अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
किंच - एतावानेव सत्य आत्मा यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्र एव नित्यमेव रतिमुपैहि । एतावत्येव सत्याशी: यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव संतोषमुपैहि । एतावदेव सत्यमनुभवनीयं यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव तृप्तिमुपैहि । अथैवं तव नित्यमे-वात्मरतस्य, आत्मसंतुष्टस्य आत्मतृप्तस्य च वाचामगोचरं सौख्यं भविष्यति । तत्तु तत्क्षण एव त्वमेव स्वयमेव द्रक्ष्यसि, मा अन्यान् प्राक्षी: ॥२०६॥ (कलश--उपजाति) अचिंत्यशक्ति: स्वयमेव देवश्चिन्मात्रचिंतामणिरेष यस्मात् । सर्वार्थसिद्धात्मतया विधत्ते ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण ॥१४४॥
(कलश--दोहा)
[यस्मात् एषः] क्योंकि यह (ज्ञानी) [स्वयम् एव] स्वयं ही [अचिन्त्यशक्तिः देवः] अचिंत्य शक्तिवाला देव है और [चिन्मात्र-चिन्तामणिः] चिन्मात्र चिंतामणि है, इसलिये [सर्व-अर्थ-सिद्ध-आत्मतया] जिसके सर्व अर्थ (प्रयोजन) सिद्ध हैं ऐसे स्वरूप होने से [ज्ञानी अन्यस्य परिग्रहेण] ज्ञानी दूसरे के परिग्रह से [किम् विधत्ते] क्या करेगा ?
अचिंत्यशक्ति धारक अरे, चिन्तामणि चैतन्य । सिद्धारथ यह आतमा, ही है कोई न अन्य ॥ सभी प्रयोजन सिद्ध हैं, फिर क्यों पर की आश । ज्ञानी जाने यह रहस, करे न पर की आश ॥१४४॥ |
जयसेनाचार्य :
अब आत्म-सुख में ही संतोष है ऐसा बतलाते हैं -- [एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि एदेण होहि तित्तो] हे भव्य ! तू पंचेन्द्रिय-जन्य सुख को छोड़कर निर्विकल्प-स्वरूप आत्म-ध्यान के बल से सहज-स्वाभाविक और आत्म-सुख में लीन हो, सन्तुष्ट बन एवं सदा के लिए तृप्त हो रह । तो [होहदि तुह उत्तमं सोक्खं] उस सर्वोत्कृष्ट आत्म-सुख के अनुभव करने से तुझे सदा बना रहने वाला मोक्ष-सुख प्राप्त होगा ॥२१९॥ |