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नियमसार
























- कुन्दकुंदाचार्य



nikkyjain@gmail.com
Date : 17-Nov-2022

Index


अधिकार

जीव-अधिकार अजीव-अधिकार शुद्ध-भाव-अधिकार व्यवहार-चारित्र
परमार्थ प्रतिक्रमण निश्चय प्रत्याख्यान परम आलोचना शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त
परम-समाधि परम-भक्ति निश्चय परमावश्यक शुद्धोपयोग अधिकार







Index


गाथा / सूत्रविषयगाथा / सूत्रविषय
001-a) टीकाकार द्वारा मंगलाचरण

जीव-अधिकार

001) मंगलाचरण
002) मार्ग और मार्ग-फल003) स्वभाव रत्नत्रय
004) रत्नत्रय के भेद और लक्षण005) व्यवहार सम्यक्त्व
006) १८ दोषों का स्वरूप007) तीर्थंकर का स्वरूप
008) आगम का स्वरूप009) द्रव्यों के नाम
010) उपयोग लक्षण011-012) ज्ञान के भेद
013) दर्शनोपयोग 014) दर्शनोपयोग के भेद
015) स्वभाव-विभाव पर्याय016-017) चार-गति का स्वरूप
018) आत्मा का कर्तत्व-भोक्तृत्व019) दोनों नयों की उपयोगिता

अजीव-अधिकार

020) पुद्गल-द्रव्य के भेद021-024) पुद्गल के भेद
025) कारण और कार्य-परमाणु द्रव्य026) परमाणु का विशेष कथन
027) स्वभाव-पुद्गल028) पुद्गल-पर्याय
029) पुद्गल-द्रव्य - उपसंहार030) धर्म-अधर्म-आकाश
031) व्यवहारकाल और उसके भेद032) मुख्य काल का स्वरूप
033) अमूर्त अचेतन द्रव्यों की पर्याय034) पंचास्तिकाय
035-036) द्रव्यों के प्रदेश037) उपसंहार

शुद्ध-भाव-अधिकार

038) हेय और उपादेय तत्त्व039) निर्विकल्प तत्त्व
040) बन्ध-उदय स्थान जीव नहीं041) चार विभाव-स्वभावों और पंचम-भाव
042) शुद्ध-जीव को विकार नहीं043) शुद्ध-आत्मा को विभाव का अभाव
044) शुद्ध जीव का स्वरूप045-046) कारण-परमात्मा का स्वरूप
047) संसारी और मुक्त जीवों में अन्तर नहीं048) कार्य तथा कारण-समयसार में अन्तर नहीं
049) निश्चय और व्यवहारनय की उपादेयता050) हेय-उपादेय का स्वरूप
051-055) रत्नत्रय का स्वरूप

व्यवहार-चारित्र

056) अहिंसाव्रत
057) सत्यव्रत058) अचौर्य-व्रत
059) ब्रह्मचर्य-व्रत060) परिग्रह-त्याग व्रत
061) ईर्या-समिति062) भाषा-समिति
063) एषणा-समिति064) आदाननिक्षेपण समिति
065) प्रतिष्ठापन समिति066) व्यवहार मनोगुप्ति
067) वचन-गुप्ति068) काय-गुप्ति
069) निश्चय मनोगुप्ति और वचनगुप्ति070) निश्चय काय-गुप्ति
071) अर्हत् परमेश्वर072) सिद्ध-परमेष्ठि
073) आचार्य074) उपाध्याय
075) साधुओं का स्वरूप076) व्यवहार-चारित्र-अधिकार का उपसंहार

परमार्थ प्रतिक्रमण

077-081) पंचरत्न का स्वरूप082) भेदविज्ञान द्वारा निश्चय-चारित्र
083) वचनगुप्त रागादि-रहित ही प्रतिक्रमण084) विराधना-रहित आत्माराधक ही प्रतिक्रमण
085) अनाचरण-रहित आचारी ही प्रतिक्रमण086) उन्मार्ग-त्यागी जिनमार्गी ही प्रतिक्रमण
087) निःशल्यभाव ही प्रतिक्रमण088) त्रिगुप्तिगुप्त ही प्रतिक्रमण
089) धर्म-शुक्ल ध्यानी ही प्रतिक्रमण090) अनासन्न-भव्य जीव के पूर्वापर परिणाम
091) निश्चय-रत्नत्रय धारक ही प्रतिक्रमण092) निश्चय-उत्तमार्थ प्रतिक्रमण
093) ध्यान एक उपादेय094) व्यवहार प्रतिक्रमण की सफलता

निश्चय प्रत्याख्यान

095) निश्चय प्रत्याख्यान का स्वरूप096) अनंतचतुष्टयात्मक निज-आत्मा के ध्यान का उपदेश
097) ज्ञानी को शिक्षा098) बन्ध-रहित आत्मा को भाना चाहिये
099) सकल विभाव के त्याग की विधि100) सर्वत्र आत्मा उपादेय है
101) संसारावस्था में और मुक्ति में जीव निःसहाय है102) एकत्व भावनारूप से परिणमित सम्यग्ज्ञानी के लक्षण
103) आत्मगत दोषों से मुक्त होने के उपाय104) अंतर्मुख परम-तपोधन की भाव-शुद्धि
105) निश्चय-प्रत्याख्यान के योग्य जीव का स्वरूप106) निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार का उपसंहार

परम आलोचना

107) निश्चय-आलोचना का स्वरूप108) आलोचना के स्वरूप के भेद
109) आलोचन110) आलुंछन
111) अविकृतिकरण112) भावशुद्धि

शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त

113-114) निश्चय-प्रायश्चित्त का स्वरूप115) चार कषायों पर विजय प्राप्त करने का उपाय
116) शुद्ध ज्ञान के स्वीकारवाले को प्रायश्चित्त है117) परम तपश्चरण में लीन परम जिनयोगीश्वरों को निश्चय-प्रायश्चित्त
118) कारण परमात्म तत्त्व में सदा अन्तर्मुख रहकर जो प्रतपन वह तप प्रायश्चित्त119) निश्चय धर्मध्यान ही सर्व भावों का अभाव करने में समर्थ
120) शुद्धनिश्चय-नियम का स्वरूप121) निश्चय-कायोत्सर्ग का स्वरूप

परम-समाधि

122) परम समाधि का स्वरूप123) समाधि का लक्षण
124) समता-रहित श्रमण को कुछ भी कार्यकारी नहीं125) किस मुनि को सामायिक व्रत स्थायी है?
126) परम मुमुक्षु का स्वरूप127) आत्मा ही उपादेय है
128) रागद्वेष के अभाव से अपरिस्पंदरूपता129) आर्त और रौद्र ध्यान के परित्याग द्वारा सामायिक-व्रत
130) सुकृत-दुष्कृतरूप कर्म के संन्यास की विधि131-132) नौ नोकषाय की विजय
133) परम-समाधि अधिकार का उपसंहार

परम-भक्ति

134) रत्नत्रय का स्वरूप
135) सिद्ध-भक्ति का स्वरूप136) निज-परमात्मा की भक्ति
137) निश्चय-योग-भक्ति138) निश्चय - योग भक्ति का स्वरूप
139) विपरीत अभिनिवेश रहित आत्मभाव ही निश्चय - परमयोग140) भक्ति अधिकार का उपसंहार

निश्चय परमावश्यक

141) निरन्तर स्ववश को निश्चय - आवश्यक - कर्म142) अवश परम जिनयोगीश्वर को परम आवश्यक कर्म अवश्य
143) भेदोपचार - रत्नत्रय परिणतिवाले जीव को अवशपना नहीं144) अन्यवश ऐसे अशुद्ध अन्तरात्म जीव का लक्षण
145) अन्यवश का स्वरूप146) साक्षात् स्ववश परमजिनयोगीश्वर का स्वरूप
147) शुद्धनिश्चय - आवश्यक की प्राप्ति का जो उपाय148) शुद्धोपयोग सम्मुख जीव को शिक्षा
149) आवश्यक कर्म के अभाव में तपोधन बहिरात्मा150) बाह्य तथा अन्तर जल्प का खण्डन
151) स्वात्माश्रित धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही उपादेय152) परम वीतराग चारित्र में स्थित परम तपोधन
153) समस्त वचन सम्बन्धी व्यापार का खण्डन154) शुद्ध निश्चय धर्मध्यानस्वरूप प्रतिक्रमणादि ही करने योग्य
155) साक्षात् अन्तर्मुख परम जिनयोगी को शिक्षा156) वचन-सम्बन्धी व्यापार की निवृत्ति के हेतु का कथन
157) दृष्टान्त द्वारा सहजतत्त्व की आराधना की विधि158) परमावश्यक अधिकार का उपसंहार

शुद्धोपयोग अधिकार

159) समस्त कर्म के प्रलय के हेतुभूत शुद्धोपयोग का अधिकार160) दृष्टान्त द्वारा केवलज्ञान और केवलदर्शन का युगपद् वर्तना
161) आत्मा के स्व-पर प्रकाशकपने सम्बन्धी विरोध-कथन162) पूर्वपक्ष के सिद्धान्त सम्बन्धी कथन
163) एकान्त से आत्मा को पर-प्रकाशकपना का खण्डन164) व्यवहारनय की सफलता
165) निश्चयनय से स्वरूप का कथन166) शुद्धनिश्चयनय से पर-दर्शन का खण्डन
167) केवलज्ञान का स्वरूप168) केवलदर्शन के अभाव में सर्वज्ञपना नहीं
169) व्यवहारनय की प्रगटता170) 'जीव ज्ञान-स्वरूप है' ऐसा वितर्क से कथन
171) गुण-गुणी में भेद का अभाव होनेरूप स्वरूप का कथन172) सर्वज्ञ वीतराग को वांछा का अभाव
173-174) वास्तव में ज्ञानी को बन्ध के अभाव175) केवली को मन-रहितपना
176) शुद्ध जीव को स्वभावगति की प्राप्ति होने का उपाय177) कारण-परमतत्त्व का स्वरूप
178) परमात्म तत्त्व निरुपाधि स्वरूप179) परमतत्त्व में सांसारिक विकारसमूह का अभाव
180) परमतत्त्व का स्वरूप181) कर्म-रहित तथा विकल्प रहित परमतत्त्व
182) सिद्ध के स्वभावगुण183) सिद्धि और सिद्ध के एकत्व का प्रतिपादन
184) सिद्धक्षेत्र से ऊपर जीव-पुद्गलों के गमन का निषेध185) नियम शब्द का तथा उसके फल का उपसंहार
186) भव्य को शिक्षा187) उपसंहार



!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!

श्रीमद्‌-भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य-देव-प्रणीत

श्री
नियमसार

मूल प्राकृत गाथा, पद्मप्रभमलधारिदेव कृत संस्कृत टीका के हिंदी अनुवाद सहित

आभार :

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!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!

ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥


अर्थ : बिन्दुसहित ॐकार को योगीजन सर्वदा ध्याते हैं, मनोवाँछित वस्तु को देने वाले और मोक्ष को देने वाले ॐकार को बार बार नमस्कार हो । निरंतर दिव्य-ध्वनि-रूपी मेघ-समूह संसार के समस्त पापरूपी मैल को धोनेवाली है मुनियों द्वारा उपासित भवसागर से तिरानेवाली ऐसी जिनवाणी हमारे पापों को नष्ट करो । जिसने अज्ञान-रूपी अंधेरे से अंधे हुये जीवों के नेत्र ज्ञानरूपी अंजन की सलाई से खोल दिये हैं, उस श्री गुरु को नमस्कार हो । परम गुरु को नमस्कार हो, परम्परागत आचार्य गुरु को नमस्कार हो ।


॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥

सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीनियमसार नामधेयं, अस्य मूलाग्रन्थकर्तार: श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तार: श्रीगणधरदेवा: प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य आचार्य श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेव विरचितं, श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥

(समस्त पापों का नाश करनेवाला, कल्याणों का बढ़ानेवाला, धर्म से सम्बन्ध रखनेवाला, भव्यजीवों के मन को प्रतिबुद्ध-सचेत करनेवाला यह शास्त्र नियमसार नाम का है, मूल-ग्रन्थ के रचयिता सर्वज्ञ-देव हैं, उनके बाद ग्रन्थ को गूंथनेवाले गणधर-देव हैं, प्रति-गणधर देव हैं उनके वचनों के अनुसार लेकर आचार्य श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेव द्वारा रचित यह ग्रन्थ है । सभी श्रोता पूर्ण सावधानी पूर्वक सुनें । )


मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्‌ ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम्‌ ॥


(बारह भावना)
जग है अनित्य ता में शरण न वस्तु कोय ।
तातें दुख रासी भववास को निहारिये ॥
एक चिद्चिन्ह सदा भिन्न पर द्रव्यनितें ।
अशुचि शरीर में न आपा बुद्धि धारिये ॥
रागादिक भाव करें कर्म को बढ़ावे तातें ।
संवर स्वरूप होय कर्मबंध टारिये ॥
तीन लोक मांहि जिन धर्म एक दुर्लभ है ।
तातें निज धर्म को न छिनहूँ विसारिये ॥


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+ टीकाकार द्वारा मंगलाचरण -
(मालिनी)
त्वयि सति परमात्मन्माद्रशान्मोहमुग्धान्
कथमतनुवशत्वान्बुद्धकेशान्यजेऽहम् ।
सुगतमगधरं वा वागधीशं शिवं वा
जितभवमभिवन्दे भासुरं श्रीजिनं वा ॥१॥
(अनुष्टुभ्)
वाचं वाचंयमीन्द्राणां वक्त्रवारिजवाहनाम् ।
वन्दे नयद्वयायत्तवाच्यसर्वस्वपद्धतिम् ॥२॥
(शालिनी)
सिद्धान्तोद्घश्रीधवं सिद्धसेनं
तर्काब्जार्कं भट्टपूर्वाकलंकम् ।
शब्दाब्धीन्दुं पूज्यपादं च वन्दे
तद्विद्याढयं वीरनन्दिं व्रतीन्द्रम् ॥३॥
(अनुष्टुभ्)
अपवर्गाय भव्यानां शुद्धये स्वात्मनः पुनः ।
वक्ष्ये नियमसारस्य वृत्तिं तात्पर्यसंज्ञिकाम् ॥४॥
किंच -
(आर्या)
गुणधरगणधररचितं श्रुतधरसन्तानतस्तु सुव्यक्तम् ।
परमागमार्थसार्थं वक्तु ममुं के वयं मन्दाः ॥५॥
अपि च -
(अनुष्टुभ्)
अस्माकं मानसान्युच्चैः प्रेरितानि पुनः पुनः ।
परमागमसारस्य रुच्या मांसलयाऽधुना ॥६॥
(अनुष्टुभ्)
पंचास्तिकायषड्द्रव्यसप्ततत्त्वनवार्थकाः ।
प्रोक्ताः सूत्रकृता पूर्वं प्रत्याख्यानादिसत्क्रियाः ॥७॥
अलमलमतिविस्तरेण । स्वस्ति साक्षादस्मै विवरणाय ।
अन्वयार्थ : हे परमात्मा ! तेरे होते हुए मैं अपने जैसे (संसारियों जैसे) मोहमुग्ध और कामवश बुद्ध को तथा ब्रह्मा-विष्णु-महेश को क्यों पूजूँ ? जिसने भवों को जीता है उसकी मैं वन्दना करता हूँ - उसे प्रकाशमान ऐसे श्री जिन कहो, सुगत कहो, गिरिधर कहो, वागीश्वर कहो या शिव कहो ॥१॥
वाचंयमीन्द्रों का (जिनदेवों का) मुखकमल जिसका वाहन है और दो नयों के आश्रय से सर्वस्व कहने की जिसकी पद्धति है उस वाणी को (जिनभगवन्तों की स्याद्वादमुद्रित वाणी को) मैं वन्दन करता हूँ ॥२॥वाचंयमीन्द्र = मुनियों में प्रधान अर्थात् जिनदेव; मौन सेवन करनेवालों में श्रेष्ठ अर्थात् जिनदेव; वाक्-
संयमियों में इन्द्र समान अर्थात् जिनदेव (वाचंयमी = मुनि; मौन सेवन करनेवाले; वाणी के संयमी ।)
उत्तम सिद्धान्तरूपी श्री के पति सिद्धसेन मुनीन्द्र को, तर्क-कमल के सूर्य भट्ट अकलंक मुनीन्द्र को, ७शब्दसिन्धु के चन्द्र पूज्यपाद मुनीन्द्र को और तद्विद्या से (सिद्धान्तादि तीनों के ज्ञान से) समृद्ध वीरनन्दि मुनीन्द्र को मैं वन्दन करता हूँ ॥३॥
भव्यों के मोक्ष के लिये तथा निज आत्मा की शुद्धि के हेतु नियमसार की 'तात्पर्यवृत्ति' नामक टीका मैं कहूँगा ॥४॥
पुनश्च -
गुण के धारण करनेवाले गणधरों से रचित और श्रुतधरों की परम्परा से अच्छी तरह व्यक्त किये गये इस परमागम के अर्थ-समूह का कथन करने में हम मंदबुद्धि सो कौन ? ॥५॥
तथापि -
आजकल हमारा मन परमागम के सार की पुष्ट रुचि से पुनः पुनःअत्यन्त प्रेरित हो रहा है । (उस रुचि से प्रेरित होने के कारण 'तात्पर्यवृत्ति' नाम की यह टीका रची जा रही है ।) ॥६॥
सूत्रकार ने पहले पाँच अस्तिकाय, छह द्रव्य, सात तत्त्व और नवपदार्थ तथा प्रत्याख्यानादि सत्क्रिया का कथन किया है (अर्थात् भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने इस शास्त्र में प्रथम पाँच अस्तिकाय आदि और पश्चात् प्रत्याख्यानादि सत्क्रिया का कथन किया है ) ॥७॥
अति-विस्तार से बस होओ, बस होओ । साक्षात् यह विवरण जयवन्त वर्तो ।

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जीव-अधिकार



+ मंगलाचरण -
णमिऊण जिणं वीरं अणंतवरणाणदंसणसहावं
वोच्छामि णियमसारं केवलिसुदकेवलीभणिदं ॥1॥
नत्वा जिनं वीरं अनन्तवरज्ञानदर्शनस्वभावम् ।
वक्ष्यामि नियमसारं केवलिश्रुतकेवलिभणितम् ॥१॥
वर नंत दर्शनज्ञानमय जिनवीर को नमकर कहूँ ।
यह नियमसार जु केवली श्रुतकेवली द्वारा कथित ॥१॥
अन्वयार्थ : [अनन्तवरज्ञानदर्शनस्वभावं] अनंत और उत्कृष्ट ज्ञान-दर्शन स्वाभावी [जिनं वीरं] महावीर भगवान को [नत्वा] नमन करके [केवलिश्रुतकेवलिभणितम्] केवली तथा श्रुतकेवलियों के द्वारा कहा हुआ [नियमसारं] नियमसार [वक्ष्यामि] कहूँगा ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
अब (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव विरचित) गाथा-सूत्र का अवतरण किया जाता है -

यहाँ 'जिनं नत्वा' इस गाथा से शास्त्र के आदि में असाधारण मंगल कहा है । 'नत्वा' इत्यादि पदों का तात्पर्य कहा जाता है :

अनेक जन्मरूप अटवी को प्राप्त कराने के हेतुभूत समस्त मोह-राग-द्वेषादिक को जो जीत लेता है वह 'जिन' है । 'वीर' अर्थात् विक्रांत (पराक्रमी); वीरता प्रगट करे, शौर्य प्रगट करे, विक्रम (पराक्रम) दर्शाये, कर्म-शत्रुओं पर विजय प्राप्त करे, वह 'वीर' है । ऐसे वीर को - जो कि श्री वर्धमान, श्री सन्मतिनाथ, श्री अतिवीर तथा श्री महावीर - इन नामों से युक्त हैं, जो परमेश्वर हैं, महादेवाधिदेव हैं, अन्तिम तीर्थनाथ हैं, जो तीन भुवन के सचराचर, द्रव्य-गुण-पर्यायों को एक समय में जानने-देखने में समर्थ ऐसे सकल-विमल (सर्वथानिर्मल) केवलज्ञान-दर्शन से संयुक्त हैं, उन्हें प्रणाम करके कहता हूँ । क्या कहता हूँ ? 'नियमसार' कहता हूँ । 'नियम' शब्द, प्रथम तो, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के लिये है । 'नियमसार' ('नियम का सार') ऐसा कहकर शुद्ध रत्नत्रय का स्वरूप कहा है । कैसा है वह ? केवलियों तथा श्रुतकेवलियों ने कहा हुआ है । 'केवली' वे सकल-प्रत्यक्ष ज्ञान के धारण करनेवाले और 'श्रुतकेवली' वे सकल द्रव्यश्रुत के धारण करनेवाले; ऐसे केवलियों तथा श्रुतकेवलियों ने कहा हुआ, सकल भव्य-समूह को हितकर, 'नियमसार' नाम का परमागम मैं कहता हूँ । इसप्रकार, विशिष्ट इष्ट-देवता का स्तवन करके, फिर सूत्रकार पूर्वाचार्य श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेव गुरु ने प्रतिज्ञा की ।

इसप्रकार सर्व पदों का तात्पर्य कहा गया ॥१॥

(कलश-रोला)
शुद्धभाव से नाश किया है कामभाव का ।
तीन लोक में पूज्य देवगण जिनको नमते ॥
ज्ञान राज्य के राजा नाशक कर्मबीज के ।
समोसरन के वासी जग में वीर जिनेश्वर ॥८॥

शुद्धभाव द्वारा मार का (काम का) जिन्होंने नाश किया है, तीन भुवन के जनों को जो पूज्य हैं, पूर्ण ज्ञान जिनका एक राज्य है, देवों का समाज जिन्हें नमन करता है, जन्म-वृक्ष का बीज जिन्होंने नष्ट किया है, समवसरण में जिनका निवास है और केवलश्री (केवलज्ञानदर्शनरूपी लक्ष्मी) जिनमें वास करती है, वे वीर जगत में जयवंतवर्तते हैं ॥८॥

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+ मार्ग और मार्ग-फल -
मग्गो मग्गफलं ति य दुविहं जिणसासणे समक्खादं
मग्गो मोक्खउवाओ तस्स फलं होइ णिव्वाणं ॥2॥
मार्गो मार्गफलमिति च द्विविधं जिनशासने समाख्यातम् ।
मार्गो मोक्षोपायः तस्य फलं भवति निर्वाणम् ॥२॥
जैन शासन में कहा है मार्ग एवं मार्गफल ।
है मार्ग मोक्ष उपाय एवं मोक्ष ही है मार्गफल ॥२॥
अन्वयार्थ : [मार्गः मार्गफलम्] मार्ग और मार्गफल [इति चद्विविधं] ऐसे दो प्रकार का [जिनशासने] जिनशासन में [समाख्यातम्] कथन किया गया है; [मार्गः मोक्षोपायः] मार्ग मोक्षोपाय है और [तस्य फलं] उसका फल [निर्वाणं भवति] निर्वाण है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, मोक्षमार्ग और उसके फल के स्वरूप-निरूपण की सूचना (-उन दोनों के स्वरूप के निरूपण की प्रस्तावना) है । 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' ऐसा (शास्त्र का) वचन होने से, मार्ग तो शुद्ध-रत्नत्रय है और मार्गफल मुक्तिरूपी स्त्री के विशाल भाल-प्रदेश में शोभा-अलङ्काररूप तिलकपना है (अर्थात् मार्गफल मुक्तिरूपी स्त्री को वरण करना है) । इस प्रकार वास्तव में (मार्ग और मार्गफल ऐसा) दो प्रकार का, चतुर्थ ज्ञानधारी ( -मनःपर्ययज्ञान के धारण करनेवाले) पूर्वाचार्यों ने परमवीतराग सर्वज्ञ के शासन में कथन किया है । निज परमात्मतत्त्व के सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप शुद्धरत्नत्रयात्मक मार्ग परम निरपेक्ष होने से मोक्ष का उपाय है और उस शुद्ध-रत्नत्रय का फल स्वात्मोपलब्धि (-निज शुद्ध आत्माकी प्राप्ति) है ॥२॥

(कलश-रोला)
कभी कामिनी रति सुख में यह रत रहता है ।
कभी संपती की रक्षा में उलझा रहता ॥
किन्तु जो पण्डितजन जिनपथ पा जाते हैं ।
हो जाते वे मुक्त आतमा में रत होकर ॥९॥

मनुष्य कभी कामिनी के प्रति रति से उत्पन्न होनेवाले सुख कीओर गति करता है और फिर कभी धनरक्षा की बुद्धि करता है । जो पण्डित कभी जिनवर के मार्ग को प्राप्त करके निज आत्मा में रत हो जाते हैं, वे वास्तव में इस मुक्ति को प्राप्त होते हैं ॥९॥

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+ स्वभाव रत्नत्रय -
णियमेण य जं कज्जं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं
विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं ॥3॥
नियमेन च यत्कार्यं स नियमो ज्ञानदर्शनचारित्रम् ।
विपरीतपरिहारार्थं भणितं खलु सारमिति वचनम् ॥३॥
सद् ज्ञान-दर्शन-चरण ही हैं 'नियम' जानो नियम से ।
विपरीत का परिहार होता सार इस शुभ वचन से ॥३॥
अन्वयार्थ : [सः नियमः] वह नियम [यत् कार्यं] करने योग्य [ज्ञानदर्शनचारित्रम्] ज्ञानदर्शनचारित्र की [नियमेन च] नियामकता से [विपरीतपरिहारार्थं भणितम् खलु] विपरीत का परिहार कहने के लिए वास्तव में [सारम् इति वचनम्] 'सार' ऐसा वचन है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ, 'नियम' शब्द को 'सार' शब्द क्यों लगाया है उसके प्रतिपादन द्वारा स्वभाव रत्नत्रय का स्वरूप कहा है । जो सहज परम पारिणामिक भाव से स्थित, स्वभाव-अनन्तचतुष्टयात्मक शुद्ध-ज्ञान-चेतना परिणाम सो नियम (-कारणनियम) है । नियम (-कार्यनियम) अर्थात्निश्चय से (निश्चित) जो करने योग्य - प्रयोजनस्वरूप - हो वह अर्थात् ज्ञानदर्शनचारित्र । उन तीनों में से प्रत्येक का स्वरूप कहा जाता है :

  1. परद्रव्य का अवलंबन लिये बिना निःशेष रूप से अन्तर्मुख योग-शक्ति में से उपादेय (-उपयोग को सम्पूर्णरूप से अन्तर्मुख करके ग्रहण करने योग्य) ऐसा जो निज परमतत्त्व का परिज्ञान (-जानना) सो ज्ञान है ।
  2. भगवान परमात्मा के सुख के अभिलाषी जीव को शुद्ध अन्तःतत्त्व के विलास का जन्म-भूमि-स्थान जो निज शुद्ध जीवास्तिकाय उससे उत्पन्न होनेवाला जो परम श्रद्धान वही दर्शन है ।
  3. निश्चय-ज्ञान-दर्शनात्मक कारण-परमात्मा में अविचल स्थिति (-निश्चलरूप से लीन रहना) ही चारित्र है । यह ज्ञान-दर्शन-चारित्र स्वरूप नियम निर्वाण का कारण है । उस 'नियम' शब्द को विपरीत के परिहार हेतु 'सार' शब्द जोड़ा गया है ॥३॥

(कलश-रोला)
विपर्यास से रहित अनुत्तम रत्नत्रय को ।
पाकर मैं तो वरण करूँ अब शिवरमणी को ॥
प्राप्त करूँ मैं निश्चय रत्नत्रय के बल से ।
अरे अतीन्द्रिय अशरीरी आत्मीक सुक्ख को ॥10॥

इसप्रकार मैं विपरीत रहित (विकल्परहित) अनुत्तम रत्नत्रय का आश्रय करके मुक्तिरूपी स्त्री से उत्पन्न अनङ्ग (अशरीरी, अतीन्द्रिय, आत्मिक) सुख को प्राप्त करता हूँ ॥१०॥

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+ रत्नत्रय के भेद और लक्षण -
णियमं मोक्खउवाओ तस्स फलं हवदि परमणिव्वाणं ।
एदेसिं तिण्हं पि य पत्तेयपरूवणा होइ ॥4॥
नियमो मोक्षोपायस्तस्य फलं भवति परमनिर्वाणम् ।
एतेषां त्रयाणामपि च प्रत्येकप्ररूपणा भवति ॥४॥
है नियम मोक्ष उपाय उसका फल परम निर्वाण है ।
इन ज्ञान-दर्शन-चरण त्रय का भिन्न-भिन्न विधान है ॥४॥
अन्वयार्थ : [नियमः] (रत्नत्रयरूप) नियम [मोक्षोपायः] मोक्ष का उपाय है; [तस्य फलं] उसका फल [परमनिर्वाणं भवति] परम निर्वाण है; [अपि च] पुनश्च [एतेषां त्रयाणां] इन तीनों का [प्रत्येकप्ररूपणा] भिन्न-भिन्न निरूपण [भवति] होता है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
रत्नत्रय के भेद करने के सम्बन्ध में और उनके लक्षणों के सम्बन्ध में यह कथन है । समस्त कर्मों के नाश द्वारा साक्षात् प्राप्त किया जानेवाला महा-आनन्द का लाभ सो मोक्ष है । उस महा-आनन्द का उपाय पूर्वोक्त निरुपचार रत्नत्रयरूप परिणति है । पुनश्च इन तीन (ज्ञान, दर्शन और चारित्र) का भिन्न-भिन्न निरूपण होता है । किस प्रकार ? यह ज्ञान है, यह दर्शन है, यह चारित्र है - इसप्रकार भेद करके । जो गाथा सूत्र आगे कहे जायेंगे उनमें दर्शन-ज्ञान-चारित्र के लक्षण ज्ञात होंगे ॥४॥

(कलश-रोला)
रत्नत्रय की परिणति से परिणमित आतमा ।
श्रमणजनों के लिए सहज यह मोक्षमार्ग है ॥
दर्शन-ज्ञान-चरित आतम से भिन्न नहीं हैं ।
जो जाने वह भव्य न जावे जननि उदर में ॥११॥

मुनियों को मोक्ष का उपाय शुद्ध-रत्नत्रयात्मक आत्मा है । ज्ञान इससे कोई अन्य नहीं है, दर्शन भी इससे अन्य नहीं है और शील (चारित्र) भी अन्य नहीं है । यह, मोक्ष को प्राप्त करनेवालों ने कहा है । इसे जानकर जो जीव माता के उदर में पुनः नहीं आता, वह भव्य है ॥११॥

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+ व्यवहार सम्यक्त्व -
अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं ।
ववगयअसेसदोसो सयलगुणप्पा हवे अत्तो ॥5॥
आप्तागमतत्त्वानां श्रद्धानाद्भवति सम्यक्त्वम् ।
व्यपगताशेषदोषः सकलगुणात्मा भवेदाप्तः ॥५॥
इन आप्त-आगम-तत्त्व का श्रद्धान ही सम्यक्त्व है ।
सम्पूर्ण दोषों से रहित अर सकल गुणमय आप्त है ॥५॥
अन्वयार्थ : [आप्तागमतत्त्वानां श्रद्धानात्] आप्त, आगम और तत्त्वों की श्रद्धा से [सम्यक्त्वम् भवति] सम्यक्त्व होता है; [व्यपगताशेषदोषः सकलगुणात्मा] जिसके समस्त दोष दूर हो गए हैं ऐसे सकलगुणमय पुरुष [आप्तः भवेत्] आप्त होते हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, व्यवहार-सम्यक्त्व के स्वरूप का कथन है ।

आप्त अर्थात् शंका-रहित । शंका अर्थात् सकल मोह-राग-द्वेषादिक (दोष) । आगम अर्थात् आप्त के मुखारविन्द से निकली हुई, समस्त वस्तु-विस्तार का स्थापन करने में समर्थ ऐसी चतुर वचन रचना । तत्त्व बहिःतत्त्व और अन्तःतत्त्वरूप परमात्म तत्त्व ऐसे (दो) भेदोंवाले हैं अथवा जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध तथा मोक्ष ऐसे भेदों के कारण सात प्रकार के हैं । उनका (आप्त, आगम और तत्त्व का) सम्यक् श्रद्धान सो व्यवहार-सम्यक्त्व है ॥५॥

(कलश-दोहा)
भवभयभेदक आप्त की भक्ति नहीं यदि रंच ।
तो तू है मुख मगर के भवसागर के मध्य ॥१२॥

भव के भय का भेदन करनेवाले इन भगवान के प्रति क्या तुझे भक्ति नहीं है ? तो तू भव-समुद्र के मध्य में रहनेवाले मगर के मुख में है ॥१२॥

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+ १८ दोषों का स्वरूप -
छुहतण्हभीरुरोसो रागो मोहो चिंता जरा रुजा मिच्चू ।
सेदं खेद मदो रइ विम्हियणिद्दा जणुव्वेगो ॥6॥
क्षुधा तृष्णा भयं रोषो रागो मोहश्चिन्ता जरा रुजा मृत्युः ।
स्वेदः खेदो मदो रतिः विस्मयनिद्रे जन्मोद्वेगौ ॥६॥
भय भूख चिन्ता राग रुष रुज स्वेद जन्म जरा मरण ।
रति अरति निद्रा मोह विस्मय खेद मद तृष दोष हैं ॥६॥
अन्वयार्थ : [क्षुधा तृष्णा भयं रोषः] क्षुधा, पिपासा, भय, क्रोध, [रागः मोहः चिन्ता जरा] राग, मोह, चिन्ता, बुढापा, [रुजा मृत्युः स्वेदः] रोग, मृत्यु, पसीना, [खेदः मदः रतिः विस्मयनिद्रे] खेद, मद, रति, विस्मय, निद्रा, [जन्मोद्वेगौ] जन्म और उद्वेग - (यह अठारह दोष हैं )

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, अठारह दोषों के स्वरूप का कथन है ।
  1. असाता-वेदनीय सम्बन्धी तीव्र अथवा मंद क्लेश की करनेवाली वह क्षुधा है ।
  2. असाता-वेदनीय सम्बन्धी तीव्र, तीव्रतर (अधिक तीव्र), मन्द अथवा मन्दतर पीड़ा से उत्पन्न होनेवाली वह तृषा है ।
  3. इस-लोक का भय, पर-लोक का भय, अरक्षा-भय, अगुप्ति-भय, मरण-भय, वेदना-भय तथा अकस्मात-भय इसप्रकार भय सात प्रकार के हैं ।
  4. क्रोधी पुरुष का तीव्र परिणाम वह रोष है ।
  5. राग प्रशस्त और अप्रशस्त होता है; दान, शील, उपवास तथा गुरुजनों की वैयावृत्त्य आदि में उत्पन्न होनेवाला वह प्रशस्त राग है और स्त्री सम्बन्धी, राजा सम्बन्धी, चोर सम्बन्धी तथा भोजन सम्बन्धी विकथा कहने तथा सुनने के कौतूहल परिणाम वह अप्रशस्त राग है ।
  6. चार प्रकार के श्रमणसंघ के प्रति वात्सल्य सम्बन्धी मोह वह प्रशस्त है और उससे अतिरिक्त मोह अप्रशस्त ही है ।
  7. धर्मरूप तथा शुक्लरूप चिन्तन (चिन्ता, विचार) प्रशस्त है और उसके अतिरिक्त (आर्तरूप तथा रौद्ररूप चिन्तन) अप्रशस्त ही है ।
  8. तिर्यंचों तथा मनुष्यों को वयकृत देहविकार वही जरा है ।
  9. वात, पित्त और कफ की विषमता से उत्पन्न होनेवाली कलेवर (शरीर) सम्बन्धी पीड़ा वही रोग है ।
  10. सादि-सनिधन, मूर्त इन्द्रियोंवाले, विजातीय नरनारकादि विभाव-व्यंजन-पर्याय का जो विनाश उसी को मृत्यु कहा गया है ।
  11. अशुभ-कर्म के विपाक से जनित, शारीरिक श्रम से उत्पन्न होनेवाला, जो दुर्गंध के सम्बन्ध के कारण बुरी गंधवाले जल-बिन्दुओं का समूह, वह स्वेद है ।
  12. अनिष्ट की प्राप्ति वह खेद है ।
  13. सर्व जन के कानों में अमृत उँडेलने वाले सहज चतुर कवित्व के कारण, सहज (सुन्दर) शरीर के कारण, सहज (उत्तम) कुल के कारण, सहज बल के कारण तथा सहज ऐश्वर्य के कारण आत्मा में जो अहङ्कार की उत्पत्ति वह मद है ।
  14. मनोज्ञ (मनोहर / सुन्दर) वस्तुओं में परम प्रीति वही रति है ।
  15. परम-समरसीभाव की भावना रहित जीवों को कभी पूर्वकाल में न देखा हुआ देखने के कारण होनेवाला भाव वह विस्मय है ।
  16. केवल शुभ-कर्म से देव-पर्याय में जो उत्पत्ति, केवल अशुभ-कर्म से नारक-पर्याय में जो उत्पत्ति, माया से तिर्यञ्च पर्याय में जो उत्पत्ति और शुभाशुभ मिश्र कर्म से मनुष्य-पर्याय में जो उत्पत्ति, सो जन्म है ।
  17. दर्शनावरणीय कर्म के उदय से जिसमें ज्ञान-ज्योति अस्त हो जाती है वही निद्रा है ।
  18. इष्ट के वियोग में विक्लव भाव (घबराहट) ही उद्वेग है ।
इन (अठारह) महा दोषों से तीन-लोक व्याप्त हैं । वीतराग सर्वज्ञ इन दोषों से विमुक्त हैं ।

इसीप्रकार (अन्य शास्त्र में गाथा द्वारा) कहा है कि -

वह धर्म है जहाँ दया है, वह तप है जहाँ विषयों का निग्रह है, वह देव है जो अठारह दोष रहित है; इस सम्बन्ध में संशय नहीं है ।

और श्री विद्यानन्दस्वामी ने (श्लोक द्वारा) कहा है किः -

(श्लोक-रोला)
इष्ट अर्थ की सिद्धि होती है सुबोध से ।
अर सुबोध उपलब्धी होती है सुशास्त्र से ॥
और आप्त से शास्त्र पूज्य हैं आप्त इसलिये ।
किया गया उपकार संतजन कभी न भूलें ॥१॥

इष्ट-फल की सिद्धि का उपाय सुबोध है (अर्थात् मुक्ति की प्राप्ति का उपाय सम्यग्ज्ञान है ), सुबोध सुशास्त्र से होता है, सुशास्त्र की उत्पत्ति आप्त से होती है; इसलिये उनके प्रसाद के कारण आप्त पुरुष बुधजनों द्वारा पूजने योग्य हैं (अर्थात् मुक्ति सर्वज्ञदेव की कृपा का फल होने से सर्वज्ञदेव ज्ञानियों द्वारा पूजनीय हैं), क्योंकि किये हुए उपकार को साधु पुरुष (सज्जन) भूलते नहीं हैं ।

और

(कलश-रोला)
शत इन्द्रों से पूज्य ज्ञान साम्राज्य अधपती ।
कामजयी लौकान्तिक देवों के अधिनायक ॥
पाप विनाशक भव्यनीरजों के तुम सूरज ।
नेमीश्वर सुखभूमि सुक्ख दें भवभयनाशक ॥१३॥

जो सौ इन्द्रों से पूज्य हैं, जिनका सद्बोधरूपी (सम्यग्ज्ञानरूपी) राज्य विशाल है, कामविजयी (लौकांतिक) देवों के जो नाथ हैं, दुष्ट पापों के समूह का जिन्होंने नाश किया है, श्री कृष्ण जिनके चरणों में नमें हैं, भव्योंरूपी कमलों को विकसित करने में जो सूर्य समान हैं, वे आनन्दके स्थानरूप नेमिनाथ भगवान हमें शाश्वत सुख प्रदान करें ॥१३॥

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+ तीर्थंकर का स्वरूप -
णिस्सेसदोसरहिओ केवलणाणाइपरमविभवजुदो ।
सो परमप्पा उच्चइ तव्विवरीओ ण परमप्पा ॥7॥
निःशेषदोषरहितः केवलज्ञानादिपरमविभवयुतः ।
स परमात्मोच्यते तद्विपरीतो न परमात्मा ॥७॥
सम्पूर्ण दोषोंसे रहित सर्वज्ञता से सहित जो ।
बस वे ही हैं परमातमा अन कोई परमातम नहीं ॥७॥
अन्वयार्थ : [निःशेषदोषरहितः] (ऐसे) निःशेष दोष से जो रहित है और [केवलज्ञानादिपरमविभवयुतः] केवलज्ञानादि परम वैभव से जो संयुक्त है, [सः] वह [परमात्मा उच्यते] परमात्मा कहलाता है; [तद्विपरीतः] उससे विपरीत [परमात्मा न] वह परमात्मा नहीं है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, तीर्थंकर परमदेव के स्वरूप का कथन है ।

आत्मा के गुणों का घात करनेवाले घातिकर्म ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, अन्तराय तथा मोहनीय कर्म हैं; उनका निरवशेष रूप से प्रध्वंस कर देने के कारण (कुछ भी शेष रखे बिना नाश कर देने से) जो 'निःशेषदोषरहित' हैं अथवा पूर्व सूत्र में (छठवीं गाथा में) कहे हुए अठारह महादोषों को निर्मूल कर दिया है इसलिये जिन्हें 'निःशेषदोषरहित' कहा गया है और जो 'सकलविमल (सर्वथा निर्मल) केवलज्ञान-केवलदर्शन, परमवीतरागात्मक आनन्द इत्यादि अनेक वैभव से समृद्ध' हैं, ऐसे जो परमात्मा - अर्थात् त्रिकालनिरावरण, नित्यानन्द - एकस्वरूप निज कारण-परमात्मा की भावना से उत्पन्न कार्य-परमात्मा, वही भगवान अर्हत् परमेश्वर हैं । इन भगवान परमेश्वर के गुणों से विपरीत गुणों वाले समस्त (देवाभास), भले देवत्व के अभिमान से दग्ध हों तथापि, संसारी हैं । ऐसा (इस गाथा का) अर्थ है । इसीप्रकार (भगवान) श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने (प्रवचनसार की गाथा में) कहा है किः -

(हरिगीत)
प्राधान्य है त्रैलोक्य में ऐश्वर्य ऋद्धि सहित हैं ।
तेज दर्शन ज्ञान सुख युत पूज्य श्री अरहंत हैं ॥प्र.सा.71*॥

तेज (भामण्डल), दर्शन (केवलदर्शन), ज्ञान (केवलज्ञान),ऋद्धि (समवसरणादि विभूति), सौख्य (अनन्त अतीन्द्रिय सुख), (इन्द्रादिक भी दासरूप से वर्ते ऐसा) ऐश्वर्य, और (तीन लोक के अधिपतियों के वल्लभ होनेरूप) त्रिभुवनप्रधान वल्लभपना -- ऐसा जिनका माहात्म्य है, वे अर्हंत हैं ।

और इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (आत्मख्याति के २४वें श्लोक / कलश में) कहा है कि :-

(हरिगीत)
लोकमानस रूप से रवितेज अपने तेज से ।
जो हरें निर्मल करें दशदिश कान्तिमय तनतेज से ॥
जो दिव्यध्वनि से भव्यजन के कान में अमृत भरें ।
उन सहस अठ लक्षण सहित जिन-सूरि को वंदन करें ॥स.सा.क.-२४॥

जो कान्ति से दशों दिशाओं को धोते हैं -- निर्मल करते हैं, जो तेज द्वारा अत्यन्त तेजस्वी सूर्यादिक के तेज को ढँक देते हैं, जो रूप से जनों के मन हर लेते हैं, जो दिव्यध्वनि द्वारा (भव्यों के) कानों में मानों कि साक्षात् अमृत बरसाते हों ऐसा सुख उत्पन्न करते हैं तथा जो एक हजार और आठ लक्षणों को धारण करते हैं, वे तीर्थङ्करसूरि वंद्य हैं ।

और (सातवीं गाथा की टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक द्वारा श्री नेमिनाथ तीर्थंकर की स्तुति करते हैं ) :-

(कलश--रोला)
अलिगण स्वयं समा जाते ज्यों कमल पुष्प में ।
त्यों ही लोकालोक लीन हों ज्ञान कमल में ॥
जिनके उन श्री नेमिनाथ के चरण जजूँ मैं ।
हो जाऊँ मैं पार भवोदधि निज भुजबल से ॥१४॥

जिसप्रकार कमल के भीतर भ्रमर समा जाता है उसीप्रकार जिनके ज्ञानकमल में यह जगत तथा अजगत (लोक तथा अलोक) सदा स्पष्टरूप से समा जाते हैं - ज्ञात होते हैं, उन नेमिनाथ तीर्थंकर भगवान को मैं सचमुच पूजता हूँ कि जिससे ऊँची तरंगोंवाले समुद्र को भी (दुस्तर संसार-समुद्र को भी) दो भुजाओं से पार कर लूँ ।

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+ आगम का स्वरूप -
तस्स मुहुग्गदवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं ।
आगममिदि परिकहियं तेण दु कहिया हवंति तच्चत्था ॥8॥
तस्य मुखोद्गतवचनं पूर्वापरदोषविरहितं शुद्धम् ।
आगममिति परिकथितं तेन तु कथिता भवन्ति तत्त्वार्थाः ॥८॥
पूरवापर दोष विरहित वचन जिनवर देव के ।
आगम कहे है उन्हीं में तत्त्वारथों का विवेचन ॥८॥
अन्वयार्थ : [तस्य मुखोद्गतवचनं] उनके मुख से निकली हुई वाणी जो कि [पूर्वापरदोषविरहितं शुद्धम्] पूर्वापर दोष रहित (आगे पीछे विरोध रहित) और शुद्ध है, उसे [आगमम् इति परिकथितं] आगम कहा है; [तेन तु] और उसने [तत्त्वार्थाः] तत्त्वार्थ [कथिताः भवन्ति] कहे हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, परमागम के स्वरूप का कथन है ।

उन (पूर्वोक्त) परमेश्वर के मुख-कमल से निकली हुई चतुर वचन-रचना का विस्तार, जो कि 'पूर्वापर दोष रहित' है और उन भगवान को राग का अभाव होने से पाप-सूत्र की भाँति हिंसादि पाप-क्रिया-शून्य होने से 'शुद्ध' है, वह परमागम कहा गया है । उस परमागम ने, कि उसने, वास्तव में सात तत्त्व तथा नव-पदार्थ कहे हैं । इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्री समन्तभद्र-स्वामी ने (रत्नकरण्डश्रावकाचार में ४२वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(हरिगीत)
जो न्यूनता विपरीतता अर अधिकता से रहित है ।
सन्देह से भी रहित है स्पष्टता से सहित है ॥
जो वस्तु जैसी उसे वैसी जानता जो ज्ञान है ।
जाने जिनागम वे कहें वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ॥र.क.श्रा.-42॥

जो न्यूनता बिना, अधिकता बिना, विपरीतता बिना यथातथ वस्तुस्वरूप को निःसन्देह रूप से जानता है उसे आगमिज्ञ ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) कहते हैं ।

(कलश--हरिगीत)
मुक्तिमग के मग तथा जो ललित में भी ललित हैं ।
जो भविजनों के कर्ण-अमृत और अनुपम शुद्ध हैं ॥
भविविजन के उग्र दावानल शमन को नीर हैं ।
मैं नमूँ उन जिनवचन को जो योगिजन के वंद्य हैं ॥१५॥

जो (जिनवचन) ललित में ललित हैं, जो शुद्ध हैं, जो निर्वाण के कारण का कारण हैं, जो सर्व भव्यों के कर्णों को अमृत हैं, जो भवभवरूपी अरण्य के उग्र दावानल को शांत करने में जल हैं और जो जैन योगियों द्वारा सदा वंद्य हैं, ऐसे इन जिन-भगवान के सद्वचनों को (सम्यक् जिनागम को) मैं प्रतिदिन वन्दन करता हूँ ।

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+ द्रव्यों के नाम -
जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं ।
तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता ॥9॥
जीवाः पुद्गलकाया धर्माधर्मौ च काल आकाशम् ।
तत्त्वार्था इति भणिताः नानागुणपर्यायैः संयुक्ताः ॥९॥
विविध गुणपर्याय से संयुक्त धर्माधर्म नभ ।
अर जीव पुद्गल काल को ही यहाँ तत्त्वारथ कहा ॥९॥
अन्वयार्थ : [जीवाः पुद्गलकायाः] जीव, पुद्गलकाय, [धर्माधर्मौ कालः च] धर्म, अधर्म, काल, और [आकाशम्] आकाश [तत्त्वार्थाः इति भणिताः] यह तत्त्वार्थ कहे हैं, जो कि [नानागुणपर्यायैः संयुक्ताः] विविध गुण-पर्यायों से संयुक्त हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथामें), छह द्रव्यों के पृथक्-पृथक् नाम कहे गये हैं ।

(कलश--रोला)
जिनपति द्वारा कथित मार्गसागर में स्थित ।
अरे तेज के पुंज विविध विध किरणों वाले ॥
छह द्रव्यों रूपी रत्नों को तीक्ष्णबुद्धि जन ।
धारण करके पा जाते हैं मुक्ति सुन्दरी ॥१६॥

इसप्रकार उस षट्द्रव्य समूहरूपी रत्न को, जो कि (रत्न) तेज के अम्बार के कारण किरणोंवाला है और जो जिनपति के मार्गरूपी समुद्र के मध्य में स्थित है उसे, जो तीक्ष्ण बुद्धिवाला पुरुष हृदय में भूषणार्थ (शोभा के लिये) धारण करता है, वह पुरुष परमश्रीरूपी कामिनी का वल्लभ होता है (अर्थात् जो पुरुष अन्तरंग में छह द्रव्य की यथार्थ श्रद्धा करता है, वह मुक्ति-लक्ष्मी का वरण करता है) ॥१६॥

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+ उपयोग लक्षण -
जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदंसणो होइ ।
णाणुवओगो दुविहो सहावणाणं विहावणाणं ति ॥10॥
जीव उपयोगमयः उपयोगो ज्ञानदर्शनं भवति ।
ज्ञानोपयोगो द्विविधः स्वभावज्ञानं विभावज्ञानमिति ॥१०॥
जीव है उपयोगमय उपयोग दर्शन ज्ञान है ।
स्वभाव और विभाव इस विधि ज्ञान दोय प्रकार है ॥१०॥
अन्वयार्थ : [जीवः] जीव [उपयोगमयः] उपयोगमय है । [उपयोगः] उपयोग [ज्ञानदर्शनं भवति] ज्ञान और दर्शन है । [ज्ञानोपयोगः द्विविधः] ज्ञानोपयोग दो प्रकार का है - [स्वभावज्ञानं] स्वभावज्ञान और [विभावज्ञानम् इति] विभावज्ञान ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में) उपयोग लक्षण को कहा है ।

आत्मा का चैतन्य-अनुवर्ती (चैतन्य का अनुसरण करके वर्तनेवाला) परिणाम सो उपयोग है । उपयोग धर्म है, जीव धर्मी है । दीपक और प्रकाश जैसा उनका सम्बन्ध है । ज्ञान और दर्शन के भेद से यह उपयोग दो प्रकार का है (अर्थात् उपयोग के दो प्रकार हैं : ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग) । इनमें ज्ञानोपयोग भी स्वभाव और विभाव के भेद के कारण दो प्रकार का है (अर्थात् ज्ञानोपयोग के भी दो प्रकार हैं : स्वभाव-ज्ञानोपयोग और विभाव-ज्ञानोपयोग) । उनमें इस उपयोग के भेदरूप ज्ञान के भेद, अब कहे जानेवाले दो सूत्रों द्वारा (११ और १२वीं गाथा द्वारा) जानना ।

(कलश--रोला)
जिनपति द्वारा कथित ज्ञान के भेद जानकर ।
परभावों को त्याग निजातम में रम जाते ॥
कर प्रवेश चित्चमत्कार में वे मुमुक्षुगण ।
अल्पकाल में पा जाते हैं मुक्ति-सुन्दरी ॥१७॥

जिनेन्द्र-कथित समस्त ज्ञान के भेदों को जानकर जो पुरुष पर-भावों का परिहार करके निज-स्वरूप में स्थित रहता हुआ शीघ्र चैतन्य-चमत्कार मात्र तत्त्व में प्रविष्ट हो जाता है (गहरा उतर जाता है), वह पुरुष परमश्रीरूपी कामिनी का वल्लभ होता है (अर्थात् मुक्ति-सुन्दरी का पति होता है )

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+ ज्ञान के भेद -
केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावणाणं ति ।
सण्णाणिदरवियप्पे विहावणाणं हवे दुविहं ॥11॥
सण्णाणं चउभेयं मदिसुदओही तहेव मणपज्जं ।
अण्णाणं तिवियप्पं मदियाई भेददो चेव ॥12॥
केवलमिन्द्रियरहितं असहायं तत्स्वभावज्ञानमिति ।
संज्ञानेतरविकल्पे विभावज्ञानं भवेद् द्विविधम् ॥११॥
संज्ञानं चतुर्भेदं मतिश्रुतावधयस्तथैव मनःपर्ययम् ।
अज्ञानं त्रिविकल्पं मत्यादेर्भेदतश्चैव ॥१२॥
इन्द्रियरहित, असहाय, केवल वह स्वभाविक ज्ञान है ।
दो विधि विभाविकज्ञान सम्यक् और मिथ्याज्ञान है ॥११॥
मति, श्रुत, अवधि, अरु मनःपर्यय चार सम्यग्ज्ञान है ।
अरु कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ये तीन भेद मिथ्याज्ञान है ॥१२॥
अन्वयार्थ : [केवलम्] जो (ज्ञान) केवल,[इन्द्रियरहितम्] इन्द्रिय-रहित और [असहायं] असहाय है, [तत्] वह [स्वभावज्ञानम् इति] स्वभावज्ञान है; [संज्ञानेतरविकल्पे] सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानरूप भेद किये जाने पर, [विभावज्ञानं] विभावज्ञान [द्विविधं भवेत्] दो प्रकार का है ।
[संज्ञानं] सम्यग्ज्ञान [चतुर्भेदं] चार भेदवाला है : [मतिश्रुतावधयः तथा एवमनःपर्ययम्] मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्यय; [अज्ञानं च एव] और अज्ञान (मिथ्याज्ञान) [मत्यादेः भेदतः] मति आदि के भेद से [त्रिविकल्पम्] तीन भेदवाला है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इन गाथाओं में) ज्ञान के भेद कहे हैं ।

जो उपाधि रहित स्वरूपवाला होने से केवल है, आवरण रहित स्वरूपवाला होने से क्रम और करण के व्यवधान रहित है, एक-एक वस्तु में व्याप्त नहीं होता (समस्त वस्तुओं में व्याप्त होता है ) इसलिये असहाय है, वह कार्य-स्वभाव-ज्ञान है । कारण-ज्ञान भी वैसा ही है । काहे से ? निज परमात्मा में विद्यमान सहज-दर्शन, सहज-चारित्र, सहज-सुख और सहज-परम-चित्शक्तिरूप निज कारण-समयसार के स्वरूपों को युगपद् जानने में समर्थ होने से वैसा ही है । इस प्रकार शुद्ध ज्ञान का स्वरूप कहा ।

अब यह (निम्नानुसार), शुद्धाशुद्ध ज्ञान का स्वरूप और भेद कहे जाते हैं :

परमभाव में स्थित सम्यग्दृष्टि को यह चार सम्यग्ज्ञान होते हैं । मिथ्यादर्शन हो वहाँ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान 'कुमतिज्ञान', 'कुश्रुतज्ञान' तथा 'विभंगज्ञान' — ऐसे नामांतरों को (अन्य नामों को) प्राप्त होते हैं । यहाँ (ऊपर कहे हुए ज्ञानों में) और विशेष यह है कि - उक्त (ऊपर कहे हुए) ज्ञानों में साक्षात् मोक्ष का मूल निज परम-तत्त्व में स्थित ऐसा एक सहज-ज्ञान ही है; तथा सहज-ज्ञान (उसके) पारिणामिक-भावरूप स्वभाव के कारण भव्य का परम-स्वभाव होने से, सहज-ज्ञान के अतिरिक्त अन्य कुछ उपादेय नहीं है । इस सहज-चिद्विलासरूप
  1. सदा सहज परम वीतराग सुखामृत,
  2. अप्रतिहत निरावरण परम चित्शक्ति का रूप,
  3. सदा अन्तर्मुख ऐसा स्व-स्वरूप में अविचल स्थितिरूप सहज परम चारित्र, और
  4. त्रिकाल अविच्छिन्न (अटूट) होने से सदा निकट ऐसी परम चैतन्यरूप की श्रद्धा
इस स्वभाव-अनन्त-चतुष्टय से जो सनाथ (सहित) है ऐसे आत्मा को - अनाथ मुक्ति-सुन्दरी के नाथ को - भाना चाहिये (अर्थात् सहज-ज्ञान-विलासरूप से स्वभाव-अनन्त-चतुष्टययुक्त आत्मा को भाना चाहिये - अनुभवन करना चाहिये) । इसप्रकार संसाररूपी लता का मूल छेदने के लिये हँसियारूप इस उपन्यास से ब्रह्मोपदेश किया ।

(कलश--रोला)
इसप्रकार का भेदज्ञान पाकर जो भविजन ।
भवसागर के मूलरूप जो सुक्ख-दुक्ख हैं ॥
सुकृत-दुष्कृत होते जो उनके भी कारण ।
उन्हें छोड़ वे शाश्वत सुख को पा जाते हैं ॥१८॥

इसप्रकार कहे गये भेदज्ञान को पाकर भव्य जीव घोर संसार के मूलरूप समस्त सुकृत या दुष्कृत को, सुख या दुःख को अत्यन्त परिहरो । उससे ऊपर (अर्थात् उसे पार कर लेने पर), जीव समग्र (परिपूर्ण) शाश्वत सुख को प्राप्त करता है ।

(कलश--दोहा)
करो उपेक्षा देह की परिग्रह का परिहार ।
अव्याकुल चैतन्य को भावो भव्य विचार ॥१९॥

परिग्रह का ग्रहण छोड़कर तथा शरीर के प्रति उपेक्षा करके बुध-पुरुष को अव्यग्रता से (निराकुलता से) भरा हुआ चैतन्य मात्र जिसका शरीर है उसे (आत्मा को) भाना चाहिये ।

(कलश--रोला)
यदि मोह का निर्मूलन अर विलय द्वेष का ।
और शुभाशुभ रागभाव का प्रलय हो गया ॥
तो पावन अतिश्रेष्ठज्ञान की ज्योति उदित हो ।
भेदज्ञानरूपी तरु का यह फल मंगलमय ॥२०॥

मोह को निर्मूल करने से, प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त राग का विलय करने से तथा द्वेषरूपी जल से भरे हुए मनरूपी घड़े का नाश करने से, पवित्र अनुत्तम, निरुपधि और नित्य-उदित (सदा प्रकाशमान) ऐसी ज्ञान-ज्योति प्रगट होती है । भेदों के ज्ञानरूपी वृक्ष का यह सत्फल वंद्य है, जगत को मंगलरूप है ।

(कलश--रोला)
जिसकी विकसित सहजदशा अंतर्मुख जिसने ।
तमोवृत्ति को नष्ट किया है निज ज्योति से ॥
सहजभाव से लीन रहे चित् चमत्कार में ।
सहजज्ञान जयवंत रहे सम्पूर्ण मोक्ष में ॥२१॥

आनन्द में जिसका फैलाव है, जो अव्याबाध (बाधा रहित) है, जिसकी सहज दशा विकसित हो गई है, जो अन्तर्मुख है, जो अपने में - सहज विलसते (खेलते, परिणमते) चित्चमत्कारमात्र में लीन है, जिसने निज ज्योति से तमोवृत्ति (अन्धकार-दशा, अज्ञान-परिणति) को नष्ट किया है और जो नित्य अभिराम (सदा सुन्दर) है, ऐसा सहज-ज्ञान सम्पूर्ण मोक्ष में जयवन्त वर्तता है ।

(कलश--सोरठा)
सहजज्ञान सर्वस्व शुद्ध चिदातम आतमा ।
उसे जान अविलम्ब निर्विकल्प मैं हो रहा ॥२२॥

सहजज्ञानरूपी साम्राज्य जिसका सर्वस्व है ऐसा शुद्ध चैतन्यमय अपने आत्मा को जानकर, मैं यह निर्विकल्प होऊँ ।

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+ दर्शनोपयोग -
तह दंसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो ।
केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं ॥13॥
तथा दर्शनोपयोगः स्वस्वभावेतरविकल्पतो द्विविधः ।
केवलमिन्द्रियरहितं असहायं तत् स्वभाव इति भणितः ॥१३॥
दर्शनपयोग स्वभाव और विभाव दो विधि जानिये ।
इन्द्रिय-रहित, असहाय, केवल दृग्स्वभाविक मानिये ॥१३॥
अन्वयार्थ : [तथा] उसीप्रकार [दर्शनोपयोगः] दर्शनोपयोग [स्वस्वभावेतरविकल्पतः] स्वभाव और विभाव के भेद से [द्विविधः] दो प्रकार का है । [केवलम्] जो केवल, [इन्द्रियरहितम्] इन्द्रिय-रहित और [असहायं] असहाय है, [तत्] वह [स्वभावः इति भणितः] स्वभाव दर्शनोपयोग कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, दर्शनोपयोगके स्वरूपका कथन है ।

जिसप्रकार ज्ञानोपयोग बहुविध भेदोंवाला है, उसीप्रकार दर्शनोपयोग भी वैसा है । (वहाँ प्रथम, उसके दो भेद हैं :) स्वभाव-दर्शनोपयोग भी दो प्रकार का है : वहाँ इसप्रकार कार्यरूप और कारणरूप से स्वभाव-दर्शनोपयोग कहा । विभाव-दर्शनोपयोग अगले सूत्र में (१४वीं गाथा में) होने से वहीं दर्शाया जायेगा ।

(कलश-दोहा)
दर्शनज्ञानचरित्रमय चित् सामान्यस्वरूप ।
मार्ग मुमुक्षुओं के लिए अन्य न कोई स्वरूप ॥२३॥

दृशि-ज्ञप्ति-वृत्ति-स्वरूप (दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप से परिणमित) ऐसा जो एक ही चैतन्य-सामान्यरूप निज आत्म-तत्त्व, वह मोक्षेच्छुओं को (मोक्ष का) प्रसिद्ध मार्ग है; इस मार्ग बिना मोक्ष नहीं है ।

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+ दर्शनोपयोग के भेद -
चक्खु अचक्खू ओही तिण्णि वि भणिदं विहावदिट्ठि त्ति ।
पज्जाओ दुवियप्पो सपरावेक्खो य णिरवेक्खो ॥14॥
चक्षुरचक्षुरवधयस्तिस्रोपि भणिता विभावद्रष्टय इति ।
पर्यायो द्विविकल्पः स्वपरापेक्षश्च निरपेक्षः ॥१४॥
चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शन ये विभाविक दर्श हैं ।
निरपेक्ष, स्वपरापेक्ष - ये पर्याय द्विविध विकल्प हैं ॥१४॥
अन्वयार्थ : [चक्षुरचक्षुरवधयः] चक्षु, अचक्षु और अवधि [तिस्रः अपि] यह तीनों [विभावदृष्टयः] विभाव-दर्शन [इति भणिताः] कहे गये हैं । [पर्यायः द्विविकल्पः] पर्याय द्विविध है : [स्वपरापेक्षः] स्वपरापेक्ष (स्व और परकी अपेक्षा युक्त) [च] और [निरपेक्षः] निरपेक्ष ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, अशुद्ध दर्शन की तथा शुद्ध और अशुद्ध पर्याय की सूचना है ।

(उपरोक्तानुसार) उपयोग का व्याख्यान करने के पश्चात् यहाँ पर्याय का स्वरूप कहा जाता है :

परि समन्तात् भेदमेति गच्छतीति पर्यायः ।
अर्थात् जो सर्व ओर से भेद को प्राप्त करे सो पर्याय है । उसमें, स्वभाव-पर्याय अशुद्ध-पर्याय नर-नारकादि व्यंजन-पर्याय है ।

(कलश--वीर)
परभावों के होने पर भी परभावों से भिन्न जीव है ।
सहजगुणों की मणियों का निधि है संपूरण शुद्ध जीव यह ॥
ज्ञानानन्दी शुद्ध जीव को शुद्ध-दृष्टि से जो भजते हैं ।
वही पुरुष सुखमय अविनाशी मुक्ति-सुंदरी को वरते हैं ॥२४॥

परभाव होने पर भी, सहज-गुण-मणि की खानरूप तथा पूर्ण-ज्ञानवाले शुद्ध-आत्मा को एक को जो तीक्ष्ण-बुद्धिवाला शुद्ध-दृष्टि पुरुष भजता है, वह पुरुष परमश्रीरूपी कामिनी का (मुक्ति-सुन्दरी का) वल्लभ बनता है ।

(कलश--वीर)
इसप्रकार गुण-पर्यायों के होने पर भी कारण-आतम ।
गहराई से राजमान है श्रेष्ठनरों के हृदय-कमल में ॥
स्वयं प्रतिष्ठित समयसारमय शुद्धात्म को हे भव्योत्तम ।
अभी भज रहे अरे उसी को गहराई से भजो निरन्तर ॥२५॥

इसप्रकार पर गुण-पर्यायें होने पर भी, उत्तम पुरुषों के हृदय-कमल में कारण-आत्मा विराजमान है । अपने से उत्पन्न ऐसे उस परम-ब्रह्मरूप समयसार को, कि जिसे तू भज रहा है उसे, हे भव्यशार्दूल (भव्योत्तम), तू शीघ्र भज; तू वह है ।

(कलश--रोला)
क्वचित् सद्गुणों से आतम शोभायमान है ।
असत् गुणों से युक्त क्वचित् देखा जाता है ॥
इसी तरह है क्वचित् सहज पर्यायवान पर ।
क्वचित् अशुभ पर्यायों वाला है यह आतम ॥
सदा सहित होने पर भी जो सदा रहित है ।
इन सबसे जो जीव उसी को मैं भाता हूँ ॥
सब अर्थों की सिद्धि हेतु हे भविजन जानो ।
सहज आतमाराम उसी को मैं ध्याता हूँ ॥२६॥

जीव-तत्त्व क्वचित् सद्गुणों सहित विलसता (दिखाई देता) है, क्वचित् अशुद्ध-रूप गुणों सहित विलसता है, क्वचित् सहज-पर्यायों सहित विलसता है और क्वचित् अशुद्ध-पर्यायों सहित विलसता है । इन सबसे सहित होने पर भी जो इन सबसे रहित है ऐसे इस जीव-तत्त्व को मैं सकल अर्थ की सिद्धि के लिये सदा नमता हूँ, भाता हूँ ।

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+ स्वभाव-विभाव पर्याय -
णरणारयतिरियसुरा पज्जाया ते विहावमिदि भणिदा ।
कम्मोपाधिविवज्जियपज्जाया ते सहावमिदि भणिदा ॥15॥
नरनारकतिर्यक्सुराः पर्यायास्ते विभावा इति भणिताः ।
कर्मोपाधिविवर्जितपर्यायास्ते स्वभावा इति भणिताः ॥१५॥
तिर्यञ्च, नारकि, देव, नर पर्याय हैं वैभाविकी ।
पर्याय कर्मोपाधिवर्जित हैं कही स्वाभाविकी ॥१५॥
अन्वयार्थ : [नरनारकतिर्यक्सुराः पर्यायाः] मनुष्य, नारक,तिर्यञ्च और देवरूप पर्यायें [ते] वे [विभावाः] विभाव-पर्यायें [इति भणिताः] कही गई हैं; [कर्मोपाधिविवर्जितपर्यायाः] कर्मोपाधि रहित पर्यायें [ते] वे [स्वभावाः] स्वभाव-पर्यायें [इति भणिताः] कही गई हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, स्वभाव-पर्यायों तथा विभाव-पर्यायों का संक्षेप-कथन है ।

वहाँ, स्वभाव-पर्यायों और विभाव-पर्यायों के बीच प्रथम इस पर्याय का विस्तार अन्य आगम में देख लेना चाहिये ।

(कलश--रोला)
बहुविभाव होने पर भी हैं शुद्धदृष्टि जो ।
परम-तत्त्व के अभ्यासी निष्णात पुरुष वे ॥
'समयसार से अन्य नहीं है कुछ भी' - ऐसा ।
मान परमश्री मुक्तिवधू के वल्लभ होते ॥२७॥

बहु विभाव होने पर भी, सहज परम-तत्त्व के अभ्यास में जिसकी बुद्धि प्रवीण है ऐसा यह शुद्ध-दृष्टिवाला पुरुष, 'समयसार से अन्य कुछ नहीं है' ऐसा मानकर, शीघ्र परमश्रीरूपी सुन्दरी का वल्लभ होता है ।

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+ चार-गति का स्वरूप -
माणुस्सा दुवियप्पा कम्ममहीभोगभूमिसंजादा ।
सत्तविहा णेरइया णादव्वा पुढविभेदेण ॥16॥
चउदहभेदा भणिदा तेरिच्छा सुरगणा चउब्भेदा ।
एदेसिं वित्थारं लोयविभागेसु णादव्वं ॥17॥
मानुषा द्विविकल्पाः कर्ममहीभोगभूमिसंजाताः ।
सप्तविधा नारका ज्ञातव्याः पृथ्वीभेदेन ॥१६॥
चतुर्दशभेदा भणितास्तिर्यञ्चः सुरगणाश्चतुर्भेदाः ।
एतेषां विस्तारो लोकविभागेषु ज्ञातव्यः॥१७॥
कर्मभूमिज भोगभूमिज मानवों के भेद हैं ।
अर सात नरकों की अपेक्षा सप्तविध नारक कहे ॥१६॥
चतुर्दश तिर्यंच एवं देव चार प्रकार के ।
इन सभी का विस्तार जानो अरे लोक विभाग से ॥१७॥
अन्वयार्थ : [मानुषाः द्विविकल्पाः] मनुष्यों के दो भेद हैं :[कर्ममहीभोगभूमिसंजाताः] कर्मभूमि में जन्मे हुए और भोगभूमि में जन्मे हुए; [पृथ्वीभेदेन] पृथ्वी के भेद से [नारकाः] नारक [सप्तविधाः ज्ञातव्याः] सात प्रकार के जानना; [तिर्यंञ्चः] तिर्यंचों के [चतुर्दशभेदाः] चौदह भेद [भणिताः] कहे हैं; [सुरगणाः] देव-समूहों के [चतुर्भेदाः] चार भेद हैं । [एतेषां विस्तारः] इनका विस्तार [लोकविभागेषु ज्ञातव्यः] लोक-विभाग में से जान लेना ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, चार गति के स्वरूप-निरूपणरूप कथन है ।

मनु की सन्तान वह मनुष्य हैं । वे दो प्रकार के हैं : कर्म-भूमिज और भोग-भूमिज । उनमें रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा नाम की सात पृथ्वी के भेदों के कारण नारक जीव सात प्रकार के हैं । अब विस्तार के भय के कारण संक्षेप से कहा जाता है :- तिर्यंचों के चौदह भेद हैं : देवों के चार निकाय (समूह) हैं :
  1. भवनवासी,
  2. व्यंतर,
  3. ज्योतिष्क और
  4. कल्पवासी ।
इन चार गति के जीवों के भेदों के भेद लोक-विभाग नामक परमागम में देख लें । यहाँ (इस परमागम में) आत्म-स्वरूप के निरूपण में अन्तराय का हेतु होगा इसलिये सूत्रकर्ता पूर्वाचार्य-महाराज ने (वे विशेष भेद) नहीं कहे हैं ।

(कलश--वीर)
दैवयोग से मानुष भव में विद्याधर के भवनों में ।
स्वर्गों में नरकों में अथवा नागपती के नगरों में ॥
जिनमंदिर या अन्य जगह या ज्योतिषियों के भवनों में ।
कहीं रहूँ पर भक्ति आपकी रहे निरंतर नजरों में ॥२८॥

(हे जिनेन्द्र !) दैवयोग से मैं स्वर्ग में होऊँ , इस मनुष्य-लोक में होऊँ, विद्याधर के स्थान में होऊँ , ज्योतिष्क देवों के लोक में होऊँ , नागेन्द्र के नगर में होऊँ , नारकों के निवास में होऊँ , जिनपति के भवन में होऊँ या अन्य चाहे जिस स्थान पर होऊँ, (परन्तु) मुझे कर्म का उद्भव न हो, पुनः पुनः आपके पाद-पंकज की भक्ति हो ।

(कलश--रोला)
अरे देखकर नराधिपों का वैभव जड़मति ।
क्यों पाते हो क्लेश पुण्य से यह मिलता है ॥
पुण्य प्राप्त होता है जिनवर की पूजन से ।
यदि हृदय में भक्ति स्वयं सब पा जाओगे ॥२९॥

नराधिपतियों के अनेकविध महा वैभवों को सुनकर तथा देखकर,हे जड़मति, तू यहाँ व्यर्थ ही क्लेश क्यों प्राप्त करता है ! वे वैभव सचमुच पुण्य से प्राप्त होते हैं । वह (पुण्योपार्जन की) शक्ति जिननाथ के पाद-पद्म-युगल की पूजा में है; यदि तुझे उन जिन-पाद-पद्मों की भक्ति हो, तो वे बहुविध भोग तुझे (अपने आप) होंगे ।

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+ आत्मा का कर्तत्व-भोक्तृत्व -
कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारा ।
कम्मजभावेणादा कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदो ॥18॥
कर्ता भोक्ता आत्मा पुद्गलकर्मणो भवति व्यवहारात् ।
कर्मजभावेनात्मा कर्ता भोक्ता तु निश्चयतः ॥१८॥
यह जीव करता-भोगता जड़कर्म का व्यवहार से ।
किन्तु कर्मजभाव का कर्ता कहा परमार्थ से ॥१८॥
अन्वयार्थ : [आत्मा] आत्मा [पुद्गलकर्मणः] पुद्गल-कर्म का [कर्ता भोक्ता] कर्ता-भोक्ता [व्यवहारात्] व्यवहार से [भवति] है [तु] और [आत्मा] आत्मा [कर्मजभावेन] कर्म-जनित भाव का [कर्ता भोक्ता] कर्ता-भोक्ता [निश्चयतः] (अशुद्ध) निश्चय से है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, कर्तृत्व-भोक्तृत्व के प्रकार का कथन है ।

आत्मा इसप्रकार अशुद्ध-जीव का स्वरूप कहा ।

(कलश--दोहा)
परमगुरु की कृपा से मोही रागी जीव ।
समयसार को जानकर शिव श्री लहे सदीव ॥३०॥

सकल मोह-राग-द्वेष वाला जो कोई पुरुष परम गुरु के चरण-कमल-युगल की सेवा के प्रसाद से निर्विकल्प सहज समयसार को जानता है, वह पुरुष परमश्रीरूपी सुन्दरी का प्रिय कान्त होता है ।

(कलश--दोहा)
भावकरम के रोध से द्रव्य करम का रोध ।
द्रव्यकरम के रोध से हो संसार निरोध ॥३१॥

भाव-कर्म के निरोध से द्रव्य-कर्म का निरोध होता है; द्रव्य-कर्म के निरोध से संसार का निरोध होता है ।

(कलश--सोरठा)
करें शुभाशुभभाव, मुक्तिमार्ग जाने नहीं ।
अशरण रहें सदीव मोह मुग्ध अज्ञानि जन ॥३२॥

जो जीव सम्यग्ज्ञान भाव-रहित विमुग्ध (मोही, भ्रान्त) है, वह जीव शुभाशुभ अनेक-विध कर्म को करता हुआ मोक्ष-मार्ग को लेशमात्र भी वांछना नहीं जानता; उसे लोक में (कोई) शरण नहीं है ।

(कलश--दोहा)
कर्म-जनित सुख त्यागकर निज में रमें सदीव ।
परम अतीन्द्रिय सुख लहें वे निष्कर्मी जीव ॥३३॥

जो समस्त कर्म-जनित सुख-समूह को परिहरण करता है, वह भव्य-पुरुष निष्कर्म सुख-समूहरूपी अमृत के सरोवर में मग्न होते हुए ऐसे इस अतिशय-चैतन्यमय, एकरूप, अद्वितीय निज-भाव को प्राप्त करता है ।

(कलश--दोहा)
हममें कोई विभाव न हमें न चिन्ता कोई ।
शुद्धातम में मगन हम अन्योपाय न होई ॥३४॥

(हमारे आत्म-स्वभाव में) विभाव असत् होने से उसकी हमें चिन्ता नहीं है; हम तो हृदय-कमल में स्थित, सर्व-कर्म से विमुक्त, शुद्ध आत्मा का एक का सतत अनुभवन करते हैं, क्योंकि अन्य किसी प्रकार से मुक्ति नहीं है, नहीं है, नहीं हि है ।

(रोला)
संसारी के समलभाव पाये जाते हैं ।
और सिद्ध जीवों के निर्मलभाव सदा हों ॥
कहता यह व्यवहार किन्तु बुधजन का निर्णय ।
निश्चय से शुद्धातम में न बंध-मोक्ष हों ॥३५॥

संसारी में सांसारिक गुण होते हैं और सिद्ध जीव में सदा समस्त सिद्धिसिद्ध (मोक्षसे सिद्ध अर्थात् परिपूर्ण हुए) निज परमगुण होते हैं -- इसप्रकार व्यवहारनय है । निश्चय से तो सिद्ध भी नहीं है और संसार भी नहीं है । यह बुध पुरुषों का निर्णय है ।

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+ दोनों नयों की उपयोगिता -
दव्वत्थिएण जीवा वदिरित्ता पुव्वभणिदपज्जाया ।
पज्जयणएण जीवा संजुत्ता होंति दुविहेहिं ॥19॥
द्रव्यार्थिकेन जीवा व्यतिरिक्ताः पूर्वभणितपर्यायात् ।
पर्यायनयेन जीवाः संयुक्ता भवन्ति द्वाभ्याम् ॥१९॥
है उक्त पर्ययशून्य आत्मा द्रव्यद्रष्टि से सदा ।
है उक्त पर्यायों सहित पर्यायनय से वह कहा ॥१९॥
अन्वयार्थ : [द्रव्यार्थिकेन] द्रव्यार्थिक नय से [जीवाः] जीव [पूर्वभणितपर्यायात्] पूर्व-कथित पर्याय से [व्यतिरिक्ताः] व्यतिरिक्त (भिन्न) है; [पर्यायनयेन] पर्यायनयसे [जीवाः] जीव [संयुक्ताः भवन्ति] उस पर्याय से संयुक्त है । [द्वाभ्याम्] इसप्रकार जीव दोनों नयों से संयुक्त है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ दोनों नयों का सफलपना कहा है ।

भगवान अर्हत् परमेश्वर ने दो नय कहे हैं : द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । द्रव्य ही जिसका अर्थ अर्थात् प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिक है और पर्याय ही जिसका अर्थ अर्थात् प्रयोजन है वह पर्यायार्थिक है । एक नय का अवलम्बन लेनेवाला उपदेश ग्रहण करने योग्य नहीं है किन्तु उन दोनों नयों का अवलम्बन लेनेवाला उपदेश ग्रहण करने योग्य है । सत्ता-ग्राहक (द्रव्य की सत्ता को ही ग्रहण करनेवाले) शुद्ध द्रव्यार्थिक नय के बल से पूर्वोक्त व्यंजन-पर्यायों से मुक्त तथा अमुक्त (सिद्ध तथा संसारी) समस्त जीवराशि सर्वथा व्यतिरिक्त ही है । क्यों ? 'सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया (शुद्धनय से सर्व जीव वास्तव में शुद्ध हैं )' ऐसा (शास्त्र का) वचन होने से । विभाव व्यंजन-पर्यायार्थिक नय के बल से वे सर्व जीव (पूर्वोक्त व्यंजन-पर्यायों से) संयुक्त हैं । विशेष इतना कि - सिद्ध जीवों के अर्थ-पर्यायों सहित परिणति है, परन्तु व्यंजन-पर्यायों सहित परिणति नहीं है । क्यों ? सिद्ध जीव सदा निरंजन होने से ।

प्रश्न – यदि सिद्ध जीव सदा निरंजन हैं तो सर्व जीव द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक दोनों नयों से संयुक्त हैं (अर्थात् सर्व जीवों को दोनों नय लागू होते हैं ) ऐसा सूत्रार्थ (गाथा का अर्थ) व्यर्थ सिद्ध होता है ।

उत्तर – (व्यर्थ सिद्ध नहीं होता क्योंकि) निगम अर्थात् विकल्प; उसमें हो वह नैगम । वह नैगमनय तीन प्रकार का है; भूत-नैगम, वर्तमान-नैगम और भावी-नैगम । यहाँ भूत-नैगमनय की अपेक्षा से भगवन्त सिद्धों को भी व्यंजन-पर्यायवानपना और अशुद्धपना सम्भवित होता है, क्योंकि पूर्वकाल में वे भगवन्त संसारी थे ऐसा व्यवहार है । बहु कथन से क्या ? सर्व जीव दो नयों के बल से शुद्ध तथा अशुद्ध हैं ऐसा अर्थ है । इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद्अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है कि :-

(रोला)
उभयनयों में जो विरोध है उसके नाशक ।
स्याद्वादमय जिनवचनों में जो रमते हैं ॥
मोह वमन कर अनय-अखंडित परमज्योतिमय ।
स्वयं शीघ्र ही समयसार में वे रमते हैं ॥४॥

दोनों नयों के विरोध को नष्ट करनेवाले, स्यात्पद से अंकित जिनवचन में जो पुरुष रमते हैं, वे स्वयमेव मोह का वमन करके, अनूतन (अनादि) और कुनय के पक्ष से खण्डित न होनेवाली ऐसी उत्तम परम-ज्योति को (समयसार को) शीघ्र देखते ही हैं ।

(कलश--रोला)
जिन चरणों के प्रवर भक्त जिन सत्पुरुषों ने ।
नय-विभाग का नहीं किया हो कभी उल्लंघन ॥
वे पाते हैं समयसार यह निश्चित जानो ।
आवश्यक क्यों अन्य मतों का आलोड़न हो ॥३६॥

जो दो नयों के सम्बन्ध का उल्लंघन न करते हुए परम-जिन के पाद-पंकज-युगल में मत्त हुए भ्रमर समान हैं ऐसे जो सत्पुरुष वे शीघ्र समयसार को अवश्य प्राप्त करते हैं । पृथ्वी पर पर-मत के कथन से सज्जनों को क्या फल है (अर्थात् जगत के जैनेतर-दर्शनों के मिथ्या कथनों से सज्जनों को क्या लाभ है) ?

इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के फैलाव-रहित देह-मात्र जिनको परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (अर्थात् श्रीमद्भगवत् कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव विरचित तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में) जीव अधिकार नाम का प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।

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अजीव-अधिकार



+ पुद्गल-द्रव्य के भेद -
अणुखंधवियप्पेण दु पोग्गलदव्वं हवेइ दुवियप्पं ।
खंधा हु छप्पयारा परमाणू चेव दुवियप्पो ॥20॥
अणुस्कन्धविकल्पेन तु पुद्गलद्रव्यं भवति द्विविकल्पम् ।
स्कन्धाः खलु षट्प्रकाराः परमाणुश्चैव द्विविकल्पः ॥२०॥
द्विविध पुद्गल द्रव्य है स्कंध अणु के भेद से ।
द्विविध परमाणु कहे छह भेद हैं स्कंध के ॥२०॥
अन्वयार्थ : [अणुस्कन्धविकल्पेन तु] परमाणु और स्कन्ध ऐसे दो भेद से [पुद्गलद्रव्यं] पुद्गल-द्रव्य [द्विविकल्पम् भवति] दो भेदवाला है; [स्कन्धाः] स्कन्ध [खलु] वास्तव में [षट्प्रकाराः] छह प्रकार के हैं [परमाणुः च एव द्विविकल्पः] और परमाणु के दो भेद हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, पुद्गल-द्रव्य के भेदों का कथन है ।

प्रथम तो पुद्गल-द्रव्य के दो भेद हैं : स्वभाव-पुद्गल और विभाव-पुद्गल । उनमें, परमाणु वह स्वभाव-पुद्गल है और स्कन्ध वह विभाव-पुद्गल है । स्वभाव-पुद्गल कार्य-परमाणु और कारण-परमाणु ऐसे दो प्रकार से है । स्कन्धों के छह प्रकार हैं : (१) पृथ्वी, (२) जल, (३) छाया, (४) (चक्षु के अतिरिक्त) चार इन्द्रियों के विषयभूत स्कन्ध, (५) कर्म-योग्य स्कन्ध और (६) कर्म के अयोग्य स्कन्ध - ऐसे छह भेद हैं । स्कन्धों के भेद अब कहे जानेवाले सूत्रों में (अगली चार गाथाओं में) विस्तार से कहे जायेंगे ।

(कलश--हरिगीत)
गलन से परमाणु पुद्गल खंध पूरणभाव से ।
अर लोकयात्रा नहीं संभव बिना पुद्गल द्रव्य के ॥३७॥

(पुद्गलपदार्थ) गलन द्वारा (अर्थात् भिन्न हो जाने से) 'परमाणु' कहलाता है और पूरण द्वारा (अर्थात् संयुक्त होने से) 'स्कन्ध' नाम को प्राप्त होता है । इस पदार्थ के बिना लोक-यात्रा नहीं हो सकती ।

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+ पुद्गल के भेद -
अइथूलथूल थूलं थूलसुहुमं च सुहुमथूलं च ।
सुहुमं अइसुहुमं इदि धरादियं होदि छब्भेयं ॥21॥
भूपव्वदमादीया भणिदा अइथूलथूलमिदि खंधा ।
थूला इदि विण्णेया सप्पीजलतेल्लमादीया ॥22॥
छायातवमादीया थूलेदरखंधमिदि वियाणाहि ।
सुहुमथूलेदि भणिया खंधा चउरक्खविसया य ॥23॥
सुहुमा हवंति खंधा पाओग्गा कम्मवग्गणस्स पुणो ।
तव्विवरीया खंधा अइसुहुमा इदि परूवेंति ॥24॥
अतिस्थूलस्थूलाः स्थूलाः स्थूलसूक्ष्माश्च सूक्ष्मस्थूलाश्च ।
सूक्ष्मा अतिसूक्ष्मा इति धरादयो भवन्ति षड्भेदाः ॥२१॥
भूपर्वताद्या भणिता अतिस्थूलस्थूला इति स्कंधाः ।
स्थूला इति विज्ञेयाः सर्पिर्जलतैलाद्याः ॥२२॥
छायातपाद्याः स्थूलेतरस्कन्धा इति विजानीहि ।
सूक्ष्मस्थूला इति भणिताः स्कन्धाश्चतुरक्षविषयाश्च ॥२३॥
सूक्ष्मा भवन्ति स्कन्धाः प्रायोग्याः कर्मवर्गणस्य पुनः ।
तद्विपरीताः स्कन्धाः अतिसूक्ष्मा इति प्ररूपयन्ति ॥२४॥
अतिथूल थूल रु थूल-सूक्षम सूक्ष्म-थूल रु सूक्ष्म अर ।
अतिसूक्ष्म ये छह भेद पृथ्वी आदि पुद्गल खंध के ॥२१॥
भूमि भूधर आदि को अति थूल-थूल कहा गया ।
घी तेल और जलादि को ही थूल खंध कहा गया ॥२२॥
धूप छाया आदि को ही थूल-सूक्षम जानिये ।
चतु इन्द्रिग्राही खंध सूक्षम-थूल हैं पहिचानिये ॥२३॥
करम वरगण योग्य जो स्कंध वे सब सूक्ष्म हैं ।
जो करम वरगण योग्य ना वे खंध ही अति सूक्ष्म हैं ॥२४॥
अन्वयार्थ : [अतिस्थूलस्थूलाः]अतिस्थूलस्थूल, [स्थूलाः] स्थूल, [स्थूलसूक्ष्माः च] स्थूलसूक्ष्म, [सूक्ष्मस्थूलाः च] सूक्ष्मस्थूल, [सूक्ष्माः] सूक्ष्म और [अतिसूक्ष्माः] अतिसूक्ष्म [इति] ऐसे [धरादयः षड्भेदाः भवन्ति] पृथ्वी आदि स्कन्धोंके छह भेद हैं ।
[भूपर्वताद्याः] भूमि, पर्वत आदि [अतिस्थूलस्थूलाः इति स्कन्धाः]अतिस्थूलस्थूल स्कन्ध [भणिताः] कहे गये हैं; [सप्पिर्जलतैलाद्याः] घी, जल, तेल आदि [स्थूलाः इति विज्ञेयाः] स्थूल स्कन्ध जानना ।
[छायातपाद्याः] छाया, आतप (धूप) आदि [स्थूलेतरस्कन्धाः इति] स्थूलसूक्ष्मस्कन्ध [विजानीहि] जान [च] और [चतुरक्षविषयाः स्कन्धाः] चार इन्द्रियोंके विषयभूत स्कन्धोंको [सूक्ष्मस्थूलाः इति] सूक्ष्मस्थूल [भणिताः] कहा गया है ।
[पुनः] और [कर्मवर्गणस्य प्रायोग्याः] कर्मवर्गणाके योग्य [स्कन्धाः] स्कन्ध[सूक्ष्माः भवन्ति] सूक्ष्म हैं; [तद्विपरीताः] उनसे विपरीत (कर्मवर्गणा के अयोग्य) [स्कन्धाः] स्कन्ध [अतिसूक्ष्माः इति] अतिसूक्ष्म [प्ररूपयन्ति] कहे जाते हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, विभाव-पुद्गल के स्वरूप का कथन है ।

सुमेरु, पृथ्वी आदि (घन पदार्थ) वास्तव में अति स्थूल-स्थूल पुद्गल हैं । घी, तेल, मट्ठा, दूध, जल आदि समस्त (प्रवाही) पदार्थ स्थूल पुद्गल हैं । छाया, आतप, अन्धकारादि स्थूल-सूक्ष्म पुद्गल हैं । स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय तथा श्रोत्रेन्द्रिय के विषय सूक्ष्म-स्थूल पुद्गल हैं । शुभाशुभ परिणाम द्वारा आनेवाले ऐसे शुभाशुभ कर्मों के योग्य (स्कन्ध) वे सूक्ष्म पुद्गल हैं । उनसे विपरीत अर्थात् कर्मों के अयोग्य (स्कन्ध) वे सूक्ष्म-सूक्ष्म पुद्गल हैं । ऐसा (इन गाथाओं का) अर्थ है । यह विभाव-पुद्गल का क्रम है ।

इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य देव प्रणीत) श्री पंचास्तिकायसमय में (गाथा द्वारा) कहा है कि :-

पृथ्वी, जल, छाया, चार इन्द्रियों के विषयभूत, कर्म के योग्य और कर्मातीत इसप्रकार पुद्गल (स्कन्ध) छह प्रकार के हैं ।

और मार्गप्रकाश में (श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(सोरठा)
थूलथूल अर थूल स्थूल-सूक्ष्म पहिचानिये ।
सूक्षमथूलरु सूक्ष्म सूक्षम-सूक्षम जानिये ॥५॥

स्थूलस्थूल, पश्चात् स्थूल, तत्पश्चात् स्थूलसूक्ष्म, पश्चात् सूक्ष्मस्थूल, पश्चात् सूक्ष्म और तत्पश्चात् सूक्ष्मसूक्ष्म (इसप्रकार स्कन्ध छह प्रकारके हैं )

इसप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में ४४वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
अरे काल अनादि से अविवेक के इस नृत्य में ।
बस एक पुद्गल नाचता चेतन नहीं इस कृत्य में ॥
यह जीव तो पुद्गलमयी रागादि से भी भिन्न है ।
आनन्दमय चिद्भाव तो दृगज्ञानमय चैतन्य है ॥६॥

इस अनादिकालीन महा अविवेकके नाटकमें अथवा नाच में वर्णादिमान् पुद्गल ही नाचता है, अन्य कोई नहीं; (अभेद ज्ञान में पुद्गल ही अनेक प्रकार का दिखाई देता है, जीव तो अनेक प्रकार का है नहीं;) और यह जीव तो रागादिक पुद्गल-विकारों से विलक्षण, शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति है ।

और

(कलश--दोहा)
पुद्गल में रति मत करो हे भव्योत्तम जीव ।
निज में रति से तुम रहो शिवश्री संग सदैव ॥३८॥

इसप्रकार विविध भेदोंवाला पुद्गल दिखाई देने पर, हे भव्यशार्दूल ! (भव्योत्तम!) तू उसमें रतिभाव न कर । चैतन्य-चमत्कारमात्र (आत्मा) में तू अतुल रति कर कि जिससे तू परमश्रीरूपी कामिनी का वल्लभ होगा ।

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+ कारण और कार्य-परमाणु द्रव्य -
धाउचउक्कस्स पुणो जं हेऊ कारणं ति तं णेयो ।
खंधाणं अवसाणं णादव्वो कज्जपरमाणू ॥25॥
धातुचतुष्कस्य पुनः यो हेतुः कारणमिति स ज्ञेयः ।
स्कन्धानामवसानो ज्ञातव्यः कार्यपरमाणुः ॥२५॥
जल आदि धातु चतुष्क हेतुक कारणाणु कहा है ।
अर खंध के अवसान को ही कारयाणु कहा है ॥२५॥
अन्वयार्थ : [पुनः] फिर [यः] जो [धातुचतुष्कस्य] (पृथ्वी,जल, तेज और वायु) चार धातुओं का [हेतुः] हेतु है, [सः] वह [कारणम् इतिज्ञेयः] कारण-परमाणु जानना; [स्कन्धानाम्] स्कन्धों के [अवसानः] अवसान को (पृथक् हुए अविभागी अन्तिम अंश को) [कार्यपरमाणुः] कार्य-परमाणु [ज्ञातव्य:] जानना ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, कारण-परमाणु द्रव्य और कार्य-परमाणु द्रव्य के स्वरूप का कथन है । (इसप्रकार) अणुओं के (परमाणुओं के) चार भेद हैं : कार्य, कारण, जघन्य और उत्कृष्ट । वह परमाणु द्रव्य-स्वरूप में स्थित होने से उसे विभाव का अभाव है, इसलिये (उसे) परम स्वभाव है । इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री प्रवचनसारमें (१६५वीं तथा १६६वीं गाथा द्वारा) कहा है कि : —

परमाणुओं का परिणमन सम-विषम अर स्निग्ध हो ।
अर रूक्ष हो तो बंध हो दो अधिक पर न जघन्य हो ॥प्र.सा.१६५॥
दो अंश चिकने अणु चिकने-रूक्ष हों यदि चार तो ।
हो बंध अथवा तीन एवं पाँच में भी बंध हो ॥प्र.सा.१६६॥

परमाणु-परिणाम, स्निग्ध हों या रूक्ष हों, सम अंशवाले हों याविषम अंशवाले हों, यदि समान से दो अधिक अंशवाले हों तो बँधते हैं; जघन्य अंशवाला नहीं बँधता । स्निग्धरूप से दो अंशवाला परमाणु चार अंशवाले स्निग्ध (अथवा रूक्ष) परमाणु के साथ बन्ध का अनुभव करता है; अथवा रूक्षता से तीन अंशवाला परमाणु पाँच अंशवाले के साथ जुड़ा हुआ बँधता है ।

और

(कलश--वीर)
छह प्रकार के खंध और हैं चार भेद परमाणु के ।
हमको क्या लेना-देना इन परमाणु-स्कंधों से ॥
अक्षय सुखनिधि शुद्धातम जो उसे नित्य हम भाते हैं ।
उसमें ही अपनापन करके बार-बार हम ध्याते हैं ॥३९॥

उन छह प्रकार के स्कंधों या चार प्रकार के अणुओं के साथ मुझे क्या है ? मैं तो अक्षय शुद्ध आत्मा को पुनः पुनः भाता हूँ ।

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+ परमाणु का विशेष कथन -
अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं णेव इंदियग्गेज्झं ।
अविभागी जं दव्वं परमाणू तं वियाणाहि ॥26॥
आत्माद्यात्ममध्यमात्मान्तं नैवेन्द्रियैर्ग्राह्यम् ।
अविभागि यद्द्रव्यं परमाणुं तद् विजानीहि ॥२६॥
इन्द्रियों से ना ग्रहे अविभागि जो परमाणु है ।
वह स्वयं ही है आदि एवं स्वयं ही मध्यान्त है ॥२६॥
अन्वयार्थ : [आत्मादि] स्वयं ही जिसका आदि है, [आत्ममध्यम्] स्वयं ही जिसका मध्य है और [आत्मान्तम्] स्वयं ही जिसका अन्त है, [न एव इन्द्रियैः ग्राह्यम्] जो इन्द्रियों से ग्राह्य (जानने में आने योग्य) नहीं है और [यद् अविभागि] जो अविभागी है, [तत्] वह [परमाणुं द्रव्यं] परमाणु-द्रव्य [विजानीहि] जान ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, परमाणु का विशेष कथन है ।

जिसप्रकार सहज परम पारिणामिक भाव की विवक्षा का आश्रय करनेवाले सहज निश्चयनय की अपेक्षा से नित्य और अनित्य निगोद से लेकर सिद्धक्षेत्र पर्यन्त विद्यमान जीवों का निज स्वरूप से अच्युतपना कहा गया है, उसी प्रकार पंचमभाव की अपेक्षा से परमाणु-द्रव्य का परम-स्वभाव होने से परमाणु स्वयं ही अपनी परिणति का आदि है, स्वयं ही अपनी परिणति का मध्य है और स्वयं ही अपना अन्त भी है । जो ऐसा होने से, इन्द्रिय-ज्ञान-गोचर न होने से और पवन, अग्नि इत्यादि द्वारा नाश को प्राप्त न होने से, अविभागी है उसे, हे शिष्य ! तू परमाणु जान ।

(कलश--दोहा)
जब जड़ पुद्गल स्वयं में सदा रहे जयवंत ।
सिद्धजीव चैतन्य में क्यों न रहे जयवंत ॥४०॥

जड़ात्मक पुद्गल की स्थिति स्वयं में (पुद्गल में ही) जानकर (अर्थात् जड़स्वरूप पुद्गल पुद्गल के निज स्वरूप में ही रहते हैं ऐसा जानकर), वे सिद्ध-भगवन्त अपने चैतन्यात्मक स्वरूप में क्यों नहीं रहेंगे ?

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+ स्वभाव-पुद्गल -
एयरसरूवगंधं दोफासं तं हवे सहावगुणं ।
विहावगुणमिदि भणिदं जिणसमये सव्वपयडत्तं ॥27॥
एकरसरूपगन्धः द्विस्पर्शः स भवेत्स्वभावगुणः ।
विभावगुण इति भणितो जिनसमये सर्वप्रकटत्वम् ॥२७॥
स्वभाव गुणमय अणु में इक रूप रस गंध फरस दो ।
विभाव गुणमय खंध तो बस प्रगट इन्द्रिय ग्राह्य है ॥२७॥
अन्वयार्थ : [एकरसरूपगन्धः] जो एक रसवाला, एकवर्णवाला, एक गंधवाला और [द्विस्पर्शः] दो स्पर्शवाला हो, [सः] वह [स्वभावगुणः] स्वभाव-गुण वाला [भवेत्] है; [विभावगुणः] विभाव-गुण वाले को [जिनसमये] जिन समय में [सर्वप्रकटत्वम्] सर्व प्रगट (सर्व इन्द्रियों से ग्राह्य) [इति भणितः] कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, स्वभाव-पुद्गल के स्वरूप का कथन है ।

चरपरा, कड़वा, कषायला, खट्टा और मीठा इन पाँच रसों में से एक रस; सफेद, पीला, हरा, लाल और काला इन (पाँच) वर्णों में से एक वर्ण; सुगन्ध और दुर्गंध में से एक गंध; कठोर, कोमल, भारी, हलका, शीत, उष्ण, स्निग्ध (चिकना) और रूक्ष (रूखा) इन आठ स्पर्शों में से अन्तिम चार स्पर्शों में से अविरुद्ध दो स्पर्श; यह, जिनों के मत में परमाणु के स्वभाव-गुण हैं । विभाव-पुद्गल विभाव-गुणात्मक होता है । यह द्वि-अणुकादि स्कन्धरूप विभाव-पुद्गल के विभाव-गुण सकल इन्द्रिय-समूह द्वारा ग्राह्य (जानने में आने योग्य) हैं । ऐसा (इस गाथा का) अर्थ है ।

इसप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री पंचास्तिकाय समय में (८१वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :-

एक रसवाला, एक वर्णवाला, एक गंधवाला और दो स्पर्शवाला वह परमाणु शब्द का कारण है, अशब्द है और स्कन्ध के भीतर हो तथापि द्रव्य है (अर्थात् सदैव सर्व से भिन्न, शुद्ध एक द्रव्य है )

और मार्गप्रकाश में (श्लोक द्वारा) कहा है कि : —

(हरिगीत)
अष्टविध स्पर्श अन्तिम चार में दो वर्ण इक ।
रस गंध इक परमाणु में हैं अन्य कुछ भी है नहीं ॥७॥

परमाणु को आठ प्रकार के स्पर्शों में अन्तिम चार स्पर्शों में से दो स्पर्श, एक वर्ण, एक गंध तथा एक रस समझना, अन्य नहीं ।

और

(कलश--दोहा)
वरणादि परमाणु में रहें न कारज सिद्धि ।
माने भवि शुद्धात्म की करे भावना नित्य ॥४१॥

यदि परमाणु एक वर्णादिरूप प्रकाशते (ज्ञात होते) निज गुण-समूह में हैं, तो उसमें मेरी (कोई) कार्य-सिद्धि नहीं है, (अर्थात् परमाणु तो एक वर्ण, एक गंध आदि अपने गुणों में ही है, तो फिर उसमें मेरा कोई कार्य सिद्ध नहीं होता); इसप्रकार निज हृदय में मानकर परम सुखपद का अर्थी भव्य-समूह शुद्ध आत्मा को एक को भाये ।

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+ पुद्गल-पर्याय -
अण्णणिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जाओ ।
खंधसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जाओ ॥28॥
अन्यनिरपेक्षो यः परिणामः स स्वभावपर्यायः ।
स्कंधस्वरूपेण पुनः परिणामः स विभावपर्यायः ॥२८॥
स्वभाविक पर्याय पर निरपेक्ष ही होती सदा ।
पर विभाविक पर्याय तो स्कंध ही होता सदा ॥२८॥
अन्वयार्थ : [अन्यनिरपेक्षः] अन्य-निरपेक्ष (अन्य की अपेक्षा-रहित) [यः परिणामः] जो परिणाम [सः] वह [स्वभावपर्यायः] स्वभाव-पर्याय है [पुनः] और [स्कन्धस्वरूपेण परिणामः] स्कन्धरूप परिणाम [सः] वह [विभावपर्यायः] विभाव-पर्याय है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, पुद्गल-पर्याय के स्वरूप का कथन है ।

परमाणु-पर्याय पुद्गल की शुद्ध पर्याय है - जो कि परम-पारिणामिक-भावस्वरूप है, वस्तु में होनेवाली छह प्रकार की हानि-वृद्धिरूप है, अति-सूक्ष्म है, अर्थ-पर्यायात्मक है और सादि-सान्त होने पर भी पर-द्रव्य से निरपेक्ष होने के कारण शुद्ध-सद्भूत-व्यवहारनयात्मक है अथवा एक समय में भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक होने से सूक्ष्मऋृजुसूत्रनयात्मक है । स्कन्ध-पर्याय स्वजातीय बन्धरूप लक्षण से लक्षित होने के कारण अशुद्ध है ।

(कलश--दोहा)
जिसप्रकार जिननाथ के कामभाव न होय ।
उस प्रकार परमाणु के शब्दोच्चार न होय ॥४२॥

(परमाणु) पर-परिणति से दूर शुद्ध-पर्यायरूप होने से परमाणु को स्कन्ध-पर्यायरूप शब्द नहीं होता; जिसप्रकार भगवान जिननाथ में कामदेव की वार्ता नहीं होती, उसीप्रकार परमाणु भी सदा अशब्द ही होता है ।

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+ पुद्गल-द्रव्य - उपसंहार -
पोग्गलदव्वं उच्चइ परमाणू णिच्छएण इदरेण ।
पोग्गलदव्वो त्ति पुणो ववदेसो होदि खंधस्स ॥29॥
पुद्गलद्रव्यमुच्यते परमाणुर्निश्चयेन इतरेण ।
पुद्गलद्रव्यमिति पुनः व्यपदेशो भवति स्कन्धस्य ॥२९॥
परमाणु पुद्गल द्रव्य है - यह कथन है परमार्थ का ।
स्कंध पुद्गल द्रव्य है - यह कथन है व्यवहार का ॥२९॥
अन्वयार्थ : [निश्चयेन] निश्चय से [परमाणुः] परमाणु को [पुद्गल-द्रव्यम्] 'पुद्गल-द्रव्य' [उच्यते] कहा जाता है [पुनः] और [इतरेण] व्यवहार से [स्कन्धस्य] स्कन्ध को [पुद्गलद्रव्यम् इति व्यपदेशः] 'पुद्गल-द्रव्य' ऐसा नाम [भवति] होता है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, पुद्गल-द्रव्य के कथन का उपसंहार है ।

शुद्ध-निश्चयनय से स्वभाव-शुद्ध-पर्यायात्मक परमाणु को ही 'पुद्गल-द्रव्य' ऐसा नाम होता है । अन्य ऐसे व्यवहारनय से विभाव-पर्यायात्मक स्कन्ध-पुद्गलों को पुद्गलपना उपचार द्वारा सिद्ध होता है ।

(कलश--हरिगीत)
जिनवर-कथित सन्मार्ग से तत्त्वार्थ को पहिचान कर ।
पररूप चेतन-अचेतन को पूर्णत: परित्याग कर ॥
हे भव्यजन! नित ही भजो तुम निर्विकल्प समाधि में ।
निजरूप ज्ञानानन्दमय चित्चमत्कारी आत्म को ॥४३॥

इसप्रकार जिनपति के मार्ग द्वारा तत्त्वार्थ-समूह को जानकर 'पर', ऐसे समस्त चेतन और अचेतन, को त्यागो; अन्तरंग में निर्विकल्प समाधि में पर-विरहित (पर से रहित) चित्चमत्कारमात्र परम-तत्त्व को भजो ।

(कलश--हरिगीत)
पुद्गल अचेतन जीव चेतन भाव अपरमभाव में ।
निष्पन्न योगीजनों को ये भाव होते ही नहीं ॥४४॥

पुद्गल अचेतन है और जीव चेतन है ऐसी जो कल्पना वह भी प्राथमिकों को (प्रथम भूमिकावालों को) होती है, निष्पन्न योगियों को नहीं होती (अर्थात् जिनका योग परिपक्व हुआ है उनको नहीं होती)

(कलश--हरिगीत)
जड़ देह में न द्वेष चेतन तत्त्व में भी राग ना ।
शुद्धात्मसेवी यतिवरों की अवस्था निर्मोह हो ॥४५॥

इस अचेतन पुद्गलकाय में द्वेष-भाव नहीं होता या सचेतन परमात्म-तत्त्व में रागभाव नहीं होता; ऐसी शुद्ध दशा यतियों की होती है ।

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+ धर्म-अधर्म-आकाश -
गमणणिमित्तं धम्ममधम्मं ठिदि जीवपोग्गलाणं च ।
अवगहणं आयासं जीवादीसव्वदव्वाणं ॥30॥
गमननिमित्तो धर्मोऽधर्मः स्थितेः जीवपुद्गलानां च ।
अवगाहनस्याकाशं जीवादिसर्वद्रव्याणाम् ॥३०॥
सब द्रव्य के अवगाह में नभ जीव पुद्गल द्रव्य के ।
गमन थिति में धर्म और अधर्म द्रव्य निमित्त हैं ॥३०॥
अन्वयार्थ : [धर्मः] धर्म [जीवपुद्गलानां] जीव-पुद्गलों को [गमननिमित्तः] गमन का निमित्त है [च] और [अधर्मः] अधर्म [स्थितेः] (उन्हें) स्थिति का निमित्त है; [आकाशं] आकाश [जीवादिसर्वद्रव्याणाम्] जीवादि सर्व द्रव्यों को [अवगाहनस्य] अवगाहन का निमित्त है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, धर्म-अधर्म-आकाश का संक्षिप्त कथन है ।

यह धर्मास्तिकाय, बावड़ी के पानी की भाँति, स्वयं गति-क्रिया रहित है । मात्र (अ, इ,उ, ऋ, लृ - ऐसे) पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण जितनी जिनकी स्थिति है, जो 'सिद्ध' नाम के योग्य हैं, जो छह अपक्रम से विमुक्त हैं, जो मुक्तिरूपी सुलोचना के लोचन का विषय हैं (अर्थात् जिन्हें मुक्तिरूपी सुन्दरी प्रेम से निहारती है ), जो त्रिलोकरूपी शिखरी (पर्वत) के शिखर हैं, जिन्होंने समस्त क्लेश के घररूप पंचविध संसार को (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के परावर्तनरूप पाँच प्रकार के संसार को) दूर किया है और जो पंचमगति की सीमा पर हैं, ऐसे अयोगी भगवान को स्वभाव गति-क्रियारूप से परिणमित होने पर स्वभाव गति-क्रिया का हेतु धर्म है । और छह अपक्रम से युक्त ऐसे संसारियों को वह (धर्म) विभाव गति-क्रिया का हेतु है । जिसप्रकार पानी मछलियों को गमन का कारण है, उसीप्रकार वह धर्म उन जीव-पुद्गलों को गमन का कारण (निमित्त) है । वह धर्म अमूर्त, आठ स्पर्श रहित, तथा पाँच वर्ण, पाँच रस और दो गंध रहित, अगुरुलघुत्वादि गुणों के आधारभूत, लोकमात्र आकारवाला (लोकप्रमाण आकारवाला), अखण्ड एक पदार्थ है । 'सहभावी गुण हैं और क्रमवर्ती पर्यायें हैं' ऐसा (शास्त्र का) वचन होने से गति के हेतुभूत इस धर्म-द्रव्य को शुद्ध गुण और शुद्ध पर्यायें होती हैं । अधर्म-द्रव्य का विशेषगुण स्थिति-हेतुत्व है । इस अधर्म-द्रव्य के (शेष) गुण-पर्यायों जैसे उस धर्मास्तिकाय के (शेष) सर्व गुण-पर्याय होते हैं । आकाश का, अवकाशदानरूप लक्षण ही विशेष-गुण है । धर्म और अधर्म के शेष गुण आकाश के शेष गुणों जैसे भी हैं ।

इसप्रकार (इस गाथा का) अर्थ है । (यहाँ ऐसा ध्यानमें रखना कि) लोकाकाश, धर्म और अधर्म समान प्रमाणवाले होने से कहीं अलोकाकाश को न्यूनता - छोटापन नहीं है (अलोकाकाश तो अनन्त है)

(कलश--दोहा)
धर्माधर्माकाश को द्रव्यरूप से जान ।
भव्य सदा निज में बसो ये ही काम महान ॥४६॥

जो (द्रव्य) गमन का निमित्त है, जो (द्रव्य) स्थिति का कारण है, और दूसरा जो (द्रव्य) सर्व को स्थान देने में प्रवीण है, उन सबको सम्यक् द्रव्यरूप से अवलोककर (यथार्थतः स्वतंत्र द्रव्य रूप से समझकर) भव्य-समूह सर्वदा निज तत्त्व में प्रवेश करो ।

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+ व्यवहारकाल और उसके भेद -
समयावलिभेदेण दु दुवियप्पं अहव होइ तिवियप्पं ।
तीदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं तु ॥31॥
समयावलिभेदेन तु द्विविकल्पोऽथवा भवति त्रिविकल्पः ।
अतीतः संख्यातावलिहतसंस्थानप्रमाणस्तु ॥३१॥
समय आवलि भेद दो भूतादि तीन विकल्प हैं ।
संस्थान से संख्यातगुण आवलि अतीत बखानिये ॥३१॥
अन्वयार्थ : [समयावलिभेदेन तु] समय और आवलि के भेद से [द्विविकल्पः] व्यवहार-काल के दो भेद हैं [अथवा] अथवा [त्रिविकल्पः भवति] (भूत, वर्तमान और भविष्य के भेद से) तीन भेद हैं । [अतीतः] अतीत काल [संख्यातावलिहत-संस्थानप्रमाणः तु] (अतीत) संस्थानों के और संख्यात आवलि के गुणाकार जितना है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, व्यवहारकाल के स्वरूप का और उसके विविध भेदों का कथन है ।

एक आकाश-प्रदेश में जो परमाणु स्थित हो उसे दूसरा परमाणु मन्दगति से लाँघे उतना काल वह समयरूप व्यवहारकाल है । ऐसे असंख्य समयों का निमिष होता है, अथवा आँख मिंचे उतना काल वह निमेष है । आठ निमेष की काष्ठा होती है । सोलह काष्ठा की कला, बत्तीस कला की घड़ी, साँठ घड़ी का अहोरात्र, तीस अहोरात्र का मास, दो मास की ऋतु, तीन ऋतु का अयन और दो अयन का वर्ष होता है । ऐसे आवलि आदि व्यवहार-काल का क्रम है । इसप्रकार व्यवहार-काल समय और आवलि के भेद से दो प्रकार का है अथवा अतीत, अनागत और वर्तमान के भेद से तीन प्रकार का है ।

यह (निम्नोक्तानुसार), अतीत काल का विस्तार कहा जाता है : अतीत सिद्धों को सिद्ध-पर्याय के प्रादुर्भाव (प्रगट, उत्पन्न होना) समय से पूर्व बीता हुआ जो आवलि आदि व्यवहार-काल वह, उन्हें संसार-दशा में जितने संस्थान बीत गये उनके जितना (सिद्ध-भगवान को अनन्त शरीर बीत गये हैं; उन शरीरों की अपेक्षा संख्यातगुनी आवलियाँ बीत गई हैं । इसलिये अतीत शरीर भी अनन्त हैं और अतीत काल भी अनन्त है । अतीत शरीरों की अपेक्षा अतीत आवलियाँ संख्यातगुनी होने पर भी दोनों अनन्त होने से दोनों को अनन्तपने की अपेक्षा से समान कहा है) होने से अनन्त है । (अनागत सिद्धों को मुक्ति होने तक का) अनागत काल भी अनागत सिद्धों के जो मुक्ति-पर्यन्त अनागत शरीर उनके बराबर है । ऐसा (इस गाथा का) अर्थ है ।

इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री पञ्चास्तिकाय समय में (२४वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :-

समय-निमिष-कला-घड़ी दिनरात-मास-ऋतु-अयन ।
वर्षादि का व्यवहार जो वह पराश्रित जिनवर कहा ॥पं.का.२४॥

समय, निमिष, काष्ठा, कला, घड़ी, दिनरात, मास, ऋतु, अयन और वर्ष - इसप्रकार पराश्रित काल (जिसमें 'पर' की अपेक्षा आती है ऐसा व्यवहारकाल) है ।

और

(कलश--दोहा)
समय निमिष काष्ठा कला घड़ी आदि के भेद ।
इनसे उपजे काल यह रंच नहीं सन्देह ॥
पर इससे क्या लाभ है शुद्ध निरंजन एक ।
अनुपम अद्भुत आतमा में ही रहूँ हमेश ॥47॥

समय, निमिष, काष्ठा, कला, घड़ी, दिन-रात आदि भेदों से यह काल (व्यवहारकाल) उत्पन्न होता है; परन्तु शुद्ध एक निज निरुपम तत्त्व को छोड़कर, उस काल से मुझे कुछ फल नहीं है ।

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+ मुख्य काल का स्वरूप -
जीवादु पोग्गलादो णंतगुणा चावि संपदा समया ।
लोयायासे संति य परमट्ठो सो हवे कालो ॥32॥
जीवात् पुद्गलतोऽनंतगुणाश्चापि संप्रति समयाः ।
लोकाकाशे संति च परमार्थः स भवेत्कालः ॥३२॥
जीव एवं पुद्गलों से समय नंत गुणे कहे ।
कालाणु लोकाकाश थित परमार्थ काल कहे गये ॥३२॥
अन्वयार्थ : [संप्रति] अब, [जीवात्] जीव से [पुद्गलतः चअपि] तथा पुद्गल से भी [अनन्तगुणाः] अनन्तगुने [समयाः] समय हैं; [च] और [लोकाकाशे संति] जो (कालाणु) लोकाकाश में हैं, [सः] वह [परमार्थः कालः भवेत्] परमार्थ काल है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, मुख्य काल के स्वरूप का कथन है ।

जीवराशि से और पुद्गलराशि से अनन्तगुने हैं । कौन ? समय । कालाणु लोकाकाश के प्रदेशों में पृथक्-पृथक् स्थित हैं, वह काल परमार्थ है ।

उसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री प्रवचनसार में (१३८वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :-

पुद्गलाणु मंदगति से चले जितने काल में
रे एक गगनप्रदेश पर परदेश विरहित काल वह ॥प्र.सा.१३८॥

काल तो अप्रदेशी है । प्रदेशमात्र पुद्गल-परमाणु आकाश-द्रव्य के प्रदेश को मन्द-गति से लाँघता हो तब वह वर्तता है अर्थात् निमित्तभूतरूप से परिणमित होता है ।

इसमें (इस प्रवचनसार की गाथा में) भी 'समय' शब्द से मुख्य कालाणु का स्वरूप कहा है ।

और अन्यत्र (आचार्यवर श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेव विरचित बृहद्द्रद्रव्यसङ्ग्रह में २२वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :-

जानलो इस लोक के जो एक-एक प्रदेश पर ।
रत्नराशिवत् जड़े वे असंख्य कालाणु दरव ॥द्र.सं.22॥

लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में जो एक-एक कालाणु रत्नों की राशि की भाँति वास्तव में स्थित हैं, वे कालाणु असंख्य द्रव्य हैं ।

और मार्गप्रकाश में भी (श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश-दोहा)
सब द्रव्यों में परिणमन काल बिना न होय ।
और परिणमन के बिना कोई वस्तु न होय ॥८॥

काल के अभाव में, पदार्थों का परिणमन नहीं होगा; और परिणमन न हो तो, द्रव्य भी न होगा तथा पर्याय भी न होगी; इसप्रकार सर्व के अभाव का (शून्य का) प्रसंग आयेगा ।

और

(कलश-दोहा)
घट बनने में निमित्त है ज्यों कुम्हार का चक्र ।
द्रव्यों के परिणमन में त्यों निमित्त यह द्रव्य ॥
इसके बिन न कोई भी द्रव्य परिणमित होय ।
इसकारण ही सिद्ध रे इसकी सत्ता होय ॥४८॥

कुम्हार के चक्र की भाँति (अर्थात् जिसप्रकार घड़ा बनने में कुम्हार का चाक निमित्त है उसीप्रकार), यह परमार्थकाल (पाँच अस्तिकायों की) वर्तना का निमित्त है । उसके बिना, पाँच अस्तिकायों को वर्तना (परिणमन) नहीं हो सकती ।

(कलश-दोहा)
जिन आगम आधार से धर्माधर्माकाश ।
जिय पुद्गल अर काल का होता है आभास ॥४९॥

सिद्धान्त-पद्धति से (शास्त्र-परम्परा से) सिद्ध ऐसे जीव-राशि, पुद्गल-राशि, धर्म, अधर्म, आकाश और काल सभी प्रतीति-गोचर हैं (अर्थात् छहों द्रव्यों की प्रतीति हो सकती है )

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+ अमूर्त अचेतन द्रव्यों की पर्याय -
जीवादीदव्वाणं परिवट्टणकारणं हवे कालो ।
धम्मादिचउण्हं णं सहावगुणपज्जया होंति ॥33॥
जीवादिद्रव्याणां परिवर्तनकारणं भवेत्कालः ।
धर्मादिचतुर्णां स्वभावगुणपर्याया भवन्ति ॥३३॥
जीवादि के परिणमन में यह काल द्रव्य निमित्त है ।
धर्म आदि चार की निजभाव गुण पर्याय है ॥३३॥
अन्वयार्थ : [जीवादिद्रव्याणाम्] जीवादि द्रव्यों को [परिवर्तन-कारणम्] परिवर्तन का कारण (वर्तनाका निमित्त) [कालः भवेत्] काल है । [धर्मादि-चतुर्णां] धर्मादि चार द्रव्यों में [स्वभावगुणपर्यायाः] स्वभाव-गुण पर्यायें [भवन्ति] होतीं हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, कालादि शुद्ध अमूर्त अचेतन द्रव्यों के स्वभाव-गुण-पर्यायों का कथन है ।

मुख्य काल-द्रव्य, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश की (पाँचअस्तिकायों की) पर्याय-परिणति का हेतु होने से उसका लिंग परिवर्तन है (अर्थात् काल-द्रव्य का लक्षण वर्तना हेतुत्व है) ऐसा यहाँ कहा है । अब (दूसरी बात यह कि), धर्म, अधर्म, आकाश और काल को स्वजातीय या विजातीय बन्ध का सम्बन्ध न होने से उन्हें विभाव-गुण-पर्यायें नहीं होतीं, परन्तु स्वभाव-गुण-पर्यायें होतीं हैं, ऐसा अर्थ है । उन स्वभाव-गुण-पर्यायों का पहले प्रतिपादन किया गया है इसीलिये यहाँ संक्षेप से सूचन किया गया है ।

(कलश--त्रिभंगी)
जय भव भय भंजन, मुनि मन रंजन, भव्यजनों को हितकारी ।
यह षट्द्रव्यों का, विशद विवेचन, सबको हो मंगलकारी ॥५०॥

इसप्रकार भव्यों के कर्णों को अमृत ऐसा जो छह द्रव्यों का अति रम्य दैदीप्यमान (स्पष्ट) विवरण विस्तार से किया गया, वह जिनमुनियों के चित्त को प्रमोद देनेवाला षट्द्रव्य-विवरण भव्य जीव को सर्वदा भव-विमुक्ति का कारण हो ।

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+ पंचास्तिकाय -
एदे छद्दव्वाणि य कालं मोत्तूण अत्थिकाय त्ति ।
णिद्दिट्ठा जिणसमये काया हु बहुप्पदेसत्तं ॥34॥
एतानि षड्द्रव्याणि च कालं मुक्त्वास्तिकाया इति ।
निर्दिष्टा जिनसमये कायाः खलु बहुप्रदेशत्वम् ॥३४॥
बहुप्रदेशीपना ही है काय एवं काल बिन ।
जीवादि अस्तिकाय हैं - इस भांति जिनवर के वचन ॥३४॥
अन्वयार्थ : [कालं मुक्त्वा] काल छोड़कर [एतानिषड्द्रव्याणि च] इन छह द्रव्यों को (अर्थात् शेष पाँच द्रव्योंको) [जिनसमये] जिन-समय में (जिनदर्शन में) [अस्तिकायाः इति] 'अस्तिकाय' [निर्दिष्टाः] कहे गये हैं । [बहुप्रदेशत्वम्] बहु-प्रदेशीपना [खलु कायाः] वह कायत्व है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
इस गाथा में काल-द्रव्य के अतिरिक्त पूर्वोक्त द्रव्य ही पंचास्तिकाय हैं, ऐसा कहा है ।

यहाँ (इस विश्व में) काल द्वितीयादि प्रदेश रहित (अर्थात् एक से अधिक प्रदेश-रहित) है, क्योंकि 'समओ अप्पदेसो (काल अप्रदेशी है )' ऐसा (शास्त्र का) वचन है । इसे द्रव्यत्व ही है, शेष पाँच को कायत्व (भी) है ही । बहुप्रदेशों के समूहवाला हो वह 'काय' है । 'काय' काय जैसे (शरीर जैसे अर्थात् बहु-प्रदेशों वाले) होते हैं । अस्तिकाय पाँच हैं । अस्तित्व अर्थात् सत्ता । वह कैसी है ? महासत्ता और अवान्तर-सत्ता - ऐसी सप्रतिपक्ष है । वहाँ, पदार्थ का 'अस्ति' ऐसा भाव वह अस्तित्व है । इस अस्तित्व से और कायत्व से सहित पाँच अस्तिकाय हैं । काल-द्रव्य को अस्तित्व ही है, कायत्व नहीं है, क्योंकि काय की भाँति उसे बहुप्रदेशों का अभाव है ।

(कलश--हरिगीत)
आगम उदधि से सूरि ने जिनमार्ग की षट्द्रव्यमय ।
यह रत्नमाला भव्यकण्ठाभरण गूँथी प्रीति से ॥५१॥

इसप्रकार जिनमार्गरूपी रत्नाकर में से पूर्वाचार्यों ने प्रीति-पूर्वक षट्द्रव्यरूपी रत्नों की माला भव्यों के कण्ठाभरण के हेतु बाहर निकाली है ।

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+ द्रव्यों के प्रदेश -
संखेज्जासंखेज्जाणंतपदेसा हवंति मुत्तस्स ।
धम्माधम्मस्स पुणो जीवस्स असंखदेसा हु ॥35॥
लोयायासे तावं इदरस्स अणंतयं हवे देसा ।
कालस्स ण कायत्तं एयपदेसो हवे जम्हा ॥36॥
संख्यातासंख्यातानंतप्रदेशा भवन्ति मूर्तस्य ।
धर्माधर्मयोः पुनर्जीवस्यासंख्यातप्रदेशाः खलु ॥३५॥
लोकाकाशे तद्वदितरस्यानंता भवन्ति देशाः ।
कालस्य न कायत्वं एकप्रदेशो भवेद्यस्मात् ॥३६॥
होते अनंत असंख्य संख्य प्रदेश मूर्तिक द्रव्य के ।
होते असंख्य प्रदेश धर्माधर्म चेतन द्रव्य के ॥३५॥
असंख्य लोकाकाश के एवं अनन्त अलोक के ।
फिर भी अकायी काल का तो मात्र एक प्रदेश है ॥३६॥
अन्वयार्थ : [मूर्तस्य] मूर्त द्रव्य को [संख्यातासंख्यातानंत-प्रदेशाः] संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश [भवन्ति] होते हैं; [धर्माधर्मयोः] धर्म, अधर्म [पुनः जीवस्य] तथा जीव को [खलु] वास्तव में [असंख्यातप्रदेशाः] असंख्यात प्रदेश हैं । [लोकाकाशे] लोकाकाश में [तद्वत्] धर्म, अधर्म तथा जीव की भाँति (असंख्यात-प्रदेश) हैं; [इतरस्य] शेष जो अलोकाकाश उसे [अनन्ताः देशाः] अनन्त-प्रदेश [भवन्ति] हैं । [कालस्य] काल को [कायत्वं न] कायपना नहीं है, [यस्मात्] क्योंकि [एकप्रदेशः] वह एक-प्रदेशी [भवेत्] है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
इसमें छह द्रव्यों के प्रदेश का लक्षण और उसके संभव का प्रकार कहा है (अर्थात् इस गाथा में प्रदेश का लक्षण तथा छह द्रव्यों को कितने-कितने प्रदेश होते हैं वह कहा है )

शुद्ध-पुद्गल-परमाणु द्वारा रुका हुआ आकाश-स्थल ही प्रदेश है (अर्थात् शुद्ध पुद्गलरूप परमाणु आकाश के जितने भाग को रोकें उतना भाग वह आकाश का प्रदेश है)

(कलश--हरिगीत)
मुमुक्षुओं के कण्ठ की शोभा बढाने के लिए ।
षट् द्रव्यरूपी रत्नों का मैंने बनाया आभरण ॥
अरे इससे जानकर व्यवहारपथ को विज्ञजन ।
परमार्थ को भी जानते हैं जान लो हे भव्यजन ॥५२॥

पदार्थोंरूपी (छह द्रव्योंरूपी) रत्नों का आभरण मैंने मुमुक्षु के कण्ठ की शोभा के हेतु बनाया है; उसके द्वारा धीमान पुरुष व्यवहार-मार्ग को जानकर, शुद्ध-मार्ग को भी जानता है ।

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+ उपसंहार -
पोग्गलदव्वं मुत्तं मुत्तिविरहिया हवंति सेसाणि ।
चेदणभावो जीवो चेदणगुणवज्जिया सेसा ॥37॥
पुद्गलद्रव्यं मूर्तं मूर्तिविरहितानि भवन्ति शेषाणि ।
चैतन्यभावो जीवः चैतन्यगुणवर्जितानि शेषाणि ॥३७॥
एक पुद्गल मूर्त द्रव्य अमूर्तिक हैं शेष सब ।
एक चेतन जीव है पर हैं अचेतन शेष सब ॥३७॥
अन्वयार्थ : [पुद्गलद्रव्यं] पुद्गल-द्रव्य [मूर्तं] मूर्त है,[शेषाणि] शेष द्रव्य [मूर्तिविरहितानि] मूर्तत्व रहित [भवन्ति] हैं; [जीवः] जीव [चैतन्यभावः] चैतन्य-भाव वाला है, [शेषाणि] शेष द्रव्य [चैतन्यगुणवर्जितानि] चैतन्य-गुण रहित हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, अजीव-द्रव्य सम्बन्धी कथन का उपसंहार है ।

उन (पूर्वोक्त) मूल पदार्थों में पुद्गल मूर्त है, शेष अमूर्त हैं; जीव चेतन है,शेष अचेतन हैं; स्वजातीय और विजातीय बन्धन की अपेक्षा से जीव तथा पुद्गल को (बन्ध-दशा में) अशुद्धपना होता है, धर्मादि चार पदार्थों को विशेषगुण की अपेक्षा से (सदा) शुद्धपना ही है ।

(कलश--हरिगीत)
जिस भव्य के मुख कमल में ये ललितपद वसते सदा ।
उस तीक्ष्ण-बुद्धि पुरुष को शुद्धातमा की प्राप्ति हो ॥
चित्त में उस पुरुष के शुद्धातमा नित ही वसे ।
इस बात में आश्चर्य क्या यह तो सहज परिणमन है ॥५३॥

इसप्रकार ललित पदों की पंक्ति जिस भव्योत्तम के मुखारविंद में सदा शोभती है, उस तीक्ष्ण बुद्धिवाले पुरुष के हृदय-कमल में शीघ्र समयसार (शुद्धआत्मा) प्रकाशित होता है, और इसमें आश्चर्य क्या है !

इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के फैलाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव विरचित तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में)अजीव अधिकार नाम का दूसरा श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।

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शुद्ध-भाव-अधिकार



+ हेय और उपादेय तत्त्व -
जीवादिबहित्तच्चं हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा ।
कम्मोपाधिसमुब्भवगुणपज्जाएहिं वदिरित्तो ॥38॥
जीवादिबहिस्तत्त्वं हेयमुपादेयमात्मनः आत्मा ।
कर्मोपाधिसमुद्भवगुणपर्यायैर्व्यतिरिक्त: ॥३८॥
जीवादि जो बहितत्त्व हैं, वे हेय हैं कर्मोपधिज ।
पर्याय से निरपेक्ष आतमराम ही आदेय है ॥३८॥
अन्वयार्थ : [जीवादिबहिस्तत्त्वं] जीवादि बाह्यतत्त्व [हेयम्] हेय हैं; [कर्म्मोपाधिसमुद्भवगुणपर्यायैः] कर्मोपाधि-जनित गुण-पर्यायों से [व्यतिरिक्तः] व्यतिरिक्त [आत्मा] आत्मा [आत्मनः] आत्मा को [उपादेयम्] उपादेय है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
अब शुद्धभाव अधिकार कहा जाता है ।

यह, हेय और उपादेय तत्त्व के स्वरूप का कथन है ।

जीवादि सात तत्त्वों का समूह पर-द्रव्य होने के कारण वास्तव में उपादेय नहीं है । - ऐसे आत्मा को 'आत्मा' वास्तव में उपादेय है । औदयिक आदि चार भावान्तरों को अगोचर होने से जो (कारण-परमात्मा) द्रव्य-कर्म, भाव-कर्म, और नो-कर्म रूप उपाधि से जनित विभाव-गुण-पर्यायों रहित है, तथा अनादि-अनन्त अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाला शुद्ध-सहज-परम-पारिणामिकभाव जिसका स्वभाव है, ऐसा कारण-परमात्मा वह वास्तव में 'आत्मा' है । अति - आसन्न भव्य जीवों को ऐसे निज परमात्मा के अतिरिक्त (अन्य) कुछ उपादेय नहीं है ।

(कलश--रोला)
सकलविलय से दूर पूर सुख सागर का जो ।
क्लेशोदधि से पार शमित दुर्वारमार जो ॥
शुद्धज्ञान अवतार दुरित तरु का कुठार जो ।
समयसार जयवंत तत्त्व का एक सार जो ॥५४॥

सर्व तत्त्वों में जो एक सार है, जो समस्त नष्ट होने योग्य भावों से दूर है, जिसने दुर्वार काम को नष्ट किया है, जो पापरूप वृक्ष को छेदनेवाला कुठार है, जो शुद्ध-ज्ञान का अवतार है, जो सुख-सागर की बाढ़ है और जो क्लेशोदधि का किनारा है, वह समयसार (शुद्ध आत्मा) जयवन्त वर्तता है ॥

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+ निर्विकल्प तत्त्व -
णो खलु सहावठाणा णो माणवमाणभावठाणा वा ।
णो हरिसभावठाणा णो जीवस्साहरिस्सठाणा वा ॥39॥
न खलु स्वभावस्थानानि न मानापमानभावस्थानानि वा ।
न हर्षभावस्थानानि न जीवस्याहर्षस्थानानि वा ॥३९॥
अरे विभाव स्वभाव हर्षाहर्ष मानपमान के ।
स्थान आतम में नहीं ये वचन हैं भगवान के ॥३९॥
अन्वयार्थ : [जीवस्य] जीव को [खलु] वास्तव में [नस्वभावस्थानानि] स्वभाव-स्थान (विभाव-स्वभाव के स्थान) नहीं हैं, [नमानापमानभावस्थानानि वा] मानापमान-भाव के स्थान नहीं हैं, [न हर्षभावस्थानानि] हर्ष-भाव के स्थान नहीं हैं [वा] या [न अहर्षस्थानानि] अहर्ष के स्थान नहीं हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, निर्विकल्प तत्त्व के स्वरूप का कथन है ।

त्रिकाल-निरुपाधि जिसका स्वरूप है ऐसे शुद्ध जीवास्तिकाय को

(कलश--रोला)
चिदानन्द से भरा हुआ नभ सम अकृत जो ।
राग-द्वेष से रहित एक अविनाशी पद है ॥
चैतन्यामृत पूर चतुर पुरुषों के गोचर ।
आतम क्यों न रुचे करे भोगों की वांछा ॥५५॥

जो प्रीति-अप्रीति रहित शाश्वत पद है, जो सर्वथा अन्तर्मुख और निर्भेदरूप से प्रकाशमान ऐसे सुख का बना हुआ है, नभ-मण्डल समान आकृतिवाला (निराकार-अरूपी) है, चैतन्यामृत के पूर से भरा हुआ जिसका स्वरूप है, जो विचारवन्त चतुर पुरुषों को गोचर है, ऐसे आत्मा में तू रुचि क्यों नहीं करता और दुष्कृतरूप संसार के सुख की वांछा क्यों करता है ?

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+ बन्ध-उदय स्थान जीव नहीं -
णो ठिदिबंधट्ठाणा पयडिट्ठाणा पदेसठाणा वा ।
णो अणुभागट्ठाणा जीवस्स ण उदयठाणा वा ॥40॥
न स्थितिबंधस्थानानि प्रकृतिस्थानानि प्रदेशस्थानानि वा ।
नानुभागस्थानानि जीवस्य नोदयस्थानानि वा ॥४०॥
स्थिति अनुभाग बंध एवं प्रकृति परदेश के ।
अर उदय के स्थान आतम में नहीं - यह जानिये ॥४०॥
अन्वयार्थ : [जीवस्य] जीव को [न स्थितिबन्धस्थानानि] स्थितिबन्ध-स्थान नहीं हैं, [प्रकृतिस्थानानि] प्रकृति-स्थान नहीं हैं, [प्रदेशस्थानानि वा] प्रदेश-स्थान नहीं हैं, [न अनुभागस्थानानि] अनुभाग-स्थान नहीं हैं [वा] अथवा [न उदयस्थानानि] उदय-स्थान नहीं हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में) प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध के स्थानों का तथा उदय के स्थानों का समूह जीव को नहीं है ऐसा कहा है ।

सदा निरुपराग जिसका स्वरूप है ऐसे निरंजन (निर्दोष) निज परमात्म तत्त्व को इसप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्यातिनामक टीका में ११वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(हरिगीत)
पावें न जिसमें प्रतिष्ठा बस तैरते हैं बाह्य में ।
ये बद्धस्पृष्टादि सब जिसके न अन्तरभाव में ॥
जो है प्रकाशित चतुर्दिक् उस एक आत्मस्वभाव का ।
हे जगतजन ! तुम नित्य ही निर्मोह हो अनुभव करो ॥९॥

जगत मोह-रहित होकर सर्व ओर से प्रकाशमान ऐसे उस सम्यक् स्वभाव का ही अनुभव करो कि जिसमें यह बद्धस्पृष्टत्व आदि भाव उत्पन्न होकर स्पष्टरूप से ऊपर तैरते होने पर भी वास्तव में स्थिति को प्राप्त नहीं होते ।

और

(कलश--दोहा)
चिदानन्द निधियाँ बसें मुझमें नेकानेक ।
विपदाओं का अपद मैं नित्य निरंजन एक ॥५६॥

जो नित्य-शुद्ध चिदानन्दरूपी सम्पदाओं की उत्कृष्ट खान है तथा जो विपदाओं का अत्यन्तरूप से अपद है (अर्थात् जहाँ विपदा बिलकुल नहीं है ) ऐसे इसी पद का मैं अनुभव करता हूँ ।

(कलश--वसंततिलका)
निज रूप से अति विलक्षण अफल-फल जो ।
तज सर्व कर्म विषवृक्षज विष-फलों को ॥
जो भोगता सहजसुखमय आतमा को ।
हो मुक्तिलाभ उसको संशय न इसमें ॥५७॥

(अशुभ तथा शुभ) सर्व कर्मरूपी विष-वृक्षों से उत्पन्न होनेवाले, निजरूप से विलक्षण ऐसे फलों को छोड़कर जो जीव इसी समय सहज-चैतन्यमय आत्म-तत्त्व को भोगता है, वह जीव अल्प-काल में मुक्ति प्राप्त करता है, इसमें क्या संशय है ?

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+ चार विभाव-स्वभावों और पंचम-भाव -
णो खइयभावठाणा णो खयउवसमसहावठाणा वा ।
ओदइयभावठाणा णो उवसमणे सहावठाणा वा ॥41॥
नहिं स्थान क्षायिकभावके, क्षायोपशमिक तथा नहीं ।
नहिं स्थान उपशमभावके, होते उदयके स्थान नहिं ॥४१॥
इस जीव के क्षायिक क्षयोपशम और उपशम भाव के ।
एवं उदयगत भाव के स्थान भी होते नहीं ॥४१॥
अन्वयार्थ : [न क्षायिकभावस्थानानि] जीव को क्षायिक-भाव के स्थान नहीं हैं, [न क्षयोपशमस्वभावस्थानानि वा] क्षयोपशम-स्वभाव के स्थान नहीं हैं, [औदयिकभावस्थानानि] औदयिक-भाव के स्थान नहीं हैं [वा] अथवा [न उपशमस्वभावस्थानानि] उपशम-स्वभाव के स्थान नहीं हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
चार विभाव-स्वभावों के स्वरूप-कथन द्वारा पंचम-भाव के स्वरूप का यह कथन है ।

इन पाँच भावों में, औपशमिक-भाव के दो भेद हैं, क्षायिकभाव के नौ भेद हैं, क्षायोपशमिक-भाव के अठारह भेद हैं, औदयिक-भाव के इक्कीस भेद हैं, पारिणामिक-भाव के तीन भेद हैं । अब, इसप्रकार पाँच भावों का कथन किया ।

पाँच भावों में क्षायिकभाव कार्य-समयसारस्वरूप है; वह (क्षायिकभाव) त्रिलोक में प्रक्षोभ के हेतुभूत तीर्थंकरत्व द्वारा प्राप्त होनेवाले सकल-विमल केवलज्ञान से युक्त तीर्थनाथ को (तथा उपलक्षण से सामान्य-केवली को) अथवा सिद्ध-भगवान को होता है । औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव संसारियों को ही होते हैं, मुक्त-जीवों को नहीं । पूर्वोक्त चार भाव आवरण-संयुक्त होने से मुक्ति का कारण नहीं हैं । त्रिकाल-निरुपाधि जिसका स्वरूप है ऐसे निरंजन निज परम पंचमभाव की (पारिणामिक-भाव की) भावना से पंचम-गति में मुमुक्षु जाते हैं, जायेंगे और जाते थे ।

(कलश--दोहा)
विरहित ग्रंथ प्रपंच से पंचाचारी संत ।
पंचमगति की प्राप्ति को पंचमभाव भजंत ॥५८॥

(ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्यरूप) पाँच आचारों से युक्त और किंचित् भी परिग्रह-प्रपंच से सर्वथा रहित ऐसे विद्वान पूजनीय पंचम-गति को प्राप्त करने के लिये पंचम-भाव का स्मरण करते हैं ।

(कलश--हरिगीत)
भाोगियों के भोग के हैं मूल सब शुभकर्म जब ।
तत्त्व के अभ्यास से निष्णातचित मुनिराज तब ॥
मुक्त होने के लिए सब क्यों न छोड़ें कर्म शुभ ।
क्यों ना भजें शुद्धातमा को प्राप्त जिससे सर्व सुख ॥५९॥

समस्त सुकृत (शुभ कर्म) भोगियों के भोग का मूल है; परम-तत्त्व के अभ्यास में निष्णात चित्तवाले मुनीश्वर भव से विमुक्त होने हेतु उस समस्त शुभ-कर्म को छोड़ो और सार-तत्त्व-स्वरूप ऐसे उभय समयसार को भजो । इसमें क्या दोष है ?

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+ शुद्ध-जीव को विकार नहीं -
चउगइभवसंभमणं जाइजरामरणरोगसोगा य ।
कुलजोणिजीवमग्गणठाणा जीवस्स णो संति ॥42॥
चतुर्गतिभवसंभ्रमणं जातिजरामरणरोगशोकाश्च ।
कुलयोनिजीवमार्गणस्थानानि जीवस्य नो सन्ति ॥४२॥
चतुर्गति भव भ्रमण रोग रु शोक जन्म-जरा-मरण ।
जीवमार्गणथान अर कुलयोनि ना हों जीव के ॥४२॥
अन्वयार्थ : [जीवस्य ] जीव को [चतुर्गतिभवसंभ्रमणं] चारगति के भवों में परिभ्रमण, [जातिजरामरणरोगशोकाः] जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, [कुलयोनिजीवमार्गणस्थानानि च ] कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणास्थान [नो सन्ति] नहीं है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
शुद्ध-निश्चयनय से शुद्ध-जीव को समस्त संसार-विकारों का समुदाय नहीं है, ऐसा यहाँ (इस गाथा में) कहा है ।

द्रव्य-कर्म तथा भाव-कर्म का स्वीकार न होने से जीव को नारकत्व, तिर्यञ्चत्व, मनुष्यत्व और देवत्वस्वरूप चार गतियों का परिभ्रमण नहीं है । नित्य-शुद्ध चिदानन्दरूप कारण-परमात्म-स्वरूप जीव को द्रव्य-कर्म तथा भाव-कर्म के ग्रहण के योग्य विभाव-परिणति का अभाव होने से जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक नहीं है । चतुर्गति (चार गति के) जीवों के कुल तथा योनि के भेद जीव में नहीं हैं ऐसा (अब) कहा जाता है । वह इसप्रकार : कुल मिलकर एक सौ साढ़े सत्तानवे लाख करोड़ (१९७५०००,०००,०००,००) कुल हैं । (कुल मिलकर ८४००००० योनिमुख हैं ।) सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, स्थूल एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, द्वीन्द्रियपर्याप्त और अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त — ऐसे भेदोंवाले चौदह जीवस्थान हैं । गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व,सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहार, ऐसे भेदस्वरूप (चौदह) मार्गणास्थान हैं । यह सब, उन भगवान परमात्मा को शुद्ध-निश्चयनय के बल से (शुद्ध-निश्चयनय से) नहीं हैं - ऐसा भगवान सूत्र-कर्ता का (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव का) अभिप्राय है ।

इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसारकी आत्मख्याति नामक टीका में ३५-३६वें दो श्लोकों द्वारा) कहा है कि :-

(हरिगीत)
चैतन्यशक्ति से रहित परभाव सब परिहार कर ।
चैतन्यशक्ति से सहित निजभाव नित अवगाह कर ॥
है श्रेष्ठतम जो विश्व में सुन्दर सहज शुद्धातमा ।
अब उसी का अनुभव करो तुम स्वयं हे भव्यातमा ॥१०॥

चित्शक्ति से रहित अन्य सकल भावों को मूल से छोड़कर और चित्शक्ति मात्र ऐसे निज आत्मा का अति स्फुट रूप से अवगाहन करके, आत्मा समस्त विश्व के ऊपर सुन्दरता से प्रवर्तमान ऐसे इस केवल (एक) अविनाशी आत्मा को आत्मा में साक्षात् अनुभव करो ।

(कलश--दोहा)
चित् शक्ति सर्वस्व जिन, केवल वे हैं जीव ।
उन्हें छोड़कर और सब, पुद्गलमयी अजीव ॥११॥

चैतन्यशक्ति से व्याप्त जिसका सर्वस्व-सार है ऐसा यह जीव इतना ही मात्र है; इस चित्शक्ति से शून्य जो यह भाव हैं वे सब पौद्गलिक हैं ।

और

(कलश--रोला)
रहे निरन्तर ज्ञानभावना निज आतम की ।
जिनके वे नर भव विकल्प में नहीं उलझते ॥
परपरिणति से दूर समाधि निर्विकल्प पा ।
पा जाते हैं अनघ अनूपम निज आतम को ॥६०॥

सततरूप से अखण्ड-ज्ञान की सद्भावनावाला आत्मा (अर्थात् 'मैं अखण्ड ज्ञान हूँ' ऐसी सच्ची भावना जिसे निरंतर वर्तती है वह आत्मा) संसार के घोर विकल्प को नहीं पाता, किन्तु निर्विकल्प-समाधि को प्राप्त करता हुआ पर-परिणति से दूर,अनुपम, अनघ चिन्मात्र को (चैतन्यमात्र आत्मा को) प्राप्त होता है ।

(कलश--रोला)
भक्तामर की मुकुट रत्नमाला से वंदित ।
चरणकमल जिनके वे महावीर तीर्थंकर ॥
का पावन उपदेश प्राप्त कर शीलपोत से ।
संत भवोदधि तीर प्राप्त कर लेते सत्वर ॥६१॥

भक्ति से नमित देवेन्द्र मुकुट की सुन्दर रत्नमाला द्वारा जिनके चरणों को प्रगटरूप से पूजते हैं ऐसे महावीर तीर्थाधिनाथ द्वारा यह सन्त जन्म-जरा-मृत्यु का नाशक तथा दुष्ट मल-समूहरूपी अंधकार का ध्वंस करने में चतुर ऐसा इसप्रकार का (पूर्वोक्त) उपदेश समझकर, सत्शीलरूपी नौका द्वारा भवाब्धि के सामने किनारे पहुँच जाते हैं ।

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+ शुद्ध-आत्मा को विभाव का अभाव -
णिद्दंडो णिद्दंद्दो णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो ।
णीरागो णिद्दोसो णिम्मूढो णिब्भयो अप्पा ॥43॥
निर्दण्डः निर्द्वन्द्वः निर्ममः निःकलः निरालंबः ।
नीरागः निर्दोषः निर्मूढः निर्भयः आत्मा ॥४३॥
निर्दण्ड है निर्द्वन्द्व है यह निरालम्बी आतमा ।
निर्देह है निर्मूढ है निर्भयी निर्मम आतमा ॥४३॥
अन्वयार्थ : [आत्मा] आत्मा [निर्दण्डः] निर्दंड [निर्द्वन्द्वः] निर्द्वंद्व, [निर्ममः] निर्मम, [निःकलः] निःशरीर, [निरालंबः] निरालंब, [नीरागः] नीराग, [निर्दोषः] निर्दोष, [निर्मूढः] निर्मूढ और [निर्भयः] निर्भय है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में) वास्तव में शुद्ध-आत्मा को समस्त विभाव का अभाव है ऐसा कहा है ।

ऐसा यह आत्मा वास्तव में उपादेय है ।

इसीप्रकार (श्री योगीन्द्र-देव कृत) अमृताशीति में (५७वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
जो आतमा स्वर-व्यंजनाक्षर-अंक के समुदाय से ।
स्पर्श रस गंध रूप से अर अहित से अंधकार से ॥
भूमि जल से अनल से अर अनिल की अणु राशि से ।
दिगचक्र से भी रहित वह नित रहे शाश्वत भाव से ॥१२॥

आत्म-तत्त्व स्वर-समूह, विसर्ग और व्यंजनादि अक्षरों रहित तथा संख्या-रहित है (अर्थात् अक्षर और अङ्क का आत्म-तत्त्व में प्रवेश नहीं है), अहित-रहित है, शाश्वत है, अंधकार तथा स्पर्श, रस, गंध और रूप रहित है, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के अणुओं रहित है तथा स्थूल दिक्चक्र (दिशाओं के समूह) रहित है ।

और

(कलश--रोला)
पर-परिणति से दूर और दुष्कर्म पार है ।
अस्तमार दुर्वार पापवन का कुठार है ॥
रक्षक हो मम रागोदधि का पूर पार जो ।
सुख-सागर-जल निर्विकार है समयसार जो ॥६२॥

जो (समयसार) दुष्ट पापों के वन को छेदने का कुठार है, जो दुष्ट कर्मों के पार को प्राप्त हुआ है (अर्थात् जिसने कर्मों का अन्त किया है), जो पर-परिणति से दूर है, जिसने रागरूपी समुद्र के पूर को नष्ट किया है, जिसने विविध विकारों का हनन कर दिया है, जो सच्चे सुख-सागर का नीर है और जिसने काम को अस्त किया है, वह समयसार मेरी शीघ्र रक्षा करो ।

(कलश--रोला)
बुधजन जिनको कहें कल्पनामात्र रम्य है
उन सुख-दुख से रहित नित्य जो निर्विकार है ।
विविध-विकल्प विहीन पद्मप्रभ मुनिवर मन में
जो संस्थित वह परम-तत्त्व जयवंत रहे नित ॥६३॥

जो तत्त्व-निष्णात (वस्तु-स्वरूप में निपुण) पद्मप्रभ-मुनि के हृदय-कमल में सुस्थित है, जो निर्विकार है, जिसने विविध विकल्पों का हनन कर दिया है, और जिसे बुध-पुरुषों ने कल्पना-मात्र-रम्य ऐसे भव-भव के सुखों से तथा दुःखों से मुक्त (रहित) कहा है, वह परम-तत्त्व जयवन्त है ।

(कलश--रोला)
सर्व-तत्त्व में सार मगन जो निज-परिणति में
सुख-सागर में सदा खान जो गुण मणियों की ।
उस आतम को भजो निरंतर भव्यभाव से
भव्य-भावना से प्रेरित हो भव्य आत्मन् ॥६४॥

जो आत्मा भव्यता द्वारा प्रेरित हो, वह आत्मा भव से विमुक्त होने के हेतु निरन्तर इस आत्मा को भजो - कि जो (आत्मा) अनुपम ज्ञान के आधीन है, जो सहज गुणमणि की खान है, जो (सर्व) तत्त्वों में सार है और जो निज-परिणति के सुख-सागर में मग्न होता है ।

(कलश--दोहा)
भव-भोगों से पराङ्गमुख भव-दुखनाशन हेतु ।
ध्रुव निज आतम को भजो अध्रुव से क्या हेतु ॥६५॥

निज आत्मा में लीन बुद्धिवाले तथा भव से और भोग से पराङ्मुख हुए हे यति ! तू भव-हेतु का विनाश करनेवाले ऐसे इस (ध्रुव) पद को भज; अध्रुव वस्तु की चिन्ता से तुझे क्या प्रयोजन है ?

(कलश--दोहा)
जन्म मृत्यु रोगादि से रहित अनाकुल आत्म ।
अमृतमय अच्युत अमल मैं बंदूँ शुद्धात्म ॥६६॥

जो अनाकुल है, अच्युत है, जन्म-मृत्यु-रोगादि रहित है, सहज-निर्मल सुखामृतमय है, उस समयसार को मैं समरस (समताभाव) द्वारा सदा पूजता हूँ ।

(कलश--दोहा)
सूत्रकार मुनिराज ने आतम दियो बताय ।
उससे भवि मुक्ति लहें मैं पूजूँ मन लाय ॥६७॥

इसप्रकार पहले निजज्ञ सूत्रकार ने (आत्मज्ञानी सूत्रकर्ता श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने) जिस निजात्म तत्त्व का वर्णन किया और जिसे जानकर भव्य जीव मुक्ति को प्राप्त करता है, उस निजात्म-तत्त्व को उत्तम सुख की प्राप्ति के हेतु मैं भाता हूँ ।

(कलश--रोला)
ज्ञानरूप अक्षय विशाल निर्द्वन्द्व अनूपम
आदि-अंत अर दोष रहित जो आत्मतत्त्व है ।
उसको पाकर भव्य भवजनित भ्रम से छूटें
उसमें रमकर भव्य मुक्ति रमणी को पाते ॥६८॥

परमात्म-तत्त्व आदि-अन्त रहित है, दोष-रहित है, निर्द्वन्द्व है और अक्षय विशाल उत्तम ज्ञान-स्वरूप है । जगत में जो भव्य जन उसकी भावनारूप परिणमित होते हैं, वे भव-जनित दुःखों से दूर ऐसी सिद्धि को प्राप्त करते हैं ।

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+ शुद्ध जीव का स्वरूप -
णिग्गंथो णीरागो णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मुक्को ।
णिक्कामो णिक्कोहो णिम्माणो णिम्मदो अप्पा ॥44॥
निर्ग्रन्थो नीरागो निःशल्यः सकलदोषनिर्मुक्त : ।
निःकामो निःक्रोधो निर्मानो निर्मदः आत्मा ॥४४॥
निर्ग्रन्थ है नीराग है नि:शल्य है निर्दोष है ।
निर्मान-मद यह आतमा निष्काम है निष्क्रोध है ॥४४॥
अन्वयार्थ : [आत्मा] आत्मा [निर्ग्रन्थः] निर्ग्रंथ [नीरागः] निराग, [निःशल्यः] निःशल्य, [सकलदोषनिर्मुक्तः] सर्व दोष-विमुक्त, [निःकामः] निष्काम, [निःक्रोधः] निःक्रोध, [निर्मानः] निर्मान और [निर्मदः] निर्मद है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में) भी शुद्ध जीव का स्वरूप कहा है ।

उक्त प्रकार का (ऊपर कहे हुए प्रकार का), विशुद्ध सहज सिद्ध नित्य-निरावरण निज कारण-समयसार का स्वरूप उपादेय है ।

इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री प्रवचनसारकी टीकामें ८वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--मनहरण कवित्त)
इस भाँति परपरिणति का उच्छेद कर ।
करता-करम आदि भेदों को मिटा दिया ॥
इस भाँति आतमा का तत्त्व उपलब्ध कर ।
कल्पनाजन्य भेदभाव को मिटा दिया ॥
ऐसा यह आतमा चिन्मात्र निरमल ।
सुखमय शान्तिमय तेज अपना लिया ॥
आपनी ही महिमामय परकाशमान ।
रहेगा अनंतकाल जैसा सुख पा लिया ॥१३॥

इसप्रकार पर-परिणति के उच्छेद द्वारा (अर्थात् पर-द्रव्यरूप परिणमन के नाश द्वारा) तथा कर्ता, कर्म आदि भेद होने की जो भ्रान्ति उसके भी नाश द्वारा अन्त में जिसने शुद्ध आत्म-तत्त्व को उपलब्ध किया है, ऐसा यह आत्मा, चैतन्यमात्र रूप विशद (निर्मल) तेज में लीन रहता हुआ, अपनी सहज (स्वाभाविक) महिमा के प्रकाशमानरूप से सर्वदा मुक्त ही रहेगा ।

और

(कलश--मनहरण कवित्त)
ज्ञानज्योति द्वारा पापरूपी अंधकार का ।
नाशक ध्रुव नित्य आनन्द का है धारक जो ॥
अमूरतिक आतमा अत्यन्त अविचल ।
स्वयं में ही उत्तम सुशील का है कारक जो ॥
भवभयहरण पति मोक्षलक्ष्मी का अति ।
ऐश्वर्यवान नित्य आतम विलासी जो ॥
करता हूँ वंदना मैं आत्मदेव की सदा ।
अलख अखण्ड पिण्ड चण्ड अविनाशी जो ॥६९॥

जिसने ज्ञान-ज्योति द्वारा पापरूपी अंधकार-समूह का नाश किया है, जो नित्य आनन्द आदि अतुल-महिमा का धारण करनेवाला है, जो सर्वदा अमूर्त है, जो अपने में अत्यन्त अविचलता द्वारा उत्तम-शील का मूल है, उस भव-भय को हरनेवाले मोक्ष-लक्ष्मी के ऐश्वर्यवान स्वामी को मैं वन्दन करता हूँ ।

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+ कारण-परमात्मा का स्वरूप -
वण्णरसगंधफासा थीपुंसणउंसयादिपज्जाया ।
संठाणा संहणणा सव्वे जीवस्स णो संति ॥45॥
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं ।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ॥46॥
वर्णरसगंधस्पर्शाः स्त्रीपुंनपुंसकादिपर्यायाः ।
संस्थानानि संहननानि सर्वे जीवस्य नो सन्ति ॥४५॥
अरसमरूपमगंधमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम् ।
जानीह्यलिंगग्रहणं जीवमनिर्दिष्टसंस्थान ॥४६॥
स्पर्श रस गंध वर्ण एवं संहनन संस्थान भी ।
नर, नारि एवं नपुंसक लिंग जीव के होते नहीं ॥४५॥
चैतन्यगुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है ।
जानो अलिंगग्रहण इसे यह अर्निदिष्ट अशब्द है ॥४६॥
अन्वयार्थ : [वर्णरसगंधस्पर्शाः] वर्ण-रस-गंध-स्पर्श, [स्त्रीपुंनपुंसकादिपर्यायाः] स्त्री-पुरुष-नपुंसकादि पर्यायें, [संस्थानानि] संस्थान और [संहननानि] संहनन -- [सर्वे] यह सब [जीवस्य] जीव को [नो सन्ति] नहीं हैं । [जीवम्] जीव को [अरसम्] अरस, [अरूपम्] अरूप, [अगंधम्] अगंध,[अव्यक्तम्] अव्यक्त, [चेतनागुणम्] चेतनागुणवाला, [अशब्दम्] अशब्द, [अलिंगग्रहणम्] अलिंगग्रहण (लिंगसे अग्राह्य) और [अनिर्दिष्टसंस्थानम्] जिसे कोई संस्थान नहीं कहा है ऐसा [जानीहि] जान ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इन दो गाथाओं में) परम-स्वभावभूत ऐसा जो कारण-परमात्मा का स्वरूप उसे समस्त पौद्गलिक विकार-समूह नहीं है ऐसा कहा है ।

निश्चय से पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध, आठ स्पर्श, स्त्री-पुरुष-नपुंसकादि विजातीय विभाव-व्यंजन-पर्यायें, कुब्जादि संस्थान, वज्रर्षभनाराचादि संहनन पुद्गलों को ही हैं, जीवों को नहीं हैं । संसार-दशा में स्थावर नाम-कर्म-युक्त संसारी जीव को कर्मफल-चेतना होती है, त्रस नाम-कर्म-युक्त संसारी जीव को कार्य सहित कर्मफल-चेतना होती है । कार्य-परमात्मा और कारण-परमात्मा को शुद्ध-ज्ञान-चेतना होती है । इसी से कार्य-समयसार अथवा कारण-समयसार को सहज फलरूप शुद्ध-ज्ञान-चेतना होती है । इसलिये, सहजशुद्ध-ज्ञान-चेतनास्वरूप निज कारण-परमात्मा संसारावस्था में या मुक्तावस्था में सर्वदा एकरूप होने से उपादेय है ऐसा, हे शिष्य ! तू जान ।

इसप्रकार एकत्वसप्तति में (श्रीपद्मनन्दी - आचार्यदेवकृत पद्मनन्दिपंचविंशतिका नामक शास्त्र में एकत्वसप्तति नामक अधिकार में ७९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--रोला)
जड़-कर्मों से भिन्न आतमा होता है ज्यों ।
भाव-कर्म से भिन्न आतमा होता है त्यों ॥
सभी स्वयं के गुण-पर्यायों से अभिन्न हैं ।
पर-द्रव्यों से भिन्न सदा सब ही होते हैं ॥१४॥

मेरा ऐसा मंतव्य है कि -- आत्मा पृथक् है और उसके पीछे-पीछे जानेवाला कर्म पृथक् है; आत्मा और कर्म की अति निकटता से जो विकृति होती है वह भी उसीप्रकार (आत्मा से) भिन्न है; और काल-क्षेत्रादि जो हैं वे भी (आत्मा से) पृथक् हैं । निज-निज गुणकला से अलंकृत यह सब पृथक्-पृथक् हैं (अर्थात् अपने-अपने गुणों तथा पर्यायों से युक्त सर्व द्रव्य अत्यन्त भिन्न-भिन्न हैं )

और -

(कलश--रोला)
अरे बंध हो अथवा न हो शुद्धजीव तो ।
सदा भिन्न ही विविध मूर्त द्रव्यों से जानो ॥
बुधपुरुषों से कहे हुए जिनदेव वचन इस ।
परमसत्य को भव्य आतमा तुम पहिचानो ॥७०॥

'बन्ध हो न हो (अर्थात् बन्धावस्था में या मोक्षावस्था में), समस्त-विचित्र मूर्त-द्रव्यजाल (अनेकविध मूर्त-द्रव्यों का समूह) शुद्ध जीव के रूप से व्यतिरिक्त है' ऐसा जिनदेव का शुद्ध वचन बुधपुरुषों को कहते हैं । इस भुवनविदित को (इस जगत-प्रसिद्ध सत्य को), हे भव्य ! तू सदा जान ।

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+ संसारी और मुक्त जीवों में अन्तर नहीं -
जारिसिया सिद्धप्पा भवमल्लिय जीव तारिसा होंति ।
जरमरणजम्ममुक्का अट्ठगुणालंकिया जेण ॥47॥
याद्रशाः सिद्धात्मानो भवमालीना जीवास्ताद्रशा भवन्ति ।
जरामरणजन्ममुक्ता अष्टगुणालंकृता येन ॥४७॥
गुण आठ से हैं अलंकृत अर जन्म-मरण-जरा नहीं ।
हैं सिद्ध जैसे जीव त्यों भवलीन संसारी कहे ॥४७॥
अन्वयार्थ : [याद्रशाः] जैसे [सिद्धात्मानः] सिद्ध आत्मा हैं [ताद्रशाः] वैसे [भवम् आलीनाः जीवाः] भवलीन (संसारी) जीव [भवन्ति] हैं, [येन] जिससे (वे संसारी जीव सिद्धात्माओं की भाँति) [जरामरणजन्ममुक्ताः] जन्म-जरा-मरण से रहित और [अष्टगुणालंकृताः] आठ गुणों से अलंकृत हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
शुद्धद्रव्यार्थिक नय के अभिप्राय से संसारी जीवों में और मुक्त जीवों में अन्तर न होने का यह कथन है ।

जो कोई अति-आसन्न-भव्य जीव हुए, वे पहले संसारावस्था में संसार क्लेश से थके चित्तवाले होते हुए सहज वैराग्य परायण होने से द्रव्य-भाव लिंग को धारण करके परमगुरु के प्रसाद से प्राप्त किये हुए परमागम के अभ्यास द्वारा सिद्ध-क्षेत्र को प्राप्त करके अव्याबाध (बाधा-रहित) सकल-विमल (सर्वथा-निर्मल) केवलज्ञान-केवलदर्शन-केवलसुख-केवलवीर्य युक्त सिद्धात्मा हो गये - कि जो सिद्धात्मा कार्य समयसाररूप हैं, कार्यशुद्ध हैं । जैसे वे सिद्धात्मा हैं वैसे ही शुद्ध-निश्चयनय से भववाले (संसारी) जीव हैं । जिसकारण वे संसारी जीव सिद्धात्मा के समान हैं, उस कारण वे संसारी जीव जन्म-जरा-मरण से रहित और सम्यक्त्वादि आठ गुणों की पुष्टि से तुष्ट हैं (सम्यक्त्व, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहन,अगुरुलघु तथा अव्याबाध इन आठ गुणों की समृद्धि से आनन्दमय हैं )

(कलश--दोहा)
पहले से ही शुद्धता जिनमें पाई जाय ।
उन सुधिजन कुधिजनों में कुछ भी अंतर नाय ॥
किस नय से अन्तर करूँ उनमें समझ न आय ।
मैं पूँछूँ इस जगत से देवे कोई बताय ॥७१॥

जिन सुबुद्धिओं को तथा कुबुद्धिओं को पहले से ही शुद्धता है,उनमें कुछ भी भेद मैं किस नय से जानूँ ?

