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Date : 17-Nov-2022
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!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!
श्रीमद्-अमृतचंद्राचार्य-देव-प्रणीत
श्री
पुरुषार्थसिद्युपाय
मूल संस्कृत गाथा
आभार : हिंदी पद्यानुवाद -- पं अभय-कुमारजी, देवलाली
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!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥
॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥अर्थ : बिन्दुसहित ॐकार को योगीजन सर्वदा ध्याते हैं, मनोवाँछित वस्तु को देने वाले और मोक्ष को देने वाले ॐकार को बार बार नमस्कार हो । निरंतर दिव्य-ध्वनि-रूपी मेघ-समूह संसार के समस्त पापरूपी मैल को धोनेवाली है मुनियों द्वारा उपासित भवसागर से तिरानेवाली ऐसी जिनवाणी हमारे पापों को नष्ट करो । जिसने अज्ञान-रूपी अंधेरे से अंधे हुये जीवों के नेत्र ज्ञानरूपी अंजन की सलार्इ से खोल दिये हैं, उस श्री गुरु को नमस्कार हो । परम गुरु को नमस्कार हो, परम्परागत आचार्य गुरु को नमस्कार हो ।सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीपुरुषार्थसिद्युपाय नामधेयं, अस्य मूलाग्रन्थकर्तार: श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तार: श्रीगणधरदेवा: प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य स्वामि-अमृतचंद्राचार्यदेव विरचितं, श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ॥
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मंगलाचरण
तज्जयति परं ज्योति: समं समस्तैरनन्तपर्यायै: ।
दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ॥1॥
त्रैकालिक पर्याय सहित जो सकल पदार्थ समूह अहो ।
दर्पणतल-वत् झलकें जिसमें परम ज्योति जयवन्त रहो ॥१॥
अन्वयार्थ : [तत्] वह [परं] उत्कृष्ट [ज्योतिः] ज्योति [जयति] जयवन्त हो [यत्र] जिसमें [समस्तैः] सम्पूर्ण [अनन्तपर्यायैः] अनन्त पर्यार्यों से [समं] सहित [सकला] समस्त [पदार्थमालिका] पदार्थों की माला [दर्पणतल इव] दर्पण के तल भाग के समान [प्रतिपफलति] झलकते हैं ।
टोडरमल :
[तत्] वह [परं] उत्कृष्ट [ज्योतिः] ज्योति (केवलज्ञानरूपी प्रकाश) [जयति] जयवन्त हो [यत्र] जिसमें [समस्तैः] सम्पूर्ण [अनन्तपर्यायैः] अनन्त पर्यार्यों से [समं] सहित [सकला] समस्त [पदार्थमालिका] पदार्थों की माला (समूह) [दर्पणतल इव] दर्पण के तल भाग के समान [प्रतिपफलति] झलकते हैं ।
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परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्ध सिन्धुरविधानम् ।
सकलनय विलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥2॥
परमागम का बीज निषेधक जन्मान्धों का हस्तिकथन ।
नय-विरोध सम्पूर्ण विनाशक अनेकांत को करूँ नमन ॥२॥
अन्वयार्थ : [परमागस्य] उत्कृष्ट आगम अर्थात् जैन सिद्धान्त का [बीजं] प्राण-स्वरूप, [निषिद्धजात्यन्ध सिन्धुराविधानम्] जन्म से अन्धे पुरुषों द्वारा होने वाले हाथी के स्वरूप-विधन का निषेध् करने वाले, [सकलनयविलसितानां] समस्त नयों की विवक्षा से विभूषित पदार्थों के [विरोधमथनं] विरोध को दूर करने वाले [अनेकान्तम्] अनेकान्त-धर्म को [नमामि] मैं नमस्कार करता हूँ ।
टोडरमल :
[परमागस्य] उत्कृष्ट आगम अर्थात् जैन सिद्धान्त का [बीजं] प्राण-स्वरूप, [निषि(जात्यन्ध्सिन्ध्ुरविधनम्] जन्म से अन्धे पुरुषों द्वारा होने वाले हाथी के स्वरूप-विधन का निषेध् करने वाले, [सकलनयविलसितानां] समस्त नयों की विवक्षा से विभूषित पदार्थों के [विरोधमथनं] विरोध को दूर करने वाले [अनेकान्तम्] अनेकान्त-धर्म को [नमामि] मैं (श्रीमदमृतचन्द्रसूरि) नमस्कार करता हूँ ।
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लोकत्रयैकनेत्रं निरूप्य परमागमं प्रयत्नेन ।
अस्माभिरुपोद्ध्रियते विदुषां पुरुषार्थसिद्ध्युपायोऽयम् ॥3॥
जो त्रिलोक का एक नेत्र, जाना प्रयत्न से आगम को ।
यह पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय है प्रगट करूँ विद्वानों को ॥३॥
अन्वयार्थ : [लोकत्रयैकनेत्रम्] तीन लोक को देखने वाले नेत्र समान [परमागमं] उत्कृष्ट आगम को [प्रयत्नेन] अनेक प्रकार के उपायों से [निरूप्य] जानकर [अस्माभिः] हमारे द्वारा [अयं] यह [पुरुषार्थसिद्ध्युपाय:] पुरुषार्थसिद्ध्युपाय [विदुषां] विद्वान् पुरुषों के लिये [उपोद्ध्रियते] उद्धार करने में आता है ।
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भूमिका
मुख्योपचार विवरण निरस्तदुस्तरविनेय दुर्बोधा: ।
व्यवहार निश्चयज्ञा: प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम् ॥4॥
मुख्य और उपचार कथन से शिष्यों का अज्ञान हरें ।
जानें निश्चय अरु व्यवहार सुधर्म-तीर्थ उद्योत करें ॥४॥
अन्वयार्थ : [मुख्योपचार विवरण] मुख्य और उपचार कथन के विवेचन [दुस्तरविनेय] प्रकटरूपेण दुर्निवार [दुर्बोधा:] अज्ञान [निरस्त] नाशक [व्यवहार निश्चयज्ञाः] व्यवहार और निश्चय के ज्ञाता [प्रवर्त्तयन्ते जगति तीर्थम्] जगत में धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन कराते हैं ॥४॥
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निश्चयमिह भूतार्थं व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् ।
भूतार्थबोधविमुख: प्राय: सर्वोऽपि संसार: ॥5॥
निश्चय है भूतार्थ और व्यवहार यहाँ अभूतार्थ कहा ।
भूतार्थ-बोध से विमुख अहो प्राय: सारा संसार रहा ॥५॥
अन्वयार्थ : [इह] यहाँ [निश्चयं] निश्चयनय को [भूतार्थं] भूतार्थ और [व्यवहारं] व्यवहारनय को [अभूतार्थं] अभूतार्थ [वर्णयन्ति] वर्णन करते हैं । प्राय: [भूतार्थबोध विमुख:] भूतार्थ के ज्ञान से विरुद्ध जो अभिप्राय है, वह [सर्वोऽपि] समस्त ही [संसार:] संसार-स्वरूप है ॥५॥
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अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा: देशयन्त्यभूतार्थम् ।
व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ॥6॥
अज्ञानी को समझाने के लिए करें व्यवहार कथन ।
जो केवल व्यवहार जानते उन्हें नहीं जिनराज वचन ॥६॥
अन्वयार्थ : [मुनीश्वरा: अबुधस्य बोधनार्थं] आचार्य अज्ञानी जीवों को ज्ञान उत्पन्न करने के लिये [अभूतार्थं देशयन्ति] व्यवहारनय का उपदेश करते हैं और [य: केवलं] जो केवल [व्यवहारम् एव] व्यवहारनय को ही [अवैति] जाने [तस्य देशना नास्ति] उनको उपदेश नहीं है ॥६॥
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माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीत सिंहस्य ।
व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ॥7॥
जिसे शेर का ज्ञान नहीं वह बिल्ली को ही सिंह जाने ।
निश्चय से अनजान जीव व्यवहार-कथन निश्चय मान ॥७॥
अन्वयार्थ : [यथा] जिस प्रकार [अनवगीत सिंहस्य] सिंह को सर्वथा न जाननेवाले पुरुष के लिये [माणवक:] बिलाव [एव] ही [सिंह:] सिंहरूप [भवति] होता है, [हि] निश्चय से [तथा] उसी प्रकार [अनिश्चयज्ञस्य] निश्चयनय के स्वरूप से अपरिचित पुरुष के लिये [व्यवहार:] व्यवहार [एव] ही [निश्चयतां] निश्चयपने को [याति] प्राप्त होता है ॥७॥
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व्यवहारनिश्चयौ य: प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थ: ।
प्राप्नोति देशनाया: स एव फलमविकलं शिष्य: ॥8॥
निश्चय अरु व्यवहार नयों का जान-स्वरूप रहे मध्यस्थ ।
जिनवाणी को सुनने का फल पूर्ण प्राप्त करता वह शिष्य ॥८॥
अन्वयार्थ : [य:] जो जीव [व्यवहारनिश्चयौ] व्यवहारनय और निश्चयनय को [तत्त्वेन] वस्तुस्वरूप से [प्रबुध्य] यथार्थरूप से जानकर [मध्यस्थ:] मध्यस्थ [भवति] होता है अर्थात् निश्चयनय और व्यवहारनय के पक्षपातरहित होता है, [स:] वह [एव] ही [शिष्य:] शिष्य [देशनाया:] उपदेश का [अविकलं] सम्पूर्ण [फलं] फल [प्राप्नोति] प्राप्त करता है ॥८॥
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ग्रन्थ प्रारम्भ
अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विवर्जित: स्पर्शगन्धरसवर्णै: ।
गुणपर्ययसमवेत: समाहित: समुदयव्ययध्रौव्यै: ॥9॥
वर्ण-गन्ध-रस-पर्श रहित चेतन स्वरूप है पुरुष अहो ।
गुण-पर्याय सहित है व्यय-उत्पाद-ध्रौवय से युक्त अहा ॥९॥
अन्वयार्थ : [पुरुष: चिदात्मा अस्ति] पुरुष चेतना-स्वरूप है, [स्पर्शरसगन्धवर्णै:] स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण से [विवर्जित:] रहित है, [गुणपर्ययसमवेत:] गुण और पर्याय सहित है, तथा [समुदयव्ययध्रौव्यै:] उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य [समाहित:] युक्त है ॥८॥
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परिणममानो नित्यं ज्ञानविवर्त्तैरनादिसन्तत्या ।
परिणामानां स्वेषां स भवति कर्त्ता च भोक्ता च ॥10॥
वह अनादि सन्तति से ज्ञान-विवर्तनमय परिणमन करे ।
निज परिणामों में परिणमता कर्त्ता-भोक्ता हुआ करे ॥१०॥
अन्वयार्थ : [स:] वह [अनादिसन्तत्या] अनादि की परिपाटी से [नित्यं ज्ञानविवर्त्तै:] निरन्तर ज्ञानादि गुणों के विकाररूप से [परिणममान:] परिणमन करता हुआ [स्वेषां परिणामानां] अपने परिणामों का [कर्त्ता च भोक्ता च] कर्ता और भोक्ता भी [भवति] होता है ॥१०॥
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सर्वविवर्त्तोत्तीर्णं यदा स चैतन्यमचलमाप्नोति ।
भवति तदा कृतकृत्य: सम्यक्पुरुषार्थसिद्धिमापन्न ॥11॥
जब वह सर्व विकारों से हो पार अचल चेतन को प्राप्त ।
होता है कृतकृत्य तभी सम्यक्पुरुषार्थ सिद्धि को प्राप्त ॥११॥
अन्वयार्थ : [यदा] जब [स:] उपर्युक्त अशुद्ध आत्मा [सर्वविवर्त्तोत्तीर्ण] विभावों से पार होकर [अचलं] अपने निष्कम्प [चैतन्यं] चैतन्यस्वरूप को [आप्नोति] प्राप्त होता है [तदा] तब यह आत्मा उस [सम्यक्पुरुषार्थसिद्धिम्] सम्यक् प्रकार से पुरुषार्थ के प्रयोजन की सिद्धि को [आपन्न:] प्राप्त होता हुआ [कृतकृत्य:] कृतकृत्य [भवति] होता है ।
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जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये ।
स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गला: कर्मभावेन ॥12॥
चेतन कृत परिणामों का निमित्तपना पाकर के मात्र ।
कर्मरूप परिणमते हैं पुद्गल परमाणु अपने आप ॥१२॥
अन्वयार्थ : [जीवकृतं] जीव के किये हुए [परिणामं] रागादि परिणामों का [निमित्त-मात्रं] निमित्तमात्र [प्रपद्य] पाकर [पुन:] फिर [अन्ये पुद्गला:] जीव से भिन्न अन्य पुद्गल स्कन्ध [अत्र] आत्मा में [स्वयमेव] अपने आप ही [कर्मभावेन] ज्ञानावरणादि कर्मरूप [परिणमन्ते] परिणमन कर जाते हैं।
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परिणममानस्य चितश्चिदात्मकै: स्वयमपि स्वकैर्भावै: ।
भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिकं कर्म तस्यापि ॥13॥
स्वयं किये चिन्मय भावों में परिणमते इस चेतन को ।
निमित्त मात्र होते हैं पुद्गल परमाणुमय कर्म अहो ॥१३॥
अन्वयार्थ : [हि] निश्चय से [स्वकै:] अपने [चिदात्मकै:] चेतनास्वरूप [भावै:] रागादि परिणामों से [स्वयमपि] स्वयं ही [परिणममानस्य] परिणमन करते हुए [तस्य चित अपि] पूर्वोक्त आत्मा के भी [पौद्गलिकं] पुद्गल सम्बन्धी [कर्म] ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म [निमित्तमात्रं] निमित्तमात्रं [भवति] होता है ।
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एवमयं कर्मकृतैर्भावैरसमाहितोऽपि युक्त इव ।
प्रतिभाति बालिशानां प्रतिभास: स खलु भवबीजम् ॥14॥
कर्मजन्य भावों से चेतन इस प्रकार संयुक्त न हो ।
अज्ञानी को एक भासते निश्चय यह भवबीज अहो ॥१४॥
अन्वयार्थ : [एवं] इस प्रकार [अयं] यह आत्मा [कर्मकृतै:] कर्मकृत [भावै:] रागादि अथवा शरीरादि भावों से [असमाहितोऽपि] संयुक्त न होने पर भी [बालिशानां] अज्ञानी जीवों को [युक्त: इव] संयुक्त जैसा [प्रतिभाति] प्रतिभासित होता है और [स: प्रतिभास:] वह प्रतिभास ही [खलु] निश्चय से [भवबीजं] संसार का बीजरूप है ।
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विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम् ।
यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थसिद्ध्युपायोऽयम् ॥15॥
विपरीताभिनिवेश नष्ट कर निजस्वरूप का सम्यक्ज्ञान ।
निज में ही अविचल थिरता पुरुषार्थ-सिद्धि का यही उपाय ॥१५॥
अन्वयार्थ : [विपरीताभिनिवेशं] विपरीत श्रद्धान का [निरस्य] नाश करके [निज-तत्त्वम्] निजस्वरूप को [सम्यक्] यथार्थरूप से [व्यवस्य] जानकर [यत्] जो [तस्मात्] अपने उस स्वरूप में से [अविचलनं] भ्रष्ट न होना [स एव] वही [अयं] इस [पुरुषार्थसिद्ध्युपाय:] पुरुषार्थसिद्धि का उपाय है ।
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सेयासेयविदण्हू उद्धुददुस्सील सीलवंतो वि
सीलफलेणब्भुदयं तत्ते पुण लहइ णिव्वाणं ॥16॥
रत्नत्रय पद धारी मुनिवर तजते हैं नित पापाचार ।
अहो अलौकिक वृत्ति धारते पर-द्रव्यों से रहें उदास ॥१६॥
अन्वयार्थ : [एतत् पदम् अनुसरतां] इस पदवी का अनुसरण करनेवाले [करम्बिताचारनित्यनिरभिमुखा] पाप क्रिया मिश्रित आचारों से सवर्था परान्मुख तथा [एकान्तविरतिरूपा] सवर्था उदासीन [भवति मुनीनां अलौकिकी वृत्ति:] मुनियों की वृत्ति आलौकिक होती है ।
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बहुशः समस्तविरतिं प्रदर्शितां यो न जातु गृह्णाति ।
तस्यैकदेशविरतिः कथनीयानेन बीजेन ॥17॥
बारबार कहने पर भी जो सकल पाप कर सकें न त्याग ।
उनको समझाते हैं करना, एक-देश पापों का त्याग ॥१७॥
अन्वयार्थ : [यः बहुशः प्रदर्शितां] जो बारबार बताने पर भी [समस्त विरतिं जातु] पूर्ण विरति को कदाचित् [न गृहण्ति] ग्रहण न करे तो [तस्य एकदेशिवरितः] उसको एक-देशविरत का [कथनीया अनेन बीजेन] कथन इस प्रकार करना ।
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यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः।
तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ॥18॥
मुनिव्रत का उपदेश न दे अरु श्रावकव्रत का करे कथन ।
कोई अल्पमति तो जिन प्रवचन में उसको दण्ड विधान ॥१८॥
अन्वयार्थ : [यः अल्पमतिः] जो तुच्छ-बुद्धि [यतिधर्मम् अकथयन्] मुनिधर्म को नहीं कह करके [गृहस्थधर्मम् उपदिशति तस्य] श्रावकधर्म का उपदेश देता है, उसे [भगवत्प्रवचने] भगवंत के सिद्धांत में [निग्रहस्थानम्] दण्ड देने का स्थान [प्रदर्शितं] दिखलाया है ।
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अक्रमकथनेन यतः प्रोत्साहमानोऽतिदूरमपि शिष्यः।
अपदेऽपि सम्प्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुमर्तिना ॥19॥
उस दुर्मति के अक्रम कथन से मुनिव्रत में उत्साहित शिष्य ।
अरे! ठगाया गया तुच्छ पद में ही वह होकर सन्तुष्ट ॥१९॥
अन्वयार्थ : [यतः तेन] जिस कारण से उस [दुर्मतिना] दुर्बुद्धि के [अक्रमकथनेन] क्रमभंग कथनरूप उपदेश करने से [अतिदूरम्] अत्यंत दूर तक [प्रोत्साहमानोऽपि] उत्साहवान् होने पर भी [शिष्यः अपदे अपि] शिष्य तुच्छ-स्थान में ही [संप्रतृप्तः] संतुष्ट होकर [प्रतारितः भवति] ठगाया जाता है ।
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श्रावकधर्म व्याख्यान
एवं सम्यग्दर्शनबोध चारित्रत्रयात्मको नित्यं ।
तस्यापि मोक्षमार्गो भवति निषेव्यो यथाशक्तिः ॥20॥
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरण इन तीन भेदमय मुक्ति-मार्ग ।
सेवन करने योग्य सदा है यथाशक्ति श्रावक को जान ॥२०॥
अन्वयार्थ : [एवं सम्यग्दर्शनबोध चारित्रत्रयात्मकः] इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र इन तीन भेद स्वरूप [मोक्षमार्गः नित्यं] मोक्षमार्ग सदा [तस्य अपि यथाशक्ति] उस पात्र को भी अपनी शक्ति के अनुसार [निषेव्यः भवति] सेवन करने योग्य होता है ।
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तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन ।
तस्मिन् सत्येव यतो भवित ज्ञानं चरित्रं च ॥21॥
इनमें सबसे पहले सम्यग्दर्शन पूर्णयत्न से ग्राह्य ।
क्योंकि उसके होने पर ही ज्ञान चरित होते सम्यक् ॥२१॥
अन्वयार्थ : [तत्रादौ अखिलयत्नेन] इन तीनों में प्रथम समस्त प्रकार सावधानतापूवर्क यत्न से [सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयम्] सम्यग्दशर्न को भले प्रकार अंगीकार करना चाहिये [यतः तस्मिन् सत्येव] क्योंकि उसके होने पर ही [ज्ञानं च चारित्रं भवित] सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होता है ।
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जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्त्तव्यम् ।
श्रद्धानं विपरीताभिनिवेश विविक्तमात्मरूपं तत् ॥22॥
जीव-अजीव आदि तत्त्वार्थों का श्रद्धान सदा कर्तव्य ।
विपरीताभिनिवेश रहित यह श्रद्धा ही है आत्मस्वरूप ॥२२॥
अन्वयार्थ : [जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां] जीव-अजीवादि तत्त्वार्थों का [श्रद्धानं] श्रद्धान [विपरीताभिनिवेश विविक्तम्] विपरीत चिंतन छोड़कर [सदैव कर्त्तव्यम्] निरंतर करना चाहिए [आत्मरूपं तत्] वह आत्मा का स्वरूप है ॥२२॥
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सकलमनेकान्तात्मकमिदयुक्तं वस्तुजातमखिलज्ञैः ।
किमु सत्यमसत्यं वा न जातु शंकेति कर्त्तव्या ॥23॥
सर्वज्ञों का कहा हुआ यह अनेकान्तमय वस्तु समूह ।
शंका कभी न करना कि यह है असत्य या सत्य स्वरूप ॥२३॥
अन्वयार्थ : [सकलमनेकान्तात्मकमिदयुक्तं] समस्त अनेकान्तात्मक यह कहा गया [वस्तुजातमखिलज्ञैः] वस्तु-स्वरूप सर्वज्ञों द्वारा [किमु सत्यमसत्यं वा] क्या सत्य है अथवा असत्य है [न जातु शंकेति कर्त्तव्या] ऐसी शंका कभी नहीं करनी चाहिए ॥२३॥
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इह जन्मनि विभवादीन्यमुत्र चक्रित्वकेशवत्वादीन् ।
एकान्तवाददूषित परसमयानपि च नाकांक्षेत् ॥24॥
इस भव परभव में वैभव या चक्री, नारायण पद की ।
दूषित जो एकान्तवाद से अन्य धर्म चाहो न कभी ॥२४॥
अन्वयार्थ : [इह जन्मनि विभवादीन्यमुत्र] इस जन्म में एश्वर्य, सम्पदा आदि और परलोक में [चक्रित्वकेशवत्वादीन्] चक्रवर्ती, नारायण आदि पदों को और [एकान्तवाददूषित परसमयानपि] एकान्तवाद से दूषित पर-धर्मों को भी [च नाकांक्षेत्] न चाहे ॥२४॥
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क्षुत्तृष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेषु ।
द्रव्येषु पुरिषादिषु विचिकित्सा नैव करणीया ॥25॥
क्षुधा तृषा सर्दी गर्मी इत्यादि विविध संयोगों में ।
ग्लानि कभी भी नहिं करना मल-मूत्रादि परद्रव्यों में॥25॥
अन्वयार्थ : [क्षुत्तृष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु] भूख, प्यास, सरदी, गरमी इत्यादि [नानाविधेषु भावेषु] नाना प्रकार के भावों में और [द्रव्येषु पुरिषादिषु] विष्टा आदि पदार्थों में [विचिकित्सा नैव करणीया] ग्लानि नहीं करनी चाहिए ॥२५॥
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लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे ।
नित्यमपि तत्त्वरुचिना कर्त्तव्यममूढदृष्टित्वम् ॥26॥
लोक, शास्त्र-आभास समय-आभास देव-आभासों में ।
तत्त्वों में रुचिवन्त पुरुष श्रद्धान मूढ़ता रहित करें ॥26॥
अन्वयार्थ : [लोके शास्त्राभासे] लोक में, शात्राभ्यास में, [समयाभासे च देवताभासे] धर्माभास में और देवाभास में [तत्त्वरुचिना नित्यमपि] तत्त्वों में रुचिवान को सदा ही [अमूढदृष्टित्वम् कर्त्तव्यम] मूढ़ता-रहित दृष्टि करनी चाहिए ।
