
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
यो हि परात्मनोर्नियतस्वलक्षणविभागपातिन्या प्रज्ञया ज्ञानी स्यात्, स खल्वेकं चिन्मात्रं भाव-मात्मीयं जानाति, शेषांश्च सर्वानेव भावान् परकीयान् जानाति । एवं च जानन् कथं परभावान्ममामी इति ब्रूयात् ? परात्मनोर्निश्चयेन स्वस्वामिसम्बन्धस्यासंभवात् । अत: सर्वथा चिद्भाव एव गृहीतव्य:, शेषा: सर्वे एव भावा: प्रहातव्या इति सिद्धांत: ॥३००॥ (कलश--शार्दूलविक्रीडित) सिद्धांतोऽयमुदात्तचित्तचरितैोर्क्षार्थिभि: सेव्यतां शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योति: सदैवास्म्यहम् । एते ये तु समुल्लसंति विविधा भावा: पृथग्लक्षणास्तेऽ हं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि ॥१८५॥ (कलश--अनुष्टुभ्) परद्रव्यग्रहं कुर्वन् बध्येतैवापराधवान् । बध्येतानपराधो न स्वद्रव्ये संवृतो यति: ॥१८६॥ जो पुरुष पर के और आत्मा के नियत स्वलक्षणों के विभाग में पड़नेवाली प्रज्ञा के द्वारा ज्ञानी हुआ है; वह वास्तव में एक चिन्मात्रभाव को अपना जानता है और शेष सभी भावों को दूसरों के जानता है । ऐसा जानता वह पुरुष परभावों को 'ये मेरे हैं' - ऐसा क्यों कहेगा; क्योंकि पर में और अपने में निश्चय से स्व-स्वामीसंबंध संभव नहीं है । इसलिए सर्वथा चिद्भाव ही ग्रहण करने योग्य है, शेष समस्त भाव छोड़ने योग्य हैं - ऐसा सिद्धान्त है । (कलश--हरिगीत)
[उदात्तचित्तचरितैः मोक्षार्थिभिः] जिनके चित्त का चरित्र उदात्त (उदार, उच्च, उज्ज्वल) है ऐसे मोक्षार्थी [अयम् सिद्धान्तः] इस सिद्धांत का [सेव्यताम्] सेवन करें कि [अहम् शुद्धं चिन्मयम् एकम् परमं ज्योतिः एव सदा एव अस्मि] 'मैं तो सदा ही शुद्ध चैतन्यमय एक परम ज्योति ही हूँ; [तु] और [एते ये पृथग्लक्षणाः विविधाः भावाः समुल्लसन्ति ते अहं न अस्मि] जो यह भिन्न लक्षणवाले विविध प्रकार के भाव प्रगट होते हैं वे मैं नहीं हूँ, [यतः अत्र ते समग्राः अपि मम परद्रव्यम्] क्योंकि वे सभी मेरे लिए पर-द्रव्य हैं' ।मैं तो सदा ही शुद्ध परमानन्द चिन्मयज्योति हूँ । सेवन करें सिद्धान्त यह सब ही मुमुक्षु बन्धुजन ॥ जो विविध परभाव मुझमें दिखें वे मुझ से पृथक् । वे मैं नहीं हूँ क्योंकि वे मेरे लिए परद्रव्य हैं ॥१८५॥ (कलश-दोहा)
[परद्रव्यग्रहं कुर्वन्] जो पर-द्रव्य को ग्रहण करता है [अपराधवान्] वह अपराधी है, [बध्येत एव] इसलिये बन्ध में पड़ता है, और [स्वद्रव्ये संवृतः यतिः] जो स्व-द्रव्य में ही संवृत है (अर्थात् जो अपने द्रव्य में ही गुप्त है, मग्न है, संतुष्ट है, पर-द्रव्य का ग्रहण नहीं करता) ऐसा यति [अनपराधः] निरपराधी है, [न बध्येत] इसलिये बँधता नहीं है ।
परग्राही अपराधिजन, बाँधें कर्म सदीव । स्व में ही संवृत्त जो, वह ना बँधे कदीव ॥१८६॥ |
जयसेनाचार्य :
आगे बताते हैं कि शुद्ध-बुद्ध एक-स्वभाव वाले परमात्मा का एक-शुद्ध-चैतन्य एक ही भाव है, रागादिक नहीं है -- [को णाम भणिज्ज बुहो] कौन ज्ञानी विवेकी बुद्धिमान ऐसा कहे ? कोई भी नहीं कहे [मज्झमिणंति य वयणं] कि ये सब मेरे हैं । क्या करके ? कि [णादुं] निर्मल आत्मा की अनुभूति वही है लक्षण जिसका ऐसे भेदज्ञान के द्वारा जानकर, किनको जानकर ? कि [सव्वे परोदए भावे] सभी मिथ्यात्व और रागादिरूप-विभावपरिणामों को जानकर । कैसे जानकर ? कि परोदयान् अर्थात् शुद्धात्मा से पृथक् जो कर्मोदय उससे ये सब पैदा हुए हैं ऐसा जानकर । क्या करता हुआ ? कि [जाणंतो अप्पयं सुद्धं] परम-समरस-भाव के द्वारा जानता हुआ, अनुभव करता हुआ । किसको ? आत्मा को, कैसी आत्मा को ? भाव-कर्म, द्रव्य-कर्म और नोकर्म रहित शुद्धात्मा को, किससे जानता हुआ ? कि शुद्धात्मा की भावना में परिणत जो अभेद-रत्नत्रय वही है लक्षण जिसका, उस भेदज्ञान के द्वारा जानता हुआ ॥३२३॥ इस प्रकार विशेष भेद-भावना के व्याख्यान की मुख्यता से इस तीसरे स्थल में पाँच सूत्र कहे गये हैं । |