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+ कार्य तथा कारण-समयसार में अन्तर नहीं -
असरीरा अविणासा अणिंदिया णिम्मला विसुद्धप्पा ।
जह लोयग्गे सिद्धा तह जीवा संसिदी णेया ॥48॥
अशरीरा अविनाशा अतीन्द्रिया निर्मला विशुद्धात्मानः ।
यथा लोकाग्रे सिद्धास्तथा जीवाः संसृतौ ज्ञेयाः ॥४८॥
शुद्ध अविनाशी अतीन्द्रिय अदेह निर्मल सिद्ध ज्यों ।
लोकाग्र में जैसे विराजे जीव हैं भवलीन त्यों ॥४८॥
अन्वयार्थ : [यथा] जिसप्रकार [लोकाग्रे] लोकाग्र में [सिद्धाः] सिद्ध-भगवन्त [अशरीराः] अशरीरी, [अविनाशाः] अविनाशी, [अतीन्द्रियाः] अतीन्द्रिय, [निर्मलाः] निर्मल और [विशुद्धात्मानः] विशुद्धात्मा (विशुद्धस्वरूपी) हैं, [तथा] उसीप्रकार [संसृतौ] संसार में [जीवाः] (सर्व) जीव [ज्ञेयाः] जानना ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
और यह, कार्य-समयसार तथा कारण-समयसार में अन्तर न होने का कथन है ।

उसीप्रकार संसार में भी यह संसारी जीव किसी नय के बल से शुद्ध हैं ।

(कलश--हरिगीत)
शुद्ध है यह आतमा अथवा अशुद्ध इसे कहें ।
अज्ञानि मिथ्यादृष्टि के ऐसे विकल्प सदा रहें ॥
कार्य-कारण शुद्ध सारासारग्राही बुद्धि से ।
जानते सद्दृष्टि उनकी वंदना हम नित करें ॥७२॥

शुद्ध-अशुद्ध की जो विकल्पना वह मिथ्यादृष्टि को सदैव होती है; सम्यग्दृष्टि को तो सदा (ऐसी मान्यता होती है कि) कारण-तत्त्व और कार्य-तत्त्व दोनों शुद्ध हैं । इसप्रकार परमागम के अतुल अर्थ को सारासार के विचारवाली सुन्दर बुद्धि द्वारा जो सम्यग्दृष्टि स्वयं जानता है, उसे हम वन्दन करते हैं ।

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+ निश्चय और व्यवहारनय की उपादेयता -
एदे सव्वे भावा ववहारणयं पडुच्च भणिदा हु ।
सव्वे सिद्धसहावा सुद्धणया संसिदी जीवा ॥49॥
एते सर्वे भावाः व्यवहारनयं प्रतीत्य भणिताः खलु ।
सर्वे सिद्धस्वभावाः शुद्धनयात् संसृतौ जीवाः ॥४९॥
व्यवहारनय से कहे हैं ये भाव सब इस जीव के ।
पर शुद्धनय से सिद्धसम हैं जीव संसारी सभी ॥४९॥
अन्वयार्थ : [एते] यह (पूर्वोक्त) [सर्वे भावाः] सब भाव [खलु] वास्तव में [व्यवहारनयं प्रतीत्य] व्यवहारनय का आश्रय करके [भणिताः] (संसारी जीवों में विद्यमान) कहे गये हैं; [शुद्धनयात्] शुद्धनय से [संसृतौ] संसार में रहने वाले [सर्वे जीवाः] सर्व जीव [सिद्धस्वभावाः] सिद्ध-स्वभावी हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, निश्चयनय और व्यवहारनय की उपादेयता का प्रकाशन (कथन) है ।

पहले जो विभाव-पर्यायें 'विद्यमान नहीं हैं ' ऐसी प्रतिपादित की गई हैं, वे सब विभाव-पर्यायें वास्तव में व्यवहारनय के कथन से विद्यमान हैं । और जो (व्यवहारनय के कथन से) चार विभाव-भावरूप परिणत होने से संसार में भी विद्यमान हैं वे सब शुद्धनय के कथन से शुद्ध गुण-पर्यायों द्वारा सिद्ध-भगवन्त समान हैं (अर्थात् जो जीव व्यवहारनय के कथन से औदयिकादि विभाव-भावोंवाले होने से संसारी हैं वे सब शुद्धनय के कथन से शुद्ध गुणों तथा शुद्ध पर्यायों वाले होने से सिद्ध सदृश हैं ) । इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में पाँचवें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--रोला)
ज्यों दुर्बल को लाठी है हस्तावलम्ब त्यों ।
उपयोगी व्यवहार सभी को अपरमपद में ॥
पर उपयोगी नहीं रंच भी उन लोगों को ।
जो रमते हैं परम-अर्थ चिन्मय चिद्घन में ॥१५॥

यद्यपि व्यवहारनय इस प्रथम भूमिका में जिन्होंने पैर रखा है ऐसे जीवों को, अरे रे ! हस्तावलम्बरूप भले हो, तथापि जो जीव चैतन्य-चमत्कारमात्र, पर से रहित ऐसे परम पदार्थ को अन्तरंग में देखते हैं उन्हें यह व्यवहारनय कुछ नहीं है ।

और

(कलश--सोरठा)
अन्तर नहिं है रंच, संसारी अर सिद्ध में ।
बतलाते यह मर्म, शुद्धतत्त्व के रसिकजन ॥७३॥

'शुद्ध निश्चयनय से मुक्ति में तथा संसार में अन्तर नहीं है;' ऐसा ही वास्तव में, तत्त्व विचारने पर (परमार्थ वस्तु-स्वरूप का विचार अथवा निरूपण करने पर), शुद्ध तत्त्व के रसिक पुरुष कहते हैं ।

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+ हेय-उपादेय का स्वरूप -
पुव्वुत्तसयलभावा परदव्वं परसहावमिदि हेयं ।
सगदव्वमुवादेयं अंतरतच्चं हवे अप्पा ॥50॥
पूर्वोक्त सकलभावाः परद्रव्यं परस्वभावा इति हेयाः ।
स्वकद्रव्यमुपादेयं अन्तस्तत्त्वं भवेदात्मा ॥५०॥
हैं हेय ये परभाव सब ही क्योंकि ये परद्रव्य हैं ।
आदेय अन्तस्तत्त्व आतम क्योंकि वह स्वद्रव्य है ॥५०॥
अन्वयार्थ : [पूर्वोक्तसकलभावाः] पूर्वोक्त सर्व भाव [परस्वभावाः] पर स्वभाव हैं, [परद्रव्यम्] पर-द्रव्य हैं, [इति] इसलिये [हेयाः] हेय हैं, [अन्तस्तत्त्वं] अन्तःतत्त्व [स्वकद्रव्यम्] ऐसा स्वद्रव्य [आत्मा] आत्मा [उपादेयम्] उपादेय [भवेत्] है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, हेय-उपादेय अथवा त्याग-ग्रहण के स्वरूप का कथन है ।

जो कोई विभाव-गुण-पर्यायें हैं वे पहले (४९वीं गाथा में) व्यवहारनय के कथन द्वारा उपादेयरूप से कही गई थीं किन्तु शुद्ध निश्चयनय के बल से वे हेय हैं । किस कारण से ? क्योंकि वे पर-स्वभाव हैं, और इसीलिये पर-द्रव्य हैं । सर्व विभाव-गुण-पर्यायों से रहित शुद्ध-अन्तस्तत्त्व स्वरूप स्व-द्रव्य उपादेय है । वास्तव में सहज-ज्ञान, सहज-दर्शन, सहज-चारित्र, सहज-परम-वीतराग-सुखात्मक शुद्ध-अन्तस्तत्त्व स्वरूप इस स्व-द्रव्य का आधार सहज परम-पारिणामिक-भाव लक्षण (सहज परम पारिणामिक भाव जिसका लक्षण है ऐसा) कारण-समयसार है ।

इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में १८५वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
मैं तो सदा ही शुद्ध परमानन्द चिन्मयज्योति हूँ ।
सेवन करें सिद्धान्त यह सब ही मुमुक्षु बन्धुजन ॥
जो विविध परभाव मुझ में दिखें वे मुझसे पृथक् ।
वे मैं नहीं हूँ क्योंकि वे मेरे लिए परद्रव्य हैं ॥१६॥

जिनके चित्त का चरित्र उदात्त (उदार, उच्च, उज्ज्वल) है ऐसे मोक्षार्थी इस सिद्धान्त का सेवन करो कि - 'मैं तो शुद्ध चैतन्यमय एक परम ज्योति ही सदैव हूँ; और यह जो भिन्न लक्षणवाले विविध प्रकार के भाव प्रगट होते हैं वह मैं नहीं हूँ, क्योंकि वे सब मुझे पर-द्रव्य हैं' ।

और

(कलश--सोरठा)
वे न हमारे भाव, शुद्धातम से अन्य जो ।
ऐसे जिनके भाव, सिद्धि अपूरव वे लहें ॥७४॥

'शुद्ध जीवास्तिकाय से अन्य ऐसे जो सब पुद्गल-द्रव्य के भाव वे वास्तव में हमारे नहीं हैं' - ऐसा जो तत्त्ववेदी स्पष्टरूप से कहता है वह अति अपूर्व सिद्धि को प्राप्त होता है ।

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+ रत्नत्रय का स्वरूप -
विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं ।
संसयविमोहविब्भमविवज्जियं होदि सण्णाणं ॥51॥
चलमलिणमगाढत्तविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं ।
अधिगमभावो णाणं हेयोवादेयतच्चाणं ॥52॥
सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा ।
अंतरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदी ॥53॥
सम्मत्तं सण्णाणं विज्जदि मोक्खस्स होदि सुण चरणं ।
ववहारणिच्छएण दु तम्हा चरणं पवक्खामि ॥54॥
ववहारणयचरित्ते ववहारणयस्स होदि तवचरणं ।
णिच्छयणयचारित्ते तवचरणं होदि णिच्छयदो ॥55॥
विपरीताभिनिवेशविवर्जितश्रद्धानमेव सम्यक्त्वम् ।
संशयविमोहविभ्रमविवर्जितं भवति संज्ञानम् ॥५१॥
चलमलिनमगाढत्वविवर्जितश्रद्धानमेव सम्यक्त्वम् ।
अधिगमभावो ज्ञानं हेयोपादेयतत्त्वानाम् ॥५२॥
सम्यक्त्वस्य निमित्तं जिनसूत्रं तस्य ज्ञायकाः पुरुषाः ।
अन्तर्हेतवो भणिताः दर्शनमोहस्य क्षयप्रभृतेः ॥५३॥
सम्यक्त्वं संज्ञानं विद्यते मोक्षस्य भवति शृणु चरणम् ।
व्यवहारनिश्चयेन तु तस्माच्चरणं प्रवक्ष्यामि ॥५४॥
व्यवहारनयचरित्रे व्यवहारनयस्य भवति तपश्चरणम् ।
निश्चयनयचारित्रे तपश्चरणं भवति निश्चयतः ॥५५॥
मिथ्याभिप्राय विहीन जो श्रद्धान वह सम्यक्त्व है ।
विभरम संशय मोह विरहित ज्ञान ही सद्ज्ञान है ॥५१॥
चल मल अगाढ़पने रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व है ।
आदेय हेय पदार्थ का ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ॥५२॥
जिन सूत्र समकित हेतु पर जो सूत्र के ज्ञायक पुरुष ।
वे अंतरंग निमित्त हैं दृग मोह क्षय के हेतु से ॥५३॥
सम्यक्त्व सम्यग्ज्ञान पूर्वक आचरण है मुक्तिमग ।
व्यवहार-निश्चय से अत: चारित्र की चर्चा करूँ ॥५४॥
व्यवहारनय चारित्र में व्यवहारनय तपचरण हो ।
नियतनय चारित्र में बस नियतनय तपचरण हो ॥५५॥
अन्वयार्थ : [विपरीताभिनिवेशविवर्जितश्रद्धानम् एव] विपरीत अभिनिवेश रहित श्रद्धान ही [सम्यक्त्वम्] सम्यक्त्व है; [संशयविमोहविभ्रम-विवर्जितम्] संशय, विमोह और विभ्रम रहित (ज्ञान) वह [संज्ञानम् भवति] सम्यग्ज्ञान है ।
[चलमलिनमगाढत्वविवर्जितश्रद्धानम् एव] चलता, मलिनता और अगाढ़ता रहित श्रद्धान ही [सम्यक्त्वम्] सम्यक्त्व है; [हेयोपादेयतत्त्वानाम्] हेय और उपादेय तत्त्वों को [अधिगमभावः] जाननेरूप भाव वह [ज्ञानम्] (सम्यक्) ज्ञान है ।
[सम्यक्त्वस्य निमित्तं] सम्यक्त्व का निमित्त [जिनसूत्रं] जिनसूत्र है; [तस्य ज्ञायकाःपुरुषाः] जिनसूत्र के जाननेवाले पुरुषों को [अन्तर्हेतवः] (सम्यक्त्व के) अन्तरंग हेतु [भणिताः] कहे हैं, [दर्शनमोहस्य क्षयप्रभृतेः] क्योंकि उनको दर्शनमोह के क्षयादिक हैं ।
[शृणु] सुन, [मोक्षस्य] मोक्ष के लिये [सम्यक्त्वं] सम्यक्त्व होता है, [संज्ञानं] सम्यग्ज्ञान [विद्यते] होता है, [चरणम्] चारित्र (भी) [भवति] होता है; [तस्मात्]
इसलिये [व्यवहारनिश्चयेन तु] मैं व्यवहार और निश्चय से [चरणं प्रवक्ष्यामि] चारित्र कहूँगा ।
[व्यवहारनयचरित्रे] व्यवहारनय के चारित्र में [व्यवहारनयस्य] व्यवहारनय का [तपश्चरणम्] तपश्चरण [भवति] होता है; [निश्चयनयचारित्रे] निश्चयनय के चारित्र में [निश्चयतः] निश्चय से [तपश्चरणम्] तपश्चरण [भवति] होता है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, रत्नत्रय के स्वरूप का कथन है ।

प्रथम, भेदोपचार-रत्नत्रय इस प्रकार है :- इसप्रकार भेदोपचार-रत्नत्रय परिणति है । उसमें, जिन-प्रणीत हेय-उपादेय तत्त्वों का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है । इस सम्यक्त्व परिणाम का बाह्य सहकारी कारण वीतराग-सर्वज्ञ के मुख-कमल से निकला हुआ समस्त वस्तु के प्रतिपादन में समर्थ ऐसा द्रव्य-श्रुतरूप तत्त्वज्ञान ही है । जो मुमुक्षु हैं उन्हें भी उपचार से पदार्थ-निर्णय के हेतुपने के कारण (सम्यक्त्व परिणाम के) अन्तरङ्ग हेतु कहे हैं, क्योंकि उन्हें दर्शन-मोहनीय कर्म का क्षयादिक है । अभेद-अनुपचार-रत्नत्रय परिणति वाले जीव को, टंकोत्कीर्ण ज्ञायक जिसका एक स्वभाव है ऐसे निज परम तत्त्व की द्वारा अभूतपूर्व सिद्ध-पर्याय होती है । जो परम-जिनयोगीश्वर पहले पाप-क्रिया से निवृत्तिरूप व्यवहारनय के चारित्र में होते हैं, उन्हें वास्तव में व्यवहारनय गोचर तपश्चरण होता है । सहज निश्चयनयात्मक परम-स्वभाव-स्वरूप परमात्मा में प्रतपन सो तप है; निज स्वरूप में अविचल स्थितिरूप सहज निश्चय चारित्र इस तप से होता है । इसीप्रकार एकत्व सप्तति में (श्री पद्मनन्दि-आचार्यदेवकृत पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका नामक शास्त्र में एकत्वसप्तति नाम के अधिकार में १४वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--दोहा)
आत्मबोध ही बोध है, निश्चय दर्शन जान ।
आत्मस्थिति चारित्र है युति शिवमग पहचान ॥१७॥

आत्मा का निश्चय वह दर्शन है, आत्मा का बोध वह ज्ञान है,आत्मा में ही स्थिति वह चारित्र है; ऐसा योग (अर्थात् इन तीनों की एकता) शिव-पद का कारण है ।

और :-

(कलश--हरिगीत)
जयवंत है सद्बोध अर सद्दृष्टि भी जयवंत है ।
अर चरण भी सुविशुद्ध जो वह भी सदा जयवंत है ॥
अर पापपंकविहीन सहजानन्द आतमतत्त्व में ।
ही जो रहे, वह चेतना भी तो सदा जयवंत है ॥७५॥

सहज ज्ञान सदा जयवन्त है, वैसी (सहज) यह दृष्टि सदा जयवन्त है, वैसा ही (सहज) विशुद्ध चारित्र भी सदा जयवन्त है; पाप-समूहरूपी मल की अथवा कीचड़ की पंक्ति से रहित जिसका स्वरूप है ऐसी सहज परम-तत्त्व में संस्थित चेतना भी सदा जयवन्त है ।७५।

इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के फैलाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में) शुद्धभाव अधिकार नाम का तीसरा श्रुतस्कंध समाप्त हुआ ।

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व्यवहार-चारित्र



+ अहिंसाव्रत -
कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसु जाणिऊण जीवाणं ।
तस्सारंभणियत्तणपरिणामो होइ पढमवदं ॥56॥
कुलयोनिजीवमार्गणास्थानादिषु ज्ञात्वा जीवानाम् ।
तस्यारम्भनिवृत्तिपरिणामो भवति प्रथमव्रतम् ॥५६॥
कुल योनि जीवस्थान मार्गणथान जिय के जानकर ।
उन्हीं के आरंभ से बचना अहिंसाव्रत कहा ॥५६॥
अन्वयार्थ : [जीवानाम्] जीवों के [कुलयोनिजीवमार्गणास्थानादिषु] कुल, योनि, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि [ज्ञात्वा] जानकर [तस्य] उनके [आरम्भनिवृत्ति-परिणामः] आरम्भ से निवृत्तिरूप परिणाम वह [प्रथमव्रतम्] पहला व्रत [भवति] है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
अब व्यवहारचारित्र अधिकार कहा जाता है ।

यह, अहिंसाव्रत के स्वरूप का कथन है ।

कुलभेद, योनिभेद, जीवस्थान के भेद और मार्गणास्थान के भेद पहले ही (४२वीं गाथा की टीका में ही) प्रतिपादित किये गये हैं; यहाँ पुनरुक्ति-दोष के भय से प्रतिपादित नहीं किये हैं । वहाँ कहे हुए उनके भेदों को जानकर उनकी रक्षारूप परिणति ही अहिंसा है । उनका मरण हो या न हो, प्रयत्नरूप परिणाम बिना सावद्यपरिहार (दोष का त्याग) नहीं होता । इसीलिये, प्रयत्न परायण को हिंसा-परिणति का अभाव होने से अहिंसाव्रत होता है । इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री समंतभद्रस्वामी ने (बृहत्स्वयंभूस्तोत्र में श्री नमिनाथ भगवान की स्तुति करते हुए ११९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

अहिंसा परमब्रह्म है सारा जगत यह जानता ।
अर गृहस्थ आश्रम में सदा आरंभ होता नियम से ॥
बस इसलिए नमिदेव ने दो विध परिग्रह त्यागकर ।
छोड़ विकृत वेश सब निर्ग्रन्थपन धारण किया ॥१८॥

जगत में विदित है कि जीवों की अहिंसा परम ब्रह्म है । जिस आश्रम की विधि में लेश भी आरंभ है वहाँ वह अहिंसा नहीं होती । इसलिये उसकी सिद्धिके हेतु, परम करुणावन्त ऐसे आप श्री ने दोनों ग्रंथ को छोड़ दिया (द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकार के परिग्रह को छोड़कर निर्ग्रन्थपना अंगीकार किया), विकृत वेश तथा परिग्रह में रत न हुए ।

और -

(कलश--हरिगीत)
त्रसघात के परिणाम तम के नाश का जो हेतु है ।
और थावर प्राणियों के विविध वध से दूर है ॥
आनन्द सागरपूर सुखप्रद प्राणियों को लोक के ।
वह जैनदर्शन जगत में जयवंत वर्ते नित्य ही ॥७६॥

त्रसघात के परिणामरूप अंधकार के नाश का जो हेतु है, सकल-लोक के जीव-समूह को जो सुखप्रद है, स्थावर एकेन्द्रिय जीवों के विविध वध से जो बहुत दूर है और सुन्दर सुख-सागर का जो पूर है, वह जिनधर्म जयवन्त वर्तता है ।

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+ सत्यव्रत -
रागेण व दोसेण व मोहेण व मोसभासपरिणामं ।
जो पजहदि साहु सया बिदियवदं होइ तस्सेव ॥57॥
रागेण वा द्वेषेण वा मोहेन वा मृषाभाषापरिणामं ।
यः प्रजहाति साधुः सदा द्वितीयव्रतं भवति तस्यैव ॥५७॥
मोह एवं राग-द्वेषज मृषा भाषण भाव को ।
हैं त्यागते जो साधु उनके सत्यभाषण व्रत कहा ॥५७॥
अन्वयार्थ : [रागेण वा] राग से, [द्वेषेण वा] द्वेष से [मोहेन वा] अथवा मोह से होनेवाले [मृषाभाषापरिणामं] मृषा भाषा के परिणाम को [यः साधुः] जो साधु [प्रजहाति] छोड़ता है, [तस्य एव] उसी को [सदा] सदा [द्वितीयव्रतं] दूसरा व्रत [भवति] है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, सत्यव्रत के स्वरूप का कथन है ।

यहाँ (ऐसा कहा है कि), सत्य का प्रतिपक्ष (सत्य से विरुद्ध परिणाम) वह मृषा-परिणाम हैं; वे (असत्य बोलने के परिणाम) राग से, द्वेष से अथवा मोह से होते हैं; जो साधु / आसन्न-भव्य जीव, उन परिणामों का परित्याग करता है (समस्त प्रकार से छोड़ता है ), उसे दूसरा व्रत होता है ।

(कलश--हरिगीत)
जो पुरुष बोलें सत्य अति-स्पष्ट वे सब स्वर्ग की ।
देवांगनाओं के सुखों को भोगते भरपूर हैं ॥
इस लोक में भी सज्जनों से पूज्य होते वे पुरुष ।
इसलिए इस सत्य से बढकर न कोई व्रत कहा ॥७७॥

जो पुरुष अति स्पष्टरूप से सत्य बोलता है, वह स्वर्ग की स्त्रियों के अनेक भोगों का एक भागी होता है (वह पर-लोक में अनन्यरूप से देवांगनाओं के बहुत-से भोग प्राप्त करता है) और इस लोक में सर्वदा सर्व सत्पुरुषों का पूज्य बनता है । वास्तवमें क्या सत्य से अन्य कोई (बढ़कर) व्रत है ?

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+ अचौर्य-व्रत -
गामे वा णयरे वाऽरण्णे वा पेच्छिऊण परमत्थं ।
जो मुयदि गहणभावं तिदियवदं होदि तस्सेव ॥58॥
ग्रामे वा नगरे वाऽरण्ये वा प्रेक्षयित्वा परमर्थम् ।
यो मुंचति ग्रहणभावं तृतीयव्रतं भवति तस्यैव ॥५८॥
ग्राम में वन में नगर में देखकर परवस्तु जो ।
उसके ग्रहण का भाव त्यागे तीसरा व्रत उसे हो ॥५८॥
अन्वयार्थ : [ग्रामे वा] ग्राम में, [नगरे वा] नगर में [अरण्ये वा] या वन में [परम् अर्थम्] परायी वस्तु को [प्रेक्षयित्वा] देखकर [यः] जो (साधु) [ग्रहणभावं] उसे ग्रहण करने के भाव को [मुंचति] छोड़ता है, [तस्य एव] उसी को [तृतीयव्रतं] तीसरा व्रत [भवति] है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, तीसरे व्रत के स्वरूप का कथन है ।

जिसके चौतरफ बाड़ हो वह ग्राम (गाँव) है; जो चार द्वारों से सुशोभित हो वह नगर है; जो मनुष्य के संचार रहित, वनस्पति-समूह, बेलों और वृक्षों के झुंड आदि से खचाखच भरा हो वह अरण्य है । ऐसे ग्राम, नगर या अरण्य में अन्य से छोड़ी हुई, रखी हुई, गिरी हुई अथवा भूली हुई पर-वस्तु को देखकर उसके स्वीकार-परिणाम का (उसे अपनी बनाने / ग्रहण करने के परिणाम का) जो परित्याग करता है, उसे वास्तव में तीसरा व्रत होता है ।

(कलश--हरिगीत)
अचौर्यव्रत इस लोक में धन सम्पदा का हेतु है ।
परलोक में देवांगनाओं के सुखों का हेतु है ॥
शुद्ध एवं सहज निर्मल परिणति के संग से ।
परम्परा से मुक्तिवधु का हेतु भी कहते इसे ॥७८॥

यह उग्र अचौर्य इस लोक में रत्नों के संचय को आकर्षित करता है और (परलोक में) स्वर्ग की स्त्रियों के सुख का कारण है तथा क्रमशः मुक्तिरूपी स्त्री के सुख का कारण है ।

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+ ब्रह्मचर्य-व्रत -
दट्ठूण इत्थिरूवं वांछाभावं णियत्तदे तासु ।
मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो अहव तुरियवदं ॥59॥
द्रष्ट्वा स्त्रीरूपं वांच्छाभावं निवर्तते तासु ।
मैथुनसंज्ञाविवर्जितपरिणामोऽथवा तुरीयव्रतम् ॥५९॥
देख रमणी रूप वांछा भाव से निर्वृत्त हो ।
या रहित मैथुनभाव से है वही चौथा व्रत अहो ॥५९॥
अन्वयार्थ : [स्त्रीरूपं दृष्टवा] स्त्रियों का रूप देखकर [तासु] उनके प्रति [वांच्छाभावं निवर्तते] वांछाभाव की निवृत्ति वह [अथवा] अथवा [मैथुनसंज्ञा-विवर्जित परिणामः] मैथुन-संज्ञा रहित जो परिणाम वह [तुरीयव्रतम्] चौथा व्रत है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, चौथे व्रत के स्वरूप का कथन है ।

सुन्दर कामिनियों के मनोहर अङ्ग के निरीक्षण द्वारा उत्पन्न होनेवाली कुतूहलता (चित्तवांछा) परित्याग से, अथवा पुरुष-वेदोदय नाम का जो नोकषाय का तीव्र उदय उसके कारण उत्पन्न होनेवाली मैथुन-संज्ञा के परित्याग-स्वरूप शुभ परिणाम से, ब्रह्मचर्य-व्रत होता है ।


(कलश--हरिगीत)
कामी पुरुष यदि तू सदा ही कामनी की देह के ।
सौन्दर्य के संबंध में ही सोचता है निरन्तर ॥
तेरे लिये मेरे वचन किस काम के किस हेतु से ।
निज रूप को तज मोह में तू फंस रहा है निरन्तर ॥७९॥

कामिनियों की जो शरीर-विभूति उस विभूति का, हे कामी पुरुष ! यदि तू मन में स्मरण करता है, तो मेरे वचन से तुझे क्या लाभ होगा ? अहो ! आश्चर्य होता है कि सहज परमतत्त्व को - निज स्वरूप को - छोड़कर तू किस कारण विपुल मोह को प्राप्त हो रहा है !

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+ परिग्रह-त्याग व्रत -
सव्वेसिं गंथाणं चागो णिरवेक्खभावणापुव्वं ।
पंचमवदमिदि भणिदं चारित्तभरं वहंतस्स ॥60॥
सर्वेषां ग्रन्थानां त्यागो निरपेक्षभावनापूर्वम् ।
पंचमव्रतमिति भणितं चारित्रभरं वहतः ॥६०॥
निरपेक्ष भावों पूर्वक सब परिग्रहों का त्याग ही ।
चारित्रधारी मुनिवरों का पाँचवाँ व्रत कहा है ॥६०॥
अन्वयार्थ : [निरपेक्षभावनापूर्वम् ] निरपेक्ष भावना पूर्वक (जिस भावना में पर की अपेक्षा नहीं है ऐसी शुद्ध निरालम्बन भावना सहित) [सर्वेषां ग्रन्थानां त्यागः ] सर्व परिग्रहों का त्याग वह, [चारित्रभरं वहतः ] चारित्रभर वहन करनेवाले को [पंचमव्रतम् इति भणितम् ] पाँचवाँ व्रत कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में) पाँचवें व्रत का स्वरूप कहा गया है ।

सकल परिग्रह के परित्याग-स्वरूप निज कारण-परमात्मा के स्वरूप में अवस्थित (स्थिर हुए) परम-संयमियों को - परम जिनयोगीश्वरों को - सदैव निश्चय-व्यवहारात्मक सुन्दर चारित्रभर वहन करनेवालों को, बाह्य-अभ्यंतर चौबीस प्रकार के परिग्रह का परित्याग ही परम्परा से पंचमगति के हेतुभूत ऐसा पाँचवाँ व्रत है । इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री समयसार में (२०८वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :-

(हरिगीत)
यदि परिग्रह मेरा बने तो मैं अजीव बनूँ अरे ।
पर मैं तो ज्ञायकभाव हूँ इसलिए पर मेरे नहीं ॥स.सा.२०८॥

यदि परद्रव्य - परिग्रह मेरा हो तो मैं अजीवत्व को प्राप्त होऊँ । मैं तो ज्ञाता ही हूँ इसलिये (पर-द्रव्यरूप) परिग्रह मेरा नहीं है ।

और

(कलश--हरिगीत)
हे भव्यजन ! भव-भीरुता बस परिग्रह को छोड़ दो ।
परमार्थ सुख के लिए निज में अचलता धारण करो ॥
जो जगतजन को महादुर्लभ किन्तु सज्जन जनों को ।
आश्चर्यकारी है नहीं आश्चर्य दुर्जन जनों को ॥८०॥

भव्य जीव भवभीरुता के कारण परिग्रह-विस्तार को छोड़ो और निरुपम-सुख के आवास की प्राप्ति हेतु निज-आत्मा में अविचल, सुखाकार (सुखमयी) तथा जगत-जनों को दुर्लभ ऐसी स्थिति (स्थिरता) करो । और यह सत्पुरुषों को कोई महा आश्चर्य की बात नहीं है, असत्पुरुषों को आश्चर्य की बात है ।

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+ ईर्या-समिति -
पासुगमग्गेण दिवा अवलोगंतो जुगप्पमाणं हि ।
गच्छइ पुरदो समणो इरियासमिदी हवे तस्स ॥61॥
प्रासुकमार्गेण दिवा अवलोकयन् युगप्रमाणं खलु ।
गच्छति पुरतः श्रमणः ईर्यासमितिर्भवेत्तस्य ॥६१॥
जिन श्रमण धुरा प्रमाण भूलख चले प्रासुक मार्ग से ।
दिन में करें विहार नित ही समिति ईर्या यह कही ॥६१॥
अन्वयार्थ : [श्रमणः] जो श्रमण [प्रासुकमार्गेण] प्रासुक मार्ग पर [दिवा] दिनमें [युगप्रमाणं] धुरा-प्रमाण [पुरतः] आगे [खलु अवलोकन्] देखकर [गच्छति] चलता है, [तस्य] उसे [ईर्यासमितिः] ईर्यासमिति [भवेत्] होती है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में) ईर्या-समिति का स्वरूप कहा है ।

जो परम-संयमी गुरुयात्रा (गुरु के पास जाना), देव-यात्रा (देव के पास जाना) आदि प्रशस्त प्रयोजन का उद्देश रखकर एक धुरा (चार हाथ) जितना मार्ग देखते-देखते स्थावर तथा जङ्गम प्राणियों की परिरक्षा (समस्त प्रकार से रक्षा) के हेतु दिन में ही चलता है, उस परम-श्रमण को ईर्या-समिति होती है । (इसप्रकार) व्यवहार-समिति का स्वरूप कहा गया ।

अब निश्चय-समिति का स्वरूप कहा जाता है : अभेद-अनुपचार-रत्नत्रयरूपी मार्ग पर परम-धर्मी ऐसे (अपने) आत्मा के प्रति सम्यक् 'इति' (गति) अर्थात् परिणति वह समिति है; अथवा, निज परम-तत्त्व में लीन सहज परम-ज्ञानादिक परम-धर्मों की संहति (मिलन, संगठन) वह समिति है । इसप्रकार निश्चय और व्यवहाररूप समिति-भेद जानकर उनमें (उन दो में से) परम निश्चय-समिति को भव्य जीव प्राप्त करो ।

(कलश--हरिगीत)
मुक्तिकान्ता की सखी जो समिति उसको जानकर ।
जो संत कंचन-कामिनी के संग को परित्याग कर ॥
चैतन्य में ही रमण करते नित्य निर्मल भाव से ।
विलग जग से निजविहारी मुक्त ही हैं संत वे ॥८१॥

इस प्रकार मुक्तिकान्ता की (मुक्ति-सुन्दरी की) सखी परम-समिति को जानकर जो जीव भव-भय के करनेवाले कंचन-कामिनी के संग को छोड़कर, अपूर्व, सहज - विलसते (स्वभाव से प्रकाशते), अभेद चैतन्य-चमत्कारमात्र में स्थित रहकर (उसमें) सम्यक् 'इति' (गति) करता है अर्थात् सम्यक्-रूप से परिणमित होता है वह सर्वदा मुक्त ही है ।

(कलश--हरिगीत)
जयवंत है यह समिति जो त्रस और थावर घात से ।
संसारदावानल भयंकर क्लेश से अतिदूर है ॥
मुनिजनों के शील की है मूल धोती पाप को ।
यह मेघमाला सींचती जो पुण्यरूप अनाज को ॥८२॥

जो (समिति) मुनियों को शील का (चारित्र का) मूल है, जो त्रस जीवों के घात से तथा स्थावर जीवों के घात से समस्त प्रकार से दूर है, जो भव-दावानल के परितापरूपी क्लेश को शान्त करनेवाली तथा समस्त सुकृतरूपी धान्य की राशि को (पोषण देकर) सन्तोष देनेवाली मेघमाला है, ऐसी यह समिति जयवन्त है ।

(कलश--हरिगीत)
समिति विरहित काम रोगी जनों का दुर्भाग्य यह ।
संसार-सागर में निरंतर जन्मते-मरते रहें ॥
हे मुनिजनो ! तुम हृदयघर में सावधानी पूर्वक ।
जगह समुचित सदा रखना मुक्ति कन्या के लिए ॥८३॥

यहाँ (विश्व में) यह निश्चित है कि इस जन्मार्णव में (भवसागर में) समिति-रहित काम-रोगातुर (इच्छारूपी रोग से पीड़ित) जनों का जन्म होता है । इसलिये हे मुनि ! तू अपने मनरूपी घर में इस सुमुक्तिरूपी सुन्दर स्त्री के लिये निवासगृह (कमरा) रख (अर्थात् तू मुक्ति का चिंतवन कर)

(कलश--दोहा)
जो पाले निश्चय समिति, निश्चित मुक्ति जाँहि ।
समिति भ्रष्ट तो नियम से भटकें भव के माँहि ॥८४॥

यदि जीव निश्चयरूप समिति को उत्पन्न करे, तो वह मुक्ति को प्राप्त करता है / मोक्षरूप होता है । परन्तु समिति के नाश से, अरे रे ! वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाता, किन्तु संसाररूपी महा-सागर में भटकता है ।

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+ भाषा-समिति -
पेसुण्णहासकक्कसपरणिंदप्पप्पसंसियं वयणं ।
परिचत्ता सपरहिदं भासासमिदी वदंतस्स ॥62॥
पैशून्यहास्यकर्कशपरनिन्दात्मप्रशंसितं वचनम् ।
परित्यज्य स्वपरहितं भाषासमितिर्वदतः ॥६२॥
परिहास चुगली और निन्दा तथा कर्कश बोलना ।
यह त्यागना ही समिति दूजी स्व-पर हितकर बोलना ॥६२॥
अन्वयार्थ : [पैशून्यहास्यकर्कशपरनिन्दात्मप्रशंसितं वचनम्] पैशून्य (चुगली), हास्य, कर्कश भाषा, परनिन्दा और आत्म-प्रशंसारूप वचन का [परित्यज्य] परित्याग कर [स्वपरहितं वदतः] जो स्व-पर हितरूप वचन बोलता है, उसे [भाषासमितिः] भाषा-समिति होती है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ भाषा-समिति का स्वरूप कहा है । इन सब अप्रशस्त वचनों के परित्याग पूर्वक स्व तथा पर को शुभ और शुद्ध परिणति के कारणभूत वचन वह भाषा-समिति है । इसीप्रकार (आचार्यवर) श्रीगुणभद्रस्वामी ने (आत्मानुशासन में २२६ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--वीर)
जान लिये हैं सभी तत्त्व अर दूर सर्व सावद्यों से ।
अपने हित में चित्त लगाकर सब प्रकार से शान्त हुए ॥
जिनकी वाणी स्वपर हितकरी संकल्पों से मुक्त हुए ।
मुक्ति भाजन क्यों न हो जब सब प्रकार से मुक्त हुए ॥आ.-२२६॥

जिन्होंने सब (वस्तु-स्वरूप) जान लिया है, जो सर्व-सावद्य से दूर हैं, जिन्होंने स्वहित में चित्त को स्थापित किया है, जिनके सर्व प्रचार (व्यवस्था) शान्त हुआ है, जिनकी भाषा स्वपर को सफल (हितरूप) है, जो सर्व संकल्प-रहित हैं, वे विमुक्त पुरुष इस लोक में विमुक्ति का भाजन क्यों नहीं होंगे ?

और -

(कलश--दोहा)
आत्मनिरत मुनिवरों के अन्तर्जल्प विरक्ति ।
तब फिर क्यों होगी अरे बहिर्जल्प अनुरक्ति ॥८५॥

पर-ब्रह्म के अनुष्ठानमें निरत (परमात्मा के आचरण में लीन) ऐसे बुद्धिमान पुरुषों को / मुनिजनों को अन्तर्जल्प से भी बस होओ, बहिर्जल्प की (भाषा बोलने की) तो बात ही क्या ।

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+ एषणा-समिति -
कदकारिदाणुमोदणरहिदं तह पासुगं पसत्थं च ।
दिण्णं परेण भत्तं समभुत्ती एसणासमिदी ॥63॥
कृतकारितानुमोदनरहितं तथा प्रासुकं प्रशस्तं च ।
दत्तं परेण भक्तं संभुक्ति : एषणासमितिः ॥६३॥
स्वयं करना कराना अनुमोदना से रहित जो ।
निर्दोष प्रासुक भुक्ति ही है एषणा समिति अहो ॥६३॥
अन्वयार्थ : [परेण दत्तं] पर द्वारा दिया गया, [कृतकारितानुमोदनरहितं] कृत-कारित-अनुमोदन रहित, [तथा प्रासुकं] प्रासुक [प्रशस्तंच] और प्रशस्त [भक्तं] भोजन करनेरूप [संभुक्तिः] जो सम्यक् आहार-ग्रहण [एषणासमितिः] वह एषणा-समिति है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ एषणा-समिति का स्वरूप कहा है । वह इसप्रकार -

मन, वचन और काया में से प्रत्येक को कृत, कारित और अनुमोदना सहित गिनने पर उनके नौ भेद होते हैं; उनसे संयुक्त अन्न नव कोटिरूप से विशुद्ध नहीं है ऐसा (शास्त्र में) कहा है; अतिप्रशस्त अर्थात् मनोहर (अन्न); हरितकायमय सूक्ष्म प्राणियों के संचार को अगोचर वह प्रासुक (अन्न) - ऐसा (शास्त्र में) कहा है । *प्रतिग्रह, उच्च स्थान, पादप्रक्षालन, अर्चन, प्रणाम, योगशुद्धि (मन-वचन-काया की शुद्धि) और भिक्षा-शुद्धि - इस नव-विध पुण्य से (नवधा भक्ति से) आदर करके, श्रद्धा, शक्ति, अलुब्धता, भक्ति, ज्ञान, दया और क्षमा - इन (दाता के) सात गुणों सहित शुद्ध योग्य-आचारवाले उपासक द्वारा दिया गया (नव कोटिरूप से शुद्ध, प्रशस्त और प्रासुक) भोजन जो परम तपोधन लेते हैं, उन्हें एषणा-समिति होती है । ऐसा व्यवहार-समिति का क्रम है ।

अब निश्चय से ऐसा है कि - जीव को परमार्थ से अशन नहीं है; छह प्रकार का अशन व्यवहार से संसारियों को ही होता है । इसीप्रकार श्री समयसार में (?) कहा है कि :-

नोकर्म - आहार, कर्म - आहार, लेप - आहार, कवल - आहार, ओज - आहार और मन - आहार -- इसप्रकार आहार क्रमशः छह प्रकार का जानना । अशुद्ध जीवों के विभाव-धर्म सम्बन्ध में व्यवहारनय का यह (अवतरण की गई गाथा में) उदाहरण है ।

अब (श्री प्रवचनसारकी २२७वीं गाथा द्वारा) निश्चय का उदाहरण कहा जाता है । वह इसप्रकार :-

(हरिगीत)
अरे भिक्षा मुनिवरों की ऐषणा से रहित हो।
वे यतीगण ही कहे जाते हैं अनाहारी श्रमण ॥प्र.सा.२२७॥

जिसका आत्मा एषणा-रहित है (अर्थात् जो अनशनस्वभावी आत्मा को जानने के कारण स्वभाव से आहार की इच्छा रहित है ) उसे वह भी तप है; (और) उसे प्राप्त करने के लिये (अनशन-स्वभावी आत्मा को परिपूर्णरूप से प्राप्त करने के लिये) प्रयत्न करनेवाले ऐसे जो श्रमण उन्हें अन्य (स्वरूप से भिन्न ऐसी) भिक्षा एषणा बिना (एषणा-दोष रहित) होती है; इसलिये वे श्रमण अनाहारी हैं ।

इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री गुणभद्रस्वामी ने (आत्मानुशासन में २२५वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
जो सभी के प्रति दया समता समाधि के भाव से ।
नित्य पाले यम-नियम अर शान्त अन्तर बाह्य से ॥
शास्त्र के अनुसार हित-मित असन निद्रा नाश से ।
वे मुनीजन ही जला देते क्लेश के जंजाल को ॥आ.शा.२२५॥

जिसने अध्यात्म के सार का निश्चय किया है, जो अत्यन्त यम-नियम सहित है, जिसका आत्मा बाहर से और भीतर से शान्त हुआ है, जिसे समाधि परिणमित हुई है, जिसे सर्व जीवों के प्रति अनुकम्पा है, जो विहित (शास्त्राज्ञा के अनुसार) हित - मित भोजन करनेवाला है, जिसने निद्रा का नाश किया है, वह (मुनि) क्लेश-जाल को समूल जला देता है ।

और -

(कलश--हरिगीत)
भक्त के हस्ताग्र से परिशुद्ध भोजन प्राप्त कर ।
परिपूर्ण ज्ञान प्रकाशमय निज आत्मा का ध्यान धर ॥
इसतरह तप तप तपस्वी निरन्तर निज में मगन ।
मुक्तिरूपी अंगना को प्राप्त करते संतजन ॥८६॥

भक्त के हस्ताग्र से (हाथ की उँगलियों से) दिया गया भोजन लेकर, पूर्ण ज्ञान-प्रकाशवाले आत्मा का ध्यान करके, इसप्रकार सत् तप को (सम्यक् तप को) तपकर, वह सत् तपस्वी (सच्चा तपस्वी) देदीप्यमान मुक्तिवारांगना को (मुक्तिरूपी स्त्री को) प्राप्त करता है ।

*प्रतिग्रह = 'आहारजल शुद्ध है; तिष्ठ, तिष्ठ, तिष्ठ, (ठहरिये ठहरिये, ठहरिये)' ऐसा कहकर आहार-ग्रहण की प्रार्थना करना; कृपा करने के लिये प्रार्थना; आदर-सन्मान । (इसप्रकार प्रतिग्रह किया जाने पर, यदि मुनि कृपा करके ठहर जायें तो दाता के सात गुणों से युक्त श्रावक उन्हें अपने घर में ले जाकर, उच्च-आसन पर विराजमान करके, पाँव धोकर, पूजन करता है और प्रणाम करता है । फिर मन-वचन-काया की शुद्धि-पूर्वक शुद्ध भिक्षा देता है ।)

*यहाँ उद्धृत की गई गाथा समयसार में नहीं है, परन्तु प्रवचनसार में (प्रथम अधिकार की २०वीँ गाथा की तात्पर्यवृत्ति-टीका में) अवतरणरूप है ।

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+ आदाननिक्षेपण समिति -
पोत्थइकमंडलाइं गहणविसग्गेसु पयतपरिणामो ।
आदावणणिक्खेवणसमिदी होदि त्ति णिद्दिट्ठा ॥64॥
पुस्तककमण्डलादिग्रहणविसर्गयोः प्रयत्नपरिणामः ।
आदाननिक्षेपणसमितिर्भवतीति निर्दिष्टा ॥६४॥
पुस्तक कमण्डल संत जन नित सावधानीपूर्वक ।
आदाननिक्षेपणसमिति में ग्रहण-निक्षेपण करें ॥६४॥
अन्वयार्थ : [पुस्तककमण्डलादिग्रहणविसर्गयोः] पुस्तक, कमण्डल आदि लेने-रखने सम्बन्धी [प्रयत्नपरिणामः] प्रयत्न-परिणाम वह [आदाननिक्षेपणसमितिः] आदान-निक्षेपण-समिति [भवति] है [इति निर्दिष्टा] ऐसा कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ आदाननिक्षेपण समिति का स्वरूप कहा है ।

यह, अपहृत-संयमियों को संयम-ज्ञानादिक के उपकरण लेते-रखते समय उत्पन्न होनेवाली समिति का प्रकार कहा है । उपेक्षा-संयमियों को पुस्तक, कमण्डल आदि नहीं होते; वे परम-जिनमुनि एकान्त (सर्वथा) निस्पृह होते हैं इसीलिये वे बाह्य उपकरण-रहित होते हैं । अभ्यंतर उपकरणभूत, निज परमतत्त्व को प्रकाशित करने में चतुर ऐसा जो निरुपाधि स्वरूप सहज ज्ञान, उसके अतिरिक्त अन्य कुछ उन्हें उपादेय नहीं है । अपहृत-संयमधरों को इन उपकरणों को लेते-रखते समय उत्पन्न होने वाली प्रयत्न परिणामरूप विशुद्धि ही आदान-निक्षेपण-समिति है ऐसा (शास्त्र में) कहा है ।

(कलश--हरिगीत)
उत्तम परमजिन मुनि के सुखशांति अर मैत्री सहित ।
आदाननिक्षेपण समिति सब समितियों में शोभती ॥
हे भव्यजन! तुम सदा ही इस समिति को धारण करो ।
जिससे तुम्हें भी प्राप्त हो प्रियतम परम श्री कामिनी ॥८७॥

उत्तम परमजिन मुनियों की यह समिति समितियों में शोभती है । उसके संग में क्षांति और मैत्री होते हैं (इस समिति-युक्त मुनि को धीरज / सहनशीलता / क्षमा और मैत्रीभाव होते हैं ) । हे भव्य ! तू भी मन-कमल में सदा वह समिति धारण कर, कि जिससे तू परमश्री रूपी कामिनी का प्रिय कान्त होगा (मुक्तिलक्ष्मी का वरण करेगा)

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+ प्रतिष्ठापन समिति -
पासुगभूमिपदेसे गूढे रहिए परोपरोहेण ।
उच्चारादिच्चागो पइट्ठासमिदी हवे तस्स ॥65॥
प्रासुकभूमिप्रदेशे गूढे रहिते परोपरोधेन ।
उच्चारादित्यागः प्रतिष्ठासमितिर्भवेत्तस्य ॥६५॥
प्रतिष्ठापन समिति में उस भूमि पर मल मूत्र का ।
क्षेपण करें जो गूढ प्रासुक और हो अवरोध बिन ॥६५॥
अन्वयार्थ : [परोपरोधेन रहिते] जिसे पर के उपरोध रहित (दूसरे से रोका न जाये ऐसे), [गूढे] गूढ़ और [प्रासुकभूमिप्रदेशे] प्रासुक भूमि प्रदेश में [उच्चारादित्यागः] मलादि का त्याग हो, [तस्य] उसे [प्रतिष्ठासमितिः] प्रतिष्ठापन समिति [भवेत्] होती है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, मुनियों को काय-मलादि-त्याग के स्थान की शुद्धि का कथन है ।

शुद्ध-निश्चय से जीव को देह का अभाव होने से अन्न-ग्रहणरूप परिणति नहीं है । व्यवहार से (जीव को) देह है; इसलिये उसी को देह होने से आहार-ग्रहण है; आहार-ग्रहण के कारण मल-मूत्रादिक संभवित हैं ही । इसीलिये संयमियों को मल-मूत्रादिक के उत्सर्ग (त्याग) का स्थान जन्तु-रहित तथा पर के उपरोध रहित होता है । उस स्थान पर शरीर-धर्म करके फिर जो परम-संयमी उस स्थान से उत्तर-दिशा में कुछ डग जाकर उत्तर मुख खड़े रहकर, काय-कर्मों का (शरीर की क्रियाओं का), संसार के कारणभूत हों ऐसे परिणाम का तथा संसार के निमित्तभूत मन का उत्सर्ग करके, निज-आत्मा को अव्यग्र (एकाग्र) होकर ध्याता है अथवा पुनः पुनः कलेवर की (शरीर की) भी अशुचिता सर्व ओर से भाता है, उसे वास्तव में प्रतिष्ठापन समिति होती है । दूसरे स्वच्छन्द-वृत्तिवाले यति नामधारियों को कोई समिति नहीं होती ।

(कलश--हरिगीत)
आत्मचिंतन में परायण और जिनमत में कुशल ।
उन यतिवरों को यह समिति है मूल शिव साम्राज्य की ॥
कामबाणों से विंधे हैं हृदय जिनके अरे उन ।
मुनिवरों के यह समिति तो हमें दिखती ही नहीं ॥८८॥

जिनमत में कुशल और स्वात्म-चिन्तन में परायण ऐसे यतिओं को यह समिति मुक्ति साम्राज्य का मूल है । कामदेव के तीक्ष्ण अस्त्र-समूह से भिदे हुए हृदयवाले मुनिगणों को वह (समिति) गोचर होती ही नहीं ।

(कलश--रोला)
दीक्षाकांतासखी परमप्रिय मुक्तिरमा को ।
भवतपनाशक चन्द्रप्रभसम श्रेष्ठ समिति जो ॥
उसे जानकर हे मुनि तुम जिनमत प्रतिपादित ।
तप से होनेवाले फल को प्राप्त करोगे ॥८९॥

हे मुनि ! समितियों में श्रेष्ठ इस समिति को, कि जो मुक्तिरूपी स्त्री को प्यारी है, जो भव-भव के भयरूपी अंधकार को नष्ट करने के लिये पूर्ण-चन्द्र की प्रभा समान है तथा तेरी सत्-दीक्षारूपी कान्ता की (सच्ची दीक्षारूपी प्रिय स्त्री की) सखी है उसे, अब प्रमोद से जानकर, जिनमत कथित तप से सिद्ध होनेवाले ऐसे किसी (अनुपम) ध्रुव फल को तू प्राप्त करेगा ।

(कलश--दोहा)
समिति सहित मुनिवरों को उत्तम फल अविलम्ब ।
केवल सौख्य सुधामयी अकथित और अचिन्त्य ॥९०॥

समिति की संगति द्वारा वास्तव में मुनि मन-वाणी को भी अगोचर (मन से अचिन्त्य और वाणी से अकथ्य) ऐसा कोई केवल सुखामृतमय उत्तम फल शीघ्र प्राप्त करता है ।

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+ व्यवहार मनोगुप्ति -
कालुस्समोहसण्णारागद्दोसाइअसुहभावाणं ।
परिहारो मणुगुत्ती ववहारणयेण परिकहियं ॥66॥
कालुष्यमोहसंज्ञारागद्वेषाद्यशुभभावनाम् ।
परिहारो मनोगुप्तिः व्यवहारनयेन परिकथिता ॥६६॥
मोह राग द्वेष संज्ञा कलुषता के भाव जो ।
इन सभी का परिहार मनगुप्ति कहा व्यवहार से ॥६६॥
अन्वयार्थ : [कालुष्यमोहसंज्ञारागद्वेषाद्यशुभभावानाम्] कलुषता, मोह, संज्ञा, राग, द्वेष आदि अशुभ भावों के [परिहारः] परिहार को [व्यवहारनयेन] व्यवहारनय से [मनोगुप्तिः] मनोगुप्ति [परिकथिता] कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, व्यवहार मनोगुप्ति के स्वरूप का कथन है ।

इत्यादि अशुभ परिणाम प्रत्ययों का परिहार ही (अशुभ परिणामरूप भाव पापास्रवों का त्याग ही) व्यवहारनय के अभिप्राय से मनोगुप्ति है ।

(कलश--रोला)
जो जिनेन्द्र के चरणों को स्मरण करे नित ।
बाह्य और आन्तरिक ग्रंथ से सदा रहित हैं ॥
परमागम के अर्थों में मन चिन्तन रत है ।
उन जितेन्द्रियों के तो गुप्ति सदा ही होगी ॥९१॥

जिसका मन परमागम के अर्थों के चिन्तन-युक्त है, जो विजितेन्द्रिय है (अर्थात् जिसने इन्द्रियों को विशेषरूप से जीता है ), जो बाह्य तथा अभ्यन्तर संग रहित है और जो श्रीजिनेन्द्रचरण के स्मरण से संयुक्त है, उसे सदा गुप्ति होती है ।

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+ वचन-गुप्ति -
थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स पावहेउस्स ।
परिहारो वयगुत्ती अलियादिणियत्तिवयणं वा ॥67॥
स्त्रीराजचौरभक्त कथादिवचनस्य पापहेतोः ।
परिहारो वाग्गुप्तिरलीकादिनिवृत्तिवचनं वा ॥६७॥
पापकारण राज दारा चोर भोजन की कथा ।
मृषा भाषण त्याग लक्षण है वचन की गुप्ति का ॥६७॥
अन्वयार्थ : [पापहेतोः] पाप के हेतुभूत ऐसे [स्त्रीराजचौरभक्तकथादिवचनस्य] स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, भक्तकथा इत्यादिरूप वचनों का [परिहारः] परिहार [वा] अथवा [अलीकादिनिवृत्तिवचनं] असत्यादिक की निवृत्तिवाले वचन [वाग्गुप्तिः] वह वचनगुप्ति है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ वचन-गुप्ति का स्वरूप कहा है ।

इन समस्त कथाओं का परिहार सो वचनगुप्ति है । असत्य की निवृत्ति भी वचनगुप्ति है । अथवा (असत्य उपरान्त) अन्य अप्रशस्त वचनों की निवृत्ति वही वचनगुप्ति है । इसप्रकार (आचार्यवर) श्री पूज्यपादस्वामी ने (समाधितंत्र में १७वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(हरिगीत)
वाहिर वचन विलास तज, तज अन्तर मन भोग ।
है परमात्म प्रकाश का, थोड़े में यह योग ॥स.तं.१७॥

इसप्रकार बहिर्वचनों को त्यागकर अन्तर्वचनों को अशेषतः (सम्पूर्णरूप से) त्यागना । यह, संक्षेपसे योग (अर्थात् समाधि) है कि जो योग परमात्मा का प्रदीप है (परमात्माको प्रकाशित करनेवाला दीपक है )

और

(कलश--रोला)
भवभयकारी वाणी तज शुध सहज विलसते ।
एकमात्र कर ध्यान नित्य चित् चमत्कार का ॥
पापतिमिर का नाश सहज महिमा निजसुख की ।
मुक्तिपुरी को प्राप्त करें भविजीव निरन्तर ॥९२॥

भव्यजीव भवभय की करनेवाली समस्त वाणी को छोड़कर शुद्धसहज - विलसते चैतन्य चमत्कार का एक का ध्यान करके, फिर, पापरूपी, तिमिर-समूह को नष्ट करके सहज महिमावंत आनन्द सौख्य की खानरूप ऐसी उस मुक्ति को अतिशयरूप से प्राप्त करता है ।

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+ काय-गुप्ति -
बंधणछेदणमारणआकुंचण तह पसारणादीया ।
कायकिरियाणियत्ती णिद्दिट्ठा कायगुत्ति त्ति ॥68॥
बंधनछेदनमारणाकुंचनानि तथा प्रसारणादीनि ।
कायक्रियानिवृत्तिः निर्दिष्टा कायगुप्तिरिति ॥६८॥
मारन प्रसारन बंध छेदन और आकुंचन सभी ।
कायिक क्रियाओं की निवृत्ति कायगुप्ति जिन कही ॥६८॥
अन्वयार्थ : [बंधनछेदनमारणाकुंचनानि] बंधन, छेदन, मारण (मार डालना), आकुञ्चन (संकोचना) [तथा] तथा [प्रसारणादीनि] प्रसारण (विस्तारना) इत्यादि [कायक्रियानिवृत्तिः] कायक्रियाओं की निवृत्ति को [कायगुप्तिः इतिनिर्दिष्टा] कायगुप्ति कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ काय-गुप्ति का स्वरूप कहा है ।

इन कायक्रियाओं की निवृत्ति वह काय-गुप्ति है ।

(कलश--दोहा)
जो ध्यावे शुद्धात्मा तज कर काय विकार ।
जन्म सफल है उसी का शेष सभी संसार ॥९३॥

कायविकार को छोड़कर जो पुनः पुनः शुद्धात्मा की संभावना (सम्यक् भावना) करता है, उसी का जन्म संसार में सफल है ।

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+ निश्चय मनोगुप्ति और वचनगुप्ति -
जा रायादिणियत्ती मणस्स जाणीहि तं मणोगुत्ती ।
अलियादिणियत्तिं वा मोणं वा होइ वइगुत्ती ॥69॥
या रागादिनिवृत्तिर्मनसो जानीहि तां मनोगुप्तिम् ।
अलीकादिनिवृत्तिर्वा मौनं वा भवति वाग्गुप्तिः ॥६९॥
मनोगुप्ति हृदय से रागादि का मिटना अहा ।
वचनगुप्ति मौन अथवा असत् न कहना कहा ॥६९॥
अन्वयार्थ : [मनसः] मन में से [या] जो [रागादिनिवृत्तिः] रागादि की निवृत्ति [ताम्] उसे [मनोगुप्तिम्] मनोगुप्ति [जानीहि] जान । [अलीक आदिनिवृत्तिः] असत्यादि की निवृत्ति [वा] अथवा [मौनं वा] मौन [वाग्गुप्तिः भवति] सो वचनगुप्ति है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, निश्चयनय से मनोगुप्ति और वचनगुप्ति की सूचना है ।

सकल मोह-राग-द्वेष के अभाव के कारण अखण्ड अद्वैत परम-चिद्रूप में सम्यक् रूप सेअवस्थित रहना ही निश्चय-मनोगुप्ति है । हे शिष्य ! तू उसे वास्तव में अचलित मनोगुप्ति जान । समस्त असत्य भाषा का परिहार अथवा मौनव्रत सो वचनगुप्ति है । मूर्त-द्रव्य को चेतना का अभाव होने के कारण और अमूर्त-द्रव्य इन्द्रियज्ञान से अगोचर होने के कारण दोनों के प्रति वचनप्रवृत्ति नहीं होती । इसप्रकार निश्चय वचनगुप्ति का स्वरूप कहा गया ।

(कलश--हरिगीत)
अप्रशस्त और प्रशस्त सब मनवचन के समुदाय को ।
तज आत्मनिष्ठा में चतुर पापाटवी दाहक मुनी ॥
चिन्मात्र चिन्तामणि शुद्धाशुद्ध विरहित प्राप्त कर ।
अनंतदर्शनज्ञानसुखमय मुक्ति की प्राप्ति करें ॥९४॥

पापरूपी अटवी को जलाने में अग्नि समान ऐसा योगितिलक (मुनि-शिरोमणि) प्रशस्त - अप्रशस्त मन - वाणी के समुदाय को छोड़कर आत्मनिष्ठा में परायण रहता हुआ, शुद्धनय और अशुद्धनय से रहित ऐसे अनघ (निर्दोष) चैतन्यमात्र चिन्तामणि को प्राप्त करके, अनन्त चतुष्टयात्मकपने के साथ सर्वदा स्थित ऐसी जीवन-मुक्ति को प्राप्त करता है ।

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+ निश्चय काय-गुप्ति -
कायकिरियाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती ।
हिंसाइणियत्ती वा सरीरगुत्ति त्ति णिद्दिट्ठा ॥70॥
कायक्रियानिवृत्तिः कायोत्सर्गः शरीरके गुप्तिः ।
हिंसादिनिवृत्तिर्वा शरीरगुप्तिरिति निर्दिष्टा ॥७०॥
दैहिक क्रिया की निर्वृत्ति तनगुप्ति कायोत्सर्ग है ।
या निवृत्ति हिंसादि की ही कायगुप्ति जानना ॥७०॥
अन्वयार्थ : [कायक्रियानिवृत्तिः] काय-क्रियाओं की निवृत्तिरूप [कायोत्सर्गः] कायोत्सर्ग [शरीरके गुप्तिः] शरीर सम्बन्धी गुप्ति है; [वा] अथवा [हिंसादिनिवृत्तिः] हिंसादि की निवृत्ति को [शरीरगुप्तिः इति] शरीर-गुप्ति [निर्दिष्टा] कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, निश्चय शरीर-गुप्ति के स्वरूप का कथन है ।

सर्व जनों को काया-सम्बन्धी बहु क्रियाएँ होती हैं; उनकी निवृत्ति सो कायोत्सर्ग है; वही गुप्ति (अर्थात् काय-गुप्ति) है । अथवा पाँच स्थावरों की और त्रसों की हिंसा-निवृत्ति सो काय-गुप्ति है । जो परम-संयमधर परम-जिनयोगीश्वर अपने (चैतन्यरूप) शरीर में अपने (चैतन्यरूप) शरीर से प्रविष्ट हो गये, उनकी अपरिस्पंदमूर्ति ही (अकंप दशा ही) निश्चय-काय-गुप्ति है । इसीप्रकार श्री तत्त्वानुशासन में (श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--सोरठा)
दैहिक क्रिया कलाप भव के कारण भाव सब ।
तज निज आतम माँहि रहना कायोत्सर्ग है ॥२२॥

काय-क्रियाओं को तथा भव के कारणभूत (विकारी) भाव को छोड़कर अव्यग्ररूप से निज आत्मा में स्थित रहना, वह कायोत्सर्ग कहलाता है ।

(कलश--दोहा)
परिस्पन्दमय देह यह मैं हूँ अपरिस्पन्द ।
'यह मेरी' - व्यवहार यह तजूँ इसे अविलम्ब ॥९५॥

अपरिस्पन्दात्मक ऐसे मुझे परिस्पन्दात्मक शरीर व्यवहार से है; इसलिये मैं शरीर की विकृति को छोड़ता हूँ ।

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+ अर्हत् परमेश्वर -
घणघाइकम्मरहिया केवलणाणाइपरमगुणसहिया ।
चोत्तिसअदिसयजुत्ता अरिहंता एरिसा होंति ॥71॥
घनघातिकर्मरहिताः केवलज्ञानादिपरमगुणसहिताः ।
चतुस्त्रिंशदतिशययुक्ता अर्हन्त ईद्रशा भवन्ति ॥७१॥
अरिहंत केवलज्ञान आदि गुणों से संयुक्त हैं ।
घनघाति कर्मों से रहित चौंतीस अतिशय युक्त हैं ॥७१॥
अन्वयार्थ : [घनघातिकर्मरहिताः] घनघातिकर्म रहित, [केवलज्ञानादि-परमगुणसहिताः] केवलज्ञानादि परम गुणों सहित और [चतुस्त्रिंशदतिशययुक्ताः] चौंतीस अतिशय संयुक्त -- [ईद्दशाः] ऐसे, [अर्हन्तः] अर्हन्त [भवन्ति] होते हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, भगवान अर्हत् परमेश्वर के स्वरूप का कथन है ।

(भगवन्त अर्हन्त कैसे होते हैं ?)
  1. जो आत्म-गुणों के घातक घाति-कर्म हैं और जो घन अर्थात् गाढ़ हैं -- ऐसे जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहनीय कर्म उनसे रहित वर्णन किये गये;
  2. जो पूर्व में बोये गये चार घातिकर्मों के नाश से प्राप्त होते हैं ऐसे, तीन लोक को प्रक्षोभ के हेतुभूत सकल-विमल (सर्वथा निर्मल) केवल-ज्ञान, केवल-दर्शन, केवल-शक्ति (वीर्य, बल) और केवल-सुख सहित; तथा
  3. स्वेद-रहित, मल-रहित इत्यादि चौंतीस अतिशय गुणों के निवास स्थानरूप;
ऐसे, भगवन्त अर्हंत होते हैं ।

(कलश--हरिगीत)
विकसित कमलवत नेत्र पुण्य निवास जिनका गोत्र है ।
हैं पण्डिताम्बुज सूर्य मुनिजन विपिन चैत्र वसंत हैं ॥
जो कर्मसेना शत्रु जिनका सर्वहितकर चरित है ।
वे सुत सुसीमा पद्मप्रभजिन विदित तन सर्वत्र हैं ॥९६॥

प्रख्यात (अर्थात् परमौदारिक) जिनका शरीर है, प्रफुल्लित कमल जैसे जिनके नेत्र हैं, पुण्य का निवासस्थान (अर्थात् तीर्थंकरपद) जिनका गोत्र है, पण्डितरूपी कमलों को (विकसित करनेके लिये) जो सूर्य हैं, मुनिजनरूपी वन को जो चैत्र हैं (अर्थात् मुनिजनरूपी वन को खिलाने में जो वसन्त-ऋतु समान हैं ), कर्म की सेना के जो शत्रु हैं और सर्व को हितरूप जिनका चरित्र है, वे श्री सुसीमा माता के सुपुत्र (श्री पद्मप्रभ तीर्थंकर) जयवन्त हैं ।

(कलश--हरिगीत)
जो गुणों के समुदाय एवं पुण्य कमलों के रवि ।
कामना के कल्पतरु अर कामगज को केशरी ॥
देवेन्द्र जिनको नमें वे जयवन्त श्री जिनराजजी ।
हे कर्मतरु के बीजनाशक तजा भव तरु आपने ॥९७॥

जो कामदेवरूपी हाथी को (नष्ट करने वाले) सिंह हैं, जो पुण्यरूपी कमल को (विकसित करने के लिये) भानु हैं, जो सर्व गुणों के समाज (समुदाय) हैं, जो सर्व कल्पित (चिंतित) देनेवाले कल्पवृक्ष हैं, जिन्होंने दुष्ट कर्म के बीज को नष्ट किया है, जिनके चरण में सुरेन्द्र नमते हैं और जिन्होंने संसाररूपी वृक्ष का त्याग किया है, वे जिनराज (श्री पद्मप्रभ भगवान) जयवन्त हैं ।

(कलश--हरिगीत)
दुष्कर्म के यमराज जीता काम शर को आपने ।
राजेन्द्र चरणों में नमें रिपु क्रोध जीता आपने ॥
सर्वविद्याप्रकाशक भवताप नाशक आप हो ।
श्रीपद्म जिन जयवंत जिनको सदा विद्वद्जन नमें ॥९८॥

कामदेव के बाण को जिन्होंने जीत लिया है, सर्व विद्याओं के जो प्रदीप (प्रकाशक) हैं, जिनका स्वरूप सुखरूप से परिणमित हुआ है, पाप को (नष्ट करने से) जो यमरूप हैं, भव के परिताप का जिन्होंने नाश किया है, भूपति जिनके श्रीपद में (महिमायुक्त पुनीत चरणों में) नमते हैं, क्रोध को जिन्होंने जीता है और विद्वानों का समुदाय जिनके आगे नत हो जाता / झुक जाता है, वे (श्री पद्मप्रभनाथ) जयवन्त हैं ।

(कलश--हरिगीत)
पद्मपत्रों सम नयन दुष्कर्म से जो पार हैं ।
दक्ष हैं विज्ञान में अर यक्षगण जिनको नमें ॥
बुधजनों के गुरु एवं मुक्ति जिनकी विदित है ।
कामनाशक पद्मप्रभजिन जगत में जयवंत हैं ॥९९॥

प्रसिद्ध जिनका मोक्ष है, पद्मपत्र (कमल के पत्ते) जैसे दीर्घ जिनके नेत्र हैं, पाप-कक्षा को जिन्होंने जीत लिया है, कामदेव के पक्ष का जिन्होंने नाश किया है, यक्ष जिनके चरण-युगल में नमते हैं, तत्त्व-विज्ञान में जो दक्ष (चतुर) हैं, बुधजनों को जिन्होंने शिक्षा (सीख) दी है और निर्वाण दीक्षा का जिन्होंने उच्चारण किया है, वे (श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र) जयवन्त हैं ।

(कलश--हरिगीत)
मदनगज को वज्रधर पर मदन सम सौन्दर्य है ।
मुनिगण नमें नित चरण में यमराज नाशक शौर्य है ॥
पापवन को अनल जिनकी कीर्ति दशदिश व्याप्त है ।
जगतपति जिन पद्मप्रभ नित जगत में जयवंत हैं ॥१००॥

कामदेवरूपी पर्वत के लिये (अर्थात् उसे तोड़ देने में) जो (वज्रधर) इन्द्र समान हैं, कान्त (मनोहर) जिनका काय-प्रदेश है, मुनिवर जिनके चरण में नमते हैं, यम के पाश का जिन्होंने नाश किया है, दुष्ट पापरूपी वन को (जलाने के लिये) जो अग्नि हैं, सर्व दिशाओं में जिनकी कीर्ति व्याप्त हो गई है और जगत के जो अधीश (नाथ) हैं, वे सुन्दर पद्मप्रभेश जयवन्त हैं ।

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+ सिद्ध-परमेष्ठि -
णट्ठट्ठकम्मबंधा अट्ठमहागुणसमण्णिया परमा ।
लोयग्गठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होंति ॥72॥
नष्टाष्टकर्मबन्धा अष्टमहागुणसमन्विताः परमाः ।
लोकाग्रस्थिता नित्याः सिद्धास्ते ईद्रशा भवन्ति
नष्ट कीने अष्ट विध विधि स्वयं में एकाग्र हो ।
अष्ट गुण से सहित सिध थित हुए हैं लोकाग्र में ॥७२॥
अन्वयार्थ : [नष्टाष्टकर्मबन्धाः] आठ कर्मों के बन्ध को जिन्होंने नष्ट किया है ऐसे, [अष्टमहागुणसमन्विताः] आठ महागुणों सहित, [परमाः] परम, [लोकाग्रस्थिताः] लोक के अग्र में स्थित और [नित्याः] नित्य [ईद्रशाः] ऐसे, [तेसिद्धाः] वे सिद्ध [भवन्ति] होते हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
सिद्धि के परम्परा हेतुभूत ऐसे भगवन्त सिद्ध-परमेष्ठियों का स्वरूप यहाँ कहा है ।

ऐसे, वे भगवन्त सिद्ध-परमेष्ठी होते हैं ।

(कलश--दोहा)
निश्चय से निज में रहें नित्य सिद्ध भगवान ।
तीन लोक चूडामणी यह व्यवहार बखान ॥१०१॥

व्यवहारनय से ज्ञानपुंज ऐसे वे सिद्ध-भगवान त्रिभुवन शिखर की शिखा के (चैतन्य-घनरूप) ठोस चूड़ामणि हैं; निश्चय से वे देव सहज परम-चैतन्य-चिन्तामणि-स्वरूप नित्य-शुद्ध निज रूप में ही वास करते हैं ।

(कलश--वीर)
देहमुक्त लोकाग्र शिखर पर रहे नित्य अन्तर्यामी ।
अष्ट कर्म तो नष्ट किये पर मुक्ति सुन्दरी के स्वामी ॥
सर्व दोष से मुक्त हुए पर सर्वसिद्धि के हैं दातार ।
सर्वसिद्धि की प्राप्ति हेतु मैं करूँ वन्दना बारंबार ॥१०२॥

जो सर्व-दोषों को नष्ट करके देह-मुक्त होकर त्रिभुवन-शिखर पर स्थित हैं, जो निरुपम विशद (निर्मल) ज्ञान-दर्शन-शक्ति से युक्त हैं, जिन्होंने आठ कर्मों की प्रकृति के समुदाय को नष्ट किया है, जो नित्य-शुद्ध हैं, जो अनन्त हैं, अव्याबाध हैं, तीन-लोक में प्रधान हैं और मुक्ति-सुन्दरी के स्वामी हैं, उन सर्व सिद्धों को सिद्धि की प्राप्ति के हेतु मैं नमन करता हूँ ।

(कलश--दोहा)
जो स्वरूप में थिर रहे शुद्ध अष्ट गुणवान ।
नष्ट किये विधि अष्ट जिन नमों सिद्ध भगवान ॥१०३॥

जो निज स्वरूप में स्थित हैं, जो शुद्ध हैं; जिन्होंने आठ-गुणरूपी सम्पदा प्राप्त की है और जिन्होंने आठ-कर्मों का समूह नष्ट किया है, उन सिद्धों को मैं पुनः-पुनः वन्दन करता हूँ ।

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+ आचार्य -
पंचाचारसमग्गा पंचिंदियदंतिदप्पणिद्दलणा ।
धीरा गुणगंभीरा आयरिया एरिसा होंति ॥73॥
पंचाचारसमग्राः पंचेन्द्रियदंतिदर्पनिर्दलनाः ।
धीरा गुणगंभीरा आचार्या ईद्रशा भवन्ति ॥७३॥
पंचेन्द्रिय गजमदगलन हरि मुनि धीर गुण गंभीर अर ।
परिपूर्ण पंचाचार से आचार्य होते हैं सदा ॥७३॥
अन्वयार्थ : [पंचाचारसमग्राः] पंचाचारों से परिपूर्ण, [पंचेन्द्रिय-दंतिदर्प्पनिर्दलनाः] पंचेन्द्रियरूपी हाथी के मद का दलन करनेवाले, [धीराः] धीर और [गुणगंभीराः] गुणगंभीर -- [ईद्रशाः] ऐसे, [आचार्याः] आचार्य [भवन्ति] होते हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ आचार्य का स्वरूप कहा है ।

ऐसे लक्षणों से लक्षित, वे भगवन्त आचार्य होते हैं । इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री वादिराजदेव ने कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
अकिंचनता के धनी परवीण पंचाचार में ।
अर जितकषायी निपुणबुद्धि हैं समाधि योग में ॥
ज्ञानबल से बताते जो पंच अस्तिकाय हम ।
उन्हें पूजें भवदुखों से मुक्त होने के लिए ॥२३॥

जो पंचाचारपरायण हैं, जो अकिंचनता के स्वामी हैं, जिन्होंने कषाय-स्थानों को नष्ट किया है, परिणमित ज्ञान के बल द्वारा जो महा पंचास्तिकाय की स्थिति को समझाते हैं, विपुल अचंचल योग में (विकसित स्थिर समाधि में) जिनकी बुद्धि निपुण है और जिनके गुण उछलते हैं, उन आचार्यों को भक्तिक्रिया में कुशल ऐसे हम भवदुःख-राशि को भेदने के लिये पूजते हैं ।

और -

(कलश--हरिगीत)
सब इन्द्रियों के सहारे से रहित आकुलता रहित ।
स्वहित में नित हैं निरत मैत्री दया दम के धनी ॥
मुक्ति के जो हेतु शम, दम, नियम के आवास जो ।
उन चन्द्रकीर्ति महामुनि का हृदय वंदन योग्य है ॥१०४॥

सकल इन्द्रियसमूह के आलम्बन रहित, अनाकुल, स्वहित में लीन, शुद्ध, निर्वाण के कारण का कारण, शम-दम-यम का निवास-स्थान, मैत्री-दया-दम का मन्दिर (घर) - ऐसा यह श्रीचन्द्रकीर्तिमुनि का निरुपम मन (चैतन्यपरिणमन) वंद्य है ।

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+ उपाध्याय -
रयणत्तयसंजुत्ता जिणकहियपयत्थदेसया सूरा ।
णिक्कंखभावसहिया उवज्झाया एरिसा होंति ॥74॥
रत्नत्रयसंयुक्ताः जिनकथितपदार्थदेशकाः शूराः ।
निःकांक्षभावसहिता उपाध्याया ईद्रशा भवन्ति ॥७४॥
रतन त्रय संयुक्त अर आकांक्षाओं से रहित ।
तत्त्वार्थ के उपदेश में जो शूर वे पाठक मुनी ॥७४॥
अन्वयार्थ : [रत्नत्रयसंयुक्ताः] रत्नत्रय से संयुक्त, [शूराःजिनकथितपदार्थदेशकाः] जिनकथित पदार्थों के शूरवीर उपदेशक और [निःकांक्षभावसहिताः] निःकांक्षभाव सहित - [ईद्रशाः] ऐसे, [उपाध्यायाः] उपाध्याय [भवन्ति] होते हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, अध्यापक (अर्थात् उपाध्याय) नाम के परमगुरु के स्वरूप का कथन है ।

ऐसे लक्षणों से लक्षित, वे जैनों के उपाध्याय होते हैं ।

(कलश--दोहा)
वंदे बारम्बार हम भव्यकमल के सूर्य ।
उपदेशक तत्त्वार्थ के उपाध्याय वैडूर्य ॥१०५॥

रत्नत्रयमय, शुद्ध, भव्य-कमल के सूर्य और (जिनकथित पदार्थों के) उपदेशक - ऐसे उपाध्यायों को मैं नित्य पुनः-पुनः वन्दन करता हूँ ।

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+ साधुओं का स्वरूप -
वावारविप्पमुक्का चउव्विहाराहणासयारत्ता ।
णिग्गंथा णिम्मोहा साहू दे एरिसा होंति ॥75॥
व्यापारविप्रमुक्ताः चतुर्विधाराधनासदारक्ताः ।
निर्ग्रन्था निर्मोहाः साधवः ईद्रशा भवन्ति ॥७५॥
आराधना अनुरक्त नित व्यापार से भी मुक्त हैं ।
जिनमार्ग में सब साधुजन निर्मोह हैं निर्ग्रन्थ हैं ॥७५॥
अन्वयार्थ : [व्यापारविप्रमुक्ताः] व्यापार से विमुक्त (समस्त व्यापार रहित), [चतुर्विधाराधनासदारक्ताः] चतुर्विध आराधना में सदा रक्त, [निर्ग्रन्थाः] निर्ग्रंथ और [निर्मोहाः] निर्मोह - [ईद्रशाः] ऐसे, [साधवः] साधु [भवन्ति] होते हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, निरन्तर अखण्डित परम तपश्चरण में निरत (लीन) ऐसे सर्वसाधुओं के स्वरूप का कथन है ।

ऐसे, परम निर्वाण सुन्दरी की सुन्दर माँग की शोभारूप कोमल केशर के रज-पुंज के सुवर्णरंगी अलङ्कार को (केशर-रज की कनकरंगी शोभा को) देखने में कौतूहल बुद्धिवाले वे समस्त साधु होते हैं (पूर्वोक्त लक्षणवाले, मुक्ति-सुन्दरी की अनुपमता का अवलोकन करने में आतुर बुद्धिवाले समस्त साधु होते हैं )

(कलश--दोहा)
भव सुख से जो विमुख हैं सर्व संग से मुक्त ।
उनका मन अभिवंद्य है जो निज में अनुरक्त ॥१०६॥

भववाले जीवों के भवसुख से जो विमुख है और सर्व संग के सम्बन्ध से जो मुक्त है, ऐसा वह साधु का मन हमें वंद्य है । हे साधु ! उस मन को शीघ्र निजात्मा में मग्न करो ।

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+ व्यवहार-चारित्र-अधिकार का उपसंहार -
एरिसयभावणाए ववहारणयस्स होदि चारित्तं ।
णिच्छयणयस्स चरणं एत्तो उड्ढं पवक्खामि ॥76॥
ईद्रग्भावनायां व्यवहारनयस्य भवति चारित्रम् ।
निश्चयनयस्य चरणं एतदूर्ध्वं प्रवक्ष्यामि ॥७६॥
इसतरह की भावना व्यवहार से चारित्र है ।
अब कहूँगा मैं अरे निश्चयनयाश्रित चरण को ॥७६॥
अन्वयार्थ : [ईद्रग्भावनायाम्] ऐसी (पूर्वोक्त) भावना में [व्यवहारनयस्य] व्यवहारनय के अभिप्राय से [चारित्रम्] चारित्र [भवति] है; [निश्चयनयस्य] निश्चयनय के अभिप्राय से [चरणम्] चारित्र [एतदूर्ध्वम्] इसके पश्चात् [प्रवक्ष्यामि] कहूँगा ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, व्यवहार-चारित्र-अधिकार का जो व्याख्यान उसके उपसंहार का और निश्चयचारित्र की सूचना का कथन है ।

ऐसी जो पूर्वोक्त पंच-महाव्रत, पंच-समिति, निश्चय-व्यवहार त्रिगुप्ति तथा पंच-परमेष्ठी के ध्यान से संयुक्त, अतिप्रशस्त शुभ भावना उसमें व्यवहारनय के अभिप्राय से परम चारित्र है; अब कहे जानेवाले पाँचवें अधिकार में, परम पंचमभाव में लीन, पंचमगति के हेतुभूत, शुद्ध निश्चयनयात्मक परम चारित्र द्रष्टव्य (देखने योग्य) है । इसीप्रकार मार्गप्रकाशक में (श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
कोठार के भीतर पड़े ज्यों बीज उग सकते नहीं ।
बस उसतरह चारित्र बिन दृग-ज्ञान फल सकते नहीं ॥
असुर मानव देव भी थुति करें जिस चारित्र की ।
मैं करूँ वंदन नित्य बारंबार उस चारित्र को ॥२४॥

जिसके बिना (जिस चारित्र के बिना) सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कोठार के भीतर पड़े हुए बीज (अनाज) समान हैं, उसी देव-असुर-मानव से स्तवन किये गये जैन चरण को (ऐसा जो सुर-असुर-मनुष्यों से स्तवन किया गया जिनोक्त चारित्र उसे) मैं पुनः पुनः नमन करता हूँ ।

और

(कलश--अडिल्ल)
आत्मरमणतारूप चरण ही शील है ।
निश्चय का यह कथन शील शिवमूल है ॥
शुभाचरण मय चरण परम्परा हेतु है ।
सूरिवचन यह सदा धर्म का मूल है ॥१०७॥

आचार्यों ने शील को (निश्चय-चारित्र को) मुक्ति-सुन्दरी के अनंग (अशरीरी) सुख का मूल कहा है; व्यवहारात्मक चारित्र भी उसका परम्परा कारण है ।

इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रंथ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव विरचित तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में) व्यवहार-चारित्र अधिकार नाम का चौथा श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।

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परमार्थ प्रतिक्रमण



+ पंचरत्न का स्वरूप -
णाहं णारयभावो तिरियत्थो मणुवदेवपज्जाओ ।
कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ॥77॥
णाहं मग्गणठाणो णाहं गुणठाण जीवठाणो ण ।
कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ॥78॥
णाहं बालो बुड्ढो ण चेव तरुणो ण कारणं तेसिं ।
कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ॥79॥
णाहं रागो दोसो ण चेव मोहो ण कारणं तेसिं ।
कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ॥80॥
णाहं कोहो माणो ण चेव माया ण होमि लोहो हं ।
कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ॥81॥
नाहं नारकभावस्तिर्यङ्मानुषदेवपर्यायः ।
कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नैव कर्तॄणाम् ॥७७॥
नाहं मार्गणास्थानानि नाहं गुणस्थानानि जीवस्थानानि न ।
कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नैव कर्तॄणाम् ॥७८॥
नाहं बालो वृद्धो न चैव तरुणो न कारणं तेषाम् ।
कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नैव कर्तॄणाम् ॥७९॥
नाहं रागो द्वेषो न चैव मोहो न कारणं तेषाम् ।
कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नैव कर्तॄणाम् ॥८०॥
नाहं क्रोधो मानो न चैव माया न भवामि लोभोऽहम् ।
कर्ता न हि कारयिता अनुमंता नैव कर्तॄणाम् ॥८१॥
नारक नहीं, तिर्यंच - मानव - देव पर्यय मैं नहीं ।
कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमंता मैं नहीं ॥७७॥
मैं मार्गणा के स्थान नहिं, गुणस्थान - जीवस्थान नहिं ।
कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमंता मैं नहीं ॥७८॥
बालक नहीं मैं, वृद्ध नहिं, नहिं युवक, तिन कारण नहीं ।
कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमंता मैं नहीं ॥७९ ॥
मैं राग नहिं, मैं द्वेष नहिं, नहिं मोह, तिन कारण नहीं ।
कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमंता मैं नहीं ॥८०॥
मैं क्रोध नहिं, मैं मान नहिं, माया नहीं, मैं लोभ नहिं ।
कर्ता न, कारयिता नहीं, कर्तानुमोदक मैं नहीं ॥८१॥
अन्वयार्थ : [अहं] मैं [नारकभावः] नारकपर्याय,[तिर्यङ्मानुषदेवपर्यायः] तिर्यंचपर्याय, मनुष्यपर्याय अथवा देवपर्याय [न] नहीं हूँ; [कर्ता न हि कारयिता] उनका (मैं) कर्ता नहीं हूँ, कारयिता (करानेवाला) नहीं हूँ, [कर्तॄणाम्अनुमंता न एव] कर्ता का अनुमोदक नहीं हूँ ।
[अहं मार्गणास्थानानि न] मैं मार्गणास्थान नहीं हूँ, [अहं] मैं [गुणस्थानानि न] गुणस्थान नहीं हूँ [जीवस्थानानि] जीवस्थान [न] नहीं हूँ; [कर्ता न हि कारयिता] उनका मैं कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ, [कर्तॄणाम् अनुमंता न एव] कर्ताका अनुमोदक नहीं हूँ ।
[न अहं बालः वृद्धः] मैं बाल नहीं हूँ, वृद्ध नहीं हूँ, [न च एव तरुणः] तथा तरुण नहीं हूँ; [तेषां कारणं न] उनका (मैं) कारण नहीं हूँ; [कर्ता न हि कारयिता] उनका (मैं) कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ, [कर्तॄणाम् अनुमंता न एव] कर्ताका अनुमोदक नहीं हूँ ।
[न अहं रागः द्वेषः] मैं राग नहीं हूँ, द्वेष नहीं हूँ, [न च एव मोहः] तथा मोह नहींहूँ; [तेषां कारणं न] उनका (मैं) कारण नहीं हूँ, [कर्ता न हि कारयिता] उनका (मैं) कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ; [कर्तॄणाम् अनुमंता न एव] कर्ताका अनुमोदक नहीं हूँ ।
[न अहं क्रोधः मानः] मैं क्रोध नहीं हूँ, मान नहीं हूँ, [न च एव अहं माया] तथामैं माया नहीं हूँ, [लोभः न भवामि] लोभ नहीं हूँ; [कर्ता न हि कारयिता] उनका (मैं) कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ, [कर्तॄणाम् अनुमंता न एव] कर्ता का अनुमोदक नहीं हूँ ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :

(कलश--हरिगीत)
कामगज के कुंभथल का किया मर्दन जिन्होंने ।
विकसित करें जो शिष्यगण के हृदयपंकज नित्य ही ॥
परम संयम और सम्यक्बोध की हैं मूर्ति जो ।
हो नमन बारम्बार ऐसे सूरि माधवसेन को ॥१०८॥

संयम और ज्ञान की मूर्ति, कामरूपी हाथी के कुम्भ-स्थल को भेदनेवाले तथा शिष्यरूपी कमल को विकसित करने में सूर्य समान, ऐसे हे विराजमान (शोभायमान) माधवसेनसूरि ! आपको नमस्कार हो ।

अब, सकल व्यावहारिक चारित्र से और उसके फल की प्राप्ति से प्रतिपक्ष ऐसा जो शुद्ध-निश्चयनयात्मक परम चारित्र उसका प्रतिपादन करनेवाला परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार कहा जाता है । वहाँ प्रारम्भ में पंचरत्न का स्वरूप कहते हैं । वह इसप्रकार : अब पाँच रत्नों का अवतरण किया जाता है :-

यहाँ शुद्ध आत्मा को सकल कर्तृत्व का अभाव दर्शाते हैं ।

अब, इन (उपरोक्त) विविध विकल्पों से (भेदों से) भरी हुई विभाव-पर्यायों का निश्चय से मैं कर्ता नहीं हूँ, कारयिता नहीं हूँ और पुद्गल-कर्मरूप कर्ता का (विभाव-पर्यायों के कर्ता जो पुद्गलकर्म उनका) अनुमोदक नहीं हूँ (इसप्रकार वर्णन किया जाता है)(यहाँ टीका में जिसप्रकार कर्ता के सम्बन्ध में वर्णन किया, उसी प्रकार कारयिता और अनुमन्ता / अनुमोदक के सम्बन्ध में भी समझ लेना ।)

इसप्रकार पाँच रत्नों के शोभित कथन-विस्तार द्वारा सकल विभाव-पर्यायों के सन्न्यास का (त्याग का) विधान कहा है ।

(कलश--हरिगीत)
सम्पूर्ण विषयों के ग्रहण की भावना से मुक्त हों ।
निज द्रव्य गुण पर्याय में जो हो गये अनुरक्त हों ॥
छोड़कर सब विभावों को नित्य निज में ही रमें ।
अति शीघ्र ही वे भव्य मुक्तीरमा की प्राप्ति करें ॥१०९॥

इसप्रकार पंचरत्नों द्वारा जिसने समस्त विषयों के ग्रहण की चिन्ता को छोड़ा है और निज द्रव्य-गुण-पर्याय के स्वरूप में चित्त एकाग्र किया है, वह भव्य जीव निज भाव से भिन्न ऐसे सकल विभाव को छोड़कर अल्प-काल में मुक्ति को प्राप्त करता है ।

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+ भेदविज्ञान द्वारा निश्चय-चारित्र -
एरिसभेदब्भासे मज्झत्थो होदि तेण चारित्तं ।
तं दिढकरणणिमित्तं पडिक्कमणादी पवक्खामि ॥82॥
ईद्रग्भेदाभ्यासे मध्यस्थो भवति तेन चारित्रम् ।
तद्दृढीकरणनिमित्तं प्रतिक्रमणादिं प्रवक्ष्यामि ॥८२॥
इस भेद के अभ्यास से माध्यस्थ हो चारित लहे ।
चारित्रदृढ़ता हेतु हम प्रतिक्रमण आदिक अब कहें ॥८२॥
अन्वयार्थ : [इद्रग्भेदाभ्यासे] ऐसा भेद-अभ्यास होने पर [मध्यस्थः] जीव मध्यस्थ होता है, [तेन चारित्रम् भवति] उससे चारित्र होता है । [तद्द्रढीकरणनिमित्तं] उसे (चारित्रको) दृढ़ करने के लिये [प्रतिक्रमणादिं प्रवक्ष्यामि] मैं प्रतिक्रमणादि कहूँगा ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ, भेदविज्ञान द्वारा क्रम से निश्चय-चारित्र होता है ऐसा कहा है ।

पूर्वोक्त पंचरत्नों से शोभित अर्थ-परिज्ञान (पदार्थों के ज्ञान) द्वारा पंचम गति की प्राप्ति के हेतुभूत ऐसा जीव का और कर्म-पुद्गल का भेद-अभ्यास होने पर, उसी में जो मुमुक्षु सर्वदासंस्थित रहते हैं, वे उस (सतत भेदाभ्यास) द्वारा मध्यस्थ होते हैं और उस कारण से उन परम संयमियों को वास्तविक चारित्र होता है । उस चारित्र की अविचल स्थिति के हेतु से प्रतिक्रमणादि निश्चय-क्रिया कही जाती है । अतीत (भूत-काल के) दोषों के परिहार हेतु जो प्रायश्चित किया जाता है वह प्रतिक्रमण है । 'आदि' शब्द से प्रत्याख्यानादि का संभव कहा जाता है (प्रतिक्रमणादि में जो 'आदि' शब्द है वह प्रत्याख्यान आदि का भी समावेश करने के लिये है )

इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में १३१वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--रोला)
अबतक जो भी हुए सिद्ध या आगे होंगे ।
महिमा जानो एकमात्र सब भेदज्ञान की ॥
और जीव जो भटक रहे हैं भवसागर में ।
भेदज्ञान के ही अभाव से भटक रहे हैं ॥२५॥

जो कोई सिद्ध हुए हैं वे भेद-विज्ञान से सिद्ध हुए हैं; जो कोई बँधे हैं वे उसी के (भेद-विज्ञान के ही) अभाव से बँधे हैं ।

और

(कलश--रोला)
इसप्रकार की थिति में मुनिवर भेदज्ञान से ।
पापपंक को धोकर समतारूपी जल से ॥
ज्ञानरूप होने से आतम मोहमुक्त हो ।
शोभित होता समयसार की कैसी महिमा ॥११०॥

इसप्रकार जब मुनिनाथ को अत्यन्त भेदभाव (भेद-विज्ञान-परिणाम) होता है, तब यह (समयसार) स्वयं उपयोग होने से, मुक्त-मोह (मोह रहित) होता हुआ, शम-जल-निधि के पूर से (उपशम समुद्र के ज्वार से) पाप-कलङ्क को धोकर, विराजता (शोभता) है; वह सचमुच, इस समयसार का कैसा भेद है !

