
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अयं च मे निश्चय: - छिद्यतां वा, भिद्यतां वा, नीयतां वा, विप्रलयं यातु वा, यतस्ततो गच्छतु वा, तथापि न परद्रव्यं परिगृह्णामि; यतो न परद्रव्यं मम स्वं, नाहं परद्रव्यस्य स्वामी, परद्रव्यमेव परद्रव्यस्य स्वं, परद्रव्यमेव परद्रव्यस्य स्वामी, अहमेव मम, स्वं अहमेव मम स्वामी इति जानामि ॥२०९॥ (कलश--वसन्ततिलका) इत्थं परिग्रहमपास्य समस्तमेव सामान्यत: स्वपरयोरविवेकहेतु् । अज्ञानमुज्झितु ना अधुना विशेषाद् भूयस्तमेव परिहर्तुयं प्रवृत्त: ॥१४५॥ 'और मेरा तो यह (निम्नोक्त) निश्चय है' यह अब कहते हैं - पर-द्रव्य चाहे छिद जावे या भिद जावे या कोई ले जावे, या नाश को प्राप्त हो जावे, या जिस तिस प्रकार याने कैसे ही चला जावे तो भी मैं पर-द्रव्य को ग्रहण नहीं करता, क्योंकि पर-द्रव्य मेरा स्व नहीं है और न मैं पर-द्रव्य का स्वामी हूं, पर-द्रव्य ही पर-द्रव्य का स्व है, पर-द्रव्य ही पर-द्रव्य का स्वामी है, मैं ही मेरा स्व है, मैं ही मेरा स्वामी हूं ऐसा मैं जानता हूं । (कलश--सोरठा)
[इत्थं समस्तम् एव परिग्रहम्] इसप्रकार समस्त परिग्रह को [सामान्यतः अपास्य अधुना] सामान्यतः छोड़कर अब [स्वपरयोः अविवेकहेतुम् अज्ञानम् उज्झितुमनाः अयं] स्व-पर के अविवेक के कारणरूप अज्ञान को छोड़ने का जिसका मन है ऐसा यह [भूयः तम् एव] पुनः उसी (परिग्रह) को [विशेषात् परिहर्तुम् प्रवृत्तः] विशेषतः छोड़ने को प्रवृत्त होता है ।
सभी परिग्रह त्याग, इसप्रकार सामान्य से । विविध वस्तु परित्याग, अब आगे विस्तार से ॥१४५॥ |
जयसेनाचार्य :
आगे कहते हैं कि ये शरीरादि पर-द्रव्य मेरा परिग्रह नहीं है । इसी बात को और भी दृढ़ता से कहते हैं -- [छिज्जदु वा भिज्जदु वा णिज्जदु वा अहव जादु विप्पलयं] भले ही यह शरीर छिद जावे, दो टुकड़े हो जावे, चाहे यह भिद जावे अर्थात् नाना छेद वाला बन जावे, इसे कोई कहीं ले जावे, अथवा नष्ट हो जावे । [जम्हा तम्हा गच्छदु तहवि हु ण परिग्गहो मज्झ] भले ही इसकी कैसी भी दशा क्यों न हो जावे, इसका मुझे कोई भी विचार नही क्योंकि यह शरीर मेरा परिग्रह नहीं है । मैं तो टांकी से उकेरे हुए के समान सदा एक-सा रहने वाला एवं परमानन्द ज्ञायक एक-स्वभाव का धारक हूँ अर्थात मैं तो इससे सर्वथा भिन्न स्वभाव वाला हूँ -- यह मेरा दृढ़ निश्चय है ॥२१८॥ |