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परमात्मप्रकाश
























- योगींदुदेव



nikkyjain@gmail.com
Date : 17-Nov-2022


Index


गाथा / सूत्रविषयगाथा / सूत्रविषय
1-001) मंगलाचरण1-002) सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार
1-003) सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार1-004) सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार
1-005) सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार1-006) अरिहंत परमेष्ठी को नमस्कार
1-007) आचार्य, उपाध्याय, साधु परमेष्ठी को नमस्कार1-008) प्रभाकरभट्ट द्वारा विनती
1-009) विनती1-010) परमात्मा के कथन की विनती
1-011) तीन प्रकार के आत्मा को कहने की प्रतिज्ञा1-012) तीन प्रकार के आत्मा को जानने का प्रयोजन
1-013) बहिरात्मा1-014) अन्तरात्मा
1-015) परमात्मा1-016) ध्येय
1-017) लक्ष्य के लक्षण1-018) शान्त और शिव
1-019-021) निरन्जन1-022) परमात्मा - ध्यान के साधन नहीं
1-023) परमात्मा - ज्ञान का साधन नहीं1-024) परमात्मा - अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्यमयी
1-025) परमात्मा - शरीर रहित लोक के शिखर पर स्थित1-026) परमात्मा - शरीर में स्थित
1-027) परमात्मा - अंतर-दृष्टि के प्रेरणा1-028) परमात्मा शारीरिक और मानसिक सुख-दुःख रहित
1-029) [परमात्मा - देह में रहते हुए भी स्वभाव में स्थित 1-030) भेद-ज्ञान की प्रेरणा
1-031) आत्मा का लक्षण1-032) ध्यान की विधि और उसका फल
1-033) देह में ही परमात्मा का निवास1-034) परमात्मा का एक अद्भुत् लक्षण
1-035) परमात्मा - समभाव द्वारा परम आनन्द की प्राप्ति1-036) आत्मा का परम आत्मा स्वरूप
1-037) पूर्व कथन की पुष्टि1-038) परमात्मा - केवलज्ञान में स्वयं प्रतिभासित
1-039) परमात्मा - ध्यान का ध्येय1-040) परमात्मा - संसार को उपजाता है
1-041) परमात्मा - संसार में रहते हुए भी संसार से परे1-042) परमात्मा उत्कृष्ट समाधि / तप द्वारा ही जाना जाता है
1-043) परमात्मा - उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य संयुक्त1-044) शरीर और आत्मा के दृढ़ सम्बन्ध
1-045) देह से आत्मा का विशिष्ट महत्व1-046) परमात्मा का वीतराग स्वरूप
1-047) परमात्मा के ज्ञान के स्थान का कथन1-048) कर्म बंधन से मुक्त परमात्मा का स्वरूप
1-049) कर्म बंधन से मुक्त परमात्मा का स्वरूप1-050) आत्मा क्या है
1-051) आत्मा का स्वरूप1-052) आत्मा का सर्वव्यापक स्वरूप
1-053) आत्मा का जड स्वरूप1-054) आत्मा का चरम शरीर प्रमाणरूप स्वरूप
1-055) आत्मा के शून्य स्वरूप का कथन1-056) आत्मा के लक्षण
1-057) आत्मा के लक्षण का स्पष्टीकरण1-058) आत्मा द्रव्य और उसके गुण
1-059) आत्मा और कर्म का परष्पर सम्बन्ध1-060) सभी जीवों का प्राण कर्म
1-061) कर्म के कारण जीव को स्वभाव-लाभ नहीं1-062) विषय-कषायों में लिप्तता से कर्म-बंध
1-063) इन्द्रियाँ, मन, समस्त विभाव, दुःख कर्म-जनित1-064) परमार्थ से दुःख-सुख कर्म जनित
1-065-1) जिन्वचन को नहीं मानने का परिणाम1-065) परमार्थ से बन्ध और मोक्ष कर्मजनित
1-066) कर्म द्वारा ही जीव के लोक में भ्रमण 1-067) द्रव्य-रूप परिवर्तित नहीं होता
1-068) जीव के जन्म-मरण बंध-मोक्ष नहीं1-069) जीव के जन्म-मरण-रोग, इन्द्रियाँ, वर्ण नहीं
1-070) जन्म-बुढापा-मरण, रोग, वर्ण देह के1-071) जीव को अमर जानकर भय-मुक्त हो
1-072) शरीर से ममत्व त्यागकर आत्मा को ध्या1-073) पर-भाव और पर द्रव्य जीव स्वभाव से भिन्न
1-074) ज्ञानमयी भाव को छोड़कर अन्य सभी भाव को त्याग1-075) रत्नत्रयमयी आत्मा का ध्यान कर
1-076) सम्यग्दृष्टि1-077) मिथ्यादृष्टि
1-078) कर्म बलवान हैं1-079) मिथ्यात्वी का लक्षण
1-080) मिथ्यात्वी की मान्यता1-081) और भी
1-082) और भी1-083) और भी
1-084) अज्ञान ही पाप1-085) सम्यक्त्व की प्राप्ति
1-086) आत्मा स्पर्श या वर्ण नहीं1-087) आत्मा के वर्ण या लिंग नहीं
1-088) आत्मा के वेष नहीं1-089) आत्मा गुरु-शिष्यादिक भी नहीं
1-090) आत्मा मनुष्य-देव आदि नहीं1-091) आत्मा पंडित मूर्ख आदि नहीं
1-092) आत्मा पुण्य-पापादि नहीं1-093) आत्मा क्या है?
1-094) आत्मा ही ज्ञान-दर्शन-चारित्र1-095) आत्मध्यान किसी तीर्थ, गुरु, देव से भी उत्कृष्ट
1-096) आत्मा ही दर्शन1-097) आत्मध्यान से क्षणमात्र में मुक्ति
1-098) आत्म-ज्ञान बिना ज्ञान तप निष्फल 1-099) आत्मज्ञान से केवलज्ञान
1-100) उसी को दृढ़ करते हैं1-101) केवलज्ञान का स्वभाव
1-102) उदाहरण1-103) उपसंहार
1-104) प्रश्न1-105) आत्मा का संस्थान
1-106) पर भावों को छोड़1-107) आत्मा ज्ञान गोचर
1-108) परलोक -- आत्मा से परमात्मा1-109) परलोक -- अपना स्वरूप जानना
1-110) परलोक -- ध्यान का ध्येय1-111) जैसी मति वैसी गति
1-112) पर-द्रव्य को मत देख1-113) पर-द्रव्य
1-114) ध्यान की सामर्थ्य1-115) चिंता रहित होकर देख
1-116) आत्म-ध्यान के बिना सुख सम्भव नहीं1-117) आत्म-ध्यानी के सुख के सामान सुख नहीं
1-118) आत्म-ध्यानी को भगवान जैसा सुख1-119) मोक्ष अपने आप में
1-120) राग-रंजित को मोक्ष-सुख नहीं1-121) राग और सुख एक साथ नहीं रह सकते
1-122) भगवान आत्मा अनादि से1-123-A) वन्द्य-वंदक भाव रहित
1-123-B) मन पर लगाम द्वारा मुक्ति प्राप्ति2-001) समभाव द्वारा सुख की प्राप्ति
2-002) शिष्य द्वारा अनुरोध2-003) मोक्ष, मोक्ष का फल, मोक्ष का कारण करने की प्रतिज्ञा
2-004) मोक्ष ही सुख2-005) तीन पुरुषार्थों की अपेक्षा मोक्ष पुरुषार्थ की उत्तमता
2-006) मोक्ष तीन-लोक में उत्कृष्ट2-007) मोक्ष में अविनाशी सुख
2-008) सभी ज्ञानियों का ध्येय मोक्ष2-009) मोक्ष के चिंतवन की प्रेरणा
2-010) मोक्ष - परमात्म-प्राप्ति 2-011) मोक्षफल - शास्वत सुख
2-012) मोक्ष-मार्ग - निश्चय रत्नत्रय2-013) मोक्ष-मार्ग - रत्नत्रय परिणत आत्मा
2-014) व्यवहार-रत्नत्रय की सार्थकता2-015) व्यवहार-सम्यक्त्व
2-016) छह-द्रव्य2-017) द्रव्यों के नाम
2-018) जीव का लक्षण2-019) पुद्गल, धर्म, अधर्म का लक्षण
2-020) आकाश द्रव्य2-021) काल द्रव्य
2-022) अखंड-प्रदेशी द्रव्य2-023) क्रिया-रहित द्रव्य
2-024) द्रव्यों के प्रदेश2-025) एक जगह रहते हुए भी मिलते नहीं
2-026) द्रव्यों का जीव पर उपकार2-027) पर-द्रव्य दुःख का कारण
2-028) क्रम-प्राप्त ज्ञान और चारित्र का वर्णन2-029) सम्यग्ज्ञान
2-030) सम्यक-चारित्र2-031) अभेद रत्नत्रय
2-032) रत्नत्रय ही आत्मा2-033) निर्मल आत्म-ध्यान से मुक्ति
2-034) सामान्य अवलोकन - दर्शन2-035) दर्शन पूर्वक ज्ञान
2-036) तप द्वारा निर्जरा2-037) समभाव द्वारा संवर
2-038) आत्मलीन ही संवर और निर्जरा2-039) परिग्रह-रहित को संवर-निर्जरा
2-040) समभाव बिना रत्नत्रय नहीं2-041) कषायों द्वारा असंयम
2-042) मोह-राग-द्वेष रहित को मुक्ति2-043) परमार्थ के ज्ञाता सुखी
2-044) समभावधारी की निंदा द्वारा स्तुति2-045) और भी निन्दा द्वारा स्तुति
2-046-A) योगी और भोगी में भेद2-046) और भी निन्दा द्वारा स्तुति
2-047) ज्ञानी के किसी से राग द्वेष नहीं2-048) ज्ञानी समभाव को छोड़कर कुछ नहीं करता
2-049) ज्ञानी के परिग्रह में राग-द्वेष नहीं2-050) ज्ञानी के विषयों में राग-द्वेष नहीं
2-051) ज्ञानी के देह में राग-द्वेष नहीं2-052) ज्ञानी के ग्रहण-त्याग में राग-द्वेष नहीं
2-053) बंध-मोक्ष का कारण स्वयं -- ज्ञानी2-054) पुण्य-पाप मोक्ष के कारण -- अज्ञानी
2-055) अज्ञानी पुण्य-पाप को समान नहीं मानता2-056) पाप का उदय भी भला
2-057) पुण्य का उदय भी बुरा2-058) आत्मदर्शी का मरण भी शुभ और अज्ञानी का पुण्य करना भी अशुभ
2-059) आत्मदर्शी सुखी, अज्ञानी दुखी2-060) मोह उत्पन्न करे ऐसा पुण्य का उदय बुरा
2-061) देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति से पुण्य, मुक्ति नहीं2-062) देव-शास्त्र-गुरु से द्वेष पापभाव
2-063) पाप से दुर्गति, पुण्य से सुगति, दोनों के ही नाश से मोक्ष2-064) ज्ञानी के लिए वंदना, निंदा, प्रायश्चित्त हेय
2-065) ज्ञानियों को ज्ञानमय भाव नहीं छोड़ना चाहिए2-066) शुद्ध-उपयोग बिना मुक्ति नहीं
2-067) शुद्धोपयोग ही मुख्य2-068) शुद्ध-उपयोग ही धर्म
2-069) शुद्ध-भाव बिना मुक्ति नहीं2-070) चित्त की शुद्धि बिना सब करना व्यर्थ
2-071) शुभ से धर्म, अशुभ पाप, शुद्ध अबन्धक2-072) दान से भोग, तप से इंद्रत्व, ज्ञान से मोक्ष
2-073) निसंदेह ज्ञान से ही मोक्ष, ज्ञान-रहित को संसार-भ्रमण2-074) ज्ञान-रहित के मोक्ष नहीं -- उदाहरण
2-075) आत्म-बोध बिना ज्ञान और तप व्यर्थ2-076) आत्मज्ञानी के पर-द्रव्य में प्रीती नहीं
2-077) आत्मज्ञानी को विषय-भोग में प्रीती क्यों नहीं?2-078) आत्मज्ञान श्रेष्ठ -- उदाहरण
2-079) कर्म-फल में राग-द्वेष से संसार2-080) कर्म-फल में राग-द्वेष रहित के निर्जरा
2-081) परमाणु-मात्र राग-द्वेष भी मुक्ति में बाधक2-082) आत्म-ज्ञान बिना शास्त्र-ज्ञान और तप से मुक्ति नहीं
2-083) शास्त्र-पढ़ने का प्रयोजन विकल्प-रहितता2-084) शास्त्र-ज्ञान का प्रयोजन आत्म-ज्ञान
2-085) आत्म-ज्ञान बिना तीर्थ-भ्रमण से मुक्ति नहीं2-086) ज्ञानी और मिथ्यादृष्टि मुनि में भेद
2-087) अज्ञानी धर्म के फल में संसार को चाहता है2-088) अज्ञानी शिष्य-पुस्तकादिक से हर्षित होता है
2-089) अज्ञानी के ख्याति-लाभ-पूजा द्वारा संसार2-090) द्रव्यलिंगी अपने-आप को ठगता है
2-091) द्रव्यलिंगी छोड़कर फिर ग्रहण कर लेता है2-092) ख्याति-लाभ के लिए परमात्मा को छोड़ना तुच्छ-बुद्धि
2-093) मिथ्यादृष्टि परमार्थ से अनिभिज्ञ2-094) परमार्थ से सभी जीव समान
2-095) परमार्थ से जीवों में शरीर-कृत भेद नहीं2-096) केवलज्ञानी तीन-लोक के जीवों को सामान देखते हैं
2-097) परमार्थ दृष्टि से जीव2-098) सभी जीव दर्शन-ज्ञानमयी
2-099) शुद्ध-जानने वाले जीवों में भेद नहीं करते2-100) जो साधु जीवों को सामान देखते हैं वे मुक्त होते हैं
2-101) सभी जीवों का निज-लक्षण दर्शन और ज्ञान2-102) शरीरों के भेद से जीवों में भेद देखना मिथ्यादृष्टि
2-103) शारीरिक अवस्था कर्म-कृत2-104) शत्रु-मित्र, अपने-पराए में एकपना करना सम्यग्दर्शन
2-105) समभाव संसार-समुद्र के लिए नाव के समान2-106) जीवों में भेद करने वाला कर्म जीव नहीं
2-107) ब्राह्मणादि वर्ण-भेद भी मत कर2-108) आत्मज्ञ पर-द्रव्य के सम्बन्ध को छोड़ देते हैं
2-109) जिनके समभाव नहीं उनका संग मत कर2-110) कुसंग से दुःख का उदाहरण
2-111-a) भिक्षा में स्वादयुक्त आहार की इच्छा मत कर2-111-b) भोजन की लोलुपता को त्याग
2-111-c) मुनि भोजन में गृद्धता न करे2-111) मोह दुख का कारण देख और छोड़
2-112) इन्द्रिय-विषयों को त्याग2-113) लोभ को दुःख का करण देख और त्याग
2-114) उदाहरण2-115) स्नेह को दुःख का कारण देख और त्याग
2-116) उदाहरण2-117) जो विषयों में आसक्त नहीं, वे धन्य
2-118) जिनेश्वरदेव ने भी राज्य-वैभव छोड़कर मोक्ष को साधा2-119) संसार में सिर्फ दुःख, मोक्ष को जा ।
2-120) दुःख-रुपी कर्म को मत कर2-121) अज्ञानी कर्मों को करता है
2-122) ज्ञान-रहित जीव दुखी2-123) संयोग कर्माधीन और विनाशीक
2-124) निश्चिन्त होकर तप कर2-125) पाप के फल को अकेले ही भोगना होगा
2-126) पाप का फल अनन्त गुणा2-127) जीवों को अभयदान दे
2-128) कर्म-कृत को भ्रम जानकर छोड़2-129) शरीर भी कर्म-कृत
2-130) सभी संयोग नष्ट हो जाएँगे2-131) एक शुद्धात्मा को छोड़कर सब-कुछ विनाशीक
2-132) धन-यौवन विनाशीक, धर्म कर2-133) शरीर को तप में लगा
2-134) कुटुम्बी-जन संसार का कारण2-135) मनुष्य जन्म पाकर तप करना चाहिए
2-136) इन्द्रियों को वश में कर2-137-a) इन्द्रिय विजयी ही ध्यानी
2-137) मन को इन्द्रियों के विषयों में जाने से रोक2-138) विषय-सुख में रमणता दुख का कारण
2-139) विषय-भोग के त्यागी धन्य2-140) मन इन्द्रियों का स्वामी
2-141) जीतेंद्रिय होकर शुद्धात्मा का अनुभव कर2-142) आत्म-ज्ञान बिना दुःख
2-143) आज तक सम्यक्त्व नहीं ग्रहण किया2-144) घर-वास पाप वास है
2-145) पर में ममत्व मत कर2-146) शुद्धात्मा को छोड़ कुछ और भावना मत कर
2-147) शरीर असार है2-148) शरीर अशुचि है
2-149) अशुचि शरीर से प्रीति मत कर2-150) शरीर पाप, दुःख और अशुचि से निर्मित
2-151) देह से नहीं धर्म से प्रीति कर2-152) आत्मा को ज्ञानादि गुणमय देख
2-153) देह दुःख का कारण अत: ममत्व त्याग2-154) इन्द्रियाधीन सुख की जगह आत्माधीन सुख को देख
2-155) ज्ञान को छोड़कर कुछ भी आत्मा नहीं2-156) स्थिर चित्त द्वारा आत्मा प्रत्यक्ष
2-157) योग द्वारा मन को वश में कर2-158) आत्म-ध्यान द्वारा ही केवलज्ञान
2-159) विकल्प-रहित होकर आत्म-ध्यान करने वाले धन्य2-160) समूल परिवर्तित, पुण्य-पाप से रहित धन्य
2-161) प्रभाकर भट्ट द्वारा निवेदन2-162) योग द्वारा ध्यान
2-163) परम-समाधि2-164) निर्विकल्प समाधि द्वारा मोह टूटता है
2-165) प्रभाकर भट्ट द्वारा विनती2-166-167) परमार्थ मार्ग
2-168) व्यवहार मोक्षमार्ग2-169) अकेले बाह्य-योग दारा सिद्धि नहीं
2-170) चिंता-मुक्त हुए बिना संसार भरमान नहीं छूटता2-171) मन को मारकर परब्रह्म का ध्यान करो
2-172) सब विषयों को छोड़कर आत्मदेव को ध्यावो2-173) आत्मा को जिसरूप से ध्यावो, उसी-रूप परिणमता है
2-174) आत्मा परमात्मा कैसे बनता है?2-175) मैं ही परमात्मा
2-176) कर्म-स्वभाव आत्म-स्वभाव से भिन्न2-177) आत्मा को निर्मल देख
2-178-181) भेदविज्ञान की भावना का रक्त पीतादि वस्त्र द्वारा दृष्टांत2-182) शरीर को शत्रु की तरह देख
2-183) दुःख में भी सकारात्मकता2-184) विपरीत परिस्थितियों में आत्म-तत्त्व की भावना
2-185) कर्म-बंध नहीं करे, आत्म-स्वरूप में लगे2-186) कोई दोष ग्रहण करे तो क्षमाभाव रखे
2-187) सब चिंताओं का निषेध2-188) मोक्ष की भी चिन्ता नहीं करे
2-189) परमसमाधि द्वारा कर्मों से छूटना होता है2-190) शुभ-अशुभ विकल्पों का नाश ही परम-समाधि
2-191) समभाव बिना ज्ञान और तप व्यर्थ2-192) विषय-कषाय रहित परम-समाधि
2-193) मात्र बाह्य समाधि से कार्य की सिद्धि नहीं 2-194) चित्त से विकल्पों का हटना ही परमसमाधि
2-195) परम-समाधि में लीनता से केवलज्ञान2-196) केवलज्ञान की महिमा
2-197) केवलज्ञान ही आत्मा का स्वभाव2-198) कर्मों और दोषों से रहित ही परमात्म-प्रकाश
2-199) अनंतचतुष्टयमयी परमप्रकाश है2-200) जिनदेव के ही अनेक नाम
2-201) सिद्ध भगवान2-202) सिद्धों की महिमा
2-203) सिद्धों का स्वरूप2-204) परमात्मप्रकाश की भावना में लीनता का फल
2-205) परमात्मप्रकाश के अभ्यास का फल2-206) परमात्मप्रकाश के पढ़ने का फल
2-207) परमात्मप्रकाश ग्रंथ के योग्य कौन?2-208) और भी
2-209) और भी2-210) शास्त्र का फल
2-211) उद्धतपने का त्याग2-212) ग्रन्थकर्ता द्वारा क्षमायाचना
2-213) ग्रंथ के पढ़ने का फल2-214) अन्त-मंगल



!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!

श्रीमद्‌-भगवत्योगीन्दु-देव-प्रणीत

श्री
परमात्मप्रकाश

मूल प्राकृत गाथा,


आभार :

🏠
!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!

ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥

अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥

अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥

॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥

सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्री-परमात्मप्रकाश नामधेयं, अस्य मूल-ग्रन्थकर्तार: श्री-सर्वज्ञ-देवास्तदुत्तर-ग्रन्थ-कर्तार: श्री-गणधर-देवा: प्रति-गणधर-देवास्तेषां वचनानुसार-मासाद्य आचार्य श्री-भगवत्योगीन्दु-देव विरचितं ॥



॥ श्रोतार: सावधान-तया शृणवन्तु ॥

मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्‌ ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम्‌ ॥


🏠
+ मंगलाचरण -
जे जाया झाणग्गियएँ कम्म-कलंक डहेवि
णिच्च-णिरंजण-णाण-मय ते परमप्प णवेवि ॥1॥
अन्वयार्थ : [ये] जो (भगवान्) [ध्यानाग्निना ] ध्यानरूपी अग्नि से [कर्म-कलङ्कान् ] पहले कर्मरूपी मैलों को [दग्ध्वा ] भस्म करके [नित्यनिरंजनज्ञानमयाः जाताः] नित्य, निरंजन और ज्ञानमयी सिद्ध परमात्मा हुए हैं, [तान्] उन [परमात्मनः] सिद्धों को [नत्वा] नमस्कार करके मैं परमात्मप्रकाश का व्याख्यान करता हूँ ।

श्रीब्रह्मदेव :
अब, प्रथम पातनिका के अभिप्राय से व्याख्यान किया जाता है, उसमें ग्रंथकर्ता श्री योगीन्द्राचार्यदेव ग्रंथ के आरंभ में मंगल के लिए इष्टदेवता श्री भगवान को नमस्कार करते हुए एक दोहा छंद कहते हैं --

जैसे मेघ-पटल से बाहर निकली हुई सूर्य की किरणों की प्रभा प्रबल होती है, उसी तरह कर्मरूप मेघसमूह के विलय होने पर अत्यंत निर्मल केवलज्ञानादि अनंतचतुष्टय की प्रगटतास्वरूप परमात्मा परिणत हुए हैं । अनंतचतुष्टय अर्थात् अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य, ये अनंतचतुष्टय सब प्रकार अंगीकार करने योग्य हैं, तथा लोकालोक के प्रकाशन को समर्थ हैं । जब सिद्ध-परमेष्ठी अनंतचतुष्टयरूप परिणमे, तब कार्य-समयसार हुए । अंतरात्म अवस्था में कारण-समयसार थे । जब कार्य-समयसार हुए तब सिद्ध-पर्याय परिणति की प्रगटतारूप द्वारा शुद्ध परमात्मा हुए । जैसे सोना अन्य धातु के मिलाप से रहित हुआ, अपने सोलहवानरूप प्रगट होता है, उसी तरह कर्म-कलंक रहित सिद्ध-पर्यायरूप परिणमे । तथा पंचास्तिकाय ग्रंथ में भी कहा है -- जो पर्यायार्थिकनय से 'अभूदपुव्वो हवदि सिद्धो' अर्थात् जो पहले सिद्ध-पर्याय कभी नहीं पाई थी, वह कर्म-कलंक के विनाश से पाई । यह पर्यायार्थिक नय की मुख्यता से कथन है और द्रव्यार्थिकनय से शक्ति की अपेक्षा यह जीव सदा ही शुद्ध-बुद्ध (ज्ञान) स्वभाव तिष्ठता है । जैसे धातु पाषाण के मेल में भी शक्तिरूप सुवर्ण मौजूद ही है, क्योंकि सुवर्ण-शक्ति सुवर्ण में सदा ही रहती है, जब पर वस्तु का संयोग दूर हो जाता है, तब वह व्यक्तिरूप होता है । सारांश यह है कि शक्तिरूप तो पहले ही था, लेकिन व्यक्तिरूप सिद्ध-पर्याय पाने से हुआ । शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से सभी जीव सदा शुद्ध ही हैं । ऐसा ही द्रव्यसंग्रह में कहा है, 'सव्वे सुद्धाहुसुद्धणया' अर्थात् शुद्ध नय से सभी जीव शक्तिरूप शुद्ध हैं और पर्यायर्थिकनय से व्यक्ति से शुद्ध हुए । किस कारणसे ? ध्यानाग्निना अर्थात् ध्यानरूपी अग्नि द्वारा कर्मरूपी कलंकों को भस्म किया, तब सिद्ध परमात्मा हुए । वह ध्यान कौनसा है ? आगमकी अपेक्षा तो वीतराग निर्विकल्प शुक्लध्यान है और अध्यात्म की अपेक्षा वीतराग निर्विकल्प रूपातीत ध्यान है । तथा दूसरी जगह भी कहा है -- 'पदस्थं' इत्यादि, उसका अर्थ यह है, कि णमोकारमंत्र आदि का जो ध्यान है, वह पदस्थ कहलाता है, पिंड (शरीर) में ठहरा हुआ जो निज आत्मा है, उसका चिंतवन वह पिंडस्थ है, सर्व चिद्रूप (सकल परमात्मा) जो अरहंतदेव उनका ध्यान वह रूपस्थ है, और निरंजन (सिद्धभगवान्) का ध्यान रूपातीत कहा जाता है । वस्तु के स्वभाव से विचारा जावे, तो शुद्ध आत्मा का सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप अभेद रत्नत्रयमई जो निर्विकल्प समाधि है, उससे उत्पन्न हुआ वीतराग परमानंद समरसी भाव सुखरस का आस्वाद वही जिसका स्वरूप है, ऐसा ध्यान का लक्षण जानना चाहिये । इसी ध्यान के प्रभाव से कर्मरूपी मैल वही हुआ कलंक, उनको भस्म कर सिद्ध हुए । कर्म-कलंक अर्थात् द्रव्यकर्म भावकर्म इनमें से जो पुद्गल-पिंडरूप ज्ञानावरणादि आठ कर्म वे द्रव्यकर्म हैं, और रागादिक संकल्प-विकल्प परिणाम भावकर्म कहे जाते हैं । यहाँ भावकर्म का दहन अशुद्ध निश्चयनय से हुआ,तथा द्रव्यकर्म का दहन असद्भुत अनुपचरित व्यवहारनय से हुआ और शुद्ध निश्चय से तो जीव के बंध मोक्ष दोनों ही नहीं है । इस प्रकार कर्मरूप मलों को भस्म कर जो भगवान हुए, वे कैसे हैं ? वे भगवान सिद्ध परमेष्ठी नित्य निरंजन ज्ञानमई हैं । यहाँ पर नित्य जो विशेषण किया है, वह एकान्तवादी बौद्ध जो कि आत्मा को नित्य नहीं मानता, क्षणिक मानता है, उसको समझाने के लिये है । द्रव्यार्थिकनय से आत्मा को नित्य कहा है, टंकोत्कीर्ण अर्थात् टाँकी का साघडया सुघट ज्ञायक एक स्वभाव परम द्रव्य है । ऐसा निश्चय कराने के लिये नित्यपने का निरूपण किया है । इसके बाद निरंजनपने का कथन करते हैं । जो नैयायिकमती हैं वे ऐसा कहते हैं 'सौ कल्पकाल चले जानेपर जगत् शून्य हो जाता है और सब जीव उस समय मुक्त हो जाते हैं तब सदाशिव को जगत्के करने की चिन्ता होती है । उसके बाद जो मुक्त हुए थे, उन सबके कर्मरूप अंजन का संयोग करके संसार में पुनः डाल देता है', ऐसी नैयायिकों के श्रद्धा है । उनके सम्बोधने के लिये निरंजनपने का वर्णन किया कि भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्मरूप अंजन का संसर्ग सिद्धों के कभी नहीं होता । इसी लिये सिद्धों को निरंजन ऐसा विशेषण कहा है । अब सांख्यमती कहते हैं -- 'जैसे सोने की अवस्था में सोते हुए पुरुष को बाह्य पदार्थों का ज्ञान नहींहोता, वैसे ही मुक्तजीवों को बाह्य पदार्थों का ज्ञान नहीं होता है ।' ऐसे जो सिद्धदशा में ज्ञान का अभाव मानते है, उनको प्रतिबोध कराने के लिये तीन जगत् तीनकालवर्ती सब पदार्थों का एक समय में ही जानना है, अर्थात् जिसमें समस्त लोकालोक के जानने की शक्ति है, ऐसे ज्ञायकतारूप केवलज्ञान के स्थापन करने के लिये सिद्धों का ज्ञानमय विशेषण किया । वे भगवान नित्य हैं, निरंजन हैं, और ज्ञानमय हैं, ऐसे सिद्ध परमात्माओं को नमस्कार करके ग्रंथ का व्याख्यान करता हूँ । यह नमस्कार शब्द रूप वचन द्रव्य-नमस्कार है और केवलज्ञानादि अनंत गुणस्मरणरूप भाव-नमस्कार कहा जाता है । यह द्रव्य-भावरूप नमस्कार व्यवहारनय से साधक-दशा में कहा है, शुद्धनिश्चयनय से वंद्य-वंदक भाव नहीं है । ऐसे पदखंडनारूप शब्दार्थ कहा और नयविभाग रूप कथन से नयार्थ भी कहा, तथा बौद्ध, नैयायिक, सांख्यादि मत के कथन करने से मतार्थ कहा, इस प्रकार अनंतगुणात्मक सिद्ध-परमेष्ठी संसार से मुक्त हुए हैं, यह सिद्धांत का अर्थ प्रसिद्ध ही है, और निरंजन ज्ञानमई परमात्मा-द्रव्य आदरने योग्य है, उपादेय है, यह भावार्थ है, इसी तरह शब्द नय, मत, आगम, भावार्थ व्याख्यान के अवसर पर सब जान लेना ॥१॥

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+ सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार -
ते वंदउँ सिरि-सिद्ध-गण होसहिँ जे वि अणंत
सिवमय-णिरुवम-णाणमय परम-समाहि भजंत ॥2॥
तान् वन्दे श्रीसिद्धगणान् भविष्यन्ति येऽपि अनन्ताः ।
शिवमयनिरूपमज्ञानमयाः परमसमाधिं भजन्तः ॥२॥
अन्वयार्थ : और भी उन मंगलमय, अनुपम, ज्ञानयुक्त, अनन्त श्री सिद्ध समूहों को नमस्कार करता हूँ जो (आगामी काल में) परम समाधि को अनुभव करते हुए (सिद्ध) होंगे।

श्रीब्रह्मदेव :
अब संसार-समुद्र के तरने का उपाय जो वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप जहाज है, उसपर चढ़के उस पर आगामी काल में कल्याणमय अनुपम ज्ञानमई होंगे, उनको मैं नमस्कार करता हूँ -

जो सिद्ध होंगे, उनको मैं वन्दता हूँ । कैसे होंगे? आगामी काल में सिद्ध, केवलज्ञानादि मोक्षलक्ष्मी सहित और सम्यक्त्वादि आठ गुणों सहित अनंत होंगे । क्या करके सिद्ध होंगे ? वीतराग सर्वज्ञदेव द्वारा प्ररूपित मार्ग के दुर्लभ ज्ञान को पाके राजा श्रेणिक आदिक के जीव सिद्ध होंगे । पुनः कैसे होंगे ? शिव अर्थात् निज शुद्धात्मा की भावना, उससे उपजा जो वीतराग-परमानंद-सुख, उस स्वरूप होंगे, समस्त उपमा रहित अनुपम होंगे, और केवलज्ञानमई होंगे । क्या करते हुए ऐसे होंगे ? निर्मल ज्ञान-दर्शन स्वभाव जो शुद्धात्मा है, उसके यथार्थ श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप अमोलिक रत्नत्रय से पूर्ण और मिथ्यात्व विषय कषायादिरूप समस्त विभावरूप जल के प्रवेश से रहित शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न हुआ जो सहजानंदरूप सुखामृत, उससे विपरीत जो नारकादि दुःख वे ही हुए क्षारजल, उनसे पूर्ण इस संसाररूपी समुद्र के तरने का उपाय जो परम-समाधिरूप जहाज, उसको सेवते हुए, उसके आधार से चलते हुए, अनंत सिद्ध होंगे । इस व्याख्यान का यह भावार्थ हुआ, कि जो शिवमय अनुपम ज्ञानमय शुद्धात्म-स्वरूप है वही उपादेय है ॥२॥

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+ सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार -
ते हउँ वंदउँ सिद्ध-गण अच्छहिँ जे वि हवंत
परम-समाहि-महग्गियएँ कम्मिंधणइँ हुणंत ॥3॥
तान् अहं वन्दे सिद्धगणान् तिष्ठन्ति येऽपि भवन्तः ।
परमसमाधिमहाग्निना कर्मेन्धनानि जुह्वन्तः ॥३॥
अन्वयार्थ : और भी उन सिद्ध समूहों को प्रणाम करता हूँ जो (सिद्ध) परमसमाधिरूप उत्तम अग्नि में कर्मोंरूपी ईंधन को होम करते हुए (तथा) (सिद्धत्व को) प्राप्त करते हुए विद्यमान हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे परमसमाधिरूप अग्नि से कर्मरूप ईंधन का होम करते हुए वर्तमान काल में महाविदेह-क्षेत्र में सीमंधर-स्वामी आदि तिष्ठते हैं, उनको नमस्कार करता हूँ -

उन सिद्धों को मैं वीतराग निर्विकल्प स्व-संवेदन ज्ञानरूप परमार्थ सिद्ध-भक्ति द्वारा नमस्कार करता हूँ । कैसे हैं वे ? अब वर्तमान समय में पंच महाविदेहक्षेत्रों में श्रीसीमंधर-स्वामी आदि विराजमान हैं । क्या करते हुए ? वीतराग परमसामायिक चारित्र की भावना से संयुक्त जो निर्दोष परमात्मा का यथार्थ श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप अभेद रत्नत्रय उसमई निर्विकल्प समाधिरूपी अग्नि में कर्मरूप ईंधन को होम करते हुए तिष्ठ रहे हैं । इस कथन में शुद्धात्म-द्रव्य की प्राप्ति का उपायभूत निर्विकल्प समाधि उपादेय (आदरने योग्य) है, यह भावार्थ हुआ ॥३॥

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+ सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार -
ते पुणु वंदउँ सिद्ध-गण जे णिव्वाणि वसंति
णाणिं तिहुयणि गरुया वि भव-सायरि ण पडंति ॥4॥
तान् पुनः वन्दे सिद्धगणान् ये निर्वाणे वसन्ति ।
ज्ञानेन त्रिभुवने गुरूका अपि भवसागरे न पतन्ति ॥४॥
अन्वयार्थ : [पुन: तान्] फिर उन [सिद्धगणान् वन्दे] सिद्धों को वन्दता हूँ, [ये निर्वाणे वसन्ति] जो मोक्ष में तिष्ठते हैं, [ज्ञानेन त्रिभुवने गुरुका अपि] ज्ञान द्वारा तीन-लोक में गुरु हैं, तो भी [भवसागरे न पतन्ति] संसार-समुद्र में नहीं पडते ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जो महामुनि होकर शुद्धात्मस्वरूपको पाके सम्यग्ज्ञानके बलसे कर्मोंका क्षयकरसिद्ध हुए निर्वाणमें बस रहे हैं, उनको मैं वन्दता हूँ -

जो भारी होता है, वह गुरुतर होता है, और जल में डूब जाता है, वे भगवान त्रैलोक्य में गुरु हैं, परंतु भव-सागर में नहीं पड़ते हैं । उन सिद्धों को मैं वंदता हूँ, जो तीर्थंकर परमदेव, तथा भरत, सगर, राघव, पांडवादिक पूर्वकाल में वीतराग निर्विकल्प स्व-संवेदनज्ञान के बल से निज शुद्धात्म स्वरूप पाके, कर्मों का क्षयकर, परम समाधानरूप निर्वाण-पद में विराज रहे हैं उनको मेरा नमस्कार होवे यह सारांश हुआ ॥४॥

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+ सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार -
ते पुणु वंदउँं सिद्ध-गण जे अप्पाणि वसंत
लोयालोउ वि सयलु इहु अच्छहिँ विमलु णियंत ॥5॥
तान् पुनर्वन्दे सिद्धगणान् ये आत्मनि वसन्तः ।
लोकालोकमपि सकलं इह तिष्ठन्ति विमलं पश्यन्तः ॥५॥
अन्वयार्थ : [अहं पुन: तान्] मैं फिर उन [सिद्धगणान्] सिद्धों के समूह को [वन्दे] वंदता हूँ [ये आत्मनि वसन्त:] जो अपने में तिष्ठते हुए [सकलं] समस्त [लोकालोकं] लोकालोक को [विमलं] स्पष्ट [पश्यन्त:] देखते हुए [तिष्ठन्ति] ठहरते हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे यद्यपि वे सिद्ध परमात्मा व्यवहारनय से लोकालोक को देखते हुए मोक्ष में तिष्ठ रहे हैं, लोक के शिखर ऊपर विराजते हैं, तो भी शुद्ध निश्चयनय से अपने स्वरूप में ही स्थित हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूँ ।

मैं कर्मों के क्षय के निमित्त फिर उन सिद्धों को नमस्कार करता हूँ, जो निश्चयनय से अपने स्वरूप में स्थित हैं, और व्यवहारनय से सब लोकालोक को निःसंदेहपने से प्रत्यक्ष देखते हैं, परंतु पदार्थों में तन्मयी नहीं हैं, अपने स्वरूप में तन्मयी हैं । जो परपदार्थों में तन्मयी हो, तो पर के सुख-दुःख से आप सुखी-दुःखी होवे, ऐसा उनमें कदाचित् नहीं है । व्यवहारनय से स्थूल-सूक्ष्म सबको केवलज्ञान द्वारा प्रत्यक्ष निःसंदेह जानते हैं , किसी पदार्थ से राग-द्वेष नहीं है । यदि राग के हेतु से किसी को जाने, तो वे राग द्वेषमयी होवें, यह बड़ा दूषण है, इसलिये यह निश्चय हुआ कि निश्चयनय से अपने स्वरूप में निवास करते हैं पर में नहीं, और अपनी ज्ञायक शक्ति से सबको प्रत्यक्ष देखते हैं जानते हैं । जो निश्चय से अपने स्वरूप में निवास कहा, इसलिये वह अपना स्वरूप ही आराधने योग्य है, यह भावार्थ हुआ ॥५॥

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+ अरिहंत परमेष्ठी को नमस्कार -
केवल-दंसण-णाणमय केवल-सुक्ख-सहाव
जिणवर वंदउँ भत्तियए जेहिँ पयासिय भाव ॥6॥
केवलदर्शनज्ञानमयान् केवलसुखस्वभावान् ।
जिनवरान् वन्दे भक्त्या यैः प्रकाशिता भावाः ॥६॥
अन्वयार्थ : [केवलदर्शनज्ञानमया:] केवलदर्शन-ज्ञानमयी, [केवलसुखस्वभावा:] केवलसुख स्वभावी [जिनवरान्] जिनेन्द्र भगवान को [भक्त्या] भक्ति से [वन्दे] नमस्कार करता हूँ [यै:] जिन्होंने [भावा:] तत्वों (जीवादिक सकल पदार्थों) को [प्रकाशिता:] प्रकाशित किया ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे निरंजन, निराकार, निःशरीर सिद्ध-परमेष्ठी को नमस्कार करता हूँ -

केवलज्ञानादि अनंतचतुष्टय-स्वरूप जो परमात्म तत्त्व है, उसके यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान और अनुभव, इन स्वरूप अभेद रत्नत्रय वह जिनका स्वभाव है, और सुख-दुःख, जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, सबमें समान भाव होने से उत्पन्न हुई वीतराग निर्विकल्प परम समाधि उसके कहने वाले जिनराज के उपदेश को पाकर अनंत चतुष्टयरुप हुए, तथा जिन्होंने यथार्थ जीवादि पदार्थों का स्वरूप प्रकाशित किया तथा जो कर्म का अभाव है वह वही केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप मोक्ष और जो शुद्धात्मा का यथार्थ श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप अभेद रत्नत्रय वही हुआ मोक्षमार्ग ऐसे मोक्ष और मोक्षमार्ग को भी प्रगट किया, उनको मैं नमस्कार करता हूँ । इस व्याख्यान में अरहंतदेव के केवलज्ञानादि गुणस्वरूप जो शुद्धात्म स्वरूप है, वही आराधने योग्य है, यह भावार्थ जानना ॥६॥

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+ आचार्य, उपाध्याय, साधु परमेष्ठी को नमस्कार -
जे परमप्पु णियंति मुणि परम-समाहि धरेवि
परमाणंदह कारणिण तिण्णि वि ते वि णवेवि ॥7॥
ये परमात्मानं पश्यन्ति मुनयः परमसमाधिं धृत्वा ।
परमानन्दस्य कारणेन त्रीनपि तानपि नत्वा ॥७॥
अन्वयार्थ : [ये मुनय:] जो [मुनय:] मौन (मुनि) [परमसमाधिं] परमसमाधि को [धृत्वा] धारण कर [परमानंदस्य कारणेन] परमसुख के लिए [परमात्मानं पश्यन्ति] परमात्मा को देखते हैं [त्रीन् अपि] तीनों ही आचार्य, उपाध्याय, साधु, [तान् अपि] उन्हें भी [नत्वा] नमस्कार हो ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे भेदाभेद रत्नत्रय के आराधक जो आचार्य, उपाध्याय और साधु हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूँ -

अनुपचरित अर्थात् जो उपचरित नहीं है, इसी से अनादि संबंध है, परंतु असद्भूत (मिथ्या) है, ऐसा व्यवहारनय से द्रव्य-कर्म, नोकर्म का संबंध होता है, उससे रहित और अशुद्ध निश्चयनय से रागादि का संबंध है, उससे तथा मतिज्ञानादि विभावगुण के संबंध से रहित और नर-नारकादि चतुर्गतिरूप विभावपर्यायों से रहित ऐसा जो चिदानंद-चिद्रूप एक अखंडस्वभाव शुद्धात्मतत्त्व है वही सत्य है । उसी को परमार्थरूप समयसार कहना चाहिए । वही सब प्रकार आराधने योग्य है । उससे जुदी जो पर-वस्तु है वह सब त्याज्य है । ऐसी दृढ़ प्रतीति चंचलता रहित निर्मल अवगाढ़ परम श्रद्धा है उसको सम्यक्त्व कहते हैं, उसका जो आचरण अर्थात् उस स्वरूप परिणमन वह दर्शनाचार कहा जाता है और उसी निज-स्वरूप में संशय-विमोह-विभ्रम-रहित जो स्व-संवेदन ज्ञानरूप ग्राहक बुद्धि वह सम्यग्ज्ञान हुआ, उसका जो आचरण अर्थात् उसरूप परिणमन वह ज्ञानाचार है, उसी शुद्ध स्वरूप में शुभ-अशुभ समस्त संकल्प रहित जो नित्यानंदमय निजरस का आस्वाद, निश्चल अनुभव, वह सम्यक्चारित्र है, उसका जो आचरण, उसरूप परिणमन, वह चारित्राचार है, उसी परमानंद स्वरूपमें पर-द्रव्य की इच्छा का निरोधकर सहज आनंदरूप तपश्चरण-स्वरूप परिणमन वह तपश्चरणाचार है और उसी शुद्धात्म-स्वरूप में अपनी शक्ति को प्रकटकर आचरण परिणमन वह वीर्याचार है । यह निश्चय-पंचाचार का लक्षण कहा । अब व्यवहार का लक्षण कहते हैं -

निःशंकित को आदि लेकर अष्ट-अंगरूप बाह्यदर्शनाचार, शब्द शुद्ध, अर्थ शुद्ध आदि अष्ट प्रकार बाह्य ज्ञानाचार, पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्तिरुप व्यवहार चारित्राचार, अनशनादि बारह तपरूप तपाचार और अपनी शक्ति प्रगटकर मुनिव्रत का आचरण वह व्यवहार वीर्याचार है । यह व्यवहार पंचाचार परम्परा-मोक्ष का कारण है, और निर्मल ज्ञान-दर्शन-स्वभाव जो शुद्धात्म-तत्त्व उसका यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान, आचरण तथा पर-द्रव्य की इच्छा का निरोध और निज-शक्ति का प्रगट करना ऐसा यह निश्चय पंचाचार साक्षात् मुक्ति का कारण है । ऐसे निश्चय व्यवहाररूप पंचाचारों को आप आचरें और दूसरों को आचरवावें ऐसे आचार्यों को मैं वंदता हूँ । पंचास्तिकाय, षट्-द्रव्य, सप्त-तत्त्व, नव-पदार्थ हैं, उनमें निज शुद्ध जीवास्तिकाय, निज शुद्ध जीव-द्रव्य, निज शुद्ध जीवतत्त्व, निज शुद्ध जीवपदार्थ, जो आप शुद्धात्मा है, वही उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है, अन्य सब त्यागने योग्य है, ऐसा उपदेश करते हैं, तथा शुद्धात्म स्वभाव का सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप अभेद रत्नत्रय है, वही निश्चय-मोक्षमार्ग है, ऐसा उपदेश शिष्यों को देते हैं, ऐसे उपाध्यायों को मैं नमस्कार करता हूँ, और शुद्धज्ञान स्वभाव शुद्धात्मतत्त्व की आराधनारूप वीतराग निर्विकल्प समाधि को जो साधते हैं, उन साधुओं को मैं वंदता हूँ । वीतराग निर्विकल्प समाधि को जो आचरते हैं, कहते हैं, साधते हैं वे ही साधु हैं । अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, ये ही पंचपरमेष्ठी वंदने योग्य हैं, ऐसा भावार्थ है ॥७॥

ऐसे परमेष्ठी को नमस्कार करने की मुख्यता से श्रीयोगीन्द्राचार्य ने परमात्मप्रकाश के प्रथम-महाधिकार में प्रथम-स्थल में सात दोहों से प्रभाकरभट्ट नामक अपने शिष्य को पंचपरमेष्ठी की भक्ति का उपदेश दिया ।

इति पीठिका

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+ प्रभाकरभट्ट द्वारा विनती -
भाविं पणविवि पंच-गुरु सिरि-जोइंदु-जिणाउ
भट्टपहायरि विण्णविउ विमलु करेविणु भाउ ॥8॥
भावेन प्रणम्य पञ्चगुरून् श्रीयोगीन्दुजिनः ।
भट्टप्रभाकरेण विज्ञापितः विमलं कृत्वा भावम् ॥८॥
अन्वयार्थ : [भावेन पञ्चगुरून् प्रणम्य] भावों से पंच-परमेष्ठियों को नमस्कार कर [भट्टप्रभाकरेण] प्रभाकरभट्ट [भावं विमलं कृत्वा] अपने परिणामों को निर्मल करके [श्रीयोगीन्द्रजिन:] श्रीयोगीन्द्रदेव से [विज्ञापित:] शुद्धात्मतत्त्व के जानने के लिये महाभक्ति से विनती करते हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
अब प्रभाकरभट्ट पूर्वरीति से पंचपरमेष्ठी को नमस्कार और श्रीयोगीन्द्रदेव गुरु को नमस्कार कर श्रीगुरु से विनती करता है -

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+ विनती -
गउ संसारि वसंताहँ सामिय कालु अणंतु
पर मइँ किं पि ण पत्तु सुहु दुक्खु जि पत्तु महंतु ॥9॥
गतः संसारे वसतां स्वामिन् कालः अनन्तः ।
परं मया किमपि न प्राप्तं सुखं दुःखमेव प्राप्तं महत् ॥९॥
अन्वयार्थ : [हे स्वामिन्] हे स्वामी, [संसारे वसतां] इस संसार में रहते हुए [अनंत: काल: गत:] अनंतकाल बीत गया, [परं] लेकिन [मया किमपि सुखं] मैंने कुछ भी सुख [न प्राप्तं] नहीं पाया [महत् दुखं एव प्राप्तं] महान् दुःख ही पाया ।

श्रीब्रह्मदेव :
वह विनती इस तरह है -

निज शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न हुआ जो वीतराग परम आनंद समरसीभाव है, उस रूप जो आनंदामृत उससे विपरीत नरकादि दुःखरूप क्षार (खारे) जल से पूर्ण (भरा हुआ), अजर-अमर पद से उलटा जन्म जरा (बुढ़ापा) मरणरूपी जलचरों के समूह से भरा हुआ, अनाकुलता स्वरूप निश्चय सुख से विपरीत, अनेक प्रकार आधि व्याधि दुःखरूपी बड़वानल की शिखा से प्रज्वलित, वीतराग निर्विकल्प समाधि से रहित, महान संकल्प विकल्पों के जालरूपी कल्लोलों की मालाओं द्वारा विराजमान, ऐसे संसाररूपी समुद्र में रहते हुए मुझे हे स्वामी, अनंतकाल बीत गया । इस संसार में एकेन्द्री से दोइन्द्री, तेइन्द्री, चौइन्द्री स्वरूप विकलत्रय पर्याय पाना दुर्लभ (कठिन) है, विकलत्रय से पंचेन्द्री, सैनी, छह पर्याप्तियों की संपूर्णता होना दुर्लभ है, उसमें भी मनुष्य होना अत्यंत दुर्लभ, उसमें आर्य-क्षेत्र दुर्लभ, उसमें से उत्तम कुल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्ण पाना कठिन है, उसमें भी सुन्दर रूप, समस्त पाँचों इन्द्रियों की प्रवीणता, दीर्घ आयु, बल, शरीर नीरोग, जैनधर्म इनका उत्तरोत्तर मिलना कठिन है । कभी इतनी वस्तुओं की भी प्राप्ति हो जावे, तो श्रेष्ठ बुद्धि, श्रेष्ठ धर्म-श्रवण, धर्म का ग्रहण, धारण, श्रद्धान, संयम, विषय-सुखों से निवृत्ति, क्रोधादि कषायों का अभाव होना अत्यंत दुर्लभ है और इन सबों से उत्कृष्ट शुद्धात्म-भावनारूप वीतराग-निर्विकल्प समाधि का होना बहुत मुश्किल है, क्योंकि उस समाधि के शत्रु जो मिथ्यात्व, विषय, कषाय, आदिक विभाव परिणाम हैं, उनकी प्रबलता है । इसीलिये सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति नहीं होती और इनका पाना ही बोधि है, उस बोधि का जो निर्विषयपने से धारण वही समाधि है । इस तरह बोधि समाधि का लक्षण सब जगह जानना चाहिये । इस बोधि समाधि का मुझमें अभाव है, इसीलिये संसार-समुद्र में भटकते हुए मैंने वीतराग परमानंद सुख नहीं पाया, किन्तु उस सुख से विपरीत (उल्टा) आकुलता को उत्पन्न करनेवाला नाना प्रकार का शरीर का तथा मन का दुःख ही चारों गतियों में भ्रमण करते हुए पाया । इस संसार-सागर में भ्रमण करते मनुष्य-देह आदि का पाना बहुत दुर्लभ है, परंतु उसको पाकर कभी (आलसी) नहीं होना चाहिये । जो प्रमादी हो जाते हैं, वे संसाररूपी वन में अनंतकाल भटकते हैं । ऐसा ही दूसरे ग्रंथों में भी कहा है - 'इत्यतिदुर्लभरूपां' इत्यादि । इसका अभिप्राय ऐसा है कि यह महान दुर्लभ जो जैन शास्त्र का ज्ञान है, उसको पाके जो जीव प्रमादी हो जाता है, वह रंक पुरुष बहुत काल तक संसाररूपी भयानक वन में भटकता है । सारांश यह हुआ, कि वीतराग परमानंद सुख के न मिलने से यह जीव संसाररूपी वन में भटक रहा है, इसलिये वीतराग परमानंद सुख ही आदर करने योग्य है ॥९॥

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+ परमात्मा के कथन की विनती -
चउ-गइ-दुक्खहँ तत्ताहँ जो परमप्पउ कोइ
चउ-गइ-दुक्ख-विणासयरु कहहु पसाएँ सो वि ॥10॥
चतुर्गतिदुःखैः तप्तानां यः परमात्मा कश्चित् ।
चतुर्गतिदुःखविनाशकरः कथय प्रसादेन तमपि ॥१०॥
अन्वयार्थ : [चतुर्गतिदु:खै:] चारों गतियों के दुःखों से [तप्तानां] दुखीयों के लिए [चतुर्गतिदु:खविनाशकर:] चार गतियों के दुःखों का विनाश करनेवाला [य: कश्चित्] जो कोई [परमात्मा] चिदानंद परमात्मा है, [तमपि] उसको [प्रसादेन कथय] कृपा करके कहिए ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जिस परमात्म-स्वभाव के अलाभ में यह जीव अनादि-काल से भटक रहा था, उसी परमात्म-स्वभाव का व्याख्यान प्रभाकरभट्ट सुनना चाहता है -

वह चिदानंद शुद्ध स्वभाव परमात्मा, आहार, भय, मैथुन, परिग्रह के भेदरूप संज्ञाओं को आदि लेके समस्त विभावों से रहित, तथा वीतराग निर्विकल्प-समाधि के बल से निज स्वभाव द्वारा उत्पन्न हुए परमानंद सुखामृत से संतुष्ट हुआ है हृदय जिनका, ऐसे निकट संसारी-जीवों के चतुर्गति का भ्रमण दूर करनेवाला है, जन्म-जरा-मरणरूप दुःख का नाशक है, तथा वह परमात्मा निज स्वरूप परम-समाधि में लीन महामुनियों को निर्वाण का देनेवाला है, वही सब तरह ध्यान करने योग्य है, सो ऐसे परमात्मा का स्वरूप आपके प्रसाद से सुनना चाहता हूँ । इसलिये कृपाकर आप कहो । इस प्रकार प्रभाकर भट्ट ने श्रीयोगींद्रदेव से विनती की ॥१०॥

इस कथनकी मुख्यतासे तीन दोहे हुए ।

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+ तीन प्रकार के आत्मा को कहने की प्रतिज्ञा -
पुणु पुणु पणविवि पंच-गुरु भावेँ चित्ति धरेवि
भट्टपहायर णिसुणि तुहुँ अप्पा तिविहु कहेवि ॥11॥
पुनः पुनः प्रणम्य पञ्चगुरून् भावेन चित्ते धृत्वा ।
भट्टप्रभाकर निश्रृणु त्वम् आत्मानं त्रिविधं कथयामि ॥११॥
अन्वयार्थ : [पुन: पुन: पञ्चगुरुन् प्रणम्य] बारम्बार पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार की [भावेन] भावना [चित्ते धृत्वा] मन में धारण करके [त्रिविधं] तीन प्रकार के [आत्मानं] आत्मा को [कथयामि] कहता हूँ, सो हे प्रभाकरभट्ट, [त्वं निशृणु] तू निश्चय से सुन ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे प्रभाकरभट्ट की विनती सुनकर श्रीयोगीन्द्रदेव तीन प्रकार की आत्मा का स्वरूप कहते हैं -

बहिरात्मा, अंतरात्मा, परमात्मा के भेद से आत्मा तीन तरह का है, सो हे प्रभाकरभट्ट जैसे तूने मुझसे पूछा है, उसी तरह से भव्यों में महाश्रेष्ठ भरत-चक्रवर्ती, सगर-चक्रवर्ती, रामचंद्र, बलभद्र, पांडव तथा श्रेणिक आदि बड़े-बड़े राजा, जिनके भक्ति-भार से नम्रीभूत मस्तक हो गये हैं, महा विनयवाले परिवार सहित समोसरण में आकर, वीतराग सर्वज्ञ परमदेव से सर्व आगम का प्रश्नकर, उसके बाद सब तरह से ध्यान करने योग्य शुद्धात्मा का ही स्वरूप पूछते थे । उसके उत्तर में भगवन्ने यही कहा, कि आत्म-ज्ञान के समान दूसरा कोई सार नहीं है । भरतादि बड़े बड़े श्रोताओं में से भरत-चक्रवर्ती ने श्रीऋषभदेव भगवान से पूछा, सगरचक्रवर्ती ने श्री अजितनाथ से, रामचंद्र बलभद्र ने देशभूषण कुलभूषण केवली से तथा सकलभूषण केवली से, पांडवों ने श्रीनेमिनाथ भगवान् से और राजा श्रेणिक ने श्रीमहावीरस्वामी से पूछा । कैसे हैं ये श्रोता जिनको निश्चय-रत्नत्रय और व्यवहार-रत्नत्रय की भावना प्रिय है, परमात्मा की भावनासे उत्पन्न वीतराग परमानंदरूप अमृतरस के प्यासे हैं, और वीतराग निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न हुआ जो सुखरूपी अमृत, उससे विपरीत जो नारकादि चारों गतियों के दुःख, उनसे भयभीत हैं । जिस तरह इन भव्य जीवों ने भगवंत से पूछा, और भगवंत ने तीन प्रकार आत्मा का स्वरूप कहा, वैसे ही मैं जिनवाणी के अनुसार तुझे कहता हूँ । सारांश यह हुआ, कि तीन प्रकार आत्मा के स्वरूपों से शुद्धात्म स्वरूप जो निज परमात्मा वही ग्रहण करने योग्य है । जो मोक्ष का मूल-कारण रत्नत्रय कहा है, वह मैंने निश्चय-व्यवहार दोनों तरह से कहा है, उसमें अपने स्वरूप का श्रद्धान, स्वरूप का ज्ञान और स्वरूप का ही आचरण यह तो निश्चय-रत्नत्रय है, इसी का दूसरा नाम अभेद भी है, और देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा, नव-तत्त्वों की श्रद्धा, आगम का ज्ञान तथा संयम भाव ये व्यवहार-रत्नत्रय हैं, इसी का नाम भेद-रत्नत्रय है । इनमें से भेद-रत्नत्रय तो साधन हैं औरअभेद-रत्नत्रय साध्य हैं ॥११॥

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+ तीन प्रकार के आत्मा को जानने का प्रयोजन -
अप्पा ति-विहु मुणेवि लहु मूढउ मेल्लहि भाउ
मुणि सण्णाणेँ णाणमउ जो परमप्प-सहाउ ॥12॥
आत्मानं त्रिविधं मत्वा लघु मूढं मुञ्च भावम् ।
मन्यस्व स्वज्ञानेन ज्ञानमयं यः परमात्मस्वभावः ॥१२॥
अन्वयार्थ : [आत्मानं त्रिविधं मत्वा] आत्मा को तीन प्रकार का जानकर [मूढं भावम्] अज्ञान (बहिरात्म स्वरूप) भाव को [लघु मुञ्च] शीघ्र ही छोड़, और [स्वज्ञानेन] अपने को (स्वसंवेदन) ज्ञान से [मन्यस्व] जानकर (अंतरात्मा होकर) [ज्ञानमयः] ज्ञानमय (केवलज्ञान स्वरूप) हो [यः परमात्मस्वभावः] जो कि परमात्मा का स्वभाव है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे तीन प्रकार आत्मा को जानकर बहिरात्मपना छोड़ स्व-संवेदन ज्ञानकर तू परमात्मा का ध्यान कर, इसे कहते हैं -

जो वीतराग स्व-संवेदन द्वारा परमात्मा जाना था, वही ध्यान करने योग्य है । यहाँ शिष्य ने प्रश्न किया था, जो स्व-संवेदन अर्थात् अपने से अपने को अनुभवना इसमें वीतराग विशेषण क्यों कहा ? क्योंकि जो स्व-संवेदन ज्ञान होवेगा, वह तो रागरहित होवेगा ही । इसका समाधान श्रीगुरु ने किया - कि विषयों के आस्वादन से भी उन वस्तुओं के स्वरूप का जानपना होता है, परंतु रागभाव से दूषित है, इसलिये निजरस आस्वाद नहीं है, और वीतराग दशा में स्वरूप का यथार्थ ज्ञान होता है, आकुलता रहित होता है । तथा स्व-संवेदनज्ञान प्रथम अवस्था में चौथे पाँचवें गुणस्थानवाले गृहस्थ के भी होता है, वहाँ पर सराग देखने में आता है, इसलिये राग सहित अवस्था के निषेध के लिये वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान ऐसा कहा है । रागभाव है, वह कषायरूप है, इस कारण जबतक मिथ्यादृष्टि के अनंतानुबंधी कषाय है, तबतक तो बहिरात्मा है, उसके तो स्व-संवेदन ज्ञान अर्थात् सम्यक्ज्ञान सर्वथा ही नहीं है, व्रत और चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधी के अभाव होने से सम्यग्ज्ञान तो हो गया, परंतु कषाय की तीन चौकड़ी बाकी रहने से द्वितीया के चंद्रमा के समान विशेष प्रकाश नहीं होता, और श्रावक के पाँचवें गुणस्थान में दो चौकड़ी का अभाव है, इसलिये रागभाव कुछ कम हुआ, वीतरागभाव बढ़ गया, इस कारण स्व-संवेदनज्ञान भी प्रबल हुआ, परंतु दो चौकड़ी के रहने से मुनि के समान प्रकाश नहीं हुआ । मुनि के तीन चौकड़ी का अभाव है, इसलिये रागभाव तो निर्बल हो गया, तथा वीतराग-भाव प्रबल हुआ, वहाँ पर स्व-संवेदनज्ञान का अधिक प्रकाश हुआ, परंतु चौथी चौकड़ी बाकी है, इसलिये छट्ठे गुणस्थानवाले मुनिराज सराग-संयमी हैं । वीतराग संयमी के जैसा प्रकाश नहीं है । सातवें गुणस्थान में चौथी चौकड़ी मंद हो जाती है, वहाँ पर आहार-विहार क्रिया नहीं होती, ध्यान में आरूढ़ रहते हैं, सातवें से छठे गुणस्थान में आवें, तब वहाँ पर आहारादि क्रिया है, इसी प्रकार छट्ठा-सातवाँ करते रहते हैं, वहाँ पर अंतर्मुहूर्त काल है । आठवें गुणस्थान में चौथी चौकड़ी अत्यंत मंद हो जाती है, वहाँ रागभाव की अत्यंत क्षीणता होती है, वीतराग-भाव पुष्ट होता है, स्व-संवेदनज्ञान का विशेष प्रकाश होता है, श्रेणी माँडने से शुक्ल-ध्यान उत्पन्न होता है । श्रेणी के दो भेद हैं, एक क्षपक, दूसरी उपशम, क्षपक-श्रेणी वाले तो उसी भव से केवलज्ञान पाकर मुक्त हो जाते हैं, और उपशमवाले आठवें नवमें दशवें से ग्यारहवाँ स्पर्शकर पीछे पड़ जाते हैं, सो कुछ - एक भव भी धारण करते हैं, तथा क्षपकवाले आठवें से नव में गुणस्थानमें प्राप्त होते हैं, वहाँ कषायोंका सर्वथा नाश होता है, एक संज्वलन लोभ रह जाता है, अन्य सबका अभाव होने से वीतराग भाव अति प्रबल हो जाता है, इसलिये स्व-संवेदनज्ञान का बहुत ज्यादा प्रकाश होता है, परंतु एक संज्वलन लोभ बाकी रहने से वहाँ सराग-चरित्र ही कहा जाता है । दशवें गुणस्थान में सूक्ष्म-लोभ भी नहीं रहता, तब मोह की अट्ठाईस प्रकृतियों के नष्ट हो जाने से वीतराग-चारित्र की सिद्धि हो जाती है । दशवें से बारहवें में जाते हैं, ग्यारहवें गुणस्थान का स्पर्श नहीं करते, वहाँ निर्मोह वीतरागी के शुक्लध्यान का दूसरा पाया (भेद) प्रगट होता है, यथाख्यात-चारित्र हो जाता है । बारहवें के अंत में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय इन तीनों का विनाश कर डाला, मोह का नाश पहले ही हो चुका था, तब चारों घातिकर्मों के नष्ट हो जाने से तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान प्रगट होता है, वहाँ पर ही शुद्ध परमात्मा होता है, अर्थात् उसके ज्ञान का पूर्ण प्रकाश हो जाता है, निःकषाय है । वह चौथे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक तो अंतरात्मा है, उसके गुणस्थान प्रति चढ़ती हुई शुद्धता है, और पूर्ण शुद्धता परमात्मा के है, यह सारांश समझना ॥१२॥

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+ बहिरात्मा -
मूढु वियक्खणु बंभु परु अप्पा ति-विहु हवेइ
देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूढु हवेइ ॥13॥
मूढो विचक्षणो ब्रह्म परः आत्मा त्रिविधो भवति ।
देहमेव आत्मानं यो मनुते स जनो मूढो भवति ॥१३॥
अन्वयार्थ : [मूढः] अज्ञानी बहिरात्मा, [विचक्षणः] अंतरात्मा [ब्रह्मा परः] और परमात्मा इसप्रकार आत्मा [त्रिविधो भवति] तीन तरह का है, [यः] जो [देहमेव] देह को ही [आत्मानं मनुते] आत्मा मानते हैं, [स जनः] वे लोग [मूढः भवति] बहिरात्मा हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
तीन प्रकार के आत्मा के भेद हैं, उनमें से प्रथम बहिरात्मा का लक्षण कहते हैं -

जो देह को आत्मा समझता है, वह वीतराग निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न हुए परमानंद सुखामृत को नहीं पाता हुआ मूर्ख है, अज्ञानी है । इन तीन प्रकार के आत्माओं में से बहिरात्मा तो त्याज्य ही है / आदर योग्य नहीं है । इसकी अपेक्षा यद्यपि अंतरात्मा अर्थात् सम्यग्दृष्टि वह उपादेय है, तो भी सब तरह से उपादेय (ग्रहण करने योग्य) जो परमात्मा उसकी अपेक्षा वह अंतरात्मा हेय ही है, शुद्ध परमात्मा ही ध्यान करने योग्य है, ऐसा जानना ॥१३॥

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+ अन्तरात्मा -
देह-विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ
परम-समाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ ॥14॥
देहविभिन्नं ज्ञानमयं यः परमात्मानं पश्यति ।
परमसमाधिपरिस्थितः पण्डितः स एव भवति ॥१४॥
अन्वयार्थ : [यः परमात्मानं] जो परमात्मा को [देहविभिन्नं ज्ञानमयं पश्यति] शरीर से जुदा ज्ञानमय देखता है, [स एव] वही [परमसमाधिपरिस्थितः] परम-समाधि में स्थित [पण्डितः भवति] अन्तरात्मा है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे परमसमाधि में स्थित, देह से भिन्न ज्ञानमयी (उपयोगमयी) आत्मा को जो जानता है, वह अन्तरात्मा है, ऐसा कहते हैं -

यद्यपि अनुपचरितासद्भूत-व्यवहारनय से अर्थात् इस जीव के पर-वस्तु का संबंध अनादिकाल का मिथ्यारूप होने से व्यवहारनय से देहमयी है, तो भी निश्चयनय से सर्वथा देहादिक से भिन्न है, और केवलज्ञानमयी है, ऐसा निज शुद्धात्मा को वीतराग-निर्विकल्प सहजानंद शुद्धात्मा की अनुभूतिरूप परम-समाधि में स्थित होता हुआ जानता है, वही विवेकी अंतरात्मा कहलाता है । वह परमात्मा ही सर्वथा आराधने योग्य है, ऐसा जानना ॥१४॥

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+ परमात्मा -
अप्पा लद्धउ णाणमउ कम्म-विमुक्केँ जेण
मेल्लिवि सयलु वि दव्वु परु सो परु मुणहि मणेण ॥15॥
आत्मा लब्धो ज्ञानमयः कर्मविमुक्ते न येन ।
मुक्त्वा सकलमपि द्रव्यं परं तं परं मन्यस्व मनसा ॥१५॥
अन्वयार्थ : [येन कर्मविमुक्तेन] जिसने ज्ञानावरणादि कर्मों का नाश करके [सकलमपि परं द्रव्यं मुक्त्वा] और सब ही परद्रव्यों को छोड़ करके [ज्ञानमयः आत्मा लब्धः] ज्ञानमयी आत्मा पाया है, [तं मनसा] उसको मन से [परं मन्यस्व] परमात्मा जानो ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे सब पररव्यों को छोड़कर कर्म-रहित होकर जिसने अपना स्वरूप केवलज्ञानमय पा लिया है, वही परमात्मा है, ऐसा कहते हैं -

जिसने देहादिक समस्त पर-द्रव्य को छोड़कर ज्ञानावरणादि, द्रव्य-कर्म, रागादिक भाव-कर्म, शरीरादि नो-कर्म इन तीनों से रहित केवलज्ञानमयी अपने आत्मा का लाभ कर लिया है, ऐसे आत्मा को हे प्रभाकरभट्ट, तू माया, मिथ्या, निदानरूप शल्य वगैरह समस्त विभाव (विकार) परिणामों से रहित निर्मल-चित्त से परमात्मा जान, तथा केवलज्ञानादि गुणोंवाला परमात्मा ही ध्यान करने योग्य है और ज्ञानावरणादिरूप सब पर-वस्तु त्यागने योग्य है, ऐसा समझना चाहिए ॥१५॥

