जयसेनाचार्य :
[जीवेव] अपनी शुद्ध आत्मा में [अजीवे वा] अथवा देहादिक इतर पदार्थों में [संपदि समयम्हि] वर्तमान समय में [जत्थ उवजुत्तो] जहाँ पर उपयुक्त रहता है अर्थात् उपादेय बुद्धि से तन्मय होकर रहता है, [तत्थेव] वहीं पर अजीव में या जीव में [बंधमोक्खो हवदि] अजीवरूप देहादिक में परिणत होने पर बंध और शुद्ध जीव में परिणत होने पर मोक्ष होता है, [समासेण णिद्दिट्ठो] ऐसा सर्वज्ञ भगवान् ने संक्षेप से कहा है । ऐसा जानकर यहाँ सहजानन्द एक स्वभाव वाले निज आत्मा में रमण करना चाहिये और उससे विलक्षण जो परद्रव्य हैं उनसे विरक्त होकर रहना चाहिये, ऐसा आचार्यदेव का अभिप्राय है ॥२३॥ |
notes :
जो एवं जाणित्त झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा (१९४)
[यः] जो [एवं ज्ञात्वा] ऐसा जानकर [विशुद्धात्मा] विशुद्धात्मा होता हुआ [परमात्मानं] परम आत्मा का [ध्यायति] ध्यान करता है, [सः] वह [साकार: अनाकार:] साकार हो या अनाकार [मोहदुर्ग्रंथि] मोहदुर्ग्रंथि का [क्षपयति] क्षय करता है । सागारोऽणगारो खवेदि सो मोहदुग्गंठि ॥प्र.सा.२०७॥ जो णिहदमोहगंठी रागपदोसे खवीय सामण्णे (१९५)
[यः] जो [निहतमोहग्रंथी] मोहग्रंथि को नष्ट करके, [रागप्रद्वेषौ क्षपयित्वा] रागद्वेष का क्षय करके, [समसुख दुःख:] समसुख-दुःख होता हुआ [श्रामण्ये भवेत्] श्रमणता (मुनित्व) में परिणमित होता है, [सः] वह [अक्षयं सौख्यं] अक्षय सौख्य को [लभते] प्राप्त करता है ।
होज्जं समसुहदुक्खो सो सोक्खं अक्खयं लहदि ॥२०८॥ |