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लब्धिसार
























- नेमिचंद्र-आचार्य



nikkyjain@gmail.com
Date : 17-Nov-2022


Index


गाथा / सूत्रविषय
001) मंगलाचरण
002) जीव में प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने की योग्यता बताते है
003) जीव के सम्यक्त्वोत्पत्ति से पूर्व मिथ्यात्व गुणस्थान में होने वाली पांच लब्धियां
004) क्षयोपशम लब्धि का स्वरुप
005) विशुद्धि लब्धि का स्वरूप
006) देशना लब्धि का स्वरुप
007) प्रायोग्य लब्धि का स्वरुप
008) प्रथमोपशम सम्यक्त्व ग्रहण करने की योग्यता का प्रतिपादन
009) प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए जीव के स्थिति बंध योग्य परिणाम निम्न सूत्र में बताये गए है
010) प्रायोग्य-लब्धि काल में प्रकृति-बंधापसरण
011-015) चौतीस प्रकृति बन्धापसरणों (व्युच्छेद) का ५ गाथाओं में वर्णन
016-017-018) नर, तिर्यंच और देवगति में, रत्नादि ६ पृथिवियों और सनत्कुमार आदि दश कल्पों में और आनतकल्प आदि में बंधपसरणों के निर्देश -
019) सातवे नरकपृथिवी में बन्धापसरण
020) मनुष्य और तिर्यंचगति में प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि जीव के द्वारा बध्यमान प्रकृतिया
021) अप्रमत्त गुणस्थान में बंधने वाली २८ प्रकृतियाँ
022) प्रथमोपशसम्यक्तव के अभिमुख देव और नारकी (छट्टी पृथिवी तक) द्वारा बढ़ी कर्म प्रकृतियाँ
023) सातवी पृथ्वी के नारकी द्वारा बंध प्रकृतियाँ
024) सम्यक्त्व के अभिमुख मिथिदृष्टि जीव के स्थिति-अनुभाग बंध के भेद
025) सम्यक्त्व के अभिमुख मिथिदृष्टि जीव के प्रदेशबंध के विभाग
027) उक्त तीन महादण्डकों में अपुनरुक्त प्रकृतियाँ
028) प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख विशुद्ध मिथ्यादृष्टि के प्रकृति-स्थिति अनुभाग और प्रदेशों का उदय
029-030) प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख विशुद्ध मिथ्यादृष्टि के उदय प्रकृति संबंधी स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेशों की उदय-उदीरणा का कथन
31) प्रकृतियों के सत्त्व का कथन
32) सत्त्व प्रकृतियों के स्थिति-अनुभाग और प्रदेश बंध
33) पंचम-करण लब्धि
34) तीनों करणों का काल अल्पबहुत्व सहित
35) प्रथम करण को अध:करण कहने का कारण
36) अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के स्वरुप का निरूपण
37) अध:प्रवृत्तकरण संबंधी विशेष (निम्न ५ गाथा) कथन
42) अध: प्रवृत्त करण संबंधी अनुकृष्टि एवं अल्पबहुत्व अनुयोग-द्वार



!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!

श्रीमद्‌-नेमिचंद्र-आचार्यदेव-प्रणीत

श्री
लब्धिसार

मूल प्राकृत गाथा,


आभार :

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!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!

ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥

अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥

अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥

॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥

सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्री-लाब्धिसार नामधेयं, अस्य मूल-ग्रन्थकर्तार: श्री-सर्वज्ञ-देवास्तदुत्तर-ग्रन्थ-कर्तार: श्री-गणधर-देवा: प्रति-गणधर-देवास्तेषां वचनानुसार-मासाद्य आचार्य श्री-भगवत्नेमिचंद्र-आचार्यदेव विरचितं ॥



॥ श्रोतार: सावधान-तया शृणवन्तु ॥

मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्‌ ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम्‌ ॥


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+ मंगलाचरण -
सिद्धे जिणिंदचंदे आयरियन उवज्झाय साहुगणे
वंदिय सम्मद्दं सण-चरित्तलद्धिं परुवेमो ॥1॥
अन्वयार्थ : [सिद्धे] सिद्ध, [जिणिंदचंदे] चन्द्रमा के समान समस्त लोक को प्रकाशित करने वाले अरिहंत, [आयरियन] आचार्यों, [उवज्झाय] उपाध्याय और [साहुगणे] सब साधुओं को [वंदिय] नमस्कार कर [सम्मद्दं सण] सम्यग्दर्शन और [चरित्त] सम्यक्चारित्र की [लद्धिं] प्राप्ति के उपायों को मैं, नेमिचंद आचार्य, [परुवेमो] कहूँगा ।

बोधिनी :

सिद्धान् जिनेन्द्रचन्द्रान् आचार्योपाध्यायसाधुगणान्;;वन्दित्ता सम्यग्दर्शन चारित्र लब्धि प्ररूपयाम :॥१॥

चन्द्रमा के समान सम्पूर्ण लोक के प्रकाशक अरिहंत भगवान, जो अपने समस्त कार्य सिद्ध कर कृत कृत्य हो गए अर्थात जो अष्टकर्मों का क्षय कर सिद्ध हो गए, तेरह प्रकार के चारित्र में स्वयं प्रवृत्त रहने वाले तथा अन्य साधुओं को प्रवृत्त करने वाले आचार्यों, जिनवाणी के पठन-पाठन में रत्त उपाध्यायों और रत्नत्रय के साधक साधुगणो अर्थात पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करके मैं (आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती) लब्धिसार ग्रन्थ, में सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के प्राप्ति के उपायों को कहने की प्रतिज्ञा करता हूँ ।

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+ जीव में प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने की योग्यता बताते है -
चदुगदिमिच्छो सण्णी पुण्णो गब्भज विसुद्ध सागरो
पढमुवसमं स गिण्हदि पंचमवरलद्धि चरिमम्हि ॥2॥
अन्वयार्थ : [चदु] चारो [गदि] गतियों का [मिच्छो] मिथ्यदृष्टि, [सण्णी] संज्ञी, [पुण्णो] पर्याप्तक, [गब्भज] गर्भज, [विसुद्ध] मंद कषायी / विशुद्ध परिणामी, [सागरो] साकार ज्ञानोपयोगी [स] जीव, [पंचमवरलद्धि] पंचमलब्धि के [चरिमम्हि] अंत समय में, [पढमुवसमं] प्रथमोपशम सम्यक्त्व [गिण्हदि] ग्रहण करता है ।

बोधिनी :

चतुर्गतिमिथ्य: संज्ञी पूर्ण:गर्भजो विशुद्ध: सकारा:;;प्रथमोपशमं स गृह्लाति पंचमवरलब्धिचरमें ॥२॥

दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम करने वाले जीव सामान्यत: चारो गतियों में होते है । प्रथमोपशम सम्यक्तव की योग्यता केवल संज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त जीवों में ही होती है, सण्णी (संज्ञी) पद से तिर्यंचगति के एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय तथा पुण्णो (पर्याप्तक) पद से निवर्त्य-पर्याप्तक और लब्ध्य-पर्याप्तक जीवों को सम्यक्त्वोत्पत्ति की योग्यता का निषेध किया है ।

नरकगति संबंधी, सर्वनारक पृथिवीयों के सभी इन्द्रक, सर्व श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलो में विध्यमान नारकी जीव यथोक्त सामग्री से परिणत होकर वेदना अभिभवादि कारणों से प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न करते है ।

भवनवासियों के सभी आवासों में उत्पन्न जीव जिनबिम्बदर्शन और देवर्धिदर्शनादि कारणों से प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न करते है ।

सर्व द्वीपों और समुद्रों में रहने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच तथा ढाई द्वीप-समुद्रों में संख्यात वर्ष आयु वाले गर्भज और असंख्यात वर्षायु वाले सभी मनुष्य जातिस्मरण, धर्म श्रवण आदि के निमित्त से अपने-अपने लिए सर्वत्र प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं ।

मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से मिथ्यात्व के छूटने पर उपशम सम्यक्त्व है, उपशम श्रेणी पर चढ़ते हुए जीव को द्वितयोपशम सम्यक्त्व होता है ।

शंका – त्रस जीवों से रहित असंख्यात समुदरों में तिर्यन्चों का प्रथमोपशम सम्यक्त्व कैसे सम्भव है ?

समाधान – बैरी देवों द्वारा उन समुदरों में ले जाये गए तिर्यन्चों में प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है ।

असंख्यात द्वीप-समुद्रों के व्यन्तरवास में, सभी में वर्तमान वानव्यंतर देवों है उनको जिनमहिमा-दर्शनादि से प्रथमोपशम-सम्यक्त्व उत्पन्न करते है ।

ज्योतिष-देव भी जिनबिम्ब-दर्शन और देवर्धिदर्शनादि से सर्वत्र प्रथमोपशम-सम्यग्दर्शन उत्पन्न करने योग्य होते है ।

सौधर्म-कल्प से उपरिम ग्रैवेयक पर्यन्त सर्वत्र विध्यमान और अपनी अपनी जाति से संबंधित सम्यक्त्वोत्पत्ति के कारणों से परिणत हुए देव प्रथमोपशम-सम्यक्त्व उत्पन्न करते है ।

शंका – उपरिम ग्रैवियेक से आगे अनुदिशो और अनुत्तरों विमानवासी देवों में प्रथमोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्ति क्यों नही होती ?

समाधान – क्योकि उन विमानों में नियम से सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते है ।

आभियोग्य और किल्विषकादि अनुत्तमदेवों में भी यथोक्त हेतुओं का सन्निधान होने पर प्रथमोपशम सम्य- क्त्व की उत्पत्ति अविरुद्ध है । (जयधवला जी पुष्प २ पृ-२९८-३००) तिर्यंच और मनुष्यों में गर्भज को ही प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है, सम्मूर्च्छन को नही ।

दर्शनमोह के उपशामक जीव विशुद्ध परिणामी ही होते है, अध:प्रवृत्तकरण के पूर्व ही अंतर्मूर्हत से लेकर अनन्त-गुणी विशुद्धि प्रारम्भ हो जाती है ।

शंका – ऐसा क्यों है?

समाधान – जो जीव मिथ्यात्वरूपी गर्त से उद्धार करने का मन वाला है, सम्यक्त्व रुपी रत्न को प्राप्त करने का तीव्र इच्छुक है,प्रति समय क्षयोपशम लब्धि और देशनलब्धि के बल से वृद्धिंगत सामर्थ्य वाला है,जिसके संवेग व् निर्वेद से उत्तरोत्तर हर्ष में वृद्धि हो रही है उसके प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धि की प्राप्ति का निषेध नही है (जय धवला जी पुष्प २-पृ-२००)

जिसके द्वारा उपयुक्त होता है उसे उपयोग कहते है । अर्थ के ग्रहण रूप आत्म परिणाम को भी उपयोग कहते है । उपयोग साकार और अनाकार दो प्रकार का है । इनमे साकार ज्ञानोपयोग और अनाकार दर्शनपयोग है । इनके क्रम से मतिज्ञानादिक और चक्षुदर्शनादिक भेद है । दर्शनमोह का उपशामक जीव साकारोपयोग से परिणत होता हुआ प्रथमोपशम-सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है, क्योकि अविमर्शक और सामन्य मात्र ग्राही चेतनाकार दर्शनोपयोग के द्वारा विमर्शक स्वरुप तत्वार्थ श्रद्धान लक्षण समयग्दर्शन की प्राप्ति के प्रति अभिमुखपना नही बन सकता । इसलिए मति-श्रुतज्ञान (कुमति व कुश्रुत ज्ञान)से या विभंग ज्ञान से परिणत होकर यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न करने योग्य होता है (जय धवला जी पुष्प १२,पृ- २०३-२०४)

विमर्श का अर्थ है किसी तथ्य का अनु संधान, किसी विषय का विवेचन या विचार । सासादन सम्यगदृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा वेदक-सम्यग्दृष्टि जीव प्रथमोपशम-सम्यक्तव को प्राप्त नही होता क्योकि इन जीवो के प्रथमोपशम सम्यक्तव रूप परिणमन की शक्ति का अभाव है । उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाले वेदक सम्यग्दृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाले होते है, किन्तु उसका नाम प्रथमोपशम सम्यक्त्व नही है क्योकि उपशमश्रेणी वाले, उपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति, सम्यक्त्व पूर्वक होती है (धवला जी पुष्प १.पृ २११-२१२, मूलाचार अ. १२ गा २०५) इसलिए प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त जीव मिथ्यादृष्टि ही होना चाहिए (धवला पुष्प ६,पृ २०६-७ व् धवला पुष्प १ पृ ४१)

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+ जीव के सम्यक्त्वोत्पत्ति से पूर्व मिथ्यात्व गुणस्थान में होने वाली पांच लब्धियां -
खयउवसमियविसोही, देसणापाउग्गकरणलद्धि य
चत्तारि वि सामण्णा, करणं सम्मत्तचारित्ते ॥3॥
अन्वयार्थ : [खयउवसमिय] क्षयोपशम, [विसोही] विशुद्धि, [देसणा] देशना, [पाउग्ग] प्रायोग्य और [करणलद्धि] करण, [य] ये पांच लब्धिया है [चत्तारि] जिनमे से आदि की चार [वि सामण्णा] सामान्य है किन्तु [करणं] करणलब्धि होने से [सम्मत्तचारित्ते] सम्यक्त्व / चारित्र अवश्य होता है ।

बोधिनी :

क्षयोपशमविशुद्धि देशनप्रायोग्य करण लब्धयश्र्च;;चतु्स्रोऽपि सामान्यात् करणं सम्यक्त्व चारित्रे ॥३॥

'करणं सम्मत्तचारित्ते' पद से स्पष्ट है कि चार; क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियां होने से प्रथमोपशम-सम्यक्त्व होने का नियम नही है किन्तु पांचवी करण लब्धि होने पर वह अवश्य उत्पन्न होता है । पहली चार लब्धियां प्रथमोपशम सम्यत्व होने वाले और नही होने वाले, दोनों प्रकार के जीवों को हो जाती है । अत: प्रथमोपशम सम्यक्त्व होने और नही होने की अपेक्षा ये चार लब्धियां सामान्य / साधारण है जो कि सूत्र में सामण्णा (सामान्य) पद से स्पष्ट है ।