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धर्मोऽभिवर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया ।
परदोषनिगूहनमपि विघेयमुपबृंहणगुणार्थम् ॥27॥
मार्दव आदि भावनाओं से आत्मधर्म में वृद्धि करो ।
उपबृंहण के लिए और पर-दोषों को भी गुप्त रखो ॥२७॥
अन्वयार्थ : [उपबृंहणगुणार्थं] उपगूहन गुण के लिये [मार्दवादिभावनया] मार्दव, क्षमा, सन्तोषादि भावनाओं से [सदा आत्मनो धर्म:] निरन्तर अपने आत्मा को धर्म की [अभिवर्द्धनीय:] वृद्धि करनी चाहिए और [परदोष-निगूहनमपि विधेयम्] दूसरे के दोषों को गुप्त भी रखना चाहिए ।
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कामक्रोधमदादिषु चलयितुमुदितेषुवर्त्मनो न्यायात् ।
श्रुतमात्मनः परस्य च युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम् ॥28॥
काम क्रोध लोभादिक प्रगटे, न्याय मार्ग से चलित करें ।
शास्त्रों के अनुसार स्व-पर दोनों का स्थितिकरण करें॥28॥
अन्वयार्थ : [कामक्रोधमदादिषु] काम, क्रोध, मद, लोभादि [न्यायात् वर्त्मन:] न्यायमार्ग से [चलयितुम् उदितेषु] विचलित करवाने के लिए प्रगट हुआ होने पर [श्रुतं आत्मन: परस्य च] शास्त्र अनुसार अपनी और पर की [स्थितिकरणं अपि कार्यम्] स्थिरता भी करनी चाहिए ।
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अनवरतमहिंसायां शिवसुखलक्ष्मीनिबन्धने धर्मे ।
सर्वेष्वपि च सधर्मिषुपरमं वात्सल्यमालम्ब्यम् ॥29॥
अन्वयार्थ : [शिवसुखलक्ष्मीनिबन्धने] मोक्ष-सुख-स्वरूप सम्पदा के कारणभूत [धर्मे अहिंसायां च] धर्म और अहिंसा पूर्वक [सर्वेष्वपि सधर्मिषु] सभी साधर्मी जनों में [अनवरतं] निरंतर [परमं] उत्कृष्ट [वात्सल्यं] वात्सल्य का [आलम्ब्यम्] आलम्बन करना चाहिए ।
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आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव ।
दान तपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ॥30॥
आत्मा की करना प्रभावना सतत तेज रत्नत्रय से ।
जिनशासन की, अतिशय विद्या पूजा दान शील तप से ॥३०॥
अन्वयार्थ : [सततमेव रत्नत्रयतेजसा] निरंतर ही रत्नत्रय के तेज से [आत्मा प्रभावनीय: च] स्वयं को प्रभावनायुक्त करना चाहिए और [दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयै:] दान, तप, जिनपूजन और विद्या के अतिशय से अर्थात् इनकी वृद्धि करके [जिनधर्म:] जैनधर्म की प्रभावना करना चाहिए ।
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सम्यग्ज्ञान अधिकार
इत्याश्रितसम्यक्त्वैः सम्यग्ज्ञानं निरुप्य यत्नेन ।
आम्नाययुक्तियोगैः समुपास्यं नित्यमात्महितैः ॥31॥
पृथगाराधनमिष्टंदर्शनसहभाविनोऽपि बोधस्य ।
लक्षणभेदेन यतो नानात्वं संभवत्यनयोः ॥32॥
आत्म-हितैषी सम्यत्वाश्रित करे यत्न से सम्यग्ज्ञान ।
युक्ति और आमने योग से कर विचार सेवेन सत्ज्ञान ॥३१॥
दर्शन का सहभावी फिर भी ज्ञान पृथक आराधन योग्य ।
भिन्न-भिन्न लक्षण दोनों के अत: भिन्नता सम्भव हो ॥३२॥
अन्वयार्थ : [इति] इस रीति [आश्रितसम्यक्त्वैः] सम्यक्त्व का आश्रय लेने वाले [आत्महितैः] आत्मिहतकारी को [नित्यं] सदैव [आम्नाययुक्तियोगैः] जिनागम की परम्परा और युक्ति के योग से [निरुप्य] विचार करके [यत्नेन] प्रयत्नपूर्वक [सम्यग्ज्ञानं] सम्यग्ज्ञान का [समुपास्यं] भले प्रकार से सेवन करना योग्य है [दर्शनसहभाविनोऽपि] सम्यग्दर्शन के साथ ही उत्पन्न होने पर भी [बोधस्य] सम्यग्ज्ञान का [पृथगाराधनं] जुदा ही आराधन करना [इष्टं] कल्याणकारी है [यतः] क्योंकि [अनयोः] इन दोनों में [लक्षणभेदेन] लक्षण के भेद से [नानात्वं] भिन्नता [संभवति] सम्भव है ।
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सम्यग्ज्ञानं कार्यं सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः ।
ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात् ॥33॥
सम्यग्ज्ञान कार्य है सम्यग्दर्शन कारण कहें जिनेन्द्र ।
इसीलिए समकित होने पर इष्ट ज्ञान का आराधन ॥३३॥
अन्वयार्थ : [जिना: सम्यग्ज्ञानं कार्यं] जिनेन्द्रदेव सम्यग्ज्ञान को कार्य और [सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति] सम्यक्त्व को कारण कहते हैं, [तस्मात् सम्यक्त्वानन्तरं] इसलिये सम्यक्त्व के बाद ही [ज्ञानाराधनं इष्टम्] ज्ञान की आराधना योग्य है ।
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कारणकार्यविधानं समकालं जायमानयोरपि हि ।
दीपप्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् ॥34॥
सम्यग्दर्शन और ज्ञान की उत्पत्ति का है समकाल ।
कारण-कार्य विधान घटित हो जैसे दीपक और प्रकाश॥३४॥
अन्वयार्थ : [कारणकार्यविधानं] कारण और कार्य का विधान [समकालं जायमानयो: अपि] एक समय में उत्पन्न होने पर भी [हि] निश्चय से [दीपप्रकाशयो: इव] दीपक और प्रकाश की तरह [सम्यक्त्वज्ञानयो: सुघटम्] सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पर भले प्रकार घटित होता है ।
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कर्त्तव्योऽध्यवसायःसदनेकान्तात्मकेषु तत्त्वेषु ।
संशयविपर्य्ययानध्यवसायविविक्तमात्मरुपं तत् ॥35॥
सम्यक् अनेकान्तमय तत्त्वों का निर्णय है करने योग्य ।
संशय और विपर्यय-मोह विहीन ज्ञान है आत्मस्वरूप ॥३५॥
अन्वयार्थ : [सदनेकान्तात्मकेषु] प्रशस्त अनेकान्तात्मक [तत्त्वेषु अध्यवसाय: कर्त्तव्य:] तत्त्वों में उद्यम करने योग्य है और [तत् संशयविपर्य्ययानध्यवसायविविक्तं] वह संशय, विपर्यय और विमोह रहित [आत्मरूपं] आत्मा का निजस्वरूप है ।
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ग्रन्थार्थोभयपूर्णं काले विनयेन सोपधानं च ।
बहुमानेन समन्वितमनिह्नवं ज्ञानमाराध्यम् ॥36॥
शब्द अर्थ अरु उभय काल-आचार विनय उपधानाचार ।
करो ज्ञान का आराधन बहुमान-अनिह्नवमय आचार ॥३६॥
अन्वयार्थ : [ग्रन्थार्थोभयपूर्णं शब्दरूप] ग्रन्थरूप अर्थरूप और उभय अर्थात् शब्द-अर्थरूप शुद्धता से परिपूर्णता से, [काले विनयेन] काल विनय से [च सोपधानं बहुमानेन समन्वितं] और धारणा-युक्त अत्यन्त सन्मान से सहित तथा [अनिह्नवं ज्ञानं आराध्यम्] बिना छिपाये ज्ञान की आराधना करना योग्य है ।
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सम्यक-चारित्र अधिकार
विगलितदर्शनमोहैः समञ्जसज्ञानविदिततत्त्वार्थैः ।
नित्यमपि निःप्रकम्पैः सम्यक्चारित्रमालम्ब्यम् ॥37॥
दर्शनमोह विनाशक अरु तत्त्वार्थों का है सम्यग्ज्ञान ।
निष्प्रकम्प जो नित्य करें वे सम्यक्चारित्र आलम्बन॥37॥
अन्वयार्थ : [विगलितदर्शनमोहै:] दर्शनमोह के नाश द्वारा [समञ्जसज्ञानविदिततत्त्वार्थै:] सम्यग्ज्ञान से जिन्होंने तत्त्वार्थ को जाना है [नित्यमपि नि:प्रकम्पै:] सदा ही दृढ़चित्तवान द्वारा [सम्यक्चारित्रं आलम्ब्यम्] सम्यक्चारित्र अवलम्बन करने योग्य है ।
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न हि सम्यग्व्यपदेशं चरित्रमज्ञानपूर्वकं लभते ।
ज्ञानानन्तरमुक्तं चारित्राराधनं तस्मात् ॥38॥
यदि अज्ञान सहित चारित्र हो सम्यक्नाम न प्राप्त करे ।
अत: ज्ञान-सम्यक् पाकर ही आराधन-चारित्र कहें ॥३८॥
अन्वयार्थ : [अज्ञानपूर्वकंचरित्रं] अज्ञान पूर्वक चारित्र [सम्यग्व्यपदेशं न हि लभते] सम्यक् नाम प्राप्त नहीं करता [तस्मात् ज्ञानानन्तरं] इसलिए सम्यग्ज्ञान के पश्चात् ही [चारित्राराधनं उक्तम्] चारित्र का आराधन कहा है ।
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चारित्रं भवति यतः समस्तसावद्ययोगपरिहरणात् ।
सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरुपं तत् ॥39॥
सम्पूर्ण सावद्य योग के, परिहार से चारित्र है ।
वह उदासीन विशद कषायों, से रहित निजरूप है ॥३९॥
अन्वयार्थ : [यत: तत् चारित्रं] क्योंकि वह चारित्र [समस्तसावद्य-योगपरिहरणात्] समस्त पाप-युक्त योग के त्याग से [सकलकषाय-विमुक्तं] सम्पूर्ण कषाय रहित [विशदं उदासीनं] निर्मल और परपदार्थों से विरक्ततारूप [आत्मरूपं भवति] आत्मस्वरूप होता है ।
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हिंसातोऽनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहतः ।
कार्त्स्न्यैकदेशविरतेश्चारित्रं जायते द्विविधम् ॥40॥
है घात निज परिणाम का, इससे सभी हिंसामयी ।
हैं मात्र बोधन-हेतु शिष्यों, को कहे अनृतादि भी ॥४२॥
अन्वयार्थ : [हिंसातोऽनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मतः] हिंसा से, असत्य भाषण से, चोरी से, कुशील से और परिग्रह से [कार्त्स्न्यैकदेशविरते:] सर्वदेश और एकदेश विरक्ति से वह [चारित्रं जायते द्विविधम्] चारित्र दो प्रकार का हो जाता है ।
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निरतः कार्त्स्न्यनिवृत्तौ भवति यतिः समयसारभूतोऽयम् ।
या त्वेकदेशविरतिर्निरतस्तस्यामुपासको भवति ॥41॥
जो पूर्ण विरति में निरत, मुनि समयसार स्वरूप हैं ।
जो एकदेश विरति निरत, उनके उपासक वही हैं ॥४१॥
अन्वयार्थ : [कार्त्स्न्यनिवृत्तौ निरत:] सर्वथा-सर्वदेश त्याग में लीन [अयं यति: समयसारभूत: भवति] ये मुनि शुद्धोपयोगरूप स्वरूप में आचरण करनेवाला होता है [या तु एकदेशविरति:] और जो एकदेशविरति है [तस्यां निरत: उपासक: भवति] उसमें लगा हुआ उपासक होता है ।
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आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् ।
अनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥42॥
है घात निज परिणाम का, इससे सभी हिंसामयी ।
हैं मात्र बोधन-हेतु शिष्यों, को कहे अनृतादि भी ॥४२॥
अन्वयार्थ : [आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्] आत्मा के शुद्धोपयोगरूप परिणामों के घात होने के कारण [एतत्सर्वं हिंसैव] यह सब हिंसा ही है [अनृतवचनादि केवलं] असत्य वचनादिक के भेद केवल [शिष्यबोधाय उदाहृतम्] शिष्यों को समझाने के लिए कहे गए हैं ।
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अहिंसा व्रत
यत्खलुकषाययोगात्प्राणानां व्यभावरुपाणाम् ।
व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥43॥
नित द्रव्यभावमयी सुप्राणों, के कषायी योग से ।
है घात का उत्कृष्ट कारण, सुनिश्चित हिंसा ही है ॥४३॥
अन्वयार्थ : [कषाययोगात् यत्] कषाय सहित योग से जो [द्रव्यभावरूपाणाम् प्राणानां] द्रव्य और भावरूप प्राणों का [व्यपरोपणस्य करणं] व्यपरोपण करना-घात करना [सा खलु सुनिश्चिता] वह निश्चय से भलीभाँति निश्चित की गई [हिंसा भवति] हिंसा है ।
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अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति ।
तेषामेवोत्पत्तिर्हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥44॥
रागादि उत्पत्ति नहीं है, वास्तविक यह अहिंसा ।
उनकी हि उत्पत्ति कही, हिंसा जिनागम सारता ॥४४॥
अन्वयार्थ : [खलु रागादीनां अप्रादुर्भाव:] वास्तव में रागादि भावों का प्रगट न होना [इति अहिंसा भवति] यही अहिंसा है और [तेषामेव उत्पत्ति:] उन रागादि भावों का उत्पन्न होना ही [हिंसा भवति] हिंसा है, [इति जिनागमस्य संक्षेप:] ऐसा जैन सिद्धान्त का सार है ।
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युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि ।
न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ॥45॥
रागादि भावों के बिना, युक्ताचरणमय मुनि के ।
अत्यल्प भी हिंसा नहीं है, प्राणपीड़न मात्र से ॥४५॥
अन्वयार्थ : [अपि युक्ताचरणस्य सत:] और योग्य आचरण वाले सन्त पुरुष के [रागाद्यावेशमन्तरेण प्राणव्यपरोपणात्] रागादिभावों के बिना केवल प्राण पीड़न से [हिंसा जातु एव] हिंसा कभी भी [न हि भवति] नहीं होती ।
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व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम् ।
म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ॥46॥
नित अयत्नाचारी दशा, रागादि भावाधीनता ।
से वर्तते के मरे या, नहिं मरे ध्रुव हिंसा सदा ॥४६॥
अन्वयार्थ : [रागादीनां वशप्रवृत्तायाम्] रागादिभावों के वश में प्रवर्तती हुई [व्युत्थानावस्थायां] अयत्नाचाररूप प्रमाद अवस्था में [जीव: म्रियतां वा मा] जीव मरो अथवा मत मरो [हिंसा ध्रुवं अग्रे धावति] हिंसा सतत आगे ही दौड़ती है ।
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यस्मात्सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् ।
पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु ॥47॥
क्योंकि कषायी जीव पहले, आत्मघात करे स्वयं ।
पश्चात् प्राणीघात हो नहिं, हो सदा ही अनिश्चित ॥४७॥
अन्वयार्थ : [यस्मात् आत्मा सकषाय: सन्] क्योंकि जीव कषाय-सहित हो तो [प्रथमं आत्मना] प्रथम अपने से ही [आत्मानं हन्ति] अपने को घातता है [तु पश्चात्] और बाद में [प्राण्यन्तराणां हिंसा] दूसरे जीवों की हिंसा [जायेत वा न] हो अथवा न हो ।
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हिंसायाअविरमणं हिंसा परिणमनपि भवति हिंसा ।
तस्मात्प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ॥48॥
हिंसा से अविरत के हि परिणत, नित्य हिंसा भी हुई ।
इससे प्रमादी योग में है प्राणव्यपरोपण सभी ॥४८॥
अन्वयार्थ : [हिंसाया: अविरमणं हिंसा] हिंसा से विरक्त न होने से हिंसा होती है और [हिंसापरिणमनं अपि हिंसा भवति] हिंसारूप परिणमन करने से भी हिंसा होती है [तस्मात् प्रमत्तयोगे] इसलिए प्रमाद के योग में [नित्यं प्राणव्यपरोपणं] निरन्तर प्राणघात का सद्भाव है ।
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सूक्ष्मापि न खलु हिंंसा परवस्तुनिबन्धना भवति पुंसः ।
हिंसायतननिवृत्तिः परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ॥49॥
अत्यल्प भी हिंसा नहिं, परवस्तु के कारण कभी ।
पर भाव शुद्धि हेतु हिंसा, आयतन छोड़ो सभी ॥४९॥
अन्वयार्थ : [खलु पुंसः परवस्तुनिबन्धना] निश्चय से आत्मा के पर-वस्तु के कारण से जो उत्पन्न हो ऐसी [सूक्ष्महिंसा अपि न भवति] किंचित-मात्र भी हिंसा भी नहीं होती [तदपि परिणामविशुद्धये] तो भी परिणाम की निर्मलता के लिये [हिंसायतननिवृत्ति: कार्या] हिंसा के स्थान का त्याग करना उिचत है ।
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निश्चयमबुध्यमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते ।
नाशयति करणचरणं स बहिःकरणालसो बालः ॥50॥
नहिं जान निश्चय उसे ही, है मूढ निश्चय से करे ।
स्वीकार वह करणालसी, बहि:करण चरण सभी नशे ॥५०॥
अन्वयार्थ : [यः निश्चयं अबुध्यमानः] जो परमार्थ को नहीं जानते हुए [तमेव नियमत: संश्रयते] उसे ही नियम से अंगीकार करता है [स बालः बहि: करणालसः] वह मूर्ख बाह्य-क्रिया में आलसी होता हुआ [करणचरणं नाशयित] चारित्र के कारण का नाश करता है ।
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अविधायापि हि हिंसां हिंसाफलभाजनं भवत्येकः ।
कृत्वाप्यपरो हिंसा हिंसाफलभाजनं न स्यात् ॥51॥
नित एक हिंसा कर भी हिंसा, फल नहीं है भोगता ।
पर अन्य हिंसा नहीं कर भी, हिंस फल को भोगता ॥५१॥
अन्वयार्थ : [हिंसा अविधायापि हि] हिंसा न करते हुए भी निश्चय से [हिंसाफलभाजनं भवत्येकः] एक जीव हिंसा के फल को भोगता है और [कृत्वाप्यपरो हिंसा] दूसरा हिंसा करके भी [हिंसाफलभाजनं न स्यात्] हिंसा के फल को नहीं भोगता ।
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एकस्याल्पा हिंसा ददाति कालेफलमनल्पम् ।
अन्यस्य महाहिंसा स्वल्पफला भवति परिपाके ॥52॥
है अल्प हिंसा भी किसी को, फल बहुत दे उदय में ।
पर महा हिंसा भी किसी को, अल्पफल दे उदय में ॥५२॥
अन्वयार्थ : [एकस्याल्पा हिंसा] एक जीव को तो थोडी हिंसा [ददाति कालेफलमनल्पम्] उदयकाल में बहुत फल देती है और [अन्यस्य महाहिंसा] दूसरे जीव को महान हिंसा भी [स्वल्पफला भवति परिपाके] उदयकाल में अत्यन्त थोड़ा फल देनेवाली होती है ।
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एकस्य सैव तीव्रंदिशति फलं सैव मन्दमन्यस्य ।
व्रजति सहकारिणोरपि हिंसा वैचिक्र्यमत्र फलकाले ॥53॥
युगपत् मिले हिंसा उदय में, विविधतामय ही रही ।
वह किसी को दे तीव्र फल, दे किसी को अत्यल्प ही ॥५३॥
अन्वयार्थ : [सहकारिणोरपि हिंसा] एक साथ मिलकर की हुई हिंसा भी [अत्र फलकाले] इस उदयकाल में [वैचिक्र्यम् व्रजति] विचित्रता को प्राप्त होती है और [एकस्य सैव तीव्रंदिशति फलं] किसी एक को वही तीव्र फल दिखलाती है और [अन्यस्य सा एव मन्दम्] किसी दूसरे को वही तुच्छ ।
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प्रागेव फलति हिंसा क्रियमाणा फलति फलति च कृता अपि ।
आरभ्य कर्तुमकृतापि फलति हिंसानुभावेन ॥54॥
करने से पहले ही फले, करते फले पश्चात् भी ।
आरम्भ कृत बिन फले हिंसा, अनुभवानुसार ही ॥५४॥
अन्वयार्थ : [प्रागेव फलति हिंसा] हिंसा पहले भी फलती है [क्रियमाणा फलति] करते करते फलती है [फलति च कृता अपि] कर लेने के बाद फल देती है और [आरभ्य कर्तुमकृतापि फलति] हिंसा करने का आरम्भ करके न किये जाने [फलति हिंसानुभावेन] कषायभाव के अनुसार फलती है ।
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एकः करोति हिंसां भवन्ति फलभागिनो बहवः ।
बहवोविदधति हिंसां हिंसाफलभुग् भवत्येकः ॥55॥
नत एक हिंसा करे फल, भोगें अनेकों बहुत ही ।
मिल करें हिंसा को तथापि, भोगता फल एक ही ॥५५॥
अन्वयार्थ : [एकः करोति हिंसां] एक के हिंसा करने पर [भवन्ति फलभागिनो बहवः] फल भोगनेवाले बहुत होते हैं; [बहवोविदधति हिंसां] अनेकों से हिंसा होने पर [हिंसाफलभुग् भवत्येकः] हिंसा का फल भोगनेवाला एक होता है ।
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कस्यापि दिशति हिंसा हिंसाफलमेकमेव फलकाले ।
अन्यस्य सैव हिंसा दिशत्यहिंसाफलं विपुलम् ॥56॥
हिंसाफलमपरस्य तु ददात्यहिंसा तु परिणामे ।
इतरस्य पुनर्हिंसा दिशत्यहिंसाफलं नान्यत् ॥57॥
यह किसी को हिंसा उदय में, एक हिंसामय फले ।
पर किसी को हिंसा अहिंसा, का विपुल फल दे फले ॥५६॥
हो अहिंसा भी पर उदय में, किसी को हिंसा फले ।
पर अन्य को हिंसा निरन्तर, अहिंसा फल में फले ॥५७॥
अन्वयार्थ : [कस्यापि हिंसा फलकाले] किसी को तो हिंसा उदयकाल में [दिशति हिंसाफलमेकमेव] एक ही हिंसा का फल दिखाती है और [अन्यस्य सैव हिंसा] दूसरे किसी को वही हिंसा [दिशत्यहिंसाफलं विपुलम्] बहुत हिंसा का फल दिखाती है ।
[तु अपरस्य] और किसी को [अहिंसा परिणामे] अहिंसा उदयकाल में [हिंसाफलं ददाति] हिंसा का फल देती है [तु पुनः इतरस्य] तथा दूसरे को [हिंसा अहिंसाफलं दिशित] हिंसा अहिंसा का फल दिखाती है, [अन्यत् न] अन्य नहीं ।
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इतिविविधभङ्गगहने सुदुस्तरे मार्गमूढद्रष्टीनाम् ।
गुरवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनयचक्रसञ्चाराः ॥58॥
यों दुर्गमी बहु भंगमय, घन में सुपथ भूले हुए ।
को नय चलाने में चतुर, बस गुरु ही नित शरण हैं ॥५८॥
अन्वयार्थ : [इतिविविधभङ्गगहने सुदुस्तरे] इस प्रकार अत्यन्त किठनता से पार हो सकनेवाले अनेक प्रकार के भंगों से युक्त गहन वन में [मार्गमूढद्रष्टीनाम्] मार्ग भूले हुए को [प्रबुद्धनयचक्रसञ्चाराः] अनेक प्रकार के नय-समूह के ज्ञाता [गुरवो भवन्ति शरणं] श्रीगुरु ही शरण होते हैं ।
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अत्यंतनिशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम् ।
