
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
यतो हि सम्यग्दृष्टि: टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां स्वस्मादभेद-बुद्ध़या सम्यग्दर्शनान्मार्गवत्सल:, ततोऽस्य मार्गानुपलंभकृतो नास्ति बंध:, किन्तु निर्जरैव । यतो हि सम्यग्दृष्टि: टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन ज्ञानस्य समस्तशक्तिप्रबोधेन प्रभावजन-नात्प्रभावनाकर:, ततोऽस्य ज्ञानप्रभावनाप्रकर्षकृतो नास्ति बंध:, किंतु निर्जरैव ॥२३५-२३६॥ (कलश--मन्दाक्रान्ता) रुंधन् बंधं नवमिति निजै: संगतोऽष्टाभिरंगै: प्राग्बद्धं तु क्षयमुपनयन् निर्जरोज्जृम्भणेन । सम्यग्दृष्टि: स्वयमतिरसादादिमध्यांतमुक्तं ज्ञानं भूत्वा नटति गगनाभोगरंगं विगाह्य ॥१६२॥ इति निर्जरा निष्क्रान्ता । इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ निर्जराप्ररूपकःषष्ठोऽङ्कः ॥ सम्यग्दृष्टि जीव टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-भावमय होने के कारण सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को अपने से अभेद-बुद्धि से सम्यक्तया देखता है, अनुभव करता है; इसकारण मार्ग-वत्सल है, मोक्षमार्ग के प्रति अति प्रीतिवाला है, वात्सल्य अंग का धारी है और ज्ञान की समस्त शक्ति को प्रगट करके, विकसित करके स्वयं में प्रभाव उत्पन्न करता है, प्रभावना करता है; इसकारण प्रभावना अंग का धारी है । इसलिए उसे मार्ग की अनुपलब्धि से होनेवाला और ज्ञान की प्रभावना के अपकर्ष से होनेवाला बंध नहीं होता; अपितु निर्जरा ही होती है । (कलश--दोहा)
[इति नवम् बन्धं रुन्धन्] इसप्रकार नवीन बन्ध को रोकता हुआ और [निजैः अष्टाभिः अगैः संगतः निर्जरा-उज्जृम्भणेन प्राग्बद्धं तु क्षयम् उपनयम्] (स्वयं) अपने आठ अंगों से युक्त होने के कारण निर्जरा प्रगट होने से पूर्व-बद्ध कर्मों का नाश करता हुआ [सम्यग्दृष्टिः स्वयम्] सम्यग्दृष्टि जीव स्वयं [अतिरसात्] अति रस से (निजरस में मस्त हुआ) [आदि-मध्य-अन्तमुक्तं ज्ञानं भूत्वा] आदि-मध्य-अंत रहित (सर्वव्यापक , एकप्रवाहरूप धारावाही) ज्ञानरूप होकर [गगन-आभोग-रंगं विगाह्य] आकाश के विस्ताररूप रंगभूमि में अवगाहन करके (ज्ञान के द्वारा समस्त गगनमंडल में व्याप्त होकर) [नटति] नृत्य करता है ।बंध न हो नव कर्म का, पूर्व कर्म का नाश । नृत्य करें अष्टांग में, सम्यग्ज्ञान प्रकाश ॥१६२॥ इसप्रकार निर्जरा (रंगभूमि में से) बाहर निकल गई । इसप्रकार श्री समयसार की (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य देव प्रणीत श्री समयसार परमागम की) श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्य देव विरचित आत्मख्याति नामक टीका में निर्जरा का प्ररूपक छठवाँ अंक समाप्त हुआ । |
जयसेनाचार्य :
[जो कुणदि वच्छलत्तं तिण्हं साहूण मोक्खमग्गम्हि] जो कोई मोक्ष-मार्ग में ठहरकर मोक्ष-मार्ग के साधन करने वाले इन तीन सम्यग्दर्शन, समयग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप अपने ही भावों की अथवा व्यवहार से उस रत्नत्रय के आधारभूत आचार्य, उपाध्याय और साधु इन तीनों की भक्ति करता है उनमें धार्मिक-प्रेम करता है, [सो वच्छलभावजुदो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] वह सम्यग्दृष्टि जीव वत्सल-भाव युक्त माना जाना चाहिए । उसके अवात्सल्य-भाव कृत बन्ध नहीं होता । किन्तु पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा ही होती है ॥२५०॥ [विज्जारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा] जो चेतन आत्मा अपने शुद्ध आत्मा की उपलब्धि स्वरूप विद्यामयी रथ पर आरूढ होकर मान-बड़ाई, पूजा-प्रतिष्ठा, लाभ तथा भोगों की इच्छा को आदि लेकर निदान-बंध आदि विभाव-रूप परिणाम होता है जो कि द्रव्य, क्षेत्रादि रूप पांच प्रकार सांसारिक दुखों के कारण होते हैं एवं जो आत्मा के शत्रु हैं ऐसे मनोरथ के वेगों को चित्त की तरंगों को स्वस्थ-भाव / समभाव रूप सारथी के बल से और दृढ़तर ध्यान-रूप-खड़ग के द्वारा नष्ट कर देता है । [सो जिणणाणपहावी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो] वह सम्यग्दृष्टि जीव जिनेन्द्र भगवान के ज्ञान की प्रभावना करने वाला माना गया है । अत: उसके अप्रभावना से होने वाला बन्ध नहीं होता किन्तु निश्चित रूप से पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा ही होती है । इस प्रकार शुद्ध-नय का आश्रय लेकर संवर पूर्वक जो भाव-निर्जरा होती है उसके उपादान कारण-रूप तथा शुद्धात्मा की भावना स्वरूप जो नि:शंकितादि आठ गुण होते हैं उनके व्याख्यान करने की मुख्यता से नव गाथायें पूर्ण हुईं । यह नि:शंकितादि गुणों का जो व्याख्यान है वह निश्चय-नय की प्रधानता से किया गया है । इस व्याख्यान को निश्चय रत्नत्रय का साधक जो व्यवहार रत्नत्रय है उसमें स्थित होने वाले सराग सम्यग्दृष्टि के ऊपर भी अंजन चौरादिक की कथारूप जो व्यवहारनय है उसके द्वारा यथा संभव लगा लेना । टीकाकार के इस कथन को लेकर शंका पैदा होती है की निश्चय-नय का व्याख्यान करने के बाद भी व्यवहार-नय का व्याख्यान यहाँ क्यों किया ? टीकाकार इसका उत्तर देते हैं कि स्वर्ण और स्वर्ण-पाषाण में परस्पर कार्य कारण-भाव है वैसा ही कार्य-करण-भाव निश्चय-नय और व्यवहार-नय में है, व्यवहार-नय कारण है तो निश्चय-नय उसका कार्य है यह बात दिखलाने के लिए ही यहाँ यह प्रयास किया गया है जैसे कि -- जइ जिणमइ पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुणह ।
यदि जिनमत का रहस्य प्राप्त करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय-नय इन दोनों में से किसी को मत भूलो क्योंकि व्यवहार-नय को छोड़ देने से अभीष्ट सिद्धि का मूल कारण जो तीर्थ है वह नष्ट हो जाता है और निश्चय-नय को भुला देने पर समुचित वस्तु-तत्त्व ही नहीं रह पाता है ।एक्केण विणा छिज्जइ, तित्थं अण्णेण पुण तिच्चं सम्यग्दृष्टि जीव के जो संवर पूर्वक निर्जरा होती हुई बताई गई है वह भी प्रधानतया निर्विकल्प-समाधि के होने पर ही होती है । जो कि निर्विकल्प-समाधि, शुद्धात्मा के समीचीन तन्मयरूप श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान-रूप निश्चय-रत्नत्रय-स्वरूप होती है तथा आर्त्त और रौद्र-भाव से रहित धर्म्य-ध्यान और शुक्ल ध्यानमय होती है और शुभ और अशुभ रूप बाह्य-द्रव्यों के आलंबन से सर्वथा रहित होती है । यह निर्विकल्प-समाधि वास्तव में अत्यन्त-दुर्लभ है क्योंकि साधारण निगोद से निकलकर, एकेंद्रियपना, विकलेन्द्रियपना, पंचेन्द्रियपना, संज्ञीपना, संज्ञी में भी पर्याप्तपना, मनुष्यपना, उत्तमदेश, उत्तम-कुल, सुडौल-शरीर, इन्द्रियों की पूर्णता, रोग-रहित आयु, भली बुद्धि, समीचीन धर्म का सुनना, उसे विचार-पूर्वक अपने मन में उतारना और धारण करना, उस पर विश्वास लाना, संयम स्वीकार करना, वैषयिक सुख से दूर हटना, क्रोधादि-कषायों को दूर करना, अनशनादिक तप की भावना का होना एवं समाधी पूर्वक मरण -- यह सब बातें उत्तरोत्तर दुर्लभ है । क्योंकि उपर्युक्त बातों में रुकावट डालने वाले मिथ्यात्व, विषय-कषायरूप विकारी परिणामों की प्रबलता रहती है जिससे ख्याति, पूजा, लाभ और भोगों की आकांक्षा रूप निदान-बंध आदि विभाव परिणाम होते ही रहते हैं । इस प्रकार की दुर्लभता को जानकार समाधि के विषय में किसी भी प्रकार का प्रमाद नहीं करना चाहिए । जैसा के कहा भी है -- इत्यतिदुर्लभरूप बोधि लब्ध्वा यदि प्रमादी स्यात् ।
अर्थात् -- उपर्युक्त प्रकार से जिसका प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है उस बोधि भाव को प्राप्त करके भी यदि मनुष्य प्रमादी बना रहे और उसे हाथ से खो दे तब फिर वह बेचारा इस भयंकर संसार रूप वन में बहुत काल तक परिभ्रमण करता ही रहेगा । इस प्रकार श्रंगार-रहित पात्र की भांति शान्त-रस रूप जो निर्जरा है, वह चली गई ।ससृतिभीमारण्ये, भ्रमति वराको नर सूचिर ॥ इस प्रकार श्री जयसेनाचार्य की बनाई हुई शुद्धात्मानुभूति के लक्षण वाली श्री समयसार जी की तात्पर्य नाम की टीका के हिन्दी अनुवाद में
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