
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
स्वपरयोरविवेके सति जीवस्याध्यवसितिमात्रमध्यवसानं; तदेव च बोधनमात्रत्वाद्बुद्धि:, व्यव-सानमात्रत्वाद्वय्यवसाय:, मननमात्रत्वान्मति:, विज्ञप्तिमात्रत्वाद्विज्ञानं, चेतनामात्रत्वाच्चित्तं, चितो भवनमात्रत्वाद्भाव:, चित: परिणमनमात्रत्वात्परिणाम: ॥२७१॥ (कलश--शार्दूलविक्रीडित) सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनै- स्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजित: । सम्यङ्निश्चयमेकमेव तदमी निष्कंपमाक्रम्य किं शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नंति संतो धृतिम् ॥१७३॥ स्व-पर का अविवेक होने पर जीव
(कलश--अडिल्ल)
[सर्वत्र यद् अध्यवसानम्] सर्व वस्तुओं में जो अध्यवसान होते हैं, [अखिलं जिनैः] वे सभी जिनेन्द्र भगवान ने [एवम् त्याज्यं उक्तं] पूर्वोक्त रीति से त्यागने योग्य कहे हैं, [तत् मन्ये] इसलिये हम यह मानते हैं कि [अन्य-आश्रयः व्यवहारः एव निखिलः अपि त्याजितः] 'पर जिसका आश्रय है ऐसा व्यवहार ही सम्पूर्ण छुड़ाया है' । [तत् अमी सन्तः] तब फिर, यह सत्पुरुष [एकम् सम्यक् निश्चयम् एव निष्कम्पम् आक्रम्य] एक सम्यक् निश्चय को ही निश्चलतया अंगीकार करके [शुद्धज्ञानघने निजे महिम्नि] शुद्ध ज्ञानघन स्वरूप, निज महिमा में (आत्म-स्वरूप में) [धृतिम् किं नबध्नन्ति] स्थिरता क्यों धारण नहीं करते ?
सब ही अध्यवसान त्यागने योग्य हैं, यह जो बात विशेष जिनेश्वर ने कही । इसका तो स्पष्ट अर्थ यह जानिये, अन्याश्रित व्यवहार त्यागने योग्य है ॥ परमशुद्धनिश्चयनय का जो ज्ञेय है, शुद्ध निजातमराम एक ही ध्येय है । यदि ऐसी है बात तो मुनिजन क्यों नहीं, शुद्धज्ञानघन आतम में निश्चल रहें ॥१७३॥ |
जयसेनाचार्य :
अब आगे की गाथा में आचार्यदेव अध्यवसान के पर्याय नाम गिनाते हैं --
इस प्रकार व्रतों के द्वारा पुण्य होता है और अव्रतों के द्वारा पाप, इस प्रकार का कथन दो गाथाओं में हुआ । उसी का विशेष वर्णन करने के लिये बाह्य-वस्तु रागादिरूप अध्यवसान का कारण होती है और रागादिरूप अध्यवसान ही बन्ध का कारण होता है, इस प्रकार के कथन को मुख्य लेकर शेष तेरह गाथायें हुई' । इस प्रकार पन्द्रह गाथाओं में यह चतुर्थ स्थल पूर्ण हुआ । |