
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
चेतनाया दर्शनज्ञानविकल्पानतिक्रमणाच्चेतयितृत्वमिव द्रष्टृत्वं ज्ञातृत्वं चात्मन: स्वलक्षणमेव । ततोऽहं द्रष्टारमात्मानं गृह्णामि । यत्किल गृह्णामि तत्पश्याम्येव; पश्यन्नेव पश्यामि, पश्यतैव पश्यामि, पश्यते एव पश्यामि, पश्यत एव पश्यामि, पश्यत्येव पश्यामि, पश्यंतमेव पश्यामि । अथवा न पश्यामि; न पश्यन् पश्यामि, न पश्यता पश्यामि, न पश्यते पश्यामि, न पश्यत: पश्यामि, न पश्यति पश्यामि, न पश्यंतं पश्यामि; किन्तु सर्वविशुद्धो दृङ्मात्रो भावोऽस्मि । अपि च -- ज्ञातारमात्मानं गृह्णामि । यत्किल गृह्णामि तज्जनाम्येव; जानन्नयेव जानामि, जानतैव जानामि, जानते एव जानामि, जानत एव जानामि, जानत्येव जानामि, जानंतमेव जानामि । अथवा न जानामि; न जानन् जानामि, न जानता जानामि, न जानते जानामि, न जानतो जानामि, न जानति जानामि, न जानंतं जानामि; किंतु सर्वविशुद्धो ज्ञप्तिमात्रो भावोऽस्मि । ननु कथं चेतना दर्शनज्ञानविकल्पौ नातिक्रामति येन चेतयिता द्रष्टा ज्ञाता च स्यात् ? उच्यते -- चेतना तावत्प्रतिभासरूपा; सा तु, सर्वेषामेव वस्तूनां सामान्यविशेषात्मकत्वात्, द्वैरूप्यं नातिक्रामति । ये तु तस्या द्वे रूपे ते दर्शनज्ञाने । तत: सा ते नातिक्रामति । यद्यतिक्रामति, सामान्यविशेषातिक्रांतत्वाच्चेतनैव न भवति । तदभावे द्वौ दोषौ -- स्वगुणोच्छेदा-च्चेतनस्याचेतनतापत्ति:, व्यापकाभावे व्याप्यस्य चेतनस्याभावो वा । ततस्तद्दोषभयाद्दर्शनज्ञाना-त्मिकैव चेतनाभ्युपगंतव्या ॥२९८-२९९॥ (कलश--शार्दूलविक्रीडित) अद्वैतापि हि चेतना जगति चेद् दृग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत् तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्साऽस्तित्वमेव त्यजेत् । तत्त्यागे जडता चितोऽपि भवति व्याप्यो विना व्यापका- दात्मा चान्तमुपैति तेन नियतं दृग्ज्ञप्तिरूपास्तु चित् ॥१८३॥ (कलश) को नाम भणेद्बुध: ज्ञात्वा सर्वान् परकीयान् भावान् । ममेदमिति च वचनं जानन्नात्मानं शुद्धम् ॥१८४॥ चेतना दर्शन-ज्ञानरूप भेदों का उल्लंघन नहीं करती; इसलिए चेतकत्व की भाँति दर्शकत्व और ज्ञातृत्व भी आत्मा के स्वलक्षण ही हैं । इसलिए मैं
इसीप्रकार मैं
प्रश्न – चेतना दर्शनज्ञान भेदों का उल्लंघन क्यों नहीं करती कि जिससे चेतनेवाला दृष्टा व ज्ञाता होता है ? उत्तर – प्रथम तो चेतना प्रतिभासरूप है और वह चेतना द्विरूपता का उल्लंघन नहीं करती; क्योंकि सभी वस्तुएँ सामान्यविशेषात्मक हैं । उसके जो दो रूप हैं, वे दर्शन और ज्ञान हैं । इसलिए वह चेतना ज्ञान-दर्शन - इन दो रूपों का उल्लंघन नहीं करती । यदि चेतना ज्ञानदर्शन का उल्लंघन करे तो सामान्यविशेष का उल्लंघन करने से चेतना ही न रहे । उसके अभाव में दो दोष आते हैं -
(कलश--हरिगीत)
