
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अज्ञानी हि शुद्धात्मज्ञानाभावात् स्वपरयोरेकत्वज्ञानेन, स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन, स्वपरयोरेकत्व-परिणत्या च प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वात् प्रकृतिस्वभावमप्यहंतया अनुभवन् कर्मफलं वेदयते । ज्ञानी तु शुद्धात्मज्ञानसद्भावात् स्वपरयोर्विभागज्ञानेन, स्वपरयोर्विभागदर्शनेन, स्वपरयोर्विभाग-परिणत्या च प्रकृतिस्वभावादपसृतत्वात् शुद्धात्मस्वभावमेकमेवाहंतया अनुभवन् कर्मफलमुदितं ज्ञेयमात्रत्वात् जानात्येव, न पुन: तस्याहंतयाऽनुभवितुमशक्यत्वाद्वेदयते ॥३१६॥ (कलश--शार्दूलविक्रीडित) अज्ञानी प्रकृतिस्वभावनिरतो नित्यं भवेद्वेदको । ज्ञानी तु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातुचिद्वेदक: । इत्येवं नियमं निरूप्य निपुणैरज्ञानिता त्यज्यतां शुद्धैकात्ममये महस्यचलितैरासेव्यतां ज्ञानिता ॥१९७॥ शुद्धात्मा के ज्ञान के अभाव के कारण अज्ञानी
(कलश--रोला)
[अज्ञानी प्रकृति-स्वभाव-निरतः नित्यं वेदकः भवेत्] अज्ञानी प्रकृति-स्वभाव में लीन (रक्त) होने से (उसी को अपना स्वभाव जानता है इसलिये) सदा वेदक है, [तु] परन्तु [ज्ञानी प्रकृति-स्वभाव-विरतः जातुचित् वेदकः नो] ज्ञानी तो प्रकृति-स्वभाव से विरक्त होने से (उसे पर का स्वभाव जानता है इसलिए) कदापि वेदक नहीं है । [इति एवं नियमं निरूप्य] इसप्रकार के नियम को भलीभाँति विचार करके (निश्चय करके) [निपुणैः अज्ञानिता त्यज्यताम्] निपुण पुरुषों अज्ञानीपन को छोड़ दो और [शुद्ध-एक-आत्ममये महसि] शुद्ध-एक-आत्मामय तेज में [अचलितैः] निश्चल होकर [ज्ञानिता आसेव्यताम्] ज्ञानीपने का सेवन करो ।
प्रकृतिस्वभावरत अज्ञानी हैं सदा भोगते । प्रकृतिस्वभाव से विरत ज्ञानिजन कभी न भोगें ॥ निपुणजनो ! निजशुद्धातममय ज्ञानभाव को । अपनाओ तुम सदा त्याग अज्ञानभाव को ॥१९७॥ |
जयसेनाचार्य :
आगे यह बतलाते हैं कि शुद्ध-निश्चय-नय से कर्म-फल को भोगते रहना जीव का स्वभाव नहीं है क्योंकि वह तो अज्ञान भाव है -- [अण्णाणी कम्मफलं पयडिसहावट्ठिदो दु वेदेदि] विशुद्ध-ज्ञान-दर्शन-स्वभाव वाले आत्म-तत्त्व के समीचीन श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान-रूप अभेद-रत्नत्रय-स्वरूप-भेदज्ञान के न होने से अज्ञानी जीव उदय में आए हुए कर्म-प्रकृति के स्वभाव में अर्थात् सुख-दु:ख स्वरूप में स्थित होकर हर्ष-विषादमय होकर उस कर्म के फल को वेदता है, अनुभव करता है । [णाणी पुण कम्मफलं जाणदि उदिदं ण वेदेदि] और ज्ञानी तो पूर्वोक्त भेद-ज्ञान के सद्भाव से वीतराग-सहज-परमानन्द-स्वरूप-सुखरस के आस्वादन द्वारा परम-समरसी-भावरूप में परिणत होता हुआ, उदय में आये हुए फल को वस्तु का जैसा स्वरूप है उसी प्रकार जानता ही है । किन्तु हर्ष-विषादमय होकर उसे वेदता अर्थात भोगता नहीं है ॥३३८॥ |