अन्वयार्थ : [णाणम्हि] ज्ञान में, [दंसणे] दर्शन में [य] और [चरित्ते] चारित्र में [खलु] अवश्य [भावणा] भावना [कादव्वा] करनी चाहिए [ते पूण] क्योंकि ये [तिण्णिवि] तीनों [आदा] आत्मा के स्वरूप हैं । [तम्हा] इसलिए [आदे] आत्मा की [भावणं] भावना बार-बार [कुण] करनी चाहिए ।
अमृतचंद्राचार्य जयसेनाचार्य notes
जयसेनाचार्य :
सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीनों का पुन: पुन: अनुचिन्तन अवश्य ही स्पष्टरूप से करते रहना चाहिए । कयोंकि निश्चयनय से ये तीनों आत्मस्वरुप ही हैं । इसलिए शुद्धात्मा की भावना भी हे भव्य ! अवश्य करना चाहिए ।