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Date : 03-Nov-2022
Index
!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!
श्रीमद्-भगवत्कुंदकुंदाचार्य-देव-प्रणीत
श्री
रयणसार
मूल संस्कृत गाथा
आभार :
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!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥
॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीरयणसार नामधेयं, अस्य मूलाग्रन्थकर्तार: श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तार: श्रीगणधरदेवा: प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य श्रीमद्-भगवत्कुंदकुंदाचार्य विरचितं, श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ॥जो न्यूनता विपरीतता अर अधिकता से रहित है ।
सन्देह से भी रहित है स्पष्टता से सहित है ॥
जो वस्तु जैसी उसे वैसी जानता जो ज्ञान है ।
जाने जिनागम वे कहें वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ॥र.क.श्रा.-42॥
मुक्तिमग के मग तथा जो ललित में भी ललित हैं ।
जो भविजनों के कर्ण-अमृत और अनुपम शुद्ध हैं ॥
भविविजन के उग्र दावानल शमन को नीर हैं ।
मैं नमूँ उन जिनवचन को जो योगिजन के वंद्य हैं ॥नि.सा.-क.१५॥
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णमिदूण वड्ढमाणं, परमप्पाणं जिणं तिसुद्धेण ।
वोच्छामि रयणसारं, सायारणयारधम्मीणं ॥1॥
नत्वा वर्धमानं परमात्मानं जिनं त्रिशुद्ध्या ।
वक्ष्ये रत्नसारं सागार-अनगारधर्मिणाम्॥
अन्वयार्थ : मन-वचन-काय की त्रिशुद्धि के साथ परमात्मा जिन वर्धमान स्वामी को नमन करके सागार व अनगार धर्म वालों के लिए रयणसार ग्रन्थ का कथन कर रहा हूँ ॥1॥
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पुव्वं जिणेहि भणिदं, जहठ्ठिदं गणहरमहि वित्थरिदं ।
पुव्वाइरियक्कमजं तं बोल्लदि जो हु सद्दिठ्ठी ॥2॥
पूर्वं जिनै: भणितं यथास्थितं गणधरै: विस्तरितम् ।
पूर्वाचार्यक्रमजं तत् कथयति य: खलु सद्दृष्टि:॥
अन्वयार्थ : जो सम्यग्दृष्टि होता है, वह, पूर्व में जिनेन्द्र द्वारा कथित, गणधरों द्वारा विस्तार से ग्रथित तथा पूर्वाचार्यों की क्रमिक परम्परा से जो प्राप्त है, उसका कथन करता है ॥2॥
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मदिसुदणाणबलेण दु सच्छंदं बोल्लदे जिणुद्दिठ्ठं ।
जो सो होदि कुदिठ्ठी, ण होदि जिणमग्गलग्गरवो॥3॥
मतिश्रुतज्ञानबलेन तु स्वच्छंदं कथयति जिनोद्दिष्टम् ।
य: स भवति कुदृष्टि: न भवति जिनमार्गलग्नरव:॥
अन्वयार्थ : जो व्यक्ति मतिज्ञान व श्रुतज्ञान के बल से जिन उपदेश का स्वच्छन्दव्या कथन करता है, वह कुदृष्टि होता है, उसका कथन जिन-मार्ग पर आरूढ़ व्यक्ति का वचन नहीं होता ॥3॥
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सम्मत्तरयणसारं मोक्खमहारुक्खमूलमिदि भणिदं ।
तं जाणिज्जदि णिच्छय-ववहारसरूव-दोभेयं ॥4॥
सम्यक्त्वरत्नसारं मोक्षमहावृक्षमूलम् इति भणितम् ।
तद् ज्ञायते निश्चय-व्यवहारस्वरूपद्विभेदम्॥
अन्वयार्थ : सम्यक्त्व-रत्न सार है और मोक्ष रूपी महान् वृक्ष का मूल है । ऐसा कहा गया है । उसे निश्चय व व्यवहार रूप से दो भेदों वाला जानना चाहिए ॥4॥
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भयवसणमलविवज्ज्दि-संसारसरीरभोगणिव्विण्णो ।
अठ्ठगुणंगसमग्गो, दंसणसुद्धो हु पंचगुरुभत्तो ॥5॥
भयव्यसनमलविवर्जित-संसारशरीरभोगनिर्विण्ण: ।
अष्टगुणाङ्गसमग्र: दर्शनशुद्ध: खलु पञ्चगुरुभक्त:॥
अन्वयार्थ : सम्यग्दर्शन से शुद्ध जीव ही भयों, व्यसनों, मलों से रहित होता है, संसार, शरीर व भोगों से विरक्त होता है, आठ गुणों से परिपूर्ण तथा पाँच गुरुओं का भक्त होता है ॥5॥
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णियसुद्धप्पणुरत्तो, बहिरप्पावत्थवज्ज्दिो णाणी ।
जिण-मुणि-धम्मं मण्णदि, गददुक्खो होदि सद्दिठ्ठी ॥6॥
निजशुद्धात्मानुरक्त:, बहिरात्मावस्थावर्जित: ज्ञानी ।
जिन-मुनि-धर्मं मन्यते गतदु:खो भवति सद्दृष्टि:॥
अन्वयार्थ : सम्यग्दृष्टि निज शुद्धात्मा में अनुरक्त रहता है, बहिरात्मा की दशा से रहित होता है, आत्मज्ञानी होता है, जिनेन्द्र, मुनि और धर्म को मानता है और दु:खरहित होता है ॥6॥
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मयमूढमणायदणं संकादिवसणभयमदीयारं ।
जेसिं चउवालीसे ण संति ते होंति सद्दिठ्ठी ॥7॥
मदमूढमनायतनं शङ्कादिव्यसनभयमतीचारम् ।
येषां चतुश्चत्वारिंशत् न सन्ति ते भवन्ति सद्दृष्टय:॥
अन्वयार्थ : जिनके मद, मूढ़ताएँ, अनायतन, शंका आदि दोष, व्यसन, भय, अतीचार । ये चौवालीस दोषनहीं होते, वे सद्दृष्टि होते हैं ॥7॥
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उहयगुणवसणभयमलवेरग्गादीयारभत्तिऽविग्घं वा ।
एदे सत्तत्तरिया, दंसणसावयगुणा भणिदा ॥8॥
उभयगुण-व्यसनभय-मल-वैराग्यातिचार-भक्तिअविघ्नानि वा ।
एते सप्तसप्तति: दर्शनश्रावक-गुणा: भणिता:॥
अन्वयार्थ : उभयगुण , व्यसनोंका अभाव, भयों का अभाव मलों का अभाव, वैराग्य भावनाएँ, अतीचारों का अभाव, एवं निर्विघ्न भक्ति-भावना । ये दार्शनिकश्रावक के सतहत्तर गुण कहे गये हैं ॥8॥
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देवगुरुसमयभत्ता, संसारसरीरभोगपरिचत्ता ।
रयणत्तयसंजुत्ता, ते मणुया सिवसुखं पत्ता ॥9॥
देवगुरुसमयभक्ता: परित्यक्तसंसारशरीरभोगा: ।
रत्नत्रयसंयुक्ता: ते मनुजा: शिवसुखं प्राप्ता:॥
अन्वयार्थ : देव, गुरु व शास्त्र के भक्त, संसार, शरीर व भोग के त्यागी, औररत्नत्रय से सम्पन्न वे मनुष्य शिव-सुख को प्राप्त करते हैं ॥9॥
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दाणं पूया सीलं, उववासं बहुविहंपि खवणं पि ।
सम्मजुदं मोक्खसुहं, सम्म विणा दीहसंसारं ॥10॥
दानं पूजा शीलम्, उपवास: बहुविधमपि क्षपणमपि ।
सम्यक्त्वयुतं मोक्षसुखं सम्यक्त्वं विना दीर्घसंसार:॥
अन्वयार्थ : सम्यक्त्व-युक्त दान, पूजा, शील, , उपवासव अनेक प्रकार के कर्मक्षय की क्रियाएँ मोक्ष-सुख हैं । किन्तु सम्यक्त्व के बिना दीर्घ संसार है ॥10॥
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दाणं पूया मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा ।
झाणज्झयणं मुक्खं जदिधम्मे तं विणा तहा सोवि ॥11॥
दानं पूजा मुख्यं श्रावकधर्मे न श्रावका: तेन विना ।
ध्यानाध्ययनं मुख्यं यतिधर्मे तद् विना तथा सोऽपि॥
अन्वयार्थ : श्रावक-धर्म में दान व पूजा । ये मुख्य हैं, इसके बिना वेश्रावक नहीं हैं । मुनि-धर्म में ध्यान व अध्ययन मुख्य हैं औरइनके बिना वह भी वैसा ही है ॥11॥
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दाण ण धम्म ण चाग ण, भोग ण बहिरप्प जो पयंगो सो ।
लोहकसायग्गिमुहे पडिदो मरिदो ण संदेहो ॥12॥
दानं न धर्म: न त्याग: न, भोगो न बहिरात्मा य: पतङ्ग: स: ।
लोभकषायाग्निमुखे पतित: मृतो न सन्देह:॥
अन्वयार्थ : जो दान नहीं करता, धर्म नहीं करता, त्याग भी नहीं करता और भोगभी नहीं करता, ऐसा बहिरात्मा पतंगा होता है । वह नि:सन्देहलोभ कषाय की आग में गिरकर मृत्यु को प्राप्त होता है ॥12॥
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जिणपूया मुणिदाणं करमदि जो देदि सत्तिरूवेण ।
सम्मादिठ्ठी सावयधम्मी सो मोक्खमग्गरओ ॥13॥
जिनपूजां मुनिदानं करोति यो ददाति शक्तिरूपेण ।
सम्यग्दृष्टि: श्रावकधर्मी स मोक्षमार्गरत:॥
अन्वयार्थ : जो यथाशक्ति जिनपूजा करता है और मुनियों को दानदेता है, वह श्रावक-धर्म का पालन करनेवाला मोक्षमार्ग में रत या स्थित सम्यग्दृष्टि होता है ॥13॥
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पूयफलेण तिलोक्के सुरपुज्जे हवदि सुद्धमणो ।
दाणफलेण तिलोए सारसुहं भुंजदे णियदं ॥14॥
पूजाफलेन त्रैलोक्ये सुरपूज्यो भवति शुद्धमना: ।
दानफलेन त्रिलोके सारसुखं भुंक्ते नियतम्॥
अन्वयार्थ : शुद्ध मन वाला पूजा के फल से त्रैलोक्य मेंदेवों का पूज्य हो जाता है । दान के फल से तीनों लोकों के उत्तम सुख को निश्चित रूपसे भोगता है ॥14॥
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दाणं भोयणमेत्ते दिण्णदि धण्णो हवेदि सायारो ।
पत्तापत्तविसेसं सद्दंसणे किं वियारमण ॥15॥
दानं भोजनमात्रं ददाति (दीयते), धन्यो भवति सागार: ।
पात्रापात्रविशेषं सद्दर्शने किं विचारमण॥
अन्वयार्थ : जो भोजन मात्र दान देता है या उसके द्वारा दिया जाता है, इतने सेसागार धन्य हो जाता है । प्रशस्त दर्शन को देखकर पात्र वअपात्र का विचार क्या करना? ॥15॥
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दिण्णदि सुपत्तदाणं विसेसदो होदि भोगसग्गमही ।
णिव्वाणसुहं कमसो णिद्दिठ्ठं जिणवरिंदेहिं ॥16॥
दीयते सुपात्रदानं विशेषतो भवति भोगस्वर्गमही ।
निर्वाणसुखं क्रमशो निर्दिष्टं जिनवरेन्द्रै:॥
अन्वयार्थ : सुपात्र-दान जो दिया जाता है, विशेष रूप से भोगभूमि वस्वर्ग होता है । और क्रमश: निर्वाण सुख भी है । ऐसाजिनेन्द्र देव ने बताया है ॥16॥
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खेत्तविसेसे काले वविदसुवीयं फलं जहा विउलं ।
होदि तहा तं जाणह पत्तविसेसेसु दाणफलं ॥17॥
क्षेत्रविशेषे काले उप्तं सुबीजं फलं यथा विपुलम् ।
भवति तथा तत् जानीहि पात्रविशेषेषु दानफलम्॥
अन्वयार्थ : क्षेत्रविशेष में या कालविशेष में बोया गया बीज जिस प्रकार विपुल फलदेने वाला होता है, उसी प्रकार पात्र-विशेष में दिये गये दान के फल को भी वैसा समझो ॥17॥
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इह णियसुवित्तबीयं जो ववदि जिणुत्तसत्तखेत्तेसु ।
सो तिहुवणरज्ज्फलं भुंजदि कल्लाणपंचफलं ॥18॥
इह निजसुवित्तबीजं यो वपति जिनोक्तसप्तक्षेत्रेषु ।
स त्रिभुवनराज्यफलं भुंक्ते कल्याणपञ्चकफलम्॥
अन्वयार्थ : जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित सात विशेष क्षेत्रों में जो अपने समीचीन धनरूपी बीज को बोता है, वह त्रिभुवन का राज्य तथा पंचकल्याणक । इन फलों का भोग भोगता है ॥18॥
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मादु-पिदुपुत्त-मित्तं कलत्त-धण-धण्ण-वत्थु-वाहण-विहवं ।
संसारसारसोक्खं सव्वं जाणउ सुपत्तदाणफलं ॥19॥
मातृ-पितृ-पुत्र-मित्रं कलत्र-धन-धान्य-वास्तु-वाहन-विभवम् ।
संसारसारसौख्यं सर्वं जानातु सुपात्रदानफलम्॥
अन्वयार्थ : माता, पिता, पुत्र, मित्र, कलत्र , धन-धान्य, वास्तु, वाहन व वैभव और संसार भर के उत्तम सुख । इन सबको सुपात्र-दानका फल जानें ॥19॥
