+ आत्मा और बन्ध को भिन्न कैसे किया जाए ? -
जीवो बंधो य तहा छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं । (294)
पण्णाछेदणएण दु छिण्णा णाणत्तमावण्णा ॥316॥
जीवो बन्धश्च तथा छिद्येते स्वलक्षणाभ्यां नियताभ्याम्
प्रज्ञाछेदनकेन तु छिन्नौ नानात्वमापन्नो ॥२९४॥
जीव एवं बंध निज-निज लक्षणों से भिन्न हों
दोनों पृथक् हो जायें प्रज्ञाछैनि से जब छिन्न हों ॥२९४॥
अन्वयार्थ : [जीवो बंधो य तहा] जीव तथा बंध [णियएहिं] नियत [सलक्खणेहिं] स्वलक्षणों से [छिज्जंति] छेदे जाते हैं । [पण्णाछेदणएण] प्रज्ञारूपी छैनी से [दु छिण्णा] छेदे जाने पर [णाणत्तमावण्णा] वे नानात्व (भिन्नपने) को प्राप्त होते हैं ।
Meaning : The Self and the karmic bondage are differentiated on the basis of their own intrinsic nature. These two are chiselled (separated) with the help of the instrument of selfdiscrimination.

  अमृतचंद्राचार्य    जयसेनाचार्य    notes 

अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
केनात्मबन्धौ द्विधा क्रियेते इति चेत् --
आत्मबन्धयोर्द्विधाकरणे कार्ये कर्तुरात्मन: करणमीमांसायां, निश्चयत: स्वतो भिन्नकरणासंभवात्‌ भगवती प्रज्ञैव छेदनात्मकं करणम्‌ । तया हि तौ छिन्नौ नानात्वमवश्यमेवापद्येते; तत: प्रज्ञयैवात्म-बन्धयोर्द्विधाकरणम्‌ ।
ननु कथमात्मबन्धौ चेत्यचेतकभावेनात्यंतप्रत्यासत्तेरेकीभूतौ भेदविज्ञानाभावादेकचेतकवद्वय्य-वह्रियमाणौ प्रज्ञया छेत्तुं शक्येते ?
नियतस्वलक्षणसूक्ष्मान्त:संधिसावधाननिपातनादिति बुध्येमहि ।
आत्मनो हि समस्तशेषद्रव्यासाधारणत्वाच्चैतन्यं स्वलक्षणम्‌ । तत्तु प्रवर्तमानं यद्यदभिव्याप्य प्रवर्तते निवर्तमानं च यद्यदुपादाय निवर्तते तत्तत्समस्तमपि सहप्रवृत्तं क्रमप्रवृत्तं वा पर्यायजातमात्मेति लक्षणीय:, तदेकलक्षणलक्ष्यत्वात्‌; समस्तसहक्रमप्रवृत्तनंतपर्यायाविनाभावित्वाच्चैतन्यस्य चिन्मात्र एवात्मा निश्चेतव्य:, इति यावत्‌ ।
बंधस्य तु आत्मद्रव्यासाधारणारागादय: स्वलक्षणम्‌ । न च रागादय आत्मद्रव्यसाधारणतां ब्रिभाणा: प्रतिभासंते, नित्यमेव चैतन्यचमत्कारादतिरिक्तत्वेन प्रतिभासमानत्वात्‌ ।
न च यावदेव समस्तस्वपर्यायव्यापि चैतन्यं प्रतिभासित तावन्त एव रागादय: प्रतिभान्ति, रागादीनंतरेणापि चैतन्यस्यात्मलाभसंभावनात्‌ । यत्तु रागादीनां चैतन्येन सहैवोत्प्लवनं तच्चेत्यचेतकभावप्रत्यासत्तेरेव, नैकद्रव्यत्वात्‌; चेत्यमानस्तु रागादिरात्मन:, प्रदीप्यमानो घटादि: प्रदीपस्य प्रदीपकतामिव, चेतकतामेव प्रथयेत्‌, न पुना रागादिताम्‌ । एवमपि तयोरत्यंतप्रत्या-सत्त्या भेदसंभावनाभावादनादिरस्त्येकत्वव्यामोह:, स तु प्रज्ञयैव छिद्यत एव ॥२९४॥
(कलश--स्रग्धरा)
प्रज्ञाछेत्री शितेयं कथमपि निपुणै: पातिता सावधानै:
सूक्ष्मेऽन्त:संधिबन्धे निपतति रभसादात्मकर्मोभयस्य ।
आत्मानं मग्नमंत:स्थिरविशदलसद्धाम्नि चैतन्यपूरे
बन्धं चाज्ञानभावे नियमितमभित: कुर्वती भिन्नभिन्नौ ॥१८१॥



