ( इस विश्व में) जो, स्वभावभेद किये बिना, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-त्रय से और गुण-पर्याय-द्वय से लक्षित होता है, वह द्रव्य है । इनमें से (स्वभाव, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, गुण और पर्याय में से) द्रव्य का स्वभाव वह अस्तित्व-सामान्य-रूप अन्वय है; अस्तित्व दो प्रकार का कहेंगे:—१ -स्वरूप-अस्तित्व । २-सादृश्य-अस्तित्व । गुण वह विस्तारविशेष हैं । वे सामान्य-विशेषात्मक होने से दो प्रकार के हैं । इनमें, पर्याय आयत-विशेष हैं । वे पूर्व ही (९३ वीं गाथा की टीका में) कथित चार प्रकार की हैं ।

    द्रव्‍य का उन उत्पादादि के साथ अथवा गुणपर्यायों के साथ लक्ष्य-लक्षण भेद होने पर भी स्वरूपभेद नहीं है । स्वरूप से ही द्रव्य वैसा (उत्पादादि अथवा गुणपर्याय वाला) है वस्त्र के समान । जैसे

    उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यत्रय = उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य - यह त्रिपुटी (तीनों का समूह)
    गुणपर्यायद्वय = गुण और पर्याय - यह युगल (दोनों का समूह)
    लक्षित होता है = लक्ष्यरूप होता है, पहिचाना जाता है । (१) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य तथा (२) गुणपर्याय वे लक्षण हैं और द्रव्य वह लक्ष्य है ।
    अस्तित्व-सामान्य-रूप अन्वय = 'है, है, है' ऐसा एकरूप भाव द्रव्य का स्वभाव है । (अन्वय = एकरूपता सदृशभाव)
    द्रव्य में निज में ही स्वरूप-कर्ता और स्वरूप-करण होने की सामर्थ्य है । यह सामर्थ्य-स्वरूप स्वभाव ही अपने परिणमन में (अवस्थांतर करने में) अन्तरंग साधन है ।


    जयसेनाचार्य :
    [अपरिच्चत्तसहावेण] स्वभाव को नहीं छोड़ने वाले अस्तित्व के साथ अभिन्न [उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं] उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य के साथ संयुक्त [गुणवं च सपज्जायं] गुणयुक्त और पर्याय सहित [जं] जो इसप्रकार सत्ता आदि तीन लक्षणों से सहित है, [तं दव्वं ति वुच्चंति] वह द्रव्य है-ऐसा सर्वज्ञ कहते हैं ।

    यह द्रव्य उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य और गुण-पर्याय के साथ लक्ष्य-लक्षण भेद होने पर भी सत्ता से भिन्न नहीं है । यदि सत्ताभेद नहीं है तो क्या करता है? स्वरूप से ही उस प्रकारता का अवलम्बन करता है । उस प्रकारता का अवलम्बन करता है - इसका क्या अर्थ है? शुद्धात्मा के समान ही उत्पाद-व्यय-धौव्य स्वरूप और गुण-पर्याय स्वरूप परिणमित होता है - यह अर्थ है ।

    वह इसप्रकार -- वैसे ही अनन्त ज्ञानादि गुण, गतिमार्गणा से विपरीत सिद्धगति, इन्द्रिय मार्गणा से विपरीत अतीन्द्रियता आदि लक्षणवाली शुद्ध पर्यायें हैं । जैसे- शुद्ध सत्ता के साथ अभिन्न परमात्म-द्रव्य पूर्वोक्त उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य और गुण-पर्यायों के साथ संज्ञा-लक्षण-प्रयोजन आदि का भेद होने पर भी उनके साथ सत्ताभेद नहीं करता, स्वरूप से ही उस प्रकारता का अवलम्बन करता है । उस प्रकारता का क्या अर्थ है? उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, गुण-पर्याय स्वरूप से परिणमित होता है-यह अर्थ है ।

    उसी प्रकार सभी द्रव्य अपने-अपने यथोचित उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य और उसी प्रकार गुण-पर्यायों के साथ यद्यपि संज्ञा-लक्षण-प्रयोजन आदि के द्वारा भेद करते हैं; तथापि सत्ता-स्वरूप से भेद नहीं करते हैं, स्वभाव से ही उस प्रकारता का अवलम्बन करते हैं । उस प्रकारता का क्या अर्थ है? उत्पाद-व्यय आदि स्वरूप से परिणमित होते है- यह अर्थ है ।

    अथवा जैसे कपड़ा निर्मल पर्याय से उत्पन्न, मलिन पर्याय से नष्ट और उन दोनों के आधारभूत कपड़े रूप से ध्रुव-अविनश्वर है और उसीप्रकार सफेद रंग आदि गुण तथा नवीन-पुरानी पर्याय सहित है; उसी प्रकार सत् उन उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य और अपने गुण-पर्यायों के साथ संज्ञा आदि भेद होने पर भी सत्तारूप से भेद नहीं करता है । सत्तारूप से भेद नहीं करता है तो क्या करता है? स्वरूप से ही उत्पादादि रूप परिणमित होता है; इसीप्रकार सभी द्रव्य भी जानना चाहिये- यह अभिप्राय है ॥१०५॥

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    + अनुक्रम से दो प्रकार का अस्तित्व कहते हैं । स्वरूप-अस्तित्व और सादृश्य अस्तित्व । इनमें से यह स्वरूपास्तित्व का कथन है -
    सब्भावो हि सहावो गुणेहिं सगपज्जएहिं चित्तेहिं । (96)
    दव्वस्स सव्वकालं उप्पादव्वयधुवत्तेहिं ॥106॥
    सद्भावो हि स्वभावो गुणैः स्वकपर्ययैश्चित्रैः ।
    द्रव्यस्य सर्वकालमुत्पादव्ययध्रुवत्वैः ॥९६॥
    गुण-चित्रमयपर्याय से उत्पादव्ययध्रुवभाव से
    जो द्रव्य का अस्तित्व है वह एकमात्र स्वभाव है ॥१०६॥
    अन्वयार्थ : गुणों तथा अनेक प्रकार की अपनी पर्यायों से और उत्पाद-व्यय-धौव्य रूप से सर्वकाल में द्रव्य का अस्तित्व वास्तव में (द्रव्य का) स्वभाव है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अस्तित्व वास्तव में द्रव्य का स्वभाव है; और वह (अस्तित्व) अन्य साधन से निरपेक्ष होने के कारण अनादि-अनन्त होने से तथा अहेतुक, एकरूप वृत्ति से सदा ही प्रवर्तता होने के कारण विभावधर्म से विलक्षण होने से, भाव और भाववानता के कारण अनेकत्व होने पर भी प्रदेशभेद न होने से द्रव्य के साथ एकत्व को धारण करता हुआ, द्रव्य का स्वभाव ही क्यों न हो? (अवश्य हो ।) वह अस्तित्व-जैसे भिन्न-भिन्न द्रव्यों में प्रत्येक में समाप्त हो जाता है उसी प्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय में प्रत्येक में समाप्त नहीं हो जाता, क्योंकि उनकी सिद्धि परस्पर होती है, इसलिये (अर्थात् द्रव्य-गुण और पर्याय एक दूसरे से परस्पर सिद्ध होते हैं इसलिये,—यदि एक न हो तो दूसरे दो भी सिद्ध नहीं होते इसलिये) उनका अस्तित्व एक ही है; सुवर्ण की भाँति ।

    जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल या भाव से सुवर्ण से जो पृथक् दिखाई नहीं देते; कर्ता-करण-अधिकरणरूप से पीतत्वादि गुणों के और कुण्डलादि पर्यायों के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान सुवर्ण के अस्तित्व से जिनकी उत्पत्ति होती है,—ऐसे पीतत्वादिगुणों और कुण्डलादि पर्यायों से जो सुवर्ण का अस्तित्व है, वह सुवर्ण का स्वभाव है; उसी प्रकार द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से जो द्रव्य से पृथक् दिखाई नहीं देते, कर्ता-करण-अधिकरणरूप से गुणों के और पर्यायों के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान द्रव्य के अस्तित्व से जिनकी उत्पत्ति होती है,—ऐसे गुणों और पर्यायों से जो द्रव्य का अस्तित्व है, वह स्वभाव है ।

    (द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से सुवर्ण से भिन्न न दिखाई देने वाले पीतत्वादिक और कुण्डलादिक का अस्तित्व वह सुवर्ण का ही अस्तित्व है, क्योंकि पीतत्वादिक के और कुण्डलादिक के स्वरूप को सुवर्ण ही धारण करता है, इसलिये सुवर्ण के अस्तित्व से ही पीतत्वादिक की और कुण्डलादिक की निष्पत्ति-सिद्ध होती है; सुवर्ण न हो तो पीतत्वादिक और कुण्डलादिक भी न हों, इसी प्रकार द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से द्रव्य से भिन्न नहीं दिखाई देने वाले गुणों और पर्यायों का अस्तित्व वह द्रव्य का ही अस्तित्व है, क्योंकि गुणों और पर्यायों के स्वरूप को द्रव्य ही धारण करता है, इसलिये द्रव्य के अस्तित्व से ही गुणों की और पर्यायों की निष्पत्ति होती है, द्रव्य न हो तो गुण और पर्यायें भी न हों । ऐसा अस्तित्व वह द्रव्य का स्वभाव है ।)

    अथवा, जैसे द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से जो पीतत्वादि गुणों से और कुण्डलादि पर्यायों से पृथक् नहीं दिखाई देता; कर्ता-करण-अधिकरणरूप से सुवर्ण के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान पीतत्वादि गुणों और कुण्डलादि पर्यायों से जिसकी निष्पत्ति होती है,—ऐसे सुवर्ण का, मूल-साधनपने से उनसे निष्‍पन्न होता हुआ, जो अस्तित्व है, वह स्वभाव है; उसी प्रकार द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से गुणों से और पर्यायों से जो पृथक् नहीं दिखाई देता, कर्ता-करण-अधिकरणरूप से द्रव्य के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान गुणों और पर्यायों से जिसकी निष्पत्ति होती है,—ऐसे द्रव्य का, मूलसाधनपने से उनसे निष्पन्न होता हुआ जो अस्तित्व है, वह स्वभाव है ।

    (पीतत्वादिक से और कुण्डलादिक से भिन्न न दिखाई देने वाले सुवर्ण का अस्तित्व वह पीतत्वादिक और कुण्डलादिक का ही अस्तित्व है, क्योंकि सुवर्ण के स्वरूप को पीतत्वादिक और कुण्डलादिक ही धारण करते हैं, इसलिये पीतत्वादिक और कुण्डलादिक के अस्तित्व से ही सुवर्ण की निष्पत्ति होती है, पीतत्वादिक और कुण्डलादिक न हों तो सुवर्ण भी न हो; इसी प्रकार गुणों से और पर्यायों से भिन्न न दिखाई देने वाले द्रव्य का अस्तित्व वह गुणों और पर्यायों का ही अस्तित्व है, क्योंकि द्रव्य के स्वरूप को गुण और पर्यायें ही धारण करती हैं इसलिये गुणों और पर्यायों के अस्तित्व से ही द्रव्य की निष्पत्ति होती है । यदि गुण और पर्यायें न हो तो द्रव्य भी न हो । ऐसा अस्तित्व वह द्रव्य का स्वभाव है ।)

    (जिस प्रकार द्रव्य का और गुण-पर्याय का एक ही अस्तित्व है ऐसा सुवर्ण के दृष्टान्त पूर्वक समझाया, उसी प्रकार अब सुवर्ण के दृष्टान्त पूर्वक ऐसा बताया जा रहा है कि द्रव्य का और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य का भी एक ही अस्तित्व है ।)

    जैसे द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से, सुवर्ण से १०जो पृथक् नहीं दिखाई देते, कर्ता-करण-११अधिकरणरूप से कुण्डलादि उत्पादों के, बाजूबंधादि व्ययों के और पीतत्वादि ध्रौव्‍यों के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान सुवर्ण के अस्तित्व से जिनकी निष्पत्ति होती है,—ऐसे कुण्डलादि उत्पाद, बाजूबंधादि व्यय और पीतत्वादि ध्रौव्यों से जो सुवर्ण का अस्तित्व है, वह (सुवर्ण का) स्वभाव है; उसी प्रकार द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से, जो द्रव्य से पृथक् दिखाई नहीं देते, कर्ता-करण-अधिकरणरूप से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यों के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान द्रव्य के अस्तित्व से जिनकी निष्पत्ति होती है, —ऐसे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यों से जो द्रव्य का अस्तित्व है वह स्वभाव है ।

    (द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से द्रव्य से भिन्न दिखाई न देने वाले उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यों का अस्तित्व है वह द्रव्य का ही अस्तित्व है; क्योंकि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यों के स्वरूप को द्रव्य ही धारण करता है, इसलिए द्रव्य के अस्तित्व से ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यों की निष्पत्ति होती है । यदि द्रव्य न हो तो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य भी न हों । ऐसा अस्तित्व वह द्रव्य का स्वभाव है।)

    अथवा जैसे द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से कुण्डलादि-उत्पादों से बाजूबंधादि व्ययों से और पीतत्वादि ध्रौव्यों से जो पृथक् नहीं दिखाई देता; कर्ता-करण-अधिकरणरूप से सुवर्ण के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान कुण्डलादि-उत्पादों, बाजूबंधादि व्ययों और पीतत्वादि ध्रौव्यों से जिसकी निष्पत्ति होती है,—ऐसे सुवर्ण का, मूलसाधनपने से उनसे निष्‍पन्न होता हुआ, जो अस्तित्व है, वह स्वभाव है । उसी प्रकार द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से या भाव से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यों से जो पृथक् दिखाई नहीं देता, कर्ता-करण-अधिकरण रूप से द्रव्‍य के स्‍वरूप को धारण करके प्रवर्तमान उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यों से जिसकी निष्‍पत्ति होती है,—ऐसे द्रव्‍य का मूल साधनपने से उनसे निष्‍पन्‍न होता हुआ जो अस्तित्‍व है, वह स्‍वभाव है।

    (उत्पादों से, व्ययों से और ध्रौव्यों से भिन्‍न न दिखाई देने वाले द्रव्‍य का अस्तित्‍व वह उत्‍पादों; व्ययों और ध्रौव्‍यों का ही अस्तित्‍व है; क्‍योंकि द्रव्‍य के स्‍वरूप को उत्‍पाद, व्‍यय और ध्रौव्‍य ही धारण करते हैं, इसलिये उत्पाद-व्यय और ध्रौव्यों के अस्तित्‍व से ही द्रव्‍य की निष्‍पत्ति होती है। यदि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य न हों तो द्रव्‍य भी न हो। ऐसा अस्तित्‍व वह द्रव्‍य का स्‍वभाव है।)

    इस प्रकार स्वरूपास्तित्व का निरूपण हुआ ॥९६॥

    अस्तित्व अन्य साधन की अपेक्षा से रहित -- स्वयंसिद्ध है इसलिये अनादि-अनन्त है ।
    अहेतुक = अकारण, जिसका कोई कारण नहीं है ऐसी ।
    वृत्ति = वर्तन; वर्तना वह; परिणति । (अकारणिक एकरूप परिणति से सदाकाल परिणमता होने से अस्तित्व विभाव-धर्म से भिन्न लक्षण वाला है ।)
    अस्तित्व तो (द्रव्य का) भाव है और द्रव्य भाववान् है ।
    पीतत्वादि गुण और कुण्डलादि पर्यायें ।
    द्रव्य ही गुण-पर्यायों का कर्ता (करनेवाला), उनका करण (साधन) और उनका अधिकरण (आधार) है; इसलिये द्रव्य ही गुण-पर्याय का स्वरूप धारण करता है ।
    जो = जो सुवर्ण ।
    उनसे = पीतत्वादि गुणों और कुण्डलादि पर्यायों से । (सुवर्णका अस्तित्व निष्पन्न होने में, उपजने में, या सिद्ध होने में मूल-साधन पीतत्वादि गुण और कुण्डलादि पर्यायें हैं)
    गुण-पर्यायें ही द्रव्य की कर्ता, करण और अधिकरण हैं; इसलिये गुण-पर्यायें ही द्रव्य का स्वरूप धारण करती हैं ।
    १०जो = जो कुण्डलादि उत्पाद, बाजूबंधादि व्यय आर पीतादि ध्रौव्य ।
    ११सुवर्ण ही कुण्डलादि-उत्पाद, बाजूबंधादि-व्यय और पीतत्वादि ध्रौव्य का कर्ता, करण तथा अधिकरण है; इसलिये सुवर्ण ही उनका स्वरूप धारण करता है । (सुवर्ण ही कुण्डलादि-रूप से उत्पन्न होता है, बाजूबंधादि-रूप से नष्ट होता है और पीतत्वादि-रूप से अवस्थित रहता है ।)

    जयसेनाचार्य :
    [सहावो हि] वास्तव में स्वभाव-स्वरूप है । स्वभाव रूपकर्ता कौन है- स्वभाव क्या है? [सब्भावो] सद्भाव शुद्धसत्ता अथवा शुद्धअस्तित्व स्वभाव है । शुद्धअस्तित्व किसका स्वभाव है? [दव्वस्स] मुक्तात्मद्रव्य का स्वभाव है । और वह स्वरूपास्तित्व जैसे मुक्तात्माओं से भिन्नभूत पुद्गलादि पाँच द्रव्यों का और शेष जीव द्रव्यों का भिन्न है, वैसा भिन्न नहीं है । वह स्वरूप किनके साथ भिन्न नहीं है? [गुणेहिं सगपज्जएहिं] केवलज्ञानादि गुणों और कुछ कम अन्तिम शरीर के आकार आदि अपनी पर्यायों के साथ भिन्न नही है । वे पर्यायें कैसी हैं? चित्तेहिं- सिद्धगतित्व, अतीन्द्रियत्व, अशरीरत्व, अयोगत्व, अवेदत्व इत्यादि अनेक भेदों से पृथक्-पृथक् है । मात्र गुण-पर्यायों के साथ भिन्न नहीं है - ऐसा ही नहीं है, अपितु [उप्पादव्वयधुवत्तेहिं] शुद्धात्मा की प्राप्तिरूप मोक्षपर्याय का उत्पाद रागादि विकल्प रहित परमसमाधिरूप मोक्षमार्ग-रत्नत्रयपर्याय का व्यय तथा मोक्ष एवं मोक्षमार्ग के आधारभूत अन्वयरूप से रहनेवाली द्रव्यता लक्षण धौव्य - इसप्रकार कहे गये लक्षणवाले उत्पाद-व्यय-धौव्य के साथ भिन्न नहीं है । उन सबसे भिन्न कैसे नहीं है? [सव्वकालं] हमेशा ही उसरूप से रहने के कारण भिन्न नहीं है । अथवा उन उत्पादादि से भिन्न कब नही हैं? [सव्वकालं] हमेशा ही (कभी भी) उनसे भिन्न नहीं हैं । उन सबके साथ भिन्न क्यों नही है? क्योंकि कर्ताभूत गुण-पर्याय के अस्तित्व से और उत्पाद-व्यय-धौव्य के अस्तित्व से शुद्धात्मद्रव्य का अस्तित्व सिद्ध होता है, तथा शुद्धात्मद्रव्य के अस्तित्व से गुण-पर्याय उत्पाद-व्यय-धौव्य का अस्तित्व सिद्ध होता है; इसलिये ये सब परस्पर में भिन्न-भिन्न नहीं हैं ।

    वह इसप्रकार -- जैसे अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव द्वारा स्वर्ण से अभिन्न पीलापन आदि गुणों तथा कुण्डल आदि पर्यायों सम्बन्धी जो अस्तित्व है, वह ही स्वर्ण का शुद्ध अस्तित्व है; वैसे ही अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव द्वारा परमात्म-द्रव्य से अभिन्न केवलज्ञानादि गुणों तथा अन्तिम शरीराकार से कुछ कम आकार आदि पर्यायों का जो अस्तित्व है, वही मुक्तात्मद्रव्य का शुद्ध अस्तित्व है । जैसे-अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव द्वारा पीलेपन आदि गुणों तथा कुण्डल आदि पर्यायों से अभिन्न स्वर्ण सम्बन्धी जो अस्तित्व है वही पीलेपन आदि गुणों तथा कुण्डल आदि पर्यायों का स्वभाव है; उसीप्रकार अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव द्वारा केवलज्ञानादि गुणों तथा अन्तिम शरीराकार से कुछ कम आकार आदि पर्यायों से अभिन्न मुक्तात्मा द्रव्य सम्बन्धी जो अस्तित्व है वही केवलज्ञानादि गुणों तथा अन्तिम शरीराकार से कुछ कम आकारादि पर्यायों का स्वभाव जानना चाहिये ।

    अब यहाँ उत्पाद-व्यय- धौव्य का भी द्रव्य के साथ अभिन्न अस्तित्व कहते हैं । जैसे- अपने द्रव्यादि चतुष्टय द्वारा स्वर्ण से अभिन्न कटक (कड़ा) पर्याय से उत्पाद, कंकण पर्याय का विनाश और स्वर्णता लक्षण धौव्य सम्बन्धी जो अस्तित्व है, वही स्वर्ण का शुद्ध अस्तित्व है; उसीप्रकार स्वद्रव्यादि चतुष्टय द्वारा परमात्मा द्रव्य से अभिन्न मोक्षपर्याय का उत्पाद, मोक्षमार्ग पर्याय का व्यय तथा उन दोनों की आधारभूत परमात्मद्रव्यता लक्षण धौव्य सम्बन्धी जो अस्तित्व है, वही मुक्तात्मा द्रव्य का शुद्ध अस्तित्व है ।

    जैसे स्वद्रव्यादि चतुष्टय द्वारा कटक पर्याय का उत्पाद, कंकण पर्याय का व्यय तथा स्वर्णता लक्षण धौव्य से अभिन्न स्वर्ण सम्बन्धी जो अस्तित्व है वही कटक पर्याय का उत्पाद, कंकण पर्याय का व्यय तथा उन दोनों के आधारभूत स्वर्णत्व लक्षण धौव्य का स्वभाव है; उसी प्रकार स्वद्रव्यादि चतुष्टय द्वारा मोक्षपर्याय का उत्पाद, मोक्षमार्ग पर्याय का व्यय तथा उन दोनों के आधारभूत मुक्तात्मद्रव्यत्व लक्षण धौव्य से अभिन्न परमात्मद्रव्य संबंधी जो अस्तित्व है, वही मोक्षपर्याय का उत्पाद, मोक्षमार्ग पर्याय का व्यय तथा उन दोनों के आधारभूत मुक्तात्म-द्रव्यत्व लक्षण धौव्य का स्वभाव है ।

    इसप्रकार जैसे मुक्तात्म-द्रव्य की अपने गुण-पर्याय, उत्पाद-व्यय-धौव्य के साथ स्वरूपास्तित्व नामक अवान्तरसत्ता अभिन्न स्थापित की है; वैसे ही सम्पूर्ण शेष द्रव्यों की भी स्थापित करना चाहिये -- यह अर्थ है ॥१०६॥

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    + यह (नीचे अनुसार) सादृश्य-अस्तित्व का कथन है -
    इह विविहलक्खणाणं लक्खणमेगं सदित्ति सव्वगयं । (97)
    उवदिसदा खलु धम्मं जिणवरवसहेण पण्णत्तं ॥107॥
    इह विविधलक्षणानां लक्षणमेकं सदिति सर्वगतम् ।
    उपदिशता खलु धर्मं जिनवरवृषभेण प्रज्ञप्तम् ॥९७॥
    रे सर्वगत सत् एक लक्षण विविध द्रव्यों का कहा
    जिनधर्म का उपदेश देते हुए जिनवरदेव ने ॥१०७॥
    अन्वयार्थ : [धर्मं] धर्म का [खलु] वास्तव में [उपदिशता] उपदेश करते हुये [जिनवरवृषभेण] जिनवर-वृषभ ने [इह] इस विश्व में [विविधलक्षणानां] विविध लक्षणवाले (भिन्न भिन्न स्वरूपास्तित्व वाले सर्व) द्रव्यों का [सत् इति] 'सत्' ऐसा [सर्वगतं] सर्वगत [लक्षणं] लक्षण (सादृश्यास्तित्व) [एकं] एक [प्रज्ञप्तम्] कहा है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    इस विश्व में, ऐसे विशेष-लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व से (समस्त द्रव्य) लक्षित होते हैं फिर भी सर्व द्रव्यों का 'सत्' ऐसा जो सर्वगत सामान्य-लक्षणभूत सादृश्यास्तित्व है वह वास्तव में एक ही जानना चाहिए । इस प्रकार 'सत्' ऐसा कथन और 'सत्' ऐसा ज्ञान सर्व पदार्थों का परामर्श करने वाला है । यदि वह ऐसा (सर्व-पदार्थ-परामर्शी) न हो तो कोई पदार्थ सत् (अस्तित्व-वाला) कोई असत् (अस्तित्व-रहित), कोई सत् तथा असत् और कोई अवाच्य होना चाहिये; किन्तु वह तो विरुद्ध ही है, और यह ('सत्' ऐसा कथन और ज्ञान के सर्व-पदार्थ-परामर्शी होने की बात) तो सिद्ध हो सकती है, वृक्ष की भाँति ।

    जैसे (बहुत से, संख्यापेक्षा से अनेक, और अनेक प्रकार के अर्थात् आम्र, अशोकादि वृक्षों का अपना-अपना स्वरूपास्तित्व भिन्न-भिन्न है, इसलिये स्वरूपास्तित्व की अपेक्षा से उनमें अनेकत्व है, परन्तु वृक्षत्व जो कि सर्व वृक्षों का सामान्य-लक्षण है और जो सर्व वृक्षों में सादृश्य बतलाता है, उसकी अपेक्षा से सर्व वृक्षों में एकत्व है । जब इस एकत्व को मुख्य करते हैं तब अनेकत्व गौण हो जाता है; इसी प्रकार बहुत से -- अनन्त और अनेक -- छह प्रकार के द्रव्यों का अपना-अपना स्वरूपास्तित्व भिन्न-भिन्न है इसलिये स्वरूपास्तित्व की अपेक्षा से उनमें अनेकत्व है, परन्तु सत्पना -- अस्तित्वपना, 'है' ऐसा भाव, जो कि सर्व द्रव्यों का सामान्य लक्षण है और जो सर्व-द्रव्यों में सादृश्य बतलाता है उसकी अपेक्षा से सर्व-द्रव्यों में एकत्व है । जब इस एकत्व को मुख्य करते हैं तब अनेकत्व गौण हो जाता है । और इस प्रकार जब सामान्य सत्‌पने को मुख्यता से लक्ष में लेने पर सर्व द्रव्यों के एकत्व की मुख्यता होने से अनेकत्व गौण हो जाता है, तब भी वह -- समस्त द्रव्यों का स्वरूप-अस्तित्व संबंधी अनेकत्व, स्पष्टतया प्रकाशमान ही रहता है ।)

    (इस प्रकार सादृश्य अस्तित्व का निरूपण हुआ) ॥९७॥

    व्यावृत = पृथक्; अलग; भिन्न ।
    सर्वगत = सर्व में व्यापनेवाला ।
    परामर्श = स्पर्श; विचार; लक्ष; स्मरण ।
    सादृश्य = समानत्व ।
    तिरोहित = तिरोभूत; आच्छादित; अदृश्य ।

    जयसेनाचार्य :
    [इह विविहलक्खणाणं] इस लोक में प्रत्येक सत्ता नामक स्वरूपास्तित्व के द्वारा भिन्न-भिन्न लक्षण वाले चेतन-अचेतन, मूर्त-अमूर्त पदार्थों का [लक्खणमेगं तु] एक अखण्ड लक्षण है । वह अखण्ड लक्षण क्या है? अथवा अखण्ड लक्षणरूप कर्ता कौन है? [सदिति] सब 'सत्' है - इसप्रकार महासत्तारूप अखण्ड लक्षण है । वह लक्षण किस विशेषतावाला है? [सव्वगयं] संकर और व्यतिकर दोषों से रहित अपनी जाति का विरोध नहीं करनेवाले शुद्ध- संग्रहनय से सर्वगत - सभी पदार्थों में व्यापक पाया जाता है । यह किसने कहा है? [उवदिसदा खलु धम्मं जिणवरवसहेण पण्णत्तं] वस्तु का स्वभाव धर्म है -- ऐसा स्पष्टरूप से उपदेश देनेवाले जिनवरो में प्रधान - तीर्थंकरों ने संक्षेप में यह कहा ।

    वह इसप्रकार - जैसे 'सभी मुक्तात्मा हैं' - ऐसा कहने पर परमानन्द एक लक्षण सुखरूपी अमृतरस के आस्वाद से भरित [अवस्थ] परिपूर्ण भरे हुए लोकाकाश के बराबर शुद्ध - मात्र असंख्यात आत्मप्रदेशों से, तथा अन्तिम शरीर के आकार से कुछ कम आकार आदि पर्यायों से, तथा संकर-व्यतिकर दोषों के निराकरण रूप जाति भेद से भिन्न-भिन्न होने पर भी सर्व सिद्धों का ग्रहण होता है; उसीप्रकार 'सभी सत् हैं'- ऐसा कहने पर संग्रहनय से सभी पदार्थों का ग्रहण होता है ।

    अथवा जैसे यह सेना है, यह वन है - ऐसा कहने पर अपनी-अपनी जाति के भेद से भिन्न-भिन्न क्रमश: घोडा, हाथी आदि पदार्थों का और नीम, आम आदि वृक्षों का एक साथ ग्रहण होता है; उसीप्रकार 'सभी सत् है' -ऐसा कहने पर शुद्ध संग्रह नय के द्वारा सादृश्यसत्ता नामक महासत्तारूप, अपनी जाति के अविरोधरूप से सभी पदार्थों का ग्रहण होता है - ऐसा अर्थ है ॥१०७॥

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    + द्रव्यों से द्रव्यान्तर की उत्पत्ति होने का और द्रव्य से सत्ता का अर्थान्तरत्व होने का खण्डन करते हैं । -
    दव्वं सहावसिद्धं सदिति जिणा तच्चदो समक्खादा । (98)
    सिद्धं तध आगमदो णेच्छदि जो सो ही परसमओ ॥108॥
    द्रव्यं स्वभावसिद्धं सदिति जिनास्तत्त्वतः समाख्यातवन्तः ।
    सिद्धं तथा आगमतो नेच्छति यः स हि परसमयः ॥९८॥
    स्वभाव से ही सिद्ध सत् जिन कहा आगमसिद्ध है
    यह नहीं माने जीव जो वे परसमय पहिचानिये ॥१०८॥
    अन्वयार्थ : द्रव्य स्वभाव से सिद्ध और सत् है- ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने तत्त्वरूप से- वास्तविक कहा है और वह आगम से सिद्ध है-जो ऐसा स्वीकार नहीं करता, वह वास्तव में परसमय है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    वास्तव में द्रव्यों से द्रव्यान्तरों की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि सर्व द्रव्य स्वभावसिद्ध हैं । (उनकी) स्वभावसिद्धता तो उनकी अनादिनिधनता से है; क्योंकि अनादिनिधन साधनान्तर की अपेक्षा नहीं रखता । वह गुण-पर्यायात्मक ऐसे अपने स्वभाव को ही -- जो कि मूल साधन है उसे धारण करके स्वयमेव सिद्ध हुआ वर्तता है ।

    जो द्रव्यों से उत्‍पन्‍न होता है वह तो द्रव्यान्तर नहीं है, कादाचित्कपने के कारण पर्याय है; जैसे -- द्विअणुक इत्यादि तथा मनुष्य इत्यादि । द्रव्य तो अनवधि (मर्यादा रहित) त्रिसमय—अवस्थायी (त्रिकालस्थायी) होने से उत्‍पन्‍न नहीं होता ।

    अब इस प्रकार—जैसे द्रव्य स्वभाव से ही सिद्ध है उसी प्रकार (वह) 'सत् है' ऐसा भी उसके स्वभाव से ही सिद्ध है, ऐसा निर्णय हो; क्योंकि सत्तात्मक ऐसे अपने स्वभाव से निष्‍पन्न हुए भाव वाला है (द्रव्य का ‘सत् है’ ऐसा भाव द्रव्य के सत्तास्वरूप स्वभाव का ही बना हुआ है)

    द्रव्य से अर्थान्तरभूत सत्ता उत्‍पन्‍न नहीं है (नहीं बन सकती, योग्य नहीं है) कि जिसके समवाय से वह (द्रव्य) ‘सत्’ हो । (इसी को स्पष्ट समझाते हैं):—

    प्रथम तो सत् से सत्ता की युतसिद्धता से अर्थान्‍तरत्‍व नहीं है, क्‍योंकि दण्‍ड और दण्‍डी की भांति उनके सम्बन्‍ध में युतसिद्धता दिखाई नहीं देती । (दूसरे) अयुतसिद्धता से भी वह (अर्थान्तरत्व) नहीं बनता । 'इसमें यह है (अर्थात् द्रव्य में सत्ता है)' ऐसी प्रतीति होती है इसलिये वह बन सकता है,—ऐसा कहा जाये तो (पूछते हैं कि) 'इसमें यह है' ऐसी प्रतीति किसके आश्रय (कारण) से होती है यदि ऐसा कहा जाये कि भेद के आश्रय से (अर्थात् द्रव्य और सत्ता में भेद होने से) होती है तो, वह कौनसा भेद है ? प्रादेशिक या अताद्‌भाविक ? प्रादेशिक तो है नहीं, क्योंकि युतसिद्धत्व पहले ही रद्द (नष्ट, निरर्थक) कर दिया गया है, और यदि अताद्‌भाविक कहा जाये तो वह उपपन्न ही (ठीक ही) है, क्योंकि ऐसा (शास्त्र का) वचन है कि 'जो द्रव्य है वह गुण नहीं है ।' परन्तु (यहाँ भी यह ध्यान में रखना कि) यह अताद्‌भाविक भेद 'एकान्त से इसमें यह है' ऐसी प्रतीति का आश्रय (कारण) नहीं है, क्योंकि वह (अताद्‌भाविक भेद) स्वयमेव उन्मग्न और निमग्न होता है । वह इस प्रकार है :- ऐसा होने से (यह निश्‍चित हुआ कि) द्रव्य स्वयमेव सत् है । जो ऐसा नहीं मानता वह (उसे) वास्तव में परसमय (मिथ्यादृष्टि) ही मानना ॥९८॥

    अनादिनिधन = आदि और अन्त से रहित । (जो अनादि-अनन्त हो उसकी सिद्धि के लिये अन्य साधन की आवश्यकता नहीं है)
    कादाचित्क = कदाचित्-किसीसमय हो ऐसा; अनित्य ।
    सत् = अस्तित्ववान - अर्थात् द्रव्य ।
    सत्ता = अस्तित्व (गुण)
    युतसिद्ध = जुड़कर सिद्ध हुआ; समवाय से-संयोग से सिद्ध हुआ । (जैसे लाठी और मनुष्य के भिन्न होने पर भी लाठी के योग से मनुष्य 'लाठीवाला' होता है, इसीप्रकार सत्ता और द्रव्य के अलग होने पर भी सत्ता के योग से द्रव्य 'सत्तावाला' (सत्) हुआ है ऐसा नहीं है । लाठी और मनुष्य की भाँति सत्ता और द्रव्य अलग दिखाई ही नहीं देते । इसप्रकार 'लाठी' और 'लाठीवाले' की भाँति 'सत्ता' और 'सत्' के सम्बन्ध में युतसिद्धता नहीं है ।
    द्रव्य और सत्ता में प्रदेश-भेद नहीं है; क्योंकि प्रदेश-भेद हो तो युतसिद्धत्व आये, जिसको पहले ही रद्द करके बताया है ।
    द्रव्य वह गुण नहीं है और गुण वह द्रव्य नहीं है, - ऐसे द्रव्य-गुण के भेद को (गुण-गुणी- भेद को) अताद्भाविक (तद्रूप न होनेरूप) भेद कहते हैं । यदि द्रव्य और सत्ता में ऐसा भेद कहा जाय तो वह योग्य ही है ।
    उन्मग्न होना = ऊपर आना; तैर आना; प्रकट होना (मुख्य होना)
    निमग्न होना = डूब जाना (गौण होना)
    १०गुण-वासना के उन्मेष = द्रव्य में अनेक गुण होने के अभिप्राय की प्रगटता; गुण-भेद होने-रूप मनो-वृत्ति के (अभिप्राय के) अंकुर ।

    जयसेनाचार्य :
    [दव्वं सहावसिद्धं] द्रव्य-परमात्मद्रव्य स्वभावसिद्ध है । परमात्मद्रव्य स्वभावसिद्ध कैसे है? अनादि-अनन्त अन्य कारणों से निरपेक्ष स्वयं से ही सिद्ध केवलज्ञानादि गुणों के आधारभूत, हमेशा आनंदमयी एकरूप सुखरूपी अमृतरसमयी परमसमतारस भाव से परिणत सभी शुद्धात्म प्रदेशो में परिपूर्ण भरे हुए शुद्ध उपादानभूत अपने स्वभाव से निष्पन्न होने के कारण परमात्मद्रव्य स्वभावसिद्ध है । और जो स्वभावसिद्ध नहीं है वह द्रव्य भी नहीं है । द्वयणुक आदि पुद्गलस्कंध पर्यायों के समान और मनुष्यादि जीव पर्यायों के समान स्वभाव-सिद्ध नहीं होने वाला द्रव्य भी नहीं है । [सदिति] जैसे जो स्वभाव से सिद्ध है वह द्रव्य है, उसी प्रकार 'सत्' ऐसा सत्ता का लक्षण भी स्वभाव से ही है, भिन्न सत्ता के समवाय से सत् नहीं है ।

    अथवा, जैसे द्रव्य स्वभाव से ही सिद्ध है, उसी प्रकार उसका जो वह सत्ता गुण है वह भी स्वभावसिद्ध ही है । द्रव्य के समान उसका गुण सत् स्वभावसिद्ध कैसे है? यदि प्रश्न हो तो- सत्ता और द्रव्य के संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि का भेद होने पर भी दण्ड और दण्डी के समान प्रदेश भेद का अभाव होने से; द्रव्य का गुण होने से; द्रव्य के समान सत् भी स्वभावसिद्ध है ।

    उपर्युक्त यह सब कौन कहते हैं? [जिणा तच्चदो समक्खादा] जिनेन्द्र भगवान रूप कर्ता वास्तव में भलीभांति यह कहते हैं, [सिद्धं तह आगमदो] द्रव्यार्थिकनय से परम्परा की अपेक्षा अनादि-अनन्त आगम से भी वैसा ही सिद्ध है, [णेच्छदि जो सो हि परसमओ] जो इस वस्तुस्वरूप को नहीं मानता है, वह स्पष्ट परसमय-मिथ्यादृष्टि है । इसप्रकार जैसे परमात्मद्रव्य स्वभाव से सिद्ध है, उसीप्रकार सभी द्रव्यों को जानना चाहिये ।

    यहाँ, द्रव्य किसी भी पुरुष के द्वारा नहीं किया गया है, सत्ता गुण भी द्रव्य से भिन्न नहीं है - यह अभिप्राय है ॥१०८॥

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    + अब, यह बतलाते हैं कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक होने पर भी द्रव्य सत् है -
    सदवट्ठिदं सहावे दव्वं दव्वस्स जो हि परिणामो । (99)
    अत्थेसु सो सहावो ठिदिसंभवणाससंबद्धो ॥109॥
    सदवस्थितं स्वभावे द्रव्यं द्रव्यस्य यो हि परिणामः ।
    अर्थेषु स स्वभावः स्थितिसंभवनाशसंबद्धः ॥९९॥
    स्वभाव में थित द्रव्य सत् सत् द्रव्य का परिणाम जो
    उत्पादव्ययध्रुवसहित है वह ही पदार्थस्वभाव है ॥१०९॥
    अन्वयार्थ : स्व भाव में स्थित द्रव्य सत् है, वास्तव में द्रव्य का जो उत्पाद-व्यय-धौव्य सहित परिणाम है-वह पदार्थों का स्वभाव है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    यहाँ (विश्व में) स्वभाव में नित्य अवस्थित होने से द्रव्य 'सत्' है । स्वभाव द्रव्य का ध्रौव्य-उत्पाद-विनाश की एकतास्वरूप परिणाम है । जैसे विस्तार-क्रम का कारण प्रदेशों का परस्पर व्यतिरेक है, उसी प्रकार प्रवाह-क्रम का कारण परिणामों का परस्पर व्यतिरेक है । और इस प्रकार स्वभाव से ही त्रिलक्षण परिणाम पद्धति में ( परिणामों की परम्परा में) प्रवर्तमान द्रव्य स्वभाव का अतिक्रम नहीं करता इसलिये सत्त्व को त्रिलक्षण ही अनुमोदना चाहिये । मोतियों के हार की भाँति ।

    जैसे — जिसने (अमुक) लम्बाई ग्रहण की है ऐसे लटकते हुये मोतियों के हार में, अपने-अपने स्थानों में प्रकाशित होते हुये समस्त मोतियों में, पीछे-पीछे के स्थानों में पीछे-पीछे के मोती प्रगट होते हैं इसलिये, और पहले-पहले के मोती प्रगट नहीं होते इसलिये, तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति का रचयिता सूत्र अवस्थित होने से त्रिलक्षणत्व प्रसिद्धि को प्राप्त होता है । इसी प्रकार जिसने नित्यवृत्ति ग्रहण की है ऐसे रचित (परिणमित) द्रव्य में अपने अपने अवसरों में प्रकाशित (प्रगट) होते हुये समस्त परिणामों में पीछे-पीछे के अवसरों पर पीछे पीछे के परिणाम प्रगट होते हैं इसलिये, और पहले-पहले के परिणाम नहीं प्रगट होते हैं इसलिये, तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति रचने वाला प्रवाह अवस्थित होने से त्रिलक्षणपना प्रसिद्धि को प्राप्त होता है ॥९९॥

    द्रव्य का वास्तु = द्रव्य का स्व-विस्तार, द्रव्य का स्व-क्षेत्र, द्रव्य का स्व-आकार, द्रव्य का स्व-दल । (वास्तु = घर, निवास-स्थान, आश्रय, भूमि)
    वृत्ति = वर्तना वह; होना वह; अस्तित्व ।
    व्यतिरेक = भेद; (एक का दूसरे में) अभाव, (एक परिणाम दूसरे परिणाम-रूप नहीं है, इसलिये द्रव्य के प्रवाह में क्रम है)
    अनुस्यूति = अन्वय-पूर्वक जुडान । (सर्व परिणाम परस्पर अन्वय-पूर्वक (सादृश्य सहित) गुंथित (जुड़े) होने से, वे सब परिणाम एक प्रवाह-रूप से हैं, इसलिये वे उत्पन्न या विनष्ट नहीं हैं ।
    अतिक्रम = उल्लंघन; त्याग ।
    सत्त्व = सत्पना; (अभेद-नय से) द्रव्य ।
    त्रिलक्षण = उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों लक्षणवाला; त्रिस्वरूप; त्रयात्मक ।
    अनुमोदना = आनंद में सम्मत करना ।
    नित्यवृत्ति = नित्यस्थायित्व; नित्य अस्तित्व; सदा वर्तना ।

    जयसेनाचार्य :
    [सदवटि्ठदं सहावे दव्वं] द्रव्य-मुक्तात्मा द्रव्य है । वह द्रव्य क्या है? इस वाक्य में कर्ता क्या है? 'सत्' - ऐसा शुद्ध-चेतना का अन्वय (वही-वही) रूप अस्तित्व द्रव्य है । वह अस्तित्व किस विशेषता वाला है? वह अच्छी तरह से स्थित है । अच्छी तरह से कहाँ स्थित है? वह स्वभाव में अच्छी तरह स्थित है । (उस) स्वभाव (को) कहते है- [दव्वस्स जो हि परिणामो] उस परमात्म-द्रव्य सम्बन्धी स्पष्ट जो परिणाम है । किन विषयों में वह परिणाम है? [अत्थेसु] परमात्म-पदार्थ का धर्म-स्वभाव होने से अभेदनय से उन्हें अर्थ कहते हैं । वे अर्थ कौन है? केवलज्ञानादि गुण और सिद्धत्वादि पर्यायें अर्थ हैं । उन अर्थों-विषयों में जो वह परिणाम है । [सो सहावो] केवलज्ञानादि गुण और सिद्धत्वादि पर्यायरूप परिणमन उन परमात्म-द्रव्य का स्वभाव है । और वह स्वभाव कैसा है? [ठिदिसंभवणाससंबद्धो] निजात्मा की प्राप्तिरूप मोक्ष-पर्याय की उत्पत्ति, उसी समय परमागम की भाषा से एकत्ववितर्क-अवीचार रूप द्वितीय शुक्लध्यान नामक शुद्ध उपादानभूत समस्त रागादि विकल्पों की उपाधि (संयोग) रहित स्वसंवेदन-ज्ञान-पर्याय का नाश और उसी समय उन दोनों के आधारभूत परमात्म-द्रव्य की स्थिति-ध्रुवता -- इसप्रकार कहे गये लक्षणवाले उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य -- इन तीनों से सहित वह स्वभाव है ।

    इस प्रकार यद्यपि पर्यायार्थिक-नय से एक समय में उत्पाद-व्यय-धौव्य -- इन तीनरूप परमात्मद्रव्य परिणत है, तथापि द्रव्यार्थिकनय से सत्ता लक्षण ही है । तीन लक्षण वाला होने पर भी सत् का सत्ता लक्षण कैसे कहा जाता है? यदि यह प्रश्न हो तो उत्तर देते हैं - 'सत् उत्पाद-व्यय और धौव्य सहित है' - ऐसा वचन होने से सत्ता लक्षण वाला कहा जाता है ।

    जैसे यह परमात्म-द्रव्य, एक समय में उत्पाद-व्यय-धौव्य रूप से परिणमता हुआ ही सत्ता लक्षण वाला कहा गया है, उसीप्रकार सभी द्रव्य, एक ही समय में उत्पादादि रूप से परिणमित होते हुये सत्ता लक्षणवाले है - यह अर्थ है ॥१०९॥

    इसप्रकार इसप्रकार चार गाथाओं द्वारा सत्तालक्षण विवरण की मुख्यता से दूसरा स्थल पूर्ण हुआ ।

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    + अब, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का परस्पर अविनाभाव दृढ़ करते हैं -
    ण भवो भंगविहीणो भंगो वा णत्थि संभवविहीणो । (100)
    उप्पादो वि य भंगो ण विणा धोव्वेण अत्थेण ॥110॥
    न भवो भङ्गविहीनो भङ्गो वा नास्ति संभवविहीनः ।
    उत्पादोऽपि च भङ्गो न विना ध्रौव्येणार्थेन ॥१००॥
    भंगबिन उत्पाद ना उत्पाद बिन ना भंग हो
    उत्पादव्यय हो नहीं सकते एक ध्रौव्यपदार्थ बिन ॥११०॥
    अन्वयार्थ : उत्पाद व्यय रहित नही होता, व्यय उत्पाद रहित नही होता है तथा उत्पाद और व्यय धौव्य रूप पदार्थ के बिना नहीं होते हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    वास्तव में वह इस प्रकार -- और यदि ऐसा ही न माना जाये तो ऐसा सिद्ध होगा कि उत्‍पाद अन्य है, व्‍यय अन्य है, ध्रौव्‍य अन्य है । (अर्थात् तीनों पृथक् हैं ऐसा मानने का प्रसंग आ जायेगा ।) ऐसा होने पर (क्या दोष आता है, सो समझाते हैं) :- इसलिये द्रव्य को उत्तर-उत्तर व्यतिरेकों के सर्ग के साथ, पूर्व-पूर्व के व्यतिरेकों के संहार के साथ और अन्वय के अवस्थान (ध्रौव्य) के साथ अविनाभाव वाला, जिसको निर्विघ्न (अबाधित) त्रिलक्षणतारूप चिह्न प्रकाशमान है, ऐसा अवश्य सम्मत करना ॥१००॥

    सर्ग = उत्पाद, उत्पत्ति ।
    संहार = व्यय, नाश ।
    सृष्टि = उत्पत्ति ।
    स्थिति = स्थित रहना; ध्रुव रहना, ध्रौव्य ।
    मृत्तिकापिण्ड = मिट्टीका पिण्ड ।
    व्यतिरेक = भेद; एक-दूसरे रूप न होना वह; 'यह वह नहीं है' ऐसे ज्ञान का निमित्तभूत भिन्न-रूपत्व ।
    अन्वय = एकरूपता; सादृश्यता; 'यह वही है' ऐसे ज्ञान का कारणभूत एक-रूपत्व ।
    उत्पादनकारण = उत्पत्ति का कारण ।
    व्योम-पुष्प = आकाश के फूल ।
    १०केवल स्थिति = (उत्पाद और व्यय रहित) अकेला ध्रुवपना, केवल स्थितिपना; अकेला अवस्थान । अन्वय व्यतिरेकों सहित ही होता है, इसलिये ध्रौव्य उत्पाद-व्यय सहित ही होगा, अकेला नहीं हो सकता । जैसे उत्पाद (या व्यय) द्रव्य का अंश है - समग्र द्रव्य नहीं, इसप्रकार ध्रौव्य भी द्रव्य का अंश है; - समग्र द्रव्य नहीं ।
    ११उत्तर-उत्तर = बाद-बाद के ।
    १२लांछन = चिह्न ।

    जयसेनाचार्य :
    [ण भवो भंगविहीणो] निर्दोष परमात्मा की रुचिरूप सम्यक्त्व-पर्याय का उत्पाद, वह उससे विपरीत मिथ्यात्व-पर्याय के विनाश बिना नहीं होता । मिथ्यात्व-पर्याय के विनाश बिना सम्यक्त्व-पर्याय का उत्पाद क्यों नहीं होता? उपादानकारण का अभाव होने से जैसे मिट्टी के पिण्ड के विनाश बिना घड़े की उत्पत्ति नहीं होती उसीप्रकार मिथ्यात्व-पर्याय के विनाश बिना सम्यक्त्व-पर्याय की उत्पत्ति नहीं होती है । और दूसरा भी कारण है - मिथ्यात्व-पर्याय के विनाश का सम्यक्त्व-पर्यायरूप से प्रतिभासन होने से उसके विनाश बिना सम्यक्त्व-पर्याय उत्पन्न नहीं होती है । उसके विनाश का सम्यक्त्व-पर्यायरूप से प्रतिभासन कैसे होता है? 'अभाव अन्य पदार्थ के स्वभावरूप होता है'- ऐसा वचन होने से जैसे मिट्टी के पिण्ड का अभाव घड़े की उत्पत्तिरूप से प्रतिभासित होता है; उसीप्रकार मिथ्यात्व-पर्याय का अभाव सम्यक्त्व-पर्याय की उत्पत्तिरूप से प्रतिभासित होता है ।

    यदि सम्यक्त्व के उपादान-कारणभूत मिथ्यात्व-पर्याय के विनाश बिना ही शुद्धात्मा की अनुभूति-रुचि रूप सम्यक्त्व का उत्पाद होता है, तो उपादान-कारण से रहित आकाशफूल आदि का भी उत्पाद हो । परन्तु वैसा तो नहीं होता है । [भंगो वा णत्थि संभवविहीणो] परद्रव्य उपादेय है ऐसी रुचिरूप मिथ्यात्व का विनाश नही होता है । कैसे मिथ्यात्व का विनाश नहीं होता है? पहले कहे हुये सम्यक्त्व-पर्याय के उत्पाद से रहित मिथ्यात्व का विनाश नहीं होता है । सम्यक्त्व-पर्याय की उत्पत्ति के बिना मिथ्यात्व-पर्याय का विनाश क्यों नहीं होता है? विनाश के कारण का अभाव होने से, घड़े की उत्पत्ति के अभाव में मिट्टी के पिण्ड का विनाश नहीं होने के समान, सम्यक्त्व की उत्पत्ति के अभाव में मिथ्यात्व का विनाश नही होता है । और दूसरा भी कारण है - सम्यक्त्व पर्याय के उत्पाद का मिथ्यात्व-पर्याय के अभावरूप दर्शन होने के कारण, उसकी उत्पत्ति के बिना मिथ्यात्व-पर्याय नष्ट नहीं होती है । उसका उत्पाद मिथ्यात्व-पर्याय के विनाश बिना क्यों दिखाई नहीं देता है? एक पर्याय के अन्य पर्याय की अभावरूपता होने से जैसे घटपर्याय का दर्शन मिट्टी के पिण्ड के अभावरूप से होता है; उसीप्रकार सम्यक्त्व-पर्याय का दिखाई देना मिथ्यात्व-पर्याय के विनाशरूप से होता है ।

    यदि सम्यक्त्व की उत्पत्ति के बिना ही मिथ्यात्वपर्याय का अभाव होता है, तो उसका अभाव ही नहीं होगा । सम्यक्त्व की उत्पत्ति बिना मिथ्यात्व का अभाव क्यों नहीं होगा? अभाव के कारण का अभाव होने से (विनाश का कारण उत्पाद है, उसके नहीं होने से) घड़े की उत्पत्ति के अभाव में मिट्टी के पिण्ड का विनाश नहीं होने के समान सम्यक्त्व की उत्पत्ति के अभाव में मिथ्यात्व का विनाश नही होगा ।

    [उप्पादो वि य भंगो ण विणा दव्वेण अत्थेण] परमात्मा की रुचिरूप सम्यक्त्व का उत्पाद तथा उससे विपरीत मिथ्यात्व का विनाश नहीं होता है । उन दोनों का उत्पाद-विनाश किसके बिना नहीं होता है? उन दोनों के आधारभूत परमात्मारूप द्रव्य-पदार्थ के बिना उन दोनों का उत्पाद-विनाश नहीं होता है । दोनों के आधारभूत परमात्म-पदार्थ के बिना दोनों का उत्पाद-विनाश क्यों नहीं होता है? द्रव्य के अभाव में विनाश और उत्पत्ति का अभाव होने से मिट्टी द्रव्य के अभाव में घड़े की उत्पत्ति तथा मिट्टी के पिण्ड का विनाश नहीं होने के समान परमात्म-द्रव्य के अभाव में सम्यक्त्व की उत्पत्ति और मिथ्यात्व का विनाश नहीं होता है ।

    इसप्रकार जैसे सम्यक्त्व और मिथ्यात्व - इन दो पर्यायों में एक दूसरे की अपेक्षा सहित उत्पाद आदि तीनों दिखाये हैं, उसीप्रकार सभी द्रव्यों की पर्यायों में देख लेना चाहिये- समझ लेना चाहिये ॥११०॥

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    + अब, उत्पादादि का द्रव्य से अर्थान्तरत्व को नष्ट करते हैं; (अर्थात् यह सिद्ध करते हैं कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य द्रव्य से पृथक् पदार्थ नहीं हैं) -
    उप्पादट्ठिदिभंगा विज्जंते पज्जएसु पज्जाया । (101)
    दव्वे हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं ॥111॥
    उत्पादस्थितिभङ्गा विद्यन्ते पर्यायेषु पर्यायाः ।
    द्रव्ये हि सन्ति नियतं तस्माद्द्रव्यं भवति सर्वम् ॥१०१॥
    पर्याय में उत्पादव्ययध्रुव द्रव्य में पर्यायें हैं
    बस इसलिए तो कहा है कि वे सभी इक द्रव्य हैं ॥१११॥
    अन्वयार्थ : उत्पाद -व्यय और धौव्य पर्यायों में होते हैं पर्यायें निश्चित द्रव्य में होती हैं; इसलिए वे सब द्रव्य हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य वास्तव में पर्यायों का आलम्बन करते हैं, और वे पर्यायें द्रव्य का आलम्बन करती हैं, (अर्थात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य पर्यायों के आश्रय से हैं और पर्यायें द्रव्य के आश्रय से हैं); इसलिये यह सब एक ही द्रव्य है, द्रव्यान्तर नहीं ।

    प्रथम तो द्रव्य पर्यायों के द्वारा आलम्बित है (अर्थात् पर्यायें द्रव्याश्रित हैं), क्योंकि समुदायी समुदायस्वरूप होता है; वृक्ष की भाँति । जैसे समुदायी वृक्ष स्कंध, मूल और शाखाओं का समुदायस्वरूप होने से स्कंध, मूल और शाखाओं से आलम्बित ही (भासित) दिखाई देता है, इसी प्रकार समुदायी द्रव्य पर्यायों का समुदायस्वरूप होने से पर्यायों के द्वारा आलम्बित ही भासित होता है । (अर्थात् जैसे स्कंध, मूल शाखायें वृक्षाश्रित ही हैं—वृक्ष से भिन्न पदार्थरूप नहीं हैं, उसी प्रकार पर्यायें द्रव्याश्रित ही हैं, --द्रव्य से भिन्न पदार्थरूप नहीं हैं ।)

    और पर्यायें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के द्वारा आलम्बित हैं (अर्थात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य पर्यायाश्रित हैं) क्योंकि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य अंशों के धर्म हैं (अंशी के नहीं); बीज, अंकुर और वृक्षत्व की भाँति । जैसे अंशीवृक्ष के बीज अंकुर-वृक्षत्वस्वरूप तीन अंश, व्यय-उत्पाद-ध्रौव्यस्वरूप निज धर्मों से आलम्बित एक साथ ही भासित होते हैं, उसी प्रकार अंशीद्रव्य के, नष्ट होता हुआ भाव, उत्पन्न होता हुआ भाव, और अवस्थित रहने वाला भाव;—यह तीनों अंश व्यय-उत्पाद-ध्रौव्यस्वरूप निजधर्मों के द्वारा आलम्बित एक साथ ही भासित होते हैं । किन्तु यदि (१) व्‍यय, (२) उत्पाद और (३) ध्रौव्य को (अंशों का न मानकर) द्रव्य का ही माना जाये तो सारा विप्लव को प्राप्त होगा । यथा --
    1. पहले, यदि द्रव्य का ही भंग माना जाये तो क्षणभंग से लक्षित समस्त द्रव्यों का एक क्षण में ही संहार हो जाने से द्रव्य शून्यता आ जायेगी, अथवा सत् का उच्छेद हो जायेगा ।
    2. यदि द्रव्य का उत्पाद माना जाये तो समय-समय पर होने वाले उत्पाद के द्वारा चिह्नित ऐसे द्रव्यों को प्रत्येक को अनन्तता आ जायेगी । (अर्थात् समय-समय पर होने वाला उत्पाद जिसका चिह्न हो ऐसा प्रत्येक द्रव्य अनंत द्रव्यत्व को प्राप्त हो जायेगा) अथवा असत् का उत्पाद हो जायेगा;
    3. यदि द्रव्य का ही ध्रौव्य माना जाये तो क्रमश: होने वाले भावों के अभाव के कारण द्रव्य का अभाव आयेगा, अथवा क्षणिकपना होगा ।

    इसलिये उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के द्वारा पर्यायें आलम्बित हों, और पर्यायों के द्वारा द्रव्य आलम्बित हो, कि जिससे यह सब एक ही द्रव्य है ।

    समुदायी = समुदायवान समुदाय (समूह) का बना हुआ । (द्रव्य समुदायी है क्योंकि पर्यायों के समुदाय-स्वरूप है)
    अंशी = अंशोंवाला; अंशोंका बना हुआ । (द्रव्य अंशी है)
    विप्लव = अंधाधुंधी; उथलपुथल; घोटाला; विरोध ।
    क्षण = विनाश जिनका लक्षण हो ऐसे ।

    जयसेनाचार्य :
    [उप्पादट्ठिदिभंगा] विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव आत्मतत्त्व का निर्विकार स्वसंवेदनज्ञानरूप से उत्पाद, उसी समय स्वंसवेदनज्ञान से विपरीत अज्ञानपर्यायरूप से व्यय तथा उन दोनों के आधारभूत आत्मद्रव्यत्व की अवस्थारूप से स्थिति - इसप्रकार कहे गये लक्षण वाले तीनों भंगरूप कर्ता- इस वाक्य में कर्ता कारक में प्रयुक्त ये तीनों [विज्जंते] होते हैं । ये तीनों किनमें होते हैं? [पज्जएसु] सम्यक्त्व पूर्वक निर्विकार स्वसंवेदनज्ञानपर्याय में उत्पाद होता है, तब स्वसंवेदनज्ञान से विपरीत अज्ञान पर्यायरूप से व्यय और उन दोनों के आधारभूत आत्मद्रव्यत्व की अवस्थारूप पर्याय से धौव्य - इसप्रकार कहे गये लक्षण वाली अपनी- अपनी पर्यायों में वे सब रहते हैं । [पज्जाया दव्वं हि संति] वे कहे गये लक्षणवाली ज्ञान, अज्ञान और उन दोनों के आधारभूत आत्मद्रव्यत्व की अवस्थारूप पर्यायें स्पष्टरूप से द्रव्य हैं । [णियदं] प्रदेशों का अभेद होने पर भी अपने- अपने संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि के भेद से वे वास्तव में द्रव्य हैं । [तम्हा दव्वं हवदि सव्वं] क्योंकि उत्पादादि निश्चय आधार- आधेय भाव से रहते हैं उसकारण उत्पादादि तीनों और स्वसंवेदनज्ञानादि तीनों पर्यायें-ये सभी अन्वय-द्रव्यार्थिकनय से सर्व द्रव्य हैं ।

    पूर्वोक्त उत्पादादि तीनों और उसीप्रकार स्वसंवेदनज्ञानादि तीनों पर्यायों का साथ-साथ रहने वाला अन्वयरूप से जो आधारभूत है, वह अन्वय द्रव्य कहा गया है, वह जिसका विषय होता है, वह अन्वय द्रव्यार्थिकनय है । जैसे यह ज्ञान-अज्ञान दो पर्यायों में (उत्पादाकि) तीनों भंगों का व्याख्यान किया गया है उसीप्रकार सभी द्रव्य-पर्यायों में यथासंभव जानना चाहिये - ऐसा अभिप्राय है ॥१११॥

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    + अब, और भी दुसरी पद्धति से द्रव्य के साथ उत्पादि के अभेद का समर्थन करते हैं और समय भेद का निराकरण करते हैं - -
    समवेदं खलु दव्वं संभवठिदिणाससण्णिदट्ठेहिं । (102)
    एक्कम्मि चेव समये तम्हा दव्वं खु तत्तिदयं ॥112॥
    समवेतं खलु द्रव्यं संभवस्थितिनाशसंज्ञितार्थैः ।
    एकस्मिन् चैव समये तस्माद्द्रव्यं खलु तत्त्रितयम् ॥१०२॥
    उत्पादव्ययथिति द्रव्य में समवेत हों प्रत्येक पल
    बस इसलिए तो कहा है इन तीनमय हैं द्रव्य सब ॥११२॥
    अन्वयार्थ : द्रव्य एक ही समय में उत्पाद-व्यय और धौव्य नामक अर्थों के साथ वास्तव में तादात्म्य सहित संयुक्त (एकमेक) है, इसलिये यह (उत्पादादि) त्रितय वास्तव में द्रव्य है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    (प्रथम शंका उपस्थित की जाती है :—) यहाँ, (विश्व में) वस्तु का जो जन्मक्षण है वह जन्म से ही व्याप्त होने से स्थितिक्षण और नाशक्षण नहीं है, (वह पृथक् ही होता है); जो स्थितिक्षण हो वह दोनों के अन्तराल में (उत्पादक्षण और नाशक्षण के बीच) दृढ़तया रहता है, इसलिये (वह) जन्मक्षण और नाशक्षण नहीं है; और जो नाशक्षण है वह,—वस्तु उत्‍पन्‍न होकर और स्थिर रहकर फिर नाश को प्राप्त होती है इसलिये,—जन्मक्षण और स्थितिक्षण नहीं है;—इस प्रकार तर्क पूर्वक विचार करने पर उत्पादादि का क्षणभेद हृदयभूमि में उतरता है (अर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का समय भि‍न्न-भि‍न्न होता है, एक नहीं होता,—इस प्रकार की बात हृदय में जमती है ।)

    (यहाँ उपरोक्त शंका का समाधान किया जाता है:—)इस प्रकार उत्पादादि का क्षणभेद हृदय भूमि में तभी उतर सकता है जब यह माना जाये कि 'द्रव्य स्वयं ही उत्पन्न होता है, स्वयं ही ध्रुव रहता है और स्वयं ही नाश को प्राप्त होता है!' किन्तु ऐसा तो माना नहीं गया है; (क्योंकि यह स्वीकार और सिद्ध किया गया है कि) पर्यायों के ही उत्पादादि हैं; (तब फिर) वहाँ क्षणभेद कहाँ से हो सकता है? यह समझाते हैं:—

    जैसे कुम्हार, दण्ड, चक्र और डोरी चीवर से आरोपित किये जाने वाले संस्कार की उपस्थिति में जो (रामपात्र) का जन्मक्षण होता है वही मृत्तिकापिण्ड का नाश क्षण होता है, और वही दोनों कोटियों (प्रकारों) में रहनेवाला मृत्तिकात्‍व का स्थितिक्षण होता है; इसी प्रकार अन्तरंग और बहिरंग साधनों द्वारा किये जाने वाले संस्कारों की उपस्थिति में, जो उत्तर पर्याय का जन्मक्षण होता है वही पूर्व पर्याय का नाश क्षण होता है, और वही दोनों कोटियों में रहने वाले द्रव्यत्व का स्थितिक्षण होता है ।

    और जैसे रामपात्र में, मृत्तिकापिण्ड में और मृत्तिकात्‍व में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य प्रत्येक रूप में (प्रत्येक पृथक् पृथक्) वर्तते हुये भी त्रिस्वभावस्पर्शी मृत्तिका में वे सम्पूर्णतया (सभी एक साथ) एक समय में ही देखे जाते हैं; इसी प्रकार उत्तर पर्याय में, पूर्व पर्याय में और द्रव्यत्व में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य प्रत्येकतया (एक-एक) प्रवर्तमान होने पर भी त्रिस्वभावस्पर्शी द्रव्य में वे संपूर्णतया (तीनों एकत्रित) एक समय में ही देखे जाते हैं ।

    और जैसे रामपात्र, मृत्तिकापिण्ड तथा मृत्तिकात्‍व में प्रवर्तमान उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य मिट्टी ही हैं, अन्य वस्तु नहीं; उसी प्रकार उत्तर पर्याय, पूर्व पर्याय, और द्रव्यत्व में प्रवर्तमान उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य द्रव्य ही हैं, अन्य पदार्थ नहीं ॥१०२॥

    त्रिस्वभावस्पर्शी = तीनों स्वभावों को स्पर्श करनेवाला । (द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य -- इन तीनों स्वभावों को धारण करता है)

    जयसेनाचार्य :
    [समवेदं खलु दव्वं] स्पष्टरूप से एकीभूत - अभिन्न है । अभिन्न कौन है? आत्म-द्रव्य अभिन्न है । आत्मद्रव्य किनके साथ (किनसे) अभिन्न है? [संभवठिदिणाससण्णिदट्ठेहिं] सम्यक्त्व, ज्ञान पूर्वक निश्चल निर्विकर निजात्मानुभूतिलक्षण वीतराग चारित्र पर्यायरूप से उत्पाद, उसीप्रकार रागादि परद्रव्यों के साथ एकत्व परिणतिरूप चारित्रपर्याय से नाश और उन दोनों के आधारभूत आत्मद्रव्यत्व की अवस्थितिरूप पर्याय से स्थिति- धौव्य- इसप्रकार कहे गये लक्षण और नाम वाले उत्पाद-व्यय-धौव्य के साथ आत्मद्रव्य अभिन्न है । तो क्या बौद्धमत के समान भिन्न-भिन्न समय में तीन होते होगें? (परन्तु ऐसा नहीं है)[एक्कम्मि चेव समये] अंगुलि द्रव्य की वक्र (टेढी) पर्याय के समान संसारी जीव की मरण समय में ऋजुगति के समान, क्षीणकषाय (१२ वें गुणस्थान) के अन्तिम समय में केवलज्ञान की उत्पत्ति के समान और अयोगी (१४ वें गुणस्थान) के अन्तिम समय में मोक्ष के समान एक समय में ही उत्पादादि तीनों आत्मद्रव्य में होते हैं । [तम्हा दव्वं खु तत्तिदयं] क्योंकि पूर्वोक्त प्रकार से एक समय में तीनों भंगरूप से परिणमित होता है; इसलिये संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद होने पर भी प्रदेशों का अभेद होने से तीनों ही स्पष्ट रूप से द्रव्य हैं ।

    जैसे यह तीन भंग चारित्र और अचारित्र दो पर्यायों में अभेदरूप से दिखाये हैं उसीप्रकर सभी द्रव्यों में जान लेना चाहिये - ऐसा अर्थ है ॥११२॥

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    + अब, द्रव्य के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य को अनेक द्रव्यपर्याय के द्वारा विचार करते हैं -
    पाडुब्भवदि य अण्णो पज्जाओ पज्जओ वयदि अण्णो । (103)
    दव्वस्स तं पि दव्वं णेव पणट्ठं ण उप्पण्णं ॥113॥
    प्रादुर्भवति चान्यः पर्यायः पर्यायो व्येति अन्यः ।
    द्रव्यस्य तदपि द्रव्यं नैव प्रणष्टं नोत्पन्नम् ॥१०३॥
    उत्पन्न होती अन्य एवं नष्ट होती अन्य ही
    पर्याय किन्तु द्रव्य ना उत्पन्न हो ना नष्ट हो ॥११३॥
    अन्वयार्थ : द्रव्य की अन्य पर्याय उत्पन्न होती है और कोई अन्य पर्याय नष्ट होती है, फिर भी द्रव्य न तो नष्ट होता है और न उत्पन्न होता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    यहाँ (विश्व में) जैसे एक त्रि-अणुक समान-जातीय अनेक द्रव्य-पर्याय विनष्ट होती है और दूसरी चतुरणुक (समान-जातीय अनेक द्रव्य-पर्याय) उत्‍पन्‍न होती है; परन्तु वे तीन या चार पुद्‌गल (परमाणु) तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं (ध्रुव हैं); इसी प्रकार सभी समान-जातीय द्रव्य-पर्यायें विनष्ट होती हैं और उत्पन्न होती हैं, किन्तु समान-जातीय द्रव्य तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं (ध्रुव हैं)

    और, जैसे एक मनुष्यत्व-स्वरूप असमान-जातीय द्रव्य-पर्याय विनष्ट होती है और दूसरी देवत्व-स्वरूप (असमान-जातीय द्रव्य-पर्याय) उत्‍पन्‍न होती है, परन्तु वह जीव और पुद्‌गल तो अविनष्ट और अनुत्पन्‍न ही रहते हैं, इसी प्रकार सभी असमान-जातीय द्रव्य-पर्यायें विनष्ट हो जाती हैं और उत्पन्न होती हैं, परन्तु असमान-जातीय द्रव्य तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं ।

    इस प्रकार अपने से (द्रव्य-रूप से) ध्रुव और द्रव्य-पर्यायों द्वारा उत्पाद-व्ययरूप ऐसे द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य हैं ॥१०३॥

    चतुरणुक = चार अणुओं का (परमाणुओं का) बना हुआ स्कंध ।
    'द्रव्य' शब्द मुख्यतया दो अर्थों में प्रयुक्त होता है : (१) एक तो सामान्य-विशेष के पिण्ड को अर्थात् वस्तु को द्रव्य कहा जाता है; जैसे- 'द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप है'; (२) दूसरे - वस्तु के सामान्य अंश को भी द्रव्य कहा जाता है; जैसे- 'द्रव्यार्थिक नय' अर्थात् सामान्यांशग्राही नय । जहाँ जो अर्थ घटित होता हो वहाँ वह अर्थ समझना चाहिये ।

    जयसेनाचार्य :
    [पाडुब्भवदि य] और उत्पन्न होती है । [अण्णो] शाश्वत रहनेवाली (वैसी की वैसी रहने वाली) कोई नवीन अनन्त ज्ञान-सुखादि गुणों की स्थानभूत दूसरी । वह दूसरी कौन है? [पज्जाओ] परमात्मा (दशा) की प्राप्तिरूप स्वभाव-द्रव्यपर्याय । [पज्जओ वयदि अण्णो] पर्याय नष्ट होती है । कैसी पर्याय नष्ट होती है? पूर्वोक्त मोक्षपर्याय से भिन्न निश्चय रत्नत्रय स्वरूप निर्विकल्प समाधिरूप मोक्षपर्याय की उपादान कारणभूत पर्याय नष्ट होती है । वह पर्याय किस सम्बन्धी - किसकी है? [दव्वस्स] परमात्म द्रव्य की वह पर्याय है | [तं पि दव्वं] तो भी परमात्मद्रव्य [णेव पणट्ठं ण उप्पण्णं] शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से न तो नष्ट होता है और न उत्पन्न ही होता है ।

    अथवा संसारी जीव की अपेक्षा देवादिरूप विभाव-द्रव्यपर्याय उत्पन्न होती है, मनुष्यादिरूप पर्याय नष्ट होती है और वह जीवद्रव्य निश्चय से न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है अथवा पुद्गलद्रव्य द्वयणुकादि स्कंधरूप स्वजातीय-विभाव-द्रव्यपर्यायों के नष्ट और उत्पन्न होने पर भी निश्चय से उत्पन्न और विनष्ट नहीं होता है ।

    इससे यह फलित हुआ कि जिस कारण उत्पाद-व्यय-धौव्य रूप से द्रव्य पर्यायों का विनाश और उत्पाद होने पर भी द्रव्य का विनाश नहीं होता है, उस कारण द्रव्यपर्यायें भी द्रव्य का लक्षण होती हैं - यह अभिप्राय है ॥११३॥

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    + अब, द्रव्य के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य एक द्रव्य पर्याय द्वारा विचार करते हैं -
    परिणमदि सयं दव्वं गुणदो य गुणंतरं सद्‌विसिट्ठं । (104)
    तम्हा गुणपज्जाया भणिया पुण दव्वमेव त्ति ॥114॥
    परिणमति स्वयं द्रव्यं गुणतश्च गुणान्तरं सदविशिष्टम् ।
    तस्माद्गुणपर्याया भणिताः पुनः द्रव्यमेवेति ॥१०४॥
    गुण से गुणान्तर परिणमें द्रव्य स्वयं सत्ता अपेक्षा
    इसलिए गुणपर्याय ही हैं द्रव्य जिनवर ने कहा ॥११४॥
    अन्वयार्थ : अपनी सत्ता से अभिन्न द्रव्य स्वयं गुण से गुणान्तर रूप परिणमित होता है, इसलिये गुणपर्यायें द्रव्य ही कही गई हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    गुणपर्यायें एक द्रव्यपर्यायें हैं, क्योंकि गुणपर्यायों को एक द्रव्यपना है, (अर्थात् गुणपर्यायें एकद्रव्य की पर्यायें हैं, क्योंकि वे एक ही द्रव्य हैं—भिन्न-भिन्न द्रव्य नहीं ।) उनका एक-द्रव्यत्व आम्रफल की भांति है । जैसे -- आम्रफल स्वयं ही हरितभाव में से पीतभावरूप परिणमित होता हुआ, प्रथम और पश्‍चात् प्रवर्तमान हरितभाव और पीतभाव के द्वारा अपनी सत्ता का अनुभव करता है, इसलिये हरितभाव और पीतभाव के साथ अविशिष्ट सत्ता वाला होने से एक ही वस्तु है, अन्य वस्तु नहीं; इसी प्रकार द्रव्य स्वयं ही पूर्व अवस्था में अवस्थित गुण में से उत्तर अवस्था में अवस्थित गुणरूप परिणमित होता हुआ, पूर्व और उत्तर अवस्था में अवस्थित उन गुणों के द्वारा अपनी सत्ता का अनुभव करता है, इसलिये पूर्व और उत्तर अवस्था में अवस्थित गुणों के साथ अवशिष्ट सत्ता वाला होने से एक ही द्रव्य है, द्रव्यान्तर नहीं ।

    (आम के उदाहरण की भाँति, द्रव्य स्वयं ही गुण की पूर्व पर्याय में से उत्तरपर्यायरूप परिणमित होता हुआ, पूर्व और उत्तर गुणपर्यायों के द्वारा अपने अस्तित्व का अनुभव करता है, इसलिये पूर्व और उत्तर गुणपर्यायों के साथ अभिन्न अस्तित्व होने से एक ही द्रव्य है द्रव्यान्तर नहीं; अर्थात् वे वे गुणपर्यायें और द्रव्य एक ही द्रव्यरूप हैं, भिन्न-भिन्न द्रव्य नहीं हैं ।)

    और, जैसे पीतभाव से उत्पन्न होता हरितभाव से नष्ट होता और आम्रफलरूप से स्थिर रहता होने से आम्रफल एक वस्तु की पर्यायों द्वारा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य है, उसी प्रकार उत्तर अवस्था में अवस्थित गुण से उत्‍पन्‍न, पूर्व अवस्था में अवस्थित गुण से नष्ट और द्रव्यत्व गुण से स्थिर होने से, द्रव्य एकद्रव्यपर्याय के द्वारा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य है ॥१०४॥

    पूर्व अवस्था में अवस्थित गुण = पहले की अवस्था में रहा हुआ गुण; गुण की पूर्व पर्याय ; पूर्व गुण-पर्याय ।
    अविशिष्ट सत्तावाला = अभिन्न सत्तावाला; एक सत्तावाला (आम की सत्ता हरे और पीले भाव की सत्ता से अभिन्न है, इसलिये आम और हरित-भाव तथा पीत-भाव एक ही वस्तु हैं, भिन्न नहीं)

    जयसेनाचार्य :
    [परिणमदि सयं दव्वं] स्वयं ही उपादानकारणभूत जीवद्रव्यरूप कर्ता परिणमित होता है । जीवद्रव्य किसरूप परिणमित होता है? [गुणदो य गुणंतरं] केवलज्ञान की उत्पत्ति के बीजभूत उपराग रहित-वीतराग स्वसंवेदनज्ञान गुण से परिपूर्ण निर्मल केवलज्ञान गुण स्वरूप दूसरी पर्यायरूप परिणमित होता है । सत् कैसा होता हुआ परिणमित होता है? [सदविसिट्ठं] अपने स्वरूप चैतन्यरूप अस्तित्व से अविशिष्ट-अभिन्न होता हुआ परिणमित होता है । [तम्हा गुण पज्जाया भणिया पुण दव्वमेव त्ति] इस कारण न केवल पूर्व गाथा (गाथा नं. ११३) में कही हुई द्रव्यपर्यायें द्रव्य हैं वरन् गुणरूप पर्यायें-गुणपर्यायें कहलाती है, वे भी द्रव्य ही हैं ।

    अथवा संसारी जीवद्रव्य मति-स्मृति आदि विभावगुणों को छोड्कर श्रुतज्ञानादि दूसरे विभावगुण रूप परिणमित होता है, अथवा पुद्गलद्रव्य हरे गुण को छोड़कर दूसरे पीले बदलने वाले आम्रफल (आम) के समान पूर्वोक्त सफेद रंग आदि गुणों को छोड़कर लाल आदि गुणरूप परिणमित होता है- यह गाथा का भाव है ॥११४॥

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    + अब, सत्ता और द्रव्य अर्थान्तर (भिन्न पदार्थ, अन्य पदार्थ) नहीं हैं, इस सम्बन्ध में युक्ति उपस्थित करते हैं -
    ण हवदि जदि सद्दव्वं असद्‌धुव्वं हवदि तं कहं दव्वं । (105)
    हवदि पुणो अण्णं वा तम्हा दव्वं सयं सत्ता ॥115॥
    न भवति यदि सद्द्रव्यमसद्ध्रुवं भवति तत्कथं द्रव्यम् ।
    भवति पुनरन्यद्वा तस्माद्द्रव्यं स्वयं सत्ता ॥१०५॥
    यदि द्रव्य न हो स्वयं सत् तो असत् होगा नियम से
    किम होय सत्ता से पृथक् जब द्रव्य सत्ता है स्वयं ॥११५॥
    अन्वयार्थ : यदि द्रव्य सत् नहीं होगा, तो निश्चित असत् होगा और जो असत् होगा, वह द्रव्य कैसे होगा? और यदि वह सत्ता से भिन्न है, तो भी द्रव्य कैसे होगा; इसलिये द्रव्य स्वयं ही सत्ता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    यदि द्रव्य स्वरूप से ही सत् न हो तो दूसरी गति यह हो कि वह (१) असत् होगा, अथवा (२) सत्ता से पृथक् होगा । वहाँ, (१) यदि वह असत् होगा तो, ध्रौव्य के असंभव के कारण स्वयं स्थिर न होता हुआ द्रव्य का ही अस्त हो जायेगा; और (२) यदि सत्ता से पृथक् हो तो सत्ता के बिना भी स्वयं रहता हुआ, इतना ही मात्र प्रयोजन वाली सत्ता को ही अस्त कर देगा ।

    किन्तु यदि द्रव्य स्वरूप से ही सत् हो तो - (१) ध्रौव्य के सद्‌भाव के कारण स्वयं स्थिर रहता हुआ, द्रव्य उदित होता है, (अर्थात् सिद्ध होता है); और (२) सत्ता से अपृथक् रहकर स्वयं स्थिर (विद्यमान) रहता हुआ, इतना ही मात्र जिसका प्रयोजन है ऐसी सत्ता को उदित (सिद्ध) करता है ।

    इसलिये द्रव्य स्वयं ही सत्त्व (सत्ता) है ऐसा स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि भाव और भाववान् का अपृथक्‍त्‍व द्वारा अनन्यत्व है ॥१०५॥

    सत् = मौजूद ।
    असत् = नहीं मौजूद ऐसा ।
    अस्त = नष्ट । (जो असत् हो उसका टिकना-मौजूद रहना कैसा? इसलिये द्रव्य को असत् मानने से, द्रव्य के अभाव का प्रसंग आता है अर्थात् द्रव्य ही सिद्ध नहीं होता)
    सत्ता का कार्य इतना ही है कि वह द्रव्य को विद्यमान रखे । यदि द्रव्य सत्ता से भिन्न रहकर भी स्थिर रहे तो फिर सत्ता का प्रयोजन ही नहीं रहता, अर्थात् सत्ता के अभाव का प्रसंग आ जायगा ।
    भाववान् = भाववाला । (द्रव्य भाववाला है और सत्ता उसका भाव है । वे अपृथक् हैं, इस अपेक्षा से अनन्य हैं । अपृथक्‍त्‍व और अन्यत्व का भेद जिस अपेक्षा से है उस अपेक्षा को लेकर विशेषार्थ आगामी गाथा में कहेंगे, उन्हें यहाँ नहीं लगाना चाहिये, किन्तु यहाँ अनन्यत्व को अपृथक्‍त्‍व के अर्थ में ही समझना चाहिये )

    जयसेनाचार्य :
    [ण हवदि जदि सद्दव्वं] परमचैतन्य प्रकाशरूपस्वूरूप-सत्तामय अस्तित्वगुण के द्वारा यदि सत् नहीं है । कर्तारूप कौन सत् नहीं है? परमात्मद्रव्य सत् नहीं है । तब [असद्धूवं हो्दि] परमात्मद्रव्य निश्चित असत् होगा । असत् होता हुआ [तं कहं दव्वं] वह परमात्मद्रव्य कैसे होगा? अपितु नहीं होगा । और परमात्मद्रव्य का सत् द्रव्य नहीं होना प्रत्यक्ष-विरुद्ध है । उसका सत् द्रव्य नहीं होना प्रत्यक्ष-विरुद्ध कैसे है? स्वसंवेदनज्ञान से ज्ञात होने के कारण परमात्मद्रव्य को सत् नहीं मानना प्रत्यक्ष-विरुद्ध है ।

    अब, अविचारित रमणीय न्याय से (विचार नहीं करने पर सुन्दर प्रतीत होनेवाले न्याय से) सत्तागुण का अभाव होने पर भी वह रहता है; यदि ऐसा माना जाये, तो वहाँ विचार करते हैं - यदि द्रव्य केवलज्ञानदर्शनगुण के अविनाभावि अपने स्वरूपास्तित्व से पृथक् रहता है, तो स्वरूपास्तित्व नहीं बनेगा और स्वरूपास्तित्व के अभाव में द्रव्य भी सिद्ध नहीं होगा । अथवा अपने स्वरूपास्तित्व से संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदि का भेद होने पर भी यदि प्रदेशरूप से अभिन्न रहता है, तो वह स्वीकृत ही है ।

    इस प्रसंग में बौद्धमत का अनुसरण करने वाला कोई कहता है - सिद्धपर्याय की सत्तारूप से शुद्धात्मद्रव्य उपचार से है, मुख्यरूप से नहीं है । आचार्य उसका निराकरण करते हैं - वृक्ष के अभाव में फल के अभाव के समान सिद्धपर्याय के उपादानकारणभूत परमात्मद्रव्य के अभाव में, सिद्धपर्याय की सत्ता ही संभव नहीं है; अत: वहाँ शुद्धात्मद्रव्य मुख्यरूप से ही है, उपचार से नहीं ।

    इस प्रसंग में नैयायिकमत का अनुसरण करने वाला कोई कहता है - [हवदि पुणो अण्णं वा] वह परमात्मद्रव्य है, किन्तु सत्ता से भिन्न है, बाद में सत्ता के साथ समवाय से सत् है । आचार्य निराकरण करते हुये कहते हैं कि सत्ता के समवाय से पहले द्रव्य सत् था अथवा असत्? यदि पहले से ही सत् था तो सत्ता का समवाय व्यर्थ है, पहले से ही अस्तित्व विद्यमान है, और यदि पहले असत् था तो आकाश-कुसुम के समान अभावरूप द्रव्य के साथ सत्ता समवाय कैसे करती है? यदि करती है तो आकाश-कुसुम के साथ भी कर्तारूप सत्ता समवाय को करे? परन्तु वैसा तो नहीं करती । [तम्हा दव्वं सयं सत्ता] इसीलिए अभेदनय से शुद्धचैतन्यस्वरूपसत्ता ही परमात्मद्रव्य है ।

    यह जैसे परमात्मद्रव्य के साथ शुद्धचेतना सत्ता का अभेद व्याख्यान किया, उसीप्रकार सभी चेतन-अचेतन द्रव्यों का अपनी- अपनी सत्ता के साथ अभेद व्याख्यान करना चाहिये - यह अभिप्राय है ॥११५॥

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    + अब, पृथक्‍त्‍व और अन्यत्व का लक्षण स्पष्ट करते हैं -
    पविभत्तपदेसत्तं पुधत्तमिदि सासणं हि वीरस्स । (106)
    अण्णत्तमतब्भावो ण तब्भवं होदि कधमेगं ॥116॥
    प्रविभक्तप्रदेशत्वं पृथक्त्वमिति शासनं हि वीरस्य ।
    अन्यत्वमतद्भावो न तद्भवत् भवति कथमेकम् ॥१०६॥
    जिनवीर के उपदेश में पृथक्त्व भिन्नप्रदेशता
    अतद्भाव ही अन्यत्व है तो अतत् कैसे एक हों ॥११६॥
    अन्वयार्थ : भिन्न-भिन्न प्रदेशता पृथक्त्व और अतद्भाव (उसरूप नहीं होना) अन्यत्व है, जो उसरूप न हो वह एक कैसे हो सकता है? ऐसा भगवान महावीर का उपदेश है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    विभक्त प्रदेशत्व (भिन्न प्रदेशत्व) पृथक्‍त्‍व का लक्षण है । वह तो सत्ता और द्रव्य में सम्भव नहीं है, क्योंकि गुण और गुणी में विभक्तप्रदेशत्व का अभाव होता है,—शुक्लत्व और वस्त्र की भाँति । वह इस प्रकार है कि जैसे—जो शुक्लत्व के गुण के प्रदेश हैं वे ही वस्‍त्र के गुणी के है, इसलिये उनमें प्रदेशभेद नहीं है; इसी प्रकार जो सत्ता के गुण के प्रदेश हैं वे ही द्रव्य के गुणी के हैं, इसलिये उनमें प्रदेशभेद नहीं है ।

    ऐसा होने पर भी उनमें (सत्ता और द्रव्य में) अन्यत्व है, क्योंकि (उनमें) अन्यत्व के लक्षण का सद्‌भाव है । अतद्‌भाव अन्यत्व का लक्षण है । वह तो सत्ता और द्रव्य के है ही, क्योंकि गुण और गुणी के तद्भाव का अभाव होता है;—शुक्लत्व और वस्त्र की भाँति । वह इस प्रकार है कि:—जैसे एक चक्षु-इन्द्रिय के विषय में आने वाला और अन्य सब इन्द्रियों के समूह को गोचर न होने वाला शुक्लत्व गुण है वह समस्त इन्द्रिय समूह को गोचर होने वाला ऐसा वस्त्र नहीं है; और जो समस्त इन्द्रियसमूह को गोचर होने वाला वस्त्र है वह एक चक्षुइन्द्रिय के विषय में आने वाला तथा अन्य समस्त इन्द्रियों के समूह को गोचर न होने वाला ऐसा शुक्लत्व गुण नहीं है, इसलिये उनके तद्‌भाव का अभाव है; इसी प्रकार, किसी के आश्रय रहने वाली, निर्गुण, एक गुण की बनी हुई, विशेषण विधायक और वृत्ति-स्वरूप जो सत्ता है वह किसी के आश्रय के बिना रहने वाला, गुण वाला, अनेक गुणों से निर्मित, विशेष्य, विधीयमान और वृत्तिमानस्वरूप ऐसा द्रव्य नहीं है, तथा जो किसी के आश्रय के बिना रहने वाला, गुण वाला, अनेक गुणों से निर्मित, विशेष्य, विधीयमान और १०वृत्तिमान-स्वरूप ऐसा द्रव्य है वह किसी के आश्रित रहने वाली, निर्गुण, एक गुण से निर्मित, विशेषण, विधायक और वृत्तिस्वरूप ऐसी सत्ता नहीं है, इसलिये उनके तद्‌भाव का अभाव है । ऐसा होने से ही, यद्यपि, सत्ता और द्रव्य के कथंचित् अनर्थान्तरत्व (अभिन्नपदार्थत्व, अनन्यपदार्थत्व) है तथापि उनके सर्वथा एकत्व होगा ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि तद्‌भाव एकत्व का लक्षण है । जो उसरूप ज्ञात नहीं होता वह (सर्वथा) एक कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता; परन्तु गुण-गुणी-रूप से अनेक ही है, यह अर्थ है ॥१०६॥

    अतद्भाव = (कथंचित) उसका न होना; (कथंचित) उसरूप न होना (कथंचित) अतद्रूपता । द्रव्य कथंचित सत्तास्वरूपसे नहीं है और सत्ता कथंचित द्रव्यरूपसे नहीं है, इसलिये उनके अतद्भाव है ।
    तद्भाव = उसका होना, उसरूप होना, तद्रूपता ।
    सत्ता द्रव्य के आश्रय से रहती है, द्रव्य को किसी का आश्रय नहीं है । (जैसे घड़े में घी रहता है, उसीप्रकार द्रव्य में सत्ता नहीं रहती, क्योंकि घड़े में और घी में तो प्रदेशभेद है, किन्तु जैसे आम में वर्ण गंधादि हैं उसीप्रकार द्रव्य में सत्ता है)
    निर्गुण = गुणरहित (सत्ता निर्गुण है, द्रव्य गुणवाला है । जैसे आम वर्ण, गंध स्पर्शादि गुण-युक्त है, किन्तु वर्ण-गुण कहीं गंध, स्पर्श या अन्य किसी गुणवाला नहीं है, क्योंकि न तो वर्ण सूंघा जाता है और न स्पर्श किया जाता है । और जैसे आत्मा ज्ञान-गुण वाला, वीर्य-गुण वाला इत्यादि है, परन्तु ज्ञान-गुण कहीं वीर्य-गुणवाला या अन्य किसी गुणवाला नहीं है; इसीप्रकार द्रव्य अनन्त गुणोंवाला है, परन्तु सत्ता गुणवाली नहीं है । यहाँ, जैसे दण्डी दण्डवाला है उसीप्रकार द्रव्य को गुणवाला नहीं समझना चाहिये; क्योंकि दण्डी और दण्ड में प्रदेश-भेद है, किन्तु द्रव्य और गुण अभिन्न-प्रदेशी हैं)
    विशेषण = विशेषता; लक्षण; भेदक धर्म ।
    विधायक = विधान करनेवाला; रचयिता ।
    वृत्ति = होना, अस्तित्व, उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य ।
    विशेष्य = विशेषता को धारण करनेवाला पदार्थ; लक्ष्य; भेद्य पदार्थ- धर्मी । (जैसे मिठास, सफेदी, सचिक्कणता आदि मिश्री के विशेष गुण हैं, और मिश्री इन विशेष गुणों से विशेषित होती हुई अर्थात् उन विशेषताओं से ज्ञात होती हुई, उन भेदों से भेदित होती हुई एक पदार्थ है; और जैसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य इत्यादि आत्मा के विशेषण है और आत्मा उन विशेषणों से विशेषित होता हुआ -- लक्षित, भेदित, पहचाना जाता हुआ -- पदार्थ है, उसीप्रकार सत्ता विशेषण है और द्रव्य विशेष्य है । यहाँ यह नहीं भूलना चाहिये कि विशेष्य और विशेषणों के प्रदेश-भेद नहीं हैं ।)
    विधीयमान = रचित होनेवाला । ( सत्ता इत्यादि गुण द्रव्य के रचयिता है और द्रव्य उनके द्वारा रचा जानेवाला पदार्थ है ।)
    १०वृत्तिमान = वृत्तिवाला, अस्तित्ववाला, स्थिर रहनेवाला । ( सत्ता वृत्तिस्वरूप अर्थात् अस्ति-स्वरूप है और द्रव्य अस्तित्व रहने-स्वरूप है ।)

    जयसेनाचार्य :
    [पविभत्तपदेसत्तं पुधत्तं] पृथक्त्व नामक भेद है । वह पृथक्त्व भेद किस विशेषता वाला है? विशेषरूप से प्रदेशों की भिन्नता वाला है । किसके समान विशेषरूप से प्रदेश भिन्नता वाला है? दण्ड और दण्डी के समान विशेषरूप से प्रदेश भिन्नता वाला है । इस प्रकार का पृथक्त्व शुद्धात्म-द्रव्य और शुद्ध सत्ता गुण में घटित नहीं होता है । उन दोनो में यह भेद क्यों नहीं घटित होता है? उन दोनों में भिन्न-भिन्न प्रदेशों का अभाव होने से वह भेद घटित नहीं होता है । किनके समान उनमें यह घटित नहीं होता है? सफेदवस्त्र और सफेदगुण के समान उनमें यह भेद घटित नहीं होता है । [इदि सासणं हि वीरस्स] इसप्रकार शासन-उपदेश-आदेश है । ऐसा किसका उपदेश-आदेश है? वीर नामक अन्तिम तीर्थंकर परमदेव का यह उपदेश- आदेश है । [अण्णत्तं] मुक्तात्मद्रव्य और शुद्धसत्तागुण के प्रदेशों का अभेद होने पर भी अन्यता-भिन्नता है । उन दोनों में अन्यत्व कैसा है? [अतब्भावो] संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि भेद - भिन्न स्वभावरूप अतद्भावरूप अन्यत्व है ।

    जैसे प्रदेशों की अपेक्षा अभेद है, वैसे ही संज्ञादि लक्षणरूप से भी अभेद हो - क्या दोष है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो आचार्य उत्तर देते हैं-ऐसा नहीं है । [ण तब्भवं होदि] वह मुक्तात्मद्रव्य शुद्धात्मसत्तागुण के साथ प्रदेशों का अभेद होने पर भी संज्ञादिरूप से तन्मय नही है । [कधमेगं] वास्तव में तन्मयता ही एकता का लक्षण है । संज्ञादिरूप से तन्मयता के अभाव में एकता कैसे हो सकती है? अपितु भिन्नता ही है ।

    जैसे यह मुक्तात्मद्रव्य में प्रदेश अभेद होने पर भी, संज्ञादिरूप से भिन्नता कही गई है; उसीप्रकार सभी द्रव्यों की अपने-अपने स्वरूपास्तित्वगुण के साथ जानना चाहिये - यह अर्थ है ॥११६॥

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    + अब अतद्‌भाव को उदाहरण पूर्वक स्पष्ट बतलाते हैं -
    सद्दव्वं सच्च गुणो सच्चेव य पज्जओ त्ति वित्थारो । (107)
    जो खलु तस्स अभावो सो तदभावो अतब्भावो ॥117॥
    सद्द्रव्यं संश्च गुणः संश्चैव च पर्याय इति विस्तारः ।
    यः खलु तस्याभावः स तदभावोऽतद्भावः ॥१०७॥
    सत् द्रव्य सत् गुण और सत् पर्याय सत् विस्तार है
    तदरूपता का अभाव ही तद्-अभाव अर अतद्भाव है ॥११७॥
    अन्वयार्थ : सत् द्रव्य, सत् गुण और सत् पर्याय- इसप्रकार सत् का विस्तार है । (उनमे) वास्तव में जो उसका-उसरूप होने का अभाव है वह तद्भाव - अतद्भाव है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    जैसे एक मोतियों की माला हार के रूप में, सूत्र (धागा) के रूप में और मोती के रूप में—(त्रिधा) तीन प्रकार से विस्तारित की जाती है, उसी प्रकार एक द्रव्य, द्रव्य के रूप में, गुण के रूप में और पर्याय के रूप में—तीन प्रकार से विस्तारित किया जाता है ।

    और जैसे एक मोतियों की माला का शुक्लत्व गुण, शुक्ल हार, शुक्ल धागा, और शुक्ल मोती,—यों तीन प्रकार से विस्तारित किया जाता है, उसी प्रकार एक द्रव्य का सत्तागुण सत् द्रव्य, सत् गुण, और सत्‌पर्याय,—यों तीन प्रकार से विस्तारित किया जाता है ।

    और जैसे एक मोतियों की माला में जो शुक्लत्वगुण है वह हार नहीं है, धागा नहीं है या मोती नहीं है, और जो हार, धागा या मोती है वह शुक्लत्वगुण नहीं है;—इस प्रकार एक-दूसरे में जो ‘उसका अभाव’ अर्थात् ‘तद्रूप होने का अभाव है’ वह ‘तद्-अभाव’ लक्षण ‘अतद्‌भाव’ है, जो कि अन्यत्व का कारण है । इसी प्रकार एक द्रव्य में जो सत्तागुण है वह द्रव्य नहीं है, अन्य गुण नहीं है, या पर्याय नहीं है; और जो द्रव्य अन्य गुण या पर्याय है वह सत्तागुण नहीं है,—इस प्रकार एक-दूसरे में जो ‘उसका अभाव’ अर्थात् ‘तद्रूप होने का अभाव’ है वह ‘तद्-अभाव’ लक्षण ‘अतद्‌भाव’ है जो कि अन्यत्व का कारण है ॥१०७॥

    जयसेनाचार्य :
    [सद्दव्वं सच्च गुणो सच्चेव य पज्जओ त्ति वित्थारो] - सत् द्रव्य, सत् गुण और सत् ही पर्याय - इसप्रकार द्रव्य, गुण, पर्यायों में सत्ता गुण का विस्तार है । वह इसप्रकार जैसे- मोतियों के हार में सत्ता गुण के स्थान पर-जो वहाँ सफेदगुण है, वह प्रदेशों का अभेद होने से क्या-क्या कहा जाता है? वह सफ़ेद हार, सफ़ेद सूत्र (धागा), सफेद मोती - ऐसा कहा जाता है और जो हार, सूत्र तथा मोती हैं - ये तीनों, तीनों के साथ (परस्पर) प्रदेशों का अभेद होने से, सफेद गुण कहे जाते हैं - इसप्रकार यह तद्भाव का लक्षण है । तद्भाव का क्या अर्थ है? हार, सूत्र और मोतियों की सफेद गुण के साथ तन्मयता - प्रदेशों की अभिन्नता-एकता तद्भाव का अर्थ है । उसी प्रकार मुक्तात्मपदार्थ (सिद्ध भगवान्) में जो वह शुद्ध सत्तागुण है, वह प्रदेशों का अभेद होने से क्या- क्या कहा जाता है? वह सत्ता लक्षण परमात्मपदार्थ, सत्ता लक्षण केवलज्ञानादि गुण, सत्ता लक्षण सिद्धपर्याय - ऐसा कहा जाता है । और जो परमात्मपदार्थ, केवलज्ञानादिगुण और सिद्धत्वपर्याय - ये तीनों (परस्पर) तीनों के साथ (प्रदेशों का अभेद होने से) शुद्धसत्तागुण कहे जाते है - इसप्रकार यह तद्भाव का लक्षण है । तद्भाव का क्या अर्थ है? परमात्मपदार्थ, केवलज्ञानादिगुण, सिद्धत्वपर्यायों का शुद्धसत्तागुण के साथ संज्ञादि भेद होने पर भी प्रदेशों के साथ तन्मयता तद्भाव का अर्थ है । [जो खलु तस्स अभावो] - जो इस पूर्वोक्त लक्षण तद्भाव का स्पष्टरूप से संज्ञादि भेद की विवक्षा में अभाव है, [सो तदभावो] - वह पूर्वोक्त लक्षण तद्भाव कहा जाता है । वह तद्भाव क्यों कहा जाता है? [अतब्भावो] - तद्भाव नहीं है, तन्मयता नहीं है अथवा अतद्भाव है अर्थात् संज्ञा लक्षण, प्रयोजनादिकृत भेद है - यह अर्थ है । वह इसप्रकार -

    जैसे मोतियों के हार में जो वह सफेद गुण है, उसके वाचक शुक्ल (सफेद) - इन दो अक्षरों द्वारा हार वाच्य नही होता है, सूत्र अथवा मोती भी वाच्य नहीं होते हैं; तथा हार और मोतियों के वाचक शब्दों द्वारा सफेद गुण वाव्य नही होता है । इसप्रकार परस्पर प्रदेशों का अभेद होने पर भी जो वह संज्ञादि भेद है, वह उस पूर्वाक्त लक्षण तद्भाव का अभाव (होने से) तद्भाव कहलाता है । वह तद्भाव और भी क्या कहलाता है? वह अतद्भाव, संज्ञा-लक्षण-प्रयोजनादिकृतभेद भी कहलाता है । उसीप्रकार मुक्तजीव में जो वह शुद्धसत्तागुण है, उसके वाचक सत्ताशब्द द्वारा मुक्तजीव वाच्य नहीं होते हैं अथवा केवलज्ञानादिगुण और सिद्धपर्याये भी वाच्य नहीं होती है; मुक्तजीव, केवलज्ञानादिगुण और सिद्धपर्याय शब्दों द्वारा भी शुद्धसत्तागुण वाच्य नहीं होता है । इसप्रकार परस्पर प्रदेशों का अभेद होने पर भी जो वह संज्ञादि भेद है,वह उस पूर्वोक्त लक्षण तद्भाव का अभाव-तदभाव कहलाता है । और वह तदभाव और भी क्या कहलाता है? अतद्भाव, संज्ञा-लक्षण-प्रयोजन आदि कृत भेद इत्यादि कहलाता है - यह अर्थ है ।

    जैसे यहाँ शुद्धात्मा में शुद्धसत्तागुण के साथ अभेद स्थापित किया है, उसीप्रकार यथासंभव सभी द्रव्यों में जानना चाहिये - यह अभिप्राय है ॥११७॥

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    + अब, सर्वथा अभाव अतद्‌भाव का लक्षण है, इसका निषेध करते हैं -
    जं दव्वं तं ण गुणो जो वि गुणो सो ण तच्चमत्थादो । (108)
    एसो हि अतब्भावो णेव अभावो त्ति णिद्दिट्ठो ॥118॥
    यद्द्रव्यं तन्न गुणो योऽपि गुणः स न तत्त्वमर्थात् ।
    एष ह्यतद्भावो नैव अभाव इति निर्दिष्टः ॥१०८॥
    द्रव्य वह गुण नहीं अर गुण द्रव्य ना अतद्भाव यह
    सर्वथा जो अभाव है वह नहीं अतद्भाव है ॥११८॥
    अन्वयार्थ : वास्तव में जो द्रव्य है वह गुण नहीं है, जो गुण है वह द्रव्य नहीं है - यह अतद्भाव है, सर्वथा अभावरूप अतद्भाव नहीं है - ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    एक द्रव्य में, जो द्रव्य है वह गुण नहीं है, जो गुण है वह द्रव्य नहीं है;—इस प्रकार जो द्रव्य का गुणरूप से (न होना) अथवा गुण का द्रव्यरूप से न होना, अतद्‌भाव है; क्योंकि इतने से ही अन्यत्व व्यवहार (अन्यत्वरूप व्यवहार) सिद्ध होता है । परन्तु द्रव्य का अभाव गुण है, गुण का अभाव द्रव्य है;—ऐसे लक्षण वाला अभाव वह अतद्‌भाव नहीं है । यदि ऐसा हो तो
    1. एक द्रव्य को अनेकत्व आ जायेगा,
    2. उभयशून्यता (दोनों का अभाव) हो जायेगा, अथवा
    3. अपोहरूपता आ जायेगी ।
    इसी को समझाते हैं :—
    1. जैसे चेतनद्रव्य का अभाव वह अचेतन द्रव्य है, (और) अचेतनद्रव्य का अभाव वह चेतनद्रव्य है,—इस प्रकार उनके अनेकत्व (द्वित्व) है, उसी प्रकार द्रव्य का अभाव वह गुण, (और) गुण का अभाव द्रव्य- है;—इस प्रकार एक द्रव्य के भी अनेकत्व आ जायेगा । (अर्थात् द्रव्य के एक होने पर भी उसके अनेकत्व का प्रसंग आ जायेगा ।)
    2. जैसे सुवर्ण के अभाव होने पर सुवर्णत्व का अभाव हो जाता है और सुवर्णत्व का अभाव होने पर सुवर्ण का अभाव हो जाता है,—इस प्रकार उभयशून्यत्व- दोनों का अभाव हो जाता है; उसी प्रकार द्रव्य का अभाव होने पर गुण का अभाव और गुण का अभाव होने पर द्रव्य का अभाव हो जायेगा;—इस प्रकार उभयशून्यता हो जायेगी । (अर्थात् द्रव्य तथा गुण दोनों के अभाव का प्रसंग आ जायेगा ।)
    3. जैसे पटाभावमात्र ही घट है, घटाभावमात्र ही पट है, (अर्थात् वस्त्र के केवल अभाव जितना ही घट है, और घट के केवल अभाव जितना ही वस्त्र है)—इस प्रकार दोनों के अपोहरूपता है, उसी प्रकार द्रव्याभावमात्र ही गुण और गुणाभावमात्र ही द्रव्य होगा;—इस प्रकार इसमें भी (द्रव्य-गुण में भी) अपोहरूपता आ जायेगी, (अर्थात् केवल नकाररूपता का प्रसङ्ग आ जायेगा ।)
    इसलिये द्रव्य और गुण का एकत्व, अशून्यत्व और अनपोहत्व चाहने वाले को यथोक्त ही अतद्‌भाव मानना चाहिये ॥१०८॥

    अपोहरूपता = सर्वथा नकारात्मकता; सर्वथा भिन्नता । (द्रव्य और गुण में एक-दूसरे का केवल नकार ही हो तो 'द्रव्य गुणवाला है' 'यह गुण इस द्रव्य का है' -इत्यादि कथन से सूचित किसी प्रकार का सम्बन्ध ही द्रव्य और गुण के नहीं बनेगा)
    अनपोहत्व = अपोहरूपता का न होना; केवल नकारात्मकता का न होना ।

    जयसेनाचार्य :
    [जं दव्वं तण्ण गुणो] जो द्रव्य है, वह गुण नहीं है - जो मुक्तजीवद्रव्य है, वह शुद्ध सत् गुण नहीं है । मुक्तजीवद्रव्य शब्द से शुद्धसत्तागुण वाच्य नहीं है - ऐसा अर्थ है । [जो वि गुणो तो ण तच्चमत्थादो] - जो भी गुण है वह परमार्थ से तत्व-द्रव्य नहीं है, जो शुद्धसत्तागुण है- वह मुक्तजीवद्रव्य नहीं है । शुद्धसत्ता शब्द के द्वारा मुक्तजीवद्रव्य वाच्य नहीं होता है -ऐसा अर्थ है । [एसो हि अतब्भावो] - यह कहा गया लक्षण ही वास्तव में अतद्भाव है । कहा गया लक्षण - इसका क्या अर्थ है? गुण और गुणी में संज्ञादि भेद होने पर भी प्रदेशभेद का अभाव है - इस कहे गये लक्षण वाला अतद्भाव है- यह इसका अर्थ है । [णेव अभावो त्ति णिद्दिट्ठो] - (सर्वथा) अभाव नहीं है - ऐसा कहा है । (सर्वथा) अभाव नहीं है - इसका क्या अर्थ है? जैसे सत्ता वाचक शब्द से मुक्तजीवद्रव्य वाच्य नहीं होता है, वैसे ही यदि सत्ता के प्रदेशों द्वारा भी सत्तागुण से वह भिन्न है, तो जैसे- जीव के प्रदेशों से भिन्न पुद्गलद्रव्य भिन्न सत्-दूसरा द्रव्य है; उसीप्रकार सत्तागुण के प्रदेशों से भिन्न मुक्तजीवद्रव्य, सत्तागुण से भिन्न होते हुये पृथक दूसरे द्रव्य प्राप्त होते हैं । इससे क्या सिद्ध होगा? इससे सत्तागुणरूप पृथक् द्रव्य और मुक्तजीवद्रव्यरूप पृथक् द्रव्य - इसप्रकार दो द्रव्य सिद्ध होते है परन्तु ऐसा नहीं है ।

    और दूसरा दोष (भी) प्राप्त होता है - जैसे सुवर्णत्वगुण के प्रदेशों से भिन्न सुवर्ण का अभाव है, वैसे ही सुवर्ण के प्रदेशों से भिन्न सुवर्णत्वगुण का भी अभाव है; उसीप्रकार सत्तागुण के प्रदेशों से भिन्न मुक्त जीवद्रव्य का अभाव तथा मुक्त जीवद्रव्य के प्रदेशों से भिन्न सत्तागुण का भी अभाव सिद्ध होगा - इसप्रकार दोनों का ही अभाव प्राप्त होगा (परन्तु ऐसी वस्तुस्थिति नहीं है)

    जैसे यह मुक्त जीव-द्रव्य में संज्ञा आदि भेदों से पृथक् उसका (सत्ता का) अतद्भाव तथा सत्तागुण के साथ (जीव सम्बन्धी) प्रदेशों के अभेद का व्याख्यान किया है; उसीप्रकार यथासंभव सभी द्रव्यों में जानना चाहिये-यह अर्थ है ॥११८॥

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    + अब, सत्ता और द्रव्य का गुण-गुणि‍त्‍व सिद्ध करते हैं -
    जो खलु दव्वसहावो परिणामो सो गुणो सदविसिट्ठो । (109)
    सदवट्ठिदं सहावे दव्वं ति जिणोवदेसोयं ॥119॥
    यः खलु द्रव्यस्वभावः परिणामः स गुणः सदविशिष्टः ।
    सदवस्थितं स्वभावे द्रव्यमिति जिनोपदेशोऽयम् ॥१०९॥
    परिणाम द्रव्य स्वभाव जो वह अपृथक् सत्ता से सदा
    स्वभाव में थित द्रव्य सत् जिनदेव का उपदेश यह ॥११९॥
    अन्वयार्थ : वास्तव में जो द्रव्य का स्वभावभूत (उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक) परिणाम है, वह सत् से अभिन्न गुण है, स्वभाव में अवस्थित द्रव्य सत् है -- ऐसा यह जिनेन्द्र-भगवान का उपदेश है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    द्रव्य स्वभाव में नित्य अवस्थित होने से सत् है,—ऐसा पहले (९९वीं गाथा में) प्रतिपादित किया गया है; और (वहाँ) द्रव्य का स्वभाव परिणाम कहा गया है । यहाँ यह सिद्ध किया जा रहा है कि जो द्रव्य का स्वभावभूत परिणाम है वही ‘सत्’ से अविशिष्ट (अस्तित्व से अभिन्न) ऐसा गुण है ।

    जो द्रव्य के स्वरूप का वृत्तिभूत ऐसा जो अस्तित्व द्रव्यप्रधान कथन के द्वारा ‘सत्’ शब्द से कहा जाता है उससे अविशिष्ट (उस अस्तित्व से अनन्य) गुणभूत ही द्रव्यस्वभावभूत परिणाम है; क्योंकि द्रव्य की वृत्ति (अस्तित्व) तीन प्रकार के समय को (भूत, भविष्‍यत, वर्तमान काल को) स्पर्शित करती है, इसलिये (वह वृत्ति—अस्तित्व) प्रतिक्षण उस-उस स्वभावरूप परिणमित होती है ।

    (इसलिये) प्रथम तो द्रव्य का स्वभावभूत परिणाम है; और वह (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक परिणाम) अस्तित्वभूत ऐसी द्रव्य की वृत्तिस्वरूप होने से, ‘सत्’ से अविशिष्ट, द्रव्यविधायक (द्रव्य का रचयिता) गुण ही है । इस प्रकार सत्ता और द्रव्य का गुणगुणीपना सिद्ध होता है ॥१०९॥

    जयसेनाचार्य :
    [जो खलु दव्वसहावो परिणामो] - जो वास्तव में द्रव्य का स्वभावभूत परिणाम-पंचेन्द्रिय विषयों के भोगरूप मन की क्रिया से उत्पन्न सम्पूर्ण मनोरथरूपी विकल्पसमूह का अभाव होने पर ज्ञानानन्द एक स्वभाव की अनुभूतिरूप निज में स्थिरतामय जो परिणाम - उसका उत्पाद पहले कहे हुये विकल्पसमूहों का अभावरूप व्यय और उन दोनों का आधारभूत जीवत्वरूप धौव्य- इसप्रकार कहे गये लक्षणवाले उत्पाद-व्यय-धौव्य स्वरूप स्वभावभूत जो वह जीवद्रव्य का परिणाम है, [सो गुणो] - वह गुण है । वह परिणाम कैसा होता हुआ गुण है? [सदविसिट्ठो] - वे उत्पादादि तीनों एक अस्तित्व से अभिन्न- एक अस्तित्वरूप रहते हैं । वे अस्तित्व के साथ अभिन्न कैसे होते हैं? यदि ऐसा प्रश्न हो तो (उत्तर देते है) 'सत् उत्पाद-व्यय-धौव्यस्वरूप है' - ऐसा वचन होने से वे सब अस्तित्व से अभिन्न हैं । ऐसा होने पर सत्ता ही गुण है - यह अर्थ है ।

    इसप्रकार गुण का कथन हुआ ।

    [सदवट्ठिदं सहावे दव्वं ति] - स्वभाव में स्थित सत् द्रव्य है, द्रव्य अर्थात् परमात्मद्रव्य है । सत् द्रव्य कैसे है? अभेदनय से सत् द्रव्य है । कैसा सत् द्रव्य है? अच्छी तरह से स्थित सत् द्रव्य है । कहाँ स्थित सत् द्रव्य है? उत्पाद-व्यय-धौव्य स्वरूप स्वभाव में स्थित सत् द्रव्य है । [जिणोवदेसोयं] - यह जिनोपदेश है । "सदवट्ठिदं सहावे दव्वं दव्वस्स जो हु परिणामो" - स्वभाव में अवस्थित द्रव्य सत् है, वास्तव में द्रव्य का जो परिणमन है-----''इत्यादि पहले (प्रवचनसार, गाथा १०९) गाथा में जो कहा था, वही यह व्याख्यान है; मात्र गुण का कथन अधिक है- यह तात्पर्य है ।

    जैसे यह जीव द्रव्य में गुण्-गुणी का व्याख्यान किया है, उसी प्रकार सभी द्रव्यों में जानना चाहिये ॥११९॥

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    + अब गुण और गुणी के अनेकत्व का खण्डन करते हैं -
    णत्थि गुणो त्ति व कोई पज्जाओ त्तीह वा विणा दव्वं । (110)
    दव्वत्तं पुण भावो तम्हा दव्वं सयं सत्ता ॥120॥
    नास्ति गुण इति वा कश्चित् पर्याय इतीह वा विना द्रव्यम् ।
    द्रव्यत्वं पुनर्भावस्तस्माद्द्रव्यं स्वयं सत्ता ॥११०॥
    पर्याय या गुण द्रव्य के बिन कभी भी होते नहीं
    द्रव्य ही है भाव इससे द्रव्य सत्ता है स्वयं ॥१२०॥
    अन्वयार्थ : इस विश्व में कोई भी गुण या पर्याय द्रव्य के बिना नहीं है, और द्रव्यत्व (द्रव्य का) भाव-स्वभाव है, इसलिये द्रव्य स्वयं सत्ता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    वास्तव में द्रव्य से पृथग्भूत (भिन्न) ऐसा कोई गुण या ऐसी कोई पर्याय कुछ नहीं होता; जैसे—सुवर्ण से पृथग्भूत उसका पीलापन आदि या उसका कुण्डलत्वादि नही होता तदनुसार । अब, उस द्रव्य के स्वरूप की वृत्तिभूत जो अस्तित्व नाम से कहा जाने वाला द्रव्यत्व वह उसका ‘भाव’ नाम से कहा जाने वाला गुण ही होने से, क्या वह द्रव्य से पृथक्‌रूप वर्तता है? नहीं ही वर्तता । तब फिर द्रव्य स्वयमेव सत्ता हो ॥११०॥

    जयसेनाचार्य :
    [णत्थि] नहीं पाया जाता है । वह कौन नहीं पाया जाता है? [गुणो त्ति व कोई] कोई गुण नहीं पाया जाता है । मात्र गुण ही नहीं [पज्जाओ त्तिह वा] कोई पर्याय भी इस लोक में नहीं पाई जाती है । यह दोनों कैसे नहीं पाए जाते है? [विणा] ये बिना नहीं पाये जाते है । ये किसके बिना नहीं पाये जाते हैं? [दव्वं] ये द्रव्य के बिना नहीं पाये जाते है । अब द्रव्य (के सम्बन्ध में) कहते हैं - [दव्वत्तं पुण भावो] - द्रव्यत्व अर्थात् अस्तित्व । वह अस्तित्व और क्या कहलाता है? [भाव:] वह भाव कहलाता है? । भाव का क्या अर्थ है? उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप सद्भाव-विद्यमानता भाव का अर्थ है । [तम्हा दव्वं सयं सत्ता] - इसलिये अभेदनय से सत्ता स्वयं ही द्रव्य है ।

    वह इसप्रकार- मुक्तात्मद्रव्य में स्वभाव की उत्कृष्ट परिपूर्ण प्राप्तिरूप मोक्षपर्याय और केवलज्ञानादिरूप गुणसमूह - जिस कारण ये दोनों भी परमात्मद्रव्य के बिना नहीं है- नहीं पाये जाते हैं । ये किस कारण नहीं पाए जाते है? प्रदेशों का अभेद होने से ये द्रव्य के बिना नहीं पाये जाते हैं । उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वरूप शुद्धसत्तारूप मुक्तात्मद्रव्य है । इसलिये अभेदनय से सत्ता ही द्रव्य है - ऐसा अर्थ है ।

    जैसे मुक्तात्मद्रव्य में गुण-पर्यायों के साथ अभेद व्याख्यान किया है वैसा ही यथासंभव सभी द्रव्यो में जानना चाहिये ॥१२०॥

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    + अब, द्रव्य के सत्-उत्पाद और असत्-उत्पाद होने में अविरोध सिद्ध करते हैं -
    एवंविहं सहावे दव्वं दव्वत्थपज्जयत्थेहिं । (111)
    सदसब्भावणिबद्धं पादुब्भावं सदा लभदि ॥121॥
    एवंविधं स्वभावे द्रव्यं द्रव्यार्थपर्यायार्थाभ्याम् ।
    सदसद्भावनिबद्धं प्रादुर्भावं सदा लभते ॥१११॥
    पूर्वोक्त द्रव्यस्वभाव में उत्पाद सत् नयद्रव्य से
    पर्यायनय से असत् का उत्पाद होता है सदा ॥१२१॥
    अन्वयार्थ : इसप्रकर सद्भाव में अवस्थित द्रव्य द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय से सद्भाव निबद्ध और असद्भावनिबद्ध उत्पाद को हमेशा प्राप्त करता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    इस प्रकार यथोदित (पूर्वकथित) सर्व प्रकार से अकलंक लक्षण वाला, अनादिनिधन वह द्रव्य सत्‌स्वभाव में (अस्तित्वस्वभाव में) उत्पाद को प्राप्त होता है । द्रव्य का वह उत्पाद, द्रव्य की अभिधेयता के समय सद्‌भाव-संबद्ध ही है और पर्यायों की अभिधेयता के समय असद्‌भाव-संबद्ध ही है । इसे स्पष्ट समझाते हैं :—

    जब द्रव्य ही कहा जाता है,—पर्यायें नहीं, तब होने वाले द्रव्य को सद्‌भाव-संबद्ध ही उत्पाद है; सुवर्ण की भाँति । जैसे :- जब सुवर्ण ही कहा जाता है -- बाजूबंध आदि पर्यायें नहीं, तब सुवर्ण का सद्‌भाव-संबद्ध ही उत्पाद है ।

    और जब पर्यायें ही कही जाती हैं, द्रव्य नहीं, तब असद्‌भाव-संबद्ध ही उत्पाद है; सुवर्ण की ही भाँति । वह इस प्रकार -- जब बाजूबंधादि पर्यायें ही कही जाती हैं, सुवर्ण नहीं, तब सुवर्ण के असद्‌भाव-युक्त ही उत्पाद है ।

    अब, पर्यायों की अभिधेयता (कथनी) के समय भी, असत्-उत्पाद में पर्यायों को उत्पन्न करने वाली वे-वे व्यतिरेक-व्यक्तियाँ युगपत् प्रवृत्ति प्राप्त अन्वय-शक्तिपने को प्राप्त होती हुई पर्यायों को द्रव्य करता है (पर्यायों की विवक्षा के समय भी व्यतिरेक-व्यक्तियाँ अन्वय-शक्तिरूप बनती हुई पर्यायों को द्रव्यरूप करती हैं); जैसे बाजूबंध आदि पर्यायों को उत्‍पन्‍न करने वाली वे-वे व्यतिरेक-व्यक्तियाँ युगपत् प्रवृत्ति प्राप्त करके अन्वय-शक्तिपने को प्राप्त करती हुई बाजुबंध इत्यादि पर्यायों को सुवर्ण करता है । द्रव्य की अभिधेयता के समय भी, सत्-उत्पाद में द्रव्य की उत्पादक अन्वय-शक्तियाँ क्रम-प्रवृत्ति को प्राप्त उस-उस व्यतिरेक-व्यक्तित्व को प्राप्त होती हुई, द्रव्य को पर्यायें (पर्यायरूप) करती हैं; जैसे सुवर्ण की उत्पादक अन्वय-शक्तियाँ क्रम-प्रवृत्ति प्राप्त करके उस-उस व्यतिरेक-व्यक्तित्व को प्राप्त होती हुई, सुवर्ण को बाजूबंधादि पर्यायमात्र (पर्यायमात्र-रूप) करती हैं ।

    इसलिये द्रव्यार्थिक कथन से सत्-उत्पाद है, पर्यायार्थिक कथन से असत्-उत्पाद है -- यह बात अनवद्य (निर्दोष, अबाध्य) है ॥१११॥

    अकलंक = निर्दोष (यह द्रव्य पूर्वकथित सर्वप्रकार निर्दोष लक्षणवाला है)
    अभिधेयता = कहने योग्यपना; विवक्षा; कथनी ।
    अन्वयशक्ति = अन्वयरूपशक्ति । ( अन्वयशक्तियाँ उत्पत्ति और नाश से रहित हैं, एक ही साथ प्रवृत्त होती हैं और द्रव्य को उत्पन्न करती हैं । ज्ञान, दर्शन, चारित्र इत्यादि आत्म-द्रव्य की अन्वय-शक्तियाँ हैं)
    व्यतिरेक-व्यक्ति = भेदरूप प्रगटता । (व्यतिरेक-व्यक्तियाँ उत्पत्ति विनाश को प्राप्त होती हैं, क्रमश: प्रवृत्त होती हैं और पर्यायों को उत्पन्न करती हैं । श्रुतज्ञान, केवलज्ञान इत्यादि तथा स्वरूपाचरण-चारित्र, यथाख्यात-चारित्र इत्यादि आत्म-द्रव्य की व्यतिरेक-व्यक्तियाँ हैं । व्यतिरेक और अन्वय के अर्थों के लिये ११ ९वें पृष्ठ का फुटनोट/टिप्पणी देखें)
    सद्भावसंबद्ध = सद्भाव-अस्तित्व के साथ संबंध रखनेवाला, -संकलित । द्रव्य की विवक्षा के समय अन्वय शक्तियों को मुख्य और व्यतिरेक-व्यक्तियों को गौण कर दिया जाता है, इसलिये द्रव्य के सद्भाव-संबद्ध उत्पाद (सत्-उत्पाद, विद्यमान का उत्पाद) है ।
    असद्भावसंबद्ध - अनस्तित्व के साथ सबंधवाला - संकलित । (पर्यायों की विवक्षा के समय व्यतिरेक-व्यक्तियों को मुख्य और अन्वय-शक्तियों को गौण किया जाता है, इसलिये द्रव्य के असद्भाव-संबद्ध उत्पाद (असत्-उत्पाद, अविद्यमान का उत्पाद) है ।

    जयसेनाचार्य :
    [एवंविहसब्भावे] इसप्रकार के सद्भाव में - द्रव्य - इसप्रकार पहले कहे हुये सद्भाव-सत्तारूप भाव में स्थित अथवा [एवंविहं सहावे] ऐसा दूसरा पाठ भेद है । वहाँ इसप्रकार पूर्वोक्त लक्षण अपने सद्भाव में स्थित है । अपने सद्भाव में कौन स्थित है? [दव्वं] द्रव्यरूप कर्त्ता (कर्ताकारक में प्रयुक्त द्रव्य) अपने सद्भाव में स्थित है । अपने सद्भाव में स्थित द्रव्य क्या करता है? [सदा लभदि] हमेशा प्राप्त करता है । वह किस कर्म को - किसे प्राप्त करता है? [पादुब्भावं] वह उत्पाद को प्राप्त करता है । वह कैसे उत्पाद को प्राप्त करता है? [सदसब्भावणिबद्धं] सद्भाव विद्यमानता से सहित और अविद्यमानता से सहित उत्पाद को प्राप्त करता है । किनके द्वारा? किनकी विवक्षा से इन्हें प्राप्त करता है? [दव्वत्थपज्जयत्थेहिं] द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय द्वारा अथवा इनकी विवक्षा में इन्हें प्राप्त करता है ।

    वह इसप्रकार- जैसे वैसे ही जैसे यह जीवद्रव्य में सत्उत्पाद और असत्उत्पाद का विशेष कथन किया है, उसीप्रकार सभी द्रव्यों में यथासंभव जानना चाहिये ॥१२१॥

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    + अब (सर्व पर्यायों में द्रव्‍य अन्‍वय है अर्थात् वह का वही है, इसलिये उसके सत्‌-उत्‍पाद है — इसप्रकार) सत्-उत्‍पाद को अनन्‍यत्‍व के द्वारा नि‍श्‍चि‍त करते हैं -
    जीवो भवं भविस्सदि णरोऽमरो वा परो भवीय पुणो । (112)
    किं दव्वत्तं पजहदि ण जहं अण्णो कहं होदि ॥122॥
    जीवो भवन् भविष्यति नरोऽमरो वा परो भूत्वा पुनः ।
    किं द्रव्यत्वं प्रजहाति न जहदन्यः कथं भवति ॥११२॥
    परिणमित जिय नर देव हो या अन्य हो पर कभी भी
    द्रव्यत्व को छोड़े नहीं तो अन्य होवे किसतरह ॥१२२॥
    अन्वयार्थ : जीव परिणमित होता हुआ मनुष्य, देव अथवा अन्य (तिर्यंच, नारकी, सिद्ध) होगा । परन्तु मनुष्यादि होकर क्या वह द्रव्यत्व को छोड़ देता है ? (यदि नहीं तो) द्रव्यत्व को न छोड़ता हुआ वह अन्य कैसे हो सकता है? (नहीं हो सकता है)

    अमृतचंद्राचार्य :
    प्रथम तो द्रव्य द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति को कभी भी न छोड़ता हुआ सत् (विद्यमान) ही है । और द्रव्य के जो पर्यायभूत व्यतिरेकव्यक्ति का उत्पाद होता है उसमें भी द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति का अच्युतपना होने से द्रव्य अनन्य ही है, (अर्थात् उस उत्पाद में भी अन्वयशक्ति तो अपतित- अविनष्ट-निश्‍चल होने से द्रव्य वह का वही है, अन्य नहीं ।) इसलिये अनन्यपने के द्वारा द्रव्य का सत्-उत्पाद निश्‍चित होता है, (अर्थात् उपरोक्त कथनानुसार द्रव्य का द्रव्यापेक्षा से अनन्यपना होने से, उसके सत्-उत्पाद है,—ऐसा अनन्यपने द्वारा सिद्ध होता है ।)

    इसी बात को (उदाहरण से) स्पष्ट किया जाता है :—

    जीव द्रव्य होने से और द्रव्य पर्यायों में वर्तने से जीव नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व में से किसी एक पर्याय में अवश्यमेव (परिणमित) होगा । परन्तु वह जीव उस पर्यायरूप होकर क्या द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति को छोड़ता है ? नहीं छोड़ता । यदि नहीं छोड़ता तो वह अन्‍य कैसे हो सकता है कि जिससे त्रिकोटि सत्ता (तीन प्रकार की सत्ता, त्रैकालिक अस्तित्‍व) जिसके प्रगट है ऐसा वह (जीव), वही न हो? ॥११२॥

    जयसेनाचार्य :
    [जीवो] जीवरूपी कर्ता (कर्ताकारक में प्रयुक्त जीव) [भवं] परिणमित होता हुआ [भविस्सदि] होगा । परिणमित होता हुआ जीव क्या-क्या होगा? विकार रहित शुद्धोपयोग से विलक्षण शुभाशुभ उपयोगरूप से परिणमन कर [णरोऽमरो वा परो] मनुष्य, देव और अन्य तिर्यंच, नारकी रूप अथवा पूर्ण विकार रहित शुद्धोपयोग से सिद्ध होगा । [भवीय पुणो] इसप्रकार पहले कहे हुये मनुष्यादि रूप होकर भी ।

    अथवा दूसरा व्याख्यान - इसप्रकार तीनों कालों में (इनरूप) होकर भी [किं दव्वत्तं पजहदि] क्या द्रव्यता छोडता है? [ण चयदि] द्रव्यार्थिकनय से द्रव्यता को नही छोड़ता है, द्रव्य से भिन्न नहीं है । [अण्णो कहं हवदि] - (तब वह जीवद्रव्य से) भिन्न कैसे है? (नही है) वरन् अन्वय-शक्तिरूप से द्रव्य का सद्भाव-निबद्ध उत्पाद-सदुत्पाद वही है; इसप्रकार उत्पाद द्रव्य से अभिन्न है -- ऐसा भाव है ॥१२२॥

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    + अब, असत्-उत्पाद को अन्यत्व के द्वारा निश्‍चित करते हैं -
    मणुवो ण होदि देवो देवो वा माणुसो व सिद्धो वा । (113)
    एवं अहोज्जमाणो अणण्णभावं कधं लहदि ॥123॥
    मनुजो न भवति देवो देवो वा मनुषो वा सिद्धो वा ।
    एवमभवन्ननन्यभावं कथं लभते ॥११३॥
    मनुज देव नहीं है अथवा देव मनुजादिक नहीं
    ऐसी अवस्था में कहो कि अनन्य होवे किसतरह ॥१२३॥
    अन्वयार्थ : मनुष्य देव नहीं है; देव, मनुष्य अथवा सिद्ध नहीं है; ऐसा नही होने पर वह अनन्यभाव- अभिन्नता को कैसे प्राप्त कर सकता है?