[जगति हि चेतना अद्वैता] जगत में निश्चयतः चेतना अद्वैत है [अपि चेत्सा दृग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत्] तथापि यदि वह दर्शनज्ञानरूप को छोड़ दे [तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्] तो सामान्य-विशेषरूप के अभाव से (वह चेतना) [अस्तित्वम् एव त्यजेत्] अपने अस्तित्व को छोड़ देगी; और [तत्-त्यागे] इसप्रकार (चेतना अपने अस्तित्व को) छोड़ने पर, [चितः अपि जडता भवति] चेतन के जड़त्व आ जायेगा (आत्मा जड़ हो जाय), [च व्यापकात् विना व्याप्यः आत्मा अन्तम् उपैति] और व्यापक (चेताना) के बिना व्याप्य जो आत्मा वह नष्ट हो जायेगा [तेन चित् नियतं दृग्ज्ञप्तिरूपा अस्तु ] इसलिये चेतना नियम से दर्शनज्ञानरूप ही हो ।है यद्यपि अद्वैत ही यह चेतना इस जगत में । किन्तु फिर भी ज्ञान-दर्शन भेद से दो रूप है ॥ यह चेतना दर्शन सदा सामान्य अवलोकन करे । पर ज्ञान जाने सब विशेषों को तदपि निज में रहे ॥ अस्तित्व ही ना रहे इनके बिना चेतन द्रव्य का । चेतना के बिना चेतन द्रव्य का अस्तित्व क्या ? चेतन नहीं बिन चेतना चेतन बिना ना चेतना । बस इसलिए हे आत्मन् ! इनमें सदा ही चेत ना ॥१८३॥ (कलश--दोहा)
[चितः एकः चिन्मयः एव भावः] चैतन्य (आत्मा) का तो एक चिन्मय ही भाव है, और [ये परे भावाः] जो अन्य भाव हैं [ते किल परेषाम्] वे वास्तव में दूसरों के भाव हैं; [तत: चिन्मयः भावः एव ग्राह्यः] इसलिए (एक) चिन्मय भाव ही ग्रहण करने योग्य है, [परे भावाः सर्वतः एव हेयाः] अन्य भाव सर्वथा त्याज्य हैं ।
चिन्मय चेतनभाव हैं, पर हैं पर के भाव । उपादेय चिद्भाव हैं, हेय सभी परभाव ॥१८४॥ |
जयसेनाचार्य :
अब उसी भेदभावना को आत्मा के विशुद्ध-दर्शनज्ञान और सुखगुण में प्ररूप से दिखाते हैं -- प्रज्ञा-स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा जो चेतन स्वरूप आत्मा ज्ञाता-द्रष्टा और परमानन्द लक्षण वाले सुख से सहित अनुभव में आता है निश्चय से वही मैं हूँ शेष जो रागादि-भावरूप विभाव-परिणाम हैं, वे चिदानन्द स्वभाव वाले मुझसे भिन्न हैं, ऐसा जानना चाहिये । यहाँ शिष्य कहता है कि -- चेतना के ज्ञान-चेतना और दर्शन-चेतना ऐसे दो भेद नहीं हैं एक ही चेतना है अत: ज्ञाता-द्रष्टा इस प्रकार दो भेद वाली आत्मा कैसे घटित होती है ? इस पूर्वपक्ष-शंकापक्ष का परिहार इस प्रकार है -- सामान्य को ग्रहण करनेवाला दर्शन है और विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान है । वस्तु सामान्य विशेषात्मक है । इसे यदि सामान्य विशेषात्मक न माना जावे तो चेतना का अभाव हो जावेगा । चेतना का अभाव होने पर आत्मा में जड़ता / अचेतनता आ जावेगी अथवा चेतना रूप विशेष गुण का अभाव होने से चेतना लक्षण वाली आत्मा का ही अभाव हो जावेगा । परन्तु आत्मा की न जड़ता दिखाई देती है और न उसका अभाव ही दिखायी देता है, क्योंकि ऐसा मानने पर प्रत्यक्ष विरोध आता है । इससे सिद्ध है कि यद्यपि अभेदनय से चेतना एक रूप है तथापि सामान्य-विशेष रूप विषय भेद होने से वह दर्शन और ज्ञान के भेद से दो प्रकार की होती है -- ऐसा अभिप्राय जानना चाहिये ॥३२०-३२२॥ |