
अमृतचंद्राचार्य :
(कलश--हरिगीत)
[राग-उद्गार-महारसेन सकलं जगत् प्रमत्तं कृत्वा] जो (बन्ध) राग के उदयरूप महारस (मदिरा) के द्वारा समस्त जगत को प्रमत्त (मतवाला) करके, [रस-भाव-निर्भर-महानाटयेन क्रीडन्तं बन्धं] रस के भाव से (रागरूप मतवालेपन से) भरे हुए महा-नृत्य के द्वारा खेल (नाच) रहा है ऐसे बन्ध को [धुनत्] उड़ाता (दूर करता) हुआ, [ज्ञानं] ज्ञान [समुन्मज्जति] उदय को प्राप्त होता है । वह ज्ञान [आनन्द-अमृत-नित्य-भोजि] आनंदरूप अमृत का नित्य भोजन करनेवाला है, [सहज-अवस्थां स्फुटं नाटयत्] अपनी (ज्ञातृक्रियारूप) सहज अवस्था को प्रगट नचा रहा है, [धीर-उदारम्] धीर है, उदार (महान विस्तारवाला, निश्चल) है, [अनाकुलं] अनाकुल है, [निरूपधि] उपाधि रहित (कर्म-कृत भाव रहित) है ।
मदमत्त हो मदमोह में इस बंध ने नर्तन किया । रसराग के उद्गार से सब जगत को पागल किया ॥ उदार अर आनन्दभोजी धीर निरुपधि ज्ञान ने । अति ही अनाकुलभाव से उस बंध का मर्दन किया ॥१६३॥ |
जयसेनाचार्य :
अब बन्ध प्रवेश करता है । वहाँ जहणाम कोवि पुरुषो इत्यादि गाथा को आदि लेकर पाठ क्रम से ५६ गाथाओ मे इसका वर्णन है । उन ५६ गांथाओं मे से भी सबसे प्रथम
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