'आत्मा और बन्ध किस (साधन) के द्वारा द्विधा (अलग) किये जाते हैं ?' ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं -

आत्मा और बंध के द्विधा करनेरूप कार्य का कर्ता तो आत्मा है; किन्तु करण कौन है - इस बात पर गंभीरता से विचार करने पर यह सुनिश्चित होता है कि भगवती प्रज्ञा ही छेदनात्मक करण है; क्योंकि निश्चय से करण कर्ता से भिन्न नहीं होता । प्रज्ञा के द्वारा आत्मा और बंध का छेद करने पर वे अवश्य ही भिन्नता को प्राप्त होते हैं; इसलिए यह सुनिश्चित ही है कि प्रज्ञा द्वारा ही आत्मा और बंध का द्विधाकरण होता है ।

प्रश्न – आत्मा चेतक है और बंध चेत्य है । ये दोनों अज्ञानदशा में चेत्य-चेतकभाव की अत्यन्त निकटता के कारण एक जैसे हो रहे हैं, एक जैसे ही अनुभव में आ रहे हैं और भेदविज्ञान के अभाव के कारण मानो वे दोनों चेतक ही हों - ऐसा व्यवहार किया जाता है, उन्हें व्यवहार में एकरूप में ही माना जाता है - ऐसी स्थिति में उन्हें प्रज्ञा द्वारा कैसे छेदा जा सकता है?

उत्तर –
आत्मा और बंध के नियत स्वलक्षणों की सूक्ष्म अन्त:संधि में प्रज्ञाछैनी को सावधानी से पटकने से उनको छेदा जा सकता है - ऐसा हम मानते हैं ।

अन्य समस्त द्रव्यों में असाधारण होने से, अन्य द्रव्यों में नहीं पाया जाने से चैतन्य आत्मा का लक्षण (स्व-लक्षण) है । वह चैतन्य प्रवर्तमान होता हुआ जिस-जिस पर्याय में व्याप्त होकर प्रवर्तता है और निवर्तमान होता हुआ जिस-जिस पर्याय को ग्रहण करके निवर्तता है; वे समस्त सहवर्ती और क्रमवर्ती पर्यायें आत्मा हैं - इसप्रकार लक्षित करना चाहिए; क्योंकि आत्मा उसी एक चैतन्य-लक्षण से लक्षित है ।

इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि समस्त सहवर्ती और क्रमवर्ती अनन्त पर्यायों के साथ अविनाभावी सम्बन्ध होने से आत्मा चिन्मात्र ही है - ऐसा निश्चय करना चाहिए ।

बंध का लक्षण आत्मद्रव्य से असाधारण - ऐसे रागादिभाव हैं; ये रागादिभाव आत्म-द्रव्य के साथ साधारणता (एकत्वरूप) को धारण करते हुए प्रतिभासित नहीं होते, अपितु वे सदा चैतन्य-चमत्कार से भिन्नरूप ही प्रतिभासित होते हैं । तात्पर्य यह है कि जिन-जिन गुण-पर्यायों में चैतन्य-लक्षण व्याप्त होता है; वे सब गुण और पर्यायें आत्मा ही हैं - ऐसा जानना चाहिए ।

और यह चैतन्य आत्मा अपनी समस्त पर्यायों में व्याप्त होता हुआ जितना प्रतिभासित होता है, उतने ही रागादिक प्रतिभासित नहीं होते; क्योंकि जहाँ रागादिक नहीं होते, वहाँ भी चैतन्य का आत्म-लाभ होता है अर्थात् आत्मा होता है । और जो चैतन्य के साथ रागादिभावों की उत्पत्ति भासित होती है; वह तो चेत्य-चेतक-भाव (ज्ञेय-ज्ञायक-भाव) की अति निकटता के कारण ही भासित होती है, रागादि और आत्मा के एकत्व के कारण नहीं ।

