+ अब इसी कर्तृत्व व भोक्तृत्व के अभाव का दृष्टांत पूर्वक समर्थन करते हैं -- -
ण वि कुव्वइ ण वि वेयइ णाणी कम्माइं बहुपयाराइं । (319)
जाणइ पुण कम्मफलं बंधं पुण्णं च पावं च ॥342॥
दिट्ठी जहेव णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव । (320)
जाणइ य बंधमोक्खं कम्मुदयं णिज्जरं चेव ॥343॥
नापि करोति नापि वेदयते ज्ञानी कर्माणि बहुप्रकाराणि
जानाति पुन: कर्मफलं बंधं पुण्यं च पापं च ॥३१९॥
दृष्टि: यथैव ज्ञानमकारकं तथाऽवेदकं चैव
जानाति च बंधमोक्षं कर्मोदयं निर्जरां चैव ॥३२०॥
ज्ञानी करे-भोगे नहीं बस सभी विध-विध करम को ।
वह जानता है कर्मफल बंध पुण्य एवं पाप को ॥३१९॥
ज्यों दृष्टि त्यों ही ज्ञान जग में है अकारक अवेदक ।
जाने करम के बंध उदय मोक्ष एवं निर्जरा ॥३२०॥
अन्वयार्थ : [णाणी] ज्ञानी [कम्माइं बहुपयाराइं] अनेकप्रकार के कर्मों को [ण वि कुव्वइ] करता भी नहीं है और [ण वि वेयइ] भोगता भी नहीं है [पुण] किन्तु [पुण्णं च पावं च] शुभ और अशुभ [कम्मफलं] कर्मफल और [बंधं] कर्म-बंध को [जाणइ] मात्र-जानता ही है ।
[जहेव] जिसप्रकार [दिट्ठी] दृष्टि (नेत्र दृश्य पदार्थों को देखती ही है, उन्हें करती-भोगती नहीं है) [णाणंअकारयं तह] उसीप्रकार ज्ञान अकारक [अवेदयं चेव] और अवेदक है और [बंधमोक्खं] बंध, मोक्ष, [कम्मुदयं णिज्जरं चेव] कर्मोदय और निर्जरा को [जाणइ य] मात्र जानता ही है ।
Meaning : The knowledgeable does neither produce nor enjoy the fruits of various kinds of karma, but he knows the karmic bondages involving merit or demerit, and the results of their fruition.
Just like an eye, being different from the scene it is viewing, neither performs the scene nor enjoys it, similarly, knowledge, being different from the karmas, neither performs the karmas nor enjoys them. It only knows bondage, liberation, rise of karmas and their shedding.

  अमृतचंद्राचार्य    जयसेनाचार्य    notes 

अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
ज्ञानि हि कर्मचेतनाशून्यत्वेन कर्मफलचेतनाशून्यत्वेन च स्वयमकर्तृत्वादवेदयितृत्वाच्च न कर्म करोति न वेदयते च; किंतु ज्ञानचेतनामयत्वेन केवलं ज्ञातृत्वात्कर्मबंधं कर्मफलं च शुभमशुभं वा केवलमेव जानाति ।
कुत एतत्‌ ? - यथात्र लोके दृष्टिर्दृश्यादत्यंतविभक्तत्वेन तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात्‌ दृश्यं न करोति न वेदयते च, अन्यथाग्निदर्शनात्संधुक्षणवत्‌ स्वयं ज्वलनकरणस्य, लोहपिंडवत्स्वयमौष्ण्या-नुभवनस्य च दुर्निवारत्वात्‌, किन्तु केवलं दर्शनमात्रस्वभावत्वात्‌ तत्सर्वं
केवलमेव पश्यति; तथा ज्ञानमपि स्वयं द्रष्टृत्वात्‌ कर्मणोऽत्यंतविभक्तत्वेन निश्चयतस्तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात्कर्म न करोति न वेदयते च, किन्तु केवलं ज्ञानमात्रस्वभावत्वात्कर्मबंधं मोक्षं वा कर्मोदयं निर्जरां वा केवलमेव जानाति ॥३१९-३२०॥
(कलश--अनुष्टुभ्)
ये तु कर्तारमात्मानं पश्यंति तमसा तता: ।
सामान्यजनवत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षुताम् ॥१९९॥



