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वारासाणुवेक्खा
























- स्वामि-कार्तिकेय



nikkyjain@gmail.com
Date : 17-Nov-2022

Index


अधिकार

मंगलाचरण अनित्य अनुप्रेक्षा अशरण अनुप्रेक्षा संसार अनुप्रेक्षा
एकत्व अनुप्रेक्षा अन्यत्व अनुप्रेक्षा अशुचि अनुप्रेक्षा आस्रव अनुप्रेक्षा
संवर अनुप्रेक्षा निर्जरा अनुप्रेक्षा लोक अनुप्रेक्षा बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा
धर्म अनुप्रेक्षा







Index


गाथा / सूत्रविषयगाथा / सूत्रविषय

मंगलाचरण

001) इष्टदेव को नमस्कार002-003) बारह-भावनाओं के नाम

अनित्य अनुप्रेक्षा

004) अनित्य अनुप्रेक्षा का सामान्य स्वरूप005-006) अनित्य-अनुप्रेक्षा का विशेष स्वरूप
007) इन्द्रियों की क्षणिकता008) बंधुजनों का संयोग कैसा?
009) देह-संयोग की अस्थिरता010) लक्ष्मी की अस्थिरता
011) इसी को विशेष समझाते हैं 012) प्राप्त लक्ष्मी का क्या करना चाहिए?
013) लक्ष्मी की अनित्यता014) लक्ष्मी को गाड़ने वाला मूर्ख
015) बचाकर रखने वाले का धन पर के लिए016) लक्ष्मी पर मोहित जीव की दशा
017-018) लक्ष्मी का दास019) लक्ष्मी को धर्म-कार्य में लगाने वाले की प्रशंसा
020) सत्कार्यों में धन खर्चने वाले का जन्म सफल021) मोह का महात्मय
022) उपसंहार

अशरण अनुप्रेक्षा

023) अशरण अनुप्रेक्षा का स्वरूप
024) दृष्टांत025) इसी को दृढ़ करते हैं
026) इसी को दृढ़ करते हैं027) शरण की कल्पना अज्ञान
028) मरण आयु क्षय से029) इसी को दृढ़ करते हैं
030) परमार्थ शरण031) निष्कर्ष

संसार अनुप्रेक्षा

032-033) संसार का सामान्य स्वरूप034) नरक-गति के दुःख
035) नरक में पांच प्रकार के दुःख036) इसी को विशेष कहते हैं
037) नरक के दुःख कहना संभव नहीं038) नरक का क्षेत्र और परिणाम दुखमयी
039) नरक में दुःख बहुत काल तक040) तीर्यंच गति के दुःख
041) तीर्यंच सभी अवस्थाओं में दुखी042) तीर्यंच को कोई शरण नहीं
043) भूख-प्यास का दुःख044) उपसंहार
045) मनुष्य-गति के दुःख046) मनुष्य-गति के और भी दुःख
047) पाप से दुखी, फिर भी पुण्य नहीं करता048) पुण्य किसके द्वारा होते हैं ?
049) पुण्यवान के भी इष्ट-वियोग सम्भव050) इसी को आगे और दृढ़ करते हैं
051) स्त्री / पुत्र / रोग सम्बन्धी दुःख052) निर्धनता / मरण का दुःख
053) अनिष्ट संयोगज दुःख054) इष्ट-वियोगज दुःख
055) पाप को छोड़कर धर्म नहीं करता056) अनित्यता
057) कर्म-वशता058) देवों के दुःख
059) वियोग / तृष्णा का दुःख060) मानसिक दुःख
061) विषयों में पराधिनता ही दुःख062) संसार में सभी जगह दुःख
063) मोह का महात्मय064-065) विचित्र संयोग
066) पांच प्रकार का परिभ्रमण067) द्रव्य परावर्तन
068) क्षेत्र परावर्तन069) काल परावर्तन
070) भव परावर्तन071) भाव परावर्तन
072) उपसंहार073) संसार से छूटने की प्रेरणा

एकत्व अनुप्रेक्षा

074-076) एकत्व अनुप्रेक्षा077) स्वजन भी दुःख के साथी नहीं
078) वास्तव में धर्म ही शरण079) भेद-भावना की प्रेरणा

अन्यत्व अनुप्रेक्षा

080) अन्यत्व अनुप्रेक्षा का स्वरूप081) जानता हुआ भी अज्ञानी बनता है
082) उपसंहार

अशुचि अनुप्रेक्षा

083) अशुचि अनुप्रेक्षा का स्वरूप
084) दुर्गंधित देह085) इसी को और विस्तार से बताते हैं
086) इसी को और विस्तार से बताते हैं087) उपसंहार

आस्रव अनुप्रेक्षा

088) आस्रव अनुप्रेक्षा का स्वरूप089) मोह से आस्रव
090) आस्रव के दो प्रकार091) मन्द-कषाय
092) तीव्र-कषाय093) आस्रव को हे जानकर त्यागने की प्रेरणा
094) उपसंहार

संवर अनुप्रेक्षा

095) संवर अनुप्रेक्षा का स्वरूप
096) इसी का विशेष कहते हैं097) और भी
098) परीषह जय099) चारित्र
100) संवर बिना भव-भ्रमण101) उपसंहार

निर्जरा अनुप्रेक्षा

102) निशल्य तप द्वारा निर्जरा103) निर्जरा का स्वरूप
104) निर्जरा के दो प्रकार105) निर्जरा कैसे बढती है?
106-108) निर्जरा की वृद्धी के स्थान109) अधिक निर्जरा के उपाय
110-111) विज्ञानघन निर्ममत्व आत्म-सम्मुख के निर्जरा 112-113) विनम्र के निर्जरा
114) उपसंहार

लोक अनुप्रेक्षा

115) लोक-अनुप्रेक्षा का स्वरूप
116) लोक नित्य है117) परिणमन वस्तु का स्वभाव
118) लोक का विस्तार119) लोक का घन
120) तीन लोक121) लोक की परिभाषा
122) जीव-द्रव्य123) बादर और सूक्ष्म
124) बादर-सूक्ष्म का विस्तार125) निगोद जीव
126) साधारण जीव127) सूक्ष्म और बादर का स्वरूप
128) प्रत्येक और त्रस जीव का स्वरूप129) पंचेंद्रिय जीवों के भेद
130) गर्भज, सम्मूर्छन, भोग-भूमिज161) जीवों की आयु
166) जीवों के शरीर की अवगाहना172) भारत एरावत क्षेत्र में शरीर की ऊंचाई
176) जीव के लोकप्रमाण और देहप्रमाणपना 177) जीव सर्वथा सर्वगत -- का निषेध
181) चार्वाकमत का निषेध188) जीव के कर्तत्व आदि
192) जीव के भेद193) बहिरात्मा
194) अंतरात्मा198) परमात्मा
200) जीव सर्वथा शुद्ध -- का निषेध203) बंध का स्वरूप
208) जीव का पुद्गलद्रव्य द्वारा उपकार210) जीव का जीव द्वारा उपकार
212) धर्म और अधर्म द्रव्य213) आकाश द्रव्य
216) काल द्रव्य221) कार्य-कारण
225) अनेकान्तात्मक वस्तु ही अर्थक्रियाकारी231) जीव द्रव्य में अनादिनिधन कार्यकारणभाव
232) अन्यस्वरूप होकर कार्य करने में दोष233) अन्यस्वरूप होकर कार्य करने में दोष
234) सर्वथा एक-स्वरूप मानने में दोष235) अणुमात्र तत्त्व को मानने में दोष
236) द्रव्य का एक-अनेकपना237) द्रव्य के गुण-पर्याय स्वभावपना
238) व्यय-उत्पाद239) द्रव्य-रूप से ध्रुव
240) द्रव्य और पर्याय का स्वरूप241) गुण का स्वरूप
243) विद्यमान या अविद्यमान का उत्पाद?245) द्रव्य-पर्याय के एकत्व में स्याद्वाद
247) ज्ञान-अद्वैतवाद का खंडन253) ज्ञान का स्वरूप
254) केवल-ज्ञान257) क्षायोपशमिक ज्ञान की सामर्थ्य
258) इन्द्रिय ज्ञान269) द्रव्यार्थिक नय
270) पर्यायाथिक नय271) नैगम नय
272) संग्रह नय273) व्यवहार नय
274) ऋजुसूत्र नय275) शब्द-नय
276) समभिरूढ नय277) एवंभूत नय

बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा

धर्म अनुप्रेक्षा

305-306) गृहस्थ धर्म के बारह भेद308) सम्यक्त्व के तीन प्रकार
314) सम्यग्दृष्टि जीव की परिणति318) मिथ्यादृष्टि जीव की परिणति
319) कुदेव का बहिष्कार 325) सम्यक्त्व का माहात्म्य
328) दार्शनिक श्रावक330) व्रत-प्रतिमा
331) अहिंसाणुव्रत333-334) सत्य अणुव्रत
335-336) अचौर्य अणुव्रत337-338) ब्रह्मचर्य अणुव्रत
339-340) परिग्रह-परिमाण अणुव्रत341-342) दिग्व्रत
343) अनर्थदण्ड व्रत350) भोगोपभोग परिमाण गुणव्रत
353) सामायिक का क्षेत्र355-357) आसन, लय और मन-वचन-काय की शुद्धता
358-359) प्रोषधोपवास367-368) देशावकाशिक शिक्षाव्रत
371-372) सामायिक व्रत373-376) प्रोषध प्रतिमा
379) सचित्तविरत384) ब्रह्मचर्य प्रतिमा
385) आरम्भ-त्याग प्रतिमा386) परिग्रह त्याग प्रतिमा
388) अनुमोदनविरति प्रतिमा390) उद्दिष्टत्याग प्रतिमा
394) उत्तम क्षमा395) मार्दव धर्म
396) आर्जव धर्म401) त्याग धर्म
402) निर्ग्रन्थ धर्म403) ब्रह्मचर्य धर्म
414) निःशंका गुण415) निःशंकित गुण
416) निःकांक्षित गुण417) निर्विचिकित्सा गुण
418) अमूढदृष्टिगुण419) उपगूहन गुण
420) स्थितिकरण गुण421) वात्सल्य गुण
422) प्रभावना गुण426) धर्म-ग्रहण का माहात्‍म्‍य दष्‍टान्‍त-पूर्वक
427) लक्ष्‍मी का चाहना धर्म-बिना निष्फल428) धर्मात्‍मा जीव की प्रवृत्ति
430) धर्म का माहात्‍म्‍य433) धर्म-रहित जीव की निन्‍दा
436) बारह प्रकार तप437) अनशन तप
441) अवमौदर्य तप443) वृत्तिपरिसंख्‍यान तप
444) रस-परित्‍याग तप445) विविक्‍त-शय्यासन तप
448) काय-क्‍लेश तप449) प्रायश्चित्‍त तप
454) विनय तप457) वैयावृत्‍य तप
459) स्‍वाध्‍याय तप465-466) व्‍युत्‍सर्ग तप
468) ध्यान का लक्षण469) शुभ और अशुभ ध्यान
471-472) आर्त-ध्‍यान473) रौद्र-ध्‍यान
475) हेय-उपादेय ध्यान476) धर्म-ध्यान का स्‍वरूप
481) शुक्‍ल-ध्‍यान482) पहला शुक्ल-ध्यान
483) दूसरा शुक्ल-ध्यान484) तीसरा शुक्ल-ध्यान
485) चौथा शुक्ल-ध्यान486) उपसंहार
487) ग्रन्थ-कर्ता द्वारा ग्रन्थ करने का कारण488) उपदेश का फल
489) अन्त्य-मंगल



!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!

श्रीमद्‌-कार्तिकेय-देव-प्रणीत

श्री
वारासाणुवेक्खा

मूल प्राकृत गाथा

आभार :

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!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!

ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥

अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥

अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥

॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥

अर्थ : बिन्दुसहित ॐकार को योगीजन सर्वदा ध्याते हैं, मनोवाँछित वस्तु को देने वाले और मोक्ष को देने वाले ॐकार को बार बार नमस्कार हो । निरंतर दिव्य-ध्वनि-रूपी मेघ-समूह संसार के समस्त पापरूपी मैल को धोनेवाली है मुनियों द्वारा उपासित भवसागर से तिरानेवाली ऐसी जिनवाणी हमारे पापों को नष्ट करो । जिसने अज्ञान-रूपी अंधेरे से अंधे हुये जीवों के नेत्र ज्ञानरूपी अंजन की सलार्इ से खोल दिये हैं, उस श्री गुरु को नमस्कार हो । परम गुरु को नमस्कार हो, परम्परागत आचार्य गुरु को नमस्कार हो ।

सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीवारासाणुवेक्खा नामधेयं, अस्य मूलाग्रन्थकर्तार: श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तार: श्रीगणधरदेवा: प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य स्वामि-कार्तिकेयदेव विरचितं, श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥



(समस्त पापों का नाश करनेवाला, कल्याणों का बढ़ानेवाला, धर्म से सम्बन्ध रखनेवाला, भव्यजीवों के मन को प्रतिबुद्ध-सचेत करनेवाला यह शास्त्र श्रीवारासाणुवेक्खा नाम का है, मूल-ग्रन्थ के रचयिता सर्वज्ञ-देव हैं, उनके बाद ग्रन्थ को गूंथनेवाले गणधर-देव हैं, प्रति-गणधर देव हैं उनके वचनों के अनुसार लेकर आचार्य स्वामि-कार्तिकेयदेव द्वारा रचित यह ग्रन्थ है । सभी श्रोता पूर्ण सावधानी पूर्वक सुनें । )



मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्‌ ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम्‌ ॥


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मंगलाचरण



+ इष्टदेव को नमस्कार -
तिहुवण-तिलयं देवं वंदित्ता तिहुवणिंद परिपुज्जं
वोच्छं अणुपेहाओ भविय-जणाणंद-जणणीओ ॥1॥
त्रिभुवनतिलकं देवं वंदित्वा त्रिभुवनेन्द्रपरिपूज्यं ।
वक्ष्ये अनुप्रेक्षाः भविकजनानन्दजननीः ॥१॥
अन्वयार्थ : [तिहवणतिलयं] तीन भुवन का तिलक [तिहवणिंदपरिपुज्‍जं] तीन भुवन के इन्‍द्रों से पूज्‍य (ऐसे) [देवं] देव को मैं अर्थात स्‍वामि कार्तिकेय वंदित्ता नमस्‍कार करके [भवियजणाणंदजणणीओ] भव्‍य जीवों को आनन्‍द उत्‍पन्न करने वाली [अणुपेहाओ] अनुप्रेक्षायें [वोच्‍छं] कहूँगा ।

छाबडा :
यहॉं 'देव' ऐसी सामान्‍य संज्ञा है सो क्रीडा, रति, विजिगीषा, द्युति, स्‍तुति, प्रमोद, गति, कान्ति इत्‍यादि क्रियायें करे उसको देव कहते हैं, सो सामान्‍यतया तो चार प्रकार के देव वा कल्पित देव भी गिने जाते हैं, उनसे भिन्‍नता दिखाने के लिये 'तिहुवणतिलयं' ऐसा विशेषण दिया इससे अन्‍य भिन्‍नता दिखाने के लिये 'तिहुअरिंगदपरिपुज्‍जं' ऐसा विशेषण दिया, जिससे तीन भुवन के इन्‍द्रों द्वारा भी पूज्‍य ऐसा जो देव है उसको नमस्‍कार किया । यहाँ इस प्रकार समझना कि उपर कहे अनुसार देवपना अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्‍याय और सर्वसाधु इन पंच-परमेष्ठियों में ही पाया जाता है, क्‍योकि परम स्‍वात्‍म-जनित आनन्‍द सहित क्रीड़ा, तथा कर्म कलंक को जीतनेरूप विजीगीषा, स्‍वात्‍म-जनित प्रकाशरूप द्युति, स्‍वरूप की स्‍तुति, स्‍वरूप में परम-प्रमोद, लोकालोक-व्‍याप्‍तरूप गति, शुद्धस्‍वरूप की प्रवृत्तिरूप कान्ति इत्‍यादि देवपने की उत्‍कृ‍ष्‍ट क्रियायें, सब एकदेश वा सर्वदेशरूप इनमें ही पाई जाती हैं, इसलिये सर्वोत्‍कृष्‍ट देवपना इनमें ही पाया जाता है, अत: इनको मंगलरूप नमस्‍कार करना उचित है । [मं पापं गालयति इति मंगलं अथवा मंगं सुंखं लाति ददाति इति मंगलं] 'मं' कहिये पाप उसको गालै (नाश करे) तथा 'मंगं' कहिये सुख, उसको [लाति ददाति] अर्थात् दे, उसकों मंगल कहते हैं, सो ऐसे देव को नमस्‍कार करने से शुभ-परिणाम होते है जिससे पापों का नाश होता है और शान्‍त-स्‍वभावरूप सुख की प्राप्ति होती है ।

अनुप्रेक्षा का सामान्‍य अर्थ बारम्‍बार चिंतवन करना है, वह चिंतवन अनेक प्रकार का है, उसके करनेवाले अनेक हैं, उनसे भिन्‍नता दिखाने के लिये 'भवियजणाणंदजणणीओ' ऐसा विशेषण दिया है । इसलिये मैं (स्‍वामिकार्तिकेय) जिन भव्‍यजीवों के मोक्ष होना निकट आया हो उनकों आनन्‍द उत्‍पन्‍न करनेवाली, ऐसी अनुप्रेक्षा कहूँगा ।

यहॉं 'अणुपेहाओ' ऐसा बहुवचनांत पद है । अनुप्रेक्षा-सामान्‍य चिंतवन एक प्रकार है तो भी अनेक प्रकार है, भव्‍यजीवों को सुनते ही मोक्षमार्ग में उत्‍साह उत्‍पन्‍न हो, ऐसा चितवप संक्षेप से बारह प्रकार है, उनके नाम तथा भावना की प्रेरणा दो गाथाओं में कहते हैं:-

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+ बारह-भावनाओं के नाम -
अद्धुव असरण भणिया संसारामेगमण्णमसुइत्तं
आसव-संवरणामा णिज्जर-लोयाणुपेहाओ ॥2॥
इय जाणिऊण भावह दुल्लह-धम्माणुभावणा णिच्चं
मण-वयण-कायसुद्धी एदा दस दोय भणिया हु ॥3॥
अन्वयार्थ : [एदा] ये [अद्धुव] अध्रुव / अनित्‍य [असरण] अशरण [संसारामेगमण्‍णमसुइत्तं] संसार, एकत्‍व, अन्‍यत्‍व, अशुचित्‍व [आसव] आस्रव [संवरणामा] संवर [णिज्‍जरलायाणुपेहाओ] निर्जरा, लोक अनुप्रेक्षायें [दुल्‍लह] बोधि दुर्लभ [धम्‍माणुभावणा] धर्म भावना सह [दस दोय] बारह भावना [भणिया] कही गई हैं [इस जाणिऊण] इन्‍हें जानकर [मणवयणकायसुद्धी] मन-वचन-काय की शुद्धी पूर्वक [णिच्‍चं] निरन्‍तर [भावह] भावो ।

छाबडा :
ये बारह भावनाओं के नाम कहे गये हैं, जिनका विशेष अर्थरूप कथन तो यथास्‍थान होगा ही परन्‍तु ये नाम भी सार्थ हैं, इनका अर्थ किस प्रकार है ? - अध्रुव तो अनित्‍य को कहते हैं। जहाँ कोई शरण नहीं सो अशरण । भ्रमण को संसार । जहाँ कोई दूसरा नहीं सो एकत्‍व । जहाँ सबसे भिन्‍नता सो अन्‍यत्‍व । मलिनता को अशुचित्‍व । कर्म के आने को आस्रव । कर्म के आने को रोके सो संवर । कर्मे का झरना सो निर्जरा । जिसमें छह द्रव्‍य पाये जाय सो लोक । अति‍ कठिनता से प्राप्‍त होय सो दुर्लभ । संसार उद्धार करे सो वस्‍तु-स्‍वरूपादिक धर्म । इसप्रकार इनका अर्थ है ।

पहले अध्रुव अनुप्रेक्षा का सामान्‍य स्‍वरूप कहते हैं :-

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अनित्य अनुप्रेक्षा



+ अनित्य अनुप्रेक्षा का सामान्य स्वरूप -
जं किंचिवि उप्पण्णं तस्स विणासो हवेइ णियमेण
परिणाम-सरूवेण वि ण य किंचिवि सासयं अत्थि ॥4॥
अन्वयार्थ : [जं किंचिवि उप्‍पण्‍णं] जो कुछ भी उत्‍पन्‍न हुआ है [तस्‍स णियमेण विणासो हवेई] उसका नियम से नाश होता है [परिणामसरूवेणवि] परिणाम-स्‍वरूप से तो [ण किंचिवि सासयं अत्थि] कुछ भी नित्‍य नहीं है ।

छाबडा :
सब वस्तुएं सामान्‍य-विशेष स्‍वरूप हैं । सामान्‍य तो द्रव्‍य को और विशेष गुण / पर्याय को कहते हैं सो द्रव्‍यरूप से तो वस्‍तु नित्‍य ही है तथा गुण भी नित्‍य ही है और पर्याय है व‍ह अनित्‍य है इसको परिणाम भी कहते है; यह प्राणी पर्यायबुद्धि है सो पर्याय को उत्‍पन्‍न होते व नष्‍ट होते देखकर हर्ष-विषाद करता है तथा उसको नित्‍य रखना चाहता है इसप्रकार के अज्ञान से दुखी होता है उसको इस भावना का चिंतवन इसप्रकार करना योग्‍य है कि:-

मैं द्रव्‍यरूप से नित्‍य जीव-द्रव्‍य हूँ, उत्‍पन्‍न होती है तथा नाश होती हैं यह पर्याय का स्‍वभाव है इसमें हर्ष विषाद कैसा ? यह शरीर, जीव-पुद्गल की संयोग-जनित पर्याय है । धन धान्‍यादिक, पुद्गल-परमाणुओं की स्‍कन्‍ध-पर्याय हैं । इनके संयोग और वियोग नियम से अवश्‍य है, स्थिरता की बुद्धि करता है सो मोह-जनित भाव है इसलिये वस्‍तु-स्‍वरूप को समझकर हर्ष विषादादिकरूप नहीं होना चाहिए। आगे इस ही को विशेषरूप से कहते हैं :-

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+ अनित्य-अनुप्रेक्षा का विशेष स्वरूप -
जम्मं मरणेण समं संपज्जइ जोव्वणं जरा-सहियं
लच्छी विणास-सहिया इयं सव्वं भंगुरं मुणह ॥5॥
अथिरं परिणय-सयणं पुत्त-कलत्तं सुमित्त-लावण्णं
गिह-गोहणाइ सव्वं णव-घण-विंदेण सारिच्छं ॥6॥
अन्वयार्थ : [जम्‍मं मरणेण समं] यह जन्‍म है सो मरण सहित है [जुव्‍वणं जरासहियं संपज्जइ] यौवन है सो जरा (बुढापे) सहित उत्‍पन्‍न होता है [लच्‍छी विणाससहिया] लक्ष्‍मी है सो विनाश सहित उत्‍पन्‍न होती है [इयसव्‍वं भंगुरं मुणह] इस प्रकार से सब वस्‍तुओं को क्षणभंगुर जानो ।
[परियणसयणं] परिवार, बन्‍धुवर्ग [पुत्तकलत्तं] पुत्र, स्‍त्री [सुमित्त] अच्‍छे मित्र [लावण्‍णं] शरीर की सुन्‍दरता [गिहगोहणाइ सव्‍वं] गृह गोधन इत्‍यादि समस्‍त वस्‍तुएँ [णवघणविंदेण सारिच्‍छं] नवीन मेघ-समूह के समान [अथिरं] अस्थिर हैं ।

छाबडा :
जितनी अवस्‍थाये संसार में हैं, वे सब ही विरोधी भाव को ही लिये हुए है । यह प्राणी जन्‍म होता है तब उसको स्थिर मानकर हर्ष करता है, मरण होने पर नाश मानकर शोक करता है । इसीप्रकार से इष्‍ट की प्राप्ति में हर्ष करता है सो यह मोह का माहात्‍म्‍य है । ज्ञानियों को समभावरूप से रहना चाहिये ।

ये सब ही वस्तुएं नाशमान् जानकर हर्ष-विषाद नहीं करना चाहिए ।

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+ इन्द्रियों की क्षणिकता -
सुरधणु-तडिव्व चवला इंदिय-विसया सुभिच्च-वग्गा य
दिट्ठ-पणट्ठा सव्वे तुरय-गया रहवरादी य ॥7॥
अन्वयार्थ : [इंदियविसया] इन्द्रियों के विषय [सुभिच्‍चवग्‍गा] अच्‍छे सेवकों का समूह [य] और [तुरयगयारहवरादीया] घोड़े, हाथी, रथ आदिक [सव्‍वे] ये सब ही [सुरधणुतडिव्‍वचवला] इन्‍द्रधनुष तथा बिजली के समान चंचल हैं [दिठ्टपणठ्टा] दिखाई देकर नष्‍ट हो जाने वाले हैं ।

छाबडा :
यह प्राणी, श्रेष्‍ठ इन्द्रियों के विषय, अच्‍छे नौकर, घोड़े, हाथी, र‍थआदिक की प्राप्ति से सुख मानता है सो ये सब क्षण-विनश्र्वर हैं इसलिये अविनाशी सुख को प्राप्‍त करने का उपाय करना ही योग्‍य है । अब बन्‍धु-जनों का संयोग कैसा है सो दृष्‍टान्‍त-पूर्वक कहते हैं -

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+ बंधुजनों का संयोग कैसा? -
पंथे पहिय-जणाणं जह संजोओ हवेइ खणमित्तं
बंधुजणाणं च तहा संजोओ अद्धुओ होइ ॥8॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे [पंथे] मार्ग में [पहियजणाणं] पथिक जनों का [संजोओ] संजोग [खणमित्तं] क्षणमात्र [हवेइ] होता है [तहा] वैसे ही (संसार में) [बंधुजणाणं] बंधुजनों का [संजोओ] संयोग [अद्धुओ] अस्थिर [होइ] होता है ।

छाबडा :
यह प्राणी बहुत कुटुम्‍ब परिवार पाता है तब अभिमान करके सुख मानता है, इस मद से अपने स्‍वरूप को भूल जाता है । यह बन्‍धुवर्ग का संयोग, मार्ग के पथिकजनों के समान है जिसका शीघ्र ही वियोग होता है । इसमें संतुष्‍ट होकर अपने असली स्‍वरूप को नहीं भूलना चाहिए । अब देह-संयोग को अस्थिर दिखाते हैं :-

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+ देह-संयोग की अस्थिरता -
अइलालिओ वि देहो ण्हाण-सुयंधेहिं विविह-भक्खेहिं
खणमित्तेण वि विहडइ जल-भरिओ आम-घडओव्व ॥9॥
अन्वयार्थ : [देहो] यह देह [ण्‍हाणसुयंधेहिं] स्‍नान तथा सुगन्धित पदार्थोसे सजाया हुआ भी (तथा) [विविहभक्‍खेहिं] अनेक प्रकार के भोजनादि भक्ष्‍य पदार्थो से [अइलालिभो वि] अत्‍यन्‍त लालन पालन किया हुआ भी [जलभरिओ] जल से भरे हुए [आमघडओव्‍व] कच्‍चे घड़े की तरह [खणमित्तेण वि] क्षण-मात्र में ही [विहडइ] नष्‍ट हो जाता है ।

छाबडा :
ऐसे शरीर में स्थिर बुद्धि करना बड़ी भूल है । अब लक्ष्‍मी की अस्थिरता दिखाते हैं -

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+ लक्ष्मी की अस्थिरता -
जा सासया ण लच्छी चक्कहराणं पि पुण्णवंताणं
सा किं बंधेइ रइं इयर-जणाणं अपुण्णाणं ॥10॥
अन्वयार्थ : [जा लच्‍छी] जो लक्ष्‍मी (सम्‍पदा) [पूण्‍णवंताणं चक्‍कहराणं पि] पुण्‍य के उदय सहित चक्रवर्तियों के भी [सासया ण] नित्‍य नहीं है [सा] वह (लक्ष्‍मी) [अपुण्‍णाणं इयरतणाणं] पुण्‍यहीन अथवा अल्‍प-पुण्‍यवाले अन्‍य लोगों से [किं रइं बंधेइ] कैसे प्रेम करे ?

छाबडा :
इस लक्ष्‍मी का अभिमान कर यह प्राणी प्रेम करता है सो वृथा हैं । आगे इसी अर्थ को विशेषरूप से कहते हैं :-

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+ इसी को विशेष समझाते हैं -
कत्थ वि ण रमइ लच्छी कुलीण-धीरे वि पंडिए सूरे
पुज्जे धम्मिट्ठे वि य सुवत्त-सुयणे महासत्ते ॥11॥
अन्वयार्थ : [लच्‍छी] यह लक्ष्‍मी [कुलीणधीरे वि पंडिए सूरे] कुलवाल, धैर्यवान्, पण्डित, सुभट [पुज्‍जे धम्मिठ्टे वि य] पूज्‍य, धर्मात्‍मा [सुवत्त-सुयणे महासत्ते] रूपवान्, सुजन, महा-पराक्रमी इत्‍यादि [कत्‍थवि ण रमइ] किसी भी पुरूष से प्रेम नहीं करती है ।

छाबडा :
कोई समझे कि मैं बड़ा कुलवान् हूँ, मेरे बड़ों की सम्‍पत्ति है, वो कहॉं जाती है ? तथा मैं धैर्यवान् हूँ कैसे गमाऊँगा ? तथा पण्डित हूँ, विद्वान् हूँ, मेरी कौन लेगा ? उलटा मुझको तो देगा ही तथा मैं सुभट हूँ, कैसे किसी को लेने दूँगा । तथा मैं पूजनीक हूँ मेरी कौन लेवे है ? तथा मैं धर्मात्‍मा हूँ, धर्म से तो आती है, आई हुई कहाँ जाती है ? तथा मैं बड़ा रूपवान हूँ, मेरा रूप देखकर ही जगत प्रसन्‍न है, लक्ष्‍मी कहॉं जाती है ? तथा मैं सज्‍जन हूँ, परोपकारी हूँ, कहॉं जायगी ? तथा मैं बड़ा पराक्रमी हूँ, लक्ष्‍मी को बढ़ाऊँगा, जाने कहाँ दूँगा ? ये सब विचार मिथ्‍या हैं । यह लक्ष्‍मी देखते-देखते नष्‍ट हो जाती है । किसी के रक्षा करने से नहीं रहती ।

अब कहते है कि जो लक्ष्‍मी मिली है उसका क्‍या करना चाहिये ? सो बतलाते हैं :-

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+ प्राप्त लक्ष्मी का क्या करना चाहिए? -
ता भुंजिज्जउ लच्छी दिज्जउ दाणे दया-पहाणेण
जा जल-तरंग-चवला दो तिण्णि दिणाइ चिट्ठेइ ॥12॥
अन्वयार्थ : [जा लच्‍छी] जो लक्ष्‍मी [जलतरंगचवला] पानी की लहर के समान चंचल है [दो तिण्‍णदिणाणि चिठ्टेइ] दो तीन दिन तक चेष्‍टा करती है अर्थात विद्यमान है तब तक [ता भुंजिज्‍जउ] उसको भोगो [दयापहाणेण दाणं दिज्‍जउ] दया-प्रधान होकर दान दो ।

छाबडा :
कोई कृपण-बुद्धि इस लक्ष्‍मी को इकठ्टी करके स्थिर रखना चाहता हो उसको उपदेश है कि - यह लक्ष्‍मी चंचल है, रहनेवाली नहीं है, जो थोड़े दिन विद्यमान है तो भगवान की भक्ति-निमित्त तथा परोपकार-निमित्त दान में खरचो और विवेक सहित भोगो ।

यहाँ प्रश्‍न - भोगने में तो पाप होता है फिर भोगने का उपदेश क्‍यों दिया ?

उसका समाधान – इकठ्टी करके रखने में पहिले तो ममत्‍व बहुत होता है तथा किसी कारण से नाश हो जाय तब बड़ा ही दु:ख होता है । आसक्‍तपने से कषाय तीव्र तथा परिणाम मलिन सदा रहते हैं । भोगने से परिणाम उदार रहते हैं मलिन नहीं रहते । उदारता से भोग सामग्री में खर्च करे तो संसार में यश फैलता है और मन भी उज्‍जवल प्रसन्‍न रहता है । यदि किसी अन्‍य कारण से नाश भी हो जाय तो दु:ख बहुत नहीं होता है इत्‍यादि भोगने में भी गुण होते हैं । कृपण के तो कुछ भी गुण नहीं होता । केवल मन की मलिनता का ही कारण है । यदि कोई सर्वथा त्‍याग ही करे तो उसको भोगने का उपदेश नहीं है ।

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+ लक्ष्मी की अनित्यता -
जो पुण लच्छिं संचदि ण य भुंजदि णेय देदि पत्तेसु
सो अप्पाणं वंचदि मणुयत्तं णिप्फलं तस्स ॥13॥
अन्वयार्थ : [पूण] और [जो लच्छिं संचदि] जो लक्ष्‍मी को इकठ्टी करता है [ण य भुजदि] न तो भोगता है [पत्तेसु णेय देदि] और न पात्रों के निमित्त दान करता है [सो अप्‍पाणं वंचदि] वह अपनी आत्‍मा को ठगता है [तस्‍स मणुयत्तं णिप्‍फलं] उसका मनुष्‍य-पना निष्‍फल है ।

छाबडा :
जिस पुरूष ने लक्ष्‍मी को करके संचय ही किया, दान तथा भोग में खर्च नहीं की, उसने मनुष्‍य-भव पा करके क्‍या किया ? निष्‍फल ही खोया, केवल अपनी आत्‍मा को ठगा ।

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+ लक्ष्मी को गाड़ने वाला मूर्ख -
जो संचिऊण लच्छिं धरणियले संठवेदि अइदूरे
सो पुरिसो तं लच्छिं पाहाण-समाणियं कुणदि ॥14॥
अन्वयार्थ : [जो लच्छिं संचिऊण] जो पुरूष लक्ष्‍मी को संचय करके [अइदरे धरणियले संठवेदि] बहुत नीचे जमीन में गाड़ता है [सो पुरसो तं लच्छिं] वह पुरूष लक्ष्‍मी को [पाहाणमसमाणियं कुणइ] पत्थर के समान करता है ।

छाबडा :
जैसे मकान की नीवं में पत्‍थर रखा जाता है वैसे ही इसने लक्ष्‍मी को गाड़ी तब वह पत्‍थर के समान हुई ।

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+ बचाकर रखने वाले का धन पर के लिए -
अणवरयं जो संचदि लच्छिं ण य देदि णेय भुंजेदि
अप्पणिया वि य लच्छी पर-लच्छि-समाणिया तस्स ॥15॥
अन्वयार्थ : [जो] जो पुरूष [लच्छिं] लक्ष्‍मी को [अणवरयं] निरंतर [संचदि] संचित करता है [णय य देदि] न दान करता है [णेय भुञ्जेदि] न भोगता है [तस्‍स अप्‍प्‍णिया वि य लच्‍छी] उसके अपनी लक्ष्‍मी भी [पर लच्छिसमाणिया] पर की लक्ष्‍मी के समान है ।

छाबडा :
जो लक्ष्‍मी को पाकर दान-भोग नहीं करता है, उसके वह लक्ष्‍मी, दूसरे की है । आप तो रखवाला (चौकीदार) है, लक्ष्‍मी को कोई दूसरा ही भोगेगा ।

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+ लक्ष्मी पर मोहित जीव की दशा -
लच्छी-संसत्त-मणो जो अप्पाणं धरेदि कट्ठेण
सो राइ-दाइयाणं कज्जं साहेदि मूढप्पा ॥16॥
अन्वयार्थ : [जो] जो पुरूष [लच्‍छीसंसत्तमणो] लक्ष्‍मी में आसक्‍त चित्त होकर [अप्‍पाणं कठ्टेण धरेदि] अपनी आत्‍मा को कष्‍ट सहित रखता है [सो मूढप्‍पा राइददाइयाणं] राजा तथा कुटुम्बियों का [कज्‍जं साहेहि] कार्य सिद्ध करता है ।

छाबडा :
लक्ष्‍मी में आसक्‍त-चित्त होकर इसको पैदा करने के लिये तथा रक्षा करने के लिये अनेक कष्‍ट सहता है, सो उस पुरूष को तो केवल कष्‍ट ही फल होता है । लक्ष्‍मी को तो कुटुम्‍ब भोगेगा या राजा लेवेगा ।

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+ लक्ष्मी का दास -
जो वड्ढारदि लच्छिं बहु-विह-बुद्धीहिं णेय तिप्पेदि
सव्वारंभं कुव्वदि रत्ति-दिणं तं पि चिंतेइ ॥17॥
ण य भुंजदि वेलाए चिंतावत्थो ण सुवदि रयणीए
सो दासत्तं कुव्वदि विमोहिदो लच्छि-तरुणीए ॥18॥
अन्वयार्थ : [जो] जो पुरूष [बहुविह‍बुद्धीहिं] अनेक प्रकार की कला चतुराई और बुद्धि के द्वारा [ल‍च्छिं बड्ढारदि] लक्ष्‍मी को बढ़ता है [णेय तिप्‍पेदि] तृप्‍त नहीं होता है [सव्‍वारंभं कुव्‍वदि] इसके लिये असि-मसि-कृषि आदि क सब आरंभ करता है [रत्तिदिणं तं पि चिंतेइ] रात दिन इसी के आरंभ का चिंतवन करता है [वेलाए ण य भुंजदि] समय पर भोजन नहीं करता है [चिंतावत्‍थो रयणीए ण सु‍वदि] चिंतित होता हुआ रात में सोता भी नहीं है [सो] वह पुरूष [लच्छि-तरूणीए विमोहिदो] लक्ष्‍मी-रूपी युवती से मोहित होकर [दासत्‍तं कुव्‍वदि] उसका किंकरपना करता है ।

छाबडा :
जो स्‍त्री का किंकर होता हैं उसको संसार में 'मोहल्‍या' ऐसे निंद्य-नाम से पुकारते हैं । जो पुरूष निरंतर लक्ष्‍मी के निमित्‍त ही प्रयास करता है सो लक्ष्‍मी-रूपी स्‍त्री का मोहल्‍या है ।

अब जो लक्ष्‍मी को धर्म-कार्य में लगाता है उसकी प्रशंसा करते है :-

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+ लक्ष्मी को धर्म-कार्य में लगाने वाले की प्रशंसा -
जो वड्ढमाण-लच्छिं अणवरयं देदि धम्म-कज्जेसु
सो पंडिएहिं थुव्वदि तस्स वि सहला हवे लच्छी ॥19॥
अन्वयार्थ : [जो] जो पुरूष (पुण्‍यके उदयसे) [वड्ढमाण लच्छिं] बढ़ती हुई लक्ष्‍मी को [अणवरयं] निरंतर [धम्‍मकज्‍जेसु देदि] धर्म के कार्यों में देता है [सो पंडिएहिं थुव्‍वदि] वह पुरूष पंडितों द्वारा स्‍तुति करने योग्‍य है [वि तस्‍स लच्‍छी सहला हवे] और उसी की लक्ष्‍मी सफल है ।

छाबडा :
लक्ष्‍मी पूजा, प्रतिष्‍ठा, यात्रा, पात्र-दान, परोपकार इत्‍यादि धर्म-कार्यों में खर्च की गई ही सफल है, पंडित लोग भी उसकी प्रशंसा करते हैं ।

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+ सत्कार्यों में धन खर्चने वाले का जन्म सफल -
एवं जो जाणित्ता विहलिय-लोयाण धम्म-जुत्ताणं
णिरवेक्खो तं देदि हु तस्स हवे जीवियं सहलं ॥20॥
अन्वयार्थ : [जो एवं जाणित्ता] जो पुरूष ऐसा जानकर [धम्‍मजुत्ताणं विहलियलोयाण] धर्म-युक्‍त ऐसे निर्धन लोगों के लिये [णिरवेक्‍खो] प्रत्‍युपकार की इच्‍छा से रहित होकर [तं देदि] उस लक्ष्‍मी को देता है [हु तस्‍स जीवियं सहलं हवे] निश्र्चय से उसी का जन्‍म सफल होता है ।

छाबडा :
अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिए तो दान देनेवाले संसार में बहुत हैं । जो प्रत्‍युपकार की इच्‍छा से रहित होकर धर्मात्‍मा तथा दुखी-दरिद्र पुरूषों को धन देते हैं, ऐसे विरले है उनका जीवन सफल है ।

अब मोह का माहात्‍म्‍य दिखाते है :-

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+ मोह का महात्मय -
जल-बुव्बुय-सारिच्छं धण-जोवण्ण जीवियं पि पच्छंता
मण्णंति तो वि णिच्चं अइ बलिओ मोह-माहप्पो ॥21॥
अन्वयार्थ : (यह प्राणी) [धणजुव्‍वणजीवियं] धन, यौवन, जीवन को [जलबुब्‍बुस-सारिच्‍छं] जल के बुदबुदे के समान (तुरंत नष्‍ट होते) [पेच्‍छंता पि] देखते हुए भी [णिच्‍चं मण्‍णंति] नित्‍य मानता है (यह बड़े ही आश्‍चर्यकी बात है) [मोहमाहप्‍पो अइवलिओ] मोह का माहात्‍म्‍य बड़ा बलवान है ।

छाबडा :
वस्‍तु-स्‍वरूप का अन्‍यथा ज्ञान कराने में मदिरा पीना, जवरादिक रोग, नेत्र विकार, अन्‍धकार इत्‍याददि अनेक कारण है परन्‍तु यह मोह भाव सबसे बलवान है, वस्‍तु को प्रत्‍यक्ष विनाशीक देखता है तो भी नित्‍य ही मान्‍य कराता है तथा मिथ्‍यात्‍व काम, क्रोध, शोक इत्‍यादिक हैं वे सब मोह ही के भेद हैं, ये सब ही वस्तु स्‍वरूप में अन्‍यथा-बुद्धि कराते है ।

अब इस कथन का संकोच करते है :-

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+ उपसंहार -
चइऊण महामोहं विसए मुणिऊण भंगुरे सव्वे
णिव्विसयं कुणह मणं जेण सुहं उत्तमं लहह ॥22॥
अन्वयार्थ : (हे भव्‍यजीव !) [सव्‍वे विसऐ भंगुरे मुणिऊण] समस्‍त विषयों को विनाशीक जानकर [महामोहं चइऊण] महामोह को छोड़कर [मणं णिव्विसयं कुणह] अपने मन को विषयों से रहित करो [जेण उत्तमं सुहं लहइ] जिससे उत्तम सुख को प्राप्‍त करो ।

छाबडा :
पूर्वोक्‍त प्रकार से संसार, देह, भोग, लक्ष्‍मी इत्‍यादिक को अस्थिर-रूप दिखाये, उनको सुनकर जो अपने मन को विषयों से छुड़ाकर उनको अस्थिररूप भावेगा सो भव्‍य-जीव सिद्ध-पद के सुख को पावेगा ।

इति अध्रुवानुप्रेक्षा समाप्‍ता ॥१॥

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अशरण अनुप्रेक्षा



+ अशरण अनुप्रेक्षा का स्वरूप -
तत्थ भवे किं सरणं जत्थ सुरिंदाण दीसदे विलओ
हरि-हर-बंभादीया कालेण य कवलिया जत्थ ॥23॥
अन्वयार्थ : [जत्‍थ सुरिंदाण विलओ दीसदे] जहाँ देवों के इन्‍द्र का नाश देखा जाता है [जत्‍थ हरिहरबंभादीया कालेण य कवलिया] जहां हरि (नारायण), हर (रूद्र), ब्रह्मा (विधाता), आदि शब्‍द से बड़े बड़े पदवी-धारक सब ही काल द्वारा ग्रसे गये, [तत्थ किं सरणं भवे] वहां कौन शरण होवे ?

छाबडा :
शरण उसको कहते हैं जहाँ अपनी रक्षा हो सो संसार में जिनका शरण विचारा जाता है वे ही काल-पाकर नष्‍ट हो जाते हैं वहाँ कैसा शरण ?

अब इसका दृष्‍टांत कहते हैं -

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+ दृष्टांत -
सीहस्स कमे पडिदं सारंगं जह ण रक्खदे को वि
तह मिच्चुणा य गहिदं जीवं पि ण रक्खदे को वि ॥24॥
अन्वयार्थ : [जह सीहस्‍स कमे पंडिदं] जैसे सिंह के पैर के नीचे पड़े हुए [सारंगं को वि ण रक्‍खदे] हिरण की कोई भी रक्षा करनेवाला नहीं [तह मिच्‍चुणा य गहिदं जीवं पि] वैसे ही (संसार में) मृत्‍यु के द्वारा ग्रहण किये हुए जीव की [को वि ण रक्‍खदे] कोई भी रक्षा नहीं कर सकता है ।

छाबडा :
वन में सिंह मृग को पैर नीचे दाब ले तब कौन रक्षा करे ? वैसे ही यह काल का दृष्‍टान्‍त जानना चाहिये । आगे इसी अर्थ को दृढ़ करते हैं -

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+ इसी को दृढ़ करते हैं -
जइ देवो वि य रक्खदि मंतो तंतो य खेत्त पालो य
मियमाणं पि मणुस्सं तो मणुया अक्खया होंति ॥25॥
अन्वयार्थ : [जइ मियमाणं पि मणुस्‍मं] यदि मरते हुए मनुष्‍य को [देवो वि य मंतो तंतो य खेत्तपालो य रक्‍खदिं] कोई देव, मंत्र, तंत्र, क्षेत्रपाल उपलक्षण से संसार जिनको रक्षक मानता है सो सब ही रक्षा करने वाले हों [तो मणुया अक्‍खया होंति] तो मनुष्‍य अक्षय होवें (कोई भी मरे नहीं)

छाबडा :
लोग जीवित रहने के निमित्त देवपूजा, मंत्र-तंत्र, औषधि आदि अनेक उपाय करते हैं परन्‍तु निश्‍चय से विचार करें तो जीवित दिखता ही नहीं है, वृथा ही मोह से विकल्‍प पैदा करते हैं ।

आगे इसी अर्थ को और दृढ़ करते हैं :-

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+ इसी को दृढ़ करते हैं -
अइ-बलिओ वि रउद्दो मरण-विहीणो ण दीसदे को वि
रक्खिज्जंतो वि सया रक्ख-पयारेहिं विविहेहिं ॥26॥
अन्वयार्थ : [अइबलियो वि रउद्दो] अत्‍यंत बलवान् तथा रौद्र (भयानक) [विविहेहिं रक्‍खपयारेहिं रक्खिजंतो वि सया] और अनेक रक्षा के प्रकार, उनसे निरन्‍तर रक्षा किया हुआ भी [मरणविहीणो को वि ण दीसए] मरण-रहित कोई भी नहीं दिखता है ।

छाबडा :
अनेक रक्षा के प्रकार गढ़, कोट, सुभट, शस्‍त्रादिक को शरण मानकर कोटि उपाय करो परन्‍तु मरण से कोई बचता नहीं । सब उपाय विफल जाते हैं ।

अब शरणकी कल्‍पना करे उसको अज्ञान बताते हैं :-

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+ शरण की कल्पना अज्ञान -
एवं पेच्छंतो वि हु गह-भूय-पिसाय -जोइणी-जक्खं
सरणं मण्णइ मूढो सुगाढ-मिच्छत्त-भावादो ॥27॥
अन्वयार्थ : [एवं पेच्‍छंतो वि हु] ऐसे (पूर्वोक्त-प्रकार अशरण) प्रत्‍यक्ष देखता हुआ भी [मूढो] मूढ प्राणी [सुगाढमिच्‍छत्तभावादो] तीव्र-मिथ्‍यात्‍व-भाव से [गहभूयपिसाय जोइणी जक्‍खं] सूर्यादि ग्रह, भूत, व्‍यंतर, पिशाच, योगिनी, चंडिकादिक, यक्ष, मणिभद्रादिक को [सरणं मण्‍णइ] शरण मानता है ।

छाबडा :
यह प्राणी प्रत्‍यक्ष जानता है कि मरण से बचानेवाला कोई भी नहीं है तो ग्रहादिक को शरण मानता है सो यह तीव्र-मिथ्‍यात्‍व का माहात्‍म्‍य है ।

अब मरण है सो आयुके क्षय से होता है यह कहते हैं :-

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+ मरण आयु क्षय से -
आउ-क्खएण मरणं आउं दाउं ण सक्कदे को वि
तम्हा देविंदो वि य मरणउ ण रक्खदे को वि ॥28॥
अन्वयार्थ : [आयुक्‍खयेण मरणं] आयु-कर्म के क्षय से मरण होता है [आउं दाऊण सक्‍कदे को वि] और आयु-कर्म किसी को कोई देने में समर्थ नहीं [तह्मा देविंदो वि य] इसलिये देवों का इन्‍द्र भी [मरणउ को वि ण रक्‍खदे] मरने से किसी की रक्षा नहीं कर सकता है ।

छाबडा :
मरण आयु के पूर्ण होने से होता है और आयु कोई किसी को देने में समर्थ नहीं, तब रक्षा करनेवाला कौन ? इसका विचार करो ।

आगे इसी अर्थ को दृढ करते हैं -

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+ इसी को दृढ़ करते हैं -
अप्पाणं पि चवंतं जइ सक्कदि रक्खि दुं सुरिंदो वि
तो किं छंडदि सग्गं सव्वुत्तम-भोय-संजुत्तं ॥29॥
अन्वयार्थ : [जइ सुरिंदो वि] यदि देवों का इन्‍द्र भी [अप्‍पाणं पि चवंतं] अपने को चयते (मरते) हुए [रक्खिदुं सक्‍कदि] रोकने में समर्थ होता [तो सव्‍वुत्तम-भोयसंजुत्तं] तो सर्वोत्तम भोगों से संयुक्त [सग्‍गं किं छंडदि] स्‍वर्ग को क्‍यों छोड़ता ?