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+ वचनगुप्त रागादि-रहित ही प्रतिक्रमण -
मोत्तूण वयणरयणं रागादीभाववारणं किच्चा ।
अप्पाणं जो झायदि तस्स दु होदि त्ति पडिकमणं ॥83॥
मुक्त्वा वचनरचनां रागादिभाववारणं कृत्वा ।
आत्मानं यो ध्यायति तस्य तु भवतीति प्रतिक्रमणम् ॥८३॥
रे वचन रचना छोड़ रागद्वेष का परित्याग कर ।
ध्याता निजात्मा जीव तो होता उसी को प्रतिक्रमण ॥८३॥
अन्वयार्थ : [वचनरचनां] वचनरचना को [मुक्त्वा] छोड़कर, [रागादि-भाववारणं] रागादिभावों का निवारण [कृत्वा] करके, [यः] जो [आत्मानं] आत्मा को [ध्यायति] ध्याता है, [तस्य तु] उसे [प्रतिक्रमणं] प्रतिक्रमण [भवति इति] होता है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
प्रतिदिन मुमुक्षु जनों द्वारा उच्चारण किया जानेवाला जो वचनमय प्रतिक्रमण नामक समस्त पापक्षय के हेतुभूत सूत्र-समुदाय उसका यह निरास है (अर्थात् उसका इसमें निराकरण / खण्डन किया है )

परम तपश्चरण के कारणभूत सहज-वैराग्य सुधासागर के लिये पूर्णिमा का चन्द्र ऐसा जो जीव (परम तप का कारण ऐसा जो सहज वैराग्यरूपी अमृत का सागर उसे उछालने के लिये अर्थात् उसमें ज्वार लाने के लिये जो पूर्ण चन्द्र समान है ऐसा जो जीव) अप्रशस्त वचन-रचना से परिमुक्त (सर्व ओर से मुक्त) होने पर भी प्रतिक्रमण सूत्र की विषम (विविध) वचन-रचना को (भी) छोड़कर संसारलता के मूल-कंदभूत समस्त मोह-राग-द्वेष भावों का निवारण करके अखण्ड-आनन्दमय निज कारण-परमात्मा को ध्याता है, उस जीव को, कि जो वास्तव में परमतत्त्व के श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान के सन्मुख है उसे, वचन-सम्बन्धी सर्व-व्यापार रहित निश्चय-प्रतिक्रमण होता है ।

इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में २४४वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —

(कलश--हरिगीत)
क्या लाभ है ऐसे अनल्प विकल्पों के जाल से ।
बस एक ही है बात यह परमार्थ का अनुभव करो ॥
क्योंकि निजरसभरित परमानन्द के आधार से ।
कुछ भी नहीं है अधिक सुन लो इस समय के सार से ॥२६॥

अधिक कहने से तथा अधिक दुर्विकल्पों से बस होओ, बस होओ; यहाँ इतना ही कहना है कि इस परम अर्थ का एक का ही निरन्तर अनुभवन करो; क्योंकि निज रस के विस्तार से पूर्ण जो ज्ञान उसके स्फुरायमान होनेमात्र जो समयसार (परमात्मा) उससे ऊँचा वास्तव में अन्य कुछ भी नहीं है (समयसारके अतिरिक्त अन्यकुछ भी सारभूत नहीं है )

और -

(कलश--दोहा)
तीव्र मोहवश जीव जो किये अशुभतम कृत्य ।
उनका कर प्रतिक्रमण मैं रहुँ आतम में नित्य ॥१११॥

अति तीव्र मोह की उत्पत्ति से जो पूर्व में उपार्जित (कर्म) उसका प्रतिक्रमण करके, मैं सद्बोधात्मक (सम्यग्ज्ञानस्वरूप) ऐसे उस आत्मा में आत्मा से नित्य वर्तता हूँ ।

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+ विराधना-रहित आत्माराधक ही प्रतिक्रमण -
आराहणाइ वट्टइ मोत्तूण विराहणं विसेसेण ।
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥84॥
आराधनायां वर्तते मुक्त्वा विराधनं विशेषेण ।
स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ॥८४॥
छोड़े समस्त विराधना आराधनारत जो रहे ।
प्रतिक्रमणमयता हेतुसे प्रतिक्रमण उसको ही कहें ॥८४॥
अन्वयार्थ : [विराधनं] जो (जीव) विराधन को [विशेषेण] विशेषतः [मुक्त्वा] छोड़कर [आराधनायां] आराधना में [वर्तते] वर्तता है, [सः] वह (जीव) [प्रतिक्रमणम्] प्रतिक्रमण [उच्यते] कहलाता है, [यस्मात्] कारण कि वह [प्रतिक्रमणमयः भवेत्] प्रतिक्रमणमय है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ आत्माकी आराधना में वर्तते हुए जीव को ही प्रतिक्रमण-स्वरूप कहा है ।

जो परम तत्त्वज्ञानी जीव निरंतर अभिमुखरूप से (आत्म सम्मुखरूप से) अटूट (धारावाही) परिणाम-सन्तति द्वारा साक्षात् स्वभाव-स्थिति में - आत्मा की आराधना में - वर्तता है वह निरपराध है । जो आत्मा के आराधन रहित है वह सापराध है; इसीलिये, निरवशेषरूप से विराधन छोड़कर - ऐसा कहा है । जो परिणाम 'विगतराध' अर्थात् राध रहित है वह विराधन है । वह (विराधन रहित - निरपराध) जीव निश्चय प्रतिक्रमणमय है, इसीलिये उसे प्रतिक्रमण-स्वरूप कहा जाता है । इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री समयसार में (३०४वीं गाथा द्वारा) कहा है कि : -

(कलश--हरिगीत)
साधित अराधित राध अर संसिद्धि सिद्धि एक है ।
बस राध से जो रहित है वह आतमा अपराध है ॥२७॥

संसिद्धि, राध, सिद्ध, साधित और आराधित - यह शब्द एकार्थ हैं; जो आत्मा 'अपगतराध' अर्थात् राध से रहित है वह आत्मा अपराध है ।

श्री समयसार की (अमृतचन्द्राचार्यदेव कृत आत्मख्याति नामक) टीका में भी (१८७वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : -

(कलश--हरिगीत)
जो सापराधी निरन्तर वे कर्मबंधन कर रहे ।
जो निरपराधी वे कभी भी कर्मबंधन ना करें ॥
अशुद्ध जाने आतमा को सापराधी जन सदा ।
शुद्धात्मसेवी निरपराधी शान्ति सेवें सर्वदा ॥२८॥

सापराध आत्मा निरंतर अनन्त (पुद्गल परमाणुरूप) कर्मों से बँधता है; निरपराध आत्मा बन्धन को कदापि स्पर्श ही नहीं करता । जो सापराध आत्मा है वह तो नियम से अपने को अशुद्ध सेवन करता हुआ सापराध है; निरपराध आत्मा तो भलीभाँति शुद्ध आत्मा का सेवन करनेवाला होता है ।

और

(कलश--हरिगीत)
परमात्मा के ध्यान की संभावना से रहित जो ।
संसार पीड़ित अज्ञजन वे सापराधी जीव हैं ॥
अखण्ड अर अद्वैत चेतनभाव से संयुक्त जो ।
निपुण हैं संन्यास में वे निरपराधी जीव हैं ॥११२॥

इस लोक में जो जीव परमात्म-ध्यान की संभावना रहित है (जो जीव परमात्मा के ध्यानरूप परिणमन से रहित है - परमात्म-ध्यानरूप परिणमित नहीं हुआ है ) वह भवार्त जीव नियम से सापराध माना गया है; जो जीव निरंतर अखण्ड - अद्वैत - चैतन्यभावसे युक्त है वह कर्म-संन्यास दक्ष (कर्मत्याग में निपुण) जीव निरपराध है ।

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+ अनाचरण-रहित आचारी ही प्रतिक्रमण -
मोत्तूण अणायारं आयारे जो दु कुणदि थिरभावं ।
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥85॥
मुक्त्वानाचारमाचारे यस्तु करोति स्थिरभावम् ।
स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ॥८५॥
जो जीव त्याग अनाचरण, आचारमें स्थिरता करे ।
प्रतिक्रमणमयता हेतुसे प्रतिक्रमण कहते हैं उसे ॥८५॥
अन्वयार्थ : [यः तु] जो [अनाचारं] अनाचार [मुक्त्वा] छोड़कर [आचारे] आचार में [स्थिरभावम्] स्थिरभाव [करोति] करता है, [सः] वह (जीव) [प्रतिक्रमणम्] प्रतिक्रमण [उच्यते] कहलाता है, [यस्मात्] कारण कि वह [प्रतिक्रमणमयः भवेत्] प्रतिक्रमणमय है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में) निश्चय चरणात्मक परमोपेक्षा-संयम के धारण करनेवाले को निश्चय प्रतिक्रमण का स्वरूप होता है ऐसा कहा है ।

नियम से परमोपेक्षा-संयमवाले को शुद्ध आत्मा की आराधना के अतिरिक्त सब अनाचार है; इसीलिये सर्व अनाचार छोड़कर सहज चिद्विलासलक्षण निरंजन निज परमात्मतत्त्व की भावनास्वरूप आचार में जो (परम तपोधन) सहज-वैराग्य-भावनारूप से परिणमित हुआ स्थिरभाव करता है, वह परम तपोधन ही प्रतिक्रमण स्वरूप कहलाता है, कारण कि वह परम समरसी भावनारूप से परिणमित हुआ सहज निश्चय-प्रतिक्रमणमय है ।

(कलश--रोला)
रे स्वयं से उत्पन्न परमानन्द के पीयूष से ।
रे भरा है जो लबालब ज्ञायकस्वभावी आतमा ॥
उसे शम जल से नहाओ प्रशम भक्तिपूर्वक ।
सोचो जरा क्या लाभ है इस व्यर्थ के आलाप से ॥११३॥

आत्मा निज परमानन्दरूपी अद्वितीय अमृत से गाढ़ भरे हुए, स्फुरित - सहज - ज्ञानस्वरूप आत्मा को निर्भर (भरपूर) आनन्द-भक्तिपूर्वक निज शममय जल द्वारा स्नान कराओ; बहुत लौकिक आलापजालों से क्या प्रयोजन है ?

(कलश--रोला)
जन्म-मरण के जनक सर्व दोषों को तजकर ।
अनुपम सहजानन्दज्ञानदर्शनवीरजमय ॥
आतम में थित होकर समताजल समूह से
कर कलिमलक्षय जीव जगत के साक्षी होते ॥११४॥

जो आत्मा जन्म-मरण के करनेवाले, सर्व दोषों के प्रसंगवाले अनाचार को अत्यन्त छोड़कर, निरुपम सहज आनन्द-दर्शन-ज्ञान-वीर्यवाले आत्मा में आत्मा से स्थित होकर, बाह्य-आचार से मुक्त होता हुआ, शमरूपी समुद्र के जलबिन्दुओं के समूह से पवित्र होता है, ऐसा वह पवित्र पुराण (सनातन) आत्मा मलरूपी क्लेश का क्षय करके लोक का उत्कृष्ट साक्षी होता है ।

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+ उन्मार्ग-त्यागी जिनमार्गी ही प्रतिक्रमण -
उम्मग्गं परिचत्ता जिणमग्गे जो दु कुणदि थिरभावं ।
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥86॥
उन्मार्गं परित्यज्य जिनमार्गे यस्तु करोति स्थिरभावम् ।
स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ॥८६॥
उन्मार्ग का कर परित्यजन जिनमार्ग में स्थिरता करे ।
प्रतिक्रमणमयता हेतु से प्रतिक्रमण कहते हैं उसे ॥
अन्वयार्थ : [यः तु] जो [उन्मार्गं] उन्मार्ग का [परित्यज्य] परित्याग करके [जिनमार्गे] जिनमार्ग में [स्थिरभावम्] स्थिरभाव [करोति] करता है, [सः] वह (जीव) [प्रतिक्रमणम्] प्रतिक्रमण [उच्यते] कहलाता है, [यस्मात्] कारण कि वह [प्रतिक्रमणमयः भवेत्] प्रतिक्रमणमय है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ उन्मार्ग के परित्याग और सर्वज्ञ वीतराग-मार्ग के स्वीकार का वर्णन किया गया है ।

जो शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव रूप मल-कलङ्क-पंक से विमुक्त (मल-कलङ्करूपी कीचड़ से रहित) शुद्ध निश्चय सम्यग्दृष्टि (जीव) बुद्धादि प्रणीत मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्रात्मक मार्गाभासरूप उन्मार्ग का परित्याग करके, व्यवहार से पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, छह आवश्यक इत्यादि अट्ठाईस मूलगुण स्वरूप महादेवाधिदेव - परमेश्वर - सर्वज्ञ - वीतराग के मार्ग में स्थिर परिणाम करता है, और शुद्ध निश्चयनय से सहजज्ञानादि शुद्धगुणों से अलंकृत, सहज परम चैतन्य सामान्य तथा (सहज परम) चैतन्य-विशेषरूप जिसका प्रकाश है ऐसे निज परमात्म-द्रव्य में शुद्ध-चारित्रमय स्थिरभाव करता है, (जो शुद्धनिश्चय - सम्यग्दृष्टि जीव व्यवहार से अट्ठाईस मूलगुणात्मक मार्ग में और निश्चय से शुद्ध गुणों से शोभित दर्शनज्ञानात्मक परमात्म-द्रव्य में स्थिरभाव करता है) वह मुनि निश्चय प्रतिक्रमण-स्वरूप कहलाता है, कारण कि उसे परम-तत्त्वगत (परमात्मतत्त्व के साथ सम्बन्धवाला) निश्चय-प्रतिक्रमण है इसीलिये वह तपोधन सदा शुद्ध है । इसीप्रकार श्री प्रवचनसार की (अमृतचन्द्राचार्यदेव कृत तत्त्वदीपिका नामक) टीका में (१५वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--मनहरण कवित्त)
उतसर्ग और अपवाद के विभेद द्वारा ।
भिन्न-भिन्न भूमिका में व्याप्त जो चरित्र है ॥
पुराणपुरुषों के द्वारा सादर है सेवित जो ।
उसे प्राप्त कर संत हुए जो पवित्र हैं ॥
चित्सामान्य और चैतन्यविशेष रूप ।
जिसका प्रकाश ऐसे निज आत्मद्रव्य में ॥
क्रमशः पर से पूर्णतः निवृत्ति करके ।
सभी ओर से सदा वास करो निज में ॥२९॥

इसप्रकार विशिष्ट आदरवाले पुराण पुरुषों द्वारा सेवन किया गया, उत्सर्ग और अपवाद द्वारा अनेक पृथक्-पृथक् भूमिकाओं में व्याप्त जो चरण (चारित्र) उसे यति प्राप्त करके, क्रमशः अतुल निवृत्ति करके, चैतन्य सामान्य और चैतन्य-विशेषरूप जिसका प्रकाश है ऐसे निज-द्रव्य में सर्वतः स्थिति करो ।

और -

(कलश--हरिगीत)
जो मुक्त सब संकल्प शुध निजतत्त्व में अनुरक्त हों ।
तप मग्न जिनका चित्त नित स्वाध्याय में जो मत्त हों ॥
धन्य हैं जो सन्त गुणमणि युक्त विषय विरक्त हों ।
वे मुक्तिरूपी सुन्दरी के परम वल्लभ क्यों न हों ॥११५॥

जो विषय-सुख से विरक्त हैं, शुद्ध-तत्त्व में अनुरक्त हैं, तप में लीन जिनका चित्त है, शास्त्र-समूह में जो मत्त हैं, गुणरूपी मणियों के समुदाय से युक्त हैं और सर्व संकल्पों से मुक्त हैं, वे मुक्ति-सुन्दरी के वल्लभ क्यों न होंगे ?

अन्यदृष्टिसंस्तव = (१) मिथ्यादृष्टि का परिचय; (२) मिथ्यादृष्टि की स्तुति । (मन से मिथ्यादृष्टि की महिमा करना वह अन्यदृष्टि प्रशंसा है और मिथ्यादृष्टि की महिमा के वचन बोलना वह अन्यदृष्टिसंस्तव है ।)
आदर = सावधानी; प्रयत्न; बहुमान ।
मत्त = मस्त; पागल; अति प्रीतिवंत; अति आनन्दित ।

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+ निःशल्यभाव ही प्रतिक्रमण -
मोत्तूण सल्लभावं णिस्सल्ले जो दु साहु परिणमदि ।
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥87॥
मुक्त्वा शल्यभावं निःशल्ये यस्तु साधुः परिणमति ।
स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ॥८७॥
कर शल्य का परित्याग मुनि निःशल्य जो वर्तन करे ।
प्रतिक्रमणमयता हेतु से प्रतिक्रमण कहते हैं उसे ॥८७॥
अन्वयार्थ : [यः तु साधुः] जो साधु [शल्यभावं] शल्यभाव [मुक्त्वा] छोड़कर [निःशल्ये] निःशल्यभाव से [परिणमति] परिणमित होता है, [सः] वह (साधु) [प्रतिक्रमणम्] प्रतिक्रमण [उच्यते] कहलाता है, [यस्मात्] कारण कि वह [प्रतिक्रमणमयः भवेत्] प्रतिक्रमणमय है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ निःशल्यभाव से परिणत महातपोधन को ही निश्चय प्रतिक्रमण स्वरूप कहा है ।

प्रथम तो, निश्चय से निःशल्यस्वरूप परमात्मा को, व्यवहारनय के बल से कर्म पंक-युक्तपना होने के कारण (व्यवहारनय से कर्मरूपी कीचड़ के साथ सम्बन्ध होने के कारण) 'उसे निदान, माया और मिथ्यात्वरूपी तीन शल्य वर्तते हैं' ऐसा उपचार से कहा जाता है । ऐसा होने से ही तीन शल्यों का परित्याग करके जो परम योगी परम निःशल्य स्वरूप में रहता है उसे निश्चय प्रतिक्रमण स्वरूप कहा जाता है, कारण कि उसे स्वरूपगत (निज स्वरूप के साथ सम्बन्धवाला) वास्तविक प्रतिक्रमण है ही ।

(कलश--दोहा)
शल्य रहित परमात्म में तीन शल्य को छोड़ ।
स्थित रह शुद्धात्म को भावैं पंडित लोग ॥११६॥

तीन शल्यों का परित्याग करके, निःशल्य परमात्मा में स्थित रहकर, विद्वान को सदा शुद्ध-आत्मा को स्फुटरूप से भाना चाहिये ।

(कलश--कुण्डलिया)
अरे कषायों से रंगा भव का हेतु अजोड़ ।
कामबाण की आग से दग्ध चित्त को छोड़ ॥
दग्ध चित्त को छोड़ भाग्यवश जो न प्राप्त है ।
ऐसा सुख जो निज आतम में सदा व्याप्त है ॥
निजस्वभाव में नियत आत्मरस माँहि पगा है ।
उसे भजो जो नाँहि कषायों माँहि रंगा है ॥११७॥

हे यति ! जो (चित्त) भवभ्रमण का कारण है और बारम्बार काम-बाण की अग्नि से दग्ध है, ऐसे कषाय-क्लेश से रंगे हुए चित्त को तू अत्यन्त छोड़; जो विधिवशात् (कर्मवशता के कारण) अप्राप्त है ऐसे निर्मल स्वभाव-नियत सुख को तू प्रबल संसार की भीती से डरकर भज ।

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+ त्रिगुप्तिगुप्त ही प्रतिक्रमण -
चत्ता अगुत्तिभावं तिगुत्तिगुत्तो हवेइ जो साहू ।
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥88॥
त्यक्त्वा अगुप्तिभावं त्रिगुप्तिगुप्तो भवेद्यः साधुः ।
स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ॥८८॥
जो साधु छोड़ अगुप्ति को त्रय-गुप्ति में विचरण करे ।
प्रतिक्रमणमयता हेतु से प्रतिक्रमण कहते हैं उसे ॥८८॥
अन्वयार्थ : [यः साधुः] जो साधु [अगुप्तिभावं] अगुप्तिभाव [त्यक्त्वा] छोड़कर, [त्रिगुप्तिगुप्तः भवेत्] त्रिगुप्तिगुप्त रहता है, [सः] वह (साधु) [प्रतिक्रमणम्] प्रतिक्रमण [उच्यते] कहलाता है, [यस्मात्] कारण कि वह [प्रतिक्रमणमयः भवेत्] प्रतिक्रमणमय है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
त्रिगुप्तिगुप्तपना (मन-वचन-काय गुप्ति द्वारा गुप्तपना) जिसका लक्षण है ऐसे परमतपोधन को निश्चयचारित्र होने का यह कथन है ।

परम तपश्चरणरूपी सरोवर के कमलसमूह के लिये प्रचंड सूर्य समान ऐसे जो अति-आसन्न भव्य मुनीश्वर बाह्य प्रपंचरूप अगुप्तिभाव छोड़कर, त्रिगुप्तिगुप्त - निर्विकल्प - परमसमाधिलक्षण से लक्षित अति-अपूर्व आत्मा को ध्याते हैं, वे मुनीश्वर प्रतिक्रमणमय परमसंयमी होने से ही निश्चयप्रतिक्रमण स्वरूप हैं ।

( हरिगीत )
सद्ज्ञानमय शुद्धात्मा पर है न कोई आवरण ।
त्रिगुप्तिधारी मुनिवरों का परम निर्मल आचरण ॥
मन-वचन-तन की विकृति को छोड़कर हे भव्यजन !
शुद्धात्मा की भावना से परम गुप्ती को भजो ॥११८॥

मन-वचन-काय की विकृति को सदा छोड़कर, भव्य मुनि सम्यग्ज्ञान के पुंजमयी इस सहज परम गुप्ति को शुद्धात्मा की भावना सहित उत्कृष्टरूप से भजो । त्रिगुप्तिमय ऐसे उस मुनि का वह चारित्र निर्मल है ।

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+ धर्म-शुक्ल ध्यानी ही प्रतिक्रमण -
मोत्तूण अट्टरुद्दं झाणं जो झादि धम्मसुक्कं वा ।
सो पडिकमणं उच्चइ जिणवरणिद्दिट्ठसुत्तेसु ॥89॥
मुक्त्वार्तरौद्रं ध्यानं यो ध्यायति धर्मशुक्लं वा ।
स प्रतिक्रमणमुच्यते जिनवरनिर्दिष्टसूत्रेषु ॥८९॥
जो आर्त रौद्र विहाय वर्त्ते धर्म-शुक्ल सुध्यान में ।
प्रतिक्रमण कहते हैं उसे जिनदेव के आख्यान में ॥८९॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [आर्तरौद्रं ध्यानं] आर्त और रौद्र ध्यान [मुक्त्वा] छोड़कर [धर्मशुक्लं वा] धर्म अथवा शुक्लध्यान को [ध्यायति] ध्याता है, [सः] वह (जीव) [जिनवरनिर्दिष्टसूत्रेषु] जिनवर-कथित सूत्रों में [प्रतिक्रमणम्] प्रतिक्रमण [उच्यते] कहलाता है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, ध्यान के भेदों के स्वरूप का कथन है ।

  1. स्वदेश के त्याग से, द्रव्य के नाश से, मित्रजन के विदेशगमन से, कमनीय (इष्ट,सुन्दर) कामिनी के वियोग से अथवा अनिष्ट के संयोग से उत्पन्न होनेवाला जो आर्तध्यान, तथा
  2. चोर - जार - शत्रुजनों के बध - बन्धन सम्बन्धी महा द्वेष से उत्पन्न होनेवाला जो रौद्रध्यान, वे दोनों ध्यान स्वर्ग और मोक्ष के अपरिमित सुख से प्रतिपक्ष संसार-दुःख के मूल होने के कारण उन दोनों को निरवशेषरूप से (सर्वथा) छोड़कर,
  3. स्वर्ग और मोक्ष के निःसीम (अपार) सुख का मूल ऐसा जो स्वात्माश्रित निश्चय - परम धर्म-ध्यान, तथा
  4. ध्यान और ध्येय के विविध विकल्प रहित, अंतर्मुखाकार, सकल इन्द्रियों के समूहसे अतीत (समस्त इन्द्रियातीत) और निर्भेद परम कला सहित ऐसा जो निश्चय - शुक्लध्यान, उन्हें ध्याकर, जो भव्य पुंडरीक (भव्योत्तम) परमभाव की (पारिणामिक भाव की) भावनारूप से परिणमित हुआ है, वह निश्चय प्रतिक्रमण स्वरूप है - ऐसा परम जिनेन्द्र के मुखारविंद से निकले हुए द्रव्यश्रुत में कहा है ।
चार ध्यानों में प्रथम दो ध्यान हेय हैं, तीसरा प्रथम तो उपादेय है और चौथा सर्वदा उपादेय है ।

इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

जो ध्यान निष्क्रिय है, इन्द्रियातीत है, ध्यान ध्येय विवर्जित (अर्थात् ध्यान और ध्येय के विकल्पों से रहित) है और अन्तर्मुख है, उस ध्यान को योगी शुक्ल-ध्यान कहते हैं ।

(कलश--रोला)
अरे इन्द्रियों से अतीत अन्तर्मुख निष्क्रिय ।
ध्यान-ध्येय के जल्पजाल से पार ध्यान जो ।
अरे विकल्पातीत आतमा की अनुभूति ।
ही है शुक्लध्यान योगिजन ऐसा कहते ॥
सदा प्रगट कल्याणरूप परमात्मतत्त्व में ।
ध्यानावलि है कभी कहे न परमशुद्धनय ॥
ऐसा तो व्यवहारमार्ग में ही कहते हैं ।
हे जिनवर यह तो सब अद्भुत इन्द्रजाल है ॥११९॥

प्रगटरूप से सदाशिवमय (निरंतर कल्याणमय) ऐसे परमात्म-तत्त्व में ध्यानावली होना भी शुद्धनय नहीं कहता । 'वह है' (अर्थात् ध्यानावली आत्मा में है ) ऐसा (मात्र) व्यवहारमार्ग ने सतत कहा है । हे जिनेन्द्र ! ऐसा वह तत्त्व (नय द्वारा कहा हुआ वस्तुस्वरूप), अहो ! महा इन्द्रजाल है ।

(कलश--रोला )
ज्ञानतत्त्व का आभूषण परमात्मतत्त्व यह ।
अरे विकल्पों के समूह से सदा मुक्त है ॥
नय समूहगत यह प्रपंच न आत्मतत्त्व में ।
तब ध्यानावलि कैसे आई कहो जिनेश्वर ॥१२० ॥

सम्यग्ज्ञान का आभूषण ऐसा यह परमात्म-तत्त्व समस्त विकल्प-समूहों से सर्वतः मुक्त (सर्व ओर से रहित) है । (इसप्रकार) सर्व नय समूह सम्बन्धी यह प्रपंच परमात्म-तत्त्व में नहीं है तो फिर वह ध्यानावली इसमें किस प्रकार उत्पन्न हुई (अर्थात् ध्यानावली इस परमात्म तत्त्व में कैसे हो सकती है ) सो कहो ।

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+ अनासन्न-भव्य जीव के पूर्वापर परिणाम -
मिच्छत्तपहुदिभावा पुव्वं जीवेण भाविया सुइरं ।
सम्मत्तपहुदिभावा अभाविया होंति जीवेण ॥90॥
मिथ्यात्वप्रभृतिभावाः पूर्वं जीवेन भाविताः सुचिरम् ।
सम्यक्त्वप्रभृतिभावाः अभाविता भवन्ति जीवेन ॥९०॥
मिथ्यात्व आदिक भाव की की जीव ने चिर भावना ।
सम्यक्त्व आदिक भाव की न करी कभी भी भावना ॥९०॥
अन्वयार्थ : [मिथ्यात्वप्रभृतिभावाः] मिथ्यात्वादि भाव [जीवेन] जीव ने [पूर्वं] पूर्व में [सुचिरम्] सुचिर काल (अति दीर्घ काल) [भाविताः] भाये हैं; [सम्यक्त्वप्रभृतिभावाः] सम्यक्त्वादि भाव [जीवेन] जीव ने [अभाविताः भवन्ति] नहीं भाये हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, आसन्न-भव्य और अनासन्न-भव्य जीव के पूर्वापर (पहले के और बाद के) परिणामों के स्वरूप का कथन है ।

मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय और योगरूप परिणाम सामान्य प्रत्यय (आस्रव) हैं;उनके तेरह भेद हैं, कारण कि 'मिच्छादिट्ठीआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं' ऐसा (शास्त्र का) वचन है; मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी गुणस्थान के अन्तिम समय तक प्रत्यय होते हैं - ऐसा अर्थ है ।

निरंजन निज परमात्म तत्त्व के श्रद्धान रहित अनासन्न-भव्य जीव ने वास्तव में सामान्य प्रत्ययों को पहले सुचिर काल भाया है; जिसने परम नैष्कर्म्यरूप चारित्र प्राप्त नहीं किया है ऐसे उस स्वरूप-शून्य बहिरात्म-जीव ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र को नहीं भाया है । इस मिथ्यादृष्टि जीव से विपरीत गुण-समुदायवाला अति-आसन्न भव्य-जीव होता है । इस (अति-निकट भव्य) जीव को सम्यग्ज्ञान की भावना किसप्रकार से होती है ऐसा प्रश्न किया जाये तो (आचार्यवर) श्री गुणभद्रस्वामी ने (आत्मानुशासन में २३८वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--दोहा )
पहले कभी न भायी जो भवावर्त्त के माँहि ।
भवाभाव के लिए अब मैं भाता हूँ ताहि ॥३०॥

भवावर्त में पहले न भायी हुई भावनाएँ (अब) मैं भाता हूँ । वे भावनाएँ (पहले) न भायी होने से मैं भव के अभाव के लिये उन्हें भाता हूँ (कारण कि भव का अभाव तो भव-भ्रमण के कारणभूत भावनाओं से विरुद्ध प्रकार की, पहले न भायी हुई ऐसी अपूर्व भावनाओं से ही होता है )

और -

(कलश--हरिगीत)
संसार सागर में मगन इस आत्मघाती जीव ने ।
रे मात्र कहने को धर्म की वार्ता भव-भव सुनी ॥
धारण किया चारित्र किन्तु खेद है इस जीव ने ।
ज्ञायकस्वभावी आत्मा की बात भी न कभी सुनी ॥१२१॥

जो मोक्ष का कुछ कथनमात्र (कहने मात्र) कारण है उसे भी (व्यवहार-रत्नत्रय को भी) भवसागर में डूबे हुए जीव ने पहले भव-भव में (अनेक भवों में) सुना है और आचरा (आचरण में लिया) है; परन्तु अरे रे ! खेद है कि जो सर्वदा एक ज्ञान है उसे (जो सदा एक ज्ञान-स्वरूप ही है ऐसे परमात्म-तत्त्व को) जीव ने सुना-आचरा नहीं है, नहीं है ।

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+ निश्चय-रत्नत्रय धारक ही प्रतिक्रमण -
मिच्छादंसणणाणचरित्तं चइऊण णिरवसेसेण ।
सम्मत्तणाणचरणं जो भावइ सो पडिक्कमणं ॥91॥
मिथ्यादर्शनज्ञानचरित्रं त्यक्त्वा निरवशेषेण ।
सम्यक्त्वज्ञानचरणं यो भावयति स प्रतिक्रमणम् ॥९१॥
जो जीव त्यागे सर्व मिथ्यादर्श-ज्ञान-चरित्र रे ।
सम्यक्त्व-ज्ञान-चरित्र भावे प्रतिक्रमण कहते उसे ॥९१॥
अन्वयार्थ : [मिथ्यादर्शनज्ञानचरित्रं] मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को [निरवशेषेण] निरवशेषरूप से [त्यक्त्वा] छोड़कर [सम्यक्त्वज्ञानचरणं] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को [यः] जो [भावयति] भाता है, [सः] वह (जीव) [प्रतिक्रमणम्] प्रतिक्रमण है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
भगवान अर्हत् परमेश्वर के मार्ग से प्रतिकूल मार्गाभास में मार्ग का श्रद्धान वह मिथ्यादर्शन है, उसी में कही हुई अवस्तु में वस्तुबुद्धि वह मिथ्याज्ञान है और उस मार्ग का आचरण वह मिथ्याचारित्र है; -- इन तीनों को निरवशेषरूप से छोड़कर । अथवा, निजआत्मा के श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठान के रूप से विमुखता वही मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रात्मक (मिथ्या) रत्नत्रय है; -- इसे भी (निरवशेष रूप से) छोड़कर । त्रिकाल-निरावरण, नित्य-आनन्द जिसका एक लक्षण है ऐसा, निरंजन निज परम-पारिणामिक-भावस्वरूप कारण-परमात्मा वह आत्मा है; उसके स्वरूप के श्रद्धान-ज्ञान-आचरण का रूप वह वास्तव में निश्चय-रत्नत्रय है; -- इसप्रकार भगवान परमात्मा के सुख का अभिलाषी ऐसा जो परम पुरुषार्थ-परायण (परम तपोधन) शुद्ध रत्नत्रयात्मक आत्मा को भाता है, उस परम तपोधन को ही (शास्त्र में) निश्चय प्रतिक्रमण-स्वरूप कहा है ।

(कलश--दोहा)
जानकार निजतत्त्व के तज विभाव व्यवहार ।
आत्मज्ञान श्रद्धानमय धरें विमल आचार ॥१२२॥

समस्त विभाव को तथा व्यवहार-मार्ग के रत्नत्रय को छोड़कर निज तत्त्ववेदी (निज आत्मतत्त्व को जाननेवाला - अनुभवनेवाला) मतिमान पुरुष शुद्ध आत्मतत्त्व में नियत (शुद्धात्म तत्त्वपरायण) ऐसा जो एक निजज्ञान, दूसरा श्रद्धान और फिर दूसरा चारित्र उसका आश्रय करता है ।

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+ निश्चय-उत्तमार्थ प्रतिक्रमण -
उत्तमअट्ठं आदा तम्हि ठिदा हणदि मुणिवरा कम्मं ।
तम्हा दु झाणमेव हि उत्तमअट्ठस्स पडिकमणं ॥92॥
उत्तमार्थ आत्मा तस्मिन् स्थिता घ्नन्ति मुनिवराः कर्म ।
तस्मात्तु ध्यानमेव हि उत्तमार्थस्य प्रतिक्रमणम् ॥९२॥
है जीव उत्तम अर्थ, मुनि तत्रस्थ हन्ता कर्म का ।
अतएव है बस ध्यान ही प्रतिक्रमण उत्तम अर्थ का ॥९२॥
अन्वयार्थ : [उत्तमार्थः] उत्तमार्थ (उत्तम पदार्थ) [आत्मा] आत्मा है; [तस्मिन् स्थिताः] उसमें स्थित [मुनिवराः] मुनिवर [कर्म घ्नन्ति] कर्म का घात करते हैं । [तस्मात् तु] इसलिये [ध्यानम् एव] ध्यान ही [हि] वास्तव में [उत्तमार्थस्य] उत्तमार्थ का [प्रतिक्रमणम्] प्रतिक्रमण है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में), निश्चय-उत्तमार्थ प्रतिक्रमण का स्वरूप कहा है ।

जिनेश्वर के मार्ग में मुनियों की सल्लेखना के समय, ब्यालीस आचार्यों द्वारा, जिसका नाम उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है वह दिया जाने के कारण, देहत्याग व्यवहार से धर्म है । निश्चयसे -- नव अर्थों में उत्तम अर्थ आत्मा है; सच्चिदानन्दमय कारण समयसार स्वरूप ऐसे उस आत्मा में जो तपोधन स्थित रहते हैं, वे तपोधन नित्य मरणभीरु हैं; इसीलिये वे कर्म का विनाश करते हैं । इसलिये अध्यात्म भाषा से, पूर्वोक्त भेदकरण रहित, ध्यान और ध्येय के विकल्प रहित, निरवशेषरूप से अंतर्मुख जिसका आकार है ऐसा और सकल इन्द्रियों से अगोचर निश्चय - परम शुक्ल-ध्यान ही निश्चय-उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है ऐसा जानना । और, निश्चय-उत्तमार्थ प्रतिक्रमण स्वात्माश्रित ऐसे निश्चय धर्मध्यान तथा निश्चय शुक्ल-ध्यानमय होने से अमृत-कुम्भस्वरूप है; व्यवहार-उत्तमार्थ प्रतिक्रमण व्यवहार धर्म-ध्यानमय होने से विषकुम्भ-स्वरूप है । इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसारमें (३०६वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
प्रतिक्रमण अर प्रतिसरण परिहार निवृत्ति धारणा ।
निन्दा गरहा और शुद्धि अष्टविध विषकुंभ हैं ॥३१॥

प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्हा और शुद्धि -- इन आठ प्रकार का विषकुम्भ है ।

और इसीप्रकार श्री समयसार की (अमृतचन्द्राचार्यदेव कृत आत्मख्याति नामक) टीका में (१८९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--रोला )
प्रतिक्रमण भी अरे जहाँ विष-जहर कहा हो ।
अमृत कैसे कहें वहाँ अप्रतिक्रमण को ॥
अरे प्रमादी लोग अधोऽध: क्यों जाते हैं ?
इस प्रमाद को त्याग ऊर्ध्व में क्यों नहीं जाते ? ॥३२॥

जहाँ प्रतिक्रमण को ही विष कहा है, वहाँ अप्रतिक्रमण अमृत कहाँ से होगा ? तो फिर मनुष्य नीचे नीचे गिरते हुए प्रमादी क्यों होते हैं ? निष्प्रमादी होते हुए ऊँचे-ऊँचे क्यों नहीं चढ़ते ?

और

(कलश--हरिगीत)
रे ध्यान-ध्येय विकल्प भी सब कल्पना में रम्य हैं ।
इक आतमा के ध्यान बिन सब भाव भव के मूल हैं ॥
यह जानकर शुध सहज परमानन्द अमृत बाढ में ।
डुबकी लगाकर सन्तजन हों मगन परमानन्द में ॥१२३॥

आत्मध्यान के अतिरिक्त अन्य सब घोर संसार का मूल है, (और) ध्यान-ध्येयादिक सुतप (ध्यान, ध्येय आदि के विकल्पवाला शुभ तप भी) कल्पनामात्र रम्य है; ऐसा जानकर धीमान (बुद्धिमान पुरुष) सहज परमानन्दरूपी पीयूष के पूर में डूबते हुए (निमग्न होते हुए) ऐसे सहज परमात्मा का -- एक का आश्रय करते हैं ।


प्रतिक्रमण = किये हुये दोषोंका निराकरण करना ।
प्रतिसरण = सम्यक्त्वादि गुणों में प्रेरणा ।
परिहार = मिथ्यात्वरागादि दोषों का निवारण ।
धारणा = पंचनमस्कारादि मंत्र, प्रतिमा आदि बाह्य द्रव्यों के आलम्बन द्वारा चित्त को स्थिर करना ।
निवृत्ति = बाह्य विषय कषायादि इच्छा में वर्तते हुए चित्त को मोड़ना ।
निंदा = आत्मसाक्षी से दोषों का प्रगट करना ।
गर्हा = गुरुसाक्षी से दोषों का प्रगट करना ।
शुद्धि = दोष हो जाने पर प्रायश्चित लेकर विशुद्धि करना ।

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+ ध्यान एक उपादेय -
झाणणिलीणो साहू परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं ।
तम्हा दु झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं ॥93॥
ध्याननिलीनः साधुः परित्यागं करोति सर्वदोषाणाम् ।
तस्मात्तु ध्यानमेव हि सर्वातिचारस्य प्रतिक्रमणम् ॥९३॥
रे साधु करता ध्यान में सब दोष का परिहार है ।
अतएव ही सर्वातिचार प्रतिक्रमण यह ध्यान है ॥९३॥
अन्वयार्थ : [ध्याननिलीनः] ध्यान में लीन [साधुः] साधु [सर्वदोषाणाम्] सर्व दोषों का [परित्यागं] परित्याग [करोति] करते हैं; [तस्मात् तु] इसलिये [ध्यानम् एव] ध्यान ही [हि] वास्तव में [सर्वातिचारस्य] सर्व अतिचार का [प्रतिक्रमणम्] प्रतिक्रमण है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में), ध्यान एक उपादेय है ऐसा कहा है ।

जो कोई परम-जिनयोगीश्वर साधु - अति-आसन्नभव्य जीव, अध्यात्म-भाषा से पूर्वोक्त स्वात्माश्रित निश्चय-धर्म-ध्यान में लीन होता हुआ अभेदरूप में स्थित रहता है, अथवा सकल क्रियाकांड के आडम्बर रहित और व्यवहार नयात्मक भेदकरण तथा ध्यान-ध्येय के विकल्प-रहित, समस्त इन्द्रिय-समूह से अगोचर ऐसा जो परम तत्त्व -- शुद्ध अन्तःतत्त्व, तत्सम्बन्धी भेद-कल्पना से निरपेक्ष निश्चय शुक्ल-ध्यान स्वरूप में स्थित रहता है, वह (साधु) निरवशेष रूप से अंतर्मुख होने से प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त मोह-राग-द्वेष का परित्याग करता है; इसलिये (ऐसा सिद्ध हुआ कि) स्वात्माश्रित ऐसे जो निश्चय धर्म-ध्यान और निश्चय शुक्ल-ध्यान, वे दो ध्यान ही सर्व अतिचारों का प्रतिक्रमण है ।

(कलश--हरिगीत)
चित्तमंदिर में सदा दीपक जले शुक्लध्यान का ।
उस योगि को शुद्धातमा प्रत्यक्ष होता है सदा ॥१२४॥

यह शुक्लध्यानरूपी दीपक जिसके मनोमन्दिरमें प्रकाशित हुआ,वह योगी है; उसे शुद्ध आत्मा स्वयं प्रत्यक्ष होता है ।

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+ व्यवहार प्रतिक्रमण की सफलता -
पडिकमणणामधेये सुत्ते जह वण्णिदं पडिक्कमणं ।
तह णच्चा जो भावइ तस्स तदा होदि पडिक्कमणं ॥94॥
प्रतिक्रमणनामधेये सूत्रे यथा वर्णितं प्रतिक्रमणम् ।
तथा ज्ञात्वा यो भावयति तस्य तदा भवति प्रतिक्रमणम् ॥९४॥
प्रतिक्रमणनामक सूत्रमें प्रतिक्रमण वर्णित है यथा ।
होता उसे प्रतिक्रमण जो जाने तथा भावे तथा ॥९४॥
अन्वयार्थ : [प्रतिक्रमणनामधेये] प्रतिक्रमण नामक [सूत्रे] सूत्र में [यथा] जिसप्रकार [प्रतिक्रमणम्] प्रतिक्रमण का [वर्णितं] वर्णन किया गया है [तथा ज्ञात्वा] तदनुसार जानकर [यः] जो [भावयति] भाता है, [तस्य] उसे [तदा] तब [प्रतिक्रमणम् भवति] प्रतिक्रमण है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ, व्यवहार प्रतिक्रमण की सफलता कही है (द्रव्य श्रुतात्मक प्रतिक्रमण सूत्र में वर्णित प्रतिक्रमण को सुनकर / जानकर, सकल संयम की भावना करना वही व्यवहार प्रतिक्रमण की सफलता / सार्थकता है -- ऐसा इस गाथा में कहा है )

समस्त आगम के सारासार का विचार करने में सुन्दर चातुर्य तथा गुण-समूह के धारण करनेवाले निर्यापक आचार्यों ने जिसप्रकार द्रव्यश्रुतरूप प्रतिक्रमण नामक सूत्र में प्रतिक्रमण का अति विस्तार से वर्णन किया है, तदनुसार जानकर जिननीति को अनुल्लंघता हुआ जो सुन्दर चारित्रमूर्ति महामुनि सकल संयम की भावना करता है, उस महामुनि को, कि जो (महामुनि) बाह्य-प्रपंच से विमुख है, पंचेन्द्रिय के फैलाव रहित देहमात्र जिसे परिग्रह है और परमगुरु के चरणों के स्मरण में आसक्त जिसका चित्त है, उसे, तब (उसकाल) प्रतिक्रमण है ।

(कलश--दोहा)
निर्यापक आचार्य के सुनकर वचन सयुक्ति ।
जिनका चित्त चारित्र घर वन्दूँ उनको नित्य ॥१२५॥

निर्यापक आचार्यों की निरुक्ति (व्याख्या) सहित (प्रतिक्रमणादि सम्बन्धी) कथन सदा सुनकर जिसका चित्त समस्त चारित्र का निकेतन(धाम) बनता है, ऐसे उस संयमधारी को नमस्कार हो ।

(कलश--वसंततिलका)
अरे जिन्हें प्रतिक्रमण ही नित्य वर्ते ।
अणुमात्र अप्रतिक्रमण जिनके नहीं है ॥
जो सकल संयम भूषण नित्य धारें ।
उन वीरनन्दि मुनि को नित ही नमें हम ॥१२६॥

मुमुक्षु ऐसे जिन्हें (मोक्षार्थी ऐसे जिन वीरनन्दि मुनि को) सदा प्रतिक्रमण ही है और अणुमात्र भी अप्रतिक्रमण नहीं है, उन सकल-संयमरूपी भूषण के धारण करनेवाले श्री वीरनन्दी नाम के मुनि को नित्य नमस्कार हो ।

इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के फैलाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव विरचित तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका में) निश्चय-प्रतिक्रमण अधिकार नाम का पाँचवाँ श्रुतस्कंध समाप्त हुआ ।

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निश्चय प्रत्याख्यान



+ निश्चय प्रत्याख्यान का स्वरूप -
मोत्तूण सयलजप्पमणागयसुहमसुहवारणं किच्चा ।
अप्पाणं जो झायदि पच्चक्खाणं हवे तस्स ॥95॥
मुक्त्वा सकलजल्पमनागतशुभाशुभनिवारणं कृत्वा ।
आत्मानं यो ध्यायति प्रत्याख्यानं भवेत्तस्य ॥९५॥
भावी शुभाशुभ छोड़कर, तजकर वचन विस्तार रे ।
जो जीव ध्याता आत्म, प्रत्याख्यान होता है उसे ॥९५॥
अन्वयार्थ : [सकलजल्पम्] समस्त जल्प को (वचन-विस्तार को) [मुक्त्वा] छोड़कर और [अनागतशुभाशुभनिवारणं] अनागत शुभ-अशुभ का निवारण [कृत्वा] करके [यः] जो [आत्मानं] आत्मा को [ध्यायति] ध्याता है, [तस्य] उसे [प्रत्याख्यानं] प्रत्याख्यान [भवेत्] है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
अब निम्नानुसार निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार कहा जाता है - कि जो निश्चय-प्रत्याख्यान सकल प्रव्रज्यारूप साम्राज्य की विजय-ध्वजा के विशाल दंड की शोभा समान है, समस्त कर्मों की निर्जरा के हेतुभूत है, मोक्ष की सीढ़ी है और मुक्तिरूपी स्त्री के प्रथम दर्शन की भेंट है । वह इसप्रकार है :यहाँ गाथा-सूत्र का अवतरण किया जाता है :-

यह, निश्चयनय के प्रत्याख्यान के स्वरूप का कथन है ।

यहाँ ऐसा कहा है कि — व्यवहारनय के कथन से, मुनि दिन-दिन में (प्रतिदिन) भोजन करके फिर योग्य काल पर्यंत अन्न, पान, खाद्य और लेह्य की रुचि छोड़ते हैं; यह व्यवहार-प्रत्याख्यान का स्वरूप है । निश्चयनय से, प्रशस्त / अप्रशस्त समस्त वचन-रचना के प्रपंच (विस्तार) के परिहार द्वारा शुद्धज्ञान-भावना की सेवा के प्रसाद द्वारा जो नवीन शुभाशुभ द्रव्य-कर्मों का तथा भाव-कर्मों का संवर होना सो प्रत्याख्यान है । जो सदा अन्तर्मुख परिणमन से परम कला के आधाररूप अति-अपूर्व आत्मा को ध्याता है, उसे नित्य प्रत्याख्यान है । इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री समयसार में (३४वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
परभाव को पर जानकर परित्याग उनका जब करे ।
तब त्याग हो बस इसलिए ही ज्ञान प्रत्याख्यान है ॥स.सा.--३४॥

'अपने अतिरिक्त सर्व पदार्थ पर हैं' - ऐसा जानकर प्रत्याख्यान करता है / त्याग करता है, इसीलिये प्रत्याख्यान ज्ञान ही है (अर्थात् अपने ज्ञान में त्यागरूप अवस्था ही प्रत्याख्यान है) ऐसा नियम से जानना ।

इसीप्रकार समयसार की (अमृतचन्द्राचार्यदेव कृत आत्मख्याति नामक) टीका में भी (२२८वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--रोला)
नष्ट हो गया मोहभाव जिसका ऐसा मैं ।
करके प्रत्याख्यान भाविकर्मों का अब तो ॥
वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के ।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ॥आ.ख्याति--२२८॥

भविष्य के समस्त कर्मों का प्रत्याख्यान करके (त्यागकर), जिसका मोह नष्ट हुआ है ऐसा मैं निष्कर्म (अर्थात् सर्व कर्मों से रहित) चैतन्य-स्वरूप आत्मा में आत्मा से ही (स्वयं से ही) निरंतर वर्तता हूँ ।

और

(कलश--हरिगीत)
जो ज्ञानि छोड़े कर्म अर नोकर्म के समुदाय को ।
उस ज्ञानमूर्ति विज्ञजन को सदा प्रत्याख्यान है ॥
और सत् चारित्र भी है क्योंकि नाशे पाप सब ।
वन्दन करूँ नित भवदुखों से मुक्त होने के लिए ॥१२७॥

जो सम्यग्दृष्टि समस्त कर्म-नोकर्म के समूह को छोड़ता है, उस सम्यग्ज्ञान की मूर्ति को सदा प्रत्याख्यान है और उसे पाप-समूह का नाश करनेवाले ऐसे सत्-चारित्र अतिशयरूप से है । भव-भव के क्लेश का नाश करने के लिये उसे मैं नित्य वंदन करता हूँ ।

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+ अनंतचतुष्टयात्मक निज-आत्मा के ध्यान का उपदेश -
केवलणाणसहावो केवलदंसणसहावसुहमइओ ।
केवलसत्तिसहावो सो हं इदि चिंतए णाणी ॥96॥
केवलज्ञानस्वभावः केवलदर्शनस्वभावः सुखमयः ।
केवलशक्ति स्वभावः सोहमिति चिंतयेत् ज्ञानी ॥९६॥
कैवल्य दर्शन-ज्ञान-सुख; कैवल्य शक्ति स्वभाव जो ।
मैं हूँ वही, यह चिन्तवन होता निरन्तर ज्ञानि को ॥९६॥
अन्वयार्थ : [केवलज्ञानस्वभावः] केवलज्ञान-स्वभावी, [केवलदर्शनस्वभावः] केवलदर्शन-स्वभावी, [सुखमयः] सुखमय और [केवलशक्तिस्वभावः] केवलशक्ति-स्वभावी [सः अहम्] वह मैं हूँ - [इति] ऐसा [ज्ञानी] ज्ञानी [चिंतयेत्] चिंतवन करते हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, अनंतचतुष्टयात्मक निज-आत्मा के ध्यान के उपदेश का कथन है ।

समस्त बाह्य-प्रपंच की वासना से विमुक्त, निरवशेषरूप से अन्तर्मुख परमतत्त्वज्ञानी जीव को शिक्षा दी गई है । किसप्रकार ? इसप्रकार :- सादि-अनंत अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाले शुद्ध सद्भूतव्यवहार से, शुद्ध स्पर्श-रस-गंध-वर्ण के आधारभूत शुद्ध पुद्गल-परमाणु की भाँति, जो केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख तथा केवलशक्ति युक्त परमात्मा सो मैं हूँ, इसप्रकार ज्ञानी को भावना करनी चाहिये; और निश्चय से, मैं सहज ज्ञानस्वरूप हूँ, मैं सहज दर्शनस्वरूप हूँ, मैं सहज चारित्रस्वरूप हूँ तथा मैं सहज चित्शक्तिस्वरूप हूँ इसप्रकार भावना करनी चाहिये ।

इसीप्रकार एकत्व सप्तति में (श्री पद्मनन्दि-आचार्यवरकृत, पद्मनन्दिपञ्चविंशति के एकत्वसप्तति नामक अधिकारमें २०वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--रोला)
केवलदर्शनज्ञानसौख्यमय परमतेज वह ।
उसे देखते किसे न देखा कहना मुश्किल ॥
उसे जानते किसे न जाना कहना मुश्किल ।
उसे सुना तो किसे न सुना कहना मुश्किल ॥३५॥

वह परम तेज केवलज्ञान, केवलदर्शन और केवलसौख्य स्वभावी है । उसे जानने पर क्या नहीं जाना ? उसे देखने पर क्या नहीं देखा ? उसका श्रवण करने पर क्या नहीं सुना ?

और

(कलश--अडिल्ल )
मुनिराजों के हृदयकमल का हंस जो ।
निर्मल जिसकी दृष्टि ज्ञान की मूर्ति जो ॥
सहज परम चैतन्य शक्तिमय जानिये ।
सुखमय परमातमा सदा जयवंत है ॥१२८॥

समस्त मुनिजनों के हृदय-कमल का हंस ऐसा जो यह शाश्वत, केवलज्ञान की मूर्तिरूप, सकल-विमल दृष्टिमय (सर्वथा निर्मल दर्शनमय), शाश्वत आनन्दरूप, सहज परम चैतन्य-शक्तिमय परमात्मा वह जयवन्त है ।

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+ ज्ञानी को शिक्षा -
णियभावं णवि मुच्चइ परभावं णेव गेण्हए केइं ।
जाणदि पस्सदि सव्वं सो हं इदि चिंतए णाणी ॥97॥
निजभावं नापि मुंचति परभावं नैव गृह्णाति कमपि ।
जानाति पश्यति सर्वं सोहमिति चिंतयेद् ज्ञानी ॥९७॥
निजभावको छोड़े नहीं, किंचित् ग्रहे परभाव नहिं ।
देखे व जाने मैं वही, ज्ञानी करे चिन्तन यही ॥९७॥
अन्वयार्थ : [निजभावं] जो निजभाव को [न अपि मुंचति] नहीं छोड़ता, [कम् अपि परभावं] किंचित् भी परभाव को [न एव गृह्णाति] ग्रहण नहीं करता, [सर्वं] सर्व को [जानाति पश्यति] जानता - देखता है, [सः अहम्] वह मैं हूँ -- [इति] ऐसा [ज्ञानी] ज्ञानी [चिंतयेत्] चिंतवन करता है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ, परम भावना के सम्मुख ऐसे ज्ञानी को शिक्षा दी है ।

जो कारण-परमात्मा
  1. समस्त पापरूपी बहादुर शत्रु-सेना की विजय-ध्वजा को लूटनेवाले, त्रिकाल-निरावरण, निरंजन, निज परमभाव को कभी नहीं छोड़ता;
  2. पंचविध (पाँच परावर्तनरूप) संसार की वृद्धि के कारणभूत, विभाव-पुद्गल-द्रव्य के संयोग से जनित रागादि परभाव को ग्रहण नहीं करता; और
  3. निरंजन सहजज्ञान - सहजदृष्टि - सहजचारित्रादि स्वभाव-धर्मों के आधार-आधेय सम्बन्धी विकल्पों रहित, सदा मुक्त तथा सहज मुक्तिरूपी स्त्री के संभोग से उत्पन्न होनेवाले सौख्य के स्थानभूत - ऐसे कारण-परमात्मा को निश्चय से निज-निरावरण परमज्ञान द्वारा जानता है और उस प्रकार के सहज अवलोकन द्वारा (सहज निज-निरावरण परमदर्शन द्वारा) देखता है;
वह कारण-समयसार मैं हूँ — ऐसी सम्यग्ज्ञानियों को सदा भावना करना चाहिये ।

इसीप्रकार श्री पूज्यपादस्वामी ने (समाधितंत्रमें २०वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
जो गृहीत को छोड़े नहीं पर न ग्रहे अग्राह्य को ।
जाने सभी को मैं वही है स्वानुभूति गम्य जो ॥३६॥

जो अग्राह्य को (ग्रहण न करने योग्य को) ग्रहण नहीं करता तथा गृहीत को (ग्राह्य को, शाश्वत स्वभाव को) छोड़ता नहीं है, सर्व को सर्व प्रकार से जानता है, वह स्वसंवेद्य (तत्त्व) मैं हूँ ।

और -

(कलश--हरिगीत)
आतमा में आतमा को जानता है देखता ।
बस एक पंचमभाव है जो नंतगुणमय आतमा ॥
उस आतमा ने आजतक छोड़ा न पंचमभाव को ।
और जो न ग्रहण करता पुद्गलिक परभाव को ॥१२९॥

आत्मा आत्मा में निज आत्मिक गुणों से समृद्ध आत्मा को - एक पंचमभाव को - जानता है और देखता है; उस सहज एक पंचम-भाव को उसने छोड़ा नहीं ही है तथा अन्य ऐसे परभाव को, कि जो वास्तव में पौद्गलिक विकार है उसे, वह ग्रहण नहीं ही करता ।

(कलश--रोला)
अन्य द्रव्य के आग्रह से जो पैदा होता ।
उस तन को तज पूर्ण सहज ज्ञानात्मक सुख की ॥
प्राप्ति हेतु नित लगा हुआ है निज आतम में ।
अमृतभोजी देव लगे क्यों अन्य असन में ॥१३०॥

अन्य द्रव्य का आग्रह करने से उत्पन्न होनेवाले इस विग्रह कोअब छोड़कर, विशुद्ध - पूर्ण - सहजज्ञानात्मक सौख्य की प्राप्ति के हेतु, मेरा यह निज अन्तर मुझमें — चैतन्यमात्र - चिंतामणि में निरन्तर लगा है — उसमें आश्चर्य नहीं है, कारण कि अमृत भोजन जनित स्वाद को जानकर देवों को अन्य भोजन से क्या प्रयोजन है ? (जिस प्रकार अमृत भोजन के स्वाद को जानकर देवों का मन अन्य भोजन में नहीं लगता, उसीप्रकार ज्ञानात्मक सौख्य को जानकर हमारा मन उस सौख्य के निधान चैतन्यमात्र-चिन्तामणि के अतिरिक्त अन्य कहीं नहीं लगता ।)

(कलश--रोला)
अन्य द्रव्य के कारण से उत्पन्न नहीं जो ।
निज आतम के आश्रय से जो पैदा होता ॥
उस अमृतमय सुख को पी जो सुकृत छोड़े ।
प्रगटरूप से वे चित् चिन्तामणि को पावें ॥१३१॥

द्वन्द्व रहित, उपद्रव रहित, उपमा रहित, नित्य, निज आत्मा से उत्पन्न होनेवाले, अन्य द्रव्य की विभावना से (अन्य द्रव्यों सम्बन्धी विकल्प करने से) उत्पन्न न होनेवाले, ऐसे इस निर्मल सुखामृत को पीकर (उस सुखामृत के स्वाद के पास सुकृत भी दुःखरूप लगने से), जो जीव सुकृतात्मक है वह अब इस सुकृत को भी छोड़कर अद्वितीय अतुल चैतन्यमात्र - चिन्तामणि को स्फुटरूप (प्रगटरूप) से प्राप्त करता है ।

(कलश--दोहा)
गुरुचरणों की भक्ति से जाने निज माहात्म्य ।
ऐसा बुध कैसे कहे मेरा यह परद्रव्य ॥१३२॥

गुरुचरणों के समर्चन से उत्पन्न हुई निज-महिमा को जाननेवाला कौन विद्वान 'यह परद्रव्य मेरा है' ऐसा कहेगा ? ।

- रागादिपरभावकी उत्पत्तिमें पुद्गलकर्म निमित्त बनता है ।
– कारणपरमात्मा ‘स्वयं आधार है और स्वभावधर्म आधेय हैं ’ ऐसे विकल्पोंसे रहित है, सदा मुक्त है और मुक्तिसुखका आवास है ।
– आग्रह = पकड़; ग्रहण; लगे रहना वह ।
– विग्रह = (१) रागद्वेषादि कलह; (२) शरीर ।
– सुकृतात्मक = सुकृतवाला; शुभकृत्यवाला; पुण्यकर्मवाला; शुभ भाववाला ।
– समर्चन = सम्यक् अर्चन; सम्यक् पूजन; सम्यक् भक्ति ।

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+ बन्ध-रहित आत्मा को भाना चाहिये -
पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसबंधेहिं वज्जिदो अप्पा ।
सो हं इदि चिंतिज्जो तत्थेव य कुणदि थिरभावं ॥98॥
प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधैर्विवर्जित आत्मा ।
सोहमिति चिंतयन् तत्रैव च करोति स्थिरभावम् ॥९८॥
जो प्रकृति स्थिति अनुभाग और प्रदेश बँधविन आत्मा ।
मैं हूँ वही, यों भावता ज्ञानी करे स्थिरता वहाँ ॥९८॥
अन्वयार्थ : [प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधैः विवर्जितः] प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध रहित [आत्मा] जो आत्मा [सः अहम्] सो मैं हूँ - [इति] यों [चिंतयन्] चिंतवन करता हुआ, (ज्ञानी) [तत्र एव च] उसी में [स्थिरभावं करोति] स्थिरभाव करता है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में), बन्ध-रहित आत्मा भाना चाहिये - इस प्रकार भव्य को शिक्षा दी है ।

शुभाशुभ मन-वचन-काय सम्बन्धी कर्मों से प्रकृति-बन्ध और प्रदेश-बन्ध होता है; चार कषायों से स्थिति-बन्ध और अनुभाग-बन्ध होता है; इन चार बन्धों रहित सदा निरुपाधि-स्वरूप जो आत्मा सो मैं हूँ - ऐसी सम्यग्ज्ञानी को निरन्तर भावना करनी चाहिये ।

(कलश--हरिगीत)
जो मूल शिव साम्राज्य परमानन्दमय चिद्रूप है ।
बस ग्रहण करना योग्य है इस एक अनुपम भाव को ॥
इसलिए हे मित्र सुन मेरे वचन के सार को ।
इसमें रमो अति उग्र हो आनन्द अपरम्पार हो ॥१३३॥

जो मुक्ति-साम्राज्य का मूल है ऐसे इस निरुपम, सहज परमानन्दवाले चिद्रूप को (चैतन्य के स्वरूप को) एक को बुद्धिमान पुरुषों को सम्यक् प्रकार से ग्रहण करना योग्य है; इसलिये, हे मित्र ! तू भी मेरे उपदेश के सार को सुनकर, तुरन्त ही उग्ररूप से इस चैतन्य-चमत्कार मात्र के प्रति अपनी वृत्ति कर ।

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+ सकल विभाव के त्याग की विधि -
ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवट्ठिदो ।
आलंबणं च मे आदा अवसेसं च वोसरे ॥99॥
ममत्वं परिवर्जयामि निर्ममत्वमुपस्थितः ।
आलम्बनं च मे आत्मा अवशेषं च विसृजामि ॥९९॥
मैं त्याग ममता, निर्ममत्व स्वरूपमें स्थिति कर रहा ।
अवलम्ब मेरा आत्मा, अवशेष वारण कर रहा ॥९९॥
अन्वयार्थ : [ममत्वं] मैं ममत्व को [परिवर्जयामि] छोड़ता हूँ और [निर्ममत्वम्] निर्ममत्व में [उपस्थितः] स्थित रहता हूँ; [आत्मा] आत्मा [मे] मेरा [आलम्बनं च] आलम्बन है [अवशेषं च] और शेष [विसृजामि] मैं छोड़ता हूँ ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ सकल विभाव के संन्यास (त्याग) की विधि कही है ।

सुन्दर कामिनी, कांचन (स्वर्ण) आदि समस्त परद्रव्य - गुण - पर्यायों के प्रति ममकार को मैं छोड़ता हूँ । परमोपेक्षा-लक्षण से लक्षित निर्ममकारात्मक (निर्ममत्वमय) आत्मा में स्थित रहकर तथा आत्मा का अवलम्बन लेकर, संसृतिरूपी (संसाररूप) स्त्री के संभोग से उत्पन्न सुख-दुःखादि अनेक विभावरूप परिणति को मैं परिहरता हूँ ।

इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसारकी आत्मख्याति नामक टीका में १०४वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--रोला)
सभी शुभाशुभभावों के निषेध होने से ।
अशरण होंगे नहीं रमेंगे निज स्वभाव में ॥
अरे मुनीश्वर तो निशदिन निज में ही रहते ।
निजानन्द के परमामृत में ही नित रमते ॥३७॥

शुभ आचरणरूप कर्म और अशुभ आचरणरूप कर्म -- ऐसे समस्त कर्मों का निषेध किया जाने पर और इसप्रकार निष्कर्म अवस्था वर्तने पर, मुनि कहीं अशरण नहीं है; (कारण कि) जब निष्कर्म (निवृत्ति) अवस्था वर्तती है तब ज्ञान में आचरण / रमण / परिणमन करता हुआ ज्ञान ही उन मुनियों को शरण है; वे उस ज्ञान में लीन होते हुए परम अमृत का स्वयं अनुभवन (आस्वादन) करते हैं ।

और

(कलश--हरिगीत)
मन-वचन-तन व इंद्रियों की वासना का दमक मैं ।
भव उदधि संभव मोह जलचर और कंचन कामिनी॥
की चाह को मैं ध्यानबल से चाहता हूँ छोड़ना ।
निज आतमा में आतमा को चाहता हूँ जोड़ना ॥१३४॥

मन-वचन-काया सम्बन्धी और समस्त इन्द्रियों सम्बन्धी इच्छा का जिसने नियंत्रण किया है ऐसा मैं अब भवसागर में उत्पन्न होनेवाले मोहरूपी जलचर प्राणियों के समूह को तथा कनक और युवती की वांछा को अतिप्रबल-विशुद्ध-ध्यानमयी सर्व शक्ति से छोड़ता हूँ ।

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+ सर्वत्र आत्मा उपादेय है -
आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य ।
आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे ॥100॥
आत्मा खलु मम ज्ञाने आत्मा मे दर्शने चरित्रे च ।
आत्मा प्रत्याख्याने आत्मा मे संवरे योगे ॥१००॥
मम ज्ञान में है आतमा, दर्शन चरित में आतमा ।
है और प्रत्याख्यान, संवर, योग में भी आतमा ॥१००॥
अन्वयार्थ : [खलु] वास्तव में [मम ज्ञाने] मेरे ज्ञान में [आत्मा] आत्मा है, [मे दर्शने] मेरे दर्शन में [च] तथा [चरित्रे] चारित्र में [आत्मा] आत्मा है, [प्रत्याख्याने] मेरे प्रत्याख्यान में [आत्मा] आत्मा है, [मे संवरे योगे] मेरे संवर में तथा योग में (शुद्धोपयोग में) [आत्मा] आत्मा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में), सर्वत्र आत्मा उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है ऐसा कहा है ।

आत्मा वास्तव में अनादि-अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाववाला, शुद्ध, सहज-सौख्यात्मक है । कारण कि वह (परमात्मा) सनातन स्वभाववाला है ।

इसीप्रकार एकत्व सप्तति में (श्री पद्मनन्दि-आचार्यवरकृत पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका के एकत्वसप्तति नामक अधिकार में ३९, ४० तथा ४१वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--दोहा)
वही एक मेरे लिए परमज्ञान चारित्र ।
पावन दर्शन तप वही निर्मल परम पवित्र ॥३८॥
सत्पुरुषों के लिए वह एकमात्र संयोग ।
मंगल उत्तम शरण अर नमस्कार के योग्य ॥३९॥
योगी जो अप्रमत्त हैं उन्हें एक आचार ।
स्वाध्याय भी है वही आवश्यक व्यवहार ॥४०॥

वही एक (वह चैतन्यज्योति ही एक) परम ज्ञान है, वही एक पवित्र दर्शन है, वही एक चारित्र है तथा वही एक निर्मल तप है । सत्पुरुषों को वही एक नमस्कार योग्य है, वही एक मंगल है, वही एक उत्तम है तथा वही एक शरण है । अप्रमत्त योगी को वही एक आचार है, वही एक आवश्यक क्रिया है तथा वही एक स्वाध्याय है ।

और

(कलश--हरिगीत)
इक आतमा ही बस रहा मम सहज दर्शन-ज्ञान में ।
संवर में शुध उपयोग में चारित्र प्रत्याख्यान में ॥
दुष्कर्म अर सत्कर्म - इन सब कर्म के संन्यास में ।
मुक्ति पाने के लिए अन कोई साधन है नहीं ॥१३५॥

मेरे सहज सम्यग्दर्शन में, शुद्ध ज्ञान में, चारित्र में, सुकृत और दुष्कृतरूपी कर्म-द्वंद्व के संन्यासकाल में (प्रत्याख्यान में), संवर में और शुद्ध योग में (शुद्धोपयोग में) वह परमात्मा ही है (सम्यग्दर्शनादि सभी का आश्रय / अवलम्बन शुद्धात्मा ही है); मुक्ति की प्राप्ति के लिये जगत में अन्य कोई भी पदार्थ नहीं है, नहीं है ।

(कलश--भुजंगप्रयात)
किया नष्ट जिसने है अघतिमिर को,
रहता सदा जो सत्पुरुष के हृदय में ।
कभी विज्ञजन को निर्मल अनिर्मल,
निर्मल-अनिर्मल देता दिखाई ॥
जो नष्ट करता है अघ तिमिर को,
वह ज्ञानदीपक भगवान आतम ।
अज्ञानियों के लिए तो गहन है,
पर ज्ञानियों को देता दिखाई ॥१३६॥

जो कभी निर्मल दिखाई देता है, कभी निर्मल तथा अनिर्मल दिखाई देता है, तथा कभी अनिर्मल दिखाई देता है और इससे अज्ञानी के लिये जो गहन है, वही, कि जिसने निजज्ञानरूपी दीपक से पाप-तिमिर को नष्ट किया है वह (आत्मतत्त्व) ही सत्पुरुषों के हृदय-कमलरूपी घर में निश्चलरूप से संस्थित है ।

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+ संसारावस्था में और मुक्ति में जीव निःसहाय है -
एगो य मरदि जीवो एगो य जीवदि सयं ।
एगस्स जादि मरणं एगो सिज्झदि णीरओ ॥101॥
एकश्च म्रियते जीवः एकश्च जीवति स्वयम् ।
एकस्य जायते मरणं एकः सिध्यति नीरजाः ॥१०१॥
मरता अकेला जीव, एवं जन्म एकाकी करे ।
पाता अकेला ही मरण, अरु मुक्ति एकाकी करे ॥१०१॥
अन्वयार्थ : [जीवः एकः च] जीव अकेला [म्रियते] मरता है [च] और [स्वयम् एकः] स्वयं अकेला [जीवति] जन्मता है; [एकस्य] अकेले का [मरणं जायते] मरण होता है और [एकः] अकेला [नीरजाः] रज-रहित (कर्म-रहित) होता हुआ [सिध्यति] सिद्ध होता है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में), संसारावस्था में और मुक्ति में जीव निःसहाय है ऐसा कहा है ।

नित्य मरण में (प्रतिसमय होनेवाले आयुकर्म के निषेकों के क्षय में) और उस भव सम्बन्धी मरण में, (अन्य किसी की) सहायता के बिना व्यवहार से (जीव) अकेला ही मरता है; तथा सादि-सांत मूर्तिक विजातीय विभाव व्यंजन पर्यायरूप नर-नारकादि पर्यायों की उत्पत्ति में, आसन्न-अनुपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय के कथन से (जीव अकेला ही) स्वयमेव जन्मता है । सर्व बन्धुजनों से रक्षण किया जाने पर भी, महाबल पराक्रमवाले जीव का अकेले का ही, अनिच्छित होने पर भी, स्वयमेव मरण होता है; (जीव) अकेला ही परम गुरु के प्रसाद से प्राप्त स्वात्माश्रित निश्चय शुक्लध्यान के बल से निज-आत्मा को ध्याकर रज-रहित होता हुआ शीघ्र निर्वाण प्राप्त करता है ।

इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--दोहा)
स्वयं करे भोगे स्वयं यह आतम जग माँहि ।
स्वयं रुले संसार में स्वयं मुक्त हो जाँहि ॥

आत्मा स्वयं कर्म करता है, स्वयं उसका फल भोगता है, स्वयं संसार में भ्रमता है तथा स्वयं संसार से मुक्त होता है ।

और श्री सोमदेवपंडितदेव ने (यशस्तिलकचंपू काव्य में दूसरे अधिकार में एकत्वानुप्रेक्षा का वर्णन करते हुए ११९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--वीर)
जनम-मरण के सुख-दुख तूने स्वयं अकेले भोगे हैं ।
मात-पिता सुत-सुता बन्धुजन कोई साथ न देते हैं ॥
यह सब टोली धूर्तजनों की अपने-अपने स्वारथ से ।
लगी हुई है साथ तुम्हारे पर न कोई तुम्हारे हैं ॥४१॥

स्वयं किये हुए कर्म के फलानुबन्ध को स्वयं भोगने के लिये तू अकेला जन्म में तथा मृत्यु में प्रवेश करता है, अन्य कोई (स्त्री पुत्र मित्रादिक) सुख-दुःख के प्रकारों में बिलकुल सहायभूत नहीं होता; अपनी आजीविका के लिये (मात्र अपने स्वार्थ के लिये स्त्री-पुत्र-मित्रादिक) ठगों की टोली तुझे मिली है ।

और

(कलश--वीर)
जीव अकेला कर्म घनेरे उनने इसको घेरा है ।
तीव्र मोहवश इसने निज से अपना मुखड़ा फेरा है ॥
जनम-मरण के दु:ख अनंते इसने अबतक प्राप्त किये ।
गुरु प्रसाद से तत्त्व प्राप्त कर निज में किया वसेरा है ॥१३७॥

जीव अकेला प्रबल दुष्कृत से जन्म और मृत्यु को प्राप्त करता है; जीव अकेला सदा तीव्र-मोह के कारण स्वसुख से विमुख होता हुआ कर्म-द्वंद्व जनित फलमय (शुभ और अशुभ कर्म के फलरूप) सुन्दर सुख और दुःख को बारम्बार भोगता है; जीव अकेला गुरु द्वारा किसी ऐसे एक तत्त्व को (अवर्णनीय परम चैतन्य तत्त्व को) प्राप्त करके उसमें स्थित रहता है ।

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+ एकत्व भावनारूप से परिणमित सम्यग्ज्ञानी के लक्षण -
एगो मे सासदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो ।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥102॥
एको मे शाश्वत आत्मा ज्ञानदर्शनलक्षणः ।
शेषा मे बाह्या भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ॥१०२॥
दृग्ज्ञान-लक्षित और शाश्वत मात्र - आत्मा मम अरे ।
अरु शेष सब संयोग लक्षित भाव मुझसे है परे ॥१०२॥
अन्वयार्थ : [ज्ञानदर्शनलक्षणः] ज्ञान-दर्शन लक्षणवाला [शाश्वतः] शाश्वत [एकः] एक [आत्मा] आत्मा [मे] मेरा है; [शेषाः सर्वे] शेष सब [संयोगलक्षणाः भावाः] संयोग-लक्षणवाले भाव [मे बाह्याः] मुझसे बाह्य हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
एकत्व भावनारूप से परिणमित सम्यग्ज्ञानी के लक्षण का यह कथन है ।

त्रिकाल निरुपाधिक स्वभाववाला होने से निरावरण - ज्ञान-दर्शन लक्षण से लक्षित ऐसा जो कारण-परमात्मा वह, समस्त संसाररूपी नन्दनवन के वृक्षों की जड़ के आसपास क्यारियों में पानी भरने के लिये जल-प्रवाह से परिपूर्ण नाली समान वर्तता हुआ जो शरीर उसकी उत्पत्ति में हेतुभूत द्रव्यकर्म-भावकर्म रहित होने से एक है, और वही (कारण-परमात्मा) समस्त क्रियाकाण्ड के आडम्बर के विविध विकल्परूप कोलाहल से रहित सहज शुद्ध-ज्ञान-चेतना कोअतीन्द्रियरूप से भोगता हुआ शाश्वत रहकर मेरे लिये उपादेयरूप से रहता है; जो शुभाशुभ कर्म के संयोग से उत्पन्न होनेवाले शेष बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह, वे सब निज स्वरूप से बाह्य हैं -- ऐसा मेरा निश्चय है ।

(कलश--वीर)
सदा शुद्ध शाश्वत परमातम मेरा तत्त्व अनेरा है ।
सहज परम चिद् चिन्तामणि चैतन्य गुणों का बसेरा है ॥
अरे कथंचित् एक दिव्य निज दर्शन-ज्ञान भरेला है ।
अन्य भाव जो बहु प्रकार के उनमें कोई न मेरा है ॥१३८॥

अहो ! मेरा परमात्मा शाश्वत है, एक है, सहज परम चैतन्य-चिन्तामणि है, सदा शुद्ध है और अनन्त निज दिव्य ज्ञान-दर्शन से समृद्ध है । ऐसा है, तो फिर बहु प्रकार के बाह्य भावों से मुझे क्या फल है ?

