अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
इह खलु परस्परावगाढावस्थायामात्मशरीरयो: समवर्तितावस्थायां कनककलधौतयोरेक- स्कंधव्यवहारवद्व्यवहारमात्रेणैवैकत्वं न पुनर्निश्चयत:, निश्चयतो ह्यात्मशरीरयोरुपयोगानु-पयोगस्वभावयो: कनककलधौतयो: पीतपांडुरत्वादिस्वभावयोरिवात्यंतव्यतिरिक्तत्वेनैकार्थ- त्वानुपपत्ते: नानात्वमेवेति । एवं हि किल नयविभाग: । ततो व्यवहारनयेनैव शरीरस्तवनेनात्मस्तवनमुपपन्नम् ॥२७॥ तथा हि आचार्यदेव कहते हैं कि ऐसा नहीं है; तू नय-विभाग को नहीं जानता । जिसप्रकार लोक में सोने और चाँदी को गलाकर एक कर देने से एक पिण्ड का व्यवहार होता है; उसीप्रकार आत्मा और शरीर की एकक्षेत्र में एकसाथ रहने की अवस्था होने से एकपने का व्यवहार होता है । इसप्रकार मात्र व्यवहार से ही आत्मा और शरीर का एकपना है, परन्तु निश्चय से एकपना नहीं है; क्योंकि निश्चय से तो पीले स्वभाववाला सोना और सफेद स्वभाववाली चाँदी के परस्पर अत्यन्त भिन्नता होने से उनमें एक पदार्थपने की असिद्धि ही है; अत: उनमें अनेकत्व ही है । इसीप्रकार उपयोग-स्वभावी आत्मा और अनुपयोग-स्वभावी शरीर में अत्यन्त भिन्नता होने से एक-पदार्थपने की असिद्धि ही है; अत: अनेकत्व ही है - ऐसा यह प्रगट नयविभाग है; अत: यह सुनिश्चित ही है कि व्यवहारनय से ही शरीर के स्तवन से आत्मा का स्तवन होता है, निश्चयनय से नहीं । |
जयसेनाचार्य :
[ववहारणयो भासदि] व्यवहारनय कहता है कि [जीवो देहो य हवदि खलु इक्को] जीव और देह अवश्य ही एक है । [ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदावि एक्कट्ठो] किन्तु निश्चयनय के अभिप्राय से जीव और देह दोनों परस्पर कभी किसी काल में भी एक नहीं होते हैं । जैसे चाँदी और सोना मिली हुई दशा में व्यवहारनय से परस्पर एक हैं फिर भी निश्चयनय से वे अपने रूप, रंग को लिए हुए भिन्न-भिन्न हैं वैसे ही जीव और देह का व्यवहार है । इसलिये व्ययवहार-नय से देह के स्तवन से आत्मा का स्तवन मान लेना दोष कारक नहीं है ॥३२॥ इसी को फिर स्पष्ट करते हैं -- |