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Date : 17-Nov-2022
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!! श्रीसर्वज्ञवीतरागाय नम: !!
आचार्य सिद्धसेन-देव-विरचित
श्री
सन्मतितर्क
मूल प्राकृत सूत्र
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!! नम: श्रीसर्वज्ञवीतरागाय !!ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः
कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥1॥
अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका
मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितान् ॥2॥
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नम: ॥3॥
॥ श्रीपरमगुरुवे नम:, परम्पराचार्यगुरुवे नम: ॥सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धकं, धर्मसम्बन्धकं, भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्रीसन्मतितर्क नामधेयं, अस्य मूलाग्रन्थकर्तार: श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तार: श्रीगणधरदेवा: प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य आचार्य श्रीसिद्धसेनदेव विरचितं, श्रोतार: सावधानतया शृणवन्तु ॥
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकारकं
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ॥
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नयमीमांसा
सिद्धं सिद्धत्थाणं ठाणमणोवमसुहं उवगयाणं ।
कुसमयविसासणं सासणं जिणाणं भवजिणाणं ॥1॥
सिद्धं सिद्धार्थानां स्थानमनुपमसुखमुपगतानाम् ।
कुसमयविशासनं शासनं जिनानां भवजिनानाम् ॥1॥
अन्वयार्थ : [अणोवम] अनुपम [सुहं] सुख [ठाणं] स्थान को [उब] गयाणं] प्राप्त [भवजिणाणं] संसार को जीतने वाले [जिणाणं] जिनेन्द्र भगवान का [सासणं] शासन [सिद्धत्याणं] प्रसिद्ध अर्थों का [ठाणं] स्थान है और [कुसमय] मिथ्या मत [विसासणं] निवारण करने वाला [सिद्धं] सिद्ध है ।
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समयपरमत्थवित्थरविहाडजणपज्जुवासणसयन्नो।
आगममलारहियओ जह होइ तमत्थमुन्नेसुं ॥2॥
समयपरमार्थविस्तरविहाटजनपर्युपासनसकर्ण: ।
आगममन्दहृदयो यथा भवति तमर्थमुन्नेष्ये ॥2॥
अन्वयार्थ : [आगममलारहियओ] आगम मन्द बुद्धि वालों के लिए यह ग्रन्थ [समयपरमत्थवित्थर] सिद्धान्त परमार्थ विस्तार [विहाड] प्रकट [जण] लोग [पज्जुवासण] पर्युपासना [सयण्ण] सावधान [जह] जैसे [होइ] हो [तमत्थ मुण्णेसु] उस अर्थ को कहूँगा ।
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तित्थयरवयणसंगह-विसेसपत्थारमूलवागरणी ।
दव्वट्ठिओ य पज्जवणओ य सेसा वियप्पा सिं ॥3॥
तीर्थंकरवचन संग्रहविशेषप्रस्तारमूलव्याकरणौ ।
द्रव्यार्थिकश्च पर्यवनयश्च शेषा विकल्पास्तयो: ॥3॥
अन्वयार्थ : [तित्थयरवयण] तीर्थंकर वचन [संगह] संग्रह [विसेस पत्थार] विशेष प्रस्तार [मूलवागरणी] मूल व्याख्याता [दव्वट्ठियो] द्रव्यार्थिक [य]और [पज्जवणयो] पर्यायार्थिक नय [य] और [सेसा] शेष [सिं] उन [वियप्पा] विकल्प हैं ।
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दव्वट्ठियनयपयडी सुद्धा संगहपरूवणाविसओ ।
पडिरूवे पुण वयणत्थनिच्छओ तस्स ववहारो ॥४॥
द्रव्यार्थिकनयप्रकृतिः शुद्धा संग्रहप्ररूपणाविषयः ।
प्रतिरूपे पुनर्वचनार्थनिश्चयस्य तस्य व्यवहार: ॥4॥
अन्वयार्थ : [संगहपरूवणाविसओ] संग्रह प्ररूपणा विषय [सुद्धा] शुद्ध [दव्वट्ठियणयपयडी] द्रव्यार्थिक नय प्रकृति है [पडिरूवे] प्रतिरूप में [पुण] फिर [वयणत्थ] वचन के अर्थ का [णिच्छोओ] निश्चय [तस्स] उस का [ववहारो] व्यवहार है ।
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मूलणिमेणं पज्जवणयस्स उज्जुसुयवयणविच्छेदो ।
तस्स उ सहाईआ साहपसाहा सुहुमभेया ॥5॥
मूलनिमानं (स्थानं) पर्यवनयस्य ऋजुसूत्रवचनविच्छेद: ।
तस्य तु शब्दादिकाः शाखाप्रशाखाः सूक्ष्मभेदा: ॥5॥
अन्वयार्थ : [उज्जुसुयवयणविच्छेदो] ऋज़ुसूत्रनय वचन-व्यवहार [पज्जवणयस्स] पर्यायार्थिक नय का [मूलणिमेणं] मूल स्थान [सद्दाईआ] शब्दादिक [उ तस्य] तो उस के [साहपसाहा] शाखा-प्रशाखा [सुहुमभेया] सूक्ष्म भेद हैं ।
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नामं ठवणा दविए त्ति एस दव्यट्ठियस्स निक्खेवो ।
भावो उ पज्जवट्ठिअस्स परूवणा एस परमत्थो ॥6॥
नाम-स्थापना-द्रव्यमिति एष द्रव्यार्थिकस्य निक्षेपः ।
भावस्तु पर्यायार्थिकस्य प्ररूपणा एष परमार्थः ॥6॥
अन्वयार्थ : [णामं ठवणा दविए] नाम स्थापना द्रव्य [त्ति] इस प्रकार [एस] यह [दव्वट्ठियस्स] द्रव्यार्थिक के [णिक्खेवो] निक्षेप हैं [उ भावो] किन्तु भाव [पज्जवड्डियस्स] पर्यायार्थिक की [परूवणा] प्ररूपणा [एस] यह [परमत्थो] परमार्थ है ।
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पज्जवणिस्सामण्णं वयणं दव्वट्ठियस्स 'अत्थि' त्ति ।
अवसेसो वयणविही पज्जवभयणा सपडिवक्खो ॥7॥
पर्यवनिस्सामान्यं वचन द्रव्यार्थिकस्य अस्तीति ।
अवशेषो वचनविधिः पर्यवभजनात् सप्रतिपक्षः ॥7॥
अन्वयार्थ : [अत्थि] है [त्ति] यह [पज्जवणिस्सामण्णं] पर्याय रहित सामान्य [दव्वट्ठियस्स] द्रव्यार्थिक का [ववण] वचन [पज्जवभयणा] पर्याय विभाग से [अवसेसो] बाकी सब [वयणविही] वचनविधि [सपडिवक्खो] प्रतिपक्षी है ।
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पज्जवणयवोक्कंतं वत्थुं दव्वट्ठियस्स वयणिज्जं ।
जाव दविओवओगो अपच्छिमवियप्प-निव्वयणो ॥8॥
पर्यायनयव्युक्रान्तं वस्तु द्रव्यार्थिकस्य वचनीयम् ।
यावद्-द्रव्योपयोगोऽपश्चिमविकल्पनिर्वचनः ॥8॥
अन्वयार्थ : [जाव] जब तक [अपच्छिमवियप्पणिव्वयणो] अन्तिम विकल्प वचन-व्यवहार [दविओवओगो] द्रव्योपयोग तब तक [पज्जवणयवोक्कंतं] पर्यायार्थिकनय से अतिक्रान्त [वत्थुं] वस्तु को [दव्वट्ठियस्स] द्रव्यार्थिक की [वयणिज्जं] वाच्य जानो ।
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दव्वट्टिओ त्ति तम्हा नत्थि णओ णियम सुद्धजाईओ ।
ण य पज्जवट्ठिओ णाम कोइ भयणाय उ विसेसो ॥9॥
द्रव्यार्थिक इति तस्मान् नास्ति नयो नियमशुद्धजातीयः ।
न च पर्यायार्थिको नाम कोऽपि भजनाय तु विशेषः ॥9॥
अन्वयार्थ : [तम्हा] इसलिए [णियमसुद्धजाईओ] नियम से शुद्ध जातीय [दव्वट्ठियो] द्रव्यार्थिक [णयो] नय [णत्थि] नहीं है [त्ति] इसी प्रकार कोई [पज्जवट्टियो] पर्यायार्थिक [णाम] नाम [उ] किन्तु [विसेसो] विशेष [भयणाय] विभाग के लिए है ।
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दव्वट्ठियवत्तव्वं अवत्थु णियमेण पज्जवणयस्स ।
तह पज्जववत्थु अवत्थुमेव दवट्ठियनयस्स ॥१०॥
द्रव्यार्थिकवक्तव्यमवस्त्व-नियमेन पर्यवनयस्य ।
तथा पर्ययवस्त्ववस्तेव द्रव्यार्थिकनयस्य ॥10॥
अन्वयार्थ : [दव्वट्टियवत्तव्वं] द्रव्यार्थिक वक्तव्य [पज्जवणयस्स] पर्यावार्थिक नय के [णियमेण] नियम से [अवत्थु] अवस्तु [तह] उसी प्रकार [दव्वट्ठियणयस्स] द्रव्यार्थिक नय के [पज्जववत्थु] पर्यायार्थिक वस्तु [अवत्युमेव] अवस्तु ही है ।
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उप्पज्जंति वियंति य भावा नियमेण पज्जवणयस्स ।
दव्वट्ठियस्स सव्वं सया अणुप्पन्नमविणट्ठं ॥11॥
उत्पद्यन्ते वियन्ति च भावा नियमेन पर्यवनयस्य ।
द्रव्यार्थिकस्य सर्वं सदानुत्पन्नमविनष्टम् ॥11॥
अन्वयार्थ : [पज्जवणयस्स] पर्यायार्थिक नय की [भावा] पदार्थ [णियमेण] नियम से [उप्पज्जंति] उत्पन्न होते हैं [वियंति] नष्ट होते हैं [य] और [दव्वट्ठियस्स] द्रव्यार्थिक की [सया] सदा [सव्वं] सभी [अणुष्पण्णमविणट्ठं] न उत्पन्न होते न नष्ट होते हैं ।
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दव्वं पज्जवविउयं, दव्वविउत्ता य पज्जवा णत्थि ।
उप्पाय-ट्ठिइ-भंगा, हंदि दवियलक्खणं एयं ॥12॥
द्रव्यं पर्ययवियुक्तं द्रव्यवियुक्तश्च पर्याय नास्ति ।
उत्पादस्थितिभङ्गा: सन्ति द्रव्यलक्षणमेतत् ॥12॥
अन्वयार्थ : [पज्जवविउयं] पर्याय रहित [दव्वं] द्रव्य [य] और [दव्वविउत्ता] द्रव्य से अलग [पज्जवा] पर्याय [णत्थि] नहीं [उप्पायट्ठिइभंगा] उत्पाद, स्थिति व्यय के कथन से [हंदि] निश्चय से [एयं] यह [दवियलक्खणं] द्रव्य का लक्षण है ।
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एए पुण संगहओ पाडिक्कमलक्खणं दुवेण्हं पि ।
तम्हा मिच्छद्दिट्ठी पत्तेयं दो वि मूलणया ॥13॥
एते पुनः संग्रहतः प्रत्येकमलक्षणं द्व्योरपि ।
तस्मान् मिथ्यादृष्टी प्रत्येकं द्वावपि मूलनयौ ॥13॥
अन्वयार्थ : [एए] ये [पुण] फिर [संगहओ] संग्रह नय से [दुर्वेण्हं] दोनों [पि] भी [पाडिक्कमलक्खणं] प्रत्येक अलक्षण [तम्हा] इसलिए [पत्तेयं] प्रत्येक [दो] दोनां [वि] ही [मूलणया] मूल नय [मिच्छादिट्ठी] मिथ्यादृष्टि हैं ।
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ण य तइयो अस्थि णओ ण य सम्मत्तं ण तेसु पडिपुण्णं ।
जेण दुवे एगन्ता विभजमाणा अणेगन्तो ॥14॥
न च तृतीयोऽस्ति नयो न च सम्यक्त्वं न तयोः प्रतिपूर्णम् ।
येन द्वावेकान्तौ विभज्यमानावनेकान्तौ ॥14॥
अन्वयार्थ : [य] और [तइओ] तीसरा [णयो] नय [ण] नहीं [अत्यि] है [य] और [तेसु] उनमें [पडिपुण्णं] परिपूर्ण [सम्मत्तं] सम्यक्त्व [णयं] नय [ण] नहीं है [ण] नहीं है [जेण] जिससे [दुवे] दोनों [एंगता] एकान्त [विभज्जमाणा] भजमान [अणेगंतो] अनेकान्त कहे जाते हैं ।
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जह एए तह अण्णे पत्तेयं दुण्णया णया सव्वे ।
हंदि हु मुलणयाणं पण्णवणे वावडा ते वि ॥15॥
यथैतौ तथाऽन्ये प्रत्येकं दुर्नया नयाः सर्वे ।
भवन्ति खलु मूलनयानां प्रज्ञापने व्यापृतास्तेऽपि ॥15॥
अन्वयार्थ : [जह] जिस तरह [एए] ये [दुण्णया] दुर्नय [तह] उसी तरह [अण्णे] दूसरे [सव्वे] सब [पत्तेयं] प्रत्येक [णया] नय [हु] सचमुच [मूलणयाणं] मूल नयों की [पण्णवणे] प्रज्ञापना में [ते वि] वे भी [वावडा] संलग्न [होंति] होते हैं ।
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सव्वणयसमूहम्मि वि णत्थि णओ उभयवायपण्णवओ ।
मूलणयाण उ आणं पत्तेयं विसेसियं बिंति ॥16॥
सर्वनयसमूहेऽपि नास्ति नय उभयवाद-प्रज्ञापक: ।
मूलनयाभ्यां तु ज्ञातं प्रत्येकं विशेषितं ब्रुवन्ति ॥16॥
अन्वयार्थ : [सव्वणयसमूहम्मि] सब नयों समूह में [वि] भी [उभयवायपण्णवओ] उभयवाद प्रतिपादक [णयो] नय [णत्थि] नहीं है [उ] किन्तु [मूलणयाण] मूल नयों द्वारा [णाअं] जाने [विसेसियं] विशेष [पत्तेयं] प्रत्येक [बेंति] कहते हैं ।
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ण य दव्वट्ठियपक्खे संसारो णेव पज्जवणयस्स ।
सासयवियत्तिवायी जम्हा उच्छेअवाईआ ॥17॥
सुह-दुक्खसम्पओगो ण जुज्जए णिच्चवायपक्खम्मि ।
एगंतुच्छेयम्मि य सुह-दुक्खवियप्पणमजुत्तं ॥18॥
कम्मं जोगनिमित्तं बज्झइ बन्धट्ठिई कसायवसा ।
अपरिणरउच्छिण्णेसु य बंघट्ठिइकारणं णत्थि ॥19॥
बंधम्मि अपूरन्ते संसारभओघदंसणं मोज्झं ।
बन्धं व विणा मोक्खसुहपत्थणा णत्थि मोक्खो य ॥20॥
तम्हा सव्वे वि णया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा ।
अण्णोण्णणिस्सिआ उण हवंति सम्मत्तसब्भावा ॥21॥
न च द्र॒व्यार्थिकपक्षे संसारो नैव पर्यवनयस्य ।
शाश्वतव्यक्तिवादी यस्मात् उच्छेदवादी च ॥17॥
सुखदुःखसंप्रयोगो न युज्यते नित्यवादपक्षे ।
एकान्तोच्छेदे च सुखदुःखविकल्पनमयुक्तम् ॥18॥
कर्म योगनिमित्तं वध्यते बन्धस्थितिः कषायवशात् ।
अपरिणतोच्छिन्नयोश्व बन्धस्थितिः कारणं नास्ति ॥19॥
बन्धेष्पूर्यन्ति संसारभयौघदर्शनं मोघम् ।
बन्धमेव विना मोक्षसुखप्रार्थना नास्ति मोक्षश्च ॥20॥
तस्मात् सर्वेषपि नया मिथ्यादृष्टयः स्वपक्षप्रतिबद्धा: ।
अन्योन्यमिश्रिताः पुनर्भवन्ति सम्यक्त्वसदूभावा: ॥21॥
अन्वयार्थ : [दव्वट्टियपक्खे] द्रव्यार्थिक पक्ष में [संसारो] संसार [ण] नहीं है [य] और [पज्जवणयस्स] पर्यायार्थिक नय के [णेव] नहीं [जम्हा] जिस कारण [सासयवियत्तिवाई] शाश्वत व्यक्तिवादी [य] और [उच्छेयवाई] उच्छेदवादी है ।
[णिच्चवायपक्खम्मि] नित्यवाद पक्ष में [सुहदुक्खसंपओगो] सुख-दुःख सम्बन्ध [ण] नहीं [जुज्जए] जोड़ा जा सकता [य] और [एगंतुच्छेयम्मि] एकान्त उच्छेद में [सुहदुक्खवियप्पणमजुत्तं] सुख-दुःख विकल्प करना अयुक्त है ।
[जोगणिमित्तं] योग निमित्त से [कम्मं] कर्म [बज्ञइ] ग्रहण [कसायवसा] कषाय के अधीन से [बंधट्ठिई] बन्ध स्थिति [अपरिणउक्किण्णेसु] उपशान्त कषाय तथा क्षीणकषाय दानों में सर्वथा नित्य-अनित्य अवस्था में [य] और [बंधट्ठिई] बन्धस्थिति ; कारण [णत्थि] नहीं है ।
[बंधम्मि] बन्ध में [अपूरंते] पूर्ति हुए [संसारभओघदंसणं] संसार भय-समूह दर्शन [मोज्झ] व्यर्थ है [बंधं] बन्ध के [व] ही [विणा] बिना [मोक्खसुहपत्थणा] मोक्षसुख की प्रार्थना [य] और [मोकेंखो] मोक्ष [णत्थि] नहीं है ।
[तम्हा] इसलिए [सव्वे] सब [वि] ही [णया] नय [सपक्खपडिबद्धा] अपने पक्ष संलग्न [मिच्छादिट्ठी] मिथ्या रूप हैं [उण] फिर [अण्णोण्ण] एक-दूसरे के [णिस्सिया] पक्षपाती [सम्मत्तसब्भावा] सम्यक् रूप [हवंति] होते हैं ।
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जहऽणेयलक्खणगुणा वेरुलियाई मणी विसंजुत्ता ।
रयणावलिववएसं न लहंति महग्घमुल्ला वि ॥22॥
तह णिययवायसुविणिच्छिया वि अण्णोण्णपक्खणिरवेक्खा ।
सम्मद्दंसणसद्दं सव्वे वि णया ण पावेंति ॥23॥
जह पुण ते चेव मणी जहा गुणविसेसभागपडिबद्धा ।
'रयणावलि'त्ति भएणइ जहंति पाडिक्कसण्णाउ ॥24॥
तह सव्वे णयवाया जहाणुरूवविणिउत्तवत्तव्वा ।
सम्मद्दंसणसद्दं लहन्ति ण विसेससण्णाओ ॥25॥
यथानेकलक्षणगुणा वेडूर्यादिमणयो विसंयुक्ता: ।
रत्नावलिव्यपदेशं न लभन्ते महर्घमूल्या अपि ॥22॥
तथा निजकवाद-सुविनिश्चता अप्यन्योन्यपक्षनिरपेक्षा: ।
सम्यग्दर्शनशब्दं सर्वेऽपि नया न प्राप्नुवन्ति ॥23॥
यथा पुनस्ते चैव मणयो यथागुणविशेषभागप्रतिबद्धा: ।
रत्नावलीति भण्यते जहाति प्रत्येकसंज्ञा: ॥24॥
तथा सर्वे नयवादा यथानुरूपविनियुक्तवक्तव्या: ।
सम्यग्दर्शनशब्दं लभन्ते न विशेषसंज्ञा: ॥25॥
अन्वयार्थ : [जह] जिस प्रकार [णेग] अनेक [लक्खणगुणा] लक्षण गुण [वेरुलियाई मणी] वैडूर्य मणि [महग्धमुल्ला] बहुत मूल्य [वि] भी [विसंजुत्ता] बिखरे हुए [रयणावलिववएसं] रत्नावली नाम [ण] नहीं [लहंति] प्राप्त हैं ।
[तह] उसी प्रकार [णिययवायसुविणिच्छिया] अपने वाद सुनिश्चित [वि] भी [अण्णोण्णपक्खणिरवेक्खा] एक-दूसरे पक्ष निरपेक्ष [सव्वे] सब [वि] ही [णया] नय [सम्महंसणसइं] सम्यक्दर्शन शब्द को [ण] नहीं [पारवंति] पाते हैं ।
[जह पुण] जैसे फिर [ते चेव] वे ही [मणी जहागुणविसेसभाग पडिबद्धा] जहाँ धागे विशेष पिरो दी जाती हैं तो [रयणावलि] रत्नावली [त्ति] यह [भण्णइ] कही जाती है [पाडिक्कसण्णाओ] प्रत्येक संज्ञा [जहति] छोड़ देती है ।