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+ क्षयोपशम लब्धि का स्वरुप -
कम्ममलपडलसत्ती पडिसमयमणंतगुणविहीणकमा
होदूणुदीरदि जदा तदा खओवसमलद्धि दु ॥4॥
अन्वयार्थ : [कम्ममलपडल] कर्म-मल-पटल अर्थात अप्रशस्त ज्ञानवर्णीय आदि कर्मों के पटल समूह की [सत्ती] शक्ति (अनुभाग) की [कमा] क्रम से [पडिसमयमणंत] प्रतिसमय अनन्त [गुणविहीण] गुणी हीनता सहित जिस समय [होदूणुदीरदि] उदीरणा होती है [जदा] तब [तदा] उस समय [खओवसमलद्धि] क्षयोपशम लब्धि [दु] होती है ।

बोधिनी :

कर्ममलपटलशक्ति: प्रतिसमयनंतगुणविहीनक्रमा;;भूत्वा उदीर्यते यदा तदा क्षयोपशमलब्धिस्तु ॥४॥

क्षयोपशम लब्धि -- पूर्व संचित कर्मों के अशुभ कर्मपटल के / अप्रशस्त (पाप) ज्ञानवरणीय आदि कर्मों के अनुभाग स्पर्धक का प्रति समय विशुद्धि द्वारा अनन्तगुणे हीनता सहित झरना अर्थात उदीरणा के होना, वाले समय में क्षयोपशम लब्धि होती है । (सन्दर्भ-धवला जी पुष्प ६,पृ-२०४)

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+ विशुद्धि लब्धि का स्वरूप -
आदिमलद्धिभवो जो भावो जीवस्स सादपाहुदीणं
सत्थाणं पयडीणं बंधण जोगो विसुद्धलद्दी सो ॥5॥
अन्वयार्थ : [आदिम] प्रथम (क्षयोपशम) [लद्धि] लब्धि [भवो] होने पर, [सादपाहुदीणं] सातादि [सत्थाणं] प्रशस्त (पुण्य) [पयडीणं] प्रकृतियों के [बंधण] बंध [जोगो] योग्य [जीवस्स] जीव के [जो भावो] जो परिणाम होते है [सो] वह [विसुद्धलद्दी] विशुद्धिलब्धि है ।

बोधिनी :

आदिमलब्धिभवो य:भावो जीवस्य सातप्रभृतीनात्;;शस्तानां प्रकृतीनां बंधन योग्यो विशुद्धिलब्धि: स: ॥५॥

क्षयोपशम लब्धि होने के बाद धर्मानुराग रूप परिणामों से साता-वेदनीय आदि प्रशस्त प्रकृतियों के बंध योग्य परिणाम होते है वह विशुद्धि लब्धि है ।

विशेष -- पाप कर्मों के प्रति समय अनन्तगुणित हीन क्रम से उदीरित अनुभाग-स्पर्धकों से उत्पन्न हुआ साता आदि शुभ-कर्मों के बंध का निमित्त भूत और असातादि अशुभ-कर्मों के बंध का विरोधी जीव का परिणाम विशुद्ध है, उसकी प्राप्ति का नाम विशुद्धि-लब्धि है ।

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+ देशना लब्धि का स्वरुप -
छद्दव्वणवपयत्थोपदेसयरसूरिपहुदिलाहो जो
देसिदपदत्थधारणलाहो वा तदियलद्दी दु ॥6॥
अन्वयार्थ : [छ] छ: [द्दव्व] द्रव्य और [णव] नौ [पयत्थो] पदार्थों का [पदेसयरसूरिपहुदि] उपदेश देने वाले आचार्य आदि से अथवा [देसिद] उपदेशित [पदत्थ] पदार्थों को [धारण] धारण कर [लाहो] लाभान्वित [जो] होना, [वा] वह [तदियलद्दी] तृतिया लब्धि (देशना) है ।

बोधिनी :

षड् द्रव्यनवपदार्थोपदेशकरसूरि प्रभृतिलाभो य:;;देशितपदार्थधारणलाभो वा तृतीयलब्धिस्तु ॥६॥

आचार्यं आदि के द्वारा दिए गए ६ द्रव्यों और ९ पदार्थों आदि के उपदेश सुनकर उन्हें ग्रहण उन्हें धारण कर लाभान्वित होना देशना लब्धि है । विशेष --

१ - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल; छः द्रव्यों और जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप इन नव पदार्थों के उपदेश को 'देशना' कहते है । देशना से परिणत आचार्यादि की उपलब्धि को और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण तथा विचारण की शक्ति के समागम को देशना-लब्धि कहते है । (ध.पु. ६, पृ-२०४)

२ - गाथा के अंत में 'दु' पद से वेदनानुभव, जातिस्मरण, जिनबिम्ब दर्शन, देवऋद्धि, दर्शनादि कारणों का ग्रहण होता है क्योकि इन कारणों से नैसर्गिक प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, जो धर्मोपदेश के अभाव मे जातिस्मरण, जिनबिम्ब दर्शनों से प्रथमोपशम सम्यक्तव होता है वह नैसर्गिक सम्यग्दर्शन होता है क्योकि इन के अभाव में यह होना असम्भव है । (ध.पु. ६, पृ ३१) जिनबिम्ब दर्शन से निधत्ति और निकाचित रूप कर्मों का क्षय देखा जाता है, जिससे जिनबिम्ब दर्शन प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण होता है । (ध.पु.६ पृ ४२७) । सामन्यत जातिस्मरण द्वारा सम्यक्त्व की उत्पत्ति नही होती किन्तु धर्मबुद्धि से पूर्व भव में किये गए मिथ्यानुष्ठान की विफलता का दर्शन प्रथमोपशम सम्यक्त्व के लिए कारण होता है । (ध,पु. ६ पृ ४२२)

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+ प्रायोग्य लब्धि का स्वरुप -
अंतोकोडकोडी विट्ठाणे ठिदिरसाण जं करणं
पाउग्गलद्धिणामा भव्वाभव्वेसु सामण्णा॥7॥
अन्वयार्थ : कर्मों की [ठिदि] स्थिति को [अंतो] अंत: [कोडकोडी] कोड़ाकोड़ी-सागर प्रमाण तथा उनका [रसाण] अनुभाग [विट्ठाणे] द्वि-स्थानिक [जं करणं] करने को [पाउग्गलद्धिणामा] प्रायोग्य लब्धि कहते है । यह [भव्वाभव्वेसु] भव्य और अभव्य के [सामण्णा] समान रूप से होती है ।

बोधिनी :

अंत:कोटाकोटि द्विस्थाने स्थितिरसयो: यत्करणम्;;प्रायोग्यलब्धिर्नामा भव्याभव्येषु सामान्यात् ॥७॥

तीनो लब्धि युक्त पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्तक, ज्ञानोपयोगी जीव आयुकर्म के अतिरिक्त शेष सात कर्मों की स्थिति अन्त:कोडकोडी सागर रहने पर और अशुभ घातिया कर्मों के अनुभाग को लता और दारु रूप तथा अघातिया कर्मों के अनुभाग को नीम और कांजी, दो-दो स्थानगत करने से प्रायोग्य लब्धि होती है।यह भव्य और अभव्य दोनों को समान रूप से होती है । विशेष --

१ - पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्तक, ज्ञानोपयोगी जीव की आयु कर्म के अतिरिक्त शेष सात कर्म बंध की स्थिति अंत: कोडाकोड़ी सागर रहने पर प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्ति की योग्यता हो जाती है ।

२ - प्रयोग्य लब्धि से जीव के परिणामों में इतनी विशुद्धि होती है कि सात कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का कंडाकघात द्वारा घात कर वह अंत:कोडाकोड़ी सागर कर लेता है तथा अशुभ घातिया कर्मों के चतुस्थानीय अनुभाग का घात कर उन्हें लता और दारु तथा अघातिया कर्मों के अनुभाग को नीम और कांजी, द्वी -द्विस्थानीय अनु भाग करता है ।किन्तु प्रशस्तप्रकृतियों का अनुभाग गुड़ -खांड-शर्करा और अमृत चतुः स्थानीय ही रहता है क्योकि विशुद्धि के द्वारा प्रशस्त प्रकृतियों के अनुभाग का घात नही होता है । (ध.पु. ६, पृ २०९, एवं ध.पु. १२ पृ १८ व् ३५) । इन अवस्थाओं के होने पर करण अर्थात पंचम करणलाब्धि होती है । (ध.पु. ६, पृ-२०५) इतनी विशुद्धि भव्य-सिद्धिक और अभव्य-सिद्धिक दोनों प्रकार के जीवों में होती है । जो की गाथा में 'भव्वाभव्वेसु' पद से स्पष्ट है । इसमें किसी आचर्य को भी आपत्ति नही है ।

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+ प्रथमोपशम सम्यक्त्व ग्रहण करने की योग्यता का प्रतिपादन -
जेट्ठवरट्ठिदिबंधे जेट्ठवरट्ठिदितियाण सत्ते य
ण य पडिवज्जदि पढमुवसमसम्मं मिच्छ जीवो हु ॥8॥
अन्वयार्थ : [जेट्ठवरट्ठिदिबंधे] उत्कृष्ट/जघन्य स्थिति बंध करने वाले [च] तथा [तियाण] स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन तीनों का [जेट्ठवरट्ठिदि] उत्कृष्ट/जघन्य [सत्ते] सत्व [य] वाले [मिच्छ] मिथ्यादृष्टि [जीवो] जीवों के [पढमुवसमसम्मं] प्रथमोपशम सम्यक्त्व [ण] नही [पडिवज्जदि] उत्पन्न [हु] होता है ।

बोधिनी :

ज्येष्ठवरस्थितिबन्धे ज्येष्ठवरस्थितित्रिकाणां सत्त्वे च;;न च प्रतिपध्यते प्रथमोपशमसम्यक्त्वं मिथ्याजीवो हि ॥८॥

स्वामित्व की अपेक्षा, उत्कृष्ट स्थिति बंध व उत्कृष्ट स्थिति-अनुभाग और प्रदेश सत्त्व वाले, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामी मिथ्यादृष्टि जीव होता है, जिसके उत्कृष्ट संक्लेश के कारण प्रथमोपशम समयकत्व उत्पन्न नही हो सकता तथा जघन्य स्थिति बंध व जघन्य स्थिति बंध और स्थिति-अनुभाग-प्रदेश सत्त्व क्षपक होता है, वहां क्षायिक सम्यक्त्व है । विशेष --
  1. उत्कृष्ट स्थिति बंध - सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्तक, साकार जागृत श्रुतोपयोग से युक्त, उत्कृष्ट स्थिति-बंध के साथ उत्कृष्ट स्थिति बंध योग्य संकलेशित परिणामी अथवा मध्यम-संकलेषित परिणामी है, ऐसा कोई संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव सात कर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय) के उत्कृष्ट स्थिति बंध का स्वामी है । (महाबंध पु.२ ,पृ ३३)
  2. जघन्य स्थितिबंध -- जो अन्यतर सूक्ष्म साम्परायिक क्षपक अंतिम बंध में अवस्थित सम्यग्दृष्टि जीव ६ कर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र व अंतराय) के जघन्य स्थिति बंध के स्वामी है । जो अनिवृत्ति-करण क्षपक अंतिम स्थिति-बंध में अवस्थित है, वे मोहनीय कर्म की जघन्य स्थिति बंध के स्वामी है । (महाबंध पू. २ पृ ४०)
  3. उत्कृष्ट विशुद्धि द्वारा जघन्य स्थितिबंध होता है क्योकि सर्व स्थितियों के प्रशस्त-भाव का अभाव है । संक्लेष की वृद्धि से सर्व प्रकृति संबंधी स्थितियों की वृद्धि होती है तथा विशुद्धि की वृद्धि से उन्ही स्थितियों की हानि होती है । (ध.पु.११ पृ ३१४) । असाता वेदनीय के बंध योग्य संक्लेषित और साता के बंधने योग्य विशुद्ध परिणाम होते है । (ध.पु.६, पृ १८०)
  4. उत्कृष्ट स्थिति सत्व -- जो जीव चतुः स्थानीय यव मध्य के ऊपर अंत:कोडाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति को बांधे हुआ स्थित है और अनन्तर उत्कृष्ट संक्लेश को प्राप्त कर,जिसने उत्कृष्ट स्थिति बंध किया है,ऐसे किसी भी मिथ्यदृष्टि जीव के उत्कृष्ट स्थिति सत्व होता है । (ज.ध.पु.३ पृ १६)
  5. जघन्य स्थिति सत्व -- किसी भी क्षपक जीव के सकषायावस्था के अंतिम समय में अर्थात सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान के चरम समय में मोहनीय कर्म का जघन्य स्थिति सत्व होता है।(ज.ध. पू. ३ पृ २०) ।ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्मों का जघन्यस्थिति सत्व क्षीण मोह गुणस्थान (१२वे) के अंतिम समय में होता है । चार अघातिया कर्मों का का जघन्य स्थिति सत्व आयोग-केवली गुणस्थान के अंतिम समय में होता है क्योकि इंन सर्व कर्मों का वहां वहां एक समय मात्र का स्थिति सत्व पाया जाता है ।
  6. उत्कृष्ट अनुभाग सत्व -- जीव जब तक उत्कृष्ट अनुभाग सत्व करके जब तक उस अनुभाग का घात नही करता तब तक उस जीव का उत्कृष्ट अनुभाग सत्व है । (ज.ध.पु. ५ पृ ११)
  7. जघन्य अनुभाग सत्व -- सकषाय क्षपक के अर्थात दसवे गुणस्थान के अंतिम समय में मोहनीय-कर्म का जघन्य अनुभाग सत्व होता है । (ज.ध.पु. ५ पृ १६) -- शेष तीन घातिया कर्मों का जघन्य अनुभाग सत्व क्षीण-मोह गुणस्थान के अंतिम समय में होता है ।
  8. उत्कृष्ट प्रदेश सत्त्व -- गुणित कर्मांशिक के सातवे नरक में चरम समय में होता है ।

  • जघन्य प्रदेश सत्त्व -- क्षपित कर्मांशिक के १०वे गुणस्थान के अंतिम समय में मोहनीय कर्म और १२ वें गुणस्थान के चरम समय में तीन घातिया कर्मों का जघन्य प्रदेश सत्त्व है ।

