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Date : 17-Nov-2022
Index
!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!
आचार्य-पूज्यपाद-प्रणीत
श्री
समाधितन्त्र
मूल संस्कृत गाथा, श्री प्रभाचंद्र आचार्य द्वारा कृत संस्कृत टीका का हिंदी अनुवाद पं देवेन्द्रकुमार बिजौलियां वाले, श्री क्षु. मनोहर वर्णी द्वारा कृत हिंदी टीका सहित
आभार :
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!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!
ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥
॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥
सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्री-समाधितंत्र नामधेयं, अस्य मूल-ग्रन्थकर्तार: श्री-सर्वज्ञ-देवास्तदुत्तर-ग्रन्थ-कर्तार: श्री-गणधर-देवा: प्रति-गणधर-देवास्तेषां वचनानुसार-मासाद्य आचार्य श्री-पूज्यपाद-देव विरचितं ॥
॥ श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ॥
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येनात्माऽबुध्यतात्मैव परत्वेनैव चापरम्
अक्षयानन्तबोधाय तस्मै सिद्धात्मने नम: ॥1॥
नमूँ सिद्ध परमात्म को, अक्षय बोध स्वरूप
जिन ने आत्मा आत्ममय, पर जाना पररूप ॥१॥
अन्वयार्थ : [येन] जिसके द्वारा [आत्मा] आत्मा, [आत्मा एव] आत्मारूप से ही [अबुद्धयत] जाना गया है [च] और [अपर] अन्य को-कर्मजनित मनुष्यादिपर्यायरूप पुद्गल को [परत्वेन एव] पररूप से ही [अबुद्धयत] जाना गया है, [तस्मै] उस [अक्षयानन्तबोधाय] अविनाशी अनन्तज्ञानस्वरूप [सिद्धात्मने] सिद्धात्मा को [नम:] नमस्कार हो ॥१॥
प्रभाचन्द्र :
यहाँ पूर्वार्ध से मोक्ष का उपाय और उत्तरार्ध से मोक्ष का स्वरूप दर्शाया गया है । सिद्धात्मा को, अर्थात् सिद्धपरमेष्ठी को-सिद्ध, अर्थात् सर्व कर्मों से सम्पूर्णपने ( अत्यन्त) मुक्त - ऐसे आत्मा को नमस्कार हो ।
जिन्होंने क्या किया? जाना । किसको? आत्मा को । किस प्रकार (जाना)? आत्मारूप से ही । तात्पर्य यह है कि जिन सिद्धात्माओ ने यहाँ आत्मा को, आत्मारूप ही, अर्थात् अध्यात्मरूप से ही जाना, उसे शारीरिक या कर्मोपादित सुर-नर-नारक-तिर्यंचादि जीव पर्यायादिरूप नहीं जाना तथा (जिन्होंने) अन्य को, अर्थात् शरीरादिक व कर्मजनित मनुष्यादिक जीव पर्यायों को परो क्षरूप से, अर्थात् आत्मा से भिलरूप ही जाना ।
कैसे उन्हें (नमस्कार) अक्षय - अनन्त बोधवाले - अक्षय, अर्थात् अविनश्वर और अनन्तर, अर्थात् देशकाल से अनविछिल - ऐसे समस्त पदार्थों के परिच्छेदक, अर्थात् ज्ञानवाले; उनको ( नमस्कार) - इस प्रकार के ज्ञान, अनन्त दर्शन, सुख, वीर्य के सा थ अविनाभावीपने की सामर्थ्य के कारण, वे अनन्त चतुष्टयरूप हैं - ऐसा बोध होता है ।
शंका – इष्टदेवता विशेष, पच्च परमेष्ठी होने पर भी, यहाँ कथकर्ता ने सिद्धात्मा को ही क्यों नमस्कार किया?
समाधान – कथकर्ता, व्याख्याता, श्रोता और अनुष्ठाताओं को सिद्धस्वरूप की प्राप्ति का प्रयोजन होने से, (उनने वैसा किया है ।) जो जिसकी प्राप्ति का अर्थी होता है वह उसे नमस्कार करता है; जैसे, धनुर्विद्या प्राप्ति का अर्थी, धनुर्वेदी को नमस्कार करता है, वैसे ही । इस कारण सिद्धस्वरूप की प्राप्ति के अ र्थी, समाधिशतक शास्त्र के कर्ता, व्याख्याता, श्रोता और उसके अर्थ के अनुष्ठाता आत्मा विशेष - (ये सभी) सिद्धात्मा को नमस्कार करते हैं ॥१॥
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जयन्ति यस्यावदतोऽपि भारती-
विभूतयस्तीर्थकृतोप्यनीहितुः ।
शिवाय धात्रे सुगताय विष्णवे
जिनाय तस्मै सकलात्मने नमः ॥2॥
बिन अक्षर इच्छा वचन, सुखद जगत् विख्यात ।
धारक ब्रह्मा विष्णु बुध, शिव जिन सो ही आप्त ॥२॥
अन्वयार्थ : [यस्य तीर्थकृत अनीहितु अपि] जिस तीर्थङ्कर की बिना इच्छा के, [अवदत अपि] बिना बोले भी, [भारती विभूतयः] दिव्यध्वनि की विभूति [जयन्ति] जयवन्त वर्तती है, [तस्मै शिवाय] उस शिव, [धात्रे सुगताय विष्णवे] ब्रह्मा, बुद्ध, विष्णु, [जिनाय] जितेन्द्रिय और [सकलात्मने] शरीर सहित परमात्मा के लिए [नम:] नमस्कार हो ।
प्रभाचन्द्र :
जिन भगवान की जयवन्त वर्तती है, अर्थात् सर्वोत्कृष्टरूप से वर्तती है । क्या (जयवन्त वर्तती है)? भारती की विभूतियाँ । भारती की, अर्थात् वाणी की; और विभूतियाँ अर्थात् सर्व आत्माओं के हित का उपदेश देना - इत्यादिरूप सम्पदाएँ ( जयवन्त वर्तती हैं) । कैसे होते हुए (उनकी वाणी की विश्रइतयाँ) जयवन्त वर्तती हैं? नहीं बोलते होने पर भी, अर्थात् तालु-ओष्ठ के संपुटरूप (संयोगसम) व्यापार द्वारा वचनोच्चार किये बिना भी (उनकी वाणी प्रवर्तती है) । तथा कहा है कि - यत्सर्वात्महितं.....
जो सर्व आत्माओं को हितरूप है, वर्णरहित निर क्षरी है; दोनों ओष्ठ के परिस्पन्दन- हलन-चलनरूप -व्यापार से रहित है; किसी दोष से मलिन नहीं है; उसके (उच्चारण में) श्वास का कम्पन नहीं होने से अक्रम (एक साथ) है और जिसे शान्त तथा क्रोधरूपी विष से रहित (मुनिगण) के साथ, पशुगण ने भी कर्ण द्वारा (अपनी भाषा में) सुनी है, वह दु:खविनाशक सर्वज्ञ की अपूर्व वाणी हमारी रक्षा करो ।
अथवा 'भारती विभूतयः' का अर्थ 'भारती, अर्थात् वाणी और विभूतियाँ? अर्थात् तीन छत्रादि ' - ऐसा भी होता है ।
तथा कैसे भगवान की? तीर्थ के कर्ता होने पर भी इच्छारहित की । इच्छा, अर्थात् वाँछा, जो मोहनीयकर्म का कार्य है, उस कर्म का भगवान को क्षय होने से, उनके उसका (वाँछा का) असद्भाव (अभाव) है; अत: वे इच्छारहित होने पर भी-वे करने की इच्छारहित होने पर भी 'तीर्थकृत' हैं, अर्थात् संसार से तारने के (पार करने के) कारणभूतपने के कारण, तीर्थ समान, अर्थात् तीर्थ आगम, उसके करनेवाले हैं - उनकी वाणी जयवन्त वर्तती है ।
कैसे नामवाले उन्हें (नमस्कार)? सकलात्मा को, शिव को । शिव, अर्थात् परमसुख, परमकल्याण और जो निर्वाण कहा जाता है, वह जिन्होंने प्राप्त किया - ऐसे को, 'धाता' को
- असि-मसि-कृषि आदि द्वारा सन्मार्ग के उपदेशक होने के कारण, जो सकल लोक के अभ्युद्धारक (तारणहार) हैं, उनको, 'सुगत' को - श्रेष्ठ है गत, अर्थात् ज्ञान जिनका अथवा जो भले प्रकार अपुनरावर्त्य गति को (मोक्ष को) प्राप्त हुए है, उनको, अथवा सम्पूर्ण या अनन्तचतुष्टय को जिन्होंने प्राप्त किया है - ऐसे सुगत को, 'विष्णु' को - जो केवलज्ञान द्वारा अशेष (समस्त) वस्तुओं में व्यापक हैं - ऐसे को, 'जिन' को - अनेक भवरूपी अरण्य (वन) को प्राप्त कराने के कारणभूत कर्मशत्रुओं को जिन्होंने जीता है उन जिन को - ऐसे सकलात्मा को - कल, अर्थात् शरीरसहित जो वर्तते हैं, वे सकल; और सकल, अर्थात् सशरीर आत्मा, वह 'सकलात्मा' उनको नमस्कार हो ॥२॥
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श्रुतेन लिङ्गेन यथात्मशक्ति समाहितान्त:करणेन सम्यक्
समीक्ष्य कैवल्यसुखस्पृहाणां विविक्तमात्मानमथाभिधास्ये ॥3॥
चहें अतीन्द्रिय सुख उन्हें, आत्मा शुद्ध स्वरूप ।
श्रुत अनुभव अनुमान से, कहूँ शक्ति अनुरूप ॥३॥
अन्वयार्थ : [अथ] अब [अहं] मैं [विविक्त आत्मानं] कर्ममल-रहित आत्मा के शुद्धस्वरूप को [श्रुतेन] शास्त्र के द्वारा [लिगेन] अनुमान व हेतु के द्वारा [समाहितान्तकरणेन] एकाग्र मन के द्वारा [सम्यक् समीक्ष्म] अच्छी तरह अनुभव करके [कैवल्य-सुखस्पृहाणां] कैवल्यपद- विषयक अथवा निर्मल अतीन्द्रिय-सुख की इच्छा रखनेवालों के लिए [यथात्म-शक्ति] अपनी शक्ति के अनुसार [अभिधास्ये] कहूँगा ।
प्रभाचन्द्र :
अब, इष्टदेवता को नमस्कार करने के पश्चात् मैं कहूँगा । क्या ? विविक्त आत्मा को, अर्थात् कर्ममलरहित जीवस्वरूप को । किस रीति से कहूँगा ? यथाशक्ति - आत्मशक्ति का उल्लंघन किये बिना । क्या करके (कहूँगा) ? समीक्षा करके, अर्थात् वैसे आत्मा को (विविक्त आत्मा को) सम्यक् प्रकार जानकर (कहूँगा) । किस द्वारा (किस साधन द्वारा) ? श्रुत द्वारा -
ज्ञान-दर्शनलक्षणवाला शाश्वत एक आत्मा मेरा है; अन्य सब संयोग लक्षणवाले भाव, मुझसे बाह्य हैं ।
इत्यादि आगम द्वारा तथा लिङ्ग (अर्थात् हेतु) द्वारा (कहूँगा), वह इस प्रकार -
शरीरादि आत्मा से भिन्न हैं, क्योंकि वे भिन्न लक्षणों से लक्षित हैं । जो भिन्न लक्षणों से लक्षित हैं, वे दोनों (एक-दूसरे से) भिन्न हैं; जैसे - जल और अग्नि (एक-दूसरे से) भिन्न हैं; वैसे ही आत्मा और शरीर (दोनों) भिन्न लक्षणों से लक्षित हैं और दोनों का भिन्न लक्षणों से लक्षितपना अप्रसिद्ध नहीं (अर्थात् प्रसिद्ध है), क्योंकि आत्मा उपयोगस्वरूप से उपलक्षित है और शरीरादिक उससे विपरीत लक्षणवाले हैं ।
समाहित अन्तःकरण से -- समाहित अर्थात् एकाग्र हुए और अन्तःकरण, अर्थात् मन; एकाग्र हुए मन द्वारा, सम्यक् प्रकार से समीक्षा करके- (विविक्त आत्मा को) जान करके - अनुभव करके (कहूँगा) - ऐसा अर्थ है । मैं किसको उस प्रकार के आत्मा को कहूँगा? कैवल्य सुख की स्पृहावालों को । केवल, अर्थात् सकल कर्मों से रहित होने पर, जो सुख (उपजता है), उसकी स्पृहा (अभिलाषा) करनेवालों को (कहूँगा) । कैवल्य, अर्थात् विषयों से उत्पन्न नहीं हुए - ऐसे सुख की अथवा कैवल्य और सुख की स्पृहावालों को (कहूँगा) ॥३॥
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बहिरन्त: परश्चेति त्रिधात्मा सर्वदेहिषु
उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाद् बहिस्त्यजेत् ॥4॥
त्रिविधिरूप सब आतमा, बहिरात्मा पद छेद ।
अन्तरात्मा होयकर, परमातम पद वेद ॥४॥
अन्वयार्थ : [सर्वदेहिषु] सर्व प्राणियों में [बहि:] बहिरात्मा [अन्त:] अन्तरात्मा [च पर:] और परमात्मा, [इति] इस तरह [त्रिधा] तीन प्रकार का [आत्मा] आत्मा [अस्ति] है [तंत्र] उनमें से [मध्योपायात्] अन्तरात्मा के उपाय द्वारा, [परमं] परमात्मा को [उपेयात्] अङ्गीकार करना चाहिए और [बहि:] बहिरात्मा को [त्यजेत्] छोडना चाहिए ।
प्रभाचन्द्र :
बहि: अर्थात् बहिरात्मा, अंत: अर्थात् अन्तरात्मा, और पर: अर्थात् परमात्मा - इस प्रकार त्रिधा, अर्थात् तीन प्रकार का आत्मा है । ये (प्रकार- भेद) किसमें हैं ? सर्व देहियों में - समस्त प्राणियों में ।
शंका – अभव्यों में बहिरात्मपना ही सम्भव होने से, सर्व देहियों (प्राणियों) में तीन प्रकार का आत्मा है - ऐसा किस प्रकार हो सकता है?
समाधान – ऐसा कहना भी योग्य नहीं, क्योंकि वहाँ भी (अभव्य में भी) द्रव्यरूपपने से, तीनों प्रकार के आत्मा का सद्भाव घटित होता है ।
शंका – वहाँ पाँच ज्ञानावरण (कर्मों) की उपपत्ति किस प्रकार घट सकती है?
समाधान – केवलज्ञानादि के प्रगट होनेरूप सामग्री ही उसके होनी नहीं है इस कारण उसमें अभव्यपना है; न कि तद्योग्य द्रव्य के अभाव से (अभव्यपना है) अथवा भव्यराशि की अपेक्षा से सर्व देहियों का ग्रहण समझना । आसन्न भव्य, दूर भव्य, दूरतर भव्य तथा अभव्य जैसे भव्यों में -- सर्व में तीन प्रकार का आत्मा है ।
शंका – तो सर्वज्ञ में परमात्मा का ही सद्भाव होने से और (उनमें) बहिरात्मा तथा अन्तरात्मा का असद्भाव होने से, उसमें (सिद्ध में) तीन प्रकार के आत्मा का विरोध आयेगा?
समाधान – ऐसा कहना भी योग्य नहीं है क्योंकि भूतपूर्व प्रज्ञापन-नय की अपेक्षा से, उनमें घृतघटवत् उस विरोध की असिद्धि है (उसमें विरोध नहीं आता) । जो सर्वज्ञ अवस्था में परमात्मा हुए वे भी पूर्व में बहिरात्मा तथा अन्तरात्मा थे ।
घृतघट की तरह भूत- भावी प्रज्ञापननय की अपेक्षा से अन्तरात्मा को भी बहिरात्मपना और परमात्मपना समझना ।
इन तीनों में से किसका, किस द्वारा ग्रहण करना या किसका त्याग करना? वह कहते हैं । ग्रहण करना, अर्थात् उसमें उन तीन प्रकार के आत्माओं में से, परमात्मपने का स्वीकार (ग्रहण) करना । किस प्रकार ? मध्य उपाय से मध्य, अर्थात् अन्तरात्मा, वही उपाय है; उस द्वारा (परमात्मा का ग्रहण करना) तथा मध्य (अन्तरात्मारूप) उपाय से ही, बहिरात्मपने का त्याग करना ॥ ४॥
वहाँ बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा - प्रत्येक का स्वरूप कहते हैं : -
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बहिरात्मा शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिरान्तर:
चित्तदोषात्मविभ्रान्ति:, परमात्माऽतिनिर्मल: ॥5॥
बहिरातम भ्रम वश गिने, आत्मा तन इक रूप ।
अन्तरात्म मल शोधता, परमात्मा मल मुक्त ॥५॥
अन्वयार्थ : [शरीरादौ जातात्मभ्रान्ति बहिरात्मा] शरीरादिक में आत्म-भ्रान्ति को धरनेवाला बहिरात्मा है; [चित्तदोषात्मविभ्रान्ति आन्तर:] चित्त के, दोषों के और आत्मा के विषय में अभ्रान्त रहनेवाला अन्तरात्मा कहलाता है; [अतिनिर्मल परमात्मा:] जो अत्यन्त निर्मल है, वह परमात्मा है ।
प्रभाचन्द्र :
शरीर आदि में - शरीर में और 'आदि' शब्द से वाणी तथा मन का ही ग्रहण समझना; उनमें जिसे 'आत्मा' - ऐसी भ्रान्ति उत्पन्न हुई है, वह बहिरात्मा है । अन्तर्भव अथवा अंतरे भव, वह आन्तर, अर्थात् अन्तरात्मा । वह
(अन्तरात्मा) कैसा है? वह चित्त, दोष और आत्मा सम्बन्धी भ्रान्ति-रहित है ।
- चित्त, अर्थात् विकल्प;
- दोष, अर्थात् रागादि और
- आत्मा, अर्थात् शुद्धचेतना द्रव्य,
उनमें जिसकी भ्रान्ति नाश को प्राप्त हुई है, अर्थात् जो
- चित्त को चित्तरूप से;
- दोष को दोषरूप से; और
- आत्मा को आत्मारूप से जानता है,
वह अन्तरात्मा है अथवा चित्त और दोषों में 'आत्मा' माननेरूप भ्रान्ति, जिसके जाती रही है, वह
(अन्तरात्मा) है ।
परमात्मा कैसे होते हैं? (परमात्मा) अति निर्मल हैं, अर्थात् जिनके अशेष (समस्त) कर्ममल नष्ट हो गया है वे (परमात्मा) हैं ॥५॥
परमात्मा की नामवाचक नामावली दर्शाते हुए कहते हैं : -
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निर्मल: केवल: शुद्धो विविक्त: प्रभुरव्यय:
परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिन: ॥6॥
शुद्ध, स्पर्श-मल बिन प्रभू अव्यय अज परमात्म ।
ईश्वर निज उत्कृष्ट वह, परमेष्ठी परमात्म ॥६॥
अन्वयार्थ : [निर्मल:] निर्मल , [केवल] केवल , [शुद्ध:] शुद्ध , [विविक्त] विविक्त , [प्रभु:] प्रभु , [अव्यय] अव्यय , [परमेष्ठी] परमेष्ठी , [परात्मा] परात्मा , [ईश्वर] ईश्वर , [जिन:] जिन , [इति परमात्मा] ये परमात्मा के नाम हैं ।
प्रभाचन्द्र :
- निर्मल अर्थात् कर्ममलरहित;
- केवल अर्थात् शरीरादि के सम्बन्धरहित;
- शुद्ध अर्थात् द्रव्यकर्म - भावकर्म के अभाव के कारण से परमविशुद्धियुक्त
- विविक्त अर्थात् शरीर-कर्मादि से नहीं स्पर्शित;
- प्रभु अर्थात् इन्द्रादि के स्वामी;
- अव्यय अर्थात् प्राप्त अनन्त चतुष्टयमय स्वरूप से स्मृत (भ्रष्ट) नहीं होनेवाले;
- परमेष्ठी अर्थात् परम / इन्द्रादि से वंद्य - ऐसा बड़ा पद, उसमें जो रहते हैं, उस स्थानशील परमेष्ठी;
- परात्मा अर्थात् संसारी जीवों से उत्कृष्ट आत्मा - इस प्रकार के जो शब्द हैं, वे परमात्मा के वाचक हैं ।
'परमात्मा' इत्यादि से उन्हें ही दर्शाया है ।
- परमात्मा अर्थात् सर्व प्राणियों में उत्तम आत्मा;
- ईश्वर अर्थात् इन्द्रादिक को असम्भवित - ऐसे अन्तरङ्ग-बहिरङ्ग परम ऐश्वर्य से सदा सम्पन्न;
- जिन अर्थात् सर्व कर्मों का मूल में से नाश करनेवाले
(इत्यादि परमात्मा के अनन्त नाम हैं) ॥६ ॥
अब, बहिरात्मा को देह में आत्मबुद्धिरूप मिथ्यामान्यता किस कारण से होती है, वह बतलाते हुए कहते हैं --
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बहिरात्मेन्द्रियद्वारै - रात्मज्ञानपराङ्मुख:
स्फुरित: स्वात्मनो देहमात्मत्वेनाध्यवस्यति ॥7॥
आत्मज्ञान से हो विमुख, इन्द्रिय से बहिरात्म ।
आत्मा को तनमय समझ, तन ही गिने निजात्म ॥७॥
अन्वयार्थ : [बहिरात्मेन्द्रियद्वारै] बहिरात्मा, इन्द्रिय द्वारों में [स्फुरित] प्रवृत्त होने से, [आत्मज्ञान पराङ्मुख:] आत्मज्ञान से पराङ्मुख-वङ्चित होता है; इससे वह [आत्मनः देह] अपने शरीर को, [आत्मत्वेन अध्यवस्यति] मिथ्या अभिप्रायपूर्वक, आत्मारूप समझता है ।
प्रभाचन्द्र :
इन्द्रियोरूप द्वारों से अर्थात् इन्द्रियोरूप मुख से बाहर के पदार्थों के ग्रहण में रुका हुआ होने से, वह बहिरात्मा-मूढ़ात्मा है । वह आत्मज्ञान से पराङ्गमुख अर्थात् जीवस्वरूप के ज्ञान से बहिर्भूत है । वैसा होता हुआ वह (बहिरात्मा) क्या करता है? अपनी देह को आत्मारूप मानता है, अर्थात् अपना शरीर, वही 'मैं हूँ' - ऐसी मिथ्या मान्यता करता है ॥७॥
और उसका प्रतिपादन करके मनुष्यादि चतुर्गति सम्बन्धी चार भेद से जीव-भेद का उसमें प्रतिपादन कराते हैं --
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नरदेहस्थमात्मान - मविद्वान् मन्यते नरम्
तिर्यञ्चं तिर्यगङ्गस्थं सुराङ्गस्थं सुरं तथा ॥8॥
नारकं नारकाङ्गस्थं न स्वयं तत्त्वतस्तथा
अनन्तानन्तधीशक्ति: स्वसंवद्योऽचलस्थिति: ॥9॥
तिर्यक में तिर्यंच गिन, नर तन में नर मान ।
देव देह को देव लख, करे मूढ़ पहिचान ॥८॥
नारक तन में नारकी, पर नहीं यह चैतन्य ।
है अनन्त धी शक्तियुत, अचल स्वानुभवगम्य ॥९॥
अन्वयार्थ : [अविद्वान्] मूढ़ बहिरात्मा, [नरदेहस्थ आत्मानं नरम्] मनुष्य देह में स्थित आत्मा को मनुष्य, [तिर्यक्स्थ तिर्यंचं] तिर्यंच में स्थित को तिर्यञ्च, [सुराक्स्थ सुर] देव में स्थित को देव [तथा] और [नारकाङ्गस्थ नारक] नारकी के शरीर में स्थित को नारकी [मन्यते] मानता है, किन्तु [तत्त्वतः] वस्तुत: [स्वयं तथा न] स्वयं आत्मा वैसा नहीं है, [तत्त्वस्तु] किन्तु वास्तविकरूप से यह आत्मा, [अनतानतधी-शक्ति] अनन्तानन्त ज्ञान और अनन्तानन्त शक्ति [वीर्य] रूप है, [स्व-संवेद्य] स्वानुभवगम्य है और [अचलस्थिति] अपने स्वरूप में सदा निश्चल-स्थिर रहनेवाला है ।
प्रभाचन्द्र :
नर का देह वह नरदेह । उसमें रहता है, इस कारण नर देहस्थ । वह (नर के देह में रहनेवाला) आत्मा को, नर मानता है । वह कौन (ऐसा मानता है?) अविद्वान - बहिरात्मा (ऐसा मानता है) तिर्यञ्च को, आत्मा मानता है । कैसे (तिर्यञ्च) को? तिर्यञ्चों के शरीर में रहनेवाले । तिर्यञ्च का शरीर, वह तिर्यञ्च-शरीर - उसमें रहता है इस कारण तिर्यञ्चस्थ - उसे (आत्मा मानता है) । इसी प्रकार देवों के शरीर में रहनेवाले (आत्मा) को, देव मानता है ॥
नारक को आत्मा मानता है । कैसे (नारक को)? नारकी के शरीर में रहनेवाले को । आत्मा स्वयं नरादिरूप नहीं; कर्मोपाधि बिना वह स्वयं होता नहीं । किस प्रकार? तत्त्वतः, अर्थात् परमार्थ से वह (वैसा) नहीं, किन्तु व्यवहार से हो तो भले हो । जीव की मनुष्यादि पर्याय कर्मोपाधि से हुई हैं । उस (कर्मोपाधि) के निवृत्त होने पर / मिटने पर, वे (पर्यायें) निवृत्त होती होने से, वास्तव में (वे पर्यायें, जीव की) नहीं - ऐसा अर्थ है ।
तब परमार्थ से वह (आत्मा) कैसा है? वह कहते हैं । वह अनन्तानन्तधीशक्ति, अर्थात् अनन्तानन्त ज्ञान और शक्तिवाला है । वैसा वह किस प्रकार जाना जा सकता है - (अनुभव किया जा सकता है)? वह कहते हैं । वह स्वसंवेद्य है । निरुपाधिकरूप ही वस्तु का स्वभाव कहलाता है । कर्मादिक का विनाश होने पर, अनन्तानन्त ज्ञान-शक्तिरूप से परिणत आत्मा, स्व-संवेदन में ही वेदन किया जा सकता है । वह संसार अवस्था में कर्मोपाधि से निर्मित होने से, उससे विपरीत परिणति का अनुभव होता है ।
वैसा स्वसंवेद्य (आत्मा) भले हो, किन्तु वह कितने काल? सर्वदा तो नहीं होता, कारण कि बाद में उसके रूप का नाश होता है । (ऐसी शङ्का का परिहार करते हुए) कहते हैं कि उसकी (आत्मा की) स्थिति अचल है, क्योंकि अनन्तानन्तधीशक्ति के स्वभाव के कारण, वह अचल स्थितिवाला है । जो योग और सांख्य मतवालों ने मुक्ति के विषय में आत्मा की, उससे (मुक्ति से) प्रच्युति (पतन) सम्भव माना है, उसके सम्बन्ध में (खण्डन-स्वरूप) प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र में मोक्षविचार प्रसङ्ग में विस्तार से कहा गया है ॥८-९॥
स्वदेह में ऐसा अध्यवसाय करनेवाला बहिरात्मा, परदेह में कैसा अध्यवसाय करता है? वह कहते हैं : -
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स्वदेहसदृशं दृष्ट्वा परदेहमचेतनम्
परात्माधिष्ठितं मूढ: परत्वेनाध्यवस्यति ॥10॥
जैसे निज की देह में, आत्म-कल्पना होय ।
वैसे ही पर-देह में, चेतनता संजोय ॥१०॥
अन्वयार्थ : [मूढ:] अज्ञानी बहिरात्मा, [परात्माधिष्ठित] अन्य के आत्मा के साथ रहनेवाले, [अचेतन] अचेतन-चेतनारहित, [परदेह] दूसरे के शरीर को, [स्वदेह सदृशं] अपने शरीर समान [दृष्ट्वा] देखकर, [परत्वेन] अन्य के आत्मारूप से, [अध्यवस्यति] मानता है ।
प्रभाचन्द्र :
व्यापार, व्याहार (वाणी-वचन) आकारादि द्वारा परदेह को अपने देह समान देखकर; कैसा (देखकर)? कर्मवशात् अन्य के आत्मा से अधिष्ठित / स्वीकृत अचेतन (पर के देह को) चेतनायुक्त देखकर, बहिरात्मा उसे (देह को) परपने रूप से अर्थात् पर के आत्मारूप मानता है ॥१०॥
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स्वपराध्यवसायेन देहेष्वविदितात्मनाम्
वर्तते विभ्रम: पुंसां पुत्रभार्यादिगोचर: ॥11॥
कहै देह को आत्मा, नहीं स्व-पर पहचान ।
विभ्रमवश तन में करे, सुत-तियादि का ज्ञान ॥११॥
अन्वयार्थ : [अविदितात्मना पुंसा] आत्मा के स्वरूप से अज्ञात पुरुषों को, [देहेषु] शरीरों में, [स्वपराध्यवसायेन] अपनी और पर की आत्मबुद्धि के कारण से, [पुत्रभार्यादिगोचर] पुत्र-स्त्री आदि के विषय में, [विभ्रम वर्तते] विभ्रम वर्तता है ।
प्रभाचन्द्र :
पुरुषों को विभ्रम अर्थात् विपर्यास (मिथ्याज्ञान) वर्तता है । कैसे पुरुषों को? आत्मा से अनजान - आत्मस्वरूप को नहीं जाननेवाले पुरुषों को । किस कारण से वह (विभ्रम) वर्तता है? स्व-पर के अध्यवसाय से । (विभ्रम) कहाँ होता है? शरीर के विषय में । कैसा विभ्रम होता है? पुत्र - भार्यादिक विषयक (विभ्रम होता है) । परमार्थ से (वास्तव में) पुत्र, स्त्री, धन, धान्यादि आत्मीय (अपने) उपकारक नहीं होने पर भी, वह (विभ्रमित पुरुष) उन्हें आत्मीय तथा उपकारक मानता है, उनकी सम्पत्ति में (आबादी में) वह संतोष तथा उनके वियोग में महासंताप और आत्मवधादिक करता है ॥११॥
