
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
कुतो ज्ञानी परं न परिगृह्णातीति चेत् - यतो हि ज्ञानी, यो हि यस्य स्वो भाव: स तस्य स्व: स तस्य स्वामी इति खरतरतत्त्वदृष्टय्यवष्टंभात्, आत्मानमात्मन: परिग्रहं तु नियमेन विजानाति, ततो न ममेदं स्वं, नाहमस्य स्वामी इति परद्रव्यं न परिग्रह्णाति ॥२०७॥ अब प्रश्न करता है कि ज्ञानी पर को क्यों ग्रहण नहीं करता ? इसका उत्तर कहते हैं - चूंकि ज्ञानी 'जो जिसका निज-भाव है वही उसका स्व है, और उसी स्व-भाव रूप द्रव्य का वह स्वामी है' ऐसे सूक्ष्म तीक्ष्ण तत्त्व-दृष्टि के अवलंबन से आत्मा का परिग्रह अपने आत्म-स्वभाव को ही जानता है, इस कारण 'यह मेरा स्व नहीं, मैं इसका स्वामी नहीं' यह जानकर पर-द्रव्य को ग्रहण नहीं करता । |
जयसेनाचार्य :
आगे ज्ञानी परद्रव्य को जानता है, ग्रहण नहीं करता, इस भेदभावना को बतलाते हैं- [को णाम भणिज्ज बुहो परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं] वह कौन-सा ज्ञानी है जो पर-द्रव्य को भी, 'यह मेरा द्रव्य है' ऐसा स्पष्टरूप से कहता रहे? किन्तु कोई ज्ञानी भी ऐसा नहीं । [अप्पाणमप्पणो परिगहं तु णियदं वियाणंतो] क्योंकि वह तो निश्चितरूप से चिदानन्द ही है एकस्वभाव जिसका, ऐसे शुद्धात्मा को ही अपना परिग्रह जानता रहता है ॥२१७॥ |