आधाकम्मं उद्देसियं च पुग्गलमयं इमं दव्वं ।
कह तं मम होदि कदं जं णिच्चमचेदणं वुत्तं ॥298॥
आधाकम्मं उद्देसियं च पुग्गलमयं इमं दव्वं ।
कह तं मम कारविदं जं णिच्चमचेणं वुत्तं ॥299॥
उद्देशिक अध:कर्म जो पुद्गल दरबमय अचेतन
कहे जाते वे सदा मेरे किये किस भाँति हों ? ॥२९८॥
उद्देशिक अध:कर्म जो पुद्गलदरबमय अचेतन
कहे जाते वे सदा मेरे कराये किसतरह ? ॥२९९॥
अन्वयार्थ : पर के उद्देश्य से किया हुआ यह आधाकर्म पुद्गल-मयी द्रव्य है तथा नित्य ही अचेतन है ऐसा कहा गया है सो यह मेरी की हुई कैसे हो सकती है अथवा मेरी कराई हुई कैसे हो सकती है ।

  अमृतचंद्राचार्य    जयसेनाचार्य    notes 

जयसेनाचार्य :

जो अध:कर्मरूप तथा औद्देशिकरूप आहारमय पुद्गल-द्रव्य है वह चेतनात्मक शुद्ध आत्म-द्रव्य से पृथक होने के कारण सर्वथा अचेतन कहा गया है तथा वह मेरे द्वारा किया हुआ कैसे हो सकता है ? कराया हुआ भी कैसे हो सकता है ? कभी नहीं हो सकता है, क्योंकि निश्चय रत्नत्रय ही है लक्षण जिसका, ऐसे भेद-ज्ञान के होने पर आहार के विषय में मन, वचन, काय और कृत कारित, अनुमोदना का अभाव होता है । इसप्रकार औद्देशिक दोष के व्याख्यान की मुख्यता से दो गाथाएं पूर्ण हुईं । तात्पर्य तह है कि बाद में, पहले या वर्तमान में कभी भी योग्य आहार आदि के विषय में मन, वचन, काय और कृत कारित, अनुमोदना रूप नव प्रकार के विकल्पों से जो शुद्ध है, रहित है उनके दूसरे के द्वारा बनाए हुए आहारादि विषयक बन्ध कभी हो नहीं सकता है मन, वचन, काय और कृत कारित, अनुमोदना यदि दूसरे के परिणामों द्वारा बन्ध हो जाय तो कभी भी किसी को निर्वाण नहीं हो सकेगा, सो कहा भी है --

णव-कोडी-कम्म-सुद्धो पच्छा पुरदो ये संपदियकाले
पर-सुह-दुक्ख-णिमित्तं बज्झदि जदि णत्थि णिव्वाणं
अर्थ – त्रिकाल सम्बन्धी कार्यों से मन, वचन, काय और कृत कारित, अनुमोदना रूप नव कोटितया जो दूर है ऐसा जीव भी दूसरों के सु:ख-दु:ख का निमित्त लेकर यदि कर्म बांधता होवे तब तो किसी को भी मुक्ति नहीं हो सकेगी । अत: जो ज्ञानी जीव हैं अर्थात् जो आत्म-समाधि में लीन हैं उनके आहार ग्रहण करने से होने वाला बन्ध भी नहीं होता

ऐसा व्याख्यान वाली चार गाथाओं से यह छठ्ठा स्थल पूर्ण हुआ ।