इस प्रकार के विकल्प से क्या होता है? वह कहते हैं --
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अविद्यासंज्ञितस्तस्मात् संस्कारो जायते दृढ:
येन लोकोऽङ्गमेव स्वं पुनरप्यभिमन्यते ॥12॥
इस भ्रम से अज्ञानमय, जमते दृढ़ संस्कार ।
यों मोही भव-भव करें, तन में निज निर्धार ॥१२॥
अन्वयार्थ : [तस्मात्] इस विभ्रम से, [अविद्यासज्ञित] अविद्या नाम का [संस्कार:] संस्कार [दृढ़:] दृढ़-मजबूत [जायते] होता है [येन] जिस कारण से [लोक:] अज्ञानी जीव, [पुन: अपि] जन्मान्तर में भी [अंगमूएव] शरीर को ही [स्वं अभिमन्यते] आत्मा मानता है ।
प्रभाचन्द्र :
उस विभ्रम से बहिरात्मा में संस्कार अर्थात् वासना दृढ - अविचल होती है । किस नाम का (संस्कार)? अविद्या नाम का (संस्कार), जिसकी अविद्या संज्ञा है वह; जिस संस्कार के कारण अविवेकी (अज्ञानी) जन, अंग को ही अर्थात् शरीर को ही फिर से भी अर्थात् अन्य जन्म में भी अपना आत्मा मानता है ॥१२॥
इस प्रकार मानकर वह क्या करता है ? यह कहते हैं --
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देहे स्वबुद्धिरात्मानं युनक्त्येतेन निश्चयात्
स्वात्मन्येवात्मधीस्तस्माद्वियोजयति देहिनम् ॥13॥
देहबुद्धिजन आत्म का, तन से करें सम्बन्ध ।
आत्मबुद्धि नर स्वात्म का, तन से तजे सम्बन्ध ॥१३॥
अन्वयार्थ : [देहे स्वबुद्धि] शरीर में आत्मबुद्धि करनेवाला बहिरात्मा, [निश्चयात्] निश्चय से [आत्मानं] अपने आत्मा को [एतेन] उसके साथ [युनक्ति] जोड़ता है , परन्तु [स्वात्मनि एव आत्मधी] अपने आत्मा में ही आत्मबुद्धि करनेवाला अन्तरात्मा, [देहिन] अपने आत्मा को [तस्मात्] उससे [वियोजयति] पृथक् / भिन्न करता है ।
प्रभाचन्द्र :
शरीर में स्वबुद्धि (आत्मबुद्धि) करनेवाला बहिरात्मा क्या करता है ? वह (अपने) आत्मा को, (शरीर के साथ) जोड़ता है- (उसके साथ) सम्बन्ध करता है; उसको दीर्घ संसारी करता है - ऐसा अर्थ है । किसके साथ (जोड़ता है)? निश्चय से अर्थात् निश्चित उस शरीर के साथ (जोड़ता है), किन्तु आत्मा में ही - जीवस्वरूप में ही आत्मबुद्धिवाला अन्तरात्मा, निश्चय से उसे (आत्मा को) उससे (शरीर से) पृथक् करता है - (शरीर के साथ) असम्बद्ध करता है ॥१३॥
शरीर में आत्मा का सम्बन्ध जोड़नेवाले बहिरात्मा के निंदनीय व्यापार को बतलाकर खेद प्रगट कराते हुए आचार्य कहते हैं --
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देहेष्वात्मधिया जाता: पुत्रभार्यादिकल्पना:
सम्पत्तिमात्मनस्ताभि र्मन्यते हा हतं जगत् ॥14॥
जब तन में निज कल्पना, 'मम सुत-तिय' यह भाव ।
परिग्रह मानो आपनो, हाय! जगत् दुर्भाव ॥१४॥
अन्वयार्थ : [देहेषु] शरीरों में [आत्मधिया] आत्मबुद्धि से, [पुत्र- भार्यादिकल्पना जाता:] मेरा पुत्र, मेरी स्त्री इत्यादिक कल्पनाएँ उत्पन्न होती हैं । [हा] खेद है कि [हत] आत्मघाती [जगत्] सारा संसार, [ताभि] उस कारण से, [सम्पत्तिम्] स्त्री-पुत्रादि की समृद्धि को, [आत्मनः] अपनी समृद्धि [मन्यते] मानते हैं ।
प्रभाचन्द्र :
उत्पल हुई - प्रवर्ती । क्या (प्रवर्ती) ? पुत्र-स्त्री आदि सम्बन्धी कल्पनाएँ । किसके विषय में ? शरीरों में । किस कारण से ? आत्मबुद्धि के कारण से । किसमें आत्मबुद्धि ? शरीरों में ही । तात्पर्य यह है कि पुत्रादि के देह को जीवरूप माननेवाले को, 'मेरा पुत्र, स्त्री' - ऐसी कल्पनाएँ (विकल्प) होते हैं । अनात्मरूप और अनुपकारक, ऐसी उन कल्पनाओं से पुत्र-भार्यादिरूप विभूति के अतिशय-स्वरूप सम्पत्ति को जगत अपनी मानता है । अरे! स्व-स्वरूप के परिज्ञान से रहित, बहिरात्मरूप जगत - प्राणिगण घाता जा रहा है ॥१४॥
अब, कहे हुए अर्थ का उपसंहार करके, आत्मा में अन्तरात्मा का अनुप्रवेश दर्शाते हुए कहते हैं :-
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मूलं संसारदु:खस्य देह एवात्मधीस्तत:
त्यक्त्त्वैनां प्रविशेदन्त - र्बहिरव्यापृतेन्द्रिय: ॥15॥
जग में दुःख का मूल है, तन में निज का ज्ञान ।
यह तज विषय-विरक्त हो, लो निजात्म में स्थान ॥१५॥
अन्वयार्थ : [देहे] शरीर में [आत्मधी एव] आत्मबुद्धि होना, वही [संसार दुःखस्य] संसार के दुःख का [मूल] कारण है; [तत:] इसलिए [एना] शरीर में आत्मबुद्धि को [त्यक्ला] छोड़कर तथा [बहिरव्यापृतेन्द्रिय] बाह्य विषयों में इन्द्रियों की प्रवृत्ति को रोककर, [अन्त:] अन्तरङ्ग में [प्रविशेत्] प्रवेश करो ।
प्रभाचन्द्र :
मूल, अर्थात् कारण । किसका ? संसार-दुःख का । वह (कारण) क्या ? देह में ही आत्मबुद्धि, अर्थात् देह (काया), वही आत्मा - ऐसी बुद्धि (मान्यता), वह । इस कारण इसका, अर्थात् देह में ही आत्मबुद्धि का त्याग करके, अन्तर में प्रवेश करना - आत्मा में आत्मबुद्धि करना - अन्तरात्मा होना -- ऐसा अर्थ है । कैसा होकर ? बाह्य में अव्यावृत्त इन्द्रियों वाला होकर, अर्थात् बाह्यविषयो में जिसकी इन्द्रियाँ अव्यावृत्त (अप्रवत्त) हुई हैं (रुक गयी हैं - अटकगयी हैं) । वैसा होकर ॥१५॥
अन्तरात्मा, आत्मा में अहंबुद्धि करता हुआ अलब्ध (पूर्व में नहीं प्राप्त ऐसे) लाभ से सन्तोष पाकर अपनी बहिरात्मदशा का स्मरण करके विषाद (खेद) करता है । वह कहते हैं :-
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मत्तश्च्युत्वेन्द्रियद्वारै: पतितो विषयेष्वहम्
तान् प्रपद्याऽहमिति मां पुरा वेद न तत्त्वत: ॥16॥
इन्द्रिय-विषय विमुग्ध हो, उनको हितकर जान ।
'मैं आत्मा हूँ ' नहीं लखा, भूल गया निज-भान ॥१६॥
अन्वयार्थ : [अहं] मैं [पुरा] अनादि काल से [मत्त:] आत्मस्वरूप से [स्तुत्वा] विस्मृत होकर [इन्द्रिय द्वारै] इन्द्रियों द्वारा [विषयेषु] विषयों में [पतित:] पतित हुआ, [ततः] इससे [तान्] उन विषयों को [प्रपद्य] प्राप्त करके [तत्त्वतः] वास्तव में [मां] मुझे स्वयं को [अहं इति न वेद] मैं वही हूँ- आत्मा हूँ - ऐसा मैंने पहिचाना नहीं ।
प्रभाचन्द्र :
अपने से अर्थात् आत्मस्वरूप से विस्मृत होकर (पीछे हटकर), मैं पतित हुआ, अर्थात् अति आसक्ति से प्रवर्ता । कहाँ (प्रवर्ता )? विषयों में । किसके द्वारा? इन्द्रियोंरूप द्वारों से-इन्द्रिय-मुख से । फिर उन विषयों को प्राप्त करके, वे मेरे उपकारक हैं - ऐसा समझकर, उन्हें अतिपने ग्रहणकर - अनुसरण कर मैंने स्वयं के आत्मा को देखा नहीं, जाना नहीं । किस प्रकार से (नहीं जाना) ? 'मैं' ऐसे उल्लेख से मैं ही स्वयं (आत्मा) हूँ; शरीरादिरूप नहीं - इस प्रकार तत्त्वतः (वास्तव में) मैंने जाना नहीं -- ऐसा अर्थ है । कब ? पूर्व में - अनादि काल से ॥१६॥
अब, आत्मा को जानने का उपाय बतलाते हुए कहते हैं : -
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एवं त्यक्त्वा बहिर्वाचं त्यजेदन्तरशेषत:
एष योग: समासेन प्रदीप: परमात्मन: ॥17॥
बाहिर वचन विलास तज, तज अन्तर मन भोग ।
है परमात्म प्रकाश का, थोड़े में यह योग ॥१७॥
अन्वयार्थ : [एवं] आगामी श्लोक में कही जानेवाली विधि के अनुसार [बहिर्वाच] बाह्य अर्थवाचक वचन-प्रवृत्ति को [त्यक्त्वा] त्याग करके [अन्त:] अन्तरङ्ग वचन-प्रवृत्ति को भी [अशेषत] सम्पूर्णपने [त्यजेत्] तजना । [एष:] यह [योग:] योग, अर्थात् समाधि [समासेन] संक्षिप्त में [परमात्मन] परमात्मस्वरूप का [प्रदीप:] प्रकाशक दीपक है ।
प्रभाचन्द्र :
इस प्रकार अर्थात् आगे कहे जानेवाले न्याय से, बाह्यवचन को, अर्थात् स्त्री-पुत्र, धन-धान्यादिरूप बाह्यार्थवाचक शब्दों को; अशेषपने, अर्थात् सम्पूर्णरूप से तजकर, फिर अन्तरङ्गवचन को, अर्थात् मैं प्रतिपादक (गुरु), मैं प्रतिपाद्य (शिष्य), सुखी, दुःखी, चेतन इत्यादिरूप अन्तर्जल्प का पूर्णरूप से त्याग करना । इन बहिर्जल्प - अन्तर्जल्प के त्यागस्वरूप योग, अर्थात् स्वरूप में चित्त निरोध लक्षण समाधि; प्रदीप, अर्थात् स्वरूप प्रकाशक है । किसकी? परमात्मा की । किस प्रकार ? समास से, अर्थात् संक्षेप से शीघ्रतया वह परमात्मस्वरूप की प्रकाशक है -- ऐसा अर्थ है ॥१७॥
फिर, अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग वचन-प्रवृत्ति का त्याग किस प्रकार करना? - वह कहते हैं --
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यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा
जानन्न दृश्यते रूपं तत: केन ब्रवीम्यहम् ॥18॥
रूप मुझे जो दीखता, वह तो जड़ अनजान ।
जो जाने नहीं दीखता, बोलूँ किससे बान ॥१८॥
अन्वयार्थ : [मया] मेरे द्वारा [यस्जपं] जो रूप-शरीरादि रूपी-पदार्थ [दृश्यते] दिखायी देते हैं, [तत्] वे अचेतन पदार्थ [सर्वथा] सर्वथा [न जानाति] किसी को नहीं जानते, और [जानत् रूपं न दृश्यते] जो जाननेवाला चेतन आत्मा है वह अरूपी होने से मुझे दिखायी नहीं देता [तत् अहं केन सह ब्रवीमि] तो मैं किसके साथ बातचीत करूँ ।
प्रभाचन्द्र :
रूप, अर्थात् शरीरादिरूप जो दिखायी देता है, अर्थात् इन्द्रियों द्वारा मेरे से ज्ञात होता है, वह अचेतन होने से, (मेरे) बोले हुए वचनों को सर्वथा नहीं जानता; जो जानता (समझता) हो, उसके साथ वचन-व्यवहार योग्य है; अन्य के साथ (वचन व्यवहार) योग्य नहीं, क्योंकि अति प्रसङ्ग आता है; और जो रूप, अर्थात् चेतन - आत्मस्वरूप जानता है, वह तो इन्द्रियों द्वारा दिखता नहीं, ज्ञात होता नहीं; यदि ऐसा है तो मैं किसके साथ बातचीत करूँ ? ॥१८॥
इस प्रकार बाह्य विकल्पों का परित्याग करके, आभ्यन्तर विकल्पों को छुड़ाते हुए कहते हैं :-
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यत्परै: प्रतिपाद्योऽहं यत्परान् प्रतिपादये
उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पक: ॥19॥
अन्य मुझे उपदेश दे, मैं उपदेशूं अन्य ।
यह मम चेष्टा मत्तसम, मैं अविकल्प अनन्य ॥१९॥
अन्वयार्थ : [परै: अहं प्रतिपाद्य:] अन्य के द्वारा मैं कुछ सीखनेयोग्य हूँ अथवा [अहं पराम् प्रतिपाद्ये] मैं किसी अन्य को कुछ सिखाता हूँ या सिखा सकता हूँ [तत् मे उन्मत्तचेष्टितं] तो वह मेरी पागलपन की चेष्टा है [यत् अहं निर्विकल्पक:] क्योंकि मैं तो निर्विकल्पक हूँ ।
प्रभाचन्द्र :
पर द्वारा अर्थात् उपाध्यायादि द्वारा मुझे सिखाया जाता है और दूसरों को (शिष्यों आदि को) मैं सिखाता हूँ ये सब मेरी उन्मत्त (पागल) चेष्टा है - मोहवशात् उन्मत्तता (पागल के) समान ही ये सब विकल्पजालरूप चेष्टा प्रवर्तती है - ऐसा अर्थ है । किस वजह से (उन्मत्त चेष्टा) है ? क्योंकि मैं (आत्मा) तो निर्विकल्पक, अर्थात् वचन विकल्पों से अग्राह्य हूँ ॥१९॥
उसी विकल्पातीत (निर्विकल्प) स्वरूप का निरुपण करते हुए कहते हैं _ -
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यदग्राह्यं न गृह्णाति गृहीतं नैव मुञ्चति
जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥20॥
बाह्य पदार्थ नहीं ग्रहे, नहीं छोड़े निजभाव ।
सबको जानेमात्र वह, स्वानुभूति से ध्याव ॥२०॥
अन्वयार्थ : [यत्] जो [अग्राह्य] अग्राह्य को [न गृह्णाति] ग्रहण नहीं करता, और [गृहित अपि] ग्रहण किए हुए को [न ऐव मुञ्चति] भी नहीं छोड़ता तथा [सर्व] सम्पूर्ण पदार्थों को [सर्वथा] सर्व प्रकार से [जानाति] जानता है [तत् स्वसंवेद्य], वह अपने अनुभव में आनेयोग्य चेतनद्रव्य [अहं अस्मि] मैं हूँ ।
प्रभाचन्द्र :
जो, अर्थात् शुद्ध आत्मस्वरूप है, वह अग्राह्य को, अर्थात् कर्मोदय के निमित्त से होते हुए क्रोधादिरूप को ग्रहण नहीं करता, अर्थात् उनको आत्म-स्वरूपपने स्वीकार नहीं करता और ग्रहण किये हुए अनन्त ज्ञानादि स्वरूप को छोड़ता ही नहीं, अर्थात् कभी भी उनका परित्याग नहीं करता - ऐसे स्वरूपवाला शुद्धात्म-स्वरूप क्या करता है ? जानता है । क्या जानता है ? समस्त चेतन व अचेतन वस्तुओं को (जानता है) । किस प्रकार जानता है ? वह सर्वथा, अर्थात् द्रव्य-पर्यायादि को सर्व प्रकार से (जानता है) । इससे ऐसा स्व-संवेद्यस्वरूप, अर्थात् स्व-संवेदन से ग्राह्य-स्वरूप, वह मैं (आत्मा) हूँ ॥२०॥
ऐसे आत्मपरिज्ञान से पूर्व मेरी चेष्टा कैसी थी ? वह कहते हैं :-
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उत्पन्नपुरुषभ्रान्ते: स्थाणौ यद्वद्विचेष्टितम्
तद्वन्मे चेष्टितं पूर्वं देहादिष्वात्मविभ्रमात् ॥21॥
करें स्तम्भ में पुरुष की, भ्रान्ति यथा अनजान ।
त्यों भ्रमवश तन आदि में, कर लेता निजभान ॥२१॥
अन्वयार्थ : [स्थाणौ] वृक्ष के ठूंठ में [उत्पन्नपुरुषभान्ते] उत्पन्न हो गयी है पुरुषपने की भ्रान्ति जिसको - ऐसे मनुष्य को [यद्वत्] जिस प्रकार [विचेष्टितम्] विकृत अथवा विपरीत चेष्टा होती है; [तद्वत्] उसी प्रकार की [देहादिषु] शरीरादिक पर-पदार्थों में [आत्मविभ्रमात्] आत्मा का भ्रम होने से, [पूर्व] आत्मज्ञान से पहले [मे] मेरी [चेष्टितम्] चेष्टा थी ।
प्रभाचन्द्र :
पुरुष की भ्रान्ति जिसको उत्पन्न हुई है, उसकी - अर्थात् 'यह पुरुष है' - ऐसी जिसको भ्रान्ति उत्पन्न हुई है उसकी - ऐसा माननेवाले की स्थाणु में (ठूंठ के विषय में) जिस रीति से - जिस प्रकार से विचेष्टा होती है - विविध प्रकार की चेष्टा होती है, अर्थात् उपकार - अपकारादिरूप चेष्टा या विपरीत चेष्टा होती है - उस अनुसार - उस प्रकार मैंने चेष्टा की । किसके विषय में ? देहादिक के विषय में । किस कारण से ? आत्मविभ्रम - आत्मविपर्यास के कारण से । कब ? पूर्व में, अर्थात् उक्त प्रकार के आत्मस्वरूप के परिज्ञान के पूर्व में ॥२१॥
वर्तमान में उसका (आत्मा का) परिज्ञान होने पर, मेरी कैसी चेष्टा हो गयी है? - वह कहते हैं :-
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यथासौ चेष्टते स्थाणौ निवृत्ते पुरुषाग्रहे
तथा चेष्टोऽस्मि देहादौ विनिवृत्तात्मविभ्रम: ॥22॥
भ्रम तज नर उस स्तम्भ में, नहीं होता हैरान ।
त्यों तनादि में भ्रम हटे, नहीं पर में निजभान ॥२२॥
अन्वयार्थ : [असौ] जिसको वृक्ष के ठूंठ में पुरुष का भ्रम हो गया था, वह मनुष्य [स्थाणौ] ठूंठ में [पुरुषाग्रहे निवृत्ते] 'यह पुरुष है' - ऐसे मिथ्याभिनिवेश के नष्ट हो जाने पर, [यथा] जिस प्रकार उससे अपने उपकारादि की कल्पना त्यागने की [चेष्टते] चेष्टा करता है; उसी प्रकार [देहादौ] शरीरादिक में [विनिवृत्तात्मविभ्रम] आत्मपने के भ्रम से रहित हुआ मैं भी, [तथा चेष्ट अस्मि] देहादिक में अपने उपकारादि की बुद्धि को छोडने में प्रवृत्त हुआ हूँ ।
प्रभाचन्द्र :
ठूंठ में) पुरुषाग्रह अर्थात् पुरुषाभिनिवेश निवृत्त होने पर - नष्ट होने पर, जिसे (ठूंठ में) पुरुष की भ्रान्ति हुई थी, वह (मनुष्य), जिस प्रकार पुरुषाभिनिवेश जनित उपकार - अपकारादि से प्रवृत्ति का परित्याग करनेरूप चेष्टा करता है, प्रवर्तता है; इसी प्रकार मैंने चेष्टा की है, अर्थात् उस प्रवृत्ति के परित्याग-अनुरूप जिसको जैसी चेष्टा होती है, वैसी चेष्टावाला मैं बन गया हूँ ।
कहाँ (किस विषय में)? देहादि में । कैसा (हुआ हूँ)? जिसका आत्मविभ्रम विनिवृत्त हुआ है, वैसा; अर्थात् जिसका आत्मविभ्रम विशेषरूप से निवृत्त हुआ है, वैसा हुआ हूँ । कहाँ (किस विषय में) ? देहादि में ॥२२॥
अब, आत्मा में स्त्री आदि लिङ्ग और एकत्वादि संख्या सम्बन्धी विभ्रम की निवृत्ति के लिए उनसे विविक्त (भिन्न) असाधारण स्वरूप बताते हुए कहते हैं :-
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येनात्मनाऽनुभूयेऽह - मात्मनैवात्मनाऽऽत्मनि
सोऽहं न तन्न सा नासौ नैको न द्वौ न वा बहु: ॥23॥
आत्मा को ही निज गिनूँ नहीं नारी-नर-षण्ड ।
नहीं एक या दो बहुत, मैं हूँ शुद्ध अखण्ड ॥२३॥
अन्वयार्थ : [येन] जिस [आत्मना] आत्मा से-चैतन्य-स्वरूप से [अहम्] मैं [आत्मनि] अपनी आत्मा में ही [आत्मना] आत्मा द्वारा - स्व-संवेदनज्ञान के द्वारा [आत्मनैव] अपनी आत्मा को आप ही [अनुभूये] अनुभव करता हूँ [सः] वही - शुद्धात्म-स्वरूप [अहं] मैं, [न तत्] न तो नपुंसक हूँ [न सा] न स्त्री हूँ [न असौ] न पुरुष हूँ [न एको] न एक हूँ [न द्वौ] न दो हूँ [वा] और [न बहु:] न बहुत हूँ ।
प्रभाचन्द्र :
जो आत्मा द्वारा - चैतन्यस्वरूप द्वारा मैं अनुभव में आता हूँ - किससे ? आत्मा से ही; अन्य किसी से नहीं; किस करण (साधन) द्वारा? आत्मा द्वारा - स्व-संवेदन स्वभाव द्वारा; कहाँ ? आत्मा में - स्व-स्वरूप में, वह मैं हूँ - ऐसा स्वरूपवाला हूँ । न तो मैं नपुंसक हूँ, न स्त्री हूँ, न पुरुष हूँ; तथा न मैं एक हूँ, न दो हूँ अथवा न मैं बहुत हूँ; क्योंकि स्त्रीत्वादि धर्म हैं -- वे तो कर्मोपादित देहस्वरूपवाले हैं ॥२३॥
जिस आत्मा से तुम स्वयं अनुभव में आते हो, वह कैसा है? यह कहते हैं :-
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यदभावे सुषुप्तोऽहं यद्भावे व्युत्थित: पुन:
अतीन्द्रियमनिर्देश्यं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥24॥
बोधि बिना निद्रित रहा, जगा लखा चैतन्य ।
इन्द्रियबिन अव्यक्त हूँ, स्व-संवेदन गम्य ॥२४॥
अन्वयार्थ : [यत् अभावे] जिस शुद्धात्म-स्वरूप के प्राप्त न होने से [अहं] मैं [सुषुप्त:] अब तक गाढ निद्रा में पडा रहा - मुझे पदार्थों का यथार्थ परिज्ञान न हो सका - [पुन:] और [यत् भावे] जिस शुद्धात्म-स्वरूप की उपलब्धि होने पर, मैं [व्युत्थित:] जागृत हुआ हूँ - यथावत् वस्तु-स्वरूप को जानने लगा हूँ [तत्] वह शुद्धात्म-स्वरूप [अतीन्द्रिय] इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है [अनिर्देश्यं] वचनों के भी अगोचर है - कहा नहीं जाता । वह तो [स्वसंवेद्य] अपने द्वारा आप ही अनुभव करने योग्य है । उसीरूप [अहं अस्मि] मैं हूँ ।
प्रभाचन्द्र :
जिस शुद्ध स्व-संवेद्यरूप के अभाव से, अर्थात् उसको अनुपलब्धि में - अप्राप्ति में, मैं सो रहा था, अर्थात् यथावत् पदार्थ-परिज्ञान का अभाव जिसका लक्षण है - ऐसी निद्रा में मैं गाढ़ घिरा हुआ था (लिपटा हुआ था); और जिसके सद्भाव में, अर्थात् जिसके तत्स्वरूप के सद्भाव में - प्राप्ति में (जिस स्वरूप का अनुभव होने पर) मैं जागृत हुआ - विशेषरूप से जागृत हुआ, अर्थात् मैं यथावत् स्वरूप के परिज्ञानस्वरूप से परिणमित हुआ, ऐसा अर्थ है ।
तत्स्वरूप किस प्रकार का है? वह अतीन्द्रिय है, अर्थात् इन्द्रियजन्य नहीं है, इन्द्रियग्राह्य नहीं है और वचन-अगोचर, अर्थात् शब्द-विकल्पों से अगोचर होने से (शब्दों द्वारा कहने में नहीं आता होने से) यह या वह स्वरूपादिरूप से कहा जा सके, वैसा नहीं है । तो ऐसे प्रकार का स्वरूप कहाँ से सिद्ध होता है? - सो कहते हैं - 'वह स्व-संवेद्यस्वरूप, अर्थात् वह उक्त प्रकार का स्व-संवेदन से ग्राह्यस्वरूप, वह मैं हूँ' ॥२४॥
उस स्वरूप का स्व-संवेदन करनेवाले को रागादि का विशेष क्षय होने से, कथंचित् भी शत्रु-मित्र की व्यवस्था (कल्पना) नहीं रहती - यह दर्शाते हुए कहते हैं :-
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क्षीयन्तेऽत्रैव रागाद्यास्तत्त्वतो मां प्रपश्यत:
बोधात्मानं तत: कश्चिन्न मे शत्रुर्न च प्रिय: ॥25॥
जब अनुभव अपना करूँ, हों अभावरागादि ।
मैं ज्ञाता, मेरे नहीं, कोई अरि-मित्रादि ॥२५॥
अन्वयार्थ : [यत:] क्योंकि [बोधात्मान] शुद्ध ज्ञानस्वरूप [मां] मुझ आत्मा का [तत्त्वतः प्रपश्यत] वास्तव में अनुभव करानेवाले के [अत्र एव] इस जन्म में ही [रागाद्य] राग, द्वेष, क्रोध, मान, मायादिक दोष [क्षीयन्ते] नष्ट हो जाते हैं; [ततः] इसलिए [मे] मेरा [न कश्रित्] न कोई [शत्रु:] शत्रु है [न च] और न कोई [प्रिय:] मित्र है ।
प्रभाचन्द्र :
यहाँ ही नहीं कि केवल आगे (अन्य जन्म में) ही, परन्तु इस जन्म में ही (वे) क्षय को प्राप्त होते हैं । वे कौन ? रागादि, अर्थात् राग जिसके आदि में हैं, वैसे द्वेषादि (दोष) । क्या करते हुए वे क्षीण होते हैं ? तत्त्वतः (परमार्थपने) मुझे देखते - (अनुभवते) । कैसे मुझे ? बोधात्मा, अर्थात् ज्ञानस्वरूप (ऐसा मुझे) । यथावत् आत्मा का अनुभव करने पर रागादि क्षीण होते हैं; इस कारण से न कोई मेरा शत्रु है और (न) कोई मेरा प्रिय, अर्थात मित्र है ॥२५॥
भले ही तुम अन्य किसी के शत्रु-मित्र न हो, तो भी अन्य कोई तो तुम्हारा शत्रु-मित्र होगा न? - ऐसी आशङ्का की है, उसका समाधान करते हैं :-
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मामपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रिय:
मां प्रपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रिय: ॥ 26॥
जो मुझको जाने नहीं, नहीं मेरा अरि मित्र ।
जो जाने मम आत्म को, नहीं शत्रु नहीं मित्र ॥२६॥
अन्वयार्थ : [मां] मेरे आत्म-स्वरूप को [अपश्यन्] नहीं देखता हुआ, [अयं लोक:] यह अज्ञ प्राणि-वृन्द [नमेशत्रु] न मेरा शत्रु है [न च प्रिय] और न मित्र है तथा [मां] मेरे आत्म-स्वरूप को [प्रपश्यन्] देखता हुआ [अयं लोक:] यह प्रबुद्ध प्राणिगण, [न मे शत्रु:] न मेरा शत्रु है [न च प्रिय:] और न मित्र है ।
प्रभाचन्द्र :
आत्मस्वरूप समझ में आये या न समझ में आवे, तो भी यह लोक मेरे प्रति शत्रु-मित्र भाव कैसे करे ? प्रथम तो (आत्मस्वरूप) न समझे तो भी वह न करे, क्योंकि यह लोक मुझे देखता नहीं; इसलिए वह मेरा शत्रु नहीं और मेरा मित्र नहीं; जहाँ वस्तु-स्वरूप न समझ में आवे, वहाँ भी रागादि की उत्पत्ति हो तो अतिप्रसङ्ग आयेगा ।
(वस्तुस्वरूप) समझ में आने पर भी न (कोई मेरा शत्रु-मित्र है), क्योंकि यह (ज्ञानी) लोक, मुझे देखता (जानता) होने से, वह न मेरा शत्रु है, न मेरा मित्र है ।
आत्म-स्वरूप की प्रतीति होने पर, रागादि का क्षय (अभाव) होने से, कथंचित् भी शत्रु-मित्रभाव किस प्रकार हो सकता है ?
