जयसेनाचार्य :
[जं कुणदि भावामादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स] जिस रागादि भाव को आत्मा करता है उस समय उस भाव का अर्थात् परिणाम का करनेवाला होता है । [णिच्छयदो] अशुद्धनिश्चयनय से अशुद्ध-भावों का और शुद्ध-निश्चयनय से शुद्ध-भावों का कर्ता होता है, क्योंकि उन भावों के रूप में परिणमन करना ही कर्तापना है । [ववहारा] अनुपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय से [पोग्गलकम्माण] पुद्गलमय द्रव्यकर्मादि का [कत्तारं] कर्ता होता है । यहाँ 'कत्तारं' यह कर्मपद कर्ता के अर्थ में आया है, सो प्राकृत में कहीं-कहीं कारक व्यभिचार और लिंग व्यभिचार देखा जाता है । यहाँ ऐसा अभिप्राय है कि जिन रागादि भावों का कर्ता जीव को कहा गया है वे भाव संसार के कारण हैं इसलिये संसार से भयभीत तथा मोक्ष के इच्छुक पुरुष को समस्त प्रकार के रागादि विभाव भावों से रहित और शुद्ध-द्रव्य तथा गुण-पर्याय स्वरूप निज परमात्मा में भावना करना चाहिये ॥२४॥ इस प्रकार स्वतन्त्र व्याख्यान की मुख्यता से तृतीय स्थल में तीन गाथायें हुई । |