छाबडा :
सर्व भोगों का निवास स्‍थान अपना वश चलते कौन छोड़े ?

अब परमार्थ शरण दिखाते हैं -

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+ परमार्थ शरण -
दंसण-णाण-चरित्तं सरणं सेवेह परम-सद्धाए
अण्णं किं पि ण सरणं संसारे संसरंताणं ॥30॥
अन्वयार्थ : (हे भव्‍य) [परमसद्धाए] परम श्रद्धा से [दंसणणाणचरित्तं] दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्‍वरूप [सरणं सेवेहि] शरण का सेवन कर । [संसारे संसरंताणं] इस संसार में भ्रमण करते हुए जीवों को [अण्‍णं किं पि ण सरणं] अन्‍य कुछ भी शरण नहीं हैं ।

छाबडा :
सम्‍यग्‍दर्शन-ज्ञान-चारित्र अपना स्‍वरूप है सो यह ही परमार्थरूप (वास्‍तव में) शरण है । अन्‍य सब अशरण है, निश्चय-श्रद्धापूर्वक यह ही शरण ग्रहण करो, ऐसा उपदेश है ।

आगे इसी को दृढ़ करते हैं -

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+ निष्कर्ष -
अप्पा णं पि य सरणं खमादि-भावेहिं परिणदो होदि
तिव्व-क सायाविट्ठो अप्पाणं हणदि अप्पेण ॥31॥
अन्वयार्थ : [स अप्‍पाणं खमादिभावेहिं परिणदं होदि सरणं] जो अपने का क्षमादि दश-लक्षण-रूप परिणत करता है सो शरण है [तिव्‍वकषायाविट्ठो अप्‍पेण अप्‍पाणं हणदि] और जो तीव्र-कषाय युक्त होता है सो अपने ही द्वारा अपने को हनता है ।

छाबडा :
परमार्थ से विचार करें तो आप ही अपनी रक्षा करनेवाला है तथा आप ही घातनेवाला है । क्रोधादिरूप परिणाम करता है तब शुद्ध चैतन्‍य का घात होता है और क्षमादि परिणाम करता है तब अपनी रक्षा होती है । इन भावों से जन्‍म-मरण से रहित होकर अविनाशीपद प्राप्‍त होता है ।

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संसार अनुप्रेक्षा



+ संसार का सामान्य स्वरूप -
एक्कं चयदि सरीरं अण्णं गिण्हेदि णव-णवं जीवो
पुणु पुणु अण्णं अण्णं गिण्हदि मुंचेदि बहु-वारं ॥32॥
एवं जं संसरणं णाणा-देहेसु होदि जीवस्स
सो संसारो भण्णदि मिच्छ-क साएहिं जुत्तस्स ॥33॥
अन्वयार्थ : [मिच्‍छकसायेहिं जुत्तस्‍स जीवस्‍य] मिथ्‍यात्‍व कहिये सर्वथा एकान्‍तरूप वस्‍तु को श्रद्धा में लाना और कषाय कहिये क्रोध, मान, माया लोभ इनसे युक्‍त इस जीव का [जं णाणादेहेसु संसरण हवदि] जो अनेक शरीरों संसरण कहिये भ्रमण होता है [सो संसारो भण्‍णदि] वह संसार कहलाता है । वह किस तरह ? सो ही कहते हैं । [जीवों एक्‍कं शरीरं चयदि] यह जीव एक शरीर को छोड़ता है [पुणु अण्‍णं अण्‍णं बहुवारं गिण्‍हदि मुंचेदि] फिर अन्‍य अन्‍य शरीर को कई बार ग्रहण करता है और छोड़ता है [सो संसारो भण्‍णदि] वह संसार कहलाता है ।

छाबडा :
एक शरीर से अन्‍य शरीर की प्राप्ति होते रहना सो संसार है ।

अब ऐसे संसार में संक्षेप से चार गतियाँ हैं तथा अनेक प्रकार के दु:ख है । सो प्रथम ही नरक-गति में दु:ख हैं यह छह गाथाओं में कहते हैं -

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+ नरक-गति के दुःख -
पाव-उदयेण णरए जायदि जीवो सहेदि बहु-दुक्खं
पंच-पयारं विविहं अणोवमं अण्ण-दुक्खेहिं ॥34॥
अन्वयार्थ : [जीवों पावोदयेण णरए जायदि] यह जीव पाप के उदय से नरक में उत्‍पन्‍न होता है [विविहं अण्‍णदुक्‍खेहिं पंचपयारं अणोवमं बहुदुक्‍खं सहेदि] वहाँ कई तरह के, पंच-प्रकार से, उपमारहित ऐसे बहुत से दु:ख सहता है ।

छाबडा :
जो जीवों की हिंसा करता है, झूठ बोलता है, परधन हरता है, पर-स्‍त्री तकता है, बहुत आरंभ करता है, परिग्रह में आसक्‍त होता है, बहुत क्रोधी, प्रचुर मान, अति क‍प‍टी, अति कठोर भाषी, पापी, चुगल, कृपण, देव-शास्‍त्र-गुरू का निंदक, अधम, दुर्बुद्धि, कृतघ्‍नी और बहुत शोक / दु:ख करने ही की जिसकी प्रकृति हो ऐसा जीव होता है, सो मर कर नरक में उत्‍पन्‍न होता है, अनके प्रकार के दु:ख को सहता है । अब पाँच प्रकार के दु:खों को कहते हैं -

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+ नरक में पांच प्रकार के दुःख -
असुरोदीरिय-दुक्खं सारीरं माणसं तहा विविहं
खित्तुब्भवं च तिव्वं अण्णो ण्ण-कयं च पंचविहं ॥35॥
अन्वयार्थ : [असुरोदीरियदुक्‍खं] असुरकुमार देवों द्वारा उत्‍पन्‍न किया हुआ दु:ख, [सारीरं माणसं] शरीर से उत्‍पन्‍न हुआ और मन से हुआ [तहा विविहं खित्तुब्‍भवं] तथा अनेक प्रकार क्षेत्र से उत्‍पन्‍न हुआ [च अण्‍णोणकयं पंचवि‍हं] और परस्‍पर किया हुआ ऐसे पाँच प्रकार के दु:ख हैं ।

छाबडा :
तीसरे नरक तक तो
  1. असुरकुमार देव कुतूहल-मात्र जाते हैं, वे नारकियों को देखकर आपस में लड़ाते हैं, अनेक प्रकार से दु:खी करते हैं ।
  2. नारकियों का शरीर ही पाप के उदय से स्‍वयमेव अनेक रोगों सहित, बुरा, घिनावना, दु:खमयी होता है ।
  3. उनका चित्त भी महाक्रूर दु:खरूप ही होता है ।
  4. नरक का क्षेत्र महाशीत उष्‍ण, दुर्गन्‍ध और अनेक उपद्रव सहित होता हैं ।
  5. नार‍की जीव आपस में बैर के संस्‍कार से छेदन, भेदन, मारन, ताड़न और कुम्‍भीपाक आदि करते हैं ।
वहाँ का दु:ख उपमा रहित हैं ।

आगे इसी दु:ख को विशेष रूपसे कहते हैं -

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+ इसी को विशेष कहते हैं -
छिज्जइ तिलतिलमित्तं भिंदिज्जइ तिल तिलंतरं सयलं
वज्जग्गीए कढिज्जइ णिहिप्पए पूयकुंडम्हि ॥36॥
अन्वयार्थ : (नरक में) [तिलतिलमित्तं छिज्‍ज] तिल-तिल-मात्र छेद देते हैं [सयलं तिलतिलं भिंदिल्‍लइ] शकल कहिये खण्‍ड को भी तिल-तिल-मात्र भेद देते हैं [बज्‍जग्गिए कढिज्‍जइ] वज्राग्नि में पकाते हैं [पूयकुण्‍डम्हि णिहिप्‍पए] राध के कुण्‍ड में फेंक देते हैं ।

छाबडा :
नरक के दु:ख वर्णणातीत हैं ।

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+ नरक के दुःख कहना संभव नहीं -
इच्चेवमाइ-दुक्खं जं णरए सहदि एयसमयम्हि
तं सयलं वण्णेदुं ण सक्कदे सहस-जीहो वि ॥37॥
अन्वयार्थ : [इच्‍चमाइ जं दुक्‍खं] इति कहिये ऐसे एवमादि कहिये पूर्व गाथा में कहे गए उनको आदि लेकर जो दु:ख उनको [णरए एयसमयम्हि सहदि] नरक में एक समय में जीव सहता है [तं सयलं वण्‍णेदुं] उन सब का वर्णन करने के लिये [सहसज्रीहो वि ण सक्‍कदे] हजार जीभवाला भी समर्थ नहीं होता है ।

छाबडा :
इस गाथा में नरक के दु:ख वचन द्वारा अवर्णनीय है ऐसा कहा हैं ।

अब कहते हैं कि नरक का क्षेत्र तथा नारकियों के परिणाम दु:खमयी ही हैं -

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+ नरक का क्षेत्र और परिणाम दुखमयी -
सव्वं पि होदि णरए खित्तसहावेण दुक्खदं असुहं
कुविदा वि सव्वकालं अण्णोण्णं होंति णेरइया ॥38॥
अन्वयार्थ : [णरये खित्तसहावेण सव्‍वं पि दुक्‍खदं असुहं होदि] नरक में क्षेत्र स्‍वभाव से सब ही कारण दु:खदायक तथा अशुभ हैं । [णेरइया सव्‍वकालं अण्‍णीण्‍णं कुविदा होंति] नारकी जीव सदा काल परस्‍पर में क्रोधित होते रहते हैं ।

छाबडा :
क्षेत्र तो (उपचार के) स्‍वभाव से दु:खरूप हैं आपस में क्रोधित होते हुए वह उसको मारता है, वह उसको मारता है इस तरह निरन्‍तर दु:खी ही रहते हैं ।

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+ नरक में दुःख बहुत काल तक -
अण्ण-भवे जो सुयणो सो वि य णरये हणेइ अइ-कुविदो
एवं तिव्व-विवागं बहु-कालं विसहदे दुक्खं ॥39॥
अन्वयार्थ : [अण्‍णभवे जो सुयणो] पूर्वभव में जो सज्‍जन कुटुम्‍ब का था [सो वि य णरये अइकुविदो हणेइ] वह भी नरक में क्रोधित होकर घात करता है [एवं तिव्‍वविवागं दु:ख बहुकालं विसहदे] इसप्रकार तीव्र है विपाक जिसका ऐसा दु:ख बहुत काल तक नार‍की सहता हैं ।

छाबडा :
ऐसे दु:ख कई सागरों तक सहता है, आयु पूरी हुए बिना वहाँ से निकलना नहीं होता है ।

अब तिर्यंचगति सम्‍बन्‍धी दु:खों को साढ़े चार गाथाओं में कहते हैं -

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+ तीर्यंच गति के दुःख -
तत्तो णीसरिदूणं जायदि तिरएसु बहुवियप्पेसु
तत्थ वि पावदि दुक्खं गब्भे वि य छेयणादीयं ॥40॥
अन्वयार्थ : [णरये खित्तसहावेण सव्‍वं पि दुक्‍खदं असुहं होदि] नरक मे क्षेत्र स्‍वभाव से सब ही कारण दु:खदायक तथा अशुभ है । [णेरइया सव्‍वकालं अण्‍णीण्‍णं कुविदा होंति] नारकी जीव सदा काल परस्‍परमें क्रोधित होते रहते हैं ।

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+ तीर्यंच सभी अवस्थाओं में दुखी -
तिरिएहिं खज्जमाणो दुट्ठ-मणुस्सेहिं हण्णमाणो वि
सव्वत्थ वि संतट्ठो भय-दुक्खं विसहदे भीमं ॥41॥
अन्वयार्थ : (उस तिर्यचगति में यह जीव) [तिरिएहिं खज्‍जमाणो] सिंह-व्‍याघ्रादिक से खाये जाने का [वि दुठ्टमणुस्‍सेहिं हण्‍णमाणो] तथा दृष्‍ट मनुष्‍य, म्‍लेच्‍छ व्‍याध धीवरादिक से मारे जाने का [सव्‍वत्‍थ वि संतठ्टो] सब जगह दुखी होता हुआ [भीमं भयदुक्‍खं विसहदे] रोद्र भयानक दु:ख को विशेषरूप से सहता हैं ।

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+ तीर्यंच को कोई शरण नहीं -
अण्णोण्णं खज्जंता तिरियां पावंति दारुणं दुक्खं
माया वि जत्थ भक्खदि अण्णो को तत्थ रक्खेदि ॥42॥
अन्वयार्थ : [तिरिया अण्‍णोण्‍णं खज्‍जंता] यह तिर्यंच [जीव] परस्‍पर में खाये जाने का [दारूणं दुक्‍खं पावंति] उत्‍कृष्‍ट दु:ख पाता है [जत्‍थ माया वि भक्‍खदि] जहाँ जिसके गर्भ में उत्‍पन्‍न हुआ ऐसी माता भी भक्षण कर जाती है [तत्‍थ अण्‍णो को रक्‍खदि] वहाँ दूसरा कौन रक्षा करे ?

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+ भूख-प्यास का दुःख -
तिव्व-तिसाए तिसिदो तिव्व-विभुक्खाइ भुक्खिदो संतो
तिव्वं पावदि दुक्खं उयर-हुयासेण डज्झंतो ॥43॥
अन्वयार्थ : [तिव्‍वतिसाए तिसिदो] तीव्र-प्‍यास से प्‍यासा [तिव्‍वविंभुक्‍खाइ भुक्खिदो संतो] तीव्र-भुख से भुखा होता हुआ [उयरहुयासेण डज्‍इंतो] उदराग्नि से जलता हुआ [तिव्‍वं दुक्‍खं पा‍वदि] तीव्र दु:ख पाता हैं ।

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+ उपसंहार -
एवं बहुप्पयारं दुक्खं विसहेदि तिरिय-जोणीसु
तत्तो णीसरदूणं लद्धि-अपुण्णो णरो होदि ॥44॥
अन्वयार्थ : [एवं] ऐसे (पूर्वोक्त प्रकार) [तिरियजोणीसु] तिर्यचयोनि में (जीव) [बहुप्‍पयारं दुक्‍खं विसहेदि] अनेक प्रकार के दु:ख सहता है [तत्तो णीसरदूणं] उस तिर्यचगति से निकल कर [लद्धिअपुण्‍णो णरो होदि] लब्धि-अपर्याप्‍त (जहाँ पर्याप्ति पूरी ही नहीं होती) मनुष्‍य होता है ।

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+ मनुष्य-गति के दुःख -
अह गब्भे वि य जायदि तत्थ वि णिवडीकयंग-पच्चंगो
विसहदि तिव्वं दुक्खं णिग्गममाणो वि जोणीदो ॥45॥
अन्वयार्थ : [अह गब्‍भे वि य जायदि] अथवा गर्भ में भी उत्‍पन्‍न होता है तो [तत्‍थ वि णिवड़ीकयंगपच्‍चंगो] वहाँ भी सिकुड़ रहे है हाथ, पैर आदि अंग तथा उंगली आदि प्रत्‍यंग जिसके ऐसा होता हुआ तथा [जोणीदो णिग्‍गममाणो वि] योनि से निकलते समय भी [तिव्‍वं दुक्‍खं विसहदि] तीव्र-दु:ख को सहता है ।

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+ मनुष्य-गति के और भी दुःख -
बालोपि पियर-चत्तो पर उच्छिट्ठेण बड्ढदे दुहिदो
एवं जायण-सीलो गमेदि कालं महादुक्खं ॥46॥
अन्वयार्थ : [वालोपि पियरचत्तो परउच्छिठ्टेण बड्ढदे दुहिदो] बाल-अवस्‍था में ही माता-पिता मर जायँ तब दूसरों की झूंठन से बड़ा हुआ [एवं जायणसीलो महादुक्‍खं कालं गमेदि] इस तरह भीख माँग माँगकर उदर-पूर्ति करके महादु:खी होता हुआ काल बिताता है ।

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+ पाप से दुखी, फिर भी पुण्य नहीं करता -
पावेण जणो एसो दुक्कम्म-वसेण जायदे सव्वो
पुणरवि करेदि पावं ण य पुण्णं को वि अज्जेदि ॥47॥
अन्वयार्थ : [एसो सव्‍वो जणो पावेण दुक्‍कम्‍म-वसेण जायदे] इसप्रकार सब ही दुःख:रूप कर्म (असाता-वेदनीय, नीच-गोत्र, अशुभनाम, आयु आदि) के वश से दुःख सहता है [पुणरवि करेदि पावं] तो भी फिर पाप ही करता है [ण य पुण्‍णं को वि अज्‍जेदि] कुछ भी पुण्य (पूजा, दान, व्रत, तप ध्यानादि) को पैदा नहीं करता ।

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+ पुण्य किसके द्वारा होते हैं ? -
विरलो अज्जदि पुण्णं सम्मादिट्ठी वएहिं संजुत्तो
उवसमभावे सहिदो णिंदण-गरहाहिं संजुत्तो ॥48॥
अन्वयार्थ : [सम्‍मादिट्ठी वएहिं संजुत्तो] सम्‍यग्‍दृष्टि (यथार्थ-श्रद्धावान्) और (मुनि-श्रावक के) व्रतों से संयुक्त [उवसमभावे सहिदो] उपशम भाव (मन्‍द कषायरूप परिणाम) सहित [ णिंदणगरहा‍हि संजुत्तो] निंदा (अपने दोष याद कर पश्चाताप करना), गर्हा (अपने दोष गुरू के पास जाकर प्रकट करना) इन दोनों से युक्त [विरलो पुण्‍णं अज्‍जदि] विरला ही ऐसा जीव है जो पुण्‍य प्रकृतियों का बंध करता है ।

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+ पुण्यवान के भी इष्ट-वियोग सम्भव -
पुण्ण-जुदस्स वि दीसदि इट्ठ-विओयं अणिट्ठ-संजोयं
भरहो वि साहिमाणो परिज्जिओ लहुय-भाएण ॥49॥
अन्वयार्थ : [पुण्‍णजुदस्‍स वि इट्ठविओयं दीसइ] पुण्‍य उदय सहित पुरूषों के भी इष्‍ट-वियोग, अनिष्‍ट-संयोग देखा जाता है [साहिमाणो भरहो वि लहुयभायेण परिज्जिओ] अभिमान सहि‍त भरत-चक्रवर्ती भी छोटे भाई बाहुबली से पराजित हुआ ।

छाबडा :
कोई समझता होगा कि जिनके बड़ा पुण्‍य का उदय है उनके तो सुख है सो संसार में तो सुख किसी के भी नहीं है । भरत चक्रवर्ती जैसे भी अपमानादि से दु:खी ही हुए तो औरों की क्‍या बात ?

आगे इसी अर्थ को दृढ़ करते हैं -

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+ इसी को आगे और दृढ़ करते हैं -
सयलट्ठ-विसय-जोओ बहु-पुण्णस्स वि ण सव्वहा होदि
तं पुण्णं पि ण कस्स वि सव्वं जेणिच्छिदं लहदि ॥50॥
अन्वयार्थ : (इस संसार में) [सयलट्ठविसहजोओ] समस्‍त जो पदार्थ, (विषय / भोग्‍य वस्‍तु), उनका योग [बहुपुण्‍णस्‍स वि ण सव्‍वदो होदि] बड़े पुण्‍यवानों को भी पूर्णरूप से नहीं मिलता है [तं पुण्‍णं पि ण कस्‍स वि] ऐसा पुण्‍य किसी के भी नहीं है [जे सव्‍वं णिच्छिदं लहदि] जिससे सब ही मनवांछित मिल जाय ।

छाबडा :
बड़े पुण्‍यवान् के भी वांछित वस्‍तु में कुछ कमी रह ही जाती है, सब मनोरथ तो किसी के भी पूरे नहीं होते हैं तब सर्व-सुखी कैसे होवे ?

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+ स्त्री / पुत्र / रोग सम्बन्धी दुःख -
कस्स वि णत्थि कलत्तं अहव कलत्तं ण पुत्त-संपत्ती
अह तेसिं संपत्ती तह वि सरोओ हवे देहो ॥51॥
अन्वयार्थ : [कस्‍स वि कलत्तं] किसी मनुष्‍य के तो स्‍त्री नहीं हैं [अहव कलत्तं पुत्तसंपत्ती ण] किसी के यदि स्‍त्री हैं तो पुत्र की प्राप्ति नहीं है [अह‍ तेसिं संपत्ती] किसी के पुत्र की प्राप्ति है [तह वि सरोओ हवे देहो] तो शरीर रोग सहित है ।

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+ निर्धनता / मरण का दुःख -
अह णीरोओ देहो तो धण-धण्णाण णेय संपत्ती
अह धण-धण्णं होदि हु तो मरणं झत्ति ढुक्केदि ॥52॥
अन्वयार्थ : [अह णीरोओ देहो] यदि किसी के नीरोग शरीर भी हो [तो धणधण्‍णाण णेय सम्‍पत्ति] तो धन-धान्‍य की प्राप्ति नहीं है [अह धणधण्‍णं होदि हु] यदि धन-धान्‍य की भी प्राप्ति हो जाय [तो मरणं झत्ति ढुक्‍केइ] तो शीघ्र-मरण हो जाता है ।

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+ अनिष्ट संयोगज दुःख -
कस्स वि दुट्ठ-कलत्तं कस्स वि दुव्वसण-वसणिओ पुत्तो
कस्स वि अरिसमबंधू कस्स वि दुहिदा वि दुच्चरिया ॥53॥
अन्वयार्थ : [कस्‍स वि दुट्ठकलत्तं]‍ किसी के तो स्‍त्री दुराचारिणी है [कस्‍स वि दुव्‍वसणवसणिओ पुत्तो] किसी का पुत्र जुआ आदि दुर्व्यसनों में रत है [कस्‍स वि अरिसमबंधू] किसी के शत्रु के समान कलही भाई है [कस्‍स वि दु‍हिदा वि दुच्‍चरिया] किसी के पुत्री दुराचारिणी है ।

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+ इष्ट-वियोगज दुःख -
मरदि सुपुत्तो कस्स वि कस्स वि महिला विणस्सदे इट्ठा
कस्स वि अग्गि-पलित्तं गिहं कुडंबं च डज्झेइ ॥54॥
अन्वयार्थ : [कस्‍स वि सुपुत्तो मरदि] किसी का सुपुत्र मर जाता है [कस्‍स वि इट्ठा महिला विणस्‍सदे्] किसी के इष्‍ट (प्‍यारी) स्‍त्री मर जाती है [कस्‍स वि अग्गिपलित्तं गिहं च कुडंवं डज्‍झेइ] किसी के घर और कुटुम्‍ब सब ही अग्नि से जल जाते हैं ।

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+ पाप को छोड़कर धर्म नहीं करता -
एवं मणुय-गदीए णाणा-दुक्खाइ विसहमाणो वि
ण वि धम्मे कुणदि मइं आरंभं णेय परिचयइ ॥55॥
अन्वयार्थ : [एवं मणुयगदीए] इस तरह मनुष्‍य-गति में [णाणा दुक्‍खाइं] अनेक प्रकार के दु:खों को [विसहमाणो वि] सहता हुआ भी [धम्‍मे मइं ण वि कुणदि] धर्माचरण में बुद्धि नहीं करता है [आरंभं णेय परिचयइ] (और) पापारंभ को नहीं छोड़ता है ।

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+ अनित्यता -
संधणो वि होदि णिधणो धण-हीणो तह य ईसरो होदि
राया वि होदि भिच्चो भिच्चो वि य होदि णरणाहो ॥56॥
अन्वयार्थ : [सधणो वि होदि णिधणो] धन सहित तो निर्धन हो जाता है [तह य धणहीणो ईसरो होदि] वैसे ही जो धन-रहित होता है, सो इश्वर (धनी) हो जाता है [राया वि होदि भिच्‍चो] राजा भी किंकर (नौकर) हो जाता है [भिच्‍चो वि य होदि णर णाहो] और जो किंकर होता है, वह राजा हो जाता है ।

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+ कर्म-वशता -
सत्तू वि होदि मित्तो मित्तो वि य जायदे तहा सत्तू
कम्‍मविवायवसादो एसो संसार-सब्भावो ॥57॥
अन्वयार्थ : [कम्‍मविवायवसादो] कर्म विपाक (उदय) के वश से [सत्तू वि मित्तो होदि] शत्रु भी मित्र हो जाता है [तहा मित्तो वि य सत्तु जायदे] और मित्र भी शत्रु हो जाता है [एसो संसारसब्‍भावो] ऐसा संसार का स्‍वभाव है ।

छाबडा :
पुण्‍यकर्म के उदय से शत्रु भी मित्र हो जाता है और पापकर्म के उदय से मित्र भी शत्रु हो जाता हैं ।

अब देवग‍‍ति का स्‍वरूप कहते हैं -

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+ देवों के दुःख -
अह कह वि हवदि देवा तस्स वि जाएदि माणसं दुक्खं
दट्ठूण महद्धीणं देवाणं रिद्धि-संपत्ती ॥58॥
अन्वयार्थ : [अह कहवि देवो हवदि] अथवा बड़े कष्‍ट से देव भी होता है तो [तस्‍स] उसके [महद्धीणं देवाणं] बड़े ऋद्धिधारक देवों की [रिद्धिसंपत्तीदट्ठूण] ऋद्धि सम्‍पत्ति को देखकर [माणसं दुक्‍खं जायेदि] मानसिक दु:ख उत्‍पन्‍न होता है ।

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+ वियोग / तृष्णा का दुःख -
इट्ठ-विओगं दुक्खं होदि महद्दीणं विसय-तण्हादो
विसय-वसादो सुक्खं जेसिं तेसिं कुतो तित्ती ॥59॥
अन्वयार्थ : [विसयतण्‍हादो] विषयों की तृष्‍णा से [महद्धीण] महर्द्धिक देवों को भी [इट्ठविओगं दुक्‍खं होदि] इष्‍ट (ऋद्धि, देवांगना आदि) वियोग का दु:ख होता है [जेसिं विसयवसादो सुक्‍खं] जिनके विषयों के आधीन सुख है [तेसिं कुतो तित्ती] उनके कैसे तृप्ति होवे ?

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+ मानसिक दुःख -
सारीरिय-दुक्खादो माणस-दुक्खं हवेइ अइ-पउरं
माणस-दुक्ख-जुदस्स हि विसया वि दुहावहा हुंति ॥60॥
अन्वयार्थ : [सारीरियदुक्‍खादो] शारीरिक दु:ख से [माणसदुक्‍खं] मानसिक दु:ख [अइपर हवेइ] अतिप्रचुर (बहुत ज्‍यादा) है [माणसदुक्‍खजुदस्‍स हि] मानसिक दु:ख सहित पुरूष के [विसया वि दुहावहा हुंति] अन्‍य विषय बहुत भी होवें तो भी वे उसको दु:खदाई ही दिखते हैं ।

छाबडा :
मा‍नसिक चिन्‍ता होती है तब सब ही सामग्री दु:खरूप दिखाई देती हैं ।

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+ विषयों में पराधिनता ही दुःख -
देवाणं पि य सुक्खं मणहर-विसएहिं कीरदे जदि हि
विसय -वसं जं सुक्खं दुक्खस्स वि कारणं तं पि ॥61॥
अन्वयार्थ : [जदि ही देवाणं पिय मणहरविसएहिं सुक्‍खं कीरदे] यदि देवों के मनोहर विषयों से सुख समझा जावे तो सुख नहीं है [जं विषयवसं सुक्‍खं] जो विषयों के आधीन सुख है [तं पि दुक्‍ख्‍स्‍स वि कारणं] वह दु:ख ही का कारण है ।

छाबडा :
अन्‍य निमित्त से सुख मानते हैं सो भ्रम है, जिस वस्‍तु को सुख का कारण मानते हैं वह ही वस्‍तु कालान्‍तर में (कुछ समय बाद) दु:ख का कारण हो जाती है ।

अब कहते हैं कि इस तरह विचार करने पर कहीं भी सुख नहीं है -

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+ संसार में सभी जगह दुःख -
एवं सुट्ठु-असारे संसारे दुक्ख-सायरे घोरे
किं कत्थ वि अत्थि सुहं वियारमाणं सुणिच्छयदो ॥62॥
अन्वयार्थ : [एवं सुट्ठु-असारे] इस तरह सब प्रकार से असार [दुक्‍खसायरे घोरे संसारे] दु:ख के सागर भयानक संसार में [सुणिच्छयदो वियारमाणं] निश्चय से विचार किया जाय तो [किं कत्‍थ वि सुहं अत्थि] क्‍या कहीं भी कुछ सुख है ?

छाबडा :
चार-गति-रूप संसार है और चारों ही गतियाँ दु:ख-रूप हैं तब सुख कहाँ ?

अब कह‍ते हैं कि यह जीव पर्याय-बुद्धि है जिस योनि में उत्‍पन्‍न होता है वही सुख मान लेता है -

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+ मोह का महात्मय -
दुक्किय-कम्म-वसादो राया वि य असुइ-कीडओ होदि
तत्थेव य कुणइ रइं पेक्ख ह मोहस्स माहप्पं ॥63॥
अन्वयार्थ : [मोहस्‍स माहप्‍पं पेक्‍खह] मोह के माहात्‍म्‍य को देखो कि [दुक्कियकम्‍मसादो] पाप-कर्म के वश से [राया वि य असुइकीडओ होदि] राजा भी (मर कर) विष्‍ठा का कीड़ा हो जाता है [य तत्‍थेव रइं कुणइ] और वहीं पर रति (प्रेम) करता है ।

छाबडा :
अब कहते हैं कि इस प्राणीके एक ही भवमें अनेक सम्‍बन्‍ध हो जाते हैं -

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+ विचित्र संयोग -
पुत्तो वि भाउ जाओ सो चिय भाओ वि देवरो होदि
माया होदि सवत्ती जणणो वि य होदि भत्तारो ॥64॥
एयम्मि भवे एदे संबंधा होंति एय-जीवस्स
अण्ण-भवे किं भणइ जीवाणं धम्म-रहिदाणं ॥65॥
अन्वयार्थ : [एयजीवस्‍स] एक जीव के [एयम्मि भवे] एक भव में [एदे सम्‍बन्‍धा हों‍ति] इतने सम्‍बन्‍धी होते हैं तो [धम्‍मरहिदाणं जीवाणं] धर्म-रहित जीवों के [अण्‍णभवे किं भण्‍ण्‍इ] अन्‍यभव में क्‍या कहना ? [पुत्तो वि भाओ जाओ] पुत्र तो भाई हुआ [य सो वि भाओ देवरो होदि] और जो भाई था वह देवर हुआ । [माया होइ सवत्ती] माता थी वह सौत हुई [य जणणो वि भत्तारो होइ] और पिता था सो पति हुआ ।

छाबडा :
ये सब सम्‍बन्‍ध वसन्‍तलिका वेश्‍या, धनदेव, कमला और वरूण के हुए । इनकी कथा दूसरे ग्रन्‍थ से लिखी जाती हैं :- एक भव में अठारह नाते की कथा मालवदेश की उज्‍जयिनी नगरी में राजा विश्वसेन राज्‍य करता था । वहाँ सुदत्त नाम का सेठ रहता था । वह सो‍लह करोड़ द्रव्‍य का स्‍वामी था । वह सेठ वसन्‍ततिलका नाम की वेश्‍या में आसक्त हो गया और उसने उसको अपने घर में रख ली । जब वह गर्भवती हुइ तब उसका शरीर रोग-सहित हो गया इसलिये सेठ ने उस वेश्‍या को अपने घर में से निकाल दिया । वसन्‍ततिलका ने अपने घर में ही पुत्र-पुत्री के युगल को जन्‍म दिया । उसने खेद-खिन्‍न होकर उन दोनों बालकों को अलग-अलग रत्‍न-कम्‍बल में लपेट कर पुत्री को तो दक्षिण-दरवाजे पर छोड़ दी । वहाँ से एस कन्‍या को प्रयाग निवासी बिणजारे ने लेकर अपनी स्‍त्री को सौंप दी और उसका नाम कमला रक्‍खा । पुत्र को उत्तर दिशा के दरवाजे पर छोड़ दिया । वहाँ से उसको साकेतपुर के एक सुभ्रद नाम के बिणजारे ने उठाकर अपनी सुव्रता को सौंप दिया और उसका नाम धनदेव रक्‍खा । पूर्वोपार्जित कर्म के वश से धनदेव का कमला के साथ विवाह हुआ । पति-पत्‍नी हुए । बाद में धनदेव व्‍यापार के लिये उज्‍जयनी नगरी में गया । वह वहाँ वसन्‍ततिलका वेश्‍या पर मोहित हो गया । फिर एक दिन कमला ने सम्‍बन्‍ध पूछे । मुनिराज ने इनके सब सम्‍बन्‍ध बतलाये ।

इनके पूर्वभव का वर्णन । इसी उज्‍जयनी नगरी में सोमशर्मा नाम का बाह्मण रहता था । उसके काश्‍यपी नाम की स्‍त्री थी । उनके अग्निभूत सोमभूत नाम के दो पुत्र हुए । वे दोनों कहीं से पढ़कर आते थे । उन्‍होंने मार्ग में निदत्त-मुनि से उनकी माता को जो जिनमती नाम की गायिका थी, उनका शरीर समाधान (कुशलता) पूछते हुए देखी और जिनभद्र नामक मुनि को सुभद्रा नामक आर्यिका जो उनकी पुत्रवधू थी सो शरीर समाधान पूछती देखी । वहाँ उन दोनों भाइयों ने हँसी की कि तरूण के तो वृद्ध स्‍त्री और वृद्ध के तरूणी स्‍त्री है, परमेश्‍वर ने विपरीत योग मिलाया । इसप्रकार की हँसी के पाप से सोमशर्मा तो वसन्‍ततिलका हुई और अग्निभूत सोमभूत दोनों भाई मरकर वसन्‍ततिलका के पुत्र-पुत्री युगल हुए । उनके कमला और धनदेव नाम रक्‍खे गये । इस तरह सगे-सम्‍बन्‍धों को सुनने से कमला को जातिस्‍मरण हो गया । तब वह उज्‍जयिनी नगरी में वसन्‍ततिलका के घर गई । वहाँ वरूण पालने (झूले) में झूल रहा था । उसे देखकर कमला कहने लगी हे बालक । तेरे साथ मेरे छह नाते हैं सो सुन-
  1. मेरा पति धनदेव, उसके संयोग से तू हुआ इसलिये मेरा भी तू (सौतेला) पुत्र है ।
  2. धनदेव मेरा सगा भाई है, उसका तू पुत्र है इसलिये मेरा भतीजा भी है ।
  3. तेरी माता वसन्‍ततिलका, वह ही मेरी माता है इसलिये तू मेरा भाई भी हैं ।
  4. तू मेरे पति धनदेव का छोटा भाई है इसलिये मेरा देवर भी है ।
  5. धनदेव, मेरी माता वसन्‍ततिलका का पति है इसलिये धनदेव मेरा पिता हुआ, उसका तू छोटा भाई है, इसलिये तू मेरा काका (चाचा) भी है ।
  6. मैं वसन्‍ततिलका की सौत इसलिये धनदेव मेरा (सौतेला) पुत्र हुआ उसका तू पुत्र इसलिये मेरा पोता भी है ।
इसप्रकार वह वरूण के साथ छह नाते कह रही थी कि वहाँ वसन्‍‍ततिलका आ गई और कमला से बोली कि तू कौन है जो मेरे पुत्र को इस तरह छह नाते सुनाती है ? तब कमला बोली कि तेरे साथ भी मेरे छह नाते हैं सो सुन
  1. पहिले तो तू मेरी माता है क्‍योंकि धनदेव के साथ तेरे ही उदर से (पेट से) उत्‍पन्‍न हुई हूँ ।
  2. धनदेव मेरा भाई है । तू उसकी स्‍त्री है इसलिये मेरी भावज (भोजाई) है ।
  3. तू मेरी माता है । तेरा पति धनदेव मेरा पिता हुआ । उसकी तू माता है इसलिये मेरी दादी है ।
  4. मेरा पति धनदेव है । तू उसकी स्‍त्री है। इसलिये मेरी सौत भी हैं ।
  5. धनदेव तेरा पुत्र सो मेरा भी (सौतेला) पुत्र हुआ । तू उसकी स्‍त्री है इसलिये तू मेरी पुत्र-वधु भी है ।
  6. मैं धनदेव की स्‍त्री हूँ । तू धनदेव की माता है । इसलिये तू मेरी सास भी है ।
इसप्रकार वेश्‍या छह नाते सुनकर चिन्‍ता में विचार कर रही थी कि वहाँ धनदेव आ गया । उसको देखकर कमला बोली कि तुम्‍हारे साथ भी हमारे छह नाते हैं सो सुनिये :-
  1. पहिले तो तू और मैं इसी वेश्‍या के उदर से साथ-साथ उत्‍पन्‍न हुए सो तू मेरा भाई है ।
  2. बाद में तेरा मेरा विवाह हो गया सो तू मेरा पति है ।
  3. वसन्‍ततिल का मेरी माता है, उसका तू पति है इ‍सलिये मेरा पिता भी है ।
  4. वरूण तेरा छोटा भाई सो मेरा काका हुआ । उसका तू पिता है इसलिये काका का पिता होने से मेरा तू दादा भी हुआ ।
  5. मैं वसन्‍‍ततिलका की सौत और तू मेरी सौत का पुत्र इसलिये मेरा भी तू पुत्र है ।
  6. तू मेरा पति है इसलिये तेरी माता वेश्‍या मेरी सास हुइ । तुम सास के पति हो इसलिये मेरे ससूर भी हुए ।
इस तर‍ह एक ही भव में एक ही प्राणी के अठार‍ह नाते हुए । उसका उदाहरण कहा गया है । संसार की विचित्र विडंबना है । इसमें कुछ भी आश्‍चर्य नहीं हैं ।

अब पाँच प्रकार के संसार के नाम कहते हैं -

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+ पांच प्रकार का परिभ्रमण -
संसारो पंच-विहो दव्वे खेत्ते तहेव काले य
भऊ-भम णो य चउत्थो पंचमओ भाव-संसारो ॥66॥
अन्वयार्थ : [संसारो पंचविहो] संसार (परिभ्रमण) पाँच प्रकार का है [दव्‍वे] द्रव्‍य (पुद्गल द्रव्‍य में ग्रहणत्‍यजनरूप परिभ्रमण) [खेत्ते] क्षेत्र (आकाश के प्रदेशों में स्‍पर्श करने रूप परिभ्रमण) [य तहेव काले] तथा काल (काल के समयों में उत्पन्न / नष्ट होने रूप परिभ्रमण) [भवभमणो य चउत्‍थो] भव (नरकादि भव का ग्रहण त्‍यजनरूप परिभ्रमण) और [पंचमओ भावसंसारो] पांचवां भाव-परिभ्रमण (अपने कषाययोगों के स्‍थानकरूप भेदों के पलटनेरूप परिभ्रमण)

छाबडा :
अब इनका स्‍वरूप कहते हैं, पहिले द्रव्‍य-परिवर्तन को बतलाते हैं -

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+ द्रव्य परावर्तन -
बंधदि मुंचदि जीवो पडिसमयं कम्म-पुग्गला विविहा
णोकम्म-पुग्गला वि य मिच्छत्त-कसाय-संजुत्तो ॥67॥
अन्वयार्थ : [जीवो] यह जीव [विविहा कम्‍मपुग्‍गला णोकम्‍मपुग्‍गला वि स] अनेक प्रकार के पुद्गल जो कर्मरूप (ज्ञानावरणादि) तथा नोकर्मरूप (औदारिकादि शरीर आदि) हैं उनको [पडिसमयं] समय समय प्रति [मिच्‍छत्त-कसाय-संजुत्तो] मिथ्‍यात्‍व कषाय सहित होता हुआ [बंधदि मुंचदि] बाँधता है और छोड़ता है ।

छाबडा :
मिथ्‍यात्‍व कषाय के वश से, ज्ञानावरणादि कर्मों का समय-प्रबद्ध अभव्‍य-राशि से अनन्‍तगुणा सिद्ध-राशि के अनन्‍तवें भाग पुद्गल-परमाणुओं का स्‍कन्‍धरूप कार्माण-वर्गणा को समय-समय प्रति ग्रहण करता है । जो पहले ग्रहण किये थे वे सत्ता में हैं, उनमें से इतने ही समय-समय नष्‍ट होते हैं । वैसे ही औदारिकादि शरीरों का समय-प्रबद्ध शरीर-ग्रहण के समय से लगाकर आयु की स्थि‍ति-पर्यंत ग्रहण करता है वा छोड़ता है । इस तरह अनादि-काल से लेकर अनन्‍त बार ग्रहण करना और छोड़ना होता है । वहाँ एक परावर्तन के प्रारम्‍भ में प्रथम समय के समयप्रबद्ध में जितने जितने पुद्गल परमाणु जैसे स्निग्‍ध रूक्ष वर्ण गन्‍ध-रूप रस तीव्र-मन्‍द मध्‍यम-भाव से ग्रहण किये हों उतने ही वैसे ही कोई समयमें फिर से ग्रहण करने में और भांति के परमाणु ग्रहण होते हैं वे नही गिने जाते हैं । वैसे के वैसे फिर से ग्रहण करने को अनन्‍तकाल बीत जाय उसको एक द्रव्‍य परावर्तन कहते है । इस तर‍ह के इस जीव ने इसलोक में अनन्‍त परावर्तन किये हैं । अब क्षेत्र-परावर्तन को कहते हैं -

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+ क्षेत्र परावर्तन -
सो को वि णत्थि देसो लोयायासस्स णिरवसेसस्स
जत्थ ण सव्वो जीवो जादो मरिदो य बहुवारं ॥68॥
अन्वयार्थ : [णिरवसेस्‍स लोयायासस्‍स] समस्‍त लोकाकाश के प्रदेशों में [सो को वि देसो णत्थि] ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं है [जत्‍थ सव्‍वो जीवो] जिसमें ये सब ही संसारी जीव [बहुवारं जादो य मरिदो ण] कई बार उत्‍पन्‍न न हुए हों तथा मरें न हों ।

छाबडा :
समस्‍त लोकाकाश के प्रदेशों में यह जीव अनन्‍तबार तो उत्‍पन्‍न हुआ और अनन्‍तबार ही मरण को प्राप्‍त हुआ। ऐसा प्रदेश रहा ही नहीं जिसमें उत्‍पन्‍न नहीं हुआ हो और मरा भी न हो । लोकाकाश के असंख्‍यात प्रदेश हैं । उसके मध्‍य के आठ प्रदेशों को बीच में देकर, सूक्ष्‍म-निगोद लब्धि-अपर्याप्‍तक जघन्‍य अवगाहना का धारी वहाँ उत्पन्न होता है । उसकी अवगाहना भी असंख्‍यात प्रदेश है । मध्‍य में और जगह अन्‍य अवगाहना से उत्‍पन्‍न होता है उसकी तो गिनती ही नहीं है । बाद में एक-एक प्रदेश क्रम से बढ़ती हुइ अवगाहना पाता है सो गिनती में है, इस तरह महामच्‍छ तक की उत्कृष्ट अवगाहना को पूरी करता है । वैसे ही क्रम से लोकाकाश के प्रदेशों का स्‍पर्श करता है तब एक क्षेत्र परावर्तन होता है ।

अब काल परावर्तन को कहते हैं -

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+ काल परावर्तन -
उवसप्पिणि-अवसप्पिणि-पढम-समयादि-चरम-समयंतं
जीवो कमेण जम्मदि मरदि य सव्वेसु कालेसु ॥69॥
अन्वयार्थ : [उवसप्पिणिअवसप्पिणि] उत्‍सर्पिणी अवसर्पिणी काल के [पढमसमयादिचरमसमयंतं] पहिले समये से लगाकर अन्‍त के समय तक [जीवो कमेण] यह जीव अनुक्रम से [सव्‍वेसु कालेसु] सब ही कालों में [जम्‍मदि य मरदि] उत्‍पन्‍न होता है तथा मरता है ।

छाबडा :
कोई जीव दस कोडाकोड़ी सागर के उत्‍सर्पिणी काल के पहिले समय में जन्‍म पावे, बाद में दूसरे उत्‍सर्पिणी के दूसरे समय में जन्‍म पावे, इसी तरह तीसरे के तीसरे समय में जन्‍म पावे, ऐसे ही अनुक्रम से अन्‍त के समय तक जन्‍म पाता रहे, बीचबीच में अन्‍य समयों में बिना अनुक्रम के जन्‍म पावे सो गिनती नहीं है । इसी तरह अवसर्पिणी के दस कोड़ाकाड़ी सागर के समय पूरे करे तथा ऐसे ही मरे । इस तरह यह अनन्‍तकाल होता है उसको एक काल-परावर्तन कहते हैं -

अ‍ब भव-परावर्तन को कहते हैं -

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+ भव परावर्तन -
णेरइयादिगदीणं अवर-ट्ठिदो वरट्ठिदी जाव
सव्वट्ठिदिसु वि जम्मदि जीवो गेवेज्जपज्जंतं ॥70॥
अन्वयार्थ : [जीवो] संसारी जीव [णेरइयादिगदीणं] नरकादि चा‍र गतियों की [अवरट्ठिदो] जघन्‍य स्थिति से लगाकर [वरट्ठिदी जाव] उत्‍कृष्‍ट स्थिति पर्यंत (तक) [सव्‍वट्ठदिसु] सब अवस्‍थाओं में [गेवेज्‍जपज्‍जंतं] ग्रैवेयक पर्यन्‍त [जन्‍मदि] जन्‍म पाता है ।

छाबडा :
नरकगति की जघन्‍य-स्थिति दस हजार वर्ष की है इसके जितने समय है उतनी बार तो जघन्‍य-स्थिति की आयु लेकर जन्‍म पावे, बाद में एक समय अधिक आयु लेकर जन्‍म पावे । बाद में दो समय अधिक आयु लेकर जन्‍म पाव । ऐसे ही अनुक्रम से तैंतीस सागर पर्यंत आयु पूर्ण करे, बीच-बीच में घट बढ़कर आयु लेकर जन्‍म पावे वह गिनती में नहीं है । इसी तरह तिर्यंच-गति को जघन्‍य आयु अन्‍तरमुहूर्त्त, उसके जितने समय हैं उतनी बार जघन्‍य आयु का धारक होवे बाद में एक समय अधिक क्रम से तीन पल्‍य पूर्ण करे, बीच में घट-बढ़कर आयु लेकर जन्‍म पावे वह गिनती में नहीं हैं । इसी तरह मनुष्‍य की जघन्‍य से लगाकर उत्‍कृष्‍ट तीन पल्‍य पूर्ण करे । इसी तर‍ह देवगति की जघन्‍य दस हजार वर्ष से लगाकर ग्रैवेयक के उत्‍कृष्‍ट इकतीस सागर तक समय-अधिक-क्रम से पूर्ण करे । ग्रैवेयक के आगे उत्‍पन्‍न होनेवाला एक दो भव लेकर मोक्ष ही जावे इसलिये उसको गिनती में नहीं लाये । इस तरह इस भव-परावर्तन का अनन्‍त-काल है ।

अब भाव-परावर्तन को कहते हैं -

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+ भाव परावर्तन -
परिणमदि सण्णि-जीवो विविह-कसाएहिं ठिदि-णिमित्तेहिं
अणुभाग-णिमित्तेहि य वट्टंतो भाव-संसारे ॥71॥
अन्वयार्थ : [भावसंसारे वट्टन्‍तो] भावसंसार में वर्तता हुआ जीव [ट्ठिदिणिमित्तेहिं] अनेक प्रकार कर्म की स्थिति-बन्‍ध को कारण [य अणुभागणिमित्तेहिं] और अनुभाग-बन्‍ध को कारण [विविहकसाएहिं] अनेक प्रकार के कषायों से [सण्णिजीवो] सैनी-पंचेन्द्रिय जीव [परिणमदि] परिणमता है ।

छाबडा :
कर्म की एक स्थिति-बन्‍ध को कारण कषायों के स्‍थान असंख्‍यात लोक-प्रमाण हैं, उसमें एक स्थिति-बन्‍ध-स्‍थान में अनुभाग-बन्‍ध को कारण कषायों के स्‍थान असंख्‍यात लोक-प्रमाण हैं । जो योग्‍य स्‍थान हैं वे जगत्श्रेणी के असख्‍यातवें भाग हैं । यह जीव उनका परिवर्त्तन करता है । सो किस तरह ?

