पद्म्नंदी-पंचविन्शतिका
























- आ-पद्म्नंदी



nikkyjain@gmail.com
Date : 27-Jul-2022


Index


गाथा / सूत्रविषय



!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!

श्रीमद्‌-भगवत्पद्म्नंदी-देव-प्रणीत

श्री
पद्मनंदी-पंचविंशतिका

मूल संस्कृत गाथा,
पं-गजाधरलाल छाबडा कृत हिंदी टीका सहित


आभार :

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!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!

ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥

अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥

अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥

॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥

सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीपद्म्नंदी-पंचविन्शतिका नामधेयं, अस्य मूलाग्रन्थकर्तार: श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तार: श्रीगणधरदेवा: प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य आचार्य श्रीपद्म्नंदीदेव विरचितं, श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥



मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्‌ ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम्‌ ॥


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कायोत्सर्गायतांङ्गो, जयति जिनपतिर्नाभिसूनुर्महात्मा
मध्याह्ने यस्य भास्वा,-नुपरि परितो, राजते स्मोग्रूमूर्ति:
चक्रं कर्मेन्धनाना,-मतिबहु दहतो, दूरमौदास्यवात
स्फूर्यत् सद्ध्यानवह्ने,-रिव रुचिरतर:, प्रोद्गतो विस्फुलिंग: ॥1॥
प्रज्वलित जो वैराग्य पवन से, कर्मेन्धन को भस्म करें ।
जिनकी ध्यान-अग्नि से नभ में, फैले हैं स्फुलिंग अरे! ॥
वह मध्याह्न दिवाकर जिनके, ऊपर सदा सुशोभित है ।
कायोत्सर्गरूप मुद्रा अरु, जो विशाल तनधारी हैं ॥
अष्ट कर्म के परम विजेता, उत्तम पुरुषों के स्वामी ।
नाभिपुत्र जिनपति महात्मा, जयवन्तो अन्तर्यामी ॥
अन्वयार्थ : दोपहर के समय जिन आदीश्वर भगवान के ऊपर रहा हुआ तेजस्वी सूर्य, ज्ञानावरणादि कर्मरूपी इंर्धन को पल भर में भस्म करने वाली, वैराग्यरूपी पवन से जलाई हुई ध्यानरूपी अग्नि से उत्पन्न हुए मनोहर स्फुलिंगों के समान जान पड़ता है, ऐसे कायोत्सर्ग सहित विस्तीर्ण शरीर के धारी तथा अष्ट कर्मों के जीतने वाले उत्तम पुरुषों के स्वामी महात्मा श्री नाभिराय के पुत्र श्री ऋषभदेव भगवान सदा जयवन्त रहें ।

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नो किंचित्करकार्यमस्ति गमनप्राप्यं न किंचिद् द्रशो-
द्रर्श्यं यस्य न कर्णयोः किमपि हि श्रोतव्यमप्यस्ति न
तेनालम्बितपाणिरुज्झितगतिर्नासाग्रद्रष्टी रहः
संप्राप्तोऽतिनिराकुलो विजयते ध्यानैकतानो जिनः ॥2॥
रहा न किञ्चित् कार्य अत: हैं, आलम्बित द्वय हाथ अहो! ।
जानन-देखन योग्य नहीं हैं, अत: दृष्टि-नासाग्र अहो! ॥
सुनने योग्य रहा कुछ भी नहिं, इसीलिए रहते एकान्त ।
ध्यान-लीन अत्यन्त निराकुल, जिनवर हैं जग में जयवन्त ॥
अन्वयार्थ : भगवान को हाथ से करने योग्य कोई कार्य नहीं रहा है इसलिये तो उन्होंने हाथों को नीचे लटका दिया है तथा जाने के लायक कोई स्थान नहीं रहा है इसलिये वे निश्चल खड़े हुवे हैं और देखने योग्य कोई पदार्थ नहीं रहा है इसलिये भगवान नाक के ऊपर अपनी दृष्टि दे रखी है तथा एकान्तवास इसलिये किया है कि भगवान को पास में रहकर कोई बात सुनने के लिये नहीं रही है इसलिये इस प्रकार अत्यंत निराकुल तथा ध्यानरस में लीन भगवान सदा लोक में जयवन्त हैं।

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रागो यस्य न विद्यते क्कचिदपि प्रध्वस्तसंगग्रहात्
अस्त्रादेः परिवर्जनान्न च बुधैर्द्वैषोऽपि संभाव्यते
तस्मात्साम्यमथात्मबोधनमतो जातः क्षयः कर्मणा-
मानन्दादिगुणाश्रयस्तु नियतं सोऽर्हन्सदा पातु वः ॥3॥
मोह परिग्रह नष्ट हुआ है, अत: किसी से राग नहीं ।
शस्त्र नहीं हैं अत: न उनमें, नहीं देखते द्वेष कहीं ॥
इसीलिए हैं साम्यस्वभावी, आतमज्ञानी कर्मजयी ।
आनन्दादि गुणाें के आश्रय, रक्षा करो प्रभो मेरी ॥
अन्वयार्थ : मोह तथा परिग्रह के नाश हो जाने के कारण न तो किसी पदार्थ में जिस अर्हंत का राग ही प्रतीत होता है तथा अर्हंत भगवान ने समस्त शस्त्र आदि को छोड़ दिया है इसलिये विद्वानों को किसी में जिस अर्हंत का द्वेष भी देखने में नहीं आता तथा द्वेष के न रहने के कारण जो शान्तस्वभावी है तथा शान्तस्वभावी होने के ही कारण जिस अर्हंत ने अपनी आत्मा को जान लिया है तथा आत्मा का ज्ञाता होने के कारण जो अर्हंत कर्मोंकर रहित है तथा कर्मों से रहित होने के ही कारण जो आनन्द आदिगुणों का आश्रय है ऐसा अर्हंत भगवान मेरी सदा रक्षा करो अर्थात् ऐसे अर्हंत भगवान का मैं सदा सेवक हूं।

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इन्द्रस्य प्रणतस्य शेखरशिखारत्नार्कभासा नख-
श्रेणीतेक्षणबिम्बशुम्भदलिभृद्दूरोल्लसत्पाटलम्
श्रीसद्माङ्घ्रियुगं जिनस्य दधदप्यम्भोजसाम्यं रज-
स्त्यक्तं जाड्यहरं परं भवतु नश्चेतोऽर्पितं शर्मणे ॥4॥
नम्रीभूत सुरेन्द्र मुकुट की, रत्नप्रभा से चमक रहे ।
चरण-कमल में सुरपतियों के, नेत्र-भ्रमर हैं नित सजते ॥
पाद-पद्म-रजरहित और श्रीयुक्त साम्य है दोनों में ।
किन्तु चरण-युगल जाड्यहर, सुखकर सदा बसे मन में ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार कमलों पर भ्रमर गुंजार करते हैं उस ही प्रकार भगवान के चरण कमलों को बड़े—बड़े इन्द्र आकर नमस्कार करते हैं तथा उनके मुकुट के अग्रभाग में लगे हुये जो रत्न उनकी प्रभा सहित भगवान के चरणों के नखों में उन इन्द्रों के नेत्रों के प्रतिबिम्ब पड़ते हैं इसलिये भगवान के चरणों पर भी इन्द्रों के नेत्ररूपी भौंरे निवास करते हैं— तथा जिस प्रकार कमल कुछ सफेदी लिये लाल होते हैं उस ही प्रकार भगवान के चरण कमल भी कुछ सफेदी लिये हुए लाल वर्ण है तथा जिस प्रकार कमलों में लक्ष्मी रहती हैं उस ही प्रकार भगवान के चरणकमल भी लक्ष्मी के स्थान है अर्थात् चरण कमलों के आराधन करने से भव्य जीवों को उत्तम मोक्षरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। इसलिये यद्यपि कमल तथा भगवान के चरण कमल इन गुणों से समान है तथापि कमल धूलिसहित है तथा जड़ है और भगवान के चरणकमल धूलि (पाप) रहित है तथा जड़ता के दूर करने वाले हैं अत: कमलों से भी उत्कृष्ट भगवान के चरणकमल सदा मेरे मन में स्थित रहो तथा कल्याण करो।

