जयसेनाचार्य :
[आदा खु मज्झ] स्पष्ट रूप से मेरी तो एक शुद्धात्मा है । [णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे] सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान, संवर और योग इन सब ही भावनाओं में एक आत्मा ही है । योग का क्या अर्थ है ? यहाँ योग से निर्विकल्प-समाधि को लिया गया है जिसको परम-सामायिक या परम-ध्यान भी कहते हैं । उस परम समाधि में भोगाकांक्षा, निदान, बंध और शल्य आदि भाव से रहित शुद्धात्मा का ध्यान करने पर उपर्युक्त समस्त सम्यग्ज्ञानादि की प्राप्ति होती है । इस प्रकार शुद्ध-नय के व्याख्यान की मुख्यता से प्रथम स्थल में तीन गाथा हुई । |
notes :
यह गाथा आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में ही बंधाधिकार में २९६ गाथा के रूप में भी उपलब्ध होती है । उक्त दोनों गाथायें यद्यपि एक-सी ही हैं; तथापि जीवाधिकार में इसका अर्थ सामान्यरूप से करके आगे बढ गये हैं; पर बंधाधिकार में इसका अर्थ सहेतुक विस्तार से किया गया है; जो मूलत: पठनीय है । आत्मख्याति के बंधाधिकार में भी इसी से मिलती-जुलती थोड़े-बहुत अन्तर के साथ एक गाथा प्राप्त होती है, जिसका क्रमांक २७७ है । वह गाथा इसप्रकार है - आदा खु मज्झ णाणं आदा मे दंसणं चरित्तं च
आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो ।। (हरिगीत) निज आतमा ही ज्ञान है दर्शन चरित भी आतमा । अर योग संवर और प्रत्याख्यान भी है आतमा ।। |