कोई सैनी मिथ्‍यादृष्‍टी पर्याप्‍तक जीव स्‍वयोग्‍य सर्व जघन्‍य ज्ञानावरण प्रकृति की स्थिति अन्‍त:कोटाकोटी सागर प्रमाण बाँधता है । उसके कषायों के स्‍थान असंख्‍यात लोक-मात्र हैं । उसमें सब जघन्‍य-स्‍थान एकरूप परिणमते हैं, उसमें उस एक स्‍थान में अनुभाग-बन्‍ध के कारण ऐसे असंख्‍यात लोक-प्रमाण हैं । उनमें से एक सर्व-जघन्‍य रूप परिणमता है, वहाँ उस योग्‍य सर्व-जघन्‍य ही योगस्‍थान-रूप परिणमते हैं, तग जगत्श्रेणी के असंख्‍यातवें भाग योग-स्‍थान अनुक्रम से पूर्ण करता है । बीच में अन्‍य योग-स्‍थानरूप परिणमता है वह गिनती में नहीं है । इस तरह योग-स्‍थान पूर्ण होने पर अनुभाग का स्‍थान दूसरा रूप परिणमता है, वहाँ भी वैसे ही योग-स्‍थान सब पूर्ण करता है । तीसरा अनुभाग-स्‍थान होता है वहाँ भी उतने ही योग-स्‍थान भोगे । इस तरह असंख्‍यात लोक-प्रमाण अनुभाग-स्‍थान अनुक्रम से पूर्ण करे तब दूसरा कषाय-स्‍थान लेना चाहिए । वहाँ भी वैसे ही क्रम से असंख्‍यात लोक-प्रमाण अनुभाग-स्‍थान तथा जगत्श्रेणी के असंख्‍यातवें भाग योग-स्‍थान पूर्वोक्त क्रम से भोगे तब ही तीसरा कषाय-स्‍थान लेना चाहिए । इस तरह से ही चतुर्थादि असंख्‍यात लोक-प्रमाण कषाय-स्‍थान पूर्वोक्त क्रम से पूर्ण करे, तब एक समय अधिक जघन्‍य-स्थिति स्‍थान लेना चाहिए, उसमें भी कषाय-स्‍थान अनुभाग-स्‍थान योग-स्‍थान पूर्वोक्त क्रम से भोगे । इस तरह दो समय अधिक जघन्‍य-स्थिति से लगाकर तीस कोड़ाकोड़ी सागर पर्यन्‍त ज्ञानावरण कर्म की स्थिति पूर्ण करे । इस तरह से ही सब मूल-प्रकृति तथा उत्तर कर्म-प्रकृतियों का क्रम जानना चाहिए । इस तरह परिणमन करते हुए अनन्‍तकाल व्‍यतीत हो जाता है, उस सबको इ‍कट्ठा करने पर एक भाव-परिवर्त्तन होता है । इस तरह के अनन्‍त परावर्त्तन यह जीव भोगता आया है ।

अब पंच-परावर्तन के कथन का संकोच करते हैं -

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+ उपसंहार -
एवं अणाइ-काले पंच-पयारे भमेइ संसारे
णाणा दुक्ख-णिहाणे जीवो मिच्छत्त-दोसेण ॥72॥
अन्वयार्थ : [एवं] इस तरह [णाणादुक्‍खणिहाणो] अनेक प्रकार के दु:खो के निधान [पंचपयारे] पाँच प्रकार [संसारे] संसार में [जीवो] यह जीव [अणाइकालं] अनादिकाल से [मिच्छत्त-दोसेण] मिथ्‍यात्‍व के दोष से [भमेइ] भ्रमण करता है ।

छाबडा :
अब संसार से छुटने का उपदेश करते हैं -

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+ संसार से छूटने की प्रेरणा -
इय संसारं जाणिय मोहं सव्वायरेण चइऊणं
तं झायह स-सरू वं संसरणं जेण णासेइ ॥73॥
अन्वयार्थ : [इय संसार जाणिय] इस तरह संसार को जानकर [सव्‍वायरेण] सब तरह के प्रयत्‍न-पूर्वक [मोहं] मोह को [चइऊण] छोड़कर [तं समरूपं झायह] उस आत्‍मस्‍वरूप का ध्‍यान करो [जेण] जिससे [संसरणं] संसार परिभ्रमण [णासेइ] नष्‍ट हो जावे ।

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एकत्व अनुप्रेक्षा



+ एकत्व अनुप्रेक्षा -
इक्को जीवो जायदि एक्को गब्भम्हि गिण्हदे देहं
इक्को बाल-जुवाणो इक्को वुढ्ढो जरा-गहिओ ॥74॥
इक्को रोई सोई इक्को तप्पेइ माणसे दुक्खे
इक्को मरदि वराओ णरय -दुहं सहदि इक्को वि ॥75॥
इक्को संचदि पुण्णं इक्को भुंजेदि विविह-सुर-सोक्खं
इक्को खवेदि कम्मं इक्को वि य पावए मोक्खं ॥76॥
अन्वयार्थ : [जीवो इक्‍को जायदि] जीव अकेला उत्‍पन्‍न होता है [इक्‍को] अकेला [गब्भम्हि] गर्भ में [गिण्हदे देहं] देह को ग्रहण करता है [इक्‍को बाल जुवाणो] अकेला बालक, जवान होता है [इक्‍को जरागहिओ वुढ्ढो] अकेला जरा (बुढापे) से गृहीत वृद्ध होता है।
[इक्‍को रोई सोई] अकेला रोगी, शोक-सहित होता है [इक्‍को] अकेला [माणसे दुक्‍खे] मानसिक दु:ख से [तप्‍पेइ] तप्‍तायमान होता है [इक्‍को मरदि] अकेला मरता है [इक्‍को वि] अकेला [वराओ णरयदुहं सहदि] नरक के दु:ख सहता है ।
[इक्‍को] अकेला [पुण्‍यं] पुण्‍य [संचदि] संचित करता है [इक्‍को] अकेला [विविहसुरसोक्‍खं] नाना प्रकार के देव-गति के सुख [भुज्‍जेदि] भोगता है [इक्‍को] अकेला [कम्मं] कर्म को [खवेदि] नष्‍ट करता है [इक्‍कोविय] अकेला ही [मोक्‍खं] मोक्ष को [पावए] पाता है ।

छाबडा :
वह ही जीव पुण्‍य करके स्‍वर्ग जाता है, वह ही जीव कर्मों को नाश करके मोक्ष जाता है ।

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+ स्वजन भी दुःख के साथी नहीं -
सुयणो पिच्छंतो वि हु ण दुक्ख-लेसं पि सक्कदे गहिदुं
एवं जाणंतो वि हु तो वि ममत्तं ण छंडेइ ॥77॥
अन्वयार्थ : [सुयणो] स्‍वजन (कुटुम्‍बी) [पिच्‍छंतो वि हु] देखता हुआ भी [दुक्‍खलेसंपि] दु:ख का लेश भी [गहिदुं] ग्रहण करने को [ण सक्‍कदे] समर्थ नहीं होता है [एवं जाणंतो वि हु] इस तरह प्रत्‍यक्षरूप से जानता हुआ भी [ममत्तं ण छंडेइ] कुटुम्‍ब से ममत्‍व नहीं छोडता है ।

छाबडा :
अपना दु:ख आप ही भोगता है, कोई बाँट नहीं सकता है, यह जीव ऐसा अज्ञानी है कि दु:ख सहता हुआ भी पर के ममत्‍व को नहीं छोडता है ।

अब कहते हैं कि इस जीव के निश्‍चय से धर्म ही स्‍वजन है -

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+ वास्तव में धर्म ही शरण -
जीवस्स णिच्छयादो धम्मो दह-लक्खणो हवे सुयणो
सो णेइ देव-लोए सो चिय दुक्ख-क्खयं कुणइ ॥78॥
अन्वयार्थ : [जीवस्‍स] इस जीव के [सुयणो] अपना हितकारक [णिच्छयादो] निश्‍चय से [दहलक्‍खणो] एक उत्‍तम क्षमा‍दि दशलक्षण [धम्‍मो] धर्म ही [हवे] है, [सो] वह धर्म ही [देवलोए] देवलोक [स्‍वर्ग] में [णेई] ले जाता है [सो चिय] और वह (धर्म) ही [दुक्‍खक्‍खयं कुणइ] दु:खों का क्षय (मोक्ष) करता है ।

छाबडा :
धर्म के सिवाय और कोई भी हितकारी नहीं है ।

अब कहते हैं कि इस तरह से अकेले जीव को शरीर से भिन्‍न जानना चाहिये -

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+ भेद-भावना की प्रेरणा -
सव्वायरेण जाणह इक्कं जीवं सरीरदो भिण्णं
जम्हि दु मुणिदे जीवो होदि असेसं खणे हेयं ॥79॥
अन्वयार्थ : [इक्‍कं जीवं सरीरदो भिण्‍णं] अकेले जीव को शरीर से भिन्‍न [सव्‍वायरेण जाणह] सब प्रकार के प्रयत्‍न करके जानो [जम्हि दु जीवो सुणिदे] जिस जीव के जान लेने पर [असेसं खणे हेयं होदि] अवशेष (बाकी बचे) सब पर-द्रव्‍य क्षण-मात्र में त्‍यागने योग्‍य होते हैं ।

छाबडा :
जब जीव अपने स्‍वरूपको जानता है तब ही पर-द्रव्‍य हेय ही भासते हैं, इसलिये अपने स्‍वरूप ही के जानने का महान् उपदेश है ।

एक जीव परजाय बहु, धारै स्‍वपर निदान ।
पर तजि आपा जानिकै, करौ भव्‍य कल्‍यान ॥४॥

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अन्यत्व अनुप्रेक्षा



+ अन्यत्व अनुप्रेक्षा का स्वरूप -
अण्णं देहं गिण्हदि जणणी अण्णा य होदि कम्मादो
अण्णं होदि कलत्तं अण्णो वि य जायदे पुत्तो ॥80॥
अन्वयार्थ : [देहं गिण्हदि] देह को ग्रहण करता है [अण्‍णं] सो अपने से अन्‍य (भिन्‍न) है [य] और [जणणी अण्‍णा] माता भी अन्‍य है [कलत्तं अण्‍णं होदि] स्‍त्री भी अन्‍य होती है [पुत्तो वि य अण्‍णो जायदे] पुत्र भी अन्‍य ही उत्‍पन्‍न होता है [कम्‍मादो होदि] ये सब कर्म संयोग से होते हैं ।

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+ जानता हुआ भी अज्ञानी बनता है -
एवं बाहिर-दव्वं जाणदि रूवादु अप्पणो भिण्णं
जाणंतो वि हु जीवो तत्थेव हि रच्चदे मूढो ॥81॥
अन्वयार्थ : [एवं] इस प्रकार [वाहिरदव्‍वं] सब बाह्य वस्‍तुओं को [अप्‍पणो] अपने (आत्‍म) [रूवादु] स्‍वरूप से [भिण्‍णं] भिन्‍न [जाणदि] जानता है [जाणंतो वि हु] तो भी प्रत्‍यक्षरूप से जानता हुआ भी [मृढो] यह मूढ़ (मोही) [जीवो] जीव [तत्‍थेव य रच्‍चदे] उन पर-द्रव्‍यों में ही राग करता है ।

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+ उपसंहार -
जो जाणिऊण देहं जीव-सरुवादु तच्चदो भिण्णं
अप्पाणं पि य सेवदि कज्ज-करं तस्स अण्णत्तं ॥82॥
अन्वयार्थ : [जो] जीव [जीवसरूवादु] अपने स्‍वरूप से [देहं] देह को [तच्‍चदो भिण्‍णं] परमार्थ से भिन्न [जाणिऊण] जानकर [अप्‍पाणं पि य सेवदि] आत्‍म-स्‍वरूप को सेवता (ध्‍याता) है [तस्‍स अण्‍णत्तं कज्‍जकरं] उसके अन्‍यत्‍व-भावना कार्यकारिणी है ।

छाबडा :
जो देहादिक पर-द्रव्‍यों को भिन्‍न जानकर अपने नित्‍य ज्ञानानन्‍द स्‍वरूप का सेवन करता है उसके अन्‍यत्‍व-भावना कार्यकारिणी है ।

दोहा
निज आतमतैं भिन्‍न पर, जानै जे न‍र दक्ष ।
निज में रमैं वमैं अपर, ते शिव लखैं प्रत्‍यक्ष ॥

इति अन्‍वत्‍वरनुप्रेक्षा समाप्ता ॥५॥

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अशुचि अनुप्रेक्षा



+ अशुचि अनुप्रेक्षा का स्वरूप -
सयल-कुहियाण पिंडं किमि-कुल-कलियं अउच्च-दुग्गंधं
मल-मुत्ताण य गेहं देहं जाणेहि असुइमयं ॥83॥
अन्वयार्थ : [देहं] इस देह को [असुइमयं] अपवित्रमयी [सयलकुहियाण पिंडं] सकल (सब) कुत्सित (निंदनीय) पदार्थों का पिंड (समूह) [किमिकुलकलियं] कृमि (पेटमें रहनेवाले लट आदि) तथा अनेक प्रकार के निगोदादिक जीवों से भरा [अउच्‍चदुग्‍गंधं] अत्‍यन्‍त दुर्गंधमय [मलमुत्ताणं य गेहं] मल-मूत्र का घर [जाणेहि] जान ।

छाबडा :
इस शरीर को सब अपवित्र वस्‍तुओं का समूह जानना चाहिए ।

अब कहते हैं कि यह देह अन्‍य सुगन्धित वस्‍तुओं को भी अपने संयोग से दुर्गंधित करता है -

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+ दुर्गंधित देह -
सुट्ठु पवित्तं दव्वं सरस-सुगंधं मणोहरं जं पि
देह-णिहित्तं जायदि घिणावणं सुट्ठुदुग्गंधं ॥84॥
अन्वयार्थ : [देहणिहित्तं] इस शरीर में लगाये गये [सुट्ठुपवित्तं] अत्‍यन्‍त पवित्र [सरससुगंधं] सरस और सुगन्धित [मणोहरं जं पि] मन को हरनेवाले [दव्‍वं] द्रव्‍य भी [घिणावणं] घिनावने [सुट्ठदुग्‍गंधं] तथा अत्‍यन्‍त दुर्गंधित [जायदि] हो जाते हैं ।

छाबडा :
इस शरीर के चन्‍दन, कपूर आदि (सुगन्धित पदार्थ) लगाने से दुर्गंधित हो जाते है । रस-सहित उत्तम मिष्‍ठान्‍नादि खिलाने से मलादिक-रूप परिणम जाते है । अन्‍य भी वस्‍तुएँ इस शरीर के स्‍पर्श से अस्पृश्य हो जाती हैं ।

और भी इस शरीर को अशुचि दिखाते हैं -

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+ इसी को और विस्तार से बताते हैं -
मणुयाणं असुइमयं विहिणा देहं विणिम्मियं जाण
तेसिं विरमण-कज्जे ते पुण तत्थेव अणुरत्ता ॥85॥
अन्वयार्थ : [मणुयाणं] यह मनुष्‍यों का [देहं] देह [विहिणा] कर्म के द्वारा [तेसिं विरमण-कज्जे] उससे विरक्त करने के लिए [असुइमयं] अशुचिमय [विणिम्मियं जाण] रचा गया जान [ते पुण तत्‍थेव अणुरत्ता] परन्‍तु ये मनुष्‍य उसमें भी अनुरागी होते हैं (सो यह अज्ञान है)

छाबडा :
और भी इसी अर्थ को दृढ़ करते हैं -

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+ इसी को और विस्तार से बताते हैं -
एवंविहं पि देहं पिच्छंता वि य कुणंति अणुरायं
सेवंति आयरेण य अलद्ध- पुव्वं ति मण्णंता ॥86॥
अन्वयार्थ : [एवं विहं पि देहं] इस तर‍ह पहिले कहे अनुसार अशुचि शरीर को [पिच्‍छंता वि य] प्रत्‍यक्ष देखता हुआ भी यह मनुष्‍य उसमें [अणुरायं] अनुराग [कुणंति] करता है [अलद्धपुव्‍वं त्ति मण्‍णंता] जैसे ऐसा शरीर कभी पहिले न पाया हो ऐसा मानता हुआ [आयरेण य से‍वंति] आदरपूर्वक इसकी सेवा करता है (सो यह बड़ा अज्ञान है)

छाबडा :
अब कहते हैं कि इस शरीर से विरक्त होनेवाले के अशुचि-भावना सफल है -

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+ उपसंहार -
जो पर-देह-विरत्तो णिय-देहे ण य करेदि अणुरायं
अप्प- सरू व-सुरत्तो असुइत्ते भावणा तस्स ॥87॥
अन्वयार्थ : [जो] जो (भव्‍य जीव) [परदेहविरत्तो] परदेह (स्‍त्री आदिक की देह) से विरक्‍त होकर [णियदेहे] अपने शरीर में [अणुरायं] अनुराग [ण य करेदि] नहीं करता है [अप्‍पसरूव सुरत्तो] अपने आत्‍म-स्‍वरूप में अनुरक्‍त रहता है [तस्‍स] उसके [असुइत्‍ते भावणा] अशुचि-भावना है ।

छाबडा :
(देहादि के) केवल विचार ही से जिसकी वैराग्‍य प्रगट होता हो तो उसके यह भावना सत्‍यार्थ कहलाती है ।

(दोहा)

स्‍वपर देहकू अशुचि लखि, तजै तास अनुराग ।
ताके सांची भावना, सो कहिये बडभाग ॥६॥

इति अशुचित्‍वानुप्रेक्षा समाप्‍ता ॥६॥

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आस्रव अनुप्रेक्षा



+ आस्रव अनुप्रेक्षा का स्वरूप -
मण-वयण-काय-जोया जीव -पएसाण फंदण-विसेसा
मोहोदएण जुत्ता विजुदा वि य आसवा होंति ॥88॥
अन्वयार्थ : [मणवयणकायजोया] मन-वचन-काय योग हैं [आसवा होंति] वे ही आस्रव हैं [जीवपयेसाणफंदणविसेसा] जीव के प्रदेशों का स्‍पंदन (चलायमान होना, काँपना) विशेष है वह ही योग है [मोहोदएण जुत्‍ता विजुदा वि य] वह मोह के उदय (मिथ्‍यात्‍व कषाय) सहित है और मोह के उदय रहित भी है ।

छाबडा :
मन वचन काय का निमित्‍त पाकर जीव के प्रदेशों का चलाचल होना सो योग है उसी को आस्रव कहते है। वे गुणस्‍थान की परिपाटी में सूक्ष्‍मसांपराय / दसवें गुणस्‍थान तक तो मोह के उदयरूप यथा-संभव मिथ्‍यात्‍व / कषाय सहित होते हैं उसको सांपरायिक आस्रव कहते हैं और उपर तेहरवें गुणस्‍थान तक मोह उदय से रहित होते हैं उसको ईर्यापथ आस्रव कहते हैं। जो पुद्गल वर्गणा कर्मरूप परिणमती है उसको द्रव्‍य-आस्रव कहते है और जीव के प्रदेश चंचल होते हैं उसको भाव-आस्रव कहते हैं ।

अब मोह के उदय-सहित आस्रव है ऐसा विशेषरूप से कहते हैं -

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+ मोह से आस्रव -
मोह-विवाग-वसादो जे परिणामा हवंति जीवस्स
ते आसवा मुणिज्जसु मिच्छत्ताई अणेय-विहा ॥89॥
अन्वयार्थ : [मोहविवागवसोदो] मोह के उदय से [जे परिणामा] जो परिणाम [जीवस्‍स] इस जीव के [हवंति] होते हैं [ते आसवा] वे ही आस्रव हैं [मुणिज्‍जसु] हे भव्‍य । तू प्रत्‍यक्षरूप से ऐसे जान [मिच्‍छत्‍ताई अणेयविहा] वे परिणाम मिथ्‍यात्‍व को आदि लेकर अनेक प्रकार के हैं ।

छाबडा :
कर्मबन्‍ध के कारण आस्रव है। वे मिथ्‍यात्‍व, अविरत, प्रमाद, कषाय और योग के भेद से पाँच प्रकार के हैं । उनमें स्थिति, अनुभागरूप बन्‍ध के कारण मिथ्‍यात्‍वादिक चार ही है सो ये मोह के उदय से होते हैं और जो योग हें वे समय-मात्र बन्‍ध को करते हैं, कुछ भी स्थिति अनुभाग को नहीं करते हैं इसलिये बन्‍ध के कारण में प्रधान नहीं हैं । अब पुण्‍य-पाप के भेद से आस्रव को दो प्रकार का कहते हैं -

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+ आस्रव के दो प्रकार -
कम्मं पुण्णं पावं हेउं तेसिं च होंति सच्छिदरा
मंद-कसाया सच्छा तिव्व-कसाया असच्छा हु ॥90॥
अन्वयार्थ : [कम्‍मं पुण्‍णं पावं] कर्म पुण्‍य और पाप के भेद से दो प्रकार का है [च तेसिं हेउं सच्छिदरा होंति] और उनके कारण भी सत् (प्रशस्‍त) इतर (अप्रशस्‍त) दो ही होते हैं [मंदकमाया मच्‍छा] उनमें मंद-कषाय परिणाम तो प्रशस्‍त (शुभ) है [तिव्‍वकमाया असच्‍छाहु] और तीव्र-कषाय परिणाम अप्रशस्‍त (अशुभ) है ।

छाबडा :
सातावेदनीय, शुभ-आयु, उच्‍च-गोत्र और शुभ-नाम ये चार प्रकृतियाँ तो पुण्‍यरूप हैं बाकी चार घातिया कर्म, असातावेदनीय, नरकायु, नीचगोत्र और अशुभनाम ये चार प्रकृतियाँ पापरूप हैं । उनके कारण आस्रव भी दो प्रकार के हैं । मंद-कषायरूप परिणाम तो पुण्‍यास्रव हैं और तीव्र-कषायरूप परिणाम पापास्रव हैं ।

अब मंद-तीव्र-क‍षाय को प्रगट दृष्‍टान्‍त पूर्वक कहते हैं -

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+ मन्द-कषाय -
सव्वत्थ वि पिय-वयणं दुव्वयणे दुज्जणे वि खम-करणं
सव्वेसिं गुण-गहणं मंद-क सायाण दिट्ठंता ॥91॥
अन्वयार्थ : [सव्‍वत्‍थ वि पियवयणं] सब जगह (शत्रु तथा मित्र आदि में) प्रिय हितरूप वचन [दुव्‍वयणे दुज्‍जधे वि खमकरणं] दुर्वचन सुनकर दुर्जन में भी क्षमा करना [सव्‍वेसिं गुणगहणं] सब जीवों के गुण ग्रहण करना [मंदकसायाण दिट्ठंता] ये मन्‍दकषाय के दृष्‍टान्‍त हैं ।

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+ तीव्र-कषाय -
अप्प-पंससण-करणं पुज्जेसु वि दोस-गहण-सीलत्तं
वेर -धरणं च सुइरं तिव्व कसायाण लिंगाणि ॥92॥
अन्वयार्थ : [अप्‍पपसंसण करणं] अपनी प्रशंसा करना [पुज्‍जेसु वि दोसगहणसीलत्तं] पूज्‍य पुरूषों में भी दोष ग्रहण करने का स्‍वभाव [च सुइरं वेरधरणं] और बहुत समय तक बैर धारण करना [तिव्‍वकसायाण लिंगाणि] ये तीव्र-कषाय के चिन्‍ह हैं ।

छाबडा :
अब कहते हैं कि ऐसे जीव के आस्रव का चिंतवन निष्‍फल है -

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+ आस्रव को हे जानकर त्यागने की प्रेरणा -
एवं जाणंतो वि हु परिचयणीये वि जो ण परिहरइ ।
तस्सासवाणुवेक्खा सव्वा वि णिरत्थया होदि ॥93॥
अन्वयार्थ : [एवं जाणंतो वि हु] इस प्रकार से प्रत्‍यक्षरूप से जानता हुआ भी [परिचयणीये वि जो ण परिहरइ] जो त्‍यागने योग्‍य परिणामों को नहीं छोड़ता है [तस्‍स] उसके [सव्‍वा वि] सब ही [आसवाणुवक्‍खा] आस्रव का चिंतवन [णिरत्‍थया होदि] निरर्थक है ।

छाबडा :
आस्रवानुप्रेक्षा को चिंतवन कर‍के पहिले तो तब तो यह चिंतवन सफल है केवल वार्ता करना मात्र ही सफल नहीं हैं ।

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+ उपसंहार -
एदे मोहय-भावा जो परिवज्जेइ उवसमे लीणो
हेयं ति मण्णमाणो आसव-अणुवेहणं तस्स ॥94॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [उपसमे लीणो] उपशम परिणामों (वीतराग भावों में) लीन होकर [एदे मोहयभावा] ये पहिले कहे अनुसार मोह को [हेयं ति मण्‍णमाणो परिवज्‍जेइ] हेय (त्‍यागने योग्‍य) जानता हुआ छोड़ता है [तस्‍स आसव अणुपेहणं] उसके आस्रवानुप्रेक्षा होती है ।

छाबडा :
दोहा

आस्रव पंच प्रकार कूं, चिंतवैं विकार;;ते पावैं निजस्वरूपकूं, यहैं भावना सार ॥७॥

इति आस्रवानुप्रेक्षा समाप्ता ॥७॥

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संवर अनुप्रेक्षा



+ संवर अनुप्रेक्षा का स्वरूप -
सम्मत्तं देसवयं महव्वयंतह जओ क सायाणं
एदे संवर-णामा जोगाभावो तहा चेव ॥95॥
अन्वयार्थ : [सम्‍मत्तं] सम्‍यक्‍त्‍व [देसवयं] देशव्रत [महव्‍वयं] महाव्रत [तह] तथा [कसायाणं] कषायों का [जओ] जीतना [जोगाभावो तहा चेव] तथा योगों का अभाव [एदे संवरणामा] ये संवर के नाम हैं ।

छाबडा :
पहले मिथ्‍यात्‍व, अविरिति, प्रमाद, कषाय ओर योगरूप पाँच प्रकार का आस्रव कहा था, उनका अनुक्रम से रोकना ही संवर है । सो कैसे ? मिथ्‍यात्‍व का प्रभाव तो चतुर्थ-गुणस्‍थान में हुआ वहाँ अविरत का संवर हुआ । अविरत का अभाव एक-देश तो देशविरत में हुआ और सर्व-देश प्रमत्त-गुणस्‍थान में हुआ वहाँ अविरत का संवर हुआ । अप्रमत्त गुणस्‍थान में प्रमाद का अभाव हुआ वहाँ उसका संवर हुआ । अयोगिजिन में योगों का अभाव हुआ, वहाँ उनका संवर हुआ । इस तरह संवर का क्रम है । अब इसी को विशेषरूप से कहते हैं -

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+ इसी का विशेष कहते हैं -
गुत्ती समिदी धम्मो अणुवेक्खा तह य परिसह -जओ वि
उक्कि ट्ठं चारित्तं संवर-हेदू विसेसेण ॥96॥
अन्वयार्थ : [गुत्ती] (मन-वचन-काय की) गुप्ति [समिदी] (ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्‍ठापना) समिति [धम्‍मो] उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्म [अणुवेक्‍खा] अनित्‍य आदि बा‍रह अनुप्रेक्षा [तह परीसहजओ वि] तथा क्षुधा आदि बाईस परीषह का जीतना [उक्किट्ठं चारित्तं] उत्‍कृष्‍ट चारित्र (सामायिक आदि पाँच प्रकार) ये [विसेसेण] विशेषरूप से [संवेरहेदू] संवर के कारण हैं ।

छाबडा :
अब इनको स्‍पष्‍टरूप से कहते हैं -

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+ और भी -
गुत्ती जोग-णिरोहो समिदी य पमाद वज्जणं चेव
धम्मो दया-पहाणो सुतत्त -चिंता अणुप्पेहा ॥97॥
अन्वयार्थ : [जोगणिरोहो] योगों का निरोध [गुत्ती] गुप्ति है [समिदि य पमादवज्‍जणं चेव] प्रमाद का वर्जन, यत्‍न-पूर्वक प्रवृत्ति समिति है [दयापहाणो] दयाप्रधान [धम्‍मो] धर्म है [सुतत्त-चिंता अणुप्‍पेहा] जीवादिक तत्‍व तथा निज-स्‍वरूप का चिंतवन अनुप्रेक्षा है ।

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+ परीषह जय -
सो वि परीसह-विजओ छुहादि -पीडाण अइ-रउद्दाणं
सवणाणं च मुणीणं उवसम-भावेण जं सहणं ॥98॥
अन्वयार्थ : [जं] जो [अइरउद्दाणं] अति रौद्र (भयानक) [छुहादि पीडाण] क्षुधा आदि पीडाओं को [उवसमभावेण सहणं] उपशमभावों (वीतरागभावों) से सहना (सो) [सवणाणं च मुणीणं] ज्ञानी महामुनियों के [परीसहविजओ] परीषहों का जीतना कहलाता है ।

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+ चारित्र -
अप्प-सरू वं वत्थुं चत्तं रायादिएहिं दोसेहिं ।
सज्झाणम्मि णिलीणं तं जाणसु उत्तमं चरणं ॥99॥
अन्वयार्थ : जो [अप्‍पसरूवं वत्‍थुं] आत्‍म-स्‍वरूप वस्‍तु है उसका [चत्तं रायादिएहिं दोसेहिं] रागादि दोषों से रहित [सज्‍झाणम्मि णिलीणं] धर्म शुक्‍ल ध्‍यान में लीन होना है [तं] उसको [उत्तम चरणं] तू उत्तम चारित्र [जाणसु] जान ।

छाबडा :
अब कहते हैं कि जो ऐसे संवर का आचरण नहीं करता है वह संसार में भटकता है -

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+ संवर बिना भव-भ्रमण -
एदे संवर-हेदुं वियारमाणो वि जो ण आयरइ
सो भमइ चिरं कालं संसारे दुक्ख-संतत्तो ॥100॥
अन्वयार्थ : [जो] जो पुरूष [एदे] इन (पहिले कहे अनुसार) [संवरहेदुं] संवर के कारणों को [वियारमाणो वि] विचारता हुआ भी [ण आयरइ] आचरण नहीं करता है [सो] वह [दुक्‍खसंतत्तो] दु:खों से तप्तायमान होकर [चिरं कालं] बहुत समय तक [संसारे] संसार में [भमइ] भ्रमण करता है ।

छाबडा :
अब कहते हैं कि संवर कैसे पुरुष के होता है -

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+ उपसंहार -
जो पुण विसय -विरत्तो अप्पाणं सव्वदा वि संवरइ
मणहर-विसएहिंतो तस्स फुडं संवरो होदि ॥101॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [विसयविरत्तो] इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होता हुआ [मणहरविसएहिंतो] मन को प्रिय लगनेवाले विषयों से [अप्‍पाणं] आत्‍मा को [सुव्‍वदा] सदाकाल (हमेशा) [संवरइ] संवररूप करता है [तस्‍स फुडं संवरो होदि] उसके प्रगटरूप से संवर होता है ।

छाबडा :
इन्द्रिय तथा मन को विषयों से रोके और अपने शुद्ध स्‍वरूप में रमण करावे उसके संवर होता है ।

(दोहा)

गुप्ति समिति वृष भावना, जयन परीसहकार
चारित धारै संग तजि, सो मुनि संवरधार ॥८॥

इति संवरानुप्रेक्षा समाप्ता ॥८॥

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निर्जरा अनुप्रेक्षा



+ निशल्य तप द्वारा निर्जरा -
वारस-विहेण तवसा णियाण-रहियस्स णिज्जरा होदि
वेरग्ग-भावणादो णिरहंकारस्स णाणिस्स ॥102॥
अन्वयार्थ : [णियाणरहियस्‍स] निदान (इन्द्रियविषयों की इच्‍छा) रहित [णिरहंकारस्‍स] अहंकार [अभिमान] रहित [णाणिस्‍स] ज्ञानी के [वारसविहेण तवसा] बारह प्रकार के तप से तथा [वेरग्‍गभावणादो] वैराग्‍य-भावना (संसार-देह-भोग से विरक्त परिणाम) से [णिज्‍जरा होदि] निर्जरा होती है ।

छाबडा :
जो ज्ञान-सहित तप करता है उसके तप से निर्जरा होती है । अज्ञानी विपर्यय तप करता है उसमें हिंसादिक दोष होते हैं, ऐसे तप से तो उलटे कर्म का बन्‍ध ही होता है । तप करके मद करता है, दूसरे को न्‍यून (हीन) गिनता है, कोई पूजादिक (सत्‍कार विशेष) नहीं करता है तो उससे क्रोध करता है ऐसे तप से बन्‍ध ही होता है । गर्व-रहित तप से निर्जरा होती है । जो तप करके इस लोक या पर-लोक में ख्‍याति, लाभ, पूजा और इन्द्रियों के विषय-भोग चाहता है उसके बन्‍ध ही होता है । निदान रहित तप से निर्जरा होती है । जो संसार-देह-भोग में आसक्त हो‍कर तप करता है उसका आशय (ह्रदय) शुद्ध नहीं होता है उसके निर्जरा नहीं होती है । वैराग्‍य-भावना से ही निर्जरा होती है, ऐसा जानना चाहि‍ये ।

अब निर्जरा का स्‍वरूप कहते हैं -

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+ निर्जरा का स्वरूप -
सव्वेसिं क म्माणं सत्ति -विवाओ हवेइ अणुभाओ
तदणंतरं तु सडणं क म्माणं णिज्जरा जाण ॥103॥
अन्वयार्थ : [सव्‍वेसिं कम्‍माणं] समस्‍त ज्ञानावरणादिक अष्‍टकर्मों की [सत्तिविवाओ] शक्ति (फल देने की सामर्थ्‍य) विपाक (पकना-उदय होना) [अणुभाओ] अनुभाग [हवेइ] कहलाता है [तदणंतरं तु सडणं] उदय आने के अनन्‍तर ही झड़ जाने को [कम्‍माणं णिज्‍जरा जाण] कर्मों की निर्जरा जानना चाहिये ।

छाबडा :
कर्मों के उदय में आकर झड़ जाने को निर्जरा कहते हैं ।

अब कहते हैं कि यह निर्जरा दो प्रकार की है -

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+ निर्जरा के दो प्रकार -
सा पुण दुविहा णेया सकाल-पत्ता तवेण कयमाणा
चदुगदीण पढमा वय-जुत्ताणं हवे बिदिया ॥104॥
अन्वयार्थ : [सा पुण दुविहा णेया] वह पहिले कही हुई निर्जरा दो प्रकार की है [सकालपत्ता] एक तो स्‍वकाल प्राप्‍त [तवेण कयमाणा] दूसरी तप द्वारा की गई [चादुगदीणं पढमा] उनमें पहली स्‍वकाल-प्राप्‍त निर्जरा तो चतुर्गति के जीवों के होती है [वयुजुत्ताणं हवे बिदिया] दूसरी व्रत-युक्त (तप) के होती है ।

छाबडा :
निर्जरा दो प्रकार है । कर्म अपनी स्थिति को पूर्ण कर उदय होकर रस देकर खिर जाते है सो सविपाक निर्जरा कहलाती है, यह निर्जरा तो सब ही जीवों के होती है और तप के कारण कर्म-स्थिति पूर्ण हुए बिना ही खिर जाते है वह अविपाक निर्जरा कहलाती है, यह व्रतधारियों के होती है ।

अब निर्जरा किससे बढ़ती हुई होती है सो कहते हैं-

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+ निर्जरा कैसे बढती है? -
उवसम-भाव-तवाणं जह जह वड्ढी हवेइ साहूणं
तह तह णिज्जर-वड्ढी विसेसदो धम्म-सुक्कादो ॥105॥
अन्वयार्थ : [साहूणं] मुनियों के [जह जह] जैसे-जैसे [उवसमभावतवाणं] उसशमभाव तथा तप की [वड्ढी हवेइ] बढुवारी होती है [तह तह णिज्‍जर वड्ढी] वैसे-वैसे ही निर्जरा की बढवारी होती है [धम्‍मसुक्‍कादो] धर्मध्‍यान और शुक्‍लध्‍यान से [विसेसदो] विशेषता से बढ़वारी होती है ।

छाबडा :
अब इस वृद्धि के स्‍थानों को बतलाते हैं -

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+ निर्जरा की वृद्धी के स्थान -
मिच्छादो सद्दिट्ठी असंख-गुण-कम्म-णिज्जरा होदि
तत्तो अणुवय-धारी तत्तो य महव्वई णाणी ॥106॥
पढम-कसाय-चउण्हं विजोजओ तह य खवय-सीलो य
दंसण-मोह-तियस य तत्तो उवसमग-चत्तारि ॥107॥
खवगो य खीण-मोहो सजोइ-णाहो तहा अजोईया
एदे उवरिं उवरिं असंख-गुण-कम्म-णिज्जरया ॥108॥
अन्वयार्थ : [मिच्‍छादो] मिथ्‍यादृष्टि से [सद्दिट्ठी] (असंयत) सम्‍यग्‍यदृष्टि के [असंखगुणकम्‍मणिज्‍जरा होदि] असंख्‍यातगुणी कर्मों की निर्जरा होती है [तत्तो अणुवयधारी] उससे देशव्रती श्रावक के असंख्‍यात गुणी होती है [तत्तो य महव्‍वई णाणी] उससे महाव्रती मुनियों के असंख्‍यात गुणी होती है [पढमकसायचउण्‍हं विजोजओ] उससे अनन्‍तानुबन्‍धी कषाय का विसंयोजन [अप्रत्‍याख्‍यानादिकरूप परिणमान] करनेवाले के असंख्‍यात गुणी होती है [य दंसणमोहतियस्‍स य खवयसीलो] उससे दर्शनमोह के क्षय करनेवाले के असंख्‍यात गुणी होती है [खवगो य] उससे उपशान्‍तमोह (ग्‍यारहवें गुणस्‍थानवाले) के असंख्‍यात गुणी होती है, उससे क्षपकश्रेणी वाले तीन गुणस्‍थानों में असंख्‍यात गुणी होती है [खीणमोहो] उससे क्षीणमोह बारहवें गुणस्‍थान में असंख्‍यात गुणी होती है [सजोइणाहो] उससे सयोगकेवली के असंख्‍यात गुणी होती है [तहा अजोईया] उससे अयोगकेवली के असंख्‍यात गुणी होती है [एदे उवरिं उवरिं असंखगुणकम्‍मणिज्‍जरया] ये ऊपर-ऊपर असंख्‍यात गुणाकार हैं इ‍सलिये इनको गुणश्रेणी निर्जरा कहते हैं ।

छाबडा :
अब गुणाकार-रहित अधिकरूप निर्जरा जिससे होय सो कहते हैं -

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+ अधिक निर्जरा के उपाय -
जो विसहदि दुव्वयणं साहम्मिय हीलणं च उवसग्गं
जिणिऊण कसाय-रिउं तस्स हवे णिज्जरा विउला ॥109॥
अन्वयार्थ : जो [दुव्‍वयणं] दुर्वचन [सहदि] सहता है [साहम्मियहीलणं] साधर्मी (जो अन्‍य मुनि आदिक) द्वारा किये गये अनादर को सहता है [च उवसग्‍गं] तथा (देवादिकों से किये गये) उपसर्ग को सहता है [कसायरिउं] कषायरूप बैरी को [जिणऊण] जीत कर जो ऐसे करता है [तस्‍स] उसके [विउला] विपुल [बड़ी] [णिज्‍जरा] निर्जरा [हवे] होती है ।

छाबडा :
कोई कुवचन कहे तो उससे कषाय न करे तथा अपने को अतीचारदिक (दोष) लगे तब आचार्यादि कठोर वचन कह कर प्रायश्चित देवें, निरादार करें तो उसको कषाय-रहित होकर सहे तथा कोई उपसर्ग करे तो उससे कषाय न करे उसके बड़ी निर्जरा होती है ।

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+ विज्ञानघन निर्ममत्व आत्म-सम्मुख के निर्जरा -
रिण-मोयणं व मण्णइ जो उवसग्गं परीसहं तिव्वं
पाव-फलं मे एदं मया वि जं संचिदं पुव्वं ॥110॥
जो चिंतेइ सरीरं ममत्त-जणयं विणस्सरं असुइं
दंसण-णाण-चरित्तं सुह-जणयं णिम्मलं णिच्चं ॥111॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [उवसग्‍गं] उपसर्ग को तथा [तिव्‍वं] तीव्र [परीसहं] परिषह को [रिणमोयणं व मण्‍णइ] ऋण (कर्ज) की तरह मानता है कि [एदे] ये [मया वि जं पुव्‍वं संचि‍दं] मेरे द्वारा पूर्व-जन्‍म में संचित किये गये [पावफलं] पाप-कर्मों का फल है । [जो] जो [सरीरं] शरीर को [ममत्तजणयं] ममत्‍व [मोह] को उत्‍पन्‍न करानेवाला [विणस्‍सरं] विनाशीक [असुइं] तथा अपवित्र [चिंतेइ] मानता है और [सुहजणयं] सुख को उत्‍पन्‍न करनेवाले [णिम्‍मलं] निर्मल [णिच्‍चं] तथा नित्‍य [दंसणणाणचरित्तं] दर्शनज्ञान-चारित्ररूपी आत्‍मा का [चिंतेइ] चिंतवन [ध्‍यान] करता है उसके बहुत निर्जरा होती है ।

छाबडा :
जैसे किसी को ऋणके रूपये देने होवे तो जब वह माँगे तब देना पड़े उसमें व्‍याकुलता कैसी ? ऐसा विचार कर जो उपसर्ग और परिषह को शान्‍त परिणामों से सह लेता है उसके बहुत निर्जरा होती है । शरीर को मोह का कारण, अस्थिर तथा अशुचि माने तब इसकी चिन्‍ता नहीं रहती । अपने स्‍वरूप में लगे तब निर्जरा होवे ही होवे ।

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+ विनम्र के निर्जरा -
अप्पाणं जो णिंदइ गुणवंताणं करेइ बहु-माणं
मण-इंदियाण विजई स सरूव-परायणो होउ ॥112॥
तस्स य सहलो जम्मो तस्स य पावस्स णिज्जरा होदि
तस्स वि पुण्णं वड्ढदि तस्स वि सोक्खं परं होदि ॥113॥
अन्वयार्थ : [अप्‍पाणं जो णिंदइ] अपनी जो निंदा करता है, [गुणवंताणं बहुमाणं करेदि] गुणवान पुरूषों का बड़ा आदर करता है, [मणइंदियाण विजई] अपने मन व इन्द्रियों को जीतनेवाला [स सरूपरायणो होउ] वह अपने स्‍वरूप में तत्‍पर होता है ।
[तस्‍स य सहलो जम्‍मो] उसी का जन्‍म सफल है [तस्‍स वि पावस्‍स णिज्‍ज्‍रा होदि] उसी के पाप-कर्म की निर्जरा होती है [तस्‍स वि पुण्‍णं वड्ढदि] उसी के पुण्‍य-कर्म का अनुभाग बढ़ता है [तस्‍स वि सोक्‍खं परं होदि] और उसी को उत्‍कृष्‍ट सुख (मोक्ष) प्राप्‍त होता है ।

छाबडा :
मिथ्‍यात्‍वादि दोषों का निरादर करे तब वे क्‍यों रहें ? नष्‍ट हो ही जावें ।

जो निर्जरा के कारणों में प्रवृत्ति करता है उसके मिथ्‍यात्‍वादि पापों का नाश होता है, पुण्‍य की वृद्धि होती है और वह ही स्‍वर्गादिक के सुखों को भोगकर मोक्ष को प्राप्‍त होता है ।

अब उत्‍कृष्‍ट निर्जरा कहकर उसके कथन को पूर्ण करते हैं -

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+ उपसंहार -
जो सम-सोक्ख -णिलीणो वारंवारं सरेइ अप्पाणं
इंदिय-कसाय-विजई तस्स हवे णिज्जरा परमा ॥114॥
अन्वयार्थ : जो मुनि समतारूपी सुख में लीन हुआ, बार-बार आत्‍मा का स्‍मरण करता है, इन्द्रियों और कषायों को जीतने वाले उसी साधु के उत्‍कृष्‍ट निर्जरा होती है ।

छाबडा :
जो मुनि समता-रस में लीन हुआ, बार-बार आत्मा का स्मरण करता है, इन्द्रिय और कषाय जीतनेवाले उसी के उत्कृष्ट निर्जरा होती है ।

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लोक अनुप्रेक्षा



+ लोक-अनुप्रेक्षा का स्वरूप -
सव्वायासमणंतं तस्स य बहु-मज्झ-संठि ओ लोओ
सो केण वि णेव कओ ण य धरिओ हरि-हरादीहिं ॥115॥
अन्वयार्थ : यह समस्‍त आकाश अनन्‍त-प्रदेशी है । उसके ठीक मध्‍य में भले प्रकार से लोक स्थित है । उसे किसी ने बनाया नहीं है, और न हरि / हर वगैरह उसे धारण ही किये हुए हैं ।

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+ लोक नित्य है -
अण्णोण्ण-पवेसेण य दव्वाणं अच्छणं हवे लोओ
दव्वाणं णिच्चत्तो लोयस्स वि मुणह णिच्चत्तं ॥116॥
अन्वयार्थ : द्रव्‍यों की परस्‍पर में एक-क्षेत्रावगाहरूप स्थिति को लोक कहते हैं । द्रव्‍य नित्‍य है, अत: लोक को भी नित्‍य जानो ।

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+ परिणमन वस्तु का स्वभाव -
परिणाम-सहावादो पडिसमयं परिणमंति दव्वाणि
तेसिं परिणामादो लोयस्स वि मुणह परिणामं ॥117॥
अन्वयार्थ : परिणमन करना वस्‍तु का स्‍वभाव है अत: द्रव्‍य प्रति-समय परिणमन करते हैं । उनके परिणमन से लोक का भी परिणमन जानो ।

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+ लोक का विस्तार -
सत्तेक -पंच-इक्का मूले मज्झे तहेव बंभंते
लोयंते रज्जूओ पुव्वावरदो य वित्थारो ॥118॥
अन्वयार्थ : पूरब-पश्चिम दिशा में लोक का विस्‍तार मूल में अर्थात् अधोलोक के नीचे सात राजू है । अधोलोक से ऊपर क्रमश: घटकर मध्‍यलोक में एक राजू का विस्‍तार है । पुन: क्रमश: बढ़कर ब्रह्म-लोक स्‍वर्ग के अन्‍त में पाँच राजू का विस्‍तार है । पुन: क्रमश: घटकर लोक के अन्‍त में एक राजू का विस्‍तार है ।

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+ लोक का घन -
दक्खिण-उत्तरदो पुण सत्त वि रज्जू हवंति सव्वत्थ ।
उड्ढं चउदह रज्जू सत्त वि रज्जू घणो लोओ ॥119॥
अन्वयार्थ : दक्षिण-उत्तर दिशा में सब जगह लोक का विस्‍तार सात राजू है। ऊँचाई चौदह राजू है और क्षेत्रफल सात राजू का घन अर्थात् 343 राजू है ।

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+ तीन लोक -
मेरुस्स हिट्ठ-भाये सत्त वि रज्जू हवेइ अह-लोओ
उड्ढम्मि उड्ढ-लोओ मेरु-समो मज्झिमो लोओ ॥120॥
अन्वयार्थ : मेरू-पर्वत के नीचे सात राजू प्रमाण अधोलोक है । ऊपर ऊर्ध्‍व-लोक है । मेरूप्रमाण मध्‍य लोक है ।

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+ लोक की परिभाषा -
दंसंति जत्थ अत्था जीवादीया स भण्णदे लोओ
तस्स सिहरम्मि सिद्धा अंत-विहीणा विरायंते ॥121॥
अन्वयार्थ : जहाँ पर जीव आदि पदार्थ देखे जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । उसके शिखर पर अनन्‍त सिद्ध परमेष्‍ठी विराजमान हैं ।

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+ जीव-द्रव्य -
एइंदिएहिं भरिदो पंच-पयारेहिं सव्वदो लोओ
तस-णाडीए वि तसा णबाहिरा होंति सव्वत्थ ॥122॥
अन्वयार्थ : यह लोक पाँच प्रकार के ऐन्द्रिय जीवों से सर्वत्र भरा हुआ है । किन्‍तु त्रस-जीव त्रसनाली में ही होते हैं, उसके बाहर सर्वत्र नहीं होते ।

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+ बादर और सूक्ष्म -
पुण्णा वि अपुण्णा वि य थूला जीवा हवंति साहारा ।
छविहा -सुहुमा जीवा लोयायासे वि सव्वत्थ ॥123॥
अन्वयार्थ : [साहारा] आधार-सहित [जीवा] जीव [थूला] स्थूल (बादर) [हवंति] होते हैं, [पुण्णा वि अपुण्णा वि य] वे पर्याप्त हैं और अपर्याप्त भी हैं; [लोयायासे वि सव्वत्थ सुहमा जीवा छविहा] लोकाकाश में सब जगह अन्य आधार-रहित हैं, वे सूक्ष्म जीव हैं और छह प्रकार के हैं ।

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+ बादर-सूक्ष्म का विस्तार -
पुढवी -जलग्गि-वाऊ चत्तारि वि होंति बायरा सुहुमा
साहारण-पत्तेया वणप्फ दी पंचमा दुविहा ॥124॥
अन्वयार्थ : [पुढवीजलग्गिवाऊ चत्तारि वि बायरा सुहमा होंति] पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु -- ये चार तो बादर भी होते हैं तथा सूक्ष्म भी होते हैं, [पंचमा वणप्फदी साहारणपत्तेया दुविहा] पाँचवीं वनस्पति साधारण और प्रत्येक के भेद से दो प्रकार की है ।