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सत्तंगरज्ज्-णवणिहिभंडार-छडंगबल-चउद्दहरयणं ।
छण्णवदिसहस्सित्थि-विहवं जाणह सुपत्तदाणफलं ॥20॥
सप्ताङ्गराज्य -नवनिधिभाण्डार -षडङ्गबल-चतुर्दशरत्नानि ।
षण्णवतिसहस्रस्त्री-विभवं जानीहि सुपात्रदानफलम्॥
अन्वयार्थ : सप्ताङ्ग राज्य, नव निधियों का भण्डार, छ: अंगों से सम्पन्न सेना-बल,चौदह रत्न और छियानवे हजार रानियाँ । इस वैभव को सुपात्रदान का फल जानो ॥20॥
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सुकुल-सुरूव-सुलक्खण-सुमइ-सुसिक्खा-सुशील-सुगुण-सुचरित्तं ।
सयलं सुहाणुहवणं विहवं जाणह सुपत्तदाणफलं ॥21॥
सुकुल-सुरूप-सुलक्षण-सुमति-सुशिक्षा-सुशील-सुगुण-सुचारित्रम् ।
सकलं सुखानुभवनं विभवं जानीहि सुपात्र-दानफलम्॥
अन्वयार्थ : उत्तम कुल, उत्तम रूप, उत्तम लक्षण, उत्तम बुद्धि, उत्तम शिक्षा, उत्तम प्रकृति , उत्तम गुण, उत्तम आचरण, समस्त सुखों कीअनुभूति और वैभव । सुपात्रदान के फल हैं । ऐसा जानो ॥21॥
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जो मुणिभुत्तवसेसं भुंजदि सो भुंजदे जिणुद्दिठ्ठं ।
संसारसारसोक्खं कमसो णिव्वाणवरसोक्खं ॥22॥
यो मुनिभुक्तावशेषं भुंक्ते स भुंक्ते जिनोद्दिष्टम् ।
संसारसारसौख्यं क्रमशो निर्वाणवरसौख्यम्॥
अन्वयार्थ : मुनि द्वारा आहार ग्रहण कर लेने के अनन्तर, अवशिष्टरहे का जो आहार ग्रहण करता है, वह संसार के सारभूत सुख और क्रमश:निर्वाण के परम सुख को भी भोगता है । यह जिनेन्द्र भगवान् का उपदेश है ॥22॥
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सीदुण्ह-वाउ-पिउलं सिलेसिमं तह परिसमं वाहिं ।
कायकिलेसुववासं जाणिच्चा दिण्णए दाणं ॥23॥
शीतोष्णवातपित्तलं श्लेष्मलं तथा परिश्रमं व्याधिम् ।
कायक्लेश-उपवासं ज्ञात्वा दीयते दानम्॥
अन्वयार्थ : शीत व उष्ण , वात, पित्त व कफवाली प्रकृति, परिश्रम, व्याधि, कायक्लेश व उपवास को जानकर दान दिया जाता है ॥23॥
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हिदमिदमण्णं पाणं णिरवज्जेसहिं णिराउलं ठाणं ।
सयणासणमुवयरणं जाणिज्ज देदि मोक्खमग्गरदो ॥24॥
हित-मितम् अन्नं पानं निरवद्यौषधिं निराकुलं स्थानम् ।
शयनासनम् उपकरणं ज्ञात्वा ददाति मोक्षमार्गरत:॥
अन्वयार्थ : मोक्षमार्गी हितकारी व यथोचित परिमित मात्रा में अन्न-पान, निर्दोष औषधि, निराकुल स्थान, शयन, आसन व उपकरण को,उनके औचित्य आदि का ज्ञान प्राप्त करके देता है ॥24॥
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अणयाराणं वेज्जवच्चं कुज्ज जहेह जाणिच्चा ।
गब्भब्भमेव मादा-पिदुच्च णिच्चं तहा निरालसया ॥25॥
अनगाराणां वैयावृत्त्यं कुर्यु: यथेह ज्ञात्वा ।
गर्भार्भकमिव मातापितरौ च नित्यं तथा निरालसका:॥
अन्वयार्थ : अनगारों की जानकारी के साथ नित्य एवं आलस्यरहित होकर उनकी उसी प्रकार वैयावृत्त्य करनाचाहिए, जिस प्रकार से इस लोक में माता-पिता अपने गर्भ स्थित की करते हैं ॥25॥
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सप्पुरिसाणं दाणं, कप्पतरूणं फलाण सोहा वा ।
लोहीणं दाणं जदि, विमाणसोहा-सवं जाणे ॥26॥
सत्पुरुषाणां दानं कल्पतरूणां फलानां शोभा इव ।
लोभिनां दानं यदि विमानशोभाशवं जानीहि॥
अन्वयार्थ : सत्पुरुषों द्वारा दिया दान कल्पवृक्ष के फलों की शोभा की तरह होता है, किन्तु लोभी द्वारा यदि दान दिया जाता है तो उसे विमान-शोभा वाले शव की तरह जानें ॥26॥
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जसकित्तिपुण्णलाहे देदि सुबहुगं पि जत्थ तत्थेव ।
सम्मादिसुगुणभायण-पत्तविसेसं ण जाणंति ॥27॥
यश:कीर्तिपुण्यलाभाय ददाति सुबहुकमपि यत्र तत्रैव ।
सम्यक्त्वादिसुगुणभाजन-पात्रविशेषं न जानन्ति॥
अन्वयार्थ : यश-कीर्ति व पुण्य के लाभ हेतुजहाँ-तहाँ बहुत ज्यादा भी दान देता है, किन्तु सम्यक्त्व आदि सशुणों के पात्रों की विशेषताका ज्ञान नहीं होता ॥27॥
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जंतं मंतं तंतं परिचरिदं पक्खवादपियवयणं ।
पडुच्च पंचमयाले भरहे दाणं ण किंपि मोक्खस्स ॥28॥
यन्त्रं मन्त्रं तन्त्रं परिचरितं पक्षपातप्रियवचनम् ।
प्रतीत्य पञ्चमकाले भरते दानं न किमपि मोक्षाय॥
अन्वयार्थ : पंचम काल में भरत क्षेत्र में यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र, परिचर्या, पक्षपात-प्रदर्शन, प्रियभाषण । इनके द्वारा प्रतीति पैदा कर किया गया किसी प्रकार का भी दान मोक्ष का कारण नहीं होता ॥28॥
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दाणीणं दारिद्दं लोहीणं किं हवदि महइसिरियं ।
उहयाणं पुव्वज्ज्दिकम्मफलं जाव होदि थिरं ॥29॥
दानिनां दारिद्र्यं लोभिनां किं भवति महैश्वर्यम् ।
उभयो: पूर्वार्जितकर्मफलं यावत् भवति स्थिरम्॥
अन्वयार्थ : दानी दरिद्र क्यों हो जाता है और लोभी के महान् ऐश्वर्य क्योंहोता है? दोनों के पूर्व-उपार्जित कर्मों का जो फल स्थिर रहता है ॥29॥
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धणधण्णादि समिद्धे सुहं जहा होदि सव्वजीवाणं ।
मुणिदाणादि समिद्धे सुहं तहा तं विणा दुक्खं ॥30॥
धनधान्यादौ समृद्धे सुखं यथा भवति सर्वजीवानाम् ।
मुनिदानादौ समृद्धे सुखं तथा तद्विना दु:खम्॥
अन्वयार्थ : धन-धान्य आदि की समृद्धि होने पर जैसे सभी जीवों को सुख मिलताहै, वैसे ही मुनि-दान आदि की समृद्धि से सुख मिलता है और वह दानादि न होतो दु:ख मिलता है ॥30॥
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पत्त विणा दाणं य सुपुत्त विणा बहुधणं महाखेत्तं ।
चित्त विणा वय-गुण-चरित्तं णिक्कारणं जाणे ॥31॥
पात्रं विना दानं च सुपुत्रं विना बहुधनं महाक्षेत्रम् ।
चित्तं विना व्रत-गुण-चारित्रं निष्कारणं जानीहि॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार सुपुत्र के बिना बहुत सारा धन तथा बड़े-बड़े क्षेत्र निरर्थक हैं तथा भाव के बिना व्रत, गुण व चारित्र का पालन भीनिरर्थक होता है, उसी प्रकार सत्पात्र के बिना दान देना भी निरर्थक होता है ॥31॥
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जिण्णुद्धार-पदिठ्ठा-जिणपूया-तित्थवंदणवसेसधणं ।
जो भुंजदि सो भुंजदि जिणदिठ्ठं णरयगदिदुक्खं ॥32॥
जीर्णोद्धार-प्रतिठा-जिनपूजा-तीर्थवन्दनअवशेषधनम् ।
यो भुंक्ते स भुंक्ते जिनदिष्टं नरकगतिदु:खम्॥
अन्वयार्थ : जीर्णोद्धार, प्रतिठा, जिनपूजा, तीर्थवन्दना । इन कार्यों के अवशिष्ट धन को जो भोगता है, वहनरक-गति के दु:ख को भोगता अर्थात् उपार्जित करता है । ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है ॥32॥
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पुत्तकलत्तविदूरो दारिद्दो पंगुमूकबहिरंधो ।
चांडालादिकुजादो पूयादाणादिदव्वहरो ॥33॥
पुत्रकलत्रविदूरो दरिद्र: पङ्ग्वमूकबधिरोऽन्ध: ।
चाण्डालादिकुजाति: पूजादानादिद्रव्यहर:॥
अन्वयार्थ : पूजा व अन्य दान आदि के द्रव्य को हरण करने वाला व्यक्ति पुत्र वस्त्री से हीन, दरिद्र, गूंगा, बहरा व अन्धा एवं चाण्डाल आदि नीच जातियों में जन्म लेता है ॥33॥
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इच्छिदफलं ण लब्भदि, जदि लब्भदि सो ण भुंजदे णियदं ।
वाहीणमायरो सो, पूयादाणादिदव्वहरो ॥34॥
इच्छितफलं न लभते, यदि लभते स न भुंक्ते नियतम् ।
व्याधीनामाकर: स पूजादानादि द्रव्य हर:॥
अन्वयार्थ : पूजा-दान आदि द्रव्य का हरण करने वाला इच्छित फलको प्राप्त नहीं करता और यदि करता भी है तो उसका भोग नहीं कर पाता । यह निश्चित है ।वह व्याधियों का घर बन जाता है ॥34॥
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गदहत्थपादणासिय-कण्णउरंगुल विहीण दिठ्ठीए ।
जो तिव्वदुक्खमूलो, पूयादाणादिदव्वहरो ॥35॥
गतहस्तपादनासिकाकर्ण-उरुअंगुल: विहीनो दृष्ट्या ।
यत्तीव्रदु:खमूलम्, पूजादानादिद्रव्यहर:॥
अन्वयार्थ : पूजा-दान आदि से सम्बन्धित द्रव्य को हड़पने वाला हाथ, पाँव,नाक, कान, छाती, अएगुलियों से रहित तथा दृष्टिहीन होता है, जो उसके लिए तीव्र दु:ख का कारण बनता है ॥35॥
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खय-कुठ्ठ-मूल-सूला लूय-भयंकर-जलोयरक्खिसिरो ।
सीदुण्हवाहिरादी पूयादाणंतरायकम्मफलं ॥36॥
क्षय-कुठ-मूल-शूला: लूता-भगन्दर-जलोदर-अक्षि-शिर: ।
शीतोष्णव्याध्यादय: पूजादानान्तरायकर्मफलम्॥
अन्वयार्थ : क्षय , कोढ़, मूल, शूल, लूता , भगंदर, जलोदर,और नेत्र व शिर के रोग, शीत-उष्ण व्याधियाँ । ये पूजा व दान के शुभ कामों में विघ्न करने के कर्म-फल हैं ॥36॥
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णरइ-तिरियाइ-दुगदी, दारिद्द-वियलंग-हाणि-दुक्खाणि ।
देव-गुरु-सत्थवंदण-सुदभेद-सज्झायविघणफलं ॥37॥
नरकतिर्यगादिदुर्गति: दारिद्र्य-विकलाङ्ग-हानि-दु:खानि ।
देव-गुरु-शास्त्रवन्दन-श्रुतभेद-स्वाध्यायविघ्नफलम्॥
अन्वयार्थ : देव-वन्दना, गुरुवन्दना, शास्त्र-वन्दना एवं श्रुतज्ञान के भेद रूपस्वाध्याय । इनमें विघ्न डालने के फल हैं । नरक गति, तिर्यर् गति दुर्गति,दरिद्रता, विकलाङ्गता, हानि एवं दु:ख ॥37॥
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सम्मविसोही-तवगुण-चारित्त-सण्णाण-दाण-परिहीणं ।
भरहे दुस्समयाले मणुयाणं जायदे णियदं ॥38॥
सम्यक्त्वविशुद्धि-तपो-गुण-चारित्र-सज्ज्ञान-दान-परिहीन(त्व)म् ।
भरते दु:षमकाले मनुजानां जायते नियतम्॥
अन्वयार्थ : भरत में दु:षमा काल में मनुष्यों केनिश्चय ही सम्यग्दर्शन-विशुद्धि, तप, मूलगुण, चारित्र, सम्यग्ज्ञान व दान ।इनमें हीनता होती है ॥38॥
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ण हि दाणं ण हि पूया ण हि सीलं ण हि गुणं ण चारित्तं ।
जे जइणा भणिदा ते णेरइया कुमाणुसा तिरिया ॥39॥
न हि दानं न हि पूजा न हि शीलं न हि गुणो न चारित्रम् ।
ये यतिना भणिता: ते नारका: कुमानुषा: तिर्यर्:॥
अन्वयार्थ : जो दान नहीं देते, पूजा नहीं करते, शील नहीं पालते, मूलगुणव चारित्र से रहित हैं, वे नारकी, खोटे मनुष्य व तिर्यर् होते हैं । ऐसायति ने कहा है ॥39॥
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ण वि जाणदि कज्ज्मकज्ज्ं, सेयमसेयं य पुण्णपावं हि ।
तच्चमतच्चं धम्ममधम्मं सो सम्मउम्मुक्को ॥40॥
नापि जानाति कार्यमकार्यम्, श्रेयोऽश्रेयश्च पुण्यपापं हि ।
तत्त्वमतत्त्वं धर्ममधर्मं स सम्यक्त्व-उन्मुक्त:॥