इस प्रकार जिसमें तीन तरह के आत्मा का कथन है, ऐसे प्रथम महाधिकार में त्रिविधआत्मा के कथन की मुख्यता से तीसरे स्थलमें पाँच दोहा-सूत्र कहे । अब मुक्ति को प्राप्त हुए केवलज्ञानादिरूप सिद्ध परमात्मा के व्याख्यान की मुख्यता द्वारा दश दोहा-सूत्र कहते हैं ।

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+ ध्येय -
तिहुयण-वंदिउ सिद्धि-गउ हरि-हर झायहिँ जो जि
लक्खु अलक्खेँ धरिवि थिरु मुणि परमप्पउ सो जि ॥16॥
त्रिभुवनवन्दितं सिद्धिगतं हरिहरा ध्यायन्ति यमेव ।
लक्ष्यमलक्ष्येण धृत्वा स्थिरं मन्यस्व परमात्मानं तमेव ॥१६॥
अन्वयार्थ : [त्रिभुवनवंदितं] तीनलोक द्वारा वंदनीय [सिद्धिगतं] सिद्धि प्राप्त [हरिहराः] इन्द्र, नारायण आदि [यं एव ध्यायन्ति] जिसे ध्यावते हैं, [लक्ष्यं अलक्ष्ये] निर्विकल्प चित्त में [स्थिरं धृत्वा] स्थिर होकर [तमेव] तू भी [परमात्मानं मन्यस्व] उस परमात्मा को जान ।

श्रीब्रह्मदेव :
इसमें पाँच दोहों में जो हरिहरादिक बड़े पुरुष अपना मन स्थिरकर जिस परमात्मा का ध्यान करते हैं, उसी का तू भी ध्यान कर, यह कहते हैं -

केवलज्ञानादिरूप उस परमात्मा के समान रागादि रहित अपने शुद्धात्मा को पहचान, वही साक्षात् उपादेय है, अन्य सब संकल्प विकल्प त्यागने योग्य हैं । अब संकल्प विकल्प का स्वरूप कहते हैं, कि जो बाह्य वस्तु पुत्र, स्त्री, कुटुंब, बांधव, आदि सचेतन पदार्थ, तथा चांदी, सोना, रत्न, मणि के आभूषण आदि अचेतन पदार्थ हैं, इन सबको अपने समझे, कि ये मेरे हैं, ऐसे ममत्व परिणाम को संकल्प जानना । तथा मैं सुखी, मैं दुःखी, इत्यादि हर्ष-विषादरूप परिणाम होना वह विकल्प है । इस प्रकार संकल्प-विकल्प का स्वरूप जानना चाहिए ॥१६॥

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+ लक्ष्य के लक्षण -
णिच्चु णिरंजणु णाणमउ परमाणंद-सहाउ
जो एहउ सो संतु सिउ तासु मुणिज्जहि भाउ ॥17॥
नित्यो निरञ्जनो ज्ञानमयः परमानन्दस्वभावः ।
य ईद्रशः स शान्तः शिवः तस्य मन्यस्व भावम् ॥१७॥
अन्वयार्थ : [नित्यः निरञ्जनः ज्ञानमयः] अविनाशी, रागादिक उपाधि से रहित, केवलज्ञानमयी और [परमानंदस्वभावः] परमानंद स्वाभावी [यः ईद्रशः सः] जो ऐसा है, वही [शान्तः शिवः] शांतरूप और शिवस्वरूप है, [तस्य भावं जानीहि] उसे ही स्वभाव जान ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे नित्य निरंजन ज्ञानमयी परमानंद स्वभाव शांत और शिवस्वरूप का वर्णन करते हैं -

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+ शान्त और शिव -
जो णिय-भाउ ण परिहरइ जो पर-भाउ ण लेइ
जाणइ सयलु वि णिच्चु पर सो सिउ संतु हवेइ ॥18॥
यो निजभावं न परिहरति यः परभावं न लाति ।
जानाति सकलमपि नित्यं परं स शिवः शान्तो भवति ॥१८॥
अन्वयार्थ : [यः निज भावं न परिहरति] जो (अनंतज्ञानादिरूप) अपने भावों को नहीं छोड़ता [यः परभावं न लाति] और जो काम-क्रोधादिरूप पर-भावों को ग्रहण नहीं करता, [सकलमपि] समस्त को ही (तीन लोक तीन काल की सब चीजों को) [परं नित्यं जानाति] केवल हमेशा जानता है, [सः शिवः शांतः भवति] वही शिवस्वरूप तथा शांतस्वरूप है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे फिर उसी परमात्मा का कथन करते हैं -

संसार अवस्था में शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से सभी जीव शक्तिरूप से परमात्मा हैं, व्यक्तिरूप से नहीं है । ऐसा कथन अन्य ग्रंथों में भी कहा है - 'शिवमित्यादि' अर्थात् परम-कल्याणरूप, निर्वाणरूप, महाशांत अविनश्वर ऐसे मुक्ति-पद को जिसने पा लिया है, वही शिव है, अन्य कोई, एक जगत्कर्ता सर्वव्यापी सदा मुक्त शांत नैयायिकों का तथा वैशेषिक आदि का माना हुआ नहीं है । यह शुद्धात्मा ही शांत है, शिव है, उपादेय है ॥१८॥

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+ निरन्जन -
जासु ण वण्णु ण गंधु रसु जासु ण सद्दु ण फासु
जासु ण जम्मणु मरणु णवि णाउ णिरंजणु तासु ॥19॥
जासु ण कोहु ण मोहु मउ जासु ण माय ण माणु
जासु ण ठाणु ण झाणु जिय सो जि णिरंजणु जाणु ॥20॥
अत्थि ण पुण्णु ण पाउ जसु अत्थि ण हरिसु विसाउ
अत्थि ण एक्कु वि दोसु जसु सो जि णिरंजणु भाउ ॥21॥
यस्य न वर्णो न गन्धो रसः यस्य न शब्दो न स्पर्शः ।
यस्य न जन्म मरणं नापि नाम निरञ्जनस्तस्य ॥१९॥
यस्य न क्रोधो न मोहो मदः यस्य न माया न मानः ।
यस्य न स्थानं न ध्यानं जीव तमेव निरञ्जनं जानीहि ॥२०॥
अस्ति न पुण्यं न पापं यस्य अस्ति न हर्षो विषादः ।
अस्ति न एकोऽपि दोषो यस्य स एव निरञ्जनो भावः ॥२१॥
अन्वयार्थ : [यस्य वर्णः न गंधः रसः न] जिसके रंग नहीं, गंध, रस नहीं, [यस्य शब्दः न स्पर्शः न] जिसके शब्द नहीं, स्पर्श नहीं, [यस्य जन्म न मरणं नापि] जिसके जन्म नहीं, मरण भी नहीं, [तस्य निरंजनं नाम] उसका निरंजन नाम है । [यस्य क्रोधः न] जिसके क्रोध नहीं, [मोहः मदः न] मोह तथा मद नहीं, [यस्य माया न मानः न] जिसके माया व मान नहीं, और [यस्य] जिसके [स्थानं न] ध्यान के स्थान (नाभि, हृदय, मस्तक, आदि) नहीं, [ध्यानं न] चित्त के रोकनेरूप ध्यान नहीं, [स एव] उसे भी निरंजन जानो । [यस्य पुण्यं न पापं न अस्ति] जिसके पुण्य नहीं, तथा पाप नहीं, [हर्षः विषादः न] हर्ष व शोक नहीं, [यस्य एकः अपि दोषः] और जिसके (क्षुधा-पिपासा आदि) एक भी दोष नहीं, [स एव निरंजनः भावय] उसी को निरंजन जान ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे पहले कहे हुए निरंजनस्वरूप को तीन दोहा-सूत्रों से प्रगट करते हैं -

ऐसे निज शुद्धात्मा के परिज्ञानरूप वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर तू अनुभव कर । इस प्रकार तीन दोहों में जिसका स्वरूप कहा गया है, उसे ही निरंजन जानो,अन्य कोई भी परिकल्पित निरंजन नहीं है । इन तीनों दोहों में जो निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव वाला निरंजन कहा गया है, वही उपादेय है ॥१९-२१॥

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+ परमात्मा - ध्यान के साधन नहीं -
जासु ण धारणु धेउ ण वि जासु ण जंतु ण मंतु
जासु ण मंडलु मुद्द ण वि सो मुणि देउँ अणंतु ॥22॥
यस्य न धारणा ध्येयं नापि यस्य न यन्त्रं न मन्त्रः ।
यस्य न मण्डलं मुद्रा नापि तं मन्यस्व देवमनन्तम् ॥२२॥
अन्वयार्थ : [यस्य धारणा न] जिसके (कुंभक, पूरक, रेचकनामवाली) वायुधारणादिक नहीं, [ध्येयं नापि] (प्रतिमा आदि) ध्यान करने योग्य पदार्थ भी नहीं, [यस्य यन्त्रः न] जिसके (अक्षरों की रचनारूप स्तंभन मोहनादि विषयक) यंत्र नहीं, [मन्त्रः न] (अनेक तरहके अक्षरोंके बोलनेरूप) मंत्र नहीं, [यस्य मण्डलं न] और जिसके (जलमंडल, वायुमंडल, अग्निमंडल, पृथ्वीमंडलादिक) पवन के भेद नहीं, [मुद्रा न] (गारुडमुद्रा, ज्ञानमुद्रा आदि) मुद्रा नहीं, [तं अनन्तम् देवम् मन्यस्व] ऐसा अविनाशी परमात्मदेव जानो ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे धारणा, ध्येय, यंत्र, मंत्र, मंडल, मुद्रा आदिक व्यवहार-ध्यान के विषय मंत्रवाद शास्त्र में कहे गए हैं, उन सबका निर्दोष परमात्मा की आराधनारूप ध्यान में निषेध किया है -

अतीन्द्रिय आत्मीक-सुख के आस्वाद से विपरीत जिह्वाइंद्री के विषय (रस) को जीत के निर्मोह शुद्ध स्वभाव से विपरीत मोह-भाव को छोड़कर और वीतराग सहज आनंद परम समरसीभाव सुखरूपी रस के अनुभव का शत्रु जो नौ तरह का कुशील उसको तथा निर्विकल्प-समाधि के घातक मन के संकल्प-विकल्पों को त्यागकर हे प्रभाकर भट्ट, तू शुद्धात्मा का अनुभव कर । ऐसा ही दूसरी जगह भी कहा है - 'अक्खाणेति..' इसका आशय इस तरह है, कि इन्द्रियों में जीभ प्रबल होती है, ज्ञानावरणादि आठ कर्मों में मोह-कर्म बलवान होता है, पाँच महाव्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत प्रबल है, और तीन गुप्तियों में से मनोगुप्ति पालना कठिन है । ये चार बातें मुश्किल से सिद्ध होती हैं ॥२२॥

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+ परमात्मा - ज्ञान का साधन नहीं -
वेयहिँ सत्थहिँ इंदियहिँ जो जिय मुणहु ण जाइ
णिम्मल-झाणहँ जो विसउ सो परमप्पु अणाइ ॥23॥
वेदैः शास्त्रैरिन्द्रियैः यो जीव मन्तुं न याति ।
निर्मलध्यानस्य यो विषयः स परमात्मा अनादिः ॥२३॥
अन्वयार्थ : [वेदैः] वेद से, [शास्त्रैः] शास्त्र से, [इन्द्रियैः यः मन्तुं न याति] इंद्रिय (और मन) से भी जो जाना नहीं जाता, [यः निर्मलध्यानस्य विषयः] जो निर्मल ध्यान का विषय है, [स अनादिः परमात्मा] वही आदि अंत रहित परमात्मा है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे वेद, शास्त्र, इन्द्रियादि परद्रव्यों के अगोचर और वीतराग निर्विकल्प समाधि के गोचर (प्रत्यक्ष) ऐसे परमात्मा का स्वरूप कहते हैं -

मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग - इन पाँच तरह आस्रवों से रहित निर्मल निज शुद्धात्मा के ज्ञान से उत्पन्न हुए नित्यानंद सुखामृत का आस्वाद उस स्वरूप परिणत निर्विकल्प अपने स्वरूप के ध्यान से स्वरूप की प्राप्ति है । आत्मा ध्यान-गम्य ही है, शास्त्र-गम्य नहीं है, क्योंकि जिनको शास्त्र सुनने से ध्यान की सिद्धि हो जाए, वे ही आत्मा का अनुभव कर सकते हैं, जिन्होंने पाया, उन्होंने ध्यान से ही पाया है, और शास्त्र सुनना तो ध्यान का उपाय है, ऐसा समझकर अनादि अनंत चिद्रूप में अपना परिणमन लगाओ । दूसरी जगह भी 'अन्यथा..' इत्यादि कहा है । उसका यह भावार्थ है, कि वेद शास्त्र तो अन्य तरह ही हैं, नय-प्रमाणरूप हैं, तथा ज्ञान की पंडिताई कुछ और ही है, वह आत्मा निर्विकल्प है, नय-प्रमाण-निक्षेप से रहित है, वह परम-तत्त्व तो केवल आनन्दरूप है, और ये लोक अन्य ही मार्ग में लगे हुए हैं, सो वृथा क्लेश कर रहे हैं । इस जगह अर्थरूप शुद्धात्मा ही उपादेय है, अन्य सब त्यागने योग्य हैं, यह सारांश समझना ॥२३॥

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+ परमात्मा - अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्यमयी -
केवल-दंसण -णाणमउ केवल-सुक्ख सहाउ
केवल-वीरिउ सो मुणहि जो जि परावरु भाउ ॥24॥
केवलदर्शनज्ञानमयः केवलसुखस्वभावः ।
केवलवीर्यस्तं मन्यस्व य एव परापरो भावः ॥२४॥
अन्वयार्थ : [यः केवलदर्शन ज्ञानमयः] जो अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञानमयी, [केवलसुखस्वभावः] अनन्तसुख स्वभावी, [केवलवीर्यः] अनंतवीर्यमयी है, [स एव परापरभावः मन्यस्व] उसे ही लोक और परलोक में उत्कृष्ट (परमात्मा) मानो ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे कहते हैं कि जो परमात्मा वेद-शास्त्र गम्य तथा इन्द्रिय-गम्य नहीं, केवल परमसमाधिरूप निर्विकल्प-ध्यान द्वारा ही गम्य है, इसिलिए उसी का स्वरूप फिर कहते हैं -

परमात्मा के दो भेद हैं, पहला सकल-परमात्मा दूसरा निष्कल-परमात्मा उनमें से कल अर्थात् शरीर-सहित जो अरहंत भगवान् हैं, वे साकार हैं, और जिनके शरीर नहीं, ऐसे निष्कल परमात्मा निराकार-स्वरूप सिद्ध-परमेष्ठी हैं, वे सकल परमात्मा से भी उत्तम हैं, वही सिद्धरूप शुद्धात्मा ध्यान करने योग्य है ॥२४॥

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+ परमात्मा - शरीर रहित लोक के शिखर पर स्थित -
एयहिँ जुत्तउ लक्खणहिँ जो परु णिक्कलु देउ
सो तहिँ णिवसइ परम-पइ जो तइलोयहँ झेउ ॥25॥
एतैर्युक्तो लक्षणैः यः परो निष्कलो देवः ।
स तत्र निवसति परमपदे यः त्रैलोक्यस्य ध्येयः ॥२५॥
अन्वयार्थ : [एतैः लक्षणैः युक्तः] उन लक्षणों से सहित [परः निष्कलः] सबसे उत्कृष्ट शरीर-रहित, [देवः यः सः] जो देव वही [तत्र परमपदे] उस लोक के शिखर पर [निवसति यः] विराजमान है, जो कि [त्रैलोक्यस्य ध्येयः] तीन लोक का ध्येय है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे तीन लोक द्वारा वंदना करने योग्य पूर्व कहे हुए लक्षणों सहित जो शुद्धात्मा कहा गया है, वही लोक के अग्र में रहता है, यही कहते हैं -

यहाँ पर जो सिद्ध परमेष्ठी का व्याख्यान किया है, उसी के समान अपना भी स्वरूप है, वही उपादेय (ध्यान करने योग्य) है, जो सिद्धालय है, वह देहालय है, अर्थात् जैसा सिद्धलोक में विराज रहा है, वैसा ही हंस (आत्मा) इस घट (देह) में विराजमान है ॥२५॥

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+ परमात्मा - शरीर में स्थित -
जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहिँ णिवसइ देउ
तेहउ णिवसइ बंभु परु देहहं मं करि भेउ ॥26॥
याद्रशो निर्मलो ज्ञानमयः सिद्धौ निवसति देवः ।
ताद्रशो निवसति ब्रह्मा परः देहे मा कुरु भेदम् ॥२६॥
अन्वयार्थ : [यादृशः निर्मलः ज्ञानमयः] जैसा निर्मल केवलज्ञानमय [देवः सिद्धौ] देव सिद्ध-गति में [निवसति] रहता है, [ताद्रशः] वैसा ही [परः ब्रह्मा] परम-ब्रह्म (परमात्मा) [देहे] शरीर में [निवसति] तिष्ठता है, [भेदम् मा कुरु] भेद मत कर ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे पाँच क्षेपक मिले हुए चौबीस दोहों में जैसा प्रगटरूप परमात्मा मुक्ति में है, वैसा ही शुद्ध-निश्चयनय से देह में भी शक्तिरूप है, ऐसा कहते हैं -

ऐसा ही मोक्षपाहुड़ में श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भी कहा है 'णमिएहिं..' इत्यादि - इसका यह अभिप्राय है कि जो नमस्कार योग्य महापुरुषों से भी नमस्कार करने योग्य है, स्तुति करने योग्य सत्पुरुषों से स्तुति किया गया है, और ध्यान करने योग्य आचार्य-परमेष्ठी वगैरह से भी ध्यान करने योग्य ऐसा जीव नामा पदार्थ इस देह में बसता है, उसको तू परमात्मा जान ।

वही परमात्मा उपादेय है ॥२६॥

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+ परमात्मा - अंतर-दृष्टि के प्रेरणा -
जेँ दिट्ठेँ तुट्टंति लहु कम्मइँ पुव्व-कियाइँ
सो परु जाणहि जोइया देहि वसंतु ण काइँ ॥27॥
येन द्रष्टेन त्रुटयन्ति लघु कर्माणि पूर्वकृतानि ।
तं परं जानासि योगिन् देहे वसन्तं न किम् ॥२७॥
अन्वयार्थ : [येन द्रष्टेन लघु] जिसे देखने से शीघ्र ही [पूर्वकृतानि कर्माणि] पूर्व-कृत कर्म [त्रुटयन्ति] चूर्ण हो जाते हैं, [तं परं] उस परमात्मा के [देहं वसन्तं] देह में बसते हुए भी [हे योगिन्] हे योगी [किं न जानासि] तू क्यों नहीं जानता ?

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जिस शुद्धात्मा को सम्यग्ज्ञान-नेत्र से देखने से पहले उपार्जन किए हुए कर्म नाश हो जाते हैं, उसे हे योगिन्, तू क्यों नहीं पहचानता, ऐसा कहते हैं -

जिसके जानने से कर्म-कलंक दूर हो जाते हैं वह आत्मा शरीर में निवास करता हुआ भी देहरूप नहीं होता, उसको तू अच्छी तरह पहचान और दूसरे अनेक प्रपंचों (झगड़ों) को तो जानता है; अपने स्वरूप की तरफ क्यों नहीं देखता ? वह निज-स्वरूप ही उपादेय है, अन्य कोई नहीं है ॥२७॥

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+ परमात्मा शारीरिक और मानसिक सुख-दुःख रहित -
जित्थु ण इंदिय-सुह-दुहइँ जित्थु ण मण-वावारु
सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ अण्णु परिं अवहारु ॥28॥
यत्र नेन्द्रियसुखदुःखानि यत्र न मनोव्यापारः ।
तं आत्मानं मन्यस्व जीव त्वं अन्यत्परमपहर ॥२८॥
अन्वयार्थ : [यत्र इन्द्रियसुखदुःखानि न] जहाँ इन्द्रिय-जनित सुख-दुःख नहीं, [यत्र मनोव्यापारः न] जहाँ मन का व्यापार नहीं, [तं हे जीव त्वं] उसे हे जीव तू [आत्मानं मन्यस्व] आत्मा मान, [अन्यत्परम् अपहर] अन्य सबको छोड़ ।

श्रीब्रह्मदेव :
इससे आगे पाँच प्रक्षेपकों द्वारा आत्मा ही का कथन करते हैं -

ज्ञानानन्द-स्वरूप निज शुद्धात्मा को निर्विकल्प समाधि में स्थिर होकर जान, अन्य परमात्म-स्वभाव से विपरीत पाँच इन्द्रियों के विषय आदि सब विकार परिणामों को दूर से ही त्याग, उनका सर्वथा ही त्याग कर । यहाँ पर किसी शिष्य ने प्रश्न किया कि निर्विकल्प-समाधि में सब जगह वीतराग विशेषण क्यों कहा है ? उसका उत्तर कहते हैं - जहाँ पर वीतरागता है, वहीं निर्विकल्प-समाधिपना है, इस रहस्य को समझानेके लिये अथवा जो रागी हुए कहते हैं कि हम निर्विकल्प-समाधि में स्थित हैं, उनके निषेध के लिये वीतरागता सहित निर्विकल्प-समाधि का कथन किया गया है, अथवा सफेद शंख की तरह स्वरूप प्रगट करने के लिये कहा गया है, अर्थात् जो शंख होगा, वह श्वेत ही होगा, उसी प्रकार जो निर्विकल्प-समाधि होगी, वह वीतरागतारूप ही होगी ॥२८॥

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+ [परमात्मा - देह में रहते हुए भी स्वभाव में स्थित -
देहादेहहिँ जो वसइ भेयाभेय-णएण
सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ किं अण्णेँ बहुएण ॥29॥
देहादेहयोः यो वसति भेदाभेदनयेन ।
तमात्मानं मन्यस्व जीव त्वं किमन्येन बहुना ॥२९॥
अन्वयार्थ : [यः भेदाभेदनयेन देहादेहयोः वसति] जो व्यवहारनय से देह में और निश्चयनय से आत्म-स्वभाव में ठहरा हुआ है, [तं हे जीव त्वं] उसे हे जीव, तू [आत्मानं मन्यस्व] परमात्मा जान, [अन्येन बहुना किम्] अन्य से क्या (प्रयोजन) ?

श्रीब्रह्मदेव :
आगे यह परमात्मा व्यवहारनय से तो इस देह में ठहर रहा है, लेकिन निश्चयनय से अपने स्वरूप में ही तिष्ठता है, ऐसी आत्मा को कहते हैं -

देह में रहता हुआ भी निश्चय से देह-स्वरूप जो नहीं होता, वही निज-शुद्धात्मा उपादेय है ॥२९॥

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+ भेद-ज्ञान की प्रेरणा -
जीवाजीव म एक्कु करि लक्खण-भेएँ भेउ
जो परु सो परु भणमि मुणि अप्पा अप्पु अभेउ ॥30॥
जीवाजीवौ मा एकौ कुरु लक्षणभेदेन भेदः ।
यत्परं तत्परं भणामि मन्यस्व आत्मन आत्मना अभेदः ॥३०॥
अन्वयार्थ : [जीवाजीवौ एकौ मा कार्षीः] जीव और अजीव को एक मतकर [लक्षणभेदेन भेदः] लक्षण के भेद से भेद कर [यत्परं तत्परं मन्यस्व] जो पर हैं उनको पर जान [च आत्मनः आत्मना अभेदः] और आत्मा का अपने से अभेद जान [भणामि] ऐसा मैं कहता हूँ । ।

श्रीब्रह्मदेव :
जीव अजीव के लक्षणों में से जीव का लक्षण शुद्ध चैतन्य है, वह स्पर्श, रस,गंध, रूप शब्दादिक से रहित है । ऐसा ही श्री समयसारमें कहा है -

'अरसं..' इत्यादि । इसका सारांश यह है, कि जो आत्म-द्रव्य है, वह मिष्ट आदि पाँच प्रकार के रस रहित है, श्वेत आदिक पाँच तरह के वर्ण रहित है, सुगन्ध, दुर्गंध इन दो तरह के गंध उसमें नहीं हैं, प्रगट (दृष्टिगोचर) नहीं है, चैतन्यगुण सहित है, शब्द से रहित है, पुल्लिंग आदि करके ग्रहण नहीं होता, अर्थात् लिंग रहित है, और उसका आकार नहीं दिखता, अर्थात् निराकार वस्तु है । आकार छह प्रकारकेहैं - समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमंडल, सातिक, कुब्जक, वामन, हुंडक । इन छह प्रकार के आकारों से रहित है, ऐसा जो चिद्रूप निज वस्तु है, उसे तू पहचान । आत्मा से भिन्न जो अजीव-पदार्थ है, उसके लक्षण दो तरह से हैं, एक जीव सम्बन्धी, दूसरा अजीव संबंधी । जो द्रव्य-कर्म, भाव-कर्म, नोकर्मरूप है, वह तो जीव-संबंधी है, और पुद्गलादि पाँच द्रव्यरूप अजीव जीव-संबंधी नहीं हैं, अजीव-संबंधी ही हैं, इसलिये अजीव हैं, जीव से भिन्न हैं । इस कारण जीव से भिन्न अजीवरूप जो पदार्थ हैं, उनको अपने मत समझो । यद्यपि रागादिक विभाव परिणाम जीव में ही उपजते हैं, इससे जीव के कहे जाते हैं, परंतु वे कर्म-जनित हैं, पर-पदार्थ (कर्म) के संबंध से हैं, इसलिये 'पर' ही समझो । यहाँ पर जीव-अजीव दो पदार्थ कहे गये हैं, उनमें से शुद्ध-चेतना लक्षण का धारण करनेवाला शुद्धात्मा ही ध्यान करने योग्य है, यह सारांश हुआ ॥३०॥

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+ आत्मा का लक्षण -
अमणु अणिंदिउ णाणमउ मुत्ति-विरहिउ चिमित्तु
अप्पा इंदिय-विसउ णवि लक्खणु एहु णिरुत्तु ॥31॥
अमनाः अनिन्द्रियो ज्ञानमयः मूर्तिविरहितश्चिन्मात्रः ।
आत्मा इन्द्रियविषयो नैव लक्षणमेतन्निरुक्तम् ॥३१॥
अन्वयार्थ : [आत्मा] आत्मा [अमनाः] मन से रहित, [अनिन्द्रियः] इन्द्रिय-रहित, [ज्ञानमयः] ज्ञानमयी, [मूर्तिविरहितः] अमूर्तीक, [चिन्मात्रः] चेतनामात्र [इन्द्रियविषयः नैव] इन्द्रियों का विषय नहीं है, [एतत् लक्षणं] ये लक्षण [निरुक्तम्] कहे गये हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे शुद्धात्मा के ज्ञानादिक लक्षणों से विशेषपने से कहते हैं -

यह शुद्ध आत्मा परमात्मा से विपरीत विकल्प-जालमयी मन से रहित है,शुद्धात्मा से भिन्न इन्द्रिय-समूह से रहित है, लोक और अलोक के प्रकाशनेवाले केवलज्ञान-स्वरूप है, अमूर्तीक आत्मा से विपरीत स्पर्श, रस, गंध, वर्णवाली मूर्ति-रहित है, अन्य द्रव्यों में नहीं पाई जावे, ऐसी शुद्ध-चेतना स्वरूप ही है, और इन्द्रियों के गोचर नहीं है, वीतराग स्व-संवेदन से ही ग्रहण किया जाता है । ये लक्षण जिसके प्रगट कहे गये हैं उसको ही तू निःसंदेह आत्मा जान । इस जगह जिसके ये लक्षण कहे गये हैं, वही आत्मा है, वही उपादेय है, आराधने योग्य है, यह तात्पर्य निकला ॥३१॥

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+ ध्यान की विधि और उसका फल -
भव-तणु-भोय-विरत्त-मणु जो अप्पा झाएइ
तासु गुरुक्की वेल्लडी संसारिणि तुट्टेइ ॥32॥
भवतनुभोगविरक्तमना य आत्मानं ध्यायति ।
तस्य गुर्वी वल्ली सांसारिकी त्रुटयति ॥३२॥
अन्वयार्थ : [यः भवतनुभोगविरक्तमनाः] जो संसार, शरीर और भोगों में विरक्त मन हुआ [आत्मानं ध्यायति] आत्मा को ध्याता है, [तस्य गुर्वी सांसारिकी वल्ली] उसकी मोटी संसाररूपी बेल [त्रुटयति] टूट जाती है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जो कोई संसार, शरीर, भोगों से विरक्त होकर शुद्धात्मा का ध्यान करता है । उसी के संसाररूपी बेल नाश को प्राप्त हो जाती है, इसे कहते हैं -

संसार, शरीर, भोगों में अत्यंत आसक्त (लगा हुआ) चित्त है, उसको आत्मज्ञान से उत्पन्न हुए वीतराग परमानंद सुखामृत के आस्वाद से राग-द्वेष से हटाकर अपने शुद्धात्म-सुख में अनुराग से शरीरादिक में वैराग्यरूप हुआ जो शुद्धात्मा को विचारता है, उसका संसार छूट जाता है, इसलिये जिस परमात्मा के ध्यान से संसाररूपी बेल दूर हो जाती है, वही ध्यान करने योग्य (उपादेय) है ॥३२॥

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+ देह में ही परमात्मा का निवास -
देहादेवलि जो वसइ देउ अणाइ-अणंतु
केवल-णाण-फुरंत-तणु सो परमप्पु णिभंतु ॥33॥
देहदेवालये यः वसति देवः अनाद्यनन्तः ।
केवलज्ञानस्फुरत्तनुः स परमात्मा निर्भ्रान्तः ॥३३॥
अन्वयार्थ : [यः देहदेवालये वसति] जो देहरूपी देवालय में बसने वाला, [देवः अनाद्यनन्तः] पूज्य, अनादि-अनंत, [केवलज्ञानस्फुरत्तनुः] केवलज्ञान से स्फुरायमान, [सः परमात्मा निर्भ्रान्तः] वही परमात्मा है, इसमें कुछ संशय नहीं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जो देहरूपी देवालय में रहता है, वही शुद्ध-निश्चयनय से परमात्मा है, यह कहते हैं -

जो व्यवहारनय से देहरूपी देवालय में बसता है, निश्चयनय से देह से भिन्न है, देह की तरह मूर्तीक तथा अशुचिमय नहीं है, महा पवित्र है, आराधने योग्य है, पूज्य है, देह आराधने योग्य नहीं है, जो परमात्मा आप शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से अनादि-अनंत है, तथा यह देह आदि अंत से सहित है, जो आत्मा निश्चयनय से लोक अलोक को प्रकाशने वाले केवलज्ञान स्वरूप है, अर्थात् केवलज्ञान ही प्रकाशरूप शरीर है, और देह जड़ है, वही परमात्मा निःसंदेह है, इसमें कुछ संशय नहीं समझना । जो देहमें रहता है, तो भी देहसे जुदा है, सर्वाशुचिमयी देहको वह देवछूता नहीं है, वहीं आत्मदेव उपादेय है॥३३॥

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+ परमात्मा का एक अद्भुत् लक्षण -
देहे वसंतु वि णवि छिवइ णियमेँ देहु वि जो जि
देहेँ छिप्पइ जो वि णवि मुणि परमप्पउ सो जि ॥34॥
देहे वसन्नपि नैव स्पृशति नियमेन देहमपि य एव ।
देहेन स्पृश्यते योऽपि नैव मन्यस्व परमात्मानं तमेव ॥३४॥
अन्वयार्थ : [य एव देहे वसन्नपि] जो देह में रहता हुआ भी [नियमेन देहमपि] नियम से शरीर को [नैव स्पृशति] नहीं स्पर्श करता, [देहेन यः अपि] देह से वह भी [नैव स्पृश्यते] नहीं छुआ जाता [तमेव] उसी को [परमात्मानं मन्यस्व] परमात्मा जान ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे शुद्धात्मा से भिन्न इस देह में रहता हुआ भी देह को नहीं स्पर्श करता है और देह भी उसको नहीं छूती है, यह कहते हैं -

जो शुद्धात्मा की अनुभूति से विपरीत क्रोध, मान, माया, लोभरूप विभाव-परिणाम हैं, उनसे उपार्जन किये शुभ-अशुभ कर्मों द्वारा बनाई हुई देह में अनुपचरितअसद्भूत-व्यवहारनय से बसता हुआ भी निश्चय से देह को नहीं छूता, उसको तुम परमात्मा जानो, उसी स्वरूप को वीतराग निर्विकल्प-समाधि में तिष्ठकर चिंतवन करो । यह आत्मा जड़रूप देह में व्यवहारनय से रहता है, सो देहात्म-बुद्धिवाले को नहीं मालूम होती है, वही शुद्धात्मा देह के ममत्व से रहित (विवेकी) पुरुषों के आराधने योग्य है ॥३४॥

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+ परमात्मा - समभाव द्वारा परम आनन्द की प्राप्ति -
जो सम-भाव -परिट्ठियहं जोइहँ कोइ फुरेइ
परमाणंदु जणंतु फुडु सो परमप्पु हवेइ ॥35॥
यः समभावप्रतिष्ठितानां योगिनां कश्चित् स्फुरति ।
परमानन्दं जनयन्स्फुटं स परमात्मा भवति ॥३५॥
अन्वयार्थ : [समभावप्रतिष्ठितानां योगिनां] समभाव में परिणत योगियों के [परमानन्दं जनयन्] परम आनन्दको उत्पन्न करता हुआ [यः कश्चित् स्फुरति] जो कोई प्रकट होता है, [स स्फुटं परमात्मा भवति] वही स्पष्ट परमात्मा है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जो योगी समभाव में स्थित हैं, उनको परमानन्द उत्पन्न करता हुआ कोई शुद्धात्मा स्फुरायमान है, उसका स्वरूप कहते हैं -

परम योगीश्वरों के अर्थात् जिनके शत्रु-मित्रादि सब समान है, और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप अभेद-रत्नत्रय जिसका स्वरूप है, ऐसी वीतराग-निर्विकल्प-समाधि में तिष्ठे हुए हैं, उन योगीश्वरों के हृदय में वीतराग परम आनन्द को उत्पन्न करता हुआ जो कोई स्फुरायमान होता है, वही प्रकट परमात्मा है, ऐसा जानो । ऐसा ही दूसरी जगह भी 'आत्मानुष्ठान..' इत्यादि से कहा है, अर्थात् जो योगी आत्मा के अनुभव में तल्लीन हैं, और व्यवहार से रहित शुद्ध निश्चय में तिष्ठते हैं, उन योगियों के ध्यान करके अपूर्व परमानन्द उत्पन्न होता है । इसलिए हे प्रभाकरभट्ट, जो आत्म-स्वरूप योगीश्वरों के हृदय में स्फुरायमान है, वही उपादेय है । जो योगी वीतराग-निर्विकल्प-समाधि में लगे हुए हैं, संसार से पराङ्मुख हैं, उन्हीं के वह आत्मा उपादेय है, और जो देहात्म-बुद्धि विषयासक्त हैं, वे अपने स्वरूप को नहीं जानते हैं, उनको आत्मरुचि नहीं हो सकती -- यह तात्पर्य हुआ ॥३५॥

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+ आत्मा का परम आत्मा स्वरूप -
कम्म-णिबद्धु वि जोइया देहि वसंतु वि जो जि
होइ ण सयलु कया वि फुडु मुणि परमप्पउ सो जि ॥36॥
कर्मनिबद्धोऽपि योगिन् देहे वसन्नपि य एव ।
भवति न सकलः कदापि स्फुटं मन्यस्व परमात्मानं तमेव ॥३६॥
अन्वयार्थ : [योगिन् यः] हे योगी जो यह (परमात्मा) [कर्मनिबद्धोऽपि] यद्यपि कर्मों से बँधा है, [देहे वसन्नपि] देह में रहता भी है, [कदापि सकलः न भवति] परंतु कभी देहरूप नहीं होता, [तमेव परमात्मानं स्फुटं मन्यस्व] तू उसी को निश्चित परमात्मा जान ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे शुद्धात्मा से जुदे कर्म और शरीर इन दोनों से अनादि से बँधा हुआ यह आत्मा है, तो भी निश्चयनय से शरीर-स्वरूप नहीं है, यह कहते हैं -

परमात्मा की भावना से विपरीत जो राग, द्वेष, मोह हैं, उनसे यद्यपि व्यवहारनय से बँधा है, और देह में तिष्ठ रहा है, तो भी निश्चयनय से शरीररूप नहीं है, उससे जुदा ही है, किसी काल में भी यह जीव जड़ तो न हुआ, न होगा, उसे हे प्रभाकरभट्ट, जान । निश्चय से आत्मा ही परमात्मा है, उसे तू वीतराग स्व-संवेदन ज्ञान से चिंतवन कर । सारांश यह है, कि यह आत्मा सदैव वीतराग-निर्विकल्प समाधि में लीन साधुओं को तो प्रिय है, किन्तु मूढ़ों को नहीं ॥३६॥

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+ पूर्व कथन की पुष्टि -
जो परमत्थेँ णिक्कलु वि कम्म-विभिण्णउ जो जि
मूढा सयलु भणंति फुडु मुणि परमप्पउ सो जि ॥37॥
यः परमार्थेन निष्कलोऽपि कर्मविभिन्नो य एव ।
मूढाः सकलं भणन्ति स्फुटं मन्यस्व परमात्मानं तमेव ॥३७॥
अन्वयार्थ : [यः परमार्थेन] जो परमार्थ से [निष्कलोऽपि] शरीर-रहित, [कर्मविभिन्नोऽपि] कर्मों से जुदा है, तो भी [मूढाः सकलं] मूर्ख शरीरस्वरूप ही [स्फुटं भणन्ति] स्पष्ट मानते हैं, [तमेव परमात्मानं मन्यस्व] तू उसी को परमात्मा जान ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे निश्चयनय से आत्मा देह और कर्मों से रहित है, तो भी मूढ़ों (अज्ञानियों) को शरीर स्वरूप मालूम होता है, ऐसा कहते हैं -

वही परमात्मा शुद्धात्मा के बैरी मिथ्यात्व रागादिकों के दूर होने के समय ज्ञानी जीवों को उपादेय है, और जिनके मिथ्यात्वरागादिक दूर नहीं हुए उनके उपादेय नहीं, पर-वस्तु का ही ग्रहण है ॥३७॥

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+ परमात्मा - केवलज्ञान में स्वयं प्रतिभासित -
गयणि अणंति वि एक्क उडु जेहउ भुयणु विहाइ
मुक्कहँ जसु पए बिंबियउ सो परमप्पु अणाइ ॥38॥
गगने अनन्तेऽपि एकमुडु यथा भुवनं विभाति ।
मुक्तस्य यस्य पदे बिम्बितं स परमात्मा अनादिः ॥३८॥
अन्वयार्थ : [गगने अनन्तेऽपि] अनंत आकाश में [एकं उडु यथा] एक नक्षत्र के जैसे [भुवनं विभाति] तीन लोक भासता है [मुक्तस्य यस्य पदे] जिस मुक्त के केवलज्ञान में [बिम्बितं सः परमात्मा अनादिः] बिंबित वह परमात्मा अनादि है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे अनंत आकाशमें एक नक्षत्र की तरह जिसके केवलज्ञान में तीनों लोक भासते हैं, वह परमात्मा है, ऐसा कहते हैं -

जिसके केवलज्ञान में समस्त लोक-अलोक भासते हैं और उसके मध्य एक नक्षत्र की तरह परमात्मा भासता है, वही परमात्मा रागादि समस्त विकल्पों से रहित योगीश्वरों को उपादेय है ॥३८॥

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+ परमात्मा - ध्यान का ध्येय -
जोइय-विंदहिँ णाणमउ जो झाइज्जइ झेउ
मोक्खहँ कारणि अणवरउ सो परमप्पउ देउ ॥39॥
योगिवृन्दैः ज्ञानमयः यो ध्यायते ध्येयः ।
मोक्षस्य कारणे अनवरतं स परमात्मा देवः ॥३९॥
अन्वयार्थ : [योगीन्द्रवृन्दैः] योगियों द्वारा वन्दित [ज्ञानमयः यो] ज्ञानमयी जो [मोक्षस्य कारणे] मोक्ष के निमित्त [अनवरतं ध्यायते ध्येयः] निरन्तर ध्यान का ध्येय, [सः परमात्मा देवः] वह परमात्मदेव है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे अनंत ज्ञानमयी परमात्मा योगीश्वरों द्वारा निर्विकल्प-समाधि-काल में ध्यान करने योग्य है, उसी परमात्मा को कहते हैं -

जो परमात्मा मुनियों को ध्यावने योग्य कहा है, वही शुद्धात्मा के बैरी, आर्त-रौद्र ध्यान, से रहित धर्म ध्यानी पुरुषों को उपादेय है, अर्थात् जब आर्तध्यान रौद्रध्यान ये दोनों छूट जाते हैं, तभी उसका ध्यान हो सकता है ॥३९॥

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+ परमात्मा - संसार को उपजाता है -
जो जिउ हेउ लहेवि विहि जगु बहु-विहउ जणेइ
लिंगत्तय-परिमंडियउ सो परमप्पु हवेइ ॥40॥
यो जीवः हेतुं लब्ध्वा विधिं जगत् बहुविधं जनयति ।
लिङ्गत्रयपरिमण्डितः स परमात्मा भवति ॥४०॥
अन्वयार्थ : [यः जीवः] जो जीव [विधिं हेतुं लब्ध्वा] विधिरूप (कर्म) कारणों को पाकर [बहुविधं जगत् जनयति] अनेक प्रकार के जगत को पैदा करता है [लिङ्गत्रयपरिमण्डितः] तीन लिंगों (स्त्री, पुरुष, नपुंसक) को धारण करता है, [सः परमात्मा भवति] वही परमात्मा है ।

श्रीब्रह्मदेव :
जो आत्मा ज्ञानावरणादि कर्मरूप कारणों को पाकर अनेक प्रकार के जगत को पैदा करता है, अर्थात् कर्म के निमित्त से त्रस स्थावररूप अनेक जन्म धरता है, स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुसकलिंग इन तीन चिन्हों से सहित हुआ वही शुद्धनिश्चय से परमात्मा है । अर्थात् अशुद्धपने को परिणत हुआ जगत में भटकता है, इसलिये जगत का कर्ता कहा है, और शुद्धपनेरूप परिणत हुआ विभाव (विकार) परिणामों को हरता है, इसलिये हर्त्ता है । यह जीव ही ज्ञान-अज्ञान दशा से कर्त्ता-हर्त्ता है और दूसरे कोई भी हरिहरादिक कर्त्ता-हर्त्ता नहीं है । पूर्व जो शुद्धात्मा कहा था, वह यद्यपि शुद्धनय से शुद्ध है, तो भी अनादि से संसार में ज्ञानावरणादि कर्म बंध द्वारा ढंका हुआ वीतराग, निर्विकल्प सहजानन्द, अद्वितीय सुख के स्वाद को न पाने से व्यवहारनय से त्रस और स्थावररूप स्त्री, पुरुष, नपुंसक लिंगादि सहित होता है, इसलिये जगत्कर्त्ता कहा जाता है अन्य कोई भी दूसरों द्वारा कल्पित परमात्मा नहीं है । यहआत्मा ही परमात्मा की प्राप्ति के शत्रु तीन वेदों (स्त्रीलिंगादि) कर उत्पन्न हुए रागादि विकल्प-जालों को निर्विकल्प-समाधि से जिस समय नाश करता है, उसी समय उपादेयरूप मोक्ष-सुख का कारण होने से उपादेय हो जाता है ॥४०॥

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+ परमात्मा - संसार में रहते हुए भी संसार से परे -
जसु अब्भंतरि जगु वसइ जग-अब्भंतरि जो जि
जगि जि वसंतु वि जगु जि ण वि मुणि परमप्पउ सो जि ॥41॥
यस्य अभ्यन्तरे जगत् वसति जगदभ्यन्तरे य एव ।
जगति एव वसन्नपि जगत् एव नापि मन्यस्व परमात्मानं तमेव ॥४१॥
अन्वयार्थ : [यस्य अभ्यन्तरे] जिसके अन्दर में [जगत् वसति] संसार बसता है, [जगदभ्यन्तरे] और जगत् में वह बस रहा है, [जगति एव वसन्नपि] संसार में निवास करता हुआ भी [जगत् एव नापि] जगत जिसमें नहीं, [तमेव परमात्मानं मन्यस्व] उसे ही तू परमात्मा जान ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जिस परमात्मा के केवलज्ञान स्वरूप प्रकाश में जगत् बस रहा है, और जगत् के मध्य में वह ठहर रहा है, तो भी वह जगत् रूप नहीं है, ऐसा कहते हैं -

जिस आत्माराम के केवलज्ञान में संसार बस रहा है, अर्थात् प्रतिबिम्बित हो रहा है, प्रत्यक्ष भास रहा है, और जगत् में वह बस रहा है, अर्थात् सबमें व्याप रहा है । वह ज्ञाता है और जगत् ज्ञेय है, संसार में निवास करता हुआ भी निश्चयनय से किसी जगत् की वस्तु से तन्मय नहीं होता, अर्थात् जैसे रूपी पदार्थ को नेत्र देखते हैं, तो भी उनसे जुदे ही रहते हैं, इस तरह वह भी सबसे जुदा रहता है, उसी को हे प्रभाकरभट्ट तू परमात्मा जान ।

जो शुद्ध, बुद्ध सर्वव्यापक सबसे अलिप्त, शुद्धात्मा है, उसे वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थिर होकर ध्यान कर । जो केवलज्ञानादि व्यक्तिरूप कार्य-समयसार है,उसका कारण वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानरूप निजभाव ही उपादेय है ॥४१॥

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+ परमात्मा उत्कृष्ट समाधि / तप द्वारा ही जाना जाता है -
देहि वसंतु वि हरि-हर वि जं अज्ज वि ण मुणंति
परम-समाहि-तवेण विणु सो परमप्पु भणंति ॥42॥
देहे वसन्तमपि हरिहरा अपि यं अद्यापि न जानन्ति ।
परमसमाधितपसा विना तं परमात्मानं भणन्ति ॥४२॥
अन्वयार्थ : [देहे वसन्तमपि] शरीर में बसने पर भी [यं हरिहरा अपि] जिसको नारायण / रूद्र सरीखे चतुर पुरुष भी [परमसमाधितपसा विना] परम समाधिभूत महातप के बिना [अद्य अपि न जानन्ति] अबतक भी नहीं जानते, [तं परमात्मानं भणन्ति] उसको परमात्मा कहा है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे वह शुद्धात्मा यद्यपि देह में रहता है, तो भी परमसमाधि के अभाव से हरिहरादिक सरीखे भी जिसे प्रत्यक्ष नहीं जान सकते, वह परमात्मा है, ऐसा कहते हैं -

परमात्म-स्वभाव से भिन्न शरीर में अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से बसता है, तो भी जिसको हरिहर सरीखे चतुर पुरुष अबतक भी नहीं जानते हैं । किसके बिना ? वीतराग निर्विकल्प नित्यानंद अद्वितीय सुखरूप अमृत के रस के आस्वादरूप परम समाधिभूत महातप के बिना नहीं जानते, उसको परमात्मा कहते हैं ।

यहाँ किसी का प्रश्न है, कि पूर्व-भव में कोई जीव जिन-दीक्षा धारणकर भेदाभेद रत्नत्रय की आराधना से महान् पुण्य को उपार्जन करके अज्ञानभाव से निदानबंध करने के बाद स्वर्ग में उत्पन्न होता है, पीछे आकर मनुष्य होता है, वही तीन-खंड का स्वामी वासुदेव (हरि) कहलाता है, और कोई जीव इसी भव में जिनदीक्षा लेकर समाधि के बल से पुण्य-बंध करता है, उसके बाद पूर्वकृत चारित्रमोह के उदय से विषयों में लीन हुआ रुद्र (हर) कहलाता है । इसलिये वे हरिहरादिक परमात्मा का स्वरूप कैसे नहीं जानते ? इसका समाधान यह है, कि तुम्हारा कहना ठीक है । यद्यपि इन हरिहरादिक महान पुरुषों ने रत्नत्रय की आराधना की, तो भी जिस तरह के वीतराग-निर्विकल्प-रत्नत्रय स्वरूप से तद्भव मोक्ष होता है, वैसा रत्नत्रय इनके नहीं प्रगट हुआ, सराग रत्नत्रय हुआ है, इसी का नाम व्यवहार रत्नत्रय है । सो यह तो हुआ, लेकिन शुद्धोपयोगरूप वीतराग रत्नत्रय नहीं हुआ, इसलिये वीतराग रत्नत्रय के धारक उसी भव से मोक्ष जानेवाले योगी जैसा जानते हैं, वैसा ये हरिहरादिक नहीं जानते । इसीलिये परम शुद्धोपयोगियों की अपेक्षा इनको नहीं जाननेवाले कहा गया है, क्योंकि जैसे स्वरूप के जानने से साक्षात् मोक्ष होता है, वैसा स्वरूप ये नहीं जानते । यहाँ पर सारांश यह है, कि जिस साक्षात् उपादेय शुद्धात्मा को तद्भव मोक्ष के साधक महामुनि ही आराध सकते हैं, और हरिहरादिक नहीं जान सकते, वही चिंतवन करने योग्य है ॥४२॥

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+ परमात्मा - उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य संयुक्त -
भावाभावहिँ संजुवउ भावाभावहिँ जो जि ।
देहि जि दिट्ठउ जिणवरहिँ मुणि परमप्पउ सो जि ॥43॥
भावाभावाभ्यां संयुक्त : भावाभावाभ्यां य एव ।
देहे एव द्रष्टः जिनवरैः मन्यस्व परमात्मानं तमेव ॥४३॥
अन्वयार्थ : [य एव भावाभावाभ्यां संयुक्त:] जिसे उत्पाद-व्यय से सहित और [भावाभावाभ्यां] उत्पाद और विनाश से रहित [जिनवरैः] जिनवरदेव ने [देहे अपि द्रष्टः] देह में ही देख लिया, [तमेव परमात्मानं मन्यस्व] उसी को तू परमात्मा जान ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे यद्यपि पर्यायार्थिकनय से उत्पाद-व्यय से सहित है, तो भी द्रव्यार्थिकनय से उत्पाद-व्यय रहित है, सदा ध्रुव (अविनाशी) ही है, वही परमात्मा निर्विकल्प समाधि के बल से तीर्थंकरदेवों ने देह में भी देख लिया है, ऐसा कहते हैं : -

जो व्यवहारनय से यद्यपि उत्पाद और व्यय से सहित है तो भी द्रव्यार्थिकनय से उत्पाद और विनाश से रहित है, तथा वीतराग निर्विकल्प आनंदरूप से समाधि द्वारा तद्भव-मोक्ष के साधक जिनवरदेव ने देह में भी देख लिया है, उसी को तू परमात्मा जान, अर्थात वीतराग परमसमाधि के बल से अनुभव कर ।

जो परमात्मा कृष्ण, नील, कापोत, लेश्यारूप विभाव परिणामों से रहित शुद्धात्म की प्राप्तिरूप ध्यानकर जिनवरदेव ने देह में देखा है, वही साक्षात् उपादेय है ॥४३॥

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+ शरीर और आत्मा के दृढ़ सम्बन्ध -
देहि वसंतेँ जेण पर इंदिय-गामु वसेइ
उव्वसु होइ गएण फुडु सो परमप्पु हवेइ ॥44॥
देहे वसता येन परं इन्द्रियग्रामः वसति ।
उद्वसो भवति गतेन स्फुटं स परमात्मा भवति ॥४४॥
अन्वयार्थ : [येन परं देहे वसता] जिसके देह में रहने से पर ही [इन्द्रियग्रामः वसति] इन्द्रिय गाँव बसता है, [उद्धसः भवति गतेन] जाने पर उजड़ जाता है [स्फुटं स परमात्मा भवति] निश्चय से वह परमात्मा है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे देह में जिसके रहने से पाँच इन्द्रियरूप गाँव बसता है, और जिसके निकलने से पंचेन्द्रियरूप गाँव उजड़ हो जाता है, वह परमात्मा है, ऐसा कहते हैं -

शुद्धात्मा से जुदी ऐसी देह में बसते आत्मज्ञान के अभाव से ये इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में (रूपादि में) प्रवर्तती हैं, और जिसके चले जाने पर अपने-अपने विषय-व्यापार से रुक जाती हैं, ऐसा चिदानन्द निज-आत्मा, वही परमात्मा है । अतीन्द्रिय-सुख के आस्वादी परम-समाधि में लीन हुए मुनियों को ऐसे परमात्मा का ध्यान ही मुक्ति का कारण है, वही अतीन्द्रिय-सुख का साधक होने से सब तरह उपादेय है ॥४४॥

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+ देह से आत्मा का विशिष्ट महत्व -
जो णिय-करणहिँ पंचहिँ वि पंच वि विसय मुणेइ
मुणिउ ण पंचहिँ पंचहिँ वि सो परमप्पु हवेइ ॥45॥
यः निजकरणैः पञ्चभिरपि पञ्चापि विषयान् जानाति ।
ज्ञातः न पञ्चभिः पञ्चभिरपि स परमात्मा भवति ॥४५॥
अन्वयार्थ : [यः निजकरणैः पञ्चभिरपि] जो अपनी पाँचों इन्द्रियो द्वारा [पञ्चापि विषयान् जानाति] पाँचों ही विषयों को जानता है, [पञ्चभिः] पाँच इन्द्रियों के [पञ्चभिरपि मतो न] पाँचों विषयों से भी जो नहीं जाना जाता, [स परमात्मा भवति] वही परमात्मा है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जो पाँच इन्द्रियों से पाँच विषयों को जानता है, और आप इन्द्रियों के गोचर नहीं होता है, वही परमात्मा है, यह कहते हैं -

जो आत्माराम शुद्धनिश्चयनय से अतीन्द्रिय ज्ञानमय है तो भी अनादि बंध के कारण व्यवहारनय से इन्द्रियमय शरीर को ग्रहणकर अपनी पाँचों इन्द्रियो द्वारा रूपादि पाँचों ही विषयों को जानता है, अर्थात् इन्द्रियज्ञानरूप परिणमन करके इन्द्रियों से रूप, रस, गंध, शब्द, स्पर्श को जानता है, और आप पाँच इन्द्रियों से तथा पाँचों विषयों से जो नहीं जाना जाता, अगोचर है, ऐसे लक्षण जिसके हैं, वही परमात्मा है ।

पाँच इन्द्रियोंके विषय - सुख के आस्वाद से विपरीत, वीतराग-निर्विकल्प परमानन्द समरसीभाव रूप, सुख के रस का आस्वादरूप, परम-समाधि द्वारा जो जाना जाता है, वही परमात्मा है, वह ज्ञानगम्य है, इन्द्रियों से अगम्य है, और उपादेयरूप अतीन्द्रिय सुख का साधन अपना स्वभावरूप वही परमात्मा आराधने योग्य है ॥४५॥

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+ परमात्मा का वीतराग स्वरूप -
जसु परमत्थेँ बंधु णवि जोइय ण वि संसारु
सो परमप्पउ जाणि तुहुँ मणि मिल्लिवि ववहारु ॥46॥
यस्य परमार्थेन बन्धो नैव योगिन् नापि संसारः ।
तं परमात्मानं जानीहि त्वं मनसि मुक्त्वा व्यवहारम् ॥४६॥
अन्वयार्थ : [हे योगिन् यस्य] हे योगी, जिसके [परमार्थेन संसारः नैव] निश्चय से संसार नहीं, [बन्धोनापि] बंध भी नहीं, [तं परमात्मनं त्वं] उस परमात्मा को तू [मनसि व्यवहारम् मुक्त्वा जानीहि] मन से व्यवहार मुक्त जान ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जिसके निश्चय से बंध नहीं हैं, और संसार भी नहीं है, उस आत्मा को सब लौकिक व्यवहार छोड़कर अच्छी तरह पहचानो, ऐसा कहते हैं -

हे योगी, जिस चिदानन्द शुद्धात्मा के निश्चय से निज स्वभाव से भिन्न द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूप पाँच प्रकार परिवर्तन (भ्रमण) स्वरूप संसार नहीं है, और संसार के कारण जो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशरूप चार प्रकार का बंध भी नहीं है, जो बंध केवलज्ञानादि अनंत चतुष्टय को प्रगटतारूप मोक्ष-पदार्थ से जुदा है, उस परमात्मा को तू मन में से सब लौकिक-व्यवहार को छोड़कर तथा वीतराग समाधि में ठहरकर जान, अर्थात् चिन्तवन कर । शुद्धात्मा की अनुभूति से भिन्न जो संसार और संसार का कारण बंध इन दोनों से रहित और आकुलता से रहित ऐसे लक्षणवाला मोक्ष का मूलकारण जो शुद्धात्मा है, वही सर्वथा आराधने योग्य है ॥४६॥

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+ परमात्मा के ज्ञान के स्थान का कथन -
णेयाभावे विल्लि जिम थक्कइ णाणु वलेवि
मुक्कहँ जसु पय बिंबियउ परम-सहाउ भणेवि ॥47॥
ज्ञेयाभावे वल्ली यथा तिष्ठति ज्ञानं वलित्वा ।
मुक्तानां यस्य पदे बिम्बितं परमस्वभावं भणित्वा ॥४७॥
अन्वयार्थ : [वल्लि तिष्ठति] बेल (लता) ठहरती है [यथा] वैसे ही, [मुक्तानां ज्ञानं] मुक्त (जीवों) का ज्ञान [बलेपि] शक्ति होने पर भी [ज्ञेयाभावे तिष्ठति] ज्ञेय के अभाव में ठहर जाता है, [यस्य पदे] उस केवलज्ञान द्वारा [बिम्बितं] प्रतिभासित [परमस्वभावं] अपना उत्कृष्ट स्वभाव [भणित्वा] जानो ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जिस परमात्मा का ज्ञान सर्वव्यापक है, ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, जो ज्ञान से न जाना जावे, सब ही पदार्थ ज्ञान में भासते हैं, ऐसा कहते हैं -

जैसे मंडप के अभाव से बेल (लता) ठहरती है, अर्थात् जहाँ तक मंडप है, वहाँ तक तो चढ़ती है और आगे मंडप का सहारा न मिलने से चढ़ने से ठहर जाती है, उसी तरह मुक्त-जीवों का ज्ञान भी जहाँ तक ज्ञेय (पदार्थ) हैं, वहाँ तक फैल जाता है, और ज्ञेय का अवलम्बन न मिलने से जानने की शक्ति होने पर भी ठहर जाता है, अर्थात् कोई पदार्थ जानने से बाकी नहीं रहता, सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और सब भावों को ज्ञान जानता है, ऐसे तीन-लोक सरीखे अनंते लोकालोक होवें, तो भी एक समय में ही जान लेवे, जिस भगवान् परमात्मा के केवलज्ञान में अपना उत्कृष्ट स्वभाव सबके जाननेरूप प्रतिभासित हो रहा है, अर्थात् ज्ञान सबका अंतर्यामि है, सर्वाकार ज्ञान की परिणति है, ऐसा जानकर ज्ञान की आराधन करो ।

जहाँ तक मंडप वहाँ तक ही बेल (लता) की बढ़वारी है, और जब मंडप का अभाव हो, तब बेल स्थिर होके आगे नहीं फैलती, लेकिन बेल में विस्तार-शक्ति का अभाव नहीं कह सकते, इसी तरह सर्वव्यापक ज्ञान केवली का है, जिसके ज्ञान में सर्व पदार्थ झलकते हैं, वही ज्ञान आत्मा का परम-स्वभाव है, ऐसा जिसका ज्ञान है, वही शुद्धात्मा उपादेय है । यह ज्ञानानंदरूप आत्माराम है, वही महामुनियों के चित्त का विश्राम (ठहरनेकी जगह) है ॥४७॥

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+ कर्म बंधन से मुक्त परमात्मा का स्वरूप -
णेयाभावे विल्लि जिम थक्कइ णाणु वलेवि
मुक्कहँ जसु पय बिंबियउ परम-सहाउ भणेवि ॥48॥
कर्मभिः यस्य जनयद्भिरपि निजनिजकार्यं सदापि ।
किमपि न जनितो हृतः नैव तं परमात्मानं भावय ॥४८॥
अन्वयार्थ : [कर्मभिः सदापि] कर्म सदा ही [निजनिजकार्यं जनयद्भिरपि] अपने अपने कार्य को प्रगट करते हैं; [यस्य किमपि] जिसमें कुछ भी [न जनितः नैव हृतः] न उत्पन्न और न विनाश हो, [तं परमात्मानं भावय] उसी परमात्मा की भावना कर ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जो शुभ-अशुभ कर्म हैं, वे यद्यपि सुख-दुखादिको उपजाते हैं, तो भी वह आत्माकिसीसे उत्पन्न नहीं हुआ, किसीने बनाया नहीं, ऐसा अभिप्राय मनमें रखकर गाथा-सूत्र कहते

हैं -

यद्यपि व्यवहारनय से शुद्धात्मस्वरूप के रोकनेवाले ज्ञानावरणादि कर्म अपने अपने कार्य को करते हैं, अर्थात् ज्ञानावरण तो ज्ञान को ढँकता है, दर्शनावरण कर्म दर्शन को आच्छादन करता है, वेदनीय साता-असाता उत्पन्न करके अतीन्द्रिय सुख को घातता है, मोहनीय सम्यक्त्व तथा चारित्रको रोकता है, आयुकर्म स्थिति के प्रमाण शरीर में राखता है, अविनाशी भाव को प्रगट नहीं होने देता, नाम-कर्म नाना प्रकार गति जाति शरीरादिक को उपजाता है, गोत्रकर्म ऊँच-नीच गोत्र में डाल देता है, और अन्तराय-कर्म अनंत (बल) को प्रगट नहीं होने देता । इस प्रकार ये कार्य को करते हैं, तो भी शुद्ध-निश्चयनय से आत्मा काअनंतज्ञानादि स्वरूप का इन कर्मों ने न तो नाश किया, और न नया उत्पन्न किया, आत्मा तो जैसा है वैसा ही है । ऐसे अखंड परमात्मा को तू वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थिर होकर ध्यान कर ।

यहाँ पर यह तात्पर्य है, कि जो जीव पदार्थ कर्मों से न हरा गया, न उपजा, किसी दूसरी तरह नहीं किया गया, वही चिदानन्द स्वरूप उपादेय है ॥४८॥

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+ कर्म बंधन से मुक्त परमात्मा का स्वरूप -
कम्म-णिबद्धु वि होइ णवि जो फुडु कम्मु कया वि
कम्मु वि जो ण कया वि फुडु सो परमप्पउ भावि ॥49॥
कर्मनिबद्धोऽपि भवति नैव यः स्फुटं कर्म कदापि ।
कर्मापि यो न कदापि स्फुटं तं परमात्मानं भावय ॥४९॥
अन्वयार्थ : [यः कर्मनिबद्धोऽपि] जो कर्मों से बँधा हुआ होने पर भी [कदाचिदपि कर्म नैव स्फुटं भवति] कभी भी कर्मरूप नहीं होता, [कर्म अपि यः] और कर्म भी जिस रूप [कदाचिदपि स्फुटं न] कभी भी स्पष्ट नहीं होते, [तं परमात्मानं भावय] उस परमात्मा को जान ।

श्रीब्रह्मदेव :
इसके बाद जो आत्मा कर्मों से अनादिकाल का बँधा हुआ है, तो भी कर्मरूप नहीं होता,और कर्म भी आत्म-स्वरूप नहीं होते आत्मा चैतन्य है, कर्म जड़ हैं, ऐसा जानकर उस

परमात्मा का तू ध्यान कर, ऐसा कहते हैं -

जो आत्मा अपने शुद्धात्म स्वरूप की प्राप्ति के अभाव से उत्पन्न किये ज्ञानावरणादि शुभ-अशुभ कर्मों से व्यवहारनय से बँधा हुआ है, तो भी शुद्ध-निश्चयनय से कर्मरूप नहीं है, अर्थात् केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप अपने स्वरूप को छोड़कर कर्मरूप नहीं परिणमता, और ये ज्ञानावरणादि द्रव्य-भावरूप कर्म भी आत्म-स्वरूप नहीं परिणमते, अर्थात् अपने जड़-रूप पुद्गलपने को छोड़कर चैतन्यरूप नहीं होते, यह निश्चय है, कि जीव तो अजीव नहीं होता, और अजीव है, वह जीव नहीं होता । ऐसी अनादिकाल की मर्यादा है । इसलिये कर्मों से भिन्न ज्ञान-दर्शनमयी सब तरह उपादेयरूप (आराधने योग्य) परमात्मा को तुम देह रागादि परिणतिरूप बहिरात्मपने को छोड़कर शुद्धात्म परिणति की भावनारूप अन्तरात्मा में स्थिर होकर चिन्तवन करो, उसी का अनुभव करो, ऐसा तात्पर्य हुआ ॥४९॥

ऐसे तीन प्रकार आत्मा के कहनेवाले पहले महाधिकार के पाँचवे स्थल में जैसा निर्मलज्ञानमयी प्रगटरूप शुद्धात्मा सिद्ध-लोक में विराजमान है, वैसा ही शुद्ध-निश्चयनय से शक्तिरूप से देह में तिष्ठ रहा है, ऐसे कथन की मुख्यता से चौबीस दोहा-सूत्र कहे गये ।

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+ आत्मा क्या है -
कि वि भणंति जिउ सव्वगउ जिउ जडु के वि भणंति
कि वि भणंति जिउ देह-समु सुण्णु वि के वि भणंति ॥50॥
केऽपि भणन्ति जीवं सर्वगतं जीवं जडं केऽपि भणन्ति ।
केऽपि भणन्ति जीवं देहसमं शून्यमपि केऽपि भणन्ति ॥५०॥
अन्वयार्थ : [केऽपि जीवं सर्वगतं भणंति] कोई जीव को सर्वव्यापक कहते हैं, [केऽपि जीवं जडं भणंति] कोई जीव को जड़ कहते हैं, [केऽपि शून्यं अपि भणंति] कोई शून्य भी कहते हैं, [केऽपि जीवं देहसमं भणंति] कोई जीव को देहसमान कहते हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
इससे आगे छह दोहा-सूत्रों में आत्मा व्यवहारनय से अपनी देह के प्रमाण है, यह कह सकते हैं -

नैयायिक, वेदान्ती और मीमांसक-दर्शनवाले जीव को सर्वव्यापक कहते हैं, सांख्य-दर्शनवाले जीव को जड़ कहते हैं, बौद्ध-दर्शनवाले जीव को शून्य भी कहते हैं, जिनधर्मी जीव को व्यवहारनय से देहप्रमाण कहते हैं, और निश्चयनय से लोकप्रमाण कहते हैं । वह आत्मा कैसा है ? और कैसा नहीं है ? ऐसे चार प्रश्न शिष्य ने किये, ऐसा तात्पर्य है ॥५०॥

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+ आत्मा का स्वरूप -
अप्पा जोइय सव्व-गउ अप्पा जडु वि वियाणि
अप्पा देह-पमाणु मुणि अप्पा सुण्णु वियाणि ॥51॥
आत्मा योगिन् सर्वगतः आत्मा जडोऽपि विजानीहि ।
आत्मानं देहप्रमाणं मन्यस्व आत्मानं शून्यं विजानीहि ॥५१॥
अन्वयार्थ : [हे योगिन् आत्मा सर्वगतः] हे योगी, आत्मा सर्वगत भी है, [आत्मा जडोऽपि विजानीहि] आत्मा को जड़ भी जान, [आत्मानं देहप्रमाणं मन्यस्व] आत्मा को देह बराबर मान, [आत्मानं शून्य विजानीहि] आत्मा को शून्य भी जान ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे नय-विभाग से आत्मा सब रूप है, एकान्तवाद से अन्यवादी मानते हैं, सो ठीक नहीं है, इस प्रकार चारों प्रश्नों को स्वीकार करके समाधान करते हैं -

हे प्रभाकरभट्ट, आगे कहे जानेवालेनय के भेद से आत्मा सर्वगत भी है, आत्मा जड़ भी है ऐसा जानो, आत्मा को देह के बराबर भी मानो, आत्मा को शून्य भी जानो । नय-विभाग से मानने में कोई दोष नहीं है, ऐसा तात्पर्य है ॥५१॥

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+ आत्मा का सर्वव्यापक स्वरूप -
अप्पा कम्म - विवज्जियउ केवल-णाणेँ जेण
लोयालोउ वि मुणइ जिय सव्वगु वुच्चइ तेण ॥52॥
आत्मा कर्मविवर्जितः केवलज्ञानेन येन ।
लोकालोकमपि मनुते जीव सर्वगः उच्यते तेन ॥५२॥
अन्वयार्थ : [आत्मा कर्मविवर्जितः] आत्मा कर्म-रहित हुआ [केवलज्ञानेन येन] केवलज्ञान से जिस कारण [लोकालोकमपि मनुते] लोक और अलोक को जानता है [तेन जीव] इसीलिये जीव को [सर्वगः उच्यते] सर्वगत कहा है ।

श्रीब्रह्मदेव :
यह आत्मा व्यवहारनय से केवलज्ञान द्वारा लोक-अलोक को जानता है, और शरीर में रहने पर भी निश्चयनय से अपने स्वरूप को जानता है, इस कारण ज्ञान की अपेक्षा तो व्यवहारनय से सर्वगत है, प्रदेशों की अपेक्षा नहीं है । जैसे रूपवाले पदार्थों को नेत्र देखते हैं, परंतु उन पदार्थों से तन्मय नहीं होते, उसरूप नहीं होते हैं ।

यहाँ कोई प्रश्न करता है, कि जो व्यवहारनय से लोकालोक को जानता है, और निश्चयनय से नहीं, तो व्यवहार से सर्वज्ञपना हुआ, निश्चयनय से न हुआ ?