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+ निगोद जीव -
साहारणा वि दुविहा अणाइ -काला य साइ-काला य
ते वि य बादर-सुहमा सेसा पुण बायरा सव्वे ॥125॥
अन्वयार्थ : [साहारणा वि दुविहा] साधारण जीव दो प्रकार के हैं [अणाइकाला य साइकाला य] १. अनादिकाला (नित्य-निगोद) २. साहिकाला (इतरनिगोद); [ते वि य बादरसुहमा] वे दोनों ही बादर भी हैं और सूक्ष्म भी हैं [पुण सेसा सव्वे बायरा] और शेष सब (प्रत्येक वनस्पति और त्रस) बादर ही हैं ।

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+ साधारण जीव -
साहारणाणि जेसिं आहारुस्सास-काय-आऊणि
ते साहारण-जीवा णंताणंत-प्पमाणाणं ॥126॥
अन्वयार्थ : [जेसिं] जिन [णंताणंतप्पमाणाणं] अनन्तानन्त प्रमाण जीवों के [आहारुस्सासकायआऊणि] आहार, उच्छवास, काय, आयु [साहारणाणि] साधारण (समान) हैं, [ते साहारणजीवा] वे साधारण जीव हैं ।

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+ सूक्ष्म और बादर का स्वरूप -
ण य जेसिं पडिखलणं पुढवी -तोएहिं अग्गि-वाएहिं
ते जाण सुहुम-काया इयरा पुण थूल-काया य ॥127॥
अन्वयार्थ : [जत्थ एक्को चंकमइ] जहाँ एक साधारण निगोदिया जीव उत्पन्न होता है [तत्थ णंताणं चंकमणं] वहाँ उसके साथ ही अनन्तानन्त जीव उत्पन्न होते हैं [जत्थेक्कु जीवो मरइ] और जहाँ एक निगोदिया जीव मरता है [तत्थ दु मरणं हवे अणंताणं] वहाँ उसके साथ ही अनन्तानन्‍त समान आयुवाले मरते हैं ।

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+ प्रत्येक और त्रस जीव का स्वरूप -
पत्तेया वि य दुविहा णिगोद-सहिदा तहेव रहिया य
दुविहाहािें त तसावियवि-ति-चउरक्खातहवे पचं क्खा ॥128॥
अन्वयार्थ : पत्तेया वि य दुविहा णिगोद-सहिदा तहेव रहिया य
दुविहाहािें त तसावियवि-ति-चउरक्खातहवे पचं क्खा ॥१२८॥

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+ पंचेंद्रिय जीवों के भेद -
पंचक्खा वि य तिविहा जल-थल-आयास-गामिणो तिरिया
पत्तेयं ते दुविहा मणेण जुत्ता अजुत्ता य ॥129॥
अन्वयार्थ : [पंचक्खा वि य तिविहा] पंचेंद्रिय तिर्यञ्च भी [जलथल-आयासगामिणो] जलचर, थलचर, नभचर के भेद से [तिविहा] तीन प्रकार के हैं, [ते पत्तेयं दुविहा] वे प्रत्येक (तीनों ही) दो-दो प्रकार के हैं -- [मणेण जुत्ता अजुत्ता य] १. मनसहित (सैनी), और २. मन-रहित (असैनी)

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+ गर्भज, सम्मूर्छन, भोग-भूमिज -
ते वि पुणो वि य दुविहा गब्भज-जम्मा तहेव संमुच्छा
भोग- भवुा गब्भ-भवुा थलयर-णह -गामिणो सण्णी ॥130॥
अन्वयार्थ : [ते वि पुणो वि य दुविहा गब्भज-जम्मा तहेव संमुच्छा] वे छह प्रकार के तिर्यञ्च, गर्भज और सम्मूर्च्छन के भेद से दो-दो प्रकार के हैं, [भोग- भवुा गब्भ-भवुा थलयर-णह -गामिणो सण्णी] इनमें जो भोगभूमि के तिर्यञ्च हैं, व थलचर, नभचर ही हैं, जलचर नहीं हैं और सैनी ही हैं, असैनी नहीं हैं ।

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अट्ठ वि गब्भज दुविहा तिविहा संमुच्छिणो वि तेवीसा
इदि पणसीदी भेया सव्वेसिं होंति तिरियाणं ॥131॥
अन्वयार्थ : [अट्ठ वि गब्भज दुविहा] गर्भज के आठ भेद, ये पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से सोलह हुए; [तेवीसा सम्मुच्छिणो वि तिविहा] सम्मूर्छन के तेईस भेद, ये पर्याप्त, अपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त के भेद से उनहत्तर हुए; [इदि सव्वेसिं तिरियाणं पणसीदी भेया होंति] इस प्रकार से सब तिर्यञ्चों के पिच्यासी भेद होते हैं ।

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अज्जव-मिलेच्छ -खंडे भोग-महीसु वि कुभोग-भूमीसु
मणुया हवंति दुविहा णिव्वित्ति-अपुण्णगा पुण्णा ॥132॥
अन्वयार्थ : [मणुआ] मनुष्य [अज्जव मिलेच्छखंडे] आर्यखण्ड में, म्लेच्छखण्ड में [भोगभूमीसु वि कुभोगभूमीसु] भोगभूमि में तथा कुभोगभूमि में [हवंति] हैं, ये चारों ही [पुण्णा] पर्याप्त [णिव्वित्ति अपुण्णगा] और निवृत्ति अपर्याप्त के भेद से [दुविहा] दो-दो प्रकार के होकर, सब आठ भेद होते हैं ।

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सम्मुच्छणा मणुस्सा अज्जव-खंडेसु होंति णियमेण
ते पुण लद्धि -अपुण्णा णारय-देवा वि ते दुविहा ॥133॥
अन्वयार्थ : [सम्मुच्छणा मणुस्सा] सम्मूर्च्छन मनुष्य, [अज्जवखंडेसु] आर्य-खण्ड में ही [णियमेण होंति] नियम से होते हैं, [ते पुण लद्धि -अपुण्णा] वे लब्ध्यपर्याप्तक ही हैं । [णारय देवा वि ते दुविहा] नारकी तथा देव, पर्याप्त और निर्वत्य-पर्याप्त के भेद से चार प्रकार के हैं ।

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आहार-सरीरिंदिय -णिस्सासुस्सास-भास -मणसाणं
परिणइ वावारेसु य जाओ छ च्चेव सत्तीओ ॥134॥
अन्वयार्थ : [आहार-सरीरिंदिय -णिस्सासुस्सास-भास -मणसाणं] आहार, शरीर, इन्द्रिय, स्वासोच्छवास, भाषा और मन, [परिणइ वावारेसु य जाओ छच्चेव सत्तीओ]
इनकी परिणमन की प्रवृत्ति में सामर्थ्य, सो छह प्रकार की पर्याप्ति है ।

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तस्सेव कारणाणं पुग्गल-खंधाण जा हु णिप्पत्ती
सा पज्जत्ती भण्णदि छब्भेया जिणवरिंदेहिं ॥135॥
अन्वयार्थ : [तस्सेव कारणाणं] उस शक्ति प्रवृत्ति की पूर्णता को कारण जो [पुग्गलखंधाण जा हु णिप्पत्ति] पुदूगल स्कन्धों की निष्पत्ति (पूर्णता होना), [सा] वह [जिणवरिंदेहिं] जिनेन्द्र भगवान के द्वारा[ छब्भेया पज्जत्ती भणणदि] छह भेदवाली पर्याप्ति कही गयी हे।

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पज्जत्तिं गिण्हंतो मणु-पज्जत्तिं ण जाव समणोदि
ता णिव्वत्ति-अपुण्णो मण -पुण्णो भण्ण दे पुण्णो ॥136॥
अन्वयार्थ : [पज्जत्तिं गिण्हंतो] यह जीव पर्याप्ति को ग्रहण करता हुआ [मणु-पज्जत्तिं ण जाव समणोदि] जब तक मन-पर्याप्ति को पूर्ण नहीं करता है, [ता णिव्वत्ति-अपुण्णो] तब तक निर्व॑त्यपर्याप्तक कहलाता है; [मण-पुण्णो भण्ण दे पुण्णो] जब मनपर्याप्ति पूर्ण हो जाती है, तब पर्याप्तक कहलाता है ।

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उस्सासट्ठारसमे भागे जो मरदि ण य समाणेदि
एक्को वि य पज्जत्ती लद्धि-अपुण्णो हवे सो दु ॥137॥
अन्वयार्थ :  [जो उस्सासट्ठारसमे भागे मरदि] जो जीव, श्वास के अठारहवें भाग में मरता है, [एक्को वि य पज्जत्ती ण य समाणेदि] एक भी पर्याप्ति को पूर्ण नहीं करता है, [लद्धि-अपुण्णो हवे सो दु] वह जीव लब्ध्यपर्याप्तक कहलाता है ।

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लद्धियपुण्णे पुण्णं पज्जत्ती एयक्ख-वियल-सण्णीणं
चदुपण छक्कं क मसो पज्जत्तीए वियाणेह ॥138॥
अन्वयार्थ : [एयक्ख-वियल-सण्णीणं] एकेन्द्रिय, विकलत्रय तथा संज्ञी जीव के [कमसो] क्रम से [चदुपण छक्कं] चार, पाँच, छह [पज्जत्तीए वियाणेह] पर्याप्तियाँ जानो; [लद्धियपुण्णे पुण्णं] लब्ध्यपर्याप्तक अपर्याप्तक है, इसके पर्याप्तियाँ नहीं होती ।

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मण-वयण-काय-इंदिय-णिस्सासुस्सास-आउ-उदयाणं
जेसिं जोए जम्मदि मरदि विओगम्मि ते वि दह पाणा ॥139॥
अन्वयार्थ : [मण-वयण-काय-इंदिय-णिस्सासुस्सास-आउ-उदयाणं] जो मन, वचन, काय, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास और आयु [जेसिं जोए जम्मदि] इनके संयोग से उत्पन्न हो जीए और [मरदि विओगम्मि] वियोग से मरे, [ते वि दह पाणा] वे वे दश प्राण होते हैं ।

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एयक्खे चदु पाणा बि-ति-चउरिंदिय-असण्णि-सण्णीणं
छह सत्त अट्ठ णवयं दह पुण्णाणं कमे पाणा ॥140॥
अन्वयार्थ : [एयक्खे चदुपाणा] एकेन्द्रिय के चार प्राण हैं, [ बितिचउरिंदिय असण्णिसण्णीणं कमे छह सत्त अट्ट णवयं दह पाणा] दोइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असैनी पज्चेन्द्रिय, सैनी पन्चेन्द्रिय के, पर्याप्तों के अनुक्रम से छह, सात, आठ, नौ, दश प्राण हैं । ये प्राण पर्याप्त अवस्था में कहे गये हैं ।

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दुविहाणमपुण्णाणं इगिवितिचउरक्ख अंतिम-दुगाणं
तिय चउ पण छह सत्त य कमेण पाणा मुणेयव्वा ॥141॥
अन्वयार्थ : [दुविहाणमपुण्णाणं इगिवितिचउरक्ख अंतिमद्गाणं] दो प्रकार के अपर्याप्त जो एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय असैनी तथा सैनी पंचेन्द्रियों के [तिय चउ पण छह सत्त य कमेण पाणा मुणेयव्वा] तीन, चार, पाँच, छह, सात ऐसे अनुक्रम से प्राण जानना चाहिये ।

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वि-ति-चउरक्खा जीवा हवंति णियमेण कम्म-भूमीसु
चरिमे दीवे अद्धे चरम समुद्दे वि सव्वेसु ॥142॥
अन्वयार्थ : [वितिचउरक्खा जीवा] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय (विकलत्रय) जीव [णियमेण कम्मभूमीसु हवंति] नियम से कर्मभूमि में ही होते हैं [चरमे दीवे अद्धे] तथा अन्त के आधे द्वीप में [चरमसमुद्दे वि सम्वेसु] और अन्त के सम्पूर्ण समुद्र में होते हैं ।

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माणुस-खित्तस्स बहि चरिम दीवस्स अद्धयं जाव
सव्वत्थे वि तिरिच्छा हिमवद -तिरिएहिं सारिच्छा ॥143॥
अन्वयार्थ : [माणुसखित्तस्स बहिं] मनुष्यक्षेत्र से बाहर मानुषोत्तर पर्वत से आगे [चरमे दीवस्स अद्धयं जाव] अन्त के स्वयंप्रभ द्वीप के आधे भाग तक [सव्वत्थे वि तिरिच्छा] बीच के सब द्वीप समुद्रों के तिर्यंच [हिमवदतिरिएहि सारिच्छा] हैमवत क्षेत्र के तिर्यंचों के समान हैं ।

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लवणोए कालोए अंतिम -जलहिम्मि जलयरा संति
सेस-समुद्देसु पुणो ण जलयरा संति णियमेण ॥144॥
अन्वयार्थ : [लवणोए कालोए] लवणोदधि समुद्र में, कालोदधि समुद्र में [अंतिमजलहिम्मि जलयरा संति] अन्त के स्वयंभूरमण समुद्र में जलचर जीव हैं [सेससमुद्देसु पुणो] और अवशेष बीच के समुद्रों में [णियमेण जलयरा ण संति] नियम से जलचर जीव नहीं हैं ।

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खरभाय-पंकभाए भावण-देवाण होंति भवणाणि
विंतर -देवाण तहा दुण्हं पि य तिरिय-लोयम्मि ॥145॥
अन्वयार्थ : [खरभायपंकमाए] खरभाग पंकभाग में [भावणदेवाण] भवनवासियों के [भवणाणि] भवन [तहा] तथा [वितरदेवाण] व्यन्तर देवों के निवास [होंति] हैं [दुहपि य तिरियलोयम्मि] और इन दोनों के तिर्यग्लोक में भी निवास हैं ।

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जोइसियाण विमाणा रज्जू-मित्ते वि तिरिय-लोए वि
कप्प-सुरा उह्नम्मि य अह-लोए होंति णेरइया ॥146॥
अन्वयार्थ :  [जोइसियाण विमाणा] ज्योतिषो देवों के विमान [रज्जमित्ते वि तिरियलोए वि] एक राजू प्रमाण तिर्यग्लोक के असंख्यात द्वीप समुद्रों के ऊपर हैं [कप्पसुरा उड़ढमि य] कल्पवासी ऊर्ध्वलोक में है [णेरइया अहलोए होंति] नारकी अधोलोक में हैं ।

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बादर -पज्जत्ति-जुदा घण-आवलिया असंख-भागा दु
किंचूण -लोय-मित्ता तेऊ वाऊ जहा-कमसो ॥147॥
अन्वयार्थ : [तेऊ वाऊ] अग्निकाय, वातकाय के [बादरपजत्तिजुदा] बादर-पर्याप्त सहित जीव [घणआवलिया असंखभागा दु] धन आवली के असंख्यातवें भाग [किंचणलोयमिचा] तथा कुछ कम लोक के प्रदेशप्रमाण [जहाकमसो] यथा अनुक्रम जानना चाहिये ।

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पुढवी-तोय -सरीरा पत्तेया वि य पइट्ठिया इयरा
होंति असंखा सेढी पुण्णापुण्णा य तह य तसा ॥148॥
अन्वयार्थ : [पुढवीतोयसरीरा] पृथ्वीकायिक, अप्कायिक [पत्तेया वि य पइट्ठिया इयरा] प्रत्येक वनस्पतिकायिक सप्रतिष्ठित वा अप्रतिष्ठित [तह य तसा] तथा त्रस -- ये सब [पुण्णापुण्णा] पर्याप्त अपर्याप्त जीव हैं [असंखा सेढी होंति] वे जुदे-जुदे असंख्यात जगतश्रेणीप्रमाण हैं ।

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बादरलद्धि-अपुण्णा असंखलोया हवंति पत्तेया
तह य अपण्णा सुहुमा पुण्णा वि य संखगुणगणिया ॥149॥
अन्वयार्थ : [परोया] प्रत्येक वनस्पति तथा [वादरलद्धिअपुण्णा] बादर लब्ध्यपर्याप्तक जीव [असंखलोया हवंति] असंख्यात लोकप्रमाण हैं [तह य अपुण्णा सुहुमा] इसी तरह सूक्ष्मअपर्याप्त असंख्यात लोकप्रमाण हैं [पुण्णा वि य संखगुणगणिया] और सूक्ष्मपर्याप्तक जीव संख्यातगुणे हैं ।

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सिद्धा संति अणंता सिद्धाहिंतो अणंत-गुण-गुणिया
होंति णिगोदा जीवा भागमणंतं अभव्वा य ॥150॥
अन्वयार्थ : [सिद्धा अणंता संति] सिद्ध जीव अनन्त हैं [सिद्धाहिंतो अणंतगुणगणिया णिगोदा जीवा होंति] सिद्धों से अनन्तगुणे निगोदिया जीव हैं [भाग अणंता अभव्या य] और सिद्धों के अनन्तवें भाग अभव्य जीव हैं ।

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सम्मुच्छिमा हु मणुया सेढिय संखिज्ज-भाग-मित्ता हु
गब्भज-मणुया सव्वे संखिज्जा होंति णियमेण ॥151॥
अन्वयार्थ : [सम्मुच्छिा हु मणुया] सम्मूर्छन मनुष्य [सेढियसंखिज भागामिचा हु] जगतश्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र हैं [गब्भजमणुया सव्वे] और सब गर्भज मनुष्य [णियमेण संखिज्जा होंति] नियम से संख्यात ही हैं ।

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देवा वि णारया वि य लद्धियपुण्णा हु संतरा होंति
सम्मुच्छियां वि मणुया सेसा सव्वे णिरंतरया ॥152॥
अन्वयार्थ : [देवा वि णारया वि य लद्धियपुण्णा हु] देव, नारकी, लब्ध्यपर्याप्तक [सम्मुच्छिया वि मणुया] और सम्मूर्छन मनुष्य [संतरा होंति] ये तो सान्तर (अन्तर सहित) हैं [सेसा सव्वे णिरंतरया] अवशेष सब जीव निरन्तर हैं ।

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मणुयादो णेरइया णेरइयादो असंख-गुण-गुणिया
सव्वे हवंति देवा पत्तेय-वणप्फ दी तत्तो ॥153॥
अन्वयार्थ : [मणुयादो णरइया] मनुष्यों से नारकी [असंखगुणगणिया हवंति] असंख्यात गणे हैं [णेरइयादो सव्वे देवा] नारकियों से सब देव असंख्यात गुणे हैं [तचो पत्तेयवणप्फदी] देवों से प्रत्येक वनस्पति जीव असंख्यात गुणे हैं ।

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पंचक्खा चउरक्खा लद्धियपुण्णा तहेव तेयक्खा
वये क्खा वि य क मसो विससे -सहिदा हु सव्व-संखाए ॥154॥
अन्वयार्थ : [पंचक्खा चउरक्खा] पंचेन्द्रिय, चौइन्द्रिय [तहेव तेयक्खा] तेइन्द्रिय [वेयक्खा वि य] द्वीन्द्रिय [सव्व लद्धियपुण्णा] ये सब लब्ध्यपर्याप्तक जीव [संखाए विसेससहिदा] संख्या में विशेषाधिक हैं ।

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चउरक्खा पंचक्खा वेयक्खा तह य जाणं तेयक्खा
एदे पज्जत्ति-जुदा अहिया अहिया क मेणेव ॥155॥
अन्वयार्थ : [चउरक्खा पंचक्खा] चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय [वेयक्खा तह य जाण तेयक्खा] द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, [एदे पजत्तिजुदा] ये पर्याप्ति सहित जीव [कमेणेव] अनुक्रम से [अहिया अहिया] अधिक अधिक जानो ।

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परिवज्जिय सुहुमाणं सेस-तिरक्खाण पुण्ण-देहाणं
इक्को भागो होदि हु संखातीदा अपुण्णाणं ॥156॥
अन्वयार्थ : [सुहुमाणं परिवज्जिय] सूक्ष्म जीवों को छोड़कर [सेसतिरिक्खाण पुण्णदेहाणं] अवशेष पर्याप्ति तिर्यंच हैं [इक्को भागो होदि हु] उनका एक भाग तो पर्याप्त है [संखातीदा अपुण्णाणं] और बहुभाग असंख्याते अपर्याप्त हैं ।

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सुहुमापज्जत्ताणं इक्को भागो हवेदि णियमेण
संखिज्जा खलु भागा तेसिं पज्जत्ति-देहाणं ॥157॥
अन्वयार्थ : [सुहुमापजत्ताणं] सूक्ष्म पर्याप्तक जीव [संखिजा खलु भागा] संख्यात भाग हैं [तेसिं पज्जत्तिदेहाणं] उनमें अपर्याप्तक जीव [णियमेण] नियम से [इक्को भागो हवेइ] एक भाग हैं ।

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संखिज्ज-गुणा देवा अंतिम- पडलादु आणदं जाव
तत्तो असंख-गुणिदा सोहम्मं जाव पडिपडलं ॥158॥
अन्वयार्थ : [देवा अंतिमपटलादु आणदं जाव] देव अन्तिम पटल (अनुत्तर विमान) से लेकर नीचे आनत स्वर्ग के पटल पर्यंत [संखिजगुणा] संख्यातगुणे हैं [तत्तो] उसके बाद नीचे [सोहम्म जाव] सौधर्मपर्यंत [असंखगुणिदा] असंख्यातगुणे [पडिपडलं] पटल-पटल प्रति हैं ।

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सत्तम-णारयहिंतो असंख-गुणिदा हवंति णेरइया
जाव य पढमं णरयं बहु-दुक्खा होंति हेट्ठिट्ठा ॥159॥
अन्वयार्थ : [सत्तमणारयहितो] सातवें नरक से लेकर ऊपर [जावय पढमं णरयं] पहिले नरक तक जीव [असंखगुणिदा हवंति] असंख्यात-असंख्यात गुणे हैं [णेरइया] पहिले नरक से लेकर [हेडिट्ठा] नीचे-नीचे [बहुदुक्खा होंति] बहुत दुःख हैं ।

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कप्प-सुरा भावणया विंतर-देवा तहेव जोइसिया
बे हुंति असंख-गुणा संख-गुणा होंति जोइसिया ॥160॥
अन्वयार्थ : [कप्पसुरा भावणया विंतरदेवा] कल्पवासी देवों से भवनवासी देव व्यन्तरदेव [बे असंखगुणा होंति] ये दो राशि तो असंख्यातगुणी है [जोइसिया संखगुणा होंति] और ज्योतिषी देव व्यन्तरों से संख्यातगुणे हैं ।

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+ जीवों की आयु -
पत्तेयाणं आऊ वास-सहस्साणि दह हवे परमं
अंतो मुहुत्तमाऊ साहारण-सव्व-सुहुमाणं ॥161॥
अन्वयार्थ : [पत्तेयाणं] प्रत्येक वनस्पति की [परमं] उत्कृष्ट [आऊ] आयु [दह] दस [वाससहस्साणि] हजार वर्ष की [हवे] है [साहारणसव्वसुहुमाणं] साधारण नित्य, इतरनिगोद सूक्ष्म बादर तथा सब ही सूक्ष्म पृथ्वी, अप, तेज, वातकायिक जीवों की उत्कृष्ट [आऊ] आयु [अंतोमुहुत्] अंतर्मुहूर्त की है ।

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बावीस-सत्त-सहसा पुढवी-तोयाण आउसं होदि
अग्गीणं तिण्णि दिणा तिण्णि सहस्साणि वाऊणं ॥162
अन्वयार्थ : [पुढवीतोयाण आउसं ] पृथ्वीकायिक और अप्कायिक जीवों की उत्कृष्ट आयु क्रम से [बावीस सत्तसहसा] बाईस हजार वर्ष और सात हजार वर्ष की [होदि] है [अग्गीणं तिण्णि दिणा] अग्निकायिक जीवों की उत्कृष्ट आयु तीन दिन की है [तिण्णि सहस्साणि वाऊणं] वायुकायिक जीवों की उत्कृष्ट आयु तीन हजार वर्ष की है ।

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बारस-वास वियक्खे एगुणवण्णा दिणाणि तेय क्खे
चउरक्खे छम्मासा पंचक्खे तिण्णि पल्लाणि ॥163॥
अन्वयार्थ : [वारसवास वियक्खे] द्वीन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट आयु बारह वर्ष को है [एगुणवण्णा दिणाणि तेयक्खे] त्रीन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट आयु उनचास (49) दिन की है [चउरक्खे छम्मासा] चतुरिन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट आयु छह मास की है [पंचक्खे तिण्णि पल्लामि] पचेन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट आयु भोगभूमि की अपेक्षा तीन-पल्य की है ।

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सव्व-जहण्णं आऊ लद्धि-अपुण्णाण सव्व-जीवाणं
मज्झिम-हीण-महुत्तं पज्जत्ति-जुदाण णिकिट्ठं ॥164॥
अन्वयार्थ : [लद्धिअपुष्णाण सव्वजीवाणं] लब्ध्यपर्याप्तक सब जीवों की [सव्वजहण्णं आऊ] जघन्य आयु [मज्झिमहीणमुहुत्तं] मध्यमहीन मुहूर्त है (यह क्षुद्रभवमात्र जानना चाहिये एक उच्छ्वास के अठारहवें भाग मात्र है) [पजत्तिजदाण णिक्किटुं] लब्ध्य पर्याप्तक (कर्मभूभि के तिर्यंच मनुष्य सब ही पर्याप्त) जीवों की जघन्य आयु भी मध्यमहीन मुहूर्त है (यह पहिले से बड़ा मध्य अन्तर्मुहूर्त है)

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देवाण णारयाणं सायर-संखा हवंति तेतीसा
उक्किट्ठं च जहण्णं वासाणं दस सहस्साणि ॥165॥
अन्वयार्थ : [देवाण णारयाणं] देवों की तथा नारकी जीवों की [उक्किट्ठं] उत्कृष्ट आयु [तेत्तीसा] तेतीस [सायरसंखा हवंति] सागर की है [जहण्णं वासाणं दस सहस्साणि] और जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है ।

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+ जीवों के शरीर की अवगाहना -
अंगुल-असंख-भागो एयक्ख -चउक्ख-देह-परिमाणं
जोयण -सहस्स-महियं पउमं उक्कस्सयं जाण ॥166॥
अन्वयार्थ : [एयक्खचउक्कदेहपरिमाणं] एकेन्द्रिय चतुष्क (पृथ्वी, अप, तेज, वायुकाय के) जीवों की अवगाहना [उक्कसयं] जघन्य तथा उत्कृष्ट [अंगुलअसंखभागो] घन-अंगुल के असंख्यातवें भाग [जाण] जानो (यहां सूक्ष्म तथा बादर पर्याप्तक अपर्याप्तक का शरीर छोटा बड़ा है तो भी घनांगुल के असंख्यातवें भाग ही सामान्यरूप से कहा है)[जोयणसहस्सम हियं पउमं] प्रत्येक वनस्पति-काय में उत्कृष्ट अवगाहना युक्त कमल है उसकी अवगाहना कुछ अधिक हजार योजन है ।

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वारस-जोयण संखो कोस -तियं गोब्भिया समुद्दिट्ठा
भमरो जोयणमेगं सहस्स संमुच्छिमो मच्छो ॥167॥
अन्वयार्थ : [वायसजोयण संखो] द्वीन्द्रियों में शंख बड़ा है उसकी उत्कृष्ट अवगाहना बारह योजन लम्बी है [कोसतियं गोब्भिया समुदिट्ठा] त्रीन्द्रियों में गोभिका (कानखिजूरा) बड़ा है उसकी उत्कृष्ट अवगाहना तीन कोस लम्बी है [भमरो जोयणमेगं] चतुरिन्द्रियों में बड़ा भ्रमर है उसकी उत्कृष्ट अवगाहना एक योजन लम्बी है [सहस्स सम्मुच्छिमो मच्छो] पंचेन्द्रियों में बड़ा मच्छ है उसकी उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन लम्बी है (ये जीव अन्त के स्वयंभूरमण द्वीप तथा समुद्र में जानने )

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पंच-सया धणु-छेहा सत्तम-णरए हवंति णारइया
तत्तो उस्सेहेण य अद्धद्धा होंति उवरुवरिं ॥168॥
अन्वयार्थ : [सत्तमणरए] सातवें नरक में [णारइया] नारकी जीवों का शरीर [पंचसयाधणुछेहा] पाँच सौ धनुष ऊँचा [हवंति] है [ततो उस्सेहेण य उवरुवरि अद्वद्धा होंति] उसके ऊपर शरीर की ऊँचाई आधी आधी है (छ्ट्ठे में दोसौ पचास धनुष, पांचवें में एकसौ पच्चीस धनुष, चौथे में साढ़े बासठ धनुष, तीसरे में सवा इकतीस धनुष, दूसरे में पन्द्रह धनुष दस आना, पहिले में सात धनुष तेरह आना इस तरह जानना चाहिये; इनमें उनचास (49) पटल है उनमें न्यारी-न्यारी विशेष अवगाहना त्रिलोकसारसे जानना चाहिये)

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असुराणं पणवीसं सेसं णव-भावणा य दह-दंडं
विंतर-देवाण तहा जोइसिया सत्त-धणु देहा ॥169॥
अन्वयार्थ : [असुराणं पणवीसं] भवनवासियों में असुरकुमारों के शरीर की ऊँचाई पच्चीस धनुष [सेसं णवभावणा य दहदंडं] बाकी नौ भवनवासियों की दश-धनुष [वितरदेवाण तहा] व्यन्तरों के शरीर की ऊँचाई दस-धनुष [जोइसिया सराधणुदेहा] और ज्योतिषी देवों के शरीर की ऊँचाई सात धनुष है ।

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दुग-दु-चदु-चदु-दुग-कप्प-सुराणं सरीर-परिमाणं
सत्तच्छ -पंच-हत्था चउरो अद्धद्ध-हीणा य ॥170॥
हिट्ठिम-मज्झिम-उवरिम-गेवज्जे तह विमाण चउदसए
अद्ध-जुदा वे हत्था हीणं अद्धद्धयं उवरिं ॥171॥
अन्वयार्थ : [दुगद्गचदुचदुदुगदुगकप्पसुराणं सरीरपरिमाणं] दो (सौधर्म, ईशान) दो (सानत्कुमार, माहेन्द्र) चार (ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ) चार (शुक्र, महाशुक्र, सतार, सहस्रार) दो (आनत, प्राणत) दो (आरण, अच्युत) युगलों के देवों का शरीर क्रम से [सत्तछहपंचहत्था चउरो अद्धद्ध हीणा य] सात हाथ, छह हाथ, पाँच हाथ, चार हाथ, साढ़े तीन हाथ, तीन हाथ ऊँचा है [हिडिममझिमउवरिमगेवज्मे तह विमाणचउदसए] अधो ग्रैवेयक में, मध्यम ग्रैवेयक में, ऊपर के ग्रैवेयक में, नव अनुदिश तथा पांच अनुत्तर में क्रम से [अद्धजुदा वे हत्था हीणं अद्धद्धयं उवरिं] आधा-आधा हाथ हीन अर्थात् ढाई हाथ, दो हाथ, डेढ हाथ और एक हाथ देवों के शरीर की ऊँचाई है ।

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+ भारत एरावत क्षेत्र में शरीर की ऊंचाई -
अवसप्पिणीए पढमे काले मणुया ति-कोस-उच्छेहा
छट्ठस्स वि अवसाणे हत्थ-पमाणा विवत्था य ॥172॥
अन्वयार्थ : [अवसप्पिणिए पढमे काले मणुया तिकोसउच्छेहा] अवसर्पिणी के प्रथम काल के आदि में मनुष्यों का शरीर तीन कोस ऊँचा होता है [छट्टस्स वि अवसाणे हत्थपमाणा विक्त्था य] छठे काल के अन्त में मनुष्यों का शरीर एक हाथ ऊँचा होता है और छठे काल के जीव वस्त्रादि रहित होते हैं ।

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सव्व-जहण्णो देहो लद्धि-अपुण्णाण सव्व-जीवाणं
अंगुल-असंख-भागो अणेय-भेओ हवे सो वि ॥173॥
अन्वयार्थ : [लद्धिअपुण्णाण सव्वजीवाणं] लब्ध्यपर्याप्तक सब जीवों का [देहो] शरीर [अंगुलअसंखभागो] घनअंगुल के असंख्यातवें भाग है [सबजहण्णो] यह सब जघन्य है [अणेयभेओ हवे सो वि] इस में भी अनेक भेद हैं ।

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वि-ति-चउ-पंचक्खाणं जहण्ण-देहो हवेइ पुण्णाणं
अंगुल-असंख-भागो संख-गुणो सो वि उवरुवरिं ॥174॥
अन्वयार्थ : [वि ति चउपचक्खाणं] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय [पुण्णाणं] पर्याप्त जीवों का [जहण्णदेहो] जघन्य शरीर [अंगुलअसंखभागो] घन अंगुल के असंख्यातवें भाग है [सो वि उवरुवरि] वह भी ऊपर-ऊपर [संखगुणो] संख्यातगुणा है ।

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अणुद्धरीयं कुंथो मच्छी काणा य सालिसित्थो य
पज्जत्ताण तसाणं जहण्ण-देहो विणिद्दिट्ठो ॥175॥
अन्वयार्थ : [आणुधरीयं कुन्थं] द्वीन्द्रियों में अणुद्धरी जीव, त्रीन्द्रियों में कुन्थु जीव [मच्छीकाणा य सालिसित्थो य] चतुरिन्द्रियों में काणमक्षिका, पंचेन्द्रियों में शालिसिक्थक नामक मच्छ इन [तसाणं] त्रस [पजत्ताण] पर्याप्त जीवों के [जहण्णदेहो विणिहिट्ठो] जघन्य शरीर कहा गया है ।

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+ जीव के लोकप्रमाण और देहप्रमाणपना -
लोय-पमाणो जीवो देह-पमाणो वि अच्छदे खेत्ते
उग्गाहण -सत्तीदो संहरण-विसप्प-धम्मादो ॥176॥
अन्वयार्थ : [जीवो] जीव [संहारणविसप्पधम्मादो] संकोच, विस्तार, धर्म तथा [ओगाहणसत्तीदो] अवगाहना की शक्ति होने से [लोयपमाणो] लोकप्रमाण है [देहपमाणो वि अस्थिदे खेते] और देह प्रमाण भी है ।

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+ जीव सर्वथा सर्वगत -- का निषेध -
सव्व-गओ जदि जीवो सव्वत्थ वि दुक्ख-सुक्ख-संपत्ती
जाइज्ज ण सा दिट्ठी णिय-तणु-माणो तदो जीवो ॥177॥
अन्वयार्थ : [जदि जीवो सव्वगओ] यदि जीव सर्वगत ही होवे तो [सव्वत्थ वि दुक्खसुक्खसंपत्ती] सब क्षेत्र-सम्बन्धी सुखदुःख की प्राप्ति इसको [जाइज] होवे [सा ण दिट्ठी] परन्तु ऐसा तो दिखाई देता नहीं है [तदो जीवो] इसलिये जीव [णियतणुमाणो] अपने शरीर प्रमाण ही है ।

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जीवो णाण-सहावो जह अग्गी उण्हवो सहावेण
अत्थंतर-भूदेण हि णाणेण ण सो हवे णाणी ॥178॥
अन्वयार्थ : [जह अग्गी] जैसे अग्नि [सहावेण] स्वभाव से [उलओ] उष्ण है [जीवो णाणसहावो] वैसे ही जीव ज्ञान-स्वभाव है [अत्यंतरभूदेण हि] इसलिये अर्थान्तरभूत (अपने से प्रदेशरूप जुदा) [णाणेण ण सो हवै णाणी] ज्ञान से ज्ञानी नहीं है ।

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जदि जीवादो भिण्णं सव्व-पयारेण हवदि तं णाणं
गुण -गुणि-भावो य तहा दूरेण पणस्सदे दुण्हं ॥179॥
अन्वयार्थ : [जदि जीवादो भिण्णं सव्वपयारेण हवदि तं गाणं] यदि जीव से ज्ञान सर्वथा भिन्न ही माना जाय तो [गुणगुणिभावो य तदा दुरेणप्पणस्सदे दुण्हं] उन दोनों के गुणगुणिभाव दूर से ही नष्ट हो जावें ।

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जीवस्स वि णाणस्स वि गुणि-गुण -भावेण कीरए भेओ
जं जाणदि तं णाणं एवं भेओ कहं होदि ॥180॥
अन्वयार्थ : [जीवस्स वि णाणस्स वि] जीव और ज्ञान के [गुणगुणिभावेण] गुणगुणिभाव से [भेओ] कथंचित् भेद [कीरए] किया जाता है [जं जाणदि णाणं] 'जो जानता है वह ही आत्मा का ज्ञान है' [एवं भेओ कहं होदि] ऐसा भेद कैसे होता है ।

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+ चार्वाकमत का निषेध -
णाणं भूय-वियारं जो मण्णदि सो वि भूद-गहिदव्वो
जीवेण विणा णाणं किं केण वि दीसदे कत्थ ॥181॥
अन्वयार्थ : [जो] जो (चार्वाकमती) [णाणं भूयवियारं मण्णदि] ज्ञान को. पृथ्वी आदि पंच-भूतों का विकार मानता है [सो वि भूदगहिदव्यो] वह भूत (पिशाच) द्वारा ग्रहण किया हुआ है [जीवेण विणा णाणं] क्योंकि बिना ज्ञान के जीव [किं केण वि कत्थ दीसए] क्या किसी से कहीं देखा जाता है ?

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सच्चेयण-पच्चक्खं जो जीवं णेव मण्णदे मूढो
सो जीवं ण मुणंतो जीवाभावं कहं कुणदि ॥182॥
अन्वयार्थ : [सच्चेयण पञ्चक्खं] यह जीव सत्-रूप और चैतन्य-स्वरूप स्व-संवेदन प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रसिद्ध है [जो जीवं णेय मण्णदे] जो (चार्वाक) जीव को ऐसा नहीं मानता है [सो मूढो] वह मूर्ख है [जो जीवं ण मुणंतो] और जो जीव को नहीं मानता है तो वह [जीवाभावं कहं कुणदि] जीव का अभाव कैसे करता है ?

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दि ण य हवेदि जीवो ता को वेदेदि सुक्ख-दुक्खाणि
इंदिय-विसया सव्वे को वा जाणदि विसेसेण ॥183॥
अन्वयार्थ : [जदि जीओ ण य हवेदि] यदि जीव नहीं होवे तो [सुक्खदुक्खाणि] अपने सुख-दुःख को [को वेदेदि] कौन भोगता है और [ईंदियविसया सव्वे] इन्द्रियों के स्पर्श आदि सब विषयों को [विसेसेण] विशेषरूप से [को वा जाणदि] कौन जानता है ?

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संकप्प-मओ जीवो सुह-दुक्खमयं हवेइ संकप्पो
तं चिय वेददि जीवो देहे मिलिदो वि सव्वत्थ ॥184॥
अन्वयार्थ : [जीवो संकप्पमओ] जीव संकल्पमयी है [संकप्पो सुहदुक्खमयं हवेइ] संकल्प सुखदुःखमय है [तं चिय वेददि जीवो] उस सुखदुःखमयी संकल्प को भोगता है वह जीव है [देहे मिलिदो वि सव्वत्थ] वह देह में सब जगह मिला हुआ है (तो भी जाननेवाला जीव है)

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देह -मिलिदो वि जीवो सव्व-कम्माणि कुव्वदे जम्हा
तम्हा पवट्ट माणो एयत्तं वुज्झदे दोण्हं ॥185॥
अन्वयार्थ : [जम्हा] क्योंकि [जीवो] जीव [देहमिलिदो वि] देह से मिला हुआ ही [सव्वकम्माणि कुव्वदे] (कर्म नोकर्मरूप) सब कार्यों को करता है [तम्हा पयट्टमाणो] इसलिए उन कार्यों में प्रवृत्ति करते हुए लोगों को [दोण्हं एय बुज्झद] दोनों (देह और जीव) के एकत्व दिखाई देता है ।

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देह-मिलिदो वि पिच्छदि देह-मिलिदो वि णिसुण्णदे सद्दं
देह-मिलिदो वि भुंजदि देह -मिलिदो वि गच्छेदि ॥186॥
अन्वयार्थ : [देहमिलिदो वि पिच्छदि] जीव देह से मिला हुआ ही पदार्थों को देखता है [देहमिलिदो वि णिसुण्णदे सदं] देह से मिला हुआ ही शब्दोंको सुनता है [देहमिलिदो वि भुंजदि] देह से मिला हुआ ही खाता है [देहमिलिदो वि गच्छेदि] देह से मिला हुआ ही गमन करता है ।

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राओ हं भिच्चो हं सिट्ठी हं चेव दुब्बलो बलिओ
इदि एयत्ताविट्ठो दोण्हं भेयं ण बुज्झेदि ॥187॥
अन्वयार्थ : [एयत्ताविट्ठो] देह और जीव के एकत्व की मान्यता वाले लोग ऐसा मानते हैं कि [राओ हं] मैं राजा हूँ [भिच्चो हं] मैं भृत्य (नौकर) हूँ [सिठ्ठि हं] मैं सेठ (धनी) हूँ [चेव दुव्वलो] मैं दुर्बल हूँ, मैं दरिद्र हूँ [बलिओ] मैं बलवान हूँ [इदि] इसप्रकार से [दोण्ह भयं ण बुज्झदि] दोनों के (देह और जीव के) भेद को नहीं जानते हैं ।

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+ जीव के कर्तत्व आदि -
जीवो हवेइ कत्ता सव्वंकम्माणि कुव्वदे जम्हा
कालाइ-लद्धि-जुत्तो संसारं कु णइ मोक्खं च ॥188॥
अन्वयार्थ : [जम्हा] क्योंकि [जीवो] यह जीव [सव्वं कम्माणि कुव्वदे] सब कर्म को करता हुआ [कत्ता हवेइ] कर्ता होता हुआ [संसारं कुणइ] संसार को करता है [कालाइलद्धिजत्तो] और काल आदि लब्धि से युक्त होता हुआ [मोक्खं च] अपने मोक्ष को भी आप ही करता है ।

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जीवो वि हवइ भुत्ता कम्म-फलं सो वि भुंजदे जम्हा
कम्म-विवायं विविहं सो वि य भुंजेदि संसारे ॥189॥
अन्वयार्थ : [जम्हा] क्योंकि [जीवो वि कम्मफलं भुंजदे] जीव कर्मफल को भोगता है [सो वि भुत्ता हवइ] इसलिये भोक्ता भी यही है और [सो वि य संसारे] वह ही संसार में [विविहं कम्मविवायं भुंजेदि] (सुखदुःखरूप अनेक प्रकार के) कर्मों के विपाक को भोगता है ।

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जीवो वि हवे पावं अइ-तिव्व-कसाय-परिणदो णिच्चं
जीवो वि हवइ पुण्णं उवसम-भावेण संजुत्तो ॥190॥
अन्वयार्थ : [जीवो वि अइतिव्वकषायपरिणदो णिच्चं पावं हवइ] जब यह जीव अति तीव्र-कषाय सहित होता है, तब यह ही जीव पाप होता है और [उवसमभावेण संजुत्तो] उपशम भाव (मन्द कषाय) सहित होता है तब [जीवो वि पुण्णं हवेइ] यह ही जीव पुण्य होता है ।

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रयणत्तय-संजुत्तारे जीवो वि हवेइ उत्तमं तित्थं
संसारं तरइ जदो रयणत्तय-दिव्व-णावाए ॥191॥
अन्वयार्थ : [जदो] जब यह जीव [रयणत्तयदिव्वणावाए] रत्नत्रयरूप सुन्दर नाव के द्वारा [संसारं तरइ] संसार से तिरता है (पार होता है) तब [जीवो वि] यह ही जीव [रयणचयसंजुचो] रत्नत्रय सहित होता हुआ [उत्तमं तित्थं हवेइ] उत्तम तीर्थ है ।

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+ जीव के भेद -
जीवा हवंति तिविहा बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य
परमप्पा वि य दुविहा अरहंता तह य सिद्धा य ॥192॥
अन्वयार्थ : [जीवा बहिरप्पा तहय अन्तरप्पा य परमप्पा तिविहा हवंति] जीव बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा इस तरह तीन प्रकार के होते हैं [परमप्पा वि य दुविहा अरहता तह य सिद्धा य] और परमात्मा भी अरहन्त तथा सिद्ध इस तरह दो प्रकार के होते हैं ।

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+ बहिरात्मा -
मिच्छत्त-परिणदप्पा तिव्व-कसाएण सुट्ठु आविट्ठो
जीवं देहं एक्कं मण्णंतो होदि बहिरप्पा ॥193॥
अन्वयार्थ : [मिच्छत्तपरिणदप्पा] जो जीव मिथ्यात्वरूप परिणमा हो [तिव्वकसाएण सुठु आविट्ठो] और तीव्र-कषाय (अनन्तानुबन्धी) से अतिशय आविष्ठ अर्थात् युक्त हो इस निमित्त से [जीवं देहं एक्कं मण्णंतो] जीव और देह को एक मानता हो वह जीव [बहिरप्पा होदि] बहिरात्मा होता है ।

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+ अंतरात्मा -
जे जिण-वयणे कुसला भेयं जाणंति जीव-देहाणं
णिज्जिय-दुट्ठट्ठ-मया अंतरप्पा य ते तिविहा ॥194॥
अन्वयार्थ : [जे जिणवयणे कुसलो] जो जीव जिनवचन में प्रवीण हैं [जीवदेहाणं भेयं जाणंति] जीव और देह के भेद को जानते हैं [णिजियदुट्टमया] और जिन्होंने आठ मदों को जीत लिया है [अंतरअप्पा य ते तिविहा] वे अन्तरात्मा हैं जो कि (उत्तम, मध्यम, जघन्य के भेद से) तीन प्रकार के हैं ।

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पंच-महव्वय-जुत्ता धम्मे सुक्के वि संठिदा णिच्चं
णिज्जिय-सयल-पमाया उक्किट्ठा अंतरा होंति ॥195॥
अन्वयार्थ : [पंचमहव्वयजत्ता] जो जीव पांच-महाव्रतों से युक्त हों [णिच्चं धम्मे सुक्के वि संठिदा] नित्य ही धर्म-ध्यान शुक्ल-ध्यान में स्थित रहते हों [णिजियसयलपमाया] और जिन्होंने निद्रा आदि सब प्रमादों को जीत लिया हो [उक्किट्ठा अंतरा होंति] वे उत्कृष्ट अन्तरात्मा होते हैं ।

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सावय-गुणेहिं जुत्ता पमत्त-विरदा य मज्झिमा होंति
जिण-वयणे अणुरत्ता उवसम-सीला महासत्ता ॥196॥
अन्वयार्थ : [जिणवयणे अणुरत्ता] जो जिनवचनों में अनुरक्त हों [उवसमसीला] उपशमभाव (मन्द कषाय) रूप जिनका स्वभाव हो [महासत्ता] महा-पराक्रमी हों, परीषहादिक के सहन करने में दृढ़ हों, उपसर्ग आने पर प्रतिज्ञा से चलायमान नहीं होते हों ऐसे [सावयगुणेहिं जत्ता] श्रावक के व्रत सहित तथा [पमत्तविरदा य मज्झिमा होंति] प्रमत्तविरत गुणस्थानवर्ती मुनि मध्यम अंतरात्मा होते हैं ।

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अविरय -सम्मादिट्ठी होंति जहण्णा विणिंद पय भत्ता
अप्पाणं णिंदंता गुण-गहणे सुट्ठुअणुरत्ता ॥197॥
अन्वयार्थ : [जिणंदपयभत्ता] जिनेन्द्र भगवान के चरणों के भक्त, [अप्पाणं णिदंता] अपने आत्मा की निन्दा करते रहते हैं [गुणगहणे सुठ्ठअणुरत्ता] और गुणों के ग्रहण करने में भलेप्रकार अनुरागी हैं ऐसे [अविरयसम्मद्दिट्ठी] अविरतसम्यग्दृष्टि जीव [जहण्णा होंति] जघन्य अन्तरात्मा हैं ।

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+ परमात्मा -
ससीरा अरहंता केवल-णाणेण मुणिय-सयलत्था
णाण-सरीरा सिद्धा सव्वुत्तम-सुक्ख -संपत्ता ॥198॥
अन्वयार्थ : [केवलणाणेण मुणियसयलत्था] केवलज्ञान से जान लिये हैं सकल पदार्थ जिन्होंने ऐसे [ससरीरा अरहंता] शरीरसहित अरहन्त परमात्मा हैं [सव्वुत्तम सुक्खसंपत्ता] सर्वोत्तम सुख की प्राप्ति जिनको हो गई है तथा [णाणसरीरा सिद्धा] ज्ञान ही है शरीर जिनके ऐसे, (शरीर-रहित) सिद्ध परमात्मा हैं ।

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णीसेस -कम्म-णासे अप्प-सहावेण जा समुप्पत्ती
कम्मज-भाव-खए वि य सा वि य पत्ती परा होदि ॥199॥
अन्वयार्थ : [जो णिस्से पकम्मणासे] जो समस्त कर्मों के नाश होने पर [अप्पसहावेण समुप्पत्ती] अपने स्वभाव से उत्पन्न हो और [कम्मनभावखए वि य] जो कर्मों से उत्पन्न हुए औदयिक आदि भावों का नाश होने पर उत्पन्न हो [सा वि य पत्ती परा होदि] वह भी परा कहलाती है ।

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+ जीव सर्वथा शुद्ध -- का निषेध -
जइ पुण सुद्ध-सहावा सव्वे जीवा अणाइ-काले वि
तो तव-चरण-विहाणं सव्वेसिं णिप्फलं होदि ॥200॥
अन्वयार्थ : [जइ] यदि [सव्वे जीवा अणाइकाले वि] सब जीव अनादिकाल से [सुद्धसहावा] शुद्ध-स्वभाव हैं [तो सव्वेसिं] तो सबही को [तवचरणविहाणं] तपश्चरण विधान [णिप्फलं होदि] निष्फल होता है ।

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ता कह गिण्हदि देहं णाणा-कम्माणि ता कहं कुणदि
सुहिदा वि यदुहिदा वि य णाणा-रूवा कहं होंति ॥201॥
अन्वयार्थ : जो जीव सर्वथा शुद्ध है [ता किह गिण्हदि देहं] तो देह को कैसे ग्रहण करता है ? [णाणाकम्माणि ता कहं कुणदि] नाना प्रकार के कर्मों को कैसे करता है ? [सुहिदा वि य दुविहा वि य] कोई सुखी है कोई दुःखी है [णाणारूवा कहं होंति] ऐसे नानारूप कैसे होते हैं ?

