अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
येनैव हि भावेनात्मा साध्य: साधनं च स्यात्तेनैवायं नित्यमुपास्य इति स्वयमाकूय परेषां व्यवहारेण साधुना दर्शनज्ञानचारित्राणि नित्यमुपास्यानीति प्रतिपाद्यते । तानि पुनस्त्रीण्यपि परमार्थे-नात्मैक एव वस्त्वंतराभावात् । यथा देवदत्तस्य कस्यचित् ज्ञानं श्रद्धानमनुचरणं च देवदत्तस्वभावा- नतिक्रमाद्देवदत्त एव न वस्त्वंतरम् । तथात्मन्यप्यात्मनो ज्ञानं श्रद्धानमनुचरणं चात्मस्वभावा-नतिक्रमादात्मैव न वस्त्वंतरम् । तत आत्मा एक एवोपास्य इति स्वयमेव प्रद्योतते ॥१६॥ स किल (कलश--अनुष्टुभ्) दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रित्वादेकत्वत: स्वयम् मेचकोऽमेचकश्चापि सममात्मा प्रमाणत: ॥१६॥ (कलश--अनुष्टुभ्) दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रिभि: परिणतत्वत: एकोsपि त्रिस्वभावत्वाद् व्यवहारेण मेचक: ॥१७॥ (कलश--अनुष्टुभ्) परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषैकक: सर्वभावांतर-ध्वंसि-स्वभावत्वाद-मेचक: ॥१८॥ (कलश--अनुष्टुभ्) आत्मनश्चिंतयैवालं मेचकामेचकत्वयो: दर्शनज्ञानचारित्रै: साध्यसिद्धिर्न चान्यथा ॥१९॥ यह आत्मा जिस भाव से साध्य तथा साधन हो, उस भाव से ही नित्य सेवन करने योग्य है, उपासना करने योग्य है । इसप्रकार स्वयं विचार करके दूसरों को व्यवहार से समझाते हैं कि साधुपुरुष को दर्शन-ज्ञान-चारित्र सदा सेवन करने योग्य हैं, सदा उपासना करने योग्य हैं; किन्तु परमार्थ से देखा जाये तो ये तीनों एक आत्मा ही हैं, आत्मा की ही पर्यायें हैं; अन्य वस्तु नहीं हैं । जिसप्रकार देवदत्त नामक पुरुष के ज्ञान, दर्शन और आचरण, देवदत्त के स्वभाव का उल्लंघन न करने से देवदत्त ही हैं; अन्य वस्तु नहीं । उसीप्रकार आत्मा में भी घटित कर लेना चाहिए कि आत्मा के ज्ञान, श्रद्धान और आचरण आत्मा के स्वभाव का उल्लंघन न करने से आत्मा ही है, अन्य वस्तु नहीं । इसलिए यह स्वत: ही सिद्ध हो गया कि एक आत्मा ही उपासना करने योग्य है, सेवन करने योग्य है । (कलश--हरिगीत)
[प्रमाणतः] प्रमाण-दृष्टि से देखा जाये तो [आत्मा] यह आत्मा [समम्मेचकः अमेचकः च अपि] एक ही साथ अनेक अवस्थारूप (मेचक) भी है और एक अवस्थारूप (अमेचक) भी है, [दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः त्रित्वात्] क्योंकि इसे दर्शन-ज्ञान-चारित्र से तो त्रित्व (तीनपना) है और [स्वयम् एकत्वतः] अपने से अपने को एकत्व है ।मेचक कहा है आतमा दृग-ज्ञान अर आचरण से यह एक निज परमातमा बस है अमेचक स्वयं से ॥ परमाण से मेचक-अमेचक एक ही क्षण में अहा यह अलौकिक मर्मभेदी वाक्य जिनवर ने कहा ॥१६॥ (कलश--हरिगीत)
[एकः अपि] आत्मा एक है, तथापि [व्यवहारेण] व्यवहार-दृष्टि से देखा जाय तो [त्रिस्वभावत्वात्] तीन-स्वभावरूपता के कारण [मेचकः] अनेकाकाररूप (मेचक) है, [दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः त्रिभिः परिणतत्वतः] क्योंकि वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र, इन तीन-भावोंरूप परिणमन करता है ।आतमा है एक यद्यपि किन्तु नय व्यवहार से त्रैरूपता धारण करे सद्ज्ञानदर्शनचरण से ॥ बस इसलिए मेचक कहा है आतमा जिनमार्ग में अर इसे जाने बिन जगतजन ना लगें सन्मार्ग में ॥१७॥ (कलश--हरिगीत)
[परमार्थेन तु] शुद्ध निश्चयनय से देखा जाये तो [व्यक्त -ज्ञातृत्व-ज्योतिषा] प्रगट ज्ञायकत्व-ज्योतिमात्र से [एककः] आत्मा एक-स्वरूप है, [सर्व-भावान्तर-ध्वंसि-स्वभावत्वात्] क्योंकि शुद्ध-द्रव्यार्थिक नय से सर्व अन्य द्रव्य के स्वभाव तथा अन्य के निमित्त से होनेवाले विभावों को दूर करनेरूप उसका स्वभाव है, इसलिये वह [अमेचकः] शुद्ध एकाकार 'अमेचक' है ।आतमा मेचक कहा है यद्यपि व्यवहार से किन्तु वह मेचक नहीं है अमेचक परमार्थ से ॥ है प्रगट ज्ञायक ज्योतिमय वह एक है भूतार्थ से है शुद्ध एकाकार पर से भिन्न है परमार्थ से ॥१८॥ (कलश--हरिगीत)
[आत्मनः] यह आत्मा [मेचक-अमेचकत्वयोः] मेचक (भेदरूप, अनेकाकार) है तथा अमेचक (अभेदरूप, एकाकार) है [चिन्तया एव अलं] ऐसी चिन्ता से तो बस हो । [साध्यसिद्धिः] साध्य (आत्मा) की सिद्धि तो [दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः] दर्शन, ज्ञान और चारित्र, (इन तीन भावों) से ही होती है, [न च अन्यथा] अन्य प्रकार से नहीं (यह नियम है) ।
मेचक-अमेचक आतमा के चिन्तवन से लाभ क्या बस करो अब तो इन विकल्पों से तुम्हें है साध्य क्या ॥ हो साध्यसिद्धि एक बस सद्ज्ञानदर्शनचरण से पथ अन्य कोई है नहीं जिससे बचें संसरण से ॥१९॥ |
जयसेनाचार्य :
[दंसणणाणचरित्तणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं] साधु को व्यवहारनय से सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों को भिन्न-भिन्न समझकर नित्य सदा ही इनकी उपासना करना चाहिये, अपने उपयोग में लाना चाहिये । [ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो] किन्तु शुद्ध-निश्चय-नय से वे तीनों एक शुद्धात्म स्वरूप ही हैं उससे भिन्न नहीं हैं ऐसा समझना चाहिये । इसका अर्थ यह है कि पंचेन्द्रियों के विषय और क्रोधादि-कषायों से रहित जो निर्विकल्प समाधि है उसमें ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों होते हैं । |