खण्डयति धार्यमाणं मूर्धानं झटिति दुर्विदग्धानाम् ॥59॥
जिनवर कथित नय चक्र अति ही, तीक्ष्णधारी दुरासद ।
धारण किए दुर्विदग्धों के, करे शीश झटिति पृथक् ॥५९॥
अन्वयार्थ : [अत्यंतनिशितधारं दुरासदं] अत्यन्त तीक्ष्ण धारवाला, दुःसाध्य [जिनवरस्य नयचक्रम्] जिनेन्द्र-भगवान का नयचक्र [धार्यमाणं] धारण करने पर [दुर्विदग्धानाम्] मिथ्याज्ञानी पुरुष के [मूर्धानं झटिति] मस्तक को तुरन्त ही [खण्डयति] खण्ड-खण्ड कर देता है ।
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अवबुध्य हिंस्यहिंसकहिंसाहिंसाफलानि तत्त्वेन ।
नित्यमवगूहमानैर्निजशक्त्या त्यज्यतां हिंसा ॥60॥
परमार्थ से हिंसा रु हिंसक, हिंस्य हिंसाफल सभी ।
को जान संवर उद्यमी, निज यथाशक्ति तज सभी ॥६०॥
अन्वयार्थ : [हिंस्यहिंसकहिंसाहिंसाफलानि] हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसा का फल [अवबुध्य तत्त्वेन] सम्यक-प्रकार जानकर [नित्यं अवगूहमानै:] निरन्तर गुप्त रहकर [निजशक्त्या] यथा-शक्ति [हिंसा त्यज्यतां] हिंसा छोड़नी चाहिए ।
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मद्यं मांसं क्षौद्रं पञ्चोदुम्बरफलानि यत्नेन ।
हिंसाव्युपरतिकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव ॥61॥
नित उदुम्बर फल पाँच, मदिरा माँस मधु को यत्न से ।
छोड़ें सभी सबसे प्रथम ही, हिंसात्यागेच्छु इन्हें ॥६१॥
अन्वयार्थ : [हिंसाव्युपरतिकामै प्रथममेव] हिंसा-त्याग के इच्छुक पुरुषों को प्रथम ही [यत्नेन मद्यं मांसं क्षौद्रं] यत्नपूर्वक शराब, मांस, मधु/शहद और [पञ्चोदुम्बरफलानि] पाँच उदुम्बर फल [मोक्तव्यानि] छोड़ देना चाहिए ।
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मद्यं मोहयति मनो मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मम् ।
विस्मृतधर्मा जीवो र्हिंसामविशङ्कमाचरति ॥62॥
नित मद्य से मन मुग्धता, मोहितमनी भूले धरम ।
हो धर्म विस्मृत जीव हिंसा, में निशंकित प्रवर्तित ॥६२॥
अन्वयार्थ : [मद्यं मनोमोहयति] मदिरा मन को मोहित करती है और [मोहितचित्त: तु धर्मम् विस्मरति] मोहित चित्त पुरुष तो धर्म को भूल जाता है तथा [विस्मृतधर्मा जीव: अविशंकम्] धर्म को भूला हुआ जीव नि:शंक-निडर होकर [हिंसां आचरति] हिंसा का आचरण करता है ।
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रसजानां बहूनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यम् ।
मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यम् ॥63॥
बहु रसज जीवों की सुयोनि, मद्य मानी गई है ।
यों मद्य सेवी के सतत हिंसा सुनिश्चित नियत है ॥६३॥
अन्वयार्थ : [च मद्यं बहूनां] और मदिरा बहुत [रसजानां जीवानां] रस से उत्पन्न हुए जीवों का [योनि: इष्यते] उत्पत्ति स्थान माना जाता है; [मद्यं भजतां तेषां] मदिरा का सेवन करता है, उसके [हिंसा अवश्यम् संजायते] हिंसा अवश्य ही होती है ।
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अभिमानभयजुगुप्साहास्यारतिशोककामकोपाद्याः ।
हिंसायाः पर्यायाः सर्वेऽपि चसरकसन्निहिताः ॥64॥
नित मान हास्य अरति जुगुप्सा, शोक भय कामादि सब ।
हिंसा के ही पर्यायवाची, मद्य के अति ही निकट ॥६४॥
अन्वयार्थ : [च अभिमानभयजुगुप्साहास्यारतिशोककामकोपाद्या:] और अभिमान, भय, ग्लानि, हास्य, अरति, शोक, काम, क्रोधादि [हिंसाया: पर्याया:] हिंसा के पर्यायवाची हैं और [सर्वेऽपि सरकसन्निहिता:] यह सभी मदिरा के निकटवर्ती हैं ।
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न विना प्राणिविघातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् ।
मांसं भजतस्तस्मात् प्रसरत्यनिवारिता हिंसा ॥65॥
नित जीवघात बिना नहीं, है माँस उत्पत्ति कभी ।
यों माँसभक्षी को सतत, अनिवार्य हिंसा ही कही ॥६५॥
अन्वयार्थ : [यस्मात् प्राणिविघाताम् विना] क्योंकि प्राणियों का घात किए बिना [मांसस्य उत्पत्ति: न इष्यते] मांस की उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती [तस्मात् मांसं भजत:] इसलिए मांसभक्षी को [अनिवारिता हिंसा प्रसरति] अनिवार्यरूप से हिंसा फैलती है ।
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यदपि किल भवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादेः ।
तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रितनिगोतनिर्मथनात् ॥66॥
स्वयमेव मृत भैंसा बलद, आदि का माँस भि सदा ही ।
स्व-आश्रयी सम्मूर्छनों के, मथन से हिंसामयी ॥६६॥
अन्वयार्थ : [यदपि किल] यद्यपि यह सत्य है कि [स्वयमेव मृतस्य] अपने आप ही मरे हुए [महिषवृषभादे: मांसं भवति] भैंस, बैल इत्यादि का मांस होता है परन्तु [तत्रापि] वहाँ भी [तदाश्रितनिगोत-निर्मथनात्] उसके आश्रय रहनेवाले उसी जाति के निगोद जीवों के मन्थन से [हिंसा भवति] हिंसा होती है ।
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आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु ।
सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम् ॥67॥
कच्चे पके पकते हुए भी, माँस खण्डों में सदा ।
उस जाति के सम्मूर्छन, उत्पन्न होते हैं सदा ॥६७॥
अन्वयार्थ : [आमासु पक्वासु अपि] कच्ची, पक्की तथा [विपच्यमानासु अपि] अध्-पकी भी [मांसपेशीषु तज्जातीनां] मांसपेशियों में उसी जाति के [निगोतानाम् सातत्येन उत्पाद:] निगोद जीवों का निरन्तर उत्पाद होता है ।
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आमां वा पक्वां वा खादति यः स्पृशति वा पिशितपेशीम् ।
स निहन्ति सततनिचितं पिण्डं बहुजीवकोटीनाम् ॥68॥
कच्चे व पक्के माँसखण्डों, को छुए भक्षण करे ।
वह सतत संचित विविध जीवों, पिण्ड की हत्या करे ॥६८॥
अन्वयार्थ : [य: आमां वा पक्वां] जो कच्ची अथवा अग्नि में पकी हुई [पिशितपेशीम् खादति] मांस की पेशी को खाता है [वा स्पृशति] अथवा छूता है [स: सततनिचितं] वह पुरुष निरन्तर इकट्ठे हुए [बहुजीवकोटीनाम्] अनेक जाति के जीव समूह के [पिण्डं निहन्ति] पिण्ड का घात करता है ।
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मधुशकलमपि प्रायो मधुकरहिंसात्मकं भवति लोके ।
भजति मधु मूढधीको यः स भवति हिंसकोऽत्यन्तम् ॥69॥
है मधु की इक बूँद भी, प्राय: मधूकर घातमय ।
जो मूढ़ सेवन करे मधु का, महा हिंसक सदा वह ॥६९॥
अन्वयार्थ : [लोके मधुशकलमपि] इस लोक में मधु की एक बूँद भी [प्राय: मधुकरहिंसात्मकं] बहुत करके मधुकर-भौरों की अथवा मधुमक्खियों की हिंसास्वरूप [भवति य: मूढधीक:] होती है, इसलिए जो मूर्खबुद्धि [मधु भजति] मधु का भक्षण करता है, [स: अत्यन्तं हिंसक:] वह अत्यन्त हिंसाक है ।
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स्वयमेव विगलितं यो गृह्णीयाद्वा छलेन मधुगोलात् ।
तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात् ॥70॥
जो कपट से मधु छत्र से, स्वयमेव गिरते मधु को ।
लेता वहाँ भी तदाश्रित जीव घात से हिंसा हि हो ॥७०॥
अन्वयार्थ : [य: छलेन वा] जो कोई कपट से अथवा [गोलात् स्वयमेव विगलितम्] मधुछत्ता में से अपने आप टपका हुआ [मधु गृह्णीयात्] मधु ग्रहण करता है, [तत्रापि तदाश्रय प्राणिनाम्] वहाँ भी उसके आश्रयभूत जन्तुओं के [घातात् हिंसा भवति] घात से हिंसा होती है ।
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मधु मद्यं नवनीतं पिशितं च महाविकृतयस्ताः ।
वल्भ्यन्ते न व्रतिना तद्वर्णा जन्तवस्तत्र ॥71॥
नित महा विकृतिमय मधु, नवनीत मदिरा माँस का ।
सेवन करें नहिं व्रती, क्योंकि रहें तद्वत् जिव सदा ॥७१॥
अन्वयार्थ : [मधु मद्यं नवनीतं च पिशितं] शहद, मदिरा, मक्खन और मांस [महाविकृतय: ता:] महान विकार-रूप इन चारों पदार्थों को [व्रतिना न वल्भ्यन्ते] व्रती पुरुष भक्षण न करे; [तत्र तद्वर्णा जन्तव:] उन वस्तुओं में उस जाति के उसी वर्ण के धारी जीव रहते हैं ।
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योनिरुदुम्बरयुग्मं प्लक्षन्यग्रोधपिप्पलफलानि ।
त्रसजीवानां तस्मात्तेषां तद्भक्षणे हिंसा ॥72॥
अंजीर ऊमर कठूमर बड़, पीपलीफल त्रसों की ।
योनि सदा ही अत: सेवन, से सदा हिंसा कही ॥७२॥
अन्वयार्थ : [उदुम्बरयुग्मं] ऊमर, कठूमर [प्लक्षन्यग्रोधपिप्पलफलानि] पाकर , बड़ के फल और पीपल वृक्ष के फल [त्रसजीवानां योनि:] त्रस जीवों के उत्पत्ति-स्थान हैं, [तस्मात् तद्भक्षणे] इसलिए उनके भक्षण से [तेषां हिंसा] उनकी हिंसा होती है ।
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यानि तु पुनर्भवेयुःकालोच्छिन्नत्रसाणि शुष्काणि ।
भजतस्तान्यपि हिंसा विशिष्ट रागादिरुपा स्यात् ॥73॥
जब काल पा हो शुष्क यद्यपि, त्रस रहित हो गए वे ।
पर तीव्र रागादिमयी हिंसा सदा उन ग्रहण से ॥७३॥
अन्वयार्थ : [तु पुन: यानि] और फिर यह [शुष्कानि कालोच्छिन्नत्रसाणि] सूखे हुए समय बीतने पर त्रस-रहित [भवेयु: तान्यपि] हो गए हों तब भी [भजत: विशिष्टरागादिरूपा] भक्षण करनेवाले को विशेष रागादिरूप [हिंसा स्यात्] हिंसा होती है ।
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अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवर्ज्य ।
जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः ॥74॥
अनिष्ट दुस्तर घोर पाप, मयी ये आठों छोड़कर ।
हो शुद्धधी जिनधर्म के, उपदेश का है पात्र तब ॥७४॥
अन्वयार्थ : [अनिष्टदुस्तरदुरितायतनानि] दु:खदायक दुस्तर और पाप के स्थान [अमूनि अष्टा परिवर्ज्य] ऐसे आठों का परित्याग करके [शुद्धधिय: जिनधर्मदर्शनाया:] निर्मल बुद्धिवाले पुरुष जैन-धर्म के उपदेश के [पात्राणि भवन्ति] पात्र होते हैं ।
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कृतकारितानुमननैर्वाक्कायमनोभिरिष्यते नवधा ।
औत्सर्गिकी निवृत्तिर्विचित्ररूपापवादिकी त्वेषा ॥75॥
नित मान्य है उत्सर्ग त्याग, सदा वचन मन काय कृत ।
कारित अनुमत भेद नौ से, त्याग अपवादी विविध ॥७५॥
अन्वयार्थ : [औत्सर्गिकी निवृत्ति:] उत्सर्गरूप निवृत्ति अर्थात् सामान्य त्याग [कृतकारितअनुमननै:] कृत, कारित और अनुमोदनारूप [वाक्कायनोभि:] मन, वचन और काय से [नवधा इष्यते] नव प्रकार से माना गया है [तु एषा] और यह [अपवादिकी विचित्ररूपा] अपवादरूप निवृत्ति अनेकरूप है ।
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धर्ममहिंसारूपं संशृण्वन्तोपि ये परित्यक्तुम ।
स्थावरहिंसामसहास्त्रसहिंसां तेऽपि मुञ्चन्तु ॥76॥
इस अहिंसामय धर्म को, सुन भी यदि असमर्थ हैं ।
जो घात थावर छोड़ने, त्रस जीव हिंसा छोड़ दें ॥७६॥
अन्वयार्थ : [ये अहिंसारूपं] जो जीव अहिंसारूप [धर्मं संशृण्वन्त: अपि] धर्म को भले प्रकार सुनकर भी [स्थावर हिंसां परित्युक्तम्] स्थावर जीवों की हिंसा छोड़ने को [असहा: ते अपि] असमर्थ हैं, वे जीव भी [त्रसहिंसां मुञ्चन्तु] त्रस जीवों की हिंसा त्याग दें ।
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स्तोकैकेन्द्रियघाताद्गृहिणां सम्पन्नयोग्यविषयाणाम् ।
शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम् ॥77॥
नत योग्य विषयों में प्रवर्तित, गृही को अनिवार्यतम ।
अत्यल्प थावर घात बस, हैं शेष हिंसा त्याज्य सब ॥७७॥
अन्वयार्थ : [सम्पन्नयोग्यविषयाणाम्] इन्द्रिय-विषयों को न्यायपूर्वक सेवन करनेवाले [गृहिणाम्] गृहस्थों को [स्तोकैकेन्द्रियघातात्] अल्प एकेन्द्रिय के घात के अतिरिक्त [शेषस्थावरमारणविरमणमपि] बाकी के स्थावर जीवों के मारने का त्याग भी [करणीयम् भवति] करने योग्य है ।
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अमृतत्वहेतुभूतं परममहिंसारसायनं लब्ध्वा ।
अवलोक्य बालिशानामसमञ्जसमाकृलैर्न भवितव्यम् ॥78॥
है अहिंसा उत्तम रसायन, मोक्ष हेतुभूत पा ।
होना नहीं आकुल असंगत, देख वर्तन अज्ञ का ॥७८॥
अन्वयार्थ : [अमृतत्त्वहेतुभूतं] अमृत अर्थात् मोक्ष का कारणभूत [परमं अहिंसारसायनं लब्ध्वा] उत्कृष्ट अहिंसारूपी रसायन प्राप्त करके [बालिशानां असमञ्जसम्] अज्ञानी जीवों का असंगत वर्तन [अवलोक्य आकुलै: न भवितव्यम्] देखकर व्याकुल नहीं होना चाहिए ।
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सूक्ष्मो भगवद्धर्मो धर्मांर्थं हिंसने न दोषोऽस्ति ।
इति धर्ममुग्धहृदयैर्न जातु भूत्वा शरीरिणो हिंस्याः ॥79॥
भगवद् धरम अति सूक्ष्म, हिंसा धर्म हेतु उचित है ।
यों भ्रमित धर्मी हो कभी भी, जीव घात नहीं करे ॥७९॥
अन्वयार्थ : [भगवद्धर्म: सूक्ष्म:] भगवान का कहा हुआ धर्म बहुत बारीक है, इसलिए [धर्मार्थं हिंसने] धर्म के निमित्त से हिंसा करने में [दोष: नास्ति] दोष नहीं है [इति धर्ममुग्धहृदयै:] ऐसा धर्ममूढ़ अर्थात् भ्रमरूप हृदयवाला [भूत्वा जातु] होकर कभी भी [शरीरिण: न हिंस्या:] शरीरधारी जीवों को नहीं मारना चाहिए ।
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धर्मो हि देवताभ्यः प्रभवति ताभ्यः प्रदेयमिह सर्वम् ।
इति दुर्विवेककलितां धिषणां न प्राप्य देहिनो हिंस्या ॥80॥
नत धर्म देवों से प्रगट, यों उन्हें देय यहाँ सभी ।
इस दुर्विवेकी मति को, पा नहिं करो हिंसा कभी ॥८०॥
अन्वयार्थ : [हि धर्म: देवताभ्य: प्रभवति] निश्चय से धर्म देवों से उत्पन्न होता है, इसलिए [इह ताभ्य: सर्वं प्रदेयम्] इस लोक में उनके लिये सभी कुछ दे देना चाहिए [इति दुर्विवेककलितां] ऐसी अविवेक से ग्रसित [धिषणां प्राप्य] बुद्धि प्राप्त करके [देहिन: न हिंस्या:] शरीरधारी जीवों को नहीं मारना चाहिए ।
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पूज्यनिमित्तं घाते छागादीनां न कोऽपि दोषोऽस्ति ।
इति संप्रधार्य कार्यं नातिथये सत्त्वसंज्ञपनम् ॥81॥
सब पूज्य हेतु अजादि के, घात में कुछ दोष नहिं ।
यों सोच अतिथि हेतु भी, नहिं जीवघात करो कभी ॥८१॥
अन्वयार्थ : [पूज्यनिमित्तं छागादीनां] पूज्य पुरुषों के लिये बकरा वगैरह जीवों को [घाते क: अपि दोष: नास्ति] घात करने में कोई भी दोष नहीं है [इति संप्रधार्य अतिथये] ऐसा विचारकर अतिथि के लिए [सत्त्वसंज्ञपनम् न कार्यम्] जीवों का घात नहीं करना चाहिए ।
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बहुसत्त्वघातजनितादशनाद्वरमेकसत्त्वघातोत्थम् ।
इत्याकलय्य कार्यंनमहासत्त्वस्य हिंसनं जातु ॥82॥
बहु जीव घातोत्पन्न, भोजन से भला इक जीव की ।
हिंसामयी भोजन विचार, करो न हिंसा बड़े की ॥८२॥
अन्वयार्थ : [बहुसत्त्वघातजनितान्] बहुत जीवों के घात से उपजे [अशनात् एकसत्त्वघातोत्थम्] भोजन की अपेक्षा एक जीव के घात से उत्पन्न हुआ भोजन [वरम् इति आकलय्य] अच्छा है, ऐसा विचारकर [जातु महासत्त्वस्य] कभी भी बड़े त्रस जीव का [हिंसनं न कार्यम्] घात नहीं करना चाहिए ।
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रक्षा भवति बहूनामेकस्यैवास्य जीवहरणेन ।
इति मत्वा कर्त्तव्यं न हिंसनं हिस्त्रसत्त्वानाम् ॥83॥
इस एक के ही घात से, बहु जीव रक्षा नित्य ही ।
यों मान हिंसक जीव की भी, करो हिंसा नहिं कभी ॥८३॥
अन्वयार्थ : [अस्य एकस्य एव जीवहरणेन] इस एक ही जीव-घात करने से [बहूनाम् रक्षा भवति] बहुत जीवों की रक्षा होती है', [इति मत्वा हिंस्रसत्त्वानाम्] ऐसा मानकर हिंसक जीवों की भी [हिंसनं न कर्त्तव्यम्] हिंसा नहीं करना चाहिए ।
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बहुसत्त्वघातिनोऽमी जीवन्त उपार्जयन्ति गुरु पापम् ।
इत्यनुकम्पां कृत्वा न हिंसनीयाः शरीरिणो हिंस्त्राः ॥84॥
बहु जीव घाती घोर पाप, करें यदि जीवित रहें ।
यों करो हिंसक जीव की भी, नहीं हिंसा दया से ॥८४॥
अन्वयार्थ : [बहुसत्त्वघातिन: अमी] 'बहुत जीवों के घातक यह जीव [जीवन्त: गुरु पापम् उपार्जयन्ति] जीवित रहेंगे तो बहुत पाप उपार्जित करेंगे' [इति अनुकम्पां कृत्वा] इस प्रकार की दया करके [हिंस्रा: शरीरिण:] हिंसक जीवों को [न हिंसनीया:] नहीं मारना चाहिए ।
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बहुदुःखासंज्ञपिताः प्रयान्ति त्वचिरेण दुःखविच्छित्तिम् ।
इति वासनाकृपाणीमादाय न दुःखिनोऽपि हन्तव्याः ॥85॥
अति दु:ख पीड़ित शीघ्र ही, सब दुखों से छूटें सदा ।
यों वासना असि ले दुखी को, भी कभी नहिं मारना ॥८५॥
अन्वयार्थ : [तु बहुदु:खासंज्ञपिता:] और 'अनेक दु:खों से पीड़ित जीव [अचिरेण दु:खविच्छित्तम् प्रयान्ति] थोड़े ही समय में दु:खों का अन्त पा जावेंगे' [इति वासनाकृपाणीं आदाय] इस प्रकार की वासना अथवा विचाररूपी तलवार लेकर [दु:खिन: अपि] दु:खी जीवों को भी [न हन्तव्या:] नहीं मारना चाहिए ।
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कृच्छे्रण सुखावाप्तिर्भवन्ति सुखिनो हताः सुखिन एव ।
इति तर्कमण्डलाग्रः सुखिनां घाताय नादेयः ॥86॥
सुख प्राप्त होता कष्ट से, सुख युक्त मरते सुखी ही ।
पर लोक में यों कुतर्क असि से, सुखी को मारो नहीं ॥८६॥
अन्वयार्थ : [सुखावाप्ति: कृच्छ्रेण] 'सुख की प्राप्ति कष्ट से होती है; अत: [हता: सुखिन:] मारने में आए हुए सुखी जीव [सुखिन: एव भवन्ति] परलोक में सुखी ही होंगे', [इति तर्कमण्डलाग्र:] इस प्रकार कुतर्क की तलवार [सुखिनां घाताय नादेय:] सुखी जीवों के घात को न अंगीकारे ।
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उपलब्धिसुगतिसाधनसमाधिसारस्यभूयसोऽभ्यासात् ।
स्वगुरोः शिष्येण शिरो न कर्त्तनीयं सुधर्ममभिलषिता ॥87॥
पा अत्यधिक अभ्यास से, हेतु सुगति रस समाधि ।
युत निज गुरु हिंसा करे, नहिं सुधर्मार्थी शिष्य भी ॥८७॥
अन्वयार्थ : [सुधर्मं अभिलषिता शिष्येण] सत्यधर्म के अभिलाषी शिष्य द्वारा [भूयस: अभ्यासात्] अधिक अभ्यास से [उपलब्धि सुगतिसाधनसमाधिसारस्य] ज्ञान और सुगति करने में कारणभूत समाधि के सार को प्राप्त करनेवाले [स्वगुरो: शिर: न कर्त्तनीयम्] अपने गुरु का मस्तक नहीं काटना चाहिए ।
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धनलवपिपासितानां विनेयविश्वासनाय दर्शयताम् ।
झटितिघटचटकमोक्षं श्रद्धेयं नैव खारपटिकानाम् ॥88॥
घट नष्ट खग शिव शीघ्र, यों मानों नहीं ये खारपटिक ।
जो शिष्य विश्वसनीयता, वश दिखा कम धन चाह नित ॥८८॥
अन्वयार्थ : [धनलवपिपासितानां] थोड़े धन का लोभी और [विनेयविश्वासनाय दर्शयताम्] शिष्यों को विश्वास उत्पन्न करने के लिये दर्शानेवाला [खारपटिकानाम्] खार-पटिकों का [झटितिघटचटकमोक्षं] शीघ्र घड़ा फूटने से चिड़िया के मोक्ष की तरह मोक्ष का [नैवश्रद्धेयं] श्रद्धान नहीं करना चाहिए ।
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द्रष्टजाापरं पुरस्तादशनाय क्षामकुक्षिमायान्तम् ।
निजमांसदानरभसादालभनीयो न चात्मापि ॥89॥
अति देख भोजन हेतु आए, क्षुधित को निज माँस ही ।
दें दान ऐसा सोच तुम, निज आत्मघात करो नहीं ॥८९॥
अन्वयार्थ : [च अशनाय] और भोजन के लिये [पुरस्तात् आयान्तम्] पास आये हुए [अपरं क्षामकुक्षिम् दृष्ट्वा] अन्य भूखे पुरुष को देखकर [निजमांसदानरभसात्] अपने शरीर का माँस देने की उत्सुकता से [आत्मापि न आलभनीय:] अपना भी घात नहीं करना चाहिए ।
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को नाम विशति मोहं नयभङ्गविशारदानुपास्य गुरून् ।
विदितजिनमतरहस्यः श्रयन्नहिंसां विशुद्धमति ॥90॥
नय भेद बहुज्ञाता गुरु, सेवक रहस्य जिनमत विदित ।
निर्मलमति ले अहिंसा, आश्रय नहीं हो विमोहित ॥९०॥
अन्वयार्थ : [नयभंगविशारदान् गुरून्] नय के भंगों को जानने में प्रवीण गुरुओं की [उपास्य विदितजिनमतरहस्य:] उपासना करके जैनमत का रहस्य जाननेवाला [को नाम विशुद्धमति:] ऐसा कौन निर्मल बुद्धिधारी है जो [अहिंसां श्रयन्] अहिंसा का आश्रय लेकर [मोहं विशति] मूढ़ता को प्राप्त होवे?