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सव्वे कम्म-णिबद्धा संसरमाणा अणाइ-कालम्हि
पच्छा तोडिय बंधं सिद्धा सुद्धा धुवं होंति ॥202॥
अन्वयार्थ : [सव्वे] सब संसारी जीव [अणाइकालम्हि] अनादिकाल से [कम्माणबद्धा] कर्मों से बँधे हुए हैं [संसरमाणा] इसलिये संसार में भ्रमण करते हैं [पच्छा तोडिय बधं सिद्धा] फिर कर्मों के बन्धन को तोड़कर सिद्ध होते हैं [सुद्धा धुवं होति] तब शुद्ध और निश्चल होते हैं ।

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+ बंध का स्वरूप -
जोअण्णोण्ण-पवेसो जीव-पएसाण कम्म-खंधाणं
सव्व-बंधाण वि लओ सो बंधो होदि जीवस्स ॥203॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [जीवपएमाण कम्मखंधाणं] जीव के प्रदेशों का और कर्मों के स्कन्ध का [अण्णोण्णपवेसो] परस्पर प्रवेश होना (एक क्षेत्ररूप सम्बन्ध होना) और [सव्वबंधाण वि लओ] प्रकृति स्थिति अनुभाग सब बन्धों का लय (एकरूप होना) [ सो] सो [जीवस्स] जीव के [बंधो होदि] प्रदेशबंध होता है ।

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उत्तम-गुणाण धामं सव्व-दव्वाण उत्तमं दव्वं
तच्चाण परम-तच्चं जीवं जाणेह णिच्छयदो ॥204॥
अन्वयार्थ : [उत्तमगुणाण धामं] जीव-द्रव्य उत्तम गुणों का धाम (स्थान) है, ज्ञान आदि उत्तमगुण इसी में हैं [सव्वदव्याण उत्तमं दव्व] सब द्रव्यों में यह ही द्रव्य प्रधान है, सब द्रव्यों को जीव ही प्रकाशित करता है [तच्चाण परमतच्चं जीवं] सब तत्त्वों में परमतत्त्व जीव ही है, अनन्तज्ञान सुख आदि का भोक्ता यह ही है [णिच्छयदो जाणेह] इस तरह से हे भव्य ! तू निश्चयसे जान ।

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अंतर-तच्चं जीवो बाहिर-तच्चं हवंति सेसाणि
णाण-विहीणं दव्वं हियाहियं णेय जाणेदि ॥205॥
अन्वयार्थ : [जीवो अंतरतच्चं] जीव अतंरतत्त्व है [सेसाणि बाहिरतच्चं हवंति] बाकी के सब द्रव्य बाह्यतत्त्व हैं [णाणविहीणं दव्वं] वे द्रव्य ज्ञानरहित हैं [हियाहियं णेय जाणेदि] और हेय-उपादेयरूप वस्तु को नहीं जानते हैं ।

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सव्वो लोयायासो पुग्गल-दव्वेहि सव्वदो भरिदो
सुहुमेहि बायरेहि य णाणा-विह-सत्ति-जुत्तेहिं ॥206॥
अन्वयार्थ : [सव्वो लोयायासो] सब लोकाकाश [णाणाविहसत्तिजरोहिं] नाना प्रकार की शक्तिवाले [सुहमेहिं बायरेहिं य] सूक्ष्म और बादर [पुग्गलदव्वेहिं सव्वदो भरिदो] पुद्गलद्रव्यों से सब जगह भरा हुआ है ।

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जं इंदिएहिं गिज्झं रूवं-रस -गंध-फास-परिणामं
तं चिय पुग्गल-दव्वं अणंत-गुणं जीव-रासीदो ॥207॥
अन्वयार्थ : [जे] जो [रूवरसगंधफासपरिणामं] रूप, रस, गंध, स्पर्श परिणाम स्वरूपसे [ इंदिएहिं गिझं ] इन्द्रियोंके ग्रहण करने योग्य हैं [तं चिय पुग्गलदव्वं ] वे सब पुद्गलद्रव्य हैं [ अणतगुणं जीवरासीदो ] वे संख्यामें जीवराशिसे अनन्तगुणे द्रव्य हैं।

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+ जीव का पुद्गलद्रव्य द्वारा उपकार -
जीवस्स बहु-पयारं उवयारं कुणदि पुग्गलं दव्वं
देहं च इंदियाणि य वाणी उस्सास-णिस्सासं ॥208॥
अन्वयार्थ : [पुग्गलं दव्यं] पुद्गल-द्रव्य [जीवस्स] जीव के [देहं च इंदियाणि य] देह, इन्द्रिय [वाणी उस्सासणिस्सासं] वचन, उच्छ्वास, निस्वास [बहुपयारं उवयारं कुणदि] बहुत प्रकार उपकार करता है ।

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अण्णं पि एवमाई उवयारं कुणदि जाव संसारं
मोह-अणाण-मयं पि य परिणामं कुणदि जीवस्स ॥209॥
अन्वयार्थ : (पुद्गल द्रव्य) [जीवस्स] जीव के [अण्णं पि एवमाई] पूर्वोक्त को आदि लेकर अन्य भी [उवयारं कुणदि] उपकार करता है [जाय संसारं] जब तक इस जीव को संसार है तब तक [मोह अणाणमयं पि य परिणामं कुणदि] मोह परिणाम (पर-द्रव्यों से ममत्त्व परिणाम) अज्ञानमयी परिणाम ऐसे सुख-दुःख, जीवन-मरण आदि अनेक प्रकार करता है ।

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+ जीव का जीव द्वारा उपकार -
जीवा वि दु जीवाणं उवयारं कुणदि सव्व-पच्चक्खं
तत्थ वि पहाण-हेऊ पुण्णं पावं च णियमेणं ॥210॥
अन्वयार्थ : [जीवा वि दु जीवाणं उवयारं कुणदि] जीव भी जीवों के परस्पर उपकार करते हैं [सव्व पञ्चक्खं] यह सब के प्रत्यक्ष ही है (स्वामी सेवक का, सेवक स्वामी का; आचार्य शिष्य का, शिष्य आचार्य का; पिता-माता पुत्र का, पुत्र पिता-माता का: मित्र मित्र का, स्त्री पति का इत्यादि प्रत्यक्ष माने जाते हैं) [तत्थ वि] उस परस्पर उपकार में भी [पुण्णं पावं च णियमेण] पुण्य-पाप कर्म नियम से [पहाणहेऊ] प्रधान कारण हैं ।

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का वि अउव्वा दीसदि पुग्गल-दव्वस्स एरिसी सत्ती
केवल-णाण-सहावो विणासिदो जाइ जीवस्स ॥211॥
अन्वयार्थ : [पुग्गलदव्वस्स] पुद्गल-द्रव्य की [का वि] कोई [एरिसी] ऐसी [अपुव्वा] अपूर्व [सत्ती] शक्ति [दीसदि] दिखाई देती है [जाइ जीव] जिससे जीव का [केवलणाणसहाओ विणासिदो] केवलज्ञान स्वभाव नष्ट हो रहा है ।

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+ धर्म और अधर्म द्रव्य -
धम्ममधम्मं दव्वं गमण-ट्ठाणाण कारणं कमसो
जीवाण पुग्गलाणं बिण्णि वि लोगप्पमाणाणि ॥212॥
अन्वयार्थ : [जीवाण पुग्गलाणं] जीव और पुद्गल इन दोनों द्रव्यों को [गमणट्ठाणाण कारणं कमसो] गमन और अवस्थान ( ठहरना ) में सहकारी अनुक्रम से कारण [धम्ममधम्मं दव्वं] धर्म और अधर्म द्रव्य हैं [विणि वि लोगप्पमाणाणि] ये दोनों ही लोकाकाश परिमाण प्रदेशों को धारण करते हैं ।

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+ आकाश द्रव्य -
सयलाणं दव्वाणं जं दादुं सक्कदे हि अवगासं
तं आयासं दुविहं लोयालोयाण भेएण ॥213॥
अन्वयार्थ : जो [सयलाणं दवाणं] सब द्रव्यों को [अवगासं] अवकाश [दादु सक्कदे] देने को समर्थ है [तं आयासं] उसको आकाश द्रव्य कहते हैं [लोयालोयाण मेयेण दुविहं] वह लोक अलोक के भेद से दो प्रकार का है ।

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सव्वाणं दव्वाणं अवगाहण-सत्ति अत्थि परमत्थं
जह भसम-पाणियाणं जीव-पएसाण बहुयाणं ॥214॥
अन्वयार्थ : [सव्वाणं दवाणं] सब ही द्रव्यों के परस्पर [परमत्थं] परमार्थ से ( निश्चयसे ) [अवगाहणसत्ति अत्थि] अवगाहना देने की शक्ति है [जह भसमपाणियाणं] जैसे भस्म और जल के अवगाहन शक्ति है [जीवपएसाण जाण बहुआणं] वैसे ही जीव के असंख्यात प्रदेशों के जानना चाहिये ।

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जदि ण हवदि सा सत्ती सहाव-भूदा हि सव्व-दव्वाणं
एक्केक्कास-पएसे कह ता सव्वाणि वट्टंति ॥215॥
अन्वयार्थ : [जदि] यदि [सव्वदव्वाणं] सब द्रव्यों के [सहावभूदा] स्वभावभूत [सा सत्ती] वह अवगाहन शक्ति [ण हवदि] न होवे तो [एक्केकास पएसे] एक एक आकाश के प्रदेश में [कह ता सव्वाणि वट्टंति] सब द्रव्य कैसे रहते हैं ।

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+ काल द्रव्य -
सव्वाणं दव्वाणं परिणामं जो करेदि सो कालो
एक्केक्कास-पएसे सो वट्टदि एक्कको चेव ॥216॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [सव्वाणं दव्याणं परिणामं] सब द्रव्यों के परिणाम ( परिणमन-बदलाव ) [करेदि सो कालो] करता है सो काल-द्रव्य है [सो] वह [एक्कासपएसे] एक-एक आकाश के प्रदेश पर [एकिको चेव वदि] एक-एक कालाणु-द्रव्य वर्तता है ।

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णिय-णिय-परिणामाणं णिय-णिय-दव्वं पि कारणं होदि
अण्णं बाहिर-दव्वं णिमित्त-मित्तं वियाणेह ॥217॥
अन्वयार्थ : [णियणियपरिणामाणं णियणियदव्वं पि कारणं होदि] सब द्रव्य अपने अपने परिणमन के उपादान कारण है [अण्णं बाहिरदव्यं] अन्य बाह्य द्रव्य हैं वे अन्य के [णिमित्तमि वियाणेह] निमित्तमात्र जानो ।

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सव्वाणं दव्वाणं जो उवयारो हवेइ अण्णोण्णं
सो चिय कारण-भावो हवदि हु सहयारि-भावेण ॥218॥
अन्वयार्थ : [सव्वाणं दव्याणं जो] सब ही द्रव्यों के जो [अण्णोणं] परस्पर [उवयारो हवेइ] उपकार है [सो चिय] वह [सहयारिभावेण] सहकारीभाव से [कारणभावो हवदि हु] कारणभाव होता है, यह प्रगट है ।

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कालाइ-लद्धि-जुत्ता णाण-सत्तीहि संजुदा अत्था
परिणममाणा हि सयं ण सक्केदे को वि वारेदुं ॥219॥
अन्वयार्थ : [अत्था] सब ही पदार्थ [कालाइलद्धिजत्ता] काल आदि लब्धि सहित [णाणासचीहि संजुदा] अनेक प्रकार की शक्ति सहित हैं [हि सयं परिणममाणा] स्वयं परिणमन करते हैं [को वि वारेदुं ण सक्कदे] उनको परिणमन करते हुए को कोई निवारण करने में समर्थ नहीं है ।

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जीवाण पुग्गलाणं जे सुहुमा बादरा य पज्जाया
तीदाणागद-भूदा सो ववहारो हवे कालो ॥220॥
अन्वयार्थ : [जीवाण पुग्गलाणं] जीव द्रव्य और पुद्गल-द्रव्य के [सुहुमा बादरा य पजाया] सूक्ष्म तथा बादर पर्याय हैं [जे] वे [तीदाणागदभूदा] अतीत हो चुके हैं, अनागत आगामी होएंगे, भूत-वर्तमान हैं [सो ववहारो कालो हवे] सो ऐसा व्यवहार काल होता है ।

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+ कार्य-कारण -
तेसु अतीदा णंता अणंत-गुणिदा य भावि-पज्जाया
एक्को वि वट्टमाणे एत्तिय-मेत्तो वि सो कालो ॥221॥
अन्वयार्थ : [तेसु अतीदा पंता] उन द्रव्यों की पर्यायों में अतीत पर्याय अनन्त हैं [य भाविपजाया अणंतगुणिदा] और अनागत पर्यायें उनसे अनन्तगुणी हैं [एको वि घट्टमाणो] वर्तमान पर्याय एक ही है [एत्तियमिचो वि सो कालो] सो जितनी पर्यायें हैं उतना ही व्यवहारकाल है ।

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पुव्व-परिणाम-जुत्तं कारण-भावेण वट्टदे दव्वं
उत्तर-परिणाम-जुदं तं चिय कज्जं हवे णियमा ॥222॥
अन्वयार्थ : [पुत्रपरिणामज] पूर्व-परिणाम युक्त [दव्वं] द्रव्य [कारणभावेण वट्टदे] कारणरूप है [उत्तरपरिणामजदं तं चिय] और उत्तर-परिणाम युक्त द्रव्य [णियमा] नियम से [कज्ज हवे] कार्यरूप है ।

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कारण-कज्ज-विसेसा तीसु वि कालेसु हुंति वत्थूणं
एक्केक्कम्मि य समए पुव्वुत्तर-भावमासिज्ज ॥223॥
अन्वयार्थ : [वत्थूणं] वस्तुओं के [पुव्वुत्तरभावमासिज्ज] पूर्व और उत्तर परिणाम को पाकर [तिस्सु वि कालेसु] तीनों ही कालों में [एक्के कम्मि य समए] एक एक समय में [कारणकजविसेसा] कारण कार्य के विशेष [होंति] होते हैं ।

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संति अणंताणंता तीसु वि कालेसु सव्व-दव्वाणि
सव्वं पि अणेयंता तत्तो भणिदं जिणेंदेहिं ॥224॥
अन्वयार्थ : [सव्वदव्वाणि] सब द्रव्य [तीसु वि कालेसु] तीनों ही कालों में [अणंताणता] अनन्तानन्त [संति] हैं, अनन्त पर्यायों सहित हैं [तत्तो] इसलिये [जिणेंदेहिं] जिनेन्द्रदेव ने [सव्वं पि अणेयंत] सब ही वस्तुओं को अनेकान्त (अनन्त धर्मस्वरूप) [भणिदं] कहा है ।

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+ अनेकान्तात्मक वस्तु ही अर्थक्रियाकारी -
जं वत्थु अणेयंतं तं चिय कज्जं करेदि णियमेण
बहु-धम्म-जुदं अत्थं कज्ज-करं दीसदे लोए ॥225॥
अन्वयार्थ : [जंवत्थु अणेयंत] जो वस्तु अनेकान्त है (अनेक धर्मस्वरूप है) [तं चिय] सो ही [णियमेण] नियम से [कज्जं करेदि] कार्य करती है [लोए] लोक में [बहुधम्मजुदं अत्थं] बहुत धर्मों से युक्त पदार्थ ही [कज्जकरं दीसदे] कार्य करनेवाले देखे जाते हैं ।

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एयंतं पुणु दव्वं कज्जं ण करेदि लेस-मेत्तं पि
जं पुणु ण करदि कज्जं तं वुच्चदि केरिसं दव्वं ॥226॥
अन्वयार्थ : [एयंतं पुणु दव्वं] एकान्त-स्वरूप द्रव्य [लेसमेत्तं पि] लेशमात्र भी [कज्जं ण करदि] कार्य को नहीं करता है [जं पुणु ण करदि कज्जं] और जो कार्य ही नहीं करता है [तं वुच्चदि केरिसं दव्वं] वह किस रीति से द्रव्य है?

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परिणामेण विहीणं णिच्चं दव्वं विणस्सदे णेव
णो उप्पज्जेदि सया एवं कज्जं कहं कुणदि ॥227॥
अन्वयार्थ : [परिणामेण विहीणं] परिणाम रहित [णिचं दव्वं णेव घिणस्सदे] नित्य द्रव्य नष्ट नहीं होता है [णो उप्पजदि य] और उत्पन्न भी नहीं होता है [कज्जं कहं कुणदि] तब कार्य कैसे करता है [एवं सया] और यदि उत्पन्न व नष्ट होवे तो नित्यपना नहीं ठहरे ।

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पज्जय-मित्तं तच्चं विणस्सरं खणे खणे वि अण्णण्णं
अण्णइ -दव्व-विहीणं ण य क ज्जं किं पि साहिे द ॥228॥
अन्वयार्थ : [विणस्सरं] जो क्षणस्थायी [पज्जयमित्तच्चं] पर्यायमात्र तत्त्व [खणे खणे वि अण्णण्णं] क्षण क्षण में अन्य-अन्य होवे ऐसे विनश्वर मानें तो [अण्णइदव्वविहीणं] अन्वयी-द्रव्य से रहित होता हुआ [किं पि कज्ज ण य साहेदि] कुछ भी कार्य को सिद्ध नहीं करता है ।

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णव-णव-कज्ज-विसेसा तसु वि कालेसु होंति वत्थूणं
एक्केक्कम्मि य समये पुव्वुत्तर-भावमासिज्ज ॥229॥
अन्वयार्थ : [वत्थूणं] जीवादिक वस्तुओं के [तीसु वि कालेसु] तीनों ही कालों में [एक्केक्कम्मि य समये] एक-एक समय में [पुव्वुत्तरभावमासिज्ज] पूर्व-उत्तर परिणाम के आश्रय करके [णवणवकज्जविसेसा] नवीन-नवीन कार्य विशेष [होंति] होते हैं (नवीन-नवीन पर्यायें उत्पन्न होती हैं)

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पुव्व-परिणाम-जुत्तं कारण-भावेण वट्टदे दव्वं
उत्तर-परिणाम-जुदं तं चिय कज्जं हवे णियमा ॥230॥
अन्वयार्थ : [पुव्वपरिणामजुत्] पूर्वपरिणामयुक्त [दव्यं] द्रव्य [कारणभावेण वट्टदे] कारणभाव से वर्तता है [तं चिय] और वह ही द्रव्य [उत्तरपरिणामजुदं] उत्तर-परिणाम युक्त होवे तब [कज्जं हवे] कार्य होता है [णियमा] ऐसा नियम है ।

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+ जीव द्रव्य में अनादिनिधन कार्यकारणभाव -
जीवो अणाइ -णिहणो परिणममाणो हु णव-णवं भावं
सामग्गीसु पवट्टदि क ज्जाणि समासदे पच्छा ॥231॥
अन्वयार्थ : [जीवो अणाइणिहणो] जीव द्रव्य अनादिनिधन है [णवणवं भावं परिणयमाणो हु] वह नवीन नवीन पर्यायरूप प्रगट परिणमता है [सामग्गीसु पवट्ठदि] वह ही पहिले (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की) सामग्री में प्रवृत्त होता है [पच्छा कजाणि समासदे] और बाद में कार्यों को (पर्यायों को) प्राप्त होता है ।

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+ अन्यस्वरूप होकर कार्य करने में दोष -
स-सरूवत्थो जीवो कज्जं साहेदि वट्टमाणं पि
खेत्ते एक्कम्मि ठिदो णिय-दव्वे संठिदो चेव ॥232॥
अन्वयार्थ : [जदि हि] यदि [जीवो] जीव [ससरूवत्थो] अपने स्वरूप में रहता हुआ [अण्णसरूवम्मि गच्छदे] पर स्वरूप में जाय तो [अण्णोण्णमेलणादो] परस्पर मिलने से (एकत्व हो जाने से) [सव्वं] सब द्रव्य [एकसरूवं हवे] एक स्वरूप हो जाय ।

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+ अन्यस्वरूप होकर कार्य करने में दोष -
स-सरूवत्थो जीवो अण्ण-सरूवम्मि गच्छदे जदि हि
अण्णेण्ण-मेलणादो एक्क -सरूवं हवे सव्वं ॥233॥
अन्वयार्थ : [जदि हि] यदि [जीवो] जीव [ससरूवत्थो] अपने स्वरूप में रहता हुआ [अण्णसरूवम्मि गच्छदे] पर स्वरूप में जाय तो [अण्णोण्णमेलणादो] परस्पर मिलने से (एकत्व हो जाने से) [सव्वं] सब द्रव्य [एकसरूवं हवे] एक स्वरूप हो जाय ।

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+ सर्वथा एक-स्वरूप मानने में दोष -
अहवा बंभ-सरूवं एक्कं सव्वं पि भण्णदे जदि हि
चंडाल-बंभणाणं तो ण विसेसो हवे को वि ॥234॥
अन्वयार्थ : [जदि हि अहवा बंभसरूवं एक्कं सव्वं पि मण्णदे] यदि सर्वथा एक ही वस्तु मानकर ब्रह्म का स्वरूप रूप सर्व माना जाय तो [चंडालबंभणाणं तो ण विसेसो हवे कोई] ब्राह्मण और चांडाल में कुछ भी विशेषता (भेद) न ठहरे ।

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+ अणुमात्र तत्त्व को मानने में दोष -
अणु-परिमाणं तच्चं अंस-विहीणं च मण्णदे जदि हि
तो संबंध-अभावो तत्तो वि ण कज्ज-संसिद्धी ॥235॥
अन्वयार्थ : [जदि हि अंसविहीणं अणुपरिमाणं तच्चं मण्णदे] यदि एक वस्तु सर्वगत व्यापक न मानी जाय और अंश-रहित अणु-परिमाण तत्त्व माना जाय [तो संबंधाभावो ततो वि ण कज्जसंसिद्धि] तो दो अंश के तथा पूर्वोत्तर अंश के सम्बन्ध के अभाव से अणुमात्र वस्तु से कार्य की सिद्धी नहीं होती है ।

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+ द्रव्य का एक-अनेकपना -
सव्वाणं दव्वाणं दव्व-सरू वेण होदि एयत्तं
णिय-णिय-गणु -भऐ णहि सव्वाणिवि होंति भिण्णाणि॥236॥
अन्वयार्थ : [सव्वाणं दव्वाणं दव्वसरूवेण एयत्तं होदि] सब ही द्रव्यों के द्रव्य-स्वरूप से तो एकत्व होता है [णियणियगुणमेएण हि सव्वाणि वि भिण्णाणि होंति] और अपने-अपने गुण के भेद से सब द्रव्य भिन्न-भिन्न हैं ।

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+ द्रव्य के गुण-पर्याय स्वभावपना -
जो अत्थो पडिसमयं उप्पाद-व्वय-धुवत्त-सब्भावो
गुण-पज्जय-परिणामो सो संतो भण्णदे समए ॥237॥
अन्वयार्थ : [जो अस्थो पडिसमयं उप्पादव्वधुवत्तसब्भावो] जो अर्थ (वस्तु) समय-समय उत्पाद व्यय ध्रुवत्व के स्वभावरूप है [सो गुणपज्जयपरिणामो सत्तो समये भण्णदे] उसे गुण पर्याय परिणाम स्वरूप सत्त्व सिद्धांत में कहते हैं ।

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+ व्यय-उत्पाद -
पडिसमयं परिणामो पुव्वो णस्सेदि जायदे अण्णो
वत्थु-विणासो पढमो उववादो भण्णदे बिदिरो ॥238॥
अन्वयार्थ : [परिणामो] जो वस्तु का परिणाम [पडिसमयं] समय-समय प्रति [पुव्वो णस्सेदि अण्णो जायदे] पिछला तो नष्ट होता है और अन्य उत्पन्न होता है [पढमो वत्थुविणासो] सो पहली वस्तु का तो नाश (व्यय) है [विदिओ उववादो भण्णदे] और दूसरी उत्पन्न हुई (उत्पाद) कहते हैं ।

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+ द्रव्य-रूप से ध्रुव -
णो उप्पज्जदि जीवो दव्व-सरूवेण णेव णस्सेदि
तं चेव दव्व-मित्तं णिच्चत्तं जाण जीवस्स ॥239॥
अन्वयार्थ : [जीवो दव्वसरूवेण णेय णस्सेदि णो उप्पजदि] जीव-द्रव्य द्रव्य-स्वरूप से न नष्ट होता है और न उत्पन्न होता है [तं चेव दव्वमित्तं जीवस्स णिच्चतं जाण] अतः द्रव्यमात्र से जीव के नित्यत्व जानना चाहिये ।

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+ द्रव्य और पर्याय का स्वरूप -
अण्णइ-रूवं दव्वं विसेस-रूवो हवेइ पज्जावो
दव्वं पि विसेसेण हि उप्पज्जदि णस्सदे सददं ॥240॥
अन्वयार्थ : [अण्णइरूवं दव्वं] जीवादिक वस्तु अन्वयरूप से द्रव्य है [विसेसरूवो पज्जाओ हवे] वह ही विशेषरूप से पर्याय है [विसेसेण हि दव्यं पि सददं उप्पजदि णस्सदे] और विशेषरूप से द्रव्य भी निरन्तर उत्पन्न व नष्ट होता है ।

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+ गुण का स्वरूप -
सरिसो जो परिणामो अणाइ-णिहणो हवे गुणो सो हि
सो सामण्ण-सरू वो उप्पज्जदि णस्सदे णेय ॥241॥
अन्वयार्थ : [जो परिणामो सरिसो अणाइणिहणो सो हि गुणो हवे] जो द्रव्य का परिणाम सदृश (पूर्व उत्तर सब पर्यायों में समान) होता है अनादिनिधन होता है वह ही गुण है [सो सामण्णसरूवो उप्पज्जदि णस्सदे णेय] वह सामान्य-स्वरूप से उत्पन्न व नष्ट भी नहीं होता है ।

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सो वि विणस्सदि जायदि विसेस-रूवेण सव्व-दव्वेसु
दव्व-गुण-पज्जयाणं एयत्तं वत्थु परमत्थं ॥242॥
अन्वयार्थ : [सो वि सव्वदव्वेसु विसेसरूवेण विणस्सदि जायदि] गुण भी द्रव्यों में विशेषरूप से उत्पन्न व नष्ट होता है [दव्वगुणपजयाणं एयत्तं] इस तरह से द्रव्य-गुण-पर्यायों का एकत्व है [परमत्थं वत्थु] ऐसी ही परमार्थभूत वस्तु है ।

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+ विद्यमान या अविद्यमान का उत्पाद? -
जदि दव्वे पज्जाया वि विज्जमाणा तिरोहिदा संति
ता उप्पत्ती विहला पडिपिहिद देवदत्ते व्व ॥243॥
अन्वयार्थ : [जदि दव्वे पज्जाया] जो द्रव्यों में पर्यायें हैं वे [वि विज्जमाणा तिरोहिदा संति] विद्यमान और तिरोहित ढँकी हुई हैं ऐसा माना जाय [ता उप्पत्ती विहला] तो उत्पत्ति कहना विफल है [पडिपिहिदे देवदत्तेव्व] जैसे देवदत्त कपड़े से ढंका हुआ था, कपड़े को हटा देने पर यह कहा जाय कि यह उत्पन्न हुआ ।

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सव्वाणं पज्जयाणं अविज्जमाणाण होदि उप्पत्ती
कालाई-लद्धीए अणाइ-णिहणम्मि दव्वम्मि ॥244॥
अन्वयार्थ : [अणाइणिहणम्मि दव्वम्मि] अनादिनिधन द्रव्यों में [कालाईलद्वीए] कालादि लब्धि से [सव्वाण] सब [अविजमाणाण] अविद्यमान [पजयाणं] पर्यायों की [उत्पत्ती] उत्पत्ति [होदि] होती है ।

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+ द्रव्य-पर्याय के एकत्व में स्याद्वाद -
दव्वाण पज्जयाणं धम्म-विवक्खाए कीरए भेओ
वत्थु-सरूवेण पुणो ण हि भेदो सक्कदे काउं ॥245॥
अन्वयार्थ : [दवाणपज्जयाणं] द्रव्य और पर्यायों के [धम्मविवक्खाइ] धर्म-धर्मी की विवक्षा से [भेओ कीरए] भेद किया जाता है [वत्थुसरूवेण पुणो] वस्तुस्वरूप से [भेओ काऊं ण हि सक्कदे] भेद करने को समर्थ नहीं है ।

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जदि वत्थुदो विभेदो पज्जय-दव्वाण मण्णसे मूढ
तो णिरवेक्खा सिद्धी दोण्हं पि य पावदे णियमा ॥246॥
अन्वयार्थ : [मूढ] हे मूढ़ ! [जदि] यदि तू [पज्जयदव्वाण] द्रव्य और पर्याय के [वत्थुदो विभेदो] वस्तु से भी भेद [मण्णसे] मानता है [तो] तो [दोण्ह पि य] द्रव्य और पर्याय दोनों के [णिरवेक्खा सिद्धी] निरपेक्ष सिद्धी [णियमा] नियम से [पावदे] प्राप्त होती है ।

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+ ज्ञान-अद्वैतवाद का खंडन -
जदि सव्वमेव णाणं णाणा-रूवेहि संठिदं एक्कं
तोण ण वि किं पि विणेयं णेयेण विणा कहं णाणं ॥247॥
अन्वयार्थ : [जदि सव्वमेव एक्कं गाणं] जो सब वस्तुएं एक ज्ञान ही हैं [णाणारूवेहि संठिदं] वह ही अनेक रूपों में स्थित है [तो ण वि किं पि विणेयं] यदि ऐसा माना जाय तो ज्ञेय कुछ भी सिद्ध नहीं होता है [णेयेण विणा कहं णाणं] और ज्ञेय के बिना ज्ञान कैसे सिद्ध होवे ।

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घड-पड-जड-दव्वाणि हि णेय-सरूवाणि सुप्पसिद्धाणि
णाणं जाणेदि जदो अप्पादो भिण्ण-रूवाणि ॥248॥
अन्वयार्थ : [घड़पड़जड़दव्वाणि हि] घट-पट आदि समस्त जड़-द्रव्य [णेयसरूवाणि सुप्पसिद्धाणि] ज्ञेय-स्वरूप से भले-प्रकार प्रसिद्ध हैं [जदो गाणं जाणेदि] क्योंकि ज्ञान उसको जानता है [अप्पादो भिण्णरूवाणि] इसलिये वे आत्मा से (ज्ञान से) भिन्नरूप रहते हैं ।

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जं सव्व-लोय-सिद्धं देहं गेहादि-बाहिरं अत्थं
जो तं पि णाण मण्णदि ण मणु दि सो णाण-णामं पि ॥249॥
अन्वयार्थ : [जं] जो [देहं गेहादिबाहिरं अत्थं] देह गेह आदि बाह्य-पदार्थ [सव्वलोयसिद्धं] सर्व लोक-प्रसिद्ध हैं, उनको भी ज्ञान ही मानें तो [सो णाणणामपि] वह वादी ज्ञान का नाम भी [ण मुणदि] नहीं जानता है ।

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अच्छीहि पिच्छमाणो जीवाजीवादि -बहु-विहं अत्थं
जो भणदि णत्थि किंचि वि सो झुट्ठाणं महा-झुट्ठो ॥250॥
अन्वयार्थ : [जीवाजीवादि बहुविहं अत्थं] जो नास्तिकवादी जीव-अजीव आदि बहुत प्रकार के पदार्थों को [अच्छीहिं पिच्छमाणो] प्रत्यक्ष नेत्रों से देखता हुआ भी [जो भणदि] जो कहता है कि [किंचि वि णत्थि] कुछ भी नहीं है [सो भुट्ठाणं महाझुट्ठो] वह असत्यवादियों में महा-असत्यवादी है ।

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जं सव्वं पि य संतं ता सो वि असंतओ कहं होदि
णत्थि त्ति किंचि तत्तो अहवा सुण्णं कहं मुणदि ॥251॥
अन्वयार्थ : [ज सव्वं पि य संतं] जो सब वस्तुएं सत्-रूप हैं - विद्यमान है [तासो वि असंतो कहं होदि] वे वस्तुएं असत्-रूप (अविद्यमान) कैसे हो सकती हैं [णस्थिति किंचि तत्तो अहवा सुण्णं कहं मुणदि] अथवा कुछ भी नहीं है ऐसा तो शून्य है ऐसा भी किसप्रकार मान सकते हैं ?

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किं बहुणा उत्तेण य जेत्तियमेत्ताणि संति णामाणि ।
तेत्तियमेत्ता अत्था संति ते णियमेण परमत्था ॥२५२॥
अन्वयार्थ : [कि बहुणा उत्तेण य] बहुत कहने से क्या ? [जेतियमेवाणि णामाणि संति] जितने नाम हैं [तित्तियमेत्ता] उतने [हि] ही [णियमेण] नियम से [अत्था] पदार्थ [परमत्था] परमार्थ रूप [संति] हैं ।

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+ ज्ञान का स्वरूप -
णाणाधम्मेहिं जुदं अप्पाणं तह परं पि णिच्छयदो ।
जं जाणेदि सजोगं तं णाणं भण्णदे समए ॥२५३॥
अन्वयार्थ : [जं] जो [णाणाधम्मेहिं जुदं अप्पाणं तह परं पि] अनेक धर्मयुक्त आत्मा तथा परद्रव्यों को [सजोगं जाणेदि] अपने योग्य को जानता है [तं] उसको [णिच्छयदो] निश्चय से [समये] सिद्धान्त में [णाणं भण्णदे] ज्ञान कहते हैं ।

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+ केवल-ज्ञान -
जं सव्वं पि पयसदि दव्वं -पज्जाय-संजुदं लोयं
तह य अलोयं सव्वं तं णाणं सव्व-पच्चक्खं ॥254॥
अन्वयार्थ : [जं] जो (ज्ञान) [दव्यपज्जायसंजदं] द्रव्य-पर्याय संयुक्त [सव्वं पि] सब ही [लोयं] लोक को [तह य सव्वं अलोयं] तथा सब अलोक को [पयासदि] प्रकाशित करता है [तं सव्वपञ्चक्खं णाणं] वह सर्वप्रत्यक्ष ज्ञान (केवलज्ञान) है ।

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सव्वं जाणदि जम्हा सव्व-गयं तं पि वुच्चदे तम्हा
ण य पुण विसरदि णाणं जीवं चइऊण अण्णत्थ ॥255॥
अन्वयार्थ : [जम्हा सव्वं जाणदि] क्योंकि ज्ञान सब (लोकालोक) को जानता है [तम्हा तं पि सव्यगयं वुच्चदे] इसलिये ज्ञान को सर्वगत भी कहते हैं [पुण] और [णाणं जीवं चइऊण अण्णत्थ] ज्ञान जीव को छोड़कर अन्य ज्ञेय पदार्थों में [ण य विसरदि] नहीं जाता है ।

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णाणं ण जादि णेयं णेयं पि ण जादि णाण-देसम्मि
णिय-णिय-देस-ठियाणं ववहारो णाण-णेयाणं ॥256॥
अन्वयार्थ : [णाणं णेयं ण जादि] ज्ञान ज्ञेय में नहीं जाता है [णेयं पि णाणदेसम्मि ण जादि] और ज्ञेय भी ज्ञान के प्रदेशों में नहीं जाता है [णियणियदेसठियाणं] अपने-अपने प्रदेशों में रहते हैं तो भी ज्ञान और ज्ञेय के ज्ञेय-ज्ञायक व्यवहार है ।

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+ क्षायोपशमिक ज्ञान की सामर्थ्य -
मण-पज्जय-विण्णाणं आहेी-णाणं च दसे -पच्चक्खं
मदि-सिु द -णाणं क मसो विसद -पराक्े खं पराक्े खंच॥257॥
अन्वयार्थ : [मणपजयविण्णाणं ओहीणाणं च देसपञ्चक्खं] मनःपर्ययज्ञान और अवधिज्ञान ये दोनों तो देशप्रत्यक्ष है [मइसुयणाणं कमसो विसदपरोक्खं परोक्खं च] मतिज्ञान और श्रुतज्ञान क्रम से विशद-परोक्ष और परोक्ष हैं ।

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+ इन्द्रिय ज्ञान -
इंदियजं मदि-णाणं जोग्गं जाणेदि पुग्गलं दव्वं
माणस-णाणं च पुणो सुय-विसयं अक्ख-विसयं च ॥258॥
अन्वयार्थ : [इंदियजं मदिणाणं] इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ मतिज्ञान [जोग्गं पुग्गलं दव्यं जाणेदि] अपने योग्य विषय जो पुद्गल-द्रव्य उसको जानता है । [माणसणाणं च पुणो] और मन-सम्बन्धी ज्ञान [सुयविसयंअक्खविसयं च] श्रुतविषय (शास्त्र का वचन सुनकर उसके अर्थ को जानता है) और इन्द्रियों से जानने योग्य विषय को भी जानता है ।

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पंचिंदिय -णाणाणं मज्झे एगं च होदि उवजुत्तं
मण-णाणे उवजुत्तो इंदिय-णाणं ण जाणेदि ॥259॥
अन्वयार्थ : [पंचेदियणाणाणं मज्झे एगं च उवजुत्तं होदि] पांचों ही इन्द्रियों से ज्ञान होता है लेकिन एक काल एकेन्द्रिय-द्वार से ज्ञान उपयुक्त होता है (पाँचो ही एक काल उपयुक्त नहीं होते हैं)[मणणाणे उवजुत्ते] और जब मन ज्ञान से उपयुक्त हो [इंदियणाणं ण जाणेदि] तब इन्द्रिय-ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है।

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एक्के काले एक्कं णाणं जीवस्स होदि उवजुत्तं
णाणा-णाणाणि पुणो लद्धि-सहावेण वुच्चंति ॥260॥
अन्वयार्थ : [जीवस्स एक्के काले एगं णाणं उवजुत्तं होदि] जीव के एक काल में एक ही ज्ञान उपयुक्त (उपयोग की प्रवृत्ति) होता है [पुणो लद्धिसहावेण णाणाणाणाणि वुच्चंति] और लब्धि-स्वभाव से एक-काल में अनेक ज्ञान कहे गये हैं ।

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जं वत्थु अणेयंतं एयंतं तं पि होदि सविपेक्खं
सुय-णाणेण णएहि य णिरवेक्खं दीसदे णेव ॥261॥
अन्वयार्थ : [जं वत्थु अणेयंत] जो वस्तु अनेकान्त है [तं सविपेक्खं एयंतं पि होदि] वह अपेक्षा-सहित एकान्त भी है [सुयणाणेण णयेहि य णिरवेक्खं दीसदे णेव] श्रुतज्ञान प्रमाण से सिद्ध किया जाय तो अनेकान्त ही है और श्रुतज्ञान प्रमाण के अंश, नयों से सिद्ध किया जाय तब एकान्त भी है, वह अपेक्षा-रहित नहीं है क्योंकि निरपेक्ष नय मिथ्या हैं, निरपेक्षा से वस्तु का रूप नहीं देखा जाता है ।

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सव्वं पि अणेयंतं परोक्ख-रूवेण जं पयासेदि
तं सुय-णाणं भण्णदि संसय-पहुदीहि परिचत्तं ॥262॥
अन्वयार्थ : [जं सव्वं पि अणेयंत परोक्खरूवेण पयासेदि] जो ज्ञान सब वस्तुओं को अनेकान्त, परोक्षरूप से प्रकाशित करता है - जानता है - कहता है और जो [संसयपहुदीहि परिचरां] संशय विपर्यय अनध्यवसाय से रहित है [तं सुयणाणं भण्णदि] उसको श्रुतज्ञान कहते हैं ।

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लोयाणं ववहारं धम्म-विवक्खाइं जो पसाहेदि
सुय-णाणस्स वियप्पो सो वि णओ लिंग-संभूदो ॥263॥
अन्वयार्थ : [जो लोयाणं ववहारं] जो लोकव्यवहार को [धम्मविवक्खाइ पसाहेदि] वस्तु के एक धर्म की विवक्षा से सिद्ध करता है [सुयणाणस्स वियप्पो] श्रुतज्ञान का विकल्प (भेद) है [लिंगसंभूदो] लिंग से उत्पन्न हुआ है [सो वि णो] वह नय है ।

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णाणा-धम्म-जुदं पि य एयं धम्मं पि वुच्चदे अत्थं
तस्सेय -विवक्खादो णत्थि विवक्खा हु सेसाणं ॥264॥
अन्वयार्थ : [णाणधम्मजुदं पि य एयं धम्म पि वुच्चदे अत्थं] अनेक धर्मों से युक्त पदार्थ हैं तो भी एक धर्मरूप पदार्थ को कहता है [तस्सेयविवक्खादो हु सेसाणं विवक्खा णथि] क्योंकि जहाँ एक धर्म की विवक्षा करते हैं वहाँ उस ही धर्म को कहते हैं अवशेष (बाकी) सब धर्मों की विवक्षा नहीं करते हैं ।

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सो चिय एक्को धम्मो वाचय-सद्दो वि तस्स धम्मस्स
जं जाणदि तं णाणं ते तिण्णि वि णय-विसेसा य ॥265॥
अन्वयार्थ : [सो चिय इक्को धम्मो] जो वस्तु का एक धर्म [तस्स धम्मस्स वाचयसद्दो वि] उस धर्म का वाचक शब्द [तं जाणदि तं गाणं] और उस धर्म को जाननेवाला ज्ञान [ते तिणि वि णयविसेसा य] ये तीनों ही नय के विशेष हैं ।

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ते सावेक्खा सुणया णिरवेक्खा ते वि दुण्णया होंति
सयल-ववहार -सिद्धी सु-णयादो होदि णियमेण ॥266॥
अन्वयार्थ : [ते सावेक्खा सुणय] वे पहिले कहे हुए तीन प्रकार के नय परस्पर में अपेक्षा-सहित होते हैं तब तो सुनय हैं [णिरवेक्खा ते वि दुण्णया होति] और वे ही जब अपेक्षा-रहित सर्वथा एक-एक ग्रहण किये जाते हैं तब दुर्नय हैं [सुणयादो सयलववहारसिद्धी एियमेण होदि] और सुनयों से सर्व-व्यवहार वस्तु के स्वरूप की सिद्धि नियम से होती है ।

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जं जाणिज्जइ जीवो इंदिय-वावार-काय-चिट्ठाहिं
तं अणुमाणं भण्णदि तं पि णयं बहु-विहं जाण ॥267॥
अन्वयार्थ : [जं इंदियवावारकायचिट्ठाहिं जीवो जाणिजइ] जो इन्द्रियों के व्यापार और काय की चेष्टाओं से शरीर में जीव को जानते हैं [तं अणुमाणं भण्णदि] उसको अनुमान प्रमाण कहते हैं [तं पि जयं बहुविहं जाण] वह अनुमान ज्ञान भी नय है और अनेक प्रकार का है ।

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सो संगहेण एक्को दु-विहो वि य दव्व-पज्जएहिंतो
तेसिं च विसेसादो णइगम -पहुदी हवे णाणं ॥268॥
अन्वयार्थ : [सो संगहेण एको] वह नय संग्रह करके कहिये तो (सामान्यतया) एक है [य दव्यपजएहिंतो दुविहो वि] और द्रव्यार्थिक पर्यायाथिक के भेद से दो प्रकार का है [तेसिं च विसेसादो णइगमपहुदी गाणं हवे] और विशेषकर उन दोनों की विशेषता से नैगमनय को आदि देकर हैं सो नय हैं और वे ज्ञान ही हैं ।

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+ द्रव्यार्थिक नय -
जो साहदि सामण्णं अविणा-भूदं विसेस-रूवेहिं
णाणा-जुत्ति-बलादो दव्वत्थो सो णओ होदि ॥269॥
अन्वयार्थ : [जो] जो नय वस्तु को [विसेसरूवेहिं] विशेषरूप से [अविणाभूदं] अविनाभूत [सामण्णं] सामान्य स्वरूप को [णाणाजत्तिवलादो] अनेक प्रकार की युक्ति के बलसे [साहदि] सिद्ध करता है [सो दव्वत्थो णओ होदि] वह द्रव्यार्थिक नय है ।

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+ पर्यायाथिक नय -
जो साहेदि विसेसे बहु-विह-सामण्ण-संजुदे सव्वे
साहण-लिंग-वसादो पज्जय- विसओ णओ होदि ॥270॥
अन्वयार्थ : [जो] जो नय [बहुविहसामण्ण संजदे सव्वे विसेसे] अनेक प्रकार सामान्य सहित सर्व विशेष को [साहणलिंगवसादो साहेदि] उनके साधन के लिंग के वश से सिद्ध करता है [पजयविसओ होदि] वह पर्यायाथिक नय है ।

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+ नैगम नय -
जो साहेदि अदीदं वियप्प-रूवं भविस्समट्ठं च
संपडि-कालाविट्ठं सो हु णओ णेगमो णेओ ॥271॥
अन्वयार्थ : [जो] जो नय [अदीदं] अतीत [भविस्समट्ठच] भविष्यत [संपडिकालाविट्ठ] तथा वर्तमान को [वियप्परूवं साहदि] संकल्पमात्र सिद्ध करता है [सो हु णओणेगमो णेयो] वह नैगम नय है ।

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+ संग्रह नय -
जो संगहेदि सव्वं देसं वा विविह-दव्व-पज्जायं
अणुगम-लिंग-विसिट्ठं सो वि णओ संगहो होदि ॥272॥
अन्वयार्थ : [जो] जो नय [सव्वं] सब वस्तुओं को [वा] तथा [देशं] देश अर्थात् एक वस्तु के भेदों को [विविहदव्वपञ्जायं] अनेक प्रकार द्रव्य-पर्याय सहित [अणुगमलिंगविसिटुं] अवन्य लिंग से विशिष्ट [संगहेदि] संग्रह करता है - एक स्वरूप कहता है [सो वि गयो संगहो होदि] वह संग्रह नय है ।

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+ व्यवहार नय -
जं संगहेण गहिदं विसेस-रहिदं पि भेददे सददं
परमाणू पज्जंतं ववहार-णओ हवे सो हु ॥273॥
अन्वयार्थ : [जो] जिस नय ने [संगहेण] संग्रह नय से [विसेसरहिदं पि] विशेष-रहित वस्तु को [गहिदं] ग्रहण किया था उसको [परमारगूपज्जतं] परमाणु पर्यन्त [सददं] निरन्तर [भेददे] भेदता है [सो हु ववहारणओ हवे] वह व्यवहार नय है ।

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+ ऋजुसूत्र नय -
जो वट्टमाण-काले अत्थ-पज्जाय-परिणदं अत्थं
संतं साहदि सव्वं तं पि णयं उज्जुयं जाण ॥274॥
अन्वयार्थ : [जो वट्टमाणकाले] जो नय वर्तमान काल में [अस्थपजायपरिणदं अस्थं] अर्थ पर्यायरूप परिणत पदार्थ को [सव्वं संतं साहदि] सबको सत्-रूप सिद्ध करता है [तं वि णयं रिजुणयं जाण] वह ऋजुसूत्र नय है ।

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+ शब्द-नय -
सव्वेसिं वत्थूणं संखा-लिंगादि-बहु-पयारेहिं
जो साहदि णाणत्तं सद्द-णयं तं वियाणेह ॥275॥
अन्वयार्थ : [जो सव्वेसि वत्थूणं] जो नय सब वस्तुओं के [संखालिंगादिबहुपयारेहिं] संख्या लिंग आदि अनेक प्रकार से [णाण] अनेकत्व को [साहदि] सिद्ध करता है [तं सद्दणयं वियाणेह] उसको शब्द-नय जानना चाहिये ।

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+ समभिरूढ नय -
जो एगेगं अत्थं परिणदि-भेदेण साहदे णाणं
मुक्खत्थं वा भासदि अहिरूढं तं णयं जाण ॥276॥
अन्वयार्थ : [जो अत्थं] जो नय वस्तु को [परिणदिभेदेण एगेगं साहदे] परिणाम के भेद से एक-एक भिन्न-भिन्न भेद रूप सिद्ध करता है [वा मुक्खत्थं भासदि] अथवा उनमें मुख्य अर्थ ग्रहण कर सिद्ध करता है [तं अहिरूढं णयं जाण] उसको समभिरूढ नय जानना चाहिये ।

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+ एवंभूत नय -
जेण सहावेण जदा परिणद -रूवम्मि तम्मयत्तादो
तं परिणामं साहदि जो वि णओ सो हु परमत्थो ॥277॥
अन्वयार्थ : [जदा जेण सहावेण] वस्तु जिससमय जिस स्वभाव से [परिणदरूवम्मि तम्मयत्तादो] परिणमनरूप होती है उस समय उस परिणाम से तन्मय होती है [तप्परिणाम साहदि] इसलिये उस ही परिणामरूप सिद्ध करती है - कहती है [जो वि णओ] वह एवंभूत नय है [सो हु परमत्थो] यह नय परमार्थरूप है ।

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एवं विविह-णएहिं जो वत्थुं ववहरेदि लोयम्मि
दंसण-णाण-चरित्तं सो साहदि सग्ग मोक्खं च ॥278॥
अन्वयार्थ : [जो] जो पुरुष [लोयम्मि] लोक में [एवं विविहणएहिं] इस तरह अनेक नयों से [वत्थू ववहरेदि] वस्तु को व्यवहाररूप कहता है, सिद्ध करता है और प्रवृत्ति कराता है [सो] वह पुरुष [दसणणाणचरितं] दर्शन-ज्ञान-चारित्र को [च] और [सग्गमोक्खं] स्वर्ग-मोक्ष को [साहदि] सिद्ध (प्राप्त) करता है ।

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विरला णिसुणहि तच्चं विरला जाणंति तच्चदो तच्चं
विरला भावहि तच्चं विरलाणं धारणा होदि ॥279॥
अन्वयार्थ : [विरला तच्चं णिसुणहि] संसार में विरले पुरुष तत्त्व को सुनते हैं [तच्च तच्चदो विरला जाणंति] सुनकर भी तत्त्व को यथार्थ विरले ही जानते हैं [विरला तचं भावहिं] जानकर भी विरले ही तत्त्व की भावना (बारम्बार अभ्यास) करते हैं [विरलाणं धारणा होदि] अभ्यास करने पर भी तत्त्व की धारणा विरलों के ही होती है ।

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तच्चं कहिज्जमाणं णिच्चल-भावेण गिण्हदे जो हि
तं चिय भावेदि सया सो वि य तच्चं वियाणेइ ॥280॥
अन्वयार्थ : [जो] जो पुरुष [कहिजमाणं तच्चं] गुरुओं के द्वारा कहे हुए तत्त्वों के स्वरूप को [णिच्चलभावेण गिण्हदे] निश्चल-भाव से ग्रहण करता है [तं चिय भावेदि सया] अन्य भावनाओं को छोड़कर उसी की निरन्तर भावना करता है [सो वि य तच्चवियाणेए] वह ही पुरुष तत्त्व को जानता है ।

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को ण वसो इत्थि-जणे कस्स ण मयणेण खंडियं माणं
को इंदिएहिं ण जिओ को ण कसाएहि संतत्तो ॥281॥
अन्वयार्थ : [इत्थिजणे वसो को ण] इस लोक में स्त्रीजन के वश कौन नहीं है ? [कस्स ण मयणेण खंडियं माणं] काम से जिसका मन खण्डित न हुआ हो ऐसा कौन है ? [को इंदिएहिं ण जिओ] जो इन्द्रियों से न जीता गया हो ऐसा कौन है ? [को ण कसाएहिं संतचो] और कषायों से तप्तायमान न हो ऐसा कौन है ?