उस भावना का फल दर्शाते हुए कहते हैं : -
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त्यक्त्वैवं बहिरात्मान - मन्तरात्मव्यवस्थित:
भावयेत् परमात्मानं सर्वसङ्कल्पवर्जितम् ॥27॥
यों बहिरातम दृष्टि तज, हो अंतर-मुख आत्म ।
सर्व विकल्प विमुक्त हो, ध्यावे निज परमात्म ॥२७॥
अन्वयार्थ : [एवं] इस प्रकार [बहिरात्मान] बहिरात्मपने को [त्यक्तवा] छोडकर, [अंतरात्मव्यवस्थित] अन्तरात्मा में स्थित होते हुए [सर्वसंकल्पवर्जित] सर्व सङ्कल्प विकल्पों से रहित [परमात्मान] परमात्मा को [भावयेत्] ध्याना चाहिए ।
प्रभाचन्द्र :
इस प्रकार, अर्थात् उक्त प्रकार से अन्तरात्मा में व्यवस्थित होकर और बहिरात्मा का त्याग करके, परमात्मा की भावना करना । कैसा होकर ? सर्व सङ्कल्पों (विकल्पजाल) से रहित होकर, अर्थात् सर्व-सङ्कल्प से मुक्त होकर (परमात्मा भावना करना) ॥२७॥
उस भावना का फल बताते हैं --
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सोऽहमित्यात्तसंस्कारस्तस्मिन् भावनया पुन:
तत्रैव दृढसंस्काराल्लभते ह्यात्मनि स्थितिम् ॥28॥
'मैं ही वह परमात्म हूँ', हों जब दृढ़ संस्कार ।
इन दृढ़ भावों से बने, निश्चय उस आकार ॥२८॥
अन्वयार्थ : [तस्मिन्] उस परमात्मपद में [भावनया] भावना करते रहने से [सः अहं] वह अनन्त ज्ञान-स्वरूप परमात्मा मैं हूँ [इति] इस प्रकार के [आत्तसंस्कार] संस्कार को प्राप्त हुआ ज्ञानी पुरुष [पुन:] फिर-फिर उस परमात्मपद में आत्म-स्वरूप की भावना करता हुआ [तत्रैव] उसी परमात्म-स्वरूप में [दृढ्संस्कारात्] संस्कार की दृढता हो जाने से [हि] निश्चय से [आत्मनि] अपने शुद्ध चैतन्य-स्वरूप में [स्थिति लभते] स्थिरता को प्राप्त होता है ।
प्रभाचन्द्र :
'जो अनन्त ज्ञानादिस्वरूप प्रसिद्ध परमात्मा है, वह मैं हूँ' -- ऐसा संस्कार पाकर, अर्थात् ऐसा संस्कार / वासना ग्रहणकर के । किसके द्वारा ? किसमें ? उसकी भावना द्वारा, अर्थात् परमात्मा की भावना द्वारा - 'वह मैं हूँ' - ऐसे अभेद अभ्यास द्वारा, उसकी बारम्बार भावना से, उसके ही, अर्थात् परमात्मा के ही-दृढ़ संस्कार के कारण, अविचल भावना के कारण - ध्याता वास्तव में आत्मा में स्थिति पाता है - प्राप्त करता है, अर्थात् आत्मा में अचलता व अनन्त ज्ञानादि चतुष्टयरूपता प्राप्त करता है ॥२८॥
आत्मभावना के विषय में कष्ट-परम्परा के सद्भाव के कारण, भय की उत्पत्ति की सम्भावना रहती है, तो उसमें किसी की किस प्रकार प्रवृत्ति हो - ऐसी आशङ्का का निराकरण करते हुए कहते हैं --
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मूढात्मा यत्र विश्वस्तस्ततो नान्यद्भयास्पदम्
यतो भीतस्ततो नान्यदभयस्थानमात्मन: ॥29॥
मोही की आशा जहाँ, नहीं वैसा भय-स्थान ।
जिसमें डर उस सम नहीं, निर्भय आत्म-स्थान ॥२९॥
अन्वयार्थ : [मूढात्मा] अज्ञानी बहिरात्मा [यत्र] जिन पदार्थों में [विश्वस्त:] विश्वास करता है, [ततः] उन से, [अन्यत्] अन्य कोई [भयास्पदं न] भय का स्थान नहीं है और [यत:] जिस से [भीत:] डरा रहता है, [ततः अन्यत्] उसके सिवाय कोई दूसरा [आत्मनः] आत्मा के लिए [अभयस्थानं न] निर्भयता का स्थान नहीं है ।
प्रभाचन्द्र :
मूढात्मा, अर्थात् बहिरात्मा, जहाँ अर्थात् शरीर पुत्र-स्त्री आदि में विश्वास करता है - अवंचक अभिप्राय से (वे मुझे ठगेंगे नहीं - ऐसे अभिप्राय से) विश्वास पाता है - 'वे मेरे हैं और मैं उनका हूँ' - ऐसी अभेदबुद्धि करता है - ऐसा अर्थ है । उनसे दूसरा कोई भय का स्थान नहीं है । उनसे अर्थात् शरीरादि से दूसरा भय का स्थान, अर्थात् संसार दु:ख के त्रास का स्थान नहीं है । जिससे भय पाता है - जिससे अर्थात् परमात्मस्वरूप के संवेदन से भय पाता है - त्रास पाता है; उससे दूसरा कोई अभयस्थान नहीं है - उससे, अर्थात् स्व-संवेदन से दूसरा, अभय का - संसारदुख के त्रास के अभाव का स्थान नहीं है । उससे दूसरा (अन्य) सुख का स्थान नहीं है - ऐसा अर्थ है ॥२१॥
उस आत्मस्वरूप की प्राप्ति का उपाय कैसा है ? - वह कहते हैं :-
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सर्वेन्द्रियाणि संयम्य स्तिमितेनान्तरात्मना
यत्क्षणं पश्यतो भाति तत्तत्त्वं परमात्मन: ॥30॥
इन्द्रिय विषय विरक्त हो, स्थिर हो निज में आत्म ।
उस क्षण जो अनुभव वही, है निश्चय परमात्म ॥३०॥
अन्वयार्थ : [सर्वेन्द्रियाणि] सम्पूर्ण पाँचों इन्द्रियों को [संयम्य] अपने विषयों में यथेष्ट प्रवृत्ति करने से रोककर [स्तिमितेन] स्थिर हुए [अन्तरात्मना] अन्तःकरण के द्वारा [क्षण पश्यत:] क्षणमात्र के लिए अनुभव करनेवाले जीव के [यत्] जो चिदानन्दस्वरूप [भाति] प्रतिभासित होता है, [तत्] वही [परमात्मन] परमात्मा का [तत्त्व] स्वरूप है ।
प्रभाचन्द्र :
अपने- अपने विषयों में जाती - प्रवर्तती । कौन (प्रवर्तती) ? सर्व इन्द्रियाँ अर्थात् पाँचों इन्द्रियाँ; उन्हें रोककर-निरोध कर, तत्पश्रात् स्थिर हुए अन्तरात्मा द्वारा, अर्थात् मन द्वारा जो स्वरूप भासता है; क्या करते हुए ? क्षणमात्र देखते- क्षणमात्र अनुभवते, अर्थात् बहुत काल तक मन को स्थिर करना अशक्य होने से, थोड़े काल तक मन का निरोध करके देखने पर-जो चिदानन्दस्वरूप प्रतिभासता है, वह परमात्मा का तत्त्व-तद्रूप तत्त्व - स्वरूप है ॥३०॥
किसकी आराधना करने से उस स्वरूप की प्राप्ति होती है ? - ऐसी आशङ्का करके कहते हैं :-
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य: परात्मा स एवाऽहं योऽहं स परमस्तत:
अहमेव मयोपास्यो नान्य:कश्चिदिति स्थिति: ॥31॥
मैं ही वह परामात्म हूँ, हूँ निज अनुभव-गम्य ।
मैं उपास्य अपना स्वयं, निश्चय है नहीं अन्य ॥३१॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [परात्मा] परमात्मा है, [स एव] वह ही [अहं] मैं हूँ तथा [यः] जो स्वानुभवगम्य [अहं] मैं हूँ [सः] वही [परम:] परमात्मा है, [ततः] इसलिए, जबकि परमात्मा और आत्मा में अभेद है, [अहं एव] मैं ही [मया] मेरे द्वारा [उपास्य] उपासना किये जाने के योग्य हूँ [कक्षित् अन्य: न], दूसरा कोई मेरा उपास्य नहीं [इति स्थिति:] - ऐसी वस्तु-स्थिति है ।
प्रभाचन्द्र :
जो प्रसिद्ध पर अर्थात् उत्कृष्ट आत्मा है, वह ही मैं हूँ । जो मैं, अर्थात् जो स्व-संवेदन से प्रसिद्ध मैं अन्तरात्मा - वह परम, अर्थात् परमात्मा है । मेरे साथ परमात्मा का अभेद है; इसलिए मैं ही मेरे द्वारा उपासना करने योग्य - आराधना योग्य हूँ; अन्य कोई मेरे द्वारा उपासने योग्य नहीं है - ऐसी स्थिति है, अर्थात् ऐसा स्वरूप ही है । ऐसी आराध्य- आराधक की व्यवस्था है ॥३१॥
वही बताकर कहते हैं
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प्रच्याव्य विषयेभ्योऽहं मां मयैव मयि स्थितम्
बोधात्मानं प्रपन्नोऽस्मि परमानन्दनिर्वृतम् ॥32॥
निज में स्थित निज आत्मकर, करमन विषयातीत ।
पाता निजबल आत्म वह, परमानन्द पुनीत ॥३२॥
अन्वयार्थ : [मां] मुझे [विषयेभ्य] पंन्द्रियों के विषयों से [प्रच्याव्य] हटाकर, [मयैव] मेरे द्वारा ही [अहं] मैं [मयि स्थितं] मुझमें स्थित [परमानन्दनिर्वृत्तम्] परमानन्द से परिपूर्ण [बोधात्मानम्] ज्ञानस्वरूप आत्मा को [प्रपन्नोऽस्मि] को प्राप्त हुआ हूँ ।
प्रभाचन्द्र :
मैं मुझको (अर्थात् मेरे आत्मा को) प्राप्त हुआ हूँ । क्या करके ? (मेरे आत्मा को) छुडाकर-वापस हटाकर । किससे ? विषयों से । किस द्वारा करके ? मेरे ही द्वारा अर्थात् करण (साधन) रूप आत्म-स्वरूप द्वारा ही । कहाँ रहे हुए ऐसे मुझे मैं प्राप्त हुआ हूँ ? मेरे में रहे हुए को अर्थात् आत्म-स्वरूप में ही रहे हुए को । कैसे मुझे ? बोधात्मा को अर्थात् ज्ञान-स्वरूप को । फिर कैसे मुझे ? परम आनन्द से निर्वृत्त (रचित) को । परम आनन्द अर्थात् सुख, उससे निर्वृत्त (रचित) सुख हुए को (ऐसे मुझे अर्थात् आत्मा को प्राप्त हुआ हूँ); अथवा मैं परम आनन्द से निर्वृत्त (परिपूर्ण) हूँ ॥३२॥
इस प्रकार, जो आत्मा को शरीरादि से भिन्न नहीं जानता, उसके प्रति कहते हैं : -
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यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम्
लभते स न निर्वाणं तप्त्वाऽपि परमं तप: ॥33॥
तन से भिन्न-गिने नहीं, अव्ययरूप निजात्म ।
करे उग्र तप मोक्ष नहीं, जब तक लखे न आत्म ॥३३॥
अन्वयार्थ : [एवं] उक्त प्रकार से [यः] जो [अव्यय] अविनाशी [आत्मानं] आत्मा को [देहात्] शरीर से [परं न वेति] भिन्न नहीं जानता है, [सः] वह [परमं तप: तध्वापि] घोर तपश्चरण करके भी [निर्वाण] मोक्ष को [न लभते] प्राप्त नहीं करता है ।
प्रभाचन्द्र :
जो प्राप्त हुए देह से आत्मा को, इस प्रकार (उक्त प्रकार) से भिन्न नहीं जानता; कैसे आत्मा को ? अव्यय अर्थात् जिसने अनन्त चतुष्टयस्वरूप का त्याग नहीं किया, वैसे (आत्मा को); वह प्राप्त हुए देह से निर्वाण नहीं पाता । क्या करके ? तपने पर भी, क्या तपकर भी ? परमतप को ॥३३॥
परम तप करनेवालों को महादुःख की उत्पत्ति होने से तथा मन में खेद होने से निर्वाण की प्राप्ति कैसे सम्भव है? - ऐसी शङ्का करनेवाले के प्रति कहते हैं :-
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आत्मदेहान्तरज्ञान - जनिताह्लादनिर्वृत:
तपसा दुष्कृतं घोरं भुञ्जानोऽपि न खिद्यते ॥34॥
भेदज्ञान बल है जहाँ, प्रगट आत्म आह्लाद ।
हो तप दुष्कर घोर पर, होता नहीं विषाद ॥३४॥
अन्वयार्थ : [आत्मदेहांतरज्ञानजनिताह्लादनिर्वृत:] आत्मा और शरीर के भेद-विज्ञान से उत्पन्न हुए आनन्द से जो आनन्दित है, वह [तपसा] तप के द्वारा उदय में लाए हुए [दुष्कृतं घोरं] भयानक दुष्कर्मों के फल को [भुञ्जानोऽपि] भोगता हुआ भी [न खिद्यते] खेद को प्राप्त नहीं होता है ।
प्रभाचन्द्र :
आत्मा और देह - इन दोनों के अन्तरज्ञान (भेदज्ञान) से जो आह्लाद, अर्थात् परम प्रसन्नता (प्रशान्ति) उत्पन्न होती है उससे आनन्दित (सुखी) होकर, बारह प्रकार के तपों द्वारा घोर दुष्कर्म को भोगता होने पर भी (भयानक दुष्कर्म के विपाक / फल को अनुभवता होने पर भी), वह खिन्न नहीं होता - खेद को प्राप्त नहीं होता ॥३४॥
खेद पानेवालों को आत्म-स्वरूप की प्राप्ति का अभाव दर्शाते हुए कहते हैं कि :-
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रागद्वेषादिकल्लोलैरलोलं यन्मनोजलम्
स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं तत् तत्त्वं नेतरो जन: ॥35॥
चञ्चल चित्त लहे न जब, रागरु द्वेष हिलोर ।
आत्म-तत्त्व वह ही लखे, नहीं क्षुब्ध नर ओर ॥३५॥
अन्वयार्थ : [यन्मनोजलम्] जिसका मनरूपी जल [राग-द्वेषादिक छौलै] राग-द्वेष-काम-क्रोध-मान-माया-लोभादि तरङ्गों से [अलोलं] चञ्चल नहीं होता, [सः] वही पुरुष, [आत्मनः तत्त्वम्] आत्मा के यथार्थ स्वरूप को [पश्यति] देखता है [सः तत्त्वमू] उस आत्म-तत्त्व को [इतरोजन] दूसरा राग-द्वेषादि कल्लोलों से आकुलितचित्त मनुष्य [न पश्यति] नहीं देख सकता है ।
प्रभाचन्द्र :
राग-द्वेषादि, ये ही कल्लोल (तरङ्गें) हैं, उनसे अलोल-अचञ्चल-अकलुष जिसका मनरूपी जल है (मन, वही जल-वही मनोजल, जिसका मनोजल है) वह आत्मा, आत्मा के तत्त्व (परमात्मस्वरूप) को देखता है (अनुभवता है), (उस तत्त्व को) वह, अर्थात् आत्मदर्शी, तत्त्व को, अर्थात् परमात्म-स्वरूप को अनुभवता है; अन्य कोई जन, अर्थात् रागादि-परिणत अन्य (अनात्मदर्शी) जन, तत्त्व का अनुभव नहीं कर सकता ॥३५॥
फिर तत्त्व शब्द से क्या कहना चाहते हैं? - वह कहते हैं : -
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अविक्षिप्तं मनस्तत्त्वं विक्षिप्तं भ्रान्तिरात्मन:
धारयेत्तदविक्षिप्तं विक्षिप्तं नाश्रयेत्तत: ॥36॥
निश्चल मन ही तत्त्व है, चञ्चलता निज-भ्रान्ति ।
स्थिर में स्थिरता राखि, तज अस्थिर मूल अशान्ति ॥३६॥
अन्वयार्थ : [अविक्षिप्त] रागादि परिणति से रहित तथा शरीर और आत्मा को एक माननेरूप मिथ्या अभिप्राय से रहित, जो स्वरूप में स्थिर है, [मन:] वही मन है, [आत्मनः तत्त्व] आत्मा का वास्तविक रूप है और [विक्षिप्त] रागादिरूप परिणत हुआ एवं शरीर तथा आत्मा के भेदज्ञान से शून्य मन है, वह [आत्मनः भ्रान्ति:] आत्मा का विभ्रम है; आत्मा का निजरूप नहीं है; [ततः] इसलिए तत् [अविक्षिप्त] उस राग-द्वेषादि से रहित मन को [धारयेत्] धारण करना चाहिए और [विक्षिप्त] राग-द्वेषादि से क्षुब्ध हुए मन को [न आश्रयेत्] आश्रय नहीं देना चाहिए ।
प्रभाचन्द्र :
अविक्षिप्त अर्थात् रागादि से अपरिणत; देहादिक के साथ आत्मा के अभेद (एकरूप) के अध्यवसाय (मिथ्याअभिप्राय) का परिहार करके, स्व-अनुभव में ही निश्रल (स्थिर) हो गया हुआ - ऐसा मन, वह आत्मतत्त्व अर्थात् आत्मा का वास्तविक स्वरूप है । विक्षिप्त, अर्थात् ऊपर कहा उससे विपरीत (अर्थात् रागादि से परिणत तथा देह और आत्मा के भेदज्ञान से रहित) मन, वह (आत्म) भ्रान्ति है; वह आत्मा का स्वरूप नहीं है; इसलिए उसको (अविक्षिप्त मन को) धारण करना । उसको, अर्थात् किसको? मन को; कैसे (मन को)? अविक्षिप्त (मन को); परन्तु उस विक्षिप्त (मन को) धारण नहीं करना, उसका आश्रय नहीं करना ॥३६॥
फिर किस कारण से मन का विक्षेप होता है और किस कारण से उसका अविक्षेप होता है? वह कहते हैं : -
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अविद्याभ्याससंस्कारै - रवशं क्षिप्यते मन:
तदेवज्ञानसंस्कारै: स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते ॥37॥
हों संस्कार अज्ञानमय, निश्चय हो मन भ्रान्त ।
ज्ञान संस्कृत मन करे, स्वयं तत्त्व विश्रान्ति ॥३७॥
अन्वयार्थ : [अविद्याभ्याससंस्कारै] शरीरादिक को शुचि, स्थिर और आत्मीय माननेरूप जो अविद्या / अज्ञान है, उसके पुन: पुन: प्रवृत्तिरूप अभ्यास से उत्पन्न हुए संस्कारों द्वारा [मन:] मन [अवश] स्वाधीन न रहकर, [क्षिप्यते] विक्षिप्त हो जाता है, रागी-द्वेषी बन जाता है और [तदेव] वही मन [ज्ञानसंस्कारै] आत्म-देह के भेद -विज्ञानरूप संस्कारों द्वारा [स्वत:] स्वयं ही [तत्त्वे] आत्म-स्वरूप में [अवतिष्ठते] स्थिर हो जाता है ।
प्रभाचन्द्र :
शरीरादि को पवित्र, स्थिर और आत्मीय (अपना) आदि माननेरूप जो अविद्या (अज्ञान), उसका अभ्यास, अर्थात् उसकी बारम्बार प्रवृत्ति से उत्पन्न हुए संस्कारों, अर्थात् वासनाओं - उन द्वारा करके अवश अर्थात् विषयों और इन्द्रियों (अनात्मा) के आधीन, वह मन विक्षेप पाता है विक्षिप्त होता है । वही मन, ज्ञान संस्कारों द्वारा, अर्थात् आत्मा को शरीरादि से भले जाननेरूप अभ्यास द्वारा, स्वत:, अर्थात् स्वयं ही तत्त्व में आत्म-स्वरूप में स्थिर होता है ॥३७॥
मन के विक्षेप का और अविक्षेप का फल बतलाकर कहते हैं --
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अपमानादयस्तस्य विक्षेपो यस्य चेतस:
नापमानादयस्तस्य न क्षेपो यस्य चेतस: ॥38॥
चंचल-मन गिनता सदा, मान और अपमान ।
निश्चल-मन देता नहीं, तिरस्कार पर ध्यान ॥३८॥
अन्वयार्थ : [यस्य चेतस] जिसके चित्त का [विक्षेप:] रागादिरूप परिणमन होता है, [तस्य] उसी के [अपमानादय] अपमानादिक होते हैं; [यस्यचेतस:] जिसके चित्त का [क्षेप: न] राग-द्वेषादिरूप परिणमन नहीं होता, [तस्य] उसके [अपमानादय न] अपमान-तिरस्कारादि नहीं होते हैं ।
प्रभाचन्द्र :
जिसका मन, विक्षेप पाता है (रागादिरूप परिणमता है) उसको अपमानादि, अर्थात् अपमान / अपने महत्त्व का खण्डन - अवज्ञा; मद, ईर्ष्या, मात्सर्य आदि होते हैं परन्तु जिसके मन में विक्षेप नहीं होता, उसको अपमानादि नहीं होते ॥३८॥
अपमानादि को दूर करने का उपाय --
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यदा मोहात्प्रजायेते रागद्वेषौ तपस्विन:
तदैव भावयेत्स्वस्थमात्मानं शाम्यत: क्षणात् ॥39॥
मोह-दृष्टि से जब जगे, मुनि को राग रु द्वेष ।
स्वस्थ-भावना आत्म से, मिटे क्षणिक उद्वेग ॥३९॥
अन्वयार्थ : [यदा] जिस समय [तपस्विन] किसी तपस्वी अन्तरात्मा के [मोहात्] मोहनीय कर्म के उदय से [राग-द्वेषौ] राग और द्वेष [प्रजायेते] उत्पन्न हो जावें, [तदा एव] उसी समय वह तपस्वी [स्वस्थ आत्मानं] अपने शुद्ध आत्मस्वरूप की [भावयेत्] भावना करे । इससे वे राग-द्वेषादिक [क्षणात्] क्षणभर में [शाम्यत] शान्त हो जाते हैं ।
प्रभाचन्द्र :
मोह से, अर्थात् मोहनीयकर्म के उदय के निमित्त से जब पैदा (उत्पन्न) हों; कौन (दो)? राग और द्वेष । किसको (उत्पन्न हो)? तपस्वी को । तब ही, अर्थात् राग-द्वेष के उदय काल में ही स्वस्थ आत्मा की (बाह्यविषयों से व्यावृत्त होकर / वापस हटकर) स्वरूप में स्थिर होते हुए आत्मा की भावना करनी । वैसा करने से राग-द्वेष क्षण में (शीघ्र ही) उपशमते हैं - शान्त हो जाते है ॥३९॥
अब, राग-द्वेष के विषय को तथा विपक्ष को दर्शाते हुए कहते हैं --
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यत्र काये मुने: प्रेम तत: प्रच्याव्य देहिनम्
बुद्ध्या तदुत्तमे काये योजयेत्प्रेम नश्यति ॥40॥
हे मुनि! तन से प्रेम यदि, धारो भेद-विज्ञान ।
चिन्मय-तन से प्रेम कर, तजो प्रेम अज्ञान ॥४०॥
अन्वयार्थ : [यत्र काये] जिस शरीर में [मुनेः] मुनि का [प्रेम] प्रेम-स्नेह है, [ततः] उससे [बुद्धया] भेद-विज्ञान के आधार पर [देहिनम्] आत्मा को [प्रव्याव्य] पृथक् करके [तदुत्तमे काये] उस उत्तम चिदानन्दमय काय में [योजयेत्] लगाने से [प्रेम नश्यति] बाह्य शरीर और इन्द्रिय विषयों में होनेवाला प्रेम नष्ट हो जाता है ।
प्रभाचन्द्र :
जहाँ अपनी व पर की काय (शरीर) में, अर्थात् इन्द्रिय विषय के समूह में मुनि का प्रेम-स्नेह होवे, वहाँ (शरीर) से देही (आत्मा) को व्यावृत्त करके (वापिस मोडकर); किसके द्वारा ? बुद्धि द्वारा (विवेक ज्ञान द्वारा); फिर उत्तम काय में अर्थात् पूर्व-कथित काय की अपेक्षा, उत्तमकाय में - चिदानन्दमय काय में, अर्थात् आत्म-स्वरूप में उसको (प्रेम को) जोडना । किसके द्वारा ? बुद्धि (अन्तर्दृष्टि) द्वारा । फिर क्या होता है ? प्रेम नष्ट होता है (शरीर के प्रति प्रेम नहीं रहता) ॥४०॥
वह (प्रेम) नष्ट होने पर क्या होता है ? वही कहते हैं --
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आत्म - विभ्रमजं दु:खमात्मज्ञानात्प्रशाम्यति
नाऽयतास्तत्र निर्वान्ति कृत्वाऽपि परमं तप: ॥41॥
आत्म-भ्रान्ति से दुःख हो, आत्म-ज्ञान से शांत ।
इस बिन शान्ति न हो भले, कर ले तप दुर्दांत ॥४१॥
अन्वयार्थ : [आत्मविभ्रज] शरीरादिक में आत्मबुद्धिरूप विभ्रम से उत्पन्न होनेवाला [दुःखं] दुख , [आत्मज्ञानात्] शरीरादिक से भिन्नरूप आत्म-स्वरूप के अनुभव से [प्रशाम्यति] ही शान्त होता है । [तत्र] उस के [अयता] प्रयत्न बिना [परमं] उत्कृष्ट एवं दुर्द्धर [तप:] तप को [कृत्वापि] करके भी, [न निर्वान्ति] निर्वाण नहीं होता है ।
प्रभाचन्द्र :
आत्म-विभ्रम से उत्पन्न हुआ अर्थात् अनात्मरूप शरीर आदि में आत्मबुद्धि, वह आत्म-विभ्रम, उससे उत्पन्न हुआ जो दुःख, वह शान्त होता है । किससे? आत्मज्ञान से अर्थात् शरीरादि से भेद करके आत्म-स्वरूप का वेदन करने से ।
दुर्द्धर तप के अनुष्ठान (आचरण) से तो मुक्ति की सिद्धि होने से, उस दुःख का उपशम होगा नहीं -- ऐसी आशङ्का करनेवाले को कहते हैं -- न इत्यादि....