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+ आत्मगत दोषों से मुक्त होने के उपाय -
जं किंचि मे दुच्चरित्तं सव्वं तिविहेण वोसरे ।
सामाइयं तु तिविहं करेमि सव्वं णिरायारं ॥103॥
यत्किंचिन्मे दुश्चरित्रं सर्वं त्रिविधेन विसृजामि ।
सामायिकं तु त्रिविधं करोमि सर्वं निराकारम् ॥१०३॥
जो कोइ भी दुष्चरित मेरा सर्व त्रयविधिसे तजूँ ।
अरु त्रिविध सामायिक चरित सब, निर्विकल्पक आचरूँ ॥१०३॥
अन्वयार्थ : [मे] मेरा [यत् किंचित्] जो कुछ भी [दुश्चरित्रं] दुःचारित्र [सर्वं] उस सर्व को मैं [त्रिविधेन] त्रिविध से (मन-वचन-काया से) [विसृजामि] छोड़ता हूँ [तु] और [त्रिविधं सामायिकं] त्रिविध जो सामायिक (चारित्र) [सर्वं] उस सर्व को [निराकारं करोमि] निराकार (निर्विकल्प) करता हूँ ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
आत्मगत दोषों से मुक्त होने के उपाय का यह कथन है ।

मुझे परम-तपोधन को, भेद-विज्ञानी होने पर भी, पूर्व-संचित कर्मों के उदय के कारण चारित्र-मोह का उदय होने पर यदि कुछ भी दुःचारित्र हो, तो उस सर्व को मन-वचन-काया की संशुद्धि से मैं सम्यक् प्रकार से छोड़ता हूँ । 'सामायिक' शब्द से चारित्र कहा है, कि जो (चारित्र) सामायिक, छेदोपस्थापन और परिहारविशुद्धि नाम के तीन भेदों के कारण तीन प्रकार का है । अथवा मैं जघन्य रत्नत्रय को उत्कृष्ट करता हूँ; नव पदार्थरूप पर-द्रव्य के श्रद्धान-ज्ञान-आचरणस्वरूप रत्नत्रय साकार (सविकल्प) है, उसे निज-स्वरूप के श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप स्वभाव रत्नत्रय के स्वीकार (अंगीकार) द्वारा निराकार (शुद्ध) करता हूँ, ऐसा अर्थ है । और (दूसरे प्रकार से कहा जाये तो), मैं भेदोपचार चारित्र को अभेदोपचार करता हूँ तथा अभेदोपचार चारित्र को अभेदानुपचार करता हूँ, इसप्रकार त्रिविध सामायिक को (चारित्र को) उत्तरोत्तर स्वीकृत (अंगीकृत) करने से सहज परम तत्त्व में अविचल स्थितिरूप सहज निश्चय-चारित्र होता है, कि जो (निश्चय-चारित्र) निराकार तत्त्व में लीन होने से निराकार चारित्र है ।

इसीप्रकार श्री प्रवचनसार की (अमृतचन्द्राचार्यदेव कृत तत्त्वदीपिका नामक) टीका में (१२वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--दोहा)
चरण द्रव्य अनुसार हो द्रव्य चरण अनुसार ।
शिवपथगामी बनो तुम दोनों के अनुसार ॥४२॥

चरण द्रव्यानुसार होता है और द्रव्य चरणानुसार होता है -- इसप्रकार वे दोनों परस्पर अपेक्षा-सहित हैं; इसलिये या तो द्रव्य का आश्रय करके अथवा तो चरण का आश्रय करके मुमुक्षु (ज्ञानी, मुनि) मोक्षमार्ग में आरोहण करो ।

और

(कलश--दोहा)
जिनका चित्त आसक्त है निज आतम के माँहि ।
सावधानी संयम विषैं उन्हें मरणभय नाँहि ॥१३९॥

जिनकी बुद्धि चैतन्य-तत्त्व की भावना में आसक्त (रत, लीन) है ऐसे यति यम में प्रयत्नशील रहते हैं (संयम में सावधान रहते हैं ), कि जो यम (संयम) यातनाशील यम के (दुःखमय मरण के) नाश का कारण है ।

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+ अंतर्मुख परम-तपोधन की भाव-शुद्धि -
सम्मं मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केणवि ।
आसाए वोसरित्ता णं समाहि पडिवज्जए ॥104॥
साम्यं मे सर्वभूतेषु वैरं मह्यं न केनचित् ।
आशाम् उत्सृज्य नूनं समाधिः प्रतिपद्यते ॥१०४॥
समता मुझे सब जीव प्रति वैर न किसीके प्रति रहा ।
मैं छोड़ आशा सर्वतः धारण समाधि कर रहा ॥१०४॥
अन्वयार्थ : [सर्वभूतेषु] सर्व जीवों के प्रति [मे] मुझे [साम्यं] समता है, [मह्यं] मुझे [केनचित्] किसी के साथ [वैरं न] वैर नहीं है; [नूनम्] वास्तव में [आशाम् उत्सृज्य] आशा को छोड़कर [समाधिः प्रतिपद्यते] मैं समाधि को प्राप्त करता हूँ ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में) अंतर्मुख परम-तपोधन की भाव-शुद्धि का कथन है ।

जिसने समस्त इन्द्रियों के व्यापार को छोड़ा है ऐसे मुझे भेद-विज्ञानियों तथा अज्ञानियों के प्रति समता है; मित्र-अमित्ररूप (मित्ररूप अथवा शत्रुरूप) परिणति के अभाव के कारण मुझे किसी प्राणी के साथ वैर नहीं है; सहज वैराग्य परिणति के कारण मुझे कोई भी आशा नहीं वर्तती; परम समरसीभाव संयुक्त परम समाधि का मैं आश्रय करता हूँ (अर्थात् परम समाधि को प्राप्त करता हूँ )

इसीप्रकार श्री योगीन्द्रदेव ने (अमृताशीति में २१वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--रोला)
हे भाई ! तुम महासबल तज कर प्रमाद अब ।
समतारूपी कुलदेवी को याद करो तुम ॥
अज्ञ सचिव युत मोह-शत्रु का नाशक है जो ।
ऐसे सम्यग्ज्ञान चक्र को ग्रहण करो तुम ॥४३॥

हे भाई ! स्वाभाविक बल-सम्पन्न ऐसा तू आलस्य छोड़कर,उत्कृष्ट समतारूपी कुलदेवी का स्मरण करके, अज्ञानमंत्री सहित मोह-शत्रु का नाश करनेवाले इस सम्यग्ज्ञानरूपी चक्र को शीघ्र ग्रहण कर ।

अब :-

(कलश--हरिगीत)
मुक्त्यांगना का भ्रमर अर जो मोक्ष-सुख का मूल है ।
दुर्भावनातमविनाशक दिनकरप्रभा समतूल है ॥
संयमीजन सदा संमत रहें समताभाव से ।
मैं भाऊँ समताभाव को अत्यन्त भक्तिभाव से ॥१४०॥

जो (समता) मुक्ति सुन्दरी की सखी है, जो मोक्ष सौख्य का मूल है, जो दुर्भावनारूपी तिमिर-समूह को (नष्ट करने के लिये) चन्द्र के प्रकाश समान है और जो संयमियों को निरंतर संमत है, उस समता को मैं अत्यंत भाता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
जो योगियों को महादुर्लभ भाव अपरंपार है ।
त्रैलोक्यजन अर मुनिवरों का अनोखालंकार है ॥
सुखोदधि के ज्वार को जो पूर्णिमा का चन्द्र है ।
दीक्षांगना की सखी यह समता सदा जयवंत है ॥१४१॥

जो योगियों को भी दुर्लभ है, जो निजाभिमुख सुख के सागर में ज्वार लाने के लिये पूर्ण चन्द्र की प्रभा (समान) है, जो परम संयमियों की दीक्षारूपी स्त्री के मन को प्यारी सखी है तथा जो मुनिवरों के समूह का तथा तीन-लोक का भी अतिशयरूप से आभूषण है, वह समता सदा जयवन्त है ।

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+ निश्चय-प्रत्याख्यान के योग्य जीव का स्वरूप -
णिक्कसायस्स दंतस्स सूरस्स ववसायिणो ।
संसारभयभीदस्स पच्चक्खाणं सुहं हवे ॥105॥
निःकषायस्य दान्तस्य शूरस्य व्यवसायिनः ।
संसारभयभीतस्य प्रत्याख्यानं सुखं भवेत् ॥१०५॥
जो शूर एवं दान्त है, अकषाय उद्यमवान है ।
भव-भीरु है, होता उसे ही सुखद प्रत्याख्यान है ॥१०५॥
अन्वयार्थ : [निःकषायस्य] जो निःकषाय है, [दान्तस्य] दान्त (संयमी) है, [शूरस्य] शूरवीर है, [व्यवसायिनः] व्यवसायी (शुद्धता के प्रति उद्यमवन्त) है और [संसारभयभीतस्य] संसार से भयभीत है, उसे [सुखं प्रत्याख्यानं] सुखमय प्रत्याख्यान (अर्थात् निश्चय-प्रत्याख्यान) [भवेत्] होता है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
जो जीव निश्चय-प्रत्याख्यान के योग्य हो ऐसे जीव के स्वरूप का यह कथन है ।

जो समस्त कषाय-कलंकरूप कीचड़ से विमुक्त है, सर्व इन्द्रियों के व्यापार पर विजय प्राप्त कर लेने से जिसने परम दान्तरूपता प्राप्त की है, सकल परिषहरूपी महा-सुभटों को जीत लेने से जिसने निज शूरगुण प्राप्त किया है, निश्चय - परम-तपश्चरण में निरत(लीन) ऐसा शुद्धभाव जिसे वर्तता है तथा जो संसार दुःख से भयभीत है, उसे (यथोचित शुद्धता सहित) व्यवहार से चार आहार के त्यागरूप प्रत्याख्यान है । परन्तु (शुद्धता रहित) व्यवहार-प्रत्याख्यान तो कुदृष्टि (मिथ्यात्वी) पुरुष को भी चारित्रमोह के उदय के हेतुभूत द्रव्यकर्म-भावकर्म के क्षयोपशम द्वारा क्वचित् कदाचित् संभवित है । इसीलिये निश्चय-प्रत्याख्यान अति-आसन्नभव्य जीवों को हितरूप है; क्योंकि जिसप्रकार सुवर्णपाषाण नामक पाषाण उपादेय है उसीप्रकार अन्धपाषाण नहीं है । इसलिये (यथोचित् शुद्धता सहित) संसार तथा शरीर सम्बन्धी भोग की निर्वेगता निश्चय-प्रत्याख्यान का कारण है और भविष्य काल में होनेवाले समस्त मोह-राग-द्वेषादि विविध विभावों का परिहार वह परमार्थ प्रत्याख्यान है अथवा अनागत काल में उत्पन्न होनेवाले विविध अन्तर्जल्पों (विकल्पों) का परित्याग, वह शुद्ध निश्चय-प्रत्याख्यान है ।

(कलश--हरिगीत)
अरे समतासुन्दरी के कर्ण का भूषण कहा ।
और दीक्षा सुन्दरी की जवानी का हेतु जो ॥
अरे प्रत्याख्यान वह जिनदेव ने जैसा कहा ।
निर्वाण सुख दातार वह तो सदा ही जयवंत है ॥१४२॥

हे मुनिवर ! सुन; जिनेन्द्र के मत में उत्पन्न होनेवाला प्रत्याख्यान सतत् जयवन्त है । वह प्रत्याख्यान परम संयमियों को उत्कृष्टरूप से निर्वाणसुख का करनेवाला है, सहज समतादेवी के सुन्दर कर्ण का महा आभूषण है और तेरी दीक्षारूपी प्रिय स्त्री के अतिशय यौवन का कारण है ।

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+ निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार का उपसंहार -
एवं भेदब्भासं जो कुव्वइ जीवकम्मणो णिच्चं ।
पच्चक्खाणं सक्कदि धरिदुं सो संजदो णियमा ॥106॥
एवं भेदाभ्यासं यः करोति जीवकर्मणोः नित्यम् ।
प्रत्याख्यानं शक्तो धर्तुं स संयतो नियमात् ॥१०६॥
यों जीव कर्म विभेद अभ्यासी रहे जो नित्य ही ।
है संयमी जन नियत प्रत्याख्यान-धारण क्षम वही ॥१०६॥
अन्वयार्थ : [एवं] इसप्रकार [यः] जो [नित्यम्] सदा [जीवकर्मणोः] जीव और कर्म के [भेदाभ्यासं] भेद का अभ्यास [करोति] करता है, [सः संयतः] वह संयत [नियमात्] नियम से [प्रत्याख्यानं] प्रत्याख्यान [धर्तुं] धारण करने को [शक्तः] शक्तिमान है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार के उपसंहार का कथन है ।

श्रीमद् अर्हंत के मुखारविंद से निकले हुए परमागम के अर्थ का विचार करने में समर्थ, ऐसा जो परम संयमी अनादि बन्धनरूप सम्बन्धवाले अशुद्ध अन्तःतत्त्व और कर्म-पुद्गल का भेद भेदाभ्यास के बल से करता है, वह परम संयमी निश्चय-प्रत्याख्यान तथा व्यवहार प्रत्याख्यान को स्वीकृत (अंगीकृत) करता है ।

(कलश--रोला)
भाविकाल के भावों से तो मैं निवृत्त हूँ ।
इसप्रकार के भावों को तुम नित प्रति भावो ॥
निज स्वरूप जो सुख निधान उसको हे भाई!
यदि छूटना कर्मफलों से प्रतिदिन भावो ॥१४३॥

'जो भावि-काल के भव-भावों (संसारभावों) से निवृत्त है वह मैं हूँ' इसप्रकार मुनिश्वर को मल से मुक्त होने के लिये परिपूर्ण सौख्य के निधानभूत निर्मल निज स्वरूप को प्रतिदिन भाना चाहिये ।

(कलश--रोला)
परमतत्त्व तो अरे भयंकर भव सागर की ।
नौका है - यह बात कही है परमेश्वर ने ॥
इसीलिए तो मैं भाता हूँ परमतत्त्व को ।
अरे निरन्तर अन्तरतम से भक्तिभाव से ॥१४४॥

घोर संसार महार्णव की यह (परम तत्त्व) दैदीप्यमान नौका है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है; इसलिये मैं मोह को जीतकर निरन्तर परम तत्त्व को तत्त्वतः (पारमार्थिक रीति से) भाता हूँ ।

(कलश--रोला)
भ्रान्ति नाश से जिनकी मति चैतन्यतत्त्व में ।
निष्ठित है वे संत निरंतर प्रत्याख्यान में ॥
अन्य मतों में जिनकी निष्ठा वे योगीजन ।
भ्रमे घोर संसार नहीं वे प्रत्याख्यान में ॥१४५॥

भ्रान्ति के नाश से जिसकी बुद्धि सहज-परमानन्दयुक्त चेतन में निष्ठित (लीन, एकाग्र) है ऐसे शुद्ध चारित्र मूर्ति को सतत प्रत्याख्यान है । परसमय (अन्य दर्शन) में जिनका स्थान है ऐसे अन्य योगियों को प्रत्याख्यान नहीं होता; उन संसारियों को पुनःपुनः घोर संसरण (परिभ्रमण) होता है ।

(कलश--रोला)
जो शाश्वत आनंद जगतजन में प्रसिद्ध है ।
वह रहता है सदा अनूपम सिद्ध पुरुष में ॥
ऐसी थिति में जड़बुद्धि बुधजन क्यों रे रे ।
कामबाण से घायल हो उसको ही चाहें ?॥१४६॥

जो शाश्वत महा आनन्दानन्द जगत में प्रसिद्ध है, वह निर्मल गुणवाले सिद्धात्मा में अतिशयरूप से तथा नियतरूप से रहता है । (तो फिर,) अरे रे ! यह जड़बुद्धि विद्वान भी काम के तीक्ष्ण शस्त्रों से घायल होते हुए क्लेश पीड़ित होकर उसकी (काम की) इच्छा क्यों करते हैं ?

(कलश--रोला)
अघ वृक्षों की अटवी को वह्नि समान है ।
ऐसा सत् चारित्र सदा है प्रत्यखान में ॥
इसीलिए हे भव्य स्वयं की बुद्धि को तू ।
आत्मतत्त्व में लगा सहज सुख देने वाले ॥१४७॥

जो दुष्ट पापरूपी वृक्षों की घनी अटवी को जलाने के लिये अग्निरूप है ऐसा प्रगट शुद्ध-शुद्ध सत्चारित्र संयमियों को प्रत्याख्यान से होता है; (इसलिये) हे भव्यशार्दूल ! (भव्योत्तम !) तू शीघ्र अपनी मति में तत्त्व को नित्य धारण कर, कि जो तत्त्व सहज-सुख का देनेवाला तथा मुनियों के चारित्र का मूल है ।

(कलश--रोला)
जो सुस्थित है धीमानों के हृदय कमल में ।
अर जिसने मोहान्धकार का नाश किया है ॥
सहजतत्त्व निज के प्रकाश से ज्योतित होकर ।
अरे प्रकाशन मात्र और जयवंत सदा है ॥१४८॥

तत्त्व में निष्णात बुद्धिवाले जीव के हृदयकमलरूप अभ्यंतर में जो सुस्थित है, वह सहज तत्त्व जयवन्त है । उस सहज तेज ने मोहान्धकार का नाश किया है और वह (सहज तेज) निज-रस के विस्तार से प्रकाशित ज्ञान के प्रकाशनमात्र है ।

(कलश--रोला)
सकल दोष से दूर अखण्डित शाश्वत है जो ।
भवसागर में डूबों को नौका समान है ॥
संकटरूपी दावानल को जल समान जो ।
भक्तिभाव से नमस्कार उस सहजतत्त्व को ॥१४९॥

और, जो (सहज तत्त्व) अखण्डित है, शाश्वत है, सकल-दोष से दूर है, उत्कृष्ट है, भवसागर में डूबे हुए जीव-समूह को नौका समान है तथा प्रबल संकटों के समूहरूपी दावानल को (शांत करने के लिये) जल समान है, उस सहज तत्त्व को मैं प्रमोद से सतत नमस्कार करता हूँ ।

(कलश--रोला)
जिनमुख से है विदित और थित है स्वरूप में ।
रत्नदीप सा जगमगात है मुनिमन घट में ॥
मोहकर्म विजयी मुनिवर से नमन योग्य है ।
उस सुखमंदिर सहजतत्त्व को मेरा वंदन ॥१५०॥

जो जिनप्रभु के मुखारविंद से विदित (प्रसिद्ध) है, जो स्वरूप में स्थित है, जो मुनीश्वरों के मनोगृह के भीतर सुन्दर रत्नदीप की भाँति प्रकाशित है, जो इस लोक में दर्शनमोहादि पर विजय प्राप्त किये हुए योगियों से नमस्कार करने योग्य है तथा जो सुख का मन्दिर है, उस सहज तत्त्व को मैं सदा अत्यन्त नमस्कार करता हूँ ।

(कलश--रोला)
पुण्य-पाप को नाश काम को खिरा दिया है ।
महल ज्ञान का अरे काम ना शेष रहा है ॥
पुष्ट गुणों का धाम मोह रजनी का नाशक ।
तत्त्ववेदिजन नमें उसी को हम भी नमते ॥१५१॥

जिसने पाप की राशि को नष्ट किया है, जिसने पुण्यकर्म के समूह को हना है, जिसने मदन (काम) आदि को झाड़ दिया है, जो प्रबल ज्ञान का महल है, जिसको तत्त्ववेत्ता प्रणाम करते हैं, जो प्रकरण के नाशस्वरूप है (जिसे कोई कार्य करना शेष नहीं है, कृतकृत्य), जो पुष्ट गुणों का धाम है तथा जिसने मोह-रात्रि का नाश किया है, उसे (उस सहज तत्त्व को) हम नमस्कार करते हैं ।

इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव विरचित तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका में) निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार नाम का छठवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।

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परम आलोचना



+ निश्चय-आलोचना का स्वरूप -
णोकम्मकम्मरहियं विहावगुणपज्जएहिं वदिरित्तं ।
अप्पाणं जो झायदि समणस्सालोयणं होदि ॥107॥
नोकर्मकर्मरहितं विभावगुणपर्ययैर्व्यतिरिक्तम् ।
आत्मानं यो ध्यायति श्रमणस्यालोचना भवति ॥१०७॥
नोकर्म, कर्म, विभाव, गुण पर्याय विरहित आतमा ।
ध्याता उसे, उस श्रमणको होती परम-आलोचना ॥१०७॥
अन्वयार्थ : [नोकर्मकर्मरहितं] नोकर्म और कर्म से रहित तथा [विभावगुणपर्ययैः व्यतिरिक्तम्] विभाव गुण-पर्यायों से व्यतिरिक्त [आत्मानं] आत्माको[यः] जो [ध्यायति] ध्याता है, [श्रमणस्य] उस श्रमण को [आलोचना] आलोचना [भवति] है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
अब आलोचना अधिकार कहा जाता है ।

यह, निश्चय-आलोचना के स्वरूप का कथन है ।

औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर वे नोकर्म हैं; ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय, मोहनीय, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र नाम के द्रव्यकर्म हैं । कर्मोपाधि-निरपेक्ष सत्ताग्राहक शुद्ध निश्चय द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से परमात्मा इन नोकर्मों और द्रव्यकर्मों से रहित है । मतिज्ञानादिक वे विभावगुण हैं और नर-नारकादि व्यंजन पर्यायें ही विभाव पर्यायें हैं; गुण सहभावी होते हैं और पर्यायें क्रमभावी होती हैं । परमात्मा इन सबसे (विभाव गुणों तथा विभाव पर्यायों से) व्यतिरिक्त है । उपरोक्त नोकर्मों और द्रव्यकर्मों से रहित तथा उपरोक्त समस्त विभाव गुण पर्यायों से व्यतिरिक्त तथा स्वभाव गुण पर्यायों से संयुक्त, त्रिकाल-निरावरण निरंजन परमात्मा को त्रिगुप्तिगुप्त (तीन गुप्ति द्वारा गुप्त ऐसी) परम-समाधि द्वारा जो परम श्रमण सदा अनुष्ठान समय में वचन-रचना के प्रपंच से (विस्तार से) पराङ्मुख वर्तता हुआ ध्याता है, उस भाव-श्रमण को सतत निश्चय आलोचना है ।

इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में २२७वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश)
मोहभाव से वर्तमान में कर्म किये जो ।
उन सबका आलोचन करके ही अब मैं तो ॥
वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के ।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ॥४४॥

मोह के विलास से फैला हुआ जो यह उदयमान (उदय में आनेवाला) कर्म, उस समस्त को आलोचकर (उन सर्व कर्मों की आलोचना करके), मैं निष्कर्म (सर्व कर्मों से रहित) चैतन्य-स्वरूप आत्मा में आत्मा से ही (स्वयं से ही) निरंतर वर्तता हूँ ।

और उपासकाध्ययन में (श्री समंतभद्रस्वामीकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार में १२५वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —

(कलश)
किये कराये अनुमोदित पापों का अब तो ।
आलोचन करता हूँ मैं निष्कपट भाव से ॥
अरे पूर्णत: उन्हें छोड़ने का अभिलाषी ।
धारण करता यह महान व्रत अरे आमरण ॥४५॥

किये हुए, कराये हुए और अनुमोदन किये हुए सर्व पापों की निष्कपटरूप से आलोचना करके, मरण-पर्यंत रहनेवाला, निःशेष (परिपूर्ण) महाव्रत धारण करना ।

और

(कलश--रोला)
पुण्य-पाप के भाव घोर संसार मूल हैं ।
बार-बार उन सबका आलोचन करके मैं ॥
शुद्ध आतमा का अवलंबन लेकर विधिवत् ।
द्रव्यकर्म को नाश ज्ञानलक्ष्मी को पाऊँ ॥१५२॥

घोर संसार के मूल ऐसे सुकृत और दुष्कृत को सदा आलोच-आलोचकर मैं निरुपाधिक (स्वाभाविक) गुणवाले शुद्ध आत्मा को आत्मा से ही अवलम्बता हूँ । फिर द्रव्य-कर्मस्वरूप समस्त प्रकृति को अत्यन्त नष्ट करके सहज विलसती ज्ञान-लक्ष्मी को मैं प्राप्त करूँगा ।

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+ आलोचना के स्वरूप के भेद -
आलोयणमालुंछण वियडीकरणं च भावसुद्धी य ।
चउविहमिह परिकहियं आलोयणलक्खणं समए ॥108॥
आलोचनमालुंछनमविकृतिकरणं च भावशुद्धिश्च ।
चतुर्विधमिह परिकथितं आलोचनलक्षणं समये ॥१०८॥
है शास्त्र में वर्णित चतुर्विधरूप में आलोचना ।
आलोचना, अविकृतिकरण, अरु शुद्धता, आलुंछना ॥१०८॥
अन्वयार्थ : [इह] अब, [आलोचनलक्षणं] आलोचना का स्वरूप [आलोचनम्] आलोचन, [आलुंछनम्] आलुंछन, [अविकृतिकरणम्] अविकृतिकरण [च] और [भावशुद्धिः च] भावशुद्धि [चतुर्विधं] ऐसे चार प्रकार का [समये] शास्त्र में [परिकथितम्] कहा है ।
स्वयं अपने दोषों को सूक्ष्मता से देख लेना अथवा गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना सो व्यवहार-आलोचन है । निश्चय-आलोचन का स्वरूप १०९ वीं गाथा में कहा जायेगा
आलुंछन = (दोषों का) आलुंचन अर्थात् उखाड़ देना
अविकृतिकरण = विकार-रहितता करना
भावशुद्धि = भावोंको शुद्ध करना

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, आलोचना के स्वरूप के भेदों का कथन है ।

भगवान अर्हंत के मुखारविंद से निकली हुई, (श्रवण के लिये आई हुई) सकल-जनता को श्रवण का सौभाग्य प्राप्त हो ऐसी, सुन्दर - आनन्दस्यन्दी (सुन्दर - आनन्दझरती),अनक्षरात्मक जो दिव्यध्वनि, उसके परिज्ञान में कुशल चतुर्थ-ज्ञानधर (मनःपर्यय ज्ञानधारी) गौतम-महर्षि के मुख-कमल से निकली हुई जो चतुर वचन-रचना, उसके गर्भ में विद्यमान राद्धांतादि (सिद्धांतादि) समस्त शास्त्रों के अर्थ समूह के सार सर्व-स्वरूप शुद्ध-निश्चय - परम-आलोचना के चार भेद हैं । वे भेद अब आगे कहे जाने वाले चार सूत्रों में कहे जायेंगे ।

(कलश--हरिगीत)
मुक्तिरूपी अंगना के समागम के हेतु जो ।
भेद हैं आलोचना के उन्हें जो भवि जानकर ॥
निज आतमा में लीन हो नित आत्मनिष्ठित ही रहें ।
हो नमन बारंबार उनको जो सदा निजरत रहें ॥१५३॥

मुक्तिरूपी रमणी के संगम के हेतुभूत ऐसे इन आलोचना के भेदों को जानकर जो भव्य-जीव वास्तव में निज-आत्मा में स्थिति प्राप्त करता है, उस स्वात्म निष्ठित को (उस निजात्मा में लीन भव्य-जीव को) नमस्कार हो ।

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+ आलोचन -
जो पस्सदि अप्पाणं समभावे संठवित्तु परिणामं ।
आलोयणमिदि जाणह परमजिणंदस्स उवएसं ॥109॥
यः पश्यत्यात्मानं समभावे संस्थाप्य परिणामम् ।
आलोचनमिति जानीहि परमजिनेन्द्रस्योपदेशम् ॥१०९॥
समभावमें परिणाम स्थापे और देखे आतमा ।
जिनवर वृषभ उपदेशमें वह जीव है आलोचना ॥१०९॥
अन्वयार्थ : [यः] जो (जीव) [परिणामम्] परिणाम को [समभावे] समभाव में [संस्थाप्य] स्थापकर [आत्मानं] (निज) आत्मा को [पश्यति] देखता है, [आलोचनम्] वह आलोचन है । [इति] ऐसा [परमजिनेन्द्रस्य] परम जिनेन्द्र का [उपदेशम्] उपदेश [जानीहि] जान ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ, आलोचना के स्वीकारमात्र से परम-समता भावना कही गई है ।

सहज वैराग्यरूपी अमृत-सागर के फेन-समूह के श्वेत शोभामण्डल की वृद्धि के हेतुभूत पूर्ण-चन्द्र समान (सहज वैराग्य में ज्वार लाकर उसकी उज्ज्वलता बढ़ानेवाला) जो जीव सदा अंतर्मुखाकार (सदा अंतर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसे), अति अपूर्व, निरंजन निजबोध के स्थानभूत कारण परमात्मा को निरवशेषरूप से अन्तर्मुख निज स्वभाव निरत सहज-अवलोकन द्वारा निरंतर देखता है (जो जीव कारण परमात्मा को सर्वथा अन्तर्मुख ऐसा जो निज स्वभावमें लीन सहज - अवलोकन उसके द्वारा निरंतर देखता है - अनुभवता है ); क्या करके देखता है ? पहले निज-परिणाम को समतावलम्बी करके, परम संयमीभूतरूप से रहकर देखता है; वही आलोचना का स्वरूप है ऐसा, हे शिष्य ! तू परम जिननाथ के उपदेश द्वारा जान । ऐसा यह, आलोचना के भेदों में प्रथम भेद हुआ ।

(कलश--हरिगीत)
जो आतमा को स्वयं में अविचलनिलय ही देखता ।
वह आतमा आनन्दमय शिवसंगनी सुख भोगता ॥
संयतों से इन्द्र चक्री और विद्याधरों से ।
भी वंद्य गुणभंडार आतमराम को वंदन करूँ ॥१५४॥

इसप्रकार जो आत्मा, आत्मा को, आत्मा द्वारा, आत्मा में अविचल निवासवाला देखता है, वह अनंग - सुखमय (अतीन्द्रिय आनन्दमय) ऐसे मुक्ति-लक्ष्मी के विलासों को अल्प-काल में प्राप्त करता है । वह आत्मा सुरेशों से, संयमधरों की पंक्तियों से, खेचरों से (विद्याधरों से) तथा भूचरों से (भूमिगोचरियों से) वंद्य है । मैं उस सर्व-वंद्य सकल-गुणनिधि को (सर्व से वंद्य ऐसे समस्त गुणों के भण्डार को) उसके गुणों की अपेक्षा से (अभिलाषा से) वंदन करता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
जगतजन के मन-वचन से अगोचर जो आतमा ।
वह ज्ञानज्योति पापतम नाशक पुरातन आतमा ॥
जो परम संयमिजनों के नित चित्त पंकज में बसे ।
उसकी कथा क्या करें क्या न करें हम नहिं जानते ॥१५५॥

जिसने ज्ञान-ज्योति द्वारा पाप-तिमिर के पुंज का नाश किया है और जो पुराण (सनातन) है ऐसा आत्मा परम-संयमियों के चित्त-कमल में स्पष्ट है । वह आत्मा संसारी-जीवों के वचन - मनोमार्ग से अतिक्रांत (वचन तथा मन के मार्ग से अगोचर) है । इस निकट परम-पुरुष में विधि क्या और निषेध क्या ?

इसप्रकार इस पद्य द्वारा परम जिनयोगीश्वर ने वास्तव में व्यवहार-आलोचना के प्रपंच का उपहास किया है ।

(कलश--हरिगीत)
इन्द्रियरव से मुक्त अर अज्ञानियों से दूर है ।
अर नय-अनय से दूर फिर भी योगियों को गम्य है ॥
सदा मंगलमय सदा उत्कृष्ट आतमतत्त्व जो ।
वह पापभावों से रहित चेतन सदा जयवंत है ॥१५६॥

जो सकल इन्द्रियों के समूह से उत्पन्न होनेवाले कोलाहल से विमुक्त है, जो नय और अनय के समूह से दूर होने पर भी योगियों को गोचर है, जो सदा शिवमय है, उत्कृष्ट है और जो अज्ञानियों को परम दूर है, ऐसा यह अनघ - चैतन्यमय सहजतत्त्व अत्यन्त जयवन्त है ।

(कलश--हरिगीत)
श्रीपरमगुरुओं की कृपा से भव्यजन इस लोक में ।
निज सुख सुधासागर निमज्जित आतमा को जानकर ॥
नित प्राप्त करते सहजसुख निर्भेद दृष्टिवंत हो ।
उस अपूरब तत्त्व को मैं भा रहा अति प्रीति से ॥१५७॥

निज सुखरूपी सुधा के सागर में डूबते हुए इस शुद्धात्मा को जानकर भव्य-जीव परम-गुरु द्वारा शाश्वत-सुख को प्राप्त करते हैं; इसलिये, भेद के अभाव की दृष्टि से जो सिद्धि से उत्पन्न होनेवाले सौख्य द्वारा शुद्ध है ऐसे किसी (अद्भुत) सहज तत्त्व को मैं भी सदा अति-अपूर्व रीति से अत्यन्त भाता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
सब ग्रन्थ से निर्ग्रन्थ शुध परभावदल से मुक्त है ।
निर्मोह है निष्पाप है वह परम आतमतत्त्व है ॥
निर्वाणवनिताजन्यसुख को प्राप्त करने के लिए ।
उस तत्त्व को करता नमन नित भावना भी उसी की ॥१५८॥

सर्व-संग से निर्मुक्त, निर्मोहरूप, अनघ और परभाव से मुक्त ऐसे इस परमात्म-तत्त्व को मैं निर्वाणरूपी स्त्री से उत्पन्न होनेवाले अनंग सुख के लिये नित्य संभाता हूँ (सम्यक्-रूप से भाता हूँ) और प्रणाम करता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
भिन्न जो निजभाव से उन विभावों को छोड़कर ।
मैं करूँ नित चिन्मात्र निर्मल आतमा की भावना ॥
कर जोड़कर मैं नमन करता मुक्ति मारग को सदा ।
इस दुखमयी भव-उदधि से बस पार पाने के लिए ॥१५९॥

निज-भाव से भिन्न ऐसे सकल विभाव को छोड़कर एक निर्मल चिन्मात्र को मैं भाता हूँ । संसार-सागर को तर जाने के लिये, अभेद कहे हुए (जिसे जिनेन्द्रों ने भेद-रहित कहा है ऐसे) मुक्ति के मार्ग को भी मैं नित्य नमन करता हूँ ।

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+ आलुंछन -
कम्ममहीरुहमूलच्छेदसमत्थो सकीयपरिणामो ।
साहीणो समभावो आलुंछणमिदि समुद्दिट्ठं ॥110॥
कर्ममहीरुहमूलछेदसमर्थः स्वकीयपरिणामः ।
स्वाधीनः समभावः आलुंछनमिति समुद्दिष्टम् ॥११०॥
जो कर्म-तरु-जड़ नाश के सामर्थ्यरूप स्वभाव है ।
स्वाधीन निज समभाव आलुंछन वही परिणाम है ॥११०॥
अन्वयार्थ : [कर्ममहीरुहमूलछेदसमर्थः] कर्मरूपी वृक्ष का मूल छेदने में समर्थ ऐसा जो [समभावः] समभावरूप [स्वाधीनः] स्वाधीन [स्वकीयपरिणामः] निज परिणाम [आलुंछनम् इति समुद्दिष्टम्] उसे आलुञ्छन कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, परमभाव के स्वरूप का कथन है ।

भव्य को पारिणामिक भावरूप स्वभाव होने के कारण परम स्वभाव है । वह पंचम भाव औदयिकादि चार विभाव स्वभावों को अगोचर है । इसीलिये वह पंचम भाव उदय, उदीरणा, क्षय, क्षयोपशम ऐसे विविध विकारों से रहित है । इस कारण से इस एक को परमपना है, शेष चार विभावों को अपरमपना है । समस्त कर्मरूपी विष-वृक्ष के मूल को उखाड़ देने में समर्थ ऐसा यह परमभाव, त्रिकाल-निरावरण निज कारण-परमात्मा के स्वरूप की श्रद्धा से प्रतिपक्ष तीव्र मिथ्यात्व कर्म के उदय के कारण कुदृष्टि को, सदा निश्चय से विद्यमान होने पर भी, अविद्यमान ही है (कारण कि मिथ्यादृष्टि को उस परमभाव के विद्यमानपने की श्रद्धा नहीं है) । नित्य-निगोद के जीवों को भी शुद्ध-निश्चयनय से वह परमभाव 'अभव्यत्व पारिणामिक' ऐसे नाम सहित नहीं है (परन्तु शुद्धरूप से ही है) । जिसप्रकार मेरु के अधोभाग में स्थित सुवर्णराशि को भी सुवर्णपना है, उसीप्रकार अभव्यों को भी परम स्वभावपना है; वह वस्तु-निष्ठ है, व्यवहार-योग्य नहीं है (जिसप्रकार मेरु के नीचे स्थित सुवर्ण-राशि का सुवर्णपना सुवर्ण-राशि में विद्यमान है किन्तु वह उपयोग में नहीं आता, उसीप्रकार अभव्यों का परम-स्वभावपना आत्म-वस्तु में विद्यमान है किन्तु वह उपयोग में नहीं आता क्योंकि अभव्य जीव परम-स्वभाव का आश्रय करने के लिये अयोग्य हैं) । सुदृष्टियों (अति आसन्न-भव्य जीवों) को यह परमभाव सदा निरंजनपने के कारण (सदा निरंजनरूप से प्रतिभासित होने के कारण) सफल हुआ है; जिससे, इस परम पंचमभाव द्वारा अति-आसन्न-भव्य जीव को निश्चय-परम-आलोचना के भेदरूप से उत्पन्न होनेवाला 'आलुंछन' नाम सिद्ध होता है, कारण कि वह परमभाव समस्त कर्मरूपी विषम-विषवृक्ष के विशाल मूल को उखाड़ देने में समर्थ है ।

(कलश--हरिगीत)
हैं आत्मनिष्ठा परायण जो मूल उनकी मुक्ति का ।
जो सहजवस्थारूप पुण्य-पाप एकाकार है ॥
जो शुद्ध है नित शुद्ध एवं स्वरस से भरपूर है ।
जयवंत पंचमभाव वह जो आत्मा का नूर है ॥१६०॥

जो कर्म की दूरी के कारण प्रगट सहजावस्था पूर्वक विद्यमान है, जो आत्म निष्ठापरायण (आत्म-स्थित) समस्त मुनियों को मुक्ति का मूल है, जो एकाकार है (सदा एकरूप है), जो निज-रस के फैलाव से भरपूर होने के कारण पवित्र है और जो पुराण (सनातन) है, वह शुद्ध-शुद्ध एक पंचम भाव सदा जयवन्त है ।

(कलश--हरिगीत)
इस जगतजन की ज्ञानज्योति अरे काल अनादि से ।
रे मोहवश मदमत्त एवं मूढ है निजकार्य में ॥
निर्मोह तो वह ज्ञान-ज्योति प्राप्त कर शुधभाव को ।
उज्ज्वल करे सब ओर से तब सहजवस्था प्राप्त हो ॥१६१॥

अनादि संसार से समस्त जनता को (जनसमूह को) तीव्र-मोह के उदय के कारण ज्ञान-ज्योति सदा मत्त है, काम के वश है और निज आत्म-कार्य में मूढ़ है । मोहके अभाव से यह ज्ञान-ज्योति शुद्ध-भाव को प्राप्त करती है, कि जिस शुद्ध-भाव ने दिशा-मण्डल को धवलित (उज्ज्वल) किया है तथा सहज अवस्था प्रगट की है ।

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+ अविकृतिकरण -
कम्मादो अप्पाणं भिण्णं भावेइ विमलगुणणिलयं ।
मज्झत्थभावणाए वियडीकरणं ति विण्णेयं ॥111॥
कर्मणः आत्मानं भिन्नं भावयति विमलगुणनिलयम् ।
मध्यस्थभावनायामविकृतिकरणमिति विज्ञेयम् ॥१११॥
निर्मलगुणाकर कर्म-विरहित अनुभवन जो आत्म का ।
माध्यस्थ भावों में करे, अविकृतिकरण उसे कहा ॥१११॥
अन्वयार्थ : [मध्यस्थभावनायाम्] जो मध्यस्थ भावना में [कर्मणः भिन्नम्] कर्म से भिन्न [आत्मानं] आत्मा को [विमलगुणनिलयं] कि जो विमलगुणों का निवास है उसे [भावयति] भाता है, [अविकृतिकरणम् इति विज्ञेयम्] उस जीव को अविकृतिकरण जानना ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ शुद्धोपयोगी जीव की परिणति-विशेष का (मुख्य परिणति का) कथन है ।

पापरूपी अटवी को जलाने के लिये अग्नि समान ऐसा जो जीव द्रव्य-कर्म, भाव-कर्म और नोकर्म से भिन्न आत्मा को, कि जो सहज गुणों का निधान है उसे, मध्यस्थ भावना में भाता है, उसे अविकृतिकरण नामक परम-आलोचना का स्वरूप वर्तता ही है ।

(कलश--हरिगीत)
अरे अन्त:शुद्ध शम-दमगुणकमलनी हंस जो ।
आनन्द गुण भरपूर कर्मों से सदा है भिन्न जो ॥
चैतन्यमूर्ति अनूप नित छोड़े न ज्ञानस्वभाव को ।
वह आत्मा न ग्रहे किंचित् किसी भी परभाव को ॥१६२॥

आत्मा निरंतर द्रव्य-कर्म और नोकर्म के समूह से भिन्न है, अन्तरंग में शुद्ध है और शम-दम गुणरूपी कमलों का राजहंस है (जिसप्रकार राजहंस कमलों में केलि करता है उसीप्रकार आत्मा शान्तभाव और जितेन्द्रियतारूपी गुणों में रमता है ) । सदा आनन्दादि अनुपम गुणवाला और चैतन्य-चमत्कार की मूर्ति ऐसा वह आत्मा मोह के अभाव के कारण समस्त पर को (पर द्रव्य-भावों को) ग्रहण नहीं ही करता ।

(कलश--हरिगीत)
अरे निर्मलभाव अमृत उदधि में डुबकी लगा ।
धोये हैं पापकलंक एवं शान्त कोलाहल किया ॥
इन्द्रियों से जन्य अक्षय अलख गुणमय आतमा ।
रे स्वयं अंतर्ज्योति से तम नाश जगमग हो रहा ॥१६३॥

जो अक्षय अन्तरंग गुणमणियों का समूह है, जिसने सदा विशद-विशद (अत्यन्त निर्मल) शुद्धभावरूपी अमृत के समुद्र में पाप-कलंक को धो डाला है तथा जिसने इन्द्रिय-समूह के कोलाहल को नष्ट कर दिया है, वह शुद्ध आत्मा ज्ञान-ज्योति द्वारा अंधकारदशा का नाश करके अत्यन्त प्रकाशमान होता है ।

(कलश--रोला)
अरे सहज ही घोर दु:ख संसार घोर में ।
प्रतिदिन तपते जीव अनंते घोर दु:खों से ॥
किन्तु मुनिजन तो नित समता के प्रसाद से ।
अरे शमामृत हिम की शीतलता पाते हैं ॥१६४॥

संसार के घोर, सहज इत्यादि रौद्र दुःखादिक से प्रतिदिन परितप्त होनेवाले इस लोक में यह मुनिवर समता के प्रसाद से शमामृतमय जो हिम-राशि (बर्फ का ढेर) को प्राप्त करते हैं ।

(कलश--रोला)
रे विभावतन मुक्त जीव तो कभी न पाते ।
क्योंकि उन्होंने सुकृत-दुष्कृत नाश किये हैं ॥
इसीलिए तो सुकृत-दुष्कृत कर्मजाल तज ।
अरे जा रहा हूँ मुमुक्षुओं के मारग में ॥१६५॥

मुक्त-जीव विभाव-समूह को कदापि प्राप्त नहीं होता क्योंकि उसने उसके हेतुभूत सुकृत और दुष्कृत का नाश किया है । इसलिये अब मैं सुकृत और दुष्कृतरूपी कर्म-जाल को छोड़कर एक मुमुक्षुमार्ग पर जाता हूँ (अर्थात् मुमुक्षु जिस मार्ग पर चले हैं उसी एक मार्ग पर चलता हूँ)

(कलश--दोहा)
अस्थिर पुद्गलखंध तन तज भवमूरत जान ।
सदा शुद्ध जो ज्ञानतन पाया आतम राम ॥१६६॥

पुद्गल-स्कन्धों द्वारा जो अस्थिर है (पुद्गल-स्कन्धों के आने-जाने से जो एक-सी नहीं रहती) ऐसी इस भवमूर्ति को (भव की मूर्तिरूप काया को) छोड़कर मैं सदा शुद्ध ऐसा जो ज्ञान-शरीरी आत्मा उसका आश्रय करता हूँ ।

(कलश--दोहा)
शुध चेतन की भावना, रहित शुभाशुभभाव ।
औषधि है भव रोग की, वीतरागमय भाव ॥१६७॥

शुभ और अशुभ से रहित शुद्ध-चैतन्य की भावना मेरे अनादि संसार-रोग की उत्तम औषधि है ।

(कलश--रोला)
अरे पंचपरिवर्तनवाले भव के कारण ।
विविध विकल्पोंवाले शुभ अर अशुभ कर्म हैं ॥
अरे जानकर ऐसा जनम-मरण से विरहित ।
मुक्ति प्रदाता शुद्धातम को नमन करूँ मैं ॥१६८॥

पाँच प्रकार के (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के परावर्तनरूप) संसार का मूल विविध भेदों वाला शुभाशुभ कर्म है ऐसा स्पष्ट जानकर, जो जन्म-मरण रहित है और पाँच प्रकार की मुक्ति देनेवाला है उसे (शुद्धात्मा को) मैं नमन करता हूँ और प्रतिदिन भाता हूँ ।

(कलश--रोला)
यद्यपि आदि-अन्त से विरहित आतमज्योति ।
सत्य और सुमधुर वाणी का विषय नहीं है ॥
फिर भी गुरुवचनों से आतमज्योति प्राप्त कर ।
सम्यग्दृष्टि जीव मुक्तिवधु वल्लभ होते ॥१६९॥

इस प्रकार आदि-अन्त रहित ऐसी यह आत्म-ज्योति सुललित (सुमधुर) वाणी का अथवा सत्य-वाणी का भी विषय नहीं है; तथापि गुरु के वचनों द्वारा उसे प्राप्त करके जो शुद्ध दृष्टिवाला होता है, वह परमश्री रूपी कामिनी का वल्लभ होता है (मुक्ति-सुन्दरी का पति होता है )

(कलश--रोला)
अरे रागतम सहजतेज से नाश किया है ।
मुनिमनगोचर शुद्ध शुद्ध उनके मन बसता ।
विषयी जीवों को दुर्लभ जो सुख समुद्र है ।
शुद्ध ज्ञानमय शुद्धातम जयवंत वर्तता ॥१७०॥

जिसने सहज तेज से रागरूपी अन्धकार का नाश किया है, जो मुनिवरों के मन में वास करता है, जो शुद्ध-शुद्ध है, जो विषय-सुख में रत जीवों को सर्वदा दुर्लभ है, जो परम-सुख का समुद्र है, जो शुद्ध-ज्ञान है तथा जिसने निद्रा का नाश किया है, ऐसा यह (शुद्ध-आत्मा) जयवन्त है ।

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+ भावशुद्धि -
मदमाणमायलोहविवज्जियभावो दु भावसुद्धित्ति ।
परिकहियं भव्वाणं लोयालोयप्पदरिसीहिं ॥112॥
मदमानमायालोभविवर्जितभावस्तु भावशुद्धिरिति ।
परिकथितो भव्यानां लोकालोकप्रदर्शिभिः ॥११२॥
अर्हंत लोकालोक दृष्टा का कथन है भव्य को ।
'है भावशुद्धि मान, माया, लोभ, मद बिन भाव जो' ॥११२॥
अन्वयार्थ : [मदमानमायालोभविवर्जितभावः तु] मद (मदन), मान, माया और लोभ रहित भाव वह [भावशुद्धिः] भावशुद्धि है [इति] ऐसा [भव्यानाम्] भव्यों को [लोकालोकप्रदर्शिभिः] लोकालोक के द्रष्टाओं ने [परिकथितः] कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, भावशुद्धि नामक परम-आलोचना के स्वरूप के प्रतिपादन द्वारा शुद्ध-निश्चय-आलोचना अधिकार के उपसंहार का कथन है ।

इन चारों भावों से परिमुक्त (रहित) शुद्धभाव वही भावशुद्धि है ऐसा भव्य जीवों को लोकालोकदर्शी, परमवीतराग सुखामृत के पान से परितृप्त अर्हंत भगवन्तों ने कहा है ।

(कलश--हरिगीत)
जिनवर कथित आलोचना के भेद सब पहिचान कर ।
भव्य के श्रद्धेय ज्ञायकभाव को भी जानकर ॥
जो भव्य छोड़े सर्वत: परभाव को पर जानकर ।
हो वही वल्लभ परमश्री का परमपद को प्राप्त कर ॥१७१॥

जो भव्य लोक (भव्यजन-समूह) जिनपति के मार्ग में कहे हुए समस्त आलोचना के भेद-जाल को देखकर तथा निज-स्वरूप को जानकर सर्व-ओर से परभाव को छोड़ता है, वह परमश्रीरूपी कामिनी का वल्लभ होता है (अर्थात् मुक्ति-सुन्दरी का पति होता है)

(कलश--रोला)
संयमधारी सन्तों को फल मुक्तिमार्ग का ।
जो देती है और स्वयं के आत्मतत्त्व में ॥
नियत आचरण के अनुरूप आचरणवाली ।
वह आलोचन मेरे मन को कामधेनु हो ॥१७२॥

संयमियों को सदा मोक्षमार्ग का फल देनेवाली तथा शुद्ध-आत्मतत्त्व में नियत (रत) आचरण के अनुरूप ऐसी जो निरंतर शुद्धनयात्मक आलोचना वह मुझे संयमी को वास्तव में कामधेनुरूप हो ।

(कलश--रोला)
तीन लोक के ज्ञायक निर्विकल्प तत्त्व को ।
जो मुमुक्षुजन जान उसी की सिद्धि के लिए । ।
शुद्ध शील आचरे रमे निज आतम में नित ।
सिद्धि प्राप्त कर मुक्तिवधु के स्वामी होते ॥१७३॥

मुमुक्षु जीव तीन लोक को जाननेवाले निर्विकल्प शुद्ध तत्त्व को भलीभाँति जानकर उसकी सिद्धि के हेतु शुद्ध शील का (चारित्र का) आचरण करके, सिद्धिरूपी स्त्री का स्वामी होता है (सिद्धिको प्राप्त करता है)

(कलश--रोला)
आत्मतत्त्व में मग्न मुनिजनों के मन में जो ।
वह विशुद्ध निर्बाध ज्ञानदीपक निज आतम ॥
मुनिमनतम का नाशक नौका भवसागर की ।
साधुजनों से वंद्य तत्त्व को वंदन करता ॥१७४॥

तत्त्व में मग्न ऐसे जिनमुनि के हृदय-कमल की केसर में जो आनन्द-सहित विराजमान है, जो बाधा-रहित है, जो विशुद्ध है, जो कामदेव के बाणों की गहन (दुर्भेद्य) सेना को जला देने के लिये दावानल समान है और जिसने शुद्धज्ञानरूप दीपक द्वारा मुनियों के मनोगृह के घोर अंधकार का नाश किया है, उसे, साधुओं द्वारा वंद्य तथा जन्मार्णव को लाँघ जाने में नौकारूप उस शुद्ध तत्त्व को, मैं वंदन करता हूँ ।

(कलश--रोला)
बुद्धिमान होने पर भी क्या कोई तपस्वी ।
ऐसा कह सकता कि करो तुम नये पाप को ॥
अरे खेद आश्चर्य शुद्ध आतम को जाने ।
फिर भी ऐसा कहे समझ के बाहर है यह ॥१७५॥

हम पूछते हैं कि जो समग्र बुद्धिमान होने पर भी दूसरे को 'यह नवीन पाप कर' ऐसा उपदेश देते हैं, वे क्या वास्तव में तपस्वी हैं ? अहो ! खेद है कि वे हृदय में विलसित शुद्धज्ञानरूप और सर्वोत्तम पिंडरूप इस पद को जानकर पुनः भी सरागता को प्राप्त होते हैं !

(कलश--रोला)
सब तत्त्वों में सहज तत्त्व निज आतम ही है ।
सदा अनाकुल सतत् सुलभ निज आतम ही है ॥
परमकला संपन्न प्रगट घर समता का जो ।
निज महिमारत आत्मतत्त्व जयवंत सदा है ॥१७६॥

तत्त्वों में वह सहज तत्त्व जयवन्त है, कि जो सदा अनाकुल है, निरन्तर सुलभ है, प्रकाशमान है, सम्यग्दृष्टियों को समता का घर है, परम-कला सहित विकसित निज गुणों से प्रफुल्लित (खिला हुआ) है, जिसकी सहज अवस्था स्फुटित (प्रकटित) है और निरन्तर निज महिमा में लीन है ।

(कलश--रोला)
सात तत्त्व में प्रमुख सहज संपूर्ण विमल है ।
निरावरण शिव विशद नित्य अत्यंत अमल है ॥
उसे नमन जो अति दूर मुनि-मन-वचनों से ।
परपंचों से विलग आत्म आनन्द मगन है ॥१७७॥

सात तत्त्वों में सहज परम तत्त्व निर्मल है, सकल-विमल (सर्वथा-विमल) ज्ञान का आवास है, निरावरण है, शिव (कल्याणमय) है, स्पष्ट है, नित्य है, बाह्य प्रपंच से पराङ्मुख है और मुनि को भी मन से तथा वाणी से अति दूर है; उसे हम नमन करते हैं ।

(कलश--रोला)
अरे शान्तरसरूपी अमृत के सागर को ।
नित्य उल्लसित करने को तुम पूर्णचन्द हो ॥
मोहतिमिर के नाशक दिनकर भी तो तुम हो ।
हे जिन निज में लीन सदा जयवंत जगत में ॥१७८॥

जो (जिन) शान्त रसरूपी अमृत के समुद्र को (उछालने के लिये) प्रतिदिन उदयमान सुन्दर चन्द्र समान है और जिसने अतुल ज्ञानरूपी सूर्य की किरणों से मोह-तिमिर के समूह का नाश किया है, वह जिन जयवन्त है ।

(कलश--रोला)
वे जिनेन्द्र जयवन्त परमपद में स्थित जो ।
जिनने जरा जनम-मरण को जीत लिया है ॥
अरे पापतम के नाशक ने राग-द्वेष का ।
निर्मूलन कर पूर्ण मूल से हनन किया है ॥१७९॥

जिसने जन्म-जरा-मृत्यु के समूह को जीत लिया है, जिसने दारुण राग के समूह का हनन कर दिया है, जो पापरूपी महा अंधकार के समूह के लिये सूर्य समान है तथा जो परमात्मपद में स्थित है, वह जयवन्त है ।

इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका में) परम-आलोचना अधिकार नाम का सातवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।

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शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त



+ निश्चय-प्रायश्चित्त का स्वरूप -
वदसमिदिसीलसंजमपरिणामो करणणिग्गहो भावो ।
सो हवदि पायछित्तं अणवरयं चेव कायव्वो ॥113॥
कोहादिसगब्भावक्खयपहुदिभावणाए णिग्गहणं ।
पायच्छित्तं भणिदं णियगुणचिंता य णिच्छयदो ॥114॥
व्रतसमितिशीलसंयमपरिणामः करणनिग्रहो भावः ।
स भवति प्रायश्चित्तम् अनवरतं चैव कर्तव्यः ॥११३॥
क्रोधादिस्वकीयभावक्षयप्रभृतिभावनायां निर्ग्रहणम् ।
प्रायश्चित्तं भणितं निजगुणचिंता च निश्चयतः ॥११४॥
व्रत, समिति, संयम, शील, इन्द्रियरोध का जो भाव है ।
वह भाव प्रायश्चित्त है, अरु अनवरत कर्तव्य है ॥११३॥
क्रोधादि आत्म-विभाव के क्षय आदि की जो भावना ।
है नियत प्रायश्चित्त वह जिसमें स्वगुण की चिंतना ॥११४॥
अन्वयार्थ : [व्रतसमितिशीलसंयमपरिणामः] व्रत, समिति, शील और संयमरूप परिणाम तथा [करणनिग्रहः भावः] इन्द्रिय निग्रहरूप भाव [सः] वह [प्रायश्चित्तम्] प्रायश्चित्त [भवति] है [च एव] और वह [अनवरतं] निरंतर [कर्तव्यः] कर्तव्य है ।
[क्रोधादिस्वकीयभावक्षयप्रभृतिभावनायां] क्रोधआदि स्वकीय भावों के (अपने विभावभावों के) क्षयादिक की भावना में [निर्ग्रहणम्] रहना [च] और [निजगुणचिन्ता] निज गुणों का चिंतन करना वह [निश्चयतः] निश्चय से [प्रायश्चित्तं भणितम्] प्रायश्चित्त कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
अब समस्त द्रव्य-कर्म, भाव-कर्म तथा नोकर्म के संन्यास के हेतुभूत शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार कहा जाता है ।

यह, निश्चय-प्रायश्चित्त के स्वरूप का कथन है ।

पाँच महाव्रतरूप, पाँच समितिरूप, शीलरूप और सर्व इन्द्रियों के तथा मन-वचन-काया के संयमरूप परिणाम तथा पाँच इन्द्रियों का निरोध, यह परिणति विशेष सो प्रायश्चित्त है । प्रायश्चित्त अर्थात् प्रायः चित्त (प्रचुररूप से निर्विकार चित्त) । अन्तर्मुखाकार परमसमाधि से युक्त, परम जिन-योगीश्वर, पापरूपी अटवी को (जलाने के लिये) अग्नि समान, पाँच इन्द्रियों के फैलाव-रहित देहमात्र परिग्रह के धारी, सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर के शिखामणि समान और परमागमरूपी पुष्परस-झरते हुए मुखवाले पद्मप्रभ को यह प्रायश्चित्त निरंतर कर्तव्य है ।

(कलश--हरिगीत)
मुनिजनों के चित्त में जो स्वात्मा का निरन्तर ।
हो रहा है चिन्तवन बस यही प्रायश्चित्त है ॥
वे सन्त पावें मुक्ति पर जो अन्य-चिन्तामूढ हों ।
कामार्त्त वे मुनिराज बाँधें पाप क्या आश्चर्य है ? ॥१८०॥

मुनियों को स्वात्मा का चिंतन वह निरंतर प्रायश्चित्त है; निज सुख में रतिवाले वे उस प्रायश्चित्त द्वारा पाप को झाड़कर मुक्ति प्राप्त करते हैं । यदि मुनियों को (स्वात्मा के अतिरिक्त) अन्य चिन्ता हो तो वे विमूढ़ कामार्त पापी पुनः पाप को उत्पन्न करते हैं, इसमें क्या आश्चर्य है ?

यहाँ (इस गाथा में) सकल कर्मों को मूल से उखाड़ देने में समर्थ ऐसा निश्चय-प्रायश्चित्त कहा गया है ।

क्रोधादिक समस्त मोह-राग-द्वेषरूप विभाव-स्वभावों के क्षय के कारणभूत निज कारण-परमात्मा के स्वभाव की भावना होने पर निसर्ग-वृत्ति के कारण (स्वाभाविक-सहज परिणति होने के कारण) प्रायश्चित्त कहा गया है; अथवा, परमात्मा के गुणात्मक ऐसे जो शुद्ध-अंतःतत्त्वरूप (निज) स्वरूप के सहज ज्ञानादिक सहजगुण उनका चिंतन करना, वह प्रायश्चित्त है ।

(कलश--रोला)
कामक्रोध आदिक जितने भी अन्य भाव हैं ।
उनके क्षय की अथवा अपने ज्ञानभाव की ॥
प्रबल भावना ही है प्रायश्चित्त कहा है ।
आत्मप्रवाद पूर्व के ज्ञायक संतगणों ने ॥१८१॥

मुनियों को काम-क्रोधादि अन्य भावों के क्षय की जो संभावना अथवा तो अपने ज्ञान की जो संभावना (सम्यक् भावना) वह उग्र प्रायश्चित्त कहा है । सन्तों ने आत्म-प्रवाद में ऐसा जाना है (जानकर कहा है )

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+ चार कषायों पर विजय प्राप्त करने का उपाय -
कोहं खमया माणं समद्दवेणज्जवेण मायं च ।
संतोसेण य लोहं जयदि खु ए चहुविहकसाए ॥115॥
क्रोधं क्षमया मानं स्वमार्दवेन आर्जवेन मायां च ।
संतोषेण च लोभं जयति खलु चतुर्विधकषायान् ॥११५॥
अभिमान मार्दव से तथा जीते क्षमा से क्रोध को ।
कौटिल्य आर्जव से तथा संतोष द्वारा लोभ को ॥११५॥
अन्वयार्थ : [क्रोधं क्षमया] क्रोध को क्षमा से, [मानंस्वमार्दवेन] मान को निज मार्दव से, [मायां च आर्जवेन] माया को आर्जव से [च] तथा [लोभं संतोषेण] लोभ को संतोष से, [चतुर्विधकषायान्] इसप्रकार चतुर्विध कषायों को [खलु जयति] (योगी) वास्तव में जीतते हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, चार कषायों पर विजय प्राप्त करने के उपाय के स्वरूप का कथन है ।

जघन्य, मध्यम और उत्तम ऐसे (तीन) भेदों के कारण क्षमा तीन (प्रकार की) है ।
  1. 'बिना-कारण अप्रिय बोलनेवाले मिथ्यादृष्टि को बिना-कारण मुझे त्रास देने का उद्योग वर्तता है, वह मेरे पुण्य से दूर हुआ;' -- ऐसा विचारकर क्षमा करना वह प्रथम क्षमा है ।
  2. '(मुझे) बिना-कारण त्रास देनेवाले को ताड़न (पीटना) का और वध (मारने) का परिणाम वर्तता है, वह मेरे सुकृत से दूर हुआ;' -- ऐसा विचारकर क्षमा करना वह द्वितीय क्षमा है ।
  3. वध होनेसे अमूर्त परमब्रह्मरूप ऐसे मुझे हानि नहीं होती -- ऐसा समझकर परम समरसीभाव में स्थित रहना वह उत्तम क्षमा है ।
इन (तीन) क्षमाओं द्वारा क्रोध-कषाय को जीतकर, मार्दव (कोमलता / नरमाई / निर्मानता) द्वारा मान-कषाय को, आर्जव (ऋजुता / सरलता) द्वारा माया-कषाय को तथा परमतत्त्व की प्राप्तिरूप सन्तोष से लोभ-कषाय को (योगी) जीतते हैं । इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री गुणभद्रस्वामी ने (आत्मानुशासनमें २१६, २१७, २२१ तथा २२३वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--रोला)
अरे हृदय में कामभाव के होने पर भी ।
क्रोधित होकर किसी पुरुष को काम समझकर ॥
जला दिया हो महादेव ने फिर भी विह्वल ।
क्रोधभाव से नहीं हुई है किसकी हानि ?॥४६॥

कामदेव (अपने) चित्त में रहने पर भी (अपनी) जड़ता के कारण उसे न पहिचानकर, शंकर ने क्रोधी होकर बाह्य में किसी को कामदेव समझकर उसे जला दिया । (चित्त में रहनेवाला कामदेव तो जीवित होने के कारण) उसने की हुई घोर अवस्था को (कामविह्वल दशा को) शंकर प्राप्त हुए । क्रोध के उदयसे (क्रोध उत्पन्न होने से) किसे कार्यहानि नहीं होती ?

(कलश--वीर)
अरे हस्तगत चक्ररत्न को बाहुबली ने त्याग दिया ।
यदि न होता मान उन्हें तो मुक्तिरमा तत्क्षण वरती ॥
किन्तु मान के कारण ही वे एक बरस तक खड़े रहे ।
इससे होता सिद्ध तनिक सा मान अपरिमित दुख देता॥४७॥

(युद्ध में भरत ने बाहुबलि पर चक्र छोड़ा परन्तु वह चक्र बाहुबलि के दाहिने हाथ में आकर स्थिर हो गया ।) अपने दाहिने हाथ में स्थित (उस) चक्र को छोड़कर जब बाहुबलि ने प्रव्रज्या ली तभी (तुरन्त ही) वे उस कारण मुक्ति प्राप्त कर लेते, परन्तु वे (मान के कारण मुक्ति प्राप्त न करके) वास्तव में दीर्घ काल तक प्रसिद्ध (मानकृत) क्लेश को प्राप्त हुए । थोड़ा भी मान महा हानि करता है !

(कलश--वीर)
अरे देखना सहज नहीं क्रोधादि भयंकर सांपों को ।
क्योंकि वे सब छिपे हुए हैं मायारूपी गर्तों में ॥
मिथ्यातम है घोर भयंकर डरते रहना ही समुचित ।
यह सब माया की महिमा है बचके रहना ही समुचित ॥४८॥

जिस (गड्ढे) में छिपे हुए क्रोधादिक भयंकर सर्प देखे नहीं जा सकते ऐसा जो मिथ्यात्वरूपी घोर अंधकारवाला मायारूपी महान गड्ढा उससे डरते रहना योग्य है ।

(कलश--वीर)
वनचर भय से भाग रही पर उलझी पूँछ लताओं में ।
दैवयोग से चमर गाय वह मुग्ध पूँछ के बालों में ॥
खड़ी रही वह वहीं मार डाला वनचर ने उसे वहीं ।
इसप्रकार की विकट विपत्ति मिलती सभी लोभियों को ॥४९॥

वनचर के भय से भागती हुई सुरा गाय की पूँछ दैवयोग से बेल में उलझ जाने पर जड़ता के कारण बालों के गुच्छे के प्रति लोलुपतावाली वह गाय (अपने सुन्दर बालों को न टूटने देने के लोभ में) वहाँ अविचलरूप से खड़ी रह गई, और अरेरे ! उस गाय को वनचर द्वारा प्राण से भी विमुक्त कर दिया गया ! जिन्हें तृष्णा परिणमित हुई है उन्हें प्रायः ऐसी ही विपत्तियाँ आती हैं ।

और -

(कलश--सोरठा)
क्षमाभाव से क्रोध, मान मार्दव भाव से ।
जीतो माया-लोभ आर्जव एवं शौच से ॥१८२॥

क्रोध-कषाय को क्षमा से, मान-कषाय को मार्दव से ही, माया को आर्जव की प्राप्ति से और लोभ-कषाय को शौच से (सन्तोष से) जीतो ।

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+ शुद्ध ज्ञान के स्वीकारवाले को प्रायश्चित्त है -
उक्किट्ठो जो बोहो णाणं तस्सेव अप्पणो चित्तं ।
जो धरइ मुणी णिच्चं पायच्छित्तं हवे तस्स ॥116॥
उत्कृष्टो यो बोधो ज्ञानं तस्यैवात्मनश्चित्तम् ।
यो धरति मुनिर्नित्यं प्रायश्चित्तं भवेत्तस्य ॥११६॥
उत्कृष्ट निज अवबोध अथवा ज्ञान अथवा चित्त को ।
धारे मुनि जो पालता वह नित्य प्रायश्चित्त को ॥११६॥
अन्वयार्थ : [तस्य एव आत्मनः] उसी (अनन्तधर्मवाले)आत्माका [यः] जो [उत्कृष्टः बोधः] उत्कृष्ट बोध, [ज्ञानम्] ज्ञान अथवा [चित्तम्] चित्त उसे [यः मुनिः] जो मुनि [नित्यं धरति] नित्य धारण करता है, [तस्य] उसे [प्रायश्चित्तम् भवेत्] प्रायश्चित्त है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ, 'शुद्ध ज्ञान के स्वीकारवाले को प्रायश्चित्त है' ऐसा कहा है ।

उत्कृष्ट ऐसा जो विशिष्ट धर्म वह वास्तव में परम बोध है, ऐसा अर्थ है । बोध, ज्ञान और चित्त भिन्न पदार्थ नहीं हैं । ऐसा होने से ही उसी परमधर्मी जीव को प्रायः चित्त है अर्थात् प्रकृष्टरूप से चित्त (ज्ञान) है । जो परमसंयमी ऐसे चित्त को नित्य धारण करता है, उसे वास्तव में निश्चय-प्रायश्चित्त है ।

जीव धर्मी है और ज्ञानादिक उसके धर्म हैं । परम चित्त अथवा परम ज्ञान स्वभाव जीव का उत्कृष्ट विशेष धर्म है । इसलिये स्वभाव - अपेक्षा से जीव-द्रव्य को प्रायः चित्त है अर्थात् प्रकृष्टरूप से ज्ञान है । जो परम-संयमी ऐसे चित्त की (परमज्ञानस्वभाव की) श्रद्धा करता है तथा उसमें लीन रहता है, उसे निश्चय-प्रायश्चित्त है ।

(कलश--हरिगीत)
शुद्धात्मा के ज्ञान की संभावना जिस संत में ।
आत्मरत उस सन्त को तो नित्य प्रायश्चित्त है ॥
धो दिये सब पाप अर निज में रमे जो संत नित ।
मैं नमूँ उनको उन गुणों को प्राप्त करने के लिए ॥१८३॥

इस लोक में जो (मुनीन्द्र) शुद्धात्मज्ञान की सम्यक् भावनावन्त है, उसे प्रायश्चित्त है ही । जिसने पापसमूह को झाड़ दिया है ऐसे उस मुनीन्द्र को मैं उसके गुणों की प्राप्ति हेतु नित्य वंदन करता हूँ ।

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+ परम तपश्चरण में लीन परम जिनयोगीश्वरों को निश्चय-प्रायश्चित्त -
किं बहुणा भणिएण दु वरतवचरणं महेसिणं सव्वं ।
पायच्छित्तं जाणह अणेयकम्माण खयहेऊ ॥117॥
किं बहुना भणितेन तु वरतपश्चरणं महर्षीणां सर्वम् ।
प्रायश्चित्तं जानीह्यनेककर्मणां क्षयहेतुः ॥११७॥
बहु कथन से क्या जो अनेकों कर्म-क्षय का हेतु है ।
उत्तम तपश्चर्या ऋषि की सर्व प्रायश्चित्त है ॥११७॥
अन्वयार्थ : [बहुना] बहुत [भणितेन तु] कहने से [किम्] क्या ? [अनेककर्मणाम्] अनेक कर्मों के [क्षयहेतुः] क्षय का हेतु ऐसा जो [महर्षीणाम्] महर्षियों का [वरतपश्चरणम्] उत्तम तपश्चरण [सर्वम्] वह सब [प्रायश्चित्तं जानीहि] प्रायश्चित्त जान ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ ऐसा कहा है कि परम तपश्चरण में लीन परम जिनयोगीश्वरों को निश्चय-प्रायश्चित्त है; इसप्रकार निश्चय-प्रायश्चित्त समस्त आचरणों में परम आचरण है ऐसा कहा है । बहुत असत् प्रलापों से बस होओ, बस होओ । निश्चय व्यवहार स्वरूप परम-तपश्चरणात्मक ऐसा जो परम जिनयोगियों को अनादि संसार से बँधे हुए द्रव्य-भाव-कर्मों के निरवशेष विनाश का कारण वह सब शुद्ध निश्चय-प्रायश्चित्त है ऐसा, हे शिष्य ! तू जान ।

(कलश--दोहा)
अनशनादि तप चरणमय और ज्ञान से गम्य ।
अघक्षयकारण तत्त्वनिज सहजशुद्धचैतन्य ॥१८४॥

अनशनादि तपश्चरणात्मक (स्वरूप प्रतपनरूप से परिणमित, प्रतापवन्त अर्थात् उग्र स्वरूप परिणति से परिणमित) ऐसा यह सहज-शुद्ध-चैतन्य स्वरूप को जाननेवालों का सहजज्ञान कला परिगोचर सहजतत्त्व अघ-क्षय का कारण है ।

(कलश--रोला)
अरे प्रायश्चित्त उत्तम पुरुषों को जो होता ।
धर्मध्यानमय शुक्लध्यानमय चिन्तन है वह ॥
कर्मान्धकार का नाशक यह सद्बोध तेज है ।
निर्विकार अपनी महिमा में लीन सदा है ॥१८५॥

जो (प्रायश्चित्त) इस स्वद्रव्य का धर्म और शुक्लरूप चिंतन है, जो कर्मसमूह के अन्धकार को नष्ट करने के लिये सम्यग्ज्ञानरूपी तेज है तथा जो अपनी निर्विकार महिमा में लीन है -- ऐसा यह प्रायश्चित्त वास्तव में उत्तम पुरुषों को होता है ।

(कलश--हरिगीत)
आत्म की उपलब्धि होती आतमा के ज्ञान से ।
मुनिजनों के करणरूपी घोरतम को नाशकर ॥
कर्मवन उद्भव भवानल नाश करने के लिए ।
वह ज्ञानज्योति सतत् शमजलधार को है छोड़ती ॥१८६॥

यमियों (संयमियों) को आत्मज्ञान से क्रमशः आत्मलब्धि (आत्माकी प्राप्ति) होती है, कि जिस आत्मलब्धि ने ज्ञान-ज्योति द्वारा इन्द्रिय समूह के घोर-अन्धकारका नाश किया है तथा जो आत्मलब्धि कर्म-वन से उत्पन्न (भवरूपी) दावानल की शिखाजाल का (शिखाओं के समूह का) नाश करने के लिये उस पर सतत शमजलमयी धारा को तेजी से छोड़ती है, बरसाती है ।

(कलश--भुजंगप्रयात)
जिनशास्त्ररूपी अमृत उदधि से ।
बाहर हुई संयम रत्नमाला ॥
मुक्तिवधू वल्लभ तत्त्वज्ञानी ।
के कण्ठ की वह शोभा बनी है ॥१८७॥

अध्यात्म-शास्त्ररूपी अमृत-समुद्र में से मैंने जो संयमरूपी रत्नमाला बाहर निकाली है वह (रत्नमाला) मुक्तिवधू के वल्लभ ऐसे तत्त्वज्ञानियों के सुकण्ठ का आभूषण बनी है ।

(कलश--भुजंगप्रयात)
भवरूप पादप जड़ का विनाशक ।
मुनीराज के चित कमल में रहे नित ॥
अर मुक्तिकांतारतिजन्य सुख का ।
जो मूल आतम उसको नमन हो ॥१८८॥

मुनीन्द्रों के चित्तकमल (हृदयकमल) के भीतर जिसका वास है, जो विमुक्तिरूपी कान्ता के रति सौख्य का मूल है (जो मुक्ति के अतीन्द्रिय आनन्द का मूल है ) और जिसने संसार-वृक्ष के मूल का विनाश किया है, ऐसे इस परमात्म-तत्त्व को मैं नित्य नमन करता हूँ ।

सहजज्ञानकलापरिगोचर = सहज ज्ञानकी कला द्वारा सर्व प्रकारसे ज्ञात होने योग्य
अघ = अशुद्धि; दोष; पाप । (पाप तथा पुण्य दोनों वास्तवमें अघ हैं ।)
धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप जो स्व-द्रव्यचिंतन वह प्रायश्चित्त है ।

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+ कारण परमात्म तत्त्व में सदा अन्तर्मुख रहकर जो प्रतपन वह तप प्रायश्चित्त -
णंताणंतभवेण समज्जियसुहअसुहकम्मसंदोहो ।
तवचरणेण विणस्सदि पायच्छित्तं तवं तम्हा ॥118॥
अनन्तानन्तभवेन समर्जितशुभाशुभकर्मसंदोहः ।
तपश्चरणेन विनश्यति प्रायश्चित्तं तपस्तस्मात ॥११८॥
अर्जित अनन्तानन्त भव के जो शुभाशुभ कर्म हैं ।
तप से विनश जाते सुतप अतएव प्रायश्चित्त है ॥११८॥
अन्वयार्थ : [अनन्तानन्तभवेन] अनन्तानन्त भवों द्वारा [समर्जितशुभाशुभकर्मसंदोहः] उपार्जित शुभाशुभ कर्मराशि [तपश्चरणेन] तपश्चरण से [विनश्यति] नष्ट होती है; [तस्मात्] इसलिये [तपः] तप [प्रायश्चितम्] प्रायश्चित्त है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में), प्रसिद्ध शुद्ध कारण परमात्म तत्त्व में सदा अन्तर्मुख रहकर जो प्रतपन वह तप प्रायश्चित्त है (शुद्धात्म स्वरूप में लीन रहकर प्रतपना-प्रतापवन्त वर्तना सो तप है और वह तप प्रायश्चित्त है ) ऐसा कहा है ।

अनादि संसार से ही उपार्जित द्रव्य-भावात्मक शुभाशुभ कर्मों का समूह, कि जो पाँच प्रकार के (पाँच परावर्तनरूप) संसार का संवर्धन करने में समर्थ है वह, भावशुद्धिलक्षण (भावशुद्धि जिसका लक्षण है ऐसे) परम तपश्चरण से विलय को प्राप्त होता है; इसलिये स्वात्मानुष्ठाननिष्ठ (निज आत्मा के आचरण में लीन) परम तपश्चरण ही शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त है -- ऐसा कहा गया है ।

(कलश--भुजंगप्रयात)
रे रे अनादि संसार से जो
समृद्ध कर्मों का वन भयंकर ।
उसे भस्म करने में है सबल जो
अर मोक्षलक्ष्मी की भेंट है जो ॥
शमसुखमयी चैतन्य अमृत
आनन्दधारा से जो लबालब ।
ऐसा जो तप है उसे संतगण सब
प्रायश्चित कहते हैं निरन्तर ॥१८९॥

जो (तप) अनादि संसार से समृद्ध हुई कर्मों की महा अटवी को जला देने के लिये अग्नि की ज्वाला के समूह समान है, शम सुखमय है और मोक्ष-लक्ष्मी के लिये भेंट है, उस चिदानन्दरूपी अमृत से भरे हुए तप को संत कर्मक्षय करनेवाला प्रायश्चित्त कहते हैं, परन्तु अन्य किसी कार्य को नहीं ।

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+ निश्चय धर्मध्यान ही सर्व भावों का अभाव करने में समर्थ -
अप्पसरूवालंबणभावेण दु सव्वभावपरिहारं ।
सक्कदि कादुं जीवो तम्हा झाणं हवे सव्वं ॥119॥
आत्मस्वरूपालम्बनभावेन तु सर्वभावपरिहारम् ।
शक्नोति कर्तुं जीवस्तस्माद् ध्यानं भवेत् सर्वम् ॥११९॥
शुद्धात्म आश्रित भावसे सब भावका परिहार रे ।
यह जीव कर सकता अतः सर्वस्व है वह ध्यान रे ॥११९॥
अन्वयार्थ : [आत्मस्वरूपालम्बनभावेन तु] आत्म-स्वरूप जिसका आलम्बन है ऐसे भाव से [जीवः] जीव [सर्वभावपरिहारं] सर्व-भावों का परिहार [कर्तुम् शक्नोति] कर सकता है, [तस्मात्] इसलिये [ध्यानम्] ध्यान वह [सर्वम् भवेत्] सर्वस्व है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में), निज-आत्मा जिसका आश्रय है, ऐसा निश्चय धर्मध्यान ही सर्व भावों का अभाव करने में समर्थ है ऐसा कहा है ।

समस्त पर-द्रव्यों के परित्यागरूप लक्षण से लक्षित अखण्ड-नित्यनिरावरण-सहज परमपारिणामिकभाव की भावना से औदयिक, औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक इन चार भावांतरों का परिहार करने में अति-आसन्नभव्य जीव समर्थ है, इसीलिये उस जीव को पापाटवी-पावक (पापरूपी अटवी को जलानेवाली अग्नि) कहा है; ऐसा होने से पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त, आलोचना आदि सब ध्यान ही है (परमपारिणामिक भाव की भावनारूप जो ध्यान वही महाव्रत-प्रायश्चित्तादि सब कुछ है )

(कलश--रोला)
परमकला युत शुद्ध एक आनन्दमूर्ति है ।
तमनाशक जो नित्यज्योति आद्यन्त शून्य है ॥
उस आतम को जो भविजन अविचल मनवाला ।
ध्यावे तो वह शीघ्र मोक्ष पदवी को पाता ॥१९०॥

जिसने नित्य ज्योति द्वारा तिमिरपुंज का नाश किया है, जो आदि-अंत रहित है, जो परम कला सहित है तथा जो आनन्दमूर्ति है, ऐसे एक शुद्ध आत्मा को जो जीव शुद्ध आत्मा में अविचल मनवाला होकर निरन्तर ध्याता है, सो यह आचारराशि जीव शीघ्र जीवन्मुक्त होता है ।

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+ शुद्धनिश्चय-नियम का स्वरूप -
सुहअसुहवयणरयणं रायादीभाववारणं किच्चा ।
अप्पाणं जो झायदि तस्स दु णियमं हवे णियमा ॥120॥
शुभाशुभवचनरचनानां रागादिभाववारणं कृत्वा ।
आत्मानं यो ध्यायति तस्य तु नियमो भवेन्नियमात् ॥१२०॥
शुभ-अशुभरचना वचन की, परित्याग कर रागादि का ।
उसको नियम से है नियम जो ध्यान करता आत्म का ॥१२०॥
अन्वयार्थ : [शुभाशुभवचनरचनानाम्] शुभाशुभ वचन-रचना का और [रागादिभाववारणम्] रागादिभावों का निवारण [कृत्वा] करके [यः] जो [आत्मानम्] आत्मा को [ध्यायति] ध्याता है, [तस्य तु] उसे [नियमात्] नियम से (निश्चितरूप से) [नियमः भवेत्] नियम है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, शुद्धनिश्चय-नियम के स्वरूप का कथन है ।

जो परमतत्त्वज्ञानी महातपोधन सदा संचित सूक्ष्म-कर्मों को मूल से उखाड़ देने में समर्थ निश्चय-प्रायश्चित्त में परायण रहता हुआ मन-वचन-काया को नियमित (संयमित) किये होने से भवरूपी बेल के मूल (कंदात्मक) शुभाशुभस्वरूप प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त वचन रचना का निवारण करता है, केवल उस वचन-रचना का ही तिरस्कार नहीं करता किन्तु समस्त मोह-राग-द्वेषादि पर-भावों का निवारण करता है, और अनवरतरूप से (निरन्तर) अखण्ड, अद्वैत, सुन्दर - आनन्दस्यन्दी (सुन्दर आनन्द-झरते), अनुपम, निरंजन निज-कारण-परमात्मतत्त्व की सदा शुद्धोपयोग के बल से सम्भावना (सम्यक् भावना) करता है, उसे (उस महातपोधन को) नियम से शुद्ध-निश्चय नियम है ऐसा भगवान सूत्रकार का अभिप्राय है ।

(कलश--हरिगीत)
जो भव्य भावें सहज सम्यक् भाव से परमात्मा ।
ज्ञानात्मक उस परम संयमवंत को आनन्दमय ॥
शिवसुन्दरी के सुक्ख का कारण परमपरमातमा ।
के लक्ष्य से सद्भावमय शुधनियम होता नियम से ॥१९१॥

जो भव्य शुभाशुभस्वरूप वचन-रचना को छोड़कर सदा स्फुटरूप से सहज परमात्मा को सम्यक् प्रकार से भाता है, उस ज्ञानात्मक परम यमी को मुक्तिरूपी स्त्री के सुख का कारण ऐसा यह शुद्ध-नियम नियम से है ।

(कलश--हरिगीत)
जो अनवरत अद्वैत चेतन निर्विकारी है सदा ।
उस आत्म को नय की तरंगें स्फुरित होती ही नहीं ॥
विकल्पों से पार एक अभेद जो शुद्धातमा ।
हो नमन, वंदन, स्तवन अर भावना हो भव्यतम ॥१९२॥

जो अनवरतरूप से (निरन्तर) अखण्ड अद्वैत चैतन्य के कारण निर्विकार है उसमें (उस परमात्मपदार्थ में) समस्त नयविलास किंचित् स्फुरित ही नहीं होता । जिसमें से समस्त भेदवाद (नयादि विकल्प) दूर हुए हैं उसे (उस परमात्म-पदार्थ को) मैं नमन करता हूँ, उसका स्तवन करता हूँ, सम्यक् प्रकार से भाता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
यह ध्यान है यह ध्येय है और यह ध्याता अरे ।
यह ध्यान का फल इसतरह के विकल्पों के जाल से ॥
जो मुक्त है श्रद्धेय है अर ध्येय एवं ध्यान है ।
उस परम आतमतत्त्व को मम नमन बारंबार है ॥१९३॥

यह ध्यान है, यह ध्येय है, यह ध्याता है और वह फल है -- ऐसे विकल्प जालों से जो मुक्त (रहित) है उसे (उस परमात्मतत्त्व को) मैं नमन करता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
त्रिविध योगों में परायण योगियों को कदाचित् ।
हो भेद की उलझन अरे बहु विकल्पों का जाल हो ॥
उन योगियों की मुक्ति होगी या नहीं कैसे कहें ।
कौन जाने क्या कहे - यह समझ में आता नहीं ॥१९४॥

जिस योग-परायण में कदाचित् भेदवाद उत्पन्न होते हैं (जिस योगनिष्ठ योगी को कभी विकल्प उठते हैं), उसकी अर्हत् के मत में मुक्ति होगी या नहीं होगी वह कौन जानता है ?