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सो ण वसो इत्थि-जणे सो ण जिओ इंदिएहि मोहेण
जो ण य गिण्हदि गंथं अब्भंतर -बाहिरं सव्वं ॥282॥
अन्वयार्थ : [जो] जो पुरुष तत्त्व का स्वरूप जानकर [अब्भंतर बाहिरं सव्वं गंथं ण य गिण्हदि] बाह्य और अभ्यन्तर सब परिग्रह को ग्रहण नहीं करता है [सो ण वसो इत्थिजणे] वह पुरुष स्त्रीजन के वश में नहीं होता है [सो ण जियो इंदिएहिं मोहेण] वह ही पुरुष इन्द्रियों से और मोह कर्म से पराजित नहीं होता है ।

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एवं लोय-सहावं जो झायदि उवसमेक्क -सब्भावो
सो खविय कम्म-पुंजं तिल्लोय -सिहामणी होदि ॥283॥
अन्वयार्थ : [जो] जो पुरुष [एवं लोयसहावं] इसप्रकार लोक के स्वरूप को [उसमेक्कसब्भावो] उपशम से एक स्वभावरूप होता हुआ [झायदि] ध्याता है (चितवन करता है) [सो कम्मपुंज खविय] वह पुरुष कर्म-समूह का नाश करके [तस्सेव सिहामणी होदि] उस ही लोक का शिखामणि होता है ।

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बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा


जीवो अणंत-कालं वसइ णिगोएसु आइ-परिहीणो
तत्तो णिस्सरिदूणं पुढवी-कायादिओ होदि ॥284॥
जीवो अणंत-कालं वसइ णिगोएसु आइ-परिहीणो
तत्तो णिस्सरिदूणं पुढवी-कायादिओ होदि ॥284॥
अन्वयार्थ : [जीवो आइपरिहीणो अणंतकालं णिगोएसु वसइ] यह जीव अनादिकाल से लेकर संसार में अनन्तकाल तक तो निगोद में रहता है [तत्वो णीस्सरिऊगं पुढेवीकायादिभो होदि] वहाँ से निकलकर पृथ्वीकायादिक पर्याय को धारण करता है ।

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तत्थ वि असंख-कालं बायर-सुहुमेसु कुणइ परियत्तं
चिंतामणि व्व दुलहं तसत्तणं लहदि कट्ठेण ॥285॥
अन्वयार्थ : [तत्थ वि बायरसुहमेसु असंखकालं परियत्तं कुणइ] वहाँ पृथिवीकाय आदि में सूक्ष्म तथा बादरों में असंख्यात काल तक भ्रमण करता है [तमत्तण चिंतामणि व्व कट्ठण दुलहं लहदि] वहां से निकलकर त्रसपर्याय पाना चिंतामणि रत्न के पाने के समान दुर्लभ है।

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वियलिंदिएसु जायदि तत्थवि अच्छेदि पुव्व-कोडीओ
तत्तो णिस्सरिदूणं कहमवि पंचिंदिओ होदि ॥286॥
अन्वयार्थ : [वियलिंदिएसु जायदि] स्थावर से निकल कर त्रस होय तब बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय. चौइन्द्रिय शरीर पाता है [तत्थ वि पुव्वोकोडियो अच्छेदि] वहाँ भी कोटिपूर्व समय तक रहता है [तत्तो णीसरिदणं कहमवि पंचिंदिओ होदि] वहाँ से भी निकल कर पंचेन्द्रिय शरीर पाना बड़ा दुर्लभ है ।

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सो वि मणेण विहीणो ण य अप्पाणं परं पि जाणेदि
अह मण-सहिदो होदि हु तह वि तिरिक्खो हवे रुद्दो ॥287॥
अन्वयार्थ : [सो वि मणेण विहीणो] विकलत्रय से निकलकर पंचेन्द्रिय भी होवे तो असैनी (मन रहित) होता है [अप्पाणं परं पि ण य जाणेदि] आप और पर का भेद नहीं जानता सकता है [अह मणसहिदो होदि हु] यदि मनसहित (सैनी) भी होवे तो [तह वि तिरिक्खो हवे] तिर्यंच होता है [रुद्दो] रौद्र परिणामी बिलाव, घूघू (उल्लू) सर्प, सिंह, मच्छ आदि होता है ।

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सो तिव्व-असुह लेसो णरये णिवडेइ दुक्खदे भीमे
तत्थ वि दुक्खं भुंजदि सारीरं माणसं पउरं ॥288॥
अन्वयार्थ : [सो तिव्वअसुहलेसो दुक्खदे भीमे णरये णिवडेइ] वह क्रूर तिर्यंच तीव्र अशुभ परिणाम और अशुभ लेश्या सहित मरकर दुःखदायक भयानक नरक में गिरता है [तत्थ वि सारीरं माणसं पउरं दुक्खं भुजदि] वहाँ शरीर-सम्बन्धी तथा मन-सम्बन्धी प्रचुर दुःख भोगता है ।

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तत्तो णिस्सरिदूणं पुणरवि तिरिएसु जायदे पावो
तत्थ वि दुक्खमणंतं विसहदि जीणो अणेयविहं ॥289॥
अन्वयार्थ : [तत्तो णीसरिदूणं पुणरवि तिरिएसु जायदे] उस नरक से निकलकर फिर भी तिर्यंचगति में उत्पन्न होता है [तत्थ वि पावो जीवो अणेयविहं अणंतं दुक्खं विसहदि] वहाँ भी पापरूप जैसे हो वैसे यह जीव अनेक प्रकार का अनन्त दुःख विशेषरूप से सहता है ।

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रयणं चलप्पहे पिव मणुयत्तं सुट्ठु दुल्लहं लहिय
मिच्छो हवेइ जीवो तत्थ वि पावं समज्जेदि ॥290॥
अन्वयार्थ : [रयणं चउप्पहे पिव मणुअरा सुट्ठ दुल्लहं लहिय] जैसे चौराहे में पड़ा हुआ रत्न बड़े भाग्य से हाथ लगता है वैसे ही तिर्यंच से निकलकर मनुष्यगति पाना अत्यन्त दुर्लभ है [तत्थ वि जीवो मिच्छो हवेइ पावं समज्जेदि] ऐसा दुर्लभ मनुष्य-शरीर पाकर भी मिथ्यादृष्टि हो पाप ही करता है ।

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अह लहदि अज्जवत्तं तह ण वि पावेइ उत्तमं गोत्तं
उत्तम-कुले वि पत्ते धण-हीणो जायदे जीवो ॥291॥
अन्वयार्थ : [अह लहदि अजवंत] मनुष्यपर्याय पाकर यदि आर्य-खण्ड में भी जन्म पावे तो [तह वि उत्तम गोत्तं ण पावेइ] उत्तम गोत्र (ऊँच कुल) नहीं पाता है [उत्तम कुले वि पत्ते] यदि ऊँच कुल भी प्राप्त हो जाय तो [जीवो धणहीणो जायदे] यह जीव धनहीन दरिद्री हो जाता है उससे कुछ सुकृत नहीं बनता है, पाप ही में लीन रहता है ।

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अह धण-सहिदो होदि हु इंदिय-परिपुण्णदा तदो दुलहा
अह इंदिय-संपुण्णे तह वि सरोओ हवे देहो ॥292॥
अन्वयार्थ : [अह धनसहिओ होदि हु] यदि धन सहित भी होवे [तदो इन्दियपरिपुण्णदा दुलहा] तो इन्द्रियों की परिपूर्णता पाना अत्यन्त के दुर्लभ है [अह इन्दिय संपुण्णो] यदि इन्द्रियों की सम्पूर्णता भी पावे [तह वि देहो सरोओ हवे] तो देह रोग-सहित पाता है, निरोग होना दुर्लभ है ।

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अह णीरोओ होदि हु तह वि ण पावेदि जीवियं सुइरं
अह चिर-कालं जीवदि तो सीलं णेव पावेदि ॥293॥
अन्वयार्थ : [अह णीरोओ होदि हु] यदि निरोग भी हो जाय [तह वि सहरं जीवियं ण पावेइ] तो दीर्घ जीवन (आयु) नहीं पाता है, इसका पाना दुर्लभ है [अह चिरकालं जीवदि] यदि चिरकाल तक जीता है [तो सीलं णेव पावेइ] तो शील (उत्तम प्रकृति-भद्र परिणाम) नहीं पाता है क्योंकि उत्तम स्वभाव पाना दुर्लभ है ।

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अह होदि सील-जुत्तो तो वि ण पावेइ साहु-संसग्गं
अह तं पि कह वि पावदि सम्मत्तं तह वि अइदुलहं ॥294॥
अन्वयार्थ : [अह सीलजत्तो होदि] यदि शील (उत्तम) स्वभाव सहित भी हो जाता है [तह वि साहुसंमग्गं ण पावेइ] तो साधु पुरुषों का संसर्ग (संगति) नहीं पाता है [अह तं पि कह वि पावदि] यदि वह भी पा जाता है [तह वि सम्मत्वं अइदुलह] तो सम्यक्त्व पाना (श्रद्धान होना) अत्यन्त दुर्लभ है ।

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सम्मत्ते वि य लद्धे चारित्तं णेय गिण्हदे जीवो
अह कह वि तं पि गिण्हदि तो पालेदुं ण सक्केदि ॥295॥
अन्वयार्थ : [सम्मत्रो वि य लद्धे] यदि सम्यक्त्व भी प्राप्त हो जाय तो [जीवो चारित्तं णेव गिण्हदे] यह जीव चारित्र ग्रहण नहीं करता है [अह कह वि तं पि गिण्हदि] यदि चारित्र भी ग्रहण करले [तो पालेदु ण सक्केदि] तो उसको पाल नहीं सकता है ।

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रयणत्तये वि लद्धे तिव्व-कसायं करेदि जइ जीवो
तो दुग्गईसु गच्छदि पणट्ठ-रयणत्तओ होउं ॥296॥
अन्वयार्थ : [जइ जीवो] यदि यह जीव [रयणतये वि लद्धे] रत्नत्रय भी पाता है [तिब्धकसायं करेदि] और तीव्र-कषाय करता है [तो] तो [पणदुरयणतओ होऊ] रत्नत्रय का नाश करके [दुग्गईसु गच्छदि] दुर्गतियों में जाता है ।

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रयणु व्व जलहि-पडियं मणुयत्तं तं पि होदि अइदुलहं
एवं सुणिच्छइत्ता मिच्छ-कसाए य वज्जेह ॥297॥
अन्वयार्थ : [जलहि पडियं रयणु व्व मणुयत्तं तं पि होदि अइदुलहं होइ] समुद्र में गिरे हुए रत्न को प्राप्ति के समान मनुष्यत्व की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है [एवं सुणिच्छइत्ता] ऐसा निश्चय करके हे भव्य जीवों ! [मिच्छाकसाये य वज्जेह] मिथ्यात्व और कषायों को छोड़ो ।

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अहवा देवो होदि हु तत्थ वि पावेदि कह व सम्मत्तं
तो तव-चरणं ण लहदि देस-जमं सील-लेसं पि ॥298॥
अन्वयार्थ : [अहवा देवो होदि हु] अथवा मनुष्यत्व में कदाचित् शुभ-परिणाम होने से देव भी हो जाय [तत्थ वि कह व सम्मत्तं पावेदि] और वहाँ कदाचित् सम्यक्त्व भी पा लेवे [तो तवचरणं ण लहदि] तो वहाँ तपश्चरण चारित्र नहीं पाता है [देसजम सीललेसं पि] देशव्रत (श्रावकव्रत) शीलवत (ब्रह्मचर्य अथवा सप्तशील) का लेश भी नहीं पाता है ।

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मणुव-गईए वि तओ मणुव-गईए महव्वदं सयलं
मणुव-गदीए झाणं मणुव-गदीए वि णिव्वाणं ॥299॥
अन्वयार्थ : [मणुवगईए वि तओ] हे भव्य जीवों ! इस मनुष्यगति में ही तप का आचरण होता है [मणुवुगईए सयलं महव्वदं] इस मनुष्य गति में ही समस्त महाव्रत होते हैं [मणुवगईए झाणं] इस मनुष्यगति में ही धर्म-शुक्ल ध्यान होते हैं [मणुवगईए वि णिवाणं] और इस मनुष्यगति में ही निर्वाण (मोक्ष) की प्राप्ति होती है ।

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इय दुलहं मणुयत्तं लहिऊणं जे रमंति विसएसु
ते लहियं दिव्व-रयणं भूइ -णिमित्तं पजालंति ॥300॥
अन्वयार्थ : [इय दुलहं मणुय लहिऊणं जे विसएसु रमन्ति] ऐसा यह दुर्लभ मनुष्यत्व पाकर भी जो इन्द्रियों के विषयों में रमण करते हैं [ते दिव्यरयणं लहिय भूइणिमित्तं पजालंति] वे दिव्य (अमूल्य) रत्न को पाकर, भस्म के लिये दग्ध करते हैं - जलाते हैं।

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-incomplete-

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इय सव्व-दुलह-दुलहं दंसण-णाणं तहा चरित्तं च
मुणिऊण य संसारे महायरं कुणह तिण्हं पि ॥301॥
अन्वयार्थ : [इय] इसप्रकार [संसारे] संसार में [दंसण णाणं तहा चरित्तं च] दर्शन ज्ञान और चारित्र को [सव्वदुलहदुलहं] सब दुर्लभ से भी दुर्लभ (अत्यन्त दुर्लभ) [मणिउण य] जानकर [तिण्हं ति] दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनों में हे भव्यजीवों ! [महायरं कुणह] बड़ा आदर करो ।

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धर्म अनुप्रेक्षा


जो जाणदि पच्चक्खं तियाल-गुण-पज्जएहिं संजुत्तं
लोयालोयं सयलं सो सव्वण्हू हवे देवो ॥302॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [सयलं] समस्त [लोयालोयं] लोक और अलोक को [तियालगुणपजएहि संजुत्तं] तीन-काल गोचर समस्त गुण पर्यायों से संयुक्त [पञ्चक्खं] प्रत्यक्ष [जाणदि] जानता है [सो सव्वण्हू देओ हवे] वह सर्वज्ञ देव है ।

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जदिण हवदि सव्वण्हू ता को जाणदि अदिंदियं अत्थं
इंदिय-णाणं ण मुणदि थूलं पि असेस-पज्जायं ॥303॥
अन्वयार्थ : [जदि सव्वण्हू ण हवदि] हे सर्वज्ञ के अभाववादियों ! यदि सर्वज्ञ नहीं होवे [ता अदिदियं अत्थं को जाणदि] तो अतीन्द्रिय पदार्थ ( जो इन्द्रियगोचर नहीं है ) को कौन जानता ? [इंदियणाणं] इन्द्रियज्ञान तो [थूलं] स्थूल पदार्थ ( इन्द्रियोंसे सम्बन्धरूप वर्तमान ) को जानता है [असेस पजायं पिण मुणदि] उसकी समस्त पर्यायों को भी नहीं जानता ।

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तेणुवइट्ठो धम्मो संगासत्ताण तह असंगाणं
पढमो बारह-भेओ दह-भेओ भासिओ बिदिओ ॥304॥
अन्वयार्थ : [तेणुवइट्ठो धम्मो] उस सर्वज्ञ के द्वारा उपदेश किया हुआ धर्म दो प्रकार का है [संगासत्ताण तह असगाणं] संगासक्त (गृहस्थ) का और असंग (मुनि) का [पढमो बारहमेमो] पहिला गृहस्थ का धर्म तो बारह भेदरूप है [विदिभो दसभेओ] दूसरा मुनि का धर्म दस भेदरूप है ।

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+ गृहस्थ धर्म के बारह भेद -
सम्मद्दंसण-सुद्धो रहिओ मज्जाइ-थूल-दोसेहिं
वय-धारी सामाइउ पव्व-वई पासुयाहारी ॥305॥
राई-भोयण विरओ मेहुण-सारंभ-संग-चत्तो य
क ज्जाणुमोय-विरओ उद्दिट्ठाहार-विरदो य ॥306॥
अन्वयार्थ : [सम्मदंसणसुद्धो मजाइलदोसेहिं रहिओ] 1 शुद्ध सम्यग्दृष्टि, 2 मद्य आदि स्थूल दोषों से रहित दर्शन प्रतिमा का धारी [वयधारी] 3 व्रतधारी (पांच अगुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षावत इन बारह व्रत सहित) [सामइउ] 4 सामायिक प्रतिमा [पावई] 5 पर्ववती [पासुयाहारी] 6 प्रासुकाहारी [राईभोयणविरओ] 7 रात्रि-भोजन-त्यागी [मेहुणसारंभसंगचत्तो य] 8 मैथुन-त्यागी 6 आरम्भ-त्यागी 10 परिग्रह-त्यागी [कजाणुमोयविरदो] 11 कार्यानुमोदविरत [उद्दिवाहारविरदो य] और 12 उद्दिष्टाहारविरत इसप्रकार श्रावक-धर्म के 12 भेद हैं।

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चदु-गदि -भव्वो सण्णी सुविसुद्धो जग्गमाण-पज्जत्तो
संसार-तडे णियडो णाणी पावेइ सम्मत्तं ॥307॥
अन्वयार्थ : [चउगदिभवो सण्णी] पहिले तो भव्यजीव होवे क्योंकि अभव्य के सम्यक्त्व नहीं होता है, चारों ही गतियों में सम्यक्त्व उत्पन्न होता है परन्तु मन सहित (सैनी) के ही उत्पन्न हो सकता है, असैनी के उत्पन्न नहीं होता है [सुविसुद्धो] उस में भी विशुद्ध परिणामी हो, शुभ लेश्या सहित हो, अशुभ लेश्या में भी शुभ लेश्या के समान कषायों के स्थान होते हैं उनको उपचार से विशुद्ध कहते हैं, संक्लेश परिणामों में सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है [जग्गमाणपजतो] जगते हुए के होता है, सोये हुए के नहीं होता है, पर्याप्त (पूर्ण) के होता है, अपर्याप्त अवस्था में नहीं होता है [संसारतडे नियडो] संसार का तट जिसके निकट आ गया हो (जो निकट भव्य हो) जिसका अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल से अधिक संसार-भ्रमण शेष हो उसको सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है [णाणी] ज्ञानी हो अर्थात् साकार उपयोगवान् हो, निराकार दर्शनोपयोग में सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है [सम्म पावे] ऐसे जीव के सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है ।

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+ सम्यक्त्व के तीन प्रकार -
सत्तण्हं पयडीणं उवसमदो होदि उवसमं सम्मं
खयदो य होदि खइयं केवलि-मूले मणूसस्स ॥308॥
अन्वयार्थ : [सत्तण्हं पयडीणं उबसमदो उत्सम सम्मं होदि] मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यकप्रकृति मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात मोहनीयकर्म को प्रकृतियों के उपशम होने से उपशम सम्यक्त्व होता है [य खयदो खइयं होदि] और इन सातों मोहनीय कर्म को प्रकृतियों के क्षय होने से क्षायिक-सम्यक्त्व उत्पन्न होता है [केवलिमूले मणूसस्स] यह क्षायिक सम्यक्त्व केवलज्ञानी तथा श्रुतकेवली के निकट कर्मभूमि के मनुष्य के ही उत्पन्न होता है ।

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अणउदयादो छण्हं सजाइ-रूवेण उदयमाणाणं
सम्मत्त-कम्म-उदये खयउवसमियं हवे सम्मं ॥309॥
अन्वयार्थ : [अणउदयादो छण्ह] पूर्वोक्त सात प्रकृतियों में से छह प्रकृतियों का उदय न हो [सजाइरूवेण उदयमाणाणं] सजाति (समान जातीय) प्रकृति से उदयरूप हो [सम्मत्तकम्मउदए] सम्यक् कर्मप्रकृति का उदय होने पर [खयउवसमियं सम्म हवे] क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है ।

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गिण्हदि मुंचदि जीवो वे सम्मत्ते असंख-वाराओ
पढम-कसाय-विणासं देस-वयं कुणदि उक्कस्सं ॥310॥
अन्वयार्थ : [जीवो] यह जीव [वे सम्म] औपशमिक क्षायोपशमिक ये दो तो सम्यक्त्व [पढमकसायविणासं] अनन्तानुबन्धी का विनाश अर्थात् विसंयोजनरूप, अप्रत्याख्यानादिकरूप परिणमाना [देसवयं] और देशव्रत इन चारों को [असंखवाराओ] असंख्यातबार [गिण्हदि मुंचदि] ग्रहण करता है और छोड़ता है [उकिट्ठ] यह उत्कृष्टता से कहा है ।

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जो तच्चमणेयंतं णियमा सद्दहदि सत्त-भंगेहिं
लोयाण पण्ह-वसदो ववहार-पवत्तणट्ठं च ॥311॥
जो आयरेण मण्णदि जीवाजीवादि णव-विहं अत्थं
सुद -णाणेण णएहि य सो सद्दिट्ठी हवे सुद्धो ॥312॥
अन्वयार्थ : [जो सत्तभंगेहिं अणेयंतं तच्चं णियमा सद्दहदि] जो पुरुष सात भंगों से अनेकान्त तत्त्वों का नियम से श्रद्धान करता है [लोयाण पण्हवसदो ववहारपवत्तणट्ठं च] क्योंकि लोगों के प्रश्न के वश से विधि-निषेध वचन के सात ही भंग होते हैं इसलिये व्यवहार की प्रवृत्ति के लिए भी सात भंगों के वचन की प्रवृत्ति होती है [जो जीवाजीवादि णवविहं अत्थं] जो जीव अजीव आदि नौ प्रकार के पदार्थों को [सुदणाणेण णएहि य] श्रुतज्ञान प्रमाण से तथा उसके भेदरूप नयों से [आयरेण मण्णदि] अपने आदर - यत्न उद्यम से मानता है - श्रद्धान करता है [सो सुद्धो सदिट्ठी हवे] वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि होता है ।

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जो ण य कुव्वदि गव्वं पुत्त-कलत्ताइ-सव्व-अत्थेसु
उवसम-भावे भावदि अप्पाणं मुणदि तिणमित्तं ॥313॥
अन्वयार्थ : [जो] जो सम्यग्दृष्टि होता है वह [पुत्तकलत्ताइसव्वअत्थेसु] पुत्र कलत्र आदि सब पर-द्रव्य तथा पर-द्रव्यों के भावों में [गव्वं ण य कुव्वदि] गर्व नहीं करता है [उवसमभावे भावदि] उपशम भावों को भाता है, [अप्पाणं तिणमित्तं मणदि] अपनी आत्मा को तृण के समान हीन मानता है ।

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+ सम्यग्दृष्टि जीव की परिणति -
विसयासत्तो वि सया सव्वारंभेसु वट्टमाणो वि
मोह-विलासो एसो इदिसव्वं मण्णदे हेयं ॥314॥
अन्वयार्थ : [विसयासत्तो वि सया] (अवरित सम्यग्दृष्टि) यद्यपि इन्द्रिय-विषयों में आसक्त है [सव्वारंभेसु वट्टमाणो वि] त्रस स्थावर जीवों का घात जिनमें होता है ऐसे सब आरम्भों में वर्तमान है, अप्रत्याख्यानावरण आदि कषायों के तीव्र उदय से विरक्त नहीं हुआ है [इदि सव्वं हेयं मण्णदे] तो भी सबको हेय (त्यागने योग्य) मानता है और ऐसा जानता है कि [एसो मोहविलासो] यह मोह का विलास है ।

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उत्तम-गुण-गहण-रओ उत्तम-साहूण विणय-संजुत्तो
साहम्मिय -अणुराई सो सद्दिट्ठी हवे परमो ॥315॥
अन्वयार्थ : [उत्तमगुणगहणरओ] (सम्यग्दृष्टि) उत्तम गुण (सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप आदि) के ग्रहण करने में अनुरागी, [उत्तमसाहूण विणयसंजत्तो] उन (गुणों के धारक) उत्तम साधुओं में विनय संयुक्त, [साहम्मिय अणुराई] अपने समान (सम्यग्दृष्टि) साधर्मियों में अनुरागी होता है (वात्सल्य गुणसहित) होता है [सो परमो सद्दिट्ठी हवे] वह उत्तम सम्यग्दृष्टि होता है ।

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देह-मिलयं पि जीवं णिय-णाण-गुणेण मुणदि जो भिण्णं
जीव-मिलियं पि देहं कंचुव -सरिसं वियाणेइ ॥316॥
अन्वयार्थ : [देहमिलियं पि जीवं] देह जीव से मिली हुई होने पर भी [णियणाणगुणेण जो भिण्णं मणदि] ज्ञानगुण द्वारा अपने को देह से भिन्न ही जानता है [जीव मिलियं पि देहं] जीव देह से मिला हुआ होने पर भी [कंचुवसरिसं वियाणेई] तो भी उसको कंचुक (कपड़े का जामा) समान जानता है ।

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णिज्जिय-दोसं देवं सव्व- जिवाणं दयावरं धम्मं
वज्जिय-गंथं च गुरुं जो मण्णदि सो हु सद्दिट्ठी ॥317॥
अन्वयार्थ : [जो] जो जीव [णिज्जियदोसं देवं] दोष-रहित को तो देव [सव्वजिवाणं दया वरं धम्मं] सब जीवों की दया को श्रेष्ठ धर्म [वजियगंथं च गुरुं] निर्ग्रन्थ को गुरु [मण्णदि] मानता है [सो हु सद्दिट्ठी] वह प्रगटरूप से सम्यग्दृष्टि है ।

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+ मिथ्यादृष्टि जीव की परिणति -
दोस-सहियं पि देवं जीव-हिंसाइ -संजुदं धम्मं
गंथासत्तं च गुरुं जो भण्णदि सो हु कुद्दिट्ठी ॥318॥
अन्वयार्थ : [जो] जो जीव [दोससहियं पि देवं] दोष-सहित देव को तो देव [जीवहिंसाइसंजुदं धममं] जीव हिंसादि सहित को धर्म [गंथासत्तं च गुरुं] परिग्रह में आसक्त को गुरु [मण्णदि] मानता है [सो हु कुद्दिट्ठी] वह प्रगटरूप से मिथ्यादृष्टि है ।

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+ कुदेव का बहिष्कार -
ण य को वि देदि लच्छी ण को वि जीवस्स कुणदि उवयारं
उवयारं अवयारं क म्मं पि सुहासुहं कु णदि ॥319॥
अन्वयार्थ : [को वि लच्छी ण य देदि] इस जीव को कोई (व्यन्तर आदि देव) लक्ष्मी नहीं देते हैं [जीवस्स को वि उवयारं ण कुणदि] इस जीव का कोई अन्य उपकार भी नहीं करता है [सुहासुहं कम्म पि उवयारं अवयारं कुणदि] जीव के पूर्व-संचित शुभ-अशुभ कर्म ही उपकार तथा अपकार करते हैं ।

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भत्तीए पुज्जमाणो विंतर-देवो वि देदि जदि लच्छी
तो किं धम्में कीरदि एवं चिंतेइ सद्दिट्ठी ॥320॥
अन्वयार्थ : [सदिट्ठी एवं चिंतेइ] सम्यग्दृष्टि ऐसा विचार करता है कि [जदि भत्तीए पुञ्जमाणो विंतरदेवो वि लच्छी देदि] यदि भक्ति से पूजा हुआ व्यन्तर देव हो लक्ष्मी को देता है [तो धम्म किं कीरदि] तो धर्म क्या करता है ?

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जं जस्स जम्मि देसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि
णादं जिणेण णियदं जम्मं वा अहव मरणं वा ॥321॥
तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि
को सक्कदि वारेदुं इंदो वा तह जिणिंदो वा ॥322॥
अन्वयार्थ : [जं जस्स जम्मिदेसे] जो जिस जीव के जिस देश में [जम्मि कालम्मि] जिस काल में [जेण विहाणेण] जिस विधान से [जम्मं वा अहव मरणं वा] जन्म तथा मरण (उपलक्षण से दुःख-सुख रोग दारिद्रय आदि) [जिणेण] सर्वज्ञ-देव के द्वारा [णादं] जाना गया है [णियदं] वह नियम से [तं तस्स तम्मि देसे] उस प्राणी के वह ही उस ही देश में [तम्मि कालम्मि] उस ही काल में [तेण विहाणेण] उस ही विधान से नियम से होता है [इदो वा तह जिणिंदो वा को वारेदुं सक्कदि] उसका इन्द्र, जिनेन्द्र, तीर्थंकर देव कोई भी निवारण नहीं कर सकते ।

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एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सव्व-पज्जाए
सो सद्दिट्ठी सुद्धो जो संकदि सो हु कुद्दिट्ठी ॥323॥
अन्वयार्थ : [जो एवं णिच्चयदो] जो इसप्रकार के निश्चय से [दव्याणि सव्वपजाए जाणदि] सब द्रव्य (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल) इनको और इन द्रव्यों की सब पर्यायों को सर्वज्ञ के आगम के अनुसार जानता है - श्रद्धान करता है [सो सुद्धो सहिडी] वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि होता है [जो संकदि सो हु कुद्दिट्ठी] जो ऐसा श्रद्धान नहीं करता है शंका (संदेह) करता है वह प्रगटरूप से मिथ्यादृष्टि है ।

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जो ण विजाणदि तच्चं सो जिण-वयणे करेदि सद्दहणं
जं जिणवरेहिं भणियं तं सव्वमहं समिच्छामि ॥324॥
अन्वयार्थ : [जो तच्चं ण विजाणइ] जो जीव (अपने ज्ञान के विशिष्ट क्षयोपशम बिना तथा विशिष्ट गुरु के संयोग बिना) तत्त्वार्थ को नहीं जान पाता है [सो जिणवयणे सदहणं करेदि] वह जीव जिनवचनों में ऐसा श्रद्धान करता है कि [जंजिणवरेहि भणिय] जो जिनेश्वर देव ने तत्त्व कहा है [तं सव्वमहं समिच्छामि] उस सब ही को मैं भले प्रकार इष्ट (स्वीकार) करता हूँ (इस तरह भी श्रद्धावान होता है)

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+ सम्यक्त्व का माहात्म्य -
रयणाण महा-रयणं सव्वं-जोयाण उत्तमं जोयं
रिद्धीण महा-रिद्धी सम्मत्तं सव्व-सिद्धियरं ॥325॥
अन्वयार्थ : [रयणाण महारयणं] रत्नों में तो महारत्न, [सव्वजोयाण उत्तम जोयं] सब योगों में उत्तम योग, [रिद्धीण महारिद्धि] ऋद्धियों में सबसे बड़ी ऋद्धि, [सव्वसिद्धियरं सम्मत्तं] सब सिद्धियों को करनेवाला यह सम्यक्त्व ही है ।

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सम्मत्त-गुण-पहाणो देविंद-णरिंद-बंदिओ होदि
चत्त-वओ वि य पावदि सग्ग-सुहं उत्तमं विविहं ॥326॥
अन्वयार्थ : [सम्मत्तगुणप्पहाणो] सम्यक्त्व गुण सहित जो पुरुष प्रधान है वह [देविंदणरिंदवंदिओ होदि] देवों के इन्द्र तथा मनुष्यों के इन्द्र (चक्रवर्ती) आदि से वन्दनीय होता है [चत्तवयो वि य उत्तमं विविहं सग्गसुहं पावइ] व्रत-रहित होने पर भी उत्तम अनेक प्रकार के स्वर्ग के सुख पाता है ।

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सम्माइट्ठी जीवो दुग्गदि-हेदुं ण बंधदे कम्मं
जं बहु-भवेसु बद्धं दुक्कम्मं तं पि णासेदि ॥327 ॥
अन्वयार्थ : [सम्माइट्ठी जीवो] सम्यग्दृष्टि जीव [दुग्गदिहेतुं कम्मं ण बंधदे] दुर्गति के कारण (अशुभ) कर्म को नहीं बांधता है [जं बहुभवेसु बद्धं दुकम्म तं पि णासेदि] और जो अनेक पूर्वभवों में बाँधे हुए पापकर्म हैं उनका भी नाश करता है ।

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+ दार्शनिक श्रावक -
बहु-तस-समण्णिदं जं मज्जं मंसादि णिंदिदं दव्वं
जो ण य सेवदि णियदं सो दंसण-सावओ होदि ॥328॥
अन्वयार्थ : [बहुतससमण्णिदं जं मज्जं मंसादि णिंदिदं दव्वं] बहुत से त्रस-जीवों के घात से उत्पन्न तथा उन सहित मदिरा का और अति निन्दनीय मांस आदि द्रव्य का [जो णियदं ण य सेवदि] जो नियम से सेवन नहीं करता है - भक्षण नहीं करता है [सो दंसणसावओ होदि] वह दार्शनिक श्रावक है ।

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जो दिढ-चित्तो कीरदि एवं पि वयं णियाण-परिहीणो
वेरग्ग-भाविय-मणो सो वि य दंसण-गुणो होदि ॥329 ॥
अन्वयार्थ : [एवं पि वय] ऐसे व्रत को [दिढचित्तो] दृढ़-चित्त हो [णियाणपरिहीणो] निदान ( इस लोक परलोक के भोगों की वांछा) से रहित हो [वेरग्गभावियमणो] वैराग्य से भावित (गीला) मनवाला होता हुआ [जो कीरदि] जो (सम्यग्दृष्टि पुरुष) करता है [सो वि य दंसणगुणो होदि] वह दार्शनिक श्रावक होता है ।

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+ व्रत-प्रतिमा -
पंचाणुव्वय-धारी गुण-वय-सिक्खा-वएहिं सुजुत्तो
दिढ-चित्तो सम-जुत्तो णाणी वय-सावओ होदि ॥330॥
अन्वयार्थ : [पंचाणुव्वयधारी] जो पाँच अणुव्रतों का धारक हो [गुणवयसिक्खावएहिं संजुत्तो] तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत सहित हो [दिढचित्तो समजत्तो] दृढ़चित्त हो और समताभाव सहित हो [णाणी वयसावओ होदि] ज्ञानवान हो, वह व्रतप्रतिमा का धारक श्रावक है ।

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+ अहिंसाणुव्रत -
तस-घादं जो ण करदि मण-वय-काएहि णेव कारयदि
कुव्वंतं पि ण इच्छदि पढम-वयं जायदे तस्स ॥331॥
अन्वयार्थ : [तसघादं जो ण करदि मणवयकाएहि णेव कारयदि] जो श्रावक त्रसजीव (दो,तीन,चार,पंच इन्द्रिय) का घात मन-वचन-काय से आप नहीं करे, दूसरे से नहीं करावे [कुवंतं पि ण इच्छदि] और अन्य को करते हुए को इष्ट (अच्छा) नहीं माने [तस्स पढमवयं जायदे] उसके पहिला अहिंसाणुव्रत होता है ।

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जो वावरेइ सदओ अप्पाण-समं परं पि मण्णंतो
णिंदण-गरहण-जुत्तो परिहरमाणो महारंभे ॥332॥
अन्वयार्थ : [जो सदओ वावरइ] जो दयासहित तो व्यापार कार्य में प्रवृत्ति करता है [अप्पाणसमं परं पि मण्णतो] सब प्राणियों को अपने समान मानता है [निंदणगर हणजुत्तो] निंदा और गर्हा सहित है (व्यापारादि कार्यों में हिंसा होती है उसकी अपने मन में अपनी निंदा करता है, गुरुओं के पास अपने पापों को कहता है सो गर्हा सहित है, जो पाप लगते हैं उनकी गुरुओं की आज्ञा-प्रमाण आलोचना प्रतिक्रमण आदि प्रायश्चित्त लेता है) [महारंभे परिहरमाणो] जिनमें त्रस हिंसा बहुत होती हो ऐसे बड़े व्यापार आदि के कार्य महारम्भों को छोड़ता हुआ प्रवृत्ति करता है ।

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+ सत्य अणुव्रत -
हिंसा-वयणं ण वयदि कक्कस-वयणं पि जो ण भासेदि
णिट्ठुर-वयणं पि तहा ण भासदे गुज्झ-वयणं पि ॥333॥
हिद-मिद-वयणं भासदि संतोस-करं तु सव्व-जीवाणं
धम्म-पयासण-वयणं अणुव्वदी होदि सो बिदिओ ॥334॥
अन्वयार्थ : [जो हिंसावयणं ण वयदि] जो हिंसा के वचन नहीं कहता है [कक्कसवयणं पि ण भासेदि] कर्कश वचन भी नहीं कहता है [णिठुरवयणं पि तहा] तथा निष्ठुर वचन भी नहीं कहता है [गुज्झवयणं पि ण भासदे] और पर का गुह्य (गुप्त) वचन भी नहीं कहता है । [हिदमिदवयणं भासदि] पर के हित रूप तथा प्रमाणरूप वचन कहता है [तु सव्वजीवाणं संतोसकर] सब जीवों को सन्तोष करनेवाले वचन कहता है [धम्मपयासणवयणं] धर्म का प्रकाश करनेवाले वचन कहता है [सो बिदिओ अणुव्वदि होदि] वह पुरुष दूसरे अणुव्रत का धारी होता है ।

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+ अचौर्य अणुव्रत -
जो बहु-मुल्लं वत्थुं अप्पय-मुल्लेण णेव गिण्हेदि
वीसरियं पि ण गिण्हदि लाहे थोवे वि तूसेदि ॥335॥
जो पर-दव्वं ण हरदि माया-लोहेण कोह-माणेण
दिढ-चित्तो सुद्ध-मई अणुव्वई सो हवे तिदिओ ॥336॥
अन्वयार्थ : [जो बहुमुल्लं वत्थुं अप्पमुल्लेण णेय गिण्हेदि] जो श्रावक बहुमूल्य वस्तु को अल्पमूल्य में नहीं लेता है [वीसरियं पि ण गिण्हदि लाहे थोये वि तूसेदि] किसी की भूली हुई वस्तु को नहीं लेता है, व्यापार में थोड़े ही लाभ से सन्तोष करता है [जो मायालोहेण कोहमाणेण परदव्यं ण हरइ] जो कपट से, लोभ से, क्रोध से, मान से दूसरे के द्रव्य का हरण नहीं करता है [दिढचित्तो] जो दृढ़ चित्त है (कारण पाकर प्रतिज्ञा को भंग नहीं करता है) [सुद्धमई] शुद्ध बुद्धिवाला होता है [सो तिदिओ अणुव्वई हवे] वह तीसरे अणुव्रत का धारक श्रावक होता है ।

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+ ब्रह्मचर्य अणुव्रत -
असुइ-मयं दुग्गंधं महिला-देहं विरच्चमाणो जो
रूवं लावण्णं पि य मण-मोहण-कारणं मुणइ ॥337॥
जो मण्णदि पर-महिलं जणणी-बहिणी-सुआइ-सारिच्छं
मण-वयणे काएण वि बंभ-वई सो हवे थूलो ॥338॥
अन्वयार्थ : [जो महिलादेहं असुइमयं दुग्गंधं] जो श्रावक स्त्री के शरीर को अशुचिमयी दुर्गन्धयुक्त जानता हुआ [रूवं लावण्णं पि य मणमोहणकारणं मुणइ] उसके रूप तथा लावण्य को भी मन में मोह उत्पन्न करने का कारण जानता है [विरच्चमाणो] इसलिये विरक्त होता हुआ प्रवर्तता है [जो परमहिलं जणणी बहिणीसुआइसारिच्छं मणवयणे कायेण वि मण्णदि] जो पर-स्त्री को, बड़ी को माता के समान, बराबर की को बहिन के समान, छोटों को पुत्री के समान मन-वचन-काय से जानता है [सो थूलो बंभवई हवे] वह स्थूल ब्रह्मचर्य का धारक श्रावक है ।

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+ परिग्रह-परिमाण अणुव्रत -
जो लोहं णिहणित्ता संतोस-रसायणेण संतुट्ठो
णिहणदि तिण्हा दुट्ठा मण्णंतो विणस्सरं सव्वं ॥339॥
जो परिमाणं कुव्वदि धण-धण्णं -सुवण्ण-खित्तमाईणं
उवओगं जाणित्ता अणुव्वदं पंचमं तस्स ॥340॥
अन्वयार्थ : [जो लोहं णिहणित्ता सतोसरसायणेण संतुट्ठो] जो पुरुष लोभ-कषाय को हीन कर संतोष रूप रसायन से संतुष्ट होकर [सव्वं] सब [धणधाणसुवण्णखित्तमाईणं] धन, धान्य, सुवर्ण, क्षेत्र आदि परिग्रह को [विणस्सरं मण्णंतो] विनाशीक मानता हुआ [दुट्ठा तिण्हा णिहणदि] दुष्ट तृष्णा को अतिशयरूप से नाश करता है [उवओगं जाणित्ता] (धन, धान्य, सुवर्ण, क्षेत्र आदि परिग्रहका) अपना उपयोग (आवश्यकता एवं सामर्थ्य) जानकर उसके अनुसार [जो परिमाणं कुव्वदि] जो परिमाण करता है [तस्स पंचमं अणुव्वदं] उसके पाँचवाँ अणुव्रत होता है ।

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+ दिग्व्रत -
जह लोह-णासणट्ठं संग-पमाणं हवेइ जीवस्स
सव्व-दिसाण पमाणं तह लोहं णासए णियमा ॥341॥
जं परिमाणं कीरदि दिसाण सव्वाण सुप्पसिद्धाणं
उवओगं जाणित्ता गुणव्वदं जाण तं पढमं ॥342॥
अन्वयार्थ : [जह लोहणासणट्ठं जीवस्स संगपमाणं हवेइ] जैसे लोभ का नाश करने के लिये जीव के परिग्रह का परिमाण होता है [तह सव्वं दिसिसु पमाणं णियमा लोहं णासए] वैसे ही सब दिशाओं में परिमाण किया हुआ भी नियम से लोभ का नाश करता है [सव्वाणं सुप्पसिद्धाणं दिसाण] इसलिये सब ही पूर्व आदि प्रसिद्ध दस दिशाओं का [उवमोगं जाणिचा] अपना उपयोग (प्रयोजन कार्य) जानकर [जं परिमाणं कीरदि] जो परिमाण करता है [तं पढमं गुणव्वदं जाण] वह पहिला गुणव्रत है ।

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+ अनर्थदण्ड व्रत -
कज्जं किं पि ण साहदि णिच्चं पावं करेदि जो अत्थो
सो खलु हवदि अणत्थो पंच-पयारो वि सो विविहो ॥343॥
अन्वयार्थ : [जो अत्थो कज्ज किंपि ण साहदि णिच्चं पावं करेदि] जो कार्य प्रयोजन तो अपना कुछ सिद्ध करता नहीं है और केवल पाप ही को उत्पन्न करता है [सो खलु अणत्थो हवे] वह अनर्थ कहलाता है [सो पंचपयारो विविहो वि] वह पांच प्रकार का है तथा अनेक प्रकार का भी है ।

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पर-दोसाण वि गहणं पर-लच्छीणं समीहणं जं च
परइत्थी-अवलोओ पर-क लहालोयणं पढमं ॥344॥
अन्वयार्थ : [परदोसाणं वि गहणं] दूसरे के दोषों को ग्रहण करना [परलच्छी समीहणं जंच] दूसरे की लक्ष्मी (धन सम्पदा) की वांछा करना [परइत्थी अवलोओ] दूसरे की स्त्री को रागसहित देखना [परकलहालोयणं] दूसरे की कलह को देखना इत्यादि कार्यों को करना [पढमं] सो पहिला अनर्थदण्ड है ।

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जो उवएसो दिज्जदि किसि-पसु-पालण-वणिज्ज-पमुहेसु
पुरसित्थी -संजोए अणत्थ-दंडो हवे विदिओ ॥345॥
अन्वयार्थ : [जो किसिपसुपालणवणिज्जपमुहेसु] खेती, पशुओं का पालन, वाणिज्य इत्यादि पाप-सहित कार्य तथा [पुरिसित्थीसंजोए] पुरुष-स्त्री का संयोग जैसे हो वैसे करने आदि कार्यों का [उवएसो दिजइ] दूसरों को उपदेश देना (इनका विधान बताना जिनमें अपना प्रयोजन कुछ सिद्ध नहीं होता हो केवल पाप ही उत्पन्न होता हो) [विदिओ अणत्थदडो हवे] सो दूसरा (पापोपदेश नाम का) अर्नथदण्ड है ।

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विहलो जो वावारो पुढवी-तोयाण अग्गि-वाऊणं
तह वि वणप्फदि-छेदो अणत्थ-दंडो हवे तिदिओ ॥346॥
अन्वयार्थ : [जो पुढवीतोयाण अग्गिवाऊणं विहलो वावारो] जो पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन इनके व्यापार में विफल (बिना प्रयोजन) प्रवृत्ति करना [तह वि वणप्फदिछेदो] तथा बिना प्रयोजन वनस्पति (हरितकाय) का छेदन-भेदन करना [तिदिओ अणत्थदंडो हवे] सो तीसरा प्रमादचरित नामक अनर्थदण्ड है ।

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मज्जार-पहुदि-धरणं आउह -लोहादि-विक्कणं जं च
लक्खा -खलादि-गहणं अणत्थ-दंडो हवे तुरिओ ॥347॥
अन्वयार्थ : [मज्जारपहुदिधरणं] जो बिलाव आदि हिंसक जीवों का पालना [आयुहलोहादि विकणं जं च] लोहे का तथा लोहे आदि के आयुधों का व्यापार करना देना लेना [लक्खाखलादिगहणं] लाख, खल आदि शब्द से विष वस्तु, आदि का देना-लेना व्यापार करना [तुरिओ अणत्थदंडो हवे] चौथा हिंसादान नामक अनर्थदण्ड है ।