    अमृतचंद्राचार्य :
    पर्यायें पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्ति के काल में ही सत् (विद्यमान) होने से, उससे अन्य कालों में असत् (अविद्यमान) ही हैं । और पर्यायों का द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति के साथ गुंथा हुआ (एकरूपता से युक्त) जो क्रमानुपाती (क्रमानुसार) स्वकाल में उत्पाद होता है उसमें पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्ति का पहले असत्पना होने से, पर्यायें अन्य ही हैं । इसीलिये पर्यायों की अन्यता के द्वारा द्रव्य का—जो कि पर्यायों के स्वरूप का कर्ता, करण और अधिकरण होने से पर्यायों से अपृथक् है—असत्-उत्पाद निश्‍चित होता है ।

    इस बात को (उदाहरण देकर) स्पष्ट करते हैं :—

    मनुष्य वह देव या सिद्ध नहीं है, और देव, वह मनुष्य या सिद्ध नहीं है; इस प्रकार न होता हुआ अनन्य (वह का वही) कैसे हो सकता है, कि जिससे अन्य ही न हो और जिससे मनुष्यादि पर्यायें उत्‍पन्‍न होती हैं ऐसा जीव द्रव्य भी,—जिसकी कंकणादि पर्यायें उत्पन्न होती हैं ऐसे सुवर्ण की भाँति-पद-पद पर (प्रति पर्याय पर) अन्य न हो? (जैसे कंकण, कुण्डल इत्यादि पर्यायें अन्य हैं, --भिन्न-भिन्न हैं, वे की वे ही नहीं हैं, इसलिये उन पर्यायों का कर्ता सुवर्ण भी अन्य है, इसी प्रकार मनुष्य, देव इत्यादि पर्यायें अन्य हैं, इसलिये उन पर्यायों का कर्ता जीव-द्रव्य भी पर्यायापेक्षा से अन्य है) ॥११३॥

    जयसेनाचार्य :
    [मणुवो ण हवदि देवो] आकुलता को उत्पन्न करने वाली मनुष्य, देव आदि विभाव-पर्यायों से विलक्षण अनाकुलतारूप स्वभाव-परिणति लक्षण परमात्मद्रव्य, यद्यपि निश्चय से मनुष्यपर्याय व देवपर्याय में समान है, तो भी मनुष्य, देव नहीं है । मनुष्य, देव क्यों नहीं है? देवपर्याय के समय मनुष्यपर्याय की प्राप्ति नहीं होने के कारण मनुष्य, देव नहीं है । [देवो वा माणुसो वा सिद्धो वा] अथवा देव, मनुष्य नहीं है, अथवा अपने आत्मा की पूर्ण प्राप्तिरूप सिद्धपर्याय नहीं है । ये सब पर्यायें एक रूप क्यों नहीं है? जैसे सुवर्ण द्रव्य में कुण्डल आदि पर्यायों का पृथक्-पृथक् समय होने से (किसी विशिष्ट सुवर्ण की) एक समय में सभी पर्यायें नहीं हो सकती, उसीप्रकार मनुष्यादि सभी पर्यायों का पृथक्-पृथक् समय होने से, वे सब एक-दूसरे रूप नहीं हैं । [एवं अहोज्जमाणो] इसप्रकार एक-दूसरे रूप नहीं होते हुए [अणण्णभावं कधं लहदि] अनन्यभाव-अभिन्नता-एकता को कैसे प्राप्त हो सकती हैं? कैसे भी नही अर्थात् वे एक नहीं हो सकतीं हैं ।

    इससे इतना सिद्ध हुआ कि असद्भावनिबद्धोत्पाद-असदुत्पाद पूर्वपर्याय से भिन्न होता है ॥१२३॥

    🏠
    + अब, एक ही द्रव्य के अनन्यपना और अन्यपना होने में जो विरोध है, उसे दूर करते हैं -- -
    दव्वट्ठिएण सव्वं दव्वं तं पज्जयट्ठिएण पुणो । (114)
    हवदि य अण्णमणण्णं तक्काले तम्मयत्तादो ॥124॥
    द्रव्यार्थिकेन सर्वं द्रव्यं तत्पर्यायार्थिकेन पुनः ।
    भवति चान्यदनन्यत्तत्काले तन्मयत्वात् ॥११४॥
    द्रव्य से है अनन्य जिय पर्याय से अन-अन्य है
    पर्याय तन्मय द्रव्य से तत्समय अत: अनन्य है ॥१२४॥
    अन्वयार्थ : द्रव्यार्थिकनय से सभी द्रव्य (अपनी-अपनी पर्यायों से) अनन्य हैं तथा पर्यायार्थिकनय से उससमय उस पर्याय से (द्रव्य) तन्मय होने के कारण, वह अन्य-अन्य होता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    वास्तव में सभी वस्तु सामान्यविशेषात्मक होने से वस्तु का स्वरूप देखने वालों के क्रमश: (१) सामान्य और (२) विशेष को जानने वाली दो आंखें हैं—(१) द्रव्यार्थिक और (२) पर्यायार्थिक ।

    इनमें से पर्यायार्थिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके जब मात्र खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब नारकपना, तिर्यचपना, मनुष्यपना, देवपना और सिद्धत्‍व पर्यायस्वरूप विशेषों में रहने वाले एक जीवसामान्य को देखने वाले और विशेषों को न देखने वाले जीवों को ‘वह सब जीव द्रव्य है’ ऐसा भासित होता है । और जब द्रव्यार्थिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके मात्र खुली हुई पर्यायार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब जीवद्रव्य में रहने वाले नारकत्‍व, तिर्यंचत्‍व, मनुष्यत्‍व, देवत्‍व और सिद्धत्‍व पर्यायस्वरूप अनेक विशेषों को देखने वाले और सामान्य को न देखने वाले जीवों को (वह जीव द्रव्य) अन्य-अन्य भासित होता है, क्योंकि द्रव्य उन-उन विशेषों के समय तन्मय होने से उन-उन विशेषों से अनन्य है,—कण्डे, घास, पत्ते और काष्ठमय अग्नि की भाँति । (जैसे घास, लकड़ी इत्यादि की अग्नि उस-उस समय घासमय, लकड़ीमय इत्यादि होने से घास, लकड़ी इत्यादि से अनन्य है उसी प्रकार द्रव्य उन-उन पर्यायरूप विशेषों के समय तन्मय होने से उनसे अनन्य है,—पृथक् नहीं है।) और जब उन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों आँखों को एक ही साथ खोलकर उनके द्वारा और इनके द्वारा (द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक चक्षुओं के) द्वारा देखा जाता है तब नारकत्‍व, तिर्यचत्‍व, मनुष्यत्‍व, देवत्‍व और सिद्धत्‍व पर्यायों में रहने वाला जीवसामान्य तथा जीवसामान्य में रहने वाला नारकत्‍व, तिर्यचत्‍व, मनुष्यत्‍व, देवत्‍व और सिद्धत्व पर्यायस्वरूप विशेष तुल्यकाल में ही (एक ही साथ) दिखाई देते हैं ।

    वहाँ, एक आँख से देखा जाना वह एकदेश अवलोकन है और दोनों आँखों से देखना वह सर्वावलोकन (सम्पूर्ण अवलोकन) है । इसलिये सर्वावलोकन में द्रव्य के अन्यत्व और अनन्यत्व विरोध को प्राप्त नहीं होते ॥११४॥

    जयसेनाचार्य :
    [हवदि] है । कर्तारूप कौन है? [सव्वं दव्वं] सभी विवक्षित - अविवक्षित जीवद्रव्य हैं । वे किस विशेषता वाले हैं? [अणण्णं] वे अनन्य - अभिन्न-एक अथवा तन्मय हैं । वे किसके साथ अभिन्न हैं? वे उन नारक, तिर्यंच, मनुष्य वा देव रूप विभावपर्यायसमूह और केवलज्ञानादि अनन्तचतुष्टय शक्ति (गुण) रूप सिद्धपर्याय के साथ अभिन्न हैं । वे इनके साथ किसके द्वारा-किस अपेक्षा से अभिन्न हैं? [दव्वट्ठिएण] शुद्धअन्वय द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा वे इनसे अभिन्न है । इस नय की अपेक्षा वे उनसे अभिन्न क्यों है? कुण्डल आदि पर्यायों में व्याप्त सुवर्ण के समान- भेद का अभाव होने से वे उनसे अभिन्न हैं । [तं पज्जयट्ठिएण पुणो] और वह द्रव्य पर्यायार्थिकनय से [अण्णं] दूसरा-भिन्न अनेक पर्यायों के साथ पृथक्-पृथक् है। पर्यायार्थिकनय से वह पृथक-पृथक् क्यों है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो (आचार्य उत्तर देते है) [तक्काले तम्मयत्तादो] घास की अग्नि, लकड़ी की अग्नि, पत्ते की अग्नि के समान अपनी पर्यायों के साथ उस काल में तन्मय होने से वह पृथक्-पृथक् है ।

    इससे क्या कहा गया है? अर्थात् इस सब कथन का तात्पर्य क्या है? (इस सब कथन का तात्पर्य यह है कि) द्रव्यार्थिकनय से जब वस्तु की परीक्षा की जाती है, तब पर्यायों के क्रमरूप से सभी पर्यायों का समूह द्रव्य ही ज्ञात होता है । और जब पर्यायार्थिकनय से विवक्षा की जाती है, तब पर्यायरूप से द्रव्य भी भिन्न-भिन्न ज्ञात होता है । और जब परस्पर सापेक्ष दोनों नयों से (प्रमाणदृष्टि से) एक साथ अच्छी तरह देखा जाता है, तब एकता और अनेकता एक साथ ज्ञात होती है ।

    जैसे यह जीवद्रव्य में विशेष कथन किया है, वैसा यथासंभव सभी द्रव्यों में जानना चाहिये - यह अर्थ है ॥१२४॥

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    + अब, समस्त विरोधों को दूर करने वाली सप्तभंगी प्रगट करते हैं -
    अत्थि त्ति य णत्थि त्ति य हवदि अवत्तव्वमिदि पुणो दव्वं । (115)
    पज्जाएण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा ॥125॥
    अस्तीति च नास्तीति च भवत्यवक्तव्यमिति पुनर्द्रव्यम् ।
    पर्यायेण तु केनचित् तदुभयमादिष्टमन्यद्वा ॥११५॥
    अपेक्षा से द्रव्य 'है', 'है नहीं', 'अनिर्वचनीय है'
    'है, है नहीं' इसतरह ही अवशेष तीनों भंग हैं ॥१२५॥
    अन्वयार्थ : द्रव्य किसी पर्याय से अस्ति, किसी पर्याय से नास्ति, किसी पर्याय से अवक्तव्य और किसी पर्याय से अस्ति-नास्ति अथवा किसी पर्याय से अन्य तीन भंग रूप कहा गया है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    द्रव्य
    1. स्वरूपापेक्षा से स्यात् अस्ति;
    2. पररूप की अपेक्षा से स्यात् नास्ति;
    3. स्वरूप-पररूप की युगपत् अपेक्षा से स्यात् अवक्तव्य;
    4. स्वरूप-पररूप के क्रम की अपेक्षा से स्यात् अस्ति-नास्ति;
    5. स्वरूप की और स्वरूप-पररूप की युगपत् अपेक्षा से स्यात् अस्ति-अवक्तव्य;
    6. पररूप की और स्वरूप-पररूप की युगपत् अपेक्षा से स्यात् नास्ति अवक्तव्य; और
    7. स्वरूप की, पररूप की तथा स्वरूप-पररूप की युगपत् अपेक्षा से स्यात् अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य है ।

    द्रव्य का कथन करने में,
    1. जो स्वरूप से 'सत्' है;
    2. जो पररूप से 'असत्' है;
    3. जिसका स्वरूप और पररूप से युगपत् कथन अशक्य है;
    4. जो स्वरूप से और पररूप से क्रमश: 'सत् और असत्' है;
    5. जो स्वरूप से, और स्वरूप-पररूप से युगपत् 'सत् और अवक्तव्य' है;
    6. जो पररूप से, और स्वरूप-पररूप से युगपत् 'असत् और अवक्तव्य' है; तथा
    7. जो स्वरूप से पररूप और स्वरूप-पररूप से युगपत् 'सत्, असत् और अवक्तव्य' है
    —ऐसे अनन्त धर्मों वाले द्रव्य के एक एक धर्म का आश्रय लेकर विवक्षि‍त-अविवक्षितता के विधि‍-निषेध के द्वारा प्रगट होने वाली सप्तभंगी सतत् सम्यकतया उच्चारित करने पर स्यात्काररूपी अमोघ मंत्र पद के द्वारा 'एव' कार में रहने वाले समस्त विरोध-विष के मोह को दूर करती है ॥११५॥

    स्यात् = कथंचित्; किसीप्रकार; किसी अपेक्षा से । (प्रत्येक द्रव्य स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से- स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावकी अपेक्षा से-' अस्ति ' है । शुद्ध जीव का स्व-चतुष्टय इस प्रकार है :- शुद्ध गुण-पर्यायों का आधारभूत शुद्धात्म-द्रव्य वह द्रव्य है; लोकाकाश-प्रमाण शुद्ध असंख्य-प्रदेश वह क्षेत्र है, शुद्ध पर्याय-रूप से परिणत वर्तमान समय वह काल है, और शुद्ध चैतन्य वह भाव है)
    अवक्तव्य = जो कहा न जा सके । (एक ही साथ स्वरूप तथा पररूप की अपेक्षा से द्रव्य कथनमें नहीं आ सकता, इसलिये अवक्तव्य है)

    जयसेनाचार्य :
    [अत्थि त्ति य] स्यात् अस्ति ही है । स्यात् का क्या अर्थ है? कथंचित् -यह स्यात् का अर्थ है । कथंचित् का क्या अर्थ है? विवक्षित प्रकार से -किसी अपेक्षासे -स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से अस्ति है- यह कथंचित् का अर्थ है । शुद्धजीव के विषय में उस स्वचतुष्टय को कहते हैं- शुद्धगुण और शुद्धपर्यायों का आधारभूत शुद्धात्मद्रव्य-द्रव्य कहा जाता है, लोकाकाश प्रमाण शुद्ध असंख्यातप्रदेश-क्षेत्र कहलाता है, वर्तमान शुद्धपर्यायरूप परिणत वर्तमान समय-काल है और शुद्धचैतन्य-भाव; इसप्रकार कहे गये लक्षणवाले द्रव्यादि चतुष्टय रूप 'अस्ति' है - यह पहला भंग है ।

    [णत्थि त्ति य] स्यात् नहीं ही है । स्यात् का क्या अर्थ है? कथंचित् - किसी अपेक्षा से -विवक्षित प्रकार से - परद्रव्यादि चतुष्टयरूप से नहीं ही है - यह स्यात् शब्द का अर्थ है- यह दूसरा भंग है ।

    [हवदि] है । कैसा है? [अवत्तव्वमिदि] स्यात् अवक्तव्य ही है । स्यात् का क्या अर्थ है? कथंचित्-किसी अपेक्षा से- विवक्षित प्रकार से -एक साथ स्वपरद्रव्यादि चतुष्टयरूप से स्यात् अवक्तव्य ही है -यह स्यात् का अर्थ है - यह तीसरा भंग है ।

    इसप्रकार - ये सात भंग हैं । [पुणो] ऐसा कौन है? [दव्वं] परमात्म द्रव्यरूप कर्ता ऐसा है । और भी वह कैसा है? [तदुभयं] और वह स्यात् अस्ति - नास्ति ही है । स्यात् का क्या अर्थ है? कथंचित्-किसी अपेक्षा से -विवक्षित प्रकार से -क्रम से स्व-पर-द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा स्यात् अस्ति-नास्ति ही है - यह स्यात् का अर्थ है- यह चौथा भंग है ।

    कैसा सत् इस-इस प्रकार का है? [आदिट्ठं] कहा हुआ विवक्षित प्रकार का सत् इस-इस प्रकार का है । विवक्षित सत् कैसे इस-इस प्रकार का है ? [पज्जायेण दु] पर्याय से प्रश्नोत्तररूप नयविभाग से विवक्षित सत् इस-इस प्रकार का है । कैसी पर्याय से अथवा कैसे? प्रश्नोत्तररूप नयविभाग से उस रूप है । [केण वि] किसी भी विवक्षित-पर्याय से अथवा नैगमादि नयरूप से उसरूप है । [अण्णं वा] और दूसरे तीन संयोगी-भंगरूप से उसरूप है ।

    उन संयोगी-भंगों को कहते हैं - स्यात् अस्ति - अवक्तव्य ही है । स्यात् का क्या अर्थ है? कथंचित् - विवक्षित प्रकार से -स्वद्रव्यादि चतुष्टय और एकसाथ स्वपरद्रव्यादि चतुष्टय से स्यात् अस्ति - अवक्तव्य ही है- यह स्यात् का अर्थ है- यह पाँचवाँ भंग है । स्यात् नास्ति-अवक्तव्य ही है । स्यात् का क्या अर्थ है? कथंचित् - विवक्षित प्रकार से-परद्रव्यादि चतुष्टय और युगपत् (एक साथ) स्व-पर-द्रव्यादिचतुष्टय के द्वारा स्यात् नास्ति- अवक्तव्य ही है - यह स्यात् का अर्थ है- यह छठवाँ भंग है । स्यात् अस्ति-नास्ति अवक्तव्य ही है । स्यात् का क्या अर्थ है? कथंचित् -विवक्षितप्रकार से- क्रम से स्व-पर द्रव्यादि चतुष्टय और एक साथ स्व-पर द्रव्यादिचतुष्टय से स्यात् अस्ति-नास्ति- अवक्तव्य ही है - यह स्यात् का अर्थ है- यह सातवाँ भंग है ।

    पहले 'पंचास्तिकाय संग्रह' नामक ग्रन्थ में 'स्यात् अस्ति' इत्यादि प्रमाण वाक्य द्वारा (गाथा १४ - टीका) प्रमाण सप्तभंगी का व्याख्यान किया था और यहाँ जो 'स्यात् अस्ति एव' - 'स्यात् है ही' इसप्रकार एवकार- 'ही' शब्द का ग्रहण किया है, वह नय सप्तभंगी को बताने के लिये किया है - यह भाव है । जैसे यह नय सप्तभंगी का विशेष कथन शुद्धात्म-द्रव्य में घटित कर दिखाया है, उसीप्रकार यथासंभव सभी पदार्थों में देखना चाहिये ॥१२५॥

    इसप्रकार --इसप्रकार दो स्वतन्त्र गाथाओं वाला छठवाँ स्थल है । तदुपरान्त द्रव्य के सदुत्पाद और असदुत्पाद के सामान्य और विशेष व्याख्यानरूप से चार गाथाओं वाला सातवाँ स्थल है और
  • उसके बाद सप्तभंगी के कथनरूप एक गाथा वाला आठवाँ स्थल है । इसप्रकार सामूहिकरूप से चौबीस गाथाओं में निबद्ध आठ स्थलों वाला 'ज्ञेय-तत्त्व-प्रज्ञापन' नामक द्वितीय-महाधिकार के प्रथम 'सामान्य-ज्ञेय-व्याख्यानाधिकार' में 'सामान्य-द्रव्य-प्ररूपण' नामक प्रथम अन्तराधिकार समाप्त हुआ ।

  • अब, इसके बाद वहाँ सामान्य ज्ञेयव्याख्यान नामक प्रथमाधिकार में ही प्रथम सामान्यद्रव्यनिर्णय अन्तराधिकार के बाद सामान्यभेदभावना नामक द्वितीय अन्तराधिकार में सामान्य भेदभावना की मुख्यता से ग्यारह गाथाओं तक व्याख्यान करते हैं। वहाँ क्रम से पाँच स्थल हैं। इसप्रकार सामान्यभेदभावना अन्तराधिकार में पाँच स्थलों द्वारा सामूहिक पातनिका पूर्ण हुई ।

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    + अब, जिसका निर्धारण करना है, इसलिये जिसे उदाहरणरूप बनाया गया है ऐसे जीव की मनुष्यादि पर्यायें क्रिया का फल हैं इसलिये उनका अन्यत्व (अर्थात् वे पर्यायें बदलती रहती हैं, इस प्रकार) प्रकाशित करते हैं -
    एसो त्ति णत्थि कोई ण णत्थि किरिया सहावणिव्वत्ता । (116)
    किरिया हि णत्थि अफला धम्मो जदि णिप्फलो परमो ॥126॥
    एष इति नास्ति कश्चिन्न नास्ति क्रिया स्वभावनिर्वृत्ता ।
    क्रिया हि नास्त्यफला धर्मो यदि निःफलः परमः ॥११६॥
    पर्याय शाश्वत नहीं परन्तु है विभावस्वभाव तो
    है अफल परमधरम परन्तु क्रिया अफल नहीं कही ॥१२६॥
    अन्वयार्थ : [एषः इति कश्चित् नास्ति] (मनुष्यादि पर्यायों में) 'यही' ऐसी कोई (शाश्वत पर्याय) नहीं हैं; [स्वभावनिर्वृत्ता क्रिया नास्ति न] (क्योंकि संसारी जीव के) स्वभाव-निष्पन्न क्रिया नहीं हो, सो बात नहीं है; [यदि] और यदि [परमः धर्मः निःफलः] परमधर्म अफल है तो [क्रिया हि अफला नास्ति] क्रिया अवश्य अफल नहीं है; (अर्थात् एक वीतराग भाव ही मनुष्यादि पर्यायरूप फल उत्पन्न नहीं करती; राग-द्वेषमय क्रिया तो अवश्य वह फल उत्पन्न करती है)

    अमृतचंद्राचार्य :
    यहाँ (इस विश्व में), अनादिकर्मपुद्गल की उपाधि के सद्‌भाव के आश्रय (कारण) से जिसके प्रतिक्षण विवर्त्तन होता रहता है ऐसे संसारी जीव को क्रिया वास्तव में स्वभाव निष्पन्न ही है; इसलिये उसके मनुष्यादिपर्यायों में से कोई भी पर्याय यही है ऐसी टंकोत्कीर्ण नहीं है; क्योंकि वे पर्यायें पूर्व-पूर्व पर्यायों के नाश में प्रवर्तमान क्रिया फलरूप होने से उत्तर-उत्तर पर्यायों के द्वारा नष्ट होती हैं । और क्रिया का फल तो, मोह के साथ मिलन का नाश न हुआ होने से मानना चाहिये; क्‍योंकि—प्रथम तो, क्रिया चेतन की पूर्वोत्तर दशा से विशिष्‍ट चैतन्‍य परिणाम स्‍वरूप है; और वह (क्रिया) जैसे—दूसरे अणु के साथ संबंध जिसका नष्ट हो गया है ऐसे अणु की परिणति द्विअणुक कार्य की निष्पादक नहीं है उसी प्रकार, मोह के साथ मिलन का नाश होने पर वही क्रिया—द्रव्य की परमस्वभावभूत होने से परमधर्म नाम से कही जाने वाली—मनुष्यादिकार्य की निष्पादक न होने से अफल ही है ॥११६॥

    जयसेनाचार्य :
    [एसो त्ति णत्थि कोई] टाँकी से उकेरे हुये के समान ज्ञायक एक स्वभावी परमात्मद्रव्य के सदृश संसार में मनुष्यादि पर्यायों में से 'हमेशा ही यह एकरूप ही नित्य है' - ऐसा कोई भी नहीं है । तो मनुष्यादि पर्यायों को रचनेवाली संसार सम्बन्धी क्रिया- वह भी नहीं होगी? [ण णत्थि किरिया] मिथ्यात्व, रागादि परिणतिरूप संसार-क्रिया नही है- ऐसा नहीं है; अपितु चार पर्यायरूप क्रिया है ही । और वह क्रिया कैसी है? [सभावणिव्वत्ता] शुद्धात्म-स्वभाव से विपरीत होने पर भी मनुष्य नारकी आदि विभाव पर्याय स्वभाव से रची हुई है- उसरूप है । तो क्या वह क्रिया निष्फल होगी? [किरिया हि णत्थि अफला] वह मिथ्यात्व रागादि परिणति रूप क्रिया, यद्यपि अनन्तसुख आदि गुणस्वरूप मोक्षरूपी कार्य के प्रति निष्फल है; तथापि अनेक प्रकार के दुखों को देनेवाली, अपने कार्यरूप मनुष्य आदि पर्यायों को रचने वाली होने से सफल-फल सहित ही है, पर्यायों की उत्पत्ति ही उसका फल है । यह कैसे जाना जाता है? यदि ऐसा कहो तो कहते हैं- [धम्मो जदि णिप्फलो परमो] राग रहित परमात्मा की प्राप्तिरूप से परिणत अथवा आगम भाषा से परम यथाख्यात चारित्ररूप परिणत जो वह उत्कृष्टधर्म है - वह केवलज्ञान आदि अनन्तचतुष्टय की प्रगटतारूप कार्य समयसार को उत्पन्न करने वाला होने से फल सहित होने पर भी मनुष्य, नारकी आदि पर्यायों के कारणभूत ज्ञानावरणादि कर्मों के बन्ध को उत्पन्न नहीं करता है, इसलिये निष्फल-फल रहित है । इससे जाना जाता है कि मनुष्य नारकी आदि संसाररूपकार्य मिथ्यात्व रागादि क्रियाओं के फल हैं ।

    अथवा इस गाथा का दूसरा अर्थ करते हैं- जैसे यह जीव शुद्धनय से रागादिविभावरूप परिणमित नहीं होता है, वैसे ही अशुद्धनय से भी परिणमित नहीं होता है- ऐसा जो सांख्यमत के द्वारा कहा गया है, उसका निराकरण किया है । इससे उनका निराकरण कैसे किया है? इसका उत्तर देते हैं- अशुद्धनय से मिथ्यात्व रागादि विभावरूप परिणत जीवों के मनुष्य, नारकी आदि पर्यायों रूप परिणति दिखाई देने के कारण वे इसरूप परिणमित होते है- यह स्पष्ट हुआ - इससे उनका निराकरण हो गया ॥१२६॥

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    + अब, यह व्यक्त करते हैं कि मनुष्यादि पर्यायें जीव को क्रिया के फल हैं -
    कम्मं णामसमक्खं सभावमध अप्पणो सहावेण । (117)
    अभिभूय णरं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि ॥127॥
    कर्म नामसमाख्यं स्वभावमथात्मनः स्वभावेन ।
    अभिभूय नरं तिर्यञ्चं नैरयिकं वा सुरं करोति ॥११७॥
    नाम नामक कर्म जिय का पराभव कर जीव को ।
    नर नारकी तिर्यंच सुर पर्याय में दाखिल करे ॥१२७॥
    अन्वयार्थ : [अथ] वहाँ [नामसमाख्यं कर्म] 'नाम' संज्ञावाला कर्म [स्वभावेन] अपने स्वभाव से [आत्मनः स्वभावं अभिभूय] जीव के स्वभाव का पराभव करके, [नरं तिर्यञ्चं नैरयिकं वा सुरं] मनुष्य, तिर्यंच, नारक अथवा देव (-इन पर्यायों को) [करोति] करता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    क्रिया वास्तव में आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से कर्म है, (अर्थात् आत्मा क्रिया को प्राप्त करता है—पहुँचता है—इसलिये वास्तव में क्रिया ही आत्मा का कर्म है ।) उसके निमित्त से परिणमन को प्राप्त होता हुआ (द्रव्य-कर्मरूप से परिणमन करता हुआ) पुद्‌गल भी कर्म है । उस (पुद्‌गलकर्म) की कार्यभूत मनुष्यादि-पर्यायें मूलकारणभूत ऐसी जीव की क्रिया से प्रवर्तमान होने से क्रियाफल ही हैं; क्योंकि क्रिया के अभाव में पुद्‌गलों को कर्मपने का अभाव होने से उस (पुद्‌गलकर्म) की कार्यभूत मनुष्यादि-पर्यायों का अभाव होता है ।

    वहाँ, वे मनुष्यादि-पर्यायें कर्म के कार्य कैसे हैं? (सो कहते हैं कि) वे कर्म-स्वभाव के द्वारा जीव के स्वभाव का पराभव करके की जाती हैं, इसलिये; दीपक की भाँति । यथा :- ज्योति (लौ) के स्वभाव के द्वारा तेल के स्वभाव का पराभव करके किया जानेवाला दीपक ज्योति का कार्य है, उसीप्रकार कर्म-स्वभाव के द्वारा जीव के स्वभाव का पराभव करके की जाने वाली मनुष्यादि पर्यायें कर्म के कार्य हैं ॥११७॥

    जयसेनाचार्य :
    [कम्मं] कर्म रहित परमात्मा से विलक्षण कर्मरूप कर्ता । कर्म किस विशेषता वाला है? [णामसमक्खं] नाम-रहित, गोत्र-रहित मुक्तात्मा से विपरीत 'नाम' ऐसा सम्यक् नाम है जिसका वह 'नाम' नामक कर्म -- नामकर्म है, ऐसा अर्थ है । [सभावं] शुद्ध-बुद्ध एक परमात्म-स्वभाव को, [अह] अब [अप्पणो सहावेण] अपने ज्ञानावरणादि अपने स्वभावरूप साधन द्वारा [अभिभूय] उस पूर्वोक्त आत्म-स्वभाव का तिरस्कार कर । बाद में क्या करता है? [णरं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि] मनुष्य, तिर्यंच, नारक और देवरूप करता है ।

    यहाँ अर्थ यह है -- जैसे अग्निरूपी कर्ता, कर्मरूपी तैल के स्वभाव का तिरस्कार कर बत्ती के माध्यम से दीपशिखा - दीपक की लौ - ज्योतिरूप से परिणमन करता है, उसीप्रकार कर्माग्निरूपी कर्ता, तैल के स्थान पर शुद्धात्म-स्वभाव का तिरस्कार कर, बत्ती के स्थान पर शरीर के माध्यम से दीपशिखा के समान मनुष्य, नारक आदि पर्यायरूप परिणमन करता है । इससे ज्ञात होता है कि मनुष्यादि पर्यायें निश्चयनय से कर्म-जनित हैं ॥१२७॥

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    + अब यह निर्णय करते हैं कि मनुष्यादिपर्यायों में जीव के स्वभाव का पराभव किस कारण से होता है? -
    णरणारयतिरियसुरा जीवा खलु णामकम्मणिव्वत्ता । (118)
    ण हि ते लद्धसहावा परिणममाणा सकम्माणि ॥128॥
    नरनारकतिर्यक्सुरा जीवाः खलु नामकर्मनिर्वृत्ताः ।
    न हि ते लब्धस्वभावाः परिणममानाः स्वकर्माणि ॥११८॥
    नाम नामक कर्म से पशु नरक सुर नर गति में ।
    स्वकर्म परिणत जीव को निजभाव उपलब्धि नहीं ॥१२८॥
    अन्वयार्थ : [नरनारकतिर्यक्सुराः जीवाः] मनुष्य, नारक, तिर्यंच और देवरूपजीव [खलु] वास्तव में [नामकर्म निर्वृत्ताः] नामकर्म से निष्पन्न हैं । [हि] वास्तव में [स्वकर्माणि] वे अपने कर्मरूप से [परिणममानाः] परिणमित होते हैं इसलिये [ते न लब्धस्वभावाः] उन्हें स्वभावकी उपलब्धि नहीं है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब यह निर्णय करते हैं कि मनुष्यादि पर्यायों में जीव के स्वभाव का पराभव किस कारण से होता है? --

    प्रथम तो, यह मनुष्यादिपर्यायें नामकर्म से निष्‍पन्न हैं, किन्तु इतने से भी वहाँ जीव के स्वभाव का पराभव नहीं है; जैसे कनकबद्ध (सुवर्ण में जड़े हुये) माणिक वाले कंकणों में माणिक के स्वभाव का पराभव नहीं होता । जो वहाँ जीव स्वभाव को उपलब्ध नहीं करता—अनुभव नहीं करता सो स्वकर्मरूप परिणमित होने से है, पानी के पूर (बाढ़) की भाँति । जैसे पानी का पूर प्रदेश से और स्वाद से निम्ब-चन्दनादिवनराजिरूप (नीम, चन्दन इत्यादि वृक्षों की लम्बी पंक्तिरूप) परिणमित होता हुआ (अपने) द्रवत्व और स्वादुत्वरूप स्वभाव को उपलब्ध नहीं करता, उसी प्रकार आत्मा भी प्रदेश से और भाव से स्वकर्मरूप परिणमित होने से (अपने) अमूर्तत्व और निरुपराग विशुद्धिमत्वरूप स्वभाव को उपलब्ध नहीं करता ॥११८॥

    जयसेनाचार्य :
    [णरणारयतिरियसुरा जीवा] मनुष्य, नारक, तिर्यंच, देव नामवाले जीव हैं । [खलु] वास्तव में । मनुष्यादि जीव कैसे हैं? [णामकम्मणिव्वत्ता] वे मनुष्य, नारक आदि अपने-अपने नामकर्म से रचित हैं । [ण हि ते लद्धसहावा] किन्तु जैसे माणिक्य से जड़े हुये सुवर्णकंकणो में वास्तव में माणिक्य की मुख्यता नहीं है, उसीप्रकार वे जीव ज्ञानानन्द एक शुद्धात्मस्वभाव को प्राप्त नहीं करते हुये प्राप्तस्वभाव वाले नहीं हैं; उसकारण स्वभाव का तिरस्कार कहा जाता है; जीव का अभाव स्वभाव का तिरस्कार नहीं है । वे जीव कैसे होते हुये प्राप्तस्वभाववाले (शुद्धोपयोगरूप अतीन्द्रियानन्दमय परिणमित) नहीं हैं? [परिणममाणा सकम्माणि] अपने उदय में आये हुये कर्मो के प्रति सुख-दुःख रूप से परिणमन करते हुये वे जीव प्राप्तस्वभाव वाले नहीं हैं ।

    यहाँ अर्थ यह है - जैसे वृक्षसिंचन के विषय में प्रवाहित जल, चन्दन आदि वनों की पंक्तिरूप से परिणत होता हुआ अपने कोमल, शीतल, निर्मल आदि स्वभाव को प्राप्त नहीं होता है; उसीप्रकार यह जीव भी वृक्षों के समान कर्मों के उदय से परिणत होता हुआ उत्कृष्ट आह्लाद एक लक्षण सुखरूपी अमृत का आस्वाद, नैर्मल्य (सर्वविकार रहितता-निर्मलता) आदि अपने गुण-समूह को प्राप्त नहीं करता है ॥१२८॥

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    + अब, जीव की द्रव्यरूप से अवस्थितता होने पर भी पर्यायों से अनवस्थितता (अनित्यता-अस्थिरता) प्रकाशते हैं -
    जायदि णेव ण णस्सदि खणभंगसमुब्भवे जणे कोई । (119)
    जो हि भवो सो विलओ संभवविलय त्ति ते णाणा ॥129॥
    जायते नैव न नश्यति क्षणभङ्गसमुद्भवे जने कश्चित् ।
    यो हि भवः स विलयः संभवविलयाविति तौ नाना ॥११९॥
    उत्पाद-व्यय ना प्रतिक्षण उत्पादव्ययमय लोक में ।
    अन-अन्य हैं उत्पाद-व्यय अर अभेद से हैं एक भी ॥१२९॥
    अन्वयार्थ : [क्षणभङ्गसमुद्भवे जने] प्रतिक्षण उत्पाद और विनाशवाले जीवलोक में [कश्चित्] कोई [न एव जायते] उत्पन्न नहीं होता और [न नश्यति] न नष्ट होता है; [हि] क्योंकि [यः भवः सः विलयः] जो उत्पाद है वही विनाश है; [संभव-विलयौ इति तौ नाना] और उत्पाद तथा विनाश, इसप्रकार वे अनेक (भिन्न) भी हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    प्रथम तो यहाँ न कोई जन्म लेता है और न मरता है (अर्थात् इस लोक में कोई न तो उत्पन्न होता है और न नाश को प्राप्त होता है) । और (ऐसा होने पर भी) मनुष्य-देव-तिर्यंच-नारकात्मक जीवलोक प्रतिक्षण परिणामी होने से क्षण-क्षण में होने वाले विनाश और उत्पाद के साथ (भी) जुड़ा हुआ है । और यह विरोध को प्राप्त नहीं होता; क्योंकि उद्भव और विलय का एकत्‍व है तब पूर्वपक्ष है, और जब अनेकत्‍व है तब उत्तरपक्ष है। (अर्थात्—जब उत्‍पाद और विनाश के एकत्‍व की अपेक्षा ली जाये तब यह पक्ष फलित होता है कि—‘न तो कोई उत्‍पन्‍न होता है और न नष्ट होता है’; और जब उत्पाद तथा विनाश के अनेकपने की अपेक्षा ली जाये तब प्रतिक्षण होने वाले विनाश और उत्पाद का पक्ष फलित होता है ।) वह इस प्रकार है :—

    जैसे :—‘जो घड़ा है वही कूँडा है’ ऐसा कहा जाने पर, घड़े और कूँडे के स्वरूप का एकपना असम्भव होने से, उन दोनों की आधारभूत मिट्टी प्रगट होती है, उसी प्रकार ‘जो उत्पाद है वही विनाश है’ ऐसा कहा जाने पर उत्पाद और विनाश के स्वरूप का एकत्‍व असम्भव होने से उन दोनों का आधारभूत ध्रौव्य प्रगट होता है; इसलिये देवादिपर्याय के उत्‍पन्‍न होने और मनुष्यादिपर्याय के नष्ट होने पर, ‘जो उत्पाद है वही विलय है’ ऐसा मानने से (इस अपेक्षा से) उन दोनों का आधारभूत ध्रौव्यवान् जीवद्रव्य प्रगट होता है (लक्ष में आता है) इसलिये सर्वदा द्रव्यपने से जीव टंकोत्कीर्ण रहता है ।

    और फिर, जैसे—‘अन्य घड़ा है और अन्य कूँडा है’ ऐसा कहा जाने पर उन दोनों की आधारभूत मिट्टी का अन्यत्‍व (भिन्न-भिन्नपना) असंभवित होने से घड़े का और कूँडे का (दोनों का भिन्न-भिन्न) स्वरूप प्रगट होता है, उसी प्रकार ‘अन्य उत्पाद है और अन्य व्यय है’ ऐसा कहा जाने पर, उन दोनों के आधारभूत ध्रौव्य का अन्यपना असंभवित होने से उत्पाद और व्यय का स्वरूप प्रगट होता है; इसलिये देवादिपर्याय के उत्‍पन्‍न होने पर और मनुष्यादिपर्याय के नष्ट होने पर, ‘अन्य उत्पाद है और अन्य व्यय है’ ऐसा मानने से (इस अपेक्षा से) उत्पाद और व्यय वाली देवादिपर्याय और मनुष्यादिपर्याय प्रगट होती है (लक्ष में आती है); इसलिये जीव प्रतिक्षण पर्यायों से अनवस्थित है ॥११९॥

    जयसेनाचार्य :
    [जायदि णेव ण णस्सदि] द्रव्यार्थिकनय से न उत्पन्न होता है न नष्ट होता है । कहाँ उत्पन्न और नष्ट नही होता है ? [खणभंगसमुब्भवे जणे कोई] पर्यायार्थिकनय से प्रतिसमय उत्पाद और व्यय जिसमें संभव हैं - हो रहे हैं, वह क्षणभंग समुद्भव है, उस प्रतिसमय नश्वर उत्पाद- व्यय वाले इस लोक मे कोई भी उसकारण से ही न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है - इसप्रकार हेतु कहते है । [जो हि भवो सो विलओ] जिसकारण द्रव्यार्थिकनय से उत्पाद का ही नाश होता है ।

    वह इसप्रकार- मुक्तात्मा के जो ही परिपूर्ण, निर्मल केवलज्ञानादिरूप मोक्षपर्याय से उत्पाद है, वही निश्चयरत्नत्रयस्वरूप निश्चयमोक्षमार्गपर्याय से विनाश है और वे दोनों मोक्षपर्याय और मोक्षमार्गपर्याय कार्य-कारण रूप से पृथक-पृथक् है, तथापि मिट्टी के पिण्ड और घड़े के आधारभूत मिट्टी द्रव्य के समान और मनुष्यपर्याय वा देवपर्याय के आधारभूत संसारी जीव के समान, उन दोनों का आधारभूत जो परमात्मद्रव्य है, वह वही है । प्रतिसमय के उत्पाद और विनाश में हेतु कहते हैं - [संभवविलय त्ति ते णाणा] जिसकारण उत्पाद और विनाश दोनों भिन्न हैं इसलिये पर्यायार्थिकनय से उत्पाद और विनाश हैं ।

    वह इसप्रकार - जो ही पूर्वोक्त मोक्षपर्याय का उत्पाद और मोक्षमार्गपर्याय का विनाश है - वे दोनों भिन्न ही हैं परन्तु उन दोनों का आधारभूत परमात्मद्रव्य भिन्न नहीं है । इससे ज्ञात होता है कि द्रव्यार्थिकनय से नित्य होने पर भी पर्यायरूप से विनाशशील है ॥१२९॥

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    + अब, जीव की अनवस्थितता का हेतु प्रगट करते हैं -
    तम्हा दु णत्थि कोई सहावसमवट्ठिदो त्ति संसारे । (120)
    संसारो पुण किरिया संसरमाणस्स दव्वस्स ॥130॥
    तस्मात्तु नास्ति कश्चित् स्वभावसमवस्थित इति संसारे ।
    संसारः पुनः क्रिया संसरतो द्रव्यस्य ॥१२०॥
    स्वभाव से ही अवस्थित संसार में कोई नहीं ।
    संसरण करते जीव की यह क्रिया ही संसार है ॥१३०॥
    अन्वयार्थ : इसलिये संसार में 'स्वभाव में अवस्थित' ऐसा कोई भी नहीं है और संसार तो संसरण करते हुये (घूमते हुये) द्रव्य की क्रिया है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    वास्तव में जीव द्रव्यपने से अवस्थित होने पर भी पर्यायों से अनवस्थित है; इससे यह प्रतीत होता है कि संसार में कोई भी स्वभाव से अवस्थित नहीं है (अर्थात् किसी का स्वभाव केवल अविचल-एकरूप रहनेवाला नहीं है); और यहाँ जो अनवस्थितता है उसमें संसार ही हेतु है; क्योंकि वह (संसार) मनुष्यादिपर्यायात्मक है, कारण कि वह स्वरूप से ही वैसा है, (अर्थात् संसार का स्वरूप ही ऐसा है) उसमें परिणमन करते हुये द्रव्य का पूर्वोत्तरदशा का त्यागग्रहणात्मक ऐसा जो क्रिया नाम का परिणाम है वह संसार का स्वरूप है ॥१२०॥

    जयसेनाचार्य :
    [तम्हा दु णत्थि कोई सहावसमवट्ठिदो त्ति] इसलिये कोई स्वभाव में समवस्थित नहीं है । जिसकारण पूर्वोक्तप्रकार से मनुष्यादि पर्यायों की नश्वरता का व्याख्यान किया है, उससे ही यह जाना जाता है कि परमानन्द एक लक्षण परमचैतन्य चमत्कारपरिणत शुद्धात्मस्वभाव के समान अवस्थित-नित्य- स्थायी कोई भी नहीं है । कोई भी स्थायी कहाँ नहीं है? [संसारे] संसार से रहित शुद्धात्मा से विपरीत संसार में कोई भी स्थायी नहीं है । संसार का स्वरूप कहते हैं? [संसारो पुण किरिया] और संसार क्रिया है । क्रिया रहित विकल्प रहित शुद्धात्मा की परिणति से विपरीत मनुष्यादि विभाव पर्याय परिणतिरूप क्रिया संसार का स्वरूप है । और वह क्रिया किसके होती है? [संसरमाणस्स जीवस्स] विशुद्ध - ज्ञान-दर्शन स्वभावी मुक्तात्मा से विपरीत घूमते हुये संसारीजीव के वह क्रिया होती है ।

    इससे सिद्ध हुआ कि मनुष्यादिपर्यायस्वरूप संसार ही नश्वरता-विनाशीपना में कारण है ॥१३०॥

    🏠
    + अब परिणामात्मक संसार में किस कारण से पुद्‌गल का संबंध होता है—कि जिससे वह (संसार) मनुष्यादि पर्यायात्मक होता है? — इसका यहाँ समाधान करते हैं -
    आदा कम्ममलिमसो परिणामं लहदि कम्मसंजुत्तं । (121)
    तत्तो सिलिसदि कम्मं तम्हा कम्मं तु परिणामो ॥131॥
    आत्मा कर्ममलीमसः परिणामं लभते कर्मसंयुक्तम् ।
    ततः श्लिष्यति कर्म तस्मात् कर्म तु परिणामः ॥१२१॥
    कर्ममल से मलिन जिय पा कर्मयुत परिणाम को ।
    कर्मबंधन में पड़े परिणाम ही बस कर्म है ॥१३१॥
    अन्वयार्थ : कर्म से मलिन आत्मा कर्म संयुक्त परिणाम को प्राप्त करता है, उससे कर्म का बन्ध होता है; इसलिये ये परिणाम ही कर्म हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    संसार नामक जो यह आत्मा का तथाविध (उस प्रकार का) परिणाम है वही द्रव्यकर्म के चिपकने का हेतु है । अब, उस प्रकार के परिणाम का हेतु कौन है? इसके उत्तर में कहते हैं कि - द्रव्यकर्म उसका हेतु है, क्योंकि द्रव्यकर्म की संयुक्तता से ही वह देखा जाता है ।

    शंका – ऐसा होने से इतरेतराश्रयदोष आयेगा !

    समाधान – नहीं आयेगा; क्योंकि अनादिसिद्ध द्रव्यकर्म के साथ संबद्ध ऐसे आत्मा का जो पूर्व का द्रव्यकर्म है उसका वहाँ हेतुरूप से ग्रहण (स्वीकार) किया गया है ।

    इस प्रकार नवीन द्रव्यकर्म जिसका कार्यभूत है और पुराना द्रव्यकर्म जिसका कारणभूत है, ऐसा आत्मा का तथाविध परिणाम होने से, वह उपचार से द्रव्यकर्म ही है, और आत्मा भी अपने परिणाम का कर्त्ता होने से द्रव्यकर्म का कर्त्ता भी उपचार से है ॥१२१॥

    जयसेनाचार्य :
    [आदा] निर्दोषी परमात्मा निश्चय से शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी होने पर भी व्यवहार से अनादि कर्म बंध के वश [कम्ममलिमसो] कर्म से मलिन है । कर्म से मलिन होने पर वह क्या करता है? [परिणामं लहदि] परिणाम को प्राप्त करता है । कैसे परिणाम को प्राप्त करता है? [कम्मसंजुत्तं] कर्म रहित परमात्मा से विपरीत कर्म सहित मिथ्यात्व रागादि विभाव परिणाम को प्राप्त करता है । [तत्तो सिलिसदि कम्मं] उस परिणाम से बँधते हैं । उस परिणाम से क्या बैंधते हैं? उससे कर्म बँधते हैं । और यदि निर्मल भेदज्ञान ज्योति रूप परिणाम से परिणमन करता है, तब कर्म छूट जाते हैं । क्योंकि रागादि परिणाम से कर्म बँधते हैं इसलिये रागादि विकल्प रूप भावकर्म के स्थानीय सराग परिणाम ही कर्म के कारण होने से उपचार से कर्म कहलाते हैं ।

    इससे निश्चित हुआ कि रागादि परिणाम कर्म-बंध के कारण हैं ॥१३१॥

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    + अब, परमार्थ से आत्मा के द्रव्यकर्म का अकर्तृत्व प्रकाशित करते हैं -
    परिणामो सयमादा सा पुण किरिय त्ति होदि जीवमया । (122)
    किरिया कम्म त्ति मदा तम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता ॥132॥
    परिणामः स्वयमात्मा सा पुनः क्रियेति भवति जीवमयी ।
    क्रिया कर्मेति मता तस्मात्कर्मणो न तु कर्ता ॥१२२॥
    परिणाम आत्मा और वह ही कही जीवमयी क्रिया ।
    वह क्रिया ही है कर्म जिय द्रवकर्म का कर्ता नहीं ॥१३२॥
    अन्वयार्थ : परिणाम स्वयं आत्मा है और वह क्रिया-परिणाम जीवमय है, क्रिया कर्म मानी गई है; इसलिये कर्म (द्रव्यकर्म) का कर्ता आत्मा नहीं है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    प्रथम तो आत्मा का परिणाम वास्तव में स्वयं आत्मा ही है, क्योंकि परिणामी परिणाम के स्वरूप का कर्त्ता होने से परिणाम से अनन्य है; और जो उसका (आत्मा का) तथाविध परिणाम है वह जीवमयी ही क्रिया है, क्योंकि सर्व द्रव्यों की परिणाम-लक्षण-क्रिया आत्ममयता (निजमयता) से स्वीकार की गई है; और फिर, जो (जीवमयी) क्रिया है वह आत्मा के द्वारा स्वतंत्रतया प्राप्य होने से कर्म है । इसलिये परमार्थत: आत्मा अपने परिणाम-स्वरूप भावकर्म का ही कर्त्ता है; किन्तु पुद्‌गल-परिणाम-स्वरूप द्रव्यकर्म का नहीं ।

    अब यहाँ ऐसा प्रश्न होता है कि ‘(जीव भावकर्म का ही कर्त्ता है तब फिर) द्रव्यकर्म का कर्त्ता कौन है?’

    (इसका उत्तर इस प्रकार है :—) प्रथम तो पुद्‌गल का परिणाम वास्तव में स्वयं पुद्‌गल ही है, क्योंकि परिणामी परिणाम के स्वरूप का कर्त्ता होने से परिणाम से अनन्य है; और जो उसका (पुद्‌गल का) तथाविधि परिणाम है वह पुद्‌गलमयी ही क्रिया है, क्योंकि सर्व द्रव्यों की परिणाम-स्वरूप क्रिया निजमय होती है, ऐसा स्वीकार किया गया है; और फिर, जो (पुद्‌गलमयी) क्रिया है वह पुद्‌गल के द्वारा स्वतंत्रतया प्राप्य होने से कर्म है । इसलिये परमार्थत: पुद्‌गल अपने परिणाम-स्वरूप उस द्रव्यकर्म का ही कर्त्ता है, किन्तु आत्मा के परिणाम-स्वरूप भावकर्म का नहीं ।

    इससे (ऐसा समझना चाहिये कि) आत्मा आत्म-स्वरूप परिणमित होता है, पुद्‌गल-स्वरूप परिणमित नहीं होता ॥१२२॥

    जयसेनाचार्य :
    [परिणामो सयमादा] परिणाम स्वयं आत्मा है, आत्मा का परिणाम आत्मा ही है । आत्मा का परिणाम आत्मा क्यों है? परिणाम और परिणामी (द्रव्य) के तन्मयता (उस रूपता) होने से आत्मा का परिणाम आत्मा है । [सा पुण किरिय त्ति होदि] और वह परिणाम क्रिया-परिणति है । वह क्रिया कैसी है? [जीवमया] जीव से रचित होने के कारण जीवमयी है । [किरिया कम्म त्ति मदा] स्वतंत्र स्वाधीन शुद्धाशुद्ध उपादान कारणभूत जीव द्वारा प्राप्य होने से वह क्रिया कर्म है-ऐसा स्वीकार किया गया है । कर्म शब्द से यहाँ जो चैतन्यरूप जीव से अभिन्न भावकर्म नामक निश्चय कर्म है, वही ग्रहण करना चाहिये । जीव उसका ही कर्ता है । [तम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता] इसलिये द्रव्य कर्म का कर्ता नहीं है ।

    यहाँ यह निश्चय हुआ - यद्यपि कथंचित् परिणामी होने से जीव का कर्तापन सिद्ध है, तथापि निश्चय से अपने परिणामों का ही कर्ता है, पुद्गल कर्मों का कर्ता व्यवहार से है । वहाँ जब शुद्ध उपादानकारण रूप शुद्धोपयोग से परिणत होता है, तब मोक्ष को सिद्ध करता है-प्राप्त करता है और जब अशुद्ध उपादानकारण रूप से परिणमित होता है, तब बंध को प्राप्त करता है । पुद्गल भी जीव के समान निश्चय से अपने परिणामों का ही कर्ता है व्यवहार से जीव परिणामों का कर्ता है ॥१३२॥


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    + अब, यह कहते हैं कि वह कौनसा स्वरूप है जिसरूप आत्मा परिणमित होता है? -
    परिणमदि चेदणाए आदा पुण चेदणा तिधाभिमदा । (123)
    सा पुण णाणे कम्मे फलम्मि वा कम्मणो भणिदा ॥133॥
    परिणमति चेतनया आत्मा पुनः चेतना त्रिधाभिमता ।
    सा पुनः ज्ञाने कर्मणि फ ले वा कर्मणो भणिता ॥१२३॥
    करम एवं करमफल अर ज्ञानमय यह चेतना ।
    ये तीन इनके रूप में ही परिणमे यह आत्मा ॥१३३॥
    अन्वयार्थ : आत्मा चेतना रूप से परिणमित होता है, तथा चेतना तीन प्रकार की स्वीकार की गई है । और वह ज्ञान-सम्बन्धी, कर्म-सम्बन्धी तथा कर्मफल-सम्बन्धी कही गई है ॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    जिससे चैतन्य वह आत्मा का स्वधर्म-व्यापकपना है, उससे चेतना ही आत्मा का स्वरूप है; उस रूप (चेतनारूप) वास्तव में आत्मा परिणमित होता है । आत्मा का जो कुछ भी परिणाम हो वह सब ही चेतना का उल्लंघन नहीं करता, ( अर्थात् आत्मा का कोई भी परिणाम चेतना को किंचित्‌मात्र भी नहीं छोड़ता—बिना चेतना के बिलकुल नहीं होता)—यह तात्पर्य है । और चेतना ज्ञानरूप, कर्मरूप और कर्मफलरूप से तीन प्रकार की है । उसमें ज्ञान-परिणति (ज्ञानरूप से परिणति) वह ज्ञान-चेतना, कर्म-परिणति वह कर्मचेतना और कर्म-फल-परिणति वह कर्मफल-चेतना है ॥१२३॥

    जयसेनाचार्य :
    [परिणमदि चेदणाए आदा] चेतनारूप साधन से परिणमित होता है । चेतनारूप से वह कौन परिणमित होता है? आत्मा उस रूप से परिणमित होता है । आत्मा का जो कोई भी शुद्धाशुद्ध परिणाम है, वह सभी चेतना को नही छोड़ता है- ऐसा अभिप्राय है । [पुण चेदणा तिधाभिमदा सा] और वह चेतना तीन प्रकार की स्वीकार की गई है । तीन प्रकार की वह किस-किस रूप में स्वीकार की गई है? [णाणे] ज्ञान के विषय में, [कम्मे] कर्म के विषय में, [फलम्मि वा] तथा फल में स्वीकार की गई है । किसके फल में स्वीकार की गई है? [कम्मणो] कर्म के फल में स्वीकार की गई है । [भणिदा] - ऐसा कहा गया है ।

    ज्ञानरूप परिणति ज्ञान चेतना है, उसे आगे कहेंगे, कर्मरूप परिणति कर्म चेतना और कर्म के फलरूप परिणति कर्म फल चेतना है- यह भाव है ॥१३३॥

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    + अब ज्ञान, कर्म और कर्मफल का स्वरूप वर्णन करते हैं -
    णाणं अट्ठवियप्पो कम्मं जीवेण जं समारद्धं । (124)
    तमणेगविधं भणिदं फलं ति सोक्खं व दुक्खं वा ॥134॥
    ज्ञानमर्थविकल्पः कर्म जीवेन यत्समारब्धम् ।
    तदनेकविधं भणितं फलमिति सौख्यं वा दुःखं वा ॥१२४॥
    ज्ञान अर्थविकल्प जो जिय करे वह ही कर्म है ।
    अनेकविध वह कर्म है अर करमफल सुख-दुक्ख हैं ॥१३४॥
    अन्वयार्थ : अर्थ विकल्प (स्व-पर पदार्थों का भिन्नतापूर्वक एक साथ अवभासन-जानना) ज्ञान है; जीव के द्वारा जो किया जा रहा है,वह कर्म है और वह अनेक प्रकार का है; तथा सुख-दुःख को कर्मफल कहा गया है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    प्रथम तो, अर्थविकल्प वह ज्ञान है । वहाँ, अर्थ क्या है ? स्व-पर के विभागपूर्वक अवस्थित विश्व वह अर्थ है । उसके आकारों का अवभासन वह विकल्प है । और दर्पण के निज विस्तार की भाँति (अर्थात् जैसे दर्पण के निज विस्तार में स्व और पर आकार एक ही साथ प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार) जिसमें एक ही साथ स्व-पराकार अवभासित होते हैं, ऐसा अर्थविकल्प वह ज्ञान है ।

    जो आत्मा के द्वारा किया जाता है वह कर्म है । प्रतिक्षण उस-उस भाव से होता हुआ आत्मा के द्वारा वास्तव में किया जानेवाला जो उसका भाव है वही, आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से कर्म है । और वह (कर्म) एक प्रकार का होने पर भी, द्रव्यकर्मरूप उपाधि की निकटता के सद्‌भाव और असद्‌भाव के कारण अनेक प्रकार का है ।

    उस कर्म से उत्पन्न किया जानेवाला सुख-दुःख वह कर्मफल है । वहाँ, द्रव्यकर्मरूप उपाधि की निकटता के असद्भाव के कारण जो कर्म होता है, उसका फल अनाकुलत्वलक्षण प्रकृतिभूत सुख है; और द्रव्यकर्मरूप उपाधि की निकटता के सद्‌भाव के कारण जो कर्म होता है, उसका फल विकृति- (विकार) भूत दुःख है, क्योंकि वहाँ सुख के लक्षण का अभाव है ।

    इस प्रकार ज्ञान, कर्म और कर्मफल का स्वरूप निश्‍चित हुआ ॥१२४॥

    जयसेनाचार्य :
    [णाणं अट्ठवियप्पं] ज्ञान मति आदि के भेद से आठ प्रकार का है । अथवा दूसरा पाठ [णाणं अट्ठवियप्पो] ज्ञान अर्थ विकल्प है । वह इसप्रकार- अर्थ अर्थात् परमात्मा आदि पदार्थ अनन्त ज्ञान-सुखादि रूप मैं हूँ, रागादि आस्रव भिन्न हैं- इसप्रकार निज और पर के स्वरूप की जानकारी रूप से,दर्पण के समान पदार्थों को जानने में समर्थ (ज्ञान) विकल्प है- यह विकल्प का लक्षण कहा गया है । वही ज्ञान ज्ञानचेतना है ।

    [कम्मं जीवेण जं समारद्धं] जीव द्वारा जो किया जा रहा है, वह कर्म है । बुद्धिपूर्वक मन-वचन-काय के व्यापार (की क्रिया)? रूप से जीव द्वारा जो अच्छी तरह करने के लिये प्रारम्भ किया जाता है, वह कर्म कहलाता है । वही कर्मचेतना है । [तमणेगविधं भणिदं] और वह कर्म शुभोपयोग, अशुभोपयोग और शुद्धोपयोग के भेद से अनेक प्रकार का- तीन प्रकार का कहा गया है ।

    अब, फल चेतना (कर्मफल चेतना) कहते हैं- [फलं ति सोक्खं व दुक्खं वा] फल सुख अथवा दुःख है । विषयानुराग रूप जो अशुभोपयोग लक्षण कर्म है, उसका फल आकुलता को उत्पन्न करनेवाला नारक आदि दुःख, और जो धर्मानुरागरूप शुभोपयोग लक्षण कर्म है, उसका फल चक्रवर्ती आदि पंचेन्द्रिय- भोगों के अनुभवरूप है और वह अशुद्ध निश्चय नय से सुख कहलाने पर भी आकुलता को उत्पन्न करनेवाला होने से शुद्ध निश्चय से दुःख ही है । और जो रागादि विकल्प रहित शुद्धोपयोग परिणतिरूप कर्म है, उसका फल अनाकुलता को उत्पन्न करनेवाला होने से उत्कृष्ट आनन्द एकरूप सुखामृत है ।

    इसप्रकार ज्ञान चेतना, कर्म चेतना और कर्मफल चेतना का स्वरूप जानना चाहिये ॥१३४॥

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    + अब ज्ञान, कर्म और कर्मफल को आत्मारूप से निश्‍चित करते हैं -
    अप्पा परिणामप्पा परिणामो णाणकम्मफलभावी । (125)
    तम्हा णाणं कम्मं फलं च आदा मुणेदव्वो ॥135॥
    आत्मा परिणामात्मा परिणामो ज्ञानकर्मफलभावी ।
    तस्मात् ज्ञानं कर्म फलं चात्मा ज्ञातव्यः ॥१२५॥
    आत्मा परिणाममय परिणाम तीन प्रकार हैं ।
    ज्ञान कर्मरु कर्मफल परिणाम ही हैं आत्मा ॥१३५॥
    अन्वयार्थ : आत्मा परिणामस्वभावी है, परिणाम ज्ञान-कर्म व कर्मफल रूप हैं; इसलिये ज्ञान, कर्म व कर्मफल आत्मा ही जानना चाहिये ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    प्रथम तो आत्मा वास्तव में परिणाम-स्वरूप ही है, क्योंकि परिणाम स्वयं आत्मा है ऐसा (११२वीं गाथा में भगवत्‌कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने) स्वयं कहा है; तथा परिणाम चेतना-स्वरूप होने से ज्ञान, कर्म और कर्मफलरूप होने के स्वभाव वाला है, क्योंकि चेतना तन्मय (ज्ञानमय, कर्ममय अथवा कर्मफलमय) होती है । इसलिये ज्ञान, कर्म, कर्मफल आत्मा ही है ।

    इस प्रकार वास्तव में शुद्धद्रव्य के निरूपण में परद्रव्य के संपर्क का (सम्बन्ध; संग) असंभव होने से और पर्यायें द्रव्य के भीतर प्रलीन हो जाने से आत्मा शुद्धद्रव्य ही रहता है ॥१२५॥

    जयसेनाचार्य :
    [अप्पा परिणामप्पा] आत्मा है । आत्मा कैसा है? आत्मा परिणाम-स्वभावी है । आत्मा परिणाम-स्वभावी क्यों है? [परिणामो सयमादा] परिणाम स्वयं आत्मा है, ऐसा पहले (गाथा नं. १३२ में) स्वयं ही कहा गया होने से आत्मा परिणाम-स्वभावी है । परिणाम कहा जाता है -- [परिणामो णाणकम्मफलभावी] परिणाम है । परिणाम किस विशेषता वाला है? है - ज्ञानरूप से, कर्मरूप से और कर्मफलरूप से होने के स्वभाव वाला है -- ऐसा अर्थ है । [तम्हा] जिसकारण ऐसा परिणामस्वभावी है, उस कारण [आदा मुणेदव्वो] यह चेतना तीन प्रकार की होने पर भी, अभेदनय से आत्मा ही जानना चाहिये ।

    इससे क्या कहा गया है? तीन प्रकार के चेतना परिणाम से परिणमित होता हुआ आत्मा क्या करता है? परिणामी आत्मा निश्चय रत्नत्रय स्वरूप शुद्धोपयोग से मोक्ष को तथा शुभ-अशुभ परिणाम से बन्ध को साधता है- प्राप्त करता है ॥१३५॥

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    + अब, इस प्रकार ज्ञेयपने को प्राप्त आत्मा की शुद्धता के निश्चय से ज्ञानतत्त्व की सिद्धि होने पर शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि (अनुभव, प्राप्ति) होती है; इस प्रकार उसका अभिनन्दन करते हुए (अर्थात् आत्मा की शुद्धता के निर्णय की प्रशंसा करते हुए धन्यवाद देते हुए), द्रव्यसामान्य के वर्णन का उपसंहार करते हैं -
    कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्प त्ति णिच्छिदो समणो । (126)
    परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं ॥136॥
    कर्ता करणं कर्म कर्मफलं चात्मेति निश्चितः श्रमणः ।
    परिणमति नैवान्यद्यदि आत्मानं लभते शुद्धम् ॥१२६॥
    जो श्रमण निश्चय करे कर्ता करम कर्मरु कर्मफल ।
    ही जीव ना पररूप हो शुद्धात्म उपलब्धि करे ॥१३६॥
    अन्वयार्थ : 'कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा ही है' -- ऐसा निश्चय करनेवाला श्रमण (मुनि) यदि अन्य (दूसरे) रूप से परिणमित नहीं होता है, तो शुद्धात्मा को प्राप्त करता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    जो पुरुष इस प्रकार कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा ही है यह निश्‍चय करके वास्तव में पर-द्रव्यरूप परिणमित नहीं होता, वही पुरुष, जिसका परद्रव्य के साथ संपर्क रुक गया है और जिसकी पर्यायें द्रव्य के भीतर प्रलीन हो गई हैं ऐसे शुद्धात्मा को उपलब्ध करता है; परन्तु अन्य कोई (पुरुष) ऐसे शुद्ध आत्मा को उपलब्ध नहीं करता ।

    इसी को स्पष्टतया समझाते हैं :—

    जब अनादिसिद्ध पौद्गलिक कर्म की बन्धनरूप उपाधि की निकटता से उत्पन्न हुए उपराग के द्वारा जिसकी स्वपरिणति रंजित (विकृत, मलिन) थी ऐसा मैं-जपाकुसुम की निकटता से उत्‍पन्‍न हुये उपराग से (लालिमा से) जिसकी स्वपरिणति रंजित (रँगी हुई) हो ऐसे स्फटिक-मणि की भाँति पर के द्वारा आरोपित विकार वाला होने से संसारी था, तब भी (अज्ञानदशा में भी) वास्तव में मेरा कोई भी (संबंधी) नहीं था । तब भी और अब, अनादिसिद्ध पौद्‌गलिक कर्म की बंधनरूप उपाधि की निकटता के नाश से जिसकी सुविशुद्ध सहज (स्वाभाविक) स्वपरिणति प्रगट हुई है ऐसा मैं—जपाकुसुम की निकटता के नाश से जिसकी सुविशुद्ध सहज स्वपरिणति प्रगट हुई हो ऐसे स्फटिकमणि की भाँति—जिसका पर के द्वारा आरोपित विकार रुक गया है ऐसा होने से एकान्तत मुमुक्षु (केवल मोक्षार्थी) हूँ अभी भी (मुमुक्षुदशा में अर्थात् ज्ञानदशा में भी) वास्तव में मेरा कोई भी नहीं है । अभी भी इस प्रकार बंधमार्ग में तथा मोक्षमार्ग में आत्मा अकेला ही है -- इसप्रकार भाने वाला यह पुरुष परमाणु की भाँति एकत्वभावना में उन्‍मुख होने से, (अर्थात् एकत्व के भाने में तत्पर होने से), उसे परद्रव्यरूप परिणति किंचित् नहीं होती; और परमाणु की भाँति (जैसे एकत्‍वभाव से परिणमित परमाणु पर के साथ संग को प्राप्‍त नहीं होता उसी प्रकार—) एकत्व को भाने वाला पुरुष पर के साथ संपृक्त नहीं होता; इसलिये परद्रव्य के साथ असंबद्धता के कारण वह सुविशुद्ध होता है । और कर्ता, करण, कर्म तथा कर्मफल को आत्मारूप से भाता हुआ वह पुरुष पर्यायों से संकीर्ण (खंडित) नहीं होता; और इसलिये—पर्यायों के द्वारा संकीर्ण न होने से सुविशुद्ध होता है ॥१२६॥

    (मनहरण कवित्त)
    जिसने बनाई भिन्न भिन्न द्रव्यनि से ।
    और आतमा एक ओर को हटा दिया ॥
    जिसने विशेष किये लीन सामान्य में ।
    और मोहलक्ष्मी को लूट कर भगा दिया ।
    ऐसे शुद्धनय ने उत्कट विवेक से ही ।
    निज आतमा का स्वभाव समझा दिया ॥
    और सम्पूर्ण इस जग से विरक्त कर ।
    इस आतमा को आतमा में ही लगा दिया ॥७॥

    जिसने अन्य द्रव्य से भिन्नता के द्वारा आत्मा को एक ओर हटा लिया है (अर्थात् पर-द्रव्यों से अलग दिखाया है) तथा जिसने समस्त विशेषों के समूह को सामान्य में लीन किया है (अर्थात् समस्त पर्यायों को द्रव्य के भीतर डूबा हुआ दिखाया है), ऐसा जो यह, उद्धतमोह की लक्ष्मी को (ऋद्धि को, शोभा को) लूट लेनेवाला शुद्धनय है, उसने उत्कट विवेक के द्वारा तत्त्व को (आत्मस्वरूपको) विविक्त (शुद्ध / अकेला) किया है ।

    (मनहरण कवित्त)
    इस भाँति परपरिणति का उच्छेद कर ।
    करता-करम आदि भेदों को मिटा दिया ॥
    इस भाँति आत्मा का तत्त्व उपलब्ध कर ।
    कल्पनाजन्य भेदभाव को मिटा दिया ।
    ऐसा यह आतमा चिन्मात्र निरमल ।
    सुखमय शान्तिमय तेज अपना लिया ।
    आपनी ही महिमामय परकाशमान ।
    रहेगा अनंतकाल जैसा सुख पा लिया ॥८॥

    इसप्रकार पर-परिणति के उच्छेद से (पर-द्रव्यरूप परिणमन-के नाश से) तथा कर्ता, कर्म इत्यादि भेदों की भ्रांति के भी नाश से अन्त में जिसने शुद्ध आत्मतत्त्व को उपलब्ध किया है, ऐसा यह आत्मा चैतन्यमात्ररूप विशद (निर्मल) तेज में लीन होता हुआ, अपनी सहज (स्वाभाविक) महिमा के प्रकाशमानरूप से सर्वदा मुक्त ही रहेगा ।

    (दोहा)
    अरे द्रव्य सामान्य का अबतक किया बखान ।
    अब तो द्रव्यविशेष का करते हैं व्याख्यान ॥९॥

    इसप्रकार द्रव्य-सामान्य के ज्ञान से मन को गंभीर करके, अब द्रव्य-विशेष के परिज्ञान का प्रारंभ किया जाता है ।

    इसप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री प्रवचनसार शास्त्र की श्रीमद्अमृतचंद्राचार्यदेव विरचित तत्त्वदीपिका नाम की टीका में ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन में द्रव्य-सामान्य प्रज्ञापन समाप्त हुआ ।

    जयसेनाचार्य :
    [कत्ता] स्वतन्त्र-स्वाधीन-कर्ता-साधना करने वाला-निष्पन्न करने वाला हूँ-होता हूँ । ऐसा करनेवाला वह कौन है? [अप्प त्ति] ऐसा करने वाला आत्मा ही है । आत्मा-इसका क्या अर्थ है? मैं ऐसा करने वाला हूँ- यह आत्मा का अर्थ है । मैं कैसा हूँ? मैं एक हूँ । मैं किसका साधक हूँ? मैं निर्मल आत्मानुभूति का साधक हूँ । साधना करने वाला मैं किस विशेषता वाला हूँ? विकार रहित परम चैतन्य परिणाम से परिणत होता हुआ मैं निर्मल आत्मानुभूति की साधना करनेवाला हूँ । [करणं] अतिशयरूप से-नियमरूप से साधक-साधकतम करण-उपकरण अर्थात् साधन, नियामक साधनरूप करण कारक मैं एक ही हूँ - होता हूँ । मैं ही करण-कारकरूप से किसका साधक हूँ? करण-कारकरूप से मैं सहज शुद्ध परमात्मा की अनुभूति का साधक हूँ । किसके द्वारा उसका साधक हूँ? रागादि विकल्प रहित स्वसंवेदन ज्ञानरूप परिणति के बल से उस अनुभूति का साधक हूँ । [कम्मं] शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी परमात्मा द्वारा प्राप्त करने योग्य-व्याप्त होने योग्य मैं एक ही कर्म कारक हूँ । [फलं च] - और शुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी परमात्मा का सिद्ध करने योग्य, रचने योग्य, स्वशुद्धात्मा की रुचि-जानकारी-निश्चल अनुभूति अर्थात् सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप अभेद रत्नत्रय स्वरूप परम समाधि -पूर्णस्वरूप लीनता से उत्पन्न सुखरूपी अमृतरस के आस्वादमयी परिणतिरूप मैं एक ही फल हूँ । [णिच्छिदो] इसप्रकार कही गई पद्धति से निश्चितमति- दृढ़ निश्चयी होता हुआ [समणो] सुख-दुःख, जीवन-मरण, शत्रु-मित्र आदि में समभावरूप से परिणत श्रमण-महामुनि [परिणमदि णेव अण्णं जदि] यदि अन्य रागादि परिणामरूप परिणमित नहीं होते हैं, [अप्पाणं लहदि सुद्धं] तो भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म से रहित होने के कारण शुद्ध-शुद्धबुद्ध एक-स्वभावी आत्मा को प्राप्त करते हैं - ऐसा भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव का अभिप्राय है ॥१३६॥

    इसप्रकार एक गाथा द्वारा पाँचवा स्थल पूर्ण हुआ ।

    इसप्रकार 'सामान्य ज्ञेयाधिकार' के बीच पाँच स्थलों द्वारा (ग्यारह गाथाओं में निबद्ध) "सामान्य भेद-भावना" नामक दूसरा अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।

    इसप्रकार कहे गये प्रकार से तम्हा तस्स णमाइं इत्यादि ३५ गाथाओं द्वारा 'सामान्य-ज्ञेयाधिकार' नामक प्रथम अधिकार का व्याख्यान पूर्ण हुआ ।

    इससे आगे १९ गाथाओं द्वारा जीव-अजीव द्रव्यादि विवरणरूप से विशेष-ज्ञेय-व्याख्यान करते हैं । वहाँ ८ स्थल हैं --इसप्रकार विशेष-ज्ञेयाधिकार (नामक दूसरे अधिकार) में सामूहिक पातनिका हुई ।

    विशेष-ज्ञेयादिकार संज्ञक द्वितीयाधिकार का स्थल विभाजन
    स्थल क्रम प्रतिपादित विषय कहाँ से कहाँ पर्यंत गाथाएँ कुल गाथाएँ
    प्रथम जीवाजीवादि, लोकालोकत्व,सक्रिय-निष्क्रियत्व द्रव्य विवरण 137 से 139 3
    द्वितीय ज्ञानादि विशेष गुणों का स्वरूप कथन 140 से 141 2
    तृतीय विशेष गुणों द्वारा द्रव्यों का निर्णय 142 से 144 3
    चतुर्थ पंचास्तिकाय 145 से 146 2
    पंचम द्रव्यों का आधार लोकाकाश, आकाश का प्रदेश लक्षण 147 से 148 2
    षष्टम काल द्रव्य का अप्रदेशत्व तथा पर्याय काल, द्रव्यकाल 149 से 150 2
    सप्तम प्रदेशलक्षण, तिर्यक्प्रचय-ऊर्ध्वप्रचय लक्षण 151 से 152 2
    अष्टम कालाणु रूप द्रव्य-काल व्याख्यान 153 से 155 3
    कुल 8 स्थल कुल 19 गाथाएँ

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    + अब, द्रव्यविशेष का प्रज्ञापन करते हैं (अर्थात् द्रव्यविशेषों को द्रव्य को भेदों को बतलाते हैं) । उसमें (प्रथम) द्रव्य के जीवाजीवपनेरूप विशेष को निश्‍चित करते हैं, (अर्थात् द्रव्य के जीव और अजीव-ऐसे दो भेद बतलाते हैं) -
    दव्वं जीवमजीवं जीवो पुण चेदणोवओगमओ । (127)
    पोग्गलदव्वप्पमुहं अचेदणं हवदि य अजीवं ॥137॥
    द्रव्यं जीवोऽजीवो जीवः पुनश्चेतनोपयोगमयः ।
    पुद्गलद्रव्यप्रमुखोऽचेतनो भवति चाजीवः ॥१२७॥
    द्रव्य जीव अजीव हैं जिय चेतना उपयोगमय ।
    पुद्गलादी अचेतन हैं अत:एव अजीव हैं ॥१३७॥
    अन्वयार्थ : द्रव्य जीव और अजीव हैं । उनमें से चेतना उपयोगमय जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य प्रमुख अचेतन अजीव द्रव्य हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    यहाँ (इस विश्‍व में) द्रव्य, एकत्व के कारणभूत द्रव्यत्वसामान्य को छोड़े बिना ही, उसमें रहे हुए विशेषलक्षणों के सद्‌भाव के कारण एक-दूसरे से पृथक् किये जाने पर जीवत्वरूप और अजीवत्वरूप विशेष को प्राप्त होता है । उसमें, जीव का आत्मद्रव्य ही एक भेद है; और अजीव के पुद्‌गल द्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य तथा आकाशद्रव्य—यह पाँच भेद हैं । जीव का विशेषलक्षण चेतनोपयोगमयत्व (चेतनामयपना और उपयोगमयपना) है; और अजीव का, अचेतनत्‍व है । उसमें जहाँ स्वधर्मों में व्याप्त होने से (जीव के) स्वरूपत्‍व से प्रकाशित होती हुई, अविनाशिनी, भगवती, संवेदनरूप चेतना के द्वारा तथा चेतनापरिणामलक्षण, द्रव्यपरिणतिरूप उपयोग के द्वारा जिसमें निष्‍पन्नपना (रचनारूपपना) अवतरित प्रतिभासित होता है, वह जीव है और जिसमें उपयोग के साथ रहने वाली, यथोक्त लक्षण वाली चेतना का अभाव होने से बाहर तथा भीतर अचेतनपना अवतरित प्रतिभासित होता है, वह अजीव है ॥१२७॥

    जयसेनाचार्य :
    [दव्वं जीवमजीवं] द्रव्य जीव और अजीव लक्षण वाला है । [जीवो पुण चेदणो] उनमें से जीव चेतन है- स्वयंसिद्ध (अपने आप से ही सिद्ध-अस्तित्ववाले), बाह्य कारणों की अपेक्षा के बिना बाहर और अन्दर प्रकाशमान, स्थायी, निश्चय से परमशुद्ध चेतना के साथ और व्यवहार से अशुद्ध चेतना के साथ सम्बद्ध होने से चेतन है । जीव और किस विशेषता वाला है? [उवजोगमओ] उपयोगमय है- निश्चय नय से अखण्ड एक प्रतिभासमय (ज्ञानस्वरूप), परिपूर्ण शुद्ध केवलज्ञान-केवलदर्शन लक्षण से पदार्थों को जानने की क्रियारूप- ऐसे शुद्धोपयोग से और व्यवहार से मतिज्ञान आदि अशुद्धोपयोग से निर्वृत्त होने के कारण- निष्पन्न-रचित होने के कारण वह उपयोगमय है । [पोग्गलदव्वप्पमुहं अचेदणं हवदि य अजीवं] पुद्गल द्रव्य प्रमुख अचेतन अजीव द्रव्य हैं पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नामक पाँच द्रव्य पहले कहे हुये लक्षण वाले चेतना और उपयोग का अभाव होने से अजीव-अचेतन है-यह अर्थ है ॥१३७॥

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    + अब द्रव्य के लोकालोक स्वरूप-विशेष (भेद) निश्चित करते हैं -
    पोग्गलजीवणिबद्धो धम्माधम्मत्थिकायकालड्‌ढो । (128)
    वट्टदि आगासे जो लोगो सो सव्वकाले दु ॥138॥
    पुद्गलजीवनिबद्धो धर्माधर्मास्तिकायकालाढयः ।
    वर्तते आकाशे यो लोकः स सर्वकाले तु ॥१२८॥
    आकाश में जो भाग पुद्गल जीव धर्म अधर्म से ।
    अर काल से समृद्ध है वह लोक शेष अलोक है ॥१३८॥
    अन्वयार्थ : आकाश में जो भाग जीव और पुद्गल से संयुक्त तथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और काल से समृद्ध है, वह सर्वकाल (हमेशा) लोक है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    वास्तव में द्रव्य लोकत्व और अलोकत्व के भेद से विशेषवान है, क्योंकि अपने-अपने लक्षणों का सद्भाव है । लोक का स्वलक्षण षड्‌द्रव्य समवायात्मकत्‍व (छह द्रव्यों का समुदायस्वरूपता) है और अलोक का केवल आकाशात्मकत्‍व (मात्र आकाशस्वरूपत्‍व) है । वहाँ, सर्व द्रव्यों में व्याप्त होने वाले परम महान आकाश में, जहाँ जितने में गतिस्थिति धर्म वाले जीव तथा पुद्‌गल गति-स्थिति को प्राप्त होते हैं, (जहाँ जितने में) उन्हें, गति-स्थिति में निमित्तभूत धर्म तथा अधर्म व्याप्त होकर रहते हैं और (जहाँ जितने में) सर्व द्रव्यों को वर्तना में निमित्तभूत काल सदा वर्तता है, वह उतना आकाश तथा शेष समस्त द्रव्य उनका समुदाय जिसका स्‍परूपता से स्वलक्षण है वह लोक है; और जहाँ जितने आकाश में जीव तथा पुद्‌गल की गति-स्थिति नहीं होती, धर्म तथा अधर्म नहीं रहते और काल नहीं वर्तता, उतना केवल आकाश जिसका स्वरूपता से स्वलक्षण है, वह अलोक है ॥१२८॥

    जयसेनाचार्य :
    [पोग्गलजीवणिबद्धो] अणु व स्कन्ध के भेद से भेद वाले पुद्गल और उसीप्रकार अमूर्तत्व, अतीन्द्रियज्ञानमयत्व, विकाररहित उत्कृष्ट आनन्द एक सुखमयत्व आदि लक्षण वाले जीव-इसप्रकार जीव और पुद्गलों से निबद्ध-सम्बद्ध-भरा हुआ होने से पुद्गल-जीव- निबद्ध है । [धम्मा] धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और काल-धर्माधर्मास्तिकाय-काल उनसे आढ्य-भरा हुआ होने से धर्माधर्मास्तिकायकालाढ्य है । [जो] जो इन पाँच का ऐसा समुदाय-राशि-समूह [वट्टदि] वर्तता है- रहता है । वह समूह किसमें रहता है? [आगासे] अनन्तानन्त आकाश द्रव्य के मध्य में स्थित लोकाकाश में वह समूह रहता है । [सो लोगो] वह पहले कहा हुआ पाँचों का समूह और उसका आधारभूत लोकाकाश- इसप्रकार छह द्रव्यों का समूह लोक [भवति] है । छह द्रव्यों का समूह लोक कहाँ-कब है? [सव्व काले दु] सभी कालों में-हमेशा छह द्रव्यों का समूह लोक है ।

    उससे बाहर अनन्तानन्त आकाश-अलोक है- ऐसा अभिप्राय है ॥१३८॥

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    + अब, ‘क्रिया’ रूप और ‘भाव’ रूप ऐसे जो द्रव्य के भाव हैं उनकी अपेक्षा से द्रव्य का भेद निश्‍चित करते हैं -
    उप्पादट्ठिदिभंगा पोग्गलजीवप्पगस्स लोगस्स । (129)
    परिणामा जायंते संघादादो व भेदादो ॥139॥
    उत्पादस्थितिभङ्गाः पुद्गलजीवात्मकस्य लोकस्य ।
    परिणामाज्जायन्ते संघाताद्वा भेदात् ॥१२९॥
    जीव अर पुद्गलमयी इस लोक में परिणमन से ।
    भेद से संघात से उत्पाद-व्यय-ध्रुवभाव हों ॥१३९॥
    अन्वयार्थ : पुद्गल-जीवात्मक लोक में परिणमन से संघात और भेद से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य होते हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    कोई द्रव्य भाव तथा क्रिया वाले होने से और कोई द्रव्य केवल भाव वाले होने से,—इस अपेक्षा से द्रव्य के भेद होते है । उसमें पुद्‌गल तथा जीव (१) भाववाले तथा (२) क्रियावाले हैं, क्योंकि (१) परिणाम द्वारा तथा (२) संघात और भेद के द्वारा वे उत्‍पन्‍न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं । शेष द्रव्य तो भाववाले ही हैं, क्योंकि वे परिणाम के द्वारा ही उत्‍पन्‍न होते हैं, टिकते है और नष्ट होते हैं;—ऐसा निश्‍चय है ।

    उसमें, 'भाव' का लक्षण परिणाममात्र है; और 'क्रिया' का लक्षण परिस्पंद (कम्पन) है । वहाँ समस्त ही द्रव्य भाव वाले हैं, क्योंकि परिणामस्वभाव वाले होने से परिणाम के द्वारा अन्वय और व्यतिरेकों को प्राप्त होते हुए वे उत्‍पन्‍न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं । पुद्‌गल तो (भाववाले होने के अतिरिक्त) क्रियावाले भी होते हैं, क्योंकि परिस्पंद स्वभाव वाले होने से परिस्पंद के द्वारा पृथक् पुद्‌गल एकत्रित हो जाते हैं, इसलिये और एकत्रित मिले हुए पुद्‌गल पुन: पृथक् हो जाते हैं, इसलिये (इस अपेक्षा से) वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं । तथा जीव भी भाववाले होने के अतिरिक्त क्रियावाले भी होते हैं, क्योंकि परिस्पन्दन स्वभाव वाले होने से परिस्पंद के द्वारा नवीन कर्म-नोकर्मरूप पुद्‌गलों से भिन्न जीव उनके साथ एकत्रित होने से और कर्म-नोकर्मरूप पुद्‌गलों के साथ एकत्रित हुए जीव बाद में पृथक् होने से (इस अपेक्षा से) वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं ॥१२९॥

    जयसेनाचार्य :
    [जायन्ते] उत्पन्न होते हैं । कर्तारूप कौन उत्पन्न होते हैं? अथवा उत्पन्न होने की क्रिया को करनेवाला कौन है? [उप्पादट्ठिदिभंगा] उत्पत्ति, स्थिति और विनाश उत्पन्न होते हैं । ये तीनों किसके हैं? [लोगस्स] ये तीनों लोक के हैं । वे किस विशेषता वाले लोक के हैं? [पोग्गलजीवप्पगस्स] वे पुद्गल-जीवात्मक लोक के हैं, यहाँ पुद्गल और जीव उपलक्षण (संकेत) हैं इससे षडद्रव्यात्मक-छह द्रव्य स्वरूप लोक के वे है । उस लोक के वे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य कैसे होते हैं? [परिणामादो] परिणाम से, एक-एक समय-प्रति समयवर्ती अर्थपर्याय से, [संघादादो व भेदादो] जीव पुद्गलों के उत्पाद आदि मात्र अर्थ पर्याय से ही नहीं होते हैं वरन् संघात से, भेद से अर्थात् व्यंजनपर्याय से भी होते हैं ।

    वह इसप्रकार- धर्म, अधर्म, आकाश और काल के मुख्यरूप से एक-एक समयवर्ती अर्थ पर्यायें ही होती हैं; तथा जीव और पुद्गलों के अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय दोनों होती हैं । उनके दोनों कैसे होती हैं? यदि ऐसा प्रश्न हो तो उत्तर कहते है- प्रतिसमय परिणमनरूप अर्थपर्यायें कहलाती हैं । जब जीव इस शरीर को भेदकर-त्यागकर दूसरे भव में शरीर के साथ संघात करता है- शरीर के ग्रहण करता है, तब विभाव व्यंजनपर्याय होती है, उसकारण ही दूसरे भव में संक्रमण होने से-परिवर्तन होने से सक्रियत्व -क्रिया (स्थान से स्थानान्तररूप क्रिया) सहितपना कहते है । उसी प्रकार पुद्गलों की, विवक्षित स्कन्ध के विघटन से- खण्डित होने से सक्रियता होने के कारण दूसरे स्कन्ध के साथ संयोग होने पर विभाव व्यंजनपर्याय होती है । परन्तु मुक्तजीवों के निश्चय रत्नत्रय लक्षण परम कारण-समयसार नामक निश्चय मोक्षमार्ग के बल से अयोगी (चौदहवे गुणस्थान) के अंतिम समय में नख और केश (नाखून और बाल) को छोड़कर परमौदारिक शरीर के विलीयमानरूप से (कपूर के समान उड़ जानेरूप से) नष्ट हो जाने पर केवलज्ञानादि अनंत-चतुष्टय की (अव्याबाध-सुख की मुख्यता से) प्रगटता लक्षण परम कार्यसमयसाररूप स्वभाव व्यंजनपर्याय रूप से जो वह उत्पाद है, वह भेद से ही होता है, संघात से नही । वह स्वभाव-व्यंजन-पर्याय उनके संघात से क्यों नही होती है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो उत्तर कहते हैं - दूसरे शरीर के साथ सम्बन्ध का अभाव होने से उनके वह भेद से ही उत्पन्न होती है, संघात से नही -- ऐसा भाव है ॥१३९॥

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    + अब, यह बतलाते हैं कि गुण विशेष से (गुणों के भेद से) द्रव्य विशेष (द्रव्यों का भेद) होता है -
    लिंगेहिं जेहिं दव्वं जीवमजीवं च हवदि विण्णादं । (130)
    तेऽतब्भावविसिट्ठा मुत्तामुत्ता गुणा णेया ॥140॥
    लिङ्गैर्यैर्द्रव्यं जीवोऽजीवश्च भवति विज्ञातम् ।
    तेऽतद्भावविशिष्टा मूर्तामूर्ता गुणा ज्ञेयाः ॥१३०॥
    जिन चिह्नों से द्रव ज्ञात हों रे जीव और अजीव में ।
    वे मूर्त और अमूर्त गुण हैं अतद्भावी द्रव्य से ॥१४०॥
    अन्वयार्थ : जिन चिन्हों से जीव और अजीव द्रव्य ज्ञात होते है, वे अतद्भाव विशिष्ट (द्रव्य से अतद्भाव के द्वारा भिन्न) मूर्त और अमूर्त गुण जानना चाहिये ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    द्रव्य का आश्रय लेकर और पर के आश्रय के बिना प्रवर्तमान होने से जिनके द्वारा द्रव्य ‘लिंगित’ (प्राप्त) होता है—पहिचाना जा सकता है, ऐसे लिंग गुण हैं । वे (गुण), ‘जो द्रव्य हैं वे गुण नहीं हैं, जो गुण हैं वे द्रव्य नहीं हैं’ इस अपेक्षा से द्रव्य से अतद्‌भाव के द्वारा विशिष्ट (भिन्न) रहते हुए, लिंग और लिंगी के रूप में प्रसिद्धि (परिचय) के समय द्रव्य के लिंगत्व को प्राप्त होते हैं । अब, वे द्रव्य में ‘यह जीव है, यह अजीव है’ ऐसा भेद उत्‍पन्‍न करते हैं, क्योंकि स्वयं भी तद्‌भाव के द्वारा वि‍शिष्ट होने से विशेष को प्राप्त हैं । जिस-जिस द्रव्य का जो-जो स्वभाव हो उस-उसका उस-उसके द्वारा विशिष्टत्व होने से उनमें विशेष (भेद) हैं; और इसीलिये मूर्त तथा अमूर्त द्रव्यों का मूर्तत्व- अमूर्तत्वरूप तद्‌भाव के द्वारा विशिष्टत्व होने से उनमें इस प्रकार के भेद निश्‍चित करना चाहिये कि यह मूर्त गुण हैं और यह अमूर्तगुण हैं ॥१३०॥

    जयसेनाचार्य :
    [लिंगेहिं जेहिं] जिन सहज शुद्ध परम चैतन्य विलासरूप अथवा उसीप्रकार अचेतन जड़ रूप लिंगों-चिन्हों-विशेष गुणों रूप साधनों से जीवरूपी कर्ता द्वारा [हवदि विण्णादं] विशेषरूप से ज्ञात होता है । इस गाथा में कर्मपने को प्राप्त कौन है? कौन ज्ञात होता है? [दव्वं] द्रव्य ज्ञात होता है । कैसा द्रव्य ज्ञात होता है? [जीवमजीवं च] जीव और अजीव द्रव्य ज्ञात होता है । [ते मुत्तामुत्तागुणा णेया] उन पहले कहे हुये चेतन-अचेतन (द्रव्यों के) चिन्ह मूर्त-अमूर्त गुण जानना चाहिये । वे गुण कैसे हैं? [अतब्भावविसिट्ठा] वे अतद्भाव विशिष्ट हैं (द्रव्य से अतद्भावरूप भिन्न है)

    वह इसप्रकार- शुद्ध जीव द्रव्य में जो केवलज्ञानादि गुण हैं, उनका शुद्ध जीव के प्रदेशों के साथ जो एकत्व, अभिन्नत्व, तन्मयत्व, एकरूपत्व है, वह भाव कहलाता है । उन ही गुणों का उन प्रदेशों के साथ जब संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि भेद किया जाता है, तब फिर अतद्भाव कहलाता है; इस संज्ञादि भेदरूप अतद्भाव द्वारा (वे) अपने-अपने द्रव्य के साथ विशिष्ट-कथंचित् भिन्न हैं ।

    अथवा दूसरे व्याख्यान से अपने द्रव्य के साथ तद्भाव-तन्मयता के कारण अन्य द्रव्य से विशिष्ट-भिन्न है - ऐसा अभिप्राय है । इसप्रकार गुणभेद से द्रव्य का भेद जानना चाहिये ॥१४०॥


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    + अब, मूर्त और अमूर्त गुणों के लक्षण तथा संबंध (अर्थात् उनका किन द्रव्यों के साथ संबंध है यह) कहते हैं -
    मुत्ता इंदियगेज्झा पोग्गलदव्वप्पगा अणेगविधा । (131)
    दव्वाणममुत्तणं गुणा अमुत्ता मुणेदव्वा ॥141॥
    मूर्ता इन्द्रियग्राह्याः पुद्गलद्रव्यात्मका अनेकविधाः ।
    द्रव्याणाममूर्तानां गुणा अमूर्ता ज्ञातव्याः ॥१३१॥
    इन्द्रियों से ग्राह्य बहुविधि मूर्त्त गुण पुद्गलमयी
    अमूर्त्त हैं जो द्रव्य उनके गुण अमूर्त्तिक जानना ॥१४१॥
    अन्वयार्थ : पुद्गल द्रव्यात्मक मूर्त-गुण इन्द्रियों से ग्राह्य और अनेक प्रकार के हैं तथा अमूर्त द्रव्यों के गुण अमूर्त जानना चाहिये ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    मूर्त गुणों का लक्षण इन्द्रियग्राह्यत्व है; और अमूर्तगुणों का उससे विपरीत है; (अर्थात् अमूर्त गुण इन्द्रियों से ज्ञात नहीं होते ।) और मूर्त गुण पुद्‌गलद्रव्य के हैं, क्योंकि वही (पुद्‌गल ही) एक मूर्त है; और अमूर्त गुण शेष द्रव्यों के हैं, क्योंकि पुद्‌गल के अतिरिक्त शेष सभी द्रव्य अमूर्त हैं ॥१३१॥

    जयसेनाचार्य :
    [मुत्ता इंदियगेज्छा] मूर्त गुण इन्द्रियग्राह्य-इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करने योग्य होते हैं और अमूर्त गुण इन्द्रियों के विषय नहीं होते है- इसप्रकार मूर्त- अमूर्त गुणों का इन्द्रिय और अनिन्द्रिय विषयतारूप लक्षण कहा । अब मूर्तगुण किस सम्बन्धी-किसके होते हैं- इसप्रकार सम्बन्ध कहते हैं । [पोग्गलदव्वप्पगा अणेगविधा] मूर्त गुण पुद्गल द्रव्य स्वरूप अनेक प्रकार के होते हैं, पुद्गल द्रव्य सम्बन्धी-पुद्गल द्रव्य के है- ऐसा अर्थ है ।

    अमूर्त गुणों का सम्बन्ध बताते हैं- [दव्वाणममुत्ताणं] विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी जो परमात्मद्रव्य तत्प्रभृति अमूर्त द्रव्यों सम्बन्धी- अमूर्त द्रव्यों के हैं । अमूर्त द्रव्यों के कौन हैं? [गुणा अमुत्ता (मुणेदव्वा
    वे अमूर्त गुण-केवलज्ञानादि गुण अमूर्त द्रव्यों के हैं- ऐसा जानना चाहिये: यह अर्थ है । इसप्रकार मूर्त और अमूर्त गुणों के लक्षण और सम्बन्ध जानना चाहिये ॥१४१॥
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    वण्णरसगंधफासा विज्जंते पुग्गलस्स सुहुमादो । (132)
    पुढवीपरियंतस्स य सद्दो सो पोग्गलो चित्तो ॥142॥
    वर्णरसगंधस्पर्शा विद्यन्ते पुद्गलस्य सूक्ष्मात् ।
    पृथिवीपर्यन्तस्य च शब्दः स पुद्गलश्चित्रः ॥१३२॥
    सूक्ष्म से पृथ्वी तलक सब पुद्गलों में जो रहें
    स्पर्श रस गंध वर्ण गुण अर शब्द सब पर्याय हैं ॥१४२॥
    अन्वयार्थ : सूक्ष्म से लेकर पृथ्वी पर्यन्त सर्व पुद्गल के वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श विद्यमान हैं; तथा जो शब्द है,वह पुद्गल की विविध प्रकार की पर्याय है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    स्पर्श, रस, गंध और वर्ण इन्द्रियग्राह्य हैं, क्योंकि वे इन्द्रियों के विषय हैं । वे इन्द्रियग्राह्यता की व्यक्ति और शक्ति के वश से भले ही इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये जाते हों या न किये जाते हों तथापि वे एकद्रव्यात्मक सूक्ष्मपर्यायरूप परमाणु से लेकर अनेकद्रव्यात्मक स्थूलपर्यायरूप पृथ्वीस्कंध तक के समस्त पुद्‌गल के, अविशेषतया विशेष गुणों के रूप में होते हैं; और उनके मूर्त होने के कारण ही, (पुद्‌गल के अतिरिक्त) शेष द्रव्यों के न होने से वे पुद्‌गल को बतलाते हैं ।

    ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये कि शब्द भी इन्द्रियग्राह्य होने से गुण होगा; क्योंकि वह (शब्द) विचित्रता के द्वारा विश्वरूपपना (अनेकानेकप्रकारत्‍व) दिखलाता है, फिर भी उसे अनेकद्रव्यात्मक पुद्‌गलपर्याय के रूप में स्वीकार किया जाता है ।

    यदि शब्द को (पर्याय न मानकर) गुण माना जाये तो वह क्यों योग्य नहीं है उसका समाधान:—

    प्रथम तो, शब्द अमूर्त द्रव्य का गुण नहीं है क्योंकि गुण-गुणी में अभिन्न प्रदेशपना होने से वे (गुण-गुणी) 1एक वेदन से वेद्य होने से अमूर्त द्रव्य को भी श्रवणेन्द्रिय का विषयभूतपना आ जायेगा ।

    (दूसरे, शब्द में) पर्याय के लक्षण द्वारा गुण का लक्षण उत्थापित होने से शब्द मूर्त द्रव्य का गुण भी नहीं है । पर्याय का लक्षण कादाचित्कपना (अनित्यपना) है, और गुण का लक्षण नित्यपना है; इसलिये (शब्द में) अनित्यपने से नित्यपने के उत्थापित होने से (अर्थात् शब्द कभी-कभी ही होता है, और नित्य नहीं है, इसलिये) शब्द वह गुण नहीं है । जो वहाँ नित्यपना है वह उसे (शब्द को) उत्पन्न करने वाले पुद्‌गलों का और उनके स्पर्शादिक गुणों का ही है, शब्दपर्याय का नहीं,—इस प्रकार अति दृढ़तापूर्वक ग्रहण करना चाहिये ।

    और, 'यदि शब्‍द पुद्‌गल की पर्याय हो तो वह पृथ्वी स्‍कंध की भांति स्‍पर्शनादिक इन्द्रियों का विषय होना चाहिये, अर्थात् जैसे पृथ्‍वीस्‍कंधरूप पुद्‌गलपर्याय सर्व इन्द्रियों से ज्ञात होती है उसी प्रकार शब्दरूप पुद्‌गलपर्याय भी सभी इन्द्रियों से ज्ञात होनी चाहिये' (ऐसा तर्क किया जाये तो) ऐसा भी नहीं है; क्योंकि
    • पानी (पुद्‌गल की पर्याय है, फिर भी) घ्राणेन्द्रिय का विषय नहीं है;
    • अग्नि घ्राणेन्द्रिय तथा रसनेन्द्रिय का विषय नहीं है और
    • वायु घ्राण, रसना तथा चक्षुइन्द्रिय का विषय नहीं है ।
    और ऐसा भी नहीं है कि --
    • पानी गंध रहित है (इसलिये नाक से अग्राह्य है),
    • अग्नि गंध तथा रस रहित है (इसलिये नाक, जीभ से अग्राह्य है) और
    • वायु गंध, रस तथा वर्ण रहित है (इसलिये नाक, जीभ तथा आँखों से अग्राह्य है);
    क्योंकि सभी पुद्‌गल स्पर्शादि 2चतुष्कयुक्त स्वीकार किये गये हैं क्योंकि जिनके स्पर्शादि चतुष्क व्यक्त हैं ऐसे
    • चन्द्रकांत-मणि को,
    • अरणि को और
    • जौ को
    जो पुद्‌गल उत्पन्न करते हैं उन्हीं के द्वारा
    • जिसकी गंध अव्यक्त है ऐसे पानी की,
    • जिसकी गंध तथा रस अव्यक्त है ऐसी अग्नि की और
    • जिसकी गंध, रस तथा वर्ण अव्यक्त है ऐसी उदरवायु की
    उत्पत्ति होती देखी जाती है ।

    और कहीं (किसी पर्याय में) किसी गुण की कादाचित्क परिणाम की विचित्रता के कारण होने वाली व्यक्तता या अव्यक्तता नित्य द्रव्यस्वभाव का प्रतिघात नहीं करता । (अर्थात् अनित्यपरिणाम के कारण होने वाली गुण की प्रगटता और अप्रगटता नित्य द्रव्यस्वभाव के साथ कहीं विरोध को प्राप्त नहीं होती ।)

    इसलिये शब्द पुद्‌गल की पर्याय ही है ॥१३२॥


    1एक वेदन से वेद्य = एक ज्ञान से ज्ञात होने योग्य (नैयायिक शब्द को आकाश का गुण मानते हैं किन्तु यह मान्यता अप्रमाण है । गुण-गुणी के प्रदेश अभिन्न होते हैं, इसलिये जिस इन्द्रिय से गुण ज्ञात होता है उसी से गुणी भी ज्ञात होना चाहिए । शब्द कर्णेन्द्रिय से जाना जाता है, इसलिये आकाश भी कर्णेन्द्रिय से ज्ञात होना चाहिये । किन्तु वह तो किसी भी इन्द्रिय से ज्ञात होता नहीं है । इसलिये शब्द आकाशादि अमूर्तिक द्रव्यों का गुण नहीं है ।)
    2चतुष्क = चतुष्टय, चार का समूह । (समस्त पुद्गलों में - पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन सब ही में स्पर्शादि चारों गुण होते हैं । मात्र अन्तर इतना ही हैं कि पृथ्वी में चारों गुण व्यक्त हैं, पानी में गंध अव्यक्त है, अग्नि में गंध तथा रस अव्यक्त है, और वायु में गंध, रस, तथा वर्ण अव्यक्त हैं । इस बात की सिद्धि के लिये युक्ति इसप्रकार है :- चन्द्रकान्तमणिरूप पृथ्वी में से पानी झरता है; अरणि की -लकड़ी में से अग्नि प्रगट होती है और जौ खाने से पेट में वायु उत्पन्न होती है; इसलिये (१) चन्द्रकांतमणिमें, (२) अरणि -लकड़ी में और (३) जौ में रहनेवाले चारों गुण (१) पानी में, (२) अग्नि में और (३) वायु में होने चाहिये । मात्र अन्तर इतना ही है कि उन गुणों में से कुछ अप्रगटरूप से परिणमित हुये हैं । और फिर, पानी में से मोतीरूप पृथ्वीकाय अथवा अग्नि में से काजलरूप पृथ्वीकाय के उत्पन्न होने पर चारों गुण प्रगट होते हुये देखे जाते हैं ।)

    जयसेनाचार्य :
    [वण्णरसगंधफासा विज्जंते पोग्गलस्स] वर्ण, रस, गंध, स्पर्श विद्यमान हैं । ये किसके विद्यमान हैं? ये पुद्गल के विद्यमान हैं । ये कैसे पुद्गल के विद्यमान हैं? [सुहुमादो पुढवीपरियंतस्स य] ''पुद्गल द्रव्य को जिनेन्द्रदेव ने पृथ्वी, जल, छाया (नेत्र को छोड़कर) चार इन्द्रियों के विषय, कर्म और परमाणु- इसप्रकार छह भेद वाला कहा है ।'' इस गाथा में कहे हुये क्रम से परमाणु लक्षण सूक्ष्म स्वरूप से पृथ्वी स्कन्ध लक्षण स्थूल स्वरूप वाले पुद्गल के विद्यमान है |

    वह इसप्रकार- जैसे विशेषणभूत अनन्तज्ञानादि चतुष्टय यथासंभव सभी जीवों में साधारण हैं उसी-प्रकार विशेष लक्षणभूत वर्णादि चतुष्टय यथासंभव सभी पुद्गलों में साधारण हैं । और जैसे मुक्त जीव में अनन्तज्ञानादि चतुष्टय, अतीन्द्रिय-ज्ञान के विषय तथा अनुमानगम्य और आगमगम्य हैं उसीप्रकार शुद्ध परमाणु द्रव्य में वर्णादि चतुष्टय भी अतीन्द्रिय-ज्ञान के विषय तथा अनुमानगम्य और आगमगम्य हैं । जैसे संसारी जीव में रागादि स्नेह (स्निग्ध-चिकनाई) के निमित्त से, कर्मबन्ध के वश अनन्त चतुष्टय के अशुद्धता होती है, उसीप्रकार वर्णादि चतुष्टय के भी द्वयणुक आदि बंध की अवस्था में स्निग्ध-रूक्ष गुण के निमित्त से अशुद्धता होती है । तथा जैसे रागादि स्नेह रहित शुद्धात्मा के ध्यान से अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय के शुद्धता होती है, उसी प्रकार (बँधने योग्य) स्निग्ध गुण के अभाव में बन्धन नहीं होने पर, पुद्गल की परमाणु अवस्था में वर्णादि चतुष्टय के भी शुद्धता होती है । [सद्दो सो पोग्गलो] और जो शब्द है, वह पुद्गल है । जैसे जीव की मनुष्य नारक आदि विभाव पर्यायें हैं; उसीप्रकार यह शब्द पुद्गल की विभाव पर्याय है, गुण नहीं है । वह क्यों नहीं है? गुणों के अविनश्वरता-नित्यता-नष्ट नहीं होने से शब्द गुण नहीं है, यह नश्वर है-नष्ट होता है ।

    नैयायिक मत का अनुसरण करने वाला कोई कहता है- यह शब्द आकाश का गुण है । आचार्य उसका निराकरण करते हैं- आकाश का गुण होने पर वह अमूर्त (सिद्ध) होता है । और अमूर्त कर्णेन्द्रिय का विषय नहीं होता, परन्तु उसके कर्णेन्द्रिय की विषयता देखी जाती है ।

    प्रश्न – वह शेष इन्द्रियों का विषय किस कारण-क्यों नहीं होता है ?

