अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
यदि य एवात्मा तदेव शरीरं पुद्गलद्रव्यं न भवेत्तदा जो आत्मा है वही पुद्गलद्रव्यस्वरूप यह शरीर है । यदि ऐसा न हो तो तीर्थंकर-आचार्यों की जो स्तुति की गई है वह सब मिथ्या सिद्ध होगी । वह स्तुति इसप्रकार है : (कलश-रोला)
[ते तीर्थेश्वराः सूरयः वन्द्याः] वे तीर्थंकर-आचार्य वन्दनीय हैं; वे [ये कान्त्या एव दशदिशः स्नपयन्ति ] अपने शरीर की कान्ति से दसों दिशाओं को धोते (निर्मल करते) हैं, [ये धाम्ना उद्दाम-महस्विनां धाम निरुन्धन्ति] अपने तेज से उत्कृष्ट तेजवाले सूर्यादि के तेज को ढक देते हैं, [ये रूपेण जनमनः मुष्णन्ति] अपने रूप से लोगों के मन को हर लेते हैं, [दिव्येन ध्वनिना श्रवणयोः साक्षात् सुखं अमृतं क्षरन्तः] दिव्यध्वनि से (भव्यों के) कानों में साक्षात् सुखामृत बरसाते हैं और वे [अष्टसहस्रलक्षणधराः] एक हजार आठ लक्षणों के धारक हैं ।लोकमानस रूप से रवितेज अपने तेज से । जो हरें निर्मल करें दशदिश कान्तिमय तनतेज से ॥ जो दिव्यध्वनि से भव्यजन के कान में अमृत भरें । उन सहस अठ लक्षण सहित जिन-सूरि को वन्दन करें ॥२४॥ -- इत्यादिरूप से तीर्थंकर-आचार्यों की जो स्तुति है वह सब ही मिथ्या सिद्ध होती है । इसलिये हमारा तो यही एकान्त निश्चय है कि जो आत्मा है वही शरीर है, पुद्गलद्रव्य है । इसप्रकारअप्रतिबुद्ध ने कहा ॥२६॥ |
जयसेनाचार्य :
हे भगवन, [जदि जीवो ण सरीरं] यदि जीव शारीर-रूप नहीं है [तित्थयरायरियसंथुदी] तो 'द्वौ कुन्देन्दुतुषारहारधवलौ' इत्यादि शरीर को आधार लेकर की गई तीर्थंकर की स्तुति और 'देसकुलजाइसुद्धा' इत्यादि आचार्यों की स्तुति [सव्वा वि हवदि मिच्छा] सब ही मिथ्या ठहरती है । [तेण दु आदा हवदि देहो] इसलिये आत्मा ही शरीर है या शरीर ही आत्मा है, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है । इस प्रकार यह पूर्व पक्ष की गाथा हुई ॥३१॥ |