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+ निश्चय-कायोत्सर्ग का स्वरूप -
कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरत्तु अप्पाणं ।
तस्स हवे तणुसग्गं जो झायइ णिव्वियप्पेण ॥121॥
कायादिपरद्रव्ये स्थिरभावं परिहृत्यात्मानम् ।
तस्य भवेत्तनूत्सर्गो यो ध्यायति निर्विकल्पेन ॥१२१॥
परद्रव्य काया आदि से परित्याग स्थैर्य, निजात्म को ।
ध्याता विकल्प विमुक्त, उसको नियत कायोत्सर्ग है ॥१२१॥
अन्वयार्थ : [कायादिपरद्रव्ये] कायादि परद्रव्य में [स्थिर-भावम् परिहृत्य] स्थिरभाव छोड़कर [यः] जो [आत्मानम्] आत्मा को [निर्विकल्पेन] निर्विकल्परूप से [ध्यायति] ध्याता है, [तस्य] उसे [तनूत्सर्गः] कायोत्सर्ग [भवेत्] है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, निश्चय-कायोत्सर्ग के स्वरूप का कथन है ।

सादि-सांत मूर्त विजातीय-विभाव-व्यंजन पर्यायात्मक अपना आकार वह काय । 'आदि' शब्द से क्षेत्र, गृह, कनक, रमणी आदि । इन सब में स्थिरभाव (सनातन-भाव) छोड़कर (कायादिक स्थिर हैं ऐसा भाव छोड़कर) नित्य-रमणीय निरंजन निज कारण-परमात्मा को व्यवहार क्रियाकांड के आडम्बर सम्बन्धी विविध विकल्परूप कोलाहल रहित सहज-परम-योग के बल से जो सहज-तपश्चरणरूपी क्षीरसागर का चन्द्र (सहज तपरूपी क्षीरसागर को उछालने में चन्द्र समान ऐसा जो जीव) नित्य ध्याता है, उस सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर के शिखामणि को (उस परम सहज-वैराग्यवन्त जीव को) वास्तव में निश्चय-कायोत्सर्ग है ।

(कलश--हरिगीत)
रे सभी कारज कायकृत मन के विकल्प अनल्प जो ।
अर जल्पवाणी के सभी को छोड़ने के हेतु से ॥
निज आत्मा के ध्यान से जो स्वात्मनिष्ठापरायण ।
हे भव्यजन उन संयमी के सतत् कायोत्सर्ग है ॥१९५॥

जो निरंतर स्वात्मनिष्ठापरायण (निज आत्मा में लीन) हैं उन संयमियों को, काया से उत्पन्न होनेवाले अति प्रबल कर्मों के (काया सम्बन्धी प्रबल क्रियाओं के) त्याग के कारण, वाणी के जल्प-समूह की विरति के कारण और मानसिक भावों की (विकल्पों की) निवृत्ति के कारण, तथा निज-आत्मा के ध्यान के कारण, निश्चय से सतत कायोत्सर्ग है ।

(कलश--हरिगीत)
मोहतम से मुक्त आतमतेज से अभिषिक्त है ।
दृष्टि से परिपूर्ण सुखमय सहज आतमतत्त्व है ॥
संसार में परिताप की परिकल्पना से मुक्त है ।
अरे ज्योतिर्मान निज परमातमा जयवंत है ॥१९६॥

सहज तेजःपुंज में निमग्न ऐसा वह प्रकाशमान सहज परम तत्त्व जयवन्त है, कि जिसने मोहांधकार को दूर किया है (जो मोहांधकार रहित है ),जो सहज परम दृष्टि से परिपूर्ण है और जो वृथा - उत्पन्न भवभव के परितापों से तथा कल्पनाओं से मुक्त है ।

(कलश--हरिगीत)
संसारसुख अति अल्प केवल कल्पना में रम्य है ।
मैं छोड़ता हूँ उसे सम्यक् रीति आतमशक्ति से ॥
मैं चेतता हूँ सर्वदा चैतन्य के सद्ज्ञान में ।
स्फुरित हूँ मैं परमसुखमय आतमा के ध्यान में ॥१९७॥

अल्प (तुच्छ) और कल्पना मात्र रम्य (मात्र कल्पनासे ही रमणीय लगनेवाला) ऐसा जो भवभव का सुख वह सब मैं आत्मशक्ति से नित्य सम्यक् प्रकार से छोड़ता हूँ; (और) जिसका निज विलास प्रगट हुआ है, जो सहज परम सौख्यवाला है तथा जो चैतन्य चमत्कार मात्र है, उसका (उस आत्म तत्त्व का) मैं सर्वदा अनुभवन करता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
समाधि की है विषय मेरे हृदय में स्फुरित ।
स्वातम गुणों की संपदा को एक क्षण जाना नहीं ॥
त्रैलोक्य वैभव विनाशक दुष्कर्म की गुणशक्ति के ।
निमित्त से रे हाय मैं संसार में मारा गया ॥१९८॥

अहो ! मेरे हृदय में स्फुरायमान इस निज आत्मगुण संपदा को, कि जो समाधि का विषय है उसे, मैंने पहले एक क्षण भी नहीं जाना । वास्तव में, तीनलोक के वैभव के प्रलय के हेतुभूत दुष्कर्मों की प्रभुत्वगुण शक्ति से (दुष्ट कर्मों के प्रभुत्व गुण की शक्ति से), अरे रे ! मैं संसार में मारा गया हूँ (हैरान हो गया हूँ)

(कलश--दोहा)
सांसारिक विषवृक्षफल दुख के कारण जान ।
आतम से उत्पन्न सुख भोगूँ मैं भगवान ॥१९९॥

भवोत्पन्न (संसार में उत्पन्न होनेवाले) विषवृक्ष के समस्त फल को दुःख का कारण जानकर मैं चैतन्यात्मक आत्मा में उत्पन्न विशुद्ध सौख्य का अनुभवन करता हूँ ।

इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के फैलाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव विरचित तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका में) शुद्ध निश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार नाम का आठवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।

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परम-समाधि



+ परम समाधि का स्वरूप -
वयणोच्चारणकिरियं परिचत्ता वीयरायभावेण ।
जो झायदि अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स ॥122॥
वचनोच्चारणक्रियां परित्यज्य वीतरागभावेन ।
यो ध्यायत्यात्मानं परमसमाधिर्भवेत्तस्य ॥१२२॥
रे त्याग वचनोच्चार किरिया, वीतरागी भाव से ।
ध्यावे निजात्मा जो, समाधि परम होती है उसे ॥१२२॥
अन्वयार्थ : [वचनोच्चारणक्रियां] वचनोच्चारण की क्रिया [परित्यज्य] परित्याग कर [वीतरागभावेन] वीतराग भाव से [यः] जो [आत्मानं] आत्मा को [ध्यायति] ध्याता है, [तस्य] उसे [परमसमाधिः] परम समाधि [भवेत्] है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
अब समस्त मोह-राग-द्वेषादि परभावों के विध्वंस के हेतुभूत परम-समाधि अधिकार कहा जाता है ।

यह, परम समाधि के स्वरूप का कथन है ।

कभी अशुभवंचनार्थ वचन-विस्तार से शोभित परमवीतराग सर्वज्ञ का स्तवनादि परम जिनयोगीश्वर को भी करने योग्य है । परमार्थ से प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त वचन सम्बन्धी व्यापार करने योग्य नहीं है । ऐसा होने से ही, वचनरचना परित्याग कर जो समस्त कर्म-कलंकरूप कीचड़ से विमुक्त है और जिसमें से भाव-कर्म नष्ट हुए हैं ऐसे भाव (परम वीतरागभाव) से त्रिकाल-निरावरण नित्य-शुद्ध कारण-परमात्मा को स्वात्माश्रित निश्चय-धर्म-ध्यान से तथा टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वरूप में लीन परम शुक्ल-ध्यान से जो परम-वीतराग तपश्चरण में लीन, निरुपराग (निर्विकार) संयमी ध्याता है, उस द्रव्य-कर्म - भाव-कर्म की सेना को लूटने वाले संयमी को वास्तव में परम समाधि है ।

(कलश--हरिगीत)
समाधि बल से मुमुक्षु उत्तमजनों के हृदय में ।
स्फुरित समताभावमय निज आतमा की संपदा ॥
जबतक न अनुभव करें हम तबतक हमारे योग्य जो ।
निज अनुभवन का कार्य है वह हम नहीं हैं कर रहे ॥२००॥

किसी ऐसी (अवर्णनीय, परम) समाधि द्वारा उत्तम आत्माओं के हृदय में स्फुरित होनेवाली, समता की अनुयायिनी सहज आत्म सम्पदा का जबतक हम अनुभव नहीं करते, तबतक हमारे जैसों का जो विषय है उसका हम अनुभवन नहीं करते ।

अशुभवंचनार्थ = अशुभ से छूटने के लिये; अशुभ से बचने के लिये; अशुभ के त्याग के लिये ।
— अनुयायिनी = अनुगामिनी; साथ-साथ रहनेवाली; पीछे-पीछे आनेवाली । (सहज आत्मसम्पदा समाधि कीअनुयायिनी है ।)
— सहज आत्म-सम्पदा मुनियों का विषय है ।

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+ समाधि का लक्षण -
संजमणियमतवेण दु धम्मज्झाणेण सुक्कझाणेण ।
जो झायइ अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स ॥123॥
संयमनियमतपसा तु धर्मध्यानेन शुक्लध्यानेन ।
यो ध्यायत्यात्मानं परमसमाधिर्भवेत्तस्य ॥१२३॥
संयम नियम तप से तथा रे धर्म-शुक्ल सुध्यान से
ध्यावे निजात्मा जो परम होती समाधि है उसे ॥१२३॥
अन्वयार्थ : [संयमनियमतपसा तु] संयम, नियम और तप से तथा [धर्मध्यानेन शुक्लध्यानेन] धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान से [यः] जो [आत्मानं] आत्मा को [ध्यायति] ध्याता है, [तस्य] उसे [परमसमाधिः] परम समाधि [भवेत्] है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में) समाधि का लक्षण (स्वरूप) कहा है ।

इन सामग्री-विशेषों सहित (इस उपर्युक्त विशेष आंतरिक साधन सामग्री सहित) अखण्ड अद्वैत परम चैतन्यमय आत्मा को जो परम संयमी नित्य ध्याता है, उसे वास्तव में परम-समाधि है ।

(कलश--हरिगीत)
निर्विकल्पक समाधि में नित रहें जो आतमा ।
उस निर्विकल्पक आतमा को नमन करता हूँ सदा ॥२०१॥

जो सदा चैतन्यमय निर्विकल्प समाधि में रहता है, उस द्वैताद्वैत-विमुक्त (द्वैत-अद्वैत के विकल्पों से मुक्त) आत्मा को मैं नमन करता हूँ ।

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+ समता-रहित श्रमण को कुछ भी कार्यकारी नहीं -
किं काहदि वणवासो कायकिलेसो विचित्तउववासो ।
अज्झयणमोणपहुदी समदारहियस्स समणस्स ॥124॥
किं करिष्यति वनवासः कायक्लेशो विचित्रोपवासः ।
अध्ययनमौनप्रभृतयः समतारहितस्य श्रमणस्य ॥१२४॥
वनवास, कायाक्लेशरूप अनेक विध उपवास से ।
वा अध्ययन मौनादि से क्या ! साम्यविरहित साधु के ॥१२४॥
अन्वयार्थ : [वनवासः] वनवास, [कायक्लेशःविचित्रोपवासः] काय-क्लेशरूप अनेक प्रकार के उपवास, [अध्ययनमौनप्रभृतयः] अध्ययन, मौन आदि (कार्य) [समतारहितस्य श्रमणस्य] समता-रहित श्रमण को [किं करिष्यति] क्या (लाभ) करते हैं ?

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में), समता के बिना द्रव्य-लिंगधारी श्रमणाभास को किंचित् परलोक का कारण नहीं है (किंचित् मोक्ष का साधन नहीं है ) ऐसा कहा है ।

केवल द्रव्यलिंगधारी श्रमणाभास को समस्त कर्मकलंकरूप कीचड़ से विमुक्त महाआनन्द के हेतुभूत परमसमताभाव बिना, क्या किंचित् भी उपादेय फल है ? (मोक्ष के साधनरूप फल किंचित् भी नहीं है ।)

इसीप्रकार (श्री योगीन्द्रदेवकृत) अमृताशीति में (५९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
विपिन शून्य प्रदेश में गहरी गुफा के वास से ।
इन्द्रियों के रोध अथवा तीर्थ के आवास से ॥
पठन-पाठन होम से जपजाप अथवा ध्यान से ।
है नहीं सिद्धि खोजलो पथ अन्य गुरु के योग से ॥५०॥

पर्वत की गहन गुफा आदि में अथवा वन के शून्य प्रदेश में रहने से, इन्द्रिय-निरोध से, ध्यान से, तीर्थसेवा से, (तीर्थस्थान में वास करने से), पठन से, जप से तथा होम से ब्रह्म की (आत्मा की) सिद्धि नहीं है; इसलिये, हे भाई ! तू गुरुओं द्वारा उससे अन्य प्रकार को ढूँढ ।

अब

(कलश--हरिगीत)
अनशनादि तपस्या समता रहित मुनिजनों की ।
निष्फल कही है इसलिए गंभीरता से सोचकर ॥
और समताभाव का मंदिर निजातमराम जो ।
उस ही निराकुलतत्त्व को भज लो निराकुलभाव से ॥२०२॥

वास्तव में समता-रहित यति को अनशनादि तपश्चरणों से फल नहीं है; इसलिये, हे मुनि ! समता का कुलमंदिर (उत्तम वंश-परम्परा का घर) ऐसा जो यह अनाकुल निज तत्त्व उसे भज ।

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+ किस मुनि को सामायिक व्रत स्थायी है? -
विरदो सव्वसावज्जे तिगुत्तो पिहिदिंदिओ ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ॥125॥
विरतः सर्वसावद्ये त्रिगुप्तः पिहितेन्द्रियः ।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ॥१२५॥
सावद्यविरत, त्रिगुप्तमय अरु पिहितइन्द्रिय जो रहे ।
स्थायी सामायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ॥१२५॥
अन्वयार्थ : [सर्वसावद्ये विरतः] जो सर्व सावद्य में विरत है,[त्रिगुप्तः] जो तीन गुप्तिवाला है और [पिहितेन्द्रियः] जिसने इन्द्रियों को बन्द (निरुद्ध) किया है, [तस्य] उसे [सामायिकं] सामायिक [स्थायि] स्थायी है । [इतिकेवलिशासने] ऐसा केवली के शासन में कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में), जो सर्व सावद्य व्यापार से रहित है, जो त्रिगुप्ति द्वारा गुप्त है तथा जो समस्त इन्द्रियों के व्यापार से विमुख है, उस मुनि को सामायिक व्रत स्थायी है, ऐसा कहा है ।

यहाँ (इस लोक में) जो एकेन्द्रियादि प्राणी-समूह को क्लेश के हेतुभूत समस्त सावद्य के व्यासंग (आसक्ति) से विमुक्त है, प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त काय-वचन-मन के व्यापार के अभाव के कारण त्रिगुप्त (तीन गुप्तिवाला) है और स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु तथा श्रोत्र नामक पाँच-इन्द्रियों द्वारा उस-उस इन्द्रिय के योग्य विषय के ग्रहण का अभाव होने से बन्द की हुई इन्द्रियों वाला है, उस महा-मुमुक्षु परम-वीतराग-संयमी को वास्तव में सामायिक-व्रत शाश्वत (स्थायी) है ।

(कलश--हरिगीत)
संसारभय के हेतु जो सावद्य उनको छोड़कर ।
मनवचनतन की विकृति से पूर्णत: मुख मोड़कर ॥
अरे अन्तर्शुद्धि से सद्ज्ञानमय शुद्धातमा ।
को जानकर समभावमयचारित्र को धारण करें ॥२०३॥

इसप्रकार भव-भय के करनेवाले समस्त सावद्य-समूह को छोड़कर, काय-वचन-मन की विकृति को निरन्तर नाश प्राप्त कराके, अंतरंग-शुद्धि से परम-कला सहित (परम ज्ञानकला सहित) एक आत्मा को जानकर जीव स्थिर शममय शुद्ध शील को प्राप्त करता है (शाश्वत समतामय शुद्ध चारित्र को प्राप्त करता है )

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+ परम मुमुक्षु का स्वरूप -
जो समो सव्वभूदेसु थावरेसु तसेसु वा ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ॥126॥
यः समः सर्वभूतेषु स्थावरेषु त्रसेषु वा ।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ॥१२६॥
स्थावर तथा त्रस सर्व जीवसमूह प्रति समता लहे ।
स्थायी सामायिक है उसे, यों केवली शासन कहे ॥१२६॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [स्थावरेषु] स्थावर [वा] अथवा [त्रसेषु] त्रस [सर्वभूतेषु] सर्व जीवों के प्रति [समः] समभाववाला है, [तस्य] उसे [सामायिकं] सामायिक [स्थायि] स्थायी है [इति केवलिशासने] ऐसा केवली के शासन में कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ, परम माध्यस्थभाव आदि में आरूढ़ होकर स्थित परम मुमुक्षु का स्वरूप कहा है ।

जो सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर का शिखामणि (परम सहज वैराग्यवन्त मुनि) विकार के कारणभूत समस्त मोह-राग-द्वेष के अभाव के कारण भेद-कल्पना विमुक्त परम समरसीभाव सहित होने से त्रस-स्थावर (समस्त) जीव-निकायों के प्रति समभाववाला है, उस परम जिनयोगीश्वर को सामायिक नाम का व्रत सनातन (स्थायी) है ऐसा वीतराग सर्वज्ञ के मार्ग में सिद्ध है ।

(कलश--हरिगीत)
जिन मुनिवरों का चित्त नित त्रस-थावरों के त्रास से ।
मुक्त हो सम्पूर्णत: अन्तिम दशा को प्राप्त हो ॥
उन मुनिवरों को नमन करता भावना भाता सदा ।
स्तवन करता हूँ निरन्तर मुक्ति पाने के लिए ॥२०४॥

परम जिनमुनियों का जो चित्त (चैतन्य-परिणमन) निरंतर त्रस-जीवों के घात से तथा स्थावर जीवों के वध से अत्यन्त विमुक्त है, और जो (चित्त) अंतिम अवस्था को प्राप्त तथा निर्मल है, उसे मैं कर्म से मुक्त होने के हेतु नमन करता हूँ, स्तवन करता हूँ, सम्यक् प्रकार से भाता हूँ ।

(कलश--दोहा)
कोई वर्ते द्वैत में अर कोई अद्वैत ।
द्वैताद्वैत विमुक्तमग हम वर्तें समवेत ॥२०५॥

कोई जीव अद्वैतमार्ग में स्थित हैं और कोई जीव द्वैतमार्ग में स्थित हैं; द्वैत और अद्वैत से विमुक्त मार्ग में (जिसमें द्वैत या अद्वैत के विकल्प नहीं हैं ऐसे मार्ग में) हम वर्तते हैं ।

(कलश--दोहा)
कोई चाहे द्वैत को अर कोई अद्वैत ।
द्वैताद्वैत विमुक्त जिय मैं वंदूँ समवेत ॥२०६॥

कोई जीव अद्वैत की इच्छा करते हैं और अन्य कोई जीव द्वैत की इच्छा करते हैं; मैं द्वैत और अद्वैत से विमुक्त आत्मा को नमन करता हूँ ।

(कलश--सोरठा )
थिर रह सुख के हेतु अज अविनाशी आत्म में ।
भाऊँ बारंबार निज को निज से निरन्तर ॥२०७॥

मैं, सुख की इच्छा रखनेवाला आत्मा, अजन्म और अविनाशी ऐसे निज-आत्मा को, आत्मा द्वारा ही, आत्मा में स्थित रहकर बारम्बार भाता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
संसार के जो हेतु हैं इन विकल्पों के जाल से ।
क्या लाभ है हम जा रहे नयविकल्पों के पार अब ॥
नयविकल्पातीत सुखमय अगम आतमराम को ।
वन्दन करूँ कर जोड़ भवभय नाश करने के लिए ॥२०८॥

भव के करनेवाले ऐसे इन विकल्प-कथनों से बस होओ, बस होओ । जो अखण्डानन्द स्वरूप है वह (यह आत्मा) समस्त नय-राशि का अविषय है; इसलिये यह कोई (अवर्णनीय) आत्मा द्वैत या अद्वैतरूप नहीं है (द्वैत-अद्वैत के विकल्पों से पर है ) । उस एक को मैं अल्प काल में भव-भय का नाश करने के लिये सतत वंदन करता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
अच्छे बुरे निजकार्य से सुख-दु:ख हों संसार में ।
पर आतमा में हैं नहीं ये शुभाशुभ परिणाम सब ॥
क्योंकि आतमराम तो इनसे सदा व्यतिरिक्त है ।
स्तुति करूँ मैं उसी भव से भिन्न आतमराम की ॥२०९॥

योनि में सुख और दुःख सुकृत और दुष्कृत के समूहसे होता है (चार गति के जन्मों में सुख-दुःख शुभाशुभ कृत्यों से होता है ) । और दूसरे प्रकार से (निश्चयनय से), आत्मा को शुभ का भी अभाव है तथा अशुभ परिणति भी नहीं है, क्योंकि इस लोक में एक आत्मा को (आत्मा सदा एकरूप होनेसे उसे) अवश्य भव का परिचय बिलकुल नहीं है । इसप्रकार जो भवगुणों के समूह से संन्यस्त है (जो शुभ-अशुभ, राग-द्वेष आदि भव के गुणों से, विभावों से रहित है) उसका (नित्य शुद्ध-आत्मा का) मैं स्तवन करता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
प्रगट अपने तेज से अति प्रबल तिमिर समूह को ।
दूर कर क्षणमात्र में ही पापसेना की ध्वजा ॥
हरण कर ली जिस महाशय प्रबल आतमराम ने ।
जयवंत है वह जगत में चित्चमत्कारी आतमा ॥२१०॥

सदा शुद्ध-शुद्ध ऐसा यह (प्रत्यक्ष) चैतन्य-चमत्कार मात्र तत्त्व जगत में नित्य जयवन्त है, कि जिसने प्रगट हुए सहज तेजःपुंज द्वारा स्व-धर्म त्यागरूप (मोहरूप) अति-प्रबल तिमिर-समूह को दूर किया है और जो उस अघसेना (पाप के सेना) की ध्वजा को हर लेता है ।

(कलश--हरिगीत)
गणधरों के मनकमल थित प्रगट शुध एकान्तत: ।
भवकारणों से मुक्त चित् सामान्य में है रत सदा ॥
सद्दृष्टियों को सदागोचर आत्ममहिमालीन जो ।
जयवंत है भव अंतकारक अनघ आतमराम वह ॥२११॥

यह अनघ (निर्दोष) आत्मतत्त्व जयवन्त है, कि जिसने संसार को अस्त किया है, जो महामुनिगण के अधिनाथ के (गणधरों के) हृदयारविन्द में स्थित है, जिसने भव का कारण छोड़ दिया है, जो एकान्त से शुद्ध प्रगट हुआ है (जो सर्वथा - शुद्धरूप से स्पष्ट ज्ञात होता है) तथा जो सदा (टंकोत्कीर्ण चैतन्य सामान्यरूप) निज महिमा में लीन होने पर भी सम्यग्दृष्टियों को गोचर है ।

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+ आत्मा ही उपादेय है -
जस्स संणिहिदो अप्पा संजमे णियमे तवे ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ॥127॥
यस्य सन्निहितः आत्मा संयमे नियमे तपसि ।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ॥१२७॥
संयम-नियम-तप में अहो ! आत्मा समीप जिसे रहे ।
स्थायी सामायिक है उसे, यों केवली शासन कहे ॥१२७॥
अन्वयार्थ : [यस्य] जिसे [संयमे] संयम में, [नियमे] नियम में और [तपसि] तपमें [आत्मा] आत्मा [सन्निहितः] समीप है, [तस्य] उसे [सामायिकं] सामायिक [स्थायि] स्थायी है [इति केवलिशासने] ऐसा केवली के शासन में कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में) भी आत्मा ही उपादेय है ऐसा कहा है ।

बाह्य-प्रपंच से पराङ्मुख और समस्त इन्द्रिय-व्यापार को जीते हुए ऐसे जिस भावीजिन को पाप-क्रिया की निवृत्तिरूप बाह्य-संयम में, काय-वचन-मनोगुप्तिरूप, समस्त इन्द्रिय-व्यापार रहित अभ्यंतर-संयम में, मात्र परिमित (मर्यादित) काल के आचरण-स्वरूप नियम में, निज-स्वरूप में अविचल स्थितिरूप, चिन्मय - परमब्रह्म में नियत (निश्चल रहे हुए) ऐसे निश्चय अन्तर्गत-आचार में (निश्चय-अभ्यंतर नियम में), व्यवहार से *प्रपंचित (ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप-वीर्याचार रूप) पंचाचार में (व्यवहार-तपश्चरण में), तथा पंचमगति के हेतुभूत, किंचित् भी परिग्रह-प्रपंच से सर्वथा-रहित, सकल-दुराचार की निवृत्ति के कारणभूत ऐसे परम तपश्चरण में (इन सब में) परम गुरु के प्रसाद से प्राप्त किया हुआ निरंजन निज कारण-परमात्मा सदा समीप है (जिस मुनि को संयम में, नियम में और तप में निज कारण-परमात्मा सदा निकट है ), उस पर-द्रव्य पराङ्मुख परम-वीतराग - सम्यक्दृष्टि वीतराग -चारित्रवंत को सामायिक-व्रत स्थायी है ऐसा केवलियों के शासन में कहा है ।

(कलश--हरिगीत)
शुद्ध सम्यग्दृष्टिजन जाने कि संयमवंत के ।
तप-नियम-संयम-चरित में यदि आतमा ही मुख्य है ॥
तो सहज समताभाव निश्चित जानिये हे भव्यजन ।
भावितीर्थंकर श्रमण को भवभयों से मुक्त जो ॥२१२॥

यदि शुद्ध-दृष्टिवन्त (शुद्ध-सम्यग्दृष्टि) जीव ऐसा समझता है कि परम मुनि को तप में, नियम में, संयम में और सत्चारित्र में सदा आत्मा ऊर्ध्व रहता है (प्रत्येक कार्य में निरन्तर शुद्धात्म-द्रव्य ही मुख्य रहता है ) तो (ऐसा सिद्ध हुआ कि) राग के नाश के कारण अभिराम ऐसे उस भव-भय-हर भावि तीर्थाधिनाथ को यह साक्षात् सहज-समता अवश्य है ।

*प्रपंचित = दर्शाये गये; विस्तार को प्राप्त ।
अभिराम = मनोहर; सुन्दर । (भव-भय के हरनेवाले ऐसे इस भावि तीर्थङ्कर ने राग का नाश किया होने से वह मनोहर है ।)

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+ रागद्वेष के अभाव से अपरिस्पंदरूपता -
जस्स रागो दु दोसो दु विगडिं ण जणेइ दु ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ॥128॥
यस्य रागस्तु द्वेषस्तु विकृतिं न जनयति तु ।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ॥१२८॥
नहिं राग अथवा द्वेषसे जो संयमी विकृति लहे ।
स्थायी सामायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ॥१२८॥
अन्वयार्थ : [यस्य] जिसे [रागः तु] राग या [द्वेषः तु] द्वेष (उत्पन्न न होता हुआ) [विकृतिं] विकृति [न तु जनयति] उत्पन्न नहीं करता, [तस्य] उसे [सामायिकं] सामायिक [स्थायि] स्थायी है [इति केवलिशासने] ऐसा केवली के शासन में कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ रागद्वेष के अभाव से अपरिस्पंदरूपता होती है ऐसा कहा है ।

पापरूपी अटवी को जलाने में अग्नि समान ऐसे जिस परमवीतराग संयमी को राग या द्वेष विकृति उत्पन्न नहीं करता, उस महा आनन्द के अभिलाषी जीव को, कि जिसे पाँच इन्द्रियों के फैलाव रहित देहमात्र परिग्रह है उसे, सामायिक नाम का व्रत शाश्वत है ऐसा केवलियों के शासन में प्रसिद्ध है ।

(कलश--रोला)
किया पापतम नाश ज्ञान-ज्योति से जिसने ।
परम सुखामृतपूर आतमा निकट जहाँ है ॥
राग-द्वेष न समर्थ उसे विकृत करने में ।
उस समरसमय आतम में है विधि-निषेध क्या ॥२१३॥

जिसने ज्ञान-ज्योति द्वारा पाप-समूहरूपी घोर-अंधकार का नाश किया है ऐसा सहज परमानन्दरूपी अमृत का पूर (ज्ञानानन्दस्वभावी आत्म-तत्त्व) जहाँ निकट है, वहाँ वे राग-द्वेष विकृति करने में समर्थ नहीं ही है । उस नित्य (शाश्वत) समरसमय आत्मतत्त्व में विधि क्या और निषेध क्या ? (समरसस्वभावी आत्मतत्त्व में 'यह करने योग्य है और यह छोड़ने योग्य है' ऐसे विधि-निषेध के विकल्परूप स्वभाव न होने से उस आत्म-तत्त्व का दृढ़ता से आलम्बन लेनेवाले मुनि को स्वभाव-परिणमन होने के कारण समरसरूप परिणाम होते हैं, विधि-निषेध के विकल्परूप / राग-द्वेषरूप परिणाम नहीं होते ।)

– अपरिस्पंदरूपता = अकंपता; अक्षुब्धता; समता ।
विकृति = विकार; स्वाभाविक परिणति से विरुद्ध परिणति । (परम वीतराग-संयमी को समता स्वभावी शुद्धात्म-द्रव्य का दृढ़ आश्रय होने से विकृतिभूत / विभावभूत विषमता / राग-द्वेष-परिणति नहीं होती, परन्तु प्रकृतिभूत / स्वभावभूत समता-परिणाम होता है ।)

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+ आर्त और रौद्र ध्यान के परित्याग द्वारा सामायिक-व्रत -
जो दु अट्टं च रुद्दं च झाणं वज्जेदि णिच्चसो ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ॥129॥
यस्त्वार्त्तं च रौद्रं च ध्यानं वर्जयति नित्यशः ।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ॥१२९॥
रे ! आर्त्त - रौद्र दुध्यान का नित ही जिसे वर्जन रहे ।
स्थायी सामायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ॥१२९॥
अन्वयार्थ : [यः तु] जो [आर्त्तं] आर्त [च] और [रौद्रं च] रौद्र [ध्यानं] ध्यान को [नित्यशः] नित्य [वर्जयति] वर्जता है, [तस्य] उसे [सामायिकं] सामायिक [स्थायि] स्थायी है [इति केवलिशासने] ऐसा केवली के शासन में कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, आर्त और रौद्र ध्यान के परित्याग द्वारा सनातन (शाश्वत) सामायिक-व्रत के स्वरूप का कथन है ।

नित्य - निरंजन निज कारण-समयसार के स्वरूप में नियत (नियम से स्थित) शुद्ध-निश्चय - परम-वीतराग-सुखामृत के पान में परायण ऐसा जो जीव तिर्यंचयोनि, प्रेतवास और नारकादिगति की योग्यता के हेतुभूत आर्त और रौद्र दो ध्यानों को नित्य छोड़ता है, उसे वास्तव में केवल-दर्शन सिद्ध (केवलदर्शन से निश्चित हुआ) शाश्वत सामायिकव्रत है ।

(कलश--सोरठा)
जो मुनि छोड़े नित्य आर्त्त-रौद्र ये ध्यान दो ।
सामायिकव्रत नित्य उनको जिनशासन कथित ॥२१४॥

इसप्रकार, जो मुनि आर्त और रौद्र नाम के दो ध्यानों को नित्य छोड़ता है उसे जिन-शासन सिद्ध (जिनशासन से निश्चित हुआ) अणुव्रत रूप सामायिकव्रत है ।

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+ सुकृत-दुष्कृतरूप कर्म के संन्यास की विधि -
जो दु पुण्णं च पावं च भावं वज्जेदि णिच्चसो ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ॥130॥
यस्तु पुण्यं च पापं च भावं वर्जयति नित्यशः ।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ॥१३०॥
जो पुण्य-पाप विभावभावों का सदा वर्जन करे ।
स्थायी समायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ॥१३०॥
अन्वयार्थ : [यः तु] जो [पुण्यं च] पुण्य तथा [पापं भावंच] पापरूप भाव को [नित्यशः] नित्य [वर्जयति] वर्जता है, [तस्य] उसे [सामायिकं] सामायिक [स्थायी] स्थायी है [इति केवलिशासने] ऐसा केवली के शासन में कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, शुभाशुभ परिणाम से उत्पन्न होनेवाले सुकृत-दुष्कृतरूप कर्म के संन्यास की विधि का (शुभाशुभ कर्म के त्याग की रीति का) कथन है ।

बाह्य-अभ्यंतर परित्यागरूप लक्षण से लक्षित परम जिनयोगीश्वरों का चरण-कमल प्रक्षालन, चरण-कमल-संवाहन आदि वैयावृत्य करनेसे उत्पन्न होनेवाली शुभ-परिणति विशेष से (विशिष्ट शुभ परिणति से) उपार्जित पुण्यकर्म को तथा हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह के परिणाम से उत्पन्न होनेवाले अशुभकर्म को, वे दोनों कर्म संसाररूपी स्त्री के विलासविभ्रम का जन्मभूमि-स्थान होने से, जो सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर का शिखामणि (जो परम सहज वैराग्यवन्त मुनि) छोड़ता है, उसे नित्य केवलीमतसिद्ध (केवलियों के मत में निश्चित हुआ) सामायिक-व्रत है ।

(कलश--हरिगीत)
संसार के जो मूल ऐसे पुण्य एवं पाप को ।
छोड़ नित्यानन्दमय चैतन्य सहजस्वभाव को ॥
प्राप्त कर जो रमण करते आत्मा में निरंतर ।
अरे त्रिभुवनपूज्य वे जिनदेवपद को प्राप्त हों ॥२१५॥

सम्यग्दृष्टि जीव संसार के मूलभूत सर्व पुण्यपाप को छोड़कर, नित्यानन्दमय, सहज, शुद्ध-चैतन्यरूप जीवास्तिकाय को प्राप्त करता है; वह शुद्ध जीवास्तिकाय में सदा विहरता है और फिर त्रिभुवनजनों से (तीन लोक के जीवों से) अत्यन्त पूजित ऐसा जिन होता है ।

(कलश--हरिगीत)
पुनपापरूपी गहनवन दाहक भयंकर अग्नि जो ।
अर मोहतमनाशक प्रबल अति तेज मुक्तीमूल जो ॥
निरुपाधि सुख आनंददा भवध्वंस करने में निपुण ।
स्वयंभू जो ज्ञान उसको नित्य करता मैं नमन ॥२१६॥

यह स्वतःसिद्ध ज्ञान पापपुण्यरूपी वन को जलानेवाली अग्नि है, महा-मोहांधकार-नाशक अतिप्रबल तेजमय है, विमुक्ति का मूल है और निरुपधि महाआनन्दसुख का दायक है । भवभव का ध्वंस करने में निपुण ऐसे इस ज्ञान को मैं नित्य पूजता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
आकुलित होकर जी रहा जिय अघों के समुदाय से ।
भववधू का पति बनकर काम सुख अभिलाष से ॥
भव्यत्व द्वारा मुक्ति सुख वह प्राप्त करता है कभी ।
अनूपम सिद्धत्वसुख से फिर चलित होता नहीं ॥२१७॥

यह जीव अघसमूह के वश संसृतिवधू का पतिपना प्राप्त करके (शुभाशुभ कर्मों के वश संसाररूपी स्त्री का पति बनकर) कामजनित सुख के लिये आकुल मतिवाला होकर जी रहा है । कभी भव्यत्व द्वारा शीघ्र मुक्तिसुख को प्राप्त करता है, उसके पश्चात् फिर उस एक को छोड़कर वह सिद्ध चलित नहीं होता (एक मुक्तिसुख ही ऐसा अनन्य, अनुपम तथा परिपूर्ण है कि उसे प्राप्त करके उसमें आत्मा सदाकाल तृप्त-तृप्त रहता है, उसमें से कभी च्युत होकर अन्य सुख प्राप्त करनेके लिये आकुल नहीं होता)

१>चरणकमलसंवाहन = पाँव दबाना; पगचंपी करना ।
२>विलासविभ्रम = विलासयुक्त हावभाव; क्रीड़ा ।
३>निरुपधि = छलरहित; सच्चे; वास्तविक ।

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+ नौ नोकषाय की विजय -
जो दु हस्सं रई सोगं अरतिं वज्जेदि णिच्चसो ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ॥131॥
जो दुगंछा भयं वेदं सव्वं वज्जेदि णिच्चसो ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ॥132॥
यस्तु हास्यं रतिं शोकं अरतिं वर्जयति नित्यशः ।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ॥१३१॥
यः जुगुप्सां भयं वेदं सर्वं वर्जयति नित्यशः ।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ॥१३२॥
जो नित्य वर्जे हास्य, अरु रति, अरति, शोक-विरत रहे ।
स्थायी समायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ॥१३१॥
जो नित्य वर्जे भय जुगुप्सा, सर्व वेद समूह रे ।
स्थायी समायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ॥१३२॥
अन्वयार्थ : [यः तु] जो [हास्यं रतिं शोकं अरतिं] हास्य, रति, शोक और अरति को [नित्यशः वर्जयति] नित्य वर्जता (त्यागता) है, [तस्य सामायिकं स्थायि] उसे सामायिक स्थायी है [इति केवलिशासने] ऐसा केवली के शासन में कहा है ।
[यः जुगुप्सां भयं सर्वं वेदं] जो जुगुप्सा, भय और सर्व वेद को [नित्यशः वर्जयति] नित्य वर्जता है, [तस्य सामायिकं स्थायि] उसे सामायिक स्थायी है [इति केवलिशासने] ऐसा केवली के शासन में कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, नौ नोकषाय की विजय द्वारा प्राप्त होने वाले सामायिक चारित्र के स्वरूप का कथन है ।

मोहनीय कर्म-जनित स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा नाम के नौ नोकषाय से होने वाले कलंक पंकस्वरूप (मल-कीचड़-स्वरूप) समस्त विकार-समूह को परम-समाधि के बल से जो निश्चय-रत्नत्रयात्मक परम तपोधन छोड़ता है, उसे वास्तव में केवली भट्टारक के शासन से सिद्ध हुआ परम सामायिक नाम का व्रत शाश्वतरूप है ऐसा इन दो सूत्रों से कहा है ।

(कलश--हरिगीत)
मोहांध जीवों को सुलभ पर आत्मनिष्ठ समाधिरत ।
जो जीव हैं उन सभी को है महादुर्लभ भाव जो ॥
वह भवस्त्री उत्पन्न सुख-दुखश्रेणिकारक रूप है ।
मैं छोड़ता उस भाव को जो नोकषायस्वरूप है ॥२१८॥

संसार स्त्री जनित *सुखदुःखावलि का करनेवाला नौकषायात्मक यह सब (नौ नोकषायस्वरूप सर्व विकार) मैं वास्तव में प्रमोद से छोड़ता हूँ, कि जो नौ नोकषायात्मक विकार महामोहांध जीवों को निरन्तर सुलभ है तथा निरन्तर आनन्दित मनवाले समाधिनिष्ठ (समाधि में लीन) जीवों को अति दुर्लभ है ।

*सुखदुःखावलि = सुखदुःख की आवलि; सुखदुःख की पंक्ति / श्रेणी । (नौ नोकषायात्मक विकार संसाररूपीस्त्री से उत्पन्न सुखदुःख की श्रेणी का करनेवाला है ।)

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+ परम-समाधि अधिकार का उपसंहार -
जो दु धम्मं च सुक्कं च झाणं झाएदि णिच्चसो ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ॥133॥
यस्तु धर्मं च शुक्लं च ध्यानं ध्यायति नित्यशः ।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ॥१३३॥
जो नित्य उत्तम धर्म-शुक्ल सुध्यान में ही रत रहे ।
स्थायी समायिक है उसे यों केवलीशासन कहे ॥१३३॥
अन्वयार्थ : [यः तु] जो [धर्मं च] धर्मध्यान [शुक्लं चध्यानं] और शुक्लध्यान को [नित्यशः] नित्य [ध्यायति] ध्याता है, [तस्य] उसे [सामायिकं] सामायिक [स्थायि] स्थायी है [इति केवलिशासने] ऐसा केवली के शासन में कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, परम-समाधि अधिकार के उपसंहार का कथन है ।

जो सकल-विमल केवलज्ञान-दर्शन का लोलुप (सर्वथा निर्मल केवलज्ञान और केवलदर्शन की तीव्र अभिलाषावाला / भावनावाला) परम जिनयोगीश्वर स्वात्माश्रित निश्चय-धर्मध्यान द्वारा और समस्त विकल्पजाल रहित निश्चय-शुक्लध्यान द्वारा स्वात्मनिष्ठ (निज आत्मा में लीन ऐसी) निर्विकल्प परम समाधिरूप सम्पत्ति के कारणभूत ऐसे उन धर्म-शुक्ल ध्यानों द्वारा, अखण्ड-अद्वैत सहज-चिद्विलासलक्षण (अखण्ड अद्वैत स्वाभाविक चैतन्यविलास जिसका लक्षण है ऐसे), अक्षय आनन्दसागर में मग्न होनेवाले (डूबनेवाले), सकल बाह्यक्रिया से पराङ्मुख, शाश्वतरूप से (सदा) अन्तःक्रिया के अधिकरणभूत, सदाशिवस्वरूप आत्मा को निरन्तर ध्याता है, उसे वास्तव में जिनेश्वर के शासन से निष्पन्न हुआ, नित्यशुद्ध, त्रिगुप्ति द्वारा गुप्त ऐसी परम समाधि जिसका लक्षण है ऐसा, शाश्वत सामायिक-व्रत है ।

(कलश--हरिगीत)
इस अनघ आनन्दमय निजतत्त्व के अभ्यास से ।
है बुद्धि निर्मल हुई जिनकी धर्म शुक्लध्यान से ॥
मन वचन मग से दूर हैं जो वे सुखी शुद्धातमा ।
उन रतनत्रय के साधकों को प्राप्त हो निज आतमा ॥२१९॥

इस अनघ (निर्दोष) परमानन्दमय तत्त्व के आश्रित धर्मध्यान में और शुक्लध्यान में जिसकी बुद्धि परिणमित हुई है ऐसा शुद्ध रत्नत्रयात्मक जीव ऐसे किसी विशाल तत्त्व को अत्यन्त प्राप्त करता है कि जिसमें से (जिस तत्त्व में से) महा दुःख-समूह नष्ट हुआ है और जो (तत्त्व) भेदों के अभाव के कारण जीवों को वचन तथा मन के मार्ग से दूर है ।

इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इंद्रियों के फैलाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रंथ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव विरचित तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका में) परम-समाधि अधिकार नामका नववाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।

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परम-भक्ति



+ रत्नत्रय का स्वरूप -
सम्मत्तणाणचरणे जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो ।
तस्स दु णिव्वुदिभत्ती होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं ॥134॥
सम्यक्त्वज्ञानचरणेषु यो भक्तिं करोति श्रावकः श्रमणः ।
तस्य तु निर्वृतिभक्ति र्भवतीति जिनैः प्रज्ञप्तम् ॥१३४॥
सम्यक्त्व-ज्ञान-चारित्रकी श्रावक श्रमण भक्ति करे ।
उसको कहें निर्वाण-भक्ति परम जिनवर देव रे ॥१३४॥
अन्वयार्थ : [यः श्रावकः श्रमणः] जो श्रावक अथवा श्रमण [सम्यक्त्वज्ञानचरणेषु] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की [भक्तिं] भक्ति [करोति] करता है, [तस्य तु] उसे [निर्वृत्तिभक्तिः भवति] निर्वृत्ति-भक्ति (निर्वाण की भक्ति) है [इति] ऐसा [जिनैः प्रज्ञप्तम्] जिनों ने कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
अब भक्ति अधिकार कहा जाता है ।

यह, रत्नत्रय के स्वरूप का कथन है ।

चतुर्गति संसार में परिभ्रमण के कारणभूत तीव्र मिथ्यात्वकर्म की प्रकृति से प्रतिपक्ष (विरुद्ध) निज परमात्म-तत्त्व के सम्यक् श्रद्धान - अवबोध - आचरण स्वरूप शुद्धरत्नत्रय -परिणामों का जो भजन वह भक्ति है; आराधना ऐसा उसका अर्थ है । एकादशपदी (ग्यारह प्रतिमा) श्रावकों में जघन्य छह हैं, मध्यम तीन हैं तथा उत्तम दो हैं । यह सब शुद्ध रत्नत्रय की भक्ति करते हैं । तथा भवभय भीरु, परम नैष्कर्म्य वृत्ति वाले (परम निष्कर्म परिणति वाले) परम तपोधन भी (शुद्ध) रत्नत्रय की भक्ति करते हैं । उन परम श्रावकों तथा परम तपोधनों को जिनवरों की कही हुई निर्वाण-भक्ति / अपुनर्भवरूपी स्त्री की सेवा वर्तती है ।

(कलश--हरिगीत)
संसारभयहर ज्ञानदर्शनचरण की जो संयमी ।
श्रावक करें भव अंतकारक अतुल भक्ती निरंतर ॥
वे काम क्रोधादिक अखिल अघ मुक्त मानस भक्तगण ।
ही लोक में जिनभक्त सहृदय और सच्चे भक्त हैं ॥२२०॥

जो जीव भवभय के हरनेवाले इस सम्यक्त्व की, शुद्ध ज्ञान की और चारित्र की भवछेदक अतुल भक्ति निरन्तर करता है, वह कामक्रोधादि समस्त दुष्ट पाप-समूह से मुक्त चित्तवाला जीव, श्रावक हो अथवा संयमी हो, निरन्तर भक्त है, भक्त है ।

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+ सिद्ध-भक्ति का स्वरूप -
मोक्खंगयपुरिसाणं गुणभेदं जाणिऊण तेसिं पि ।
जो कुणदि परमभत्तिं ववहारणयेण परिकहियं ॥135॥
मोक्षगतपुरुषाणां गुणभेदं ज्ञात्वा तेषामपि ।
यः करोति परमभक्तिं व्यवहारनयेन परिकथितम् ॥१३५॥
जो मुक्तिगत हैं उन पुरुष की भक्ति जो गुणभेद से ।
करता, वही व्यवहार से निर्वाणभक्ति वेद रे ॥१३५॥
अन्वयार्थ : [यः] जो जीव [मोक्षगतपुरुषाणाम्] मोक्षगत पुरुषों का [गुणभेदं] गुणभेद [ज्ञात्वा] जानकर [तेषाम् अपि] उनकी भी [परमभक्तिं] परम भक्ति [करोति] करता है, [व्यवहारनयेन] उस जीव को व्यवहारनय से [परिकथितम्] निर्वाण-भक्ति कही है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, व्यवहारनय प्रधान सिद्ध-भक्ति के स्वरूप का कथन है ।

जो पुराण पुरुष समस्त कर्म-क्षय के उपाय के हेतुभूत कारण परमात्मा की अभेद-अनुपचार रत्नत्रय परिणति से सम्यक् रूप से आराधना करके सिद्ध हुए उनके केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों के भेद को जानकर निर्वाण की परम्परा हेतुभूत ऐसी परम-भक्ति जो आसन्नभव्य जीव करता है, उस मुमुक्षु को व्यवहारनय से निर्वाण-भक्ति है ।

(कलश--दोहा)
सिद्धवधूधव सिद्धगण नाशक कर्मसमूह ।
मुक्तिनिलयवासी गुणी वंदन करूँ सदीव ॥२२१॥

जिन्होंने कर्म-समूह को खिरा दिया है, जो सिद्धि-वधू के (मुक्ति रूपी स्त्री के) पति हैं, जिन्होंने अष्ट गुणरूप ऐश्वर्य को संप्राप्त किया है तथा जो कल्याण के धाम हैं, उन सिद्धों को मैं नित्य वंदन करता हूँ ।

(कलश--दोहा)
सिद्धभक्ति व्यवहार है जिनमत के अनुसार ।
नियतभक्ति है रतनत्रय भविजन तारणहार ॥२२२॥

इसप्रकार (सिद्ध भगवन्तों की भक्ति को) व्यवहारनय से निर्वाण भक्ति जिनवरों ने कहा है; निश्चय-निर्वाणभक्ति रत्नत्रय-भक्ति को कहा है ।

(कलश--दोहा)
सब दोषों से दूर जो शुद्धगुणों का धाम ।
आत्मध्यानफल सिद्धपद सूरि कहें सुखधाम ॥२२३॥

आचार्यों ने सिद्धत्व को निःशेष (समस्त) दोष से दूर,केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का धाम और शुद्धोपयोग का फल कहा है ।

(कलश--हरिगीत)
शिववधूसुखखान केवलसंपदा सम्पन्न जो ।
पापाटवी पावक गुणों की खान हैं जो सिद्धगण ॥
भवक्लेश सागर पार अर लोकाग्रवासी सभी को ।
वंदन करूँ मैं नित्य पाऊँ परमपावन आचरण ॥२२४॥

जो लोकाग्रमें वास करते हैं, जो भवभव के क्लेशरूपी समुद्र के पार को प्राप्त हुए हैं, जो निर्वाण वधू के पुष्ट स्तन के आलिंगन से उत्पन्न सौख्य की खान हैं तथा जो शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न कैवल्य सम्पदा के (मोक्ष-सम्पदा के) महा गुणोंवाले हैं, उन पापाटवी-पावक (पापरूपी वन को जलाने में अग्नि समान) सिद्धों को मैं प्रतिदिन नमन करता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
ज्ञेयोदधि के पार को जो प्राप्त हैं वे सुख उदधि ।
शिववधूमुखकमलरवि स्वाधीनसुख के जलनिधि ॥
आठ कर्मों के विनाशक आठगुणमय गुणगुरु ।
लोकाग्रवासी सिद्धगण की शरण में मैं नित रहूँ ॥२२५॥

जो तीन लोक के अग्रभाग में निवास करते हैं, जो गुण में बड़े हैं, जो ज्ञेयरूपी महासागर के पार को प्राप्त हुए हैं, जो मुक्ति-लक्ष्मी रूपी स्त्री के मुख-कमल के सूर्य हैं, जो स्वाधीन सुख के सागर हैं, जिन्होंने अष्ट गुणों को सिद्ध (प्राप्त) किया है, जो भव का नाश करनेवाले हैं तथा जिन्होंने आठ कर्मों के समूह को नष्ट किया है, उन पापाटवीपावक (पापरूपी अटवी को जलाने में अग्नि समान) नित्य (अविनाशी) सिद्ध भगवन्तों की मैं निरन्तर शरण ग्रहण करता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
सुसिद्धिरूपी रम्यरमणी के मधुर रमणीय मुख ।
कमल के मकरंद के अलि वे सभी जो सिद्धगण ॥
नरसुरगणों की भक्ति के जो योग्य शिवमय श्रेष्ठ हैं ।
मैं उन सभी को परमभक्ति भाव से करता नमन ॥२२६॥

जो मनुष्यों के तथा देवों के समूह की परोक्ष भक्ति के योग्य हैं,जो सदा शिवमय हैं, जो श्रेष्ठ हैं तथा जो प्रसिद्ध हैं, वे सिद्ध भगवन्त सुसिद्धिरूपी रमणी के रमणीय मुख-कमल के महा *मकरन्द के भ्रमर हैं (अनुपम मुक्ति-सुख का निरन्तर अनुभव करते हैं)

*मकरन्द = फूल का पराग, फूल का रस, फूल का केसर ।

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+ निज-परमात्मा की भक्ति -
मोक्खपहे अप्पाणं ठविऊण य कुणदि णिव्वुदी भत्ती ।
तेण दु जीवो पावइ असहायगुणं णियप्पाणं ॥136॥
मोक्षपथे आत्मानं संस्थाप्य च करोति निर्वृतेर्भक्तिम् ।
तेन तु जीवः प्राप्नोत्यसहायगुणं निजात्मान ॥१३६॥
रे ! जोड़ निज को मुक्तिपथ में भक्ति निर्वृति की करे ।
अतएव वह असहाय-गुण-सम्पन्न निज आत्मा वरे ॥१३६॥
अन्वयार्थ : [मोक्षपथे] मोक्षमार्ग में [आत्मानं] (अपने)आत्मा को [संस्थाप्य च] सम्यक् प्रकार से स्थापित करके [निर्वृत्तेः] निर्वृत्ति की (निर्वाण की) [भक्तिम्] भक्ति [करोति] करता है, [तेन तु] उससे [जीवः] जीव [असहायगुणं] असहाय गुणवाले [निजात्मानम्] निज-आत्मा को [प्राप्नोति] प्राप्त करता है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, निज-परमात्मा की भक्ति के स्वरूप का कथन है ।

निरंजन निज-परमात्मा का आनन्दामृत पान करने में अभिमुख जीव भेद-कल्पना-निरपेक्ष निरुपचार-रत्नत्रयात्मक निरुपराग मोक्षमार्ग में अपने आत्मा को सम्यक् प्रकार से स्थापित करके निर्वृति के (मुक्तिरूपी स्त्री के) चरण-कमल की परम-भक्ति करता है, उस कारण से वह भव्य-जीव भक्तिगुण द्वारा निज-आत्मा को, कि जो निरावरण सहज ज्ञानगुणवाला होने से असहायगुणात्मक है, उसे प्राप्त करता है ।

(कलश--हरिगीत)
शिवहेतु निरुपम सहज दर्शन ज्ञान सम्यक् शीलमय ।
अविचल त्रिकाली आत्मा में आत्मा को थाप कर ॥
चिच्चमत्कारी भक्ति द्वारा आपदाओं से रहित ।
घर में बसें आनंद से शिव रमापति चिरकाल तक ॥२२७॥

इस अविचलित - महाशुद्ध - रत्नत्रयवाले, मुक्ति के हेतुभूत निरुपम - सहज - ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप, नित्य आत्मा में आत्मा को वास्तव में सम्यक् प्रकार से स्थापित करके, यह आत्मा चैतन्य चमत्कार की भक्ति द्वारा निरतिशय घर को, कि जिसमें से विपदाएँ दूर हुई हैं तथा जो आनन्द से भव्य (शोभायमान) है, उसे अत्यन्त प्राप्त करता है (सिद्धिरूपी स्त्री का स्वामी होता है)

निरुपराग = उपराग रहित; निर्विकार; निर्मल; शुद्ध ।
असहायगुणवाला = जिसे किसी की सहायता नहीं है ऐसे गुणवाला । (आत्मा स्वतःसिद्ध सहज स्वतंत्र गुणवाला होने से असहायगुणवाला है ।)
निरतिशय = जिससे कोई बढ़कर नहीं है ऐसे; अनुत्तम; श्रेष्ठ; अद्वितीय ।

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+ निश्चय-योग-भक्ति -
रायादीपरिहारे अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू ।
सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य किह हवे जोगो ॥137॥
रागादिपरिहारे आत्मानं यस्तु युनक्ति साधुः ।
स योगभक्ति युक्त : इतरस्य च कथं भवेद्योगः ॥१३७॥
रागादि के परिहार में जो साधु जोड़े आतमा ।
है योग की भक्ति उसे; नहि अन्य को सम्भावना ॥१३७॥
अन्वयार्थ : [यः साधु तु] जो साधु [रागादिपरिहारे आत्मानंयुनक्ति] रागादि के परिहार में आत्मा को लगाता है (आत्मा में आत्मा को लगाकर रागादि का त्याग करता है), [सः] वह [योगभक्तियुक्तः] योग-भक्तियुक्त (योग की भक्तिवाला) है; [इतरस्य च] दूसरे को [योगः] योग [कथम्] किसप्रकार [भवेत्] हो सकता है ?

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, निश्चय-योग-भक्ति के स्वरूप का कथन है ।

निरवशेषरूप से अन्तर्मुखाकार (सर्वथा अंतर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसी) परमसमाधि द्वारा समस्त मोह-राग-द्वेषादि परभावों का परिहार होने पर, जो साधु (आसन्नभव्य जीव) निज अखण्ड अद्वैत परमानन्द स्वरूप के साथ निज कारण-परमात्मा को जोड़ता है, वह परम तपोधन ही शुद्धनिश्चय - उपयोग भक्ति वाला है; दूसरे को, बाह्य प्रपंच में सुखी हो उसे, योग-भक्ति किसप्रकार हो सकती है ?

इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--दोहा)
निज आतम के यत्न से मनगति का संयोग ।
निज आतम में होय जो वही कहावे योग ॥५१॥

आत्म प्रयत्न सापेक्ष विशिष्ट जो मनोगति उसका ब्रह्म में संयोग होना (आत्मप्रयत्न की अपेक्षावाली विशेष प्रकार की चित्त-परिणति का आत्मा में लगना) उसे योग कहा जाता है ।

और

(कलश--दोहा)
निज आतम में आतमा को जोड़े जो योगि ।
योग भक्ति वाला वही मुनिवर निश्चय योगि ॥२२८॥

जो यह आत्मा आत्मा को आत्मा के साथ निरन्तर जोड़ता है, वह मुनीश्वर निश्चय से योग-भक्तिवाला है ।

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+ निश्चय - योग भक्ति का स्वरूप -
सव्ववियप्पाभावे अप्पाणं जो दु जुंजदे साहू ।
सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य किह हवे जोगो ॥138॥
सर्वविकल्पाभावे आत्मानं यस्तु युनक्ति साधुः ।
स योगभक्ति युक्त : इतरस्य च कथं भवेद्योगः ॥१३८॥
सब ही विकल्प अभाव में जो साधु जोड़े आतमा ।
है योग की भक्ति उसे; नहिं अन्य को सम्भावना ॥१३८॥
अन्वयार्थ : [यः साधु तु] जो साधु [सर्वविकल्पाभावेआत्मानं युनक्ति] सर्व विकल्पों के अभाव में आत्मा को लगाता है (आत्मा में आत्मा को जोड़कर सर्व विकल्पों का अभाव करता है), [सः] वह [योगभक्तियुक्तः] योग-भक्तिवाला है; [इतरस्य च] दूसरे को [योगः] योग [कथम्] किसप्रकार [भवेत्] हो सकता है ?

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ भी पूर्व-सूत्र की भाँति निश्चय - योग भक्ति का स्वरूप कहा है ।

अति – अपूर्व निरुपराग रत्नत्रयात्मक, निजचिद्विलास लक्षण निर्विकल्प परम-समाधि द्वारा समस्त मोह-राग-द्वेषादि विविध विकल्पों का अभाव होने पर, परम समरसी भाव के साथ निरवशेषरूप से अंतर्मुख निज कारण-समयसार-स्वरूप को जो अति-आसन्न-भव्य जीव सदा जोड़ता ही है, उसे वास्तव में निश्चय-योगभक्ति है; दूसरों को नहीं ।

(कलश--दोहा)
आत्मलब्धि रूपा मुकति योगभक्ति से होय ।
योगभक्ति सर्वोत्तमा भेदाभावे होय ॥२२९॥

भेद का अभाव होने पर यह अनुत्तम योगभक्ति होती है; उसके द्वारा योगियों को आत्मलब्धिरूप ऐसी वह (प्रसिद्ध) मुक्ति होती है ।

- निरुपराग = निर्विकार; शुद्ध । [परम समाधि अति-अपूर्व शुद्ध रत्नत्रयस्वरूप है । ]
– परम समाधि का लक्षण निज चैतन्य का विलास है ।
– निरवशेष = परिपूर्ण । [कारण-समयसार-स्वरूप परिपूर्ण अन्तर्मुख है । ]
– अनुत्तम = जिससे दूसरा कुछ उत्तम नहीं है ऐसी; सर्वश्रेष्ठ ।

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+ विपरीत अभिनिवेश रहित आत्मभाव ही निश्चय - परमयोग -
विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता जोण्हकहियतच्चेसु ।
जो जुंजदि अप्पाणं णियभावो सो हवे जोगो ॥139॥
विपरीताभिनिवेशं परित्यज्य जैनकथिततत्त्वेषु ।
यो युनक्ति आत्मानं निजभावः स भवेद्योगः ॥१३९॥
विपरीत आग्रह छोड़कर, श्री जिन कथित जो तत्त्व हैं ।
जोड़े वहाँ निज आतमा, निजभाव उसका योग है ॥१३९॥
अन्वयार्थ : [विपरीताभिनिवेशं] मिथ्यात्व का [परित्यज्य] परित्याग करके [यः] जो [जैनकथिततत्त्वेषु] जैनकथित तत्त्वों में [आत्मानं] आत्मा को [युनक्ति] लगाता है, [निजभावः] उसका निज भाव [सः योगः भवेत्] वह योग है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ, समस्त गुणों के धारण करनेवाले गणधरदेव आदि जिनमुनिनाथों द्वारा कहे हुए तत्त्वों में विपरीत अभिनिवेश रहित आत्मभाव ही निश्चय - परमयोग है, ऐसा कहा है ।

अन्य समय के तीर्थनाथ द्वारा कहे हुए (जैन दर्शनके अतिरिक्त अन्य दर्शन के तीर्थप्रवर्तक द्वारा कहे हुए) विपरीत पदार्थ में अभिनिवेश (दुराग्रह) ही विपरीत अभिनिवेश है । उसका परित्याग करके जैनों द्वारा कहे हुए तत्त्व निश्चय-व्यवहारनय से जानने योग्य हैं, सकलजिन ऐसे भगवान तीर्थाधिनाथ के चरणकमल के उपजीवक वे जैन हैं; परमार्थ से गणधरदेव आदि ऐसा उसका अर्थ है । उन्होंने (गणधरदेव आदि जैनों ने) कहे हुए जो समस्त जीवादि तत्त्व उनमें जो परम जिनयोगीश्वर निज आत्मा को लगाता है, उसका निजभाव ही परम योग है ।

(कलश--दोहा)
छोड़ दुराग्रह जैन मुनि मुख से निकले तत्त्व ।
में जोड़े निजभाव तो वही भाव है योग ॥२३०॥

इस दुराग्रह को (उपरोक्त विपरीत अभिनिवेश को) छोड़कर,जैन मुनिनाथों के (गणधरदेवादिक जैन मुनिनाथों के) मुखारविन्द से प्रगट हुए, भव्य जनों के भवों का नाश करनेवाले तत्त्वों में जो जिनयोगीनाथ (जैन मुनिवर) निज भाव को साक्षात् लगाता है, उसका वह निज भाव सो योग है ।

- देह सहित होने पर भी तीर्थंकरदेव ने रागद्वेष और अज्ञान को सम्पूर्णरूप से जीता है इसलिये वे सकलजिन हैं ।
- उपजीवक = सेवा करनेवाले; सेवक; आश्रित; दास ।

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+ भक्ति अधिकार का उपसंहार -
उसहादिजिणवरिंदा एवं काऊण जोगवरभत्तिं ।
णिव्वुदिसुहमावण्णा तम्हा धरु जोगवरभत्तिं ॥140॥
वृषभादिजिनवरेन्द्रा एवं कृत्वा योगवरभक्तिम् ।
निर्वृतिसुखमापन्नास्तस्माद्धारय योगवरभक्तिम् ॥१४०॥
वृषभादि जिनवर भक्ति उत्तम इस तरह कर योग की ।
निर्वृति सुख पाया; अतः कर भक्ति उत्तम योग की ॥१४०॥
अन्वयार्थ : [वृषभादिजिनवरेन्द्राः] वृषभादि जिनवरेन्द्र [एवम्] इसप्रकार [योगवरभक्तिम्] योग की उत्तम भक्ति [कृत्वा] करके [निर्वृतिसुखम्] निर्वृति-सुख को [आपन्नाः] प्राप्त हुए; [तस्मात्] इसलिये [योगवरभक्तिम्] योग की उत्तम भक्ति को [धारय] तू धारण कर ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, भक्ति अधिकार के उपसंहार का कथन है ।

इस भारतवर्ष में पहले श्री नाभिपुत्र से लेकर श्री वर्धमान तक के चौबीस तीर्थंकर - परमदेव - सर्वज्ञवीतराग, त्रिलोकवर्ती कीर्तिवाले महादेवाधिदेव परमेश्वर -- सब, यथोक्त प्रकार से निज-आत्मा के साथ सम्बन्ध रखनेवाली शुद्ध-निश्चय योग की उत्तम भक्ति करके, परम निर्वाणवधू के अति पुष्ट स्तन के गाढ़ आलिंगन से सर्व आत्म-प्रदेश में अत्यन्त-आनन्दरूपी परम सुधारस के पूर से परितृप्त हुए; इसलिये स्फुटित भव्यत्वगुण वाले हे महाजनों ! तुम निज-आत्मा को परम वीतराग सुख की देनेवाली ऐसी वह योगभक्ति करो ।

(कलश--वीरछन्द)
शुद्धपरिणति गुणगुरुओं की अद्भुत अनुपम अति निर्मल ।
तीन लोक में फैल रही है जिनकी अनुपम कीर्ति धवल ॥
इन्द्रमुकुटमणियों से पूजित जिनके पावन चरणाम्बुज ।
उन ऋषभादि परम गुरुओं को वंदन बारंबार सहज ॥२३१॥

गुण में जो बड़े हैं, जो त्रिलोक के पुण्य की राशि हैं (जिनमें मानों कि तीन लोक के पुण्य एकत्रित हुए हैं ), देवेन्द्रों के मुकुट की किनारी पर प्रकाशमान माणिक पंक्ति से जो पूजित हैं (जिनके चरणारविन्द में देवेन्द्रों के मुकुट झुकते हैं), (जिनके आगे) शची आदि प्रसिद्ध इन्द्राणियों के साथ में शक्रेन्द्र द्वारा किये जानेवाले नृत्य, गान तथा आनन्द से जो शोभित हैं, और श्री तथा कीर्ति के जो स्वामी हैं, उन श्री नाभिपुत्रादि जिनेश्वरों का मैं स्तवन करता हूँ ।

(कलश--वीरछन्द)
ऋषभदेव से महावीर तक इसी मार्ग से मुक्त हुए ।
इसी विधि से योगभक्ति कर शिवरमणी सुख प्राप्त किये ॥२३२॥

श्री वृषभ से लेकर श्री वीर तक के जिनपति भी यथोक्त मार्ग से (पूर्वोक्त प्रकार से) योगभक्ति करके निर्वाणवधू के सुख को प्राप्त हुए हैं ।

(कलश--दोहा)
मैं भी शिवसुख के लिए योगभक्ति अपनाऊँ ।
भव भय से हे भव्यजन इसको ही अपनाओ ॥२३३॥

अपुनर्भव सुख की (मुक्ति-सुख की) सिद्धि के हेतु मैं शुद्धयोग की उत्तम भक्ति करता हूँ; संसार की घोर भीति से सर्व जीव नित्य वह उत्तम भक्ति करो ।

(कलश--वीरछन्द)
गुरुदेव की सत्संगति से सुखकर निर्मल धर्म अजोड़ ।
पाकर मैं निर्मोह हुआ हूँ राग-द्वेष परिणति को छोड़ ॥
शुद्धध्यान द्वारा मैं निज को ज्ञानानन्द तत्त्व में जोड़ ।
परमब्रह्म निज परमातम में लीन हो रहा हूँ बेजोड़ ॥२३४॥

गुरु के सान्निध्य में निर्मल सुखकारी धर्म को प्राप्त करके, ज्ञानद्वारा जिसने समस्त मोह की महिमा नष्ट की है ऐसा मैं, अब रागद्वेष की परम्परारूप से परिणत चित्त को छोड़कर, शुद्ध ध्यान द्वारा समाहित (एकाग्र, शांत) किये हुए मन से आनन्दात्मक तत्त्व में स्थित रहता हुआ, परब्रह्म में (परमात्मा में) लीन होता हूँ ।

(दोहा)
इन्द्रिय लोलुप जो नहीं तत्त्वलोलुपी चित्त ।
उनको परमानन्दमय प्रगटे उत्तम तत्त्व ॥२३५॥

इन्द्रियलोलुपता जिनको निवृत्त हुई है और तत्त्वलोलुप (तत्त्वप्राप्ति के लिये अति उत्सुक) जिनका चित्त है, उन्हें सुन्दर - आनन्द झरता उत्तम तत्त्व प्रगट होता है ।

(दोहा)
अति अपूर्व आतमजनित सुख का करें प्रयत्न ।
वे यति जीवन्मुक्त हैं अन्य न पावे सत्य ॥२३६॥

अति अपूर्व निजात्मजनित भावना से उत्पन्न होनेवाले सुख के लिये जो यति यत्न करते हैं, वे वास्तव में जीवन्मुक्त होते हैं, दूसरे नहीं ।

(हरिगीत)
अद्वन्द्व में है निष्ट एवं अनघ जो दिव्यातमा ।
मैं एक उसकी भावना संभावना करता सदा ॥
मैं मुक्ति का चाहक तथा हूँ निष्पृही भवसुखों से ।
है क्या प्रयोजन अब मुझे इन परपदार्थ समूह से ॥२३७॥

जो परमात्मतत्त्व (रागद्वेषादि) द्वंद्व में स्थित नहीं है और अनघ (निर्दोष, मल रहित) है, उस केवल एककी मैं पुनः पुनः सम्भावना (सम्यक् भावना) करता हूँ । मुक्ति की स्पृहावाले तथा भवसुख के प्रति निःस्पृह ऐसे मुझे इस लोक में उन अन्य पदार्थ-समूहों से क्या फल है ?

इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के फैलाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका में) परम-भक्ति अधिकार नाम का दसवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।

स्फुटित = प्रकटित; प्रगट हुए; प्रगट ।
श्री = शोभा; सौन्दर्य; भव्यता ।

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निश्चय परमावश्यक



+ निरन्तर स्ववश को निश्चय - आवश्यक - कर्म -
जो ण हवदि अण्णवसो तस्स दु कम्मं भणंति आवासं ।
कम्मविणासणजोगो णिव्वुदिमग्गो त्ति पिज्जुत्तो ॥141॥
यो न भवत्यन्यवशः तस्य तु कर्म भणन्त्यावश्यकम् ।
कर्मविनाशनयोगो निर्वृतिमार्ग इति प्ररूपितः ॥१४१॥
नहिं अन्यवश जो जीव, आवश्यक करम होता उसे ।
यह कर्मनाशक योग ही निर्वाणमार्ग प्रसिद्ध रे ॥१४१॥
अन्वयार्थ : [यः अन्यवशः न भवति] जो अन्यवश नहीं है (जो जीव अन्यके वश नहीं है ) [तस्य तु आवश्यकम् कर्म भणन्ति] उसे आवश्यक कर्म कहते हैं (उस जीवको आवश्यक कर्म है ऐसा परम योगीश्वर कहते हैं )[कर्मविनाशनयोगः] कर्म का विनाश करनेवाला योग (ऐसा जो यह आवश्यककर्म) [निर्वृत्तिमार्गः] वह निर्वाणका मार्ग है [इति प्ररूपितः] ऐसा कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
अब व्यवहार छह आवश्यकों से प्रतिपक्ष शुद्धनिश्चय का (शुद्धनिश्चय-आवश्यक का) अधिकार कहा जाता है ।

यहाँ (इस गाथा में), निरन्तर स्ववश को निश्चय - आवश्यक - कर्म है, ऐसा कहा है ।

विधि अनुसार परमजिनमार्ग के आचरण में कुशल ऐसा जो जीव सदैव अंतर्मुखता के कारण अन्यवश नहीं है परन्तु साक्षात् स्ववश है ऐसा अर्थ है, उस व्यावहारिक क्रियाप्रपंच से पराङ्मुख जीव को स्वात्माश्रित - निश्चय धर्मध्यान प्रधान परम आवश्यक कर्म है ऐसा निरन्तर परम तपश्चरण में लीन परम जिनयोगीश्वर कहते हैं । और, सकल कर्म के विनाश का हेतु ऐसा जो त्रिगुप्तिगुप्त - परम समाधि लक्षण परम योग वही साक्षात् मोक्ष का कारण होने से निर्वाण का मार्ग है । ऐसी निरुक्ति (व्युत्पत्ति) है । इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री प्रवचनसार की तत्त्वदीपिका नामक टीका में पाँचवें श्लोक द्वारा) कहा है कि :

(कलश--मनहरण)
विलीन मोह-राग-द्वेष मेघ चहुं ओर के,
चेतना के गुणगण कहाँ तक बखानिये ।
अविचल जोत निष्कंप रत्नदीप सम,
विलसत सहजानन्द मय जानिये ॥
नित्य आनंद के प्रशमरस में मगन,
शुद्ध उपयोग का महत्त्व पहिचानिये ।
नित्य ज्ञानतत्त्व में विलीन यह आतमा,
स्वयं धर्मरूप परिणत पहिचानिये ॥५२॥

इसप्रकार शुद्धोपयोग को प्राप्त करके आत्मा स्वयं धर्म होता हुआ (स्वयं धर्मरूप से परिणमित होता हुआ) नित्य आनन्द के फैलाव से सरस (जो शाश्वत आनन्द के फैलाव से रस-युक्त हैं ) ऐसे ज्ञान-तत्त्व में लीन होकर, अत्यन्त अविचलपने के कारण, देदीप्यमान ज्योतिवाले और सहजरूप से विलसित (स्वभाव से ही प्रकाशित) रत्नदीपक की निष्कंप - प्रकाशवाली शोभा को प्राप्त होता है (रत्नदीपक की भाँति स्वभाव से ही निष्कंपरूप से अत्यन्त प्रकाशित होता रहता है -- जानता रहता है )

और

(कलश--रोला)
जो सत् चित् आनंदमयी निज शुद्धातम में ।
रत होने से अरे स्ववशताजन्य कर्म जो ॥
वह आवश्यक परम करम ही मुक्तिमार्ग है ।
उससे ही मैं निर्विकल्प सुख को पाता हूँ॥२३८॥

स्ववशता से उत्पन्न आवश्यक - कर्मस्वरूप यह साक्षात् धर्म नियम से (अवश्य) सच्चिदानन्दमूर्ति आत्मा में (सत् - चिद् - आनन्दस्वरूप आत्मा में)अतिशयरूप से होता है । ऐसा यह (आत्मस्थित धर्म), कर्मक्षय करने में कुशल ऐसा निर्वाण का एक मार्ग है । उसी से मैं शीघ्र किसी (अद्भुत) निर्विकल्प सुख को प्राप्त करता हूँ ।

– 'अन्यवश नहीं है' इस कथन का 'साक्षात् स्ववश है' ऐसा अर्थ है ।
– निज आत्मा जिसका आश्रय है ऐसा निश्चय धर्मध्यान परम आवश्यक कर्म में प्रधान है ।
– परम योग का लक्षण तीन गुप्ति द्वारा गुप्त (अंतर्मुख) ऐसी परम समाधि है । (परम आवश्यक कर्म ही परम योग है और परम योग वह निर्वाण का मार्ग है ।)

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+ अवश परम जिनयोगीश्वर को परम आवश्यक कर्म अवश्य -
ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोद्धव्वं ।
जुत्ति त्ति उवाअं ति य णिरवयवो होदि णिज्जुत्ती ॥142॥
न वशो अवशः अवशस्य कर्म वाऽवश्यकमिति बोद्धव्यम् ।
युक्ति रिति उपाय इति च निरवयवो भवति निरुक्ति : ॥१४२॥
जो वश नहीं वह 'अवश', आवश्यक अवश का कर्म है ।
वह युक्ति या उपाय है, निरवयव कर्ता धर्म है ॥१४२॥
अन्वयार्थ : [न वशः अवशः] जो (अन्य के) वश नहीं है वह 'अवश' है [वा] और [अवशस्य कर्म] अवश का कर्म वह [आवश्यकम्] 'आवश्यक' है [इति बोद्धव्यम्] ऐसा जानना; [युक्तिः इति] वह (अशरीरी होनेकी) युक्ति है, [उपायः इति च] वह (अशरीर होनेका) उपाय है, [निरवयवः भवति] उससे जीव निरवयव (अर्थात् अशरीर) होता है । [निरुक्तिः] ऐसी निरुक्ति है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ, अवश परम जिनयोगीश्वर को परम आवश्यक कर्म अवश्य है, ऐसा कहा है ।

जो योगी निज आत्मा के परिग्रह के अतिरिक्त अन्य पदार्थों के वश नहीं होता और इसीलिये जिसे 'अवश' कहा जाता है, उस अवश परम जिनयोगीश्वर को निश्चय धर्म-ध्यान स्वरूप परम-आवश्यक - कर्म अवश्य है ऐसा जानना । (वह परम-आवश्यक-कर्म ) निरवयवपने का उपाय है, युक्ति है । अवयव अर्थात् काय; उसका (काय का) अभाव वह अवयव का अभाव (निरवयवपना) । पर-द्रव्यों को अवश जीव निरवयव होता है (जो जीव पर-द्रव्यों को वश नहीं होता वह अकाय होता है) । इसप्रकार निरुक्ति (व्युत्पत्ति) है ।

(कलश--रोला)
निज आतम से भिन्न किसी के वश में न हो ।
स्वहित निरत योगी नित ही स्वाधीन रहे जो ॥
दुरिततिमिरनाशक अमूर्त्त ही वह योगी है ।
यही निरुक्तिक अर्थ सार्थक कहा गया है ॥२३९॥

कोई योगी स्वहित में लीन रहता हुआ शुद्ध जीवास्तिकाय के अतिरिक्त अन्य पदार्थों के वश नहीं होता । इसप्रकार जो सुस्थित रहना सो निरुक्ति (अवशपने का व्युत्पत्ति-अर्थ ) है । ऐसा करने से (अपने में लीन रहकर पर को वश न होने से ) दुरितरूपी तिमिर पुंज का जिसने नाश किया है ऐसे उस योगी को सदा प्रकाशमान ज्योति द्वारा सहज अवस्था प्रगट होने से अमूर्तपना होता है ।


अवश = पर के वश न हों ऐसे; स्ववश; स्वाधीन; स्वतंत्र ।
दुरित = दुष्कृत; दुष्कर्म । (पाप तथा पुण्य दोनों वास्तव में दुरित हैं ।)

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+ भेदोपचार - रत्नत्रय परिणतिवाले जीव को अवशपना नहीं -
वट्टदि जो सो समणो अण्णवसो होदि असुहभावेण ।
तम्हा तस्स दु कम्मं आवस्सयलक्खणं ण हवे ॥143॥
वर्तते यः स श्रमणोऽन्यवशो भवत्यशुभभावेन ।
तस्मात्तस्य तु कर्मावश्यकलक्षणं न भवेत ॥१४३॥
वर्ते अशुभ परिणाममें, वह श्रमण है वश अन्यके ।
अतएव आवश्यकस्वरूप न कर्म होता है उसे ॥१४३॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [अशुभभावेन] अशुभ भाव सहित[वर्तते] वर्तता है, [सः श्रमणः] वह श्रमण [अन्यवशः भवति] अन्यवश है; [तस्मात्] इसलिये [तस्य तु] उसे [आवश्यकलक्षणं कर्म] आवश्यक-स्वरूप कर्म [न भवेत्] नहीं है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ, भेदोपचार - रत्नत्रय परिणतिवाले जीव को अवशपना नहीं है -- ऐसा कहा है ।

जो श्रमणाभास - द्रव्यलिंगी अप्रशस्त रागादिरूप अशुभभाव सहित वर्तता है, वह निज स्वरूप से अन्य (भिन्न) ऐसे परद्रव्यों के वश है; इसलिये उस जघन्य रत्नत्रय परिणतिवाले जीव को स्वात्माश्रित निश्चय - धर्म-ध्यानस्वरूप परम - आवश्यक - कर्म नहीं है । (वह श्रमणाभास ) भोजन हेतु द्रव्यलिंग ग्रहण करके स्वात्म-कार्य से विमुख रहता हुआ परम तपश्चरणादि के प्रति भी उदासीन (लापरवाह) रहकर जिनेन्द्र मन्दिर अथवा उसका क्षेत्र, मकान, धन, धान्यादिक सब हमारा है ऐसी बुद्धि करता है ।

(कलश--ताटंक)
त्रिभुवन घर में तिमिर पुंज सम मुनिजन का यह घन नव मोह ।
यह अनुपम घर मेरा है- यह याद करें निज तृण घर छोड़ ॥२४०॥

त्रिलोकरूपी मकान में रहे हुए (महा) तिमिरपुंज जैसा मुनियों का यह (कोई) नवीन तीव्र मोहनीय है कि (पहले) वे तीव्र वैराग्यभाव से घास के घर को भी छोड़कर (फिर) 'हमारा वह अनुपम घर !' ऐसा स्मरण करते हैं ।

(कलश--ताटंक)
ग्रन्थ रहित निर्ग्रंथ पाप बन दहें पुजें इस भूतल में ।
सत्यधर्म के रक्षामणि मुनि विरहित मिथ्यामल कलि में॥२४१॥

कलिकाल में भी कहीं कोई भाग्यशाली जीव मिथ्यात्वादिरूप मल कीचड़ से रहित और *सद्धर्मरक्षामणि ऐसा समर्थ मुनि होता है । जिसने अनेक परिग्रहों के विस्तार को छोड़ा है और जो पापरूपी अटवी को जलानेवाली अग्नि है ऐसा यह मुनि इस काल भूतल में तथा देवलोक में देवों से भी भलीभाँति पुजाता है ।

(कलश--ताटंक)
मतिमानों को अतिप्रिय एवं शत इन्द्रों से अर्चित तप ।
उसको भी पाकर जो मन्मथ वश है कलि से घायल वह ॥२४२॥

इस लोक में तपश्चर्या समस्त सुबुद्धियों को प्राणप्यारी है; वह योग्य तपश्चर्या सो इन्द्रों को भी सतत वंदनीय है । उसे प्राप्त करके जो कोई जीव कामान्धकार युक्त संसार-जनित सुख में रमता है, वह जड़मति अरे रे ! कलि से हना हुआ है (कलिकाल से घायल हुआ है )

(कलश--ताटंक)
मुनि होकर भी अरे अन्यवश संसारी है, दुखमय है ।
और स्ववशजन सुखी मुक्त रे बस जिनवर से कुछ कम है॥२४३॥

जो जीव अन्यवश है वह भले मुनिवेशधारी हो तथापि संसारी है, नित्य दुःख का भोगनेवाला है; जो जीव स्ववश है वह जीवन्मुक्त है, जिनेश्वर से किंचित् न्यून है (उसमें जिनेश्वरदेव की अपेक्षा थोड़ी-सी कमी है)

(कलश--ताटंक)
अतःएव श्री जिनवर पथ में स्ववश मुनि शोभा पाते ।
और अन्यवश मुनिजन तो बस चमचों सम शोभा पाते॥२४४॥

ऐसा होने से ही जिननाथ के मार्ग में मुनिवर्ग में स्ववश मुनि सदा शोभा देता है; और अन्यवश मुनि नौकर के समूहों में *राजवल्लभ नौकर समान शोभा देता है (जिसप्रकार योग्यता रहित, खुशामदी नौकर शोभा नहीं देता उसीप्रकार अन्यवश मुनि शोभा नहीं देता)

*सद्धर्मरक्षामणि = सद्धर्मकी रक्षा करनेवाला मणि । (रक्षामणि = आपत्तियोंसे अथवा पिशाच आदिसेअपनेको बचानेके लिये पहिना जानेवाला मणि ।)
*राजवल्लभ = जो (खुशामदसे) राजाका मानीता (माना हुआ) बन गया हो ।

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+ अन्यवश ऐसे अशुद्ध अन्तरात्म जीव का लक्षण -
जो चरदि संजदो खलु सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो ।
तम्हा तस्स दु कम्मं आवासयलक्खणं ण हवे ॥144॥
यश्चरति संयतः खलु शुभभावे स भवेदन्यवशः ।
तस्मात्तस्य तु कर्मावश्यकलक्षणं न भवेत ॥१४४॥
संयत चरे शुभभाव में, वह श्रमण है वश अन्य के ।
अतएव आवश्यक-स्वरूप न कर्म होता है उसे ॥१४४॥
अन्वयार्थ : [यः] जो (जीव ) [संयतः] संयत रहता हुआ [खलु] वास्तव में [शुभभावे] शुभ भाव में [चरति] चरता (प्रवर्तता) है, [सः] वह [अन्यवशः भवेत्] अन्यवश है; [तस्मात्] इसलिये [तस्य तु] उसे [आवश्यकलक्षणं कर्म] आवश्यक-स्वरूप कर्म [न भवेत्] नहीं है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ भी (इस गाथा में भी ), अन्यवश ऐसे अशुद्ध अन्तरात्म जीव का लक्षण कहा है ।

जो वास्तव में जिनेन्द्र के मुखारविन्द से निकले हुए परम-आचार शास्त्र के क्रम से (रीति से) सदा संयत रहता हुआ शुभोपयोग में चरता (प्रवर्तता) है; व्यावहारिक धर्म-ध्यान में परिणत रहता है इसीलिये चरण करण प्रधान है; परन्तु वह निरपेक्ष तपोधन साक्षात् मोक्ष के कारणभूत स्वात्माश्रित आवश्यक-कर्म को -- निश्चय से परमात्म तत्त्व में विश्रान्तिरूप निश्चय धर्म-ध्यान को तथा शुक्लध्यान को -- नहीं जानता; इसलिये पर-द्रव्य में परिणत होने से उसे अन्यवश कहा गया है । जिसका चित्त तपश्चरण में लीन है ऐसा यह अन्यवश श्रमण देवलोकादि के क्लेश की परम्परा प्राप्त होने से शुभोपयोग के फल-स्वरूप प्रशस्त रागरूपी अंगारों से सिकता हुआ, आसन्न-भव्यतारूपी गुण का उदय होने पर परमगुरु के प्रसाद से प्राप्त परम-तत्त्व के श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठान स्वरूप शुद्ध-निश्चय-रत्नत्रय परिणति द्वारा निर्वाण को प्राप्त होता है (कभी शुद्ध-निश्चय-रत्नत्रय परिणति को प्राप्त कर ले तो ही और तभी निर्वाण को प्राप्त करता है)

(कलश--ताटंक)
अतः मुनिवरों देवलोक के क्लेशों से रति को छोड़ो ।
सुख-ज्ञान पूर नय-अनय दूर निज आतम में निज को जोड़ो॥२४५॥

मुनिवर देवलोकादि के क्लेश के प्रति रति छोड़ो और निर्वाण के कारण का कारण ऐसे सहज परमात्मा को भजो, कि जो सहज परमात्मा परमानन्दमय है, सर्वथा निर्मल ज्ञान का आवास है, निरावरण स्वरूप है तथा नय-अनय के समूह से (सुनयों तथा कुनयों के समूह से ) दूर है ।

चरण करण प्रधान = शुभ आचरण के परिणाम जिसे मुख्य हैं ऐसा ।
निर्वाण का कारण परम शुद्धोपयोग है और परम शुद्धोपयोग का कारण सहज परमात्मा है ।

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+ अन्यवश का स्वरूप -
दव्वगुणपज्जयाणं चित्तं जो कुणइ सो वि अण्णवसो ।
मोहंधयारववगयसमणा कहयंति एरिसयं ॥145॥
द्रव्यगुणपर्यायाणां चित्तं यः करोति सोप्यन्यवशः ।
मोहान्धकारव्यपगतश्रमणाः कथयन्तीद्रशम् ॥१४५॥
जो जोड़ता चित द्रव्य - गुण - पर्याय चिन्तन में अरे !
रे मोह-विरहित - श्रमण कहते अन्य के वश ही उसे ॥१४५॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [द्रव्यगुणपर्यायाणां] द्रव्य-गुण-पर्यायों में (उनके विकल्पों में ) [चित्तं करोति] मन लगाता है, [सः अपि] वह भी [अन्यवशः] अन्यवश है; [मोहान्धकारव्यपगतश्रमणाः] मोहान्धकार रहित श्रमण [ईद्रशम्] ऐसा [कथयन्ति] कहते हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ भी अन्यवश का स्वरूप कहा है ।

भगवान अर्हत् के मुखारविन्द से निकले हुए (कहे गये) मूल और उत्तर पदार्थों का सार्थ (अर्थ सहित) प्रतिपादन करने में समर्थ ऐसा जो कोई द्रव्यलिङ्गधारी (मुनि ) परन्तु त्रिकाल-निरावरण, नित्यानन्द जिसका लक्षण है ऐसे निज कारण-समयसार के स्वरूप में लीन सहज ज्ञानादि शुद्ध गुण-पर्यायों के आधारभूत निज आत्मतत्त्व में कभी भी चित्त नहीं लगाता, उस तपोधन को भी उस कारण से ही (पर विकल्पों के वश होने के कारण से ही) अन्यवश कहा गया है । जिन्होंने दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मरूपी तिमिर-समूह का नाश किया है और परमात्मतत्त्व की भावना से उत्पन्न वीतराग सुखामृत के पान में जो उन्मुख (तत्पर ) हैं ऐसे श्रमण वास्तव में महाश्रमण हैं, परम श्रुतकेवली हैं; वे वास्तव में अन्यवश का ऐसा (उपरोक्तानुसार) स्वरूप कहते हैं ।

इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--दोहा)
ब्रह्मनिष्ठ मुनिवरों को दृष्टादृष्ट विरुद्ध ।
आत्मकार्य को छोड़ क्या परचिन्ता से सिद्ध ॥५३॥

आत्मकार्य को छोड़कर द्रष्ट तथा अद्रष्ट से विरुद्ध ऐसी उस चिन्ता से (प्रत्यक्ष तथा परोक्ष से विरुद्ध ऐसे विकल्पों से) ब्रह्मनिष्ठ यतियों को क्या प्रयोजनहै ?

