रागादिकतैं कर्मकौ, बन्ध जानि मुनिराय । ।
तजैं तिनहिं समभाव करि, नमूँ सदा तिन पाँय ॥
अन्वयार्थ : अब बन्ध प्रवेश करता है --

  अमृतचंद्राचार्य    जयसेनाचार्य    notes 

अमृतचंद्राचार्य :


(कलश--हरिगीत)
मदमत्त हो मदमोह में इस बंध ने नर्तन किया ।
रसराग के उद्गार से सब जगत को पागल किया ॥
उदार अर आनन्दभोजी धीर निरुपधि ज्ञान ने ।
अति ही अनाकुलभाव से उस बंध का मर्दन किया ॥१६३॥
[राग-उद्गार-महारसेन सकलं जगत् प्रमत्तं कृत्वा] जो (बन्ध) राग के उदयरूप महारस (मदिरा) के द्वारा समस्त जगत को प्रमत्त (मतवाला) करके, [रस-भाव-निर्भर-महानाटयेन क्रीडन्तं बन्धं] रस के भाव से (रागरूप मतवालेपन से) भरे हुए महा-नृत्य के द्वारा खेल (नाच) रहा है ऐसे बन्ध को [धुनत्] उड़ाता (दूर करता) हुआ, [ज्ञानं] ज्ञान [समुन्मज्जति] उदय को प्राप्त होता है । वह ज्ञान [आनन्द-अमृत-नित्य-भोजि] आनंदरूप अमृत का नित्य भोजन करनेवाला है, [सहज-अवस्थां स्फुटं नाटयत्] अपनी (ज्ञातृक्रियारूप) सहज अवस्था को प्रगट नचा रहा है, [धीर-उदारम्] धीर है, उदार (महान विस्तारवाला, निश्चल) है, [अनाकुलं] अनाकुल है, [निरूपधि] उपाधि रहित (कर्म-कृत भाव रहित) है ।
जयसेनाचार्य :

अब बन्ध प्रवेश करता है । वहाँ जहणाम कोवि पुरुषो इत्यादि गाथा को आदि लेकर पाठ क्रम से ५६ गाथाओ मे इसका वर्णन है । उन ५६ गांथाओं मे से भी सबसे प्रथम
  • दश गाथाओं मे मुख्यता से बन्ध के स्वरूप की सूचना है । फिर
  • जो मण्णदि हिंसामि य इत्यादि सात गाथाओं में हिंसक और अहिंसक का स्वरूप है
  • तत्पश्चात्‌ बाहर में दिखनेवाली द्रव्य-हिंसा हो या ना हो किन्तु जहां हिंसा का अध्यवसाय हो गया वहाँ निश्चय से हिंसा है ही इस प्रकार का प्रतिपादन जोमरदि इत्यादि छह गाथाओं में हुआ है ।
  • फिर दो गाथाएं ऐसी है जिसमे निश्चय रत्नत्रय स्वरूप जो भेद-विज्ञान उससे विलक्षणता रखने वाले जो व्रत और अव्रत हैं उन्ही का एवमलिए इत्यादि रूप से किया गया है ।
  • उसके भी बाद वत्थु पडुच्च इत्यादि तेरह गाथायें हैं जिनमे शुभ व अशुभ बन्ध के कारणभूत भाव-पुण्य और भाव-पाप जो व्रत और अव्रत उनका व्याख्यान प्रधानता से किया गया है।
  • फिर ववहारणयो इत्यादि छह गाथायें हैं जिनमे यह बतलाया गया है कि निश्चय में स्थित होने पर ही व्यवहार का निषेध किया जा सकता है ।
  • इसके आधाकम्मादीया इत्यादि चार सूत्र हैं जो पिण्ड-शुद्धि का व्याख्यान करने वाले हैं उनमे यह बताया गया है कि प्रासुक अन्न-पान रूप आहार का ग्रहण करना राग-द्वेष रहित ज्ञानी-जीवों के लिए बन्ध का कारण नहीं होता है ।
  • इससे भी आगे जह फलिह मरणिण विसुद्धो इत्यादि पाँच गाथायें हैं जिनमे बताया गया है कि क्रोधादि कषायें ही कर्म-बन्ध का निमित्त होती हैं जो कि चेतन और अचेतन बाह्य द्रव्यों के निमित्त से हुआ करती है ।
  • इसके आगे अप्पडिकमण इत्यादि तीन गाथाये हैं जिनमे बताया गया है कि अप्रतिक्रमण व अप्रत्याख्यान ही बन्ध के कारण हैं किन्तु शुद्धात्मा बन्ध का कारण नही होती ।
इस प्रकार मिलाकर आठ अंतर अधिकारों और छप्पन गाथाओं के द्वारा बन्ध अधिकार पूर्ण होता है उसकी पातनिका हुई ।