    उत्तर – वस्तु के स्वभाव से ही रसादि विषयों के समान, किसी अन्य इन्द्रिय का विषय दूसरी अन्य इन्द्रिय का विषय नहीं होता है ।

    वह शब्द भी कैसा है? [चित्तो] विविधप्रकार का- भाषात्मक, अभाषात्मक रूप से, कृत्रिम तथा स्वाभाविक रूप से अनेक प्रकार का है । और वह "शब्द स्कन्ध से उत्पन्न है- '' इत्यादि गाथा में 'पंचास्तिकाय' में कहा गया है; इसप्रकार यहाँ इस अतिप्रसंग से बस हो ॥१४२॥


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    आगासस्सवगाहो धम्मद्दव्वस्स गमणहेदुत्तं । (133)
    धम्मेदरदव्वस्स दु गुणो पुणो ठाणकारणदा ॥143॥
    कालस्स वट्टणा से गुणोवओगो त्ति अप्पणो भणिदो । (134)
    णेया संखेवादो गुणा हि मुत्तिप्पहीणाणं ॥144॥
    आकाशस्यावगाहो धर्मद्रव्यस्य गमनहेतुत्वम् ।
    धर्मेतरद्रव्यस्य तु गुणः पुनः स्थानकारणता ॥१३३॥
    कालस्य वर्तना स्यात् गुण उपयोग इति आत्मनो भणितः ।
    ज्ञेयाः संक्षेपाद्गुणा हि मूर्तिप्रहीणानाम् ॥१३४॥
    आकाश का अवगाह धर्माधर्म के गमनागमन
    स्थानकारणता कहे ये सभी जिनवरदेव ने ॥१४३॥
    उपयोग आतमराम का अर वर्तना गुण काल का
    है अमूर्त द्रव्यों के गुणों का कथन यह संक्षेप में ॥१४४॥ युगलम् ॥
    अन्वयार्थ : आकाश का अवगाह, धर्म द्रव्य का गमनहेतुत्व, अधर्म द्रव्य का स्थिति हेतुत्व, काल का गुण वर्तना और आत्मा का गुण उपयोग कहा गया है; इसप्रकार संक्षेप से अमूर्तद्रव्यों के गुण जानना चाहिये ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    
    • युगपत् सर्वद्रव्यों के साधारण अवगाह का हेतुपना आकाश का विशेष गुण है ।
    • एक ही साथ सर्व गमन-परिणामी (गतिरूप परिणमित) जीव-पुद्‌गलों के गमन का हेतुपना धर्म का विशेष गुण है ।
    • एक ही साथ सर्व स्थान-परिणामी (स्थितिरूप परिणमित) जीव-पुद्‌गलों के स्थिर होने का हेतुत्व स्थिति का (स्थिर होने का निमित्तपना) अधर्म का विशेषगुण है ।
    • (काल के अतिरिक्त) शेष समस्त द्रव्यों की प्रति-पर्याय में समयवृत्ति का हेतुपना ( समय-समय की परिणति का निमित्तत्व) काल का विशेष गुण है ।
    • चैतन्य-परिणाम जीव का विशेष गुण है ।
    इस प्रकार अमूर्त-द्रव्यों के विशेष-गुणों का संक्षिप्त ज्ञान होने पर अमूर्त-द्रव्यों को जानने के लिंग (चिह्न, लक्षण, साधन) प्राप्त होते हैं; अर्थात् उन-उन विशेष गुणों के द्वारा उन-उन अमूर्त द्रव्यों का अस्तित्व ज्ञात (सिद्ध) होता है । (इसी को स्पष्टतापूर्वक समझाते हैं :—)

    वहाँ एक ही काल में समस्त द्रव्यों को साधारण अवगाह का संपादन (अवगाह हेतुपनेरूप लिंग) आकाश को बतलाता है; क्योंकि शेष द्रव्यों के सर्वगत (सर्वव्यापक) न होने से उनके वह संभव नहीं है ।

    इसी प्रकार एक ही काल में गतिपरिणत (गतिरूप से परिणमित हुए) समस्त जीव-पुद्‌गलों को लोक तक गमन का हेतुपना धर्म को बतलाता है; क्योंकि
    • काल और पुद्‌गल अप्रदेशी हैं इसलिये उनके वह संभव नहीं है;
    • जीव समुद्‌घात को छोड़कर अन्यत्र लोक के असंख्यातवें भाग मात्र है, इसलिये उसके वह संभव नहीं है,
    • लोक-अलोक की सीमा अचलित होने से आकाश को वह संभव नहीं है और
    • विरुद्ध कार्य का हेतु होने से अधर्म को वह संभव नहीं है ।

    (काल और पुद्‌गल एकप्रदेशी हैं, इसलिये वे लोक तक गमन में निमित्त नहीं हो सकते; जीव समुद्घात को छोड़कर अन्य काल में लोक के असंख्यातवें भाग में ही रहता है, इसलिये वह भी लोक तक गमन में निमित्त नहीं हो सकता; यदि आकाश गति में निमित्त हो तो जीव और पुद्‌गलों की गति अलोक में भी होने लगे, जिससे लोकाकाश की मर्यादा ही न रहेगी; इसलिये गतिहेतुत्व आकाश का भी गुण नहीं है; अधर्म द्रव्य तो गति से विरुद्ध स्थितिकार्य में निमित्तभूत है, इसलिये वह भी गति में निमित्त नहीं हो सकता । इस प्रकार गतिहेतुत्वगुण धर्मनामक द्रव्य का अस्तित्व बतलाता है ।)

    इसी प्रकार एक ही काल में स्थितिपरिणत समस्त जीव-पुद्‌गलों को लोक तक स्थिति का हेतुपना अधर्म को बतलाता है; क्योंकि
    • काल और पुद्‌गल अप्रदेशी होने से उनके वह संभव नहीं है;
    • जीव समुद्‌घात को छोड़कर अन्यत्र लोक के असंख्यातवें भाग मात्र है, इसलिये उसके वह संभव नहीं है;
    • लोक और अलोक की सीमा अचलित होने से आकाश के वह संभव नहीं है, और
    • विरुद्ध कार्य का हेतु होने से धर्म को वह संभव नहीं है ।

    इसी प्रकार (काल के अतिरिक्त) शेष समस्त द्रव्यों के प्रत्येक पर्याय में समयवृत्ति का हेतुपना काल को बतलाता है, क्योंकि उनके, समय-विशिष्ट वृत्ति कारणान्तर से सधती होने से (उनके समय से विशिष्ट ऐसी परिणति अन्य कारण से होती है, इसलिये) स्वत: उनके वह (समयवृत्ति हेतुपना) संभवित नहीं है ।

    इसी प्रकार चैतन्य-परिणाम जीव को बतलाता है, क्योंकि वह चेतन होने से शेष द्रव्यों के संभव नहीं है ।

    इस प्रकार गुण-विशेष से द्रव्य-विशेष जानना चाहिये ॥१३३-१३४॥

    जयसेनाचार्य :
    [आगासस्सवगाहो] आकाश का अवगाहहेतुता (जगह देने में निमित्त होना) [धम्म-दव्वस्स गमणहेदुत्तं] धर्म द्रव्य का गमनहेतुता (चलने में निमित्त होना) [धम्मेदरदव्वस्स दु गुणो पुणोठाणकारणदा] और धर्मेतर द्रव्य का- अधर्म द्रव्य का स्थानकारणता (ठहरने में निमित्त होना) गुण है- इसप्रकार पहली (१४३ वी) गाथा पूर्ण हुई ।

    [कालस्स वट्टणा से] काल का वर्तना गुण है । [गुणोवओगो त्ति अप्पणो भणिदो] ज्ञान-दर्शन दोनों उपयोग आत्मा के गुण कहे गये हैं । [णेया संखेवादो गुणा हि मुत्तिप्पहीणाणं] इसप्रकार संक्षेप से अमूर्त द्रव्यों के गुण जानना चाहिये ।

    वह इसप्रकार-
    • अन्य द्रव्यों के असम्भव-नहीं पाये जाने वाले सभी द्रव्यों को साधारण-समान रूप से, अवगाह-हेतुत्वरूप विशेषगुण से ही विद्यमान आकाश का निश्चय किया जाता है ।
    • अन्य द्रव्यों के असम्भव, गति रूप परिणत सम्पूर्ण जीव-पुद्गलों के एक समय में समानरूप से गमन में हेतुरूप विशेष गुण से ही विद्यमान धर्म द्रव्य का निश्चय किया जाता है । और उसी प्रकार
    • अन्य द्रव्यों के असम्भव स्थिति रूप परिणत सम्पूर्ण जीव-पुद्गलों की एक समय में समान रूप से स्थिति में हेतु रूप विशेष गुण से ही विद्यमान अधर्म द्रव्य का निश्चय किया जाता है ।
    • अन्य द्रव्यों के असम्भव, सभी द्रव्यों को एक साथ पर्याय रूप परिणमन में हेतु रूप विशेष गुण से ही विद्यमान काल द्रव्य का निश्चय किया जाता है ।
    • अन्य अचेतन पाँचों द्रव्यों के असम्भव, सभी जीवों में पाये जाने वाले परिपूर्ण निर्मल केवलज्ञान-केवलदर्शन (मात्र ज्ञान-दर्शन) दो विशेष गुणों से ही विद्यमान शुद्ध बुद्ध एक स्वभावी परमात्मद्रव्य का निश्चय किया जाता है ।
    यहाँ अर्थ यह है कि यद्यपि पाँच द्रव्य जीव का उपकार करते हैं, तथापि वे दुःख के कारण ही हैं- ऐसा जानकर अक्षय-अनन्त सुखादि के कारणभूत विशुद्ध ज्ञान-दर्शन उपयोग स्वभावी परमात्मद्रव्य का ही मन द्वारा ध्यान करना चाहिये, उसे ही वचनों से बोलना चाहिये और शरीर से उसके ही साधक अनुष्ठान करना चाहिये ॥१४३-१४४॥

    🏠
    जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा पुणो य आगासं । (135)
    सपदेसेहिं असंखा णत्थि पदेस त्ति कालस्स ॥145॥
    जीवाः पुद्गलकाया धर्माधर्मौ पुनश्चाकाशम् ।
    स्वप्रदेशैरसंख्याता न सन्ति प्रदेशा इति कालस्य ॥१३५॥
    हैं बहुप्रदेशी जीव पुद्गल गगन धर्माधर्म सब
    है अप्रदेशी काल जिनवरदेव के हैं ये वचन ॥१४५॥
    अन्वयार्थ : जीव, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म और आकाश अपने प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यात (अनेक प्रदेशी) है; परन्तु काल के प्रदेश (अनेक प्रदेश) नहीं हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    जीव, पुद्‌गल, धर्म, अधर्म और आकाश अनेक प्रदेश वाले होने से प्रदेशवान् हैं । कालाणु प्रदेशमात्र (एकप्रदेशी) होने से अप्रदेशी है ।

    (उपरोक्त बात को स्पष्ट करते हैं :—)
    • संकोच-विस्तार के होने पर भी जीव लोकाकाश तुल्य असंख्य प्रदेशों को नहीं छोड़ता, इसलिये वह प्रदेशवान् है;
    • पुद्‌गल यद्यपि द्रव्य अपेक्षा से प्रदेशमात्र (एकप्रदेशी) होने से अप्रदेशी है तथापि, दो प्रदेशों से लेकर संख्यात, असंख्यात, और अनन्तप्रदेशों वाली पर्यायों की अपेक्षा से अनिश्‍चित प्रदेश वाला होने से प्रदेशवान् है;
    • सकल लोकव्यापी असंख्य प्रदेशों के प्रस्ताररूप होने से धर्म प्रदेशवान है;
    • सकललोकव्यापी असंख्यप्रदेशों के प्रस्ताररूप होने से अधर्म प्रदेशवान् है; और
    • सर्वव्यापी अनन्तप्रदेशों के प्रस्ताररूप होने से आकाश प्रदेशवान् है ।
    कालाणु तो द्रव्य से प्रदेशमात्र होने से और पर्याय से परस्पर संपर्क न होने से अप्रदेशी ही है ।

    इसलिये कालद्रव्य अप्रदेशी है और शेष द्रव्य प्रदेशवान् हैं ॥१३५॥

    जयसेनाचार्य :
    [जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा पुणो य आगासं] जीव, पुद्गलकाय, धर्म अधर्म, और आकाश । ये पाँच अस्तिकाय किस विशेषता वाले हैं? [सपदेसेहिं असंखा] अपने प्रदेशों से असंख्यात हैं । यहाँ 'असंख्यात प्रदेश' शब्द से बहुप्रदेशता ग्रहण करना चाहिये । और वह यथासंभव लगाना चाहिये । उनमें से
    • जीव के संसार अवस्था मे दीपक के प्रकाश के समान प्रदेशों का संकोच-विस्तार होने पर भी हीनाधिकता का अभाव होने के कारण व्यवहार से शरीर के बराबर आकारवाला होने पर भी, निश्चय से लोकाकाश के बराबर असंख्यात प्रदेशता है ।
    • धर्म और अधर्म द्रव्य के अवस्थित-स्थायीरूप से लोकाकाश के बराबर असंख्यात प्रदेशता है ।
    • स्कन्ध के आकार परिणत पुद्गलों के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशता है । परन्तु पुद्गल के कथन में प्रदेश शब्द के द्वारा परमाणु ग्रहण करना चाहिये, क्षेत्ररूप प्रदेश नहीं । क्षेत्ररूप प्रदेश क्यों ग्रहण नहीं करना चाहिये? पुद्गलों का अनन्त प्रदेश क्षेत्र में निवास का अभाव होने से प्रदेश शब्द से क्षेत्ररूप प्रदेश ग्रहण न कर परमाणु ग्रहण करना चाहिये । परमाणुके प्रगटरूप से एक प्रदेशता और शक्तिरूप से, उपचार से बहुप्रदेशता है ।
    • आकाश के अनन्त प्रदेशता है ।
    • [णत्थि पदेस त्ति कालस्स] काल के प्रदेश (बहुप्रदेश) नहीं हैं ।
    काल के बहुप्रदेश क्यों नहीं हैं? द्रव्यरूप से एकप्रदेशी होने तथा परस्पर बन्ध का अभाव होने के कारण पर्यायरूप से भी उसके बहुप्रदेश नहीं हैं ॥१४५॥

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    एदाणि पंचदव्वाणि उज्झियकालं तु अत्थिकाय त्ति ।
    भण्णंते काया पुण बहुप्पदेसाण पचयत्तं ॥146॥
    कालद्रव को छोड़कर अवशेष अस्तिकाय हैं
    बहुप्रदेशीपना ही है काय जिनवर ने कहा ॥१४६॥
    अन्वयार्थ : काल द्रव्य को छोड़कर,ये पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं और बहुप्रदेशों के समूह को काय कहते हैं ।

    जयसेनाचार्य :
    [एदाणि पंचदव्वाणि] ये पहले (१४५वीं) गाथा में कहे हुये जीवादि छह द्रव्य ही [उज्झिय-कालं तु] काल द्रव्य को छोड़कर [अत्थिकाय त्ति भण्णति] अस्तिकाय-पाँच-अस्तिकाय कहे जाते हैं । [काया पुण] - काय-और काय शब्द से क्या कहा गया है? [बहुप्पदेसाण पचयत्तं] बहुप्रदेशों का प्रचयपना-समूह काय शब्द से कहा गया है ।

    यहाँ पाँच अस्तिकायों में जीवास्तिकाय उपादेय है, वहाँ भी पंच परमेष्ठीरूप पर्याय दशा उपादेय है, उसमें भी अरहन्त और सिद्ध दशा उपादेय है, उसमें भी सिद्ध दशा उपादेय है । वास्तव में तो रागादि सम्पूर्ण विकल्प समूहों के निषेध के समय सिद्ध जीव के समान अपना शुद्धात्म स्वरूप ही उपादेय है - ऐसा भाव है ॥१४६॥

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    लोगालोगेसु णभो धम्माधम्मेहिं आददो लोगो । (136)
    सेसे पडुच्च कालो जीवा पुण पोग्गला सेसा ॥147॥
    लोकालोकयोर्नभो धर्माधर्माभ्यामाततो लोकः ।
    शेषौ प्रतीत्य कालो जीवाः पुनः पुद्गलाः शेषौ ॥१३६॥
    गगन लोकालोक में अर लोक धर्माधर्म से
    है व्याप्त अर अवशेष दो से काल पुद्गलजीव हैं ॥१४७॥
    अन्वयार्थ : आकाश लोकालोक में है, लोक धर्म और अधर्म से व्याप्त है, शेष दो द्रव्यों का आश्रय लेकर काल है, और वे शेष दो द्रव्य जीव और पुद्गल हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    प्रथम तो, आकाश लोक तथा अलोक में है, क्योंकि छह द्रव्यों के समवाय और असमवाय में बिना विभाग के रहता है । धर्म और अधर्म द्रव्य सर्वत्र लोक में है, क्योंकि उनके निमित्त से जिनकी गति और स्थिति होती है ऐसे जीव और पुद्‌गलों की गति या स्थिति लोक से बाहर नहीं होती, और न लोक के एक देश में होती है, (अर्थात् लोक में सर्वत्र होती है) । काल भी लोक में है, क्योंकि जीव और पुद्‌गलों के परिणामों के द्वारा (काल की) समयादि पर्यायें व्यक्त होती हैं; और वह काल लोक के एक प्रदेश में ही है क्योंकि वह अप्रदेशी है । जीव और पुद्‌गल तो युक्ति से ही लोक में हैं, क्योंकि लोक छह द्रव्यों का समवायस्वरूप है ।

    और इसके अतिरिक्त (इतना विशेष जानना चाहिये कि), प्रदेशों का संकोचविस्तार होना वह जीव का धर्म है, और बंध के हेतुभूत स्निग्ध-रुक्ष (चिकने-रूखे) गुण पुद्‌गल का धर्म होने से जीव और पुद्‌गल का समस्त लोक में या उसके एकदेश में रहने का नियम नहीं है । और काल, जीव तथा पुद्‌गल एक द्रव्य की अपेक्षा से लोक के एकदेश में रहते हैं और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा से अंजनचूर्ण (काजल) से भरी हुई डिबिया के न्यायानुसार समस्त लोक में ही हैं ॥१३६॥

    जयसेनाचार्य :
    [लोगालोगेसु णभो] आधारभूत लोक और अलोक में आकाश है । [धम्माधम्मेहिं आददो लोगो] लोक धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय से व्याप्त-भरा हुआ है । लोक क्या करने वाले उनसे भरा हुआ है । [सेसे पडुच्च] शेष जीव और पुद्गल का आश्रय लेकर रहने वाले धर्म और अधर्म से यह लोक भरा हुआ है । यहाँ अर्थ यह है कि जीव और पुद्गल लोक में रहते हैं उन दोनों की गति-स्थिति में कारणभूत धर्म और अधर्म भी लोक में रहते हैं । [कालो] काल भी शेष-जीव-पुद्गलों का आश्रय लेकर लोक में रहता है । वह जीव-पुद्गलों का आश्रय क्यों लेता है? नवीन और पुरानी पर्याय रूप से परिणमित जीव-पुद्गलों के द्वारा व्यक्त होने वाली समय, घटिका (घड़ी) आदि पर्याय रूप होने के कारण वह शेष जीव-पुद्गलों का आश्रय लेकर लोक में रहता है । शेष शब्द से क्या कहा गया है? [जीवा पुण पुग्गला सेसा] जीव और पुद्गल शेष (शब्द से) कहे गये हैं ।

    यहाँ भाव यह है- जैसे सिद्ध भगवान यद्यपि निश्चय से लोकाकाश प्रमाण अपने शुद्ध असंख्यात प्रदेशों में, केवलज्ञानादि गुणों के आधारभूत अपने-अपने भावों में रहते हैं, तथापि व्यवहार से मोक्षशिला (सिद्धशिला) में रहते है- ऐसा कहते हैं । उसीप्रकार सभी पदार्थ यद्यपि निश्चय से अपने-अपने स्वरूप में रहते हैं तथापि व्यवहार से लोकाकाश में रहते हैं । यहाँ यद्यपि अनन्तजीव द्रव्यों से अनन्तगुणे पुद्गल हैं फिर भी एक दीपक के प्रकाश में अनेक दीपकों के प्रकाश के समान विशिष्ट अवगाहनशक्ति के योग से असंख्यातप्रदेशी लोक में भी (इन सभी का) अवस्थान विरोध को प्राप्त नहीं होता है ॥१४७॥

    🏠
    जध ते णभप्पदेसा तधप्पदेसा हवंति सेसाणं । (137)
    अपदेसो परमाणू तेण पदेसुब्भवो भणिदो ॥148॥
    यथा ते नभःप्रदेशास्तथा प्रदेशा भवन्ति शेषाणाम् ।
    अप्रदेशः परमाणुस्तेन प्रदेशोद्भवो भणितः ॥१३७॥
    जिसतरह परमाणु से है नाप गगन प्रदेश का
    बस उसतरह ही शेष का परमाणु रहित प्रदेश से ॥१४८॥
    अन्वयार्थ : जैसे वे आकाश के प्रदेश हैं,वैसे ही शेष द्रव्यों के प्रदेश हैं । परमाणु अप्रदेशी है, उसके द्वारा प्रदेशों (को मापने सम्बन्धी) की उत्पत्ति कही गई है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    (भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य) स्वयं ही (१४० वें) सूत्र द्वारा कहेंगे कि आकाश के प्रदेश का लक्षण एकाणुव्याप्यत्व है (अर्थात् एक परमाणु से व्याप्त होना वह प्रदेश का लक्षण है); और यहाँ (इस सूत्र या गाथा में) ‘जिस प्रकार आकाश के प्रदेश हैं उसी प्रकार शेष द्रव्यों के प्रदेश हैं’ इस प्रकार प्रदेश के लक्षण की एकप्रकारता कही जाती है । इसलिये, जैसे एकाणुव्याप्य (एक परमाणु से व्याप्त हो ऐसे) अंश के द्वारा गिने जाने पर आकाश के अनन्त अंश होने से आकाश अनन्तप्रदेशी है, उसी प्रकार एकाणुव्याप्य (एक परमाणु से व्याप्त होने योग्य) अंश के द्वारा गिने जाने पर धर्म, अधर्म और एक जीव के असंख्यात अंश होने से वें—प्रत्येक असंख्यातप्रदेशी है । और जैसे अवस्थित प्रमाणवाले धर्म तथा अधर्म असंख्यातप्रदेशी हैं, उसी प्रकार संकोचविस्तार के कारण अनवस्थित प्रमाण वाले जीव के सूखे-गीले चमड़े की भाँति-निज अंशों का अल्पबहुत्व नहीं होता इसलिये असंख्यातप्रदेशीपना ही है ।

    (यहाँ यह प्रश्न होता है कि अमूर्त ऐसे जीव का संकोचविस्तार कैसे संभव है? उसका समाधान किया जाता है:—)

    अमूर्त के संकोचविस्तार की सिद्धि तो अपने अनुभव से ही साध्य है, क्योंकि (सबको स्वानुभव से स्पष्ट है कि) जीव स्थूल तथा कृश शरीर में, तथा बालक और कुमार के शरीर में व्याप्त होता है।

    पुद्‌गल तो द्रव्यत: एकप्रदेशमात्र होने से यथोक्त (पूर्वकथित) प्रकार से अप्रदेशी है तथापि दो प्रदेशादि के उद्‌भव के हेतुभूत तथाविध (उस प्रकार के) स्निग्ध-रूक्षगुणरूप परिणमित होने की शक्तिरूप स्वभाव के कारण उसके प्रदेशों का उद्‌भव है; इसलिये पर्याय से अनेकप्रदेशीपने का भी संभव होने से पुद्‌गल को द्विप्रदेशीपने से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्तप्रदेशीपना भी न्याययुक्त है ॥१३७॥

    जयसेनाचार्य :
    [जध ते णभप्पदेसा] जैसे वे प्रसिद्ध परमाणु से व्याप्त क्षेत्र के बराबर आकाश के प्रदेश हैं [तधप्पदेसा हवंति सेसाणं] उसी आकाश के प्रदेश के प्रमाण से प्रदेश हैं । आकाश प्रदेश के प्रमाण से किनके प्रदेश हैं? शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव जो परमात्मद्रव्य तत्प्रभृति शेष द्रव्यों के प्रदेश हैं । [अपदेसो परमाणु] अप्रदेश-दूसरे आदि प्रदेशों से रहित जो वह पुद्गल परमाणु है, [तेण पदेसुब्भवो भणिदो] उस परमाणु द्वारा प्रदेशों की उत्पत्ति कही गई है । परमाणु से व्याप्त क्षेत्र प्रदेश है । वह आगे (१५१वीं गाथा में) विस्तार से कहा जायेगा, यहाँ तो सूचना मात्र दी है ॥१४८॥

    🏠
    समओ दु अप्पदेसो पदेसमेत्तस्स दव्वजादस्स । (138)
    वदिवददो सो वट्टदि पदेसमागासदव्वस्स ॥149॥
    समयस्त्वप्रदेशः प्रदेशमात्रस्य द्रव्यजातस्य ।
    व्यतिपततः स वर्तते प्रदेशमाकाशद्रव्यस्य ॥१३८॥
    पुद्गलाणु मंदगति से चले जितने काल में
    रे एक गगनप्रदेश पर परदेश विरहित काल वह ॥१४९॥
    अन्वयार्थ : [समय: तु] काल तो [अप्रदेश:] अप्रदेशी है, [प्रदेशमात्रस्य द्रव्यजातस्य] प्रदेशमात्र पुद्गल-परमाणु [आकाशद्रव्यस्य प्रदेशं] आकाश द्रव्य के प्रदेश को [व्यतिपतत:] मंद गति से उल्लंघन कर रहा हो तब [सः वर्तते] वह वर्तता है अर्थात् निमित्तभूततया परिणमित होता है ॥१३८॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    काल, द्रव्य से प्रदेशमात्र होने से, अप्रदेशी ही है । और उसे पुद्गल की भाँति पर्याय से भी अनेक-प्रदेशीपना नहीं है; क्योंकि परस्पर अन्तर के बिना प्रस्ताररूप विस्तृत प्रदेशमात्र असंख्यात काल द्रव्य होने पर भी परस्पर संपर्क न होने से एक-एक आकाश प्रदेश को व्याप्त करके रहने वाले काल-द्रव्य की वृत्ति तभी होती है (अर्थात् कालाणु की परिणति तभी निमित्तभूत होती है) कि जब प्रदेशमात्र परमाणु उस (कालाणु) से व्याप्त एक आकाश-प्रदेश को मन्दगति से उल्लंघन करता हो ॥१३८॥

    प्रस्तार = विस्तार । (असंख्यात काल-द्रव्य समस्त लोकाकाश में फैले हुए हैं । उनके परस्पर अन्तर नहीं है, क्योंकि प्रत्येक आकाश-प्रदेश में एक-एक काल-द्रव्य रह रहा है ।)
    प्रदेशमात्र = एकप्रदेशी । (जब एकप्रदेशी ऐसा परमाणु किसी एक आकाश-प्रदेश को मन्दगति से उल्लंघन कर रहा हो तभी उस आकाश-प्रदेश में रहने वाले काल-द्रव्य की परिणति उसमें निमित्त भूतरूप से वर्तती है ।)

    जयसेनाचार्य :
    [समओ] समय पर्याय का उपादान कारण होने से समय-कालाणु-कालद्रव्य [दु] और । वह काल द्रव्य कैसा है? [अप्पदेसो] अप्रदेश-दूसरे आदि प्रदेशों से रहित है । वह अप्रदेशी काल द्रव्य क्या करता है? [सो वट्टदि] वह पूर्वोक्त कालाणु परमाणु के गतिरूप परिणमन के निमित्त से वर्तता है-परिणमन करता है । जो गति परिणत है, वह परमाणु किस सम्बन्धी है- गतिपरिणत वह परमाणु किसका है? [पदेसमेत्तस्स दव्वजादस्स] प्रदेशमात्र-एक प्रदेशी पुद्गल जातिरूप परमाणु द्रव्य का वह गति परिणत परमाणु है । क्या करते हुये परमाणु के माध्यम से काल द्रव्य परिणमित होता है? [वदिवददो] मन्दगति से जाते हुये परमाणु के माध्यम से वह परिणमित होता है । वह परमाणु किसकी ओर मन्दगति से जाता है? [पदेसं] वह कालाणु से व्याप्त एक प्रदेश की ओर जाता है । वह प्रदेश किसका है? [आगासदव्वस्स] वह प्रदेश आकाश द्रव्य का है ।

    वह इसप्रकार- कालाणु अप्रदेशी (एक प्रदेशी) है । वह अप्रदेशी कैसे है? द्रव्य की अपेक्षा एक प्रदेशी होने के कारण वह अप्रदेशी है । अथवा जैसे स्नेह गुण (स्निग्ध गुण-चिकनाई) द्वारा पुद्गलों का परस्पर बन्ध होता है, उसप्रकार के बन्ध का अभाव होने से पर्याय अपेक्षा भी वह अप्रदेशी है ।

    यहाँ अर्थ यह है कि जिस कारण पुद्गल परमाणु के एक प्रदेश पर्यन्त गमन में सहकार्य करता है-निमित्त होता है, अधिक में नहीं; इससे ज्ञात होता है कि काल द्रव्य भी एक प्रदेशी ही है ॥१४९॥

    🏠
    वदिवददो तं देसं तस्सम समओ तदो परो पुव्वो । (139)
    जो अत्थो सो कालो समओ उप्पण्णपद्धंसी ॥150॥
    व्यतिपततस्तं देशं तत्समः समयस्ततः परः पूर्वः ।
    योऽर्थः स कालः समय उत्पन्नप्रध्वंसी ॥१३९॥
    परमाणु गगनप्रदेश लंघन करे जितने काल में
    उत्पन्नध्वंसी समय परापर रहे वह ही काल है ||१५०||
    अन्वयार्थ : [तं देश व्यतिपततः] परमाणु एक आकाश-प्रदेश का (मन्दगति से) उल्लंघन करता है तब [तत्सम:] उसके बराबर जो काल (लगता है) वह [समय:] 'समय' है; [तत्: पूर्व: पर:] उस (समय) से पूर्व तथा पश्चात ऐसा (नित्य) [यः अर्थ:] जो पदार्थ है [सः काल:] वह कालद्रव्य है; [समय: उत्पन्नप्रध्वंसी] समय उत्पन्न-ध्वंसी है ॥१३९॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    किसी प्रदेश-मात्र काल-पदार्थ के द्वारा आकाश का जो प्रदेश व्याप्य हो उस प्रदेश को जब परमाणु मन्द गति से अतिक्रम (उल्लंघन) करता है तब उस प्रदेशमात्र अतिक्रमण के परिमाण के बराबर जो काल-पदार्थ की सूक्ष्म-वृत्ति रूप 'समय' है वह, उस काल पदार्थ की पर्याय है; और ऐसी उस पर्याय से पूर्व की तथा बाद की वृत्तिरूप से प्रवर्तमान होने से जिसका नित्यत्व प्रगट होता है ऐसा पदार्थ वह द्रव्य है । इस प्रकार द्रव्य-समय (काल-द्रव्य) अनुत्पन्न-अविनष्ट है और पर्याय-समय उत्पन्नध्वंसी है (अर्थात् 'समय' पर्याय उत्पत्ति-विनाशवाली है ।) यह 'समय' निरंश है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो आकाश के प्रदेश का निरंशत्व न बने ।

    और एक समय में परमाणु लोक के अन्त तक जाता है फिर भी 'समय' के अंश नहीं होते; क्योंकि जैसे (परमाणु के) विशिष्ट (खास प्रकार का) अवगाह परिणाम होता है उसी प्रकार (परमाणु के) विशिष्ट गति परिणाम होता है । इसे समझाते हैं :- जैसे विशिष्ट अवगाह परिणाम के कारण एक परमाणु के परिमाण के बराबर अनन्त परमाणुओं का स्कंध बनता है तथापि वह स्कंध परमाणु के अनन्त अंशों को सिद्ध नहीं करता, क्योंकि परमाणु निरंश है; उसीप्रकार जैसे एक कालाणु से व्याप्त एक आकाश-प्रदेश के अतिक्रमण के माप के बराबर एक 'समय' में परमाणु विशिष्ट गति-परिणाम के कारण लोक के एक छोर से दूसरे छोर तक जाता है तब (उस परमाणु के द्वारा उल्लंघित होने वाले) असंख्य कालाणु 'समय' के असंख्य अंशों को सिद्ध नहीं करते, क्योंकि 'समय' निरंश है ।

    अतिक्रमण = उल्लंघन करना
    परिमाण = माप
    वृत्ति = वर्तना सो परिणति है (काल पदार्थ वर्तमान समय से पूर्व की परिणति-रूप तथा उसके बाद की परिणति-रूप से परिणमित होता है, इसलिये उसका नित्यत्व प्रगट है

    जयसेनाचार्य :
    [वदिवददो] उस पहले (१४९वीं) गाथा में कहे हुये पुद्गल परमाणु के व्यतिपात से-मंद गति से जाते हुये । इस गाथा में कर्मता को प्राप्त कौन है- कर्म कारक में कौन है- मंद गति से कहाँ जाते हुये? [तं देसं] पहले गाथा मे कहे हुये कालाणु से व्याप्त उस आकाशप्रदेश को जाते हुये । [तस्सम] कालाणु से व्याप्त एक प्रदेशी पुद्गल परमाणु के मन्दगति से जाते हुये के समान-सदृश अर्थात उसके समान [समओ] कालाणु द्रव्य का सूक्ष्म पर्यायभूत समय व्यवहार काल है- इसप्रकार पर्याय का कथन पूर्ण हुआ ।

    [तदो पुरो पुव्वो] उस पहले कही हुई समयरूप काल पर्याय से पर- भविष्य काल में और पूर्व-भूतकाल में [जो अत्थो] जो भूत और भावि पर्यायों में अन्वयरूप से रहने वाला पदार्थ- द्रव्य है, [सो कालो] वह काल नामक पदार्थ है- इसप्रकार द्रव्य का कथन हुआ । [समओ उप्पण्णपद्धंसी] वह पहले कही हुई समय - पर्याय यद्यपि भूत- भावि समय-पर्यायों की परम्परा अपेक्षा संख्यात, असंख्यात और अनन्त समय वाली है; तथापि वर्तमान समय की अपेक्षा उत्पन्न और नष्ट होने वाली है और जो पहले कहा हुआ द्रव्य काल है, वह तीनों कालों में स्थायी होने से नित्य है ।

    इसप्रकार काल का द्रव्य -स्वरूप और पर्याय-स्वरूप जानना चाहिये ।

    अथवा इन दो गाथाओं द्वारा समय- व्यवहारकाल का विशेष कथन किया गया है । निश्चय काल का विशेष कथन तो [उप्पादो पद्धंसो] इत्यादि तीन गाथाओं द्वारा आगे करेंगे ।

    वह इसप्रकार-[समओ] निश्चय काल का पर्यायभूत समय । [अवप्पदेसो] अपगत प्रदेश-दूसरे आदि प्रदेशों से रहित अर्थात् निरंश- ऐसा अर्थ है । वह निरंश कैसे है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो उत्तर कहते हैं- [पदेसमेत्तस्स दवियजादस्स] प्रदेश मात्र पुद्गल द्रव्य सम्बन्धी जो वह परमाणु है, [वदिवादादो वट्टदि] व्यतिपात से-मंद गति से गमन करने के कारण वह परमाणु उस गमनरूप से वर्तता है- परिणमन करता है । वह किसके प्रति गमनरूप से वर्तता है? [पदेसमागासदवियस्स] वह विवक्षित एक आकाश प्रदेश के प्रति गमनरूप से वर्तता है ।

    [वदिवददो तं देसं स] वह परमाणु उस आकाश प्रदेश का जब व्यतिपात-अतिक्रान्त-उल्लंघन करता है, [तस्सम समओ] मन्दगति से गमन करने वाले उस पुद्गल परमाणु के सम-समान समय है-इसप्रकार वह समय निरंश है ।

    इसप्रकार वर्तमान समय का विशेष कथन किया ।

    अब, भूत और भावि समय कहते हैं- [तदो परो पुव्वो] उस पहले कहे हुये वर्तमान समय से आगे दूसरे भावरूप कोई भी समय होगा और पहले भी कोई समय था, [अत्थो जो] इसप्रकार जो तीन समय रूप अर्थ है [सो कालो] वह भूत, भविष्यत्, वर्तमान रूप से तीन प्रकार का व्यवहार काल कहलाता है ।

    [समओ उप्पण्णपद्धंसी] उन तीनों के बीच में जो वह वर्तमान समय है, वह उत्पन्न और नष्ट स्वरूप है; और भूत और भावी काल तो संख्यात, असंख्यात और अनन्त समयों का है- ऐसा अर्थ है ।

    इसप्रकार कहे गये लक्षणवाले काल के विद्यमान होने पर भी, क्योंकि परमात्मतत्व को प्राप्त नहीं करता हुआ यह जीव, भूतकालीन अनन्तकाल से संसार-सागर में घूम रहा है इस कारण वही निज परमात्म-तत्त्व सभी प्रकार से उपादेयरूप श्रद्धा करने योग्य है; स्वसंवेदन ज्ञानरूप से जानने योग्य है; तथा आहार, भय, मैथुन, परिग्रह संज्ञाओं के स्वरूप से लेकर सम्पूर्ण रागादि विभावों के त्यागरूप से वही ध्यान करने योग्य है- ऐसा तात्पर्य है ॥१५०॥

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    आगासमणुणिविट्ठं आगासपदेससण्णया भणिदं । (140)
    सव्वेसिं च अणूणं सक्कदि तं देदुमवगासं ॥151॥
    आकाशमणुनिविष्टमाकाशप्रदेशसंज्ञया भणितम् ।
    सर्वेषां चाणूनां शक्नोति तद्दातुमवकाशम् ॥१४०॥
    अणु रहे जितने गगन में वह गगन ही परदेश है
    अरे उस परदेश में ही रह सकें परमाणु सब ॥१५१॥
    अन्वयार्थ : [अणुनिविष्टं आकाशं] एक परमाणु जितने आकाश में रहता है उतने आकाश को [आकाश-प्रदेशसंज्ञया] 'आकाश-प्रदेश' ऐसे नाम से [भणितम्] कहा गया है । [च] और [तत्] वह [सर्वेषां अणूनां] समस्त परमाणुओं को [अवकाशं दातुं शक्नोति] अवकाश देने को समर्थ है ॥१४०॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    आकाश का एक परमाणु से व्याप्य अंश वह आकाश-प्रदेश है; और वह एक (आकाश-प्रदेश) भी शेष पाँच द्रव्यों के प्रदेशों को तथा परम सूक्ष्मता-रूप से परिणमित अनन्त परमाणुओं के स्कंधों को अवकाश देने में समर्थ है । आकाश अविभाग (अखंड) एक द्रव्य है, फिर भी उसमें (प्रदेशरूप) अंशकल्पना हो सकती है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो सर्व परमाणुओं को अवकाश देना नहीं बन सकेगा । ऐसा होने पर भी यदि 'आकाश के अंश नहीं होते' (अर्थात् अंशकल्पना नहीं की जाती), ऐसी (किसी की) मान्यता हो, तो आकाश में दो अंगुलियाँ फैलाकर बताइये कि 'दो अंगुलियों का एक क्षेत्र है या अनेक ?' यदि एक है तो (प्रश्न होता है कि :-),
    1. आकाश अभिन्न अंशोंवाला अविभाग एक द्रव्य है, इसलिये दो अंगुलियों का एक क्षेत्र है या
    2. भिन्न अंशोंवाला अविभाग एक द्रव्य है,
    इसलिये ?
    1. यदि 'आकाश अभिन्न अंशवाला अविभाग एक द्रव्य है इसलिये दो अंगुलियों का एक क्षेत्र है' ऐसा कहा जाय तो, जो अंश एक अंगुलिका क्षेत्र है वही अंश दूसरी अंगुलिका भी क्षेत्र है, इसलिये दो में से एक अंश का अभाव हो गया । इस प्रकार दो इत्यादि (एक से अधिक) अंशों का अभाव होने से आकाश परमाणु की भाँति प्रदेश-मात्र सिद्ध हुआ! (इसलिये यह तो घटित नहीं होता);
    2. यदि यह कहा जाय कि 'आकाश भिन्न अंशोंवाला अविभाग एक द्रव्य है' (इसलिये दो अंगुलियों का एक क्षेत्र है) तो (यह योग्य ही है, क्योंकि) अविभाग एक द्रव्य में अंश-कल्पना फलित हुई ।

    यदि ऐसा कहा जाय कि (दो अंगुलियों के) 'अनेक क्षेत्र हैं' (अर्थात् एक से अधिक क्षेत्र हैं, एक नहीं) तो (प्रश्न होता है कि-),
    1. 'आकाश सविभाग (खंड-खंडरूप) अनेक द्रव्य है इसलिये दो अंगुलियों के अनेक क्षेत्र हैं या
    2. 'आकाश अविभाग एक द्रव्य' होने पर भी दो अंगुलियों के अनेक (एक से अधिक) क्षेत्र हैं?
    1. 'आकाश सविभाग अनेक द्रव्य होने से दो अंगुलियों के अनेक क्षेत्र हैं' ऐसा माना जाय तो, आकाश जो कि एक द्रव्य है उसे अनन्त-द्रव्यत्व आ जायगा'; (इसलिये यह तो घटित नहीं होता)
    2. 'आकाश अविभाग एक द्रव्य होने से दो अंगुलियों का अनेक क्षेत्र है' ऐसा माना जाय तो (यह योग्य ही है क्योंकि) अविभाग एक द्रव्य में अंश-कल्पना फलित हुई ॥१४०॥

    जयसेनाचार्य :
    [आगासमणुणिविट्ठं] -अणु से निविष्ट-पुद्गल से व्याप्त- घिरा हुआ आकाश । [आगासपदेससण्णया भणिदं] - आकाश प्रदेश के नाम से कहा गया है । [सव्वेसिं च अणुणं] - सभी परमाणुओं को और चकार शब्द से सूक्ष्म स्कन्धों को [सक्कदि तं देहुमवगासं] - वह आकाश-प्रदेश अवकाश (स्थान) देने में समर्थ है । उस आकाश-प्रदेश के, यदि इसप्रकार की स्थान देने की सामर्थ्य नहीं होती, तो अनन्तानन्त जीव राशि और उससे भी अनंतगुणी पुद्गल राशी असंख्यात प्रदेशी लोक में कैसे अवकाश (स्थान) प्राप्त करती? (नहीं कर सकती है) और उसे पहले विस्तार से कहा ही है ।

    अब प्रश्न है कि- अखण्ड आकाश-द्रव्य के प्रदेशों का विभाग कैसे घटित होता है?

    उसका उत्तर कहते हैं -- ज्ञानानन्द एक स्वभावी स्व-आत्मतत्व में परम एकाग्रता लक्षण-पूर्ण लीनतारूप समाधि से उत्पन्न विकार रहित आह्लाद एकरूप सुखसुधारस (सुखरूपी अमृतरस) के आस्वाद से तृप्त दो मुनिराजों के बैठने का स्थान क्या एक है अथवा अनेक है? यदि एक है, तो दोनों मुनिराजों के एकता प्राप्त होती - दोनों मिलकर एक हो जायेंगे । परन्तु वैसा तो है नहीं । और यदि उन दोनों मुनिराजों के बैठने का स्थान पृथक-पृथक् है, तो अखण्ड आकाश द्रव्य के प्रदेशों का विभाग विरुद्ध नहीं है -- ऐसा अर्थ है ॥१५१॥

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    एक्को व दुगे बहुगा संखातीदा तदो अणंता य । (141)
    दव्वाणं च पदेसा संति हि समय त्ति कालस्स ॥152॥
    एको वा द्वौ बहवः संख्यातीतास्ततोऽनन्ताश्च ।
    द्रव्याणां च प्रदेशाः सन्ति हि समया इति कालस्य ॥१४१॥
    एक दो या बहुत से परदेश असंख्य अनंत हैं
    काल के हैं समय अर अवशेष के परदेश हैं ॥१५२॥
    अन्वयार्थ : [द्रव्याणां च] द्रव्यों के [एक:] एक, [द्वौ] दो, [बहव:] बहुत से, [संख्यातीता:] असंख्य, [वा] अथवा [ततः अनन्ता: च] अनन्त [प्रदेशा:] प्रदेश [सन्ति हि] हैं । [कालस्य] काल से [समया: इति] समय हैं ॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    प्रदेशों का प्रचय (समूह) तिर्यक्‌-प्रचय और समय-विशिष्ट वृत्तियों का समूह ऊर्ध्वप्रचय है ।

    वहाँ आकाश अवस्थित (निश्‍चल, स्थिर) अनन्त प्रदेशी होने से धर्म तथा अधर्म अवस्थित असंख्य प्रदेशी होने से जीव अनवस्थित (अस्थिर) असंख्यप्रदेशी है और पुद्‌गल द्रव्यत: अनेक प्रदेशीपने की शक्ति से युक्त एकप्रदेशवाला है तथा पर्याय से दो अथवा बहुत (संख्यात, असंख्यात और अनन्त) प्रदेशवाला है, इसलिये उनके तिर्यक्‌-प्रचय है; परन्तु काल के (तिर्यक्‌प्रचय) नहीं है, क्योंकि वह शक्ति तथा व्यक्ति (की अपेक्षा) से एक प्रदेशवाला है ।

    ऊर्ध्व-प्रचय तो सर्व द्रव्यों के अनिवार्य ही है, क्योंकि द्रव्य की वृत्ति तीन कोटियों को (भूत, वर्तमान, और भविष्य ऐसे तीनों कालों को) स्पर्श करती है, इसलिये अंशों से युक्त है । परन्तु इतना अन्तर है कि समय-विशिष्ट वृत्तियों का प्रचय वह (काल को छोड़कर) शेष द्रव्यों का ऊर्ध्व-प्रचय है, और समयों का प्रचय वही कालद्रव्य का ऊर्ध्व-प्रचय है; क्योंकि शेष द्रव्यों की वृत्ति समय से अर्थान्तरभूत (अन्य) होने से वह (वृत्ति) समय विशिष्ट है, और कालद्रव्य की वृत्ति तो स्वत: समयभूत है, इसलिये वह समय-विशिष्ट नहीं है ॥१४१॥

    जयसेनाचार्य :
    [एक्को व दुगे बहुगा संखातीदा तदो अणंता य] - एक, दो, अनेक अथवा संख्यातीत- असंख्यात और अनन्त । [दव्वाणं च पदेसा संति हि] - वास्तव में काल द्रव्य को छोड़कर सम्बन्धित पाँच द्रव्यों के यथासम्भव ये प्रदेश हैं । [समय त्ति कालस्स] - और काल के पहले कही हुई संख्या से सहित समय हैं |

    वह इसप्रकार- एकाकार परम समरसी भाव से परिणत परमानन्द एक लक्षण सुखरूपी अमृत से भरितावस्थ, केवलज्ञानादि की प्रगटता रूप अनन्त गुणों के आधारभूत लोकाकाश प्रमाण शुद्ध (मात्र) असंख्यात प्रदेशों का सिद्ध भगवानरूप आत्मपदार्थ में जो वह प्रचय, समूह, समुदाय, राशि है; वह क्या-क्या कहलाती है? वह असंख्यात प्रदेशों की राशि तिर्यक् प्रचय, तिर्यक् सामान्य, विस्तार सामान्य और अक्रम- अनेकान्त कहलाती है ।

    और वह प्रदेशों का समूह लक्षण तिर्यक् प्रचय, जैसे सिद्ध भगवानरूप आत्मपदार्थ में कहा गया है; उसी- प्रकार काल को छोड़कर अपने-अपने प्रदेशों की संख्या के अनुसार वह शेष द्रव्यों के होता है- इसप्रकार तिर्यक् प्रचय का व्याख्यान किया ।

    मुक्ताफल की माला (मोतियों के हार) के समान प्रत्येक समयवर्ती पहले और आगे की पर्यायों की परम्परारूप ऊर्ध्वप्रचय है । इसे ऊर्ध्व सामान्य, आयत सामान्य और क्रम-अनेकान्त कहते हैं । और वह सभी द्रव्यों के होता है । परन्तु पाँच द्रव्यों से सम्बन्धित पहले और आगे की परम्परारूप जो वह ऊर्ध्वता प्रचय है, उसका अपना-अपना द्रव्य उपादान-कारण है; काल के प्रत्येक समय सहकारी-कारण (निमित्त-कारण) हैं । परन्तु जो काल द्रव्य के समय की परम्परारूप ऊर्ध्व प्रचय है, उसका काल ही उपादान-कारण और काल ही सहकारी-कारण-निमित्त-कारण है ।

    काल सम्बन्धी ऊर्ध्वताप्रचय के दोनों ही कारण काल क्यों है ? काल के भिन्न समय का अभाव होने से पर्यायें ही समय हैं अत: दोनों कारण काल ही है -- ऐसा अभिप्राय है ॥१५२॥

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    उप्पादो पद्धंसो विज्जदि जदि जस्स एगसमयम्हि । (142)
    समयस्स सो वि समओ सभावसमवट्ठिदो हवदि ॥153॥
    उत्पादः प्रध्वंसो विद्यते यदि यस्यैकसमये ।
    समयस्य सोऽपि समयः स्वभावसमवस्थितो भवति ॥१४२॥
    इक समय में उत्पाद-व्यय यदि काल द्रव में प्राप्त हैं
    तो काल द्रव्यस्वभावथित ध्रुवभावमय ही क्यों न हो ॥१५३॥
    अन्वयार्थ : [यदि यस्य समयस्य] यदि काल का [एक समये] एक समय में [उत्पाद: प्रध्वंस:] उत्पाद और विनाश [विद्यते] पाया जाता है, [सः अपि समय:] तो वह भी काल [स्वभावसमवस्थित:] स्वभाव में अवस्थित अर्थात् ध्रुव [भवति] होता है ॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    समय कालपदार्थ का वृत्‍यंश है; उस वृत्यंश में किसी के भी अवश्य उत्पाद तथा विनाश संभवित हैं; क्योंकि परमाणु के अतिक्रमण के द्वारा (समयरूपी वृत्यंश) उत्पन्न होता है, इसलिये वह कारणपूर्वक है । (परमाणु के द्वारा एक आकाशप्रदेश का मंदगति से उल्लंघन करना वह कारण है और समयरूपी वृत्यंश उस कारण का कार्य है, इसलिये उसमें किसी पदार्थ के उत्पाद तथा विनाश होते होना चाहिये ।)

    (‘किसी पदार्थ के उत्पाद-विनाश होने की क्या आवश्यकता है? उसके स्थान पर उस वृत्‍यंश को ही उत्पाद-विनाश होते मान लें तो क्या हानि है?’ इस तर्क का समाधान करते हैं—)

    यदि उत्पाद और विनाश वृत्यंश के ही माने जायें तो, (प्रश्‍न होता है कि—) (१) वे (उत्पाद तथा विनाश) युगपद् हैं या (२) क्रमश: ?
    1. यदि ‘युगपत्’ कहा जाये तो युगपत्पना घटित नहीं होता, क्योंकि एक ही समय एक के दो विरोधी धर्म नहीं होते । (एक ही समय एक वृत्यंश के प्रकाश और अन्धकार की भाँति उत्पाद और विनाश—दो विरुद्ध धर्म नहीं होते ।)
    2. यदि ‘क्रमश: है’ ऐसा कहा जाये तो, क्रम नहीं बनता, (अर्थात् क्रम भी घटता नहीं) क्योंकि वृत्यंश के सूक्ष्म होने से उसमें विभाग का अभाव है ।
    इसलिये (समयरूपी वृत्यंश के उत्पाद तथा विनाश होना अशक्य होने से) कोई वृत्तिमान् अवश्य ढूंढना चाहिये । और वह (वृत्तिमान्) काल पदार्थ ही है । उसको (उस कालपदार्थ को) वास्तव में एक वृत्यंश में भी उत्पाद और विनाश संभव है; क्योंकि जिस वृत्तिमान् के जिस वृत्यंश में उस वृत्यंश की अपेक्षा से जो उत्पाद है, वही (उत्पाद) उसी वृत्तिमान के उसी वृत्यंश में पूर्व वृत्यंश की अपेक्षा से विनाश है । (अर्थात्—कालपदार्थ को जिस वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से उत्पाद है, वही पूर्व पर्याय की अपेक्षा से विनाश है ।)

    यदि इस प्रकार उत्पाद और विनाश एक वृत्यंश में भी संभवित है, तो कालपदार्थ निरन्वय कैसे हो सकता है, कि जिससे पूर्व और पश्‍चात् वृत्यंश की अपेक्षा से युगपत् विनाश और उत्पाद को प्राप्त होता हुआ भी स्वभाव से अविनष्ट और अनुत्पन्‍न होने से वह (काल पदार्थ) अवस्थित न हो? (काल पदार्थ के एक वृत्यंश में भी उत्पाद और विनाश युगपत् होते हैं इसलिये वह निरन्वय अर्थात् खंडित नहीं है, इसलिये स्वभावत: अवश्य ध्रुव है ।)

    इस प्रकार एक वृत्यंश में कालपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाला है, यह सिद्ध हुआ ॥१४२॥

    जयसेनाचार्य :
    [उप्पादो पद्धंसो विज्जदि जदि] - यदि उत्पाद और व्यय विद्यमान हैं । उत्पाद-व्यय किसके विद्यमान हैं? [जस्स] - जिसके-कालाणु के उत्पाद-व्यय विद्यमान हैं । उसके वे कहाँ विद्यमान हैं? [एगसमयम्हि] - एक समय में- वर्तमान समय में विद्यमान हैं-पाये जाते हैं । [समयस्स] - समय का उत्पादक होने से समय कालाणु है, उस कालाणु के पाये जाते हैं । [सो वि समओ] - वह भी कालाणु [सभावसमवट्ठिदो हवदि] - स्वभाव में समवस्थित है । पहले कहे हुये उत्पाद और व्यय- उन दोनों का आधारभूत कालाणु द्रव्यरूप ध्रौव्य है- इसप्रकार उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य तीन रूप स्वभाव वाला सत्त्व-अस्तित्व है । उसमें अच्छी तरह से स्थित रहता है-स्वभाव में समवस्थित है ।

    वह इसप्रकार- जैसे अंगुली द्रव्य में जिस वर्तमान समय में वक्र (टेढ़ी) पर्याय का उत्पाद है, उसी समय उसी अंगुली द्रव्य की पूर्ववर्ती सीधी पर्याय का व्यय है और उन दोनों की आधारभूत अंगुली द्रव्यरूप से ध्रौव्य है- इसप्रकार द्रव्य की सिद्धि हुई ।

    अथवा अपने स्वभावरूप सुख से उत्पाद, उसी समय उसी आत्मद्रव्य के पहले अनुभव किये गये आकुलतामयी दुःखरूप से विनाश और उन दोनों के आधारभूत परमात्मद्रव्यरूप से ध्रौव्य- इसप्रकार द्रव्य की सिद्धि हुई ।

    अथवा मोक्ष पर्यायरूप से उत्पाद, उसीसमय रत्नत्रय स्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग पर्यायरूप से विनाश और उन दोनों के आधारभूत परमात्मद्रव्यरूप से ध्रौव्य- इसप्रकार द्रव्य की सिद्धि हुई ।

    उसीप्रकार वर्तमान समयरूप पर्याय से उत्पाद, उसीसमय उसी कालाणु द्रव्य का पहले समय की समय पर्यायरूप से विनाश और दोनों के आधारभूत अंगुली द्रव्य के स्थानीय कालाणु द्रव्य से ध्रौव्य- इसप्रकार काल द्रव्य सिद्ध हुआ -- ऐसा अर्थ है ॥१५३॥

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    एगम्हि संति समये संभवठिदिणाससण्णिदा अट्ठा । (143)
    समयस्स सव्वकालं एष हि कालाणुसब्भावो ॥154॥
    एकस्मिन् सन्ति समये संभवस्थितिनाशसंज्ञिता अर्थाः ।
    समयस्य सर्वकालं एष हि कालाणुसद्भावः ॥१४३॥
    इक समय में उत्पाद-व्यय-ध्रुव नाम के जो अर्थ हैं
    वे सदा हैं बस इसलिए कालाणु का सद्भाव है ॥१५४॥
    अन्वयार्थ : [एकस्मिन् समये] एक-एक समय में [संभवस्थितिनाशसंज्ञिता: अर्था:] उत्पाद, ध्रौव्य और व्यय नामक अर्थ [समयस्य] काल के [सर्वकालं] सदा [संति] होते हैं । [एष: हि] यही [कालाणुसद्भाव:] कालाणु का सद्भाव है; (यही कालाणु के अस्तित्व की सिद्धि है ।)

    अमृतचंद्राचार्य :
    कालपदार्थ के सभी वृत्यंशो में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य होते हैं, क्योंकि (१४२वीं गाथा में जैसा सिद्ध हुआ है तदनुसार) एक वृत्यंश में वे (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य) देखे जाते हैं । और यह योग्य ही है, क्योंकि विशेष अस्तित्व सामान्य अस्तित्व के बिना नहीं हो सकता । यही कालपदार्थ के सद्‌भाव की (अस्तित्व की) सिद्धि है; (क्योंकि) यदि विशेष अस्तित्व और सामान्य अस्तित्व सिद्ध होते हैं तो वे अस्तित्व के बिना किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होते ॥१४३॥

    जयसेनाचार्य :
    [एगम्हि संति समये संभवठिदिणाससण्णिदा अट्ठा] एक समय में पाये जाते हैं । एक समय में कौन पाये जाते हैं? उत्पाद- ध्रौव्य और व्यय नामक अर्थ- धर्म-स्वभाव एक समय में पाये जाते हैं । ये उत्पादादि स्वभाव किसके हैं? [समयस्स] समयरूप पर्याय को उत्पन्न करने वाला होने से समय अर्थात् कालाणु,उसके ये उत्पादादि हैं । [सव्वकालं] यदि एक वर्तमान समय में उत्पादादि रूप हैं, तो उसीप्रकार हमेशा ही उन रूप हैं । [एस हि कालाणुसब्भावो] यह प्रत्यक्षीभूत वास्तव में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वरूप कालाणु का सद्भाव है ।

    वह इसप्रकार -- जैसे पहले एक समय सम्बन्धी उत्पाद-व्यय के आधार रूप अंगुली द्रव्य आदि उदाहरण द्वारा, वर्तमान समय में काल द्रव्य का उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप स्थापित किया था, उसी प्रकार सभी समयों में जानना चाहिये ।

    यहाँ यद्यपि भूतकालीन अनन्त समयों में दुर्लभ, सभी प्रकार से उपादेयभूत सिद्ध गति का काललब्धि रूप से काल बहिरंग सहकारी है; तथापि निश्चयनय से स्वशुद्धात्मतत्त्व के सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठान स्वरूप पर द्रव्यों की इच्छा के निरोध लक्षण तपश्चरण रूप जो चार प्रकार की निश्चय आराधना, वही वहाँ (सिद्धदशा की प्राप्ति मे) उपादान कारण है; काल उपादान कारण नहीं है, इस कारण वह हेय है- ऐसा भाव है ॥१५४॥

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    जस्स ण संति पदेसा पदेसमेत्तं व तच्चदो णादुं । (144)
    सुण्णं जाण तमत्थं अत्थंतरभूदमत्थीदो ॥155॥
    यस्य न सन्ति प्रदेशाः प्रदेशमात्रं वा तत्त्वतो ज्ञातुम् ।
    शून्यं जानीहि तमर्थमर्थान्तरभूतमस्तित्वात् ॥१४४॥
    जिस अर्थ का इस लोक में ना एक ही परदेश हो
    वह शून्य ही है जगत में परदेश बिन न अर्थ हो ॥१५५॥
    अन्वयार्थ : [यस्य] जिस पदार्थ के [प्रदेशा:] प्रदेश [प्रदेशमात्रं वा] अथवा एकप्रदेश भी [तत्त्वतः] परमार्थत: [ज्ञातुम् न संति] ज्ञात नहीं होते, [तं अर्थं] उस पदार्थ को [शून्यं जानीहि] शून्य जानो [अस्तित्वात् अर्थान्तरभूतम्] जो कि अस्तित्व से अर्थान्तरभूत (अन्य) है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    प्रथम तो अस्तित्व वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की ऐक्यस्वरूपवृत्ति है । वह प्रदेश के बिना ही काल के होती है यह कथन संभवित नहीं है, क्योंकि प्रदेश के अभाव में वृत्तिमान् का अभाव होता है । (और) वह तो शून्य ही है, क्योंकि अस्तित्व नामक वृत्ति से अर्थान्तरभूत है (अन्य) है ।

    और (यदि यहाँ यह तर्क किया जाये कि ‘मात्र समयपर्यायरूपवृत्ति ही माननी चाहिये; वृत्तिमान् कालाणु पदार्थ की क्या आवश्यकता है?’ तो उसका समाधान इस प्रकार है :—) मात्र वृत्ति (समयरूप परिणति) ही काल नहीं हो सकती, क्योंकि वृत्ति वृत्तिमान् के बिना नहीं हो सकती । यदि यह कहा जाये कि वृत्तिमान् के बिना भी वृत्ति हो सकती है तो, (प्रश्‍न होता हैं कि—वृत्ति तो उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य की एकतास्वरूप होनी चाहिये;) अकेली वृत्ति उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की एकतारूप कैसे हो सकती है? यदि यह कहा जाये कि—‘अनादि-अनन्त, अनन्तर (परस्पर अन्तर हुए बिना एक के बाद एक प्रवर्तमान) अनेक अंशों के कारण एकात्मकता होती है इसलिये, पूर्व-पूर्व के अंशों का नाश होता है और उत्तर-उत्तर के अंशों का उत्पाद होता है तथा एकात्मकतारूप ध्रौव्य रहता है,—इस प्रकार मात्र (अकेली) वृत्ति भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की एकतास्वरूप हो सकती है तो ऐसा नहीं है । (क्योंकि उस अकेली वृत्ति में तो) जिस अंश में नाश है और जिस अंश में उत्पाद है वे दो अंश एक साथ प्रवृत्त नहीं होते, इसलिये (उत्पाद और व्यय का) ऐक्य कहाँ से हो सकता है? तथा नष्ट अंश के सर्वथा अस्त होने से और उत्पन्न होने वाला अंश अपने स्वरूप को प्राप्त न होने से (अर्थात् उत्पन्न नहीं हुआ है इसलिये) नाश और उत्पाद की एकता में प्रवर्तमान ध्रौव्य कहाँ से हो सकता है? ऐसा होने पर त्रिलक्षणता (उत्पादव्ययध्रौव्यता) नष्ट हो जाती है, क्षणभंग (बौद्धसम्मत क्षणविनाश) उल्लसित हो उठता है, नित्य द्रव्य अस्त हो जाता है और क्षणविध्वंसी भाव उत्पन्न होते हैं । इसलिये तत्त्व-विप्‍लव के भय से अवश्य ही वृत्ति का आश्रयभूत कोई वृत्तिमान् ढूँढ़ना-स्वीकार करना योग्य है । वह तो प्रदेश ही है (अर्थात् वह वृत्तिमान् सप्रदेश ही होता है), क्योंकि अप्रदेश के अन्वय तथा व्यतिरेक का अनुविधायित्व असिद्ध है । (जो अप्रदेश होता है वह अन्वय तथा व्यतिरेकों का अनुसरण नहीं कर सकता, अर्थात् उसमें ध्रौव्य तथा उत्पाद-व्यय नहीं हो सकते ।)

    प्रश्न – जब कि इस प्रकार काल सप्रदेश है तो उसके एकद्रव्य के कारणभूत लोकाकाश तुल्य असंख्य प्रदेश क्यों न मानने चाहिये?

    उत्तर – ऐसा हो तो पर्यायसमय प्रसिद्ध नहीं होता, इसलिये असंख्य प्रदेश मानना योग्य नहीं है । परमाणु के द्वारा प्रदेशमात्र द्रव्यसमय का उल्लंघन करने पर (अर्थात्—परमाणु के द्वारा एकप्रदेशमात्र कालाणु से निकट के दूसरे प्रदेशमात्र कालाणु तक मंदगति से गमन करने पर) पर्यायसमय प्रसिद्ध होता है । यदि द्रव्यसमय लोकाकाशतुल्य असंख्यप्रदेशी हो तो पर्यायसमय की सिद्धि कहाँ से होगी?

    ‘यदि द्रव्यसमय अर्थात् कालपदार्थ लोकाकाश जितने असंख्य प्रदेशवाला एक द्रव्य हो तो भी परमाणु के द्वारा उसका एक प्रदेश उल्लंघित होने पर पर्यायसमय की सिद्धि हो जायेगी,’ ऐसा कहा जाये तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि (उसमें दो दोष आते हैं)
    1. [द्रव्य के एक देश की परिणति को सम्पूर्ण द्रव्य की परिणति मानने का प्रसंग आता है ।] एक देश की वृत्ति को सम्पूर्ण द्रव्य की वृत्ति मानने में विरोध है । सम्पूर्ण काल पदार्थ का जो सूक्ष्म वृत्यंश है वह समय है, परन्तु उसके एक देश का वृत्यंश वह समय नहीं ।
    2. तिर्यक्‌प्रचय को ऊर्ध्वप्रचयपने का प्रसंग आता है । वह इस प्रकार है कि :—प्रथम, कालद्रव्य एक प्रदेश से वर्ते, फिर दूसरे प्रदेश से वर्ते और फिर अन्यप्रदेश से वर्ते (ऐसा प्रसंग आता है) इस प्रकार तिर्यक्‌प्रचय ऊर्ध्वप्रचय बनकर द्रव्य को प्रदेशमात्र स्थापित करता है । (अर्थात् तिर्यक्‌प्रचय ही ऊर्ध्वप्रचय है, ऐसा मानने का प्रसंग आता है, इसलिये द्रव्यप्रदेशमात्र ही सिद्ध होता है ।)
    इसलिये तिर्यक्‌प्रचय को ऊर्ध्वप्रचयपना न मानने (चाहने) वाले को प्रथम ही कालद्रव्य को प्रदेशमात्र निश्‍चित करना चाहिये ॥

    (इस प्रकार ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन में द्रव्यविशेषप्रज्ञापन समाप्त हुआ ।) ॥१४४॥

    जयसेनाचार्य :
    [जस्स ण संति] जिस पदार्थ के नहीं हैं- पाये नही जाते हैं । क्या नहीं पाये जाते हैं? [पदेसा] जिसके प्रदेश नहीं पाये जाते हैं । [पदेसमेत्तं तु] प्रदेशमात्र अथवा एकप्रदेश प्रमाण भी (जिसके नहीं पाया जाता है) तो फिर वह वस्तु [तच्चदो णादुं] परमार्थ से वास्तव में ज्ञात होने के लिये समर्थ हो सकती है? (अर्थात् नहीं हो सकती है।) [सुण्णं जाणं तमत्थं] - जिसके एक भी प्रदेश नहीं हैं उस पदार्थ को हे शिष्य! शून्य जानो । उसे शून्य क्यों जाने? यदि यह प्रश्न हो तो उत्तर कहते हैं -- [अत्थंतरभूदं] जिसकारण एक प्रदेश का अभाव होने पर अर्थान्तरभूत-भिन्न है, इसलिये उसे शून्य जानो । वह किससे भिन्न है? [अत्थिदो] - वह उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यमय सत्ता से भिन्न है ।

    वह इसप्रकार- पहले (१५४ वी) गाथा में कहे अनुसार, काल पदार्थ के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वरूप अस्तित्व पाया जाता है, और वह अस्तित्व प्रदेश के बिना घटित नहीं हो सकता है । और जो प्रदेशवान है, वह काल पदार्थ है ।

    (यहाँ कोई कहता है कि) काल द्रव्य के अभाव में भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य घटित होते हैं यदि ऐसा माना जाये तो? (आचार्य कहते है) ऐसा नहीं माना जा सकता । अंगुली द्रव्य के अभाव में वर्तमान वक्र (टेढ़ी) पर्याय का उत्पाद पहले की ऋजु (सीधी) पर्याय का व्यय और उन दोनों का आधारभूत ध्रौव्य किसका होगा? किसी का भी नहीं होगा । उसीप्रकार काल द्रव्य के अभाव में, वर्तमान समयरूप उत्पाद भूत समयरूप विनाश और उन दोनों का आधारभूत ध्रौव्य किसका होगा? किसी का भी नहीं होगा ।

    ऐसा होने पर यह सिद्ध हुआ कि अन्य का व्यय, अन्य का उत्पाद और अन्य का ध्रौव्य - इसप्रकार मानने पर सम्पूर्ण-स्वरूप का विप्लव (विनाश) होता है । इसलिये वस्तु-विनाश के भय से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य का भी एक आधार भूत है -- ऐसा स्वीकार करना चाहिये । और वह एक प्रदेशरूप कालाणु पदार्थ ही है ।

    यहाँ भूतकालीन अनन्तकाल में जो सिद्ध सुख के पात्र हुये हैं और भविष्य में 'अपने आत्मरूप उपादान से सिद्ध, स्वयं सातिशय' इत्यादि विशेषणों विशिष्ट सिद्ध सुख के पात्र होंगे, वे सभी काललब्धि के वश से ही हुये हैं; तथापि निज परमात्मा ही उपादेय है ऐसी रुचि रूप वीतराग चारित्र का अविनाभावी जो निश्चय-सम्यक्त्व है, उसकी ही मुख्यता है; काल की नहीं जिस कारण वह हेय है । वैसा ही कहा है-

    ''अधिक कहने से क्या? जो श्रेष्ठ पुरुष भूतकाल में सिद्ध हुये हैं और जो भविष्यकाल में सिद्ध होंगे, वह सम्यक्त्व का ही माहात्म्य जानो'' ॥१५५॥

    इसप्रकार निश्चय काल के व्याख्यान की मुख्यता से आठवें स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुईं ।

    इसप्रकार पहले कहे अनुसार 'दव्वं जीवमजीवं' इत्यादि १९ गाथाओं द्वारा आठ स्थलरूप से 'विशेष ज्ञेयाधिकार' समाप्त हुआ ।

    अब, इसके बाद शुद्ध जीव का द्रव्य-भाव प्राणों के साथ भेद में निमित्त [सपदेसेहिं समरयो] इत्यादि यथाक्रम से आठ गाथा पर्यन्त 'सामान्य भेद भावना'(नामक तीसरे अधिकार) का विशेष कथन करते हैं--

    वह इसप्रकार --

    अब, ज्ञान और ज्ञेय के ज्ञापन के लिये (ज्ञान करने के लिये) अथवा उसीप्रकार आत्मा की चार प्राणों के साथ भेदरूप भावना के लिये इस गाथा का प्रतिपादन करते हैं --

    🏠
    सपदेसेहिं समग्गो लोगो अट्ठेहिं णिट्ठिदो णिच्चो । (145)
    जो तं जाणदि जीवो पाणचदुक्काभिसंबद्धो ॥156॥
    सप्रदेशैः समग्रो लोकोऽर्थैर्निष्ठितो नित्यः ।
    यस्तं जानाति जीवः प्राणचतुष्काभिसम्बद्धः ॥१४५॥
    सप्रदेशपदार्थनिष्ठित लोक शाश्वत जानिये ।
    जो उसे जाने जीव वह चतुप्राण से संयुक्त है ॥१५६॥
    अन्वयार्थ : [सप्रदेशै: अर्थै:] सप्रदेश पदार्थों के द्वारा [निष्ठितः] समाप्ति को प्राप्त [समग्र: लोक:] सम्पूर्ण लोक [नित्य:] नित्य है, [तं] उसे [यः जानाति] जो जानता है [जीव:] वह जीव है,— [प्राणचतुष्काभिसंबद्ध:] जो कि (संसार दशा में) चार प्राणों से संयुक्त है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    इस प्रकार जिन्हें प्रदेश का सद्भाव फलित हुआ है ऐसे आकाश-पदार्थ से लेकर काल-पदार्थ तक के सभी पदार्थों से समाप्ति को प्राप्त जो समस्त लोक है उसे वास्तव में, उसमें अंतःपाती होने पर भी, अचिन्‍त्‍य ऐसी स्वपर को जानने की शक्तिरूप सम्पदा के द्वारा जीव ही जानता है, दूसरा कोई नहीं । इस प्रकार शेष द्रव्य ज्ञेय ही हैं और जीवद्रव्य तो ज्ञेय तथा ज्ञान है; - इस प्रकार ज्ञान और ज्ञेय का विभाग है ।

    अब, इस जीव को, सहजरूप से (स्वभाव से ही) प्रगट अनन्त-ज्ञान-शक्ति जिसका हेतु है और तीनों काल में अवस्थायिपना (टिकना) जिसका लक्षण है ऐसा, वस्तु का स्वरूपभूत होने से सर्वदा अविनाशी निश्‍चयजीवत्व होनेपर भी, संसारावस्था में अनादिप्रवाहरूप से प्रवर्तमान पुद्‌गल संश्लेष के द्वारा स्वयं दूषित होने से उसके चार प्राणों से संयुक्तपना है-जो कि (संयुक्तपना) व्यवहार-जीवत्व का हेतु है, और विभक्त करने योग्य है ॥१४५॥

    जयसेनाचार्य :
    [लोगो] लोक है । लोक कैसा है? [णिट्ठिदो] निष्ठित, समाप्ति को प्राप्त अथवा भरा हुआ है । किन कर्ताओं से भरा हुआ है? [अट्ठेहिं] सहज शुद्धबुद्ध एक स्वभावी जो वह परमात्मपदार्थ, तत्प्रभृति जो पदार्थ, उनसे भरा हुआ है । वह लोक और किन विशेषताओं वाला है? [सपदेसेहिं समग्गो] अपने प्रदेशों द्वारा समग्र (परिपूर्ण) है । अथवा पदार्थों से परिपूर्ण है । कैसे पदार्थों से परिपूर्ण है? सप्रदेशी- प्रदेश सहित पदार्थों से परिपूर्ण है । लोक और किस विशेषता वाला है? [णिच्चो] द्रव्यार्थिकनय से नित्य है अथवा लोकाकाश की अपेक्षा नित्य है । अथवा किसी पुरुष-विशेष द्वारा किया गया नहीं है, अत: नित्य है । [जो तं जाणदि] जो कर्ता उस ज्ञेयभूत लोक को जानता है, [जीवो] वह जीव पदार्थ है ।

    इससे क्या कहा गया है? जो वह विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी जीव है वह ज्ञान और ज्ञेय कहा गया है; परन्तु शेष पदार्थ तो ज्ञेय ही हैं -- इसप्रकार ज्ञाता और ज्ञेय का विभाग (भेद) है ।

    जीव और किस विशेषता वाला है? [णाणचदुक्केण संबद्धो] - यद्यपि निश्चय से जीव स्वत: सिद्ध परम चैतन्य स्वभाव रूप निश्चय प्राण से जीता है, तथापि व्यवहार से अनादि कर्म बन्धन वश आयु आदि अशुद्ध चार प्राणों द्वारा सम्बद्ध (सहित) होता हुआ जीता है । और वह शुद्धनय से जीव का स्वरूप नहीं है- इसप्रकार भेदरूप भावना जाननी चाहिये -- ऐसा अभिप्राय है ॥१५६॥

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    इंदियपाणो य तधा बलपाणो तह य आउपाणो य । (146)
    आणप्पाणप्पाणो जीवाणं होंति पाणा ते ॥157॥
    इन्द्रियप्राणश्च तथा बलप्राणस्तथा चायुःप्राणश्च ।
    आनपानप्राणो जीवानां भवन्ति प्राणास्ते ॥१४६॥
    इन्द्रिय बल अर आयु श्वासोच्छ्वास ये ही जीव के
    हैं प्राण इनसे लोक में सब जीव जीवे भव भ्रमे ॥१५७॥
    अन्वयार्थ : [इन्द्रिय प्राण: च] इन्द्रिय प्राण, [तथा बलप्राण:] बलप्राण, [तथा च आयुःप्राण:] आयुप्राण [च] और [आनपानप्राण:] श्‍वासोच्‍छ्‌वास प्राण; [ते] ये (चार) [जीवानां] जीवों के [प्राणा:] प्राण [भवन्ति] हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    
    • स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र -- यह पाँच इन्द्रियप्राण हैं;
    • काय, वचन और मन -- यह तीन बलप्राण हैं,
    • भव धारण का निमित्त (अर्थात् मनुष्यादि पर्याय की स्थिति का निमित्त) आयुप्राण है;
    • नीचे और ऊपर जाना जिसका स्वरूप है ऐसी वायु (श्‍वास) श्‍वासोच्छ्‌वास प्राण है ॥१४६॥

    जयसेनाचार्य :
    
    • अतीन्द्रिय- अनन्त सुख स्वभावी आत्मा से विलक्षण इन्द्रिय-प्राण,
    • मन, वचन और शरीर के व्यापार से रहित परमात्मद्रव्य से विसदृश (भिन्न) बल प्राण;
    • अनादि-अनन्त स्वभावी परमात्म-पदार्थ से विपरीत सादि-सान्त आयु-प्राण और
    • उच्छ्वास-निश्वास--स्वासोच्छवास से उत्पन्न खेद से रहित शुद्धात्मतत्त्व से विरुद्ध आनपान-स्वासोच्छवास प्राण
    इसप्रकार अभेद नय से आयु, इन्द्रिय, बल और स्वासोच्छ्वास रूप से चार प्राण जीवों के होते हैं । और वे शुद्ध नय से जीव से भिन्न है - ऐसी भावना करना चाहिये ॥१५७॥

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    पंच वि इंदियपाणा मणवचिकाया य तिण्णि बलपाणा ।
    आणप्पाणप्पाणो आउगपाणेण होंति दसपाणा ॥158॥
    पाँच इन्द्रिय प्राण मन-वच-काय त्रय बल प्राण हैं
    आयु श्वासोच्छ्वास जिनवर कहे ये दश प्राण हैं ॥१५८॥

    जयसेनाचार्य :
    पाँच प्रकार के इन्द्रिय प्राण, तीन प्रकार के बल प्राण और एक स्वासोच्छ्वास और एक आयु प्राण- इस प्रकार भेद से दस प्राण हैं; वे भी निश्चय से ज्ञानानन्द एक स्वभावी परमात्मा से भिन्न जानना चाहिये - ऐसा अभिप्राय है ॥१५८॥

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    पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीविस्सदि जो हि जीविदो पुव्वं । (147)
    सो जीवो पाणा पुण पोग्गलदव्वेहिं णिव्वत्ता ॥159॥
    प्राणैश्चतुर्भिर्जीवति जीविष्यति यो हि जीवितः पूर्वम् ।
    स जीवः प्राणाः पुनः पुद्गलद्रव्यैर्निर्वृत्ताः ॥१४७॥
    जीव जीवे जियेगा एवं अभीतक जिया है
    इन चार प्राणों से परन्तु प्राण ये पुद्गलमयी ॥१५९॥
    अन्वयार्थ : [यः हि] जो [चतुर्भि: प्राणै:] चार प्राणों से [जीवति] जीता है, [जीविष्यति] जियेगा [जीवित: पूर्वं] और पहले जीता था, [सः जीव:] वह जीव है । [पुन:] फिर भी [प्राणा:] प्राण तो [पुद्गलद्रव्यै: निर्वृत्ता:] पुद्‌गल द्रव्यों से निष्पन्न (रचित) हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    (व्‍युत्पत्ति के अनुसार) प्राणसामान्य से जीता है, जियेगा, और पहले जीता था, वह जीव है । इस प्रकार (प्राणसामान्य) अनादि संतानरूप (प्रवाहरूप) से प्रवर्तमान होने से (संसारदशा में) त्रिकाल स्थायी होने से प्राणसामान्य जीव के जीवत्व का हेतु है ही । तथापि वह (प्राण सामान्य) जीव का स्वभाव नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्य से निष्पन्न-रचित है ।

    जयसेनाचार्य :
    [पाणेहिं चदुहिं जीवदि] यद्यपि निश्चय से सत्ता, चैतन्य, सुख, बोध आदि शुद्ध भाव-प्राणों से जीता है तथापि व्यवहार से वर्तमान समय में द्रव्य-भाव रूप चार अशुद्ध प्राणों से जीता है, [जीविस्सदि] भविष्य काल में उनसे जियेगा, [जो हि जीविदो] जो वास्तव में जीवित था [पुव्वं] पहले भूतकाल में । [सो जीवो] वह जीव है । [ते पाणा] वे पहले कहे हुए प्राण [पोग्गलदव्वेहिं णिव्वत्ता] उदय में आये हुये पुद्गल कर्मों से रचित हैं । इस कारण ही पुद्गल-द्रव्य से विपरीत अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त-गुण-स्वभाव-रूप परमात्म-तत्त्व से (प्राणों की) भिन्न भावना करना चाहिये -- ऐसा भाव है ॥१५९॥

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    जीवो पाणणिबद्धो बद्धो मोहादिएहिं कम्मेहिं । (148)
    उवभुंजं कम्मफलं बज्झदि अण्णेहिं कम्मेहिं ॥160॥
    जीवः प्राणनिबद्धो बद्धो मोहादिकैः कर्मभिः ।
    उपभुंजानः कर्मफलं बध्यतेऽन्यैः कर्मभिः ॥१४८॥
    मोहादि कर्मों से बंधा यह जीव प्राणों को धरे ।
    अर कर्मफल को भोगता अर कर्म का बंधन करे ॥१६०॥
    अन्वयार्थ : [मोहादिकै: कर्मभि:] मोहादिक कर्मों से [बद्ध:] बँधा हुआ होने से [जीव:] जीव [प्राणनिबद्ध:] प्राणों से संयुक्त होता हुआ [कर्मफलं उपभुजानः] कर्मफल को भोगता हुआ [अन्यै: कर्मभि:] अन्य कर्मों से [बध्यते] बँधता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    
    1. मोहादिक पौद्गलिक कर्मों से बँधा हुआ होने से जीव प्राणों से संयुक्त होता है और
    2. प्राणों से संयुक्त होने के कारण पौद्‌गलिक कर्मफल को (मोही-रागी-द्वेषी जीव मोह-राग-द्वेषपूर्वक) भोगता हुआ पुन: भी अन्य पौद्‌गलिक कर्मों से बंधता है,
    इसलिये
    1. पौद्‌गलिक कर्म के कार्य होने से और
    2. पौद्‌गलिक कर्म के कारण होने से
    प्राण पौद्‌गलिक ही निश्‍चित होते हैं ॥१४८॥

    जयसेनाचार्य :
    [जीवो णाणणिबद्धो] जीव रूप कर्ता चार प्राणों से निबद्ध-सम्बद्ध-सहित है । वह कैसा होता हुआ प्राणों से सहित है? [बद्धो] शुद्धात्मा की प्राप्ति रूप लक्षण मोक्ष से विलक्षण बँधा हुआ उनसे सहित है । मोक्ष से विलक्षण किनसे बँधा है? [मोहादियेहिं कम्मेहिं] वह मोहनीय आदि कर्मों से बँधा है, इससे ज्ञात होता है कि मोहादि कर्मों से बँधा जीव प्राणों से निबद्ध होता है (कर्मों के बन्धन से रहित जीव प्राणों से निबद्ध नही होता है) इससे ही ज्ञात होता है कि प्राण पुद्गल कर्म के उदय से उत्पन्न है । इसप्रकार का (कर्म-बद्ध प्राणनिबद्ध) होता हुआ वह क्या करता है? [उवभुंजदि कम्मफलं] परम समाधि (उत्कृष्ट स्वरूपलीनता) से उत्पन्न नित्यानन्द एक लक्षण सुखरूपी अमृत-भोजन को नहीं प्राप्त करता हुआ, कड़वे विष के समान कर्मफल को ही भोगता है । [बज्झदि अण्णेहिं कम्मेहिं] उन कर्म के फल को भोगता हुआ यह जीव, कर्म से रहित आत्मा से विपरीत, अन्य नवीन कर्मों से बँधता है । जिस कारण कर्मफल को भोगता हुआ नवीन कर्मों से बँधता है, उससे ज्ञात होता है कि प्राण नवीन पुद्गल कर्मों के कारणभूत हैं ॥१६०॥

    🏠
    पाणाबाधं जीवो मोहपदेसेहिं कुणदि जीवाणं । (149)
    जदि सो हवदि हि बंधो णाणावरणादिकम्मेहिं ॥161॥
    प्राणाबाधं जीवो मोहप्रद्वेषाभ्यां करोति जीवयोः ।
    यदि स भवति हि बन्धो ज्ञानावरणादिकर्मभिः ॥१४९॥
    मोह एवं द्वेष से जो स्व-पर को बाधा करे
    पूर्वोक्त ज्ञानावरण आदि कर्म वह बंधन करे ॥१६१॥
    अन्वयार्थ : [यदि] यदि [जीव:] जीव [मोहप्रद्वेषाभ्यां] मोह और प्रद्वेष के द्वारा [जीवयो:] जीवों के (स्वजीव के तथा परजीव के) [प्राणाबाधं करोति] प्राणों को बाधा पहुँचाते हैं, [सः हि] तो पूर्वकथित [ज्ञानावरणादिकर्मभि: बंध:] ज्ञानावरणादिक कर्मों के द्वारा बंध [भवति] होता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    प्रथम तो प्राणों से जीव कर्मफल को भोगता है; उसे भोगता हुआ मोह तथा प्रद्वेष को प्राप्त होता है; मोह तथा द्वेष से स्वजीव तथा परजीव के प्राणों को बाधा पहुँचाता है । वहाँ कदाचित् दूसरे के द्रव्य प्राणों को बाधा पहुँचाकर और कदाचित् बाधा न पहुँचाकर, अपने भावप्राणों को तो उपरक्तता से (अवश्य ही) बाधा पहुँचाता हुआ जीव ज्ञानावरणादि कर्मों को बाँधता है । इस प्रकार प्राण पौद्‌गलिक कर्मों के कारणपने को प्राप्त होते हैं ॥१४९॥

    जयसेनाचार्य :
    [पाणाबाधं] - आयु आदि प्राणों की बाधा-पीड़ा-कष्ट को [कुणदि] - करता है । प्राणों की बाधा करनेवाला वह कौन है? [जीवो] - जीव प्राणों को बाधित करता है । वह किनके द्वारा उसे करता है? [मोहपदेसेहिं] - परिपूर्ण निर्मल केवल-ज्ञान-रूपी महान दीपक द्वारा मोहरूपी अंधकार को नष्ट करने वाले परमात्मा से विपरीत, मोह और द्वेष से उसे करता है । वह मोह-द्वेष से किनके प्राणों को बाधित करता है? [जीवाणं] - वह इनसे एकेन्द्रिय प्रमुख जीवों के प्राणों को बाधित करता है । [जदि] - यदि वह ऐसा करता है, [सो हवदि बंधो] - तब निज परमात्मा की प्राप्ति-रूप मोक्ष से विपरीत मूल और उत्तर प्रकृतियों के भेद से अनेक भेद वाला परमागम में प्रसिद्ध वह बंध [हि] - वास्तव में होता है । वह प्रसिद्ध बंध किनसे होता है? [णाणावरणादि कम्मेहिं] - ज्ञानावरणादि कर्मों से वह बन्ध होता है ।

    इससे ज्ञात होता है कि प्राण पुद्गल कर्मबंध के कारण हैं ।

    यहाँ अर्थ यह है - जैसे तपे हुये लोहे के गोले से दूसरे को मारने का इच्छुक होता हुआ कोई भी पहले स्वयं को ही मारता है, बाद में दूसरे के घात का नियम नहीं है (हो भी, न भी हो); उसीप्रकार तपे हुये लोहे के गोले के समान मोहादिरूप परिणमित होता हुआ यह अज्ञानी जीव भी, पहले विकार रहित स्व-संवेदन ज्ञान स्वरूप अपने शुद्ध प्राणों का घात करता है, पश्चात दूसरे के प्राणों के घात का नियम नहीं है (हो भी, नहीं भी हो) ॥१६१॥

    🏠
    आदा कम्ममलिमसो धरेदि पाणे पुणो पुणो अण्णे । (150)
    ण चयदि जाव ममत्तिं देहपधाणेसु विसयेसु ॥162॥
    आत्मा कर्ममलीमसो धारयति प्राणान् पुनः पुनरन्यान् ।
    न त्यजति यावन्ममत्वं देहप्रधानेषु विषयेषु ॥१५०॥
    ममता न छोड़े देह विषयक जबतलक यह आतमा
    कर्ममल से मलिन हो पुन-पुन: प्राणों को धरे ॥१६२॥
    अन्वयार्थ : [यावत्] जब तक [देहप्रधानेषु विषयेषु] देहप्रधान विषयों में [ममत्वं] ममत्व को [न त्यजति] नहीं छोड़ता, [कर्ममलीमस: आत्मा] तब तक कर्म से मलिन आत्मा [पुन: पुन:] पुनः पुन: [अन्यान् प्राणान्] अन्य-अन्य प्राणों को [धारयति] धारण करता है ॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    जो इस आत्मा को पौद्गलिक प्राणों की संतानरूप प्रवृत्ति है, उसका अन्तरंग हेतु शरीरादि का ममत्वरूप उपरक्तपना है, जिसका मूल (निमित्त) अनादि पौद्गलिक कर्म है ।

    जयसेनाचार्य :
    [आदा कम्ममलिमसो] - यह आत्मा स्वभाव से भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्म रूपी कर्ममल से रहित होने के कारण अत्यन्त निर्मल होने पर भी व्यवहार से अनादि (से चले आये) कर्मों के बन्ध-वश मलिन होता है । वैसा होता हुआ (मलिन होता हुआ) आत्मा क्या करता है? [धरेदि पाणे पुणो पुणो अण्णे] - बारम्बार दूसरे-दूसरे नवीन प्राणों को धारण करता है । जब तक क्या नहीं करता है? [ ण चयदि जाव ममत्तं] - स्नेह से रहित, चैतन्य चमत्कार परिणति से विपरीत, ममता (मेरेपन) को जितने समय तक (जब तक) नहीं छोड़ता है । वह किन विषयों में ममता को जब तक नहीं छोड़ता है? [देहपधाणेसु विसयेसु] - शरीर और विषयों से रहित उकृष्ट चैतन्य प्रकाशरूप परिणति से विपरीत, शरीर है प्रधान जिसमें ऐसे पाँचों इन्द्रियों के विषयों में जब तक ममता को नहीं छोड़ता है ।

    इससे यह निश्चित हुआ कि शरीरादि में ममता ही इन्द्रिय आदि प्राणों की उत्पत्ति का अन्तरंग कारण है ॥१६२॥

    🏠
    जो इंदियादिविजई भवीय उवओगमप्पगं झादि । (151)
    कम्मेहिं सो ण रज्जदि किह तं पाणा अणुचरंति ॥163॥
    य इन्द्रियादिविजयी भूत्वोपयोगमात्मकं ध्यायति ।
    कर्मभिः स न रज्यते कथं तं प्राणा अनुचरन्ति ॥१५१॥
    उपयोगमय निज आतमा का ध्यान जो धारण करे
    इन्द्रियजयी वह विरतकर्मा प्राण क्यों धारण करें ॥१६३॥
    अन्वयार्थ : [यः] जो [इन्द्रियादिविजयीभूत्वा] इन्द्रियादि का विजयी होकर [उपयोगं आत्मकं] उपयोगमात्र आत्मा का [ध्यायति] ध्यान करता है, [सः] वह [कर्मभि:] कर्मों के द्वारा [न रज्यते] रंजित नहीं होता; [तं] उसे [प्राणा:] प्राण [कथं] कैसे [अनुचरंति] अनुसरण कर सकते हैं? (अर्थात् उसके प्राणों का सम्बन्ध नहीं होता ।)

    अमृतचंद्राचार्य :
    वास्तव में पौद्‌गलिक प्राणों के संतति की निवृत्ति का अन्तरङ्ग हेतु पौद्‌गलिक कर्म जिसका कारण (निमित्त) है ऐसे उपरक्तता का अभाव है । और वह अभाव जो जीव समस्त इन्द्रियादिक परद्रव्यों के अनुसार परिणति का विजयी होकर, (अनेक वर्णों वाले) आश्रयानुसार सारी परिणति से व्यावृत्त (पृथक्, अलग) हुए स्फटिक मणि की भाँति, अत्यन्त विशुद्ध उपयोगमात्र अकेले आत्मा में सुनिश्‍चलतया वसता है, उस (जीव) के होता है ।

    यहाँ यह तात्पर्य है कि—आत्मा की अत्यन्त विभक्तता सिद्ध करने के लिये व्यवहारजीवत्व के हेतुभूत पौद्‌गलिक प्राण इस प्रकार उच्छेद करने योग्य हैं ।

    जयसेनाचार्य :
    [जो इंदियादिविजई भवीय] - जो कर्ता, अतीन्द्रिय आत्मा से उत्पन्न सुखरूपी अमृत में सन्तोष के माध्यम से जितेन्द्रिय होने के कारण कषाय रहित निर्मल अनुभूति के बल से और कषायों को जीतने से, पंच इन्द्रियों आदि पर विजय प्राप्त कर [उवओगमप्पगं झादि] - केवलज्ञान, केवलदर्शन उपयोगमयी निज आत्मा का ध्यान करता है, [कम्मेहिं सो ण रज्जदि] - कर्मों से - वह चैतन्य चमत्कारी आत्मा के प्रतिबन्धक--आत्मा को बाँधनेवाले ज्ञानावरणादि कर्मों से रँगता नहीं, बँधता नहीं है । [किह तं पाणा अणुचरंति] - कर्मों के बंध का अभाव होने पर, उस पुरुष का प्राणरूपी कर्ता अनुचरण कैसे करेंगे, आश्रय कैसे करेंगे? किसी भी प्रकार से उसका अनुचरण नहीं कर सकते ।

    इससे ज्ञात होता है कि कषाय और इन्द्रियों पर विजय ही पाँच इन्द्रियों आदि प्राणों के विनाश का कारण है ॥१६३॥

    इसप्रकार [सपदेसेहिं समग्गो] - इत्यादि आठ गाथाओं द्वारा 'सामान्य भेद भावना' अधिकार (नामक तीसरा अधिकार) समाप्त हुआ ।

    अब इसके बाद ५१ गाथा पर्यन्त विशेष भेदभावनाधिकार (नामक चौथा अधिकार) कहते हैं । वहाँ चार विशेष अन्तराधिकार हैं । उन चारों के बीच शुभ आदि तीन उपयोगों की मुख्यता से ग्यारह गाथा पर्यन्त पहला विशेष अन्तराधिकार प्रारम्भ होता है ।

    उसमें चार स्थल हैं । उसमें
    • सबसे पहले मनुष्यादि पर्यायों के साथ शुद्धात्म-स्वरूप की पृथकता के परिज्ञान के लिए [अत्थित्तणिच्छिदस्स हि] - इत्यादि यथाक्रम से तीन गाथायें प्रथम स्थल में हैं ।
    • उसके बाद उनके संयोग के कारणरूप [अप्पा उवओगप्पा] - इत्यादि दो गाथायें दूसरे स्थल में हैं ।
    • उसके बाद शुभ, अशुभ और शुद्धोपयोग - इन तीन उपयोगों की सूचना की मुख्यता से [जो जाणादि जिणिंदे] - इत्यादि तीन गाथायें तीसरे स्थल में हैं ।
    • तत्पश्चात् शरीर-वचन और मन का शुद्धात्मा के साथ भेद कथनरूप से [णाहं देहो] - इत्यादि तीन गाथायें चौथे स्थल में हैं ।
    इसप्रकार ग्यारह गाथाओं के द्वारा पहले विशेष अन्तराधिकार में सामूहिक पातनिका हुई ।

    प्रथम विशेषान्तराधिकार का स्थल विभाजन
    स्थल क्रम प्रतिपादित विषय कहाँ से कहाँ पर्यंत गाथाएँ कुल गाथाएँ
    प्रथम स्थल मनुष्य पर्यायों के साथ शुद्धात्म-स्वरूप की भिन्नता 164 से 166 3
    द्वितीय स्थल उनके संयोग कारणों का प्रतिपादन 167 से 168 2
    तृतीय स्थल शुभादि उपयोगत्रय सूचन मुख्यता 169 से 171 3
    चतुर्थ स्थल शरीर-मन-वाकन के साथ शुद्धात्म-स्वरूप की भिन्नता 172 से 174 3
    कुल 4 स्थल कुल 11 गाथाएँ

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    अत्थित्तणिच्छिदस्स हि अत्थस्सत्थंतरम्हि संभूदो । (152)
    अत्थो पज्जाओ सो संठाणादिप्पभेदेहिं ॥164॥
    अस्तित्वनिश्चितस्य ह्यर्थस्यार्थान्तरे संभूतः ।
    अर्थः पर्यायः स संस्थानादिप्रभेदैः ॥१५२॥
    अस्तित्व निश्चित अर्थ की अन्य अर्थ के संयोग से
    जो अर्थ वह पर्याय जो संस्थान आदिक भेदमय ॥१६४॥
    अन्वयार्थ : [अस्तित्वनिश्‍चितस्य अर्थस्य हि] अस्तित्व से निश्‍चित अर्थ का (द्रव्य का) [अर्थान्तरे सद्य:] अन्य अर्थ में (द्रव्य में) उत्पन्न [अर्थ:] जो अर्थ (भाव) [स पर्याय:] वह पर्याय है [संस्थानादिप्रभेदै:] कि जो संस्थानादि भेदों सहित होती है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    स्वलक्षणभूत स्वरूप-अस्तित्व से निश्‍चि‍त एक अर्थ का (द्रव्य) का, स्वलक्षणभूत स्वरूपअस्तित्व से ही निश्‍चित ऐसे अन्य अर्थ में विशिष्ट (भिन्न-भिन्न) रूप से उत्पन्न होता हुआ अर्थ (भाव) अनेक द्रव्यात्मक पर्याय है; जो कि वास्तव में, जैसे पुद्‌गल की अन्य पुद्‌गल में अन्य पुद्‌गलात्मकपर्याय उत्पन्न होती हुई देखी जाती है उसी प्रकार, जीव की पुद्‌गल में संस्थानादि से विशिष्टतया (संस्थान इत्यादि के भेद सहित) उत्‍पन्‍न होती हुई अनुभव में अवश्य आती है । और ऐसी पर्याय योग्य घटित है; क्योंकि जो केवल जीव की व्यतिरेकमात्र है ऐसी अस्खलित एक द्रव्य पर्याय ही अनेक द्रव्यों के संयोगात्मकतया भीतर ज्ञात होती है ।

    जयसेनाचार्य :
    [अत्थित्तणिच्छिदस्स हि] - वास्तव में ज्ञानानन्द एक लक्षण स्वरूपास्तित्व द्वारा निश्चित - ज्ञात का । इस स्वरूपवाले किसका? [अत्थस्स] - इस स्वरूपवाले परमात्म-पदार्थ का [अत्थंतरम्मि] - शुद्धात्म-पदार्थ से अन्य - भिन्न ज्ञानावरणादि कर्मरूप अर्थान्तर में [संभूदो] - संजात-उत्पन्न [अत्थो] - जो मनुष्य नारक आदि रूप अर्थ – पदार्थ है, [पज्जाओ सो] - जीव की वह इसप्रकार की पर्याय विकार रहित शुद्धात्मा की अनुभूति लक्षण स्वभाव व्यंजन पर्याय से भिन्न के समान होती हुई विभाव व्यंजन पर्याय होती है । वह किनसे सहित उत्पन्न होती है? [संठाणादिप्पभेदेहिं] - संस्थान-आकार आदि से रहित परमात्म-द्रव्य से विलक्षण, संस्थान-संहनन शरीर आदि प्रभेदों से सहित उत्पन्न होती है ॥१६४॥

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    णरणारयतिरियसुरा संठाणादीहिं अण्णहा जादा । (153)
    पज्जाया जीवाणं उदयादिहिं णामकम्मस्स ॥165॥
    नरनारकतिर्यक्सुराः संस्थानादिभिरन्यथा जाताः ।
    पर्याया जीवानामुदयादिभिर्नामकर्मणः ॥१५३॥
    तिर्यंच मानव देव नारक नाम नामक कर्म के
    उदय से पर्याय होवें अन्य-अन्य प्रकार कीं ॥१६५॥
    अन्वयार्थ : [नरनारकतिर्यक्‌सूरा:] मनुष्य, नारक, तिर्यंच और देव, [नामकर्मण: उदयादिभि:] नामकर्म के उदयादिक के कारण [जीवानां पर्याया:] जीवों की पर्यायें हैं,—[संस्थानादिभि:] जो कि संस्थानादि के द्वारा [अन्यथा जाता:] अन्य-अन्य प्रकार की होती हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव—जीवों की पर्यायें हैं । वे नामकर्मरूप पुद्‌गल के विपाक के कारण अनेक द्रव्यों की संयोगात्मक हैं; इसलिये जैसे तृष की अग्नि और अंगार इत्यादि अग्नि की पर्यायें चूरा और डली इत्यादि आकारों से अन्य-अन्य प्रकार की होती हैं, उसी प्रकार जीव की वे नारकादि पर्यायें संस्थानादि के द्वारा अन्य-अन्य प्रकार की ही होती हैं ॥१५३॥

    जयसेनाचार्य :
    [णरणारयतिरियसुरा] - मनुष्य, नारक, तिर्यंच, देव रूप अवस्था-विशेष [संठाणादीहिं अण्णहा जादा] - संस्थानादि द्वारा दूसरे प्रकार की होती हैं; मनुष्य-भव में जो संस्थान और औदारिक शरीर आदि हैं उनकी अपेक्षा दूसरे भव में, उनसे भिन्न दूसरे सन्स्थानादिक हैं । उस कारण वे मनुष्य, नारक आदि पर्यायें [अन्यथा जाता] भिन्न-भिन्न कही गई हैं; शुद्ध-बुद्ध एक-स्वभावी परमात्म-द्रव्यत्व की अपेक्षा भिन्न नहीं हैं । शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी परमात्म-द्रव्यत्व की अपेक्षा वे भिन्न क्यों नहीं हैं? तृण, लकड़ी, पत्ते के आकार आदि भेद से भिन्न (होने पर भी उन सब में व्याप्त एक) अग्नि के समान उन सभी का वह एक ही स्वरूप होने से वे उसकी अपेक्षा भिन्न नहीं हैं । [पज्जाया जीवाणं ते च] - मनुष्य, नारक आदि जीवों की विभाव व्यंजन-पर्यायें कहलाती हैं । वे पर्यायें किनके द्वारा की जाती हैं? [उदयादिहिं णामकम्मस्स] - नामकर्म के उदय आदि द्वारा, दोषरहित परमात्मा शब्द से कहने योग्य नामरहित, गोत्ररहित आदि लक्षणवाले शुद्धात्मद्रव्य से भिन्न, नामकर्म जनित बन्ध उदय उदीरणा आदि द्वारा की जाती हैं ।

    जिसकारण वे कर्म के उदय से उत्पन्न हैं, उससे ही ज्ञात होता है कि वे शुद्धात्मा का स्वरूप नहीं हैं ॥१६५॥

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    तं सब्भावणिबद्धं दव्वसहावं तिहा समक्खादं । (154)
    जाणदि जो सवियप्पं ण मुहदि सो अण्णदवियम्हि ॥166॥
    तं सद्भावनिबद्धं द्रव्यस्वभावं त्रिधा समाख्यातम् ।
    जानाति यः सविकल्पं न मुह्यति सोऽन्यद्रव्ये ॥१५४॥
    त्रिधा निज अस्तित्व को जाने जो द्रव्यस्वभाव से
    वह हो न मोहित जान लो अन-अन्य द्रव्यों में कभी ॥१६६॥
    अन्वयार्थ : [यः] जो जीव [तं] उस (पूर्वोक्त) [सद्‌भावनिबद्धं] अस्तित्व निष्पन्न, [त्रिधा समाख्यातं] तीन प्रकार से कथित, [सविकल्पं] भेदों वाले [द्रव्यस्वभावं] द्रव्यस्वभाव को [जानाति] जानता है, [सः] वह [अन्यद्रव्ये] अन्य द्रव्य में [न मुह्यति] मोह को प्राप्त नहीं होता ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    जो, द्रव्य को निश्‍चित करने वाला, स्वलक्षणभूत स्वरूपअस्तित्व कहा गया है वह वास्तव में द्रव्य का स्वभाव ही है; क्योंकि द्रव्य का स्वभाव अस्तित्वनिष्‍पन्न (अस्तित्व का बना हुआ) है । द्रव्य-गुण-पर्यायरूप से तथा ध्रौव्य-उत्पाद-व्ययरूप से त्रयात्मक भेदभूमि‍का में आरुढ़ ऐसा यह द्रव्य-स्वभाव ज्ञात होता हुआ, पर-द्रव्य के प्रति मोह को दूर करके स्व-पर के विभाग का हेतु होता है, इसलिये स्वरूप-अस्तित्व ही स्व-पर के विभाग की सिद्धि के लिये पद-पद पर अवधारि‍त करना (लक्ष्य में लेना) चाहिये । वह इस प्रकार है --
    • चेतनत्व का अन्वय जिसका लक्षण है ऐसा जो द्रव्य,
    • चेतनाविशेषत्व (चेतन का विशेषपना) जिसका लक्षण है ऐसा जो गुण, और
    • चेतनत्व का व्यतिरेक जिसका लक्षण है ऐसी जो पर्याय
    यह त्रयात्मक (ऐसा स्वरूप-अस्तित्व), तथा
    • पूर्व और उत्तर व्यतिरेक को स्पर्श करने वाले चेतनत्वरूप से जो ध्रौव्य और
    • चेतन के उत्तर तथा पूर्व व्यतिरेकरूप से जो उत्पाद और व्यय,
    यह त्रयात्मक (ऐसा) स्वरूप-अस्तित्व जिसका स्वभाव है ऐसा मैं वास्तव में यह अन्य हूँ, (अर्थात् मैं पुद्‌गल से ये भिन्न रहा) । और
    • अचेतनत्व का अन्वय जिसका लक्षण है ऐसा जो द्रव्य,
    • अचेतना विशेषत्व जिसका लक्षण है ऐसा जो गुण और
    • अचेतनत्व का व्यतिरेक जिसका लक्षण है ऐसी जो पर्याय
    यह त्रयात्मक (ऐसा स्वरूपअस्तित्व) तथा
    • पूर्व और उत्तर व्यतिरेक को स्पर्श करने वाले अचेतनत्वरूप से जो ध्रौव्य और
    • अचेतन के उत्तर तथा पूर्व व्यतिरेकरूप से जो उत्पाद और व्यय
    यह त्रयात्मक स्वरूप-अस्तित्व जिस पुद्‌गल का स्वभाव है वह वास्तव में (मुझसे) अन्य है । (इसलिये) मुझे मोह नहीं है; स्व-पर का विभाग है ॥१५४॥

    जयसेनाचार्य :
    [जाणदि] - जानता है । [जो] - जो - कर्ता । जो किसे जानता है? [तं] - उस पहले कहे हुये [दव्वसहावं] - परमात्म-द्रव्य के स्वभाव को जानता है । वह परमात्म-द्रव्य किस विशेषता वाला है? [सब्भाववणिबद्धं] - स्वभाव अर्थात् स्वरूप-सत्ता उसमें निबद्ध - उसके आधीन - उसमें ही तन्मयरूप सद्भाव-निबद्ध है । वह और भी किस विशेषतावाला है? [तिहा समक्खादं] - वह तीन प्रकार से कहा गया है । केवलज्ञानादि गुण, सिद्धत्व आदि विशुद्ध पर्यायें, और उन दोनों के आधारभूत परमात्म-द्रव्यत्व - इस प्रकार कहे गये लक्षण वाले तीन स्वरूप, और वैसे ही शुद्ध उत्पाद-व्यय-धौव्य - तीन स्वरूप सहित जो पहले कहा हुआ स्वरूपास्तित्व; उसके द्वारा अच्छी तरह से आख्यात है - कहा गया है - प्रतिपादित किया गया है । और वह आत्मा का स्वभाव कैसा है? [सवियप्पं] - सविकल्प - पहले कहे गये द्रव्य-गुण-पर्याय रूप से भेद सहित है ।

    जो इसप्रकार आत्मा के स्वभाव को जानता है, [ण मुहदि सो अण्णदवियम्हि] - वह अन्य द्रव्य में मोहित नहीं होता है; वह भेदज्ञानी विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी आत्म-तत्त्व को छोड़कर शरीर, रागादि परद्रव्य में मोह को प्राप्त नहीं होता है - ऐसा अर्थ है ॥१६६॥

    इस प्रकार मनुष्य-नारक आदि पर्यायों के साथ परमात्मा के विशेष-भेद कथन रूप से पहले स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुईं ।

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    अप्पा उवओगप्पा उवओगो णाणदंसणं भणिदो । (155)
    सो वि सुहो असुहो वा उवओगो अप्पणो हवदि ॥167॥
    आत्मा उपयोगात्मा उपयोगो ज्ञानदर्शनं भणितः ।
    सोऽपि शुभोऽशुभो वा उपयोग आत्मनो भवति ॥१५५॥
    आतमा उपयोगमय उपयोग दर्शन-ज्ञान हैं
    अर शुभ-अशुभ के भेद भी तो कहे हैं उपयोग के ॥१६७॥
    अन्वयार्थ : [आत्मा उपयोगात्मा] आत्मा उपयोगात्मक है; [उपयोग:] उपयोग [ज्ञानदर्शनं भणित:] ज्ञान-दर्शन कहा गया है; [अपि] और [आत्मनः] आत्मा का [सः उपयोग:] वह उपयोग [शुभ: अशुभ: वा] शुभ अथवा अशुभ [भवति] होता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    वास्तव में आत्मा को परद्रव्य के संयोग का कारण उपयोगविशेष है । प्रथम तो उपयोग वास्तव में आत्मा का स्वभाव है क्योंकि वह चैतन्यानुविधायी (उपयोग चैतन्य का अनुसरण होने वाला) परिणाम है । और वह उपयोग ज्ञान तथा दर्शन है, क्योंकि चैतन्य साकार और निराकार ऐसा उभयरूप है । अब इस उपयोग के शुद्ध और अशुद्ध ऐसे दो भेद किये गये हैं । उसमें, शुद्ध उपयोग निरुपराग (निर्विकार) है; और अशुद्ध उपयोग सोपराग (सविकार) है । और वह अशुद्ध उपयोग शुभ और अशुभ ऐसे दो प्रकार का है, क्योंकि उपराग विशुद्धिरूप और संक्लेशरूप ऐसा दो प्रकार का है (अर्थात् विकार मन्दकषायरूप और तीव्रकषायरूप ऐसा दो प्रकार का है)

    जयसेनाचार्य :
    [अप्पा] - आत्मा है । आत्मा कैसा है? [उवओगप्पा]- चैतन्य का अनुसरण करनेवाला जो वह उपयोग, उससे रचा हुआ होने से उपयोगात्मा - उपयोगस्वरूप है । [उवओगो णाणदंसणं भणिदो] - और वह उपयोग सविकल्प-ज्ञान, निर्विकल्प-दर्शन - ऐसा कहा है । [सो वि सुहो] - वह ज्ञान-दर्शन उपयोग भी धर्मानुरागरूप शुभ, [असुहो] - विषयानुरागरूप और द्वेष, मोह रूप अशुभ । [वा] - वा शब्द से शुभ-अशुभ अनुराग रहित होने के कारण शुद्धरूप है । [उवओगो अप्पणो हवदि] - इस प्रकार आत्मा का तीन लक्षण (वाला) उपयोग है - ऐसा अर्थ है ॥१६७॥

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    उवओगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्स संचयं जादि । (156)
    असुहो वा तध पावं तेसिमभावे ण चयमत्थि ॥168॥
    उपयोगो यदि हि शुभः पुण्यं जीवस्य संचयं याति ।
    अशुभो वा तथा पापं तयोरभावे न चयोऽस्ति ॥१५६॥
    उपयोग हो शुभ पुण्यसंचय अशुभ हो तो पाप का
    शुभ-अशुभ दोनों ही न हो तो कर्म का बंधन न हो ॥१६८॥
    अन्वयार्थ : [उपयोग:] उपयोग [यदि हि] यदि [शुभ:] शुभ हो [जीवस्य] तो जीव के [पुण्यं] पुण्य [संचय याति] संचय को प्राप्त होता है [तथा वा अशुभ:] और यदि अशुभ हो [पापं] तो पाप संचय होता है । [तयो: अभावे] उनके (दोनों के) अभाव में [चय: नास्ति] संचय नहीं होता ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    जीव का परद्रव्य के संयोग का कारण अशुद्ध उपयोग है । और वह विशुद्धि तथा संक्लेशरूप उपराग के कारण शुभ और अशुभरूप से द्विविधता को प्राप्त होता हुआ, जो पुण्य और पापरूप से द्विविधता को प्राप्त होता है ऐसा जो परद्रव्य उसके संयोग के कारणरूप से काम करता है । (उपराग मन्दकषायरूप और तीव्रकषायरूप से दो प्रकार का है, इसलिये अशुद्ध उपयोग भी शुभ-अशुभ के भेद से दो प्रकार का है; उसमें से शुभोपयोग पुण्यरूप परद्रव्य के संयोग का कारण होता है और अशुभोपयोग पापरूप परद्रव्य के संयोग का कारण होता है । ) किन्तु जब दोनों प्रकार के अशुद्धोपयोग का अभाव किया जाता है तब वास्तव में उपयोग शुद्ध ही रहता है; और वह तो परद्रव्य के संयोग का अकारण ही है । (अर्थात् शुद्धोपयोग परद्रव्य के संयोग का कारण नहीं है) ॥१५६॥

    जयसेनाचार्य :
    [उवओगो जदि हि सुहो] - यदि उपयोग वास्तव में शुभ है, तो [पुण्णं जीवस्स संचयं जादि]- उस समय जीव का द्रव्य-पुण्य-रूप कर्ता संचय - उपचय - वृद्धि को प्राप्त होता है अर्थात् द्रव्य-पुण्य बँधता है - ऐसा अर्थ है । [असुहो वा तह पावं] - तथा यदि अशुभोपयोग है, तो उसी प्रकार पुण्य के समान द्रव्य-पाप संचय से प्राप्त होता है - बँधता है । [तेसिमभावे ण चयमत्थि] - उन दोनों के अभाव में चय-बंधन नहीं होता है । दोष-रहित निजपरमात्मा की भावनारूप शुद्धोपयोग के बल से जब उन दोनों शुभ-अशुभ उपयोग का अभाव किया जाता है, तब उन दोनों ही प्रकार का संचय - कर्मों का बंधन नहीं होता है - ऐसा अर्थ है ॥१६८॥

    इसप्रकार शुभ-अशुभ-शुद्ध - तीनों उपयोगों के सामान्य कथनरूप से दूसरे स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुई ।

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    जो जाणादि जिणिंदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे । (157)
    जीवेसु साणुकंपो उवओगो सो सुहो तस्स ॥169॥
    यो जानाति जिनेन्द्रान् पश्यति सिद्धांस्तथैवानागारान् ।
    जीवेषु सानुकम्प उपयोगः स शुभस्तस्य ॥१५७॥
    श्रद्धान सिध-अणगार का अर जानना जिनदेव को
    जीवकरुणा पालना बस यही है उपयोग शुभ ॥१६९॥
    अन्वयार्थ : [यः] जो [जिनेन्द्रान्] जिनेन्द्रों को [जानाति] जानता है, [सिद्धान् तथैव अनागारान्] सिद्धों तथा अनागारों की (आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुओं की) [पश्यति] श्रद्धा करता है, [जीवेषु सानुकम्प:] और जीवों के प्रति अनुकम्पायुक्त है, [तस्य] उसके [सः] वह [शुभ: उपयोग:] शुभ उपयोग है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    विशिष्ट (विशेष प्रकार की) क्षयोपशमदशा में रहने वाले दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयरूप पुद्‌गलों के अनुसार परिणति में लगा होने से शुभ उपराग का ग्रहण करने से, जो (उपयोग) परम भट्टारक महा देवाधिदेव, परमेश्वर—अर्हंत, सिद्ध और साधु की श्रद्धा करने में तथा समस्त जीवसमूह की अनुकम्पा का आचरण करने में प्रवृत्त है, वह शुभोपयोग है ॥१५७॥

    जयसेनाचार्य :
    [जो जाणादि जिणिन्दे] - कर्तारूप जो जानता है । किन्हें जानता है? अनन्तज्ञान आदि चतुष्टय सहित और क्षुधा (भूख) आदि अठारह दोषों से रहित जिनेन्द्र भगवन्तों को जानता है । [पेच्छदि सिद्धे] - श्रद्धान करता है । किनका श्रद्धान करता है? ज्ञानावरणादि आठ कर्म रहित और सम्यक्त्व आदि आठ गुणों में गर्भित अनन्तगुण सहित सिद्धों का श्रद्धान करता है । [तहेव अणगारे] - उसी प्रकार अनागारों-मुनिराजों का श्रद्धान करता है । अनागार शब्द से वाच्य - कहे जाने वाले निश्चय-व्यवहार पाँच आचार आदि यथोक्त लक्षण वाले आचार्य-उपाध्याय-साधुओं का श्रद्धान करता है । [जीवेसु साणुकम्पो] - त्रस और स्थावर जीवों में सानुकम्प-दया से सहित है । [उवओगो सो सुहो] - वह इस प्रकार का उपयोग शुभ कहलाता है । और वह शुभ उपयोग किसके होता है? [तस्य] - उस पहले कहे हुये लक्षण वाले जीव के होता है - ऐसा अभिप्राय है ॥१६९॥

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    विसयकसाओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्टगोट्ठिजुदो । (158)
    उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो ॥170॥
    विषयकषायावगाढो दुःश्रुतिदुश्चित्तदुष्टगोष्ठियुतः ।
    उग्र उन्मार्गपर उपयोगो यस्य सोऽशुभः ॥१५८॥
    अशुभ है उपयोग वह जो रहे नित उन्मार्ग में
    श्रवण-चिंतन-संगति विपरीत विषय-कषाय में ॥१७०॥
    अन्वयार्थ : [यस्य उपयोग:] जिसका उपयोग [विषयकषायावगाढ:] विषयकषाय में अवगाढ़ (मग्न) है, [दु:श्रुतिदुश्चित्तदुष्टगोष्टियुत:] कुश्रुति, कुविचार और कुसंगति में लगा हुआ है, [उग्र:] उग्र है तथा [उन्मार्गपर:] उन्मार्ग में लगा हुआ है, [सः अशुभ:] उसका वह अशुभोपयोग है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    विशिष्ट उदयदशा में रहने वाले दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयरूप पुद्‌गलों के अनुसार परिणति में लगा होने से अशुभ उपराग को ग्रहण करने से, जो (उपयोग) परम भट्टारक, महा देवाधिदेव, परमेश्वर—अर्हंत, सिद्ध और साधु को छोड़कर अन्य- उन्मार्ग की श्रद्धा करने में तथा विषय, कषाय, कुश्रवण, कुविचार, कुसंग और उग्रता का आचरण करने में प्रवृत्त है, वह अशुभोपयोग है ॥१५८॥

    जयसेनाचार्य :
    
    1. [विसयकसाओगाढो] विषय-कषायों में अवगाढ़--आसक्त,
    2. [दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्टगोट्ठिजुदो] दु:श्रुति--बुरा सुनने या पढने, दुश्चित्त--बुरामन--बुरा सोचने, दुष्ट-गोष्ठी--बुरी संगति से सहित,
    3. [उग्गो] उग्र,
    4. [उम्मग्गपरो] उन्मार्ग--विपरीत मार्ग में तत्पर
    [उवओगो] इस प्रकार चार विशेषणों से सहित उपयोगरूप परिणाम [जस्स] जिस जीव के होते हैं; [सो असुहो] वह उपयोग अशुभ कहलाता है अथवा अभेदरूप से (वह) पुरुष ही अशुभ कहलाता है ।

    वह इसप्रकार --
    • विषय-कषाय रहित शुद्ध चैतन्य-परिणति से विपरीत विषय-कषाय में अवगाढ़ अर्थात् विषय-कषाय रूप से परिणत ।
      • शुद्धात्मतत्त्व की प्रतिपादक श्रुति--जिनवाणी--आगम सुश्रुति है, उससे विपरीत दु:श्रुति अथवा मिथ्या-शास्त्र-रूप श्रुति दु:श्रुति है ।
      • चिंता रहित होकर आत्मध्यान परिणत, आत्मा में लीन मन सुचित्त है, उस आत्मलीनता का विनाश करनेवाला मन दुश्चित्त है अथवा स्व और पर के लिये काम-भोग की चिन्ता-रूप परिणत रागादि अपध्यान-बुरे ध्यान दुश्चित्त है ।
      • परम-चैतन्य-परिणति को नष्ट करने वाली दुष्ट गोष्ठी है, अथवा उस परम-चैतन्य-परिणति के विरोधी कुशील पुरुष आदि की गोष्ठी--दुष्ट गोष्ठी--बुरी संगति है ।
      इस प्रकार दु:श्रुति, दुश्चित्त, दुष्ट-गोष्ठी से सहित दु:श्रुति, दुश्चित्त, दुष्ट-गोष्ठी सहित है (तृतीया-तत्पुरुषसमास किया है)
    • परम उपशम-भावरूप परिणत परम-चैतन्य-स्वभाव के प्रतिकूल उग्र है ।
    • वीतराग-सर्वज्ञ भगवान द्वारा कहे गये निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग से विरुद्ध उन्मार्ग में तत्पर है ।
    इस प्रकार चार विशेषणों से सहित उपयोग-रूप परिणाम अथवा उनरूप परिणत पुरुष अशुभोपयोग कहलाता है -- ऐसा अर्थ है ॥१७०॥

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    असुहोवओगरहिदो सुहोवजुत्तो ण अण्णदवियम्हि । (159)
    होज्जं मज्झत्थोऽहं णाणप्पगमप्पगं झाए ॥171॥
    अशुभोपयोगरहितः शुभोपयुक्तो न अन्यद्रव्ये ।
    भवन्मध्यस्थोऽहं ज्ञानात्मकमात्मकं ध्यायामि ॥१५९॥
    आतमा ज्ञानात्मक अनद्रव्य में मध्यस्थ हो
    ध्यावे सदा ना रहे वह नित शुभ-अशुभ उपयोग में ॥१७१॥
    अन्वयार्थ : [अन्यद्रव्ये] अन्य द्रव्य में [मध्यस्थ:] मध्यस्थ [भवन्] होता हुआ [अहम्] मैं [अशुभोपयोगरहित:] अशुभोपयोग रहित होता हुआ तथा [शुभोपयुक्त: न] शुभोपयुक्त नहीं होता हुआ [ज्ञानात्मकम्] ज्ञानात्मक [आत्मकं] आत्मा को [ध्यायामि] ध्याता हूँ ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    जो यह, (१५६ वीं गाथा में) परद्रव्य के संयोग के कारणरूप में कहा गया अशुद्धोपयोग है, वह वास्तव में मन्द-तीव्र उदयदशा में रहनेवाले परद्रव्यानुसार परिणति के अधीन होने से ही प्रवर्तित होता है, किन्तु अन्य कारण से नहीं । इसलिये यह मैं समस्त परद्रव्य में मध्यस्थ होऊँ । और इस प्रकार मध्यस्थ होता हुआ मैं परद्रव्यानुसार परिणति के अधीन न होने से शुभ अथवा अशुभ ऐसा जो अशुद्धोपयोग उससे मुक्त होकर, मात्र स्वद्रव्यानुसार परिणति को ग्रहण करने से जिसको शुद्धोपयोग सिद्ध हुआ है ऐसा होता हुआ, उपयोगात्मा द्वारा (उपयोगरूप निज स्वरूप से) आत्मा में ही सदा निश्‍चलरूप से उपयुक्त रहता हूँ । यह मेरा परद्रव्य के संयोग के कारण के विनाश का अभ्यास है ॥१५९॥

    जयसेनाचार्य :
    [असुहोवओगरहिदो] अशुभोपयोग से रहित होता हूँ । अशुभोपयोग से रहित वह कौन है ? [अहं] कर्तारूप मैं अशुभोपयोग से रहित हूँ । और भी मैं कैसा होता हूँ ? [सुहोवजुत्तो ण] शुभोपयोग में युक्त--शुभोपयोगरूप से परिणत नहीं होता हूँ । किसमें परिणत नहीं होता हूँ ? उस शुभोपयोगरूप विषय में परिणत नहीं होता हूँ । [अण्णदवियम्हि] निज परमात्म-द्रव्य से भिन्न अन्य द्रव्य में (परिणत नहीं होता हूँ) । तो मैं कैसा होता हूँ ? [होज्जं मज्झत्थो] जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, शत्रु-मित्र, निन्दा- प्रशंसा आदि विषय में मध्यस्थ होता हूँ । ऐसा होता हुआ क्या करता हूँ ? [णाणप्पगमप्पगं झाए] ज्ञानात्मक आत्मा का ध्यान करता हूँ । ज्ञान से रचित ज्ञानात्मक--ज्ञानस्वरूप--केवलज्ञान में गर्भित अनन्तगुण स्वरूपी निजात्मा का शुद्ध ध्यान के विरोधी सम्पूर्ण इच्छारूपी चिन्ताओं के जाल (समूह) के त्याग पूर्वक ध्यान करता हूँ--इसप्रकार शुद्धोपयोग का लक्षण जानना चाहिये ॥१७१॥