और

(कलश--दोहा)
जबतक ईंधन युक्त है अग्नि बढ़े भरपूर ।
जबतक चिन्ता जीव को तबतक भव का पूर॥२४६॥

जिसप्रकार ईंधनयुक्त अग्नि वृद्धि को प्राप्त होती है (जब तक ईंधन है तब तक अग्नि की वृद्धि होती है), उसीप्रकार जब तक जीवों को चिन्ता (विकल्प) है तब तक संसार है ।

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+ साक्षात् स्ववश परमजिनयोगीश्वर का स्वरूप -
परिचत्ता परभावं अप्पाणं झादि णिम्मलसहावं ।
अप्पवसो सो होदि हु तस्स दु कम्मं भणंति आवासं ॥146॥
परित्यज्य परभावं आत्मानं ध्यायति निर्मलस्वभावम् ।
आत्मवशः स भवति खलु तस्य तु कर्म भणन्त्यावश्यम् ॥१४६॥
जो छोड़कर परभाव ध्यावे शुद्ध निर्मल आत्म रे ।
वह आत्मवश है श्रमण, आवश्यक करम होता उसे ॥१४६॥
अन्वयार्थ : [परभावं परित्यज्य] जो परभाव को परित्याग कर [निर्मलस्वभावम्] निर्मल स्वभाववाले [आत्मानं] आत्मा को [ध्यायति] ध्याता है, [सः खलु] वह वास्तवमें [आत्मवशः भवति] आत्मवश है [तस्य तु] और उसे [आवश्यम् कर्म] आवश्यक कर्म [भणन्ति] (जिन ) कहते हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ वास्तव में साक्षात् स्ववश परमजिनयोगीश्वर का स्वरूप कहा है ।

जो (श्रमण ) निरुपराग निरंजन स्वभाववाला होने के कारण औदयिकादि परभावों के समुदाय को परित्याग कर, निज कारण-परमात्मा को, कि जो (कारण-परमात्मा) उसे, ध्याता है, उसी को (उस श्रमण को ही) आत्मवश कहा गया है । उस अभेद-अनुपचार रत्नत्रयात्मक श्रमण को समस्त बाह्य-क्रियाकांड - आडम्बर के विविध विकल्पों के महा कोलाहल से प्रतिपक्ष महा-आनन्दानन्दप्रद निश्चय-धर्मध्यान तथा निश्चय-शुक्लध्यान स्वरूप परमावश्यक - कर्म है ।

(कलश--ताटंक)
शुद्धबोधमय मुक्ति सुन्दरी को प्रमोद से प्राप्त करें ।
भवकारण का नाश और सब कर्मावलि का हनन करें ॥
वर विवेक से सदा शिवमयी परवशता से मुक्त हुए ।
वे उदारधी संत शिरोमणि स्ववश सदा जयवन्त रहें ॥२४७॥

उदार जिसकी बुद्धि है, भव का कारण जिसने नष्ट किया है, पूर्व कर्मावलि का जिसने हनन कर दिया है और स्पष्ट उत्कट विवेक द्वारा प्रगट-शुद्ध बोधस्वरूप सदाशिवमय सम्पूर्ण मुक्ति को जो प्रमोद से प्राप्त करता है, ऐसा वह स्ववश मुनिश्रेष्ठ जयवन्त है ।

(कलश--दोहा)
काम विनाशक अवंचक पंचाचारी योग्य ।
मुक्तिमार्ग के हेतु हैं गुरु के वचन मनोज्ञ ॥२४८॥

कामदेव का जिन्होंने नाश किया है और (ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप-वीर्यात्मक) पंचाचार से सुशोभित जिनकी आकृति है, ऐसे अवंचक (मायाचार रहित) गुरु का वाक्य मुक्ति सम्पदा का कारण है ।

(कलश--दोहा)
जिन प्रतिपादित मुक्तिमग इसप्रकार से जान ।
मुक्ति संपदा जो लहे उसको सतत् प्रणाम॥२४९॥

निर्वाण का कारण ऐसा जो जिनेन्द्र का मार्ग उसे इसप्रकार जानकर जो निर्वाण सम्पदा को प्राप्त करता है, उसे मैं पुनः पुनः वन्दन करता हूँ ।

(कलश--रोला)
कनक कामिनी की वांछा का नाश किया हो ।
सर्वश्रेष्ठ है सभी योगियों में जो योगी ॥
काम भील के काम तीर से घायल हम सब ।
हे योगी तुम भववन में हो शरण हमारी ॥२५०॥

जिसने सुन्दर स्त्री और सुवर्ण की स्पृहा को नष्ट किया है ऐसे हे योगी समूह में श्रेष्ठ स्ववश योगी ! तू हमारा, कामदेवरूपी भील के तीर से घायल चित्तवाले का, भवरूपी अरण्य में शरण है ।

(कलश--रोला)
अनशनादि तप का फल केवल तन का शोषण ।
अन्य न कोई कार्य सिद्ध होता है उससे ॥
हे स्ववश योगि ! तेरे चरणों के नित चिन्तन से ।
शान्ति पा रहा सफल हो रहा मेरा जीवन ॥२५१॥

अनशनादि तपश्चरणों का फल शरीर का शोषण (सूखना) ही है, दूसरा नहीं । (परन्तु) हे स्ववश ! (हे आत्मवश मुनि !) तेरे चरण-कमल-युगल के चिंतन से मेरा जन्म सदा सफल है ।

(कलश--रोला)
समता रस से पूर्ण भरा होने से पावन ।
निजरस के विस्तार पूर से सब अघ धोये ॥
स्ववश हृदय में संस्थित जो पुराण पावन है ।
शुद्धसिद्ध वह तेजराशि जयवंत जीव है ॥२५२॥

जिसने निज-रस के विस्ताररूपी पूर द्वारा पापों को सर्व ओर से धो डाला है, जो सहज समतारस से पूर्ण भरा होने से पवित्र है, जो पुराण (सनातन) है, जो स्ववश मन में सदा सुस्थित है (जो सदा मन को - भाव को स्ववश करके विराजमान है) और जो शुद्ध सिद्ध है (जो शुद्ध सिद्धभगवान समान है), ऐसा सहज तेजराशि में मग्न जीव जयवन्त है ।

(कलश--दोहा)
वीतराग सर्वज्ञ अर आत्मवशी गुरुदेव ।
इनमें कुछ अन्तर नहीं हम जड़ माने भेद ॥२५३॥

सर्वज्ञ - वीतराग में और इस स्ववश योगी में कभी कुछ भी भेद नहीं है; तथापि अरे रे ! हम जड़ हैं कि उनमें भेद मानते हैं ।

(कलश--दोहा)
स्ववश महामुनि अनन्यधी और न कोई अन्य ।
सरव करम से बाह्य जो एकमात्र वे धन्य ॥२५४॥

इस जन्म में स्ववश महामुनि एक ही सदा धन्य है कि जो अनन्य बुद्धिवाला रहता हुआ (निजात्मा के अतिरिक्त अन्य के प्रति लीन न होता हुआ) सर्वकर्मों से बाहर रहता है ।

दुरघ = दुष्ट अघ; दुष्ट पाप । (अशुभ तथा शुभ कर्म दोनों दुरघ हैं ।)
परम आवश्यक कर्म निश्चय धर्मध्यान तथा निश्चय शुक्ल-ध्यान स्वरूप है -- कि जो ध्यान महा आनन्द के देनेवाले हैं । यह महा आनन्द विकल्पों के महा कोलाहल से विरुद्ध है ।

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+ शुद्धनिश्चय - आवश्यक की प्राप्ति का जो उपाय -
आवासं जइ इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिरभावं ।
तेण दु सामण्णगुणं संपुण्णं होदि जीवस्स ॥147॥
आवश्यकं यदीच्छसि आत्मस्वभावेषु करोषि स्थिरभावम् ।
तेन तु सामायिकगुणं सम्पूर्णं भवति जीवस्य ॥१४७॥
आवश्यका कांक्षी हुआ तू स्थैर्य स्वात्मामें करे ।
होता इसीसे जीव सामायिक सुगुण सम्पूर्ण रे ॥१४७॥
अन्वयार्थ : [यदि] यदि तू [आवश्यकम् इच्छसि] आवश्यक को चाहता है तो तू [आत्मस्वभावेषु] आत्मस्वभावों में [स्थिरभावम्] स्थिरभाव [करोषि] करता है; [तेन तु] उससे [जीवस्य] जीव को [सामायिकगुणं] सामायिकगुण [सम्पूर्णं भवति] सम्पूर्ण होता है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, शुद्धनिश्चय - आवश्यक की प्राप्ति का जो उपाय उसके स्वरूप का कथन है ।

बाह्य षट्-आवश्यक प्रपंचरूपी नदी के कोलाहल के श्रवण से (व्यवहार छह-आवश्यक के विस्ताररूपी नदी की कलकलाहट के श्रवण से) पराङ्मुख हे शिष्य ! शुद्धनिश्चय - धर्मध्यान तथा शुद्धनिश्चय - शुक्लध्यान स्वरूप स्वात्माश्रित आवश्यक को, कि जो संसाररूपी लता के मूल को छेदने का कुठार है उसे, यदि तू चाहता है, तो तू समस्त विकल्पजाल रहित निरंजन निज-परमात्मा के भावों में -- सहज ज्ञान, सहज दर्शन, सहज चारित्र और सहज सुख आदि में -- सतत-निश्चल स्थिरभाव करता है; उस हेतु से (उस कारण द्वारा) निश्चय सामायिक गुण उत्पन्न होने पर, मुमुक्षु जीव को बाह्य छह आवश्यक क्रियाओं से क्या उत्पन्न हुआ ? अनुपादेय फल उत्पन्न हुआ ऐसा अर्थ है । इसलिये अपुनर्भवरूपी (मुक्तिरूपी) स्त्री के संभोग और हास्य प्राप्त करने में प्रवीण ऐसे निष्क्रिय परम-आवश्यक से जीव को सामायिक चारित्र सम्पूर्ण होता है । इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री योगीन्द्रदेव ने (अमृताशीति में ६४वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--सोरठा)
प्रगटें दोष अनंत, यदि मन भटके आत्म से ।
यदि चाहो भव अंत, मगन रहो निज में सदा ॥५४॥

यदि किसी प्रकार मन निज स्वरूप से चलित हो और उससे बाहर भटके तो तुझे सर्व दोष का प्रसंग आता है, इसलिये तू सतत अंतर्मग्न और संविग्न चित्तवाला हो कि जिससे तू मोक्षरूपी स्थायी धाम का अधिपति बनेगा ।

और

(कलश--रोला)
अतिशय कारण मुक्ति सुन्दरी के सम सुख का ।
निज आतम में नियत चरण भवदुख का नाशक ॥
जो मुनिवर यह जान अनघ निज समयसार को ।
जाने वे मुनिनाथ पाप अटवी को पावक ॥२५५॥

यदि इसप्रकार (जीव को) संसार दुःखनाशक निजात्मनियत चारित्र हो, तो वह चारित्र मुक्तिश्री रूपी (मुक्ति लक्ष्मीरूपी) सुन्दरी से उत्पन्न होनेवाले सुख का अतिशयरूप से कारण होता है; ऐसा जानकर जो निर्दोष समय के सार को सर्वदा जानता है, ऐसा वह मुनिपति, कि जिसने बाह्य क्रिया छोड़ दी है वह, पापरूपी अटवी को जलानेवाली अग्नि है ।

अनुपादेय = हेय; पसन्द न करने योग्य; प्रशंसा न करने योग्य ।
२संविग्न = संवेगी; वैरागी; विरक्त ।
३निजात्मनियत = निज आत्मामें लगा हुआ; निज आत्माका अवलम्बन लेता हुआ; निजात्माश्रित; निजआत्मामें एकाग्र ।

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+ शुद्धोपयोग सम्मुख जीव को शिक्षा -
आवासएण हीणो पब्भट्ठो होदि चरणदो समणो ।
पुव्वुत्तकमेण पुणो तम्हा आवासयं कुज्जा ॥148॥
आवश्यकेन हीनः प्रभ्रष्टो भवति चरणतः श्रमणः ।
पूर्वोक्त क्रमेण पुनः तस्मादावश्यकं कुर्यात् ॥१४८॥
रे श्रमण आवश्यक - रहित चारित्र से प्रभ्रष्ट है ।
अतएव आवश्यक करम पूर्वोक्त विधि से इष्ट है ॥१४८॥
अन्वयार्थ : [आवश्यकेन हीनः] आवश्यक रहित [श्रमणः] श्रमण [चरणतः] चरण से [प्रभ्रष्टः भवति] प्रभ्रष्ट (अति भ्रष्ट) है; [तस्मात् पुनः] और इसलिये [पूर्वोक्तक्रमेण] पूर्वोक्त क्रम से (पहले कही हुई विधि से) [आवश्यकं कुर्यात्] आवश्यक करना चाहिये ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में) शुद्धोपयोग सम्मुख जीव को शिक्षा कही है ।

यहाँ (इस लोक में) व्यवहारनय से भी, समता, स्तुति, वन्दना, प्रत्याख्यान आदि छहआवश्यक से रहित श्रमण चारित्र परिभ्रष्ट (चारित्र से सर्वथा भ्रष्ट) है; शुद्धनिश्चय से, परम-अध्यात्मभाषा से जिसे निर्विकल्प - समाधिस्वरूप कहा जाता है ऐसी परम आवश्यक क्रिया से रहित श्रमण निश्चय चारित्रभ्रष्ट है; ऐसा अर्थ है । (इसलिये) स्ववश परमजिनयोगीश्वर के निश्चय - आवश्यक का जो क्रम पहले कहा गया है उस क्रम से (उस विधि से), स्वात्माश्रित ऐसे निश्चय - धर्मध्यान तथा निश्चय - शुक्लध्यान स्वरूप से, परम मुनि सदा आवश्यक करो ।

(कलश--दोहा)
आवश्यक प्रतिदिन करो अघ नाशक शिव मूल ।
वचन अगोचर सुख मिले जीवन में भरपूर ॥२५६॥

आत्मा को अवश्य मात्र सहज - परम - आवश्यक एक को ही, कि जो अघसमूह (शुभ-अशुभ) का नाशक है और मुक्ति का मूल (कारण) है उसी को, अतिशयरूप से करना चाहिये । (ऐसा करने से) सदा निज रस के फैलाव से पूर्ण भरा होने के कारण पवित्र और पुराण (सनातन) ऐसा वह आत्मा वाणी से दूर (वचन - अगोचर) ऐसे किसी सहज शाश्वत सुख को प्राप्त करता है ।

(कलश--दोहा)
निज आतम का चिन्तवन स्ववश साधु के होय ।
इस आवश्यक करम से उनको शिवसुख होय ॥२५७॥

स्ववश मुनीन्द्र को उत्तम स्वात्मचिंतन (निजात्मानुभवन) होता है; और यह (निजात्मानुभवनरूप) आवश्यक कर्म (उसे) मुक्ति-सौख्य का कारण होता है ।

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+ आवश्यक कर्म के अभाव में तपोधन बहिरात्मा -
आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अंतरंगप्पा ।
आवासयपरिहीणो समणो सो होदि बहिरप्पा ॥149॥
आवश्यकेन युक्त : श्रमणः स भवत्यंतरंगात्मा ।
आवश्यकपरिहीणः श्रमणः स भवति बहिरात्मा ॥१४९॥
रे साधु आवश्यकसहित वह अन्तरात्मा जानिये ।
इससे रहित हो साधु जो बहिरातमा पहिचानिये ॥१४९॥
अन्वयार्थ : [आवश्यकेन युक्तः] आवश्यक सहित[श्रमणः] श्रमण [सः] वह [अंतरंगात्मा] अन्तरात्मा [भवति] है; [आवश्यकपरिहीणः] आवश्यक रहित [श्रमणः] श्रमण [सः] वह [बहिरात्मा] बहिरात्मा [भवति] है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ, आवश्यक कर्म के अभाव में तपोधन बहिरात्मा होता है, ऐसा कहा है ।

अभेद - अनुपचार - रत्नत्रयात्मक *स्वात्मानुष्ठान में नियत परमावश्यक - कर्म से निरंतर संयुक्त ऐसा जो 'स्ववश' नाम का परम श्रमण वह सर्वोत्कृष्ट अंतरात्मा है; यह महात्मा सोलह कषायों के अभाव द्वारा क्षीणमोह पदवी को प्राप्त करके स्थित है । असंयत सम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा है । इन दो के मध्य में स्थित सर्व मध्यम अन्तरात्मा हैं । निश्चय और व्यवहार इन दो नयों से प्रणीत जो परम आवश्यक क्रिया उससे जो रहित हो वह बहिरात्मा है ।

श्री मार्गप्रकाश में भी (दो श्लोकों द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--रोला)
परमातम से भिन्न सभी जिय बहिरातम अर ।
अन्तर आतमरूप कहे हैं दो प्रकार के ॥
देह और आतम में धारे अहंबुद्धि जो ।
वे बहिरातम जीव कहे हैं जिन आगम में ॥५५॥

अन्यसमय (परमात्मा के अतिरिक्त जीव) बहिरात्माऔर अन्तरात्मा ऐसे दो प्रकार के हैं; उनमें बहिरात्मा देह-इन्द्रिय आदि में आत्मबुद्धिवाला होता है ।

(कलश--रोला)
अन्तरात्मा उत्तम मध्यम जघन कहे हैं ।
क्षीणमोह जिय उत्तम अन्तर आतम ही है ॥
अविरत सम्यग्दृष्टि जीव सब जघन कहे हैं ।
इन दोनों के बीच सभी मध्यम ही जानो ॥५६॥

अंतरात्मा के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे (तीन) भेद हैं; अविरत सम्यग्दृष्टि वह प्रथम (जघन्य) अंतरात्मा है, क्षीणमोह वह अन्तिम (उत्कृष्ट) अंतरात्मा है और उन दो के मध्य में स्थित वह मध्यम अंतरात्मा है ।

और

(कलश--रोला)
योगी सदा परम आवश्यक कर्म युक्त हो ।
भव सुख दुख अटवी से सदा दूर रहता है ॥
इसीलिए वह आत्मनिष्ठ अन्तर आतम है ।
स्वात्मतत्त्व से भ्रष्ट आतमा बहिरातम है ॥२५८॥

योगी सदा सहज परम आवश्यक कर्म से युक्त रहता हुआ संसार-जनित प्रबल सुख-दुःखरूपी अटवी से दूरवर्ती होता है इसलिये वह योगी अत्यन्त आत्मनिष्ठ अंतरात्मा है; जो स्वात्मा से भ्रष्ट हो वह बहिःतत्त्वनिष्ठ (बाह्य तत्त्व में लीन) बहिरात्मा है ।

*स्वात्मानुष्ठान = निज आत्मा का आचरण । (परम आवश्यक कर्म अभेद-अनुपचार-रत्नत्रय स्वरूप स्वात्माचरण में नियम से विद्यमान है अर्थात् वह स्वात्माचरण ही परम आवश्यक कर्म है ।)

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+ बाह्य तथा अन्तर जल्प का खण्डन -
अंतरबाहिरजप्पे जो वट्टइ सो हवेइ बहिरप्पा ।
जप्पेसु जो ण वट्टइ सो उच्चइ अंतरंगप्पा ॥150॥
अन्तरबाह्यजल्पे यो वर्तते स भवति बहिरात्मा ।
जल्पेषु यो न वर्तते स उच्यतेऽन्तरंगात्मा ॥१५०॥
जो बाह्य अन्तर जल्पमें वर्ते वही बहिरातमा ।
जो जल्पमें वर्ते नहिं वह जीव अन्तरआतमा ॥१५०॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [अन्तरबाह्यजल्पे] अन्तर्बाह्य जल्प में [वर्तते] वर्तता है, [सः] वह [बहिरात्मा] बहिरात्मा [भवति] है; [यः] जो [जल्पेषु] जल्पों में [न वर्तते] नहीं वर्तता, [सः] वह [अन्तरंगात्मा] अन्तरात्मा [उच्यते] कहलाता है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, बाह्य तथा अन्तर जल्प का निरास (निराकरण, खण्डन) है ।

जो जिनलिंगधारी तपोधनाभास पुण्यकर्म की कांक्षा से स्वाध्याय, प्रत्याख्यान, स्तवन आदि बहिर्जल्प करता है और अशन, शयन, गमन, स्थिति आदि में (खाना, सोना, गमन करना, स्थिर रहना इत्यादि कार्यों में) सत्कारादि की प्राप्ति का लोभी वर्तता हुआ अन्तर्जल्प में मन को लगाता है, वह बहिरात्मा जीव है । निज आत्मा के ध्यान में परायण वर्तता हुआ निरवशेषरूप से (सम्पूर्णरूप से) अन्तर्मुख रहकर (परम तपोधन) प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त विकल्पजालों में कभी भी नहीं वर्तता इसीलिये परम तपोधन साक्षात् अन्तरात्मा है ।

इसीप्रकार (आचार्यदेव ) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में ९०वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
उठ रहा जिसमें अनन्ते विकल्पों का जाल है ।
वह वृहद् नयपक्षकक्षा विकट है विकराल है ॥
उल्लंघन कर उसे बुध अनुभूतिमय निजभाव को ।
हो प्राप्त अन्तर्बाह्य से समरसी एक स्वभाव को ॥५७॥

इसप्रकार जिसमें बहु विकल्पों के जाल अपने आप उठते हैं ऐसी विशाल नय-पक्ष-कक्षा को (नयपक्ष की भूमि को) लाँघकर (तत्त्ववेदी) भीतर और बाहर समता-रसरूपी एक रस ही जिसका स्वभाव है, ऐसे अनुभूतिमात्र एक अपने भाव को (स्वरूप को) प्राप्त होता है ।

और

(कलश--हरिगीत)
संसारभयकर बाह्य-अंतरजल्प तज समरसमयी ।
चित्चमत्कारी एक आतम को सदा स्मरण कर ॥
ज्ञानज्योति से अरे निज आतमा प्रगटित किया ।
वह क्षीणमोही जीव देखे परमतत्त्व विशेषत: ॥२५९॥

भवभय के करनेवाले, बाह्य तथा अभ्यन्तर जल्प को छोड़कर, समरसमय (समतारसमय) एक चैतन्य-चमत्कार का सदा स्मरण करके, ज्ञान-ज्योति द्वारा जिसने निज अभ्यन्तर अङ्ग प्रगट किया है ऐसा अन्तरात्मा, मोह क्षीण होने पर, किसी (अद्भुत) परम तत्त्व को अन्तर में देखता है ।

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+ स्वात्माश्रित धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही उपादेय -
जो धम्मसुक्कझाणम्हि परिणदो सो वि अंतरंगप्पा ।
झाणविहीणो समणो बहिरप्पा इदि विजाणीहि ॥151॥
यो धर्मशुक्लध्यानयोः परिणतः सोप्यन्तरंगात्मा ।
ध्यानविहीनः श्रमणो बहिरात्मेति विजानीहि ॥१५१॥
रे धर्म-शुक्ल-सुध्यान-परिणत अन्तरात्मा जानिये ।
अरु ध्यान विरहित श्रमण को बहिरातमा पहिचानिये ॥१५१॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [धर्मशुक्लध्यानयोः] धर्मध्यानऔर शुक्लध्यान में [परिणतः] परिणत है [सः अपि] वह भी [अन्तरंगात्मा] अन्तरात्मा है; [ध्यानविहीनः] ध्यानविहीन [श्रमणः] श्रमण [बहिरात्मा] बहिरात्मा है [इति विजानीहि] ऐसा जान ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में), स्वात्माश्रित निश्चय-धर्मध्यान और निश्चय-शुक्लध्यान यह दो ध्यान ही उपादेय हैं ऐसा कहा है ।

यहाँ (इस लोक में) वास्तव में साक्षात् अन्तरात्मा भगवान क्षीणकषाय हैं । वास्तव में उन भगवान क्षीणकषाय को सोलह कषायों का अभाव होने के कारण दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मरूपी योद्धाओं के दल नष्ट हुए हैं इसलिये वे (भगवान क्षीणकषाय) *सहजचिद्विलासलक्षण अति - अपूर्व आत्मा को शुद्धनिश्चय-धर्मध्यान और शुद्धनिश्चय-शुक्लध्यान इन दो ध्यानों द्वारा नित्य ध्याते हैं । इन दो ध्यानों रहित द्रव्यलिंगधारी द्रव्यश्रमण बहिरात्मा है ऐसा हे शिष्य ! तू जान ।

(कलश--वीरछन्द)
धरम-शुकलध्यान समरस में जो वर्ते वे सन्त महान ।
उनके चरणकमल की शरणा गहें नित्य हम कर सन्मान ॥
धरम-शुकल से रहित तुच्छ मुनि कर न सके आतमकल्याण ।
संसारी बहिरातम हैं वे उन्हें नहीं निज आतमज्ञान ॥२६०॥

कोई मुनि सतत - निर्मल धर्मशुक्ल - ध्यानामृतरूपी समरस में सचमुच वर्तता है; (वह अन्तरात्मा है;) इन दो ध्यानों से रहित तुच्छ मुनि बहिरात्मा है । मैं पूर्वोक्त (समरसी ) योगी की शरण लेता हूँ ।

और केवल शुद्धनिश्चयनय का स्वरूप कहा जाता है

(कलश--वीरछन्द)
बहिरातम-अन्तरातम के शुद्धातम में उठें विकल्प ।
यह कुबुद्धियों की परिणति है ये मिथ्या संकल्प-विकल्प ॥
ये विकल्प भवरमणी को प्रिय इनका है संसार अनन्त ।
ये सुबुद्धियों को न इष्ट हैं, उनका आया भव का अन्त ॥२६१॥

(शुद्ध आत्मतत्त्व में) बहिरात्मा और अन्तरात्मा ऐसा यह विकल्प कुबुद्धियों को होता है; संसाररूपी रमणी को प्रिय ऐसा यह विकल्प सुबुद्धियों को नहीं होता ।

*सहजचिद्विलासलक्षण = जिसका लक्षण (चिह्न / स्वरूप) सहज चैतन्य का विलास है ऐसे

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+ परम वीतराग चारित्र में स्थित परम तपोधन -
पडिकमणपहुदिकिरियं कुव्वंतो णिच्छयस्स चारित्तं ।
तेण दु विरागचरिए समणो अब्भुट्ठिदो होदि ॥152॥
प्रतिक्रमणप्रभृतिक्रियां कुर्वन् निश्चयस्य चारित्रम् ।
तेन तु विरागचरिते श्रमणोभ्युत्थितो भवति ॥१५२॥
प्रतिक्रमण आदिक्रिया तथा चारित्रनिश्चय आचरे ।
अतएव मुनि वह वीतराग - चरित्र में स्थिरता करे ॥१५२॥
अन्वयार्थ : [प्रतिक्रमणप्रभृतिक्रियां] प्रतिक्रमणादि क्रिया को, [निश्चयस्य चारित्रम्] निश्चय के चारित्र को, [कुर्वन्] (निरन्तर ) करता रहता है [तेनतु] इसलिये [श्रमणः] वह श्रमण [विरागचरिते] वीतराग चारित्र में [अभ्युत्थितः भवति] आरूढ़ है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ परम वीतराग चारित्र में स्थित परम तपोधन का स्वरूप कहा है ।

जिसने ऐहिक व्यापार (सांसारिक कार्य) छोड़ दिया है ऐसा जो साक्षात् अपुनर्भव (मोक्ष) का अभिलाषी महामुमुक्षु सकल इन्द्रिय व्यापार को छोड़ा होने से निश्चय प्रतिक्रमणादि सत्क्रिया को करता हुआ स्थित है (निरन्तर करता है), वह परम तपोधन उस कारण से निज स्वरूप विश्रान्ति लक्षण परमवीतराग - चारित्र में स्थित है (वह परम श्रमण, निश्चय प्रतिक्रमणादि निश्चय चारित्र में स्थित होने के कारण, जिसका लक्षण निज स्वरूप में विश्रांति है ऐसे परम वीतराग चारित्र में स्थित है)

(कलश--रोला)
दर्शन अर चारित्र मोह का नाश किया है ।
भवसुखकारक कर्म छोड़ संन्यास लिया है ॥
मुक्तिमूल मल रहित शील-संयम के धारक ।
समरस-अमृतसिन्धु चन्द्र को नमन करूँ मैं ॥२६२॥

दर्शनमोह और चारित्रमोह जिसके नष्ट हुए हैं ऐसा जो अतुल महिमावाला आत्मा संसार जनित सुख के कारणभूत कर्म को छोड़कर मुक्ति का मूल ऐसे मल-रहित चारित्र में स्थित है, वह आत्मा चारित्र का पुंज है । समरसरूपी सुधा के सागर को उछालने में पूर्ण-चन्द्र समान उस आत्मा को मैं वन्दन करता हूँ ।

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+ समस्त वचन सम्बन्धी व्यापार का खण्डन -
वयणमयं पडिकमणं वयणमयं पच्चखाण णियमं च ।
आलोयण वयणमयं तं सव्वं जाण सज्झायं ॥153॥
वचनमयं प्रतिक्रमणं वचनमयं प्रत्याख्यानं नियमश्च ।
आलोचनं वचनमयं तत्सर्वं जानीहि स्वाध्यायम् ॥१५३॥
रे ! वचनमय प्रतिक्रमण, वाचिक-नियम, प्रत्याख्यान ये ।
आलोचना वाचिक, सभीको जान तू स्वाध्याय रे ॥१५३॥
अन्वयार्थ : [वचनमयं प्रतिक्रमणं] वचनमय प्रतिक्रमण, [वचनमयं प्रत्याख्यानं] वचनमय प्रत्याख्यान, [नियमः] (वचनमय) नियम [च] और [वचनमयम् आलोचनं] वचनमय आलोचना -- [तत् सर्वं] यह सब [स्वाध्यायम्] (प्रशस्त अध्यवसायरूप) स्वाध्याय [जानीहि] जान ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, समस्त वचन सम्बन्धी व्यापार का निरास (निराकरण, खण्डन) है ।

पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण क्रिया का कारण ऐसा जो निर्यापक आचार्य के मुख से निकला हुआ, समस्त पापक्षय के हेतुभूत, सम्पूर्ण द्रव्यश्रुत वह वचन वर्गणायोग्य पुद्गल द्रव्यात्मक होने से ग्राह्य नहीं है । प्रत्याख्यान, नियम और आलोचना भी (पुद्गल द्रव्यात्मक होने से) ग्रहण करने योग्य नहीं हैं । वह सब पौद्गलिक वचनमय होने से स्वाध्याय है ऐसा हे शिष्य ! तू जान ।

(कलश--रोला)
मुक्ति सुन्दरी के दोनों अति पुष्ट स्तनों ।
के आलिंगनजन्य सुखों का अभिलाषी हो ॥
अरे त्यागकर जिनवाणी को अपने में ही ।
थित रहकर वह भव्यजीव जग तृणसम निरखे ॥२६३॥

ऐसा होने से, मुक्तिरूपी स्त्री के पुष्ट स्तनयुगल के आलिंगन सौख्य की स्पृहावाला भव्य जीव समस्त वचनरचना को सर्वदा छोड़कर, नित्यानन्द आदि अतुल महिमा के धारक निज-स्वरूप में स्थित रहकर, अकेला (निरालम्बरूप से) सर्व जगतजाल को (समस्त लोकसमूह को) तृण समान (तुच्छ) देखता है ।

इसीप्रकार (श्री मूलाचार में पंचाचार अधिकार में २१९वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
परीवर्तन वाँचना अर पृच्छना अनुप्रेक्षा ।
स्तुति मंगल पूर्वक यह पंचविध स्वाध्याय है ॥५८॥

परिवर्तन (पढ़े हुए को दुहरा लेना वह), वाचना (शास्त्रव्याख्यान), पृच्छना (शास्त्रश्रवण), अनुप्रेक्षा (अनित्यत्वादि बारह अनुप्रेक्षा) और धर्मकथा (६३ शलाका पुरुषों के चरित्र) -- ऐसे पाँच प्रकार का, *स्तुति तथा मंगल सहित, स्वाध्याय है ।

*स्तुति = देव और मुनि को वन्दन । (धर्मकथा, स्तुति और मंगल मिलकर स्वाध्याय का पाँचवाँ प्रकार माना जाता है ।)

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+ शुद्ध निश्चय धर्मध्यानस्वरूप प्रतिक्रमणादि ही करने योग्य -
जदि सक्कदि कादुं जे पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं ।
सत्तिविहीणो जा जइ सद्दहणं चेव कायव्वं ॥154॥
यदि शक्यते कर्तुम् अहो प्रतिक्रमणादिकं करोषि ध्यानमयम् ।
शक्ति विहीनो यावद्यदि श्रद्धानं चैव कर्तव्यम् ॥१५४॥
जो कर सको तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदिक कीजिये ।
यदि शक्ति हो नहिं तो अरे श्रद्धान निश्चय कीजिये ॥१५४॥
अन्वयार्थ : यदि [कर्तुम् शक्यते] किया जा सके तो [अहो] अहो ! [ध्यानमयम्] ध्यानमय [प्रतिक्रमणादिकं] प्रतिक्रमणादि [करोषि] कर; [यदि] यदि [शक्तिविहीनः] तू शक्तिविहीन हो तो [यावत्] तबतक [श्रद्धानं च एव] श्रद्धान ही [कर्तव्यम्] कर्तव्य है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ, शुद्ध निश्चय धर्मध्यानस्वरूप प्रतिक्रमणादि ही करने योग्य हैं, ऐसा कहा है ।

सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर के शिखामणि, पर-द्रव्य से पराङ्मुख और स्व-द्रव्य में निष्णात बुद्धिवाले, पाँच इन्द्रियों के फैलाव रहित देहमात्र परिग्रह के धारी, परमागमरूपी मकरन्द झरते मुख-कमल से शोभायमान हे मुनिशार्दूल ! (परमागमरूपी मकरन्द झरते मुखवाले हे पद्मप्रभ मुनिशार्दूल !) संहनन और शक्ति का प्रादुर्भाव हो तो मुक्ति-सुन्दरी के प्रथम दर्शन की भेंटस्वरूप निश्चय-प्रतिक्रमण, निश्चय-प्रायश्चित्त, निश्चय-प्रत्याख्यान आदि शुद्ध-निश्चय क्रियाएँ ही कर्तव्य है । यदि इस दग्धकालरूप (हीनकालरूप) अकाल में तू शक्तिहीन हो तो तुझे केवल निज परमात्म-तत्त्व का श्रद्धान ही कर्तव्य है ।

(कलश--हरिगीत)
पापमय कलिकाल में जिननाथ के भी मार्ग में ।
मुक्ति होती है नहीं निजध्यान संभव न लगे ॥
तो साधकों को सतत आतमज्ञान करना चाहिए ।
निज त्रिकाली आत्म का श्रद्धान करना चाहिए ॥२६४॥

असार संसार में, पाप से भरपूर कलिकाल का विलास होने पर, इस निर्दोष जिननाथ के मार्ग में मुक्ति नहीं है । इसलिये इस काल में अध्यात्म-ध्यान कैसे हो सकता है ? इसलिये निर्मल बुद्धिवाले भवभय का नाश करनेवाली ऐसी इस निजात्म श्रद्धा को अंगीकृत करते हैं ।

- मकरन्द = पुष्प-रस, पुष्प-पराग ।
- प्रादुर्भाव = उत्पन्न होना वह; प्राकटय; उत्पत्ति ।

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+ साक्षात् अन्तर्मुख परम जिनयोगी को शिक्षा -
जिणकहियपरमसुत्ते पडिकमणादिय परीक्खऊण फुडं ।
मोणव्वएण जोई णियकज्जं साहए णिच्चं ॥155॥
जिनकथितपरमसूत्रे प्रतिक्रमणादिकं परीक्षयित्वा स्फुटम् ।
मौनव्रतेन योगी निजकार्यं साधयेन्नित्यम् ॥१५५॥
पूरा परख प्रतिक्रमण आदिक को परम-जिनसूत्र में ।
रे साधिये निज कार्य अविरल साधु ! रत व्रत मौन में ॥१५५॥
अन्वयार्थ : [जिनकथितपरमसूत्रे] जिनकथित परम सूत्र में [प्रतिक्रमणादिकं स्फुटम् परीक्षयित्वा] प्रतिक्रमणादिक की स्पष्ट परीक्षा करके [मौनव्रतेन] मौनव्रत सहित [योगी] योगी को [निजकार्यम्] निज कार्य [नित्यम्] नित्य [साधयेत्] साधना चाहिये ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ साक्षात् अन्तर्मुख परम जिनयोगी को यह शिक्षा दी गई है ।

श्रीमद् अर्हत् के मुखारविन्द से निकले हुए समस्त पदार्थ जिसके भीतर समाये हुए हैं ऐसी चतुर शब्द रचनारूप द्रव्यश्रुत में शुद्ध निश्चयनयात्मक परमात्म ध्यान स्वरूप प्रतिक्रमणादि सत्क्रिया को जानकर, केवल स्वकार्य में परायण परम जिनयोगीश्वर को प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त वचन-रचना को परित्यागकर, सर्व संग की आसक्ति को छोड़कर अकेला होकर, मौनव्रत सहित, समस्त पशुजनों (पशु समान अज्ञानी मूर्ख मनुष्यों) द्वारा निन्दा किये जाने पर भी *अभिन्न रहकर, निजकार्य को, कि जो निजकार्य निर्वाणरूपी सुलोचना के सम्भोग सौख्य का मूल है उसे, निरन्तर साधना चाहिये ।

(कलश--हरिगीत)
पशूवत् अल्पज्ञ जनकृत भयों को परित्याग कर ।
शुभाशुभ भववर्धिनी सब वचन रचना त्याग कर ॥
कनक-कामिनि मोह तज सुख-शांति पाने के लिए ।
निज आतमा में जमे मुक्तीधाम जाने के लिए ॥२६५॥

आत्मज्ञानी मुमुक्षु जीव पशुजनकृत लौकिक भय को तथा घोर संसार की करनेवाली प्रशस्त-अप्रशस्त वचन-रचना को छोड़कर और कनक-कामिनी सम्बन्धी मोह को तजकर, मुक्ति के लिये स्वयं अपने से अपने में ही अविचल स्थिति को प्राप्त होते हैं ।

(कलश--हरिगीत)
कुशल आत्मप्रवाद में परमात्मज्ञानी मुनीजन ।
पशुजनों कृत भयंकर भय आत्मबल से त्याग कर ॥
सभी लौकिक जल्प तज सुखशांतिदायक आतमा ।
को जानकर पहिचानकर ध्यावें सदा निज आतमा ॥२६६॥

आत्मप्रवाद में (आत्मप्रवाद नामक श्रुत में) कुशल ऐसा परमात्मज्ञानी मुनि पशुजनों द्वारा किये जानेवाले भय को छोड़कर और उस (प्रसिद्ध) सकल लौकिक जल्पजाल को (वचन-समूह को) तजकर, शाश्वत सुखदायक एक निज तत्त्व को प्राप्त होता है ।

*अभिन्न = छिन्नभिन्न हुए बिना; अखण्डित; अच्युत ।

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+ वचन-सम्बन्धी व्यापार की निवृत्ति के हेतु का कथन -
णाणाजीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लद्धी ।
तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं वज्जिज्जो ॥156॥
नानाजीवा नानाकर्म नानाविधा भवेल्लब्धिः ।
तस्माद्वचनविवादः स्वपरसमयैर्वर्जनीयः ॥१५६॥
हैं जीव नाना, कर्म नाना, लब्धि नानाविध कही ।
अतएव ही निज - परसमय के साथ वर्जित वाद भी ॥१५६॥
अन्वयार्थ : [नानाजीवाः] नाना प्रकार के जीव हैं,[नानाकर्म] नाना प्रकार का कर्म है; [नानाविधा लब्धिः भवेत्] नाना प्रकार की लब्धि है; [तस्मात्] इसलिये [स्वपरसमयैः] स्व-समयों तथा परसमयों के साथ (स्वधर्मियों तथा परधर्मियों के साथ) [वचनविवादः] वचन-विवाद [वर्जनीयः] वर्जने योग्य है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, वचन-सम्बन्धी व्यापार की निवृत्ति के हेतु का कथन है (अर्थात् वचन-विवाद किसलिये छोड़ने योग्य है उसका कारण यहाँ कहा है)

जीव नाना प्रकार के हैं : मुक्त हैं और अमुक्त, भव्य और अभव्य, संसारी-त्रस और स्थावर । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा (पंचेन्द्रिय) संज्ञी तथा (पंचेन्द्रिय) असंज्ञी ऐसे भेदों के कारण त्रस जीव पाँच प्रकार के हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति यह (पाँच प्रकार के) स्थावर जीव हैं । भविष्य-काल में स्वभाव - अनन्त - चतुष्टयात्मक सहजज्ञानादि गुणों रूप से *भवन के योग्य (जीव ) वे भव्य हैं; उनसे विपरीत (जीव) वे वास्तव में अभव्य हैं । द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म ऐसे भेदों के कारण, अथवा (आठ) मूल प्रकृति और (एक सौ अड़तालीस) उत्तर प्रकृतिरूप भेदों के कारण, अथवा तीव्रतर, तीव्र, मंद और मंदतर उदयभेदों के कारण, कर्म नाना प्रकार का है । जीवों को सुखादि की प्राप्तिरूप लब्धिकाल, करण, उपदेश, उपशम और प्रायोग्यतारूप भेदों के कारण पाँच प्रकार की है । इसलिये परमार्थ के जाननेवालों को स्वसमयों तथा परसमयों के साथ वाद करने योग्य नहीं है ।

(कलश--हरिगीत)
संसारकारक भेद जीवों के अनेक प्रकार हैं ।
भव जन्मदाता कर्म भी जग में अनेक प्रकार हैं ॥
लब्धियाँ भी हैं विविध इस विमल जिनमारग विषें ।
स्वपरमत के साथ में न विवाद करना चाहिए ॥२६७॥

जीवों के, संसार के कारणभूत ऐसे (त्रस, स्थावर आदि) बहुत प्रकार के भेद हैं; इसीप्रकार सदा जन्म का उत्पन्न करनेवाला कर्म भी अनेक प्रकार का है; यह लब्धि भी विमल जिनमार्ग में अनेक प्रकार की प्रसिद्ध है; इसलिये स्व-समयों और पर-समयों के साथ वचन-विवाद कर्तव्य नहीं है ।

*भवन = परिणमन; होना सो ।

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+ दृष्टान्त द्वारा सहजतत्त्व की आराधना की विधि -
लद्धूणं णिहि एक्को तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्ते ।
तह णाणी णाणणिहिं भुंजेइ चइत्तु परतत्तिं ॥157॥
लब्ध्वा निधिमेकस्तस्य फलमनुभवति सुजनत्वेन ।
तथा ज्ञानी ज्ञाननिधिं भुंक्ते त्यक्त्वा परततिम् ॥१५७॥
निधि पा मनुज तत्फल वतन में गुप्त रह ज्यों भोगता ।
त्यों छोड़ परजन संग ज्ञानी ज्ञान निधि को भोगता ॥१५७॥
अन्वयार्थ : [एकः] जैसे कोई एक (दरिद्र मनुष्य ) [निधिम्] निधि को [लब्ध्वा] पाकर [सुजनत्वेन] अपने वतन में (गुप्तरूपसे ) रहकर [तस्य फलम्] उसके फल को [अनुभवति] भोगता है, [तथा] उसीप्रकार [ज्ञानी] ज्ञानी [परततिम्] पर जनों के समूह को [त्यक्त्वा] छोड़कर [ज्ञाननिधिम्] ज्ञाननिधि को [भुंक्ते] भोगता है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ दृष्टान्त द्वारा सहजतत्त्व की आराधना की विधि कही है ।

कोई एक दरिद्र मनुष्य क्वचित् कदाचित् पुण्योदय से निधि को पाकर, उस निधि के फल को सौजन्य अर्थात् जन्मभूमि ऐसा जो गुप्त स्थान उसमें रहकर अति गुप्तरूप से भोगता है; ऐसा दृष्टान्तपक्ष है । दार्ष्टांतपक्ष से भी (ऐसा है कि) - सहज परम तत्त्वज्ञानी जीव क्वचित् आसन्न-भव्य के (आसन्न-भव्यतारूप) गुण का उदय होने से सहज वैराग्य-सम्पत्ति होने पर, परम-गुरु के चरण-कमल-युगल की निरतिशय (उत्तम) भक्ति द्वारा मुक्तिसुन्दरी के मुख के मकरन्द समान सहज ज्ञाननिधि को पाकर, स्वरूपविकल ऐसे पर जनों के समूह को ध्यान में विघ्न का कारण समझकर छोड़ता है ।

(कलश--हरिगीत)
पुण्योदयों से प्राप्त कांचन आदि वैभव लोक में ।
गुप्त रहकर भोगते जन जिस तरह इस लोक में ॥
उस तरह सद्ज्ञान की रक्षा करें धर्मातमा ।
सब संग त्यागी ज्ञानीजन सद्ज्ञान के आलोक में ॥२६८॥

इस लोक में कोई एक लौकिक-जन पुण्य के कारण धन के समूह को पाकर, संग को छोड़कर गुप्त होकर रहता है; उसकी भाँति ज्ञानी (पर के संग को छोड़कर गुप्तरूप से रहकर) ज्ञान की रक्षा करता है ।

(कलश--वीर छन्द)
जनम-मरण का हेतु परिग्रह अरे पूर्णत: उसको छोड़ ।
हृदय कमल में बुद्धिपूर्वक जगविराग में मन को जोड़॥
परमानन्द निराकुल निज में पुरुषारथ से थिर होकर ।
मोह क्षीण होने पर तृणसम हम देखें इस जग की ओर ॥२६९॥

जन्म-मरणरूप रोग के हेतुभूत समस्त संग को छोड़कर, हृदयकमल में बुद्धिपूर्वक पूर्ण वैराग्यभाव करके, सहज परमानन्द द्वारा जो अव्यग्र (अनाकुल) है ऐसे निज रूपमें (अपनी ) शक्ति से स्थित रहकर, मोह क्षीण होने पर,हम लोक को सदा तृणवत् देखते हैं ।

दार्ष्टांत = वह बात जो दृष्टान्त द्वारा समझाना हो; उपमेय ।
मकरन्द = पुष्प-रस; पुष्प-पराग ।
स्वरूपविकल = स्वरूपप्राप्ति रहित; अज्ञानी ।
बुद्धिपूर्वक = समझपूर्वक; विवेकपूर्वक; विचारपूर्वक ।
शक्ति = सामर्थ्य; बल; वीर्य; पुरुषार्थ ।

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+ परमावश्यक अधिकार का उपसंहार -
सव्वे पुराणपुरिसा एवं आवासयं च काऊण ।
अपमत्तपहुदिठाणं पडिवज्ज य केवली जादा ॥158॥
सर्वे पुराणपुरुषा एवमावश्यकं च कृत्वा ।
अप्रमत्तप्रभृतिस्थानं प्रतिपद्य च केवलिनो जाताः ॥१५८॥
यों सर्व पौराणिक पुरुष आवश्यकों की विधि धरी ।
पाकर अरे अप्रमत्त स्थान हुए नियत प्रभु केवली ॥१५८॥
अन्वयार्थ : [सर्वे] सर्व [पुराणपुरुषाः] पुराण पुरुष [एवम्] इसप्रकार [आवश्यकं च] आवश्यक [कृत्वा] करके, [अप्रमत्तप्रभृतिस्थानं] अप्रमत्तादि स्थान को [प्रतिपद्य च] प्राप्त करके [केवलिनः जाताः] केवली हुए ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, परमावश्यक अधिकार के उपसंहार का कथन है ।

स्वात्माश्रित निश्चय धर्मध्यान और निश्चय शुक्लध्यान स्वरूप ऐसा जो बाह्य-आवश्यकादि क्रिया से प्रतिपक्ष शुद्धनिश्चय - परमावश्यक - साक्षात् अपुनर्भवरूपी (मुक्तिरूपी) स्त्री के अनंग (अशरीरी) सुख का कारण - उसे करके, सर्व पुराण पुरुष, कि जिनमें से तीर्थंकर, परमदेव आदि स्वयंबुद्ध हुए और कुछ बोधितबुद्ध हुए वे, अप्रमत्त से लेकर सयोगीभट्टारक तक के गुणस्थानों की पंक्ति में आरूढ़ होते हुए, परमावश्यकरूप आत्माराधना के प्रसाद से केवली - सकल-प्रत्यक्ष ज्ञानधारी हुए ।

(कलश--वीर छन्द)
अरे पुराण पुरुष योगीजन निज आतम आराधन से ।
सभी करमरूपी राक्षस के पूरी तरह विराधन से ॥
विष्णु-जिष्णु हुए उन्हीं को जो मुमुक्षु पूरे मन से ।
नित्य नमन करते वे मुनिजन अघ अटवी को पावक हैं ॥२७०॥

पहले जो सर्व पुराण पुरुष - योगी - निज-आत्मा कीआराधना से समस्त कर्मरूपी राक्षसों के समूह का नाश करके *विष्णु और जयवन्त हुए (अर्थात् सर्वव्यापी ज्ञानवाले जिन हुए), उन्हें जो मुक्ति की स्पृहावाला निःस्पृह जीव अनन्य मन से नित्य प्रणाम करता है, वह जीव पापरूपी अटवी को जलाने में अग्नि समान है और उसके चरण-कमल को सर्व जन पूजते हैं ।

(कलश--वीर छन्द)
कनक-कामिनी गोचर एवं हेयरूप यह मोह छली ।
इसे छोड़कर निर्मल सुख के लिए परम पावन गुरु से ॥
धर्म प्राप्त करके हे आत्मन् निरुपम निर्मल गुणधारी ।
दिव्यज्ञान वाले आतम में तू प्रवेश कर सत्वर ही ॥२७१॥

हेयरूप ऐसा जो कनक और कामिनी सम्बन्धी मोह उसे छोड़कर, हे चित्त ! निर्मल सुख के हेतु परम गुरु द्वारा धर्म को प्राप्त करके तू अव्यग्ररूप (शांतस्वरूपी) परमात्मा में, कि जो (परमात्मा) नित्य आनन्दवाला है, निरुपम गुणों से अलंकृत है तथा दिव्य ज्ञानवाला है उसमें, शीघ्र प्रवेश कर ।

इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इंद्रियों के फैलाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव विरचित तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका में) निश्चय-परमावश्यक अधिकार नामका ग्यारहवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।

*विष्णु = व्यापक । (केवली भगवानका ज्ञान सर्वको जानता है इसलिये उस अपेक्षासे उन्हें सर्वव्यापककहा जाता है)

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शुद्धोपयोग अधिकार



+ समस्त कर्म के प्रलय के हेतुभूत शुद्धोपयोग का अधिकार -
जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं ।
केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ॥159॥
जानाति पश्यति सर्वं व्यवहारनयेन केवली भगवान् ।
केवलज्ञानी जानाति पश्यति नियमेन आत्मानम् ॥१५९॥
व्यवहार से प्रभु केवली सब जानते अरु देखते ।
निश्चयनयात्मक-द्वार से निज आत्म को प्रभु पेखते ॥१५९॥
अन्वयार्थ : [व्यवहारनयेन] व्यवहारनय से [केवलीभगवान्] केवली भगवान [सर्वं] सब [जानाति पश्यति] जानते हैं और देखते हैं; [नियमेन] निश्चय से [केवलज्ञानी] केवलज्ञानी [आत्मानम्] आत्मा को (स्वयं को) [जानाति पश्यति] जानता है और देखता है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
अब समस्त कर्म के प्रलय के हेतुभूत शुद्धोपयोग का अधिकार कहा जाता है ।

यहाँ, ज्ञानी को स्व-पर स्वरूप का प्रकाशकपना कथंचित् कहा है ।

'पराश्रितो व्यवहारः (व्यवहार पराश्रित है )' ऐसा (शास्त्र का) वचन होने से, व्यवहारनय से वे भगवान परमेश्वर परमभट्टारक आत्मगुणों का घात करनेवाले घातिकर्मों के नाश द्वारा प्राप्त सकल-विमल केवलज्ञान और केवलदर्शन द्वारा त्रिलोकवर्ती तथा त्रिकालवर्ती सचराचर द्रव्यगुणपर्यायों को एक समय में जानते हैं और देखते हैं । शुद्धनिश्चय से परमेश्वर महादेवाधिदेव सर्वज्ञ वीतराग को, परद्रव्य के ग्राहकत्व, दर्शकत्व, ज्ञायकत्व आदि के विविध विकल्पों की सेना की उत्पत्ति मूलध्यान में अभावरूप होने से (?), वे भगवान त्रिकाल - निरुपाधि, निरवधि (अमर्यादित), नित्यशुद्ध ऐसे सहजज्ञान और सहजदर्शन द्वारा निज कारण परमात्मा को, स्वयं कार्य परमात्मा होने पर भी, जानते हैं और देखते हैं । किसप्रकार ? इस ज्ञान का धर्म तो, दीपक की भाँति, स्व-पर प्रकाशकपना है । घटादि की प्रमिति से प्रकाश - दीपक (कथंचित्) भिन्न होने पर भी स्वयं प्रकाश स्वरूप होने से स्व और पर को प्रकाशित करता है; आत्मा भी ज्योति-स्वरूप होने से व्यवहार से त्रिलोक और त्रिकालरूप पर को तथा स्वयं प्रकाश स्वरूप आत्मा को (स्वयं को) प्रकाशित करता है ।

पाखण्डियों पर विजय प्राप्त करने से जिन्होंने विशाल कीर्ति प्राप्त की है ऐसे महासेन पंडित देव ने भी (श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
वस्तु के सत्यार्थ निर्णयरूप सम्यग्ज्ञान है ।
स्व-पर अर्थों का प्रकाशक वह प्रदीप समान है ॥
वह निर्णयात्मक ज्ञान प्रमिति से कथंचित् भिन्न है ।
पर आतमा से ज्ञानगुण से तो अखण्ड अभिन्न है ॥५९॥

वस्तु का यथार्थ निर्णय सो सम्यग्ज्ञान है । वह सम्यग्ज्ञान, दीपक की भाँति, स्व के और (पर) पदार्थों के निर्णयात्मक है तथा प्रमिति से (ज्ञप्ति से) कथंचित् भिन्न है ।

अब 'स्वाश्रितो निश्चय: (निश्चय स्वाश्रित है )' ऐसा (शास्त्र का) वचन होने से, (ज्ञान को) सतत निरुपराग निरंजन स्वभाव में लीनता के कारण निश्चयपक्ष से भी स्व-पर प्रकाशकपना है ही ।

(वह इसप्रकार :) सहजज्ञान आत्मा से संज्ञा, लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा से भिन्न नाम तथा भिन्न लक्षण से (तथा भिन्न प्रयोजन से) जाना जाता है तथापि वस्तुवृत्ति से (अखण्ड वस्तु की अपेक्षा से) भिन्न नहीं है; इस कारण से यह (सहजज्ञान) आत्मगत (आत्मा में स्थित) दर्शन, सुख, चारित्र आदि को जानता है और स्वात्मा को, कारण-परमात्मा के स्वरूप को, भी जानता है । (सहजज्ञान स्वात्मा को तो स्वाश्रित निश्चयनय से जानता ही है और इस प्रकार स्वात्मा को जानने पर उसके समस्त गुण भी ज्ञात हो ही जाते हैं । अब सहजज्ञान ने जो यह जाना उसमें भेद-अपेक्षा से देखें तो सहजज्ञान के लिये ज्ञान ही स्व है और उसके अतिरिक्त अन्य सब - दर्शन, सुख आदि - पर है; इसलिये इस अपेक्षा से ऐसा सिद्ध हुआ कि निश्चयपक्ष से भी ज्ञान स्व को तथा पर को जानता है । )

इसीप्रकार (आचार्यदेव ) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में १९२वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--रोला)
बंध-छेद से मुक्त हुआ यह शुद्ध आतमा,
निजरस से गंभीर धीर परिपूर्ण ज्ञानमय ।
उदित हुआ है अपनी महिमा में हिमामय,
अचल अनाकुल अज अखंड यह ज्ञानदिवाकर ॥६०॥

कर्मबन्ध के छेदन से अतुल अक्षय (अविनाशी) मोक्ष का अनुभव करता हुआ, नित्य उद्योतवाली (जिसका प्रकाश नित्य है ऐसी) सहज अवस्था जिसकी विकसित हो गई है ऐसा, एकान्त शुद्ध (कर्म का मैल न रहने से जो अत्यन्त शुद्ध हुआ है ऐसा), तथा एकाकार (एक ज्ञानमात्र आकाररुप परिणमित) निजरस की अतिशयता से जो अत्यन्त गम्भीर और धीर है ऐसा यह पूर्ण ज्ञान जगमगा उठा (सर्वथाशुद्ध आत्मद्रव्य जाज्वल्यमान प्रगट हुआ), अपनी अचल महिमा में लीन हुआ ।

और

(कलश--हरिगीत)
सौभाग्यशोभा कामपीड़ा शिवश्री के वदन की ।
बढ़ावें जो केवली वे जानते सम्पूर्ण जग ॥
व्यवहार से परमार्थ से मलक्लेश विरहित केवली ।
देवाधिदेव जिनेश केवल स्वात्मा को जानते ॥२७२॥

व्यवहारनय से यह केवलज्ञानमूर्ति आत्मा निरन्तर विश्व को वास्तव में जानता है और मुक्तिलक्ष्मीरूपी कामिनी के कोमल मुख-कमल पर कामपीड़ा को तथा सौभाग्य चिह्नवाली शोभा को फैलाता है । निश्चयसे तो, जिन्होंने मल और क्लेश को नष्ट किया है ऐसे वे देवाधिदेव जिनेश निज स्वरूप को अत्यन्त जानते हैं ।

यहाँ संस्कृत टीका में अशुद्धि मालूम होती है, इसलिये संस्कृत टीका में तथा उसके अनुवाद में शंका को सूचित करने के लिये प्रश्नवाचक चिह्न दिया है ।
निरुपराग = उपराग रहित; निर्विकार ।

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+ दृष्टान्त द्वारा केवलज्ञान और केवलदर्शन का युगपद् वर्तना -
जुगवं वट्टइ णाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा ।
दिणयरपयासतावं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ॥160॥
युगपद् वर्तते ज्ञानं केवलज्ञानिनो दर्शनं च तथा ।
दिनकरप्रकाशतापौ यथा वर्तेते तथा ज्ञातव्यम् ॥१६०॥
ज्यों ताप और प्रकाश रवि के एक सँग ही वर्तते ।
त्यों केवली को ज्ञानदर्शन एक साथ प्रवर्तते ॥१६०॥
अन्वयार्थ : [केवलज्ञानिनः] केवलज्ञानी को [ज्ञानं] ज्ञान [तथा च] तथा [दर्शनं] दर्शन [युगपद्] युगपद् [वर्तते] वर्तते हैं । [दिनकर-प्रकाशतापौ] सूर्य के प्रकाश और ताप [यथा] जिसप्रकार [वर्तेते] (युगपद् ) वर्तते हैं [तथा ज्ञातव्यम्] उसी प्रकार जानना ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ वास्तव में केवलज्ञान और केवलदर्शन का युगपद् वर्तना दृष्टान्त द्वारा कहा है ।

यहाँ दृष्टान्त पक्ष से किसी समय बादलों की बाधा न हो तब आकाश के मध्य में स्थित सूर्य के प्रकाश और ताप जिसप्रकार युगपद् वर्तते हैं, उसीप्रकार भगवान परमेश्वर तीर्थाधिनाथ को त्रिलोकवर्ती और त्रिकालवर्ती, स्थावर - जङ्गम द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक ज्ञेयों में सकल-विमल (सर्वथा निर्मल) केवलज्ञान और केवलदर्शन युगपद् वर्तते हैं । और (विशेष इतना समझना कि), संसारियों को दर्शनपूर्वक ही ज्ञान होता है (प्रथम दर्शन और फिर ज्ञान होता है, युगपद् नहीं होते)

इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री प्रवचनसार में (६१वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :

(कलश)
अर्थान्तगत है ज्ञान लोकालोक विस्तृत दृष्टि है ।
हैं नष्ट सर्व अनिष्ट एवं इष्ट सब उपलब्ध हैं॥६१॥

ज्ञान पदार्थों के पार को प्राप्त है और दर्शन लोकालोक में विस्तृत है; सर्व अनिष्ट नष्ट हुआ है और जो इष्ट है वह सब प्राप्त हुआ है ।

और दूसरा भी (श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेव विरचित बृहद्द्रव्यसंग्रह में ४४वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :

(कलश)
जिनवर कहें छद्मस्थ के हो ज्ञान दर्शनपूर्वक ।
पर केवली के साथ हों दोनों सदा यह जानिये ॥६२॥

छद्मस्थोंको दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है (पहले दर्शन और फिर ज्ञान होता है), क्योंकि उनको दोनों उपयोग युगपद् नहीं होते; केवलीनाथ को वे दोनों युगपद् होते हैं ।

और

(कलश)
अज्ञानतम को सूर्यसम सम्पूर्ण जग के अधिपति ।
हे शान्तिसागर वीतरागी अनूपम सर्वज्ञ जिन ॥
संताप और प्रकाश युगपत् सूर्य में हों जिसतरह ।
केवली के ज्ञान-दर्शन साथ हों बस उसतरह ॥२७३॥

जो धर्मतीर्थ के अधिनाथ (नायक) हैं, जो असदृश हैं (जिनके समान अन्य कोई नहीं है) और जो सकल लोक के एक नाथ हैं ऐसे इन सर्वज्ञ भगवान में निरन्तर सर्वतः ज्ञान और दर्शन युगपद् वर्तते हैं । जिसने समस्त तिमिर समूह का नाश किया है ऐसे इस तेजराशिरूप सूर्य में जिसप्रकार यह उष्णता और प्रकाश (युगपद्) वर्तते हैं और जगत के जीवों को नेत्र प्राप्त होते हैं (सूर्य के निमित्त से जीवों के नेत्र देखने लगते हैं), उसीप्रकार ज्ञान और दर्शन (युगपद्) होते हैं (उसीप्रकार सर्वज्ञ भगवान को ज्ञान और दर्शन एक साथ होते हैं और सर्वज्ञ भगवान के निमित्त से जगत के जीवों को ज्ञान प्रगट होता है )

(कलश)
सद्बोधरूपी नाव से ज्यों भवोदधि को पारकर ।
शीघ्रता से शिवपुरी में आप पहुँचे नाथवर ॥
मैं आ रहा हूँ उसी पथ से मुक्त होने के लिए ।
अन्य कोई शरण जग में दिखाई देता नहीं ॥२७४॥

(हे जिननाथ !) सद्ज्ञानरूपी नौका में आरोहण करके भवसागर को लाँघकर, तू शीघ्रता से शाश्वतपुरी में पहुँच गया । अब मैं जिननाथ के उस मार्ग से (जिस मार्ग से जिननाथ गये उसी मार्ग से) उसी शाश्वतपुरी में जाता हूँ; (क्योंकि) इसलोक में उत्तम पुरुषों को (उस मार्ग के अतिरिक्त) अन्य क्या शरण है ?

(कलश)
आप केवलभानु जिन इस जगत में जयवंत हैं ।
समरसमयी निर्देह सुखदा शिवप्रिया के कंत हैं ॥
रे शिवप्रिया के मुखकमल पर कांति फैलाते सदा ।
सुख नहीं दे निजप्रिया को है कौन ऐसा जगत में ॥२७५॥

केवलज्ञानभानु (केवलज्ञानरूपी प्रकाश को धारण करनेवाले सूर्य) ऐसे वे एक जिनदेव ही जयवन्त हैं । वे जिनदेव समरसमय अनंग (अशरीरी,अतीन्द्रिय) सौख्य की देनेवाली ऐसी उस मुक्ति के मुखकमल पर वास्तव में किसी अवर्णनीय कान्ति को फैलाते हैं; (क्योंकि) कौन (अपनी) स्नेहपात्र प्रिया को निरन्तर सुखोत्पत्ति का कारण नहीं होता ?

(कलश--दोहा)
अरे भ्रमर की भांति तुम, शिवकामिनि लवलीन ।
अद्वितीय आत्मीक सुख, पाया जिन अमलीन ॥२७६॥

उन जिनेन्द्रदेव ने मुक्ति-कामिनी के मुख-कमल के प्रति भ्रमरलीला को धारण किया (वे उसमें भ्रमर की भाँति लीन हुए) और वास्तव में अद्वितीय अनंग (आत्मिक) सुख को प्राप्त किया ।

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+ आत्मा के स्व-पर प्रकाशकपने सम्बन्धी विरोध-कथन -
णाणं परप्पयासं दिट्ठी अप्पप्पयासया चेव ।
अप्पा सपरपयासो होदि त्ति हि मण्णसे जदि हि ॥161॥
ज्ञानं परप्रकाशं द्रष्टिरात्मप्रकाशिका चैव ।
आत्मा स्वपरप्रकाशो भवतीति हि मन्यसे यदि खलु ॥१६१॥
दर्शन प्रकाशक आत्म का, पर का प्रकाशक ज्ञान है ।
निज-पर प्रकाशक आत्मा, - रे यह विरुद्ध विधान है ॥१६१॥
अन्वयार्थ : [ज्ञानं परप्रकाशं] ज्ञान पर प्रकाशक ही है [च] और [दृष्टिः आत्मप्रकाशिका एव] दर्शन स्व-प्रकाशक ही है [आत्मा स्वपरप्रकाशः भवति] तथा आत्मा स्व-पर प्रकाशक है [इति हि यदि खलु मन्यसे] ऐसा यदि वास्तव में तू मानता हो तो उसमें विरोध आता है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, आत्मा के स्व-पर प्रकाशकपने सम्बन्धी विरोध-कथन है ।

प्रथम तो, आत्मा को स्व-पर प्रकाशकपना किस प्रकार है ? (उस पर विचार किया जाता है ।) 'आत्मा ज्ञानदर्शनादि विशेष गुणों से समृद्ध है; उसका ज्ञान शुद्ध आत्मा को प्रकाशित करने में असमर्थ होने से पर प्रकाशक ही है; इसप्रकार निरंकुश दर्शन भी केवल अभ्यन्तर में आत्मा को प्रकाशित करता है (अर्थात् स्व-प्रकाशक ही है) । इस विधि से आत्मा स्व-पर प्रकाशक है ।' -- इसप्रकार हे जड़मति प्राथमिक शिष्य ! यदि तू दर्शनशुद्धि के अभाव के कारण मानता हो, तो वास्तव में तुझसे अन्य कोई पुरुष जड़ (मूर्ख ) नहीं है । इसलिये अविरुद्ध ऐसी स्याद्वाद विद्यारूपी देवी सज्जनों द्वारा सम्यक् प्रकार से निरन्तर आराधना करने योग्य है । वहाँ (स्याद्वादमत में), एकान्त से ज्ञान को पर प्रकाशकपना ही नहीं है; स्याद्वादमत में दर्शन भी केवल शुद्धात्मा को ही नहीं देखता (मात्र स्व प्रकाशक ही नहीं है) । आत्मा दर्शन, ज्ञान आदि अनेक धर्मों काआधार है । (वहाँ) व्यवहारपक्ष से भी ज्ञान केवल पर-प्रकाशक हो तो, सदा बाह्य-स्थितपने के कारण, (ज्ञान को) आत्मा के साथ सम्बन्ध नहीं रहेगा और (इसलिये) आत्मप्रतिपत्ति के अभाव के कारण सर्वगतपना (भी) नहीं बनेगा । इसकारण से, यह ज्ञान होगा ही नहीं (ज्ञान का अस्तित्व ही नहीं होगा), मृगतृष्णा के जल की भाँति आभासमात्र ही होगा । इसीप्रकार दर्शनपक्ष में भी, दर्शनकेवल अभ्यन्तर प्रतिपत्ति का ही कारण नहीं है, (सर्व प्रकाशन का कारण है); (क्योंकि) चक्षु सदैव सर्व को देखता है, अपने अभ्यन्तर में स्थित कनीनिका को नहीं देखता (इसलिये चक्षु की बात से ऐसा समझमें आता है कि दर्शन अभ्यन्तर को देखे और बाह्यस्थित पदार्थों को न देखे ऐसा कोई नियम घटित नहीं होता) । इससे, ज्ञान और दर्शन को (दोनों को) स्व-पर प्रकाशकपना अविरुद्ध ही है । इसलिये (इसप्रकार) ज्ञान-दर्शन लक्षणवाला आत्मा स्व-पर प्रकाशक है ।

इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री प्रवचनसार की टीका में चौथे श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--मनहरण कवित्त)
जिसने किये हैं निर्मूल घातिकर्म सब ।
अनंत सुख वीर्य दर्श ज्ञान धारी आतमा ॥
भूत भावी वर्तमान पर्याय युक्त सब ।
द्रव्य जाने एक ही समय में शुद्धातमा ॥
मोह का अभाव पररूप परिणमें नहीं ।
सभी ज्ञेय पीके बैठा ज्ञानमूर्ति आतमा ॥
पृथक्-पृथक् सब जानते हुए भी ये ।
सदा मुक्त रहें अरहंत परमातमा ॥६३॥

जिसने कर्मों को छेद डाला है ऐसा यह आत्मा भूत, वर्तमान और भावि समस्त विश्व को (तीनों काल की पर्यायों सहित समस्त पदार्थों को) युगपद् जानता होने पर भी मोह के अभाव के कारण पररूप से परिणमित नहीं होता, इसलिये अब, जिसके समस्त ज्ञेयाकारों को अत्यन्त विकसित ज्ञप्ति के विस्तार द्वारा स्वयं पी गया है ऐसे तीनों लोक के पदार्थों को पृथक् और अपृथक् प्रकाशित करता हुआ वह ज्ञानमूर्ति मुक्त ही रहता है ।

और

(कलश--मनहरण कवित्त)
ज्ञान इक सहज परमातमा को जानकर ।
लोकालोक ज्ञेय के समूह को है जानता ।
ज्ञान के समान दर्शन भी तो क्षायिक है ।
वह भी स्वपर को है साक्षात् जानता ॥
ज्ञान-दर्शन द्वारा भगवान आतमा ।
स्वपर सभी ज्ञेयराशि को है जानता ॥
ऐसे वीतरागी सर्वज्ञ परमातमा ।
स्वपरप्रकाशी निज भाव को प्रकाशता ॥२७७॥

ज्ञान एक सहज परमात्मा को जानकर लोकालोक को अर्थात् लोकालोक सम्बन्धी (समस्त) ज्ञेय-समूह को प्रगट करता है (जानता है) । नित्य-शुद्ध ऐसा क्षायिक दर्शन (भी) साक्षात् स्व-पर विषयक है (वह भी स्व-पर को साक्षात् प्रकाशित करता है) । उन दोनों (ज्ञान तथा दर्शन) द्वारा आत्मदेव स्व-पर सम्बन्धी ज्ञेयराशि को जानता है (आत्मदेव स्वपर समस्त प्रकाश्य पदार्थों को प्रकाशित करता है )

– आत्म प्रतिपत्ति = आत्मा का ज्ञान; स्व को जानना सो ।
– अभ्यन्तर प्रतिपत्ति = अन्तरंग का प्रकाशन; स्व को प्रकाशना सो ।

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+ पूर्वपक्ष के सिद्धान्त सम्बन्धी कथन -
णाणं परप्पयासं तइया णाणेण दंसणं भिण्णं ।
ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा ॥162॥
ज्ञानं परप्रकाशं तदा ज्ञानेन दर्शनं भिन्नम् ।
न भवति परद्रव्यगतं दर्शनमिति वर्णितं तस्मात ॥१६२॥
पर ही प्रकाशे ज्ञान तो हो ज्ञान से दृग् भिन्न रे ।
'परद्रव्यगत नहिं दर्श !' वर्णित पूर्व तव मंतव्य रे ॥१६२॥
अन्वयार्थ : [ज्ञानं परप्रकाशं] यदि ज्ञान (केवल) पर-प्रकाशक हो [तदा] तो [ज्ञानेन] ज्ञान से [दर्शनं] दर्शन [भिन्नम्] भिन्न सिद्ध होगा, [दर्शनम् परद्रव्यगतं न भवति इति वर्णितं तस्मात्] क्योंकि दर्शन पर-द्रव्यगत (पर-प्रकाशक) नहीं है ऐसा (पूर्व सूत्रमें तेरा मन्तव्य) वर्णन किया गया है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, पूर्व सूत्र में (१६१वीं गाथा में) कहे हुए पूर्वपक्ष के सिद्धान्त सम्बन्धी कथन है ।

यदि ज्ञान केवल पर-प्रकाशक हो तो इस पर-प्रकाशनप्रधान (पर-प्रकाशक) ज्ञान से दर्शन भिन्न ही सिद्ध होगा; (क्योंकि) सह्याचल और विंध्याचल की भाँति अथवा गङ्गा और श्रीपर्वतकी भाँति, पर-प्रकाशक ज्ञान को और आत्म-प्रकाशक दर्शन को सम्बन्ध किसप्रकार होगा ? जो आत्मनिष्ठ (आत्मा में स्थित) है वह तो दर्शन ही है । और उस ज्ञान को तो, निराधारपने के कारण (आत्मारूपी आधार न रहने से), शून्यता की आपत्ति ही आयेगी; अथवा तो जहाँ-जहाँ ज्ञान पहुँचेगा (जिस-जिस द्रव्य को ज्ञान पहुँचेगा) वे वे सर्व द्रव्य चेतनता को प्राप्त होंगे, इसलिये तीन-लोक में कोई अचेतन पदार्थ सिद्ध नहीं होगा यह महान दोष प्राप्त होगा । इसीलिये (उपरोक्त दोष के भय से), हे शिष्य ! ज्ञान केवल पर-प्रकाशक नहीं है ऐसा यदि तू कहे, तो दर्शन भी केवल आत्मगत (स्व-प्रकाशक) नहीं है ऐसा भी (उसमें साथ ही) कहा जा चुका है । इसलिये वास्तव में सिद्धान्त के हार्दरूप ऐसा यही समाधान है कि ज्ञान और दर्शन को कथंचित् स्व-पर प्रकाशकपना है ही ।

इसीप्रकार श्री महासेनपंडितदेव ने (श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--कुण्डलिया)
अरे ज्ञान से आत्मा, नहीं सर्वथा भिन्न ।
अर अभिन्न भी है नहीं, यह है भिन्नाभिन्न ॥
यह है भिन्नाभिन्न कथंचित् नहीं सर्वथा ।
अरे कथंचित् भिन्न अभिन्न भी किसी अपेक्षा ॥
जैनधर्म में नहीं सर्वथा कुछ भी होता ।
पूर्वापर जो ज्ञान आतमा वह ही होता ॥६४॥

आत्मा ज्ञान से (सर्वथा) भिन्न नहीं है, (सर्वथा) अभिन्न नहीं है, कथंचित् भिन्नाभिन्न है; *पूर्वापरभूत जो ज्ञान सो यह आत्मा है ऐसा कहा है ।

और

(कलश--हरिगीत)
यह आतमा न ज्ञान है दर्शन नहीं है आतमा ।
रे स्वपर जाननहार दर्शनज्ञानमय है आतमा ॥
इस अघविनाशक आतमा अर ज्ञान-दर्शन में सदा ।
भेद है नामादि से परमार्थ से अन्तर नहीं ॥२७८॥

आत्मा (सर्वथा) ज्ञान नहीं है, उसीप्रकार (सर्वथा) दर्शन भी नहीं ही है; वह उभययुक्त (ज्ञान दर्शन युक्त) आत्मा स्व-पर विषय को अवश्य जानता है और देखता है । अघसमूह (पापसमूह) के नाशक आत्मा में और ज्ञान-दर्शन में संज्ञा-भेद से भेद उत्पन्न होता है (संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा से उनमें उपरोक्तानुसार भेद है), परमार्थ से अग्नि और उष्णता की भाँति उनमें (आत्मा में और ज्ञान-दर्शन में) वास्तव में भेद नहीं है (अभेदता है)

* पूर्वापर = पूर्व और अपर; पहले का और बाद का ।

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+ एकान्त से आत्मा को पर-प्रकाशकपना का खण्डन -
अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं ।
ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा ॥163॥
आत्मा परप्रकाशस्तदात्मना दर्शनं भिन्नम् ।
न भवति परद्रव्यगतं दर्शनमिति वर्णितं तस्मात ॥१६३॥
पर ही प्रकाशे जीव तो हो आत्म से दृग् भिन्न रे ।
पर-द्रव्यगत नहिं दर्श वर्णित पूर्व तव मंतव्य रे ॥१६३॥
अन्वयार्थ : [आत्मा परप्रकाशः] यदि आत्मा (केवल) पर-प्रकाशक हो [तदा] तो [आत्मना] आत्मा से [दर्शनं] दर्शन [भिन्नम्] भिन्न सिद्ध होगा, [दर्शनं परद्रव्यगतं न भवति इति वर्णितं तस्मात्] क्योंकि दर्शन पर-द्रव्यगत (पर-प्रकाशक) नहीं है ऐसा (पहले तेरा मंतव्य) वर्णन किया गया है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, एकान्त से आत्मा को पर-प्रकाशकपना होने की बात का खण्डन है ।

जिसप्रकार पहले (१६२वीं गाथा में) एकान्त से ज्ञान को पर-प्रकाशकपना खण्डित किया गया है, उसीप्रकार अब यदि 'आत्मा केवल पर-प्रकाशक है' ऐसा माना जाये तो वह बात भी उसीप्रकार खण्डन प्राप्त करती है, क्योंकि *भाव और भाववान एक अस्तित्व से रचित होते हैं । पहले (१६२वीं गाथा में) ऐसा बतलाया था कि यदि ज्ञान (केवल) पर-प्रकाशक हो तो ज्ञान से दर्शन भिन्न सिद्ध होगा ! यहाँ (इस गाथा में) ऐसा समझना कि यदि आत्मा (केवल) पर-प्रकाशक हो तो आत्मा से ही दर्शन भिन्न सिद्ध होगा ! और यदि 'आत्मा पर-द्रव्यगत नहीं है (आत्मा केवल पर-प्रकाशक नहीं है, स्व-प्रकाशक भी है )' ऐसा (अब) माना जाये तो आत्मा से दर्शन की (सम्यक् प्रकार से) अभिन्नता सिद्ध होगी ऐसा समझना । इसलिये वास्तव में आत्मा स्व-पर प्रकाशक है । जिसप्रकार (१६२वीं गाथा में) ज्ञान का कथंचित् स्व-पर प्रकाशकपना सिद्ध हुआ उसीप्रकार आत्मा का भी समझना, क्योंकि अग्नि और उष्णता की भाँति धर्मी और धर्म का एक स्वरूप होता है ।

(कलश--हरिगीत)
इन्द्रियविषयहिमरवि सम्यग्दृष्टि निर्मल आतमा ।
रे ज्ञान-दर्शन धर्म से संयुक्त धर्मी आतमा ॥
में अचलता को प्राप्त कर जो मुक्तिरमणी को वरें ।
चिरकालतक वे जीव सहजानन्द में स्थित रहें ॥२७९॥

ज्ञान-दर्शन धर्मों से युक्त होने के कारण आत्मा वास्तव में धर्मी है । सकल इन्द्रिय समूहरूपी हिम को (नष्ट करने के लिये) सूर्य समान ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव उसी में (ज्ञान दर्शन धर्म युक्त आत्मा में ही) सदा अविचल स्थिति प्राप्त करके मुक्ति को प्राप्त होता है -- कि जो मुक्ति प्रगट हुई सहज दशारूप से सुस्थित है ।

*ज्ञान भाव है और आत्मा भाववान है ।

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+ व्यवहारनय की सफलता -
णाणं परप्पयासं ववहारणयेण दंसणं तम्हा ।
अप्पा परप्पयासो ववहारणयेण दंसणं तम्हा ॥164॥
ज्ञानं परप्रकाशं व्यवहारनयेन दर्शनं तस्मात् ।
आत्मा परप्रकाशो व्यवहारनयेन दर्शनं तस्मात ॥१६४॥
व्यवहार से है ज्ञान परगत, दर्श भी अतएव है ।
व्यवहार से है जीव परगत, दर्श भी अतएव है ॥१६४॥
अन्वयार्थ : [व्यवहारनयेन] व्यवहारनय से [ज्ञानं] ज्ञान [परप्रकाशं] परप्रकाशक है; [तस्मात्] इसलिये [दर्शनम्] दर्शन पर-प्रकाशक है । [व्यवहारनयेन] व्यवहारनय से [आत्मा] आत्मा [परप्रकाशः] पर-प्रकाशक है; [तस्मात्] इसलिये [दर्शनम्] दर्शन पर-प्रकाशक है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, व्यवहारनय की सफलता दर्शानेवाला कथन है ।

समस्त (ज्ञानावरणीय) कर्म का क्षय होने से प्राप्त होनेवाला सकल-विमल केवलज्ञान पुद्गलादि मूर्त-अमूर्त चेतन-अचेतन पर-द्रव्य-गुण-पर्याय समूह का प्रकाशक किसप्रकार है -- ऐसा यहाँ प्रश्न हो, तो उसका उत्तर यह है कि -- 'पराश्रितो व्यवहार: (व्यवहार पराश्रित है)' ऐसा (शास्त्र का) वचन होने से व्यवहारनय के बल से ऐसा है (पर-प्रकाशक है);

इसलिये दर्शन भी वैसा ही (व्यवहारनय के बल से पर-प्रकाशक) है । और तीन लोक के प्रक्षोभ के हेतुभूत तीर्थंकर-परमदेव को, कि जो सौ इन्द्रों की प्रत्यक्ष वंदना के योग्य हैं और कार्य-परमात्मा हैं उन्हें, ज्ञान की भाँति ही (व्यवहारनय के बल से) पर-प्रकाशकपना है; इसलिये व्यवहारनय के बल से उन भगवान का केवलदर्शन भी वैसा ही है ।

इसीप्रकार श्रुतबिन्दु में (श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
अरे जिनके ज्ञान में सब द्रव्य लोकालोक के ।
इसतरह प्रतिबिंबित हुए जैसे गुंथे हों परस्पर ॥
सुरपती नरपति मुकुटमणि की माल से अर्चित चरण ।
जयवंत हैं इस जगत में निर्दोष जिनवर के वचन ॥६५॥

जिन्होंने दोषों को जीता है, जिनके चरण देवेन्द्रों तथा नरेन्द्रों के मुकुटों में प्रकाशमान मूल्यवान मालाओं से पुजते हैं (जिनके चरणों में इन्द्र तथा चक्रवर्तियों के मणिमाला-युक्त मुकुटवाले मस्तक अत्यन्त झुकते हैं), और (लोकालोक के समस्त) पदार्थ एक-दूसरे में प्रवेश को प्राप्त न हों इसप्रकार तीन लोक और अलोक जिनमें एक साथ ही व्याप्त हैं (जो जिनेन्द्र को युगपत् ज्ञात होते हैं), वे जिनेन्द्र जयवन्त हैं ।

और

(कलश--हरिगीत)
ज्ञान का घनपिण्ड आतम अरे निर्मल दृष्टि से ।
है देखता सब लोक को इस लोक में व्यवहार से ॥
मूर्त और अमूर्त सब तत्त्वार्थ को है जानता ।
वह आतमा शिववल्लभा का परम वल्लभ जानिये ॥२८०॥

ज्ञानपुंज ऐसा यह आत्मा अत्यन्त स्पष्ट दर्शन होने पर (केवलदर्शन प्रगट होने पर) व्यवहारनय से सर्व-लोक को देखता है तथा (साथ में वर्तते हुए केवलज्ञान के कारण) समस्त मूर्त-अमूर्त पदार्थ समूह को जानता है । वह (केवल-दर्शन ज्ञान युक्त) आत्मा परमश्रीरूपी कामिनी का (मुक्ति-सुन्दरी का) वल्लभ होता है ।

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+ निश्चयनय से स्वरूप का कथन -
णाणं अप्पपयासं णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा ।
अप्पा अप्पपयासो णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा ॥165॥
ज्ञानमात्मप्रकाशं निश्चयनयेन दर्शनं तस्मात् ।
आत्मा आत्मप्रकाशो निश्चयनयेन दर्शनं तस्मात ॥१६५॥
है ज्ञान निश्चय निजप्रकाशक, इसलिये त्यों दर्श है ।
है जीव निश्चय निजप्रकाशक, इसलिये त्यों दर्श है ॥१६५॥
अन्वयार्थ : [निश्चयनयेन] निश्चयनय से [ज्ञानम्] ज्ञान[आत्मप्रकाशं] स्व-प्रकाशक है; [तस्मात्] इसलिये [दर्शनम्] दर्शन स्व-प्रकाशक है । [निश्चयनयेन] निश्चयनय से [आत्मा] आत्मा [आत्मप्रकाशः] स्व-प्रकाशक है; [तस्मात्] इसलिये [दर्शनम्] दर्शन स्व-प्रकाशक है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, निश्चयनय से स्वरूप का कथन है ।

यहाँ निश्चयनय से शुद्ध ज्ञान का लक्षण स्व-प्रकाशकपना कहा है; उसीप्रकार सर्व आवरण से मुक्त शुद्ध दर्शन भी स्व-प्रकाशक ही है । आत्मा वास्तव में, उसने सर्व इन्द्रिय व्यापार को छोड़ा होने से, स्व-प्रकाशक स्वरूप लक्षण से लक्षित है; दर्शन भी, उसने बहिर्विषयपना छोड़ा होने से, स्व-प्रकाशकत्व प्रधान ही है । इसप्रकार स्वरूप प्रत्यक्ष - लक्षण से लक्षित अखण्ड - सहज - शुद्ध ज्ञान दर्शनमय होने के कारण, निश्चय से, त्रिलोक - त्रिकालवर्ती स्थावर-जंगम स्वरूप समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायरूप विषयों सम्बन्धी प्रकाश्य - प्रकाशकादि विकल्पों से अति दूर वर्तता हुआ, स्व-स्वरूप संचेतन जिसका लक्षण है ऐसे प्रकाश द्वारा सर्वथा अंतर्मुख होने के कारण, आत्मा निरन्तर अखण्ड - अद्वैत - चैतन्य चमत्कारमूर्ति रहता है ।

(कलश--हरिगीत)
परमार्थ से यह निजप्रकाशक ज्ञान ही है आतमा ।
बाह्य आलम्बन रहित जो दृष्टि उसमय आतमा ॥
स्वरस के विस्तार से परिपूर्ण पुण्य-पुराण यह ।
निर्विकल्पक महिम एकाकार नित निज में रहे ॥२८१॥

निश्चय से आत्मा स्व-प्रकाशक ज्ञान है; जिसने बाह्य आलंबन नष्ट किया है ऐसा (स्व-प्रकाशक) जो साक्षात् दर्शन उस-रूप भी आत्मा है । एकाकार निजरस के फैलाव से पूर्ण होने के कारण जो पवित्र है तथा जो पुराण (सनातन) है ऐसा यह आत्मा सदा अपनी निर्विकल्प महिमा में निश्चितरूप से वास करता है ।

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+ शुद्धनिश्चयनय से पर-दर्शन का खण्डन -
अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण केवली भगवं ।
जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ ॥166॥
आत्मस्वरूपं पश्यति लोकालोकौ न केवली भगवान् ।
यदि कोपि भणत्येवं तस्य च किं दूषणं भवति ॥१६६॥
प्रभु केवली निजरूप देखें और लोकालोक ना ।
यदि कोइ यों कहता अरे उसमें कहो है दोष क्या ? ॥१६६॥
अन्वयार्थ : [केवली भगवान्] (निश्चय से) केवली भगवान [आत्मस्वरूपं] आत्म-स्वरूप को [पश्यति] देखते हैं, [न लोकालोकौ] लोकालोक को नहीं -- [एवं] ऐसा [यदि] यदि [कः अपि भणति] कोई कहे तो [तस्यच किं दूषणं भवति] उसे क्या दोष है ?