अन्वयार्थ : जो लोग सम्यक्त्व से रहित होते हैं, वे लोग कार्य-अकार्य,श्रेय-अश्रेय,तत्त्व-अतत्त्व, धर्म-अधर्म को नहीं जानते हैं ॥40॥
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ण वि जाणदि जोग्गमजोग्गं णिच्चमणिच्चं हेयमुवादेयं ।
सच्चमसच्चं भव्वमभव्वं सो सम्मउम्मुक्को ॥41॥
नापि जानाति योग्यमयोग्यं नित्यमनित्यं हेयमुपादेयम् ।
सत्यमसत्यं भव्यमभव्यं स सम्यक्त्व-उन्मुक्त:॥
अन्वयार्थ : जो लोग सम्यक्त्व से रहित होते हैं, वे योग्य-अयोग्य, नित्य-अनित्य, हेय-उपादेय,सत्य-असत्य तथा भव्य-अभव्य को नहीं जानते ॥41॥
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लोइयजणसंगादो होदि महामुहिरकुडिलदुब्भावो ।
लोइयसंगं तम्हा जोइवि तिविहेण मुच्चाहो ॥42॥
लौकिकजनसङ्गात् भवति महामुखरकुटिलदुर्भाव: ।
लौकिकसङ्गं तस्माद् दृष्ट्वा त्रिविधेन र्मुत॥
अन्वयार्थ : लौकिक लोगों की संगति से अत्यधिक मुखरतातथा कुटिल दुर्भाव पैदा होते हैं, इसलिए समझ बूझकर मन, वचन व काय से इसे त्याग दें ॥42॥
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उग्गो तिव्वो दुो दुब्भावो दुस्सुदो दुरालावो ।
दुम्मदरदो विरुद्धो सो जीवो सम्म-उम्मुक्को ॥43॥
उग्र:, तीव्र:, दुष्ट:, दुर्भाव:, दु:श्रुत:, दुरालाप: ।
दुर्मदरत:, विरुद्ध:, स जीव: सम्यक्त्व-उन्मुक्त:॥
अन्वयार्थ : जो मनुष्य उग्र, तीव्र, दुष्ट स्वभाव वाला है, खोटी भावनाएँ करतारहता है, तथा जो मिथ्याज्ञानी, दुष्टभाषी,मिथ्या मद में अनुरक्त और धर्म-विरोधी होता है, वहसम्यक्त्व से रहित है ॥43॥
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खुद्दो रुद्दो रुठ्ठो अणिठ्ठपिसुणो सगव्वियोसूयो ।
गायण-जायण-भंडण-दुस्सणसीलो दु सम्म-उम्मुक्को ॥44॥
क्षुद्र:, रुद्र:, रुष्ट: अनिष्टपिशुन: सगर्वित:, असूय: ।
गायन-याचन-भण्डन-दूषणशील: तु सम्यक्त्व-उन्मुक्त:॥
अन्वयार्थ : जो क्षुद्र, रुद्र, रुष्ट, अनिष्टकारी चुगली करने वाला, घमंडी व ईष्र्यालुहो, गाना-बजाना, माँगना और लड़ाई-झगड़ा करने वाला हो और जो दोष-स्वभावी हो, वहसम्यक्त्व से रहित है ॥44॥
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बाणर-गद्दह-साण-गय-बग्घ-वराह-कराह ।
मक्खि-जलूय-सहाव णर जिणवरधम्मविणास ॥45॥
वानर-गर्दभ-श्वान-गज-व्याघ्र-वराह-कच्छप- ।
मक्षिका-जलूका-स्वभावो नर: जिनवर-धर्मविनाशक:॥
अन्वयार्थ : जो व्यक्ति बन्दर, गधा, कुत्ता, हाथी, बाघ, शूकर, कछुआ और मक्खी वजोंक के स्वभाव वाला होता है, वह जिनेन्द्र देव के धर्म का विनाश करने वाला होता है ॥45॥
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सम्म विणा सण्णाणं सच्चरित्तं ण होदि णियमेण ।
तो रयणत्तयमज्झे सम्मगुणुक्किठ्ठमिदि जिणुद्दिठ्ठं ॥46॥
सम्यक्त्वं विना सज्ज्ञानं सच्चारित्रं न भवति नियमेन ।
तस्मात् रत्नत्रयमध्ये सम्यक्त्वगुणोत्कृष्टत्वमिति जिनोद्दिष्टम्॥
अन्वयार्थ : सम्यक्त्व न हो तो नियम से न तो सम्यग्ज्ञान होता है और न सम्यक्चारित्र ही होता है । इसलिए रत्नत्रय में सम्यक्त्व गुण की उत्कृष्टता है । ऐसाजिनेन्द्र देव द्वारा कहा गया है ॥46॥
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कुतव-कुलिंगि-कुणाणी-कुवयकुसीले कुदंसण-कुसत्थे ।
कुणिमित्ते संथुय थुई पसंसणं सम्महाणि होदि णियमं ॥47॥
कुतप:-कुलिङ्गि-कुज्ञानि-कुव्रत-कुशीले, कुदर्शन-कुशास्त्रे ।
कुनिमित्ते संस्तव: स्तुति:, प्रशंसनं सम्यक्त्वहानि: भवति नियमेन॥
अन्वयार्थ : मिथ्यातप, मिथ्यावेषधारी, मिथ्याज्ञानी, मिथ्याव्रत, मिथ्याशील, मिथ्यादर्शन, मिथ्याशास्त्र एवं झूठे निमित्त । इनका संस्तवन, तथा इनकी स्तुतिव प्रशंसा करना । इनसे नियमत: सम्यक्त्व-हानि होती है ॥47॥
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तणुकुठ्ठी कुलभंगं कुणदि जहा मिच्छमप्पणो वि तहा ।
दाणाइसुगुणभंगं गदिभंगं मिच्छमेव हो कठ्ठं ॥48॥
तनुकुठी कुलभङ्गं करोति यथा मिथ्यात्वमात्मनोऽपि तथा ।
दानादिसुगुणभङ्गं गतिभङ्गं मिथ्यात्वमेव अहो कष्टम्॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार शरीर में कोढ़ हो जाने पर, व्यक्ति अपने कुल का हीभंगकर लेता है , उसी प्रकार मिथ्यात्वग्रस्त व्यक्ति अपने आत्मीय कुल को भग्नकर देता है,दान आदि सद्गुणों का भी नाश कर लेता है और सद्गतियों का भी नाशकर लेता है । अहो!मिथ्यात्व कष्टदायी है! ॥48॥
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देव-गुरु-धम्म-गुण-चारित्तं तवायारमोक्खगदिभेयं ।
जिणवयण सुदिठ्ठि विणा दीसदि किं जाणदे सम्मं ॥49॥
देव-गुरु-धर्म-गुण-चारित्रं तप-आचार-मोक्षगतिभेदम् ।
जिनवचनं सुदृष्टिं विना दृश्यते किं ज्ञायते सम्यक्॥
अन्वयार्थ : देव, गुरु, धर्म, गुण, चारित्र, तप, आचार व मोक्ष गति के रहस्य कोएवं जिन-वाणी को सम्यग्दर्शन के बिना अच्छी तरह क्या देखा, जाना जासकता है? ॥49॥
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एक्क खणं ण वि चिंतदि मोक्खणिमित्तं णियप्पसब्भावं ।
अणिसि विचिंतदि पावं बहुलालावं मणे विचिंतेदि ॥50॥
एकं क्षणं नापि चिन्व्यति मोक्षनिमित्तं निजात्मस्वभावम् ।
अनिशं विचिन्व्यति पापं बहुलालापं मनसि विचिन्व्यति॥
अन्वयार्थ : मोक्ष-प्राप्ति के निमित्तभूत आत्म-स्वभावका एक क्षण भी चिन्तन नहीं करता । दिनरात पाप का चिन्तन करता रहता हैऔर मन में बहुत कुछ बोलता और सोचता रहता है ॥50॥
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मिच्छामदि मदमोहासवमत्तो बोल्लदे जहा भुल्लो ।
तेण ण जाणदि अप्पा, अप्पाणं सम्मभावाणं ॥51॥
मिथ्यामति: मदमोहासवमत्त: वदति यथा विस्मृत: ।
तेन न जानाति आत्मा आत्मानं (आत्मन:) साम्यभावान्॥
अन्वयार्थ : मिथ्यादृष्टि जीव मद व मोह रूपी आसव से मत्त, उन्मत्त होकर, भुलक्कड़ व्यक्ति की तरह बोलता है, इस कारण वह स्वयं अपनी आत्मा के साम्य भाव को नहीं जानता ॥51॥
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पुव्वठ्ठिद खवदि कम्मं पविसुदु णो देदि अहिणवं कम्मं ।
इहपरलोयमहप्पं देदि तहा उवसमो भावो ॥52॥
पूर्वस्थितं क्षपयति कर्म प्रवेष्टुं न ददाति अभिनवं कर्म ।
इहपरलोकमाहात्म्यं ददाति तथा उपशमो भाव:॥
अन्वयार्थ : उपशम भाव, पूर्व में स्थित कर्मों का क्षय करताहै और नये कर्म को प्रविष्ट नहीं होने देता । इस प्रकार यह उपशम भाव अपने इहलौकिक वपारलौकिक दोनों प्रकार के माहात्म्य को प्रकट करता है ॥52॥
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सम्मादिठ्ठी कालं वोल्लदि वेरग्गणाणभावेहिं ।
मिच्छादिठ्ठी वांछा-दुब्भावालस्सकलहेहिं ॥53॥
सम्यग्दृष्टि: कालं गमयति वैराग्य-ज्ञानभावै: ।
मिथ्यादृष्टि: वाञ्छा-दुर्भावालस्यकलहै:॥
अन्वयार्थ : सम्यग्दृष्टि जीव वैराग्य व ज्ञानमय भावों द्वारा समय बिताता है, किन्तुमिथ्यादृष्टि जीव का समय विषयों की अभिलाषा, दुर्भावों, आलस्य व कलह द्वारा बीतता है ॥53॥
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अज्ज्वसप्पिणि भरहे पउरा रुद्दठ्ठज्झाणया दिठ्ठा ।
णठ्ठा दुा कठ्ठा पापिठ्ठा किण्ह-णील-काओदा ॥54॥
अद्य अवसर्पिण्यां भरते प्रचुरा: रौद्रार्तध्यानिन: दृष्टा: ।
नष्टा: दुष्टा: कष्टा: पापिठा: कृष्ण-नील-कापोता:॥
अन्वयार्थ : वर्तमान अवसर्पिणी काल एवं भरत क्षेत्र में प्रचुर संख्या में रौद्रध्यानी,आर्तध्यानी, नष्ट, दुष्ट , कष्ट से ग्रस्त, पापी, तथाकृष्ण, नील व कापोत । इन तीन अप्रशस्त लेश्या वाले देखे जाते हैं ॥54॥
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अज्ज्वसप्पिणि भरहे पंचमयाले मिच्छपुव्वया सुलहा ।
सम्मत्तपुव्व सायारणयारा दुल्लहा होंति ॥55॥
अद्य अवसर्पिण्यां भरते पञ्चमकाले मिथ्यात्वपूर्वका: सुलभा: ।
सम्यक्त्वपूर्वका: सागार-अनगारा: दुर्लभा: भवन्ति॥
अन्वयार्थ : वर्तमान अवसर्पिणी काल के पंचम काल में इस भरत क्षेत्र मेंमिथ्यात्वयुक्त जीव सुलभ हैं और सम्यक्त्वयुक्त मुनि व गृहस्थ दुर्लभ हैं ॥55॥
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अज्ज्वसप्पिणि भरहे धम्मज्झाणं पमादरहिदोत्ति ।
होदित्ति जिणुद्दिठ्ठं ण हु मण्णइ सो हु कुद्दिठ्ठी ॥56॥
अद्य अवसर्पिण्यां भरते धर्मध्यानं प्रमादरहितमिति ।
भवति जिनोद्दिष्टं न खलु मन्यते स हि कुदृष्टि:॥
अन्वयार्थ : आज अवसर्पिणी काल में भरत क्षेत्र में धर्मध्यानप्रमादरहित के होता है । ऐसा जो नहीं मानता, वह कुदृष्टि है । ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ॥56॥
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असुहादो णिरयाऊ, सुहभावादो दु सग्गसुहमाओ ।
दुहसुहभावं जाणदु जं ते रुच्चेद तं कुज्ज ॥57॥
अशुभात् नरकायु:, शुभभावात् तु स्वर्ग-सुखमायु: ।
दु:खसुखभावं जानीहि, यत् तुभ्यं रोचेत तत्कुरु॥
अन्वयार्थ : अशुभ भाव से नरकायु प्राप्त होती है और शुभ भाव से स्वर्ग-सुख व-आयु प्राप्त होती है । सुख व दु:ख के भावों को जानो और जो तुम्हेंअच्छा लगे, वह करो ॥57॥
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हिंसादिसु कोहादिसु मिच्छाणाणेसु पक्खवाएसु ।
मच्छरिदेसु मदेसु दुरहिणिवेसेसु असुहलेस्सेसु ॥58॥
विकहादिसु रुद्दट्टज्झाणेसु असुयगेसु दंडेसु ।
सल्लेसु गारवेसु य, जो वट्टदि असुहभावो सो ॥59॥
हिंसादिषु क्रोधादिषु मिथ्याज्ञानेषु पक्षपातेषु ।
मात्सर्येषु मदेषु दुरभिनिवेशेषु अशुभलेश्यासु॥
विकथादिषु रौद्रार्तध्यानयो: असूयकासु दंडेषु ।
शल्येषु गारवेषु च, यो वर्तते अशुभभाव: स:॥
अन्वयार्थ : हिंसा आदि में, क्रोध आदि में, मिथ्या ज्ञान में, पक्षपात में, मात्सर्य में, मदों में, दुरभिमानों में, अशुभ लेश्याओं में, विकथाओं में,रौद्र व आर्तध्यान में, ईष्र्या व डाह में, असंयमों में, शल्यों में और मान-बड़ाई में जो भाव रहता है, वह अशुभ भाव है ॥58-59॥
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दव्वत्थिकाय-छप्पण तच्चपयत्थेसु सत्तणवगेसु ।
बंधणमोक्खे तक्कारणरूवे बारसणुवेक्खे ॥60॥
रयणत्तयस्सरूवे अज्जकम्मे दयादिसद्धम्मे ।
इच्चेवमाइगे जो वट्टदि सो होदि सुहभावो ॥61॥
अन्वयार्थ : छ: द्रव्यों, पाँच अस्तिकायों, सात तत्त्वों, नौ पदार्थों, बन्ध व मोक्ष,उसके कारण रूप बारह अनुप्रेक्षाओं, रत्नत्रय स्वरूप आर्यकर्म व दया आदि सद्धर्म ।इत्यादि में जो स्थित रहना है, वह सब शुभ भाव है ॥60-61॥
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सम्मत्तगुणाइ सुगदि, मिच्छादो होदि दुग्गदी णियमा ।
इदि जाण किमिह बहुणा, जं रुच्चदि तं कुज्जहो ॥62॥
