+ आत्मा के बंध मोक्ष का कारण -
जीवेव अजीवे वा संपदि समयम्हि जत्थ उवजुत्तो ।
तत्थेव बंधमोक्खो हवदि समासेण णिद्दिट्ठो ॥23॥
अन्वयार्थ : [जीवेव] जीव तथा [अजीवे वा] अजीव-देहादिक में [संपदि समयम्हि] जिस समय यह आत्मा [जत्थ उवजुत्तो] जहाँ उपयुक्त रहता है [तत्थेव] तभी [बंधमोक्खो] मोक्ष तथा बंध [हवदि] होता है, ऐसा [समासेण णिद्दिट्ठो] संक्षेप से कथन किया है ।

  अमृतचंद्राचार्य    जयसेनाचार्य    notes 

जयसेनाचार्य :

[जीवेव] अपनी शुद्ध आत्मा में [अजीवे वा] अथवा देहादिक इतर पदार्थों में [संपदि समयम्हि] वर्तमान समय में [जत्थ उवजुत्तो] जहाँ पर उपयुक्त रहता है अर्थात् उपादेय बुद्धि से तन्मय होकर रहता है, [तत्थेव] वहीं पर अजीव में या जीव में [बंधमोक्खो हवदि] अजीवरूप देहादिक में परिणत होने पर बंध और शुद्ध जीव में परिणत होने पर मोक्ष होता है, [समासेण णिद्दिट्ठो] ऐसा सर्वज्ञ भगवान् ने संक्षेप से कहा है ।

ऐसा जानकर यहाँ सहजानन्द एक स्वभाव वाले निज आत्मा में रमण करना चाहिये और उससे विलक्षण जो परद्रव्य हैं उनसे विरक्त होकर रहना चाहिये, ऐसा आचार्यदेव का अभिप्राय है ॥२३॥
notes :


जो एवं जाणित्त झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा (१९४)
सागारोऽणगारो खवेदि सो मोहदुग्गंठि ॥प्र.सा.२०७॥
[यः] जो [एवं ज्ञात्वा] ऐसा जानकर [विशुद्धात्मा] विशुद्धात्मा होता हुआ [परमात्मानं] परम आत्मा का [ध्यायति] ध्यान करता है, [सः] वह [साकार: अनाकार:] साकार हो या अनाकार [मोहदुर्ग्रंथि] मोहदुर्ग्रंथि का [क्षपयति] क्षय करता है ।

जो णिहदमोहगंठी रागपदोसे खवीय सामण्णे (१९५)
होज्जं समसुहदुक्खो सो सोक्खं अक्खयं लहदि ॥२०८॥
[यः] जो [निहतमोहग्रंथी] मोहग्रंथि को नष्ट करके, [रागप्रद्वेषौ क्षपयित्वा] रागद्वेष का क्षय करके, [समसुख दुःख:] समसुख-दुःख होता हुआ [श्रामण्ये भवेत्] श्रमणता (मुनित्व) में परिणमित होता है, [सः] वह [अक्षयं सौख्यं] अक्षय सौख्य को [लभते] प्राप्त करता है ।