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, शुद्धनिश्चयनय की विवक्षा से पर दर्शन का (पर को देखने का) खण्डन है । यद्यपि व्यवहार से एक समय में तीन काल सम्बन्धी पुद्गलादि द्रव्य-गुण-पर्यायों को जानने में समर्थ सकल-विमल केवलज्ञानमयत्वादि विविध महिमाओं का धारण करनेवाला है, तथापि वह भगवान, केवलदर्शनरूप तृतीय लोचनवाला होने पर भी, परम निरपेक्षपने के कारण निःशेषरूप से (सर्वथा) अन्तर्मुख होने से केवल स्वरूप प्रत्यक्षमात्र व्यापार में लीन ऐसे निरंजन निज सहजदर्शन द्वारा सच्चिदानन्दमय आत्मा को निश्चय से देखता है (परन्तु लोकालोक को नहीं) — ऐसा जो कोई भी शुद्ध अन्तःतत्त्व का वेदन करनेवाला (जाननेवाला, अनुभव करनेवाला) परम जिनयोगीश्वर शुद्ध निश्चयनय की विवक्षा से कहता है, उसे वास्तव में दूषण नहीं है ।

(कलश--हरिगीत)
अत्यन्त अविचल और अन्तर्मग्न नित गंभीर है ।
शुद्धि का आवास महिमावंत जो अति धीर है ॥
व्यवहार के विस्तार से है पार जो परमातमा ।
उस सहज स्वातमराम को नित देखता यह आतमा ॥२८२॥

आत्मा सहज परमात्मा को देखता है -- कि जो परमात्मा एक है, विशुद्ध है, निज अन्तःशुद्धि का आवास होने से (केवल ज्ञानदर्शनादि) महिमा का धारण करनेवाला है, अत्यन्त धीर है और निज आत्मा में अत्यन्त अविचल होने से सर्वदा अन्तर्मग्न है । स्वभाव से महान ऐसे उस आत्मा में व्यवहार प्रपंच है ही नहीं । (निश्चय से आत्मा में लोकालोक को देखनेरूप व्यवहार विस्तार है ही नहीं)

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+ केवलज्ञान का स्वरूप -
मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च ।
पेच्छंतस्स दु णाणं पच्चक्खमणिंदियं होइ ॥167॥
मूर्तममूर्तं द्रव्यं चेतनमितरत् स्वकं च सर्वं च ।
पश्यतस्तु ज्ञानं प्रत्यक्षमतीन्द्रियं भवति ॥१६७॥
जो मूर्त और अमूर्त जड़ चेतन स्वपर सब द्रव्य हैं ।
देखे उन्हें उसको अतीन्द्रिय ज्ञान है, प्रत्यक्ष है ॥१६७॥
अन्वयार्थ : [मूर्तम् अमूर्तम्] मूर्त-अमूर्त [चेतनम् इतरत्] चेतन-अचेतन [द्रव्यं] द्रव्यों को, [स्वकं च सर्वं च] स्व को तथा समस्त को [पश्यतःतु] देखनेवाले (जाननेवाले का) [ज्ञानम्] ज्ञान [अतीन्द्रियं] अतीन्द्रिय है, [प्रत्यक्षम् भवति] प्रत्यक्ष है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, केवलज्ञान के स्वरूप का कथन है ।

छह द्रव्यों में पुद्गल को मूर्तपना है, (शेष) पाँच को अमूर्तपना है; जीव को ही चेतनपना है, (शेष) पाँच को अचेतनपना है । त्रिकाल सम्बन्धी मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन स्व-द्रव्यादि अशेष को (स्व तथा पर समस्त द्रव्यों को) निरन्तर देखनेवाले भगवान श्रीमद् अर्हत् परमेश्वर का जो क्रम, इन्द्रिय और *व्यवधान रहित, अतीन्द्रिय सकल-विमल (सर्वथा-निर्मल) केवलज्ञान वह सकल-प्रत्यक्ष है ।

इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री प्रवचनसार में कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
अमूर्त को अर मूर्त में भी अतीन्द्रिय प्रच्छन्न को ।
स्व-पर को सर्वार्थ को जाने वही प्रत्यक्ष है ॥५४॥

देखनेवाले का जो ज्ञान अमूर्त को, मूर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय को,और प्रच्छन्न को इन सबको - स्व को तथा पर को - देखता है, वह ज्ञान प्रत्यक्ष है ।

और

(कलश--हरिगीत)
अनंत शाश्वतधाम त्रिभुवनगुरु लोकालोक के ।
रे स्व-पर चेतन-अचेतन सर्वार्थ जाने पूर्णत: ॥
अरे केवलज्ञान जिनका तीसरा जो नेत्र है ।
विदित महिमा उसी से वे तीर्थनाथ जिनेन्द्र हैं ॥२८३॥

केवलज्ञान नाम का जो तीसरा उत्कृष्ट नेत्र उसी से जिनकी प्रसिद्ध महिमा है, जो तीन लोक के गुरु हैं और शाश्वत अनन्त जिनका *धाम है, ऐसे यह तीर्थनाथ जिनेन्द्र लोकालोक को अर्थात् स्व-पर ऐसे समस्त चेतन-अचेतन पदार्थों को सम्यक् प्रकार से (बराबर) जानते हैं ।

*धाम = (१) भव्यता; (२) तेज; (३) बल ।

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+ केवलदर्शन के अभाव में सर्वज्ञपना नहीं -
पुव्वुत्तसयलदव्वं णाणागुणपज्जएण संजुत्तं ।
जो ण य पेच्छइ सम्मं परोक्खदिट्ठी हवे तस्स ॥168॥
पूर्वोक्त सकलद्रव्यं नानागुणपर्यायेण संयुक्तम् ।
यो न च पश्यति सम्यक् परोक्षद्रष्टिर्भवेत्तस्य ॥१६८॥
जो विविध गुण पर्याय से संयुक्त सारी सृष्टि है ।
देखे न जो सम्यक् प्रकार, परोक्ष रे वह दृष्टि है ॥१६८॥
अन्वयार्थ : [नानागुणपर्यायेण संयुक्तम्] विविध गुणों और पर्यायों से संयुक्त [पूर्वोक्तसकलद्रव्यं] पूर्वोक्त समस्त द्रव्यों को [यः] जो [सम्यक्] सम्यक् प्रकारसे (बराबर) [न च पश्यति] नहीं देखता, [तस्य] उसे [परोक्षदृष्टिः भवेत्] परोक्ष दर्शन है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ, केवलदर्शन के अभाव में (प्रत्यक्ष दर्शन के अभाव में) सर्वज्ञपना नहीं होता ऐसा कहा है ।

समस्त गुणों और पर्यायों से संयुक्त पूर्वसूत्रोक्त (१६७वीं गाथा में कहे हुए) मूर्तादिद्रव्यों को जो नहीं देखता; - अर्थात् इन गुणपर्यायों से संयुक्त ऐसे उस द्रव्य-समूह को जो वास्तव में नहीं देखता, उसे (भले वह सर्वज्ञता के अभिमान से दग्ध हो तथापि) संसारियों की भाँति परोक्ष दृष्टि है ।

(कलश--हरिगीत)
'मैं स्वयं सर्वज्ञ हूँ' - इस मान्यता से ग्रस्त जो ।
पर नहीं देखे जगतत्रय त्रिकाल को इक समय में ॥
प्रत्यक्ष दर्शन है नहीं ज्ञानाभिमानी जीव को ।
उस जड़ात्मन को जगत में सर्वज्ञता हो किस तरह? ॥२८४॥

सर्वज्ञता के अभिमानवाला जो जीव शीघ्र एक ही काल में तीन जगत को तथा तीन काल को नहीं देखता, उसे सदा (कदापि) अतुल प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है; उस जड़ आत्मा को सर्वज्ञता किस प्रकार होगी ?

*संसारप्रपंच = संसार-विस्तार (संसारविस्तार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव - ऐसे पाँच परावर्तनरूप है ।)

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+ व्यवहारनय की प्रगटता -
लोयालोयं जाणइ अप्पाणं णेव केवली भगवं ।
जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ ॥169॥
लोकालोकौ जानात्यात्मानं नैव केवली भगवान् ।
यदि कोऽपि भणति एवं तस्य च किं दूषणं भवति ॥१६९॥
'भगवान केवलि लोक और अलोक जाने, आत्मना' ।
यदि कोई यों कहता अरे उसमें कहो है दोष क्या ? ॥१६९॥
अन्वयार्थ : [केवली भगवान्] (व्यवहार से) केवली भगवान [लोकालोकौ] लोकालोक को [जानाति] जानते हैं, [न एव आत्मानम्] आत्मा को नहीं - [एवं] ऐसा [यदि] यदि [कः अपि भणति] कोई कहे तो [तस्य चकिं दूषणं भवति] उसे क्या दोष है ?

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, व्यवहारनय की प्रगटता से कथन है ।

'पराश्रितो व्यवहारः (व्यवहारनय पराश्रित है )' ऐसे (शास्त्र के) अभिप्राय के कारण, व्यवहार से व्यवहारनय की प्रधानता द्वारा (व्यवहार से व्यवहारनय को प्रधान करके), 'सकल-विमल केवलज्ञान जिनका तीसरा लोचन है और अपुनर्भवरूपी सुन्दर कामिनी के जो जीवितेश हैं (मुक्तिसुन्दरी के जो प्राणनाथ हैं) ऐसे भगवान छह द्रव्यों से व्याप्त तीन लोक को और शुद्ध-आकाशमात्र अलोक को जानते हैं, निरुपराग (निर्विकार) शुद्ध-आत्मस्वरूप को नहीं ही जानते' -- ऐसा यदि व्यवहारनय की विवक्षा से कोई जिननाथ के तत्त्वविचार में निपुण जीव (जिनदेव ने कहे हुए तत्त्व के विचार में प्रवीण जीव) कदाचित् कहे, तो उसे वास्तव में दूषण नहीं है ।

इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री समन्तभद्रस्वामी ने (बृहत्स्वयंभूस्तोत्र में भी मुनिसुव्रतभगवान की स्तुति करते हुए ११४वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
उत्पादव्ययध्रुवयुत जगत यह वचन हे वदताम्बर: ।
सर्वज्ञता का चिह्न है हे सर्वदर्शि जिनेश्वर: ॥६७॥

हे जिनेन्द्र ! तू वक्ताओं में श्रेष्ठ है; 'चराचर (जङ्गम तथा स्थावर) जगत प्रतिक्षण (प्रत्येक समय में) उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लक्षणवाला है' ऐसा यह तेरा वचन (तेरी) सर्वज्ञता का चिह्न है ।

और

(कलश--हरिगीत)
रे केवली भगवान जाने पूर्ण लोक-अलोक को ।
पर अनघ निजसुखलीन स्वातम को नहीं वे जानते ॥
यदि कोई मुनिवर यों कहे व्यवहार से इस लोक में ।
उन्हें कोई दोष न बोलो उन्हें क्या दोष है ॥२८५॥

तीर्थनाथ वास्तव में समस्त लोक को जानते हैं और वे एक,अनघ (निर्दोष ), निज-सौख्यनिष्ठ (निज सुख में लीन) स्वात्मा को नहीं जानते -- ऐसा कोई मुनिवर व्यवहारमार्ग से कहे तो उसे दोष नहीं है ।

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+ 'जीव ज्ञान-स्वरूप है' ऐसा वितर्क से कथन -
णाणं जीवसरूवं तम्हा जाणेइ अप्पगं अप्पा ।
अप्पाणं ण वि जाणदि अप्पादो होदि विदिरित्तं ॥170॥
ज्ञानं जीवस्वरूपं तस्माज्जानात्यात्मकं आत्मा ।
आत्मानं नापि जानात्यात्मनो भवति व्यतिरिक्तम् ॥१७०॥
है ज्ञान जीवस्वरूप, इससे जीव जाने जीव को ।
निज को न जाने ज्ञान तो वह आतमा से भिन्न हो ॥१७०॥
अन्वयार्थ : [ज्ञानं] ज्ञान [जीवस्वरूपं] जीव का स्वरूप है,[तस्मात्] इसलिये [आत्मा] आत्मा [आत्मकं] आत्मा को [जानाति] जानता है; [आत्मानं न अपि जानाति] यदि ज्ञान आत्मा को न जाने तो [आत्मनः] आत्मा से [व्यतिरिक्तम्] व्यतिरिक्त (पृथक्) [भवति] सिद्ध हो !

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ (इस गाथा में) 'जीव ज्ञान-स्वरूप है' ऐसा वितर्क से (दलील से) कहा है ।

प्रथम तो, ज्ञान वास्तव में जीव का स्वरूप है; उस हेतु से, जो अखण्ड अद्वैत स्वभाव में लीन है, जो निरतिशय परम भावना सहित है, जो मुक्ति-सुन्दरी का नाथ है और बाह्य में जिसने कौतूहल व्यावृत्त किया है (बाह्य पदार्थों सम्बन्धी कुतूहल का जिसने अभाव किया है) ऐसे निज परमात्मा को कोई आत्मा, भव्य जीव, जानता है । -- ऐसा यह वास्तव में स्वभाववाद है । इससे विपरीत वितर्क (विचार ) वह वास्तव में विभाववाद है, प्राथमिक शिष्य का अभिप्राय है । वह (विपरीत वितर्क -- प्राथमिक शिष्य का अभिप्राय) किसप्रकार है ? (वह इसप्रकार है :-) 'पूर्वोक्त स्वरूप (ज्ञानस्वरूप) आत्मा को आत्मा वास्तव में जानता नहीं है, स्वरूप में अवस्थित रहता है (आत्मा में मात्र स्थित रहता है ) । जिस प्रकार उष्णता स्वरूप अग्नि के स्वरूप को (अग्नि को) क्या अग्नि जानती है ? उसीप्रकार ज्ञानज्ञेय सम्बन्धी विकल्प के अभाव से यह आत्मा आत्मा में (मात्र) स्थित रहता है (आत्मा को जानता नहीं है ) ।'

(उपरोक्त वितर्क का उत्तर :-) 'हे प्राथमिक शिष्य ! अग्नि की भाँति क्या यह आत्मा अचेतन है (कि जिससे वह अपने को न जाने) ? अधिक क्या कहा जाये ? (संक्षेप में) यदि उस आत्मा को ज्ञान न जाने तो वह ज्ञान, देवदत्त रहित कुल्हाड़ी की भाँति, अर्थक्रियाकारी सिद्ध नहीं होगा, और इसलिये वह आत्मा से भिन्न सिद्ध होगा ! वह तो (ज्ञान और आत्मा की सर्वथा भिन्नता तो) वास्तव में स्वभाववादियों को संमत नहीं है' । (इसलिये निर्णय कर कि ज्ञान आत्मा को जानता है ।)

इसीप्रकार (आचार्यवर ) श्री गुणभद्रस्वामी ने (आत्मानुशासन में १७४वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--दोहा)
ज्ञानस्वभावी आतमा स्वभावप्राप्ति है इष्ट ।
अत: मुमुक्षु जीव को ज्ञानभावना इष्ट ॥६८॥

आत्मा ज्ञानस्वभाव है; स्वभाव की प्राप्ति वह अच्युति (अविनाशी दशा) है; इसलिये अच्युति को (अविनाशीपने को, शाश्वत दशा को) चाहनेवाले जीव को ज्ञान की भावना भाना चाहिये ।

और -

(कलश-रोला)
शुद्धजीव तो एकमात्र है ज्ञानस्वरूपी ।
अत: आतमा निश्चित जाने निज आतम को ॥
यदि साधक न जाने स्वातम को प्रत्यक्ष तो ।
ज्ञान सिद्ध हो भिन्न निजातम से हे भगवन् ॥२८६॥

ज्ञान तो बराबर शुद्धजीव का स्वरूप है; इसलिये (हमारा) निज-आत्मा अभी (साधक दशा में) एक (अपने) आत्मा को नियम से (निश्चय से) जानता है । और, यदि वह ज्ञान प्रगट हुई सहज दशा द्वारा सीधा (प्रत्यक्षरूप से) आत्मा को न जाने तो वह ज्ञान अविचल आत्म-स्वरूप से अवश्य भिन्न सिद्ध होगा ।

और इसीप्रकार (अन्यत्र गाथा द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--दोहा)
ज्ञान अभिन है आत्म से अत: जाने निज आत्म ।
भिन्न सिद्ध हो वह यदि न जाने निज आत्म ॥६९॥

ज्ञान जीव से अभिन्न है इसलिये वह आत्मा को जानता है; यदि ज्ञान आत्मा को न जाने तो वह जीव से भिन्न सिद्ध होगा ।

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+ गुण-गुणी में भेद का अभाव होनेरूप स्वरूप का कथन -
अप्पाणं विणु णाणं णाणं विणु अप्पगो ण संदेहो ।
तम्हा सपरपयासं णाणं तह दंसणं होदि ॥171॥
आत्मानं विद्धि ज्ञानं ज्ञानं विद्धयात्मको न संदेहः ।
तस्मात्स्वपरप्रकाशं ज्ञानं तथा दर्शनं भवति ॥१७१॥
संदेह नहिं, है ज्ञान आत्मा, आतमा है ज्ञान रे ।
अतएव निजपर के प्रकाशक ज्ञान-दर्शन मान रे ॥१७१॥
अन्वयार्थ : [आत्मानं ज्ञानं विद्धि] आत्मा को ज्ञान जान, और [ज्ञानम् आत्मकः विद्धि] ज्ञान आत्मा है ऐसा जान; -- [न संदेहः] इसमें संदेह नहीं है । [तस्मात्] इसलिये [ज्ञानं] ज्ञान [तथा] तथा [दर्शनं] दर्शन [स्वपरप्रकाशं] स्व-पर प्रकाशक [भवति] है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, गुण - गुणी में भेद का अभाव होनेरूप स्वरूप का कथन है ।

हे शिष्य ! सर्व पर-द्रव्य से पराङ्मुख आत्मा को तू निज स्वरूप को जानने में समर्थ सहज ज्ञान-स्वरूप जान, तथा ज्ञान आत्मा है ऐसा जान । इसलिये तत्त्व (स्वरूप) ऐसा है कि ज्ञान तथा दर्शन दोनों स्व-पर प्रकाशक हैं । इसमें सन्देह नहीं है ।

(कलश--सोरठा)
आतम दर्शन-ज्ञान दर्श-ज्ञान है आतमा ।
यह सिद्धान्त महान स्व-पर प्रकाशे आतमा ॥२८७॥

आत्मा को ज्ञान-दर्शनरूप जान और ज्ञान-दर्शन को आत्मा जान; स्व और पर ऐसे तत्त्व को (समस्त पदार्थों को) आत्मा स्पष्टरूप से प्रकाशित करता है ।

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+ सर्वज्ञ वीतराग को वांछा का अभाव -
जाणंतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो ।
केवलिणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो ॥172॥
जानन् पश्यन्नीहापूर्वं न भवति केवलिनः ।
केवलज्ञानी तस्मात् तेन तु सोऽबन्धको भणितः ॥१७२॥
जानें तथा देखें तदपि इच्छा विना भगवान है ।
अतएव 'केवलज्ञानी' वे अतएव ही 'निर्बन्ध' है ॥१७२॥
अन्वयार्थ : [जानन् पश्यन्] जानते और देखते हुए भी,[केवलिनः] केवली को [ईहापूर्वं] इच्छापूर्वक (वर्तन ) [न भवति] नहीं होता; [तस्मात्] इसलिये उन्हें [केवलज्ञानी] 'केवलज्ञानी' कहा है; [तेन तु] और इसलिये [सः अबन्धकः भणितः] अबन्धक कहा है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ, सर्वज्ञ वीतराग को वांछा का अभाव होता है ऐसा कहा है ।

भगवान अर्हंत परमेष्ठी सादि-अनन्त अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाले शुद्ध-सद्भूत व्यवहार से केवलज्ञानादि शुद्ध-गुणों के आधारभूत होने के कारण विश्व को निरन्तर जानते हुए भी और देखते हुए भी, उन परम भट्टारक केवली को मन प्रवृत्ति का (मन की प्रवृत्ति का, भावमनपरिणति का) अभाव होने से इच्छापूर्वक वर्तन नहीं होता; इसलिये वे भगवान 'केवलज्ञानी' रूप से प्रसिद्ध हैं; और उस कारण से वे भगवान अबन्धक हैं ।

इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री प्रवचनसार में (५२वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
सर्वार्थ जाने जीव पर उनरूप न परिणमित हो ।
बस इसलिए है अबंधक ना ग्रहे ना उत्पन्न हो ॥७०॥

आत्मा पदार्थों को जानता हुआ भी उन-रूप परिणमित नहीं होता, उन्हें ग्रहण नहीं करता और उन पदार्थों रूप में उत्पन्न नहीं होता इसलिये उसे अबन्धक कहा है ।

अब

(कलश--हरिगीत)
सहज महिमावंत जिनवर लोक रूपी भवन में ।
थित सर्व अर्थों को अरे रे देखते अर जानते ॥
निर्मोंहता से सभी को नित ग्रहण करते हैं नहीं ।
कलिमल रहित सद्ज्ञान से वे लोक के साक्षी रहें ॥२८८॥

सहज महिमावंत देवाधिदेव जिनेश लोकरूपी भवन के भीतर स्थित सर्व पदार्थों को जानते हुए भी, तथा देखते हुए भी, मोह के अभाव के कारण समस्त पर को (किसी भी पर-पदार्थ को) नित्य (कदापि) ग्रहण नहीं ही करते; (परन्तु) जिन्होंने ज्ञान-ज्योति द्वारा मलरूप क्लेश का नाश किया है ऐसे वे जिनेश सर्व लोक के एक साक्षी (केवल ज्ञाता-दृष्टा) हैं ।

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+ वास्तव में ज्ञानी को बन्ध के अभाव -
परिणामपुव्ववयणं जीवस्स य बंधकारणं होइ ।
परिणामरहियवयणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो ॥173॥
ईहापुव्वं वयणं जीवस्स य बंधकारणं होइ ।
ईहारहियं वयणं तम्हा णाणिस्स ण हि बंधो ॥174॥
परिणामपूर्ववचनं जीवस्य च बंधकारणं भवति ।
परिणामरहितवचनं तस्माज्ज्ञानिनो न हि बंधः ॥१७३॥
ईहापूर्वं वचनं जीवस्य च बंधकारणं भवति ।
ईहारहितं वचनं तस्माज्ज्ञानिनो न हि बंधः ॥१७४॥
रे बन्ध कारण जीव को परिणामपूर्वक वचन हैं ।
है बन्ध ज्ञानी को नहीं परिणाम विरहित वचन है ॥१७३॥
है बन्ध कारण जीव को इच्छा सहित वाणी अरे ।
इच्छा रहित वाणी अतः ही बन्ध नहिं ज्ञानी करे ॥१७४॥
अन्वयार्थ : [परिणामपूर्ववचनं] परिणाम-पूर्वक (मन-परिणाम पूर्वक) वचन [जीवस्य च] जीव को [बंधकारणं] बन्ध का कारण [भवति] है; [परिणामरहितवचनं] (ज्ञानी को) परिणाम-रहित वचन होता है [तस्मात्] इसलिये [ज्ञानिनः] ज्ञानी को [हि] वास्तव में [बंधः न] बंध नहीं है ।
[ईहापूर्वं] इच्छापूर्वक [वचनं] वचन [जीवस्य च] जीव को [बंधकारणं] बन्ध का कारण [भवति] है; [ईहारहितं वचनं] (ज्ञानी को) इच्छा-रहित वचन होता है [तस्मात्] इसलिये [ज्ञानिनः] ज्ञानी को [हि] वास्तव में [बंधः न] बंध नहीं है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ वास्तव में ज्ञानी को बन्ध के अभाव का स्वरूप कहा है ।

सम्यग्ज्ञानी जीव कहीं कभी स्व-बुद्धिपूर्वक अर्थात् स्वमन-परिणामपूर्वक वचन नहीं बोलता । क्यों ? 'अमनस्काः केवलिनः (केवली मनरहित हैं )' ऐसा (शास्त्र का) वचन होने से । इस कारण से (ऐसा समझना कि) -- जीव को मन परिणति पूर्वक वचन बन्ध का कारण है ऐसा अर्थ है और मन परिणति पूर्वक वचन तो केवली को होता नहीं है; (तथा) इच्छापूर्वक वचन ही साभिलाष स्वरूप जीव को बन्ध का कारण है और केवली के मुखारविन्द से निकलती हुई, समस्त जनों के हृदय को आह्लाद के कारणभूत दिव्य-ध्वनि तो अनिच्छात्मक (इच्छा-रहित) होती है; इसलिये सम्यग्ज्ञानी को बन्ध का अभाव है ।

(कलश--हरिगीत)
ईहापूर्वक वचनरचनारूप न बस इसलिए ।
प्रकट महिमावंत जिन सब लोक के भरतार हैं ॥
निर्मोहता से उन्हें पूरण राग-द्वेषाभाव है ।
द्रव्य एवं भावमय कुछ बंध होगा किस तरह? ॥२८९॥

इनमें इच्छापूर्वक वचन-रचना का स्वरूप नहीं ही है; इसलिये वे प्रगट-महिमावंत हैं और समस्त लोक के एक (अनन्य) नाथ हैं । उन्हें द्रव्य-भाव स्वरूप ऐसा यह बन्ध किसप्रकार होगा ? (क्योंकि) मोह के अभाव के कारण उन्हें वास्तव में समस्त राग-द्वेषादि समूह तो है नहीं ।

(कलश--हरिगीत)
अरे जिनके ज्ञान में सब अर्थ हों त्रयलोक के ।
त्रयलोकगुरु चतुकर्मनाशक देव हैं त्रयलोक के ॥
न बंध है न मोक्ष है न मूर्छा न चेतना ।
वे नित्य निज सामान्य में ही पूर्णत: लवलीन हैं ॥२९०॥

समस्त लोक तथा उसमें स्थित पदार्थ-समूह जिनके सद्ज्ञान में स्थित हैं, वे (जिन भगवान) एक ही देव हैं । उन निकट (साक्षात्) जिन भगवान में न तो बन्ध है न मोक्ष, तथा उनमें न तो कोई मूर्छा है न कोई चेतना (क्योंकि द्रव्य-सामान्य का पूर्ण आश्रय है)

(कलश--हरिगीत)
धर्म एवं कर्म का परपंच न जिनदेव में ।
रे रागद्वेषाभाव से वे अतुल महिमावंत हैं ॥
वीतरागी शोभते श्रीमान् निज सुख लीन हैं ।
मुक्तिरमणी कंत ज्ञानज्योति से हैं छा गये ॥२९१॥

इन जिन भगवान में वास्तव में धर्म और कर्म का प्रपंच नहीं है (साधकदशा में जो शुद्धि और अशुद्धि के भेद-प्रभेद वर्तते हैं वे जिन-भगवान में नहीं हैं); राग के अभाव के कारण अतुल-महिमावन्त ऐसे वे (भगवान) वीतरागरूप से विराजते हैं । वे श्रीमान् (शोभावन्त भगवान) निज-सुख में लीन हैं, मुक्तिरूपी रमणी के नाथ हैं और ज्ञान-ज्योति द्वारा उन्होंने लोक के विस्तार को सर्वतः छा दिया है ।

साभिलाषस्वरूप = जिसका स्वरूप साभिलाष (इच्छायुक्त) हो ऐसे ।
मूर्च्छा = अभानपना; बेहोशी; अज्ञानदशा ।
चेतना = सभानपना; होश; ज्ञानदशा ।

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+ केवली को मन-रहितपना -
ठाणणिसेज्जविहारा ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो ।
तम्हा ण होइ बंधो साक्खट्ठं मोहणीयस्स ॥175॥
स्थाननिषण्णविहारा ईहापूर्वं न भवन्ति केवलिनः ।
तस्मान्न भवति बंधः साक्षार्थं मोहनीयस्य ॥१७५॥
अभिलाषयुक्त विहार, आसन, स्थान जिनवर को नहीं ।
निर्बन्ध इससे, बन्ध करता मोह-वश साक्षार्थ ही ॥१७५॥
अन्वयार्थ : [केवलिनः] केवली को [स्थाननिषण्णविहाराः] खड़े रहना, बैठना और विहार [ईहापूर्वं] इच्छापूर्वक [न भवन्ति] नहीं होते, [तस्मात्] इसलिये [बंध न भवति] उन्हें बन्ध नहीं है; [मोहनीयस्य] मोहनीयवश जीव को [साक्षार्थम्] इन्द्रिय-विषय सहितरूप से बन्ध होता है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, केवली भट्टारक को मन-रहितपने का प्रकाशन है (यहाँ केवली भगवान का मन-रहितपना दर्शाया है)

अर्हंतयोग्य परम लक्ष्मी से विराजमान, परमवीतराग सर्वज्ञ केवली भगवान को इच्छापूर्वक कोई भी वर्तन नहीं होता; इसलिये वे भगवान (कुछ) चाहते नहीं हैं, क्योंकि मन-प्रवृत्ति का अभाव है; अथवा, वे इच्छा-पूर्वक खड़े नहीं रहते, बैठते नहीं हैं अथवा श्रीविहारादिक नहीं करते, क्योंकि 'अमनस्काः केवलिनः (केवली मनरहित हैं)' ऐसा शास्त्र का वचन है । इसलिये उन तीर्थंकर - परमदेव को द्रव्य-भाव-स्वरूप चतुर्विध बंध (प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध और अनुभागबंध) नहीं होता । और, वह बंध (१) किस कारण से होता है तथा (२) किसे होता है ? (१) बन्ध मोहनीय-कर्म के विलास से उत्पन्न होता है । (२) 'अक्षार्थ' अर्थात् इन्द्रियार्थ (इन्द्रिय-विषय); अक्षार्थ सहित हो वह 'साक्षार्थ'; मोहनीयके वश हुए, साक्षार्थप्रयोजन (इन्द्रिय विषयरूप प्रयोजनवाले) संसारियों को ही बंध होता है ।

इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य देव प्रणीत) श्री प्रवचनसार में (४४वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
यत्न बिन ज्यों नारियों में सहज मायाचार त्यों ।
हो विहार उठना-बैठना अर दिव्यध्वनि अरहंत के ॥७१॥

उन अर्हंत भगवंतों को उस काल खड़े रहना, बैठना, विहार और धर्मोपदेश स्त्रियों के मायाचार की भाँति, स्वाभाविक ही (प्रयत्न बिना ही) होते हैं ।

(कलश--हरिगीत)
इन्द्र आसन कंप कारण महत केवलज्ञानमय ।
शिवप्रियामुखपद्मरवि सद्धर्म के रक्षामणि ॥
सर्ववर्तन भले हो पर मन नहीं है सर्वथा ।
पापाटवीपावक जिनेश्वर अगम्य महिमावंत हैं ॥२९२॥

देवेन्द्रों के आसन कम्पायमान होने के कारणभूत महा केवल-ज्ञान का उदय होने पर, जो मुक्ति-लक्ष्मीरूपी स्त्री के मुख-कमल के सूर्य हैं और सद्धर्म के *रक्षामणि हैं ऐसे पुराण-पुरुष को सर्व वर्तन भले हो तथापि मन सर्वथा नहीं होता; इसलिये वे (केवलज्ञानी पुराणपुरुष) वास्तव में अगम्य महिमावन्त हैं और पापरूपी वन को जलानेवाली अग्नि समान हैं ।

*रक्षामणि = आपत्तियों से अथवा पिशाच आदि से अपने को बचाने के लिये पहिना जानेवाला मणि । (केवलीभगवान सद्धर्म की रक्षा के लिये — असद्धर्म से बचनेके लिये — रक्षामणि हैं ।)

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+ शुद्ध जीव को स्वभावगति की प्राप्ति होने का उपाय -
आउस्स खयेण पुणो णिण्णासो होइ सेसपयडीणं ।
पच्छा पावइ सिग्घं लोयग्गं समयमेत्तेण ॥176॥
आयुषः क्षयेण पुनः निर्नाशो भवति शेषप्रकृतीनाम् ।
पश्चात्प्राप्नोति शीघ्रं लोकाग्रं समयमात्रेण ॥१७६॥
हो आयुक्षय से शेष सब ही कर्मप्रकृति विनाश रे ।
सत्वर समय में पहुँचते अर्हन्तप्रभु लोकाग्र रे ॥१७६॥
अन्वयार्थ : [पुनः] फिर (केवली को) [आयुषः क्षयेण] आयु के क्षय से [शेषप्रकृतीनाम्] शेष प्रकृतियों का [निर्नाशः] सम्पूर्ण नाश [भवति] होता है; [पश्चात्] फिर वे [शीघ्रं] शीघ्र [समयमात्रेण] समयमात्र में [लोकाग्रं] लोकाग्र में [प्राप्नोति] पहुँचते हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, शुद्ध जीव को स्वभावगति की प्राप्ति होने के उपाय का कथन है ।

स्वभाव गतिक्रियारूप से परिणत, छह *अपक्रम से रहित, सिद्धक्षेत्र सम्मुख भगवान को परम शुक्लध्यान द्वारा - कि जो (शुक्लध्यान) ध्यान-ध्येय-ध्याता सम्बन्धी, उसकी फल प्राप्ति सम्बन्धी तथा उसके प्रयोजन सम्बन्धी विकल्पों से रहित है और निज स्वरूप में अविचल स्थितिरूप है उसके द्वारा -- आयुकर्म का क्षय होने पर, वेदनीय, नाम और गोत्रनाम की शेष प्रकृतियों का सम्पूर्ण नाश होता है (भगवान को शुक्लध्यान द्वारा आयुकर्म का क्षय होने पर शेष तीन कर्मों का भी क्षय होता है और सिद्धक्षेत्र की ओर स्वभाव गतिक्रिया होती है) । शुद्ध निश्चयनय से सहजमहिमावाले निज स्वरूप में लीन होने पर भी व्यवहार से वे भगवान अर्ध क्षण में (समयमात्र में) लोकाग्र में पहुँचते हैं ।

(कलश--दोहा)
छह अपक्रम से सहित हैं जो संसारी जीव ।
उनसे लक्षण भिन्न हैं सदा सुखी सिध जीव ॥२९३॥

जो छह अपक्रम सहित हैं ऐसे भववाले जीवों के (संसारियों के) लक्षण से सिद्धों का लक्षण भिन्न है, इसलिये वे सिद्ध ऊर्ध्वगामी हैं और सदा शिव (निरन्तर सुखी) हैं ।

(कलश--वीर)
देव और विद्याधरगण से नहीं वंद्य प्रत्यक्ष जहान ।
बंध छेद से अतुलित महिमा धारक हैं जो सिद्ध महान ॥
अरे लोक के अग्रभाग में स्थित हैं व्यवहार बखान ।
रहें सदा अविचल अपने में यह है निश्चय का व्याख्यान ॥२९४॥

बन्ध का छेदन होने से जिनकी अतुल महिमा है ऐसे (अशरीरीऔर लोकाग्रस्थित) सिद्ध भगवान अब देवों और विद्याधरों के प्रत्यक्ष स्तवन का विषय नहीं ही हैं ऐसा प्रसिद्ध है । वे देवाधिदेव व्यवहार से लोक के अग्र में सुस्थित हैं और निश्चय से निज आत्मा में ज्यों के त्यों अत्यन्त अविचलरूप से रहते हैं ।

(कलश--दोहा)
पंचपरावर्तन रहित पंच भवों से पार ।
पंचसिद्ध बंदौ सदा पंचमोक्षदातार ॥२९५॥

(द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव -- ऐसे पाँच परावर्तनरूप) पाँच प्रकार के संसार से मुक्त, पाँच प्रकार के मोक्षरूपी फल को देनेवाले (द्रव्यपरावर्तन, क्षेत्रपरावर्तन, कालपरावर्तन, भवपरावर्तन और भावपरावर्तन से मुक्त करनेवाले), पाँच प्रकार सिद्धों को (पाँच प्रकार की मुक्ति को, सिद्धि को, प्राप्त सिद्ध भगवन्तों को) मैं पाँच प्रकार के संसार से मुक्त होने के लिये वन्दन करता हूँ ।

*संसारी जीव को अन्य भव में जाते समय 'छह-दिशाओं में गमन' होता है; उसे 'छह अपक्रम' कहा जाता है ।

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+ कारण-परमतत्त्व का स्वरूप -
जाइजरमरणरहियं परमं कम्मट्ठवज्जियं सुद्धं ।
णाणाइचउसहावं अक्खयमविणासमच्छेयं ॥177॥
जातिजरामरणरहितं परमं कर्माष्टवर्जितं शुद्धम् ।
ज्ञानादिचतुःस्वभावं अक्षयमविनाशमच्छेद्यम् ॥१७७॥
विन कर्म, परम, विशुद्ध, जन्म-जरा-मरण से हीन है ।
ज्ञानादि चार स्वभावमय, अक्षय, अछेद, अछीन है ॥१७७॥
अन्वयार्थ : (परमात्मतत्त्व) [जातिजरामरणरहितम्] जन्म -जरा - मरण रहित, [परमम्] परम, [कर्माष्टवर्जितम्] आठ कर्म रहित, [शुद्धम्] शुद्ध,[ज्ञानादि-चतुःस्वभावम्] ज्ञानादिक चार स्वभाववाला, [अक्षयम्] अक्षय, [अविनाशम्] अविनाशी और [अच्छेद्यम्] अच्छेद्य है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
(जिसका सम्पूर्ण आश्रय करने से सिद्ध हुआ जाता है ऐसे) कारण-परमतत्त्व के स्वरूप का यह कथन है ।

(कारण परमतत्त्व ऐसा है :-)

(कलश--वीर)
राग-द्वेष के द्वन्द्वों में जो नहीं रहे अघनाशक है ।
अखिल पापवन के समूह को दावानल सम दाहक है ॥
अविचल और अखंड ज्ञानमय दिव्य सुखामृत धारक है ।
अरे भजो निज आतम को जो विमलबोध का दायक है ॥२९६॥

अविचल, अखण्डज्ञानरूप, अद्वंद्वनिष्ठ (रागद्वेषादि द्वंद्व में जो स्थित नहीं है) और समस्त पाप के दुस्तर समूह को जलाने में दावानल समान, ऐसे स्वोत्पन्न (अपने से उत्पन्न होनेवाले) दिव्य सुखामृत को (दिव्यसुखामृत स्वभावी आत्मतत्त्व को), कि जिसे तू भज रहा है उसे, भज; उससे तुझे सकल-विमल ज्ञान (केवलज्ञान) होगा ही ।

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+ परमात्म तत्त्व निरुपाधि स्वरूप -
अव्वाबाहमणिंदियमणोवमं पुण्णपावणिम्मुक्कं ।
पुणरागमणविरहियं णिच्चं अचलं अणालंबं ॥178॥
अव्याबाधमतीन्द्रियमनुपमं पुण्यपापनिर्मुक्तम् ।
पुनरागमनविरहितं नित्यमचलमनालंबम् ॥१७८॥
निर्बाध, अनुपम अरु अतीन्द्रिय, पुण्य-पाप विहीन है ।
निश्चल, निरालम्बन, अमर-पुनरागमन से हीन है ॥१७८॥
अन्वयार्थ : (परमात्मतत्त्व) [अव्याबाधम्] अव्याबाध,[अतीन्द्रियम्] अतीन्द्रिय, [अनुपमम्] अनुपम, [पुण्यपापनिर्मुक्तम्] पुण्यपाप रहित, [पुनरागमन-विरहितम्] पुनरागमन रहित, [नित्यम्] नित्य, [अचलम्] अचल और [अनालंबम्] निरालम्ब है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ भी, निरुपाधि स्वरूप जिसका लक्षण है ऐसा परमात्म तत्त्व कहा है ।

(परमात्मतत्त्व ऐसा है :-)

इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में १३८वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत )
अपदपद में मत्त नित अन्धे जगत के प्राणियों ।
यह पद तुम्हारा पद नहीं निज जानकर क्यों सो रहे ॥
जागो इधर आओ रहो नित मगन परमानंद में ।
हो परमपदमय तुम स्वयं तुम स्वयं हो चैतन्यमय ॥७२॥

हे अंधप्राणियों ! अनादि संसार से लेकर पर्याय-पर्याय में यह रागी जीव सदैव मत्त वर्तते हुए जिसपद में सो रहे हैं / नींद ले रहे हैं वह पद (स्थान) अपद है - अपद है, (तुम्हारा स्थान नहीं है) ऐसा तुम समझो । इस ओर आओ - इस ओर आओ, (यहाँ निवास करो) तुम्हारा पद यह है - यह है जहाँ शुद्ध -शुद्ध चैतन्यधातु निज रस की अतिशयता के कारण स्थायीभावपने को प्राप्त है (स्थिर है — अविनाशी है)(यहाँ ‘शुद्ध’ शब्द दो बार कहा है वह द्रव्य और भाव दोनों की शुद्धता सूचित करता है । सर्व अन्य द्रव्यों से पृथक् होने के कारण आत्मा द्रव्य से शुद्ध है और पर के निमित्त से होनेवाले अपने भावों से रहित होने के कारण भाव से शुद्ध है ।)

और

(कलश--वीर )
भाव पाँच हैं उनमें पंचम परमभाव सुखदायक है ।
सम्यक् श्रद्धा धारकगोचर भवकारण का नाशक है ॥
परमशरण है इस कलियुग में एकमात्र अघनाशक है ।
इसे जान ध्यावें जो मुनि वे सघन पापवन पावक हैं ॥२९७॥

भाव पाँच हैं, जिनमें यह परम पंचम भाव (परम-पारिणामिकभाव) निरन्तर स्थायी है, संसार के नाश का कारण है और सम्यग्दृष्टियों को गोचर है । बुद्धिमान पुरुष समस्त राग-द्वेष के समूह को छोड़कर तथा उस परम पंचम भाव को जानकर, अकेला, कलियुग में पापवन की अग्निरूप मुनिवर के रूप में शोभा देता है (जो बुद्धिमान पुरुष परम पारिणामिक भाव का उग्ररूप से आश्रय करता है, वही एक पुरुष पापवन को जलाने में अग्नि समान मुनिवर है )

अध्यात्म-शास्त्रों में अनेक स्थानों पर पाप तथा पुण्य दोनों को 'अघ' अथवा 'पाप' कहा जाता है ।
पुनरागमन = (चार गतियों में से किसी गति में) फिर से आना; पुनः जन्म धारण करना सो ।
नित्य मरण = प्रतिसमय होनेवाला आयुकर्म के निषेकों का क्षय

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+ परमतत्त्व में सांसारिक विकारसमूह का अभाव -
णवि दुक्खं णवि सुक्खं णवि पीडा णेव विज्जदे बाहा ।
णवि मरणं णवि जणणं तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥179॥
नापि दुःखं नापि सौख्यं नापि पीडा नैव विद्यते बाधा ।
नापि मरणं नापि जननं तत्रैव च भवति निर्वाणम् ॥१७९॥
दुख-सुख नहीं, पीड़ा जहाँ नहिं और बाधा है नहीं ।
नहिं जन्म है, नहिं मरण है, निर्वाण जानों रे वहीं ॥१७९॥
अन्वयार्थ : [न अपि दुःखं] जहाँ दुःख नहीं है, [न अपिसौख्यं] सुख नहीं है, [न अपि पीड़ा] पीड़ा नहीं है, [न एव बाधा विद्यते] बाधा नहीं है, [न अपि मरणं] मरण नहीं है, [न अपि जननं] जन्म नहीं है, [तत्र एव च निर्वाणम् भवति] वहीं निर्वाण है (अर्थात् दुःखादिरहित परमतत्त्व में ही निर्वाण है )

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ, (परमतत्त्व को) वास्तव में सांसारिक विकारसमूह के अभाव के कारण निर्वाण है ऐसा कहा है ।

सतत अन्तर्मुखाकार परम - अध्यात्मस्वरूप में लीन ऐसे उस निरुपराग रत्नत्रयात्मक परमात्मा को -- ऐसे लक्षणों से लक्षित, अखण्ड, विक्षेप-रहित परम-तत्त्व को सदा निर्वाण है ।

(कलश--वीर )
भव सुख-दुख अर जनम-मरण की पीड़ा नहीं रंच जिनके ।
शत इन्द्रों से वंदित निर्मल अद्भुत चरण कमल जिनके ॥
उन निर्बाध परम आतम को काम कामना को तजकर ।
नमन करूँ स्तवन करूँ मैं सम्यक् भाव भाव भाकर ॥२९८॥

इस लोक में जिसे सदा भवभव के सुखदुःख नहीं हैं, बाधा नहीं है, जन्म, मरण और पीड़ा नहीं है, उसे (उस परमात्मा को) मैं, मुक्ति सुख की प्राप्ति हेतु, कामदेव के सुख से विमुख वर्तता हुआ नित्य नमन करता हूँ, उसका स्तवन करता हूँ, सम्यक् प्रकार से भाता हूँ ।

(कलश--दोहा)
आत्मसाधना से रहित है अपराधी जीव ।
नमूँ परम आनन्दघर आतमराम सदीव ॥२९९॥

आत्मा की आराधना रहित जीव को सापराध (अपराधी) माना गया है । (इसलिये) मैं आनन्द मन्दिर आत्मा को (आनन्द के घररूप निजात्मा को) नित्य नमन करता हूँ ।

निर्वाण = मोक्ष; मुक्ति । (परम तत्त्व विकार-रहित होने से द्रव्य-अपेक्षा से सदा मुक्त ही है । इसलिये मुमुक्षुओं को ऐसा समझना चाहिये कि विकार-रहित परमतत्त्व के सम्पूर्ण आश्रय / श्रद्धान-ज्ञान-आचरण से ही वह परमतत्त्व अपनी स्वाभाविक मुक्त-पर्याय में परिणमित होता है । )
सतत अन्तर्मुखाकार = निरन्तर अन्तर्मुख जिसका आकार अर्थात् रूप है ऐसे ।
निरुपराग = निर्विकार; निर्मल ।
यातना = वेदना; पीड़ा । (शरीर वेदना की मूर्ति है ।)

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+ परमतत्त्व का स्वरूप -
णवि इंदिय उवसग्गा णवि मोहो विम्हिओ ण णिद्दा य ।
ण य तिण्हा णेव छुहा तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥180॥
नापि इन्द्रियाः उपसर्गाः नापि मोहो विस्मयो न निद्रा च ।
न च तृष्णा नैव क्षुधा तत्रैव च भवति निर्वाणम् ॥१८०॥
इन्द्रिय जहाँ नहिं, मोह नहिं, उपसर्ग, विस्मय भी नहीं ।
निद्रा, क्षुधा, तृष्णा नहीं, निर्वाण जानो रे वहीं ॥१८०॥
अन्वयार्थ : [न अपि इन्द्रियाः उपसर्गाः] जहाँ इन्द्रियाँ नहींहैं, उपसर्ग नहीं हैं, [न अपि मोहः विस्मयः] मोह नहीं है, विस्मय नहीं है, [न निद्रा च] निद्रा नहीं है, [न च तृष्णा] तृषा नहीं है, [न एव क्षुधा] क्षुधा नहीं है, [तत्र एव च निर्वाणम् भवति] वहीं निर्वाण है (इन्द्रियादि रहित परमतत्त्व में ही निर्वाण है )

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, परम निर्वाण के योग्य परमतत्त्व के स्वरूप का कथन है ।

(परमतत्त्व ) *अखण्ड - एकप्रदेशी - ज्ञानस्वरूप होने के कारण (उसे) स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र नाम की पाँच इन्द्रियों के व्यापार नहीं हैं तथा देव, मानव, तिर्यञ्च और अचेतनकृत उपसर्ग नहीं हैं; क्षायिक-ज्ञानमय और यथाख्यात-चारित्रमय होने के कारण (उसे) दर्शन-मोहनीय और चारित्र-मोहनीय ऐसे भेदवाला दो प्रकार का मोहनीय नहीं है; बाह्य-प्रपंच से विमुख होने के कारण (उसे) विस्मय नहीं है; नित्य - प्रकटित शुद्ध-ज्ञानस्वरूप होने के कारण (उसे) निद्रा नहीं है; असातावेदनीय कर्म को निर्मूल कर देने के कारण (उसे) क्षुधा और तृषा नहीं है । उस परम ब्रह्म में (परमात्म तत्त्व में) सदा ब्रह्म (निर्वाण) है ।

इसीप्रकार (श्रीयोगीन्द्रदेवकृत) अमृताशीति में (५८वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--रोला)
जनम जरा ज्वर मृत्यु भी है पास न जिसके ।
गती-अगति भी नाहिं है उस परमतत्त्व को ॥
गुरुचरणों की सेवा से निर्मल चित्तवाले ।
तन में रहकर भी अपने में पा लेते हैं ॥७३॥

जहाँ (जिस तत्त्व में) ज्वर, जन्म और जरा की वेदना नहीं है, मृत्यु नहीं है, गति या आगति नहीं है, उस तत्त्व का अति निर्मल चित्तवाले पुरुष, शरीर में स्थित होने पर भी, गुण में बड़े ऐसे गुरु के चरण-कमल की सेवा के प्रसाद से अनुभव करते हैं ।

और

(कलश--रोला)
अनुपम गुण से शोभित निर्विकल्प आतम में ।
अक्षविषमवर्तन तो किंचित्मात्र नहीं है ॥
भवकारक गुणमोह आदि भी जिसमें न हों ।
उसमें निजगुणरूप एक निर्वाण सदा है ॥३००॥

अनुपम गुणों से अलंकृत और निर्विकल्प ऐसे जिस ब्रह्म में (आत्मतत्त्व में) इन्द्रियों का अति विविध और विषम वर्तन किंचित् भी नहीं ही है, तथा संसार के मूलभूत अन्य (मोह - विस्मयादि) संसारी गुणसमूह नहीं ही हैं, उस ब्रह्म में सदा निजसुखमय एक निर्वाण प्रकाशमान है ।


खण्ड-रहित अभिन्न-प्रदेशी ज्ञान परम-तत्त्व का स्वरूप है इसलिये परम-तत्त्व को इन्द्रियाँ और उपसर्ग नहीं हैं ।
मोह, विस्मय आदि दोष संसारियों के गुण हैं -- कि जो संसार के कारणभूत हैं ।

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+ कर्म-रहित तथा विकल्प रहित परमतत्त्व -
णवि कम्मं णोकम्मं णवि चिंता णेव अट्टरुद्दाणि ।
णवि धम्मसुक्कझाणे तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥181॥
नापि कर्म नोकर्म नापि चिन्ता नैवार्तरौद्रे ।
नापि धर्मशुक्लध्याने तत्रैव च भवति निर्वाणम् ॥१८१॥
रे कर्म नहिं नोकर्म, चिंता, आर्तरौद्र जहाँ नहीं ।
है धर्म-शुक्ल सुध्यान नहिं, निर्वाण जानो रे वहीं ॥१८१॥
अन्वयार्थ : [न अपि कर्म नोकर्म] जहाँ कर्म और नोकर्म नहीं है, [न अपि चिन्ता] चिन्ता नहीं है, [न एव आर्तरौद्रे] आर्त और रौद्र ध्यान नहीं हैं, [न अपि धर्मशुक्लध्याने] धर्म और शुक्ल ध्यान नहीं हैं, [तत्र एव च निर्वाणम् भवति] वहीं निर्वाण है (अर्थात् कर्मादिरहित परमतत्त्वमें ही निर्वाण है)

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, सर्व कर्मों से विमुक्त (रहित) तथा शुभ, अशुभ और शुद्धध्यान तथा ध्येय के विकल्पों से विमुक्त परमतत्त्व के स्वरूप का कथन है ।

(परमतत्त्व)वहीं महा-आनन्द है ।

(कलश--रोला)
जिसने घाता पापतिमिर उस शुद्धातम में ।
कर्म नहीं हैं और ध्यान भी चार नहीं हैं ॥
निर्वाण स्थित शुद्ध तत्त्व में मुक्ति है वह ।
मन-वाणी से पार सदा शोभित होती है ॥३०१॥

जो निर्वाण में स्थित है, जिसने पापरूपी अंधकार के समूह का नाश किया है और जो विशुद्ध है, उसमें (उस परम-ब्रह्म में) अशेष (समस्त) कर्म नहीं है तथा वे चार ध्यान नहीं हैं । उस सिद्धरूप भगवान ज्ञानपुंज परमब्रह्म में कोई ऐसी मुक्ति है कि जो वचन और मन से दूर है ।

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+ सिद्ध के स्वभावगुण -
विज्जदि केवलणाणं केवलसोक्खं च केवलं विरियं ।
केवलदिट्ठि अमुत्तं अत्थित्तं सप्पदेसत्तं ॥182॥
विद्यते केवलज्ञानं केवलसौख्यं च केवलं वीर्यम् ।
केवलद्रष्टिरमूर्तत्वमस्तित्वं सप्रदेशत्वम् ॥१८२॥
दृग्-ज्ञान केवल, सौख्य केवल और केवल वीर्यता ।
होते उन्हें सप्रदेशता, अस्तित्व, मूर्तिविहीनता ॥१८२॥
अन्वयार्थ : [केवलज्ञानं] (सिद्ध भगवान को) केवलज्ञान, [केवलदृष्टिः] केवलदर्शन, [केवलसौख्यं च] केवलसुख, [केवलं वीर्यम्] केवलवीर्य, [अमूर्तत्वम्] अमूर्तत्व, [अस्तित्वं] अस्तित्व और [सप्रदेशत्वम्] सप्रदेशत्व [विद्यते] होते हैं ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, भगवान सिद्ध के स्वभावगुणों के स्वरूप का कथन है ।

निरवशेषरूप से अन्तर्मुखाकार (सर्वथा अन्तर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसे), स्वात्माश्रित निश्चय - परमशुक्लध्यान के बल से ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मों का विलय होने पर, उस कारण से भगवान सिद्धपरमेष्ठी को केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलवीर्य, केवलसुख, अमूर्तत्व, अस्तित्व, सप्रदेशत्व आदि स्वभावगुण होते हैं ।

(कलश--रोला)
बंध-छेद से नित्य शुद्ध प्रसिद्ध सिद्ध में ।
ज्ञानवीर्यसुखदर्शन सब क्षायिक होते हैं ॥
गुणमणियों के रत्नाकर नित शुद्ध शुद्ध हैं ।
सब विषयों के ज्ञायक दर्शक शुद्ध सिद्ध हैं ॥३०२॥

बन्ध के छेदन के कारण, भगवान तथा नित्यशुद्ध ऐसे उस प्रसिद्ध सिद्ध में (सिद्ध परमेष्ठी में) सदा अत्यन्तरूप से यह केवलज्ञान होता है, समग्र जिसका विषय है ऐसा साक्षात् दर्शन होता है, आत्यंतिक सौख्य होता है तथा शुद्धशुद्ध ऐसा वीर्यादिक अन्य गुणरूपी मणियों का समूह होता है ।

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+ सिद्धि और सिद्ध के एकत्व का प्रतिपादन -
णिव्वाणमेव सिद्धा सिद्धा णिव्वाणमिदि समुद्दिट्ठा ।
कम्मविमुक्को अप्पा गच्छइ लोयग्गपज्जंतं ॥183॥
निर्वाणमेव सिद्धाः सिद्धा निर्वाणमिति समुद्दिष्टाः ।
कर्मविमुक्त आत्मा गच्छति लोकाग्रपर्यन्तम् ॥१८३॥
निर्वाण ही तो सिद्ध है, है सिद्ध ही निर्वाण रे ।
हो कर्म से प्रविमुक्त आत्मा पहुँचता लोकान्त रे ॥१८३॥
अन्वयार्थ : [निर्वाणम् एव सिद्धाः] निर्वाण ही सिद्ध हैं और[सिद्धाः निर्वाणम्] सिद्ध वह निर्वाण है [इति समुद्दिष्टाः] ऐसा (शास्त्र में) कहा है । [कर्मविमुक्तः आत्मा] कर्मसे विमुक्त आत्मा [लोकाग्रपर्यन्तम्] लोकाग्र पर्यंत [गच्छति] जाता है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, सिद्धि और सिद्ध के एकत्व के प्रतिपादन सम्बन्ध में है ।

निर्वाण शब्द के यहाँ दो अर्थ हैं । किसप्रकार ? 'निर्वाण ही सिद्ध हैं' ऐसा (शास्त्र का) वचन होने से । सिद्ध सिद्धक्षेत्र में रहते हैं ऐसा व्यवहार है, निश्चय से तो भगवन्त निज स्वरूप में रहते हैं; उस कारण से 'निर्वाण ही सिद्ध हैं और सिद्ध वह निर्वाण है' ऐसे इसप्रकार द्वारा निर्वाण शब्द का और सिद्ध शब्द का एकत्व सफल हुआ । तथा, जो कोई आसन्न-भव्य जीव परमगुरु के प्रसाद द्वारा प्राप्त परमभाव की भावना द्वारा सकल कर्म-कलंकरूपी कीचड़ से विमुक्त होता है, वह परमात्मा होकर लोकाग्र पर्यंत जाता है ।

(कलश--रोला)
जिनमत संत मुक्ति एवं मुक्तजीव में ।
हम युक्ति आगम से कोई भेद न जाने ॥
यदि कोई भवि सब कर्मों का क्षय करता है ।
तो वह परमकामिनी का वल्लभ होता है ॥३०३ ॥

जिनसंमत मुक्ति में और मुक्त जीव में हम कहीं भी युक्ति से या आगम से भेद नहीं जानते । तथा, इस लोक में यदि कोई भव्य जीव सर्व कर्म को निर्मूल करता है, तो वह परमश्रीरूपी (मुक्तिलक्ष्मीरूपी) कामिनी का वल्लभ होता है ।

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+ सिद्धक्षेत्र से ऊपर जीव-पुद्गलों के गमन का निषेध -
जीवाण पुग्गलाणं गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थी ।
धम्मत्थिकायभावे तत्तो परदो ण गच्छंति ॥184॥
जीवानां पुद्गलानां गमनं जानीहि यावद्धर्मास्तिकः ।
धर्मास्तिकायाभावे तस्मात्परतो न गच्छंति ॥१८४॥
जानो वहीं तक जीव-पुद्गलगति, जहाँ धर्मास्ति है ।
धर्मास्तिकाय-अभाव में आगे गमन की नास्ति है ॥१८४॥
अन्वयार्थ : [यावत् धर्मास्तिकः] जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहाँ तक [जीवानां पुद्गलानां] जीवों का और पुद्गलों का [गमनं] गमन [जानीहि] जान; [धर्मास्तिकायाभावे] धर्मास्तिकाय के अभाव में [तस्मात् परतः] उससे आगे [न गच्छंति] वे नहीं जाते ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ, सिद्धक्षेत्र से ऊपर जीव-पुद्गलों के गमन का निषेध किया है ।

जीवों की स्वभाव-क्रिया सिद्धि-गमन (सिद्धक्षेत्र में गमन) है और विभाव-क्रिया छह दिशा में गमन है; पुद्गलों की स्वभाव-क्रिया परमाणु की गति है और विभाव-क्रिया *द्वि-अणुकादि स्कन्धों की गति है । इसलिये इनकी (जीव पुद्गलों की) गतिक्रिया त्रिलोक के शिखर से ऊपर नहीं है, क्योंकि आगे गतिहेतु (गति के निमित्तभूत) धर्मास्तिकाय का अभाव है; जिसप्रकार जल के अभाव में मछलियों की गतिक्रिया नहीं होती उसीप्रकार । इसी से, जहाँ तक धर्मास्तिकाय है उस क्षेत्र तक स्वभाव गतिक्रिया और विभाव गतिक्रियारूप से परिणत जीव-पुद्गलों की गति होती है ।

(कलश--रोला)
तीन लोक के शिखर सिद्ध स्थल के ऊपर ।
गति हेतु के कारण का अभाव होने से ॥
अरे कभी भी पुद्गल जीव नहीं जाते हैं ।
आगम में यह तथ्य उजागर किया गया है ॥३०४॥

गतिहेतु के अभाव के कारण, सदा (कदापि) त्रिलोक के शिखर से ऊपर जीव और पुद्गल दोनों का गमन नहीं ही होता ।

*द्वि-अणुकादि स्कन्ध = दो परमाणुओं से लेकर अनन्त परमाणुओं के बने हुए स्कन्ध ।

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+ नियम शब्द का तथा उसके फल का उपसंहार -
णियमं णियमस्स फलं णिद्दिट्ठं पवयणस्स भत्तीए ।
पुव्वावरविरोधो जदि अवणीय पूरयंतु समयण्हा ॥185॥
नियमो नियमस्य फलं निर्दिष्टं प्रवचनस्य भक्त्या ।
पूर्वापरविरोधो यद्यपनीय पूरयंतु समयज्ञाः ॥१८५॥
जिनदेव-प्रवचन-भक्तिबल से नियम, तत्फल में कहे ।
यदि हो कहीं, समयज्ञ पूर्वापर विरोध सुधारिये ॥१८५॥
अन्वयार्थ : [नियमः] नियम और [नियमस्य फलं] नियम का फल [प्रवचनस्य भक्त्या] प्रवचन की भक्ति से [निर्दिष्टम्] दर्शाये गये । [यदि] यदि (उसमें कुछ) [पूर्वापरविरोधः] पूर्वापर (आगे पीछे) विरोध हो तो [समयज्ञाः] समयज्ञ (आगमके ज्ञाता) [अपनीय] उसे दूर करके [पूरयंतु] पूर्ति करना ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, शास्त्रके आदि में लिये गये नियम शब्द का तथा उसके फल का उपसंहार है ।

प्रथम तो, नियम शुद्ध-रत्नत्रय के व्याख्यान स्वरूप में प्रतिपादित किया गया; उसका फल परम निर्वाण के रूप में प्रतिपादित किया गया । यह सब कवित्व के अभिमान से नहीं किन्तु प्रवचन की भक्ति से प्रतिपादित किया गया है । यदि (उसमें कुछ) पूर्वापर दोष हो तो समयज्ञ परम कवीश्वर दोषात्मक पद का लोप करके उत्तम पद करना ।

(कलश--रोला)
नियमसार अर तत्फल यह उत्तम पुरुषों के ।
हृदय कमल में शोभित है प्रवचन भक्ति से ॥
सूत्रकार ने इसकी जो अद्भुत रचना की ।
भविकजनों के लिए एक मुक्तीमारग है ॥३०५॥

मुक्ति का कारण होने से नियमसार तथा उसका फल उत्तमपुरुषों के हृदय-कमल में जयवन्त है । प्रवचन की भक्ति से सूत्रकार ने जो किया है (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने जो यह नियमसार की रचना की है), वह वास्तव में समस्त भव्यसमूह को निर्वाण का मार्ग है ।

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+ भव्य को शिक्षा -
ईसाभावेण पुणो केई णिंदंति सुंदरं मग्गं ।
तेसिं वयणं सोच्चाऽभत्तिं मा कुणह जिणमग्गे ॥186॥
ईर्षाभावेन पुनः केचिन्निन्दन्ति सुन्दरं मार्गम् ।
तेषां वचनं श्रुत्वा अभक्तिं मा कुरुध्वं जिनमार्गे ॥१८६॥
जो कोइ सुन्दर मार्ग की निन्दा करे मात्सर्य में ।
सुनकर वचन उसके अभक्ति न कीजिये जिनमार्ग में ॥१८६॥
अन्वयार्थ : [पुनः] परन्तु [ईर्षाभावेन] ईर्षाभाव से[केचित्] कोई लोग [सुन्दरं मार्गम्] सुन्दर मार्ग को [निन्दन्ति] निन्दते हैं [तेषां वचनं] उनके वचन [श्रुत्वा] सुनकर [जिनमार्गे] जिनमार्ग के प्रति [अभक्तिं] अभक्ति [मा कुरुध्वम्] नहीं करना ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यहाँ भव्य को शिक्षा दी है ।

कोई मंदबुद्धि त्रिकाल-निरावरण, नित्य आनन्द जिसका एक लक्षण है ऐसे निर्विकल्प निज कारण-परमात्मतत्त्व के सम्यक्-श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप शुद्ध रत्नत्रय से प्रतिपक्ष मिथ्यात्व कर्मोदय के सामर्थ्य द्वारा मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र परायण वर्तते हुए ईर्षा-भाव से अर्थात् मत्सर-युक्त परिणाम से सुन्दर मार्ग को, पाप क्रिया से निवृत्ति जिसका लक्षण है ऐसे भेदोपचार - रत्नत्रयात्मक तथा अभेदोपचार - रत्नत्रयात्मक सर्वज्ञ वीतराग के मार्ग को, निन्दते हैं, उन स्वरूप-विकल (स्वरूप प्राप्ति रहित) जीवों के कुहेतु -कुदृष्टान्त युक्त कुतर्क वचन सुनकर जिनेश्वर प्रणीत शुद्ध रत्नत्रयमार्ग के प्रति, हे भव्य ! अभक्ति नहीं करना, परन्तु भक्ति कर्तव्य है ।

(कलश--हरिगीत)
देहपादपव्यूह से भयप्रद बसें वनचर पशु ।
कालरूपी अग्नि सबको दहे सूखे बुद्धिजल ॥
अत्यन्त दुर्ग कुनयरूपी मार्ग में भटकन बहुत ।
इस भयंकर वन विषैं है जैनदर्शन इक शरण ॥३०६॥

देह-समूहरूपी वृक्ष-पंक्ति से जो भयंकर है, जिसमें दुःख-परम्परारूपी जङ्गली पशु (बसते) हैं, अति कराल कालरूपी अग्नि जहाँ सबका भक्षण करती है, जिसमें बुद्धिरूपी जल (?) सूखता है और जो दर्शन-मोहयुक्त जीवों को अनेक कुनयरूपी मार्गों के कारण अत्यन्त दुर्गम है, उस संसार-अटवीरूपी विकट स्थल में जैन-दर्शन एक ही शरण है ।

तथा -

(कलश--हरिगीत)
सम्पूर्ण पृथ्वी को कंपाया शंखध्वनि से आपने ।
संपूर्ण लोकालोक है प्रभु निकेतन तन आपका ॥
हे योगि! किस नर देव में क्षमता करे जो स्तवन ।
अती उत्सुक भक्ति से मैं कर रहा हूँ स्तवन ॥३०७ ॥

जिन प्रभु का ज्ञान-शरीर सदा लोकालोक का निकेतन है (जिन नेमिनाथप्रभु के ज्ञान में लोकालोक सदा समाते हैं - ज्ञात होते हैं ), उन श्री नेमिनाथ तीर्थेश्वर का, कि जिन्होंने शंख की ध्वनि से सारी पृथ्वी को कम्पा दिया था उनका, स्तवन करने के लिये तीन-लोक में कौन मनुष्य या देव समर्थ हैं ? (तथापि) उनका स्तवन करने का एकमात्र कारण जिनके प्रति अति उत्सुक भक्ति है ऐसा मैं जानता हूँ ।

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+ उपसंहार -
णियभावणाणिमित्तं मए कदं णियमसारणामसुदं ।
णच्चा जिणोवदेसं पुव्वावरदोसणिम्मुक्कं ॥187॥
निजभावनानिमित्तं मया कृतं नियमसारनामश्रुतम् ।
ज्ञात्वा जिनोपदेशं पूर्वापरदोषनिर्मुक्तम् ॥१८७॥
सब दोष पूर्वापर रहित उपदेश श्री जिनदेव का ।
मैं जान, अपनी भावना हित नियमसार सुश्रुत रचा ॥१८७॥
अन्वयार्थ : [पूर्वापरदोषनिर्मुक्तम्] पूर्वापर दोष-रहित [जिनोपदेशं] जिनोपदेश को [ज्ञात्वा] जानकर [मया] मैंने [निजभावनानिमित्तं] निज-भावना निमित्त से [नियमसारनामश्रुतम्] नियमसार नाम का शास्त्र [कृतम्] किया है ।

पद्मप्रभमलधारिदेव :
यह, शास्त्र के नाम-कथन द्वारा शास्त्र के उपसंहार सम्बन्धी कथन है ।

यहाँ आचार्यश्री (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य देव) प्रारम्भ किये हुए कार्य के अन्त को प्राप्त करने से अत्यन्त कृतार्थताको पाकर कहते हैं कि सैंकड़ों परम-अध्यात्म शास्त्रों में कुशल ऐसे मैंने निज-भावना निमित्त से - अशुभवंचनार्थ नियमसार नामक शास्त्र किया है । क्या करके (यह शास्त्र किया है) ?

प्रथम अवंचक परम गुरु के प्रसाद से जानकर ।

क्या जानकर ?

जिनोपदेश को अर्थात् वीतराग-सर्वज्ञ के मुखारविन्द से निकले हुए परम उपदेश को ।

कैसा है वह उपदेश ?

पूर्वापर दोष रहित है अर्थात् पूर्वापर दोष के हेतुभूत सकल मोह-राग-द्वेष के अभाव के कारण जो आप्त हैं उनके मुख से निकला होने से निर्दोष है ।

और (इस शास्त्र के तात्पर्य सम्बन्धी ऐसा समझना कि), जो (नियमसार शास्त्र) वास्तव में समस्त आगम के अर्थ-समूह का प्रतिपादन करने में समर्थ है, जिसने नियम - शब्द से विशुद्ध मोक्षमार्ग सम्यक् प्रकार से दर्शाया है, जो शोभित पंचास्तिकाय सहित है (जिसमें पाँच अस्तिकाय का वर्णन किया गया है), जिसमें पंचाचार प्रपंच का संचय किया गया है (जिसमें ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचाररूप पाँच प्रकार के आचार का कथन किया गया है ), जो छह द्रव्यों से विचित्र है (अर्थात् जो छह द्रव्यों के निरूपण से विविध प्रकार का — सुन्दर है ), सात तत्त्व और नव पदार्थ जिस में समाये हुए हैं, जो पाँच भावरूप विस्तार के प्रतिपादन में परायण है, जो निश्चय - प्रतिक्रमण, निश्चय - प्रत्याख्यान, निश्चय - प्रायश्चित्त, परम - आलोचना, नियम, व्युत्सर्ग आदि सकल परमार्थ क्रियाकांड के आडम्बर से समृद्ध है (जिसमें परमार्थ क्रियाओं का पुष्कल निरूपण है) और जो तीन उपयोगों से सुसम्पन्न है (जिसमें अशुभ, शुभ और शुद्ध उपयोग का पुष्कल कथन है), ऐसे इस परमेश्वर शास्त्र का वास्तव में दो प्रकार का तात्पर्य है : सूत्र-तात्पर्य और शास्त्र-तात्पर्य । सूत्र-तात्पर्य तो पद्यकथन से प्रत्येक सूत्र में (पद्य द्वारा प्रत्येक गाथा के अन्त में) प्रतिपादित किया गया है । और शास्त्र-तात्पर्य यह निम्नानुसार टीका द्वारा प्रतिपादित किया जाता है : यह (नियमसार शास्त्र) भागवतशास्त्र है । जो (शास्त्र) निर्वाण सुन्दरी से उत्पन्न होनेवाले, परम वीतरागात्मक, निराबाध, निरन्तर और अनंग परमानन्द का देनेवाला है, जो निरतिशय, नित्यशुद्ध, निरंजन निज कारण परमात्मा की भावना का कारण है, जो समस्त नयों के समूह से शोभित है, जो पंचम गति के हेतुभूत है और जो पाँच इन्द्रियों के फैलाव रहित देहमात्र - परिग्रहधारी से (निर्ग्रन्थ मुनिवर से) रचित है, ऐसे इस भागवत शास्त्र को जो निश्चयनय और व्यवहारनय के अविरोध से जानते हैं, वे महापुरुष, समस्त अध्यात्मशास्त्रों के हृदय को जाननेवाले और परमानन्दरूप वीतराग सुख के अभिलाषी, बाह्य-अभ्यन्तर चौबीस परिग्रहों के प्रपंच को परित्याग कर, त्रिकाल - निरुपाधि स्वरूप में लीन निज कारण परमात्मा के स्वरूप के श्रद्धान-ज्ञान-आचरणात्मक भेदोपचार-कल्पना से निरपेक्ष ऐसे स्वस्थ रत्नत्रय में परायण वर्तते हुए, शब्द-ब्रह्म के फलरूप शाश्वत सुख के भोक्ता होते हैं ।

(कलश--हरिगीत)
सुकविजन पंकजविकासी रवि मुनिवर देव ने ।
ललित सूत्रों में रचा इस परमपावन शास्त्र को ॥
निज हृदय में धारण करे जो विशुद्ध आतमकांक्षी ।
वह परमश्री वल्लभा का अती वल्लभ लोक में ॥३०८॥

सुकविजनरूपी कमलों को आनन्द देनेवाले (विकसित करनेवाले) सूर्य ने ललित पद समूहों द्वारा रचे हुए इस उत्तम शास्त्र को जो विशुद्ध आत्मा का आकाँक्षी जीव निज मन में धारण करता है, वह परमश्रीरूपी कामिनी का वल्लभ होता है ।

(कलश--हरिगीत)
पद्मप्रभमलधारि नामक विरागी मुनिदेव ने ।
अति भावना से भावमय टीका रची मनमोहनी ॥
पद्मसागरोत्पन्न यह है उर्मियों की माल जो ।
कण्ठाभरण यह नित रहे सज्जनजनों के चित्त में ॥३०९॥

पद्मप्रभ नाम के उत्तम समुद्र से उत्पन्न होनेवाली जो यह उर्मिमाला-कथनी (टीका), वह सत्पुरुषों के चित्त में स्थित रहो ।

(कलश--दोहा)
यदि इसमें कोइ पद लगे लक्षण शास्त्र विरुद्ध ।
भद्रकवि रखना वहाँ उत्तम पद अविरुद्ध ॥३१०॥

इसमें यदि कोई पद लक्षण शास्त्र से विरुद्ध हो तो भद्र कवि उसका लोप करके उत्तम पद करना ।

(रोला)
तारागण से मण्डित शोभे नील गगन में ।
अरे पूर्णिमा चन्द्र चाँदनी जबतक नभ में ॥
हेयवृत्ति नाशक यह टीका तबतक शोभे ।
नित निज में रत सत्पुरुषों के हृदय कमल में ॥३११॥

जब तक तारागणों से घिरा हुआ पूर्ण चन्द्रबिम्ब उज्ज्वल गगन में विराजे (शोभे), ठीक तब तक तात्पर्यवृत्ति (नाम की यह उज्ज्वल टीका), कि जिसने हेय वृत्तियों को निरस्त किया है (जिसने छोड़ने योग्य समस्त विभाव वृत्तियों को दूर फेंक दिया है) — वह सत्पुरुषों के विशाल हृदय में स्थित रहो ।

इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के फैलाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था, ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव-प्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रंथ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव विरचित तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका में) शुद्धोपयोग अधिकार नाम का बारहवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।

इसप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत श्री निमयसार परमागम की निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित) तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका के श्री हिंमतलाल जेठालाल शाह कृत गुजराती अनुवाद का हिन्दी रूपान्तर समाप्त हुआ ।

अवंचक = ठगें नहीं ऐसे; निष्कपट; सरल; ऋजु ।
भागवत = भगवानका; दैवी; पवित्र ।
निराबाध = बाधा रहित; निर्विघन् ।
अनंग = अशरीरी; आत्मिक; अतीन्द्रिय ।
निरतिशय = जिससे कोई बढ़कर नहीं है ऐसे; अनुत्तम; श्रेष्ठ; अद्वितीय ।
हृदय = हार्द; रहस्य; मर्म । (इस भागवत शास्त्र को जो सम्यक् प्रकार से जानते हैं, वे समस्त अध्यात्म शास्त्रों के हार्द के ज्ञाता हैं ।)
स्वस्थ = निजात्मस्थित । (निजात्मस्थित शुद्धरत्नत्रय भेदोपचार-कल्पना से निरपेक्ष है ।)

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