
अमृतचंद्राचार्य :
जिसप्रकार अध:कर्म और उद्देश्य से उत्पन्न निमित्तभूत आहारादि पुद्गल-द्रव्य का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा (मुनि) नैमित्तिकभूत बंधसाधक भाव का प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग नहीं करता; उसीप्रकार समस्त पर-द्रव्यों का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा उनके निमित्त से होनेवाले भाव को भी नहीं त्यागता । अध:कर्म आदि पुद्गल-द्रव्य के दोषों को आत्मा वस्तुत: तो करता ही नहीं; क्योंकि वे पर-द्रव्य के परिणाम हैं; इसलिए उन्हें आत्मा के कार्यत्व का अभाव है । इसकारण अध:कर्म और उद्देशिक पुद्गल-कर्म मेरे कार्य नहीं हैं; क्योंकि वे सदा ही अचेतन हैं; इसलिए उनको मेरे कार्यत्व का अभाव है । इसप्रकार तत्त्व-ज्ञानपूर्वक निमित्तभूत पुद्गल-द्रव्य का प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा (मुनि) जिसप्रकार नैमित्तिकभूत बंधसाधकभाव का प्रत्याख्यान करता है; उसीप्रकार समस्त पर-द्रव्य का प्रत्याख्यान करता हुआ (त्याग करता हुआ) आत्मा उनके निमित्त से होनेवाले भावों का भी प्रत्याख्यान करता है । इसप्रकार द्रव्य और भाव को निमित्त-नैमित्तिकता है । (कलश--सवैया इकतीसा)
[इति] इसप्रकार (पर-द्रव्य और अपने भाव की निमित्त-नैमित्तिकता को) [आलोच्य] विचार करके, [तद्-मूलां इमाम् बहुभावसन्ततिम् समम् उद्धर्तुकामः] पर-द्रव्य-मूलक बहुभावों की सन्तति को एक ही साथ उखाड़ फेंकने का इच्छुक पुरुष, [तत् किल समग्रं परद्रव्यं बलात् विवेच्य] उस समस्त पर-द्रव्य को बलपूर्वक (उद्यमपूर्वक, पराक्रमपूर्वक) भिन्न करके (त्याग करके), [निर्भरवहत्-पूर्ण-एक-संविद्-युतं आत्मानं] अतिशयता से बहते हुए (धारावाही) पूर्ण एक संवेदन से युक्त अपने आत्मा को [समुपैति] प्राप्त करता है, [येन] कि जिससे [उन्मूलितबन्धः एषः भगवान् आत्मा] जिसने कर्म-बन्धन को मूल से उखाड़ फेंका है, ऐसा यह भगवान आत्मा [आत्मनि] अपने में ही (आत्मामें ही) [स्फूर्जति] स्फुरायमान (प्रकट) होता है ।परद्रव्य हैं निमित्त परभाव नैमित्तिक, नैमित्तिक भावों से कषायवान हो रहा । भावी कर्म-बंधन हो इन कषाय भावों से, बंधन में आतमा विलीयमान हो रहा॥ इसप्रकार जान परभावों की संतति को, जड़ से उखाड़ स्फुरायमान हो रहा । आनन्दकन्द निज-आतम के वेदन में, निजभगवान शोभायमान हो रहा ॥१७८॥ (कलश - सवैया इकतीसा)
[कारणानां रागादीनाम् उदयं] बन्ध के कारणरूप रागादि के उदय को [अदयम्] निर्दयता पूर्वक (उग्र पुरुषार्थ से) [दारयत्] विदारण करती हुई, [कार्यं विविधम् बन्धं] उस रागादिके कार्यरूप (ज्ञानावरणादि) अनेक प्रकार के बन्ध को [अधुना] अब [सद्यः एव] तत्काल ही [प्रणुद्य] दूर करके, [एतत् ज्ञानज्योतिः] यह ज्ञानज्योति [क्षपिततिमिरं] कि जिसने अज्ञानरूप अन्धकार का नाश किया है वह [साधु] भलीभाँति [सन्नद्धम्] सज्ज हुई, [तद्-वत् यद्-वत्] ऐसी सज्ज हुई कि [अस्य प्रसरम् अपरः कः अपि न आवृणोति] उसके विस्तारको अन्य कोई आवृत नहीं कर सकता ।बंध के जो मूल उन रागादिक भावों को, जड़ से उखाड़ने उदीयमान हो रही । जिसके उदय से चिन्मयलोक की, यह कर्मकालिमा विलीयमान हो रही ॥ जिसके उदय को कोई ना रोक सके, अद्भुत शौर्य से विकासमान हो रही । कमर कसे हुए धीर-वीर गंभीर, ऐसी दिव्यज्योति प्रकाशमान हो रही ॥१७९॥ इसप्रकार बन्ध (रंगभूमिसे) बाहर निकल गया । इसप्रकार श्री समयसार की (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य देव प्रणीत श्री समयसार परमागम की) श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्य देव विरचित आत्मख्याति नामक टीका में बन्ध का प्ररूपक ७वाँ अंक समाप्त हुआ । |
जयसेनाचार्य :
आगे कहते हैं कि आहार लेने के विषय में मान, अपमान, सरस, नीरस आदि की चिन्तारूप राग-द्वेष न करने के कारण आहार लेते हुए भी ज्ञानी जीव के आहारकृत बन्ध नहीं होता -- स्वयं अपने बनाने से संपन्न हुआ आहार आधाकर्म शब्द से कहा जाता है । उसी को प्रथम लेकर कहते हैं कि आधाकर्मादिक जो दोष हैं वह सब शुद्धात्मा से पृथग्भूत आहाररूप पुद्गल-द्रव्य के गुण हैं, क्योंकि वह सब उसी आहार रूप पुद्गल-द्रव्य के पकाने-पकाने आदि क्रियारूप होते हैं, अत: निश्चय से ज्ञानी उसे कैसे कर सकता है ? एवं किसी दूसरे गृहस्थ के द्वारा उन सबकी वह अनुमोदना भी वह कैसे कर सकता है ? कभी नहीं कर सकता । क्योंकि ज्ञानी के तो निर्विकल्प समाधि होती है, उसके होने पर उसके आहार विषयक मन, वचन, काय और कृत, कारित और अनुमोदना का अभाव होता है । इसप्रकार आधाकर्म दोष के व्याख्यान रूप में दो गाथाएं कहीं गईं । |