उसका समाधान करते हैं - जैसे अपनी आत्मा को तन्मयी होकर जानता है, उस तरह पर-द्रव्य को तन्मयीपने से नहीं जानता, भिन्न-स्वरूप जानता है, इस कारण व्यवहारनय से कहा, कुछ ज्ञान के अभाव से नहीं कहा । ज्ञान से जानना तो निज और पर का समान है । जैसे अपने को सन्देह रहित जानता है, वैसा ही पर को भी जानता है, इसमें सन्देह नहीं समझना, लेकिन निज स्वरूप से तो तन्मयी है, और पर से तन्मयी नहीं । और जिस तरह निज को तन्मयी होकर निश्चयसे जानता है, उसी तरह यदि पर को भी तन्मय होकर जाने, तो पर के सुख, दुःख, राग, द्वेष के ज्ञान होने पर सुखी, दुःखी, रागी, द्वेषी हो, यह बड़ा दूषण है ।सो इस प्रकार कभी नहीं हो सकता । यहाँ जिस ज्ञान से सर्वव्यापक कहा, वही ज्ञान उपादेय अतीन्द्रिय सुख से अभिन्न है, सुखरूप है, ज्ञान और आनन्द में भेद नहीं है, वही ज्ञान उपादेय है, यह अभिप्राय जानना । इस दोहा में जीव को ज्ञान की अपेक्षा सर्वगत कहा है ॥५२॥

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+ आत्मा का जड स्वरूप -
जे णिय-बोह -परिट्ठियहँ जीवहँ तुट्टइ णाणु
इंदिय-जणियउ जोइया तिं जिउ जडु वि वियाणु ॥53॥
येन निजबोधप्रतिष्ठितानां जीवानां त्रुटयति ज्ञानम् ।
इन्द्रियजनितं योगिन् तेन जीवं जडमपि विजानीहि ॥५३॥
अन्वयार्थ : [येन निजबोधप्रतिष्ठितानां जीवानां] चूंकि आत्म-ज्ञान में ठहरे हुए (केवालज्ञानी) जीवों के [इन्द्रियजनितं ज्ञानम्] इन्द्रिय-जनित ज्ञान [त्रुटयति हे योगिन्] नष्ट हो जाता है, हे योगी, [तेन जीवं जडमपि विजानीहि] उसी कारण से जीव को जड़ भी जानो ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे आत्म-ज्ञान को पाकर इन्द्रिय-ज्ञान नाश को प्राप्त होता है, परमसमाधि में आत्म-स्वरूप में लीन है, पर-वस्तु की गम्य नहीं है, इसलिये नयप्रमाण से जड़ भी है, परन्तु

ज्ञानाभावरूप जड़ नहीं है, चैतन्यरूप ही है, अपेक्षा से जड़ कहा जाता है, यह अभिप्राय मन में रखकर गाथा-सूत्र कहते हैं -

जिस अपेक्षा आत्म-ज्ञान में ठहरे हुए जीवों के इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ ज्ञान नाश को प्राप्त होता है, हे योगी, उसी कारण से जीव को जड़ भी जानो । महामुनियों के वीतराग-निर्विकल्प समाधि के समय में स्व-संवेदनज्ञान होने पर भी इन्द्रिय-जनित ज्ञान नहीं है, और केवलज्ञानियों के तो किसी समय भी इन्द्रियज्ञान नहीं है, केवल अतीन्द्रिय ज्ञान ही है, इसलिये

इन्द्रिय-ज्ञान के अभाव की अपेक्षा आत्मा जड़ भी कहा जा सकता है । यहाँ पर बाह्य इन्द्रिय-ज्ञान सब तरह हेय है और अतीन्द्रिय ज्ञान उपादेय है, यह सारांश हुआ ॥५३॥

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+ आत्मा का चरम शरीर प्रमाणरूप स्वरूप -
कारण - विरहिउ सुद्ध-जिउ वड्ढइ खिरइ ण जेण
चरम-सरीर-पमाणु जिउ जिणवर बोल्लहिं तेण ॥54॥
कारणविरहितः शुद्धजीवः वर्धते क्षरति न येन ।
चरमशरीरप्रमाणं जीवं जिनवराः ब्रुवन्ति तेन ॥५४॥
अन्वयार्थ : [येन कारणविरहितः] जिस हेतु कारण के अभाव में [शुद्धजीवः न वर्धते क्षरति] शुद्ध-जीव न तो बढ़ता है, और न घटता है, [तेन जिनवराः] इसी कारण जिनेन्द्रदेव [जीवं चरमशरीरप्रमाणं ब्रुवन्ति] जीव को चरम-शरीर-प्रमाण कहते हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे शरीर नामकर्मरूप कारण से रहित यह जीव न घटता है, और न बढ़ता है, इस कारण मुक्त -अवस्था में चरम-शरीर से कुछ कम पुरुषाकार रहता है, इसलिये शरीर-प्रमाण भी कहा जाता है, ऐसा कहते हैं -

यद्यपि संसार अवस्था में हानि-वृद्धि का कारण शरीरनामा नामकर्म है,उसके संबंध से जीव घटता है, और बढ़ता है; जब महा-मच्छ का शरीर पाता है, तब तो शरीर की वृद्धि होती है, और जब निगोदिया शरीर धारता है, तब घट जाता है और मुक्त अवस्था में हानि-वृद्धि का कारण जो नाम-कर्म उसका अभाव होने से जीव के प्रदेश न तो सिकुड़ते हैं, न फैलते हैं, किन्तु चरम-शरीर से कुछ कम पुरुषाकार ही रहते हैं, इसलिये शरीर-प्रमाण हैं, यह निश्चय हुआ ।

प्रश्न – जब तक दीपक के आवरण है, तब तक तो प्रकाश नहीं हो सकता, और जब उसके रोकनेवाले का अभाव हुआ, तब प्रकाश विस्तृत होकर फैल जाता है, उसी प्रकार मुक्त-अवस्था में आवरण का अभाव होने से आत्मा के प्रदेश लोक-प्रमाण फैलने चाहिये, शरीर-प्रमाण ही क्यों रह गये ?

समाधान – दीपक के प्रकाश का जो विस्तार है, वह स्वभाव से होता है, पर से नहीं उत्पन्न हुआ, पीछे भाजन आदि से अथवा दूसरे आवरण से आच्छादन किया गया, तब वह प्रकाश संकोच को प्राप्त हो जाता है, जब आवरण का अभाव होता है, तब प्रकाश विस्ताररूप हो जाता है, इसमें संदेह नहीं और जीव का प्रकाश अनादिकाल से कर्मों से ढंका हुआ है, पहले कभी विस्ताररूप नहीं हुआ । शरीर-प्रमाण ही संकोचरूप और विस्ताररूप हुआ, इसलिये जीव के प्रदेशों का प्रकाश संकोच विस्ताररूप शरीरनामकर्म से उत्पन्न हुआ है, इस कारण सूखी-मिट्टी के बर्तन की तरह कारण के अभाव से संकोच-विस्ताररूप नहीं होता, शरीर-प्रमाण ही रहता है, अर्थात् जबतक मिट्टी का बर्तन जल से गीला रहता है, तबतक जल के सम्बन्ध से वह घट बढ़ जाता है, और जब जल का अभाव हुआ, तब बर्तन सूख जाने से घटता बढ़ता नहीं है - जैसे का तैसा रहता है । उसी तरह इस जीव के जबतक नामकर्म का संबंध है, तबतक संसार-अवस्था में शरीर की हानि-वृद्धि होती है, उसकी हानि-वृद्धि से प्रदेश सिकुड़ते हैं और फैलते हैं । तथा सिद्ध-अवस्था में नामकर्म का अभाव हो जाता है, इसकारण शरीर के न होने से प्रदेशों का संकोच विस्तार नहीं होता, सदा एक से ही रहते हैं । जिस शरीर से मुक्त हुआ, उसी प्रमाण कुछ कम रहता है । दीपक का प्रकाश तो स्वभाव से उत्पन्न है, इससे आवरण से आच्छादित हो जाता है । जब आवरण दूर हो जाता है, तब प्रकाश सहज ही विस्तरता है ।

यहाँ तात्पर्य है, कि जो शुद्ध बुद्ध (ज्ञान) स्वभाव परमात्मा मुक्ति में तिष्ठ रहा है, वैसा ही शरीर में भी विराज रहा है । जब राग का अभाव होता है, उस काल में यह आत्मा परमात्मा के समान है, वही उपादेय है ॥५४॥

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+ आत्मा के शून्य स्वरूप का कथन -
अट्ठ वि कम्मइँ बहुविहइँ णवणव दोस वि जेण
सुद्धहँ एक्कुवि अत्थि णवि सुण्णु वि वुच्चइ तेण ॥55॥
अष्टावपि कर्माणि बहुविधानि नवनव दोषा अपि येन ।
शुद्धानां एकोऽपि अस्ति नैव शून्योऽपि उच्यते तेन ॥५५॥
अन्वयार्थ : [येन अष्टौ अपि] जिस कारण आठों ही [बहुविधानि कर्माणि]अनेक भेदोंवाले कर्म [नवनव दोषा अपि एकः अपि] अठारह ही दोष इनमें से एक भी [शुद्धानां नैव अस्ति] शुद्धात्माओं में नहीं है, [तेन शून्योऽपि भण्यते] इसलिये शून्य भी कहा जाता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे आठ कर्म और अठारह दोषों से रहित हुआ विभाव-भावों से रहित होने से शून्य कहा जाता है, लेकिन केवलज्ञानादि गुण की अपेक्षा शून्य नहीं है, सदा पूर्ण ही है, ऐसा दिखलाते हैं -

इस आत्मा के शुद्ध-निश्चयनय से ज्ञानावरणादि आठ द्रव्य-कर्म नहीं है, क्षुधादि दोषों के कारणभूत कर्मों के नाश हो जाने से क्षुधा-तृषादि अठारह दोष कार्यरूप नहीं हैं, और अपि शब्द से सत्ता चैतन्य ज्ञान आनंदादि शुद्ध प्राण होने पर भी इन्द्रियादि दश अशुद्धरूप प्राण नहीं हैं, इसलिये संसारी-जीवों के भी शुद्ध-निश्चयनय से शक्तिरूप से शुद्धपना है, लेकिन रागादि विभाव-भावों की शून्यता ही है । तथा सिद्ध-जीवों के तो सब तरह से प्रगटरूप रागादि से रहितपना है, इसलिये विभावों से रहितपने की अपेक्षा शून्यभाव है, इसी अपेक्षा से आत्मा को शून्य भी कहते हैं । ज्ञानादिक शुद्ध भाव की अपेक्षा सदा पूर्ण ही है, और जिस तरह बौद्धमती सर्वथा शून्य मानते हैं, वैसा अनंतज्ञानादि गुणों से कभी नहीं हो सकता । ऐसा कथन श्रीपंचास्तिकाय में भी किया है - 'जेसिं जीवसहावो..' इत्यादि । इसका अभिप्राय यह है, कि जिन सिद्धों के जीव का स्वभाव निश्चल है, जिस स्वभाव का सर्वथा अभाव नहीं है, वे सिद्ध-भगवान् देह से रहित हैं, और वचन के विषय से रहित हैं, अर्थात् जिनका स्वभाव वचनों से नहीं कह सकते ।

यहाँ मिथ्यात्व रागादिभाव से शून्य तथा एक चिदानंद-स्वभाव से पूर्ण जो परमात्मा कहा गया है, अर्थात् विभाव से शून्य स्वभाव से पूर्ण कहा गया है, वही उपादेय है, ऐसा तात्पर्य हुआ ॥५५॥

ऐसे जिसमें तीन प्रकार की आत्मा का कथन है, ऐसे पहले महाधिकार में जो ज्ञान कीअपेक्षा व्यवहानय से लोकलोक-व्यापक कहा गया, वही परमात्मा निश्चयनय से असंख्यात-प्रदेशी है, तो भी अपनी देह के प्रमाण रहता है, इस व्याख्यान की मुख्यतासे छह दोहा-सूत्र कहे गये ।

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+ आत्मा के लक्षण -
अप्पा जणियउ केण ण वि अप्पेँ जणिउ ण कोइ
दव्व-सहावेँ णिच्चु मुणि पज्जउ विणसइ होइ ॥56॥
आत्मा जनितः केन नापि आत्मना जनितं न किमपि ।
द्रव्यस्वभावेन नित्यं मन्यस्व पर्यायः विनश्यति भवति ॥५६॥
अन्वयार्थ : [आत्मा केन अपि न जनितं] आत्मा किसी से भी उत्पन्न नहीं हुआ, [आत्मना जनितं न किमपि] और आत्मा से कोई द्रव्य उत्पन्न नहीं हुआ, [द्रव्यस्वभावेन नित्यं मन्यस्व] द्रव्य-स्वभाव को नित्य जानो, [पर्यायः विनश्यति भवति] पर्याय नष्ट होती है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे द्रव्य, गुण, पर्याय के कथन की मुख्यता से तीन दोहे कहते हैं -

यह संसारी-जीव यद्यपि व्यवहारनय से शुद्धात्मज्ञान के अभाव से उपार्जन किये ज्ञानावरणादि शुभाशुभ कर्मों के निमित्त से नर-नारकादि पर्यायों से उत्पन्न होता है, और विनसता है, और आप भी शुद्धात्मज्ञान से रहित हुआ कर्मों को उपजाता (बाँधता) है, तो भी शुद्धनिश्चयनय से शक्तिरूप शुद्ध ही है, कर्मों से उत्पन्न हुई नर-नारकादि पर्यायरूप नहीं होता, और आप भी कर्म-नोकर्मादिक को नहीं उपजाता और व्यवहार से भी न जन्मता है, न किसी से विनाश को प्राप्त होता है, न किसी को उपजाता है, कारण-कार्य से रहित है अर्थात् कारण

उपजानेवाले को कहते हैं । कार्य उपजनेवाले को कहते हैं । सो ये दोनों भाव वस्तु में नहीं हैं, इससे द्रव्यार्थिकनय से जीव नित्य है, और पर्यायार्थिकनय से उत्पन्न होता है, तथा विनाश को

प्राप्त होता है ।

प्रश्न – संसारी जीवों के तो नर-नारकी आदि पर्यायों कीअपेक्षा उत्पत्ति और मरण प्रत्यक्ष दिखता है, परन्तु सिद्धों के उत्पाद, व्यय, किस तरह हो सकता है ? क्योंकि उनके विभाव-पर्याय नहीं है, स्वभाव-पर्याय ही है, और वे सदा अखंड अविनश्वर ही हैं ।

समाधान – जैसा उत्पन्न होना, मरना, चारों गतियों में संसारी जीवों केहै, वैसा तो उन सिद्धों के नहीं है, वे अविनाशी हैं, परन्तु शास्त्रों में प्रसिद्ध अगुरुलघु-गुण की परिणतिरूप अर्थ-पर्याय है, वह समय-समय में आविर्भाव-तिरोभावरूप होती है । अर्थात् समय में पूर्व-परिणति का व्यय होता है और आगे की पर्याय का आविर्भाव (उत्पाद) होता है । इसअर्थ-पर्याय की अपेक्षा उत्पाद-व्यय जानना, अन्य संसारी-जीवों की तरह नहीं है । सिद्धों के एक तो अर्थ-पर्याय की अपेक्षा उत्पाद-व्यय कहा है । अर्थ-पर्याय में षट्गुणी हानि और वृद्धि होती है ।१ अनंतभागवृद्धि , २ असंख्यातभागवृद्धि, ३ संख्यातभागवृद्धि, ४ संख्यातगुणवृद्धि, ५ असंख्यातगुणवृद्धि, ६ अनंतगुणवृद्धि । १ अनंतभागहानि, २ असंख्यातभागहानि, ३ संख्यातभागहानि, ४ असंख्यातगुणहानि, ५ असंख्यातगुणहानि, ६ अनंतगुणहानि । ये षट्गुणीहानि-वृद्धि के नाम कहे हैं । इनका स्वरूप तो केवली के गम्य है, सो इस षट्गुणी हानि-वृद्धि की अपेक्षा सिद्धों के उत्पाद-व्यय कहा जाता है । अथवा समस्त ज्ञेय-पदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप परिणमते हैं, सो सब पदार्थ सिद्धों के ज्ञान-गोचर हैं । ज्ञेयाकार ज्ञान की परिणति है, सो जब ज्ञेय-पदार्थ में उत्पाद-व्यय हुआ, तब ज्ञान में सब प्रतिभासित हुआ, इसलिये ज्ञान की परिणति की अपेक्षा उत्पाद-व्यय जानना । अथवा जब सिद्ध हुए, तब संसार-पर्यायका विनाश हुआ, सिद्ध-पर्याय का उत्पाद हुआ, तथा द्रव्य स्वभाव से सदा ध्रुव ही हैं । सिद्धों के जन्म, जरा, मरण नहीं हैं, सदा अविनाशी हैं । सिद्ध का स्वरूप सब उपाधियों से रहित है, वही उपादेय है, यह भावार्थ जानना ॥५६॥

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+ आत्मा के लक्षण का स्पष्टीकरण -
तं परियाणहि दव्वु तुहुँ जं गुण-पज्जय-जुत्तु
सह-भुव जाणहि ताहँ गुण कम-भुव पज्जउ वुत्तु ॥57॥
तं परिजानाहि द्रव्यं त्वं यत् गुणपर्याययुक्तम् ।
सहभुवः जानीहि तेषां गुणाः क्रमभुवः पर्यायाः उक्ताः ॥५७॥
अन्वयार्थ : [यत् गुणपर्याययुक्तं] जो गुण और पर्यायों से सहित है, [तत् त्वं द्रव्यं परिजानिहि] उसको तू द्रव्य जान, [सहभुवः तेषां गुणाः] सदा साथ हों उन्हें गुण, [क्रमभुवः पर्यायाः उक्ताः] और जो क्रम से हों उन्हें पर्याय कहा है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे द्रव्य, गुण, पर्याय का स्वरूप कहते हैं -

जो द्रव्य होता है, वह गुण-पर्याय से सहित होता है । यही कथन तत्त्वार्थसूत्र में कहा है 'गुणपर्यायवद्द्रव्यं' । अब गुण-पर्याय का स्वरूप कहते हैं - 'सहभुवोगुणाः क्रमभुवः पर्यायाः' यह नयचक्र ग्रंथ का वचन है, अथवा 'अन्वयिनो गुणाव्यतिरेकिणः पर्यायाः' इनका अर्थ ऐसा है, कि गुण तो सदा द्रव्य से सहभावी हैं, द्रव्य में हमेशा एकरूप नित्यरूप पाये जाते हैं, और पर्याय नानारूप होती हैं, जो परिणति पहले समय में थी, वह दूसरे समय में नहीं होती, समय-समय में उत्पाद व्ययरूप होता है, इसलिये पर्याय क्रमवर्ती कहा जाता है ।

अब इसका विस्तार कहते हैं - जीव द्रव्य के ज्ञान आदि अर्थात् ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, आदि अनंत गुण हैं, और पुद्गल-द्रव्य के स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, इत्यादि अनंतगुण हैं, सो ये गुण तो द्रव्य में सहभावी हैं, अन्वयी हैं, सदा नित्य हैं, कभी द्रव्य से तन्मयपना नहीं छोड़ते । तथा पर्याय के दो भेद हैं - एक तो स्वभाव दूसरी विभाव । जीव के सिद्धत्वादि स्वभाव-पर्याय हैं, और केवलज्ञानादि स्वभाव-गुण हैं । ये तो जीव में ही पाये जाते हैं, अन्य द्रव्य में नहीं पाये जाते । तथा अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व, ये स्वभावगुण सब द्रव्यों में पाये जाते हैं । अगुरुलघु गुण का परिणमन षट्गुणी हानि-वृद्धिरूप है । यह स्वभाव-पर्याय सभी द्रव्यों में हैं, कोई द्रव्य षट्गुणी हानि-वृद्धि बिना नहीं है, यही अर्थ-पर्याय कही जाती हैं, वह शुद्ध पर्याय है । यह शुद्ध पर्याय संसारीजीवों के सब अजीव-पदार्थों के तथा सिद्धोंके पायी जाती है, और सिद्ध-पर्याय तथा केवलज्ञानादि गुण सिद्धों के ही पाया जाता है, दूसरोंके नहीं । संसारी-जीवों के मतिज्ञानादि विभावगुण और नर-नारकी आदि विभाव-पर्याय ये संसारी-जीवों के पायी जाती हैं । ये तो जीव-द्रव्य के गुण-पर्याय कहे और पुद्गल के परमाणुरूप तो द्रव्य तथा वर्ण आदि स्वभावगुण और एक वर्ण से दूसरे वर्णरूप होना, ये विभावगुण व्यंजन-पर्याय तथा एक परमाणु में जो तीन इत्यादि अनेक परमाणु मिलकर स्कंधरूप होना, ये विभाव-द्रव्य व्यंजन-पर्याय हैं । द्वयणुकादि स्कंध में जो वर्ण आदि हैं, वे विभावगुण कहे जाते हैं, और वर्ण से वर्णान्तर होना, रस से रसान्तर होना, गंध से अन्य गंध होना, यह विभाव-पर्याय हैं । परमाणु शुद्ध द्रव्य में एक वर्ण, एक रस, एक गन्ध और शीत उष्ण में से एक तथा रूखे-चिकने में से एक, ऐसे दो स्पर्श, इस तरह पाँच गुण तो मुख्य हैं, इनको आदि से अस्तित्वादि अनंतगुण हैं, वे स्वभाव-गुण कहे जाते हैं, और परमाणु का जो आकार वह स्वभाव-द्रव्य व्यंजन-पर्याय है, तथा वर्णादि गुणरूप परिणमन वह स्वभाव-गुण व्यंजन-पर्याय है । जीव और पुद्गल इन दोनों में तो स्वभाव और विभाव दोनों हैं, तथा धर्म,अधर्म, आकाश, काल, इन चारों में अस्तित्वादि स्वभाव-गुण ही हैं, और अर्थ-पर्याय षट्गुणी हानि-वृद्धिरूप स्वभाव-पर्याय सभी के हैं । धर्मादि चार पदार्थों के विभावगुण-पर्याय नहीं हैं । आकाश के घटाकाश मठाकाश इत्यादि की जो कहावत है, वह उपचारमात्र है ।

ये षट्द्रव्यों के गुण-पर्याय कहे गये हैं । इन षट् द्रव्यों में जो शुद्ध गुण, शुद्ध पर्याय सहित जो शुद्धजीव द्रव्य है, वही उपादेय है, आराधने योग्य है ॥५७॥

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+ आत्मा द्रव्य और उसके गुण -
अप्पा बुज्झहि दव्वु तुहुँ गुण पुणु दंसणु णाणु
पज्जय चउ-गइ-भाव तणु कम्म-विणिम्मिय जाणु ॥58॥
आत्मानं बुध्यस्व द्रव्यं त्वं गुणौ पुनः दर्शनं ज्ञानम् ।
पर्यायान् चतुर्गतिभावान् तनुं कर्मविनिर्मितान् जानीहि ॥५८॥
अन्वयार्थ : [त्वं आत्मानं द्रव्यं] तू आत्मा को द्रव्य, [पुनः दर्शनं ज्ञानम् गुणौ बुध्यस्व] और दर्शन ज्ञान को गुण जान, [चतुर्गतिभावान् तनुं] चार गतियों के भाव तथा शरीर को [कर्मविनिर्मितान् पर्यायान् जानीहि] कर्म-जनित पर्याय समझ ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जीव के विशेषपने से द्रव्य-गुण-पर्याय कहते हैं -

इसका विशेष व्याख्यान करते हैं - शुद्ध-निश्चयनय से शुद्ध, बुद्ध, अखंड, स्वभाव, आत्मा को तू द्रव्य जान, चेतनपने के सामान्य स्वभाव को दर्शन जान, और विशेषता से जानपना, उसको ज्ञान समझ । ये दर्शन-ज्ञान आत्मा के निज-गुण है, उनमें से ज्ञान के आठ भेद हैं, उनमें केवलज्ञान तो पूर्ण है, अखंड है, शुद्ध है, तथा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान ये चार ज्ञान तो सम्यक्ज्ञान और कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ये तीन मिथ्या ज्ञान, ये केवल की अपेक्षा सातों ही खंडित हैं, अखंड, और सर्वथा शुद्ध नहीं है, अशुद्धता सहित हैं, इसलिये परमात्मा में एक केवलज्ञान ही है ।

पुद्गल में अमूर्तगुण नहीं पाये जाते, इस कारण पाँचों की अपेक्षा साधारण, पुद्गलकी अपेक्षा असाधारण । प्रदेश गुण काल के बिना पाँच द्रव्यों में पाया जाता है, इसलिये पाँच की अपेक्षा यह प्रदेशगुण साधारण है, और काल में न पाये जाने से काल की अपेक्षा असाधारण है । पुद्गल-द्रव्य में मूर्तीक-गुण असाधारण है, इसी में पाया जाता है, अन्य में नहीं और अस्तित्वादि गुण इसमें पाये जाते हैं, तथा अन्य में भी, इसलिये साधारण गुण हैं । चेतनपना पुद्गल में सर्वथा नहीं पाया जाता । पुद्गल-परमाणु को द्रव्य कहते हैं । स्पर्श, रस, गंध, वर्ण स्वरूप जो मूर्ति वह पुद्गल का विशेष गुण है । अन्य सब द्रव्यों में जो उनका स्वरूप है, वह द्रव्य है, और अस्तित्वादि गुण, तथा स्वभाव परिणति पर्याय है । जीव और पुद्गलके बिना अन्य चार द्रव्यों में विभाव-गुण और विभाव-पर्याय नहीं है, तथा जीव पुद्गल में स्वभाव-विभाव दोनों हैं । उनमें से सिद्धों में तो स्वभाव ही है, और संसारी में विभाव की मुख्यता है । पुद्गल परमाणु में स्वभाव ही है, और स्कंध विभाव ही है । इस तरह छहों द्रव्यों का संक्षेप से व्याख्यान जानना ॥५८॥

ऐसे तीन प्रकार की आत्माका है कथन जिसमें ऐसे पहले महाधिकार में द्रव्य-गुण-पर्याय के व्याख्यान की मुख्यता से सातवें स्थल में तीन दोहा-सूत्र कहे । आगे आदर करने योग्य अतीन्द्रिय-सुख से तन्मयी जो निर्विकल्पभाव उसकी प्राप्ति के लिए शुद्ध गुण-पर्याय के व्याख्यान की मुख्यता से आठ दोहा कहते हैं । इनमें पहले चार दोहों में अनादि कर्म-सम्बन्ध का व्याख्यान और पिछले चार दोहों में कर्म के फल का व्याख्यान इस प्रकार आठ दोहों का रहस्य है ।

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+ आत्मा और कर्म का परष्पर सम्बन्ध -
जीवहँ कम्मु अणाइ जिय जणियउ कम्मु ण तेण
कम्मेँ जीउ वि जणिउ णवि दोहिँ वि आइ ण जेण ॥59॥
जीवानां कर्माणि अनादीनि जीव जनितं कर्म न तेन ।
कर्मणा जीवोऽपि जनितः नैव द्वयोरपि आदिः न येन ॥५९॥
अन्वयार्थ : [हे जीव] हे आत्मा [जीवानां कर्माणि] जीवों के कर्म [अनादीनि] अनादि काल से हैं, [तेन कर्म न जनितं] उस जीव ने कर्म नहीं उत्पन्न किये, [कर्मणा अपि जीवः नैव जनितः] कर्मों ने भी जीव नहीं उपजाया, [येन द्वयोःअपि] क्योंकि दोनों का ही [आदिः न] आदि नहीं है ।

श्रीब्रह्मदेव :
प्रथम ही जीव और कर्म का अनादिकाल का सम्बन्ध है, ऐसा कहते हैं -

यद्यपि जीव व्यवहारनय से पर्यायों के समूह की अपेक्षा नये-नये कर्म समय-समय बाँधता है, नये-नये उपार्जन करता है, जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज होता है, उसी तरह पहले बीजरूप कर्मों से देह धारता है, देह में नये-नये कर्मों को विस्तारता है, यह तो बीज से वृक्ष हुआ । इसी प्रकार जन्म-सन्तान चली जाती है । परन्तु शुद्ध-निश्चयनय से विचारा जावे, तो जीव निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव ही है । जीव ने ये कर्म न तो उत्पन्न किये, और यह जीव भी इन कर्मों ने नहीं पैदा किया । जीव भी अनादिका है, ये पुद्गल-स्कंध भी अनादि के हैं, जीव और कर्म नये नहीं है, जीव अनादि का कर्मों से बँधा है । और कर्मों के क्षय से मुक्त होता है । इस व्याख्यानसे जो कोई ऐसा कहते हैं, कि आत्मा सदा मुक्त है, कर्मों से रहित है, उनका निराकरण (खंडन) किया । ये वृथा कहते हैं, ऐसा तात्पर्य है ।

ऐसा दूसरी जगह भी कहा है - 'मुक्तश्चेत्..' इत्यादि । इसका अर्थ यह है, कि जो यह जीव पहले बँधा हुआ हो, तभी 'मुक्त' ऐसा कथन संभवता है, और पहले बँधा ही नहीं तो फिर 'मुक्त' ऐसा कहना किस तरह ठीक हो सकता । मुक्त तो छूटे हुए का नाम है, सो जब बँधा ही नहीं,तो फिर 'छूटा' किस तरह कहा जा सकता है । जो अबंध है, उसको छूटा कहना ठीक नहीं । जो बिना बंध मुक्ति मानते हैं, उनका कथन निरर्थक है । जो यह अनादि का मुक्त ही हो, तो पीछे बंध कैसे सम्भव हो सकता है । बंध होवे तभी मोचन छुटकारा हो सके । जो बंध न हो तो मुक्त कहना निरर्थक है ॥५९॥

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+ सभी जीवों का प्राण कर्म -
एहु ववहारेँ जीवउउ हेउ लहेविणु कम्मु
बहुविह-भावेँ परिणवइ तेण जि धम्मु-अहम्मु ॥60॥
एष व्यवहारेण जीवः हेतुं लब्ध्वा कर्म ।
बहुविधभावेन परिणमति तेन एव धर्मः अधर्मः ॥६०॥
अन्वयार्थ : [एष जीवः व्यवहारेण] यह जीव उपचार से [कर्म हेतुं लब्ध्वा] कर्मरूप कारण को पाकर [बहुविधभावेन परिणमित] अनेक विकल्परूप परिणमता है । [तेन एव धर्मः अधर्मः] इसी से पुण्य और पाप रूप होता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे व्यवहारनय से यह जीव पुण्य-पापरूप होता है, ऐसा कहते हैं -

यह जीव शुद्ध निश्चयनय से वीतराग चिदानन्द स्वभाव है, तो भी व्यवहारनय से वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञान के अभाव से रागादिरूप परिणमने से उपार्जन किये शुभ-अशुभ कर्मों के कारण को पाकर पुण्य तथा पाप होता है । यद्यपि यह व्यवहारनय से पुण्य-पापरूप है, तो भी परमात्मा की अनुभूति से तन्मयी जो वीतराग सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और बाह्य पदार्थों में इच्छा के रोकनेरूप तप, ये चार निश्चय-आराधना हैं, उनकी भावना के समय साक्षात् उपादेयरूप वीतराग परमानन्द जो मोक्ष का सुख उससे अभिन्न आनंदमयी ऐसा निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, अन्य सब हेय हैं ॥६०॥

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+ कर्म के कारण जीव को स्वभाव-लाभ नहीं -
ते पुणु जीवहँ जोइया अट्ठ वि कम्म हवंति ।
जेहिँ जि झंपिय जीव णवि अप्प-सहाउ लहंति ॥61॥
तानि पुनः जीवानां योगिन् अष्टौ अपि कर्माणि भवन्ति ।
यैः एव झंपिताः जीवाः नैव आत्मस्वभावं लभन्ते ॥६१॥
अन्वयार्थ : [योगिन्] हे योगी, [तानि पुनः कर्माणि] वे फिर कर्म [जीवानांअष्टौ अपि] जीवों के आठ ही [भवन्ति] होते हैं, [यैः एव झंपिताः] जिन कर्मों से ही आच्छादित (ढँके हुए) [जीवाः] ये जीव [आत्मस्वभावं] अपने सम्यक्त्वादि आठ गुणरूप स्वभाव को [नैव लभन्ते] नहीं पाते ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे कहते हैं, वे कर्म आठ हैं -

अब उन्हीं आठ गुणों का व्याख्यान करते हैं 'सम्मत्त' इत्यादि - इसका अर्थ ऐसा है, कि शुद्ध आत्मादि पदार्थों में विपरीत श्रद्धान रहित जो परिणाम, उसको क्षायिक-सम्यक्त्व कहते हैं, तीन लोक तीन कालके पदार्थोंको एक ही समयमें विशेषरूप सबको जानें, वह केवलज्ञान है, सब पदार्थों को केवलदृष्टि से एक ही समय में देखे, वह केवल-दर्शन है । उसी केवल-ज्ञान में अनंतज्ञायक (जानने की) शक्ति वह अनंतवीर्य है, अतीन्द्रिय-ज्ञान से अमूर्तिक सूक्ष्म-पदार्थों को जानना, आप चार ज्ञान के धारियों से न जाना जावे वह सूक्ष्मत्व हैं, एक जीव के अवगाह क्षेत्रमें (जगह में) अनंते जीव समा जावें, ऐसी अवकाश देने की सामर्थ्य वह अवगाहना गुण है, सर्वथा गुरुता और लघुता का अभाव अर्थात् न गुरु न लघु, उसे अगुरुलघु कहते हैं, और वेदनीयकर्म के उदय के अभाव से उत्पन्न हुआ समस्त बाधा-रहित जो निराबाधगुण उसे अव्याबाध कहते हैं । ये सम्यक्त्वादि आठ गुण जो सिद्धों के हैं, वे संसारावस्था में किस-किस कर्म से ढँके हुए हैं, इसे कहते हैं - इस प्रकार आठ गुण आठ कर्मों से ढंक गये, इसलिये यह जीव संसार में भ्रमा । जब कर्म का आवरण मिट जाता है, तब सिद्धपद में ये आठ गुण प्रकट होते हैं । यह संक्षेप से आठ गुणों का कथन किया । विशेषतासे अमूर्तत्व निर्नाम गोत्रादिक अनंतगुण यथासम्भव शास्त्र-प्रमाण से जानने । तात्पर्य यह है, कि सम्यक्त्वादि निज शुद्ध गुण-स्वरूप जो शुद्धात्मा है, वही उपादेयहै ॥६१॥

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+ विषय-कषायों में लिप्तता से कर्म-बंध -
विसय-कसायहिँ रंगियहँ ते अणुया लग्गंति ।
जीव-पएसेहँ मोहियहँ ते जिण कम्म भणंति ॥62॥
विषयकषायैः रञ्जितानां ये अणवः लगन्ति ।
जीवप्रदेशेषु मोहितानां तान् जिनाः कर्म भणन्ति ॥६२॥
अन्वयार्थ : [विषयकषायैः रञ्जितानां] विषय-कषायों में लिप्त [मोहितानां] मोही जीवों के [जीवप्रदेशेषु] जीव के प्रदेशों में [ये अणवः लगंति] जो परमाणु लगते (बँधते) हैं, [तान्] उन्हे (उन स्कंधों को) [जिनाः कर्म भणंति] जिनेन्द्रदेव कर्म कहते हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे विषय-कषायों में लीन जीवों के जो कर्म-परमाणुओं के समूह बँधते हैं, वे कर्म कहे जाते हैं, ऐसा कहते हैं -

शुद्ध-आत्मा की अनुभूति से भिन्न जो विषय-कषाय, उनसे रँगे हुए, आत्म-ज्ञान के अभाव से उपार्जन किये हुए मोह-कर्म के उदय द्वारा परिणत हुए, ऐसे रागी, द्वेषी, मोही, संसारी जीवों के कर्मवर्गणा योग्य जो पुद्गल-स्कंध हैं, वे ज्ञानावरणादि आठ प्रकार कर्मरूप होकर परिणमते हैं । जैसे तेल से शरीर चिकना होता है, और धूलि लगकर मैलरूप होके परिणमती है, वैसे ही रागी, द्वेषी, मोही, जीवों के विषय-कषाय-दशा में पुद्गलवर्गणा कर्मरूप होके परिणमती हैं । जो कर्मों का उपार्जन करते हैं, वही जब वीतराग निर्विकल्प समाधि के समय कर्मोंका क्षय करते हैं, तब आराधने योग्य हैं, यह तात्पर्य हुआ ॥६२॥

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+ इन्द्रियाँ, मन, समस्त विभाव, दुःख कर्म-जनित -
पंच वि इंदिय अण्णु मणु अण्णु वि सयल-विभाव ।
जीवहँ कम्मइँ जणिय जिय अण्णु वि चउगइ-ताव ॥63॥
पञ्चापि इन्द्रियाणि अन्यत् मनः अन्यदपि सकलविभावः ।
जीवानां कर्मणा जनिताः जीव अन्यदपि चतुर्गतितापाः ॥६२॥
अन्वयार्थ : [पंचापि इन्द्रियाणि अन्यत्] पाँचों ही इन्द्रियाँ भिन्न हैं, [मनः अपि सकलविभावः] मन और समस्त विभाव परिणाम [अन्यत्] अन्य हैं, [चतुर्गतितापाः अपि] तथा चारों गतियों के दुःख भी [अन्यत्] अन्य हैं, [जीव] हे जीव, ये सब [जीवानां] जीवों के [कर्मणा जनिताः] कर्म-जनित हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
इसप्रकार कर्मस्वरूप के कथन की मुख्यता से चार दोहे कहे । आगे पाँच इन्द्रिय, मन, समस्त विभाव और चार गति के दुःख ये सब शुद्ध निश्चयनय से कर्म से उपजे हैं, जीव के नहीं हैं, यह अभिप्राय मन में रखकर दोहा-सूत्र कहते हैं -

इन्द्रिय रहित शुद्धात्मा से विपरीत जो स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियाँ, शुभ-अशुभ संकल्प-विकल्प से रहित, आत्मा से विपरीत अनेक संकल्प-विकल्प-समूहरूप जो मन और शुद्धात्म-तत्त्व की अनुभूति से भिन्न जो राग, द्वेष, मोहादिरूप सब विभाव ये सब आत्मा से जुदे हैं, तथा वीतराग परमानन्द सुखरूप अमृत से पराङ्मुख जो समस्त चतुर्गति के महान दुःखदायी दुःख वे सब जीव-पदार्थ से भिन्न हैं । ये सभी अशुद्ध-निश्चयनय से आत्म-ज्ञान के अभाव से उपार्जन किये हुए कर्मों से जीव में उत्पन्न हुए हैं । इसलिये ये सब अपने नहीं हैं, कर्मजनित हैं । यहाँ पर परमात्म-द्रव्य से विपरीत जो पाँचों इन्द्रियों को आदि लेकर सब विकल्प-जाल हैं, वे तो त्यागने योग्य हैं, उससे विपरीत पाँचों इन्द्रियों के विषयों की अभिलाषाको आदि लेकर सब विकल्प-जालों से रहित अपना शुद्धात्म-तत्त्व, वही परमसमाधि के समय साक्षात् उपादेय है । यह तात्पर्य जानना ॥६३॥

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+ परमार्थ से दुःख-सुख कर्म जनित -
दुक्खु वि सुक्खु वि बहु-विहउ जीवहँ कम्मु जणेइ ।
अप्पा देक्खइ मुणइ पर णिच्छउ एउँ भणेइ ॥64॥
दुःखमपि सुखमपि बहुविधं जीवानां कर्म जनयति ।
आत्मा पश्यति मनुते परं निश्चयः एवं भणति ॥६४॥
अन्वयार्थ : [जीवानां बहुविधं] जीवों को अनेक प्रकार के [दुःखमपि सुखं अपि] दुःख और सुख दोनों ही [कर्म जनयति] कर्म उपजाता है; [आत्मा पश्यति] आत्मा देखता [परं मनुते] और जानता है, [एवं निश्चयः] इस प्रकार परमार्थ [भणति] कहता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे संसार के सब सुख-दुःख शुद्ध निश्चयनय से जीवों को कर्म-जनित होते हैं, ऐसा कहते हैं -

आकुलता रहित पारमार्थिक वीतराग सुख से पराङ्मुख (उलटा) जो संसार के सुख-दुःख यद्यपि अशुद्ध निश्चयनय से जीव सम्बन्धी है, तो भी शुद्ध निश्चयनय से जीव ने उपजाये नहीं हैं, इसलिये जीव के नहीं हैं, कर्म-संयोग से उत्पन्न हुए हैं और आत्मा तो वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थिर हुआ वस्तु को वस्तु के स्वरूप देखता है, जानता है, रागादिकरूप नहीं होता, उपयोगरूप है, ज्ञाता द्रष्टा है, परम आनंदरूप है । यहाँ पारमार्थिक सुख से उलटा जो इन्द्रिय-जनित संसार का सुख-दुःख आदि विकल्प-समूह है वह त्यागने योग्य है, ऐसा भगवान् ने कहा है, यह तात्पर्य है ॥६४॥

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+ जिन्वचन को नहीं मानने का परिणाम -
सो णत्थि त्ति पएसो चउरासी-जोणि-लक्ख-मज्झम्मि ।
जिण वयणं ण लहंतो जत्थ ण डुलुडुल्लिओ जीवो ॥65-1॥
स नास्ति इति प्रदेशः चतुरशीतियोनिलक्षमध्ये ।
जिनवचनं न लभमानः यत्र न भ्रमितः जीवः ॥६५-१॥
अन्वयार्थ : [स नास्ति प्रदेशः इति प्रदेश:] ऐसा कोई भी प्रदेश (स्थान) नहीं है, कि [यत्र चतुरशीतियोनिलक्षमध्ये] जिस जगह चौरासी लाख योनियों में होकर [जिनवचनं न लभमानः] जिन-वचन को नहीं प्राप्त करता हुआ [जीवः न भ्रमितः] यह जीव नहीं भटका ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे दोहा-सूत्रों की स्थल-संख्या से बाहर उक्तं च स्वरूप प्रक्षेपक को कहते हैं -

इस जगत में कोई ऐसा स्थान नहीं रहा, जहाँ पर यह जीव निश्चय व्यवहाररत्नत्रय को कहनेवाले जिन वचन को नहीं पाता हुआ अनादि काल से चौरासी लाख योनियों में होकर न घूमा हो, अर्थात् जिन वचन की प्रतीति न करने से सब जगह और सब योनियों में भ्रमण किया, जन्म-मरण किये । यहाँ यह तात्पर्य है, कि जिन-वचन के न पाने से यह जीव जगत् में भ्रमा, इसलिये जिन-वचन ही आराधने योग्य है ॥६५-१॥

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+ परमार्थ से बन्ध और मोक्ष कर्मजनित -
बंधु वि मोक्खु वि सयलु जिय जीवहँ कम्मु जणेइ ।
अप्पा किंपि वि कुणइ णवि णिच्छउ एउँ भणेइ ॥65॥
बन्धमपि मोक्षमपि सकलं जीव जीवानां कर्म जनयति ।
आत्मा किमपि करोति नैव निश्चय एवं भणति ॥६५॥
अन्वयार्थ : [जीव] हे जीव ! [बंधमपि मोक्षमपि] बंध भी और मोक्ष भी [सकलं जीवानां] समस्त जीवों के [कर्म जनयति] कर्म-जनित है, [आत्मा किमपि] आत्मा कुछ भी [नैव करोति] नहीं करता, [एवं निश्चयः भणति] ऐसा परमार्थ कहता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे दोहा-सूत्रों की स्थल-संख्या से बाहर उक्तं च स्वरूप प्रक्षेपक को कहते हैं -

इस जगत में कोई ऐसा स्थान नहीं रहा, जहाँ पर यह जीव निश्चय व्यवहाररत्नत्रय को कहनेवाले जिन वचन को नहीं पाता हुआ अनादि काल से चौरासी लाख योनियों में होकर न घूमा हो, अर्थात् जिन वचन की प्रतीति न करने से सब जगह और सब योनियों में भ्रमण किया, जन्म-मरण किये । यहाँ यह तात्पर्य है, कि जिन-वचन के न पाने से यह जीव जगत् में भ्रमा, इसलिये जिन-वचन ही आराधने योग्य है ॥६५-१॥

श्रीब्रह्मदेव :
आगे निश्चयनय से बन्ध और मोक्ष कर्म-जनित ही है, कर्म के योग से बन्ध और कर्म के वियोग से मोक्ष है, ऐसा कहते हैं -

अनादि काल की संबंधवाली अयथार्थ-स्वरूप अनुपचरितासद्भूत-व्यवहारनय से ज्ञानावरणादि द्रव्य-कर्म बंध और अशुद्ध-निश्चयनय से रागादि भाव-कर्म के बंध को तथा दोनों नयों से द्रव्य-कर्म भाव-कर्म की मुक्ति को यद्यपि जीव करता है, तो भी शुद्ध-पारिणामिक परमभाव के ग्रहण करनेवाले शुद्ध-निश्चयनय से नहीं करता है, बंध और मोक्ष से रहित है, ऐसा भगवान ने कहा है । यहाँ जो शुद्ध-निश्चयनय से बंध और मोक्ष का कर्ता नहीं, वही शुद्धात्मा आराधने योग्य है ॥६५॥

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+ कर्म द्वारा ही जीव के लोक में भ्रमण -
अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ ।
भुवणत्तयहँ वि मज्झि जिय विहि आणइ विहि णेइ ॥66॥
आत्मा पङ्गोः अनुहरति आत्मा न याति न आयाति ।
भुवनत्रयस्य अपि मध्ये जीव विधिः आनयति विधिः नयति ॥६६॥
अन्वयार्थ : हे जीव, यह आत्मा [पङ्गोः अनुहरति] पंगु के समान है, आप [न याति] न कहीं जाता है, [न आयाति] न आता है [भुवनत्रयस्य अपि मध्ये] तीनों लोक में इस जीव को [विधिः नयति] कर्म ही ले जाता है, [विधिः आनयति] कर्म ही ले आता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे आत्मा पंगु (लंगड़े) की तरह आप न तो कहीं जाता है, और न आता है, कर्म ही इसको ले जाते है, और ले आते हैं, ऐसा कहते हैं -

यह आत्मा शुद्ध-निश्चयनय से अनंतवीर्य (बल) का धारण करनेवाला होने से शुभ-अशुभ कर्मरूप बंधन से रहित है, तो भी व्यवहारनय से इस अनादि संसार में निज-शुद्धात्मा की भावना से विमुख जो मन, वचन, काय इन तीनों से उपार्जित कर्मों से उत्पन्न हुए पुण्य-पापरूप बँधनों से अच्छी तरह बँधा हुआ पंगु के समान आप ही न कहीं जाता है, न कहीं आता है । जैसे बंदीवान आपसे न कहीं जाता है और न कहीं आता है, चौकीदारों द्वारा ले जाया जाता है, और आता है, आप तो पंगु के समान है । वही आत्मा परमात्मा की प्राप्ति के रोकनेवाले चतुर्गतिरूप संसार के कारण-स्वरूप कर्मों द्वारा तीन जगत् में गमन-आगमन करता है, एक गति से दूसरी गति में जाता है ।

यहाँ सारांश यह है, कि वीतराग परम आनंदरूप तथा सब तरह उपादेयरूप परमात्मा से (अपने स्वरूप से) भिन्न जो शुभ-अशुभ कर्म हैं, वे त्यागने योग्य हैं ॥६६॥

इसप्रकार कर्म की शक्ति के स्वरूप के कहने की मुख्यता से आठवें-स्थल में आठ दोहे कहे ।

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+ द्रव्य-रूप परिवर्तित नहीं होता -
अप्पा अप्पु जि परु जि परु अप्पा परु जि ण होइ ।
परु जि कयाइ वि अप्पु णवि णियमेँ पभणहिं जोई ॥67॥
आत्मा आत्मा एव परः एव परः आत्मा परः एव न भवति ।
पर एव कदाचिदपि आत्मा नैव नियमेन प्रभणन्ति योगिनः ॥६७॥
अन्वयार्थ : आत्मा आत्मा ही है, पर (देहादि) पर ही हैं, आत्मा पर नहीं [भवति] होता, [पर एव ] पर भी [कदाचिदपि] कभी भी आत्मा [नैव] नहीं होता, ऐसा [नियमेन योगिनः प्रभणन्ति] निश्चय से योगी कहते हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
इससे आगे भेदाभेद-रत्नत्रय की भावना की मुख्यता से जुदे-जुदे स्वतन्त्र नौ सूत्र कहते हैं -

शुद्धात्मा तो केवलज्ञानादि स्वभाव है, जड़रूप नहीं है, उपाधिरूप नहीं है, शुद्धात्म-स्वरूप ही है । पर जो काम-क्रोधादि पर वस्तु भाव-कर्म द्रव्य-कर्म नोकर्म हैं, वे पर ही हैं, अपने नहीं है, जो यह आत्मा संसार-अवस्था में यद्यपि अशुद्ध निश्चयनय से काम-क्रोधादिरूप हो गया है, तो भी परमभाव के ग्राहक शुद्ध-निश्चयनय से अपने ज्ञानादि निज-भाव को छोड़कर काम क्रोधादिरूप नहीं होता, अर्थात् निज-भावरूप ही है । ये रागादि विभाव-परिणाम उपाधिक हैं, पर के संबंध से हैं, निज-भाव नहीं हैं, इसलिये आत्मा कभी इन रागादिरूप नहीं होता, ऐसा योगीश्वर कहते हैं । यहाँ उपादेयरूप मोक्ष-सुख (अतीन्द्रिय सुख) से तन्मय और काम-क्रोधादिक से भिन्न जो शुद्धात्मा है, वही उपादेय है, ऐसा अभिप्राय है ॥६७॥

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+ जीव के जन्म-मरण बंध-मोक्ष नहीं -
ण वि उप्पज्जइ ण वि मरइ बंधु ण मोक्खु करेइ ।
जिउ परमत्थेँ जोइया जिणवरु एउँ भणेइ ॥68॥
नापि उत्पद्यते नापि म्रियते बन्धं न मोक्षं करोति ।
जीवः परमार्थेन योगिन् जिनवरः एवं भणति ॥६८॥
अन्वयार्थ : [योगिन् परमार्थेन] हे योगी, परमार्थ से [जीवः नापि उत्पद्यते] जीव न तो उत्पन्न होता है, [नापि म्रियते] न मरता है [च न बन्धं मोक्षं] और न बंध-मोक्ष को [करोति] करता [एवं जिनवरः भणति] ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे शुद्ध-निश्चयनय से आत्मा जन्म, मरण, बन्ध और मोक्ष को नहीं करता है, जैसा है वैसा ही है, ऐसा निरूपण करते हैं -

यद्यपि यह आत्मा शुद्धात्मानुभूति के अभाव के होने पर शुभ-अशुभ उपयोगों से परिणमन करके जीवन, मरण, शुभ, अशुभ, कर्म-बंध को करता है, और शुद्धात्मानुभूति के प्रगट होने पर शुद्धोपयोग से परिणत होकर मोक्ष को करता है, तो भी शुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक शुद्ध-द्रव्यार्थिकनय से न बंध का कर्ता है और न मोक्ष का कर्ता है ।

ऐसा कथन सुनकर शिष्य ने प्रश्न किया, कि हे प्रभो, शुद्ध-द्रव्यार्थिक स्वरूप शुद्ध-निश्चयनय से मोक्ष का भी कर्ता नहीं है, तो ऐसा समझना चाहिये, कि शुद्धनय से मोक्ष ही नहीं है, जब मोक्ष नहीं, तब मोक्ष के लिये यत्न करना वृथा है ।

उसका उत्तर कहते हैं – मोक्ष है, वह बंध-पूर्वक है, और बंध है, वह शुद्ध-निश्चयनय से होता ही नहीं, इस कारण बंध के अभावरूप मोक्ष है, वह भी शुद्ध-निश्चयनय से नहीं है । जो शुद्ध-निश्चयनय से बंध होता, तो हमेशा बंधा ही रहता, कभी बंध का अभाव न होता । इसके बारे में दृष्टांत कहते हैं - कोई एक पुरुष साँकल से बँध रहा है, और कोई एक पुरुष बंध रहित है, उनमें से जो पहले बंधा था, उसको तो 'मुक्त' (छूटा) ऐसा कहना, ठीक मालूम पड़ता है और दूसरा जो बंधा ही नहीं, उसको जो 'आप छूट गये' ऐसा कहा जाय, तो वह क्रोध करे, कि मैं कब बँधा था, सो यह मुझे 'छूटा' कहता है, बँधा होवे, वह छूटे, इसलिये बँधे को तो मोक्ष कहना ठीक है, और बँधा ही न हो, उसे छूटे कैसे कह सकते हैं ? उसीप्रकार यह जीव शुद्ध-निश्चयनय से बँधा हुआ नहीं है, इस कारण मुक्त कहना ठीक नहीं है । बंध भी व्यवहारनय से है, बंध भी व्यवहारनय से और मुक्ति भी व्यवहारनय से है, शुद्ध-निश्चयनय से न बंध है, न मोक्ष है, और अशुद्धनय से बंध है, इसलिये बंध के नाश का यत्न भी अवश्य करना चाहिये । यहाँ यह अभिप्राय है, कि सिद्ध समान यह अपना शुद्धात्मा वीतराग निर्विकल्प समाधि में लीन पुरुषों को उपादेय है, अन्य सब हेय हैं ॥६८॥

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+ जीव के जन्म-मरण-रोग, इन्द्रियाँ, वर्ण नहीं -
अत्थि ण उब्भउ जर-मरणु रोय वि लिंग वि वण्ण ।
णियमिं अप्पु वियाणि तुहुँ जीवहँ एक्क वि सण्ण ॥69॥
अस्ति न उद्भवः जरामरणं रोगाः अपि लिङ्गान्यपि वर्णाः ।
नियमेन आत्मन् विजानीहि त्वं जीवस्य एकापि संज्ञा ॥६९॥
अन्वयार्थ : [आत्मन्] हे जीव [जीवस्य उद्भवः न अस्ति] जीव के जन्म नहीं है, [जरामरणंः रोगाः अपि] जरा (बुढ़ापा), मरण, रोग [लिंगान्यपि वर्णाः] इन्द्रियाँ, वर्ण [एका संज्ञा अपि] (आहारादिक) एक भी संज्ञा नहीं है [त्वं नियमेन विजानीहि] तू निश्चय जान ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे निश्चयनय से जीव के जन्म, जरा, मरण, रोग, लिंग, वर्ण, और संज्ञा नहीं है, आत्मा इन सब विकारों से रहित है, ऐसा कहते हैं -

वीतराग निर्विकल्प समाधि से विपरीत जो क्रोध, मान, माया, लोभ, आदि विभाव परिणाम उनसे उपार्जन किये कर्मों के उदय से उत्पन्न हुए जन्म-मरण आदि अनेक विकार है, वे शुद्ध-निश्चयनय से जीव के नहीं हैं, क्योंकि निश्चयनय से आत्मा केवलज्ञानादि अनंत गुणाकर पूर्ण है, और अनादि-संतान से प्राप्त जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, भय, स्त्री, पुरुष, नपुंसकलिंग, सफेद काला वर्ण, वगैर आहार, भय, मैथुन, परिग्रहरूप संज्ञा इन सबों से भिन्न है । यहाँ उपादेयरूप अनंत-सुख का धाम जो शुद्ध-जीव उससे भिन्न जन्मादिक हैं, वे सब त्याज्य हैं, एक आत्मा ही उपादेय हैं, यह तात्पर्य जानना ॥६९॥

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+ जन्म-बुढापा-मरण, रोग, वर्ण देह के -
देहहँ उब्भउ जर-मरणु देहहँ वण्णु विचित्तु ।
देहहँ रोय वियाणि तुहुँ देहहँ लिंगु विचित्तु ॥70॥
देहस्य उद्भवः जरामरणं देहस्य वर्णः विचित्रः ।
देहस्य रोगान् विजानीहि त्वं देहस्य लिङ्गं विचित्रम् ॥७०॥
अन्वयार्थ : [त्वं देहस्य उद्भवः] तू देह के जन्म, [जरामरणं] बुढापा, मरण, [देहस्य विचित्रः वर्णः] देह के अनेक तरह के (लाल-पीले आदि पाँच अथवा ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चार) वर्ण, [देहस्य रोगान्] देह के (वात-पित्त आदि अनेक) रोग [देहस्य विचित्रम् लिंङ्गं] देह के अनेक प्रकार के (स्त्री, पुरुष आदि अथवा यति अथवा इन्द्रिय और मन) लिंग को [विजानीहि] जान ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जो शुद्ध-निश्चयनय से जन्म-मरणादि जीव के नहीं हैं, तो किसके हैं ? ऐसा शिष्य के प्रश्न करने पर समाधान यह है कि ये सब देह के हैं ऐसा कथन करते हैं, श्रीगुरु कहते हैं -

शुद्धात्मा का सच्चा श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप अभेद-रत्नत्रय की भावना से विमुख जो राग, द्वेष, मोह उनसे उपार्जे जो कर्म उनसे उपजे जन्म-मरणादि विकार है, वे सब यद्यपि व्यवहारनय से जीव के हैं, तो भी निश्चयनय से जीव के नहीं हैं, देह-सम्बन्धी हैं ऐसा जानना चाहिये ।

यहाँ पर देहादिक में ममतारूप विकल्पजाल को छोड़कर जिस समय यह जीव वीतराग सदा आनंदरूप सब तरह उपादेयरूप निज भावों द्वारा परिणमता है, तब अपना यह शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा अभिप्राय जानो ॥७०॥

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+ जीव को अमर जानकर भय-मुक्त हो -
देहहँ पेक्खिवि जर-मरणु मा भउ जीव करेहि ।
जो अजरामरु बंभु परु सो अप्पाणु मुणेहि ॥71॥
देहस्य द्रष्टवा जरामरणं मा भयं जीव कार्षीः ।
यः अजरामरः ब्रह्म परः तं आत्मानं मन्यस्व ॥७१॥
अन्वयार्थ : [जीव] हे जीव, [देहस्य जरामरणं] देह के बुढ़ापा या मरने को [दृष्टवा भयं मा कार्षीः] देखकर डर मत कर [यः अजरामरः] जो अजर-अमर [परः ब्रह्म] परम-ब्रह्म है, [तं आत्मानं मन्यस्व] उसको तू आत्मा जान ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे ऐसा कहते हैं कि हे जीव, तू जरा-मरण देह के जानकर डर मत कर -

यद्यपि व्यवहारनय से जीव के जरा-मरण हैं, तो भी शुद्ध-निश्चयनय से जीव के नहीं है, देह के हैं, ऐसा जानकर भय मत कर, तू अपने चित्त में ऐसा समझ, कि जो कोई जरा-मरण रहित अखंड परब्रह्म है, वैसा ही मेरा स्वरूप है, शुद्धात्मा सबसे उत्कृष्ट है, ऐसा तू अपना स्वभाव जान ।

पाँच इन्द्रियों के विषय को और समस्त विकल्पजालों को छोड़कर परमसमाधि में स्थिर होकर निज आत्मा का ही ध्यान कर, यह तात्पयार्थ हुआ ॥७१॥

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+ शरीर से ममत्व त्यागकर आत्मा को ध्या -
छिज्जउ भिज्जउ जाउ खउ जोइय एहु सरीरु ।
अप्पा भावहि णिम्मलउ जिं पावहि भव-तीरु ॥72॥
छिद्यतां भिद्यतां यातु क्षयं योगिन् इदं शरीरम् ।
आत्मानं भावय निर्मलं येन प्राप्नोषि भवतीरम् ॥७२॥
अन्वयार्थ : [योगिन् इदं शरीरम् छिद्यतां] हे योगी, यह शरीर छिद जावे, [भिद्यतां] अथवा भिद जावे, [क्षयं यातु] नाश को प्राप्त होवे, [निर्मलं आत्मानं भावय] निर्मल आत्मा का ही ध्यान कर, [येन भवतीरम्] जिससे भवसागर का पार [प्राप्नोषि ] पायेगा ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जो देह छिद जावे, भिद जावे, क्षय हो जावे, तो भी तू भय मत कर, केवलशुद्ध आत्मा का ध्यान कर, ऐसा अभिप्राय मन में रखकर सूत्र कहते हैं -

हे योगी, यह शरीर छिद जावे, दो टुकड़े हो जावे, अथवा भिद जावे; छेद सहित हो जावे, नाश को प्राप्त होवे, तो भी तू भय मत कर, मन में खेद मत ला, अपने निर्मल आत्मा का ही ध्यान कर, अर्थात् वीतराग चिदानंद शुद्ध-स्वभाव तथा भाव-कर्म, द्रव्य-कर्म, नो-कर्म रहित अपने आत्मा का चिंतवन कर, जिस परमात्मा के ध्यान से तू भव-सागर का पार पायेगा ।

जो देह के छेदनादि कार्य होते भी राग-द्वेषादि विकल्प नहीं करता, निर्विकल्प-भाव को प्राप्त हुआ शुद्ध-आत्मा को ध्याता है, वह थोड़े ही समय में मोक्ष को पाता है ॥७२॥

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+ पर-भाव और पर द्रव्य जीव स्वभाव से भिन्न -
कम्महँ केरा भावडा अण्णु अचेयणु दव्वु ।
जीव-सहावहँ भिण्णु जिय णियमिं बुज्झहि सव्वु ॥73॥
कर्मणः संबन्धिनः भावा अन्यत् अचेतनं द्रव्यम् ।
जीवस्वभावात् भिन्नं जीव नियमेन बुध्यस्व सर्वम् ॥७३॥
अन्वयार्थ : हे जीव, [कर्मणः संबन्धिनः भावाः] कर्मों से सम्बंधित भाव और [अन्यत् अचेतनं द्रव्यम्] पर शरीरादिक अचेतन द्रव्य [सर्वम् नियमेन] इन सबको नियम से [जीवस्वभावात् भिन्नं बुध्यस्व] जीव-स्वभाव से भिन्न जानो ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे ऐसा कहते हैं, जो कर्मजनित रागादिभाव और शरीरादि परवस्तु हैं, वे चेतन द्रव्यन होनेसे निश्चयनयकर जीवसे भिन्न हैं, ऐसा जानो -

हे जीव, कर्म-जन्य रागादिक भाव और दूसरा शरीरादिक अचेतन पदार्थ इन सबको निश्चय से जीव के स्वभाव से जुदे जानो, अर्थात् ये सब कर्म के उदय से उत्पन्न हुए हैं, आत्मा का स्वभाव निर्मल ज्ञान दर्शनमयी है । जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योगों की निवृत्तिरूप परिणाम के काल में शुद्धात्मा ही उपादेय है ॥७३॥

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+ ज्ञानमयी भाव को छोड़कर अन्य सभी भाव को त्याग -
अप्पा मेल्लिवि णाणमउ अण्णु परायउ भाउ ।
सो छंडेविणु जीव तुहुँ भावहि अप्प-सहाउ ॥74॥
आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानमयं अन्यः परः भावः ।
तं त्यक्त्वा जीव त्वं भावय आत्मस्वभावम् ॥७४॥
अन्वयार्थ : [ज्ञानमयं आत्मानं मुक्तवा] ज्ञानमयी आत्मा को छोड़कर [अन्यः परः भावः] अन्य जो पर भाव हैं, [जीव त्वं तं छंडयित्वा] हे जीव तू उनको छोड़कर [आत्मस्वभावम् भावय] आत्म-स्वभाव का चितंवन कर ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे ज्ञानमयी परमात्मा से भिन्न पर-द्रव्य को छोड़कर तू शुद्धात्मा का ध्यान कर, ऐसा कहते हैं -

केवलज्ञानादि अनंतगुणों की राशि आत्मा से जुदे जो मिथ्यात्व रागादि अंदर के भाव तथा देहादि बाहिर के पर-भाव ऐसे जो शुद्धात्मा से विलक्षण पर-भाव हैं, उनको छोड़कर केवलज्ञानादि अनंत-चतुष्टयरूप कार्य-समयसार का साधक जो अभेद-रत्नत्रयरूप कारण-समयसार है, उस रूप परिणत हुए अपने शुद्धात्म स्वभाव का चिंतवन कर और उसी को उपादेय समझ ॥७४॥

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+ रत्नत्रयमयी आत्मा का ध्यान कर -
अट्ठहँ कम्महँ बाहिरउ सयलहँ दोसहँ चत्तु ।
दंसण-णाण-चरित्तमउ अप्पा भावि णिरुत्तु ॥75॥
अष्टभ्यः कर्मभ्यः बाह्यं सकलैः दोषैः त्यक्त म् ।
दर्शनज्ञानचारित्रमयं आत्मानं भावय निश्चितम् ॥७५॥
अन्वयार्थ : [अष्टभ्यः कर्मभ्यः बाह्यं] आठ कर्मों से रहित [सकलैः दोषैः त्यक्तम्] सब दोषों को त्यागकर [दर्शनज्ञानचारित्रमयं आत्मानं निश्चितम् भावय] सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप निश्चितम् आत्मा का निश्चय से चिंतवन कर ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे निश्चयनय से आठ कर्म और सब दोषों से रहित सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमयी आत्मा को तू जान, ऐसा कहते हैं -

शुद्ध-निश्चयनय से ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित मिथ्यात्व रागादि सब विकारों से रहित शुद्धोपयोग के साथ रहनेवाले अपने सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप आत्मा का निश्चय से चिंतवन कर । देखे, सुने, अनुभवे भोगों की अभिलाषारूप सब विभाव-परिणामों को छोड़कर निज-स्वरूप का ध्यान कर ।

यहाँ उपादेयरूप अतीन्द्रिय-सुख से तन्मयी और सब भाव-कर्म, द्रव्य-कर्म, नो-कर्म से जुदा जो शुद्धात्मा है, वही अभेद रत्नत्रय को धारण करनेवाले निकट-भव्यों को उपादेय है, ऐसा तात्पर्य हुआ ॥७५॥

ऐसे तीन प्रकार आत्मा के कहनेवाले प्रथम महाधिकार में जुदे-जुदे स्वतंत्र भेद भावना के स्थल में नौ दोहा-सूत्र कहे ।

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+ सम्यग्दृष्टि -
अप्पिं अप्पु मुणंतु जिंउ सम्मादिट्ठि हवेइ ।
सम्माइट्ठिउ जीवडउ लहु कम्मइँ मुच्चेइ ॥76॥
आत्मना आत्मानं जानन् जीवः सम्यग्द्रष्टिः भवति ।
सम्यग्द्रष्टिः जीवः लघु कर्मणा मुच्यते ॥७६॥
अन्वयार्थ : [आत्मानं आत्मना] अपने को अपने से [जानन् जीवः] जाननेवाला जीव [सम्यग्दष्टिः भवति] सम्यग्दृष्टि होता है, [सम्यग्दृष्टिः जीवः] और सम्यग्दृष्टि जीव [लघु कर्मणा मुच्यते] जल्दी कर्मों से छूट जाता है ॥७६॥

श्रीब्रह्मदेव :
आगे निश्चय से सम्यग्दृष्टि की मुख्यता से स्वतन्त्र एक दोहासूत्र कहते हैं -

यह आत्मा वीतराग स्व-संवेदनज्ञान में परिणत हुआ अंतरात्मा होकर अपने को अनुभवता हुआ वीतराग सम्यग्दृष्टि होता है, तब सम्यग्दृष्टि होने के कारण से ज्ञानावरणादि कर्मों से शीघ्र ही छूट जाता है, रहित हो जाता है । यहाँ जिस हेतु वीतराग सम्यग्दृष्टि होने से यह जीव कर्मों से छूटकर सिद्ध हो जाता है, इसी कारण वीतराग चारित्र के अनुकूल जो शुद्धात्मानुभूतिरूप वीतराग सम्यक्त्व है, वही ध्यावने योग्य है, ऐसा अभिप्राय हुआ । ऐसा ही कथन श्रीकुंदकुंदाचार्यने मोक्षपाहुड ग्रंथ में निश्चय-सम्यक्त्व के लक्षण में किया है 'सद्दव्वरओ..' इत्यादि -

उसका अर्थ यह है कि, आत्म-स्वरूप में मगन हुआ जो यति वह निश्चय से सम्यग्दृष्टि होता है, फिर वह सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्वरूप परिणमता हुआ दुष्ट आठ-कर्मों को क्षय करता है ॥७६॥

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+ मिथ्यादृष्टि -
पज्जय-रत्तउ जीवडउ मिच्छादिट्ठि हवेइ ।
बंधउ बहु-विह-कम्मडा जेँ संसारु भमेइ ॥77॥
पर्यायरक्तो जीवः मिथ्याद्रष्टिः भवति ।
बध्नाति बहुविधकर्माणि येन संसारं भ्रमति ॥७७॥
अन्वयार्थ : [पर्यायरक्तः जीवः] पर्याय में लीन जीव [मिथ्यादृष्टिः भवति] मिथ्यादृष्टि होता है, वह [बहुविधकर्माणि बध्नाति] अनेक प्रकार के कर्मों को बाँधता है, [येन संसारं भ्रमति] जिनसे संसार में भ्रमण करता है ॥७७॥

