
अमृतचंद्राचार्य :
जिसप्रकार स्वयं परिणमन स्वभाववाला होने पर भी स्फटिक-मणि अपने शुद्ध-स्वभावत्व के कारण स्वयं में रागादि का निमित्तत्व न होने से अपने आप लालिमा आदि रूप परिणमित नहीं होता; अपितु उस पर-द्रव्य के द्वारा ही शुद्ध-स्वभाव से च्युत होता हुआ लालिमा आदि रूप परिणमित किया जाता है; जो पर-द्रव्य स्वयं लालिमा आदि रूप होने से स्फटिक-मणि की लालिमा में निमित्त होता है । उसीप्रकार स्वयं परिणमन स्वभाववाला होने पर भी यह शुद्ध आत्मा अपने शुद्ध-स्वभाव के कारण स्वयं में रागादि का निमित्तत्व न होने से अपने आप रागादिरूप परिणमित नहीं होता; अपितु उस परद्रव्य के द्वारा ही शुद्ध-स्वभाव से च्युत होता हुआ रागादिरूप परिणमित किया जाता है; जो पर-द्रव्य स्वयं रागादिरूप होने से आत्मा के रागादिरूप परिणमन में निमित्त होता है -- ऐसा वस्तु का स्वभाव है । (कलश--सोरठा)
[यथा अर्ककान्तः] सूर्यकान्तमणि की भाँति (जैसे सूर्यकान्तमणि स्वतःही अग्निरूप परिणमित नहीं होता, उसके अग्निरूप परिणमन में सूर्यबिम्ब निमित्त है, उसीप्रकार) [आत्मा आत्मनः रागादिनिमित्तभावम् जातु न याति] आत्मा अपने को रागादि का निमित्त कभी भी नहीं होता, [तस्मिन् निमित्तं परसंगः एव] उसमें निमित्त परसंग ही (पर-द्रव्य का संग ही) है [अयम् वस्तुस्वभावः उदेति तावत्] ऐसा वस्तु-स्वभाव प्रकाशमान है । अग्निरूप न होय, सूर्यकान्तमणि सूर्य बिन । रागरूप न होय, यह आतम परसंग बिन ॥१७५॥ (कलश--दोहा)
[इति स्वं वस्तुस्वभावं ज्ञानी जानाति] ज्ञानी ऐसे अपने वस्तु-स्वभाव को जानता है, [तेन सः रागादीन् आत्मनः न कुर्यात्] इसलिये वह रागादि को निजरूप नहीं करता, [अतः कारकः न भवति] अतः वह (रागादि का) कर्ता नहीं है ।
ऐसे वस्तुस्वभाव को, जाने विज्ञ सदीव । अपनापन ना राग में, अत: अकारक जीव ॥१७६॥ |
जयसेनाचार्य :
अब यह बताते हैं कि जिन रागादिभावों से आत्मा को बन्ध होता है वे, रागादि विकारी भाव कैसे बनते है ? -- जैसे स्कटिक-मणि जो कि निर्मल होता है वह किसी बाहरी लगाव के बिना अपने आप ही लाल आदि रूप परिणमन नहीं करता है किन्तु ज़पा-पुष्पादि बाह्य दूसरे-दूसरे द्रव्य के द्वारा वह लाल आदि बनता है उसी प्रकार ज्ञानी जीव भी उपाधि से रहित अपने चिच्चमत्कार रूप स्वभाव से वह शुद्ध ही होता है जो कि जपा-पुष्प स्थानीय कर्मोदयरूप-उपाधि के बिना रागादिरूप विभावों के रूप में परिणमन नहीं करता है । हाँ, जब कर्मोदय से होने वाले रागादिरूप-दोषभावों से अपनी सहज स्वच्छता से च्युत होता है तब वह रागी बनता है । इससे यह बात मान लेनी पड़ती है कि जो रागादिक हैं वे सब कर्मोदय जनित हैं, किन्तु ज्ञानी जीव के स्वयं के भाव नहीं हैं ॥३००-३०१॥ |