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जयति जगदधीशः शान्तिनाथो यदीयं
स्मृतमपि हि जनानां पापतापोपशान्त्यै
विबुधकुलकिरीटप्रस्फु रन्नीलरत्न-
द्युतिचलमधुपालीचुम्बितं पादपद्मम् ॥5॥
सुर किरीट के नीलरत्न की, प्रभा-भ्रमरयुत चरण-कमल ।
स्मृति से ही पाप-ताप-क्षय, होंवे शान्तिनाथ जयवन्त ॥
अन्वयार्थ : नानाप्रकार के देवताओं के जो मुकुट उनमें लगी हुई जो चमकती हुई नीलमणि उनकी जो प्रभा वही जो चलती हुई भ्रमरों की पंक्ति उस पर सहित जिस शान्तिनाथ भगवान के चरणकमल स्मरण किये हुवे ही समस्त जनों के पाप तथा संताप को दूरकर देते हैं ऐसे वे तीन लोक के स्वामी श्री शांतिनाथ भगवान सदा जयवंत हैं

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स जयति जिनदेवः सर्वविद्विश्वनाथो
वितथवचनहेतुक्रोधलोभाद्विमुक्त :
शिवपुरपथपान्थप्राणिपाथेयमुच्चै-
र्जनितपरमशर्मा येन धर्मोऽभ्यधायि ॥6॥
असत् वचन के हेतुभूत जो, क्रोध-लोभ से हुए विमुक्त ।
सकल ज्ञेय के ज्ञायक त्रिभुवन,-पति जिनदेव रहें जयवन्त ॥
शिवपुर-पथ के पथिकजनों को, दिया धर्म-उपदेश महान ।
परमोत्तम कल्याणभूत जो, भविजन को पाथेय समान ॥
अन्वयार्थ : सबके जानने वाले तथा तीन लोक के स्वामी और क्रोधलोभादिकर रहित इसीलये सत्य वचन के बोलने वाले श्री जिनदेव सदा जयवंत हैं जिन श्री जिनदेव ने मोक्षमार्ग को गमन करने वाले प्राणियों को पाथेय (टोसा) स्वरूप तथा उत्तम कल्याण के करने वाले उत्कृष्ट धर्म का निरूपण किया है

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धर्मो जीवदया गृहस्थशमिनोर्भेदाद्विधा च त्रयं
रत्नानां परमं तथा दशविधोत्कृष्टक्षमादिस्ततः ।
मोहोद्भूतविकल्पजालरहिता वागसङ्गोज्झिता
शुद्धानन्दमयात्मनः परिणतिर्धर्माख्यया गीयते ॥7॥
जीवदया है धर्म तथा, श्रावक-मुनिधर्म द्विभेद कहा ।
रत्नत्रय है परम धर्ममय, क्षमा आदि दश भेद कहा ॥
मोहोत्पन्न विकल्पजाल से, रहित तथा जो वचनातीत ।
धर्म अहो! यह आत्मदेव का, निर्मल आनन्दमय परिणाम ॥
अन्वयार्थ : समस्त जीवों पर दया करना इसी का नाम धर्म है अथवा एकदेश गृहस्थ का धर्म तथा सर्वदेश मुनियों का धर्म इस प्रकार उस धर्म के दो भी भेद हैं अथवा उत्कृष्ट रत्नत्रय सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र ही धर्म है अथवा उत्तमक्षमा मार्दव आर्जव आदिक दश प्रकार भी धर्म है अथवा मोह से उत्पन्न हुवे समस्त विकल्पोंकर रहित तथा जिसको वचन से निरूपण नहीं कर सकते ऐसी जो शुद्ध तथा आनन्दमय आत्मा की परिणति उसी का नाम उत्कृष्ट धर्म है इस प्रकार सामान्यतया धर्म का लक्षण तथा भेद इस श्लोक में बतलाये गये हैं

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आद्या सद्व्रतसंचयस्य जननी सौख्यस्य सत्संपदां
मूलं धर्मंतरोरनश्वरपदारोहैकनिःश्रेणिका ।
कार्या सद्भिरिहाङ्गिषु प्रथमतो नित्यं दया धार्मिकैः
धिङ्नामाप्यपदयस्य तस्य च परं सर्वत्र शून्या दिशः ॥8॥
व्रतसमूह में प्रथम और, सच्चे सुख-सम्पति की जननी ।
धर्म-वृक्ष की मूल यही है, मोक्ष-महल की है सीढ़ी ॥
धर्मात्माजन सब जीवों पर, सर्वप्रथम नित दया करै ।
निर्दय का नहिं कोई जगत् में, सभी कहें धिक् है धिक् है ॥
अन्वयार्थ : जो समस्त उत्तम व्रतों के समूह में मुख्य है तथा सच्चे सुख और श्रेष्ठ संपदाओं की उत्पन्न करने वाली है और जो धर्मरूपी वृक्ष की जड़ है (अर्थात् जिस प्रकार जड़ बिना वृक्ष नहीं ठहरता उस ही प्रकार दया बिना धर्म भी नहीं ठहर सकता) तथा जो मोक्षरूपी महल के अग्रभाग में चढ़ने के लिये सीढ़ी के समान है ऐसी धर्मात्मा पुरूषों को ‘‘समस्त प्राणियों पर दया’’ अवश्य करनी चाहिये किन्तु जिस पुरूष के चित्त में लेशमात्र भी दया नहीं है उस पुरूष के लिये धिक्कार है तथा समस्त दिशा उसके लिये शून्य है अर्थात् जो निर्दयी है उसका कोई भी मित्र नहीं होता।

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संसारे भ्रमतश्चिरं तनुभृतः के के न पित्रादयो
जातास्तद्वधमाश्रितेन खलु ते सर्वें भवन्त्याहताः
पुंसात्मापि हतो यदत्र निहतो जन्मान्तरेषु ध्रुवम्
हन्तारं प्रतिहन्ति हन्त बहुशः संस्कारतो नु क्रुधः ॥9॥
जग में चिर भ्रमते प्राणी का, कौन न मात-पितादि हुआ ।
अत: किसी को मारे कोई, तो अपनों को ही मारा ॥
तथा स्वयं को मारा उसने, क्योंकि मृतक संग जाए क्रोध ।
जन्मान्तर में जागृत हो, संस्कार हनें हत्यारे को ॥
अन्वयार्थ : चिरकाल से संसार में भ्रमण करते हुवे इस दीन प्राणी के कौन—कौन माता पिता भाई आदिक नहीं हुवे ? अर्थात् सर्व ही हो चुके इसलिये यदि कोई प्राणी किसी जीव को मारे तो समझना चाहिये कि उसने अपने कुटुम्बी को ही मारा तथा अपनी आत्मा का भी उसने घात क्योंकि यह नियम है जो मनुष्य किसी दीन प्राणी को एक बार मारता है उस समय उसे मरे हुवे जीव के क्रोधादि की उत्पत्ति होती है तथा जन्मान्तर में उसका संस्कार बैठा रहता है इसलिये जिससमय कारण पाकर उस मृतप्राणी का संस्कार प्रकट हो जाता है उस समय वह हिंसक को (अर्थात् पूर्वभव में अपने मारने वाले जीव को) अनेक बार मारता है इसलिये ऐसे दुष्ट fहंसक के लिये धिक्कार हो