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सत्य-व्रत
यदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधीयते किमपि ।
तदनृतमपि विज्ञेयं तद्भेदाः सन्ति चत्वारः ॥91॥
यह जो प्रमादी योग से, कुछ भी असत् अभिधान है ।
जानो उसे नित अनृत, उसके चार भेद यहाँ कहें ॥९१॥
अन्वयार्थ : [यत् किमपि प्रमादयोगात्] जो कुछ प्रमाद के योग से [इदं असदभिधानं विधीयते] यह असतवचन कहने में आता है, [तत् अनृतं अपि] उसे निश्चय से असत्य [विज्ञेयम् तद्भेदा:] जानना चाहिए उसके भेद [चत्वार: सन्ति] चार हैं ।
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स्वक्षेत्रकालभावैः सदपि हि यस्मिन्निषिध्यते वस्तु ।
तत्प्रथममसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदत्तोऽत्र ॥92॥
निज द्रव्य क्षेत्र रु काल भाव, से सत्य वस्तु का किया ।
जिसमें निषेध विलोप-सत, पहला नहीं देवदत्त कहा ॥९२॥
अन्वयार्थ : [यस्मिन् स्वक्षेत्रकालभावै:] जिसमें अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से [सत्अपि वस्तु निषिध्यते] विद्यमान होने पर भी वस्तु का निषेध करने में आता है, [तत् प्रथमम् असत्यं स्यात्] वह प्रथम असत्य है [यथा अत्र देवदत्त: नास्ति] जैसे 'यहाँ देवदत्त नहीं है' ।
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असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रकालभावैस्तैः ।
उद्भाव्यतेद्वितीयं तदनृतमस्मिन् यथास्ति घटः ॥93॥
पर द्रव्य क्षेत्र रु काल भाव से, असत् वस्तुरूप का ।
प्रगटीकरण है असद्, उद्भावन द्वितीय ज्यों घट यहाँ ॥९३॥
अन्वयार्थ : [हि यत्र] निश्चय से जिसमें [तै परक्षेत्रकालभावै:] उन परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से [असत् अपि] अविद्यमान होने पर भी [वस्तुरूपं उद्भाव्यते] वस्तु का स्वरूप प्रगट करने में आवे [तत् द्वितीयं अनृतम् स्यात्] वह दूसरा असत्य है [यथा अस्मिन् घट: अस्ति] जैसे 'यहाँ घड़ा है' ।
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वस्तु सदपि स्वरूपात् पररूपेणाभिधीयते यस्मिन् ।
अनृतमिदं च तृतीयं विज्ञेयं गौरिति यथाऽश्वः ॥94॥
स्वरूप से सत् वस्तु को, पररूप से जिसमें कहें ।
है अन्यथा प्ररूपण तृतिय, ज्यों बैल को घोड़ा कहें ॥९४॥
अन्वयार्थ : [च यस्मिन् स्वरूपात्] और जिसमें अपने चतुष्टय से [सत्अपि वस्तु पररूपेण] विद्यमान होने पर भी पदार्थ अन्य स्वरूप से [अभिधीयते इदं] कहने में आता है उसे यह [तृतीयं अनृतं विज्ञेयं] तीसरा असत्य जानो [यथा गौ: अश्व: इति] जैसे 'बैल घोड़ा है' ।
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गर्हितमवद्यसंयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपं यत् ।
सामान्येन त्रेधा मतिमदमनृतं तुरीयं तु ॥95॥
गर्हित रु पापसहित अप्रिय, वचन जो सामान्य से ।
त्रय रूप मानों यह चतुर्थ, अनृत है जिनने कहे ॥९५॥
अन्वयार्थ : [तु इदं तुरीयं अनृतं] और यह चौथा असत्य [सामान्येन गर्हितं] सामान्यरूप से गर्हित [अवद्यसंयुतम् अपि अप्रियं] पाप-सहित और अप्रिय इस तरह [त्रेधा मतम्] तीन प्रकार का माना गया है, [यत् वचनरूपं भवति] जो कि वचनरूप है ।
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पैशून्यहासगर्भं कर्कशमसमञ्जसं प्रलपितं च ।
अन्यदपि यदुत्सूत्रं तत्सर्वं गर्हितं गदितम् ॥96॥
पैशून्य निन्दायुत हँसी, कर्कश प्रलाप सुसंशयी ।
उत्सूत्रवाणी अन्य भी यों कहें गर्हित ये सभी ॥९६॥
अन्वयार्थ : [पैशून्यहासगर्भं कर्कशं] दुष्टता अथवा निन्दारूप हास्यवाला, कठोर [असमञ्जसं च प्रलपितं] मिथ्या-श्रद्धानवाला और प्रलापरूप [बकवाद अन्यदपि] तथा और भी [यत् उत्सूत्रं] जो शास्त्र-विरुद्ध वचन है [तत्सर्वं गर्हितं गदितम्] वह सभी निन्द्य-वचन कहा गया है ।
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छेदनभेदनमारणकर्षणवाणिज्यचौर्यवचनादि ।
तत्सावद्यं यस्मात्प्राणिवधाद्याः प्रवर्तन्ते ॥97॥
छेदन भेदन मारने के, खीचने व्यापार के ।
नित चौर्य आदि के वचन, हिंसादिकर सावद्य हैं ॥९७॥
अन्वयार्थ : [यत्] जो [छेदनभेदनमारणकर्षणवाणिज्यचौर्यवचनादि] छेदन, भेदन, मारण, शोषण, व्यापार या चोरी आदि के वचन हैं [तत् सावद्यं] वे सब पाप-युक्त वचन हैं [यस्मात् प्राणिवधाद्या: प्रवर्तन्ते] क्योंकि इनके द्वारा प्राणी हिंसा आदि पापरूप प्रवर्तन करते हैं ।
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अरतिकरं भीतिकरं खेदकरं वैरशोककलहकरम् ।
यदपरमपि तापकरं परस्यतत्सर्वमप्रियं ज्ञेयम् ॥98॥
नित अरति भीति खेदकारक, वैर शोक कलह करें ।
हों और भी संतापकारक, आदि सब अप्रिय कहें ॥९८॥
अन्वयार्थ : [यत् परस्य अरतिकरं] जो वचन दूसरों को अप्रीतिकारक, [भीतिकरं खेदकरं] भयकारक, खेदकारक [वैरशोककलहकरं अपरमपि] वैर, शोक तथा कलहकारक हो और तो अन्य जो भी सन्तापकारक हो [तत् सर्वं अप्रियं ज्ञेयम्] वह सर्व ही अप्रिय जानो ।
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सर्वस्मिन्नप्यस्मिन्प्रमत्तयोगैकहेतुकथनं यत् ।
अनृतवचनेऽपि तस्मान्नियतं हिंसा समवतरति ॥99॥
नित है प्रमादी योग हेतु, मात्र ही इन सभी में ।
इससे सतत हिंसा हुई, है मान अनृत वचन में ॥९९॥
अन्वयार्थ : [यत् अस्मिन् सर्वस्मिन्नपि] चूँकि इन सभी वचनों में [प्रमत्त योगैकहेतुकथनं] प्रमाद सहित योग ही एक हेतु कहने में आया है [तस्मात् अनृतवचने] इसलिए असत्य वचन में [अपि हिंसा नियतं समवतरति] भी हिंसा निश्चितरूप से आती है ।
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हेतौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम् ।
हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति नासत्यम् ॥100॥
कहते प्रमादी योग हेतु, सभी मिथ्या वचन का ।
यों नहीं कहते असत् हैं, वचनादि हेयादेय का ॥१००॥
अन्वयार्थ : [सकलवितथवचनानाम्] समस्त झूठ वचनों का [प्रमत्तयोगे हेतौ] प्रामद-सहित योग हेतु [निर्दिष्टे सति] निर्दिष्ट करने में आया होने से [हेयानुष्ठानादे:] हेय-उपादेय आदि अनुष्ठानों का [अनुवदनं असत्यं न भवति] कहना झूठ नहीं है ।
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भोगोपभोगसाधनमात्रं सावद्यमक्षमा मोक्तुम् ।
ये तेऽपि शेषमनृतं समस्तमपि नित्यमेव मुञ्चन्तु ॥101॥
भोगोपभोग-निमित्त सावद्य, वचन तज सकते नहीं ।
तो शेष अनृत वचन को तो, तजो नित सर्वत्र ही ॥१०१॥
अन्वयार्थ : [ये भोगोपभोगसाधनमात्रं] जो भोग-उपभोग के साधन-मात्र [सावद्यम् मोक्तुम् अक्षमा:] सावद्यवचन छोड़ने में [ते अपि] असमर्थ हैं वे भी [शेषम् समस्तमपि] बाकी के सभी [अनृतं नित्यमेव मुञ्चन्तु] असत्य भाषण का निरन्तर त्याग करें ।
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अचौर्य-व्रत
अवितीर्णस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद्यत् ।
तत्प्रत्येयं स्तयं सैव च हिंसा वधस्य हेतुत्वात् ॥102॥
जो नित प्रमादी योग से, बिन दिए वस्तु का ग्रहण ।
है जान चोरी मान हिंसा, घात कारण जिन वचन ॥१०२॥
अन्वयार्थ : [यत् प्रमत्तयोगात्] जो प्रमाद के योग से [अवितीर्णस्य परिग्रहस्य ग्रहणं] बिना दिये परिग्रह का ग्रहण करना है [तत् स्तेयं प्रत्येयं] उसे चोरी जानना चाहिए [च सा एव] और वही [वधस्य हेतुत्वात् हिंसा] वध का कारण होने से हिंसा है ।
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अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चरा: पुंसाम् ।
हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ॥103॥
जो धन पदार्थों को हरे, वह प्राण ही उसके हरे ।
हैं क्योंकि बाहिज प्राण, अर्थादि नरों के यों कहें ॥१०३॥
अन्वयार्थ : [य: जन: यस्य जीव] जो मनुष्य जिस के [अर्था हरति] पदार्थों को हरता है [स: तस्य प्राणान् हरति] वह उसके प्राणों को हर लेता है, क्योंकि जगत में [ये एते अर्थानाम] जो यह धनादि पदार्थ
प्रसिद्ध हैं [एते पुंसां] वे सभी मनुष्यों के [बहिश्चरा: प्राणा: सन्ति] बाह्य प्राण हैं ।
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हिंसाया: स्तेयस्य च नाव्याप्ति: सुघटमेव वा यस्मात् ।
ग्रहणे प्रमत्तयोगो द्रव्यस्य स्वीकृतस्यान्यै: ॥104॥
स्तेय में हिंसा नहीं, अव्याप्ति, अपितु सुघट ही ।
क्योंकि पराए द्रव्य की, चोरी प्रमादी योग ही ॥१०४॥
अन्वयार्थ : [हिंसाया: च स्तेयस्य] हिंसा और चोरी में [अव्याप्ति: न] अव्याप्ति नहीं है [सा सुघटमेव] वहां हिंसा बराबर घटित होती है [यस्मात् अन्यै: स्वीकृतस्य] कारण कि दूसरे के द्वारा स्वीकृत की हुई [द्रव्यस्य ग्रहणे प्रमत्तयोग:] द्रव्य के ग्रहण में प्रमाद का योग है ।
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नातिव्याप्तिश्च तयो: प्रमत्तयोगैककारणविरोधात् ।
अपि कर्म्मानुग्रहणे नीरागाणामविद्यमानत्वात् ॥105॥
नित वीतरागी के प्रमादी, योग नहिं अतिव्याप्ति नहिं ।
कर्मादि का है ग्रहण उनके, पर न हिंसा स्तेय नहिं ॥१०५॥
अन्वयार्थ : [च नीरागाणाम्] और वीतरागी पुरुषों के [प्रमत्तयोगैकारण-विरोधात्] प्रमत्तयोगरूप एक कारण के विरोध में [कर्म्मानुग्रहणे] द्रव्यकर्म नोकर्म की कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करने में [अपि स्तेयस्य] निश्चय से चोरी की [अविद्यमानत्वात्] अनुपस्थिति से [तयो:] उन दोनों में [अतिव्याप्ति: न] अतिव्याप्ति नहीं है ।
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असमर्था ये कर्त्तुं निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिम् ।
तैरपि समस्तमपरं नित्यमदत्तं परित्याज्यम् ॥106॥
नित अन्य के कूपादि से, बिन दत्त नीरादि ग्रहण ।
यदि नहीं छोड़ सको तो छोड़ो, शेष सब बिन दे ग्रहण ॥१०६॥
अन्वयार्थ : [ये निपानतोयादिहरणविनिवृत्तम्] जो दूसरे के कुआँ, बावड़ी आदि जलाशयों का जल इत्यादि ग्रहण करने के त्याग [कर्त्तुम् असमर्था] करने में असमर्थ हैं [तै: अपि] उन्हें भी [अपरं समस्तं] अन्य सर्वं [अदत्तं नित्यम् परित्याज्यम्] बिना दी हुई वस्तुओं के ग्रहण को हमेशा त्यागें ।
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ब्रह्मचर्य अणुव्रत
यद्वेदरागयोगान्मैथुनमभिधीयते तदब्रह्म ।
अवतरति तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्र सद्भावात् ॥107॥
हिंस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् ।
बहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ॥108॥
जो राग वेद संयोग से, मैथुन कहा अब्रम्ह वह ।
सर्वत्र वध सद्भाव से, हिंसा वहाँ होती सतत ॥१०७॥
तिलयुत नली में शलाका, अति तप्त डालें ज्यों भुनें ।
त्यों योनि में स्थित अनेकों, जीव मैथुन में मरें ॥१०८॥
अन्वयार्थ : [यत् वेदरागयोगात्] जो वेद के रागरूप योग से [मैथुनं अभिधीयते] स्त्री-पुरुषों का सहवास कहा जाता है [तत् अब्रह्म] वह अब्रह्म है और [तत्र वधस्य] उस सहवास में प्राणिवध का [सर्वत्र सद्भावात्] सर्व स्थान में सद्भाव होने से [हिंसा अवतरति] हिंसा होती है ।
[यद्वत् तिलनाल्यां] जैसे तिल से भरी हुई नली में [तप्तायसि विनिहिते] गरम लोहे की शलाका डालने से [तिला: हिंस्यन्ते] तिल भुन जाते हैं [तद्वत् मैथुने योनौ] वैसे ही मैथुन के समय योनि में भी [बहवो जीवा: हिंस्यन्ते] बहुत से जीव मर जाते हैं ।
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यदपि क्रियते किंचिन्मदनोद्रेकादनंगरमणादि ।
तत्रापि भवति हिंसा रागाद्युत्पत्तितन्त्रत्वात् ॥109॥
वर्तें अनंग क्रीड़ादि में, जो वासना आधिक्य से ।
होती सदा हिंसा वहाँ, रागादि की उत्पत्ति से ॥१०९॥
अन्वयार्थ : [अपि मदनोद्रेकात्] तदुपरान्त काम की उत्कटता से [यत् किञ्चित् क्रियते] जो कुछ अनंगक्रीड़ा की जाती है [तत्रापि रागाद्युत्पत्तितन्त्रत्वात्] उसमें भी रागादि की उत्पत्ति के कारण [हिंसा भवति] हिंसा होती है ।
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ये निजकलत्रमात्रं परिहर्तुं शक्नुवन्ति न हि मोहात् ।
नि:शेषशेषयोषिन्निषेवणं तैरपि न कार्यम् ॥110॥
जो मोहवश स्व स्त्री के, त्याग में असमर्थ हैं ।
वे शेष सब स्त्रिओं का, सेवन सदा ही त्याग दें ॥११०॥
अन्वयार्थ : [ये मोहात्] जो मोह-वश [निजकलत्रमात्रं परिहर्तुं] अपनी विवाहिता स्त्री को ही छोड़ने में [हि न शक्नुवन्ति] निश्चय से समर्थ नहीं है [तै: नि:शेषशेषयोषिन्निवेषणं अपि] उन्हें बाकी की समस्त स्त्रियों का सेवन तो कदापि [न कार्यम्] नहीं करना चाहिए ।
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परिग्रह-परिमाण
या मूर्च्छा नामेयं विज्ञातव्य: परिग्रहो ह्येष: ।
मोहोदयादुदीर्णो मूर्च्छा तु ममत्वपरिणाम: ॥111॥
जो मूर्छा मय भाव यह ही, परिग्रह यों जानना ।
नित मोहोदय से व्यक्त, ममता भाव मूर्छा मानना ॥
अन्वयार्थ : [इयं या मूर्च्छा नाम] यह जो मूर्च्छा है [एष: हि] इसे ही निश्चय से [परिग्रह: विज्ञातव्य:] परिग्रह जानो [तु मोहोदयात् उदीर्ण:] और मोह के उदय से उत्पन्न हुआ [ममत्वपरिणाम: मूर्च्छा] ममत्वरूप परिणाम ही मूर्च्छा है ।
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मूर्च्छालक्षणकरणात् सुघटा व्याप्ति: परिग्रहत्वस्य ।
सग्रन्थो मूर्च्छावान् विनापि किल शेषसंगेभ्य: ॥112॥
नित परिग्रहता का सुलक्षण, मूर्छा विधिवत् घटित ।
यों अन्य संग बिना भी मूर्छावान नित परिग्रह सहित ॥
अन्वयार्थ : [परिग्रहत्वस्य] परिग्रहपने का [मूर्च्छालक्षणकरणात्] मूर्च्छा लक्षण करने से [व्याप्ति: सुघटा] व्याप्ति भले प्रकार से घटित होती है क्योंकि [शेषसंगेभ्य: विना अपि] अन्य परिग्रह बिना भी [मूर्च्छावान्] मूर्च्छा करनेवाला पुरुष [किल सग्रन्थ:] निश्चय से परिग्रही है ।
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यद्येयं भवति तदा परिग्रहो न खलु कोऽपि बहिरंग: ।
भवति नितरां यतोऽसौ धत्ते मूर्च्छानिमित्तत्त्वम् ॥113॥
यदि मूर्छा ही परिग्रह तो, बाह्य परिग्रह कुछ नहीं ।
पर नहीं ऐसा क्योंकि वह, नित मूर्छा हेतु सभी ॥११३॥
अन्वयार्थ : [यदि एवं तदा परिग्रह:] यदि ऐसा है तो परिग्रह [न खलु क: अपि बहिरंग] वास्तव में कोई भी नहीं बाहर में [यत: असौ] क्योंकि उसके [मूर्च्छानिमित्तत्त्वम्] मूर्च्छा के निमित्तपने का [नितरां धत्ते] अतिशयरूप से धारण है ।
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एवमतिव्याप्ति: स्यात्परिग्रहस्येति चेद्भवेन्नैवम् ।
यस्मादकषायाणां कर्मग्रहणे न मूर्च्छास्ति ॥114॥
यदि बाह्य परिग्रह अतिव्याप्ति, कहो तो ऐसा नहीं ।
है क्योंकि कर्मादि ग्रहण, अकषायी के मूर्छा नहीं ॥११४॥
अन्वयार्थ : [एवं परिग्रहस्य] और बाह्य परिग्रह से [इति चेत्] इस प्रकार अगर [अतिव्याप्ति: स्यात्] अतिव्याप्ति सम्भव है [एवं न भवेत्] ऐसा नहीं होता [यस्मात् अकषायाणां] क्योंकि कषाय-रहित को [कर्मग्रहणे] कार्मणवर्गणा के ग्रहण में [मूर्च्छा नास्ति] मूर्च्छा नहीं है ।
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अतिसंक्षेपाद् द्विविध: स भवेदाभ्यन्तरश्च बाह्यश्च ।
प्रथमश्चतुर्दशविधो भवति द्विविधो द्वितीयस्तु ॥115॥
वह परिग्रह संक्षेप में, अंतरंग बहिरंग है द्विविध ।
है प्रथम चौदह भेदयुत, बहिरंग होता है द्विविध ॥११५॥
अन्वयार्थ : [स अतिसंक्षेपात्] वह अत्यन्त संक्षेप से [आभ्यन्तर: च बाह्य:] अन्तरंग और बहिरंग [द्विविध: भवेत्] दो प्रकार का है [च प्रथम: चतुर्दशविध:] और पहला चौदह प्रकार का [तु द्वितीय:] तथा दूसरा [द्विविध: भवति] दो प्रकार का है ।
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मिथ्यात्ववेदरागास्तथैव हास्यादयश्च षड् दोषा: ।
चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्था: ॥116॥
मिथ्यात्व चारों कषायें, त्रय वेदराग रति अरति ।
भय शोक हास्य रु जुगुप्सा, छह दोष चौदह प्रथम ही ॥११६॥
अन्वयार्थ : [मिथ्यात्ववेदरागा:] मिथ्यात्व, वेद का राग [तथैव च] इसी तरह [हास्यादय:] हास्यादि अर्थात् हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, यह [षड् दोषा: च] छह दोष और [चत्वार:] चार अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ [कषाया:] कषायभाव - ये [आभ्यन्तरा: ग्रन्था:] अन्तरंग परिग्रह हैं ।
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अथ निश्चित्तसचित्तौ बाह्यस्य परिग्रहस्य भेदौ द्वौ ।
नैष: कदापि संग: सर्वोऽप्यतिवर्तते हिंसाम् ॥117॥
नित बाह्य परिग्रह द्विविध, चेतन अचेतन के भेद से ।
हैं सभी परिग्रह सर्वदा, सर्वत्र हिंसामय रहें ॥११७॥
अन्वयार्थ : [अथ बाह्यस्य परिग्रहस्य] इसके बाद बहिरंग परिग्रह के [निश्चित्तसचित्तौ द्वौ भेदो] अचित्त और सचित्त यह दो भेद हैं [एष: सर्व: अपि संग] यह समस्त परिग्रह [कदापि हिंसाम्] किसी भी समय हिंसा का [न अतिवर्तते] उल्लंघन नहीं करते ।
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उभयपरिग्रहवर्जनमाचार्या: सूचयन्त्यहिंसेति ।
द्विविधपरिग्रहवहनं हिंसेति जिनप्रवचनज्ञा: ॥118॥
दोनों परिग्रह रहित ही, है अहिंसा सूचित करें ।
दोनों परिग्रह युक्त हिंसा, सूत्र ज्ञाता ऋषि कहें ॥११८॥
अन्वयार्थ : [जिनप्रवचनज्ञा: आचार्या:] जैन सिद्धान्त के ज्ञाता आचार्य [उभय-परिग्रहवर्जनं] दोनों प्रकार के परिग्रह के त्याग को [अहिंसा इति] अहिंसा ऐसा और [द्विविध परिग्रहवहन] दोनों प्रकार के परिग्रह धारण करने को हिंसा ऐसा [सूचयन्ति] सूचित करते हैं ।
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हिंसापर्यायत्वात् सिद्धा हिंसान्तरंगसंगेषु ।