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    + प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए जीव के स्थिति बंध योग्य परिणाम निम्न सूत्र में बताये गए है -
    सम्मतहिमुहमिच्छो विसोहिवड्ढीहि वड्ढमाणो हु
    अंतो कोडाकोडि सत्तण्हं बंधणं कुणई ॥9॥
    अन्वयार्थ : [सम्मत] प्रथमोपशम सम्यक्त्व के [हिमुह] अभिमुख [मिच्छो] मिथ्यादृष्टि जीव, परिणामों में [वड्ढमाणो] प्रतिसमय वृद्धिंगत [विसोहि] विशुद्धता [वड्ढीहि] वर्धमान (बढ़ते) हुए [हु] करता है, [सत्तण्हं] वह (आयुकर्म के अतिरिक्त) सात (ज्ञानवरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र और अंतराय) कर्मों का [अंतो] अंत: कोडाकोड़ी सागरप्रमाण स्थिति [बंधणं] बंध [कुणई] करता है ।

    बोधिनी :
    
    सम्यक्त्वाभिमुखमिथ्यः विशुद्धिवृद्धिभिः वर्धमानः खलु;;अंतःकोकोटि सप्तानां बंधन करोति ॥९॥

    प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख सभी मिथ्यदृष्टि जीव एक कोड़ा कोडी सागर के अंतर्गत ही स्थिति बंध रहता है इससे अधिक स्थितिबंध नही करते (ध.पु.६ पृ.१३५) । वह जीव बंधने वाली इन ७ कर्म प्रकृतियों का स्थितिबंध अंत:कोड़ा कोडी सागर प्रमाण ही करते है क्योकि वह उनके यथायोग्य विशुद्धपरिणामों से युक्त होता है ।(ज. ध,पु.१२ पृ २१३) विशेष --

    प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि जीव, प्रयोग्यलब्धि के प्रथम समय से, प्रति समय परिणामों में वर्धमानगत अनंतगुणी विशुद्धि की वृद्धि करते हुए आयु के अतिरिक्त सप्त कर्मों का स्थिति बंध; अंत: कोड़ाकोडी सागर प्रमाण करता है ।

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    + प्रायोग्य-लब्धि काल में प्रकृति-बंधापसरण -
    तत्तो उदहिसदस्स य पुधत्तमेत्तं पुणो पुणोदरिय
    बंधम्मि पयडिबन्धुच्छेदपदा होंति चोत्तीसा ॥10॥
    अन्वयार्थ : [तत्तो] उस (अंत:कोडाकोड़ी सागर स्थिति) [उदहि] उदय से पृथकत्व [सदस्स] सौ सागर हीन स्थिति को बंध कर [पुणोपुणो] पुन:पुन; [पुधत्त] पृथकत्व [मेत्तं] मात्र १०० सागर [उदरिय] उदीरणा (घटाते) करते हुए, [बंधम्मि] स्थितिबंध करने पर [पयडिबन्ध:] प्रकृति बंध [उच्छेद] व्युच्छति के [चोत्तीसा] चौतीस [पदा] स्थान [होंति] होते है ।

    बोधिनी :
    
    तत:उदये शतस्य च पृथकत्वमात्रं पुंन: पुनरूदीर्य;;बंधे प्रकृतिबंधोच्छेदपदानि भवंति चतुश्र्चत्वारिंशत् ॥१०॥

    अंत:कोडकोडी सागरोपम स्थितिबंध से पृथकत्व १०० सागर प्रमाण स्थितिबंध घटने का क्रम निम्न प्रकार है ।

    अंत:कोडकोडी सागर प्रमाण स्थिति-बंध से, पल्य के संख्यातवे भाग से हीन, स्थिति को अंतर्मूर्हत पर्यन्त, समानता लिए हुए ही बांधता है । तदुपरांत उससे पल्य के संख्यातवे भाग हीन स्थिति को अंतर्मूर्हत पर्यन्त बांधता है । इस प्रकार पल्य के संख्यातवें भाग हीन क्रम से, एक पल्यहीन अंत:कोडकोडी सागरोपम स्थिति-बंध अंतर्मूर्हत पर्यन्त करता है तथा इसी पल्य के संख्यातवे भाग हीन क्रम से स्थिति-बन्धापसरण करता हुआ २ पल्य से हीन, ३ पल्य से हीन इत्यादि स्थिति-बंध अंतर्मूर्हत तक करता है । पुन: इसी क्रम से आगे-आगे स्थिति-बंध का ह्नास करता हुआ एक सागर से हीन, दो सागर से हीन इत्यादि क्रम से ७००-८०० सागरोपम से हीन अंत: कोडा-कोड़ी सागर प्रमाण स्थिति-बंध जिस समय करने लगता है, उस समय प्रकृतिबंध-व्युच्छित्ति का एक बन्धापसरण होता है । उपर्युक्त क्रम से ही स्थितिबंध का ह्नास होता है और जब वह ह्नास सागरोपम शत पृथकत्व प्रमित हो जाता है तब प्रकृतिबंध व्युच्छित्ति रूप दूसरा बन्धापसरण होता है । यही क्रम आगे भी चलता है ।

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    + चौतीस प्रकृति बन्धापसरणों (व्युच्छेद) का ५ गाथाओं में वर्णन -
    आऊ पडि णिरयदुगे, सुहुमतिये सुहुमदोण्णि पत्तेयं
    बादरजुत दोण्णि पदे, अपुण्णजुद बि ति चसण्णिसण्णीसु ॥11॥
    अट्ठ-अपुण्णपदेसु वि,पुण्णेण जुदेसु तेसु तुरियेपदे
    एइंद्रिय आदावं, थावरणामं च मिलिदव्वं ॥12॥
    तिरिगदुगुज्जोवो वि य णीचे अपसत्थगमण दुभगतिय
    हुंडासंपत्ते वि य णउंसए वाम-खिलीए ॥13॥
    खुज्जद्धंणाराए, इत्थिवेदे य सादिणाराए
    णाग्गोधवज्जणाराए, मणुओरालदुगवज्जे ॥14॥
    अथिरअसुभजस-अरदी सोय-असादे य होंति चोतिसा
    बंधोसरणट्ठाणा, भव्वा भव्वेसु सामाण्णा ॥15॥
    अन्वयार्थ : [आऊ] आयुबंध व्युच्छित्ति स्थानों के पश्चात [पडि] क्रमश: [णिरयदुगे] नरक-द्विक (नरक गति, नरकगत्यानुपूर्वी), [सुहुमतिये] सूक्ष्म तीन (सूक्ष्म -- अपर्याप्त, साधारण, शरीर), [सुहुमदोण्णि] सूक्ष्म दो (सूक्ष्म -- अपर्याप्त, प्रत्येक), व [बादरजुत द्वि] (बादर -- अपर्याप्त, प्रत्येक), (बादर -- अपर्याप्त, साधारण) [पत्तेयं] प्रत्येक, अपर्याप्त [दोण्णिपदे] द्वीन्द्रिय, [अपुण्णजुद] अपर्याप्त सहित [बितिचसण्णि] त्रीन्द्रिय चतुरिंद्रिय अपर्याप्त [असण्णी] असंज्ञी पंचेन्द्रिय, अपर्याप्त [सण्णीसु] संज्ञी पंचेन्द्रिय ।
    उपर्युक्त [अट्ठ] आठ [अपुण्ण] अपर्याप्त [पदेसु] पदों (६ से १३ में) [वि] के स्थान पर [पुण्णेण] पर्याप्त [जुदेसु] जैसे [तेसु] वैसे और [तुरिये] चौथे [पदे] पद में (अर्थात ९वे में) [एइंद्रिय] एकेन्द्रिय [आदावं] आतप [थावरणामं] स्थावर [च] भी [मिलिदव्वं] लगाना है ।
    उसके बाद क्रम से, (संख्या २२ के) आयु से शत सागरोपम पृथकत्व नीचे - नीचे उतर कर संयोग-रूप [तिरिगदुगुज्जोवो] तिर्यञ्चद्विक -- तिर्यंचगति और तिर्यंचानुपूर्वी उद्योत का युगपत, [णीचे] नीच गोत्र [अपसत्थगमण] अप्रशस्त विहायोगगति, [दुभगतिय] दुर्भग -- दुःस्वर और अनादेय चार प्रकृतियों का युगपत, [हुंडासंपत्ते] हुंडक-संस्थान - सृपाटिका संहनन प्रकृतियों कस युगपत, [णउंसए] नपुंसक वेद प्रकृति [वि] की भी [य] तथा [वाम] वामन संस्थान व [खिलीए] कीलितसंहनन प्रकृति के व्युच्छिति प्राप्ति के क्रमश: २३, २४, २५, २६, २७ और २८वे स्थान है ।
    उसके बाद (२८वे) स्थान की आयु से प्रत्येक स्थान से क्रमश: शतसागरोपम पृथकत्व नीचे-नीचे उत्तर कर [खुज्ज] कुब्जक संस्थान और [द्धंणाराए] अर्द्धनाराच शरीर / संहनन (दो प्रकृतियों), [इत्थिवेदे] स्त्रीवेद् (१ प्रकृति), [सादि] स्वाति संस्थान और [णाराए] नाराचशरीर संहनन (३ प्रकृतियों), [णाग्गोध] न्योग्रोधपरिमंडलसंस्थान [य] और [दुग] दो-दो [वज्जणाराए] वज्रनाराचशरीरसंहनन (दो प्रकृतियों), [मणु] संयोग रूप मनुष्य गति / मनुष्यानुपूर्वी, [ओराल] औदारिक शरीर / औदारिक अंगोपांग और [वज्जे] वज्रऋषभनाराच शरीर संहनन (५ प्रकृतियों) के २९वे, ३०वे, ३१वे, ३२वे और ३३वे बंध व्युच्छिति के स्थान है ।
    उपर्युक्त आयु (३३ वे स्थान) से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उतर कर [अथिर] अस्थिर [असुभजस] अशुभ, अयश:कीर्ति [अरदी] अरति, [सोय] शोक और [असादे] असातावेदनीय,छः प्रकृति का युगपत बंधव्युच्छेद [होंति] होता है । इस प्रकार [बंधोसरणट्ठाणा] बंध व्युच्छित्ति के कुल [चोतिसा] चौतीस [स्थाननी] स्थान है । ये [भव्वा] भव्य और [अभव्वेसु] अभव्य दोनों जीवों के [सामाण्णा] समान रूप है ।

    बोधिनी :
    
    आयु:प्रति निरयद्विकं,सूक्ष्मत्रयं सूक्ष्मदव्यं प्रत्येकं;;बाद्र्युतं द्वे पदे अपूर्णयुतं द्वित्रिचतु: असंज्ञी संज्ञिषु ॥११॥;;अष्टौ अपूर्णपदेष्वपि पूर्णेन युतेषु तेषु तुर्येपदे;;एकेन्द्रियमातपः स्थावरनाम च मेलयितव्यम् ॥१२॥;;तिर्गद्विकोध्योतोऽपि च नीचै:अप्रशस्तगमनं दुर्भगत्रिकं;;हुंडा संप्राप्तेऽपि च नपुंसकं वामनकीलिते ॥१३॥;;कुब्जार्धनाराचं स्त्रीवेदं च स्वातिनाराचे;;न्यग्रोधवज्रनाराचे मनुष्यौदारिका द्वीकवज्रे॥१४॥;;अस्थिर-अशुभायश: अरति: शोकासते च भवंति चतुस्त्रिंशं;;बंधापसरणस्थानानि भव्याभव्येषु सामान्यानि॥१५॥