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त्रैलोक्यप्रभुभावतो ऽपि सरुजो ऽप्येकं निजं जीवितं
प्रेयस्तेन बिना स कस्य भवितेत्याकांक्षतः प्राणिनः ।
निःशेषव्रतशीलनिर्मलगुणाधारात्ततो निश्चितं
जन्तोर्जीवितदानतस्त्रिभुवने सर्वप्रदानं लघु ॥10॥
कोई दरिद्री त्रिभुवन की, सम्पति लेकर भी प्राण न दे ।
प्राण बिना कैसे भोगेंगे, अत: प्राण सबको प्यारे ॥
अत: सुनिश्चित शील-व्रतादि निर्मल गुण आधार कहे ।
सब दानों में श्रेष्ठ दान है, प्राणदान ही त्रिभुवन में ॥
अन्वयार्थ : यदि किसी दरिद्री से भी यह बात कही जावे कि भाई तू अपने प्राण दे दे तथा तीन लोक की संपदा ले ले तब वह यही कहता है कि मैं ही मर जाऊंगा तो उस संपदा को कौन भोगेगा अत: तीनलोक की संपदा से भी प्राणियों को अपने प्राण प्यारे हैं। इसलिये समस्त व्रत तथा शीलादि निर्मलगुणों का स्थानभूत जो यह प्राणी का जीवितदान है उसकी अपेक्षा संसार में सर्वदान छोटे हैं यह बात भलीभांति निश्चित है।

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स्वर्गायाव्रतिनाऽपि सार्द्रमनसः श्रेयस्करी केवला
सर्वप्राणिदया तया तु रहितः पापस्तपस्थोऽपि वा
तद्दानं बहु दीयतां तपसि वा चेतश्चिरं धीयतां
ध्यानं वा क्रियतां जना न सफ लं किंचिद्दयावर्जितम् ॥11॥
व्रतविहीन भी स्वर्ग-मोक्ष, पाते हैं भीगे चित वाले ।
कितना भी तप करें किन्तु, निर्दयजन पापी कहलाते ॥
चाहे कितना दान करें या, चित-एकाग्र करे तप में ।
ध्यान करें पर सफल नहीं है, कोई क्रिया न दया जिनमें ॥
अन्वयार्थ : चाहे मनुष्य अव्रती—व्रतरहित क्यों न होवे यदि उसका चित्त समस्त प्राणियों के प्राणों को किसी प्रकार दु:ख न पहुँचाना रूप दया से भीगा हुआ है तो समझना चाहिये कि उस पुरुष को वह दया स्वर्ग तथा मोक्षरूप कल्याण को देने वाली है किन्तु यदि किसी पुरुष के हृदय में दया का अंश न हो तो चाहे वह केसा भी तपस्वी क्यों न होवे तथा वह चाहे इच्छानुसार ही दान क्यों न देता हो अथवा वह कितना भी तप में चित्त को क्यों न स्थिर करता हो तथा वह कैसा भी ध्यानी क्यों न हो पापी ही समझा जाता है क्योंकि दयारहित कोई भी कार्य सफल नहीं होता।।११।।

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सन्तः सर्वसुरासुरेन्द्रमहितं मुक्ते: परं कारणं
रत्नानां दधति त्रयं त्रिभुवनप्रद्योति काये सति
वृत्तिस्तस्य यदन्नतः परमया भक्त्यार्पिताज्जायते
तेषां सद्गृहमेधिनां गुणवतां धर्मो न कस्य प्रियः ॥12॥
सर्व सुरासुरपति से पूजित, एक मुक्ति का कारण जो ।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरणमय, करे प्रकाशित त्रिभुवन को ॥
मुनिगण धारण करें रत्नत्रय, यदि तन में स्थिरता हो ।
अन्न समर्पित करें भक्ति से, श्रावकधर्म न क्यों प्रिय हो? ॥
अन्वयार्थ : जिस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररुपी रत्नत्रय की समस्त सुरेन्द्र तथा असुरेन्द्र भक्ति से पूजन करते हैं तथा जो मोक्ष का उत्कृष्ट कारण है अर्थात् जिसके बिना कदापि मुक्ति नहीं हो सकती तथा जो तीन लोक का प्रकाश करने वाला है ऐसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूपी रत्नत्रय को देह की स्थिरता रहते—सन्ते ही मुनिगण धारण करते हैं तथा श्रद्धा, तुष्टि आदि गुणों कर संयुक्त गृहस्थियों के द्वारा भक्ति से दिये हुए दान से उन उत्तम मुनियों के शरीर की स्थिति रहती है इसलिये ऐसे गृहस्थों का धर्म किसको प्रिय नहीं है अर्थात् सब ही उसको प्रिय मानते हैं।।१२।।

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आराध्यन्ते जिनेन्द्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिकैः प्रीतिरुच्चैः
पात्रेभ्यो दानमापन्निहतजनकृते तच्च कारुण्यबुद्धया
तत्त्वाभ्यासः स्वकीयव्रतरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यं
तद्गार्हस्थ्यं बुधानामितरदिह पुनर्दुःखदो मोहपाशः ॥13॥
जिनपूजा, गुरुसेवा-उपासना, साधर्मी में वत्सलभाव ।
पात्रदान अरु दीन-दु:खी, जीवों को होता करुणा-दान ॥
तत्त्वाभ्यास व्रतों में प्रीति, निर्मल हो सम्यग्दर्शन ।
बुधजन पूज्य गृहस्थाश्रम यह, किन्तु विपर्यय दु:ख-कारण ॥
अन्वयार्थ : तथा जिस गृहस्थाश्रम में जिनेन्द्र भगवान की पूजा उपासना की जाती है तथा निग्र्रन्थगुरुओं की भक्ति सेवा आदि की जाती है और जिस गृहस्थाश्रम में धर्मात्मापुरुषों का परस्पर में स्नेह से वर्ताव होता है तथा मुनि आदि उत्तमादिपात्रों को दान दिया जाता है तथा दु:खी दरिद्रियों को जिस गृहस्थाश्रम में करुणा से दान दिया जाता है और जहाँ पर निरन्तर जीवादि तत्व का अभ्यास होता रहता है तथा अपने-अपने व्रतों में प्रीति रहती है और जिस गृहस्थाश्रम में निर्मल सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है वह गृहस्थाश्रम विद्वानों के द्वारा पूजनीक होता है किन्तु उससे विपरीत इस संसार में केवल दु:ख का देने वाला है तथा मोह का जाल है।।१३।।

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आदौ दर्शनमुन्नतं व्रतमितः सामायिकं प्रोषध-
स्त्यागश्चैव सचित्तवस्तुनि दिवाभुक्तं तथा ब्रह्म च
नारभ्भो न परिग्रहोऽननुमतिर्नोद्रष्टमेकादश
स्थानानीति गृहिव्रते व्यसनितात्यागस्तदाद्यः स्मृतः ॥14॥
निर्मल सम्यग्दर्शन-व्रत, सामायिक अरु प्रोषधोपवास ।
सचित्त वस्तु का त्याग, दिवस में भोजन एवं ब्रह्म-विलास ॥
आरम्भ-परिग्रह-अनुमति त्याग, उद्देशिक भोजन का भी त्याग ।
ये ग्यारह स्थान ग्रहण के, पूर्व सप्त व्यसनों का त्याग ॥
अन्वयार्थ : सबसे पहले जीवादि पदार्थों में शंकादि दोष रहित श्रद्धानरूपसम्यग्दर्शन का जिसमें धारण होवे उसको दर्शन प्रतिमा कहते हैं तथा २. अहिंसादि पांच अणुव्रत तथा दिग्व्रतादि तीन गुणव्रत और देशावकाशिकादि चार शिक्षाव्रत इस प्रकार जिसमें बारहव्रत धारण किये जावे वह दूसरी व्रत प्रतिमा कहलाती है तथा ३. तीनों कालों में समता धारण करना सामायिक प्रतिमा है और ४. अष्टमी आदि चारों पर्वों में आरम्भ रहित उपवास करना चौथी प्रोषधप्रतिमा है तथा ५. जिस प्रतिमा में संचित वस्तुओं का भोग न किया जाय उसको सचितत्याग नामक पांचवीं प्रतिमा कहते हैं। तथा ६. जिस प्रतिमा के धारण करने से आजन्म स्वस्त्री तथा परस्त्री दोनों का त्याग करना पड़ता है वह ब्रह्मचर्य नामक सातवीं प्रतिमा है तथा ८. किसी प्रकार धनादि का उपार्जन न करना आरम्भत्यागनामक आठवीं प्रतिमा है और ९. जिस प्रतिमा के धारण करते समय धनधान्य दासीदासादि का त्याग किया जाता है वह नवमी परिग्रहत्याग नामक प्रतिमा है तथा १०. घर के कामों में और व्यापार में (ऐसा करना चाहिये, ऐसा नहीं करना चाहिये) इत्यादि अनुमति का न देना अनुमति त्याग नामक दशमीप्रतिमा है तथा ग्यारहवींप्रतिमा उसको कहते हैं कि जहां पर अपने उद्देश्य से भोजन न किया गया हो ऐसे गृहस्थों के घर में मौन सहित भिक्षापूर्वक आहार करना —इस प्रकार ये ग्यारह व्रत (प्रतिमा) श्रावकों के हैं, इन सब व्रतों में भी प्रथम सप्तव्यसनों का त्याग अवश्य कर देना चाहिये क्योंकि व्यसनों के बिना त्याग किये एक भी प्रतिमा धारण नहीं की जा सकती ||१४||