बहिरंगेषु तु नियतं प्रयातु मूर्च्छैव हिंसात्वम् ॥119॥
नित परिणति हिंसामयी, से सिद्ध हिंसा परिग्रह ।
अन्तरंग मूर्छा बाह्य में, यों पूर्ण हिंसामयी यह ॥११९॥
अन्वयार्थ : [हिंसापर्यायत्वात्] हिंसा की पर्यायरूप होने से [अन्तरंगसंगेषु] अन्तरंग परिग्रहों में [हिंसा सिद्धा] हिंसा स्वयंसिद्ध है [तु बहिरंगेषु] और बहिरंग परिग्रहों में [मूर्च्छा एव] ममत्वपरिणाम ही [हिंसात्वम्] हिंसाभाव को [नियतम् प्रयातु] निश्चय से प्राप्त होता है ।
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एवं न विशेष: स्यादुन्दुरुरिपुहरिणशावकादीनाम् ।
नैवं भवति विशेषस्तेषां मूर्च्छाविशेषेण ॥120॥
बिल्ली हरिण शिशु आदि में, यों कोई अन्तर न रहे ।
पर सदा अन्तर है वहाँ, उनके ममत्व विशेष से ॥१२०॥
अन्वयार्थ : [एवं] ऐसा हो तो [उन्दुरुरिपुहरिणशावकादीनाम्] बिल्ली और हिरण के बच्चे वगैरह में [विशेष: न स्यात्] कोई विशेषता न संभवे, परन्तु [एवं न भवति] ऐसा नहीं है, क्योंकि [मूर्च्छाविशेषेण] ममत्व-परिणामों की विशेषता से [तेषां] उस बिल्ली और हिरण के बच्चे इत्यादि जीवों में [विशेष:] विशेषता है ।
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हरिततृणांकुरचारिणिमन्दा मृगशावके भवति मूर्च्छा ।
उन्दुरुनिकरोन्माथिनि मार्जारे सैव जायते तीव्रा ॥121॥
नित हरे तृणभक्षी हरिण, शिशु में रहे मूर्छा कमी ।
पर अनेकों उन्दुरुभक्षी, बिल्ली मूर्छा तीव्र ही ॥१२१॥
अन्वयार्थ : [हरिततृणाङ्कुरचारिणि] हरी घास के अंकुर खानेवाले [मृगशावके] हिरण के बच्चे में [मूर्च्छा] मूर्च्छा [मन्दा] मन्द [भवति] होती है और [स एव] वही मूर्छा [उन्दुरुनिकरोन्माथिनि] चूहों के समूह का उन्मथन करनेवाली [माजरि] बिल्ली में [तीव्रा] तीव्र [जायते] होती है ।
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निर्बाधं संसिध्येत् कार्यविशेषो हि कारणविशेषात् ।
औधस्यखण्डयोरिह माधुर्य्यप्रीतिभेद इव ॥122॥
माधुर्य प्रीति भेद ज्यों, पय खाण्ड में निर्बाध ही ।
है स्वत: सिद्ध विशिष्ट कारण, से करम वैशिष्ट्य ही ॥१२२॥
अन्वयार्थ : [औधस्यखण्डयो:] दूध और खांड में [माधुर्य्यप्रीतिभेद: इव] मधुरता के प्रीतिभेद की तरह [इह] इस लोक में [हि] निश्चय से [कारणविशेषात्] कारण की विशेषता से [कार्यविशेष:] कार्य की विशेषता [निर्बाध] बाधारहित [संसिध्येत्] भले प्रकार से सिद्ध होती है ।
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माधुर्यप्रीति: किल दुग्धे मन्दैव मन्दमाधुर्ये ।
सैवोत्कटमाधुर्ये खण्डे व्यपदिश्यते तीव्रा ॥123॥
हो अल्प मीठे दूध में नित, अल्प प्रीति जग कहे ।
अत्यन्त मीठी खाण्ड में हो, अधिक प्रीति जान ले ॥१२३॥
अन्वयार्थ : [किल मन्दमाधुर्ये] निश्चय से थोड़ी मिठासवाले [दुग्धे माधुर्यप्रीति:] दूध में मिठास की रुचि [मन्दा एव] थोड़ी ही [व्यपदिश्यते] कहने में आती है और [स एव] वही मिठास की रुचि [उत्कटमाधुर्ये] अत्यन्त मिठासवाली [खण्डे तीव्रा] खाँड में अधिक कहने में आती है ।
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तत्त्वार्थाश्रद्धाने निर्युक्तं प्रथममेव मिथ्यात्वम् ।
सम्यग्दर्शनचौरा: प्रथमकषायाश्च चत्वार: ॥124॥
तत्त्वार्थ की श्रद्धारहित, मिथ्यात्व पहला चार हैं ।
क्रोधादि अनन्तानुबन्धि, कषाय समकित चोर हैं ॥१२४॥
अन्वयार्थ : [प्रथमम् एव तत्त्वार्थाश्रद्धाने] पहले ही तत्त्वार्थ के अश्रद्धान में जिसने [निर्युक्तं मिथ्यात्वं] संयुक्त किया है ऐसा मिथ्यात्व [च चत्वार: प्रथमकषाया:] और चार पहली कषाय [सम्यग्दर्शनचौरा:] सम्यग्दर्शन की चोर हैं ।
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प्रविहाय च द्वितीयान् देशचरित्रस्य सन्मुखायात: ।
नियतं ते हि कषाया: देशचरित्रं निरुन्धन्ति ॥125॥
ये और अप्रत्याख्यानावरण तज अणुव्रति हुआ ।
है क्योंकि यह कषाय, रोके देशचारित्र जिन कहा ॥१२५॥
अन्वयार्थ : [च द्वितीयान्] और दूसरी कषाय [अप्रत्याख्यानावरणी क्रोध-मान-माया-लोभ] को [प्रविहाय देशचरित्रस्य] छोड़कर देशचारित्र के [सन्मुखायात: हि] सन्मुख आता है कारण कि [ते कषाया: नियतं] वे कषाय निश्चितरूप से [देशचरित्रं निरुन्धन्ति] एकदेशचारित्र को रोकतीं हैं ।
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नजशक्त्या शेषाणां सर्वेषामन्तरङ्गसङ्गानाम् ।
कर्त्तव्य: परिहारो मार्दवशौचादि भावनया ॥126॥
नित मार्दव शौचादि भावों, पूर्वक निजशक्ति से ।
अवशेष सब ही अन्तरंग, परिग्रहों को छोड़ दे ॥१२६॥
अन्वयार्थ : इसलिए [निजशक्त्या] अपनी शक्ति से [मार्दवशौचादिभावनया] मार्दव, शौच, संयमादि दशलक्षण धर्म द्वारा [शेषाणां] अवशेष [सर्वेषाम्] सभी [अन्तरङ्गसङ्गानाम्] अन्तरंग परिग्रहों का [परिहार:] त्याग [कर्त्तव्य:] करना चाहिए ।
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बहिरङ्गादपि सङ्गात् यस्मात्प्रभवत्यसंयमोऽनुचित: ।
परिवर्जयेदशेषं तमचित्तं वा सचित्तं वा ॥127॥
हो बाह्य परिग्रह से सदा, अनुचित असंयम व्यक्त ही ।
अतएव छोड़ो नित उसे, चेतन अचेतन सभी ही ॥१२७॥
अन्वयार्थ : [वा] तथा [तम्] उस बाह्य परिग्रह को [अचित्तं] भले ही वह अचेतन हो [वा] या [सचित्तं] सचेतन हो [अशेषं] सम्पूर्णरूप से [परिवर्जयेत्] छोड़ देना चाहिए [यस्मात्] कारण कि [बहिरङ्गात्] बहिरङ्ग [सङ्गात्] परिग्रह से [अपि] भी [अनुचित:] अयोग्य अथवा निन्द्य [असंयम:] असंयम [प्रभवति] होता है ।
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योऽपि न शक्यस्त्युक्तं धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादि ।
सोऽपि तनूकरणीयो निवृत्तिरूपं यतस्तत्त्वं ॥128॥
धन धान्य नर घर वैभवादि, छोड़ने का बल नहीं ।
तो करो कम नित ही उन्हें, है तत्त्व निवृत्तिरूप ही ॥१२८॥
अन्वयार्थ : [अपि] और [य:] जो [धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादि:] धन, धान्य, मनुष्य, गृह, सम्पदा इत्यादि परिग्रह [त्यक्तुम्] सर्वथा छोड़ना [न शक्य:] शक्य न हो, [स:] तो उसे [अपि] भी [तनू] न्यून [करणीय:] कर देना चाहिए [यत:] कारण कि [निवृत्तिरूपं] त्यागरूप ही [तत्त्वम्] वस्तु का स्वरूप है ।
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रात्री-भोजन त्याग
रात्रौ भुञ्जानानां यस्मादनिवारिता भवति हिंसा ।
हिंसाविरतैस्तस्मात् त्यक्तव्या रात्रिभुक्तिरपि ॥129॥
है सुनिश्चित हिंसा उसे, जो रात में भोजन करे ।
अतएव हिंसा विरत है तो, रात-भोजन छोड़ दे ॥१२९॥
अन्वयार्थ : [यस्मात्] कारण कि [रात्रौ] रात में [भुञ्जानानां] भोजन करनेवाले को [हिंसा] हिंसा [अनिवारिता] अनिवार्य [भवति] होती है [तस्मात्] इसलिए [हिंसाविरतै:] हिंसा के त्यागियों को [रात्रिभुक्ति: अपि] रात्रिभोजन का भी [त्यक्तव्या] त्याग करना चाहिए ।
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रागाद्युदयपरत्वादनिवृत्तिर्नातिवर्तते हिंसाम् ।
रात्रिं दिवमाहरत: कथं हि हिंसा न संभवति ॥130॥
रागादि भावों की अधिकता, से नहीं त्यागे सदा ।
अतएव निशिदिन करे भोजन, महा हिंसा सर्वदा ॥१३०॥
अन्वयार्थ : [अनिवृत्ति:] अत्यागभाव [रागाद्युदयपरत्वात्] रागादिभावों के उदय की उत्कटता से [हिंसां] हिंसा को [न अतिवर्तते] उल्लंघन करके नहीं प्रवर्तते तो [रात्रिं दिवम्] रात और दिन [आहारत:] आहार करनेवाले को [हि] निश्चय से [हिंसा] हिंसा [कथं] क्यों [न संभवति] नहीं संभव होगी?
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यद्येवं तर्हि दिवा कर्त्तव्यो भोजनस्य परिहार: ।
भोक्तव्यं तु निशायां नेत्थं नित्यं भवति हिंसा ॥131॥
है यदि ऐसा छोड़ दिन, भोजन करेंगे रात में ।
भोजन सदा हिंसा नहीं, होगी इसी से तर्क ये ॥१३१॥
अन्वयार्थ : [यदि एवं] यदि ऐसा है अर्थात् सदाकाल भोजन करने में हिंसा है [तर्हि] तो [दिवा भोजनस्य] दिन में भोजन करने का [परिहार:] त्याग [कर्त्तव्य:] कर देना चाहिये [तु] और [निशायां] रात में [भोक्तव्यं] भोजन करना चाहिये क्योंकि [इत्थं] इस तरह से [हिंसा] हिंसा [नित्यं] सदाकाल [न भवति] नहीं होगी ।
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नैवं वासरभुक्तेर्भवति हि रागोऽधिको रजनिभुक्तौ ।
अन्नकवलस्य भुक्तेर्भुक्ताविव मांसकवलस्य ॥132॥
ऐसा नहीं, ज्यों अन्नभोजन, से कहा है माँस में ।
अति तीव्र राग कहा दिवस से, अधिक है निशिभोज में ॥१३२॥
अन्वयार्थ : [एवं न] ऐसा नहीं है कारण कि [अन्नकवलस्य] अन्न के ग्रास के [भुक्ते:] भोजन से [मांसकवलस्य] माँस के ग्रास के [भुक्तौ इव] भोजन में जिस प्रकार राग अधिक होता है उसी प्रकार [वासरभुक्ते:] दिन के भोजन की अपेक्षा [रजनिभुक्तौ] रात्रिभोजन में [हि] निश्चय से [रागाधिक:] अधिक राग [भवति] होता है ।
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अर्कालोकेन विना भुञ्जान: परिहरेत् कथं हिंसाम् ।
अपि बोधित: प्रदीपे भोज्यजुषां सूक्ष्मजीवानाम् ॥133॥
आलोक रवि बिन प्रज्ज्वलित, दीपक में मिलते भोज्य में ।
सम्मूर्छनों की महा हिंसा, से कहो कैसे बचें? ॥१३३॥
अन्वयार्थ : तथा [अर्कालोकेन विना] सूर्य के प्रकाश बिना रात में [भुञ्जान:] भोजन करनेवाला मनुष्य [बोधित: प्रदीपे] जलते हुए दीपक में [अपि] भी [भोज्यजुषां] भोजन में मिले हुए [सूक्ष्मजीवानाम्] सूक्ष्म जीवों की [हिंसा] हिंसा [कथं] किस तरह [परिहरेत्] टाल सकता है?
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क वा बहुप्रलपितैरिति सिद्धं यो मनोवचनकायै: ।
परिहरति रात्रिभुक्तिं सततमहिंसां स पालयति ॥134॥
अब अति कथन से लाभ क्या? यों मान मन वच काय से ।
निशिभोज छोड़े सर्वथा, नित अहिंसक वह सिद्ध ये ॥१३४॥
अन्वयार्थ : अथवा [बहुप्रलपितै:] बहुत प्रलाप से [किं] क्या? [य:] जो पुरुष [मनोवचनकायै:] मन, वचन, काय से [रात्रिभुक्तिं] रात्रिभोजन का [परिहरति] त्याग करता है [स:] वह [सततम्] निरन्तर [अहिंसां] अहिंसा का [पालयति] पालन करता है [इति सिद्धम्] ऐसा सिद्ध हुआ ।
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इत्यत्र त्रितयात्मनि मार्गे मोक्षस्य ये स्वहितकामा: ।
अनुपरतं प्रयतन्ते प्रयान्ति ते मुक्तिमचिरेण ॥135॥
यों निज हितैषी मोक्ष के, रत्नत्रयात्मक मार्ग में ।
अनवरत करते यत्न, पाते मोक्ष सुख अति शीघ्र वे ॥१३५॥
अन्वयार्थ : [इति] इस प्रकार [अत्र] इस लोक में [ये] जो [स्वहितकामा:] अपने हित के इच्छुक [मोक्षस्य] मोक्ष के [त्रितयात्मनि] रत्नत्रयात्मक [मार्गे] मार्ग में [अनुपरतं] सर्वदा बिना अटके हुए [प्रयतन्ते] प्रयत्न करते हैं [ते] वे पुरुष [मुक्तिम्] मोक्ष में [अचिरेण] शीघ्र ही [प्रयान्ति] गमन करते हैं ।
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परिधय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि ।
व्रतपालनाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानि ॥136॥
ज्यों नगर रक्षक परिधि त्यों, हैं शील रक्षक व्रतों के ।
अतएव व्रत को पालने, नित शील पालन चाहिए ॥१३६॥
अन्वयार्थ : [किल] निश्चय से [परिधय: इव] जैसे कोट, किला [नगराणि] नगरों की रक्षा करता है, उसी तरह [शीलानि] तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत-यह सात शील [व्रतानि] पाँचों अणुव्रतों का [पालयन्ति] पालन अर्थात् रक्षण करते हैं, [तस्मात्] इसलिए [व्रतपालनाय] व्रतों का पालन करने के लिए [शीलानि] सात शीलव्रत [अपि] भी [पालनीयानि] पालन करना चाहिए ।
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गुण-व्रत
प्रविधाय सुप्रसिद्धैर्मर्यादां सर्वतोप्यभिज्ञानै: ।
प्राच्यादिभ्यो दिग्भ्य: कर्त्तव्या विरतिरविचलिता ॥137॥
नित सुप्रसिद्ध सुज्ञात से, सर्वत्र मर्यादा बना ।
उससे बहि: पूर्वादि दिश में, नहीं जाना सर्वथा ॥१३७॥
अन्वयार्थ : [सुप्रसिद्धै:] भले प्रकार प्रसिद्ध [अभिज्ञानै:] ग्राम, नदी, पर्वतादि भिन्न-भिन्न लक्षणों से [सर्वत:] सभी दिशाओं में [मर्यादां] मर्यादा [प्रविधाय] करके [प्राच्यादिभ्य:] पूर्वादि [दिग्भ्य:] दिशाओं में [अविचलिता विरति:] गमन न करने की प्रतिज्ञा [कर्त्तव्या] करना चाहिए ।
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इति नियमितदिग्भागे प्रवर्तते यस्ततो बहिस्तस्य ।
सकलासंयमविरहाद्भवत्यहिंसाव्रतं पूर्णम् ॥138॥
दिग्व्रत प्रवृत्ति सुनिश्चित, दिग्भाग में उससे बहि: ।
है सर्व अविरति त्याग, अहिंसा पूर्ण ही सीमा बहि: ॥१३८॥
अन्वयार्थ : [य:] जो [इति] इस प्रकार [नियमितदिग्भागे] मर्यादा की हुई दिशाओं के अन्दर [प्रवर्तते] रहता है [तस्य] उस पुरुष को [तत:] उस क्षेत्र के [बहि:] बाहर के [सकलासंयमविरहात्] समस्त असंयम के त्याग के कारण [पूर्णं] परिपूर्ण [अहिंसाव्रतं] अहिंसाव्रत [भवति] होता है ।
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तत्रापि च परिमाणं ग्रामापणभवनपाटकादीनाम् ।
प्रविधाय नियतकालं करणीयं विरमणं देशात् ॥139॥
नित ग्राम गलि बाजार भवनादि, से निश्चित काल की ।
उसमें बना सीमा, नहीं बाहर भ्रमे देशव्रत यही ॥१३९॥
अन्वयार्थ : [च] और [तत्र अपि] उस दिग्व्रत में भी [ग्रामापणभवनपाटकादीनाम्] ग्राम, बाजार, मकान, मोहल्ला इत्यादि का [परिमाणं] परिमाण [प्रविधाय] करके [देशात्] मर्यादा किये हुए क्षेत्र से बाहर [नियतकालं] अपने निश्चित किये हुए समय तक जाने का [विरमणं] त्याग [करणीयं] करना चाहिए ।
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इति विरतो बहुदेशात् तदुत्थहिंसाविशेषपरिहारात् ।
तत्कालं विमलमति: श्रयत्यहिंसां विशेषेण ॥140॥
बहु क्षेत्र त्यागी विमलधी, यों अधिक हिंसा त्याग से ।
उस समय अधिकाधिक, अहिंसा आश्रय रहता उसे ॥१४०॥
अन्वयार्थ : [इति] इस प्रकार [बहुदेशात् विरत:] बहुत क्षेत्र का त्याग करनेवाला [विमलमति:] निर्मल बुद्धिवाला श्रावक [तत्कालं] उस नियमित काल में [तदुत्थहिंसा-विशेषपरिहारात्] मर्यादाकृत क्षेत्र से उत्पन्न होनेवाली हिंसा विशेष के त्याग से [विशेषेण] विशेषरूप से [अहिंसां] अहिंसाव्रत का [श्रयति] आश्रय करता है ।
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पापर्द्धिजयपराजयसङ्गरपरदारगमनचौर्याद्या: ।
न कदाचनापि चिन्त्या: पापफलं केवलं यस्मात् ॥141॥
परघात चोरी जय पराजय, कलह परस्त्री गमन ।
आदि नहीं सोचो कभी, अपध्यान केवल पापफल ॥१४१॥
अन्वयार्थ : [पापर्द्धि-जय-पराजय-सङ्गर-परदारगमन-चौर्याद्या:] शिकार, जय, पराजय, युद्ध, परस्त्रीगमन, चोरी आदि का [कदाचनापि] किसी भी समय [न चिन्त्या:] चिन्तवन नहीं करना चाहिए [यस्मात्] कारण कि इन अपध्यानों का [केवलं] मात्र [पापफलं] पाप ही फल है ।
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विद्यावाणिज्यमषीकृषिसेवाशिल्पजीविनां पुंसाम् ।
पापोपदेशदानं कदाचिदपि नैव वक्तव्यम् ॥142॥
विद्या वणिज लेखन कृषि, सेवक सुशिल्पी नरों को ।
पापोपदेश कभी नहीं, देना निरन्तर पाप हो ॥१४२॥
अन्वयार्थ : [विद्या-वाणिज्य-मषी-कृषि-सेवा-शिल्पजीविनां] विद्या, व्यापार, लेखन-कला, खेती, नौकरी और कारीगरी से निर्वाह चलानेवाले [पुंसाम] पुरुषों को [पापोपदेशदानं] पाप का उपदेश मिले ऐसा [वचनं] वचन [कदाचित् अपि] किसी भी समय [नैव] नहीं [वक्तव्यम्] बोलना चाहिए ।
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भूखननवृक्षमोट्टनशाड्वलदलनाम्बुसेचनादीनि ।
निष्कारणं न कुर्याद्दलफलकुसुमोच्चयानपि च॥143॥
नहिं करो निष्कारण खनन भू, वृक्ष मोटन तृण सहित ।
भू आदि रौंदन फैंकना जल, तोड़ना फल फूल दल॥
कारण बिना इत्यादि सब, हिंसादि पोषक कार्य हैं ।
हैं अनर्थ दण्ड प्रमादचर्या, अहिंसक छोड़ें इन्हें॥१४३॥
अन्वयार्थ : [भूखनन वृक्षमोट्टन शाड्वलदलनाम्बुसेचनादीनि] पृथ्वी, खोदना, वृक्ष उखाड़ना, अतिशय घासवाली भूमि रौंदना, पानी सींचना आदि [च] और [दलफल-कुसुमोच्चयान्] पत्र, फल, फूल तोड़ना [अपि] इत्यादि भी [निष्कारणं] बिना प्रयोजन [न कुर्यात्] नहीं करना चाहिए ।
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असिधेनुविषहुताशनलाङ्गलकरवालकार्मुकादीनाम् ।
वितरणमुपकरणानां हिंसाया: परिहरेद्यत्नात् ॥144॥
हिंसोपकरणी छुरी विष, तलवार अग्नि हल धनुष ।
वाणादि देना छोड़ना नित, यत्नपूर्वक हो निपुण ॥१४४॥
अन्वयार्थ : [असि-धेनु-विष-हुताशन-लाङ्गल-करवाल-कार्मुकादीनाम्] छुरी, विष, अग्नि, हल, तलवार, धनुष आदि [हिंसाया:] हिंसा के [उपकरणानां] उपकरणों का [वितरणम्] वितरण करना अर्थात् दूसरों को देना [यत्नात्] सावधानी से [परिहरेत्] छोड़ देना चाहिए ।
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रागादिवर्द्धनानां दुष्टकथानामबोधबहुलानाम् ।
न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जनशिक्षणादीनि ॥145॥
अज्ञानमय रागादिवर्धक, दुष्टतामय कथा को ।
नहिं सुनो नहिं अर्जित करो, नहिं शिक्षणादि भी करो॥१४५॥
अन्वयार्थ : [रागादिवर्द्धनानां] राग, द्वेष, मोहादि को बढ़ानेवाली तथा [अबोध-बहुलानाम्] बहुत अंशों में अज्ञान से भरी हुई [दुष्टकथानाम्] दुष्ट कथाओं का [श्रवणार्जनशिक्षणादीनि] सुनना, धारण करना, सीखना आदि [कदाचन] किसी समय, कभी भी [न कुर्वीत] नहीं करना चाहिए ।
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सर्वानर्थप्रथमं मथनं शाैचस्य सद्म मायाया: ।
दूरात्परिहरणीयं चौर्यासत्यास्पदं द्यूतम् ॥146॥
नित सब अनर्थों में प्रथम, है शौच नाशक कपट घर ।
चोरी असत्य निवास द्यूत, जुआ करो परिहार सब ॥१४६॥