श्रीब्रह्मदेव :
इसके बाद मिथ्यादृष्टि के लक्षण के कथन की मुख्यता से आठ दोहा कहते हैं -

परमात्मा की अनुभूतिरूप श्रद्धा से विमुख जो आठ मद, आठ मल, छह अनायतन, तीन मूढता, इन पच्चीस दोषों से सहित अतत्त्व श्रद्धानरूप मिथ्यात्व परिणाम जिसके हैं, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है । वह मिथ्यादृष्टि नर नारकादि विभाव-पर्यायों में लीन रहता है । उस मिथ्यात्व परिणाम से शुद्धात्मा के अनुभव से पराङ्मुख अनेक तरह के कर्मों को बाँधता है, जिनसे कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूपी पाँच प्रकार के संसार में भटकता है । ऐसा कोई शरीर नहीं, जो इसने न धारण किया हो, ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, कि जहाँ उपजा न हो, और मरण किया हो, ऐसा कोई काल नहीं है, कि जिसमें इसने जन्म-मरण न किये हों, ऐसा कोई भव नहीं, जो इसने पाया न हो, और ऐसे अशुद्ध भाव नहीं हैं, जो इसके न हुए हों । इस तरह अनंत परावर्तन इसने किये हैं ।

ऐसा ही कथन मोक्षपाहुड़ में निश्चय मिथ्यादृष्टि के लक्षण में श्रीकुंदकुंदाचार्य ने कहा है - 'जो पुण..' इत्यादि ।

इसका अर्थ यह है कि जो अज्ञानी जीव द्रव्य-कर्म, भाव-कर्म, नो-कर्मरूप पर-द्रव्य में लीन हो रहे हैं, वे साधु के व्रत धारण करने पर भी मिथ्यादृष्टि ही हैं, सम्यग्दृष्टि नहीं और मिथ्यात्व से परिणमते दुःख देनेवाले आठ कर्मों को बाँधते हैं ।

फिर भी आचार्य ने मोक्षपाहुड में कहा है - 'जे पज्जयेसु...' इत्यादि । उसका अर्थ यह है, कि जो नर नारकादि पर्यायों में मग्न हो रहे हैं, वे जीव पर-पर्याय में रत मिथ्यादृष्टि हैं, ऐसा भगवान् ने कहा है, और जो उपयोग लक्षणरूप निजभाव में लिप्त रहे है वे स्व-समयरूप सम्यग्दृष्टि है, ऐसा जानो । सारांश यह है, कि जो पर-पर्याय में रत हैं, वे तो पर-समय हैं और जो आत्म-स्वभाव में लगे हुए हैं, वे स्वसमय हैं, मिथ्यादृष्टि नहीं है । यहाँ पर आत्मज्ञानरूपी वीतराग सम्यक्त्व से पराङ्मुख जो मिथ्यात्व है, वह त्यागने योग्य है ॥७७॥

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+ कर्म बलवान हैं -
कम्मइँ दिढ-घण-चिक्कणइँ गरुवइँ वज्ज-समाइँ ।
णाण-वियक्खणु जीवडउ उप्पहि पाडहिँ ताइँ ॥78॥
कर्माणि द्रढघनचिक्कणानि गुरुकाणि वज्रसमानि ।
ज्ञानविचक्षणं जीवं उत्पथे पातयन्ति तानि ॥७८॥
अन्वयार्थ : [ज्ञानविचक्षणं जीवं] ज्ञानी चतुर जीवों को [उत्पथे पातयंति] खोटे मार्ग में पटकने वाले [तानि कर्माणि] वे कर्म [दृढघनचिक्कणानि ] बलवान हैं, बहुत हैं, चिकने (विनाश करने को अशक्य) हैं, [गुरुकाणि वज्रसमानि] भारी हैं, और वज्र के समान अभेद्य हैं ॥७८॥

श्रीब्रह्मदेव :
आगे मिथ्यात्व से अनेक प्रकार उपार्जन किये कर्मों से यह जीव संसार-वन में भ्रमता है, उस कर्म-शक्ति को कहते हैं -

यह जीव एक समय में लोकालोक के प्रकाशनेवाले केवलज्ञान आदि का अनंत गुणों से बुद्धिमान चतुर है, तो भी इस जीव को वे संसार के कारण कर्म ज्ञानादि गुणों का आच्छादन करके अभेद-रत्नत्रयरूप निश्चय-मोक्षमार्ग से विपरीत खोटे-मार्ग में डालते हैं, अर्थात् मोक्ष-मार्ग से भुलाकर भव-वन में भटकाते हैं ।

यहाँ यह अभिप्राय है, कि संसार के कारण जो कर्म और उनके कारण मिथ्यात्व रागादि परिणाम हैं, वे सब हेय हैं, तथा अभेद-रत्नत्रयरूप निश्चय-मोक्षमार्ग है, वह उपादेय है ॥७८॥

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+ मिथ्यात्वी का लक्षण -
जिउ मिच्छत्तेँ परिणमिउ विवरिउ तच्चु मुणेई ।
कम्म-विणिम्मिय भावडा ते अप्पाणु भणेइ ॥79॥
जीवः मिथ्यात्वेन परिणतः विपरीतं तत्त्वं मनुते ।
कर्मविनिर्मितान् भावान् तान् आत्मानं भणति ॥७९॥
अन्वयार्थ : [मिथ्यात्वेन परिणतः जीवः] मिथ्यात्व-रूप परिणत हुआ जीव [तत्त्वं विपरीतं मनुते] तत्त्व को विपरीत मानता हुआ, [कर्मविनिर्मितान् भावान्] कर्मों से रचे गये भाव [तान् आत्मानं भणति] उनको अपने कहता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे मिथ्यात्व परिणति से यह जीव तत्त्व को यथार्थ नहीं जानता, विपरीत जानता है, ऐसा कहते हैं -

यह जीव अतत्त्व-श्रद्धानरूप परिणत हुआ, आत्मा को आदि लेकर तत्त्वों के स्वरूप को विपरीत श्रद्धान करता है, यथार्थ नहीं जानता । वस्तु का स्वरूप तो जैसा है वैसा ही है, तो भी वह मिथ्यात्वी जीव वस्तु के स्वरूप को विपरीत जानता है, अपना जो शुद्ध-ज्ञानादि सहित स्वरूप है, उसको मिथ्यात्व रागादिरूप जानता है । उससे क्या करता है ? कर्मों से रचे गये शरीरादि परभाव हैं उनको अपने कहता है, अर्थात् भेदविज्ञान के अभाव से गोरा, श्याम, स्थूल, कृश, इत्यादि कर्म-जनित देह के स्वरूप को अपना जानता है, इसी से संसार में भ्रमण करता है ।

यहाँ पर कर्मों से उपार्जन किये भावों से भिन्न जो शुद्ध-आत्मा है, उससे जिस समय रागादि दूर होते हैं, उस समय उपादेय है, क्योंकि तभी शुद्ध-आत्मा का ज्ञान होता है ॥७९॥

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+ मिथ्यात्वी की मान्यता -
हउँ गोरउ हउँ सामलउ हउँ जि विभिण्णउ वण्णु ।
हउँ तणु-अंगउँ थूलु हउँ एहउँ मूढउ मण्णु ॥80॥
अहं गौरः अहं श्यामः अहमेव विभिन्नः वर्णः ।
अहं तन्वङ्गः स्थूलः अहं एतं मूढं मन्यस्व ॥८०॥
अन्वयार्थ : [अहं श्यामः] मैं काला, [अहमेव विभिन्नः वर्णः] मैं ही अनेक वर्णवाला, [अहं तन्वंगः] मैं दुबला, [अहं स्थूलः] मैं मोटा, [एतं मूढं मन्यस्व] यह मूढ की मान्यता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
इसके बाद उन पूर्व कथित कर्म-जनित भावों को जिस मिथ्यात्व परिणाम से बहिरात्मा अपने मानता है, और वे अपने हैं नहीं, ऐसे परिणामों को पाँच दोहा-सूत्रों में कहते हैं -

निश्चयनय से आत्मा से भिन्न जो कर्म-जनित गौर स्थूलादि भाव हैं, वे सर्वथा त्याज्य हैं, और सर्व-प्रकार आराधने योग्य वीतराग नित्यानंद स्वभाव जो शुद्ध-जीव है, वह इनसे भिन्न है, तो भी पुरुष विषय-कषायों के आधीन होकर शरीर के भावों को अपने जानता है, वह अपनी स्वात्मानुभूति से रहित हुआ मूढात्मा है ॥८०॥

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+ और भी -
हउँ वरु बंभणु वइसु हउँ हउँ खत्तिउ हउँ सेसु ।
पुरिसु णउँसर इत्थि हउँ मण्णइ मूढु विसेसु ॥81॥
अहं वरः ब्राह्मणः वैश्यः अहं अहं क्षत्रियः अहं शेषः ।
पुरुषः नपुंसकः स्त्री अहं मन्यते मूढः विशेषम् ॥८१॥
अन्वयार्थ : [अहं वरः ब्राह्मणः] मैं सबमें श्रेष्ठ ब्राह्मण, [वैश्यः अहं] मैं वणिक्, [अहं क्षत्रियः] मैं क्षत्रिय, [अहं शेषः] मैं शूद्र, [पुरुषः नपुंसकः स्त्री अहं] मैं पुरुष, स्त्री, नपुंसक [मूढः विशेषम् मनुते] मिथ्यादृष्टि अपने को इन भेदरूप मानता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे फिर मिथ्यादृष्टि के लक्षण कहते हैं -

यहाँ पर ऐसा है कि निश्चयनय से ये ब्राह्मणादि भेद कर्म-जनित हैं, परमात्मा के नहीं हैं, इसलिये सब तरह आत्मज्ञानी के त्याज्यरूप हैं तो भी जो निश्चयनय से आराधने-योग्य वीतराग सदा आनंद-स्वभाव निज-शुद्धात्मा में इन भेदों को लगाता हैं, अर्थात् अपने को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र मानता है; स्त्री, पुरुष, नपुंसक, मानता है, वह कर्मों का बंध करता है, वही अज्ञान से परिणत हुआ निज-शुद्धात्म-तत्त्व की भावना से रहित हुआ मूढात्मा है, ज्ञानवान् नहीं है ॥८१॥

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+ और भी -
तरुणउ बूढउ रूयडउ सूरउ पंडिउ दिव्वु ।
खवणउ वंदउ सेवडउ मूढउ मण्णइ सव्वु ॥82॥
तरुणः वृद्धः रूपवान् शूरः पण्डितः दिव्यः ।
क्षपणकः वन्दकः श्वेतपटः मूढः मन्यते सर्वम् ॥८२॥
अन्वयार्थ : [तरुणः वृद्धः रूपस्वी शूरः] मैं जवान, बुड्ढा, रूपवान, शूरवीर, [पण्डितः दिव्यः क्षपणकः] पंडित, सबमें श्रेष्ठ, दिगंबर [वन्दकः श्वेतपटः] बौद्ध-आचार्य, श्वेताम्बर, इत्यादि [सर्वम् मूढ़ः मन्यते] सब
मूढ़ मान्यता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे -

यहाँ पर यह है कि, यद्यपि व्यवहारनय से ये सब तरुण वृद्धादि शरीर के भेद आत्मा के कहे जाते हैं, तो भी निश्चयनय से वीतराग सहजानंद एक स्वभाव जो परमात्मा उससे भिन्न हैं । ये तरुणादि विभाव-पर्याय कर्म के उदय से उत्पन्न हुए हैं, इसलिये त्यागने योग्य हैं, तो भी उनको साक्षात् उपादेयरूप निज शुद्धात्म-तत्त्व में जो जो लगाता है, अर्थात् मानता है, वह अज्ञानी जीव बड़ाई, प्रतिष्ठा, धन का लाभ इत्यादि विभाव परिणामों के आधीन होकर परमात्मा की भावना से रहित हुआ मूढात्मा हैं, वह जीव के ही भाव मानता है ॥८२॥

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+ और भी -
जणणी जणणु वि कंत घरु पत्तु वि मित्तु वि दव्वु ।
माया-जालु वि अप्पणउ मूढउ मण्णइ सव्वु ॥83॥
जननी जननः अपि कान्ता गृहं पुत्रोऽपि मित्रमपि द्रव्यम् ।
मायाजालमपि आत्मीयं मूढः मन्यते सर्वम् ॥८३॥
अन्वयार्थ : [जननी जननः अपि कान्ता] माता, पिता भी, स्त्री, [ गृहं पुत्रः अपि मित्रमपि] घर, बेटा भी मित्र भी [द्रव्यं सर्व मायाजालमपि] धन, सर्व मायाजाल को [मूढ़ः आत्मीयं मन्यते] अज्ञानी अपना मानता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे फिर भी कहते हैं -

ये माता पिता आदि सब कुटुम्बीजन पर-स्वरूप भी हैं, सब स्वार्थ के हैं, शुद्धात्मा से भिन्न भी हैं, शरीर-संबंधी हैं, हेयरूप संसारीक नारकादि दुःखों के कारण होने से त्याज्य भी हैं, उनको जो जीव साक्षात् उपादेयरूप अनाकुलता-स्वरूप परमार्थिक-सुख से अभिन्न वीतराग परमानंदरूप एक-स्वभाववाले शुद्धात्म-द्रव्य में लगाता है, अर्थात अपने मानता है, वह मन, वचन कायरूप परिणत हुआ शुद्ध अपने आत्म-द्रव्य की भावना से शून्य (रहित) मूढात्मा है, ऐसा जानो, अर्थात् अतीन्द्रिय-सुखरूप आत्मा में पर-वस्तु का क्या प्रयोजन है । जो परवस्तु को अपना मानता है, वही मूर्ख है ॥८३॥

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+ अज्ञान ही पाप -
दुक्खहँ कारणि जे विसय ते सुह-हेउ रमेइ ।
मिच्छाइट्ठिउ जीवडउ इत्थु ण काइँ करेइ ॥84॥
दुःखस्य कारणं ये विषयाः तान् सुखहेतून् रमते ।
मिथ्याद्रष्टिः जीवः अत्र न किं करोति ॥८४॥
अन्वयार्थ : [दुःखस्य कारणं] दुःख के कारण [ये विषयाः] जो इन्द्रिय-विषय, [तान् सुखहेतुन्] उनको सुख के कारण जानकर [रमते मिथ्यादृष्टिः जीवः] रमण करता है, वह मिथ्यादृष्टि जीव [अत्र किं न करोति] इस संसार में क्या पाप नहीं करता ?

श्रीब्रह्मदेव :
अब और भी मूढ़ का लक्षण कहते हैं -

मिथ्यादृष्टि जीव वीतराग निर्विकल्प परमसमाधि से उत्पन्न परमानंद परम-समरसीभावरूप सुख से पराङ्मुख हुआ निश्चयकर महा दुःखरूप विषयों को सुख के कारण समझकर सेवन करता है, सो इनमें सुख नहीं हैं ॥८४॥

इसप्रकार तीन तरह की आत्मा को कहनेवाले पहले महाधिकार में 'जिउ मिच्छतें' इत्यादि आठ दोहों में से मिथ्यादृष्टि की परिणति का व्याख्यान समाप्त किया ।

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+ सम्यक्त्व की प्राप्ति -
कालु लहेविणु जोइया जिमु जिमु मोहु गलेइ ।
तिमु तिमु दंसणु लहइ जिउ णियमेँ अप्पु मुणेइ ॥85॥
कालं लब्ध्वा योगिन् यथा यथा मोहः गलति ।
तथा तथा दर्शनं लभते जीवः नियमेन आत्मानं मनुते ॥८५॥
अन्वयार्थ : [योगिन् कालं लब्धवा] हे योगी, काल पाकर [यथा यथा मोहः गलति] जैसे जैसे मोह गलता है, [तथा तथा जीवः] तैसे तैसे [दर्शनं लभते] सम्यग्दर्शन की प्राप्त द्वारा, [नियमेन आत्मानं मनुते] नियम से अपने (स्वरूप) को जानता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
इसके आगे सम्यग्दृष्टि की भावना के व्याख्यान की मुख्यता से 'काल लहेविणु' इत्यादि आठ दोहा-सूत्र कहते हैं -

एकेन्द्रीय से विकलत्रय (दोइन्द्री, तेइन्द्री, चोइन्द्री) होना दुर्लभ है, विकलत्रय से पंचेन्द्री, पंचेन्द्री से सैनी पर्याप्त, उससे मनुष्य होना कठिन है । मनुष्य में भी आर्य-क्षेत्र, उत्तम-कुल, शुद्धात्मा का उपदेश आदि मिलना उत्तरोत्तर बहुत कठिन हैं, और किसी तरह 'काकतालीय न्याय' से काल-लब्धि को पाकर सब दुर्लभ सामग्री मिलने पर भी जैन-शास्त्रोक्त मार्ग से मिथ्यात्वादि के दूर हो जाने से आत्म-स्वरूप की प्राप्ति होते हुए, जैसा जैसा मोह क्षीण होता जाता है, वैसा शुद्ध-आत्मा ही उपादेय है, ऐसा रुचिरूप सम्यक्त्व होता है । शुद्ध आत्मा और कर्म को जुदे जुदे जानता है । जिस शुद्धात्मा की रुचिरूप परिणाम से यह जीव निश्चय-सम्यग्दृष्टि होता है, वही उपादेय है, यह तात्पर्य हुआ ॥८५॥

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+ आत्मा स्पर्श या वर्ण नहीं -
अप्पा गोरउ किण्हु ण वि अप्पा रत्तु ण होइ ।
अप्पा सुहुमु वि थूलु ण वि णाणिउ जाणेँ जोइ ॥86॥
आत्मा गौरः कृष्णः नापि आत्मा रक्त : न भवति ।
आत्मा सूक्ष्मोऽपि स्थूलः नापि ज्ञानी ज्ञानेन पश्यति ॥८६॥
अन्वयार्थ : [आत्मा गौरः कृष्णः नापि] आत्मा सफेद, काला नहीं, [आत्मा रक्तः न भवति] आत्मा लाल नहीं, [आत्मा सूक्ष्मः अपि स्थूलः नैव] आत्मा सूक्ष्म और स्थूल भी नहीं ऐसा [ज्ञानी ज्ञानेन पश्यति] ज्ञानी पुरुष ज्ञान द्वारा देखता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
इसके बाद पूर्व-कथित रीति से सम्यग्दृष्टि होकर मिथ्यात्व की भावना से विपरीत जैसी भेद-विज्ञान की भावना को करता है, वैसी भेद-विज्ञान-भावना का स्वरूप क्रम से सात दोहा-सूत्रों में कहते हैं -

ये श्वेत काले आदि धर्म व्यवहारनय से शरीर के सम्बन्ध से जीव के कहे जाते हैं, तो भी शुद्ध-निश्चयनय से शुद्धात्मा से जुदे हैं, कर्म-जनित हैं, त्यागने योग्य हैं । जो वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानी है, वह निज शुद्धात्म-तत्त्व में इन धर्मों को नहीं लगाता, अर्थात् इनको अपने नहीं समझता है ॥८६॥

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+ आत्मा के वर्ण या लिंग नहीं -
अप्पा बंभणु वइसु ण वि ण वि खत्तिउ ण वि सेसु ।
पुरिसु णउंसउ इत्थि ण वि णाणिउ मुणइ असेसु ॥87॥
आत्मा ब्राह्मणः वैश्यः नापि नापि क्षत्रियः नापि शेषः ।
पुरुषः नपुंसकः स्त्री नापि ज्ञानी मनुते अशेषम् ॥८७॥
अन्वयार्थ : [आत्मा ब्राह्मणः वैश्यः नापि] आत्मा ब्राह्मण, वैश्य भी नहीं, [क्षत्रियः नापि] क्षत्रिय भी नहीं, [शेषः नापि] शुद्र भी नहीं, [पुरुषः नपुंसकः स्त्री नापि] पुरुष, नपुंसक, स्त्रीलिंगरूप भी नहीं, [ज्ञानी अशेषम् मनुते] ज्ञानी अपने को कुछ और ही जानता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे ब्राह्मणादि वर्ण आत्मा के नहीं हैं, ऐसा वर्णन करते हैं -

जो ब्राह्मणादि वर्ण-भेद हैं, और पुरुष लिंगादि तीन लिंग हैं, वे यद्यपि व्यवहारनय से देह के सम्बन्ध से जीव के कहे जाते हैं, तो भी शुद्ध-निश्चयनय से आत्मा से भिन्न हैं, और साक्षात् त्यागने योग्य हैं, उनको वीतराग निर्विकल्प समाधि से रहित मिथ्यादृष्टि जीव अपने जानता है, और उन्हीं को मिथ्यात्व से रहित सम्यग्दृष्टि जीव अपने नहीं समझता । आपको तो वह ज्ञान-स्वभावरूप जानता है ॥८७॥

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+ आत्मा के वेष नहीं -
अप्पा वंदउ खवणु ण वि अप्पा गुरउ ण होइ ।
अप्पा लिंगिउ एक्कु ण वि णाणिउ जाणइ जोइ ॥88॥
आत्मा वन्दकः क्षपणः नापि आत्मा गुरवः न भवति ।
आत्मा लिङ्गी एकः नापि ज्ञानी जानाति योगी ॥८८॥
अन्वयार्थ : [आत्मा वन्दकः क्षपणः नापि] आत्मा बौद्ध-आचार्य नहीं, दिगंबर, [आत्मा गुरवः न भवति] आत्मा श्वेताम्बर भी नहीं होती, [आत्मा एकः अपि लिंगी न] आत्मा कोई भी वेश-धारी नहीं, [ज्ञानी योगी जानाति] मात्र ज्ञान है, ऐसा योगी जानता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे वंदक क्षपणकादि भेद भी जीव के नहीं हैं, ऐसा कहते हैं -

यद्यपि व्यवहारनय से यह आत्मा वंदकादि अनेक भेषों को धरता है, तो भी शुद्ध-निश्चयनय से कोई भी भेष जीव के नहीं है, देह के है । यहाँ देह के आश्रय से जो द्रव्य-लिंग है, वह उपचरितासद्भूत व्यवहारनय से जीव का स्वरूप कहा जाता है, तो भी निश्चयनय से जीव का स्वरूप नहीं है । क्योंकि जब देह ही जीव की नहीं, तो भेष कैसे हो सकता है ? इसलिये द्रव्यलिंग तो सर्वथा ही नहीं है, और वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप भावलिंग यद्यपि शुद्धात्म स्वरूप का साधक है, इसलिये उपचारनय से जीव का स्वरूप कहा जाता है, तो भी परम सूक्ष्म शुद्ध निश्चयनय से भावलिंग भी जीव का नहीं है । भावलिंग साधनरूप है, वह भी परमअवस्था का साधक नहीं है ॥८८॥

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+ आत्मा गुरु-शिष्यादिक भी नहीं -
अप्पा गुरु णवि सिस्सु णवि णवि सामिउ णवि भिच्चु ।
सूरउ कायरु होइ णवि णवि उत्तमु णवि णिच्चु ॥89॥
आत्मा गुरुः नैव शिष्यः नैव नैव स्वामी नैव भृत्यः ।
शूरः कातरः भवति नैव नैव उत्तमः नैव नीचः ॥८९॥
अन्वयार्थ : [आत्मा गुरुः नैव] आत्मा गुरु नहीं, [शिष्य नैव] शिष्य नहीं, [स्वामी नैव भृत्यः नैव] स्वामी नहीं, नौकर नहीं, [शूरः कातरः नैव] शूरवीर नहीं, कायर नहीं, [उत्तमः नैव नीचः नैव भवति] उच्चकुली नहीं, और नीचकुली भी नहीं है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे यह गुरु शिष्यादिक भी नहीं है -

ये सब गुरु, शिष्य, स्वामी, सेवकादि संबंध यद्यपि व्यवहार-नय से जीव के स्वरूप हैं, तो भी शुद्ध-निश्चयनय से शुद्ध आत्मा से जुदे हैं, आत्मा के नहीं हैं, त्यागने योग्य हैं, इन भेदों को वीतराग परमानंद निज शुद्धात्मा की प्राप्ति से रहित बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि जीव अपने समझता है, और इन्हीं भेदों को वीतराग निर्विकल्प समाधि में रहता हुआ अंतरात्मा सम्यग्दृष्टिजीव पर रूप (दूसरे) जानता है ॥८९॥

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+ आत्मा मनुष्य-देव आदि नहीं -
अप्पा माणुसु देउ ण वि अप्पा तिरिउ ण होइ ।
अप्पा णारउ कहिँ वि णवि णाणिउ जाणइ जोइ ॥90॥
आत्मा मनुष्यः देवः नापि आत्मा तिर्यग् न भवति ।
आत्मा नारकः क्वापि नैव ज्ञानी जानाति योगी ॥९०॥
अन्वयार्थ : [आत्मा मनुष्यः देवः नापि] आत्मा मनुष्य नहीं, देव नहीं, [आत्मा तिर्यग् न भवति] आत्मा पशु नहीं होता, [आत्मा नारकः क्वापि नैव] आत्मा नारकी भी कभी नहीं, [ज्ञानी योगी जानाति] ज्ञानी योगी जानते हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे आत्मा का स्वरूप कहते हैं -

निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव जो परमात्म-तत्त्व, उसकी भावना से उलटे राग-द्वेषादि विभाव-परिणामों से उपार्जन किये जो शुभाशुभ कर्म हैं, उनके उदय से उत्पन्न हुई मनुष्यादि विभाव-पर्यायों को भेदाभेद स्वरूप रत्नत्रय की भावना से रहित हुआ मिथ्यादृष्टि जीव, अपने जानता है और इस अज्ञान से रहित सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव उन मनुष्यादि पर्यायों को अपने से जुदा जानता है ॥९०॥

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+ आत्मा पंडित मूर्ख आदि नहीं -
अप्पा पंडिउ मुक्खु णवि णवि ईसरु णवि णीसु ।
तरुणउ बूढउ बालु णवि अण्णु वि कम्म-विसेसु ॥91॥
आत्मा पण्डितः मूर्खः नैव नैव ईश्वरः नैव निःस्वः ।
तरुणः वृद्धः बालः नैव अन्यः अपि कर्मविशेषः ॥९१॥
अन्वयार्थ : [आत्मा पंडितः मूर्खः नैव] आत्मा पंडित व मूर्ख नहीं, [ईश्वरः नैव निःस्वः नैव] धनवान् नहीं दरिद्री भी नहीं, [तरुणः वृद्धः बालः] जवान, बूढ़ा और बालक, [अन्यः अपि कर्म विशेषः नैव] अन्य भी जो कर्म के उदय से विशेषता होती है, वह भी नहीं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे फिर आत्मा का स्वरूप कहते हैं -

यद्यपि शरीर के सम्बन्ध से पंडित वगैरह भेद व्यवहारनय से जीव के कहे जाते हैं, तो भी शुद्ध-निश्चयनय से शुद्धात्म-द्रव्य से भिन्न हैं, और सर्वथा त्यागने योग्य हैं । इन भेदों को वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान की भावना से रहित मिथ्यादृष्टि जीव अपने जानता है, और इन्हीं को पंडितादि विभाव-पर्यायों को अज्ञान से रहित सम्यग्दृष्टि जीव अपने से जुदे कर्म-जनित जानता है ॥९१॥

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+ आत्मा पुण्य-पापादि नहीं -
पुण्णु वि पाउ वि कालु णहु धम्माधम्मु वि काउ ।
एक्कु वि अप्पा होइ णवि मेल्लिवि चेयण-भाउ ॥92॥
पुण्यमपि पापमपि कालः नभः धर्माधर्ममपि कायः ।
एकमपि आत्मा भवति नैव मुक्त्वा चेतनभावम् ॥९२॥
अन्वयार्थ : [चेतनभावम् मुक्तवा] चेतनभाव को छोड़कर [पुण्यमपि पापमपि] पुण्य भी, पाप भी [कालः नभः धर्माधर्ममपि कायः] काल, आकाश, धर्म, अधर्म-द्रव्य, शरीर [एक अपि आत्मा नैव भवति] एक भी आत्मा नहीं होता ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे आत्मा के चेतन-भाव का वर्णन करते हैं -

व्यवहारनय से यद्यपि पुण्य, पापादि आत्मा से अभिन्न हैं, तो भी शुद्ध-निश्चयनय से भिन्न हैं, और त्यागने योग्य हैं, उन पर-भावों को मिथ्यात्व रागादिरूप परिणत हुआ बहिरात्मा जानता है, और उन्हीं को पुण्य, पापादि समस्त संकल्प, विकल्प रहित निज-शुद्धात्म-द्रव्य में सम्यक् श्रद्धान ज्ञान चारित्ररूप अभेद रत्नत्रय स्वरूप परम-समाधि में तिष्ठता

सम्यग्दृष्टि जीव शुद्धात्मा से जुदे जानता है ॥९२॥

ऐसे बहिरात्मा परमात्मारूप तीन प्रकार के आत्मा का जिसमें कथन है, ऐसे पहले अधिकार में मिथ्यादृष्टि की भावना से रहित जो सम्यग्दृष्टि की भावना, उसकी मुख्यता से आठ दोहा-सूत्र कहे ।

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+ आत्मा क्या है? -
अप्पा संजमु सीलु तउ अप्पा दंसणु णाणु ।
अप्पा सासय-मोक्ख-पउ जाणंतउ अप्पाणु ॥93॥
आत्मा संयमः शीलं तपः आत्मा दर्शनं ज्ञानम् ।
आत्मा शाश्वतमोक्षपदं जानन् आत्मानम् ॥९३॥
अन्वयार्थ : [आत्मा संयमः शीलं तपः] आत्मा ही संयम, शील, तप, [आत्मा दर्शनं ज्ञानम्] आत्मा दर्शन-ज्ञान है, [आत्मानम् जानन् आत्मा] अपने को जानता हुआ आत्मा [शाश्वतमोक्षपदं] अविनाशी मोक्षपद है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे भेदविज्ञान की मुख्यता से 'अप्पा संजमु' इत्यादि इकतीस दोहा पर्यन्त क्षेपक-सूत्रों को छोड़कर पहला अधिकार पूर्ण करते हुए व्याख्यान करते हैं, उसमें भी जो शिष्य ने प्रश्न किया कि यदि पुण्य-पापादिरूप आत्मा नहीं है, तो कैसा है ? ऐसे प्रश्न का श्रीगुरु समाधान करते हैं -

पाँच इन्द्रियाँ और मन का रोकना व छह काय के जीवों की दयास्वरूप ऐसे इन्द्रिय-संयम तथा प्राण-संयम इन दोनों के बल से साध्य-साधक भाव द्वारा निश्चय से अपने

शुद्धात्म-स्वरूप में स्थिर होने से आत्मा को संयम कहा गया है, बहिरंग सहकारी निश्चय शील का कारणरूप जो काल क्रोधादि के त्यागरूप व्रत की रक्षा वह व्यवहार शील है, और निश्चयनय से अंतरंग में अपने शुद्धात्म-द्रव्य का निर्मल अनुभव वह शील कहा जाता है, सो शीलरूप आत्मा ही कहा गया है, बाह्य सहकारी कारणभूत जो अनशनादि बारह प्रकार का तप है, उससे तथा निश्चय से अंतरंग में सब पर-द्रव्य की इच्छा के रोकने से परमात्म-स्वभाव (निज-स्वभाव) में प्रतापरूप तिष्ठ रहा है, इस कारण और समस्त विभाव-परिणामों के जीतने से आत्मा ही तपश्चरण है, और आत्मा ही निज-स्वरूप की रुचिरूप सम्यक्त्व है, वह सर्वथा उपादेयरूप है, इससे सम्यग्दर्शन आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं है, वीतराग स्वसंवेदनज्ञान के अनुभव से आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं है, वीतराग संवेदन ज्ञान के अनुभव से आत्मा ही निश्चय ज्ञानरूप है, और मिथ्यात्व रागादि समस्त विकल्पजाल को त्यागकर परमात्मतत्त्व में परमसमरसीभाव के परिणमनसे आत्मा ही मोक्षमार्ग है ।

तात्पर्य यह है, कि बहिरंग द्रव्येन्द्रिय-संयमादि के पालने से अंतरंग में शुद्धात्मा के अनुभवरूप भाव-संयमादिक के परिणमन से उपादेयसुख जो अतीन्द्रिय-सुख उसके साधकपने से आत्मा ही उपादेय है ॥९३॥

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+ आत्मा ही ज्ञान-दर्शन-चारित्र -
अण्णु जि दंसणु अत्थि ण वि अण्णु जि अत्थि ण णाणु ।
अण्णु जि चरणु ण अत्थि जिय मेल्लिवि अप्पा जाणु ॥94॥
अन्यद् एव दर्शनं अस्ति नापि अन्यदेव अस्ति न ज्ञानं ।
अन्यद् एव चरणं न अस्ति जीव मुक्त्वा आत्मानं जानीहि ॥९४॥
अन्वयार्थ : [जीव आत्मानं मुक्तवा] हे जीव, आत्मा को छोड़कर [अन्यदपि दर्शनं न एव] दूसरा कोई भी दर्शन नहीं, [अन्यदपि ज्ञानं न अस्ति] अन्य कोई ज्ञान नहीं होता, [अन्यद् एव चरणं नास्ति] अन्य कोई चरित्र नहीं है, ऐसा [जानीहि ] जान ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे निज शुद्धात्म-स्वरूप को छोड़कर निश्चयनय से दूसरा कोई दर्शन ज्ञान चारित्र नहीं है, इस अभिप्राय को मन में रखकर गाथा-सूत्र कहते हैं -

यद्यपि छह-द्रव्य, पाँच-अस्तिकाय, सात-तत्त्व, नौ-पदार्थ का श्रद्धान कार्य-कारण भाव से निश्चय सम्यक्त्व का कारण होने से व्यवहार सम्यक्त्व कहा जाता है, अर्थात् व्यवहार साधक है, निश्चय साध्य है, तो भी निश्चयनय से एक वीतराग परमानंद स्वभाववाला शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा रुचिरूप परिणाम से परिणत हुआ शुद्धात्मा ही निश्चय सम्यक्त्व है,

यद्यपि निश्चय स्व-संवेदन ज्ञान का साधक होने से व्यवहारनय से शास्त्र का ज्ञान भी ज्ञान है, तो भी निश्चयनय से वीतराग स्व-संवेदनज्ञानरूप परिणत हुआ शुद्धात्मा ही निश्चयज्ञान है । यद्यपि निश्चय-चारित्र के साधक होने से अट्ठाईस मूलगुण, चौरासी लाख उत्तरगुण, व्यवहारनय से चारित्र कहे जाते हैं, तो भी शुद्धात्मानुभूतिरूप वीतराग-चारित्र को परिणत हुआ निज-शुद्धात्मा ही निश्चयनय से चारित्र है ।

तात्पर्य यह है कि अभेदरूप परिणत हुआ परमात्मा ही ध्यान करने योग्य है ॥९४॥

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+ आत्मध्यान किसी तीर्थ, गुरु, देव से भी उत्कृष्ट -
अण्णु जि तित्थु म जाहि जिय अण्णु जि गुरुउ म सेवि ।
अण्णु जि देउ म चिंति तुहुँ अप्पा विमलु मुएवि ॥95॥
अन्यद् एव तीर्थ मा याहि जीव अन्यद् एव गुरुं मा सेवस्व ।
अन्यद् एव देवं मा चिन्तय त्वं आत्मानं विमलं मुक्त्वा ॥९५॥
अन्वयार्थ : [जीव आत्मानं विमलं मुक्तवा] हे जीव निर्मल आत्मा को छोड़कर [त्वं अन्यद् एव] तू दूसरे [तीर्थं मायाहि] तीर्थ को मत जा, [अन्यद् एव गुरुं मा सेवस्व] दूसरे गुरु को मत सेव, [अन्यद् एव देवं मा चिन्तय] अन्य देव को मत ध्या ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे निश्चयनय से वीतराग भावरूप परिणत हुआ निज शुद्धात्मा ही निश्चयतीर्थ, निश्चयगुरु, निश्चयदेव है, ऐसा कहते हैं -

यद्यपि व्यवहारनय से मोक्ष के स्थानक सम्मेदशिखर आदि व जिनप्रतिमा जिनमंदिर आदि तीर्थ हैं, क्योंकि वहाँ से गये महान् पुरुषों के गुणों की याद होती है, तो भी वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप छेद रहित जहाज द्वारा संसाररूपी समुद्र के तरने को समर्थ जो निज आत्म-तत्त्व है, वही निश्चय से तीर्थ है, उसके उपदेश-परम्परा से परमात्म-तत्त्व का लाभ होता है । यद्यपि व्यवहारनय से दीक्षा-शिक्षा का देनेवाला दिगंबर गुरु होता है, तो भी निश्चयनय से विषय-कषाय आदिक समस्त विभाव-परिणामों के त्यागने के समय निज शुद्धात्मा ही गुरु है, उसी से संसार की निवृत्ति होती है । यद्यपि प्रथम अवस्था में चित्त की स्थिरता के लिये व्यवहारनय से जिनप्रतिमादिक देव कहे जाते हैं, और वे परंपरा से निर्वाण के कारण हैं, तो भी निश्चयनय से परम आराधने योग्य वीतराग निर्विकल्प परम-समाधि के समय निज शुद्धात्मभाव ही देव हैं, अन्य नहीं । इसप्रकार निश्चय व्यवहारनय से साध्य-साधक-भाव से तीर्थ-गुरु-देव का स्वरूप जानना चाहिये । निश्चय-देव, निश्चय-गुरु, निश्चय-तीर्थ निज-आत्मा ही है, वही साधने योग्य है, और व्यवहार-देव जिनेन्द्र तथा उनकी प्रतिमा, व्यवहार-गुरु महामुनिराज, व्यवहार-तीर्थ सिद्धक्षेत्रादिक ये सब निश्चय के साधक हैं, इसलिये प्रथम अवस्था में आराधने योग्य हैं । तथा निश्चयनय से ये सब पदार्थ हैं, उनसे साक्षात् सिद्धि नहीं है, परम्परा से है ।

यहाँ श्रीपरमात्मप्रकाश अध्यात्म-ग्रंथ में निश्चय देव-गुरु-तीर्थ अपना आत्मा ही है, उसे आराधनाकर अनंत सिद्ध हुए और होवेंगे, ऐसा सारांश हुआ ॥९५॥

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+ आत्मा ही दर्शन -
अप्पा दंसणु केवलु वि अण्णु सव्वु ववहारु ।
एक्कु जि जोइय झाइयइ जो तइलोयहँ सारु ॥96॥
आत्मा दर्शनं केवलोऽपि अन्यः सर्वः व्यवहारः ।
एक एव योगिन् ध्यायते यः त्रैलोक्यस्य सारः ॥९६॥
अन्वयार्थ : [केवलः आत्मा अपि दर्शनं] केवल आत्मा ही सम्यग्दर्शन है, [अन्यः सर्वः व्यवहारः] दूसरा सब व्यवहार है, [योगिन् एक एव ध्यायते] हे योगी एक आत्मा ही ध्याने योग्य है, [यः त्रैलोक्यस्य सारः] जो कि तीन लोक में सार है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे निश्चयनय से आत्मस्वरूप ही सम्यग्दर्शन है -

वीतराग चिदानंद अखंड स्वभाव, आत्मतत्त्व का सम्यक् श्रद्धान ज्ञान अनुभवरूप जो अभेद-रत्नत्रय वही जिसका लक्षण है, तथा मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तिरूप समाधि में लीन निश्चयनय से निज-आत्मा ही निश्चय-सम्यक्त्व है, अन्य सब व्यवहार है । इसकारण आत्मा ही ध्यावने योग्य है । जैसे दाख, कपूर, चन्दन इत्यादि बहुत द्रव्यों से बनाया गया जो पीने का रस यद्यपि अनेक रसरूप है, तो भी अभेदनय से एक पान-वस्तु कही जाती है, उसी तरह शुद्धात्मानुभूति स्वरूप निश्चय-सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रादि अनेक भावों से परिणत हुआ आत्मा अनेकरूप है, तो भी अभेदनय की विवक्षा से आत्मा एक ही वस्तु है । यही अभेद रत्नत्रय का स्वरूप जैन सिद्धान्तों में हर एक जगह कहा है - 'दर्शनमित्यादि..' इसका अर्थ ऐसा है, कि आत्मा का निश्चय वह सम्यग्दर्शन है, आत्मा का जानना वह सम्यग्ज्ञान है, और आत्मा में निश्चल होना वह सम्यक्चारित्र है, यह निश्चय-रत्नत्रय साक्षात् मोक्ष का कारण है, इनसे बंध कैसे हो सकता है ? कभी नहीं हो सकता ॥९६॥

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+ आत्मध्यान से क्षणमात्र में मुक्ति -
अप्पा झायहि णिम्मलउ किं बहुएँ अण्णेण ।
जो झायंतहँ परम-पउ लब्भइ एक्क-खणेण ॥97॥
आत्मानं ध्यायस्व निर्मलं किं बहुना अन्येन ।
यं ध्यायमानानां परमपदं लभ्यते एकक्षणेन ॥९७॥
अन्वयार्थ : [निर्मलं आत्मानं ध्यायस्व] निर्मल आत्मा का ही ध्यानकर, [अन्येन बहुना किं] और बहुत पदार्थों से क्या ? [यं ध्यायमानानां एकक्षणेन] जिस परमात्मा के ध्यान करनेवालों को क्षणमात्र में [परमपदं लभ्यते] मोक्षपद मिलता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे ऐसा कहते हैं, कि निर्मल आत्मा को ही ध्यावो, जिसके ध्यान करने से अंतर्मुहूर्त में मोक्षपद की प्राप्ति हो -

सब शुभाशुभ संकल्प-विकल्प रहित निजशुद्ध आत्मस्वरूप के ध्यान करने से शीघ्र ही मोक्ष मिलता है, इसलिये वही हमेशा ध्यान करने योग्य है । ऐसा ही बृहदाराधना-शास्त्र में कहा है । सोलह तीर्थंकरों के एक ही समय तीर्थंकरों के उत्पत्ति के दिन पहले चारित्र ज्ञान की सिद्धि हुई, फिर अंतर्मुहूर्त में मोक्ष हो गया । यहाँ पर शिष्य प्रश्न करता है कि यदि परमात्मा के ध्यान से अंतर्मुहूर्त में मोक्ष होता है, तो इस समय ध्यान करनेवाले हम लोगों को क्यों नहीं होता ? उसका समाधान इस तरह है कि जैसा निर्विकल्प शुक्लध्यान वज्रवृषभनाराच संहनन वालों को चौथे काल में होता है, वैसा अब नहीं हो सकता । ऐसा ही दूसरे ग्रंथोंमें कहा है - 'अत्रेत्यादि' इसका अर्थ यह है, कि श्रीसर्वज्ञवीतरागदेव इस भरतक्षेत्र में इस पंचमकाल में शुक्लध्यान का निषेध करते हैं, इस समय धर्मध्यान हो सकता है, शुक्लध्यान नहीं हो सकता । उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी दोनों ही इस समय नहीं हैं, सातवाँ गुणस्थान तक गुणस्थान है, ऊपर के गुणस्थान नहीं हैं । इस जगह तात्पर्य यह है कि जिस कारण-परमात्मा के ध्यान से अंतर्मुहूर्त में मोक्ष होता है, इसलिये संसार की स्थिति घटाने के वास्ते अब भी धर्मध्यान का आराधन करना चाहिये, जिससे परम्परा मोक्ष भी मिल सकता है ॥९७॥

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+ आत्म-ज्ञान बिना ज्ञान तप निष्फल -
अप्पा णिय-मणि णिम्मलउ णियमेँ वसइ ण जासु ।
सत्थ-पुराणइँ तव-चरणु मुक्खु वि करहिँ कि तासु ॥98॥
आत्मा निजमनसि निर्मलः नियमेन वसति न यस्य ।
शास्त्रपुराणानि तपश्चरणं मोक्षं अपि कुर्वन्ति किं तस्य ॥९८॥
अन्वयार्थ : [यस्य निजमनसि] जिसके अपने मन में [निर्मलः आत्मा] निर्मल आत्मा [नियमेन न वसति] निश्चय से नहीं रहता, [तस्य शास्त्रपुराणानि तपश्चरणमपि] उसके शास्त्र, पुराण, तपस्या भी [किं मोक्षं कुर्वंति] क्या मोक्ष को कर सकते हैं ?

श्रीब्रह्मदेव :
आगे ऐसा कहते हैं कि, जिसके राग रहित मन में शुद्धात्मा की भावना नहीं है, उनके शास्त्र, पुराण, तपश्चरण क्या कर सकते हैं ? अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकते -

वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप शुद्धभावना जिसके नहीं है, उसके शास्त्र, पुराण, तपश्चरणादि सब व्यर्थ हैं । यहाँ शिष्य प्रश्न करता है, कि क्या बिलकुल ही निरर्थक हैं । उसका समाधान ऐसा है, कि बिलकुल तो नहीं है, लेकिन वीतराग सम्यक्त्वरूप निज-शुद्धात्मा की भावना सहित हो, तब तो मोक्ष के ही बाह्य सहकारी कारण है, यदि वे वीतराग-सम्यक्त्व के अभावरूप हों, तो पुण्य-बंध के कारण हैं, और जो मिथ्यात्व रागादि सहित हों, तो पापबंध के कारण है, जैसे कि रुद्र वगैरह विद्यानुवादनामा दशवें पूर्व तक शास्त्र पढ़कर भ्रष्ट हो जाते हैं ॥९८॥

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+ आत्मज्ञान से केवलज्ञान -
जोइय अप्पेँ जाणिएण जगु जाणियउ हवेइ ।
अप्पहँ केरइ भावडइ बिंबिउ जेण वसेइ ॥99॥
योगिन् आत्मना ज्ञातेन जगत् ज्ञातं भवति ।
आत्मनः संबन्धिनिर्भावे बिम्बितं येन वसति ॥९९॥
अन्वयार्थ : [योगिन् आत्मना ज्ञातेन] हे योगी आत्मा के जानने से [जगत् ज्ञातं भवति] जगत का जानना होता है, [आत्मनः संबन्धिनि भावे] आत्मा से सम्बंधित भाव (स्वभाव, केवलज्ञान) में [बिम्बितं येन वसति] (जगत) बिम्बित हुआ बसता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जिन भव्य-जीवों ने आत्मा को जान लिया, उन्होंने सब जाना ऐसा दिखलाते हैं -

वीतराग निर्विकल्प स्व-संवेदन ज्ञान से शुद्धात्म-तत्त्व के जानने पर समस्त द्वादशांग शास्त्र जाना जाता है । क्योंकि जैसे रामचन्द्र, पांडव, भरत, सगर आदि महान् पुरुष भी जिनराज की दीक्षा लेकर फिर द्वादशांग को पढ़कर द्वादशांग पढ़ने का फल निश्चय-रत्नत्रय-स्वरूप जो शुद्ध-परमात्मा, उसके ध्यान में लीन हुए तिष्ठे थे । इसलिये वीतराग स्व-संवेदन ज्ञान से अपने आत्मा का जानना ही सार है, आत्मा के जानने से सबका जानपना सफल होता है, इस कारण जिन्होंने अपनी आत्मा जानी उन्होंने सबको जाना । अथवा निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न हुआ जो परमानंद सुखरस उसके आस्वाद होने पर ज्ञानी पुरुष ऐसा जानता है, कि मेरा स्वरूप जुदा है, और देह रागादिक मेरे से दूसरे हैं, मेरे नहीं हैं, इसलिये आत्मा के जानने से सब भेद जाने जाते हैं, जिसने अपने को जान लिया, उसने अपने से भिन्न सब पदार्थ जाने । अथवा आत्मा श्रुतज्ञानरूप व्याप्ति-ज्ञान से सब लोकालोक को जानता है, इसलिये आत्मा के जानने से सब जाना गया । अथवा वीतराग निर्विकल्प परम-समाधि के बल से केवलज्ञान को उत्पन्न करके जैसे दर्पण में घट पटादि पदार्थ झलकते हैं, उसी प्रकार ज्ञानरूपी दर्पण में सब लोक-अलोक भासते हैं । इससे यह बात निश्चय हुई, कि आत्मा के जानने से सब जाना जाता है ।

यहाँ पर सारांश यह हुआ, कि इन चारों व्याख्यानों का रहस्य जानकर बाह्य अभ्यंतर सब परिग्रह छोड़कर सब तरह से अपने शुद्धात्मा की भावना करनी चाहिये । ऐसा ही कथन समयसार में श्रीकुंदकुंदाचार्य ने किया है । 'जो पस्सइ..' इत्यादि -- इसका अर्थ यह है, कि जो निकट-संसारी जीव स्व-संवेदन-ज्ञान से अपने आत्मा को अनुभवता, सम्यग्दृष्टिपने से अपने को देखता है, वह सब जैन-शासन को देखता है, ऐसा जिनसूत्र में कहा है । कैसा वह आत्मा है ? रागादिक ज्ञानावरणादिक से रहित है अन्यभाव जो नर नारकादि पर्याय उनसे रहित है, विशेष अर्थात् गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमास इत्यादि सब भेदों से रहित है । ऐसे आत्मा के स्वरूप को जो देखता है, जानता है, अनुभवता है, वह सब जिनशासन का मर्म जाननेवाला है ॥९९॥

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+ उसी को दृढ़ करते हैं -
अप्प-सहावि परिट्ठियह एहउ होइ विसेसु ।
दीसइ अप्प-सहावि लहु लोयालोउ असेसु ॥100॥
आत्मस्वभावे प्रतिष्ठितानां एष भवति विशेषः ।
द्रश्यते आत्मस्वभावे लघु लोकालोकः अशेषः ॥१००॥
अन्वयार्थ : [आत्मस्वभावे प्रतिष्ठितानां] आत्मा के स्वभाव में लीन हुए पुरुषों के [एष विशेषः भवति] यह विशेषता होती है, कि [आत्मस्वभावे] आत्म-स्वभाव में उनको [अशेषः लोकालोकः] समस्त लोकालोक [लघु दृश्यते] शीघ्र ही दिख जाता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
अब इसी बात का समर्थन (दृढ़) करते हैं -

अथवा इस जगह ऐसा भी पाठांतर है, 'अप्पसहाव लहु..' इसका अर्थ यह हैं, कि अपना स्वभाव शीघ्र दिख जाता है, और स्वभाव के देखने से समस्त लोक भी दिखता है । यहाँ पर भी विशेष करके पूर्व सूत्र-कथित चारों तरह का व्याख्यान जानना चाहिये, क्योंकि यही व्याख्यान बड़े-बड़े आचार्यों ने माना है ॥१००॥

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+ केवलज्ञान का स्वभाव -
अप्पु पयासइ अप्पु परु जिम अंबरि रवि-राउ ।
जोइय एत्थु म भंति करि एहउ वत्थु-सहाउ ॥101॥
आत्मा प्रकाशयति आत्मानं परं यथा अम्बरे रविरागः ।
योगिन् अत्र मा भ्रान्तिं कुरु एष वस्तुस्वभावः ॥१०१॥
अन्वयार्थ : [यथा अंबरे रविरागः] आकाश में सूर्य का प्रकाश के जैसे [आत्मा आत्मानं परं प्रकाशयति] आत्मा अपने और पर पदार्थों को प्रकाशता है, [योगिन् अत्र] हे योगी इसमे [भ्रान्तिं मा कुरु] संदेह मत कर, [एष वस्तुस्वभावः] ऐसा ही वस्तु का स्वभाव है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे इसी अर्थ को दृष्टांत-दार्ष्टान्त से दृढ़ करते हैं -

जैसे मेघ-रहित आकाश में सूर्य का प्रकाश अपने को और पर को प्रकाशता है, उसी प्रकार वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप कारण-समयसार में लीन होकर मोहरूप मेघ-समूह का नाश करके यह आत्मा मुनि अवस्था में वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान द्वारा अपने को और पर को कुछ प्रकाशित करता है, पीछे अरहंत अवस्थारूप कार्य-समयसार स्वरूप परिणमन करके केवलज्ञान से निज और पर को सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से प्रकाशता है । यह आत्म-वस्तु का स्वभाव है, इसमें संदेह नहीं समझना ।

इस जगह ऐसा सारांश है, कि जो केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्यरूप, कार्य-समयसार है, वही आराधने योग्य है ॥१०१॥

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+ उदाहरण -
तारायणु जलि बिंबियउ णिम्मलि दीसइ जेम ।
अप्पए णिम्मलि बिंबियउ लोयालोउ वि तेम ॥102॥
तारागणः जले बिम्बितः निर्मले द्रश्यते यथा ।
आत्मनि निर्मले बिम्बितं लोकालोकमपि तथा ॥१०२॥
अन्वयार्थ : [तारागणः निर्मले जले] जैसे ताराओं का समूह निर्मल जल में [बिम्बितः दृश्यते यथा] प्रतिबिम्बित हुआ दिखता है जैसे, [तथा निर्मले आत्मनि] उसी प्रकार निर्मल आत्मा में [लोकालोकं अपि] भी लोक-अलोक (भासते हैं)

श्रीब्रह्मदेव :
आगे इसी अर्थ को फिर भी खुलासा करने के लिये दृष्टान्त देकर कहते हैं -

इसका विशेष व्याख्यान जो पहले कहा था, वही यहाँ पर जानना अर्थात् जो सबका ज्ञाता द्रष्टा आत्मा है, वही उपादेय है । यह सूत्र भी पहले कथन को दृढ़ करनेवाला है ॥१०२॥

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+ उपसंहार -
अप्पु वि परु वि वियाणइ जेँ अप्पेँ मुणिएण ।
सो णिय-अप्पा जाणि तुहुँ जोइय णाण-बलेण ॥103॥
आत्मापि परः अपि विज्ञायते येन आत्मना विज्ञातेन ।
तं निजात्मानं जानीहि त्वं योगिन् ज्ञानबलेन ॥१०३॥
अन्वयार्थ : [येन आत्मना विज्ञातेन] जिस आत्मा को जानने से [आत्मा अपि परः अपि विज्ञायते] आप और पर सब पदार्थ जाने जाते हैं, [तं निजात्मानं ] उस अपने आत्मा को [योगिन् त्वं] हे योगी तू [ज्ञानबलेन जानीहि] ज्ञान के बल से जान ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जिस आत्मा के जानने से निज और पर सब पदार्थ जाने जाते हैं, उसी आत्मा को तू स्व-संवेदन ज्ञान के बल से जान, ऐसा कहते हैं -

यहाँ पर यह है, कि रागादि विकल्प-जाल से रहित सदा आनंद स्वभाव जो निज-आत्मा, उसके जानने से निज और पर सब जाने जाते हैं, इसलिये हे योगी! हे ध्यानी! तू उस आत्मा को वीतराग निर्विकल्प स्व-संवेदन ज्ञान की भावना से उत्पन्न परमानंद सुखरस के आस्वाद से जान, अर्थात् तन्मयी होकर अनुभव कर । स्व-संवेदन ज्ञान ही सार है । ऐसा उपदेश श्री योगीन्द्रदेव ने प्रभाकरभट्ट को दिया ॥१०३॥

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+ प्रश्न -
णाणु पयासहि परमु महु किं अण्णेँ बहुएण ।
जेण णियप्पा जाणियइ सामिय एक्क-खणेण ॥104॥
ज्ञानं प्रकाशय परमं मम किं अन्येन बहुना ।
येन निजात्मा ज्ञायते स्वामिन् एकक्षणेन ॥१०४॥
अन्वयार्थ : [स्वामिन् येन ज्ञानेन] हे भगवान् जिस ज्ञान से [एकक्षणेन निजात्मा ज्ञायते] क्षणभर में अपनी-आत्मा जानी जाती है, वह [परमं ज्ञानं मम प्रकाशय] परम ज्ञान मेरे प्रकाशित करिए, [अन्येन बहुना किं] और बहुत विकल्प-जालों से क्या ?

श्रीब्रह्मदेव :
अब प्रभाकरभट्ट महान् विनय से ज्ञान का स्वरूप पूछता है -

प्रभाकर भट्ट श्रीयोगीन्द्रदेव से पूछता है, कि हे स्वामी जिस वीतराग स्व-संवेदन से ज्ञान द्वारा क्षणमात्र में शुद्ध, बुद्ध स्वभाव अपनी आत्मा जानी जाती है, वह ज्ञान मुझको प्रकाशित करो, दूसरे विकल्प-जालों से कुछ फायदा नहीं है, क्योंकि ये रागादिक विभावों के बढ़ानेवाले हैं ।

सारांश यह है कि मिथ्यात्व रागादि विकल्पों से रहित तथा निज शुद्ध आत्मानुभव रूप जिस ज्ञान से अंतर्मुहूर्त में ही परमात्मा का स्वरूप जाना जाता है, वही ज्ञान उपादेय है । ऐसी प्रार्थना शिष्य ने श्रीगुरु से की ॥१०४॥

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+ आत्मा का संस्थान -
अप्पा णाणु मुणेहि तुहुँ जो जाणइ अप्पाणु ।
जीव-पएसहिँ तित्तिडउ णाणेँ गयण-पवाणु ॥105॥
आत्मानं ज्ञानं मन्यस्व त्वं यः जानाति आत्मानम् ।
जीवप्रदेशैः तावन्मात्रं ज्ञानेन गगनप्रमाणम् ॥१०५॥
अन्वयार्थ : [त्वं आत्मानं] तू आत्मा को ही [ज्ञानं मन्यस्व] ज्ञान जान [यः आत्मानम्] जो आत्मा [जीवप्रदेशैः तावन्मात्रं] जीव-प्रदेशों से शरीर-प्रमाण [ज्ञानेन गगनप्रमाणम्] ज्ञान से आकाश-प्रमाण है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे श्रीगुरु चार दोहा-सूत्रों से ज्ञान का स्वरूप प्रकाशते हैं, श्रीगुरु कहते हैं, कि -

निश्चयनय से मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवल इन पाँच ज्ञानों से अभिन्नतथा व्यवहारनय से ज्ञान की अपेक्षारूप देखने में नेत्रों की तरह लोक-अलोक में व्यापक है । अर्थात् जैसे आँख रूपी-पदार्थों को देखती हैं, परंतु उन स्वरूप नहीं होती, वैसे ही आत्मा यद्यपि लोक-अलोक को जानता है, देखता है, तो भी उन स्वरूप नहीं होता, अपने स्वरूप ही रहता है, ज्ञान अपेक्षा ज्ञेय प्रमाण है, यद्यपि निश्चय से प्रदेशों से लोक-प्रमाण है, असंख्यात प्रदेशी है, तो भी व्यवहारनय से अपने देह-प्रमाण है, ऐसे आत्मा को जो पुरुष आहार, भय, मैथुन परिग्रहरूप चार वांछाओं स्वरूप आदि समस्त विकल्प की तरंगों को छोड़कर जानता है, वही पुरुष ज्ञान से अभिन्न होने से ज्ञान कहा जाता है । आत्मा और ज्ञान में भेद नहीं है, आत्मा ही ज्ञान है ।

यहाँ सारांश यह है, कि निश्चयनय से पाँच प्रकार के ज्ञानों से अभिन्न अपने आत्मा को जो ध्यानी जानता है, उसी आत्मा को तू उपादेय जान । ऐसा ही सिद्धांतों में हरएक जगह कहा है - 'आभिणि..' इत्यादि । इसका अर्थ यह है, कि मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञान ये पाँचप्रकार के सम्यग्ज्ञान एक आत्मा के ही स्वरूप हैं, आत्मा के बिना ये ज्ञान नहीं हो सकते, वह आत्मा ही परम अर्थ है, जिसको पाकर वह जीव निर्वाण को पाता है ॥१०५॥

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+ पर भावों को छोड़ -
अप्पहँ जे वि विभिण्ण वढ ते वि हवंति ण णाणु ।
ते तुहुँ तिण्णि वि परिहरिवि णियमिँ अप्पु वियाणु ॥106॥
आत्मनः ये अपि विभिन्नाः वत्स तेऽपि भवन्ति न ज्ञानम् ।
तान् त्वं त्रीण्यपि परिहृत्य नियमेन आत्मानं विजानीहि ॥१०६॥
अन्वयार्थ : [आत्मनः ये अपि विभिन्नाः] आत्मा से जो जुदे हैं [वत्स] हे शिष्य, [तेऽपि ज्ञानम् न भवंति] वे भी ज्ञान नहीं हैं, [तान् त्वं त्रीणि अपि] तुम उन तीनों (धर्म, अर्थ, कामरूप भावों) को [परिहृत्य नियमेन] छोड़कर निश्चय से [आत्मानं विजानीहि] आत्मा को जान ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे परभाव का निषेध करते हैं -

हे प्रभाकर भट्ट, मुनिरूप धर्म, अर्थरूप संसार के प्रयोजन, काम (विषयाभिलाष) ये तीनों ही आत्मा से भिन्न हैं, ज्ञानरूप नहीं हैं । निश्चयनय से सब तरफ से निर्मल केवलज्ञान स्वरूप परमात्म-पदार्थ से भिन्न तीनों ही धर्म, अर्थ, काम, पुरुषार्थों को छोड़कर वीतराग स्व-संवेदन स्वरूप शुद्धात्मानुरूप ज्ञान में रहकर आत्मा को जान ॥१०६॥

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+ आत्मा ज्ञान गोचर -
अप्पा णाणहँ गम्मु पर णाणु वियाणइ जेण ।
तिण्णि वि मिल्लिवि जाणि तुहुँ अप्पा णाणेँ तेण ॥107॥
आत्मा ज्ञानस्य गम्यः परः ज्ञानं विजानाति येन ।
त्रीण्यपि मुक्त्वा जानीहि त्वं आत्मानं ज्ञानेन तेन ॥१०७॥
अन्वयार्थ : [आत्मा ज्ञानस्य गम्यः] आत्मा ज्ञान द्वारा गोचर है, [पर: ज्ञानं विजानाति येन] जैसे पर को ज्ञान जानता है, [तेन त्वं] इसलिये तू [त्रीणि अपि मुक्तवा] तीनों (धर्म, अर्थ, काम) ही भावों को छोड़कर [ज्ञानेन आत्मानं जानीहि] ज्ञान से निज आत्मा को जान ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे आत्मा का स्वरूप दिखलाते हैं -

निज शुद्धात्मा ज्ञान के ही गोचर (जानने योग्य) है, क्योंकि मतिज्ञानादि पाँच भेदों रहित जो परमात्म शब्द का अर्थ परमपद है वही साक्षात् मोक्ष का कारण है, उस स्वरूप परमात्मा को वीतराग निर्विकल्प स्व-संवेदन ज्ञान के बिना दुर्धर तप के करनेवाले भी बहुत से प्राणी नहीं पाते । इसलिये ज्ञान से ही अपना स्वरूप अनुभव कर । ऐसा ही कथन श्रीकुंदकुंदाचार्य ने समयसारजी में किया है 'णाणगुणेहिं..' इत्यादि । इसका अर्थ यह है, कि सम्यग्ज्ञान नामक निज गुण से रहित पुरुष इस ब्रह्मपद को बहुत कष्ट करके भी नहीं पाते, अर्थात् जो महान दुर्धर तप करो तो भी नहीं मिलता । इसलिये जो तू दुःख से छूटना चाहता है, सिद्ध-पद की इच्छा रखता है, तो आत्म-ज्ञान से निजपद को प्राप्त कर ।

यहाँ सारांश यह है कि, जो धर्म-अर्थ-कामादि सब पर-द्रव्य की इच्छाको छोड़ता है, वही निज शुद्धात्म-सुखरूप अमृत में तृप्त हुआ सिद्धांत में परिग्रह-रहित कहा जाता है, और निर्ग्रंथ कहा जाता है, और वही अपने आत्मा को जानता है । ऐसा ही समयसार में कहा है 'अपरिग्गहो..' इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है, कि निज सिद्धांत में परिग्रह रहित और इच्छा रहित ज्ञानी कहा गया है, जो धर्म को भी नहीं चाहता है, अर्थात् जिसके व्यवहार धर्म की भी कामना नहीं है, उसके अर्थ तथा काम की इच्छा कहाँ से होवे ? वह आत्मज्ञानी सब अभिलाषाओं से रहित है, जिसके धर्म का भी परिग्रह नहीं है, तो अन्य परिग्रह कहाँसे हो ? इसलिये वह ज्ञानी परिग्रही नहीं है, केवल निज-स्वरूप का जाननेवाला ही होता है ॥१०७॥

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+ परलोक -- आत्मा से परमात्मा -
णाणिय णाणिउ णाणिएण णाणिउँ जा ण मुणेहि ।
ता अण्णाणिं णाणमउँ किं पर बंभु लहेहि ॥108॥
ज्ञानिन् ज्ञानी ज्ञानिना ज्ञानिनं यावत् न मन्यस्व ।
तावद् अज्ञानेन ज्ञानमयं किं परं ब्रह्म लभसे ॥१०८॥
अन्वयार्थ : [ज्ञानिन् ज्ञानी ज्ञानिना ज्ञानिनं] हे ज्ञानी ! आत्मा को ज्ञान द्वारा आत्मा के लिए [यावत् न जानासि] जब तक नहीं जानता, [तावद् अज्ञानेन] तब तक अज्ञानी होने से [ज्ञानमयं परं ब्रह्म] ज्ञानमय परमात्मा को [किं लभसे] क्या पा सकता है ?