जिसप्रकार दीपक के द्वारा प्रकाशित किये जानेवाले घटादिक पदार्थ दीपक के प्रकाशत्व को ही प्रगट करते हैं, घटत्वादिक को नहीं; उसीप्रकार आत्मा के ज्ञान में ज्ञात होनेवाले रागादिभाव आत्मा के चेतकत्व को ही प्रकट करते हैं, रागादिकत्व को नहीं । ऐसा होने पर भी आत्मा और बंध की अति निकटता के कारण भेदसंभावना का अभाव होने से अर्थात् भेद दिखाई न देने से अज्ञानी को अनादिकाल से आत्मा और रागादि में एकत्व का व्यामोह (भ्रम) है; जो कि प्रज्ञा द्वारा अवश्य ही छेदा जा सकता है ।

तात्पर्य यह है कि उक्त एकत्व के व्यामोह को आत्मसन्मुख ज्ञान की पर्याय द्वारा अवश्य ही मिटाया जा सकता है ।

(कलश--हरिगीत)
सूक्ष्म अन्त:संधि में अति तीक्ष्ण प्रज्ञाछैनि को ।
अति निपुणता से डालकर अति निपुणजन ने बंध को ॥
अति भिन्न करके आतमा से आतमा में जम गये ।
वे ही विवेकी धन्य हैं जो भवजलधि से तर गये ॥१८१॥
[इयं शिता प्रज्ञाछेत्री] यह प्रज्ञारूप तीक्ष्ण छैनी [निपुणैः] प्रवीण पुरुषों के द्वारा [कथम् अपि] किसी भी प्रकार से (यत्नपूर्वक) [सावधानैः] सावधानतया (निष्प्रमादतया) [पातिता] पटकने पर, [आत्म-कर्म-उभयस्य सूक्ष्मे अन्तःसन्धिबन्धे] आत्मा और कर्म - दोनों के सूक्ष्म अन्तरंग में सन्धि के बन्ध में [रभसात्] शीघ्र [निपतति] पड़ती है । किस प्रकार पड़ती है ? [आत्मानम् अन्तः-स्थिर-विशद-लसद्-धाम्नि चैतन्यपूरे मग्नम्] वह आत्मा को तो जिसका तेज अन्तरंग में स्थिर और निर्मलतया देदीप्यमान है, ऐसे चैतन्य-प्रवाह में मग्न करती हुई [] और [बन्धम् अज्ञानभावे नियमितम्] बन्ध को अज्ञानभाव में निश्चल (नियत) करती हुई [अभितः भिन्नभिन्नौ कुर्वती] इसप्रकार आत्मा और बन्ध को सर्वतः भिन्न-भिन्न करती हुई पड़ती है ।
जयसेनाचार्य :

इस पर प्रश्न होता है कि आत्मा और बंध को किस प्रकार भिन्न-भिन्न किया जाए ?

[जीवो बंधो य तहा छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं] जैसे जीव और बंध ये दोनों अपने-अपने लक्षणों द्वारा पृथक् किये जाते हैं । [पण्णाछेदणएण दु छिण्णा णाणत्तमावण्णा] उसी प्रकार प्रज्ञारूपी छैनी है लक्षण जिसका, ऐसे भेद-ज्ञान के द्वारा भिन्नता को प्राप्त हो जाते हैं । क्योंकि जीव का लक्षण शुद्ध-चैतन्य है और बंध का लक्षण मिथ्यात्व-रागादिक है उनके द्वारा भिन्न-भिन्न कर लिये जाते हैं । किससे पृथक् किये जाते हैं ? कि शुद्धात्मा की अनुभूति है लक्षण जिसका, ऐसी भेद-ज्ञान रूपी प्रज्ञा वही है छेदने वाली छैनी, उससे पृथक् किये जाते हैं । छिन्न-छिन्न होने पर वह नानापन को प्राप्त हो जाते हैं ॥३१६॥