अन्वयार्थ : [सर्वानर्थप्रथमं] सप्त व्यसनों में पहला अथवा सर्व अनर्थों में मुख्य [शौचस्य मथनं] सन्तोष का नाश करनेवाला [मायाया:] मायाचार का [सद्म] घर और [चौर्यासत्यास्पदम्] चोरी तथा असत्य का स्थान [द्यूतम्] ऐसे जुआ को [दूरात्] दूर ही से [परिहरणीयम्] त्याग करना चाहिए ।
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एवंविधमपरमपि ज्ञात्वा मुञ्चत्यनर्थदण्डं य: ।
तस्यानिशमनवद्यं विजयमहिंसाव्रतं लभते ॥147॥
इस ही तरह के अन्य भी हैं, अनर्थ दण्ड सुजान नित ।
जो छोड़ता सब उसी का, निर्मल अहिंसाव्रत विजित ॥१४७॥
अन्वयार्थ : [य:] जो मनुष्य [एवं विधं] इस प्रकार के [अपरमपि] दूसरे भी [अनर्थदण्डं] अनर्थदण्ड को [ज्ञात्वा] जानकर [मुञ्चति] त्याग करता है [तस्य] उसके [अनवद्यं] निर्दोष [अहिंसाव्रत] अहिंसाव्रत [अनिशं] निरन्तर [विजयं] विजय को [लभते] प्राप्त करता है ।
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शिक्षा-व्रत
रागद्वेषत्यागान्निखिलद्रव्येषु साम्यमवलम्ब्य ।
तत्त्वोपलब्धिमूलं बहुश: सामायिकं कार्यम् ॥148॥
सब राग द्वेष निषेध पूर्वक, सभी में समभाव धर ।
तत्त्वोपलब्धि मूल हेतु, सामायिक बहु बार कर ॥१४८॥
अन्वयार्थ : [रागद्वेषत्यागात्] राग-द्वेष के त्याग से [निखिलद्रव्येषु] सभी इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में [साम्यं] साम्यभाव को [अवलम्ब्य] अंगीकार करके [तत्त्वोपलब्धिमूलं] आत्मतत्त्व की प्राप्ति का मूलकारण ऐसा [सामायिक] सामायिक [बहुश:] बहुत बार [कार्यम्] करना चाहिए ।
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रजनीदिनयोरन्ते तदवश्यं भावनीयमविचलितम् ।
इतरत्र पुन: समये न कृतं दोषाय तद्गुणाय कृतम् ॥149॥
वह रात दिन के अन्त में, एकाग्र हो निश्चित करो ।
यदि अन्य में भी करो तो, नहिं दोष अति गुण नित्य हों ॥१४९॥
अन्वयार्थ : [तत्] वह सामायिक [रजनीदिनयो:] रात्रि और दिन के [अन्ते] अन्त में [अविचलितम्] एकाग्रतापूर्वक [अवश्यं] अवश्य [भावनीयम्] करना चाहिये [पुन:] और यदि [इतरत्रसमये] अन्य समय में भी [कृतं] करने में आवे तो [तत्कृतं] वह सामायिक कार्य [दोषाय] दोष के लिये [न] नहीं है, अपितु [गुणाय] गुण के लिये ही होती है ।
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सामायिकश्रितानां समस्तसावद्ययोगपरिहारात् ।
भवति महाव्रतमेषामुदयेऽपि चरित्रमोहस्य ॥150॥
है उदय चारित्र मोह का, पर सकल सावद्य योग के ।
परिहार से है महाव्रतवत्, दशा सामायिक कहें ॥१५०॥
अन्वयार्थ : [एषाम् सामायिकश्रितानां] यह सामायिकदशा को प्राप्त को [चारित्रमोहस्य] चारित्रमोह का [उदये अपि] उदय होने पर भी [समस्तसावद्ययोगपरिहारात्] समस्त पाप के योग का त्याग होने से [महाव्रतं भवति] महाव्रत होता है ।
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सामायिकसंस्कारं प्रतिदिनमारोपितं स्थिरीकर्त्तुम् ।
पक्षार्द्धयोर्द्वयोरपि कर्त्तव्द्योऽवश्यमुपवास: ॥151॥
प्रतिदिन लिए संस्कार, सामायिक की स्थिरता निमित्त ।
पक्षार्ध दो में सुनिश्चित, कर्तव्य है उपवास नित ॥१५१॥
अन्वयार्थ : [प्रतिदिनं आरोपितं] प्रतिदिन अंगीकार किए हुए [सामायिक संस्कारं] सामायिकरूप संस्कार को [स्थिरीकर्त्तुम्] स्थिर करने के लिये [द्वयो: पक्षार्द्धयो:] दोनों पक्ष के अर्द्धभाग में [उपवास:] उपवास [अवश्यमपि कर्त्तव्य:] अवश्य ही करना चाहिए ।
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मुक्तसमस्तारम्भ: प्रोषधदिनपूर्ववासरस्यार्द्धे ।
उपवासं गृह्णीयान्ममत्वमपहाय देहादौ ॥152॥
सम्पूर्ण आरम्भ से रहित, देहादि में ममता रहित ।
हो पर्व दिन के पूर्व दिन, मध्यान्ह में अनशन ग्रहण ॥१५२॥
अन्वयार्थ : [मुक्तसमस्तारम्भ:] समस्त आरम्भ से मुक्त होकर [देहादौ ममत्वं अपहाय] शरीरादि में ममत्वबुद्धि का त्याग करके [प्रोषधदिनपूर्ववासरस्यार्द्धे] पर्व के पहले दिन के मध्याह्न काल में [उपवासं गृह्णीयात्] उपवास को अंगीकार करना चाहिए ।
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श्रित्वा विविक्तवसतिं समस्तसावद्ययोगमपनीय ।
सर्वेन्द्रियार्थविरत: कायमनोवचनगुप्तिभिस्तिष्ठेत् ॥153॥
फिर पूत निर्जन वसतिका जा, सभी सावद्य योग तज ।
सब इन्द्रियार्थों से विरत, हो मन वचन तन गुप्ति युत ॥१५३॥
अन्वयार्थ : फिर [विविक्तवसतिं श्रित्वा] निर्जन वसतिका में जाकर [समस्तसावद्ययोगं अपनीय] सम्पूर्ण सावद्ययोग का त्याग करके [सर्वेन्द्रियार्थविरत:] सर्व इन्द्रियों से विरक्त होकर [कायमनोवचनगुप्तिभि: तिष्ठेत्] मनगुप्ति, वचनगुप्ति, और कायगुप्ति सहित स्थिर होवे ।
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धर्मध्यानासक्त को वासरमतिवाह्य विहितसान्ध्यविधिम् ।
शुचिसंस्तरे त्रियामां गमयेत्स्वाध्यायजितनिद्र: ॥154॥
हो धर्म ध्यानासक्त दिन, सामायिकादि में बिता ।
स्वाध्याय से निद्रा विजय, शुचि संस्तर पर हो निशा ॥१५४॥
अन्वयार्थ : [विहितसान्ध्यविधिम्] प्रात:काल तथा सन्ध्याकाल की सामायिकादि क्रिया करके [वासरम् धर्मध्यानासक्त:] दिवस धर्म-ध्यान में लीन होकर [अतिवाह्य] व्यतीत करे और [स्वाध्यायजितनिद्र:] पठन-पाठन से निद्रा को जीतकर [शुचिसंस्तरे] पवित्र बिस्तर पर [त्रियामां गमयेत्] रात पूर्ण करे ।
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प्रात: प्रोत्थाय तत: कृत्वा तात्कालिकं क्रियाकल्पम् ।
निर्वर्तयेद्यथोक्तं जिनपूजां प्रासुकैर्द्रव्यै: ॥155॥
फिर सुबह उठ सामायिकादि, तात्कालिक क्रिया कर ।
प्रासुक पदार्थों से करे, जिनदेव पूजा श्रुतकथित ॥१५५॥
अन्वयार्थ : [तत: प्रात: प्रोत्थाय] इसके बाद सुबह ही उठकर [तात्कालिकं क्रियाकल्पम्] प्रात:काल की सामायिकादि क्रियायें [कृत्वा प्रासुकै:] करके प्रासुक [द्रव्यै: यथोक्तं] द्रव्यों से आर्ष ग्रन्थों में कहे अनुसार [जिनपूजां निर्वर्तयेत्] जिनेन्द्रदेव की पूजा करे ।
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उक्तेन ततो विधिना नीत्वा दिवसं द्वितीयरात्रिं च ।
अतिवाहयेत्प्रयत्नादर्धं च तृतीयादिवसस्य ॥156॥
पूर्वोक्त विधि से यह दिवस, द्वितीय रात्रि भी बिता ।
इस ही विधि से यत्न पूर्वक, तृतिय दिन आधा बिता ॥१५६॥
अन्वयार्थ : [तत: उक्तेन विधिना] उसके बाद पूर्वोक्त विधि से [दिवसं च द्वितीयरात्रिं] उपवास का दिन और दूसरी रात को [नीत्वा च] व्यतीत करके फिर [तृतीयदिवसस्य] तीसरे दिन का [अर्धं] आधा भाग भी [प्रयत्नात्] अतिशय यत्नाचारपूर्वक [अतिवाहयेत्] व्यतीत करे ।
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इति य: षोडशयामान् गमयति परिमुक्तसकलासावद्य: ।
तस्य तदानीं नियतं पूर्णमहिंसाव्रतं भवति ॥157॥
यों सभी सावद्य रहित जो, सोलह प्रहर यों बिताता ।
हो उस समय निश्चित अहिंसा, पूर्ण व्रत उसके सदा ॥१५७॥
अन्वयार्थ : [य: इति] जो जीव इस प्रकार [परिमुक्तसकलसावद्य: सन्] सम्पूर्ण पापक्रियाओं से रहित होकर [षोडशयामान् गमयति] सोलह प्रहर व्यतीत करता है [तस्य तदानीं] उसे उस समय [नियतं पूर्णं] निश्चयपूर्वक सम्पूर्ण [अहिंसाव्रतं भवति] अहिंसाव्रत होता है ।
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भोगोपभोगहेतो: स्थावरहिंसा भवेत् किलामीषाम् ।
भोगोपभोग विरहाद् भवति न लेशोऽपि हिंसाया: ॥158॥
इस व्रती के भोगोपभोगादि जनित एकेन्द्रियों ।
की कही हिंसा विरत, भोगोपभोग से नहिं घात हो ॥१५८॥
अन्वयार्थ : [किल] निश्चय से [अमीषाम्] इस देशव्रती श्रावक को [भोगोपभोगहेतो:] भोग-उपभोग के हेतु से [स्थावरहिंसा भवेत्] स्थावर अर्थात् एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा होती है परन्तु [भोगोपभोगविरहात्] भोग-उपभोग के त्याग से [हिंसाया] हिंसा [लेश: अपि न भवति] लेशमात्र भी नहीं होती ।
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वाग्गुप्तेर्नास्त्यनृतं न समस्तादानविरहित: स्तेयम् ।
नाब्रह्म मैथुनमुच: संगो नांगेपयमूर्छस्य ॥159॥
है नहिं अनृत वच गुप्ति से, स्तेय नहिं आदान बिन ।
मैथुन बिना अब्रम्ह नहिं, नहिं परिग्रह तन ममत बिन ॥१५९॥
अन्वयार्थ : और उपवासधारी पुरुष के [वाग्गुप्ते] वचनगुप्ति होने से [अनृतं न] असत्य वचन नहीं है [समस्तादानविरहित:] सम्पूर्ण अदत्तादान के त्याग से [स्तेयम् न] चोरी नहीं है [मैथुनमुच: अब्रह्म न] मैथुन त्यागी को अब्रह्मचर्य नहीं है और [अंगे अमूर्छस्य] शरीर में ममत्व न होने से [संग अपि न] परिग्रह भी नहीं है ।
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इत्थमशेषितहिंसा: प्रयाति स महाव्रतित्वमुपचारात् ।
उदयति चरित्रमोहे लभते तु न संयमस्थानम् ॥160॥
यों सभी हिंसादि रहित, उपचार से महाव्रतिपना ।
उसके परन्तु चरित्र मोह में, प्रगट संयम दशा ना ॥१६०॥
अन्वयार्थ : [इत्थम् अशेषितहिंसा] इस प्रकार सम्पूर्ण हिंसाओं के रहित [स:] वह [उपचारात्] उपचार से [महाव्रतित्वं प्रयाति] महाव्रतपना पाता है, [तु] परन्तु [चरित्रमोहे उदयति] चारित्रमोह के उदयरूप होने के कारण [संयमस्थानम्] संयमस्थान [न लभते] नहीं प्राप्त करता ।
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भोगोपभोगमूला विरताविरतस्य नान्यतो हिंसा ।
अधिगम्य वस्तुतत्त्वं स्वशक्तिमपि तावपि त्याज्यौ ॥161॥
अणुव्रती के भोगोपभोग, निमित्त हिंसा अन्य नहिं ।
ये भी स्वशक्ति वस्तु तत्त्व, सुजान तजने योग्य ही ॥१६१॥
अन्वयार्थ : [विरताविरतस्य] देशव्रती श्रावक को [भोगोपभोगमूला] भोग और उपभोग के निमित्त से होनेवाली [हिंसा] हिंसा होती है [अन्यत: न] अन्य प्रकार से नहीं होती, इसलिए [तौ] वह दोनों [अपि] भी [वस्तुतत्त्वं] वस्तुस्वरूप [अपि] और [स्वशक्तिं] अपनी शक्ति को [अधिगम्य] जानकर अर्थात् अपनी शक्ति अनुसार [त्याज्यौ] छोड़ने योग्य हैं ।
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एकमपि प्रजिघांसुर्निहन्त्यनन्तान्यतस्ततोऽवश्यम् ।
करणीयमशेषाणां परिहरणमनन्तकायानाम्॥162॥
है एक का भी घात इच्छुक, अनन्तों का घात ही ।
नित करे इससे अहिंसक को, अनन्त कायिक त्याज्य ही॥१६२॥
अन्वयार्थ : [तत:] कारण कि [एकम्] एक साधारण शरीर को-कन्दमूलादिक को [अपि] भी [प्रजिघांसु] घात करने की इच्छा करनेवाला पुरुष [अनन्तानि] अनन्त जीवों को [निहन्ति] मारता है, [अत:] इसलिए [अशेषाणां] सम्पूर्ण [अनन्तकायानां] अनन्त काय का [परिहरणं] परित्याग [अवश्यं] अवश्य [करणीयम्] करना चाहिए ।
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नवनीतं च त्याज्यं योनिस्थानं प्रभूतजीवानाम् ।
यद्वापि पिण्डsशुद्धौ विरुद्धमभिधीयते किञ्चित् ॥163॥
है बहुत जीवों का जनम, स्थल अत: मक्खन तजो ।
यों जो भि हैं आहार शुद्धि, के विरुद्ध सभी तजो ॥१६३॥
अन्वयार्थ : [च] और [प्रभूतजीवानाम्] बहुत जीवों का [योनिस्थानं] उत्पत्तिस्थानरूप [नवनीतं] मक्खन अथवा लौनी [त्याज्यं] त्याग करने योग्य है । [वा] अथवा [पिण्डशुद्धौ] आहार की शुद्धि में [यत्किचित्] जो किञ्चित् भी [विरुद्धं] विरुद्ध [अभिधीयते] कहा गया है [तत्] वह [अपि] भी त्याग करने योग्य है ।
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अविरुद्धा अपि भोगा निजशक्तिमपेक्ष्य धीमता त्याज्या: ।
अत्याज्येष्वपि सीमा कार्यैकदिवानिशोपभोग्यतया ॥164॥
धीमान निज शक्ति विचारें, उचित भोग भि छोड़ दें ।
यदि नहीं छोड़ सकें सभी तो, यथोचित सीमा करें ॥१६४॥
अन्वयार्थ : [धीमता] बुद्धिमान पुरुष [निजशक्ति] अपनी शक्ति [अपेक्ष्य] देखकर [अविरुद्धा:] अविरुद्ध [भोगा:] भोग [अपि] भी [त्याज्या:] छोड़ देवे और जो [अत्याज्येषु] उचित भोग-उपभोग का त्याग न हो सके तो उसमें [अपि] भी [एकदिवानिशोपभोग्यतया] एक दिवस-रात की उपभोग्यता से [सीमा] मर्यादा [कार्या] करनी चाहिए ।
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पुनरपि पूर्वकृतायां समीक्ष्य तात्कालिकीं निजां शक्तिम् ।
सीमन्यन्तरसीमा प्रतिदिवसं भवति कर्त्तव्या ॥165॥
उन पूर्वकृत सीमा में अपनी, शक्ति देख प्रति दिवस ।
कर तात्कालिक और भी, सीमा में सीमा यथोचित ॥१६५॥
अन्वयार्थ : [पूर्वकृतायां] पहले की हुई [सीमनि] मर्यादा में [पुन:] फिर से [अपि] भी [तात्कालिकी] उस समय की अर्थात् वर्तमान समय की [निजां] अपनी [शक्तिम्] शक्ति को [समीक्ष्य] विचार कर [प्रतिदिवसं] प्रत्येक दिन [अन्तरसीमा] मर्यादा में भी थोड़ी मर्यादा [कर्त्तव्या भवति] करना योग्य है ।
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इति य: परिमितभोगै: सन्तुष्टस्त्यजति बहुतरान् भोगान् ।
बहुतरहिंसाविरहात्तस्याऽहिंसा विशिष्टा स्यात् ॥166॥
यों हुआ सीमित भोग से, संतुष्ट भोग बहुत तजे ।
यों बहुत हिंसा से रहित, उसके अहिंसा विशेष है ॥१६६॥
अन्वयार्थ : [य:] जो गृहस्थ [इति] इस प्रकार [परिमितभोगै:] मर्यादारूप भोगों से [सन्तुष्ट:] सन्तुष्ट होकर [बहुतरान्] बहुत से [भोगान्] भोगों को [त्यजति] छोड़ देता है [तस्य] उसके [बहुतरहिंसाविरहात्] अधिक हिंसा के त्याग से [विशिष्टा अहिंसा] विशेष अहिंसाव्रत [स्यात्] होता है ।
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विधिना दातृगुणवता द्रव्यविशेषस्य जातरूपाय ।
स्वपरानुग्रहहेतो: कर्त्तव्योऽवश्यमतिथये भाग: ॥167॥
नित यथाजात दिगम्बरों को, गुणी दाता विधि से ।
निज पर अनुग्रह हेतु, वस्तु विशेष अंश अवश्य दे ॥१६७॥
अन्वयार्थ : [दातृगुणवता] दातार के गुणों से युक्त गृहस्थ के द्वारा [जातरूपाय-अतिथये] दिगम्बर मुनि को [स्वपरानुग्रहहेतो:] अपने और पर के अनुग्रह के लिय [द्रव्यविशेषस्य] विशेष द्रव्य का अर्थात् देने योग्य वस्तु का [भाग:] भाग [विधिना] विधिपूर्वक [अवश्यम्] अवश्य ही [कर्त्तव्य:] करना चाहिए ।
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संग्रहमुच्चस्थानं पादोदकमर्चनं प्रणामं च ।
वाक्कायमन: शुद्धिरेषणशुद्धिश्च विधिमाहु: ॥168॥
प्रतिग्रहण उच्चस्थान, पादप्रक्षाल पूजन नमन मन ।
वच तन रु भोजन शुद्धि, नवधा भक्ति विधि जानो नियत ॥१६८॥
अन्वयार्थ : [च] और [संग्रहम्] प्रतिग्रहण [उच्चस्थानं] ऊँचा आसन देना [पादोदकं] चरण धोना [अर्चनं] पूजा करना [प्रणामं] नमस्कार करना [वाक्कायमन: शुद्धि:] मनशुद्धि, वचनशुद्धि और कायशुद्धि रखना [च] और [एषणशुद्धि:] भोजन शुद्धि-इस प्रकार आचार्यों ने [विधिम्] नवधाभक्तिरूप विधि [आहु:] कही है ।
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ऐहिकफलानपेक्षा क्षान्तिर्निष्कपटतानसूयत्वम् ।
अविषादित्वमुदित्वे निरहंकारित्वमिति हि दातृगुणा: ॥169॥
इस लोक फल इच्छा रहित, क्षान्ति अछल अनसूयता ।
अविषादता हर्षित, निरभिमानी कहे गुण दातृता ॥१६९॥
अन्वयार्थ : [ऐहिकफलानपेक्षा] इस लोक सम्बन्धी फल की इच्छा न रखना, [क्षान्ति] क्षमा अथवा सहनशीलता, [निष्कपटता] निष्कपटता, [अनसूयत्व] ईर्षारहित होना, [अविषादित्वमुदित्वे] अखिन्नभाव, हर्षभाव और [निरहंकारित्व] अभिमान रहित होना [इति] इस प्रकार यह सात [हि] निश्चय से [दातृगुणा:] दातार के गुण हैं ।
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रागद्वेषासंयममद्दु:खभयादिकं न यत्कुरुते ।
द्रव्यं तदेव देयं सुतप: स्वाध्याय वृद्धिकरम् ॥170॥
जो वस्तुएं मद राग द्वेष, रु दुख असंयम भयादि ।
को नहिं करें वे देय, करतीं सुतप स्वाध्याय वृद्धि हि ॥१७०॥
अन्वयार्थ : [यत्] जो [द्रव्यं] द्रव्य [रागद्वेषासंयममददु:खभयादिकं] राग, द्वेष, असंयम, मद, दु:ख, भय आदि [न कुरुते] नहीं करता हो और [सुतप: स्वाध्याय वृद्धिकरम्] उत्तम तप तथा स्वाध्याय की वृद्धि करनेवाला हो [तत् एव] वही [देयं] देने योग्य है ।
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पात्रं त्रिभेदमुक्तं संयोगो मोक्षकारणगुणानाम् ।
अविरतसम्यग्दृष्टि: विरताविरतश्च सकलविरतश्च ॥171॥
हैं पात्र तीन प्रकार शिव, हेतु गुणों संयुक्त ही ।
अविरत सुदृष्टि देशविरति, सकल विरति जिन कही ॥१७१॥
अन्वयार्थ : [मोक्षकारणगुणानाम्] मोक्ष के कारणरूप गुणों के अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप गुणों के [संयोग:] संयोगवाला [पात्रं] पात्र [अविरतसम्यग्दृष्टि:] व्रतरहित सम्यग्दृष्टि [च] तथा [विरताविरत:] देशव्रती [च] और [सकल-विरत:] महाव्रती [त्रिभेद] तीन भेदरूप [उक्तम्] कहा गया है ।
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हिंसाया: पर्यायो लोभोऽत्र निरस्यते यतो दाने ।
तस्मादतिथिवितरणं हिंसाव्युपरमणमेवेष्टम् ॥172॥
नित दान में मिटता समझ, यह लोभ हिंसा परिणति ।
अतएव अतिथि दान दाता, मान हिंसा त्यागि ही ॥१७२॥
अन्वयार्थ : [यत:] कारण कि [अत्र दाने] यहाँ दान में [हिंसाया:] हिंसा की [पर्याय:] पर्याय [लोभ:] लोभ का [निरस्यते] नाश करने में आता है, [तस्मात्] इसलिए [अतिथिवितरणं] अतिथिदान को [हिंसाव्युपरमणमेव] हिंसा का त्याग ही [इष्टम्] कहा है ।
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गृहमागताय गुणिने मधुकरवृत्या परानपीडयते ।
वितरति यो नातिथये स कथं न हि लोभवान् भवति ॥173॥
नहिं अन्य पीड़ें मधुकरी, वृत्ति सहित गुणवान भी ।
घर आए अतिथि को नहीं दे, लोभयुत कैसे नहीं? ॥१७३॥
अन्वयार्थ : [य:] जो गृहस्थ [गृहमागताय] घर पर आये हुए [गुणिने] संयमादि गुणों से युक्त और [मधुकरवृत्या] भ्रमर समान वृत्ति से [परान्] दूसरों को [अपीडयते] पीड़ा न देनेवाले [अतिथये] अतिथि साधु को [न वितरति] भोजनादि नहीं देता, [स:] [वह [लोभवान्] लोभी [कथं] कैसे [न हि भवति] न हो]?