    प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यदृष्टि जीव के प्रकृति बन्धापसरण के क्रम से स्थान है -
    1. पहिले नरकायु का व्युच्छित्ति स्थान है -- यहाँ से उपशम सम्यक्त्व तक नरकायु का बंध नही होता । ७००-८०० सागरोपम से हीन अंत:कोडाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति को जिस समय बाँधने लगता है, उसी समय से नरकायु प्रकृति बंध से व्युच्छिन्न होती है ।
    2. दूसरा तिर्यंचायु का व्युच्छित्ति स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे पसरण करके तिर्यंचायु की बन्ध व्युच्छित्त्ती हो जाती है ।
    3. तीसरा मनुष्यायु का व्युच्छित्ति स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम-शत-पृथकत्व नीचे उत्तर कर मनुष्यायु का बन्ध व्युच्छेद होता है ।
    4. चौथा देवायु का व्युच्छिति का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उतर कर देवायु का बन्ध-व्युच्छित्ति होती है । यहाँ प्रथमोपशम सम्यक्त्व की अपेक्षा से आयु-बंध का अभाव है इस लिए सर्व आयु-बंध की व्युच्छत्ति कही है ।
    5. पांचवा व्युच्छित्ति स्थान नरक गति-नरकगत्यानुपूर्वी का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उतर कर नरकगति और नरक गत्यानुपूर्वी प्रकृति का एक साथ का बन्ध-व्युच्छेद होता है ।
    6. छठा संयोग रूप सूक्ष्म, अपर्याप्त-साधारण शरीर का स्थान है उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उतर कर सूक्ष्म-अपर्याप्त-साधारण शरीर प्रकृति का युगपत् बन्ध व्युच्छेद होता है । यहां संयोग-रूप तीनों का मिलाप है और बंध यही तक होता है किन्तु इनमे कोई प्रकृति बदले तो आगे भी इन्ही प्रकृति विषय का कोई प्रकृति का बंध हो सकता है संयोग से कहने का अभिप्राय यही है ।
    7. संयोग रूप सूक्ष्म, अपर्याप्त, प्रत्येक का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपमशतपृथकत्व नीचे उत्तर कर सूक्ष्म-अपर्याप्त-प्रत्येकशरीर, तीनों प्रकृतियो का एक साथ बन्ध व्युच्छेद होता है ।
    8. संयोगरूप बादर, अपर्याप्त, साधारण शरीर का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उतर कर बादर-अपर्याप्त-साधारण शरीर, तीनों प्रकृतियो का युगपत् बन्धव्युच्छेद होता है,
    9. संयोग रूप बादर, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उत्तर कर बादर-अपर्याप्त-प्रत्येक शरीर, तीनों प्रकृतियो का एक साथ बन्ध व्युच्छेद होता है,
    10. संयोगरूप द्वीन्द्रिय जाति, अपर्याप्त का स्थान है, उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उत्तर कर द्वीन्द्रिय जाति और अपर्याप्त, दोनों प्रकृति का बन्ध-व्युच्छेद युगपत् होता है ।
    11. संयोग रूप त्रिइन्द्रिय जाति, अपर्याप्तक का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उत्तर कर त्रिइन्द्रिय जाति और अपर्याप्त, दोनों प्रकृतियों का बन्ध-व्युच्छेद युगपत् होता है ।
    12. संयोग रूप चतुरिंद्रिय जाति, अपर्याप्तक का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उत्तर कर चतुर इन्द्रिय जाति और अपर्याप्त, दोनों प्रकृतियो का बन्ध-व्युच्छेद युगपत् होता है ।
    13. संयोग रूप असंज्ञी पंचेन्द्रिय जाति, अपर्याप्तक का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उत्तर कर असंज्ञी पंचेन्द्रिय जाति और अपर्याप्त, दोनों प्रकृतियों का बन्ध-व्युच्छेद युगपत् होता है ।
    14. संयोग-रूप संज्ञी पंचेन्द्रिय जाति, अपर्याप्तक का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उत्तर कर संज्ञी पंचेन्द्रिय जाति और अपर्याप्त, दोनों प्रकृतियों की बन्ध से व्युच्छित्ति युगपत् होती है ।
    15. संयोग-रूप सूक्ष्म, पर्याप्त-साधारण शरीर का स्थान है -- उपर्युक्त आयु - (१४नंबर) से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उतर कर सूक्ष्म-पर्याप्त-साधारण शरीर प्रकृति का युगपत् बन्ध व्युच्छेद होता है । यहां संयोग रूप तीनों का मिलाप है और बंध यहीं तक होता है किन्तु इनमे कोई प्रकृति बदले तो आगे भी इन्ही प्रकृति विषय का कोई प्रकृति का बंध हो सकता है संयोग से कहने का अभिप्राय यही है ।
    16. संयोग-रूप सूक्ष्म, पर्याप्त, प्रत्येक का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम-शत-पृथकत्व नीचे उत्तर कर सूक्ष्म-पर्याप्त-प्रत्येक शरीर, तीनों प्रकृतियों का एक साथ बन्ध व्युच्छेद होता है ।
    17. संयोग रूप बादर, पर्याप्त, साधारण शरीर का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उत्तर कर बादर-पर्याप्त-साधारण शरीर, तीनों प्रकृतियों का युगपत् बन्ध-व्युच्छेद होता है,
    18. संयोग रूप बादर-पर्याप्त प्रत्येक शरीर एकेन्द्रिय-आतप-स्थावर का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शतपृथकत्व नीचे उतर कर बादर, पर्याप्त, प्रत्येक-शरीर, एकेन्द्रिय, आतप, स्थावर, इन ६ प्रकृतियो की युगपत बन्ध व्युच्छित्ति होता है,
    19. संयोग रूप द्वीन्द्रियजाति, पर्याप्त का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उत्तर कर द्वीन्द्रिय जाति और पर्याप्त, दोनों प्रकृति का बन्ध-व्युच्छेद युगपत् होता है ।
    20. संयोग रूप त्रिइन्द्रिय जाति, पर्याप्त का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उत्तर कर त्रिइन्द्रियजाति और पर्याप्त, दोनों प्रकृतियों का बन्ध-व्युच्छेद युगपत् होता है ।
    21. संयोग रूप चतुरिंद्रिय जाति, पर्याप्त का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उतर कर चतुर इन्द्रिय जाति और पर्याप्त, दोनों प्रकृतियो का बन्ध-व्युच्छेद युगपत् होता है ।
    22. संयोग रूप असंज्ञी पंचेन्द्रिय जाति, पर्याप्त-का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उत्तर कर असंज्ञी पंचेन्द्रिय जाति और पर्याप्त, दोनों प्रकृतियो का बन्ध-व्युच्छेद युगपत् होता है ।
    23. संयोगरूप तिर्यंचगति और तिर्यंचानुपूर्वी, उद्योत का स्थान है - (संख्या २२ की) उपर्युक्त (आयु से) सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उत्तर कर तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी और उद्योत-तीनों प्रकृतियो का बन्ध-व्युच्छेद युगपत् होता है ।
    24. नीच गोत्र का स्थान चौबीसवाँ है -- उपर्युक्त (आयु से) सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उत्तर कर नीच गोत्र प्रकृति की बंध व्युच्छित्ति होती है ।
    25. अप्रशस्त विहायोगगति, त्रियक -- दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय का स्थान है - उपर्युक्त (आयु से) सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उत्तर कर अप्रशस्तविहायोगगति, त्रियक -- दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय चार प्रकृतियां बन्ध से व्युच्छिन्न हो जाती है ।
    26. हुंडासंस्थान-असंप्राप्तासृपाटिका संहनन की व्युच्छिति स्थान है -- उपर्युक्त (आयु से) सागरोपम-शतपृथकत्व नीचे उतर कर हुंडासंस्थान-असंप्राप्तासृपाटिका संहनन, दो प्रकृतियाँ बंध से व्युच्छिन्न हो जाती है ।
    27. नपुंसक वेद का स्थान है -- उपर्युक्त (आयु से) सागरोपम-शतपृथकत्व नीचे उतर कर नपुंसक-वेद प्रकृति का बंध व्युच्छेद होता है ।
    28. वामन-संस्थान व कीलित संहनन का स्थान है -- उपर्युक्त (आयु से) सागरोपम-शतपृथकत्व नीचे उतर कर वामन संस्थान व कीलित संहनन, दोनों प्रकृतियो का बन्ध व्युच्छित्ति युगपत् प्राप्त होती है ।
    29. कुब्जक संस्थान और अर्द्धनाराचशरीरसंहनन प्रकृति का बंधव्युच्छिति का स्थान है -- उपर्युक्त आयु (२८वे स्थान) से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उतर कर कुब्जक संस्थान और अर्द्धनाराचशरीर-संहनन, दोनों प्रकृतियो का युगपत् बंध व्युच्छेद होता है ।
    30. स्त्रीवेद् प्रकृति का बंध व्युच्छिति स्थान है -- उपर्युक्त आयु (२९ वे स्थान) से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उतर कर स्त्रीवेद प्रकृति का बंध व्युच्छेद होता है ।
    31. स्वाति संस्थान और नाराचशरीरसंहनन प्रकृति बंध का व्युच्छिति स्थान है -- उपर्युक्त आयु (३० वे स्थान) से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उतर कर स्वाति संस्थान और नाराचशरीरसंहनन, दोनों प्रकृतियो की बंध व्युच्छित्ति युगपत् होती है ।
    32. न्योग्रोधपरिमंडल-संस्थान और वज्रनाराचशरीरसंहनन प्रकृति बंध का व्युच्छिति स्थान है -- उपर्युक्त आयु (३१वे स्थान) से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उतर कर नयोग्रोधपरिमंडल संस्थान और वज्रनाराचशरीर संहनन,दोनों प्रकृतियो की बंध व्युच्छित्ति युगपत् होती है ।
    33. संयोग रूप मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्रऋषभनाराच-संहनन उपर्युक्त आयु (३२ वे स्थान) से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उतर कर संयोग रूप मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्र ऋषभ नाराच संहनन ५ प्रकृति की युगपत बंध व्युच्छित्ति होती है ।
    34. संयोग रूप अस्थिर-अशुभ, अयश:कीर्ति-अरति, शोक-असातावेदनीय प्रकृतियों के बंध व्युच्छिति के स्थान है -- उपर्युक्त आयु (३३ वे स्थान) से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उतर कर अरति-शोक, अस्थिर-अशुभ, अयश: कीर्ति-असातावेदनीय, छः प्रकृति का युगपत बंध व्युच्छेद होता है ।

    शंका – ३४ प्रकृतियों के बन्धव्युच्छेद का यही क्रम क्यों है?

    उत्तर – इन ३४ बंध पसरण की प्रकृतियों के अशुभ,अशुभतर और अशुभतम के भेद की अपेक्षा से यह बन्धव्युच्छेद का क्रम है।बन्धव्युच्छेद का यह क्रम विशुद्धि प्राप्त भव्य और अभव्य मिथ्यादृष्टि जीवों में साधारण अर्थात समान है।(ध,पु.६पृ.१३६-१३९)।किन्तु जय धवलाकार में कहा है कि, 'जो अभव्य के योग्य विशुद्धि से विशुद्ध हो रहा है उसके तत्प्रायोग्य अंत:कोडाकोड़ी-सागर-प्रमाण स्थिति-बंध में एक भी कर्म-प्रकृति की बन्ध-व्युच्छित्ति नही होती' (ज.ध.पु. १२ ,पृ.२२१)। इस सन्दर्भ में दो मत है । इसी प्रकार ३४ स्थिति बन्धापसरण के दो मत है -

    (ध.पु.६पृ.१३६-१३९) प्रत्येक बन्धापसरण सागरोपमशत पृथकत्व स्थितिबंध का घटने का क्रम बताया है, किन्तु (ज.ध.पु.१२,पृ.२२१-२२४) में सागरोपम-पृथकत्व स्थिति-बंध घटने का उल्लेख है ।

    अंतिम ३४ वे बन्धापसरण में अस्थिर-अशुभ, अयश:कीर्ति-अरति, शोक-असातावेदनीय प्रकृतियों के बंध व्युच्छिति प्रथमोपशम-सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि जीव के हो जाती है । यद्यपि ये प्रकृतियाँ प्रमत्त-गुणस्थान तक बंध योग्य है, तथापि यहाँ इनकी बन्ध-व्युच्छित्ति का कथन विरोध को प्राप्त नही होता है, क्योंकि उन प्रकृतियों के बंध योग्य संक्लेश का उल्लंघन कर, उनकी प्रतिपक्ष-भूत प्रकृतियों के बंध की निमित्त-भूत विशुद्धि से वृद्धि को प्राप्त हुए सर्व-विशुद्ध, इस जीव के उन प्रकृतियों की बंध-व्युच्छित्ति होने में कोई विरोध नही (ज.ध.पु. १२,पृ २२४-२२५)। इन उपर्युक्त प्रकृतियों के बंध से व्युच्छिन्न होने पर अवशिष्ट प्रकृतियों को सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि तिर्यंच और मनुष्य तब तक बांधता है जब तक वह मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के चरम समय को प्राप्त होता है । (ध.पु. ६,पृ १४०)

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    + नर, तिर्यंच और देवगति में, रत्नादि ६ पृथिवियों और सनत्कुमार आदि दश कल्पों में और आनतकल्प आदि में बंधपसरणों के निर्देश - -
    णर तिरियाणं ओघो भवणति-सोहम्मजुगलाए विदियं
    तदीयं अट्ठारसमं तेवीसदिमादि दसपदं चरिमं ॥16॥
    ते चेव चोदस् पदा अट्ठार समेण हीणया होंति
    रयणादिपुढविछक्के सणक्कुमरादिदसकप्पे ॥17॥
    ते तेरस विदिएण य तेवीसदिमेण चावि परिहीणा
    आणद कप्पादुवरिमगेवेज्जंतो त्ति ओसरणा ॥18॥
    अन्वयार्थ : [णर] मनुष्य और [तिरियाणं] तिर्यंच गति में [ओघो] साधारण अर्थात ३४ बंधापसरण होते हैं । जिनके बंध योग्य ११७ प्रकृतियों में से, आदि के छ स्थान विषय ९; १८वे स्थान विषय ऐकेन्द्रिय-३; १९, २०, २१ वे संबंधी द्वी, त्रि, चतुर इन्द्रिय-३ प्रकृति और २३वें ३४वें तक १२ स्थान संबंधी ३१, कुल ४६ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है । शेष ७१ बंधने योग्य रहती है । [भवणति] भवनत्रिक और [सोहम्मजु] सौधर्म [जुगलाए] युगल में [विदियं] दूसरा, [तदीयं] तीसरा, [अट्ठारसमं] अठारहवां, [तेवीसदिमादि] तेईसवें को आदि लेकर ३२ वे तक [दसपदं] १० स्थानों तक तथा [चरिमं] अंतिम ३४वां कुल १४ बन्धापसरण होते हैं जिनमे ३१ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाती है ।
    होते है।
    [रयणादि] रत्नप्रभादि [छक्के][पुढ] पृथ्वियों के [वि] विषय में [ते] उपर्युक्त [अथण] कहे गए [चोदस्पदा] १४ प्रकृति बंध प्रसारणों में [अट्ठार] १८वें [परिहीणा] अतिरिक्त १३ स्थान होते है जिसमे २८ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है । वहां बंध योग्य सौ में से ७२ का ही बंध शेष रहता है।
    [आणद] आनत [कप्पा] कल्प से लेकर उपरिम ९वे [गेवेज्जंतो] गैवियक [दुवरिम] पर्यंत उपर्युक्त [तेरस] तेरह पृकृति बंध [ओसरणा] पसरणों स्थानों में से [विदिएण] दूसरा [य] और [तेवीसदिमेण] २३वा बन्धापसरण नही होता शेष ११ बन्धापसरण [त्ति] होते है। इनमे २४ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है ।

    बोधिनी :
    
    नरतिश्र्चामोघ: भवनत्रि सौधर्मयुगलके द्वितीयं;;तृतीयं अष्टादशमं त्रयो विंशत्यादिदशपदं चरमम्;;तानि चैव चतुर्दशपदानि अष्टादशेन हीनानि भवन्ति;;रत्नादिपृथिवीषट्के सनत्कुमारादिदशकल्पे ॥१७॥;;तानि त्रयोदश द्वितीयेन च त्रियोविंशतिकेन चापि परिहीनानि;;आनतकल्पाद युपरिम ग्रैवेयकान्त मित्य पसरणा:

    १ - प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मनुष्य और तिर्यन्चों के पूर्वाक्त ३४ बन्धापसरण होते है जिनमे ४६ प्रकृतियों की बन्ध-व्युच्छित्ति है ।

    २ - प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख देव तथा सातवे नरक के अतिरिक्त छः पृथिवींयों के नारकी जीवों के बंधने वाली प्रकृतिया - असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, नरकगति, देवगति, ऐकेन्द्रिय से चतुरेन्द्रिय जाति (४) वैक्रयिक-शरीर, आहारक शरीर, समचतुरसंस्थान के अतिरिक्त ५ संस्थान, वैक्रयिक शरीर अंगोपांग, आहार शरीर अंगोपांग, वज्रऋषभनाराचसंहनन के अतिरिक्त ५ संहनन, नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगगति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भाग, दुःस्वर, अनादेय, अयश:, कीर्ति, नीच-गोत्र और तीर्थंकर । इनमे से अपनी अपनी बंध-अयोग्य प्रकृतियों को घटाकर बन्धापसरणों द्वारा बन्धव्युच्छेद हो जाता है ।