सम्यक्त्वगुणात् सुगति:, मिथ्यात्वात् भवति दुर्गति: नियमात् ।
इति जानीहि किमिह बहुना, यत् रुच्यते तत् कुर्या:॥
अन्वयार्थ : सम्यक्त्व गुण से निश्चित ही सुगति प्राप्त होती है और मिथ्यात्व सेदुर्गति । इसे जानो । अधिक क्या कहें, अब जो तुम्हें अच्छा लगे, उसे करो ॥62॥
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मोह ण छिज्ज्दि अप्पा, दारुणकम्मं करमदि बहुवारं ।
ण हु पावदि भवतीरं, किं बहुदुक्खं वहेदि मूढमदी ॥63॥
मोहं न छिनत्ति अप्पा दारुणकर्म करोति बहुवारम् ।
न खलु प्राप्नोति भवतीरं, किं बहुदु:खं वहति मूढमति:॥
अन्वयार्थ : आत्मा मोह मिथ्यात्व का भेदन नहीं करता, औरअनेक बार दारुण कर्म करता है, मूढ़मति संसारका पार नहीं प्राप्त कर सकता है, वह क्यों अनेक दु:ख उठा रहा है? ॥63॥
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धरियउ बाहिरलिंगं परिहरियउ बाहिरक्खसोक्खं हि ।
करियउ किरियाकम्मं, मरियउ जम्मियउ बहिरप्प जीवो ॥64॥
धृत्वा बाह्यलिङ्गं परिहृत्य बाह्याक्षसौख्यं हि ।
कृत्वा क्रियाकर्म म्रियते जायते बहिरात्मा जीव:॥
अन्वयार्थ : बाह्य वेश को धारण कर तथा बाह्य इन्द्रिय-सुख का त्यागकर, क्रिया-काण्डको करता हुआ भी बहिरात्मा जीव मरता है और जन्मता है ॥64॥
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मोक्खणिमित्तं दुक्खं वहेदि परलोयदिठ्ठि तणुदण्डी ।
मिच्छाभाव ण छिज्ज्इ किं पावइ मोक्खसोक्खं हि ॥65॥
मोक्षनिमित्तं दु:खं वहति परलोकदृष्टि: तनुदण्डी ।
मिथ्यात्वभावं न छिनत्ति, किं प्राप्नोति मोक्षसौख्यं हि॥
अन्वयार्थ : उस की दृष्टि तो परलोक पर रहती है, वह शरीर को क्लेश देता हुआ मोक्ष के निमित्त से दु:ख सहन करता है, मिथ्यात्वभाव का उच्छेद किये बिना मोक्ष का सुख क्या प्राप्त कर पाता है? ॥65॥
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ण हु दंडदि कोहादिं, देहं दंडदि कहं खवदि कम्मं ।
सप्पो किं मुवदि तहा वम्मीए मारिदे लोए ॥66॥
न खलु दण्डयति क्रोधादीन्, देहं दण्डयति, कथं क्षिपति कर्म ।
सर्प: किं म्रियते तथा वल्मीके मारिते लोके॥
अन्वयार्थ : जो देह को तो दण्ड देता है, किन्तु क्रोधआदि को दंडित नहीं करता, वह कर्मक्षय किस प्रकार करेगा?लोक में सांप के बिल को मारने से सर्प मरता है क्या? वही स्थिति यहाँ है ॥66॥
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उवसमतवभावजुदो णाणी सो ताव संजदो होदि ।
णाणी कसायवसगो असंजदो होदि सो ताव ॥67॥
उपशमतपोभावयुत: ज्ञानी स तावत् संयतो भवति ।
ज्ञानी कषायवशग: असंयतो भवति स तावत्॥
अन्वयार्थ : उपशम तथा तप-भाव से युक्त ज्ञानीतो संयत होता है । किन्तु कषायों के वशीभूत हुआ वह ज्ञानी तो 'असंयमी' होताहै ॥67 ॥
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णाणी खवेदि कम्मं णाणबलेणेदि बोल्लदे अण्णाणी ।
वेज्जे भेसज्ज्महं जाणे इदि णस्सदे वाही ॥68॥
ज्ञानी क्षपयति कर्म ज्ञानबलेन । इति वदति अज्ञानी ।
वैद्यो भैषजमहं जानामि इति नश्यते व्याधि:॥
अन्वयार्थ : अज्ञानी कहता है कि ज्ञानी ज्ञान-बल से कर्मों का क्षय कर लेता है । 'मैं औषधि जानता हूँ' मात्र इतने से व्याधि नष्ट होती है? ॥68॥
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पुव्वं सेवदि मिच्छामलसोहणहेदु सम्मभेसज्ज्ं ।
पच्छा सेवदि कम्मामयणासण चरिय सम्मभेसज्ज्ं ॥69॥
पूर्वं सेवते (सेवेत) मिथ्यात्वमलशोधनहेतु सम्यक्त्व-भैषज्यम् ।
पश्चात् सेवते (सेवेत) कर्मामयनाशनं चारित्रं सम्यग्भैषज्यम्॥
अन्वयार्थ : मिथ्यात्व-मल का शोधन करने हेतु सम्यक्त्व रूपी औषध का सेवनकिया जाता है, उसके बाद कर्म-रोग नष्ट करने वाली सम्यक्चारित्र रूपी औषध का सेवनकिया जाता है ॥69॥
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अण्णाणीदो विसयविरत्तादो होदि सयसहस्सगुणो ।
णाणी कसायविरदो विसयासत्तो जिणुद्दिठ्ठं ॥70॥
अज्ञानिन: विषयविरक्ताद् भवति शतसहस्रगुण: ।
ज्ञानी कषायविरतो विषयासक्त:, जिनोद्दिष्टम्॥
अन्वयार्थ : विषय-विरक्त अज्ञानी की अपेक्षा वह ज्ञानी लाख गुना होता है जो विषय-आसक्त भले ही हो, किन्तुकषायों से विरत हो । ऐसा सर्वज्ञ देव ने कहा है ॥70॥
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विणओ भत्तिविहीणो महिलाणं रोदणं विणा णेहं ।
चागो वेरग्ग विणा एदेदो वारिदा भणिदा ॥71॥
विनयो भक्तिविहीन: महिलानां रोदनं विना स्नेहम् ।
त्यागो वैराग्यं विना, एते इत: वारिता: भणिता:॥
अन्वयार्थ : भक्ति से विहीन विनय, स्नेह-रहित महिलाओं का रोना, और वैराग्यके बिना त्याग । इस प्रकार ये निषिद्ध बताये गये हैं ॥71॥
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सुहडो सूरत्त विणा महिला-सोहग्गरहिय-परिसोहा ।
वेरग्गणाणसंजमहीणा खवणा ण किंपि लब्भंते ॥72॥
सुभट: शूरत्वं विना, महिला-सौभाग्यरहितपरिशोभा ।
वैराग्य-ज्ञान-संयमहीना: क्षपणा: न किमपि लभन्ते॥
अन्वयार्थ : शूरता के बिना सुभट , सौभाग्य-रहित महिला शोभित नहीं होती, वैराग्य, ज्ञान व संयम से रहित क्षपण कुछ भी प्राप्त नहीं करते ॥72॥
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वत्थुसमग्गो मूढो, लोही लब्भदि फलं जहा पच्छा ।
अण्णाणी जो विसयासत्तो लहदि तहा चेवं ॥73॥
वस्तुसमग्रो मूढ: लोभी लभते फलं यथा पश्चात् ।
अज्ञानी यो विषयासक्तो लभते तथा चैवम्॥
अन्वयार्थ : समग्र वस्तुओं से समृद्ध मूढ़ व लोभी व्यक्ति जिस प्रकारबाद में फल को प्राप्त करता है, उसी तरह विषयासक्त अज्ञानी भी बादमें फल प्राप्त करता है ॥73॥
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वत्थुसमग्गो णाणी सुपत्तदाणी फलं जहा लहदि ।
णाणसमग्गो विसयपरिचत्तो लहदि तहा चेव ॥74॥
वस्तुसमग्रो ज्ञानी सुपात्रदानी फलं यथा लभते ।
ज्ञानसमग्रो परित्यक्तविषय: लभते तथा चैव॥
अन्वयार्थ : पदार्थों से समृद्ध ज्ञानी सुपात्रदान देकर जैसा फल प्राप्त करता है, वैसा ही विषयों का त्याग करने वाला ज्ञान-समृद्ध व्यक्ति प्राप्त करता है ॥74॥
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विणओ भत्तिविहीणो महिलाणं रोयणं विणा णेहं ।
चागो वेरग्ग विणा एदे दोवारिया भणिया ॥75॥
भूमहिलाकनकादि-लोभादिविषधर: कथमपि भवेत् ।
सम्यक्त्व-ज्ञान-वैराग्य-औषधमन्त्रेण जिनोद्दिष्टम् ।
अन्वयार्थ : जमीन-जायदाद, कामिनी, र्कान आदि का लोभ रूपी कैसा भी विषधर साँप हो, उसे सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान व वैराग्य रूपी औषधि या मन्त्र से । यह जिनेन्द्र देव ने कहा है ॥75॥
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पुव्वं जो पंचिंदिय-तणु-मण-वचि-हत्थ-पायमुंडाओ ।
पच्छा सिरमुंडाओ सिवगदिपहणायगो होदि ॥76॥
पूर्वं य: पञ्चेन्द्रियतनुमनोवचोहस्तपादमुण्ड: ।
पश्चात् शिरोमुण्ड: शिवगतिपथनायको भवति ॥
अन्वयार्थ : जो पहले पाँचों इन्द्रियों, शरीर, मन, वचन, हाथ-पांव को मुँडाता है , बाद में सिर मुँडाता है , वही मोक्षमार्ग का नेता बनता है ॥76॥
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पदिभत्तिविहीण सदी भिच्चो जिणसमयभत्तिहीणजइणो ।
गुरुभत्तिहीणसिस्सो दुग्गदिमग्गाणुलग्गओ णियदं ॥77॥
पतिभक्तिविहीना सती, भृत्य:, जिनसमयभक्तिहीनजैन: ।
गुरुभक्तिहीनशिष्य: दुर्गतिमार्गानुलग्नो नियतम् ॥
अन्वयार्थ : पति की भक्ति से रहित सती और नौकर, गुरु-भक्ति से रहित शिष्य, और जिनेन्द्र देव व उनकेसिद्धान्त के प्रति भक्ति से रहित जैन नियमत: दुर्गति-मार्ग में संलग्न हैं॥77॥
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गुरुभत्तिविहीणाणं सिस्साणं सव्वसंगविरदाणं ।
ऊसरखेत्ते वविदं सुबीयसमं जाण सव्वणुाणं ॥78॥
गुरुभक्तिविहीनानां शिष्याणां सर्वसङ्गविरतानाम् ।
ऊषरक्षेत्रे उप्तं सुबीजसमं जानीहि सर्वानुठानम् ॥
अन्वयार्थ : समस्त परिग्रहों से विरत शिष्य भी गुरु-भक्ति से रहित हों तो उनकासमस्त अनुठान उसी प्रकार है, जिस प्रकार ऊषर खेत मेंबोया गया अच्छा भी बीज होता है॥78॥
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रज्ज्ं पहाणहीणं पतिहीणं देसगामरठ्ठबलं ।
गुरुभत्तिहीण-सिस्साणुट्ठाणं णस्सदे सव्वं ॥79॥
राज्यं प्रधानहीनं पतिहीनं देशग्रामराष्ट्रबलम् ।
गुरुभक्तिहीनशिष्यानुठानं नश्यति सर्वम् ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार प्रधान के बिना राज्य और सेनापति के बिनादेश, गाँव, राष्ट्र व सैन्य-बल नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार गुरु-भक्ति से हीन शिष्य का अनुठान नष्ट हो जाता है ॥79॥
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सम्मत्त विणा रुई भत्ति विणा दाणं दया विणा धम्मं ।
गुरुभत्ति विणा तवगुणचारित्तं णिप्फलं जाण ॥80॥
सम्यक्त्वं विना रुचिं, भकि्ं विना दानं, दयां विना धर्मम् ।
गुरुभकि्ं विना तपोगुणचारित्रं निष्फलं जानीहि ॥
अन्वयार्थ : सम्यक्त्व के बिना रुचि को, भक्ति के बिना दान को, दया के बिना धर्म कोऔर गुरु-भक्ति के बिना तप, गुण व चारित्र को निष्फल जानें ॥80॥
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हीणादाणवियारविहीणादो बाहिरक्खसोक्खं हि ।
किं तजियं किं भजियं, किं मोक्खं ण दिठ्ठं जिणुद्दिठ्ठं ॥81॥
हानादानविचारविहीनत्वात् बाह्याक्षसौख्यं हि ।
किं त्याज्यं किं भाज्यं किं मोक्षो न दृष्ट:, जिनोद्दिष्टम् ॥
अन्वयार्थ : चूँकि जीव के हेय व उपादेय के विवेक का अभाव होताहै, इसलिए बाह्य पदार्थों में सुख मानता है । वह नहीं जानता कि क्या त्याज्य है,क्या सेवनीय है और मोक्ष क्या है । ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है ॥81॥
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कायकिलेसुववासं दुद्धरतवयरणकारणं जाण ।
तं णियसुद्धप्परुई-परिपुण्णं चेदि कम्म णिम्मूलं ॥82॥
कायक्लेशोपवासं दुर्धरतपश्चरणकारणं जानीहि ।
तत् निजशुद्धात्मरुचिपरिपूर्णं च इति कर्म निर्मूलम् ॥
अन्वयार्थ : कायक्लेश व उपवास । ये दुर्धर तपश्चरण के कारण हैं ।और निज शुद्धात्मा के प्रति रुचि से परिपूर्ण कर्म निर्मूल होजाता है । यह जानो ॥82॥
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कम्म ण खवेदि परबह्म ण जाणदि सम्म-उम्मुक्को ।
अत्थ ण तत्थ ण जीवो लिंगं घेत्तूण किं करमदि ॥83॥
कर्म न क्षपयति, परब्रह्म न जानाति सम्यक्त्व-उन्मुक्त: ।
अत्र न तत्र न जीव:, लिङ्गं गृहीत्वा किं करोति?
