
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
परजीवानहं हिनस्मि, न हिनस्मि, दुःखयामि, सुखयामि इति य एवायमज्ञानमयो-ऽध्यवसायो मिथ्याद्रष्टेः, स एव स्वयं रागादिरूपत्वात्तस्य शुभाशुभबन्धहेतुः ।अथाध्यवसायं बन्धहेतुत्वेनावधारयति -- य एवायं मिथ्याद्रष्टेरज्ञानजन्मा रागमयोऽध्यवसायः स एव बन्धहेतुः इत्यव-धारणीयम् । न च पुण्यपापत्वेन द्वित्वाद्बन्धस्य तद्धेत्वन्तरमन्वेष्टव्यं; एकेनैवानेनाध्यवसायेनदुःखयामि मारयामीति, सुखयामि जीवयामीति च द्विधा शुभाशुभाहंक ाररसनिर्भरतया द्वयोरपि पुण्यपापयोर्बन्धहेतुत्वस्याविरोधात् ॥२५९-२६१॥ मिथ्यादृष्टि जीव के मैं परजीवों को मारता हूँ, नहीं मारता हूँ, दु:खी करता हूँ, सुखी करता हूँ आदि रूप जो अज्ञानमय अध्यवसाय हैं; वे अध्यवसाय ही रागादिरूप होने से मिथ्यादृष्टि जीव को शुभाशुभ-बंध के कारण हैं । अब अध्यवसाय (अध्यवसान) भाव बंध के हेतु हैं - यह सुनिश्चित करते हैं । मिथ्यादृष्टि जीव के अज्ञान से उत्पन्न होनेवाले रागादिभाव-रूप अध्यवसाय ही बंध के कारण हैं - यह बात भली-भाँति निश्चित करना चाहिए; इसमें पुण्य-पाप का भेद नहीं खोजना चाहिए । तात्पर्य यह है कि पुण्यबंध का कारण कुछ और है और पाप-बंध का कारण कुछ और है - ऐसा भेद करने की कोई आवश्यकता नहीं है; क्योंकि इस एक ही अध्यवसाय के दु:खी करता हूँ, मारता हूँ और सुखी करता हूँ, जिलाता हूँ - इसप्रकार दो प्रकार से शुभ-अशुभ अहंकार-रस से परिपूर्णता के द्वारा पुण्य और पाप दोनों के बंध के कारण होने में अविरोध है । तात्पर्य यह है कि इस एक अध्यवसाय से ही पाप और पुण्य दोनों के बंध होने में कोई विरोध नहीं है । इसप्रकार वास्तव में हिंसा का अध्यवसाय ही हिंसा है - यह फलित हो गया । |
जयसेनाचार्य :
[एसा दु जा मदी दे दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्तेत्ति] हे आत्मन् ! 'मैं इन जीवों को सुखी या दुखी करता हूँ या कर सकता हूँ' इस प्रकार की बुद्धि, [एसा दे मूढमदी सुहासुहं बंधदे कम्मं] यह तेरी मूढ़-बुद्धि है जो कि तुझे स्वस्थ-भाव से दूर रखकर तेरे शुभाशुभ कर्मों का बन्ध करने वाली है और इसका कुछ भी कार्य नहीं है ॥२७१॥ यह राग-द्वेष-रूप-अध्यवसान-भाव ही बन्ध करने वाला है ऐसा आगे बतलाते हैं- मैं इन दृश्यमान जीवों को दुखी या सुखी करता हूँ या कर सकता हूँ', इस प्रकार जो अध्यवसित अर्थात् रागादिरूप विकार-भाव तेरे होता है वही उस समय शुद्धात्मा की भावना से गिरा हुआ होने के कारण तेरे पाप या पुण्य के बंध का कारण बनता है । वहीं तुझे दु:ख देता है इसके सिवाय और कोई भी तुझे दु:खादि देने के लिए नहीं आता, क्योंकि जीव के जो सुख या दुख-रूप परिणाम होता है वह अपने से ही उत्पन्न किये हुये शुभाशुभ-रूप कर्मों के आधीन होता है । तथा 'मैं पर जीवों को मार रहा हूँ, मार सकता हूँ, एवं जिला रहा हूँ या जिला सकता हूँ', ऐसा जो तेरा अध्यवसान है वह शुद्धात्मा के श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान से रहित होने वाले तुझको केवल पाप व पुण्य के बंध का करने वाला है और तेरे इस विचार से और कुछ भी होना जाना नहीं है क्योंकि पर जीव का मरना और जीना आदि तो उसी के उपार्जित किये हुए कर्म के आधीन होता है ॥२७२-२७३॥ |