+ ज्ञानी जीव आस्रव का कर्त्ता नहीं होता -
ण य रागदोसमोहं कुव्वदि णाणी कसायभावं वा । (280)
सयमप्पणो ण सो तेण कारगो तेसिं भावाणं ॥302॥
न च रागद्वेषमोहं करोति ज्ञानी कषायभावं वा ।
स्वयमात्मनो न स तेन कारकस्तेषां भावानाम् ॥२८०॥
ना स्वयं करता मोह एवं राग-द्वेष-कषाय को
इसलिए ज्ञानी जीव कर्ता नहीं है रागादि का ॥२८०॥
अन्वयार्थ : [च] और [णाणी] ज्ञानी [रागदोसमोहं] राग-द्वेष-मोह [कसायभावं वा] अथवा कषायभाव [सयमप्पणो] स्वयं से अपने में नहीं करता [सो ते] इसकारण वह [ण कारगो तेसिं भावाणं] उन भावों का कारक (कर्ता) नहीं है ।
Meaning : The knowledgeable Self does not, on his own accord, produce in himself dispositions like attachment, aversion, delusion or passions. Therefore, he is not the causal agent for these dispositions.

  अमृतचंद्राचार्य    जयसेनाचार्य    notes 

अमृतचंद्राचार्य :

यथोक्त वस्तु-स्वभाव को जानता हुआ ज्ञानी स्वयं के शुद्ध-स्वभाव से च्युत नहीं होता; इसकारण वह मोह-राग-द्वेष भावों रूप स्वयं परिणमित नहीं होता और दूसरे के द्वारा भी परिणमित नहीं किया जाता । यही कारण है कि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक-भावरूप ज्ञानी रागद्वेष-मोह आदि भावों का अकर्ता ही है - ऐसा नियम है ।

(कलश -- दोहा)
ऐसे वस्तु स्वभाव को ना जाने अल्पज्ञ ।
धरे एकता राग में नहीं अकारक अज्ञ ॥१७७॥
जयसेनाचार्य :

इस प्रकार चिदानन्द ही है एक लक्षण जिसका, ऐसे अपने स्वभाव को जानता हुआ ज्ञानी जीव रागादि नहीं करता है इसलिये वह नूतन-रागादि की उत्पत्ति के कारणभूत कर्मों का करता भी नहीं होता, ऐसा आगे बतलाते हैं --

[णवि रागदोसमोहं कुव्वदि णाणी कसायभावं वा] रागादि दोषों से रहित जो शुद्धात्मा, उसके स्वभाव से पृथक् रहने वाले राग-द्वेष-मोह भाव को तथा किसी भी प्रकार के कषाय-भाव को क्रोधादि रूप परिणाम को ज्ञानी जीव नहीं करता क्योंकि वह [सयमप्पणो ण सो तेण कारगो तेसिं भावाणं] कर्मोदय रूप सहकारी कारण के बिना अपने-आप ही अपने उन विकार भावों का कर्ता शुद्ध भाव के द्वारा नहीं हो सकता ॥३०२॥