[तह] उसी प्रकार [सव्वे] सब [णयवाया] नयवाद [जहाणुरूवविणिउत्तवत्तव्वा] यथानुरूप वचनों विनियुक्त [सम्मदंसणसद्दं] सम्यग्दर्शन शब्द [लहंति] प्राप्त करते हैं [विसेससण्णाओ] विशेष संज्ञा [ण] नहीं ।
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लोइयपरिच्छयसुहो निच्छयवयणपडिवत्तिमग्गो य ।
अह पण्णवणाविसउ त्ति तेण वीसत्थमुवणीओ ॥26॥
लौकिकपरीक्षकसुखो निश्चयवचनप्रतिपत्तिमार्गश्च ।
अथ प्रज्ञापनविषय इति तेन विश्वस्तमुपनीतः ॥26॥
अन्वयार्थ : [अह] और [पण्णवणाविसओ] प्रतिपादन का विषय [वह) [लोइय] लौकिक [परिच्छय] परीक्षक जन को [सुहो] सुख [य] और [णिच्छयवयणपडिवत्तिमग्गो] निश्चित ज्ञानमार्ग वचन हैं [तेण] इसलिये [त्ति] यह [वीसत्थमुवणीओ] विश्वस्त करने वाला है ।
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इहरा समूहसिद्धो परिणामकओ व्व जो जहिं अत्थो ।
ते तं च ण तं तं चेव व त्ति नियमेण मिच्छत्तं ॥27॥
इतरथा समूहसिद्धः परिणामकृत इव यो यत्रार्थ: ।
तत् तच्च न तत्तद् चैव वेति नियमेन मिथ्यात्वम् ॥27॥
अन्वयार्थ : [इहरा] अन्य प्रकार से [समूहसिद्धो] समुदाय प्रतिष्ठित [परिणामकओ] परिणाम कार्य [व्व] ही जो [जहिं] जिसमें [अत्थो] पदार्थ [ते] वह [तं] उस [व] अथवा [ण] नहीं [च] और [तं] वह [तं] कारण [चेव] ही है [त्ति] यह [णियमेण] नियम से [मिच्छत्तं] मिथ्यात्व कहा जाता है ।
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णिययवयणिज्जसच्चा सव्वनया परवियालणे मोहा ।
ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा ॥28॥
निजकवचनीयसत्याः सर्वनयाः परविगालने मोघाः ।
स पुनर्न दृष्टसमयो विभजते सत्ये वा अलीके वा ॥28॥
अन्वयार्थ : [सव्वणया] सभी नय [णियय] अपने [वयणिज्ज] वक्तव्य [सच्चा] सच्चे हैं और [परवियालणे] दूसरे निराकरण में [मोहा] व्यर्थ हैं [दिट्ठसमयो] सिद्धान्त ज्ञाता [पुण] फिर [ते] उन [सच्चे] सत्य में [व] अथवा [अलिए] झूठ में ऐसा [ण] नहीं [विभयइ] विभाग करता ।
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दव्वट्ठियवत्तव्वं सव्वं सव्वेण णिच्चमवियप्पं ।
आरद्धो य विभागो पज्जववत्तव्वमग्गो य ॥29॥
द्रव्यार्थिक-वक्तव्यं सर्व सर्वेण नित्यमविकल्पम् ।
आरब्धश्च विभागो पर्यववक्तव्यमार्गश्च ॥29॥
अन्वयार्थ : [सव्वं] सब [सव्वेण] सब तरह से [णिच्चमवियप्पं] नित्य अविकल्प [दव्वट्ठियवत्तव्वं] द्रव्यार्थिक वक्तव्य है [य] और [विभागो] भेद के [आरद्धो] आरम्भ [पज्जववत्तव्वमग्गो] पर्याय वक्तव्य का मार्ग है।
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जो उण समासओ च्चिय वंजणणिअओ य अत्थणिअओ य ।
अत्थगओ य अभिण्णो भइयव्वो वंजणवियप्पो ॥30॥
यः पुनः समासतश्चैव व्यंजननियतश्चार्थनियतश्च ।
अर्थगतश्चाभिन्नो भक्तव्यो व्यंजनविकल्पः ॥30॥
अन्वयार्थ : जो [पुण] फिर [समासओ] संक्षेप [च्चिय] ही [वंजणणियओ] व्यंजननियत [य] और [अत्थणियओ] अर्थ-नियत हैं [य] और [अत्थगओ] अर्थगत [अभिण्णे] अभिन्न हैं [य] और [वंजणवियप्पो] व्यंजन-विकल्प [भइयव्वो] भाज्य हैं ।
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एगदवियम्मि जे अत्थपज्जया वयणपज्जया वावि ।
तीयाणागयभूया तावइयं तं हवइ दव्वं ॥31॥
एक द्रव्ये येऽर्थपर्याया वचनपर्याया वापि ।
अतीतानागतभूतास्तावतत्कं तद् भवति द्रव्यम् ॥31॥
अन्वयार्थ : [एगदवियम्मि] एक द्रव्य में [जे] जो [तीयाणागयभूया] अतीत, भविष्य वर्तमान [अत्थपज्जया] अर्थपर्याय [वा] अथवा [वयणपज्जया] व्यंजनपर्याय [तं] वह [दव्वं] द्रव्य [तावइयं] उतना [इवइ] होता है ।
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पुरिसम्मि पुरिससद्दो जम्माई मरणकालपज्जन्तो ।
तस्स उ बालाईया पन्जवजोया बहुवियप्पा ॥32॥
पुरुषे पुरुषशब्दः जन्मादिमरणकालपर्यन्तः ।
तस्य तु बालादिकाः पर्यवयोगा बहुविकल्पाः ॥32॥
अन्वयार्थ : [जम्माई मरणकालपज्जंतो] जन्म से मरणकाल तक [पुरिसम्मि] पुरुष में [पुरिससद्दो] पुरुष शब्द [तस्स उ] उस के तो [पज्जवजोगा] पर्याय संयोगों से [बहुवियप्पा] अनेक विकल्प होते हैं ।
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अत्थि त्ति णिव्वियप्पं पुरिसं जो भणइ पुरिसकालम्मि ।
सो बालाइवियप्पं न लहइ तुल्लं व पावेज्जा ॥33॥
अस्तीति निर्विकल्पं पुरुष यो भणिति पुरुषकाले ।
स बालादिविकल्पं न लभते तुल्यमेव प्राप्नोति ॥33॥
अन्वयार्थ : जो [पुरिसं] पुरुष को [पुरिसकालम्मि] पुरुषकाल में [अत्थि] अस्ति [त्ति] यह [णिव्वियप्पं] निर्विकल्प [सो] वह [बालाइवियप्पं] बाल आदि विकल्पों को [ण] नहीं [लहइ] पाता [तुल्लं] बराबर [व] ही [पा्वेज्जा] पाता है ।
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वंजणपज्जायस्स उ 'पुरिसो' 'पुरिसो' त्ति णिच्चमवियप्पो ।
बालाइवियप्पं पुण पासई से अत्थपज्जाओ ॥34॥
व्यंजनपर्यायस्य तु पुरुषः पुरुष इति नित्यमविकल्पः ।
बालादिविकल्पं पुनः पश्यति सोऽर्थपर्यायः ॥34॥
अन्वयार्थ : [वंजणपज्जायस्स] व्यंजनपर्याय का [उ] तो [पुरिसो] पुरुष [पुरिसो] पुरुष [त्ति] यह [णिच्चमवियप्पो] नित्य निर्विकल्प [पुण] फिर [बालाइवियप्पं] बाल आदि विकल्पों को [पासइ] देखा जाता [से] वह [अत्थपज्जाओ] अर्थपर्याय है ।
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सवियप्प-णिव्वियप्पं इय पुरिसं जो भणेज्ज अवियप्पं ।
सवियप्पमेव वा णिच्छएण ण स निच्छिओ समए ॥35॥
सविकल्पनिर्विकल्पमितः पुरुषो यो भणेदविकल्पम् ।
सविकल्पमेव वा निश्चयेन न स निश्चितः समये ॥85॥
अन्वयार्थ : जो [सवियप्पणिव्वियप्पं] सविकल्प-निर्विकल्प [इय] इस कारण [पुरिसं] पुरुष को [अवियप्पं] निर्विकल्प [सवियप्पमेव] सविकल्प ही [वा] अथवा [भणेज्ज] कहता है [स] वह [समए] आगम में [ण] नहीं [णिच्छिओ] निश्चित है ।
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अत्थंतरभूएहि य णियएहि य दोहि समयमाईहिं ।
वयणविसेसाईयं दव्वमवत्तव्वयं पडइ ॥36॥
अह देसो सब्भावे देसोऽसब्भावपज्जवे णियओ ।
तं दवियमत्थि णत्थि य आएसविसेसियं जम्हा ॥37॥
सब्भावे आइट्ठो देसो देसो य उभयहा जस्स ।
तं अत्थि अवत्तव्वं च होइ दविअं वियप्पवसा ॥38॥
आइट्ठोऽसब्भावे देसो देसो य उभयहा जस्स ।
तं णत्थि अवत्तव्वं च होइ दवियं वियप्पवसा ॥39॥
सब्भावाऽसब्भावे देसो देसो य उभयहा जस्स ।
तं अत्थि णत्थि अवत्तव्वयं च दवियं वियप्पवसा ॥40॥
अर्थान्तरभूतेन च निजकेन च द्वाभ्यां समकमादिभिः ।
वचनविशेषातीतं द्रव्यमवक्तव्यं पतति (प्राप्नोति) ॥36॥
अथ देशः सद्भावे देशोऽसद्भावपर्यवे नियतः ।
तद्-द्रव्यमस्ति नास्ति च आदेशविशेषितं यस्मात् ॥37॥
सद्भावे आदिष्टो देशो देशश्चोभयथा यस्य ।
तदस्त्यवक्तव्यं च भवति द्रव्यं विकल्पवशात् ॥38॥
आदिष्टोऽसद्भावे देशो देशश्चोभयथा यस्य ।
तन्नास्त्यवक्तव्यं च भवति द्रव्यं विकल्पवशात् ॥39॥
सद्भावाऽसद्भावे देशो देशश्चोभयथा यस्य ।
तदस्ति नास्त्यवक्तव्यं च द्रव्यं विकल्पवशात् ॥40॥
अन्वयार्थ : [अत्थंतरभूएहि] अर्थान्तरभूत के द्वारा [य] और [णियएहि] निज के द्वारा [दोहि] दोनों के द्वारा [समयमाईहिं] एक साथ से [वयणविसेसाईयं] वचन विशेष से अतीत [द्रव्वं] द्रव्य [अवत्तव्वं] अवक्तव्य [पडइ] पड़ती है ।
[अह] और [देसो] भाग [सब्भावे] सद्भाव में देसो] एक देश [असब्भावपज्जवे] असतूभाव पर्याय में [णियओ] नियत [तं] वह [दवियं] द्रव्य [अत्थि] अस्ति [णत्यि] नास्ति [जम्हा] क्योंकि [आएसविसेसियं] भेद विशेषता है ।
[जस्स] जिसका [देसो] देश [सब्भावे] सद्भाव से [य] और [देसो] देश [उभयहा] उभय से [आइट्ठो] विवक्षित [तं] वह [दवियं] द्रव्य [वियप्पवसा] विकल्प वश [अत्थि अवत्तव्वं] अस्ति] अवक्तव्य है ।
[जस्स] जिसका [देसो] देश [असब्भावे] असत् भाव में [आइट्ठो] कहा जाता य] और [देसो] देश [उभयहा] उभयरूप से [तं] वह [दवियं] द्रव्य [वियप्पवसा] विकल्पवश [णत्थि अवत्तव्वं] नास्ति] अवक्तव्य [होइ] होता है ।
[जस्स] जिसका [देसो] देश [सब्भावासब्भावे] सद्भाव-असद्भाव में [य] और [देसो] देश [उभयहा] दोनों रूप से [तं] वह [दवियं] द्रव्य [वियप्पवसा] विकल्पवश से [अत्यि णत्यि च अवत्तव्वं] अस्ति] नास्ति और अवक्तव्य है ।
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एवं सत्तवियप्पो वयणपहो होइ अत्थपज्जाए ।
वंजणपज्जाए उण सवियप्पो णिव्वियप्पो य ॥41॥
एवं सप्तविकल्पो वचनपथो भवत्यर्थपर्याये ।
व्यंजनपर्याये पुनः सविकल्पो निर्विकल्पश्च ॥41॥
अन्वयार्थ : [एवं] इस प्रकार [अत्थपज्जाए] अर्थपर्याय में [सत्तवियप्पो] सात विकल्प [वयणपहो] वचनमार्ग [होइ] होता है [पुण] फिर [वंजणपज्जाए] व्यंजनपर्याय में [सवियप्पो] सविकल्प [य] और [णिव्वियप्पो] निर्विकल्प होता है ।
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जह दवियमप्पियं तं तहेव अस्थि त्ति पज्जवणयस्स ।
ण य स समयपन्नवणा पज्जवणयमेत्तपडिपुण्णा ॥42॥
यथा द्रव्यमर्पितं तत्तथैवास्तीति पर्यवनयस्य ।
न च स्वसमयप्रज्ञापना पर्यवनयमात्रप्रतिपूर्णा ॥42॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे [दवियं] द्रव्य [अष्पियं] अर्पित [तं] वह [तहेव] वैसा ही [अत्थि] है [त्ति] यह [पज्जवणयस्स] पर्यायार्थिकनय का ; [पज्जवणयर्मेत्त] पर्यायार्थिकनय मात्र [पड़िपुण्णा] परिपूर्ण [ससमयपण्णवणा] स्वसमय प्ररूपणा [ण] नहीं ।
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पडिपुण्णजोव्वणगुणो जह लज्जइ बालभावचरिएण ।
कुणइ य गुणपणिहाणं अणागयसुहोवहाणत्थं ॥43॥
प्रतिपूर्णयौवनगुणो यथा लज्जते बालभावचारित्रेण।
करोति च गुणप्रणिधानमनागतसुखोपधानार्थम् ॥43॥
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ण य होइ जोव्वणत्थो बालो अण्णो वि लज्जइ ण तेण ।
ण वि य अणागयवयगुणपसाहणं जुज्जइ विभत्ते ॥44॥
जाइ-कुल-रूव-लक्खण-सण्णा-संबंधओ अहिगयस्स ।
बालाइभावदिट्ठविगयस्स जह तस्स संबंधो ॥45॥
तेहिं अतीताणागयदोसगुणदुगुंछणऽब्भुवगमेहिं ।
तह बंध-मोक्ख-सुह-दुक्खपत्थणा होइ जीवस्स ॥46॥
न च भवति यौवनस्थों बालोऽन्योपि लज्जते न तेन ।
नापि चानागतवयगुणप्रसाधनं युज्यते विभवते ॥४४॥
जातिकुलरूपलक्षणसंज्ञासम्बन्धेनाधिमतस्य ।
बालादिभावदृष्टो विगतस्य यथा तस्य संबंध: ॥४५॥
ताभ्यां अतीतानागतदोषगुणजुगुप्साऽभ्युपगमाभ्याम् ।
तथा बन्धमोक्षसुखदुःखप्रार्थना भवति जीवस्य ॥४६॥
अन्वयार्थ : [जोव्वणत्थो] युवावस्था [बालो] बालक [ण] नहीं [होइ] होता [अण्णो] अन्य [वि] भी [ण] नहीं [तेण] उस से [लज्जइ] लजाता [विभत्ते] विभक्त [अणागयवयगृण पसाहणं] भावी आयुष्य , गुण] साधना [वि] भी [ण] नहीं [जुज्जइ] घटती है ।
[जाइ] जाति [कुल] कुल [रूव] रूप [लक्खण] लक्षण [सण्णा] संज्ञा [संबंधओ] सम्बन्ध से [अहिगयस्स] ज्ञात [बालाइभाव] बालक आदि अवस्था [दिट्ठ] देखे गए [विगयस्स] विगत [तस्स] उस का [जह] जैसा [संबंधो] सम्बन्ध ।
[तेहिं] उन दोनों [अइयाणागय] अतीत , अनागत [दोष] दोष [गुण] गुण [दुगुंछण] जुगुप्सा [अब्भुवगमेहिं] प्राप्त होने से [तह] उसी प्रकार [जीवस्स] जीव के [बंधमोक्ख सुहदुक्खपत्थणा] बन्ध, मोक्ष, सुख, दुःख अभिलाषा होती है ।
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अण्णोण्णाणुगयाणं 'इमं व तं व' त्ति विभयणमजुत्तं ।
जह दुद्ध-पाणियाणं जावंत विसेसपज्जाया ॥47॥
रूआइपज्जवा जे देहे जीवदवियम्मि सुद्धम्मि ।
ते अण्णोण्णाणुगया पण्णवणिज्जा भवत्थम्मि ॥47॥
अन्योन्यानुगतयो इदं वा तद्वा इति विभजनमयुक्तम् ।
यथा दुग्धपानीययो: यावन्तो विशेषपर्याया: ॥४७॥
रूपादिपर्याया ये देहे जीवद्रव्ये शुद्धे ।
तेऽन्योन्यानुगता: प्रज्ञापनीया भवस्थे ॥४८॥
अन्वयार्थ : [जह] जिस प्रकार [दुद्धपाणियाणं] दूध-पानी का [विभयण मजुत्तं] विभाजन अयुक्त है [अण्णोण्णाणुगयाणं] परस्पर ओतप्रोत [जावंत] जितनी [विसेसपज्ञाया] विशेष पर्यायें हैं [इमं] इसकी [व] अथवा [तं] उसकी [व] या [त्ति] इस प्रकार [विभयणमजुत्तं] विभाजन अयुक्त है ।
[देहे] शरीर में [जे] जो [रूवाइपज्जवा] रूपादि पर्यायें हैं [सुद्धम्मि] शुद्ध में [जीवदवियम्मि] जीवद्रव्य में , [भवत्थम्मि] संसारी में [ते] वे [अण्णोष्णाणुगया] परस्पर में मिली हुई [पण्णवणिज्जा] कहनी चाहिए ।
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एवं 'एगे आया एगे दंडे य होइ किरिया य' ।
करणविसेसेण य तिविहजोगसिद्धी वि अविरुद्धा ॥49॥
एवमेकस्मिन्नात्मनि दण्डे च भवति किया च ।
करण विशेषेण च त्रिविधयोगसिद्धरप्यविरद्धा: ॥४९॥
अन्वयार्थ : [एवं] इस प्रकार [एगे] एक में [आया] आत्मा [एगे] एक में [य] और [दंडें] दण्ड [य] और [किरिया] क्रिया [य] और [करणविसेसेण] करण विशेष से [तिविहजोगसिद्धी] त्रिविध योग सिद्धि [वि] भी [अविरुद्धा] अविरुद्ध है ।
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ण य बाहिरओ भावो अब्भंतरओ य अस्थि समयम्मि ।
णोइंदियं पुण पड्डञ्च होइ अब्भंतरविसेसो ॥50॥
न च बाह्यो भावोऽभ्यंतरश्चास्ति समये ।
नोइन्द्रियं पुनः प्रतीत्य भवत्यभ्यन्तरविशेषः ॥50॥
अन्वयार्थ : [समयम्मि] शास्त्र में [बाहिरओ] बाहरी [अब्भिंतरओ] भीतरी [य] और [भावो] भाव [न] नहीं [य] और है [णोइंदियं] नोइन्द्रिय [पुण] फिर [पड़च्च] आश्रय करके [अब्भिंतरविसेसो] आभ्यन्तर विशेष [होइ] होता है ।
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दव्वट्ठियस्स आया बंधइ कम्मं फलं च वेएइ ।
बीयस्स भावमेत्तं ण कुणइ ण य कोइ वेएइ ॥51॥
दव्वट्ठियस्स जो चेव कुणइ सो चेव वेयए णियमा ।
अण्णो करेइ अण्णो परिभुंजइ पज्जवणयस्स ॥52॥
द्रव्यार्थिकस्यात्मा बध्नाति कर्मं फलं च वेदयते ।
द्वितीयस्य भावमात्रं न करोति न च कश्चिद् वेदयते ॥५१॥
द्रव्यार्थिकस्य यो चैव करोति स चैव वेदयते नियमेन ।
अन्य: करोति अन्य: परिभुक्ते पर्यवनयस्य ॥५२॥
अन्वयार्थ : [आया] आत्मा [कम्मं] कर्म को [बंधइ] बाँधता [फलं] फल को [च] और [बेइए] भोगता [दव्वट्ठियस्स] द्रव्यार्थिक का [वीयस्स] दूसरे का [भावमेत्तं] भाव मात्र [ण] नहीं [कुणइ] करता है [ण] नहीं [य] और [कोइ] कोई [वेइए] भोगता है ।
जो [चेव] ही [कुणइ] करता है [सो] वह [चेव] ही [णियमा] नियम से [वेयइ] भोगता है [दव्वट्ठियस्स] द्रव्यार्थिक का है [अण्णो] अन्य [करेइ] करता [अण्णो] अन्य [परिभुंजइ] भोगता है [पज्जवणयस्स] पर्यायार्थिक का है ।
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जे वयणिज्जवियप्पा संजुज्जंतेसु होन्ति एएसु ।
सा ससमयपण्णवणा 'तित्थयराऽऽसायणा अण्णा ॥53॥
ये वचनीयविकल्पा: संयुज्यमानेषु भवन्ति एतेषु ।
सा स्वसमयप्रज्ञापना तीर्थङ्कराशातना अन्याः ॥५३॥
अन्वयार्थ : [एएसु] इन दोनों के [संजुज्जन्तेसु] संयुक्त होने पर [जें] जो [वयणिज्जवियप्पा] कथन करने योग्य विकल्प [होंति] होते हैँ [सा] वह [सूसुमयपण्णवणा] अपने सिद्धान्त की प्ररूपणा है [अण्णा] अन्य [तित्थयरासारणा] तीर्थंकर की आशातना है ।