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यत्प्रोक्तं प्रतिमाभिराभिरभितो विस्तारिभिः सूरिभिः
ज्ञातव्यं तदुपासकाध्ययनतो गेहिव्रतं विस्तरात्
तत्रापि व्यसनोज्झनं यदि तदप्यासूत्र्यते ऽत्रैव यत्
तन्मूलः सकलः सतां व्रतविधिर्याति प्रतिष्ठां पराम् ॥15॥
आचार्यों ने प्रतिमादिक का, किया बहुत विस्तृत वर्णन ।
उपासकाध्ययनादि ग्रन्थों से, जानो श्रावक-व्रत-विवरण ॥
व्यसन-त्याग भी वहाँ कहा है, और यहाँ भी करें कथन ।
क्योंकि इसी से सत्पुरुषों की, व्रत-विधि प्राप्त करे सम्मान ॥
अन्वयार्थ : समन्तभद्र आदि बड़े—बड़े आचार्यों ने ग्यारह प्रतिमा तथा और भी गृहस्थों के व्रत अत्यन्त विस्तार के साथ अपने—२ ग्रन्थों में वर्णन किये हैं इसलिये उपासकाध्ययन से इनका स्वरूप विस्तार से जानना चाहिये और उन्हीं आचार्यों ने जूआ खेलना-१ मद्यपीना-२ मांस खाना-३ आदि सातों व्यसनों का भली भांति स्वरूप दिखाकर उनके त्याग की अच्छी तरह विधि बतलाई है तथा इस ग्रन्थ में भी उन सप्तव्यसनों के त्याग का वर्णन किया जायगा क्योंकि सप्तव्यसनों के त्याग से ही सज्जनों की व्रतविधि अत्यन्त प्रतिष्ठा को प्राप्त करती है बिना व्यसनों के त्याग के नहीं ||१५||

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द्यूतमांससुरावेश्याखेटचौर्यपराङ्गनाः
महापापानि सप्तेति व्यसनानि त्यजेद्बुधः ॥16॥
जुआ मांस मदिरा वेश्या, आखेट चौर्य परनारी संग ।
सप्त व्यसन ये महापाप हैं, इनका त्याग करें बुधजन ॥
अन्वयार्थ : —१. जूआ खेलना, २. मांस खाना, ३. मद्य पीना, ४. वेश्या के साथ उपभोग करना, ५. शिकार खेलना , ६. चोरी करना, ७. परस्त्री का सेवन करना— ये सात व्यसनों के नाम हैं तथा विद्वानों को इन व्यसनों का त्याग अवश्य करना चाहिये ||१६||
आचार्य सप्तव्यसनों से उत्पन्न हुई हानि तथा सप्तव्यसनों के स्वरूप को पृथक् —२ वर्णन करते हैं । प्रथम ही दो श्लोकों में द्यूतनामक व्यसन का निषेध करते हैं।

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भवनमिदमकीर्तेश्चौर्यवेश्यादिसर्व-
व्यसनपतिरशेषापन्निधिः पापबीजम्
विषमनरकमार्गेष्वग्रयायीति मत्वा
क इह विशदबुद्धिर्द्यूतमङ्गीकरोति ॥17॥
त्रिभुवन में अपयश का घर है, सब व्यसनों का स्वामी है ।
जो समस्त आपत्ति-निकेतन, सकल पाप-उत्पादक है ॥
नरकादिक दुर्गतियों में, ले जाने वाला यही अरे! ।
महा निकृष्ट द्यूत-क्रीड़ा को, कहो कौन बुध अपनाये? ॥
अन्वयार्थ : जो समस्त अपकीर्तिओं का घर है अर्थात् जिसके खेलने से संसार में अकीर्ति ही फैलती है तथा जो चोरी वेश्यागमन आदि बचे हुवे व्यसनो का स्वामी है (अर्थात् जिस प्रकार राजा के आधीन मंत्री आदि हुआ करते हैं उस ही प्रकार जूआ के आधीन समस्त बचे हुवे व्यसन हैं) और जो समस्त आपत्तियों का घर है तथा जिसके संबन्ध से निरंतर पाप की ही उत्पत्ति होती रहती है तथा जो समस्त नरकादिखोटी गतियों का मार्ग बतलाने वाला है ऐसे सर्वथा निकृष्ट जूआ नामक व्यसन को कौन बुद्धिमान अंगीकार कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ||१७||

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क्वाकीर्तिः क्व दरिद्रता क्व विपदः क्व क्रोधलोभादयः
चौर्यादिव्यसनं क्व च क्व नरके दुःखं मृतानां नृणाम् ।
चेतश्चेद्गुरुमोहतो न रमते द्यूते वदन्त्युन्नत-
प्रज्ञा यद्भुवि दुर्णयेषु निखिलेष्वेतद्धुरि स्मर्यते ॥18॥
मोह-शमन कर जुआ न खेलें, तो फिर अपयश नहिं होवे ।
कहाँ क्रोध-लोभादि विपत्ति, अन्य व्यसन भी कहाँ रहें? ॥
नरकादिक में नमन न होवे, क्योंकि सभी व्यसनों का मूल ।
जुआ व्यसन ही कहा अत: सब, बुधजन हों इससे प्रतिकूल ॥
अन्वयार्थ : इस जूआ के विषय में बड़े—२ गणधरादिकों का यह कथन है कि मोह के उदय में मनुष्य की जूआ में प्रवृत्ति होती है यदि मनुष्य के मोह के उपशम होने से जूआ में प्रवृत्ति न होवे तो कदापि संसार में इसकी अकीर्ति नहीं फैल सकती है और न यह दरिद्री ही बन सकता है तथा न इसको कोई प्रकार की विपत्ति घेर सकती है और इस मनुष्य के क्रोध लोभादि की भी उत्पत्ति कदापि नहीं हो सकती तथा चोरी आदि व्यसन भी इसका कुछ नहीं कर सकते और मरने पर यह नरकादि गतियों की वेदना का भी अनुभव नहीं कर सकता क्योंकि समस्तव्यसनों में जूआ ही मुख्य कहा गया है इसलिये सज्जनों को इस जूवे से अपनी प्रवृत्ति को अवश्य हटा लेना चाहिये ||१८|| आगे दो श्लोकों में मांस व्यसन का निषेध किया जाता है।