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    णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं । (160)
    कत्ता ण ण कारयिदा अणुमंता णेव कत्तीणं ॥172॥
    नाहं देहो न मनो न चैव वाणी न कारणं तेषाम् ।
    कर्ता न न कारयिता अनुमन्ता नैव कर्तृणाम् ॥१६०॥
    देह मन वाणी न उनका करण या कर्ता नहीं
    ना कराऊँ मैं कभी भी अनुमोदना भी ना करूँ ॥१७२॥
    अन्वयार्थ : [अहं न देह:] मैं न देह हूँ [न मन:] न मन हूँ, [च एव] और [न वाणी] न वाणी हूँ; [तेषां कारणं न] उनका कारण नहीं हूँ [कर्ता न] कर्ता नहीं हूँ [कारयिता न] कराने वाला नहीं हूँ; [कर्तृणां अनुमन्ता न एव] (और) कर्ता का अनुमोदक नहीं हूँ ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    मैं शरीर, वाणी और मन को परद्रव्य के रूप में समझता हूँ, इसलिये मुझे उनके प्रति कुछ भी पक्षपात नहीं है । मैं उन सबके प्रति अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । यथा:—
    • वास्तव में शरीर, वाणी और मन के स्वरूप का आधारभूत ऐसा अचेतन द्रव्य नहीं हूँ मैं स्वरूपाधार (हुए) बिना भी वे वास्तव में अपने स्वरूप को धारण करते हैं । इसलिये मैं शरीर, वाणी और मन का पक्षपात छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । और
    • मैं शरीर, वाणी तथा मन का कारण ऐसा अचेतन द्रव्य नहीं हूँ । मैं कारण (हुए) बिना भी वे वास्तव में कारणवान् हैं । इसलिये उनके कारणपने का पक्षपात छोड़कर यह मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । और
    • मैं स्वतंत्ररूप से शरीर, वाणी तथा मन का कर्ता ऐसा अचेतन द्रव्य नहीं हूँ मैं कर्ता (हुए) बिना भी वे वास्तव में किये जाते हैं । इसलिये उनके कर्तृत्व का पक्षपात छोड़कर यह मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । और
    • मैं, स्वतन्त्ररूप से शरीर, वाणी तथा मन का कारक (कर्ता) ऐसा जो अचेतन द्रव्य है उसका प्रयोजक नहीं हूँ मैं कारक प्रयोजक बिना भी (अर्थात् मैं उनके कर्ता का प्रयोजक उनके कराने वाला हुए बिना भी) वे वास्तव में किये जाते हैं । इसलिये यह मैं उनके कर्ता के प्रयोजकत्‍व का पक्षपात छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । और
    • मैं स्वतन्त्र ऐसे शरीर, वाणी तथा मन का कारक जो अचेतन द्रव्य है, उसका अनुमोदक नहीं हूँ मैं कारक-अनुमोदक बिना भी (उनके कर्ता का अनुमोदक हुए बिना भी) वे वास्तव में किये जाते हैं । इसलिये उनके कर्ता के अनुमोदकपने का पक्षपात छोड़कर यह मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ ॥१६०॥

    जयसेनाचार्य :
    [णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी] मैं शरीर नहीं हूँ, मन नहीं हूँ और वाणी नहीं ही हूँ । मन, वचन, शरीर के व्यापार से रहित परमात्म-द्रव्य से भिन्न जो मन, वचन, शरीर -- वे तीनों निश्चयनय से मैं नहीं हूँ । इस प्रकार उनके प्रति पक्षपात को छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । [ण कारण तेसिं] उनका मैं कारण नहीं हूँ । विकार रहित परमाह्लाद एक लक्षण सुखरूप अमृतमयी परिणति का जो उपादान कारणभूत आत्म-द्रव्य है, उससे विलक्षण मन, वचन काय के उपादान कारण-भूत पुद्गल पिण्ड-रूप मैं नहीं हूँ । इस कारण उनके प्रति पक्षपात को छोड़कर मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । [कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं] कर्ता नहीं हूँ, कारयिता (करानेवाला) नहीं हूँ, करनेवाले का अनुमोदक (अनुमोदना करने वाला) नहीं ही हूँ । निज शुद्धात्मा की भावना के विषय में जो कृत-कारित-अनुमोदना का स्वरूप है, उससे विलक्षण जो मन-वचन-शरीर के विषय में कृत-कारित-अनुमोदना का स्वरूप है, उन रूप मैं नहीं हूँ । इसकारण उनके प्रति पक्षपात को छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ हूँ -- ऐसा तात्पर्य है ॥१७२॥

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    देहो य मणो वाणी पोग्गलदव्वप्पग त्ति णिद्दिट्ठा । (161)
    पोग्गलदव्वं हि पुणो पिंडो परमाणुदव्वाणं ॥173॥
    देहश्च मनो वाणी पुद्गलद्रव्यात्मका इति निर्दिष्टाः ।
    पुद्गलद्रव्यमपि पुनः पिण्डः परमाणुद्रव्याणाम् ॥१६१॥
    देह मन वच सभी पुद्गल द्रव्यमय जिनवर कहे
    ये सभी जड़ स्कन्ध तो परमाणुओं के पिण्ड हैं ॥१७३॥
    अन्वयार्थ : [देह: च मन: वाणी] देह, मन और वाणी [पुद्‌गलद्रव्यात्मका:] पुद्‌गलद्रव्यात्मक [इति निर्दिष्टा:] हैं, ऐसा (वीतरागदेव ने) कहा है [अपि पुन:] और [पुद्‌गल द्रव्य] वे पुद्‌गलद्रव्य [परमाणुद्रव्याणां पिण्ड:] परमाणुद्रव्यों का पिण्ड है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    शरीर, वाणी और मन तीनों ही परद्रव्य हैं, क्योंकि वे पुद्‌गल द्रव्यात्मक हैं । उनके पुद्‌गलद्रव्यत्‍व है, क्योंकि वे पुद्‌गल द्रव्य के स्वलक्षणभूत स्वरूपास्तित्व में निश्‍चित (रहे हुए) हैं । उस प्रकार का पुद्‌गलद्रव्य अनेक परमाणुद्रव्यों का एक पिण्‍ड पर्यायरूप से परिणाम है, क्योंकि अनेक परमाणुद्रव्यों के स्वलक्षणभूत स्वरूपास्तित्व अनेक होने पर भी कथंचित् (स्निग्धत्व-रूक्षत्वकृत बंधपरिणाम की अपेक्षा से) एकत्वरूप अवभासित होते हैं ॥१६१॥

    जयसेनाचार्य :
    [देहो य मणो वाणी पोग्गलदव्वप्पग त्ति णिद्दिट्ठा] शरीर और मन, वाणी -- तीनों ही पुद्गल-द्रव्य-स्वरूप हैं -- ऐसा कहा गया है । वे पुद्गल-द्रव्य-स्वरूप क्यों हैं ? व्यवहार से जीव के साथ एकत्व होने पर भी, निश्चय से चैतन्य-प्रकाश-परिणति से भिन्नता होने के कारण, वे पुद्गल-द्रव्य स्वरूप हैं । पुद्गल-द्रव्य क्या कहलाता है? [पोग्गलदव्वं हि पुणो पिंडो परमाणुदव्वाणं] और पुद्गल-द्रव्य वास्तव में पिण्ड (समूह) है । किनका समूह है ? वह परमाणु-द्रव्यों का समूह है -- ऐसा अर्थ है ॥१७३॥

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    णाहं पोग्गलमइओ ण ते मया पोग्गला कया पिंडं । (162)
    तम्हा हि ण देहोऽहं कत्ता वा तस्य देहस्य ॥174॥
    नाहं पुद्गलमयो न ते मया पुद्गलाः कृताः पिण्डम् ।
    तस्माद्धि न देहोऽहं कर्ता वा तस्य देहस्य ॥१६२॥
    मैं नहीं पुद्गलमयी मैंने ना बनाया हैं इन्हें
    मैं तन नहीं हूँ इसलिए ही देह का कर्ता नहीं ॥१७४॥
    अन्वयार्थ : [अहं पुद्‌गलमय: न] मैं पुद्‌गलमय नहीं हूँ और [ते पुद्‌गला:] वे पुद्‌गल [मया] मेरे द्वारा [पिण्ड न कृता:] पिण्डरूप नहीं किये गये हैं, [तस्मात् हि] इसलिये [अहं न देह:] मैं देह नहीं हूँ [वा] तथा [तस्य देहस्य कर्ता] उस देह का कर्ता नहीं हूँ ॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    प्रथम तो, जो यह प्रकरण से निर्धारित पुद्‌गलात्मक शरीर नामक परद्रव्य है,—जिसके भीतर वाणी और मन का समावेश हो जाता है;—वह मैं नहीं हूँ क्योंकि अपुद्‌गलमय ऐसा मैं पुद्‌गलात्मक शरीररूप होने में विरोध है । और इसी प्रकार उस (शरीर) के कारण द्वारा, कर्ता द्वारा, कर्ता के प्रयोजक द्वारा या कर्ता के अनुमोदक द्वारा शरीर का कर्ता मैं नहीं हूँ क्योंकि मैं अनेक परमाणुद्रव्यों के एकपिण्ड पर्यायरूप परिणाम का अकर्ता ऐसा मैं अनेक परमाणुद्रव्यों के एकपिण्डपर्यायरूप परिणामात्मक शरीर का कर्तारूप होने में सर्वथा विरोध है ॥१६२॥

    जयसेनाचार्य :
    [णाहं पोग्गलमइओ] मैं पुद्गलमय नहीं हूँ । [ण ते मया पोग्गला कया पिंडा] और वे पुद्गल-पिण्ड मेरे द्वारा नहीं किये गये हैं । [तम्हा हि ण देहोऽहं] इसलिये मैं शरीर नहीं हूँ । वास्तव में [कत्ता वा तस्य देहस्य] तथा उस देह का कर्ता नहीं हूँ ।

    यहाँ अर्थ यह है - मैं देह नहीं हूँ । मैं देह--शरीर क्यों नहीं हूँ ? शरीर रहित सहज शुद्ध चैतन्य-रूप से परिणत होने के कारण, मेरा देहत्व-रूप से विरोध होने के कारण, मै देह नहीं हूँ । तथा उस देह का मैं कर्ता नहीं हूँ । मैं उस शरीर का कर्ता भी क्यों नहीं हूँ ? क्रिया-रहित परम-चैतन्य-ज्योतिरूप से परिणत होने के कारण, मेरा शरीर के कर्तृत्व-रूप से विरोध होने के कारण, मैं शरीर का कर्ता भी नहीं हूँ ॥१७४॥

    इस प्रकार पहले कही हुई पद्धति से '[अत्थित्तणिच्छिदस्स हि]' इत्यादि ग्यारह गाथाओं द्वारा चार स्थल-रूप से पहला विशेषान्ताराधिकार समाप्त हुआ ।

    अब मात्र पुद्गलबन्ध की मुख्यता से ९ गाथा पर्यन्त विशेष कथन करते हैं । वहाँ दो स्थल हैं । परमाणुओं के परस्पर बन्ध के कथन के लिये '[अपदेसो परमाणू]' इत्यादि चार गाथायें पहले स्थल में हैं । उसके बाद स्कन्धों के बन्ध की मुख्यता से '[दुपदेसादि खंधा]' इत्यादि पाँच गाथायें दूसरे स्थल में हैं ।

    इसप्रकार दूसरे विशेषान्तराधिकार में सामूहिक पातनिका पूर्ण हुई ।

    द्वितीय विशेषान्तराधिकार का स्थल विभाजन
    स्थल क्रम प्रतिपादित विषय कहाँ से कहाँ पर्यंत गाथाएँ कुल गाथाएँ
    प्रथम स्थल परमाणुओं का परस्पर बंध कथन 175 से 178 4
    द्वितीय स्थल स्कंधों का परस्पर बंध कथन 179 से 183 5
    कुल 2 स्थल कुल 9 गाथाएँ

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    अपदेसो परमाणू पदेसमेत्तो द समयसद्दो जो । (163)
    णिद्धो वा लुक्खो वा दुपदेसादित्तमणुभवदि ॥175॥
    अप्रदेशः परमाणुः प्रदेशमात्रश्च स्वयमशब्दो यः ।
    स्निग्धो वा रूक्षो वा द्विप्रदेशादित्वमनुभवति ॥१६३॥
    अप्रदेशी अणु एक प्रदेशमय अर अशब्द हैं
    अर रूक्षता-स्निग्धता से बहुप्रदेशीरूप हैं ॥१७५॥
    अन्वयार्थ : [परमाणु:] परमाणु [यः अप्रदेश:] जो कि अप्रदेश है, [प्रदेशमात्र:] प्रदेशमात्र है [च] और [स्वयं अशब्द:] स्वयं अशब्द है, [स्निग्ध: वा रूक्ष: वा] वह स्निग्ध अथवा रूक्ष होता हुआ [द्विप्रदेशादित्वमू अनुभवति] द्विप्रदेशादिपने का अनुभव करता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    वास्तव में परमाणु द्विआदि ( दो, तीन आदि) प्रदेशों के अभाव के कारण अप्रदेश है, एक प्रदेश के सद्‌भाव के कारण प्रदेशमात्र है और स्वयं अनेक परमाणुद्रव्यात्मक शब्द पर्याय की व्यक्ति का ( प्रगटता का) असंभव होने से अशब्द है । (वह परमाणु) अविरोधपूर्वक चार स्पर्श, पाँच रस, दो गंध और पाँच वर्णों के सद्‌भाव के कारण स्निग्ध अथवा रूक्ष होता है, इसीलिये उसे पिण्ड-पर्याय-परिणतिरूप द्विप्रदेशादिपने की अनुभूत होती है । इस प्रकार स्निग्ध-रूक्षत्व पिण्डपने का कारण है ॥१६३॥

    जयसेनाचार्य :
    [अपदेसो] अप्रदेशी-बहुप्रदेश रहित है । प्रदेश रहित वह कौन है? [परमाणू] पुद्गल परमाणु प्रदेश रहित है । वह पुद्गल परमाणु और कैसा है? [पदेसमेत्तो य] और दूसरे आदि प्रदेशों का अभाव होने से प्रदेशमात्र है । और वह कैसा है? [सयमसद्दो य] स्वयं प्रकट-रूप से अशब्द है । इन तीन विशेषणों से सहित होता हुआ [णिद्धो वा लुक्खो वा] जिसकारण स्निग्ध अथवा रूक्ष रूप से सम्भव होता है - परिणमित होता है, उस कारण [दुपदेसादित्तमणुभवदि] दो प्रदेश आदि रूप बन्ध का अनुभव करता है ।

    वह इसप्रकार - जैसे शुद्ध-बुद्ध स्वभाव द्वारा यह आत्मा बन्ध रहित होने पर भी, पश्चात् अशुद्धनय से स्निग्ध के स्थानीय रागभाव तथा रूक्ष के स्थानीय द्वेष-भावरूप से जब परिणमित होता है, तब परमागम में कही गयी विधि से बन्ध का अनुभव करता है; उसीप्रकार परमाणु भी स्वभाव से बन्ध रहित होने पर भी, जब बन्ध के कारण-भूत स्निग्ध-रूक्ष गुण-रूप से परिणमित होता है, तब दूसरे पुद्गल के साथ विभाव पर्याय-रूप बन्ध का अनुभव करता है - ऐसा अर्थ है ॥१७५॥

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    एगुत्तरमेगादी अणुस्स णिद्धत्तणं च लुक्खत्तं । (164)
    परिणामादो भणिदं जाव अणंतत्तमणुभवदि ॥176॥
    एकोत्तरमेकाद्यणोः स्निग्धत्वं वा रूक्षत्वम् ।
    परिणामाद्भणितं यावदनन्तत्वमनुभवति ॥१६४॥
    परमाणु के परिणमन से इक-एक कर बढ़ते हुए
    अनंत अविभागी न हो स्निग्ध अर रूक्षत्व से ॥१७६॥
    अन्वयार्थ : [अणो:] परमाणु के [परिणामात्] परिणमन के कारण [एकादि] एक से (एक अविभाग प्रतिच्छेद से) लेकर [एकोत्तरं] एक-एक बढ़ते हुए [यावत्] जब तक [अनन्तत्वम् अनुभवति] अनन्तपने को (अनन्त अविभागी प्रतिच्छेदत्‍व को) प्राप्त हो तब तक [स्निग्धत्वं वा रूक्षत्वं] स्निग्धत्व अथवा रूक्षत्व होता है ऐसा [भणितम्] (जिनेन्द्रदेव ने) कहा है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    प्रथम तो परमाणु के परिणाम होता है क्योंकि वह (परिणाम) वस्तु का स्वभाव होने से उल्लंघन नहीं किया जा सकता । और उस परिणाम के कारण जो कादाचित्क विचित्रता धारण करता है ऐसा, एक से लेकर एक-एक बढ़ते हुए अनन्त अविभाग प्रतिच्छेदों तक व्‍याप्‍त होने वाला स्निग्‍धत्‍व अथवा रूक्षत्‍व परमाणु के होता है, क्‍योंकि परमाणु अनेक प्रकार के गुणों वाला है।

    जयसेनाचार्य :
    [एगुत्तरमेगादी] एक (अविभागी-प्रतिच्छेद) से प्रारम्भ कर एक-एक आगे (बढ़ते हुये) । एक से प्रारम्भ कर बढ़ती हुई किस वस्तु को ? [णिद्धत्तणं च लुक्खत्तं] कर्मता को प्राप्त (कर्म-कारक या कर्म-स्वरूप को प्राप्त) एक से प्रारम्भ कर बढ़ती हुई स्निग्धता-रूक्षता को । [भणिदं] कहा गया है । कहाँ तक बढ़ती हुई स्निग्धता-रूक्षता को कहा गया है ? [जाव अणंतत्तमणुभवदि] जब तक अनन्तता का अनुभव करता है, अनन्त पर्यन्त (वृद्धि) को प्राप्त करता है । अनन्तता का अनुभव कैसे करता है ? [परिणामादो] परिणति विशेष से (परिणामी होने से) अनन्तता का अनुभव करता है -- ऐसा अर्थ है । किसके परिणामी होने से वे अनन्तता का अनुभव करते हैं ? [अणुस्स] अणु (पुद्गल परमाणु) के परिणामी होने से वे उसका अनुभव करते हैं ।

    वह इसप्रकार -- जल, बकरी के दूध में, गाय के दूध में, भैंस के दूध में स्नेह-चिकनाई की वृद्धि के समान, जैसे जीव में बन्ध के कारण-भूत स्नेह के स्थानीय-रागपना तथा रूक्ष के स्थानीय-द्वेषपना, जघन्य विशुद्धि- संक्लेश स्थान से प्रारम्भ कर परमागम में कहे गये क्रम से उत्कृष्ट विशुद्धि-संक्लेश पर्यन्त बढ़ते हैं; उसीप्रकार पुद्गल परमाणु द्रव्य में भी बन्ध के कारणभूत स्निग्धता और रूक्षता, पहले कहे गये जलादि की तारतम्य (क्रम से बढ़ती हुई) शक्ति के उदाहरण से, एक गुण नामक जघन्य शक्ति से प्रारम्भ कर गुण नामक अविभागी प्रतिच्छेद-रूप दूसरे आदि शक्ति विशेष से बढ़ते हैं । इस प्रकार वे कहाँ तक बढ़ते हैं ? जब तक अनन्त संख्या को प्राप्त नहीं हो जाते तब तक बढ़ते हैं । वे अनन्त संख्या पर्यन्त क्यों बढ़ते हैं ? पुद्गल द्रव्य के परिणामी होने के कारण तथा वस्तु स्वभाव से ही (परिणामी होने के कारण) परिणाम का निषेध किया जाना अशक्य होने से, वे अनन्त पर्यन्त बढ़ते हैं ॥१७६॥

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    णिद्धा वा लुक्खा वा अणुपरिणामा समा व विसमा वा । (165)
    समदो दुराधिगा जदि बज्झन्ति हि आदिपरिहीणा ॥177॥
    स्निग्धा वा रूक्षा वा अणुपरिणामाः समा वा विषमा वा ।
    समतो द्वयधिका यदि बध्यन्ते हि आदिपरिहीणाः ॥१६५॥
    परमाणुओं का परिणमन सम-विषम अर स्निग्ध हो
    अर रूक्ष हो तो बंध हो दो अधिक पर न जघन्य हो ॥१७७॥
    अन्वयार्थ : [अणुपरिणामा:] परमाणु-परिणाम, [स्निग्धा: वा रूक्षा: वा] स्निग्ध हों या रूक्ष हों [समा: विषमा: वा] सम अंश वाले हों या विषम अंश वाले हों [यदि समत: द्वधिका:] यदि समान से दो अधिक अंश वाले हों तो [बध्यन्ते हि] बँधते हैं, [आदि परिहीना:] जघन्यांश वाले नहीं बंधते ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    समान से दो गुण (अंश) अधिक स्निग्धत्व या रूक्षत्व हो तो बंध होता है यह उत्सर्ग (सामान्य नियम) है क्योंकि स्निग्धत्व या रूक्षत्व की द्विगुणाधिकता का होना वह परिणामक (परिणमन कराने वाला) होने से बंध का कारण है ।

    यदि एक गुण स्निग्धत्व या रूक्षत्व हो तो बंध नहीं होता यह अपवाद है; क्योंकि एक गुण स्निग्धत्व या रूक्षत्व के परिणम्य-परिणामकता का अभाव होने से बंध के कारणपने का अभाव है ॥१६५॥

    जयसेनाचार्य :
    [बज्झन्ति हि] वास्तव में बँधते हैं । कौन बँधते हैं ? कर्मता को प्राप्त [अणुपरिणामा] अणु-परिणाम बँधते हैं । अणु-परिणाम शब्द से यहाँ परिणाम (पर्याय) रूप से परिणत अणु ग्रहण किये गये हैं । वे अणु परिणाम कैसे हैं ? [णिद्धा वा लुक्खा वा] वे स्निग्ध परिणाम-रूप से परिणमित अथवा रूक्ष परिणाम-रूप परिणत हैं । वे और किस विशेषता वाले हैं ? [समा व विसमा वा] दो शक्ति, चार शक्ति, छह शक्ति आदि रूप परिणत अणुओं की सम संज्ञा है; तथा तीन शक्ति पाँच शक्ति सात शक्ति आदि रूप से परिणत अणुओं की विषम संज्ञा है (संज्ञा अर्थात् नाम) । और वे किस स्वरूप वाले हैं ? [समदो दुराधिगा जदि] सम से -- यदि समसंख्या से दो गुणों से अधिक हैं तो । दो गुणों की अधिकता कैसे है - यदि ऐसा प्रश्न हो तो (उत्तर कहते हैं) -- एक दो गुणवाला है, दूसरा भी दो गुणवाला है -- इसप्रकार दो समान संख्या -वाले परमाणु हैं एक विवक्षित दो गुण-वाले के दो गुणों की अधिकता होने पर वह चार गुण-वाला होता है -- चार शक्तियों-रूप परिणत होता है । उस चार गुणवाले का पहले कहे हुये दो गुणवाले के साथ बन्ध होता है । उसीप्रकार कोई दो परमाणु तीन शक्ति-वाले हैं वहाँ भी एक तीन गुण शब्द से कहे जानेवाले तीन शक्ति से युक्त परमाणु के दो शक्तियों का मिलाप (दो गुणों की अधिकता) होने पर पाँच गुणवाला होता है । उस पाँच गुणवाले के साथ पहले कहे हुये तीन गुणवाले का बन्ध होता है ।

    इसप्रकार दो-दो स्निग्ध का दो-दो रूक्ष का, दो-दो स्निग्धरूक्ष का अथवा सम का और विषम का दो गुण अधिक होने पर बन्ध होता है -- ऐसा अर्थ है; परन्तु विशेषता यह है - [आदिपरिहीणा] आदि शब्द से जल के स्थानीय जघन्य स्निग्धत्व और रेत के स्थानीय जघन्य रूक्षत्व कहा जाता है; उनसे रहित अर्थात् आदि परिहीणा बँधते हैं (एक अविभागी-प्रतिच्छेद वाला परमाणु बन्ध योग्य नहीं है)

    विशेष यह है कि -- परम चैतन्य परिणति लक्षण परमात्मतत्त्व की भावनारूप-धर्मध्यान, शुक्लध्यान के बल से जैसे जघन्य स्निग्ध शक्ति के स्थानीय राग के क्षीण होने पर और जघन्य रूक्ष शक्ति के स्थानीय द्वेष के क्षीण होने पर जल और रेत के समान जीव का बन्ध नहीं होता है; उसी प्रकार पुद्गल परमाणु के भी जघन्य

    स्निग्ध और रूक्ष शक्ति का प्रसंग होने पर बन्ध नहीं होता है - ऐसा अभिप्राय है ॥१७७॥


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    णिद्धत्तणेण दुगुणो चदुगुणणिद्धेण बंधमणुभवदि । (166)
    लुक्खेण वा तिगुणिदो अणु बज्झदि पंचगुणजुत्तो ॥178॥
    स्निग्धत्वेन द्विगुणश्चतुर्गुणस्निग्धेन बन्धमनुभवति ।
    रूक्षेण वा त्रिगुणितोऽणुर्बध्यते पञ्चगुणयुक्तः ॥१६६॥
    दो अंश चिकने अणु चिकने-रूक्ष हों यदि चार तो
    हो बंध अथवा तीन एवं पाँच में भी बंध हो ॥१७८॥
    अन्वयार्थ : [स्निग्धत्वेन द्विगुण:] स्निग्धरूप से दो अंशवाला परमाणु [चतुर्गुणस्निग्धेन] चार अंशवाले स्निग्ध (अथवा रूक्ष) परमाणु के साथ [बंध अनुभवति] बंध का अनुभव करता है । [वा] अथवा [रूक्षेण त्रिगुणित: अणु:] रूक्षरूप से तीन अंशवाला परमाणु [पंचगुणयुक्त:] पाँच अंशवाले के साथ युक्त होता हुआ [बध्यते] बंधता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    यथोक्त हेतु से ही परमाणुओं के पिण्डपना होता है ऐसा निश्‍चित करना चाहिये; क्योंकि दो और चार गुणवाले तथा तीन और पाँच गुणवाले दो स्निग्ध परमाणुओं के अथवा दो रूक्ष परमाणुओं के अथवा दो स्निग्ध-रूक्ष परमाणुओं के (एक स्निग्ध और एक रूक्ष परमाणु के) बंध की प्रसिद्धि है । कहा भी है कि :—

    णिद्धा णिद्धेण बज्‍झंति लुक्खा लुक्खा य पोग्गला ।
    णिद्धलुक्खा य बज्‍झंति रूवारूवी य पोग्गला ॥
    णिद्धस्स णिद्धेण दुराहिएण लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिएण ।
    णिद्धस्स लुक्खेण हवेदि बंधो जहण्णवज्‍जे विसमे समे वा ॥

    (अर्थ :—पुद्‌गल 'रूपी' और 'अरूपी' होते हैं । उनमें से स्निग्ध पुद्‌गल स्निग्ध के साथ बंधते हैं, रूक्ष पुद्‌गल रूक्ष के साथ बंधते हैं, स्निग्ध और रूक्ष भी बंधते हैं ।)

    जघन्य के अतिरिक्त सम अंशवाला हो, या विषम अंशवाला हो, स्निग्ध का दो अधिक अंशवाले स्निग्ध परमाणु के साथ, रूक्ष का दो अधिक अंशवाले रूक्ष परमाणु के साथ और स्निग्ध का (दो अधिक अंशवाले) रूक्ष परमाणु के साथ बंध होता है ।

    जयसेनाचार्य :
    'गुण' शब्द से कही जाने वाली दो शक्ति से सहित स्निग्ध परमाणु का चार गुणवाले सम शब्द नाम-रूप स्निग्ध अथवा रूक्ष के साथ उसीप्रकार तीन शक्ति से सहित रूक्ष का पाँच गुणवाले विषम नाम-रूप रूक्ष अथवा स्निग्ध गुण के साथ, दो गुणों की अधिकता होने पर बन्ध होता है -- ऐसा जानना चाहिये ।

    विशेष यह है कि -- परमानन्द एक लक्षण स्वसंवेदन-ज्ञान के बल से राग-द्वेष के हीन होते जाने पर पहले कहे हुऐ जल और रेत के उदाहरण द्वारा जैसे जीवों के बन्ध नहीं होता है; उसी प्रकार स्निग्ध और रूक्ष गुण के जघन्य होने पर परमाणुओं का बन्ध नहीं होता है ।

    वैसा ही कहा है-

    ''जघन्य को छोड़कर स्निग्ध का दो अधिक स्निग्ध के साध रूक्ष का दो अधिक रूक्ष के साथ स्निग्ध का रूक्ष के साथ विसम अथवा सम दशा में बंध होता है । '' ॥१७८॥

    इसप्रकार पहले कहे अनुसार स्निग्ध और रूक्ष परिणत परमाणु के स्वरूप-कथनरूप से पहली गाथा, स्निग्ध और रूक्ष के विवरणरूप से दूसरी, स्निग्ध और रूक्ष गुणों की अपेक्षा दो अधिक होने पर बन्ध कथनरूप से तीसरी और उसे ही दृढ़ करने के लिये चौथी -- इसप्रकार परमाणुओं के परस्पर बन्ध-व्याख्यान की मुख्यता से पहले स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुईं ।


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    दुपदेसादी खंधा सुहुमा वा बादरा ससंठाणा । (167)
    पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहिं जायंते ॥179॥
    द्विप्रदेशादयः स्कन्धाः सूक्ष्मा वा बादराः ससंस्थानाः ।
    पृथिवीजलतेजोवायवः स्वकपरिणामैर्जायन्ते ॥१६७॥
    यदि बहुप्रदेशी कंध सूक्षम-थूल हों संस्थान में
    तो भूजलादि रूप हों वे स्वयं के परिणमन से ॥१७९॥
    अन्वयार्थ : [द्विप्रदेशादय: स्कंधा:] द्विप्रदेशादिक (दो से लेकर अनन्तप्रदेश वाले) स्कंध [सूक्ष्मा: वा बादरा:] जो कि सूक्ष्म अथवा बादर होते हैं और [ससंस्थाना:] संस्थानों (आकारों) सहित होते हैं वे [पृथिवीजलतेजोवायव:] पृथ्वी, जल, तेज और वायुरूप [स्वकपरिणामै: जायन्ते] अपने परिणामों से होते हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    इस (पूर्वोक्त) प्रकार से यह उत्‍पन्‍न होनेवाले द्विप्रदेशादिक स्कंध—जिनने विशिष्ट अवगाहन की शक्ति के वश सूक्ष्मता और स्थूलतारूप भेद ग्रहण किये हैं और जिनने विशिष्ट आकार धारण करने की शक्ति के वश होकर विचित्र संस्थान ग्रहण किये हैं वे—अपनी योग्यतानुसार स्पर्शादिचतुष्क के आविर्भाव और तिरोभाव की स्वशक्ति के वश होकर पृथ्वी, जल, अग्नि, और वायुरूप अपने परिणामों से ही होते हैं । इससे निश्‍चित होता है कि द्विअणुकादि अनन्तान्त पुद्‌गलों का पिण्डकर्ता आत्मा नहीं है ॥१६७॥

    जयसेनाचार्य :
    [जायंते] उत्पन्न होते हैं । उत्पन्न होनेरूप क्रिया के कर्ता कौन हैं ? [दुपदेसादी खंधा] दो प्रदेशों से आरम्भ कर अनन्त अणु-परमाणु पर्यन्त स्कन्ध उत्पन्न होने रूप क्रिया के कर्ता हैं । कौन उत्पन्न होते हैं ? [पुढविजलतेउवाऊ] पृथ्वी, जल, तेज और वायु उत्पन्न होते हैं । वे कैसे उत्पन्न होते हैं ? [सुहुमा वा बादरा] वे सूक्ष्म अथवा बादर रूप उत्पन्न होते हैं । और भी वे कैसे हैं ? [ससंठाणा] यथा-संभव गोल, चौकोर आदि अपने-अपने संस्थान-आकार से सहित हैं । वे किनसे उत्पन्न होते हैं ? [सगपरिणामेहिं] अपने-अपने स्निग्ध-रूक्ष परिणाम से उत्पन्न होते हैं ।

    अब इसका विस्तार करते हैं -- जीव वास्तव में टंकोत्कीर्ण (टाँकी से उकेरे हुये के समान स्थिर) ज्ञायक एक रूप से शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव ही हैं, पश्चात व्यवहार से अनादि कर्म-बन्ध की उपाधि के वश शुद्धात्म- स्वभाव को प्राप्त नहीं करते हुये पृथ्वी, जल, तेज (अग्नि), वायुकायिक (शरीरों) में उत्पन्न होते हैं; तथापि अपनी अंतरंग सुख-दु:खादि रूप परिणति (दशाओं) के ही अशुद्ध उपादानकारण हैं पृथ्वी आदि शरीरों के आकार रूप परिणति के उपादान कारण नहीं हैं । पृथ्वी आदि शरीरों के उपादान कारण क्यों नही हैं ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो उत्तर कहते हैं -- वहाँ स्कन्धों की ही उपादान कारणता होने से, जीव उनके उपादान कारण नहीं हैं ।

    इससे ज्ञात होता है कि जीव पुद्गल पिण्डों का कर्ता नहीं है ॥१७९॥

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    ओगाढगाढणिचिदो पोग्गलकायेहिं सव्वदो लोगो । (168)
    सुहुमेहिं बादरेहि य अप्पाओग्गेहिं जोग्गेहिं ॥180॥
    अवगाढगाढनिचितः पुद्गलकायैः सर्वतो लोकः ।
    सूक्ष्मैर्बादरैश्चाप्रायोग्यैर्योग्यैः ॥१६८॥
    भरा है यह लोक सूक्षम-थूल योग्य-अयोग्य जो
    कर्मत्व के वे पौद्गलिक उन खंध के संयोग से ॥१८०॥
    अन्वयार्थ : [लोक:] लोक [सर्वत:] सर्वत: [सूक्ष्मे: बादरै:] सूक्ष्म तथा बादर [च] और [अप्रायोग्यै: योग्यै:] कर्मत्व के अयोग्य तथा कर्मत्व के योग्य [पुद्‌गलकायै:] पुद्‌गलस्कंधों के द्वारा [अवगाढगाढनिचित:] (विशिष्ट प्रकार से) अवगाहित होकर गाढ़ (घनिष्ठ) भरा हुआ है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    सूक्ष्मतया परिणत तथा बादररूप परिणत, अति सूक्ष्म अथवा अति स्थूल न होने से कर्मरूप परिणत होने की शक्तिवाले तथा अति सूक्ष्म अथवा अति स्थूल होने से कर्मरूप परिणत होने की शक्ति से रहित—पुद्‌गलकायों के द्वारा, अवगाह की विशिष्टता के कारण परस्पर बाधक हुये बिना, स्वयमेव सर्वत: लोक गाढ़ भरा हुआ है । इससे निश्‍चित होता है कि पुद्‌गलपिण्डों का लाने वाला आत्मा नहीं है ।


    जयसेनाचार्य :
    [ओगाढगाढणिचिदो] अवगाहन--अवगाहन कर अन्तर के बिना परिपूर्ण भरा हुआ है । परिपूर्ण भरा हुआ वह कौन है ? [लोगो] लोक परिपूर्ण भरा हुआ है । वह कैसा भरा हुआ है ? [सव्व्दो] सर्व ओर से सभी प्रदेशों में भरा हुआ है । वह कर्ताभूत किनसे भरा हुआ है ? [पुग्गलकायेहिं] वह पुद्गलकायों--स्कन्धों से भरा है । किन विशेषता-वाले पुद्गल-कायों से भरा है ? [सुहुमेहि बादरेहि य] इन्द्रियों से ग्रहण करने के अयोग्य सूक्ष्म और उनसे ग्रहण करने योग्य बादर पुद्गल-कायों से भरा है । और कैसे पुद्गल-कायों से भरा है ? [अप्पाओग्गेहिं] अति-सूक्ष्म अथवा अति-स्थूलता के कारण कर्म-वर्गणा सम्बन्धी योग्यता से रहित पुद्गलों से भरा है । और किन विशेषता-वाले पुद्गलों से भरा है ? [जोग्गेहिं] अति-सूक्ष्मता और स्थूलता का अभाव होने से कर्मवर्गणा के योग्य पुद्गलकायों से भरा है ।

    यहाँ अर्थ यह है -- निश्चय से शुद्ध स्वरूप होने पर भी, व्यवहार से कर्म उदय के आधीन होने से पृथ्वी आदि पाँच सूक्ष्म-स्थावरत्व को प्राप्त जीवों से, जैसे लोक निरन्तर भरा रहता है, उसी प्रकार पुद्गलों से भी भरा रहता है । इससे ज्ञात होता है कि जिस शरीर अवगाढ़ क्षेत्र में जीव रहता है, वहीं बन्ध के योग्य पुद्गल भी रहते हैं जीव उन्हें बाह्य भाग से नहीं लाता है ॥१८०॥

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    कम्मत्तणपाओग्गा खंधा जीवस्स परिणइं पप्पा । (169)
    गच्छंति कम्मभावं ण हि ते जीवेण परिणमिदा ॥181॥
    कर्मत्वप्रायोग्याः स्कन्धा जीवस्य परिणतिं प्राप्य ।
    गच्छन्ति कर्मभावं न हि ते जीवेन परिणमिताः ॥१६९॥
    स्कन्ध जो कर्मत्व के हों योग्य वे जिय परिणति
    पाकर करम में परिणमें न परिणमावे जिय उन्हें ॥१८१॥
    अन्वयार्थ : [कर्मत्वप्रायोग्या: स्कंधा:] कर्मत्व के योग्य स्कंध [जीवस्यपरिणतिं प्राप्य] जीव की परिणति को प्राप्त करके [कर्मभावं गच्छन्ति] कर्मभाव को प्राप्त होते हैं; [न हि ते जीवेन परिणमिता:] जीव उनको नहीं परिणमाता ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    कर्मरूप परिणमित होने की शक्तिवाले पुद्‌गलस्कंध तुल्य (समान) क्षेत्रावगाह जीव के परिणाममात्र का, जो कि बहिरंग साधन (बाह्यकारण) है, उसका आश्रय करके, जीव उनको परिणमाने वाला न होने पर भी, स्वयमेव कर्मभाव से परिणमित होते हैं । इससे निश्‍चित होता है कि पुद्गलपिण्डों को कर्मरूप करने वाला आत्मा नहीं है ।

    जयसेनाचार्य :
    [कम्मत्तणपाओग्गा खंधा] कर्म-पने को प्राप्त करने योग्य स्कन्ध-रूपी कर्ता, [जीवस्स परिणइं पप्पा] जीव की परिणति को प्राप्त कर -- निर्दोषी परमात्मा की भावना से उत्पन्न सहजानन्द एक लक्षण सुखरूपी अमृतमयी परिणति -- पर्याय से विपरीत, जीव सम्बन्धी मिथ्यात्व रागादि परिणति -- पर्याय को प्राप्त-कर [गच्छंति कम्मभावं] जाते हैं -- परिणमन करते हैं । किसरूप परिणमन करते हैं ? कर्म-भाव-रूप -- ज्ञानावरणादि द्रव्य-कर्म पर्यायरूप परिणमन करते हैं । [ण हि ते जीवेण परिणमिदा] वे कर्म-स्कन्ध जीव-रूप उपादानकर्ता से परिणमित नहीं हैं -- परिणमन को प्राप्त नहीं किये जाते हैं ।

    इस विशेष कथन से यह कहा गया है कि कर्म स्कन्धों का कर्ता निश्चय से जीव नहीं है ॥१८१॥

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    ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स । (170)
    संजायंते देहा देहंतरसंकमं पप्पा ॥182॥
    ते ते कर्मत्वगताः पुद्गलकायाः पुनरपि जीवस्य ।
    संजायन्ते देहा देहान्तरसंक्रमं प्राप्य ॥१७०॥
    कर्मत्वगत जड़पिण्ड पुद्गल देह से देहान्तर
    को प्राप्त करके देह बनते पुन-पुन: वे जीव की ॥१८२॥
    अन्वयार्थ : [कर्मत्वगता:] कर्मरूप परिणत [ते ते] वे-वे [पुद्गलकाया:] पुद्‌गल पिण्ड [देहान्तर संक्रमं प्राप्य] देहान्तररूप परिवर्तन को प्राप्त करके [पुन: अपि] पुन:-पुन: [जीवस्य] जीव के [देहा:] शरीर [संजायन्ते] होते हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    जिस जीव ‌के परिणाम को निमित्तमात्र करके जो-जो यह पुद्‌गल पिण्‍ड स्वयमेव कर्मरूप परिणत होते हैं, वे जीव के अनादि संततिरूप (प्रवाहरूप) प्रवर्तमान देहान्तर (भवांतर) रूप परिवर्तन का आश्रय लेकर (वे-वे पुद्‌गलपिण्ड) स्वयमेव शरीर (शरीररूप, शरीर के होने में निमित्तरूप) बनते हैं । इससे निश्‍चित होता है कि कर्मरूप परिणत पुद्‌गलद्रव्यात्मक शरीर का कर्ता आत्मा नहीं है ।

    जयसेनाचार्य :
    [ते ते कम्मत्तगदा] वे-वे पहले (१८१ वीं) गाथा में कहे गये कर्मत्व को प्राप्त अर्थात् द्रव्य-कर्म पर्याय-रूप परिणमित [पोग्गलकाया] पुद्गल-स्कन्ध [पुणो वि जीवस्स] फिर से भी -- दूसरे भव में भी जीव के [संजायंते देहा] अच्छी तरह से देह--शरीर को उत्पन्न करते हैं । क्या करके शरीर उत्पन्न करते हैं ? [देहंतरसंकमं पप्पा] देहान्तर संक्रम -- दूसरे भव को प्राप्तकर शरीर उत्पन्न करते हैं ।

    इससे क्या कहा गया है -- इस सब कथन का निष्कर्ष क्या है ? औदारिक आदि शरीर नाम-कर्म से रहित परमात्मा को प्राप्त नहीं करनेवाले जीव द्वारा जो उपार्जित किये गये -- बाँधे गये औदारिक आदि शरीर -नाम-कर्म -- वे दूसरे भव की प्राप्ति होने पर उदय को प्राप्त होते हैं; उनका उदय होने पर, नोकर्म पुद्गल औदारिक आदि शरीर के आकररूप, स्वयं ही परिणमित होते हैं । इस कारण औदारिक आदि शरीरों का जीव कर्ता नहीं है -- ऐसा निष्कर्ष है ॥१८२॥

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    ओरालिओ य देहो देहो वेउव्विओ य तेजसिओ । (171)
    आहारय कम्मइओ पोग्गलदव्वप्पगा सव्वे ॥183॥
    औदारिकश्च देहो देहो वैक्रियिकश्च तैजसः ।
    आहारकः कार्मणः पुद्गलद्रव्यात्मकाः सर्वे ॥१७१॥
    यह देह औदारिक तथा हो वैक्रियक या कार्मण
    तेजस अहारक पाँच जो वे सभी पुद्गलद्रव्यमय ॥१८३॥
    अन्वयार्थ : [औदारिक: च देह:] औदारिक शरीर, [वैक्रियिक: देह:] वैक्रियिक शरीर, [तैजस:] तैजस शरीर, [आहारक:] आहारक शरीर [च] और [कार्मण:] कार्मण शरीर [सर्वे] सब [पुद्गलद्रव्यात्मका:] पुद्‌गलद्रव्यात्मक हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण—सभी शरीर सब पुद्‌गलद्रव्यात्मक हैं । इससे निश्‍चित होता है कि आत्मा शरीर नहीं है ॥१७१॥

    जयसेनाचार्य :
    [ओरालिओ य देहो] और औदारिक शरीर, [देहो वेउव्विओ य] वैक्रियक शरीर और [तेजसिओ] तैजसिक, [आहारय कम्मइओ] आहारक और कार्मण शरीर [पोग्गलदव्वप्पगा सव्वे] ये पाँचों शरीर पुद्गल-द्रव्य-स्वरूप हैं; सभी मेरे स्वरूप नहीं हैं । ये मेरे स्वरूप क्यों नहीं हैं ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो (उत्तर कहते हैं) -- शरीर रहित चैतन्य-चमत्कार-परिणति होने के कारण मेरा, हमेशा ही अचेतन शरीरत्व के साथ विरोध होने से, ये मेरे नहीं हैं ॥१८३॥

    इस प्रकार पुद्गल-स्कन्धों के सम्बन्धी विशेष कथन की मुख्यता से दूसरे स्थल में पांच गाथायें पूर्ण हुईं ।

    इसप्रकार [अपदेसो परमाणू] इत्यादि ९ गाथाओं द्वारा परमाणु और स्कन्ध के भेद से भेदित पुद्गलों के पिण्ड की उत्पत्ति सम्बन्धी विशेष कथन की मुख्यता से (दो स्थलों में विभक्त) दूसरा विशेषान्तराधिकार समाप्त हुआ ।

    अब १९ गाथा पर्यन्त जीव का पुद्गल के साथ बन्ध की मुख्यता से विशेष कथन करते हैं; वहां छह स्थल हैं । उनमें
    • सबसे पहले '[अरसमरूवं]' इत्यादि कथनरूप एक गाथा, '[मुत्तो रुवादि]' इत्यादि पूर्वपक्ष के निराकरण की मुख्यता से दो गाथायें -- इसप्रकार पहले स्थल में तीन गाथायें हैं ।
    • इसके बाद भावबन्ध की मुख्यता से '[उवओगमओ ]' इत्यादि दूसरे स्थल में दो गाथायें हैं ।
    • अब, परस्पर दो पुद्गलों का बन्ध, जीव का रागादि परिणाम के साथ बन्ध और जीव-पुद्गल का बन्ध -- इस प्रकार तीन प्रकार के बन्ध की मुख्यता से '[फासेही पुग्गालाण]' इत्यादि तीसरे स्थल में दो गाथायें हैं ।
    • उससे आगे निश्चय से द्रव्य-बन्ध का कारण होने से रागादि-परिणाम ही बन्ध है -- इस कथन की मुख्यता से '[रत्तो बन्धदि]' इत्यादि चौथे स्थल में तीन गाथायें हैं ।
    • तदनन्तर भेद-भावना की मुख्यता से '[... पुढवी]' इत्यादि पाँचवें स्थल मे दो गाथायें हैं ।
    • तत्पश्चात् जीव रागादि परिणामों का करता है और द्रव्य-कर्मों का नहीं है -- इस कथन की मुख्यता से '[कुव्वं सहावमादा]' इत्यादि छठवें स्थल में सात गाथायें हैं ।
    जहाँ 'मुख्यता' ऐसा कहा गया है, वहां यथा-संभव दूसरा भी अर्थ प्राप्त होता है -- ऐसा सर्वत्र जानना चाहिये ।

    इसप्रकर १९ गाथाओं द्वारा तीसरे विशेषान्तराधिकार में सामूहिक पातनिका हुई ।

    तृतीय विशेषान्तराधिकार स्थल विभाजन
    स्थल क्रम प्रतिपादित विषय कहाँ से कहाँ पर्यंत गाथाएँ कुल गाथाएँ
    प्रथम शुद्ध जीव स्वरूप तथा पूर्वपक्ष परिहार 184 से 186 3
    द्वितीय भावबंध की मुख्यता प्रतिपादक 187 व 188 2
    तृतीय त्रिविध बंध प्रतिपादक 189 व 190 2
    चतुर्थ रागादि परिणाम ही वास्तविक बंध प्रतिपादक 191 से 193 3
    पंचम भेद-भावना परक 194 व 195 2
    षष्टम जीव रागादि का ही करता, द्रव्य-कर्मों का नहीं 196 से 202 7
    कुल 6 स्थल कुल 19 गाथाएँ

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    अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्‌दं । (172)
    जाण अलिंग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ॥184॥
    अरसमरूपमगन्धमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम् ।
    जानीह्यलिङ्गग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थानम् ॥१७२॥
    चैतन्य गुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है
    जानो अलिंगग्रहण इसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है ॥१८४॥
    अन्वयार्थ : [जीवम्] जीव को [अरस] रस-रहित [अरूपम्] रूप-रहित, [अगंधम्] गंध-रहित, [अव्यक्तम्] अव्यक्त, [चेतनागुणम्] चेतना-गुणयुक्त, [अशब्दम्] अशब्द, [अलिंगग्रहणम्] अलिंगग्रहण (लिंग द्वारा ग्रहण न होने योग्य) और [अनिर्दिष्टसंस्थानम्] जिसका कोई निश्चित संस्थान नहीं कहा गया है ऐसा [जानीहि] जानो ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    आत्मा
    1. रसगुण के अभावरूप स्वभाव वाला होने से,
    2. रूपगुण के अभावरूप स्वभाववाला होने से,
    3. गंधगुण के अभावरूप स्वभाव वाला होने से,
    4. स्पर्शगुण रूप व्यक्तता के अभावरूप स्वभाववाला होने से,
    5. शब्द पर्याय के अभावरूप स्वभाववाला होने से, तथा
    6. इन सबके कारण (अर्थात् रस-रूप-गंध इत्यादि के अभावरूप स्वभाव के कारण) लिंग के द्वारा अग्राह्य होने से और
    7. सर्व संस्थानों के अभावरूप स्वभाववाला होने से,
    आत्मा को पुद्‌गलद्रव्य से विभाग का साधनभूत
    1. अरसत्‍व,
    2. अरूपत्‍व,
    3. अगंधत्‍व,
    4. अव्यक्तता,
    5. अशब्दत्‍व,
    6. अलिंगग्राह्यत्‍व और
    7. असंस्थानत्‍व
    है । पुद्‌गल तथा अपुद्‌गल ऐसे समस्त अजीव द्रव्यों से विभाग का साधन तो चेतनागुणमयपना है; और वही, मात्र स्व-जीव-द्रव्याश्रित होने से स्व-लक्षणत्‍व को धारण करता हुआ, आत्मा का शेष अन्य द्रव्यों से विभाग (भेद) सिद्ध करता है ।

    जहाँ 'अलिंगग्राह्य' करना है वहाँ जो 'अलिंगग्रहण' कहा है, वह बहुत से अर्थों की प्रतिपत्ति (प्राप्ति, प्रतिपादन) करने के लिये है । वह इस प्रकार है :—

    1. ग्राहक (ज्ञायक) जिसके लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण (जानना) नहीं होता वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा अतीन्द्रियज्ञानमय है' इस अर्थ की प्राप्ति होती है ।
    2. ग्राह्य (ज्ञेय) जिसका लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण (जानना) नहीं होता वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्ष का विषय नहीं है' इस अर्थ की प्राप्ति होती है ।
    3. जैसे धुएँ से अग्नि का ग्रहण (ज्ञान) होता है, उसी प्रकार लिंग द्वारा, अर्थात् इन्द्रियगम्य (इन्द्रियों से जानने योग्य चिह्न) द्वारा जिसका ग्रहण नहीं होता वह अलिंगग्रहण है । इस प्रकार 'आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वक अनुमान का विषय नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
    4. दूसरों के द्वारा—मात्र लिंग द्वारा ही जिसका ग्रहण नहीं होता वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा अनुमेय मात्र नहीं है' (आत्मा केवल अनुमान से ही ज्ञात होने योग्य नहीं है) ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
    5. जिसके लिंग से ही पर का ग्रहण नहीं होता वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा अनुमाता मात्र नहीं है' (आत्मा केवल अनुमान करने वाला नहीं है) ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
    6. जिसके लिंग के द्वारा नहीं किन्तु स्वभाव के द्वारा ग्रहण होता है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
    7. जिसके लिंग द्वारा अर्थात् उपयोगनामक लक्षण द्वारा ग्रहण नहीं है अर्थात् ज्ञेय पदार्थों का आलम्बन नहीं है, वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा के बाह्य पदार्थों का आलम्बनवाला ज्ञान नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
    8. जो लिंग को अर्थात् उपयोग नामक लक्षण को ग्रहण नहीं करता अर्थात् स्वयं (कहीं बाहर से) नहीं लाता सो अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा जो कहीं से नहीं लाया जाता ऐसे ज्ञानवाला है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
    9. लिंग का अर्थात् उपयोगनामक लक्षण का ग्रहण अर्थात् पर से हरण नहीं हो सकता सो अलिंग ग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा के ज्ञान का हरण नहीं किया जा सकता' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
    10. जिसे लिंग में अर्थात् उपयोगनामक लक्षण में ग्रहण अर्थात् सूर्य की भाँति उपराग (मलिनता, विकार) नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा शुद्धोपयोगस्वभावी है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
    11. लिंग द्वारा अर्थात् उपयोगनामक लक्षण द्वारा ग्रहण अर्थात् पौद्‌गलिक कर्म का ग्रहण जिसके नहीं है, वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा द्रव्यकर्म से असंयुक्त (असंबद्ध) है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
    12. जिसे 'लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण अर्थात् विषयों का उपभोग नहीं है’ सो अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा विषयों का उपभोक्ता नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
    13. लिंग द्वारा अर्थात् मन अथवा इन्द्रियादि लक्षण के द्वारा ग्रहण अर्थात् जीवत्व को धारण कर रखना जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा शुक्र और आर्तव (रक्त) को अनुविधायी (अनुसार होने-वाला) नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
    14. लिंग का अर्थात् मेहनाकार (पुरुषादि की इन्द्रिय का आकार) का ग्रहण जिसके नहीं है सो अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा लौकिक साधन-मात्र नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
    15. लिंग के द्वारा अर्थात् अमेहनाकार के द्वारा जिसका ग्रहण अर्थात् लोक में व्यापकत्व नहीं है सो अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा पाखण्डियों के प्रसिद्ध साधनरूप आकार वाला—लोकव्याप्तिवाला नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
    16. जिसके लिंगों का अर्थात् स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेदों का ग्रहण नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा द्रव्य से तथा भाव से स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक नहीं है' इस अर्थ की प्राप्ति होती है
    17. लिंगों का अर्थात् धर्मचिह्नों का ग्रहण जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा के बहिरंग यतिलिंगों का अभाव है' इस अर्थ की प्राप्ति होती है ।
    18. लिंग अर्थात् गुण ऐसा जो ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध (पदार्थज्ञान) जिसके नहीं है सो अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा गुणविशेष से आलिंगित न होनेवाला ऐसा शुद्ध द्रव्य है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
    19. लिंग अर्थात् पर्याय ऐसा जो ग्रहण, अर्थात् अर्थावबोध-विशेष जिसके नहीं है सो अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा पर्यायविशेष से आलिंगित न होनेवाला ऐसा शुद्ध द्रव्य है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।
    20. लिंग अर्थात् प्रत्यभिज्ञान का कारण ऐसा जो ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध सामान्य जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इस प्रकार 'आत्मा द्रव्य से नहीं आलिंगित ऐसी शुद्ध पर्याय है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ॥१७२॥

    जयसेनाचार्य :
    [अरसमरूवमगंधं] रस-रूप-गंध रहित होने के कारण और उसी प्रकार विविध-रूप से ग्रहण करने योग्य नहीं होने से तथा गाथा में जिसका ग्रहण नहीं हो पाया है ऐसा अस्पर्श-रूप होने से [अव्वत्तं] अव्यक्त होने से, [असद्दं] अशब्द होने से, [अलिंग्गहणं] अलिंग-ग्रहण होने से, [अणिद्दिट्ठसंठाणं] और अनिर्दिष्ट-संस्थान वाला होने से [जाण जीवं] जीव को जानो । हे शिष्य ! जीवद्रव्य को अरस, अरूप, अगन्ध, अस्पर्श, अव्यक्त, अशब्द, अलिंग-ग्रहण और अनिर्दिष्ट-संस्थान लक्षण-वाला जानो । और वह जीव कैसा है ? [चेदणागुणम] सम्पूर्ण पुद्गलादि अचेतन द्रव्यों से भिन्न, सम्पूर्ण अन्य द्रव्यों से असाधारण और अपनी अनन्त जीव-जाति में साधारण चेतना-गुण है जिसका, उस चेतना गुण-वाले जीव को जानो, तथा '[अलिंगग्राह्य]' ऐसा कहने योग्य होने पर भी जो '[अलिंगग्रहण]' ऐसा कहा गया है, वह किसलिये कहा गया है ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो (उत्तर कहते हैं) अनेक अर्थों का ज्ञान कराने के लिये अलिंगग्राह्य के स्थान पर अलिंगग्रहण कहा गया है ।

    वह इसप्रकार -- लिंग अर्थात् इन्द्रिय, उसके द्वारा पदार्थों का ग्रहण अर्थात् ज्ञान नहीं करता है, उससे अलिंगग्रहण है । वह इन्द्रियों द्वारा पदार्थों का ज्ञान क्यों नहीं करता है ? स्वयं ही अतीन्द्रिय अखण्ड-ज्ञान सहित होने के कारण, वह उनके द्वारा पदार्थों का ज्ञान नहीं करता है । उसी लिंग शब्द द्वारा कहने योग्य नेत्र आदि इन्द्रियों से अन्य जीवों के जिसका ग्रहण -- ज्ञान करने को नहीं आता है -- जिसका जानना संभव नहीं है, उससे अलिंगग्रहण कहा है । अन्य जीव इसे नेत्रादि इन्द्रियों द्वारा क्यों नहीं जान सकते हैं ? विकार रहित अतीन्द्रिय स्वसंवेदन-प्रत्यक्ष ज्ञान दारा गम्य होने से, वे उसे उनके द्वारा नहीं जान सकते हैं ।

    लिंग अर्थात् धूम (धुँआ) आदि कारण--साधन, उस धूम-लिंग से उत्पन्न अनुमान के द्वारा (ज्ञात हुई) अग्नि के समान अनुमेय-भूत (अनुमान द्वारा जानने योग्य) पर-पदार्थों का ग्रहण -- ज्ञान नहीं करता है, उससे अलिंगग्रहण है । वह लिंग द्वारा पर-पदार्थों का ज्ञान क्यों नहीं करता है ? स्वयं ही अलिंग--लिंग के बिना उत्पन्न अतीन्द्रिय-ज्ञान से सहित होने के कारण, वह लिंग द्वारा उनका ज्ञान नहीं करता है । उसी लिंग से उत्पन्न अनुमान द्वारा अग्नि के ज्ञान के समान, दूसरे पुरुषों को जिस आत्मा का ग्रहण -- ज्ञान करने को नहीं आता है -- जानना संभव नहीं है, उससे अलिंगग्रहण है । लिंग द्वारा अन्य पुरुष इसे क्यों नहीं जान सकते हैं ? लिंग के बिना उत्पन्न अतीन्द्रिय-ज्ञान से गम्य -- ज्ञात होने के कारण, वे लिंग द्वारा उसे नहीं जान सकते हैं ।

    अथवा लिंग अर्थात् चिन्ह--लांछन--निशान; शिखा--चोटी, जटाधारण आदि, उनसे पदार्थों का ग्रहण--ज्ञान नहीं करता है, उससे अलिंगग्रहण है । वह, शिखा आदि चिन्हों द्वारा पदार्थों का ज्ञान क्यों नहीं करता है? चिन्हों के बिना उत्पन्न स्वाभाविक अतीन्द्रिय-ज्ञान से सहित होने के कारण, वह इनके द्वारा उनका ज्ञान नहीं करता है । उसी चिन्ह से उत्पन्न ज्ञान द्वारा, दूसरे पुरुषों को जिस आत्मा का ग्रहण--ज्ञान करने को नहीं आता है--जानना संभव नहीं है, उससे अलिंगग्रहण है । चिन्ह से उत्पन्न ज्ञान द्वारा पुरुष इसे क्यों नहीं जान सकते हैं? उपराग (रागादि मलिनता) रहित स्वसंवेदन-ज्ञान द्वारा गम्य होने से इसके द्वारा उसे नहीं जान सकते हैं ।

    इसप्रकार अलिंगग्रहण शब्द के विशेष कथन क्रम से शुद्ध जीव का स्वरूप जानना चाहिये -- ऐसा अभिप्राय है ॥१८४॥

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    मुत्तो रूवादिगुणो बज्झदि फासेहिं अण्णमण्णेहिं । (173)
    तव्विवरीदो अप्पा बज्झदि किध पोग्गलं कम्मं ॥185॥
    मूर्तो रूपादिगुणो बध्यते स्पर्शैरन्योन्यैः ।
    तद्विपरीत आत्मा बध्नाति कथं पौद्गलं कर्म ॥१७३॥
    मूर्त पुद्गल बंधे नित स्पर्श गुण के योग से
    अमूर्त आतम मूर्त पुद्गल कर्म बाँधे किसतरह ॥१८५॥
    अन्वयार्थ : [मूर्त:] मूर्त (पुद्‌गल) तो [रूपादिगुण:] रूपादिगुणयुक्त होने से [अन्योन्यै: स्पर्शै:] परस्पर (बंधयोग्य) स्पर्शों से [बध्यते] बँधते हैं; (परन्तु) [तद्विपरीतः आत्मा] उससे विपरीत (अमूर्त) आत्मा [पौद्गलिकं कर्मं] पौद्‌गलिक कर्म को [कथं] कैसे [बध्‍नाति] बाँधता है?

    अमृतचंद्राचार्य :
    मूर्त ऐसे दो पुद्‌गल तो रूपादिगुणयुक्त होने से यथोक्त स्निग्धरूक्षत्वरूप स्पर्शविशेष (बंधयोग्य स्पर्श) के कारण उनका पारस्परिक बंध अवश्य समझा जा सकता है; किन्तु आत्मा और कर्मपुद्‌गल का बंध होना कैसे समझा जा सकता है? क्योंकि मूर्त ऐसा कर्मपुद्‌गल रूपादिगुणयुक्त है, इसलिये उसके यथोक्त स्निग्धरूक्षत्वरूप स्पर्शविशेष का संभव होने पर भी अमूर्त ऐसे आत्मा को रूपादिगुणयुक्तता नहीं है इसलिये उसके यथोक्त स्निग्धरूक्षत्वरूप स्पर्शविशेष का असंभव होने से एक अंग विकल है । (अर्थात् बंधयोग्य दो अंगो में से एक अंग अयोग्य है—स्पर्शगुणरहित होने से बंध की योग्यतावाला नहीं है ।) ॥१७३॥

    जयसेनाचार्य :
    मूर्त रूप, रस, गन्ध, स्पर्श होने से पुद्गल द्रव्य के गुण [बज्झदि] परस्पर संश्लेष-रूप से बंधते हैं -- बन्ध का अनुभव करते हैं, वहाँ दोष नहीं है । वे किनसे बंधते हैं ? [फासेहिं अण्णमण्णेहिं] वे स्निग्ध-रुक्ष गुण लक्षण स्पर्श के संयोग से बंधते हैं । किन विशेषताओं वाले स्पर्शों से वे बंधते हैं ? परस्पर में निमित्त-रूप स्पर्शों से वे बँधते हैं ।

    [तव्विवरीदो अप्पा बज्झदि किध पोग्गलं कम्मं] परन्तु उससे विपरीत आत्मा, पुद्गल-कर्म को कैसे बाँधता है ? यह परमात्मा विकार-रहित परम-चैतन्य-चमत्कार परिणति-वाला होने से बन्ध के कारणभूत स्निग्ध-रूक्ष गुण के स्थानीय राग-द्वेष आदि विभाव परिणाम से रहित होने के कारण और अमूर्त होने के कारण पुद्गल-कर्म को कैसे बाँधता है ? किसी भी प्रकार से नही बाँध सकता है - ऐसा पूर्वपक्ष है ॥१८५॥

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    रूवादिएहिं रहिदो पेच्छदि जाणादि रूवमादीणि । (174)
    दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि ॥186॥
    रूपादिकै रहितः पश्यति जानाति रूपादीनि ।
    द्रव्याणि गुणांश्च यथा तथा बन्धस्तेन जानीहि ॥१७४॥
    जिसतरह रूपादि विरहित जीव जाने मूर्त को
    बस उसतरह ही जीव बाँधे मूर्त पुद्गलकर्म को ॥१८६॥
    अन्वयार्थ : [यथा] जैसे [रूपादिकै: रहित:] रूपादिरहित (जीव) [रूपादीनि] रूपादि [द्रव्याणि गुणान् च] द्रव्यों को तथा गुणों को (रूपी द्रव्यों को और उनके गुणों को) [पश्यति जानाति] देखता है और जानता है [तथा] उसी प्रकार [तेन] उसके साथ (अरूपी का रूपी के साथ) [बंध: जानीहि] बंध जानो ॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    जैसे रूपादिरहित (जीव) रूपी द्रव्यों को तथा उनके गुणों को देखता है तथा जानता है उसी प्रकार रूपादिरहित (जीव) रूपी कर्मपुद्‌गलों के साथ बँधता है; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो यहाँ भी (देखने-जानने के संबंध में भी) वह प्रश्न अनिवार्य है कि अमूर्त मूर्त को कैसे देखता-जानता है?

    और ऐसा भी नहीं है कि यह (अरूपी का रूपो के साथ बंध होने की) बात अत्यन्त दुर्घट है इसलिये उसे दार्ष्टान्तरूप बनाया है, परन्तु दृष्टांत द्वारा आबालगोपाल सभी को प्रगट (ज्ञात) हो जाये इसलिये दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है । यथा :—बालगोपाल का पृथक् रहनेवाले मिट्टी के बैल को अथवा (सच्चे) बैल को देखने और जानने पर बैल के साथ संबंध नहीं है तथापि विषयरूप से रहने वाला बैल जिनका निमित्त है ऐसे उपयोगारूढ वृषभाकार दर्शन-ज्ञान के साथ का संबंध बैल के साथ के संबंधरूप व्यवहार का साधक अवश्य है; इसी प्रकार आत्मा अरूपीपने के कारण स्पर्शशून्य है, इसलिये उसका कर्मपुद्‌गलों के साथ संबंध नहीं है, तथापि एकावगाहरूप से रहने वाले कर्मपुद्‌गल जिनके निमित्त हैं ऐसे उपयोगारूढ रागद्वेषादिकभावों के साथ का संबंध कर्मपुद्‌गलों के साथ के बंधरूप व्यवहार का साधक अवश्य है ।


    जयसेनाचार्य :
    [रूवादिएहिं रहिदो] प्रथम तो अमूर्त परम-चैतन्य-ज्योतिरूप से परिणत होने के कारण यह आत्मा रूपादि रहित है । वैसा होता हुआ वह क्या करता है ? [पेच्छदि जाणादि] सिद्ध अवस्था में यद्यपि एक साथ जानकारीरूप सामान्य-विशेष को ग्रहण करने वाले केवलदर्शन-केवलज्ञान उपयोग के साथ तादात्म्य-सम्बन्ध नहीं है, तथापि ग्रहण करने योग्य -- जानने योग्य और ग्रहण करनेवाले -- जाननेवाले अर्थात् ज्ञेय-ज्ञायक लक्षण सम्बन्ध-रूप से देखते और जानते हैं । कर्मता को प्राप्त इस गाथा मे कर्म-कारक में प्रयुक्त किन्हे वे जीव देखते-जानते हैं ? [रूवमादीणि दव्वाणि] वे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श सहित द्रव्यों को देखते-जानते हैं । न केवल द्रव्यों को देखते-जानते हैं, वरन् [गुणे य जधा] और जैसे उनके गुणों को देखते-जानते हैं ।

    अथवा, कोई संसारी जीव, विशेष भेद-ज्ञान से रहित होता हुआ काठ, पत्थर आदि की अचेतन जिन- प्रतिमा को देखकर, ये मेरे आराध्य हैं -- ऐसा मानता है । यद्यपि वहाँ सत्ता को देखनेवाले दर्शन के साथ प्रतिमा का तादात्म्य-सम्बन्ध नहीं है, तथापि ज्ञेय-ज्ञायक लक्षण सम्बन्ध है । अथवा, जैसे विशेष भेद-ज्ञानी समवसरण में प्रत्यक्ष जिनेन्द्र भगवान को देखकर मे मेरे आराध्य हैं -- ऐसा मानता है । वहाँ भी यद्यपि अवलोकन ज्ञान का, जिनेश्वर के साथ तादात्म्य-सम्बन्ध नहीं है, तथापि आराध्य-आराधक सम्बन्ध है । [तह बंधो तेण जाणीहि] उसी-प्रकार से बन्ध उसी दृष्टान्त द्वारा जानो ।

    यहाँ अर्थ यह है -- यद्यपि यह आत्मा निश्चय से अमूर्त है, तथापि अनादि कर्मबन्ध के वश व्यवहार से मूर्त होता हुआ, द्रव्य-बन्ध के निमित्त-भूत रागादि विकल्प-रूप भाव-बन्ध-मय उपयोग को करता है । वैसा होने पर, यद्यपि मूर्त द्रव्य-कर्मों के साथ तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है, तथापि पहले कहे हुये उदाहरण से संश्लेष सम्बन्ध है -- इसमें दोष नहीं है ।

    इस प्रकार शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी जीव के कथन की मुख्यता से पहली गाथा; मूर्ति रहित -- अमूर्त जीव का, मूर्त कर्मों के साथ कैसे बन्ध होता है -- इसप्रकार पूर्व पक्ष (प्रश्न) रूप से दूसरी, तथा उसके परिहार (उत्तर) रूप से तीसरी -- इसप्रकार तीन गाथाओं द्वारा पहला स्थल समाप्त हुआ ।

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    उवओगमओ जीवो मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि । (175)
    पप्पा विविधे विसये जो हि पुणो तेहिं सो बन्धो ॥187॥
    उपयोगमयो जीवो मुह्यति रज्यति वा प्रद्वेष्टि ।
    प्राप्य विविधान् विषयान् यो हि पुनस्तैः स बन्धः ॥१७५॥
    प्राप्त कर उपयोगमय जिय विषय विविध प्रकार के
    रुष-तुष्ट होकर मुग्ध होकर विविधविध बंधन करे ॥१८७॥
    अन्वयार्थ : [यः हि पुन:] जो [उपयोगमय: जीव:] उपयोगमय जीव [विविधान् विषयान्] विविध विषयों को [प्राप्य] प्राप्त करके [मुह्यति] मोह करता है, [रज्यति] राग करता है, [वा] अथवा [प्रद्वेष्टि] द्वेष करता है, [सः] वह जीव [तै:] उनके द्वारा (मोह-राग-द्वेष के द्वारा) [बन्ध:] बन्धरूप है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    प्रथम तो यह आत्मा सर्व ही उपयोगमय है, क्योंकि वह सविकल्प और निर्विकल्प प्रतिभासस्वरूप है (अर्थात् ज्ञान-दर्शनस्वरूप है ।) उसमें जो आत्मा विविधाकार प्रतिभासित होने वाले पदार्थों को प्राप्त करके मोह, राग अथवा द्वेष करता है, वह आत्मा-काला, पीला, और लाल आश्रय जिनका निमित्त है ऐसे कालेपन, पीलेपन और लालपन के द्वारा उपरक्त स्वभाव वाले स्फटिकमणि की भाँति—पर जिनका निमित्त है ऐसे मोह, राग और द्वेष के द्वारा उपरक्त (विकारी, मलिन, कलुषित,) आत्मस्वभाव वाला होने से, स्वयं अकेला ही बंध (बंधरूप) है, क्योंकि मोहरागद्वेषादिभाव उसका द्वितीय है ॥१७५॥

    जयसेनाचार्य :
    [उवओयमओ जीवो] उपयोगमय जीव, प्रथम तो यह जीव निश्चय-नय से विशुद्ध ज्ञान- दर्शन उपयोगमय है, ऐसा होने पर भी अनादि बन्ध के वश उपाधि (डांक) सहित स्फटिक के समान पर उपाधि (रागादि-मलिनता) रूप भाव से परिणत होता हुआ । ऐसा होता हुआ क्या करता है ? [मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि] मोह करता है, राग करता है अथवा द्वेष करता है । पहले क्या करके मोहादि करता है ? [पप्पा] प्राप्त कर मोहादि करता है । किन्हें प्राप्त कर मोहादि करता है ? [विविधे विसये] विषय रहित परमात्म- स्वरूप की भावना से विपरीत, अनेक प्रकार के पंचेन्द्रिय विषयों को प्राप्तकर, मोहादि करता है । [जो हि पुणो] और जो इसप्रकार का जीव है, वह वास्तव में [तेहिं सो बन्धो] उनके द्वारा बंधता है, उन पहले कहे हुये कर्ताभूत राग-द्वेष-मोह द्वारा, मोह-राग-द्वेष से रहित जीव के शुद्ध परिणाम लक्षण परमधर्म को प्राप्त नहीं करता हुआ, वह जीव बद्ध होता है ।

    यहाँ जो वह राग-द्वेष-मोह परिणाम है, वही भाव-बन्ध है -- ऐसा अर्थ है ।

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    भावेण जेण जीवो पेच्छदि जाणादि आगदं विसये । (176)
    रज्जदि तेणेव पुणो बज्झदि कम्म त्ति उवदेसो ॥188॥
    भावेन येन जीवः पश्यति जानात्यागतं विषये ।
    रज्यति तेनैव पुनर्बध्यते कर्मेत्युपदेशः ॥१७६॥
    जिस भाव से आगत विषय को देखे-जाने जीव यह
    उसी से अनुरक्त हो जिय विविधविध बंधन करे ॥१८८॥
    अन्वयार्थ : [जीव:] जीव [येन भावेन] जिस भाव से [विषये आगत] विषयागत पदार्थ को [पश्यति जानाति] देखता है और जानता है, [तेन एव] उसी से [रज्यति] उपरक्त होता है; [पुन:] और उसी से [कर्म बध्यते] कर्म बँधता है;—[इति] ऐसा [उपदेश:] उपदेश है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    यह आत्मा साकार और निराकार प्रतिभास-स्वरूप (ज्ञान और दर्शनस्वरूप) होने से प्रतिभास्य (प्रतिभासित होने योग्य) पदार्थ-समूह को जिस मोहरूप, रागरूप या द्वेषरूप भाव से देखता है और जानता है, उसी से उपरक्त होता है । जो यह उपराग (विकार) है वह वास्तव में स्निग्ध-रूक्षत्व-स्थानीय भावबंध है । और उसी से अवश्य पौद्‌गलिक कर्म बँधता है । इस प्रकार यह द्रव्यबंध का निमित्त भावबंध है ॥१७६॥

    जयसेनाचार्य :
    [भावेण जेण] जिस भाव--परिणाम से [जीवो] जीव-रूपी कर्ता [पेच्छदि जाणादि] निर्विकल्प दर्शनरूप पर्याय से देखता है और सविकल्प ज्ञानरूप पर्याय से जानता है । कर्मता को प्राप्त किसे जानता है ? [आगदं विसये] आये हुये -- प्राप्त हुये कुछ भी इष्ट-अनिष्ट वस्तु -- पंचेंद्रिय विषयों को देखता व जानता है, उन पंचेंद्रिय विषयों में । [रज्जदि तेणेव पुणो] उसी से फिर राग करता है, आदि-मध्य-अन्त से रहित रागादि दोष रहित, चैतन्य-ज्योति-स्वरूप, निज आत्म-द्रव्य की रुचि नहीं करता हुआ तथा उसे ही नहीं जानता हुआ और सम्पूर्ण रागादि विकल्पों के त्याग-पूर्वक उसकी ही भावना नहीं करता हुआ, पहले कहे गये ज्ञान-दर्शन उपयोग द्वारा राग करता है -- इसप्रकार भाव बन्ध की युक्ति है । [बज्झदि कम्म त्ति उवदेसो] उस भाव-बन्ध से नवीन द्रव्य-कर्म बंधता है -- ऐसा द्रव्य बन्ध का स्वरूप है -- ऐसा उपदेश है ॥१८८॥

    इसप्रकर भाव-बन्ध कथन की मुख्यता से दो गाथाओं द्वारा दूसरा स्थल पूर्ण हुआ ।

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    फासेहिं पोग्गलाणं बंधो जीवस्स रागमादीहिं । (177)
    अण्णोण्णमवगाहो पोग्गलजीवप्पगो भणिदो ॥189॥
    स्पर्शैः पुद्गलानां बन्धो जीवस्य रागादिभिः ।
    अन्योन्यमवगाहः पुद्गलजीवात्मको भणितः ॥१७७॥
    स्पर्श से पुद्गल बंधे अर जिय बंधे रागादि से
    जीव-पुद्गल बंधे नित ही परस्पर अवगाह से ॥१८९॥
    अन्वयार्थ : [स्पर्शै:] स्पर्शों के साथ [पुद्गलाना बंध:] पुद्‌गलों का बंध, [रागादिभि: जीवस्य] रागादि के साथ जीव का बंध और [अन्योन्यम् अवगाह:] अन्योन्य अवगाह वह [पुद्‌गलजीवात्मक: भणित:] पुद्‌गलजीवात्मक बंध कहा गया है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    प्रथम तो यहाँ,
    • कर्मों का जो स्निग्धता-रूक्षतारूप स्पर्श-विशेषों के साथ एकत्व-परिणाम है सो केवल पुद्‌गल-बंध है;
    • और जीव का औपाधिक मोह-राग-द्वेषरूप पर्यायों के साथ जो एकत्व परिणाम है सो केवल जीव-बंध है;
    • और जीव तथा कर्मपुद्‌गल के परस्पर परिणाम के निमित्तमात्र से जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह है सो उभय-बंध है । (अर्थात् जीव और कर्मपुद्‌गल एक दूसरे के परिणाम में निमित्तमात्र होवें, ऐसा, विशिष्टप्रकार का—खासप्रकार का, जो उनका एकक्षेत्रावगाह संबंध है सो वह पुद्‌गल-जीवात्मक बंध है) ॥१७७॥

    जयसेनाचार्य :
    [फासेहिं पोग्गलाणं बंधो] स्पर्शों से पुद्गलों का बन्ध । पहले के और नवीन पुद्गल द्रव्य-कर्मों का, जीवगत रागादि भावों के निमित्त से और अपने स्निग्ध और रूक्षरूप उपादान कारण से परस्पर- स्पर्श के संयोग द्वारा जो वह बन्ध है, वह पुद्गलबन्ध है । [जीवस्स रागमादीहिं] जीव का रागादि से । उपराग (मलिनता) रहित परम-चैतन्यरूप-निजात्मतत्त्व की भावना से च्युत जीव का, जो रागादि के साथ परिणमन है, वह जीवबन्ध है । [अण्णोण्णमवगाहो पोग्गलजीवप्पगो भणिदो] परस्पर का अवगाह पुद्गल-जीवात्मक कहा गया है । विकार रहित-स्वसंवेदन ज्ञान से रहित होने के कारण, स्निग्ध-रूक्ष के स्थानीय राग-द्वेष रूप परिणत जीव का और बन्ध योग्य स्निग्ध-रूक्ष परिणाम परिणत पुद्गल का, जो वह परस्पर अवगाह लक्षण बन्ध है, वह इसप्रकार का बंध जीव्-पुद्गल-बन्ध -- उभय-बंध कहलाता है -- इसप्रकार तीन प्रकार के बन्धों का लक्षण जानना चाहिये ॥१८९॥

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    सपदेसो सो अप्पा तेसु पदेसेसु पोग्गला काया । (178)
    पविसंति जहाजोग्गं चिट्ठंति हि जंति बज्झंति ॥190॥
    सप्रदेशः स आत्मा तेषु प्रदेशेषु पुद्गलाः कायाः ।
    प्रविशन्ति यथायोग्यं तिष्ठन्ति च यान्ति बध्यन्ते ॥१७८॥
    आतमा सप्रदेश है उन प्रदेशों में पुद्गला
    परविष्ट हों अर बंधें अर वे यथायोग्य रहा करें ॥१९०॥
    अन्वयार्थ : [सः आत्मा] वह आत्मा [सप्रदेश:] सप्रदेश है; [तेषु प्रदेशेषु] उन प्रदेशों में [पुद्गला: काया:] पुद्‌गलसमूह [प्रविशन्ति] प्रवेश करते हैं, [यथायोग्य तिष्ठन्ति] यथायोग्य रहते हैं, [यान्ति] जाते हैं, [च] और [बध्यन्ते] बंधते हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    यह आत्मा लोकाकाशतुल्य असंख्यप्रदेशी होने से सप्रदेश है । उसके इन प्रदेशों में कायवर्गणा, वचनवर्गणा और मनोवर्गणा का आलम्बन वाला परिस्पन्द (कम्पन) जिस प्रकार से होता है, उस प्रकार से कर्मपुद्‌गल के समूह स्वयमेव परिस्पन्द वाले होते हुए प्रवेश भी करते हैं, रहते भी हैं, और जाते भी हैं; और यदि जीव के मोह-राग-द्वेषरूप भाव हों तो बंधते भी हैं । इसलिये निश्‍चित होता है कि द्रव्यबंध का हेतु भावबंध है ॥१७८॥

    जयसेनाचार्य :
    [सपदेसो सो अप्पा] प्रथम तो वह प्रसिद्ध आत्मा लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेशी होने से सप्रदेश है । [तेसु पदेसेसु पोग्गला काया] उन प्रदेशों में कर्म वर्गणा के योग्य पुद्गल समूह-रूप कर्ता [ पविसंति] प्रवेश करते हैं । उनमें कैसे प्रवेश करते हैं ? [जहाजोग्गं] मन-वचन-काय वर्गणा के अवलम्बन तथा वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न आत्मप्रदेशों में परिस्पन्द लक्षण योग के अनुसार, यथायोग्य प्रवेश करते हैं । मात्र प्रवेश नहीं करते, वरन् [चिट्ठंति हि] प्रवेश के बाद वास्तव में अपनी स्थिति के समय तक रहते हैं । मात्र रहते नहीं हैं ? अपितु [जन्ति] अपने उदयकाल को प्राप्तकर फल देकर चले जाते हैं । [बज्झंति] तथा केवल-ज्ञान आदि अनन्त चतुष्टय की प्रगटता-रूप मोक्ष से विपरीत बंध के कारण रागादिक को प्राप्त-कर पुन: द्रव्य-बन्ध-रूप से बँधते हैं ।

    इससे यह निश्चय हुआ, कि रागादि परिणाम ही द्रव्यबन्ध के कारण हैं ।

    अथवा दूसरा विशेष कथन -- प्रवेश करते हैं अर्थात् प्रदेश बंध, ठहरते हैं अर्थात् स्थिति बंध, फल देकर चले जाते हैं अर्थात् अनुभाग बन्ध और बँधते हैं अर्थात् प्रकृति बंध -- इसप्रकार बंध के चार भेद इन चार शब्दों दारा कहे गये हैं ॥१९०॥

    इसप्रकार तीन प्रकार के बन्ध की मुख्यता से दो गाथाओं द्वारा तीसरा स्थल पूर्ण हुआ ।

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    रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा । (179)
    एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो ॥191॥
    रक्तो बध्नाति कर्म मुच्यते कर्मभि रागरहितात्मा ।
    एष बन्धसमासो जीवानां जानीहि निश्चयतः ॥१७९॥
    रागी बाँधे कर्म छूटे राग से जो रहित है
    यह बंध का संक्षेप है बस नियतनय का कथन यह ॥१९१॥
    अन्वयार्थ : [रक्त:] रागी आत्मा [कर्म बध्याति] कर्म बाँधता है, [रागरहितात्मा] रागरहित आत्मा [कर्मभि: मुच्यते] कर्मों से मुक्त होता है;—[एष:] यह [जीवानां] जीवों के [बंधसमास:] बन्ध का संक्षेप [निश्‍चयत:] निश्‍चय से [जानीहि] जानो ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    रागपरिणत जीव ही नवीन द्रव्यकर्म से बँधता है, वैराग्यपरिणत नहीं बँधता रागपरिणत जीव नवीन द्रव्यकर्म से मुक्त नहीं होता, वैराग्यपरिणत ही मुक्त होता है; रागपरिणत जीव संस्पर्श करने (सम्‍बन्ध में आने) वाले नवीन द्रव्यकर्म से, और चिरसंचित (दीर्घकाल से संचित ऐसे) पुराने द्रव्यकर्म से बँधता ही है, मुक्त नहीं होता; वैराग्यपरिणत जीव संस्पर्श करने (सम्बन्ध में आने) वाले नवीन द्रव्यकर्म से और चिरसंचित ऐसे पुराने द्रव्यकर्म से मुक्त ही होता है, बँधता नहीं है; इससे निश्‍चि‍त होता है कि—द्रव्यबंध का साधकतम (उत्कृष्ट हेतु) होने से रागपरिणाम ही निश्‍चय से बन्ध है ॥१७९॥

    जयसेनाचार्य :
    [रत्ते बंधदि कम्मं] रक्त (रागादि से रँगा हुआ) कर्म बाँधता है । रक्त ही कर्म बांधता है और वैराग्य परिणत कर्म नहीं बांधता है । [मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा] राग-रहित आत्मा कर्मों से छूटता है । राग रहित आत्मा शुभाशुभ कर्मों से छूटता ही है, बँधता नहीं है । [एसो बंधसमासो] प्रत्यक्षीभूत बन्ध का यह संक्षेप है । [जीवाणं] जीवों सम्बन्धी । [जाण णिच्छयदो] हे शिष्य! तुम जानो, निश्चय से -- निश्चयनय के अभिप्राय से ।

    इसप्रकार राग परिणाम ही बन्ध का कारण है - ऐसा जानकर सम्पूर्ण रागादि विकल्प समूहों के त्याग- पूर्वक विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी निजात्म-तत्त्व में निरन्तर भावना करना चाहिये ॥१९१॥

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    परिणामादो बंधो परिणामो रागदोसमोहजुदो । (180)
    असुहो मोहपदोसो सुहो व असुहो हवदि रागो ॥192॥
    परिणामाद्बन्धः परिणामो रागद्वेषमोहयुतः ।
    अशुभौ मोहप्रद्वेषौ शुभो वाशुभो भवति रागः ॥१८०॥
    राग-रुष अर मोह ये परिणाम इनसे बंध हो
    राग है शुभ-अशुभ किन्तु मोह-रुष तो अशुभ ही ॥१९२॥
    अन्वयार्थ : [परिणामात् बंध:] परिणाम से बन्ध है, [परिणाम: रागद्वेषमोहयुत:] (जो) परिणाम राग-द्वेष-मोहयुक्त है । [मोहप्रद्वेषौ अशुभौ] (उनमें से) मोह और द्वेष अशुभ है, [राग:] राग [शुभ: वा अशुभ:] शुभ अथवा अशुभ [भवति] होता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    प्रथम तो द्रव्यबन्ध विशिष्ट परिणाम से होता है । परिणाम की विशिष्टता राग-द्वेष-मोहमयपने के कारण है । वह शुभ और अशुभपने के कारण द्वैत का अनुसरण करता है । (अर्थात् दो प्रकार का है); उसमें से मोह-द्वेषमयपने से अशुभपना होता है, और रागमयपने से शुभपना तथा अशुभपना होता है क्योंकि राग-विशुद्धि तथा संक्लेशयुक्त होने से दो प्रकार का होता है ॥१८०॥

    जयसेनाचार्य :
    [परिणामादो बंधो] परिणाम से बन्ध होता है । और वह परिणाम किस विशेषता वाला है ? [परिणामो रागदोसमोहजुदो] वीतराग परमात्मा से विलक्षण होने के कारण परिणाम राग-द्वेष-मोह तीन रूप उपाधि (संयोग) से सहित है । [असुहो मोहपदेसो] मोह और द्वेष अशुभरूप हैं । पर की उपाधि से उत्पन्न तीनों परिणामों में से मोह और द्वेष -- दोनों अशुभ हैं । [सुहो व असुहो हवदि रागो] राग शुभ तथा अशुभ होता है । पंच परमेष्ठी की भक्ति आदि रूप राग शुभ-राग तथा विषय-कषाय रूप राग अशुभ-राग कहलाता है ।

    यह सभी परिणाम सोपाधि (संयोग सहित) होने से बन्ध के कारण हैं -- ऐसा जानकर बन्ध के प्रकरण में शुभ-अशुभ सम्पूर्ण राग-द्वेष को नष्ट करने के लिये सम्पूर्ण रागादि उपाधि रहित सहजानन्द एक लक्षण सुख रूपी अमृत स्वभावी निजात्मद्रव्य में भावना करना चाहिये -- ऐसा तात्पर्य है ॥१९२॥

    अब द्रव्यरूप पुण्य और पाप के बन्ध का कारण होने से, शुभ और अशुभ परिणामों का पुण्य और पाप नाम तथा शुभ और अशुभ से रहित शुद्धोपयोग परिणाम के मोक्ष की कारणता को कहते हैं --

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    सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति भणिदमण्णेसु । (181)
    परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये ॥193॥
    शुभपरिणामः पुण्यमशुभः पापमिति भणितमन्येषु ।
    परिणामोऽनन्यगतो दुःखक्षयकारणं समये ॥१८१॥
    पर के प्रति शुभभाव पुण पर अशुभ तो बस पाप है
    पर दु:खक्षय का हेतु तो बस अनन्यगत परिणाम है ॥१९३॥
    अन्वयार्थ : [अन्येषु] पर के प्रति [शुभ परिणाम:] शुभ परिणाम [पुण्यम्] पुण्य है, और [अशुभ:] अशुभ परिणाम [पापम्] पाप है, [इति भणितम्] ऐसा कहा है; [अनन्यगतः परिणाम:] जो दूसरे के प्रति प्रवर्तमान नहीं है ऐसा परिणाम [समये] समय पर [दुःखक्षयकारणम्] दुःखक्षय का कारण है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    प्रथम तो परिणाम दो प्रकार का है—परद्रव्यप्रवृत्त (परद्रव्य के प्रति प्रवर्तमान) और स्वद्रव्यप्रवृत्त । इनमें से परद्रव्यप्रवृत्तपरिणाम पर के द्वारा उपरक्त (पर के निमित्त से विकारी) होने से विशिष्ट परिणाम है और स्वद्रव्यप्रवृत्त परिणाम पर के द्वारा उपरक्त न होने से अविशिष्ट परिणाम है । उसमें विशिष्ट परिणाम के पूर्वोक्त दो भेद हैं—शुभपरिणाम और अशुभ परिणाम । उनमें पुण्यरूप पुद्‌गल के बंध का कारण होने से शुभपरिणाम पुण्य है और पापरूप पुद्‌गल के बंध का कारण होने से अशुभ परिणाम पाप है । अविशिष्ट परिणाम तो शुद्ध होने से एक है इसलिये उसके भेद नहीं हैं । वह (अविशिष्ट परिणाम) यथाकाल संसारदुःख के हेतुभूत कर्मपुद्‌गल के क्षय का कारण होने से संसारदुःख का हेतुभूत कर्मपुद्‌गल का क्षयस्वरूप मोक्ष ही है ।

    जयसेनाचार्य :
    [सुहपरिणामो पुण्णं] द्रव्य-पुण्यबन्ध का कारण होने से शुभ परिणाम पुण्य कहलाता है । [असुहो पावं ति भणियं] द्रव्य-पापबन्ध का कारण होने से अशुभ परिणाम पाप कहलाता है । जो ये शुभ-अशुभ परिणाम हैं, वे किन विषयों में गये हुये पुण्य-पाप रूप कहे हैं ? [अण्णेसु] निज शुद्धात्मा से भिन्न, दूसरे शुभ-अशुभ बाह्य द्रव्यों में गये हुये पुण्य-पाप रूप कहे गये हैं । [परिणामो णण्णगदो] परिणाम दूसरे में गये हुये नहीं हैं अर्थात् अनन्यगत -- अपने स्वरूप में स्थित हैं -- ऐसा अर्थ है । वह इसप्रकार का शुद्धोपयोग लक्षण परिणाम [दुक्खक्खयकारणं] दुःखक्षय का कारण -- दुःखों का विनाश नामक मोक्ष का कारण [ भणिदो] कहा गया है । वह मोक्ष का कारण कहाँ कहा गया है ? [समये] परमागम में वह मोक्ष का कारण कहा गया है । अथवा वह मोक्ष का कारण कब कहा गया है ? वह काललब्धि में -- समय की प्राप्ति होने पर मोक्ष का कारण कहा गया है ।

    विशेष यह है --
    • मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र -- इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य (हानिगत) रूप से अशुभ परिणाम होता है -- ऐसा पहले (९वी गाथा की टीका में) कहा था और
    • अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत नामक तीन गुणस्थानों में तारतम्य (वृद्धिंगत) रूप से शुभ परिणाम कहा था, तथा
    • अप्रमत्तादि क्षीणकषाय (सातवें से बारहवें) पर्यन्त गुणस्थानों में तारतम्य (वृद्धिंगत) रूप शुद्धोपयोग भी कहा था ।
    तथा नय की विवक्षा में मिथ्यादृष्टि आदि क्षीणकषाय पर्यन्त गुणस्थानों में अशुद्ध-निश्चय-नय होता ही है ।

    वहाँ अशुद्ध-निश्चयनय के बीच शुद्धोपयोग कैसे प्राप्त होता है? ऐसा शिष्य द्वारा पूर्वपक्ष (प्रश्न) किये जाने पर उसके प्रति उत्तर देते हैं - प्रथम तो वस्तु की एकदेश परीक्षा नय का लक्षण है और शुभ-अशुभ अथवा शुद्ध द्रव्य का अवलम्बन उपयोग का लक्षण है; इसप्रकार अशुद्ध-निश्चय के बीच में शुद्धात्मा का अवलम्बन होने से, शुद्ध ध्येय होने से और शुद्ध का साधक होने से, शुद्धोपयोग परिणाम प्राप्त होता है -- ऐसा नय का और उपयोग का लक्षण यथा संभव सब जगह जानना चाहिये ।

    यहाँ जो यह रागादि विकल्पों की उपाधि रहित समाधि लक्षण शुद्धोपयोग मुक्ति का कारण कहा गया है, वह शुद्धात्मद्रव्य का लक्षण होने से, ध्येयभूत शुद्ध पारिणामिक भाव से अभेद-प्रधान-द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा अभिन्न होने पर भी, भेद-प्रधान-पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा भिन्न है । यह भिन्न क्यों है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो (उत्तर देते हैं) -- यह शुद्धोपयोग एक देश आवरण रहित होने से, क्षायोपशमिक खण्डज्ञान की प्रगटतारूप है और वह पारिणामिक भाव सम्पूर्ण आवरणों से रहित होने के कारण अखण्डज्ञान की प्रगटता रूप है, यह सादि-सान्त होने से नश्वर है और वह अनादि-अनन्त होने से अविनश्वर है । और यदि एकान्त से अभेद होता, तो घड़े की उत्पत्ति में मिट्टी-पिण्ड के विनाश के समान ध्यान पर्याय के विनाश में मोक्ष उत्पन्न होने पर ध्येरयरूप पारिणामिक का भी विनाश हो जाता -- एसा अर्थ है । इससे ही ज्ञात होता है कि शुद्ध-पारिणामिक भाव ध्येयरूप है, ध्यान भावनारूप नहीं है । वह ध्यान भावनारूप क्यों नहीं है ? ध्यान के विनाशशील होने से वह ध्यान भावनारूप नहीं है ।

    इसप्रकार द्रव्य-बन्ध का कारण होने से मिथ्यात्व-रागादि विकल्प-रूप भाव-बन्ध ही, निश्चय से बन्ध है -- ऐसे कथन की मुख्यता से, तीन गाथाओं द्वारा चौथा स्थल पूर्ण हुआ ।

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    भणिदा पुढविप्पमुहा जीवणिकायाध थावरा य तसा । (182)
    अण्णा ते जीवादो जीवो वि य तेहिंदो अण्णो ॥194॥
    भणिताः पृथिवीप्रमुखा जीवनिकाया अथ स्थावराश्च त्रसाः ।
    अन्ये ते जीवाज्जीवोऽपि च तेभ्योऽन्यः ॥१८२॥
    पृथ्वी आदि थावरा त्रस कहे जीव निकाय हैं
    वे जीव से हैं अन्य एवं जीव उनसे अन्य है ॥१९४॥
    अन्वयार्थ : [अथ] अब [स्थावरा: च त्रसा:] स्थावर और त्रस ऐसे जो [पृथिवीप्रमुखा:] पृथ्वी आदि [जीव निकाया:] जीवनिकाय [भणिता:] कहे गये हैं [ते] वे [जीवात् अन्ये] जीव से अन्य हैं, [च] और [जीव: अपि] जीव भी [तेभ्य: अन्य:] उनसे अन्य है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    जो यह पृथ्वी इत्यादि षट् जीवनिकाय त्रसस्थावर के भेदपूर्वक माने जाते हैं, वे वास्तव में अचेतनत्त्व के कारण जीव से अन्य हैं, और जीव भी चेतनत्व के कारण उनसे अन्य है । यहाँ (यह कहा है कि) षट् जीवनिकाय आत्मा को परद्रव्य है, आत्मा एक ही स्वद्रव्य है ॥१८२॥

    जयसेनाचार्य :
    [भणिदा पुढविप्पमुहा] परमागम में पृथ्वी प्रमुख कहे गये हैं । पृथ्वी आदि वे कौन हैं ? [जीवणिकाया] पृथ्वी आदि वे जीव-निकाय हैं -- जीव-समूह हैं । [अध] अब, वे पृथ्वी आदि कैसे हैं ? [थावरा य तसा] वे स्थावर और त्रस रूप हैं । और वे किस विशेषतावाले हैं ? [अण्णा ते] वे अन्य-भिन्न हैं । वे किससे भिन्न हैं ? [जीवादो] वे शुद्ध-बुद्ध एक जीव स्वभाव से भिन्न हैं । [जीवो वि य तेहिंदो अण्णो] और जीव भी उनसे भिन्न है ।

    वह इसप्रकार -- टाँकी से उकेरे हुये के समान, ज्ञायक एक स्वभाव परमात्म-तत्त्व की भावना से रहित जीव द्वारा उपार्जित किये गये -- बाँधे गये जो त्रस-स्थावर नाम-कर्म उनके उदय से उत्पन्न होने के कारण और अचेतन होने के कारण त्रस-स्थावर जीव-निकाय, शुद्ध चैतन्य स्वभावी जीव से भिन्न हैं । और जीव भी उनसे विलक्षण होने के कारण भिन्न है । यहाँ इस प्रकार भेद-विज्ञान उत्पन्न हो जाने पर, मोक्षार्थी जीव स्व-द्रव्य में प्रवृत्ति और पर-द्रव्य-निवृत्ति करता है -- यह भावार्थ है ॥१९४॥

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    जो णवि जाणदि एवं परमप्पाणं सहावमासेज्ज । (183)
    कीरदि अज्झवसाणं अहं ममेदं ति मोहादो ॥195॥
    यो नैव जानात्येवं परमात्मानं स्वभावमासाद्य ।
    कुरुतेऽध्यवसानमहं ममेदमिति मोहात् ॥१८३॥
    जो न जाने इसतरह स्व और पर को स्वभाव से
    वे मोह से मोहित रहे 'ये मैं हूँ' अथवा 'मेरा यह' ॥१९५॥
    अन्वयार्थ : [यः] जो [एवं] इस प्रकार [स्वभावम् आसाद्य] स्वभाव को प्राप्त करके (जीव-पुद्‌गल के स्वभाव को निश्‍चित करके) [परम् आत्मानं] पर को और स्व को [न एव जानाति] नहीं जानता, [मोहात्] वह मोह से [अहम्] यह मैं हूँ [इदं मम] यह मेरा है [इति] इस प्रकार [अध्यवसानं] अध्यवसान [कुरुते] करता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    जो आत्मा इस प्रकार जीव और पुद्‌गल के (अपने-अपने) निश्‍चित चेतनत्व और अचेतनत्वरूप स्वभाव के द्वारा स्व-पर के विभाग को नहीं देखता, वही आत्मा 'यह मैं हूँ; यह मेरा है' इस प्रकार मोह से परद्रव्य में अपनेपन का अध्यवसान करता है, दूसरा नहीं । इससे (यह निश्‍चित हुआ कि) जीव को परद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त स्वपर के ज्ञान का अभावमात्र ही है और (कहे बिना भी) सामर्थ्य से (यह निश्‍चित हुआ कि) स्वद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त उसका अभाव है ।

    जयसेनाचार्य :
    [जो णवि जाणदि एवं] जो कर्ता ऐसा पहले (१९४वीं गाथा में) कहे गये अनुसार जानता ही नहीं है । वह किसे नहीं जानता है ? [परं] छह जीव-निकाय (समूह) आदि पर द्रव्य को, [अप्पाणं] दोष-रहित परमात्म-द्रव्यरूप निज आत्मा को, जो नहीं जानता है । वह उन्हें क्या करके नहीं जानता है ? [सहावमासेज्ज] शुद्धोपयोग लक्षण निज शुद्ध स्वभाव का आश्रय लेकर, जो उन्हें नहीं जानता है । [कीरदि अज्झवसाणं] वह पुरुष अध्यवसान-रूप परिणाम करता है । वह ऐसा किसरूप से करता है ? [अहं ममेदं ति] यह मैं, यह मेरा -- इसप्रकार वह अध्यवसान परिणाम करता है । ममकार-अहंकार आदि रहित परमात्म-भावना से च्युत होकर, रागादि परद्रव्य मैं हूँ, शरीरादिक पर द्रव्य मेरे हैं -- इसप्रकार अध्यवसान करता है । वह ऐसा अध्यवसान क्यों करता है? [मोहादो] मोह के अधीन होने से, वह ऐसा अध्यवसान करता है ।

    इससे यह निश्चित हुआ कि स्व-पर भेद-विज्ञान के बल से स्व-संवेदन ज्ञानी जीव, स्व-द्रव्य में रति-प्रवृत्ति और परद्रव्य में निवृत्ति करता है ॥१९५॥

    इसप्रकार भेदभावना के कथन की मुख्यता से दो गाथाओं द्वारा पांचवां स्थल पूर्ण हुआ ।

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    कुव्वं सभावमादा हवदि हि कत्ता सगस्स भावस्स । (184)
    पोग्गलदव्वमयाणं ण दु कत्त्ता सव्वभावाणं ॥196॥
    कुर्वन् स्वभावमात्मा भवति हि कर्ता स्वकस्य भावस्य ।
    पुद्गलद्रव्यमयानां न तु कर्ता सर्वभावानाम् ॥१८४॥
    निज भाव को करता हुआ निजभाव का कर्ता कहा
    और पुद्गल द्रव्यमय सब भाव का कर्ता नहीं ॥१९६॥
    अन्वयार्थ : [स्वभाव कुर्वन्] अपने भाव को करता हुआ [आत्मा] आत्मा [हि] वास्तव में [स्वकस्य भावस्य] अपने भाव का [कर्ता भवति] कर्ता है; [तु] परन्तु [पुद्गलद्रव्यमयानां सर्वभावानां] पुद्‌गलद्रव्यमय सर्व भावों का [कर्ता न] कर्ता नहीं है।

    अमृतचंद्राचार्य :
    प्रथम तो आत्मा वास्तव में स्व (अपने) भाव को करता है, क्योंकि वह (भाव) उसका स्व धर्म है, इसलिये आत्मा को उसरूप होने की (परिणमित होने की) शक्ति का संभव है, अत: वह (भाव) अवश्यमेव आत्मा का कार्य है । (इस प्रकार) वह (आत्मा) उसे (स्व भाव को) स्वतंत्रतया करता हुआ उसका कर्ता अवश्य है और स्व भाव आत्मा के द्वारा किया जाता हुआ आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से अवश्य ही आत्मा का कर्म है । इस प्रकार स्व परिणाम आत्मा का कर्म है । परन्तु, आत्मा पुद्‌गल के भावों को नहीं करता, क्योंकि वे पर के धर्म हैं, इसलिये आत्मा के उस-रूप होने की शक्ति का असंभव होने से वे आत्मा का कार्य नहीं हैं । (इस प्रकार) वह (आत्मा) उन्हें न करता हुआ उनका कर्ता नहीं होता और वे आत्मा के द्वारा न किये जाते हुए उसका कर्म नहीं हैं । इस प्रकार पुद्‌गलपरिणाम आत्मा का कर्म नहीं है ॥१८४॥

    अब, 'पुद्गल-परिणाम आत्मा का कर्म क्यों नहीं है' -- ऐसे सन्देह को दूर करते हैं :-

    जयसेनाचार्य :
    [कुव्वं सभावं] स्वभाव को करता हुआ । यहाँ स्वभाव शब्द से, शुद्ध निश्चयनय से, यद्यपि शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव कहा गया है; तथापि कर्मबन्ध के प्रसंग में, अशुद्ध-निश्चय से, रागादि परिणाम भी स्वभाव कहलाता है । उस स्वभाव को करता हुआ । उस स्वभाव को करता हुआ, वह कौन है ? [आदा] उस स्वभाव को करता हुआ आत्मा है । [हवदि हि कत्त्ता] अपने स्वभाव को करता हुआ आत्मा, वास्तव में कर्ता है । वह किसका कर्ता है ? [सगस्स भावस्स] अपने चैतन्यरूप स्वभाव--रागादि परिणाम का कर्ता है । निश्चय से वही उसका रागादि परिणामरूप भावकर्म कहलाता है । रागादि परिणाम उसके भाव-कर्म क्यों हैं? तपे हुये लोह-पिण्ड के सामान, उस आत्मा द्वारा प्राप्य--प्राप्त होने योग्य तथा व्याप्य--व्याप्त होने योग्य होने से, वे रागादि परिणाम आत्मा के भावकर्म हैं । [पोग्गलदव्वमयाणं ण दु कत्त्ता सव्वभावाणं] परन्तु वह चैतन्य-रूप आत्मा से विलक्षण, ज्ञानावरणादि-द्रव्य-कर्म-पर्याय-रूप पुद्गल-द्रव्यमयी सभी भावों का कर्ता नहीं है ।

    इससे ज्ञात होता है कि रागादि निज परिणाम ही जीव के कर्म हैं, उसका ही वह कर्ता है ॥१९६॥

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    गेण्हदि णेव ण मुंचदि करेदि ण हि पोग्गलाणि कम्माणि । (185)
    जीवो पोग्गलमज्झे वट्टण्णवि सव्वकालेसु ॥197॥
    स इदानीं कर्ता सन् स्वकपरिणामस्य द्रव्यजातस्य ।
    आदीयते कदाचिद्विमुच्यते कर्मधूलिभिः ॥१८६॥
    जीव पुद्गल मध्य रहते हुए पुद्गलकर्म को
    जिनवर कहें सब काल में ना ग्रहे-छोड़े-परिणमे ॥१९७॥
    अन्वयार्थ : [जीव:] जीव [सर्वकालेषु] सभी कालों में [पुद्गलमध्ये वर्तमान: अपि] पुद्‌गल के मध्य में रहता हुआ भी [पुद्गलानि कर्माणि] पौद्‌गलिक कर्मों को [हि] वास्तव में [गृहाति न एव] न तो ग्रहण करता है, [न मुंचति] न छोड़ता है, और [न करोति] न करता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    वास्तव में पुद्‌गलपरिणाम आत्मा का कर्म नहीं है, क्योंकि वह परद्रव्य के ग्रहण-त्याग से रहित है; जो जिसका परिणमाने वाला देखा जाता है वह उसके ग्रहणत्याग से रहित नहीं देखा जाता; जैसे—अग्नि लोहे के गोले में ग्रहण-त्याग रहित होती है । आत्मा तो तुल्य क्षेत्र में वर्तता हुआ भी (परद्रव्य के साथ एकक्षेत्रावगाही होने पर भी) परद्रव्य के ग्रहण-त्याग से रहित ही है । इसलिये वह पुद्‌गलों को कर्मभाव से परिणमाने वाला नहीं है ॥१८५॥

    तब (यदि आत्मा पुद्गलों को कर्मरूप परिणमित नहीं करता तो फिर) आत्मा किसप्रकार पुद्गल कर्मों के द्वारा ग्रहण किया जाता है और छोड़ा जाता है ? इसका अब निरूपण करते हैं :-

    जयसेनाचार्य :
    [गेण्हदि णेव ण मुंचदि करेदि ण हि पोग्गलाणि कम्माणि जीवो] जैसे विकल्प रहित समाधि में लीन परम-मुनि, परभाव को ग्रहण नहीं करते हैं, छोड़ते नहीं हैं और उपादान-रूप से करते नहीं है अथवा जैसे लोहपिण्ड अग्नि को ग्रहण नहीं करता, छोड़ता नहीं है और उपादानरूप से करता नहीं है; उसीप्रकार यह आत्मा पुद्गल कर्मों को न ग्रहण करता है, न छोड़ता है और न उपादानरूप से करता है । क्या करता हुआ भी आत्मा, यह सब नहीं करता है ? [पोग्गलमज्झे वट्टण्णवि सव्वकालेसु] दूध और पानी के हमेशा एक साथ रहने-रूप न्याय से सभी कालों में -- हमेशा पुद्गलों के बीच रहने पर भी, पुद्गल कर्मों का ग्रहण आदि नहीं करता है ।

    इससे क्या कहा गया है ? अथवा इस सब कथन का क्या प्रयोजन है ? जैसे सिद्ध भगवान, पुद्गलों के बीच रहते हुये भी पर-द्रव्य को ग्रहण करने, छोड़ने और करने से रहित हैं, उसीप्रकार शुद्ध-निश्चय-नय की अपेक्षा, शक्ति-रूप से संसारी जीव भी इन सबसे रहित हैं -- ऐसा प्रयोजन है ॥१९७॥

    अब, यदि यह आत्मा पुद्गल कर्म को नहीं करता है और न छोड़ता है, तो बन्ध कैसे होता है और मोक्ष भी कैसे होता है ? ऐसा प्रश्न होने पर उसके प्रति उत्तर देते हैं--

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    स इदाणिं कत्ता सं सगपरिणामस्स दव्वजादस्स । (186)
    आदीयदे कदाइं विमुच्चदे कम्मधूलीहिं ॥198॥
    स इदानीं कर्ता सन् स्वकपरिणामस्य द्रव्यजातस्य ।
    आदीयते कदाचिद्विमुच्यते कर्मधूलिभिः ॥१८६॥
    भवदशा में रागादि को करता हुआ यह आतमा
    रे कर्मरज से कदाचित् यह ग्रहण होता छूटता ॥१९८॥
    अन्वयार्थ : [सः] वह [इदानीं] अभी (संसारावस्था में) [द्रव्यजातस्य] द्रव्य से (आत्मद्रव्य से) उत्‍पन्‍न होने वाले [स्वकपरिणामस्य] (अशुद्ध) स्वपरिणाम का [कर्ता सन्] कर्ता होता हुआ [कर्मशुलभि:] कर्मरज से [आदीयते] ग्रहण किया जाता है और [कदाचित् विमुच्‍यते] कदाचित् छोड़ा जाता है । =

    अमृतचंद्राचार्य :
    सो यह आत्मा परद्रव्य के ग्रहण-त्याग से रहित होता हुआ भी अभी संसारावस्था में, परद्रव्य-परिणाम को निमित्त-मात्र करते हुए केवल स्व-परिणाम-मात्र का—उस स्व-परिणाम के द्रव्यत्वभूत होने से—कर्तृत्व का अनुभव करता हुआ, उसके इसी स्व-परिणाम को निमित्त-मात्र करके कर्म-परिणाम को प्राप्त होती हुई ऐसी पुद्‌गलरज के द्वारा विशिष्ट अवगाहरूप से ग्रहण किया जाता है और कदाचित् छोड़ा जाता है ।

    अब पुद्गल कर्मों की विचित्रता (ज्ञानावरण, दर्शनावरणादिरूप अनेक प्रकारता) को कौन करता है ? इसका निरूपण करते हैं :-

    जयसेनाचार्य :
    तब (यदि आत्मा पुद्‌गलों को कर्मरूप परिणमित नहीं करता तो फिर) आत्मा किस प्रकार पुद्‌गल कर्मों के द्वारा ग्रहण किया जाता है और छोड़ा जाता है? इसका अब निरूपण करते हैं -

    [स इदाणिं कत्त्ता सं] वह अब कर्ता होता हुआ । वह पहले कहे गये लक्षण-वाला आत्मा , 'इदानीं अर्थात् अब' का क्या अर्थ है ? इसप्रकार पहले (१९६ वीं गाथा मे) कहे गये नय-विभाग से कर्ता होता हुआ यह 'अब' का अर्थ है । किसका कर्ता होता हुआ ? [सगपरिणामस्स] विकार रहित हमेशा आनन्द एक लक्षण परमसुखरूपी अमृत की प्रगटतारूप कार्य-समयसार को साधनेवाले निश्चय रत्नत्रय स्वरूप कारण समयसार से विलक्षण, मिथ्यात्व-रागादि विभावरूप अपने परिणामों का कर्ता होता हुआ । और भी किस विशेषता वाला है? [दव्वजादस्स] अपने आत्मद्रव्य के उपादान-कारण से उत्पन्न परिणामों का कर्ता होता हुआ । [आदीयदे कदाई कम्मधूलीहिं] बँधता है । किनसे बँधता है ? कर्ताभूत (कर्म-वाच्य की अपेक्षा कर्ता-कारक में प्रयुक्त) कर्म-रजों से बंधता है, कदाचित्- पहले कहे गये विभाव परिणामों के समय बंधता है । न केवल बंधता है, [विमुच्चदे] विशेषरूप से छूटता है, उन कर्म-रजों से कदाचित् पहले कहे गये कारण समयसार- रूप परिणति के समय छूटता है ।

    इससे क्या कहा गया है? अथवा इस सब कथन का क्या प्रयोजन है? अशुद्ध परिणामों से जीव बँधता है, शुद्ध परिणाम से छूटता है -- यह ज्ञान कराना इस कथन का प्रयोजन है ॥१९८॥

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    परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो । (187)
    तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावेहिं ॥199॥
    परिणमति यदात्मा शुभेऽशुभे रागद्वेषयुतः ।
    तं प्रविशति कर्मरजो ज्ञानावरणादिभावैः ॥१८७॥
    रागादियुत जब आतमा परिणमे अशुभ-शुभ भाव में
    तब कर्मरज से आवरित हो विविध बंधन में पड़े ॥१९९॥
    अन्वयार्थ : [यदा] जब [आत्मा] आत्मा [रागद्वेषयुत:] रागद्वेषयुक्त होता हुआ [शुभे अशुभे] शुभ और अशुभ में [परिणमित] परिणमित होता है, तब [कर्मरज:] कर्मरज [ज्ञानावरणादिभावै:] ज्ञानावरणादिरूप से [तं] उसमें [प्रविशति] प्रवेश करती है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    जैसे नये मेघजल के भूमिसंयोगरूप परिणाम के समय अन्य पुद्‌गलपरिणाम स्वयमेव वैचित्र को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार आत्मा के शुभाशुभ परिणाम के समय कर्मपुद्‌गलपरिणाम वास्तव में स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त होते हैं । वह इस प्रकार है कि—जैसे, जब नया मेघजल भूमिसंयोगरूप परिणमित होता है तब अन्य पुद्‌गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त हरियाली, कुकुरमुत्ता (छत्ता, mushroom), और इन्द्रगोप (carnelian, बीर-बहूटी गहरे लाल रंग की होती है) आदिरूप परिणमित होता है, इसी प्रकार जब यह आत्मा रागद्वेष के वशीभूत होता हुआ शुभाशुभभावरूप परिणमित होता है, तब अन्य, योगद्वारों में प्रविष्ट होते हुए कर्मपुद्‌गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त ज्ञानावरणादि भावरूप परिणमित होते हैं ।

    इससे (यह निश्‍चित हुआ कि) कर्मों की विचित्रता (विविधता) का होना स्वभावकृत है, किन्तु आत्मकृत नहीं ॥१८७॥

    अब ऐसा समझाते हैं कि अकेला ही आत्मा बंध है --

    जयसेनाचार्य :
    [परिणमदि जदा अप्पा] जब आत्मा परिणमित होता है । सम्पूर्ण शुभ-अशुभ परद्रव्यों के विषयों में परम उपेक्षा लक्षण शुद्धोपयोगरूप परिणाम को छोड़कर जब यह आत्मा परिणमित होता है । यह आत्मा किसमें परिणमित होता है ? [सुहम्मि असुहम्हि] शुभ अथवा अशुभ परिणाम में परिणमित होता है । कैसा होता हुआ उनमें परिणमित होता है ? [रागदोसजुदो] राग-द्वेष से सहित अर्थात् राग-द्वेष-रूप परिणत होता हुआ, उनमें परिणमित होता है -- ऐसा अर्थ है । [तं पविसदि कम्मरयं] तब उस समय वह प्रसिद्ध कर्मरज, प्रवेश करती है । वह किसरूप में प्रवेश करती है ? [णाणावरणादिभावेहिं] जैसे भूमि से बादलों के जल का संयोग होने पर, अन्य पुद्गल स्वयं ही हरे पत्ते आदि भावों से परिणमित होते हैं उसीप्रकार स्वयं ही मूल-उत्तर प्रकृति-रूप अनेक भेद परिणत ज्ञानावरणादि भावों--पर्यायों-रूप से प्रवेश करती है ।

    इससे ज्ञात होता है कि जैसे ज्ञानावरणादि कर्मों की उत्पत्ति स्वयंकृत है (कार्मण-वर्गणाओं का स्वयं ज्ञानावरणादि-रूप परिणमन हुआ है); उसीप्रकार मूल-उत्तर प्रकृतिरूप विचित्रता भी स्वयंकृत है; जीव द्वारा की गई नहीं है ॥१९९॥

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    सुहपयडीण विसोही तिव्वो असुहाण संकिलेसम्मि ।
    विवरीदो दु जहण्णो अणुभागो सव्वपयडीणं ॥200॥
    विशुद्धतम परिणाम से शुभतम करम का बंध हो
    संक्लेशतम से अशुभतम अर जघन हो विपरीत से ॥२००॥
    अन्वयार्थ : तीव्र--अधिक विशुद्धि में शुभ-प्रकृतियों का उत्कृष्ट--तीव्र अनुभाग बन्ध और तीव्र संक्लेश्ता में अशुभ-प्रकृतियों का उत्कृष्ट--तीव्र अनुभाग बन्ध होता है तथा इससे विपरीत परिणामों से सभी प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बन्ध होता है ।

    जयसेनाचार्य :
    [अणुभागो] अनुभाग -- फल देने सम्बन्धी शक्ति विशेष होती है -- ऐसा क्रिया का अध्याहार -- ग्रहण किया गया है । वह शक्ति विशेष कैसी होती है ? [तिव्वो] यह तीव्र प्रकृष्ट--परम अमृत समान होती है । इस-रूप वह किनकी होती है ? [सुहपयडीणं] साता वेदनीय आदि शुभ प्रकृतियों की शक्ति इस-रूप होती है । वह किस कारण इस-रूप होती है ? [विसोही] तीव्र धर्मानुराग-रूप विशुद्धि द्वारा साता-वेदनीय आदि शुभ प्रकृतियों की, परम अमृत समान फलदान शक्ति होती है । [असुहाण संकिलेसम्मि] असाता वेदनीय आदि अशुभ प्रकृतियों का मिथ्यात्वादि-रूप तीव्र संक्लेश होने पर तीव्र हालाहल विष के समान अनुभाग होता है । [विवरीदो दु जहण्णो] उससे विपरीत जघन्य भाग बन्ध गुड़ और नीम रूप होता है । जघन्य विशुद्धि और जघन्य संक्लेश से तथा मध्यम विशुद्धि और मध्यम संक्लेश से क्रमश: शुभ-अशुभ प्रकृतियों का खण्ड (खांड) और शक्कर-रूप तथा कांजीर और विषरूप (अनुभाग) होता है । इस- प्रकार का जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट-रूप अनुभाग किनका होता है ? [सव्वपयडीणं] मूल-उत्तर प्रकृतियों से रहित, निज परमानन्द एक स्वभाव लक्षण सभी प्रकार से उपादेयभूत परमात्म-द्रव्य से भिन्न, हेयभूत मूल-उत्तर प्रकृतियों का जघन्यादि-रूप अनुभाग है । इसप्रकार कर्मों की शक्तियों का स्वरूप जानना चाहिये ॥२००॥

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    सपदेसो सो अप्पा कसायिदो मोहरागदोसेहिं । (188)
    कम्मरएहिं सिलिट्ठो बंधो त्ति परूविदो समये ॥201॥
    सप्रदेशः स आत्मा कषायितो मोहरागद्वेषैः ।
    कर्मरजोभिः श्लिष्टो बन्ध इति प्ररूपितः समये ॥१८८॥
    सप्रदेशी आतमा रुस-राग-मोह कषाययुत
    हो कर्मरज से लिप्त यह ही बंध है जिनवर कहा ॥२०१॥
    अन्वयार्थ : [सप्रदेश:] प्रदेशयुक्त [सः आत्मा] वह आत्मा [समये] यथाकाल [मोहरागद्वेषै:] मोह-राग-द्वेष के द्वारा [कषायित:] कषायित होने से [कर्म-रजोभि: श्‍लि‍ष्ट:] कर्मरज से लिप्त या बद्ध होता हुआ [बंध इति प्ररूपित:] बंध कहा गया है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    जैसे जगत में वस्त्र सप्रदेश होने से लोध, फिटकरी आदि से कषायित होता है, जिससे वह मजीठादि के रंग से संबद्ध होता हुआ अकेला ही रंगा हुआ देखा जाता है, इसी प्रकार आत्मा भी सप्रदेश होने से यथाकाल मोह-राग-द्वेष के द्वारा कषायित होने से कर्मरज के द्वारा संश्लिष्ट होता हुआ अकेला ही बंध है; ऐसा देखना (मानना) चाहिये, क्योंकि निश्‍चय का विषय शुद्ध द्रव्य है ॥१८८॥

    अब निश्चय और व्यवहार का अविरोध बतलाते हैं :-

    जयसेनाचार्य :
    [सपदेसो] लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेश होने से प्रथम तो सप्रदेश है [सो अप्पा] वह पहले (१९६ वीं गाथा में) कहे गये लक्षणवाला आत्मा । और किस विशेषता वाला है? [कसायिदो] कषाय से परिणत--रंजित--रँगा हुआ है । वह किनके द्वारा कषाय से रँगा हुआ है? [मोहरागदोसेहीं] मोहरहित स्व-शुद्धात्मतत्त्व की भावना के प्रतिबन्धक (रोकनेवाले) मोह-राग-द्वेष द्वारा वह कषाय से रँगा हुआ है । वह और किस स्वरूप है? [कम्मरजेहिं सिलिट्ठो] कर्म-रज द्वारा श्लिष्ट अर्थात कर्म-वर्गणा के योग्य पुद्गल-रज द्वारा संश्लिष्ट--बँधा हुआ है । [बंधो त्ति परूविदो] अभेदनय से आत्मा ही बंध है -- ऐसा कहा गया है । अभेदनय से आत्मा ही बन्ध है - ऐसा कहाँ कहा गया है? [समये] परमागम में ऐसा कहा गया है ।