ज्ञानी कर्मचेतना से रहित होने से स्वयं अकर्ता और कर्म-फल-चेतना से रहित होने से स्वयं अभोक्ता है; इसलिए वह न तो कर्मों को करता ही है और न भोगता ही है; किन्तु ज्ञान-चेतनामय होने से शुभ या अशुभ कर्म-बंध को और शुभ या अशुभ कर्म-फल को मात्र जानता ही है । यदि कोई यह कहे कि यह किसप्रकार है तो उससे कहते हैं कि जिसप्रकार इस जगत में दृष्टि (नेत्र) दृश्य-पदार्थों से अत्यन्त भिन्न है और इसीकारण वह दृश्य पदार्थों को करने और भोगने में भी पूर्णत: असमर्थ है । इसप्रकार वह दृष्टि (नेत्र) दृश्य-पदार्थों को न तो करती ही है और न भोगती ही है ।

यदि ऐसा नहीं मानें तो जिसप्रकार जलानेवाला पुरुष अग्नि को जलाता है और लोहे का गोला अग्नि की उष्णता को भोगता है; उसीप्रकार दृष्टि अर्थात् नेत्र को भी दिखाई देनेवाली अग्नि को जलाना चाहिए और उसकी उष्णता का अनुभव भी करना चाहिए, उसे भोगना भी चाहिए; पर ऐसा नहीं होता; अपितु अग्नि को देखनेवाला नेत्र मात्र उसे देखता ही है, जलाता नहीं और जलन का अनुभव भी नहीं करता ।

इसीप्रकार ज्ञान भी ज्ञेय-पदार्थों से अत्यन्त भिन्न है और इसीकारण वह ज्ञेयपदार्थों को करने और भोगने में पूर्णत: असमर्थ है । इसकारण वह ज्ञान ज्ञेय-पदार्थों का कर्ता-भोक्ता नहीं है; किन्तु ज्ञेयों को जानने के स्वभाववाला होने से वह ज्ञान ज्ञेयरूप कर्मबंध, कर्मोदय, निर्जरा एवं मोक्ष को मात्र जानता ही है; उनका कर्ता-भोक्ता नहीं है ।

(कलश--हरिगीत)
निज आतमा ही करे सबकुछ मानते अज्ञान से ।
हों यद्यपि वे मुमुक्षु पर रहित आतमज्ञान से ॥
अध्ययन करें चारित्र पालें और भक्ति करें पर ।
लौकिकजनों वत् उन्हें भी तो मुक्ति की प्राप्ति न हो ॥१९९॥
[ये तु तमसा तताः आत्मानं कर्तारम् पश्यन्ति] जो अज्ञान-अंधकार से आच्छादित होते हुए आत्मा को कर्ता मानते हैं, [मुमुक्षताम् अपि] वे भले ही मोक्ष के इच्छुक हों तथापि [सामान्यजनवत्] सामान्य (लौकिक) जनों की भाँति [तेषां मोक्षः न] उनकी भी मुक्ति नहीं होती ।
जयसेनाचार्य :

जो तीन गुप्तिरूप गुप्ति के बल से ख्याति, पूजा, लाभ, देखे, सुने और अनुभव में आये हुये भोगों की आकांक्षारूप निदान-बंध आदि समस्त पर-द्रव्यों के अवलंबन से शून्य है, अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख वीर्य-स्वरूप के अवलंबन-सहित, पूर्णभरित अवस्थारूप, निर्विकल्प समाधि में स्थित है, वही ज्ञानी है । ऐसा ज्ञानी जीव ज्ञानावरण आदि मूल प्रकृतियों और उत्तर प्रकृतियों के भेदों से युक्त ऐसे बहुत प्रकार के कर्मों को निश्चय-नय से नहीं करता है और न तन्मय होकर उनको भोगता है / अनुभव करता है ।

प्रश्न – तो क्या करता है ?

उत्तर –
परमात्मा की भावना से उत्पन्न हुये सुख में तृप्त होकर वस्तु-स्वरूप से उनको जानता ही है ।

प्रश्न – क्या जानता है ?