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बीभत्सु प्राणिघातोद्भवमशुचि कृमिस्थानमश्लाघ्यमूलं
हस्तेनाक्ष्णापि शक्यं यदिह न महतां स्प्रष्टुमालोकितुं च ।
तन्मांसं भक्ष्यमेतद्वचनमपि सतां गर्हितं यस्य साक्षात्
पापं तस्यात्र पुंसो भुवि भवति कियत्का गतिर्वा न विद्मः ॥19॥
तीव्र घृणा उत्पन्न करे वह, प्राणि-घात से जो उत्पन्न ।
कृमि-स्थान अरु महा अशुचिमय, निन्दनीय मानें सज्जन ॥
छूने योग्य न, देख सकें नहिं, मांस शब्द नहिं सुनने योग्य ।
भक्षण करने वाले की नहिं, जानें क्या गति होने योग्य? ॥
अन्वयार्थ : देखते ही जो मनुष्यों को प्रबल घृणा का उत्पन्न करने वाला है तथा जिसकी उत्पत्ति दीन प्राणियों के मारने पर होती है और जो अपवित्र है तथा नाना प्रकार के दृष्टिगोचर जीवों का जो स्थान है और जिसकी समस्त सज्जन पुरूष निन्दा करते हैं तथा जिसको इस संसार में सज्जनपुरूष न हाथ से ही छू सकते हैं और न आंख से ही देख सकते हैं और ‘‘मांस खाने योग्य होता है’’ यह वचन भी सज्जनों को प्रबल घृणा का उत्पन्न करने वाला है ऐसे सर्वथा अपावन मांस को साक्षात् खाता है आचार्य कहते हैं हम नहीं जान सकते उस मनुष्य के कितने पापों का संसार में संचय होता है! तथा उसकी कौन सी गति होती है ||१९||

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गतो ज्ञातिः कश्चिद्वहिरपि न यद्येति सहसा
शिरो हत्वा हत्वा कलुषितमना रोदिति जनः ।
परेषामुत्कृत्य प्रकटितमुखं खादति पलं
कले रे निर्विण्णा वयमिह भवच्चित्रचरितैः ॥20॥
कोई परिजन देशान्तर, जाकर यदि शीघ्र नहीं आएँ ।
तो अनिष्ट चिन्तवन करें, माथा कूट-कूट रोएँ ॥
किन्तु अन्य जीवों का मांस, भखे पर लेश न लज्जित हो ।
रे कलि! तेरे विविध चरित्रों, से यह चित्त विरक्त अहो! ॥
अन्वयार्थ : यदि कोई अपना भाई पिता पुत्र आदि दैवयोग से (मरना तो दूर रहे) बाहर भी चला जावे तथा वह जल्दी लौट कर न आवे तो मनुष्य शिरकूट—२ कर रोता है तथा नाना प्रकार के मन में बुरे भावों का चिंतवन करता है किन्तु अपने कुटुम्बियों से भिन्न दूसरे जीवों के मांस को उपाट—२ कर खाता है तथा लेशमात्र भी लज्जा नहीं करता इसलिये आचार्य कहते हैं कि अरे कलिकाल तेरे नानाप्रकार के चरित्रों से हम सर्वथा विरक्त हैं, अर्थात् तेरे चरित्रों का हमको पता नहीं लग सकता ||२०||

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सकलपुरुषधर्मभ्रंशकार्यत्रजन्मन्यधिकमधिकमग्रे यत्परे दु:खहेतु: ।
तदपि यदि न मद्यं त्यज्यते बुद्धिमद्भि: स्वहितमिहकिमन्यत्कर्म धर्माय कार्यम् ॥21॥
जनम-जनम दु:ख देने वाली, धर्म मूल से नष्ट करे ।
तो भी बुधिधर तजैं न मदिरा, अपना हित फिर कैसे करें? ॥
अन्वयार्थ : यह मदिरा इस जन्म में समस्त पीने वाले प्राणियों के धर्म को मूल से खोने वाली है तथा परलोक में अत्यन्त तीव्र नाना प्रकार के नरकों के दु:खों की देने वाली है ऐसा होने पर भी यदि विद्वान् मद पीना न छोड़ें तो समझ लेना चाहिये कि उन मनुष्यों के द्वारा अपने हितकारी धर्म के लिये कोई भी उत्कृष्ट कार्य नहीं बन सका क्योंकि व्यसनी कुछ भी उत्तम कार्य नहीं कर सकते ||२१||

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आस्तामेतद्यदिह जननीं वल्लभां मन्यमाना निन्द्याश्रेष्टा विदधति जना निस्त्रपा: पीतमद्या: ।
तत्राधिक्यं पथि निपतिपा यत्किरत्सारमेयाद्वक्त्रे मूत्रं मधुरमधुरं भाषमाणा: पिवन्ति ॥22॥
क्या आश्चर्य कि मदिरा पीकर, माता को पत्नी मानें ।
हो निर्लज्ज नरों में विविध, भाँति के खोटे कार्य करें ॥
किन्तु अधिक आश्चर्य कि जब वे, मारग में ही गिर जाते ।
कुत्ते मूतें मुख में पर वे, मधुर-मधुर कह पी जाते ॥
अन्वयार्थ : आचार्य कहते हैं कि मदिरा के पीने वाले मनुष्य यदि निर्लज्ज होकर अपनी माता को स्त्री मानें तथा उसके साथ नाना प्रकार की खोटी चेष्टा करें तो यह बात तो कुछ बात नहीं किन्तु सब से अधिक बात यह है कि मद्य के नशे में आकर जब मार्ग में गिर जाते हैं तथा जिस समय उनके मुख में कुत्ते मूतते हैं उसको मिष्ट—२ कहते हुवे तत्काल गटक जाते हैं।

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या: खादन्ति पलं पिवन्ति च सुरां जल्पन्ति मिथ्यावच: स्निह्यन्ति द्रविणार्थमेव विदधत्यर्थप्रतिष्ठाक्षतिम् ।
नीचानामपि दूरवक्रमनस: पापात्मिका: कुर्वते लालापानमहर्निशं न नरकं वेश्यां विहायापरम् ॥23॥
मद्य-मांस का सेवन करती, और झूठ ही कहें वचन ।
धन के लिए प्रेम दिखलाती, नष्ट करे जो यश अरु धन ॥
जो अत्यन्त पापिनी नीच-मनुष्यों की भी पीती लार ।
अरे! झूठ है इससे बढ़ कर, अन्य नरक इस लोक मँझार ॥
अन्वयार्थ : जो सदा मांस खाती हैं तथा जो निरन्तर मद्यपान करती हैं और जिनको झूठ बोलने में अंशमात्र भी संकोच नहीं होता तथा जिनका स्नेह विषयी मनुष्यों के साथ केवल धन के लिये है और जो द्रव्य तथा प्रतिष्ठा को मूल से उड़ाने वाली हैं अर्थात् वेश्या के साथ संयोग करने से धन तथा प्रतिष्ठा दोनों किनारा कर जाते हैं तथा जिनके चित्त में सदा छल कपट दगाबाजी ही रहती है और अत्यन्त पापिनी हैं तथा जो धन के लाभ से अत्यन्त नीचधीवर चमार चाण्डाल आदि की लार का भी निरन्तर पान करती हैं ऐसी वेश्याओं से दूसरा नरक संसार में है । यह बात सर्वथा झूठ है। भावार्थ—वेश्या ही नरक है ||२३||