    यहाँ यह कहा गया है कि जैसे -- लोंध्र (लोंध) आदि द्रव्यों द्वारा कषायला-रूप से रँगा हुआ वस्त्र, मंजीष्ठ (मंजीठा) रंग-वाले द्रव्य से रंजित होता हुआ अभेदनय से 'लाल' ऐसा कहा जाता है; उसी-प्रकार वस्त्र स्थानीय आत्मा, लोध्र आदि द्रव्यों के स्थानीय मोह-राग-द्वेष द्वारा कषाय-रूप से रँगा हुआ -- उसरूप परिणत (आत्मा) मंजीष्ठ स्थानीय कर्म-पुद्गलों के साथ सश्लिष्ट--सम्बद्ध-बंधा हुआ, भेद होने पर भी अभेदोपचार लक्षण असदभूत-व्यवहार से 'बन्ध' ऐसा कहा जाता है । वह 'बन्ध' क्यों कहा जाता है? अशुद्ध द्रव्य के विशेष -कथन के लिए असद्भूत व्यवहारनय का विषय होने से, वह बन्ध कहा जाता है ।

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    एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयेण णिद्दिट्ठो । (189)
    अरहंतेहिं जदीणं ववहारो अण्णहा भणिदो ॥202॥
    एष बन्धसमासो जीवानां निश्चयेन निर्दिष्टः ।
    अर्हद्भिर्यतीनां व्यवहारोऽन्यथा भणितः ॥१८९॥
    यह बंध का संक्षेप जिनवरदेव ने यतिवृन्द से
    नियतनय से कहा है व्यवहार इससे अन्य है ॥२०२॥
    अन्वयार्थ : [एष:] यह (पूर्वोक्त प्रकार से), [जीवानां] जीवों के [बंधसमास:] बंध का संक्षेप [निश्‍चयेन] निश्‍चय से [अर्हद्भि‍:] अर्हन्तभगवान ने [यतीनां] यतियों से [निर्दिष्ट:] कहा है; [व्यवहार:] व्यवहार [अन्यथा] अन्य प्रकार से [भणितः] कहा है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    राग-परिणाम ही आत्मा का कर्म है, वही पुण्य-पापरूप द्वैत है, आत्मा
    • राग-परिणाम का ही कर्ता है,
    • उसी का ग्रहण करने वाला है और
    • उसी का त्याग करने वाला है;
    -- यह, शुद्धद्रव्य का निरूपण-स्वरूप निश्‍चय-नय है । और जो पुद्‌गल-परिणाम आत्मा का कर्म है, वही पुण्य-पापरूप द्वैत है, आत्मा
    • पुद्‌गल-परिणाम का कर्ता है,
    • उसका ग्रहण करने वाला और
    • छोड़ने वाला है; --
    यह नय वह अशुद्ध-द्रव्य का निरूपण-स्वरूप व्यवहार-नय है । यह दोनों (नय) हैं; क्योंकि शुद्धरूप और अशुद्धरूप -- दोनों प्रकार से द्रव्य की प्रतीति की जाती है । किन्तु यहाँ निश्‍चय-नय साधकतम (उत्कृष्ट साधक) होने से ग्रहण किया गया है; (क्योंकि) साध्य के शुद्ध होने से द्रव्य के शुद्धत्व का द्योतक (प्रकाशक) होने से निश्‍चय-नय ही साधकतम है, किन्तु अशुद्धत्व का द्योतक व्यवहार-नय साधकतम नहीं है ॥१८९॥

    अब ऐसा कहते हैं कि अशुद्धनय से अशुद्ध आत्मा की ही प्राप्ति होती है :-

    जयसेनाचार्य :
    [एसो बंधसमासो] यह बन्ध का संक्षेप है । यह पहले कहे हुए अनेक प्रकार की रागादि परिणति-रूप बन्ध का संक्षेप है । यह परिणति-रूप बन्ध का संक्षेप किनका है? [जीवाणं] यह जीवों के बन्ध का संक्षेप है । [णिच्छयेण णिद्दिट्ठो] निश्चय नय से ऐसा कहा गया है । यह, कर्ता-भूत किनके द्वारा कहा गया है? [अरहंतेहिं] अरहन्त निर्दोषी-परमात्मा द्वारा कहा गया है । उनके द्वारा, किनके लिए कहा गया है ? [जदीणं] जितेन्द्रिय होने से शुद्धात्म-स्वरूप में प्रयत्नशील गणधर-देव आदि यतियों (आचार्य, उपाध्याय, साधुओं) के लिये कहा गया है । [ववहारो] द्रव्य-कर्म-रूप व्यवहार बन्ध [अण्णहा भणिदो] निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहार नय से अन्य प्रकार कहा गया है ।

    दूसरी बात यह है कि आत्मा रागादि को ही करता है और उसे ही भोगता है -- ऐसा यह निश्चयनय का लक्षण है । और यह निश्चयनय द्रव्य-कर्मबन्ध के प्रतिपादक असद्भूत-व्यवहारनय की अपेक्षा शुद्ध-द्रव्य का निरूपण करने के स्वभाव-वाला विवक्षित निश्चयनय और उसीप्रकार अशुद्ध-निश्चय कहलाता है । आत्मा, द्रव्यकर्म को करता है और भोगता है -- ऐसे अशुद्ध-द्रव्य का निरूपण करने वाला असद्भूत-व्यवहारनय कहलाता है । इस- प्रकार यह दो नय हैं । परन्तु यहाँ निश्चयनय उपादेय है, असद्भूत व्यवहारनय उपादेय नही है ।

    यहाँ प्रश्न है कि रागादि को, आत्मा करता है और भोगता है -- ऐसे लक्षणवाला निश्चय नय कहा; वह उपादेय कैसे है? इसका उत्तर कहते हैं -- रागादि को ही आत्मा करता है और द्रव्य-कर्म को नहीं करता है, रागादि ही बन्ध के कारण हैं -- ऐसा जब जीव जानता है, तब राग-द्वेष आदि विकल्प-जाल को छोड़कर रागादि के विनाश के लिये निज शुद्धात्मा की भावना करता है । और उससे रागादि का विनाश होता है, और रागादि का विनाश होने पर आत्मा शुद्ध होता है । इसलिये परम्परा से शुद्धात्मा का साधक होने के कारण यह अशुद्धनय भी उपचार से शुद्धनय कहलाता है, निश्चयनय कहलाता है, उसीप्रकार उपादेय कहलाता है -- ऐसा अभिप्राय है ॥२०२॥

    इसप्रकार आत्मा अपने परिणामों का ही कर्ता है, द्रव्यकर्मों का नहीं है -- इस कथन की मुख्यता से सात गाथाओं द्वारा छठवाँ स्थल पूर्ण हुआ ।

    इसप्रकार '[अरसमरूवं...]' इत्यादि तीन गाथाओं द्वारा शुद्धात्मा का व्याख्यान किये जाने पर, अमूर्त आत्मा का मूर्त कर्मों के साथ बन्ध कैसे होता है -- ऐसा जो शिष्य द्वारा कहा गया था, उसके परिहार के लिये नय- विभाग द्वारा बन्ध समर्थन की मुख्यता से ११ गाथाओं द्वारा ६ स्थलों में तीसरा विशेषान्तराधिकार समाप्त हुआ ।

    अब, इससे आगे १२ गाथाओं तक चार स्थलों द्वारा शुद्धात्मानुभूति लक्षण अविशेष भेद-भावना रूप चूलिका का व्याख्यान करते हैं । वहीं शुद्धात्म-भावना की प्रधानता होने से '[ण चयदि जो दु ममत्तीं]' इत्यादि पाठक्रम से पहले स्थल में चार गाथायें हैं । उसके बाद शुद्धात्मा की प्राप्ति रूप भावना के फल से दर्शन-मोह रूपी ग्रन्थि (गाँठ) का विनाश तथा चारित्र-मोहरूप ग्रन्थि का विनाश -- क्रम से उन दोनों का विनाश होता है -- इस कथन की मुख्यता से '[जो एवं जाणित्ता]' इत्यादि दूसरे स्थल में तीन गाथायें हैं । तत्पश्चात केवली के ध्यान का उपचार कथन-रूप से '[णिहदघणधादिकम्मो]' इत्यादि तीसरे स्थल में दो गाथायें हैं । तदनन्तर दर्शनाधिकार के उपसंहार की प्रधानता से 'एवं जिणा जिणिन्दा]' इत्यादि चौथे स्थल में दो गाथायें हैं । और तदुपरान्त '[दंसणसंसुद्धाणं]' इत्यादि एक नमस्कार गाथा है; इसप्रकार बारह गाथाओं द्वारा चार स्थल-रूप विशेषान्तराधिकार में सामूहिक पातनिका पूर्ण हुई ।

    चतुर्थ विशेष-अंतराधिकार स्थल विभाजन
    स्थल क्रम प्रतिपादित विषय कहाँ से कहाँ पर्यंत गाथाएँ कुल गाथाएँ
    प्रथम शुद्धात्म-भावना की प्रधानता 203 से 206 4
    द्वितीय शुद्धात्मोपलब्धि फल कथन 207 से 209 3
    तृतीय केवली-भगवान के द्वारा ध्यान उपचार से 210 व 211 2
    चतुर्थ दर्शनाधिकार के उपसंहार की प्रधानता 212 व 213 2
    कुल 4 स्थल कुल 12 गाथाएँ

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    + अशुद्धनय से अशुद्ध आत्मा की ही प्राप्ति -
    ण चयदि जो दु ममत्तिं अहं ममेदं ति देहदविणेसु । (190)
    सो सामण्णं चत्ता पडिवण्णो होदि उम्मग्गं ॥203॥
    न त्यजति यस्तु ममतामहं ममेदमिति देहद्रविणेषु ।
    स श्रामण्यं त्यक्त्वा प्रतिपन्नो भवत्युन्मार्गम् ॥१९०॥
    तन-धनादि में 'मैं हूँ यह' अथवा 'ये मेरे हैं' सही
    ममता न छोड़े वह श्रमण उनमार्गी जिनवर कहें ॥२०३॥
    अन्वयार्थ : [यः तु] जो [देहद्रविणेषु] देह-धनादिक में [अहं मम इदम्] ‘मैं यह हूँ और यह मेरा है’ [इति ममतां] ऐसी ममता को [न त्यजति] नहीं छोड़ता, [सः] वह [श्रामण्यं त्यक्‍त्‍वा] श्रमणता को छोड़कर [उन्मार्गं प्रतिपन्न: भवति] उन्मार्ग का आश्रय लेता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    जो आत्मा शुद्ध-द्रव्य के निरूपण-स्वरूप निश्‍चय-नय से निरपेक्ष रहकर अशुद्धद्रव्य के निरूपण-स्वरूप व्यवहार-नय से जिसे मोह उत्‍पन्‍न हुआ है ऐसा वर्तता हुआ 'मैं यह हूँ और यह मेरा है' इस प्रकार आत्मीयता से देह धनादिक परद्रव्य में ममत्व नहीं छोड़ता वह आत्मा वास्तव में शुद्धात्म-परिणतिरूप श्रामण्यनामक मार्ग को दूर से छोड़कर अशुद्धात्म-परिणतिरूप उन्मार्ग का ही आश्रय लेता है । इससे निश्‍चित होता है कि अशुद्ध-नय से अशुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है ॥१९०॥

    अब ऐसा निश्चित करते हैं कि शुद्धनय से शुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है :-

    जयसेनाचार्य :
    [ण चयदि जो दु ममत्तिं] जो ममता को नहीं छोड़ता है । ममकार-अहंकार आदि सम्पूर्ण विभावों से रहित, परिपूर्ण निर्मल केवल-ज्ञान आदि अनन्त गुण स्वरूप अपने आत्म-पदार्थ की निश्चल अनुभूति लक्षण निश्चयनय से रहित होने के कारण, व्यवहार से हृदय को मोहित करता हुआ जो ममता--ममत्वभाव (आसक्ति भाव) को नहीं छोड़ता है । किस रूपवाले--कैसे ममत्व भाव को नहीं छोड़ता है -- किन विषयों में ऐसे ममत्व भाव को नहीं छोड़ता है? [देहदविणेसु] देह द्रव्यों में, शरीर में -- शरीर मैं हूँ -- इसप्रकार से और पर द्रव्यों में -- ये मेरे हैं -- इसप्रकार से, शरीर और पर द्रव्यों में ममत्व को नहीं छोड़ता है । [सो सामण्णं चत्त पडिवण्णो होदि उम्मग्गं] वह श्रामण्य को छोड़कर उन्मार्ग को प्राप्त होता है । वह पुरुष जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, शत्रु-मित्र, निंदा-प्रशंसा आदि में परम मध्यस्थता--समताभाव लक्षण श्रामण्य- यतित्व-मुनिपना-चारित्र को दूर से (ही) छोड़कर उससे विपरीत उन्मार्ग -- मिथ्यामार्ग -- उल्टे मार्ग को प्राप्त होता है । और उन्मार्ग से संसार में घूमता है ।

    इससे निश्चित हुआ कि अशुद्ध नय से अशुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है ॥२०३॥

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    + शुद्धनय से शुद्धात्मा की ही प्राप्ति -
    णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति णाणमहमेक्को । (191)
    इदि जो झायदि झाणे सो अप्पाणं हवदि झादा ॥204॥
    नाहं भवामि परेषां न मे परे सन्ति ज्ञानमहमेकः ।
    इति यो ध्यायति ध्याने स आत्मा भवति ध्याता ॥१९१॥
    पर का नहीं ना मेरे पर मैं एक ही ज्ञानात्मा
    जो ध्यान में इस भाँति ध्यावे है वही शुद्धात्मा ॥२०४॥
    अन्वयार्थ : ‘[अहं परेषां न भवामि] मैं पर का नहीं हूँ [परे मे न सन्ति] पर मेरे नहीं हैं, [ज्ञानम् अहम् एक:] मैं एक ज्ञान हूँ,’ [इति यः ध्यायति] इस प्रकार जो ध्यान करता है, [सः ध्याता] वह ध्याता [ध्याने] ध्यानकाल में [आत्मा भवति] आत्मा होता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    जो आत्मा, मात्र अपने विषय में प्रवर्तमान अशुद्ध-द्रव्य-निरूपणात्मक (अशुद्धद्रव्य के निरूपण-स्वरूप) व्यवहार-नय में अविरोधरूप से मध्यस्थ रहकर, शुद्ध-द्रव्य के निरूपण-स्वरूप निश्‍चय-नय के द्वारा जिसने मोह को दूर किया है ऐसा होता हुआ, 'मैं पर का नहीं हूँ, पर मेरे नहीं हैं' इस प्रकार स्व-पर के परस्पर स्व-स्वामी-सम्बन्ध को छोड़कर, 'शुद्धज्ञान ही एक मैं हूँ', इस प्रकार अनात्मा को छोड़कर, आत्मा को ही आत्मरूप से ग्रहण करके, पर-द्रव्य से भिन्नत्व के कारण आत्मारूप ही एक अग्र में चिन्ता को रोकता है, वह एकाग्र-चिन्तानिरोधक (एक विषय में विचार को रोकने वाला आत्मा) उस एकाग्र-चिन्तानिरोध के समय वास्तव में शुद्धात्मा होता है । इससे निश्‍चित होता है कि शुद्धनय से ही शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है ॥१९१॥

    अब ऐसा उपदेश देते हैं कि ध्रुवत्त्व के कारण शुद्धात्मा ही उपलब्ध करने योग्य है :-

    जयसेनाचार्य :
    [णाहं होमि परेसिं ण मे परे संति] मैं पर का नहीं हूँ और पर मेरा नहीं है -- इसप्रकार सम्पूर्ण चेतन-अचेतन पर द्रव्यों में, मन-वचन-शरीर और कृत-कारित-अनुमोदना द्वारा अपने आत्मा की अनुभूति लक्षण निश्चयनय के बल से, पहले स्व-स्वामी सम्बन्ध (ममत्व-परिणाम) को छोड़कर -- उसका निराकरण कर । पहले स्व-स्वामी सम्बन्ध छोड़कर बाद में क्या करता है ? [णाणमहमेक्को] मैं एक ज्ञान हूँ, 'परिपूर्ण निर्मल केवलज्ञान ही मैं हूँ और भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म से रहित होने के कारण मैं एक हूँ । [इदि जो झायदि] इसप्रकार से जो वह ध्यान करता है, चिन्तन करता है, भावना करता है । ऐसा ध्यान आदि वह कहाँ करता है? [झाणे] ऐसा वह, निज शुद्धात्मा के ध्यान में करता है, निज शुद्धात्मा के ध्यान में स्थित [सो अप्पाणं हवदि झादा] वह आत्मा का ध्याता होता है । वह, ज्ञानानन्द एक-स्वभावी परमात्मा का ध्यान करने वाला होता है । और इसलिये परमात्मा के ध्यान से उसके ही समान परमात्म दशा को प्राप्त करता है । उसके ध्यान से, वह वैसी दशा को क्यों प्राप्त करता है? 'उपादान कारण के समान कार्य होता है' -- ऐसा वचन होने से -- वह, उसके ध्यान से वैसी दशा को प्राप्त करता है ।

    इससे ज्ञात होता है कि शुद्धनय से शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है ॥२०४॥

    अब ध्रुवरूप होने से मैं शुद्धात्मा की ही भावना करता हूँ ऐसा विचार करते हैं -

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    + शुद्धात्मा ही उपलब्ध करने योग्य क्यों? -
    एवं णाणप्पाणं दंसणभूदं अदिंदियमहत्थं । (192)
    धुवमचलमणालंबं मण्णेऽहं अप्पगं सुद्धं ॥205॥
    एवं ज्ञानात्मानं दर्शनभूतमतीन्द्रियमहार्थम् ।
    ध्रुवमचलमनालम्बं मन्येऽहमात्मकं शुद्धम् ॥१९२॥
    इसतरह मैं आतमा को ज्ञानमय दर्शनमयी
    ध्रुव अचल अवलंबन रहित इन्द्रियरहित शुध मानता ॥२०५॥
    अन्वयार्थ : [अहम्] मैं [आत्मकं] आत्मा को [एवं] इस प्रकार [ज्ञानात्मानं] ज्ञानात्मक, [दर्शनभूतम्] दर्शनभूत, [अतीन्द्रियमहार्थं] अतीन्द्रिय महा पदार्थ [ध्रुवम्] ध्रुव, [अचलम्] अचल, [अनालम्बं] निरालम्ब और [शुद्धम्] शुद्ध [मन्ये] मानता हूँ ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    शुद्धात्मा सत् और अहेतुक होने से अनादि- अनन्त और स्वतःसिद्ध है, इसलिये आत्मा के शुद्धात्मा ही ध्रुव है, (उसके) दूसरा कुछ भी ध्रुव नहीं है । आत्मा शुद्ध इसलिये है कि उसे परद्रव्य से विभाग (भिन्नत्व) और स्वधर्म से अविभाग है इसलिये एकत्व है । वह एकत्व आत्मा के
    1. ज्ञानात्मकपने के कारण,
    2. दर्शनभूतपने के कारण,
    3. अतीन्द्रिय महा-पदार्थपने के कारण,
    4. अचलपने के कारण, और
    5. निरालम्बपने के कारण
    है । इनमें से इसलिये उसके एकत्व है ।

    इस प्रकार आत्मा शुद्ध है क्योंकि चिन्मात्र शुद्धनय उतना ही मात्र निरूपणस्वरूप है (अर्थात् चैतन्यमात्र शुद्धनय आत्मा को मात्र शुद्ध ही निरूपित करता है) । और यह एक ही (यह शुद्धात्मा एक ही) ध्रुवत्व के कारण उपलब्ध करने योग्य है । किसी पथिक के शरीर के अंगों के साथ संसर्ग में आने वाली मार्ग के वृक्षों की अनेक छाया के समान अन्य जो अध्रुव (अन्य जो अध्रुव पदार्थ) उनसे क्या प्रयोजन है ॥१९२॥

    अब, ऐसा उपदेश देते हैं कि अध्रुवपने के कारण आत्मा के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी उपलब्ध करने योग्य नहीं है :-

    जयसेनाचार्य :
    '[मण्णे]' इत्यादि पद-खण्डना-रूप से व्याख्यान करते हैं -- [मण्णे] मानता हूँ, ध्याता हूँ, सभी प्रकार से उपादेय-रूप से भावना करता हूँ । ऐसा करने वाला वह कौन है ? [अहं] कर्ता-रूप मैं ऐसा करता हूँ । कर्मता को प्राप्त किसे मानता हूँ? [अप्पगं] सहज परमाह्लाद एक-लक्षण निजात्मा को मानता हूँ । वह आत्मा किस विशेषता वाला है? [सुद्धं] रागादि सम्पूर्ण विभावों से रहित शुद्ध है । वह और किस विशेषता वाला है ? [धुवं] टाँकी से उकेरे हुये के समान ज्ञायक एक स्वभाव-रूप होने से ध्रुव--अविनश्वर है । और भी वह कैसा है? [एवं णाणप्पाणं दंसणभूदं] इसप्रकार पहले कहे हुये अनेक प्रकार से अखण्ड एक ज्ञान दर्शन स्वरूप है । और किस स्वरूपवाला? [अदिंदियं] अतीन्द्रिय है, मूर्त विनश्वर अनेक इन्द्रियों से रहित होने के कारण अमूर्त अविनश्वर एक अतीन्द्रिय स्वभाववाला है । और कैसा है? [महत्थं] मोक्ष लक्षण (नामक) महा-पुरुषार्थ का साधक होने से महार्थ है । और भी किस स्वभाव-वाला है? [अचलं] अतिचपल--चंचल मन-वचन-काय के व्यापार से रहित होने के कारण स्व-स्वरूप में निश्चल--स्थिर है । और भी किस विशेषता-वाला है? [अणालंबं] स्वाधीन द्रव्य-रूप होने से आलम्बन सहित भरित--अवस्थ रूप होने पर भी सम्पूर्ण पराधीन--परद्रव्यों के आलम्बन से रहित होने के कारण निरालम्बन स्वरूप है -- ऐसा अर्थ है ।

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    + दूसरा कुछ भी उपलब्ध करने योग्य क्यों नहीं? -
    देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाध सत्तुमित्तजणा । (193)
    जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगप्पगो अप्पा ॥206॥
    देहा वा द्रविणानि वा सुखदुःखे वाथ शत्रुमित्रजनाः ।
    जीवस्य न सन्ति ध्रुवा ध्रुव उपयोगात्मक आत्मा ॥१९३॥
    अरि-मित्रजन धन्य-धान्य सुख-दुख देह कुछ भी ध्रुव नहीं
    इस जीव के ध्रुव एक ही उपयोगमय यह आतमा ॥२०६॥
    अन्वयार्थ : [देहा: वा] शरीर, [द्रविणानि वा] धन, [सुखदुःखे] सुख-दुःख [वा अथ] अथवा [शत्रुमित्रजना:] शत्रुमित्रजन (यह कुछ) [जीवस्य] जीव के [ध्रुवा: न सन्ति‍] ध्रुव नहीं हैं; [ध्रुव:] ध्रुव तो [उपयोगात्मक: आत्मा] उपयोगात्मक आत्मा है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    जो पर-द्रव्य से अभिन्न होने के कारण और पर-द्रव्य के द्वारा उपरक्त होने वाले स्व-धर्म से भिन्न होने के कारण आत्मा को अशुद्धपने का कारण है, ऐसा (आत्मा के अतिरिक्त) दूसरा कोई भी ध्रुव नहीं है, क्योंकि वह असत् और हेतुमान् होने से आदि-अन्त वाला और परत: सिद्ध है; ध्रुव तो उपयोगात्मक शुद्ध आत्मा ही है । ऐसा होने से मैं उपलभ्यमान अध्रुव ऐसे शरीरादि को उपलब्ध होने पर भी-उपलब्ध नहीं करता, और ध्रुव ऐसे शुद्धात्मा को उपलब्ध करता हूँ ॥१९३॥

    इसप्रकार शुद्धात्मा की उपलब्धि से क्या होता है वह अब निरूपण करते हैं :-

    जयसेनाचार्य :
    [ण संति धुवा] ध्रुव-अविनश्वर-नित्य नहीं हैं । किसके ध्रुव नहीं हैं? [जीवस्स] जीव के ध्रुव नहीं हैं । वे कौन धुव नहीं हैं? [देहा वा दविणा वा] शरीर अथवा द्रव्य आदि; सभी प्रकार से शुचिभूत-पवित्र, शरीर-रहित परमात्मा से विलक्षण, औदारिक आदि पाँच शरीर और उसी प्रकार पंचेन्द्रिय भोगोपभोग के साधक पर-द्रव्य ध्रुव नहीं है । शरीर आदि ही मात्र ध्रुव नहीं हैं -- ऐसा नहीं है, वरन् [सुहदुक्खा] विकार रहित परमानन्द एक लक्षण निजात्मा से उत्पन्न सुखरूपी अमृत से विलक्षण सांसारिक सुख-दुःख भी ध्रुव नहीं हैं । [अध] अहो । हे भव्यों ! [सततुमितजणा] शत्रु-मित्र आदि भाव से रहित आत्मा से भिन्न शत्रु और मित्र आदि जन भी ध्रुव नहीं हैं । यदि ये सब अध्रुव हैं तो ध्रुव क्या है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो उत्तर कहते हैं -- [धुवो] ध्रुव-शाश्वत है । वह कौन ध्रुव है? [अप्पा] अपना आत्मा ध्रुव है । वह अपना आत्मा किस विशेषता वाला है? [उवओगप्पगो] तीन लोक-रूप उदर (पेट) के विवर (छिद्र) में स्थित सम्पूर्ण द्रव्य-गुण- पर्याय-रूप तीन काल के विषयों को एक साथ जानने में समर्थ ? केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन उगयोग स्वरूप है ।

    इसप्रकार शरीर आदि सभी की अध्रुवता--अनित्यता जानकर ध्रुव-स्वभावी स्वात्मा की भावना करना चाहिये -- ऐसा तात्पर्य है ॥२०६॥

    इसप्रकार अशुद्धनय से अशुद्धात्मा की प्राप्ति होती है -- इस कथनरूप से पहली गाथा शुद्धनय से शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है -- इस कथनरूप से दूसरी गाथा, ध्रुवता-नित्यता के कारण,आत्मा ही भावना करने योग्य है -- इस कथन रूप से तीसरी गाथा और आत्मा से भिन्न अध्रुव (संयोगादि) भावना करने योग्य नहीं हैं -- इस कथन रूप से चौथी -- इस प्रकार शुद्धात्मा के विशेष कथन की मुख्यता से पहले स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुई ।

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    + शुद्धात्मा की उपलब्धि से क्या होता है? -
    जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा । (194)
    सागारोऽणगारो खवेदि सो मोहदुग्गंठि ॥207॥
    य एवं ज्ञात्वा ध्यायति परमात्मानं विशुद्धात्मा ।
    साकारोऽनाकारः क्षपयति स मोहदुर्ग्रन्थिम् ॥१९४॥
    यह जान जो शुद्धातमा ध्यावें सदा परमातमा
    दुठ मोह की दुर्ग्रन्थि का भेदन करें वे आतमा ॥२०७॥
    अन्वयार्थ : [यः] जो [एवं ज्ञात्वा] ऐसा जानकर [विशुद्धात्मा] विशुद्धात्मा होता हुआ [परमात्मानं] परम आत्मा का [ध्यायति] ध्यान करता है, [सः] वह [साकार: अनाकार:] साकार हो या अनाकार [मोहदुर्ग्रंथि] मोहदुर्ग्रंथि का [क्षपयति] क्षय करता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    इस यथोक्त विधि के द्वारा जो शुद्धात्मा को ध्रुव जानता है, उसे उसी में प्रवृत्ति के द्वारा शुद्धात्मत्व होता है; इसलिये अनन्तशक्तिवाले चिन्मात्र परम आत्मा का एकाग्रसंचेतनलक्षण ध्यान होता है; और इसलिये (उस ध्यान के कारण) साकार (सविकल्प) उपयोगवाले को या अनाकार (निर्विकल्प) उपयोगवाले को—दोनों को अविशेषरूप से एकाग्रसंचेतन की प्रसिद्धि होने से—अनादि संसार से बँधी हुई अतिदृढ़ मोहदुर्ग्रंथि (मोह की दुष्ट गाँठ) छूट जाती है ।

    इससे (ऐसा कहा गया है कि) मोहग्रंथि भेद (दर्शनमोहरूपी गाँठ का टूटना) वह शुद्धात्मा की उपलब्धि का फल है ॥११४॥

    अब, मोह-ग्रंथि टूटने से क्या होता है सो कहते हैं :-

    जयसेनाचार्य :
    [झादि] ध्यान करता है [जो] कर्तारूप जो । किसका ध्यान करता है? [अप्पगं] निजात्मा का ध्यान करता है । कैसे निजात्मा का ध्यान करता है? [परं] परम, अनन्त-ज्ञानादि गुणों का आधार होने से परम-उत्कृष्ट निजात्मा का ध्यान करता है । पहले क्या करके उसका ध्यान करता है? [एवं जाणित्ता] इस- प्रकार पहले (२०३ से २०६ गाथा पर्यन्त) कही गई पद्धति-रूप निजात्मा की प्राप्ति लक्षण स्व-संवदेन ज्ञान से निजात्मा को जानकर फिर उसका ध्यान करता है । वह कैसा होता हुआ उसका ध्यान करता है? [विशुद्धप्पा] ख्याति, पूजा, लाभ आदि सम्पूर्ण इच्छा समूहों से रहित होने के कारण विशुद्धात्मा होता हुआ उसका ध्यान करता है । और भी कैसा है? [सागारोऽणगारो] सागार-अनागार है । अथवा साकार-अनाकार है । जो आकार अर्थात् विकल्प के साथ वर्तता है वह साकार-आकार सहित ज्ञानोपयोग है, अनाकार-विकल्प रहित दर्शनोपयोग -- उन दोनों से सहित साकार-अनाकार है । अथवा साकार अर्थात् सविकल्प गृहस्थ, अनाकार अर्थात् निर्विकल्प मुनिराज । अथवा साकार अर्थात् लिंग--चिन्हरूप से जो वर्तते हैं वे आकार सहित--साकार यति-मुनि हैं और अनाकार अर्थात् चिन्ह रहित गृहस्थ हैं । [खवेदि सो मोहदुग्गंठि] जो इन गुणों से सहित है, वह मोहरूपी दुर्ग्रंथि--बुरी गाँठ का क्षय करता है । मोह ही दुर्ग्रंथि-मोह दुर्ग्रंथि (इसप्रकार कर्मधारय समास किया) शुद्धात्मा की रुचि का प्रतिबन्धक (रोकने वाला) दर्शनमोह, उसे नष्ट करता है ।

    इससे यह निश्चित हुआ कि मोह-रूपी ग्रन्थि का विनाश ही, आत्मोपलब्धि का फल है ॥२०७॥

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    + मोहग्रंथि टूटने से क्या होता है? -
    जो णिहदमोहगंठी रागपदोसे खवीय सामण्णे । (195)
    होज्जं समसुहदुक्खो सो सोक्खं अक्खयं लहदि ॥208॥
    यो निहतमोहग्रन्थी रागप्रद्वेषौ क्षपयित्वा श्रामण्ये ।
    भवेत् समसुखदुःखः स सौख्यमक्षयं लभते ॥१९५॥
    मोहग्रन्थी राग-रुष तज सदा ही सुख-दु:ख में
    समभाव हो वह श्रमण ही बस अखयसुख धारण करें ॥२०८॥
    अन्वयार्थ : [यः] जो [निहतमोहग्रंथी] मोहग्रंथि को नष्ट करके, [रागप्रद्वेषौ क्षपयित्वा] रागद्वेष का क्षय करके, [समसुख दुःख:] समसुख-दुःख होता हुआ [श्रामण्ये भवेत्] श्रमणता (मुनित्व) में परिणमित होता है, [सः] वह [अक्षयं सौख्यं] अक्षय सौख्य को [लभते] प्राप्त करता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    मोह-ग्रंथि का क्षय करने से, मोह-ग्रंथि जिसका मूल है ऐसे राग-द्वेष का, क्षय होता है; उससे (राग-द्वेष का क्षय होने से), सुख-दुःख समान हैं ऐसे जीव का परम मध्यस्थता जिसका लक्षण है ऐसी श्रमणता में परिणमन होता है; और उससे (श्रामण्य में परिणमन से) अनाकुलता जिसका लक्षण है ऐसे अक्षय सुख की प्राप्ति होती है ।

    इससे (यह कहा है कि) मोहरूपी ग्रंथि के छेदन से अक्षय सौख्यरूप फल होता है ॥१९५॥

    अब, एकाग्र-संचेतन जिसका लक्षण है, ऐसा ध्यान आत्मा में अशुद्धता नहीं लाता, ऐसा निश्‍चित करते हैं --

    जयसेनाचार्य :
    [जो णिहदमोहगंठी] जो पहले (२०७वीं) गाथा में कही हुई पद्धति से दर्शन-मोह रूपी ग्रन्थि से रहित होकर [रागपदोसे खवीय] निज-शुद्धात्मा में निश्चल अनुभूति लक्षण वीतराग-चरित्र को रोकने वाले चारित्र-मोह नामक राग-द्वेष का क्षयकर । कहाँ राग-द्वेष का क्षय कर? [सामण्णे] स्व-स्वभाव (की प्रगटता) लक्षण श्रामण्य में उनका क्षय-कर । और भी क्या करके? [होज्जं] होकर । किस विशेषता वाला होकर? [समसुहदुक्खो] स्व-शुद्धात्मा के संवेदन से उत्पन्न, रागादि विकल्पों की उपाधि से रहित, परम सुखरूपी अमृत के अनुभव से, सांसारिक सुख-दुःख से उत्पन्न हर्ष-विषाद रहित होने के कारण सुख-दुख में समता-भाव वाला होता है । [सो सोक्खं अक्खयं लहदि] वह इन गुणों से विशिष्ट भेद-ज्ञानी, अक्षय-सौख्य को प्राप्त करता है ।

    इससे ज्ञात होता है कि दर्शनमोह के क्षय के पश्चात चारित्र-मोहरूप राग-द्वेष का विनाश होता है और उससे सुख-दुःख आदि में माध्यस्थ्य लक्षण श्रामण्य-मुनिपने में अवस्थान होता है उससे अक्षय-सुख की प्राप्ति होती है ॥२०८॥

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    + ध्यान आत्मा में अशुद्धता नहीं लाता -
    जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरुंभित्ता । (196)
    समवट्ठिदो सहावे सो अप्पाणं हवदि झादा ॥209॥
    यः क्षपितमोहकलुषो विषयविरक्तो मनो निरुध्य ।
    समवस्थितः स्वभावे स आत्मानं भवति ध्याता ॥१९६॥
    आत्मध्याता श्रमण वह इन्द्रियविषय जो परिहरे
    स्वभावथित अवरुद्ध मन वह मोहमल का क्षय करे ॥२०९॥
    अन्वयार्थ : [यः] जो [क्षपितमोहकलुषः] मोहमल का क्षय करके, [विषयविरक्त:] विषय से विरक्त होकर, [मन: निरुध्य] मन का निरोध करके, [स्वभावे समवस्थित:] स्वभाव में समवस्थित है, [सः] वह [आत्मानं] आत्मा का [ध्याता भवति] ध्यान करने वाला है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    जिसने मोहमल का क्षय किया है ऐसे आत्मा के, मोहमल जिसका मूल है ऐसी परद्रव्यप्रवृत्ति का अभाव होने से विषयविरक्तता होती है; (उससे अर्थात् विषय विरक्त होने से), समुद्र के मध्यगत जहाज के पक्षी की भाँति, अधिकरणभूत द्रव्यान्तरों का अभाव होने से जिसे अन्य कोई शरण नहीं रहा है ऐसे मन का निरोध होता है । (अर्थात् जैसे समुद्र के बीच में पहुँचे हुए किसी एकाकी जहाज पर बैठे हुए पक्षी को उस जहाज के अतिरिक्त अन्य किसी जहाज का, वृक्ष का या भूमि इत्यादि का आधार न होने से दूसरा कोई शरण नहीं है, इसलिये उसका उड़ना बन्द हो जाता है, उसी प्रकार विषयविरक्तता होने से मन को आत्मद्रव्य के अतिरिक्त किन्हीं अन्यद्रव्यों का आधार नहीं रहता इसलिये दूसरा कोई शरण न रहने से मन निरोध को प्राप्त होता है); और इसलिये (अर्थात् मन का निरोध होने से), मन जिसका मूल है ऐसी चंचलता का विलय होने के कारण अनन्तसहज-चैतन्यात्मक स्वभाव में समवस्थान होता है वह स्वभावसमवस्थान तो स्वरूप में प्रवर्तमान, अनाकुल, एकाग्र संचेतन होने से उसे ध्यान कहा जाता है ।

    इससे (यह निश्‍चित हुआ कि) ध्यान, स्वभाव-समवस्थानरूप होने के कारण आत्मा से अनन्य होने से अशुद्धता का कारण नहीं होता ॥१९६॥

    अब, सूत्र द्वारा ऐसा प्रश्न करते हैं कि जिनने शुद्धात्मा को उपलब्ध किया है ऐसे सकलज्ञानी (सर्वज्ञ) क्या ध्याते हैं?

    जयसेनाचार्य :
    [जो खविदमोहकलुसो] जो मोह-कलुषता के क्षय से सहित है, मोह अर्थात दर्शन-मोह, कलुष अर्थात चारित्र-मोह पहले (२०७ और २०८ वीं) गाथा में कहे गये क्रम से, जिसके द्वारा मोह और कलुषता का क्षय किया गया है, वह मोह और कलुष का क्षय करने वाला है । वह और किस विशेषता वाला है? [विसयविरत्ते] मोह और कलुष रहित अपने आत्मा की अनुभूति से, अच्छी तरह उत्पन्न सुखरूपी अमृत-रस के आस्वाद के बल से कलुष और मोह के उदय से उत्पन्न विषय-सुख की आकांक्षा से रहित होने के कारण, विषयों से विरक्त है । और कैसा है? [समवट्ठिदो] अच्छी तरह अवस्थित है । अच्छी तरह कहाँ अवस्थित है? [सहावे] अपने परमात्म-द्रव्यरूप स्वभाव में अवस्थित है । पहले क्या करके स्वभाव में अवस्थित है? [मणो णिरुंभित्त] विषय-कषाय से उत्पन्न विकल्प-समूह रूप मन को रोककर--निश्चलकर स्वभाव में अवस्थित है । [सो अप्पाणं हवदि झादा] वह इन गुणों से सहित पुरुष अपने आत्मा को ध्याता है । उसी शुद्धात्मा के ध्यान से आत्यन्तिकी (हमेशा-हमेशा के लिये परिपूर्ण) मुक्ति लक्षण शुद्धि को प्राप्त होता है ।

    इससे निश्चित हुआ कि शुद्धात्मा के ध्यान से जीव विशुद्ध होता है ।

    दूसरी बात यह है कि ध्यान से वास्तव में आत्मा शुद्ध होता है इस (ध्यान के) विषय में चार प्रकार से विशेष कथन करते हैं । वह इसप्रकार --

    ध्यान, ध्यान-सन्तान, उसीप्रकार ध्यान-चिन्ता और ध्यान का अन्वयसूचन । वहाँ एकाग्र चिन्ता निरोध -- एक अग्र-विषय में चिन्ता का रुक जाना ध्यान है, और वह ध्यान शुद्ध-अशुद्ध रूप से दो प्रकार का होता है ।

    अब ध्यान सन्तान कहते हैं -- जहाँ अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ध्यान है फिर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त तत्व की चिंता--तत्त्व-चिन्तन है, फिर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ध्यान और फिर तत्व-चिन्तन -- इसप्रकार प्रमत्त-अप्रमत्त (छठवें-सातवें) गुणस्थान के समान अन्तर्मुहूर्त-अन्तर्मुहूर्त व्यतीत होने पर जो परिवर्तन है, वह ध्यान-सन्तान -- ध्यान की परम्परा कही जाती है । और वह धर्म्य-ध्यान सम्बन्धी है । शुक्लध्यान तो उपशमश्रेणी या क्षपक-श्रेणी के आरोहण--पर- चढ़ने पर होता है । वहाँ समय कम होने से परिवर्तन रूप ध्यान-सन्तान घटित नहीं होती है ।

    अब ध्यान-चिन्ता कही जाती है -- जहाँ ध्यान सन्तान के समान ध्यान का परिवर्तन नहीं है, ध्यान सम्बन्धी चिंता--चिन्तन है, वहाँ यद्यपि किसी समय ध्यान करता है, तथापि वह ध्यान-चिन्ता कहलाती है ।

    अब ध्यानान्वयसूचन कहा जाता है -- जहाँ ध्यान की सामग्री-भूत बारह-अनुप्रेक्षा अथवा ध्यान सम्बन्धी अन्य संवेग-वैराग्य रूप वचन अथवा विशेष कथन है, वह ध्यानान्वयसूचन है ।

    अथवा और दूसरे चार प्रकार से ध्यान का व्याख्यान होता है -- ध्याता, ध्यान, ध्यान का फल और ध्येय । अथवा आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल भेद से चार प्रकार रूप ध्यान का विशेष कथन किया जाता है, वह दूसरी जगह कहा गया है ॥२०९॥

    इसप्रकार -- इसप्रकार आत्मा की प्राप्ति के फल कथन-रूप दूसरे स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुईं ।

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    + सकलज्ञानी क्या ध्याते हैं? -
    णिहदघणघादिकम्मो पच्चक्खं सव्वभावतच्चण्हू । (197)
    णेयंतगदो समणो झादि कमट्ठं असंदेहो ॥210॥
    निहतघनघातिकर्मा प्रत्यक्षं सर्वभावतत्त्वज्ञः ।
    ज्ञेयान्तगतः श्रमणो ध्यायति कमर्थमसन्देहः ॥१९७॥
    घन घातिकर्म विनाश कर प्रत्यक्ष जाने सभी को
    संदेहविरहित ज्ञेय ज्ञायक ध्यावते किस वस्तु को ॥२१०॥
    अन्वयार्थ : [निहतघनघातिकर्मा] जिनने घनघातिकर्म का नाश किया है, [प्रत्यक्षं सर्वभावतत्वज्ञ:] जो सर्व पदार्थों के स्वरूप को प्रत्यक्ष जानते हैं और [ज्ञेयान्तगतः] जो ज्ञेयों के पार को प्राप्त हैं, [असंदेह: श्रमण:] ऐसे संदेह रहित श्रमण [कम् अर्थं] किस पदार्थ को [ध्यायति] ध्याते हैं?

    अमृतचंद्राचार्य :
    लोक को इसलिये वह (लोक) अभिलषित, जिज्ञासित और संदिग्ध पदार्थ का ध्यान करता हुआ दिखाई देता है; परन्तु घनघातिकर्म का नाश किया जाने से तथा इसलिये भगवान सर्वज्ञदेव अभिलाषा नहीं करते, जिज्ञासा नहीं करते और संदेह नहीं करते; तब फिर (उनके) अभि‍लषित, जिज्ञासित और संदिग्ध पदार्थ कहाँ से हो सकता है ? ऐसा है तब फिर वे क्या ध्याते हैं ?

    अवच्छेदपूर्वक = पृथक्करण करके; सूक्ष्मतासे; विशेषतासे; स्पष्टतासे ।
    अभिलषित = जिसकी इच्छा / चाह हो वह ।
    जिज्ञासित = जिसकी जिज्ञासा / जानने की इच्छा हो वह ।
    संदिग्ध = जिनमें संदेह / संशय हो ।

    अब, सूत्र द्वारा (उपरोक्त गाथा के प्रश्न का) उत्तर देते हैं कि -- जिसने शुद्धात्मा को उपलब्ध किया है वह सकलज्ञानी (सर्वज्ञ आत्मा) इस (परम सौख्य) का ध्यान करता है --

    जयसेनाचार्य :
    [णिहदघणघादिकम्मो] पहले (२०९ वीं) गाथा में कहे गये निश्चल निज परमात्म-तत्त्व में परिणति-रूप शुद्ध ध्यान द्वारा घनरूप घाति कर्मों को नष्ट करने वाले । [पच्चक्खं सव्वभावतच्चण्हू] जैसे प्रत्यक्ष होता है, वैसे सभी पदार्थों तत्त्वों को जानने वाले--सभी पदार्थों को पूर्ण-रूप से जानने के स्वरूप-वाले । [ णेयंतगदो] ज्ञेयों के अन्त को प्राप्त--जानने की अपेक्षा ज्ञेय-भूत पदार्थों के पार को प्राप्त (सभी को जानने वाले) । इसप्रकार तीन विशेषणों से सहित [समणो] जीवन-मरण आदि में समभाव-रूप से परिणत आत्म- स्वरूप श्रमण--महाश्रमण--सर्वज्ञ--केवली भगवान [झादि कमट्ठं] किस पदार्थ का ध्यान करते हैं ? ऐसा प्रश्न है । अथवा किस पदार्थ का ध्यान करते हैं ? किसी भी पदार्थ का ध्यान नहीं करते -- ऐसा आक्षेप है । वे सर्वज्ञ कैसे होते हुए किसी का भी ध्यान नहीं करते ? [असंदेहो] वे सन्देह रहित--संशय आदि दोषों से रहित होते हुए किसी का भी ध्यान नहीं करते हैं ।

    यहाँ अर्थ यह है -- जैसे कोई भी देवदत्त, विषय-सुख की प्राप्ति के लिये, विद्या की आराधना-रूप ध्यान करता है; जब विद्या सिद्ध हो जाती है और उसके फल-स्वरूप विषय-सुख प्राप्त हो जाता है, तब उसकी आराधना-रूप ध्यान नहीं करता है; उसी प्रकार ये भगवान भी केवलज्ञान-रूपी विद्या की प्राप्ति के लिये और उसके फल-स्वरूप अनन्त-सुख की प्राप्ति के लिये पहले छद्मस्थ दशा में शुद्धात्मा की भावना (तद्रूप परिणमन) रूप ध्यान करते थे, अब उस ध्यान से केवलज्ञान रूपी विद्या सिद्ध हो गई है, तथा उसके फल-स्वरूप अनन्त-सुख भी प्रगट हो गया है, तब वे किसलिये अथवा किस पदार्थ का ध्यान करते हैं ? ऐसा प्रश्न अथवा आक्षेप है ।

    इस प्रश्न अथवा आक्षेप का दूसरा कारण भी है -- पदार्थ के परोक्ष होने पर ध्यान होता है, केवली-भगवान के सभी पदार्थ प्रत्यक्ष हैं तब ध्यान कैसे करते हैं?

    इस प्रकार पूर्व-पक्ष की अपेक्षा एक गाथा पूर्ण हुई ॥२१०॥

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    + सकलज्ञानी परम सौख्य का ध्यान करता है -
    सव्वाबाधविजुत्तो समंतसव्वक्खसोक्खणाणड्‌ढो । (198)
    भूदो अक्खातीदो झादि अणक्खो परं सोक्खं ॥211॥
    सर्वाबाधवियुक्तः समन्तसर्वाक्षसौख्यज्ञानाढयः ।
    भूतोऽक्षातीतो ध्यायत्यनक्षः परं सौख्यम् ॥१९८॥
    अतीन्द्रिय जिन अनिन्द्रिय अर सर्व बाधा रहित हैं
    चहुँ ओर से सुख-ज्ञान से समृद्ध ध्यावे परमसुख ॥२११॥
    अन्वयार्थ : [अनक्षः अनिन्द्रिय] और [अक्षातीत: भूत:] इन्द्रियातीत हुआ आत्मा [सर्वाबाधवियुक्त:] सर्व बाधा रहित और [समंतसर्वाक्षसौख्यज्ञानाढ:] सम्पूर्ण आत्मा में समंत (सर्वप्रकार के, परिपूर्ण) सौख्य तथा ज्ञान से समृद्ध वर्तता हुआ [परं सौख्यं] परम सौख्य का [ध्यायति] ध्यान करता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    जब यह आत्मा, जो सहज सुख और ज्ञान की बाधा के आयतन हैं (ऐसी) तथा जो असकल आत्मा में असर्वप्रकार के सुख और ज्ञान के आयतन हैं ऐसी इन्द्रियों के अभाव के कारण स्वयं 'अतीन्द्रिय' रूप से वर्तता है, उसी समय वह दूसरों को 'इन्द्रियातीत' (इन्द्रियअगोचर) वर्तता हुआ, निराबाध सहजसुख और ज्ञानवाला होने से 'सर्वबाधा रहित' तथा सकल आत्मा में सर्वप्रकार के (परिपूर्ण) सुख और ज्ञान से परिपूर्ण होने से 'समस्त आत्मा में संमत सौख्य और ज्ञान से समृद्ध' होता है । इस प्रकार का वह आत्मा सर्व अभिलाषा, जिज्ञासा और संदेह का असंभव होने पर भी अपूर्व और अनाकुलत्वलक्षण परमसौख्य का ध्यान करता है; अर्थात् अनाकुलत्वसंगत एक 'अग्र' के संचेतनमात्ररूप से अवस्थित रहता है, (अर्थात् अनाकुलता के साथ रहने वाले एक आत्मारूपी विषय के अनुभवनरूप ही मात्र स्थित रहता है) और ऐसा अवस्थान सहजज्ञानानन्दस्वभाव सिद्धत्व की सिद्धि ही है (अर्थात् इस प्रकार स्थित रहना, सहजज्ञान और आनन्द जिसका स्वभाव है ऐसे सिद्धत्व की प्राप्ति ही है । )

    अब, यह निश्‍चित करते हैं कि -- 'यही (पूर्वोक्त ही) शुद्ध आत्मा की उपलब्धि जिसका लक्षण है, ऐसा मोक्ष का मार्ग है'

    जयसेनाचार्य :
    [झादि] ध्यान करते हैं -- एकाकार समरसी भाव से परिणमन करते हैं - अनुभव करते हैं । ध्यान करने रूप क्रिया के कर्ता वे कौन हैं ? वे भगवान ध्यान करने रूप क्रिया के कर्ता हैं । वे किसका ध्यान करते हैं ? [सौक्खं] वे सौख्य का ध्यान करते हैं । वह सौख्य किस विशेषता वाला है ? [परं] वह सौख्य उत्कृष्ट सम्पूर्ण आत्म-प्रदेशों में आह्लाद को उत्पन्न करने वाला परम अनन्त सुख-रूप है । ऐसे सुख का ध्यान वे किस प्रसंग में -- किस समय करते हैं ? जिस ही क्षण में [भूदो] अच्छी तरह से उत्पन्न हुए हैं तब से ही वे उस सुख का ध्यान करते हैं । वे किस विशेषता रूप से उत्पन्न हुए हैं ? [अक्खातीदो] अक्षातीत--इन्द्रिय रहित हुए हैं । मात्र स्वयं ही इन्द्रिय रहित हैं इतना ही नहीं वरन दूसरों को भी [अणक्खो] अनक्ष--इन्द्रियों के विषय नहीं हैं -- ऐसा अर्थ है । और भी किस विशेषता वाले हुए हैं ? [सव्वाबाधविजुत्ते] इस शब्द में प्राकृत भाषा के लक्षण (व्याकरण) के माध्यम से 'बाधा' शब्द का हस्व 'बाध' शब्द बना है, मूल शब्द '[सर्वबाधावियुक्त:]' है । आ-समन्तात सभी ओर से बाधा-पीड़ा आबाधा है, सम्पूर्ण और वे आबाधा सर्वाबाधा (इसप्रकार कर्मधारय समास किया है), उनसे रहित सर्वबाधा-वियुक्त (इसप्रकार तृतीया तत्पुरुष- समास किया) अर्थात् वे सम्पूर्ण बाधाओं से रहित हुए हैं । और वे किस रूप हुए हैं ? [समंतसव्वक्खसोक्खणाणड्‌ढो] समन्तत:--पूर्णरूप से स्पर्शन आदि सभी इन्द्रियों सम्बन्धी सौख्य और ज्ञान से समृद्ध हैं । अथवा समन्तत:--सम्पूर्ण आत्म-प्रदेशों से स्पर्शनादि सभी इन्द्रियों सम्बन्धी जो ज्ञान और सौख्य दोनों--उनसे आढ्य--परिपूर्ण हैं -- ऐसा अर्थ है ।

    वह इस प्रकार -- ये भगवान निश्चय रत्न-त्रय स्वरूप कारण-समयसार के बल से, एकदेश प्रकट सांसारिक ज्ञान और सुख की कारणभूत तथा सम्पूर्ण आत्म-प्रदेशों से उत्पन्न स्वाभाविक अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख से नष्ट करनेवाली, उन इन्द्रियों का अतिक्रमण करते हैं -- विनाश करते हैं, तब उसी समय सम्पूर्ण बाधाओं से रहित होते हुए अतीन्द्रिय अनन्त आत्मा के आश्रय से उत्पन्न सुख का ध्यान करते हैं -- अनुभव करते हैं -- उसरूप परिणमन करते हैं ।

    इससे ज्ञात होता है कि केवली के, अन्य विषय में चिन्ता का निरोध लक्षण ध्यान नहीं है, किन्तु इस ही परमसुख के अनुभव को अथवा ध्यान के कार्यभूत कर्मों की निर्जरा को देखकर, ध्यान शब्द से उपचरित किये जाते हैं । और जो सयोग केवली के तीसरा शुक्ल-ध्यान तथा अयोग-केवली के चौथा शुक्ल-ध्यान होता है -- ऐसा कथन है वह उपचार से जानना चाहिये ऐसा गाथा का अभिप्राय है ॥२११॥

    इसप्रकार केवली भगवान किसका ध्यान करते हैं -- इस प्रश्न की मुख्यता से पहली गाथा तथा परम- सुख का ध्यान-अनुभव करते हैं -- इसप्रकार परिहार की मुख्यता से दूसरी गाथा इसप्रकार ध्यान सम्बन्धी पूर्वपक्ष और परिहार की अपेक्षा तीसरे स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुई ।

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    + शुद्ध आत्मा की उपलब्धि मोक्ष का मार्ग -
    एवं जिणा जिणिंदा सिद्धा मग्गं समुट्ठिदा समणा । (199)
    जादा णमोत्थु तेसिं तस्स य णिव्वाणमग्गस्स ॥212॥
    एवं जिना जिनेन्द्राः सिद्धा मार्गं समुत्थिताः श्रमणाः ।
    जाता नमोऽस्तु तेभ्यस्तस्मै च निर्वाणमार्गाय ॥१९९॥
    निर्वाण पाया इसी मग से श्रमण जिन जिनदेव ने
    निर्वाण अर निर्वाणमग को नमन बारंबार हो ॥२१२॥
    अन्वयार्थ : [जिना: जिनेन्द्रा: श्रमणा:] जिन, जिनेन्द्र और श्रमण (अर्थात् सामान्यकेवली, तीर्थंकर और मुनि) [एवं] इस [पूर्वोक्त ही] प्रकार से [मार्गं समुत्थिता:] मार्ग में आरूढ़ होते हुए [सिद्धा: जाता:] सिद्ध हुए [तेभ्य:] उन्हें [च] और [तस्मै निर्वाण मार्गाय] उस निर्वाणमार्ग को [नमोऽस्तु] नमस्कार हो ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    सभी सामान्य चरम-शरीरी, तीर्थंकर और अचरम-शरीरी मुमुक्षु इसी यथोक्त शुद्धात्म-तत्त्व-प्रवृत्तिलक्षण (शुद्धात्मतत्त्व में प्रवृत्ति जिसका लक्षण है ऐसी) विधि से प्रवर्तमान मोक्षमार्ग को प्राप्त सिद्ध हुए; किन्तु ऐसा नहीं है कि किसी दूसरी विधि से भी सिद्ध हुए हों । इससे निश्‍चित होता है कि केवल यह एक ही मोक्ष का मार्ग है, दूसरा नहीं । अधिक विस्तार से पूरा पड़े ! उस शुद्धात्म-तत्त्व में प्रवर्ते हुए सिद्धों को तथा उस शुद्धात्म-तत्त्व-प्रवृत्तिरूप मोक्षमार्ग को, जिसमें से भाव्य और भावक का विभाग अस्त हो गया है ऐसा नोआगम-भाव-नमस्कार हो ! मोक्षमार्ग अवधारित किया है, कृत्य किया जा रहा है, (अर्थात् मोक्षमार्ग निश्‍चित किया है और उसमें) प्रवर्तन कर रहे हैं ॥१९९॥

    अब, 'साम्य को प्राप्त करता हूँ' ऐसी (पाँचवीं गाथा में की गई) पूर्व-प्रतिज्ञा का निर्वहण करते हुए (आचार्यदेव) स्वयं भी मोक्षमार्गभूत शुद्धात्मप्रवृत्ति करते हैं --

    जयसेनाचार्य :
    [जादा] हुए हैं । कैसे हुए हैं ? [सिद्धा] सिद्ध-परमेष्ठी--मुक्तात्मा--मुक्तावस्था-रूप हुए हैं -- ऐसा अर्थ है । कर्ता-रूप कौन सिद्ध हुए हैं ? [जीणा] जिन--अनागार केवली सिद्ध हुए हैं । [जिणिंदा] मात्र केवली जिन ही सिद्ध नहीं हुये हैं, वरन् जिनेन्द्र--तीर्थंकर परमदेव भी सिद्ध हुए हैं । ये सभी कैसे होते हुए सिद्ध हुये हैं ? [मग्गं समुट्टिदा] अपने परमात्म-तत्त्व की अनुभूति मोक्षमार्ग में आरूढ़--मोक्षमार्ग का आश्रय लेते हुए सिद्ध हुए हैं । कैसे मोक्षमार्ग का आश्रय लेते सिद्ध हुए हैं ? पहले अनेक प्रकार से कहे मोक्षमार्ग का, आश्रय लेते हुए सिद्ध हैं । मात्र केवली और तीर्थंकर ही इस मार्ग से सिद्ध नहीं हुए हैं वरन्, [समणा] सुख-दुःख आदि में समता-भाव से परिणत आत्म-तत्त्व लक्षण-युक्त शेष अचरम शरीरी श्रमण -- उसी भव से मुक्त नहीं होने वाले अन्य मुनिराज भी (बाद मे) इसी मार्ग से सिद्ध हुए हैं ।

    अचरम शरीरियों को -- उसी भव में मोक्ष नहीं जाने वालों को सिद्धपना कैसे संभव है ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं --

    'तप से सिद्ध, नय से सिद्ध, संयम से सिद्ध, चारित्र से सिद्ध, ज्ञान-दर्शन से सिद्ध हुए सिद्ध भगवंतों को मैं मस्तक झुका-कर नमस्कार करता हूँ ।'

    इसप्रकार गाथा में कहे गये क्रम से एक-देश सिद्धता, अचरम शरीरी जीवों के भी मानी गई है ।

    [णमोत्थु तेसिं] उन्हें नमस्कार हो । उन्हें मेरा अनन्त-ज्ञानादि सिद्ध-गुणों के स्मरण-रूप भाव नमस्कार हो, [तस्स य णिव्वाणमग्गस्स] तथा विकार रहित, स्व-सम्वित्ति -- अपने आत्म-स्वरूप में लीनता लक्षण निश्चय-रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग को मेरा नमस्कार हो ।

    इससे यह निश्चित हुआ कि यही मोक्षमार्ग है; दूसरा कोई मोक्षमार्ग नहीं है ॥२१२॥

    अब 'उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती मैं साम्य का आश्रय ग्रहण करता हूँ जिससे निर्वाण की प्राप्ति होती है' -- इत्यादि पहले की गई प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हुए, स्वयं भी मोक्ष-मार्ग रूप परिणति को स्वीकार करते हैं, ऐसा प्रतिपादन करते हैं --

    🏠
    + मैं (आचार्यदेव) स्वयं भी शुद्धात्मप्रवृत्ति करता हूँ -
    तम्हा तह जाणित्ता अप्पाणं जाणगं सभावेण । (200)
    परिवज्जामि ममत्तिं उवट्ठिदो णिम्ममत्तम्हि ॥213॥
    तस्मात्तथा ज्ञात्वात्मानं ज्ञायकं स्वभावेन ।
    परिवर्जयामि ममतामुपस्थितो निर्ममत्वे ॥२००॥
    इसलिए इस विधि आतमा ज्ञायकस्वभावी जानकर
    निर्ममत्व में स्थित मैं सदा ही भाव ममता त्याग कर ॥२१३॥
    अन्वयार्थ : [तस्मात्] ऐसा होने से (अर्थात् शुद्धात्मा में प्रवृत्ति के द्वारा ही मोक्ष होता होने से) [तथा] इस प्रकार [आत्मानं] आत्मा को [स्वभावेन ज्ञायकं] स्वभाव से ज्ञायक [ज्ञात्वा] जानकर [निर्ममत्वे उपस्थित:] मैं निर्ममत्व में स्थित रहता हुआ [ममतां परिवर्जयामि] ममता का परित्याग करता हूँ ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    मैं यह मोक्षाधिकारी, ज्ञायकस्वभावी आत्मतत्त्व के परिज्ञानपूर्वक ममत्व की त्यागरूप और निर्ममत्व की ग्रहणरूप विधि के द्वारा सर्व आरम्भ (उद्यम) से शुद्धात्मा में प्रवृत्त होता हूँ क्योंकि अन्य कृत्य का अभाव है । (अर्थात् दूसरा कुछ भी करने योग्य नहीं है ।) वह इस प्रकार है (अर्थात् मैं इस प्रकार शुद्धात्मा में प्रवृत्त होता हूँ):—प्रथम तो मैं स्वभाव से ज्ञायक ही हूँ; केवल ज्ञायक होने से मेरा विश्व (समस्त पदार्थों) के साथ भी सहज ज्ञेय-ज्ञायक-लक्षण सम्बन्ध ही है, किन्तु अन्य स्व-स्वामी-लक्षणादि सम्बन्ध नहीं हैं; इसलिये मेरा किसी के प्रति ममत्व नहीं है, सर्वत्र निर्ममत्व ही है।

    अब, एक ज्ञायक-भाव का समस्त ज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने से, क्रमश प्रवर्तमान, अनन्त, भूत-वर्तमान-भावी विचित्र पर्याय-समूह वाले, अगाध-स्वभाव और गम्भीर ऐसे समस्त द्रव्यमात्र को—मानों वे द्रव्य ज्ञायक में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गए हों, भीतर घुस गये हों, कीलित हो गये हों, डूब गये हों, समा गये हों, प्रतिबिम्बित हुए हों, इस प्रकार—एक क्षण में ही जो (शुद्धात्मा) प्रत्यक्ष करता है, ज्ञेयज्ञायकलक्षण संबंध की अनिवार्यता के कारण ज्ञेय-ज्ञायक को भिन्न करना अशक्य होने से विश्वरूपता को प्राप्त होने पर भी जो (शुद्धात्मा) सहज अनन्तशक्ति वाले ज्ञायक-स्वभाव के द्वारा एकरूपता को नहीं छोड़ता, जो अनादि संसार से इसी स्थिति में (ज्ञायक भावरूप ही) रहा है और जो मोह के द्वारा दूसरे रूप में जाना—माना जाता है उस शुद्धात्मा को यह मैं मोह को उखाड़ फेंककर, अतिनिष्कम्प रहता हुआ यथास्थित (जैसा का तैसा) ही प्राप्त करता हूँ ।

    इस प्रकार दर्शनविशुद्धि जिसका मूल है ऐसी, सम्यग्ज्ञान में उपयुक्तता के कारण अत्यन्त अव्याबाध (निर्विघ्न) लीनता होने से, साधु होने पर भी साक्षात् सिद्धभूत ऐसा यह निज आत्मा को तथा तथाभूत (सिद्धभूत) परमात्माओं को, उसी में एकपरायणता जिसका लक्षण है ऐसा भावनमस्कार सदा ही स्वयमेव हो ॥२००॥

    (दोहा)
    ज्ञेय तत्त्व के ज्ञान के प्रतिपादक जो शब्द ।
    उनमें डुबकी लगाकर निज में रहें अशब्द ॥१०॥

    इसप्रकार ज्ञेयतत्त्व को समझानेवाले जैन, ज्ञान में विशाल, शब्दब्रह्म में सम्यक्तया अवगाहन करके (डुबकी लगाकर, गहराई में उतरकर, निमग्न होकर) हम मात्र शुद्ध-आत्म-द्रव्यरूप एक वृत्ति (परिणति) से सदा युक्त रहते हैं ॥१०॥

    (दोहा)
    शुद्ध ब्रह्म को प्राप्त कर जग को कर अब ज्ञेय ।
    स्वपरप्रकाशक ज्ञान ही एकमात्र श्रद्धेय ॥११॥

    आत्मा ब्रह्म को (परमात्मत्व को, सिद्धत्व को) शीघ्र प्राप्त करके, असीम(अनन्त) विश्व को शीघ्रता में (एक समय में) ज्ञेयरूप करता हुआ, भेदों को प्राप्त ज्ञेयों को ज्ञानरूप करता हुआ (अनेक प्रकार के ज्ञेयों को ज्ञान में जानता हुआ) और स्व-पर-प्रकाशक ज्ञान को आत्मारूप करता हुआ, प्रगट दैदीप्यमान होता है ॥११॥

    (दोहा)
    चरण द्रव्य अनुसार हो द्रव्य चरण अनुसार ।
    शिवपथगामी बनो तुम दोनों के अनुसार ॥१२॥

    चरण द्रव्यानुसार होता है और द्रव्य चरणानुसार होता है - इसप्रकार वे दोनों परस्पर अपेक्षा सहित हैं; इसलिये या तो द्रव्य का आश्रय लेकर अथवा तो चरण का आश्रय लेकर मुमुक्षु (ज्ञानी, मुनि) मोक्षमार्ग में आरोहण करो ।

    इसप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री प्रवचनसार शास्त्र की श्रीमद अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित तत्वदीपिकानामक टीका का यह 'ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन' नामक द्वितीय श्रुतस्कंध (का भाषानुवाद) समाप्त हुआ ।

    अब श्रमण होने की इच्छा करते हुए पहले क्षमा भाव करते हैं -

    जयसेनाचार्य :
    [तम्हा] यत: पहले कहे हुये शुद्धात्मा की प्राप्ति लक्षण मोक्षमार्ग से सामान्य-केवली, तीर्थंकर-केवली और मुनिराज सिद्ध हुये हैं ? इसलिये मैं भी [तह] वैसे ही उसी-प्रकार [जाणित्ता] जानकर । उसीप्रकार किसे जानकर ? [अप्पाणं] निज परमात्मा को उसीप्रकार जानकर । किस विशेषता वाले निज परमात्मा को जानकर ? [जाणगं] ज्ञायक--केवल-ज्ञान आदि अनन्त-गुण स्वभाव-वाले निज-परमात्मा को जानकर । उसे किसके द्वारा जानकर ? [सभावेण] सम्पूर्ण रागादि विभावों से रहित, शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव द्वारा ज्ञायक स्वभावी अपने परमात्मा को जानकर । जानने के बाद मैं क्या करता हूँ ? [परिवज्जामि] परि-समन्तात्--सब तरह से पूर्णरूप से, मैं छोड़ता हूँ । पूर्ण-रूप से किसे छोड़ता हूँ ? [ममत्तिं] सम्पूर्ण चेतन, अचेतन और मिश्र-रूप पर-द्रव्य सम्बन्धी ममता को, छोड़ता हूँ । कैसा होता हुआ मैं उसे छोड़ता हूँ ? [उवट्ठिदो] उपस्थित-- परिणमित होता हुआ, मैं उसे छोड़ता हूँ । कहाँ उपस्थित होता हुआ मैं उसे छोड़ता हूँ ? [णिम्ममत्तम्हि] सम्पूर्ण पर-द्रव्य सम्बन्धी ममकार-अहंकर से रहित होने के कारण, निर्ममत्व लक्षण परम-साम्य नामक वीतराग- चारित्र में अथवा उस वीतराग-चारित्र रूप परिणत निज शुद्धात्म स्वरूप में उपस्थित होता हुआ, मैं उसे छोड़ता हूँ ।

    वह इसप्रकार, प्रथम तो मैं केवल-ज्ञान-दर्शन स्वभाव-रूप होने से, ज्ञायक एक टंकोत्कीर्ण स्वभाव हूँ । ऐसा होते हुए मेरा पर-द्रव्यों के साथ स्व-स्वामी आदि सम्बन्ध नहीं है, इतना मात्र ही नहीं है अपितु, निश्चय से ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध भी नहीं है । इस कारण मैं सम्पूर्ण पर-द्रव्यों के प्रति ममत्व रहित होकर, परम-साम्य लक्षण अपने शुद्धात्मा में स्थित रहता हूँ ।

    विशेष यह है कि 'उवसंपयामि सम्मं मैं साम्य का आश्रय ग्रहण करता हूँ' इत्यादि अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हुए स्वयं भी मोक्षमार्ग परिणति को स्वीकार करते हैं, ऐसा जो गाथा की पातनिका के प्रारम्भ में कहा था, उससे क्या कहा गया है ? (इस कथन का तात्पर्य यह है कि) जो उस प्रतिज्ञा को ग्रहण कर सिद्ध-मुक्तावस्था को प्राप्त हुए हैं, उनके द्वारा ही वह प्रतिज्ञा वस्तु-वृत्ति से -- वास्तव में पूर्ण की गई है । तथा 'कुंद-कुंद-आचार्य-देव' द्वारा ज्ञानाधिकर और दर्शनाधिकार -- इन दो अधिकार-रूप ग्रन्थ की समाप्ति रूप से वह समाप्त की गई है, और शिवकुमार महाराज द्वारा तो उस ग्रन्थ को सुनने रूप से, यह प्रतिज्ञा पूर्ण की गई है । इन रूपों में इनकी प्रतिज्ञा क्यों हुई है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो 'आचार्य' उत्तर देते हैं कि जो सिद्ध हुये हैं उनकी ये प्रतिज्ञा पूर्ण हुई, परन्तु उन 'कुंद-कुंद-आचार्य-देव' और 'शिवकुमार' महाराज की प्रतिज्ञा पूर्ण नहीं हुई है । उनकी प्रतिज्ञा पूर्ण क्यों नहीं हुई? चरम देहपने का -- उसी भव से मोक्ष जाने का अभाव होने से, उनकी प्रतिज्ञा पूर्ण नहीं हुई है ॥२१३॥

    इसप्रकर ज्ञानाधिकार और दर्शनाधिकार की पूर्णता-रूप से अन्तिम चौथे-स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुईं ।

    इसप्रकार स्व-शुद्धात्मा की भावना-रूप मोक्षमार्ग द्वारा जो सिद्धि को प्राप्त हुए हैं और जो उसके आराधक हैं, उन्हें दर्शनाधिकार की अपेक्षा अन्तिम मंगल के लिए तथा ग्रन्थ की अपेक्षा मध्य मंगल के लिये, उस पद के अभिलाषी होकर नमस्कार करते हैं --

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    + मध्य-मंगल -
    दंसणसंसुद्धाणं सम्मण्णाणोवजोगजुत्ताणं ।
    अव्वाबाधरदाणं णमो णमो सिद्धसाहूणं ॥214॥
    दंसणसंसुद्धाणं सम्मण्णाणोवजोगजुत्ताणं
    अव्वाबाधरदाणं णमो णमो सिद्धसाहूणं ॥२१४॥
    सुशुद्धदर्शनज्ञानमय उपयोग अन्तरलीन जिन
    बाधारहित सुखसहित साधु सिद्ध को शत्-शत् नमन ॥२१४॥
    अन्वयार्थ : दर्शन से संशुद्ध, सम्यग्ज्ञान और उपयोग से सहित निर्बाध-रूप से स्वरूप-लीन सिद्ध-साधुओं को बारम्बार नमस्कर हो ।

    जयसेनाचार्य :
    [णमो णमो] नमस्कार हो-नमस्कार हो । बारम्बार नमस्कार करता हूँ -- इसप्रकार भक्ति की अधिकता दिखाई है । किन्हें नमस्कार हो ? [सिद्धसाहूणं] सिद्ध, साधुओं को नमस्कार हो । सिद्ध शब्द से वाच्य अपने आत्मा की उपलब्धि लक्षण अरहन्त और सिद्धों को तथा साधु शब्द से वाच्य सिद्ध दशा को साधने वाले आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को नमस्कर हो । और भी किस विशेषता वालों को नमस्कार हो ? [दंसणसंसुद्धाणं] तीन मूढ़ता आदि २५ दोषों से रहित, सम्यग्दर्शन से संशुद्ध जीवों को नमस्कार हो । और भी किस विशेषता वालों को नमस्कार हो ? [सम्मण्णाणोवजोगजुत्ताणं] संशय आदि दोषों से रहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान है, उसका उपयोग सम्यग्ज्ञानोपयोग है, योग अर्थात् विकल्प-रहित समाधि स्वरूप-लीनता-रूप वीतराग-चारित्र ऐसा अर्थ है, उनसे सहित सम्यग्ज्ञानोपयोग से सहित, उनके लिये (इसप्रकार षष्ठी तत्पुरुष, तृतीया तत्पुरुष तथा चतुर्थी तत्पुरुष समास द्वारा विश्लेषण किया गया है) उन्हें नमस्कर हो । और भी किस स्वरूप-वालों को नमस्कर हो? [अव्वाबाधरदाणं] सम्यग्ज्ञान आदि रूप भावना से उत्पन्न अव्याबाध-बाधा-रहित और अनन्त सुख में लीन जीवों को नमस्कर हो ।

    इसप्रकार नमस्कार गाथा सहित चार स्थलों द्वारा चौथा विशेषान्तराधिकार पूर्ण हुआ ।

    इसप्रकार 'अत्थित्तणिच्छिदस्स हि' इत्यादि ग्यारह गाथाओं तक शुभोपयोग, अशुभोपयोग, शुद्धोपयोग इन तीन की मुख्यता से पहला विशेषान्तराधिकार, उसके बाद 'अपदेसो परमाणु पदेसमेत्तो य' इत्यादि नौ गाथाओं तक पुद्गलों के परस्पर बन्ध की मुख्यता से दूसरा विशेषान्तराधिकार तदुपरान्त 'अरसमरूवं' इत्यादि ११ गाथाओं तक पुद्गल कर्म के साथ जीव के बन्ध की मुख्यता से तीसरा विशेषान्तराधिकार और तत्पश्चात् 'ण चयदि जो ममत्ति' इत्यादि बारह गाथाओं तक विशेष भेद-भावना चूलिका व्याख्यान-रूप चौथा विशेषान्तराधिकार -- इसप्रकार ५१ गाथाओं द्वारा चार विशेषान्तराधिकार रूप से विशेष भेद-भावना नामक चौथा अधिकार पूर्ण हुआ ।

    इसप्रकार 'श्री जयसेनाचार्य' कृत 'तात्पर्यवृत्ति' में 'तम्हा तस्स णमाइं' इत्यादि ३५ गाथाओं तक सामान्य ज्ञेय व्याख्यान, तदुपरान्त 'दव्यं जीवं' इत्यादि ११ गाथाओं तक जीव्-पुद्गल-धर्मादि भेद से विशेष ज्ञेय-व्याख्यान, तत्पश्चात् 'सपदेसेहिं समग्गो' इत्यादि आठ गाथाओं तक सामान्य भेद-भावना अधिकार और उसके बाद 'अत्थित्तणिच्छिदस्स हि' इत्यादि ५१ गाथाओं तक विशेष भेद-भावना-अधिकार -- इसप्रकार चार अधिकारों से ११३ गाथाओं द्वारा 'सम्यग्दर्शन अधिकार' अपर नाम 'ज्ञेयाधिकार' नामक दूसरा महाधिकार पूर्ण हुआ ।

    कार्य की अपेक्षा यहाँ (२१४ वीं गाथा की पूर्णता पर) ही ग्रन्थ पूरा हो गया है -- ऐसा जानना चाहिये । ऐसा क्यों जानना चाहिये? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं -- 'उवसंपयामि सम्मं' साम्य का आश्रय ग्रहण करता हूँ -- इस प्रतिज्ञा की पूर्णता हो जाने से, यहाँ ही ग्रन्थ की पूर्णता जानना चाहिये ।

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    चरणानुयोग-चूलिका-अधिकार



    + श्रमणार्थी की भावना -
    एवं पणमिय सिद्धे जिणवरवसहे पुणो पुणो समणे । (201)
    पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं ॥215॥
    एवं प्रणम्य सिद्धान् जिनवरवृषभान् पुनः पुनः श्रमणान् ।
    प्रतिपद्यतां श्रामण्यं यदीच्छति दुःखपरिमोक्षम् ॥२०१॥
    हे भव्यजन ! यदि भवदुखों से मुक्त होना चाहते।
    परमेष्ठियों को कर नमन श्रामण्य को धारण करो ॥२०१॥
    अन्वयार्थ : [यदि दु:खपरिमोक्षम् इच्छति] यदि दुःखों से परिमुक्त होने की (छुटकारा पाने की) इच्छा हो तो, [एवं] पूर्वोक्त प्रकार से (ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन की प्रथम तीन गाथाओं के अनुसार) [पुन: पुन:] बारंबार [सिद्धान्] सिद्धों को, [जिनवरवृषभान्] जिनवरवृषभों को (अर्हन्तों को) तथा [श्रमणान्] श्रमणों को [प्रणम्य] प्रणाम करके, [श्रामण्य प्रतिपद्यताम्] (जीव) श्रामण्य को अंगीकार करो ॥२०१॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब दूसरों को चरणानुयोग की सूचक चूलिका है ।

    ज्ञान-ज्ञेय को जानकर धर चारित्र महान ।
    शिवमग की परिपूर्णता पावैं श्रद्धावान ॥

    (उसमें, प्रथम श्री अमृतचन्द्राचार्य-देव श्‍लोक के द्वारा अब इस आगामी गाथा की उत्थानिका करते हैं ।)

    द्रव्यसिद्धि से चरण अर चरण सिद्धि से द्रव्य ।
    यह लखकर सब आचरो द्रव्यों से अविरुद्ध ॥१३॥

    द्रव्य की सिद्धि में चरण की सिद्धि है, और चरण की सिद्धि में द्रव्य की सिद्धि है,—यह जानकर, कर्मों से (शुभाशुभ भावों से) अविरत दूसरे भी, द्रव्य से अविरुद्ध चरण (चारित्र) का आचरण करो ।

    इस प्रकार (श्रीमद् भगवत्कृन्दकुन्दाचार्यदेव इस आगामी गाथा के द्वारा) दूसरों को चरण (चारित्र) के आचरण करने में युक्त करते (जोड़ते) हैं ।

    अब गाथा के प्रारंभ करने से पूर्व उसकी संधि के लिये श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव ने पंच परमेष्ठी को नमस्कार करने के लिये निम्न प्रकार से ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन अधिकार की प्रथम तीन गाथायें लिखी हैं:—

    एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदंधोदघाइकम्ममलं ।
    पणमामि वड्ढमाणं तित्थंधम्मस्स कत्तारं ॥
    सेसे पुण तित्थयरे ससव्‍वसिद्धे विसुद्धसब्भावे ।
    समणे य णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे ॥
    ते ते सव्‍वे समगं समगं पत्तेगमेव पत्तेगं ।
    वंदामि य वट्टंते अरहंते माणुसे खेत्ते ॥

    (अब, इस अधिकार की गाथा प्रारंभ करते हैं : )

    जैसे दुःखों से मुक्त होने के अर्थी मेरे आत्माने -

    किच्‍चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं ।
    अज्‍झावयवग्गाणं साहूणं चेव सव्‍वेसिं ॥
    तेसिं विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं समासेज्‍ज ।
    उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्‍वाणसंपत्ती ॥

    इस प्रकार अर्हन्तों, सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों तथा साधुओं को प्रणाम--वंदनात्मक नमस्कार पूर्वक विशुद्ध दर्शन-ज्ञान-प्रधान साम्य नामक श्रामण्य को--जिसका इस ग्रंथ में कहे हुए (ज्ञानतत्त्व—प्रज्ञापन और ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन नामक) दो अधिकारों की रचना द्वारा सुस्थितपन हुआ है उसे--स्वयं अंगीकार किया, उसी प्रकार दूसरों का आत्मा भी, यदि दु:खों से मुक्त होने का अर्थी (इच्छुक) हो तो, उसे अंगीकार करे । उस (श्रामण्य) को अंगीकार करने का जो यथानुभूत मार्ग है उसके प्रणेता हम यह खड़े हुये हैं ॥२०१॥

    अब, श्रमण होने का इच्छुक पहले क्या-क्या करता है उसका उपदेश करते हैं :-

    जयसेनाचार्य :
    इससे आगे यथाक्रम से ९७ गाथांओं तक चूलिकारूप से चारित्राधिकार का व्याख्यान प्रारम्भ होता है । वहाँ सबसे पहले उत्सर्गरूप से चारित्र का संक्षिप्त व्याख्यान है। उसके बाद अपवादरूप से उस चारित्र का विस्तृत व्याख्यान है। तत्पश्चात्‌ श्रामण्य अपरनाम मोक्षमार्ग का व्याख्यान है । तथा तदुपरान्त शुभोपयोग का व्याख्यान है -- इसप्रकार चार अन्तराधिकार हैं ।

    चारित्राधिकार अपरनाम चरणानुयोग सूचक चूलिका का अन्तराधिकार विभाजन
    अंतराधिकार क्रम प्रतिपादित विषय कहाँ से कहाँ पर्यंत गाथाएँ कुल गाथाएँ
    प्रथम उत्सर्ग रूप से चारित्र का संक्षिप्त व्याख्यान 215 से 235 21
    द्वितीय अपवादरूप से चारित्र का विस्तृत व्याख्यान 236 से 265 30
    तृतीय मोक्षमार्ग का व्याख्यान 266 से 279 14
    चतुर्थ शुभोपयोग व्याख्यान 280 से 311 32
    कुल 4 अंतराधिकार कुल 97 गाथाएँ

    उनमें से भी पहले अन्तराधिकार में पाँच स्थल हैं ।

    चारित्राधिकार के प्रथम अन्तराधिकार का स्थल विभाजन
    स्थल क्रम प्रतिपादित विषय कहाँ से कहाँ पर्यंत गाथाएँ कुल गाथाएँ
    प्रथम दीक्षाभिमुख पुरुष का दीक्षा विधान कथन 215 से 221 7
    द्वितीय मूलगुण कथन 222 व 223 2
    तृतीय गुरु व्यवस्था एवं प्रायश्चित्त कथन 224 से 226 3
    चतुर्थ मुनिराज संबंधी संक्षिप्त समाचार कथन 227 से 229 3
    पंचम भावहिंसा-द्रव्यहिंसा निराकरण 230 से 235 6
    कुल 5 स्थल कुल 21 गाथाएँ

    अब, आसन्न-भव्य जीवों को चारित्र में प्रेरित करते हैं --

    [पडिवज्जदु]स्वीकार करें - ग्रहण करें । किसे ग्रहण करें । [सामण्णं] श्रामण्य- चारित्र को ग्रहण करें । यदि क्या चाहते हैं तो ग्रहण करें । [इच्छदि जदिदुक्खपरिमोक्खं] यदि दुःख से पूर्ण मुक्ति चाहते हैं तो उसे स्वीकार करें । स्वीकार करने रूप कर्ता वह कौन है? दूसरों के आत्मा उसे स्वीकार करें । वे उसे कैसे स्वीकार करें? [एवं ] इसप्रकार पहले कहे गये अनुसार ['एस सुरासुरमणुसिंद'] इत्यादि पाँच गाथाओं द्वारा पंच परमेष्ठियों को नमस्कार कर, दुख से छूटने के इच्छुक मैने स्वयं अथवा पहले कहे गये अन्य भव्यों ने, जैसे उस चारित्र को स्वीकार किया है, वैसा स्वीकार करें । वे पहले क्या करके उसे स्वीकार करें? [पणमिय] वे प्रणाम कर उसे स्वीकार करें । किन्हें प्रणाम कर उसे स्वीकार करें? [सिद्धे] अञ्जन पादुका आदि की सिद्धि से विलक्षण अपने आत्मा की पूर्ण उपलब्धि रूप सिद्धि से सहित सिद्धों को, [जिणवरवसहे ] सासादन गुणस्थान से प्रारम्भकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त (के जीव) एकदेश जिन कहलाते हैं और शेष अनागार केवली जिनवर कहलाते हैं तथा तीर्थंकर परमदेव जिनवरवृषभ हैं, उन जिनवरवृषभों को प्रणाम कर । मात्र सिद्धों और जिनवरवृषभों को ही प्रणाम कर नहीं, अपितु [पुणो पुणो समणे] चैतन्य चमत्कार मात्र अपने आत्मा सम्बन्धी सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान रूप निश्चय रत्नत्रय स्वरूप आचरण के प्रतिपादन में और साधने में प्रयत्नशील श्रमण शब्द से वाव्य आचार्य-उपाध्याय और साधुओं को बारम्बार प्रणाम कर स्वीकार करें ।

    विशेष यह है कि पहले ग्रंथ प्रारंभ करते समय 'साम्य का आश्रय लेता हूं - इसप्रकार शिवकुमार महाराज प्रतिज्ञा करते हैं' एसा कहा था और अब मेरी आत्मा चारित्र को प्राप्त करती है (एसा कहा); वह पहले और अभी के कथन में विरोध है । आचार्य उसका निराकरण करते हुए कहते हैं - ग्रन्थ प्रारम्भ करने के पहले से ही दीक्षा ग्रहण करनेवाले जीव की अपेक्षा, मैं साम्य का आश्रय हूँ - ऐसा कहा था; किंतु यहाँ ग्रन्थ करने के माध्यम से (चारित्र रूप) भावना परिणत किसी भी आत्मा को दिखाते है अर्थात किसी भी शिवकुमार महाराज को अथवा दूसरे किसी भी भव्य जीव को चारित्र स्वीकार करते हुये दिखाते हैं । इसकारण इस ग्रन्थ में पुरुष का नियम नहीं है, काल का नियम नहीं है - ऐसा अभिप्राय है ।

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    + श्रमणार्थी पहले क्या-क्या करता है? -
    आपिच्छ बंधुवग्गं विमोचिदो गुरुकलत्तपुत्तेहिं । (202)
    आसिज्ज णाणदंसणचरित्ततववीरियायारं ॥216॥
    आपृच्छय बन्धुवर्गं विमोचितो गुरुकलत्रपुत्रैः ।
    आसाद्य ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारम् ॥२०२॥
    वृद्धजन तिय-पुत्र-बंधुवर्ग से ले अनुमति ।
    वीर्य-दर्शन-ज्ञान-तप-चारित्र अंगीकार कर ॥२०२॥
    अन्वयार्थ : (श्रामण्यार्थी) [बन्धुवर्गम् आपृच्छ्य] बंधु-वर्ग से विदा माँगकर [गुरुकलत्रपुत्रै: विमोचित:] बडों से, स्त्री और पुत्र से मुक्त किया हुआ [ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारम् आसाद्य] ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार को अंगीकार करके........ ॥२०२॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    जो श्रमण होना चाहता है, वह पहले ही बंधुवर्ग से (सगेसंबंधियों से) विदा माँगता है, गुरुजनों (बड़ों) से, स्त्री और पुत्रों से अपने को छुड़ाता है, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार को अंगीकार करता है । वह इस प्रकार है :—

    बंधुवर्ग से इस प्रकार विदा लेता है :- अहो ! इस पुरुष के शरीर के बंधुवर्ग में प्रवर्तमान आत्माओं ! इस पुरुष का आत्मा किंचित्‌मात्र भी तुम्हारा नहीं है,—इस प्रकार तुम नि‍श्‍चय से जानो । इसलिये मैं तुमसे विदा लेता हूँ । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज अपने आत्मारूपी अपने अनादिबंधु के पास जा रहा है ।

    अहो ! इस पुरुष के शरीर के जनक (पिता ) के आत्मा ! अहो ! इस पुरुष के शरीर की जननी (माता) के आत्मा ! इस पुरुष का आत्मा तुम्हारे द्वारा जनित (उत्पन्‍न) नहीं है, ऐसा तुम निश्‍चय से जानो । इसलिये तुम इस आत्मा को छोड़ो । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज आत्मारूपी अपने अनादिजनक के पास जा रहा है ।

    अहो ! इस पुरुष के शरीर की रमणी (स्त्री) के आत्मा ! तू इस पुरुष के आत्मा को रमण नहीं कराता, ऐसा तू निश्‍चय से जान । इसलिये तू इस आत्मा को छोड़ । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज अपनी स्वानुभूतिरूपी अनादि-रमणी के पास जा रहा है ।


    अहो ! इस पुरुष के शरीर के पुत्र आत्मा ! तू इस पुरुष के आत्मा का जन्य (उत्‍पन्‍न किया गया,—पुत्र) नहीं है, ऐसा तू निश्‍चय से जान । इसलिये तू इस आत्मा को छोड़ । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज आत्मारूपी अपने अनादि जन्य के पास जा रहा है । इस प्रकार बड़ों से, स्त्री से और पुत्र से अपने को छुड़ाता है ।

    (यहाँ ऐसा समझना चाहिये कि जो जीव मुनि होना चाहता है वह कुटुम्ब से सर्वप्रकार से विरक्त ही होता है । इसलिये कुटुम्ब की सम्मति से ही मुनि होने का नियम नहीं है । इस प्रकार कुटुम्ब के भरोसे रहने पर तो, यदि कुटुम्ब किसी प्रकार से सम्मति ही नहीं दे तो मुनि ही नहीं हुआ जा सकेगा । इस प्रकार कुटुम्ब को सम्मत करके ही मुनित्व के धारण करने का नियम न होने पर भी, कुछ जीवों के मुनि होने से पूर्व वैराग्य के कारण कुटुम्ब को समझाने की भावना से पूर्वोक्त प्रकार के वचन निकलते हैं । ऐसे वैराग्य के वचन सुनकर, कुटुम्ब में यदि कोई अल्प संसारी जीव हो तो वह भी वैराग्य को प्राप्त होता है ।)

    (अब निम्न प्रकार से पंचाचार को अंगीकार करता है)

    (जिस प्रकार बंधुवर्ग से विदा ली, अपने को बड़ों से, स्त्री और पुत्र से छुड़ाया) उसी प्रकार—इस प्रकार ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार को अंगीकार करता है।

    (सम्यग्दृष्टि जीव अपने स्वरूप को जानता है—अनुभव करता है और अपने को अन्य समस्त व्यवहारभावों से भिन्‍न जानता है । जब से उसे स्व-पर का विवेक स्वरूप भेदविज्ञान प्रगट हुआ था तभी से वह समस्त विभावभावों का त्याग कर चुका है और तभी से उसने टंकोत्कीर्ण निजभाव अंगीकार किया है । इसलिये उसे न तो त्याग करने को रहा है और न कुछ ग्रहण करने को—अंगीकार करने को रहा है । स्वभावदृष्टि की अपेक्षा से ऐसा होने पर भी, वह पर्याय में पूर्वबद्ध कर्मों के उदय के निमित्त से अनेक प्रकार के विभावभावरूप परिणमित होता है । इस विभावपरिणति को पृथक् होती न देखकर वह आकुल-व्याकुल भी नहीं होता और वह सकल विभावपरिणति को दूर करने का पुरुषार्थ किये बिना भी नहीं करता । सकल विभावपरिणति से रहित स्वभावदृष्टि के बलस्वरूप पुरुषार्थ से गुणस्थानों की परिपाटी के सामान्य क्रमानुसार उसके प्रथम अशुभ परिणति की हानि होती है, और फिर धीरे धीरे शुभ परिणति भी छूटती जाती है । ऐसा होने से वह शुभराग के उदय की भूमि‍का में गृहवास का और कुटुम्ब का त्यागी होकर व्यवहार रत्नत्रयरूप पंचाचार को अंगीकार करता है । यद्यपि वह ज्ञानभाव से समस्त शुभाशुभ क्रियाओं का त्यागी है तथापि पर्याय में शुभराग नहीं छूटने से वह पूर्वोक्त प्रकार से पंचाचार को ग्रहण करता है ।) ॥२०२॥


    अब जिन-दीक्षा का इच्छुक भव्य जैनाचार्य का आश्रय लेता है -

    जयसेनाचार्य :
    [आपिच्छ] पूछकर । किसे पूछकर ? [बंधुवग्गं] बंधु समूह को - गोत्र वालों को पूछकर । उसके बाद कैसा होता है ? [विमोचिदो] विमोचित - त्यक्त होता है - छूटता है । किन कर्ताओं से छूटता है ? [गुरुकलत्तपुत्तेहिं] पिता, माता, स्त्री, पुत्रों से छूटता है । और भी क्या करके श्रमण होगा ? [असिज्ज] आश्रयकर श्रमण होगा । किसका आश्रयकर श्रमण होगा ? [णाणदंसणचरित्ततववीरियायारं] ज्ञानाचार , दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार का आश्रय लेकर श्रमण होगा ।

    अब इसका विस्तार करते हैं - अहो! बन्धु समूह, पिता, माता, स्त्री, पुत्र - यह मेरा आत्मा, अब प्रगट उत्कृष्ट भेदज्ञान ज्योतिवाला होता हुआ, निश्चयनय से अनादि बन्धु वर्ग पिता-माता, स्त्री, पुत्र रूप अपने ज्ञानानन्द एक स्वभावी परमात्मा का ही आश्रय लेता है, इस कारण तुम सब मुझे छोड़ो इसप्रकार क्षमाभाव करता है । उसके बाद और क्या करता है ? उत्कृष्ट चैतन्यमात्र अपने आत्मतत्त्व को सभी प्रकार से उपादेय रूप - ग्रहण करनेवाली (माननेवाली) रुचि, उसकी ही जानकारी और उसकी ही निश्चल अनुभूतिरूप दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, परद्रव्यों सम्बन्धी इच्छाओं से निवृत्ति लक्षण तपश्चरण - तपाचार और अपनी शक्ति को नहीं छिपाना - वीर्याचार इस रूप निश्चय पंचाचार तथा आचार आदि चरणानुयोग के ग्रन्थों में कहे गये उन निश्चय पंचाचार के साधक व्यवहार पंचाचार का आश्रय करता है - ऐसा अर्थ है ।

    यहाँ जो गोत्र आदि के साथ क्षमाभाव का व्याख्यान किया है, वह अतिप्रसंग - अमर्यादा के निषेध के लिये किया है । वहाँ (क्षमाभाव का) नियम नहीं है । क्षमाभाव का नियम क्यों नहीं है ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते है - प्राचीन काल में अधिकतर भरत, सगर, राम, पाण्डव आदि राजा जिन-दीक्षा ही ग्रहण करते हैं उनके परिवार में जब कोई भी मिथ्यादृष्टि होता है तब धर्म पर उपसर्ग करता है । और यदि कोई ऐसा मानता है कि गोत्र को प्रसन्नकर बाद में तपश्चरण करता हूँ, तो अधिकतर उसका यह तपश्चरण ही नहीं है; किसी भी प्रकार तपश्चरण ग्रहण करने पर भी, यदि गोत्र आदि में ममकार करता है, तो वह तपोधन (मुनि) ही नहीं है । वैसा ही कहा है - 'जो पहले सम्पूर्ण नगर व राज्य को छोड़कर बाद में ममत्व करता है, वह लिंगधारी (मुनि) विशेषरूप से संयम के सार से निस्सार (रहित) है ।'

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    + दीक्षार्थी भव्य जैनाचार्य का आश्रय लेता है -
    समणं गणिं गुणड्‌ढं कुलरूववयोविसिट्ठमिट्ठदरं । (203)
    समणेहि तं पि पणदो पडिच्छ मं चेदि अणुगहिदो ॥217॥
    श्रमणं गणिनं गुणाढयं कुलरूपवयोविशिष्टमिष्टतरम् ।
    श्रमणैस्तमपि प्रणतः प्रतीच्छ मां चेत्यनुगृहीतः ॥२०३॥
    रूप कुल वयवान गुणमय श्रमणजन को इष्ट जो ।
    ऐसे गणी को नमन करके शरण ले अनुग्रहित हो ॥२०३॥
    अन्वयार्थ : [श्रमणं] जो श्रमण है, [गुणाढ्यं] गुणाढ्य है, [कुलरूपवयो विशिष्टं] कुल, रूप तथा वय से विशिष्ट है, और [श्रमणै: इष्टतरं] श्रमणों को अति इष्ट है [तम् अपि गणिनं] ऐसे गणी को [माम्‌ प्रतीच्छ इति] 'मुझे स्वीकार करो' ऐसा कहकर [प्रणत:] प्रणत होता है (प्रणाम करता है) [च] और [अनुग्रहीत:] अनुगृहीत होता है ॥२०३॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    पश्‍चात् श्रामण्यार्थी प्रणत और अनुगृहीत होता है । वह इस प्रकार है कि -- ऐसे गणी के निकट -- शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धि के साधक आचार्य के निकट -- 'शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धिरूप सिद्धि से मुझे अनुगृहीत करो' ऐसा कहकर (श्रामण्यार्थी) जाता हुआ प्रणत होता है । इस प्रकार यह तुझे शुद्धात्मतत्त्व की उपलब्धिरूप सिद्धि ऐसा (कहकर) उस गणी के द्वारा (वह श्रामण्यार्थी) प्रार्थित अर्थ से संयुक्त किया जाता हुआ अनुगृहीत होता है ॥२०३॥

    अब गुरु द्वारा स्वीकृत होता हुआ वह कैसा होता है ऐसा उपदेश देते हैं -

    जयसेनाचार्य :
    [समणं] निन्दा प्रशंसा आदि में समान हृदयी-समता भाववाले होने से पहले (२१६ वी) गाथा में कहे गये निश्चय पंचाचार और व्यवहार पंचाचार का आचरण करने और कराने में प्रवीण-चतुर होने के कारण श्रमण हैं । [गुणड्ढं] चौरासी लाख गुणों और अठारह हजार शीलों के सहकारी कारणभूत, उत्तम अपने शुद्धात्मा की अनुभूति रूपी गुण से आढ्य - भरे हुए - परिपूर्ण होने के कारण गुणाढ्य हैं । [कुलरूववयोविसिट्ठं] लोक सम्बन्धी दुगुंच्छा - घृणा - निन्दा से रहित होने के कारण जिन-दीक्षा के योग्य को कुल कहते हैं । अन्दर में शुद्धात्मा की अनुभूति को बतानेवाले, परिग्रहरहित (गाँठ रहित), विकार रहित वेष को रूप कहते हैं । शुद्धात्मा की अनुभूति को नष्ट करनेवाली वृद्धावस्था, बालावस्था, और यौवनावस्था सम्बन्धी उद्रेक से उत्पन्न बुद्धि की विकलता से रहित वय है । उन कुल-रूप और वय से विशिष्ट होने के कारण कुल-रूप-वय विशिष्ट हैं । [इट्ठदरं] इष्टतर-सम्मत-स्वीकृत हैं । किनसे स्वीकृत हैं? [समणेहिं] अपने परमात्म तत्त्व की भावना से सहित, समचित्त-समभाव परिणत श्रमणों-अन्य आचार्यों से स्वीकृत है । [गणिं] इसप्रकार के गुणों से विशिष्ट, परमात्मभावना के साधक, दीक्षा देनेवाले आचार्य के आश्रित होता है । [तं पि पणदो] न केवल उन आचार्य के आश्रित होता है, वरन् प्रणत-नम्रीभूत-नमन करनेवाला भी होता है । किस रूप में प्रणत होता है? [पडिच्छ मं] हे भगवन्! अनन्त ज्ञान आदि अपने गुणों रूपी सम्पत्ति की प्रगटता की कारणभूत, अनादि काल में अत्यन्त दुर्लभ, भाव सहित जिनदीक्षा को प्रदान करनेरूप प्रसाद से, मुझे स्वीकार करें - इसप्रकार प्रणत होता है । [चेदि अणुगहिदो] न केवल प्रणत होता है, अपितु उन आचार्य द्वारा अनुग्रहीत-स्वीकार भी किया जाता है । हे भव्य! सार रहित संसार में दुर्लभ बोधि-रत्नत्रय को प्राप्तकर, शुद्धात्मा की भावनारूप निश्चय चार प्रकार की आराधना से मनुष्य जन्म को सफल करो - इसप्रकार अनुगृहीत होता है - ऐसा अर्थ है ।

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    + गुरु द्वारा स्वीकृत श्रमणार्थी की अवस्था कैसी? -
    णाहं होमि परेसिं ण मे परे णत्थि मज्झमिह किंचि । (204)
    इदि णिच्छिदो जिदिंदो जादो जधजादरूवधरो ॥218॥
    नाहं भवामि परेषां न मे परे नास्ति ममेह किञ्चित् ।
    इति निश्चितो जितेन्द्रियः जातो यथाजातरूपधरः ॥२०४॥
    रे दूसरों का मैं नहीं ना दूसरे मेरे रहे।
    संकल्प कर हो जितेन्द्रिय नग्नता को धारण करें ॥२०४॥
    अन्वयार्थ : [अहं] मैं [परेषां] दूसरों का [न भवामि] नहीं हूँ [परे मे न] पर मेरे नहीं हैं, [इह] इस लोक में [मम] मेरा [किंचित्] कुछ भी [न अस्ति] नहीं है - [इति निश्चित:] ऐसा निश्चयवान् और [जितेन्द्रिय:] जितेन्द्रिय होता हुआ [यथाजातरूपधर:] यथाजातरूपधर (सहजरूपधारी) [जात:] होता है ॥२०४॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    और तत्पश्‍चात् श्रामण्यार्थी यथाजात-रूपधर होता है । वह इस प्रकार कि :- 'प्रथम तो मैं किंचित्‌मात्र भी पर का नहीं हूँ पर भी किंचित्‌मात्र मेरे नहीं हैं, क्योंकि समस्त द्रव्य तत्त्वतः पर के साथ समस्त सम्बन्ध रहित हैं; इसलिये इस षड्‌द्रव्यात्मक लोक में आत्मा से अन्य कुछ भी मेरा नहीं है;' -- इस प्रकार निश्‍चित मतिवाला (वर्तता हुआ) और परद्रव्यों के साथ स्व-स्वामि-संबंध जिनका आधार है ऐसी इन्द्रियों और नो-इन्द्रियों के जय से जितेन्द्रिय होता हुआ वह (श्रामण्यार्थी) आत्मद्रव्य का यथानिष्पन्न शुद्धरूप धारण करने से यथाजात-रूपधर होता है ॥२०४॥

    अब, अनादि-संसार से अनभ्यस्त होने से जो अत्यन्त अप्रसिद्ध है और अभिनव-अभ्यास में कौशल्य द्वारा जिसकी सिद्धि उपलब्ध होती है ऐसे इस यथाजात-रूपधरपने के बहिरंग और अंतरंग दो लिंगों का उपदेश करते हैं :-

    जयसेनाचार्य :
    [णाहं होमि परेसिं] मैं पर का नहीं हूं । अपने शुद्धात्मा से भिन्न दूसरे द्रव्यों का मैं सम्बन्धी नहीं हूँ । [ण मे परे] पर द्रव्य मेरे सम्बन्धी नहीं हैं । [णत्थि मज्झमिह किंचि] यहाँ मेरा कुछ भी नहीं है ! इस लोक में अपने शुद्धात्मा से भिन्न कुछ भी पर द्रव्य मेरा नहीं है । [इदि णिच्छिदो] इसप्रसर निश्चित बुद्धिवाला । [जिदिंदो जादो] तथा इन्द्रिय और मन से उत्पन्न विकल्प समूहों से रहित, अनन्त ज्ञानादि गुण स्वरूप अपने परमात्मद्रव्य से विपरीत, इन्द्रिय और मन को जीतने से जितेन्द्रिय होता हुआ [जधजादरूवधरो] यथाजातरूपधर व्यवहार से नग्नता यथाजातरूप है तथा निश्चय से अपना आत्मरूप यथाजातरूप है, वह इसप्रकार यथाजातरूप को धारण करता है - इसप्रकार यथाजातरूपधर निर्ग्रंन्थ अर्थात् आरम्भ-परिग्रह से रहित नग्न दिगम्बर होता है - ऐसा अर्थ है ॥२१८॥

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    + श्रमण-लिंग का स्वरूप -
    जधजादरूवजादं उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्धं । (205)
    रहिदं हिंसादीदो अप्पडिकम्मं हवदि लिंगं ॥219॥
    मुच्छारंभविजुत्तं जुत्तं उवओगजोगसुद्धीहिं । (206)
    लिंगं ण परावेक्खं अपुणब्भवकारणं जेण्हं ॥220॥
    यथाजातरूपजातमुत्पाटितकेशश्मश्रुकं शुद्धम् ।
    रहितं हिंसादितोऽप्रतिकर्म भवति लिङ्गम् ॥२०५॥
    मूर्च्छारम्भवियुक्तं युक्तमुपयोगयोगशुद्धिभ्याम् ।
    लिङ्गं न परापेक्षमपुनर्भवकारणं जैनम् ॥२०६॥
    शृंगार अर हिंसा रहित अर केश लुंचन अकिंचन ।
    यथाजातस्वरूप ही जिनवरकथित बहिर्लिंग है ॥२०५॥
    आरंभ-मूर्छा से रहित पर की अपेक्षा से रहित ।
    शुधयोग अरउपयोग से जिनकथित अंतर लिंग है॥२०६॥
    अन्वयार्थ : [यथाजातरूपजातम्] जन्मसमय के रूप जैसा रूप-वाला, [उत्पाटितकेशश्मश्रुकं] सिर और दाढी-मूछ के बालों का लोंच किया हुआ, [शुद्धं] शुद्ध (अकिंचन), [हिंसादितः रहितम्‌] हिंसादि से रहित और [अप्रतिकर्म] प्रतिकर्म (शारीरिक श्रंगार) से रहित - [लिंगं भवति] ऐसा (श्रामण्य का बहिरंग) लिंग है ।
    [मूर्च्छारम्भवियुक्तम्] मूर्च्छा (ममत्व) और आरम्भ रहित, [उपयोगयोगशुद्धिभ्यांयुक्तं] उपयोग और योग की शुद्धि से युक्त तथा [न परापेक्षं] पर की अपेक्षा से रहित -- ऐसा [जैनं] जिनेन्द्रदेव कथित [लिंगम्] (श्रामण्य का अंतरंग) लिंग है [अपुनर्भवकारणम्] जो कि मोक्ष का कारण है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    प्रथम तो अपने से, यथोक्तक्रम से यथाजातरूपधर हुए आत्मा के अयथाजात-रूपधरपने के कारणभूत मोह-राग-द्वेषादिभावों का अभाव होता ही है; और उनके अभाव के कारण, जो कि उनके सद्‌भाव में होते हैं ऐसे
    1. वस्त्राभूषण का धारण,
    2. सिर और दाढ़ी-मूछों के बालों का रक्षण,
    3. सकिंचनत्व,
    4. सावद्ययोग से युक्तता तथा
    5. शारीरिक संस्कार का करना,
    इन (पाँचों) का अभाव होता है; जिससे (उस आत्मा के)
    1. जन्मसमय के रूप जैसा रूप,
    2. सिर और दाढ़ी-मूछ के बालों का लोच,
    3. शुद्धत्व,
    4. हिंसादिरहितता तथा
    5. अप्रतिकर्मत्व (शारीरिक श्रृंगार-संस्कार का अभाव) होता ही है ।
    इसलिये यह बहिरंग लिंग है ।

    और फिर, आत्मा के यथाजात-रूपधरपने से दूर किया गया जो अयथाजात-रूपधरपना, उसके कारणभूत मोह-राग-द्वेषादिभावों का अभाव होने से ही जो उनके सद्‌भाव में होते हैं ऐसे जो
    1. ममत्व के और कर्मप्रक्रम के परिणाम,
    2. शुभाशुभ उपरक्त उपयोग और तत्पूर्वक तथाविध योग की अशुद्धि से युक्तता तथा
    3. पर-द्रव्य से सापेक्षता; इस (तीनों) का अभाव होता है;
    इसलिये (उस आत्मा के)
    1. मूर्छा और आरम्भ से रहितता,
    2. उपयोग और योग की शुद्धि से युक्तता तथा
    3. पर की अपेक्षा से रहितता होती ही है ।
    इसलिये यह अंतरंग लिंग है ॥२०५-२०६॥

    अब इन दोनों लिंगों को ग्रहणकर पहले भावि नैगमनय से कहे गये पंचाचार के स्वरूप को अब स्वीकार कर उसके आधार से उपस्थित स्वस्थ-स्वरूप लीन होकर वह श्रमण होता है ऐसा प्रसिद्ध करते हैं -

    जयसेनाचार्य :
    अब अनादिकाल से दुर्लभ पहले (२१८ वीं) गाथा में कहे गए, अपने आत्मा की पूर्ण प्रगट प्राप्ति लक्षण सिद्धि के कारणभूत, निर्ग्रन्थ यथाजातरूपधर के गमक चिन्ह-पहिचान के चिन्ह स्वरूप बाह्य और अन्तरंग दोनों चिन्हों को कहते हैं-

    [जधजादरूवजादं] पहले (२१८ वीं) गाथा में कहे गये लक्षणवाले यथाजातरूप से निर्ग्रन्थ होने के कारण, यथाजातरूप से उत्पन्न है । [उप्पाडिदकेसमंसुगं] केश (सिर के बाल) और श्मश्रु (दाढ़ी-मूँछों सम्बन्धी बालों) के संस्कार (सजावट) से उत्पन्न रागादि दोषों के निराकरण के लिए केश और श्मश्रु को उखाड़ने वाला होने से, उत्पाटित केश श्मश्रु है । [सुद्धं] निरवद्य पाप रहित चैतन्य चमत्कार से विपरीत, सम्पूर्ण सावद्य योग से रहित होने के कारण, शुद्ध है । [रहिदं हिंसादीदो] शुद्ध चैतन्यरूप निश्चय प्राण हिंसा की कारणभूत, रागादि परिणति लक्षण निश्चय हिंसा का अभाव होने से, हिंसादि रहित है । [अप्पडिकम्मं हवदि] परम उपेक्षा संयम से, बल से शरीर सम्बन्धी प्रतिकार से रहित होने के कारण अप्रतिकर्म है । इन सब रूप क्या है? [लिंगं] इसप्रकार पाँच विशेषणों से विशिष्ट द्रव्यलिंग है- ऐसा जानना चाहिये- इसप्रकार प्रथम (२१९ वीं) गाथा पूर्ण हुई ।

    [मुच्छार्म्भविमुक्कं] परद्रव्य सम्बन्धी चाह से रहित, मोह रहित परमात्म-ज्योति से विलक्षण, बाह्य (अन्य) द्रव्य में ममत्वबुद्धि मुर्च्छा कहलाती है । मन-वचन और शरीर के व्यापार से रहित, चैतन्य-चमत्कार से विरुद्ध, आरंभ अर्थात व्यापार है, उन मुर्च्छा और आरंभ से विमुक्त-रहित मुर्च्छा-आरंभ विमुक्त है । [जुत्तं उवजोगजोगसुद्धीहिं] विकार रहित स्वसंवेदन लक्षण उपयोग है और विकल्प रहित समाधि योग है, उन दोनों उपयोग और योग की शुद्धि उपयोग-योग शुद्धि है-उस शुद्धि से सहित है । [ण परावेक्खं] निर्मल अनुभूतिरूप परिणति का परद्रव्य की अपेक्षा से रहित होना -- परापेक्षारहित (पर-निरपेक्ष) है ।
  • [अपुणब्भवकारणं] पुन: जन्म लेनेरूप परिणामों को नष्ट करनेवाले शुद्ध आत्मपरिणामों से अविरुद्ध, अपुनर्भव-मोक्ष का कारण अर्थात अपुनर्भव-कारण है । [जेण्हं] यह जिन सम्बन्धी अर्थात जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा गया है । इस प्रकार पांच विशेषणों से विशिष्ट है । पाँचों विशेषणों से विशिष्ट क्या है - लिंगं- भावलिंग पाँच विशेषणों से विशिष्ट है ।

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    + अब इन दोनों लिंगों को ग्रहणकर पहले भावि नैगमनय से कहे गये पंचाचार के स्वरूप को अब स्वीकार कर उसके आधार से उपस्थित स्वस्थ-स्वरूप लीन होकर वह श्रमण होता है ऐसा प्रसिद्ध करते हैं - -
    आदाय तं पि लिंगं गुरुणा परमेण तं णमंसित्ता । (207)
    सोच्चा सवदं किरियं उवट्ठिदो होदि सो समणो ॥221॥
    आदाय तदपि लिङ्गं गुरुणा परमेण तं नमस्कृत्य ।
    श्रुत्वा सव्रतां क्रियामुपस्थितो भवति स श्रमणः ॥२०७॥
    जो परम गुरु नम लिंग दोनों प्राप्त कर व्रत आचरें ।
    आत्मथित वे श्रमण ही बस यथायोग्य क्रिया करें ॥२०७॥
    अन्वयार्थ : [परमेण गुरुणा] परम गुरु के द्वारा प्रदत्त [तदपि लिंगम्] उन दोनों लिंगों को [आदाय] ग्रहण करके, [सं नमस्कृत्य] उन्हें नमस्कार करके [सव्रतां क्रियां श्रुत्वा] व्रत सहित क्रिया को सुनकर [उपस्थित:] उपस्थित (आत्मा के समीप स्थित) होता हुआ [सः] वह [श्रमण: भवति] श्रमण होता है ॥२०७॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब (श्रामण्यार्थी) इन दोनों लिंगों को ग्रहण करके और इतना-इतना करके श्रमण होता है -- इसप्रकार भवतिक्रिया (होनेरूप क्रिया) में, बंधुवर्ग से विदा लेनेरूप क्रिया से लेकर शेष सभी क्रियाओं का एक कर्ता दिखलाते हुए, इतने से (अर्थात् इतना करने से) श्रामण्य की प्राप्ति होती है, ऐसा उपदेश करते हैं :-

    और उपस्थित होता हुआ, सर्वत्र समदृष्टिपने के कारण साक्षात् श्रमण होता है ॥२०७॥

    जयसेनाचार्य :
    अब, इन दोनों लिंगों को ग्रहणकर, पहले भावि-नैगमनय से कहे गए पंचाचार के स्वरूप को अब स्वीकार कर, उसके आधार से उपस्थित - स्वस्थ - स्वरूप-लीन होकर वह श्रमण होता है, ऐसा प्रसिद्ध करते हैं --

    [आदय तं पि लिंगं] उन पहले (२१९ व २२० गाथा में) कहे गये दोनों लिंगों को भी ग्रहण कर । कैसे दोनों लिंगो को ग्रहणकर ? [दत्तं] यह क्रिया अध्याहार है (प्रकरणानुसार ले लेना चाहिये) अर्थात् दिये गये दोनों लिंगों को ग्रहणकर । किसके द्वारा दिये गये उनको ग्रहणकर ? [गुरुणा परमेण] दिव्यध्वनि के समय परमागम के उपदेशरूप से अरहन्त भट्टारक-भगवान द्वारा तथा दीक्षा के समय दीक्षा गुरु द्वारा दिये गये उन लिंगों को ग्रहणकर । लिंग ग्रहण करने के बाद [तं णमंसित्ता] उन गुरु को नमस्कार कर [सोच्चा] उसके बाद सुनकर । किसे सुनकर? [किरियं] क्रिया अर्थात वृहत्-प्रतिक्रमण को सुनकर । किससे सहित उसे सुनकर ? [सवदं] सव्रत-व्रतारोपण सहित व्रहत प्रतिक्रमणरूप क्रिया को सुनकर । [उवट्ठिदो] और उसके बाद उपस्थित-स्वस्थ-अपने में लीन होता हुआ [होदि सो समणो] वह पहले कहा हुआ तपोधन-मुनि, अब श्रमण होता है ।

    यहाँ उसका विस्तार करते हैं - और उससे इसप्रकार परिपूर्ण श्रमण सम्बन्धी सामग्री के होने पर परिपूर्ण श्रमण होते हैं -- ऐसा अर्थ है ॥२२१॥

    इसप्रकार दीक्षा के सम्मुख पुरुष के दीक्षा-विधान कथन की मुख्यता से पहले स्थल में सात गाथायें पूर्ण हुई ।

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    + अब, जब विकल्प रहित सामायिक संयम से च्युत होता है, तब विकल्प सहित छेदोपस्थापन चारित्र को स्वीकार करता है, ऐसा कथन करते हैं - -
    वदसमिदिंदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । (208)
    खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥222॥
    एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता । (209)
    तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि ॥223॥
    व्रतसमितीन्द्रियरोधो लोचावश्यकमचेलमस्नानम् ।
    क्षितिशयनमदन्तधावनं स्थितिभोजनमेकभक्तं च ॥२०८॥
    एते खलु मूलगुणाः श्रमणानां जिनवरैः प्रज्ञप्ताः ।
    तेषु प्रमत्तः श्रमणः छेदोपस्थापको भवति ॥२०९॥
    व्रत समिति इन्द्रिय रोध लुंचन अचेलक अस्नान व्रत ।
    ना दन्त-धोवन क्षिति-शयन अरे खड़े हो भोजन करें ॥२०८॥
    दिन में करें इकबार ही ये मूलगुण जिनवर कहें।
    इनमें रहे नित लीन जो छेदोपथापक श्रमण वह ॥२०९॥
    अन्वयार्थ : [व्रतसमितीन्द्रियरोधः] व्रत, समिति, इन्द्रियरोध, [लोचावश्यकम्] लोच, आवश्यक, [अचेलम्] अचेलपना, [अस्नानं] अस्नान, [क्षितिशयनम्] भूमिशयन, [अदंतधावनं] अदंतधोवन, [स्थितिभोजनम्] खड़े-खड़े भोजन, [च] और [एकभक्तं] एक बार आहार - [एते] ये [खलु] वास्तव में [श्रमणानां मूलगुणा:] श्रमणों के मूलगुण [जिनवरै: प्रज्ञप्ता:] जिनवरों ने कहे हैं; [तेषु] उनमें [प्रमत्त:] प्रमत्त होता हुआ [श्रमण:] श्रमण [छेदोपस्थापक: भवति] छेदोपस्थापक होता है ॥२०८-२०९॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    सर्व सावद्ययोग के प्रत्याख्यानस्वरूप एक महाव्रत की व्यक्तियाँ (विशेष, प्रगटताएँ) होने से इस प्रकार ये (अट्ठाईस) निर्विकल्प सामायिक-संयम के विकल्प (भेद) होने से श्रमणों के मूलगुण ही हैं । जब (श्रमण) निर्विकल्प सामायिक-संयम में आरूढ़ता के कारण जिसमें विकल्पों का अभ्यास (सेवन) नहीं है ऐसी दशा में से च्युत होता है, तब 'केवल सुवर्णमात्र के अर्थी को कुण्डल, कंकण, अंगूठी आदि को ग्रहण करना (भी) श्रेय है, किन्तु ऐसा नहीं है कि (कुण्डल इत्यादि का ग्रहण कभी न करके) सर्वथा स्वर्ण की ही प्राप्ति करना ही श्रेय है' ऐसा विचार करके मूलगुणों में विकल्परूप से (भेदरूप से) अपने को स्थापित करता हुआ छेदोपस्थापक होता है ॥२०८-२०९॥

    जयसेनाचार्य :
    [वदसमदिंदियरोधो] व्रत और समितियाँ और इन्द्रियनिरोध (इसप्रकार द्वन्दसमास से) 'व्रत समितीन्द्रियरोध' शब्द बना । [लोचावस्सयं] लोच और आवश्यक इसप्रकार 'लोचावश्यक' शब्द बना, 'समाहारस्यैकवचनम्‌- समाहार-द्वन्दसमास में अन्तिम पद एकवचन होता है'- इस सूत्र के अनुसार 'लोचावस्सयं' का 'वस्सयं' पद एकवचन में प्रयुक्त हुआ । [अचेलमण्हाणं खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च] अचेलक (निर्वस्त्र), अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधावन, खड़े होकर भोजन और एक बार भोजन । [एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्ण्त्ता] वास्तव म्रें श्रमणों के ये २८ मूलगुण, जिनेन्द्र भगवान ने कहे हैं । [तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि] उन मूलगुणों में जब प्रमत्त होते है - उनसे च्युत होते हैं । उनमें प्रमत्त वे कौन होते हैं? श्रमण-तपोधन-मुनिराज जब प्रमत्त होते हैं, तब वे उस समय छेदोपस्थापक होते हैं । छेद अर्थात् व्रत के खण्डन होने पर भी, फिर से उसमें ही उपस्थित होनेवाले छेदोपस्थापक हैं ।

    वह इसप्रकार- निश्चय से मूल आत्मा है, उसके केवलज्ञानादि अनन्तगुण मूलगुण हैं और वे विकल्प रहित समाधिरूप परम सामायिक नामक निश्चय एक व्रतरूप, मोक्ष के बीजभूत होने से, मोक्ष होने पर सभी प्रगट होते हैं । इस कारण वही सामायिक, मूलगुणों को प्रगट करने का कारणरूप होने से, निश्चय मूलगुण है और जब यह जीव विकल्प रहित समाधि में समर्थ नहीं होता है, तब जैसे कोई भी सुवर्ण का इच्छुक पुरुष, सुवर्ण को प्राप्त नहीं करता हुआ, उसकी कुण्डल आदि पर्यायों को भी ग्रहण करता है, सर्वथा उन्हें छोड़ नहीं देता है; उसी प्रकार यह जीव भी, निश्चय मूलगुण नामक परम समाधि के अभाव में, छेदोपस्थापन चारित्र ग्रहण करता है । छेद- व्रत खण्डन होने पर फिर से उसमें ही उपस्थित होना, छेदोपस्थापन है । अथवा छेद अर्थात् व्रतों के भेद में, उपस्थित होना छेदोपस्थापन है । और वह संक्षेप में पाँच महाव्रतरूप है । और उन व्रतों की रक्षा के लिये, पाँच समिति आदि भेद से, पुन: अट्ठाईस मूलगुण भेद होते हैं । और उन मूलगुणों की रक्षा के लिये बाईस परीषहजय, बारह प्रकार के तपों के भेद से, चौंतीस उत्तरगुण होते हैं । और उनकी रक्षा के लिये देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यंचकृत, और अचेतनकृत चार प्रकार के उपसर्गों को जीतने के लिये बारह अनुप्रेक्षा-भावना आदि हैं - ऐसा अभिप्राय है ।

