
अमृतचंद्राचार्य :
यथोक्त वस्तु-स्वभाव को जानता हुआ ज्ञानी स्वयं के शुद्ध-स्वभाव से च्युत नहीं होता; इसकारण वह मोह-राग-द्वेष भावों रूप स्वयं परिणमित नहीं होता और दूसरे के द्वारा भी परिणमित नहीं किया जाता । यही कारण है कि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-भावरूप ज्ञानी रागद्वेष-मोह आदि भावों का अकर्ता ही है - ऐसा नियम है । (कलश -- दोहा)
ऐसे वस्तु स्वभाव को ना जाने अल्पज्ञ । धरे एकता राग में नहीं अकारक अज्ञ ॥१७७॥ |
जयसेनाचार्य :
इस प्रकार चिदानन्द ही है एक लक्षण जिसका, ऐसे अपने स्वभाव को जानता हुआ ज्ञानी जीव रागादि नहीं करता है इसलिये वह नूतन-रागादि की उत्पत्ति के कारणभूत कर्मों का करता भी नहीं होता, ऐसा आगे बतलाते हैं -- [णवि रागदोसमोहं कुव्वदि णाणी कसायभावं वा] रागादि दोषों से रहित जो शुद्धात्मा, उसके स्वभाव से पृथक् रहने वाले राग-द्वेष-मोह भाव को तथा किसी भी प्रकार के कषाय-भाव को क्रोधादि रूप परिणाम को ज्ञानी जीव नहीं करता क्योंकि वह [सयमप्पणो ण सो तेण कारगो तेसिं भावाणं] कर्मोदय रूप सहकारी कारण के बिना अपने-आप ही अपने उन विकार भावों का कर्ता शुद्ध भाव के द्वारा नहीं हो सकता ॥३०२॥ |