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रजकशिलासदृशीभि: कुक्कुरकर्परसमानचरिताभि: ।
गणिकाभिर्यदि सङ्ग: कृतमिह परलोकवार्ताभि: ॥24॥
धोबी की शिला-सदृश जो, श्वान हेतु कंकाल अहो! ।
वेश्या संग रमने वाले के, नष्ट हुए हैं दोनों लोक ॥
अन्वयार्थ : जो वेश्या धोबी की कपड़े पछीटने की शिला के समान है अर्थात् जिसप्रकार शिला पर समस्त प्रकार के कपड़े लाकर पछीटे जाते हैं उसही प्रकार इस वेश्या के साथ भी समस्त निकृष्ट से निकृष्ट जाति के मनुष्य आकर रमण करते हैं अथवा दूसरा इसका आशय यह भी है कि जिस प्रकार शिला पर समस्त प्रकार के कपड़ों के मैल का संचय होता है उस ही प्रकार वेश्यारूपी शिला पर भी नाना जातियों के मनुष्य के वीर्यरूपी मैल का समूह इकट्ठा होता है तथा जो वैश्या कुलाओं के लिए कपाल के समान है अर्थात् जिस प्रकार मरे हुये मनुष्य के कपाल पर लड़ते लड़ाते नाना प्रकार के कुत्ते इकट्ठे होते हैं उस ही प्रकार इस वेश्या पर भी नाना जातियों के मनुष्य आकर टूटते हैं तथा नाना प्रकार के परस्पर में कलह करते हैं इसलिये ऐसी निकृष्ट वेश्याओं के साथ यदि कोई पुरूष संबन्ध करे तो समझ लेना चाहिये कि उसका परलोक उत्तम हो चुका।

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यादुर्देहैकवित्ता वनमधिवसति त्रातृसंबन्धहीना भीतिर्यस्या: स्वभावाद्दशनधृततृणा नापराधं करोति ।
वध्यालं सापि यस्मिन्ननुमृगवनितामांसपिण्डस्यलोभादाखेटेऽस्मिन् रतानामिहकिमुनकिमन्यत्रनो यद्विरूपम् ॥25॥
देह मात्र ही धन है वन में, वसती रक्षक नहिं कोई ।
तृण-भक्षी भयभीत स्वभावी, नहिं अपराध करे कोई ॥
मांस-पिण्ड के लोभी तथा, शिकारी उसका घात करें ।
रोग-शोक इस भव में हो अरु, नरकादिक में दु:ख भोगें ॥
अन्वयार्थ : जिस बिचारीमृगी के सिवाय देह के दूसरा कोई धन नहीं है तथा जो सदा वन में ही भ्रमण करती रहती है और जिसका कोई भी रक्षा करने वाला नहीं है तथा जिसको स्वभाव से ही भय लगता है तथा जो केवल तृण की ही खाने वाली है और किसी का जो लेशमात्र भी अपराध नहीं करती ऐसी भी दीन मृगी को केवल मांस टुकड़े के लोभी तथा शिकार के प्रेमी, जो दुष्टपुरूष बिना कारण मारते हैं उनको इस लोक में तथा परलोक में नाना प्रकार के विरूद्ध कार्यों का सामना करना पड़ता है अर्थात् इस लोक में तों वे दुष्ट पुरूष रोग शोक आदि दु:खों का अनुभव करते हैं तथा परलोक में उनको नरक जाना पड़ता है।।२५।।

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तनुरपि यदि लग्ना कीटिका स्याच्छरीरे भवति तरलचक्षुव्र्याकुलो य: स लोक: ।
कथमिह मृगयाप्तानन्दमुत्खातशस्त्रो मृगमकृतविकारं ज्ञातदु:खोऽपि हन्ति ॥26॥
तन में किञ्चित् कीड़ा काटे, आँसू आवें व्याकुल हो ।
दु:ख जाने पर खुश होकर, पशुघात करें तो अचरज हो ॥
अन्वयार्थ : आचार्य महाराज कहते हैं कि जो मनुष्य शरीर से किसी प्रकार कीड़ी आदि के संबन्ध हो जाने से ही अधीर होकर जहां तहां देखने लग जाता है (अर्थात् उसको वह चिंउटी आदि का संबन्ध ही पीड़ा का पैदा करने वाला हो जाता है) तथा जो दु:ख का भली भांति जानने वाला है वह मनुष्य भी शिकार में आनन्द मानकर निरपराध दीनमृग को हथियार उठाकर मारता है? यह बड़ा आश्चर्य है।

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यो येनैव हत: स हन्ति बहुशो हन्त्येव यैर्वञ्चियतो नूनं वञ्चयते स तानपि भृशं जन्मान्तरेऽप्यत्र च।
स्त्रीवालादिजनादपि स्फुटमिदं शास्त्रादपि श्रूयते नित्यं वञ्चनहिंसनोज्झनविधौ लोका: कुतो मुह्यते ॥27॥
जो जिसको मारे वह उससे, मारा जाता बारम्बार ।
जो जिसको ठगता उससे ही, ठगा जाए वह बारम्बार ॥
शास्त्रों से यह बात जानते, किन्तु बड़ा आश्चर्य अरे! ।
मूढ़ जगत् यह अन्यजनों को, सदा ठगे या प्राण हरे ॥
अन्वयार्थ : स्त्री बालक आदि से तथा शास्त्र से जब यह बात भलीभांति मालूम है कि जो प्राणी इस जन्म में एक बार भी दूसरे प्राणी को मारता है वह दूसरे जन्म में उस मरे हुवे प्राणी से अनन्त बार मारा जाता है तथाा जो मनुष्य इस जन्म में एक बार भी दूसरे प्राणी को ठगता है वह दूसरे जन्म में अनन्तबार उसी पूर्वभव में ठगे हुवे प्राणी से ठगाया जाता है फिर भी हे लोक तू दूसरे के ठगने में तथा मारने में छोड़ने में रात-दिन लगा रहता है यह बड़े आश्चर्य की बात है इसलिए भव्य जीवों को चाहिये कि वे ऐसे अनर्थक करने वाले दूसरे के मारने ठगने में अपने चित्तको न लगावे।।२७।।

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अर्थादौ प्रचुरप्रपञ्चरनैर्ये वञ्चयन्ते परान्नूनं ते नरकं व्रजन्ति पुरत: पापिव्रजादन्यत: ।
प्राणा: प्राणिषु तन्निवन्धनतया तिष्ठन्ति नष्टे धने यावान् दु:खभरो नरे न मरणे तावानिह प्रायश: ॥28॥
जो नर छल-प्रपंच आदि से, सदा दूसरों को ठगते ।
अन्य पापियों से भी पहले, वे ही नरकों में जाते ॥
प्राणों में धन-प्राण मुख्य है, वही नष्ट जब हो जाता ।
अरे! मृत्यु के दु:ख से ज्यादा, दु:ख धन जाने पर होता ॥
अन्वयार्थ : जो दुष्टमनुष्य नाना प्रकार के छल कपट दगाबाजी से दूसरे मनुष्यों को धन आदि के लिये ठगते हैं उनको दूसरे पापीजनों से पहिले ही नरक जाना पड़ता है क्योंकि (धनं वै प्राणा:) इस नीति के अनुसार मनुष्यों के धन ही प्राण हैं, यदि किसी रीति से उनका धन नष्ट हो जावे तो उनको इतना प्रबल दु:ख होता है कि जितना उनको मरते समय भी नहीं होता इसलिये प्राणियों को चाहिये कि वे प्राणस्वरूप दूसरे के धन को कदापि हरण न करे तथा न हरण करने का प्रयत्न ही करे।।२८।। परस्त्री सेवन में क्या—२ हानि है इस बात को आचार्य दो श्लोकों में दिखाते हैं।