    भवनत्रिक देवों व् सौधर्मेन्द्र -- ऐशानस्वर्ग केदेवो में तिर्यगायु, मनुष्ययु, एकेन्द्रिय, आतप, तिर्यंच चगति, तिर्यंच गत्यानुपूर्वी, उद्योत, नीच गोत्र, अप्रशस्तविहयोगगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, हुंडकसंस्थान, कुब्जकसंस्थान, अर्द्ध नाराचसंहन, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, नपुंसक वेद,स्त्री वेद, स्वाति संस्थान, वामन संस्थान, कीलितसंहनन , ,

    न्योगरोधसंस्थान, वज्र नाराच संहनन, अस्थिर अशुभ, अयश:कीर्ति, अरति, शोक, असतवेदनीय, इन ३१ प्रकृतियों के बंध व्युच्च्छित्ति सम्यक्त्व के अभिमुख जीव की होती है ।

    प्रथमादि ६ नरक और तीसरे स्वर्ग से १२ वे स्वर्ग पर्यन्त जीवों में उक्त ३१ प्रकृतियों में से बंध के अयोग्य एकेन्द्रिय, स्थावर और आतप को कम कर, २८ प्रकृतियों की बंध व्युच्छित्ति सम्यक्त्व के अभिमुख जीव की होती है । १३वे से १६ वे स्वर्ग तथा ९ वें ग्रैवियेक पर्यन्त देवों में उक्त २८ प्रकृतियों में से बंध के अयोग्य तिर्यगायु, तिर्यंच गति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी और उद्योत, ४ प्रकृति कम करने पर २४ प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति अभिमुख जाए के होती है ।

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    + सातवे नरकपृथिवी में बन्धापसरण -
    ते चेवेक्कार पदा तदिऊणा विदियठाणसंपत्ता
    चउवीसदि मेणू णा सत्तमिपुढविम्हि ओसरणा ॥19॥
    अन्वयार्थ : सातवी पृथ्वी में, [ते] गाथा १८ में [चेवेक्कार] उल्लेखित ११ [पदा] बन्धापसरण में से [चउवीसदिमेणू] चौबीसवाँ बन्धापसरण [णा] नही होता, किन्तु [विदिय] दूसरा [ठाण] स्थान / बन्धापसरण [संपत्ता] होता है । इस प्रकार [सत्त] सातवी [मिपुढविम्हि] पृथ्वी केवल १० [ओसरणा] बन्धापसरण होते हैं ।

    बोधिनी :
    
    तानि चैवैकादशपदानि तृतीयोनानि द्वितीयस्थान संयुक्तानि;;चतुर्विंशतिकेनोनानि सप्तमीपृथिव्यामपसरणानि॥१९॥

    सातवें नरक में मनुष्यायु बंध योग्य नही है इसलिए ११ में से तीसरा बन्धपसरण कम किया है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख सातवे नरक के नारकी की नीचगोत्र की बन्ध-व्युच्छित्ति नही होती (ज.ध. पु.१२,पृ २२३;ध.पु. ८,पृ ११०,गो.क.गा.१०७) इसलिए २४ वां बंधपसरण भी कम किया है। मिथ्यादृष्टि सप्तम पृथ्वीस्थ नारकी के तिर्यंचायु बंध योग्य है,किन्तु प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख जीव के तिर्यंचायु बंधा व्युच्छिति हो जाती है इसलिए दूसरा बंधापसरण मिलाया गया है।इस प्रकार सप्तम नरक में १० बन्धापसरण होते है ,जिनके द्वारा २३ प्रकृतियों की बंधा व्युच्छिति होती है । सप्तम नरक में बंध योग्य ९६ प्रकृतियाँ है (गो. क. गा. १०५-१०७ की मूल टीका,ज.ध.पु.१२ पृ.;क.पा.सुत्त पृ. ६१९) उनमे से २३ कम करने पर ७३ प्रकृतियाँ बंध योग्य शेष रहती है। इन ७३ में से उद्योत प्रकृति भजनीय है अर्थात्त बंध हो भी होता है और नही भी होता है । इस प्रकार सातवी पृथ्वी में ७२ अथवा ७३ प्रकृतियों का बंध होता है ।

    शंका – तिर्यग्गति, तिर्यगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीच गोत्र की बंध व्योच्छित्ति सातवे नरक में क्यों नही होती?

    समाधान – नहीं होती ,क्योकि भव संबंधी संक्लेश के कारण,शेष गतियों के बंध के प्रति अयोग्य, ऐसे सातवीं पृथिवी के नारकी मिथ्यादृष्टि के तिर्यंच गति तिर्यंचगत्यानुपूर्वी । उद्योत, और नीच गोत्र को छोड़कर सदाकाल इनकी प्रतिपक्षी स्वरुप प्रकृतियों का बंध नही होता है । (ज.ध.पु.१२,पृ.२२३;गो. क. गा.१०७) तथा विशुद्धि के वष से ध्रुव बंधी प्रकृतियों का बंध व्युच्छेद नही होता (ध.पु.८,पृ.११०;ज. ध.पु.१३ पृ.२२६), अन्यथा उस विशुद्धि वश ज्ञानावरणीयादि प्रकृतियों के भी बंधव्युच्छित्ति का प्रसंग प्राप्त होगा, किन्तु ऐसा है नही । क्योकि वैसे मानने से अनवस्था दोष आता है । (ध.पु. ६,पृ १४३-१४४ )

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    + मनुष्य और तिर्यंचगति में प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि जीव के द्वारा बध्यमान प्रकृतिया -
    घादिति सादं मिच्छं कसायपुं हस्सरदि भयस्स दुगं
    अपमत्तडवीसच्चं बंधंती विसुद्धणरतिरिया ॥20॥
    अन्वयार्थ : [विसुद्ध] विशुद्ध [णर] मनुष्य और [तिरिया] तिर्यंच; मिथ्यादृष्ट, गर्भज, संज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख प्रायोग्यलब्धि में स्थित, जिसने ३४ बंध पसरणो में ४६ प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति कर दी है),; [घादिति] तीन घातिया कर्मों -- (५ ज्ञानावरण -- मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ज्ञान वरण ; ९ दर्शनावरण -- चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल दर्शना वरण, स्त्यानगृद्ध, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, निद्रा, प्रचला; ५ अंतराय -- दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य); [सादं] सातावेदनीय, [मिच्छं] मिथ्यात्व, [कसाय] १६ कषाय (अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्यानाख्यानावरण और संज्ज्वलन - क्रोध, मान, माया, लोभ), [पुं] पुरुषवेद, [हस्सरदि] हास्य, रति, [भयस्स दुगं] भय, जुगुप्सा; [अपमत्तडवीस] अप्रमत्तगुणस्थान संबंधी-२८, [उच्च] उच्च गोत्र, इस प्रकार कुल ७१ प्रकृतियों का [बंधंती] बंध करते है । (ध.पु.६,पृ. १३३-१३४;ज.ध.पु. १२ पृ २११,२२५-२२६)

    बोधिनी :
    
    घातित्रयं सातं मिथ्यं कषायपुंहास्यरतय:भयस्स द्विकम्;;अप्रमत्ताष्टविंशोच्चं बध्नन्ति विशुद्धनरतिर्यंच:

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    + अप्रमत्त गुणस्थान में बंधने वाली २८ प्रकृतियाँ -
    देव-तस वण्ण-अगरुचउक्कं समचउरतेजकम्मइं
    सग्गमणं पंचिंदी थिरादिछण्णिमिणमडवीसं ॥21॥
    अन्वयार्थ : [देव] देव [चउक्कं] चतुष्क (देवगति,देवगत्यानुपूर्वी,वैक्रयिकशरीर,वैक्रयिकशरीरअंगोपांग), [तस] त्रस [चउक्कं] चतुष्क(त्रस,बादर,पर्याप्त, प्रत्येकशरीर), [वण्ण] वर्ण [चउक्कं] चतुष्क(वर्ण,गंध,रस ,स्पर्श), [अगरु] अगुरुलघु [चउक्कं] चतुष्क (अगुरुलघु,उपघात,परघात,उच्छ्वास), [समचउर] समचतुरस्र-संस्थान, [तेज] तेजस, [कम्मइं] कार्माण-१, [सग्गमणं] शुभ विहायोगति, [पंचिंदी] पंचेन्द्रिय, [थिरादिछ] स्थिरादि (स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति) छः-६ और [ण्णिमिण] निर्माण, अप्रमत्तगुण स्थान संबंधी [मडवीसं] २८ कर्म प्रकृतियाँ अप्रमत्त गुणस्थान संबंधी बंधने वाली है ।

    बोधिनी :
    
    देव त्सवर्णागुरु चतुष्कं समचतुरस्रतेज: कार्माणकम्;;सद्गमनं पंचेंद्रिय स्थिरादिषण्णिर्माणमष्टाविंशम् ॥

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    + प्रथमोपशसम्यक्तव के अभिमुख देव और नारकी (छट्टी पृथिवी तक) द्वारा बढ़ी कर्म प्रकृतियाँ -
    तं सुरचउक्कहीणं णरचउवज्जजुद पयडिपरिमाणं
    सुरछ्प्पुढवीमिच्छा सिद्धोसरणा हु बंधति ॥22॥
    अन्वयार्थ : [तं] उन,उक्त ७१ प्रकृतियों में से [सुर] देव [चउक्क] चतुष्क (देवगति,देवगत्यानुपूर्वी,वैक्रयिकशरीर और वैकिरियिकअंगोपांग) [हीणं] को कम करके [णर] मनुष्य [चउ] चतुष्क (मनुष्य गति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, औदरिक्शरीर और, औदारिक अंगोपांग) तथा [वज्ज] वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन को [जुद] मिलाने से, [सिद्धोसरणा] बन्धापसरण [हु] करने के पश्चात, [मिच्छा] मिथ्यादृष्टि [सुर] देव और [छ्प्पुढवी] छटी पृथ्वी तक के [मिच्छा] मिथ्यादृष्टि नारकी, [परिमाणं] कुल ७२ [यडिप] प्रकृतियों का [बंधति] बंध करते है।

    बोधिनी :
    
    तत् सुरचतुष्कहीनं नरचतुर्वज्रयुतं प्रकृति परिमाणं;;सुरषट्पृथिवीमिथिया: सिद्धापसरणा हिं बंधति ॥२२॥

    प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख देव एवं प्रथम छः नरक के नारकी प्रायोग्यलब्धि में बन्धापसरण के करने के बाद; ज्ञानावरण-५, दर्शनावरण-९, वेदनीय-कर्म साता वेदनीय-१,मोहनीय कर्म -- मिथ्यात्व, कषाय-अन्नतानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन (क्रोध,मान,माया,लोभ)-१६, नोकषाय-पुरुषवेद हास्य, रति, भय, जुगुप्सा,(५), मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, औदारिक अगोपांग, तेजसशरीर, कार्माणशरीर, समचतुर स्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन,वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, मनुष्यप्रायोग्यनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास प्रशस्तविहायोगगति, त्रस, बादर,पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश:कीर्ति, निर्माण, उच्च गोत्र, अंतराय-५, कुल ७२ प्रकृतियों का बंध करते है ।(ध. पु. ६ पृ. ४०-१४१;ज. ध. पु. १२,पृ. २११-१२)

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    + सातवी पृथ्वी के नारकी द्वारा बंध प्रकृतियाँ -
    तं णरदुगुच्चहीणं तिरियदु णीच जुद पयडिपरिमाणं
    उज्जोवेण जुदं वा सत्तमखिदिगा हु बंधंति ॥23॥
    अन्वयार्थ : प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख सातवी पृथ्वी का नारकी, [तं] पूर्वाक्त ७२ प्रकृतियों में से [णर] मनुष्य [दुगुच्च] द्विक; मनुष्यगति और मनुषगत्यानुपूर्वी तथा उच्च गोत्र को [हीणं] कम करने से तथा [तिरियदु] तिर्यंचगति [द्विक] द्विक ;तिर्यंच गति और तिर्यंचगत्यानुपूर्वी तथा [णीच] नीच गोत्र को [जुद] मिलाने से [पयडिपरिमाणं] ७२ प्रकृतियाँ का बंध करता है । यदि [उज्जोवेण] उद्योत प्रकृति [जुदं] मिलाई जाती है तो सातवी पृथ्वी का नारकी [सत्तमखिदिगा] ७३ प्रकृति का [हु] ही [बंधंति] बंध करते है ।

    बोधिनी :
    
    तत् नर द्विकोच्चहीनं तिर्यग्द्विकं नीचयुतं प्रकृतिपरिमाणं;;उद्योतन युतं वा सप्तक्षितिगा हि बध्नन्ति ॥

    प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख सातवे नरक के मिथ्यादृष्टि नारकी बन्धापसरण करने के पश्चात; ज्ञानावरण-५, दर्शनावरण-९, साता वेदनीय-१, मोहनीय कर्म;मिथ्यात्व,कषाय-अन्न-तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन (क्रोध,मान,माया,लोभ)-१६, नोकषाय-५ -- पुरुषवेद हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, औदारिकअगोपांग, तेजसशरीर, कार्माणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश:कीर्ति, निर्माण, निच्चगोत्र, अंतराय-५ -- कुल ७२ प्रकृतियां बांधता है । उद्योत प्रकृति को कदाचित वह बांधता है और कदाचित नही बांधता, यदि बांधता है तो ७३ प्रकृतियों को बांधता है अन्यथा ७२ प्रकृतियों को बांधता है । (ध.पु.६ पृ १४२-१४३;ज. ध. पु. १२ पृ.२१२)

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    + सम्यक्त्व के अभिमुख मिथिदृष्टि जीव के स्थिति-अनुभाग बंध के भेद -
    अंतों कोडाकोड़ीठिदिं अस्तथाणं सत्थगाणं च
    बिचउठाणरसं च य बंधाणं बंधणं कुणदि ॥24॥
    अन्वयार्थ : (प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि) बंधने योग्य कर्म प्रकृतियों का [अंतों] अंत: [कोडाकोड़ी] कोटाकोटिसागरोपम प्रमाण ही [ठिदिं] स्थिति-बंध [कुणदि] करता क्योकि वह विशुद्धतर परिणामों से युक्त होता है ,उससे अधिक स्थितिबंध असम्भव है तथा [अस्तथाणं] अप्रशस्त कर्म प्रकृतियों का [बि] द्वि [ठाण] स्थानीय अनंत अनंत गुणा घटते हुए [च] और [सत्थगाणं] प्रशस्त प्रकृतियों का [चउ] चतु: [ठाण] स्थानीय [रसं] अनुभाग [बंधणं] बंध प्रति समय अनंत अनंत गुणा वृद्धिंगत बांधता है।