उसमें (आत्मस्वरूप में) यत्न नहीं करनेवाले, निर्वाण प्राप्त नहीं करते (सुखी नहीं होते), क्या करके भी (सुखी नहीं होते)? तप करके भी । क्या तप कर भी? परमतप अर्थात् दुर्द्धर अनुष्ठान । (अर्थात् दुर्द्धर तप तपकर भी वे मोक्ष प्राप्त नहीं करते) । १ ॥
वह (तपश्चर्या) करनेवाला अन्तरात्मा और बहिरात्मा क्या करता है? सो कहते हैं:-
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शुभं शरीरं दिव्यांश्च विषयानभिवाञ्छति
उत्पन्नाऽऽत्ममतिर्देहे तत्त्वज्ञानी ततश्च्युतिम् ॥42॥
तन तन्मय ही चाहता, सुन्दर-तन सुर-भोग ।
ज्ञानी चाहे छूटना, विषय-भोग संयोग ॥४२॥
अन्वयार्थ : [देहेउत्पन्नात्ममति] शरीर में जिसको आत्म-बुद्धि उत्पन्न है - ऐसा बहिरात्मा, तप करके [शुभं शरीरच] सुन्दर शरीर और [दिव्यान्विषयान्] उत्तमोत्तम अथवा स्वर्ग के विषय भोगों को [अभिवाच्छति] चाहता है और [तत्त्वज्ञानी] ज्ञानी अन्तरात्मा [ततः] उन शरीर और तत्सम्बन्धी विषयों से [स्मृतिम्] छूटना चाहता है ।
प्रभाचन्द्र :
जिसको देह में आत्मबुद्धि उत्पन्न हुई है, वह बहिरात्मा वाँछा (अभिलाषा) करता है । किसकी (वाँछा करता है) ? शुभ (सुन्दर) शरीर और दिव्य, अर्थात् उत्तम स्वर्ग सम्बन्धी विषयों की (दिव्य विषय-भोगों की) अभिलाषा करता है ।
अन्तरात्मा क्या करता है? वह कहते हैं :-
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परत्राहम्मति: स्वस्माच्च्युतो बध्नात्यसंशयम्
स्वस्मिन्नहम्मतिश्च्युत्वा परस्मान्मुच्यते बुध: ॥43॥
स्व से च्युत, पर-मुग्ध नर, बँधता, पर-संग आप ।
पर से च्युत, निज-मुग्ध बुध, हरे कर्म-सन्ताप ॥४३॥
अन्वयार्थ : [परत्राहम्मति] शरीरादिक पर-पदार्थों में जिसकी आत्मबुद्धि हो रही है - ऐसा बहिरात्मा [स्वस्मात्] अपने आत्म-स्वरूप से [च्युत:] भ्रष्ट हुआ [असंशयम्] निःसन्देह [बध्नाति] बंधता है और [स्वस्मिन्नहम्मति] आत्मास्वरूप में ही आत्मबुद्धि रखनेवाला [बुध:] अन्तरात्मा, [परस्मात्] शरीरादिक पर के संग से [स्तुत्वा] स्मृत होकर [मुच्यते] मुक्त होता है ।
प्रभाचन्द्र :
पर (शरीरादि) में अहंबुद्धि (आत्मबुद्धि) करनेवाला बहिरात्मा स्व (आत्मस्वरूप) से स्मृत (भ्रष्ट) होकर बाँधता है - आत्मा को कर्मबंधन से बाँधता है; निःसंशयपने (नियम) से बाँधता है -- ऐसा अर्थ है । अपने (आत्मस्वरूप) में अहंबुद्धिवाला बुध (अन्तरात्मा); पर (शरीरादि) से स्मृत (पृथक्) होकर, मुक्त होता है (सर्व कर्मबन्धन से रहित होता है) ॥४३॥
जहाँ (जिन पदार्थों में) बहिरात्मा को आत्मबुद्धि हुई, उन्हें वह कैसा मानता है और अन्तरात्मा उन्हें (पदार्थों को) कैसा मानता है ? वैसी आशाङ्का का निरशन करके कहते हैं :-
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दृश्यमानमिदं मूढस्त्रिलिङ्गमवबुध्यते
इदमित्यवबुद्धस्तु निष्पन्नं शब्दवर्जितम्॥ 44॥
दिखते त्रय तन चिह्न को, मूढ़ कहे निजरूप ।
ज्ञानी माने आपको, वचन बिना चिद्रूप ॥४४॥
अन्वयार्थ : [मूढ:] अज्ञानी बहिरात्मा, [इदं दृश्यमान] इस दिखायी देनेवाले शरीर को [त्रिलिंग अवबुध्यते] स्त्री-पुरुष-नपुंसक के भेद से यह आत्मतत्त्व, त्रिलिङ्गरूप है - ऐसा मानता है, किन्तु [अवबुद्ध] आत्मज्ञानी अन्तरात्मा, [इदं] ' यह आत्मतत्त्व है, वह त्रिलिङ्गरूप नहीं है [तु] परन्तु वह [निष्पन्न] अनादि संसिद्ध तथा [शब्दवर्जितम्] नामादिक विकल्पों से रहित है ' [इति] - ऐसा समझता है ।
प्रभाचन्द्र :
दृश्यमान (देखने में आते हुए) शरीरादिक को । कैसे (शरीरादिक को) ? त्रिलिङ्गरूप -- स्त्री-पुरुष-नपुंसक - ये तीन लिङ्ग जिसके हैं, वैसे त्रिलिङ्गस्वरूप दिखते (शरीरादिक को) । मूढ़ (बहिरात्मा), दृश्यमान (शरीरादिक के) साथ अभेदरूप (एकरूप) की मान्यता के कारण, इस आत्म-तत्त्व को त्रिलिङ्गरूप मानता है; परन्तु जो ज्ञानी अन्तरात्मा है, वह यह 'आत्मतत्त्व है, सो त्रिलिङ्गरूप नहीं' - ऐसा मानता है, क्योंकि शरीरधर्मपने के कारण, उनका (त्रिलिङ्गपने का) आत्म-स्वरूपपने में अभाव है । वह आत्म-स्वरूप कैसा है? वह निष्पन्न अर्थात् अनादि-संसिद्ध है तथा शब्दवर्जित, अर्थात् नामादि विकल्पों से अगोचर है ॥४४॥
यदि अन्तरात्मा ही आत्मा का अनुभव करता है तो फिर 'मैं पुरुष, मैं गोरा' - इत्यादि अभेदरूप भ्रान्ति उसको कदाचित् क्यों होती है? - ऐसा बोलनेवाले के प्रति कहते हैं :-
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जानन्नप्यात्मनस्तत्त्वं विविक्तं भावयन्नपि
पूर्वविभ्रमसंस्काराद् भ्रान्तिं भूयोऽपि गच्छति ॥45॥
आत्मविज्ञ यद्यपि गिने, जाने तन-जिय भिन्न ।
पर विभ्रम संस्कारवश, पड़े भ्रान्ति में खिन्न ॥४५॥
अन्वयार्थ : अन्तरात्मा [आत्मनः तत्त्व] अपने आत्मा के शुद्ध चैतन्यस्वरूप को [जानन् अपि] जानता हुआ भी [विविक्त भावयन् अपि] और शरीरादिक अन्य पर- पदार्थों से भिन्न अनुभव करता हुआ भी, [पूर्वविभ्रमसंस्कारात्] पहली बहिरात्मावस्था में होनेवाली भ्रान्ति के संस्कारवश [भूयोऽपि] पुनरपि [भ्रांति गच्छति] भ्रान्ति को प्राप्त हो जाता है ।
प्रभाचन्द्र :
आत्मा का तत्त्व (स्वरूप) जानने पर भी तथा उसको विविक्त (शरीरादि से भिन्न) भाता होने पर भी (दोनों जगह 'अपि' शब्द परस्पर समुच्चय के अर्थ में है), फिर से भी - पुन: अपि वह (अन्तरात्मा) भ्रान्ति को प्राप्त होता है । किससे (भ्रान्ति को प्राप्त होता है)? पूर्व विभ्रम के संस्कारों से, अर्थात् पूर्व विभ्रम / बहिरात्मावस्था में शरीरादि को अपना आत्मा माननेरूप विपर्यास (विभ्रम), उससे हुआ संस्कार - वासना, उसके कारण (वह पुन: भ्रान्ति को प्राप्त होता है) । ?? ॥४५॥
फिरसे भ्रान्ति को प्राप्त वह अन्तरात्मा, उसको (भ्रान्ति को) किस प्रकार छोड़े ? -- वह कहते हैं -
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अचेतनमिदं दृश्यमदृश्यं चेतनं तत:
क्व रुष्यामि क्व तुष्यामि मध्यस्थोऽहं भवाम्यत: ॥46॥
जो दिखते चेतन नहीं, चेतन गोचर नाहिं ।
रोष-तोष किससे करूँ, हूँ तटस्थ निज माँहि ॥४६॥
अन्वयार्थ : [इदंदृश्यं] यह जो दृष्टिगोचर होनेवाला पदार्थ-समूह है, वह समस्त ही [अचेतन] चेतनारहित-जड है और जो [चेतन] चैतन्यरूप आत्मा है, वह [अदृश्य] इन्द्रियों के द्वारा दिखायी नहीं पड़ता; [तत:] इसलिए वह [क्व रुष्यामि] मैं किस पर तो क्रोध करूँ और [क्व तुष्यामि] किस पर सन्तोष व्यक्त करूँ? [अत: अहंमध्यस्थ भवामि] अत: में तो अब राग-द्वेष के परित्यागरूप मध्यस्थभाव को धारण करता हूँ ।
प्रभाचन्द्र :
ये ( शरीरादिक) जो दृश्य (इन्द्रियों द्वारा दिखने योग्य) हैं - प्रतीति में आने योग्य हैं, वे अचेतन-जड हैं; वे किए गये रोष-तोषादिक को नहीं जानते - ऐसा अर्थ है । जो चेतन-स्वात्मस्वरूप है, वह अदृश्य है, अर्थात् इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है; इसलिए मैं किसके प्रति रोष करूँ और किसके प्रति तोष करूँ? क्योंकि दृश्य शरीरादि, अचेतन हैं और चेतन-आत्मस्वरूप अदृश्य है इसलिए मैं मध्यस्थ - उदासीन होता हूँ क्योकि रोष-तोष का कोई भी विषय घटित नहीं होता ॥४६॥
अब, बहिरात्मा और अन्तरात्मा के त्याग-ग्रहण के विषय को स्पष्ट करते हुए कहते हैं : -
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त्यागादाने बहिर्मूढ: करोत्यध्यात्ममात्मवित्
नान्तर्बहिरुपादानं न त्यागो निष्ठितात्मन: ॥47॥
बाहर से मोही करे, अन्दर अन्तर-आत्म ।
दृढ़ अनुभववाला नहीं, करे ग्रहण और त्याग ॥४७॥
अन्वयार्थ : [मूढ:] मूर्ख [बहि:] बाह्य-पदार्थों का [त्यागादाने करोति] त्याग और ग्रहण करता है; [आत्मवित्] आत्माज्ञानी [अध्यात्म त्यागादाने करोति] अन्तरङ्ग में त्याग-ग्रहण करता है परन्तु [निष्ठितात्मन] शुद्धस्वरूप में स्थित के [अन्तर्बहि] अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग का [न त्याग:] न तो त्याग और [न उपादान] न ग्रहण होता है ।
प्रभाचन्द्र :
मूढ़ बहिरात्मा, त्याग-ग्रहण करता है । किसमें (करता है)? बाहर (बाह्यवस्तु) में; द्वेष के उदय के कारण- अभिलाषा के अभाव के कारण, मूढात्मा (बहिरात्मा) उसका (बाह्यवस्तु का) त्याग करता है और राग का उदय होने पर, उसकी अभिलाषा की उत्पत्ति के कारण, उसका (बाह्यवस्तु का) ग्रहण करता है, परन्तु आत्मविद, अर्थात् अन्तरात्मा, आत्मा में ही / आत्मस्वरूप में ही त्याग-ग्रहण करता है । वहाँ त्याग तो राग-द्वेषादि का अथवा अन्तर्जल्परूप विकल्पादि का और स्वीकार (ग्रहण) चिदानन्दादि का होता है ।
जो निष्ठितात्मा (कृतकृत्य आत्मा) है, उसको अन्तर में या बाह्य में (कुछ) ग्रहण नहीं है तथा अन्तर या बाह्य में (कुछ) त्याग नहीं है ॥४७॥
अंतर में त्याग-ग्रहण करनेवाला अंतरात्मा किस प्रकार करे ? वह कहते हैं --
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युञ्जीत मनसाऽऽत्मानं वाक्कायाभ्यां वियोजयेत्
मनसा व्यवहारं तु त्यजेद्वाक्काययोजितम् ॥48॥
जोड़े मन संग आत्मा, वचन-काय से मुक्त ।
वचन-काय व्यवहार में, जोड़े न मन हो युक्त ॥४८॥
अन्वयार्थ : [आत्मानं] आत्मा को [मनसा] मन के साथ [युञ्जीत] संयोजित करे , [वाक्कायाभ्यां] वचन और काय से [वियोजयेत्] अलग करे - उन्हें आत्मा न समझे [तु] और [वाक्काययोजितम्] वचन-काय से किए हुए [व्यवहार] व्यवहार को [मनसा] मन से [त्यजेत्] छोड़ देवें; उसमें चित्त को न लगावें ।
प्रभाचन्द्र :
(वह अन्तरात्मा), आत्मा को जोड़े, अर्थात् सम्बन्ध करे । किसके साथ? मन के साथ (मानस ज्ञान / भावमन के साथ) । 'मन, वह आत्मा है' - ऐसा अभेदरूप अध्यवसाय (मान्यता) करे -- ऐसा अर्थ है और वाणी तथा काय से उसको (आत्मा को) वियुक्त (पृथक्) करे, अर्थात् वाणी और काया में आत्मा का अभेदरूप अध्यवसाय नहीं करे - ऐसा अर्थ है और वैसा करनेवाले वाक् काययोजित अर्थात् वाणी-काय द्वारा योजित, अर्थात् सम्पादित 'प्रतिपाद्य' प्रतिपादक भावरूप (शिष्य -गुरु सम्बन्धरूप) प्रवृत्ति-निवृत्ति व्यवहार को; किसके साथ (सम्पादित)? मन के साथ अर्थात् मन में आरोपित व्यवहार को; मन से तजे, अर्थात् मन में चिन्तवन नहीं करे ॥४८॥
पुत्र-स्त्री आदि के साथ के वाणी-काया के व्यवहार में तो सुख की उत्पत्ति की प्रतीति होती है, तो उसका (व्यवहार का) त्याग किस प्रकार योग्य है? वह कहते हैं --
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जगद्देहात्मदृष्टीनां विश्वास्यं रम्यमेव च
स्वात्मन्येवात्मदृष्टीनां क्व विश्वास: क्व वा रति: ॥49॥
मूढ़ रति पर में करे, धरे जगत् विश्वास ।
स्वात्म-दृष्टि कैसे करे, जग में रति विश्वास ॥४९॥
अन्वयार्थ : [देहात्मदृष्टीना] शरीर में आत्मदृष्टि रखनेवाले मिथ्यादृष्टि बहिरात्माओं को [जगत्] यह स्त्री-पुत्र-मित्रादि का समूहरूप जगत [विश्वास्य] विश्वास के योग्य [च] और [रम्य एव] रमणीय ही मालूम पडता है परन्तु [स्वात्मनि एव आत्मदृष्टीनां] अपने आत्मा में ही आत्मदृष्टि रखनेवाले सम्यग्दृष्टि अन्तरात्माओं को [क्य विश्वास] इन स्त्री-पुत्रादि पर-पदार्थों में कैसे विश्वास [वा क्य रति] और कैसे आसक्ति हो सकती है ?