उत्तर –
सुख-दुःख स्वरूप कर्मों के फल को जानता है और प्रकृति, स्थिति आदि बंधों से भेद-रूप कर्म-बंध को जानता है । साता-वेदनीय, शुभ-आयु, शुभ-नाम और उच्च-गोत्र-रूप पुण्य-प्रकृतियाँ है, इनसे भिन्न आसाता-वेदनीय, अशुभ-आयु अशुभ-नाम और नीच-गोत्र-रूप पाप-प्रकृतियां है । इत्यादि नाना प्रकारों को जानता ही है ॥३४२॥

[दिट्ठी सयंपि णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव] जैसे चक्षु अग्नि-रूप दृष्य को देखता है किन्तु जलाने वाले पुरुष के समान वह उसे जलाता नहीं है, तथा तप्तायमान लौह-पिंड के समान वह उसे अनुभव-रूप से वेदता भोक्ता भी नहीं है । वैसे ही शुद्ध-ज्ञान भी अथवा अभेद-विवक्षा से शुद्ध-ज्ञान में परिणत हुआ जीव भी शुद्ध-उपादान रूप से (अन्य द्रव्यों को) न करता ही है और न वेदता ही है -- अनुभवता ही है । अथवा दुसरा पाठ यह है [दिट्टी खयंपि णाण] इसका अर्थ यह है कि केवल दृष्टि ही नहीं किन्तु क्षायिक-ज्ञान भी निश्चय-रूप से कर्मों का नहीं करने वाला और नहीं वेदनेवाला / अनुभवनेवाला होता है । ऐसा होता हुआ वह क्या करता है ? [जाणदि य बंधमोक्खं] बंध और मोक्ष को जानता है । केवल बंध-मोक्ष को ही नहीं किन्तु [कम्मुदयं णिज्जरं चेव] शुभाशुभ-रूप-कर्म के उदय को, तथा सविपाक-अविपाकरूप अथवा सकाम और अकाम-रूप से होनेवाली दो प्रकार की निर्जरा को भी जानता है । इस प्रकार शुद्ध-पारिणामिक-रूप-परमभाव का ग्राहक एवं जो उपादान स्वरूप है ऐसे शुद्ध-द्रव्यार्थिक-नय के द्वारा कर्तापन, भोक्तापन, बंध, मोक्षादि के कारणभूत परिणाम से रहित यह जीव है -- ऐसा सूचित किया है । इस प्रकार समुदाय पातनिका में
  • पीछे की चार गाथाओं द्वारा जीव के अकर्तापन-गुण के व्यायाख्यान की मुख्यता से सामान्य वर्णन किया है ।
  • फिर चार गाथाओं में यह बताया है कि निश्चय से शुद्ध-जीव के भी जो कर्म-प्रकृतियों का बंध होता है वह अज्ञान का माहात्म्य है इस प्रकार अज्ञान की सामर्थ्य का विशेष-रूप से वर्णन किया है ।
  • फिर चार गाथाओं में जीव के अभोक्तापन के गुण का व्याख्यान मुख्यता से है ।
इस प्रकार कर्तापन-बंध-मोक्षादि का कारण-भूत परिणाम का निषेध १२ गाथाओं में हुआ है जो कि शुद्ध-निश्चयनय से किया गया है उसी का उपसंहार दो गाथाओं में हुआ है ॥३४३॥

इस प्रकार श्री जयसेनाचार्य की बनाई हुई शुद्धात्मानुभूति लक्षणवाली तात्पर्य नाम की श्री समयसारजी की व्याख्या के हिन्दी अनुवाद में मोक्षाधिकार से सम्बन्ध रखने वाली यह चूलिका समाप्त हुई । अथवा दूसरे व्याख्यान के द्वारा मोक्ष अधिकार समाप्त हुआ ।

अब यहाँ पर विचार किया जाता है कि जीव के औपशमिक आदि पाँच भावों में से किस भाव के द्वारा मोक्ष होता है । सो वहाँ औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और औदयिक ऐसे चार भाव तो पर्यायरूप हैं और एक शुद्ध-पारिणामिक भाव द्रव्य-रूप है । पदार्थ परस्पर अपेक्षा लिये द्रव्य-पर्याय रूप है । वहाँ जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व तीन प्रकार का पारिणामिक भाव है । उसमें भी शक्ति लक्षणरूप शुद्ध-जीवत्व-पारिणामिकभाव है, वही शुद्ध-द्रव्यार्थिक-नय का आश्रय होने से निरावरण शुद्धपारिणामिक है नाम जिसका, ऐसा जानना चाहिये, जो कि बंध और मोक्ष-रूप पर्याय की परिणति से रहित है । और दश-प्राण-रूप जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये सब पर्यायार्थिक-नय के आश्रय होने से अशुद्ध-पारिणामिक नाम वाले हैं । यहाँ प्रश्न होता है कि अशुद्धपारिणामिक क्यों है ? इसका उत्तर यह है कि दश-प्राण-रूप जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व इन तीनों का सिद्धों में तो सर्वथा अभाव है, किन्तु संसारी जीवों में भी शुद्ध-निश्चय-नय से अभाव है ।

