
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
बंधचिंताप्रबन्धो मोक्षहेतुरित्यन्ये, तदप्यसत्; न कर्मबद्धस्य बन्धचिंताप्रबन्धो मोक्षहेतु:, अहेतुत्वात्, निगडादिबद्धस्य बन्धचिंताप्रबन्धवत् । एतेन कर्मबन्धविषयचिंताप्रबन्धात्मकविशुद्ध-धर्मध्यानांधबुद्धयो बोध्यंते । कस्तर्हि मोक्षहेतुरिति चेत् -- कर्मबद्धस्य बन्धच्छेदो मोक्षहेतु:, हेतुत्वात्, निगडादिबद्धस्य बन्ध-च्छेदवत् । एतेन उभयेऽपि पूर्वे आत्मबन्धयोर्द्विधाकरणे व्यापार्येते । किमयमेव मोक्षहेतुरिति चेत् -- य एव निर्विकारचैतन्यचमत्कारमात्रमात्मस्वभावं तद्विकारकारकं बन्धानां च स्वभावं विज्ञाय, बन्धेभ्यो विरमति, स एव सकलकर्ममोक्षं कुर्यात् । एतेनात्मबन्धयोर्द्विधा-करणस्य मोक्षहेतुत्वं नियम्यते ॥२९१-२९३॥ केनात्मबन्धौ द्विधा क्रियेते इति चेत् -- अन्य अनेक लोग ऐसा कहते हैं कि बंधसंबंधी विचार-श्रंखला ही मोक्ष का कारण है; किन्तु यह भी ठीक नहीं है । कर्म से बँधे हुए जीवों को बंध-संबंधी विचार-श्रंखला भी मोक्ष का कारण नहीं है; क्योंकि जिसप्रकार बेड़ी आदि से बँधे हुए पुरुष को उक्त बंधन संबंधी विचार-श्रंखला बंध से छूटने का कारण (उपाय) नहीं है; उसीप्रकार कर्म से बँधे हुए पुरुष को कर्म-बंध-संबंधी विचार-श्रंखला कर्म-बंध से मुक्ति का कारण (उपाय) नहीं है । इस कथन से कर्म-संबंधी विचार-श्रंखला-रूप विशुद्ध (शुभ) भाव-रूप धर्म-ध्यान से जिनकी बुद्धि अंध है; उन्हें समझाया है । यदि बंध-संबंधी विचार-श्रंखला भी मोक्ष का हेतु नहीं है तो फिर मोक्ष का हेतु क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि कर्म से बँधे हुए जीव को बंध का छेद ही मोक्ष का कारण है; क्योंकि जिस प्रकार बेड़ी आदि से बँधे हुए पुरुष को बंधन का छेद ही बंधन से छूटने का उपाय है; उसीप्रकार कर्म से बँधे हुए जीव को कर्म-बंधन का छेद ही कर्म-बंधन से छूटने का उपाय है । इस कथन से पूर्व-कथित बंध के स्वरूप के ज्ञान-मात्र से ही संतुष्ट और बंध का विचार करनेवाले - इन दोनों को आत्मा और बंध के द्विधाकरण के व्यापार में लगाया जाता है । मात्र यही मोक्ष का कारण क्यों है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि जो निर्विकार चैतन्य-चमत्कार-मात्र आत्म-स्वभाव को और उस आत्मा को विकृत करनेवाले बंध के स्वभाव को जानकर बंध से विरक्त होता है; वही समस्त कर्मों से मुक्त होता है । इस कथन से ऐसा नियम (सुनिश्चित) किया जाता है कि आत्मा और बंध का द्विधाकरण (पृथक्करण) ही मोक्ष का कारण है । |
जयसेनाचार्य :
[जह बंधे चिंतंतो बंधणबद्धो ण पावदि विमोक्खं] जैसे बंधन से बँधा हुआ कोई भी पुरुष उसके विषय में विचार करने मात्र से ही बंधन-मुक्त नहीं हो जाता है । [तह बंधे चिंतंतो जीवो वि ण पावदि विमोक्खं] उसी प्रकार जीव भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप बंध के विषय का मात्र विचार करता हुआ ही स्व-शुद्धात्मा की प्राप्ति रूप है लक्षण जिसका, उस मोक्ष को कभी प्राप्त नहीं हो सकता है । भावार्थ यह है कि समस्त शुभ और अशुभ बाह्य-द्रव्यों के आलम्बन से रहित चिदानंदैकरूप शुद्धात्मा के आलम्बन-स्वरूप जो वीतराग-धर्म-ध्यान या शुक्ल-ध्यान से रहित जीव, बंध-प्रपंच की रचना की चिंतारूप सराग-धर्म-ध्यान स्वरूप-शुभोपयोग से, स्वर्गादि-सुख का कारणभूत पुण्य-बंध प्राप्त करता है परन्तु मोक्ष नहीं पाता है ॥