प्रभाचन्द्र :
देह में आत्म-दृष्टिवाले बहिरात्माओं को पुत्र-स्त्री आदि प्राणीसमूहरूप जगत विश्वास करने योग्य, अर्थात् अवचंक (नहीं ठगनेवाला) तथा रम्य ही, अर्थात् रमणीय ही प्रतिभाषित होता है । स्वात्मा में ही, अर्थात् स्व-स्वरूप में ही आत्म-दृष्टिवाले अन्तरात्माओं को विश्वास कहाँ है अथवा रति कहाँ? उनको पुत्र-स्त्री आदि में कहीं भी विश्वास अथवा रति प्रतिभासित नहीं होती -- ऐसा अ र्थ है ॥४९॥
इस प्रकार होवे तो आहारादि में भी अन्तरात्मा की प्रवृत्ति कैसे होती है? वह कहते हैं : -
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आत्मज्ञानात्परं कार्यं न बुद्धौ धारयेच्चिरम्
कुर्यादर्थवशात्किञ्चिद्वाक्कायाभ्यामतत्पर: ॥50॥
आत्मज्ञान से भिन्न कार्य कुछ, मन में थिर नहीं होय ।
कारणवश यदि कुछ करे, अनासक्ति वहां जोय ॥५०॥
अन्वयार्थ : अन्तरात्मा को चाहिए कि वह [आत्मज्ञानात्परं] आत्मज्ञान से भिन्न, दूसरे [कार्यं] कार्य को [चिर] अधिक समय तक [बुद्धौ] अपनी बुद्धि में [न धारयेत्] धारण नहीं करे । यदि [अर्थवशात्] स्व-पर के उपकारादिरूप प्रयोजन के वश [वाक्कायाभ्यां] वचन और काय से [किंचित् कुर्यात्] कुछ करना ही पडे तो उसे [अतत्पर] अनासक्त होकर [कुर्यात्] करे ।
प्रभाचन्द्र :
चिरकालतक अर्थात् बहुत लम्बे काल तक बुद्धि में धारण नहीं करता । क्या वह? कार्य । कैसा (कार्य)? पर अर्थात् अन्य । किससे (अन्य)? आत्मज्ञान से (अन्य) । आत्मज्ञानरूप कार्य को ही लम्बे काल तक धारण रखता है -- ऐसा अर्थ है; परन्तु अन्य किंचित् अर्थात् भोजन, व्याख्यानादिरूप कार्य को वचन-काय द्वारा करे । किससे ? प्रयोजनवश अर्थात् स्व-पर के उपकाररूप प्रयोजनवश (करे) । कैसा होकर (वह करे)? अतत्पर होकर अर्थात् उसमें अनासक्त होकर करे ॥५०॥
अनासक्त (अन्तरात्मा) आत्मज्ञान को ही बुद्धि में धारण करता है; शरीरादि को नहीं -- ऐसा कैसे होता है? वह कहते हैं :--
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यत्पश्यामीन्द्रियैस्तन्मे नास्ति यन्नियतेन्द्रिय:
अन्त: पश्यामि सानन्दं तदस्तु ज्योतिरुत्तमम् ॥51॥
इन्द्रिय से जो कुछ प्रगट, मम स्वरूप है नाहिं ।
'मैं हूँ आनन्द ज्योति प्रभु', भासे अन्दर माँहि ॥५१॥
अन्वयार्थ : अन्तरात्मा विचारता है कि [यत्] जो कुछ शरीरादि बाह्य पदार्थ [इन्द्रियै] इन्द्रियों के द्वारा [पश्यामि] मैं देखता हूँ । [तत्] वह [मे] मेरा स्वरूप [नास्ति] नहीं है, किन्तु [नियतेन्द्रिय] इन्द्रियों को बाह्य विषयों से रोककर, स्वाधीन करता हुआ [यत्] जिस [उत्तम] उत्कृष्ट अतीन्द्रिय [सानन्द ज्योति:] आनन्दमय ज्ञानप्रकाश को [अन्त:] अन्तरङ्ग में [पश्यामि] देखता हूँ- अनुभव करता हूँ [तत् मे] वही मेरा वास्तविक स्वरूप [अस्तु] हो ।
प्रभाचन्द्र :
जो, अर्थात् शरीरादिक को मैं इन्द्रियों से देखता हूँ वह, मेरा नहीं है अर्थात् वह मेरा स्वरूप नहीं है । तो मेरा रूप क्या? वह उत्तम ज्योति हो - ज्योति अर्थात् ज्ञान और उत्तम अर्थात् अतीन्द्रिय तथा आनन्दमय अर्थात् परम प्रसन्नता (प्रशान्ति) से उत्पन्न हुए सुख से युक्त है । इस प्रकार की जिस ज्योति को (ज्ञानप्रकाश को) अन्तरङ्ग में मैं देखता हूँ - स्व-संवेदन से मैं अनुभव करता हूँ वह मेरा स्वरूप अस्तु - हो । मैं कैसा होकर देखता हूँ? इन्द्रियों को संयमित करके (इन्द्रियों को बाह्य विषयों से रोककर और स्वयं स्वाधीन होकर), अर्थात् इन्द्रियों को वश में रखकर (मैं देखता हूँ) ॥५१॥
यदि आनन्दमय ज्योति (ज्ञान), आत्मा का स्वरूप है तो इन्द्रियों का निरोध करके उसका अनुभव करनेवाले को दुःख किस प्रकार हो सकता? वह कहते हैं : -
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सुखमारब्धयोगस्य बहिर्दु:खमथात्मनि
बहिरेवाऽसुखं सौख्यमध्यात्मं भावितात्मन: ॥52॥
बाहर सुख भासे प्रथम, दुःख भासे निज माँहि ।
बाहर दुःख निजमाँहि सुख, भासे अनुभव माँहि ॥५२॥
अन्वयार्थ : [आरब्धयोगस्य] योग का अभ्यास शुरू करनेवाले को [बहि:] बाह्य विषयों में [सुखं] सुख मालूम होता है [अथ] और [आत्मनि] आत्मस्वरूप की भावना में [दुःखं] दुःख प्रतीत होता है किन्तु [भावितात्मन:] यथावत् आत्म-स्वरूप को जानकर, उसकी भावना के अच्छे अभ्यासी को [बहि: एव] बाह्य विषयों में ही [असुखं] दुःख जान पडता है और [अध्यात्म] अपने आत्म-स्वरूप में ही [सौख्यम्] सुख का अनुभव होता है ।
प्रभाचन्द्र :
बाहर अर्थात् बाह्य विषयों में सुख लगता है । किसको ? योग का आरम्भ करनेवाले को, अर्थात् प्रथम बार आत्मस्वरूप की भावना के अभ्यासी को । और कहते हैं - आत्मा में, अर्थात् आत्म-स्वरूप में (उसकी भावना में) दुःख (कठिनता) लगता है, परन्तु भावितात्म को, अर्थात् यथावत् जाने हुए आत्म-स्वरूप के (उसकी भावना के) अभ्यासी को, बाह्य में ही, अर्थात् बाह्य-विषयों में ही असुख (दुःख) भासित होता है । और कहते हैं - आत्मा में, अर्थात् उसके अध्यात्म-स्वरूप में ही (उसकी भावना में ही) सुख लगता है ॥५२॥
वह भावना इस प्रकार करना चाहिए यह कहते हैं : -
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तद् ब्रूयात्तत्परान् पृच्छेत्तदिच्छेत्तत्परो भवेत्
येनाऽविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ॥53॥
कथन पृच्छना कामना, तत्परता बढ़ जाय ।
ज्ञानमय हो परिणमन, मिथ्याबुद्धि नशाय ॥५३॥
अन्वयार्थ : [तत् ब्रूयात्] उस आत्म-स्वरूप का कथन करे; उसे दूसरों को बतलावे; [तत् पराम् पृच्छेत्] उस आत्म-स्वरूप को दूसरे आत्मानुभवी पुरुषों से-विशेष ज्ञानियों से पूछे, [तत् इच्छेत्] उस आत्म-स्वरूप की इच्छा करे, उसकी प्राप्ति को अपना इष्ट बनाये, और [तत्पर: भवेत्] उस आत्म-स्वरूप की भावना में सावधान हुआ आदर बढ़ावे, [येन] जिससे [अविद्यामय रूपं] यह अज्ञानमय बहिरात्मरूप [त्यक्त्वा] छूटकर, [विद्यामयं व्रजेत्] ज्ञानमय परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति होवे ।
प्रभाचन्द्र :
उस आत्मस्वरूप का कथन करना, अर्थात् अन्य को समझाना; दूसरों ने, अर्थात् जिन्होंने आत्मस्वरूप जाना हो, उनसे वह आत्मस्वरूप पूछना; तथा उस आत्मस्वरूप की इच्छा करना, अर्थात् उसको परमार्थस्वरूप मानना; उसमें तत्पर रहना, अर्थात् आत्मस्वरूप की भावना का आदर करना; जिससे, अर्थात् इस प्रकार आत्मस्वरूप की भावना करने से, अविद्यामय स्वरूप का, अर्थात् बहिरात्मस्वरूप का त्याग करके, विद्यामयरूप, अर्थात् परमात्मस्वरूप प्राप्त किया जा सके ॥५३॥
वाणी-शरीर से भिन्न, आत्मा का असम्भव होने से उसके विषय में बोलना (पूछताछ करना) इत्यादि योग्य नहीं है -- ऐसा कहनेवाले के प्रति कहते हैं : -
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शरीरे वाचि चात्मानं सन्धत्ते वाक्शरीरयो:
भ्रान्तोऽभ्रान्त: पुनस्तत्त्वं पृथगेषां निबुध्यते ॥54॥
तन-वच तन्मय मूढ़ चित, जुड़े वचन-तन संग ।
भ्रान्ति रहित तन-वचन में, चित को गिने असंग ॥५४॥
अन्वयार्थ : [वाक् शरीरयो भ्रान्त:] वचन और शरीर में जिसकी भ्रान्ति हो रही है - ऐसा बहिरात्मा [वाचि शरीरे च] वचन और शरीर में [आत्मानं सन्धत्ते] आत्मा का आरोपण करता है, [पुन:] किन्तु [अभ्रान्तः] ज्ञानी पुरुष, [एषा तत्त्व] इन शरीर और वचन के स्वरूप को [पृथक्] आत्मा से भिन्न [निबुध्यते] जानता है ।
प्रभाचन्द्र :
संधान करता है, अर्थात् आरोपित करता है । किसको? आत्मा को । किसमें? शरीर और वाणी में । वह मूढ कौन है? वाणी और शरीर में भ्रान्तिवाला, अर्थात् वाणी, वह आत्मा; शरीर, वह आत्मा - ऐसी विपरीत मान्यतावाला बहिरात्मा है परन्तु उन दोनों में जिसको भ्रान्ति नहीं है, अर्थात (उन दोनों के) स्वरूप को यथार्थरूप से जानता है, वह अन्तरात्मा, उनके, अर्थात् वाणी -शरीर और आत्मा के तत्त्व को, अर्थात् स्वरूप को पृथक् - एक-दूसरे से भिन्न जानता है, निश्चित करता है ॥५४॥
इस प्रकार से आत्म-स्वरूप को नहीं जाननेवाला बहिरात्मा, जिन विषयों में उसका चित्त आसक्त होता है, उनमें (उन विषयों में) कोई भी (विषय) उसको उपकारक नहीं है -- ऐसा कहते हैं : -
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न तदस्तीन्द्रियार्थेषु यत्क्षेमङ्करमात्मन:
तथापि रमते बालस्तत्रैवाज्ञानभावनात् ॥55॥
इन्द्रिय-विषयों में न कुछ, आत्म-लाभ की बात ।
तो भी मूढ़ अज्ञानवश, रमता इनके साथ ॥५५॥
अन्वयार्थ : [इन्द्रियार्थेषु] पाँचों इन्द्रियों के विषय में [तत्] ऐसा कोई पदार्थ [न अस्ति] नहीं है [यत्] जो [आत्मन्] आत्मा का [क्षेमङ्करं] भला करनेवाला हो, [तथापि] तो भी [बाल:] यह अज्ञानी बहिरात्मा, [अज्ञान-भावनात्] चिरकालीन मिथ्यात्व के संस्कारवश [तत्रैव] उन्हीं इन्द्रियों के विषयों में [रमते] आसक्त रहता है ।
प्रभाचन्द्र :
इन्द्रियों के पदार्थों में, अर्थात् पाँचों इन्द्रियों के विषयों में ऐसा कोई भी नहीं, जो क्षेमङ्कर (सुखकर), अर्थात् उपकारक हो । किसको? आत्मा को । वैसा होने पर भी, अर्थात् कोई सुखकर नहीं है तो भी (उनमें) रमता है - रति करता है । कौन वह ? बाल (अज्ञानी), अर्थात् बहिरात्मा उनमें ही, अर्थात् इन्द्रिय के विषयों में ही (रमता है ।) किससे (रमता है)? अज्ञानभावना से, अर्थात् मिथ्यात्व के संस्कारवश (रमता है) । जिनसे अज्ञान जन्मे - पैदा हो, वह अज्ञानभावना, अर्थात् मिथ्यात्व के संस्कार - उनसे (इन्द्रियों के विषयों में रमता है) ॥५५॥
अनादि मिथ्यात्व के संस्कार के कारण ऐसे (प्रकार के) बहिरात्मा होते हैं, वह कहते हैं --
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चिरं सुषुप्तास्तमसि मूढात्मान: कुयोनिषु
अनात्मीयात्मभूतेषु ममाहमिति जाग्रति ॥56॥
मोही मुग्ध कुयोनि में, है अनादि से सुप्त ।
जागे तो पर को गिने, आत्मा होकर मुग्ध ॥५६॥
अन्वयार्थ : [मूढात्मान] ये मूर्ख अज्ञानी जीव, [तमसि] मिथ्यात्वरूपी अन्धकार के उदयवश [चिर] अनादि काल से [कुयोनिषु] नित्य-निगोदादिक कुयोनियों में [सुषुप्ता] सो रहे हैं- अतीव जडता को प्राप्त हो रहे हैं । यदि कदाचित् संज्ञी प्राणियों में उत्पन्न होकर कुछ जागते भी हैं तो [अनात्मीयात्मभूतेषु मम अहम्] अनात्मीयभूत स्त्री-पुत्रादि में 'ये मेरे हैं' और अनात्मीयभूत शरीरादिको में 'मैं ही इनरूप हूँ ' [इति जाग्रति] - ऐसा अध्यवसाय करने लगते हैं ।
प्रभाचन्द्र :
चिर-काल से- अनादि काल से मूढात्मा, अर्थात् बहिरात्मा सो रहे हैं, अर्थात् अति जड़ता को प्राप्त हुए हैं । कहाँ (सो रहे हैं)? कुयोनियों में, अर्थात् नित्य निगोदादि चौरासी लाख योनियों में । क्या होने से वे उनमें सो रहे हैं? अन्धकार, अर्थात् अनादि मिथ्यात्व के संस्कार (के वश) होकर (सो रहे हैं) - ऐसे होते हुए (सोये हुए) वे (बहिरात्मा) यदि संज्ञी (जीवों में) उत्पन्न होकर कदाचित् अर्थात् दैववशात् जागृत हों, तो वे 'मेरा-मैं ' ऐसा अध्यवसाय करते हैं । किसमें? अनात्मीयभूत में और अनात्मभूत में - अनात्मीय में, अर्थात् वास्तव में अनात्मीयभूत / अपने नहीं - ऐसे पुत्र-स्त्री आदि में 'ये मेरे हैं' - ऐसा मानते हैं, अर्थात् ऐसा अध्यवसाय करते हैं; और अनात्मभूत जो शरीरादि उनमें 'यह मैं ही हूँ' - ऐसा अध्यवसाय करते हैं - ऐसी विपरीत मान्यता करते हैं ॥५६॥
इसलिए बहिरात्मस्वरूप का त्याग करके, स्व-पर के शरीर को इस प्रकार देखना, वह कहते हैं : -
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पश्येन्निरन्तरं देहमात्मनोऽनात्मचेतसा
अपरात्मधियाऽन्येषामात्मतत्त्वे व्यवस्थित: ॥57॥
हो सुव्यवस्थित आत्म में, निज काया जड़ जान ।
पर काया में भी करे, जड़ की ही पहिचान ॥५७॥
अन्वयार्थ : अन्तरात्मा को चाहिए कि [आत्मतत्त्व] अपने आत्म-स्वरूप में [व्यवस्थित:] स्थित होकर [आत्मनः देह] अपने शरीर को [अनात्मचेतसा] ' यह शरीर, मेरा आत्मा नहीं ' - ऐसी अनात्मबुद्धि से [निरन्तरंपश्येत्] सदा देखे / अनुभव करे और [अन्येषां] दूसरे प्राणियों के शरीर को [अपरात्मधिया] ' यह शरीर, पर का आत्मा नहीं ' - ऐसी अनात्मबुद्धि से [पश्येत्] सदा अवलोकन करे ।
प्रभाचन्द्र :
अपने शरीर को, अर्थात् आत्मा के साथ सम्बन्ध रखनेवाले शरीर को; 'अनात्मबुद्धि' से, अर्थात् 'यह मेरा आत्मा नहीं है' - ऐसी बुद्धि से अन्तरात्मा को निरन्तर -सर्वदा देखना (अनुभवना) तथा अन्य के देह को 'यह पर का आत्मा नहीं है' - ऐसी बुद्धि से देखना । कैसा होकर (वैसा करना)? आत्मतत्त्व में व्यवस्थित होकर, अर्थात् आत्मस्वरूप में स्थित होकर (वैसा करना) ॥५७॥
इस प्रकार आत्मतत्त्व का स्वयं अनुभव करके, मूढ़ आत्माओं को क्यों नहीं समझाते, जिससे वे भी यह जाने -- ऐसा कहनेवाले के प्रति कहते हैं : -
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अज्ञापितं न जानन्ति यथा मां ज्ञापितं तथा
मूढात्मानस्ततस्तेषां वृथा मे ज्ञापनश्रम: ॥58॥
कहूं ना कहूं मूढ़जन, नहीं जाने निजरूप ।
समझाने का श्रम वृथा, खोना समय अनूप ॥५८॥
अन्वयार्थ : स्वात्मानुभवमग्न अन्तरात्मा विचारता है कि [यथा] जैसे [मूढात्मान:] ये मूर्ख अज्ञानी जीव, [अज्ञापितं] बिना बताए हुए [मां] मेरे आत्म-स्वरूप को [न जानन्ति] नहीं जानते हैं, [तथा] वैसे ही [ज्ञापितं] बतलाये जाने पर भी नहीं जानते हैं; [तत:] इसलिए [तेषां] उन मूढ पुरुषों को [मे ज्ञापन श्रम:] मेरा बतलाने का परिश्रम [वृथा] व्यर्थ है, निष्फल है ।
प्रभाचन्द्र :
जैसे, मूढ़ आत्माएँ मुझे, अर्थात् आत्म-स्वरूप को बिना कहे (बिना समझाये) मूढ़ात्मपने के कारण नहीं जानते; इसी तरह कहने पर भी वे मुझे (आत्म-स्वरूप को) मूढ़ात्मपने के कारण ही नहीं जानते; इसलिए उनके सर्वथा परिज्ञान का अभाव होने से, उन मूढ़ात्माओं के सम्बन्ध में बोध करने का (उनको कहने का - समझाने का) मेरा श्रम वृथा (व्यर्थ) है, अर्थात् उनको वह स्वरूप समझाने का मेरा प्रयास विफल (व्यर्थ) है ॥५८॥
फिर --
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यद्बोधयितुमिच्छामि तन्नाहं यदहं पुन:
ग्राह्यं तदपि नान्यस्य तत्किमन्यस्य बोधये ॥59॥
समझाना चाहूँ जिसे, वह नहीं मेरा अर्थ ।
नहीं अन्य से ग्राह्य मैं, क्यों समझाऊँ व्यर्थ? ॥५९॥
अन्वयार्थ : [यत्] जिसे, अर्थात् विकल्पाधिरूढ आत्म-स्वरूप को अथवा देहादिक को - [बोधयितुं] समझाने-बुझाने की [इच्छामि] मैं इच्छा करता हूँ-चेष्टा करता हूँ [तत्] वह [न अहं] मैं नहीं, अर्थात् आत्मा का वास्तविक स्वरूप नहीं । [पुन:] और [यत्] जो ज्ञानानन्दमय स्वयं अनुभव करने योग्य आत्म-स्वरूप [अहं] मैं हूँ [तदपि] वह भी [अन्यस्य] दूसरे जीवों के [ग्राह्य न] उपदेश द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है; वह तो स्व-संवेदन के द्वारा अनुभव किया जाता है; [तत्] इसलिए [अन्यस्य] दूसरे जीवों को [किं बोधये] मैं क्या समझाऊँ?
प्रभाचन्द्र :
जिसका, अर्थात् विकल्पाधिरूढ आत्मस्वरूप का अथवा देहादिक का मैं बोध कराना चाहता हूँ - जिसे समझाना चाहता हूँ वह (तो) मैं नहीं, अर्थात् उन (विकल्पाधिरूढ स्वरूप) मैं नहीं - परमार्थ से आत्म-स्वरूप नहीं । फिर जो मैं, अर्थात् फिर मैं जो चिदानन्दमय स्वसंवेद्य आत्मस्वरूप हूँ वह भी अन्य को स्वयं ग्राह्य (समझ में आवे, वैसा) नहीं, (क्योंकि) वह स्व-संवेदन से अनुभव में आता है -- ऐसा अर्थ है । अत: दूसरों को मैं क्या बोध करूँ? अर्थात् इसलिए मैं दूसरे को किसलिए आत्म-स्वरूप का बोध कराऊँ? ॥५९॥
आत्मस्वरूप का बोध देने पर भी बहिरात्मा को, उसमें अनुराग सम्भवता (होता) नहीं; मोह के उदय से उसको बाह्य पदार्थ में ही अनुराग होता है -- ऐसा दर्शाते हुए कहते हैं :--
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बहिस्तुष्यति मूढात्मा पिहितज्योतिरन्तरे
तुष्यत्यन्त: प्रबुद्धात्मा बहिव्र्यावृत्तकौतुक: ॥60॥
आवृत अन्तर ज्योति हो, बाह्य विषय में तुष्ट ।
जागृत जग-कौतुक तजे, अन्दर से सन्तुष्ट ॥६०॥
अन्वयार्थ : [अन्तरे पिहितज्योति:] अन्तरङ्गमें जिसकी ज्ञानज्योति मोह से आच्छादित हो गयी है, जिसे स्वरूप का विवेक नहीं - ऐसा [मूढात्मा] बहिरात्मा, [बहि:] बाह्य शरीरादि पर-पदार्थों में ही [तुष्यति] सन्तुष्ट रहता है - अनुराग करता है, किन्तु [प्रबुद्धात्मा] जिसे स्वरूप-विवेक जागृत हुआ है - ऐसा अन्तरात्मा, [बहिर्व्यावृत्त-कौतुक:] बाह्य शरीरादि पदार्थों में कौतुक रहित होकर [अन्त:] अन्तरंग आत्म-स्वरूप में ही [तुष्यति] सन्तोष करता है-मग्न रहता है ।
प्रभाचन्द्र :
बाह्य में, अर्थात् शरीरादि पदार्थ में ही वह संतोष करता है - प्रीति करता है । वह कौन ? मूढ़ात्मा (बहिरात्मा) । वह कैसा है ? जिसकी ज्योति ढँक गयी है, अर्थात् मोह से जिसका ज्ञान, पराभव को प्राप्त हुआ है । कहाँ ? अन्तरङ्ग में, अर्थात् अन्तरतत्त्व के विषय में । प्रबुद्धात्मा, अर्थात् जिसका ज्ञान, मोह से अभिभूत नहीं हुआ (पराभव को प्राप्त नहीं हुआ) वैसा (आत्मस्वरूप में जागृत) आत्मा; अन्तरत्र मैं सन्तोष करता है - स्व-स्वरूप में प्रीति करता है । कैसा होकर ? बाह्य में कौतूक-रहित होकर - शरीरादि में अनुरागरहित होकर (आत्मस्वरूप में प्रीति करता है) ॥६०॥
वह (अन्तरात्मा) किस कारण से शरीरादि के विषय में भूषणमण्डनादि में अनुरागरहित (उदासीन) होता है, वह कहते हैं --
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न जानन्ति शरीराणि सुखदु:खान्यबुद्धय:
निग्रहानुग्रहधियं तथाप्यत्रैव कुर्वते ॥61॥
काया को होती नहीं, सुख-दुख की अनुभूति ।
पोषण-शोषण यत्न से, करते व्यर्थ कुबुद्धि ॥६१॥
अन्वयार्थ : [शरीराणि] ये शरीर [सुख-दुखानि न जानन्ति] जड़ होने से सुखों तथा दुखों को नहीं जानते हैं, [तथापि] तो भी [ये] जो जीव [अत्रैव] इन शरीरों में ही [निग्रहानुग्रहधियं] निग्रह की और अनुग्रह की बुद्धि [कुर्वते] धारण करते हैं, [ते] वे जीव [अबुद्धय:] मूढ्बुद्धि हैं ।
प्रभाचन्द्र :
सुख-दुख जानता नहीं । कौन (नहीं जानता)? शरीर, जड्पने के कारण (नहीं जानता); बुद्धिरहित बहिरात्माएँ; ऐसा होने पर भी, अर्थात् (शरीर) जानता नहीं, तथापि उनमें (शरीरादि में) ही करते हैं । क्या (करते हैं)? निग्रह (अनुग्रह) की बुद्धि (करते हैं), अर्थात् द्वेष के आधीन होकर, उपवासादि द्वारा शरीर को कृश करने का अभिप्राय, वह निग्रहबुद्धि और राग के आधीन होकर, कंकण, कटिसूत्रादि द्वारा (शरीरादिक को) भूषित करने का (श्रृंगारित करने का) अभिप्राय, वह अनुग्रहबुद्धि करते हैं ॥६१॥
जब तक शरीरादि में आत्मबुद्धि से प्रवृत्ति है, तब तक संसार है; उसके अभाव से मुक्ति है - यह दर्शाते हुए कहते हैं --
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स्वबुद्ध्या यावद् गृह्णीयात् कायवाक्चेतसां त्रयम्
संसारस्तावदेतेषां भेदाभ्यासे तु निर्वृति: ॥62॥
'हैं मेरे मन-वचन-तन' - यही बुद्धि संसार ।
इनके भेद-अभ्यास से, होते भविजन पार ॥६२॥
अन्वयार्थ : [यावत्] जब तक [कायवाक्चेतसां त्रयम्] शरीर, वचन और मन - इन तीनों को [स्वबुद्धया] आत्मबुद्धि से [गृह्णीयात्] ग्रहण किया जाता है, [तावत्] तब तक [संसार:] संसार है [तु] और जब [एतेषां] इन का [भेदाभ्यासे] आत्मा से भिन्न होनेरूप अभ्यास किया जाता है, तब [निवृत्ति:] मुक्ति की प्राप्ति होती है ।
प्रभाचन्द्र :
स्वबुद्धि से, अर्थात् आत्मबुद्धि से जहाँ तक ग्रहण करता है । क्या ग्रहण करता है? त्रय को (तीन को); किसके (त्रय को)? काय, वाणी और मन के त्रय को, अर्थात् जहाँ तक आत्मा में काय-वाणी-मन का सम्बन्ध ग्रहण करता है - स्वीकार करता है, ऐसा अर्थ है । वहाँ तक संसार है परन्तु इन काया-वाणी-मन के भेद का अभ्यास होने पर, अर्थात् आत्मा से काय-वाणी-मन भिन्न है - ऐसे भेद का अभ्यास होने पर- भेदभावना होने पर, निवृत्ति, अर्थात् मुक्ति होती है ।
शरीरादि में आत्मा का भेदाभ्यास होने पर, वह (अन्तरात्मा) शरीर की दृढतादि होने पर, आत्मा की दृढतादिक नहीं मानता - ऐसा बतलाकर 'घने' इत्यादि चार श्लोक कहते है : -
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घने वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न घनं मन्यते तथा
घने स्वदेहेऽप्यात्मानं न घनं मन्यते बुध: ॥63॥
जीर्णे वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न जीर्णं मन्यते तथा
जीर्णे स्वदेहेऽप्यात्मानं न जीर्णं मन्यते बुध: ॥64॥
नष्टे वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न नष्टं मन्यते तथा
नष्टे स्वदेहेऽप्यात्मानं न नष्टं मन्यते बुध: ॥65॥
रक्ते वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न रक्तं मन्यते तथा
रक्ते स्वदेहेऽप्यात्मानं न रक्तं मन्यते बुध: ॥66॥
मोटा कपड़ा पहनकर, मानें नहीं तन पुष्ट ।
त्यों बुध तन की पुष्टि से, गिने न आत्मा पुष्ट ॥६३॥
वस्त्र जीर्ण से जीर्ण तन, माने नहीं बुधिवान ।
त्यों न जीर्ण तन से गिनें, जीर्ण आत्म मतिमान ॥६४॥
वस्त्र फटे माने नहीं, बुद्धिमान तन-नाश ।
त्यों तन-नाश से, बुधजन गिनते नहीं विनाश ॥६५॥
रक्त वस्त्र से नहीं गिनें, बुधजन तन को लाल ।
रक्त देह से ज्ञानीजन, गिने न चेतन लाल ॥६६॥
अन्वयार्थ : [यथा] जिस प्रकार [वस्त्र घने] गाढा वस्त्र पहन लेने पर [बुध:] बुद्धिमान पुरुष, [आत्मानं] अपने को-अपने शरीर को [घनं] गाढ़ा अथवा पुष्ट [न मन्यते] नहीं मानता है, [तथा] उसी प्रकार [स्वदेहेऽपि घने] अपने शरीर के भी गाढा अथवा पुष्ट होने पर [बुध:] अन्तरात्मा, [आत्मानं] आत्मा को [घनं न मन्यते] मोटा नहीं मानता है ।