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चिन्ताव्याकुलताभयारतिमतिभ्रंशोऽतिदाहभ्रमक्षुत्तृष्णाहतिरोगदु:खमरणान्येतान्यहो आसताम् ।
यान्यत्रैव पराङ्गनाहतमतेस्तद्भूरिदु:खं चिरं श्वभ्रे भावि यदग्निदीपितपुर्लोहाङ्गनालिङ्गनात् ॥29॥
चिन्ता व्याकुलता भय एवं, बुद्धि-भ्रष्ट भ्रम देहाताप ।
क्षुधा-तृषा अरु जन्म-मरण, रोगादि दु:ख देते बहु ताप ॥
इससे अधिक दु:ख चिर भोगे, जो करता परनारी-संग ।
नरकों में फिर वह करता है, तप्त लौह-वपु आलिंगन ॥
अन्वयार्थ : जो मनुष्य परस्त्री के सेवन करने वाले हैं उनको इसी लोक में जो चिंता, व्याकुलता, भय, द्वेष, बुद्धि का भ्रष्टपना, शरीर का दाह, भूख, प्यास,रोग, जन्ममरण आदिक दु:ख होते हैं। वे कोई अधिक दु:ख नहीं किन्तु जिस समय उन परस्त्रीसेवी मनुष्यों को नरक मेंं जाना पड़ता है तथा वहां पर जब उनको परस्त्री की जगह लोह की पुतली से आलिंगन करना पड़ता है उस समय उनको अधिक दु:ख होता है।

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धिक्तं पौरूषमासतामनुचितास्ताबुद्धयस्तेगुणा माभून्मित्रसहायसम्पदपि सा तज्जन्म यातु क्षयम् ।
लोकानामिह येषु सत्सु भवति व्यामोहमुद्रांकितं स्वेप्नेऽपि स्थितिलङ्घनात्परधनस्त्रीषु प्रसक्तं मन: ॥30॥
मोही होकर जो प्राणी, करते मर्यादा उल्लंघन ।
स्वप्न मात्र भी पर-नारी, परधन में रमता जिनका मन ॥
दूर रहे ऐसी कुबुद्धि अरु, उस पौरुष को है धिक्कार ।
ऐसे गुण-सम्पत्ति नहिं होवे, नहीं मित्रजन का सहकार ॥
अन्वयार्थ : जिन पौरूष आदि के होते सन्ते अपनी स्थिति को उल्लंघन कर मोह से स्वप्न में भी परस्त्री तथा पर धन में मनुष्यों का मन आसक्त हो जावे ऐसे उस पौरूष के लिये धिक्कार हो तथा वह अनुचित बुद्धि भी दूर रहो तथा वे गुण भी नहीं चाहिये और ऐसी मित्रों की सहायता तथा संपत्ति की भी आवश्यकता नहीं।

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द्यूताद्धर्मसुत: पलादिह बको मद्याद्यदोर्नन्दनाश्चारु: कामुकया मृगान्तकतया स ब्रह्मदत्तो नृप: ।
चौर्यत्वांच्छिवभूतिरन्यवनितादोषाद्दशास्यो हठादेकैकव्यसनोद्धता इति जना: सर्वैर्नं को नश्यति ॥31॥
जुआ मांस अरु मद्य-पान से, धर्मराज बक यदुनन्दन ।
मृग-क्रीड़ा से ब्रह्मदत्त नृप, चारुदत्त वेश्या-सेवन ॥
चोरी से शिवभूति पुरोहित, पर-नारी से रावण नष्ट ।
एक व्यसन-सेवन से होते, सब से नहीं कौन-सा कष्ट? ॥
अन्वयार्थ : जूआ से तो युधिष्ठिरनामक राजा राज्य से भ्रष्ट हुए तथा उनको नाना प्रकार के दु:ख उठाने पड़े तथा मांस भक्षण से वक नाम का राजा राज्य से भ्रष्ट हुआ तथा अंत में नरक गया और मद्य पीने से यदुवंशी राजा के पुत्र नष्ट हुवे तथा वेश्याव्यसन के सेवन से चारूदत्त सेठि दरिद्रावस्था को प्राप्त हुवे तथा और भी नाना प्रकार के दु;खों का उनको सामना करना पड़ा और शिकार की लोलुपता से ब्रह्मदत्त नाम का राजा राज्य से भ्रष्ट हुवा तथा उसे नरक जाना पड़ा। तथा चोरी व्यसन से सत्यघोषनामक पुरोहित गोबर खाना सर्वधनहरण हो जाना आदि नाना प्रकार के दु:खों को सहनकर अंत में मल्ल की मुष्टि से मरकर नरक को गया। तथा परस्त्री सेवन से रावण को अनेक दु:ख भोगने पड़े तथा मरकर नरक गया आचार्य कहते हैं कि एक—२ व्यसन के सेवन से जब इन मनुष्यों की ऐसी बुरी दशा हुई तथा ये नष्ट हुवे तब जो मनुष्य सातों व्यसनों का सेवन करने वाला है वह क्यों नहीं नष्ट होगा ? इसलिये भव्यजीवों को चाहिये कि वे किसी भी व्यसन के फन्दे में न पड़े।।३१।।

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(आर्या)
नपरमियन्ति भवन्ति व्यसनान्यपराण्यपि प्रभूतानि ।
त्यक्तवा सत्पथमपथप्रवृत्तय: क्षुद्रबुद्धीनाम् ॥32॥
क्षुद्र-बुद्धि से श्रेष्ठ मार्ग को, तज कुमार्ग में करें गमन ।
यह प्रवृत्ति भी व्यसन जानिये, मात्र नहीं हैं सप्त व्यसन ॥
अन्वयार्थ : आचार्य महाराज और भी उपदेश देते हैं कि जिन व्यसनों का ऊपर कथन किया गया है वे ही व्यसन हैं ऐसा नहीं समझना चाहिये किन्तु और भी व्यसन हैं वे यही हैं अल्पबुद्धी मिथ्यादृष्टियों की श्रेष्ठ मार्ग को छोड़कर निकृष्ट मार्ग में प्रवृत्ति हो जाना इसलिये जीवों को चाहिये कि वे व्यसनों की रक्षा के लिये निकृष्ट मार्गों में प्रवृत्ति न करें।।३२।।

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(शार्दूलविक्रीडित)
सर्वाणि व्यसनानि दुर्गतिपथाः स्वर्गापवर्गार्गलाः
वज्राणि व्रतपर्वतेषु विषमाः संसारिणां शत्रवः ।
प्रारम्भे मधुरेषु पाककटुकेष्वेतेषु सद्धीधनैः
कर्तव्या न मतिर्मनागपि हितं वाञ्छद्भिरत्रात्मनः ॥33॥
सभी व्यसन हैं दुर्गति पथ, अरु स्वर्ग-मोक्ष के अवरोधक ।
परम शत्रु हैं सब प्राणी के, महावज्र हैं व्रत-पर्वत ॥
पहले तो ये मधुर लगें पर, महाकटुक है इनका अन्त ।
अत: न किञ्चित् सेवें इनको, आत्म-हितैषी सत् धीमन्त ॥
अन्वयार्थ : जिन मनुष्यों की बुद्धि निर्मल है तथा जो अपनी आत्मा का हित चाहते हैं उनको कदापि व्यसनों की ओर नहीं झुकना चाहिये क्योंकि ये समस्तव्यसन दुर्गति को ले जाने वाले हैं तथा स्वर्ग मोक्ष के प्रतिबंधक हैं और समस्तव्रतों के नाश करने वाले हैं तथा प्राणियों के ये परम शत्रु हैं तथा प्रारंभ में मधुर होने पर भी अंत में कटुक है इसलिये इनसे स्वप्न में भी हित की आशा नहीं होती।।३३।।

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(वसंततिलका)
मिथ्याद्रशां विसद्रशां च पथच्युतानां
मायाविनां व्यसनिनां च खलात्मनां च ।
संगं विमुञ्चत बुधाः कुरुतोत्तमानां
गन्तुं मतिर्यदि समुन्नतमार्ग एव ॥34॥
श्रेष्ठ मार्ग पर चलना हो तो, करो श्रेष्ठ पुरुषों का संग ।
मिथ्यादृष्टि मार्गभ्रष्ट, व्यसनी दुष्टों का तजो कुसंग ॥
अन्वयार्थ : हे भव्यजीवो यदि तुम उत्तममार्ग में जाने के लिये चाहते हो तो तुम कदापि मिथ्यादृष्टि विपरीत बुद्धि मार्गभ्रष्ट छली व्यसनी दुष्टजीवों के साथ संबंध मत करो यदि तुमको संबंध ही करना है तो उत्तम मनुष्यों के साथ ही संबंध करो।