श्रीब्रह्मदेव :
आगे ज्ञान से ही परब्रह्म की प्राप्ति होती है, ऐसा कहते हैं -

जब तक यह जीव अपने को आपसे अपनी प्राप्ति के लिये आप से अपने में तिष्ठता नहीं जान ले, तब तक निर्दोष शुद्ध परमात्मा सिद्ध-परमेष्ठी को क्या पा सकता है ? कभी नहीं पा सकता । जो आत्मा को जानता है, वही परमात्मा को जानता है ॥१०८॥

इसप्रकार प्रथम महास्थल में चार दोहों में अंतरस्थल में ज्ञान का व्याख्यान किया ।

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+ परलोक -- अपना स्वरूप जानना -
जोइज्जइ तिं बंभु परु जाणिज्जइ तिं सोइ ।
बंभु मुणेविणु जेण लहु गम्मिज्जइ परलोइ ॥109॥
द्रश्यते तेन ब्रह्मा परः ज्ञायते तेन स एव ।
ब्रह्म मत्वा येन लघु गम्यते परलोके ॥१०९॥
अन्वयार्थ : [तेन परः ब्रह्मा दृश्यते] उनसे शुद्धात्मा देखा जाता है, [तेन स एव ज्ञायते] उनसे वही (शुद्धात्मा) जाना जाता है, [येन ब्रह्म मत्वा] इससे अपना स्वरूप जानकर [परलोके लघु गम्यते] परलोक को शीघ्र ही प्राप्त होता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे चार सूत्रों में अंतरस्थल में परलोक शब्द की व्युत्पत्ति द्वारा परलोक शब्द से परमात्मा को ही कहते हैं -

जो कोई शुद्धात्मा अपना स्वरूप शुद्ध निश्चयनय से शक्तिरूप से केवलज्ञान केवलदर्शन स्वभाव है, वही वास्तव में परमेश्वर है । परमेश्वरमें और जीव में जाति-भेद नहीं है, जब तक कर्मों से बँधा हुआ है, तब तक संसार में भ्रमण करता है । सूक्ष्म, बादर, एकेन्द्रियादि जीवों के शरीर में जुदा-जुदा तिष्ठता है, और जब कर्मों से रहित हो जाता है, तब सिद्ध कहलाता है । संसार-अवस्था में शक्तिरूप परमात्मा है, और सिद्ध-अवस्था में व्यक्तिरूप है । यही आत्मा परब्रह्म, परमविष्णु शक्तिरूप है, और प्रगटरूप से भगवान् अर्हंत अथवा मुक्ति को प्राप्त हुए सिद्धात्मा ही परमब्रह्मा, परमविष्णु, परमशिव कहे जाते हैं । यह निश्चय से जानो । ऐसा कहने से अन्य कोई भी कल्पना किया हुआ जगत् में व्यापक परमब्रह्म, परमविष्णु, परमशिव नहीं ।

सारांश यह है कि जिस लोक के शिखर पर अनंत सिद्ध विराज रहे हैं, वही लोक का शिखर परमधाम ब्रह्म-लोक वहीं विष्णु-लोक और वही शिव-लोक है, अन्य कोई भी ब्रह्म-लोक, विष्णु-लोक, शिव-लोक नहीं है , ये सब निर्वाण-क्षेत्र के नाम हैं, और ब्रह्मा, विष्णु, शिव ये सब सिद्ध-परमेष्ठी के नाम हैं । भगवान् तो व्यक्तिरूप परमात्मा हैं, तथा वह जीव शक्तिरूप परमात्मा है । इसमें संदेह नहीं है । जितने भगवान् के नाम हैं, उतने सब शक्तिरूप इस जीव के नाम हैं । यह जीव ही शुद्धनय से भगवान् है ॥१०९॥

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+ परलोक -- ध्यान का ध्येय -
मुणि-वर-विंदहँ हरि-हरहं जो मणि णिवसइ देउ ।
परहँ जि परतरु णाणमउ सो वुच्चइ पर-लोउ ॥110॥
मुनिवरवृन्दानां हरिहराणां यः मनसि निवसति देवः ।
परस्माद् अपि परतरः ज्ञानमयः स उच्यते परलोकः ॥११०॥
अन्वयार्थ : [यः मुनिवरवृन्दानां हरिहराणां] जो मुनिश्वरों के समूह के तथा इन्द्र, वासुदेव, रुद्रों के [मनसि निवसति] चित्त में बस रहा है, [सः परस्माद् अपि परतरः] वह उत्कृष्ट से भी उत्कृष्ट [ज्ञानमयः परलोकः उच्यते] ज्ञानमयी परलोक कहा जाता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे ऐसा कहते हैं कि भगवान् का ही नाम परलोक है -

परलोक शब्द का अर्थ ऐसा है कि पर अर्थात् उत्कृष्ट वीतराग चिदानंद शुद्ध-स्वभाव आत्मा, उसका लोक अर्थात् अवलोकन निर्विकल्प समाधि में अनुभवना वह परलोक है । अथवा जिसके परमात्मस्वरूप में या केवलज्ञान में जीवादि पदार्थ देखे जावें, इसलिये उस परमात्मा का नाम परलोक है । अथवा व्यवहारनय से स्वर्ग-मोक्ष को परलोक कहते हैं । स्वर्ग और मोक्ष का कारण भगवान का धर्म है, इसलिये केवली भगवान् को परलोक कहते हैं । परमात्मा के समान अपना निज आत्मा है, वही परलोक है, वही उपादेय है ॥११०॥

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+ जैसी मति वैसी गति -
सो पर वुच्चइ लोउ परु जसु मइ तित्थु वसेइ ।
जहिँ मइ तहिँ गइ जीवह जि णियमेँ जेण हवेइ ॥111॥
सः परः उच्यते लोकः परः यस्य मतिः तत्र वसति ।
यत्र मतिः तत्र गतिः जीवस्य एव नियमेन येन भवति ॥१११॥
अन्वयार्थ : [यस्य मतिः तत्र वसति] जिसकी बुद्धि उस (निज-आत्म स्वरूप) में बसती है, [स परः] वह पुरुष [परः लोकः] परलोक (उत्कृष्ट जन) [उच्यते ] कहा जाता है [येन यत्र मतिः] क्योंकि जैसी बुद्धि होती है, [तत्र एव जीवस्य गतिः] वैसी ही जीव की गति [नियमेन भवति] नियम से होती है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे ऐसा कहते हैं, जिसका मन निज आत्मा में बस रहा है, वही ज्ञानी जीव परलोक है -

जिस भव्य जीव की बुद्धि उस निज-आत्मस्वरूप में बस रही है, अर्थात् विषय-कषाय-विकल्प-जाल के त्याग से स्व-संवेदन ज्ञान-स्वरूप से स्थिर हो रही है, वह पुरुष निश्चयनय से उत्कृष्ट जन कहा जाता है । अर्थात् जिसकी बुद्धि निजस्वरूप में ठहर रही है, वह उत्तम जन है, क्योंकि जैसी बुद्धि होती है, वैसी ही जीव की गति निश्चयनय से होती है, ऐसा जिनवरदेव ने कहा है । अर्थात् शुद्धात्म-स्वरूप में जिस जीव की बुद्धि होवे, उसको वैसी ही गति होती है, जिन जीवों का मन निज-वस्तु में है, उनको निज-पद की प्राप्ति होती है, इसमें संदेह नहीं है ।

जो आर्तध्यान रौद्रध्यान की आधीनता से अपने शुद्धात्मा की भावना से रहित हुआ रागादिक परभावों स्वरूप परिणमन करता है, तो वह दीर्घ-संसारी होता है, और जो निश्चय रत्नत्रय स्वरूप परमात्म-तत्त्व में भावना करता है, वह मोक्ष पाता है । ऐसा जानकर सब रागादि विकल्पों को त्यागकर उस परमात्म तत्त्व में ही भावना करनी चाहिये ॥१११॥

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+ पर-द्रव्य को मत देख -
जहिँ मइ तहिँ गइ जीव तहुँ मरणु वि जेण लहेहि ।
तेँ परबंभु मुएवि मइँ मा पर-दव्वि करेहि ॥112॥
यत्र मतिः तत्र गतिः जीव त्वं मरणमपि येन लभसे ।
तेन परब्रह्म मुक्त्वा मतिं मा परद्रव्ये कार्षीः ॥११२॥
अन्वयार्थ : [जीव यत्र मतिः] हे जीव ! जहाँ तेरी बुद्धि है, [तत्र गतिः] उसी ओर गति है, [येन त्वं मृत्वा लभसे] वैसा ही तू मरकर पावेगा, [तेन परब्रह्म मुक्तवा] इसलिये शुद्धात्मा को छोड़कर [परद्रव्ये मतिं मा कार्षीः] पर-द्रव्य में बुद्धि को मत कर ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे फिर इसी बात को दृढ़ करते हैं -

शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से टाँकी का-सा गढ़ा हुआ अघटित घाट, अमूर्तिक-पदार्थ, ज्ञायक-मात्र स्वभाव, वीतराग, सदा आनंदरूप, अद्वितीय अतीन्द्रिय सुखरूप, अमृत के रस द्वारा तृप्त ऐसे निज शुद्धात्म-तत्त्व को छोड़कर द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म में या देहादि परिग्रह में मन को मत लगा ॥११२॥

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+ पर-द्रव्य -
जं णियदव्वहँ भिण्णु जडु तं परदव्वु वियाणि ।
पुग्गलु धम्माधम्मु णहु कालु वि पंचमु जाणि ॥113॥
यत् निजद्रव्याद् भिन्नं जडं तत् परद्रव्यं जानीहि ।
पुद्गलः धर्माधर्मः नभः कालं अपि पञ्चमं जानीहि ॥११३॥
अन्वयार्थ : [यत् निजद्रव्याद् भिन्नं] जो आत्म-पदार्थ से जुदा [जडं तत् परद्रव्यं जानीहि] जड़, उसे परद्रव्य जानो वे [पुद्गलः धर्माधर्मः नभः कालं अपि पंचमं] पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और पाँचवाँ काल [जानीहि] (ये सब पर-द्रव्य) जानो ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे परलोक (परमात्मा) में ही मन लगा, पर-द्रव्य से ममता छोड़ ऐसा कहा गया था, उसमें शिष्य ने प्रश्न किया कि पर-द्रव्य क्या हैं ? उसका समाधान श्रीगुरु करते हैं -

द्रव्य छह हैं, उनमें से पाँच जड़ और जीव को चैतन्य जानो । पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल, आकाश ये सब जड़ हैं, इनको अपने से जुदा जानो और जीव भी अनंत हैं, उन सबको अपने से भिन्न जानो । अनंत-चतुष्टय स्वरूप अपना आत्मा है, उसी को निज (अपना ) जानो, और जीव के भाव-कर्मरूप रागादिक तथा द्रव्य-कर्म, ज्ञानावरणादि आठ कर्म, और शरीरादिक नोकर्म, और इनका संबंध अनादि से है, परंतु जीव से भिन्न है, इसलिये अपने मत मान । पुद्गलादि पाँच भेद जड़ पदार्थ सब हेय जान, अपना स्वरूप ही उपादेयहै, उसी को आराधन कर ॥११३॥

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+ ध्यान की सामर्थ्य -
जइ णिविसद्धु वि कु वि करइ परमप्पइ अणुराउ ।
अग्गि-कणी जिम कट्ठ-गिरि डहइ असेसु वि पाउ ॥114॥
यदि निमिषार्धमपि कोऽपि करोति परमात्मनि अनुरागम् ।
अग्निकणिका यथा काष्ठगिरिं दहति अशेषमपि पापम् ॥११४॥
अन्वयार्थ : [यदि निमिषार्धमपि कोऽपि] जो आधे निमेषमात्र भी [परमात्मनि अनुरागम् करोति] कोई परमात्मा में प्रीति करे तो [यथा अग्निकणिका] जैसे अग्नि की कणी [काष्ठगिरिं दहति] काठ के पहाड़ को भस्म करती है, उसी तरह [अशेषम् अपि पापम्] सब ही पापों को भस्म कर डाले ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे एक अन्तमुहूर्त में कर्म-जाल को वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप अग्नि भस्म कर डालती है ऐसी समाधि की सामर्थ्य है, वही दिखाते हैं -

ऋद्धि का गर्व, रसायन का गर्व अर्थात् पारा वगैरह आदि धातुओं के भस्म करने का मद, अथवा नौ रस के जानने का गर्व, कवि-कला का मद, वाद में जीतने का मद, शास्त्र की टीका बनाने का मद, शास्त्र के व्याख्यान करने का मद, ये चार तरह का शब्द-गौरव-स्वरूप इत्यादि अनेक विकल्प-जालों का त्यागरूप प्रचंड-पवन उससे प्रज्वलित हुई (दहकती हुई) जो निज शुद्धात्म-तत्त्व के ध्यानरूप अग्नि की कणी है, जैसे वह अग्नि की कणी काठ के पर्वत को भस्म कर देती है, उसी तरह यह समस्त पापों को भस्म कर डालती है, अर्थात् जन्म-जन्म के इकट्ठे किये हुए कर्मों को आधे निमेष में नष्ट

कर देती है, ऐसी शुद्ध आत्म-ध्यान की सामर्थ्य जानकर उसी ध्यान की ही भावना सदा करनी चाहिये ॥११४॥

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+ चिंता रहित होकर देख -
मेल्लिवि सयल अवक्खडी जिय णिच्चिंतउ होइ ।
चित्तु णिवेसहि परमपए देउ णिरंजणु जोइ ॥115॥
मुक्त्वा सकलां चिन्तां जीव निश्चिन्तः भूत्वा ।
चित्तं निवेशय परमपदे देवं निरञ्जनं पश्य ॥११५॥
अन्वयार्थ : [जीव सकलां चिन्तां मुक्त्वा] हे जीव समस्त चिंताओं से मुक्त [निश्चिन्तः भूत्वा] निश्चिन्त होकर [चित्तं परमपदे निवेशय] मन को परमपद में लगा, और [निरंजनं देवं पश्य] निरंजन देव को देख ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे हे जीव, चिंताओं को छोड़कर शुद्धात्म स्वरूप को निरंतर देख, ऐसा कहते हैं -

हे हंस, (जीव) देखे सुने और भोगे हुए भोगों की वांछारूप खोटे ध्यान आदि सब चिंताओं को छोड़कर अत्यंत निश्चिंत होकर अपने चित्त को परमात्म-स्वरूप में स्थिर कर । उसके बाद भाव-कर्म, द्रव्य-कर्म, नो-कर्मरूप अंजन से रहित जो निरंजन देव परम आराधने योग्य अपना शुद्धात्मा है, उसका ध्यान कर । पहले यह कहा था कि खोटे ध्यान को छोड़,सो खोटे ध्यान का नाम शास्त्र में अपध्यान कहा है । अपध्यानका लक्षण कहते हैं । 'बंधवधेत्यादि..' उसका अर्थ ऐसा है कि निर्मल बुद्धिवाले पुरुष जिन-शासन में उसको अपध्यान कहते हैं, जो द्वेष से पर के मारने का, बाँधने का अथवा छेदने का चिंतवन करे, और राग-भाव से पर-स्त्री आदि का चिंतवन करे । उस अपध्यानके दो भेद हैं, एक आर्त्त दूसरा रौद्र । सो ये दोनों ही नरक, निगोद के कारण हैं, इसलिये विवेकियों को त्यागने योग्य हैं ॥११५॥

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+ आत्म-ध्यान के बिना सुख सम्भव नहीं -
जं सिव-दंसणि परम-सुहु पावहि झाणु करंतु ।
तं सुहु भुवणि वि अत्थि णवि मेल्लिवि देउ अणंतु ॥116॥
यत् शिवदर्शने परमसुखं प्राप्नोषि ध्यानं कुर्वन् ।
तत् सुखं भुवनेऽपि अस्ति नैव मुक्त्वा देवं अनन्तम् ॥११६॥
अन्वयार्थ : [यत् ध्यानं कुर्वन्] जिसके ध्यान करने से [शिवदर्शने परमसुखं प्राप्नोषि] मुक्ति दर्शन का अत्यंत सुख पाया जाता है, [तत् सुखं भुवने अपि] वह सुख तीन-लोक में भी [देवं मुक्त्वा अनन्तम्] परमात्म द्रव्य के सिवाय अन्य किसी में [नैव अस्ति] नहीं है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे शिव शब्द से कहे गये निज शुद्ध आत्मा के ध्यान करने पर जो सुख होता है,उस सुख को तीन दोहा-सूत्रों में वर्णन करते हैं -

शिव नाम कल्याण का है, सो कल्याणरूप ज्ञान-स्वभाव निज शुद्धात्मा को जानो, उसका जो दर्शन अर्थात् अनुभव उसमें सुख होता है, वह सुख परमात्मा को छोड़ तीन-लोक में नहीं है । वह सुख क्या है ? जो निर्विकल्प वीतराग परम आनंदरूप शुद्धात्मभाव है, वही सुखी है । क्या करता हुआ यह सुख पाता है कि तीन गुप्तिरूप परमसमाधि में आरूढ़ हुआ सता ध्यानी पुरुष ही उस सुख को पाता है । अनंत गुणरूप आत्म-तत्त्व के बिना वह सुख तीनों-लोक के स्वामी इन्द्रादि को भी नहीं है । इस कारण सारांश यह निकला कि शिव नाम वाला जो निज शुद्धात्मा है, वही राग-द्वेष-मोह के त्याग से ध्यान किया गया आकुलता रहित परम सुख को देता है । संसारी जीवों के जो इन्द्रिय-जनित सुख है, वह आकुलतारूप है, और आत्मीक अतीन्द्रिय-सुख आकुलता रहित है, सो सुख ध्यान से ही मिलता है, दूसरा कोई शिव या ब्रह्मा या विष्णु नाम का पुरुष देनेवाला नहीं है । आत्माका ही नाम शिव है, विष्णु है, ब्रह्मा है ॥११६॥

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+ आत्म-ध्यानी के सुख के सामान सुख नहीं -
जं मुणि लहइ अणंत-सुहु णिय-अप्पा झायंतु ।
तं सुहु इंदु वि णवि लहइ देविहिँ कोडि रमंतु ॥117॥
यत् मुनिः लभते अनन्तसुखं निजात्मानं ध्यायन् ।
तत् सुखं इन्द्रोऽपि नैव लभते देवीनां कोटिं रम्यमाणः ॥११७॥
अन्वयार्थ : [निजात्मनं ध्यायन् मुनिः] अपनी आत्मा को ध्यावता मुनि [यत् अनन्तसुखं लभते] जिस अनंत-सुख को पाता है, [तत् सुखं इन्द्रः अपि] उस सुख को इन्द्र भी [देवीनां कोटिं रम्यमाणः नैव लभते] करोड़ देवियों के साथ रमता हुआ नहीं पाता ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे कहते हैं कि जो सुख आत्मा को ध्यावने से महामुनि पाते हैं, वह सुख इन्द्रादि देवों को दुर्लभ है -

बाह्य और अंतरंग परिग्रह से रहित निज शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न हुआ जो वीतराग परमानंद सहित महामुनि जो सुख पाता है, उस सुख को इन्द्रादि भी नहीं पाते । जगत् में सुखी साधु ही हैं, अन्य कोई नहीं । यही कथन अन्य शास्त्रों में भी कहा है - 'दह्यमानेइत्यादि..' इसका अर्थ ऐसा है कि महामोहरूपी अग्नि से जलते हुए इस जगत् में देव, मनुष्य, तिर्यञ्च, नारकी सभी दुःखी हैं, और जिनके तप ही धन है, तथा सब विषयों का संबंध जिन्होंने छोड़ दिया है, ऐसा साधु मुनि जगत् में सुखी हैं ॥११७॥

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+ आत्म-ध्यानी को भगवान जैसा सुख -
अप्पा-दंसणि जिणवरहँ जं सुहु होइ अणंतु ।
तं सुहु लहइ विराउ जिउ जाणंतउ सिउ संतु ॥118॥
आत्मदर्शने जिनवराणां यत् सुखं भवति अनन्तम् ।
तत् सुखं लभते विरागः जीवः जानन् शिवं शान्तम् ॥११८॥
अन्वयार्थ : [आत्मदर्शने जिनवराणां] जिनेन्द्र को आत्म-दर्शन द्वारा [यत् अनन्तम् सुखं भवति] जैसा अनंत सुख होता है, [तत् सुखं विरागः जीवः] वह सुख विरागी जीव को [शिवं शांतं जानन् लभते] शांत मुक्त जानता हुआ पाता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे ऐसा कहते हैं कि वैरागी मुनि ही निज आत्मा को जानते हुए निर्विकल्प सुख को पाते हैं -

निज शुद्धात्मा के दर्शन में जो अनंत अद्भुत सुख मुनि-अवस्था में जिनेश्वर-देवों के होता है, वह सुख वीतराग-भावना को परिणत हुआ मुनिराज निज शुद्धात्म-स्वभाव को तथा रागादि-रहित शांत-भाव को जानता हुआ पाता है । दीक्षा के समय तीर्थंकर-देव निज शुद्धआत्मा को अनुभवते हुए जो निर्विकल्प-सुख पाते हैं, वही सुख रागादि-रहित निर्विकल्प-समाधि में लीन विरक्त मुनि पाते हैं ॥११८॥

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+ मोक्ष अपने आप में -
जोइय णिय-मणि णिम्मलए पर दीसइ सिउ संतु ।
अंबरि णिम्मलि घण-रहिए भाणु जि जेम फुरंतु ॥119॥
योगिन् निजमनसि निर्मले परं द्रश्यते शिवः शान्तः ।
अम्बरे निर्मले घनरहिते भानुः इव यथा स्फुरन् ॥११९॥
अन्वयार्थ : [योगिन् निर्मले निजमनसि] हे योगी ! निर्मल अपने मन में [शिवःशांतः परं दृश्यते] शांत मोक्ष नियम से दिखता है [घनरिहते निर्मले अंबरे] बादल-रहित निर्मल आकाश में [भानुः इव स्फुरन् यथा] सूर्य के समान भासमान (प्रकाशमान) जैसे ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे काम क्रोधादि के त्यागने से शिव शब्द से कहा गया परमात्मा दिख जाता है, ऐसा अभिप्राय मन में रखकर यह गाथा-सूत्र कहते हैं -

जैसे मेघमाला के आडंबर से सूर्य नहीं भासता / दिखता और मेघ के आडंबर के दूर होने पर निर्मल आकाश में सूर्य स्पष्ट दिखता है, उसी तरह शुद्ध आत्मा की अनुभूति के शत्रु जो काम-क्रोधादि विकल्परूप मेघ हैं, उनके नाश होने पर निर्मल मनरूपी आकाश में केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप किरणों से सहित निज शुद्धात्मारूपी सूर्य प्रकाश करता है ॥११९॥

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+ राग-रंजित को मोक्ष-सुख नहीं -
राएँ रंगिए हियवडए देउ ण दीसइ संतु ।
दप्पणि मइलए बिंबु जिम एहउ जाणि णिभंतु ॥120॥
रागेन रञ्जिते हृदये देवः न द्रश्यते शान्तः ।
दर्पणे मलिने बिम्बं यथा एतत् जानीहि निर्भ्रान्तम् ॥१२०॥
अन्वयार्थ : [रागेन रंजिते हृदये] राग से रंजित ह्रदय में [शांतः देवः न दृश्यते] शांत आत्म-देव नहीं दिखता, [यथा मलिने दर्पणे] जैसे कि मैले दर्पण में [बिंबं एतत्] मुख नहीं भासता ऐसा [निर्भ्रान्तम् जानीहि] संदेह रहित जान ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जैसे मैले दर्पण में रूप नहीं दिखता, उसी तरह रागादि से मलिन चित्त में शुद्धआत्मस्वरूप नहीं दिखता, ऐसा कहते हैं -

ऐसा श्री योगीन्द्राचार्य ने उपदेश दिया है कि जैसे सहस्र किरणों से शोभित सूर्य आकाश में प्रत्यक्ष दिखता है, लेकिन मेघ-समूह से ढँका हुआ नहीं दिखता, उसी तरह केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप किरणों द्बारा लोक-अलोक का प्रकाशनेवाला भी इस देह (घट) के बीच में शक्तिरूप से विद्यमान निज शुद्धात्म-स्वरूप (परमज्योति चिद्रूप) सूर्य काम-क्रोधादि राग-द्वेष भावों स्वरूप विकल्प-जालरूप मेघ से ढँका हुआ नहीं दिखता ॥१२०॥

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+ राग और सुख एक साथ नहीं रह सकते -
जसु हरिणच्छी हियवडए तसु णवि बंभु वियारि ।
ऐक्कहिँ केम समंति वढ बे खंडा पडियारि ॥121॥
यस्य हरिणाक्षी हृदये तस्य नैव ब्रह्म विचारय ।
एकस्मिन् कथं समायातौ वत्स द्वौ खंडौ प्रत्याकारे ॥१२१॥
अन्वयार्थ : [यस्य हृदये हरियाक्षी वसति] जिसके चित्त में मृग के समान नेत्रवाली स्त्री बसती है [तस्य ब्रह्म नैव] उसके शुद्धात्मा नहीं है; [विचारय बत इकस्मिन् प्रतिकारे] विचार कर खेद की बात है कि एक म्यान में [द्वौखङ्गो कथं समायातौ] दो तलवारें कैसे आ सकती हैं ?

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जो विषयों में लीन हैं, उनको परमात्मा का दर्शन नहीं होता, ऐसा दिखलाते हैं -

वीतराग निर्विकल्प समाधि द्वारा उत्पन्न हुआ अनाकुलतारूप परम आनंद अतीन्द्रिय-सुखरूप अमृत है, उसके रोकनेवाले तथा आकुलता को उत्पन्न करनेवाले जो स्त्रीरूप के देखने की अभिलाषादि से उत्पन्न हुए हाव (सुख-विकार) भाव अर्थात् चित्त का विकार, विभ्रम अर्थात् मुँह का टेढ़ा करना, विलास अर्थात् नेत्रों के कटाक्ष इन स्वरूप विकल्पजालों से, मूर्छित रंजित परिणाम चित्त में ब्रह्म का (निज शुद्धात्मा का) रहना कैसे हो सकता है ? जैसे कि एक म्यान में दो तलवारें कैसे आ सकती हैं ? नहीं आ सकतीं । उसी तरह एक चित्त में ब्रह्म-विद्या और विषय-विनोद ये दोनों नहीं समा सकते । जहाँ ब्रह्म-विचार है, वहाँ विषय-विकार नहीं है, जहाँ विषय-विकार हैं वहाँ ब्रह्म-विचार नहीं है । इन दोनों में आपस में विरोध है । हाव, भाव, विभ्रम, विलास इन चारों का लक्षण दूसरी जगह भी कहा है । 'हावो मुखविकारः..' इत्यादि, उसका अर्थ ऊपर कर चुके हैं, इससे दूसरी बार नहीं करा ॥१२१॥

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+ भगवान आत्मा अनादि से -
णिय-मणि णिम्मलि णाणियहँ णिवसइ देउ अणाइ ।
हंसा सरवरि लीणु जिम महु एहउ पडिहाइ ॥122॥
निजमनसि निर्मले ज्ञानिनां निवसति देवः अनादिः ।
हंसः सरोवरे लीनः यथा मम ईद्रशः प्रतिभाति ॥१२२॥
अन्वयार्थ : [ज्ञानिनां निर्मले निजमनसि] ज्ञानियों के मल-रहित निजमन में [अनादिः देवः निवसति] अनादि देव निवास करता है, [यथा सरोवरे लीनः हंसः] जैसे सरोवर में लीन हुआ हंस बसता है [मम एवं प्रतिभाति] मुझे ऐसा मालूम पड़ता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे रागादि रहित निज मन में परमात्मा निवास करता है, ऐसा दिखाते हैं -

पहले दोहे में जो कहा था कि चित्त की आकुलता के उपजानेवाले स्त्री-रूप का देखना सेवना चिंतादिकों से उत्पन्न हुए रागादि-तरंगों के समूह हैं, उनसे रहित निज शुद्धात्म-द्रव्य का सम्यक्-श्रद्धान स्वाभाविक-ज्ञान उससे वीतराग परम सुखरूप अमृतरस उस स्वरूप निर्मल नीर से भरे हुए ज्ञानियों के मानससरोवर में परमात्मा-देव रूपी हंस निरंतर रहता है । वह आत्म-देव निर्मल गुणों की उज्ज्वलता से हंस के समान है । जैसे हंसों का निवास-स्थान मानसरोवर है, वैसे ब्रह्म का निवास-स्थान ज्ञानियों का निर्मल-चित्त है । ऐसा श्रीयोगीन्द्रदेव काअभिप्राय है ॥१२२॥

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+ वन्द्य-वंदक भाव रहित -
मणु मिलियउ परमेसरहँ परमेसरु वि मणस्स ।
बीहि वि समरसि हूवाहँ पुज्ज चडावउँ कस्स ॥123-अ॥
मनः मिलितं परमेश्वरस्य परमेश्वरः अपि मनसः ।
द्वयोरपि समरसीभूतयोः पूजां समारोपयामि कस्य ॥१२३-अ॥
अन्वयार्थ : [मनः परमेश्वरस्य] मन परमेश्वर में और [परमेश्वरः अपि मनसः मिलितं] परमेश्वर भी मन में मिल गया [द्वयोः अपि समरसीभूतयोः] दोनों ही को आपस में एकमएक होने पर [कस्य पूजां समारोपयामि] किसकी अब मैं पूजा करूँ ?

श्रीब्रह्मदेव :
आगे स्थल की संख्या से सिवाय दो प्रक्षेपक दोहा कहते हैं -

जब तक मन भगवान से नहीं मिला था, तब तक पूजा करता था, और जब मन प्रभु से मिल गया, तब पूजा का प्रयोजन नहीं है । यद्यपि व्यवहारनय से गृहस्थ-अवस्था में विषय कषायरूप खोटे ध्यान को हटाने के लिये और धर्म को बढ़ाने के लिये पूजा, अभिषेक, दान आदि का व्यवहार है, तो भी वीतराग-निर्विकल्प-समाधि में लीन हुए योगीश्वरों को उस समय में बाह्य व्यापार का अभाव होने से स्वयं ही द्रव्य-पूजा का प्रसंग नहीं आता, भाव-पूजा में ही तन्मय हैं ॥१२३-अ॥

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+ मन पर लगाम द्वारा मुक्ति प्राप्ति -
जेण णिरंजणि मणु धरिउ विषय-कसायहिँ जंतु ।
मोक्खहँ कारणु एत्तडउ अण्णु ण तनु ण मंतु ॥123-ब॥
येन निरञ्जने मनः धृतं विषयकषायेषु गच्छत् ।
मोक्षस्य कारणं एतावदेव अन्यः न तन्त्रं न मन्त्रः ॥१२३-ब॥
अन्वयार्थ : [येन विषयकषायेषु गच्छत् मनः] जिसने विषय कषायों में जाता हुआ मन [निरंजने धृतं एतावदेव] कर्मरूपी अंजन से रहित भगवान् में रक्खा वे ही [मोक्षस्य कारणं] मोक्ष के कारण हैं, [अन्यः तन्त्रं न मन्त्रः न] दूसरा कोई तंत्र नहीं और मंत्र नहीं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे इसी कथन को दृढ़ करते हैं -

जो कोई निकट-संसारी जीव शुद्धात्म-तत्त्व की भावना से उलटे विषय-कषायों में जाते हुए मन को वीतराग-निर्विकल्प स्व-संवेदन ज्ञान के बल से पीछे हटाकर निज

शुद्धात्म-द्रव्य में स्थापन करता है, वही मोक्ष को पाता है, दूसरा कोई मंत्र-तंत्रादि चतुर होने पर भी मोक्ष नहीं पाता ॥१२३-ब॥

इस तरह परमात्मप्रकाश की टीका में तीन क्षेपकों के सिवाय एक सौ तेईस दोहा-सूत्रों में बहिरात्मा, अंतरात्मा रूप, परमात्मा रूप तीन प्रकार से आत्मा को कहनेवाला पहला महाधिकारपूर्ण किया ॥

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+ समभाव द्वारा सुख की प्राप्ति -
देउ ण देउले णवि सिलए णवि लिप्पइ णवि चित्ति ।
अखउ णिरंजणु णाणमउ सिउ संठिउ सम-चित्ति ॥1॥
देवः न देवकुले नैव शिलायां नैव लेप्ये नैव चित्रे ।
अक्षयः निरञ्जनः ज्ञानमयः शिवः संस्थितः समचित्ते ॥१२३॥
अन्वयार्थ : [देवः] आत्मदेव [न देवकुले] देवालय (मंदिर) में नहीं, [शिलायां नैव] पाषाण की प्रतिमा में भी नहीं, [लेपे नैव] लेप में भी नहीं, [चित्रे नैव] चित्राम की मूर्ति में भी नहीं; [अक्षयः निरंजनः] अविनाशी, कर्माञ्जन से रहित, [ज्ञानमयः] केवलज्ञान से पूर्ण, [शिवः] मुक्त [समचित्ते संस्थितः] समभाव में तिष्ठता है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे इसी बात को दृढ़ करते हैं -

यद्यपि व्यवहारनय से धर्म की प्रवृत्ति के लिये स्थापनारूप अरहंत-देव देवालय में तिष्ठते हैं, धातु पाषाण की प्रतिमा को देव कहते हैं तो भी निश्चयनय से शत्रु-मित्र सुख

-दुःख जीवित-मरण जिसके समान हैं, तथा वीतराग सहजानंदस्वरूप परमात्मतत्त्व के सम्यक् श्रद्धान ज्ञान चारित्ररूप अभेद रत्नत्रय में लीन ऐसे ज्ञानियों के समचित्त में परमात्मा तिष्ठता है । ऐसा ही अन्य जगह भी समचित्त को परिणत हुए मुनियों का लक्षण कहा है । 'समस्तु..' इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है कि जिसके सब दुःख समान हैं, शत्रु-मित्रों का वर्ग समान हैं, प्रशंसा-निंदा समान हैं, पत्थर और सोना समान है, और जीवन-मरण जिसके समान हैं, ऐसा समभाव का धारण करनेवाला मुनि होता है । अर्थात् ऐसे समभाव के धारक शांतचित्त योगीश्वरों के चित्त में चिदानंददेव तिष्ठता है ॥१२३॥

इसप्रकार इकतीस दोहा-सूत्रों का-चूलिका स्थल कहा । चूलिका नाम अंत का है, सो पहले स्थल का अंत यहाँ तक हुआ ।

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+ शिष्य द्वारा अनुरोध -
सिरिगुरु अक्खहि मोक्खु महु मोक्खहँ कारणु तत्थु ।
मोक्खहँ केरउ अण्णु फलु जेँ जाणउँ परमत्थु ॥2॥
श्रीगुरो आख्याहि मोक्षं मम मोक्षस्य कारणं तथ्यम् ।
मोक्षस्य संबन्धि अन्यत् फलं येन जानामि परमार्थम् ॥१२४॥
अन्वयार्थ : [श्रीगुरो मम मोक्षं] हे श्रीगुरु, मुझे मोक्ष [तथ्यम् मोक्षस्यकारणं] सत्यार्थ मोक्ष का कारण, [अन्यत् मोक्षस्य संबंधि] और मोक्ष का [फलं आख्याहि] फल कृपाकर कहो [येन परमार्थं जानामि] जिससे कि मैं परमार्थ को जानूँ ।

श्रीब्रह्मदेव :
इसके बाद प्रकरण को संख्या के बाहर अर्थात् क्षेपकों के सिवाय दो सौ चौदह दोहा-सूत्रों से मोक्ष, मोक्ष-फल और मोक्ष-मार्ग के कथन की मुख्यता से दूसरा महा अधिकार आरंभ करते हैं । उसमें भी पहले दस दोहों तक मोक्ष की मुख्यता से व्याख्यान करते हैं -

प्रभाकरभट्ट श्री योगींद्रदेव से विनती करके मोक्ष, मोक्ष का कारण और मोक्ष का फल इन तीनों को पूछते हैं ॥१२४॥

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+ मोक्ष, मोक्ष का फल, मोक्ष का कारण करने की प्रतिज्ञा -
जोइय मोक्खु वि मोक्ख-फ लु पुच्छिउ मोक्खहँ हेउ ।
सो जिण-भासिउ णिसुणि तुहुँ जेण वियाणहि भेउ ॥3॥
योगिन् मोक्षोऽपि मोक्षफ लं पृष्टं मोक्षस्य हेतुः ।
तत् जिनभाषितं निशृणु त्वं येन विजानासि भेदम् ॥१२५॥
अन्वयार्थ : [योगिन् मोक्षोऽपि] हे योगी, तूने मोक्ष और [मोक्षफलं मोक्षस्य हेतुः] मोक्ष का फल तथा मोक्ष का कारण [पुष्टं तत्] पूछा, उसको [जिनभाषितं] जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे को [त्वं निशृणु] तू निश्चय से सुन, [येन भेदम् विजानासि] जिससे कि भेद अच्छी तरह जान जावे ।

श्रीब्रह्मदेव :
अब श्रीगुरु उन्हीं तीनों को क्रम से कहते हैं -

श्रीयोगींद्रदेव गुरु, शिष्य से कहते हैं कि हे प्रभाकरभट्ट; योगी शुद्धात्मा की प्राप्तिरूप मोक्ष, केवलज्ञानादि अनंत-चतुष्टय का प्रगटपना स्वरूप मोक्ष-फल, और निश्चय-व्यवहार रत्नत्रयरूप मोक्ष का मार्ग, इन तीनों को क्रम से जिन-आज्ञा प्रमाण तुझको कहूँगा । उनको तू अच्छी तरह चित्त में धारण कर, जिससे सब भेद मालूम हो जावेगा ॥१२५॥

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+ मोक्ष ही सुख -
धम्मह अत्थहँ कामहँ वि एयहँ सयलहँ मोक्खु ।
उत्तमु पभणहिँ णाणि जिय अण्णेँ जेण ण सोक्खु ॥4॥
धर्मस्य अर्थस्य कामस्यापि एतेषां सकलानां मोक्षम् ।
उत्तमं प्रभणन्ति ज्ञानिनः जीव अन्येन येन न सौख्यम् ॥१२६॥
अन्वयार्थ : [जीव धर्मस्य] हे जीव, धर्म के, [अर्थस्य] अर्थ के [कामस्य अपि]और काम के [एतेषां सकलानां] इन सब (पुरुषार्थों) में [मोक्षम् उत्तमं ज्ञानिनः] मोक्ष को उत्तम ज्ञानी [प्रभणंति] कहते हैं, [येन अन्येन] क्योंकि अन्य (धर्म, अर्थ, कामादि) में [सौख्यम् न] परम-सुख नहीं है ।

श्रीब्रह्मदेव :
अब धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों में सुख का मूल कारण मोक्ष ही सबसे उत्तम है, ऐसा अभिप्राय मन में रखकर इस गाथा-सूत्र को कहते हैं -

धर्म शब्द से यहाँ पुण्य समझना, अर्थ शब्द से पुण्य का फल राज्य वगैरह संपदा जानना, और काम शब्द से उस राज्य का मुख्य फल स्त्री, कपड़े, सुगंधितमाला आदि वस्तुरूप भोग जानना । इन तीनों से परमसुख नहीं हैं, क्लेशरूप दुःख ही है, इसलिये इन सबसे उत्तम मोक्ष को ही वीतराग सर्वज्ञ-देव कहते हैं, क्योंकि मोक्ष से जुदा जो धर्म, अर्थ, काम हैं, वे आकुलता के उत्पन्न करनेवाले हैं, तथा वीतराग, परमानन्दसुखरूप अमृतरस के आस्वाद से विपरीत हैं, इसलिये सुख के करनेवाले नहीं हैं, ऐसा जानना ॥१२६॥

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+ तीन पुरुषार्थों की अपेक्षा मोक्ष पुरुषार्थ की उत्तमता -
जइ जिय उत्तमु होइ णवि एयहँ सयलहँ सोइ ।
तो किं तिण्णि वि परिहरवि जिण वच्चहिँ पर-लोइ ॥5॥
यदि जीव उत्तमो भवति नैव एतेभ्यः सकलेभ्यः स एव ।
ततः किं त्रीण्यपि परिहृत्य जिनाः व्रजन्ति परलोके ॥१२७॥
अन्वयार्थ : [जीव यदि एतेभ्यः सकलेभ्यः] हे जीव, यदि इन सबों में [सः उत्तमः एव नैव] वह (मोक्ष) ही उत्तम नहीं [भवति ततः] होता तो [जिनाः त्रीण्यपि] श्रीजिनवरदेव धर्म, अर्थ, काम इन तीनों को [परिहृत्य परलोके] छोड़कर मोक्ष में [किं व्रजंति] क्यों जाते ?

श्रीब्रह्मदेव :
आगे धर्म, अर्थ, काम इन तीनों से जो मोक्ष उत्तम नहीं होता तो इन तीनों को छोड़कर जिनेश्वरदेव मोक्ष को क्यों जाते ? ऐसा दिखाते हैं -

पर अर्थात् उत्कृष्ट मिथ्यात्व रागादि रहित केवलज्ञानादि अनंत गुण सहित परमात्मा वह पर है, उस परमात्मा का लोक अर्थात् अवलोकन ये सब मोक्ष के नाम हैं, यानी जितने परमात्मा के नाम हैं, उनके आगे लोक लगाने से मोक्ष के नाम हो जाते हैं, दूसरा कोई कल्पना किया हुआ शिव-लोक, ब्रह्म-लोक या विष्णु-लोक नहीं है । यहाँ पर सारांश यह हुआ कि परलोक के नाम से कहा गया परमात्मा ही उपादेय है, ध्यान करने योग्य है, अन्य कोई नहीं ॥१२७॥

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+ मोक्ष तीन-लोक में उत्कृष्ट -
अणु जइ जगहँ वि अहिययरु गुण-गणु तासु ण होइ ।
तो तइलोउ वि किं धरइ णिय-सिर-उप्परि सोइ ॥6॥
अन्यद् यदि जगतोऽपि अधिकतरः गुणगणः तस्य न भवति ।
ततः त्रिलोकऽपि किं धरति निजशिर उपरि तमेव ॥६॥
अन्वयार्थ : [अन्यद् यदि] फिर जो [जगतः अपि अधिकतरः] सब लोक से भी बहुत ज्यादा [गुणगणः तस्य न भवति] गुणों का समूह उस (मोक्ष) में नहीं होता, [ततः त्रिलोकः अपि] तो तीनों ही लोक [निजशिरसि उपरि] अपने मस्तक के ऊपर [तमेव किं धरति] उसे (मोक्ष को) क्यों धारण करते ?

श्रीब्रह्मदेव :
आगे बतलाते हैं — जो मोक्ष में अधिक गुणों का समूह नहीं होता, तो मोक्ष को तीन लोक अपने मस्तक पर क्यों रखता ?

मोक्ष लोक के शिखर (अग्रभाग) पर है, सो सब लोकों से मोक्ष में बहुत ज्यादा गुण हैं, इसीलिये उसको लोक अपने सिर पर रखता है । कोई किसी को अपने सिर पर रखता है, वह अपने से अधिक गुणवाला जानकर ही रखता है । यदि क्षायिक-सम्यक्त्व केवल-दर्शनादि अनंत-गुण मोक्ष में न होते, तो मोक्ष सबके सिर पर न होता, मोक्ष के ऊपर अन्य

कोई स्थान नहीं हैं, सबके ऊपर मोक्ष ही है, और मोक्ष के आगे अनंत अलोक है, वह शून्य है, वहाँ कोई स्थान नहीं है । वह अनंत अलोक भी सिद्धों के ज्ञान में भास रहा है । यहाँ परमोक्ष में अनंत गुणों के स्थापन करने से मिथ्यादृष्टियों का खंडन किया । कोई मिथ्यादृष्टि वैशेषिकादि ऐसा कहते हैं, कि जो बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार इन नव गुणों के अभावरूप मोक्ष है, उनका निषेध किया, क्योंकि इंद्रिय-जनित बुद्धि का तो अभाव है, परंतु केवल-बुद्धि अर्थात् केवलज्ञान का अभाव नहीं है, इंद्रियों से उत्पन्न सुख का अभाव है, लेकिन अतीन्द्रिय सुख की पूर्णता है, दुःख, इच्छा, द्वेष, यत्न इन विभावरूप गुणों का तो अभाव ही है, केवलरूप परिणमन है, व्यवहार-धर्म का अभाव ही है, और वस्तु का स्वभावरूप धर्म वह ही है, अधर्म का तो अभाव ठीक ही है, और पर-द्रव्यरूप - संस्कार सर्वथा नहीं है, स्वभाव-संस्कार ही है । जो मूढ़ इन गुणों का अभाव मानते हैं, वे वृथा बकते हैं, मोक्ष तो अनंत-गुणरूप है । इस तरह निर्गुणवादियों का निषेध किया । तथा बौद्धमती जीव के अभाव को मोक्ष कहते हैं । वे मोक्ष ऐसा मानते हैं कि जैसे दीपक का निर्वाण (बुझना) उसी तरह जीव का अभाव वही मोक्ष है । ऐसी बौद्ध की श्रद्धा का भी तिरस्कार किया । क्योंकि जो जीव का ही अभाव हो गया, तो मोक्ष किसको हुआ ? जीव का शुद्ध होना वह मोक्ष है, अभाव कहना वृथा है । सांख्य-दर्शनवाले ऐसा कहते हैं कि जो एकदम सोने की अवस्था है, वही मोक्ष है, जिस जगह न सुख है, न ज्ञान है, ऐसी प्रतीति का निवारण किया । नैयायिक ऐसा कहते हैं कि जहाँ से मुक्त हुआ वहीं पर ही तिष्ठता है, ऊपर को गमन नहीं करता । ऐसे नैयायिक के कथन का लोक-शिखर पर तिष्ठता है, इस वचन से निषेध किया । जहाँ बंधन से छूटता है, वहाँ वह नहीं रहता, यह प्रत्यक्ष देखने में आता है, जैसे कैदी कैद से जब छूटता है, तब बंदीगृह से छूटकर अपने घर की तरफ गमन करता है, वह निजघर निर्वाण ही है । जैन-मार्ग में तो इंद्रिय-जनित ज्ञान जो कि मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय हैं, उनका अभाव माना है, और

अतीन्द्रियरूप जो केवलज्ञान है, वह वस्तु का स्वभाव है, उसका अभाव आत्मा में नहीं हो सकता । स्पर्श, रस, गंध, रूप, शब्द इन पाँच इंद्रिय विषयों से उत्पन्न हुए सुख का तो अभाव ही है, लेकिन अतीन्द्रिय-सुख जो निराकुल परमानंद है, उसका अभाव नहीं है, कर्म-जनित जो इंद्रियादि दस-प्राण अर्थात् पाँच-इंद्रियाँ, मन, वचन, काय, आयु, श्वासोच्छ्वास इन दस प्राणों का भी अभाव है, ज्ञानादि निज-प्राणों का अभाव नहीं है । जीव की अशुद्धता का अभाव है, शुद्धपने का अभाव नहीं, यह निश्चय से जानना ॥६॥

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+ मोक्ष में अविनाशी सुख -
उत्तमु सुक्खु ण देइ जइ उत्तमु मुक्खु ण होइ ।
तो किं सयलु वि कालु जिय सिद्ध वि सेवहिँ सोइ ॥8॥
उत्तमं सुखं न ददाति यदि उत्तमः मोक्षो न भवति ।
ततः किं सकलमपि कालं जीव सिद्धा अपि सेवन्ते तमेव ॥७॥
अन्वयार्थ : [यदि उत्तमं सुखं] जो उत्तम अविनाशी सुख को [न ददाति] नहीं देवे, तो [मोक्षः उत्तमः न भवति] मोक्ष उत्तम भी नहीं होता [ततः जीव] तो हे जीव ! [सिद्धा अपि सकलमपि कालं] सिद्धपरमेष्ठी भी अखण्ड रूप से सदा-काल [तमेव किं सेवंते] उसी (मोक्ष) को क्यों सेवन करते ?

श्रीब्रह्मदेव :
आगे कहते हैं कि जो मोक्ष उत्तम सुख नहीं दे, तो सिद्ध उसे निरंतर क्यों सेवन करें ? -

वह मोक्ष अखंड सुख देता है, इसीलिये उसे सिद्ध महाराज सेवते हैं, मोक्ष परम-आह्लादरूप है, अविनश्वर है, मन और इंद्रियों से रहित है, इसीलिये उसे सदाकाल सिद्ध सेवते हैं, केवलज्ञानादि गुण सहित सिद्ध-भगवान् निरंतर निर्वाण में ही निवास करते हैं, ऐसा निश्चित है । सिद्धों का सुख दूसरी जगह भी ऐसा कहा है 'आत्मोपादान..' इत्यादि । इसकाअभिप्राय यह है कि इस अध्यात्म - ज्ञान के सिद्धों के जो परम-सुख हुआ है, वह कैसा है कि अपनी अपनी जो उपादान-शक्ति उसी से उत्पन्न हुआ है, पर की सहायता से नहीं है, स्वयं (आप ही) अतिशयरूप है, सब बाधाओं से रहित है, निराबाध है, विस्तीर्ण है, घटती-बढ़ती से रहित है, विषय-विकार से रहित है, भेद-भाव से रहित है, निर्द्वन्द्व है, जहाँ पर-वस्तु की अपेक्षा ही नहीं है, अनुपम है, अनंत है, अपार है, जिसका प्रमाण नहीं सदा काल शाश्वत है, महा-उत्कृष्ट है, अनंत सारता लिये हुए है । ऐसा परम-सुख सिद्धों के है, अन्य के नहीं है ।

यहाँ तात्पर्य यह है कि हमेशा मोक्ष का ही सुख अभिलाषा करने योग्य है, और संसार-पर्याय सब हेय है ॥७॥

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+ सभी ज्ञानियों का ध्येय मोक्ष -
हरिहरब्रह्माणोऽपि जिनवरा अपि मुनिवरवृन्दान्यपि भव्याः ।
परमनिरञ्जने मनः धृत्वा मोक्षं एव ध्यायन्ति सर्वे ॥8॥
हरिहरब्रह्माणोऽपि जिनवरा अपि मुनिवरवृन्दान्यपि भव्याः ।
परमनिरञ्जने मनः धृत्वा मोक्षं एव ध्यायन्ति सर्वे ॥८॥
अन्वयार्थ : [हरिहरब्रह्माणोऽपि] नारायण वा इन्द्र, रुद्र अन्य ज्ञानी पुरुष [जिनवरा अपि] श्रीतीर्थंकर परमदेव [मुनिवरवृंदान्यपि भव्याः] मुनीश्वरों के समूह तथा भव्य जीव [परमनिरंजने] परम निरंजन में [मनः धृत्वा] मन रखकर [सर्वे मोक्षं एव ध्यायंति] सब ही मोक्ष को ही ध्यावते हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे सभी महान पुरुषों के मोक्ष ही ध्यावने योग्य है ऐसा कहते हैं -

श्री तीर्थंकरदेव तथा चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव महादेव इत्यादि सब प्रसिद्ध पुरुष अपने शुद्ध-ज्ञान, अखंड स्वभाव जो निज आत्म-द्रव्य उसका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप जो अभेद-रत्नत्रयमय समाधि से उत्पन्न वीतराग सहजानंद अतीन्द्रिय-सुखरस, उसके अनुभव से पूर्ण कलश की तरह भरे हुए निरंतर निराकार निज-स्वरूप

परमात्मा के ध्यान में स्थिर होकर मुक्त होते हैं । कैसा वह ध्यान है, कि ख्याति (प्रसिद्धि) पूजा (अपनी महिमा) और धनादिक का लाभ इत्यादि समस्त विकल्प-जालों से रहित है । यहाँ केवल आत्म-ध्यान ही को मोक्ष-मार्ग बतलाया है, और अपना स्वरूप ही ध्यावने योग्य है ।

तात्पर्य यह है कि यद्यपि व्यवहारनय से प्रथम अवस्था में वीतराग-सर्वज्ञ का स्वरूप अथवा वीतराग के नाम-मंत्र के अक्षर अथवा वीतराग के सेवक महामुनि ध्यावने योग्य हैं, तो भी वीतराग निर्विकल्प तीन गुप्तिरूप परमसमाधि के समय अपना शुद्ध आत्मा ही ध्यान करने योग्य है, अन्य कोई भी दूसरा पदार्थ पूर्ण अवस्था में ध्यावने योग्य नहीं है ॥८॥

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+ मोक्ष के चिंतवन की प्रेरणा -
तिहुयणि जीवहँ जत्थि णवि सोक्खहँ कारणु कोइ ।
मुक्सु मुएविणु एक्कु पर तेणवि चिंतहि सोइ ॥9॥
त्रिभुवने जीवानां अस्ति नैव सुखस्य कारणं किमपि ।
मोक्षं मुक्त्वा एकं परं तेनैव चिन्तय तमेव ॥९॥
अन्वयार्थ : [त्रिभुवने जीवानां] तीन लोक में जीवों को [मोक्षं मुक्त्वा] मोक्ष के छोड़कर [किमपि सुखस्य कारणं] कुछ भी सुख का कारण [नैव अस्ति] नहीं है, [तेन परं एकं] इसलिए नियम से एक (मोक्ष) का ही [तम् एव विचिंतय] तू चिंतवन कर ।

श्रीब्रह्मदेव :
अब तीन लोक में मोक्ष के सिवाय अन्य कोई भी परमसुख का कारण नहीं है, ऐसा निश्चय करते हैं -

श्रीयोगींद्राचार्य प्रभाकरभट्ट से कहते हैं कि वत्स; मोक्ष के सिवाय अन्य सुख का कारण नहीं है, और आत्म-ध्यान के सिवाय अन्य मोक्ष का कारण नहीं है, इसलिये तू वीतराग निर्विकल्प समाधि में ठहरकर निज शुद्धात्म स्वभाव को ही ध्या । यह श्रीगुरु ने आज्ञा की । तब प्रभाकरभट्ट ने विनती की, हे भगवन्; तुमने निरंतर अतींद्रीय मोक्ष-सुख का वर्णन किया है, सो ये जगतके प्राणी अतींद्रिय सुख को जानते ही नहीं हैं, इंद्रिय सुख को ही सुख मानते हैं । तब गुरु ने कहा कि हे प्रभाकरभट्ट; कोई एक पुरुष जिसका चित्त व्याकुलता रहित है, पंचेन्द्रिय के भोगों से रहित अकेला स्थित है, उस समय किसी पुरुष ने पूछा कि तुम सुखी हो । तब उसने कहा कि सुख से तिष्ट रहे हैं, उस समय पर विषय-सेवनादि सुख तो है ही नहीं, उसने यह क्यों कहा कि हम सुखी हैं । इसलिए यह मालूम होता है, सुख नाम व्याकुलता रहित का है, सुख का मूल निर्व्याकुलपना है, वह निर्व्याकुल अवस्था आत्मा में ही है, विषय-सेवन में नहीं । इसलिये जानते हैं कि सुख आत्मा में ही है । ऐसा तू निश्चय कर, जो एकादेश विषय-व्यापार से रहित हैं, उनके एकदेश-थिरता का सुख है, तो वीतराग निर्विकल्प-स्वसंवेदन ज्ञानियों के समस्त पंच इंद्रियों के विषय और मन के विकल्प-जालों की रुकावट होने पर विशेषता से निर्व्याकुल सुख उपजता है । इसलिये ये दो बातें प्रत्यक्ष ही दृष्टि पड़ती हैं । जो पुरुष निरोग और चिंता रहित हैं, उनके विषय-सामग्री के बिना ही सुख भासता है, और जो महामुनि शुद्धोपयोग अवस्था में ध्यानारूढ़ हैं, उनके निर्व्याकुलता प्रगट ही दिख रही है, वे इंद्रादिक देवों से भी अधिक सुखी हैं । इस कारण जब संसार अवस्था में ही सुख का मूल निर्व्याकुलता दीखती है, तो सिद्धों के सुख की बात ही क्या

है ? यद्यपि वे सिद्ध दृष्टिगोचर नहीं हैं, तो भी अनुमान कर ऐसा जाना जाता है, कि सिद्धों के भाव-कर्म, द्रव्य-कर्म, नो-कर्म नहीं, तथा विषयों की प्रवृत्ति नहीं है, कोई भी विकल्प-जाल नहीं है, केवल अतींद्रिय आत्मीक-सुख ही है, वही सुख उपादेय है, अन्य सुख सब दुःस्वरूप ही हैं । जो चारों गतियों की पर्यायें हैं, उनमें कदापि सुख नहीं है । सुख तो सिद्धों के है, या महामुनीश्वरों के सुख का लेशमात्र देखा जाता है, दूसरे के जगत की विषय-वासनाओं में सुख नहीं है ऐसा ही कथन श्रीप्रवचनसारमें किया है । 'अइसय..' इत्यादि । सारांश यह है, कि जो शुद्धोपयोग से प्रसिद्ध ऐसे श्रीसिद्धपरमेष्ठी हैं, उनके अतींद्रिय-सुख है, वह सर्वोत्कृष्ट है, और आत्म-जनित है, तथा विषय-वासना से रहित है, अनुपम है, जिसके समान सुख तीन लोक में भी नहीं है, जिसका पार नहीं ऐसा बाधा-रहित सुख सिद्धों के है ॥९॥

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+ मोक्ष - परमात्म-प्राप्ति -
जीवहँ सो पर मोक्खु मुणि जो परमप्पय-लाहु ।
कम्म-कलंक-विमुक्काहँ णाणिय बोल्लहिँ साहू ॥10॥
जीवानां तं परं मोक्षं मन्यस्व यः परमात्मलाभः ।
कर्मकलङ्कविमुक्तानां ज्ञानिनः ब्रुवन्ति साधवः ॥१०॥
अन्वयार्थ : [कर्मकलंकविमुक्तानां जीवानां] कर्मरूपी कलंक से रहित जीवों को [यः परमात्मलाभः] जो परमात्म की प्राप्ति है [तं परं मोक्षं मन्यस्व] उसी को नियम से तू मोक्ष जान, ऐसा [ज्ञानिनः साधवः ब्रुवंति] ज्ञानवान् मुनिराज कहते हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जिस मोक्ष में ऐसा अतींद्रिय-सुख है, उस मोक्ष का स्वरूप कहते हैं -

केवलज्ञानादि अनंतगुण प्रगटरूप जो कार्य-समयसार अर्थात् शुद्ध-परमात्मा का लाभ वह मोक्ष है, यह मोक्ष भव्य-जीवों के ही होता है । भव्य कैसे हैं कि पुत्र-कलत्रादि पर-वस्तुओं के ममत्व को आदि लेकर सब विकल्पों से रहित जो आत्म-ध्यान उससे जिन्होंने भाव-कर्म और द्रव्य-कर्मरूपी कलंक क्षय किये हैं, ऐसे जीवों के निर्वाण होता है, ऐसा ज्ञानीजन कहते हैं ।

यहाँ पर अनंत सुख का कारण होने से मोक्ष ही उपादेय है ॥१०॥

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+ मोक्षफल - शास्वत सुख -
दंसणु णाणु अणंत-सुहु समउ ण तुट्टइ जासु ।
सो पर सासउ मोक्ख-फलु बिज्जउ अत्थि ण तासु ॥11॥
दर्शनं ज्ञानं अनन्तसुखं समयं न त्रुटयति यस्य ।
तत् परं शाश्वतं मोक्षफलं द्वितीयं अस्ति न तस्य ॥११॥
अन्वयार्थ : [यस्य ] जिस (मोक्ष-पर्याय के धारक शुद्धात्मा) के [दर्शनं ज्ञानंअनंतसुखं ] केवलदर्शन, केवलज्ञान, और अनंतसुख [समयं न त्रुटयति ] एक समयमात्र भी नाश नहीं होता, [तस्य तत् परं] उस (शुद्धात्मा) के वही निश्चय से [शाश्वतं फलं] हमेशा रहनेवाला (मोक्ष का) फल [अस्ति द्वितीयं न] है, इसके सिवाय दूसरा मोक्ष-फल नहीं है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे मोक्ष का फल अनंत-चतुष्टय है, यह दिखलाते हैं -

मोक्ष का फल अनंत-ज्ञानादि जानकर समस्त रागादिक का त्याग करके उसी के लिये निरंतर शुद्धात्मा की भावना करनी चाहिये ॥११॥

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+ मोक्ष-मार्ग - निश्चय रत्नत्रय -
जीवहँ मोक्खहँ हेउ वरु दंसणु णाणु चरित्तु ।
ते पुणु तिण्णि वि अप्पु मुणि णिच्छएँ एहउ वुत्तु ॥12॥
जीवानां मोक्षस्य हेतुः वरं दर्शनं ज्ञानं चारित्रम् ।
तानि पुनः त्रीण्यपि आत्मानं मन्यस्व निश्चयेन एवं उक्तम् ॥१२॥
अन्वयार्थ : [जीवानां मोक्षस्य हेतुः] जीवों को मोक्ष का कारण [वरं दर्शनं ज्ञानं चारित्रम्] उत्कृष्ट दर्शन ज्ञान और चारित्र हैं [तानि पुनः त्रीण्यपि] फिर वे तीनों ही [निश्चयेन आत्मानं] निश्चय से आत्मा को ही [मन्यस्व एवं उक्तम्] माने ऐसा कहा है, ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे उन्नीस दोहापर्यंत निश्चय और व्यवहार मोक्ष-मार्ग का व्याख्यान करते हैं -

भेद-रत्नत्रयरूप व्यवहार मोक्ष-मार्ग साधक है, और अभेद रत्नत्रयरूप निश्चय-मोक्षमार्ग साधने योग्य है । इसप्रकार निश्चय व्यवहार मोक्ष-मार्ग का साध्य-साधकभाव, सुवर्ण सुवर्ण-पाषाण की तरह जानना । ऐसा ही कथन श्रीद्रव्यसंग्रह में कहा है । 'सम्मद्दंसण..' इत्यादि । इसका अभिप्राय यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ये तीनों ही व्यवहारनय से मोक्ष के कारण जानने, और निश्चय से उन तीनोंमयी एक आत्मा ही मोक्ष का कारण है ॥१२॥

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+ मोक्ष-मार्ग - रत्नत्रय परिणत आत्मा -
पेच्छइ जाणइ अणुचरइ अप्पिं अप्पउ जो जि ।
दंसणु णाणु चरित्तु जिउ मोक्खहँ कारणु सो जि ॥13॥
पश्यति जानाति अनुचरति आत्मना आत्मानं य एव ।
दर्शनं ज्ञानं चारित्रं जीवः मोक्षस्य कारणं स एव ॥१३॥
अन्वयार्थ : [य एव आत्मना] जो अपने से [आत्मानं पश्यति] अपने को देखना, [जानाति अनुचरति] जानना, आचरण करना, [स एव दर्शनं ज्ञानं चारित्रं] वही दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणत हुआ [जीवः मोक्षस्य कारणं] जीव मोक्ष का कारण है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे निश्चय-रत्नत्रयरूप परिणत हुआ निज शुद्धात्मा ही मोक्ष का मार्ग है, ऐसा कहते हैं -

जो सम्यग्दृष्टि जीव सो निश्चय-रत्नत्रय को परिणत हुआ पुरुष ही मोक्ष का मार्ग है । ऐसा कथन सुनकर प्रभाकरभट्ट ने प्रश्न किया कि हे प्रभो; तत्त्वार्थ-श्रद्धान रुचिरूप सम्यग्दर्शन वह मोक्ष का मार्ग है, इसमें तो दोष नहीं और तुमने कहा कि जो देखे वह दर्शन, जानें वह ज्ञान, और आचरण करे वह चारित्र है । सो यह देखनेरूप दर्शन कैसे मोक्ष का मार्ग हो सकता है ? और जो कभी देखने का नाम दर्शन कहो तो देखना अभव्य को भी होता है, उसके मोक्ष-मार्ग तो नहीं माना है ? यदि अभव्य के मोक्ष-मार्ग होवे, तो आगम से विरोध आवे । आगम में तो यह निश्चय है कि अभव्य को मोक्ष नहीं होता । उसका समाधान यह है कि अभव्यों के देखनेरूप जो दर्शन है,वह बाह्य-पदार्थों का है, अंतरंग शुद्धात्म-तत्त्व का दर्शन तो अभव्यों के नहीं होता, उसके मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों का उपशम क्षयोपशम क्षय नहीं है, तथा शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचिरूप सम्यग्दर्शन भी उसके नहीं है, और चारित्र-मोह के उदय से वीतराग चारित्ररूप निर्विकल्प शुद्धात्मा का सत्तावलोकन भी उसके कभी नहीं है । तात्पर्य यह है, निश्चय से अभेद-रत्नत्रय को परिणत हुआ निज शुद्धात्मा ही मोक्ष का मार्ग है । ऐसी ही द्रव्य-संग्रह में साक्षीभूत गाथा कही है । 'रयणत्तयं..' इत्यादि । उसका अर्थ ऐसा है कि रत्नत्रय आत्मा को छोड़कर अन्य (दूसरी) द्रव्यों में नहीं रहता, इसलिये मोक्ष का कारण उन तीनमयी निज आत्मा ही है ॥१३॥

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+ व्यवहार-रत्नत्रय की सार्थकता -
जं बोल्लइ ववहारु-णउ दंसणु णाणु चरित्तु ।
तं परियाणहि जीव तुहुँ जेँ परु होहि पवित्तु ॥14॥
यद् ब्रूते व्यवहारनयः दर्शनं ज्ञानं चारित्रम् ।
तत् परिजानीहि जीव त्वं येन परः भवसि पवित्रः ॥१४॥
अन्वयार्थ : [जीव व्यवहारनयः यत्] हे जीव, व्यवहारनय जो [दर्शनं ज्ञानं चारित्रम्] दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनों को [ब्रूते तत्] कहता है, उस (व्यवहार रत्नत्रय) को [त्वं परिजानीहि येन] तू जान, जिससे कि [परः पवित्रः भवसि] उत्कृष्ट अर्थात् पवित्र होवे ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे भेद-रत्नत्रय-स्वरूप, व्यवहार वह परम्परा मोक्ष का मार्ग है, ऐसा दिखलाते हैं -

हे जीव, तू तत्त्वार्थ का श्रद्धान, शास्त्र का ज्ञान, और अशुभ क्रियाओं का त्यागरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र व्यवहार मोक्ष-मार्ग को जान, क्योंकि ये निश्चय रत्नत्रय रूप निश्चय मोक्ष-मार्ग के साधक हैं, इनके जानने से किसी समय परम-पवित्र परमात्मा हो जायगा । पहले व्यवहार रत्नत्रय की प्राप्ति हो जावे, तब ही निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति हो सकती है, इसमें संदेह नहीं है । जो अनन्त सिद्ध हुए और होवेंगे वे पहले व्यवहार रत्नत्रय को पाकर निश्चयरत्नत्रय रूप हुए । व्यवहार साधन है, और निश्चय साध्य है । व्यवहार और निश्चय मोक्ष-मार्ग का स्वरूप कहते हैं -- वीतराग सर्वज्ञदेव के कहे हुए छह द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय, इनका श्रद्धान, इनके स्वरूप का ज्ञान और शुभ-क्रिया का आचरण, यह व्यवहार मोक्ष-मार्ग है, और निज शुद्ध-आत्मा का सम्यक् श्रद्धान स्वरूप का ज्ञान, और स्वरूप का आचरण यह निश्चय मोक्ष-मार्ग है । साधन के बिना सिद्धि नहीं होती, इसलिये व्यवहारके बिना निश्चय की प्राप्ति नहीं होती । यह कथन सुनकर शिष्य ने प्रश्न किया कि हे प्रभो; निश्चय मोक्ष-मार्ग जो निश्चय रत्नत्रय वह तो निर्विकल्प है, और व्यवहार रत्नत्रय विकल्प-सहित है, सो वह विकल्प-दशा निर्विकल्पपने की साधन कैसे हो सकती है ? इस कारण उसको साधक मत कहो । अब इसका समाधान करते हैं । जो अनादिकाल का यह जीव विषय-कषायों से मलिन हो रहा है, सो व्यवहार-साधन के बिना उज्ज्वल नहीं हो सकता, जब मिथ्यात्व अव्रत कषायादिक की क्षीणता से देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा करे, तत्त्वों का जानपना होवे, अशुभ-क्रिया मिट जावे, तब वह अध्यात्म का अधिकारी हो सकता है । जैसे मलिन कपड़ा धोने से रँगने योग्य होता है, बिना धोये रंग नहीं लगता, इसलिये परम्परा मोक्ष का कारण व्यवहार-रत्नत्रय कहा है । मोक्ष का मार्ग दो प्रकारका है, एक व्यवहार, दूसरा निश्चय, निश्चय तो साक्षात् मोक्ष-मार्ग है, और व्यवहार परम्परा से है । अथवा सविकल्प निर्विकल्प के भेद से निश्चय मोक्ष-मार्ग भी दो प्रकार का है । जो मैं अनंतज्ञानरूप हूँ, शुद्ध हूँ, एक हूँ, ऐसा 'सोऽहं' का चिंतवन है, वह तो सविकल्प निश्चय मोक्षमार्ग है, उसको साधक कहते हैं, और जहाँ पर कुछ चिंतवन नहीं है, कुछ बोलना नहीं है, और कुछ चेष्टा नहीं है, वह निर्विकल्प-समाधिरूप साध्य है, यह तात्पर्य हुआ ॥१४॥

इसी कथनके बारे में द्रव्यसंग्रह की साक्षी देते हैं । 'माचिट्ठह..' इत्यादि । सारांश यह है, कि हे जीव, तू कुछ भी काय की चेष्टा मत कर, कुछ बोल भी मत, मौन से रहे, और कुछ चिंतवन मत कर । सब बातों को छोड, आत्मा में आपको लीनकर, यह ही परमध्यान है ।

श्रीतत्त्वसार में भी सविकल्प-निर्विकल्प निश्चय मोक्ष-मार्ग के कथन में यह गाथा कही है कि 'जं पुण सगयं..' इत्यादि । इसका सारांश यह है कि जो आत्म-तत्त्व है, वह भी सविकल्प-निर्विकल्प के भेद से दो प्रकार का है, जो विकल्प-सहित है, वह तो आस्रव-सहित है, और जो निर्विकल्प है, वह आस्रव-रहित है ।

इस तरह पहले महास्थल में अनेक अंतस्थलों में से उन्नीस दोहों के स्थल में तीन दोहों से निश्चय व्यवहार मोक्ष-मार्ग का कथन किया ।

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+ व्यवहार-सम्यक्त्व -
दव्वइँ जाणइ जहठियइँ तह जगि मण्णइ जो जि ।
अप्पहँ केरउ भावडउ अविचलु दंसणु सो जि ॥15॥
व्याणि जानाति यथास्थितानि तथा जगति मन्यते य एव ।
आत्मनः सम्बन्धी भावः अविचलः दर्शनं स एव ॥१५॥
अन्वयार्थ : [य एव द्रव्याणि] जो द्रव्यों को [यथास्थितानि जानाति] जैसा उनका स्वरूप है, वैसा जानें, [तथा जगति मन्यते] और उसी तरह इस जगत में निर्दोष श्रद्धान करे, [स एव आत्मनः संबंधी] वही आत्मा का [अविचलः भावः] निश्चल भाव, [स एव दर्शनं] वही सम्यक्दर्शन है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे चौदह दोहा पर्यंत व्यवहार मोक्ष-मार्ग का पहला अंग व्यवहार सम्यक्त्व को मुख्यता से कहते हैं -

यह जगत् छह द्रव्यमयी है, सो इन द्रव्यों को अच्छी तरह जानकर श्रद्धान करे, जिसमें संदेह नहीं वह सम्यग्दर्शन है, यह सम्यग्दर्शन आत्मा का निज स्वभाव है । वीतराग निर्विकल्प स्व-संवेदन निश्चय सम्यग्ज्ञान उसका परम्परा कारण जो परमागम का ज्ञान उसे अच्छी तरह जान, और मन में मानें, यह निश्चय करे कि इन सब द्रव्यों में निज आत्म-द्रव्य ही ध्यावने योग्य है, ऐसा रुचिरूप जो निश्चय-सम्यक्त्व है, उसका परम्परा कारण व्यवहार-सम्यक्त्व देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा उसे स्वीकार करे । व्यवहार सम्यक्त्व के पच्चीस दोष हैं, उनको छोड़े । उन पच्चीस को 'मूढ़त्रयं..' इत्यादि श्लोक में कहा है । इसका अर्थ ऐसा है कि जहाँ देव-कुदेव का विचार नहीं है, वह तो देवमूढ़, जहाँ सुगुरु-कुगुरु का विचार नहीं है, वह गुरुमूढ़, जहाँ धर्म-कुधर्म का विचार नहीं है, वह धर्ममूढ़ ये तीन मूढ़ता; और जाति-मद, कुल-मद, धन-मद, रूप-मद, तप-मद, बल-मद, विद्या-मद, राज-मद ये आठ मद । कुगुरु, कुदेव, कुधर्म, इनकी और इनके आराधकों की जो प्रशंसा वह छह अनायतन और निःशंकितादि आठ अंगों से विपरीत शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़ता, परदोष-कथन,अथिरकरण, साधर्मियों से स्नेह नहीं रखना, और जिन-धर्म की प्रभावना नहीं करना, ये शंकादि आठ मल, इसप्रकार सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष हैं, इन दोषों को छोड़कर तत्त्वों की श्रद्धा करे, वह व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा जाता है । जहाँ अस्थिर बुद्धि नहीं है, और परिणामों की मलिनता नहीं, और शिथिलता नहीं, वह सम्यक्त्व है । यह सम्यग्दर्शन ही कल्पवृक्ष, कामधेनु चिंतामणि है, ऐसा जानकर भोगों की वाँछारूप जो विकल्प उनको छोड़कर सम्यक्त्व का ग्रहण करना चाहिये । ऐसा कहा है 'हस्ते..' इत्यादि जिसके हाथ में चिन्तामणि है, धन में कामधेनु है, और जिसके घर में कल्पवृक्ष है, उसके अन्य क्या प्रार्थना की आवश्यकता है ? कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिंतामणि तो कहने मात्र हैं, सम्यक्त्व ही कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिंतामणि है, ऐसा जानना ॥१५॥