अन्वयार्थ : जो सम्यग्दर्शन से रहित है और परब्रह्म को नहीं जानता,वह कर्म का क्षय नहीं करता । वह न यहाँ का है और न वहाँ का । वह लिङ्ग को धारण करके क्या करेगा? ॥83॥
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अप्पाणं पि ण पेच्छदि ण मुणदि ण वि सद्दहदि ण भावेदि ।
बहुदुक्खभारमूलं लिंगं घेत्तूण किं करमदि? ॥84॥
आत्मानमपि न प्रेक्षते न जानाति नापि श्रद्दधाति न भावयति ।
बहुदु:खभारमूलं लिङ्गं गृहीत्वा किं करोति?
अन्वयार्थ : जो आत्मा का निरीक्षण नहीं करता, न ही आत्मा को जानताहै, न ही श्रद्धान करता है और भावना भी नहीं भाता, तो फिर वह अत्यन्त दु:ख-भार केकारण द्रव्यलिङ्ग को धारण करके क्या करेगा? ॥84॥
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जाव ण जाणदि अप्पा अप्पाणं दुक्खमप्पणो ताव ।
तेण अणंतसुहाणं अप्पाणं भावए जोई ॥85॥
यावत् न जानाति आत्मा आत्मानं दु:खमात्मन: तावत् ।
तेन अनन्तसुखम् आत्मानं भावयेत् योगी ॥
अन्वयार्थ : जब तक यह आत्मा स्वयं को नहीं जान लेता,तभी तक उसके दु:ख रहता है । अत: योगी को चाहिए कि वह अनन्तसुख स्वरूपी आत्माकी भावना करता रहे ॥85॥
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णियतच्चुवलद्धि विणा सम्मत्तुवलद्धि णत्थि णियमेण ।
सम्मत्तुवलद्धि विणा णिव्वाणं णत्थि णियमेण ॥86॥
निजतत्त्वोपलब्धिं विना सम्यक्त्वोपलब्धि: नास्ति नियमेन ।
सम्यक्त्वोपलब्धिं विना निर्वाणं नास्ति नियमेन ॥
अन्वयार्थ : आत्म-तत्त्व की प्राप्ति के बिना नियमत: सम्यक्त्वकी उपलब्धि नहीं हो पाती । सम्यक्त्व की प्राप्ति के बिना नियमत: निर्वाण प्राप्त नहींहोता ॥86॥
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सालविहीणो राओ दाणदयाधम्मरहिदगिहिसोहा ।
णाणविहीण तवो वि य जीव विणा देहसोहं व ॥87॥
सालविहीनो राजा, दानदयाधर्मरहितगृहिशोभा ।
ज्ञानविहीनं तपोऽपि च जीवं विना देहशोभा इव ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार दुर्ग के बिना राजा की, दान व दया धर्म से रहित गृहस्थकी, तथा जीव के बिना देह की शोभा नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञान के बिना तप भी शोभा प्राप्त नहीं करता ॥87॥
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मक्खी सिलिम्मि पडिदो मुवदि जहा तह परिग्गहे पडिदो ।
लोही मूढो खवणो कायकिलेसेसु अण्णाणी ॥88॥
मक्षिका श्लेष्मणि पतिता म्रियते यथा तथा परिग्रहे पतित: ।
लोभी मूढ: क्षपण: कायक्लेशेषु अज्ञानी ॥
अन्वयार्थ : जैसे कफ में गिर कर मक्खी मर जाती है, वैसे ही परिग्रह में आसक्त,लोभी, मूढ़, अज्ञानी मुनि भी शारीरिक कष्टों में ही अपना जीवन गवाँ देता है ॥88॥
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णाणब्भासविहीणो सपरं तच्चं ण जाणदे किं पि ।
झाणं तस्स ण होदि हु ताव ण कम्मं खवेदि ण हु मोक्खं ॥89॥
ज्ञानाभ्यासविहीन: स्वपरं तत्त्वं न जानाति किमपि ।
ध्यानं तस्य न भवति हि तावत् न कर्म क्षपयति, न खलु मोक्ष: ॥
अन्वयार्थ : ज्ञान के अभ्यास से रहित जीव स्व व पर तत्त्व को कुछ भी नहीं जानता, और आत्म-ध्यान भी उसके निश्चित ही नहींहोता, और जब तक ऐसा होता है तब तक न तो उसका कर्मक्षय होता है और न ही मोक्षमिलता है ॥89॥
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अज्झयणमेव झाणं पंचेन्दिय णिग्गहं कसायं पि ।
तत्तो पंचमयाले पवयणसारब्भासमेव कुज्जहो ॥90॥
अध्ययनमेव ध्यानं पञ्चेन्द्रियाणां निग्रह: कषायाणामपि ।
तस्मात् पञ्चमकाले प्रवचन-साराभ्यासमेव कुर्यात् ॥
अन्वयार्थ : पंचम काल में अध्ययन ही ध्यान है । इस से पाँचों इन्द्रियोंव कषायों का निग्रह भी होता है । इसलिए प्रवचन के सारभूत का अभ्यास करना ही चाहिए ॥90॥
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पावारम्भणिवित्ती पुण्णारंभे पउत्तिकरणं पि ।
णाणं धम्मज्झाणं जिणभणिदं सव्वजीवाणं ॥91॥
पापारम्भनिवृत्ति: पुण्यारम्भे प्रवृत्तिकरणमपि ।
ज्ञानं धर्मध्यानं जिनभणितं सर्वजीवेभ्य: ॥
अन्वयार्थ : पाप-आरम्भ से निवृत्ति का और पुण्य-कार्य मेंप्रवृत्ति करने का तथा ज्ञान रूप धर्मध्यान का कथन सभी जीवोंके लिए भगवान् जिनेन्द्र ने किया है ॥91॥
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सुदणाणब्भासं जो ण कुणदि सम्मं ण होदि तवयरणं ।
कुव्वंतो मूढमदी संसारसुहाणुरत्तो सो ॥92॥
श्रुतज्ञानाभ्यासं यो न करोति, सम्यक् न भवति तपश्चरणम् ।
कुर्वन् मूढमति: संसारसुखानुरक्त: स: ॥
अन्वयार्थ : श्रुत का ज्ञानाभ्यास जो नहीं करता, उसका तपश्चरणसमीचीन नहीं होता । वह तपश्चरण करता हुआ भी सांसारिकसुख में अनुरक्त होता है ॥92॥
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तच्चवियारणसीलो मोक्खपहाराहणासहावजुदो ।
अणवरयं धम्मकहापसंगओ होदि मुणिराओ ॥93॥
तत्त्वविचारणशील: मोक्षपथाराधनास्वभावयुत: ।
अनवरतं धर्मकथाप्रसङ्गो भवति मुनिराज: ॥
अन्वयार्थ : मुनिवर तत्त्व का चिन्तन-मनन करने वाले होते हैं, मोक्षमार्ग की आराधनाकरते रहने का भी उनका स्वभाव हुआ करता है, और उनके धर्मकथा का व्यसन रहा करता है ॥93॥
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विकहादिविप्पमुक्को आहाकम्मादिविरहिदो णाणी ।
धम्मुद्देसणकुसलो अणुपेहाभावणाजुदो जोई ॥94॥
विकथादिविप्रमुक्त:, आधाकर्मादिविरहित: ज्ञानी ।
धर्मदेशनाकुशल:, अनुप्रेक्षाभावनायुतो योगी ॥
अन्वयार्थ : वे योगी विकथा आदि से मुक्त रहते हैं, अध:कर्म आदि क्रियाओं से रहित होते हैं, धर्मोपदेश देने में कुशल होते हैं, और बारह अनुप्रेक्षाओंकी भावना में निरत रहते हैं ॥94॥
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णिंदावंचणदूरो, परिसहउवसग्गदुक्ख सहमाणो ।
सुहझाणज्झयणरदो गयसंगो होदि मुणिराओ ॥95॥
निन्दार्वनदूर:, परीषहोपसर्गदु:खं सहमान: ।
शुभध्यानाध्ययनरत: गतसङ्गो भवति मुनिराज: ॥
अन्वयार्थ : वे निन्दा व वंचना से दूर रहा करते हैं, परीषह वउपसर्ग के दु:खों को सहन करने वाले होते हैं, शुभ ध्यान व स्वाध्याय में निरत रहते हैं, ऐसेपरिग्रह-रहित मुनिराज होते हैं ॥95॥
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अवियप्पो णिद्दंदो णिम्मोहो णिक्कलंकओ णियदो ।
णिम्मलसहावजुत्तो जोई सो होइ मुणिराओ ॥96॥
अविकल्प: निर्द्वन्द्व: निर्मोह: निष्कलङ्क: नियत: ।
निर्मलस्वभावयुक्त: योगी स भवति मुनिराज: ॥
अन्वयार्थ : जो निर्विकल्प, निर्द्वन्द्व, निर्मोही, निष्कलंक, स्थिरस्वभावी एवं निर्मल स्वभाव सेयुक्त होता है, वह मुनिराज व योगी होता है ॥96॥
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तिव्वं कायकिलेसं कुव्वंतो मिच्छभावसंजुत्तो ।
सव्वण्हुवदेसे सो णिव्वाणसुहं ण गच्छेदि ॥97॥
तीव्रं कायक्लेशं कुर्वन् मिथ्यात्वभावसंयुक्त: ।
सर्वज्ञोपदेशे स निर्वाणसुखं न गच्छति ॥
अन्वयार्थ : तीव्र कायक्लेश करता हुआ भी मिथ्यात्व भाव सेयुक्त होता है तो वह निर्वाण-सुख को प्राप्त नहीं करता । ऐसा सर्वज्ञ भगवान् के उपदेश में है ॥97॥
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रायादिमलजुदाणं णियप्परूवं ण दिस्सदे किं पि ।
समलादरिसे रूवं ण दिस्सदे जहा तहा णेयं ॥98॥
रागादिमलयुतानां निजात्मरूपं न दृश्यते किमपि ।
समलादर्शे रूपं न दृश्यते यथा तथा ज्ञेयम् ॥
अन्वयार्थ : राग आदि मल से युक्त जीवों को निज आत्म-स्वरूपकुछ भी दिखाई नहीं देता, जैसे मलिन दर्पण में रूप दिखाई नहीं देता, उसी तरह समझना चाहिए ॥98॥
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दंडत्तय सल्लत्तय मंडिदमाणो असूयगो साहू ।
भंडणजायणसीलो हिंडदि सो दीहसंसारम ॥99॥
दण्डत्रयेण शल्यत्रयेण मण्डितमान: असूयक: साधु: ।
भण्डन-याचनशील: हिण्डते स दीर्घसंसारम ॥
अन्वयार्थ : तीन दण्डों व तीन शल्यों से युक्त, अभिमान से पूर्ण, ईष्र्यालु, तथा कलह व याचना के स्वभाववाला जो साधु होता है, वह दीर्घ संसार में भटकता रहता है ॥99॥
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देहादिसु अणुरत्ता विसयासत्ता कसायसंजुत्ता ।
आदसहावे सुत्ता, ते साहू सम्मपरिचत्ता ॥100॥
देहादिषु अनुरक्ता: विषयासक्ता: कषायसंयुक्ता: ।
आत्मस्वभावे सुप्ता: ते साधव: सम्यक्त्वपरित्यक्ता: (परित्यक्त्सम्यक्त्वा:) ॥
अन्वयार्थ : जो शरीर आदि में अनुरक्त हैं, विषयों में आसक्त हैं, कषाय से युक्त हैंऔर आत्म-स्वभाव में सोये हुए हैं, वे साधु सम्यक्त्व से रहित हैं ॥100॥
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आरंभे धणधण्णे उवयरणे कंखिया तहासूया ।
वयगुणसीलविहीणा कसायकलहप्पिया मुहरा ॥101॥
संघविरोहकुसीला सच्छंदा रहिदगुरुकुला मूढा ।
रायादिसेवया ते जिणधम्मविराहया साहू ॥102॥
आरम्भे धनधान्ये उपकरणे कांक्षितास्तथा असूयका: ।
व्रत-गुण-शीलविहीना: कषायकलहप्रिया: मुखरा: ॥
संघविरोधकुशीला: स्वच्छन्दा: गुरुकुलरहिता: मूढा: ।
राजादिसेवका: ते जिनधर्मविराधका: साधव: ॥
अन्वयार्थ : जो साधु आरम्भ में, धन-धान्य में तथा उपकरण मेंआकांक्षा रखते हैं, जो ईष्र्यालु हैं, जो व्रत, गुण व शील से रहित हैं, जोकषाय व कलहों में प्रीति रखते हैं, जो वाचाल हैं, संघ में विरोध करने का जिनका स्वभावहै, जो स्वच्छन्द हैं, जो गुरु-कुल में नहीं रहते, जो मूढ़ , और जोराजा आदि के सेवक हैं, वे जैन धर्म की विराधना करने वाले हैं ॥101-102॥
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जोइसवेज्जमंतोवजीवणं वायवस्स ववहारं ।
धणधण्णपरिग्गहणं समणाणं दूसणं होदि ॥103॥
ज्योतिर्विद्यामन्त्रोपजीवनं वातिकस्य व्यवहार: ।
धनधान्यपरिग्रहणं श्रमणानां दूषणं भवति ॥
अन्वयार्थ : जो ज्योतिष विद्या, मन्त्र-विद्या द्वारा जीविका चलाना, वातविकारसे ग्रस्त का व्यापार करना, धन-धान्य कापरिग्रह करना । ये श्रमण के दूषण हैं ॥103॥
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जे पावारंभरदा कसायजुत्ता परिग्गहासत्ता ।
लोयववहारपउरा ते साहू सम्म-उम्मुक्का ॥104॥
ये पापारम्भरता: कषाययुक्ता: परिग्रहासक्ता: ।
लोकव्यवहारप्रचुरा: ते साधव: सम्यक्त्वोन्मुक्ता: ॥