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(वसंततिलका)
स्निग्धैरपि व्रजत मा सह संगमेभिः
क्षुद्रैः कदाचिदपि पश्यत सर्षपाणाम् ।
स्नेहो ऽपि संगतिकृतः खलताश्रितानां
लोकस्य पातयति निश्चितमश्रु नेत्रात् ॥35॥
मृदुभाषी हो तो भी दुष्टों से न कभी रखना सम्बन्ध ।
सरसों तेल लगे किञ्चित् भी, तो नहिं होते आँसू बन्द ॥

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(शिखरिणी)
कलावेकः साधुर्भवति कथमप्यत्र भुवने
स चाघ्रातः क्षुद्रैः कथमकरुणैर्जीवति चिरम् ।
अतिग्रीष्मे शुष्यत्सरसि विचरच्चञ्चुचरतां
बकोटानामाग्रे तरलशफ री गच्छति कियत् ॥36॥
कलिकाल में इस दुनिया में, कहीं कोई साधु होता ।
वह भी दुष्टों के आघातों से, चिरजीवी नहिं होता ॥
ग्रीष्म ऋतु में सूखे सर में, चोंच हिलाते बगुलों से ।
चञ्चल मछली कहाँ जाए वह, कैसे बच सकती उनसे? ॥

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(मालिनी)
इह वरमनुभूतं भूरि दारिद्य्रदुःखं
वरमतिविकराले कालवक्त्रे प्रवेशः ।
भवतु वरमितो ऽपि क्लेशजालं विशालं
न च खलजनयोगाज्जीवितं वा धनं वा ॥37॥
निर्धनता या मर जाने का, दु:ख भोगना श्रेष्ठ अरे! ।
अन्य क्लेश भी उत्तम पर, नहिं दुष्ट-संग धन या जीवन ॥

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(शार्दूलविक्रीडित)
आचारो दशधर्मसंयमतपोमूलोत्तराख्या गुणाः
मिथ्यामोहमदोज्झनं शमदमध्यानाप्रमादस्थितिः ।
वैराग्यं समयोपबृंमहणगुणा रत्नत्रयं निर्मलं
पर्यन्ते च समाधिरक्षयपदानन्दाय धर्मो यतेः ॥38॥
पंचाचार धर्म दश संयम तप अरु मूलोत्तर-गुणखान ।
मिथ्या मोह तथा मद त्यागी, शम-दम-अप्रमाद अरु ध्यान ॥
निर्मल रत्नत्रय वैराग्य, तथा शासन-वर्धक गुणवान ।
मरण-समाधि सुशोभित मुनिधर्म, अक्षय आनन्ददायक जान ॥

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(शार्दूलविक्रीडित)
स्वं शुद्धं प्रविहाय चिद्गुणमयं भ्रान्त्याणुमात्रेऽपि यत्
संबन्धाय मतिः परे भवति तद्बन्धाय मूढात्मनः ।
तस्मात्त्याज्यमशेषमेव महतामेतच्छरीरादिकं
तत्कालादिविनादियुक्ति त इदं तत्त्यागकर्म व्रतम् ॥39॥
शुद्ध चिदानन्दमय स्वरूप तज, अणुमात्र पर में निज-भ्रान्ति ।
मूढ़जनों की इस कुबुद्धि से, होता मात्र कर्म का बन्ध ॥
इसीलिए देहादि समस्त पदार्थों में ममता है त्याज्य ।
आयुकर्म वश देह रहे तो भी, मुनि होना तन का त्याग ॥

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(शार्दूलविक्रीडित)
मुक्त्वा मूलगुणान् यतेर्विदधतः शेषेषु यत्नं परं
दण्डो मूलहरो भवत्यविरतं पूजादिकं वाञ्छतः ।
एकं प्राप्तमरेः प्रहारमतुलं हित्वा शिरच्छेदकं
रक्षत्यङ्गुलिकोटिखण्डनकरं को ऽन्यो रणे बुद्धिमान् ॥40॥
मूलगुणों को छोड़ यत्न करता उत्तरगुण-पालन में ।
पूजादिक वाञ्छक को देते, दण्ड मूलगुण-छेदन में ॥
कौन सुधी रण में शिर-छेदक, के प्रहार से नहीं बचे? ।
अंगुलि-छेदक अल्पप्रहार से, रक्षा करना वह चाहे? ॥

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(शार्दूलविक्रीडित)
म्लाने क्षालनतः कुतः कृतजलाद्यारम्भतः संयमो
नष्टे व्याकुलचित्तताथ महतामप्यन्यतः प्रार्थनम् ।
कौपीनेऽपि हृते परैश्च झटिति क्रोधः समुत्पद्यते
तन्नित्यं शुचि रागहृत् शमवतां वस्त्रं ककुम्मण्डलम् ॥41॥
वस्त्र मलिन होने पर करना, पड़े जलादिक का आरम्भ ।
फटने पर आकुलता हो, मांगे तो नष्ट अयाचक गुण ॥
यदि कोई ले जाए लँगोटी, तो क्रोधित होवे तत्काल ।
अत: पवित्र राग-वर्जक, दिक्-मण्डल ही है उत्तम वस्त्र ॥

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(शार्दूलविक्रीडित)
काकिन्या अपि संग्रहो न विहितः क्षौरं यया कार्यते
चित्तक्षेपकृदस्त्रमात्रमपि वा तत्सिद्धये नाश्रितम् ।
हिंसाहेतुरहो जटाद्यपि तथा यूकाभिरप्रार्थनैः
वैराग्यादिविवर्धनाय यतिभिः केशेषु लोचः कृतः ॥42॥
कौड़ी का भी नहीं परिग्रह, अत: कटा सकते नहिं केश ।
कैंची आदि शस्त्र न रखते, क्योंकि उपजता चित में क्लेश ॥
जटा रखें तो हिंसा होती, अत: अयाचक-वृत्ति रखें ।
वैराग्यादि बढ़ाने हेतु, यति स्वयं कचलोंच करें ॥

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(शार्दूलविक्रीडित)
यावन्मे स्थितिभोजनेऽस्ति द्रढता पाण्योश्च संयोजने
भुञ्जे तावदहं रहाम्यथ विधावेषा प्रतिज्ञा यतेः ।
काये ऽप्यस्पृहचेतसो ऽन्त्यविधिषु प्रोल्लासिनः सन्मतेः
न ह्येतेन दिवि स्थितिर्न नरके संपद्यते तद्विना ॥43॥
जब तक तन में खड़े-खड़े, आहार-ग्रहण की शक्ति रहे ।
तब तक भोजन करें अन्यथा नहीं, प्रतिज्ञा यति करें ॥
तन ममत्व तज जो समाधि-विधि में अति उत्साहित होते ।
वे यति जाते स्वर्ग अन्यथा, नरकों में स्थिति करते ॥

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(शार्दूलविक्रीडित)
एकस्यापि ममत्वमात्मवपुषः स्यात्संसृतेः कारणं
का बाह्यार्थकथा प्रथीयसि तपस्याराध्यमानेऽपि च ।
तद्वास्यां हरिचन्दनेऽपि च समः संश्लिष्टतोऽप्यङ्गतो
भिन्नं स्वं स्वयमेकमात्मनि धृतं पश्यत्यजस्रं मुनिः ॥44॥

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(शिखरिणी)
तृणं वा रत्नं वा रिपुरथ परं मित्रमथवा
सुखं वा दुःखं वा पितृवनमहो सौधमथवा ।
स्तुतिर्वा निन्दा वा मरणमथवा जीवितमथ
स्फु टं निर्ग्रंथानां द्वयमपि समं शान्तमनसाम् ॥45॥

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