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पुरिसज्जायं तु पडुच जाणओ पण्णवेज्ज अण्णयरं ।
परिकम्मणाणिमित्तं दाएही सो विसेसं पि ॥54॥
पुरुषजातं तु प्रतीत्य ज्ञापक: प्रज्ञापयेदन्यतरत् ।
परिकर्मणानिमित्तं दर्शयिष्यति सो विशेषमपि ॥५४॥
अन्वयार्थ : [जाणओ] जानकार [पुरिसज्जायं] पुरुष समूह को [तु] तो [पडुच्च] अपेक्षा करके [अण्णयरं] दोनों में से किसी एक [पण्णवेज्ज] प्रतिपादन करना चाहिए [परिकम्मणा] गुणविशेष के आधार के [णिमित्तं] निमित्त [सो] वह [विसेसं] विशेष को [पि] भी [दाएही] दिखलायेगा ।
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ज्ञानमीमांसा
जं सामण्णग्गहणं दंसणमेयं विसेसियं णाणं ।
दोण्ह वि णयाण एसो पाडेक्कं अत्थपज्जाओ ॥1॥
अन्वयार्थ : [जं] जो [सामण्णं] सामान्य का [गहणं] ग्रहण है, वह [एयं] यह [दंसणं] दर्शन है [विसेसियं] विशेष रूप से जानना [णाणं] ज्ञान है [दोण्ह] दोनों [वि] भी ही [णयाण] नयों के [पाडेक्कं] प्रत्येक पृथक-पृथक् रूप से [एसो] यह अर्थबोध सामान्य [अत्थपज्जाओ] अर्थपर्याय है ।
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दव्वट्ठिओ वि होऊण दंसणे पज्जवट्ठिओ होइ ।
उवसमियाईभावं पडुच्च णाणे उ विवरीयं ॥2॥
अन्वयार्थ : [दंसणे] दर्शन के समय में [दव्वट्ठिओ] द्रव्यार्थिक नय का विषय [वि] भी [होऊण] हो कर [उवसमियाईभावं] औपशमिक आदि भाव की [पडुच्च] अपेक्षा से [पज्जवट्ठिओ] पर्यायार्थिक भी [होइ] होता है [उ] किन्तु [णाणे] ज्ञान के समय में [विवरीयं] विपरीत भासित होता है ।
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मणपज्जवणाणंतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो ।
केवलणाणं पुण दसणं ति णाणं ति य समाणं ॥3॥
अन्वयार्थ : [णाणस्स] ज्ञान की [य] और [दरिसणस्स] दर्शन की [य] और [विसेसो] विशेष भेद [मण पज्जवणाणंतो] मन:पर्ययज्ञान पर्यन्त है [पुण] पुन: परन्तु [केवलणाणं] केवलज्ञान में [दसणं] दर्शन [ति] यह [णाणं] ज्ञान [ति] यह [य] और [समाणं] समान हैं ।
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केई भणंति "जइया जाणइ तइया ण पासइ जिणो" त्ति ।
सुत्तमवलंबमाणा तित्थयरासायणाऽभीरू ॥4॥
अन्वयार्थ : [तित्थयरासायणाऽभीरू] तीर्थंकर की आशातना से भयभीत वाले अतः [सुत्तमवलम्बमाणा] सूत्र का अवलम्बन लेने वाले [केइ] कितने आचार्य कहते हैं [जइया] जब [जाणइ] जानते हैं [तइया] तब [जिणो] केवली [ण] नहीं [पासइ] देखते हैं [त्ति] यह [भर्णति] कहते हैं ।
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केवलणाणावरणक्खयजायं केवलं जहा णाणं ।
तह दंसणं पि जुज्जइ णियआवरणक्खयस्संते ॥5॥
भण्णइ खीणावरणे जह मइणाणं जिणे ण संभवइ ।
तह खीणावरणिज्जे विसेसओ दंसणं नत्थि ॥6॥
सुत्तम्मि चेव साई अपज्जवसियं ति केवलं वुत्तं ।
सुत्तासायणभीरूहि तं च दट्ठव्वयं होइ ॥7॥
संतम्मि केवले दंसणम्मि णाणस्स संभवो णत्थि ।
केवलणाणम्मि य दंसणस्स तम्हा सणिहणाइं ॥८॥
अन्वयार्थ : [जहा] जिस प्रकार [केवल णाणं] केवलज्ञान सम्पूर्ण ज्ञान [केवलणाणावरणक्खयजायं] केवलज्ञानावरण के क्षय से उत्पन्न होता है [तह] उसी प्रकार [णियआवरणवखयस्संते] निज आवरण क्षय के अनन्तर [दंसणं] दर्शन [पि] भी [जुज्जइ] घटता है ।
[जह] जिस प्रकार [खीणावरणे] क्षीण आवरण वाले जिन में [जिणे] जिन में [मइणाणं] मतिज्ञान [ण] नहीं [संभवइ] सम्भव है [तह] उसी प्रकार [खीणावरणिज्जे] क्षीण आवरण वाले जिन में [विसेसओ] विशेष रूप से भिन्न काल में [दंसणं] दर्शन [णत्थि] नहीं है।
[सुत्तम्मि] सूत्र में [चेव] ही [केवलं] केवल दर्शन और ज्ञान को [साईअपज्जवसियं] सादि-अनन्त [ति] यह [वुत्तं] कहा गया है [सुत्तासायणभीरुहि] आगम सूत्र की आशातना से भयभीतों को [तं] वह [च] और [दट्ठव्वयं] विचारणीय [होइ] होता है ।
[केवले] केवली में [दंसणम्मि] दर्शन के [संतम्मि] होने पर [णाणस्स] ज्ञान का होना [संभवो] सम्भव [णत्थयि] नहीं है [केवलणाणम्मि] केवलज्ञान में [च] और [दंसणस्स] दर्शन का होना सम्भव नहीं है [तम्हा] इस कारण से [सणिहणाइं] सादि-सान्त हो जाएगा ।
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दंसणणाणावरणक्खए समाणम्मि कस्स पुव्वअरं ।
होज्ज समं उप्पाओ हंदि दुए णत्थि उवओगा ॥9॥
अन्वयार्थ : [दंसणणाणावरणक्खए] दर्शनावरण और ज्ञानावरण के क्षय होने पर [समाणस्मि] समान रूप में [कस्स] किसका उत्पाद [पुव्वअरं] पहले होता है, क्योंकि दोनों का [समं] एक साथ [उप्पाओ] उत्पाद [होज्ज] हो तो [हंदि] निश्चय से [बे] दो [उवओगा] उपयोग [णत्थि] नहीं हैं ।
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जइ सव्वं सायारं जाणइ एक्कसमएण सव्वण्णू ।
जुज्जइ सयावि एवं अहवा सव्वं ण याणाइ ॥10॥
परिसुद्धं सायारं अवियत्तं दंसणं अणायारं ।
ण य खीणावरणिज्जे जुज्जइ सुवियत्तमवियत्तं ॥11॥
अद्दिट्ठं अण्णायं च केवली एव भासइ सया वि ।
एगसमयम्मि हंदी वयणवियप्पो न संभवइ ॥12॥
अण्णायं पासंतो अद्दिट्ठं च अरहा वियाणंतो ।
किं जाणइ किं पासइ कह सव्वण्णु त्ति वा होइ ॥13॥
केवलणाणमणंतं जहेव तह दंसणं पि पण्णत्तं ।
सागारग्गहणा हि य णियमपरित्तं अणागारं ॥14॥
अन्वयार्थ : [जह] यदि [सब्वण्णू] सर्वज्ञ [एक्कसमएण] एक साथ एक समय में [सव्वं] सब [सायारं] साकार आकार सहित पदार्थों को [जाणइ] जानता है तो [सया वि एवं] सदा ही इस प्रकार [जुज्जइ] युक्ति हो सकती है [अहवा] अन्यथा [सव्वं] सब को [ण] नहीं [याणाइ] जानता है ।
[सायारं] साकार ज्ञान [परिसुद्धं] निर्मल होता है [अणायारं] अनाकार [दंसण्णं] दर्शन [अवियत्तं] अव्यक्त रहता है [खीणावरणिज्जे] क्षीण आवरण वाले केवली में [सुवियत्तमवियत्तं] सुव्यक्त तथा अव्यक्त का भेद [ण] नहीं [य] और यह [जुज्जइ] युक्त है ।
[केवली] केवली भगवान् [एव] ही [सया वि] सदा ही [अहिट्ठं] अदृष्ट [च] और [अण्णायं] अज्ञात [भासइ] बोलते हैं [हंदी] निश्चय से [एगसमयम्मि] एक समय में [वयणवियप्पो] वचन-विकल्प [ण] नहीं [संभवइ] सम्भव है ।
[अण्णायं] अज्ञात को [पासंतो] देखने वाला [य] और [अद्दिट्ठं] अदृष्ट को [वियाणंतो] जानता हुआ [अरहा] अर्हन् केवली [किं] क्या [जाणइ] जानता है और [किं] क्या [पासइ] देखता है [त्ति] यह [कह] किस प्रकार [सव्वण्णु] सर्वज्ञ [वा होइ] होता है ?
[जहेव] जिस प्रकार [केवलणाणमणंतं] केवलज्ञान अनन्त है [तह] वैसे ही [दंसणं] दर्शन [वि] भी [पण्णत्तं] कहा गया है [किन्तु सागारग्गहणाहि] साकार ग्रहण की अपेक्षा से [य] और [अणागारं] अनाकार [णियम] नियम से [परित्त] अल्प है।आगम में केवली भगवान का दर्शन और ज्ञान अनन्त कहा गया है । परन्तु उनके दर्शन, ज्ञान के उपयोग में क्रम भाना जाय तो साकार-ग्रहण की अपेक्षा से परिमित विषय वाला होगा, जिससे उनके दर्शन में अनन्ता नहीं बन सकती । अतएवं केवली भगवान् में एक समय में ही उपयोग मानना चाहिए ।
विशेष :
यदि सर्वज्ञ एक समय में सभी पदार्थों को सामान्य-विशेष रूप आकार सहित जानता है, तो यह मान्यता युक्तियुक्त हो सकती है। इसके अतिरिक्त अन्य प्रकार से, मानने पर उनमें सर्वज्ञता, सर्वदर्शिता नहीं बन सकेगी । क्योंकि दोनों प्रकार के उपयोग (दर्शनोपयोग, ज्ञानोपयोग) अपने-अपने विषय को भिन्न-भिन्न रूप से जानते हैं । जिस समय एक उपयोग सामान्य का ज्ञाता होता है, उस समय विशेष का ज्ञान कैसे हो सकता है ? इसी प्रकार जब दूसरा उपयोग विशेष का ज्ञाता होता है, तो उसका कार्य भिन्न होता है । इसलिए वस्तु में पाए जाने वाले उभय धर्मों (सामान्य, विशेष) का ज्ञाता एक उपयोग नहीं हो सकता। अतएव इन उपयोगों में से क्रमशः जानने वाला सर्वज्ञ नहीं हो सकता । क्योंकि उनमें एक चैतन्य प्रकाश पाया जाता है ।
यह कथन करना कि केवली जिस समय साकार ग्रहण करते हैं, उस समय केवलदर्शन (अनाकार) अव्यक्त रहता है और जब वे दर्शन ग्रहण करते हैं, तब साकार अव्यक्त होता है, उचित नही है; क्योंकि उपयोग की यह व्यक्त एवं अव्यक्त दशा आवरण का सर्वथा विलय कर देने वाले केवली में नहीं बनती है ।
केवली सदा ही अदृष्ट, अज्ञात पदार्थों का कथन करते हैं -- ऐसा कहने से वे दृष्ट एवं ज्ञात पदार्थों के एक समय में उपदेशक होते हैं, यह वचन नहीं बन सकता है ।
यदि केवली अर्हन्त अज्ञात पदार्थ के दृष्टा और अदृष्ट पदार्थ के ज्ञाता हैं, तो इस स्थिति में उनमें एक समय में सर्वदर्शित्व तथा सर्वर्ज्ञत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । क्योंकि उनमें विद्यमान दर्शन, ज्ञान, अपने-अपने विषय को देखने, जानने वाला है । जिस समय वह देखेगा, उस समय जानेगा नहीं और जिस समय जानेगा, उस समय देखेगा नहीं । इस प्रकार एक समय में एक साथ सामान्य-विशेष को जानने वाला उपयोग नहीं होगा । अत: उनमें सर्वदर्शित्व तथा सर्वज्ञत्व भी नहीं बन सकता ।
आगम में केवली भगवान का दर्शन और ज्ञान अनन्त कहा गया है । परन्तु उनके दर्शन, ज्ञान के उपयोग में क्रम भाना जाय तो साकार-ग्रहण की अपेक्षा से परिमित विषय वाला होगा, जिससे उनके दर्शन में अनन्ता नहीं बन सकती । अतएवं केवली भगवान् में एक समय में ही उपयोग मानना चाहिए ।
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भण्णइ जह चउणाणी जुज्जइ णियमा तहेव एयं पि ।
भण्णइ ण पंचणाणी जहेव अरहा तहेयं पि ॥15॥
अन्वयार्थ : [भण्णइ] कहता है [जह] जिस प्रकार [चउणाणी] चार ज्ञान वाला [जुज्जइ] संयुक्त होता है [तहेव] उसी प्रकार ही [णियमा] नियम से [एयं पि] यह भी है [सिद्धान्ती भण्णइ] कहता है [जहेव] जिस प्रकार से ही [अरहा] केवली [पंचणाणी] पाँच ज्ञान वाले [ण] नहीं [तहा] उस प्रकार [एयं पि] यह भी है ।
विशेष :
क्रमवादी कहता है कि जिस प्रकार चार ज्ञान वाला अल्पज्ञानी (छद्मस्थ) निरन्तर ज्ञान-शक्ति-सम्पन्न ज्ञाता-द्रष्टा कहा जाता है, उसी प्रकार उपयोग का क्रम होने से केवली भी ज्ञाता-दृष्टा सर्वज्ञ कहलाता है । अतः क्रमवाद में कोई दोष नहीं है। इसका निराकरण करता हुआ सिद्धान्ती कहता है कि केवली भगवान् का शक्ति की अपेक्षा विचार करना उचित नहीं है । क्योंकि उनकी शक्तियाँ व्यक्त हो चुकी हैं । अतएव केवली सर्वज्ञ को पाँच ज्ञान वाला भी नहीं कहा जाता है। केवली भगवान में सब प्रकार की ज्ञान-शक्तियों की पूर्णता होने पर भी शक्ति की अपेक्षा से नहीं, अपितु उपयोग की अपेक्षा से कथन किया गया है। क्योंकि आगम में कहीं भी उनके लिए 'पंचज्ञानी' शब्द का व्यवहार नहीं किया गया है ।
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पण्णवणिज्जा भावा समत्तसुयणाणदंसणा विसओ ।
ओहिमणपज्जवाण उ अण्णोण्णविलक्खणा विसओ ॥१६॥
तम्हा चउव्विभागो जुज्जइ ण उ णाणदंसणजिणाणं ।
सयलमणावरणमणंतमक्खयं केवलं जम्हा ॥१७॥
अन्वयार्थ : [समत्त] समस्त [सुयणाणदंसणा] श्रुतज्ञान रूप दर्शन का [विसओ] विषय [पण्णवणिज्जा] प्रज्ञापनीय [भावा] पदार्थ पदार्थ हैं [उ] किन्तु [ओहि मणपज्जवाण] अवधि ज्ञान और मनःपर्ययज्ञान के [अण्णोण्ण] परस्पर [विलक्खण] विलक्षण वाले पदार्थ [विसओ] विषय हैं ।
[तम्हा] इसलिये [चउव्विभागो] चार विभाग मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्ययज्ञान का विभाग [जुज्जइ] युक्त है [ण उ] किन्तु नहीं बनता है [जिणाणं] जिन के [णाणदसंण] ज्ञान-दर्शन में [जम्हा] क्योंकि [केवल] केवल ज्ञान [सयलं] सम्पूर्ण [अणावरणं] अनावरण [अणंतं] अनन्त और [अक्खयं] अक्षय है ।
विशेष :
सम्पूर्ण श्रुतज्ञान रूपी दर्शन का विषय शब्दों से प्रतिपादन करने योग्य द्रव्यादिक पदार्थ हैं । किन्तु अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में यह विशेषता है कि वह परस्पर विलक्षण पदार्थों को भी विषय करता है। श्रुतज्ञान कुछ पर्याय सहित सब द्रव्यों को जानता है। उसका विषय है - शब्दों के माध्यम से पदार्थ को प्राप्त करना । अवधिज्ञान का विषय भी सीमित है । अवधिज्ञान इन्द्रियादिक की सहायता के बिना ही रूपी पुद्गल द्रव्य को विशद रूप से जानता है, किन्तु अरूपी को वह भी नहीं जानता । मनःपर्ययज्ञान दूसरे के मनस्थित मन को ही जानता है, अमूर्त द्वव्यों को जानना उसका भी विषय नहीं है । अतएव चारों ज्ञान सभी पर्यायों सहित द्रव्य को नहीं जानते । परन्तु श्रुतज्ञान से अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान के विषय में उत्तरोत्तर विशिष्टता लक्षित होती है ।
ज्ञान में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान, ये चार विभाग बन जाते हैं, किन्तु ज्ञान, दर्शन की प्रधानता वाले केवली भगवान् में ज्ञान, दर्शन का विभाग नहीं बनता; क्योंकि केवलज्ञान सम्पूर्ण विषय को जानने वाला, आवरण से रहित, अनन्त और अक्षय होता है ।
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परवत्तव्वयपक्खा अविसिट्ठा तेसु तेसु सुत्तेसु ।
अत्थगईअ उ तेसिं वियंजणं जाणओ कुणइ ॥18॥
अन्वयार्थ : [तेसुतेसु] उनमें-उनमें [सुत्तेसु] सूत्रों में [परवत्तव्वयपक्खा ] पर वक्तव्य के समान [अविसिट्ठा] अविशिष्ट सामान्य हैं [उ जाणओ] इसलिए जानने वाला [अत्यगईय] अर्थ की गति के अनुसार [तेसिं] उन का [वियंजणं] प्रकटन [कुणइ] करता है ।
विशेष :
जिस प्रकार से अन्य दर्शनों में कथन है, वैसे ही सामान्य रूप से सूत्रों में यदि अर्थ प्रतिभासित हो, तो विरोधी प्रतीत होता है। वास्तव में सूत्रों में परस्पर विरुद्ध कथन नहीं है । अतः ज्ञाता पुरुष अर्थ की सामर्थ्य के अनुसार उन सूत्रों की व्याख्या करे ।
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जेण मणोविसयगयाण दंसणं णत्थि दव्वजायाण ।
तो मणपज्जवणाणं णियमा णाणं तु णिद्दिट्ठं ॥19॥
अन्वयार्थ : [जेण] जिस कारण से [मणोविसयगयाणं] मन के विषयगत [दव्वजायाणं] द्रव्य-समूह का [दंसणं] दर्शन [णत्थि] नहीं होता है [तो] इसलिए [मणपज्जवणाणं] मनःपर्ययज्ञान को [णियमा] नियम से [णाणं] ज्ञान [णिहिट्ठं] निर्दिष्ट किया गया है ।
विशेष :
मन:पर्ययज्ञान में विषयभूत पदार्थों का सामान्य रूप से ग्रहण नहीं होता, किन्तु विशेष रूप से ग्रहण होता है । अतएवं मनःपर्ययदर्शन नहीं होता । सामान्य रूप से ज्ञान के पहले दर्शन होता है, किन्तु मन:पर्यय-ज्ञान में ऐसा नियम नहीं हैं। मन:पर्ययज्ञान बिना दर्शन के ही होता है । मन:पर्ययज्ञान में विशेष का ही ग्रहण होता है; सामान्य का नहीं । अत: मन:पर्ययज्ञान ही है; दर्शन नहीं है ।
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चक्खुअचक्खुअवहिकेवलाण समयम्मि दंसणविअप्पा ।
परिपढिया केवलणाणदंसणा तेण ते अण्णा ॥20॥
अन्वयार्थ : [समयस्मि] आगम में [चक्खुअचक्खुअवहिकेवलाण] चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल [दंसणवियप्पा] दर्शन के भेद प्रकट किए गए हैं [परिपढिया] पढ़े गए [तेण ते] उससे वे [केवलणाणदंसणा] केवलज्ञान और केवलदर्शन [अण्णा] अन्य हैं ।