अन्वयार्थ : जो साधु पाप कार्यों में संलग्न रहते हैं, कषायों से युक्त हैं, परिग्रह मेंआसक्त हैं, और लोक-व्यवहार में अधिक संलग्न हैं, वे सम्यक्त्व से रहित हैं ॥104॥
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ण सहंति इदरदप्पं थुवंति अप्पाणमप्पमाहप्पं ।
जिब्भणिमित्तं कुणंति कज्ज्ं ते साहु सम्म-उम्मुक्का ॥105॥
न सहन्ते इतरदर्पं स्तुवन्ति आत्मानम् आत्ममाहात्म्यम् ।
जिउीानिमित्तं कुर्वन्ति कार्यं ते साधव: सम्यक्त्व-उन्मुक्ता: ॥
अन्वयार्थ : जो दूसरम के बड़प्पन को सहन नहीं करते और स्वयं का एवं अपनेमहत्त्व का ही गुणगान करते हैं, तथा अपनी जिउीा के लिए प्रयत्नशीलरहते हैं, वे साधु सम्यक्त्व से रहित हैं ॥105॥
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चम्मठ्ठिमंसलवलुद्धो सुणहो गज्जदे मुणिं दिठ्ठा ।
जह तह पाविठ्ठो सो धम्मिठ्ठं सगीयठ्ठो ॥106॥
चर्मास्थिमांसलवलुब्ध: शुनक: गर्जति मुनिं दृष्ट्वा ।
यथा तथा पापिष्ठ: स धर्मिठं दृष्ट्वा स्वकीयार्थ: ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार चर्म, अस्थि व मांस का लोभी कुत्ता मुनि को देखकरभोंकता है, उसी प्रकार वह पापी अपने स्वार्थ को दृष्टि में रखकर किसीधर्मात्मा को देखकर भोंकता है । विपरीत भाषण करता है ॥106॥
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भुंजेदि जहालाहं जदि णाणसंजमणिमित्तं ।
झाणज्झयणणिमित्तं अणयारो मोक्खमग्गरदो ॥107॥
भुंक्ते यथालाभं यदि ज्ञानसंयमनिमित्तम् ।
ध्यानाध्ययननिमित्तम्, अनगार: मोक्षमार्गरत: ॥
अन्वयार्थ : यदि यथायोग्य थोड़ा-बहुत जो मिल जाता है तोमोक्षमार्ग में स्थित अनगार अपने ज्ञान व संयम की आराधना के लिए या ध्यान वअध्ययन की सिद्धि के लिए उसका सेवन करता है ॥107॥
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उदरग्गिसमनमक्खमक्खण-गोयार-सब्भपूरण-भमरं ॥
णाऊण तप्पयारम णिच्चेवं भुंजदे भिक्खू ॥108॥
उदराग्निशमनम्, अक्षम्रक्षण-गोचार-श्वभ्रपूरण-भ्रामरम् ।
ज्ञात्वा तत्प्रकारान् नित्यमेव भुंक्ते भिक्षु: ॥
अन्वयार्थ : उदराग्नि का शमन, इन्द्रियों को स्नेह से स्निग्ध करना, गोचरी, पेट के गड्ढे को मात्र भरना, भौंरम की तरह थोड़ा-थोड़ा लेना । इन प्रकारों को जानकर नित्यही साधु आहार-ग्रहण किया करता है ॥108॥
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रसरुहिरमंसमेदठ्ठिसुकिलमलमुत्तपूयकिमिबहुलं ।
दुग्गंधमसुइचम्ममयमणिच्चमचेदणं पडणं ॥109 ॥
रसरुधिरमांसमेदोऽस्थिशुक्रमलमूत्रपूयकृमिबहुलम् ।
दुर्गन्धम्, अशुचिचर्ममयम्, अनित्यम्, अचेतनं पतनम् ॥
अन्वयार्थ : इस शरीर में रस, रुधिर, मांस, चर्बी, हड्डी, शुक्र, मल, मूत्र, पीव वकृमि की बहुलता है, वह दुर्गन्धित, अपवित्र, चर्ममय है, अनित्य है, अचेतन व पतनशीलभी है ॥109॥
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बहुदुक्खभायणं कम्मकारणं भिण्णमप्पणो देहं ।
तं देहं धम्माणुाणकारणं चेदि पोसदे भिक्खू ॥110॥
बहुदु:खभाजनं कर्मकारणं भिन्नमात्मनो देहम् ।
तद् देहं धर्मानुठानकारणं चेति पोषति भिक्षु: ॥
अन्वयार्थ : वह अनेक दु:खों का पात्र है, कर्मों का कारण है, और वह आत्मा सेभिन्न है । चूँकि वह शरीर भी धर्म-सेवन का कारण है, इसलिए भिक्षु उसका पोषण करता है॥110 ॥
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संजमतवझाणज्झयणविणाणए गिण्हदे पडिगहणं ।
वज्जदि गिण्हदि भिक्खू ण सक्कदे वज्जिदुं दुक्खं ॥111 ॥
संयमतपोध्यानाध्ययनविज्ञानाय गृह्वाति प्रतिग्रहणम् ।
वर्जयति गृह्वाति भिक्षु: न शक्नोति वर्जितुं दु:खम् ॥
अन्वयार्थ : मुनि संयम, तप, ध्यान, अध्ययन एवं भेदविज्ञान के लिए आहार ग्रहण करते हैं । यदि इस को वे छोड़ते हैं और लेते हैं तो वे दु:ख को छोड़ नहीं सकते ॥111॥
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कोहेण य कलहेण य जायण सीलेण संकिलिसेण ।
रुद्देण य रोसेण य भुंजदि किं विंतरो भिक्खू ॥112॥
क्रोधेन च कलहेन याचनाशीलेन संक्लेशेन ।
रौद्रेण च रोषेण च भुंक्ते किं व्यन्तरो भिक्षु: ॥
अन्वयार्थ : क्रोध, कलह, याचनाशीलता, संक्लेश, रौद्र व रोष परिणाम के साथ यदि आहार ग्रहण करम तो क्या वह भिक्षु है? वह व्यन्तर है ॥112॥
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दिव्वुत्तरणसरिच्छं जाणिच्चाहो धरमदि जदि सुद्धो ।
तत्तायसपिंडसमं भिक्खू तुह पाणिगदपिंडं ॥113॥
दिव्योत्तरणसदृशं ज्ञात्वा अहो धर इति यदि शुद्धम् ।
तप्तायसपिण्डसमं भिक्षो! तव पाणिगतपिण्डम् ॥
अन्वयार्थ : हे मुने! तुम्हारम हाथों में रखा हुआ आहार अग्नि मेंतपाये हुए लोहे के पिण्ड की तरह यदि शुद्ध है, तो उसे दिव्य नौका की तरहजान कर ग्रहण करो ॥113॥
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अविरद-देस-महव्वय-आगमरुइणं वियारतच्चण्हं ।
पत्तंतरं सहस्सं णिद्दिठ्ठं जिणवरिंदेहिं ॥114॥
अविरत-देशमहाव्रति-आगमरुचीनां तत्त्वविचारकाणाम् ।
पात्रान्तरं सहस्रं निर्दिष्टं जिनवरमन्द्रै: ॥
अन्वयार्थ : अविरति, देशव्रती, महाव्रती, आगमरुचि, तत्त्वविचारक । इस प्रकारसे जिनेन्द्र देव ने हजारों पृथक्-पृथक् 'पात्र' बताये हैं ॥114॥
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उवसमणिरीहझाणज्झयणादिमहागुणा जहा दिठ्ठा ।
जेसिं ते मुणिणाहा उत्तमपत्ता तहा भणिया ॥115॥
उपशमनिरीहध्यानाध्ययनादिमहागुणा यथा दृष्टा: ।
येषां ते मुनिनाथा उत्तमपात्राणि तथा भणिता: ॥
अन्वयार्थ : जैसे जिनमें उपशम भाव, निरीहता , ध्यान वअध्ययन आदि महान् गुण दृष्टिगोचर होते हैं, तदनुरूप वे मुनिनाथ उत्तम पात्र कहे गये हैं ॥115॥
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ण वि जाणदि जिणसिद्ध सरूवं तिविहेण तह णियप्पाणं ।
जो तिव्वं कुणदि तवं सो हिंडदि दीहसंसारम ॥116॥
नापि जानाति जिनसिद्धस्वरूपं त्रिविधेन तथा निजात्मानम् ।
य: तीव्रं करोति तप: स हिण्डते दीर्घसंसारम ॥
अन्वयार्थ : जो जीवात्मा जिनेन्द्र देव व सिद्ध परमेठी के स्वरूप को तथा अपनीआत्मा को उसके तीन भेदों के साथ नहीं जानताहै, वह तीव्र तप करम, किन्तु दीर्घ संसार में भ्रमण करता रहता है ॥116॥
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दंसणसुद्धो धम्मज्झाणरदो संगवज्ज्दिो णिस्सल्लो ।
पत्तविसेसो भणिदो सो गुणहीणो दु विवरीदो ॥117॥
दर्शनशुद्ध:, धर्मध्यानरत:, सङ्गवर्जित: नि:शल्य: ।
पात्रविशेष: भणित: स गुणहीनस्तु विपरीत: ॥
अन्वयार्थ : निर्दोष सम्यग्दर्शन वाले, धर्मध्यान में रत, परिग्रह से रहित, शल्यों से रहित । विशेष पात्र कहा गया है । जो इन गुणों से हीन है, वह विपरीतयानी अपात्र होता है ॥117॥
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सम्मादिगुणविसेसं पत्तविसेसं जिणेहि णिद्दिठ्ठं ।
तं जाणिऊण देदि सुदाणं जो सो हु मोक्खरदो ॥118॥
सम्यक्त्वादिगुणविशेष: पात्रविशेष: जिनै: निर्दिष्ट: ।
तद् ज्ञात्वा ददाति सुदानं य: स खलु मोक्षरत: ॥
अन्वयार्थ : जिसमें सम्यक्त्व आदि विशेष गुण हैं, उसे जिनेन्द्र देव ने विशेष पात्र कहा है । इसप्रकार जान कर जो सुदान देता है, वही निश्चय से मोक्षमार्ग में रत है ॥118॥
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णिच्छयववहारसरूवं जो रयणत्तयं ण जाणदि सो ।
जं कीरदि तं मिच्छारूवं सव्वं जिणुद्दिठ्ठं ॥119॥
निश्चयव्यवहारस्वरूपं यो रत्नत्रयं न जानाति स: ।
यत् करोति तत् मिथ्यारूपं सर्वं जिनोद्दिष्टम् ॥
अन्वयार्थ : जो रत्नत्रय को निश्चय व व्यवहार । इन स्वरूपों से नहीं जानताहै, वह जो कुछ भी करता है, वह सब मिथ्यारूप होता है, ऐसाजिनेन्द्र देव ने कहा है ॥119॥
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किं जाणिदूण सयलं, तच्चं किच्चा तवं च किं बहुलं ।
सम्मविसोहिविहीणं, णाण तवं जाण भवबीयं ॥120॥
किं ज्ञात्वा सकलं तत्त्वं कृत्वा तपश्च किं बहुलम् ।
सम्यक्त्वविशोधिविहीनं ज्ञानं तपश्च जानीहि भवबीजम् ॥
अन्वयार्थ : सम्पूर्ण तत्त्वों को जानकर तथा तपस्या से भी क्या ज्यादा होने वाला है? सम्यक्त्व की शुद्धि नहीं हो तो ज्ञान व तपको संसार का बीज समझो ॥120॥
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वयगुणसीलपरीसहजयं च चरियं तवं छडावसयं ।
झाणज्झयणं सव्वं सम्म विणा जाण भवबीयं ॥121॥
व्रतगुणशीलपरीषहजयं च चारित्रं तप: षडावश्यकानि ।
ध्यानाध्ययनं सर्वं सम्यक्त्वं विना जानीहि भवबीजम् ॥
अन्वयार्थ : व्रत, गुण, शील, परीषह-जय, चारित्र, तप, षडावश्यक, ध्यान वअध्ययन । ये सभी सम्यक्त्व के बिना संसार के कारण हैं ॥121॥
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खाई-पूया-लाहं सक्काराइं किमिच्छसे जोई ।
इच्छसि जदा परलोयं, तेहिं किं तुज्झ परलोयं ॥122॥
ख्याति-पूजा-लाभं सत्कारादि किमिच्छसि योगिन्! ।
इच्छसि यदा परलोकं तै: किं तव परलोक: ॥
अन्वयार्थ : हे योगी! यदि परलोक को चाहते हो तो कीर्ति, पूजा,लाभ, सत्कार आदि की चाह क्यों करते हो? क्या तुम्हारा परलोक होने वाला है? ॥122॥
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कम्मादविहावसहावगुणं जो भाविदूण भावेण ।
णियसुद्धप्पा रुच्चदि तस्स य णियमेण होदि णिव्वाणं ॥123॥
कर्मात्मविभावस्वभावगुणं यो भावयित्वा भावेन ।
निजशुद्धात्मा रोचते तस्य च नियमेन भवति निर्वाणम्॥
अन्वयार्थ : जो मुनि कर्म-जनित विभाव और स्वभाव एवं गुण की भावपूर्वकभावना करता है, तथा निज शुद्धात्मा में रुचि रखता है, उसकोनियम से निर्वाण प्राप्त होता है ॥123॥
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मूलुत्तरुत्तरुत्तरदव्वादो भावकम्मदो मुक्को ।
आसवबंधसंवरणिज्ज्र जाणेदि किं बहुणा ॥124॥
मूलोत्तरोत्तरोत्तरद्रव्यतो भावकर्मतो मुक्त: ।
आस्रवबन्ध-संवर-निर्जरा: जानाति किम्बहुना ॥
अन्वयार्थ : जो आस्रव, बन्ध , संवर व निर्जरा तत्त्वों को जानता है, वह कर्मोंकी मूल प्रकृतियाँ, उत्तर प्रकृतियाँ, उत्तरोत्तर द्रव्यकर्म व भावकर्म । इनसे मुक्त होता है ॥124॥
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विसयविरत्तो मुच्चदि विसयासत्तो ण मुच्चदे जोई ।
बहिरंतरपरमप्पाभेदं जाणाहि किं बहुणा ॥125॥
विषयविरक्त: मुच्यते विषयासक्त: न मुच्यते योगी ।
बहिरन्त:परमात्मभेदं जानीहि किं बहुना?
