इस आतमा में जबतलक संकल्प और विकल्प हैं । तबतलक अनुभूति ना तबतक शुभाशुभ कर्म हों ॥२८८॥
अन्वयार्थ : [जा संकप्पवियप्पो] जबतक संकल्प-विकल्प हैं, [ता] तबतक [असुहसुहजणयं] शुभ-अशुभ [कम्मं कुणदि] कर्म करता है [अप्पसरूवा रिद्धी] आत्मस्वभावमय ऋद्धि (स्वानुभूति)[जाव ण हियए परिफ्फुरई] तब-तक हृदय में प्रगट नहीं होती ।
अमृतचंद्राचार्य जयसेनाचार्य notes
जयसेनाचार्य :
अब यह बताते हैं की यह आत्मा इन पदार्थों को अपने ऊपर कब तक लादता है --
जबतक यह आत्मा बाह्यविषयरूप शरीर, स्त्री-पुत्र आदि में 'ये मेरे हैं' - इत्यादि रूप ममत्वमय संकल्प करता है और अन्तर में हर्ष-विषाद-रूप विकल्प करता है; तबतक अनन्त ज्ञानादि से समृद्ध आत्म-तत्त्व को हृदय में नहीं जानता है । जबतक इसप्रकार का आत्मा अन्तर में स्फुरायमान नहीं होता, तबतक शुभाशुभ-भावों को उत्पन्न करनेवाले कर्म करता है ।