[यथा] जिस प्रकार [वस्त्रे जीर्णे] पहने हुए वस्त्र के जीर्ण होने पर [बुध:] बुद्धिमान पुरुष, [आत्मानं] अपने को-अपने शरीर को [जीर्ण न मन्यते] जीर्ण नहीं मानता है; [तथा] उसी प्रकार [स्वदेहे अपि जीर्णे] अपने शरीर के भी जीर्ण हो जाने पर [बुध:] अन्तरात्मा, [आत्मानं] आत्मा को [जीर्ण न मन्यते] जीर्ण नहीं मानता है ।
[यथा] जिस तरह [वस्त्रे नष्टे] कपड़े के नष्ट हो जाने पर [बुध:] बुद्धिमान पुरुष, [आत्मानं] अपने शरीर को [नष्ट न मन्यते] नष्ट हुआ नहीं मानता है; [तथा] उसी तरह [बुध:] अन्तरात्मा, [स्वदेहे अपि नष्टे] अपने शरीर के नष्ट हो जाने पर, [आत्मानं] अपने आत्मा को [नष्टं न मन्यते] नष्ट हुआ नहीं मानता है ।
[यथा] जिस प्रकार [वस्त्रं रक्ते] पहना हुआ वस्त्र, लाल होने पर भी [बुध:] बुद्धिमान पुरुष, [आत्मानं] अपने शरीर को [रक्तं न मन्यते] लाल नहीं मानता है; [तथा] उसी तरह [स्वदेहे अपि रक्ते] अपने शरीर के लाल होने पर भी [बुध:] अन्तरात्मा, [आत्मानं] अपने आत्मा को [रक्तं न मन्यते] लाल नहीं मानता है ।
प्रभाचन्द्र :
घन, अर्थात् गाढ़ा (मोटा) वस्त्र पहिनने से, जैसे बुध (चतुर पुरुष) अपने शरीर को मोटा - पुष्ट नहीं मानता; इसी प्रकार अपना शरीर, मोटा (पुष्ट) होने पर भी बुध (अन्तरात्मा), आत्मा को मोटा (पुष्ट) नहीं मानता ॥६३॥
जीर्ण, अर्थात् पुराना वस्त्र पहिनने पर भी, जैसे बुध (चतुर मनुष्य) अपने को (अपने शरीर को) जीर्ण नहीं मानता; इसी तरह अपना देह, जीर्ण (वृद्ध) होने पर भी, वह अन्तरात्मा (शरीर में) रहे हुए आत्मा को जीर्ण (वृद्ध) नहीं मानता ॥६४॥
जैसे, पहिना हुआ वस्त्र नष्ट होने पर चतुर मनुष्य अपने शरीर का नाश हुआ नहीं मानता; इसी प्रकार शरीर के नष्ट होने पर, अन्तरात्मा अपने आत्मा को नाश पाता हुआ नहीं मानता ॥६५॥
जैसे, लाल वस्त्र पहिनने पर भी चतुर पुरुष, अपने को (अपने शरीर को) लाल नहीं मानता; इसी प्रकार अपनी देह, कुंकुमादि से लाल होने पर भी अन्तरात्मा, आत्मा को लाल नहीं मानता ॥६६॥
इस प्रकार शरीरादि से भिन्न आत्मा की भावना करनेवाले अन्तरात्मा को शरीरादि, काष्टादि समान प्रतिभासित होने पर, मुक्ति की योग्यता होती है - ऐसा बताकर कहते हैं : -
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यस्य सस्पन्दमाभाति नि:स्पन्देन समं जगत्
अप्रज्ञमक्रियाभोगं स शमं याति नेतर: ॥67॥
स्पंदित जग दिखता जिसे, अक्रिय जड़ अनभोग ।
वही प्रशम-रस प्राप्त हो, उसे शान्ति का योग ॥६७॥
अन्वयार्थ : [यस्य] जिस ज्ञानी पुरुष को [सस्पन्दं जगत्] अनेक क्रियाएँ-चेष्टाएँ करता हुआ [शरीरादिरूप] जगत, [निस्पन्देन समं] निश्रेष्ट काष्ठ / पाषाणदि के समान [अप्रज्ञं] चेतना-रहित जड और [अक्रियाभोगं] क्रिया तथा सुखादि अनुभवरूप भोग से रहित [आभाति] मालूम होने लगता है, [सः] वह पुरुष [अक्रियाभोगं शमं याति] मन-वचन-काय की क्रिया से और इन्द्रिय विषय भोग से रहित है, [इतर: न] दूसरे प्राप्त नहीं कर सकते ।
प्रभाचन्द्र :
जिस आत्मा को (ज्ञानी आत्मा को) सस्पंद, अर्थात् परिस्पदनयुक्त (अनेक क्रियाएँ करता) शरीरादिरूप जगत् लगता है - प्रतिभासित होता है । कैसा (जगत्)? निःस्पंद (निश्चेष्ट) समान, अर्थात् काष्ट - पाषाणादि समान, अर्थात् तुच्छ । नि:स्पंद (निश्चेष्ट) । किससे इस समान (भासता है)? कारण कि वह चेतनारहित जड-अचेतन है तथा अक्रिया भोग, अर्थात् क्रिया / पदार्थों की परिणति और भोग / सुखादि अनुभव - इन दोनों का जिसमें अभाव है, ऐसा वह (जगत्) जिसको प्रतिभासता है । वह क्या करता है? वह शान्ति पाता है । अर्थात् शम / परम वीतरागता अथवा संसार, भोग और देह के प्रति वैराग्य - उसको पाता है । कैसी शान्ति? यहाँ भी उसके (शम के) साथ अक्रियाभोग का सम्बन्ध लेना । क्रिया, अर्थात् मन-वचन-काय का व्यापार और भोग, अर्थात् इन्द्रियों की प्रणालिका से (इन्द्रियों द्वारा) विषयों का अनुभवन, अर्थात् विषयोत्सव - ये दोनों जिसमें विद्यमान न हों - ऐसी शान्ति को वह पाता है; अन्य कोई नहीं, अर्थात् उससे विपरीत लक्षणवाला बहिरात्मा (वैसी शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता) ॥६७॥
वह (बहिरात्मा) भी इसी प्रकार शरीरादि से भिन्न आत्मा को क्यों प्राप्त नहीं करता (नहीं जानता)? वह कहते हैं --
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शरीरकञ्चुकेनात्मा संवृतज्ञानविग्रह:
नात्मानं बुध्यते तस्माद् भ्रमत्यतिचिरं भवे ॥68॥
देहरूपी वस्त्र से, आवृत ज्ञान-शरीर ।
यह रहस्य जाने बिना, भोगे चिर भव-पीर ॥६८॥
अन्वयार्थ : [शरीरकंचुकेन] शरीररूपी काँचली से [संवृत्तज्ञानविग्रह: आत्मा] ढंका हुआ है ज्ञानरूपी शरीर जिसका, ऐसा बहिरात्मा [आत्मानं] आत्मा के यथार्थ स्वरूप को [न बुध्यते] नहीं जानता है, [तस्मात्] इसीलिए [अतिचिरं] बहुत लम्बे काल तक [भवे] संसार में [भ्रमति] भ्रमण करता है ।
प्रभाचन्द्र :
शरीर, वही कंचुक (कांचली) - उससे ढंका हुआ, अर्थात् अच्छी तरह आच्छादित हुआ ज्ञानरूपी शरीर, अर्थात् स्वरूप जिसका, - (यहाँ शरीर सामान्य का ग्रहण करने पर भी कार्माणशरीर का ही ग्रहण समझना, क्योंकि उसकी ही मुख्य वृत्ति से उसके आवश्यकपने की उपपत्ति है, अर्थात् वह आवरणरूप है ।) - ऐसा बहिरात्मा, आत्मा को नहीं जानता; इसलिए आत्मस्वरूप नहीं जानने के कारण, वह अति चिरकाल - बहुत-बहुत काल तक भव में, अर्थात् संसार में भ्रमता है ॥६८॥
यदि बहिरात्मा, आत्मस्वरूप को आत्मपने नहीं जानते हों तो वे किसे आत्मपने जानते हैं ? - वह कहते हैं --
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प्रविशद्गलतां व्यूहे देहेऽणूनां समाकृतौ
स्थितिभ्रान्त्या प्रपद्यन्ते तमात्मानमबुद्धय: ॥69॥
अणु के योग-वियोग में, देह समानाकार ।
एक क्षेत्र लख आतमा, माने देहाकार ॥६८॥
अन्वयार्थ : [अबुद्धय:] अज्ञानी बहिरात्मा जीव, [प्रविशद्गलतां अणूनां व्यूहे देहे] जो प्रवेश करते और बाहर निकलते हैं - ऐसे परमाणुओं के समूहरूप शरीर में [समाकृतौ] आत्मा, शरीर की आकृति के समानरूप में [स्थितिभ्रांत्या] स्थित होने से, अर्थात् शरीर और आत्मा एक क्षेत्र में स्थित होने से - दोनों को एक रूप समझने की भ्रान्ति से, [तम्] उस शरीर को ही [आत्मानं] आत्मा [प्रपद्यते] समझ लेते हैं ।
प्रभाचन्द्र :
वे देह को आत्मा समझते हैं । वे कौन? बुद्धिरहित बहिरात्मा । किससे (किसलिए ऐसा समझते है)? स्थिति की भ्रान्ति से । किसमे? देह में । कैसे देह में? व्यूहरूप, अर्थात् समूहरूप (देह में) । किसके (समूहरूप)? अणुओं (परमाणुओं) के (समूहरूप) । कैसे प्रकार के (परमाणुओं के)? प्रवेशते - गलते, अर्थात् प्रवेश करते और निकलते (परमाणुओं के); फिर कैसे (देह में)? समाकृत-एक-दूसरे के सदृश उत्पाद से समान आकारवाले (देह में), अर्थात् आत्मा के साथ समान अवगाह से एक क्षेत्रवाले (देह में) । ऐसे देह में जो स्थिति भ्रान्ति - स्थिति से, अर्थात् कालान्तर - अवस्थायीपने के कारण या एक क्षेत्र में रहने के कारण से - जो भ्रान्ति, अर्थात् देह और आत्मा के अभेदरूप अध्यवसाय, उसके कारण से, (देह को) आत्मा मानते हैं ॥६१॥
इसलिए यथार्थरूप से आत्मस्वरूप को समझने की इच्छा करनेवाले को आत्मा को देह से भिन्न भाना चाहिए - ऐसा कहते हैं :-
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गौर: स्थूल: कृशो वाऽहमित्यङ्गेनाविशेषयन्
आत्मानं धारयेन्नित्यं केवलज्ञप्तिविग्रहम् ॥70॥
'मैं गोरा स्थूल नहीं' - ये सब तन के रूप ।
आत्मा निश्चय नित्य है, केवल ज्ञानस्वरूप ॥७०॥
अन्वयार्थ : [अहं गौर:] मैं गोरा हूँ [स्थूल:] मोटा हूँ [वा कृश:] अथवा दुबला हूँ [इति] इसप्रकार [अंगेन] शरीर के साथ [आत्मानं] अपने को [अविशेषयन्] एकरूपन करते हुए [नित्यं] सदा ही [आत्मानं] अपने आत्मा को [केवलज्ञप्तिविग्रहम्] केवलज्ञान स्वरूप अथवा रूपादि-रहित उपयोग शरीरी [धारयेत्] अपने चित्त में धारण करना-मानना ।
प्रभाचन्द्र :
मैं गोरा हूँ, मैं स्थूल (मोटा) हूँ अथवा मैं कृश (पतला) हूँ -- इसप्रकार से शरीर द्वारा आत्मा को, विशेषरूप, अर्थात् विशिष्टरूप नहीं मानकर, (उसे) धारना, अर्थात् चित्त में उसको नित्य - सर्वदा अविचलरूप भाना । कैसे (आत्मा को) ? केवलज्ञान विग्रहरूप, अर्थात् केवलज्ञानस्वरूप, अर्थात् केवलरूपादिरहित ज्ञप्ति ही - उपयोग ही जिसका विग्रह, अर्थात् स्वरूप है, वैसे आत्मा को (चित्त में धारना) ॥७०॥
जो इस प्रकार के आत्मा की एकाग्र मन से भावना करता है, उसको ही मुक्ति होती है; अन्य किसी को नहीं - यह कहते हैं --
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मुक्तिरेकान्तिकी तस्य चित्ते यस्याचला धृति:
तस्य नैकान्तिकी मुक्तिर्यस्य नास्त्यचला धृति: ॥71॥
चित में निश्चल धारणा, उसे मुक्ति का योग ।
जिसे न निश्चल धारणा, शाश्वत मुक्ति-वियोग ॥७१॥
अन्वयार्थ : [यस्य] जिसके [चित्ते] चित्त में [अचला] आत्मस्वरूप की निश्चल [धृति:] धारणा है [तस्य] उसकी [एकान्तिकी मुक्ति:] एकान्त से मुक्ति होती है । [यस्य] जिस पुरुष की [अचलाधृति: नास्ति] आत्मस्वरूप में निश्चल धारणा नहीं है [तस्य] उसकी [एकान्तिकी मुक्ति: न] अवश्यम्भाविनी मुक्ति नहीं होती है ।
प्रभाचन्द्र :
एकान्तिकी (अवश्य होनेवाली मुक्ति), उस अन्तरात्मा को होती है कि जिसके चित्त में अविचल (निश्चल) धृति ( आत्मस्वरूप की धारणा) होती है और स्वरूप में प्रसति (लीनता) होती है परन्तु जिसके चित्त में अचल धृति (धारणा) नहीं होती, उसको अवश्यम्भावी नहीं होती ॥७१॥
चित्त में अचल धृति, लोक के संसर्ग का परित्याग करके, आत्मस्वरूप के संवेदन का अनुभव होने पर होती है; अन्य प्रकार नहीं - यह दर्शाते हुए कहते हैं --
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जनेभ्यो वाक् तत: स्पन्दो मनसश्चित्तविभ्रमा:
भवन्ति तस्मात्संसर्गं जनैर्योगी ततस्त्यजेत् ॥72॥
लोक-संग से वच-प्रवृति, वच से चञ्चल चित्त ।
फिर विकल्प, फिर क्षुब्ध मन, मुनिजन होय निवृत्त ॥७२॥
अन्वयार्थ : [जनेभ्यो] लोगों के संसर्ग से [वाक्] वचन की प्रवृत्ति होती है; [ततः] उससे [मनस:स्पन्द] मन की व्यग्रता होती है -उससे चित्त चलायमान होता है [तस्मात्] चित्त की चंचलता से [चित्तविभ्रमा: भवन्ति] चित्त में नाना प्रकार के विकल्प उठने लगते हैं-मन क्षुभित हो जाता है [ततः] इसलिए [योगी] योग में संलग्न होनेवाले अन्तरात्मा को [जनै: संसर्ग त्यजेत्] लौकिकजनों के संसर्ग का परित्याग करना चाहिए ।
प्रभाचन्द्र :
लोगों के साथ बोलने से वचन की प्रवृत्ति होती है; प्रवृत्ति से मन का स्पंदन - मन में व्यग्रता होती है; उस आत्मा के (भावमन के) स्पन्दन से चित्त विभ्रम, अर्थात् विविध प्रकार के विकल्पों की प्रवृत्ति होती है; इसलिए योगियों की तजना । क्या (तजना)? संसर्ग - सम्बन्ध । किसके साथ का? लोगों के साथ का ॥७२॥
तो क्या उनका (लोगों का) संसर्ग छोड्कर जंगल में निवास करना? - ऐसी आशङ्का का निराकरण करते हुए कहते हैं --
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ग्रामोऽरण्यमिति द्वेधा निवासोऽनात्मदर्शिनाम्
दृष्टात्मनां निवासस्तु विविक्तात्मैव निश्चल: ॥73॥
जन अनात्मदर्शी करें, ग्राम-अरण्य निवास ।
आत्मदृष्टि करते सदा, निज में निज का वास ॥७३॥
अन्वयार्थ : [अनात्मदर्शिनां] जिन्हें आत्मा का अनुभव नहीं हुआ - ऐसे लोगों के लिए [ग्राम: अरण्यम्] यह गाँव है, यह जंगल है [इति द्वेधा निवास:] इस प्रकार दो तरह के निवास हैं [तु] किन्तु [दृष्टात्मनां] जिन्हें आत्म-स्वरूप का अनुभव हो गया है - ऐसे ज्ञानी पुरुषों के लिए [विविक्त:] रागादि रहित विशुद्ध एवं [निश्चल:] चित्त की व्याकुलता-रहित स्वरूप में स्थिर [आत्मा एव] आत्मा ही [निवास:] रहने का स्थान है ।
प्रभाचन्द्र :
ग्राम और अरण्य, ये दो प्रकार के निवास स्थान, अनात्मदर्शियों (जिनको आत्मा का अनुभव / उपलब्धि नहीं हुई, वैसे लोग) के लिए हैं परन्तु जिनको आत्मा का अनुभव हुआ है, जिनको आत्म-स्वरूप की उपलब्धि हुई है, वैसे (ज्ञानी) लोगों के लिए तो निवास स्थान विविक्त, अर्थात् विमुक्त आत्मा ही, अर्थात् रागादि रहित शुद्ध आत्मा ही है, जो निश्चल, अर्थात् चित्त की आकुलता से रहित है ॥७३॥
अनात्मदर्शी और आत्मदर्शी के फल को दर्शाते हुए कहते हैं --
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देहान्तरगतेर्बीजं देहेऽस्मिन्नात्मभावना
बीजं विदेहनिष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना ॥74॥
आत्मबुद्धि ही देह में, देहान्तर का मूल ।
आत्मबुद्धि जब आत्म में, हो तन ही निर्मूल ॥७४॥
अन्वयार्थ : [अस्मिन् देहे] इस शरीर में [आत्मभावना] आत्मा की जो भावना है - वही [देहान्तरगते:] अन्य शरीर ग्रहणरूप भवान्तर प्राप्ति का [बीजं] बीज है और [आत्मनि एव] अपनी आत्मा में ही [आत्मभावना] आत्मा की जो भावना है, वह [विदेहनिष्पत्ते:] शरीर के सर्वथा त्यागरूप मुक्ति का [बीजं] कारण है ।
प्रभाचन्द्र :
अन्य देह में, अर्थात् अन्य भव में; गति अर्थात् गमन; उसका बीज अर्थात् कारण क्या? आत्मभावना । किसमें? इस देह में, अर्थात् कर्मवश ग्रहित इस देह में । विदेह निष्पत्ति का - विदेह की अर्थात् सर्वथा देहत्याग की निष्पत्ति (मुक्ति प्राप्ति) का बीज अपने आत्मा में ही आत्मभावना (करना वह) है ॥७४॥
तो मुक्ति-प्राप्ति का हेतु कोई गुरु होगा - ऐसा कहनेवाले के प्रति कहते हैं --
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नयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव च
गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थत: ॥75॥
आत्मा ही भव-हेतु है, आत्मा ही निर्वाण ।
यों निश्चय से आत्म का, आत्मा ही गुरु जान ॥७५॥
अन्वयार्थ : [आत्मा एव] आत्मा ही [आत्मानं] आत्मा को [जन्म नयति] देहादिक में दृढात्मभावना के कारण, जन्म-मरणरूप संसार में भ्रमण कराता है [च] और [निर्वाणमेव नयति] आत्मा में ही आत्मबुद्धि के प्रकर्षवश, मोक्ष प्राप्त कराता है; [तस्मात्] इसलिए [परमार्थत:] निश्चय से [आत्मनः गुरु:] आत्मा का गुरु [आत्मा एव] आत्मा ही है, [अन्य: न अस्ति] दूसरा कोई गुरु नहीं है ।
प्रभाचन्द्र :
जन्म (संसार के प्रति दौड़ता है) - प्राप्त कराता है । किसको ? आत्मा को । कौन वह ? देहादि में दृढ आत्म-भावनावश आत्मा ही (जन्म प्राप्त कराता है); और अपने आत्मा में ही आत्मबुद्धि के प्रकर्ष सद्भाव से आत्मा ही आपको निर्वाण के प्रति ले जाता है, क्योंकि वास्तव में आत्मा, आत्मा का गुरु है; परमार्थ से अन्य कोई गुरु नहीं है । व्यवहार से वह हो तो भले हो ॥७५॥
देह में आत्म-बुद्धि करनेवाला (बहिरात्मा), मरण नजदीक आने पर क्या करता है? वह कहते हैं --
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दृढात्मबुद्धिर्देहादावुत्पश्यन्नाशमात्मन:
मित्रादिभिर्वियोगं च बिभेति मरणाद् भृशम् ॥76॥
आत्मबुद्धि है देह में, जिसकी प्रबल दुरन्त ।
वह तन-परिजन मरण से, होता अति भयवन्त ॥७६॥
अन्वयार्थ : [देहादौ दृढात्मबुद्धि:] शरीरादिक में जिसकी आत्मबुद्धि दृढ हो रही है - ऐसा बहिरात्मा [आत्मनः नाशम्] शरीर के छूटनेरूप अपने मरण [च] और [मित्रादिभि: वियोगं] मित्रादि-सम्बधियों से होनेवाले वियोग को [उत्पश्यन्] देखता हुआ, [मरणात्] मरने से [भृशम्] अत्यन्त [बिभेति] डरता है ।
प्रभाचन्द्र :
देहादि में दृढ़ आत्मबुद्धिवाला, अर्थात् अविचल आत्म-दृष्टिवाला बहिरात्मा, अपना नाश (मरण) देखकर (अवलोककर) तथा 'मित्रादि से मेरा वियोग होगा' - ऐसा समझकर, मरण से अत्यन्त त्रास पाता है - ऐसा अर्थ है ।
परन्तु जिसको अपने आत्मा में ही आत्मबुद्धि है, वह मरण नजदीक आने पर क्या करता है? वह कहते हैं --
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आत्मन्येवात्मधीरन्यां शरीरगतिमात्मन:
मन्यते निर्भयं त्यक्त्वा वस्त्रम् वस्त्रान्तरग्रहम् ॥77॥
आत्मबुद्धि हो आत्म में, निर्भय तजता देह ।
वस्त्र पलटने सम गिनें, तन-गति नहीं सन्देह ॥७७॥
अन्वयार्थ : [आत्मनि: एव आत्मधी:] आत्मस्वरूप में ही जिसकी दृढ़ आत्मबुद्धि है - ऐसा अन्तरात्मा [शरीरगतिं] शरीर के विनाश को अथवा बाल-युवा आदिरूप उसकी परिणति को [आत्मनः अन्यां] अपने आत्मा से भिन्न [मन्यते] मानता है, अर्थात् शरीर के उत्पाद विनाश में अपने आत्मा का उत्पाद-विनाश नहीं मानता और इस तरह मरण के अवसर पर [वस्त्रं त्यक्त्वा वस्त्रान्तरग्रहम् इव] एक वस्त्र को छोड्कर, दूसरा वस्त्र ग्रहण करने की तरह [निर्भयं मन्यते] अपने को निर्भय मानता है ।
प्रभाचन्द्र :
आत्मा में ही, अर्थात् आत्म-स्वरूप में ही आत्म-बुद्धिवाला (अन्तरात्मा) शरीर की गति को, अर्थात् शरीर के विनाश को अथवा बालादि अवस्थारूप शरीर की परिणति को निर्भयरूप से (निःशङ्करूप से) आत्मा से अन्य - भिन्न मानता है; वह शरीर के उत्पाद-विनाश को, आत्मा का उत्पाद-विनाश नहीं मानता - ऐसा अर्थ है; जैसे, वस्त्र का त्याग करके अन्य वस्त्र का ग्रहण करना, वैसे ॥७७॥
ऐसा ज्ञान उसको ही होता है कि जो व्यवहार में अनादर रखता है, परन्तु जिसको वहाँ (व्यवहार में) आदर है, उसको वैसा ज्ञान नहीं होता - यह कहते हैं --
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व्यवहारे सुषुप्तो य: स जागत्र्यात्मगोचरे
जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे ॥78॥
जो सोता व्यवहार में, वह जागे निजकार्य ।
जो जागे व्यवहार में, रुचे न आतम-कार्य ॥७८॥
अन्वयार्थ : [यः] जो कोई [व्यवहारे] व्यवहार में [सुषुप्त:] सोता है [सः] वह [आत्मगोचरे] आत्मा के विषय में [जागर्ति] जागता है- आत्मानुभव में तत्पर रहता है [च] और जो [अस्मिन् व्यवहारे] इस व्यवहार में [जागर्ति] जागता है, वह [आत्मगोचरे] आत्मा के विषय में [सुषुप्त:] सोता है ।
प्रभाचन्द्र :
व्यवहार में, अर्थात् विकल्प नाम जिसका लक्षण है, उसमें (विकल्प के स्थानरूप) अर्थात् प्रवृत्ति-निवृत्ति - आदिस्वरूप (व्यवहार में) जो सोता है - प्रयत्न परायण नहीं है, वह आत्म-दर्शन में, अर्थात् आत्म-विषय में जागता है, अर्थात् संवेदन में (आत्मानुभव में) तत्पर होता है परन्तु जो इस उक्त प्रकार के व्यवहार में जागता है, वह आत्म-विषय में सोता है, (अर्थात् आत्म-दर्शन नहीं पाता) ।
जो आत्म-स्वरूप में जागता है, वह मुक्ति पाता है, यह कहते हैं : -
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आत्मानमन्तरे दृष्ट्वा दृष्ट्वा देहादिकं बहि:
तयोरन्तरविज्ञानादभ्यासादच्युतो भवेत् ॥79॥
अन्तर देखे आतमा, बाहर देखे देह ।
भेदज्ञान अभ्यास जब, दृढ़ हो बने विदेह ॥७९॥
अन्वयार्थ : [अन्तरे] अन्तरङ्ग में [आत्मानम्] आत्मा के वास्तविक स्वरूप को [दृष्टवा] देखकर और [बहि:] बाह्य में [देहादिकं] शरीरादिक परभावों को [दृष्टवा] देखकर, [तयो:] आत्मा और शरीरादिक दोनों के [अन्तरविज्ञानात्] भेद-विज्ञान से तथा [अभ्यासात्] अभ्यास द्वारा उस भेद-विज्ञान में दृढ़ता प्राप्त करने से [अच्युतो भवेत्] अच्युत हो जाता है ।
प्रभाचन्द्र :
आत्मा को अन्तर (अन्तरङ्ग) में देखकर और देहादिक को बाह्य देखकर, इन दोनों के, अर्थात् आत्मा और देह के अन्तर विज्ञान से, अर्थात् भेदविज्ञान से (जीव) अष्णुत, जिसको देह और आत्मा का भेददर्शन है, उसको प्राथमिक योगावस्था में और पूर्ण अर्थात् मुक्त होता है; इसलिए अकेले भेदज्ञान से ही अच्युत होता है - ऐसा नहीं; परन्तु उसके (भेदज्ञान के) अभ्यास से - भेदज्ञान की भावना से अच्युत होता है ॥७१॥
(सिद्धि) योगावस्था में जगत कैसा प्रतिभासित होता है ? वह कहते हैं --
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पूर्वं दृष्टात्मतत्त्वस्य विभात्युन्मत्तवज्जगत्
स्वभ्यस्तात्मधिय: पश्चात् काष्ठपाषाणरूपवत् ॥80॥
ज्ञानीजन को जग प्रथम, भासे मत्त समान ।
फिर अभ्यास विशेष से, दिखे काष्ठ-पाषाण ॥८०॥
अन्वयार्थ : [दृष्टात्मतत्त्वस्य] जिसे आत्म-दर्शन हो गया है - ऐसे योगी जीव को [पूर्वं] योगाभ्यास की प्राथमिक अवस्था में [जगत्] जगत [उन्मत्तवत्] उन्मत्त- सरीखा / पागलवत् [विभाति] ज्ञात होता है, किन्तु [पश्चात्] बाद को जब योग की निश्चलावस्था हो जाती है, तब [स्वभ्यस्तात्मधिय:] आत्म-स्वरूप के अभ्यास में परिपक्व हुए अन्तरात्मा को [काष्ठपाषाणरूपवत्] यह जगत, काठ और पत्थर के समान चेष्टा-रहित मालूम होने लगता है ।
प्रभाचन्द्र :
प्रथम, जिसने आत्म-तत्त्व जाना है, अर्थात् देह से आत्म-स्वरूप भिन्न है - ऐसा जिसको प्रथम ज्ञान हुआ है, वैसे योग का आरम्भ करनेवाले योगी को जगत उन्मत्तवत् (पागलवत्) लगता है, अर्थात् स्वरूप चिन्तन के विकलपने के कारण, शुभ-अशुभ चेष्टायुक्त यह जगत, विविध बाह्य विकल्य-युक्त उन्मत्त जैसा लगता है । तत्पश्चात् अर्थात् जब योग की परिपक्व अवस्था होती है, तब जिसको आत्मबुद्धि का अच्छा अभ्यास हुआ है, अर्थात् जिसने आत्म-स्वरूप की अच्छी तरह से भावना की है, उस निश्चल आत्म-स्वरूप का अनुभव करनेवाले को, जगत-सम्बन्धी चिन्ता के अभाव के कारण, अर्थात् परम उदासीनपने के अवलम्बन के कारण, वह (जगत) काष्ठ-पाषाणवत् प्रतिभासित होता है ॥८०॥
स्वभ्यस्तान्मधियं: - यह पद व्यर्थ है, क्योंकि 'शरीर से आत्मा भिन्न है' -- ऐसे उनके स्वरूप को जाननेवालों के पास से सुनने से अथवा स्वयं दूसरों को उसका स्वरूप समझाने से मुक्ति हो सकती है, ऐसी आशड्डा करके कहते हैं --
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शृण्वन्नप्यन्यत: कामं वदन्नपि कलेवरात्