    बोधिनी :
    
    अंत:कोटाकोटिस्थितिं अशास्तनां शास्तनां च;;द्विचतु:स्थानरसं च च बंधानां बंधनं करोति ॥२४॥

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    + सम्यक्त्व के अभिमुख मिथिदृष्टि जीव के प्रदेशबंध के विभाग -
    मिच्छणथीणति सुरचउ समवज्जपसत्थ गमण सुभगतीयं
    णीचुक्कस्सपदेसमणुक्कस्सं वा पबंधदि हु ॥25॥
    अन्वयार्थ : [प] प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख [मिच्छ] मिथ्यात्व / अन्नतानुबन्धी चतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ), [णथीण] स्तयानगृद्धादि-त्रिक (निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला , स्तयानगृद्ध), [सुरचउ] देव-चतुष्क (देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर, वैक्रयिक-अंगोपांग), [सम] समचतुरस्र-संस्थान, [वज्ज] वज्रवृषभनाराच-संहनन, [पसत्थ] प्रशस्त [गमण] विहायोगगति, [सुभगतीयं] सुभगादितीन (सुभग, सुस्वर, आदेय), [णीच] नीच गोत्र, इन १९ कर्म प्रकृतियों का [उक्कस्स] उत्कृष्ट [वा] और [अणुक्कस्सं] अनुत्कृष्ट [पदेसं] प्रदेश [बंधदि] बंध [हु] करते हैं ।

    बोधिनी :
    
    मिथ्यानसत्यनत्रिकं सुरचतु:समवज्रप्रशस्तगमनसुभगत्रिकं;;नीचैरुत्कृष्टप्रदेशमनुत्कृष्टं वा प्रबध्नाति हि ॥२५॥

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    एदेहिं विहीणाणं तिण्णि महादंडएसु उत्ताणं
    एकट्ठिपमाणाणमणुक्कस्सपदेसंबंधणं कुणदि ॥26॥
    अन्वयार्थ : [एदेहिं] गाथा २५ में कही १९ कर्म प्रकृतियों [विहीणाणं] से रहित [तिण्णि] तीन [महादंडएसु] महादण्डक अर्थात २१, २२, २३ शेष [एकट्ठि पमाणाणं] ६१ प्रकृतियों का [अणुक्कस्स] अनुत्कृष्ट [पदेसं] प्रदेश [बंधणं] बंध [कुणदि] करते हैं ।

    बोधिनी :
    
    एतैर्विहीनानां त्रिषु महादंड केषूक्तानाम्;;एक षष्टि प्रमाणानामुत्कृष्टप्रदेशबंधनं ॥२६॥

    प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख, मिथ्यादृष्टि जीव के द्वारा बांधी जाने वाली प्रकृतियों का उल्लेख तीन महादण्डको में किया गया है, प्रथम महादण्डक में मनुष्य और तिर्यचों के बंध योग्य प्रकृतियों का, दुसरे में देवों और प्रथम छः पृथ्वियों के नारकियों के बंध योग्य प्रकृतियों और तृतीय महादण्डक में सातवी पृथ्वी के नारकियो द्वारा बंध योग्य प्रकृतियों का कथन है । (ज. ध. पु. १२,पृ. २१३,ध. पु. ६,पृ. २०९-१० ) गाथा २५ मे कही १९ प्रकृतियों का उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेश बंध होता है । ज्ञानावरणीय -५, दर्शनावरणीय-६, साता वेदनीय, अप्रत्यख्यानवरण -प्रत्याख्यावरण -संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ --१२ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक-शरीर, तेजस-शरीर, कार्मण-शरीर, औदारिक-शरीर अंगो-पांग, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, तिर्यंच-गत्यानुपूर्वी, मनुष-गत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक-शरीर, स्थिर, शुभ, यश:कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र, और अंतराय -५ इन ६१ प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट प्रदेश बंध होता है ।(ज. ध. पु.१२,पृ. २१३)

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    + उक्त तीन महादण्डकों में अपुनरुक्त प्रकृतियाँ -
    पढमे सव्वे विदिये पण तिदिये चउ कमा अपुणरुत्ता
    इदि पयडीणमसीदी तिदंडएसु वि अपुणरुत्ता ॥27॥
    अन्वयार्थ : [पढमे] प्रथम की [सव्वे] सभी, [विदिये] द्वितीय की [पण] पांच और [तिदिये] तृतीय की [चउ] ४ प्रकृति [कमा] क्रमश: [अपुणरुत्ता] अपुनरुक्त है, [इदि] ये [तिदंड] तीन दण्डक [एसु] संबंधी ८० [पयडी] प्रकृतियाँ [अपुणरुत्ता] अपुनरुक्त है ।

    बोधिनी :
    
    प्रथमे सर्वे द्वितीये पंच तृतीये चतु: क्रमादपुनरुक्त्ता:;;इति प्रकृतिनामशीति: त्रिदंडकेष्वपि अपुनरुक्त्ता ॥

    प्रथम दण्डक (गाथा २०), में प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि मनुष्य और तिर्यन्चों के बंध योग्य ७१ प्रकृतियों का उल्लेख है ये सभी अपुनरुक्त है(जीव.चू.३,सू २;ध.पु.६,पृ१३३), क्योकि प्रकृतियाँ प्रथम दण्डक सबंधी है । द्वितीय दण्डक; (जीव चू ४ सू २ ;ध.पु.६ पृ २१०) गाथा २२, में प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यदृष्टि देव तथा पृथ्वी से छट्टी पृथ्वी तक नारकी संबंधी बंध योग्य ७२ प्रकृतियों का कथन है उन में से, ६७ प्रकृतियाँ प्रथम दण्डक संबंधी ही है किन्तु मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग और वृषभनाराच सहनन, ५ प्रकृति प्रथम दंडक संबंधी नही है । तृतीय दंडक (जीव चू.५,सूत्र २ ;ध.पु. ६पृ १४१) पृथ्वी के नारकी के प्रकृतियों के बंध का उल्लेख है (गाथा २३) उस में जीव तिर्यंचगति, तिर्यंच गत्यानुपूर्वी, नीचगोत्र और उद्योत, इन ४ प्रकृतियों के अतिरिक्त ६९ प्रकृतियाँ द्वितीय दंडक संबंधी प्रकृतियों का बंध करता है । ये चार प्रकृतियाँ प्रथम और द्वितीय दंडक है इसलिए अपुनरुक्त प्रकृति है । प्रकार प्रथम दण्डक की सर्व ७१,द्वितीय दण्डक की ५,और तीसरे दण्डक की ४, कुल ८० प्रकृतियाँ अपुनरुक्त है ।

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    + प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख विशुद्ध मिथ्यादृष्टि के प्रकृति-स्थिति अनुभाग और प्रदेशों का उदय -
    उदये चउदसघादी णिद्दापयलाणमेक्कदरंग तु
    मोहे दस सिय णामे वचिठाणं सेसगे सजोगेक्कं ॥28॥
    अन्वयार्थ : तीन [घादी] घातिया-कर्मों की (ज्ञानावरण-५,दर्शनावरण-४,अंतराय-५) [चउदस] चौदह प्रकृतियों, [णिद्दा] निद्रा और [पयलाणमें] प्रचला में से [क्कदरंग] किसी एक, [मोहे] मोहनीयकर्म की [सिय] स्यात् [दस] १० (१०/९/८) प्रकृतियों, [णामे] नाम-कर्म की [वचिठाणं] भाषा पर्याप्ति काल में उदय योग्य प्रकृतियां और [सेसगे] शेष (वेदनीय,गोत्र,और आयुकर्म )की [क्कं] एक-एक प्रकृति [सजोगे] मिला लेने चाहिए । ये सर्व प्रकृतियाँ [उदये] उदय योग्य हैं ।

    बोधिनी :
    
    उदये चतुर्दशघातिन:निद्राप्रचलानामेकतरकं;;मोहे दश स्यात् नामनि वच:स्थानं शेषकं सयोग्येकं ॥२८॥

    प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख चारों गतियों संबंधी मिथ्यादृषृटि जीव के सर्व मूल प्रकृतियों का उदय होता है । उत्तर प्रकृतियों में से ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण की ४, अंतराय कर्म की ५ (कुल १४) निद्रा-प्रचला में से एक, मिथ्यात्व, पंचेन्द्रिय जाति, (तेजस, कार्माण) शरीर ,वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण । इन प्रकृतियों का नियम से ध्रुव उदय होने के कारण, उदय होता है । वेदनीय कर्म की साता अथवा असाता ,एक का उदय रहता है । मोहनीय कर्म की १०/९/८ प्रकृतियों का उदय होता है । मिथ्यात्व, अन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानादि चतुष्कों में से क्रोध, मान, माया, लोभ; चारों में से किसी एक उदय होता है (अर्थात चारों कषायों में से जिस का उदय होगा उसी का अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वल्लन का उदय होता है), तीन वेदों में से किसी एक, हास्य-रति, अरति-शोक इन युगलों में से कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा-मोहनीय कर्म की ये दस प्रकृतियाँ उदय स्वरुप होती है । इनमे से भय अथवा जुगुप्सा को कम करने पर ९ और दोनों को कम करने पर ८ प्रकृतियों उदय स्वरुप होती है । (ध.पु.६ पृ.२११.;;ध.पु.१५.पृ.८२-८३ ,ज.ध.पु. १२ पृ.२३०;गो. क. ४७५-४७९) । चारो आयु में से किसी एक आयु का उदय होता है, क्योंकि ये चारों पृथक-पृथक प्रतिनियत गति विशेष से प्रतिबद्ध है इसलिए तदनुसार ही उस उस आयुकर्म के उदय का नियम देखा जाता है । ४ गति, २ शरीर, ६ सन्स्थान, और २ अंगोपांग; इनमें अन्यतर एक-एक नाम-कर्म की प्रकृति का उदय होता है।६ संहनन में से कदाचित(यदि मनुष्य अथवा तिर्यंच प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख है तब ) किसी एक संहनन का उदय है और कदाचित (देव अथवा नारकी प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख है तब) किसी भी संहनन का उदय नही होता । उद्योत का कदाचित उदय पाया जाता है;क्योकि पंचेंद्रिय तिर्यन्चों में किन्ही के उद्योत का उदय । दो विहायोगगति, सुभग-दुर्भग, सुस्वर-दुःस्वर, आदेय-अनादेय, यश:कीर्ति-अपयश, इन ५ युगलों में से प्रत्येक की किसी एक प्रकृति का उदय होता है । गोत्र-कर्म में उच्च अथवा निच्च गोत्र का उदय होता है।यह प्रकृतियों का उदय चारो गति संबंधीजीवों के है ।

    आदेश की अपेक्षा चारों गतियों में उदय-चारों आयु में जिस गति में जो आयु अनुभव करी जाती है, उस आयु का उस गति में उदय होता है । गतियों में नरक व तिर्यंच-गति में नीच-गोत्र का ही उदय है, दोनों में से किसी एक गोत्र का उदय होता है, देवगति में उच्च गोत्र का ही उदय होता है (ध.पु. १५,पृ ६१)

    नाम-कर्म की अपेक्षा नारकी के; नरक-गति, पंचेन्द्रिय, वैक्रियिक शरीर, तेजस शरीर, कार्माण शरीर, हुंडक संस्थान, वैक्रियिक शरीर अङ्गोपांग, वर्ण, गंध, स्पर्श, रस, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, अप्रशस्त विहायोगगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक-शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, सुभग, अनादेय, अयशकीर्ति, और निर्माण नाम कर्म की इन २९ प्रकृतियों का उदय होता है ।

    नामकर्म की अपेक्षा तिर्यंच के, तिर्यंच-गति, पंचेन्द्रिय-जाति, औदरिक-शरीर, तेजस-शरीर, कार्माण-शरीर, ६ संस्थानों में से कोई १-संस्थान, औदारिक-शरीर अङ्गोपांग, ६ संहनन में से से कोई एक संहनन, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, कदाचितउद्योत, विहायोगगति में से एक, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, दुर्भग-सुभग, आदेय-अनादेय, यश:कीर्ति-अयश:कीर्ति, (अंतिम ५ युगलों में से प्रत्येक में से कोई एक-एक) नाम कर्म की इन ३० या ३१ प्रकृतियों का उदय होता है ।

    मनुष्य है तो इन ३० नाम-कर्म की प्रकृतियों में तिर्यंच-गति की जगह मनुष्य-गति युक्त ३० प्रकृतियों का उदय होता है । मनुष्यों में उद्योत संभव नही है इसलिए ३१ प्रकृतियों का उदय ।

    देव है तब देवगति, पंचेन्द्रिय, वैक्रियिक-शरीर, तेजस-शरीर, कार्माण-शरीर, समचतुरस्र-संस्थान, वैक्रियिक-शरीर अंगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक-शरीर, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुभग-सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति और निर्माण; इन २९ नाम कर्म की प्रकृतियों का उदय होता है ।

    विशेष -

    १-उपर्युक्त गाथा तथा ध. पु. ६,पृ. २१० पर निद्रा और प्रचला किसी एक के उदय के साथ दर्शनावरणीय कर्म की ५ प्रकृतियों का उदय बतलाया है किन्तु ज.ध.पु.१२.पृ.२२७ पर पांचों न्द्र की उदय व्युच्छित्ति कही है । क्योंकि साकारोपयोग और जागृत अवस्था विशिष्ट दर्शन मोह-उपशामक के पांच निद्रादि के उदय रूप विरोध है ।इस प्रकार निद्रा और प्रचला के उदय में दो मत है । एक मत इनमे से किसी एक का उदय स्वीकारता है दूसरा नही स्वीकारता । ज. ध. पु. १२.पृ. २२९-२३०

    २-प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यदृष्टि के निद्रादि ५ दर्शनावरण, ४ जातिनाम कर्म, ४ आनुपूर्वी नाम कर्म, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण शरीर, ये प्रकृतियाँ उदय से व्युच्छिन्न् होती है । ज. ध. पु. १२.पृ.२२६-२२७ ।

