
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अथ भावनिर्जरास्वरूपमावेदयति - उपभुज्यमाने सति हि परद्रव्ये तन्निमित्त: सातासातविकल्पानतिक्रमणेन वेदनाया: सुखरूपो वा दु:खरूपो वा नियमादेव जीवस्य भाव उदेति । स तु यदा वेद्यते तदा मिथ्यादृष्टे: रागादिभावानां सद्भावेन बंधनिमित्तं भूत्वा निर्जीर्यमाणोऽप्य-निर्जीर्ण: सन् बंध एव स्यात्; सम्यग्दृष्टेस्तु रागादिभावानामभावेन बंधनिमित्तमभूत्वा केवलमेव निर्जीयमाणो निर्जीर्ण: सन्निर्जरैव स्यात् ॥१९४॥ (कलश--अनुष्टुभ्) तज्ज्ञानस्यैव सामर्थ्यं विरागस्यैव वा किल । यत्कोऽपि कर्मभि: कर्म भुंजानोऽपि न बध्यते ॥१३४॥ पर-द्रव्य के भोगने में आने पर तन्निमित्त्क सुख-रूप अथवा दुःख-रूप भाव नियम से उदय होते हैं, क्योंकि वह वेदना साता तथा असाता इन दोनों भावों का अतिक्रमण नहीं करती । सो यह सुख-दुःख-रूप भाव जिस समय अनुभवा जाता है उस समय मिथ्यादृष्टि के तो रागादिभावों के होने से आगामी कर्म-बन्ध का निमित्त होकर झड़ता हुआ भी निर्जरा-रूप नहीं होता हुआ बन्ध ही कहना चाहिये । और सम्यग्दृष्टि के उस सुख-दुःख के अनुभव से रागादि भावों का अभाव होने से आगामी बंध का निमित्त न होने से केवल निर्जरा रूप ही होता है सो निर्जरा-रूप हुआ निर्जरा ही कहना चाहिये, बन्ध नहीं कहा जा सकता । (कलश--हरिगीत)
[किल तत् सामर्थ्यं] वास्तव में वह (आश्चर्यकारक) सामर्थ्य [ज्ञानस्यएव वा] ज्ञान से ही है अथवा [विरागस्य एव] विराग से ही है [यत् कः अपि] कि कोई (सम्यग्दृष्टि जीव) [कर्म भुञ्जानः अपि] कर्म को भोगता हुआ भी [कर्मभिः न बध्यते] कर्मों से नहीं बन्धता ।
ज्ञानी बँधे ना कर्म से सब कर्म करते-भोगते । यह ज्ञान की सामर्थ्य अर वैराग्य का बल जानिये ॥१३४॥ |
जयसेनाचार्य :
इस प्रकार द्रव्य-निर्जरा का व्याख्यान एक गाथा के द्वारा करके अब भावनिर्जरा का भी स्वरूप निम्न गाथा में स्पष्ट करते हैं--- [दव्वे उवभुंजंते णियमा जायदि सुहं व दुक्खं वा] उदय में आये हुए द्रव्य-कर्म को यह जीव जब भोगता है, तब नियम से साता और असाता वेदनीय-कर्म के उदय के वश से सुख और दु:ख अपने वस्तु के स्वभाव से ही उत्पन्न होते हैं । [तं सुहदुक्खमुदिण्णं वेददि] जो कि रागरहित स्व-संवेदनभाव से उत्पन्न होने वाले पारमार्थिक-सुख से भिन्न प्रकार का होता है । उस उदय में आये हुए सुख या दुख को सम्यग्दृष्टि-जीव भी भोगता है, किन्तु वहाँ कुछ भी भला-बुरापन न मानकर राग-द्वेष किए बिना, उपेक्षा बुद्धि से उसे भोग लेता है -- उसको पार कर जाता है -- उसके साथ तन्मय होकर मैं सुखी हूँ या दुखी हूँ इत्यादि रूप से अनुभव नहीं करता । [अथ णिज्जरं जादि] इसलिए वह उसके स्वस्थ-भाव से निर्जरा को प्राप्त हो जाता है, झड़ ही जाता है -- प्रत्युत बन्ध नहीं कर पाता । किन्तु मिथ्यादृष्टि-जीव तो मैं सुखी हूँ या दुखी हूँ इत्यादि रूप से उपादेय-बुद्धि से उसे भोगता है, इसलिए उसके वह बन्ध का कारण होता है । जैसे कोई भी चोर स्वयं कभी मरना नहीं चाहता किन्तु कोतवाल से जब पकड़ लिया जाता है और मारा जाता है तो मरण का अनुभव करता है । वैसे ही सम्यग्दृष्टि-जीव भी यद्यपि आत्मोत्थ-सहज-सुख को उपादेय मानता है और विषय-सुख को हेय, फिर भी चारित्र-मोह कर्म के उदयरूप कोतवाल से पकड़ा हुआ वह उस विषय-सुख का अनुभव भी करता है इसलिए वह कर्म उसके लिए निर्जरा का निमित्त होता है । इस प्रकार यह भाव-निर्जरा का व्याख्यान हुआ ॥२०३॥ |