विशेष :
आगम में सामान्य को ग्रहण करने वाले दर्शन के चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन इस प्रकार के चार भेद किये गए हैं । यद्यपि केवलदर्शन और केवलज्ञान में भेद नहीं है, किन्तु दर्शन के भेदों में केवलदर्शन पाठ आता है। दर्शन का ग्राह्य सामान्य धर्म है और ज्ञान का ग्राह्य विशेष धर्म है । इसलिए यह भेद ग्राह्य पदार्थ में है । उनको ग्रहण करने वाले उपयोग में दर्शन और ज्ञान का भेद रूप व्यवहार किया गया है । परन्तु यहाँ पर उपयोग के भेद की अपेक्षा से केवलदर्शन, केवलज्ञान आदि व्यवहार नहीं किया गया है, क्योंकि मूल में उपयोग तो एक ही है ।
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दंसणमोग्गहमेत्तं 'घडो' त्ति णिव्वण्णणा हवइ णाणं ।
जह एत्थ केवलाण वि विसेसणं एत्तियं चेव ॥21॥
दंसणपुव्वं णाणं णाणणिमित्तं तु दंसणं णत्थि ।
तेण सुविणिच्छियामो दंसणणाणाण अण्णत्तं ॥22॥
अन्वयार्थ : [जह] जैसे [ओग्गहमेत्तं] अवग्रह विकल्प ज्ञान मात्र [दंसणं] दर्शन है [घडो] घड़ा [त्ति] यह [णिव्वण्णणा] देखने से [णाणं] मतिज्ञान [हवइ] होता है [तह] वैसे [एत्थ] यहाँ [केवलणाण] केवलज्ञान [वि] भी [एत्तियं] इतनी ही [विसेसण] विशेषता [चेव] और भी है ।
[दंसणपुव्वं] दर्शन पूर्वक [णाणं] ज्ञान होता है [णाण णिमित्तं] ज्ञान के निमित्त पूर्वक [तु] तो [दंसण] दर्शन [णत्यि] नहीं है [तेण] इससे [सुविणिच्छियामो] भली-भाँति निश्चय करते हैं [दंसगणाणा] दर्शन और ज्ञान में [अण्णत्तं] अन्यत्व [ण] नहीं हैं ।
विशेष :
केवलदर्शन और केवलज्ञान में अभेद मानता हुआ भी जैन मतावलम्बी यह कहना चाहता है कि एक ही केवल उपयोग के ये भिन्न-भिन्न अंश हैं, अत: केवल नाम का भेद है। आगम में मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद कहे गए हैं। मूल में उपयोग रूप मति एक ही है । विषय और विषयी का सन्निपात होने पर प्रथम दर्शन होता है । उसके पश्चात् जो पदार्थ का ग्रहण होता है, वह अवग्रह कहलाता है । अवग्रह में पदार्थ का स्पष्ट बोध नहीं होता । किन्तु अवग्रह संशयात्मक नहीं है, निश्वयात्मक है। अवग्रह सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन है । दर्शन तो सामान्य एवं वर्णन रहित है, किन्तु अवग्रह उससे विशिष्ट होने पर भी वर्णन रहित जैसा है। पश्चात् वर्णन या विकल्पपूर्वक पदार्थ का बोध होता है, जो मतिज्ञानोपयोग है।
यह तो अत्यन्त स्पप्ट है कि दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है, ज्ञानपूर्वक दर्शन नहीं होता । इससे ही हम निश्चय करते हैं कि दर्शन और ज्ञान भिन्न-भिन्न हैं । किन्तु दर्शन और ज्ञान का यह भेद-व्यवहार अल्पज्ञ जीवों में होता है । सर्वज्ञ भगवान् में इनका भेद-व्यवहार नहीं है। उनके तो एक ही उपयोग होता है । उस केवल उपयोग के ये दो अंश हैं - एक अंश का नाम केवलदर्शन और दूसरे का नाम केवलज्ञान है ।
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जइ ओग्गहमेत्तं दंसणं ति मण्णसि विसेसिअं णाणं ।
मइणाणमेव दंसणमेवं सइ होइ निप्फण्णं ॥23॥
एवं सेसिंदियदंसणम्मि नियमेण होइ ण य जुत्तं ।
अह तत्थ णाणमेत्तं घेप्पइ चक्खुम्मि वि तहेव ॥24॥
अन्वयार्थ : [जइ] यदि [ओग्गह] अवग्रह [मेत्तं] मात्र [दंसणं] दर्शन है [ति] यह [विसेसियं] विशेष [णाणं] ज्ञान है [मण्णसि] मानते हो तो [एवं] इस प्रकार [सइ] होने पर [णिप्फण्णं] निष्पन्न [होइ] होता है ।
[एवं] इस प्रकार होने पर [सेसिंदियदंसणम्मि] शेष इन्द्रियों के दर्शन में भी [णियमेण] नियम से यही मानना पड़ेगा, किन्तु [जुत्तं] युक्त [ण] नहीं [होइ] होता है [अह] और [तत्थ] वहाँ उन इन्द्रिय विषयक पदार्थों में [णाणमेत्तं] ज्ञान मात्र [घप्पई] ग्रहण किया जाता है तो [चक्खुम्मि] चक्षु इन्द्रिय के विषय में [वि] भी [तहेव] उसी प्रकार से ही मान लेना चाहिए ।
विशेष :
यदि अवग्रह-मात्र दर्शन है और विशेष-बोध ज्ञान है, जैसा कि आप मानते हैं, तो इस मान्यता में मतिज्ञान ही दर्शन है, ऐसा इससे फलित होता है। जो यह कहता है कि मतिज्ञान के अवग्रह रूप अंश को दर्शन और ईहा अंश को ज्ञान कहते हैं, तो इस मान्यता से भी यही सिद्ध होता है कि मतिज्ञान ही दर्शन है । 'बृहद॒द्रव्यसंग्रह' में स्पर्शन-दर्शन, रसना-दर्शन, प्राण-दर्शन आदि का उल्लेख मिलता है। विशेष जानकारी के लिए अन्त में परिशिष्ट द्रष्टव्य है ।
यदि आप यह मानते हैं कि चक्षु-इन्द्रिय और मन को छोड़ कर शेष इन्द्रियजन्य अवग्रह ज्ञान रूप होता है और चक्षुजन्य अवग्रह दर्शन रूप होता है, तो यह कथन युक्तियुक्त नहीं है । क्योंकि अन्य इन्द्रियों से जिस प्रकार ज्ञान ही होता है; दर्शन नहीं, वैसे ही चक्षु इन्द्रिय के विषय में भी यह मान लेना चाहिए कि उससे भी अवग्रहादि रूप पदार्थों का ज्ञान होता है । इस प्रकार चक्षु-दर्शन की सिद्धि नहीं हो सकती ।
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णाणं अप्पुट्ठे अविसए य अत्थम्मि दंसणं होइ ।
मोत्तूण लिंगओ जं अण्णागयाईयविसएसु ॥25॥
अन्वयार्थ : [अप्पुट्ठे] अस्पृष्ट में [अविसए] [य] और अविषय भूत [अत्थम्मि] पदार्थ में [दंसणं] दर्शन [होइ] होता है [अण्णागयाईयविसएसु] अनागत आदि के विषयों में [लिंगओ] हेतु से जो ज्ञान होता है [जं] जिसे उसे [मोत्तृण] छोड़ कर दिया जाता है ।
विशेष :
आगम ग्रन्थों में जो चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन शब्द मिलते हैं, उनका अभिष्राय यह है कि वे मतिज्ञान रूप हैं । चक्षु इन्द्रिय किसी भी विषयभूत पदार्थ से सन्निकृष्ट नहीं होती अर्थात् आँख किसी भी वस्तु से जाकर भिड़ती नहीं है, फिर भी, दूरवर्ती चन्द्र, सूर्य आदि पदार्थों का बोध कराती है। यह बोध ही चक्षुदर्शन है । इसी प्रकार किसी भी इन्द्रिय के विषयभूत हुए बिना मानसिक चिन्तन से सूक्ष्म परमाणु आदि का जो ज्ञान होता है, उसे अचक्षुदर्शन कहा गया है। ये दोनों ही अपने साध्य के अविनाभावी हेतु से उत्पन्न होने के कारण अनुमान के अन्तर्गत ग्रहण नहीं किए गए है ।
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मणपज्जवणाणं दंसणं ति तेणेह होइ ण य जुत्तं ।
भण्णइ णाणं णोइंदियम्मि ण घडादयो जम्हा ॥26॥
अन्वयार्थ : [तेणेह] इसलिए [मणपज्जवणाणं] मन:पर्ययज्ञान को [दंसणं] दर्शन मानना पड़ेगा [ति] यह [ण] नहीं [होइ] होता है [य] और [जुत्त] युक्त [भण्णइ] कहा जाता है [जम्हा] जिससे [घडादओ] घट आदि [णोइंदियम्मि] नोइन्द्रिय के विषय में [णाणं] ज्ञान प्रवर्तमान [ण] नहीं होता है ।
विशेष :
दर्शन शब्द की उक्त व्याख्या के अनुसार मन:पर्यय ज्ञान को मन:पर्यय दर्शन रूप मानने का प्रसंग प्राप्त हो जाता है, किन्तु मनःपर्यय दर्शन नहीं माना गया है । इसका कारण यह है कि परकीय मनस्थित मनोवर्गंणा रूप मन को मन:पर्ययज्ञान विषय करता है। अतः मन के साथ अस्पृष्ट जो घट आदि हैं, वे इसके विषय नहीं हैं, उनका विषय तो अनुमान है । इस प्रकार मन:पर्यय ज्ञान रूप ही होता है; दर्शन रूप नहीं ।
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मइसुयणाणणिमित्तो छउमत्थे होइ अत्थउवलंभो ।
एगयरम्मि वि तेसिं ण दंसणं दसणं कत्तो ? ॥27॥
अन्वयार्थ : [छउमत्थे] छद्मस्थ में [मइसुयणाण] मतिज्ञान श्रुतज्ञान [णिमित्तो] निमित्त [अत्यउवलंभो] पदार्थ ज्ञान [होइ] होता है [तेसिं] उन दोनों में [एगयरम्मि] एक में [ण] नहीं [दंसणं] दर्शन [दंसणं] दर्शन [कत्तो] कहाँ से हो सकता है ?
विशेष :
अल्पज्ञों को पदार्थ का ज्ञान मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के निमित्त से होता है । मतिज्ञान से होने वाला वस्तु का ज्ञान दर्शनपूर्वक होता है । किन्तु श्रुत (आगम) से होने वाला पदार्थ-ज्ञान दर्शनपूर्वक नहीं होता । अतः शास्त्र की इस मर्यादा को ध्यान में रखकर दर्शनोपयोग की स्वतन्त्र सिद्धि हेतु इस गाथा में कहा गया है कि यदि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन दोनों में से किसी एक के पहले दर्शन का होना न माना जाए, तो फिर दर्शन कब और कैसे हो सकता है ?
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जं पञ्चक्खग्गहणं ण इन्ति सुयणाणसम्मिया अत्था ।
तम्हा दंसणसद्दो ण होइ सयले वि सुयणाणे ॥28॥
अन्वयार्थ : [जं] जिस कारण [सुयणाणसम्मिया] आगम के ज्ञान से जाने गए [अत्था] पदार्थ [पञ्चक्खग्गहणं] प्रत्यक्ष ग्रहण को [ण] नहीं [इंति] प्राप्त होते हैं [तम्हा] इस कारण [सयले] सम्पूर्ण में [वि] भी [सुयणाणे] श्रुतज्ञान में [दंसणसद्दो] दर्शन शब्द लागू [ण] नहीं [होइ] होता है ।
विशेष :
शास्त्र-ज्ञान से जिन पदार्थों को जाना जाता है, वे सब इन्द्रियों से अस्पृष्ट तथा अग्राह्य होते हैं । अत: अन्य ज्ञानों के साथ जैसे दर्शन शब्द संयुक्त होता है, वैसे ही श्रुतज्ञान के साथ दर्शन शब्द प्रयुक्त नहीं होता । इसका कारण यह है कि श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष की भाँति स्पष्ट रूप से उनका ग्रहण नहीं करता । दर्शन से उनका ग्रहण स्पष्ट रूप से होता है, जबकि श्रुतज्ञान से अस्पृष्ट रूप से एवं परोक्ष रूप से ग्रहण होता है । इस प्रकार जितना भी श्रुतज्ञान है, उसके साथ दर्शन शब्द लागू नहीं होता ।
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जं अप्पुट्ठा भावा ओहिण्णाणस्स होंति पच्चक्खा ।
तम्हा ओहिण्णाणे दंसणसद्दो वि उवउत्तो ॥29॥
अन्वयार्थ : [जं] क्योंकि [अप्पुट्ठा] अस्पृष्ट [भावा] पदार्थ [ओहिण्णाणस्स] अवधिज्ञान के [पच्चक्खा होंति] प्रत्यक्ष होते हैं [तम्हा ओहिणाणे] इसलिए अवधिज्ञान में [वि] भी [दंसणसदो] दर्शन शब्द [उवउत्तो] उपयुक्त है ।
विशेष :
जिस प्रकार मतिज्ञान में दर्शन शब्द प्रयुक्त होता है, वैसे ही यह अवधिज्ञान में भी लागू होता है, क्योंकि अवधिज्ञान भी इन्द्रियों की सहायता से अस्पृष्ट एवं अग्राह्य पदार्थों को स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष जानता है । दर्शन शब्द की व्याख्या के अनुसार अस्पृष्ट पदार्थ अवधिज्ञान के प्रत्यक्ष होते हैं, इसलिए अवधिज्ञान में दर्शन शब्द का प्रयुक्त होना उपयुक्त है ।
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जं अप्पुट्ठे भावे जाणइ पासइ य केवली णियमा ।
तम्हा तं णाणं दंसणं च अविसेसओ सिद्धं ॥30॥
अन्वयार्थ : [जं] जिस कारण [केवली] केवली भगवान् [णियमा] नियम से [अप्पुट्ठ] अस्पृष्ट [भावे] पदार्थों को [जाणइ] जानता है [पासइ] देखता है [य] और [तम्हा] इस कारण [तं] उसे [णाणं दंसणं च] ज्ञान और दर्शन [अविसेसओ सिद्धं] भेद-रहित सिद्ध होते हैं ।
विशेष :
केवली भगवान् नियम से अस्पृष्ट पदार्थों को जानते, देखते हैं, इसलिए उनमें ज्ञान, दर्शन भेदविहीन सिद्ध होता है । यह पहले ही कहा जा चुका है कि केवली परमात्मा सम्पूर्ण पदार्थों को युगपत् जानते, देखते हैं, इसलिए तीनों लोकों के पदार्थ उनके ज्ञान से स्पृष्ट नहीं होते हैं । वे समस्त पदार्थों का साक्षात् रूप से ग्रहण करते हैं, जिससे उनमें अनन्त दर्शन और अनन्त ज्ञान रूप एक ही उपयोग सिद्ध होता है।
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साई अपज्जवसियं ति दो वि ते ससमयओ हवइ एवं ।
परतित्थयवत्तव्वं च एगसमयंतरुप्पाओ ॥31॥
अन्वयार्थ : [ते] वे [दो वि] दोनों ही [साई] सादि, [अपज्जवसियं] अपर्यवसित [च] और [एगसमयंतरुप्पाओ] एक समय के अन्तर से उत्पन्न होते हैं [एवं] इस प्रकार [ससमयओ] स्वसमय [हवइ] होता है [परतित्थयवत्तव्वं] अन्य मत का वक्तव्य है ।
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एवं जिणपण्णत्ते सद्दहमाणस्स भावओ भावे ।
पुरिसस्साभिणिबोहे दंसणसद्दो हवइ जुत्तो ॥32॥
सम्मण्णाणे णियमेण दंसणं दसणे उ भयणिज्जं ।
सम्मण्णाणं च इमं ति अत्थओ होइ उववण्णं ॥33॥
अन्वयार्थ : [एवं] इस प्रकार [जिणपण्णसे] जिन तीर्थंकर कथित [भावे] पदार्थों का [भावओ] भावपूर्वक [सहहंमाणस्स] श्रद्धान करने वाले का [पुरिसस्स] पुरुष के [अभिणिबोहे] अभिनिबोध मन और इन्द्रियों की सहायता से होने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान में [दंसणसहो] दर्शन शब्द [जुंत्तो] युक्त उपयुक्त [हवइ] होता है ।
[सम्मण्णाणे] सम्यग्ज्ञान के होने पर [णियमेण] नियम से [दंसणं] दर्शन सम्यग्दर्शन होता है [दंसणे] दर्शन के होने पर [उ] तो [सम्मण्णाणं] सम्यग्ज्ञान [भयणिज्जं] भजनीय होता है [इमं] यह [ति] इस प्रकार [अत्थओ] अर्थ से [उववण्णं] सिद्ध [होइ] होता है ।
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केवलणाणं साई अपज्जवसियं ति दाइयं सुत्ते ।
तेत्तियमित्तोत्तूणा केइ विसेसं ण इच्छंति ॥34॥
जे संघयणाईया भवत्थकेवलिविसेसपज्जाया ।
ते सिज्ज्ञमाणसमये ण होंति विगयं तओ होइ ॥35॥
सिद्धत्तणेण य पुणो उप्पण्णो एस अत्थपज्जाओ ।
केवलभावं तु पडुच्च केवलं दाइयं सुत्ते ॥36॥
अन्वयार्थ : [केवलणाणं] केवलज्ञान [साई] सादि [अपज्जवसियं] अपर्यवसित है [त्ति] यह [सुत्ते] सूत्र में [दाइयं] दर्शाया गया है [तेत्तियमित्तोत्तूणा] उतने मात्र से गर्वित [केइ] कुछ [विसेसं] विशेष को [ण] नहीं [इच्छंति] चाहते हैं ।
[भवत्थकेवलि] भवस्थ केवली की [विसेसपज्जाया] विशेष पर्यायें संहनन आदि रूप [जे] जो [संघयणाईया] संहनन आदि हैं [तै] वे [सिज्ममाणसमये] सिद्ध होने के समय में [ण] नहीं [होंति] होती [तओ] इस कारण [विगयं] विगत [होइ] होती है ।
[एस] यह [अत्थपज्जाओ] अर्थपर्याय [सिद्धत्तणेण] सिद्धत्व रूप से [य] और [पुणो] फिर [उप्पण्णो] उत्पन्न होती है [केवलभावं] केवलभाव की [पडुच्च] अपेक्षा से [केवलं] केवलज्ञान को [सुत्ते] सूत्र में [दांइयं] दिखाया गया है ।
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जीवो अणाइणिहणो केवलणाणं तु साइयमणंतं ।
इअ थोरम्मि विसेसे कह जीवो केवलं होइ ॥37॥
तम्हा अण्णो जीवो अण्णे णाणाइपज्जवा तस्स ।
उवसमियाईलक्खणविसेसओ केइ इच्छन्ति ॥38॥
अह पुण पुव्वपयुत्तो अत्थो एगंतपक्खपडिसेहे ।
तह वि उयाहरणमिणं ति हेउपडिजोअणं वोच्छं ॥39॥
जह कोई सट्ठिवरिसो तीसइवरिसो णराहिवो जाओ ।
उभयत्थ जायसद्दो वरिसविभागं विसेसेई ॥40॥
एवं जीवद्दव्वं अणाइणिहणमविसेसियं जम्हा ।
रायसरिसो उ केवलिपज्जाओ तस्स सविसेसो ॥41॥
जीवो अणाइनिहणो 'जीव' त्ति य णियमओ ण वत्तव्वो ।
जं पुरिसाउयजीवो देवाउयजीवियविसिट्ठो ॥42॥
अन्वयार्थ : [जीवो] जीव [अणाइणिहणो] अनादिनिधन है [केवल णाणं] केवलज्ञान [तु] तो [साइयमण्णतं] सादि अनन्त है [इय थोरम्मि] मोटे सामान्य रूप में और [विसेसे] विशेष में [जीवो] जीव [केवलं] केवल ज्ञान रूप [कह] कैसे [होइ] होता है ?
