
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
यत: सदवस्थायां तदात्वपरिणीतबालस्त्रीवत् पूर्वमनुपभोग्यत्वेऽपि विपाकावस्थायां प्राप्त-यौवनपूर्वपरिणीतस्त्रीवत् उपभोग्यत्वात् उपयोगप्रायोग्यं पुद्गलकर्मद्रव्यप्रत्यया: संतोऽपि कर्मो-दयकार्यजीवभावसद्भावादेव बध्नंति, ततो ज्ञानिनो यदि द्रव्यप्रत्यया: पूर्वबद्धा: संति, संतु, तथापि स तु निरास्रव एव, कर्मोदयकार्यस्य रागद्वेषमोहरूपस्यास्रवभावस्याभावे द्रव्यप्रत्ययानाम-बंधहेतुत्वात् ॥१७३-१७६॥ (कलश--मालिनी) विजहति न हि सत्तां प्रत्यया: पूवर्बद्धा: समयमनुसरंतो यद्यपि द्रव्यरूपा: । तदपि सकलरागद्वेषमोहव्युदासा- दवतरति न जातु ज्ञानिन: कर्मबन्ध: ॥११८॥ (कलश--अनुष्टुभ्) रागद्वेषविमोहानां ज्ञानिनो यदसंभव: । तत एव न बंधोऽस्य ते हि बंधस्य कारणम् ॥११९॥ जैसे सत्ता अवस्था में तत्काल की विवाहित बाल स्त्री की तरह पहिले अनुपभोग्य होने पर भी विपाक अवस्था में यौवन अवस्था को प्राप्त उसी पूर्व परिणीत स्त्री की तरह भोगने योग्य होने से जैसा आत्मा का उपयोग विकार सहित हो उसी योग्यता के अनुसार पुद्गल कर्म-रूप द्रव्य-प्रत्यय सत्ता-रूप होने पर भी कर्म के उदयानुसार जीव के भावों के सद्भाव से ही बंध को प्राप्त होते हैं । इस कारण ज्ञानी के द्रव्य-कर्म-रूप प्रत्यय (आस्रव) सत्ता में मौजूद हैं तो भी वह ज्ञानी तो निरास्रव ही है, क्योंकि कर्मके उदय के कार्य-रूप राग-द्वेष-मोह रूप आस्रव-भाव के अभाव होने पर द्रव्य-प्रत्ययों के बन्ध-कारणपना नहीं है । (कलश--हरिगीत)
[यद्यपि समयम् अनुसरन्तः] यद्यपि (अपने-अपने) समय का अनुसरण करनेवाला (उदय में आनेवाले) [पूर्वबद्धाः] पहले बांधे हुए [द्रव्यरूपाः प्रत्ययाः] द्रव्यरूप प्रत्यय [सत्तां] अपनी सत्ता को [न हि विजहति] नहीं छोड़ते, [तदपि सकलरागद्वेषमोहव्युदासात्] तथापि सर्व राग-द्वेष-मोह का अभाव होने से [ज्ञानिनः कर्मबन्धः] ज्ञानी के कर्मबन्ध [जातु अवतरति न] कदापि अवतार नहीं धरता (होता) ।पूर्व में जो द्रव्यप्रत्यय बँधे थे अब वे सभी । निजकाल पाकर उदित होंगे सुप्त सत्ता में अभी ॥ यद्यपी वे हैं अभी पर राग-द्वेषाभाव से । अंतर अमोही ज्ञानियों को बंध होता है नहीं ॥११८॥ (कलश--दोहा)
[यत् ज्ञानिनः रागद्वेषविमोहानां असम्भवः] क्योंकि ज्ञानी के राग-द्वेष-मोह का असम्भव है, [ततः एव अस्य बन्धः न] इसलिये उसको बन्ध नहीं है; [ते हि बन्धस्य कारणम्] वे (राग-द्वेष-मोह) ही बंध का कारण है ।
राग-द्वेष अर मोह ही, केवल बंधकभाव । ज्ञानी के ये हैं नहीं, तातैं बंध अभाव ॥११९॥ |
जयसेनाचार्य :
अब प्रश्न होता है कि ज्ञानी-जीव द्रव्य-प्रत्यय रूप बन्ध के कारण विद्यमान रहने पर भी निरास्रव कैसे होता है, सो बताते हैं -- [सव्वे पुव्वणिबद्धा दु पच्चया अत्थि सम्मदिट्ठिस्स] उपशम श्रेणी में प्राप्त हुए वीतराग सम्यग्दृष्टि-जीव के पूर्व में बंधे हुए सब ही मिथ्यात्वादि-कर्म सत्ता में विद्यमान होते हैं । [उवओगप्पाओगं बंधंते कम्मभावेण] वे सब उपयोग में आने पर-तत्काल उदय को प्राप्त होने पर आत्मा में रागद्वेषादि पैदा करने से नूतन-कर्मबन्ध के करने वाले होते हैं । किन्तु पूर्व-द्रव्य-कर्मों की सत्ता मात्र से बंध करनेवाले नहीं होते । [संतावि णिरुवभोज्जा बाला इत्थी जहेव पुरिसस्स] कहीं प्राकृत में लिंग-व्यभिचार भी होता है । नपुंसक-लिंग के स्थान में पुल्लिंग का और पुल्लिंग के स्थान में नपुंसक-लिंग का और कारक में कारकान्तर का निर्देश भी हो जाया करता