नात्मानं भावयेद्भिन्नं यावत्तावन्न मोक्षभाक् ॥81॥
सुने बहुत आतम-कथा, मुँह से कहता आप ।
किन्तु भिन्न अनुभूति बिन, नहीं मुक्ति का लाभ ॥८१॥
अन्वयार्थ : आत्मा का स्वरूप [अन्यत:] उपाध्याय आदि गुरुओं के मुख से [कामं] बहुत ही [शृण्वन्नपि] सुनने पर तथा [कलेवरात्] अपने मुख से [वदन्नपि] दूसरों को बतलाते हुए भी [यावत्] जब तक [आत्मानं] आत्मस्वरूप की [भिन्नं] शरीरादि पर-पदार्थों से भिन्न [न भावयेत्] भावना नहीं की जाती, [तावत्] तब तक [मोक्षभाक् न] यह जीव, मोक्ष का पात्र नहीं होता ।
प्रभाचन्द्र :
अन्य (उपाध्यायादि) के पास से बहुत ही सुनने पर भी, अर्थात् 'शरीर से आत्मा भिन्न है' - ऐसा श्रवण करने पर भी; उनसे (शरीरादि से) वह (आत्मा) भिन्न है - ऐसा स्वयं अन्य के प्रति (दूसरों को) कहने पर भी, जब तक 'शरीर से आत्मा भिन्न है' - ऐसी भावना न करे, तब तक जीव, मोक्षभाजन- मोक्षपात्र नहीं हो सकता ॥८१॥
इस भावना में प्रवृत्त होकर उसको (अन्तरात्मा को) क्या करना चाहिए ? सो कहते हैं --
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तथैव भावयेद्देहाद् व्यावृत्यात्मानमात्मनि
यथा न पुनरात्मानं देहे स्वप्नेऽपि योजयेत् ॥82॥
आत्मा तन से भिन्न गिन, करे सतत अभ्यास ।
जिससे तन का स्वप्न में, हो न कभी विश्वास ॥८२॥
अन्वयार्थ : अन्तरात्मा, [देहात्] शरीर से [आत्मानं] आत्मा को [व्यावृत्य] भिन्न अनुभव करके [आत्मनि] आत्मा में ही [तथैव] उस प्रकार से [भावयेत्] भावना करे [यथा पुन:] जिस प्रकार से फिर [स्वप्नेऽपि] स्वप्न में भी [देहे] शरीर की उपलब्धि होने पर, उसमें [आत्मानं] आत्मा को [न योजयेत्] योजित न करे, अर्थात् आत्मा न समझ बैठे ।
प्रभाचन्द्र :
देह से आत्मा को व्यावृत्त करके (भिन्न अनुभव करके) - शरीर से पृथक् करके (अनुभव करके), आत्मा में स्थित स्व-स्वरूप को इस प्रकार भाना (अनुभवना), अर्थात् शरीर के भेद करके (भिन्न करके) दृढ़तर भेदभावना के प्रकार से (इस प्रकार) भाना कि फिर से स्वप्न (स्वप्न अवस्था) में भी देह की उपलब्धि (प्राप्ति) हो तो भी उसमें (देह में) आत्मा का जुडान नहीं हो, अर्थात् देह को आत्मस्वरूपपने मानने में नहीं आवे ॥८२॥
जैसे, परम उदासीन अवस्था में स्व-पर का विकल्प त्यागने योग्य है, वैसे ही व्रत आ विकल्प भी (तागने योग्य है) क्योंकि --
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अपुण्यमव्रतै: पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोव्र्यय:
अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥83॥
व्रत-अव्रत से पुण्य-पाप, मोक्ष उभय का नाश ।
अव्रतसम व्रत भी तजो, यदि मोक्ष की आश ॥८३॥
अन्वयार्थ : [अवत्तै:] हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहरूप पाँच अव्रतों से [अपुण्यम्] पाप का बन्ध होता है और [व्रतै:] अहिंसादिक व्रतों से [पुण्यं] पुण्य का बन्ध होता है [तयो:] पुण्य और पाप दोनों का [व्यय:] जो विनाश है, वही [मोक्ष:] मोक्ष है; [ततः] इसलिए [मोक्षार्थी] मोक्ष के इच्छुक पुरुष [अव्रतानि इव] अव्रतों की भाँति [व्रतानि अपि] व्रतों का भी [त्यजेत्] त्यागे ।
प्रभाचन्द्र :
अव्रतों से, अर्थात् हिंसादि विकल्पों से परिणत (जीव) के अपुण्य (अधर्म) होता है और व्रतों से, अर्थात् अहिंसादि विकल्पों से परिणत (जीव) के पुण्य - धर्म होता है । मोक्ष तो, इन दोनों (पुण्य और अपुण्य) का व्यय, अर्थात् विनाश, वह मोक्ष है । जैसे, लोहे की बेडी बन्ध का कारण है (अर्थात् उससे बन्ध होता है), उसी प्रकार सुवर्ण की बेडी भी (बन्ध का कारण है); इसलिए जैसे दोनों बेडियों के अभाव से, व्यवहार में मुक्ति (छुटकारा) है; उसी प्रकार परमार्थ में भी (पुण्य-पाप के अभाव से मोक्ष है); इसलिए मोक्षार्थी को अव्रत की तरह, व्रतों को भी छोडना ॥८३॥
उनको की प्रकार तजना ? उनका त्याग-क्रम दर्शाते हुए कहते हैं --
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अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठित:
त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मन: ॥84॥
हिन्सादिक को छोड़कर, होय अहिंसा निष्ठ ।
राग व्रतों को भी तजे, हो चैतन्य प्रविष्ट ॥८४॥
अन्वयार्थ : [अव्रतानि] हिंसादिक पंच अव्रतों को [परित्यज्य] छोड करके, [व्रतेषु] अहिंसादिक व्रतों में [परिनिष्ठित:] निष्ठावान रहना, अर्थात् उनका दृढ़ता के साथ पालन करना; बाद में [आत्मनः] आत्मा के [परमं पदं] राग-द्वेषादि रहित परम वीतराग पद को [प्राप्य] प्राप्त करके [तान् अपि] उन व्रतों को भी [त्यजेत्] त्याग देना ।
प्रभाचन्द्र :
प्रथम, हिंसादि अव्रतों का परित्याग करके, व्रतों में परिनिष्ठित होना । तत्पश्चात् उनका भी त्याग करना । क्या करके ? (प्राप्त करके) क्या प्राप्ति करके ? परमपद को, अर्थात् परम वीतरागतारूप क्षीणकषाय गुणस्थान (प्राप्त करके) । किसके उस पद को ? आत्मा के ॥८४॥
अव्रत-व्रत के विकल्प का परित्याग करने पर, परमपद की प्राप्ति किस प्रकार होती है? वह कहते हैं : -
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यदन्तर्जल्पसंपृक्तमुत्प्रेक्षाजालमात्मन:
मूलं दु:खस्य तन्नाशे शिष्टमिष्टं परं पदम् ॥85॥
अन्तर्जल्प क्रिया लिये, विविध कल्पना-जाल ।
हो समूल निर्मूल तो, मोक्ष होय तत्काल ॥८५॥
अन्वयार्थ : [अन्तर्जल्पसंपृक्तं] अन्तरङ्ग जल्पयुक्त [यत् उत्पेक्षाजालं] जो विकल्पजाल है, वही [आत्मनः] आत्मा के [दुःखस्य] दुःख का [मूल] मूलकारण है, [तन्नाशे] उसका, अर्थात् विकल्पजाल का विनाश होने पर, [इष्टं] हितकारी [परमं पदं शिष्टं] परमपद की प्राप्ति होती है - ऐसा प्रतिपादन किया है ।
प्रभाचन्द्र :
जो उते क्षाजाल, अर्थात् विकल्पजाल है, वह कैसा है? अन्तर्जल्प से युक्त, अर्थात् अन्तरत्र वचनव्यापार से युक्त है; वह आत्मा के दुःख का मूल, अर्थात् कारण है । उसका नाश होने पर, अर्थात् उस उतेक्षाजाल का (विकल्पजाल का) नाश होने पर, जो पद इष्ट, अर्थात् अभिलषित है (जिस पद की अभिलाषा की गयी है), वह शिष्ट है, अर्थात् उसका प्रतिपादन किया गया है ॥८५॥
उस उत्प्रेक्षाजाल के नाश करनेवाले को इस क्रम से करना चाहिए, यह कहते हैं : -
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अव्रती व्रतमादाय व्रती ज्ञानपरायण:
परात्मज्ञानसम्पन्न: स्वयमेव परो भवेत् ॥86॥
करें अव्रती व्रत-ग्रहण, व्रती ज्ञान में लीन ।
फिर हों केवलज्ञानयुत, बनें सिद्ध स्वाधीन ॥८६॥
अन्वयार्थ : [अव्रती] हिंसादिक पञ्च अव्रतों में अनुरक्त हुए मनुष्य को [व्रतं आदाय] अहिंसादि व्रतों को ग्रहण करके अव्रतावस्था में होनेवाले विकल्पों का नाश करना तथा [व्रती] अहिंसादिक व्रतों के धारक को [ज्ञानपरायण:] ज्ञानभावना में लीन होकर, व्रतावस्था में होनेवाले विकल्पों का नाश करना और फिर अरहन्त-अवस्था में [परात्मज्ञानसम्पन्न:] केवलज्ञान से युक्त होकर [पर: भवेत्] परमात्मा होना -सिद्ध-स्वरूप को प्राप्त करे ।
प्रभाचन्द्र :
अव्रतीपने की अवस्था में होते विकल्पों के जाल का, व्रत ग्रहण करके विनाश करना तथा व्रतीपने की अवस्था में होते विकल्पों के जाल का, ज्ञानपरायण होकर, अर्थात् ज्ञानभावना में लीन होकर, परम वीतरागता की अवस्था में (उनका) विनाश करना । सयोगीजिन अवस्था में परात्मज्ञानसम्पन्न, अर्थात् पर / सर्व ज्ञानों में उत्कृष्ट जो आत्मज्ञान - जो केवलज्ञान, उससे सम्पन्न, अर्थात् युक्त होकर, स्वयं ही, अर्थात् गुरु आदि के उपदेश की अपेक्षा रखे बिना, (निरपेक्ष होकर) पर, अर्थात् सिद्धस्वरूप परमात्मा होना ॥८६॥
जैसे, व्रत का विकल्प, मुक्ति का हेतु नहीं है; वैसे लिङ्ग का विकल्प भी मुक्ति का हेतु नहीं है, यह कहते हैं : -
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लिङ्गं देहाश्रितं दृष्टं देह एवात्मनो भव:
न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्ते ये लिङ्गकृताऽऽग्रहा: ॥87॥
लिङ्ग देह आश्रित दिखे, आत्मा का भव देह ।
जिनको आग्रह लिङ्ग का, कभी न होय विदेह ॥८७॥
अन्वयार्थ : [लिङ्ग] लिङ्ग, अर्थात् नग्नपना आदि वेष [देहाश्रितं दृष्टं] शरीर के आश्रित देखा जाता है [देह एव] और शरीर ही [आत्मनः] आत्मा का [भव:] संसार है; [तस्मात्] इसलिए [ये लिङ्गकृताग्रहा:] जो लिङ्ग के ही आग्रही हैं, [ते] वे पुरुष [भवात्] संसार से [न मुच्यन्ते] नहीं छूटते हैं - मुक्त नहीं होते ।
प्रभाचन्द्र :
लिङ्ग, अर्थात् जटाधारण, नग्नपना आदि - वह देहाश्रित दिखता है, अर्थात् शरीर के धर्मरूप मानने में आता है । देह ही आत्मा का भव, अर्थात् संसार है; इसलिए जो लिङ्ग में आग्रह रखते हैं, अर्थात् लिङ्ग ही मुक्ति का हेतु है - ऐसे अभिनिवेशवाले जो हैं, वे मुक्त नहीं होते । किससे? भव से (संसार से) ॥८७॥
'वर्णों में ब्राह्मण, गुरु हैं; इसलिए वही परमपद के योग्य हैं' -- ऐसा जो बोलता है, वह भी मुक्तियोग्य नहीं है, यह कहते हैं --
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जातिर्देहाश्रिता दृष्टा देह एवात्मनो भव:
न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्ते ये जातिकृताग्रहा: ॥88॥
जाति देह आश्रित कही, आत्मा का भव देह ।
जिनको आग्रह जाति का, सदा मुक्ति संदेह ॥८८॥
अन्वयार्थ : [जाति:] ब्राह्मण आदि जाति, [देहाश्रिता इष्टा] शरीर के आश्रित देखी गयी है [देह एव] और शरीर ही [आत्मनः भव:] आत्मा का संसार है; [तस्मात्] इसलिए [ये] जो जीव, [जातिकृताग्रहा:] मुक्ति की प्राप्ति के लिए जाति का हठ पकड़े हुए हैं [तेऽपि] वे भी [भवात्] संसार से [न मुच्यन्ते] नहीं छूट सकते हैं ।
प्रभाचन्द्र :
ब्राहाणादि देहाश्रित हैं, इत्यादि अर्थ सुगम है । (अर्थात् समझना सहज है) ॥८८॥
तब तो ब्राह्मणादि जाति विशिष्ट, निर्वाणादि ई दीक्षा से दीक्षित होकर मुक्ति-प्राप्त कर सकते हैं -- ऐसा बोलने वाले के प्रति कहते हैं --
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जातिलिङ्गविकल्पेन येषां च समयाग्रह:
तेऽपि न प्राप्नुवन्त्येव परमं पदमात्मन: ॥89॥
जाति-लिंग से मोक्ष-पद, आगम-आग्रह वान ।
नहीं पावें वे आत्म का, परम सुपद निर्वाण ॥८९॥
अन्वयार्थ : [येषां] जिन्हें [जातिलिंग-विकल्पेन] जाति और लिंग के विकल्प से मुक्ति होती है - ऐसा [समयाग्रह:] आगम सम्बन्धी आग्रह है, [ते अपि] वे भी [आत्मनः] आत्मा के [परमं पदं] परमपद को [न प्राप्नुवन्ति एव] प्राप्त कर नहीं सकते हैं -- संसार से मुक्त हो नहीं सकते हैं ।
प्रभाचन्द्र :
जाति और लिङ्गरूप विकल्प, अर्थात् भेद - उससे जो शैवादि को समय का आग्रह, अर्थात् आगम का आग्रह है, अर्थात् उत्तम जातिविशिष्ट लिङ्ग ही मुक्ति का कारण है - ऐसा आगम में प्रतिपादन किया है; इसलिए उसमात्र से ही मुक्ति है - ऐसा जिनको आगम का अभिनिवेश (आग्रह) है, वे भी आत्मा के परमपद को प्राप्त कर ही नहीं सकते ॥८९॥
उस पद की प्राप्ति के लिए, जाति आदि विशिष्ट शरीर में निर्ममत्व की सिद्धि के लिए, भोगों से व्यावृत्त होकर (पराड्मुख होकर) भी, पुन: मोहवश शरीर में ही अनुबन्ध ( अनुराग ) करता है, वह कहते हैं :--
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यत्त्यागाय निवर्तन्ते भोगेभ्यो यदवाप्तये
प्रीतिं तत्रैव कुर्वन्ति द्वेषमन्यत्र मोहिन: ॥90॥
बुध तन त्याग विराग-हित, होते भोग निवृत्त ।
मोही उनसे द्वेष कर, रहते भोग प्रवृत्त ॥९०॥
अन्वयार्थ : [यत्त्वागाय] जिस शरीर के त्याग के लिए, अर्थात् उससे ममत्व दूर करने के लिए और [यद अवाप्तये] जिस परम वीतरागपद को प्राप्त करने के लिए [भोगेभ्य:] इन्द्रियों के भोगों से [निवर्तन्ते] निवृत्त होते हैं, अर्थात् उनका त्याग करते हैं, [तत्रैव] उसी शरीर और इन्द्रियों के विषयों में [मोहिन] मोही जीव, [प्रीति कुर्वन्ति] प्रीति करते हैं और [अन्यत्र] वीतरागता आदि के साधनों में [द्वेष कुर्वन्ति] द्वेष करते हैं ।
प्रभाचन्द्र :
जिस शरीर के त्याग के लिए, अर्थात् उसमें निर्ममत्व के लिए - भोगों से, अर्थात् माला-वनितादि से निवृत्त होते हैं, (पराड्मुख होते हैं) तथा जिसकी प्राप्ति के लिए, अर्थात् जिस परम वीतरागता की प्राप्ति के लिए, अर्थात् प्राप्ति के निमित्त से भोगों से निवृत्त होते हैं - उसमें ही, अर्थात् इस बद्ध शरीर में ही प्रीति / अनुबन्ध करते हैं और दूसरे, अर्थात् परम वीतरागता पर द्वेष करते हैं । वे कौन? मोही-मोहन्ध जीव ॥९०॥
उसका देह में दर्शन-व्यापार का विपर्यास (विपरीतता) बताकर कहते हैं :-
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अनन्तरज्ञ: सन्धत्ते दृष्टिं पङ्गोर्यथान्धके
संयोगात् दृष्टिमङ्गेऽपि सन्धत्ते तद्वदात्मन: ॥91॥
यथा पंगु की दृष्टि का, करे अन्धे में आरोप ।
तथा भेदविज्ञान बिन, तन में आत्मारोप ॥९१॥
अन्वयार्थ : [अनन्तरज्ञ] भेदज्ञान न रखनेवाला पुरुष [यथा] जिस प्रकार [संयोगात्] संयोग के कारण, भ्रम में पडकर संयुक्त हुए लंगडे और अन्धे की क्रियाओं को ठीक न समझ कर, [पगोर्दृष्टिं] लंगड़े की दृष्टि को [अन्धके] अन्धे पुरुष में [संधत्ते] आरोपित करता है -- यह समझता है कि अन्धा स्वयं देखकर चल रहा है, [तद्वत] उसीप्रकार [आत्मनः दृष्टि] आत्मा की दृष्टि को [अंगे:ऽपि] शरीर में भी [सन्धत्ते] आरोपित करता है -- यह समझने लगता है कि यह शरीर ही देखता-जानता है ।
प्रभाचन्द्र :
जैसे, अन्तर को (भेद को) नहीं जाननेवाला, भेद को ग्रहण नहीं करनेवाला पुरुष, लँगडे की दृष्टि को अन्ध पुरुष में जोड़ता है, आरोपित करता है । काहे से? संयोग से, अर्थात् लँगड़े और अन्धे पुरुष के सम्बन्ध का आश्रय करके । इसी तरह देह और आत्मा के संयोग के कारण, आत्मा की दृष्टि को, शरीर में भी आरोपित करता है, अर्थात् मोहाभिभूत बहिरात्मा मानता है कि 'शरीर, देखता है' ॥९१॥
अन्तरात्मा क्या करता है - यह कहते हैं : -
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दृष्टभेदो यथा दृष्टिं पङ्गोरन्धे न योजयेत्
तथा न योजयेद् देहे दृष्टात्मा दृष्टिमात्मन: ॥92॥
पंगु अन्ध की दृष्टि का, बुधजन जानें भेद ।
त्यों तन-आत्मा का करें, ज्ञानी अन्तर छेद ॥९२॥
अन्वयार्थ : [दृष्टभेद] जो लँगड़े और अन्धे के भेद का तथा उनकी क्रियाओं को ठीक समझता है, वह [यथा] जिस प्रकार [पंगोर्दृष्टिं] लँगड़े की दृष्टि को अंधे पुरुष में [न योजयेत्] नहीं जोड़ता- अन्धे को मार्ग देखकर चलनेवाला नहीं मानता । [तथा] उसी प्रकार [दृष्टात्मा] आत्मा को शरीरादि पर-पदार्थों से भिन्न अनुभव करनेवाला अन्तरात्मा [आत्मनः दृष्टि] आत्मा की दृष्टि को-उसके ज्ञान-दर्शनस्वभाव को, [देहे] शरीर में [न योजयेत्] नहीं जोड़ता है -- शरीर को ज्ञाता-दृष्टा नहीं मानता है ।
प्रभाचन्द्र :
भेद जाननेवाला, अर्थात् लँगड़े और अन्धे का भेद (अन्तर) जाननेवाला पुरुष; जैसे, लँगडे की दृष्टि को, अन्धे में नहीं जोड़ता, (आरोपित नहीं करता); इसी प्रकार वह आत्मा की दृष्टि को, देह में आरोपित नहीं करता । वह कौन? दृष्टात्मा, अर्थात् जिसने देह से भेद करके आत्मा को जाना है, वह (अन्तरात्मा) ॥९२॥
बहिरात्मा और अन्तरात्मा की कौन-सी अवस्था भ्रान्तिरूप है और कौन-सी अभ्रान्तिरूप है, वह कहते हैं --
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सुप्तोन्मत्ताद्यवस्थैव विभ्रमोऽनात्मदर्शिनाम्
विभ्रमोऽक्षीणदोषस्य सर्वावस्थाऽऽत्मदर्शिन: ॥93॥
निद्रित अरु उन्मत्त को, सब जग माने भ्रांत ।
अन्तर-दृष्टि को दिखे, सब जग मोहाक्रान्त ॥९३॥
अन्वयार्थ : [अनात्मदर्शिनाम्] आत्मस्वरूप का वास्तविक परिज्ञान जिन्हें नहीं है - ऐसे बहिरात्माओं को [सुप्तोन्मत्तादि अवस्था एव] केवल सोने व उन्मत्त होने की अवस्था ही [विभ्रम:] भ्रमरूप मालूम होती है किन्तु [आत्मदर्शिन] आत्मानुभवी अन्तरात्मा को, [अक्षीणदोषस्य] मोहाक्रान्त बहिरात्मा की [सर्वावस्था] सर्व ही अवस्थाएँ-सुप्त और उन्मत्तादि अवस्थाओं की तरह, जाग्रत, प्रबुद्ध और अनुन्मत्तादि अवस्थाएँ भी [विभ्रम:] भ्रमरूप मालूम होती हैं ।
प्रभाचन्द्र :
सुप्त और उन्मत्तादि अवस्था ही विभ्रमरूप प्रतिभासती है । किसको? आत्मस्वरूप नहीं जाननेवालों को, अर्थात् आत्मस्वरूप के यथार्थ परिज्ञान से रहित बहिरात्माओ को । आत्मदर्शी को, अर्थात् अन्तरात्मा को अक्षीण दोषवाले, अर्थात् जिनके दोष क्षीण नहीं हुए हैं, वैसे मोह से घिरे हुए बहिरात्मा सम्बन्धी की सर्व अवस्थाएँ-जागृत, प्रबुद्ध, अनुन्मत्तादि अवस्था भी, सुप्त, उन्मत्तादि अवस्था की तरह, विभ्रमरूप प्रतिभासती हैं क्योंकि उसको (बहिरात्मा को) यथार्थरूप से वस्तु के प्रतिभास का अभाव है ।
अथवा-
सुत, उन्मत्तादि अवस्था भी, (यहाँ एव शब्द अपि के अर्थ में है ।) विभ्रमरूप (नहीं भासती) । किसकी? आत्मदर्शियो की, क्योंकि दृढ़तर अभ्यास के कारण, उस अवस्था में भी आत्मा के विषय में अविपर्यास (अविपरीतता) होती है और स्वरूप संवेदन में वैकल्य का (च्युति का) अभाव होता है ।
प्रश्न – यदि सुप्तादि अवस्था में भी आत्मदर्शन हो तो जागृत अवस्था की तरह, उसमें भी आत्मा को सुप्तादि का व्यपदेश (कथन) किस प्रकार घटेगा? इसलिए वह भी अयोग्य हैं ।
समाधान – वहाँ निद्रा के कारण, इन्द्रियों को स्वविषय में प्रतिबन्ध है परन्तु वहाँ आत्म-दर्शन का प्रतिबन्ध नहीं है; इसलिए उसका व्यपदेश घटित होता है ।
तब किसकी वह विभ्रमरूप लगती है? अक्षीण दोषवाले बहिरात्मा की । कैसे (बहिरात्मा को)? सर्व अवस्थाओं में आत्मा माननेवाले की, अर्थात् बाल-कुमारादिरूप और सुप्त, उन्मत्तादिरूप सर्व अवस्थाओं को जो आत्मा मानता है, वैसे स्वभाववाले की (बहिरात्मा की) ॥९३॥
सर्व अवस्थाओं में आत्मा माननेवाले की भी, अशेष (सम्पूर्ण) शास्त्रों के परिज्ञान के कारण, निद्रारहित (जाग्रत) हुए की मुक्ति होगी - ऐसा कहनेवाले के प्रति कहते हैं : -
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विदिताशेषशास्त्रोऽपि न जाग्रदपि मुच्यते
देहात्मदृष्टिर्ज्ञातात्मा सुप्तोन्मत्तोऽपि मुच्यते ॥94॥
हो बहिरातम शास्त्र-पटु, हो जाग्रत, नहीं मुक्त ।
निद्रित हो उन्मत्त हो, ज्ञाता कर्म-विमुक्त ॥९४॥
अन्वयार्थ : [देहात्मदृष्टि:] शरीर में आत्मबुद्धि रखनेवाला बहिरात्मा [विदिताशेषशास्त्र अपि] सम्पूर्ण शास्त्रों का जाननेवाला होने पर भी तथा [जाग्रत् अपि] जागता हुआ भी [न मुच्यते] कर्म-बन्धन से नहीं छूटता है किन्तु [ज्ञातात्मा] जिसने आत्मा के स्वरूप को देह से भिन्न अनुभव कर लिया है - ऐसा विवेकी अन्तरात्मा [सुमोन्मत्त अपि] सोता और उन्मत्त हुआ भी [मुच्यते] कर्म-बन्धन से मुक्त होता है- विशिष्टरूप से कर्मों की निर्जरा करता है ।
प्रभाचन्द्र :
मुक्त नहीं होता - कर्मरहित नहीं होता । वह कौन? शरीर में आत्मबुद्धि रखनेवाला बहिरात्मा । कैसा होने पर भी? सर्व शास्त्रों का ज्ञाता होकर भी - सर्व शास्त्रों का परिज्ञानवाला होने पर भी, क्योंकि वह देहात्मदृष्टि है, अर्थात् देह और आत्मा के भेद की रुचिरहित है । फिर वह कैसा (होने पर भी) है? जागृत होने पर भी - निद्रा से अभिभूत (घिरा हुआ) नहीं होने पर भी ।
जो ज्ञानात्मा है, अर्थात् जिसने आत्म-स्वरूप जाना है, (अनुभव किया है), वह सुप्त और उन्मत्त होने पर भी, मुक्त होता है - विशिष्ट कर्म-निर्जरा करता है क्योंकि उसको दृढ़तर अभ्यास के कारण, सुप्तादि अवस्था में भी आत्म-स्वरूप के संवेदन में वैकल्प (च्युति) नहीं होती ॥९४॥
(सुप्तादि अवस्थाओं में भी) वह अवैकल्य (अच्युति) किस कारण से होती है, यह कहते हैं : -
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यत्रैवाहितधी: पुंस: श्रद्धा तत्रैव जायते
यत्रैव जायते श्रद्धा चित्तं तत्रैव लीयते ॥95॥
जहाँ बुद्धि हो मग्न वहीं, हो श्रद्धा निष्पन्न ।
हो श्रद्धा जिसकी जहाँ, वहीं पर तन्मय मन ॥९५॥
अन्वयार्थ : [यत्र एव] जहाँ ही - जिस किसी विषय में ही [पुंस:] पुरुष को [आहितधी:] दत्तावधानरूप बुद्धि होती है [तत्रैव] वहीं, अर्थात् उसी विषय में उसे [श्रद्धा जायते] श्रद्धा उत्पन्न होती है और [यत्र एव] जहाँ ही - अर्थात् जिस विषय में ही [श्रद्धा जायते] श्रद्धा उत्पन्न होती है, [तत्रैव] वहाँ ही - उस विषय में ही [चित्तं लीयते] उसका मन लीन हो जाता है ।
प्रभाचन्द्र :
जहाँ ही, अर्थात् जिस विषय में ही बुद्धि लगती है, अर्थात् बुद्धि दत्तावधानरूप (लग्न) होती है - 'यत्रात्महितधीरिति' - ऐसा भी पाठ है । (उसका अर्थ यह है कि) जहाँ आत्महित की बुद्धि है, अर्थात् जहाँ आत्मा का हित - उपकार होता है, अर्थात् जहाँ 'वह हितकर-उपकारक है' - ऐसी बुद्धि होती है, वहाँ 'धी', अर्थात् बुद्धि (लगती है) । किसकी? पुरुष की । उसकी श्रद्धा-रुचि वहाँ ही, अर्थात् उस विषय में ही उत्पन्न होती है । जहाँ ही श्रद्धा उत्पन्न होती है, वहाँ ही चित्त लीन होता है- आसक्त होता है ॥९५॥
फिर चित्त कहाँ अनासक्त होता है, वह कहते हैं --
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यत्रानाहितधी: पुंस: श्रद्धा तस्मान्निवर्तते
यस्मान्निवर्तते श्रद्धा कुतश्चित्तस्य तल्लय:॥96॥
जहाँ नहीं मति-मग्नता, श्रद्धा का भी लोप ।
श्रद्धा बिन कैसे बने, चित्त-स्थिरता योग ॥९६॥
अन्वयार्थ : [यत्र] जिस विषय में [पुंस] पुरुष की [अनाहितधी:] बुद्धि दत्तावधानरूप नहीं होती, [तस्मात्] उससे [श्रद्धा] श्रद्धा [निवर्तते] हट जाती है- उठ जाती है; और [यस्मात्] जिससे [श्रद्धा] श्रद्धा [निवर्तते] हट जाती है, [चित्तस्य] चित्त की [तल्लय: कुत:] उस विषय में लीनता कैसे हो सकती है?