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    + अब इन मुनिराज के दीक्षा देनेवाले गुरु के समाननिर्यापक नामक दूसरे भी गुरु हैं इसप्रकार गुरु व्यवस्था का निरूपण करते हैं - -
    लिंगग्गहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि । (210)
    छेदेसूवट्ठवगा सेसा णिज्जवगा समणा ॥224॥
    लिङ्गग्रहणे तेषां गुरुरिति प्रव्रज्यादायको भवति ।
    छेदयोरुपस्थापकाः शेषा निर्यापकाः श्रमणाः ॥२१०॥
    दीक्षा गुरु जो दे प्रव्रज्या दो भेदयुत जो छेद है ।
    छेदोपथापक शेष गुरु ही कहे हैं निर्यापका ॥२१०॥
    अन्वयार्थ : [लिंगग्रहणे] लिंग-ग्रहण के समय [प्रव्रज्यादायक: भवति] जो प्रव्रज्या (दीक्षा) दायक हैं वह [तेषां गुरु: इति] उनके गुरु हैं और [छेदयों: उपस्थापका:] जो *छेदद्वय में उपस्थापक हैं (अर्थात् १. जो भेदों में स्थापित करते हैं तथा २. जो संयम में छेद होने पर पुन: स्थापित करते हैं) [शेषा: श्रमणा:] वे शेष श्रमण [निर्यापका:] *निर्यापक हैं ॥२१०॥
    *छेदद्वय = दो प्रकार के छेद । यहाँ (१) संयम में जो २८ मूलगुण-रूप भेद होते हैं उसे भी छेद कहा है और (२) खण्डन अथवा दोष को भी छेद कहा है
    *निर्यापक = निर्वाह करनेवाला; सदुपदेश से दृढ़ करने वाला; शिक्षागुरु, श्रुतगुरु

    अमृतचंद्राचार्य :
    जो आचार्य लिंगग्रहण के समय निर्विकल्प सामायिक-संयम के प्रतिपादक होने से प्रव्रज्या-दायक हैं, वे गुरु हैं; और तत्पश्‍चात् तत्काल ही जो (आचार्य) सविकल्प छेदोपस्थापना-संयम के प्रतिपादक होने से 'छेद के प्रति उपस्थापक (भेद में स्थापित करने वाले) हैं,' वे निर्यापक हैं; उसी प्रकार जो (आचार्य) छिन्न संयम के प्रतिसंधान की विधि के प्रतिपादक होने से 'छेद होने पर उपस्थापक (--संयम में छेद होने पर उसमें पुन स्थापित करने वाले) हैं,' वे भी निर्यापक ही हैं । इसलिये छेदोपस्थापक, पर भी होते हैं ॥२१०॥

    जयसेनाचार्य :
    [लिंगग्यहणे तेसिं] लिंग मुनिवेश के ग्रहण में, उन मुनिराजों के [गुरु त्ति होदि] गुरु होते हैं । वे कौन उनके गुरु होते हैं [पव्वज्जदायगो] विकल्प रहित समाधिरूप परम सामायिक का प्रतिपादन करने वाले, जो वे प्रवज्या-दीक्षा देनेवाले हैं, वे ही दीक्षा गुरु हैं । [छेदेसु अ वट्टवगा] और छेद होने पर, उसका निराकरण कर, पुन: व्रत में, स्थापन करनेवाले जो हैं, [सेसा णिज्जावगा समणा] वे शेष श्रमण-मुनि निर्यापक हैं और शिक्षा गुरु हैं ।

    यहाँ अर्थ यह है -- विकल्प रहित समाधिरूप सामायिक की, एकदेश च्युति एकदेश छेद है तथा सर्वथा पूर्णरूप च्युति सकल छेद है - इसप्रकार देश और सकल के भेद से छेद दो प्रकार का है । जो उन दोनों छेदों में प्रायश्चित्त देकर, सम्वेग और वैराग्य को उत्पन्न करनेवाले परमागम के वचनों द्वारा, सम्वरण करते हैं, वे निर्यापक, शिक्षागुरु और श्रुतगुरु कहलाते हैं । दीक्षा देनेवाले दीक्षागुरु है -- ऐसा अभिप्राय है ॥२२४॥

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    +  अब पहले (२२४ वीं) गाथा में कहे गये दोनो प्रकार के छेदक का प्रायश्चित्त विधान कहते हैं - -
    पयदम्हि समारद्धे छेदो समणस्स कायचेट्ठम्हि । (211)
    जायदि जदि तस्स पुणो आलोयणपुव्विया किरिया ॥225॥
    छेदुवजुत्तो समणो समणं ववहारिणं जिणमदम्हि । (212)
    आसेज्जालोचित्ता उवदिट्ठं तेण कायव्वं ॥226॥
    प्रयतायां समारब्धायां छेदः श्रमणस्य कायचेष्टायाम् ।
    जायते यदि तस्य पुनरालोचनपूर्विका क्रिया ॥२११॥
    छेदोपयुक्तः श्रमणः श्रमणं व्यवहारिणं जिनमते ।
    आसाद्यालोच्योपदिष्टं तेन कर्तव्यम् ॥२१२॥
    यदि यत्नपूर्वक रहें पर देहिक क्रिया में छेद हो ।
    आलोचना द्वारा अरे उसका करें परिमार्जन ॥२११॥
    किन्तु यदि यति छेद में उपयुक्त होकर भ्रष्ट हों ।
    तो योग्य गुरु के मार्गदर्शन में करें आलोचना ॥२१२॥
    अन्वयार्थ : [यदि] यदि [श्रमणस्य] श्रमण के [प्रयतायां] प्रयत्न-पूर्वक [समारब्धायां] की जाने-वाली [कायचेष्टायां] काय-चेष्टा में [छेद: जायते] छेद होता है तो [तस्य पुन:] उसे तो [आलोचनापूर्विका क्रिया] आलोचना-पूर्वक क्रिया करना चाहिये ।
    [श्रमण: छेदोपयुक्त:] (किन्तु) यदि श्रमण छेद में उपयुक्त हुआ हो तो उसे [जिनमत] जैनमत में [व्यवहारिणं] व्यवहार-कुशल [श्रमणं आसाद्य] श्रमण के पास जाकर [आलोच्य] आलोचना करके (अपने दोष का निवेदन करके), [तेन उपदिष्टं] वे जैसा उपदेश दें वह [कर्तव्यम्] करना चाहिये ॥२११-२१२॥
    आलोचना = सूक्ष्मता से देख लेना वह, सूक्ष्मता से विचारना वह, ठीक ध्यान में लेना वह
    निवेदन; कथन ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    संयम का छेद दो प्रकार का है; बहिरंग और अन्तरंग । उसमें मात्र कायचेष्टा संबंधी वह बहिरंग है और उपयोग संबंधी वह अन्तरंग है । उसमें, यदि भलीभाँति उपर्युक्त श्रमण के प्रयत्नकृत कायचेष्टा का कथंचित् बहिरंग छेद होता है, तो वह सर्वथा अन्तरंग छेद से रहित है इसलिये आलोचनापूर्वक क्रिया से ही उसका प्रतीकार (इलाज) होता है । किन्तु यदि वही श्रमण उपयोगसंबंधी छेद होने से साक्षात् छेद में ही उपयुक्त होता है तो जिनोक्त व्यवहारविधि में कुशल श्रमण के आश्रय से, आलोचनापूर्वक, उनके द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान द्वारा (संयम का) प्रतिसंधान होता है ॥२११-२१२॥

    जयसेनाचार्य :
    [पयदम्हि समारद्धे छेदो समणस्स काय्चेट्ठ्म्हि जायदि जदि] प्रयत्नपूर्वक प्रारम्भ की जानेवाली शारीरिक चेष्टाओं में, यदि श्रमण के छेद होता है तो । अब विस्तार करते हैं- यदि छेद होता है तो । स्वस्थभाव- अपने आप में स्थिति-लीनतारूप परिणाम से च्युति-छूटना लक्षण छेद होता है । किसमें छेद होता है? शरीर सम्बन्धी चेष्टा में छेद होता है । कैसी शारीरिक चेष्टा में छेद होता है? प्रयत्नपूर्व? अपने आप में लीनता लक्षण प्रयत्नपूर्वक प्रारब्ध-अशन-भोजन, शयन-निद्रा, स्थान-बैठना आदि प्रारम्भ की गई शारीरिक क्रियाओं में यदि छेद होता है तो । [तस्स पुणो आलोयणपुव्विया किरिया] उसके फिर आलोचना पूर्वक क्रिया होती है । उस समय, अपने आप में लीन उन मुनिराज के, बाह्य सहकारी कारणभूत प्रतिक्रमण स्वरूप आलोचना क्रिया ही, उसका प्रायश्चित्त अर्थात् प्रतिकार है और अधिक नहीं । इतना मात्र ही उसका प्रायश्चित्त क्यों? अंतरंग में अपने आप में लीनतारूप परिणाम से विचलित होने का अभाव होने के कारण इतने मात्र से ही उसका प्रायश्चित्त हो जाता है- इसप्रकार पहली (२२५ वीं) गाथा पूर्ण हुई ।

    [छेदपउत्तो समणो] छेद में प्रयुक्त श्रमण, यदि श्रमण, विकार रहित आत्मानुभूतिरूप भावना से च्युति लक्षण छेद से प्रयुक्त-सहित होता है तो । [समणं ववहारिणं जिणमदम्हि] जिनमत में व्यवहार कुशल श्रमण को, तब जिनमत में व्यवहार को जाननेवाले प्रायश्चित्त में कुशल श्रमण-मुनि को [आसेज्ज] पाकर, न केवल पाकर अपितु, [आलोचित्ता] निष्प्रपंच भाव से-छलरहित-संक्षिप्तरूप से आलोचना कर, दोषों का निवेदन कर । [उवदिट्ठं तेण कायव्वं] उनके द्वारा कहा गया करना चाहिये । उन प्रायश्चित्त सम्बन्धी जानकारी से सहित आचार्य द्वारा, विकार रहित अपनी अनुभूति-भावना के अनुकूल जो कहा गया प्रायश्चित्त है, वह करना चाहिये- ऐसा गाथा का तात्पर्य है


    इसप्रकार गुरु-व्यवस्था सम्बन्धी कथनरूप से पहली गाथा और इसी प्रकार प्रायश्चित्त सम्बन्धी कथन के लिये दो गाथायें- इस प्रकार समुदाय रूप से तीसरे स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुईं ।

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    + अब विकार रहित श्रामण्य में छेद को उत्पन्न करनेवाले पर द्रव्यों के सम्बन्ध का निषेध करते हैं - -
    अधिवासे व विवासे छेदविहूणो भवीय सामण्णे । (213)
    समणो विहरदु णिच्चं परिहरमाणो णिबंधाणि ॥227॥
    अधिवासे वा विवासे छेदविहीनो भूत्वा श्रामण्ये ।
    श्रमणो विहरतु नित्यं परिहरमाणो निबन्धान् ॥२१३॥
    हे श्रमणजन! अधिवास में या विवास में बसते हुए ।
    प्रतिबंध के परिहार पूर्वक छेद विरहित ही रहो ॥२१३॥
    अन्वयार्थ : [अधिवासे] अधिवास में (आत्म-वास में अथवा गुरुओं के सहवास में) वसते हुए [वा] या [विवासे] विवास में (गुरुओं से भिन्न वास में) वसते हुए, [नित्यं] सदा [निबंधान्] (परद्रव्य-सम्बन्धी) प्रतिबंधों को [परिहरमाण:] परिहरण करता हुआ [श्रामण्ये] श्रामण्य में [छेदविहीन: भूत्वा] छेद-विहीन होकर [श्रमण: विहरतु] श्रमण विहरो ॥२१३॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    वास्तव में सभी पर-द्रव्य-प्रतिबंध उपयोग के उपरंजक होने से निरुपराग उपयोग-रूप श्रामण्य के छेद के आयतन हैं; उनके अभाव से ही अछिन्‍न श्रामण्य होता है । इसलिये आत्मा में ही आत्मा को सदा अधिकृत करके (आत्मा के भीतर) बसते हुए अथवा गुरु-रूप से गुरुओं को अधिकृत करके (गुरुओं के सहवास में) निवास करते हुए या गुरुओं से विशिष्ट—भिन्न वास में वसते हुए, सदा ही पर-द्रव्य-प्रतिबंधों को निषेधता (परिहरता) हुआ श्रामण्य में छेदविहीन होकर श्रमण वर्तो ॥२१३॥

    जयसेनाचार्य :
    [विहरदु] विहार करें । वे कौन विहार करें? [समणो] शत्रु-मित्र आदि में समान चित्तवाले श्रमण, विहार करें । [णिच्चं] नित्य-सभी कालों में । क्या करते हुए वे, विहार करें? [परिहरमाणो] परिहार-निराकरण करते हुए वे विहार करें । किनका परिहार करते हुये वे विहार करें ? [णिबंधाणि] चेतन-अचेतन और मिश्र परद्रव्यों में अनुबन्ध-सम्बन्ध का परिहार करते हुये वे विहार करें । वे कहाँ विहार करें? [अधिवासे] अधिकृत गुरु-कुल वास में अथवा निश्चय में अपने शुद्धाआत्मारूपी वास में [विवासे] अथवा गुरु से भिन्न वास में विहार करें । क्या करके यहाँ विहार करें ? [सामण्णे] अपने शुद्धात्मा की अनुभूति स्वरूप निश्चल चारित्र में [छेदोविहूणो भवीय] छेद से रहित होकर रागादि रहित अपने शुद्धात्मा की अनुभूति लक्षण निश्चय चारित्र से च्युतिरूप छेद-रहित होकर यहाँ विहार करें ।

    वह इसप्रकार- गुरु के पास जितने शास्त्र हों, उतने पढ़कर और उसके बाद गुरु से पूछकर समान, शीलवाले तपस्वियों के साथ, भेद-अभेद रत्नत्रय की भावना से, भव्यों को आनन्द उत्पन्न करते हुए, तप-श्रुत-सत्व-एकत्व-सन्तोष रूप पाँच भावनाओं को भाते हुए, तीर्थंकर-परमदेव, गणधरदेव आदि महापुरुषों के चरित्रों को स्वयं भाते हुए और दूसरों को बताते विहार करते हैं ।

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    + अब श्रमणता की परिपूर्ण कारणता होने से अपने शुद्धात्मद्रव्य में हमेशा स्थिति करना चाहिये, ऐसा प्रसिद्ध करते हैं- -
    चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाणम्हि दंसणमुहम्हि । (214)
    पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामण्णो ॥228॥
    चरति निबद्धो नित्यं श्रमणो ज्ञाने दर्शनमुखे ।
    प्रयतो मूलगुणेषु च यः स परिपूर्णश्रामण्यः ॥२१४॥
    रे ज्ञान-दर्शन में सदा प्रतिबद्ध एवं मूल गुण।
    जो यत्नत: पालन करें बस हैं वही पूरण श्रमण ॥२१४॥
    अन्वयार्थ : [यः श्रमण:] जो श्रमण [नित्यं] सदा [ज्ञाने दर्शनमुखे] ज्ञान में और दर्शनादि में [निबद्ध:] प्रतिबद्ध [च] तथा [मूलगुणेषु प्रयत:] मूलगुणों में प्रयत (प्रयत्नशील) [चरति] विचरण करता है, [सः] वह [परिपूर्णश्रामण्य:] परिपूर्ण श्रामण्यवान् है ॥२१४॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    एक स्वद्रव्य-प्रतिबंध ही, उपयोग का मार्जन (शुद्धत्व) करने वाला होने से, मार्जित (शुद्ध) उपयोगरूप श्रामण्य की परिपूर्णता का आयतन है; उसके सद्‌भाव से ही परिपूर्ण श्रामण्य होता है । इसलिये सदा ज्ञान में और दर्शनादिक में प्रतिबद्ध रहकर मूलगुणों में प्रयत्नशीलता से विचरना—ज्ञानदर्शनस्वभाव शुद्धात्मद्रव्य में प्रतिबद्ध ऐसा शुद्ध अस्तित्वमात्ररूप से वर्तना, यह तात्पर्य है ॥२१४॥

    जयसेनाचार्य :
    [चरदि] आचरण करते हैं-वर्तते हैं । कैसे आचरण करते हैं ? [णिबद्धो] आधीन [णिच्चं] नित्य-सर्वकाल-हमेशा आचरण करते हैं । आचरण करनेवाले वे कौन हैं? [समणो] लाभ-अलाभ आदि में समान चित्तवाले श्रमण । वे कहाँ निबद्ध-लीन हैं ? [णाणम्मि] वीतराग-सर्वज्ञ भगवान द्वारा कहे गये, परमागम के ज्ञान में अथवा उसके फलभूत स्वसंवेदन ज्ञान में, [दंसणमुहम्मि] दर्शन-तत्त्वार्थ श्रद्धान अथवा उसके फलभूत अपना शुद्धात्मा ही उपादेय-ग्रहण करने योग्य है- ऐसी रुचिरूप निश्चय सम्यक्त्व, इनकी मुख्यता सहित अनन्त सुखादि गुणों में निबद्ध हैं । [पयदो मूलगुणेसु य] और प्रयत-प्रयत्नपर-प्रयत्नशील हैं । किनमें प्रयत्नशील हैं? मूलगुणों में अथवा निश्चय मूलगुणों के आधारभूत परमात्मद्रव्य में प्रयत्नशील हैं । [जो सो पडिपुण्णसामण्णो] जो इन गुणों से विशिष्ट श्रमण हैं, वे परिपूर्ण श्रामण्य हैं ।

    यहाँ अर्थ यह है कि अपने शुद्धात्मा की भावना में लीन के ही, परिपूर्ण श्रमणता होती है ।

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    +  अब, श्रमणता के छेद की कारणता होने से प्रासुक आहार आदि में भी ममत्व का निषेध करते हैं - -
    भत्ते वा खमणे वा आवसधे वा पुणो विहारे वा । (215)
    उवधिम्हि वा णिबद्धं णेच्छदि समणम्हि विकधम्हि ॥229॥
    भक्ते वा क्षपणे वा आवसथे वा पुनर्विहारे वा ।
    उपधौ वा निबद्धं नेच्छति श्रमणे विकथायाम् ॥२१५॥
    आवास में उपवास में आहार विकथा उपधि में
    श्रमणजन व विहार में प्रतिबंध न चाहें श्रमण ॥२१५॥
    अन्वयार्थ : [भक्ते वा] मुनि आहार में, [क्षपणे वा] क्षपण में (उपवास में), [आवसथे वा] आवास में (निवास-स्थान में), [पुन: विहारे वा] और विहार में [उपधौ] उपधि में (परिग्रह में), [श्रमणे] श्रमण में (अन्य मुनि में) [वा] अथवा [विकथायाम्] विकथा में [निबद्धं] प्रतिबन्ध [न इच्छति] नहीं चाहता ॥२१५॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    
    1. श्रामण्य पर्याय के सहकारी कारणभूत शरीर की वृत्ति के हेतुमात्ररूप से ग्रहण किया जाने वाला जो आहार,
    2. तथाविध शरीर की वृत्ति के साथ विरोध विना, शुद्धात्मद्रव्य में नीरंग और निस्तरंग विश्रांति की रचनानुसार प्रवर्तमान जो क्षपण (अर्थात् शरीर के टिकने के साथ विरोध न आये इस प्रकार, शुद्धात्मद्रव्य में विकाररहित और तरंगरहित स्थिरता होती जाये, तदनुसार प्रवर्तमान अनशन में),
    3. नीरंग और निस्तरंग-अन्तरंग द्रव्य की प्रसिद्धि (प्रकृष्ट सिद्धि) के लिये सेवन किया जाने वाला जो गिरीन्द्रकन्दरादिक आवसथ में (उच्च पर्वत की गुफा इत्यादि निवासस्थान में),
    4. यथोक्त शरीर की वृत्ति की कारणभूत भिक्षा के लिये किये जाने वाले विहारकार्य में,
    5. श्रामण्यपर्याय का सहकारी कारण होने से जिसका निषेध नहीं है ऐसे केवल देहमात्र परिग्रह में,
    6. मात्र अन्योन्य बोध्यबोधकरूप से जिनका कथंचित् परिचय वर्तता है ऐसे श्रमण (अन्य मुनि) में, और
    7. शब्दरूप पुद्‌गलोल्लास (पुद्‌गलपर्याय) के साथ संबंध से जिसमें चैतन्यरूपी भित्ति का भाग मलिन होता है, ऐसी शुद्धात्मद्रव्य से विरुद्ध कथा में भी
    प्रतिबंध निषेध्य-त्यागने योग्य है अर्थात् उनके विकल्पों से भी चित्तभूमि को चित्रित होने देना योग्य नहीं है ।

    नीरंग = नीराग; निर्विकार ।
    बोध्यबोधक = बोध्य वह है जिसे समझाया है अथवा जिसे उपदेश दिया जाता है । और बोधक वह है जो समझाताहै, अर्थात् जो उपदेश देता है । मात्र अन्य श्रमणों से स्वयंबोध ग्रहण करने के लिये अथवा अन्य श्रमणों को बोध देने के लिये मुनि का अन्य श्रमण के साथ परिचय होता है ।

    जयसेनाचार्य :
    [णेच्छदि] नहीं चाहते हैं । किसे नहीं चाहते हैं ? [णिबद्धं] निबद्ध-आसक्ति नहीं चाहते हैं । कहां आसक्ति नहीं चाहते हैं? [भत्ते वा]
    1. शुद्धात्मा की भावना के सहकारि शरीर की स्थिति का हेतु (कारण) होने से, ग्रहण किये गये भोजन-प्रासुक आहार में,
    2. [खमणे वा] इन्द्रियों के दर्प (प्रबलता) को नष्ट करने वाले कारण स्वरूप होने से, विकल्प रहित समाधि (स्वरूपलीनता) के कारणभूत क्षपण-अनशन-उपवास में,
    3. [आवसधे वा] परमात्मतत्व की उपलब्धि (पर्याय में प्रगटता) के सहकारभूत पर्वत अथवा गुफा आदि के निवास में,
    4. [पुणो विहारे वा] शुद्धात्मा की भावना के सहकारीभूत आहार-निहार के लिये, व्यवहार के लिये, व्यवहार में अथवा अन्य स्थान पर जाने के लिये होनेवाले विहार में,
    5. [उवधिम्हि] शुद्धोपयोगरूप भावना के सहकारीभूत शरीररूप परिग्रह में अथवा ज्ञान के उपकरण (साधन) आदि में,
    6. [समणम्हि] परमात्मपदार्थ का विचार करने में सहकारी कारणभूत (अन्य) मुनिराज में अथवा समानशील के समूह या सम-समता और शील समूह तपोधन-मुनिराज में,
    7. [विकधम्हि] और परमसमाधि-पूर्ण स्वरूप लीनता को नष्ट करनेवाली श्रंगार-वीर-रागादि कथा में
    आसक्ति नहीं चाहते हैं ।

    यहाँ अर्थ यह है- आगम से विरुद्ध आहार-विहार आदि में (ममत्व तो) पहले से ही निषिद्ध है, (यहाँ तो) योग्य आहार-विहार आदि में भी ममत्व नहीं करना चाहिये (ऐसा कहा है) ॥२२१॥

    इसप्रकार संक्षेप से आचार-आराधनादिरूप से कहे गये मुनिराज के, विहार सम्बन्धी विशेष कथन की मुख्यता से चौथे स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुईं ।

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    + अब शुद्धोपयोगरूप भावना को रोकनेवाले छेद को कहते हैं - -
    अपयत्ता वा चरिया सयणासणठाणचंकमादीसु । (216)
    समणस्स सव्वकाले हिंसा सा संतय त्ति मदा ॥230॥
    अप्रयता वा चर्या शयनासनस्थानचङ्क्रमणादिषु ।
    श्रमणस्य सर्वकाले हिंसा सा सन्ततेति मता ॥२१६॥
    शयन आसन खड़े रहना गमन आदिक क्रिया में ।
    यदि अयत्नाचार है तो सदा हिंसा जानना ॥२१६॥
    अन्वयार्थ : [श्रमणस्य] श्रमण के [शयनासनस्थानचंक्रमणादिषु] शयन, आसन (बैठना), स्थान (खड़े रहना), गमन इत्यादि में [अप्रयता वा चर्या] जो अप्रयत चर्या है [सा] वह [सर्वकाले] सदा [संतता हिंसा इति मता] सतत हिंसा मानी गई है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अशुद्धोपयोग वास्तव में छेद है, क्योंकि (उससे) शुद्धोपयोगरूप श्रामण्य का छेदन होता है; और वही (अशुद्धोपयोग ही) हिंसा है, क्योंकि (उससे) शुद्धोपयोगरूप श्रामण्य का हिंसन (हनन) होता है । इसलिये श्रमण के, जो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होती ऐसे शयन-आसन-स्थान-गमन इत्यादि में *अप्रयत चर्या (आचरण) वह वास्तव में उसके लिये सर्वकाल में (सदा) ही संतानवाहिनी हिंसा ही है, -- जो कि छेद से अनन्यभूत है (अर्थात् छेद से कोई भिन्न वस्तु नहीं है) ॥२१६॥

    *अप्रयत = = प्रयत्न रहित, असावधान, असंयमी, निरंकुश, स्वच्छन्दी ।

    जयसेनाचार्य :
    [मदा] मानी गई है-सम्मत की गई है-स्वीकृत की गई है । कौन मानी गई है? [हिंसा] शुद्धोपयोग लक्षण श्रामण्य (मुनिपना) में छेद की कारणभूत हिंसा मानी गई है । वह हिंसा कैसी है? [संततिय त्ति] वह हिंसा सतत-निरन्तर है । हिंसा क्या मानी गई है ? [चरिया] चर्या-चेष्टा हिंसा मानी गई है । यदि वह चर्या कैसी हो तो हिंसा मानी गई है? [अपयत्ता वा] प्रयत्न रहित अथवा कषाय रहित आत्मानुभूतिरूप प्रयत्न से रहित-संक्लेश से सहित चर्या हिंसा मानी गई है - ऐसा अर्थ है । किन विषयों में आत्मानुभूति रहित चर्या हिंसा है? [सयणासणठाणचंकमादीसु] सोने, बैठने, उठने, जाने, स्वाध्याय करने, तपश्चरण करने आदि में आत्मानुभूति रहित-अप्रयत चर्या सतत हिंसा है । यह हिंसा किसके है? [समणस्स] श्रमण- मुनिराज के यह हिंसा है । उन्हें यह हिंसा कब है ? [सव्वकाले] सभी काली में उन्हें यह हिंसा है ।

    यहाँ अर्थ यह है- मुनिराजों द्वारा बाह्य व्यापार रूप शत्रु तो पहले ही छोड़ दिये गये थे; भोजन, शयन आदि व्यापार छोड़ना संभव नहीं है । इस कारण अंतरंग क्रोधादि शत्रुओं के निग्रह के लिए, वहां भी संक्लेश नहीं करना चाहिये ।

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    + अब अन्तरंग-बहिरंग हिंसारूप से दो प्रकार के छेद को प्रसिद्ध करते हैं -
    मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । (217)
    पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ॥231॥
    म्रियतां वा जीवतु वा जीवोऽयताचारस्य निश्चिता हिंसा ।
    प्रयतस्य नास्ति बन्धो हिंसामात्रेण समितस्य ॥२१७॥
    प्राणी मरें या ना मरें हिंसा अयत्नाचार से ।
    तब बंध होता है नहीं जब रहें यत्नाचार से ॥२१७॥
    अन्वयार्थ : [जीव:] जीव [म्रियतां वा जीवतु वा] मरे या जिये, [अयताचारस्य] अयत्नाचारी (अप्रयत आचार वाले) के [हिंसा] (अंतरंग) हिंसा [निश्‍चिता] निश्‍चित है; [प्रयतस्य समितस्य] प्रयत के, समितिवान् के [हिंसामात्रेण] (बहिरंग) हिंसामात्र से [बन्ध:] बंध [नास्ति] नहीं है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अशुद्धोपयोग अंतरंग छेद है; परप्राणों का व्यपरोप (विच्छेद) वह बहिरंगछेद है । इनमें से अन्तरंग छेद ही विशेष बलवान है, बहिरंग छेद नहीं; क्योंकि—परप्राणों के व्‍यपरोप का सद्‌भाव हो या असद्‌भाव, जो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता है ऐसे अप्रयत आचार से प्रसिद्ध होने वाला (जानने में आने वाला) अशुद्धोपयोग का सद्‌भाव जिसके पाया जाता है उसके हिंसा के सद्‌भाव की प्रसिद्धि सुनिश्‍चित है । और इस प्रकार जो अशुद्धोपयोग के बिना होता है ऐसे प्रयत्त आचार से प्रसिद्ध होने वाला अशुद्धोपयोग का असद्‌भाव पाया जाता है, उसके परप्राणों के व्‍यपरोप के सद्‌भाव में भी बंध की अप्रसिद्धि होने से, हिंसा के अभाव की प्रसिद्धि सुनिश्‍चि‍त है। ऐसा होने पर भी (अर्थात् अंतरंग छेद ही विशेष बलवान है बहिरंग छेद नहीं ऐसा होने पर भी) बहिरंग छेद अतल छेद का आयतनमात्र है, इसलिये उसे (बहिरंग छेद को) स्वीकार तो करना ही चाहिये अर्थात् उसे मानना ही चाहिये ॥२१७॥

    जयसेनाचार्य :
    [मरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा] जीव मरे अथवा जिये, प्रयत्न रहित के निश्चित हिंसा होती है; बाह्य में दूसरे जीव के मरण अथवा अमरण में भी, विकार रहित अपनी अनुभूति लक्षण प्रयत्न से रहित जीव के, निश्चय शुद्ध चैतन्य प्राणों के व्यपरोपण (घात) रूप निश्चय हिंसा होती है । [पयदस्स णत्थि बन्धो] बहिरंग और अंतरंग प्रयत्न में तत्पर जीव के बन्ध नहीं है । उन्हें किससे बन्ध नहीं है ? [हिंसामेत्तेण] द्रव्य हिंसा मात्र से उन्हें बन्ध नहीं है । कैसे पुरुष को बन्ध नहीं है? [समिदस्स] समित के-शुद्धात्मस्वरूप में अच्छी तरह गत-परिणत समित है, उस समित के और व्यवहार से ईर्या आदि पाँच समितियों से सहित समित के बंध नही है ।

    यहाँ अर्थ यह है -- अपने आत्मा में लीनतारूप निश्चय प्राणों के विनाश की कारणभूत रागादि परिणति निश्चय हिंसा कहलाती है, रागादि कि उत्पत्ति से बाह्य में निमित्तभूत परजीवों का घात व्यवहार हिंसा है- इस प्रकार हिंसा दो प्रकार की जाननी चाहिये । किन्तु विशेष यह है कि बाह्य हिंसा हो अथवा नहीं हो स्वस्थभावना (आत्म-लीनता) रूप निश्चय प्राणों का घात होने पर, नियम से निश्चय हिंसा होती है । उस कारण वही मुख्य है ॥२३१॥

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    + अब उसी अर्थ को दृष्टान्त और दार्ष्टान्त द्वारा दृढ़ करते हैं - -
    उच्चालियम्हि पाए इरियासमिदस्स णिग्गमत्थाए ।
    आबाधेज्ज कुलिंगं मरिज्ज तं जोगमासेज्ज ॥232॥
    ण हि तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहुमो य देसिदो समये ।
    मुच्छा परिग्गहो च्चिय अज्झप्पपमाणदो दिट्ठो ॥233॥
    हो गमन ईर्यासमिति से पर पैर के संयोग से ।
    हों जीव बाधित या मरण हो फिर भी उनके योग से ॥२३२॥
    ना बंध हो उस निमित्त से ऐसा कहा जिनशास्त्र में ।
    क्योंकि मूर्च्छा परिग्रह अध्यात्म के आधार में ॥२३३॥
    अन्वयार्थ : ईर्या समिति से चलते हुये मुनिराज के, कहीं जाने के लिये उठाये हुये पैर के निमित्त से, किसी छोटे-प्राणी को बाधा पहुँचने या उसके मर जाने पर भी, उन मुनिराज के उस हिंसा के निमित्त से किंचित् मात्र भी बन्ध, आगम में नहीं कहा है । अध्यात्म-प्रमाण से मूर्च्छा को ही परिग्रह कहे गये के समान ।

    जयसेनाचार्य :
    [उच्चालियम्हि पाए] पैर उठाये जाने पर । किसके पैर उठाये जाने पर [इरियासमिदस्स] ईर्या समिति सहित मुनिराज के पैर उठाये जाने पर । उनके कहाँ पैर उठाये जाने पर ? [णिग्गमत्थाए] विवक्षित स्थान से जाते समय पैर उठाये जाने पर । [आबाधेज्ज] बाधित या पीड़ित हो । वह कौन पीड़ित हो ? [कुलिंगं] सूक्ष्म जन्तु बाधित हो । मात्र बाधित ही न हो, [मरिज्ज] यदि मर भी जाये । क्या करके (कैसे) मर जाये ? [तं जोगमासेज्ज] उस पहले कहे गये पैर के योग को-पैर के दबाव को पाकर, यदि मर भी जाये । [ण हि तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहुमो य देसदो समये] तो भी उन्हें उस कारण लेशमात्र भी बन्ध आगम में नहीं कहा है, उन मुनिराज के उस कारण-सूक्ष्म जन्तु के घात के कारण, सूक्ष्म भी-थोड़ा भी बन्ध समय-परमागम में नहीं देखा गया है ।

    (इसके लिये) उदाहरण कहते हैं- मुच्छा परिग्गहो च्चिय- मूर्च्छा ही परिग्रह है, [अज्झप्पपमाणदो दिट्ठो] ऐसा अध्यात्म-प्रमाण से देखा गया है । यहाँ अर्थ यह है- 'मूर्च्छा (ममत्व परिणाम) परिग्रह है- इस सूत्र में, जैसे अध्यात्म की दृष्टि से, मूर्च्छा रूप रागादि परिणामों के अनुसार परिग्रह होता है, बाह्य परिग्रह के अनुसार नही; उसी प्रकार यहाँ सूक्ष्म जन्तु के घात हो जाने पर भी, जितने अंश में आत्मलीनतामय परिणाम से चलनरूप रागादि परिणति लक्षण भावहिंसा है, उतने अंश में बंध है, पैरों के संघट्टन (रगड़ आदि) मात्र से बन्ध नहीं है । उन मुनिराज के रागादि परिणति लक्षण भाव हिंसा नहीं है, उस कारण बंध भी नहीं है ।

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    + अब, निश्चय हिंसारूप अन्तरंग छेद, पूर्णरूप से निषेध करने योग्य है; ऐसा उपदेश देते हैं- -
    अयदाचारो समणो छस्सु वि कायेसु वधकरो त्ति मदो । (218)
    चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले णिरुवलेवो ॥234॥
    अयताचारः श्रमणः षट्स्वपि कायेषु वधकर इति मतः ।
    चरति यतं यदि नित्यं कमलमिव जले निरुपलेपः ॥२१८॥
    जलकमलवत निर्लेप हैं जो रहें यत्नाचार से ।
    पर अयत्नाचारि तो षट्काय के हिंसक कहे ॥२१८॥
    अन्वयार्थ : [अयताचार: श्रमण:] अप्रयत आचारवाला श्रमण [षट्‌सु अपि कायेषु] छहों काय संबंधी [वधकर:] वध का करने वाला [इति मत:] मानने में—कहने में आया है; [यदि] यदि [नित्यं] सदा [यतं चरति] प्रयतरूप से आचरण करे तो [जले कमलम् इव] जल में कमल की भाँति [निरुपलेप:] निर्लेप कहा गया है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    जो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता ऐसे अप्रयत आचार के द्वारा प्रसिद्ध (ज्ञात) होने वाला अशुद्धोपयोग का सद्‌भाव हिंसक ही है, क्योंकि छहकाय के प्राणों के व्यपरोप के आश्रय से होने वाले बंध की प्रसिद्धि है; और जो अशुद्धोपयोग के बिना होता है ऐसे प्रयत आचार से प्रसिद्ध होनेवाला अशुद्धोपयोग का असद्‌भाव अहिंसक ही है, क्योंकि पर के आश्रय से होने वाले लेशमात्र भी बंध का अभाव होने से जल में झूलते हुए कमल की भांति निर्लेपता की प्रसिद्धि है । इसलिये उन-उन सर्वप्रकार से अशुद्धोपयोगरूप अन्तरंग छेद निषेध्य त्यागने योग्य है, जिन-जिन प्रकारों से उसका आयतनमात्रभूत परद्रव्यपरोपरूप बहिरंग छेद अत्यन्त निषिद्ध हो ॥२१८॥

    जयसेनाचार्य :
    [अयदाचारो] मल-रहित निर्मल आत्मानुभूतिरूप भावना लक्षण प्रयत्न से रहित होने के कारण अयताचार अर्थात् प्रयत्न रहित हैं । वे कौन प्रयत्न रहित है? [समणो] मुनिराज प्रयत्न रहित हैं । [छस्सु वि कायेसु वधकरो त्ति मदो] छहों ही कायों के वध करनेवाले माने गये हैं । अर्थात् छह काय के जीवों की, वे मुनिराज हिंसा करनेवाले हैं - ऐसा माना गया है - कहा गया है । [चरदि] आचरण करते हैं-वर्तते हैं । कैसे वर्तते हैं? जैसे होते हैं [जदं] यत्नपर-प्रयत्नशील, [जदि] यदि [णिच्चं] हमेशा- सभी कालों में तो [कमलं व जले णिरुवलेवो] जल में कमल के समान निरुपलेप होते हैं ।

    इससे क्या कहा गया है अर्थात् इस सब कथन का तात्पर्य क्या है? शुद्ध आत्मा की अनुभूति लक्षण शुद्धोपयोग परिणत पुरुष के, छह काय के जीव समूहरूप लोक में विचरण करते हुए, यद्यपि मात्र बाह्य में द्रव्य हिंसा है, तथापि निश्चय हिंसा नहीं है (अत: वे निर्लेप-तत्संबन्धी कर्मबन्धन से रहित हैं ।); उस कारण शुद्ध परमात्मा की भावना के बल से निश्चय हिंसा ही सर्व तात्पर्य से छोड़ना चाहिये ।

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    + अब बाह्य में जीव का घात होने पर बन्ध होता है, अथवा नहीं होता है; परन्तु परिग्रह होने पर नियम से बन्ध होता है, ऐसा प्रतिपादन करते हैं - -
    हवदि व ण हवदि बंधो मदम्हि जीवेऽध कायचेट्ठम्हि । (219)
    बंधो धुवमुवधीदो इदि समणा छड्डिया सव्वं ॥235॥
    भवति वा न भवति बन्धो मृते जीवेऽथ कायचेष्टायाम् ।
    बन्धो ध्रुवमुपधेरिति श्रमणास्त्यक्तवन्तः सर्वम् ॥२१९॥
    बंध हो या न भी हो जिय मरे तन की क्रिया से ।
    पर परिग्रह से बंध हो बस उसे छोड़े श्रमणजन ॥२१९॥
    अन्वयार्थ : [अथ] अब (उपधि के संबंध में ऐसा है कि), [कायचेष्टायाम्] कायचेष्टापूर्वक [जीवे मृते] जीव के मरने पर [बन्ध:] बंध [भवति] होता है [वा] अथवा [न भवति] नहीं होता; (किन्तु) [उपधे:] उपधि से-परिग्रह से [ध्रुवम् बंध:] निश्‍चय ही बंध होता है; [इति] इसलिये [श्रमणा:] श्रमणों (अर्हन्तदेवों) ने [सर्वं] सर्व परिग्रह को [त्यक्तवन्तः] छोड़ा है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    जैसे काय-व्यापार-पूर्वक पर-प्राण-व्यपरोप को अशुद्धोपयोग के सद्‌भाव और असद्‌भाव के द्वारा अनैकांतिक बंधरूप होने से उसे (काय-व्यापार-पूर्वक पर-प्राण-व्यपरोप को) छेदपना अनैकांतिक माना गया है, वैसा उपधि-परिग्रह का नहीं है । परिग्रह सर्वथा अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता, ऐसा जो परिग्रह का सर्वथा अशुद्धोपयोग के साथ अविनाभावित्व है उससे प्रसिद्ध होने वाले ऐकान्तिक अशुद्धोपयोग के सद्‌भाव के कारण परिग्रह तो ऐकान्तिक बंधरूप है, इसलिये उसे (परिग्रह को) छेदपना ऐकान्तिक ही है । इसीलिये भगवन्त अर्हन्तों ने परम श्रमणों ने स्वयं ही पहले ही सर्व परिग्रह को छोड़ा है; और इसीलिये दूसरों को भी, अन्तरंग छेद की भांति प्रथम ही सर्व परिग्रह छोड़ने योग्य है, क्योंकि वह (परिग्रह) अन्तरंग छेद के बिना नहीं होता ॥२१९॥

    (कलश)
    जो कहने के योग्य है कहा गया वह सब्ब ।
    इतने से ही चेत लो अति से क्या है अब्ब ॥१४॥

    जो कहने योग्य ही था वह अशेषरूप से कहा गया है, इतने मात्र से ही यदि यहाँ कोई चेत जाये--समझ ले तो, (अन्यथा) वाणी का अतिविस्तार किया जाये तथापि निश्‍चेतन (जड़वत् / नासमझ) को व्यामोह का जाल वास्तव में अति दुस्तर है ।

    अब, इस उपधि (परिग्रह) का निषेध वह अंतरंग छेद का ही निषेध है, ऐसा उपदेश करते हैं --

    जयसेनाचार्य :
    [हवदि वा ण हवदि बंधे] बन्ध होता है अथवा नहीं होता है । क्या होने पर बन्ध होता है अथवा नहीं होता है? [मदम्हि जीवे] दूसरे जीव के मर जाने पर, बन्ध होता है अथवा नहीं होता है । [अध] अहो! कैसे मर जाने पर बन्ध होता है अथवा नहीं होता है? [कायचेट्ठम्हि] शरीर की चेष्टा से जीव मर जाने पर बन्ध होता है अथवा नहीं होता है । तो बन्ध कैसे होता है? [बन्धो धुवमुवधीदो] ध्रुव-निश्चित बन्ध होता है । किससे निश्चित ही बन्ध होता है? उपधि अर्थात् परिग्रह से बन्ध निश्चित ही होता है । [इदि] इस कारण- [समणा छड्डिया सव्वं] श्रमण अर्थात महाश्रमण सर्वज्ञ भगवान ने, पहले दीक्षा के समय शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी अपने आत्मा को सब ओर से ग्रहण कर, शेष सम्पूर्ण अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह, छर्दि (वमन) के समान छोड़ा है । ऐसा जानकर, शेष मुनिराजों को भी अपने परमात्मा को परिग्रहण कर-स्वीकार कर शेष सभी परिग्रह, मन-वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदना रूप से छोड़ देना चाहिये ।

    यहाँ यह कहा गया है कि रागादि परिणामरूप निश्चय हिंसा से चैतन्यरूप निश्चय प्राणों का घात होने पर, नियम से बन्ध होता है । दूसरे जीव का घात होने पर होता भी है, नहीं भी होता, नियम नहीं है; परन्तु परद्रव्य में ममत्वरूप मूर्च्छा परिग्रह से तो नियम से बंध होता ही है ।

    इसप्रकार भावहिंसा के व्याख्यान की मुख्यता से पाँचवे स्थल में छह गाथायें पूर्ण हुई । इसप्रकार पहले कहे गये क्रम से '[एवं पणमिय सिद्धे]' इत्यादि २१ गाथाओं द्वारा पाँचवे स्थलरूप से '[उत्सर्ग चारित्र व्याख्यान]' नामक पहला अन्तराधिकार समाप्त हुआ ।

    अब इसके बाद चारित्र के देश-काल की अपेक्षा अपहृत संयमरूप से अपवाद व्याख्यान के लिये पाठक्रम में ३० गाथाओं द्वारा दूसरा अन्तराधिकार प्रारम्भ होता है । वहीं चार स्थल हैं । उनमें - इसप्रकार फिर से अपवाद के विशेष व्याख्यान की मुख्यता से '[उवयरणं जिणमग्गे]' इत्यादि ग्यारह गाथायें हैं । यहाँ टीका (त.प्र.) में चार गाथायें नहीं हैं ।

    इस प्रकार गाथाओं के अभिप्राय से ३० गाथाओं द्वारा और (त.प्र.) टीका की अपेक्षा बारह गाथाओं द्वारा दूसरे में सामूहिक पातनिका है ।

    चारित्राधिकार के द्वितीय अन्तराधिकार का स्थल विभाजन
    स्थल क्रम प्रतिपादित विषय कहाँ से कहाँ पर्यंत गाथाएँ कुल गाथाएँ
    प्रथम निर्ग्रंथ मोक्षमार्ग की स्थापना 236 से 240 5
    द्वितीय अपवाद व्याख्यान 241 से 243 3
    तृतीय स्त्री मुक्ति निराकरण 244 से 254 11
    चतुर्थ अपवाद विशेष व्याख्यान 255 से 265 11
    कुल 4 स्थल कुल 30 गाथाएँ

    वह इसप्रकार -

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    + निरपेक्ष त्याग से ही कर्मक्षय -
    ण हि णिरवेक्खो चागो ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी । (220)
    अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खओ विहिदो ॥236॥
    न हि निरपेक्षस्त्यागो न भवति भिक्षोराशयविशुद्धिः ।
    अविशुद्धस्य च चित्ते कथं नु कर्मक्षयो विहितः ॥२२०॥
    यदि भिक्षु के निरपेक्ष न हो त्याग तो शुद्धि न हो ।
    तो कर्मक्षय हो किसतरह अविशुद्ध भावों से कहो ॥२२०॥
    अन्वयार्थ : [निरपेक्ष: त्याग: न हि] यदि निरपेक्ष (किसी भी वस्तु की अपेक्षारहित) त्याग न हो तो [भिक्षो:] भिक्षु के [आशयविशुद्धि:] भाव की विशुद्धि [न भवति] नहीं होती; [च] और [चित्ते अविशुद्धस्य] जो भाव में अविशुद्ध है उसके [कर्मक्षय:] कर्मक्षय [कथं नु] कैसे [विहित:] हो सकता है?

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, इस उपधि (परिग्रह) का निषेध वह अंतरंग छेद का ही निषेध है, ऐसा उपदेश करते हैं :-

    जैसे छिलके के सद्भाव में चावलों में पाई जाने वाली (रक्ततारूप) अशुद्धता का त्याग (नाश, अभाव) नहीं होता, उसी प्रकार बहिरंग संग के सद्‌भाव में अशुद्धोपयोगरूप अंतरंग छेद का त्याग नहीं होता और उसके सद्‌भाव में शुद्धोपयोगमूलक कैवल्य (मोक्ष) की उपलब्धि नहीं होती । (इससे ऐसा कहा गया है कि) अशुद्धोपयोगरूप अंतरंग छेद के निषेधरूप प्रयोजन की उपेक्षा रखकर विहित (आदेश) किया जाने वाला उपधि का निषेध वह अन्तरंग छेद का ही निषेध है ॥२२०॥

    जयसेनाचार्य :
    अब, भाव-शुद्धिपूर्वक बहिरंग परिग्रह का त्याग किये जाने पर अन्तरंग परिग्रह का त्याग किया गया ही होता है, एसा निर्देश करते हैं -

    [ण हि णिरवेक्खो चागो] निरपेक्ष त्याग यदि नहीं हो तो-परिग्रह का त्याग सर्वथा निरपेक्ष नहीं होता है, किन्तु कुछ भी कपड़े-बर्तन आदि ग्रहण करने योग्य है-यदि आप ऐसा कहते हैं, तो हे शिष्य! [ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी] मुनि के आशय की विशुद्धि नहीं होती है, तब सापेक्ष परिणाम होने पर मुनिराज के चित्त की शुद्धि नहीं होती । [अविसुद्धस्स हि चित्ते] शुद्धात्मा की भावनारूप शुद्धि से रहित, मुनिराज के मन में वास्तव में [कहं तु कम्मक्खओ विहिओ] कर्मों का क्षय उचित कैसे होगा?

    इससे यह कहा गया है कि जैसे बाह्य में तुष (छिलका) का सद्भाव होने पर चावल के अन्दर की शुद्धि करना संभव नहीं है, उसीप्रकार बाह्य परिग्रह की इच्छा विद्यमान होने पर, निर्मल शुद्धात्मा की अनुभूतिरूप मन की शुद्धि करना संभव नहीं है और यदि विशिष्ट वैराग्यपूर्वक परिग्रह का त्याग होता है, तो चित्त की शुद्धि होती ही है; परन्तु प्रसिद्धि पूजा-प्रतिष्ठा-लाभ के निमित्त त्याग करने पर नहीं होती है ।

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    + परिग्रह त्याग -
    गेण्हदि व चेलखंडं भायणमत्थि त्ति भणिदमिह सुत्ते ।
    जदि सो चत्तालंबो हवदि कहं वा अणारंभो ॥237॥
    वत्थक्खंडं दुद्दियभायणमण्णं च गेण्हदि णियदं ।
    विज्जदि पाणारंभो विक्खेवो तस्स चित्तम्मि ॥238॥
    गेण्हइ विधुणइ धोवइ सोसेइ जदं तु आदवे खित्ता ।
    पत्तं व चेलखंडं बिभेदि परदो य पालयदि ॥239॥
    वस्त्र बर्तन यति रखें यदि यह किसी के सूत्र में ।
    ही कहा हो तो बताओ यति निरारंभी किसतरह ॥२३७॥
    रे वस्त्र बर्तन आदि को जो ग्रहण करता है श्रमण ।
    नित चित्त में विक्षेप प्राणारंभ नित उसके रहे ॥२३८॥
    यदि वस्त्र बर्तन ग्रहे धोवे सुखावे रक्षा करें।
    खो न जावे डर सतावे सतत ही उस श्रमण को ॥२३९॥
    अन्वयार्थ : यदि यहाँ किसी आगम में 'साधु वस्त्र को ग्रहण करता है, उसके बर्तन भी होते हैं --' ऐसा कहा गया है, तो वह निरालम्ब अथवा अनारम्भ कैसे हो सकता है ? ॥२३७॥
    वस्त्र के टुकडे को, दूध के लिए पात्र को तथा अन्य वस्तुओं को यदि वह ग्रहण करता है तो उसके हमेशा प्राणारम्भ (जीवों का घात) और चित्त में विक्षेप बना रहता है ॥२३८॥
    वह बर्तन अथवा वस्त्र को ग्रहण करता है, धूल साफ करता है, धोता है और सावधानी पूर्वक धूप में सुखाता है, दूसरों से डरता है और उनकी रक्षा करता है ॥२३९॥

    जयसेनाचार्य :
    अब उसी परिग्रह त्याग को दृढ करते हैं -

    [गेण्हदि व चेलखंडं] चेलखंड-खण्डवस्त्र को ग्रहण करता है, [भायणं] अथवा भिक्षा आहार के लिये पात्र अत्थि त्ति भणिदं- है - ऐसा कहा गया है । कहाँ कहा गया है? [इह सुत्ते] यहाँ विवक्षित आगम सूत्र में कहा गया है, [जदि] यदि तो । [सो चत्तालंबो हवदि कहं] पर के आलम्बन से रहित परमात्मतत्व की भावना से शून्य होता हुआ वह बाह्य द्रव्य के आलम्बन से रहित कैसे हो सकता है ? किसी भी प्रकार नहीं हो सकता है, [वा अणारम्भो] क्रिया रहित-आरम्भ रहित अपने आत्मतत्त्व की भावना से रहित होने के कारण वह आरम्भ रहित कैसे हो सकता है? अपितु आरम्भ सहित ही है- इसप्रकार पहली (२३७ वीं) गाथा पूर्ण हुई ।

    [वत्थक्खंडं दुद्दियभायणं] वस्त्र का टुकडा अथवा खण्ड वस्त्र, दूध का बर्तन अण्णं च गेण्हदि- और दूसरे कम्बल, कोमल शैया आदि यदि ग्रहण करता है तो । यदि ये सब ग्रहण करता है तो क्या होता है? [णियदं विज्जदि पाणारम्भो] यदि ये सब यहण करता है तो उसके अपने शुद्ध-चैतन्य लक्षण प्राणों के विनाशरूप अथवा दूसरे जीवों के प्राणों के विनाशरूप प्राणारम्भ-प्राणवध निश्चित पाया जाता है; मात्र प्राणारम्भ ही नहीं अपितु [विक्खेवो तस्स चित्तम्मि] विक्षिप्त मन से रहित परम योग से रहित, परिग्रह सहित उस पुरुष के चित्त में- मन में विक्षेप (चंचलपना) पाया जाता है- इसप्रकार दूसरी (२३८ वीं) गाथा पूर्ण हुई ।

    [गेण्हइ] अपने शुद्धात्मा के ग्रहण से रहित होता हुआ किसी भी बाह्य द्रव्य को ग्रहण करता है; [विधुणड़] कर्मरूपी रज को (कर्मरज को धोना) छोड़कर, बाहर की रज को साफ करता है- नष्ट करता है; [धोवइ] मल रहित परमात्मतत्व में मल उत्पन्न करनेवाले रागादि मल को (धोना) छोड़कर, बाह्य मल को धोता है- प्रक्षालित करता है । [सोसइ जदं तु आदवे खित्ता] विकल्प रहित ध्यानरूपी आतप द्वारा संसाररूपी नदी को नहीं सुखाता हुआ यथासंभव प्रयत्नपूर्वक सुखाता है । क्या करके सुखाता है? धूप में डालकर सुखाता है । वहाँ डालकर किसे सुखाता है? [पत्तं व चेलखंडं] बर्तन या वस्त्रखण्ड को वहाँ डालकर सुखाता है । [बिभेदि] भय रहित शुद्धात्मा की भावना से रहित होता हुआ, भय करता है । किससे भय करता है? [परदो य] और दूसरे चोरों आदि से भय करता है - डरता है । [पालयदि] परमात्मभावना का पालन रक्षण नहीं करता हुआ किसी भी दूसरे द्रव्य का पालन-रक्षण करता है । इसप्रकार तीसरी (२३९ वीं), गाथा पूर्ण हुई ॥२३७-२३८-२३९॥

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    + सपरिग्रह के नियम से चित्त-शुद्धि नष्ट -
    किध तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो वा असंजमो तस्स । (221)
    तध परदव्वम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि ॥240॥
    कथं तस्मिन्नास्ति मूर्च्छा आरम्भो वा असंयमस्तस्य ।
    तथा परद्रव्ये रतः कथमात्मानं प्रसाधयति ॥२२१॥
    उपधि के सद्भाव में आरंभ मूर्च्छा असंयम ।
    हो फिर कहो परद्रव्यरत निज आत्म साधे किसतरह ? ॥२२१॥
    अन्वयार्थ : [तस्मिन्] उपधि के सद्‌भाव में [तस्य] उस (भिक्षु) के [मूर्च्छा] मूर्छा, [आरम्भ:] आरंभ [वा] या [असंयम:] असंयम [नास्ति] न हो [कथं] यह कैसे हो सकता है? [तथा] तथा [परद्रव्ये रत:] जो परद्रव्य में रत हो वह [आत्मानं] आत्मा को [कथं] कैसे [प्रसाधयति] साध सकता है?

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, 'उपधि वह ऐकान्तिक अन्तरंग छेद है' ऐसा विस्तार से उपदेश करते हैं :-

    उपधि के सद्‌भाव में, अवश्यमेव होता ही है; तथा उपधि जिसका द्वितीय हो (अर्थात् आत्मा से अन्य ऐसा परिग्रह जिसने ग्रहण किया हो) उसके परद्रव्य में रतपना (लीनता) होने के कारण शुद्धात्मद्रव्य की साधकता का अभाव होता है; इससे उपधि के ऐकान्तिक अन्तरंग छेदपना निश्‍चित होता ही है ।

    यहाँ यह तात्पर्य है कि -- उपधि ऐसी है, (परिग्रह वह अन्तरंग छेद ही है), ऐसा निश्‍चित करके उसे सर्वथा छोड़ना चाहिये ॥२२१॥

    जयसेनाचार्य :
    अब परिग्रह सहित के नियम से चित्त की शुद्धि नष्ट होती है, ऐसा विस्तार से प्रसिद्ध करते हैं -

    [तध परदव्वम्मि रदो] वैसे ही अपने आत्मद्रव्य से भिन्न, दूसरे द्रव्य में आसक्त [कधमप्पाणं पसाधयदि] वह सपरिग्रह पुरुष आत्मा की साधना कैसे कर सकता है? किसी भी प्रकार नहीं कर सकता है ॥२४०॥

    इसप्रकार श्वेताम्बर मत का अनुसरण करनेवाले शिष्य के संबोधन के लिये, निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग-स्थापना की मुख्यता से पहले स्थल में पाँच गाथायें पूर्ण हुईं ।

    (अब अपवाद व्याख्यान परक तीन गाथाओं वाला दूसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)

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    + अपवाद-संयम -
    छेदो येन न विद्यते ग्रहणविसर्गेषु सेवमानस्य । (222)
    समणो तेणिह वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता ॥241॥
    छेदो येन न विद्यते ग्रहणविसर्गेषु सेवमानस्य ।
    श्रमणस्तेनेह वर्ततां कालं क्षेत्रं विज्ञाय ॥२२२॥
    छेद न हो जिसतरह आहार लेवे उसतरह ।
    हो विसर्जन निहार का भी क्षेत्र काल विचार कर ॥२२२॥
    अन्वयार्थ : [ग्रहणविसर्गेषु] जिस उपधि के (आहार-नीहारादि के) ग्रहण-विसर्जन में सेवन करने में [येन] जिससे [सेवमानस्य] सेवन करने वाले के [छेद:] छेद [न विद्यते] नहीं होता, [तेन] उस उपधियुक्त, [काल क्षेत्रं विज्ञाय] काल क्षेत्र को जानकर, [इह] इस लोक में [श्रमण:] श्रमण [वर्तताम्] भले वर्ते ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, 'किसी के कहीं, कभी, किसी-प्रकार कोई उपधि अनिषिद्ध भी है' ऐसे अपवाद का उपदेश करते हैं :-

    आत्मद्रव्य के द्वितीय पुद्‌गलद्रव्य का अभाव होने से समस्त ही उपधि निषिद्ध है - ऐसा उत्सर्ग (सामान्य नियम) है; और विशिष्ट काल, क्षेत्र के वश कोई उपधि अनिषिद्ध है - ऐसा अपवाद है । जब श्रमण सर्व उपधि के निषेध का आश्रय लेकर परमोपेक्षासंयम को प्राप्त करने का इच्छुक होने पर भी विशिष्ट कालक्षेत्र के वश हीन शक्तिवाला होने से उसे प्राप्त करने में असमर्थ होता है, तब उसमें अपकर्षण करके (अनुत्कृष्ट) संयम प्राप्त करता हुआ उसकी बहिरंग साधनमात्र उपधि का आश्रय करता है । इस प्रकार जिसका आश्रय किया जाता है ऐसी वह उपधि उपधिपने के कारण वास्तव में छेदरूप नहीं है, प्रत्युत छेद की निषेधरूप (त्यागरूप) ही है । जो उपधि अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होती वह छेद है । किन्तु यह ( संयम की बाह्यसाधनमात्रभूत उपधि) तो श्रामण्यपर्याय की सहकारी कारणभूत शरीर की वृत्ति के हेतुभूत आहार-नीहारादि के ग्रहण-विसर्जन (ग्रहण-त्याग) संबंधी छेद के निषेधार्थ ग्रहण की जाने से सर्वथा शुद्धोपयोग सहित है, इसलिये छेद के निषेधरूप ही है ॥२२२॥

    जयसेनाचार्य :
    अब काल की अपेक्षा परम उपेक्षा-संयमरूप शक्ति के अभाव होने पर आहार, संयम, शौच, ज्ञान आदि के उपकरण भी ग्राह्य हैं (ग्रहण कर सकते है); ऐसे अपवाद का उपदेश देते हैं -

    [छेदो जेणे ण विज्जदि] जिससे छेद नहीं होता है । जिस उपकरण से, शुद्धोपयोग लक्षण संयम का छेद अर्थात् विनाश नहीं होता है । क्या करने पर छेद नहीं होता है? [गहणविसग्गेसु] जिन्हें ग्रहण करने और छोड़ने पर, जिससे छेद नहीं होता है । जिस उपकरण अथवा दूसरी वस्तु के ग्रहण-स्वीकार करने में अथवा विसर्जन-त्याग करने में छेद नहीं होता है । क्या करनेवाले मुनिराज के छेद नहीं होता है ? [सेवमाणस्स] उस उपकरण का सेवन करनेवाले मुनिराज के छेद नहीं होता हैं । [समणो तेणिह वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता] मुनिराज उस उपकरण के साथ लोक में वर्तें । उसके साथ यहां वे क्या करके वर्तें ? काल और क्षेत्र को जानकर उसके साथ वे यहाँ वर्तें ।

    यहाँ भाव यह है- काल पंचमकाल अथवा शीत-उष्ण (ठंड-गर्मी) आदि काल को, तथा क्षेत्र- भरतक्षेत्र अथवा मनुष्य सम्बन्धी क्षेत्र या जंगल सम्बन्धी क्षेत्र को जानकर जिस उपकरण द्वारा आत्मानुभूति लक्षण भाव-संयम अथवा बाह्य द्रव्य-संयम का छेद नहीं होता है उसके साथ वर्तें ।

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    + उपकरण का स्वरूप -
    अप्पडिकुट्ठं उवधिं अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं । (223)
    मुच्छादिजणणरहिदं गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं ॥242॥
    अप्रतिक्रुष्टमुपधिमप्रार्थनीयमसंयतजनैः ।
    मूर्च्छादिजननरहितं गृह्णातु श्रमणो यद्यप्यल्पम् ॥२२३॥
    मूर्छादि उत्पादन रहित चाहे जिसे न असंयमी ।
    अत्यल्प हो ऐसी उपधि ही अनिंदित अनिषिद्ध है ॥२२३॥
    अन्वयार्थ : [यद्यपि अल्पम्] भले ही अल्प हो तथापि, [अप्रतिक्रुष्टम्] जो अनिंदित हो, [असंयतजनै: अप्रार्थनीयं] असंयतजनों में अप्रार्थनीय हो और [मूर्च्छादिजनन रहितं] जो मूर्च्छादि की जननरहित हो [उपधि] ऐसी ही उपधि को [श्रमण:] श्रमण [गृह्णतु] ग्रहण करो ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, अनिषिद्ध उपधि का स्वरूप कहते हैं :-

    जो उपधि वह वास्तव में अनिषिद्ध है । इससे यथोक्त स्वरूप वाली उपधि ही उपादेय है, किन्तु किन्चित्मात्र भी यथोक्त स्वरूप से विपरीत स्वरूप वाली उपधि उपादेय नहीं है ॥२२३॥

    जयसेनाचार्य :
    अब पहले (२४१ वीं) गाथा में कहे गये उपकरण का स्वरूप दिखाते हैं -

    [अप्पडिकुट्ठं उवधिं] निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग के सहकारी कारणरूप से अनिषिद्ध उपधि-उपकरणरूप उपधि को, [अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं] अप्रार्थनीय-विकार रहित आत्मा की प्रगटता लक्षण भावसंयम से रहित असंयमी मनुष्यों द्वारा इच्छा नहीं करने योग्य, [मुच्छादिजणरहिदं] परमात्मद्रव्य से विलक्षण बाह्यद्रव्य में ममत्वरूप मूर्च्छा-रक्षण-अर्जन (रक्षा करना, इकट्ठा करना), संस्कार (साज-संवार) आदि दोषों को उत्पन्न करने से रहित, [गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं] मुनिराज जो भी ऊपर कहे गये थोड़े उपकरण-उपधि को ग्रहण करें, यद्यपि वह अल्प हो, तथापि पहले (ऊपर) कहे गये उचित लक्षण-वान को ही ग्रहण करना चाहिये, उससे विपरीत अथवा अधिक को ग्रहण नहीं करना चाहिये -- ऐसा अभिप्राय है ॥२४२॥

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    + उपकरण अशक्य अनुष्ठान हैं -
    किं किंचण त्ति तक्कं अपुणब्भवकामिणोध देहे वि । (224)
    संग त्ति जिणवरिंदा अप्पडिकम्मत्तमुद्दिट्ठा ॥243॥
    किं किञ्चनमिति तर्कः अपुनर्भवकामिनोऽथ देहेऽपि ।
    सङ्ग इति जिनवरेन्द्रा अप्रतिकर्मत्वमुद्दिष्टवन्तः ॥२२४॥
    जब देह भी है परिग्रह उसको सजाना उचित ना ।
    तो किसतरह हो अन्य सब जिनदेव ने ऐसा कहा ॥२२४॥
    अन्वयार्थ : [अथ] जब कि [जिनवरेन्द्रा:] जिनवरेन्द्रों ने [अपुनर्भवकामिन:] मोक्षाभिलाषी के, [संग: इति] 'देह परिग्रह है' ऐसा कहकर [देहे अपि] देह में भी [अप्रतिकर्मत्वम्] अप्रतिकर्मपना (संस्काररहितपना) [उद्दिष्टवन्त:] कहा (उपदेशा) है, तब [किं किंचनम् इति तर्क:] उनका यह (स्पष्ट) आशय है कि उसके अन्य परिग्रह तो कैसे हो सकता है?

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, 'उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं' ऐसा उपदेश करते हैं :-

    यहाँ, श्रामण्य-पर्याय का सहकारी कारण होने से जिसका निषेध नहीं किया गया है ऐसे अत्यन्त उपात्त (प्राप्त) शरीर में भी, 'यह (शरीर) परद्रव्य होने से परिग्रह है, वास्तव में यह अनुग्रह योग्य नहीं, किन्तु उपेक्षा योग्य ही है' ऐसा कहकर, भगवन्त अर्हन्तदेवों ने अप्रतिकर्मपने का उपदेश दिया है, तब फिर वहाँ शुद्धात्मतत्त्वोपलब्धि की संभावना के रसिक पुरुषों के शेष—अन्य अनुपात्त (अप्राप्त) परिग्रह बेचारा कैसे (अनुग्रह योग्य) हो सकता है?—ऐसा उनका (अर्हन्त देवों का) आशय व्यक्त ही है । इससे निश्‍चित होता है कि—उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं । तात्पर्य यह है कि वस्तुधर्म होने से परम निर्ग्रन्थपना ही अवलम्बन योग्य है ॥२२४॥

    जयसेनाचार्य :
    अब सभी परिग्रहों का त्याग ही श्रेष्ठ है, शेष (आगे २५५ वीं गाथा में वर्णित उपकरण) अशक्य अनुष्ठान हैं, ऐसा निरूपित करते हैं -

    [किं किंचण त्ति तक्कं] क्या किंचन है - ऐसा तर्क, क्या किंचन-कुछ परिग्रह है- ऐसा तर्क विचार करते हैं उससे पहले । किसके सम्बन्ध में क्या परिग्रह है- ऐसा विचार करते हैं? [अपुणब्भव कामिणो] अपुनर्भवकामी के अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय स्वरूप मोक्ष के इच्छक जीव के क्या परिग्रह है ? ऐसा विचार करते हैं; उससे पहले । [अध] अहो! अरे- [देहो वि] शरीर भी [संग त्ति] संग-परिग्रह है- इस कारण [जिणवरिंदा] जिनवरों के इन्द्र-तीर्थंकर रूप कर्ता ने [णिप्पडिकम्मत्तमुद्दिट्ठा] निष्प्रति-कर्मत्व कहा है । शुद्धोपयोग लक्षण परम उपेक्षा संयम के बल से, शरीर में भी निष्प्रति-कारित्व (साज-श्रंगार, आसक्ति से रहितपना) कहा है ।

    इससे ज्ञात होता है कि मोक्ष-सुख के इच्छुक जीवों को, निश्चय से शरीर आदि सभी परिग्रहों का त्याग ही उचित है अन्य तो उपचार ही है ॥२४३॥

    इसप्रकार अपवाद व्याख्यानरूप से दूसरे स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुईं ।

    (अब, स्त्रीमुक्ति निराकरण परक तीसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)

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    + स्त्री पर्याय से मुक्ति का निराकरण -
    पेच्छदि ण हि इह लोगं परं च समणिंददेसिदो धम्मो ।
    धम्मम्हि तम्हि कम्हा वियप्पियं लिंगमित्थीणं ॥244॥
    लोक अर परलोक से निरपेक्ष है जब यह धरम ।
    पृथक् से तब क्यों कहा है नारियों के लिंग को ॥२४४॥
    अन्वयार्थ : मुनिराजों के इन्द्र--जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया धर्म, इस लोक और परलोक की अपेक्षा नहीं करता है, तब इस धर्म में स्त्रियों के लिंग को भिन्न क्यों कहा गया है?

    जयसेनाचार्य :
    अब, ग्यारह गाथाओं तक, स्त्री पर्याय से मुक्ति के निराकरण की मुख्यता से व्याख्यान करते हैं । वह इसप्रकार -

    श्वेतांबर मत का अनुसरण करनेवाला शिष्य पूर्वपक्ष (प्रश्न) करता है --

    [पेच्छदि ण हि इह लोगं] उपराग (रागादि मलिनता) रहित अपने चैतन्य की हमेशा प्रगटतारूप भावना को नष्ट करनेवाले प्रसिद्धि पूजा, प्रतिष्ठा, लाभरूप इस लोक को वास्तव में नही देखता है नही चाहता है । मात्र इस लोक को ही नही, [परं च] और अपने आत्मा की प्राप्तिरूप मोक्ष को छोड़कर स्वर्गों सम्बन्धी भोगों की प्राप्तिरूप पर--परलोक को भी नही चाहता है । ये सब कौन नही चाहता है ? [समणिंददेसिदो धम्मो] श्रमणेंद्रों द्वारा कहा गया धर्म-जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया धर्म, ये सब कुछ नही चाहता है -- ऐसा अर्थ है । [धम्मम्हि तम्हि कम्हा] (तब) उस धर्म में कैसे [वियप्पियं] विकल्पित किया गया है- निर्ग्रन्थ (दिगम्बर) लिंग से, वस्त्राच्छादन द्वारा भिन्न किया गया है । इससे किसे भिन्न किया गया है ? [लिंगं] इससे आवरण सहित चिह्न को भिन्न किया गया है । किन सम्बन्धी सावरण चिन्ह को भिन्न किया गया है [इत्थीणं] स्त्रियों के सावरण चिन्ह को भिन्न किया गया है- इसप्रकार पूर्वपक्ष परक (प्रश्न परक) गाथा हुई ॥२४४॥

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    णिच्छयदो इत्थीणं सिद्धी ण हि तेण जम्मणा दिट्ठा ।
    तम्हा तप्पडिरूवं वियप्पियं लिंगमित्थीणं ॥245॥
    नारियों को उसी भव में मोक्ष होता ही नहीं ।
    आवरणयुत लिंग उनको इसलिए ही कहा है ॥२४५॥
    अन्वयार्थ : निश्चय से उसी भव में, स्त्रियों का मोक्ष नहीं देखा गया है, इसलिए स्त्रियों के आवरण सहित पृथक चिन्ह कहा गया है ॥२४५॥

    जयसेनाचार्य :
    अब, स्त्रियों के मोक्ष के रोकनेवाली (उनकी) प्रमाद की बहुलता को दिखाते हैं -

    [णिच्छयदो ड़त्थीणं सिद्धी ण हि तेण जम्मणा दिट्ठा] निश्चय से स्त्रियों के नरकादि गतियों से विलक्षण अनन्त सुखादि गुण स्वभावरूप सिद्धि उसी जन्म-पर्याय से नहीं देखी गई है - नहीं कही गई है । [तम्हा तप्पडिरूवं] उस कारण उसके प्रतियोग्य सावरण- वस्त्र सहित रूप, [वियप्पियं लिंगमि-त्थीणं] निर्ग्रन्थलिंग से पृथक् होने के कारण, वस्त्र सहित चिन्ह भिन्न कहा गया है । वस्त्र सहित चिह्न किनका कहा गया है ? स्त्रियों का वस्त्र सहित चिन्ह कहा गया है ॥२४५॥

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    पइडीपमादमइया एदासिं वित्ति भासिया पमदा ।
    तम्हा ताओ पमदा पमादबहुला त्ति णिद्दिट्ठा ॥246॥
    प्रकृतिजन्य प्रमादमय होती है उनकी परिणति ।
    प्रमाद बहुला नारियों को इसलिए प्रमदा कहा ॥२४६॥
    अन्वयार्थ : स्वभाव से उनकी परिणति प्रमादमयी होती है, इसलिए उन्हें प्रमदा कहा गया है, और इसलिए वे प्रमाद बहुल-प्रमाद की अधिकता वाली कही गई हैं ॥२४६॥

    जयसेनाचार्य :
    [पइडीपमादमइया] प्रकृति अर्थात् स्वभाव से प्रमाद से रची हुई प्रमादमयी है । कौन करने वाली प्रमादमयी है? [एदासिं वित्ति] इन स्त्रियों की वृत्ति-परिणति प्रमादमयी है । [भासिया पमदा] इसलिये नाममाला में प्रमदा-प्रमदा नाम स्त्रियों का कहा गया है । [तम्हा ताओ पमदा] इसलिये ही उन स्त्रियों की प्रमाद संज्ञा है, इस कारण से ही वे [पमादबहुला त्ति णिद्दिट्ठा] प्रमाद रहित परमात्मतत्व की भावना को नष्ट करनेवाली प्रमाद बहुला कही गई हैं ॥२४६॥

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    संति धुवं पमदाणं मोहपदोसा भयं दुगुंछा य ।
    चित्ते चित्ता माया तम्हा तासिं ण णिव्वाणं ॥247॥
    नारियों के हृदय में हो मोह द्वेष भय घृणा ।
    माया अनेक प्रकार की बस इसलिए निर्वाण ना ॥२४७॥
    अन्वयार्थ : स्त्रियों के मन में मोह, प्रद्वेष, भय, ग्लानि और विचित्र प्रकार की माया निश्चित होती है; इसलिए उन्हें मोक्ष नहीं है ॥२४७॥

    जयसेनाचार्य :
    अब उनके मोहादि की बहुलता को दिखाते हैं -

    [संति धुवं पमदाणं] प्रमदाओं-स्त्रियों के ध्रुव-निश्चित हैं । स्त्रियों के वे क्या निश्चित हैं ? [मोह पदोसा भयं दुगुंछा य] मोह आदि से रहित अनन्त सुख आदि गुण स्वरूप मोक्ष के कारणों को रोकनेवाले मोह, प्रद्वेष, भय दुगुंछा-ग्लानिरूप परिणाम स्त्रियों के निश्चित हैं । [चित्ते चित्ता माया] कुटिलता-वक्रता आदि से रहित परमज्ञान-केवलज्ञान आदि रूप परिणति से विपरीत चित्त में- मन में चित्र- अनेक प्रकार की माया होती है, [तम्हा तासिं ण णिव्वाणं] इसलिये उनके, बाधाओं से रहित सुख आदि अनन्त गुणों का आधारभूत मोक्ष नहीं है- ऐसा अभिप्राय है ॥२४७॥

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    ण विणा वट्टदि णारी एक्कं वा तेसु जीवलोयम्हि ।
    ण हि संउडं च गत्तं तम्हा तासिं च संवरणं ॥248॥
    एक भी है दोष ना जो नारियों में नहीं हो ।
    अंग भी ना ढके हैं अतएव आवरणी कही ॥२४८॥
    अन्वयार्थ : इस जीव-लोक में नारी एक भी दोष के बिना नहीं है, तथा उसके अंग भी संवृत (ढंके हुए) नहीं हैं, इसलिए उनके आवरण (वस्त्र) हैं ॥२४८॥

    जयसेनाचार्य :
    अब इसे ही दृढ़ करते हैं -

    [ण विणा वट्टदि णारी] स्त्री उनके बिना नहीं है, [एक्कं वा तेसु जीवलोयम्हि] उन दोषों रहित परमात्मा के ध्यान को नष्ट करनेवाले, पहले ( २४७ वीं गाथा में) कहे गये दोषों में से एक भी दोष को छोड़कर वह जीवलोक में नहीं है, [ण हि संउडं च गत्तं] वास्तव में उसका शरीर भी संवृत (ढंका हुआ) नहीं है, [तम्हा तासिं च संवरणं] और इसलिये उनका संवरण-वस्त्रावरण किया जाता है- उन्हें वस्त्रों से ढंका जाता है ॥२४८॥

    🏠
    चित्तस्सावो तासिं सित्थिल्लं अत्तवं च पक्खलणं ।
    विज्जदि सहसा तासु अ उप्पादो सुहममणुआणं ॥249॥
    चित्त चंचल शिथिल तन अर रक्त आवे अचानक ।
    और उनके सूक्ष्म मानव सदा ही उत्पन्न हो ॥२४९॥
    अन्वयार्थ : स्त्रियों के चित्त में चंचलता और उनमें शिथिलता होती है, तथा अचानक (ऋतु समय में) रक्त प्रवाहित होता है और उनमें सूक्ष्म मनुष्यों की उत्पत्ति होती है ॥२४९॥

    जयसेनाचार्य :
    अब और भी निर्वाण को रोकनेवाले दोषों को दिखाते हैं -

    [विज्जदि] पाया जाता है, [तासु अ] और उन स्त्रियों में । उन स्त्रियों में क्या पाया जाता है ? [चित्तस्सावि] चित्त का प्रवाह, काम वासना से रहित आत्मतत्त्व की अनुभूति को नष्ट करनेवाले मन का काम के उद्रेक (तीवता) से स्रव होना- राग से आर्द्र होना-चंचल होना उन स्त्रियों में पाया जाता है, [तासिं] उन स्त्रियों के [सित्थिल्लं] शिथिल का भाव- शिथिलता- उसी भव में मोक्ष जाने योग्य परिणामों के विषय में, मन की दृढ़ता का अभाव-सत्वहीन-कमजोर परिणाम होते है- ऐसा अर्थ है, [अत्तवं च पक्खलणं] ऋतु में होने वाले आर्तव का प्रस्खलन-रक्त का बहना, सहसा- जल्दी- प्रत्येक महिने में तीन दिन मन की शुद्धि को नष्ट करने वाला रक्त प्रवाह उनके होता है- ऐसा अर्थ है, [उप्पादो सुहममणुआणं] सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों की उत्पत्ति होती है ॥२४९॥

    🏠
    लिंगम्हि य इत्थीणं थणंतरे णाहिकक्खपदेसेसु ।
    भणिदो सुहुमुप्पादो तासिं कह संजमो होदि ॥250॥
    योनि नाभि काँख एवं स्तनों के मध्य में ।
    सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते रहें उनके नित्य ही ॥२५०॥
    अन्वयार्थ : स्त्रियों के लिंग में (योनी-स्थान) में, स्तनान्तर (दोनों स्तनों के बीच के स्थान में), नाभि में और कक्ष (कांख) स्थान में सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति कही गई है; ऐसा होने पर उनमें संयम कैसे हो सकता है ? ॥२५०॥

    जयसेनाचार्य :
    अब (उन लब्ध्यपर्याप्तक जीवों की) उत्पत्ति के स्थान कहते हैं -

    [लिंगम्हि य ड़त्थीणं थणंतरे णाहिकक्खपदेसेसु] स्त्रियों के लिंग अर्थात् योनिप्रदेश में, स्तनों के मध्य भाग में, नाभि प्रदेश में और कक्ष (काँख) प्रदेश में, [भणिदो सुहुमुप्पादो] इन स्थानों में सूक्ष्म मनुष्यादि जीवों की उत्पत्ति कही गई है ।

    ये पहले (२४७,२५० वीं गाथा मे) कहे गए मोहादि, जीवोत्पत्ति आदि दोष क्या पुरुषों के नहीं होते हैं ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते है- ऐसा नहीं कहना चाहिये, (पुरुषों में होते हैं परन्तु) स्त्रियों के बहुलता से होते हैं । होने मात्र से समानता नहीं होती है । एक के विष की कणिका मात्र है और दूसरे के विष के पर्वत हैं दोनों में क्या समानता है? बल्कि पुरुषों के प्रथम (वज्रवृषभनाराच) सहंनन के बल से दोषों को नष्ट करनेवाला, मुक्ति के योग्य, विशेष संयम है । [तासिं कह संजमो होदि] (उपर्युक्त दोषों के कारण) उनके (स्त्रियों के) संयम कैसे हो सकता है ॥२५०॥

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    जदि दंसणेण सुद्धा सुत्तज्झयणेण चावि संजुत्ता ।
    घोरं चरदि व चरियं इत्थिस्स ण णिज्जरा भणिदा ॥251॥
    अरे दर्शन शुद्ध हो अर सूत्र अध्ययन भी करें ।
    घोर चारित्र आचरे पर न नारियों के निर्जरा ॥२५१॥
    अन्वयार्थ : यदि स्त्री सम्यग्दर्शन से शुद्ध हो, आगम के अध्ययन से भी सहित हो तथा घोर चारित्र का भी आचरण करती हो, तो भी स्त्री के (सम्पूर्ण कर्मों की) निर्जरा नहीं कही गई है ॥२५१॥

    जयसेनाचार्य :
    अब स्त्रियों के उसी भव से मोक्ष जाने योग्य सम्पूर्ण कर्मों की निर्जरा का निषेध करते हैं -

    [जदि दंसणेण सुद्धा] यद्यपि दर्शन से-सम्यक्त्व से शुद्ध है, [सुत्तज्झ्यणेण चावि संजुत्ता] ग्यारह अंग रूप सूत्र- आगम के अध्ययन से भी संयुक्त है, [घोरं चरदि व चरियं] घोर पक्षोपवास (१५ दिन के उपवास) अथवा मासोपवास (एक महिने के उपवास) आदि चारित्र का आचरण करती है, [इत्थिस्स ण णिज्जरा भणिदा- फिर भी स्त्री के, उसी भव से कर्मों के क्षय योग्य सम्पूर्ण निर्जरा नहीं कही गई है- ऐसा भाव है ।

    दूसरी बात यह है कि जैसे प्रथम संहनन का अभाव होने से, स्त्री सातवें नरक नहीं जाती है उसी प्रकार मोक्ष भी नहीं जाती है ।

    "जो पुरुष, भाव पुरुष वेद का वेदन करते हुये अथवा शेष के उदय से भाव स्त्री या नपुंसक वेद का वेदन करते हुये क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होते हैं वे ध्यान में लीन मुनि सिद्ध होते हैं ।''

    इसप्रकार गाथा में कहे गये अर्थ के अभिप्राय से भाव स्त्रियों के मोक्ष कैसे होता है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो उत्तर कहते हैं- उन भाव स्त्रियों के प्रथम संहनन होता है तथा द्रव्य स्त्रीवेद का अभाव होने से, उसी भव से मोक्ष जानेवाले परिणामों को रोकनेवाला तीव कामोद्रेक भी नहीं होता है (अत: उन्हें मोक्ष हो जाता है)

    ''द्रव्य स्त्रियों के पहला संहनन नहीं है ''- ऐसा किस आगम में कहा गया है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो वहाँ उदाहरण गाथा कहते हैं-

    ''कर्मभूमि महिलाओं के नियम से अन्त के तीन संहनन होते हैं आदि के तीन संहनन उनके नहीं होते हैं- ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ।"

    यहाँ प्रश्न यह है कि यदि स्त्रियों को मोक्ष नहीं होता है, तो आपके मत में आर्यिकाओं के महाव्रत का आरोपण किसलिये किया गया है? आचार्य उत्तर देते हैं कि कुल-व्यवस्था के निमित्त वह उपचार किया गया है । और उपचार साक्षात् होने के योग्य नहीं होता है; 'यह देवदत्त अग्नि के समान क्रूर है' इत्यादि के समान ।

    वैसा ही कहा भी है-

    ''मुख्य का अभाव होने पर प्रयोजन और निमित्त में उपचार प्रवृत्त होता है ।''

    किन्तु यदि स्त्री के उस भव में मोक्ष होता, तो सौ वर्ष पहले दीक्षित आर्यिका द्वारा, आज के ही दिन दीक्षित साधु पूज्य कैसे होता है? वे आर्यिका ही, उन साधु द्वारा पहले से पूज्य क्यों नहीं होती हैं ?

    किन्तु आपके मत में 'मल्लि तीर्थकर स्त्री हैं' ऐसा कहते हैं वह भी उचित नहीं है । क्योंकि पहले भव में सम्यग्दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनायें भाकर बाद में तीर्थंकर होते हैं । सम्यग्दृष्टि के स्त्रीवेद कर्म का बन्ध ही नहीं होता है, तब वे स्त्री कैसे हो गये? दूसरी बात यह है कि यदि मल्लि तीर्थंकर अथवा दूसरा कोई भी स्त्री होकर मोक्ष गया है, तो आपके द्वारा स्त्री रूप प्रतिमा की आराधना क्यों नहीं की जाती है ।

    पहले (२४७ वीं गाथा आदि मे) कहे गये दोष स्त्रियों के होते हैं; तो सीता, रुक्मणि, कुन्ती, द्रोपदी, सुभद्रा आदि स्त्रियाँ जिनदीक्षा ग्रहणकर तपश्चरणकर सोलहवें स्वर्ग में कैसे गई हैं? यदि आपका ऐसा प्रश्न हो तो उसका उत्तर देते है - वहाँ दोष नहीं है, उस स्वर्ग से आकर, आगे पुरुषवेद द्वारा मोक्ष जायेंगी । उसी भव से मोक्ष नहीं है, अन्य भव में हो कोई दोष नहीं है ।

    यहाँ तात्पर्य यह है- स्वयं वस्तु-स्वरूप ही जानना चाहिए, दूसरों से विवाद नहीं करना चाहिये । दूसरों से विवाद क्यों नहीं करना चाहिये? विवाद में रागद्वेष की उत्पत्ति होती है, और उससे शुद्धात्मा की भावना नष्ट होती है; इसलिये दूसरों से विवाद नहीं करना चाहिये ॥२५१॥

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    तम्हा तं पडिरूवं लिंगं तासिं जिणेहिं णिद्दिट्ठं ।
    कुलरूववओजुत्ता समणीओ तस्समाचारा ॥252॥
    इसलिए उनके लिंग को बस सपट ही जिनवर कहा ।
    कुलरूप वययुत विज्ञ श्रमणी कही जाती आर्यिका ॥२५२॥
    अन्वयार्थ : इसलिए जिनेन्द्र भगवान ने, उन स्त्रियों का चिन्ह वस्त्र सहित कहा है; कुल, रूप, वय से सहित अपने योग्य आचार का पालन करतीं हुईं वे, श्रमणी--आर्यिका कहलाती हैं ॥२५२॥

    जयसेनाचार्य :
    अब, उपसंहाररूप से स्थित पक्ष को दिखाते हैं -

    [तम्हा] जिस कारण उसी भव से मोक्ष नहीं होता, उस कारण [तं पडिरूवं लिंगं तासिं जिणेहिं णिद्दिट्ठं] उनके प्रतिरूप वस्त्र-प्रावरण सहित लिंग-चिन्ह-लांछन उन स्त्रियों का, सर्वज्ञ-जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया है । [कुलरूववयोजुत्ता समणीओ] लोक में निन्दा-घृणा से रहित होने के कारण जिन दीक्षा के याग्य कुल-कुल कहलाता है । अंतरंग की विकार रहित मन की शुद्धि को बतानेवाला, बाहर में विकार रहित वेष - रूप कहलाता है; भंग रहित- अंगोपांग हीनता रहित शरीर अथवा अधिक बालपना या वृद्धपना से सम्बन्धित बुद्धि की विकलता (अस्थिरता) से रहित उम्र - वय कहलाती है; उन कुल, रूप, वय से सहित कुल-रूप-वय सहित होती हैं (इसप्रकार तृतीया तत्पुरुष समास किया) । कुल, रूप, वय से सहित कौन होती हैं? श्रमणी-अर्जिका-आर्यिका कुल, रूप, वय से सहित होती हैं । और भी वे किस विशेषता वाली हैं? [तस्समाचारा] उन स्त्रियों के योग्य-तद्योग्य- आचार-शास्त्र में कहा गया समाचार-आचार-आचरण है जिनका, वे उस समाचार सम्पन्न आर्यिकायें हैं ॥२५२॥

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    + दीक्षाग्रहण में वर्ण व्यवस्था -
    वण्णेसु तीसु एक्को कल्लाणंगो तवोसहो वयसा ।
    सुमुहो कुच्छारहिदो लिंगग्गहणे हवदि जोग्गो ॥253॥
    त्रिवर्णी नीरोग तप के योग्य वय से युक्त हों ।
    सुमुख निन्दा रहित नर ही दीक्षा के योग्य हैं ॥२५३॥
    अन्वयार्थ : तीन वर्णों में से कोई एक वर्ण वाला, निरोग शरीरी, वय से तपश्चरण को सहन करने वाला, सुन्दर मुखवाला, लोक की निंदा से रहित पुरुष दीक्षा ग्रहण के योग्य होता है ॥२५३॥

    जयसेनाचार्य :
    अब, इस समय पुरुषों के दीक्षाग्रहण में वर्ण व्यवस्था कहते हैं -

    [वण्णेसु तीसु एक्को] तीन वर्णों में से एक ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्णों में से कोई एक वर्ण । [कल्लाणंगो] कल्याणांग-निरोग शरीर । [तवोसहो वयसा] तप: सह-तप को सहने में समर्थ । किसके द्वारा तप को सहने में समर्थ हो? अधिक वृद्धता और अधिक बालता से रहित वय द्वारा तप को सहनेवाला । [सुमुहो] विकार रहित अंतरंग में परम चैतन्य परिणतिरूप विशुद्धि को बतानेवाला; गमक (ज्ञान करानेवाला), बाहर में विकार रहित है मुख जिसका अथवा जो मुख के अवयवों के भंग से रहित है, वह सुमुख है । [कुच्छारहिदो] लोक में दुराचार आदि अपवादों से रहित । [लिंगग्गहणे हवदि जोग्गो] इन गुणों से विशिष्ट पुरुष जिन-दीक्षा ग्रहण करने के योग्य है । यथा योग्य सत् शूद्र आदि भी जिन-दीक्षा ग्रहण के योग्य हैं ॥२५३॥

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    + निश्चयनय का अभिप्राय -
    जो रयणत्तयणासो सो भंगो जिणवरेहिं णिद्दिट्ठो ।
    सेसं भंगेण पुणो ण होदि सल्लेहणा अरिहो ॥254॥
    रत्नत्रय का नाश ही है भंग जिनवर ने कहा ।
    भंगयुत हो श्रमण तो सल्लेखना के योग्य ना ॥२५४॥
    अन्वयार्थ : जो रत्नत्रय का नाश है, उसे जिनेन्द्र भगवान ने भंग कहा है; तथा शेष भंग द्वारा वह सल्लेखना के योग्य नहीं होता है ॥२५४॥

    जयसेनाचार्य :
    अब, निश्चयनय का अभिप्राय कहते हैं -

    [जो रयणत्तयणासो सो भंगो जिणवरेहिं णिद्दिट्ठो] जो रत्नत्रय का नाश है, वह जिनेन्द्र भगवान द्वारा भंग कहा गया है । विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावरूप अपने परमात्मतत्त्व की सम्यक् श्रद्धा उसका ही सम्यग्ज्ञान और उसमें ही सम्यक् अनुष्ठान (लीनता आचरण) रूप जो वह निश्चय रत्नत्रयरूप अपना भाव है, उसका नष्ट होना; वही निश्चय से नाश-भंग, जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहा गया है । [सेसं भंगेण पुणो] तथा शेष भंग द्वारा- शेष शरीर के किसी अंग के टूट जाने पर, मुण्ड हो जाने पर, वायु रोग हो जाने पर, वृषण (अण्डकोष) आदि के भंग हो जाने पर, [ण होदि सल्लेहणा अरिहो] सल्लेखना के योग्य नहीं होता है- लोक निन्दा के भय से निर्ग्रन्थरूप धारण करने योग्य नहीं है । कौपीन ग्रहण द्वारा उसकी भावना करने योग्य है- ऐसा अभिप्राय है ॥२५४॥

    इसप्रकार स्त्री-मुक्ति-निराकरण के व्याख्यान की मुख्यता से ग्यारह गाथाओं द्वारा तीसरा स्थल समाप्त हुआ ।

    (अब अपवाद मार्ग के विशेष व्याख्यान परक ग्यारह गाथाओं में निबद्ध अन्तिम चौथा स्थल प्रारम्भ होता है ।)

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    + उपकरण रूप अपवाद व्याख्यान का विशेष -
    उवयरणं जिणमग्गे लिंगं जहजादरूवमिदि भणिदं । (225)
    गुरुवयणं पि य विणओ सुत्तचझयणं च णिद्दिट्ठं ॥255॥
    उपकरणं जिनमार्गे लिङ्गं यथाजातरूपमिति भणितम् ।
    गुरुवचनमपि च विनयः सूत्राध्ययनं च निर्दिष्टम् ॥२२५॥
    जन्मते शिशुसम नगन तन विनय अर गुरु के वचन ।
    आगम पठन हैं उपकरण जिनमार्ग का ऐसा कथन ॥२२५॥
    अन्वयार्थ : [यथाजातरूपं लिंगं] यथाजातरूप (जन्मजात-नग्न) जो लिंग वह [जिनमार्गे] जिनमार्ग में [उपकरणं इति भणितम्] उपकरण कहा गया है, [गुरुवचनं] गुरु के वचन, [सूत्राध्ययनं च] सूत्रों का अध्ययन [च] और [विनय: अपि] विनय भी [निर्दिष्टम्] उपकरण कही गई है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, अपवाद के कौन से विशेष (भेद) हैं, सो कहते हैं :-

    इसमें जो अनिषिद्ध उपधि अपवाद है, वह सभी वास्तव में ऐसा ही है कि जो श्रामण्य पर्याय के सहकारी कारण के रूप में उपकार करने वाला होने से उपकरण भूत है, दूसरा नहीं । उसके विशेष (भेद) इस प्रकार हैं :- (अपवाद मार्ग में जिस उपकरणभूत उपधि का निषेध नहीं है उसके उपरोक्त चार भेद हैं ।)


    यहाँ ऐसा तात्पर्य है कि काय की भाँति वचन और मन भी वस्तुधर्म नहीं है ।

    जयसेनाचार्य :
    अब पहले (२४२वीं गाथा में) कहे गये उपकरण रूप अपवाद व्याख्यान का विशेष कथन करते हैं -

    [इदि भणिदं] ऐसा कहा गया है । क्या कहा गया है? [उवयरणं] उपकरण कहा गया है । उपकरण कहां कहा गया है? [जिणमग्गे] जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे गये मोक्षमार्ग में, उपकरण कहा गया है । वहां, उपकरण किसे कहा गया है? [लिंगं] शरीर के आकार पुद्गल पिण्डरूप द्रव्यलिंग को, वहाँ उपकरण कहा गया है । वह द्रव्यलिंग किस विशेषता वाला है? [जहजादरूवं] यथाजातरूप-यथाजातरूप शब्द के द्वारा यहाँ, व्यवहार से परिग्रह के परित्याग सहित नग्नरूप और निश्चय से अन्दर में शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव परमात्म-स्वरूप विवक्षित है । [गुरुवयणं पि य] गुरु के वचन भी -विकार रहित उत्कृष्ट चैतन्य ज्योतिस्वरूप परमात्मतत्व का ज्ञान करानेवाले, सारभूत सिद्ध (सफल) उपदेशरूप गुरु के उपदेशरूप वचन । गुरु के उपदेशरूप वचन मात्र ही नहीं, वरन् [सुत्तज्झयणं च] और आदि-मध्य-अन्त से रहित, जन्म-जरा (बुढ़ापा)-मरण से रहित अपने आत्मद्रव्य को प्रकाशित करनेवाले- बतानेवाले सूत्रों का अध्ययन-परमागम का वाचन- ऐसा अर्थ है । [णिद्दिट्ठं] उपकरणरूप कहे गये हैं । [विणओ] अपने निश्चयरत्नत्रय की शुद्धि निश्चय-विनय है और उसके आधारभूत पुरुषों में भक्ति का परिणाम व्यवहार-विनय है । दोनों ही प्रकार के विनय परिणाम उपकरण हैं -- ऐसा कहा गया है ।

    इससे क्या कहा गया है? निश्चय से चार ही उपकरण हैं और दूसरे तो व्यवहार उपकरण हैं ॥२५५॥

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    + युक्त आहार-विहार -
    इहलोगणिरावेक्खो अप्पडिबद्धो परम्हि लोयम्हि । (226)
    जुत्ताहारविहारो रहिदकसाओ हवे समणो ॥256॥
    इहलोकनिरापेक्षः अप्रतिबद्धः परस्मिन् लोके ।
    युक्ताहारविहारो रहितकषायो भवेत् श्रमणः ॥२२६॥
    इहलोक से निरपेक्ष यति परलोक से प्रतिबद्ध ना ।
    अर कषायों से रहित युक्ताहार और विहार में ॥२२६॥
    अन्वयार्थ : [श्रमण:] श्रमण [रहितकषाय:] कषायरहित वर्तता हुआ [इहलोक निरापेक्षः] इस लोक में निरपेक्ष और [परस्मिन् लोके] परलोक में [अप्रतिबद्ध:] अप्रतिबद्ध होने से [युक्ताहारविहार: भवेत्] युक्ताहार-विहारी होता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, अनिषिद्ध ऐसा जो शरीर मात्र उपधि उसके पालन की विधि का उपदेश करते हैं :-

    अनादिनिधन एकरूप शुद्ध आत्मतत्त्व में परिणत होने से श्रमण समस्त कर्मपुद्‌गल के विपाक से अत्यन्त विविक्त (भिन्‍न) स्वभाव के द्वारा कषायरहित होने से, उस (वर्तमान) काल में मनुष्यत्व के होते हुए भी (स्वयं) समस्त मनुष्यव्यवहार से बहिर्भूत होने के कारण इस लोक के प्रति निरपेक्ष (निस्पृह) है; तथा भविष्य में होने वाले देवादि भावों के अनुभव की तृष्णा से शून्य होने के कारण परलोक के प्रति अप्रतिबद्ध है; इसलिये, जैसे ज्ञेय पदार्थों के ज्ञान की सिद्धि के लिये (घटपटादि पदार्थों को देखने के लिये ही) दीपक में तेल डाला जाता है और दीपक को हटाया जाता है, उसी प्रकार श्रमण शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि की सिद्धि के लिये (शुद्धात्मा को प्राप्त करने के लिये ही) वह शरीर को खिलाता और चलाता है, इसलिये युक्ताहारविहारी होता है ।

    यहाँ ऐसा तात्पर्य है कि :- श्रमण कषायरहित है इसलिये वह शरीर के (वर्तमान मनुष्य-शरीर के) अनुराग से या दिव्य शरीर के (भावी देवशरीर के) अनुराग से आहार-विहार में अयुक्तरूप से प्रवृत्त नहीं होता; किन्तु शुद्धात्मतत्व की उपलब्धि की साधकभूत श्रामण्यपर्याय के पालन के लिये ही केवल युक्ताहारविहारी होता है ॥२२६॥

    जयसेनाचार्य :
    अब, युक्त (उचित) आहार-विहार लक्षण मुनिराज का स्वरूप प्रसिद्ध करते हैं -

    [इह लोगणिरावेक्खो] इस लोक से निरपेक्ष, टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभावी अपने आत्मा की अनुभूति को नष्ट करनेवाली, प्रसिद्धि, पूजा, लाभरूप इस लोक सम्बन्धी इच्छाओं से रहित; [अप्पडिबद्धो परम्मि लोयम्हि] परलोक में अप्रतिबद्ध, तपश्चरण करने पर दिव्य देव-स्त्री-परिवार आदि भोग प्राप्त होते है- इसप्रकार परलोक के विषय में प्रतिबद्ध (विषयाकांक्षारूप बंधन) नहीं हैं; [जुत्ताहारविहारो हवे] युक्ताहार-विहारी हों । कौन युक्ताहार-विहारी हों? [समणो] श्रमण युक्ताहार-विहारी हों । वे श्रमण किस विशेषतावाले हैं? [रहिदकसाओ] और कषाय रहित स्वरूप की अनुभूतिरूप अवलम्बन के बल से वे कषाय रहित हैं ।

    यहाँ भावार्थ यह है- जो वे, इस लोक और परलोक से निरपेक्ष तथा कषाय रहित होने के कारण दीपक के स्थानीय शरीर में, तेल के स्थानीय ग्रास मात्र देकर घड़े-कपड़े आदि प्रकाशित होने योग्य पदार्थों के स्थानीय अपने परमात्म-पदार्थ का ही निरीक्षण करते हैं; वे ही युक्ताहार-विहारी हैं; शरीर की पुष्टि में लगे हुये और दूसरे नहीं ॥२५६॥

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    + प्रमाद -
    कोहादिएहिं चउहिं वि विकहाहिं तहिंदियाणमत्थेहिं ।
    समणो हवदि पमत्तो उवजुत्तो णेहणिद्दाहिं ॥257॥
    चार विकथा कषाय और इन्द्रियों के विषय में ।
    रत श्रमण निद्रा-नेह में प्रमत्त होता है श्रमण ॥२५७॥
    अन्वयार्थ : चार प्रकार के क्रोधादि से, चार प्रकार की विकाथाओं से, उसीप्रकार इन्द्रियों के विषयों से, स्नेह और निद्रा से उपयुक्त होता हुआ श्रमण प्रमत्त होता है ।

    जयसेनाचार्य :
    अब, पन्द्रह प्रमादों द्वारा मुनिराज प्रमत्त होते हैं ऐसा प्रतिपादन करते है -

    [हवदि] क्रोधादि पन्द्रह प्रमादों से रहित चैतन्य चमत्कार मात्र आत्मतत्त्व की भावना से च्युत रहते हुये होते हैं । कर्तारूप वे कौन होते हैं? [समणो] सुख-दुःख आदि में समान मनवाले मुनिराज होते हैं । वे मुनिराज किस विशेषतावाले होते हैं? [पमत्तो] वे मुनिराज प्रमत्त-प्रमादी होते हैं । वे किनसे प्रमादी होते हैं? [कोहादिएहिं चउहिं वि] चारों प्रकार के क्रोधादि द्वारा, [विकहाहिं] स्त्री कथा, भक्त कथा, चोर कथा, राजकथा रूप विकथाओं द्वारा, [तहिंदियाणमत्थेहिं] उसीप्रकार पाँच इन्द्रियों के अर्थों-स्पर्श आदि विषयों द्वारा प्रमादी होते हैं । और भी वे किसरूप हैं? [उवजुत्तो] उपयुक्त अर्थात् परिणत हैं । किन रूपों से परिणत हैं? [णेहणिद्दाहिं] स्नेह और निद्रारूप से परिणत हैं ॥२५७॥

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    + युक्ताहार-विहार -
    जस्स अणेसणमप्पा तं पि तवो तप्पडिच्छगा समणा । (227)
    अण्णं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा ॥258॥
    यस्यानेषण आत्मा तदपि तपः तत्प्रत्येषकाः श्रमणाः ।
    अन्यद्भैक्षमनेषणमथ ते श्रमणा अनाहाराः ॥२२७॥
    अरे भिक्षा मुनिवरों की ऐषणा से रहित हो।
    वे यतीगण ही कहे जाते हैं अनाहारी श्रमण ॥२२७॥
    अन्वयार्थ : [यस्य] आत्मा [अनेषण:] जिसका आत्मा एषणारहित है (अर्थात् जो अनशनस्वभावी आत्मा का ज्ञाता होने से स्वभाव से ही आहार की इच्छा से रहित है) [तत् अपि तप:] उसे वह भी तप है; (और) [तत्यत्येषका:] उसे प्राप्त करने के लिये (अनशन स्वभाव वाले आत्मा को परिपूर्णतया प्राप्त करने के लिये) प्रयत्न करने वाले [श्रमणा:] श्रमणों के [अन्यत् भैक्षम्] अन्य (स्वरूप से पृथक्) भिक्षा [अनेषणम्] एषणारहित (एषणदोष से रहित) होती है; [अथ] इसलिए [ते श्रमणा:] वे श्रमण [अनाहारा:] अनाहारी हैं।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, युक्ताहारविहारी साक्षात् अनाहारविहारी (-अनाहारी और अविहारी) ही है ऐसाउपदेश करते हैं :-

    युक्ताहारी (युक्ताहार वाला श्रमण) साक्षात् अनाहारी ही है । वह यथा—सदा ही समस्त पुद्‌गलाहार से शून्य ऐसे आत्मा को जानता हुआ समस्त अशनतृष्णा रहित होने से जिसका स्वयं अनशन ही स्वभाव है, वही उसके अनशन नामक तप है, क्योंकि अंतरंग की विशेष बलवत्ता है;—ऐसा समझकर जो श्रमण वे आहार करते हुए भी मानों आहार नहीं करते हों—ऐसे होने से साक्षात् अनाहारी ही हैं, क्योंकि युक्ताहारीपने के कारण उनके स्वभाव तथा परभाव के निमित्त से बन्ध नहीं होता ।

    इस प्रकार (जैसे युक्ताहारी साक्षात् अनाहारी ही है, ऐसा कहा गया है उसी प्रकार), युक्तविहारी (श्रमण) साक्षात् अविहारी ही है -- ऐसा अनुक्त होने पर भी (गाथा में नहीं कहा जाने पर भी) समझना चाहिये ॥२२७॥

    जयसेनाचार्य :
    अब, युक्ताहार-विहारी मुनिराज के स्वरूप का उपदेश देते हैं -

    [जस्स] जिन मुनि सम्बन्धी [अप्पा] आत्मा । वे किस विशेषतावाले हैं? [अणेसणं] अपने शुद्धात्मतत्त्व की भावना से उत्पन्न सुखरूपी अमृत के आहार से तृप्त होने के कारण, जिन्हे एषण-आहार की आकांक्षा-इच्छा नहीं है, वे अनेषण हैं, [तं पि तवो] उनके निश्चय से वही; आहार रहित आत्मा की भावनारूप उपवास लक्षण तप है, [तप्पडिच्छगा समणा] उसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील श्रमण, उस निश्चय उपवास लक्षण तप को (जो) चाहते हैं, (वे) उसके प्रत्येषक श्रमण हैं । और भी जिनके क्या है ? [अण्णं] अपने परमात्मतत्व से दूसरे भिन्न हेय हैं । वे दूसरे क्या हैं? [अणेसणं] अन्न की-आहार की-भोजन की एषणा-वांछा-इच्छा -अन्नेषण, दूसरी-भिन्न है । वह भोजन की इच्छा कैसी है? [भिक्खं] भिक्षा के समय होनेवाली-भिक्ष्य-भिक्षारूप है । [अध] अब, अहो! ऐसा होने पर भी [ते समणा अणाहारा] वे अनशन आदि गुणों से विशिष्ट श्रमणआहार ग्रहण करते हुये भी अनाहारी हैं ।

    और उसीप्रकार जो निष्क्रिय परमात्मा की भावना करते हैं और पाँच समिति सहित विहार करते हैं वे विहार करते हुये भी अविहारी है- ऐसा अर्थ है ॥२५८॥

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    केवलदेहो समणो देहे ण ममत्ति रहिदपरिकम्मो । (228)
    आजुत्तो तं तवसा अणिगूहिय अप्पणो सत्तिं ॥259॥
    केवलदेहः श्रमणो देहे न ममेति रहितपरिकर्मा ।
    आयुक्तबांस्तं तपसा अनिगूह्यात्मनः शक्तिम् ॥२२८॥
    तनमात्र ही है परिग्रह ममता नहीं है देह में ।
    शृंगार बिन शक्ति छुपाए बिना तप में जोड़ते ॥२२८॥
    अन्वयार्थ : [केवलदेह: श्रमण:] केवलदेही (जिसके मात्र देहरूप परिग्रह वर्तता है, ऐसे) श्रमण ने [देहे] शरीर में भी [न मम इति] 'मेरा नहीं है' ऐसा समझकर [रहितपरिकर्मा] परिकर्म (श्रंगार) रहित वर्तते हुए, [आत्मनः] अपने आत्मा की [शक्तिं] शक्ति को [अनिगूह्य] छुपाये बिना [तपसा] तप के साथ [तं] उसे (शरीर को) [आयुक्तवान्] युक्त किया (जोड़ा) है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, (श्रमण के) युक्ताहारीपना कैसे सिद्ध होता है सो उपदेश करते हैं :-

    श्रामण्यपर्याय के सहकारी कारण के रूप में केवल देहमात्र उपधि को श्रमण बलपूर्वक-हठ से निषेध नहीं करता इसलिये वह केवल देहवान् है; ऐसा (देहवान्) होने पर भी, 'किं किंचण' इत्यादि पूर्वसूत्र (गाथा २४४) द्वारा प्रकाशित किये गये परमेश्वर के अभिप्राय को ग्रहण करके, 'यह (शरीर) वास्तव में मेरा नहीं है इसलिये यह अनुग्रह योग्य नहीं है किन्तु उपेक्षा योग्य ही है' इस प्रकार देह में समस्त संस्कार को छोड़ा होने से परिकर्मरहित है । इसलिये उसके देह के ममत्वपूर्वक अनुचित आहार ग्रहण का अभाव होने से युक्ताहारीपना सिद्ध होता है । और (अन्य प्रकार से) उसने (आत्मशक्ति को किंचित्‌मात्र भी छुपाये बिना) समस्त ही आत्मशक्ति को प्रगट करके, अन्तिम सूत्र (गाथा २२७) द्वारा कहे गये अनशनस्वभावलक्षण तप के साथ उस शरीर को सर्वारम्भ (उद्यम) से युक्त किया है (जोड़ा है); इसलिये आहारग्रहण के परिणामस्वरूप योगध्वंस का अभाव होने से उसका आहार युक्त का (योगी का) आहार है; इसलिये उसके युक्ताहारीपना सिद्ध होता है ।

    जयसेनाचार्य :
    अब उसी अनाहारकता को प्रकारान्तर से-दूसरे रूप में कहते हैं -

    [केवलदेहो] मात्र शरीर इसके सिवाय अन्य परिग्रह से रहित हैं । कर्तारूप वे कौन अन्य परिग्रह से रहित हैं? [समणो] निन्दा-प्रशंसा आदि में समान मनवाले श्रमण अन्य परिग्रह से रहित हैं । तब फिर क्या उनका शरीर मे ममत्व होता होगा? ऐसा नहीं है । [देहे वि ममत्तरहिदपरिकम्मो] शरीर में भी ममत्व रहित परिकर्म है ।

    ''मैं ममत्व का त्याग करता हूँ निर्ममत्व में उपस्थित होता हूँ । आत्मा ही मेरा आलम्बन है, शेष सभी को मैं छोड़ता हूँ ।"

    इसप्रकार गाथा में कहे गये क्रम से शरीर में भी ममत्व रहित हैं । [आजुत्तो तं तवसा] उस शरीर को तप के साथ जोड़ते हैं । क्या करके उस शरीर को तप के साथ जोड़ते हैं? [अणिगूहिय] नहीं छिपाकर उसे जोड़ते हैं । किसे नहीं छिपाकर जोड़ते हैं? [अप्पणो सत्तिं] अपनी शक्ति को नहीं छिपाकर उसे जोड़ते हैं ।

    इससे क्या कहा गया है? - जो कोई भी शरीर से भिन्न शेष परिग्रह को छोड़कर, शरीर में भी ममत्व रहित है, उसीप्रकार उस शरीर को तप के साथ जोड़ता है, वह नियम से युक्ताहार-विहार है ॥२५९॥

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    + युक्ताहारत्व का विस्तार -
    एक्कं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जहालद्धं । (229)
    चरणं भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खं ण मधुमंसं ॥260॥
    एकः खलु स भक्तः अप्रतिपूर्णोदरो यथालब्धः ।
    भैक्षाचरणेन दिवा न रसापेक्षो न मधुमांसः ॥२२९॥
    इकबार भिक्षाचरण से जैसा मिले मधु-मांस बिन ।
    अधपेट दिन में लें श्रमण बस यही युक्ताहार है ॥२२९॥
    अन्वयार्थ : [खलु] वास्तव में [सः भक्त:] वह आहार (युक्ताहार) [एक:] एक बार [अप्रतिपूर्णोदर:] ऊनोदर [यथालब्ध:] यथालब्ध (जैसा प्राप्त हो वैसा), [भैक्षाचरणेन] भिक्षाचरण से, [दिवा] दिन में [न रसापेक्षः] रस की अपेक्षा से रहित और [न मधुमास:] मधु-मांस रहित होता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब युक्ताहार का स्वरूप विस्तार से उपदेश करते हैं :-


    जयसेनाचार्य :
    अब, युक्ताहारत्व को विस्तार से प्रसिद्ध करते हैं -इसका अर्थ उपलक्षण से आचार शास्त्र (चरणानुयोग) में कही गई पिण्ड (भोजन) शुद्धि के क्रम से सम्पूर्ण अयोग्य आहार से रहित है ।

    इससे क्या कहा गया है? इसप्रकार इन विशिष्ट विशेषणों से सहित ही आहार मुनिराजों का युक्ताहार है । ऐसा आहार ही युक्ताहार क्यों है? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं --

    ज्ञानानन्द एक लक्षण निश्चय प्राणों की रक्षा स्वरूप, रागादि विकल्पों की उपाधि (संयोग) से रहित जो निश्चय नय से अहिंसा है और उसकी साधकरूप बाह्य में दूसरे जीवों के प्राणों के घात के त्यागरूप द्रव्य अहिंसा है; वह दोनों प्रकार की अहिंसा इस युक्ताहार में ही संभव है; अत: ऐसा आहार ही युक्ताहार है । इससे विपरीत जो आहार है, वह युक्ताहार नहीं है । इससे विपरीत आहार युक्ताहार क्यों नही? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते है - इससे विरुद्ध आहार में द्रव्य- भावरूप हिंसा का सद्भाव होने से वह युक्ताहार नहीं है ॥२६०॥

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    + मांस के दोष -
    पक्केसु अ आमेसु अ विपच्चमाणासु मंसपेसीसु ।
    संतत्तियमुववादो तज्जादीणं णिगोदाणं ॥261॥ ।
    जो पक्कमपक्कं वा पेसीं मंसस्स खादि फासदि वा ।
    सो किल णिहणदि पिंडं जीवाणमणेगकोडीणं ॥262॥
    पकते हुए अर पके कच्चे माँस में उस जाति के ।
    सदा ही उत्पन्न होते हैं निगोदी जीव वस ॥२६१॥
    जो पके कच्चे माँस को खावें छुयें वे नारी-नर ।
    जीवजन्तु करोड़ों को मारते हैं निरन्तर ॥२६२॥
    अन्वयार्थ : पके, कच्चे अथवा पकते हुए मांस के टुकड़ों में, उसी जाति के निगोदिया जीव हमेशा उत्पन्न होते रहते हैं ।
    जो पके अथवा बिना पके मांस के टुकड़ों को खाता है अथवा स्पर्श करता है, वह वास्तव में अनेक करोड़ जीवों के समूह का घात करता है ।

    जयसेनाचार्य :
    अब, विशेष रूप से मांस के दोष कहते हैं -

    [भणित: यह क्रिया अध्याहार है] ऊपर से ली गई है । कहा गया है । वह क्या कहा गया है? [उववादो] व्यवहारनय से उत्पाद कहा गया है । वह उत्पाद (जन्म) किस विशेषता वाला है? [संतत्तियं] वह जन्म सतत-निरन्तर-हमेशा कहा गया है । किन का जन्म हमेशा कहा गया है? [णिगोदाणं] अनादि-अनन्त होने के कारण उत्पाद-व्यय से रहित निश्चय से शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी होते हुए भी, निगोद जीवों का हमेशा जन्म कहा गया है । और किन का जन्म कहा गया है? [तज्जादीणं] उसी रंग, उसी गन्ध, उसी रस, और उसी स्पर्श वाले होने से उसी जाति के अर्थात् मांस की जाति के जीवों का, जन्म कहा गया है । किन आधारों में उनका जन्म कहा गया है? [मंसपेसीसु] मांस के टकड़ों में उनका जन्म कहा गया है । कैसे मांस के टुकड़ों में उनका जन्म कहा गया है? [पक्केसु अ आमेसु अ विपच्चमाणासु] पके, कच्चे और पकते हुये मांस के टुकडों में उनका जन्म कहा गया है- इस प्रकार पहली गाथा पूर्ण हई ।

    [जो पक्कमपक्कं वा] कर्तारूप जो, पके अथवा बिना पके [पेसीं] टुकड़ों को । किसके टुकडों को ? [मंसस्स] मांस के टुकडों को । [खादि] अपने शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न सुखरूपी सुधाहार- अमृत- भोजन को नहीं पाता हुआ खाता है- भक्षण करता है, [फासदि वा] अथवा छूता है, [सो किल णिहणदि पिंडं] कर्तारूप वह, वास्तव में लौकिक कथन से अथवा परमागम के कथन से समूह को नष्ट करता है । किनके समूह को नष्ट करता है? [जीवाणं] जीवों के समूह को नष्ट करता है । कितनी संख्या वाले जीवों के समूह को नष्ट करता है? [अणेगकोडींणं] अनेक करोड़ों जीवों के समूह को नष्ट करता है ।

    यहाँ यह कहा गया है- शेष कन्द-मूल* आदि आहार, कुछ अनन्तकाय भी अग्नि से पकाये जाने पर प्रासुक हो जाते हैं; परन्तु मांस अनन्तकाय है और उसी प्रकार अग्नि से पका, बिना पका तथा पकता हुआ भी प्रासुक नहीं होता है । उस कारण अभोज्य- अभक्ष्य अर्थात् खाने योग्य नहीं है ॥२६१-२६२॥

    * यहाँ कन्द-मूल का अर्थ जमीकन्द विवक्षित नहीं है वरन् कन्द और मूल दोनों पृथक्-पृथक् है एक वनस्पती-वृक्ष के अंश तथा प्रत्येक वनस्पती के भेद है । एतदर्थ देखिये - सम्यग्यानचन्द्रिका, प्रथमभाग जीवकाण्ड गाथा १८९-१९० । विशेष स्पष्टीकरणार्थ देखिये 'सन्मति सन्देश' सन् १९८५ मई, सिंतम्बर, अक्टूबर अंक में प्रकाशित 'कन्दमूल और भक्ष्याभक्ष्यता' निबन्ध ।

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    + हाथ में आया हुआ प्रासुक आहार भी देय नहीं -
    अप्पडिकुट्ठं पिंडं पाणिगयं णेव देयमण्णस्स ।
    दत्ता भोत्तुमजोग्गं भुत्तो वा होदि पडिकुट्ठो ॥263॥
    जिनागम अविरुद्ध जो आहार होवे हस्तगत ।
    नहीं देवे दूसरों को दे तो प्रायश्चित योग्य है ॥२६३॥
    अन्वयार्थ : हाथ में आया हुआ आगम से अविरुद्ध आहार दूसरों को नहीं देना चाहिए, देकर वह भोजन करने योग्य नहीं रहता, फिर भी यदि वह भोजन करता है, तो प्रायश्चित्त के योग्य है ।

    जयसेनाचार्य :
    अब, हाथ में आया हुआ प्रासुक आहार भी दूसरों को नहीं देना चाहिये, ऐसा उपदेश देते हैं --

    [अप्पडिकुट्ठं पिंडं पाणिगयं णेव देयमण्णस्स] आगम से अविरुद्ध-निर्दोष, हाथ में आया हुआ आहार, देने योग्य नहीं है- दूसरों को नहीं देना चाहिये । [दत्ता भोत्तुम्जोग्गं] देने के बाद भोजन के लिये अयोग्य है; [भुत्तो वा होदि पडिकुट्ठो] अथवा कथंचित् भुक्त है, (मानकर) भोजन करता है तो प्रतिकृष्ट है- प्रायश्चित्त के योग्य है ।

    यहाँ भाव यह है -- जो वह हाथ में आया हुआ आहार दूसरों को नहीं देता है, उससे मोह रहित आत्मतत्त्व की भावनारूप मोह रहितता-वीतरागता ज्ञात होती है ॥२६३॥

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    + सापेक्ष उत्सर्ग और अपवाद से चारित्र की रक्षा -
    बालो वा वुड्‌ढो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा । (230)
    चरियं चरदु सजोग्गं मूलच्छेदो जधा ण हवदि ॥264॥
    बालो वा वृद्धो वा श्रमाभिहतो वा पुनर्ग्लानो वा ।
    चर्यां चरतु स्वयोग्यां मूलच्छेदो यथा न भवति ॥२३०॥
    मूल का न छेद हो इस तरह अपने योग्य ही ।
    वृद्ध बालक श्रान्त रोगी आचरण धारण करें ॥२३०॥
    अन्वयार्थ : [बाल: वा] बाल, [वृद्ध: वा] वृद्ध [श्रमाभिहत: वा] श्रांत [पुन: ग्लानः वा] या ग्लान श्रमण [मूलच्छेद:] मूल का छेद [यथा न भवति] जैसा न हो उस प्रकार से [स्वयोग्यां] अपने योग्य [चर्यां चरतु] आचरण आचरो ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब उत्सर्ग और अपवाद की मैत्री द्वारा आचरण के सुस्थितपने का उपदेश करते है :-

