
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अथ प्रविशति निर्जरा। (कलश--शार्दूलविक्रीडित) रागाद्यास्रवरोधतो निजधुरां धृत्वा पर: संवर: कर्मागामि समस्तमेव भरतो दूरान्निरुंधन् स्थित: । प्राग्बद्धं तु तदेव दग्धुधुना व्याजृम्भते निर्जरा ज्ञानज्योतिरपावृतं न हि यतो रागादिभिर्मूर्छति ॥१३३॥ विरागस्योपभोगो निर्जरायै एव । रागादिभावानां सद्भावेन मिथ्यादृष्टेरचेतनान्यद्रव्योपभोगो बंधनिमित्तमेव स्यात् । स एव रागादिभावानामभावेन सम्यग्दृष्टेर्निर्जरानिमित्तमेव स्यात् । एतेन द्रव्यनिर्जरास्वरूपमावेदितम् ॥१९३॥ (मंगलाचरण--दोहा)
अब निर्जरा प्रवेश करती है -शुद्धातम में रत रहो, यही श्रेष्ठ आचार । शुद्धातम की साधना, कही निर्जरा सार ॥ (कलश--हरिगीत)
[परः संवरः] परम संवर, [रागादि-आस्रव-रोधतः] रागादि आस्रवों को रोकने से [निज-धुरां धृत्वा] अपनी कार्य-धुरा को धारण करके (अपने कार्य को यथार्थतया सँभालकर), [समस्तम् आगामि कर्म] समस्त आगामी कर्म को [भरतः दूरात् एव] अत्यंततया दूर से ही [निरुन्धन् स्थितः] रोकता हुआ खड़ा है; [तु प्राग्बद्धं] और पूर्व-बद्ध (संवर होने के पहेले बँधे हुए) [तत् एव दग्धुम्] कर्म को जलाने के लिये [अधुना निर्जरा व्याजृम्भते] अब निर्जरा (निर्जरारूप अग्नि) फैल रही है [यतः ज्ञानज्योतिः] जिससे ज्ञान-ज्योति [अपावृतं] निरावरण होती हुई (पुनः) [रागादिभिः न हि मूर्छति] रागादिभावों के द्वारा मूर्छित नहीं होती ।आगामि बंधन रोकने संवर सजग सन्नद्ध हो । रागादि के अवरोध से जब कमर कस के खड़ा हो ॥ अर पूर्वबद्ध करम दहन को निरजरा तैयार हो । तब ज्ञानज्योति यह अरे नित ही अमूर्छित क्यों न हो ॥१३३॥ विरागी का उपभोग निर्जरा के लिए ही होता है । मिथ्यादृष्टि का जो ही चेतन अचेतन-द्रव्य का उपभोग रागादिभावों का सद्भाव होने से बंध का निमित्त ही होता है, वही उपभोग रागादिभावों के अभाव से सम्यग्दृष्टि के निर्जरा का निमित्त ही होता है । इस कथन से द्रव्य-निर्जरा का स्वरूप बताया गया है । |
जयसेनाचार्य :
अब यहाँ श्रंगार रहित पात्र के समान शुद्ध-जीव-स्वरूप जो संवर है वह तो इस रंग-भूमि में से चला गया और वीतराग निर्विकल्प समाधि स्वरूप शुद्धोपयोग लक्षण को रखने वाली संवर-पूर्वक-निर्जरा प्रवेश करती है । वहाँ [उवभोगमिंदियेहिं] इत्यादि गाथा को आदि लेकर दंडकों को छोड़ पाठ-क्रम से पचास गाथाओं पर्यन्त छह स्थलों से निर्जरा का व्याख्यान करते हैं । उनमें से
[उवभोगमिंदियेहिं दव्वाणमचेदणाणमिदराणं जं कुणदि सम्मदिट्ठी] सम्यग्दृष्टि जीव अपनी पाँचों इन्द्रियों के द्वारा चेतन और अचेतन द्रव्यों में भोग्य और उपभोग्य वस्तु का जो उपभोग करता है, [तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं] वह सब उसके लिये निर्जरा का ही निमित्त होता है । जो वस्तु मिथ्यादृष्टि जीव के लिए राग-द्वेष और मोह भाव होने के कारण बंध में निमित्त कारण होती है वही वस्तु सम्यग्दृष्टि जीव के लिए राग, द्वेष और मोह भाव के न होने के कारण निर्जरा की निमित्त होती है । यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि राग, द्वेष और मोह भाव न होने पर सब ही निर्जरा का कारण बताया गया है सो ठीक, परन्तु गुरुमहाराज ! सम्यग्दृष्टि के तो राग-द्वेष-भाव होते हैं सब ही सम्यग्दृष्टि जीव वीतरागी नहीं होते हैं, इससे उसके कर्म की निर्जरा कैसे हो सकती है ? इसका समाधान आचार्य करते हैं कि इस ग्रंथ में वास्तविक में वीतराग-सम्यग्दृष्टि का ही ग्रहण किया गया है, परन्तु चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत-सम्यग्दृष्टि का कथन यहाँ गौण है । यदि इसे भी यहाँ लिया जाये तो इस प्रश्न का समाधान पहले किया जा चुका है कि मिथ्यादृष्टि प्रथम गुणस्थान्वर्ती जीव की अपेक्षा से चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत-सम्यग्दृष्टि जीव कम राग वाला होता है क्योंकि उसके मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधी-क्रोध, मान, माया और लोभ-जनित रागादिक नहीं होते हैं तथा श्रावक के अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ-जनित रागादिक नहीं होते हैं इत्यादि । तथा सम्यग्दृष्टि के जो भी निर्जरा होती है वह संवर-पूर्वक होती है, किन्तु मिथ्यादृष्टि के वह हाथी-स्नान के समान बन्धभाव पूर्वक हुआ करती है, इसलिये भी मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि अबन्धक होता है ॥२०२॥ |