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जं सवणं सत्थाणं भंडण-वसियरण-काम-सत्थाणं
पर-दोसाणं च तहा अणत्थ-दंडो हवे चरिमो ॥348॥
अन्वयार्थ : [जं सत्थाणं भंडणवसियरणकामसत्थाणं सवणं] जो सर्वथा एकान्त मतवालों के बनाये हुए कुशास्त्र तथा भांडक्रिया हास्य कौतूहल के कथन के शास्त्र, वशीकरण मंत्र प्रयोग के शास्त्र तथा स्त्रियों की चेष्टा के वर्णनरूप काम-शास्त्र आदि का सुनना / सुनाना / पढना / पढाना [परदोसाणं च तहा] दूसरे के दोषों को कथा करना / सुनना [चरमो अणत्थदंडो हवे] दुःश्रुतिश्रवण नामक अन्तिम पाँचवाँ अनर्थदण्ड है ।

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एवं पंच-पयारं अणत्थ-दंडं दुहावहं णिच्चं
जो परिहरेदि णाणी गुणव्वदी सो हवे बिदिओ ॥349॥
अन्वयार्थ : [जो णाणी] जो ज्ञानी श्रावक [एवं पंचपयारं अणत्थदंड दुहावहं णिच्चं परिहरेदि] इसप्रकार पाँच प्रकार के अनर्थदण्ड को निरन्तर दुःखों का उत्पन्न करनेवाला जानकर छोड़ता है [सो विदिओ गुणव्वदी हवे] वह दूसरे गुणव्रत का धारक श्रावक होता है ।

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+ भोगोपभोग परिमाण गुणव्रत -
जाणित्ता संपत्ती भोयण-तंबोल-वत्थमादीणं
जं परिमाणं कीरदि भोउ बभोयं वयं तस्स ॥350॥
अन्वयार्थ : [संपत्ती जाणिवा] जो अपनी सम्पदा सामर्थ्य जानकर [भोयणतंबोलवत्थमादिणं] भोजन ताम्बूल वस्त्र आदि का [जं परिमाणं कीरदि] परिमाण (मर्यादा) करता है [तस्स भोउवभोयं वयं] उस श्रावक के भोगोपभोग नामक गुणव्रत होता है ।

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जो परिहरेइ संतं तस्स वयं थुव्वदे सुरिंदो वि
जो मण-लड्डु व भक्खदि तस्स वयं अप्प-सिद्धियरं ॥351 ॥
अन्वयार्थ : [जो संतं परिहरेइ] जो पुरुष, होतो हुई वस्तु को छोड़ता है [तस्स वयं सुरिंदो वि थुम्बदे] उसके व्रत की सुरेन्द्र भी प्रशंसा करता है [जो मणलड्ड व भक्खदि तस्स वयं अप्पसिद्धियरं] और अनुपस्थित वस्तु का छोड़ना तो ऐसा है जैसे लड्डू तो हों नहीं और संकल्पमात्र मन में लड्डू की कल्पना कर लड्डू खावे वैसा है।

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सामाइयस्स करणे खेत्तं कालं च आसणं विलओ
मण-वयण-काय-सुद्धी णायव्वा हुंति सत्तेव ॥352॥
अन्वयार्थ : [सामाइयस्स करणं] प्रथम ही सामायिक के करने में [खेतं कालं च आसणं विलओ] क्षेत्र, काल, आसन और लय [मणवयणकायसुद्धी] मन-वचन-काय की शुद्धता [सत्तेव गायव्वा हुति] ये सात सामग्री जानने योग्य है ।

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+ सामायिक का क्षेत्र -
जत्थ ण कलयल-सद्दो बहु-जण-संघट्ठणं ण जत्थत्थि
जत्थ ण दंसादीया एस पसत्थो हवे देसो ॥353॥
अन्वयार्थ : [जत्थ ण कलयलसदो] जहाँ कलकलाट (कोलाहल) शब्द नहीं हो [बहुजणसंघट्टणं ण जत्थत्थि] जहाँ बहुत लोगों के संघट्ट (समूह) का आना जाना न हो [जत्थ ण दंसादीया] जहाँ डाँस, मच्छर, चिउंटी आदि शरीर को बाधा पहुँचानेवाले जीव न हों [एस पसत्थो हवे देसो] ऐसा क्षेत्र सामायिक करने के योग्य है ।

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पुव्वण्हे मज्झण्हे अवरण्हे तिहि वि णालिया छक्को
सामाइयस्स कालो सविणय-णिस्सेस-णिद्दिट्ठो ॥354॥
अन्वयार्थ : [पुव्वण्हो मज्झण्हे] सबेरे, दोपहर [अवरण्हे तिहि वि णालिया छक्को] और शाम को इन तीनों कालों में छह-छह घड़ी का काल [सामाइयस्स कालो] सामायिक का काल है [सविणयणिस्सेसणिदिट्ठो] यह विनय सहित गणधरदेवों ने कहा है ।

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+ आसन, लय और मन-वचन-काय की शुद्धता -
बंधित्ता पज्जंकं अहवा उह्नेण उब्भओ ठिच्चा
काल-पमाणं किच्चा इंदिय-वावार-वज्जिदो होउं ॥355॥
जिण-वयणेयग्ग-मणो संवुड -काओ य अंजलिं किच्चा
स-सरू वे संलीणो वंदण-अत्थं विंचिंतंतो ॥356॥
किच्चा-देस-पमाणं सव्वं-सावज्ज-वज्जिदो होउं
जो कुव्वदि सामइयं सो मुणि-सरिसो हवे ताव ॥357॥
अन्वयार्थ : [जो पज्जंकं बंधित्ता] जो पर्यंक आसन बाँधकर [अहवा उड्ढेण उब्भओ ठिच्चा] अथवा खड्गासन से स्थित होकर (खड़े-होकर) [कालपमाणं किच्चा] काल का प्रमाण कर [इंदियवावारवज्जिदो होऊं] इन्द्रियों का व्यापार विषयों में न होने के लिये [जिणवयणेयग्गमणो] जिन वचन में एकाग्र मन कर [संवुडकाओ य अंजलिं किच्चा] काय को संकोचकर हाथों से अंजुलि बनाकर [ससरूवे संलीणो] अपने स्वरूप में लीन होकर [वंदणअत्थं विचिंतंतो] अथवा सामायिक के, वन्दना के पाठ के अर्थ का चितवन करता हुआ प्रवृत्ति करता है [देसपमाणं किच्चा] क्षेत्र का परिमाण कर [सव्वं सावजवजिदो होउ] सर्व सावद्ययोग (गृह व्यापारादि पापयोग) का त्यागकर सर्व पापयोग से रहित होकर [सामइयं कुव्वदि] सामायिक करता है [सो ताव मुणिसरिसो हवे] वह श्रावक उससमय मुनि के समान है ।

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+ प्रोषधोपवास -
ण्हाण-विलेवण-भूसण-इत्थी-संसग्ग-गंध-धूवादी
जो परिहरेदि णाणी वेरग्गाभूसणं कि च्चा ॥358॥
दोसु वि पव्वेसु सया उववासं एय-भत्त-णिव्वियडी
जो कुणदि एवमाई तस्स वयं पोसहं बिदियं ॥359॥
अन्वयार्थ : [जो णाणी] जो ज्ञानी (श्रावक) [दोसु वि पव्वेसु सया] एक पक्ष में दो पर्व अष्टमी चतुर्दशी के दिन [ण्हाणविलेवणभूसणइत्थीसंसग्गगंधधूपदीवादि परिहरेदि] स्नान, विलेपन, आभूषण, स्त्री का संसर्ग, सुगन्ध, धूप, दीप आदि भोगोपभोग वस्तुओं को छोड़ता है [वेरग्गाभरणभूसणं किच्चा] और वैराग्य भावना के आभरण से आत्मा को शोभायमान कर [उववासं एयभत्त णिव्वियडी जो एवमाई कुणइ] उपवास, एक वक्त, नीरस आहार करता है तथा आदि शब्द से कांजी करता है (केवल भात और जल ही ग्रहण करता है) [तस्स पोसहं वयं बिदियं] उसके प्रोषधोपवास व्रत नामक शिक्षाव्रत होता है ।

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तिविहे पत्तम्हि सया सद्धाइ -गुणेहि संजुदो णाणी
दाणं जो देदि सयं णव-दाण-विहीहि संजुत्तो ॥360॥
सिक्खा-वयं च तिदियं तस्स हवे सव्व-सिद्धि-सोक्खयरं
दाणं चउव्विहं पि य सव्वे दाणाण सारयरं ॥361॥
अन्वयार्थ : [जो णाणी] जो ज्ञानी (श्रावक) [तिविहे पत्तम्मि सया सद्धाइगुणेहिं संजुदो] (उत्तम, मध्यम, जघन्य) तीन प्रकार के पात्रों के लिए (दाता के) श्रद्धा आदि गुणों से युक्त होकर [णवदाणविहीहि संजुत्तो सयं दाणं देदि] नवधाभक्ति से संयुक्त होता हुआ नित्यप्रति अपने हाथ से दान देता है [तस्स तदियं सिक्खावयं हवे] उस श्रावक के तीसरा शिक्षाव्रत होता है । वह दान कैसा है ? [दाणं चउव्विहं पि य] आहार, अभय, औषध, शास्त्रदान के भेद से चार प्रकार का है [सव्वे दाणाण सारयरं] अन्य लौकिक धनादिक के दानों में अतिशयरूप से सार है, उत्तम है [सव्वसोक्खसिद्धियरं] सब सिद्धि और सुख को करनेवाला है ।

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भोयणदाणेण सोक्खं ओसह-दाणेणं सत्थ-दाणेणं
जीवाण अभय-दाणं सुदुल्लहं सव्व-दाणेसु ॥362॥
अन्वयार्थ : [भोयणदाणेण सोक्खं] भोजनदान से सबको सुख होता है [ओसहदाणेण सत्थदाणं च] औषधदान सहित शास्त्रदान [जीवाण अभयदाणं] और जीवों को अभयदान [सव्वदाणेसु सुदुल्लहं] सब दानों में दुर्लभ है, उत्तम दान है ।

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भोयण-दाणे दिण्णे तिण्णि वि दाणाणि होंति दिण्णाणि
भुक्ख-तिसाए वाही दिणे दिणे होंति देहीणं ॥363॥
भोयण-बलेण साहू सत्थं संवेदि रत्ति-दिवसं पि
भोयण-दाणे दिण्णे पाणा वि य रक्खिया होंति ॥364॥
अन्वयार्थ : [भोयणदाणे दिण्णे तिणि वि दाणाणि होंति दिण्णाणि] भोजन दान देने पर तीनों ही दान दिये हुए हो जाते हैं [भुक्खतिसाएवाही देहीणं दिणे दिणे होंति] क्योंकि भूख प्यास नाम के रोग प्राणियों के दिन प्रतिदिन होते हैं [भोयणबलेण साहू रत्तिदिवसं पि सत्थं संवेदि] भोजन के बल से साधु रात दिन शास्त्र का अभ्यास करता है [भोयणदाणे दिण्णे पाणा वि य रक्खिया होंति] भोजन के देने से प्राणों की भी रक्षा होती है ।

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इह-पर-लोय-णिरीहो दाणं जो देदि परम-भत्तीए
अयणत्तए सुठविदो संघो सयलो हवे तेण ॥365॥
उत्तम-पत्त-विसेसे उत्तम-भत्तीए उत्तमं दाणं
एय-दिणे वि य दिण्णं इंद-सुहं उत्तमं देदि ॥366॥
अन्वयार्थ : [जो इहपरलोयणिरीहो परमभत्तीए दाणं देदि] जो पुरुष (श्रावक) इस लोक परलोक के फल की वांछा से रहित होकर परम-भक्ति से (संघ के लिये) दान देता है [तेण सयलो संघो रयणतये सुठविदो हवे] उस पुरुष ने सकल संघ को रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) में स्थापित किया [उत्तमपत्त विसेसे उत्तमभत्तीए उत्तमं दाणं] उत्तम पात्र विशेष के लिये उत्तम भक्ति से उत्तम दान [एयदिणे त्रि य दिण्णं इंदसुहं उत्तमं देदि] एक दिन भी दिया हुआ उत्तम इन्द्रपद के सुख को देता है ।

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+ देशावकाशिक शिक्षाव्रत -
पुव्व-पमाण-कदाणं सव्व-दिसीणं पुणो वि संवरणं
इंदिय-विसयाण तहा पुणो वि जो कुणदि संवरणं ॥367॥
वासादि-कय-पमाणं दिणे दिणे लोह-काम-समणट्ठं
सावज्ज-वज्जणट्ठं तस्स चउत्थं वयं होदि ॥368॥
अन्वयार्थ : [पुव्वपमाणकदाणं सव्वदिसीणं पुणो वि संवरणं] श्रावक ने जो पहिले सब दिशाओं का परिमाण किया था उसका और भी संवरण करे (संकोच करे) [इंदियविसयाण तहा पुणो वि जो संवरणं कुणदि] और वैसे ही पहिले इन्द्रियों के विषयों का परिमाण भोगोपभोग परिमाण में किया था उसका और संकोच करे । [वासादिकयपमाणं दिणे दिणे लोहकामसमणट्ठं] वर्ष आदि तथा दिन दिन प्रति काल की मर्यादा लेकर करे, इसका प्रयोजन यह है कि अन्तरंग में तो लोभ कषाय और काम (इच्छा) के शमन करने (घटाने) के लिये [सावजवज्जणटुं तस्स चउत्थं वयं होदि] तथा बाह्य में पाप हिंसादिक के वर्जने (रोकने) के लिये करता है उस श्रावक के चौथा (देशावकाशिक नाम का) शिक्षाव्रत होता है ।

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बारस-वएहिं जुत्तो संलेहणं जो कुणेदि उवसंतो
सो सुर-सोक्खं पाविय कमेण सोक्खं परं लहदि ॥369॥
अन्वयार्थ : [जो] जो श्रावक [वारसवएहिं जुत्तो] बारह व्रत सहित [उवसंतो संलेहणं करेदि] अन्त समय में उपशम भावों से युक्त होकर सल्लेखना करता है [सो सुरसोक्खं पाविय] वह स्वर्ग के सुख पाकर [कमेण परं सोक्खं लहदि] अनुक्रम से उत्कृष्ट सुख (मोक्ष) को पाता है ।

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एक्कं पि वयं विमलं सद्दिट्ठी जइ कुणेदि दिढ-चित्तो
तो विविह-रिद्धि-जुत्तं इंदत्तं पावए णियमा ॥370॥
अन्वयार्थ : [सद्दिट्ठी] सम्यग्दृष्टि जीव [दिढचित्तो] दृढ़चित्त होकर [जइ] यदि [एक्कं पि वयं विमलं कुणेदि] एक भी व्रत का अतिचार-रहित निर्मल पालन करता है [तो विविहरिद्धिजुत्तं इंदत्तं णियमा पावए] तो अनेक प्रकारकी ऋद्धियों सहित इन्द्रपद को नियम से पाता है ।

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+ सामायिक व्रत -
जो कुणदि काउसग्गं बारस-आवत्त -संजदो धीरो
णमण-दुगं पि कुणंतो चदु-प्पणामो पसण्णप्पा ॥371॥
चिंतंतो ससरूवं जिण-बिंबं अहव अक्खरं परमं
झायदि कम्म-विवायं तस्सवयं होदि सामइयं ॥372॥
अन्वयार्थ : [जो] जो (सम्यग्दृष्टि श्रावक) [वारसआवत्तसंजदो] बारह आवर्त्त सहित [चदुप्पणामो] चार प्रणाम सहित [णमणदुगं पि कुणंतो] दो नमस्कार करता हुआ [पसण्णप्पा] प्रसन्न है आत्मा जिसकी [धीरो] धीर ( दृढ़चित्त ) होकर [काउसग्गं कुणदि] कायोत्सर्ग करता है [ससरूवं चिंतंतो] उससमय अपने चैतन्यमात्र शुद्ध स्वरूप का ध्यान चिन्तवन करता हुआ रहे [जिणबिंब अहव अक्खरं परमं] अथवा जिनबिंब का चिन्तवन करता रहे अथवा परमेष्ठी के वाचक पंच नमस्कार मन्त्र का चिन्तवन करता रहे [कम्मविवायं झायदि] अथवा कर्म के उदय के रस की जाति का चिन्तवन करता रहे [तस्स सामइयं वयं होदि] उसके सामायिक व्रत होता है ।

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+ प्रोषध प्रतिमा -
सत्तमि -तेरसि-दिवसे अवरण्हे जाइऊण जिण-भवणे
किच्चा किरिया-कम्मं उववासं चउ-विहं गहिय ॥373॥
गिह-वावारं चत्ता रत्तिं गमिऊण धम्म-चिंताए
पच्चूसे उट्ठित्ता किरिया-कम्मं च कादूण ॥374॥
सत्थब्भासेण पुणे दिवसं गमिऊण वंदणं किच्चा
रत्तिं णेदूण तहा पच्चूसे वंदणं कि च्चा ॥375॥
पुज्जणविहिं च किच्चा पत्तं गहिऊण णवरि तिविहं पि
भुंजा विऊ ण पत्तं भुंजंतो पोसहो होदि ॥376॥
अन्वयार्थ : [सत्तमितेरसिदिवसे अवरण्हे जिणभवणे जाइऊण] सप्तमी त्रयोदशी के दिन दोपहर के बाद जिन चैत्यालय में जाकर [किरियाकम्मं किच्चा उववासं चउविहं गहिय] अपराह्न के समय सामायिक आदि क्रिया कर्म कर चार प्रकार के आहार का त्याग कर उपवास ग्रहण करता है [गिहवावारं चत्ता धम्मचिंताए रति गमिऊण] घर के समस्त व्यापार को छोड़कर धर्मध्यान पूर्वक तेरस और सप्तमी की रात्रि बिताता है [पच्चूसे उद्वित्ता किरियाकम्मं च कादूण] सबेरे उठकर सामायिक आदि क्रिया-कर्म करता है [सत्थब्भासेण पुणो दिवसं गमिऊण वंदणं किच्चा] अष्टमी चौदस का दिन शास्त्राभ्यास धर्मध्यान पूर्वक बिताकर अपराह्न के समय सामायिक आदि क्रिया कर्म कर [रत्ति णेदण तहा पच्चूदे वंदणं किच्चा] रात्रि वैसे ही धर्मध्यान पूर्वक बिताकर (नौमी / पूर्णमासी) के सबेरे के समय सामायिक वन्दना कर [पुज्जणविहिं च किच्चा पत्तं गहिऊण णवरि तिविहं पि] पूजन विधान कर तीन प्रकार के पात्रों को पडगाह कर [भुंजाविऊण पत्तं भुंजंतो पोसहो होदि] उन पात्रों को भोजन कराकर आप भोजन करता है उसके प्रोषध होता है ।

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एक्कं पि णिरारंभं उववासं जो करेदि उवसंतो
बहु-भव-संचिय-कम्मं सो णाणी खवदि लीलाए ॥377॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [णाणी] ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि) [णिरारंभं] आरम्भरहित [उवसंतो] उपशमभाव (मन्द कषाय) सहित होता हुआ [एक्कं पि उपवासं करेदि] एक भी उपवास करता है [सो बहुभवसंचियकम्मं लीलाए खवदि] वह अनेक भवों में संचित किये (बाँधे) हुए कर्मों को लीलामात्र में क्षय करता है ।

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उववासं कुव्वंतो आरंभं जो करेदि मोहादो
सो णिय-देहं सोसदि ण झाडए कम्म-लेसं पि ॥378॥
अन्वयार्थ : [जो उववासं कुव्वंतो] जो उपवास करता हुआ [मोहादो आरंभं करेदि] गृहकार्य के मोह से घर का आरम्भ करता है [सो णियदेहं सोसदि] वह अपने देह को क्षीण करता है [कम्मलेसं पि ण झाडए] कर्मनिर्जरा तो लेशमात्र भी उसके नहीं होती है ।

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+ सचित्तविरत -
सच्चित्तं पत्त -फलं छल्ली मूलं च किसलयं वीयं
जो ण य भक्खदि णाणी सचित्त-विरदो हवे सो दु ॥379॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [णाणी] ज्ञानी (सम्यग्दृष्टि श्रावक) [पत्तफलं छल्लीमूलं च किसलयं बीयं सच्चित्तं] पत्र, फल, त्वक्, छाल, मूल, कोंपल और बीज इन सचित्त वस्तुओं को [ण य भक्खदि] नहीं खाता है [सो दु सचित्तवरिदो हवे] वह सचित्तविरत श्रावक होता है ।

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जो ण य भक्खेदि सयं तस्स ण अण्णस्स जुज्जदे दाउं
भुत्तस्स भोजिदस्स हि णत्थि विसेसो जदो को वि ॥380॥
अन्वयार्थ : [जो सयं ण य भक्खेदि] जिस वस्तु को आप नहीं खाता है [तस्स अण्णस्स दाउण जुज्जदे] उसको अन्य को देना योग्य नहीं है [भुत्तस्स भोजिदस्सहि] क्योंकि खानेवाले और खिलानेवाले में [तदो को वि विसेसो णत्थि] कुछ विशेषता नहीं है ।

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जो वज्जेदि सचित्तं दुज्जय-जीहा विणिज्जिया तेण
दय-भावो होदि किओ जिण-वयणं पालियं तेण ॥381॥
अन्वयार्थ : [जो सचित्तं वज्जेदि] जो श्रावक सचित्त का त्याग करता है [तेण दुज्जय जीहा विणिज्जिया] उसने दुर्जय जिह्वा इन्द्रिय को भी जीत लिया तथा [दयाभावो किओ होदि] दयाभाव प्रगट किया [तेण जिणवयणं पालियं] और उसी ने जिनदेव के वचनों का पालन किया ।

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जो चउविहंपि भोज्जं रयणीए णेव भुंजदे णाणी
ण य भुंजावदि अण्णं णिसिविरओ सो हवे भोज्जो ॥382॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [णाणी] ज्ञानी (सम्यग्दृष्टि श्रावक) [रयणीए] रात्रि में [चउविहं पि भोज्जं] अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य चार प्रकार के आहार को [णेव भुंजदे] नहीं भोगता है - नहीं खाता है [अण्णं ण य भुंजावइ] दूसरे को भी भोजन नहीं कराता है [सो णिसिविरओ भोज्जो हवे] वह श्रावक रात्रिभोजन का त्यागी होता है ।

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जो णिसि-भुत्तिं वज्जदिसो उववासं करेदि छम्मासं
संवच्छरस्स मज्झे आरंभं चयदि रयणीए ॥383॥
अन्वयार्थ : [जो णिसिभुत्तिं वज्जदि] जो पुरुष रात्रि-भोजन को छोड़ता है [सो] वह [संवच्छरस्स मज्झे] एक वर्ष में [छम्मासं उवासं करेदि] छह महिने का उपवास करता है [रयणीए आरंभं मुयदि] रात्रिभोजन का त्याग होने के कारण भोजन सम्बन्धी आरम्भ का भी त्याग करता है और व्यापार आदिक का भी आरम्भ छोड़ता है सो महा दया का पालन करता है ।

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+ ब्रह्मचर्य प्रतिमा -
सव्वेसिं इत्थीणं जो अहिलासं ण कुव्वदे णाणी
मण-वाया- कायेण य बंभ-वई सो हवे सदओ ॥384॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [णाणी] ज्ञानी (सम्यग्दृष्टि श्रावक) [सव्वेसिं इत्थीणं अहिलासं] सब ही चार प्रकार की स्त्री देवांगना, मनुष्यणी, तिर्यंचणी, चित्राम की इत्यादि स्त्रियों की अभिलाषा [मण वाया कायेण य] मन वचन काय से [ण कुव्वदे] नहीं करता है [सो सदओ बंभवई हवे] वह दया का पालन करनेवाला ब्रह्मचर्य प्रतिमा का धारक होता है ।

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+ आरम्भ-त्याग प्रतिमा -
जो आरंभं ण कुणदि अण्णं कारयदि णेव अणुमण्णे
हिंसा-संतट्ठ-मणो चत्तारंभो हवे सो हु ॥385॥
अन्वयार्थ : [जो आरंभं ण कुणदि] जो श्रावक गृहकार्य सम्बन्धी कुछ भी आरम्भ नहीं करता है [अण्णं कारयदि णेय अणुमण्णे] दूसरे से भी नहीं कराता है, करते हुए को अच्छा भी नहीं मानता है [हिंसासंतट्ठमणो] हिंसा से भयभीत मनवाला [सो हु चत्तारंभो हवे] वह निश्चय से आरम्भ का त्यागी होता है ।

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+ परिग्रह त्याग प्रतिमा -
जो परिवज्जइ गंथं अब्भंतर-बाहिरं च साणंदो
पावं ति मण्णमाणो णिग्गंथो सो हवे णाणी ॥386॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [णाणी] ज्ञानी (सम्यग्दृष्टि श्रावक) [अब्भंतर बाहिरं च गंथं] अभ्यन्तर और बाह्य दो प्रकार के परिग्रह को [पावं ति मण्णमाणो] पाप का कारण मानता हुआ [साणंदो] आनन्द सहित [परिवज्जइ] छोड़ता है [सो णिग्गंथो हवे] वह निर्ग्रंथ (परिग्रह का त्यागी श्रावक) होता है ।

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बाहिर-गंथ-विहीणा दरिद्द-मणुवा सहावदो होंति
अब्भंतर-गंथं पुण ण सक्कदे को वि छंडेदुं ॥387॥
अन्वयार्थ : [बाहिरगंथविहीणा दरिद्द मणुआ सहावदो होंति] बाह्य परिग्रह से रहित तो दरिद्रो मनुष्य स्वभाव ही से होते हैं, इसके त्याग में आश्चर्य नहीं है [अभंतरगंथं पुण ण सक्कदे को वि छंडेदुं] अभ्यन्तर परिग्रह को कोई भी छोड़ने में समर्थ नहीं होता है ।

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+ अनुमोदनविरति प्रतिमा -
जो अणुमणणं ण कुणदि गिहत्थ-कज्जेसु पाव-मूलेसु
भवियव्वं भावंतो अणुमण-विरओ हवे सो दु ॥388॥
अन्वयार्थ : [जो] जो (श्रावक) [पावमुलेसु] पाप के मूल [गिहत्थकज्जेसु] गृहस्थ के कार्यों में [भवियव्यं भावंतो] 'जो भवितव्य है सो होता है' ऐसी भावना करता हुआ [अणुमणणं ण कुणदि] अनुमोदना नहीं करता है [सो दु अणुमणविरओ हवे] वह अनुमोदनविरति प्रतिमाधारी श्रावक है ।

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जो पुण चिंतदि कज्जं सुहासुहं राय-दोस-संजुत्तो
उवओगेण विहीणं स कुणदि पावं विणा कज्जं ॥389॥
अन्वयार्थ : [जो पुण] जो [उवओगेण विहीणं] बिना प्रयोजन [रायदोससंजुत्तो] रागद्वेष संयुक्त हो [सुहासुहं कज्जं चिंतदि] शुभ अशुभ कार्य का चिन्तवन करता है [स विणा कज्जं पावं कुणदि] वह पुरुष बिना कार्य पाप उत्पन्न करता है ।

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+ उद्दिष्टत्याग प्रतिमा -
जो णव-कोडि-विसुद्धं भिक्खायरणेण भुंजदे भोज्जं
जायण-रहियं जोग्गं उद्दिट्ठाहार-विरदो सो ॥390॥
अन्वयार्थ : [जो] जो (श्रावक) [णव कोडि विसुद्धं] नव कोटि विशुद्ध (मन-वचन-काय कृत-कारित-अनुमोदना के दोष रहित) [भिक्खायरणेण] भिक्षाचरणपूर्वक [जायणरहियं] याचना रहित (बिना माँगे) [जोग्गं] योग्य (सचित्तादिक अयोग्य न हो) [भोज्जं भुंजदे] आहार को ग्रहण करता है [सो उद्दिट्ठाहारविरदो] वह उद्दिष्ट आहार का त्यागी है ।

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जो सावय-वय-सुद्धो अंते आराहणं परं कुणदि
सो अच्चुदम्हि सग्गे इंदो सुर-सेविदो होदि ॥391॥
अन्वयार्थ : [जो सावयवयसुद्धो] जो श्रावक व्रतों से शुद्ध है [अंते आराहणं परं कुणदि] और अंतसमय में उत्कृष्ट आराधना (दर्शन ज्ञान चारित्र तप का आराधन) करता है [सो अच्चुदम्मि सग्गे] वह अच्युत स्वर्ग में [सुरसेविदो इन्दो होदि] देवों से सेवनीय इन्द्र होता है ।

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जो रयणत्तय-जुत्तो खमादि- भावेहि परिणदो णिच्चं
सव्वत्थ वि मज्झत्थो सो साहू भण्णदे धम्मो ॥392॥
अन्वयार्थ : [जो रयणत्तयजुत्तो] जो पुरुष रत्नत्रय (निश्चय व्यवहाररूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) सहित हो [खमादिभावेहि णिच्चं परिणदो] क्षमादिभाव (उत्तम क्षमा को आदि देकर दस प्रकार का धर्म) से नित्य (निरन्तर) परिणत हो [सव्वत्थ वि मज्झत्थो] सब जगह (सुख-दुःख, तृण-कंचन, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, निन्दा-प्रशंसा, जीवन-मरण आदि में) समभावरूप रहे, रागद्वेष रहित रहे [सो साहू धम्मो भण्णदे] वह साधु है और उसी को धर्म कहते हैं, क्योंकि जिसमें धर्म है, वही धर्मकी मूर्ति है, वह ही धर्म है ।

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सो चेव दहप्पयारो खमादि-भावहिं सुक्खसारेहिं
ते पुणु भणिज्जमाणा मुणियव्वा परम-भत्तीए ॥393॥
अन्वयार्थ : [सो चेव खमादि भावहिं दहप्पयारो सुक्खसारेहिं] वह मुनिधर्म क्षमादि भावों से दस प्रकार का है, कैसा है ? सौख्यसार कहिये सुख इससे होता है या सुख इस में है अथवा सुख से सार है-प्रसिद्ध है-ऐसा है [ते पुण भणिजमाणा परमभत्तीए मुणियव्वा] वह दस प्रकार का धर्म (जिसका वर्णन अब करेंगे) भक्ति से (उत्तम धर्मानुराग से) जानने योग्य है ।

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+ उत्तम क्षमा -
कोहेण जो ण तप्पदि सुर-णर-तिरिएहिं कीरमाणे वि
उवसग्गे वि रउद्दे तस्स खमा णिम्मला होदि ॥394॥
अन्वयार्थ : [जो] जो (मुनि) [सुरणरतिरिएहिं] देव मनुष्य तिर्यंच आदि से [रउद्दे उवसग्गे कीरमाणे वि] रौद्र (भयानक घोर) उपसर्ग करने पर भी [कोहेण ण तप्पदि] क्रोध से तप्तायमान नहीं होता है [तस्स णिम्मला खिमा होदि] उस मुनि के निर्मल क्षमा होती है ।

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+ मार्दव धर्म -
उत्तम-णाण-पहाणो उत्तम-तवयरण-करण-सीलो वि
अप्पाणं जो हीलदि मद्दव-रयणं भवे तस्स ॥395॥
अन्वयार्थ : [उत्तमणाणपहाणो] जो मुनि उत्तम ज्ञान से तो प्रधान हो [उत्तमतवयरणकरणसीलो वि] उत्तम तपश्चरण करने का जिसका स्वभाव हो [जो अप्पाणं हीलदि] जो अपने आत्मा को मद-रहित करे - अनादररूप करे [तस्स मद्दवरयणं भवे] उस मुनि के मार्दव नामक धर्मरत्न होता है ।

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+ आर्जव धर्म -
जो चिंतेइ ण वंकं ण कुणदि वंकं ण जंपदे वंकं
ण य गोवदि णिय-दोसं अज्जव-धम्मो हवे तस्स ॥396॥
अन्वयार्थ : [जो वकं ण चिंतेइ] जो मुनि मन में वक्रतारूप चिन्तवन नहीं करे [वंकं ण कुणदि] काय से वक्रता नहीं करे [वंकं ण जंपदे] वचन से वक्ररूप नहीं बोले [य णियदोसं ण गोवदि] और अपने दोषों को नहीं छिपावे [तस्सअज्जवधम्मो हवे] उस मुनि के उत्तम आर्जव धर्म होता है ।

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सम-संतोस-जलेणं जो धोवदि तिव्व -लोह-मल-पुंजं
भोयण-गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्चं हवे विमलं ॥397॥
अन्वयार्थ : [जो] जो (मुनि) [समसंतोसजलेणं य] समभाव (रागद्वेष रहित परिणाम) और सन्तोष (सन्तुष्ट भाव) रूपी जल से [तिव्वलोहमलपुंजं] तीव्र तृष्णा और लोभरूपी मल के समूह को [धोवदि] धोवे (नाश करे) [भोयणगिद्धिविहीणो] भोजन की गृद्धि (अति चाह) से रहित हो [तस्स सउच्चं विमलं हवे] उस मुनि का चित्त निर्मल होता है अतः उसके उत्तम शौच धर्म होता है ।

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जिण-वयणमेव भासदि तं पालेदुं असक्कमाणो वि
ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्च-वाई सो ॥398॥
अन्वयार्थ : [जिणवयणमेव भासदि] जो मुनि जिनसूत्र ही के वचन को कहे [तं पालेदं असक्कमाणो वि] उसमें जो आचार आदि कहा गया है उसका पालन करने में असमर्थ हो तो भी अन्यथा नहीं कहे [जो ववहारेण वि अलियं ण वददि] और जो व्यवहार से भी अलीक (असत्य) नहीं कहे [सो सच्चवाई] वह मुनि सत्यवादी है, उसके उत्तम सत्यधर्म होता है ।

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जो जीव-रक्खण परो गमणागमणादि -सव्व-कज्जेसु
तण-छेदं पि ण इच्छदि संजम-धम्मो हवे तस्स ॥399॥
अन्वयार्थ : [जो जीवरक्खणपरो] जो मुनि जीवों की रक्षा में तत्पर होता हुआ [गमणागमणादिसव्वकज्जेसु] गमन आगमन आदि सब कार्यों में [तणछेदं पिण इच्छदि] तृण का छेदमात्र भी नहीं चाहता है, नहीं करता है [तस्य संजयधम्मो हवे] उस मुनि के संयमधर्म होता है ।

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इह-पर-लोय-सुहाणं णिरवेक्खो जो करेदि सम-भावो
विविहं काय-किलेसं तव-धम्मो णिम्मलो तस्स ॥400॥
अन्वयार्थ : [जो] जो (मुनि) [इहपरलोयसुहाणं णिरवेक्खो] इसलोक परलोक के सुख की अपेक्षा से रहित होता हुआ [समभावो] (सुख-दुःख, शत्रु-मित्र, तृण-कंचन, निन्दा-प्रशंसा आदि में रागद्वेष रहित) समभावी होता हुआ [विविहं कायकिलेसं] अनेक प्रकार कायक्लेश [करेदि] करता है [तस्स णिम्मलो तवधम्मो] उस मुनि के निर्मल तपधर्म होता है ।

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+ त्याग धर्म -
जो चयदि मिट्ठ-भोज्जं उवयरणं रय-दोस-संजणयं
वसदिं ममत्त-हेदुं चाय-गुणो सो हवे तस्स ॥401॥
अन्वयार्थ : [जो मिट्ठभोज्जं चयदि] जो मुनि मिष्ट भोजन को छोड़ता है [रायदोससंजणयं उवयरणं] रागद्वेष उत्पन्न करनेवाले उपकरण को छोड़ता है [ममत्तहेदुं वसदिं] ममत्व का कारण वसतिका को छोड़ता है [तस्स चायगुणो हवे] उस मुनि के त्याग नाम का धर्म होता है ।

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+ निर्ग्रन्थ धर्म -
ति-विहेण जो विवज्जदि चेयणमियरं च सव्वहा संगं
लोय-ववहार -विरदो णिग्गंथत्तं हवे तस्स ॥402॥
अन्वयार्थ : [जो] जो (मुनि) [लोयववहारविरदो] लोक व्यवहार से विरक्त होकर [चेयणमियरं च सव्वहा संगं] चेतन अचेतन परिग्रह को सर्वथा [तिविहेण विवज्जदि] तीनों प्रकार से (मन-वचन-काय कृत-कारित-अनुमोदना से) छोड़ता है [तस्स णिग्गंथ हवे] उसे (मुनि के) निर्ग्रन्थत्व होता है।

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+ ब्रह्मचर्य धर्म -
जो परिहरेदि संगं महिलाणं णेव पस्सदे रूवं
काम-कहादि- णिरीहो णव-विह-बंभं हवे तस्स ॥403॥
अन्वयार्थ : [जो महिलाणं संगं परिहरेदि] जो मुनि स्त्रियों की संगति नहीं करता है [रूवं णेच पस्सदे] उनके रूप को नहीं देखता है [कामकहादिणिरीहो] काम की कथा आदि (स्मरणादिक से) रहित हो [णव विह] ऐसा (नवधा कहिये मन-वचन-काय कृत-कारित-अनुमोदना और तीनों काल से) नव कोटि से करता है [तस्स बंभं हवे] उसे (मुनि के) ब्रह्मचर्य धर्म होता है ।

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जो ण वि जादि वियारं तरुणियण-कडक्ख- बाण-विद्धो वि
सो चेव सूर-सूरो रण-सूरो णो हवे सूरो ॥404॥
अन्वयार्थ : [जो] जो पुरुष [तरुणियणकडक्खबाणविद्धो वि] स्त्रियों के कटाक्षरूपी बाणों से आहत होकर भी [वियारं ण वि जादि] विकार को प्राप्त नहीं होता है [सो चेव सूरमरो] वह शूरवीरों में प्रधान है [रणसूरो सूरो णो हवे] और जो रण में शूरवीर है वह शूरवीर नहीं है ।

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एसो दह-प्पयारो धम्मो दह-लक्खणो हवे णियमा
अण्णो ण हवदि धम्मो हिंसा सुहुमा वि जत्थत्थि ॥405॥
अन्वयार्थ : [एसो दहप्पयारो धम्मो णियमा दहलक्खणो हवे] यह दस प्रकार का धर्म ही नियम से दस लक्षण स्वरूप धर्म है [अण्णो जत्थत्थि सुहमा वि हिंसा धम्मो ण हवदि] और अन्य जहाँ सूक्ष्म भी हिंसा होय सो धर्म नहीं है ।

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हिंसारंभो ण सुहो देव-णिमित्तं गुरूण कज्जेसु
हिंसा पावं ति मदो दया-पहाणे जदो धम्मो ॥406॥
अन्वयार्थ : [हिंसा पावं ति मदो जदो धम्मो दयापहाणो] जिससे हिंसा हो वह पाप है, धर्म है सो दयाप्रधान है ऐसा कहा गया है [देवणिमित्तं गुरूण कज्जेसु हिसारंभो सुहो ण] इसलिये देव के निमित्त तथा गुरु के काय के निमित्त हिंसा आरम्भ शुभ नहीं है ।

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देव-गुरूण णिमित्तं हिंसा-सहिदो वि होदि जदि धम्मो
हिंसा-रहिदो धम्मो इदि जिण-वयणं हवे अलियं ॥407॥
अन्वयार्थ : [जदि देवगुरूण णिमितं हिंसासहिदो वि धम्मो होदि] यदि देव गुरु के निमित्त हिंसा का आरम्भ भी धर्म हो तो [धम्मो हिंसारहिदो इदि जिणवयणं अलियं हवे] 'धर्म हिंसा रहित है' ऐसा जिनेन्द्र भगवान का वचन अलीक (झूठा) सिद्ध होवे ।

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इदि एसो जिण-धम्मो अलद्ध-पुव्वो अणाइ -काले वि
मिच्छ त्त-संजुदाणं जीवाणंलद्धि-हीणाणं ॥408॥
अन्वयार्थ : [इदि एसो जिणधम्मो] इसप्रकार से यह जिनेश्वर देव का धर्म [अणाइकाले वि] अनादिकाल में [लद्धिहीणाणं] जिनको स्व-काल आदि की प्राप्ति नहीं हुई है ऐसे [मिछत्तसंजदाणं जीवाणं] मिथ्यात्व सहित जीवों के [अलद्धपुव्वो] अलब्धपूर्व है अर्थात् पहिले कभी नहीं पाया ।

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एदे दह-प्पयारा पावं-कम्मस्स णासिया भणिया
पुण्णस्स य संजणया पर पुण्णत्थं ण कायव्वा ॥409॥
अन्वयार्थ : [एदे दहप्पयारा] ये दस प्रकार के (धर्म के भेद) [पावंकम्मस्स णासिया] पाप कर्म का तो नाश करने वाले [य पुण्णस्स संजणया] और पुण्यकर्म को उत्पन्न करनेवाले [भणिया] कहे गये हैं [पर पुण्णत्थं ण कायव्या] परन्तु केवल पुण्य ही के प्रयोजन से इनको अंगीकार करना उचित नहीं है ।

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पुण्णं पि जो समिच्छदि संसारो तेण ईहिदो होदि
पुण्णं सुगई -हेदुं पुण्ण-खएणेव णिव्वाणं ॥410॥
अन्वयार्थ : [जो पुण्णं पि समिच्छदि] जो पुण्य को भी चाहता है [तेण संसारो ईहिदो होदि] वह पुरुष संसार ही को चाहता है [पुण्णं सुग्गई हेदुं] क्योंकि पुण्य सुगति के बन्ध का कारण है [णिव्वाणं पुण्णखएणेव] और मोक्ष पुण्य के भी क्षय से होता है।

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जो अहिलसेदि पुण्णं सकसाओ विसय-सोक्ख -तण्हाए
दूरे तस्स विसोही विसोहि-मूलाणि पुण्णाणि ॥411॥
अन्वयार्थ : [जो सकसाओ विसयसोक्खतण्हाए पुण्णं अहिलसेदि] जो कषाय सहित होता हुआ विषयसुख को तृष्णा से पुण्य की अभिलाषा करता है [तस्स विसोही दूरे] उसके (मन्दकषाय के अभाव के कारण) विशुद्धता दूर है [पुण्णाणि विसोहिमूलाणि] और विशुद्धता है मूल कारण जिसका, ऐसा पुण्यकर्म है ।

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पुण्णासाए ण पुण्णं जदो णिरीहस्स पुण्ण-संपत्ती
इय जाणिऊण जइणो पुण्णे वि म आयरं कुणह ॥412॥
अन्वयार्थ : [जदो पुण्णासाए पुण्णं ण] क्योंकि पुण्य की वांछा से तो पुण्य-बन्ध होता नहीं है [णिरीहस्स पुण्णसंपत्ती] और वांछारहित पुरुष के पुण्य का बन्ध होता है [जइणो इय जाणिऊण] इसलिये भी हे यतीश्वरों ! ऐसा जानकर [पुण्णे वि म आयरं कुणह] पुण्य में भी आदर (वांछा) मत करो ।

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पुण्णं बंधदि जीवो मंद-कसाएहिं परिणदो संतो
तम्हा मंद-कसाया हेऊ पुण्णस्स ण हि वंछा ॥413॥
अन्वयार्थ : [जीवो मंदकसाएहिं परिणदो संतो पुण्णं बंधदि] जीव मन्दकषायरूप परिणमता हुआ पुण्यबन्ध करता है [तम्हा पुण्णस्स हेऊ मंदकसाया] इसलिये पुण्यबन्ध का कारण मन्दकषाय है [वंछा ण हि] वांछा पुण्यबन्ध का कारण नहीं है ।

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+ निःशंका गुण -
किं जीव-दया धम्मो जण्णे हिंसा वि होदि किं धम्मो
इच्चेवमादि-संका-तदक रणं जाण णिस्संका ॥414॥
अन्वयार्थ : [किं जीवदया धम्मो] यह विचार करना कि 'क्या जीवदया धर्म है ?' [जण्णे हिंसा वि होदि किं धम्मो] अथवा यज्ञ में पशुओं के वधरूप हिंसा होती है सो धर्म है ? [इच्चेवमादिसंका] इत्यादि धर्म में संशय होना सो शंका है [तदकरणं णिस्संका जाण] इसका नहीं करना सो निःशंका है ऐसा जान ।

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+ निःशंकित गुण -
दय-भावो वि य धम्मो हिंसा-भावो ण भण्णदे धम्मो
इदि संदेहाभावो णिस्संका णिम्मला होदि ॥415॥
अन्वयार्थ : [दयभावो वि य धम्मो] निश्चय से दया भाव ही धर्म है [हिंसाभावो धम्मो ण भण्णदे] हिंसाभाव धर्म नहीं कहलाता है [इदि] ऐसा निश्चय होने पर [संदेहाभावो] सन्देह का अभाव होता है [णिम्मला णिस्संका होदि] वह ही निर्मल निःशंकित गुण है ।

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+ निःकांक्षित गुण -
जो सग्ग-सुह-णिमित्तं धम्मं णायरदि दूसह-तवेहिं
मोक्खं समीहमाणो णिक्खंखा जायदे तस्स ॥416॥
अन्वयार्थ : [जो] जो (सम्यग्दृष्टि) [दूसहतवेहिं] दुद्धर तप से भी [मोक्खं समीहमाणो] मोक्ष की ही वांछा करता हुआ [सग्गसुहणिमित्तं धम्मं णायरदि] स्वर्गसुख के लिये धर्म का आचरण नहीं करता है [तस्स णिक्खंखा जायदे] उसके निःकांक्षित गुण होता है।

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+ निर्विचिकित्सा गुण -
दह-विह-धम्म-जुदाणं सहाव-दुग्गंध-असुइ-देहेसु
जं णिंदणं ण कीरइ णिव्विदिगिंछा गुणो सो हु ॥417॥
अन्वयार्थ : [दहविहधम्मजुदाणं] दस प्रकार के धर्म सहित [सहावदुग्गंधअसुइदेहेसु] मुनिराज का शरीर पहिले तो जो स्वभाव से ही दुर्गन्धित और अशुचि है और स्नानादि संस्कार के अभाव से बाह्य में विशेष अशुचि और दुर्गन्धित दिखाई देता है उसकी [जं णिंदणं ण कीरइ] जो निन्दा (अवज्ञा) नहीं करना [सो हु णिव्विदिगिंछा गुणो] सो निर्विचिकित्सा गुण है।

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+ अमूढदृष्टिगुण -
भय-लज्जा-लाहादो हिंसारंभो ण मण्णदे धम्मो
जो जिण-वयणेलीणो अमूढ-दिट्ठी हवे सो दु ॥418॥
अन्वयार्थ : [जो] जो [भयलज्जालाहादो हिसारंभो धम्मो ण मण्णदे] भय, लज्जा और लाभ से हिंसा के आरम्भ को धर्म नहीं मानता है [जिणवयणे लीणो] और जिनवचनों में लीन है, ('भगवान ने धर्म अहिंसा ही कहा है' ऐसी दृढ़ श्रद्धा युक्त है) [सो दु अमूढदिट्ठी हवे] उसके अमूढदृष्टिगुण है ।

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+ उपगूहन गुण -
जो परदोसं गोवदि णिय-सुकयं जो ण पयासदे लोए
भवियव्वं -भावणरओ उवगूहण-कारओ सो हु ॥419॥
अन्वयार्थ : [जो परदोसं गोवदि] जो (सम्यग्दृष्टि) दूसरे के दोषों को छिपाता है, [णियसुकयं लोए जो ण पयासदे] अपने सुकृत (पुण्य) को लोक में प्रकाशित नहीं करता फिरता है [भवियव्वंभावणरओ] ऐसी भावनामें लीन रहता है कि जो भवितव्य है सो होता है तथा होगा [सो हु उवगृहणकारओ] सो उपगूहन गुण करनेवाला है ।

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+ स्थितिकरण गुण -
धम्मादो चलमाणं जो अण्णं संठवेदि धम्मम्मि
अप्पाणं पि सुदिढयदि ठिदि-करणं होदि तस्सेव ॥420॥
अन्वयार्थ : [जो धम्मादो चलमाणं अण्णं धम्मम्मि संठवेदि] जो धर्म से चलायमान होते हुए दूसरे को धर्म में स्थापित करता है [अप्पाणं सुदिढयदि] और अपने आत्मा को भी चलायमान होने से दृढ़ करता है [तस्सेव ठिदिकरणं होदि] उसके निश्चय से स्थितिकरण गुण होता है ।

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+ वात्सल्य गुण -
जो धम्मिएसु भत्तो अणुचरणं कुणदि परम-सद्धाए
पिय-वयणं जंपंतो वच्छल्लं तस्स भव्वस्स ॥421॥
अन्वयार्थ : [जो धम्मिएसु भत्तो] जो (सम्यग्दृष्टि जीव) धार्मिक (सम्यग्दृष्टि श्रावकों तथा मुनियों) में भक्तिवान् हो [अणुचरणं कुणदि] उनके अनुसार प्रवृत्ति करता हो [परमसद्धाए पियवयणं जपतो] परम श्रद्धा से प्रिय वचन बोलता हो [तस्स भव्वस्स वच्छल्ल] उस भव्य के वात्सल्य गुण होता है ।

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+ प्रभावना गुण -
जो दस-भेयं धम्मं भव्व-जणाणं पयासदे विमलं
अप्पाणं पि पयासदि णाणेण पहावणा तस्स ॥422॥
अन्वयार्थ : [जो दसभेयं धम्म भव्वजणाणं] जो (सम्यग्दृष्टि) दस भेदरूप धर्म को भव्यजीवोंके निकट [णाणेण] अपने ज्ञान से [विमलं पयासदे] निर्मल प्रगट करे [अप्पाणं पि पयासदि] तथा अपनी आत्मा को दस प्रकार के धर्म से प्रकाशित करे [तस्स पहावणा] उसके प्रभावना गुण होता है ।

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जिण-सासण-माहप्पं बहु-विह-जुत्तीहि जो पयासेदि
तह तिव्वेण तवेण य पहावणा णिम्मला तस्स ॥423॥
अन्वयार्थ : [जो बहुविहजुत्तीहि] जो (सम्यग्दृष्टि पुरुष) अपने ज्ञान के बलसे, अनेक प्रकार की युक्तियों से वादियों का निराकरण कर तथा न्याय व्याकरण छन्द अलंकार साहित्य विद्या से उपदेश वा शास्त्रों की रचना कर [तह तिव्वेण तवेण य] तथा अनेक अतिशय चमत्कार पूजा प्रतिष्ठा और महान् दुद्धर तपश्चरण से [जिणसासणमाहप्पं] जिनशासन के माहात्म्य को [पयासेदि] प्रगट करे [तस्स पहावणा णिम्मला] उसके प्रभावना गुण निर्मल होता है ।

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जो ण कुणदि परतत्तिं पुणु पुणु भावेदि सुद्धमप्पाणं ।
इंदियसुहणिरवेक्खो णिस्संकाई गुणा तस्स ॥४२४॥
अन्वयार्थ : [जो परतत्तिं ण कुणदि] जो पुरुष दूसरों की निन्दा नहीं करता है [सुद्धमप्पाणं पुणु पुणु भावेदि] शुद्ध आत्मा को बार बार भाता (भावना करता) है [इंदियसुहणिरवेक्खो] और इन्द्रिय-सुख की अपेक्षा (वांछा) रहित होता है [तस्स णिस्संकाईगुणा] उसके निःशंकित आदि अष्ट गुण (अहिंसा धर्मरूप सम्यक्त्व) होता है ।

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णिस्संकापहुडिगुणा जह धम्मे तह य देवगुरुतच्चे ।
जाणेहि जिणमयादो सम्मत्तविसोहया एदे ॥४२५॥
अन्वयार्थ : [णिस्संकापहुडिगुणा जह धम्मे तह य देवगुरुतच्चे] ये निःशंकित आदि आठ गुण जैसे धर्म में प्रगट होते कहे गये हैं वैसे ही देव के स्वरूप में तथा गुरु के स्वरूप में (और षड्द्रव्य, पंचास्तिकाय, सप्त-तत्त्व, नव पदार्थों के स्वरूप में होते हैं) [जिणमयादो जाणेहि] इनको प्रवचन सिद्धान्त से जानना चाहिये [एदे सम्मतविसोहया] ये आठ गुण सम्यक्त्व को निरतिचार विशुद्ध करनेवाले हैं ।

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+ धर्म-ग्रहण का माहात्‍म्‍य दष्‍टान्‍त-पूर्वक -
जह जीवो कुणइ रइं, पुत्‍‍तकलत्‍‍तेसुकामभोगेसु ।
तह जह जिणिंदधम्‍मे, तो लीलाए सुहं लहदि ॥426॥
अन्वयार्थ : [जह जीवो पुत्‍तकलत्‍तेसुकामभोगेसु रइं कुणइ] जैसे यह जीव पुत्र-कलत्र में तथा काम-भोग में रति (प्रीति) करता है [तह जइ जिणिंदधम्‍मे तो लीलाए सुहं लहदि] वैसे ही यदि जिनेन्‍द्र के वीतराग धर्म में करे तो लीलामात्र (शीघ्रकाल) में ही सुख को प्राप्‍त हो जाय ।

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+ लक्ष्‍मी का चाहना धर्म-बिना निष्फल -
लच्छिं वंछेइ णरो, णोव सुधम्‍मेसु आयरं कुणइ ।
बीएण विणा कत्‍थ वि, किं दीसदि सस्‍सणिप्‍पत्‍ती ॥427॥
अन्वयार्थ : [णरो लच्छिं वंछेइ] यह जीव लक्ष्‍मी को तो चाहता है [सुधम्‍मेसु आयरं णेव कुण्‍इ] और जिनभाषित धर्म में आदर (प्रीति) नहीं करता, [बीएण विणा सस्‍सणिप्‍पत्‍ती कत्‍थ वि किं दीसदि] बीज के बिना धान्‍य की उत्‍पत्ति क्‍या कहीं दिखाई देती है ?