[तम्हा] इस कारण [उवसमियाइ] उपशम आदि [लक्खण] लक्षण की [विसेसओ] भिन्नता से [जीवो] जीव [अण्णो] अन्य भिन्न है और [तस्स] उस की [णाणाइ] पज्जवा] ज्ञान आदि पर्यायें [अण्णे] भिन्न हैं, ऐसा [केइ] कुछ [इच्छंति] कहते हैं ।
[अथ] और [एगंतपक्खपडिसेहे] एकान्त पक्ष के प्रतिषेध में [अत्थ] अर्थ [पुव्वपउत्तो] पहले कहा जा चुका है [तह वि] तो भी [हेउपडिजोयणं] हेतु सम्बन्ध का [इणं] यह [उयाहरणं] उदाहरण [वोच्छं] कहूँगा ।
[जह] जैसे [कोइ] कोई [सट्ठिवरिसो] साठ वर्ष का है [तीसइवरिसो] तीसवें वर्ष में वह [णराहिवो] राजा [जाओ] हुआ था [उभयत्थ] दोनों में यहाँ [जायसद्दो] जात शब्द [वरिसविभागं] वर्ष का विभाग [विसेसेइ] विशेषत: प्रकट करता है ।
[एवं] इस प्रकार [अविसेसियं] सामान्यत [जीवद्दव्वं] जीव द्रव्य [जम्हा] जिस लिए [अणाइणिहणं] अनादिनिधन है और [रायसरिसो] राजा के समान [उ] तो [तस्स] उसकी [केवलिपज्जाओ] केवली रूप पर्याय [सविसेसो] विशेष-सहित है ।
[जीवो] जीव [अणाइणिहणो] अनादिनिधन [जीव] जीव ही है [त्ति] ऐसा [य] भी [णियमओ] नियम से [ण] नहीं [वत्तव्वो] कहना चाहिए [क्योंकि, जं] जो [पुरिसाउय] मनुष्यायुज [जीवो] जीव में और [देवाउयजीविय] देवायुज जीव में [विसिट्ठो] विशिष्ट भेद है, वह नहीं बन सकेगा ।
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संखेज्जमसंखेज्जं अणंतकप्पं च केवलं णाणं ।
तह रागदोसमोहा अण्णे वि य जीवपज्जाया ॥43॥
अन्वयार्थ : [केवल णाणं] केवलज्ञान [संखेज्जं] संख्यात [असंखेज्जं] असंख्यात [च] और [अणतकप्पं] अनन्त रूप का है [तह] वैसे [रागदोसमोहा] राग, देष और मोह रूप [अण्णो वि] दूसरे भी [य] और [जीव पज्जाया] जीवपर्याय हैं ।
विशेष :
केवलज्ञान संख्यात रूप है, असंख्यात रूप है और अनन्त रूप भी है । उसी प्रकार राग-देष, मोह आदि जीव की पर्यायें भी संख्यात, असंख्यात और अनन्त रूप हैं । वस्तुतः मूल में आत्मा एक है, इसलिए उससे अभिन्न केवलज्ञान भी एक रूप है। दर्शन और ज्ञान की अपेक्षा केवल (कैवल्य) दो प्रकार का है । आत्मा उससे अभिन्न है और असंख्यात प्रदेश वाली है, इसलिए केवलज्ञान भी असंख्यात रूप है । केवलज्ञान अनन्त पदार्थों को जानता है । अनन्त पदार्थों को जानने के कारण केवलज्ञान अनन्त है। इसी प्रकार संसारी जीव रागी, द्वेषी, मोही है जो संख्यात, असंख्यात और अनन्तरूप है ।
इस प्रकार द्रव्य और पर्याय के कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद का कथन किया गया है ।
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ज्ञेयमीमांसा
सामण्णम्मि विसेसो विसेसपक्खे य वयणविणिवेसो ।
दव्वपरिणाममणणं दाएइ तयं च णियमेइ ॥1॥
एगतणिव्विसेसं एयंतविसेसियं च वयमाणो ।
दव्वस्स पज्जवे पज्जवा हि दवियं णियत्तेइ ॥2॥
अन्वयार्थ : [सामण्णम्मि] सामान्य में [विसेसो] विशेष का [य] और [विसेसपक्खे] विशेष पक्ष में [वयणविणिवेसो] वचन विनिवेश होता है वह [दव्वपरिणाममण्णं] द्रव्य परिणाम और अन्य को [दाएइ] दिखलाता है [च] और [तयं] तीनों को [णियमेइ] नियत करता है ।
[एगंतणिव्विसेसं] एकान्त सामान्य [च] और [एगंतविसेसियं] एकान्त विशेष का [वयमाणों] कथन करने वाला [दव्वस्स] द्रव्य की [पज्जवे] पर्यायों को और [पज्जवा] पर्यायों से [हि] निश्चय से [दवियं] द्रव्य को [णियत्तेइ] अलग करता है ।
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पच्चुप्पण्णं भावं विगयभविस्सेहिं जं सम्मण्णेइ ।
एयं पडुच्चवयणं दव्वंतरणिस्सियं जं च ॥3॥
दव्वं जहा परिणयं तहेव अस्थि त्ति तम्मि समयम्मि ।
विगयभविस्सेहि उ पज्जएहिं भयणा विभयणा वा ॥4॥
अन्वयार्थ : [जं] जो वचन [पच्चुप्पण्णं] वर्तमान [भाव] पर्याय का [विगयभविस्सेहिं] अतीत तथा भावी पर्याय के साथ से [समण्णेइ] समन्वय करता है [च] और [दव्वंतरणिस्सियं] अन्य द्रव्यों से बाहर है [जं] जो [एयं] यह [पडुच्चवयणं] प्रतीत्यवचन है ।
[जहा] जिस प्रकार [दव्वं] द्रव्य [परिणयं] परिणत हुआ [तम्मि समयम्मि] उस-उस समय में [तहेव] उसी प्रकार ही [अत्थि] है [त्ति] इस प्रकार [उ] तो [विगयभविस्सेहि] अतीत और भविष्यत् काल की [पज्जएहिं] पर्यायों के साथ [भयणा] अभेद [वा] और [विभयणा] भेद भी है ।
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परपज्जवेहिं असरिसगमेहिं णियमेण णिञ्चमवि नत्थि ।
सरिसेहिं पि वंजणओ अस्थि ण पुणऽत्थपज्जाए ॥5॥
पच्चुप्पण्णम्मि वि पज्जयम्मि भयणागइं पडइ दव्वे ।
जं एगगुणाईया अणंतकप्पा गमविसेसा ॥6॥
अन्वयार्थ : [असरिसगमेहिं] असदृशी [परपज्जवेहिं] पर-पर्यायों की अपेक्षा से [णियमेण] नियम से [णिञ्चमवि] नित्य भी [णत्थि] नहीं है [सरिसेहिं पि] सदृशों में भी [वंजणओ] व्यंजन पर्यायों की अपेक्षा से [अत्थि] है [पुण] फिर [ण पुणऽत्थपज्जाए] अर्थपर्याय की अपेक्षा से नहीं है ।
[पच्चुप्पण्णम्मि वि] वर्तमान काल में भी [पज्जयम्मि] पर्याय में [दव्वे] द्रव्य [भयणागइं] भजनागति कथंचित् सत् और कथंचित् असत् को [पडइ] पड़ता है [जं एगगुणाईया] जिस एक गुण को आदि लेकर [गुणविसेसा] उस गुण के विशेष [अणंतकप्पा] अनन्त प्रकार होते हैं ।
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कोवं उप्पायंतो पुरिसो जीवस्स कारओ होइ ।
तत्तो विभएयव्वो परम्मि सयमेव भइयव्वो ॥7॥
अन्वयार्थ : [कोवं] क्रोध को [उप्पायंतो] उत्पन्न करता हुआ [पुरिसो] पुरुष [जीवस्स] जीव का [कारओ होइ] कारक होता है [तत्तो] इससे वह [विभएयव्वो] भेद योग्य है और [परम्मि] पर भव में [सयमेव] स्वयं ही होने से [भइयव्वो] अभेद योग्य है ।
विशेष :
वर्तमान अवस्था को उत्पन्न करते वाला पुरुष जीव का कारक है । अपने आप में वह क्रोध को उत्पन्न करता है। इसलिए पहले के जीव से उसमें किसी अपेक्षा से भिन्नता है । वास्तव में जीव स्वयं पर्याय रूप परिणमन करता है । इसलिए संसारी जीव अपनी भविष्यत् काल की पर्याय का निर्माता स्वयं है। अतएवं पूर्व पर्याय का जीव कारण है और उत्तरवर्ती पर्याय को श्राप्त जीव स्वयं कार्य है। वस्तुत: पूर्व पर्याय में रहने वाला जीव ही उत्तरवर्ती पर्याय वाला हुआ है । इस दृष्टि से इनमें कोई भेद नहीं है। इस प्रकार एक ही वस्तु में भेद-अभेद की सिद्धि कही गई है ।
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रूव-रस-गंध-फासा असमाणग्गहण-लक्खणा जम्हा ।
तम्हा दव्वाणुगया गुण त्ति ते केइ इच्छंति ॥8॥
अन्वयार्थ : [जम्हा] जिस कारण [रूवरसगंधफासा] रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये [असमाणग्गहण] भिन्न प्रमाण से ग्रहण होते हैं और [लक्खणा] भिन्न लक्षण वाले हैं [तम्हा] इस कारण [ते] वे [दव्वाणुगया] द्रव्य के आश्रित [गुण] गुण हैं [त्ति] ] ऐसा [कइ] कई [इच्छंति] मानते हैं ।
विशेष :
कई वैशेषिक आदि प्रवादीजनों का यह कथन है कि गुण गुणी से और गुणी गुण से सर्वथा भिन्न है । आत्मा ज्ञानवान् (गुणी) है - यह व्यवहार समवाय सम्बन्ध से होता है । लोक के पदार्थों का ज्ञान चक्षु इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से स्पर्शन इन्द्रियजन्य होता है । जो वस्तु पहले देखी थी, उसको ही लेकर आ रहा हुँ - यह ज्ञान स्मरण के सहकारी प्रत्यभिज्ञान से होता है । इसलिए द्रव्य को ग्रहण करने वाला प्रमाण अन्य है और रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श को ग्रहण करने वाला प्रमाण अन्य है । इस प्रकार द्रव्य और गुणों को ग्रहण करने वाला प्रमाण अन्य होने से द्रव्य में तथा गुणों में भिन्तता निश्चित होती है । उनके अनुसार द्रव्य का लक्षण है : 'क्रियावत् गुणवत् समवायिकारणं द्रव्यम्' (क्रियावान् तथा गुणवान् समवायी कारण को द्रव्य कहते हैं) और 'द्रव्याश्रय्यागुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष:'- यह गुण का लक्षण है। इन लक्षणों की भिन्तता से भी गुण-गुणी एवं द्रव्य में भिन्नता है । यहाँ से भेदैकान्तवादी मान्यता का निरूपण किया जाता है ।
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दूरे ता अण्णत्तं गुणसद्दे चेव ताव पारिच्छं ।
किं पज्जवाहिओ होज्ज पज्जवे चेवगुणसण्णा ॥9॥
दो उण णया भगवया दवट्ठिय-पज्जवट्ठिया नियया ।
एत्तो य गुणविसेसे गुणट्ठियणओ वि जुज्जंतो ॥10॥
जं च पुण अरिहया तेसु तेसु सुत्तेसु गोयमाईणं ।
पज्जवसण्णा णियया वागरिया तेण पज्जाया ॥11॥
परिगमणं पज्जाओ अणेगकरणं गुण त्ति तुल्लत्था ।
तह वि ण 'गुण' त्ति भण्णइ पज्जवणयदेसणा जम्हा ॥12॥
जंपन्ति अत्थि समये एगगुणो दसगुणो अणंतगुणो ।
रूवाई परिणामो भएणइ तम्हा गुणविसेसो ॥13॥
गुणसद्दमंतरेणावि तं तु पज्जवविसेससंखाणं ।
सिज्झइ णवरं संखाणसत्थधम्मो 'तइगुणो' त्ति ॥14॥
जह दससु दसगुणम्मि य एगम्मि दसत्तणं समं चेव ।
अहियम्मि वि गुणसद्दे तहेय एयं पि दट्ठव्वं ॥15॥
अन्वयार्थ : [दूरे ता अण्णत्तं] दूर रहे तो अन्यत्व [ गुणसद्दे चेव] गुण शब्द के विषय में ही [ताव] तब तक [पारिच्छं] विचार करना चाहिए [किं] क्या [पज्जवाहिओ] पर्याय से अधिक है या [पज्जवे] पर्याय में [चेवगुणसण्णा] ही गुण संज्ञा [होज्ज] होवे ।
[भगवया] भगवान् के द्वारा [उण] फिर [दवट्ठिय पज्जवट्ठिया] द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे [दो णया] दो नय [णियया] नियत किए गए हैं [एत्तो य] इससे भिन्न [गुणविसेसे] गुण विशेष होने पर [गुणट्ठियणओ] गुणार्थिकनय [वि] भी [जुज्जंतो] प्रयुक्त होता ।
[जं च पुण] और फिर [अरहया] अर्हन्त प्रभु ने [तेसु तेसु] उन उनमें [सुत्तेसु] सूत्रों में [गोयमाईणं] गौतम गणघर आदि के लिए [पज्जवसण्णा] पर्याय संज्ञा [णियया] नियत की है और [तेण] उन्होंने उनके द्वारा [पज्जाया] पर्यायें , यह [वागरिया] व्याख्यान किया है ।
[परिगमणं] परिगमन [पज्जायो] पर्याय है [अणेगकरणं] अनेक रूप करना [गुण] गुण है [त्ति] यह [तुल्लत्था] तुल्य अर्थ वाले हैं दोनों [तह वि] तथापि [ण गुण] नहीं है गुण [त्ति] ऐसा [भण्णइ] कहा जाता है [जम्हा] जिससे क्योंकि [पज्जवणयदेसणा] पर्यायनय की देशना है ।
[एगगुणो] एक गुण [दसगुणो] दस गुण और [अणंतगुणो] अनन्त गुण वाला [रूवाई] रूप आदि [परिणामो] परिणाम [अत्थि] है [तम्हा] इसलिए [गुणविसेसो] गुण विशेष [भण्णइ] कहता है यह [समये] आगम में [जंपंति] कहा जाता है ।
[गुणसद्दमंतरेणावि] गुण शब्द के बिना भी [तं तु] वह तो जो [पज्जवविसेससंखाणं] पर्याय गत विशेष संख्या को कहने वाले [सिज्झइ] सिद्ध होते हैं [णवरं] केवल वह [तइगुणो] उतना गुण है [त्ति] यह [संखाणसत्थघम्मो] गणित शास्त्र का धर्म है ।
[जह] जिस प्रकार [गुणसद्दे] गुण शब्द के [अहियम्मि वि] अधिक पर भी [दससु] दसों में [दसगुणम्मि] दसगुनी में [य] और [एगम्मि] एक में [दसत्तणं] दसपना [समं] समान [चेव] ही [तहेय एयं पि] उसी प्रकार यह भी [दट्ठव्वं] समझना चाहिए ।
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एयंतपक्खवाओ जो उण दव्व-गुण-जाइभेयम्मि ।
अह पुव्वपडिक्कुट्ठो उआहरणमित्तमेयं तु ॥16॥
पिउ-पुत्त-णत्तु-भव्वय-भाऊणं एगपुरिससंबंधो ।
ण य सो एगस्स पिय त्ति सेसयाणं पिया होइ ॥17॥
जह संबंधविसिट्ठो सो पुरिसो पुरिसभावणिरइसओ ।
तह दव्वमिंदियगयं रूवाइविसेसणं लहई ॥18॥
अन्वयार्थ : [अह] और [दव्व-गुण-जाइभेयम्मि] द्रव्य गुण जाति भेद में [जो पुण] जो फिर [एयंतपक्खवाओ] एकान्त पक्षपात [पुव्वपडिक्कुट्ठो] पहले निषिद्ध है [एयं तु] यह तो [उआहरणमित्तमेयं] उदाहरण मात्र है ।
[पिउ-पुत्त-णत्तु-भव्वय-भाऊणं] पिता, पुत्र, नाती, भावज, भाई का [एगपुरिससंबंधो] एक पुरुष के साथ सम्बन्ध हो [सो] वह [एगस्स] एक का [ पिय त्ति] पिता [सेसयाणं] शेष जनों का [पिया ण य होइ] पिता नहीं होता है ।
[जह] जिस प्रकार [संबंधविसिट्ठो] सम्बन्ध विशेष के होने पर [सो] वह [पुरिसो] पुरुष [पुरिसभाव णिरइसओ] पुरुष पर्याय अधिकता [तह] वैसे ही [इंदियगयं] इन्द्रियगत [दव्वं] द्रव्य [रूवाईविसेसणं] रूप आदि विशेषण [लभते] हो जाता है ।
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होज्जाहि दुगुणमहुरं अणंतगुणकालयं तु जं दव्वं ।
रण उ डहरओ महल्लो व होइ संबंधओ पुरिसो ॥19॥
अन्वयार्थ : [जं] जो कोई [तु] तो [दव्वं] द्रव्य [दुगुणमहुरं] दुगुना मधुर हो [अणंतगुणकालयं] अनन्त गुना काला [होज्जाहि] होवे [वा] अथवा [पुरिसो] पुरुष [डहरओ] छोटा [महल्लो] बड़ा हो तो [संबंधओ] सम्बन्ध से [ण उ होइ] नहीं होता है ।
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भण्णइ संबंधवसा जइ संबंधित्तणं अणुमयं ते ।
णणु संबंधविसेसे संबंधिविसेसणं सिद्धं ॥20॥
अन्वयार्थ : [जह] जिस प्रकार [संबंधवसा] सम्बन्ध के वश से [ते] तुम्हें [संबंधित्तणं] सम्बन्धीपन [अणुमयं] मान्य है [णणु] निश्चय से [संबंधविसेसं] सम्बन्ध विशेष में [संबंधिविसेसणं] सम्बन्ध विशेषता भी [सिद्धं] सिद्ध हो जाती है ।
विशेष :
पुन: अभेदवादी कहता है कि जिस प्रकार सामान्य सम्बन्ध के वश से वस्तु में सामान्य रूप से सम्बन्धत्व घटित होता है, वैसे ही सम्बन्ध विशेष में वस्तु में सम्बन्ध की विशिष्टता भी सिद्ध हो जाती है । विभिन्न सम्बन्धों के कारण वस्तु में सम्बन्धीपन भी पाया जाता है -- ऐसा हम कह सकते हैं ।
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जुज्जइ संबंधवसा संबंधिविसेसणं ण उण एयं ।
णयणाइविसेसगओ रूवाइविसेसपरिणामो ॥२१॥
अन्वयार्थ : [संबंधवसा] सम्बन्ध वश से [संबंधिविसेसणं] सम्बन्ध विशेष [ण] नहीं [जुज्जइ] प्रयुक्त होती है [उण] फिर [एयं] यह [णयणाइविसेसगओ] नेत्र आदि के विशेष सम्बन्ध [रूवाइ विसेसपरिणामो] रूप आदि विशेष परिणाम घटित होते हैं ।
विशेष :
अभेदवादी के इस कथन से सम्बन्धों के वश से वस्तु में अनेक प्रकार का सम्बन्धीपन सिद्ध होता है । हमारी असहमति नहीं है (जैसे कि) एक ही पुरुष दण्ड के सम्बन्ध से दण्डी कहा जाता है और कम्बल के सम्बन्ध से उसे ही कम्बली कहा जाता है। किन्तु हमारा यह प्रश्न आप से बराबर बना हुआ है कि भिन्न-भिन्न कालेपन में वैषम्य प्रतीत होता है, वह चक्षु इन्द्रिय से किस प्रकार ग्राह्य हो सकता है ? क्योंकि चक्ष् इन्द्रिय का सम्बन्ध केवल कृष्ण वर्ण से है, उसकी विषमता से नहीं है । विषमता का सम्बन्ध तो विशेष धर्म से है जो वस्तु में स्वतः सिद्ध है, निमित्त कारण उसके व्यंजक मात्र होते हैं ।
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भण्णइ विसमपरिणयं कह एयं होहिइ त्ति उवणीयं ।
तं होइ परणिमित्तं ण व त्ति एत्थऽत्थि एगंतो ॥22॥
अन्वयार्थ : [एयं] यह [विसमपरिणयं] विषम परिणाम रूप [कह] किस प्रकार [होहिइ] होगा [त्ति] यह [उवणीयं] घटित होता है [तं] वह [परणिमित्तं] पर-निमित्त [होइ] होता है [त्ति] यह [ण व] अथवा नहीं [एगंतो] एकान्त [एत्थऽत्थि] यहाँ है नहीं ।
विशेष :
जिस प्रकार एक वस्तु में शीत तथा उष्ण परस्पर विरुद्ध धर्म होने से एक साथ अस्तित्व में नहीं रहते, उसी प्रकार एक ही तत्त्व में परस्पर विरोधी विषम परिणाम रूप अनेक धर्मों का युगपत् अवस्थान कैसे घटित हो सकता है ? इस शंका का समाधान करते हुए कहते हैं -- एक ही वस्तु में परस्पर विरुद्ध धर्म रूप विधर्म परिणाम पर-निमित्त की अपेक्षा से लक्षित होते हैं। इस कथन को एकान्त रूप से नहीं मान लेना चाहिए । क्योंकि इस प्रकार के परिणमनों में स्वयं वस्तु अन्तरंग कारण है तथा अन्य बाह्य सामग्री बहिरंग कारण है। इस प्रकार सम परिणमन स्वनिमित्ताधीन है तथा विषम परिणमन कथंचित् परनिमित्ताधीन कथंचित् स्वनिमित्ताधीन है ।
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दव्वस्स ठिई जम्म-विगमा य गुणलक्खणं ति वत्त्व्वं ।
एवं सइ केवलिणो जुज्जइ तं णो उ दवियस्स ॥23॥
दव्वत्थंतरभूया मुत्ताऽमुत्ता य ते गुणा होज्ज ।
जइ मुत्ता परमाणू णत्थि अमुत्तेसु अग्गहणं ॥24॥
