
जयसेनाचार्य :
अज्ञानी जीव अपराधी होता है इसलिये वह सशंकित होता हुआ कर्म-फल को तन्मय होकर भोगता है किन्तु जो निरपराध ज्ञानी होता है वह कर्मोदय होने पर क्या करता है ? सो बताते हैं -- [जो पुण णिरवराहो चेदा णिस्संकिदो दु सो होदि] जो चेतयिता ज्ञानी जीव निरपराध होता हुआ परमात्मा के आराधन में निश्शंक होता है । वह निश्शंक होकर क्या करता है ? कि [आराहणाए णिच्चं वट्टदि अहमिदी वियाणन्तो] निर्दोष परमात्मा की आराधना तत्स्वरूप जो निश्चय-आराधना उससे युक्त होकर निरन्तर सदा काल रहता है । क्या करता हुआ रहता है कि 'मैं अनन्त-ज्ञान स्वरूप हूँ' इस प्रकार विचार करके निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर शुद्ध-आत्मा को अच्छी प्रकार से जानता हुआ, वह परम समरसी भाव के द्वारा उसी का अनुभव करता रहता है ॥३३९॥ |