अन्वयार्थ : विषयों से विरक्त योगी मुक्त होता है और विषयों में आसक्त मुक्त नहींहोता । बहिरात्मा, अन्तरात्मा व परमात्मा के भेदों को जानो , और अधिक कहने से क्या लाभ? ॥125॥
🏠
णिय-अप्पणाणझाणज्झयणसुहामियरसायणं पाणं ।
मोत्तूणक्खाण सुहं जो भुंजदि सो हु बहिरप्पा ॥126॥
निजात्मज्ञानध्यानाध्ययनसुखामृतरसायनपानम् ।
मुक्त्वा अक्षाणां सुखं यो भुंक्ते स खलु बहिरात्मा ॥
अन्वयार्थ : जो निज आत्मा के ज्ञान, ध्यान व अध्ययन रूपी अमृत-तुल्य रसायनके पान को छोड़ कर, इन्द्रियों के सुख को भोगता है, वह निश्चय ही 'बहिरात्मा' है ॥126॥
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किम्पायफलं पक्कं विसमिस्सिदमोदगिंदवारुणसोहं ।
जिव्हसुहं दिठ्ठिपियं जह तह जाणक्खसोक्खं पि ॥127॥
किम्पाकफलं पयं विषमिश्रितमोदक-इन्द्रायणशोभम् ।
जिउीासुखं दृष्टिप्रियं यथा तथा जानीहि अक्षसौख्यमपि ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार पका हुआ किम्पाक फल, विषमिश्रित लड्डू और इन्द्रायण फल । येदेखने में सुन्दर होते हैं और जीभ को भी सुख देते हैं ,उसी प्रकार इन्द्रिय-सुखों को भी जानें ॥127॥
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देह कलत्तं पुत्तं मित्तादि विहावचेदणारूवं ।
अप्पसरूवं भावदि सो चेव हवेदि बहिरप्पा ॥128॥
देहं कलत्रं पुत्रं मित्रादि विभावचेतनारूपम् ।
आत्मस्वरूपं भावयति स एव भवति बहिरात्मा ॥
अन्वयार्थ : जो जीव शरीर, पत्नी, पुत्र, मित्र आदि को, तथा विभाव-चेतना को आत्मस्वरूप मानता है, वह 'बहिरात्मा' हीहोता है ॥128॥
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इंदियविसयसुहादिसु मूढमदी रमदि ण लहदि तच्चं ।
बहुदुक्खमिदि ण चिंतदि, सो चेव हवेदि बहिरप्पा ॥129॥
इन्द्रियविषयसुखादिषु मूढमति: रमते न लभते तत्त्वम् ।
बहुदु:खमिति न चिन्व्यति स चैव भवति बहिरात्मा ॥
अन्वयार्थ : जो अज्ञानी जीव इन्द्रिय-विषयों के सुख में रम जाता है और यह विचार नहीं करताकि ये इन्द्रिय-विषय बहुत दु:खदायी हैं और जो तत्त्व को भी ग्रहण नहीं कर पाता, वह'बहिरात्मा' ही होता है ॥129॥
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जं जं अक्खाण सुहं तं तं तिव्वं करमदि बहुदुक्खं ।
अप्पाणमिदि ण चिंतदि सो चेव हवेदि बहिरप्पा ॥130॥
यत् यत् अक्षाणां सुखं तत् तत् तीव्रं करोति बहुदु:खम् ।
आत्मानमिति न चिन्व्यति स एव भवति बहिरात्मा ॥
अन्वयार्थ : जो-जो भी इन्द्रिय-सुख है, वह-वह आत्मा को तीव्र व अनेक प्रकार के दु:ख देताहै । इस प्रकार जो विचार नहीं करता, वह 'बहिरात्मा' ही होता है ॥130॥
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जेसिं अमेज्झमज्झे उप्पण्णाणं हवेदि तत्थ रुई ।
तह बहिरप्पाणं बहिरिंदिय-विसएसु होदि मदी ॥131॥
येषाम् अमेध्यमध्ये उत्पन्नानां भवति तत्र रुचि: ।
तथा बहिरात्मनां बहिरिन्द्रियविषयेषु भवति मति: ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार अमेध्य में उत्पन्न होने वाले की उसी में रुचि होती है, उसी प्रकार बहिरात्मा की बुद्धि बाह्य इन्द्रियविषयों में होती है ॥131॥
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पूयसूयरसाणाणं खारामियभक्खभक्खणाणं पि ।
मणुजाइ जहा मज्झे बहिरप्पाणं तहा णेयं ॥132॥
पूय-सूपरसाज्ञानं क्षारामृतभक्ष्याभक्ष्याज्ञानमपि ।
मनुजाति: यथा मध्ये बहिरात्मा तथा ज्ञेय: ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार, मनुष्य जाति अखाद्य व स्वादयोग्य पदार्थों का विवेकतथा क्षार व अमृत एवं भक्ष्य व अभक्ष्य का ज्ञान नहीं रखती, उसी प्रकार बहिरात्माको उन के मध्य विवेक नहीं होता । यह जानना चाहिए ॥132॥
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सिविणे वि ण भुंजदि विसयाइं देहादिभिण्णभावमदी ।
भुंजदि णियप्परूवो सिवसुहरत्तो दु मज्झिमप्पो सो ॥133॥
स्वप्नेऽपि न भुंक्ते विषयान् देहादिभिन्नभावमति: ।
भुंक्ते निजात्मरूपं शिवसुखरक्तस्तु मध्यमात्मा स: ॥
अन्वयार्थ : जो स्वप्न में भी विषयों का सेवन नहीं करता है और शरीर आदि सेभिन्न अपनी आत्मा को मानता है, तथा जो मोक्ष-सुख में लीन अपनी आत्मा का अनुभवकरता है, वह मध्यम आत्मा होता है ॥133॥
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मलमुत्तघडव्व चिरंवासिद दुव्वासणं ण मुंचेदि ।
पक्खालिदसम्मत्तजलो य णाणमियेण पुण्णो वि ॥134॥
मलमूत्रघट इव चिरवासितां दुर्वासनां न र्मुति ।
सम्यक्त्वजलप्रक्षालित: च ज्ञानामृतेन पूर्णोऽपि ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार मल-मूत्र का घड़ा चिरकाल से दुर्गन्धित होने के कारणअपनी दुर्वासना को नहीं छोड़ता, उसी प्रकार सम्यक्त्व रूपी जल से धोने पर भीज्ञानामृत से पूर्ण यह आत्मा दुर्वासना को नहीं छोड़ पाती ॥134॥
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सम्मादिठ्ठी णाणी अक्खाण सुहं कहं पि अणुहवदि ।
केणावि ण परिहरणं वाहीण विणासणठ्ठ भेसज्ज्ं ॥135॥
सम्यग्दृष्टि: ज्ञानी अक्षाणां सुखं कथमपि अनुभवति ।
केनापि न परिहरणं व्याधिविनाशनार्थं भेषजम् ॥
अन्वयार्थ : जो सम्यग्दृष्टि व ज्ञानी है, वह किसी प्रकार इन्द्रियों के सुख का अनुभव उसी प्रकार करता है, जिस प्रकार कोई भी रोगदूर करने के लिए औषधि नहीं छोड़ता ॥135॥
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किं बहुणा हो तजि बहिरप्पसरूवाणि सयलभावाणि ।
भजि मज्झिमपरमप्पा वत्थुसरूवाणि भावाणि ॥136॥
किम्बहुना अहो त्यज बहिरात्मस्वरूपान् सकलभावान् ।
भज मध्यमपरमात्मन: वस्तुस्वरूपान् भावान् ॥
अन्वयार्थ : अधिक क्या कहें? हे भव्य! बहिरात्म-स्वरूप सभी भावों को छोड़ोऔर अन्तरात्मा व परमात्मा के वस्तुस्वरूप भावों को भजो ॥136॥
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चदुगदिसंसारगमणकारणभूदाणि दुक्खहेदूणि ।
ताणि हवे बहिरप्पा, वत्थुसरूवाणि भावाणि ॥137॥
चतुर्गतिसंसारगमनकारणभूता: दु:खहेतव: ।
ते भवन्ति बहिरात्मान: वस्तुस्वरूपा भावा: ॥
अन्वयार्थ : वस्तु-स्वरूप से सम्बन्धित जो भी भाव बहिरात्मारूप होते हैं, वे चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण के कारण हैं और दु:ख केहेतु हैं ॥137॥
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मोक्खगदिगमणकारणभूदाणि पसत्थपुण्णहेदूणि ।
ताणि हवे दुविहप्पा, वत्थुसरूवाणि भावाणि ॥138॥
मोक्षगतिगमनकारणभूता: प्रशस्तपुण्यहेतव: ।
ते भवन्ति द्विविधात्मन: वस्तुस्वरूपा: भावा:॥
अन्वयार्थ : द्विविध आत्मा के वस्तुस्वरूप-सम्बन्धीजो भाव हैं, वे प्रशस्त पुण्य के तथा मोक्ष-गति में गमन के कारण होते हैं ॥138॥
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दव्वगुणपज्ज्एहिं जाणदि परसगसमयादिविभेदं ।
अप्पाणं जाणदि सो सिवगदिपहणायगो होदि ॥139॥
द्रव्यगुणपर्यायै: जानाति परस्वकसमयादिविभेदम् ।
आत्मानं जानाति स: शिवगतिपथनायको भवति ॥
अन्वयार्थ : जो द्रव्य, गुण व पर्यायों के साथ तथा पर समय व स्वसमय । इनभेदों के साथ आत्मा को जानता है, वह शिव गति के मार्ग का नायक होता है ॥139॥
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बहिरंतरप्पभेदं परसमयं भण्णदे जिणिंदेहिं ।
परमप्पा सगसमयं, तब्भेदं जाण गुणठाणे ॥140॥
बहिरन्तरात्मभेद: परसमयो भण्यते जिनेन्द्रै: ।
परमात्मा स्वकसमय:, तद्भेदं जानीहि गुणस्थाने ॥
अन्वयार्थ : जिनेन्द्र भगवान् ने बहिरात्मा व अन्तरात्मा । इन दोनों भेदों को 'परसमय'कहा है । परमात्मा 'स्वसमय' है । इनके भेद को गुणस्थानों की दृष्टि से जानें ॥140॥
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मिस्सो त्ति बाहिरप्पा तरतमया तुरिय अंतरप्प जहण्णो ।
सत्तोत्ति मज्झिमंतर खीणुत्तम परम जिणसिद्धा ॥141॥
मिश्र इति बहिरात्मा तरतमव्या तुर्ये अन्तरात्मा जघन्य: ।
सप्त इति मध्यमान्तर: क्षीणे उत्तम:, परमा जिनसिद्धा: ॥
अन्वयार्थ : मिश्र तक 'बहिरात्मा' होते हैं, चौथे में'जघन्य अन्तरात्मा' होते हैं, सात तकतरतमता के साथ 'मध्यम अन्तरात्मा' होते हैं, और क्षीण में उत्तम अन्तरात्मा,एवं उससे आगे गुणस्थानों में जिनेन्द्र व सिद्ध परम यानी 'परमात्मा' होते हैं ॥141॥
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मूढत्तय-सल्लत्तय-दोसत्तय-दंड-गारवत्तयेहिं ।
परिमुक्को जोई सो, सिवगदिपहणायगो होदि ॥142॥
मूढत्रय-शल्यत्रय-दोषत्रय-दण्ड-गारवत्रयै: ।
परिमुक्तो योगी स: शिवगतिपथनायको भवति ॥
अन्वयार्थ : जो योगी तीन मूढ़ताओं, तीन शल्यों, तीन दोषों, तीन दण्डों एवं तीनगारवों से मुक्त रहता है, वह शिवगति के पथ का नायक होता है ॥142॥
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रयणत्तय-करणत्तय-जोगत्तय-गुत्तिव्य-विसुद्धेहिं ।
संजुत्तो जोई सो सिवगदिपहणायगो होदि ॥143॥
रत्नत्रयकरणत्रय-योगत्रय-गुप्तित्रय-विशुद्धिभि: ।
संयुक्तो योगी स: शिवगतिपथनायको भवति ॥
अन्वयार्थ : जो योगी रत्नत्रय, तीन करण, तीन योग, तीन गुप्ति, इनकी विशुद्धि से युक्त होताहै, वह शिवगति के मार्ग का नायक होता है ॥143॥
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जिणलिंगहरो जोई विरायसम्मत्तसंजुदो णाणी ।
परमोवेक्खाइरियो सिवगदिपहणायगो होदि ॥144॥
जिनलिङ्गधरो योगी विरागसम्यक्त्वसंयुतो ज्ञानी ।
परमोपेक्षा-ईरित: शिवगतिपथनायको भवति ॥
अन्वयार्थ : जो योगी जिन-मुद्रा का धारक है, वैराग्य व सम्यक्त्व से सम्पन्न है, ज्ञानी है, तथापरमोपेक्षाभाव को प्राप्त है, वह शिवगति के मार्ग का नायक होता है ॥144॥
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बहिरब्भंतरगंथविमुक्को सुद्धोपओयसंजुत्तो ।
मूलुत्तरगुणपुण्णो सिवगदिपहणायगो होदि ॥145॥
बहिरभ्यन्तरग्रन्थविमुक्त: शुद्धोपयोगसंयुक्त: ।
मूलोत्तर-गुणपूर्ण: शिवगतिपथनायको भवति ॥
अन्वयार्थ : जो बाह्य व आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त है, शुद्धोपयोग वाला है, तथा मूल गुणों वउत्तर गुणों से परिपूर्ण है, वह शिवगति के मार्ग का नायक होता है ॥145॥
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जं जादिजरामरणं दुहदु विसाहिविसविणासयरं ।
सिवसुहलाहं सम्मं संभावदि सुणदि साहदे साहू ॥146॥
यत् जातिजरामरण-दु:खदुष्टविषाहिविषविनाशकरम् ।
शिवसुखलाभं (लम्भकं) सम्यक्त्वं सम्भावयति, श्रृणोति साधयति साधु: ॥
अन्वयार्थ : जो जन्म, बुढ़ापा मृत्यु एवं दु:ख रूपी दुष्ट सर्प के विष का नाश करनेवाला है, और मोक्ष-सुख का लाभ कराता है, उसी सम्यक्त्व की साधु भावना करता है,उसे ही सुनता है और उसी को साधता है ॥146॥
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किं बहुणा हो देविंदाहिंदणरिंदगणहरिंदेहिं ।
पुज्ज परमप्पा जे, तं जाण पहाण सम्मगुणं ॥147॥
किम्बहुना, अहो देवेन्द्र-अहीन्द्र-नरमन्द्र-गणधरमन्द्रै: ।
पूज्या: परमात्मान: ये, तत् जानीहि प्रधानं सम्यक्त्वगुणम् ॥
अन्वयार्थ : अहो! अधिक क्या कहें, जो परमात्मा देवेन्द्र, नागेन्द्र, नरमन्द्र औरगणधरमन्द्रों से पूजित हैं, उनमें सम्यक्त्वगुण की प्रधानता है । यह जानें ॥147॥