अन्वयार्थ : [दव्वस्स] द्रव्य का [ठिई] स्थिति [जम्मविगमा] उत्पत्ति [य] और विनाश [गुणलक्खणं] गुण लक्षण [ति] यह [वत्त्व्वं] कहना चाहिए [एवं] इस प्रकार [सइ] होने पर [तं] वह [केवलिणो] केवल [दवियस्स] द्रव्य का [जुज्जइ] घटता है [उ] किन्तु [दवियस्स] द्रव्य का अखण्ड वस्तु का [णो] नहीं ।
[दव्वत्थंतरभूया] द्रव्वान्तर प्राप्त [ते] वे [गुणा] गुण [मुत्तामुत्ता] मूर्त [य] और अमूर्त [होज्जा] होंगे [जइ] यदि [मुत्ता] मूर्त हों तो कोई परमाणु [णत्यि] नहीं है [अमृत्तेसु] अमूर्त होने पर [अग्गहणं] परमाणु ग्रहण नहीं होंगे ।
विशेष :
द्रव्य और पर्याय में भेद मानने वाले वादी का यह कथन है कि नित्यता या धौव्य द्रव्य का लक्षण है और उत्पत्ति एवं विनाश गुण अथवा पर्याय का लक्षण है। इस प्रकार से इन दोनों को विभक्त समझना चाहिए । इस विचार के विपक्ष में सिद्धान्तवादी यह कहता है कि इस तरह का विभाजन युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि आचार्य उमास्वामी ने त्त्वार्थसृत्र में यह समझाया है कि द्रव्य का लक्षण 'सत्' है। 'सत्' उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है। इनमें से द्रव्य के बिना पर्याय का कोई अस्तित्व नहीं है और पर्याय के बिना द्रव्य पृथक् रूप से 'सत्' नहीं है। यदि द्रव्य को सर्वथा नित्य माना जाए, तो उसमें कूटस्थ नित्यता माननी होगी । अतः: द्रव्य परिणामी नित्य सिद्ध नहीं होगा । इससे वस्तु क्रिया-शून्य होने से 'असत्' सिद्ध होगी। अतएव न तो पर्याय एकान्त रूप से अनित्य है और न द्रव्य ही नित्य है। परन्तु दोनों कथंचित् नित्यानित्यात्मक हैं । इसलिए एकान्त रूप से किसी (द्रव्य) को नित्य और किसी (पर्याय) को अनित्य मानना उचित नहीं है ।
भेदवादी को समझाते हुए कहते हैं कि यदि पर्यायों को द्रव्य से भिन्न माना जाए तो वे गुण रूप पर्यायें द्रव्य से भिन्न रह कर मूर्त होंगी या अमूर्त ? यदि आप यह कहते हैं कि द्रव्य की पर्यायें द्रव्य से सर्वथा भिन्न रहेंगी तो ऐसी स्थिति में परमाणु का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होगा। क्योंकि परमाणु इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं है। उनका अस्तित्व तो द्वयणुकादि पर्यायों से ही जाता जाता है। जैसे ये पर्यायें अन्य द्रव्य से भिन्न हैं तथा द्रव्य के अस्तित्व की ज्ञापक नहीं हैं, उसी प्रकार परमाणु से भिन्न द्वयणुकादि पर्यायें भी परमाणु की ज्ञापक कैसे हो सकती हैं । इसी प्रकार अन्यथानुपपत्ति रूप अनुमान से परमाणुओं का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता । क्योंकि परमाणु हैं जिनमें घट, पट आदि कार्य से भिन्न उपपत्ति नही देखी जाती है, इस अनुमान से उन दोनों में कथंचित् अभिन्नता ही सिद्ध होती है। अतएवं सभी प्रकार के दोषों से बचने के लिए द्रव्य तथा पर्यायों को परस्पर कथंचित् सापेक्ष एवं अभिन्न मानना चाहिये ।
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सीसमईविप्फारणमेत्तत्थोऽयं को समुल्लावो ।
इहरा कहामुहं चेव णत्थि एवं ससमयम्मि ॥25॥
ण वि अस्थि अण्णवादो ण वि तव्वाओ जिणोवएसम्मि ।
तं चेव य मण्णंता अवमण्णंता ण याणंति ॥26॥
अन्वयार्थ : [सीसमई] शिष्य बुद्धि [विप्फारण] विकसित करने [मेत्तत्थोऽयं] मात्र प्रयोजन यह [समुल्लावो] प्रबन्ध [कओ] किया गया है [इहरा] अन्यथा [ससमयम्मि] जिन-शासन में [एवं] इस प्रकार [कहामुहं] कथा आरम्भ [चेव] ही [णत्थि] नहीं है ।
[जिणोवएसस्मि] जिन उपदेश में [अण्णवादो] अन्य भेदवाद [ण वि] नहीं ही [अत्यि] है [ण वि] नहीं [तव्वाओ] वह वाद [तं] उसे [चेव य] ही जो [मण्णंता] मानने वाले [अमण्णंता] नहीं मानते हुए [ण] नहीं [याणंति] जानते हैं ।
विशेष :
यहाँ पर गुण-गुणी के भेद तथा अभेद विषयक जो विचार प्रस्तुत किया गया है, वह सब शिष्यों की बुद्धि को विकसित करने के उद्देश्य से ही किया गया है । वास्तव में जिनेन्द्र भगवान् के शासन में भेद या अभेद किसी एक प्रकार की कथा (वार्ता) नहीं है। जैन शासन अनेकान्तात्मक है। अत: इसमें एकान्त रूप से भेदवाद तथा एकान्त रूप से अभेदवाद की स्थिति नहीं है ।
और फिर, जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश में न तो सर्वथा भेदवाद है और न सर्वथा अभेदवाद है । जो इन दोनो में से भेदबाद या अभेदवाद को मानने वाले हैं, वे भेद या अभेद को मानते हुए भी जिनशासन को नहीं मानते हैं ।
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भयणा वि हु भइयव्वा जइ भयणा भयइ सव्वदव्वाइं ।
एवं भयणा णियमा वि होइ समयाविरोहेण ॥27॥
णियमेण सद्दहंतो छक्काए भावओ न सद्दहइ ।
हंदी अपज्जवेसु वि सद्दहणा होइ अविभत्ता ॥28॥
अन्वयार्थ : [जह] जिस प्रकार [सव्वदव्वाइं] सब द्रव्यों को [भयणा] विकल्प से [भयइ] भजता है [भयणा वि] भजना भी [हु] निश्चय से [भइयव्वा] विकल्पनीय है [एवं] इस प्रकार [समयाविरोहेण] सिद्धान्त अविरुद्ध [भयणा] विकल्प [णियमो वि] नियम से ही [होइ] होता है ।
[णियमेण]नियम से [छक्काए] छह कायों की [सहहंतो] श्रद्धा करने वाला [भावओ] भाव से [ण] नहीं [सदृहइ] श्रद्धान करता है [हंदी] निश्चय [अपज्जवेसु]अपर्यायों में [वि] भी [अविभत्ता] अखण्ड [सद्दहणा] श्रद्धान [होइ] होता है ।
विशेष :
जिस प्रकार अनेकान्त सापेक्ष रूप से सभी द्रव्यों का प्रतिपादन करता है, उसी प्रकार अनेकान्त का भी प्रतिपादन अनेकान्त रूप होता है । अनेकान्त सम्यक् अनेकान्त तब होता है जब उसमें किसी प्रकार से सिद्धान्त का विरोध न हो । किन्तु जब परस्पर निरपेक्ष होकर अनेक धर्मों का सम्पूर्ण रूप से प्रतिपादन किया जाता है, तब वह दृष्टि मिथ्या अनेकान्त रूप कही जाती है। और वही दृष्टि जब समग्र भाव से परस्पर सापेक्ष वस्तुगत अनेक धर्मों को ग्रहण करती है या उनका प्रतिपादन करती है, तब वह सम्यक अनेकान्त कही जाती है। सिद्धान्त में वस्तुगत धर्मों के प्रतिपादन की यही रीति है कि मुख्य-गौण की विवक्षा से उनका कथन किया जाता है । वक्ता के अभिप्राय को ध्यान में रख कर अनेकान्त नय की दृष्टि से वस्तु का प्रतिपादन करता है । अतः जिस समय एक दृष्टि प्रमुख होती है उस समय अन्य दृष्टि अपने आप गौण हो जाती है; किन्तु उसका सर्वथा अभाव नहीं हो जाता ।
इसी प्रकार संसार के सभी प्राणी समान रूप से चैतन्य शक्ति वाले हैं - यह एक दृष्टि है। किन्तु कोई जीव पृथ्वी रूप में, कोई जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति के रूप में एवं कोई जीव त्रस शरीर के रूप में पाये जाते हैं । इसलिए जीव छह काय के होते हैं - यह भी एक दृष्टि है। किसी अपेक्षा से इन सब में एकत्व है और किसी अपेक्षा से भिन्नता है । चैतन्य सामान्य की अपेक्षा सब एक हैं, किन्तु गति तथा शरीर की अपेक्षा विभिन्नता है । अतएव दोनों में से किसी एक दृष्टि का निषेध न कर अनेकान्त सापेक्षरूप से प्रतिपादन करता है ।
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गइपरिगयं गई चेव केइ णियमेण दवियमिच्छंति ।
तं पि य उड्ढ़गईयं तहा गई अन्नहा अगई ॥29॥
गुणणिव्वत्तियसण्णा एवं दहणादओ वि दट्ठव्वा ।
जं तु जहा पडिसिद्धं दव्वमदव्वं तहा होइ ॥30॥
कुंभो ण जीवदवियं जीवो वि ण होइ कुंभदवियं ति ।
तम्हा दो वि अदवियं अण्णोण्णविसेसिया होंति ॥31॥
अन्वयार्थ : [केइ] कोइ [णियमेण] नियम से [गइ परिणयं] गति परिणत [दवियं] द्रव्य को [गई] गति [चेव] ही [इच्छंति] मानते हैं [तं पि य] और वह भी [उड्ढगईयं] ऊर्ध्व गति वाला [तहा] तथा [गई] गति [अण्णहा अगई] अन्यथा अगति है।
[एवं] इस प्रकार [गुणणिव्वत्तियसण्णा] गुण सिद्ध संज्ञा [दहणादओ] दहन आदि [वि] भी [दट्ठव्वा] समझना चाहिए [जं तु] जो तो [जहा] जिस प्रकार से [पडिसिद्धं] निषिद्ध [दव्वं] द्रव्य [तहा] वैसे [अदव्वं] पदार्थ नहीं [होइ] होता है ।
[कुंभो जीवदवियं ण] घड़ा जीव द्रव्य नहीं है [जीवो वि ण होइ कुंभदवियं ति] जीव द्रव्य भी घड़ा नहीं होता [तम्हा] इससे [दो वि] दोनों ही [अण्णोण्णविसेसिया] एक-दूसरे के गुणों से भिन्न [अदवियं] अद्रव्य [होंति] हैं ।
विशेष :
कोई ऐसा मानते है कि जो द्रव्य गति क्रिया में परिणत होता है, वही गति वाला है जैसे -- अग्नि लकड़ी, कागज, कपड़ा आदि वस्तुओं को जलाने रूप क्रिया करती है, तो उसे अग्नि कहते हैं। इसी प्रकार वस्त्रादि को उड़ाने के कारण तथा स्वयं बहने से पवन वायु कही जाती है। परन्तु अग्नि, पवन आदि में न तो चैतन्य को और न किसी अमूर्तिक पदार्थ को जलाने की क्षमता है। इसलिए अग्नि किसी अपेक्षा से दाहक द्रव्य हैं और किसी अपेक्षा से दहन रूप द्रव्य नहीं भी है । परन्तु एकान्त मत वाला ऐसा मानता है कि जो द्रव्य ऊपर की ओर जाता है, वह गति वाला है अन्य गति वाले नहीं हैं। इससे यह अभिप्राय प्रकट होता है कि शब्द (नाम) की व्युत्पत्ति से जो अर्थ निकलता हो, वह पदार्थ उसी रूप वाला है, अन्य कार्य नहीं करता है । अतएवं अन्यथा कार्यशील होने से वह पदार्थ भी नहीं है ।
इसी प्रकार शब्द की व्युत्पत्ति रूप संज्ञा वाले दहन आदि पदार्थों को जानना चाहिए । वे अपने नाम के अनुसार यदि कार्य करते हैं तो पदार्थ हैं, अन्यथा नहीं हैं । क्योंकि द्रव्य भाव से निषिद्ध होने पर अभावात्मक होता है । अत: जो पदार्थ अपना काम नहीं करता है, वह पदार्थ नहीं है ।
जीव द्रव्य के गुणों की अपेक्षा से घड़ा जीव द्रव्य रूप नहीं है । इसी प्रकार जीव भी घड़े के गुणों की अपेक्षा से घट रूप नहीं है । अतएव ये परस्पर एक-दूसरे के गुणों की अपेक्षा से अद्रव्य हैं । किन्तु अनेकान्त की दृष्टि से सामान्यतः दोनों ही द्रव्य हैं। जीव एक चेतन द्रव्य है और घड़ा अचेतन है । दोनों में परस्पर विरोधी धर्म रहते हैं। एक ही वस्तु में परस्पर विरुद्ध धर्म पाये जाते हैं । अनेकान्त इनका विरोध न कर समर्थन करता है ।
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उप्पाओ दुवियप्पो पओगजणिओ य वीससा चेव ।
तत्थ उ पओगजणिओ समुदयवायो अपरिसुद्धो ॥32॥
साभाविओ वि समुदयकओ व्व एगंतिओ व्व होज्जाहि ।
आगासाईआणं तिण्हं परपच्चओऽणियमा ॥33॥
विगमस्स वि एस विही समुदयजणियम्मि सो उ दुवियप्पो ।
समुदयविभागमेत्तं अत्थंतरभावगमणं च ॥34॥
अन्वयार्थ : [उप्पाओ] उत्पाद [दुवियप्पो] दो प्रकार का है [पओगजणिओ] प्रयोगजन्य [य] और [वीससा] विस्रसा [चेव] ही [तत्य उ] उसमें तो [पओगजणिओ] प्रयत्नजन्य [समुदयवाओ] समुदायवाद [अपरिसुद्धो] अपरिशद्ध भी है ।
[साभाविओ वि] स्वाभाविक भी [समुदयकओ व्व] समुदायकृत और [एगंतिओ व्व] ऐकत्विक भी [होज्जाहि] होता [तिण्हं] तीनों [आगासाईआणं] आकाशादिक [परपच्चओऽणियमा] परप्रत्यय अनियत हैं ।
[विगमस्स वि] विनाश की भी [एस विधि] यह पद्धति है [सो समुदयजणियम्मि] वह समुदयजनित में [दुवियप्पो] दो प्रकार [समुदयविभागमेत्तं] समुदय विभागमात्र [च] और [अत्थंतरभावगमणं] अर्थान्तरभाव प्राप्ति ।
विशेष :
उत्पाद दो प्रकार का है -- प्रयोगजन्य तथा स्वाभाविक । इनमे में प्रयोगजन्य उत्पाद को समुदायवाद भी कहते हैं, जिसका दूसरा नाम अपरिशुद्ध है । उत्पाद और विनाश केवल प्रयत्नजन्य ही नहीं, अप्रयत्नजन्य भी होते है । जो उत्पाद प्रयत्नजन्य होता है, वह उत्पाद प्रायोगिक कहा जाता है; जैसे - मिट॒टी के घड़े का उत्पन्न होना । घडे की रचना कुम्हार के प्रयत्न से होती है, इसलिए घडे की उत्पत्ति प्रायोगिक कही जाती है । यह अपरिशुद्ध इसलिए कहा गया है कि इस तरह का उत्पाद किसी विशेष द्रव्य के आश्रित नहीं रहता है । यह प्रायोगिक उत्पाद भूर्त व पौद्गलिक द्रव्यों में ही घटता है; अमूर्त द्रव्यों में नही होता । आकाश में उठने वाले मेघ तरह-तरह के रूप धारण करते हैं । मेघों में दृष्टिगोचर होने वाले विभिन्न आकार-प्रकार की कोई रचना करने वाला नही है । इसलिए उनकी रूप-रचना अप्रयत्नजन्य होने से स्वाभाविक उत्पाद रूप मानी जाती है । प्रयत्नजन्य उत्पाद का दूसरा नाम समुदायवाद भी है। बालू-रेत आदि के बिखरे हुए कणों के एकत्र होने पर स्कन्ध रूप रचना को प्रयत्नजन्य समुदाय उत्पाद कहते हैं ।
स्वाभाविक उत्पाद भी दो प्रकार का है -- समुदायकृत और ऐकत्विक। ऐकत्विक उत्पाद धर्म, अधर्म और आकाश इन तीनों में पर-प्रत्यय निमित्तक होने से अनियत है । स्वाभाविक समुदायकृत उत्पाद किसी व्यक्ति-विशेष के द्वारा उत्पन्न नहीं होता है । किन्तु ऐकत्विक उत्पाद वैयक्तिक कहा जाता है । इसे परसापेक्ष इसलिए कहा गया है कि जब जीव और पुद्गल द्रव्य एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं, तब धर्म द्रव्य उदासीन कारण रूप से उनकी सहायता करता है । 'अभणियमा' पद से भी यह सूचित होता है कि ये स्वयं जीव और पुद्गल को नहीं चलाते हैं । किन्तु जिस प्रकार पथिक को ठहरने के लिए छाया उदासीन व अप्रेरक निमित्त है, वैसे ही यहाँ भी समझना चाहिए ।
उत्पाद की भाँति विनाश भी दो प्रकार का है - प्रायोगिक विनाश और स्वाभाविक विनाश । दूसरे के प्रयत्न से जो विनाश होता है, उसे प्रायोगिक विनाश कहते है; जैसे कि - मुद्गर से घट का विनाश होना । अपने ही प्रयत्न से होने वाले विनाश को स्वाभाविक विनाश कहा जाता है; यथा - मेघों का स्वतः नाश होना । ये दोनों प्रकार के विनाश समुदायविभागमात्र और अर्थान्तरभाव-प्राप्ति के भेद से दो प्रकार के हैं। समदायविभागमात्र का दृष्टान्त है - मुद्गर के आघात से घड़े का फूट जाना, टुकड़े-टुकड़े हो जाना। किन्तु अर्थान्तरभाव-प्राप्ति में एक पर्याय का नाश होने पर किसी नवीन पर्याय की प्राप्ति हो जाती है; जैसे कि स्वर्ण-निर्मित केयूर के विनाश से कुण्डल, हार आदि का निर्माण होना । इसी प्रकार समुदायविभाग मात्र रूप वैस्रसिक (स्वाभाविक) विनाश का दृष्टान्त है: मेघ का बिना प्रयत्न किए बिखर जाना । इसी प्रकार अर्थान्तरभाव-प्राप्ति रूप वैस्रसिक विनाश का दृष्टान्त है: नमक का पानी रूप होना या बर्फ का पिघल कर पानी बन जाना।
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तिण्णि वि उप्पायाई अभिण्णकाला य भिण्णकाला य ।
अत्थंतरं अणत्थंतरं च दवियाहि णायव्वा ॥35॥
जो आउंचणकालो सो चेव पसारियस्स वि ण जुत्तो ।
तेसिं पुण पडिवत्ती-विगमे कालंतरं णत्थि ॥36॥
उप्पज्जमाणकालं उप्पण्णं ति विगयं विगच्छंतं ।
दवियं पण्णवयंतो तिकालविसयं विसेसेइ ॥37॥
अन्वयार्थ : [तिण्णि वि] तीनों हि [उप्पायाई] उत्पाद आदि [अभिण्णकाला] अभिन्न काल [य] और [भिण्णकाला य] भिन्न समय [दवियाहि] द्रव्यों से [अत्थंतर] अर्थान्तर [च] और [अणत्थंतरं] अभिन्न पर्याय [णायव्वा] समझना चाहिए ।
[जो] जो [आउंचणकालो] संकोचन समय [सो] वह [चेव] ही [पसारियस्स वि] पसारने का भी है [ण जूत्तो] उपयुक्त नहीं [पुण] फिर [तेसिं] उन दोनों के [पडिवत्तीविगमे] उत्पत्ति विनाश में [कालंतरं णत्थि] समय अन्तर नहीं है ।
[उप्पज्जमाणकालं] उत्पन्न होते समय [उत्पण्णं] उत्पन्न [विगच्छंतं] नष्ट होते [विगयं] नष्ट [ति] यह [पण्णवयंतो] प्ररूपणा करता हुआ [दवियं] द्रव्य को [तिकालविसयं] त्रिकाल विषयक [विसेसेइ] विशेषित करता है ।
विशेष :
उत्पाद, व्यप और ध्रौव्य इन तीनों का किसी अपेक्षा एक काल कहा गया है, किसी अपेक्षा अनेक भी कहा गया है । 'एक काल का अभिप्राय यह है कि ये भिन्न-भिन्न समय में नहीं होते । इनके उत्पन्न होते का जो समय है, वही व्यय होने का है और वही धौव्य का समय है। और 'अनेक काल' का तात्पर्य यह है कि उत्पाद का काल भिन्न है, व्यय का काल भिन्न है और ध्रौव्य का काल भिन्न है । यद्यपि सामान्य रूप से वस्तु प्रत्येक समय मे पूर्व जैसी ही प्रतीत होती है । किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रथम समय में दूसरे समय की स्थिति भिन्न है और दूसरे समय से तृतीय, चतुर्थ आदि समय की स्थिति भिन्न-भिन्न है । यदि ऐसा न माना जाए तो वस्तु का कभी विनाश नहीं हो सकेगा ।
