अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
य: श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति तावत्परमार्थो, य: श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति तु व्यवहार: । तदत्र सर्वमेव तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा किमनात्मा? न तावदनात्मा समस्तस्याप्यनात्मनश्चेतनेतरपदार्थपंचतयस्य ज्ञानतादात्म्यानुपपत्ते: । ततो गत्यंतराभावात् ज्ञानमात्मेत्यायाति । अत: श्रुतज्ञानमप्यात्मैव स्यात् । एवं सति य: आत्मानं जानाति स श्रुतकेवलीत्यायाति, स तु परमार्थ एव । एवं ज्ञानज्ञानिनोर्भेदेन व्यपदिशता व्यवहारेणापि परमार्थमात्रमेव प्रतिपाद्यते, न किंचिदप्यतिरिक्तम् । अथ च य: श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति परमार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्य- त्वाद्य: श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति व्यवहार: परमार्थप्रतिपादकत्वेनात्मानं प्रतिष्ठा-पयति ॥९-१०॥ कुतो व्यवहारनयो नानुसर्त्तव्य इति चेत् जो श्रुत-ज्ञान के बल से केवल शुद्ध आत्मा को जानते हैं, वे श्रुत-केवली हैं - यह परमार्थ कथन है और जो सर्व-श्रुतज्ञान को जानते हैं, वे श्रुत-केवली हैं - यह व्यवहार कथन है । अब यहाँ विचार करते हैं कि उपर्युक्त सर्वज्ञान आत्मा है कि अनात्मा ? अनात्मा कहना तो ठीक नहीं है; क्योंकि जड़ अनात्मा तो आकाशादि पाँच द्रव्य हैं, किन्तु उनका ज्ञान के साथ तादात्म्य नहीं है । अत: अन्य उपाय का अभाव होने से ज्ञान आत्मा ही है - यही सिद्ध होता है; इसलिए यह सहज ही सिद्ध हो गया कि सर्व-श्रुतज्ञान भी आत्मा ही है । ऐसा सिद्ध होने पर पारमार्थिक तथ्य सहज ही फलित हो गया कि जो आत्मा को जानता है, वही श्रुत-केवली है । इसप्रकार ज्ञान और ज्ञानी के भेद से कथन करनेवाला जो व्यवहार-नय है, उससे भी मात्र परमार्थ ही कहा जाता है, अन्य कुछ नहीं । 'जो श्रुत से केवल शुद्ध आत्मा को जानते हैं, वे श्रुत-केवली हैं' - इस परमार्थ का प्रतिपादन अशक्य होने से 'जो सर्व-श्रुत को जानते हैं, वे श्रुत-केवली हैं' - ऐसा व्यवहार-कथन परमार्थ का ही प्रतिपादक होने से अपने को दृढ़ता-पूर्वक स्थापित करता है । |
जयसेनाचार्य :
[जो हि सुदेणहिगच्छदि] जो जीव कर्ता करणता को प्राप्त हुए निर्विकल्प-समाधि-रूप स्वसंवेदन-ज्ञानात्मक भाव-श्रुत के द्वारा पूर्णरूप से अपने अनुभव में लाता है [इणं अप्पाणम] इस प्रत्यक्षीभूत अपने आपकी आत्मा को, [केवलं] सहाय रहित, [सुद्धं] रागादि से रहित अनुभव में लाता है, [तं सुदकेवलि] उस पुरुष को निश्चय-श्रुत-केवली [भणंति] कहते हैं । कौन कहते हैं ? [लोगप्प-दीवयरा इसिणो] लोकालोक के प्रकाशक परम-ऋषि कहते हैं । इस प्रकार इस गाथा के द्वारा निश्चय श्रुत-केवली का लक्षण कहा गया । [जो सुदणाणं] किन्तु जो पुरुष द्वादशांग-द्रव्य-श्रुत-ज्ञान को [सव्वं] परिपूर्ण रूप [जाणदि] जानता है [तं] उसे [जिणा] जिन-भगवान् [सुदकेवलिं आहु] द्रव्य-श्रुतकेवली कहते हैं । [जम्हा] क्योंकि [सुदणाणं] द्रव्य-श्रुत के आधार से उत्पन्न हुआ जो भाव श्रुतज्ञान है वह [आद] आत्मा ही है [सव्वं] जो कि आत्मा की संवित्ति को विषय करने वाला और पर की परिछित्ति को विषय करने वाला होता है, [तम्हा] इसलिए [सुदकेवली] वह द्रव्य-श्रुतकेवली होता है । इसका अभिप्राय यह हुआ कि जो भावश्रुत रूप स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा केवल अपनी शुद्ध आत्मा को जानता है वह निश्चय-श्रुत-केवली होता है किन्तु जो अपनी शुद्ध आत्मा का अनुभव नहीं कर रहा है, न उसकी भावना कर रहा है, केवल बहिर्विषयक द्रव्यश्रुत के विषयभूत पदार्थों को जानता, वह व्यवहार-श्रुत-केवली होता है । प्रश्न – स्वसंवेदन ज्ञान के बल से इस काल में भी श्रुत-केवली हो सकते हैं, ऐसा समझना चाहिए क्या ? समाधान – यह है कि नहीं हो सकता, क्योंकि जैसा शुक्ल-ध्यानात्मक स्व-संवेदनज्ञान पूर्व-पुरुषों को होता था वैसा इस समय नहीं होता, किन्तु इस समय तो यथायोग्य धर्म-ध्यान होता है । इस प्रकार निश्चय और व्यवहार-श्रुत-केवली का व्याख्यान करने वाली दो गाथाओं के द्वारा तृतीय स्थल पूर्ण हुआ । अब गाथा के पूर्वार्द्ध से भेद-रत्नत्रय की भावना और उतरार्द्ध से अभेद-रत्नत्रय की भावना का वर्णन करते हैं -- |
notes :
जो हि सुदेण विजाणादि अप्पाणं जाणगं सहावेण (३३)
[यः हि] जो वास्तव में [श्रुतेन] श्रुतज्ञान के द्वारा [स्वभावेन ज्ञायकं] स्वभाव से ज्ञायक (अर्थात् ज्ञायक-स्वभाव) [आत्मानं] आत्मा को [विजानाति] जानता है [तं] उसे [लोकप्रदीपकरा:] लोक के प्रकाशक [ऋषय:] ऋषीश्वरगण [श्रुतकेवलिन भणन्ति] श्रुतकेवली कहते हैं ॥३३॥तं सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा ॥प्र.सा.३४॥ |