    बाल, वृद्ध श्रमित या ग्‍लान (श्रमण) को भी संयम का जो कि शुद्धात्मतत्त्व का साधन होने से मूलभूत है उसका—छेद जैसे न हो उस प्रकार, संयत ऐसे अपने योग्य अति कर्कश (कठोर) आचरण ही आचरना; इस प्रकार उत्सर्ग है ।

    बाल, वृद्ध, श्रमित या ग्‍लान (श्रमण) को भी शरीर का—जो कि शुद्धात्मतत्त्व के साधनभूत संयम का साधन होने से मूलभूत है उसका—छेद जैसे न हो उस प्रकार, बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान को अपने योग्य मृदु आचरण ही आचरना; इस प्रकार अपवाद है ।

    बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान के, संयम का—जो कि शुद्धात्मतत्त्व का साधन होने से मूलभूत है उसका—छेद जैसे न हो उस प्रकार का संयत ऐसा अपने योग्य अति कठोर आचरण आचरते हुए, (उसके) शरीर का—जो कि शुद्धात्मतत्त्व के साधनभूत संयम का साधन होने से मूलभूत है उसका (भी) छेद जैसे न हो उस प्रकार बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान ऐसे अपने योग्य मृदु आचरण भी आचरना । इस प्रकार अपवादसापेक्ष उत्सर्ग है ।

    बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान को शरीर का—जो कि शुद्धात्मतत्त्व के साधनभूत संयम का साधन होने से मूलभूत है उसका—छेद जैसे न हो उस प्रकार से बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान ऐसे अपने योग्य मृदु आचरण आचरते हुए, (उसके) संयम का—जो कि शुद्धात्मतत्व का साधन होने से मूलभूत है उसका (भी)—छेद जैसे न हो उस प्रकार से संयत ऐसा अपने योग्य अतिकर्कश आचरण भी आचरना; इस प्रकार उत्सर्गसापेक्ष अपवाद है ।

    इससे (यह कहा है कि) सर्वथा उत्सर्ग और अपवाद की मैत्री द्वारा आचरण का सुस्थितपना करना चाहिये ॥२३०॥

    जयसेनाचार्य :
    अब, निश्चय व्यवहार नामक उत्सर्ग और अपवाद में कथंचित् परस्पर सापेक्षभाव को स्थापित करते हुये, चारित्र की रक्षा को दिखाते हैं - -

    [चरदु] चलें-आचरण करें । क्या (किसका) आचरण करें? [चरियं] चारित्र, अनुष्ठान का आचरण करें । कैसे चारित्र का आचरण करें? [सजोग्गं] अपने योग्य अपनी अवस्था के योग्य चारित्र का आचरण करें । कैसा जैसे होता है (जिसप्रकार क्या नहीं हो) ? [मलच्छेदो जधा ण हवदि] मूल का छेद जैसे न हो, वैसे अपने योग्य चारित्र का आचरण करें । कर्तारूप वे कौन आचरण करें? [बालो वा वुड्ढो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा] बालक अथवा वृद्ध अथवा श्रम से पीड़ित-श्रम-पीड़ित (इस प्रकार तृतीया तत्पुरुष समास किया है) अथवा ग्लान-व्याधि में स्थित-बीमार-रोगी ऐसा आचरण करें ।

    वह इसप्रकार- सबसे पहले उत्सर्ग और अपवाद का लक्षण कहते हैं- अपने शुद्धात्मा से भिन्न बहिरंग-अन्तरंग रूप सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग उत्सर्ग है । उत्सर्ग, निश्चयनय, सभी का पूर्णता त्याग, परम उपेक्षा संयम, वीतराग चारित्र, शुद्धोपयोग-ये सभी एकार्थ हैं- एक ही भाव के द्योतक हैं । उसमें असमर्थ पुरुष शुद्धात्मा की भावना के सहकारी- कुछ प्रासुक आहार ज्ञान के उपकरण आदि ग्रहण करता है- वह अपवाद है; अपवाद, व्यवहारनय, एकदेश परित्याग और उसीप्रकार अपहृत संयम सरागचारित्र शुभोपयोग- ये सभी एकार्थ हैं ।

    वहाँ शुद्धात्मा की भावना के निमित्त समूर्ण त्याग लक्षण उत्सर्गरूप दुर्धर अनुष्ठान में प्रवृत्ति करने वाले मुनिराज, शुद्धात्मतत्त्व का साधक होने से मूलभूत संयम का अथवा संयम का साधक होने से मूलभूत शरीर का जैसे छेद विनाश नहीं होता है, वैसे कुछ प्रासुक आहार आदि को ग्रहण करते है- इसप्रकार अपवाद सापेक्ष उत्सर्ग कहा गया है । और जब अपवाद लक्षण अपहृत संयम में प्रवृत्त होते हैं तब भी शुद्धात्मतत्त्व का साधक होने से संयम का अथवा संयम का साधक होने से मूलभूत शरीर का उच्छेद-विनाश नहीं होता है, वैसे उत्सर्ग की सापेक्षता से प्रवृत्ति करते हैं । वैसी प्रवृत्ति करते हैं- इसका क्या अर्थ है? जिसप्रकार संयम की विराधना नहीं होती है वैसी प्रवृत्ति करते है- यह इसका अर्थ है; इसप्रकार उत्सर्ग सापेक्ष अपवाद है- ऐसा अभिप्राय है ॥२६४॥

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    + उत्सर्ग और अपवाद में विरोध से असंयम -
    आहारे व विहारे देसं कालं समं खमं उवधिं । (231)
    जाणित्ता ते समणो वट्टदि जदि अप्पलेवी सो ॥265॥
    आहारे वा विहारे देशं कालं श्रमं क्षमामुपधिम् ।
    ज्ञात्वा तान् श्रमणो वर्तते यद्यल्पलेपी सः ॥२३१॥
    श्रमण श्रम क्षमता उपधि लख देश एवं काल को ।
    जानकर वर्तन करे तो अल्पलेपी जानिये ॥२३१॥
    अन्वयार्थ : [यदि] यदि [श्रमण:] श्रमण [आहारे वा विहारे] आहार अथवा विहार में [देशं] देश, [कालं] काल, [श्रमं] श्रम, [क्षमां] क्षमता तथा [उपधिं] उपधि, [तान् ज्ञात्वा] इनको जानकर [वर्तते] प्रवर्ते [सः अल्पलेप:] तो वह अल्पलेपी होता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, उत्सर्ग और अपवाद के विरोध (अमैत्री) से आचरण का दुःस्थितपना (नष्ट) होता है, ऐसा उपदेश करते हैं :-

    क्षमता तथा ग्लानता का हेतु उपवास है और बाल तथा वृद्धत्व का अधिष्ठान उपधिशरीर है, इसलिये यहाँ (टीका में) बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान ही लिये गये हैं । (अर्थात् मूल गाथा में जो क्षमा, उपधि इत्यादि शब्द हैं उनका आशय खीचकर टीका में बाल, वृद्ध, श्रांत, ग्लान शब्द ही प्रयुक्त किये गये हैं)

    देशकालज्ञ को भी, यदि वह बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लानत्व के अनुरोध से (अर्थात् बालत्व, वृद्धत्व, श्रांतत्व अथवा ग्लानत्व का अनुसरण करके) आहार-विहार में प्रवृत्ति करे तो मृदु आचरण में प्रवृत्त होने से अल्प लेप होता ही है, (लेप का सर्वथा अभाव नहीं होता), इसलिये उत्सर्ग अच्छा है ।

    देशकालज्ञ को भी, यदि वह बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लानत्व के अनुरोध से आहार-विहार में प्रवृत्ति करे तो मृदु आचरण में प्रवृत्त होने से अल्प ही लेप होता है । (विशेष लेप नहीं होता), इसलिये अपवाद अच्छा है ।

    देशकालज्ञ को भी, यदि वह बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लानत्व के अनुरोध से, जो आहार-विहार है, उससे होने वाले अल्पलेप के भय से उसमें प्रवृत्ति न करे तो (अर्थात् अपवाद के आश्रय से होने वाले अल्पबंध के भय से उत्सर्ग का हठ करके अपवाद में प्रवृत्त न हो तो), अति कर्कश आचरणरूप होकर अक्रम से शरीरपात करके देवलोक प्राप्त करके जिसने समस्त संयमामृत का समूह वमन कर डाला है उसे तप का अवकाश न रहने से, जिसका प्रतीकार अशक्य है ऐसा महान लेप होता है, इसलिये अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग श्रेयस्कर नहीं है ।


    देशकालज्ञ को भी, यदि वह बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लानत्व के अनुरोध से जो आहारविहार है, उससे होने वाले अल्पलेप को न गिनकर उसमें यथेष्ट प्रवृत्ति करे तो (अर्थात् अपवाद से होने वाले अल्पबंध के प्रति असावधान होकर उत्सर्गरूप ध्येय को चूककर अपवाद में स्वच्छन्दपूर्वक प्रवर्ते तो), मृदु आचरणरूप होकर संयम विरोधी को-असंयतजन के समान हुए उसको—उस समय तप का अवकाश न रहने से, जिसका प्रतीकार अशक्य है ऐसा महान लेप होता है । इसलिये उत्सर्ग निरपेक्ष अपवाद श्रेयस्कर नहीं है ।

    इससे (यह कहा गया है कि) उत्सर्ग और अपवाद के विरोध से होने वाला जो आचरण का दु:स्थितपना वह सर्वथा निषेध्य (त्याज्य) है, और इसीलिये परस्पर सापेक्ष उत्सर्ग और अपवाद से जिसकी वृत्ति (अस्तित्व, कार्य) प्रगट होती है ऐसा स्याद्वाद सर्वथा अनुगम्य (अनुसरण करने योग्य) है ।

    (अब श्‍लोक द्वारा आत्मद्रव्य में स्थिर होने की बात कहकर 'आचरणप्रज्ञापन' पूर्ण किया जाता है ।)

    (कलश-१५)
    उत्सर्ग और अपवाद के विभेद द्वारा ।
    भिन्न-भिन्न भूमिका में व्याप्त जो चरित्र है ॥
    पुराणपुरुषों के द्वारा सादर हैं सेवित जो ।
    उन्हें प्राप्तकर संत हुए जो पवित्र है ॥
    चित्सामान्य और चैतन्यविशेष रूप ।
    जिसका प्रकाश ऐसे निज आत्मद्रव्य में ॥
    क्रमशः पर से पूर्णतः निवृत्ति करके ।
    सभी ओर से सदा वास करो निज में ॥१५॥

    इस प्रकार विशेष आदरपूर्वक पुराण पुरुषों के द्वारा सेवित, उत्सर्ग और अपवाद द्वारा अनेक पृथक्-पृथक् भूमि‍काओं में व्याप्त जो चारित्र उसको यति प्राप्त करके, क्रमश: अतुल निवृत्ति करके, चैतन्य-सामान्य और चैतन्य-विशेषरूप जिसका प्रकाश है ऐसे निज-द्रव्य में सर्वत: स्थिति करो ।

    इस प्रकार 'आचरण प्रज्ञापन' समाप्त हुआ ।

    जयसेनाचार्य :
    अब, अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग और उसीप्रकार उत्सर्ग निरपेक्ष अपवाद का निषेध करते हुये चारित्र की रक्षा के लिये व्यतिरेक द्वार से (नास्तिपरक शैली में), उसी अर्थ को दृढ़ करते हैं --

    [वट्टदि] वर्तते हैं- प्रवृत्त होते हैं । वे कर्तारूप कौन वर्तते हैं? [समणो] शत्रु-मित्र आदि में समान मनवाले श्रमण-मुनिराज वर्तते हैं । यदि वे वर्तते हैं तो क्या होता है? [जदि अप्पलेवी सो] यदि वर्तते हैं तो अल्पलेपी-थोड़ा पाप होता है । किन विषयों में वर्तते हैं? [आहारे व विहारे] मुनिराज के योग्य आहार व विहार में वर्तते हैं । पहले क्या करके वर्तते हैं? [जाणित्ता] पहले जानकर वर्तते हैं । किन्हें जानकर वर्तते हैं? [ते] उन कर्मता को प्राप्त (कर्मकारक में प्रयुक्त) [देसं कालं समं खमं उवधिं] देश, काल, मार्ग आदि सम्बन्धी श्रम-क्षमता, उपवास आदि के विषय में शक्ति को, उपधि-बालक- वृद्ध-थके हुये-रोगी के शरीर मात्र उपधि-परिग्रह को- इसप्रकार मुनिराज के आचरण के सहकारीभूत, देश आदि पाँचों को जानकर आहार-विहार में वर्तते हैं ।

    वह इसप्रकार- पहले (२६४ वीं गाथा में) कहे गये क्रम से, पहले दुर्धर अनुष्ठानरूप उत्सर्ग में वर्तते हैं और वहाँ प्रासुक आहार आदि ग्रहण करने के निमित्त से अल्पलेप- बन्ध देखकर यदि उनमें नहीं वर्तते हैं तो आर्तध्यानरूप संक्लेश द्वारा शरीर का त्याग करके पहले किये गये पुण्य से देवलोक में उत्पन्न होते हैं । वहाँ संयम का अभाव होने से, महान लेप (अधिक बन्ध) होता है । इस कारण अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग छोड़ देते हैं और शुद्धात्मा की भावना का साधक थोड़ा लेप बहुत लाभरूप अपवाद सापेक्ष उत्सर्ग स्वीकार करते हैं ।

    और उसीप्रकर पहले (२६४ वीं) गाथा में कहे गये क्रम से अपह्रत संयम शब्द से कहने योग्य अपवाद में प्रवृत्त होते हैं और वहाँ प्रवर्तते हुये, यदि कथंचित् औषध-पथ्य आदि सावद्य पाप के भय से रोग सम्बन्धी कष्ट का प्रतिकार-निराकरण नहीं करके शुद्धात्मतत्त्व की भावना नहीं करते हैं तो महान लेप होता है, अथवा यदि प्रतिकार में प्रवृत्त होते हुये भी, हरीत की (हरड़) के ब्याज से-बहाने गुड़ खाने के समान इन्द्रिय की लम्पटता-आसक्ति से संयम की विराधना करते हैं, तो भी महान लेप होता है । इस कारण उत्सर्ग निरपेक्ष अपवाद छोड़कर, शुरद्धात्मा की भावनारूप अथवा शुभोपयोगरूप संयम की विराधना नहीं करते हुए, औषध- पथ्य आदि के कारण उत्पन्न अल्प पाप होते हुये भी, बहुगुण राशिरूप उत्सर्ग की सापेक्षतावाला अपवाद स्वीकर करते हैं- ऐसा अभिप्राय है ॥२६५॥

    इसप्रकार उवयरणं जिणमग्गे इत्यादि ग्यारह गाथाओं द्वारा अपवाद के विशेष कथनरूप से चौथे स्थल का व्याख्यान पूर्ण हुआ ।

    इसप्रकार पहले कहे गये क्रम से ण हि णिरवेक्खो चागो- इत्यादि तीस गाथाओं द्वारा चार स्थलरूप से अपवाद नामक दूसरा अन्तराधिकार समाप्त हुआ ।

    इसके आगे चौदह गाथाओं तक, श्रामण्य दूसरा नाम मोक्षमार्ग नामक तीसरा अन्तराधिकार कहते हैं । वहाँ चार स्थल हैं । उनमें सबसे पहले आगम-अभ्यास की मुख्यता से एयग्गगदो समणो इत्यादि यथाक्रम से पहले स्थल में चार गाथायें हैं । तदुपरान्त भेदाभेद रत्नत्रय स्वरूप ही मोक्षमार्ग है- इस व्याख्यानरूप से आगमपुव्वा दिट्ठी इत्यादि स्थल में चार गाथायें हैं । तदुपरान्त द्रव्य-भाव संयम कथनरूप से चागो य अणारंभो इत्यादि तीसरे स्थल में चार गाथायें है । तत्पश्चात् निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग के उपसंहार की मुख्यता से मुज्झदि वा इत्यादि चौथे स्थल में, दो गाथायें हैं ।

    इसप्रकार चार स्थलों द्वारा तीसरे अन्तराधिकार में सामूहिक पातनिका हुई ।

    तृतीय अन्तराथिकार का स्थल विभाजन (गाथा २६६ से २७९ पर्यन्त)

    (अब मोक्षमार्ग नामक तीसरे अन्तराधिकार का चार गाथाओं में निबद्ध पहला स्थल प्रारम्भ होता है ।)

    वह इसप्रकार-

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    + आगम के परिज्ञान से ही एकाग्रता -
    एयग्गदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु । (232)
    णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा ॥266॥
    ऐकाग्रयगतः श्रमणः ऐकाग्रयं निश्चितस्य अर्थेषु ।
    निश्चितिरागमत आगमचेष्टा ततो ज्येष्ठा ॥२३२॥
    स्वाध्याय से जो जानकर निज अर्थ में एकाग्र हैं ।
    भूतार्थ से वे ही श्रमण स्वाध्याय ही बस श्रेष्ठ है ॥२३२॥
    अन्वयार्थ : [श्रमण:] श्रमण [ऐकाग्रगतः] एकाग्रता को प्राप्त होता है; [ऐकाग्र] एकाग्रता [अर्थेषु निश्‍चितस्य] पदार्थों के निश्‍चयवान् के होती है; [निश्‍चिति:] (पदार्थों का) निश्‍चय [आगमत:] आगम द्वारा होता है; [ततः] इसलिये [आगमचेष्टा] आगम में व्यापार [ज्येष्ठा] मुख्य है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, श्रामण्य जिसका दूसरा नाम है ऐसे एकाग्रता लक्षणवाले मोक्षमार्ग का प्रज्ञापन है । उसमें प्रथम, उसके (मोक्षमार्ग के) मूल साधनभूत आगम में व्यापार (प्रवृत्ति) कराते हैं :-

    प्रथम तो, श्रमण वास्तव में एकाग्रता को प्राप्त ही होता है; एकाग्रता पदार्थों के निश्‍चयवान् के ही होती है; और पदार्थों का निश्‍चय आगम द्वारा ही होता है; इसलिये आगम में ही व्यापार प्रधानतर (विशेष प्रधान) है; दूसरी गति (अन्य कोई मार्ग) नहीं है । उसका कारण यह है कि -

    वास्तव में आगम के बिना पदार्थों का निश्‍चय नहीं किया जा सकता; क्योंकि आगम ही, जिसके त्रिकाल (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप) तीन लक्षण प्रवर्तते हैं ऐसे सकलपदार्थसार्थ के यथातथ्य ज्ञान द्वारा सुस्थित अंतरंग से गम्भीर है (अर्थात् आगम का ही अंतरंग, सर्व पदार्थों के समूह के यथार्थज्ञान द्वारा सुस्थित है इसलिये आगम ही समस्त पदार्थों के यथार्थ ज्ञान से गम्भीर है)

    और, पदार्थों के निश्‍चय के बिना एकाग्रता सिद्ध नहीं होती; क्योंकि, जिसे पदार्थों का निश्‍चय नहीं है वह अत्यन्त अस्थिरता को प्राप्त होता है, इसलिये (उपरोक्त तीन कारणों से) उस अनिश्‍चयी जीव के ऐसे भगवान आत्मा को—जो कि युगपत् विश्व को पी जाने वाला होने पर भी विश्वरूप न होने से एक है उसे—नहीं देखने से सतत व्यग्रता ही होती है, (एकाग्रता नहीं होती)

    और एकाग्रता के बिना श्रामण्य सिद्ध नहीं होता; क्योंकि जिसके एकाग्रता नहीं है वह जीव उस प्रकार की वृत्ति से दु:स्थित होता है, इसलिये उसे एक आत्मा की प्रतीति-अनुभूति-वृत्तिस्वरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र परिणतिरूप प्रवर्तमान जो दृशि-ज्ञप्ति-वृत्तिरूप आत्मतत्त्व में एकाग्रता है उसका अभाव होने से शुद्धात्मतत्त्व प्रवृत्तिरूप श्रामण्य ही (शुद्धात्मतत्त्व में प्रवृत्तिरूप मुनिपना ही) नहीं होता ।

    इससे ( ऐसा कहा गया है कि) मोक्षमार्ग जिसका दूसरा नाम है ऐसे श्रामण्य की सर्वप्रकार से सिद्धि करने के लिये मुमुक्षु को भगवान- अर्हन्त सर्वज्ञ से उपज्ञ (स्वयं जानकर कहे गये) शब्दब्रह्म में, जिसका कि अनेकान्तरूपी केतन (चिह्न-ध्वज-लक्षण) प्रगट है उसमें, निष्णात होना चाहिये ।

    जयसेनाचार्य :
    अब श्रमण एकाग्रता को प्राप्त है । और वह एकाग्रता आगम के परिज्ञान से ही होती है, ऐसा प्रकाशित करते हैं --

    [एयग्गगदो समणो] एकाग्रता को प्राप्त श्रमण हैं । यहाँ अर्थ यह है-तीन लोक-तीन कालवर्ती सम्पूर्ण द्रव्य-गुण-पर्यायों को एक काल में जानने में समर्थ परिपूर्ण निर्मल केवलज्ञान लक्षण अपने परमात्मतत्त्व की सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप दशा एकाग्रता कहलाती है । उस दशा को प्राप्त अर्थात् तन्मयरूप से परिणत श्रमण--मुनिराज हैं । [एयग्गं णिच्छिदस्स] और एकाग्रता निश्चित के होती है । किनमें निश्चित के एकाग्रता होती है? [अत्थेसु] टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभाव जो वह परमात्म-पदार्थ--तत्प्रभृति पदार्थों में निश्चित के--पदार्थों के सम्बन्ध में निश्चित बुद्धिवाले के एकाग्रता होती है । [णिच्छित्ति आगमदो] और वह पदार्थों में निश्चित बुद्धि आगम से होती है ।

    वह इसप्रकार- जीव भेद, कर्म भेद का प्रतिपादन करनेवाले आगम के अभ्यास से होती है, मात्र आगम के अभ्यास से नहीं, वरन् उसी प्रकार आगमपद के सारभूत ज्ञानानन्द एक परमात्म-तत्त्व को प्रकाशित करनेवाला--बतानेवाला होने से अध्यात्म नामक परमागम से, पदार्थों की जानकारी होती है । [आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा] इस कारण ही कहे गये लक्षण वाले आगम और परमागम में चेष्टा, प्रवृत्ति ज्येष्ठ-श्रेष्ठ-प्रशस्य-श्रेयस्कर है -- ऐसा अर्थ है ॥२६६॥

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    + आगम के परिज्ञान से हीन के कर्मों का क्षय नहीं -
    आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि । (233)
    अविजाणंतो अत्थे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू ॥267॥
    आगमहीनः श्रमणो नैवात्मानं परं विजानाति ।
    अविजानन्नर्थान् क्षपयति कर्माणि कथं भिक्षुः ॥२३३॥
    जो श्रमण आगमहीन हैं वे स्व-पर को नहिं जानते ।
    वे कर्म क्षय कैसे करें जो स्व-पर को नहिं जानते ॥२३३॥
    अन्वयार्थ : [आगमहीन:] आगमहीन [श्रमण:] श्रमण [आत्मानं] आत्मा को (निज को) और [परं] पर को [न एव विजानाति] नहीं जानता; [अर्थात् अविजानन्] पदार्थों को नहीं जानता हुआ [भिक्षु:] भिक्षु [कर्माणि] कर्मों को [कथं] किस प्रकार [क्षपयति] क्षय करे?

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब आगमहीन के मोक्षाख्य (मोक्ष नाम से कहा जानेवाला) कर्मक्षय नहीं होता, ऐसा प्रतिपादन करते हैं :-

    वास्तव में आगम के बिना परात्मज्ञान (स्व-पर का भेद-ज्ञान) या परमात्म-ज्ञान नहीं होता; और परात्म-ज्ञान-शून्य के या परमात्म-ज्ञान-शून्य के मोहादि-द्रव्य-भाव-कर्मों का या ज्ञप्ति-परिवर्तन-रूप कर्मों का क्षय नहीं होता । वह इस प्रकार है:—

    प्रथम तो, आगमहीन यह जगत—कि जो निरवधि (अनादि) भवसरिता के प्रवाह को बहाने वाले महा-मोह-मल से मलिन है वह—धतूरा पिये हुए मनुष्य की भाँति विवेक के नाश को प्राप्त होने से अविविक्त ज्ञानज्योति से यद्यपि देखता है तथापि, उसे स्वपरनिश्‍चायक आगमोपदेशपूर्वक स्वानुभव के अभाव के कारण, आत्मा में और आत्म-प्रदेश-स्थित शरीरादि द्रव्यों में तथा उपयोग-मिश्रित मोह-राग-द्वेषादिभावों में 'यह पर है और यह आत्मा (स्व) है' ऐसा ज्ञान सिद्ध नहीं होता; तथा उसे, परमात्म-निश्‍चायक आगमोपदेश-पूर्वक स्वानुभव के अभाव के कारण, जिसके त्रिकाल परिपाटी में विचित्र पर्यायों का समूह प्रगट होता है ऐसे अगाध-गम्भीर-स्वभाव विश्व को ज्ञेय-रूप करके प्रतपित (आभास, ज्ञात) ज्ञान-स्वभावी एक परमात्मा का ज्ञान भी सिद्ध नहीं होता ।

    और (इस प्रकार) जो
    1. परात्मज्ञान से तथा
    2. परमात्म-ज्ञान से शून्य है
    उसे,
    1. द्रव्य-कर्म से होने वाले शरीरादि के साथ तथा तत्प्रतत्ययी मोह-राग-द्वेषादि भावों के साथ एकता का अनुभव करने से वध्य-घातक के विभाग का अभाव होने से मोहादि द्रव्य-भाव-कर्मों का क्षय सिद्ध नहीं होता, तथा
    2. ज्ञेय-निष्ठता से प्रत्येक वस्तु के उत्पाद-विनाशरूप परिणमित होने के कारण अनादि संसार से परिवर्तन को पाने वाली जो ज्ञप्ति, उसका परिवर्तन परमात्‍म-निष्‍ठता के अतिरिक्त अनिवार्य होने से, ज्ञप्ति-परिवर्तन-रूप कर्मों का क्षय
    भी सिद्ध नहीं होता।

    इसलिये कर्म-क्षयार्थियों को सर्वप्रकार से आगम की पर्युपासना करना योग्‍य है।

    जयसेनाचार्य :
    अब आगम के परिज्ञान से हीन के कर्मों का क्षय नहीं होता है, ऐसा प्ररूपित करते हैं --

    [आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि] आगमहीन श्रमण स्वयं को तथा पर को ही नहीं जानता है, [अविजाणंतो अट्ठे] अर्थों--परमात्मा आदि पदार्थों को नहीं जानता हुआ [खवेदि कम्माणि किध भिक्खु] भिक्षु कर्मों का क्षय कैसे कर सकता है? किसी भी प्रकार नहीं कर सकता है ।

    यहाँ इसका विस्तार करते हैं -- 'गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणायें और उपयोग, ये क्रम से बीस प्ररूपणायें कही गई हैं ।'

    इसप्रकार गाथा में कहे गये -- इत्यादि आगम को नहीं जानता हुआ और उसीप्रकार --

    'जिसके द्वारा अपने शरीर से भिन्न अपना परमार्थ-परम-पदार्थ--भगवान आत्मा नहीं जाना गया है, वह अंधा दूसरे अंधों को क्या मार्ग दिखायेगा ।'

    इस प्रकार दोहक गाथा में कहे गये, आगमपद के सारभूत अध्यात्म-शास्त्र को नहीं जानता हुआ पुरुष रागादि दोष रहित अव्याबाध सुखादि गुणस्वरूप अपने आत्मद्रव्य का, 'भावकर्म' शब्द द्वारा कहे जानेवाले रागादि अनेक विकल्प-जाल-रूप कर्मों के साथ, निश्चय से भेद नहीं जानता है; उसीप्रकार कर्म-शत्रु को नष्ट करने वाले अपने परमात्म-तत्त्व का ज्ञानावरणादि द्रव्य-कर्मों के साथ भी पृथक्त्व नहीं जानता है और उसी प्रकार शरीर रहित लक्षण शुद्धात्म-पदार्थ का, शरीर आदि नोकर्मों के साथ अन्यत्व नहीं जानता है । इस प्रकार भेद-ज्ञान का अभाव होने से शरीर में ही स्थित अपने शुद्धात्मा की रुचि-श्रद्धा नहीं करता है और सम्पूर्ण रागादि के त्याग-रूप से, उसकी भावना नहीं करता है; इसलिये उसके कर्मों का क्षय कैसे हो सकता है? किसी भी प्रकार नहीं हो सकता है । इस कारण मोक्षार्थियों को, परमागम का अभ्यास करना चाहिये -- ऐसा तात्पर्यार्थ है ॥२६७॥

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    + अब मोक्षमार्ग चाहने वालों को आगम ही दृष्टि-आँख है, ऐसा प्रसिद्ध करते हैं - -
    आगमचक्खू साहू इंदियचक्खूणि सव्वभूदाणि । (234)
    देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खु ॥268॥
    आगमचक्षुः साधुरिन्द्रियचक्षूंषि सर्वभूतानि ।
    देवाश्चावधिचक्षुषः सिद्धाः पुनः सर्वतश्चक्षुषः ॥२३४॥
    साधु आगम चक्षु इन्द्रिय चक्षु तो सब लोक है ।
    देव अवधिचक्षु अर सर्वात्मचक्षु सिद्ध हैं ॥२३४॥
    अन्वयार्थ : [साधु:] साधु [आगमचक्षु:] आगमचक्षु (आगमरूप चक्षु वाले) हैं, [सर्वभूतानि] सर्वप्राणी [इन्द्रिय चक्षूंषि] इन्द्रिय चक्षु वाले हैं, [देवा: च] देव [अवधिचक्षुषः] अवधिचक्षु हैं [पुन:] और [सिद्धा:] सिद्ध [सर्वत: चक्षुषः] सर्वत:चक्षु (सर्व ओर से चक्षु वाले अर्थात् सर्वात्मप्रदेशों से चक्षुवान्) हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, मोक्षमार्ग पर चलनेवालों को आगम ही एक चक्षु है ऐसा उपदेश करते हैं :-

    प्रथम तो, इस लोक में इस प्रकार यह सभी संसारी मोह से उपहत (घायल) होने के कारण ज्ञेय-निष्ठ होने से, ज्ञान-निष्ठता का मूल जो शुद्धात्म-तत्त्व का संवेदन उससे साध्य ऐसा सर्वत: चक्षुपना उनके सिद्ध नहीं होता ।

    अब, उस (सर्वत:चक्षुपने) की सिद्धि के लिये भगवंत श्रमण आगम-चक्षु होते हैं । यद्यपि ज्ञेय और ज्ञान का पारस्परिक मिलन हो जाने से उन्हें भिन्‍न करना अशक्य है (अर्थात् ज्ञेय ज्ञान में ज्ञात न हों ऐसा करना अशक्य है) तथापि वे उस आगम-चक्षु से स्व-पर का विभाग करके, महा-मोह को जिनने भेद डाला है ऐसे वर्तते हुए परमात्मा को पाकर, सतत ज्ञान-निष्ठ ही रहते हैं ।

    इससे (यह कहा जाता है कि) मुमुक्षुओं को सब कुछ आगम-रूप चक्षु द्वारा ही देखना चाहिये ॥२३४॥

    जयसेनाचार्य :
    [आगमचक्खू] शुद्धात्मा आदि पदार्थों का प्रतिपादन करनेवाले परमागमरूप नेत्रवाले हैं । परमागमरूप नेत्रवाले वे कौन हें? [साहू] निश्चय रत्नत्रय के आधार से अपने शुद्धात्मा की साधना करनेवाले साधु परमागमरूपी नेत्रवाले हैं । [ड़ंदियचक्खूणि] निश्चय से इन्द्रिय रहित, अमूर्त, केवलज्ञानादि गुण स्वरूप होने पर भी, व्यवहार से अनादि कर्मबन्ध के वश इन्द्रियाधीन होने के कारण, इन्द्रिय चक्षुवाले हैं । कर्तारूप कौन इन्द्रिय चक्षुवाले हैं? [सव्वभूदाणि] सभी प्राणी-सभी संसारी जीव इन्द्रिय चक्षुवाले हैं- ऐसा अर्थ है । [देवा य ओहिचक्खू] और देव भी सूक्ष्म, मूर्त, पुद्गल द्रव्य को विषय करनेवाले अवधिज्ञान रूप चक्षुवाले हैं । [सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू] और सिद्ध शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी जीव, लोकाकाश प्रमाण शुद्ध (मात्र) असंख्यात प्रदेशों में सभी प्रदेशोंरूप चक्षुवाले हैं ।

    इससे क्या कहा गया है? मोक्षार्थी जीव द्वारा सम्पूर्ण शुद्ध आत्मप्रदेशों में (ज्ञानरूपी) नेत्रों की उत्पत्ति के लिए प्ररमागम के उपदेश से उत्पन्न विकार रहित स्वसंवेदनज्ञान ही, भावना करने योग्य है ॥२६८॥

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    + अब, आगमरूपी नेत्र से सभी दिखाई देता है, ऐसा विशेषरूप से ज्ञान कराते हैं - -
    सव्वे आगमसिद्धा अत्था गुणपज्जएहिं चित्तेहिं । (235)
    जाणंति आगमेण हि पेच्छित्ता ते वि ते समणा ॥269॥
    सर्वे आगमसिद्धा अर्था गुणपर्यायैश्चित्रैः ।
    जानन्त्यागमेन हि द्रष्टवा तानपि ते श्रमणाः ॥२३५॥
    जिन-आगमों से सिद्ध हो सब अर्थ गुण-पर्यय सहित ।
    जिन-आगमों से ही श्रमण जानकर साधें स्वहित ॥२३५॥
    अन्वयार्थ : [सर्वे अर्था:] समस्त पदार्थ [चित्रै: गुणपर्यायै:] विचित्र (अनेक प्रकार की) गुणपर्यायों सहित [आगमसिद्धा:] आगमसिद्ध हैं । [तान्] अपि उन्हें भी [ते श्रमणा:] वे श्रमण [आगमेन हि दृष्ट्वा] आगम द्वारा वास्तव में देखकर [जानन्ति] जानते हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, यह समर्थन करते हैं कि आगमरूप चक्षु से सब कुछ दिखाई देता ही है :-

    प्रथम तो, आगम द्वारा सभी द्रव्य प्रमेय (ज्ञेय) होते हैं, क्योंकि सर्वद्रव्य विस्पष्ट तर्कणा से अविरुद्ध हैं, (सर्व द्रव्य आगमानुसार जो विशेष स्पष्ट तर्क उसके साथ मेल वाले हैं, अर्थात् वे आगमानुसार विस्पष्ट विचार से ज्ञात हों ऐसे हैं) । और आगम से वे द्रव्य विचित्र गुणपर्याय वाले प्रतीत होते हैं, क्योंकि आगम को सहप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनेक धर्मों में व्यापक (अनेक धर्मों को कहने वाला) अनेकान्तमय होने से आगम को प्रमाणता की उपपत्ति है (अर्थात् आगम प्रमाणभूत सिद्ध होता है) । इससे सभी पदार्थ आगमसिद्ध ही हैं । और वे श्रमणों को स्वयमेव ज्ञेयभूत होते हैं, क्योंकि श्रमण विचित्रगुणपर्याय वाले सर्वद्रव्यों में व्यापक (सर्वद्रव्यों को जानने वाले) अनेकान्तात्मक श्रुतज्ञानोपयोगरूप होकर परिणमित होते हैं ।

    इससे (यह कहा है कि) आगमचक्षुओं को (आगमरूपचक्षु वालों को) कुछ भी अदृश्य नहीं है ॥२३५॥

    जयसेनाचार्य :
    [सव्वे आगमसिद्धा] सभी आगम-सिद्ध-आगम से ज्ञात हैं । वे कौन आगम से ज्ञात हैं? [अत्था] विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी जो वह परमात्मपदार्थ, तत्प्रभृति सभी पदार्थ आगम से ज्ञात हैं । वे पदार्थ आगम से कैसे ज्ञात हैं? [गुणपज्जयेहिं चित्तेहिं] वे पदार्थ, विचित्र गुण-पर्यायों के साथ ज्ञात हैं । [जाणंति] जानते हैं । किन्हें जानते हैं? [ते वि] उन पहले कहे गये अर्थ (द्रव्य) गुणपर्यायों को जानते हैं । पहले क्या करके जानते हैं? [पेच्छित्ता] पहले देखकर-जानकर जानते हैं । किससे देखकर जानते हैं? [अगमेण हि] आगम से ही देखकर जानते हैं । यहाँ अर्थ यह है- पहले आगम को पढ़कर, बाद में जानते हैं । [ते समणा] वे श्रमण हैं ।

    यहाँ यह कहा गया है -- सभी द्रव्य-गुण-पर्याय परमागम से ज्ञात होते हैं । परमागम से क्यों ज्ञात होते हैं? परोक्षरूप से आगम केवलज्ञान के समान होने से, वे परमागम से जाने जाते हैं । बाद में आगम के आधार से स्वसंवेदनज्ञान होने पर और स्वसंवेदनज्ञान के बल से केवलज्ञान होने पर, प्रत्यक्ष भी होते हैं । इस कारण आगमरूपी नेत्र द्वारा परम्परा से सभी दिखाई देते हैं ॥२६९॥

    इसप्रकार आगम-अभ्यास के कथनरूप से, पहले स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुईं ।

    (अब, भेदाभेद रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग के कथन परक, चार गाथाओं में निबद्ध द्वितीय स्थल प्रारम्भ होता है ।)

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    + दर्शन-रहित के संयतपना नहीं -
    आगमपुव्वा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह संजमो तस्स । (236)
    णत्थीदि भणदि सुत्तं असंजदो होदि किध समणो ॥270॥
    आगमपूर्वा द्रष्टिर्न भवति यस्येह संयमस्तस्य ।
    नास्तीति भणति सूत्रमसंयतो भवति कथं श्रमणः ॥२३६॥
    जिनागम अनुसार जिनकी दृष्टि न वे असंयमी ।
    यह जिनागम का कथन है वे श्रमण कैसे हो सकें ॥२३६॥
    अन्वयार्थ : [इह] इस लोक में [यस्य] जिसकी [आगमपूर्वा दृष्टि:] आगमपूर्वक दृष्टि (दर्शन) [न भवति] नहीं है [तस्य] उसके [संयम:] संयम [नास्ति] नहीं है, [इति] इस प्रकार [सूत्रं भणति] सूत्र कहता है; और [असंयत:] असंयत वह [श्रमण:] श्रमण [कथं भवति] कैसे हो सकता है?

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, आगमज्ञान, तत्पूर्वक तत्त्वार्थश्रद्धान और तदुभय पूर्वक संयतत्त्व की युगपतता को मोक्षमार्गपना होने का नियम करते हैं । (अर्थात् ऐसा नियम सिद्ध करते हैं कि -- १. आगमज्ञान,२. तत्पूर्वक तत्त्वार्थश्रद्धान और ३. उन दोनों पूर्वक संयतपना इन तीनों का साथ होना ही मोक्षमार्ग है) :-

    इस लोक में वास्तव में, स्यात्कार जिसका चिह्न है ऐसे आगमपूर्वक तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण वाली दृष्टि से जो शून्य है उन सभी को प्रथम तो संयम ही सिद्ध नहीं होता, क्योंकि (इस प्रकार उनके संयम सिद्ध नहीं होता) और (इस प्रकार) जिनके संयम सिद्ध नहीं होता उन्हें सुनिश्चित ऐकाग्र्यपरिणततारूप श्रामण्य ही जिसका दूसरा नाम मोक्षमार्ग है वही सिद्ध नहीं होता । इससे आगमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्व के युगपतपने को ही मोक्षमार्गपना होने का नियम होता है ॥२३६॥

    जयसेनाचार्य :
    अब, आगम-परिज्ञान और तत्त्वार्थ-श्रद्धान -- इन दोनों पूर्वक संयतपना -- इन तीनों के मोक्षमार्गत्व का नियम करते हैं --

    [आगमपुव्वा दिट्ठी ण भवदि जस्सेह] इस लोक में, जिसके आगमपूर्वक दृष्टि-सम्यक्त्व नहीं है, [संजमो तस्स णत्थि] उसके संयम नहीं है, [इति भणदि] इसप्रकार कहता है । कर्तारूप कौन ऐसा कहता है? [सुत्तं] सूत्र आगम ऐसा कहता है । [असंजदो होदि किध समणो] असंयत होता हुआ श्रमण-मुनिराज कैसे हो सकता है? किसी भी प्रकार नहीं हो सकता है । वह इसप्रकार- यदि दोष रहित अपना परमात्मा ही उपादेय है- ऐसी रुचिरूप सम्यक्त्व नहीं है, तो परमागम के बल से, स्पष्ट एक ज्ञानरूप आत्मा को जानता हुआ भी सम्यग्दृष्टि नहीं है और ज्ञानी नहीं है; इन दोनों का अभाव होने पर, पाँचों इन्द्रियों के विषयों की इच्छा और छहकय के जीवघात से व्यावृत्त-निवृत्त होने पर भी संयत नहीं है ।

    इससे यह निश्चित हुआ कि परमागम का ज्ञान तत्त्वार्थ-श्रद्धान और संयतपना- तीन ही-तीनों का युगपद्पना ही मुक्ति का कारण है ॥२७०॥

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    + अब आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतत्व की युगपतता का अभाव होने पर मोक्ष नहीं है, ऐसी व्यवस्था बताते हैं - -
    ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु । (237)
    सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि ॥271॥
    न ह्यागमेन सिद्धयति श्रद्धानं यद्यपि नास्त्यर्थेषु ।
    श्रद्दधान अर्थानसंयतो वा न निर्वाति ॥२३७॥
    जिनागम से अर्थ का श्रद्धान ना सिद्धि नहीं ।
    श्रद्धान हो पर असंयत निर्वाण को पता नहीं ॥२३७॥
    अन्वयार्थ : [आगमेन] आगम से, [यदि अपि] यदि [अर्थेषु श्रद्धानं नास्ति] पदार्थों का श्रद्धान न हो तो, [न हि सिद्धति] सिद्धि (मुक्ति) नहीं होती; [अर्थान् श्रद्धधानः] पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भी [असंयत: वा] यदि असंयत हो तो [न निर्वाति] निर्वाण को प्राप्त नहीं होता ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ऐसा सिद्ध करते हैं कि - आगमज्ञान - तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्व के अयुगपत्पने को मोक्षमार्गत्व घटित नहीं होता :-

    आगमबल से सकल पदार्थों की विस्पष्ट तर्कणा करता हुआ भी यदि जीव सकल पदार्थों के ज्ञेयाकारों के साथ मिलित होने वाला विशद एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे आत्मा को उस प्रकार से प्रतीत नहीं करता तो यथोक्त आत्मा के श्रद्धान से शून्य होने के कारण जो यथोक्त आत्मा का अनुभव नहीं करता ऐसा वह ज्ञेयनिमग्न ज्ञानविमूढ़ जीव कैसे ज्ञानी होगा? (नहीं होगा, वह अज्ञानी ही होगा ।) और अज्ञानी को ज्ञेयद्योतक होने पर भी, आगम क्या करेगा? (आगम ज्ञेयों का प्रकाशक होने पर भी वह अज्ञानी के लिये क्या कर सकता है?) इसलिये श्रद्धानशून्य आगम से सिद्धि नहीं होती ।

    और, सकल पदार्थों के ज्ञेयाकारों के साथ मिलित होता हुआ विशद एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे आत्मा का श्रद्धान करता हुआ भी, अनुभव करता हुआ भी यदि जीव अपने में ही संयमित होकर नहीं रहता, तो अनादि मोहरागद्वेष की वासना से जनित जो परद्रव्य में भ्रमण उसके कारण जो स्वैरिणी (स्वच्छाचारिणी, व्यभिचारिणी) है ऐसी चिद्‌वृत्ति (चैतन्य की परिणति) अपने में ही रहने से, वासनारहित निष्कंप एक तत्त्व में लीन चिद्‌वृत्ति का अभाव होने से, वह कैसे संयत होगा? (नहीं होगा, असंयत ही होगा) और असंयत को, यथोक्त आत्मतत्त्व की प्रतीतिरूप श्रद्धान या यथोक्त आत्मतत्त्व की अनुभूतिरूप ज्ञान क्या करेगा? इसलिये संयमशून्य श्रद्धान से या ज्ञान से सिद्धि नहीं होती ।

    इससे आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्त्व के अयुगपत्‌पना को मोक्षमार्गपने घटित नहीं होता ॥२३७॥

    जयसेनाचार्य :
    [ण हि आगमेण सिच्झदि] आगम से उत्पन्न परमात्मज्ञान द्वारा सिद्धि नहीं होती है, [सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु] यदि परमात्मा आदि पदार्थों में-पदार्थों सम्बन्धी श्रद्धान नहीं है (तो), [सद्दहमाणो अत्थे] अथवा ज्ञानानन्द एक स्वभावी अपने परमात्मा आदि पदार्थों का श्रद्धान है, [असंजदो वा ण णिव्वादि] तो भी विषय-कषाय के आधीन होने से असंयत निर्वाण को प्राप्त नहीं करता है ।

    वह इसप्रकार- जैसे दीपक सहित पुरुष का कूप (कुआँ) में गिरने के प्रसंग में, कुएं में गिरने से बचना मेरे लिए हितकर है- यदि ऐसा निश्चयरूप श्रद्धान नहीं है तो, उसका दीपक क्या कर सकता है? कुछ भी नहीं । उसीप्रकार जीव के भी परमागम के आधार से सम्पूर्ण पदार्थों के ज्ञेयाकारो के साथ मिश्रित-चित्र-विचित्र स्पष्ट एक ज्ञानरूप अपने आत्मा को जानता हुआ भी, मेरा आत्मा ही मुझे उपादेय है- इसप्रकार यदि निश्चयरूप श्रद्धान नहीं है, तो उसका दीपक के स्थानीय आगम क्या कर सकता है? कुछ भी नहीं ।

    अथवा जैसे वही दीपक सहित पुरुष, अपने पौरुष के बल से-पुरुषार्थ से यदि कूप में गिरने से निवृत्त नहीं होता चेतता नहीं है तो उसका श्रद्धान, दीपक अथवा नेत्र क्या कर सकते हैं? कुछ भी नहीं । उसीप्रकार श्रद्धान-ज्ञान सहित यह जीव भी, यदि पौरुष के स्थानीय चारित्र--स्वरूप-स्थिरता के बल से, रागादि विकल्परूप असंयम से निवृत्त नहीं होता-हटता नहीं है तो उसका श्रद्धान अथवा ज्ञान क्या करे ? कुछ भी नहीं ।

    इससे यह सिद्ध हुआ कि परमागम के ज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व में से, दो या एक से मोक्ष नहीं होता, वरन्‌ तीनों की एकता से मोक्ष होता है ॥२७१॥

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    + आत्मज्ञानी ही मोक्षमार्गी -
    जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं । (238)
    तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥272॥
    यदज्ञानी कर्म क्षपयति भवशतसहस्रकोटिभिः ।
    तज्ज्ञानी त्रिभिर्गुप्तः क्षपयत्युच्छ्वासमात्रेण ॥२३८॥
    विज्ञ तीनों गुप्ति से क्षय करें स्वासोच्छ्वास में ।
    ना अज्ञ उतने कर्म नाशे भव हजार करोड़ में ॥२३८॥
    अन्वयार्थ : [यत् कर्म] जो कर्म [अज्ञानी] अज्ञानी [भवशतसहस्रकोटिभि:] लक्षकोटि भवों में [क्षपयति] खपाता है, [तत्] वह कर्म [ज्ञानी] ज्ञानी [त्रिभि: गुप्त:] तीन प्रकार (मन-वचन-काय) से गुप्त होने से [उच्छ्‌वासमात्रेण] उच्छ्‌वासमात्र में [क्षपयति] खपा देता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, आगमज्ञान - तत्त्वार्थश्रद्धान - संयतत्त्व का युगपत्पना होने पर भी, आत्मज्ञान मोक्षमार्ग का साधकतम (उत्कृष्ट साधक) है ऐसा समझाते हैं :-

    आगमजनित ज्ञान से, यदि वह श्रद्धानशून्य हो तो सिद्धि नहीं होती; तथा उसके (आगमज्ञान के) विना जो नहीं होता ऐसे श्रद्धान से भी यदि वह (श्रद्धान) संयमशून्य हो तो सिद्धि नहीं होती । वह इसप्रकार :-

    जो कर्म (अज्ञानी को) क्रमपरिपाटी से तथा अनेक प्रकार के बालतपादिरूप उद्यम से पकते हुए, रागद्वेष को ग्रहण किया होने से सुखदु:खादि विकारभावरूप परिणमित होने से पुन: संतान को आरोपित करता जाये इस प्रकार, लक्षकोटिभवों द्वारा चाहे जिस प्रकार (महा-कष्ट से) अज्ञानी पार कर जाता है, वही कर्म, (ज्ञानी को) स्यात्कारकेतन आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्व के युगपत्पने के अतिशयप्रसाद से प्राप्त की हुई शुद्धज्ञानमय आत्मतत्त्व की अनुभूति जिसका लक्षण है ऐसे ज्ञानीपन के सद्भाव के कारण काय-वचन-मन के कर्मों के उपरम से त्रिगुप्तिता प्रवर्तमान होने से प्रचण्ड उद्यम से पकता हुआ, रागद्वेष के छोड़ने से समस्त सुखदु:खादि विकार अत्यन्त निरस्त हुआ होने से पुन: संतान को आरोपित न करता जाये इस प्रकार उच्छ्‌वासमात्र में ही लीला से ही ज्ञानी नष्ट कर देता है ।

    इससे आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्व का युगपत्पना होने पर भी आत्मज्ञान को ही मोक्षमार्ग का साधकतम संमत करना ।

    जयसेनाचार्य :
    अब परमागमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतस्वरूप भेद-रत्नत्रय का युगपतपना होने पर भी, जो अभेद-रत्नत्रय स्वरूप विकल्प-रहित समाधि--स्वरूप-लीनता लक्षण आत्मज्ञान वही निश्चय से मुक्ति का कारण है; ऐसा प्रतिपादन करते हैं --

    [जं अण्णाणी कम्मं खवेदि] विकल्प रहित समाधि रूप निश्चय रत्नत्रय स्वरूप विशिष्ट भेद-ज्ञान का अभाव होने से, अज्ञानी जीव जो कर्म नष्ट करता है । किन साधनों द्वारा वह कर्म नष्ट करता है? [भवसयसहस्सकोडीहिं] लाख करोड़ भवों द्वारा, वह जो कर्म नष्ट करता है । [तं णाणी तिहिं गुत्तो] वे कर्म ज्ञानी-जीव, तीन गुप्तियों से गुप्त होता हुआ [खवेदि उस्सासमेत्तेण] उच्छवास मात्र से नष्ट कर देता है ।

    वह इसप्रकार- बाह्य विषय में परमागम के अभ्यास के बल से - इसप्रकार तीन; उन तीन के आधार से उत्पन्न सिद्धजीव के विषय में सम्यक् परिज्ञान श्रद्धान और उनके गुणों के स्मरण के अनुकूल अनुष्ठान--इसप्रकार तीन; उन तीन के आधार से उत्पन्न स्पष्ट, निर्मल, अखण्ड, एक, ज्ञानाकार-रूप इसप्रकार तीन । उन तीन के प्रसाद से उत्पन्न, जो विकल्प रहित समाधिरूप निश्चय रत्नत्रय लक्षण विशिष्ट स्व-संवेदन ज्ञान है, उसका अभाव होने से अज्ञानी जीव अनेक करोड़ भवों में, जो कर्म क्षय करता है; वे कर्म ज्ञानी जीव पहले (ऊपर) कहे गये ज्ञान-गुण के सद्भाव में तीन गुप्ति-रूप से गुप्त होता हुआ उच्छ्वास मात्र में -- लीला से ही -- अत्यन्त सहज-रूप में ही नष्ट कर देता है । इससे ज्ञात होता है कि परमागम-ज्ञान, तत्त्वार्थ-श्रद्धान, संयतत्वरूप भेद रत्नत्रय का सद्भाव होने पर भी, अभेद रत्नत्रयरूप स्वसंवेदनज्ञान की ही प्रधानता है ॥२७२॥

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    + अब पहले (२७२ वीं) गाथा में कहे गये आत्मज्ञान से रहित जीव के, सम्पूर्ण आगम का ज्ञान, तत्त्वार्थ-श्रद्धान और संयतत्व की युगपतता भी अकिंचित्कर है, ऐसा उपदेश देते है - -
    परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो । (239)
    विज्जदि जदि सो सिद्धिं ण लहदि सव्वागमधरो वि ॥273॥
    परमाणुप्रमाणं वा मूर्च्छा देहादिकेषु यस्य पुनः ।
    विद्यते यदि स सिद्धिं न लभते सर्वागमधरोऽपि ॥२३९॥
    देहादि में अणुमात्र मूर्च्छा रहे यदि तो नियम से ।
    वह सर्व आगम धर भले हो सिद्धि वह पाता नहीं ॥२३९॥
    अन्वयार्थ : [पुन:] और [यदि] यदि [यस्य] जिसके [देहादिकेषु] शरीरादि के प्रति [परमाणुप्रमाणं वा] परमाणुमात्र भी [मूर्च्छा] मूर्च्छा [विद्यते] वर्तती हो तो [सः] वह [सर्वागमधर: अपि] भले ही सर्वागम का धारी हो तथापि [सिद्धिं न लभते] सिद्धि को प्राप्त नहीं होता ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ऐसा उपदेश करते हैं कि - आत्मज्ञानशून्य के सर्व आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान तथासंयतत्त्वका युगपत्पना भी अकिंचित्कर है, (अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकता) :-

    सकल आगम के सार को हस्तामलकवत् करने से (हथेली में रक्खे हुए आंवले के समान स्पष्ट ज्ञान होने से) जो पुरुष भूत-वर्तमान-भावी स्वोचित (अपने-अपने योग्य) पर्यायों के साथ अशेष द्रव्य-समूह को जानने-वाले आत्मा को जानता है, श्रद्धान करता है और संयमित रखता है, उस पुरुष के आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्त्व का युगपत्पना होने पर भी, यदि वह किंचित्‌मात्र भी मोहमल से लिप्त होने से शरीरादि के प्रति (तत्संबंधी) मूर्च्छा से उपरक्त रहने से, निरुपराग उपयोग में परिणत करके ज्ञानात्मक आत्मा का अनुभव नहीं करता, तो वह पुरुष मात्र उतने (कुछ) मोह-मल-कलंक-रूप कीले के साथ बँधे हुए कर्मों से न छूटता हुआ सिद्ध नहीं होता ।

    इसलिये आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्त्व का युगपत्पना भी अकिंचित्कर ही है ॥२३९॥

    जयसेनाचार्य :
    [परमाणु पमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो विज्जदि जदि] तथा शरीर आदि विषयों में जिस पुरुष के परमाणुमात्र (अत्यल्प) भी ममत्व यदि पाया जाता है, तो [सो सिद्धिं ण लहदि] वह मुक्ति प्राप्त नहीं करता है । परमाणु मात्र ममत्व वाला वह कैसा हो? [सव्वागमधरो वि] सम्पूर्ण आगम को धारण करने वाला (आगम-ज्ञानी) होने पर भी वह मुक्ति प्राप्त नहीं करता है ।

    यहाँ अर्थ यह है- सम्पूर्ण आगमज्ञान तत्त्वार्थ-श्रद्धान और संयतत्व की युगपतता होने पर भी जिसके शरीरादि के सम्बन्ध में थोड़ा भी ममत्व (एकत्व-ममत्व आदि विपरीत भाव) पाया जाता है, उसके पहले (२७२ वीं) गाथा में कहा गया निर्विकल्प समाधि लक्षण निश्चय रत्नत्रय स्वरूप स्वसंवेदन ज्ञान नहीं है ॥२७३॥

    इसप्रकार भेदाभेद रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग के स्थापन की मुख्यता से, दूसरे स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुई । विशेष यह है कि बहिरात्मदशा, अन्तरात्मदशा और परमात्मारूप मोक्ष दशा- ये तीन दशायें हैं । इन तीन दशाओं में, इनका अनुसरण करनेवाला- इनरूप आकार वाला द्रव्य रहता है । इसप्रकार परस्पर की अपेक्षा सहित, द्रव्य-पर्याय स्वरूप जीव पदार्थ है । उसमें मोक्ष के कारण का विचार करते हैं -

    पहली मिथ्यात्व रागादिरूप बहिरात्मादशा अशुद्धदशा है, वह मोक्ष की कारण नहीं है । तथा मोक्षदशा शुद्ध फलभूत है, वह आगे प्रगट होती है । इन दोनों से भिन्न जो अन्तरात्मा दशा है, वह मिथ्यात्व-रागादि से रहित होने के कारण शुद्ध है । जैसे सूक्ष्म निगोत-निगोदिया जीव के ज्ञान में, शेष आवरण होने पर भी क्षयोपशम ज्ञानावरण (पर्याय ज्ञान नामक क्षयोपशम ज्ञानावरण) नहीं है, वैसे यहाँ भी केवलज्ञानावरण होने पर भी एक देश क्षयोपशम ज्ञान की अपेक्षा, आवरण नहीं है । जितने अंशों में आवरण रहित और रागादि से रहित होने के कारण शुद्ध है, उतने अंशों में मोक्ष का कारण है ।

    वहाँ शुद्ध पारिणामिक भावरूप परमात्मद्रव्य ध्येय है, और वह उस अन्तरात्मारूप ध्यान दशा विशेष से कथंचित् भिन्न है । यदि वह एकान्त से उससे अभिन्न हो, तो मोक्ष में भी ध्यान प्राप्त होता है, अथवा इस ध्यान पर्याय का विनाश होने पर परम पारिणामिक भाव का भी विनाश प्राप्त होता है ।

    इसप्रकार बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के कथनरूप से मोक्षमार्ग जानना चाहिये ॥२७३॥

    (अब चार गाथाओं में निबद्ध द्रव्य-भाव संयम के कथनरूप तीसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)

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    + अब, द्रव्य-भाव संयम का स्वरूप कहते हैं - -
    चागो य अणारंभो विसयविरागो खओ कसायाणं ।
    सो संजमो त्ति भणिदो पव्वज्जाए विसेसेण ॥274॥
    अनारंभी त्याग विषयविरक्त और कषायक्षय ।
    ही तपोधन संत का सम्पूर्ण: संयम कहा ॥२७४॥
    अन्वयार्थ : तपश्चरण दशा में त्याग, अनारम्भ, विषयों से विरक्तता और कषायों का क्षय -- विशेषरूप से वह संयम कहा गया है ।

    जयसेनाचार्य :
    [चागो य] अपने शुद्धात्मा को सब ओर से ग्रहण कर बहिरंग-अन्तरंग परिग्रह की निवृत्ति त्याग है । [अणारंभो] क्रिया रहित अपने शुद्धात्मद्रव्य में ठहरकर मन-वचन-शरीर सम्बन्धी व्यापार (चेष्टा) से निवृत्ति अनारम्भ है । [विसयविरागो] विषयों से रहित अपने आत्मा की भावना से उत्पन्न सुख में तृप्त होकर पाँच इन्द्रियों सम्बन्धी सुख की इच्छा का त्याग विषय-विराग है । [खओ कसायाणं] कषाय रहित शुद्धात्मा की भावना के बल से, क्रोधादि कषायों का त्याग कषायक्षय है । [सो संजमो त्ति भणिदो] वह इन गुणों से विशिष्ट 'संयम' - ऐसा कहा गया है । [पव्वज्जाए विसेसेण] प्रथम सामान्य से भी यह संयम का लक्षण है, प्रव्रज्या अर्थात् तपश्चरणरूप दशा में, विशेषरूप से भी यही संयम का लक्षण है । यहाँ अन्दर में शुद्धात्मा की सम्वित्ति-स्वसंवेदन भाव संयम है और बाहर से निवृत्ति द्रव्य संयम है ॥२७४॥

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    + आत्मज्ञानी संयत -
    पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदियसंवुडो जिदकसाओ । (240)
    दंसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो ॥275॥
    पञ्चसमितस्त्रिगुप्तः पञ्चेन्द्रियसंवृतो जितकषायः ।
    दर्शनज्ञानसमग्रः श्रमणः स संयतो भणितः ॥२४०॥
    तीन गुप्ति पाँच समिति सहित पंचेद्रियजयी ।
    ज्ञानदर्शन मय श्रमण ही जितकषायी संयमी ॥२४०॥
    अन्वयार्थ : [पंचसमिति:] पाँच समितियुक्त, [पंचेन्द्रिय-संवृत:] पांच इन्द्रियों का संवर वाला [त्रिगुप्त:] तीन गुप्ति सहित, [जितकषाय:] कषायों को जीतने वाला, [दर्शनज्ञानसमग्र:] दर्शनज्ञान से परिपूर्ण [श्रमण:] ऐसा जो श्रमण [सः] वह [संयत:] संयत [भणितः] कहा गया है ॥२४०॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब आगमज्ञान - तत्त्वार्थश्रद्धान - संयतत्त्व के युगपत्पने के साथ आत्मज्ञान के युगपत्पने को साधते हैं; (अर्थात् आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्व -- इस त्रिक के साथ आत्मज्ञान के युगपत्पने को सिद्ध करते हैं ) :-

    जो पुरुष वह पुरुष वास्तव में, सकल पर-द्रव्य से शून्य होने पर भी विशुद्ध दर्शन ज्ञान-मात्र स्वभाव-रूप से रहने वाले आत्म-तत्त्व (स्व-द्रव्य) में नित्य-निश्‍चल परिणति उत्पन्न होने से, साक्षात् संयत ही है । और उसे ही आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्त्व के युगपत्पना के साथ आत्मज्ञान की युगपत्‌ता सिद्ध होती है ॥२४०॥

    जयसेनाचार्य :
    अब, आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व- इन तीनों की जो सविकल्प युगपतता और उसी प्रकार विकल्प-रहित आत्मज्ञान है- इन दोनों की संभवता--एक साथ उपस्थिति दिखाते हैं --

    [समणो सो संजदो भणिदो] वे इन गुणों से विशिष्ट श्रमण संयत कहे गये हैं ।


    इससे यह निश्चित हुआ- व्यवहार से जो बाह्य विषय में व्याख्यान किया उससे सविकल्प सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र- तीनों की युगपतता ग्रहण करना चाहिये, तथा अन्तरंग व्याख्यान से निर्विकल्प आत्मज्ञान ग्रहण करना चाहिये- इसप्रकार सविकल्प की युगपतता और निर्विकल्प आत्मज्ञान घटित होता है ॥२७५॥

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    + आत्मज्ञानी संयत का लक्षण -
    समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो । (241)
    समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥276॥
    समशत्रुबन्धुवर्गः समसुखदुःखः प्रशंसानिन्दासमः ।
    समलोष्टकाञ्चनः पुनर्जीवितमरणे समः श्रमणः ॥२४१॥
    कांच-कंचन बन्धु-अरि सुख-दु:ख प्रशंसा-निन्द में ।
    शुद्धोपयोगी श्रमण का समभाव जीवन-मरण में ॥२४१॥
    अन्वयार्थ : [समशत्रुबन्‍धुवर्ग:] जिसे शत्रु और बन्धु वर्ग समान है, [समसुखदुःख:] सुख और दुःख समान है, [प्रशंसानिन्दासम:] प्रशंसा और निन्दा के प्रति जिसको समता है, [समलोष्टकाचन:] जिसे लोष्ठ (मिट्टी का ढेला) और सुवर्ण समान है, [पुन:] तथा [जीवितमरणेसम:] जीवन-मरण के प्रति जिसको समता है, वह [श्रमण:] श्रमण है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, आगमज्ञान - तत्त्वार्थश्रद्धान - संयतत्त्व के युगपत्पने का तथा आत्मज्ञान का युगपत्पना जिसे सिद्ध हुआ है ऐसे इस संयत का क्या लक्षण है सो कहते हैं :-

    संयम, सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक चारित्र है; चारित्र धर्म है; धर्म साम्य है; साम्य मोहक्षोभ रहित आत्मपरिणाम है । इसलिये संयत का, साम्य लक्षण है ।

    वहाँ,
    1. शत्रु-बंधुवर्ग में,
    2. सुख-दुःख में,
    3. प्रशंसा-निन्दा में,
    4. मिट्टी के ढेले और सोने में,
    5. जीवित-मरण में
    एक ही साथ,
    1. यह मेरा पर (शत्रु) है, यह स्व (स्वजन) है;
    2. यह आह्लाद है, यह परिताप है,
    3. यह मेरा उत्कर्षण (कीर्ति) है, यह अपकर्षण (अकीर्ति) है,
    4. यह मुझे अकिंचित्कर है, यह उपकारक (उपयोगी) है,
    5. यह मेरा स्थायित्व है, यह अत्यन्त विनाश है
    इस प्रकार मोह के अभाव के कारण सर्वत्र जिससे रागद्वेष का द्वैत प्रगट नहीं होता, जो सतत विशुद्ध दर्शन ज्ञान स्वभाव आत्मा का अनुभव करता है, और (इस प्रकार) शत्रु-बन्धु, सुख-दुःख, प्रशंसा-निन्दा, लोष्ट- कांचन और जीवित-मरण को निर्विशेषयता ही (अन्तर के बिना ही) ज्ञेयरूप जानकर ज्ञानात्मक आत्मा में जिसकी परिणति अचलित हुई है; उस पुरुष को वास्तव में जो सर्वत: साम्य है वह (साम्य) संयत का लक्षण समझना चाहिये -- कि जिस संयत के आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्त्व के युगपत्पने का और आत्मज्ञान का युगपत्पना सिद्ध हुआ है ॥२४१॥

    जयसेनाचार्य :
    अब विकल्परूप आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतत्व- इन तीन लक्षणों की युगपतता तथा निर्विकल्प आत्मज्ञान से सहित जो वे संयत हैं उनका क्या लक्षण है? ऐसा उपदेश देते हैं । ऐसा उपदेश देते हैं- इसका क्या अर्थ है? ऐसा प्रश्न पूछे जाने पर उत्तर देते हैं- यह इसका अर्थ है । इसप्रकार प्रश्नोत्तररूप पातनिका के प्रसंग में यथासंभव कहीं-कहीं 'इति' शब्द का ऐसा अर्थ जानना चाहिये -

    वे श्रमण संयत-तपोधन हैं । जो किस विशेषता वाले हैं? शत्रु-बन्धु, सुख-दुःख, निन्दा- प्रशंसा, लोष्ट (मिट्टी का ढ़ेला)-स्वर्ण, जीवन-मरण में सम-समान मनवाले हैं ।

    इससे यह निश्चित हुआ -- शत्रु-बंधु, सुख-दुःख, निन्दा-प्रशंसा, लोष्ट-स्वर्ण, जीवन-मरण, में समताभाव से परिणत अपने शुद्धात्मतत्त्व के सम्यकश्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान रूप विकल्प सहित समाधि-स्वरूपलीनता से, अच्छी तरह उत्पन्न विकार-रहित उत्कृष्ट आह्लाद एक लक्षण सुखामृतरूप परिणति स्वरूप जो परम साम्य है; वही परमागम ज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतत्व की युगपतता और उसीप्रकार निर्विकल्प आत्मज्ञानरूप से परिणत मुनिराज का लक्षण जानना चाहिये ॥२७६॥

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    + युगपत आत्मज्ञान और संयत ही मोक्षमार्ग -
    दंसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्ठिदो जो दु । (242)
    एयग्गगदो त्ति मदो सामण्णं तस्स पडिपुण्णं ॥277॥
    दर्शनज्ञानचरित्रेषु त्रिषु युगपत्समुत्थितो यस्तु ।
    ऐकाग्रयगत इति मतः श्रामण्यं तस्य परिपूर्णम् ॥२४२॥
    ज्ञानदर्शन चरण में युगपत सदा आरूढ़ हो ।
    एकाग्रता को प्राप्त यति श्रामण्य से परिपूर्ण हैं ॥२४२॥
    अन्वयार्थ : [यः तु] जो [दर्शनज्ञानचरित्रेषु] दर्शन, ज्ञान और चारित्र [त्रिषु] इन तीनों में [युगपत्] एक ही साथ [समुत्थित:] आरूढ़ है, वह [ऐकाग्रत:] एकाग्रता को प्राप्त है । [इति] इस प्रकार [मत:] (शास्त्र में) कहा है । [तस्य] उसके [श्रामण्यं] श्रामण्य [परिपूर्णम्] परिपूर्ण है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, यह समर्थन करते हैं कि आगमज्ञान - तत्त्वार्थश्रद्धान - संयतत्त्व के युगपत्पने के साथ आत्मज्ञान के युगपत्पने की सिद्धिरूप जो यह संयतपना है वही मोक्षमार्ग है, जिसका दूसरा नाम एकाग्रतालक्षणवाला श्रामण्य है :- इन पर्यायों के और आत्मा के भाव्य-भावकता के द्वारा उत्पन्न अति गाढ़ इतरेतर-मिलन के बल के कारण इन तीनों पर्यायरूप युगपत् अंग-अंगीभाव से परिणत आत्मा के, आत्मनिष्ठता होने पर जो संयतत्त्व होता है वह संयतपना एकाग्रतालक्षण वाला श्रामण्य जिसका दूसरा नाम है ऐसा मोक्षमार्ग ही है -- ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि वहाँ ( संयतपनेमें) पेय की भाँति अनेकात्मक एक का अनुभव होने पर भी, समस्त पर-द्रव्य से निवृत्ति होने से एकाग्रता अभिव्यक्त (प्रगट) है ।

    वह ( संयतत्त्वरूप अथवा श्रामण्यरूप मोक्षमार्ग) भेदात्मक है, इसलिये 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है' इस प्रकार पर्यायप्रधान व्यवहारनय से उसका प्रज्ञापन है; वह (मोक्षमार्ग) अभेदात्मक है इसलिये 'एकाग्रता मोक्षमार्ग है' इसप्रकार द्रव्यप्रधान निश्‍चयनय से उसका प्रज्ञापन है; समस्त ही पदार्थ भेदाभेदात्मक है इसलिये 'वे दोनों, (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तथा एकाग्रता) मोक्षमार्ग है' इस प्रकार प्रमाण से उसका प्रज्ञापन है ॥२४२॥

    (अब श्‍लोक द्वारा मोक्षप्राप्ति के लिये द्रष्टा-ज्ञाता में लीनता करने को कहा जाता है ।)

    (कलश-१६ -- मनहरण कवित्त)
    इसप्रकार जो प्रतिपादन के अनुसार ।
    एक होकर भी अनेक रूप होता है ।
    निश्चयनय से तो मात्र एकाग्रता ही ।
    पर व्यवहार से तीन रूप होता है ॥
    ऐसे मोक्षमार्ग के अचलालम्बन से ।
    ज्ञाता-दृष्टाभाव को निज में ही बाँध ले ॥
    उल्लसित चेतना का अतुल विलास लख ।
    आत्मीकसुख प्राप्त करे अल्पकाल में ॥१६॥

    इस प्रकार, प्रतिपादक के आशय के वश, एक होने पर भी अनेक होता हुआ (अभेदप्रधान निश्‍चयनय से एक-एकाग्रतारूप होता हुआ भी वक्ता के अभिप्रायानुसार भेदप्रधान व्यवहारनय से अनेक भी -- दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप भी होता होने से) एकता (एकलक्षणता) को तथा त्रिलक्षणता को प्राप्त जो अपवर्ग (मोक्ष) का मार्ग उसे लोक द्रष्टा- ज्ञाता में परिणति बांधकर (लीन करके) अचलरूप से अवलम्बन करे, जिससे वह (लोक) उल्लसित चेतना के अतुल विकास को अल्पकाल में प्राप्त हो ।

    जयसेनाचार्य :
    अब, संयत मुनिराज का जो यह साम्यलक्षण कहा है, वही श्रामण्य दूसरा नाम मोक्षमार्ग कहलाता है; ऐसा निरूपित करते हैं -

    [दंसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्ठिदो जो दु] जो कर्ता दर्शन-ज्ञान-चारित्र - तीनों में अच्छी तरह से उपस्थित-उद्यत हैं, [एयग्गगदो त्ति मदो] वे एकाग्रता को प्राप्त हैं- ऐसा माना गया है- स्वीकार किया गया है, [सामण्णं तस्स पडिपुण्णं] उनके श्रामण्य-चारित्र-यतिपना परिपूर्ण है ।

    वह इसप्रकार- भावकर्म द्रव्यकर्म और नोकर्मों से तथा शेष पुद्गल आदि पाँच द्रव्यों से भी भिन्न सहज-शुद्ध हूं हमेशा आनन्द एक स्वभावरूप मुझ सम्बन्धी जो आत्मद्रव्य है (मैं जो आत्मद्रव्य हूं), वही मुझे उपादेय है- ऐसी रुचिरूप सम्यग्दर्शन, उसकी ही विशेष जानकारीरूप सम्यग्ज्ञान और उसी स्वरूप में निश्चल अनुभूति लक्षण चारित्र- इसप्रकार कहे गये स्वरूपवाले जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनों पानक (ठंडाई) के समान अनेक होने पर भी अभेदनय से एक हैं वे सविकल्प दशा में व्यवहार से एकाग्रता कहलाते हैं । वे ही विकल्परहित समाधि-स्वरूपलीनता के समय, निश्चय से एकाग्र कहलाते हैं । वही दूसरे नामों की अपेक्षा परम साम्य है । वही परम साम्य अन्य पर्याय नामों-दूसरे नामों की अपेक्षा शुद्धोपयोग लक्षण श्रामण्य, दूसरा नाम मोक्षमार्ग जानना चाहिये ।

    उस मोक्षमार्ग का 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तीनों की एकरूपता मोक्षमार्ग है' -- इसप्रकार भेद स्वरूप होने से, पर्याय प्रधान व्यवहारनय से निर्णय होता है । 'एकाग्रता मोक्षमार्ग है' -- इसप्रकार अभेद स्वरूप होने से, द्रव्य प्रधान निश्चयनय से निर्णय होता है । समस्त वस्तु-समूह के ही भेदाभेदात्मक होने से निश्चय-व्यवहार- दोनों मोक्षमार्गों का प्रमाण से भी निश्चय होता है- ऐसा अर्थ है ॥२७७॥

    इसप्रकार निश्चय-व्यवहार संयम के प्रतिपादन की मुख्यता से तीसरे स्थल में चार गाथायें पूर्ण हुईं ।

    (अब मोक्षमार्ग के उपसंहार परक दो गाथाओं वाला चौथा स्थल प्रारम्भ होता है ।)

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    + एकाग्रता के अभाव से मोक्ष का अभाव -
    मुज्झदि वा रज्जदि वा दुस्सदि वा दव्वमण्णमासेज्ज । (243)
    जदि समणो अण्णाणी बज्झदि कम्मेहिं विविहेहिं ॥278॥
    मुह्यति वा रज्यति वा द्वेष्टि वा द्रव्यमन्यदासाद्य ।
    यदि श्रमणोऽज्ञानी बध्यते कर्मभिर्विविधैः ॥२४३॥
    अज्ञानि परद्रव्याश्रयी हो मुग्ध राग-द्वेष मय ।
    जो श्रमण वह ही बाँधता है विविध विध के कर्म सब ॥२४३॥
    अन्वयार्थ : [यदि] यदि [श्रमण:] श्रमण, [अन्यत् द्रव्यम् आसाद्य] अन्य द्रव्य का आश्रय करके [अज्ञानी] अज्ञानी होता हुआ, [मुह्यति वा] मोह करता है, [रज्यति वा] राग करता है, [द्वेष्टि वा] अथवा द्वेष करता है, तो वह [विविधै: कर्मभि:] विविध कर्मों से [बध्यते] बँधता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब ऐसा दर्शाते हैं कि - अनेकाग्रता के मोक्षमार्गपना घटित नहीं होता (अर्थात् अनेकाग्रता मोक्षमार्ग नहीं है ) :-

    जो वास्तव में ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्र (विषय) को नहीं भाता, वह अवश्य ज्ञेयभूत अन्य द्रव्य का आश्रय करता है, और उसका आश्रय करके, ज्ञानात्मक आत्मा के ज्ञान से भ्रष्ट वह स्वयं अज्ञानी होता हुआ मोह करता है, राग करता है, अथवा द्वेष करता है; और ऐसा (मोही रागी अथवा द्वेषी) होता हुआ बंध को ही प्राप्त होता है; परन्तु मुक्त नहीं होता ।

    इससे अनेकाग्रता को मोक्षमार्गपना सिद्ध नहीं होता ॥२४३॥

    जयसेनाचार्य :
    अब, जो अपने शुद्धात्मा में एकाग्र नहीं है, उसके मोक्ष का अभाव दिखाते हैं -

    [मुज्झदि वा रज्जदि वा दुस्सदि वा दव्वमण्णमासेज्ज जदि] यदि मोह करता है, राग करता है अथवा द्वेष करता है । ये सब क्या करके करता है? दूसरे द्रव्यों का आश्रय लेकर करता है । ऐसा वह कौन करता है? [समणो] श्रमण-तपोधन-मुनि ऐसा करता है तो । उस समय [अण्णाणी] वह अज्ञानी है । अज्ञानी होता हुआ [बज्झदि कम्मेहिं विविहेहिं] अनेक प्रकार के कर्मों से बँधता है ।

    वह इसप्रकार -- जो विकार रहित स्व-संवदेन ज्ञान द्वारा एकाग्र होकर अपने आत्मा को नहीं जानता है, उसका चित्त बाह्य विषयों में जाता है । इसलिये ज्ञानानन्द एक अपने स्वभाव से च्युत होता है, और इसलिये राग-द्वेष-मोह रूप से परिणमता है । उन रूप परिणमन करता हुआ अनेक प्रकार के कर्मों से बँधता है । इस कारण मोक्षार्थियों को, एकाग्र रूप से अपने स्वरूप की भावना करना चाहिये -- ऐसा अर्थ है ॥२७८॥

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    + अब, जो वे अपने शुद्धात्मा में एकाग्र हैं उनका ही मोक्ष होता है; ऐसा उपदेश देते हैं - -
    अट्ठेसु जो ण मुज्झदि ण हि रज्जदि णेव दोसमुवयादि । (244)
    समणो जदि सो णियदं खवेदि कम्माणि विविहाणि ॥279॥
    अर्थेषु यो न मुह्यति न हि रज्यति नैव द्वेषमुपयाति ।
    श्रमणो यदि स नियतं क्षपयति कर्माणि विविधानि ॥२४४॥
    मोहित न हो जो लोक में अर राग-द्वेष नहीं करें ।
    वे श्रमण ही नियम से क्षय करें विध-विध कर्म सब ॥२४४॥
    अन्वयार्थ : [यदि यः श्रमण:] यदि श्रमण [अर्थेषु] पदार्थों में [न मुह्यति] मोह नहीं करता, [न हि रज्यति] राग नहीं करता, [न एव द्वेषम् उपयाति] और न द्वेष को प्राप्त होता है [सः] तो वह [नियतं] नियम से [विविधानि कर्माणि] विविध कर्मों को [क्षपयति] खपाता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब एकाग्रता वह मोक्षमार्ग है ऐसा (आचार्य महाराज) निश्चित करते हुए (मोक्षमार्ग-प्रज्ञापन का) उपसंहार करते हैं :-

    जो ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्र (विषय) को भाता है वह ज्ञेयभूत अन्य द्रव्य का आश्रय नहीं करता; और उसका आश्रय नहीं करके ज्ञानात्मक आत्मा के ज्ञान से अभ्रष्ट ऐसा वह स्वयमेव ज्ञानीभूत रहता हुआ, मोह नहीं करता, राग नहीं करता, द्वेष नहीं करता, और ऐसा (अमोही, अरागी, अद्वेषी) वर्तता हुआ (वह) मुक्त ही होता है, परन्तु बँधता नहीं है ।

    इससे एकाग्रता को ही मोक्षमार्गत्व सिद्ध होता है ॥२४४॥

    जयसेनाचार्य :
    [अट्ठेसु जो ण मुज्झदि ण हि रज्जदि णेव] अर्थों--बाह्य पदार्थों में जो मोह नहीं करता है, राग नहीं करता, वास्तव में द्वेष को भी प्राप्त नहीं है [जदि] यदि, तो [सो समणो] वह मुनि [णियदं] निश्चित [खवेदि कम्माणि विविहाणि] विविध कर्मों का क्षय करता है ।

    अब (इसका) विशेष कथन करते हैं -- जो वे देखे हुये, सुने हुये, भोगे हुये भोगों की इच्छारूप अपध्यान (बुरे ध्यान) के त्याग पूर्वक अपने स्वरूप की भावना है, उनका मन बाह्य पदार्थों में नहीं जाता है, और इसलिए बाह्य पदार्थों सम्बन्धी चिन्ता का अभाव होने से विकार रहित चैतन्य चमत्कार से च्युत नहीं होते हैं और उससे च्युत नहीं होने के कारण रागादि का अभाव होने से, विविध कर्म नष्ट हो जाते हैं । इसलिये मोक्षार्थी को निश्चल मन से, अपने आत्मा में भावना करना चाहिये ।

    इसप्रकार के वीतराग चारित्र सम्बन्धी विशेष कथन को सुनकर कोई कहते हैं -- सयोगकेवलियों के भी एकदेश चारित्र है, परिपूर्ण चारित्र तो अयोगी के अन्तिम समय में होगा, इस कारण अभी हमारे सम्यक्त्व-भावना और भेदज्ञान-भावना ही पर्याप्त है, चारित्र बाद में होगा । (आचार्य कहते है) ऐसा नहीं कहना चाहिये । अभेदनय से ध्यान ही चारित्र है, और वह ध्यान केवलियों के उपचार से कहा गया है, इसीप्रकार चारित्र भी उपचार से कहा है । तथा जो सम्पूर्ण रागादि विकल्प जाल रहित शुद्धात्मानुभूति लक्षण सम्यग्दर्शन-ज्ञान पूर्वक छद्मस्थ का वीतराग चारित्र है, वही कार्यकारी है । वही कार्यकारी क्यों है? क्योंकि उससे ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है, अत: वही कार्यकारी है; इसलिये चारित्र में प्रयत्न करना चाहिये- ऐसा भाव है ।

    दूसरी बात यह है कि उत्सर्ग व्याख्यान के समय श्रामण्य का व्याख्यान किया था, यहाँ फिर से किसलिए किया है? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर कहते है- वहाँ सम्पूर्ण (परिग्रहादि) का परित्याग लक्षण उत्सर्ग ही मुख्य रूप से मोक्षमार्ग है (यह कहा था); यहाँ श्रामण्य का व्याख्यान है, परन्तु श्रामण्य (मुनिपना) ही मोक्षमार्ग है (यह कहा गया है) - इसप्रकार (पृथक्‌-पृथक्) मुख्यता से दोनों में अन्तर है ॥२७९॥

    इसप्रकार श्रामण्य दूसरा नाम मोक्षमार्ग के उपसंहार की मुख्यता से चौथे स्थल में दो गाथायें पूर्ण हुई ।

    इसप्रकार पहले कहे गये क्रम से '[एयग्गगदो]' इत्यादि चौदह गाथाओं द्वारा चार स्थल रूप से श्रामण्य अपरनाम मोक्षमार्ग नामक तीसरा अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।

    अब, इसके बाद ३२ गाथाओं तक, पाँच स्थलों द्वारा शुभोपयोग अधिकार कहा जाता है । वहीं सबसे पहले लौकिक संसर्ग के निषेध की मुख्यता से, '[णिच्छिदसुत्तत्थ पदो]' इत्यादि पाठक्रम से पहले स्थल में पाँच गाथायें हैं । तदुपरान्त सराग-संयम दूसरा नाम शुभोपयोग के स्वरूप कथन की मुख्यता से, '[समणा सुद्धवजुत्ता]' इत्यादि दूसरे स्थल में आठ गाथायें हैं । तदनन्तर पात्र-अपात्र की परीक्षा के प्रतिपादनरूप से (तीसरे स्थल में), '[रागो पसत्थभूदो]' इत्यादि छह गाथायें हैं । तत्पश्चात् परम आचार आदि कहे गये क्रम से और भी संक्षेपरूप से (चौथे स्थल में), समाचार व्याख्यान की प्रधानतारूप '[दिट्ठा पगदं वत्थुं]' इत्यादि आठ गाथायें हैं । और उसके बाद पंच रत्न की मुख्यता से (पाँचवे स्थल मे) 'जे अजधागहिदत्था-' इत्यादि पाँच गाथायें हैं ।

    इसप्रकार ३२ गाथाओं द्वारा प्राँच स्थलरूप से चौथे अन्तराधिकार में सामूहिक पातनिका है ।

    चतुर्थ अन्तराधिकार का स्थलविभाजन (गाथा २८० से ३११ पर्यन्त)

    स्थलक्रमप्रतिपादित प्रधान विषयकहाँ से कहाँ पर्यंत गाथायेंकुल गाथायें
    प्रथम स्थललौकिक संसर्ग के निषेध परक२८० से २८४
    द्वितीय स्थलशुभोपयोग स्वरूप कथन२८५ से २९२
    तृतीय स्थलपात्र-अपात्र की परीक्षा प्रतिपादक२९३ से २९८
    चतुर्थ स्थलसमाचार व्याख्यान प्रतिपादक२९९ से ३०६
    पंचम स्थलपंचरत्न गाथायें३०७ से ३११
    कुल पाँच स्थलकुल ३२ गाथायें


    (अब चौथे अन्तराधिकार का पाँच गाथाओं वाला पहला स्थल प्रारम्भ होता है ।) वह इसप्रकार -

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    + लौकिक संसर्ग का निषेध -
    णिच्छिदसुत्तत्थपदो समिदकसाओ तवोधिगो चावि । (268)
    लोगिगजणसंसग्गं ण चयदि जदि संजदो ण हवदि ॥280॥
    निश्चितसूत्रार्थपदः शमितकषायस्तपोऽधिकश्चापि ।
    लौकिकजनसंसर्गं न त्यजति यदि संयतो न भवति ॥२६८॥
    सूत्रार्थविद जितकषायी और तपस्वी हैं किन्तु यदि।
    लौकिकजनों की संगति न तजे तो संयत नहीं ॥२६८॥
    अन्वयार्थ : [निश्‍चितसूत्रार्थपद:] जिसने सूत्रों और अर्थों के पद को—अधिष्ठान को (अर्थात् ज्ञातृतत्त्व को) निश्‍चित किया है, [समितकषाय:] जिसने कषायों का शमन किया है, [च] और [तपोऽधिक: अपि] जो अधिक तपवान् है ऐसा जीव भी [यदि] यदि [लौकिकजनससर्गं] लौकिकजनों के संसर्ग को [न त्यजति] नहीं छोड़ता, [संयत: न भवति] तो वह संयत नहीं है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, असत्संग निषेध्य है ऐसा बतलाते हैं :-

    इस प्रकार (इन तीन कारणों से) जो जीव भलीभाँति संयत हो, वह भी लौकिक (जनों के) संग से असंयत ही होता है, क्योंकि अग्नि की संगति में रहे हुए पानी की भाँति उसे विकार अवश्यंभावी है । इसलिये लौकिक संग सर्वथा निषेध्य ही है ।

    जयसेनाचार्य :
    अब लौकिक संसर्ग का निषेध करते है -

    [णिच्छिदसुत्त्त्थपदो] जिसके द्वारा अनेकान्त स्वभावी अपने शुद्धात्मा आदि पदार्थों का प्रतिपादन करनेवाले सूत्र-अर्थ-पद निश्चितरूप से जाने गये है- निर्णय किये गये हैं वे निश्चित सूत्रार्थपद हैं [समिदकसाओ] दूसरे विषय में क्रोधादि के त्याग से अन्तरंग में उपशम भाव से परिणत अपने शुद्धात्मा की भावना के बल से कषायों का शमन करनेवाले हैं, [तवोधिगो चावि] अनशन आदि बाह्य तप के बल से और उसीप्रकार अन्तरंग में शुद्धात्म-तत्व की भावना के विषय में प्रतपन और विजयन से, जो तप में अधिक होते हुये भी स्वयं मुनि रूप कर्ता [लोगिगजणसंग्गं ण चयदि जदि] लौकिक अर्थात् स्वेच्छाचारी उनका संसर्ग-लौकिक संसर्ग है (षष्ठी तत्पुरुष समास किया), उसे यदि नहीं छोड़ता है, [संजदो ण हवदि] तब (वह) संयत-मुनि नहीं है ।

    यहाँ अर्थ यह है- स्वयं आत्मा की भावना करनेवाला होने पर भी, यदि असंवृत-असंयमी जनों का संसर्ग नहीं छोड़ता है, तो अग्नि की संगति में रहनेवाले जल के समान, अतिपरिचय से विकृति भाव (रागादि भाव) को प्राप्त होता है ॥२८०॥

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    + लौकिक का लक्षण -
    णिग्गंथं पव्वइदो वट्टदि जदि एहिगेहिं कम्मेहिं । (269)
    सो लोगिगो त्ति भणिदो संजमतवसंपजुत्तो वि ॥281॥
    नैर्ग्रन्थ्यं प्रव्रजितो वर्तते यद्यैहिकैः कर्मभिः ।
    स लौकिक इति भणितः संयमतपःसम्प्रयुक्तोऽपि ॥२६९॥
    निर्ग्रंथ हों तपयुक्त संयुक्त हों पर व्यस्त हो ।
    इहलोक के व्यवहार में तो उन्हें लौकिक ही कहा ॥२६९॥
    अन्वयार्थ : [नैर्ग्रन्‍थ्‍यं प्रव्रजित:] जो (जीव) निर्ग्रंथरूप से दीक्षित होने के कारण [संयमतप: संप्रयुक्त: अपि] संयम-तप-संयुक्त हो उसे भी, [यदि सः] यदि वह [ऐहिकै कर्मभि: वर्तते] ऐहिक कार्यों सहित वर्तता हो तो, [लौकिक: इति भणित:] लौकिक कहा गया है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, 'लौकिक' (जन) का लक्षण कहते हैं :-

    परम-निर्ग्रन्थतारूप प्रवृज्या की प्रतिज्ञा ली होने से जो जीव संयम-तप के भार को वहन करता हो उसे भी, यदि उस मोह की बहुलता के कारण शुद्धचेतन व्यवहार को छोड़कर निरंतर मनुष्य-व्यवहार के द्वारा चक्कर खाने से ऐहिक कर्मों से अनिवृत्त हो तो, लौकिक कहा जाता है ॥२६९॥

    जयसेनाचार्य :
    अब, लौकिक का लक्षण कहते हैं -

    [णिग्गंथो पव्वइदो] वस्त्रादि परिग्रह से रहित होने के कारण निर्ग्रन्थ होने पर भी, दीक्षा ग्रहण करने से प्रव्रजित-दीक्षित-साधु होने पर भी, [वट्टदि जदि] यदि वर्तता है तो । किनके साथ वर्तता है, [एहिगेहिं कम्मेहिं] ऐहिक कर्मों के साथ- भेदाभेद रत्नत्रय परिणाम को नष्ट करनेवाले प्रसिद्धि, पूजा, लाभ के निमित्तभूत ज्योतिष, मन्त्रवाद, वैदक (वैद्य सम्बन्धी) आदि इस लोक सम्बन्धी जीवन के उपायभूत कर्मों के साथ वर्तता है । [सो लोगिगो त्ति भाणिदो] वह लौकिक-व्यावहारिक है- ऐसा कहा गया है । किस विशेषतावाला होने पर भी वह लौकिक कहा गया है? [संजमतवसंजुदो चावि] द्रव्यरूप संयम-तप से संयुक्त होने पर भी वह लौकिक कहा गया है ॥२८१॥

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    + उत्तम संसर्ग का उपदेश -
    तम्हा समं गुणादो समणो समणं गुणेहिं वा अहियं । (270)
    अधिवसदु तम्हि णिच्चं इच्छदि जदि दुक्खपरिमोक्खं ॥282॥
    तस्मात्समं गुणात् श्रमणः श्रमणं गुणैर्वाधिकम् ।
    अधिवसतु तत्र नित्यं इच्छति यदि दुःखपरिमोक्षम् ॥२७०॥
    यदि चाहते हो मुक्त होना दुखों से तो जान लो ।
    गुणाधिक या समान गुण से युक्त की संगति करो ॥२७०॥
    अन्वयार्थ : [तस्मात्] (लौकिकजन के संग से संयत भी असंयत होता है) इसलिये [यदि] यदि [श्रमण:] श्रमण [दुःखपरिमोक्षम् इच्छति] दुःख से परिमुक्त होना चाहता हो तो वह [गुणात्‌समं] समान गुणों वाले श्रमण के [वा] अथवा [गुणै: अधिकं श्रमणं तत्र] अधिक गुणों वाले श्रमण के संग में [नित्यम्] सदा [अधिवसतु] निवास करो ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, सत्संग विधेय (करने योग्य) है, ऐसा बतलाते हैं : —

    आत्मा परिणामस्वभाव वाला है इसलिये अग्नि के संग में रहे हुए पानी की भाँति (संयत के भी) लौकिकसंग से विकार अवश्यंभावी होने से संयत भी असंयत ही हो जाता है । इसलिये दुःखमोक्षार्थी (दुःखों से मुक्ति चाहने वाले) श्रमण को सदा ही निवास करना चाहिये । इस प्रकार उस श्रमण के

    (कलश-१७--मनहरण कवित्त)
    इसप्रकार शुभ उपयोगमयी किंचित् ही ।
    शुभरूप वृत्ति का सुसेवन करके ॥
    सम्यक्प्रकार से संयम के सौष्टव से ।
    आप ही क्रमशर निरवृत्ति करके ॥
    अरे ज्ञानसूर्य का है अनुपम जो उदय ।
    सब वस्तुओं को मात्र लीला में ही जान लो ॥
    ऐसी ज्ञानानन्दमयी दशा एकान्ततः ।
    अपने में आपही नित अनुभव करो ॥१७॥

    इस प्रकार शुभोपयोगजनित किंचित् प्रवृत्ति का सेवन करके यति सम्यक् प्रकार से संयम के सौष्ठव (श्रेष्ठता, सुन्दरता) से क्रमश: परम निवृत्ति को प्राप्त होता हुआ; जिसका रम्य उदय समस्त वस्तुसमूह के विस्तार को लीलामात्र से प्राप्त हो जाता है (जान लेता है) ऐसी शाश्‍वती ज्ञानानन्दमयी दशा का एकान्तत: (केवल, सर्वथा, अत्यन्त) अनुभव करो ।


    इस प्रकार शुभोपयोग-प्रज्ञापन पूर्ण हुआ ।

    जयसेनाचार्य :
    अब, उत्तम संसर्ग करना चाहिये; ऐसा उपदेश देते हैं --

    [तम्हा] जिस कारण हीन संसर्ग से गुणों की हानि होती है, उस कारण अधिवसदु-निवास करें-रहें । कर्तारूप वे कौन रहें? [समणो] मुनिराज रहें । वे कहां रहें? [तम्हि] उस आधारभूत में वे रहें । [ण्च्चिं] हमेशा-सभी कालों में रहें । उस आधारभूत किसमें रहें? [समणं] मुनिसंघ में रहें । यहाँ लक्षण- व्याकरण नियम के कारण, अधिकरण के अर्थ में कर्म कारक का प्रयोग हुआ है । वे कैसे श्रमण संघ में रहें? [समं] वे समान श्रमण संघ में रहें । किस में समान संघ में रहें? [गुणादो] बहिरंग और अन्तरंग रत्नत्रय लक्षण गुणों से समान संघ में रहें । और वे कैसे संघ में रहें? [अहियं वा] अथवा अपने से अधिक में रहें । किनसे अधिक में रहें? [गुणेहिं] मूलोत्तर गुणों द्वारा अपने से अधिक गुणवाले साधु-संघ में रहें । यदि क्या तो इन में रहें? [इच्छदि जदि] यदि चाहते हैं तो इन में रहें । क्या चाहते ? [दुक्खपरिमोक्खं] अपने आत्मा से उत्पन्न सुख से विलक्षण नारक आदि दुःखों से पूर्णत: मोक्ष-दु:ख परिमोक्ष चाहते हैं तो इनमें रहें ।

    अब यहाँ विस्तार करते हैं -- जैसे अग्नि के संयोग से, जल का शीतलगुण नष्ट होता है, व्यावहारिक मनुष्यों के संसर्ग से, मुनिराज का संयम गुण नष्ट होता है - ऐसा जानकर मुनिराज रूप कर्ता, समान गुण अथवा अधिक गुण सम्पन्न मुनिराज का आश्रय लेते हैं; तब, जैसे ठंडे बर्तन सहित (में रखे हुये) ठंडे जल के ठंडे गुण की रक्षा होती है, उसीप्रकार समान गुणों के संसर्ग से, उन मुनि के गुणों की रक्षा होती है । और जैसे कपूर, शक्कर आदि ठंडे द्रव्य डालने से उस जल के ठंडे गुण में वृद्धि होती है; उसीप्रकार निश्चय-व्यवहार रत्नत्रयरूप गुणों में अधिक के संसर्ग से उनके गुणों में वृद्धि होती है- ऐसा गाथा का अर्थ है ॥२८२॥

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    + लौकिक संसर्ग कथंचित् अनिषिद्ध -
    वेज्जवच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुड्‌ढसमणाणं । (253)
    लोगिगजणसंभासा ण णिंदिदा वा सुहोवजुदा ॥283॥
    वैयावृत्त्यनिमित्तं ग्लानगुरुबालवृद्धश्रमणानाम् ।
    लौकिकजनसम्भाषा न निन्दिता वा शुभोपयुता ॥२५३॥
    ग्लान गुरु अर वृद्ध बालक श्रमण सेवा निमित्त से ।
    निंदित नहीं शुभभावमय संवाद लौकिकजनों से ॥२५३॥
    अन्वयार्थ : [वा] और [ग्लानगुरुबालवृद्धश्रमणानाम्] रोगी, गुरु (पूज्य, बड़े), बाल तथा वृद्ध श्रमणों की [वैयावृत्यनिमित्तं] सेवा के निमित्त से, [शुभोपयुता] शुभोपयोगयुक्त [लौकिकजनसंभाषा] लौकिक जनों के साथ की बातचीत [न निन्दिता] निन्दित नहीं है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब लोगों के साथ बातचीत करने की प्रवृत्ति उसके निमित्त के विभाग सहित बतलाते हैं(अर्थात् शुभोपयोगी श्रमण को लोगों के साथ बातचीत की प्रवृत्ति किस निमित्त से करना योग्य है और किस निमित्त से नहीं, सो कहते हैं ) :-

    शुद्धात्मपरिणति को प्राप्त रोगी, गुरु, बाल और वृद्ध श्रमणों की सेवा के निमित्त से ही (शुभोपयोगी श्रमण को) शुद्धात्मपरिणतिशून्य लोगों के साथ बातचीत प्रसिद्ध है (शास्त्रों में निषिद्ध नहीं है), किन्तु अन्य निमित्त से भी प्रसिद्ध हो ऐसा नहीं है ॥२५३॥

    जयसेनाचार्य :
    अब, शुभोपयोगियों के लिये, मुनि की वैयावृत्ति के निमित्त लौकिक जनों से संभाषण के विषय में निषेध नहीं है; ऐसा उपदेश देते हैं -

    [ण णिंदिदा] शुभोपयोगी श्रमणों के निन्दित नहीं है, निषिद्ध नहीं है । कर्मता को प्राप्त (कर्मकारक में प्रयुक्त) क्या निषिद्ध नही है? [लोगिगजणसंभासा] लौकिक जनों के साथ सम्भाषण-वचन प्रवृत्ति-बोलना निषिद्ध नहीं है । [सुहोवजुदा वा] अथवा वह बोलना भी शुभोपयोग युक्त कहा गया है । किस हेतु से बोलना निषिद्ध नहीं है? [वेज्जावच्चणिमित्तं] वैयावृत्ति के निमित्त बोलना निषिद्ध नहीं है । किनकी वैयावृत्ति के निमित्त बोलना निषिद्ध नहीं है । [गिलाणगुरुबालवुड्ढसमणाणं] रोगी, गुरु, बाल, वृद्ध मुनियों की वैयावृत्ति के निमित्त बोलना निषिद्ध नहीं है । यहाँ 'गुरु' शब्द से मोटे शरीर वाले अथवा पूज्य अथवा गुरु कहे गये हैं ।

    वह इसप्रकार- जब कोई भी शुभोपयोग युक्त आचार्य, सरागचारित्र लक्षण शुभोपयोगियों की अथवा वीतरागचारित्र लक्षण शुद्धोपयोगियों की वैयावृत्ति करते हैं उस समय उस वैयावृत्ति के निमित्त, लौकिक जनों के साथ सम्भाषण करते हैं शेष समय में नहीं- ऐसा भाव है ॥२८३॥

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    + शुभोपयोग मुनियों के गौण और श्रावकों को मुख्य -
    एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं । (254)
    चरिया परे त्ति भणिदा ताएव परं लहदि सोक्खं ॥284॥
    एषा प्रशस्तभूता श्रमणानां वा पुनर्गृहस्थानाम् ।
    चर्या परेति भणिता तयैव परं लभते सौख्यम् ॥२५४॥
    प्रशस्त चर्या श्रमण के हो गौण किन्तु गृहीजन ।
    के मुख्य होती है सदा अर वे उसी से सुखी हों ॥२५४॥
    अन्वयार्थ : [एषा] यह [प्रशस्तभूता] प्रशस्तभूत [चर्या] चर्या [श्रमणानां] श्रमणों के (गौण) होती है [वा गृहस्थानां पुन:] और गृहस्थों के तो [परा] मुख्य होती है, [इति भणिता] ऐसा (शास्त्रों में) कहा है; [तया एव] उसी से [परं सौख्य लभते] (परम्परा से) गृहस्थ परम सौख्य को प्राप्त होता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, इस प्रकार से कहे गये शुभोपयोग का गौण - मुख्य विभाग बतलाते हैं; (अर्थात् यह बतलाते हैं कि किसके शुभोपयोग गौण होता है और किसके मुख्य होता है ।) :-

    इस प्रकार शुद्धात्मानुरागयुक्त प्रशस्तचर्यारूप जो यह शुभोपयोग वर्णित किया गया है वह यह शुभोपयोग, शुद्धात्मा की प्रकाशक सर्वविरति को प्राप्त श्रमणों के कषायकण के सद्‌भाव के कारण प्रवर्तित होता हुआ, गौण होता है, क्योंकि वह शुभोपयोग शुद्धात्मपरिणति से विरुद्ध ऐसे राग के साथ संबंधवान है; और वह शुभोपयोग गृहस्थों के तो, सर्वविरति के अभाव से शुद्धात्मप्रकाशन का अभाव होने से कषाय के सद्‌भाव के कारण प्रवर्तमान होता हुआ भी, मुख्य है, क्योंकि—जैसे ईंधन को स्फटिक के संपर्क से सूर्य के तेज का अनुभव होता है (और इसलिये वह क्रमश: जल उठता है) उसी प्रकार-गृहस्थ को राग के संयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होता है, और (इसलिये वह शुभोपयोग) क्रमश: परम निर्वाणसौख्य का कारण होता है ।

    जयसेनाचार्य :
    अब यह वैयावृत्ति आदि लक्षण शुभोपयोग मुनियों को गौणरूप से और श्रावकों को मुख्यरूप से करना चाहिये; ऐसा प्रसिद्ध करते हैं --

    [भणिदा] कही गई है । कर्मता को प्राप्त क्या कही गई है? [चरिया] चारित्र, अनुष्ठान- चर्या कही गई है । वह चर्या किस विशेषता वाली है? [एसा] यह प्रत्यक्षीभूत (विद्यमान) वह चर्या है । और वह किसरूप है ? [पसत्थभूदा] धर्मानुरागरूप है । वह चर्या किनकी है? [समणाणं वा] श्रमणों की वह चर्या है अथवा [पुणो घरत्थाणं] तथा गृहस्थों के तो यही चर्या [परेत्ति] सर्वोत्कृष्ट-मुख्य है । [ता एव परं लहदि सोक्खं] गृहस्थ उसी शुभोपयोग चर्या द्वारा परम्परा से मोक्षसुख प्राप्त करते हैं ।

    वह इसप्रकार- मुनि अन्य मुनियों की वैयावृत्ति करते हुये शरीर से कुछ भी निर्दोष वैयावृत्ति करते हैं और वचन से धर्मोपदेश देते हैं । शेष औषध, अन्न-पान आदि गृहस्थों के अधीन है; इस कारण वैयावृत्ति रूप धर्म गृहस्थों के मुख्य है, मुनियों के गौण है ।

    इस मुख्यता-गौणता का दूसरा कारण भी है- विकार रहित चैतन्य चमत्कार की भावना के प्रतिपक्षभूत विषयकषाय के निमित्त से उत्पन्न आर्त-रौद्र दो दुर्ध्यानों रूप परिणत गृहस्थों के निश्चय धर्म का अवकाश नहीं है, वैयावृत्ति आदि धर्म से दुर्ध्यान की वंचना होती है- खोटे ध्यान रुकते हैं, मुनियों के संसर्ग से निश्चयव्यवहार मोक्षमार्ग के उपदेश का लाभ मिलता है, और उससे वे परम्परा से मोक्षप्राप्त करते हैं- ऐसा अभिप्राय है ॥२८४॥

    इसप्रकार पाँच गाथाओं द्वारा लौकिक व्याख्यान सम्बन्धी - पहला स्थल पूरा हुआ ।

    (अब शुभोपयोग का स्वरूप प्रतिपादक आठ गाथाओं में निबद्ध दूसरा स्थल प्रारम्भ होता है ।)

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    + शुभोपयोगियों की श्रमणरूप में गौणता -
    समणा सुद्धुवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होंति समयम्हि । (245)
    तेसु वि सुद्धुवजुत्ता अणासवा सासवा सेसा ॥285॥
    श्रमणाः शुद्धोपयुक्ताः शुभोपयुक्ताश्च भवन्ति समये ।
    तेष्वपि शुद्धोपयुक्ता अनास्रवाः सास्रवाः शेषाः ॥२४५॥
    शुद्धोपयोगी श्रमण हैं शुभोपयोगी भी श्रमण ।
    शुद्धोपयोगी निरास्रव हैं आस्रवी हैं शेष सब ॥२४५॥
    अन्वयार्थ : [समये] शास्त्र में (ऐसा कहा है कि), [शुद्धोपयुक्ताः श्रमणाः] शुद्धोपयोगी वे श्रमण हैं, [शुभोपयुक्ताः च भवन्ति] शुभोपयोगी भी श्रमण होते हैं; [तेषु अपि] उनमें भी [शुद्धोपयुक्ताः अनास्रवाः] शुद्धोपयोगी निरास्रव हैं, [शेषाः सास्रवाः] शेष सास्रव हैं, (अर्थात् शुभोपयोगी आस्रव सहित हैं ।) ॥२४५॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, शुभोपयोग का प्रज्ञापन करते हैं । उसमें (प्रथम), शुभोपयोगियों को श्रमण रूप में गौणतया बतलाते हैं --

    जो वास्तव में श्रामण्य-परिणति की प्रतिज्ञा करके भी, कषाय कण के जीवित (विद्यमान) होने से, समस्त परद्रव्य से निवृत्ति-रूप से प्रवर्तमान ऐसी जो सुविशुद्ध-दर्शन-ज्ञान-स्वभाव आत्म-तत्त्व में परिणति-रूप शुद्धोपयोग-भूमिका उसमें आरोहण करने को असमर्थ हैं; वे (शुभोपयोगी) जीव, जो कि शुद्धोपयोग-भूमिका के उपकंठ निवास कर रहे हैं, और कषाय ने जिनकी शक्ति कुण्ठित की है, तथा जो अत्यन्त उत्कण्ठित (आतुर) मन वाले हैं, वे श्रमण हैं या नहीं, यह यहाँ कहा जाता हैं --

    धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो ।
    पावदि णिव्‍वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं ॥
    इस प्रकार (भगवान कुन्दकुन्दाचार्य ने ११वीं गाथा में) स्वयं ही निरूपण किया है, इसलिये शुभोपयोग का धर्म के साथ एकार्थ-समवाय है । इसलिये शुभोपयोगी भी, उनके धर्म का सद्भाव होने से, श्रमण हैं । किन्तु वे शुद्धोपयोगियों के साथ समान कोटि के नहीं है, क्योंकि शुद्धोपयोगी समस्त कषायों को निरस्त किया होने से निरास्रव ही हैं और ये शुभोपयोगी तो कषायकण अविनष्ट होने से सास्रव ही हैं । और ऐसा होने से ही शुद्धोपयोगियों के साथ इन्हें (शुभोपयोगियों को) नहीं लिया (नहीं वर्णन किया) जाता, मात्र पीछे से (गौणरूप में ही) लिया जाता है ॥२४५॥

    जयसेनाचार्य :
    [संति] हैं । कहाँ हैं? [समयम्हि] परमागम में हैं । कौन हैं परमागम में ? [समणा] मुनि परमागम में हैं । वे किस विशेषता वाले हैं ? [सुद्धवजुत्ता] वे शुद्धोपयोग से युक्त शुद्धोपयोगी हैं- ऐसा अर्थ है । [सुहोवजुत्ता य] न केवल शुद्धोपयोग युक्त हैं बल्कि शुभोपयोग युक्त भी हैं । यहाँ 'चकार'-'च' शब्द अन्वाचय अर्थ में अर्थात् गौण अर्थ में ग्रहण करना चाहिये । इस प्रसंग में दृष्टान्त देते है - जैसे निश्चय से शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी सिद्ध जीव ही जीव कहे जाते हैं और व्यवहार से चतुर्गति परिणत अशुद्ध जीव जीव हैं उसीप्रकार शुद्धोपयोगियों की मुख्यता तथा चकार द्वारा समुच्चय व्याख्यान होने से शुभोपयोगियों की गौणता है । गौणता कैसे उत्पन्न हुई? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं - [तेसु वि सुद्धवजुत्ता सासवा सेसा] उनमें से भी शुद्धोपयोग-युक्त अनास्रव हैं, शेष सास्रव हैं - इस कारण उनमें गौणता है ।

    वह इसप्रकार -- अपने शुद्धात्मा के बल से, सम्पूर्ण शुभ-अशुभ सम्बन्धी संकल्प-विकल्प रहित होने के कारण, शुद्धोपयोगी निरास्रव ही हैं शेष शुभोपयोगी मिथ्यात्व, विषय-कषाय रूप अशुभ आस्रव का निरोध होने पर भी पुण्यास्रव सहित हैं -- ऐसा भाव है ॥२८५॥

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    + शुभोपयोगी श्रमण -
    अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु । (246)
    विज्जदि जदि सामण्णे सा सुहजुत्ता भवे चरिया ॥286॥
    अर्हदादिषु भक्तिर्वत्सलता प्रवचनाभियुक्तेषु ।
    विद्यते यदि श्रामण्ये सा शुभयुक्ता भवेच्चर्या ॥२४६॥
    वात्सल्य प्रवचनरतों में अर भक्ति अर्हत् आदि में ।
    बस यही चर्या श्रमण जन की कही शुभ उपयोग है ॥२४६॥
    अन्वयार्थ : [श्रामण्ये] श्रामण्य में [यदि] यदि [अर्हदादिषु भक्ति:] अर्हन्तादि के प्रति भक्ति तथा [प्रवचनाभियुक्तेषु वत्सलता] प्रवचनरत जीवों के प्रति वात्सल्य [विद्यते] पाया जाता है तो [सा] वह [शुभयुक्ता चर्या] शुभयुक्त चर्या (शुभोपयोगी चारित्र) [भवेत्] है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, शुभोपयोगी श्रमण का लक्षण सूत्र द्वारा (गाथा द्वारा) कहते हैं :-

    सकल संग के संन्यासस्वरूप श्रामण्य के होने पर भी जो कषायांश (अल्पकषाय) के आवेश के वश केवल शुद्धात्मपरिणतिरूप से रहने में स्वयं अशक्त है ऐसा श्रमण, पर ऐसे जो
    1. केवल शुद्धात्मपरिणतरूप से रहने वाले अर्हन्तादिक तथा
    2. केवल शुद्धात्मपरिणतरूप से रहने का प्रतिपादन करने वाले प्रवचनरत जीवों
    के प्रति
    1. भक्ति तथा
    2. वात्सल्य
    से चंचल है उस (श्रमण) के, मात्र उतने राग से प्रवर्तमान पर-द्रव्यप्रवृत्ति के साथ शुद्धात्म-परिणतिमिलित होने के कारण, शुभोपयोगी चारित्र है ।

    इससे (यह कहा गया है कि) शुद्धात्मा का अनुरागयुक्त चारित्र शुभोपयोगी श्रमणों का लक्षण है ।

    जयसेनाचार्य :
    [सा सुहजुत्ता भवे चरिया] वह चर्या शुभयुक्त हो । किसके वह चर्या शुभ युक्त हो ? मुनि के वह चर्या शुभ युक्त हो । कैसे मुनिराज के, वह ऐसी हो? सम्पूर्ण रागादि विकल्प रहित परम समाधि (स्वरूप-स्थिरता) में ठहरने के लिये असमर्थ मुनि के, वह ऐसी हो । यदि क्या है तो ऐसी शुभयुक्त चर्या हो ? [विज्जदि जदि] यदि पाई जाती है तो वह हो? कहाँ पायी जाती है, तो वह हो? [सामण्णे] श्रामण्य-चारित्र में यदि पाई जाती है, तो वह हो । उसमें क्या पायी जाती है? [अरहंतादिसु भत्ती] अनन्त ज्ञान आदि गुणों से सहित अरहन्त-सिद्धों में, गुणों के प्रति अनुराग सहित भक्ति पायी जाती है । [वच्छलदा] वत्सल का भाव वत्सलता-वात्सल्य है, विनय अनुकूल वृत्ति-प्रवृत्ति रूप वत्सलता पायी जाती है । किन विषयों में वत्सलता पायी जाती है? [पवयणाभिजुत्तेसु] प्रवचन में अभियुक्तों के प्रति । यहाँ प्रवचन शब्द से आगम अथवा संघ कहा गया है, उस प्रवचन से अभियुक्त, प्रवचनाभियुक्त है (इसप्रकार तृतीया तत्पुरुष समास किया) अर्थात् आगम में लीन- स्वाध्याय-रत या संघ में स्थित आचार्य, उपाध्याय, साधुओं के प्रति उसमें वत्सलता पायी जाती है ।

    इससे यह कहा गया है- स्वयं शुद्धोपयोग लक्षण परम सामयिक में ठहरने के लिए असमर्थ मुनि के, शुद्धोपयोग के फलस्वरूप केवलज्ञान परिणत अन्य जीवों के प्रति और उसीप्रकार शुद्धोपयोग के आराधक जीवों के प्रति, जो वह भक्ति है, वह शुभोपयोगी श्रमणों का लक्षण है ॥२८६॥

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    + प्रवृत्ति शुभोपयोगियो के ही है -
    दंसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं । (248)
    चरिया हि सरागाणं जिणिंदपूजोवदेसो य ॥287॥
    दर्शनज्ञानोपदेशः शिष्यग्रहणं च पोषणं तेषाम् ।
    चर्या हि सरागाणां जिनेन्द्रपूजोपदेशश्च ॥२४८॥
    उपदेश दर्शन-ज्ञान-पूजन शिष्यजन का परिग्रहण ।
    और पोषण ये सभी हैं रागियों के आचरण ॥२४८॥
    अन्वयार्थ : [दर्शनज्ञानोपदेश:] दर्शनज्ञान का (सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का) उपदेश, [शिष्यग्रहणं] शिष्यों का ग्रहण, [च] तथा [तेषाम् पोषणं] उनका पोषण, [च] और [जिनेन्द्रपूजोपदेश:] जिनेन्द्र की पूजा का उपदेश [हि] वास्तव में [सरागाणांचर्या] सरागियों की चर्या है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि शुभोपयोगियों के ही ऐसी प्रवृत्तियाँ होती हैं :-

    अनुग्रह करने की इच्छापूर्वक शुभोपयोगियों के ही होती है, शुद्धोपयोगियों के नहीं ॥२४८॥

    जयसेनाचार्य :
    [दंसणणाणुवदेसो] दर्शन अर्थात् तीन मूढ़ता आदि से रहित सम्यक्त्व, ज्ञान अर्थात् परमागम का उपदेश - उन दोनों का उपदेश दर्शन-ज्ञान का उपदेश (इसप्रकार षष्ठी तत्पुरुष समास किया) [सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं] रत्नत्रय आराधना की शिक्षा लेनेवाले शिष्यों का ग्रहण- स्वीकार और उनका ही पोषण अर्थात्‌ भोजन-शयन आदि की चिन्ता । [चरिया हि सरागाणं] इसप्रकार की चर्या- चारित्र-आचरण होता है, वास्तव में । ऐसा आचरण किनका होता है? धर्मानुरागरूप आचरण सहित सरागियों का ऐसा चारित्र-आचरण होता है । मात्र इसीप्रकार का चारित्र नहीं होता है (वरन्‌) [जिणिंदपूजोवदेसो य] और यथासंभव जिनेन्द्र पूजा आदि धर्मोपदेश देने सम्बन्धी आचरण सरागियों का होता है ।

    यहाँ कोई शंका करता है कि शुभोपयोगियों के भी किसी समय शुद्धोपयोगरूप भावना दिखाई देती है, शुद्धोपयोगियो के भी किसी समय शुभोपयोग की भावना देखी जाती है, श्रावकों के भी सामायिक आदि के समय शुद्ध भावना देखी जाती है; तब उनका विशेष भेद कैसे ज्ञात होता है? आचार्य उसका समाधान करते हुये कहते हैं- आपका कहना उचित है; परन्तु जो अधिकतर शुभोपयोग रूप आचरण करते हैं वे यद्यपि किसी समय शुद्धोपयोगरूप भावना करते हैं तो भी शुभोपयोगी ही कहलाते हैं । तथा जो शुद्धोपयोगी हैं वे भी किसी समय शुभोपयोगरूप वर्तते हैं तो भी शुद्धोपयोगी ही हैं । दोनों रूप प्रवृत्ति होने पर भी ऐसा क्यों है? बहुपद की-बहुलता की प्रधानता होने के कारण आम व नीम वन आदि के समान, दोनों रूप प्रवृति होने पर भी अधिकता की अपेक्षा अन्तर है ॥२८७॥

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    उवकुणदि जो वि णिच्चं चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स (249)
    कायविराधणरहिदं सो वि सरागप्पधाणो से ॥288॥
    उपकरोति योऽपि नित्यं चातुर्वर्णस्य श्रमणसंघस्य ।
    कायविराधनरहितं सोऽपि सरागप्रधानः स्यात् ॥२४९॥
    तनविराधन रहित कोई श्रमण पर उपकार में ।
    नित लगा हो तो जानना है राग की ही मुख्यता ॥२४९॥
    अन्वयार्थ : [यः अपि ] जो कोई (श्रमण) [नित्यं ] सदा [कायविराधनरहितं ](छह) काय की विराधना से रहित [चातुर्वर्णस्य ] चार प्रकार के [श्रमणसंघस्य ] श्रमण संघ का [उपकरोति ] उपकार करता है, [सः अपि ] वह भी [सरागप्रधानः स्यात् ] राग की प्रधानतावाला है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ऐसा निश्चित करते हैं कि सभी प्रवृत्तियाँ शुभोपयोगियों के ही होती हैं :-

    संयम की प्रतिज्ञा की होने से छह-काय के विराधन से रहित जो कोई भी, शुद्धात्मपरिणति के रक्षण में निमित्तभूत ऐसी, चार प्रकार के श्रमणसंघ का उपकार करने की प्रवृत्ति है वह सभी रागप्रधानता के कारण शुभोपयोगियों के ही होती है, शुद्धोपयोगियों के कदापि नहीं ॥२४९॥

    जयसेनाचार्य :
    [उवकुणदि जो वि णिच्चं चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स] जो हमेशा उपकार करते हैं । किसका उपकार करते हैं? चार प्रकार के मुनिसंघ का उपकार करते हैं । यहाँ 'श्रमण' शब्द से 'श्रमण' शब्द द्वारा वाच्य ऋषि, मुनि, यति, अनगार ग्रहण करना चाहिये ।

    राजा, ब्रह्मा, देव और परमऋषि (राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि, परमर्षि) क्रम से होते हैं ।

    ये सभी श्रमण क्यों हैं? सभी के सुख-दुःख आदि विषय में समता परिणाम हैं अत: ये सब श्रमण हैं ।

    अथवा श्रमण धर्म के अनुकूल श्रावक आदि चातुर्वर्ण संघ है । इन सबका उपकार जैसा (बनता है वह) कैसे करते हैं? [काय विराधणरहिदं] अपने आप में लीनतारूप भावना स्वरूप, अपने शुद्ध चैतन्य लक्षण निश्चय प्राणों की रक्षा करते हुये, छहकाय के जीवों की विराधना से रहित, जैसा उपकार बनता है, वैसा करते हैं । [सो वि सरागप्पधाणो] वे इसप्रकार के मुनि भी धर्मानुराग रूप आचरण सहित मुनियों में प्रधान-श्रेष्ठ हैं- ऐसा अर्थ है ॥२८८॥

