
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
यो हि म्रियते जीवति वा, दु:खितो भवति सुखितो भवति वा, स खलु स्वकर्मोदयेनैव, तदभावे तस्य तथा भवितुमशक्यत्वात् । तत: मयायं मारित:, अयं जीवित:, अयं दु:खित: कृत:, अयं सुखित: कृतS: इति पश्यन् मिथ्यादृष्टि: ॥२५७-२५८॥ (कलश--अनुष्टुभ्) मिथ्यादृष्टे: स एवास्य बंधहेतुर्विपर्ययात् । य एवाध्यवसायोऽयमज्ञानात्माऽस्य दृश्यते ॥१७०॥ जो मरता है या जीता है, दु:खी होता है या सुखी होता है; वह वस्तुत: अपने कर्मोदय से ही होता है; क्योंकि अपने कर्मोदय के अभाव में उसका वैसा होना (मरना, जीना, दु:खी या सुखी होना) अशक्य है । इसकारण मैंने इसे मारा, इसे जिलाया या बचाया, इसे दु:खी किया, इसे सुखी किया - ऐसा माननेवाला मिथ्यादृष्टि है । (कलश--दोहा)
[अस्य मिथ्यादृष्टेः] मिथ्यादृष्टि के [यः एव अयम् अज्ञानात्मा अध्यवसायः दृश्यते] जो यह अज्ञानस्वरूप अध्यवसाय दिखाई देता है [सः एव] वह अध्यवसाय ही, [विपर्ययात्] विपर्ययस्वरूप (मिथ्या) होने से, [अस्य बन्धहेतुः] उस (मिथ्यादृष्टि) के बन्ध का कारण है ।
विविध कर्म बंधन करें, जो मिथ्याध्यवसाय । मिथ्यामति निशदिन करें, वे मिथ्याध्यवसाय ॥१७०॥ |
जयसेनाचार्य :
[जो मरदि जो य दुहिदो जायदि कम्मोदएण सो सव्वो] जो कोई मरता है अथवा दुखी होता है वह सब अपने कर्म के उदय से ही होता है अत: [तम्हा दु मारिदो दे दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा] इसलिये मैंने अमुक को मार दिया या अमुक को दुखी कर दिया यह तेरा विचार है, सो हे आत्मन् ! क्या झूँठा नहीं है ? अपितु झूँठा ही है । तथा [जो ण मरदि ण य दुहिदो सोवि य कम्मोदएण खलु जीवो] जो नहीं मरता है या दुखी नहीं होता है वह भी अपने कर्मोदय के द्वारा ही होता है ऐसा स्पष्ट है । [तम्हा ण मारिदो णो दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा] इसलिये मैंने उसे नहीं मरने दिया अथवा मैंने उसे दुखी नहीं होने दिया इस प्रकार का विचार हे आत्मन् ! क्या झूँठा नहीं है ? अपितु यह झूँठा ही है प्रत्युत इस अपध्यान के द्वारा तू अपने स्वस्थ-भाव से च्युत होकर कर्म-बन्ध ही करेगा -- यही इसका तात्पर्य है ॥२६९-२७०॥ |