३११॥ इस पर प्रश्न होता है की फिर मोक्ष कैसे होगा ? इसका उत्तर देते हैं :- [जह बंधे छेत्तूणय बंधणबद्धो दु पावदि विमोक्खं] जैसे बंधन में बँधा हुआ कोई पुरुष रस्सी के बंध को, सांकल के बंध को, व काठ की बेडी के बंध को किसी को तोड़कर, किसी को छोडकर एवं किसी को खोल कर अपने विज्ञान और पुरुषार्थ के बल से उस बंधन से छुटकारा पाता है [तह बंधे छेत्तूणय जीवो संपावदि विमोक्खं] उसी प्रकार यह जीव भी वीतराग एवं विकल्प रहित स्व-संवेदन-ज्ञान के बल से बंध को छेद कर, उसे दो रूप कर अर्थात् भिन्न-भिन्न, खोलकर, विदारण कर अपने शुद्धात्मा के उपलंभ स्वरूप मोक्ष को प्राप्त करता है । यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि इस प्राभृत-ग्रन्थ में निर्विकल्प स्व-संवेदन ज्ञान होता हुआ बताया गया है वह तो किसी भी प्रकार घटित नहीं होता है क्योंकि चक्षु आदि के द्वारा दर्शन होता है जो कि सत्तामात्र अवलोकन स्वरूप है, उसे जैनमत में निर्विकल्प कहा है । हाँ, बौद्धमत में ज्ञान को निर्विकल्प कहा गया है, किन्तु वह भी उत्तर क्षण में विकल्प का जनक होता है परन्तु जैनमत में ज्ञान विकल्प का उत्पादक न होकर अपने स्वरुप से ही सविकल्प तथा स्व-पर प्रकाशक कहा गया है? इसका उत्तर यह है कि जैनमत अनेकान्तात्मक है इसलिए उसमें ज्ञान को कथंचित् सविकल्प और कथंचित् निर्विकल्प कहा गया है । जैसे विषयानन्द रूप सराग स्वसंवेदन ज्ञान होता है वह सराग-संवित्ति के विकल्प-रूप है अत: सविकल्प होता है किन्तु वहीं पर शेष अनिच्छित सूक्ष्म-विकल्पों का सद्भाव होने पर भी वहाँ पर उनकी मुख्यता नहीं होती इसलिए उसे निर्विकल्प भी कहा जाता है । वैसे ही अपनी शुद्धात्मा की संवित्तिरूप वीतराग स्व-संवेदन ज्ञान होता है वह भी स्व-संवित्तिरूप एक आकार से तो सविकल्प होता है, फिर भी वहाँ पर बाह्य विषयों के अनिच्छित सूक्ष्म विकल्प भी होते हैं उनके होनेपर भी उनकी वहाँ मुख्यता नहीं होती इसलिए उसे निर्विकल्प भी कहते हैं। और जहाँ ईहापूर्वक स्वसंवित्याकार जो अंतर्मुख प्रतिभास होता है वहीं पर बहिर्विषयों के भी अनिश्चित सूक्ष्म विकल्प भी होते हैं इसलिए वह स्व-पर प्रकाशक भी होता है, यही निर्विकल्प व सविकल्प ज्ञान का तथा स्व-पर प्रकाशक ज्ञान का व्याख्यान स्पष्ट सिद्ध है । इसी का आगम, अध्यात्म तर्क और शास्त्र के अनुसार विशेष व्याख्यान किया जावे तब तो बहुत विस्तार हो जावे सो इस अध्यात्म शास्त्र में नहीं किया गया है ॥३११-३१५॥ इस प्रकार मोक्ष-पदार्थ की संक्षेप सूचना करते हुए सात गाथाओं द्वारा प्रथम स्थल पूर्ण हुआ । क्या यही मोक्ष का मार्ग है ? इसका समाधान करते हैं :- |