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    + प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख विशुद्ध मिथ्यादृष्टि के उदय प्रकृति संबंधी स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेशों की उदय-उदीरणा का कथन -
    उद इल्लाणं उदये पत्तेक्कठिदिस्स वेदगो होदि
    विचउट्ठाणमसत्थे सत्थे उदयल्लरसभुत्ती ॥29॥
    अजहण्णमणुक्कस्स्प्देसमणुभवदि सोदयाणं तु
    उद्यिल्लाणं पयडिचउक्काणमुदीरगो होदि ॥30॥
    अन्वयार्थ : [उदइल्लाणं] उदयवान प्रकृतियों का [उदये] उदय प्राप्त होने पर [पत्तेक्कठिदिस्स] एक स्थिति का [वेदगो] वेदक [होदि] होता है । [असत्थे] अप्रशस्त प्रकृतियों के [विच] द्वि [उट्ठाणं] स्थानरूप और [सत्थे] प्रशस्त प्रकृतियों कर [चतु:] चतु:स्थानरूप उदयमान [रस] अनुभाग को [भुत्ती] भोगता है ।
    [उदयल्ल] उदरूप प्रकृतियों के [अजहण्णम] अजघन्य [णुक्कस्स्प्देसम] अनुत्कृष्ट प्रदेशों को [णुभवदि] अनुभव करता है । [उद्यिल्लाणं] उदयस्वरूप [पयडि] प्रकृतियों के [चउक्काणं] प्रकृति-प्रदेश-स्थिति-अनुभाग का [उदीरगो] उदीरणा [होदि] करता है ।

    बोधिनी :
    
    उदयवतामुदये प्राप्ते एकस्थितिकस्य वेदको भवति;;द्विचतु:स्थानमशस्ते शस्ते उदीयमानरस भुक्ति:॥२९॥;;अजघन्यमनुत्कृष्टप्रदेशमनुभवति सोदयानां तु;;उदयवतां प्रकृतिचतुष्काणामुदीरको भवति ॥३०॥

    १-प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि जीव के जिन प्रकृतियों का उदय है,उन प्रकृतियों की स्थिति क्षय से उदय में प्रविष्ट एक स्थिति का वेदक होता है शेष स्थितियों अवेदक होता है। उक्त जीव के अप्रशस्त प्रकृतियों के उदय में दारु और लता रूप अथवा निम्ब कांजी रूप द्विस्थानीय अनुभाग का वेदक होता है । उदय में आयी प्रशस्त प्रकृतियों ककए चतु:स्थानीय अनुभाग का वेदक होता है । जिन प्रकृतियों का वेदक होता है, उन प्रकृतियों के प्रकृति-स्थिति और प्रदेशों की उदीरणा करता है ।

    शंका – उदय और उदीर्ण में अंतर क्या है ?

    समाधान – जो कर्म-स्कन्ध अपकर्षण, उत्कर्षणादि प्रयोग के बिना स्थिति क्षय को प्राप्त होकर अपना अपना फल देते है,उन कर्म स्कन्धों की संज्ञा उदय है । जो महान स्थिति और अनुभाग में अवस्थित कर्म-स्कन्ध अपकर्षित करके फल देने योग्य किये जाते है उन कर्मस्कन्धों की उदीरणा संज्ञा है , क्योंकि अपक्व कर्म-स्कन्ध के पाचन करने को उदीर्ण कहते है । ध. पु. ६ पृ। २१३ पर अजघन्य-अनुत्कृष्ट प्रदेशों का उदय कहा है किन्तु ज. ध. पु. १२ पृ.२२९ पर अनुत्कृष्ट प्रदेश पिंड का उदय कहा है ।

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    + प्रकृतियों के सत्त्व का कथन -
    दुति आउ तित्थहारचाउक्कणा सम्मेगण हीणा
    मिस्सेणूना वा वि य सव्वे पयडी हवे सत्तं ॥31॥
    अन्वयार्थ : [दु] दो, या [ति] तीन [आउ] आयु, [तित्थ] तीर्थंकर और [हार] आहारक [चाउक्कणा] चतुष्क; [सम्मेगण] सम्यक्त्व [वा] तथा [मिस्सेणूना] सम्यकमिथ्यात्व प्रकृतियों के [हीणा] अतिरिक्त [सव्वे] सब [पयडी] प्रकृतियों का [सत्तं] सत्त्व [हवे] रहता है ।

    बोधिनी :
    
    द्वित्रिआयुःतीर्थाहारचतुष्कैःसम्यत्वेन हीना वा;;मिश्रेणो वापि च सर्वेषां प्रकृतीनां भवेत् सत्तवम्॥३१॥

    १-प्रथमोपशम सम्यक्त्व अभिमुख मिथ्यादृष्टि जीव यदि अबद्धायुष्क है तो उसके भुजयमान आयु अतिरिक्त ३ आयु का और यदि बद्धायुष्क है तो भुजयमान और बद्धयमान आयु के अतिरिक्त दो आयु का सत्त्व नही होता इस स्थिति में क्रमश शेष (१४८-१०) = १३८ और (१४८-९) = १३९ प्रकृतियों का सत्त्व होता है ।

    २-किसी ने तीर्थंकर प्रकृति के बंध से पूर्व दुसरे या तीसरे नरकायु का बंध किया हो तो उसका सम्यक्त्व एक अंतर्मूर्हत के लिए छूटता है और वह मिथ्यात्व में जाता है (ध.पु. ८,पृ.१०४) । पुन: वेदक सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है क्योंकि पल्योपम के असंख्यातवें भाग पर्यन्त वेदक-सम्यक्तव का उत्पत्ति-काल है - (गो.क.गा.१६५ )। वेदक सम्यक्त्व के उत्पत्ति काल के बाद प्रथमोपशम सम्यक्त्व का ग्रहण हो सकता है - (गो.क.गा.१६५ ;ध. पु. ५।.पृ ९-१०,३३-३४)। आहारक-चतुष्क का उद्वेलना-काल से, वेदक-सम्यक्त्व का उत्पत्ति-काल बड़ा है (गो.क. गा. ६१३;ज. ध.पु.१२पृ.२०९) अत: आहरक-चतुष्क के उद्वेलना के बिना प्रथमोपशम-सम्यक्त्व उत्पन्न नही हो सकता । प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख किसी जीव के सम्यक्त्व प्रकृति का सत्त्व नही होती और किसी के सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व, इन दोनों प्रकृति का सत्त्व नहीं होता है ।

    ३-प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि जीव के आठों मूल प्रकृतियों का सत्त्व होता है । उत्तर-प्रकृतियों में ज्ञानावरण-५, दर्शनावरण-९, वेदनीय-२, मोहनीय की मिथ्यात्व, १६ कषाय और ९ नो कषाय -- ये २६ प्रकृतियां सत्कर्म रूप से होती है, क्योंकि अनदि-मिथ्यादृष्टि तथा २६ प्रकृतियों के सत्कर्म वाले सादि मिथ्यादृष्टि के इनका सद्भाव पाया जाता है । अथवा सादि मिथ्यादृष्टि के सम्यक्त्व प्रकृति के अतिरिक्त मोहनीय कर्म की २७ प्रकृतियों सत्कर्म रूप होती है, क्योंकि सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना करके उपशम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए जीव के उनके होने में कोई विरोध नही है । अथवा सम्यक्त्व प्रकृति के साथ २८ प्रकृतियाँ सत्कर्मरूप होती है, क्योंकि वेदक सम्यक्त्व के योग्य काल को उल्लंघन कर जिसने सम्यक्त्व प्रकृति की पूर्ण रूप से उद्वेलना नही करी है, ऐसे उपशम सम्यक्त्व के अभिमुख जीव के उक्त प्रकार से २८ प्रकृतियों का सद्भाव देखा जाता है ।

    आयुकर्म की एक या दो प्रकृतियाँ सत्कर्म-रूप होती है और जिसने परभव संबंधी आयु का बंध नही किया, उसके आयु-कर्म की दो और जिसने किया है उसके भुज्यमान आयु की एक प्रकृति होती है । नाम कर्म की गति ४, जाति ५, औदारिक, वैक्रियिक-तेजस-कार्माण शरीर-४ इन्ही के संबंधी बंधन-४ और संघात-४, संस्थान-६, आहारकशरीर अंगोपांग १, संहनन ६, वर्ण, रस गंध, स्पर्श ४, आनुपूर्वी ४, अगुरुलघु १,उपघात-परघात २, उच्छ्वास १, आतप-उद्योत-२, प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगगति २, त्रस-स्थावर आदि युगल १०, निर्माण ये प्रकृतियाँ तथा अंतराय कर्म की ५ प्रकृतियाँ सत्कर्म रूप है ।

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    + सत्त्व प्रकृतियों के स्थिति-अनुभाग और प्रदेश बंध -
    अजहण्णमणुक्कस्सं ठिदितियं होदि सत्तपयडीणं
    एवं पयडिचउक्कं बंघादिसु होदि पत्तेयं ॥32॥
    अन्वयार्थ : [सत्तपयडीणं] उक्त सत्त्व प्रकृतियों का [ठिदितियं] स्थितित्रिक (स्थिति,अनुभाग और प्रदेश ) [अजहण्णमणुक्कस्सं] अजघन्य-अनुत्कृष्ट [होदि] होता है । [बंघादिसु] बन्धादि (बंध-उदय-उदीरणा) [पत्तेयं] प्रत्येक में इसी प्रकार [पयडिचउक्कं] प्रकृति चतुष्क (प्रकृति,स्थिति,अनुभाग और प्रदेश) [होदि] होता है।

    बोधिनी :
    
    अजघन्यमनुत्कृष्टं स्थितित्रिकं भवति सत्त्व प्रकृतीनाम्;;एवं पर्कृतिचतुष्कं बंधादिषु भवति प्रत्येकम् ॥

    १-आयुकर्म के अतिरिक्त उक्त प्रकृतियों का स्थिति-सत्कर्म, अंत: कोडा-कोड़ी-सागर होता है । आयु-कर्म का तत्प्रायोग्य स्थिति सत्कर्म होता है । ज्ञानावरण-५, दर्शनावरण-९, असाता वेदनीय-१, मोहनीय की मिथ्यात्व, १६ कषाय और ९ नोकषाय, सम्यक्त्व, सम्यमिथ्यात्व, नरक-गति, तिर्यंच-गति, एकेन्द्रियादि ४ जाति, ५ संस्थान, ५ संहनन, अप्रशस्तवर्ण, चतुष्क, नरक-गत्यानुपूर्वी, तिर्यंच-गत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त-विहायोगगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयश:कीर्ति, नीचगोत्र और अंतराय-५, इन प्रकृतियों का द्विस्थानीय लता-दारु या निम्ब-कांजिर, अनुभाग सतकर्म होता है ।

    २-साता वेदनीय, मनुष्य-गति, देव-गति, पंचेन्द्रिय-जाति, औदारिक-शरीर, वैक्रयिक-शरीर, तेजस-शरीर, कार्माण-शरीर, तथा उन्ही के बंधन और संघात, समचतुरस्र-संस्थान, औदारिक शरीर अंगोपांग, वैक्रयिक शरीर अंगोपांग, वज्र वृषभ नाराचसंहनन, प्रशस्त-वर्ण-चतुष्क, मनुष्य-गत्यानुपूर्वी, देव-गत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप-उद्योत, प्रशस्त विहायोगगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण, उच्च-गोत्र, इन प्रशस्त प्रकृतियों का चतु:स्थानीय अनुभाग सत्कर्म होता है ।

    ३-जिन प्रकृतियों का सत्कर्म है, उनका अजघन्य-अनुत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्म होता है ।

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    + पंचम-करण लब्धि -
    तत्तो अभव्वजोग्गं परिणामं बोलिऊण भव्वो हू
    करणं करेदि कमसो अधापवत्तं अपुव्वमणियट्टिं ॥33॥
    अन्वयार्थ : [तत्तो] उस अर्थात प्रायोग्य लब्धि के बाद [अभव्वजोग्गं] अभव्य योग्य [परिणामं] परिणामों का [बोलिऊण] उल्लंघन कर (मुक्त होकर) [भव्वो] भव्य जीव [हू] ही अधिक वृद्धिगत विशुद्ध परिणामों के द्वारा [करणं] करण लब्धि को जो [कमसो] क्रमश: [अधापवत्तं] अध:प्रवृत्त करण, [अपुव्वमणियट्टिं] अपूर्व करण और अनिवृत्ति करण [करेदि] प्राप्त करता है ।

    बोधिनी :
    
    तत: अभव्ययोग्यं परिणामं मुक्त्वा भव्यो हि;;करणं करोति क्रमश: अध:प्रवृत्तम अपूर्वमनिवृत्तिम् ॥३३॥

    १-गुरुपदेश के द्वारा अथवा उसके अभाव में भी, अभव्य जीव के योग्य विशुद्धियों को प्राप्त करने के बाद भव्य जीवों के योग्य, अध:प्रवृत्त-करण संज्ञा वाली विशुद्धि में भव्य जीव परिणत होता है ।(ध. पु. ६,पृ २०६)

    जिस परिणाम विशेष के द्वारा दर्शनमोह का उपशमादि रूप विवक्षित भाव उत्पन्न किया जाता है उस विशेष परिणाम को करण कहते है (ज.ध.पु.१२ पृ २३३)।२-करण के तीन भेद -- अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृतिकरण है । ये तीनों करण क्रमश: होते हैं ।

    अर्थात प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होने वाले जीव के अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के भेद से तीन प्रकार की विशुद्धियाँ होती है (ध.पु.६,पृ.२१४,ज.ध.पु.१२ पृ २३३,क. पा. सु.पृ.६२१)

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    + तीनों करणों का काल अल्पबहुत्व सहित -
    अंतोमुहुत्तकाला तिण्णिवि करणा हवंति पत्तेयं
    उवरीदो गुणियकमा कमेण संखेज्जरूवेण ॥34॥
    अन्वयार्थ : [तिण्णिवि] तीनों [करणा] करणों में [पत्तेयं] प्रत्येक का [अंतोमुहुत्तकाला] अन्तर्मुर्हूर्त प्रमाणकाल [हवंति] होता है । किन्तु [उवरीदो] ऊपर से नीचे करणों का काल [संखेज्जरूवेण] संख्यात गुणा [गुणियकमा कमेण] क्रम लिए हुए है ।

    बोधिनी :
    
    अंतमुर्हूर्तकालानि त्रीण्यपि करणानि भवंति प्रत्येकं;;उपरित: गुणितक्रमाणि क्रमेण संख्यात रूपेण ॥३४॥