जो यह कहा गया है कि वस्तु की उत्पत्ति, नाश एवं स्थिति का किसी अपेक्षा से एक समय है । इसी को ध्यान मे रख कर कोई तर्क करता है कि अंगुली के संकुचित करने का जो समय है, वही उसके फैलाने का भी समय है । यह मान्यता युक्तियुक्त नहीं है । दृष्टान्त के द्वारा समझाते हुए कहते हैं कि जो अंगुली पहले सीधी थी, वह अब टेढ़ी हो गयी हैं। इसका अर्थ यह है कि सीधापन मिट कर टेढ़ापन आ गया है । इसमें सीधेपन का विनाश भिन्न है और टेढ़ेपन का उत्पाद भिन्न है । इस प्रकार इनमें यहाँ पर समय-भेद देखा जा सकता है । सिद्धान्त के प्रतिपादक आचार्य ने इस समय-भेद की स्थापना की है ।
द्रव्य के उत्पन्न होने के समय में ऐसा कहना कि यह उत्पन्न हो चुका है, यह नष्ट हो रहा है, यह नष्ट हो चुका है - इस प्रकार त्रैकालिक उत्पाद और व्यय को लेकर जो द्रव्य की प्ररूपणा करता है, वह द्रव्य को त्रिकालवर्ती विशेषित करता है । द्रव्य किसी पर्याय की अपेक्षा नष्ट होता है, किसी पर्याय की अपेक्षा उत्पन्न होता है और किसी अपेक्षा वह स्थिर भी रहता है । उत्पत्ति, नाश एवं स्थिति का यह सम्बन्ध वर्तमान काल से है । इसी प्रकार द्रव्य किसी पर्याय की अपेक्षा नष्ट हुआ, उत्पन्न हुआ और स्थिर भी रहा-यह भूतकाल की अपेक्षा से है । इसी प्रकार भविष्ययत् काल की अपेक्षा से द्रव्य उत्पन्न होगा, नष्ट होगा और स्थिर बना रहेगा। इस प्रकार ये तीनों कालत्नय की अपेक्षा से द्रष्य में घटित होते हैं ।
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दव्वंतरसंजोगाहि केचि दवियस्स बेंति उप्पायं ।
उप्पायत्थाऽकुसला विभागजायं ण इच्छंति ॥38॥
अणु दुअणुएहिं दव्वे आरद्धे 'तिअणुयं' ति ववएसो ।
तत्तो य पुण विभत्तो अणु त्ति जाओ आणू होइ ॥39॥
बहुयाण एगसद्दे जह संजोगाहि होइ उप्पाओ ।
णणु एगविभागम्मि वि जुज्जइ बहुयाण उप्पाओ ॥40॥
एगसमयम्मि एगदवियस्स बहुया वि होंति उप्पाया ।
उप्पायसमा विगमा ठिईउ उस्सग्गओ णियमा ॥41॥ काय-मण-वयण-किरिया-रूवाइ-गईविसेसओ वावि ।
संजोयभेयओ जाणणा य दवियस्स उप्पाओ ॥42॥
अन्वयार्थ : [उप्पायत्थाऽकुसला] उत्पाद के अर्थ से [अकुसला] अनभिज्ञ [के वि] भी कुछ [दव्वंतरसंजोगाहि] द्रव्यान्तर के संयोगों से [दवियस्स] द्रव्य की [उप्पायं बेंति] उत्पत्ति कहते हैं [विभागजायं] विभाग से द्रव्य उत्पन्न होता है, ऐसा [ण इच्छंति] नहीं मानते ।
[दुअणुएहिं] दो आदि अणुओं से [आरद्धे अणु] द्रव्य में द्वयणु [तिअणुयं] त्र्यणुक [ति] यह [ववएसो] व्यवहार होता है [तत्तो] इस कारण [पुण] फिर [विभत्तो] विभक्त हुआ [अणु जाओ] अणु होने पर [अणु] अणु [ववएसो होइ] व्यवहार होता है ।
[बहुयाण] बहुतों में [एगसद्दे] एक शब्द पर [जह] जिस प्रकार [संजोगाहि] संयोगों से [उप्पाओ होइ] उत्पत्ति होती है [णणु] निश्चय से [एगविभागम्मि] एक का विभाग होने पर [बहुयाण वि] बहुतों की भी [उप्पाओ जुज्जइ] उत्पत्ति बन जाती है ।
[एगदवियस्स] एक द्रव्य की [एगसमयम्मि] एक समय में [बहुया वि] बहुत भी [उप्पाया होंति] उत्पत्ति होती है और [उप्पायसमा] उत्पत्ति के समान [विगमा ठिईउ] विनाश स्थिति भी [णियमा] नियम से है ।
[कायमणवयणकिरिया] शरीर, मन, वचन, क्रिया, [रूवाइगई] रूप आदि, गति [विसेसओ] विशेष से [वावि] भी [संजोगभेयओ] संयोग और विभाग से [दवियस्स] द्रव्य का [उप्पाओ जाणणा] उत्पाद जानना चाहिए ।
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दुविहो धम्मावाओ अहेउवाओ य हेउवाओ य ।
तत्थ उ अहेउवाओ भवियाऽभवियादओ भावा ॥43॥
भविओ सम्मद्दंसण-णाण-चरित्तपडिवत्तिसंपन्नो ।
णियमा दुक्खंतकडो त्ति लक्खणं हेउवायस्स ॥44॥
जो हेउवायपक्खम्मि हेउओ आगमे य आगमिओ ।
सो ससमयपण्णवओ सिद्धंतविराहओ अन्नो ॥45॥
अन्वयार्थ : [धम्मावाओ] धर्मवाद [दुविहो] दो प्रकार का है [अहेउवाओ] अहेतुवाद [य] और [हेउवाओ] हेतुवाद [य] और [तत्थ] उसमें [अहेउवाओ] हेतुवाद [उ] तो [भवियाऽभवियादओ] भव्य-अभव्य आदि [भावा] पदार्थ हैं ।
[सम्मद्दंसणणाणचरित्त] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की [पडिवत्ति संपन्नो] प्राप्ति से युक्त [भविओ] भव्य है [णियमा] नियम से वह [दुक्खंतकडो] दु:खों का अन्त करने वाला होगा [त्ति] यह [हेउवायस्स] हेतुवाद का [लक्खणं] लक्षण है ।
जो जो [हेउवायपक्खम्मि] हेतुवाद के पक्ष में [हेउओ] हेतु का [आगमे य] और आगम में [आगमिओ] आगम का प्रयोग करता है [सो] वह [ससमयपण्णवओ] स्व समय का प्ररूपक है [अण्णो] अन्य [सिद्धंतविराहओ] सिद्धान्त विराधक है ।
विशेष :
धर्मवाद (वस्तु में अनन्त धर्म हैं, यह निर्दोष रीति से प्रतिपादन करने वाला आगम) दो प्रकार का है -- एक हेतुवाद दूसरा अहेतुवाद । आगम में प्रतिपादित तत्त्वों की प्ररूपणा इन दो भागों में विभक्त है । केवल आज्ञाप्रधानी या श्रद्धाप्रधानी अथवा परीक्षाप्रधानी हेतुवाद होना श्रेयस्कर नहीं है । क्योंकि जहाँ तक हेतुवाद से लाभ हो सकता है, वहाँ तक परीक्षाप्रधानी बन कर अवश्य लाभ लेना चाहिए । परन्तु जहां हेतुवाद की आवश्यकता न हो, अवकाश न हो, वहाँ आज्ञाप्रघानी बन कर उस तत्त्व को स्वीकार करना चाहिए । इस प्रकार दोनों दृष्टियों से वस्तु-तत्त्व का रहस्य समझा जा सकता है; एकदृष्टि मात्र से नहीं । आगम में इसीलिए दोनों नयों (दृष्टियों) की प्ररूपणा की गई है ।
जिस जीव को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र प्राप्त होने वाले है, वह भव्य जीव कहा गया है। जिसे सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता, वह अभव्य है। इस प्रकार आगम में प्ररूपित तत्त्व को जान कर जो प्राणी किसी जीव में व्यक्त सम्यग्दर्शनादि भव्य लक्षण को देखता है तो वह अनुमान से जान लेता है कि यह भव्य तथा अल्प-संसारी है । इस प्रकार से उसका यह जानना हेतुवाद पूर्वक होने से हेतुवाद स्वरूप है। इसी प्रकार चैतन्य से रहित वस्तु को अजीव जानना भी हेतुवाद है, क्योंकि यह अनुमान से जाना जाता है। जो तत्त्व केवल आमम में कहा गया है, जिसमें हेतुवाद नहीं चल सकता है; जैसे कि जीव के असंख्यात प्रदेश होते है - यह कथन अहेतुवाद का विषय है । जीव के भव्य, अभव्य भेद क्यों किए गए ? इस सम्बन्ध में चिन्तन करने के लिए हेतुवाद को अवकाश नही है ।
सर्वज्ञ की सत्ता स्थापित करना, मुक्ति को उपलब्ध जीव का संसार में लौट कर पुनः न आना इत्यादि कथन सुनिश्चित व असंभव-बाधक रूप हेतु होने से हेतुवाद का ही विषय है । जो विषय हेतुवाद का है, उसे हेतुवाद से जानने वाला ही स्वसमय का प्ररूपक कहा गया है । इसी प्रकार जो विषय आगमवाद का है, उसे भी श्रद्धापूर्वक आगम से जानने वाला स्वसमय-प्ररूपक है । किन्तु जो आगमवाद में हेतुवाद का और हेतुवाद मे आगमवाद का प्रतिपादन करता है वह व्यक्ति अनेकान्त सिद्धांत की विराधना करने वाला है।
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परिसुद्धो नयवाओ आगममेत्तत्थसाहओ होइ ।
सो चेव दुण्णिगिण्णो दोण्णि वि पक्खे विधम्मेइ ॥46॥
जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया ।
जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया ॥47॥
जं काविलं दरिसणं एवं दव्वट्ठियस्स वत्तव्वं ।
सुद्धोअणतणअस्स उ परिसुद्धो पज्जवविअप्पो ॥48॥
दोहि वि णएहि णीअं सत्थमुलूएण तह वि मिच्छत्तं ।
जं सविसअप्पहाणतणेण अण्णोण्णणिरवेक्खा ॥49॥
अन्वयार्थ : [आगममेत्तत्थसाहओ] आगम मात्र अर्थ का साधक [परिसुद्धो] परिशुद्ध [णयवाओ] नयवाद [होइ] होता है [सो] वह [चेव] ही और [दुण्णिगिण्णो] दुर्निक्षिप्त [दोण्णि वि] दोनों ही [पक्खे] पक्ष में [विधम्मेइ] विनाशक होता है ।
[जावइया] जितने भी [वयणवहा] वचन] पथ [तावइया] उतने [चेव] ही [णयवाया] नयवाद [होंति] होते है [जावइया] जितने [णयवाया] नयवाद हैं [तावइया] उतने [चेव] ही [परसमया] अन्य मत ।
[जं] जो [काविलं दरिसणं] सांख्य दर्शन है वह [एयं] यह [दव्वट्ठियस्स] द्रवयार्थिक नय का [वत्तव्वं] वक्तव्य है [सुद्धोअणतणअस्स उ] किन्तु गौतम बुद्ध का [परिसुद्धो] विल्कुल शुद्ध [पज्जवविअप्पो] पर्यायार्थिक नय का विकल्प है ।
[दोहि वि] दोनों ही [णयेहि] नयों से [उलुएण] कणाद ने [सत्थम्] शास्त्र [णीयं] रचना की [तह वि] तो भी [मिच्छत्तं] मिथ्यात्व है [जं] जो [सविसअप्पहाणतणेण] अपने विषय प्रधानता से [अण्णोण्णणिरवेक्खा] परस्पर निरपेक्ष हैं ।
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जे संतवायदोसे सक्कोलूया भणंति संखाणं ।
संखा य असव्वाए तेसिं सव्वे वि ते सच्चा ॥50॥
ते उ भयणोवणीया सम्मद्दंसणमणुत्तरं होंति ।
जं भवदुक्खविमोक्खं दो वि न पूरेंति पाडिक्कं ॥51॥
नत्थि पुढविविसिट्टो 'घडो' त्ति जं तेण जुज्जइ अणण्णो ।
जं पुण 'घडो' त्ति पुव्वं ण आसि पुढवी तओ अण्णो ॥52॥
अन्वयार्थ : [सक्कोलूया] बौद्ध एवं वैशेषिक [जे] जिन [संतवायदोसे] सत् वादी दोषों को [संखाणं] सांख्य के [भणंति] कहते हैं [तेसिं] उनके [य] और [संखा] सांख्य [असव्वाए] असद्वाद में [ते] वे [सव्वे वि] सभी [सच्चा] सच्चे हैं ।
[ते] वे दोनों [भयणोवणीया] विभाग [अणुत्तरं] सर्वोत्तम [सम्मद्दंसणम्] सम्यग्दर्शन [होंति] होते हैं [जं] जो [पाडिक्कं] प्रत्येक [दो वि] दोनों ही [भवदुक्खविमोक्खं] संसार के दुःख से मुक्ति [ण पूरेंति] दिला सकते हैं ।
[घडो त्ति] यह घड़ा [पुढवीविसिट्ठो] पृथ्वी से विशिष्ट [णत्थि] नहीं है [जं] जो [तेण] उससे [अणण्णो] अभिन्न [जुज्जइ] युक्त होता है [जं पुण] जो पुन: [त्ति] यह [पुव्वं घड़ो ण] पहले घड़ा नहीं [आसि] थी [तओ] इसलिए [पुढवी] पृथ्वी से [अण्णो] भिन्न है ।
विशेष :
बौद्ध और वेशेषिक सांख्यों के सद्वाद पक्ष में जो दोष बताते है, वे सब सत्य हैं । इसी प्रकार-सांख्य लोग बौद्ध तथा वैशेषिक के असद्वाद में जो दोष लगाते हैं, वे भी सच्चे हैं । सांख्य सत्कार्यवादी है । उसकी दृष्टि में घट पर्याय कोई नवीन उत्पन्न नहीं होती । वह तो स्वयं कारण रूप मिट्टी में पहले से ही छिपी हुई है, निमित्त कारण पा कर प्रकट हो जाती है । परन्तु असत् कार्य वादी बौद्ध तथा वैशेषिक ऐसा कहते हैं कि आप की मान्यता सम्यक् मानी जाए, तो कार्य को प्रकट करने के लिए कारण की आवश्यकता क्या है ? क्योंकि कार्य तो अपने कारण मे विद्यमान है । यदि यह कहा जाए कि कारण से उसका आविर्भाव होता है तो सत्कार्यवाद समाप्त हो जाता है; क्योंकि उत्पत्ति का दूसरा नाम ही आविर्भाव है । मिट्टी में घड़े की अवस्था छिपी हुई थी। निमित्त कारण से वह अवस्था प्रकट हो जाती है। इसी अवस्था का नाम उत्पत्ति है ।
जब वे दोनों वाद (सद्वाद तथा असद्वाद) अनेकान्त दृष्टि से युक्त होते हैं, तभी सर्वोत्तम सम्यग्दर्शन बनते है । क्योंकि एक-दूसरे की मान्यता से रहित सर्वथा स्वतन्त्र रूप में रहने पर वे संसार के दुःखों से जीव को मुक्ति नहीं दिला सकते । बौद्ध और वैशेषिकों के प्रति सांख्य का यह कथन है कि यदि अपूर्व ही घटादि कार्य उत्पन्त होते हैं, तो मनुष्य के मस्तक पर सींग भी होने चाहिए । फिर यह नियम नहीं बन सकता कि मिट्टी से ही घडा बनता है, सूत में ही वस्त्र बनता है । इस प्रकार चाहे जिस पदार्थ से चाहे जिस कार्य की उत्पत्ति हो जानी चाहिए । किन्तु लोक में ऐसा होता नहीं है; आम के पेड़ से ही आम के फल मिलते है । अत: इन परस्पर निरपेक्ष दृष्टियों पर जो दोषारोपण किए जाते हैं, वे सर्वथा सत्य ही हैं ।
घड़ा पृथ्वी से भिन्न नहीं है, इसलिए उससे अभिन्न है तथा घड़ा पृथ्वी में पहले नहीं था, इसलिए वह उससे भिन्न है। यह निश्चित है कि मिट्टी में घड़े रूप होने की योग्यता, शक्ति है । किन्तु केवल मिट्टी की दशा में वह घड़ा नहीं है । विभिन्न सहकारी कारणों से युक्त होकर मिट्टी स्वयं घड़े रूप परिणमती है । अतएव घड़ा मिट्टी से अभिन्न भी है और भिन्न भी है । विभिन्न कारण-कलापों के योग से मिट्टी का घड़ा बनता है जो प्रत्यक्ष रूप से भिन्न दिखलाई पड़ता है । किन्तु वास्तव में मिट्टी का विशिष्ट परिणमन ही घड़े के आकार का निर्माण है । मूल द्रव्य का कोई निर्माणकर्ता नही है । प्रत्येक द्रव्य का परिणमन भी स्वतन्त्र है । इसलिए मिट्टी में जो भी परिणमन होता है, वह अपनी योग्यता से होता है । परमार्थ में उसे कोई परिणमाने वाला नहीं है ।
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कालो सहाव णियई पुव्वकयं पुरिसकारणेगंता ।
मिच्छत्तं ते चेवा समासओ होंति सम्मत्तं ॥53॥
अन्वयार्थ : [कालो] काल [सहाव] स्वभाव [णियई] नियत्ति [पुव्वकयं] पूर्वकृत [पुरिस] पुरुष [कारणेगंता] कारण एकान्त [मिच्छत्त] मिथ्यात्व हैं [ते चेव] वे ही [समासओ] समस्त [सम्मत्तं] सम्यक् [होंति] होते है ।
विशेष :
प्रत्येक कार्य अपने कारण से उत्पन्न होता है, यह एक शाश्वत नियम है । क्योंकि लोक में जो भी कार्य उत्पन्न हुए देखे जाते हैं, उनमे कोई-न-कोई कारण-सम्बन्ध लक्षित होता है। इन कारणों के सम्बन्ध में ही यहाँ पर विचार किया गया है । कोई काल को कारण मानता है, तो कोई स्वभाव को । यही नही, कोई नियति को कारण मानता है और अदृष्ट को । कोई इन चारों को कारण न मान कर केवल पुरुषार्थ को ही कारण मानता है। इस प्रकार कारण के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं । एक कारणवादी दूसरे कारणवादी की मान्यता का तिरस्कार करता है। अतएव सभी एकान्त रूप से अपनी-अपनी मान्यता को अंगीकार किए हुए हैं । ये सभी विचार अपने आप में अपूर्ण हैं । इनमें किसी प्रकार की समन्वय दृष्टि नहीं है। इसलिए ये सम्यक नहीं हो सकते हैं ।
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णत्थि ण णिच्चो ण कुणइ कयं ण वेएइ णत्थि णिव्वाणं ।
णत्थि य मोक्खोवाओ छ म्मिच्छत्तस्स ठाणाइं ॥54॥
अत्थि अविणासधम्मी करेइ वेएइ अत्थि णिव्वाणं ।
अत्थि य मोक्खोवाओ छ स्सम्मत्तस्स ठाणाइं ॥55॥
अन्वयार्थ : [णत्थि] नहीं है [णिच्चो ण] नित्य नहीं है [कुणइ] कर्ता [कयं] कार्य [ण] नहीं करता [ण] नहीं [वेएइ] फल भोगता है [णिव्वाणं णत्थि] निर्वाण नहीं है [य] और [मोक्खोवाओ णत्थि] मोक्ष का उपाय नहीं है [छम्मिच्छत्तस्स] मिथ्यात्व के ये छह [ठाणाईं] स्थान हैं ।
[अत्थि] है [अविणासधम्मी] अविनाशी स्वभाव [करेइ] कर्ता है [वेएइ] भोगता है [णिव्वाण] निर्वाण है, और [मोक्खोवाओ] मोक्ष का उपाय है [छ स्सम्मत्तस्स] सम्यक्त्व के छह [ठाणाइं] स्थान हैं ।
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साहम्मउ व्व अत्थं साहेज्ज परो विहम्मओ वा वि ।
अण्णोणं पडिकुट्ठा दोण्णवि एए असव्वाया ॥56॥
दव्वट्ठियवत्तव्वं सामण्णं पज्जवस्स य विसेसो ।
एए समोवणीआ विभज्जवायं विसेसेंति ॥57॥
हेउविसओवणीअं जह वयणिज्जं परो नियत्तेइ ।
जइ तं तहा पुरिल्लो दाइंतो केण जिव्वंतो ॥58॥
एयंताऽसब्भूयं सब्भूयमणिच्छियं च वयमांणो ।
लोइय-परिच्छियाणं वयणिज्जपहं पडइ वादी ॥59॥
अन्वयार्थ : [परो] पर [साहम्मऊ] साधम्य से [व्व] अथवा [विहम्मओ] वैधर्म्य से [वा वि] भी [अत्थ] अर्थ [साहेज्ज] साधे [एए] ये [दोण्णि वि] दोनों ही [अण्णोण्णं] परस्पर [पडिकुट्ठा] प्रतिषिद्ध [असव्वाया] असद्वाद हैं ।
[दव्वट्ठियवत्तव्वं] द्रव्यार्थिक का वक्तव्य [सामण्णं] सामान्य य] और [पज्जवस्स] पर्यायाथिक का [विसेसो] विशेष है [समोवणीया] प्रस्तुत [एए] ये दोनों [विभज्जवायं] अनेकान्तवाद को [विसेसेंति] विशिष्ट बनाते हैं ।
[हेउविसओवणीयं] हेतु विषय प्रस्तुत [वयणिज्जं] वचन योग्य [जह] जिस प्रकार [परो] प्रतिवादी [णियत्तेइ] निवारण करता है [जइ] यदि [पुरिल्लो] पूर्ववर्ती [तं] उस को [तहा] उसी प्रकार [दाइंतो] दिखलाए तो [केण] किसके द्वारा [जिव्वंतो] जीता ?