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कृतमात्मार्थं मुनये ददाति भक्तमिति भावितस्त्याग: ।
अरतिविषादविमुक्त: शिथिलितलोभो भवत्यहिंसैव ॥174॥
अपने लिए कृत दे मुनि को, भोज्य प्रीति हर्ष युत ।
है लोभ शिथिलित दान यों, होता अहिंसामय सतत ॥१७४॥
अन्वयार्थ : [आत्मार्थं] अपने लिए [कृतम्] बनाया हुआ [भक्तम्] भोजन [मुनये] मुनि को [ददाति] देवे [इति] इस प्रकार [भावित:] भावपूर्वक [अरतिविषाद-विमुक्त:] अप्रेम और विषादरहित तथा [शिथिलितलोभ:] लोभ को शिथिल करनेवाला [त्याग:] दान [अहिंसा एव] अहिंसा स्वरूप ही [भवति] है ।
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इयमेकैव समर्था धर्मस्वं मे मया समं नेतुम् ।
सततमिति भावनीया पश्चिमसल्लेखना भक्त्या ॥175॥
मरणान्त में सल्लेखना, यह एक ही धन धर्म को ।
मुझ साथ लेने में समर्थ, सभक्ति भाओ मान यों ॥१७५॥
अन्वयार्थ : [इयम्] यह [एका] एक [पश्चिमसल्लेखना एव] मरण के अन्त में होनेवाली सल्लेखना ही [मे] मेरे [धर्मस्वं] धर्मरूपी धन को [मया] मेरे [समं] साथ [नेतुम्] ले जाने में [समर्था] समर्थ है, [इति] इस प्रकार [भक्त्या] भक्तिसहित [सततम्] निरन्तर [भावनीया] भावना करनी चाहिए ।
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मरणान्तेऽवश्यमहं विधिना सल्लेखनां करिष्यामि ।
इति भावनापरिणतोऽनागतमपि पालयेदिदं शीलम् ॥176॥
मरणान्त में निश्चित विधि, पूर्वक करूँ सल्लेखना ।
इस भावना परिणत मरण के, पूर्व भी व्रत पालना ॥१७६॥
अन्वयार्थ : [अहं] मैं [मरणान्ते] मरण के समय [अवश्यं] अवश्य [विधिना] शास्त्रोक्त विधि से [सल्लेखनां] समाधिमरण [करिष्यामि] करूँगा, [इति] इस प्रकार [भावना परिणत:] भावनारूप परिणति करके [अनागतमपि] मरण काल आने से पहले ही [इदं] यह [शीलम्] सल्लेखनाव्रत [पालयेत्] पालना अर्थात् अंगीकार करना चाहिए ।
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मरणेऽवश्यं भाविनि कषायसल्लेखनातनूकरणमात्रे ।
रागादिमन्तरेण व्याप्रियमाणस्य नात्मघातोऽस्ति ॥177॥
अवश्य होते मरण में, नित कषायों के कृश करण ।
में लगे को रागादि बिन, नहिं आत्मघात है सल्लेखन ॥१७७॥
अन्वयार्थ : [अवश्यं] अवश्य [भाविनि] होनेवाले [मरणे 'सति'] मरण होने पर [कषायसल्लेखनातनूकरणमात्रे] कषाय सल्लेखना के कृश करने मात्र के व्यापार में [व्याप्रियमाणस्य] प्रवर्तमान पुरुष को [रागादिमन्तरेण] रागादिभावों के अभाव में [आत्मघात:] आत्मघात [नास्ति] नहीं है ।
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यो हि कषायाविष्ट: कुम्भकजलधूमकेतुविषशस्त्रै: ।
व्यपरोपयति प्राणान् तस्य स्यात्सत्यमात्मवध: ॥178॥
हो जो कषायाविष्ट श्वास निरोध जल अग्नि जहर ।
शस्त्रादि से निज प्राण घाते, आत्मघात उसे सतत ॥१७८॥
अन्वयार्थ : [हि] निश्चय से [कषायाविष्ट:] क्रोधादि कषायों से घिरा हुआ [य:] जो पुरुष [कुम्भकजलधूमकेतुविषशस्त्रै:] श्वासनिरोध, जल, अग्नि, विष, शस्त्रादि से अपने [प्राणान्] प्राणों को [व्यपरोपयति] पृथक् करता है, [तस्य] उसे [आत्मवध:] आत्मघात [सत्यम्] वास्तव में [स्यात्] होता है ।
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नीयन्तेऽत्र कषाया हिंसाया हेतवो यतस्तनुताम् ।
सल्लेखनामपि तत: प्राहुरहिंसाप्रसिद्ध्यर्थम् ॥179॥
नित यहाँ हिंसा हेतुभूत, कषाय होतीं क्षीण हैं ।
इससे अहिंसा सिद्धि हेतु, सतत सल्लेखना कहें ॥१७९॥
अन्वयार्थ : [यत:] कारण कि [अत्र] इस संन्यास मरण में [हिंसाया] हिंसा के [हेतव:] हेतुभूत [कषाया:] कषाय [तनुताम्] क्षीणता के [नीयन्ते] प्राप्त होते हैं [तत:] इस कारण [सल्लेखनामपि] संन्यास को भी आचार्य [अहिंसाप्रसिद्ध्यर्थं] अहिंसा की सिद्धि के लिये [प्राहु:] कहते हैं ।
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इति यो व्रतरक्षार्थं सततं पालयति सकलशीलानि ।
वरयति पतिंवरेव स्वयमेव तमुत्सुका शिवपदश्री: ॥180॥
जो व्रतों के रक्षार्थ ये सब, शील भी पाले सतत ।
स्वयमेव उत्सुक मोक्ष लक्ष्मी, स्वयंवरवत् वरे नित ॥१८०॥
अन्वयार्थ : [य:] जो [इति] इस प्रकार [व्रतरक्षार्थं] पंच अणुव्रतों की रक्षा के लिये [सकलशीलानि] समस्त शीलों को [सततं] निरन्तर [पालयति] पालन करता है [तम्] उस पुरुष को [शिवपदश्री:] मोक्षरूपी लक्ष्मी [उत्सुका] अतिशय उत्कंठित [पतिंवरा इव] स्वयंवर की कन्या की तरह [स्वयमेव] स्वयं ही [वरयति] स्वीकार करती है अर्थात् प्राप्त होती है ।
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अतिचारा: सम्यक्त्वे व्रतेषु शीलेषु पञ्च पञ्चेति ।
सप्ततिरमी यथोदितशुद्धिप्रतिबन्धिनो हेया: ॥181॥
सम्यक्त्व में व्रत शील में, पाँच पाँच यों सत्तर कहे ।
नित वास्तविक शुद्धि विरोधक, हेय हैं अतिचार ये ॥१८१॥
अन्वयार्थ : [सम्यक्त्वे] सम्यक्त्व में [व्रतेषु] व्रतों में और [शीलेषु] शीलों में [पञ्च पञ्चेति] पाँच-पाँच के क्रम से [अभी] यह [सप्तति:] सत्तर [यथोदितशुद्धिप्रतिबन्धिन:] यथार्थ शुद्धि के रोकनेवाले [अतिचारा:] अतिचार [हेया:] छोड़ने योग्य हैं ।
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शंका तथैव काङ्क्षा विचिकित्सा संस्तवोऽन्यदृष्टीनाम् ।
मनसा च तत्प्रशंसा सम्यग्दृष्टेरतीचारा: ॥182॥
सम्यक्त्व के अतिचार शंका, कांक्षा विचिकित्सता ।
मिथ्यादृशी की स्तुति, मन से प्रशंसा जानना ॥१८२॥
अन्वयार्थ : [शंका] सन्देह [काङ्क्षा] वाँछा [विचिकित्सा] ग्लानि [तथैव] उसी प्रकार [अन्यदृष्टीनाम्] मिथ्यादृष्टियों की [संस्तव:] स्तुति [च] और [मनसा] मन से [तत्प्रशंसा] अन्य मतावलम्बियों की प्रशंसा करना [सम्यग्दृष्टे:] सम्यग्दृष्टि के [अतिचारा:] अतिचार हैं ।
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छेदनताडनबन्धा भारस्यारोपणं समधिकस्य ।
पानान्नयोश्च रोध: पञ्चाहिंसाव्रतस्येति ॥183॥
छेदन प्रताड़न बाँधना, अत्यधिक बोझा लादना ।
हैं अन्न पान निरोध करना, तज तभी शुध अहिंसा ॥१८३॥
अन्वयार्थ : [अहिंसाव्रतस्य] अहिंसाव्रत के [छेदनताडनबन्धा:] छेदना, ताडन करना, बाँधना, [समधिकस्य] बहुत अधिक [भारस्य] बोझ का [आरोपणं] लादना [च] और [पानान्नयौ:] अन्न-जल का [रोध:] रोकना अर्थात् न देना [इति] इस प्रकार [पञ्च] पाँच अतिचार हैं ।
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मिथ्योपदेशदानं रहसोऽभ्याख्यानकूटलेखकृती ।
न्यासापहारवचनं साकारमन्त्रभेदश्च ॥184॥
उपदेश मिथ्या दे, बताना गुप्त एकान्ति रहस ।
सब लेख लिखना असत्, कहना वचन न्यासापहार युत॥
सब काय चेष्टा से समझ, अभिप्राय पर का बताना ।
ये पाँच हैं सत्याणुव्रत के, दोष इनको मिटाना ॥१८४॥
अन्वयार्थ : [मिथ्योपदेशदानं] झूठा उपदेश देना, [रहसोऽभ्याख्यानकूट-लेखकृती] एकान्त की गुप्त बातों को प्रगट करना, झूठा लेख लिखना, [न्यासापहारवचनं] धरोहर के हरण करने का वचन कहना [च] और [साकारमन्त्रभेद:] काय की चेष्टा जानकर दूसरे का अभिप्राय प्रगट करना-यह पाँच सत्याणुव्रत के अतिचार हैं ।
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प्रतिरूपव्यवहार: स्तेननियोगस्तदाहृतादानम् ।
राजविरोधातिक्रमहीनाधिकमानकरणे च ॥185॥
असली में नकली मिला बेचे, चोर को सहयोग दे ।
लेना चुराया द्रव्य, राज विरोध उल्लंघन करे॥
कर माप ताैल के साधनों में, हीनता बहुलीकरण ।
अस्तेय अणुव्रत के कहे, अतिचार जान करो त्यजन ॥१८५॥
अन्वयार्थ : [प्रतिरूपव्यवहार:] प्रतिरूप व्यवहार अर्थात् असली चीज में नकली चीज मिलाकर बेचना [स्तेननियोग:] चोरी करनेवालों की सहायता करना, [तदाहृतादानम्] चोरी की लाई हुई वस्तुओं को रखना, [च] और [राजविरोधातिक्रम-हीनाधिकमानकरणे] राज्य द्वारा आदेशित नियमों का उल्लंघन करना, माप या तौल के गज, मीटर, काँटा, तराजू आदि के माप में हीनाधिक करना, - [एते पञ्चास्तेयव्रतस्य] यह पाँच अचौर्यव्रत के अतिचार हैं
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स्मरतीव्राभिनिवेशोऽनङ्गक्रीडान्यपरिणयनकरणम् ।
अपरिगृहीतेतरयोर्गमने चेत्वरिकयो: पञ्च ॥186॥
हो तीव्र इच्छा विषय सेवन, अनंग क्रीड़ा अन्य के ।
करना विवाह विवाहिता, अविवाहिता से नित रखे॥
संबंध इत्वरिका गमन, ब्रम्हचर्य अणुव्रत के कहे ।
अतिचार पाँच जिनेन्द्र ने, ब्रम्हचर्य पावन इन तजे ॥१८६॥
अन्वयार्थ : [स्मरतीव्राभिनिवेश:] कामसेवन की अतिशय इच्छा रखना, [अनङ्ग-क्रीडा] योग्य अंगों को छोड़कर दूसरे अंगों के साथ कामक्रीड़ा करना, [अन्यपरिणयनकरणम्] दूसरे का विवाह करना, [च] और [अपरिगृहीतेतरयो:] कुंवारी अथवा विवाहित [इत्वरिकयो:] व्यभिचारिणी स्त्रियों के पास [गमने] जाना, लेन-देन आदि का व्यवहार करना [एते ब्रह्मव्रतस्य] यह ब्रह्मचर्यव्रत के [पञ्च] पाँच अतिचार हैं
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वास्तुक्षेत्राष्टापदहिरण्यधनधान्यदासदासीनाम् ।
कुप्यस्य भेदयोरपि परिमाणातिक्रिया: पञ्च ॥187॥
है खेत घर सोना रु चाँदी, धान्य धन दास दासिआँ ।
वस्त्रादि की सीमा उलंघन, दोष संग सीमा कहा ॥१८७॥
अन्वयार्थ : वास्तुक्षेत्राष्टापदहिरण्यधनधान्यदासदासीनाम् ।
कुप्यस्य भेदयोरपि परिमाणातिक्रिया: पञ्च ॥१८७॥
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ऊर्ध्वमधस्तात्तिर्यग्व्यतिक्रमा: क्षेत्रवृद्धिराधानम् ।
स्मृत्यन्तरस्य गदिता: पंचेति प्रथमशीलस्य ॥188॥
हैं ऊर्ध्व तिर्यग् अध: व्यतिक्रम, क्षेत्र वृद्धि विस्मरण ।
हैं प्रथम दिग्व्रत शील के ये, पाँच दोष करो त्यजन ॥१८८॥
अन्वयार्थ : [ऊर्ध्वमधस्तात्तिर्यग्व्यतिक्रमा:] ऊपर, नीचे और समान भूमिकी की हुई मर्यादा का उल्लंघन करना अर्थात् जितना प्रमाण किया हो, उससे बाहर चला जाना [क्षेत्रवृद्धि:] परिमाण किये हुये क्षेत्र की लोभादिवश वृद्धि करना और [स्मृत्यन्तरस्य] स्मृति के अलावा क्षेत्र की मर्यादा [आधानम्] धारण करना अर्थात् मर्यादा को भूल जाना [इति] इस प्रकार [पञ्च] पाँच अतिचार [प्रथमशीलस्य] प्रथम शील अर्थात् दिग्व्रत के [गदिता:] कहे गए हैं ।
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प्रेष्यस्य संप्रयोजनमानयनं शब्दरूपविनिपातौ ।
क्षेपोऽपि पुद्गलानां द्वितीयशीलस्य पंचेति ॥189॥
निज सीम बाहर भेजना या, मँगाना शब्द सुनाना ।
आकार से संकेत, पुद्गल फेक दोष देशव्रत का ॥१८९
अन्वयार्थ : [प्रेषस्य संप्रयोजनम्] प्रमाण किये हुए क्षेत्र के बाहर दूसरे मनुष्य को भेजना, [आनयनं] वहाँ से कोई वस्तु मँगाना [शब्दरूपविनिपातौ] शब्द सुनाना, रूप दिखाकर इशारा करना और [पुद्गलानां] कंकड़ आदि पुद्गल [क्षेत्रोऽपि] भी फेंकना [इति] इस प्रकार [पञ्च] पाँच अतिचार [द्वितीयशीलस्य] दूसरे शील के अर्थात् देशव्रत के कहे गए हैं ।
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कन्दर्प: कौत्कुच्यं भोगानर्थक्यमपि च मौखर्यम् ।
असमीक्षिताधिकरणं तृतीयशीलस्य पंचेति ॥190॥
कन्दर्प कुत्सित काय कृति, भोगोपभोगानर्थता ।
वाचालता निर्विचारता, ये अनर्थ विरति कि दोषता ॥१९०॥
अन्वयार्थ : [कन्दर्प:] काम के वचन बोलना, [कौत्कुच्यं] भांडरूप अयोग्य कायचेष्टा करना, [भोगानर्थक्यम्] भोग-उपभोग के पदार्थों का अनर्थक्य, [मौखर्यम्] वाचालता [च] और [असमीक्षिताधिकरणं] विचार किये बिना कार्य करना; [इति] इस प्रकार [तृतीयशीलस्य] तीसरे शील अर्थात् अनर्थदण्डविरति व्रत के [अपि] भी [पञ्च] पाँच अतिचार हैं ।
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वचनमन:कायानां दु:प्रणिधानं त्वनादरश्चैव ।
स्मृत्यनुपस्थानयुता: पंचेति चतुर्थशीलस्य ॥191॥
मन वचन तन की दुष्प्रवृत्ति, अनादर अरु व्यग्रता ।
से विस्मरण व्रत सामायिक के, दोष इनको हटाना ॥१९१॥
अन्वयार्थ : [स्मृत्यनुपस्थानयुता:] स्मृतिअनुपस्थान सहित [वचनमन: कायानां] वचन, मन, और काय की [दु:प्रणिधानं] खोटी प्रवृत्ति [तु] और [अनादर:] अनादर [इति] इस प्रकार [चतुर्थशीलस्य] चौथे शील अर्थात् सामायिकव्रत के [पञ्च] पाँच [एव] ही अतिचार हैं ।
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अनवेक्षिताप्रमार्जितमादानं संस्तरस्तथोत्सर्ग: ।
स्मृत्यनुपस्थानमनादरश्च पञ्चोपवासस्य ॥192॥
देखे बिना शोधे बिना, कर ग्रहण संस्तर विसर्जन ।
हो अनादर विस्मरण व्यग्र, ये दोष प्रोषधोपवास व्रत ॥१९२॥
अन्वयार्थ : [अनवेक्षिताप्रमार्जितमादानं] देखे बिना अथवा शुद्ध किये बिना ग्रहण करना, [सस्तर:] चटाई आदि बिस्तर लगाना [तथा] तथा [उत्सर्ग:] मलमूत्र का त्याग करना [स्मृत्यनुपस्थानम्] उपवास की विधि भूल जाना [च] और [अनादर:] अनादर-यह [उपवासस्य] उपवास के [पञ्च] पाँच अतिचार हैं ।
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आहारो हि सचित्त: सचित्तमिश्र सचित्तसम्बन्ध: ।
दुष्पक्वोऽभिषवोपि च पञ्चामी षष्ठशीलस्य ॥193॥
लेना सचित्ताहार मिश्रित, सचित संग दुपक्व हो ।
कामोत्तेजक दोष, भोगोपभोग सीम व्रत ये तजो ॥१९३॥
अन्वयार्थ : [हि] निश्चय से [सचित्त: आहार:] सचित्त आहार, [सचित्त मिश्र:] सचित्त मिश्र आहार, [सचित्त सम्बन्ध:] सचित्त के सम्बन्धवाला आहार, [दुष्पक्व:] दुष्पक्व आहार [च अपि] और [अभिषव आहार] *अभिषव आहार [अभी] यह [पञ्च] पाँच अतिचार [षष्ठशीलस्य] छट्ठे शील अर्थात् भोगोपभोगपरिमाण व्रत के हैं ।
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परदातृव्यपदेश: सचित्तनिक्षेपतत्पिधाने च ।
कालस्यातिक्रमणं मात्सर्य्यं चेत्यतिथिदाने ॥194॥
पर से दिलाना सचित्त रखना, सचित्त से ढकना समय ।
का अतिक्रमण मात्सर्य, अतिथिदान में ये दोष तज ॥१९४॥
अन्वयार्थ : [परदातृव्यपदेश:] परदातृव्यपदेश, [सचित्त निक्षेपतत्पिधाने च] सचित्तनिक्षेप और सचित्तपिधान, [कालस्यातिक्रमणं] काल का अतिक्रम [च] और [मात्सर्य्यं] मात्सर्य- [इति] इस प्रकार [अतिथिदाने] अतिथिसंविभागव्रत के पाँच अतिचार हैं ।
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जीवितमरणाशंसे सुहृदनुराग: सुखानुबन्धश्च ।
सनिदान: पञ्चैते भवन्ति सल्लेखनाकाले ॥195॥
जीने की इच्छा मरण इच्छा, मित्र राग सुखानुबन्ध ।
अरु है निदान सल्लेखना के, काल में ये दोष तज ॥१९५॥
अन्वयार्थ : [जीवितमरणाशंसे] जीवन की आशंसा, मरण की आशंसा, [सुहृदनुराग:] सुहृद अर्थात् मित्र के प्रति अनुराग, [सुखानुबन्ध:] सुख का अनुबन्ध [च] और [सनिदान:] निदान सहित- [एते] यह [पञ्च] पाँच अतिचार [सल्लेखनाकाले] समाधिमरण के समय [भवन्ति] होते हैं ।
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इत्येतानतिचारानपरानपि संप्रतर्क्य परिवर्ज्य ।
सम्यक्त्वव्रतशीलैरमलै: पुरुषार्थसिद्धिमेत्यचिरात् ॥196॥
यों इन अतिचारों अपर भी, सोच तज सम्यक्त्व व्रत ।
शीलादि निर्मल से पुरुष की, अर्थ सिद्धि शीघ्र नित ॥१९६॥
अन्वयार्थ : [इति] इस प्रकार गृहस्थ [एतान्] इन पूर्वोक्त [अतिचारान्] अतिचार और [अपरान्] दूसरे दोषोत्पादक अतिक्रम, व्यतिक्रम आदि का [अपि] भी [संप्रतर्क्य] विचार करके [परिवर्ज्य] छोड़कर [अमलै:] निर्मल [सम्यक्त्वव्रतशीलै:] सम्यक्त्व, व्रत और शील द्वारा [अचिरात्] अल्प काल में ही [पुरुषार्थसिद्धिम्] पुरुष के प्रयोजन की सिद्धि [एति] पाते हैं ।
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चारित्रान्तर्भावात् तपोपि मोक्षाङ्गमागमे गदितम् ।
अनिगूहितनिजवीर्यैस्तदपि निषेव्यं समाहितस्वान्तै: ॥197॥
चारित्र अन्तर्भाव से, तप भी सुसाधन मोक्ष का ।
नहिं छुपा सेवो यथाशक्ति, सावधानी से कहा ॥१९७॥
अन्वयार्थ : [आगमे] जैन आगम में [चारित्रान्तर्भावात्] चारित्र का अन्तर्वर्त्ती होने से [तप:] तप को [अपि] भी [मोक्षाङ्गम्] मोक्ष का अंग [गदित्तम्] कहा गया है अत: [अनिगूहितनिजवीर्यै:] अपना पराक्रम न छुपानेवाले तथा [समाहितस्वान्तै:] सावधान चित्तवाले पुरुषों को [तदपि] उस तप का भी [निषेव्यम्] सेवन करना योग्य है ।
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अनशनमवमौदर्यं विविक्तशय्यासनं रसत्याग: ।
कायक्लेशो वृत्ते: सङ्ख्या च निषेव्यमिति तपो बाह्यम् ॥198॥
अनशन अवमौदर्य, शैयासन विविक्त रस त्याग हैं ।
तनक्लेश वृत्ति परी संख्या, बाह्य तप नित सेव्य हैं ॥१९८॥
अन्वयार्थ : [अनशनं] अनशन, [अवमौदर्यं] ऊनोदर, [विविक्तशय्यासनं] विविक्त शय्यासन, [रसत्याग:] रस परित्याग, [कायक्लेश:] कायक्लेश [च] और [वृत्ते: संख्या] वृत्ति की संख्या-[इति] इस प्रकार [बाह्य तप:] बाह्यतप का [निषेव्यम्] सेवन करना योग्य है ।
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विनयो वैयावृत्त्यं प्रायश्चित्तं तथैव चोत्सर्ग: ।
स्वाध्यायोऽथ ध्यानं भवति निषेव्यं तपोऽन्तरङ्गमिति ॥199॥
नित प्रायश्चित्त विनय, वैयावृत व्युत्सर्ग अध्ययन ।
है ध्यान तप आभ्यन्तरी, नित सेव्य ये जिनवर कथन ॥१९९॥
अन्वयार्थ : [विनय:] विनय, [वैयावृत्त्यं] वैयावृत्त्य, [प्रायश्चित्तं] प्रायश्चित्त [तथैव च] और इसी प्रकार [उत्सर्ग:] उत्सर्ग, [स्वाध्याय:] स्वाध्याय [अथ] और [ध्यानं] ध्यान- [इति] इस तरह [अन्तरङ्गम्] अन्तरङ्ग [तप:] तप [निषेव्यं] सेवन करने योग्य [भवति] है ।
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जिनपुङ्गवप्रवचने मुनीश्वराणां यदुक्तमाचरणम् ।
सुनिरूप्य निजां पदवीं शक्तिं च निषेव्यमेतदपि ॥200॥
सब जिनागम में मुनिवरों का, कहा है जो आचरण ।