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उवसम्मइ सम्मत्तं मिच्छत्तबलेण पेल्लदे तस्स ।
परिवट्टंति कसाया अवसप्पिणी कालदोसेण ॥148॥
उपशमकं सम्यक्त्वं मिथ्यात्वबलेन पीड्यते तस्य ।
प्रवर्तन्ते कषाया: अवसर्पिणी-कालदोषेण ॥
अन्वयार्थ : अवसर्पिणी काल के दोष से मिथ्यात्व की प्रबलता से उपशम सम्यक्त्वनष्ट हो जाता है, फिर कषाय पुन: उत्पन्न हो जाती हैं ॥148॥
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गुण-वय-तव-सम-पडिमा-दाणं जलगालणं अणत्थमियं ।
दंसण-णाण-चरित्तं किरिया तेवण्ण सावया भणिदा ॥149॥
गुण-व्रत-तप:-साम्य-प्रतिमा-दानं जलगालनम् अनस्तमितम् ।
दर्शन-ज्ञान-चारित्रं क्रिया: त्रिपञ्चाशत् श्रावकीया: भणिता: ॥
अन्वयार्थ : गुण, व्रत, तप, समता भाव, प्रतिमाएँ, दान, जलगालन , रात्रिभोजन त्याग, सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र । ये तिरमपन क्रियाएँ श्रावकों की कही गई हैं ॥149॥
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णाणेण झाणसिद्धी झाणादो सव्वकम्मणिज्जरणं ।
णिज्ज्रणफलं मोक्खं णाणब्भासं तदो कुज्ज ॥150॥
ज्ञानेन ध्यानसिद्धि:, ध्यानात् सर्वकर्मनिर्जरणम् ।
निर्जरणफलं मोक्ष:, ज्ञानाभ्यासं तत: कुर्यात् ॥
अन्वयार्थ : ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है, और ध्यान से समस्त कर्मों कीनिर्जरा होती है । निर्जरा का फल मोक्ष है, इसलिए ज्ञान का अभ्यास करना चाहिए ॥150॥
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कुसलस्स तवो णिवुणस्स संजमो समपरस्स वेरग्गो ।
सुदभावणेण तत्तिय तम्हा सुदभावणं कुणह ॥151॥
कुशलस्य तप:, निपुणस्य संयम: शमपरस्य वैराग्यम् ।
श्रुतभावनेन तत्-त्रयं तस्मात् श्रुतभावनां कुर्यात् ॥
अन्वयार्थ : कुशल साधक को तप की सिद्धि हो जाती है, निपुण साधक कोसंयम और शमभावी को वैराग्य हो जाता है, किन्तु श्रुत की भावना से ये तीनों सध जाते हैं, इसलिए श्रुतभावना करनी चाहिए ॥151॥
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कालमणंतं जीवो मिच्छत्तसरूवेण पंचसंसारम ।
हिंडदि ण लहदि सम्मं संसारब्भमणपारंभो ॥152॥
कालमनन्तं (यावत्) जीवो मिथ्यात्वस्वरूपेण पञ्चसंसारमषु ।
हिण्डते न लभते सम्यक्त्वं संसारभ्रमणप्रारम्भ: ॥
अन्वयार्थ : मिथ्यात्व स्वरूप होने से अनन्त काल तक पञ्च परावर्तनरूप संसार में भ्रमण करता है । यह सम्यक्त्व नहीं प्राप्त करता है, अत: उसकासंसार-भ्रमण होता रहता है ॥152॥
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सम्मद्दंसण सुद्धं जाव दु लभदे हि ताव सुही ।
सम्मद्दंसण सुद्धं जाव ण लभदे हि ताव दुही ॥153॥
सम्यग्दर्शनं शुद्धं यावत् तु लभते हि तावत् सुखी ।
सम्यग्दर्शनं शुद्धं यावत् न लभते हि तावत् दु:खी ॥
अन्वयार्थ : जब तक यह जीव शुद्ध सम्यग्दर्शन नहीं प्राप्त करता, तब तक दु:खी रहता है । किन्तु जब शुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है, तब सुखी हो जाता है ॥153॥
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किं बहुणा, वयणेण दु, सव्वं दुक्खेव सम्मत्त विणा ।
सम्मत्तेण वि जुत्तं सव्वं सोक्खेव जाणं खु ॥154॥
किम्बहुना वचनेन, तु सर्वं दु:खमेव सम्यक्त्वं विना ।
सम्यक्त्वेन अपि युक्तञ्सर्वं सौख्यमेव जानीहि खलु ॥
अन्वयार्थ : अधिक क्या कहें, सम्यक्त्व के बिना तो सब दु:ख ही दु:ख है, और सम्यक्त्व सेयुक्त सभी सुख रूप ही है । ऐसा निश्चित जानो ॥154॥
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णिक्खेव-णय-पमाणं सद्दालंकार-छंद लहियाणं ।
णाडयपुराण कम्मं सम्म विणा दीहसंसारं ॥155॥
निक्षेप-नय-प्रमाणं शब्दालङ्कारछन्दो लब्धवताम् ।
नाटक-पुराणं कर्म सम्यक्त्वं विना दीर्घसंसार: ॥
अन्वयार्थ : निक्षेप, नय, प्रमाण, शब्दालङ्कार, छन्द, नाटक, पुराण । इन्हें अधिगतकिया और क्रियाएँ भी कीं, किन्तु सम्यक्त्व के बिना संसार के कारण रही हैं ॥155॥
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वसदि-पडिमोवयरणे गणगच्छे समयसंघजादिकुले ।
सिस्सपडिसिस्सछत्ते सुदजादे कप्पडे पुत्थे ॥156॥
वसति-प्रतिमोपकरणे गणगच्छे समयसंघजातिकुले ।
शिष्यप्रतिशिष्यच्छात्रे सुतजाते कर्पटे पुस्तके ॥
अन्वयार्थ : कोई श्रमण वसतिका , प्रतिमोपकरण, गण, गच्छ, शास्त्र,संघ, जाति, कुल, शिष्य, प्रतिशिष्य, छात्र, पुत्र-प्रपौत्र, वस्त्र, पुस्तक, पिच्छी, संस्तर , ॥156॥
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पिच्छे संथरणे इच्छासु लोहेण कुणदि ममयारं ।
यावच्च अट्टरुद्दं, ताव ण मुंचेदि ण हु सोक्खं ॥157॥
पिच्छिकायां संस्तरम इच्छासु लोभेन करोति ममकारम् ।
यावच्च आर्तरौद्रे तावन्न मुच्यते न खलु सौख्यम् ॥
अन्वयार्थ : इनमें, तथा इच्छाओं में, लोभवश ममत्व करता है, और जब तक उसेआर्त या रौद्र ध्यान रहता है, तब तक वह मुक्त नहीं होता और न ही उसे सुख मिलता है ॥157॥
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रयणत्तयमेव गणं, गच्छं गमणस्स मोक्खमग्गस्स ।
संघो गुणसंघादो समओ खलु णिम्मलो अप्पा ॥158॥
रत्नत्रयमेव गण:, गच्छ:, गमनं मोक्षमार्गे ।
संघो गुणसंघात: समय: खलु निर्मल आत्मा ॥
अन्वयार्थ : रत्नत्रय ही 'गण' है और मोक्षमार्ग में गमन ही 'गच्छ' है, गुणों कासमूह ही 'संघ' है, और निर्मल आत्मा ही 'समय' है ॥158॥
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मिहिरो महंधयारं मरुदो मेहं महावणं दाहो ।
वज्जे गिरि जहा विणसिज्ज्दि सम्मं तहा कम्मं ॥159॥
मिहिरो महान्धकारं मरुत् मेघं महावनं दाह: ।
वज्रो गिरिं यथा विनाशयति सम्यक्त्वं तथा कर्म ॥
अन्वयार्थ : सम्यग्दर्शन कर्म को उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जिस प्रकार सूर्य अत्यन्तघने अन्धकार को, वायु मेघ को, अग्नि महावन को तथा वज्र पर्वत को नष्ट कर देता है ॥159॥
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मिच्छंधयाररहिदं हियमज्झं सम्मरयणदीवकलावं ।
जो पज्ज्लदि स दीसदि, सम्मं लोयत्तयं जिणुद्दिठ्ठं ॥160॥
मिथ्यात्वान्धकाररहिते हृदयमध्ये सम्यक्त्वरत्नदीप-कलापम् ।
य: प्रज्वालयति स पश्यति सम्यक् लोकत्रयं जिनोद्दिष्टम्॥
अन्वयार्थ : जो मिथ्यात्व रूपी अन्धकार से रहित अपने हृदय में सम्यक्त्व रत्नरूपी दीप-समूह को प्रज्वलित करता है, वह तीनों लोकों को भलीभांति देखताहै ॥160॥
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कतकफलभरियणिम्मल जलं ववगयकालिया सुवण्णं च ।
मलरहियसम्मजुत्तो भव्ववरो लहइ लहु मोक्खं ॥161॥
कतकफलभृतनिर्मलं जलं व्यपगतकालिकं सुवर्णं च ।
मलरहितसम्यक्त्वयुक्तो भव्यवरो लभते लघु मोक्षम् ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार निर्मली डालने से जल निर्मल हो जाता है, सुवर्ण की कालिमा दूर हो जाती है, उसी प्रकार निर्दोष सम्यक्त्व से युक्त श्रेठभव्य प्राणी शीघ्र मोक्ष प्राप्त करता है ॥161॥
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पवयणसारब्भासं परमप्पज्झाणकारणं जाण ।
कम्मक्खवणणिमित्तं कम्मक्खवणे हि मोक्खसुहं ॥162॥
प्रवचनसाराभ्यासं परमात्म-ध्यानकारणं जानीहि ।
कर्मक्षपणनिमित्तं कर्मक्षपणे हि मोक्षसुखम् ॥
अन्वयार्थ : प्रवचन-सार का अभ्यास परमात्मा के ध्यान काकारण है । ऐसा जानें । वह कर्म-क्षय का कारण है और कर्म-क्षय होने पर निश्चितरूप से मोक्ष-सुख मिलता है ॥162॥
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धम्मज्झाणब्भासं करमदि तिविहेण भावसुद्धेण ।
परमप्पझाणचेट्ठो तेणेव खवेदि कम्माणि ॥163॥
धर्मध्यानाभ्यासं करोति त्रिविधया भावशुद्ध्या ।
परमात्म-ध्यानस्थित: तेनैव क्षपयति कर्माणि ॥
अन्वयार्थ : जो त्रिविध भाव-शुद्धि के साथ धर्मध्यानका अभ्यास करता है, और परमात्म-ध्यान में स्थित हो जाता है एवं उसी से कर्मों का क्षय कर देता है ॥163॥
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अदिसोहणजोएण सुद्धं हेमं हवेदि जह तह य ।
कालाईलद्धीए अप्पा परमप्पओ हवदि ॥164॥
अतिशोधनयोगेन शुद्धं हेम भवति यथा तथा च ।
कालादिलब्ध्या आत्मा परमात्मा भवति॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार अतिशोधन क्रिया द्वारा स्वर्ण शुद्ध हो जाता है, उसीतरह काल-लब्धि आदि के द्वारा आत्मा परमात्मा हो जाता है ॥164॥
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कामदुहिं कप्पतरुं चिंतारयणं रसायणं परसं ।
लद्धो भुंजदि सोक्खं जहच्छिदं जाण तह सम्मं ॥165॥
कामदुहां कल्पतरुं चिन्तारत्नं रसायनं पारसं(मणिम्) ।
लब्ध्वा भुंक्ते सौख्यं यथा । इच्छितं जानीहि तथा सम्यक्त्वम्॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार कामधेनु, कल्पतरु, चिन्तामणि रत्न, रसायन वपारसमणि को प्राप्त कर व्यक्ति यथेच्छित सौख्य प्राप्त करता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व कोभी जानो ॥165॥
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सम्म णाणं वेरग्गतवोभावं णिरीहवित्तिचारित्तं ।
गुणसीलसहावं तह उप्पज्ज्दि रयणसारमिणं ॥166॥
सम्यक्त्वं ज्ञानं वैराग्यतपोभावं निरीहवृत्तिचारित्रम् ।
गुणशीलस्वभावं तथा उत्पादयति 'रयणसार:' (रत्नसार:) अयम् ॥
अन्वयार्थ : यह 'रयणसार' ग्रन्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, वैराग्य, तपोभाव, निरीहवृत्ति, चारित्र तथा गुण, शील व आत्म-स्वभाव को उत्पन्न करता है ॥166॥
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गंथमिणं जिणदिठ्ठं ण हु, मण्णदि ण हु सुणेदि ण हु पढदि ।
ण हु चिंददि ण हु भावदि सो चेव हवेदि कुद्दिठ्ठी ॥167॥
ग्रन्थमिमं जिनदिष्टं न हि मन्यते, न हि श्रृणोति, न हि पठति ।
न हि चिन्व्यति, न हि भावयति, स चैव भवति कुदृष्टि: ॥
अन्वयार्थ : जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट इस ग्रन्थ के अर्थ को जो नहीं मानता,नहीं सुनता, नहीं पढ़ता, नहीं चिन्तन करता और न ही भावना करता है, वह व्यक्ति मिथ्यादृष्टिहै ॥167॥
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इदि सज्ज्णपरिपुज्ज्ं रयणसारगंथं णिरालसो णिच्चं ।
जो पढदि सुणदि भावदि सो पावदि सासदं ठाणं ॥168॥
इति सज्ज्नपरिपूज्यं रयणसारग्रन्थं निरालसो नित्यम् ।
य: पठति श्रृणोति भावयति, स प्राप्नोति शाश्वतं स्थानम्॥
अन्वयार्थ : जो व्यक्ति सज्ज्नों के द्वारा आदरणीय इस 'रयणसार' ग्रन्थ कोआलस्यहीन होकर नित्य पढ़ता है, सुनता है, मनन-चिन्तन करता है, वहशाश्वत स्थान को प्राप्त करता है ॥168॥
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ण लहइ जायणसीले, ण संकिलेस्सेण रुद्देण ।
रागेण य रोसेण य, भुंजइ किं तवेंतरो भिक्खू ॥
न लभते याचनाशील:, न संक्लेशेन रौद्रेण ।
रागेण च रोषेण च, भुंक्ते किं ते व्यन्तरो भिक्षो ॥
अन्वयार्थ : हे भिक्षु! याचनाशील होकर आहार ग्रहण करते हो, और संक्लेश, रौद्र भाव, राग भाव या रोष भाव के साथ जो आहार ग्रहण करते हो। ऐसा करना तुम्हारा क्या व्यन्तर जैसा नहीं है? ॥169॥
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