[एयंताऽसब्भूयं] एकान्त असद्भूत का [सब्भूयमणिच्छियं] सद्भूत अनिश्चित [वयमाणो] बोलने वाला [वादी] वादी [लोइयपरिच्छियाणं] लौकिक परीक्षकों के [वयणिज्जपहं] वचन पथ को [पडइ] प्राप्त होता है ।
विशेष :
अनेकान्त-दृष्टि को विस्मृत कर कोई वादी साधर्म्य दृष्टि से या वैधर्म्य दृष्टि से अपने साध्य रूप अर्थ को सिद्ध करता है, तो दोनों दृष्टियाँ परस्पर प्रतिकूल होती हैं तथा दोनों वाद असद्वाद कहे जाते हैं। यदि ये दोनों मान्यताएँ अनेकान्त शासन की मुद्रा से मुद्रित हों, तो उनमें परस्पर सौहादई होने से कोई खण्डित नहीं कर सकता है । इसलिए किसी एक ही वस्तु मे नित्यता और अनित्यता सिद्ध करने के लिये केवल साधर्म्य दृष्टान्त या वैधर्म्य दृष्टान्त का प्रयोग करना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनमें समन्वय होना भी आवश्यक है। क्योंकि समन्वय के अभाव में ये दोनों ही परस्पर विरोधी हैं तथा अपूर्ण हैं। इनमें समत्वय न होने से ये एक-दूसरे को मान्य नहीं हो सकते । परिणामस्वरूप इनका आपसी विरोध कभी शान्त नहीं हो सकता । अतएव ग्रंथकार ने परस्पर विरुद्ध दोनों मान्यताओं को 'असद्वाद' कहा है ।
द्रव्यार्थिक नय की मान्यता से सामान्य ही वास्तविक है तथा पर्यायार्थिक नय की मात्यता से केवल विशेष ही वास्तविक है। परन्तु इन दोनों के सापेक्ष होने पर एक-दूसरे का अस्तित्व सम्भावित हो जाता है । अतएव जब सामान्य धर्म की विवेचना की जाती है तो विशेष धर्म अविवक्षित होने से गौण हो जाता है । इसी प्रकार जब विशेष धर्म की प्ररूपणा होती है तो सामान्य धर्म गौण हो जाता है । इनमें जो परस्पर मुख्य, गौण दृष्टि अन्वित रहती है, वही अनेकान्त की आधार-शिला है। इस प्रकार इन दोनों नय के सापेक्ष होने पर अनेकान्तवाद का जन्म होता है ।
यदि वादी पहले से ही अनेकान्त-दृष्टि को रख कर हेतु पूर्वक साध्य का उपन्यास करता है, तो प्रतिवादी में ऐसी शक्ति नहीं है जो उसे पराजित कर सके । दूसरे शब्दों में प्रयोग-काल में साध्य के अविनाभावी हेतु के प्रयोग से साध्य को सिद्धि करने वाले वादी को कोई जीत नहीं सकता है। क्योंकि उसके वचन अनेकान्त रूपी कवच से ही सुरक्षित होते हैं। फिर, साध्य वादी को ही इष्ट होता है, प्रतिवादी को नहीं ।
वादी अपने अभिलषित साध्य को सिद्धि हेतु जिस साधन का प्रयोग करता है, उसका अपने साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध है या नहीं - यह प्रकट करने लिए वह साधर्म्य या वैधर्म्य दृष्टान्त का प्रयोग करें या न करे; किन्तु यदि उसका पक्ष अनेकान्त सिद्धान्त की मान्यता के अनुरूप है तो किसी भी अवस्था में उसका खण्डन नहीं हो सकता । एकान्त मान्यता वाला पक्ष तो पूर्ण रूप से कभी निर्दोष सिद्ध नहीं ही सकता। इससे यह स्पष्ट है कि एकान्त मान्यता ही आक्षेप का विषय है। क्योंकि एकान्तवादी परस्पर विरोधी होने के कारण एक-दूसरे को नहीं मानते, जिससे विरोध तथा विग्रह उत्पन्न होता है । किंतु अनेकान्त की मान्यता से परस्पर सौहार्द एवं सौमनस्य होता है तथा समन्वय की भूमिका का निर्माण होता है ।
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दव्वं खेत्तं कालं भावं पज्जाय-देस-संजोगे ।
भेदं च पडुच्च समा भावाणं पण्णवणपज्जा ॥60॥
अन्वयार्थ : [दव्वं] द्रव्य [खेत्तं] क्षेत्र [कालं] काल [भाव] भाव [पज्जाय देससंजोगे] पर्याय देश संयोग [च] और [भेदं] भेद का [पडुच्च] आश्रय कर [भावाणं] पदार्थों की [पण्णवणपज्जा] प्रतिपादन परिपाटी [समा] सम्यक् है ।
विशेष :
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पर्याय, देश, संयोग तथा भेद इनका आश्रय लेकर ही पदार्थों के प्रतिपादन का क्रम सम्यक् होता है।
- पदार्थों के त्रिकालवर्ती स्व-स्थान का नाम क्षेत्र है।
- परिणमन के समय की मर्यादा का नाम काल है ।
- पदार्थ में प्रतिसमय हो रहे अन्तरंग परिणमन का नाम भाव है तथा
- बहिरंग परिणमन पर्याय है ।
- बाहर में जहाँ पर पदार्थ स्थित है, उस स्थान का नाम देश है और
- उस समय की परिस्थिति संयोग है।
- उस पदार्थ का कोई-न-कोई नाम अवश्य होता है - यही भेद है ।
इस प्रकार इन आठ बातों की ध्यान मे रख कर ही किसी वस्तु का सम्यक् प्रतिपादन किया जा सकता है ।
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पाडेक्कनयपहगयं सुत्तं सुत्तहरसद्दसंतुट्ठा ।
अविकोवियसामत्था जहागमविभत्तपडिवत्ती ॥61॥
सम्मद्दंसणमिणमो सयलसमत्तवयणिज्जणिद्दोसं ।
अत्तुक्कोसविणट्ठा सलाहमाणा विणासेंति ॥62॥
अन्वयार्थ : [पाडेक्कणयपहगयं] प्रत्येक नय मार्गगत [सुत्त] सूत्र अथवा [सुत्तहरसद्दसंतुट्ठा] सूत्रधर के शब्द से सन्तुष्ट हो जाते हैं [अविकोवियसामत्था] निश्चय से विद्वता के सामर्थ्य को [जहागमविभत्तपडिवत्ती] आगम से भिन्न प्राप्त करते हैं ।
[सलाहमाणा] प्रशंसा के पुल बाँधने वाले [अत्तुक्कोसविणट्ठा] आत्मोत्कर्ष नष्ट [सयलसमत्तवयणिज्जणिद्दोसं] सम्पूर्ण सिद्ध निर्दोष वक्तव्य वाले [सम्मद्दंसणमिणमो] इस सम्यग्दर्शन को [विणासेंति] नष्ट कर देते हैं ।
विशेष :
जो किसी एक नय से सूत्र को पढ़ कर यह समझता है कि 'सकल संसार क्षणिक है', 'तत्त्व ग्राह्म-ग्राहक भाव से शून्य है', 'वह सब विज्ञान मात्र है' इत्यादि सूत्रों से यह धारणा बना लेता है कि मैं सूत्रधर हो गया हूँ, सूत्रों का जानकार हूँ; वह शब्द मात्र से सन्तुष्ट हो जाता है । उसमें शब्दार्थ की विद्धत्ता का अभिमान जाग उठता है। वास्तव में तो वह आगम से भिन्न अर्थ को समझ रहा है । क्योंकि शब्द मात्र को पढ़ लेने से कोई विद्वान् नहीं बन जाता । यथार्थ में सूत्र रटने वाले तत्त्व को जितना समझते है; तत्त्व उत्तना नहीं है । आगम के अनुसार वही ज्ञान भ्राप्त कर सकता है, विद्वान बन सकता है जो तत्त्वज्ञ हो, वस्तु का तनसस्पर्शी ज्ञान वाला हो तथा अनेकान्त सिद्धान्त से वस्तु-तत्त्व का भाव स्पर्श करने वाला हो ।
जो व्यक्ति एकान्त से समझ कर यह धारणा बना लेते हैं कि जो कुछ हम जानते हैं, वही पूर्ण है, निर्दोष है और वही वस्तु का वास्तविक स्वरूप है; इससे अधिक कुछ नहीं है -- वे अपने बुद्धि-वैभव को संकुचित कर कूपमण्डूक जैसे अपनी प्रशंसा के पुल बाँधा करते हैं तथा बुद्धि-विलास मात्र से ही सस्तुष्ट हो जाते हैं । वे सभी मतों में समान रूप से आस्थावान होते हैं । क्योंकि वे आत्म-प्रशंसा के अभिलाषी होते हैं। इससे उनका आत्मोत्कर्ष अवरुद्ध हो जाता है और वे अनेकान्त रूप सम्यग्दर्शन को नष्ट कर देते हैं ।
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ण हु सासणभत्तीमत्तएण सिद्धंतजाणओ होइ ।
ण वि जाणओ वि णियमा पण्णवणाणिच्छिओ णामं ॥63॥
अन्वयार्थ : [सासणभत्तीमेत्तएण] शासन-भक्ति मात्र से [सिद्धतंजाणओ] सिद्धान्त का ज्ञाता [ण हु] नहीं ही [होइ] होता; [जाणओ वि] जानकार भी [णियमा] नियम से [पण्णवणाणिच्छिओ] प्ररूपणा के योग्य निश्चित [णामं] नाम वाला [ण वि] नहीं ही होता है ।
विशेष :
जिन-शासन में भक्ति रखने वाला भक्त जिन-सिद्धान्त का ज्ञाता नही हो जाता । और सिद्धान्त का (शब्दार्थ) ज्ञाता भी निश्चित रूप से तत्त्वों की प्ररूपणा करने में समर्थ नहीं होता । वास्तव में तत्त्वों की प्ररूपणा वही कर सकता है, जिसे तत्त्व-ज्ञान हो, आत्म-ज्ञान हो। पूर्ण निश्चित तत्त्वज्ञान तथा आत्मानुभव के बिना तथाकथित तत्त्वज्ञानी भी तत्त्वों की यथावत् विवेचना से हीन देखे जाते है । यथार्थ में तत्त्वज्ञान की विवेचना अनेकान्त-दृष्टि से ही सम्भव है। अतः तत्त्वज्ञान के बिना केवल सिद्धान्त का ज्ञाता पारंगत न होने से प्ररूपणा करने में असमर्थ रहता है ।
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सुत्तं अत्थनिमेणं न सुत्तमेत्तेण अत्थपडिवत्ती ।
अत्थगई उण णयवायगहणलीणा दुरभिगम्मा ॥64॥
तम्हा अहिगयसुत्तेण अत्थसंपायणम्मि जइयव्वं ।
आयरियधीरहत्था हंदि महाणं विलंवेन्ति ॥65॥
अन्वयार्थ : [सुत्तं अत्थनिमेणं] सूत्र अर्थ का स्थान है [सुत्तमेत्तेण] सूत्र मात्र से [ण अत्थपडिवत्ती] अर्थ ज्ञान नहीं होता है [णयवायगहणलीणा] नयवाद पर गहन निर्भर होने [अत्थगई उण] पर अर्थ-ज्ञान [दुरभिगम्मा] दुर्बोध्य है ।
[तम्हा] इसलिए [अहिगयसुत्तेण] सूत्र जान लेने से [अत्थसंपायणम्मि] अर्थ सम्पादन में [जइयव्वं] प्रयत्न करना चाहिए [हंदि] यह समझें कि [आयरियघीरहत्था] अनुभवहीन आचार्य [महाणं] जिनागम [विलंबेंति] विडम्बना करते हैं ।
विशेष :
पदार्थ को समझाने के लिए सूत्र कहे गए हैं। किन्तु सूत्रों को पढ़ लेने मात्र से अर्थ समझ में नहीं आ जाता । हाँ, शब्दार्थ समझ लेते हैं । किन्तु वास्तविक अर्थ-ज्ञान तो नयवाद के प्रयोग से ही प्रकट होता है । वास्तव में अर्थ-ज्ञान दुर्लभ है । यह सहज ही प्राप्त नहीं होता । जो नयों के द्वारा सूत्रों को तथा उनके भावों को सम्यक् रूप से समझते हैं, अनुभव करते हैं, वे ही यथार्थ अर्थ-ज्ञान को उपलब्ध होते हैं । वास्तव में अर्थ का ज्ञान नयवाद पर निर्भर होने से दुर्लभ है ।
सिद्धान्त की प्ररूपणा तीन प्रकार से की गई है -- शब्द-रूप से, ज्ञान-रूप से और अर्थ-रूप से । जिनागम का वर्णन इन तीनों रूपों में किया गया है । इसमें शब्द से ज्ञान और ज्ञान से अर्थ उत्तरोत्तर श्रेष्ठ है । यद्यपि अर्थ का स्थान सूत्र है, सूत्र-ज्ञानपूर्वक अर्थ-ज्ञान होता है। परन्तु केवल सूत्र के शब्दार्थ को जान लेने से वास्तविक अर्थ का ज्ञान नहीं हो जाता। अर्थ का ज्ञान तो नयवाद को जानने से होता है। अतएव जिसने सूत्र जान लिया है, उसे नयार्थ भी जानना चाहिए । जिन्हें धर्म का अभ्यास नहीं है, सिद्धान्त का भली-भाँति अर्थ-ज्ञान नही है, ऐसे आचार्य वास्तव में जिन-शासन की विडम्बना करते हैं ।
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जह जह बहुस्सुओ सम्मओ य सिस्सगणसंपरिवुडो य ।
अविणिच्छिओ य समए तह तह सिद्वंतपडिणीओ ॥66॥
चरणकरणप्पहाणा ससमय-परसमयमुक्कवावारा ।
चरण-करणस्स सारं णिच्छयसुद्ध ण याणंति ॥67॥
अन्वयार्थ : [समये] सिद्धान्त में [अविणिच्छिओ] अनिश्चित [जह जह] जैसे-जैसे [बहुस्सुओ] बहुश्रुत [सम्मगो] माना जाता है [य] और [सिस्सगणसंपरिवुडो] शिष्यवृन्द से घिरता जाता है [तह तह] वैसे-वैसे [सिद्धंतपडिणीओ] सिद्धान्त के प्रतिकूल होता जाता है ।
[चरण-करणप्पहाणा] आचरण की क्रियाओं को मुख्य [ससमय-परसमयमुक्कवावारा] स्व-समय पर-समय के व्यापार से मुक्त [चरण-करणस्स] आचरण परिणाम का [सारं] सार [णिच्छयसुद्ध ण याणंति] निश्चय-शुद्ध को नहीं जानते हैं ।
विशेष :
जो आचार्य स्व-समय रूप सिद्धान्त नहीं जानते,हैं, परन्तु बहुश्रुत (अनेक शास्त्रों के ज्ञाता) होते हैं, वे मूलतः तत्त्व-निर्णय के अभाव में शिष्य-समूह से घिर जाते हैं और शने:-शने: उनका जीवन सिद्धान्त के प्रतिकूल होता है। अतएव ऐसे आचार्य को सिद्धान्त का शत्रु कहा गया है ।
जो जीव विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाले शुद्धात्मतत्त्व के सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-चारित रूप निश्चय मोक्ष-मार्ग से निरपेक्ष हो कर केवल व्रत, नियमादि शुभाचरण रूप व्यवहार नय को ही मोक्ष-मार्ग मानते हैं, वे देवलोकादि की क्लेश-परम्परा भोगते हुए संसार में परिभ्रमण करते हैं । परन्तु जो शुद्धात्मानुभूति लक्षण युक्त निश्चय मोक्षमार्गे को मानता है तथा साधन-शक्ति-सम्पन्नता के अभाव में निश्चय-साधक शुभाचरण करते हैं, तो वे सराग सम्यग्दृष्टि परम्परा से मोक्ष प्राप्त करते हैं । परन्तु जो जीव केवल निश्चयनयावलम्बी हैं, वे व्यवहार रूप क्रिया-कर्मकाण्ड को आडम्बर जान कर स्वच्छन्द क्रिया-कर्म-काण्ड को आडम्बर जान कर स्वच्छन्द हो न निश्चयपद पाते हैं और न व्यवहार को ही प्राप्त करते हैं; निश्चयपद पाते हैं और न व्यवहार को ही प्राप्त करते हैं । आचरण का सार परमतत्त्व की उपलब्धि करना है, परमात्मा बनना है । किन्तु शुद्धात्मा को जाने बिना यह जीव मोक्ष-मार्ग का पथिक नहीं बन सकता है । केवल व्रत, नियमादि के परिपालन से शुद्ध आत्मा का अनुभव नहीं हो सकता है । जो शुद्ध आत्मा को आगम से जान कर उसका चिन्तन-मनन, अनुभव तथा अभ्यास करते हैं, वे ही निश्चय शुद्ध आत्मा को जान सकते हैं ।
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णाणं किरियारहियं किरियामेत्तं च दो वि एगंता ।
असमत्था दाएउं जम्ममरणदुक्ख मा भाई ॥68॥
अन्वयार्थ : [किरियारहियं णाण] चारित्र विहीन ज्ञान [च] और [किरियामेत्तं] मात्र क्रिया [दो वि] दोनों ही [एगंता] एकान्त है; [जम्ममरणदुक्ख] जन्म-मरण के दुःखों से [मा] मत [भाई] डरो; [दाएउ] दिलाने में [असमत्था] असमर्थ हैं ।
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जेज विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ ।
तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स ॥६९॥
भद्दं मिच्छादंसण समूहमहयस्स अमयसारस्स ।
जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥७०॥
अन्वयार्थ : [जेण विणा] जिसके बिना [लोगस्स] लोक का [ववहारो ] व्यवहार [वि] भी [सव्वहा] सर्वथा [ण] नहीं [णिव्वडइ] निष्पन्न होता है [तस्स] उस [भुवणेक्कगुरुणो] तीन लोक के अद्वितीय गुरु [अणेगंतवायस्स] अनेकान्तवाद को [णमो] नमस्कार है।
[मिच्छादंसण] मिथ्यादर्शन [समूह] समुदाय का [महयस्स] विनाश करने वाले [अमय सारस्स] अमृत सार [संविग्ग] ममुक्षु के [सूहाहिगम्मस्स] सुख पूर्वक समझ में आने वाले [भगवओ] भगवान के [जिणवयणस्स] जिन वचन के [भद्द] कल्याण हो ।
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Incomplete
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