
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
एतानि किल यानि त्रिविधान्यध्यवसानानि तानि समस्तान्यपि शुभाशुभकर्मबंधनिमित्तनि, स्वयमज्ञानादिरूपत्वात् । तथा हि -- यदिदं हिनस्मीत्याद्यध्यवसानं तत्, ज्ञानमयत्वेनात्मन: सदहेतुकज्ञप्त्येकक्रियस्य रागद्वेषविपाकमयीनां हननादिक्रियाणां च विशेषाज्ञानेन विवक्तात्माज्ञानात्, अस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम् । (यत्पुन: नारकोऽहमित्याद्यध्यवसानं तदपि ज्ञानमयत्वेनात्मन: सदहेतुकज्ञायकैभावस्य कर्मोदय-जनितानां नारकादिभावानां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानादस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शना-दस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम् ।) यत्पुनरेष धर्मो ज्ञायत इत्याद्यध्यवसानं तदपि, ज्ञानमयत्वेनात्मन: सदहेतुकज्ञानैकरूपस्य ज्ञेयमयानां धर्मादिरूपाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानात्, अस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मा-दर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम् । ततो बंधनिमित्तन्येवैतानि समस्तान्यध्यवसानानि । येषामेवैतानि च विद्यंते त एव मुनिकुंजरा: केचन, सदहेतुकज्ञप्त्येकक्रियं, सदहेतुकज्ञायकैकभावं, सदहेतुकज्ञानैरूपं च विविक्तमात्मानं जानंत:, सम्यक्पश्यंतोऽनुचरंतश्च, स्वच्छस्वच्छंदोद्यदमंदांत-र्ज्योतिषोऽत्यंतमज्ञानादिरूपत्वाभावात्, शुभेनाशुभेन वा कर्मणा न खलु लिप्येरम् ॥२७०॥ किमेतदध्यवसानं नामेति चेत् -- ये जो तीन प्रकार के अध्यवसान हैं, वे सभी स्वयं अज्ञानादिरूप (अज्ञान, मिथ्यादर्शन और अचारित्ररूप) होने से शुभाशुभ कर्मबंध के निमित्त हैं । अब इसे ही यहाँ विस्तार से समझाते हैं - 'मैं परजीवों को मारता हूँ' इत्यादि जो अध्यवसान है; उस अध्यवसानवाले जीव को ज्ञानमयपने के सद्भाव से सत्-रूप अहेतुक ज्ञप्ति ही जिसकी क्रिया है - ऐसे आत्मा का और राग-द्वेष के उदयमयी हनन आदि क्रियाओं का अन्तर नहीं जानने के कारण पर से
मात्र जिनके ये अध्यवसान विद्यमान नहीं हैं, वे ही कोई विरले मुनिकुंजर
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जयसेनाचार्य :
आगे यह बताते हैं कि निश्चय से यह आत्मा शरीरादि पर-द्रव्य से भिन्न है किन्तु जिस मोह के प्रभाव से यह अपने आपको पर-द्रव्य के साथ सम्बन्ध जोड़ता है, वह मोह भाव जिसके नहीं है, वह तपोधन है -- [एदाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि] ये ऊपर बतलाये गये तथा इसी प्रकार के और भी जो अध्यवसान हैं वे ही कर्म-बन्ध के निमित्तभूत होते, हैं जो कि शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार के हैं । ये अध्यवसान भाव जिनके नहीं होते [ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणी ण लिप्पंति] वे ही मुनीश्वर शुभ और अशुभ कर्म के द्वारा लिप्त नहीं होते हैं । इसका स्पष्ट तात्पर्य यह है कि जिस समय इस जीव को शुद्धात्मा का समीचीन-रूप श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान स्वरूप निश्चय-रत्नत्रय ही है लक्षण जिसका ऐसा भेद-विज्ञान नहीं होता तब उस समय वह जीव
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