जयसेनाचार्य : [रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स] सम्यग्दृष्टि जीव के राग, द्वेष और मोहभाव नहीं होते हैं क्योंकि इन भावों के होने पर सम्यग्दृष्टिपन बन ही नहीं सकता है इसे स्पष्ट कर बतला रहे हैं -- - सम्यग्दृष्टि जीव के अनतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ और मिथ्यात्वके उदय से होने वाले राग, द्वेष और मोह भाव नहीं होते -- यह पक्ष है क्योंकि, नहीं तो केवलज्ञानादि अनंत गुणों वाले परमात्मा में उपादेयता स्वीकार होकर वीतराग और सर्वज्ञ के द्वारा कहे हुए छह द्रव्य, पंचास्तिकाय, सप्त तत्व और नवपदार्थों में रुचि होने रूप व तीन-मूढता, आदि पच्चीस दोष-रहित तथा 'संवेओ णिव्वेओ णिंदा गरुहा य उवसमो भत्ती, वच्छल्लं अणुकम्पा गुणट्ठ सम्मत्तजुत्तस्स' इस गाथा में बताये हुए
- संवेग -- धर्म के प्रति अनुराग,
- निर्वेद -- भोगों में अनासक्ति,
- निंदा -- अपने आप को भूल करने वाला मानना
- गर्हा -- गुरुओं के आगे अपनी भूल स्वीकार करना,
- उपशम -- हर्ष और विषाद में उद्विग्न न होना,
- भक्ति -- पंच परमेष्ठियों में अनुराग,
- वात्सल्य -- साधर्मियों के प्रति प्रीतिभाव और
- अनुकम्पा -- किसी को भी दुखी देखकर द्रवित हो जाना
इन आठ गुणों वाले चतुर्थ-गुणस्थान सम्बन्धी सम्यक्त्व की अन्यथा अनुपपत्ति है । यह हेतु हुआ । अथवा - अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण नामवाले क्रोध, मान, माया और लोभ के उदय से होने वाले राग, द्वेष और मोहभाव सम्यग्दृष्टि-जीव के नहीं होते, यह पक्ष हुआ । क्योंकि, नहीं तो निर्विकार-परमानन्द-रूप-सुख ही है लक्षण जिसका ऐसे परमात्मा में उपादेयता होकर षट्-द्रव्य, पंचास्तिकाय, सप्त-तत्त्व, नव-पदार्थों में रुचिरूप तथा तीन-मूढ़तादि पच्चीस-दोष-रहित-भाव तथा उसी के साथ होने वाले प्रशम, संवेग, अनुकम्पा तथा देवधर्मादिक के विषय में आस्तिक्य-भाव की अभिव्यक्ति है लक्षण जिसका ऐसे पंचम-गुणस्थान के योग्य देशचारित्र के साथ में होने वाला सराग-सम्यक्त्व अन्यथा नहीं हो सकता, यह हेतु हुआ । अथवा
- अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यानावरण, और प्रत्याख्यानावरण-रूप क्रोध, मान, माया और लोभ के उदय से होने वाले राग, द्वेष, और मोहभाव सम्यग्दृष्टि-जीव के नहीं होते, यह पक्ष हुआ । क्योंकि, नहीं तो चिदानंद ही है एक स्वभाव जिसका ऐसे शुद्धात्मा में उपादेय-बुद्धि होकर षट्-द्रव्य, पंचास्तिकाय, सप्त-तत्त्व, नव-पदार्थों में रुचिरूप तथा तीन-मूढ़तादि पच्चीस-दोष-रहित-रूप एवं उसी के साथ होने वाले प्रशम, संवेग, अनुकम्पा तथा देव-धर्मादि के विषय में आस्तिक्य भाव के होने रूप लक्षण-वाले छट्टे-गुणस्थान के योग्य सराग-चारित्र के साथ में होने वाला सराग-सम्यक्त्व अन्यथा नहीं हो सकता, यह हेतु हुआ । अथवा
- अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और तीव्र संज्वलन रूप क्रोध, मान, माया और लोभ के उदय से होने वाले प्रमादकारक राग, द्वेष और मोहभाव सम्यग्दृष्टि-जीव के नहीं होते, यह पक्ष हुआ । क्योंकि फिर तो शुद्ध-बुद्ध एक-स्वभाव-वाले परमात्मा में उपादेय-बुद्धि होकर उसके ही योग्य, शुद्धात्मा की समाधि से संज्ञात-अनुभूत जो सहजानन्द-स्वलक्षण-वाले सुख की अनुभूति होना ही है स्वरूप जिसका ऐसे अप्रमत्तादि-गुणस्थानवर्ती वीतराग-चारित्र के साथ अविनाभाव रखने वाले अर्थात् वीतराग-चारित्र के बिना न होने वाले वीतराग-सम्यक्त्व की उत्पत्ति अन्यथा नहीं हो सकती है ।
जैसा कि आद्या: सम्यक्त्वचारित्र, द्वितीया ध्नंत्यणुव्रतं ।
तृतीया संयमं तुर्या यथाख्यातं क्रुधादय: इसमें बताया है कि - अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ तो सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों को ही नहीं होने देते ।
- दूसरे -- अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ सम्यक्त्व को नहीं रोकते पर चारित्र के एकदेश / अंशरूप अणुव्रतात्मक चारित्र को नहीं होने देते ।
- तीसरे -- प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ सकल-संयम / महाव्रत-रूप-चारित्र को नहीं होने देते एवं
- चौथे -- संज्वलनात्मक क्रोध, मान, माया और लोभकषाय, यथाख्यातचारित्र को नहीं होने देते
इस प्रकार यह मूल-ग्रन्थ की पूर्वार्द्ध गाथा का व्याख्यान हुआ । [तम्हा आसवभावेण विणा हेदू ण पच्चया होंति] जैसा कि पूर्वार्द्ध गाथा में बताया है उसी क्रम से सम्यग्दृष्टि जीव के राग-द्वेष-मोहरूपभाव नहीं होते । एवं उनके न होने से सत्ता में होने वाले या उदय में होने वाले मिथ्यात्वादि द्रव्य-प्रत्यय-कर्मबंध के कारण नहीं होते हैं । [हेदू चदुव्वियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं होदि] क्योंकि मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार कारण ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के नवीन-कर्मबंध के कारण हैं । [तेसिंपि य रागादी] उन उदय में आए हुए मिथ्यात्वादि-द्रव्य-प्रत्ययों के भी कारण जीवगत-रागादिभाव-रूप प्रत्यय होते हैं । [तेसिमभावे ण बज्झंति] उन जीवगत रागादि-भावप्रत्ययों के न होने पर पूर्वोक्त द्रव्य-प्रत्यय भले ही उदय में आये हुए क्यों न हों तो भी वीतराग-रूप परम-सामायिक-भावना में परिणत रहने वाले अभेद-रत्नत्रय है लक्षण जिसका ऐसे भेद-ज्ञान के होने पर यह जीव नवीन-कर्मों से नहीं बंधता है । इसलिए यह बात माननी पड़ती है कि यद्यपि उदय में आए हुए मिथ्यात्वादि द्रव्य-प्रत्यय नवीन-कर्मों के आस्रव के कारण होते हैं, किन्तु उनके भी कारण जीवगत-रागादि-भाव-प्रत्यय होते हैं । इस प्रकार कारण से कारण का व्याख्यान जानना योग्य है ॥१८४-१८५॥
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