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+ छह-द्रव्य -
दव्वइँ जाणहि ताइँ छह तिहुयणु भरियउ जेहिँ ।
आइ-विणास-विवज्जियहिँ णाणिहि पभणियएहिँ ॥16॥
द्रव्याणि जानीहि तानि षट् त्रिभुवनं भृतं यैः ।
आदिविनाशविवर्जितैः ज्ञानिभिः प्रभणितैः ॥१६॥
अन्वयार्थ : [तानि षड्द्रव्याणि] उन छहों द्रव्यों को [जानीहि यैः] जान, जिन द्रव्यों से [त्रिभुवनं भृतं] यह तीन-लोक भर रहा है, वे (छह-द्रव्य) [ज्ञानिभिः] ज्ञानियों ने [आदिविनाशविवर्जितैः प्रभणितैः] आदि-अंत से रहित द्रव्यार्थिकनय से कहे हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे सम्यक्त्व के कारण जो छह द्रव्य हैं, उनसे यह तीन-लोक भरा हुआ है, उनको यथार्थ जानो, ऐसा अभिप्राय मन में रखकर यह गाथा-सूत्र कहते हैं -

वह लोक छह-द्रव्यों से भरा है, अनादि-निधन है, इस लोक का आदि-अंत नहीं है, तथा इसका कर्ता, हर्ता व रक्षक कोई नहीं है । यद्यपि ये छह-द्रव्य व्यवहार-सम्यक्त्व के कारण हैं, तो भी शुद्ध-निश्चयनय से शुद्धात्मानुभूति रूप वीतराग-सम्यक्त्व का कारण नित्य आनंद स्वभाव निज शुद्धात्मा ही है ॥१६॥

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+ द्रव्यों के नाम -
जीउ सचेयणु दव्वु मुणि पंच अचेयण अण्ण ।
पोग्गलु धम्माहम्मु णहु कालेँ सहिया भिण्ण ॥17॥
जीवः सचेतनं द्रव्यं मन्यस्व पञ्च अचेतनानि अन्यानि ।
पुद्गलः धर्माधर्मौ नभः कालेन सहितानि भिन्नानि ॥१७॥
अन्वयार्थ : [जीवः सचेतनं द्रव्यं मन्यस्व] जीव को चेतन-द्रव्य जान, [अन्यानि पुद्गलः धर्माधर्मौ] और बाकी पुद्गल धर्म, अधर्म, [नभः कालेन सहिता] आकाश और काल सहित जो [पंच अचेतनानि] पाँच हैं, वे अचेतन हैं और [अन्यानि भिन्नानि] जीव से भिन्न हैं, तथा ये सब अपने-अपने लक्षणों से आपस में भिन्न हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे उन छह द्रव्यों के नाम कहते हैं -

सम्यक्त्व दो प्रकार का है, एक सराग-सम्यक्त्व दूसरा वीतराग-सम्यक्त्व, सराग-सम्यक्त्व का लक्षण कहते हैं । प्रशम अर्थात् शान्तिपना, संवेग अर्थात् जिनधर्म की रुचि तथा जगत से अरुचि, अनुकंपा परजीवों को दुःखी देखकर दया भाव और आस्तिक्य अर्थात् देव-गुरु-धर्म की तथा छह द्रव्यों की श्रद्धा इन चारों का होना वह व्यवहार-सम्यक्त्वरूप सराग-सम्यक्त्व है, और वीतराग-सम्यक्त्व जो निश्चय-सम्यक्त्व वह निज शुद्धात्मानुभूतिरूप वीतराग-चारित्र से तन्मयी है ।

यह कथन सुनकर प्रभाकरभट्ट ने प्रश्न किया । हे प्रभो, निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचिरूप निश्चय-सम्यक्त्व का कथन पहले तुमने अनेक बार किया, फिर अब वीतराग-चारित्र से तन्मयी निश्चय-सम्यक्त्व है, वह व्याख्यान करते हैं, सो यह तो पूर्वापर विरोध है । क्योंकि जो निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचिरूप निश्चय-सम्यक्त्व तो गृहस्थ में तीर्थंकर परमदेव भरत चक्रवर्ती और राम, पांडवादि बड़े-बड़े पुरुषों के रहता है, लेकिन उनके वीतराग-चारित्र नहीं है । यही परस्पर विरोध है । यदि उनके वीतराग-चारित्र माना जावे, तो गृहस्थपना क्यों कहा ? यह प्रश्न किया ।

उसका उत्तर श्रीगुरु देते हैं । उन महान् (बड़े) पुरुषों के शुद्धात्मा उपादेय है ऐसी भावनारूप निश्चय-सम्यक्त्व तो है, परन्तु चारित्रमोह के उदय से स्थिरता नहीं है । जब तक महाव्रत का उदय नहीं है, तब तक असंयमी कहलाते हैं, शुद्धात्मा की अखंड भावना से रहित हुए भरत, सगर, राघव, पांडवादिक निर्दोष परमात्मा अरहंत सिद्धों के गुण-स्तवन वस्तु-स्तवनरूप स्तोत्रादि करते हैं, और उनके चारित्र पुराणादिक सुनते हैं, तथा उनकी आज्ञा के आराधक जो महान पुरुष, आचार्य, उपाध्याय, साधु उनको भक्ति से आहारदानादि करते हैं, पूजा करते हैं । विषय कषायरूप खोटे ध्यान के रोकने के लिये तथा संसार की स्थिति के नाश करने के लिये ऐसी शुभ क्रिया करते हैं । इसलिये शुभ राग के संबंध से सम्यग्दृष्टि हैं, और इनके निश्चय-सम्यक्त्व भी कहा जा सकता है, क्योंकि वीतराग-चारित्र से तन्मयी निश्चय-सम्यक्त्व के परम्पराय साधकपना है । अब वास्तव में विचारा जावे, तो गृहस्थ अवस्था में इनके सराग-सम्यक्त्व ही हैऔर जो सराग-सम्यक्त्व है, वह व्यवहार ही है, ऐसा जानो ॥१७॥

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+ जीव का लक्षण -
मुत्ति-विहूणउ णाणमउ परमाणंद-सहाउ ।
णियमिं जोइय अप्पु मुणि णिच्चु णिरंजणु भाउ ॥18॥
मूर्तिविहीनः ज्ञानमयः परमानन्दस्वभावः ।
नियमेन योगिन् आत्मानं मन्यस्व नित्यं निरञ्जनं भावम् ॥१८॥
अन्वयार्थ : [योगिन् ] हे योगी, [नियमेन आत्मानं मन्यस्व] निश्चय करके आत्मा को ऐसा जान; [मूर्तिविहीनः] अमूर्तिक (मूर्ति से रहित), [ज्ञानमयः] ज्ञानमयी, [परमानंदस्वभावः] परमानंद स्वभाववाला, [नित्यं] नित्य, [निरंजनं] निरंजन, [भावम्] ऐसा जीव पदार्थ है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे चार दोहों से छह द्रव्यों के क्रम से हरएक के लक्षण कहते हैं -

यह आत्मा अमूर्तीक, शुद्धात्मा से भिन्न जो स्पर्श-रस-गंध-वर्णवाली मूर्ति उससे रहित है, लोक-अलोक का प्रकाश करनेवाले केवलज्ञानकर पूर्ण है, जो कि केवलज्ञान सब पदार्थों को एक समय में प्रत्यक्ष जानता है, आगे-पीछे नहीं जानता, वीतरागभाव परमानंदरूप अतिन्द्रिय सुख-स्वरूप अमृत के रस के स्वाद से समरसी भाव को परिणत हुआ है, ऐसा हे योगी; शुद्ध-निश्चय से अपनी आत्मा को ऐसा समझ, शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से बिना टाँकी का घडया हुआ सुघटघाट ज्ञायक स्वभाव नित्य है । तथा मिथ्यात्व रागादिरूप अंजन से रहित निरंजन है । ऐसीआत्मा को तू भली-भाँति जान, जो सब पदार्थों में उत्कृष्ट है । इन गुणों से मंडित शुद्ध आत्मा ही उपादेय है, और सब तजने योग्य हैं ॥१८॥

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+ पुद्गल, धर्म, अधर्म का लक्षण -
पुग्गलु छव्वहु मुत्तु वढ इयर अमुत्तु वियाणि ।
धम्माधम्मु वि गयठियहँ कारणु पभणहिँ णाणि ॥19॥
पुद्गलः षड्विधः मूर्तः वत्स इतराणि अमूर्तानि विजानीहि ।
धर्माधर्ममपि गतिस्थित्योः कारणं प्रभणन्ति ज्ञानिनः ॥१९॥
अन्वयार्थ : [वत्स] हे वत्स, तू [पुद्गलः] पुद्गल-द्रव्य [षड्विधः मूर्तः] छह प्रकार तथा मूर्तीक है, [इतराणि अमूर्तानि] अन्य सब द्रव्य अमूर्त हैं, ऐसा [विजानीहि] जान, [धर्माधर्ममपि] धर्म और अधर्म इन दोनों द्रव्यों को [गतिस्थित्योः कारणं] गति-स्थिति का सहायक-कारण [ज्ञानिनः प्रभणंति] केवली श्रुतकेवली कहते हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे फिर भी कहते हैं -

पुद्गल द्रव्य के छह भेद दूसरी जगह भी 'पुढवी जलं..' इत्यादि गाथा से कहते हैं । उसका अर्थ यह है कि बादर-बादर १, बादर २, बादर-सूक्ष्म ३, सूक्ष्म-बादर ४, सूक्ष्म ५, सूक्ष्म-सूक्ष्म ६, ये छह भेद पुद्गल के हैं । उनमें से पत्थर, काठ, तृण आदि पृथ्वी बादर-बादर हैं, टुकड़े होकर नहीं जुड़ते, जल, घी, तैल आदि बादर हैं, जो टूटकर मिल जाते हैं, छाया, आतप, चाँदनी ये बादर-सूक्ष्म हैं, जो कि देखने में तो बादर और ग्रहण करने में सूक्ष्म हैं, नेत्र को छोड़कर चार इंद्रियों के विषय रस, गंधादि सूक्ष्म-बादर हैं, जो कि देखने में नहीं आते, और ग्रहण करने में आते हैं । कर्मवर्गणा सूक्ष्म हैं, जो अनंत मिली हुई हैं, परंतु दृष्टि में नहीं आतीं,और सूक्ष्म-सूक्ष्म परमाणु है, जिसका दूसरा भाग नहीं होता । इस तरह छह भेद हैं । इन छहों तरह के पुद्गलों को तू अपने स्वरूप से जुदा समझ । यह पुद्गल-द्रव्य स्पर्श-रस-गंध-वर्ण को धारण करता है, इसलिये मूर्तीक है, अन्य धर्म-अधर्म दोनों गति तथा स्थिति के कारण हैं ऐसा वीतराग देव ने कहा है ।

यहाँ पर एक बात देखने की है कि यद्यपि वज्रवृषभ-नाराच-संहनन-रूप पुद्गल-द्रव्य मोक्ष के गमन का सहायक है, इसके बिना मुक्ति नहीं हो सकती, तो भी धर्म-द्रव्य गति सहायी है, इसके बिना सिद्ध-लोक को जाना नहीं हो सकता, तथा अधर्म-द्रव्य सिद्ध-लोक में स्थिति का सहायी है । लोक-शिखर पर आकाश के प्रदेश अवकाश में सहायी हैं ।अनंते सिद्ध अपने स्वभाव में ही ठहरे हुए हैं, पर-द्रव्य का कुछ प्रयोजन नहीं है । यद्यपि मुक्तात्माओं के प्रदेश आपस में एक जगह हैं, तो भी विशुद्ध, ज्ञान, दर्शन, भाव, भगवान् सिद्ध-क्षेत्र में भिन्न-भिन्न स्थित हैं, कोई सिद्ध किसी सिद्धि से प्रदेशों से मिला हुआ नहीं है । पुद्गलादि पाँचों द्रव्य जीव को यद्यपि निमित्त कारण कहे गये हैं, तो भी उपादान कारण नहीं है, ऐसा सारांश हुआ ॥१९॥

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+ आकाश द्रव्य -
दव्वुइँ सयलइँ उवरि ठियइँ णियमेँ जासु वसंति ।
तं णहु दव्वु वियाणि तुहुं जिणवर एउ भणंति ॥20॥
द्रव्याणि सकलानि उदरे स्थितानि नियमेन यस्य वसन्ति ।
तत् नभः द्रव्यं विजानीहि त्वं जिनवरा एतद् भणन्ति ॥२०॥
अन्वयार्थ : [यस्य उदरे] जिसके अंदर [सकलानि द्रव्याणि] सब द्रव्य [स्थितानि नियमेन वसंति] स्थित हुई निश्चयसे (आधार-आधेयरूप होकर) रहती हैं, [तत् त्वं] उसको तू [नभः द्रव्यं विजानीहि] आकाश द्रव्य जान, [एतत् जिनवराः भणंति] ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे आकाश का स्वरूप कहते हैं -

यद्यपि ये सब द्रव्य आकाश में परस्पर एक-क्षेत्रावगाह से ठहरी हुई हैं, तो भी आत्मा से अत्यंत भिन्न हैं, इसलिये त्यागने योग्य हैं, और आत्मा साक्षात् आराधने योग्य हैं, अनंत-सुखस्वरूप है ॥२०॥

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+ काल द्रव्य -
कालु मुणिज्जहि दव्वु तुहुँ वट्टण-लक्खणु एउ ।
रयणहँ रासि विभिण्ण जिम तसु अणुयहँ तह भेउ ॥21॥
कालं मन्यस्व द्रव्यं त्वं वर्तनालक्षणं एतत् ।
रत्नानां राशिः विभिन्नः यथा तस्य अणूनां तथा भेदः ॥२१॥
अन्वयार्थ : [त्वं एतत्] तू इस प्रत्यक्षरूप [वर्तनालक्षणं] वर्तनालक्षणवाले [कालं मन्यस्व] कालद्रव्य जान [यथा रत्नानां राशिः] जैसे रत्नों की राशि [विभिन्नः] जुदा जुदा रहती है (मिलते नहीं) [यथा तस्य] उसी तरह उस (काल) के [अणूनां भेदः] काल की अणुओं का भेद है ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे काल-द्रव्य का व्याख्यान करते हैं -

एक कालाणु से दूसरा कालाणु नहीं मिलता । यहाँ पर शिष्य ने प्रश्न किया कि समय ही निश्चय-काल है, अन्य निश्चय-काल नामवाला द्रव्य नहीं है ? इसका समाधान श्रीगुरु करते हैं । समय वह काल-द्रव्य की पर्याय है, क्योंकि विनाश को पाता है । ऐसा ही श्रीपंचास्तिकाय में कहा है 'समओ उप्पण्णपद्धंसी..' अर्थात् समय उत्पन्न होता है और नाश होता है । इससे जानते हैं कि समय पर्याय द्रव्य के बिना हो नहीं सकता । किस द्रव्य का पर्याय है, इस पर अब विचार करना चाहिये । यदि पुद्गल-द्रव्य की पर्याय मानी जावे, तो जैसे पुद्गल-परमाणुओं से उत्पन्न हुए घटादि मूर्तीक हैं, वैसे समय भी मूर्तीक होना चाहिये, परंतु समय अमूर्तीक है, इसलिये पुद्गल की पर्याय तो नहीं है । पुद्गल-परमाणु आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश को जब गमन होता है, सो समय-पर्याय काल की है, पुद्गल-परमाणु के निमित्त से होती हैं,नेत्रों का मिलना तथा विघटना उससे निमेष होता है, जल-पात्र तथा हस्तादि के व्यापार से घटिका होती है, और सूर्यबिम्ब के उदय से दिन होता है, इत्यादि काल की पर्याय हैं, पुद्गल-द्रव्य के निमित्त से होती हैं, पुद्गल इन पर्यायों का मूल कारण नहीं है, मूल कारण काल है । जो पुद्गल मूल कारण होता तो समयादिक मूर्तीक होते । जैसे मूर्तीक मिट्टी के ढेले से उत्पन्न घड़े वगैर मूर्तीक होते हैं, वैसे समयादिक मूर्तीक नहीं हैं । इसलिये अमूर्त-द्रव्य जो काल उसकी पर्याय हैं, द्रव्य नहीं हैं, काल द्रव्य अणुरूप अमूर्तीक अविनश्वर है, और समयादिक पर्याय अमूर्तीक है, परंतु विनश्वर हैं, अविनश्वरपना द्रव्य में ही है, पर्याय में नहीं है, यह निश्चय से जानना । इसलिये समयादिक को काल-द्रव्य की पर्याय ही कहना चाहिये, पुद्गल की पर्याय नहीं हैं, पुद्गल-पर्याय मूर्तीक है । सर्वथा उपादेय शुद्ध-बुद्ध केवल-स्वभाव जो जीव उससे भिन्न काल-द्रव्य है, इसलिये हेय है, यह सारांश हुआ ॥२१॥

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+ अखंड-प्रदेशी द्रव्य -
जीउ वि पुग्गलु कालु जिय ए मेल्लेविणु दव्व ।
इयर अखंड वियाणि तुहुँ अप्प-पएसहिँ सव्व ॥22॥
जीवोऽपि पुद्गलः कालः जीव एतानि मुक्त्वा द्रव्याणि ।
इतराणि अखण्डानि विजानीहि त्वं आत्मप्रदेशैः सर्वाणि ॥२२॥
अन्वयार्थ : [जीव त्वं] हे जीव, तू [जीवः अपि पुद्गलः कालः] जीव और पुद्गल, काल [एतानि द्रव्याणि] इन (तीन) द्रव्यों को [मुक्त्वा इतराणि] छोड़कर दूसरे (धर्म, अधर्म, आकाश) [सर्वाणि] ये सब (तीन द्रव्य) [आत्मप्रदेशैः अखंडानि] अपने प्रदेशों से अखंडित हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जीव, पुद्गल, काल ये तीन द्रव्य अनेक हैं, और धर्म, अधर्म, आकाश ये तीन द्रव्य एक हैं, ऐसा कहते हैं -

जीव द्रव्य जुदा-जुदा जीवों की गणना से अनंत हैं, पुद्गल-द्रव्य उससे भीअनंतगुणे हैं, काल-द्रव्याणु असंख्यात हैं, धर्म-द्रव्य एक है, और वह लोक-व्यापी है, अधर्म-द्रव्य भी एक है, और वह लोक-व्यापी है, ये दोनों द्रव्य असंख्यात प्रदेशी हैं, और आकाश-द्रव्य अलोक-अपेक्षा अनंत-प्रदेशी है, तथा लोक-अपेक्षा असंख्यात-प्रदेशी हैं । ये सब द्रव्य अपने-अपने प्रदेशों से सहित हैं, किसी के प्रदेश किसी से नहीं मिलते । इन छहों द्रव्यों में जीव ही उपादेय है । यद्यपि शुद्ध निश्चय से शक्ति की अपेक्षा सभी जीव उपादेय हैं, तो भी व्यक्ति कीअपेक्षा पंच-परमेष्ठी ही उपादेय हैं, उनमें भी अरहंत सिद्ध ही हैं, उन दोनों में भी सिद्ध ही हैं और निश्चयनय से मिथ्यात्वरागादि विभाव-परिणाम के अभाव में विशुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा

जानना ॥२२॥

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+ क्रिया-रहित द्रव्य -
दव्व चयारि वि इयर जिय गमणागमण-विहीण ।
जीउ वि पुग्गलु परिहरिवि पभणहिँ णाण-पवीण ॥23॥
द्रव्याणि चत्वारि अपि इतराणि जीव गमनागमनविहीनानि ।
जीवमपि पुद्गलं परिहृत्य प्रभणन्ति ज्ञानप्रवीणाः ॥२३॥
अन्वयार्थ : [जीव जीवं अपि पुद्गलं] हे हंस, जीव और पुद्गल इन दोनों को [परिहृत्य इतराणि] छोड़कर दूसरे [चत्वारि एव द्रव्याणि] (धर्मादि) चारों ही द्रव्य [गमनागमनविहीनानि] हलन चलनादि क्रिया रहित हैं, ऐसा [ज्ञानप्रवीणाः प्रणभंति] ज्ञानियों में चतुर (श्रुतकेवली / केवली) कहते हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे जीव पुद्गल ये दोनों चलन-हलनादि क्रिया-युक्त हैं, और धर्म, अधर्म, आकाश,काल ये चारों निःक्रिय हैं, ऐसा निरूपण करते हैं -

जीवों के संसार-अवस्था में इस गति से अन्य गति के जाने को कर्म-नोकर्म जाति के पुद्गल सहायी हैं । और कर्म नोकर्म के अभाव से सिद्धों के निःक्रियपना है, गमनागमन नहीं है । पुद्गल के स्कन्धों को गमन का बहिरंग निमित्त-कारण कालाणुरूप काल-द्रव्य है । इससे क्या अर्थ निकला ? यह निकला कि निश्चयकाल की पर्याय जो समयरूप व्यवहारकाल उसकी

उत्पत्ति में मंद गतिरूप परिणत हुआ अविभागी पुद्गल-परमाणु कारण होता है । समय रूप व्यवहार-काल का उपादान-कारण निश्चय-काल-द्रव्य है, उसी को एक समयादि व्यवहार-काल का मूलकारण निश्चय-कालाणुरूप काल-द्रव्य है, उसी की एक समयादिक पर्याय है, पुद्गल परमाणु की मंदगति बहिरंग निमित्त-कारण है, उपादान-कारण नहीं है, पुद्गल-परमाणु आकाश-के प्रदेश में मंद-गति से गमन करता है, यदि शीघ्र-गति से चले तो एक समय में चौदह राजू जाता है, जैसे घट-पर्याय की उत्पत्ति में मूल-कारण तो मिट्टी का डला है, और बहिरंग-कारण कुम्हार है, वैसे समय-पर्याय की उत्पत्ति में मूलकारण तो कालाणुरूप निश्चय-काल है, और बहिरंग निमित्त-कारण पुद्गल-परमाणु है । पुद्गल-परमाणु की मंद-गतिरूप गमन समय में यद्यपि धर्म-द्रव्य सहकारी है, तो भी कालाणुरूप निश्चय-काल परमाणु की मंदगति का सहायी जानना । परमाणु के निमित्त से तो काल का समय पर्याय प्रगट होता है, और काल के सहाय से परमाणु मंदगति करता है ।

कोई प्रश्न करे कि गति का सहकारी धर्म है, काल को क्यों कहा ? उसका समाधान यह है कि सहकारी कारण बहुत होते हैं, और उपादान-कारण एक ही होता है, दूसरा द्रव्य नहीं होता,

निज-द्रव्य ही निज (अपनी) गुण-पर्यायों का मूलकारण है, और निमित्त-कारण बहिरंग-कारण तो बहुत होते हैं, इसमें कुछ दोष नहीं है । धर्म-द्रव्य तो सब ही का गति-सहायी है, परंतु मछलियों को गति-सहायी जल है, तथा घट की उत्पत्ति में बहिरंग-निमित्त कुम्हार है, तो भी दंड, चक्र, चीवरादिक ये भी अवश्य कारण हैं, इनके बिना घट नहीं होता, और जीवों के धर्म-द्रव्य गति का सहायी विद्यमान है, तो भी कर्म-नोकर्म पुद्गल सहकारी-कारण हैं, इसी तरह पुद्गल को काल-द्रव्य गति सहकारी-कारण जानना ।

यहाँ कोई प्रश्न करे कि धर्म-द्रव्य तो गति का सहायी सब जगह कहा है, और काल-द्रव्य वर्तना का सहायी है, गति सहायी किस जगह कहा है ?

उसका समाधान श्रीपंचास्तिकाय में कुंदकुंदाचार्य ने क्रियावंत और अक्रियावंत के व्याख्यान में कहा है । 'जीवा पुग्गल..' इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है कि जीव और पुद्गल ये दोनों क्रियावंत हैं, और शेष चार द्रव्य अक्रियावाले हैं, चलन-हलन क्रिया से रहित हैं । जीव को दूसरी गति में गमन का कारण कर्म है, वह पुद्गल है और पुद्गल को गमन का कारण काल है । जैसे धर्म-द्रव्य के मौजूद होने पर भी मच्छों को गमन-सहायी जल है, उसी तरह पुद्गल को धर्म-द्रव्य के होने पर भी द्रव्यकाल गमन का सहकारी कारण है ।

यहाँ निश्चयनय से गमनादि क्रिया से रहित निःक्रिय सिद्ध-स्वरूप के समान निःक्रिय निर्द्वंद्व निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, यह शास्त्र का तात्पर्य हुआ । इसी प्रकार दूसरे ग्रन्थों में भी निश्चय से हलन-चलनादि क्रिया रहित जीव का लक्षण कहा है । 'यावत्क्रिया..' इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है कि जब-तक इस जीव के हलन-चलनादि क्रिया है, गति से गत्यंतर को जाना है, तब तक दूसरे द्रव्य का सम्बन्ध है, जब दूसरे का सम्बन्ध मिटा, अद्वैत हुआ, तब निकल अर्थात् शरीर से रहित निःक्रिय है, उसके हलन-चलनादि क्रिया कहाँसे हो सकती हैं; अर्थात् संसारी जीव के कर्म के सम्बन्ध से गमन है, सिद्ध-भगवान् कर्म-रहित निःक्रिय हैं, उनके गमनागमन क्रिया कभी नहीं हो सकती ॥२३॥

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+ द्रव्यों के प्रदेश -
धम्माधम्मु वि एक्कु जिऊ ए जि असंख्य-पदेस ।
गयणु अणंत-पएसु मुणि बहु-विह पुग्गल-देस ॥24॥
धर्माधर्मौ अपि एकः जीवः एतानि एव असंख्यप्रदेशानि ।
गगनं अनन्तप्रदेशं मन्यस्व बहुविधाः पुद्गलदेशाः ॥२४॥
अन्वयार्थ : [धर्माधर्मौ अपि एकः जीवः] धर्मद्रव्य-अधर्म द्रव्य और एक जीव [एतानि एव] इन तीनों ही को [असंख्यप्रदेशानि मन्यस्व] असंख्यात प्रदेशी जानो, [गगनं अनंतप्रदेशं] आकाश अनंतप्रदेशी है, [पुद्गलप्रदेशाः बहुविधाः] और पुद्गल के प्रदेश बहुत प्रकार के हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे पंचास्तिकाय के प्रगट करने के लिये काल-द्रव्य अप्रदेशी को छोड़कर अन्य पाँच-द्रव्यों में से किसके कितने प्रदेश हैं, यह कहते हैं -

जगत् में धर्म-द्रव्य तो एक ही है, वह असंख्यात-प्रदेशी है, अधर्म-द्रव्य भी एक है, असंख्यात-प्रदेशी है, जीव अनंत हैं, सो एक-एक जीव असंख्यात-प्रदेशी हैं, आकाश-द्रव्य एक ही है, वह अनंत-प्रदेशी है, ऐसा जानो । पुद्गल एक-प्रदेश से लेकर अनंत-प्रदेश तक है । एक परमाणु तो एक-प्रदेशी है, और जैसे-जैसे परमाणु मिलते जाते हैं, वैसे-वैसे प्रदेश भी बढ़ते जाते हैं, वे संख्यात / असंख्यात / अनंत प्रदेश तक जानने, अनंत परमाणु इकट्ठे होवें, तब अनंत प्रदेश कहे जाते हैं । अन्य द्रव्यों के तो विस्तार-रूप प्रदेश हैं, और पुद्गल के स्कन्धरूप प्रदेश हैं । पुद्गल के कथन में प्रदेश शब्द से परमाणु लेना, क्षेत्र नहीं लेना, पुद्गल का प्रचार लोक में ही है, अलोकाकाश में नहीं है, इसलिये अनंत क्षेत्र प्रदेश के अभाव होनेसे क्षेत्र-प्रदेश न जानने । जैसे-जैसे परमाणु मिल जाते हैं, वैसे-वैसे प्रदेशों की बढ़वारी जाननी । इसी दोहा के कथन में पाठांतर 'पुग्गलु तिविहु पएसु...' ऐसा है, उसका अर्थ यह है कि पुद्गल के संख्यात, असंख्यात, अनन्त प्रदेश परमाणुओं के मेल से जानना चाहिए, अर्थात् एक परमाणु एक प्रदेश, बहुत परमाणु बहु प्रदेश, यह जानना । सूत्र में शुद्ध-निश्चय से द्रव्यकर्म के अभाव से यह जीवअमूर्तीक है, और मिथ्यात्व रागादिरूप भाव-कर्म संकल्प विकल्प के अभाव से शुद्ध है, लोकाकाश-प्रमाण असंख्यात-प्रदेशवाला है, ऐसा जो निज शुद्धात्मा वही वीतराग-निर्विकल्प-समाधि दशा में साक्षात् उपादेय है, यह जानना ॥२४॥

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+ एक जगह रहते हुए भी मिलते नहीं -
लोयागासु धरेवि जिय कहियइँ दव्वइँ जाइँ ।
एक्कहिँ मिलियइँ इत्थु जगि सगुणहिँ णिवसहिँ ताइँ ॥25॥
लोकाकाशं धृत्वा जीव कथितानि द्रव्याणि यानि ।
एकत्वे मिलितानि अत्र जगति स्वगुणेषु निवसन्ति तानि ॥२५॥
अन्वयार्थ : [जीव अत्र जगति] हे जीव, इस संसार में [यानि द्रव्याणिकथितानि] जो द्रव्य कहे गये हैं, [तानि लोकाकाशं धृत्वा] वे सब लोकाकाश में स्थित हैं, [एकत्वे मिलितानि] ये द्रव्य एक क्षेत्र में मिले हुए रहते हैं, तो भी [स्वगुणेषु निवसंति] अपने-अपने गुणों में ही निवास करते हैं ।

श्रीब्रह्मदेव :
आगे लोक में यद्यपि व्यवहारनय से ये सब द्रव्य एक-क्षेत्रावगाह से तिष्ठ रहे हैं, तो भी निश्चयनय से कोई द्रव्य किसी से नहीं मिलता, और कोई भी अपने अपने स्वरूप को नहीं

छोड़ता है, ऐसा दिखलाते हैं -

यद्यपि उपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय से आधाराधेय-भाव से एक-क्षेत्रावगाह से तिष्ठ रहे हैं, तो भी शुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से पर-द्रव्य से मिलनेरूप संकर-दोष से रहित हैं, और अपने-अपने सामान्य गुण तथा विशेष-गुणों को नहीं छोड़ते हैं ।

यह कथन सुनकर प्रभाकरभट्ट ने प्रश्न किया है कि हे भगवन्, परमागम में लोकाकाश तो असंख्यातप्रदेशी कहा है, उस असंख्यात प्रदेशी लोक में अनंत जीव किस तरह समा सकते हैं ? क्योंकि एक-एक जीव के असंख्यात-असंख्यात प्रदेश हैं, और एक-एक जीव में अनंतानंत पुद्गल-परमाणु कर्म नोकर्मरूप से लग रही है, और उसके सिवाय अनन्तगुणे अन्य पुद्गल रहते हैं, सो ये द्रव्य असंख्यातप्रदेशी लोक में कैसे समा गये ?

इसका समाधान श्री गुरु करते हैं । आकाश में अवकाशदान (जगह देने की) शक्ति है, उसके सम्बन्ध से समा जाते हैं । जैसे एक गूढ़ नागरस गुटिका में शत, सहस्र, लक्ष, सुवर्ण संख्या आ जाती है, अथवा एक दीपक के प्रकाश में बहुत दीपकों का प्रकाश जगह पाता है, अथवा जैसे एक राख के घड़े में जल का घड़ा अच्छी तरह अवकाश पाता है, भस्म में जल शोषित हो जाता है, अथवा जैसे एक ऊँटनी के दूध के घड़े में शहद का घड़ा समा जाता है, अथवा एक भूमिघर में ढोल, घण्टा आदि बहुत बाजों का शब्द अच्छी तरह समा जाता है, उसी तरह एक लोकाकाश में विशिष्ट अवगाहन-शक्ति के योग से अनंत जीव और अनन्तानन्त पुद्गल अवकाश पाते हैं, इसमें विरोध नहीं है, और जीवों में परस्पर अवगाहन-शक्ति है । ऐसा ही कथन परमागम में कहा है - 'एगणिगोद..' इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है कि एक निगोदिया जीव के शरीर में जीव-द्रव्य के प्रमाण से दिखलाये गये जितने सिद्ध हैं, उन सिद्धों से अनंत गुणे जीव एक निगोदिया के शरीरमें हैं, और निगोदिया का शरीर अंगुल के असंख्यातवें भाग है, सो ऐसे सूक्ष्म शरीर में अनंत जीव समा जाते हैं, तो लोकाकाश में समा जाने में क्या अचंभा है ? अनंतानंत पुद्गल लोकाकाश में समा रहे हैं, उसकी 'ओगाढ..' इत्यादि गाथा है । उसका अर्थ यह है कि सब प्रकार सब जगह यह लोक पुद्गल-कायों से अवगाढ़गाढ़ भरा है, ये पुद्गल-काय अनंत हैं; अनेक प्रकार के भेद को धरते हैं, कोई सूक्ष्म हैं कोई बादर हैं । तात्पर्य यह है कि यद्यपि सब द्रव्य एक क्षेत्रावगाह से रहते हैं, तो भी शुद्ध-निश्चयनय से जीव केवल ज्ञानादि अनंतगुणरूप अपने स्वरूप को नहीं छोड़ते हैं, पुद्गल-द्रव्य अपने वर्णादि स्वरूप को नहीं छोड़ता, और धर्मादि अन्य द्रव्य भी अपने अपने स्वरूप को नहीं छोड़ते हैं ॥२५॥

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+ द्रव्यों का जीव पर उपकार -
एयइँ दव्वइँ देहियहँ णिय-णिय-कज्जु जणंति ।
चउ-गइ-दुक्ख सहंत जिय तेँ संसारु भमंति ॥26॥
एतानि द्रव्याणि देहिनां निजनिजकार्यं जनयन्ति ।
चतुर्गतिदुःखं सहमानाः जीवाः तेन संसारं भ्रमन्ति ॥२६॥
अन्वयार्थ : [एतानि द्रव्याणि] ये द्रव्य [देहिनां] जीवों के [निजनिजकार्यं] अपने-अपने कार्य को [जनयंति] उपजाते हैं, [तेन] इस कारण [चतुर्गतिदुःखं सहमानाः जीवाः] चारों गतियों के दुःखों को सहते हुए जीव [संसारं भ्रमंति] संसार में भटकते हैं ।

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+ पर-द्रव्य दुःख का कारण -
दुक्खहँ कारणु मुणिवि जिय दव्वहँ एहु सहाउ ।
होयवि मोक्खहँ मग्गि लहु गम्मिज्जइ पर-लोउ ॥27॥
दुःखस्य कारणं मत्वा जीव द्रव्याणां एतत्स्वभावम् ।
भूत्वा मोक्षस्य मार्गे लघु गम्यते परलोकः ॥२७॥
अन्वयार्थ : [जीव] हे जीव, [द्रव्याणां इमं स्वभावम्] परद्रव्यों के ये स्वभाव [दुःखस्य कारणं मत्वा] दुःख के कारण जानकर [मोक्षस्य मार्गे] मोक्ष के मार्ग में [भूत्वा] लगकर [लघु परलोकः गम्यते] शीघ्र ही उत्कृष्ट लोकरूप मोक्ष में जाना चाहिये ।

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+ क्रम-प्राप्त ज्ञान और चारित्र का वर्णन -
णियमेँ कहियउ एहु मइँ ववहारेण वि दिट्ठि ।
एवहिँ णाणु चरित्तु सुणि जेँ पावहि परमेट्ठि ॥28॥
नियमेन कथिता एषा मया व्यवहारेणापि द्रष्टिः ।
इदानीं ज्ञानं चारित्रं शृणु येन प्राप्नोषि परमेष्ठिनम् ॥२८॥
अन्वयार्थ : [मया व्यवहारेणैव] मैंने व्यवहारनय से [एषादृष्टिः] ये सम्यग्दर्शन का स्वरूप [नियमेन कथिता] अच्छी तरह कहा, [इदानीं] अब [ज्ञानं चारित्रं शृणु] ज्ञान और चारित्र को सुन, [येन परमेष्ठिनम् प्राप्नोषि] जिससे सिद्धपद को पावेगा ।

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+ सम्यग्ज्ञान -
जं जह थक्कउ दव्वु जिय तं तह जाणइ जो जि ।
अप्पहं केरउ भावडउ णाणु मुणिज्जहि सो जि ॥29॥
यद् यथा स्थितं द्रव्यं जीव तत् तथा जानाति य एव ।
आत्मनः संबन्धी भावः ज्ञानं मन्यस्व स एव ॥२९॥
अन्वयार्थ : [जीव] हे जीव ! [यत् यथा स्थितं] ये (सब द्रव्य) जिस तरह (अनादिकाल के) तिष्ठे हुए हैं, [तत् तथा] उनको वैसा ही (संशयादि रहित) [य एव जानाति] जो जानता है, [स एव] वही [आत्मनः संबंधी भावः] आत्मा का निज-स्वरूप [ज्ञानं मन्यस्व] सम्यग्ज्ञान है, ऐसा मान ।

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+ सम्यक-चारित्र -
जाणवि मण्णवि अप्पु परु जो पर-भाउ चएइ ।
सो णिउ सुद्धउ भावडउ णाणिहिं चरणु हवेइ ॥30॥
ज्ञात्वा मत्वा आत्मानं परं यः परभावं त्यजति ।
स निजः शुद्धः भावः ज्ञानिनां चरणं भवति ॥३०॥
अन्वयार्थ : [आत्मानं च परं] आत्मा को और पर को [ज्ञात्वा मत्वा] जानकर और प्रतीति करके [यः परभावं] जो परभाव को [त्यजति] छोड़ता है [सः निजः शुद्धः भावः] वह आत्मा का निज शुद्ध भाव उन [ज्ञानिनां] ज्ञानीयों का [चरणं भवति] चारित्र होता है ।

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+ अभेद रत्नत्रय -
जो भत्तउ रयणत्तयहँ तसु मुणि लक्खणु एउ ।
अप्पा मिल्लिवि गुण-णिलउ तासु वि अण्णु ण झेउ ॥31॥
यः भक्त : रत्नत्रयस्य तस्य मन्यस्व लक्षणं एतत् ।
आत्मानं मुक्त्वा गुणनिलयं तस्यापि अन्यत् न ध्येयम् ॥३१॥
अन्वयार्थ : [यः रत्नत्रयस्य भक्तः] जो रत्नत्रय का भक्त है [तस्य इदं लक्षणं मन्यस्व] उसका यह लक्षण जानना, [गुणनिलयं] गुणों के समूह [आत्मानं मुक्त्वा] आत्मा को छोड़कर [तस्यापि अन्यत्] आत्मा से अन्य बाह्य द्रव्य को [न ध्येयम्] न ध्यावे ।

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+ रत्नत्रय ही आत्मा -
जे रयणत्तउ णिम्मलउ णाणिय अप्पु भणंति ।
ते आराहय सिव-पयहँ णिय-अप्पा झायंति ॥32॥
ते रत्नत्रयं निर्मलं ज्ञानिनः आत्मानं भणन्ति ।
ते आराधकाः शिवपदस्य निजात्मानं ध्यायन्ति ॥३२॥
अन्वयार्थ : [ये ज्ञानिनः] जो ज्ञानी [निर्मलं रत्नत्रयं] निर्मल (रागादि दोष रहित) रत्नत्रय को [आत्मानं भणंति] आत्मा कहते हैं [ते शिवपदस्य आराधकाः] वे शिवपद के आराधक हैं, [निजात्मानं ध्यायंति] अपने आत्मा को ध्यावते हैं ।

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+ निर्मल आत्म-ध्यान से मुक्ति -
अप्पा गुणमउ णिम्मलउ अणुदिणु जे झायंति ।
ते पर णियमेँ परम-मुणि लहु णिव्वाणु लहंति ॥33॥
आत्मानं गुणमय निर्मले अनुदिनं ये ध्यायन्ति ।
ते परं नियमेन परममुनयः लघु निर्वाण लभन्ते ॥३३॥
अन्वयार्थ : [ये गुणमय] जो (केवलज्ञानादि अनंत) गुणरूप [निर्मले] (भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म) मल रहित [आत्मानं अनुदिनं] आत्मा को निरंतर [ध्यायंति] ध्यावते हैं, [ते परं] वे ही [परममुनयः] परममुनि [नियमेन] निश्चय से [निर्वाण] निर्वाण को [लघु लभंते] शीघ्र पाते हैं ।

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+ सामान्य अवलोकन - दर्शन -
सयल-पयत्थहँ जं गहणु जीवहँ अग्गिमु होइ ।
वत्थु-विसेस-विवज्जयउ तं णिय-दंसणु जोइ ॥34॥
सकलपदार्थानां यद् ग्रहणं जीवानां अग्रिमं भवति ।
वस्तुविशेषविवर्जितं तत् निजदर्शनं पश्य ॥३४॥
अन्वयार्थ : [सकलपदार्थानां] समस्त पदार्थ (सामान्य) का [यत्] जिससे [वस्तुविशेषविवर्जितं] वस्तु का विशेष रहित [ग्रहणं] ग्रहण होता है [जीवानां] जीवों के [अग्रिमं] (ज्ञान से) पहले [भवति] होता है [तत्] उसको [निजदर्शनं] निज-दर्शन [पश्य] देखो ।

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+ दर्शन पूर्वक ज्ञान -
दंसणपुव्वु हवेइ फु डु जं जीवहँ विण्णाणु ।
वत्थु-विसेसु मुणंतु जिय तं मुणि अविचलु णाणु ॥35॥
दर्शनपूर्वं भवति स्फु टं यत् जीवानां विज्ञानम् ।
वस्तुविशेषं जानन् जीव तत् मन्यस्व अविचलं ज्ञानम् ॥३५॥
अन्वयार्थ : [यत्] जो [जीवानां] जीवों के [विज्ञानम्] ज्ञान है, वह [स्फुटं] स्पष्ट ही [दर्शनपूर्वं] दर्शन के बाद में [भवति] होता है, [वस्तुविशेषं जानन्] वस्तु को विशेष-रूप जाननेवाला है, [जीव] हे जीव [अविचलं] संशय विमोह विभ्रम से रहित [तत् ज्ञानम्] उस ज्ञान को [मन्यस्व] तू जान ।

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+ तप द्वारा निर्जरा -
दुक्खु वि सुक्खु सहंतु जिय णाणिउ झाण-णिलीणु ।
कम्महँ णिज्जर-हेउ तउ वुच्चइ संग-विहीणु ॥36॥
दुःखमपि सुखं सहमानः जीव ज्ञानी ध्याननिलीनः ।
कर्मणः निर्जराहेतुः तपः उच्यते संगविहीनः ॥३६॥
अन्वयार्थ : [जीव] हे जीव, [ज्ञानी] ज्ञानी [ध्याननिलीनः] आत्म-ध्यान में लीन [दुःखम् अपि सुखं] दुःख और सुख को [सहमानः] समभावों से सहते हुए को [कर्मणः निर्जराहेतुः] कर्मों की निर्जरा का कारण [तप:] तप [संगविहीनः उच्यते] परिग्रह रहित तपस्वियों ने कहा है ।

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+ समभाव द्वारा संवर -
बिण्णि वि जेण सहंतु मुणि मणि सम-भाउ करेइ ।
पुण्णहँ पावहँ तेण जिय संवर-हेउ हवेइ ॥37॥
द्वे अपि येन सहमानः मुनिः मनसि समभावं करोति ।
पुण्यस्य पापस्य तेन जीव संवरहेतुः भवति ॥३७॥
अन्वयार्थ : [येन] जिस कारण [द्वे अपि सहमानः] (सुख दुःख) दोनों को ही सहता हुआ [मुनिः] मुनि [मनसि] मन में [समभावं] समभाव को [करोति] धारण करता है, [तेन] इसी कारण [जीव] हे जीव, (वह मुनि) [पुण्यस्य पापस्य संवरहेतुः] पुण्य और पाप के संवर का कारण [भवति] होता है ।

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+ आत्मलीन ही संवर और निर्जरा -
अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्प-सरूवि णिलीणु ।
संवर-णिज्जर जाणि तुहुं सयल-वियप्प-विहीणु ॥38॥
तिष्ठति यावन्तं कालं मुनिः आत्मस्वरूपे निलीनः ।
संवरनिर्जरां जानीहि त्वं सकलविकल्पविहीनम् ॥३८॥
अन्वयार्थ : [मुनिः] मुनि [यावंतं कालं] जब तक [आत्मस्वरूपे निलीनः] आत्म-स्वरूप में लीन [तिष्ठति] रहता है उसे, [त्वं] तू [सकलविकल्पविहीनम्] समस्त विकल्प समूहों से रहित [संवरनिर्जरा] संवर निर्जरा [जानीहि] जान ।

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+ परिग्रह-रहित को संवर-निर्जरा -
कम्मु पुरक्किउ सो खवइ अहिणव पेसु ण देइ ।
संगु मुएविणु जो सयलु उवसम-भाउ करेइ ॥39॥
कर्म पुराकृतं स क्षपयति अभिनवं प्रवेशं न ददाति ।
संगं मुक्त्वा यः सकलं उपशमभावं करोति ॥३९॥
अन्वयार्थ : [सः] वही [पुराकृतं कर्म] पूर्व उपार्जित कर्मों को [क्षपयति] क्षय करता है, और [अभिनवं] नये कर्मों को [प्रवेशं] प्रवेश [न ददाति] नहीं होने देता, [यः] जो कि [सकलं] सब [संगं] बाह्य अभ्यंतर परिग्रह को [मुक्त्वा] छोड़कर [उपशमभावं] परम शांतभाव को [करोति] करता है ।

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+ समभाव बिना रत्नत्रय नहीं -
दंसणु णाणु चरित्तु तसु जो सम-भाउ करेइ ।
इयरहँ एक्कु वि अत्थि णवि जिणवरु एउ भणेइ ॥40॥
दर्शनं ज्ञानं चारित्रं तस्य यः समभावं करोति ।
इतरस्य एकमपि अस्ति नैव जिनवरः एवं भणति ॥४०॥
अन्वयार्थ : [दर्शनं ज्ञानं चारित्रं] सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र [तस्य] उसी के होते हैं, [यः] जो [समभावं] समभाव [करोति] करता है, [इतरस्य] दूसरे समभाव रहित जीव के [एकं अपि] तीन रत्नोंमें से एक भी [नैव अस्ति] नहीं है, [एवं] इस-प्रकार [जिनवरः] जिनेन्द्रदेव [भणति] कहते हैं ।

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+ कषायों द्वारा असंयम -
जाँवइ णाणिउ उवसमइ तामइ संजदु होइ ।
होइ कसायहँ वसि गयउ जीउ असंजदु सो ॥41॥
यावत् ज्ञानी उपशाम्यति तावत् संयतो भवति ।
भवति कषायाणां वशे गतः जीवः असंयतः स एव ॥४१॥
अन्वयार्थ : [यदा ज्ञानी जीवः] जिस समय ज्ञानी जीव [उपशाम्यति] शांतभाव को प्राप्त होता है, [तदा संयतः भवति] उस समय संयमी होता है, और [कषायाणां] क्रोधादि कषायों के [वशे गतः] आधीन हुआ [स एव] वही जीव [असंयतः भवति] असंयमी होता है ।

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+ मोह-राग-द्वेष रहित को मुक्ति -
जेण कसाय हवंति मणि सो जिय मिल्लहि मोहु ।
मोह-कसाय-विवज्जयउ पर पावहि सम-बोहु ॥42॥
येन कषाया भवन्ति मनसि तं जीव मुञ्च मोहम् ।
मोहकषायविवर्जितः परं प्राप्नोषि समबोधम् ॥४२॥
अन्वयार्थ : [जीव येन] हे जीव; जिससे [मनसि कषायाः भवंति] मन में कषाय होवें, [तं मोहम्] उस मोह को [मुंच मोहकषायविवर्जितः] छोड़कर, मोह कषाय रहित हुआ तू [परं समबोधम्] नियम से राग-द्वेष रहित ज्ञान को [प्राप्नोषि] पावेगा ।

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+ परमार्थ के ज्ञाता सुखी -
तत्तातत्तु मुणेवि मणि जे थक्का सम-भावि ।
ते पर सुहिया इत्थु जगि जहँ रइ अप्प-सहावि ॥43॥
तत्त्वातत्त्वं मत्वा मनसि ये स्थिताः समभावे ।
ते परं सुखिनः अत्र जगति येषां रतिः आत्मस्वभावे ॥४३॥
अन्वयार्थ : [ये] जो [तत्त्वातत्त्वं] तत्त्व और अतत्त्व को [मनसि] मन में [मत्वा] जानकर [समभावे स्थिताः] शांतभाव में तिष्ठते हैं, और [येषां रतिः] जिनकी लगन [आत्मस्वभावे] निज शुद्धात्म स्वभाव में हुई है, [ते परं] वे ही जीव [अत्र जगति] इस संसार में [सुखिनः] सुखी हैं ।

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+ समभावधारी की निंदा द्वारा स्तुति -
बिण्णि वि दोस हवंति तसु जो सम-भाउ करेइ ।
बंधु जि णिहणइ अप्पणउ अणु जगु गहिलु करेइ ॥44॥
द्वौ अपि दोषौ भवतः तस्य यः समभावं करोति ।
बन्धं एव निहन्ति आत्मीयं अन्यत् जगद् ग्रहिलं करोति ॥४४॥
अन्वयार्थ : [यः] जो (साधु) [समभावं] राग-द्वेष के त्यागरूप समभाव को [करोति] करता है, [तस्य] उस (तपोधन) के [द्वौ अपि दोषौ] दो ही दोष [भवतः] होते हैं; [आत्मीयं बंधं एव निहंति] एक तो अपने बंध को नष्ट करता है, [पुनः] दूसरे [जगद् ग्रहिलं करोति] जगत् के प्राणियों को बावला (पागल) बना देता है ।

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+ और भी निन्दा द्वारा स्तुति -
अण्णु वि दोसु हवेइ तसु जो सम-भाउ करेइ ।
सत्तु वि मिल्लिवि अप्पणउ परहँ णिलीणु हवेइ ॥45॥
अन्यः अपि दोषो भवति तस्य यः समभावं करोति ।
शत्रुमपि मुक्त्वा आत्मीयं परस्य निलीनः भवति ॥४५॥
अन्वयार्थ : [यः समभावं] जो समभाव को [करोति] करता है, [तस्य] उस (तपोधन) के [अन्यः अपि दोषः] दूसरा भी दोष [भवति] है । क्योंकि [परस्य निलीनः] पर के आधीन [भवति] होता है, और [आत्मीयं अपि] अपने आधीन भी [शत्रुम् मुंचति] शत्रु को छोड़ देता है ।

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+ योगी और भोगी में भेद -
जा णिसि सयलहँ देहियहँ जोग्गिउ तहिँ जग्गेइ ।
जहिँ पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेइ ॥46-अ॥
या निशा सकलानां देहिनां योगी तस्यां जागर्ति ।
यत्र पुनः जागर्ति सकलं जगत् तां निशां मत्वा स्वपिति ॥४६-अ॥
अन्वयार्थ : [या सकलानां देहिनां] जो सब संसारी जीवों की [निशा] रात है, [तस्यां योगी जागर्ति] वहां परम तपस्वी जागता है, [पुनः यत्र] और जिसमें [सकलं जगत्] सब संसारी जीव [जागर्ति] जाग रहे हैं, [तां] उस दशा को [निशां मत्वा स्वपिति] योगी रात मानकर योग निद्रा में सोता है ।

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+ और भी निन्दा द्वारा स्तुति -
अण्णु वि दोसु हवेइ तसु जो समभाउ करेइ ।
वियलु हवेविणु इक्कलउ उप्परि जगहँ चडेइ ॥46॥
अन्यः अपि दोषः भवति तस्य यः समभावं करोति ।
विकलः भूत्वा एकाकी उपरि जगतः आरोहति ॥४६॥
अन्वयार्थ : [यः] जो तपस्वी महामुनि [समभावं] समभाव को [करोति] करता है, [तस्य] उसके [अन्यः अपि] दूसरा भी [दोषः भवति] दोष होता है, जो कि [विकलः भूत्वा] शरीर रहित होकर (बुद्धि धन वगैरः से भ्रष्ट होकर) [एकाकी] अकेला [जगतः उपरि] लोक के शिखर पर (सबके ऊपर) [आरोहति] चढ़ता है ।

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+ ज्ञानी के किसी से राग द्वेष नहीं -
णाणि मुएप्पिणु भाउ समु कित्थु वि जाइ ण राउ ।
जेण लहेसइ णाणमउ तेण जि अप्प-सहाउ ॥47॥
ज्ञानी मुक्त्वा भावं शमं क्वापि याति न रागम् ।
येन लभिष्यति ज्ञानमयं तेन एव आत्मस्वभावम् ॥४७॥
अन्वयार्थ : [ज्ञानी शमं भावं मुक्त्वा] ज्ञानी (मुनि) समभाव को छोड़कर [क्वापि रागम् न याति] किसी पदार्थ में राग नहीं करता [येन ज्ञानमयं] इसी कारण ज्ञानमयी निर्वाणपद [प्राप्स्यति] पावेगा, [तेनैव] और उसी (समभाव) से [आत्मस्वभावम्] आत्म-स्वभाव (सिद्ध-पद) को पावेगा ।

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+ ज्ञानी समभाव को छोड़कर कुछ नहीं करता -
भणइ भणावह णवि थुणइ णिदह णाणि ण कोइ ।
सिद्धिहिँ कारणु भाउ समु जाणंतउ पर सोइ ॥48॥
भणति भाणयति नैव स्तौति निन्दति ज्ञानी न कमपि ।
सिद्धेः कारणं भावं समं जानन् परं तमेव ॥४८॥
अन्वयार्थ : [ज्ञानी कमपि न] ज्ञानी न किसी से [भणति] पढ़ता [भाणयति] पढ़ाता [नैव स्तौति निंदति] न किसी की स्तुति करता, न किसी की निंदा करता, [सिद्धेः कारणं] मोक्ष का कारण [समं भावं] एक समभाव को [परं जानन्] निश्चय से जानो [तमेव] तुम भी ।

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+ ज्ञानी के परिग्रह में राग-द्वेष नहीं -
गंथहँ उप्परि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ ।
गंथहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प-सहाउ ॥49॥
ग्रन्थस्य उपरि परममुनिः द्वेषमपि करोति न रागम् ।
ग्रन्थाद् येन विज्ञातः भिन्नः आत्मस्वभावः ॥४९॥
अन्वयार्थ : [ग्रंथस्य उपरि] (अंतरङ्ग बाह्य / शास्त्र) परिग्रह के ऊपर जो [परममुनिः] परम तपस्वी [रागम् द्वेषमपि न करोति] राग और द्वेष नहीं करता है [येन] जिस मुनि ने [आत्मस्वभावः] आत्मा का स्वभाव [ग्रंथात्] ग्रंथ से [भिन्नः विज्ञातः] जुदा जान लिया है ।

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+ ज्ञानी के विषयों में राग-द्वेष नहीं -
विसयहँ उप्परि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ ।
विसयहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प-सहाउ ॥50॥
विषयाणां उपरि परममुनिः द्वेषमपि करोति न रागम् ।
विषयेभ्यः येन विज्ञातः भिन्नः आत्मस्वभावः ॥५०॥
अन्वयार्थ : [परममुनिः विषयाणां उपरि] महामुनि (पाँच इन्द्रियों के स्पर्शादि) विषयों पर [रागमपि द्वेषं] राग और द्वेष [न करोति] नहीं करता; [येन आत्मस्वभावः] जिसने अपना स्वभाव [विषयेभ्यः भिन्नः विज्ञातः] विषयों से जुदा समझ लिया है ।

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+ ज्ञानी के देह में राग-द्वेष नहीं -
देहहँ उप्परि परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ ।
देहहँ जेण वियाणियउ भिण्णउ अप्प-सहाउ ॥51॥
देहस्य उपरि परममुनिः द्वेषमपि करोति न रागम् ।
देहाद् येन विज्ञातः भिन्नः आत्मस्वभावः ॥५१॥
अन्वयार्थ : [परममुनिः देहस्य उपरि] महामुनि शरीर के ऊपर भी [रागमपि द्वेषम्] राग और द्वेष को [न करोति] नहीं करता [येन आत्मस्वभावः] जिसने निज-स्वभाव [देहात्] देह से [भिन्नः विज्ञातः] भिन्न जान लिया है ।

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+ ज्ञानी के ग्रहण-त्याग में राग-द्वेष नहीं -
वित्ति-णिवित्तिहिँ परम-मुणि देसु वि करइ ण राउ ।
बंधहँ हेउ वियाणियउ एयहँ जेण सहाउ ॥52॥
वृत्तिनिवृत्त्योः परममुनिः द्वेषमपि करोति न रागम् ।
बन्धस्य हेतुः विज्ञातः एतयोः येन स्वभावः ॥५२॥
अन्वयार्थ : [परममुनि वृत्तिनिवृत्त्योः] महामुनि प्रवृत्ति और निवृत्ति में [रागम्अपि द्वेषम्] राग और द्वेष को [न करोति] नहीं करता, [येन एतयोः] जिसने इन दोनों का [स्वभावः बंधस्य हेतुः] स्वभाव कर्म-बंध का कारण [विज्ञातः] जान लिया है ।

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+ बंध-मोक्ष का कारण स्वयं -- ज्ञानी -
बंधहँ मोक्खहँ हेउ णिउ जो णवि जाणइ कोइ ।
सो पर मोहिं करइ जिय पुण्णु वि पाउ वि दोइ ॥53॥
बन्धस्य मोक्षस्य हेतुः निजः यः नैव जानाति कश्चित् ।
स परं मोहेन करोति जीव पुण्यमपि पापमपि द्वे अपि ॥५३॥
अन्वयार्थ : [यः कश्चित्] जो कोई (जीव) [बंधस्य मोक्षस्य हेतुः] बंध और मोक्ष का कारण [निजः नैव जानाति] स्वयं को नहीं जानता है, [स एव पुण्यमपि पापमपि] वही पुण्य और पाप [द्वे अपि] दोनों को ही [मोहेन करोति] मोह से करता है ।

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+ पुण्य-पाप मोक्ष के कारण -- अज्ञानी -
दंसण-णाण-चरित्तमउ जो णवि अप्पु मुणेइ ।
मोक्खहँ कारणु भणिवि जिय सो पर ताइँ करेइ ॥54॥
दर्शनज्ञानचारित्रमयं यः नैवात्मानं मनुते ।
मोक्षस्य कारणं भणित्वा जीव स परं ते करोति ॥५४॥
अन्वयार्थ : [यः दर्शनज्ञानचारित्रमयं] जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमयी [आत्मानं नैव मनुते] आत्मा को नहीं जानता, [स एव जीव] वही हे जीव; [ते मोक्षस्य कारणं] उन (पुण्य-पाप) को मोक्ष के कारण [भणित्वा करोति] जानकर करता है ।

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+ अज्ञानी पुण्य-पाप को समान नहीं मानता -
जो णवि मण्णइ जीउ समु पुण्णु वि पाउ वि दोइ ।
सो चिरु दुक्खु सहंतु जिय मोहिं हिंडइ लोइ ॥55॥
यः नैव मन्यते जीवः समाने पुण्यमपि पापमपि द्वे ।
स चिरं दुःखं सहमानः जीव मोहेन हिण्डते लोके ॥५५॥
अन्वयार्थ : [यः जीवः] जो जीव [पुण्यमपि पापमपि द्वे] पुण्य और पाप दोनों को [समाने नैव मन्यते] समान नहीं मानता, [सः मोहेन] वह जीव मोह से मोहित हुआ [चिरं दुःखं सहमानः] बहुत काल तक दुःख सहता हुआ [लोके हिंडते] संसार में भटकता है ।

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+ पाप का उदय भी भला -
वर जिय पावइँ सुंदरइँ णाणिय ताइँ भणंति ।
जीवहँ दुक्खइँ जणिवि लहु सिवमइँ जाइँ कुणंति ॥56॥
वरं जीव पापानि सुन्दराणि ज्ञानिनः तानि भणन्ति ।
जीवानां दुःखानि जनित्वा लघु शिवमतिं यानि कुर्वन्ति ॥५६॥
अन्वयार्थ : [जीव यानि] हे जीव, जो पाप के उदय [जीवानां दुःखानि जनित्वा] जीवों को दुःख देकर [लघु शिवमतिं] शीघ्र ही मोक्ष के जाने योग्य उपायों में बुद्धि [कुर्वन्ति तानि पापानि] कर देवे, तो वे पाप भी [वरं सुंदराणि] बहुत अच्छे हैं, ऐसा [ज्ञानिनः भणंति] ज्ञानी कहते हैं ।

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+ पुण्य का उदय भी बुरा -
मं पुणु पुण्णइं भल्लाइँ णाणिय ताइँ भणंति ।
जीवहँ रज्जइँ देवि लहु दुक्खहँ जाइँ जणंति ॥57॥
मा पुनः पुण्यानि भद्राणि ज्ञानिनः तानि भणन्ति ।
जीवस्य राज्यानि दत्त्वा लघु दुःखानि यानि जनयन्ति ॥५७॥
अन्वयार्थ : [पुनः तानि पुण्यानि] फिर वे पुण्य भी [मा भद्राणि] अच्छे नहीं हैं, [यानि जीवस्य] जो जीव को [राज्यानि दत्त्वा] राज देकर [लघु दुःखानि] शीघ्र ही नरकादि दुःखों को [जनयंति] उपजाते हैं, [ज्ञानिनः] ऐसा ज्ञानी पुरुष [भणंति] कहते हैं ।

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+ आत्मदर्शी का मरण भी शुभ और अज्ञानी का पुण्य करना भी अशुभ -
वर णिय-दंसण-अहिमुहउ मरणु वि जीव लहेसि ।
मा णिय-दंसण-विम्मुहउ पुण्णु वि जीव करेसि ॥58॥
वरं निजदर्शनाभिमुखः मरणमपि जीव लभस्व ।
मा निजदर्शनविमुखः पुण्यमपि जीव करिष्यसि ॥५८॥
अन्वयार्थ : [जीव] हे जीव, [निजदर्शनाभिमुखः] जो अपने सम्यग्दर्शन के सन्मुख होकर [मरणमपि] मरण को भी [लभस्व वरं] पावे, तो अच्छा है, परन्तु [जीव] हे जीव, [निजदर्शनविमुखः] अपने सम्यग्दर्शन से विमुख हुआ [पुण्यमपि] पुण्य भी [करिष्यसि] करे [मा वरं] तो अच्छा नहीं ।

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+ आत्मदर्शी सुखी, अज्ञानी दुखी -
जे णिय - दंसण - अहिमुहा सोक्खु अणंतु लहंति ।
तिं विणु पुण्णु करंता वि दुक्खु अणंतु सहंति ॥59॥
ये निजदर्शनाभिमुखाः सौख्यमनन्तं लभन्ते ।
तेन विना पुण्यं कुर्वाणा अपि दुःखमनन्तं सहन्ते ॥५९॥
अन्वयार्थ : [ये निजदर्शनाभिमुखाः] जो निज-दर्शन के सम्मुख हैं, [अनन्तंसुखं] अनन्त सुख को [लभन्ते] पाते हैं, [तेन विना] और उस (सम्यक्त्व) के बिना [पुण्यं कुर्वाणा अपि] पुण्य भी करते हैं, [अनंतं दुःखम् सहंते] अनन्त दुःख भोगते हैं ।

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+ मोह उत्पन्न करे ऐसा पुण्य का उदय बुरा -
पुण्णेण होइ विहवो विहवेण मओ मएण मइ-मोहो ।
मइ-मोहेण य पावं ता पुण्णं अम्ह मा होउ ॥60॥
पुण्येन भवति विभवो विभवेन मदो मदेन मतिमोहः ।
मतिमोहेन च पापं तस्मात् पुण्यं अस्माकं मा भवतु ॥६०॥
अन्वयार्थ : [पुण्येन विभवः] पुण्य से (घर में) धन [भवति] होता है, और [विभवेन] धन से [मदः] अभिमान, [मदेन] मान से [मतिमोहः] बुद्धि-भ्रम होता है, [मतिमोहेन] बुद्धि के भ्रम होने से (अविवेक से) [पापं] पाप होता है, [तस्मात्] इसलिये [पुण्यं] ऐसा पुण्य [अस्माकं] हमारे [मा भवतु] न होवे ।

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+ देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति से पुण्य, मुक्ति नहीं -
देवहं सत्थहं मुणिवरहँ भत्तिए पुण्णु हवेइ ।
कम्म-क्खउ पुणु होइ णवि अज्जउ संति भणेइ ॥61॥
देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां भक्त्या पुण्यं भवति ।
कर्मक्षयः पुनः भवति नैव आर्यः शान्ति भणति ॥६१॥
अन्वयार्थ : [देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां] श्रीवीतरागदेव, द्वादशांग शास्त्र और दिगम्बर साधुओं की [भक्त्या] भक्ति करने से [पुण्यं भवति] पुण्य होता है, [पुनः] और [कर्मक्षयः] कर्मों का क्षय [नैव भवति] नहीं होता, ऐसा [आर्यः शांतिः] शांति नाम आर्य [भणति] कहते हैं ।

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+ देव-शास्त्र-गुरु से द्वेष पापभाव -
देवहं सत्थहँ मुणिवरहँ जो विद्देसु करेइ ।
णियमेँ पाउ हवेइ तसु जेँ संसारु भमेइ ॥62॥
देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां यो विद्वेषं करोति ।
नियमेन पापं भवति तस्य येन संसारं भ्रमति ॥६२॥
अन्वयार्थ : [देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां] वीतरागदेव, जिनसूत्र और निर्ग्रंथ मुनियों से [यः] जो जीव [विद्वेषं] द्वेष [करोति] करता है, [तस्य] उसके [नियमेन] निश्चय से [पापं] पाप [भवति] होता है, [येन] जिससे [संसारं] संसार में [भ्रमति] भ्रमता है ।

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+ पाप से दुर्गति, पुण्य से सुगति, दोनों के ही नाश से मोक्ष -
पावेँ णारउ तिरिउ जिउ पुएणेँ अमरु वियाणु ।
मिस्सेँ माणुस-गइ लहइ दोहि वि खइ णिव्वाणु ॥63॥
पापेन नारकः तिर्यग् जीवः पुण्येनामरो विजानीहि ।
मिश्रेण मनुष्यगतिं लभते द्वयोरपि क्षये निर्वाणम् ॥६३॥
अन्वयार्थ : [जीवः पापेन] जीव पाप से [नारकः तिर्यग्] नरकगति और तिर्यंचगति और [पुण्येन] पुण्य से [अमरः] देव और, [मिश्रेण] पुण्य और पाप दोनों के मेल से [मनुष्यगतिं] मनुष्यगति को [लभते] पाता है, और [द्वयोरपि क्षये] दोनों (पुण्य-पाप) के ही नाश से [निर्वाणम्] मोक्ष को पाता है, ऐसा [विजानीहि] जानो ।

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+ ज्ञानी के लिए वंदना, निंदा, प्रायश्चित्त हेय -
वंदणु णिंदणु पडिकमणु पुण्णहँ कारणु जेण ।
करइ करावइ अणमणइ एक्कु वि णाणिण तेण ॥64॥
वन्दनं निन्दनं प्रतिक्रमणं पुण्यस्य कारणं येन ।
करोति कारयति अनुमन्यते एकमपि ज्ञानी न तेन ॥६४॥
अन्वयार्थ : [वंदनं] (पंच परमेष्ठी की) वंदना, [निंदनं] (अपने अशुभ कर्म की) निंदा, और [प्रतिक्रमणं] (अपराधों का) प्रायश्चित्त, ये सब [येन पुण्यस्य कारणं] चूँकि पुण्य के कारण हैं, [तेन] इसीलिये [ज्ञानी] ज्ञानी जीव [एकमपि] (इन तीनों में से) एक भी [न करोति] न तो करता है, [कारयति] न कराता है, और न [अनुमन्यते] करते हुए को भला जानता है ।

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+ ज्ञानियों को ज्ञानमय भाव नहीं छोड़ना चाहिए -
वंदणु णिदणु पडिकमणु णाणिहिँ एहु ण जुत्तु ।
एक्कु जि मेल्लिवि णाणमउ सुद्धउ भाउ पवित्तु ॥65॥
वन्दनं निन्दनं प्रतिक्रमणं ज्ञानिनां इदं न युक्त म् ।
एकमेव मुक्त्वा ज्ञानमयं शुद्धं भावं पवित्रम् ॥६५॥
अन्वयार्थ : [वंदन निंदनं प्रतिक्रमणं] वंदना, निंदा, और प्रतिक्रमण [इदं] ये तीनों [ज्ञानिनां] ज्ञानियों को [युक्तम् न] ठीक नहीं हैं, [एकमेव] एक [ज्ञानमयं] ज्ञानमय [शुद्धं पवित्रम् भावं] पवित्र शुद्ध भाव को [मुक्त्वा] छोड़कर ।

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+ शुद्ध-उपयोग बिना मुक्ति नहीं -
वंदउ णिंदउ पडिकमउ भाउ असुद्धउ जासु ।
पर तसु संजमु अत्थि णवि जं मण-सुद्धि ण तासु ॥66॥
वन्दतां निन्दतु प्रतिक्रामतु भावः अशुद्धो यस्य ।
परं तस्य संयमोऽस्ति नैव यस्मात् मनः शुद्धिर्न तस्य ॥६६॥
अन्वयार्थ : [वंदतु निंदतु प्रतिक्रामतु] वंदना करो, निंदा करो, प्रतिक्रमणादि करो, लेकिन [यस्य] जिसके [अशुद्धो भावः] अशुद्ध परिणाम हैं, [तस्य] उसके [परं] नियम से [संयमः] संयम [नैव अस्ति] नहीं हो सकता, [यस्मात्] क्योंकि [तस्य] उसके [मनःशुद्धिः न] मन की शुद्धता नहीं है ।

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+ शुद्धोपयोग ही मुख्य -
सुद्धहँ संजमु सीलु तउ सुद्धहँ दंसणु णाणु ।
सुद्धहँ कम्मक्खउ हवइ सुद्धउ तेण पहाणु ॥67॥
शुद्धानां संयमः शीलं तपः शुद्धानां दर्शनं ज्ञानम् ।
शुद्धानां कर्मक्षयो भवति शुद्धो तेन प्रधानः ॥६७॥
अन्वयार्थ : [शुद्धानां] शुद्धोपयोगियों के ही [संयमः शील तपः] (पाँच इन्द्री और मन को रोकनेरूप) संयम, शील और तप [भवति] होते हैं, [शुद्धानां] शुद्धों के ही [दर्शनं ज्ञानम्] सम्यग्दर्शन और वीतराग स्व-संवेदनज्ञान और [शुद्धानां] शुद्धोपयोगियों के ही [कर्मक्षयः] कर्मों का नाश होता है, [तेन] इसलिये [शुद्धः] शुद्धोपयोग ही [प्रधानः] मुख्य है ।

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+ शुद्ध-उपयोग ही धर्म -
भाउ विसुद्धउ अप्पणउ धम्मु भणेविणु लेहु ।
चउ-गइ-दुक्खहँ जा धरइ जीउ पडंतउ एहु ॥68॥
भावो विशुद्धः आत्मीयः धर्मं भणित्वा गृह्णीथाः ।
चतुर्गतिदुःखेभ्यः यो धरति जीवं पतन्तमिमम् ॥६८॥
अन्वयार्थ : [विशुद्धः भावः] (मिथ्यात्व रागादिसे रहित) शुद्ध परिणाम है, वही [आत्मीयः] अपना होने से [धर्मं भणित्वा] धर्म समझकर [गृह्णीथाः] अंगीकार करो; [यः] जो (आत्मधर्म) [चतुर्गतिदुःखेभ्यः] चारों गतियों के दुःखों से [पतंतम्] संसार में पड़े हुए [इमम् जीवं] इस जीव को निकालकर [धरति] (आनंद स्थान में) रखता है ।

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+ शुद्ध-भाव बिना मुक्ति नहीं -
सिद्धिहिँ केरा पंथडा भाउ विसुद्धउ एक्कु ।
जो तसु भावहँ मुणि चलइ सो किम होइ विमुक्कु ॥69॥
सिद्वेः संबन्धो पन्थाः भावो विशुद्ध एकः ।
यः तस्माद्भावात् मुनिश्चलति स कथं भवति विमुक्त: ॥६९॥
अन्वयार्थ : [सिद्धेः संबंधी पंथाः] मुक्ति का मार्ग [एकः विशुद्धः भावः] एकमात्र शुद्ध भाव ही है [यः मुनिः] जो मुनि [तस्मात् भावात्] उस शुद्ध भाव से [चलति] चलायमान हो जावे, तो [सः कथं] वह कैसे [विमुक्तः भवति] मुक्त हो सकता है ?