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+ धर्मात्‍मा जीव की प्रवृत्ति -
जो धम्‍मत्‍थो जीवो, सो रिउवग्‍गे वि कुणदि खमभावं ।
ता परदव्‍वं वज्‍जह, जणणिसमं गणइ परदारं ॥428॥
अन्वयार्थ : [जो जीवो धम्‍मत्‍थो] जो जीव धर्म में स्थित है [सो रिउवग्‍गे वि खमभावे कुणदि] वह शत्रुओं के समूह पर भी क्षमा-भाव करता है [ता परदव्‍वं वज्‍ज्‍इ] दूसरे के द्रव्‍य को त्‍यागता है, [परदारं जणणिसमं गणइ] पर-स्‍त्री को माता के समान समझता है ।

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ता सव्‍वत्‍थ वि कित्‍ती, ता सव्‍वस्‍स वि हवेइ वीसासो ।
ता सव्‍वं पिय भासइ, ता शुद्धं माणसं कुणई ॥429॥
अन्वयार्थ : [ता सव्‍वत्‍थ वि कित्‍ती] (जो धर्म में स्थित है) उसकी सब लोक में कीर्ति होती है [ता सव्‍वस्‍स वि वीसासो हवेइ] उसका सब लोक विश्‍वास करता है [ता सव्‍वं पिय भासइ] वह पुरूष सबको प्रिय लगता है [ता सुद्धं माणसं कुणई] और वह पुरूष अपने तथा दूसरे के मन को शुद्ध (उज्‍जवल) करता है ।

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+ धर्म का माहात्‍म्‍य -
उत्‍तमधम्‍मेण जुदो, होदि तिरक्‍खो वि उत्‍तमो देवो ।
चंडालो वि सुरिंदो, उत्‍तमधम्‍मेण संभवदि ॥430॥
अन्वयार्थ : [उत्‍तमधम्‍मेण जुदो तिरक्‍खो वि उत्‍तमो देवो होदि] (सम्‍यक्‍त्‍व सहित) उत्‍तम धर्म से युक्‍त तिर्यंच भी उत्‍तम देव होता है [उत्‍तमधम्‍मेण चंडालो वि सुरिंदो संभवदि] उत्‍तम धर्म से चांडाल भी देवेन्द्र हो सकता है ।

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अग्‍गी वि य होदि हिमं, होदि भुयंगो वि उत्‍तमं रयणं ।
जीवस्‍स सुधम्‍मादो, देवा वि य किंकरा होंति ॥431॥
अन्वयार्थ : [जीवस्‍स सुधम्‍मादो] जीव के उत्‍तम धर्म के प्रभाव से [अग्‍गी वि य हिमं होदि] अग्नि तो हिम (शीतल पाला) हो जाती है [भुयंगो वि उत्‍तमं रयणं होदि] सांप भी उत्‍तम रत्‍नों की माला हो जाता है [देवा वि य किंकरा होंति] देव भी किंकर (दास) हो जाते हैं ।

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अलियवयणं पि सच्‍चं, उज्‍जमरहिए वि लच्छिसंपत्‍ती ।
धम्‍मपहावेण णरो, अणओ वि सुहंकरो होदि ॥432॥
अन्वयार्थ : [धम्‍मपहावेण णरो] धर्म के प्रभाव से जीव के [अलियवयणं पि सच्‍चं] असत्य-वचन भी सत्‍य हो जाते हैं [उज्‍जमरहिउ वि लच्छिसंपत्‍ती] उद्यम-रहित को भी लक्ष्‍मी की प्राप्ति हो जाती है [अणओ वि सुहंकरो होदि] और अन्‍यान्‍य-कार्य भी सुख के करने वाले हो जाते हैं ।

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+ धर्म-रहित जीव की निन्‍दा -
देवो वि धम्‍मचत्‍तो, मिच्‍छत्‍तवसेण तस्‍वरो होदि ।
चक्‍की वि धम्‍मरहिओ, णिवडइ णरए ण संदेहो ॥433॥
अन्वयार्थ : [धम्‍मचत्‍तो मिच्‍छत्‍तवसेण देवो वि तरूवरो होदि] धर्म-रहित मिथ्‍यात्‍व के वश से देव भी वनस्‍पतिकायिक एकेन्द्रिय जीव हो जाता है [धम्‍मरहिओ चक्‍की वि णरए णिवडइ] धर्म-रहित चर्कवर्ती भी नरक में जा पडता है [ण संदेहो] उसमें भी कोई सन्‍देह नहीं है ।

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धम्‍मविहीणो जीवो, कुणइ असक्‍कं पि साहसं जइ वि ।
तो ण वि पावदि इट्ठं, सुट्ठु अणिट्ठं परं लहदि ॥434॥
अन्वयार्थ : [धम्‍मविहीणो जीवो जइ वि असक्‍कं साहसं पि कुणइ] धर्म-रहित जीव यद्यपि बड़ा असह्य साहस (पराक्रम) भी करता है [तो इट्ठं सट्ठु ण वि पावदि] तो भी उसको इष्‍ट वस्‍तु की प्राप्ति नहीं होती है [परं अणिट्ठं लहदि] केवल अनिष्‍ट की प्राप्ति होती है ।

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इय पच्‍चक्‍खं पेच्‍छह धम्‍माहम्‍माण विविहमाहप्‍पं ।
धम्‍मं आयरह सया, पावं दूरेण परिहरह ॥435॥
अन्वयार्थ : [इय धम्‍माहम्‍माण विविहमाहप्‍पं पच्‍चक्‍खं पेच्‍छह] इस प्रकार से धर्म और अधर्म का अनेक प्रकार का माहात्‍म्‍य प्रत्‍यक्ष देखकर [सया धम्‍मं आयरह] तुम सदा धर्म का आदर करो [पावं दूरेण परिहरह] और पाप को दूर ही से छोड़ो ।

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+ बारह प्रकार तप -
बारसभेओ भणिओ, णिज्‍जरहेउ तवो समासेण ।
तस्‍स पयारा एदे, भणिज्‍जमाणा मुणेयव्‍वा ॥436॥
अन्वयार्थ : [णिज्‍जरहेउ तवो बारसभेओ समासेण भणिओ] कर्म निर्जरा का कारण तप बारह प्रकार का संक्षेप से जिनागम में कहा गया है [तस्‍स पयारा एदे भणिज्‍जमाणा मुणेयव्‍वा] उसके भेद जो अब कहेंगे सो जानना चाहिये ।

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+ अनशन तप -
उवसमणं अक्‍खाणं, उववामो वण्णिदो मुणिंदेहि ।
तम्‍हा भुंजुंताविय जिदिंदिया हों ति उववासा ॥437॥
अन्वयार्थ : [मुणिंदेहि अक्‍खाणं उवसमणं उववासा वण्णिदो] मुनीन्‍दों ने संक्षेप में इन्दियों को विषयों में न जाने देने को, मन को अपने आतम-स्‍वरूप में लगाने को उपवास कहा है [तम्‍हा जिदिंदिया भुंजुंता वि य उववासा होंति] इसलिये जितेन्द्रिय आहार करते हुए भी उपवास सहित ही होते हैं ।

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जो मणइंदियविजई, इहभवपरलोयसोक्‍खणिरवेक्‍खो ।
अप्‍पाणे विय णिवसइ, सज्‍झायपरायणो होदि ॥438॥
कम्‍माणणिज्‍जरट्ठं, आहारं परिहरेइ लीलाए ।
एगदिणादिपमाणां, तस्‍स तवं अणसणं होदि ॥439॥
अन्वयार्थ : [जो मणइंदियविजई] जो मन और इन्द्रियों को जीतनेवाला है [इह भवपरलोयसोक्‍खणिरवेक्‍खो] इस भव और परभव के विषय-सुखों में अपेक्षा-रहित है (वांछा नहीं करता) [अप्‍पाणे विय णिवसइ] अपने आत्‍म-स्‍वरूप में ही रहता है [सज्‍झायपरायणो होदि] तथा स्‍वाध्‍याय में तत्‍पर है । [एगदिणादिपमाणं] और एक दिन की मर्यादा से [कम्‍माण णिज्‍जरट्ठ] कर्मों की निर्जरा के लिये [लीलाए आहारं परिहरेइ] लीलामात्र ही क्‍लेश-रहित हर्ष से आहार को छोड़ता है [तस्‍स अणसणं तवं होदि] उसके अनशन तप होता है ।

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उववासं कुव्‍वाणो, आरंभं जो करेदि मोहादो ।
तस्‍स किलेसो अवरं, कम्‍माणं णेव णिज्‍जरणं ॥440॥
अन्वयार्थ : [जो उववासं कुव्‍वाणे मोहादो आरंभं करेदि] जो उपवास करता हुआ मोह से आरम्‍भ (गृहकार्यादि) को करता है [तस्‍स अवरं किलेसो] उसके अधिक क्‍लेश हो गया [कम्‍माणं णिज्‍जरणं णेव] कर्मों का निर्जरण तो नहीं हुआ ।

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+ अवमौदर्य तप -
आहारगिद्धिरहिओ, चरियामग्‍गेण पासुगं जोग्‍गं ।
अप्‍पयरं जो भुज्‍जइ, अवमोदरियं तवं तस्‍स ॥441॥
अन्वयार्थ : [जो आहारगिद्धिरहिओ] जो तपस्‍वी आहार की अतिचाह से रहित होकर [चरियामग्‍गेण जोग्‍गं पासुगं] शास्‍त्रोक्‍त चर्या की विधि से योग्‍य प्रासुक आहार [अप्‍पयरं भुंजइ] अति अल्‍प लेता है [तस्‍स अवमोदरियं तवं] उसके अवमौदर्य तप होता है ।

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जो पुण कित्तिणिमित्‍तं, मायाए मिट्ठभिक्‍ख्‍लाहट्ठं ।
अप्‍पं भुज्‍जदि भोज्‍जं, तस्‍स तवं णिप्‍फलं बिदियं ॥442॥
अन्वयार्थ : [जो पुण कित्तिणिमित्‍तं] जो मुनि कीर्ति के निमित्‍त तथा [मायाए मिट्ठभिक्‍खलाहट्ठं] माया (कपट) से और मिष्‍ट-भोजन के लाभ के लिए [अप्‍पं भोज्‍जे भुंजदि] अल्‍प-भोजन करता हे (तपका नाम करता है) [तस्‍स विदियं तवं णिप्‍फलं] उसके दूसरा अवमौदर्य तप निष्‍फल है ।

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+ वृत्तिपरिसंख्‍यान तप -
एगादिगिहपमाणं, किं वा संकप्‍पकप्पियं विरसं ।
भोज्‍जं पसुव्‍व भुंजदि, वित्तिपमाणं तवो तस्‍स ॥443॥
अन्वयार्थ : [एगादिगिहपमाणं] (आहार हेतु) एक-दो आदि ही घर का प्रमाण करके [किं वा संकप्‍पकप्पियं विरसं] कुछ और भी संकल्प लेकर [भोज्‍जं वसुव्‍व भुंजदि] आहार पशु गौ आदि की तरह करे (जैसे गौ इधर-उधर नहीं देखती है चरने ही की तरफ देखती है) [तस्‍स वित्तिपमाणं तवो] उसके वृत्ति-परिसंख्‍यान तप है ।

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+ रस-परित्‍याग तप -
संसारदुक्‍खतट्ठो, विससमविसयं विचिंतमाणो जो ।
णीरसभोज्‍जं भुंजइ, रसचाओ तस्‍स सुविसुद्धो ॥444॥
अन्वयार्थ : [जो संसारदुक्‍खतट्ठो विससमवियं विचिंतमाणो] जो मुनि संसार के दु:ख से तप्‍तायमान होकर ऐसे विचार करता है कि इन्द्रियों के विषय षिसमान हैं विष खाने पर तो एक ही बार मरता है और विषय-सेवन करने पर बहुत जन्‍म मरण होते हैं ऐसा विचार कर [णीरसभोज्‍जं भुंजइ] नीरस भोजन करता है [तस्‍स रसचाओ सुविसुद्धो] उसके रस-परित्‍याग तप निर्मल होता है ।

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+ विविक्‍त-शय्यासन तप -
जो रायदोसहेदू आसणसिज्‍जादियं परिच्‍चयइ ।
अप्‍पा णिव्विसय सया, तस्‍स तवो पंचमो परमो ॥445॥
अन्वयार्थ : [जो रायदोसहेदू आसणसिज्‍जादियं परिच्‍चयइ] जो राग-द्वेष का कारण, आसन शय्या आदि, को छोड़ता है [अव्‍वा णिव्विसय सया] तथा सदा अपने आत्‍म-स्‍वरूप में रहता है [तस्‍स पंचमो तवो परमो] उस मुनि के पांचवा तप विविक्‍त-शय्यासन उत्‍कृष्‍ट होता है ।

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पूजादिसु णिरवेक्‍खो, संसारसरीरभोगणिव्विण्‍णो ।
अब्‍भंतरतवकुसलो, उवसमसीलो महासंतो ॥446॥
जो णिवसेदि मसाणे, वणगहणे णिज्‍जणे महाभीमे ।
अण्‍णत्‍थ वि एयंते, तस्‍स वि एदं वि एदं तवं होदि ॥447॥
अन्वयार्थ : [जो पूजादिसु णिरवेक्‍खो] जो पूजा आदि में निरपेक्ष है, [संसारसरीरभोगणिव्विण्‍णो] संसार, शरीर और भोगों से विरक्‍त है [अब्‍भंतरतवकुसलो] (स्‍वाध्‍याय, ध्‍यान आदि) अन्‍तरंग तपों में प्रवीण है, [उवसमसीलो] उपशमशील (मन्‍दकषायरूप शान्‍तपरिणामी) है [महासंतो] महा पराक्रमी है । [मसाणे वणगहणे णिज्‍जणे महाभीमे अण्णत्‍थ वि एयंते णिवसेदि] श्‍मशानभूमि, गहन-वन, निर्जन-स्‍थान, महा-भयानक उद्यान और अन्‍य भी ऐसे एकान्‍त स्‍थानों में रहता है [तस्‍स वि एदं विं होदि] उसके निश्‍चय से यह विविक्‍त-शय्यासन तप होता है ।

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+ काय-क्‍लेश तप -
दुस्‍सहउवसग्‍गजई, आतावणसीयवायखिण्‍णो वि ।
जो ण वि खेदं गच्‍छदि,कायकिलेसो तवो तस्‍स ॥448॥
अन्वयार्थ : [जो दुस्‍सहउवसग्‍गजई] जो दु:सह उपसर्ग को जीतने वाला है [आतावणसीयवायखिण्‍णो वि] आताप शीत वात पीडित होकर भी खेद को प्राप्‍त नहीं होता है [खेदं वि ण गच्‍छदि] चित्‍त में क्षोभ (क्‍लेश) भी नहीं करता है [तस्‍सकाय‍िकलेसो तवो] उसके काय-क्‍लेश नामक तप होता है ।

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+ प्रायश्चित्‍त तप -
दोसं ण करेदि सयं, अण्‍णं पि णकारएदि जो तिपिहं ।
कुव्‍वाणं पि ण इच्‍छदि, तस्‍स विसोही परा होदि ॥449॥
अन्वयार्थ : [जो तिविहं सयं दोसं ण करेदि अण्‍णं पि णकारएदि] जो मन-वचन-काय से स्‍वयं दोष नहीं करता है, दूसरे से भी दोष नहीं कराता है और [कुव्‍वाणं पिण इच्‍छदि] करते हुए को भी अच्‍छा नहीं मानता है [तस्‍स परा विसोही होदि] उसके उत्‍कृष्‍ट विशुद्धि होती है ।

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अह कह वि पमादेण य, दोसो तदि एदि तं पि पयडेदि ।
णिद्दोससाहुमूले, दसदोसविवज्जिदो होदुं ॥450॥
अन्वयार्थ : [अह कह वि पमादेण य दोसो तदि एदि तं पि] अथवा किसी प्रमाद से अपने चारित्र में दोष आया हो तो उसको [णिद्दोससाहुमूले दसदोसविवज्जिदो होदुं] निर्दोष आचार्य के पास दस दोषों से रहित होकर प्रकट करे ।

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जं किं पि तेण दिण्‍णं, तं सव्‍वं सो करेदि सद्धाए ।
णो पुण हियएसेकदि, किं थोवं किं पि वहुयं वा ॥451॥
अन्वयार्थ : [जं किं पि तेण दिण्‍णं तं सव्‍वं सो सद्धाए करेदि] दोषों की आलोचना करने के बाद में जो कुछ आचार्य ने प्रायश्चित्‍त दिया हो उस सब ही को श्रद्धापूर्वक करे [पुण हियए णोसेकदि किं थोवं किंमु वहुयं वा] और ह्रदय में ऐसी शंका न करे कि यह प्रायश्चित्‍त दिया सो थोड़ा है या बहुत है ।

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पुणरविकाउं णेच्‍छदि, तं दोसं जइ वि जाइ सयखंडं ।
एवं णिच्‍चयसहिदो, पायच्छित्‍तं तवो होदि ॥452॥
अन्वयार्थ : [पुणरवि तं दोसंकाउं णेच्‍छदि जइ वि सयखंडं जाइ] लगे हुए दोष का प्रायश्चित्‍त लेकर उस दोष को करना न चाहे, यदि अपने सौ टुकड़े भी हो जाय तो भी न करे [एवं णिच्‍चयसहिदो पायच्छित्‍तं तवो होदि] ऐसे निश्‍चय सहित प्रायश्चित्‍त नामक तप होता है ।

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जो चिंतइ अप्‍पाणं, णाणसरूवं पुणो पुणो णाणी ।
विकहादिविरत्‍तमणो, पायच्छित्‍तं वरं तस्‍स ॥453॥
अन्वयार्थ : [जो णाणी अप्‍पाणं णाणसरूवं पुणो पुणो चिंतइ] जो ज्ञानी आत्‍मा को ज्ञान-स्‍वरूप बारम्‍बार चिंतवन करता है [विकहादिविरत्‍तमणो] और विकथादिक प्रमादों से विरक्‍त होता हुआ ज्ञान ही का निरन्‍तर सेवन करता है [तस्‍स वरं पायच्छित्‍तं] उसके श्रेष्‍ठ प्रायश्चित्‍त होता है ।

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+ विनय तप -
विणयो पंचपचारो, दंसणणाणे तहा चरित्‍ते य ।
वारसभेयम्मि तवे, उवयारो बहुविहो णेओ ॥454॥
अन्वयार्थ : [विणयो पंचपयारो] विनय पांच प्रकार का है [दंसणणाणे तहा चरित्‍ते य] दर्शन में, ज्ञान में तथा चारित्र में और [वारसभेयम्मि तवे] बारह प्रकार के तप में विनय [उवयारो बहुविहो णेओ] और उपचार विनय इस प्रकार यह अनेक प्रकार का जानना चाहिये ।

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दंसणणाणचरित्‍ते, सुविसुद्धो जो इवेइ परिणामो ।
वारसभेदे वि तवे, सो च्चिय विणओ हवे तेसिं ॥455॥
अन्वयार्थ : [दंसणणाणचरित्‍ते] दर्शन-ज्ञान-चारित्र में [वारसभेदे वि तवे] और बारह प्रकार के तप में [जो सूविसूद्धो परिणामोहवेइ] जो विशुद्ध परिणाम होते हैं [सो च्चिय तेसिं विणओ हवे] वह ही उनका विनय है ।

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रयण्‍णत्‍तयजुत्‍ताणं, अणुकूलं जो चरेदि भत्‍तीए ।
भिच्‍चो जह रायाणं, उवयारो सो हवे विणओ ॥456॥
अन्वयार्थ : [जह रायाणं भिच्‍चो] जैसे राजा के नौकर राजा के अनुकूल प्रवृत्ति करते हैं वैसे ही [जो रयण्‍णत्‍तयजुत्‍ताणं अणुकूलं भत्‍तीए चरेदि] जो रत्‍नत्रय (सम्‍यग्‍दर्शन ज्ञान चारित्र) के धारक मुनियों के अनुकूल भक्ति पूर्वक आचरण (प्रवृत्ति) करता है [सो उवयारो विणओ हवे] सो उपचार विनय है ।

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+ वैयावृत्‍य तप -
जो उवयरदि जदीणं, उवसग्‍गजराइखीणकायाणं ।
पूजादिसु णिारवेक्‍खं , वेज्‍जावच्‍चं तवो तस्‍स ॥457॥
अन्वयार्थ : [जो पूजादिसु णिरवेक्‍खं] जो अपनी पूजा (महिमा) आदि में अपेक्षा (वांछा) रहित होकर [उवसग्‍गजराइखीणकायाणं जदीणं उवयरदि] उपसर्ग पीडित तथा जरा रोगादि से क्षीणकाय यतियों का अपनी चेष्‍टा से, उपदेश से और अल्‍प वस्‍तु से उपकार करता है [तस्‍स वेज्‍जावच्‍चं तवो] उसके वैयावृत्‍य नामक तप होता है।

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जो वावरइ सरूवे, समदम भावम्मि सुद्धिउवजुत्‍तो ।
लोयववहारविरदो, वेज्‍जावच्‍चं परं तस्‍स ॥458॥
अन्वयार्थ : [जो समदम भावम्मि वावरइ सरूवे सुद्धिउवजुत्‍तो] जो शमदम भावरूप अपने आत्‍म-स्‍वरूप में शुद्धोपयोगमय प्रवृत्ति करता है और [लोयववहारविरदो] लोक-व्‍यवहार (बाह्य वैयावृत्‍य) से विरक्‍त होता है [तस्‍स परं वेज्‍जावच्‍चं] उसके उत्‍कृष्‍ट (निश्‍चय) वैयावृत्‍य होता है ।

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+ स्‍वाध्‍याय तप -
परतत्‍तीणिरवेक्‍खो, दुट्ठवियप्‍पाण णासणसमत्‍थो ।
तच्‍चविणिच्‍छयहेदू, सज्‍झाओ ज्‍झणसिद्धियरो ॥459॥
अन्वयार्थ : [परतत्‍तीणिरवेक्‍खो] दूसरे की निन्‍दा में निरपेक्ष, [दुट्ठवियप्‍पाण णासणसमत्‍थो] मन के दुष्‍ट विकल्‍पों का नाश करने में समर्थवान के, [तच्‍चविणिच्‍छयहेदू] तत्‍व के निश्‍चय करने का कारण और [ज्‍झणसिद्धियरो] ध्‍यान की सिद्धि करने वाला [सज्‍झाओ] स्‍वाध्‍याय नामक तप हेाता है ।

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पूयादिसु णिरवेक्खो, जिणसत्‍थं जो पढेइ भत्‍तीए ।
कम्‍मलसोहणट्ठं, सुयनलाहो सुहयरो तस्‍स ॥460॥
अन्वयार्थ : [जो पूयादिसु णिरवेक्खो] जो अपनी पूजा आदि में निरपेक्ष (वांछारहित) होता है और [कम्‍मलसोहणट्ठं] कर्मरूपी मैल का नाश करनेके लिए [भत्‍तीए जिणसत्‍थं पढेइ] भक्ति-पूर्वक जिन-शास्‍त्र को पढ़ता है [तस्‍स सुयनलाहो सुहयरो] उसको श्रुत का सुखकारी लाभ होता है ।

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जो जिणसत्‍थंसेवदि, पंडियमाणी फलं समीहंतो ।
साहम्मियपडिकूलो, सत्‍थं पि विसं हवे तस्‍स ॥461॥
अन्वयार्थ : [जो जिणसत्‍थंसेवदि फलं समीहंतो] जो जिनशास्‍त्र तो पढ़कर फल (अपनी पूजा लाभ और सत्‍कार) को चाहता है [साहम्मियपडिकूलो] तथा साधर्मी (सम्‍यग्‍दृष्टि जैनी) के प्रतिकूल (विपरीत) है [पंडियमाणी] सो पंडितमन्‍य है (जो पण्डित तो होता नहीं है और अपने को पण्डित मानता है उसको पण्डितमन्‍य कहते हैं) [तस्‍स सत्‍थं पि विसं हवे] उसके वह ही शास्‍त्र विषरूप होता है ।

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जो जुद्धकामसत्‍थं, रायदोसेहिं परिणदो पढइ ।
लोयावंचणहेदुं, सज्‍झाओ णिप्‍फलो तस्‍स ॥462॥
अन्वयार्थ : [जो जुद्धकामसत्‍‍थं रायदोसेहिं परिणदो] जो युद्ध के और काम-कथा के शास्‍त्र राग-द्वेष परिणाम से [लोयावंचणहेदुं पढइ] लोगों को ठगने के लिए पढ़ता है [सज्‍झाओ णिप्‍फलो तस्‍स] उसका स्वाध्याय निष्फल है ।

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जो अप्‍पाणं जाणदि, असुइसरीरादुतच्‍चदो भिण्‍णं ।
जाणगरूवसरूवं, सो सत्‍थं जाणदे सव्‍वं ॥463॥
अन्वयार्थ : [जो अप्‍पाणं असुइसरीरादु तच्‍चदो भिण्‍णं] जो अपनी आत्‍मा को इस अपवित्र शरीर से भिन्‍न [जाण्‍गरूवसरूवं जाणदि] ज्ञायकरूप स्‍वरूप जानता है [सो सव्‍वं सत्‍थं जाणदे] वह सब शास्‍त्रों को जानता है ।

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जो णवि जाणदि अप्‍पं, णाणसरूवं सरीरदोभिण्‍णं ।
सो णवि जाणदि सत्‍थं, आगमपाढं पुणंतो वि ॥464॥
अन्वयार्थ : [जो अप्‍पं णाणसरूवं सरीरदो भिण्‍णं णवि जाणदि] जो अपनी आत्‍मा को ज्ञानस्‍वरूपी और शरीर से भिन्‍न नहीं जानता है [सो आगमपाढं कुणंतो वि सत्‍थं णवि जाणदि] सो आगम का पाठ करे तो भी शास्‍त्र को नहीं जानता है ।

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+ व्‍युत्‍सर्ग तप -
जल्‍लमललित्‍तगत्‍तो, दुस्‍सहवाहीसु णिप्‍पडीयारो ।
मुहधोवणादिविरओ, भोयणसेज्‍जादिणिरवेक्‍खो ॥465॥
ससरूवचिंतणरओ, दुज्‍जणसुयणाण जो हु मज्‍झत्थो ।
देहे वि णिम्‍ममत्‍तो,काओसग्‍गो तवो तस्‍स ॥466॥
अन्वयार्थ : [जो जल्‍लमललित्‍तगत्‍तो] जो जल्‍ल (पसेव) और मल से तो लिप्‍त शरीर हो [दुस्‍सहवाहीसु णिप्‍पडीयारो] असह्य तीव्र रोग आने पर भी उसका प्रतीकार (इलाज) न करता हो [मुहधोवणादिविरओ] मुँह धोना आदि शरीर के संस्‍कार से विरक्‍त हो [भोयणसेज्‍जादिणिरवेक्‍खो] भोजन और शय्या आदि की वांछा रहित हो [ससरूवचिंतणरओ] अपने स्‍वरूप के चिंतवन में रत (लीन) हो [दुज्‍जणसुयणाण हु मज्‍झत्‍थो] दुजैन सज्‍जन में मध्‍यस्‍थ हो (शत्रु मित्र बराबर जानता हो) [देहे विणिम्‍ममत्‍तो] अधिक क्‍या कहें, देह में भी ममत्‍व-रहित हो [तस्‍सकाओसग्‍गो तवो] उसके कायोत्‍सर्ग नामक तप होता है ।

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जो देहधारणपराक, उवयरणादिविसेससंत्‍तो ।
बाहिरववहाररओ, काओसग्‍गो कुदो तस्‍स ॥467॥
अन्वयार्थ : [जो देहधारणपरो] जो देह का पालन करने में तत्‍पर हो [उवयरणा‍दीसेससंसत्‍तो] उपकरणादिक में विशेष संसक्‍त हो, [आहीरववहाररओ] बाह्य व्‍यवहार (लोकरंजन) करने में रत हो (तत्‍पर हो) [तस्‍सकाओसग्‍गो कुदो] उसके कायोत्‍सर्ग तप कैसे हो ?

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+ ध्यान का लक्षण -
अंतो मुहुत्‍तमेत्‍तं, लीणं वत्‍थुम्मि माणसं णाणं ।
ज्‍झाणं भण्‍णदि समए, असुहं च सुहं च तं दुविहं ॥468॥
अन्वयार्थ : [माणसं णाणं वत्‍थुम्मि अन्‍त्‍तो मुहुत्‍तमेत्‍तं लीणं] जो मन सम्‍बन्‍धी ज्ञान वस्‍तु में अन्‍तर्मुहूर्तमात्र लीन होता है (एकाग्र होता है) सो [समए ज्‍झाणं भण्‍णदि] सिद्धांत में ध्‍यान कहा गया है [तं च असुहं सुहं च दुविहं] और वह शुभ अशुभ के भेद से दो प्रकार का है ।

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+ शुभ और अशुभ ध्यान -
असुहं अट्ट रउद्दं, धम्मं सुक्‍कं च सुहयरं होदि ।
अट्टं तिव्‍वकषायं, तिव्‍वतमकसायदो रूद्दं ॥469॥
अन्वयार्थ : [अट्ट रउद्दं असुहं] आर्त-ध्‍यान रौद्र-ध्‍यान ये दोनों तो अशुभ ध्‍यान है [धम्‍मं सुक्‍कं च सुहयरं होदि] और धर्म-ध्‍यान शुक्‍ल-ध्‍यान ये दोनों शुभ और शुभतर हैं [अट्टं तिव्‍वकषायं] इनमें आदि का आर्तध्‍यान तो तीव्र कषाय से होता है [रूद्दं तिव्‍वतमकसायदो] और रौद्रध्‍यान अति तीव्र कषाय से होता है ।

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मंदकषायं धम्‍मं, मंद‍तमकसायदो अवे सुक्‍कं ।
अकसाए वि सुयड्ढे,केवलणाणे वि तं होदि ॥470॥
अन्वयार्थ : [धम्‍मं मंदकषायं] धर्म-ध्‍यान मन्‍द-कषाय से होता है [सुक्‍कं मंदतमकसायदो अवे] शुक्‍ल-ध्‍यान अत्‍यन्‍त मन्‍द-कषाय में होता है, [अकसाए वि सुयड्ढेकेवलणाणे वि तं होदि] और वह शुक्‍ल-ध्‍यान कषाय का अभाव होने पर श्रुतज्ञानी, उपशान्‍तकषाय, क्षीणकषाय, केवलज्ञानी, सयोगी तथा अयोगी जिन के भी होता है ।

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+ आर्त-ध्‍यान -
दुक्‍खयर-विसयजोए,केम इमं चयदि इदि विचिंतंतो ।
चेट्ठदि जो विक्खित्‍तो, अट्टंज्‍झाणं हवे तस्‍स ॥471॥
मणहरविसयविओगे, कह तं पावेमि इहि वियप्‍पो जो ।
संतावेण पयट्टो, सो च्चिय अट्टं हवे ज्‍झाणं ॥472॥
अन्वयार्थ : [जो दुक्‍खयरविसयजोए] जो दु:खकारी विषय का संयोग होने पर [इदि विचिंतंतो] ऐसा चिन्‍तवन करे कि [इमंकेम चयदि] यह मेरे कैसे दूर हो, [विक्खित्‍तो चेट्ठदि] विक्षिप्‍त-चित्‍त होकर चेष्‍टा करे, [तस्‍स अट्टं ज्‍झाणं हवे] उसके आर्त्‍त-ध्‍यान होता है [जो मणहरविसयविओगे] जो मनोहर विषय सामग्री का वियोग होने पर [इदि वियप्‍पो] ऐसा चिंतवन करे कि [तं कह पावेमि] उसको मैं कैसे पाउँ [संतावेण पयट्टो] उसके वियोग से संतापरूप [दु:खस्‍वरूप] प्रवृत्ति करे [सो च्चिय अट्टं ज्‍झाणं हवे] वह भी आर्त-ध्‍यान है ।

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+ रौद्र-ध्‍यान -
हिंसाणंदेण जदो, असच्‍चवयणेण परिणदो जो दु ।
तत्‍थेव अथिरचित्‍तो, रूद्दं ज्‍झाणं हवे तस्‍स ॥473॥
अन्वयार्थ : [जो हिंसाणंदेण जुदो] जो हिंसा में आनन्‍द युक्‍त होता है, [असच्‍चपयणेण परिणदो दु] असत्‍य-वचन से प्रवृत्ति करता रहता है [तत्‍थेव अथिरचित्‍तो] और इन्‍हीं में विक्षिप्‍त-चित्‍त बना रहता है [तस्‍स रूद्दं जझाणं हवे] उसके रौद्र-ध्‍यान होता है ।

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परविसयहरणसीलो, सगीयविसये सुरक्‍खणेदक्खो ।
तग्‍गयचिंत्‍तविट्ठो, णिरंतरं तं पि रूद्दं पि ॥474॥
अन्वयार्थ : [परविसयहरणसीलो] जो दूसरे की विषय-सामग्री को हरण करने के स्‍वभाव सहित हो [सगीयविसये सुरक्‍खणे दक्‍खो] अपनी विषय-सामग्री की रक्षा करने में प्रवीण हो [तग्‍गयचिंत्‍ताविट्ठो णिरंतरं] इन दोनों कार्यों में निरन्‍तर चित्‍त को लवलीन रखता हो [तं पि रूद्दं पि] उसके भी रौद्र-ध्‍यान ही है ।

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+ हेय-उपादेय ध्यान -
विण्णि वि असुहेज्‍झणे, पावणिहाणे य दुक्‍खसंताणे ।
तम्‍हा दूरे वज्‍जह, धम्‍मे पुण आयरं कुणह ॥475॥
अन्वयार्थ : [विण्णि विज्‍झाणे असुहे] (आर्त और रौद्र) दोनों ही अशुभ-ध्‍यान को [पावणिहाणे य दुक्‍खसंताणे] पाप के निधान और दु:ख की सन्‍तान [तम्‍हा दूरे वज्‍जह] जानकर दूर ही से छोड़ो [पुण धम्‍मे आयरं कुणह] और धर्म-ध्‍यान में आदर करो ।

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+ धर्म-ध्यान का स्‍वरूप -
धम्‍मो वत्‍थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्‍मो ।
रयणत्‍तयं च ध्‍म्‍मो, जीवाणं रक्‍खणं धम्‍मो ॥476॥
अन्वयार्थ : [वत्‍थुसहावो धम्‍मो] वस्‍तु का स्‍वभाव धर्म है [खमादिभावो य दसविहो धम्‍मो] दस प्रकार के क्षमादिभाव धर्म है [रयण्‍त्‍तंयं च धम्‍मो] रत्‍नत्रय (सम्‍यग्‍दर्शन ज्ञान चारित्र) धर्म है [जीवाणं रक्‍खणं धम्‍मो] और जीवों की रक्षा करना भी धर्म है ।

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धम्‍मे एयग्‍गमणो, जो ण वि वेदेदि पंचहा विसयं ।
वेरग्‍गमओ णाणी, धम्‍मज्‍झणं हवे तस्‍स ॥477॥
अन्वयार्थ : [जो णाणी] जो ज्ञानी [धम्‍मे एयग्‍गमणो] धर्म में एकाग्र मन हो प्रवर्ते [पचहा विसयं ण वि वेदेदि] पाँचों इन्द्रियों के विषयों को नहीं वेदे [वेरग्‍गमओ] और वैराग्‍यमयी हो [तस्‍स ध्‍म्‍मज्‍झाणं हवे] उसके धर्म-ध्‍यान होता है ।

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सुविसुद्धरायदोसो, बाहिरसंकप्‍पवज्जिओ धीरो ।
एयग्‍गमणो संतो, जं चिंतइ तं पि सुहज्‍झाणं ॥478॥
अन्वयार्थ : [सुविसुद्धरायदोसो] जो राग-द्वेष से रहित होता हुआ [बाहिरसंमप्‍पवज्जिओ धीरो] बा‍ह्य के संकल्‍प से वर्जित होकर, धीर-चित्‍त, [एयग्‍गमणो संतो जं चिंतइ] एकाग्रमन होता हुआ जो चिन्‍तवन करे [तं पि सुहज्‍झाणं] वह भी शुभ-ध्‍यान है ।

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ससरूवसमुब्‍भासो, णट्ठममत्‍तो जिदिंदिओ संतो ।
अप्‍पाणं चिंतंतो, सुहज्‍झाणरओ हवे साहू ॥479॥
अन्वयार्थ : [ससरूवसमुब्‍भासो] अपने स्‍वरूप का समुद्भास (प्रकट होना) हो गया हो [णट्ठममत्‍तो ज] (पर-द्रव्‍य में) ममत्‍व-भाव जिसका नष्‍ट हो गया हो [जिदिंदिओ संतो] जितेन्द्रिय हो [अप्‍पाणं चिंतंतो] और अपनी आत्‍मा का चिन्‍तवन करता हो [साहू सुहज्‍झाणरओ हवे] वह साधु शुभ-ध्‍यान में लीन होता है ।

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वज्जियसयलवियप्‍पो, अप्‍पसरूवे मणं णिरूंधत्‍तो ।
जं चिंतदि साणंदं, तं धम्‍मं उत्‍तमं ज्‍झाणं ॥480॥
अन्वयार्थ : [जं वज्जियसयलवियप्‍पो] जो समस्‍त विकल्‍पों को छोड़ [अप्‍पसरूवे मणं णिरूंधंत्‍तो] आत्‍म-स्‍वरूप में मन को रोककर [साणंदं चिंतदि] आनन्‍द सहित चिन्‍तवन करता है [तं उत्‍तमं धम्‍मं ज्‍झाणं] उसके उत्‍तम धर्म-ध्‍यान है ।

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+ शुक्‍ल-ध्‍यान -
जत्‍थ गुणा सुविसुद्धा, उवसमखमणं च जत्‍थ कम्‍माणं ।
लेसा वि जत्‍थ सुक्‍का, तं सुक्‍कं भण्‍णदे ज्‍झाणं ॥481॥
अन्वयार्थ : [जत्थ सुविसुद्धा गुणा] जहाँ भले प्रकार विशुद्ध (व्‍यक्‍त कषायों के अनुभव रहित) उज्‍जवल गुण (ज्ञानोपयोग आदि) हों [जत्‍थ कम्‍माणं उवसमखमणं च] जहाँ कर्मों का उपशम तथा क्षय हो [जत्‍थ लेसा वि सुक्‍का] और जहाँ लेश्‍या भी शुक्‍ल ही हो [तं सुक्‍कं ज्‍झाणं भण्‍णदे] उसको शुक्‍ल-ध्‍यान कहते हैं ।

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+ पहला शुक्ल-ध्यान -
पडिसमयं सुज्‍झंतो अणंतगुणिदाए उभयसुद्धीए ।
पढमं सुक्‍कं ज्‍झायदि, आरूढो उभयसेणीसु ॥482॥
अन्वयार्थ : [उभयसेणीसु आरूढो] (उपशमक और क्षपक) दोनों श्रेणियों में आरूढ होकर [पडिसमयं] समय-समय [अणंतगुणिदाए उभयसुद्धीए सुज्‍झंतो] अनन्‍तगुणी विशु‍द्धता कर्म के उपशम तथा क्षयरूप से शुद्ध होता हुआ मुनि [पढमं सुक्‍कं ज्‍झायदि] प्रथम शुक्‍ल-ध्‍यान (पृथक्‍त्‍व-वितर्क-वीचार) ध्‍यान करता है ।

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+ दूसरा शुक्ल-ध्यान -
णिस्‍सेसमोहविलए, खीणकसाए य अंतिमेकाले ।
ससरूवम्मि णिलीणो, सुक्‍कं ज्‍झाएदि एयत्‍तं ॥483॥
अन्वयार्थ : [णिस्‍सेसमोहविलए] समस्‍त मोह-कर्म के नाश होने पर [खीणकसाए य अंतिमेकाले] क्षीण-कषाय गुणस्‍थान के अन्‍त के काल में [ससरूवम्मिणिलीणो] अपने स्‍वरूप में लीन हुआ [एयत्‍तं सुक्‍कं ज्‍झाएदि] (दूसरा शुक्‍लध्‍यान) एकत्‍व-वितर्क-वीचार ध्‍यान करता है ।

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+ तीसरा शुक्ल-ध्यान -
केवलणाणसहावो, सुहमे जोगम्हि संठिओकाए ।
जं ज्‍झायदि सजोगिजिणो, तं तिदियं सुहमकिरियं च ॥484॥
अन्वयार्थ : [केवलणाणसहावो] केवल ज्ञान ही है स्‍वभाव जिसका ऐसा [सजोगिजिणो] सयो‍गीजिन [सुहमंकाए जोगम्हि संठिओ] जब सूक्ष्‍म-काययोग में स्थित होकर उस समय [जं जझायदि] जो ध्‍यान करता है [तं तिदियं सुहमकिरियं च] वह तीसरा सूक्ष्‍म-क्रिया (शुक्‍ल-ध्‍यान) है ।

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+ चौथा शुक्ल-ध्यान -
जोगविणासं किच्‍चा, कम्‍मचउक्‍कस्‍स खवणकरणट्ठं ।
जं ज्‍झायदि अजोगिजिणो, णिक्किरियं तं चउत्‍थं च ॥485॥
अन्वयार्थ : [जोगविणासं किच्‍चा] योगों का अभाव करके [अजोगिजिणो] अयोगी जिन [कम्‍मचउक्‍कस्‍स खवणकरणट्ठं] चार अघातिया कर्म का क्षय करने के लिये [जं ज्‍झायदि] जो ध्‍यान करते हैं [तं चउत्‍थं णिक्किरियं च] वह चौथा व्‍युपरतक्रियानिवृत्ति (शुक्‍लध्‍यान) है ।

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+ उपसंहार -
एसो वारसभेओ, उग्‍गतवोजोचरेदि उवजुत्‍तो ।
सो चाविय कम्‍मपुंजं, मुत्तिसुहं उत्‍तमं लहदि ॥486॥
अन्वयार्थ : [एसो वारसभेओ] यह बारह प्रकार का [उग्‍गतवो जो उवजुत्‍तो चरेदि] उग्रतप को जो उपयोग सहित करता है [सो कम्‍मपुंजं खविय] सो कर्म-समूह का नाश करके [उत्‍तमं मुत्तिसुहं लहदि] उत्‍तम (अक्षय) मोक्ष-सुख को पाता है ।

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+ ग्रन्थ-कर्ता द्वारा ग्रन्थ करने का कारण -
जिणवयणभावणट्टं, सामिकुमारेण परपसद्धाए ।
रइया अणुवेक्‍खाओ, चंचलमण-रूंभणट्ठंच ॥487॥
अन्वयार्थ : [अणुवेक्‍खाओ] यह अनुप्रेक्षा नामक ग्रन्‍थ [सामिकुमारेण] स्‍वामिकुमार ने [परमसद्धाए] श्रद्धापूर्वक [जिणवयणभावणट्टं] जिनवचन की भावना के लिये [चंचलमणरूंभण्‍ट्ठं च रइया] और चंचल मन को रोकनेके लिये रचा (बनाया) है ।

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+ उपदेश का फल -
वारसअणुवेक्‍खाओ, भणिया हु जिणागमाणुसारेण ।
जो पढइ सुणइ भावइ, सो पावइ उत्‍तमं सोक्‍खं ॥488॥
अन्वयार्थ : [वारसअणुपेक्‍खाओ जिणागमाणुसारेण भणिया हु] ये बारह अनुप्रेक्षायें जिनागम के अनुसार कही हैं [जो पढइ सुणइ भावइ] जो इनको पढे़, सुने और इनकी भावना (बारम्‍बार चिन्‍तवन) करे [सो उत्‍तमं सोक्‍खं पावइ] सो उत्‍तम (बाधारहित, अविनाशी, स्‍वात्‍मीक) सुख को पावे।

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+ अन्त्य-मंगल -
तिहुयणपहाणस्‍वामिं, कुमारकाले वि तावय विचरणं ।
वसुपुज्‍जसुयं मल्लिं, चरिमतियं संथुवे णिच्‍चं ॥489॥
अन्वयार्थ : [तिहुयणपहाणस्‍वामिं] तीन भुवन के प्रधान स्‍वामी तीर्थंकर-देव जिन्‍होंने [कुमारकाले वि तविय तवचरणं] कुमारकाल में ही तपश्‍चरण धारण किया ऐसे [वसुपुज्‍जसुयं मल्लिं यरिमतियं] वसुपूज्‍य राजा के पुत्र वासुपूज्‍य-जिन, मल्लि-जिन और चरिमतिय (अन्‍त के तीन - नेमिनाथ-जिन, पार्श्‍वनाथ-जिन, वर्द्धमान-जिन) का मैं [णिच्‍चं संथुवे] नित्‍य ही स्‍तवन करता हूँ ।

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एसो बारस-भेओ उग्ग-तवो जो चरेदि उवजुत्तो
सो खवदि कम्म-पुंजं मुत्ति-सुहं अक्खयं लहदि ॥488॥

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जिण-वयण-भावणट्ठं सामि-कुमारेण परम-सद्धाए
रइया अणुवेहाओ चंचल-मण-रुंभणट्ठं च ॥489॥

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