निज वीर्य पदवी सोचकर, उस रूप करना निज चरण ॥२००॥
अन्वयार्थ : [जिनपुङ्गवप्रवचने] जिनेश्वर के सिद्धान्त में [मुनीश्वराणाम्] मुनीश्वर अर्थात् सकलव्रतधारियों का [यत्] जो [आचरणम्] आचरण [उक्तम्] कहा है, [एतत्] यह [अपि] भी गृहस्थों को [निजां] अपने [पदवीं] पद [च] और [शक्तिं] शक्ति को [सुनिरूप्य] भले प्रकार विचार करके [निषेव्यम्] सेवन करना योग्य है ।
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इदमावश्यकषट्कं समतास्तववन्दनाप्रतिक्रमणम् ।
प्रत्याख्यानं वपुषो व्युत्सर्गश्चेति कर्त्तव्यम् ॥201॥
ये नित षडावश्यक करो, समता रु स्तव वन्दना ।
प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग जिससे बन्ध ना ॥२०१॥
अन्वयार्थ : [समतास्तववन्दनाप्रतिक्रमणम्] समता, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण [प्रत्याख्यानं] प्रत्याख्यान [च] और [वपुषो व्युत्सर्ग:] कायोत्सर्ग-[इति] इस प्रकार [इदम्] यह [आवश्यक षट्कं] छह आवश्यक [कर्त्तव्यम्] करना चाहिए ।
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सम्यग्दण्डो वपुष: सम्यग्दण्डस्तथा च वचनस्य ।
मनस: सम्यग्दण्डो गुप्तीनां त्रितयमवगम्यम् ॥202॥
सम्यक् विधि से करे तन वश, वचन सम्यक् रोध हों ।
सम्यक् विधि से मन सुथिर, त्रय दण्ड रुक त्रय गुप्ति हों ॥२०२॥
अन्वयार्थ : [वपुष:] शरीर को [सम्यग्दण्ड:] सम्यक्तया वश करना, [तथा] तथा [वचनस्य] वचन को [सम्यग्दण्ड:] सम्यक् प्रकार वश करना [च] और [मनस:] मन का [सम्यग्दण्ड:] सम्यक्-रूप से निरोध करना - इस प्रकार [गुप्तीनां त्रितयम्] तीन गुप्तियों को [अवगम्यम्] जानना चाहिए ।
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सम्यग्गमनागमनं सम्यग्भाषा तथैषणा सम्यक् ।
सम्यग्ग्रहनिक्षेपौ व्युत्सर्ग: सम्यगिति समिति: ॥203॥
गमनागमन एकाग्रता से, वचन हित मित एषणा ।
सम्यक् ग्रहण निक्षेप अरु, व्युत्सर्ग समिति जानना ॥२०३॥
अन्वयार्थ : [सम्यग्गमनागमनं] सावधानी से देख भालकर गमन और आगमन [सम्यग्भाषा] उत्तम हितमितरूप वचन, [सम्यक् एषणा] योग्य आहार का ग्रहण, [सम्यग्ग्रहनिक्षेपौ] पदार्थ का यत्नपूर्वक ग्रहण और यत्नपूर्वक क्षेपण करना [तथा] और [सम्यग्व्युत्सर्ग:] प्रासुक भूमि देखकर मल-मूत्रादि का त्याग करना-[इति] इस प्रकार यह पाँच [समिति:] समिति हैं ।
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धर्म: सेव्य: क्षान्तिर्मृदुत्वमृजुता च शौचमथ सत्यम् ।
अकिञ्चन्यं ब्रह्म त्यागश्च तपश्च संयमश्चेति ॥204॥
उत्तम क्षमा मृदुता सरलता, शाैच सत्य सुसंयम ।
तप त्याग आकिंचन्य अरु, ब्रम्हचर्य सेव्य सतत धरम ॥२०४॥
अन्वयार्थ : [क्षान्ति:] क्षमा, [मृदुत्वं] मार्दव, [ऋजुता] सरलता अर्थात् आर्जव [शौचम्] शौच [अथ] पश्चात् [सत्यम्] सत्य, [च] तथा [अकिंञ्चन्यं] आकिञ्चन, [ब्रह्म] ब्रह्मचर्य, [च] और [त्याग:] त्याग, [च] और [तप:] तप [च] और [संयम:] संयम [इति] इस प्रकार [धर्म:] दश प्रकार का धर्म [सेव्य:] सेवन करना योग्य है ।
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अधु्रवमशरणमेकत्वमन्यताऽशौचमास्रवो जन्म: ।
लोकवृषबोधिसंवरनिर्जरा: सततमनुप्रेक्ष्या: ॥205॥
अधु्रव अशरण भव एकत्व, अन्यताशुचि आस्रव ।
संवर निर्जरा लोक बोधि, कठिन वृष अनुप्रेक्ष्य नित ॥२०५॥
अन्वयार्थ : [अधु्रवम्] अधु्रव, [अशरणम्] अशरण, [एकत्वम्] एकत्व, [अन्यता] अन्यत्व, [अशौचम्] अशुचि, [आस्रव:] आस्रव, [जन्म:] संसार, [लोक-वृषबोधिसंवरनिर्जरा:] लोक, धर्म, बोधिदुर्लभ, संवर और निर्जरा [एताद्वादशभावना] इन बारह भावनाओं का [सततम्] निरन्तर [अनुप्रेक्ष्या:] बारम्बार चिन्तवन और मनन करना चाहिए ।
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क्षुत्तृष्णा हिममुष्णं नग्नत्वं याचनारतिरलाभ: ।
दंशो मशकादीनामाक्रोशो व्याधिदु:खमङ्गमलम् ॥206॥
स्पर्शश्च तृणादीनामज्ञानमदर्शनं तथा प्रज्ञा ।
सत्कारपुरस्कार: शय्या चर्या वधो निषद्या स्त्री ॥207॥
द्वाविंशतिरप्येते परिषोढव्या: परीष सततम् ।
संक्लेशमुक्तमनसा संक्लेशनिमित्तभीतेन ॥208॥
क्षुत् तृषा शीतोष्ण, दंशमशक नगनता याचना ।
अरति अलाभ आक्रोश स्त्री, रोग चर्या निषद्या ॥२०६॥
शैया अदर्शन देह-मल, वध तृणस्पर्श अज्ञानता ।
प्रज्ञा तथा सत्कार पुरष्कार बाइस जानना ॥२०७॥
संक्लेश विरहित चित्त से, संक्लेश साधनभीति से ।
हैं सतत सहने योग्य परिषह, आतमा के लक्ष्य से ॥२०८॥
अन्वयार्थ : [संक्लेशमुक्तमनसा] संक्लेशरहित चित्तवाला और [संक्लेशनिमित्त-भीतेन] संक्लेश के निमित्त से अर्थात् संसार से भयभीत साधु को [सततम्] निरन्तर [क्षुत्] क्षुधा, [तृष्णा] तृषा, [हिमम्] शीत, [उष्णम्] उष्ण, [नग्नत्वं] नग्नपना, [याचना] प्रार्थना, [अरति:] अरति, [अलाभ:] अलाभ, [मशकादीनांदंश:] मच्छरादि का काटना, [आक्रोश:] कुवचन, [व्याधिदु:खम्] रोग का दु:ख [अङ्गमलम्] शरीर का मल, [तृणादीनां स्पर्श:] तृणादिक का स्पर्श, [अज्ञानम्] अज्ञान, [अदर्शनम्] अदर्शन, [तथा] इसी प्रकार [प्रज्ञा] प्रज्ञा [सत्कारपुरस्कार:] सत्कार-पुरस्कार [शय्या] शयन, [चर्या] गमन, [वध:] वध, [निषद्या] आसन, [च] और [स्त्री] स्त्री-[एते] यह [द्वाविंशति:] बाईस [परिषहा:] परीषह [अपि] भी [परिषोढव्या:] सहन करने योग्य हैं ।
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इति रत्नत्रयमेतत्प्रतिसमयं विकलमपि गृहस्थेन ।
परिपालनीयमनिशं निरत्ययां मुक्तिमभिलषिता ॥209॥
स्थाई शिव वांछक गृही को, भी सतत सेवनीय ही ।
सम्यक् रत्नत्रय प्रतिसमय, चाहे पले वह विकल ही ॥२०९॥
अन्वयार्थ : [इति] इस प्रकार [एतत्] पूर्वोक्त [रत्नत्रयम्] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय [विकलम्] एकदेश [अपि] भी [निरत्ययां] अविनाशी [मुक्तिम्] मुक्ति के [अभिलषिता] चाहनेवाले [गृहस्थेन] गृहस्थ को [अनिशं] निरन्तर [प्रतिसमयं] हर समय [परिपालनीयम्] सेवन करना चाहिए ।
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बद्धोद्यमेन नित्यं लब्ध्वा समयं च बोधिलाभस्य ।
पदमवलम्ब्य मुनीनां कर्त्तव्यं सपदि परिपूर्णम् ॥210॥
यह विकल भी सत् यत्न से नित बोधि पाने के समय ।
पा मुनि पद अवलम्ब कर, परिपूर्ण शीघ्र करो स्वयं ॥२१०॥
अन्वयार्थ : [च] और यह विकलरत्नत्रय [नित्यं] निरन्तर [बद्धोद्यमेन] उद्यम करने में तत्पर ऐसे मोक्षाभिलाषी गृहस्थों को [बोधिलाभस्य] रत्नत्रय के लाभ का [समयं] समय [लब्ध्या] प्राप्त करके तथा [मुनीनां] मुनियों के [पदम्] पद का-[चरण का] [अवलम्ब्य] अवलम्बन करके [सपदि] शीघ्र ही [परिपूर्णम्] परिपूर्ण [कर्त्तव्यम्] करना योग्य है ।
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असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो य: ।
स विपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपाय:॥211॥
अपूर्ण रत्नत्रय सहित के, कर्म बन्ध विपक्ष से ।
रागादि ही बंधन करें, यह तो सतत शिवहेतु है ॥२११॥
अन्वयार्थ : [असमग्रं रत्नत्रयम्] अपूर्ण रत्नत्रय की [भावयत:] भावना वाले के [य: कर्मबन्ध: अस्ति] जो कर्म का बन्ध है [स:] वह [विपक्षकृत:] विपक्षकृत है, [अवश्यं मोक्षोपाय:] अवश्य ही मोक्ष का उपाय है, [न बन्धनोपाय:] बन्ध का उपाय नहीं है ।
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येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति ।
येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥212॥
येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति ।
येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥213॥
येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति ।
येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥214॥
जिस अंश से सुदृष्टि, बन्धन नहीं है उस अंश से ।
जिस अंश से है राग, बन्धन है सदा उस अंश से ॥२१२॥
जिस अंश से सद्ज्ञान, बन्धन नहीं है उस अंश से ।
जिस अंश से है राग, बन्धन है सदा उस अंश से ॥२१३॥
जिस अंश से सच्चरित्र, बन्धन नहीं है उस अंश से ।
जिस अंश से है राग, बन्धन है सदा उस अंश से ॥२१४॥
अन्वयार्थ : [अस्य येनांशेन सुदृष्टि:] इस के जितने अंश में सम्यग्दर्शन है, [तेन अंशेन] उतने अंश में [बन्धनं नास्ति] बन्धन नहीं है [तु येन अंशेन] परन्तु जितने अंश में [अस्य राग:] इसके राग है, [तेन अंशेन] उतने अंश में [बन्धनं भवति] बन्ध होता है । [येन अंशेन] जितने अंश में [अस्य ज्ञानं] इसके ज्ञान है, [तेन अंशेन] उतने अंश में [बन्धनं नास्ति] बन्ध नहीं है [तु येन अंशेन] परन्तु जितने अंश में [राग: तेन अंशेन] राग है, उतने अंश में [अस्य बन्धनं भवति] इसके बन्ध होता है । [येन अंशेन] जितने अंश में [अस्य चरित्रं] इसके चारित्र है, [तेन अंशेन] उतने अंश में [बन्धनं नास्ति] बन्ध नहीं है, [तु येन] परन्तु जितने [अंशेन राग:] अंश में राग है, [तेन अंशेन] उतने अंश में [अस्य बन्धनं भवति] इसके बन्ध होता है ।
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योगात्प्रदेशबन्ध: स्थितिबन्धो भवति तु कषायात् ।
दर्शनबोधचरित्रं न योगरूपं कषायरूपं च ॥215॥
प्रदेश बन्ध है योग से, स्थिति बन्ध कषाय से ।
नहिं योगरूप कषायमय नहिं, दर्श बोध चरित्र ये ॥२१५॥
अन्वयार्थ : [प्रदेशबन्ध:] प्रदेशबन्ध [योगात्] मन, वचन, काय के व्यापार से [तु] और [स्थितिबन्ध:] स्थितिबन्ध [कषायात्] क्रोधादि कषायों से [भवति] होता है, परन्तु [दर्शनबोधचरित्रं] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय [न योगरूपं च कषायरूपं] योगरूप और कषायरूप नहीं हैं ।
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दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोध: ।
स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्ध: ॥216॥
है आत्म निश्चयमई दर्शन, आत्म परिज्ञान बोध है ।
आत्मा में स्थिरता सुचारित्र, बन्ध कैसे इन्हीं से? ॥२१६॥
अन्वयार्थ : [आत्मविनिश्चिति:] अपने आत्मा का विनिश्चय [दर्शनम्] सम्यग्दर्शन, [आत्मपरिज्ञानं] आत्मा का विशेष ज्ञान [बोध:] सम्यग्ज्ञान और [आत्मनि] आत्मा में [स्थिति:] स्थिरता [चारित्रं] सम्यक्चारित्र [इष्यते] कहा जाता है तो फिर [एतेभ्य: 'त्रिभ्य:'] इन तीनों से [कुत:] किस तरह [बन्ध:] बन्ध [भवति] होवे?
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सम्यक्त्वचरित्राभ्यां तीर्थकराहारकर्म्मणो बन्ध: ।
योऽप्युपदिष्ट: समये न नयविदां सोऽपि दोषाय ॥217॥
सम्यक्त्व चारित्र से तीर्थंकर, कर्म आहारक बँधें ।
यह जो जिनागम वचन, हेतु दोष नहिं नयविज्ञ के ॥२१७॥
अन्वयार्थ : [अपि] और [तीर्थकराहारकर्म्मणा:] तीर्थंकर प्रकृति और आहारक द्विक प्रकृति का [य:] जो [बन्ध:] बन्ध [सम्यक्त्वचरित्राभ्यां] सम्यक्त्व और चारित्र से [समये] आगम में [उपदिष्ट:] कहा गया है, [स:] वह [अपि] भी [नयविदां] नय के ज्ञाताओं को [दोषाय] दोष का कारण [न] नहीं है ।
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सति सम्यक्त्वचरित्रे तीर्थकराहारबन्धकौ भवत: ।
योगकषायौ नासति तत्पुनरस्मिन्नुदासीनम् ॥218॥
सम्यक्त्व चारित्रवान के ही, बँधें योग कषाय से ।
ही तीर्थकर आहारद्विक, नहिं हों बँधे नहिं राध से ॥२१८॥
अन्वयार्थ : [यस्मिन्] जिसमें [सम्यक्त्वचरित्रेसति] सम्यक्त्व और चारित्रवान को ही [तीर्थकराहारबन्धकौ] तीर्थंकर और आहारकद्विक के बन्धक [भवत:] होते हैं [योगकषायौ] योग और कषाय [असति न] नहीं होने पर [तत्] वह [पुन:] फिर [अस्मिन्] इस में [उदासीनम्] उदासीन हैं ।
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ननु कथमेवं सिद्ध्यति देवायु: प्रभृतिसत्प्रकृतिबन्ध: ।
सकलजनसुप्रसिद्धो रत्नत्रयधारिणां मुनिवराणाम् ॥219॥
नित रत्नत्रययुत मुनिवरों के, बँधें जग प्रसिद्ध यह ।
देवायु आदि सत् प्रकृतिआँ, सिद्ध कैसे? प्रश्न यह ॥२१९॥
अन्वयार्थ : [ननु] शंका-कोई पुरुष शंका करता है कि [रत्नत्रयधारिणां] रत्नत्रय के धारक [मुनिवराणां] श्रेष्ठ मुनियों को [सकलजनसुप्रसिद्ध:] सर्व लोक में भले प्रकार प्रसिद्ध [देवायु: प्रभृतिसत्प्रकृतिबन्ध:] देवायु आदि उत्तम प्रकृतियों का बन्ध [एवं कथम्] पूर्वोक्त प्रकार से किस तरह [सिद्ध्यति] सिद्ध होगा ।
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रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य ।
आस्रवति यत्तु पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराध: ॥220॥
है मोक्ष का ही हेतु रत्नत्रय, नहीं है अन्य का ।
अपराध शुभ उपयोग मय, आस्रव हुआ यह पुण्य का ॥२२०
अन्वयार्थ : [इह] इस लोक में [रत्नत्रयं] रत्नत्रयरूप धर्म [निर्वाणस्य एव हेतु भवति] निर्वाण का ही कारण होता है, [अन्यस्य न] अन्य का नहीं, [तु यत्] परन्तु जो [पुण्यं आस्रवति] पुण्य का आस्रव होता है, [अयम् अपराध: शुभोपयोग:] यह अपराध शुभोपयोग का है ।
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एकस्मिन् समवायादत्यन्तविरुद्धकार्ययोरपि हि ।
इह दहति घृतमिति यथा व्यवहारस्तादृशोऽपि रूढिमिति ॥221॥
नित एक में समवाय से, विपरीत अति ही परस्पर ।
के कार्य में व्यवहार रूढ़ि, ज्यों जलाता घी कथन ॥२२१॥
अन्वयार्थ : [हि एकस्मिन्] निश्चय से एक वस्तु में [अत्यन्तविरुद्धकार्ययो: अपि] अत्यन्त विरोधी दो कार्यों के भी [समवायात्] मेल से [तादृश: अपि] वैसा ही [व्यवहार: रूढिम्] व्यवहार रूढ़ि को [इत:] प्राप्त है, [यथा] जैसे [इह] इस लोक में [घृतम् दहति] 'घी जलाता है' - [इति] इस प्रकार की कहावत है ।
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सम्यक्त्वबोधचारित्रलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येष: ।
मुख्योपचाररूप: प्रापयति परं पदं पुरुषम् ॥222॥
मुख्योपचारमई सुसमकित, बोध चारित्र युक्त यह ।
शिवमार्ग आतम को परम, पद प्राप्त करवाता सतत ॥२२२॥
अन्वयार्थ : [इति] इस प्रकार [एष:] यह पूर्वकथित [मुख्योपचाररूप:] निश्चय और व्यवहाररूप [सम्यक्त्वबोधचारित्रलक्षण:] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र लक्षणवाला [मोक्षमार्ग:] मोक्ष का मार्ग [पुरुषं] आत्मा को [परं पदं] परमात्मा का पद [प्रापयति] प्राप्त करवाता है ।
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नत्यमपि निरुपलेप: स्वरूपसमवस्थितो निरुपघात: ।
गगनमिव परमपुरुष: परमपदे स्फुरति विशदतम: ॥223॥
हैं नित्य ही उपलेप बिन, उपघात बिन निज रूप में ।
स्थित विशद परमात्मा, नभसम प्रकाशित मोक्ष में ॥२२३॥
अन्वयार्थ : [नित्यमपि] हमेशा [निरुपलेप:] कर्मरूपी रज के लेप से रहित [स्वरूपसमवस्थित:] अपने अनन्तदर्शन-ज्ञान स्वरूप में भले प्रकार स्थित [निरुपघात:] उपघात रहित और [विशदतम:] अत्यन्त निर्मल [परमपुरुष:] परमात्मा [गगनम् इव] आकाश की भाँति [परमपदे] लोकशिखरस्थित मोक्षस्थान में [स्फुरति] प्रकाशमान होता है ।
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कृतकृत्य: परमपदे परमात्मा सकलविषयविषयात्मा ।
परमानन्दनिमग्नो ज्ञानमयो नन्दति सदैव ॥224॥
नित ज्ञानमय सर्वज्ञ, परमानन्द स्थिर कृत्यकृत ।
परमात्मा निज परम पद, में विराजित आनन्दयुत ॥२२४॥
अन्वयार्थ : [कृतकृत्य:] कृतकृत्य [सकलविषयविषयात्मा] समस्त पदार्थ जिनके विषय हैं [परमानन्दनिमग्न:] परम-आनन्द में अतिशय मग्न [ज्ञानमय:] ज्ञानमय ज्योतिरूप [परमात्मा] मुक्तात्मा [परमपदे] सर्वोच्च पद में [सदैव] निरन्तर ही [नन्दति] आनन्दरूप से विराजमान हैं ।
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एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेणत्र ।
अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ॥225॥
ज्यों एक खीचें अन्य छोर, शिथिल करें मथते दही ।
त्यों विविध धर्मी वस्तु में से प्रयोजन वश एक ही॥
करते प्रमुख हैं अन्य गाैण, इसी तरह सब धर्म का ।
हो ज्ञान जैनी नीति यह, जयवन्त वर्ते नित यहाँ ॥२२५॥
अन्वयार्थ : [मन्थाननेत्रम्] दही की मथनी की रस्सी को खेंचनेवाली [गोपी इव] ग्वालिनी की तरह [जैनी नीति:] जिनेन्द्रदेव की स्याद्वाद नीति अथवा निश्चय-व्यवहाररूप नीति [वस्तुतत्त्वम्] वस्तु के स्वरूप को [एकेन] एक सम्यग्दर्शन से [आकर्षन्ती] अपनी तरफ खेंचती है, [इतरेण] दूसरे से अर्थात् सम्यग्ज्ञान से [श्लथयन्ती] शिथिल करती है और [अन्तेन] अन्तिम अर्थात् सम्यक्चारित्र से सिद्धरूप कार्य को उत्पन्न करने से [जयति] सर्व के ऊपर वर्तती है ।
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वर्णै: कृतानि चित्रै: पदानि तु पदै: कृतानि वाक्यानि ।
वाक्यै: कृतं पवित्रं शास्त्रमिदं न पुनरस्माभि: ॥226॥
इन विविध वर्णों से बने, पद वाक्य बनते पदों से ।
शुभ शास्त्र वाक्यों से बना, नहिं किया है हमने इसे ॥२२६॥
अन्वयार्थ : [चित्रै:] अनेक प्रकार के [वर्णै:] अक्षरों से [कृतानि] रचे गये [पदानि] पद, [पदै:] पदों से [कृतानि] बनाये गये [वाक्यानि] वाक्य हैं, [तु] और [वाक्यै:] उन वाक्यों से [पुन:] फिर [इदं] यह [पवित्रं] पवित्रं-पूज्य [शास्त्रं] शास्त्र [कृतं] बनाया गया है, [अस्माभि:] हमारे द्वारा [न 'किमपि कृतम्'] कुछ भी नहीं किया गया है ।
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