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    + वैयावृत्ति संयम की विराधना-रहित होकर करें -
    जदि कुणदि कायखेदं वेज्जावच्चत्थमुज्जदो समणो । (250)
    ण हवदि हवदि अगारी धम्मो सो सावयाणं से ॥289॥
    यदि करोति कायखेदं वैयावृत्त्यार्थमुद्यतः श्रमणः ।
    न भवति भवत्यगारी धर्मः स श्रावकाणां स्यात् ॥२५०॥
    जो श्रमण वैयावृत्ति में छहकाय को पीड़ित करें ।
    वे गृही ही हैं क्योंकि यह तो श्रावकों का धर्म है ॥२५०॥
    अन्वयार्थ : [यदि] यदि (श्रमण) [वैयावृत्यर्थम् उद्यत:] वैयावृत्ति के लिये उद्यमी वर्तता हुआ [कायखेदं] छह काय को पीड़ित [करोति] करता है तो वह [श्रमण: न भवति] श्रमण नहीं है, [अगारी भवति] गृहस्थ है; (क्योंकि) [सः] वह (छह काय की विराधना सहित वैयावृत्ति) [श्रावकाणां धर्म: स्यात्] श्रावकों का धर्म है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, प्रवृत्ति संयम की विरोधी होने का निषेध करते हैं (अर्थात् शुभोपयोगी श्रमण के संयम के साथ विरोधवाली प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिये - ऐसा कहते हैं ) :-

    जो (श्रमण) दूसरे के शुद्धात्मपरिणति की रक्षा हो ऐसे अभिप्राय से वैयावृत्य की प्रवृत्ति करता हुआ अपने संयम की विराधना करता है, वह गृहस्थधर्म में प्रवेश कर रहा होने से श्रामण्य से च्युत होता है । इससे (ऐसा कहा है कि) जो भी प्रवृत्ति हो वह सर्वथा संयम के साथ विरोध न आये इस प्रकार ही करनी चाहिये, क्योंकि प्रवृत्ति में भी संयम ही साध्य है ।

    जयसेनाचार्य :
    [जदि कुणदि कायखेदं वेज्जावच्चत्थमुज्जदो] यदि कायखेद अर्थात्‌ छह काय जीवों की विराधना करता है । कैसा होता हुआ ऐसा करता है? वैयावृत्ति के लिये प्रयत्नशील होता हुआ ऐसा करता है । [समणो ण हवदि] तब वह मुनि नहीं है । मुनि नहीं तो क्या है ? [हवदि अगारी] वह अगारी अर्थात् ( गहस्थ) है । वह गृहस्थ क्यों है? [धम्मो सो सावयाणं से] छहकाय जीवों की विराधना कर वैयावृत्ति करने वाला जो वह धर्म है, वह श्रावकों का है, मुनियों का नहीं, अत: वह गृहस्थ है, मुनि नहीं है ।

    यहाँ तात्पर्य यह है- जो वह अपने शरीर के पोषण के लिये अथवा शिष्य आदि के मोह से सावद्य (पाप) नहीं चाहता है, उसके लिये वह (काय विराधना कर वैयावृत्ति न करने सम्बन्धी) व्याख्यान शोभा देता है- उचित है, परन्तु यदि दूसरे कार्यों मे सावद्य करता है और वैयावृत्ति आदि अपनी अवस्था के योग्य धर्मकार्य में सावद्य नहीं चाहता है, तो उसके सम्यक्त्व ही नही है ॥२८९॥

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    + प्रवृत्ति में विशेषता -
    जोण्हाणं णिरवेक्खं सागारणगारचरियजुत्ताणं । (251)
    अणुकंपयोवयारं कुव्वदु लेवो जदि वि अप्पो ॥290॥
    जैनानां निरपेक्षं साकारानाकारचर्यायुक्तानाम् ।
    अनुकम्पयोपकारं करोतु लेपो यद्यप्यल्पः ॥२५१॥
    दया से सेवा सदा जो श्रमण-श्रावकजनों की ।
    करे वह भी अल्पलेपी कहा है जिनमार्ग में ॥२५१॥
    अन्वयार्थ : [यद्यपि अल्प: लेप:] यद्यपि अल्प लेप होता है तथापि [साकारनाकारचर्यायुक्तानाम्] साकार-अनाकार चर्यायुक्त [जैनानां] जैनों का [अनुकम्पया] अनुकम्पा से [निरपेक्षं] निरपेक्षतया [उपकार करोतु] (शुभोपयोग से) उपकार करो ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब प्रवृत्ति के विषय के दो विभाग बतलाते हैं (अर्थात् अब यह बतलाते हैं कि शुभोपयोगियों को किसके प्रति उपकार की प्रवृत्ति करना योग्य है और किसके प्रति नहीं) :-

    जो अनुकम्पापूर्वक परोपकारस्वरूप प्रवृत्ति उसके करने से यद्यपि अल्प लेप तो होता है, तथापि अनेकान्त के साथ मैत्री से जिनका चित्त पवित्र हुआ है ऐसे शुद्ध जैनों के प्रति—जो कि शुद्धात्मा के ज्ञान-दर्शन में प्रवर्तमान वृत्ति के कारण साकार-अनाकार चर्या वाले हैं उनके प्रति,—शुद्धात्मा की उपलब्धि के अतिरिक्त अन्य सबकी अपेक्षा किये बिना ही, उस प्रवृत्ति के करने का निषेध नहीं है; किन्तु अल्प लेप वाली होने से सबके प्रति सभी प्रकार से वह प्रवृत्ति अनिषिद्ध हो ऐसा नहीं है, क्योंकि वहाँ (अर्थात् यदि सबके प्रति सभी प्रकार से की जाये तो) उस प्रकार की प्रवृत्ति से पर के और निज के शुद्धात्मपरिणति की रक्षा नहीं हो सकती ।

    जयसेनाचार्य :
    [कुव्वदु] करो । कर्ता रूप वह कौन करो? शुभोपयोगी करो । क्या करो ? [अणुक्म्पयोवयार] अनुकंपा सहित उपकार-दया सहित धर्म वात्सल्य करो । यदि क्या हो तो करो ? [लेवो जदि वि अप्पो] "थोडा लेप हो और पुण्य समूह बहुत हो"- ऐसे दृष्टान्त से यद्यपि थोड़ा लेप-थोड़ा पाप होता है, तो करो । किनका करो ? [जोण्हाणं] निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग परिणत जैनों का करो । कैसे करो ? [णिरवेक्खं] निरपेक्ष-शुद्धात्मभावना को नष्ट करने वाली प्रसिद्धि, पूजा, लाभ की इच्छा से रहित जैसा होता है, वैसे करो । कैसे जैनों का करो ? [सागारणगारचरिय्जुत्ताणं] सागार और अनागार चर्या से सहित- श्रावक और मुनियों के आचरण युक्त जीवों का करो- ऐसा अर्थ है ॥२९०॥

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    + अनुकम्पा का लक्षण -
    तिसिदं बुभुक्खिदं वा दुहिदं दट्ठूण जो हि दुहिदमणो ।
    पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकंपा ॥291॥
    भूखे-प्यासे दुखी लख दुखित मन से जो पुरुष ।
    दया से हो द्रवित बस वह भाव अनुकंपा कहा ॥२९१॥
    अन्वयार्थ : तृषातुर (प्यासे), क्षुधातुर (भूखे) अथवा दुखित को देखकर, दुखित मनवाला जो, वास्तव में उसे दया परिणाम से स्वीकार करता है, उसका वह (भाव) अनुकम्पा है ।

    जयसेनाचार्य :
    [तिसिदं बुभुक्खिदं वा दुहिदं दट्ठूण जो हि दुहिदमणो पडिवज्जदि] तृषित (प्यासे) या बुभुक्षित (भूखे) या दुःखित किसी भी प्राणी को देखकर जो वास्तव में दु:खित मनवाला होता हुआ, स्वीकार करता है। कर्मता को प्राप्त किसे, स्वीकार करता है? [तं] उस प्राणी को, स्वीकार करता है । कैसे स्वीकार करता है? [किवया] कृपा-दयारूप परिणाम से स्वीकार करता है । [तस्सेसा होदि अणुकंपा] उस पुरुष का वह प्रत्यक्ष होनेवाला शुभोपयोग रूप (परिणाम) अनुकम्पा-दया है । और इस अनुकम्पा को ज्ञानी स्वरूप-स्थिरता रूप भावना को नष्ट न करता हुआ संक्लेश को दूर करने हेतु करता है । परन्तु अज्ञानी संक्लेश से भी करता है- ऐसा अर्थ है ॥२९१॥

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    + प्रवृत्ति का काल -
    रोगेण वा छुधाए तण्हाए वा समेण वा रूढं । (252)
    दिट्ठा समणं साहू पडिवज्जदु आदसत्तीए ॥292॥
    रोगेण वा क्षुधया तृष्णया वा श्रमेण वा रूढम् ।
    दृष्टवा श्रमणं साधुः प्रतिपद्यतामात्मशक्त्या ॥२५२॥
    श्रम रोग भूखरु प्यास से आक्रांत हैं जो श्रमणों ।
    उन्हें देखकर शक्ति के अनुसार वैयावृत करो ॥२५२॥
    अन्वयार्थ : [रोगेण वा] रोग से, [क्षुधया] क्षुधा से, [तृष्णया वा] तृषा से [श्रमेण वा] अथवा श्रम से [रूढ़म्] आक्रांत [श्रमणं] श्रमण को [दृट्वा] देखकर [साधु:] साधु [आत्मशक्‍त्‍या] अपनी शक्ति के अनुसार [प्रतिपद्यताम्] वैयावृत्यादि करो ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, प्रवृत्ति के काल का विभाग बतलाते हैं (अर्थात् यह बतलाते हैं कि - शुभोपयोगी-श्रमण को किस समय प्रवृत्ति करना योग्य है और किस समय नहीं) :-

    जब शुद्धात्मपरिणति को प्राप्त श्रमण को, उससे च्युत करे ऐसा कारण, कोई भी उपसर्ग - आ जाये, तब वह काल, शुभोपयोगी को अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिकार करने की इच्छारूप प्रवृत्ति का काल है; और उसके अतिरिक्त का काल अपनी शुद्धात्मपरिणति की प्राप्ति के लिये केवल निवृत्ति का काल है ।

    जयसेनाचार्य :
    [पडिवज्जदु] स्वीकार करें । कैसे स्वीकार करें? [आदसत्तीए] अपनी शक्ति अनुसार स्वीकार करें । कर्तारूप वे कौन स्वीकार करें? [साहू] रत्नत्रयरूप भावना से, जो अपने आत्मा की साधना करते हैं वे साधु हैं; वे स्वीकार करें । वे किसे स्वीकार करें? [समणं] जीवन-मरण आदि में समान परिणाम होने से वे श्रमण हैं उस श्रमण-मुनि को वे स्वीकार करें । [दिट्ठा] देखकर । कैसा देखकर स्वीकार करें ? [रूढं] व्याप्त-पीड़ित-दुःखित देखकर स्वीकार करें । किससे पीड़ित देखकर स्वीकार करें? [रोगेण वा] आकुलता से रहित लक्षण (वाले) परमात्मा से विलक्षण, आकुलता को उत्पन्न करनेवाले रोग से- बीमारी विशेष से, अथवा छुधाए- क्षुधा (भूख) से, [तण्हाए वा] अथवा तृषा (प्यास) से, [समेण वा] अथवा मार्ग-उपवास आदि श्रम (थकान) से पीड़ित को देखकर स्वीकार करें ।

    यहां तात्पर्य यह है आत्मस्थिरतारूप भावना को नष्ट करनेवाले रोगादि का प्रसंग होने पर, वैयावृत्ति करते हैं शेष समय में अपना अनुष्ठान करते हैं ॥२९२॥

    इसप्रकार शुभोपयोगी मुनियों के शुभ अनुष्ठानरूप कथन की मुख्यता से ८ गाथाओं द्वारा दूसरा स्थल समाप्त हुआ ।

    (अब तीसरा स्थल प्रारम्भ होता है)

    इससे आगे छह गाथाओं तक पात्र-अपात्र परीक्षा की मुख्यता से व्याख्यान करते हैं -

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    + पात्र-विशेष से वही शुभोपयोग में फल-विशेषता -
    रागो पसत्थभूदो वत्थुविसेसेण फलदि विवरीदं । (255)
    णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि ॥293॥
    रागः प्रशस्तभूतो वस्तुविशेषेण फलति विपरीतम् ।
    नानाभूमिगतानीह बीजानीव सस्यकाले ॥२५५॥
    एकविध का बीज विध-विध भूमि के संयोग से ।
    विपरीत फल शुभभाव दे बस पात्र के संयोग से ॥२५५॥
    अन्वयार्थ : [इह नानाभूमिगतानि बीजानि इव] जैसे इस जगत में अनेक प्रकार की भूमियों में पड़े हुए बीज [सस्यकाले] धान्यकाल में विपरीतरूप से फलते हैं, उसी प्रकार [प्रशस्तभूतः राग:] प्रशस्तभूत राग [वस्तुविशेषेण] वस्तु-भेद से (पात्र भेद से) [विपरीतं फलति] विपरीतरूप से फलता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ऐसा सिद्ध करते हैं कि शुभोपयोग को कारण की विपरीतता से फल की विपरीतता होती है :-

    जैसे बीज ज्यों के त्यों होने पर भी भूमि की विपरीतता से निष्पत्ति की विपरीतता होती है, (अर्थात् अच्छी श्रम में उसी बीज का अच्छा अन्न उत्‍पन्‍न होता है और खराब भूमि में वही खराब हो जाता है या उत्‍पन्‍न ही नहीं होता), उसी प्रकार प्रशस्तराग स्वरूप शुभोपयोग ज्यों का त्यों होने पर भी पात्र की विपरीतता से फल की विपरीतता होती है, क्योंकि कारण के भेद से कार्य का भेद अवश्यम्भावी (अनिवार्य) है ॥२५५॥

    जयसेनाचार्य :
    [फलदि- फलता है] फल देता है । वह कौन फल देता है? [रागो] राग फल देता है । कैसा राग फल देता है? [पसत्थभूदो] प्रशस्तभूत- दानपूजादिरूप राग फल देता है । वह क्या फल देता है? [विवरीदं] विपरीत- और दूसरे रूप भिन्नभिन्न फल देता है । किस करणभूत से-किस साधन से फल देता है? इस अर्थ में दृष्टान्त कहते हैं- [णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि] यहाँ अनेक प्रकार की भूमियों में पड़े हुये बीज के, धान्य-उत्पत्ति काल के समान ।

    यहाँ अर्थ यह है- जैसे जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट, भूमि में, वे ही बीज, भिन्न-भिन्न फल देते हैं, उसी- प्रकार बीज के स्थानीय वही शुभोपयोग, भूमि के स्थानीय पात्रभूत वस्तु-विशेष से भिन्न-भिन्न फल देता है ।

    उससे क्या सिद्ध हुआ- जब पहले गाथा में कहे गये न्याय से सम्यक्त्व पूर्वक शुभोपयोग होता है, तब मुख्यरूप से पुण्य बंध होता है तथा परम्परा से मोक्ष होता है । यदि वह वैसा (सम्यक्त्व के साथ) नहीं है, तो मात्र पुण्य बन्ध ही होता है ॥२९३॥

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    + कारण-विपरीतता से फल-विपरीतता -
    छदुमत्थविहिदवत्थुसु वदणियमज्झयणझाणदाणरदो । (256)
    ण लहदि अपुणब्भावं भावं सादप्पगं लहदि ॥294॥
    छद्मस्थविहितवस्तुषु व्रतनियमाध्ययनध्यानदानरतः ।
    न लभते अपुनर्भावं भावं सातात्मकं लभते ॥२५६॥
    अज्ञानियों से मान्य व्रत-तप देव-गुरु-धर्मादि में ।
    रत जीव बाँधे पुण्यहीन रु मोक्ष पद को ना लहें ॥२५६॥
    अन्वयार्थ : [छद्मस्थविहितवस्तुषु] जो जीव छद्मस्थविहित वस्तुओं में (छद्मस्थ-अज्ञानी के द्वारा कथित देव-गुरु-धर्मादि में) [व्रतनियमाध्ययनध्यानदानरत:] व्रत-नियम-अध्ययन-ध्यान-दान में रत होता है वह जीव [अपुनर्भावं] मोक्ष को [न लभते] प्राप्त नहीं होता, (किन्तु) [सातात्मकं भावं] सातात्मक भाव को [लभते] प्राप्त होता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब कारण की विपरीतता और फल की विपरीतता बतलाते हैं :-

    सर्वज्ञ-स्थापित वस्तुओं में युक्त शुभोपयोग का फल पुण्य-संचय-पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति है । वह फल, कारण की विपरीतता होने से विपरीत ही होता है । वहाँ, छद्मस्थ-स्थापित वस्तुयें वे कारण विपरीतता है; उनमें व्रत-नियम-अध्ययन-ध्यान-दानरतरूप से युक्त शुभोपयोग का फल जो मोक्षशून्य केवल पुण्यापसद (अधम-पुण्य / हत-पुण्य) की प्राप्ति है वह फल की विपरीतता है; वह फल सुदेव-मनुष्यत्व है ॥२५६॥

    जयसेनाचार्य :
    [ण लहदि] प्राप्त नहीं करता है । कर्ता रूप वह कौन प्राप्त नहीं करता है ? [वदणियमज्झयणझाणदाणरदो] व्रत, नियम, अध्ययन, ध्यान, दान में लीन जीव, प्राप्त नहीं करता है । किनके विषय में जिन व्रतादि में लीन होने पर भी नहीं पाता है ? [छदुमत्थविहिदवत्थुसु] छद्मस्थ द्वारा विहित वस्तुओं में- अल्पज्ञानी पुरुष द्वारा व्यवस्थापित पात्रभूत वस्तुओं में व्रतादिरूप में लीन होने पर भी, जीव नहीं पाता है । ऐसा पुरुष क्या नहीं पाता है? [अपुणब्भावं] अपुनर्भव शब्द से वाच्य मोक्ष, ऐसा पुरुष नहीं पाता है । मोक्ष नहीं पाता तो क्या पाता है? [भाव सादप्पगं लहदि] सातात्मक भाव को पाता है । भाव शब्द से, यहाँ, सुदेव, सुमनुष्यत्व रूप पर्याय ग्रहण करनी चाहिये । वह पर्याय कैसी है? वह पर्याय सातात्मक - सतावेदनीय के उदय रूप है ।

    वह इसप्रकार -- जो कोई निश्चय-व्यवहार रूप मोक्षमार्ग को नहीं जानते हैं, पुण्य को ही मुक्ति का कारण कहते हैं, यहाँ वे छ्द्मस्थ शब्द से ग्रहण किये गये हैं; गणधर देव आदि नहीं । उन शुद्धात्मा के उपेदश से रहित, छद्मस्थ अज्ञानियों से, जो दीक्षित हैं, वे छद्मस्थ-विहित (व्यवस्थापित) वस्तुयें कहलाती हैं । उन पात्रों के संसर्ग से जो व्रत, नियम, अध्ययन, ध्यान, दान आदि करते हैं वे भी शुद्धात्मा की भावना के अनुकूल नहीं हैं उस कारण वे मोक्ष प्राप्त नहीं करते हैं । सुदेव सुमनुष्यत्व प्राप्त करते हैं- ऐसा अर्थ है ॥२९४॥

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    अविदिदपरमत्थेसु य विसयकसायाधिगेसु पुरिसेसु । (257)
    जुट्ठं कदं व दत्तं फलदि कुदेवेसु मणुवेसु ॥295॥
    अविदितपरमार्थेषु च विषयकषायाधिकेषु पुरुषेषु ।
    जुष्टं कृतं वा दत्तं फलति कुदेवेषु मनुजेषु ॥२५७॥
    जाना नहीं परमार्थ अर रत रहें विषय-कषाय में ।
    उपकार सेवादान दें तो जाय कुनर-कुदेव में ॥२५७॥
    अन्वयार्थ : [अविदितपरमार्थेषु] जिन्होंने परमार्थ को नहीं जाना है, [च] और [विषयकषायाधिकेषु] जो विषय-कषाय में अधिक हैं, [पुरुषेषु] ऐसे पुरुषों के प्रति [जुष्टं कृतं वा दत्तं] सेवा, उपकार या दान [कुदेवेषु मनुजेषु] कुदेवरूप में और कुमनुष्यरूप में [फलति] फलता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब (इस गाथा में भी) कारण विपरीतता और फल विपरीतता ही बतलाते हैं :-

    जो छद्मस्थस्थापित वस्तुयें हैं वे कारणविपरीतता हैं; वे (विपरीत कारण) वास्तव में
    1. शुद्धात्मज्ञान से शून्यता के कारण, 'परमार्थ के अजान' और
    2. शुद्धात्मपरिणति को प्राप्त न करने से विषयकषाय में अधिक
    ऐसे पुरुष हैं । उनके प्रति शुभोपयोगात्मक जीवों को-सेवा, उपकार या दान करने वाले जीवों को-जो केवल पुण्यापसद की प्राप्ति वह फलविपरीतता है; वह (फल) कुदेवमनुष्यत्व है ॥२५७॥

    जयसेनाचार्य :
    [फलदि] फलता है । किसरूप में फलता है? [कुदेवेसु मणुवेसु] कुत्सित देव-मनुष्यों के रूप में फलता है । क्या करना फलता है ? [जुट्ठं] सेवा करना, [कदं वा] कुछ भी वैयावृत्ति आदि करना, अथवा [दत्तं] कुछ भी आहार आदि देना कुदेवादि रूप में फलता है । ये सब किनके प्रति करने से, इस रूप फलते हैं ? [पुरिसेसु] ये सब पुरुषरूप पात्रों के प्रति करने से, ऐसे फलते हैं । किस विशेषता वाले पुरुष-पात्रों में करने से फलते हैं? [अविदिदपरमत्थेसु य] परमार्थ से अजानकार-परमात्मतत्त्व के श्रद्धान-ज्ञान से रहित पुरुषों में करने से फलते हैं । और किस स्वरूप वाले पुरुष में, करने से इस रूप में फलते हैं ? [विसयहसायाधिगेसु] विषय-कषायों में अधिक-विषय-कषायों के अधीन होने से, विषय-कषाय रहित शुद्धात्मस्वरूप की भावना से रहित पुरुषों में, ये सब करने से, वे कुदेवादि रूप में फलते हैं ॥२९५॥

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    जदि ते विसयकसाया पाव त्ति परूविदा व सत्थेसु । (258)
    किह ते तप्पडिबद्धा पुरिसा णित्थारगा होंति ॥296॥
    यदि ते विषयकषायाः पापमिति प्ररूपिता वा शास्त्रेषु ।
    कथं ते तत्प्रतिबद्धाः पुरुषा निस्तारका भवन्ति ॥२५८॥
    शास्त्र में ऐसा कहा कि पाप विषय-कषाय हैं ।
    जो पुरुष उनमें लीन वे कल्याणकारक किस तरह ॥२५८॥
    अन्वयार्थ : [यदि वा] जबकि [ते विषयकषाया:] वे विषयकषाय [पापम्] पाप हैं [इति] इस प्रकार [शास्त्रेषु] शास्त्रों में [प्ररूपिता:] प्ररूपित किया गया है, तो [तवतिबद्धा:] उनमें प्रतिबद्ध (विषय-कषायों में लीन) [ते पुरुषा:] वे पुरुष [निस्तारका:] निस्तारक (पार लगाने वाले) [कथं भवन्ति] कैसे हो सकते हैं?

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, ऐसी श्रद्धा करवाते हैं कि कारण की विपरीतता से अविपरीत फल सिद्ध नहीं होता :-

    प्रथम तो विषयकषाय पाप ही हैं; विषयकषायवान् पुरुष भी पाप ही हैं; विषयकषायवान् पुरुषों के प्रति अनुरक्त जीव भी पाप में अनुरक्त होने से पाप ही हैं । इसलिये विषयकषायवान् पुरुष स्वानुरक्त (अपने प्रति अनुराग वाले) पुरुषों को पुण्य का कारण भी नहीं होते, तब फिर वे संसार से निस्तार के कारण तो कैसे हो सकते हैं? (नहीं हो सकते); इसलिये उनसे अविपरीत फल सिद्ध नहीं होता (अर्थात् विषयकषायवान् पुरुषरूप विपरीत कारण का फल अविपरीत नहीं होता) ॥२५८॥

    जयसेनाचार्य :
    [जदि ते विसयकसाया पाव त्ति परूविदा व सत्थेसु] यदि वे विषय-कषाय पाप हैं- ऐसा शास्त्रों में कहा गया है तो [किह ते तप्पडिबद्धो पुरिसा णित्थारगा होंति] वे तत्प्रतिबद्ध-विषयकषाय में प्रतिबद्ध-आसक्त पुरुष, निस्तारक-दाताओं को संसार से पार उतारने वाले, कैसे हो सकते हैं? किसी प्रकार भी नहीं हो सकते हैं ।

    इससे यह कहा गया है कि सर्वप्रथम तो विषय-कषाय पाप स्वरूप हैं उनसे सहित पुरुष भी पाप ही हैं और वे अपने भक्त दाताओं के पुण्य का विनाश करनेवाले ही हैं ॥२९६॥

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    + पात्रभूत मुनि का लक्षण -
    उवरदपावो पुरिसो समभावो धम्मिगेसु सव्वेसु । (259)
    गुणसमिदिदोवसेवी हवदि स भागी सुमग्गस्स ॥297॥
    उपरतपापः पुरुषः समभावो धार्मिकेषु सर्वेषु ।
    गुणसमितितोपसेवी भवति स भागी सुमार्गस्य ॥२५९॥
    समभाव धार्मिक जनों में निष्पाप अर गुणवान हैं ।
    सन्मार्गगामी वे श्रमण परमार्थ मग में मगन हैं ॥२५९॥
    अन्वयार्थ : [उपरतपाप:] जिसके पाप रुक गया है, [सर्वेषु धार्मिकेषु समभाव:] जो सभी धार्मिकों के प्रति समभाववान् है और [गुणसमितितोपसेवी] जो गुणसमुदाय का सेवन करने वाला है, [सः पुरुष:] वह पुरुष [सुमार्गस्य] सुमार्ग का [भागी भवति] भागी होता है । (अर्थात् सुमार्गवान् है)

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब अविपरीत फल का कारण, ऐसा जो 'अविपरीत कारण' यह बतलाते हैं :-

    पाप के रुक जाने से सर्वधर्मियों के प्रति स्वयं मध्यस्थ होने से और गुणसमूह का सेवन करने से जो श्रमण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के युगपत्पनेरूप परिणति से रचित एकाग्रतास्वरूप सुमार्ग का भागी (सुमार्गशाली-सुमार्ग का भाजन) है वह निज को और पर को मोक्ष का और पुण्य का आयतन (स्थान) है इसलिये वह (श्रमण) अविपरीत फल का कारण ऐसा अविपरीत कारण है, ऐसी प्रतीति करनी चाहिये ॥२५१॥

    जयसेनाचार्य :
    पाप से रहित होने के कारण, सभी धार्मिकों को समता भाव से देखनेवाले होने के कारण और गुण-समूह का सेवन करनेवाले होने के कारण स्वयं को मोक्ष का कारण होने से और दूसरों के पुण्य का कारण होने से- इसप्रकार के गुणों सहित पुरुष सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप एकाग्रता लक्षण निश्चय मोक्षमार्ग के पात्र हैं ॥२९७॥

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    असुभोवयोगरहिदा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता वा । (260)
    णित्थारयंति लोगं तेसु पसत्थं लहदि भत्तो ॥298॥
    अशुभोपयोगरहिताः शुद्धोपयुक्ताः शुभोपयुक्ता वा ।
    निस्तारयन्ति लोकं तेषु प्रशस्तं लभते भक्तः ॥२६०॥
    शुद्ध अथवा शुभ सहित अर अशुभ से जो रहित हैं ।
    वे तार देते लोक उनकी भक्ति से पुणबंध हो ॥२६०॥
    अन्वयार्थ : [अशुभोपयोगरहिता:] जो अशुभोपयोगरहित वर्तते हुए [शुद्धोपयुक्ता:] शुद्धोपयुक्त [वा] अथवा [शुभोपयुक्ता:] शुभोपयुक्त होते हैं, वे (श्रमण) [लोकं निस्तारयन्ति] लोगों को तार देते हैं; (और) [तेषु भक्त:] उनके प्रति भक्तिवान जीव [प्रशस्तं] प्रशस्त (पुण्य) को [लभते] प्राप्त करता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, अविपरीत फल का कारण, ऐसा जो 'अविपरीत कारण' है उसे विशेष समझाते हैं :-

    यथोक्त लक्षण वाले श्रमण ही-जो कि मोह, द्वेष और अप्रशस्त राग के उच्छेद से अशुभोपयोगरहित वर्तते हुए, समस्त कषायोदय के विच्छेद से कदाचित् शुद्धोपयुक्त (शुद्धोपयोग में युक्त) और प्रशस्त राग के विपाक से कदाचित् शुभोपयुक्त होते हैं वे स्वयं मोक्षायतन (मोक्ष के स्थान) होने से लोक को तार देते हैं; और उनके प्रति भक्तिभाव से जिनके प्रशस्त भाव प्रवर्तता है ऐसे पर जीव पुण्य के भागी (पुण्यशाली) होते हैं ॥२६०॥

    जयसेनाचार्य :
    शुद्धोपयोग-शुभोपयोग परिणत पुरुष पात्र हैं । वह इसप्रकार- विकल्प रहित समाधि- स्वरूप-स्थिरता के बल से, शुभ-अशुभ दोनों उपयोगों से रहित समय में, कभी वीतराग-चारित्र लक्षण शुद्धोपयोग से सहित तथा कभी मोह-राग-द्वेष और अशुभराग से रहित समय मे सराग-चारित्र लक्षण शुभोपयोग से सहित होते हुये, भव्य जीवों, को तारते हैं और उनके प्रति भक्तिवाले भव्यवरपुण्डरीक, भव्यों में श्रेष्ठ भक्तजन, प्रशस्त फलभूत स्वर्ग प्राप्त करते हैं और परम्परा से मोक्ष प्राप्त करते हैं- ऐसा भाव है ॥२९८॥

    इसप्रकार पात्र-अपात्र परीक्षा सम्बन्धी कथन की मुख्यता से छह गाथाओं द्वारा, तीसरा स्थल समाप्त हुआ ।

    (अब आठ गाथाओं में निबद्ध चौथा स्थल प्रारम्भ होता है)

    इससे आगे, आचारशास्त्र में कहे गये क्रम से पहले कहा गया होने पर भी, फिर से दृढ़ करने के लिये विशेषरूप से मुनि का समाचार (परस्पर में विनयादि व्यवहार) कहते हैं ।

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    + सामान्य विनय तथा उसके बाद विशेष विनय व्यवहार -
    दिट्ठा पगदं वत्थु अब्भुट्ठाणप्पधाणकिरियाहिं । (261)
    वट्ठदु तदो गुणादो विसेसिदव्वो त्ति उवदेसो ॥299॥
    दृष्टवा प्रकृतं वस्त्वभ्युत्थानप्रधानक्रियाभिः ।
    वर्ततां ततो गुणाद्विशेषितव्य इति उपदेशः ॥२६१॥
    जब दिखें मुनिराज पहले विनय से वर्तन करो ।
    भेद करना गुणों से पश्चात् यह उपदेश है ॥२६१॥
    अन्वयार्थ : [प्रकृत वस्तु] प्रकृत वस्तु को [दृट्‌वा] देखकर (प्रथम तो) [अभ्‍युत्थानप्रधानक्रियाभि:] अभ्‍युत्थान आदि क्रियाओं से [वर्तताम्] (श्रमण) वर्तो; [ततः] फिर [गुणात्] गुणानुसार [विशेषितव्य:] भेद करना,—[इति उपदेश:] ऐसा उपदेश है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, अविपरीत फल का कारण ऐसा जो 'अविपरीत कारण' उसकी उपासनारूप प्रवृत्तिसामान्य और विशेषरूप से करने योग्य है ऐसा दो सूत्रों द्वारा बतलाते हैं -

    यदि कोई श्रमण अन्य श्रमण को देखे तो प्रथम ही, मानो वे अन्य श्रमण गुणातिशयवान् हों इस प्रकार उनके प्रति (अभ्‍युत्थानादि) व्यवहार करना चाहिये । फिर उनका परिचय होने के बाद उनके गुणानुसार बर्ताव करना चाहिये ॥२६१॥

    जयसेनाचार्य :
    [वट्टदु] वर्तें । वे कौन वर्तें ? यहाँ के आचार्य वर्तें । क्या करके वर्तें ? [दिट्ठा] वे देखकर वर्तें । किन्हें देखकर वर्तें? [वत्थुं] मुनिरूप पात्र वस्तु को देखकर वर्तें । किस विशेषता वाले मुनि को देखकर वर्तें? [पगदं] प्रकृत-अन्दर में वर्तने वाली उपराग (मलिनता) रहित शुद्धात्मा की भावना को बतानेवाले बाहर के निर्ग्रंन्थ, निर्विकार-विकार रहित दिगम्बर-रूप को देखकर वर्तें । किस रूप से वर्तें ? [अब्भुट्ठाणप्प्धाणकिरियाहिं] आये हुये मुनि के योग्य आचार-शास्त्र में कही गई अभ्युत्थान-सम्मानार्थ खडे होना-इत्यादि क्रियाओं रूप से वर्तें । [तदो गुणादो] फिर तीन दिन बाद गुणों से--गुणों की विशेषता से [विसेसिदव्वो] उन आचार्य को, उन मुनि के प्रति रत्नत्रयरूप भावना की वृद्धि की कारणभूत क्रियाओं द्वारा, विशेष करना चाहिये -- ऐसा सर्वज्ञ गणधरदेवादि का उपदेश है ॥२९९॥

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    अब्भुट्ठाणं गहणं उवासणं पोसणं च सक्कारं । (262)
    अंजलिकरणं पणमं भणिदमिह गुणाधिगाणं हि ॥300॥
    अभ्युत्थानं ग्रहणमुपासनं पोषणं च सत्कारः ।
    अञ्जलिकरणं प्रणामो भणितमिह गुणाधिकानां हि ॥२६२॥
    गुणाधिक में खड़े होकर अंजलि को बाँधकर ।
    ग्रहण-पोषण-उपासन-सत्कार कर करना नमन ॥२६२॥
    अन्वयार्थ : [गुणाधिकाना हि] गुणों में अधिक (श्रमणों) के प्रति [अभ्‍युत्थानं] अभ्‍युत्थान, [ग्रहणं] ग्रहण (आदर से स्वीकार), [उपासनं] उपासन (सेवा), [पोषणं] पोषण (उनके अशन, शयनादि की चिन्ता), [सत्कार:] सत्कार (गुणों की प्रशंसा), [अञ्जलिकरणं] अंजलि करना (विनयपूर्वक हाथ जोड़ना) [च] और [प्रणाम:] प्रणाम करना [इह] यहाँ [भणितम्] कहा है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    श्रमणों को अपने से अधिक गुणवान (श्रमण) के प्रति अभ्‍युत्थान, ग्रहण, उपासन, पोषण, सत्कार, अंजलिकरण और प्रणामरूप प्रवृत्तियाँ निषिद्ध नहीं हैं ॥२६२॥

    जयसेनाचार्य :
    [भणिदं] कहा गया है । [इह] इस ग्रन्थ में । यहाँ किनके सम्बन्ध में कहा गया है ? [गुणाधिगाणं हि] यहाँ वास्तव में गुणों में अधिक मुनियों के सम्बन्ध में कहा गया है । उनके सम्बन्ध में क्या कहा गया है? [अब्भुट्ठाणं ग्रहणं उवासणं पोसणं च सक्कारं अंजलिकरणं पणमं] खड़े होना, ग्रहण, उपासन, पोषण, सत्कार, अंजलिकरण, प्रणाम आदि उनके सम्बन्ध में, करने को कहा गया है ।

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    + श्रमणभासों के प्रति समस्त प्रवृत्तियों का निषेध -
    अब्भुट्ठेया समणा सुत्तत्थविसारदा उवासेया । (263)
    संजमतवणाणड्‌ढा पणिवदणीया हि समणेहिं ॥301॥
    अभ्युत्थेयाः श्रमणाः सूत्रार्थविशारदा उपासेयाः ।
    संयमतपोज्ञानाढयाः प्रणिपतनीया हि श्रमणैः ॥२६३॥
    विशारद सूत्रार्थ संयम-ज्ञान-तप में आढ्य हों ।
    उन श्रमण जन को श्रमण जन अति विनय से प्रणमन करें ॥२६३॥
    अन्वयार्थ : [श्रमणै: हि] श्रमणों के द्वारा [सूत्रार्थविशारदा:] सूत्रार्थविशारद (सूत्रों के और सूत्रकथित पदार्थों के ज्ञान में निपुण) तथा [संयमतपोज्ञानाढ:] संयम, तप और (आत्म) ज्ञान में समृद्ध [श्रमण:] श्रमण [अभ्युत्थेया: उपासेया: प्रणिपतनीया:] अभ्‍युत्थान, उपासना और प्रणाम करने योग्य हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब श्रमणभासों के प्रति समस्त प्रवृत्तियों का निषेध करते हैं :-

    जिनके सूत्रों में और पदार्थों में विशारदपने के द्वारा संयम, तप और स्वतत्त्व का ज्ञान प्रवर्तता है उन श्रमणों के प्रति ही अभ्युत्थानादिक प्रवृत्तियाँ अनिषिद्ध हैं, परन्तु उसके अतिरिक्त अन्य श्रमणाभासों के प्रति वे प्रवृत्तियाँ निषिद्ध ही हैं ॥२६३॥

    जयसेनाचार्य :
    [अब्भुट्ठेया] यद्यपि चारित्र गुण से अधिक नहीं हैं या तप से अधिक नहीं हैं, तो भी सम्यग्ज्ञान गुण की अपेक्षा ज्येष्ठ- अधिक होने से श्रुत की विनय के लिये, वे अभ्युत्थेय-अभ्युत्थान के योग्य उठकर सम्मान आदि करने योग्य हैं । वे कौन उसके योग्य हैं ? [समणा] श्रमण-निर्ग्रंन्थ आचार्य उसके योग्य हैं । वे निर्ग्रन्थ आचार्य किस विशेषता वाले हैं ? [सुत्तत्थविसारदा] विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभावी परमात्मतत्त्व प्रभृति अनेकान्तात्मक पदार्थों में वीतराग-सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग से प्रमाण-नय-निक्षेपों द्वारा विचार करने में चतुर चित्तवाले, सूत्रार्थ विशारद हैं । वे केवल अभ्युत्थान के ही योग्य नहीं हैं, वरन्‌ [उवासेया] परम चैतन्य ज्योति परमात्मपदार्थ के परिज्ञान के लिये उपासना करने योग्य हैं- परम भक्ति से सेवा करने योग्य हैं । [संजमतवणाणड्ढा पणिवदणीया हि] वास्तव में वे संयम-तप-ज्ञान से समृद्ध श्रमण वन्दना करने योग्य हैं । इसप्रकार कहे गये लक्षण वाले संयम- तप-ज्ञान से समृद्ध - श्रमण यथासंभव प्रतिवन्दना करने योग्य हैं । वे किनके द्वारा अभ्युत्थान आदि करने योग्य हैं ? [समणेहिं] वे श्रमणों द्वारा, अभ्युत्थान आदि करने योग्य हैं ।

    यहाँ तात्पर्य यह है जो बहु-श्रुत होने पर भी चारित्र में अधिक नहीं हैं वे भी परमागम का अभ्यास करने के हेतु से, यथायोग्य वन्दना के योग्य हैं । उनके प्रति वन्दना करने का और भी कारण है -- वे सम्यक्त्व और ज्ञान में पहले से ही दृढ़तर हैं परन्तु इन नवीन मुनियों के सम्यक्त्व और ज्ञान में दृढ़ता नहीं है । तब फिर थोड़े चारित्र वालों के प्रति आगम में वन्दना आदि का निषेध किसलिये किया गया है ? यदि ऐसा प्रश्न हो तो कहते हैं- अतिप्रसंग (सीमा के उल्लंघन) का निषेध करने के लिये आगम में इसका निषेध किया है ॥३०१॥

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    + शुभोपयोगियों की शुभप्रवृत्ति -
    वंदणणमंसणेहिं अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती । (247)
    समणेसु समावणओ ण णिंदिदा रागचरियम्हि ॥302॥
    वन्दननमस्करणाभ्यामभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिः ।
    श्रमणेषु श्रमापनयो न निन्दिता रागचर्यायाम् ॥२४७॥
    श्रमण के प्रति बंदन नमन एवं अनुगमन ।
    विनय श्रमपरिहार निन्दित नहीं हैं जिनमार्ग में ॥२४७॥
    अन्वयार्थ : [श्रमणेषु] श्रमणों के प्रति [वन्दननमस्करणाभ्यां] वन्दन-नमस्कार सहित [अभ्‍युत्थानानुगमनप्रतिपत्ति:] अभ्‍युत्थान और अनुगमनरूप विनीत प्रवृत्ति करना तथा [श्रमापनय:] उनका श्रम दूर करना वह [रागचर्यायाम्] रागचर्या में [न निन्दिता] निन्दित नहीं है ॥२४७॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, शुभोपयोगी श्रमणों की प्रवृत्ति बतलाते हैं :-

    शुभोपयोगियों के शुद्धात्मा के अनुरागयुक्त चारित्र होता है, इसलिये जिनने शुद्धात्मपरिणति प्राप्त की है ऐसे श्रमणों के प्रति जो वन्दन-नमस्कार-अभ्‍युत्थान-अनुगमनरूप विनीत वर्तन की प्रवृत्ति तथा शुद्धात्मपरिणति की रक्षा की निमित्तभूत ऐसी जो श्रम दूर करने की (वैयावृत्यरूप) प्रवृत्ति है, वह शुभोपयोगियों के लिये दूषित (दोषरूप, निन्दित) नहीं है । (अर्थात् शुभोपयोगी मुनियों के ऐसी प्रवृत्ति का निषेध नहीं हैं) ॥२४७॥

    जयसेनाचार्य :
    [ण णिंदिदा] निषिद्ध नहीं है । किसमें निषिद्ध नहीं हैं ? [रागचरियम्हि] शुभ राग चर्या में-सराग चारित्र अवस्था में निषिद्ध नहीं हैं । क्या निन्दित नहीं हैं ? [वंदणणमंसणेहिं अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ति] वन्दन-नमस्कार के साथ अभ्युत्थान, अनुगमनरूप विनीत प्रवृति, निन्दित नहीं है । [समणेसु समावणओ] श्रमणों में श्रम को दूर करना-रत्नत्रयरूप भावना को नष्ट करनेवाले श्रम-खेद को नष्ट करना निन्दित नहीं है ।

    इससे क्या कहा गया है- शुद्धोपयोग के साधक शुभोपयोग में स्थित मुनिराजों को रत्नत्रय की आराधना करनेवाले शेष पुरुषों के विषय में, इसप्रकार की शुभोपयोगरूप प्रवृत्तियाँ युक्त ही हैं-योग्य ही हैं ॥३०२॥

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    + श्रमणाभास -
    ण हवदि समणो त्ति मदो संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि । (264)
    जदि सद्दहदि ण अत्थे आदपधाणे जिणक्खादे ॥303॥
    न भवति श्रमण इति मतः संयमतपःसूत्रसम्प्रयुक्तोऽपि ।
    यदि श्रद्धत्ते नार्थानात्मप्रधानान् जिनाख्यातान् ॥२६४॥
    सूत्र संयम और तप से युक्त हों पर जिनकथित ।
    तत्त्वार्थ को ना श्रद्धहैं तो श्रमण ना जिनवर कहें ॥२६४॥
    अन्वयार्थ : [संयमतप:सूत्रसंप्रयुक्त: अपि] सूत्र, संयम और तप से संयुक्त होने पर भी [यदि] यदि (वह जीव) [जिनाख्यातान्] जिनोक्त [आत्मप्रधानान्] आत्मप्रधान [अर्थान्] पदार्थों का [न श्रद्धत्ते] श्रद्धान नहीं करता तो वह [श्रमण: न भवति] श्रमण नहीं है,—[इति मत:] ऐसा (आगम में) कहा है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, कैसा जीव श्रमणाभास है सो कहते हैं :-

    आगम का ज्ञाता होने पर भी, संयत होने पर भी, तप में स्थित होने पर भी, जिनोक्त अनन्त पदार्थों से भरे हुए विश्व को—जो कि (विश्व) अपने आत्मा से ज्ञेयरूप से पिया जाता होने के कारण आत्मप्रधान है उसका—जो जीव श्रद्धान नहीं करता वह श्रमणाभास है ॥२६४॥

    जयसेनाचार्य :
    [ण हवदि समणो] वह श्रमण नहीं है, [त्ति मदो] ऐसा माना गया है- स्वीकार किया गया है । ऐसा कहाँ माना गया है? ऐसा आगम में माना गया है । कैसा होने पर भी वह मुनि नहीं है? [संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि] संयम तप, श्रुत से सहित होने पर भी वह मुनि नहीं है । [जदि सद्दहदि ण] यदि सम्यक्त्व के तीन मूढ़ता आदि पच्चीस मल-दोषों सहित होता हुआ श्रद्धान नही करता है, रुचि नही करता है, मानता नहीं है, तो वह मुनि नहीं है । किनका श्रद्धान नहीं करता है? [अत्थे] पदार्थों का श्रद्धान नहीं करता है । कैसे पदार्थों का श्रद्धान नहीं करता है? [आदपधाणे] दोष रहित परमात्मा प्रधान पदार्थों का श्रद्धान नही करता है । और कैसे पदार्थों का श्रद्धान नहीं करता है? [जिणक्खादे] वीतराग-सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रसिद्ध किये गये, दिव्यध्वनि द्वारा कहे गये, गणधर देवों द्वारा ग्रन्थों में लिखे गये, आत्मा-प्रधान पदार्थों का श्रद्धान नही करता है, तो मुनि नहीं है -- ऐसा अर्थ है ॥३०३॥

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    + मोक्षमार्गी पर दोष लगाने में दोष -
    अववददि सासणत्थं समणं दिट्ठा पदोसदो जो हि । (265)
    किरियासु णाणुमण्णदि हवदि हि सो णट्ठचारित्तो ॥304॥
    अपवदति शासनस्थं श्रमणं दृष्टवा प्रद्वेषतो यो हि ।
    क्रियासु नानुमन्यते भवति हि स नष्टचारित्रः ॥२६५॥
    जो श्रमणजन को देखकर विद्वेष से वर्तन करें ।
    अपवाद उनका करें तो चारित्र उनका नष्ट हो ॥२६५॥
    अन्वयार्थ : [यः हि] जो [शासनस्थ श्रमणं] शासनस्थ (जिनदेव के शासन में स्थित) श्रमण को [दृष्‍ट्‌वा] देखकर [प्रद्वेषत:] द्वेष से [अपवदति] उसका अपवाद करता है और [क्रियासु न अनुमन्यते] (सत्कारादि) क्रियाओं से करने में अनुमत (पसन्न) नहीं है [सः नष्टचारित्र: हि भवति] उसका चारित्र नष्ट होता है ॥२६५॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, जो श्रामण्य से समान हैं उनका अनुमोदन (आदर) न करनेवाले का विनाश बतलाते हैं :-

    जो श्रमण द्वेष के कारण शासनस्थ श्रमण का भी अपवाद बोलता है और (उसके प्रति सत्कारादि) क्रियायें करने में अनुमत नहीं है, वह श्रमण द्वेष से कषायित होने से उसका चारित्र नष्ट हो जाता है ॥२६५॥

    जयसेनाचार्य :
    [अववददि] बुरा बोलता है-दोष देता है-अपवाद करता है । वह कौन दोष देता है ? [जो हि] कर्ता रूप जो वास्तव में । किन्हें दोष देता है? [समणं] श्रमण-मुनि को दोष देता है । कैसे श्रमण को दोष देता है? [सासणत्थं] शासनस्थ-निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग में स्थित श्रमण को दोष देता है । उन्हें क्यों दोष देता है? [पदोसदो] दोष रहित परमात्मा की भावना से विलक्षण, प्रद्वेष-कषाय से दोष देता है । पहले क्या कर दोष देता है? [दिट्ठा] उन्हें देखकर दोष देता है । मात्र दोष ही नहीं देता है, वरन् [णाणुमण्णदि] उन्हें स्वीकार भी नहीं करता है । किन विषयों में उन्हें स्वीकार नहीं करता है? [किरियासु] यथायोग्य वन्दना आदि क्रियाओं में उन्हें स्वीकार नहीं करता है । [हवदि हि सो] वह स्पष्ट रूप से होता है । वह किस विशेषतावाला होता है? [ण्ट्ठचारित्तो] कथंचित् अति प्रसंग से, नष्टचारित्र होता है (अपने चारित्र को नष्ट करता है)

    वह इसप्रकार- रत्नत्रयरूप मार्ग में स्थित मुनि को देखकर, यदि कथंचित् मात्सर्यवश (ईर्ष्यावश) दोष ग्रहण करता है, तो स्पष्ट चारित्र से भ्रष्ट होता है, बाद में आत्मनिन्दा करके यदि निवृत्त हो जाता है- ईर्ष्यावश अपवाद करना छोड़ देता है, तो दोष नहीं है; यदि कुछ समय बाद छोड़ता है, तो भी दोष नहीं है । तथा यदि वहाँ ही अनुबन्ध कर, तीव्र कषाय के कारण अतिप्रसंग करता है (बार-बार वही करता है), तो चारित्र से भ्रष्ट होता है ।

    यहाँ भाव यह है- बहुश्रुतों को, अल्पश्रुत मुनियों का दोष-ग्रहण नहीं करना चाहिये, उन मुनियों को भी कुछ भी पाठ मात्र ग्रहण कर, उनका दोष-ग्रहण नहीं करना चाहिये, किन्तु कुछ भी सारपद ग्रहण कर अपनी भावना ही करना चाहिये । परस्पर दोष-ग्रहण क्यों नहीं करना चाहिये । राग-द्वेष की उत्पत्ति होने पर बहुश्रुतों को श्रुत का फल नहीं है, तथा तपस्वियों को तप का फल नहीं है; अत: परस्पर दोष -ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥३०४॥

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    + अधिक गुणवा्लों से विनय चाहने से गुणों का विनाश -
    गुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि होमि समणो त्ति । (266)
    होज्जं गुणाधरो जदि सो होदि अणंतसंसारी ॥305॥
    गुणतोऽधिकस्य विनयं प्रत्येषको योऽपि भवामि श्रमण इति ।
    भवन् गुणाधरो यदि स भवत्यनन्तसंसारी ॥२६६॥
    स्वयं गुण से हीन हों पर जो गुणों से अधिक हों ।
    चाहे उनसे नमन तो फिर अनंतसंसारी हैं वे ॥२६६॥
    अन्वयार्थ : [यः] जो श्रमण [यदि गुणाधर: भवन्] गुणों में हीन होने पर भी [अपि श्रमण: भवामि] मैं भी श्रमण हूँ, [इति] ऐसा मानकर अर्थात् गर्व करके [गुणत: अधिकस्य] गुणों में अधिक (ऐसे श्रमण) के पास से [विनयं प्रत्येषक:] विनय (करवाना) चाहता है [सः] वह [अनन्तसंसारी भवति] अनन्तसंसारी होता है ॥२६६॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, जो श्रामण्य में अधिक हो उसके प्रति जैसे कि वह श्रामण्य में हीन (अपने से मुनिपने में नीचा) हो ऐसा आचरण करनेवाले का विनाश बतलाते हैं :-

    जो श्रमण स्वयं जघन्य गुणों वाला होने पर भी मैं भी श्रमण हूँ, ऐसे गर्व के कारण दूसरे अधिक गुण वालों (श्रमणों) से विनय की इच्छा करता है, वह श्रामण्य के गर्व के वश से कदाचित् अनन्त संसारी भी होता है ॥२६६॥

    जयसेनाचार्य :
    [सो होदि अणंतसंसारी] वह कथंचित् अनन्त संसारी होता है । जो क्या करता है ? [पडिच्छगो जो दु] जो चाहने वाला है, अभिलाषक है-अपेक्षक है । क्या चाहने वाला है ? [विणयं] वन्दना आदि विनय चाहने वाला है । किससे विनय चाहने वाला है ? [गुणदोधिगस्स] बहिरंग-अन्तरंग-रत्नत्रयरूप गुणों से अधिक दूसरे मुनि से विनय चाहता है । किस कारण वह अपनी विनय कराना चाहता है ? [होमि समणो त्ति] ''मै भी मुनि हूँ''- इस अभिमान-गर्व से विनय चाहता है । यदि कैसा है, तो भी विनय चाहता है ? [होज्जं गुणाधरो जदि] यदि स्वयं निश्चय-व्यवहार रत्नत्रयरूप गुणों से हीन है, तो भी उनसे विनय चाहता है, तो अनन्त संसारी होता है ।

    यहाँ अर्थ यह है -- यदि पहले अभिमान के कारण, अधिक गुणवालों से विनय की इच्छा करता है, परन्तु बाद मे विवेक बल से आत्म-निन्दा करता है, तो अनन्त संसारी नहीं होता है । परन्तु वहाँ ही मिथ्या अभिमान से प्रसिद्धि पूजा-लाभ के लिये दुराग्रह करता है, तो वैसा (अनन्त संसरी) होता है । अथवा यदि कुछ समय बाद भी आत्मनिंदा करता है, तो भी वैसा (अनन्त संसारी) नहीं होता है ॥३०५॥

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    + हीन गुणवालों के साथ वर्तने से गुणों का विनाश -
    अधिगगुणा सामण्णे वट्टंति गुणाधरेहिं किरियासु । (267)
    जदि ते मिच्छुवजुत्ता हवंति पब्भट्ठचारित्ता ॥306॥
    अधिकगुणाः श्रामण्ये वर्तन्ते गुणाधरैः क्रियासु ।
    यदि ते मिथ्योपयुक्ता भवन्ति प्रभ्रष्टचारित्राः ॥२६७॥
    जो स्वयं गुणवान हों पर हीन को बंदन करें ।
    दृगमोह में उपयुक्त वे चारित्र से भी भ्रष्ट हैं ॥२६७॥
    अन्वयार्थ : [यदि श्रामण्ये अधिकगुणा:] जो श्रामण्य में अधिक गुण वाले हैं, तथापि [गुणाधरै:] हीन गुण वालों के प्रति [क्रियासु] (वंदनादि) क्रियाओं में [वर्तन्ते] वर्तते हैं, [ते] वे [मिथ्योपयुक्ता:] मिथ्या उपयुक्त होते हुए [प्रभ्रष्टचारित्रा: भवन्ति] चारित्र से भ्रष्ट होते हैं ॥२६७॥

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब, जो श्रमण श्रामण्य से अधिक हो वह, जो अपने से हीन श्रमण के प्रति समान जैसा (अपने बराबरीवाले जैसा) आचरण करे तो उसका विनाश बतलाते हैं :-

    जो स्वयं अधिक गुण वाले होने पर भी अन्य हीन गुण वालों (श्रमणों) के प्रति (वंदनादि) क्रियाओं में वर्तते हैं वे मोह के कारण असम्यक् उपयुक्त होते हुए (मिथ्याभावों में युक्त होते हुए) चारित्र से भ्रष्ट होते हैं ॥२६७॥

    जयसेनाचार्य :
    [वट्टंति] वर्तते हैं - प्रवृत्ति करते हैं, [जदि] यदि तो । कहाँ प्रवृत्ति करते हैं? [किरियासु] वन्दना आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति करते हैं । किनके साथ इन क्रियाओं प्रवृत्ति में करते हैं? [गुणाधरेहिं] गुणों में नीचे-गुणों से रहित के साथ करते हैं । स्वयं कैसे होते हुए, इनके साथ प्रवृत्ति करते हैं? [अधिगगुणा] स्वयं अधिक गुणी होते हुये भी, इनके साथ प्रवृत्ति करते हैं । वे किसमें अधिक गुणी हैं? [सामण्णे] चारित्र में वे अधिक गुणी हैं । [ते मिच्छत्तपउत्ता हवंति] वे कथंचित् अतिप्रसंग से, मिथ्यात्व सहित होते हैं । मात्र मिथ्यात्व ही नहीं होते, वरन् [पब्भ्ट्ठचरित्ता] चारित्र-भ्रष्ट होते हैं ।

    वह इसप्रकार - स्वयं चारित्र गुण में अधिक भी, यदि ज्ञानादि गुणों वृद्धि के लिये, बहुश्रुतों के पास वन्दना आदि क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं, तो दोष नहीं है? । परन्तु यदि, मात्र प्रसिद्धि, पूजा, लाभ के लिये उनमें प्रवृत्ति करते हैं; तो अतिप्रसंग से दोष होता है ।

    यहाँ तात्पर्य यह है - वन्दनादि क्रियाओं में या तत्वविचार आदि में जहाँ राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है, वहाँ सब जगह दोष ही है ।

    यहाँ कोई कहता है- यह आपकी कल्पना है, आगम में वैसा नहीं है । आचार्य कहते हैं- ऐसा नहीं है, सभी आगम राग-द्वेष को दूर करने के लिये ही हैं; किन्तु जो कोई उत्सर्ग-अपवाद रूप से आगम सम्बन्धी नय-विभाग को नहीं जानते हैं वे ही रागद्वेष करते हैं; और दूसरे नहीं ॥३०६॥

    यहाँ शिष्य कहता है- अपवाद व्याख्यान के प्रसंग में शुभोपयोग का व्याख्यान किया था यहाँ फिर से किसलिये व्याख्यान किया है? आचार्य निराकरण करते हुए कहते हैं- आपका यह वचन उचित है; किन्तु वहाँ सम्पूर्ण त्याग लक्षण उत्सर्ग व्याख्यान किये जाने पर, उसमें असमर्थ मुनियों को समय की अपेक्षा कुछ ज्ञान, संयम, शौच के उपकरण आदि ग्रहण करना उचित हैं- इसप्रकार अपवाद व्याख्यान ही मुख्य है । यहां तो, जैसे भेदनय से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपश्चरण-रूप चार प्रकार की आराधनायें हैं वे ही अभेदनय से सम्यक्त्व और चारित्ररूप से दो प्रकार की हैं उनमें भी अभेद विवक्षा से पुन: एक ही वीतराग चारित्र आराधना है, उसीप्रकार भेदनय से सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यस्कचारित्ररूप तीन प्रकार का मोक्षमार्ग है वही अभेदनय से, श्रामण्य अपर नाम मोक्षमार्ग रूप से एक ही है, और वह अभेदरूप मुख्यवृत्ति से 'एयागगदो समणो -' इत्यादि चौदह गाथाओं द्वारा पहले ही विशेषरूप से कहा गया है । तथा यह भेदरूप मुख्य-वृत्ति द्वारा शुभोपयोगरूप से अब कहा गया है; अत: पुनरुक्ति दोष नहीं है ।

    इसप्रकार समाचार (पारस्परिक विनयादि आचार) के विशेष कथनरूप से चौथे स्थल में आठ गाथायें पूर्ण हुईं ॥

    अब आगे पाँचवे स्थल में संक्षेप से संसारस्वरूप और मोक्षस्वरूप की प्रतीति के लिये, पाँच रत्नरूप पाँच गाथाओं द्वारा व्याख्यान करते हैं -

    वह इसप्रकार -

    🏠
    + संसार-स्वरूप -
    जे अजधागहिदत्था एदे तच्च त्ति णिच्छिदा समये । (271)
    अच्चंतफलसमिद्धं भमंति ते तो परं कालं ॥307॥
    ये अयथागृहीतार्था एते तत्त्वमिति निश्चिताः समये ।
    अत्यन्तफलसमृद्धं भ्रमन्ति ते अतः परं कालम् ॥२७१॥
    अयथार्थग्राही तत्त्व के हों भले ही जिनमार्ग में ।
    कर्मफल से आभरित भवभ्रमे भावीकाल में ॥२७१॥
    अन्वयार्थ : [ये] जो [समये] भले ही समय में हों (भले ही वे द्रव्यलिंगी के रूप में जिनमत में हों) तथापि वे [एते तत्त्वम्] यह तत्त्व है (वस्तुस्वरूप ऐसा ही है) [इति निश्‍चिता:] इस प्रकार निश्‍चयवान वर्तते हुए [अयथागृहीतार्था:] पदार्थों को अयथार्थरूप से ग्रहण करते हैं (जैसे नहीं हैं वैसा समझते हैं), [ते] वे [अत्यन्तफलसमृद्धम्] अत्यन्तफलसमृद्ध (अनन्त कर्मफलों से भरे हुए) ऐसे [अत: परं कालं] अब से आगामी काल में [भ्रमन्ति] परिभ्रमण करेंगे ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब पंचरत्‍न हैं (पाँच रत्‍नों जैसी पाँच गाथायें कहते हैं)

    (वहाँ पहले, श्‍लोक द्वारा उन पाँच गाथाओं की महिमा कहते हैं :)

    (कलश-१७--मनहरण कवित्त)
    अब इस शास्त्र के मुकुटमणि के समान ।
    पाँच सूत्र निर्मल पंचरत्न गाये हैं ॥
    जो जिनदेव अरहंत भगवान के ।
    अद्वितीय शासन को सर्वतः प्रकाशे हैं ॥
    अद्भुत पंचरत्न भिन्न-भिन्न पंथवाली ।
    भव-अपवर्ग की व्यतिरेकी दशा को ॥
    तप्त-संतप्त इस जगत के सामने ।
    प्रगटित करते हुये जयवंत वर्तो ॥१८॥

    अब इस शास्त्र के कलंगी के अलङ्कार जैसे (चूड़ामणि-मुकुटमणि समान) यह पाँच सूत्ररूप निर्मल पंचरत्‍न -- जो कि संक्षेप से अर्हन्त-भगवान के समग्र अद्वितीय शासन को सर्वत: प्रकाशित करते हैं वे -- विलक्षण पंथवाली संसार-मोक्ष की स्थिति को जगत के समक्ष प्रकट करते हुए जयवन्त वर्तो ।

    अब संसारतत्त्व को प्रकट करते हैं :-

    जो स्वयं अविवेक से पदार्थों को अन्यथा ही अंगीकृत करके (अन्य प्रकार से ही समझकर) ऐसा ही तत्त्व (वस्तुस्वरूप) है ऐसा निश्‍चय करते हुए, सतत एकत्रित किये जाने वाले महा मोहमल से मलिन मन वाले होने से नित्य अज्ञानी हैं, वे भले ही समय में (द्रव्यलिंगी रूप से जिनमार्ग में) स्थित हों तथापि परमार्थ श्रामण्य को प्राप्त न होने से वास्तव में श्रमणाभास वर्तते हुए अनन्त कर्मफल की उपभोगराशि से भयंकर ऐसे अनन्तकाल तक अनन्त भावान्तररूप परावर्त्तनों से अनवस्थित वृत्ति वाले रहने से, उनको संसारतत्त्व ही जानना ॥२७१॥

    जयसेनाचार्य :
    [जे अजधागहिदत्था] वीतराग-सर्वज्ञ प्रणीत, निश्चय-व्यवहार रत्नत्रयरूप भाव की जानकारी का अभाव होने से, जो पदार्थों को अन्यथा ग्रहण करनेवाले - विपरीत ग्रहण करनेवाले हैं । और जो कैसे हैं? [एदे तच्च त्ति णिच्छिदा] ये तत्व हैं -ऐसा निश्चय करनेवाले हैं ये जो मेरे द्वारा कल्पित पदार्थ हैं वे ही तत्त्व हैं - ऐसा निश्चय करनेवाले हैं । कहाँ स्थित होकर ऐसा निश्चित करनेवाले हैं? [समये] निर्ग्रन्थ रूप द्रव्यसमय में स्थित होकर ऐसा निश्चय करने वाले हैं । [अच्चंतफलसमिद्धं भमंति ते तो परं काल] वे अत्यन्त फलसमृद्ध हो, अनन्त काल तक घूमते हैं । द्रव्य- क्षेत्र- काल- भव- भाव रूप पाँच प्रकार के संसार परिभमण से रहित शुद्धात्मस्वरूप की भावना से च्युत - भ्रष्ट होते हुये घूमते हैं । कब तक घूमते हैं ? परकाल- अनन्तकाल तक घूमते हैं । कैसे घूमते हैं? नारक आदि दुःखरूप अत्यन्त फलसमृद्ध होते हुये, घूमते हैं । और कैसे (कब तक) घूमते हैं? इस वर्तमानकाल से आगे भविष्य तक घूमते हैं ।

    यहाँ अर्थ यह है- इसप्रकार संसार परिभ्रमणरूप परिणत पुरुष ही, अभेदरूप से संसारस्वरूप जानना चाहिये ॥३०७॥

    🏠
    + मोक्ष का स्वरूप -
    अजधाचारविजुत्तो जधत्थपदणिच्छिदो पसंतप्पा । (272)
    अफले चिरं ण जीवदि इह सो संपुण्णसामण्णो ॥308॥
    अयथाचारवियुक्तो यथार्थपदनिश्चितः प्रशान्तात्मा ।
    अफले चिरं न जीवति इह स सम्पूर्णश्रामण्यः ॥२७२॥
    यथार्थग्राही तत्त्व के अर रहित अयथाचार से ।
    प्रशान्तात्मा श्रमण वे न भवभ्रमे चिरकाल तक ॥२७२॥
    अन्वयार्थ : [यथार्थपदनिश्‍चित:] जो जीव यथार्थतया पदों का तथा अर्थों (पदार्थों) का निश्‍चय वाला होने से [प्रशान्तात्मा] प्रशान्तात्मा है और [अयथाचारवियुक्त:] अयथाचार (अन्यथाआचरण, अयथार्थआचरण) रहित है, [सः संपूर्णश्रामण्य:] वह संपूर्ण श्रामण्य वाला जीव [अफले] अफल (कर्मफल रहित हुए) [इह] इस संसार में [चिर न जीवति] चिरकाल तक नहीं रहता (अल्पकाल में ही मुक्त होता है ।)

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब मोक्ष तत्व को प्रगट करते हैं :-

    जो (श्रमण) त्रिलोक की चूलि‍का के समान निर्मल विवेकरूपी दीपिका के प्रकाश वाला होने से यथास्थित पदार्थ निश्‍चय से उत्सुकता का निवर्तन करके स्वरूपमंथर रहने से सतत ‘उपशांतात्मा’ वर्तता हुआ, स्वरूप में एक में ही अभिमुखतया विचरता (क्रीड़ा करता) होने से अयथाचार रहित वर्तता हुआ नित्य ज्ञानी हो, वास्तव में उस सम्पूर्ण श्रामण्य वाले साक्षात् श्रमण को मोक्षतत्त्व जानना, क्योंकि पहले के सकल कर्मों के फल उसने लीलामात्र से नष्ट कर दिये हैं इसलिये और वह नूतन कर्मफलों को उत्पन्न नहीं करता इसलिये पुन: प्राणधारणरूप दीनता को प्राप्त न होता हुआ द्वितीय भावरूप परावर्तन के अभाव के कारण शुद्धस्वभाव में अवस्थित वृत्ति वाला रहता है ॥२७२॥

    जयसेनाचार्य :
    [अजधाचारविजुत्तो] निश्चय-व्यवहार पंचाचार रूप भावना से परिणत होने के कारण, अयथाचारवियुक्त-विपरीत आचार से रहित हैं- ऐसा अर्थ है; [जधत्थपदणिच्छिदो] सहज आनन्द एक स्वभावी अपने परमात्मा आदि पदार्थों के परिज्ञान से सहित होने के कारण, यथार्थ पदों के निश्चय से सहित हैं; [पसंतप्पा] विशिष्टरूप से उत्कृष्ट उपशम भावरूप परिणत अपने आत्मद्रव्य की भावना से सहित होने के कारण, प्रशान्तात्मा हैं; जो- कर्तारूप [जो सो संपुण्णसामण्णो] वे सम्पूर्ण श्रामण्य होते हुये [चिरं ण जीवदि] चिर-बहुत कालतक नहीं जीते हैं-नहीं रहते हैं । कहाँ नहीं रहते हैं? [अफले इह] शुद्धात्मा के संवेदन से उत्पन्न सुखरूपी अमृतरस के आस्वाद से रहित होने के कारण अफल-फल रहित यहाँ- इस संसार में नहीं रहते हैं, अपितु शीघ्र मोक्ष जाते हैं ।

    यहाँ भाव यह है- इसप्रकार मोक्षतत्त्व परिणत पुरुष ही अभेदनय से मोक्षस्वरूप जानना चाहिये ॥३०८॥

    🏠
    + मोक्ष का कारण -
    सम्मं विदिदपदत्था चत्ता उवहिं बहित्थमज्झत्थं । (273)
    विसयेसु णावसत्ता जे ते सुद्धा त्ति णिदिट्ठा ॥309॥
    सम्यग्विदितपदार्थास्त्यक्त्वोपधिं बहिस्थमध्यस्थम् ।
    विषयेषु नावसक्ता ये ते शुद्धा इति निर्दिष्टाः ॥२७३॥
    यथार्थ जाने अर्थ दो विध परिग्रह को छोड़कर ।
    ना विषय में आसक्त वे ही श्रमण शुद्ध कहे गये ॥२७३॥
    अन्वयार्थ : [सम्यग्विदितपदार्था:] सम्यक् (यथार्थतया) पदार्थों को जानते हुए [ये] जो [बहिस्थमध्यस्थम्] बहिरंग तथा अंतरंग [उपधिं] परिग्रह को [त्यक्‍त्‍वा] छोड़कर [विषयेषु न अवसक्ता:] विषयों में आसक्त नहीं हैं, [ते] वे [शुद्धा: इति निर्दिष्टा:] शुद्ध कहे गये हैं ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब मोक्षतत्त्व का साधन-तत्त्व प्रगट करते हैं :-

    अनेकान्त के द्वारा ज्ञात सकल ज्ञातृतत्त्व और ज्ञेयतत्त्व के यथास्थित स्वरूप में जो प्रवीण हैं, अन्तरंग में चकचकित होते हुए अनन्तशक्ति वाले चैतन्य से भास्वर (तेजस्वी) आत्मतत्त्व के स्वरूप को जिनने समस्त बहिरंग तथा अन्तरंग संगति के परित्याग से विविक्त (भिन्न) किया है, और (इसलिये) अन्त:तत्त्व की वृत्ति (आत्मा की परिणति) स्वरूप गुप्त तथा सुषुप्त (जैसे कि सो गया हो) समान (प्रशांत) रहने से जो विषयों में किंचित् भी आसक्ति को प्राप्त नहीं होते,—ऐसे जो सकल-महिमावान् भगवन्त शुद्ध (शुद्धोपयोगी) हैं उन्हें ही मोक्षतत्त्व का साधनतत्त्व जानना । (अर्थात् वे शुद्धोपयोगी ही मोक्षमार्गरूप हैं), क्योंकि वे अनादि संसार से रचित-बन्द रहे हुए विकट कर्मकपाट को तोड़ने-खोलने के अति उग्र प्रयत्न से पराक्रम प्रगट कर रहे हैं ॥२७३॥

    जयसेनाचार्य :
    [सम्मं विदिदपदत्था] संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय से रहित, अनन्त ज्ञानादि स्वभाव (वाले) अपने परमात्मपदार्थ प्रभृति सम्पूर्ण वस्तुओं का विचार करने में चतुर चित्त की चतुरता से, प्रकाशमान अतिशय सहित उत्कृष्ट विवेक ज्योति द्वारा, अच्छी तरह से पदार्थों को जानने वाले हैं । और वे किस रूप हैं ? [विसयेसु णावसत्ता] पंचेन्द्रिय विषयों की अधीनता से रहित होने के कारण, अपने आत्म तत्त्व की भावना रूप परम समाधि (स्वरूपलीनता) से उत्पन्न, परमानन्द एक लक्षण सुखरूपी अमृत रस के आस्वाद रूप अनुभव के बल से, विषयों में किंचित मात्र भी आसक्त नहीं हैं । क्या करके आसक्त नहीं हैं ? पहले अपने स्वरूप को परिग्रह-स्वीकार कर फिर चत्ता- छोड़कर आसक्त नहीं हैं । किसे छोड़कर वैसे नहीं हैं ? [उवहिं] परिग्रह छोड़कर वैसे नहीं है । किस विशेषता वाले परिग्रह को छोड़कर वैसे नहीं हैं? [बहित्थमज्झत्थं] बाहर स्थित खेत, मकान आदि अनेक प्रकार के और अपने अन्दर स्थित मिथ्यात्व आदि चौदह प्रकार से भेदरूप परिग्रह छोड़कर आसक्त नहीं हैं । [जे] इन गुणों से विशिष्ट जो महात्मा हैं, [ते सुद्धा त्ति णिद्दिट्ठा] वे शुद्ध-शुद्धोपयोगी हैं - ऐसा कहा है ।

    इस विशेष कथन से क्या कहा गया है? इसप्रकार के परमयोगी ही, अभेदरूप से मोक्षमार्ग हैं- ऐसा जानना चाहिये ॥३०९॥

    🏠
    + मोक्षमार्ग -
    सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं । (274)
    सुद्धस्स य णिव्वाणं सो च्चिय सिद्धो णमो तस्स ॥310॥
    शुद्धस्य च श्रामण्यं भणितं शुद्धस्य दर्शनं ज्ञानम् ।
    शुद्धस्य च निर्वाणं स एव सिद्धो नमस्तस्मै ॥२७४॥
    है ज्ञान-दर्शन शुद्धता निज शुद्धता श्रामण्य है ।
    हो शुद्ध को निर्वाण शत-शत बार उनको नमन है॥२७४॥
    अन्वयार्थ : [शुद्धस्य च] शुद्ध (शुद्धोपयोगी) को [श्रामण्यं भणितं] श्रामण्य कहा है, [शुद्धस्य च] और शुद्ध को [दर्शनं ज्ञानं] दर्शन तथा ज्ञान कहा है, [शुद्धस्य च] शुद्ध के [निर्वाणं] निर्वाण होता है; [सः एव] वही (शुद्ध ही) [सिद्ध:] सिद्ध होता है; [तस्यै नम:] उसे नमस्कार हो ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब मोक्षतत्त्व के साधनतत्त्व का (अर्थात् शुद्धोपयोगी का) सर्व मनोरथों के स्थानकेरूप में अभिनन्दन (प्रशंसा) करते हैं :-

    प्रथम तो, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के युगपदत्‍वरूप से प्रवर्तमान एकाग्रता जिसका लक्षण है ऐसा जो साक्षात् मोक्षमार्गभूत श्रामण्य, शुद्ध के ही होता है; समस्त भूत-वर्तमान-भावी व्यतिरेकों के साथ मिलित (मिश्रित), अनन्य वस्तुओं का अन्वयात्मक जो विश्व उसके (१) सामान्य और (२) विशेष के प्रत्यक्ष प्रतिभासस्वरूप जो (१) दर्शन और (२) ज्ञान वे 'शुद्ध' के ही होते हैं,—निर्विघ्‍न खिले हुए सहज ज्ञानानन्द की मुद्रावाला (स्वाभाविक ज्ञान और आनन्द की छापवाला) दिव्य जिसका स्वभाव है ऐसा जो निर्वाण, वह 'शुद्ध' के ही होता है; और टंकोत्कीर्ण परमानन्द-अवस्थारूप से सुस्थित आत्मस्वभाव की उपलब्धि से गंभीर ऐसे जो भगवान सिद्ध, वे 'शुद्ध' ही होते हैं (अर्थात् शुद्धोपयोगी ही सिद्ध होते हैं), वचन-विस्तार से बस हो! सर्व मनोरथों के स्थानभूत, मोक्षतत्त्व के साधन-तत्त्वरूप, 'शुद्ध' को, जिसमें परस्पर अंग-अंगीरूप से परिणमित भावक-भाव्यता के कारण स्व-पर का विभाग अस्त हुआ है ऐसा भाव-नमस्कार हो ॥२७४॥

    जयसेनाचार्य :
    [भणियं] कहा है । क्या कहा है? [सामण्णं] सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र - एकाग्रता लक्षण, शत्रु-मित्र आदि में समभाव परिणतिरूप, साक्षात् मोक्ष का कारण जो श्रामण्य कहा है । वह किसके होता है? [सुद्धस्स य] और शुद्ध के- शुद्धोपयोगी के ही होता है । [सुद्धस्स दंसणं णाणं] तीन लोक के उदररूपी छिद्र में स्थित, तीन काल सम्बन्धी विषयों-सम्पूर्ण वस्तुओं में पाये जाने वाले अनन्त धर्मों को, एक समय में सामान्य-विशेष रूप से देखने जानने में समर्थ जो दर्शन-ज्ञान, दोनों उन शुद्ध के ही होते हैं ।

    [सुद्धस्स य णिव्वाणं] अव्याबाध अनन्त सुख आदि गुणों के आधारभूत, पराधीनता से रहित होने के कारण अपने अधीन जो निर्वाण-मोक्ष- वह शुद्ध के ही होता है । [सो च्चिय सिद्धो] जो लौकिक माया, अंजन रस, दिग्विजय, मन्त्र, यन्त्र आदि सिद्धियों से विलक्षण, अपने शुद्धात्मा की पूर्ण प्राप्ति लक्षण टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभावी, ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मों से रहित होने के कारण सम्यक्त्व आदि आठ गुणों में गर्भित अनन्त गुण सहित सिद्ध भगवान हैं, वे भी शुद्ध ही हैं । [णमो तस्स] उन्हें ही अपने दोष रहित परमात्मा में आराध्य-आराधक सम्बन्ध लक्षण भाव नमस्कार हो ।

    यहाँ यह कहा गया है -- इस मोक्ष के कारणभूत शुद्धोपयोग के माध्यम से, सम्पूर्ण इष्ट मनोहर प्राप्त होते हैं - ऐसा मानकर, शेष मनोरथों को छोड़, उसमें ही भावना करना चाहिये ॥३१०॥

    🏠
    + शास्त्र का फल और समाप्ति -
    बुज्झदि सासणमेयं सागारणगारचरियया जुत्तो । (275)
    जो सो पवयणसारं लहुणा कालेण पप्पोदि ॥311॥
    बुध्यते शासनमेतत् साकारानाकारचर्यया युक्तः ।
    यः स प्रवचनसारं लघुना कालेन प्राप्नोति ॥२७५॥
    जो श्रमण-श्रावक जानते जिनवचन के इस सार को ।
    वे प्राप्त करते शीघ्र ही निज-आत्मा के सार को ॥२७५॥
    अन्वयार्थ : [यः] जो [साकारानाकारचर्यया युक्त:] साकार-अनाकार चर्या से युक्त वर्तता हुआ (एतत् शासनं) इस उपदेश को [बुध्यते] जानता है, [सः] वह [लघुना कालेन] अल्प काल में ही [प्रवचनसारं] प्रवचन के सार को (भगवान आत्मा को) [प्राप्‍नोति] पाता है ।

    अमृतचंद्राचार्य :
    अब (भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव) शिष्यजन को शास्त्र के फल के साथ जोड़ते हुए शास्त्र समाप्त करते हैं :-

    सुविशुद्धज्ञानदर्शनमात्र स्वरूप में अवस्थित परिणति में लगा होने से साकार-अनाकार चर्या से युक्त वर्तता हुआ, जो शिष्यवर्ग स्वयं समस्त शास्त्रों के अर्थों के विस्तारसंक्षेपात्मक श्रुतज्ञानोपयोगपूर्वक प्रभाव द्वारा केवल आत्मा को अनुभवता हुआ, इस उपदेश को जानता है, वह वास्तवमें, भूतार्थस्वसंवेद्य-दिव्य ज्ञानानन्द जिसका स्वभाव है, पूर्वकाल में कभी जिसका अनुभव नहीं किया, ऐसे भगवान आत्मा को प्राप्त करता है-जो कि (जो आत्मा) तीनों काल के निरवधि प्रवाह में स्थायी होने से सकल पदार्थों के समूहात्मक प्रवचन का सारभूत है ॥२७५॥

    इस प्रकार (श्रीमद् भगवत्कृन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री प्रवचनसार शास्त्र की श्रीमद्अमृतचन्द्राचार्यदेव विरचित तत्त्वदीपिका नामक टीका में चरणानुयोगसूचक चूलि‍का नाम का तृतीय श्रुतस्कंध समाप्त हुआ ।

    जयसेनाचार्य :
    [पप्पोदि] प्राप्त करता है । [सो] वह कर्तारूप शिष्यजन प्राप्त करता है । वह किसे प्राप्त करता है ? [पवयणसारं] प्रवचनसार शब्द से वाच्य, अपने आत्मा को प्राप्त करता है । कैसे (कब) प्राप्त करता है ? [लहुणा कालेण] थोड़े समय में प्राप्त करता है । जो क्या करता है, तो प्राप्त करता है? [जो बुज्झदि] जो शिष्यजन जानता है, तो प्राप्त करता है । क्या जानता है? [सासणमेयं] इस शास्त्र को जानता है । इसका क्या नाम है ? [पवयणसारं] प्रवचनसार- का प्रतिपादक होने से प्रवचनसार नाम है । वह शिष्यजन कैसा है? [सागारणगारचरियया जुत्तो] सागार या अनागार चर्या से सहित है । अन्तरंग रत्नत्रय अनुष्ठान को उपादेय कर, बहिरंग रत्नत्रयरूप अनुष्ठान सागारचर्या या श्रावक की चर्या है । बहिरंग रत्नत्रय के आधार से, अन्तरंग रत्नत्रय का अनुष्ठान अनागार चर्या या प्रमत्तसंयत आदि मुनि की चर्या है- ऐसा अर्थ है ॥३११॥

    इसप्रकार पाँच गाथाओं द्वारा 'पंच रत्न' नामक पाँचवे स्थल का व्याख्यान हुआ ।

    इसप्रकार 'णिच्छिदसुत्तत्थपदो-' इत्यादि ३२ गाथाओं द्वारा पाँच स्थलरूप से 'शुभोपयोग' नामक चौथा अन्तराधिकार समाप्त हुआ ।

    इसप्रकार 'श्री जयसेनाचार्य' कृत 'तात्पर्त्यवृत्ति' में पहले कहे गये क्रम से ['एवं पणमिय सिद्धे'] इत्यादि २१ गाथाओं रूप से 'उत्सर्ग अधिकार' है । तदुपरान्त ['ण हि णिरवेक्खो'] इत्यादि ३० गाथाओं रूप सें 'अपवाद अधिकार' है । तत्पश्चात् ['एयग्गगदो समणो'] इत्यादि १४ गाथाओं रूप से 'श्रामण्य अपर नाम मोक्षमार्ग अधिकार' है । तथा तदनन्तर ['णिच्छिदसुत्तत्थपदो'] इत्यादि ३२ गाथाओं रूप से 'शुभोपयोग अधिकार' है- इसप्रकार चार अन्तराधिकारों द्वारा, ९७ गाथाओं रूप से, 'चरणानुयोग-चूलिका' नामक 'तीसरा महाधिकार' समाप्त हुआ ।

    यहाँ शिष्य कहता है- यद्यपि परमात्म-द्रव्य का पहले अनेक प्रकार से व्याख्यान किया है, तथापि संक्षेप से और भी कहियेगा ।

    भगवान (आचार्य) कहते हैं -- जो केवल-ज्ञान आदि अनन्त-गुणों का आधारभूत है, वह आत्म-द्रव्य कहा गया है । तथा उसकी नयों और प्रमाण से परीक्षा की जाती है ।

    वह इसप्रकार -- यह जो शुद्ध-निश्चय-नय से उपाधि (संयोग) रहित स्फटिक के समान, सम्पूर्ण रागादि विकल्पों रूप उपाधि से रहित है; वही अशुद्ध-निश्चय-नय से, उपाधि सहित स्फटिक के समान, सम्पूर्ण रागादि विकल्पों रूप उपाधि से सहित है ।

    शुद्ध-सद्भूत-व्यवहार-नय से, जो शुद्ध स्पर्श-रस-गंध-वर्ण के आधार-भूत पुद्गल-परमाणु के समान केवल-ज्ञानादि शुद्ध-गुणों का आधारभूत है, वही अशुद्ध-सद्‌भूत-व्यवहार-नय से, अशुद्ध स्पर्श-रस-गंध-वर्ण के आधार-भूत द्वय्णुक आदि स्कंध समान, मतिज्ञान आदि विभाव-गुणों (पर्यायों) का आधार-भूत है ।

    अनुपचरित-असद्भूत-व्यवहार-नय से, द्वय्णुक आदि स्कंधों में संश्लेष बंधरूप स्थित पुद्गल-परमाणु के समान अथवा परमौदारिक शरीर में स्थित वीतराग-सर्वज्ञ के समान विवक्षित एक शरीर में स्थित है । उपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय से काष्ठ की आसन आदि पर बैठे हुये देवदत्त के समान अथवा समवशरण में स्थित वीतराग-सर्वज्ञ के समान विवक्षित एक ग्राम एक घर आदि में स्थित है ।

    इत्यादि परस्पर सापेक्ष अनेक नयों द्वारा जाना गया--व्यवहार किया गया (जीव-द्रव्य) क्रम से अमेचक स्वभाव-वाले विवक्षित एक धर्म में व्यापक होने से, एक-स्वभाव-रूप है । वही जीव-द्रव्य प्रमाण द्वारा जानने पर मेचक स्वभाव-वाले अनेक धर्मों में एक साथ व्यापक होने से, चित्रपट के समान, अनेक स्वभावरूप है ।

    इसप्रकार नय-प्रमाण द्वारा तत्त्व-विचार के समय, जो वह, परमात्म-द्रव्य को जानता है, वह विकल्प-रहित समाधि के प्रसंग में, विकार-रहित स्व-संवेदन-ज्ञान से भी, उसे जानता है ।

    शिष्य फिर कहता है -- हे भगवान! आत्मद्रव्य तो ज्ञात हुआ अब उसकी प्राप्ति का उपाय कहियेगा ।

    भगवान (आचार्य) कहते हैं - परिपूर्ण निर्मल केवल-ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाले अपने परमात्म-तत्त्व के, सम्यक-श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप अभेद-रत्नत्रय विकल्प-रहित समाधि (स्वरूप-लीनता) से उत्पन्न, रागादि उपाधि रहित उत्कृष्ट आनन्द एक लक्षण सुखरूपी अमृतरस सम्बन्धी स्वाद के अनुभव को, न पाता हुआ यह जीव, पूर्णिमा के दिन जल-लहरों से क्षुब्ध (चंचल) समुद्र के समान, राग-द्वेष-मोहरूपी लहरों द्वारा जब तक अपने स्वरूप में स्थिर न होने से क्षुब्ध (आकुलित) रहता है, तब तक अपने शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं करता है । वही, वीतराग-सर्वज्ञ प्रणीत उपदेश से एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त, मनुष्य उत्तम देश, उत्तम कुल, रूप इन्द्रिय-पटुता (कार्य करने में समर्थ इन्द्रियाँ), निरोगता, पर्याप्त आयु, श्रेष्ठ बुद्धि, सत्यधर्म का श्रवण-ग्रहण-धारण-श्रद्धान, संयम, विषयसुख से विरक्ति, क्रोधादि कषायों का विनाश- इत्यादि उत्तरोत्तर दुर्लभ दशाओं को भी कथंचित् 'काकतालीय न्याय' (सहज पुण्योदय) से प्राप्तकर, परिपूर्ण निर्मल केवल-ज्ञान-दर्शन स्वभावी अपने आत्म-तत्त्व के, सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-अनुचरणरूप अभेदरत्नत्रय स्वरूप विकल्परहित समाधि (स्वरूप-लीनता) से उत्पन्न, रागादि उपाधिरहित, उत्कृष्ट आनन्द एक लक्षण सुखरूपी अमृतरस सम्बन्धी स्वाद के अनुभव की प्राप्ति होने पर अमावस्या के दिन जल-लहरों के क्षोभ से रहित समुद्र के समान, राग-द्विष-मोहरूपी लहरों के क्षोभ से रहित प्रसंग में, जब अपने शुद्धात्म-स्वरूप में स्थिर होता है; तब वही जीव, अपने शुद्धात्मस्वरूप को प्राप्त होता है ॥

    इसप्रकार श्री 'जयसेनाचार्य' कृत 'तात्पर्त्यवृत्ति' में इसप्रकार पहले कहे गये क्रम से ['एस सुरासुर'] इत्यादि १०१ गाथाओं पर्यन्त 'सम्यग्ज्ञान अधिकार', तदुपरान्त ['तम्हा तत्स णमाइं'] इत्यादि ११३ गाथाओं पर्यन्त 'ज्ञेयाधिकार अपरनाम सम्यक्त्व अधिकार' और तत्पश्चात् ['एवं पणमिय सिद्धे'] इत्यादि ९७ गाथाओं पर्यन्त 'चारित्राधिकार' -- इसप्रकार तीन महाधिकारों द्वारा, ३११ गाथाओं रूप से प्रवचनसार-प्राभृत पूर्ण हुआ ।

    प्रवचनसार की यह तात्पर्यवृत्ति पूर्ण हुई ॥

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    परिशिष्ट



    + परिशिष्ट -
    परिशिष्ट

    अमृतचंद्राचार्य :
    'यह आत्मा कौन है (कैसा है) और कैसे प्राप्त किया जाता है' ऐसा प्रश्न किया जाय तो इसका उत्तर (पहले ही) कहा जा चुका है और (यहाँ) पुनः कहते हैं :-

    प्रथम तो, आत्मा वास्तव में चैतन्य-सामान्य से व्याप्त अनन्त धर्मों का अधिष्ठाता (स्वामी) एक द्रव्य है, क्योंकि अनन्त धर्मों में व्याप्त होनेवाले जो अनन्त नय हैं उनमें व्याप्त होनेवाला जो एक श्रुतज्ञान-स्वरूप प्रमाण है, उस प्रमाणपूर्वक स्वानुभव से (वह आत्म-द्रव्य) प्रमेय होता है (ज्ञात होता है)

    1. वह आत्मद्रव्य द्रव्यनय से, पटमात्र की भाँति, चिन्मात्र है (आत्मा द्रव्यनय से चैतन्यमात्र है, जैसे वस्त्र वस्त्रमात्र है तदनुसार)
    2. आत्मद्रव्य पर्यायनय से, तंतुमात्र की भाँति, दर्शन-ज्ञानादिमात्र है (अर्थात् आत्मापर्यायनय से दर्शन-ज्ञान-चारित्रादिमात्र है, जैसे वस्त्र तंतुमात्र है ।)
    3. आत्मद्रव्य अस्तित्वनय से स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्ववाला है; --
      • लोहमय (स्व-द्रव्य),
      • डोरी और धनुष के मध्य में स्थित (स्व-क्षेत्र),
      • संधानदशा में रहे हुए (स्व-काल) और
      • लक्ष्योन्मुख (स्व-भाव)
      बाण की भाँति । (जैसे कोई बाण स्व-द्रव्य से लोहमय है, स्वक्षेत्र से डोरी और धनुष के मध्य में स्थित है, स्वकाल से संधान-दशा में है, अर्थात् धनुष पर चढ़ाकर खेंची हुई दशा में है, और स्वभावसे लक्ष्योन्मुख है अर्थात् निशान की ओर है, उसीप्रकार आत्मा अस्तित्वनय से स्वचतुष्टय से अस्तित्ववाला है ।)
    4. आत्मद्रव्य नास्तित्वनय से पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से नास्तित्ववाला है; -
      • अलोहमय,
      • डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित,
      • संधानदशा में न रहे हुए और
      • अलक्ष्योन्मुख
      ऐसे पहले के बाण की भाँति । (जैसे पहले का बाण अन्य बाण के द्रव्य की अपेक्षा से अलोहमय है, अन्यबाण के क्षेत्र की अपेक्षा से डोरी और धनुष के मध्य में स्थित नहीं है, अन्य बाण के काल की अपेक्षा से संधानदशा में नहीं रहा हुआ और अन्य बाण के भाव की अपेक्षा से अलक्ष्योन्मुख है, उसीप्रकार आत्मा नास्तित्वनय से पर-चतुष्टय से नास्तित्ववाला है ।)
    5. आत्मद्रव्य अस्तित्वनास्तित्वनय से क्रमशः स्व-पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्व-नास्तित्ववाला है;
      • लोहमय तथा अलोहमय,
      • डोरी और धनुष के मध्य में स्थित तथा डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित,
      • संधान अवस्था में रहे हुए तथा संधान अवस्था में न रहे हुए और
      • लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख
      ऐसे पहले के बाण की भाँति । (जैसे पहले का बाण क्रमशः स्व-चतुष्टय की तथा पर-चतुष्टय की अपेक्षा से लोहमयादि और अलोहमयादि है, उसीप्रकार आत्मा अस्तित्व-नास्तित्वनय से क्रमशः स्व-चतुष्टय और पर-चतुष्टय की अपेक्षा से अस्तित्ववाला और नास्तित्ववाला है ।)
    6. आत्मद्रव्य अव्यक्तव्यनय से युगपत् स्व-पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अवक्तव्य है; --
      • लोहमय तथा अलोहमय,
      • डोरी और धनुष के मध्य में स्थित तथा डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित,
      • संधान अवस्था में रहे हुए तथा संधान अवस्था में न रहे हुए और
      • लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख
      ऐसे पहले की बाण की भाँति । (जैसे पहले का बाण युगपत् स्व-चतुष्टय की और पर-चतुष्टय की अपेक्षा से युगपत् लोहमयादि तथा अलोहमयादि होने से अवक्तव्य है, उसीप्रकार आत्मा अवक्तव्यनय से युगपत् स्व-चतुष्टय और पर-चतुष्टय की अपेक्षा से अवक्तव्य है ।)
    7. आत्मद्रव्य अस्तित्व-अवक्तव्य नय से स्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से तथा युगपत् स्व-पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्ववाला-अवक्तव्य है;
      • (स्वचतुष्टय से) लोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में स्थित, संधान अवस्था में रहे हुए और लक्ष्योन्मुख ऐसे तथा
      • (युगपत् स्व-पर चतुष्ट से) लोहमय तथा अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में स्थित तथा डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित, संधान अवस्था में रहे हुए तथा संधान अवस्था में न रहे हुए और लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख
      ऐसे पहले के बाण की भाँति । (जैसे पहले का बाण स्व-चतुष्टय से तथा एक ही साथ स्व-पर चतुष्टय की अपेक्षा से लोहमयादि तथा अवक्तव्य है, उसीप्रकार आत्मा अस्तित्वअवक्तव्यनय से स्व-चतुष्टय की तथा युगपत् स्व-पर चतुष्टय की अपेक्षा से अस्तित्ववाला तथा अवक्तव्य है ।)
    8. आत्मद्रव्य नास्तित्व-अवक्तव्यनय से पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से तथा युगपत् स्व-पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से नास्तित्ववाला-अवक्तव्य है; --
      • (पर-चतुष्टय से) अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित, संधान अवस्था में नहिं रहे हुए और अलक्ष्योन्मुख ऐसे तथा
      • (युगपत् स्व-पर-चतुष्टय से) लोहमय तथा अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में स्थित तथा डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित, संधान अवस्था में रहे हुए तथा संधान अवस्था में न रहे हुए और लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख
      ऐसे पहले के बाण की भाँति । (जैसे पहले का बाण पर-चतुष्टय की तथा एक ही साथ स्व-पर चतुष्टय की अपेक्षा से अलोहमयादि तथा अवक्तव्य है, उसीप्रकार आत्मा नास्तित्व-अवक्तव्यनय से पर-चतुष्टय की तथा युगपत् स्व-पर चतुष्टय की अपेक्षा से नास्तित्ववाला तथा अवक्तव्य है ।)
    9. आत्मद्रव्य अस्तित्व-नास्तित्व-अवक्तव्यनय से स्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से, पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से तथा युगपत् स्व-पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्ववाला-नास्तित्ववाला-अवक्तव्य है; --
      • (स्व-चतुष्टय से) लोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में स्थित, संधान अवस्था में रहे हुए और लक्ष्योन्मुख ऐसे,
      • (पर-चतुष्टय से) अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में नहीं स्थित, संधान अवस्था में न रहे हुए और अलक्ष्योन्मुख ऐसे तथा
      • (युगपत् स्व-पर-चतुष्टय से) लोहमय तथा अलोहमय, डोरी और धनुष के मध्य में स्थित तथा प्रत्यञ्चा और धनुष के मध्य में नहीं स्थित, संधान अवस्था में रहे हुए तथा संधान अवस्था में न रहे हुए और लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख
      ऐसे पहले के बाण की भाँति । (जैसे पहले का बाण स्व-चतुष्टय की, पर-चतुष्टय की तथा युगपत् स्व-पर-चतुष्टय की अपेक्षा से लोहमय, अलोहमय तथा अवक्तव्य है, उसीप्रकार आत्मा अस्तित्व-नास्तित्व-अवक्तव्यनय से स्व-चतुष्टय की, पर-चतुष्टय की तथा युगपत् स्व-पर चतुष्टय की अपेक्षा से अस्तित्ववाला, नास्तित्ववाला तथा अवक्तव्य है ।)
    10. आत्मद्रव्य विकल्पनय से, बालक, कुमार और वृद्ध ऐसे एक पुरुष की भाँति, सविकल्प है (आत्मा भेदनय से, भेद-सहित है, जैसे कि एक पुरुष बालक, कुमार और वृद्ध ऐसे भेदवाला है ।)
    11. आत्मद्रव्य अविकल्पनय से, एक पुरुषमात्र की भाँति, अविकल्प है (अभेदनय से आत्मा अभेद है, जैसे कि एक पुरुष बालक, कुमार और वृद्ध ऐसे भेद-रहित एक पुरुषमात्र है ।)
    12. आत्मद्रव्य नामनय से, नामवाले की भाँति, शब्दब्रह्म को स्पर्श करनेवाला है (आत्मा नामनय से शब्दब्रह्म से कहा जाता है, जैसे कि नामवाला पदार्थ उसके नामरूप शब्द से कहा जाता है ।)
    13. आत्मद्रव्य स्थापनानय से, मूर्तिपने की भाँति, सर्व पुद्गलों का अवलम्बन करनेवाला है(स्थापनानय से आत्मद्रव्य की पौद्गलिक स्थापना की जा सकती है, मूर्ति की भाँति)
    14. आत्मद्रव्य द्रव्यनय से बालक, सेठ की भाँति और श्रमण, राजा की भाँति, अनागत और अतीत पर्याय से प्रतिभासित होता है (आत्मा द्रव्यनय से भावी और भूत पर्यायरूप से ख्याल में आता है, जैसे कि बालक सेठपने स्वरूप भावी पर्यायरूप से ख्याल में आता है और मुनि राजास्वरूप भूत-पर्यायरूप से आता है ।)
    15. आत्मद्रव्य भावनय से, पुरुष के समान प्रवर्तमान स्त्री की भाँति, तत्काल (वर्तमान) की पर्यायरूप से उल्लसित / प्रकाशित / प्रतिभासित होता है (आत्मा भावनय से वर्तमानपर्यायरूप से प्रकाशित होता है, जैसे कि पुरुष के समान प्रवर्तमान स्त्री पुरुषत्वरूप पर्यायरूप से प्रतिभासित होती है ।)
    16. आत्मद्रव्य सामान्यनय से, हार / माला / कंठी के डोरे की भाँति, व्यापक है, (आत्मा सामान्यनय से सर्व पर्यायों में व्याप्त रहता है, जैसे मोती की माला का डोरा सारे मोतियों में व्याप्त होता है ।)
    17. आत्मद्रव्य विशेषनय से, उसके एक मोती की भाँति, अव्यापक है (आत्मा विशेषनय से अव्यापक है, जैसे पूर्वोक्त माला का एक मोती सारी माला में अव्यापक है ।)
    18. आत्मद्रव्य नित्यनय से, नट की भाँति, अवस्थायी है (आत्मा नित्यनय से नित्य / स्थायी है, जैसे राम-रावणरूप अनेक अनित्य स्वांग धारण करता हुआ भी नट तो वह का वही नित्य है ।)
    19. आत्मद्रव्य अनित्यनय से, राम-रावण की भाँति, अनवस्थायी है (आत्मा अनित्यनय से अनित्य है, जैसे नट के द्वारा धारण किये गये राम-रावणरूप स्वांग अनित्य है ।)
    20. आत्मद्रव्य सर्वगतनय से, खुली हुई आँख की भाँति, सर्ववर्ती (सब में व्याप्त होनेवाला) है
    21. आत्मद्रव्य असर्वगतनय से, मींची हुई (बन्द) आँख की भाँति, आत्मवर्ती (अपने में रहनेवाला) है ।
    22. आत्मद्रव्य शून्यनय से, शून्य (खाली) घर की भाँति, एकाकी (अमिलित) भासित होता है ।
    23. आत्मद्रव्य अशून्यनय से, लोगों से भरे हुए जहाज की भाँति, मिलित भासित होता है ।
    24. आत्मद्रव्य ज्ञानज्ञेय-अद्वैतनय से (ज्ञान और ज्ञेय के अद्वैतरूप नय से), महान-ईंधन-समूहरूप परिणत अग्नि की भाँति, एक है ।
    25. आत्मद्रव्य ज्ञान-ज्ञेय-द्वैतनय से, पर के प्रतिबिंबों से संपृक्त दर्पण की भाँति, अनेक है (आत्मा ज्ञान और ज्ञेय के द्वैतरूपनय से अनेक है, जैसे पर-प्रतिबिम्बों के संगवाला दर्पण अनेकरूप है ।)
    26. आत्मद्रव्य नियतिनय से नियत-स्वभावरूप भासित होता है, जिसकी उष्णता नियमित (नियत) होती है ऐसी अग्नि की भाँति । (आत्मा नियतिनय से नियत-स्वभाववाला भासित होता है जैसे अग्नि के उष्णता का नियम होने से अग्नि नियत-स्वभाववाली भासित होती है ।)
    27. आत्मद्रव्य अनियतिनय से अनियत-स्वभावरूप भासित होता है, जिसके उष्णता नियति (नियम) से नियमित नहीं है ऐसे पानी के भाँति । (आत्मा अनियतिनय से अनियत स्वभाववाला भासित होता है, जैसे पानी के (अग्नि के निमित्त से होनेवाली) उष्णता अनियत होने से पानी अनियत स्वभाववाला भासित होता है ।)
    28. आत्मद्रव्य स्वभावनय से संस्कार को निरर्थक करनेवाला है (आत्मा को स्वभावनय से संस्कार निरुपयोगी है), जिसकी किसी के नोक नहीं निकाली जाती (किन्तु जो स्वभाव से ही नुकीला है) ऐसे पैने काँटे की भाँति ।
    29. आत्मद्रव्य अस्वभावनय से संस्कार को सार्थक करनेवाला (आत्मा को अस्वभावनय से संस्कार उपयोगी है), जिसकी (स्वभाव से नोक नहीं होती, किन्तु) संस्कार करके लुहार के द्वारा नोक निकाली गई हो ऐसे पैने बाण की भाँति ।
    30. आत्मद्रव्य कालनय से जिसकी सिद्धि समयपर आधार रखती है ऐसा है, गर्मी के दिनों के अनुसार पकनेवाले आम्रफल की भाँति । (कालनय से आत्मद्रव्य की सिद्धि समय पर आधार रखती है, गर्मी के दिनों के अनुसार पकनेवाले आम की भाँति ।)
    31. आत्मद्रव्य अकालनय से जिसकी सिद्धि समयपर आधार नहीं रखती ऐसा है, कृत्रिमगर्मी से पकाये गये आम्रफल की भाँति ।
    32. आत्मद्रव्य पुरुषकारनय से जिसकी सिद्धि यत्नसाध्य है ऐसा है, जिसे पुरुषकार से नींबू का वृक्ष प्राप्त होता है (उगता है) ऐसे पुरुषकारवादी की भाँति । (पुरुषार्थनय से आत्मा की सिद्धि प्रयत्नसे होती है, जैसे किसी पुरुषार्थवादी मनुष्य को पुरुषार्थ से नीबू का वृक्ष प्राप्त होता है ।)
    33. आत्मद्रव्य दैवनय से जिसकी सिद्धि अयत्नसाध्य है (यत्न बिना होता है) ऐसा है;पुरुषकारवादी द्वारा प्रदत्त नींबू के वृक्ष के भीतर से जिसे (बिना यत्न के, दैव से) माणिक प्राप्त हो जाता है ऐसे दैववादी की भाँति ।
    34. आत्मद्रव्य ईश्वरनय से परतंत्रता भोगनेवाला है, धाय की दुकान पर दूध पिलाये जानेवाले राहगीर के बालक की भाँति ।
    35. आत्मद्रव्य अनीश्वरनय से स्वतंत्रता भोगनेवाला है, हिरन को स्वच्छन्दता (स्वतन्त्रता,स्वेच्छा) पूर्वक फाड़कर खा जानेवाले सिंह की भाँति ।
    36. आत्मद्रव्य गुणीनय से गुणग्राही है, शिक्षक के द्वारा जिसे शिक्षा दी जाती है ऐसे कुमार की भाँति ।
    37. आत्मद्रव्य अगुणीनय से केवल साक्षी ही है (गुणग्राही नहीं है), जिसे शिक्षक के द्वारा शिक्षा दी जा रही है ऐसे कुमार को देखनेवाले पुरुष (प्रेक्षक) की भाँति ।
    38. आत्मद्रव्य कर्तृनय से, रंगरेज की भाँति, रागादि परिणाम का कर्ता है (आत्माकर्तानय से रागादिपरिणामों का कर्ता है, जैसे रंगरेज रंगने के कार्य का कर्ता है ।)
    39. आत्मद्रव्य अकर्तृनय से केवल साक्षी ही है (कर्ता नहीं), अपने कार्य में प्रवृत्त रंगरेज को देखनेवाले पुरुष (प्रेक्षक) की भाँति ।
    40. आत्मद्रव्य भोक्तृनय से सुख-दुःखादि का भोक्ता है, हितकारी / अहितकारी अन्न को खानेवाले रोगी की भाँति । (आत्मा भोक्तानय से सुख-दुःखादि को भोगता है, जैसे हितकारक या अहितकारक अन्न को खानेवाला रोगी सुख या दुःख को भोगता है ।)
    41. आत्मद्रव्य अभोक्तृनय से केवल साक्षी ही है, हितकारी / अहितकारी अन्न को खानेवाले रोगी को देखनेवाले वैद्य की भाँति । (आत्मा अभोक्तानय से केवल साक्षी ही है - भोक्ता नहीं; जैसे सुख-दुःख को भोगनेवाले रोगी को देखनेवाला वैद्य वह तो केवल साक्षी ही है । )
    42. आत्मद्रव्य क्रियानय से अनुष्ठान की प्रधानता से सिद्धि सधे ऐसा है, खम्भे से सिर फूट जाने पर दृष्टि उत्पन्न होकर जिसे निधान प्राप्त हो जाय ऐसे अंध की भाँति । (क्रियानय से आत्मा अनुष्ठान की प्रधानता से सिद्धि हो ऐसा है; जैसे किसी अंध-पुरुष को पत्थर के खम्भे के साथ सिर फोड़ने से सिर के रक्त का विकार दूर होने से आँखे खुल जायें और निधान प्राप्त हो, उस प्रकार ।)
    43. आत्मद्रव्य ज्ञाननय से विवेक की प्रधानता से सिद्धि सधे ऐसा है; मुट्ठीभर चने देकरचिंतामणि-रत्न खरीदनेवाले घर के कोने में बैठे हुए व्यापारी की भाँति । (ज्ञाननय से आत्मा को विवेक की प्रधानतासे सिद्धि होती है, जैसे घर के कोने में बैठा हुआ व्यापारी मुट्ठीभर चना देकर चिंतामणि-रत्न खरीद लेता है, उस प्रकार । )
    44. आत्मद्रव्य व्यवहारनय से बंध और मोक्ष में द्वैत का अनुसरण करनेवाला बंधक है, (बंधकरनेवाले) और मोचक (मुक्त करनेवाले) ऐसे अन्य परमाणु के साथ संयुक्त होनेवाले और उससे वियुक्त होनेवाले परमाणु की भाँति । (व्यवहारनय से आत्मा बंध और मोक्ष में, पुद्गल के साथ, द्वैतको प्राप्त होता है, जैसे परमाणु के बंध में वह परमाणु अन्य परमाणु के साथ संयोग को पानेरूप द्वैत को प्राप्त होता है और परमाणु के मोक्ष में वह परमाणु अन्य परमाणु से पृथक् होनेरूप द्वैत को पाता है, उस प्रकार । )
    45. आत्मद्रव्य निश्चयनय से बंध और मोक्ष में अद्वैत का अनुसरण करनेवाला है, अकेले बध्यमानऔर मुच्यमान ऐसे बंध-मोक्षोचित्त स्निग्धत्व-रूक्षत्व-गुणरूप परिणत परमाणु की भाँति । (निश्चयनय से आत्मा अकेला ही बद्ध और मुक्त होता है, जैसे बंध और मोक्ष के योग्य स्निग्ध या रूक्षत्वगुणरूप परिणमित होता हुआ परमाणु अकेला ही बद्ध और मुक्त होता है, उस प्रकार । )
    46. आत्मद्रव्य अशुद्धनय से, घट और रामपात्र से विशिष्ट मिट्टी मात्र की भाँति, सोपाधि-स्वभाववाला है ।
    47. आत्मद्रव्य शुद्धनय से, केवल मिट्टी-मात्र की भाँति, निरुपाधि-स्वभाववाला है ।
    इसलिये कहा है :-

    जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति णयवादा ।
    जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया ॥
    परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होदि सव्वहा वयणा ।
    जइणाणं पुण वयणं सम्मं खु कहंचि वयणादो ॥गो. क. 894/1073॥

    जितने वचनपंथ हैं उतने वास्तव में नयवाद हैं; और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय (पर मत) हैं । परसमयों (मिथ्यामतियों) का वचन सर्वथा (अपेक्षा बिना) कहा जाने के कारण वास्तव में मिथ्या है; और जैनों का वचन कथंचित् (अपेक्षा सहित) कहा जाता है इसलिये वास्तव में सम्यक् है ।

    इसप्रकार इस (उपरोक्त) सूचनानुसार (अर्थात् ४७ नयों में समझाया है उस विधि से) (जैसे -- एक समय नदी के जल को जाननेवाले ज्ञानांश से देखा जाय तो समुद्र एक नदी के जल-स्वरूप ज्ञात होता है, उसीप्रकार एक समय एक धर्म को जाननेवाले एक नय से देखा जाय तो आत्मा एक धर्म स्वरूप ज्ञात होता है; परन्तु जैसे एक ही साथ सर्व नदियों के जल को जाननेवाले ज्ञान से देखा जाय तो समुद्र सर्व नदियों के जल-स्वरूप ज्ञात होता है, उसीप्रकार एक ही साथ सर्वधर्मों को जाननेवाले प्रमाण से देखा जाय तो आत्मा अनेक धर्मस्वरूप ज्ञात होता है । इसप्रकार एक नय से देखने पर आत्मा एकान्तात्मक है और प्रमाण से देखने पर अनेकान्तात्मक है ।) अब इसी आशय को काव्य द्वारा कहकर 'आत्मा कैसा है' इस विषय का कथन समाप्त किया जाता है :-

    (दोहा)
    स्याद्वादमय नय प्रमाण से दिखे न कुछ भी अन्य ।
    अनंत धर्ममय आत्म में दिखे एक चैतन्य ॥१९॥

    इसप्रकार स्यात्कारश्री (स्यात्काररूपी लक्ष्मी) के निवास के वशीभूत वर्तते नय-समूहों से (जीव) देखें तो भी और प्रमाण से देखें तो भी स्पष्ट अनन्त धर्मोंवाले निज-आत्मद्रव्य को भीतर में शुद्ध-चैतन्यमात्र देखते ही हैं ।

    इसप्रकार आत्मद्रव्य कहा गया । अब उसकी प्राप्ति का प्रकार कहा जाता है :-

    प्रथम तो, अनादि पौद्गलिक कर्म जिसका निमित्त है ऐसी मोहभावना के (मोह के अनुभव के) प्रभाव से आत्म-परिणति सदा चक्कर खाती है, इसलिये यह आत्मा समुद्र की भाँति अपने में ही क्षुब्ध होता हुआ क्रमशः प्रवर्तमान अनन्त ज्ञप्ति-व्यक्तियों से परिवर्तन को प्राप्त होता है, इसलिये ज्ञप्ति-व्यक्तियों के निमित्तरूप होने से जो ज्ञेयभूत हैं ऐसी बाह्य-पदार्थ-व्यक्तियों के प्रति उसकी मैत्री प्रवर्तती है, इसलिये आत्म-विवेक शिथिल हुआ होने से अत्यन्त बहिर्मुख ऐसा वह पुनः पौद्गलिक कर्म के रचयिता राग-द्वेष द्वैतरूप परिणमित होता है और इसलिये उसके आत्म-प्राप्ति दूर ही है । परन्तु अब जब यही आत्मा प्रचण्ड कर्मकाण्ड द्वारा अखण्ड ज्ञान-कांड को प्रचंड करने से अनादि - पौद्गलिक-कर्मरचित मोह को वध्य-घातक के विभागज्ञान पूर्वक विभक्त करने से (स्वयं) केवल आत्मभावना के (आत्मानुभव के) प्रभाव से परिणति निश्चल की होने से समुद्र की भाँति अपने में ही अति-निष्कंप रहता हुआ एक साथ ही अनन्त ज्ञप्ति-व्यक्तियों में व्याप्त होकर अवकाश के अभाव के कारण सर्वथा विवर्तन (परिवर्तन) को प्राप्त नहीं होता, तब ज्ञप्ति-व्यक्तियों के निमित्तरूप होने से जो ज्ञेयभूत हैं ऐसी बाह्य-पदार्थव्यक्तियों के प्रति उसे वास्तव में मैत्री नहीं प्रवर्तती और इसलिये आत्म-विवेक सुप्रतिष्ठित (सुस्थित) हुआ होने के कारण अत्यन्त अन्तर्मुख हुआ ऐसा यह आत्मा पौद्गलिक कर्मों के रचयिता राग-द्वेष द्वैतरूप परिणति से दूर होता हुआ पूर्व में अनुभव नहीं किये गये अपूर्व ज्ञानानन्द-स्वभावी भगवान् आत्मा को आत्यंतिक रूप से ही प्राप्त करता है । जगत भी ज्ञानानन्दात्मक परमात्मा को अवश्य प्राप्त करो ।

    यहाँ श्लोक भी है :-

    (हरिगीत)
    आनन्द अमृतपूर से भरपूर जो बहती हुई ।
    अरे केवलज्ञान रूपी नदी में डूबा हुआ ॥
    जो इष्ट है स्पष्ट है उल्लसित है निज आतमा ।
    स्याद्चिह्नित जिनेन्द्र शासन से उसे पहिचान लो ॥२०॥

    आनन्दामृत के पूर से भरपूर बहती हुई कैवल्य-सरिता में (मुक्तिरूपी नदी में) जो डूबा हुआ है, जगत को देखने में समर्थ ऐसी महासंवेदनरूपी श्री (महाज्ञानरूपी लक्ष्मी) जिसमें मुख्य है, जो उत्तम रत्न-किरण की भाँति स्पष्ट है और जो इष्ट है ऐसे उल्लसित (प्रकाशमान, आनन्दमय) स्वतत्त्व को जन स्यात्कार लक्षण जिनेश शासन के वश से प्राप्त हों । ('स्यात्कार' जिसका चिह्न है ऐसे जिनेन्द्रभगवान के शासन का आश्रय लेकर के प्राप्त करो ।)

    (हरिगीत)
    वाणिगुंफन व्याख्या व्याख्येय सारा जगत है ।
    और अमृतचन्द्रसूरि व्याख्याता कहे हैं ॥
    इसतरह कह मोह में मत नाचना हे भव्यजन! ।
    स्याद् विद्याबल से निज पा निराकुल होकर नचो ॥२१॥

    वास्तव में पुद्गल ही स्वयं शब्दरूप परिणमित होते हैं, आत्मा उन्हें परिणमित नहीं कर सकता, तथा वास्तव में सर्व पदार्थ ही स्वयं ज्ञेयरूप – प्रमेयरूप परिणमित होते हैं, शब्द उन्हें ज्ञेय बना - समझा नहीं सकते इसलिये 'आत्मा सहित विश्व वह व्याख्येय (समझाने योग्य) है, वाणी का गुंथन वह व्याख्या है और अमृतचन्द्रसूरि वे व्याख्याता हैं, इसप्रकार जन मोह से मत नाचो (मत फूलो) (किन्तु) स्याद्वादविद्याबल से विशुद्ध ज्ञान की कला द्वारा इस एक समस्त शाश्वत स्व-तत्त्व को प्राप्त करके आज (जन) अव्याकुलरूप से नाचो (परमानन्दपरिणामरूप परिणत होओ ।)

    (हरिगीत)
    चैतन्य का गुणगान तो उतना ही कम जितना करो ।
    थोड़ा-बहुत जो कहा वह सब स्वयं स्वाहा हो गया ॥
    निज आत्मा को छोड़कर इस जगत में कुछ अन्य ना ।
    इक वही उत्तम तत्त्व है भवि उसी का अनुभव करो ॥२२॥

    इसप्रकार (इस परमागम में) अमन्दरूप से (बलपूर्वक, जोरशोर से) जो थोड़ा-बहुत तत्त्व कहा गया है, वह सब चैतन्य में वास्तव में अग्नि में होमी गई वस्तु के समान (स्वाहा) हो गया है । (अग्नि में होमे गये घी को अग्नि खा जाती है, मानो कुछ होमा ही न गया हो ! इसीप्रकार अनन्त माहात्म्यवन्त चैतन्य का चाहे जितना वर्णन किया जाय तथापि मानो उस समस्त वर्णन को अनन्त महिमावान चैतन्य खा जाता है; चैतन्य की अनन्त महिमा के निकट सारा वर्णन मानो वर्णन ही न हुआ हो इस प्रकार तुच्छता को प्राप्त होता है ।) उस चैतन्य को ही चैतन्य आज प्रबलता / उग्रता से अनुभव करो (अर्थात् उस चित्स्वरूप आत्मा को ही आत्मा आज अत्यन्त अनुभवो ) क्योंकि इस लोक में दूसरा कुछ भी (उत्तम) नहीं है, चैतन्य ही परम (उत्तम) तत्त्व है ।

    इस प्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री प्रवचनसार शास्त्र की श्रीमद्-अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित) तत्त्वदीपिका नामक संस्कृत टीका के अनुवाद का हिन्दी रूपान्तर समाप्त हुआ ।

    जयसेनाचार्य :
    अज्ञानतमसा लिप्तो मार्गो रत्नत्रयात्मकः ।
    तत्प्रकाशसमर्थाय नमोऽस्तु कुमुदेन्दवे ॥1॥

    अज्ञानरूपी अन्धकार से यह रत्नत्रयमय मोक्षामार्ग लिप्त हो रहा है उसके प्रकाश करने को समर्थ श्री कुमुदचन्द्र या पद्मचन्द्र मुनि को नमस्कार हो ॥1॥

    सूरिः श्री वीरसेनाख्यो मूलसंघेऽपि सत्तपाः ।
    नैर्ग्रन्थ्यपदवीं भेजे जातरूपधरोऽपि यः ॥2॥

    इस मूलसंघ में भी, परम तपस्वी श्री वीरसेन नामक आचार्य हुए हैं, जो निर्ग्रन्थ पदवी के धारी जातरूपधर -- दिगंबर भी थे ।

    ततः श्री सोमसेनोऽभूद्गणी गुणगणाश्रयः ।
    तद्विनेयोस्ति यस्तस्मै जयसेनतपोभृते ॥3॥

    उनके शिष्य अनेक गुणों के धारी आचार्य श्री सोमसेन हुए। उनका शिष्य यह जयसेन तपस्वी हुआ।

    शीघ्रं बभूव मालु साधुः सदा धर्मरतो वदान्यः ।
    सूनुस्ततः साधुमहीपतिर्यस्तस्मादयं चारुभटस्तनूजः ॥4॥
    यः संततं सर्वविदा: सपर्यामार्यक्रमाराधनया करोति ।
    स श्रेयसे प्राभृतनामग्रन्थपुष्टात् पितुर्भक्तिविलोपभीरुः ॥5॥

    सदा धर्म में रत प्रसिद्ध मालु साधु नाम के हुए हैं । उनका पुत्र साधु महीपति हुआ है, उससे यह चारुभट नाम का पुत्र उपजा है, जो सर्वज्ञान प्राप्त कर सदा आचार्यों के चरणों की आराधना पूर्वक सेवा करता है, उस चारुभट अर्थात जयसेनाचार्य ने जो अपने पिता को भक्ति के विलोप करने से भयभीत था इस प्रवचन-प्राभृत नाम ग्रन्थ की टीका की है।

    श्रीमन्त्रिभुवनचंद्रं निजमतवाराशितायना चन्द्रम् ।
    प्रणमामि कामनामप्रबलमहापर्वतैकशतधारम् ॥6॥

    श्रीमान् त्रिभुवनचन्द्र गुरु को नमस्कार करता हूँ, जो आत्मा के भावरूपी जल को बढ़ाने के लिये चन्द्रमा के तुल्य हैं और कामदेव नामक प्रबल महापर्वत के सैकड़ों टुकड़े करने वाले हैं।

    जगत्समस्तसंसारिजीवाकारणबन्धवे ।
    सिंधवे गुणरत्नानां नमत्रिभुवनेन्दवे ॥7॥

    मैं श्री त्रिभुवनचन्द्र को नमस्कार करता हूँ जो जगत् के सब संसारी जीवों के निष्कारण बन्धु हैं और गुण रूपी रत्नों के समुद्र हैं ।

    त्रिभुवनचंद्रं चंद्रं नौमि महासंयमोत्तमं शिरसा ।
    यस्योदयेन जगतां स्वान्ततमोराशिकृन्तनं कुरुते ॥8॥

    फिर मैं महासंयम के पालने में श्रेष्ठ चन्द्रमा-तुल्य श्री त्रिभुवनचन्द्र को नमस्कार करता हूँ जिसके उदय से जगत के प्राणियों के अन्तरंग का अन्धकार समूह नष्ट हो जाता है।

    ॥इति प्रशस्ति॥

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