    इनमे अनिवृत्तिकरण का काल स्तोक है,अपूर्वकरण का उससे संख्यात गुना और उससे संखयातगुणा अध:प्रवृत्तकरण का काल है -- (क.पा.सु.पृ.६२१)

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    + प्रथम करण को अध:करण कहने का कारण -
    जम्हा हेट्ठीमभावा उवरिम भावेहिं सरिसगा होंति
    तम्हा पढमं करणं अधापवत्तोति णिद्दिट्ठं ॥35॥
    अन्वयार्थ : [जम्हा] क्योंकि [हेट्ठीमभावा] अधस्तन अर्थात नीचे के भाव [उवरिम] उपरितन [भावेहिं] भावों के [सरिसगा] सदृश [होंति] होते है [तम्हा] इसलिए [पढमं] प्रथम [करणं] करण को [अधापवत्तोत] अध:प्रवृत्तकरण [णिद्दिट्ठं] कहा गया है ।

    बोधिनी :
    
    यस्मादघस्तनभावा उपरितनभावै:सदृशा भवन्ति;;तस्मात् प्रथमं करणं अध:प्रवृत्तमिति निर्दिष्टम्

    १-प्रथम करण में विध्यमान जीव के करण परिणाम अर्थात उपरितन समय के परिणाम, पूर्व समय के परिणामों के समान प्रवृत्त होते है, इसलिए वह अध:प्रवृत्तकरण है । इस कारण उपरिम समय के परिणाम नीचे के समयों में भी पाये जाते है (ज.ध.पु.१२ पृ २३३) क्योंकि उपरितन समयवर्ती परिणाम अध: अर्थात अधस्तन समयवर्ती परिणामों में समानता को प्राप्त होते है, अत: अध:प्रवृत्त, संज्ञा सार्थक है (ध पु.६ पृ २१७)

    २-प्रथम समय संबंधी प्रथम पुंज के परिणाम और अंतिम समय संबंधी अंतिम पुंज के परिणाम, किन्ही परिणामों के सदृश नहीं होते । अन्य जितने परिणाम है वे यथायोग्य सदृश भी होते है और विसदृश भी होते हैं । यह कथन नाना जीवों की अपेक्षा है ।

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    + अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के स्वरुप का निरूपण -
    समय समय भिण्णा भावा तम्हा अपुव्व करणो दु
    अणियट्टीवि तहं वि य पडिसमयं एक्कपरिणामो ॥36॥
    अन्वयार्थ : [समय समय] प्रति समय [भिण्णा] भिन्न [भावा] भाव होते हैं [तम्हा] इसलिए [अपुव्व करणो] अपूर्वकरण [दु] है [य] तथा [पडि समय] प्रति समय [एक्कपरिणामो] एक समान परिणाम होते है [वि] वह [अणियट्टीवि] अनिवृत्तिकरण है

    बोधिनी :
    
    समये समये भिन्ना भावा तस्मादपूर्वकरणो हि;;अनिवृत्तिरपि तथैव च प्रतिसमय मेकपरिणाम: ॥

    १-जिस करण में प्रतिसमय अपूर्व अर्थात असमान, नियम से अनन्त-गुण रूप वृद्धिंगत विशुद्ध परिणाम होते है वह अपूर्वकरण है । इस करण में होने वाले परिणाम प्रत्येक समय में असंख्यात-लोकप्रमाण होकर भी अन्य समय में स्थित परिणामों के सदृश नहीं होते, यह उक्त का भावार्थ है (ज.ध.पु.१२ पृ २३४)

    २-जिस करण में विध्यमान जीवों के एक समय में परिणाम भेद नहीं है वह अनिवृत्तिकरण है । (ज.ध.पु.१२ पृ २३४)। अनिवृत्तिकरण में प्रत्येक समय में एक एक ही परिणाम होता है क्योंकि यहां एक समय में जघन्य व उत्कृष्ट भेद का अभाव है । (ध.पु.६ पृ.२२१) एक समय में वर्तमान जीवों के परिणामों की अपेक्षा निवृत्ति या विभिन्नता जहाँ नहीं होती वे परिणाम अनिवृत्तिकरण कहलाते हैं ।

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    + अध:प्रवृत्तकरण संबंधी विशेष (निम्न ५ गाथा) कथन -
    गुणसेढी गुणसकम ठिदिरसखंडं च णत्थि पढमम्हि
    पडिसमयमणंतगुणं विसोहिवड्ढिहिं वड्ढदि हु ॥37॥
    अन्वयार्थ : [पढमम्हि] प्रथम; अध:करण में [गुणसेढी] गुणश्रेणि, [गुणसकम] गुणसंक्रमण, [ठिदि] स्थिति [खंडं] खण्ड [च] और [रस] अनुभागखण्ड [णत्थि] नहीं होते, किन्तु [पडि] प्रति [समयम्] समय परिणामों में [अणंतगुणं] अनंतगुणी [वड्ढिहिं] वृद्धिंगत [विसोहि] विशुद्धि [वड्ढदि] बढती [हि] है ।

    बोधिनी :
    
    गुणश्रेणि:गुणसंक्रमं स्थितिरसखंडं च नास्ति प्रथमे;;प्रतिसमयमनंतगुणं विशुद्धिवृद्धिभि र्वर्धते हि ॥

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    सत्थाणमसत्थाणं चउविट्ठाणंरसं च बंधदि हु
    पडिसमयणंतेण य गुणभजियक्मं तु रसबंधे ॥38॥
    अन्वयार्थ : [सत्थाणमसत्थाणं] प्रशस्त (सातादि) प्रकृतिओं का प्रति समय अनंत गुणा [चउ] चतुः [ट्ठाणं] स्थानरूप (गुड़ ,खांड,शर्करा और अमृत) [रसं] अनुभाग [बंधदि] बंध होता [हि] है [च] और अप्रशस्त (असातादि) प्रकृतियों का [पडि] प्रति [समयणंतेण] समय अनंतवे [गुणभज] भाग मात्र [वि] द्वी स्थानीय [क्मं] क्रम से (लता-दारु अथवा निब-कांजीर) [रसबंधे] अनुभाग बंध होता है ।

    बोधिनी :
    
    शस्तानामशस्तानां चतुर्द्विस्थानं रसं च बध्नाति हि;;प्रतिसमयमनंतेन च गुणभजितक्रमं तु रसबंधे ॥

    🏠
    पल्लस्स संखभागं मुहूत्तअंतेण ओसरदि बंधे ॥
    संखेज्जसहस्साणि य अधापवत्तम्मि ओसरणा ॥39॥
    अन्वयार्थ : अध:करण के प्रथम समय से, [मुहूत्तअंतेण] अन्तर्मुर्हूत अंतराल से [पल्लस्स] पल्य का [संखभागं] संख्यात्वां भाग [ओसरदि] घटता हुआ [बंधे] स्थिति-बंध होता रहता है । [य अधापवत्तम्मि] अध:प्रवृत्त करण काल में [संखेज्जसहस्साणि] संख्यात हज़ार [ओसरणा] स्थिति-बन्धापसरण होते रहते हैं ।

    बोधिनी :
    
    पल्यस्य संख्यभागं मुहूतोरारेण अपसरति बंधे;;संख्येयसहस्राणि च अध:प्रवृत्ते अपसरणानि ॥३९॥

    🏠
    आदिमकरणद्धाए पढमट्ठिदिबंधदो दु चरिमम्हि
    संखेज्जगुणविहीणो ट्ठिदिबंधो होइ णियमेण ॥40॥
    अन्वयार्थ : [आदिमकरणद्धाए] अध:प्रवृत्तकरण काल के आदि में जो [पढम] प्रथम [ट्ठिदिबंधदो] स्थिति-बंध होता है, [दु] तथा उससे [चरिमम्हि] अंत में [म्हि] होना वाला [ट्ठिदिबंधो] स्थिति बंध [णियमेण] नियम से [संखेज्जगुणविहीणो] संख्यातगुणाहीन होता है ।

    बोधिनी :
    
    आदिमकरणद्धायां प्रथमस्थितिबंधतस्तु चरमे;;संख्यातगुणविहीन:स्थितिबंधो भवति नियमेन ॥

    अध:प्रवृत्त करण के प्रथम समय में स्थितिबंध अंत:कोटि सागरोपम होता है । वह चरम समय में अंख्यातगुणा हीन नियम से होता है ।

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    तच्चरिमे ठिदिबंधो आदिमसम्मेण देससयलजमं
    पडिवज्जमाणगस्स वि संखेज्जगुणेण हीणकमो ॥41॥
    अन्वयार्थ : [तच्चरिमे] इस चरम [ठिदिबंधो] स्थिति बंध से [देससयलजमं] देश / सकल संयम सहित [आदिमसम्मेण] प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाले जीव के स्थिति बंध [संखेज्जगुणेण] संख्यात गुणा [हीण] हीन होता है ।

    बोधिनी :
    
    तच्चरमे स्थितिबंध आदिमसम्येन देश सकलयमम्;;प्रतिपद्यमानस्यापि संख्येयगुणेन हीं क्रम:

    यद्यपि अध:प्रवृत्तकरणकाल में जीव प्रति समय अनंतगुणी विशुद्धि प्राप्त करते हुए अत्यंत विशुद्ध होता जाता है, तथापि वह स्थिति-काण्डक व अनुभाग-काण्डक घात योग्य विशुद्धि को नहीं प्राप्त होता । इसलिए अध: प्रवृत्तकरण में वह इन दोनों काण्ड का घात नहीं कर पाता (ज.ध.पु. १२ पृ २३२) । यह गुण-संक्रमण और गुण-श्रेणि भी नहीं होता क्योंकि अध:प्रवृत्तकरण परिणामों में पूर्वोक्त चतुर्विध कार्यों के उत्पादन करने की शक्ति (विशुद्धि) का अभाव है; मात्र अनन्त-गुणी विशुद्धि के द्वारा प्रति-समय विशुद्धि को प्राप्त करते हुए यह जीव अप्रशस्त कर्मों के द्विस्थानीय (नींब-कान्जिर) अनुभाग को प्रति समय अनन्त-गुणा-हीन बांधता है और प्रशस्त कर्मों का गुड, खांड, शर्करा, अमृत रूप चतु:स्थानीय अनुभाग को प्रति समय अनन्तगुणा-अनंतगुणा बांधता है । अध:प्रवृत्त करण काल में एक स्थिति बंध का काल एक अन्तर्मुर्हूर्त मात्र ही है । एक-एक स्थिति-बंध का काल पूर्ण होने पर, पल्योपम के संख्यात्वें भाग हीन अन्य स्थिति बंध होता है । इस प्रकार संख्यात सहस्र बार स्थिति-बन्धापसरण होने पर अध:प्रवृत्त-करण काल समाप्त हो जाता है । अध:प्रवृत्त-करण के प्रथम समय संबंधी स्थिति बंध से ,उसी का अंतिम समय संबंधी स्थितिबंध संख्यातगुणा हीन होता है । यहीं पर (अध:प्रवृत्त करण के चरम में) प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख जीव के जो स्थिति बंध होता है, उससे प्रथमोपशम सम्यक्त्व सहित संयमासंयम के अभिमुख जीव का स्थितिबंध संख्यातगुणा हीन होता है, इससे प्रथमोपशम सम्यक्त्व सहित सकलसंयम के अभिमुख जीव का अध:प्रवृत्त करण के चरम समय संबंधी स्थितिबंध संख्यातगुणाहीन होता है (ध.पु.६ पृ २२२-२२३;ज.ध.पु. १२ पृ २५८-५९)

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    + अध: प्रवृत्त करण संबंधी अनुकृष्टि एवं अल्पबहुत्व अनुयोग-द्वार -
    आदिमकरणद्धाए पडिसमयमसंलेखलोगपरिणामा
    अहियकमा हु विसेसे मुहुत्तअंतो हु पडिभागो ॥42॥
    अन्वयार्थ : [आदिमकरणद्धाए] आदि (अध:प्रवृत्त) करण के काल में, [पडिसमयम] प्रतिसमय [अहिय] अधिक [कमा] क्रम [हु] लिए हुए [असंलेखलोग] असंख्यात लोक प्रमाण [परिणामा] परिणाम होते है । [विसेसे] विशेष (चय) को प्राप्त करने के लिए, [मुहुत्तअंतो] अन्तर्मुहूर्त प्रमाण [पडिभागो] प्रतिभाग [हु] है ।

    बोधिनी :
    
    आदिमकरणद्धायां प्रतिसमयमसंख्य्लोकपरिणामा:;;अधिकक्रमा हि विशेषे मुहूर्तातहिं प्रतिभाग: ॥४२॥

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    ताए अधा पवत्तद्धाय संखेज्जभागमेत्तं तु
    अणुकट्टीए अद्धा णिव्वग्गणकंडयं तं तु ॥43॥
    अन्वयार्थ : [ताए] उस [अधा] अध: [पवत्तद्धाय] प्रवृत्तकरण के काल (समयों) का [संखेज्जभागमेत्तं] संख्यात्वा भाग प्रमाण [अणुकट्टीए] अनुकृष्ट रचना का [अद्धा] आयाम [तु] है, [तंतु]जितने समय का वह [अद्धा] आयाम है उतने समय का एक [णिव्वग्गणकंडयं] निर्वर्गणाकाण्डक होता है ।

    बोधिनी :
    
    तस्या अध:प्रवृत्ताद्धाया:संख्येयभाग मात्रं तु;;अनुकृष्टया अद्धा निर्वर्गंणकांडकं तत्तु ॥४३॥

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    पडिसमयगपरिणामा णिव्वग्गणसमयमेत्तंखंडकमा
    अहियकमा हु विसेसे मुहुत्तअंतो हु पडिभागो ॥44॥
    अन्वयार्थ : [णिव्वग्गण] निर्वर्गणा काण्ड के [समयमेत्तं] समय मात्र के समान [पडिसमयग] प्रति समय के [परिणामा] परिणामों के [कमा] क्रमश: खंड [अहियकमा] अधिक क्रम वाले [हु] होते है । यहां [विसेसे] विशेष को प्राप्त करने का [पडिभागो] प्रतिभाग [मुहुत्तअंतो] अन्तर्मुर्हूत प्रमाण काल [हु] है ।

    बोधिनी :
    
    प्रतिसमयगपरिणामा, निर्वर्गंणसमयमात्र खंड क्रमा;;अधिकक्रमा हि विशेषे मुहूर्तातहिं प्रतिभाग: ॥

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