प्रभाचन्द्र :
जहां अर्थात् जिस विषय में बुद्धि संलग्न नहीं होती, अर्थात् बुद्धी दत्तावधानरूप (नहीं होती ? 'यगेवाहितधोरिती' - ऐसा भी पाठ है उसका अर्थ यह है कि जहाँ अहितबुद्धि, अर्थात् अनुपकारक बुद्धि होती है । किसकी? पुरुष की । उस विषय से श्रद्धा वापस फिरती है । जिससे श्रद्धा वापस फिरती है, उस विषय में चित्त की लीनता कैसे हो सकती है? उस विषय में चित्त का लय, अर्थात् आसक्ति कहाँ से होगी? कहीं से भी नहीं होगी ॥९६॥
भिन्नात्मस्वरूप ध्येय का फल दर्शाते हुए कहते हैं -
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भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवति तादृश:
वर्तिर्दीपं यथोपास्य भिन्ना भवति तादृशी ॥97॥
जैसे दीप-संयोग से, वाती बनती दीप ।
त्यों परमात्मा ध्यान से, परमात्मा हो जीव ॥९७॥
अन्वयार्थ : [आत्मा] यह आत्मा [भिन्नात्मान] अपने से भिन्न आत्मा की [उपास्य] उपासना करके [तादृश] उन्हीं के समान [पर: भवति] परमात्मा होता है; [यथा] जैसे, [भिन्ना वर्ति:] दीपक से भिन्न बत्ती भी [दीप उपास्य] दीपक की उपासना करके [तादृशी] उसके जैसी - दीपक-स्वरूप [भवति] हो जाती है ।
प्रभाचन्द्र :
भिन्न आत्मा की, अर्थात् आराधक से पृथक्भूत अरहन्त-सिद्धरूप आत्मा की उपासना करके - आराधना करके; आत्मा, अर्थात् आराधक पुरुष; वैसा, अर्थात् अरहन्त -सिद्धस्वरूप समान; पर, अर्थात् परमात्मा होता है । यहाँ इसी का दृष्टान्त कहते हैं - बत्ती इत्यादि । जैसे, दीपक से भिन्न बत्ती, दीपक की उपासना, अर्थात् पाकर 'तादृश' (उस जैसी) होती है, अर्थात् दीपकरूप होती है; उसी प्रकार ॥९७॥
अब, अभिन्न आत्मा की उपासना का फल कहते हैं : -
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उपास्यात्मानमेवात्मा जायते परमोऽथवा
मथित्वाऽऽत्मानमात्मैव जायतेऽग्निर्यथा तरु: ॥98॥
निज आतम के ध्यान से, स्वयं बने प्रभु आप ।
बाँस रगड़ से बाँस में, स्वयं प्रगट हो आग ॥९८॥
अन्वयार्थ : [अथवा] अथवा [आत्मा] यह आत्मा [आत्मानम्] अपने चित्स्वरूप को ही [उपास्य] चिदानन्दमयरूप से आराधन करके, [परम:] परमात्मा [जायते] हो जाता है, [यथा] जैसे, [तरु:] बाँस का वृक्ष [आत्मानं] अपने को [आत्मैव] अपने से ही [मथित्वा] लड़कर, [अग्नि:] अग्निरूप [जायते] हो जाता है ।
प्रभाचन्द्र :
अथवा आत्मा की ही, अर्थात् चिदानन्दमय चित्स्वरूप की ही उपासना करके आत्मा, परम अर्थात् परमात्मा होता है । इसी अर्थ का समर्थन दृष्टान्त द्वारा करके कहते हैं : - 'रगडकर इत्यादि' - जैसे, अपने आप ही मथकर (रगडकर) घिसकर, वृक्ष, अर्थात् वृक्षरूप स्वभाव स्वत: ही अग्निरूप होता है; इसी तरह आत्मा, आत्मा को ही मथकर - उपासित कर परमात्मारूप होता है ॥९८॥
उक्त अर्थ का उपसंहार करके, फल दर्शाकर कहते हैं : -
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इतीदं भावयेन्नित्यमवाचांगोचरं पदम्
स्वत एव तदाप्नोति यतो नावर्तते पुन: ॥99॥
भेदाभेद स्वरूप का, सतत चले अभ्यास ।
मिले अवाची पद स्वयं, प्रत्यावर्तन नाश ॥९९॥
अन्वयार्थ : [इति] उक्त प्रकार से [इदं] भेद-अभेदरूप आत्मस्वरूप की [नित्यं] निरन्तर [भावयेत्] भावना करनी चाहिए - ऐसा करने से [तत्] उस [अवाचांगोचरं पदं] अनिर्वचनीय परमात्मपद को [स्वत एव] स्वयं ही यह जीव [आप्नोति] प्राप्त करता है [यत:], जिस पद से [पुन:] फिर [न आवर्तते] वापस नहीं आता - पुनर्जन्म लेकर संसार में भ्रमण करना नहीं पड़ता ।
प्रभाचन्द्र :
इस प्रकार से, अर्थात् उक्त प्रकार से इस भिन्न और अभिन्न आत्मस्वरूप की, नित्य, अर्थात् सर्वदा भावना करनी । इससे क्या होता है? वह पद - मोक्षस्थान (प्राप्त होता है) । वह (पद) कैसा है? वाणी के अगोचर है, अर्थात् वचनों द्वारा नहीं कहा जा सके, वैसा (अनिर्वचनीय) है । उसे किस प्रकार प्राप्त करता है? परमार्थ से स्वत: ही (अपने आप ही), आत्मा से ही (प्राप्त करता है) परन्तु गुरु आदि बाह्य निमित्त द्वारा नहीं । जहाँ से, अर्थात् प्राप्त हुए उस पद से (मोक्षस्थान से) वह वापस नहीं आता, अर्थात् फिर से संसार में नहीं भ्रमता ॥९९॥
आत्मा है - ऐसा सिद्ध हो तो उसे उस पद की प्राप्ति सम्भव है परन्तु वह आत्मा चार तत्त्वों के समूहरूप शरीर से भिन्न, अन्य तत्स्वरूप सिद्ध नहीं होता - ऐसा चार्वाक मानते हैं और सर्वदा स्वरूप की उपलब्धि का सम्भव होने से, आत्मा सदा ही मुक्त है - ऐसा सांख्यमत है । उनके प्रति कहते हैं --
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अयत्नसाध्यं निर्वाणं चित्तत्त्वं भूतजं यदि
अन्यथा योगतस्तस्मान्न दु:खं योगिनां क्वचित् ॥100॥
पंचभूत से चेतना, यत्न-साध्य से मोक्ष ।
योगी को अतएव नहीं, कहीं कष्ट का योग ॥१००॥
अन्वयार्थ : [चित्तत्वं] चेतना लक्षणवाला, यह जीव-तत्त्व [यदि भूतजं] यदि भूत चतुष्टय से उत्पन्न हुआ हो तो [निर्वाण] मोक्ष [अयत्नसाध्यं] यत्न से साधने योग्य नहीं रहे [अन्यथा] अथवा [योगत:] योग से, अर्थात् शारीरिक योग-क्रिया से [निर्वाणं] निर्वाण की प्राप्ति हो तो [तस्मात्] उससे [योगिनः] योगियों को [क्यचित्] किसी भी अवस्था में [दुःखं न] दुःख नहीं हो ।
प्रभाचन्द्र :
चितत्त्व, अर्थात् चेतना-स्वरूप तत्त्व यदि भूत ही हों, अर्थात् पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायुरूप भूतों में से उत्पन्न हुआ मानने में आवे तो निर्वाण अयत्न-साध्य रहे अथवा यत्न से निर्वाण साधने योग्य न रहे । इस शरीर के परित्याग से, विशिष्ट अवस्था की प्राप्ति-योग्य आत्मा का उनके चार्वाक के) मत में अभाव है क्योंकि (वे) मरणरूप (शरीर के) विनाश से उत्तरकाल में आत्मा का अभाव (मानते) हैं ।
सांख्यमत में भूत ही, अर्थात् सहज भवन सो भूत / शुद्धात्मतत्त्व - उसमें उत्पन्न हुआ, वह । उसके स्वरूप के संवेदकपने से जिसका आत्मलाभ प्राप्त हुआ है - ऐसे प्रकार का चितत्त्व यदि हो तो निर्वाण अयत्नसाध्य हो, अर्थात् यत्न से / ध्यान के अनुष्ठानादि से निर्वाण साधने योग्य नहीं रहता, क्योंकि नित्य शुद्धात्मस्वरूप के अनुभव में सर्वदा ही आत्मा की निरुपाय (अयत्नसाध्य) मुक्ति प्रसिद्ध है ।
अथवा (इस श्लोक में) अयत्न इत्यादि वचन हैं, वे निष्पन्न इतर योगियों की अपेक्षा से हैं । वहाँ निष्पन्न योगी की अपेक्षा से चितत्त्व यदि भूत हो, अर्थात् स्वभाव ही हो, (यहाँ भूत शब्द को स्वभाव के अर्थ में समझना) अर्थात् मन, वाणी, काया, इन्द्रियों आदि से अविक्षिप्त आत्मस्वरूपभूत, अर्थात् उसमें उत्पन्न हुआ हो, अर्थात् उसके स्वरूप के संवेदकपने से जिसका आत्मलाभ प्राप्त हुआ है - ऐसे प्रकार का चितत्त्व यदि हो तो निर्वाण अयत्नसाध्य है, क्योंकि वैसे प्रकार के आत्म-स्वरूप का अनुभव करनेवाले के कर्मबन्ध का अभाव होने से, निर्वाण बिना प्रयास के सिद्ध है ।
अथवा अन्य प्रकार से प्रारब्ध योगी की अपेक्षा से भूत ही चितत्त्व न हो तो, योग द्वारा स्वरूप संवेदनात्मक चित्तवृत्ति के निरोध के प्रकर्ष अभ्यास से निर्वाण होता है; इसलिए क्वचित् भी अवस्था विशेष में, अर्थात् दुर्धर अनुष्ठान में अथवा छेदन-भेदनादि में योगियों को दु:ख नहीं होता क्योंकि आनन्दात्मक स्वरूप के संवेदन में उनको उनसे उत्पन्न होते दु:ख के वेदन का अभाव है ॥१००॥
मरणरूप विनाश से उत्तरकाल में (विनाश के पश्चात्) आत्मा का अभाव सिद्ध होवे तो उसका सर्वदा अस्तित्व किस प्रकार सिद्ध हो? -- ऐसा कहनेवाले के प्रति कहते हैं :--
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स्वप्ने दृष्टे विनष्टेऽपि न नाशोऽस्ति यथात्मन:
तथा जागरदृष्टेऽपि विपर्यासाविशेषत: ॥101॥
देह नाश के स्वप्न में, यथा न निज का नाश ।
जाग्रत देह-वियोग में, तथा आत्म अविनाश ॥१०१॥
अन्वयार्थ : [स्वप्ने] स्वप्न की अवस्था में [दृष्टे विनष्टे अपि] प्रत्यक्ष देखे जानेवाले शरीरादिक के विनाश होने पर भी, [यथा] जिस प्रकार [आत्मनः] आत्मा का [नाश: न अस्ति] नाश नहीं होता है; [तथा] उसी प्रकार [जागरदृष्टे अपि] जाग्रत अवस्था में भी दृष्ट शरीरादिक का विनाश होने पर भी, आत्मा का नाश नहीं होता है [विपर्यासाविशेषत:] क्योंकि दोनों ही अवस्थाओं में विपरीत प्रतिभास में कोई अन्तर नहीं है ।
प्रभाचन्द्र :
स्वप्न में, अर्थात् स्वप्न-अवस्था में देखने में आए हुए शरीरादि का नाश होने पर भी जैसे आत्मा का नाश नहीं होता; इसी तरह जागृत-अवस्था में भी देखने में आते हुए शरीरादि का नाश होने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता ।
स्वप्न-अवस्था में भ्रान्ति के कारण, आत्मा का विनाश प्रतिभासित होता है - ऐसी शङ्का की जावे तो अन्यत्र भी (जागृत-अवस्था में भी) वह समान है । भ्रान्ति-रहित मनुष्य, शरीर का विनाश होने पर, आत्मा का विनाश वास्तव में नहीं मानता; इसलिए दोनों में (स्वप्न-अवस्था में और जागृत-अवस्था में) भी विपर्यास में (भ्रान्ति में) अन्तर नहीं होने से (भ्रान्ति, समान होने से) आत्मा का विनाश नहीं होने पर भी, (उसका) विनाश प्रतिभासित होता है; उसी प्रकार ऐसी भ्रान्ति जागृत-अवस्था में भी होती है ॥१०१॥
अनादि-निधन आत्मा प्रसिद्ध होने पर भी, उसकी मुक्ति के लिए दुर्द्धर तपश्चरणरूप क्लेश करना व्यर्थ है क्योंकि ज्ञानभावनामात्र से ही मुक्ति की सिद्धि है - ऐसी आशङ्का करके कहते हैं :--
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अदु:खभावितं ज्ञानं क्षीयते दु:खसन्निधौ
तस्माद्यथाबलं दु:खैरात्मानं भावयेन्मुनि: ॥102॥
दुःख सन्निधि में नहीं टिके, अदुख भावित ज्ञान ।
दृढ़तर भेद-विज्ञान का, अत: नहीं अवसान ॥१०२॥
अन्वयार्थ : [अदु:खभावितं ज्ञानं] जो ज्ञान अदु:ख में भाया जाता है, वह [दुःखसन्निधौ] उपसर्गादिक दुःखों के उपस्थित होने पर [क्षीयते] नष्ट हो जाता है । [तस्मात्] इसलिए [मुनि:] मुनि को - अन्तरात्मा योगी को [यथाबलं] अपनी शक्ति के अनुसार [दुःखै] काय-क्लेशादिरूप दुःखों से [आत्मानं भावयेत्] आत्मा की शरीरादि से भिन्न भावना करनी चाहिए ।
प्रभाचन्द्र :
दुःख बिना, अर्थात् कायक्लेशादि के कष्ट बिना, सुकुमार उपक्रम से भाने में आया हुआ, अर्थात् एकाग्रता से मन में बारम्बार चिन्तन किया हुआ ज्ञान, अर्थात् शरीरादि से भिन्न आत्मस्वरूप का परिज्ञान, क्षय पाता है - क्षीण होता है । कब? दु:ख की सन्निधि में (उपस्थिति में) -दुःख आ पड़ने पर । इसलिए यथाशक्ति, अर्थात् अपनी शक्ति का उल्लंघन किए बिना, मुनि (योगी) को दुःख से आत्मा की भावना भाना, अर्थात् काय-क्लेशादिरूप कष्टों से, आत्म-स्वरूप की भावना करना - कष्ट सहकर, सदा आत्म-स्वरूप का चिन्तवन करना - ऐसा अर्थ है ॥१०२॥
यदि आत्मा, शरीर से सर्वथा भिन्न होवे तो उसके चलने से शरीर नियम से क्यों चलता है और उसके खड़े रहने से वह (शरीर) नियम से क्यों खड़ा रहता है? - ऐसी शङ्का करनेवाले के प्रति कहते हैं --
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प्रयत्नादात्मनो वायुरिच्छाद्वेषप्रवर्तितात्
वायो: शरीरयन्त्राणि वर्तन्ते स्वेषु कर्मसु ॥103॥
राग-द्वेष के यत्न से, हो वायु संचार ।
वायु है तनयन्त्र की, संचालन आधार ॥१०३॥
अन्वयार्थ : [आत्मनः] आत्मा के [इच्छाद्वेषप्रवर्तितात् प्रयत्नात्] राग और द्वेष की प्रवृत्ति से होनेवाले प्रयत्न से [वायु:] वायु उत्पन्न होती है-वायु का संचार होता है, [वायो:] वायु के संचार से [शरीरयंत्राणि] शरीररूपी यन्त्र, [स्वेषु कर्मसु] अपने-अपने कार्य करने में [वर्तन्ते] प्रवृत्त होते हैं ।
प्रभाचन्द्र :
आत्मा के प्रयत्न से वायु का शरीर में सञ्चार होता है । कैसे प्रयत्न से? इच्छा - द्वेष से प्रवर्तते हुए - राग-द्वेष से उत्पन्न हुए (प्रयत्न से) । उसमें (शरीर में) सञ्चारित वायु से शरीरयन्त्र - शरीर, वही यन्त्र, वे शरीरयन्त्र (स्वकार्य में प्रवर्तते हैं ।)
क्या शरीरों को यन्त्रों के साथ समान धर्म है कि जिससे वे (शरीर) यन्त्र कहलाते हैं?
ऐसा पूछो तो कहना है कि जैसे, लकड़ी आदि से बने हुए सिंह / व्याघ्रादि यन्त्र पर-प्रेरित होकर अपने-अपने साधनेयोग्य विविध क्रियाओं में प्रवर्तते हैं; इसी प्रकार शरीर भी (प्रवर्तते हैं) । इस प्रकार दोनों में (शरीर और यन्त्रों में) समानता है । वे शरीर-यन्त्र वायु द्वारा प्रवर्तते हैं । किसमें? कार्यों में - क्रियाओं में । कैसे कार्यों में ? अपने-अपने साधने-योग्य कार्यों में ॥१०३॥
उन शरीर यन्त्रों का आत्मा में आरोप और अनारोप करके जड (अज्ञानी) और विवेकी पुरुष क्या करते हैं? - यह कहते हैं --
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तान्यात्मनि समारोप्य साक्षाण्यास्तेऽसुखं जड:
त्यक्त्वाऽऽरोपं पुनर्विद्वान् प्राप्नोति परमं पदम् ॥104॥
मूढ़ अक्षमय आत्म गिन, भोगे दुःख संताप ।
सुधी तजे यह मान्यता, पावे शिवपद आप ॥१०४॥
अन्वयार्थ : [जड़] मूर्ख [साक्षाणि] इन्द्रियों सहित [तानि] उन औदारिकादि शरीर-यन्त्रो को [आत्मनि समारोप्य] आत्मा में आरोपण करके 'मैं गोरा हूँ', 'मैं सुलोचन हूँ' इत्यादिरूप से उनकी आत्मत्व की कल्पना करके [असुखं आस्ते] दुःख भोगता रहता है, [पुन:] किन्तु [विद्वान] ज्ञानी [आरोपं त्यक्त्वा] शरीरादिक में आत्मा की कल्पना को छोड्कर [परमं पदं] परमपदरूप मोक्ष को [प्राप्नोति] प्राप्त कर लेता है ।
प्रभाचन्द्र :
उन अक्ष-सहित शरीर-यंत्रों को आत्मा में आरोपित करके (शरीर-यन्त्रों को आत्मा मानकर), अर्थात् 'मैं गोरा हूँ, सुन्दर आँखवाला हूँ, मैं मोटा हूँ)' इत्यादि अभेदरूपपने (एकत्वबुद्धि से) आत्मा में आरोपितकर जड-बहिरात्मा, जैसे असुख-सुख हो, वैसे वर्तता है परन्तु विद्वान-अन्तरात्मा प्राप्त करता है । क्या? उस परमपद को - मोक्ष को । क्या करके? तजकर । क्या (तजकर)? शरीरादि का आत्मा में जो आरोप-अध्यवसाय है, उसका (तजकर) ॥१०४॥
वह उसे किस प्रकार तजता है? - वह कहते हैं अथवा अपने रचित कथन का उपसंहार, फल दर्शाते हुए 'मुक्त्वा' - ऐसा कहकर कहते हैं : -
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मुक्त्वा परत्र परबुद्धिमहं धियञ्च,
संसारदु:खजननीं जननाद्विमुक्त:
ज्योतिर्मयं सुखमुपैति परात्मनिष्ठस्तन्-
मार्गमेतदधिगम्य समाधितन्त्रम् ॥105॥
करे समाधितन्त्र का, आत्मनिष्ठ हो ध्यान ।
अहंकार-ममकार तज, जगे शान्ति सुख ज्ञान ॥१०५॥
अन्वयार्थ : [तन्मार्ग] उस परमपद की प्राप्ति का उपाय बतलानेवाले [एतत् समाधितंत्रम्] इस समाधितन्त्र नामक शास्त्र का [अधिगम्य] अध्ययन करके - अनुभव करके [परात्मनिष्ठ:] परमात्मा की भावना में स्थिर चित्त हुआ अन्तरात्मा [संसारदु:खजननीं] चतुर्गतिरूप संसार के दुःखों को उत्पन्न करनेवाली, [परत्र] शरीरादिक पर-पदार्थों में [अहंधिय परबुद्धिं च] जो अहं-बुद्धि तथा पर-बुद्धि को [मुक्त्वा] छोड्कर, [जननाद्विमुक्त:] संसार से मुक्त होता हुआ, [ज्योतिर्मयं] ज्ञानात्मक सुख को [उपैति] प्राप्त कर लेता है ।
प्रभाचन्द्र :
पाता है, अर्थात् प्राप्त करता है । वह क्या? सुख । कैसा (सुख)? ज्योतिर्मय, अर्थात् ज्ञानात्मक (सुख) । कैसे प्रकार का होकर वह उसे (सुख को) प्राप्त करता है? जन्म से मुक्त (अर्थात्), मुख्य करके संसार से मुक्त होकर (सुख प्राप्त करता है ।) उससे (संसार से) मुक्त होने पर भी वह कैसे सम्भव है? (वह) परमात्मनिष्ठ-परमात्मस्वरूप का संवेदक (होता है) । क्या करके वह तन्निष्ठ (अर्थात् परमात्मनिष्ठ) बनता है? छोड्कर । क्या (छोड्कर)? परबुद्धि और अहंबुद्धि, अर्थात् स्वात्मबुद्धि (छोड्कर) । किसमें (छोड्कर)? पर में - शरीरादि में । कैसी उस (बुद्धि को)? संसार के दुःखों को उत्पन्न करनेवाली चतुर्गति के दुःखों की कारणभूत (बुद्धि को) । इसलिए उस प्रकार की उस बुद्धि का त्याग करना । क्या करके? जानकर । क्या (जानकर)? समाधितन्त्र को । समाधि का, अर्थात् परमात्मस्वरूप के संवेदन में एकाग्रता को अथवा परम उदासीनता के तन्त्र को, अर्थात् प्रतिपादक शास्त्र को । वह कैसा है? उसके मार्गरूप है । उसके, अर्थात् ज्योतर्मय सुख के मार्गरूप, अर्थात् उपायरूप (शास्त्र) है ॥१०५॥
॥ इति श्री पण्डित प्रभाचन्द्र विरचित समाधि-शतक की टीका सम्पूर्ण ॥
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