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+ चित्त की शुद्धि बिना सब करना व्यर्थ -
जहिँ भावइ तहिँ जाहि जिय जं भावइ करि तं जि ।
केम्वइ मोक्खुण अत्थि पर चित्तहँ सुद्धि ण जं जि ॥70॥
अत्र भाति तत्र याहि जीव यद् भाति कुरु तदेव ।
कथमपि मोक्षः नास्ति परं चित्तस्य शुद्धिर्न यदेव ॥७०॥
अन्वयार्थ : [जीव यत्र भाति] हे जीव, जहाँ भाए [तत्र याहि] वहां जा, और [यत् भाति] जो भाए (अच्छा लगे) [तदेव कुरु] वैसा कर, [परं यदेव] लेकिन जब तक [चित्तस्य शुद्धिः न] मन की शुद्धि नहीं है, तब तक [कथमपि मोक्षो नास्ति] किसी तरह मोक्ष नहीं हो सकता ।

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+ शुभ से धर्म, अशुभ पाप, शुद्ध अबन्धक -
सुह-परिणामेँ धम्मु पर असुहेँ होइ अहम्मु ।
दोहिँ वि एहिँ विवज्जियउ सुद्धु ण बंधइ कम्मु ॥71॥
शुभपरिणामेन धर्मः परं अशुभेन भवति अधर्मः ।
द्वाभ्यामपि एताभ्यां विवर्जितः शुद्धो न बध्नाति कर्म ॥७१॥
अन्वयार्थ : [शुभपरिणामेन] शुभ परिणामों से [धर्मः परं] मुख्यता से धर्म [भवति] होता है, [अशुभेन] (विषय कषायादि) अशुभ परिणामों से [अधर्मः] पाप होता है, [अपि] और [एताभ्यां द्वाभ्याम् विवर्जितः] इन दोनों से रहित [शुद्धः] शुद्ध के [कर्म न बध्नाति] कर्म नहीं बाँधता ।

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+ दान से भोग, तप से इंद्रत्व, ज्ञान से मोक्ष -
दाणिं लब्भइ भोउ पर इंदत्तणु वि तवेण ।
जम्मण-मरण-विवज्जियउ पउ लब्भइ णाणेण ॥72॥
दानेन लभ्यते भोगः परं इन्द्रत्वमपि तपसा ।
जन्ममरणविवर्जितं पदं लभ्यते ज्ञानेन ॥७२॥
अन्वयार्थ : [दानेन परं भोगः] दान से नियम से (पाँच इंद्रियों के) भोग [लभ्यते] प्राप्त होते हैं, [अपि तपसा] और तप से [इंद्रत्वम्] इंद्रत्व मिलता है, तथा [ज्ञानेन] (वीतराग स्व-संवेदन) ज्ञान से [जन्ममरणविवर्जितं] जन्म-मरण से रहित [पदं लभ्यते] मोक्ष पद मिलता है ।

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+ निसंदेह ज्ञान से ही मोक्ष, ज्ञान-रहित को संसार-भ्रमण -
देउ णिरंजणु इउँ भणइ णाणिं मुक्खु ण भंति ।
णाण-विहीणा जीवडा चिरु संसारु भमंति ॥73॥
देवः निरञ्जन एवं भणति ज्ञानेन मोक्षो न भ्रान्तिः ।
ज्ञानविहीना जीवाः चिरं संसारं भ्रमन्ति ॥७३॥
अन्वयार्थ : [निरंजनः] मोह-राग-द्वेष रहित [देवः] सर्वज्ञ वीतरागदेव [एवं भणति] ऐसा कहते हैं, कि [ज्ञानेन मोक्षः] ज्ञान से ही मोक्ष है, [न भ्रांतिः] इसमें संदेह नहीं है और [ज्ञानविहीनाः] ज्ञान से रहित [जीवाः चिरं] जीव बहुत काल तक [संसारं भ्रमंति] संसार में भटकते हैं ।

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+ ज्ञान-रहित के मोक्ष नहीं -- उदाहरण -
णाण-विहीणहँ मोक्ख-पउ जीव म कासु वि जोइ ।
बहुएँ सलिल-विरोलियइँ करु चोप्पडउ ण होइ ॥74॥
ज्ञानविहीनस्य मोक्षपदं जीव मा कस्यापि अद्राक्षीः ।
बहुना सलिलविलोडितेन करः चिक्कणो न भवति ॥७४॥
अन्वयार्थ : [ज्ञानविहीनस्य] ज्ञान से रहित [कस्यापि] किसी के [मोक्षपदं] मोक्ष-पदवी [जीव] हे जीव, [मा द्राक्षीः] मत देख [बहुना] बहुत [सलिलविलोडितेन] पानी के मथने से भी [करः] हाथ [चिक्कणो] चीकना [न भवति] नहीं होता ।

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+ आत्म-बोध बिना ज्ञान और तप व्यर्थ -
जं णिय-बोहहँ बाहिरउ णाणु वि कज्जु ण तेण ।
दुक्खहँ कारणु जेण तउ जीवहँ होइ खणेण ॥75॥
यत् निजबोधाद्बाह्यं ज्ञानमपि कार्यं न तेन ।
दुःखस्य कारणं येन तपः जीवस्य भवति क्षणेन ॥७५॥
अन्वयार्थ : [यत् निजबोधात्] जो आत्म-बोध से [बाह्यं] बाहर (रहित) [ज्ञानमपि] (शास्त्र आदि का) ज्ञान भी है, [तेन] उससे [कार्यं न] कुछ काम नहीं, [येन] क्योंकि [तपः क्षणेन] तप शीघ्र ही [जीवस्य] (बोध-रहित) जीव को [दुःखस्य कारणं] दुःख का कारण [भवति] होता है ।

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+ आत्मज्ञानी के पर-द्रव्य में प्रीती नहीं -
तं णिय-णाणु जि होइ ण वि जेण पवड्ढइ राउ ।
दिणयर-किरणहँ पुरउ जिय किं विलसइ तम-राउ ॥76॥
तत् निजज्ञानमेव भवति नापि येन प्रवर्धते रागः ।
दिनकरकिरणानां पुरतः जीव किं विलसति तमोरागः ॥७६॥
अन्वयार्थ : [जीव तत्] हे जीव, वह [निजज्ञानम् एव] आत्म-तत्त्व का परिज्ञान ही [नापि भवति] नहीं है [येन रागः प्रवर्धते] जिससे पर-द्रव्य में प्रीति बढ़े, [दिनकरकिरणानां पुरतः] सूर्य की किरणों के आगे [तमोरागः] अन्धकार का फैलाव [किं विलसति] कैसे शोभायमान हो सकता है ?

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+ आत्मज्ञानी को विषय-भोग में प्रीती क्यों नहीं? -
अप्पा मिल्लिवि णाणियहँ अण्णु ण सुंदरु वत्थु ।
तेण ण विसयहँ मणु रमइ जाणंतहँ परमत्थु ॥77॥
आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानिनां अन्यन्न सुन्दरं वस्तु ।
तेन न विषयेषु मनो रमते जानतां परमार्थम् ॥७७॥
अन्वयार्थ : [आत्मानं] आत्मा को [मुक्त्वा] छोड़कर [ज्ञानिनां] ज्ञानियों को [अन्यद् वस्तु] अन्य वस्तु [ सुंदरं न] अच्छी नहीं लगती, [तेन] इसलिये [परमार्थम् जानतां] परमात्म-पदार्थ को जाननेवालों का [मनः] मन [विषयाणां] विषयों में [न रमते] नहीं लगता ।

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+ आत्मज्ञान श्रेष्ठ -- उदाहरण -
अप्पा मिल्लिवि णाणमउ चित्ति ण लग्गइ अण्णु ।
मरगउ जेँ परियाणियउ तहुँ कच्चेँ कउ गण्णु ॥78॥
आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानमयं चित्ते न लगति अन्यत् ।
मरकतः येन परिज्ञातः तस्य काचेन कुतो गणना ॥७८॥
अन्वयार्थ : [ज्ञानमयं आत्मानं मुक्त्वा] ज्ञानमयी आत्मा को छोड़कर [अन्यत् चित्ते] दूसरी वस्तु ज्ञानियों के मन में [न लगति] नहीं रुचती; [येन मरकतः] जिसने मरकतमणि (रत्न) [परिज्ञातः] जान लिया, [तस्य काचेन] उसको काँच से [किं गणनं] क्या प्रयोजन है ?

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+ कर्म-फल में राग-द्वेष से संसार -
भुंजंतु वि णिय-कम्म-फ लु मोहइँ जो जि करेइ ।
भाउ असुंदरु सुंदरु वि सो पर कम्मु जणेइ ॥79॥
भुञ्जानोऽपि निजकर्मफ लं मोहेन य एव करोति ।
भावं असुन्दरं सुन्दरमपि स परं कर्म जनयति ॥७९॥
अन्वयार्थ : [य एव] जो जीव [निजकर्मफलं] अपने कर्मों के फल को [भुंजानोऽपि] भोगता हुआ भी [मोहेन] मोह से [असुंदरं सुंदरम् अपि] भले और बुरे [भावं करोति] परिणामों को करता है, [सः परं] वह केवल [कर्म जनयति] कर्म को उपजाता (बाँधता) है ।

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+ कर्म-फल में राग-द्वेष रहित के निर्जरा -
भुंजंतु वि णिय-कम्म-फ लु जो तहिँ राउ ण जाइ ।
सो णवि बंधइ कम्मु पुणु संचिउ जेण विलाइ ॥80॥
भुञ्जानोऽपि निजकर्मफ लं यः तत्र रागं न याति ।
स नैव बध्नाति कर्म पुनः संचितं येन विलीयते ॥८०॥
अन्वयार्थ : [निजकर्मफलं] अपने बाँधे हुए कर्मों के फल को [भुंजानोऽपि] भोगता हुआ भी [तत्र] उस फल के भोगने में [यः] जो जीव [रागं] राग-द्वेष को [न याति] नहीं प्राप्त होता [सः] वह [पुनः कर्म] फिर कर्म को [नैव] नहीं [बध्नाति] बाँधता, [येन] जिस (कर्म बंधाभाव परिणाम) से [संचितं] पहले बाँधे हुए कर्म भी [विलीयते] नाश हो जाते हैं ।

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+ परमाणु-मात्र राग-द्वेष भी मुक्ति में बाधक -
जो अणु-मेत्तु वि राउ मणि जाम ण मिल्लइ एत्थु ।
सो णवि मुच्चइ ताम जिय जाणंतु वि परमत्थु ॥81॥
यः अणुमात्रमपि रागं मनसि यावत् न मुञ्चति अत्र ।
स नैव मुच्यते तावत् जीव जानन्नपि परमार्थम् ॥८१॥
अन्वयार्थ : [यः] जो जीव [अणुमात्रं अपि] थोड़ा भी [रागं] राग [मनसि] मन में से [यावत्] जब-तक [अत्र] इस संसार में [न मुंचति] नहीं छोड़ देता है, [तावत्] तब-तक [जीव] हे जीव, [परमार्थं] निज शुद्धात्मतत्त्व को [जानन्नपि] शब्द से केवल जानता हुआ भी [नैव] नहीं [मुच्यते] मुक्त होता ।

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+ आत्म-ज्ञान बिना शास्त्र-ज्ञान और तप से मुक्ति नहीं -
बुज्झइ सत्थइँ तउ चरइ पर परमत्थु ण वेइ ।
ताव ण मुंचइ जाम णवि इहु परमत्थु मुणेइ ॥82॥
बुध्यते शास्त्राणि तपः चरति परं परमार्थं न वेत्ति ।
तावत् न मुच्यते यावत् नैव एनं परमार्थं मनुते ॥८२॥
अन्वयार्थ : [शास्त्राणि] शास्त्रों को [बुध्यते] जानता है, [तपः चरति] और तपस्या करता है, [परं] लेकिन [परमार्थं] परमात्मा को [न वेत्ति] नहीं जानता है, [यावत्] और जबतक [एवं] पूर्व कहे हुए [परमार्थं] परमात्मा को [नैव मनुते] नहीं जानता, [तावत्] तबतक [न मुच्यते] नहीं मुक्त होता है ।

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+ शास्त्र-पढ़ने का प्रयोजन विकल्प-रहितता -
सत्थु पढंतु वि होइ जडु जो ण हणेइ वियप्पु ।
देहि वसंतु वि णिम्मलउ णवि मण्णइ परमप्पु ॥83॥
शास्त्रं पठन्नपि भवति जडः यः न हन्ति विकल्पम् ।
देहे वसन्तमपि निर्मलं नैव मन्यते परमात्मानम् ॥८३॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [शास्त्रं] शास्त्र को [पठन्नपि] पढ़ता हुआ भी [विकल्पम्] विकल्प को [न] [हंति] नहीं दूर करता, वह [जडो भवति] मूर्ख है, वह [देहे] शरीर में [वसंतमपि] रहते हुए भी [निर्मलं परमात्मानम्] निर्मल परमात्मा को [नैव मन्यते] नहीं जानता ।

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+ शास्त्र-ज्ञान का प्रयोजन आत्म-ज्ञान -
बोह-णिमित्तेँ सत्थु किल लोइ पढिज्जइ इत्थु ।
तेण वि बोहु ण जासु वरु सो किं मूढु ण तत्थु ॥84॥
बोधनिमित्तेन शास्त्रं किल लोके पठयते अत्र ।
तेनापि बोधो न यस्य वरः स किं मूढो न तथ्यम् ॥८४॥
अन्वयार्थ : [अत्र लोके] इस लोक में [किल] नियम से [बोधनिमित्तेन] ज्ञान के निमित्त [शास्त्रं] शास्त्र [पठ्यते] पढ़े जाते हैं, [तेनापि] तब भी [यस्य] जिसको [वरः बोधः न] उत्तम ज्ञान नहीं हुआ, [स] वह [किं] क्या [तथ्यम् मूढः न] निस्संदेह मूर्ख नहीं है ?

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+ आत्म-ज्ञान बिना तीर्थ-भ्रमण से मुक्ति नहीं -
तित्थइँ तित्थु भमंताहँ मूढहँ मोक्खु ण होइ ।
णाण-विवज्जिउ जेण जिय मुणिवरु होइ ण सोइ ॥85॥
तीर्थं तीर्थं भ्रमतां मूढानां मोक्षो न भवति ।
ज्ञानविवर्जितो येन जीव मुनिवरो भवति न स एव ॥८५॥
अन्वयार्थ : [तीर्थं तीर्थं] तीर्थ तीर्थ प्रति [भ्रमतां] भ्रमण करनेवाले [मूढानां] मूर्खों को [मोक्षः] मुक्ति [न भवति] नहीं होती, [जीव] हे जीव, [येन] क्योंकि जो [ज्ञानविवर्जितः] ज्ञानरहित हैं, [स एव] वह [मुनिवरः न भवति] मुनिवर नहीं हैं ।

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+ ज्ञानी और मिथ्यादृष्टि मुनि में भेद -
णाणिहिँ मूढहँ मुणिवरुहँ अंतरु होइ महंतु ।
देहु वि मिल्लइ णाणियउ जीवइँ भिण्णु मुणंतु ॥86॥
ज्ञानिनां मूढानां मुनिवराणां अन्तरं भवति महत् ।
देहमपि मुञ्चति ज्ञानी जीवाद्भिन्नं मन्यमानः ॥८६॥
अन्वयार्थ : [ज्ञानिनां] ज्ञानी और [मूढ़ानां मुनिवराणां] मिथ्यादृष्टि मुनियों में [महत् अंतरं] बड़ा भारी भेद [भवति ] होता है [ज्ञानी देहम् अपि] ज्ञानी तो शरीर को भी [जीवाद्भिन्नं] जीव से जुदा [मन्यमानः] जानकर [मुचंति] छोड़ देते हैं ।

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+ अज्ञानी धर्म के फल में संसार को चाहता है -
लेणहँ इच्छइ मूढु पर भुवणु वि एहु असेसु ।
बहु विह-धम्म-मिसेण जिय दोहिँ वि एहु विसेसु ॥87॥
लातुं इच्छति मूढः परं भुवनमपि एतद् अशेषम् ।
बहुविधधर्ममिषेण जीव द्वयोः अपि एष विशेषः ॥८७॥
अन्वयार्थ : [द्वयोः अपिः] दोनों (ज्ञानी और अज्ञानी) में [एष विशेषः] यह भेद है, कि [मूढोः बहुविधधर्ममिषेण] अज्ञानीजन अनेक प्रकार के धर्म के बहाने से [एतद् अशेषम्] इस समस्त [भुवनम् अपि] जगत् को ही [परं लातुं इच्छति] नियम से प्राप्त करने की इच्छा करता है ।

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+ अज्ञानी शिष्य-पुस्तकादिक से हर्षित होता है -
चेल्ला-चेल्ली-पुत्थियहिँ तूसइ मूढु णिभंतु ।
एयहिँ लज्जइ णाणियउ बंधहँ हेउ मुणंतु ॥88॥
शिष्यार्जिकापुस्तकैः तुष्यति मूढो निर्भ्रान्तः ।
एतैः लज्जते ज्ञानी बन्धस्य हेतुं जानन् ॥८८॥
अन्वयार्थ : [मूढः] अज्ञानीजन [निर्भ्रान्तः] निस्संदेह [शिष्यार्जिकापुस्तकैः] शिष्य, आर्यिका, ग्रंथादिक के करने से [तुष्यति] हर्षित होता है, [ज्ञानी] और ज्ञानी [एतैः लज्जते] इनसे शरमाता है, और [बंधस्य हेतुं जानन्] बंध का कारण जानता है ।

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+ अज्ञानी के ख्याति-लाभ-पूजा द्वारा संसार -
चट्टहिँ पट्टहिँ कुंडियहिँ चेल्ला-चेल्लियएहिँ ।
मोहु जणेविणु मुणिवरहँ उप्पहि पाडिय तेहिँ ॥89॥
चट्टैः पट्टैः कुण्डिकाभिः शिष्यार्जिकाभिः ।
मोहं जनयित्वा मुनिवराणां उत्पथे पातितास्तैः ॥८९॥
अन्वयार्थ : [चट्टैः पट्टैः कुंडिकाभिः] पीछी, कमंडल, पुस्तक और [शिष्यार्जिकाभिः] शिष्य, अर्जिका, श्राविका इत्यादि [मुनिवराणां] मुनिवरों को [मोहं जनयित्वा] मोह उत्पन्न कराके [तैः उत्पथे] वे उन्मार्ग (खोटे मार्ग) में [पातिताः] डाल देते हैं ।

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+ द्रव्यलिंगी अपने-आप को ठगता है -
केण वि अप्पउ वंचियउ सिरु लुंचिवि छारेण ।
सयल वि संग ण परिहरिय जिणवर-लिंगधरेण ॥90॥
केनापि आत्मा वञ्चितः शिरो लुञ्चित्वा क्षारेण ।
सकला अपि संगा न परिहृता जिनवरलिङ्गधरेण ॥९०॥
अन्वयार्थ : [केनापि] जिस किसी ने [जिनवरलिंगणधरेण] जिनवर का भेष धारण करके [क्षारेण] भस्म से [शिरः] शिर के केश [लुंचित्वा] लौंच किये, (उखाड़े) लेकिन [सकला अपि संगाः] सब परिग्रह [न परिहृताः] नहीं छोड़े, उसने [आत्मा] अपनी आत्मा को ही [वंचितः] ठग लिया ।

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+ द्रव्यलिंगी छोड़कर फिर ग्रहण कर लेता है -
जे जिण-लिंगु धरेवि मुणि इट्ठ-परिग्गह लेंति ।
छद्दि करेविणु ते जि जिय सा पुणु छद्दि गिलंति ॥91॥
ये जिनलिङ्गं धृत्वापि मुनय इष्टपरिग्रहान् लान्ति ।
छर्दिं कृत्वा ते एव जीव तां पुनः छर्दिं गिलन्ति ॥९१॥
अन्वयार्थ : [ये मुनयः] जो मुनि [जिनलिंगं धृत्वापि] जिनलिंग को ग्रहण करके भी [इष्टपरिग्रहान्] इच्छित परिग्रहों को [लांति] ग्रहण करते हैं, [जीव] हे जीव, [ते एव] वे ही [छर्दिं कृत्वा] वमन करके [पुनः] फिर [तां छर्दिं गिलंति] उस वमन को पीछे निगलते हैं ।

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+ ख्याति-लाभ के लिए परमात्मा को छोड़ना तुच्छ-बुद्धि -
लाहहँ कित्तिहि कारणिण जे सिव-संगु चयंति ।
खीला-लग्गिवि ते वि मुणि देउलु देउ डहंति ॥92॥
लाभस्य कीर्तेः कारणेन ये शिवसंगं त्यजन्ति ।
कीलानिमित्तं तेऽपि मुनयः देवकुलं देउ दहन्ति ॥९२॥
अन्वयार्थ : [ये लाभस्य] जो लाभ और [कीर्तिः कारणेन] कीर्ति के कारण [शिवसंग] परमात्मा के ध्यान को [त्यजंति] छोड़ देते हैं, [ते अपि मुनयः] वे ही मुनि [कीलानिमित्तं] लोहे के कीले के लिए [देवकुलं] देवस्थान को तथा [देवं] आत्मदेव को [दहंति] (भव की आताप से) भस्म कर देते हैं ।

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+ मिथ्यादृष्टि परमार्थ से अनिभिज्ञ -
अप्पउ मण्णइ जो जि मुणि गुरुयउ गंथहि तत्थु ।
सो परमत्थे जिणु भणइ णवि बुज्झइ परमत्थु ॥93॥
आत्मानं मन्यते य एव मुनिः गुरुकं ग्रन्थैः तथ्यम् ।
स परमार्थेन जिनो भणति नैव बुध्यते परमार्थम् ॥९३॥
अन्वयार्थ : [य एव मुनिः] जो भी मुनि [ग्रंथैः] परिग्रह से [आत्मानं] अपने को [गुरकं] महंत (बड़ा) [मन्यते] मानता है, [तथ्यम्] निश्चय से [सः] वह [परमार्थेन] वास्तव में [परमार्थम्] परमार्थ को [नैव बुध्यते] नहीं जानता, [जिनः भणति] ऐसा जिनेश्वरदेव कहते हैं ।

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+ परमार्थ से सभी जीव समान -
बुज्झंतहँ परमत्थु जिय गुरु लहु अत्थि ण कोइ ।
जीवा सयल वि बंभु परु जेण वियाणइ सोइ ॥94॥
बुध्यमानानां परमार्थं जीव गुरुः लघुः अस्ति न कोऽपि ।
जीवाः सकला अपि ब्रह्म परं येन विजानाति सोऽपि ॥९४॥
अन्वयार्थ : [जीव] हे जीव, [परमार्थं] परमार्थ को [बुध्यमानानां] समझने वालों के [कोऽपि] कोई भी [गुरुः लघुः] बड़ा छोटा [न अस्ति] नहीं है, [सकला अपि] सभी [जीवाः] जीव [परब्रह्म] परब्रह्मस्वरूप हैं, [येन] ऐसा [सोऽपि] वह भी [विजानाति] जानता है ।

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+ परमार्थ से जीवों में शरीर-कृत भेद नहीं -
जो भत्तउ रयण-त्तयह तसु मुणि लक्खणु एउ ।
अच्छुउ कहिँ वि कुडिल्लियइ सो तसु करइ ण भेउ ॥95॥
यः भक्त : रत्नत्रयस्य तस्य मन्यस्व लक्षणं इदम् ।
तिष्ठतु कस्यामपि कुडयां स तस्य करोति न भेदम् ॥९५॥
अन्वयार्थ : [यः रत्नत्रयस्य] जो रत्नत्रय की [भक्तः] आराधना (सेवा) करनेवाला है, [तस्य] उसके [इदम् लक्षणं] यह लक्षण [मन्यस्व] जानना कि [कस्यामपि कुडयां] किसी शरीर में जीव [तिष्ठतु] रहे, [सः तस्य भेदम्] वह उसमें भेद [न करोति] नहीं करता ।

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+ केवलज्ञानी तीन-लोक के जीवों को सामान देखते हैं -
जीवहँ तिहुयण-संठियहँ मूढा भेउ करंति ।
केवल-णाणिं णाणि फुडु सयलु वि एक्कु मुणंति ॥96॥
जीवानां त्रिभुवनसंस्थितानां मूढा भेदं कुर्वन्ति ।
केवलज्ञानेन ज्ञानिनः स्फुटं सकलमपि एकं मन्यन्ते ॥९६॥
अन्वयार्थ : [त्रिभुवनसंस्थितानां] तीन भुवन में रहनेवाले [जीवानां] जीवों का [मूढाः भेदं कुर्वंति] मूर्ख ही भेद करते हैं, और [ज्ञानिनः] ज्ञानी जीव [केवलज्ञानेन] केवलज्ञान से [स्फुटं] प्रगट [सकलमपि] सब जीवों को [एकं मन्यंते] समान जानते हैं ।

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+ परमार्थ दृष्टि से जीव -
जीवा सयल वि णाण-मय जम्मण-मरण-विमुक्क ।
जीव-पएसहिँ सयल सम सयल वि सगुणहिँ एक्क ॥97॥
जीवाः सकला अपि ज्ञानमया जन्ममरणविमुक्ताः ।
जीवप्रदेशैः सकलाः समाः सकला अपि स्वगुणैरेके ॥९७॥
अन्वयार्थ : [सकला अपि जीवाः] सब ही जीव [ज्ञानमयाः] ज्ञानमयी हैं, और [जन्ममरणविमुक्ताः] जन्म-मरण सहित [जीवप्रदेशैः] अपने अपने प्रदेशों से [सकलाः समाः] सब समान हैं, [अपि] और [सकलाः] सब जीव [स्वगुणैः एके] अपने केवलज्ञानादि गुणों से समान हैं ।

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+ सभी जीव दर्शन-ज्ञानमयी -
जीवहँ लक्खणु जिणवरहि भासिउ दंसण-णाणु ।
तेण ण किज्जइ भेउ तहँ जइ मणि जाउ विहाणु ॥98॥
जीवानां लक्षणं जिनवरैः भाषितं दर्शनं ज्ञानं ।
तेन न क्रियते भेदः तेषां यदि मनसि जातो विभातः ॥९८॥
अन्वयार्थ : [जीवानां लक्षणं] जीवों का लक्षण [जिनवरैः] जिनेंद्रदेव ने [दर्शनंज्ञानं] दर्शन और ज्ञान [भाषितं] कहा है, [तेन] इसलिए [तेषां] उन जीवों में [भेदः] भेद [न क्रियते] मत कर, [यदि] अगर [मनसि] तेरे मन में [विभातः जातः] ज्ञानरूपी सूर्य का उदय हो गया है ।

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+ शुद्ध-जानने वाले जीवों में भेद नहीं करते -
बंभहँ भुवणि वसंताहँ जे णवि भेउ करंति ।
ते परमप्प-पयासयर जोइय विमलु मुणंति ॥99॥
ब्रह्मणां भुवने वसतां ये नैव भेदं कुर्वन्ति ।
ते परमात्मप्रकाशकराः योगिनः विमलं मन्यन्ते ॥९९॥
अन्वयार्थ : [भुवने] इस लोक में [वसन्तः] रहनेवाले [ब्रह्मणः] जीवों का [भेदं नैव कुर्वति] भेद नहीं करते हैं, [ते परमात्मप्रकाशकराः] वे परमात्मा के प्रकाश करनेवाले [योगिन्] योगी, [विमलं] शुद्ध [जानंति] जानते हैं ।

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+ जो साधु जीवों को सामान देखते हैं वे मुक्त होते हैं -
राय-दोस बे परिहरिवि जे सम जीव णियंति ।
ते सम-भावि परिट्ठिया लहु णिव्वाणु लहंति ॥100॥
रागद्वेषौ द्वौ परिहृत्य ये समान् जीवान् पश्यन्ति ।
ते समभावे प्रतिष्ठिताः लघु निर्वाणं लभन्ते ॥१००॥
अन्वयार्थ : [ये रागद्वेषौ परिहृत्य] जो राग और द्वेष को दूर होने से [जीवाः समाः] सब जीवों को समान [निर्गच्छंति] जानते हैं, [ते] वे साधु [समभावे] समभाव में [प्रतिष्ठिताः] विराजमान [लघु] शीघ्र ही [निर्वाणं] मोक्ष को [लभंते] पाते हैं ।

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+ सभी जीवों का निज-लक्षण दर्शन और ज्ञान -
जीवहँ दंसणु णाणु जिय लक्खणु जाणइ जो जि ।
देह-विभेएँ भेउ तहँ णाणि कि मण्णइ सो जि ॥101॥
जीवानां दर्शनं ज्ञानं जीव लक्षणं जानाति य एव ।
देहविभेदेन भेदं तेषां ज्ञानी किं मन्यते तमेव ॥१०१॥
अन्वयार्थ : [जीवानां] जीवों के [दर्शनं ज्ञानं] दर्शन और ज्ञान [लक्षणं] निज-लक्षण को [य एव] जो कोई [जानाति] जानता है, [जीव] हे जीव, [स एव ज्ञानी] वही ज्ञानी [देहविभेदेन] देह के भेद से [तेषां भेदं] उन जीवों के भेद को [किं मन्यते] क्या मान सकता है ?

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+ शरीरों के भेद से जीवों में भेद देखना मिथ्यादृष्टि -
देह-विभेयइँ जो कुणइ जीवइँ भेउ विचित्तु ।
सो णवि लक्खणु मुणइ तहँ दंसणु णाणु चरित्तु ॥102॥
देहविभेदेन यः करोति जीवानां भेदं विचित्रम् ।
स नैव लक्षणं मनुते तेषां दर्शनं ज्ञानं चारित्रम् ॥१०२॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [देहविभेदेन] शरीरों के भेद से [जीवानां] जीवों का [विचित्रम्] नानारूप [भेदं] भेद [करोति] करता है, [स] वह [तेषां] उन जीवों का [दर्शनं ज्ञानं चारित्रम्] दर्शन-ज्ञान-चारित्र [लक्षणं] लक्षण [नैव मनुते] नहीं जानता ।

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+ शारीरिक अवस्था कर्म-कृत -
अंगइँ सुहुमइँ बादरइँ विहिवसिँ होंति जे बाल ।
जिय पुणु सयल वि तित्तडा सव्वत्थ वि सयकाल ॥103॥
अङ्गानि सूक्ष्माणि बादराणि विधिवशेन भवन्ति ये बालाः ।
जीवाः पुनः सकला अपि तावन्तः सर्वत्रापि सदाकाले ॥१०३॥
अन्वयार्थ : [सूक्ष्माणि बादराणि] सूक्ष्म और बादर [अंगानि] शरीर [ये बालाः] तथा जो बाल, वृद्ध, तरुणादि अवस्थायें [विधिवशेन] कर्मों से [भवंति] होती हैं, [पुनः] और [जीवाः] जीव तो [सकला अपि] सभी [सर्वत्र] सब जगह [सर्वकाले अपि] और सब काल में [तावंतः] उतने प्रमाण (असंख्यातप्रदेशी) ही है ।

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+ शत्रु-मित्र, अपने-पराए में एकपना करना सम्यग्दर्शन -
सत्तु वि मित्तु वि अप्पु परु जीव असेसु विएइ ।
एक्कु करेविणु जो मुणइ सो अप्पा जाणेइ ॥104॥
शत्रुरपि मित्रमपि आत्मा परः जीवा अशेषा अपि एते ।
एकत्वं कृत्वा यो मनुते स आत्मानं जानाति ॥१०४॥
अन्वयार्थ : [एते अशेषा अपि] ये सभी [जीवाः] जीव हैं, उनमें से [शत्रुरपि] शत्रु में भी, [मित्रम् अपि] मित्र में भी, [आत्मा] अपने, और [परः] पराए में [यः] जो [एकत्वं कृत्वा] निश्चय से एकपना करता है, [सः आत्मानं] वह आत्मा को [जानाति] जानता है ।

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+ समभाव संसार-समुद्र के लिए नाव के समान -
जो णवि मण्णइ जीव जिय सयल वि एक्क-सहाव ।
तासु ण थक्कइ भाउ समु भव-सायरि जो णाव ॥105॥
यो नैव मन्यते जीवान् जीव सकलानपि एकस्वभावान् ।
तस्य न तिष्ठति भावः समः भवसागरे यः नौः ॥१०५॥
अन्वयार्थ : [जीव] हे जीव, [यः सकलानपि जीवान्] जो सब ही जीवों को [एकस्वभावान्] एक स्वभाववाले [नैव मन्यते] नहीं जानता, [तस्य] उसके [समः भावः] समभाव [न तिष्ठति] नहीं रहता, [यः] जो (समभाव) [भवसागरे] संसार-समुद्र के लिए [नौः] नाव के समान है ।

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+ जीवों में भेद करने वाला कर्म जीव नहीं -
जीवहँ भेउ जि कम्म-किउ कम्मु वि जीउ ण होइ ।
जेण विभिण्णउ होइ तहँ कालु लहेविणु कोइ ॥106॥
जीवानां भेद एव कर्मकृतः कर्म अपि जीवो न भवति ।
येन विभिन्नः भवति तेभ्यः कालं लब्ध्वा कमपि ॥१०६॥
अन्वयार्थ : [जीवानां भेदः] जीवों में (नर-नारकादि) भेद [कर्मकृत एव] कर्मों से ही किया गया है, और [कर्म अपि] कर्म भी [जीवः न भवति] जीव नहीं हो सकता [येन] क्योंकि (वह जीव) [कमपि कालं लब्ध्वा] किसी समय को पाकर [तेभ्यः विभिन्नः भवति] उन (कर्मों) से जुदा हो जाता है ।

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+ ब्राह्मणादि वर्ण-भेद भी मत कर -
एक्कु करे मण बिण्णि करि मं करि वण्णविसेसु ।
इक्कइँ देवइँ जेँ वसह तिहुयणु एहु असेसु ॥107॥
एकं कुरु मा द्वौ कुरु मा कुरु वर्णविशेषम् ।
एकेन देवेन येन वसति त्रिभुवनं एतद् अशेषम् ॥१०७॥
अन्वयार्थ : [एकं कुरु] एक करके [मा द्वौ कार्षीः] राग और द्वेष मत कर, [वर्णविशेषम्] ब्राह्मणादि वर्ण-भेद को भी [मा कार्षीः] मत कर, [येन] क्योंकि [एकेन देवेन] एक देव में [एतद् अशेषम्] ये सब [त्रिभुवनं] तीनलोक [वसति] बसता है ।

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+ आत्मज्ञ पर-द्रव्य के सम्बन्ध को छोड़ देते हैं -
परु जाणंतु वि परम-मुणि पर-संसग्गु चयंति ।
पर-संगइँ परमप्पयहँ लक्खहँ जेण चलंति ॥108॥
परं जानन्तोऽपि परममुनयः परसंसर्गं त्यजन्ति ।
परसंगेन परमात्मनः लक्ष्यस्य येन चलन्ति ॥१०८॥
अन्वयार्थ : [परममुनयः] परममुनि [परं जानंतोऽपि] उत्कृष्ट (आत्म-द्रव्य को) जानते हुए भी [परसंसर्गं] पर-द्रव्य (द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म) के सम्बन्ध को [त्यजंति] छोड़ देते हैं [येन] क्योंकि [परसंगेन] पर-द्रव्य के सम्बन्ध से [लक्ष्यस्य] ध्यान करने योग्य जो [परमात्मनः] परमपद उससे [चलंति] चलायमान हो जाते हैं ।

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+ जिनके समभाव नहीं उनका संग मत कर -
जो सम-भावहँ बाहिरउ तिं सहुं मं करि संगु ।
चिंता-सायरि पडहि पर अण्णु वि डज्झइ अंगु ॥109॥
यः समभावाद् बाह्यः तेन सह मा कुरु संगम् ।
चिंतासागरे पतसि परं अन्यदपि दह्यते अङ्गः ॥१०९॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [समभावात्] समभाव से [बाह्य] बाहर हैं [तेन सह] उनके साथ [संगम् मा कुरु] संग मत कर [चिंतासागरे पतसि] चिंतारूपी समुद्र में पड़ेगा, [परं अन्यदपि] केवल और भी [अंगः दह्यते] शरीर दाह को प्राप्त होगा ।

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+ कुसंग से दुःख का उदाहरण -
भल्लाहँ वि णासंति गुण जहँ संसग्ग खलेहिं ।
वइसाणरु लोहहँ मिलिउ तें पिट्टियइ घणेहिं ॥110॥
भद्राणामपि नश्यन्ति गुणाः येषां संसर्गः खलैः ।
वैश्वानरो लोहेन मिलितः तेन पिट्टयते घनैः ॥११०॥
अन्वयार्थ : [खलैः सह येषां] दुष्टों के साथ जिनका [संसर्गः] संबंध है, वह [भद्राणाम् अपि] उन विवेकी जीवों के भी [गुणाः नश्यन्ति] (सत्य शीलादि) गुण नष्ट हो जाते हैं, जैसे [वैश्वानरः लोहेन] आग लोहे से [मिलितः] मिल जाती है, [तेन घनैः पिट्टयते] तभी घनों (हथौड़ों) से पीटी (कूटी) जाती है ।

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+ भिक्षा में स्वादयुक्त आहार की इच्छा मत कर -
काऊण णग्गरूवं बीभस्सं दड्ढ-मडय-सारिच्छं ।
अहिलससि किं ण लज्जसि भिक्खाए भोयणं मिट्ठं ॥111-अ॥
कृत्वा नग्नरूपं बीभत्सं दग्धमृतकसद्रशम् ।
अभिलषसि किं न लज्जसे भिक्षायां भोजनं मिष्टम् ॥१११-अ॥
अन्वयार्थ : [बीभत्सं] भयानक देह के मैल से युक्त [दग्धमृतकसदृशम्] जले हुए मुरदे के समान रूपरहित ऐसे [नग्नरूपं] वस्त्र रहित नग्नरूप को [कृत्वा] धारण करके [भिक्षायां] भिक्षा में [मिष्टम् भोजनं अभिलषसि] स्वादयुक्त आहार की इच्छा करता है, [किं न लज्जस] तुझे लाज क्यों नहीं आती ?

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+ भोजन की लोलुपता को त्याग -
जइ इच्छसि भो साहू बारह-विह-तवहलं महा-विउलं ।
तो मण-वयणे काए भोयण-गिद्धी विवज्जेसु ॥111-ब॥
यदि इच्छसि भो साधो द्वादशविघतपः फलं महद्विपुलम् ।
ततः मनोवचनयोः काये भोजनगृद्धिं विवर्जयस्व ॥१११-ब॥
अन्वयार्थ : [भो साधो] हे योगी, [यदि] जो [द्वादशविधतपः फलं] (बारह प्रकार) तप का फल [महद्विपुलं] बड़ा भारी स्वर्ग मोक्ष [इच्छसि] चाहता है, [ततः] तो [मनोवचनयोः] मन, वचन और [काये] काय से [भोजनगृद्धिं] भोजन की लोलुपता को [विवर्जयस्व] त्याग दे ।

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+ मुनि भोजन में गृद्धता न करे -
जे सरसिं संतुट्ठ-मण विरसि कसाउ वहंति ।
ते मुणि भोयण-घार गणि णवि परमत्थु मुणंति ॥111-स॥
ये सरसेन संतुष्टमनसः विरसे कषायं वहन्ति ।
ते मुनयः भोजनगृध्राः गणय नैव परमार्थं मन्यन्ते ॥१११-स॥
अन्वयार्थ : [ये सरसेन] जो स्वादिष्ट आहार से [संतुष्टमनसः] हर्षित होते हैं, और [विरसे] नीरस आहार में [कषायं वहंति] क्रोधादि कषाय करते हैं, [ते मुनयः] उन मुनि को [भोजन गृध्राः] भोजन के विषय में गृद्ध-पक्षी के समान [गणय] जानना, वे [परमार्थं] परमतत्त्व को [नैव मन्यंते] नहीं समझते हैं ।

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+ मोह दुख का कारण देख और छोड़ -
जोइय मोहु परिच्चयहि मोहु ण भल्लउ होइ ।
मोहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ ॥111॥
योगिन् मोहं परित्यज मोहो न भद्रो भवति ।
मोहासक्तं सकलं जगद् दुःखं सहमानं पश्य ॥१११॥
अन्वयार्थ : [योगिन्] हे योगी ! [मोहं] मोह को [परित्यज] बिलकुल छोड़, [मोहः भद्रः न भवति] मोह अच्छा नहीं होता है, [मोहासक्तं] मोह से आसक्त [सकलं जगत्] सब जगत् जीवों को [दुःखं सहमानं पश्य] क्लेश भोगते हुए देख ।

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+ इन्द्रिय-विषयों को त्याग -
रूवि पयंगा सद्दि मय गय फासहिँ णासंति ।
अलिउल गंधइँ मच्छ रसि किम अणुराउ करंति ॥112॥
रूपे पतङ्गाः शब्दे मृगाः गजाः स्पर्शैः नश्यन्ति ।
अलिकुलानि गन्धेन मत्स्याः रसे किं अनुरागं कुर्वन्ति ॥११२॥
अन्वयार्थ : [रूपे पतंगा] रूप से पतंगा, [शब्दे मृगाः] शब्द से हिरण, [गजाः स्पर्शैः] स्पर्श से हाथी [नश्यंति] मारे जाते हैं [गंधेन अलिकुलानि] सुगंध से भौंरे [रसे मत्स्याः] रस से मच्छ [किं] क्यों [अनुरागं] प्रीति [कुर्वंति] करते हैं ?

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+ लोभ को दुःख का करण देख और त्याग -
जोइय लोहु परिच्चयहि लोहु ण भल्लउ होइ ।
लोहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ ॥113॥
योगिन् लोभं परित्यज लोभो न भद्रः भवति ।
लोभासक्तं सकलं जगद् दुःखं सहमानं पश्य ॥११३॥
अन्वयार्थ : [योगिन्] हे योगी, [लोभं परित्यज] लोभ छोड, [लोभो] लोभ [भद्रः न भवति] अच्छा नहीं है, [लोभासक्तं] लोभ में फँसे हुए [सकलं जगत्] सम्पूर्ण जगत् को [दुःखं सहमानं] दुःख सहते हुए [पश्य] देख ।

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+ उदाहरण -
तलि अहिरणि वरि घण-वडणु संडस्सय-लुंचोडु ।
लोहहँ लग्गिवि हुयवहहँ पिक्खु पडंतउ तोडु ॥114॥
तले अधिकरणं उपरि घनपातनं संदशकलुञ्चनम् ।
लोहं लगित्वा हुतवहस्य पश्य पतत् त्रोटनम् ॥११४॥
अन्वयार्थ : [लोहं लगित्वा] जैसे लोहे का संबंध पाकर [हुतवहं] अग्नि [तले] नीचे रक्खे हुए [अधिकरणं उपरि] अहरन (निहाई) के ऊपर [घनपातनं] घन की चोट, [संदशकुलुंचनम्] संडासी से खेंचते हुए, [पतत् त्रोटनम्] चोट लगने से टूटते हुए [पश्य] देख ।

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+ स्नेह को दुःख का कारण देख और त्याग -
जोइय णेहु परिच्चयहि णेहु ण भल्लउ होइ ।
णेहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ ॥115॥
योगिन् स्नेहं परित्यज स्नेहो न भद्रो भवति ।
स्नेहासक्तं सकलं जगद् दुःखं सहमानं पश्य ॥११५॥
अन्वयार्थ : [योगिन्] हे योगी, [स्नेहं] स्नेह (प्रेम) को [परित्यज] छोड़, [स्नेहः] क्योंकि स्नेह [भद्रः न भवति] अच्छा नहीं है, [स्नेहासक्तं] स्नेह में लगा हुआ [सकलं जगत्] समस्त संसारी जीवों को [दुःखं सहमानं] दुःख सहते हुए [पश्य] देख ।

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+ उदाहरण -
जल-सिंचणु पय-णिद्दलणु पुणु पुणु पीलण-दुक्खु ।
णेहहँ लग्गिवि तिल-णियरु जंति सहंतउ पिक्खु ॥116॥
जलसिञ्चन पादनिर्दलनं पुनः पुनः पीडनदुःखम् ।
स्नेहं लगित्वा तिलनिकरं यन्त्रेण सहमानं पश्य ॥११६॥
अन्वयार्थ : [तिलनिकरं] जैसे तिलों का समूह [स्नेहं लगित्वा] स्नेह (चिकनाई) के सम्बन्ध से [जलसिंचनं] जल से भीगना, [पादनिर्दलनं] पैरों से खुँदना, [यंत्रेण] घानी में [पुनः पुनः] बार बार [पीडनदुःखम्] पिलने का दुख [सहमानं] सहते हुए [पश्य] देखो ।

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+ जो विषयों में आसक्त नहीं, वे धन्य -
ते चिय धण्णा ते चिय सप्पुरिसा ते जियंतु जिय-लोए ।
वोद्दह-दहम्मि पडिया तरंति जे चेव लीलाए ॥117॥
ते चैव धन्याः ते चैव सत्पुरुषाः ते जीवन्तु जीवलोके ।
यौवनद्रहे पतिताः तरन्ति ये चैव लीलया ॥११७॥
अन्वयार्थ : [ते चैव धन्याः] वे ही धन्य हैं, [ते चैव सत्पुरुषाः] वे ही सज्जन हैं, और [ते] वे ही [जीवलोके] इस जीव-लोक में [जीवंतु] जीते हैं, [ये चैव] जो [यौवनद्रहे] जवान अवस्थारूपी बड़े भारी तालाब में [पतिताः] पड़कर [लीलया] लीला मात्र (खेल-खेल) में ही [तरंति] तैर जाते हैं ।

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+ जिनेश्वरदेव ने भी राज्य-वैभव छोड़कर मोक्ष को साधा -
मोक्खु जि साहिउ जिणवरहिँ छंडिवि बहु-विहु रज्जु ।
भिक्ख-भरोडा जीव तुहुँ करहि ण अप्पउ कज्जु ॥118॥
मोक्षः एव साधितः जिनवरैः त्यक्त्वा बहुविधं राज्यम् ।
भिक्षाभोजन जीव त्वं करोषि न आत्मीयं कार्यम् ॥११८॥
अन्वयार्थ : [जिनवरैः] जिनेश्वरदेव ने [बहुविधं] अनेक प्रकार का [राज्यम्] राज्य का वैभव [त्यक्त्वा] छोड़कर [मोक्ष एव साधितः] मोक्ष को ही साधा, परंतु [जीव] हे जीव, [भिक्षाभोजन त्वं] भीक्षा से भोजन करनेवाला तू [आत्मीयं कार्यम्] अपने आत्मा का कल्याण भी [न करोषि] नहीं करता ।

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+ संसार में सिर्फ दुःख, मोक्ष को जा । -
पावहि दुक्खु महंतु तुहँ जिय संसारि भमंतु ।
अट्ठ वि कम्मइँ णिद्दलिवि वच्चहि मुक्खु महंतु ॥119॥
प्राप्नोषि दुःखं महत् त्वं जीव संसारे भ्रमन् ।
अष्टापि कर्माणि निर्दल्य व्रज मोक्षं महान्तम् ॥११९॥
अन्वयार्थ : [जीव] हे जीव, [त्वं संसारे] तू संसार में [भ्रमन्] भटकता हुआ [महद् दुःखं प्राप्नोषि] महान् दुःख पावेगा, इसलिए [अष्टापि कर्माणि] (ज्ञानावरणादि) आठों ही कर्मों को [निर्दल्य] नाश कर, [महांतम् मोक्षं व्रज] सबमें श्रेष्ठ मोक्ष को जा ।

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+ दुःख-रुपी कर्म को मत कर -
जिय अणु-मित्तु वि दुक्खडा सहण ण सक्कहि जोइ ।
चउ-गइ-दुक्खहँ कारणइँ कम्मइँ कुणहि किं तोइ ॥120॥
जीव अणुमात्राण्यपि दुःखानि सोढुं न शक्नोषि पश्य ।
चतुर्गतिदुःखानां कारणानि कर्माणि करोषि किं तथापि ॥१२०॥
अन्वयार्थ : [जीव] जीव ! [अणुमात्राण्यपि] परमाणु-मात्र (थोड़े) भी [दुःखानि सोढुं] दुःख-सहन [न शक्नोषि] यदि नहीं कर सकता, [तथापि] तो फिर [चतुर्गतिदुःखानां] चार गतियों के दुःख के [कारणानि कर्माणि] कारण जो कर्म हैं, [किं करोषि] उनको क्यों करता है ?

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+ अज्ञानी कर्मों को करता है -
धंधइ पडियउ सयलु जगु कम्मइँ करइ अयाणु ।
मोक्खहँ कारणु एक्कु खणु णवि चिंतइ अप्पाणु ॥121॥
धान्धे (?) पतितं सकलं जगत् कर्माणि करोति अज्ञानि ।
मोक्षस्य कारणं एकं क्षणं नैव चिन्तयति आत्मानम् ॥१२१॥
अन्वयार्थ : [धांधे पतितं] जगत् के धंधे में पड़ा हुआ [सकलं जगत्] सब जगत् [अज्ञानि] अज्ञानी हुआ [कर्माणि] ज्ञानावरणादि आठों कर्मों को [करोति] करता है, परन्तु [मोक्षस्य कारणं] मोक्ष के कारण [आत्मानम्] आत्मा का [एकं क्षणं] एक क्षण भी [नैव चिंतयति] चिन्तवन नहीं करता ।

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+ ज्ञान-रहित जीव दुखी -
जोणि-लक्खइँ परिभमइ अप्पा दुक्खु सहंतु ।
पुत्त-कलत्तहिँ मोहियउ जाव ण णाणु महंतु ॥122॥
योनिलक्षाणि परिभ्रमति आत्मा दुःखं सहमानः ।
पुत्रकलत्रेः मोहितः यावन्न ज्ञानं महत् ॥१२२॥
अन्वयार्थ : [यावत्] जब तक [महत् ज्ञानं न] श्रेष्ठ ज्ञान (सम्यग्ज्ञान, आत्मज्ञान) नहीं है, तब तक [आत्मा] यह जीव [पुत्रकलत्रैः मोहितः] पुत्र, स्त्री आदिकों से मोहित हुआ [दुःखं सहमानः] अनेक दुःखों को सहता हुआ [योनिलक्षाणि] चौरासी लाख योनियों में [परिभ्रमति] भटकता फिरता है ।

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+ संयोग कर्माधीन और विनाशीक -
जीव म जाणहि अप्पणउँ घरु परियणु तणु इट्ठु ।
कम्मायत्तउ कारिमउ आगमि जोइहिँ दिट्ठु ॥123॥
जीव मा जानीहि आत्मीयं गृहं परिजनं तनुः इष्टम् ।
कर्मायत्तं कृत्रिमं आगमे योगिभिः द्रष्टम् ॥१२३॥
अन्वयार्थ : [जीव] हे जीव, [गृहं] घर, [परिजनं] परिवार, [तनुः] शरीर [इष्टम्] और मित्रादि को [आत्मीयं] अपने [मा जानीहि] मत जान, क्योंकि [आगमे] परमागम में [योगिभिः] योगियों ने [दृष्टम्] ऐसा दिखलाया है, कि ये [कर्मायत्तं] कर्मों के आधीन हैं, और [कृत्रिमं] विनाशीक है ।

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+ निश्चिन्त होकर तप कर -
मुक्खु ण पावहि जीव तुहुँ घरु परियणु चिंतंतु ।
तो वरि चिंतहि तउ जि तउ पावहि मोक्खु महंत्तु ॥124॥
मोक्षं न प्राप्नोषि जीव त्वं गृहे परिजनं चिन्तयन् ।
ततः वरं चिन्तय तपः एव तपः प्राप्नोषि मोक्षं महान्तम् ॥१२४॥
अन्वयार्थ : [जीव त्वं] हे जीव, तू [गृहं परिजनं] घर, परिवार वगैरह की [चिन्तयन्] चिंता करता हुआ [मोक्षं न प्राप्नोषि] मोक्ष नहीं पाएगा, [ततः] इसलिये [वरं] उत्तम [तपः एव तपः] तप का ही बारम्बार [चिंतय] चिंतवन कर, [महांतम् मोक्षं] श्रेष्ठ मोक्ष को [प्राप्नोषि] पाएगा ।

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+ पाप के फल को अकेले ही भोगना होगा -
मारिवि जीवहँ लक्खडा जं जिय पाउ करीसि ।
पुत्त-कलत्तहँ कारणइँ तं तुहुँ एक्कु सहीसि ॥125॥
मारयित्वा जीवानां लक्षाणि यत् जीव पापं करिष्यसि ।
पुत्रकलत्राणां कारणेन तत् त्वं एकः सहिष्यसे ॥१२५॥
अन्वयार्थ : [जीवानां लक्षाणि] लाखों जीवों को [मारयित्वा] मारकर [जीव] हे जीव, [यत् पापं करिष्यसि] जो तू पाप करता है, [पुत्रकलत्राणां] पुत्र, स्त्री वगैरह के [कारणेन] कारण [तत् त्वं] उसके फल को तू [एक सहिष्यसे] अकेला सहेगा ।

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+ पाप का फल अनन्त गुणा -
मारिवि चूरिवि जीवडा जं तुहुँ दुक्खु करीसि ।
तं तह पासि अणंत-गुणु अवसइँ जीव लहीसि ॥126॥
मारयित्वा चूर्णयित्वा जीवान् यत् त्वं दुःखं करिष्यसि ।
तत्तदपेक्षया अनन्तगुणं अवश्यमेव जीव लभसे ॥१२६॥
अन्वयार्थ : [जीव यत् त्वं] हे जीव, जो तू [जीवान् मारयित्वा] जीवों को मारकर, [चूरयित्वा] चूरकर [दुःखं करिष्यसि] दुःखी करता है, [तत्] उसका फल [तदपेक्षया] उसकी अपेक्षा [अनंतगुणं] अनंतगुणा [अवश्यमेव] निश्चय से [लभसे] पावेगा ।

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+ जीवों को अभयदान दे -
जीव वहंतहँ णरय-गइ अभय-पदाणेँ सग्गु ।
बे पह जवला दरिसिया जहिँ रुच्चइ तहिँ लग्गु ॥127॥
जीवं घन्तां नरकगतिः अभयप्रदानेन स्वर्गः ।
द्वौ पन्थान समीपौ दर्शितौ यत्र रोचते तत्र लग्न ॥१२७॥
अन्वयार्थ : [जीवं घ्नतां नरकगतिः] जीवों को मारने से नरकगति और [अभयप्रदानेन स्वर्गः] अभयदान देने से स्वर्ग होता है, [द्वौ पन्थानौ] ये दोनों मार्ग [समीपे दर्शितौ] अपने पास दिखलाये हैं, [यत्र रोचते] जिसमें तेरी रुचि हो, [तत्र लग्न] उसी में लग ।

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+ कर्म-कृत को भ्रम जानकर छोड़ -
मूढा सयलु वि कारिमउ भुल्लउ मं तुस कंडि ।
सिव-पहि णिम्मलि करहि रइ घरु परियणु लहु छंडि ॥128॥
मूढ सकलमपि कृत्रिमं भ्रान्तः मा तुषं कण्डय ।
शिवपथे निर्मले कुरु रतिं गृहं परिजनं लघु त्यज ॥१२८॥
अन्वयार्थ : [मूढ] हे मूढ ! [सकलमपि कृत्रिमं] सब-कुछ ही कर्म-कृत (विनाशीक, मरणधार्मा) है, [भ्रांतः तुषं मा कंडय] भ्रम (भूल) से भूसे का खंडन मत कर; [निर्मले] परमपवित्र [शिवपथे रतिं कुरु] मोक्ष-मार्ग में प्रीति कर [गृहं परिजनं] और घर-परिवार आदि को [लघु त्यज] शीघ्र ही छोड़ ।

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+ शरीर भी कर्म-कृत -
जोइय सयलु वि कारिमउ णिक्कारिमउ ण कोइ ।
जीविं जंतिं कुडि ण गय इहु पडिछंदा जोइ ॥129॥
योगिन् सकलमपि कृत्रिमं निःकृत्रिमं न किमपि ।
जीवेन यातेन देहो न गतः इमं द्रष्टान्तं पश्य ॥१२९॥
अन्वयार्थ : [योगिन्] हे योगी, [सकलमपि कृत्रिमं] सभी-कुछ कर्म-कृत (विनश्वर) है, [निःकृत्रिमं किमपि न] अकृत्रिम कुछ भी नहीं है, [जीवेन यातेन] जीव के जाने (मरने) पर [देहो न गतः] शरीर नहीं जाता, [इमं दृष्टांतं पश्य] इसी दृष्टान्त को देख ।

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+ सभी संयोग नष्ट हो जाएँगे -
देउलु देउ वि सत्थु गुरु तित्थु वि वेउ वि कव्वु ।
वच्छु जु दीसइ कुसुमियउ इंधणु होसइ सव्वु ॥130॥
देवकुलं देवोऽपि शास्त्रं गुरुः तीर्थमपि वेदोऽपि काव्यम् ।
वृक्षः यद् द्रश्यते कुसुमितं इन्धनं भविष्यति सर्वम् ॥१३०॥
अन्वयार्थ : [देवकुलं देवोऽपि] जिनालय, प्रतिमा भी, [शास्त्रं गुरुः तीर्थमपि] आगम, गुरु, तीर्थ-स्थान भी, [वेदोऽपि] वेद भी [काव्यम्] काव्य (गद्य-पद्यरूप रचना इत्यादि) [यद् द्रश्यते कुसुमितं] जो वस्तु अच्छी या बुरी दिखने में आती हैं, वे [सर्वम्] सब [इंधनं भविष्यति] (अग्नि का) ईंधन हो जावेगी ।

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+ एक शुद्धात्मा को छोड़कर सब-कुछ विनाशीक -
एक्कु जि मेल्लिवि बंभु परु भुवणु वि एहु असेसु ।
पुहविहिँ णिम्मउ भंगुरउ एहउ बुज्झि विसेसु ॥131॥
एकं मेव मुक्त्वा ब्रह्म परं भुवनमपि एतद् अशेषम् ।
पृथिव्यां निर्मापितं भंगुरं एतद् बुध्यस्व विशेषम् ॥१३१॥
अन्वयार्थ : [एकं परं ब्रह्म एव] एक शुद्ध जीव-द्रव्यरूप परब्रह्म को [मुक्त्वा] छोड़कर [पृथिव्यां] इस लोक में [इदं अशेषम् भुवनमपि निर्मापितं] इस समस्त लोक के पदार्थों की रचना है, वह सब [भंगुरं] विनाशीक है, [एतद् विशेषम्] इस विशेष बात को तू [बुध्यस्व] जान ।

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+ धन-यौवन विनाशीक, धर्म कर -
जे दिट्ठा सूरुग्गमणि ते अत्थवणि ण दिट्ठ ।
तेँ कारणिं वढ धम्मु करि धणि जोव्वणि कउ तिट्ठ ॥132॥
ये द्रष्टाः सूर्योद्गमने ते अस्तगमने न द्रष्टाः ।
तेन कारणेन वत्स धर्मं कुरु धने यौवने का तृष्णा ॥१३२॥
अन्वयार्थ : [वत्स] हे शिष्य ! [ये] जो कुछ पदार्थ [सूर्योद्गमने] सूर्य के उदय होने पर [दृष्टाः] देखे थे, [ते] वे [अस्तगमने] सूर्य के अस्त होने के समय [न दृष्टाः] नहीं देखे जाते (नष्ट हो जाते हैं) [तेन कारणेन] इस कारण [धर्मं कुरु] धर्म का पालन कर [धने यौवने] धन और यौवन में [का तृष्णा] क्यों तृष्णा करता है ।

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+ शरीर को तप में लगा -
धम्मु ण संचिउ तउ ण किउ रुक्खेँ चम्ममएण ।
खज्जिवि जर-उद्देहियए णरइ पडिव्वउ तेण ॥133॥
धर्मो न संचितः तपो न कृतं वृक्षेण चर्ममयेन ।
खादयित्वा जरोद्रेहिकया नरके पतितव्यं तेन ॥१३३॥
अन्वयार्थ : [येन] जिसने [चर्ममयेन वृक्षेण] शरीररूपी वृक्ष को पाकर उससे [धर्मः न कृतः] धर्म नहीं किया, [तपो न कृतं] और तप भी नहीं किया, उसका शरीर [जरोद्रेहिकया खादयित्वा] बुढ़ापारूपी दीमक के कीड़े द्वारा खाया जायगा, फिर [तेन] उसे (मरणकर) [नरके] नरक में [पतितव्यं] पड़ना पड़ेगा ।

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+ कुटुम्बी-जन संसार का कारण -
अरि जिय जिण-पइ भत्ति करि सुहि सज्जणु अवहेरि ।
तिं बप्पेण वि कज्जु णवि जो पाडइ संसारि ॥134॥
अरे जीव जिनपदे भक्तिं कुरु सुखं स्वजनं अपहर ।
तेन पित्रापि कार्यं नैव यः पातयति संसारे ॥१३४॥
अन्वयार्थ : [अरे जीव] हे भव्य जीव, [जिनपदे] जिनपद में [भक्तिं कुरु] भक्ति कर, [सुखं] संसार-सुख और [स्वजनं] अपने कुटुम्बी-जन को [अपहर] त्याग [तेन पित्रापि नैव कार्यं] उस महा-स्नेहरूप पिता से भी कुछ काम नहीं [यः संसारे पातयति] जो संसार-समुद्र में पटक देवे ।

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+ मनुष्य जन्म पाकर तप करना चाहिए -
जेण ण चिण्णउ तव-यरणु णिम्मलु चित्तु करेवि ।
अप्पा वंचिउ तेण पर माणुस-जम्मु लहेवि ॥135॥
येन न चीर्णं तपश्चरणं निर्मलं चित्तं कृत्वा ।
आत्मा वञ्चितः तेन परं मनुष्यजन्म लब्ध्वा ॥१३५॥
अन्वयार्थ : [येन निर्मलं चित्तं कृत्वा] जिसने शुद्ध चित्त करके [तपश्चरणं न चीर्णं] तपश्चरण नहीं किया, [तेन मनुष्यजन्म] उसने मनुष्य-जन्म को [लब्ध्वा] पाकर [परं] केवल [आत्मा वंचितः] अपना आत्मा ठग लिया ।

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+ इन्द्रियों को वश में कर -
ए पंचिंदिय-करहडा जिय मोक्कला म चारि ।
चरिवि असेसु वि विसय-वणु पुणु पाडहिँ संसारि ॥136॥
एते पञ्चेन्द्रियकरभकाः जीव मुक्तान् मा चारय ।
चरित्वा अशेषं अपि विषयवनं पुनः पातयन्ति संसारे ॥१३६॥
अन्वयार्थ : [एते] ये प्रत्यक्ष [पंचेन्द्रियकरभकाः] पाँच इंद्रियरूपी ऊँट हैं, उनको [स्वेच्छया] अपनी इच्छा से [मा चारय] मत चरने दे, क्योंकि [अशेषं] सम्पूर्ण [विषयवनं] विषय-वन को [चारयित्वा] चरके [पुनः] फिर ये [संसारे] संसार में ही [पातयंति] पटक देंगे ।

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+ इन्द्रिय विजयी ही ध्यानी -
सो जोइउ जो जोगवइ दंसणु णाणु चरित्तु ।
होयवि पंचहँ बाहिरउ झायंतउ परमत्थु ॥137-अ॥
स योगी यः पालयति (?) दर्शनं ज्ञानं चारित्रम् ।
भूत्वा पञ्चभ्यः बाह्यः ध्यायन् परमार्थम् ॥१३७-अ॥
अन्वयार्थ : [स योगी] वही ध्यानी है, [यः] जो [पंचभ्यः बाह्यः] पंचेंद्रियों से बाहर (अलग) [भूत्वा] होकर [परमार्थम्] निज परमात्मा का [ध्यायन्] ध्यान करता हुआ [दर्शनं ज्ञानं चारित्रम्] दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी रत्नत्रय को [पालयति] पालता है, रक्षा करता है ।

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+ मन को इन्द्रियों के विषयों में जाने से रोक -
जोइय विसमी जोय-गइ मणु संठवण ण जाइ ।
इंदिय-विसय जि सुक्खडा तित्थु जि वलि वलि जाइ ॥137॥
योगिन् विषमा योगगतिः मनः संस्थापयितुं न याति ।
इन्द्रियविषयेषु एव सुखानि तत्र एव पुनः पुनः याति ॥१३७॥
अन्वयार्थ : [योगिन्] हे योगी, [योगगतिः] ध्यान की गति [विषमा] महाविषम है, क्योंकि [मनः] चित्त [संस्थापयितुं न याति] स्थिरता को नहीं प्राप्त होता क्योंकि [इंद्रियविषयेषु एव] इन्द्रिय-विषयों में ही [सुखानि] सुख मान रहा है, इसलिये [तत्र एव] उन्हीं विषयों में [पुनः पुनः] फिर फिर [याति] जाता है ।

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+ विषय-सुख में रमणता दुख का कारण -
विसय-सुहइँ बे दिवहडा पुणु दुक्खहँ परिवाडि ।
भुल्लउ जीव म वाहि तुहुँ अप्पण खंधि कुहाडि ॥138॥
विषयसुखानि द्वे दिवसे पुनः दुःखानां परिपाटी ।
भ्रान्त जीव मा वाहय त्वं आत्मनः स्कन्धे कुठारम् ॥१३८॥
अन्वयार्थ : [विषयसुखानि] विषय-सुख [द्वे दिवसे] दो दिन के हैं, [पुनः] फिर [दुःखानां परिपाटी] दुःखों की परिपाटी है; [भ्रांत जीव] हे भोले जीव, [त्वं] तू [आत्मनः स्कंधे] अपने कंधे पर [कुठारम्] आप ही कुल्हाड़ी को [मा वाहय] मत चला ।

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+ विषय-भोग के त्यागी धन्य -
संता विसय जु परिहरइ बलि किज्जउँ हउँ तासु ।
सो दइवेण जि मुंडियउ सीसु खडिल्लउ जासु ॥139॥
सतः विषयान् यः परिहरति बलिं करोमि अहं तस्य ।
स दैवेन एव मुण्डितः शीर्षं खल्वाटं यस्य ॥१३९॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [सतः विषयान्] विद्यमान विषयों को [परिहरति] छोड़ देता है, [तस्य] उसकी [अहं] मैं [बलिं] पूजा [करोमि] करता हूँ, क्योंकि [यस्य शीर्षं] जिसका शिर [खल्वाटं] गंजा है, [सः] वह तो [दैवेन एव] दैव द्वारा ही [मुंडितः] मूड़ा हुआ है ।

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+ मन इन्द्रियों का स्वामी -
पंचहँ णायकु वसिकरहु जेण होंति वसि अण्ण ।
मूल विणट्ठइ तरु-वरहँ अवसइँ सुक्कहिं पण्ण ॥140॥
पञ्चानां नायकं वशीकुरुत येन भवन्ति वशे अन्यानि ।
मूले विनष्टे तरुवरस्य अवश्यं शुष्यन्ति पर्णानि ॥१४०॥
अन्वयार्थ : [पंचानां नायकं] पाँचों (इन्द्रियों) के स्वामी (मन) को [वशीकुरुत] वश में करो [येन] जिससे [अन्यानि वशे भवंति] अन्य (पाँच इन्द्रियां) वश में हो जाती हैं; [तरुवरस्य] वृक्ष की [मूले विनष्टे] जड़ के नाश हो जाने से [पर्णानि] पत्ते [अवश्यं शुष्यंति] निश्चय से सूख जाते हैं ।

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+ जीतेंद्रिय होकर शुद्धात्मा का अनुभव कर -
विसयासत्तउ जीव तुहुँ कित्तिउ कालु गमीसि ।
सिव-संगमु करि णिच्चलउ अवसइँ मुक्खु लहीसि ॥141॥
विषयासक्त: जीव त्वं कियन्तं कालं गमिष्यसि ।
शिवसंगमं कुरु निश्चलं अवश्यं मोक्षं लभसे ॥१४१॥
अन्वयार्थ : [जीव त्वं विषयासक्तः] हे जीव, तू विषयों में आसक्त हो [कियंतं कालं गमिष्यसि] कितना काल गँवाएगा [शिवसंगमं] अब तो शुद्धात्मा का अनुभव [निश्चलं कुरु] निश्चल होकर कर, [अवश्यं मोक्षं लभसे] अवश्य मोक्ष को प्राप्त करेगा ।

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+ आत्म-ज्ञान बिना दुःख -
इहु सिव-संगमु परिहरिवि गुरुवड कहिँ वि म जाहि ।
जे सिव-संगमि लीण णवि दुक्खु सहंता वाहि ॥142॥
इमं शिवसंगमं परिहृत्य गुरुवर क्वापि मा गच्छ ।
ये शिवसंगमे लीना नैव दुःखं सहमानाः पश्य ॥१४२॥
अन्वयार्थ : [गुरुवर] हे तपोधन, [शिवसंगमं] आत्म-कल्याण को [परिहृत्य] छोड़कर [क्वापि] तू कहीं भी [मा गच्छ] मत जा, [ये शिवसंगमे] जो निजभाव में [नैव लीनाः] लीन नहीं हैं, उन्हें [दुःखं सहमानाः पश्य] दुःख को सहते हुए देख ।

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+ आज तक सम्यक्त्व नहीं ग्रहण किया -
कालु अणाइ अणाइ जिउ भव-सायरु वि अणंतु ।
जीविं बिण्णि ण पत्ताइँ जिणु सामिउ सम्मत्तु ॥143॥
कालः अनादिः अनादिः जीवः भवसागरोऽपि अनन्तः ।
जीवेन द्वे न प्राप्त जिनस्वामी सम्यक्त्वम् ॥१४३॥
अन्वयार्थ : [कालः अनादिः] काल अनादि है, [जीवः अनादिः] जीव भी अनादि है, और [भवसागरोडिप] संसार-समुद्र भी [अनंतः] अनादि-अनंत है । लेकिन [जीवेन] इस जीव ने [जिनः स्वामी सम्यक्त्वम्] जिनराज-स्वामी और सम्यक्त्व [द्वे न प्राप्ते] ये दो नहीं पाये ।

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+ घर-वास पाप वास है -
घर-वासउ मा जाणि जिय दुक्किय-वासउ एहु ।
पासु कयंतेँ मंडियउ अविचलु णिस्संदेहु ॥144॥
गृहवासं मा जानीहि जीव दुष्कृतवास एषः ।
पाशः कृतान्तेन मण्डितः अविचलः निस्सन्देहम् ॥१४४॥
अन्वयार्थ : [जीव] हे जीव, तू इसको [गृहवासं] घर-वास [मा जानीहि] मतजान, [एषः] यह [दृष्कृतवासः] पाप का निवास-स्थान है, [कृतांतेन] यमराज ने (काल ने) [पाशःमंडितः] अनेक फाँसों से मंडित [अविचलः] बहुत मजबूत (बंदीखाना) बनाया है, इसमें [निस्संदेहम्] सन्देह नहीं है ।

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+ पर में ममत्व मत कर -
देहु वि जित्थु ण अप्पणउ तहिँ अप्पणउ किं अण्णु ।
पर-कारणि मण गुरुव तुहुँ सिव-संगमु अवगण्णु ॥145॥
देहोऽपि यत्र नात्मीयः तत्रात्मीयं किमन्यत् ।
परकारणे मा मुह्य (?) त्वं शिवसंगमं अवगण्य ॥१४५॥
अन्वयार्थ : [यत्र] जहाँ [देहोऽपि] शरीर भी [आत्मीयः न] अपना नहीं है, [तत्र] उसमें [अन्यत्] अन्य [आत्मीयं किं] क्या अपना हो सकता है ? [त्वं] इस कारण तू [शिवसंगमं] मोक्ष का संगम [अवगण्य] छोड़कर [परकारणे] पर (पुत्र, स्त्री, वस्त्र, आभूषण आदि) उपकरणों में [मा मुह्य] ममत्व मत कर ।

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+ शुद्धात्मा को छोड़ कुछ और भावना मत कर -
करि सिव-संगमु एक्कु पर जहिँ पाविज्जइ सुक्खु ।
जोइय अण्णु म चिंति तुहुँ जेण ण लब्भइ मुक्खु ॥146॥
कुरु शिवसंगमं एकं परं यत्र प्राप्यते सुखम् ।
योगिन् अन्यं मा चिन्तय त्वं येन न लभ्यते मोक्षः ॥१४६॥
अन्वयार्थ : [योगिन्] हे योगी ! [त्वं एकं शिवसंगमं] तू एक निजशुद्धात्मा की ही भावना [परं] केवल [कुरु] कर, [यत्र] जिसमें कि [सुखम् प्राप्येत]
अतीन्द्रिय सुख पावे, [अन्यं मा] अन्य कुछ भी मत [चिंतय] चिंतवन कर, [येन] जिससे कि [मोक्षः न लभ्यते] मोक्ष न मिले ।

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+ शरीर असार है -
बलि किउ माणुस-जम्मडा देक्खंतहँ पर सारु ।
जइ उट्ठब्भइ तो कुहइ अह डज्झइ तो छारु ॥147॥
बलिः क्रियते मनुष्यजन्म पश्यतां परं सारम् ।
यदि अवष्टभ्यते ततः क्वथति अथ दह्यते तर्हि क्षारः ॥१४७॥
अन्वयार्थ : [मनुष्यजन्म] इस मनुष्य-जन्म को [बलिः क्रियते] मोक्ष के लिए समर्पित करो, जो कि [पश्यतां परं सारम्] देखने में केवल सार दिखता है, [यदि अवष्टभ्यते] जो इस मनुष्य-देह को भूमि में गाड़ दिया जावे, [ततः] तो [क्वथति] सड़कर दुर्गन्धरूप परिणमे, [अथ] और जो [दह्यते] जलाईये [तर्हि] तो [क्षारः] राख हो जाता है ।

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+ शरीर अशुचि है -
उव्वलि चोप्पडि चिट्ठ करि देहि सु-मिट्ठाहार ।
देहहँ सयल णिरत्थ गय जिमु दुज्जणि उवयार ॥148॥
उद्वर्तय म्रक्षय चेष्टां कुरु देहि सुमृष्टाहारान् ।
देहस्य सकलं निरर्थ गतं यथा दुर्जने उपकाराः ॥१४८॥
अन्वयार्थ : [देहस्य] इस देह का [उद्वर्तय] उबटना करो, [म्रक्षय] तैलादिक का मर्दन करो, [चेष्टां कुरु] श्रृंगार आदि से अनेक प्रकार सजाओ, [सुमृष्टाहारान्] अच्छे-अच्छे मिष्ट आहार [देहि] दो, लेकिन [सकलं] ये सब [निरर्थ गतं] यत्न व्यर्थ हैं, [यथा] जैसे [दुर्जने] दुर्जनों का [उपकाराः] उपकार करना वृथा है ।

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+ अशुचि शरीर से प्रीति मत कर -
जेहउ जज्जरु णरय-घरु तेहउ जोइय काउ ।
णरइ णिरंतरु पूरियउ किम किज्जइ अणुराउ ॥149॥
यथा जर्जरं नरकगृहं तथा योगिन् कायः ।
नरके निरन्तरं पूरितं किं क्रियते अनुरागः ॥१४९॥
अन्वयार्थ : [योगिन्] हे योगी, [यथा] जैसा [जर्जरं] सैकड़ों छेदोंवाला [नरकगृहं] नरक-घर है, [तथा] वैसे [नरके] मल-मूत्रादि से [निरंतरं] हमेशा [पूरितं] भरा हुए [कायः] शरीर से [अनुरागः] प्रीति [किं क्रियते] कैसे की जावे ?