है । जैसे मनुष्य के लिए बालस्त्री उपभोग योग्य नहीं होती वैसे ही उदय से पहले अनुदय-दशा में रहने वाले पूर्व-बद्ध-कर्म फलकारक नहीं होते [बंधदि ते उवभोज्जे तरुणी इत्थी जह णरस्स] किन्तु उदय-काल में ही वे सब कर्म उपभोग के योग्य होते हैं -- फलकारक होते हैं, रागादिरूप-विकारभाव पैदा करने से नूतन-कर्म का बंध करने वाले होते हैं, जैसे स्त्री, तरुण होने पर मनुष्य को रागी बनाकर विवश करने वाली होती है । [होदूण णिरुवभोज्जा तह बंधदि जह हवंति उवभोज्जा] उदय होने से पूर्वकाल में अपने-अपने गुणस्थान के अनुसार निरुपभोग्य होकर अर्थात् फलकारक न होकर जब उदय-काल को प्राप्त होते हैं तब उपभोग होते हुए फलदायक हुआ करते हैं तब [सत्तट्ठविहा भूदा णाणावरणादिभावेहिं] यह जीव अपने रागादिभावों के अनुसार आयु-बन्ध के काल में तो ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मों को और शेष काल में आयुष्य के बिना सात प्रकार के कर्मों को नूतन-कर्म के रूप में बांधता रहता है । किन्तु अस्तित्व मात्र से ही पुरातन-कर्म नूतन-कर्म-बन्ध करने में कारण नहीं हुआ करते अर्थात् बिना रागादिकभाव के द्रव्य-कर्म (प्रत्यय) विद्यमान होते हुए भी कर्म-बन्ध के कारण नहीं होते इसलिए सम्यग्दृष्टि-जीव अबन्धक होता है -- ऐसा कहा है । खुलासा इसका यह है कि यह संसारी जीव जब अनन्त-संसारात्मक मिथ्यादृष्टिपन को पारकर चतुर्थ-गुणस्थान में पहुँचता है तथा अविरत--सराग-सम्यग्दृष्टि बनता है तो इसके मिथ्यात्वादि ४३ प्रकृतियों का नूतन-बंध होने से रह जाता है शेष ७७ प्रकृतियों का बंध करता रहता है किन्तु पूर्व की अपेक्षा स्वल्प-स्थिति और अनुभाग को लिए हुए बांधता है, एवं संसार की स्थिति को छेदकर उसे परीत-संसार बना लेता है । जैसा कि सिद्धांत में कहा है --
वहाँ द्वादशांग के विषय में जो ज्ञान हैं वह व्यवहार-नय से इतर जीवादि बाह्य समस्त पदार्थों का श्रुत के द्वारा ज्ञान हो जाना है और निश्चय-नय से वीतराग रूप स्वसंवेदनात्मक ज्ञान का हो जाना सो द्वादशांगावगम कहलाता है । भक्ति नाम सम्यक्त्व का है जो व्यवहार से तो पंचपरमेष्ठी की समाराधनारूप होती है वह सराग सम्यग्दृष्टि जीवों के हुआ करती है, किन्तु निश्चय से तो वह भक्ति वीतराग-सम्यग्दृष्टि जीवों के शुद्धात्म-तत्व की भावना के रूप में हुआ करती है । निवृति / वापिस लौटना - न होना सो अनिवृत्ति कहलाता है अर्थात शुद्धात्मा के स्वरूप से च्युत न होना, एकाग्रता रूप परिणमन हो सो अनिवृत्ति है । इस प्रकार द्वादशांग का निश्चय और व्यवहार रूप दोनों प्रकार का ज्ञान हो जाना सो द्वादाशांगावगम कहलाता है । निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकार के सम्यक्त्व का होना सो भक्ति कहलाती है । सराग-चारित्र हो जाने पर वीतराग-चारित्र का भी होना सो अनिवृत्ति परिणाम है । इस प्रकार भेद-रत्नत्रय और अभेद-रत्नत्रय के रूप में जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र होते हैं वह संसार की स्थिति के छेदने के कारण होते हैं जो कि छ्द्मस्थ जीवों के हुआ करते है किन्तु केवली भगवान् के दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण जो केवली समुद्घात होता है वह संसार की स्थिति छेदने में कारण होता है -- यह तात्पर्य है । इस प्रकार द्रव्य-प्रत्यय होकर भी रागादिरूप भाव आस्रव के न होने पर नूतन-बंध करने वाले नहीं होते । इस प्रकार के कथन की मुख्यता से चार गाथायें पूर्ण हुईं ॥१८०-१८३॥ |