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+ शरीर पाप, दुःख और अशुचि से निर्मित -
दुक्खइँ पावइँ असुचियइँ तिहुयणि सयलइँ लेवि ।
एयहिँ देहु विणिम्मियउ विहिणा वइरु मुणेवि ॥150॥
दुःखानि पापानि अशुचीनि त्रिभुवने सकलानि लात्वा ।
एतैः देहः विनिर्मितः विधिना वैरं मत्वा ॥१५०॥
अन्वयार्थ : [त्रिभुवने] तीन लोक के [दुःखानि पापानि अशुचीनि] दुःख, पाप, और अशुचिता [सकलानि लात्वा] सबको लेकर [एतैः] इन मिले हुओं से [विधिना] विधाता (कर्म) ने [वैरं] वैर [मत्वा] मानकर [देहः] शरीर [निर्मितः] बनाया है ।

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+ देह से नहीं धर्म से प्रीति कर -
जोइय देहु घिणावणउ लज्जहि किं ण रमंतु ।
णाणिय धम्में रइ करहि अप्पा विमलु करंतु ॥151॥
योगिन् देहः घृणास्पदः लज्जसे किं न रममाणः ।
ज्ञानिन् धर्मेण रतिं कुरु आत्मानं विमलं कुर्वन् ॥१५१॥
अन्वयार्थ : [योगिन्] हे योगी ! [देहः] यह शरीर [धृणास्पदः] घिनावना है, [रममाणः] इस देह से रमते हुए [किं न लज्जसे] लाज नहीं आती ? [ज्ञानिन्] हे ज्ञानी ! [आत्मानं] आत्मा को [विमलं कुर्वन्] निर्मल करने वाले [धर्मे] धर्म से [रतिं] प्रीति [कुरु] कर ।

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+ आत्मा को ज्ञानादि गुणमय देख -
जोइय देहु परिच्चयहि देहु ण भल्लउ होइ ।
देह-विभिण्णउ णाणमउ सो तुहुँ अप्पा जोइ ॥152॥
योगिन् देहं परित्यज देहो न भद्रः भवति ।
देहविभिन्नं ज्ञानमयं तं त्वं आत्मानं पश्य ॥१५२॥
अन्वयार्थ : [योगिन्] हे योगी ! [देहं परित्यज] शरीर से प्रीति छोड़, [देहः भद्रः न भवति] यह देह अच्छा नहीं है, [देहविभिन्नं ज्ञानमयं] देह से भिन्न ज्ञानादि गुणमय [तं आत्मानं] ऐसे आत्मा को [त्वं पश्य] तू देख ।

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+ देह दुःख का कारण अत: ममत्व त्याग -
दुक्खहँ कारणु मुणिवि मणि देहु वि एहु चयंति ।
जित्थु ण पावहिँ परम-सुहु तित्थु कि संत वसंति ॥153॥
दुःखस्य कारणं मत्वा मनसि देहमपि इमं त्यजन्ति ।
यत्र न प्राप्नुवन्ति परमसुखं तत्र किं सन्तः वसन्ति ॥१५३॥
अन्वयार्थ : [दुःखस्य कारणं] (नरकादि) दुःख का कारण [इमं देहमपि] इसदेह को [मनसि] मन में [मत्वा] जानकर ज्ञानी जीव [त्यजंति] इसका ममत्व छोड़ देते हैं, क्योंकि [यत्र] जिस देहमें [परमसुखं न प्राप्नुवंति] उत्तम सुख नहीं पाते, [तत्र संतः किं वसंति] उसमें सत्पुरुष कैसे रह सकते हैं ?

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+ इन्द्रियाधीन सुख की जगह आत्माधीन सुख को देख -
अप्पायत्तउ जं जि सुहु तेण जि करि संतोसु ।
पर सुहु वढ चिंतंताहँ हियइ ण फि ट्टइ सोसु ॥154॥
आत्मायत्तं यदेव सुखं तेनैव कुरु संतोषम् ।
परं सुखं वत्स चिन्तयतां हृदये न नश्यति शोषः ॥१५४॥
अन्वयार्थ : [वत्स] हे शिष्य ! [यदेव जो आत्मायत्तं सुखं] पर-द्रव्य से रहित आत्माधीन सुख है, [तेनैव] उसी में [संतोषम्] संतोष [कुरु] कर, [परं सुखं] इन्द्रियाधीन सुख का [चिंतयतां] चिन्तवन करने वालों के [हृदये शोषः] चित्त-दाह [न नश्यति] नहीं मिटता ।

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+ ज्ञान को छोड़कर कुछ भी आत्मा नहीं -
अप्पहँ णाणु परिच्चयवि अण्णु ण अत्थि सहाउ ।
इउ जाणेविणु जोइयहु परहँ म बंधउ राउ ॥155॥
आत्मनः ज्ञानं परित्यज्य अन्यो न अस्ति स्वभावः ।
इदं ज्ञात्वा योगिन् परस्मिन् मा बधान रागम् ॥१५५॥
अन्वयार्थ : [आत्मनः ज्ञानं] आत्म का ज्ञान को [परित्यज्य] छोड़कर [अन्यः स्वभावः] दूसरा स्वभाव [न अस्ति] नहीं है, [इदं ज्ञात्वा] ऐसा जानकर [योगिन्] हे योगी ! [परस्मिन्] पर-वस्तु से [रागम्] प्रीति [मा बधान] मत बाँध ।

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+ स्थिर चित्त द्वारा आत्मा प्रत्यक्ष -
विसय-कसायहिँ मण-सलिलु णवि डहुलिज्जइ जासु ।
अप्पा णिम्मलु होइ लहु वढ पच्चक्खु वि तासु ॥156॥
विषयकषायैः मनःसलिलं नैव क्षुभ्यति यस्य ।
आत्मा निर्मलो भवति लघु वत्स प्रत्यक्षोऽपि तस्य ॥१५६॥
अन्वयार्थ : [यस्य मनः सलिलं] जिसका मनरूपी जल [विषयकषायैः] विषयकषायरूप प्रचंड पवन से [नैव क्षुभ्यते] नहीं चलायमान होता है, [तस्य] उसी भव्य जीव की [आत्मा] आत्मा [वत्स] हे शिष्य ! [निर्मलो भवति] निर्मल होती है, और [लघु प्रत्यक्षोऽपि] शीघ्र ही प्रत्यक्ष हो जाती है ।

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+ योग द्वारा मन को वश में कर -
अप्पा परहँ ण मेलविउ मणु मारिवि सहस त्ति ।
सो वढ जाएँ किं करइ जासु ण एही सत्ति ॥157॥
आत्मा परस्य न मेलितः मनो मारयित्वा सहसेति ।
स वत्स योगेन किं करोति यस्य न ईद्रशी शक्ति: ॥१५७॥
अन्वयार्थ : [सहसा मनः मारयित्वा] शीघ्र ही मन को वश में करके [आत्मा] आत्मा को [परस्य न मेलितः] पर में नहीं मिलाया, [वत्स] हे शिष्य, [यस्य ईदृशी] जिसकी ऐसी [शक्तिः न] शक्ति नहीं है, [सः योगेन] वह योग से [किं करोति] क्या कर सकता है ?

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+ आत्म-ध्यान द्वारा ही केवलज्ञान -
अप्पा मेल्लिवि णाणमउ अण्णु जे झायहिँ झाणु ।
वढ अण्णाण-वियंभियहँ कउ तहँ केवल-णाणु ॥158॥
आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानमयं अन्यद् ये ध्यायन्ति ध्यानम् ।
वत्स अज्ञानविजृम्भितानां कुतः तेषां केवलज्ञानम् ॥१५८॥
अन्वयार्थ : [ज्ञानमयं आत्मानं मुक्त्वा] ज्ञानमयी आत्मा को छोड़कर [अन्यद् ये ध्यानम् ध्यायंति] अन्य का ध्यान जो लगाते हैं, [वत्स] हे वत्स, [तेषां अज्ञान विजृंभितानां] उस अज्ञान से मोहित को [केवलज्ञानम् कुतः] केवलज्ञान कैसे हो ?

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+ विकल्प-रहित होकर आत्म-ध्यान करने वाले धन्य -
सुण्णउँ पउँ झायंताहँ वलि वलि जोइयडाहँ ।
समरसि-भाउ परेण सहु पुण्णु वि पाउ ण जाहँ ॥159॥
शून्यं पदं ध्यायतां पुनः पुनः (?) योगिनाम् ।
समरसीभावं परेण सह पुण्यमपि पापं न येषाम् ॥१५९॥
अन्वयार्थ : [शून्यं पदं ध्यायतां] विकल्प-रहित (राग-द्वेष से शून्य) पद को ध्यावने वाले [योगिनाम्] योगियों की [बलिं बलिं] बार-बार पूजा करता हूँ, [येषाम्] जिनके [परेण सह] अन्य पदार्थों के साथ [समरसीभावं] समरसीभाव है, और [पुण्यम् पापं अपि न] जिनके पुण्य और पाप दोनों नहीं हैं ।

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+ समूल परिवर्तित, पुण्य-पाप से रहित धन्य -
उव्वस वसिया जो करइ वसिया करइ जु सुण्णु ।
बलि किज्जउँ तसु जोइयहिँ जासु ण पाउ ण पुण्णु ॥160॥
उद्वसान् वसितान् यः करोति वसितान् करोति यः शून्यान् ।
बलिं कुर्वेऽहं तस्य योगिनः यस्य न पापं न पुण्यम् ॥१६०॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [उद्धसान्] (शुद्धोपयोगरूप परिणामों से) ऊजडे को [वसितान्] (स्व-संवेदन ज्ञान द्वारा) बसाता है, [यः] जो [वसितान्] बसे हुए (मिथ्यात्वादि परिणाम) से [शून्यान्] रहित होता है, [तस्य योगिनः] उस योगी की [अहं बलिं कुर्वे] मैं पूजा करता हूँ, [यस्य न पापं न पुण्यम्] जिसके न तो पाप है और न पुण्य है ।

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+ प्रभाकर भट्ट द्वारा निवेदन -
तुट्टइ मोहु तडित्ति जहिँ मणु अत्थवणहँ जाइ ।
सो सामइ उवएसु कहि अण्णेँ देविं काइँ ॥161॥
त्रुटयति मोहः झटिति यत्र मनः अस्तमनं याति ।
तं स्वामिन् उपदेशं कथय अन्येन देवेन किम् ॥१६१॥
अन्वयार्थ : [स्वामिन्] हे स्वामी ! [तं उपदेशं कथय] उस उपदेश को कहो [यत्र मोहः झटिति त्रुटयति] जिससे मोह शीघ्र छूट जावे, [मनः अस्तमनं याति] और चंचल मन स्थिरता को प्राप्त हो जावे, [अन्य देवेन किम्] दूसरे देवताओं से क्या प्रयोजन है ?

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+ योग द्वारा ध्यान -
णास-विणिग्गउ सासडा अंबरि जेत्थु विलाइ ।
तुट्टइ मोहु तडत्ति तहिँ मणु अत्थवणहँ जाइ ॥162॥
नासाविनिर्गतः श्वासः अम्बरे यत्र विलीयते ।
त्रुटयति मोहः झटिति तत्र मनः अस्तं याति ॥१६२॥
अन्वयार्थ : [नासाविनिर्गतः श्वासः] नाक से निकला जो श्वास वह [यत्र] जब [अंबरे] निर्विकल्पसमाधि में [विलीयते] मिल जावे, [तत्र] उसी जगह [मोहः] मोह [झटिति] शीघ्र [त्रुटयति] नष्ट हो जाता है, [मनः] और मन [अस्तं याति] स्थिर हो जाता है ।

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+ परम-समाधि -
मोहु विलिज्जइ मणु मरइ तुट्टइ सासु-णिसासु ।
केवल-णाणु वि परिणमइ अंबरि जाहँ णिवासु ॥163॥
मोहो विलीयते मनो म्रियते त्रुटयति श्वासोच्छ्वासः ।
केवलज्ञानमपि परिणमति अम्बरे येषां निवासः ॥१६३॥
अन्वयार्थ : [येषां] जिन (मुनिश्वरों) का [अंबरे निवासः] परमसमाधि में निवास है, उनका [मोहः विलीयते] मोह नाश को प्राप्त हो जाता है, [मनः म्रियते] मन मर जाता है, [श्वासोच्छ्वासः त्रुटयति] श्वासोच्छ्वास रुक जाता है, [अपि केवलज्ञानम् परिणमति] और केवलज्ञान उत्पन्न होता है ।

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+ निर्विकल्प समाधि द्वारा मोह टूटता है -
जो आयासइ मणु धरइ लोयालोय-पमाणु ।
तुट्टइ मोहु तडत्ति तसु पावइ परहँ पवाणु ॥164॥
यः आकाशे मनो धरति लोकालोकप्रमाणम् ।
त्रुटयति मोहो झटिति तस्य प्राप्नोति परस्य प्रमाणम् ॥१६४॥
अन्वयार्थ : [यः आकाशे] जो निर्विकल्प-समाधि में [मनः धरति] मन स्थिर करता है, [तस्य मोहः] उसका मोह [झटिति त्रुटयति] शीघ्र टूटता है, [परस्य प्रमाणम्] लोकालोक प्रमाण आत्मा को [प्राप्नोति] प्राप्त हो जाता है ।

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+ प्रभाकर भट्ट द्वारा विनती -
देहि वसंतु वि णवि मुणिउ अप्पा देउ अणंतु ।
अंबरि समरसि मणु धरिवि सामिय णट्ठु णिभंतु ॥165॥
देहे वसन्नपि नैव मतः आत्मा देवः अनन्तः ।
अम्बरे समरसे मनः धृत्वा स्वामिन् नष्टः निर्भ्रान्तः ॥१६५॥
अन्वयार्थ : [स्वामिन्] हे स्वामी ! [देहे वसन्नपि] देह में रहता हुआ भी [समरसे] समान भावरूप [अंबरे] निर्विकल्प-समाधि में [मनः धृत्वा] मन लगा कर [आत्मा देवः] आराधने योग्य आत्मा [अनंतः] अनंत [नैव मतः] मैंने नहीं जाना और [नष्टो निर्भ्रांतः] निस्संदेह नष्ट हुआ ।

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+ परमार्थ मार्ग -
सयल वि संग ण मिल्लिया णवि किउ उवसम-भाऊ ।
सिव-पय-मग्गु वि मुणिउ णवि जहिं जोइहिँ अणुराउ ॥166॥
घोरु ण चिण्णउ तव-चरणु जं णिय-बोहहं सारु ।
पुण्णु वि पाउ वि दड्ढु णवि किमु छिज्जइ संसारु ॥167॥
सकला अपि संगाः न मुक्ताः नैव कृत उपशमभावः ।
शिवपदमार्गोऽपि मतो नैव यत्र योगिनां अनुरागः ॥१६६॥
घोरं न चीर्णं तपश्चरणं यत् निजबोधस्य सारम् ।
पुण्यमपि पापमपि दग्धं नैव किं छिद्यते संसारः ॥१६७॥
अन्वयार्थ : [सकला अपि संगाः] सब परिग्रह भी [न मुक्ताः] नहीं छोडे, [उपशमभावः नैव कृतः] समभाव भी नहीं किया [यत्र योगिनां अनुरागः] और जहाँ योगीश्वरों का प्रेम है, ऐसा [शिवपदमार्गोऽपि] मोक्ष-पद भी [नैव मतः] नहीं जाना, [घोरं तपश्चरणं] महा दुर्धर तप [न चीर्णं] नहीं किया, [यत्] जो कि [निजबोधेन सारम्] आत्मज्ञान से शोभायमान है, [पुण्यमपि पापमपि] और पुण्य तथा पाप ये दोनों [नैव दग्धं] नहीं भस्म किये, तो [संसार] संसार [किं छिद्यते] कैसे छूट सकता है ?

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+ व्यवहार मोक्षमार्ग -
दाणु ण दिण्णउ मुणिवरहँ ण वि पुज्जिउ जिण-णाहु ।
पंच ण वंदिय परम-गुरू किमु होसइं सिव-लाहु ॥168॥
दानं न दत्तं मुनिवरेभ्यः नापि पूजितः जिननाथः ।
पञ्च न वन्दिताः परमगुरवः किं भविष्यति शिवलाभः ॥१६८॥
अन्वयार्थ : [दानं] आहारादि दान [मुनिवराणां] मुनिश्वर आदि पात्रों को [न दत्तं] नहीं दिया, [जिननाथः] जिनेन्द्र-भगवान को भी [नापि पूजितः] नहीं पूजा, [पंच परमगुरवः] अरहंत आदिक पंच-परमेष्ठी [न वंदिताः] भी नहीं पूजे, तब [शिवलाभः] मोक्ष की प्राप्ति [किं भविष्यति] कैसे हो सकती है ?

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+ अकेले बाह्य-योग दारा सिद्धि नहीं -
अद्धुम्मीलिय-लोयणिहिँ जोउ कि झंपियएहिँ ।
एमुइ लव्भइ परम-गइ णिच्चिंतिं ठियएहिँ ॥169॥
अर्धोन्मीलितलोचनाभ्यां योगः किं झंपिताभ्याम् ।
एवमेव लभ्यते परमगतिः निश्चिन्तं स्थितैः ॥१६९॥
अन्वयार्थ : [अर्धोन्मीलितलोचनाभ्यां] आधे ऊघड़े हुए नेत्रों करना अथवा [झंपिताभ्याम्] नेत्रों को बंद करना [किं] क्या [योगः] ध्यान है? [निश्चिन्तं स्थितैः] चिन्ता-रहित (एकाग्र) स्थित को [एवमेव] इसी तरह [लभ्यते परमगतिः] परमगति (मोक्ष) मिलती है ।

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+ चिंता-मुक्त हुए बिना संसार भरमान नहीं छूटता -
जोइय मिल्लहि चिन्त जइ तो तुट्टइ संसारु ।
चिंतासत्तउ जिणवरु वि लहइ ण हंसाचारु ॥170॥
योगिन् मुञ्चसि चिन्तां यदि ततः त्रुटयति संसारः ।
चिन्तासक्तो जिनवरोऽपि लभते न हंसाचरम् ॥१७०॥
अन्वयार्थ : [योगिन्] हे योगी ! [यदि] जो [चिंतां मुंचसि] चिन्ताओं को छोड़े [ततः] तो [संसारः] संसार का भ्रमण [त्रुटयति] छूट जायेगा; [चिंतासक्तः] चिन्ता में लगे हुए [जिनवरोऽपि] (छद्मस्थ अवस्थावाले) जिनदेव भी [हंसाचारम् न लभते] परमात्मा के आचरणरूप शुद्ध-भावों को नहीं पाते ।

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+ मन को मारकर परब्रह्म का ध्यान करो -
जोइय दुम्मइ कवुण तुहँ भवकारणि ववहारि ।
बंभु पवंचहिँ जो रहिउ सो जाणिवि मणु मारि ॥171॥
योगिन् दुर्मतिः का तव भवकारणे व्यवहारे ।
ब्रह्म प्रपंचैर्यद् रहितं तत् ज्ञात्वा मनो मारय ॥१७१॥
अन्वयार्थ : [योगिन्] हे योगी ! [तव का दुर्मतिः] तेरी क्या खोटी बुद्धि है, जो तू [भवकारणे व्यवहारे] संसार के कारण उद्यमरूप व्यवहार करता है; अब तू [प्रपंचैः रहितं] (माया-जालरूप) पाखंडों से रहित [यत् ब्रह्म] जो शुद्धात्मा है, [तत् ज्ञात्वा] उसको जानकर [मनो मारय] (विकल्प-जालरूपी) मन को मार ।

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+ सब विषयों को छोड़कर आत्मदेव को ध्यावो -
सव्वहिँ रायहिँ छहिँ रसहिँ पंचहिँ रूवहिँ जंतु ।
चित्तु णिवारिवि झाहि तुहुँ अप्पा देउ अणंतु ॥172॥
सर्वैः रागैः षड्भिः रसैः पञ्चभिः रूपैः गच्छत् ।
चित्तं निवार्य ध्याय त्वं आत्मानं देवमनन्तम् ॥१७२॥
अन्वयार्थ : [त्वं सर्वैः रागैः] तू सब शुभाशुभ राग से, [षड्भिःरसैः] छहों रस से, [पंचभिः रसैः] पाँचों रस से [गच्छत् चित्तं] चलायमान चित्त को [निवार्य] रोककर [अनंतम्] अनंतगुणवाले [आत्मानं देवम् ध्याय] आत्मदेव का चिंतवन कर ।

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+ आत्मा को जिसरूप से ध्यावो, उसी-रूप परिणमता है -
जेण सरूविं झाइयइ अप्पा एहु अणंतु ।
तेण सरूविं परिणवइ जह फलिहउ-मणि मंतु ॥173॥
येन स्वरूपेण ध्यायते आत्मा एषः अनन्तः ।
तेन स्वरूपेण परिणमति यथा स्फटिकमणिः मन्त्रः ॥१७३॥
अन्वयार्थ : [एषः] यह प्रत्यक्षरूप [अनंतः] अविनाशी [आत्मा] आत्मा [येनस्वरूपेण] जिस स्वरूप से [ध्यायते] ध्याया जाता है, [तेन स्वरूपेण] उसी स्वरूप [परिणमति] परिणमता है, [यथा स्फ टिकमणिः मंत्रः] जैसे स्फटिकमणि और गारुड़ी आदि मंत्र हैं ।

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+ आत्मा परमात्मा कैसे बनता है? -
एहु जु अप्पा सो परमप्पा कम्म-विसेसेँ जायउ जप्पा ।
जामइँ जाणइ अप्पें अप्पा तामइँ सो जि देउ परमप्पा ॥174॥
एष यः आत्मा स परमात्मा कर्मविशेषेण जातः जाप्यः ।
यदा जानाति आत्मना आत्मानं तदा स एव देवः परमात्मा ॥१७४॥
अन्वयार्थ : [एष यः आत्मा] यह जो आत्मा है [स परमात्मा] वही परमात्मा है, [कर्मविशेषेण] अनादि कर्म-बंध के विशेष से [जाप्यः जातः] पराधीन हुआ दूसरे का जाप करता है; परंतु [यदा] जब [आत्मना] आत्मा से [आत्मानं] अपने को [जानाति] जानता है, [तदा] तब [स एव] वह ही [परमात्मा] परमात्मा है ।

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+ मैं ही परमात्मा -
जो परमप्पा णाणमउ सो हउँ देउ अणंतु ।
जो हउँ सो परमप्पु परु एहउ भावि णिभंतु ॥175॥
यः परमात्मा ज्ञानमयः स अहं देवः अनन्तः ।
यः अहं स परमात्मा परः इत्थं भावय निर्भ्रान्तः ॥१७५॥
अन्वयार्थ : [यः परमात्मा] जो परमात्मा [ज्ञानमयः] ज्ञानस्वरूप है, [स अहं] वह मैं हूँ, [अनंत देवः] अविनाशी देव-स्वरूप हूँ, [य अहं] जो मैं हूँ [स परः परमात्मा] वही उत्कृष्ट परमात्मा है [इत्थं निर्भ्रांतः भावय] इसप्रकार निस्संदेह भावना कर ।

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+ कर्म-स्वभाव आत्म-स्वभाव से भिन्न -
णिम्मल-फलिहहँ जेम जिय भिण्णउ परकिय-भाउ ।
अप्प-सहावहँ तेम मुणि सयलु वि कम्म-सहाउ ॥176॥
निर्मलस्फटिकाद् यथा जीव भिन्नः परकृतभावः ।
आत्मस्वभावात् तथा मन्यस्व सकलमपि कर्मस्वभावम् ॥१७६॥
अन्वयार्थ : [जीव] हे जीव ! [यथा परकृतभावः] जैसे (नीला-पीला आदि) पर-कृत रंग [निर्मलस्फटिकात्] महा निर्मल स्फटिक-मणि से [भिन्नः] जुदे हैं, [तथा] उसी तरह [आत्मस्वभावात्] आत्म-स्वभाव और [सकलमपि] सब ही [कर्मस्वभावम्] (शुभाशुभ) कर्म-स्वभाव को [मन्यस्व] जानो ।

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+ आत्मा को निर्मल देख -
जेम सहाविं णिम्मलउ फलिहउ तेम सहाउ ।
भंतिए मइलु म मण्णि जिय मइलउ देक्खवि काउ ॥177॥
यथा स्वभावेन निर्मलः स्फटिकः तथा स्वभावः ।
भ्रान्त्या मलिनं मा मन्यस्व जीव मलिनं द्रष्ट्वा कायम् ॥१७७॥
अन्वयार्थ : [यथा] जैसे [स्फटिकः] स्फटिक-मणि [स्वभावेन] स्वभाव से [निर्मलः] निर्मल है, [तथा] उसी तरह [स्वभावः] (आत्मा का ज्ञान दर्शनरूप) स्वभाव है [जीव] हे जीव ! [कायम् मलिनं] शरीर को मलिन [दृष्ट्वा] देखकर [भ्रांत्या] भ्रम से (स्वभाव को) [मलिनं] मैला [मा मन्यस्व] मत मान ।

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+ भेदविज्ञान की भावना का रक्त पीतादि वस्त्र द्वारा दृष्टांत -
रत्तेँ वत्थेँ जेम बुहु देहु ण मण्णइरत्तु ।
देहिं रत्तिं णाणि तहँ अप्पु ण मण्णइ रत्तु ॥178॥
जिण्णिं वत्थिं जेम बुहु देहु ण मण्णइ जिण्णु ।
देहिं जिण्णिं णाणि तहँ अप्पु ण मण्णइ जिण्णु ॥179॥
वत्थु पणट्ठइ जेम बुहु देहु ण मण्णइ णट्ठु ।
णट्ठे देहे णाणि तहँ अप्पु ण मण्णइ णट्ठु ॥180॥
भिण्णउ वत्थु जि जेम जिय देहहँ मण्णइ णाणि ।
देहु वि भिण्णउँ णाणि तहँ अप्पहँ मण्णइ जाणि ॥181॥
रक्ते न वस्त्रेन यथा बुधः देहं न मन्यते रक्तम् ।
देहेन रक्ते न ज्ञानी तथा आत्मानं न मन्यते रक्तम् ॥१७८॥
जीर्णेन वस्त्रेण तथा बुधः देहं न मन्यते जीर्णम् ।
देहेन जीर्णेन ज्ञानी तथा आत्मानं न मन्यते जीर्णम् ॥१७९॥
वस्त्रे प्रणष्टे यथा बुधः देहं न मन्यते नष्टम् ।
नष्टे देहे ज्ञानी तथा आत्मानं न मन्यते नष्टम् ॥१८०॥
भिन्नं वस्त्रमेव यथा जीव देहात् मन्यते ज्ञानी ।
देहमपि भिन्नं ज्ञानी तथा आत्मनः मन्यते जानीहि ॥१८१॥
अन्वयार्थ : [यथा बुधः] जैसे कोई बुद्धिमान् पुरुष [रक्ते वस्त्रे] लाल वस्त्र से [देहं रक्तम्] शरीर को लाल [न मन्यते] नहीं मानता, [तथा] उसी तरह [ज्ञानी] सम्यग्ज्ञानी [देह रक्ते] शरीर के लाल होने से [आत्मानं] आत्मा को [रक्तम् न मन्यते] लाल नहीं मानता । [यथा बुधः] जैसे कोई बुद्धिमान् [वस्त्रे जीर्णे] कपड़े के जीर्ण (पुराने ) होने पर [देहं जीर्णम्] शरीर को जीर्ण [न मन्यते] नहीं मानता, [तथा ज्ञानी] उसी तरह ज्ञानी [देहे जीर्णे] शरीर के जीर्ण होने से [आत्मानं जीर्णम् न मन्यते] आत्मा को जीर्ण नहीं मानता, [यथा बुधः] जैसे कोई बुद्धिमान् [वस्त्रे प्रणष्टे] वस्त्र के नाश होने से [देहं नष्टम्] देह का नाश [न मन्यते] नहीं मानता, [तथा ज्ञानी] उसी तरह ज्ञानी [देहे नष्टे] देह का नाश होने से [आत्मानं] आत्मा का [नष्टम् न मन्यते] नाश नहीं मानता, [जीव] हे जीव ! [यथा ज्ञानी] जैसे ज्ञानी [देहाद् भिन्नं एव] देह से भिन्न ही [वस्त्रम् मन्यते] कपड़े को मानता है, [तथा ज्ञानी] उसी तरह ज्ञानी [देहमपि] शरीर को भी [आत्मनः भिन्नं] आत्मा से जुदा [मन्यते] मानता है, ऐसा [जानीहि] तुम जानो ।

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+ शरीर को शत्रु की तरह देख -
इहु तणु जीवड तुज्झ रिउ दुक्खइँ जेण जणेइ ।
सो परु जाणहि मित्तु तुहुँ जो तणु एहु हणेइ ॥182॥
इयं तनुः जीव तव रिपुः दुःखानि येन जनयति ।
तं परं जानीहि मित्रं त्वं यः तनुमेतां हन्ति ॥१८२॥
अन्वयार्थ : [जीव] हे जीव ! [इयं तनुः] यह शरीर [तव रिपुः] तेरा शत्रु है, [येन] क्योंकि [दुःखानि] दुःखों को [जनयति] उत्पन्न करता है, [यः] जो [इमां तनुं] इस शरीर का [हंति] घात करे, [तं] उसको [त्वं] तुम [परं मित्रं] परम-मित्र [जानीहि] जानो ।

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+ दुःख में भी सकारात्मकता -
उदयहँ आणिवि कम्मु मइँ जं भुंजेवउ होइ ।
तं सह आविउ खविउ मइँ सो पर लाहु जि कोइ ॥183॥
उदयमानीय कर्म मया यद् भोक्त व्यं भवति ।
तत् स्वयमागतं क्षपितं मया स परं लाभ एव कश्चित् ॥१८३॥
अन्वयार्थ : [यत् मया] जो मैं [कर्म उदयम् आनीय] कर्म को उदय में लाकर [भोक्तव्यं भवति] भोगना चाहता था, [तत्] वह कर्म [स्वयम् आगतं] आप ही आ गया, [मया क्षपितं] इससे मैं शांत चित्त से फल सहनकर क्षय करूँ, [स कश्चित्] यह कोई [परं लाभः] महान् ही लाभ हुआ ।

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+ विपरीत परिस्थितियों में आत्म-तत्त्व की भावना -
णिट्ठुर-वयणु सुणेवि जिय जइ मणि सहण ण जाइ ।
तो लहु भावहि बंभु परु जिं मणु झत्ति विलाइ ॥184॥
निष्ठुरवचनं श्रुत्वा जीव यदि मनसि सोढुं न याति ।
ततो लघु भावय ब्रह्म परं येन मनो झटिति विलीयते ॥१८४॥
अन्वयार्थ : [जीव] हे जीव ! [निष्ठुरवचनं श्रुत्वा] कठोर वचन सुनकर [यदि] जो [न सोढुं याति] न सह सके, [ततः] तो [परं ब्रह्म] (परमानंदस्वरूप इस देह में विराजमान) परमब्रह्म का [मनसि] मन में [लघु] शीघ्र [भावय] ध्यान करो [येन] जिससे [मनः झटिति] मन शीघ्र ही [विलीयते] विलीन हो जाता है ।

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+ कर्म-बंध नहीं करे, आत्म-स्वरूप में लगे -
लोउ विलक्खणु कम्म-वसु इत्थु भवंतरि एइ ।
चुज्जु कि जइ इहु अप्पि ठिउ इत्थु जि भवि ण पडेइ ॥185॥
लोकः विलक्षणः कर्मवशः अत्र भवान्तरे आयाति ।
आश्चर्यं किं यदि अयं आत्मनि स्थितः अत्रैव भवे न पतति ॥१८५॥
अन्वयार्थ : [लोकः विलक्षणः] लोक से भिन्न [कर्मवशः] कर्म के वश [अत्र भवांतरे आयाति] इस संसार में अनेक जाति धारण करता है, [अयं यदि] जो यह (जीव) [आत्मनि स्थितः] आत्म-स्वरूप में लगे, तो [अत्रैव भवे] इसी भव में [न पतति] नहीं पड़े (भ्रमण नहीं करे) [किं आश्चर्यं] इसमें क्या आश्चर्य है ?

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+ कोई दोष ग्रहण करे तो क्षमाभाव रखे -
अवगुण-गहणइँ महुतणइँ जइ जीवहँ संतोसु ।
तो तहँ सोक्खहं हेउ हउँ इउ मण्णिवि चइ रोसु ॥186॥
अवगुणग्रहणेन मदीयेन यदि जीवानां संतोषः ।
ततः तेषां सुखस्य हेतुरहं इति मत्वा त्यज रोषम् ॥१८६॥
अन्वयार्थ : [मदीयेन अवगुणग्रहणेन] मेरे दोष ग्रहण करके [यदि जीवानां संतोषः] यदि जीवों को हर्ष होता है, [ततः] तो मुझे यही लाभ है, कि [अहं] मैं [तेषां सुखस्य हेतुः] उनको सुख का कारण हुआ, [इति मत्वा] ऐसा मन में विचारकर [रोषम् त्यज] गुस्सा छोड़ो ।

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+ सब चिंताओं का निषेध -
जोइय चिंति म किं पि तुहुँ जइ बीहउ दुक्खस्स ।
तिल-तुस-मित्तु वि सल्लडा वेयण करइ अवस्स ॥187॥
योगिन् चिन्तय मा किमपि त्वं यदि भीतः दुःखस्य ।
तिलतुषमात्रमपि शल्यं वेदनां करोत्यवश्यम् ॥१८७॥
अन्वयार्थ : [योगिन्] हे योगी ! [किमपि मा चिंतय] कुछ भी चिंता मत कर [त्वं यदि] यदि तू [दुःखस्य] दुःख से [भीतः] डरकर [तिलतुषमात्रमपि शल्यं] तिल के भूसे मात्र शल्य भी [वेदनां] मनको वेदना [अवश्यम् करोति] निश्चयसे करती है ।

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+ मोक्ष की भी चिन्ता नहीं करे -
मोक्खु म चिंतहि जोइया मोक्खु ण चिंतिउ होइ ।
जेण णिबद्धउ जीवडउ मोक्खु करेसइ सोइ ॥188॥
मोक्षं मा चिन्तय योगिन् मोक्षो न चिन्तितो भवति ।
येन निबद्धो जीवः मोक्षं करिष्यति तदेव ॥१८८॥
अन्वयार्थ : [योगिन्] हे योगी ! [मोक्षं माचिंतय] मोक्ष की भी चिन्ता मत कर, [मोक्षः] मोक्ष [चिंतितो न भवति] चिन्ता करने से नहीं होता, [येन निबद्धः] जिन (कर्मों) ने बाँधा है [जीवः] जीव को [तदेव] वे कर्म ही [मोक्षं] मोक्ष (मुक्त) [करिष्यति] करेंगे ।

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+ परमसमाधि द्वारा कर्मों से छूटना होता है -
परम-समाहि-महा-सरहिँ जे बुड्डहिँ पइसेवि ।
अप्पा थक्कइ विमलु तहँ भव-मल जंति वहेवि ॥189॥
परमसमाधिमहासरसि ये मज्जन्ति प्रविश्य ।
आत्मा तिष्ठति विमलः तेषां भवमलानि यान्ति ऊढ्वा ॥१८९॥
अन्वयार्थ : [ये] जो कोई महान पुरुष [परमसमाधिमहासरसि] परम-समाधिरूप सरोवर में [प्रविश्य] घुसकर [मज्जन्ति] मग्न होते हैं, [आत्मा तिष्ठति] आत्मा में स्थिर होते हैं [विमलः] द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से रहित, [तेषां] उन्हीं पुरुषों के [भवमलानि] अशुद्ध भाव के कारण जो कर्म हैं, वे सब [ऊढ्वा / बहित्वा यांति] (शुद्धात्म परिणामरूप जल के प्रवाह में) बह जाते हैं ।

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+ शुभ-अशुभ विकल्पों का नाश ही परम-समाधि -
सयल-वियप्पहँ जो विलउ परम-समाहि भणंति ।
तेण सुहासुह-भावडा मुणि सयल वि मेल्लंति ॥190॥
सकलविकल्पानां यः विलयः (तं) परमसमाधिं भणन्ति ।
तेन शुभाशुभभावान् मुनयः सकलानपि मुञ्चन्ति ॥१९०॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [सकलविकल्पानां] समस्त विकल्पों का [विलयः] नाश है, उसको [परमसमाधिं भणंति] परमसमाधि कहते हैं, [तेन] इस (परमसमाधि) से [मुनयः] मुनिराज [सकलानपि] सभी [शुभाशुभविकल्पान्] शुभ-अशुभ विकल्पों को [मुंचंति] छोड़ देते हैं ॥१९०॥

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+ समभाव बिना ज्ञान और तप व्यर्थ -
घोरु करंतु वि तव-चरणु सयल वि सत्थ मुणंतु ।
परम-समाहि-विवज्जयउ णवि देक्खइ सिउ संतु ॥191॥
घोरं कुर्वन् अपि तपश्चरणं सकलान्यपि शास्त्राणि मन्यमान ।
परमसमाधिविवर्जितः नैव पश्यति शिवं शान्तम् ॥१९१॥
अन्वयार्थ : [घोरं तपश्चरणं कुर्वन् अपि] महा दुर्धर तपश्चरण करता हुआ भी और [सकलानि शास्त्राणि] सब शास्त्रों को [जानन्] जानता हुआ भी [परमसमाधिविवर्जितः] जो परम-समाधि से रहित है, वह [शांतम् शिवं] शांतरूप शुद्धात्मा को [नैव पश्यति] नहीं देख सकता ।

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+ विषय-कषाय रहित परम-समाधि -
विषय-कसाय वि णिद्दलिवि जे ण समाहि करंति ।
ते परमप्पहँ जोइया णवि आराहय होंति ॥192॥
विषयकषायानपि निर्दल्य ये न समाधिं कुर्वन्ति ।
ते परमात्मनः योगिन् नैव आराधका भवन्ति ॥१९२॥
अन्वयार्थ : [ये] जो [विषयकषायानपि] विषय कषायों को [निर्दल्य] मूल से उखाड़कर [समाधिं] (तीन गुप्तिरूप) परमसमाधि को [न कुर्वंति] नहीं धारण करते, [ते] वे [योगिन्] हे योगी, [परमात्माराधकाः] परमात्मा के आराधक [नैव भवंति] नहीं हैं ।

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+ मात्र बाह्य समाधि से कार्य की सिद्धि नहीं -
परम-समाहि धरेवि मुणि जे परबंभु ण जंति ।
ते भव-दुक्खइँ बहुविहइँ कालु अणंतु सहंति ॥193॥
परमसमाधिं धृत्वापि मुनयः ये परब्रह्म न यान्ति ।
ते भवदुःखानि बहुविधानि कालं अनन्तं सहन्ते ॥१९३॥
अन्वयार्थ : [ये मुनयः] जो कोई मुनि [परमसमाधिं] परम-समाधि को [धृत्वापि] धारण करके भी [परब्रह्म] (केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप) निज आत्मा को [न यांति] नहीं जानते हैं, [ते] वे (शुद्धात्म-भावना से रहित पुरुष) [बहुविधानि] अनेक प्रकार के [भवदुःखानि] (नारकादि) भवदुःख आधि व्याधिरूप [अनंतं कालं] अनंतकाल तक [सहंते] भोगते हैं ।

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+ चित्त से विकल्पों का हटना ही परमसमाधि -
जामु सुहासुह-भावडा णवि सयल वि तुट्टंति ।
परमसमाहि ण तामुमणि केवलि एहु भणंति ॥194॥
यावत् शुभाशुभभावाः नैव सकला अपि त्रुटयन्ति ।
परमसमाधिर्न तावत् मनसि केवलिन एवं भणन्ति ॥१९४॥
अन्वयार्थ : [यावत्] जब तक [सकला अपि] समस्त ही [शुभाशुभभावाः] शुभाशुभ परिणाम [नैव त्रुटयंति] दूर न हों, [तावत्] तब तक [मनसि] चित्त में [परमसमाधिःन] परमसमाधि नहीं हो सकती [एवं] ऐसा [केवलिनः] केवली-भगवान् [भणंति] कहते हैं ।

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+ परम-समाधि में लीनता से केवलज्ञान -
सयलवियप्पहँ तुट्टाहँ सिवपयमग्गि वसंतु ।
कम्म-चउक्कइ विलउ गइ अप्पा हुइ अरहंतु ॥195॥
सकलविकल्पानां त्रुटयतां शिवपदमार्गे वसन् ।
कर्मचतुष्के विलयं गते आत्मा भवति अर्हन् ॥१९५॥
अन्वयार्थ : [कर्मचतुष्के विलयं गते] (ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय, और अन्तराय) चार घातिया कर्मों के नाश होने से [आत्मा] यह जीव [अर्हन् भवति] अर्हंत होता है, [शिवपदमार्गे वसन्] मोक्षपद के मार्गरूप (सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र) में ठहरता हुआ [सकलविकल्पानां] समस्त रागादि विकल्पों का [त्रुटयतां] नाश करता है ।

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+ केवलज्ञान की महिमा -
केवलणाणिं अणवरउ लोयालोउ मुणंतु ।
णियमेँ परमाणंदमउ अप्पा हुइ अरहंतु ॥196॥
केवलज्ञानेनानवरतं लोकालोकं मन्यमानः ।
नियमेन परमानन्दमयः आत्मा भवति अर्हन् ॥१९६॥
अन्वयार्थ : [केवलज्ञानेन] केवलज्ञान से [लोकालोकं] लोक-अलोक को [अनवरतं जानन्] निरन्तर जानता हुआ [नियमेन] निश्चय से [परमानंदमयः आत्मा] परम आनंदमयी यह आत्मा [अर्हन् भवति] अरहंत होता है ।

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+ केवलज्ञान ही आत्मा का स्वभाव -
जो जिणु केवलणाणमउ परमाणंदसहाउ ।
सो परमप्पउ परमपरु सो जिय अप्पसहाउ ॥197॥
यः जिनः केवलज्ञानमयः परमानन्दस्वभावः ।
सः परमात्मा परमपरः स जीव आत्मस्वभावः ॥१९७॥
अन्वयार्थ : [यः जिनः] जो जिन [केवलज्ञानमयः] केवलज्ञानादि अनंत गुणमयी है [परमानंदस्वभावः] और परमानंद ही जिसका स्वभाव है, [सः परमात्मा] वही परमात्मा है; [जीव] हे जीव, वही [परमपरः] संसारियों में उत्कृष्ट है [स आत्मस्वभावः] वह आत्मा का ही स्वभाव है ।

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+ कर्मों और दोषों से रहित ही परमात्म-प्रकाश -
सयलहँ कम्महँ दोसहँ वि जो जिणु देउ विभिण्णु ।
सो परमप्प-पयासु तुहुँ जोइय णियमेँ मण्णु ॥198॥
सकलेभ्यः कर्मभ्यः दोषेभ्यः अपि यो जिनः देवः विभिन्नः ।
तं परमात्मप्रकाशं त्वं योगिन् नियमेन मन्यस्व ॥१९८॥
अन्वयार्थ : [सकलेभ्यः कर्मभ्यः] ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों से [दोषेभ्यः अपि विभिन्नः] और (सब क्षुधादि अठारह) दोषों से रहित [यः जिनदेवः] जो जिनेश्वरदेव हैं, [तं योगिन् त्वं] उसको हे योगी, तू [परमात्मप्रकाशं] परमात्मप्रकाश [नियमेन] निश्चयसे [मन्यस्व] मान ।

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+ अनंतचतुष्टयमयी परमप्रकाश है -
केवल-दंसणु णाणु सुहु वीरिउ जो जि अणंतु ।
सो जिणदेउ वि परममुणि परमपयासु मुणंतु ॥199॥
केवलदर्शनं ज्ञानं सुखं वीर्यं य एव अनन्तम् ।
स जिनदेवोऽपि परममुनिः परमप्रकाशं मन्यमानः ॥१९९॥
अन्वयार्थ : [केवलदर्शनं ज्ञानं सुखं वीर्यं] केवलदर्शन, केवलज्ञान, अनंतसुख, अनंतवीर्य [यदेव अनंतम्] ये अनंतचतुष्टय जिसके हों [स जिनदेवः] वही जिनदेव है, [परममुनिः] वही परममुनि [परमप्रकाशं जानन्] (उत्कृष्ट लोकालोक का प्रकाशक केवलज्ञान धारी) परमप्रकाश है ।

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+ जिनदेव के ही अनेक नाम -
जो परमप्पउ परमपउ हरि हरु बंभु वि बुद्धु ।
परम पयासु भणंति मुणि सो जिणदेउ विसुद्धु ॥200॥
यः परमात्मा परमपदः हरिः हरः ब्रह्मापि बुद्धः ।
परमप्रकाशः भणन्ति मुनयः स जिनदेवो विशुद्धः ॥२००॥
अन्वयार्थ : [यः परमात्मा] जिस परमात्मा को [मुनयः] मुनि, [परमपदः] परमपद, [हरिः हरः ब्रह्मा अपि] हरि, महादेव, ब्रह्मा, [बुद्धः परमप्रकाशः भणंति] बुद्ध और परमप्रकाश नाम से कहते हैं, [सः विशुद्धः जिनदेवः] वह (रागादि-रहित) शुद्ध जिनदेव ही है ।

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+ सिद्ध भगवान -
झाणेँ कम्मक्खउ करिवि मुक्कउ होइ अणंतु ।
जिणवरदेवइँ सो जि जिय पभणिउ सिद्ध महंतु ॥201॥
ध्यानेन कर्मक्षयं कृत्वा मुक्तो भवति अनन्तः ।
जिनवरदेवेन स एव जीव प्रभणितः सिद्धो महान् ॥२०१॥
अन्वयार्थ : [ध्यानेन कर्मक्षयं कृत्वा] ध्यान द्वारा कर्मों का क्षय करके [मुक्तः भवति] जो मुक्त होता है, [अनंतः] और अविनाशी है, [जीव] हे जीव ! [स एव] उसे ही [जिनवरदेवेन] जिनवरदेव ने [महान् सिद्धः प्रभणितः] सबसे महान् सिद्ध भगवान् कहा है ।

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+ सिद्धों की महिमा -
अण्णु वि बंधु वि तिहुयणहँ सासय-सुक्ख-सहाउ ।
तित्थु जि सयलु वि कालु जिय णिवसइ लद्ध-सहाउ ॥202॥
अन्यदपि बन्धुरपि त्रिभुवनस्य शाश्वतसौख्यस्वभावः ।
तत्रैव सकलमपि कालं जीव निवसति लब्धस्वभावः ॥२०२॥
अन्वयार्थ : [अन्यदपि] फिर वे सिद्ध-भगवान् [त्रिभुवनस्य] तीन लोक के प्राणियों का [बंधुरपि] हित करनेवाले हैं, [शाश्वतसुखस्वभावः] और जिनका स्वभाव अविनाशी सुख है, और [तत्रैव] उसी शुद्ध क्षेत्र में [लब्धस्वभावः] निज-स्वभाव को पाकर [जीव] हे जीव ! [सकलमपि कालं] सदा काल [निवसति] निवास करते हैं ।

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+ सिद्धों का स्वरूप -
जम्मण-मरण-विवज्जियउ चउ-गइ-दुक्ख विमुक्कु ।
केवल-दंसण-णाणमउ णंदइ तित्थु जि मुक्कु ॥203॥
जन्ममरणविवर्जितः चतुर्गतिदुःखविमुक्त: ।
केवलदर्शनज्ञानमयः नन्दति तत्रैव मुक्त: ॥२०३॥
अन्वयार्थ : [जन्ममरणविवर्जितः] (वे भगवान् सिद्ध-परमेष्ठी) जन्म-मरण से रहित, [चतुर्गतिदुःखविमुक्तः] चारों गतियों के दुःखों से रहित, [केवलदर्शनज्ञानमयः] और केवलदर्शन केवलज्ञानमयी, [मुक्तः] कर्म रहित हुए [तत्रैव] (अनंतकाल तक) उसी (सिद्ध-क्षेत्र) में [नंदति] (अपने स्वभाव में) आनंदरूप विराजते हैं ।

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+ परमात्मप्रकाश की भावना में लीनता का फल -
जे परमप्प-पयासु मुणि भाविं भावहिँ सत्थु ।
मोहु जिणेविणु सयलु जिय ते बुज्झहिँ परमत्थु ॥204॥
ये परमात्मप्रकाशं मुनयः भावेन भावयन्ति शास्त्रम् ।
मोहं जित्वा सकलं जीव ते बुध्यन्ति परमार्थम् ॥२०४॥
अन्वयार्थ : [ये मुनयः] जो मुनि [भावेन] भावों से [परमात्मप्रकाशं शास्त्रम्] इस परमात्मप्रकाश शास्त्र का [भावयंति] चिंतवन (अभ्यास) करते हैं, [जीव] हे जीव ! [ते सकलं मोहं जित्वा] वे समस्त मोह को जीतकर [परमार्थम् बुध्यंति] परमतत्त्व को जानते हैं ।

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+ परमात्मप्रकाश के अभ्यास का फल -
अण्णु वि भत्तिए जे मुणहिँ इहु परमप्प-पयासु ।
लोयालोय-पयासयरु पावहिँ ते वि पयासु ॥205॥
अन्यदपि भक्त्या ये मन्यन्ते इमं परमात्मप्रकाशम् ।
लोकालोकप्रकाशकरं प्राप्नुवन्ति तेऽपि प्रकाशम् ॥२०५॥
अन्वयार्थ : [अन्यदपि] और भी कहते हैं, [ये भक्त्या] जो भक्ति से [इमं परमात्मप्रकाशम्] इस परमात्मप्रकाश शास्त्र को [जानन्ति] पढ़ें, सुनें, इसका अर्थ जानें, [तेऽपि] वे भी [लोकालोकप्रकाशकरं] लोकालोक को प्रकाशनेवाले [प्रकाशम्] केवलज्ञान तथा उसके आधारभूत परमात्म-तत्त्व को शीघ्र ही पा सकेंगे ।

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+ परमात्मप्रकाश के पढ़ने का फल -
जे परमप्प-पयासयहं अणुदिणु णाउ लयंति ।
तुट्टइ मोहु तडत्ति तहँ तिहुयण-णाह हवंति ॥206॥
ये परमात्मप्रकाशस्य अनुदिनं नामं गृह्णन्ति ।
त्रुटयति मोहः झटिति तेषां त्रिभुवननाथा भवन्ति ॥२०६॥
अन्वयार्थ : [ये] जो [परमात्मप्रकाशकस्य] परमात्मा के प्रकाश करनेवाले इस ग्रंथ का [अनुदिनं] सदैव [नामं गृह्णन्ति] नाम लेते (स्मरण करते) हैं,
[तेषां] उनका [मोहः] मोह [झटिति त्रुटयति] शीघ्र ही टूट जाता है, और वे [त्रिभुवननाथा भवंति] तीन भुवनके नाथ होते हैं ।

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+ परमात्मप्रकाश ग्रंथ के योग्य कौन? -
जे भव-दुक्खहँ बीहिया पउ इच्छहिँ णिव्वाणु ।
इह परमप्प-पयासयहँ ते पर जोग्ग वियाणु ॥207॥
ये भवदुःखेभ्यः भीताः पदं इच्छन्ति निर्वाणम् ।
इह परमात्मप्रकाशकस्य ते परं योग्या विजानीहि ॥२०७॥
अन्वयार्थ : [ते परं] वे ही महापुरुष [अस्य परमात्मप्रकाशकस्य] इस परमात्मप्रकाश ग्रंथ के [योग्याः विजानीहि] योग्य जानो, [ये] जो [भवदुःखेभ्यः] संसार के दुःखों से [भीताः] डर गये हैं, और [निर्वाणम् पदं] मोक्ष-पद को [इच्छंति] चाहते हैं ।

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+ और भी -
जे परमप्पहँ भत्तियर विसय ण जे वि रमंति ।
ते परमप्प-पयासयहँ मुणिवर जोग्ग हवंति ॥208॥
ये परमात्मनो भक्ति पराः विषयान् न येऽपि रमन्ते ।
ते परमात्मप्रकाशकस्य मुनिवरा योग्या भवन्ति ॥२०८॥
अन्वयार्थ : [ये] जो [परमात्मनः भक्तिपराः] परमात्मा की भक्ति करते हैं, [ये] जो [विषयान् न अपि रमंते] विषय-कषायों में नहीं रमते हैं, [ते मुनिवराः] वे ही मुनीश्वर [परमात्मप्रकाशस्य योग्याः] परमात्मप्रकाश के योग्य [भवंति] हैं ।

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+ और भी -
णाण-वियक्खणु सुद्ध-मणु जो जणु एहउ कोइ ।
सो परमप्प-पयासयहँ जोग्गु भणंति जि जोइ ॥209॥
ज्ञानविचक्षणः शुद्धमना यो जन ईद्रशः कश्चिदपि ।
तं परमात्मप्रकाशकस्य योग्यं भणन्ति ये योगिनः ॥२०९॥
अन्वयार्थ : [यः जनः] जो प्राणी [ज्ञानविचक्षणः] स्वसंवेदन-ज्ञान द्वारा विचक्षण (बुद्धिमान) हैं, और [शुद्धमनाः] (राग द्वेष मोहरूप समस्त विकल्प-जाल के त्याग से) शुद्ध-मन हैं, [कश्चिदपि ईदृशः] ऐसा कोई भी सत्पुरुष हो, [तं] उसे [ये योगिनः] जो योगीश्वर हैं, वे [परमात्मप्रकाशकस्य योग्यं] परमात्मप्रकाश के योग्य [भणंते] कहते हैं ।

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+ शास्त्र का फल -
लक्खण-छंद-विवज्जियउ एहु परमप्प-पयासु ।
कुणइ सुहावइँ भावियउ चउ-गइ-दुक्ख-विणासु ॥210॥
लक्षणछन्दोविवर्जितः एष परमात्मप्रकाशः ।
करोति सुभावेन भावितः चतुर्गतिदुःखविनाशम् ॥२१०॥
अन्वयार्थ : [लक्षणछंदोविवर्जितः] दोहा-छंदो और लक्षणों से रहित, [चतुर्गतिदुःखविनाशम्] चारों गति के दुखों का विनाश हेतु, [सुभावेन भावितः] शुद्धभावों को भाकर [एष परमात्मप्रकाशः करोति] यह परमात्मप्रकाश को किया (रचा / लिखा) है ।

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+ उद्धतपने का त्याग -
इत्थु ण लेवउ पंडियहिँ गुण-दोसु वि पुणरुत्तु ।
भट्ट-पभायर-कारणइँ मइँ पुणु पुणु वि पउत्तु ॥211॥
अत्र न ग्राह्यः पण्डितैः गुणो दोषोऽपि पुनरुक्त : ।
भट्टप्रभाकरकारणेन मया पुनः पुनरपि प्रोक्तम् ॥२११॥
अन्वयार्थ : [यत्र] इस (ग्रंथ) में [पुनरुक्तः] पुनरुक्ति का [गुणो दोषोऽपि] गुण-दोष भी [पंडितैः न ग्राह्यः] पंडितजन ग्रहण नहीं करें, [मया] मैंने [भट्टप्रभाकरकारणेन] प्रभाकरभट्ट के संबोधनके लिए [पुनः पुनरपि प्रोक्तम्] कथन बार-बार किया है ।

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+ ग्रन्थकर्ता द्वारा क्षमायाचना -
जं मइँ किं पि विजंपियउ जुत्ताजुत्तु वि इत्थु ।
तं वर-णाणि खमंतु महु जे बुज्झहिँ परमत्थु ॥212॥
यन्मया किमपि विजल्पितं युक्तायुक्त मपि अत्र ।
तद् वरज्ञानिनः क्षाम्यन्तु मम ये बुध्यन्ते परमार्थम् ॥२१२॥
अन्वयार्थ : [अत्र यत् मया] इस (ग्रंथ) में जो मैंने [किमपि] कुछ भी [युक्तायुक्तमपि विजल्पितं] युक्त अथवा अयुक्त शब्द कहा हो, तो [तत् ये वरज्ञानिनः] उसे जो महान् ज्ञानके धारक [परमार्थम् बुध्यंते] परमार्थ को जानने वाले, [मम क्षाम्यंतु] मुझे क्षमा करें ।

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+ ग्रंथ के पढ़ने का फल -
जं तत्तं णाण-रूवं परम-मुणि-गणा णिच्च झायंति चित्ते
जं तत्तं देह-चत्तं णिवसइ भुवणे सव्व-देहीण देहे ।
जं तत्तं दिव्व-देहं तिहुविण-गुरुगं सिज्झए संतजीवे ।
जं तत्तं जस्स सुद्धं फुरइ णियमणे पावए सो हि सिद्धिं ॥213॥
यत् तत्त्वं ज्ञानरूपं परममुनिगणा नित्यं ध्यायन्ति चित्ते
यत् तत्त्वं देहत्यक्तं निवसति भुवने सर्वदेहिनां देहे ।
यत् तत्त्वं दिव्यदेहं त्रिभुवनगुरुकं सिध्यति शान्तजीवे
तत् तत्त्वं यस्य शुद्धं स्फुरति निजमनसि प्राप्नोति स हि सिद्धिम् ॥२१३॥
अन्वयार्थ : [तत्] वह [तत्त्वं] निज आत्म-तत्त्व [यस्य निजमनसि] जिसके मन में [स्फुरति] प्रकाशता है, [स हि] वह ही (साधु) [सिद्धिम् प्राप्नोति] सिद्धि को पाता है । जो कि [शुद्धं] रागादि मल-रहित, [ज्ञानरूपं] और ज्ञानरूप है, जिसको [परममुनिगणाः] परममुनीश्वर [नित्यं] सदा [चित्ते ध्यायंति] अपने चित्त में ध्याते हैं, [यत् तत्त्वं] जो तत्त्व [भुवने] इस लोक में [सर्वदेहिनां देहे] सब प्राणियों के शरीर में [निवसति] मौजूद है, [देहत्यक्तं] और आप देह से रहित है, [यत् तत्त्वं] जो तत्त्व [दिव्यदेहं] (केवलज्ञान और आनदरूप) अनुपम देह को धारण करता है, [त्रिभुवनगुरुकं] तीन भुवन में श्रेष्ठ है, [शांतजीवे सिध्यति] शांत-परिणामी संत-पुरुष जिसे साधते हैं ।

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+ अन्त-मंगल -
परम-पय-गयाणं भासओ दिव्व-काओ
मणसि मुणिवराणं मुक्खदो दिव्व-जोओ
विसय-सुह-रयाणं दुल्लहो जो हु लोए
जयउ सिव-सरूवो केवलो को वि बोहो ॥214॥
परमपदगतानां भासको दिव्यकायः
मनसि मुनिवराणां मोक्षदो दिव्ययोगः ।
विषयसुखरतानां दुर्लभो यो हि लोके
जयतु शिवस्वरूपः केवलः कोऽपि बोधः ॥२१४॥
अन्वयार्थ : [दिव्यकायः] दिव्य (ज्ञान आनंदरूप) शरीरी, [परमपदगतानां भासकः] परम-पद-प्राप्त के उपासक [जयतु] जयवंत हो । [मुनिवराणां] महामुनि के [मनसि] मन में [दिव्ययोगः] वीतराग निर्विकल्प-समाधिरूप योग [मोक्षदः] मोक्ष का देनेवाला है; [केवलः कोऽपि बोधः] जिसका केवलज्ञान स्वभाव है, ऐसी अपूर्व ज्ञानज्योति [शिवस्वरूपः] सदा कल्याणरूप है; [लोके] लोक में [विषयसुखरतानां] इन्द्रियों के विषय में आसक्त को [यः हि] जो (परमात्म-तत्त्व) [दुर्लभः] महा दुर्लभ है ।

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