वहाँ इन तीनों में से भव्यत्व लक्षणवाला पारिणामिक भाव है उसका तो पर्यायार्थिक-नय से मोहादिक कर्म-सामान्य आच्छादक है जो देशघाती और सर्वघाती नाम वाला है एवं सम्यवत्वादि जीव के गुणों का घातक है -- ऐसा समझना चाहिये । वहाँ जब काल आदि लाब्धियों के वश से भव्यत्व-शक्ति की अभिव्यक्ति होती है तब यह जीव सहज-शुद्ध-पारिणामिक भाव-रूपी लक्षण को रखने वाली ऐसे निज-परमात्म-द्रव्य के सम्यक्श्रद्धान, ज्ञान और आचरण की पर्याय के रूप में परिणमन करता है उसी ही परिणमन को आगम भाषा में औपशमिक, क्षायोपशिक, और क्षायिकभाव इन तीनों नामों से कहा जाता है । वही अध्यात्म-भाषा में शुद्धात्मा के अभिमुख परिणाम कहलाता है जिसको शुद्धोपयोग इत्यादि पर्यायरूप नाम से कहते हैं । वह शुद्धोपयोग-रूप पर्याय भी शुद्ध-पारिणामिक-भाव है लक्षण जिसका ऐसे शुद्धात्म-द्रव्य से कथंचिंत् भिन्न रूप होती है क्योंकि वह भावना-रूप होता है । किन्तु शुद्ध-पारिणामिक भाव भावना-रूप नहीं होता है । यदि इस भावना-रूप परिणाम को एकान्त से शुद्ध-पारिणामिक-भाव से अभिन्न ही मान लिया जाय तो मोक्ष का कारण-भूत भावना-रूप परिणाम का तो, मोक्ष हो जाने पर नाश हो जाता है तब उसके नाश हो जाने पर शुद्ध-पारिणामिक-भाव का भी नाश हो जाना चाहिये ? सो ऐसा है नहीं । इसलिये यह निश्चित है कि शुद्ध-पारिणामिक-भाव के विषय में जो भावना है उसरूप जो औपशमिकादि तीन भाव हैं सो रागादिक समस्त विकार-भावों से रहित होने से शुद्ध-उपादान के कारण-रूप हैं इसलिये मोक्ष के कारण होते हैं, किन्तु शुद्ध-पारिणामिक-भाव मोक्ष का कारण नहीं है । हाँ, जो शक्ति-रूप मोक्ष है वह तो शुद्ध-पारिणामिक-रूप पहले से ही प्रवर्तमान है किन्तु यहाँ पर तो व्यक्ति-रूप मोक्ष का विचार चल रहा है, ऐसा ही सिद्धान्त में लिखा हुआ कि 'निष्क्रिय: शुद्धपारिणामिक:' अर्थात् शुद्ध-पारिणामिक-भाव तो निष्क्रिय होता है । निष्क्रिय कहने का भी क्या अर्थ है ? रागादिमय-परिणति वाली एवं बंध की कारण-भूत क्रिया से रहित है तथा मोक्ष की कारण-भूत जो क्रिया, शुद्ध-स्वरूप की भावना-रूप परिणति है उससे भी रहित है । इससे यह जाना जाता है कि शुद्ध-पारिणामिक-भाव ध्येय-रूप है परन्तु ध्यान-रूप नहीं है क्योंकि विनाशशील है । जैसा कि योगीन्द्रदेव ने भी अपने परमात्म-प्रकाश में लिखा है --

ण वि उप्पज्जइ ण वि मरइ बंधु ण मोक्खु करेइ ।
जिउ परमत्थेँ जोइया जिणवरु एउँ भणेइ ॥प.प्र.६८॥
हे योगी ! सुन, परमार्थ-दृष्टि से देखने पर यह जीव न तो उपजता है, न मरता है, न बंध ही करता है, न मोक्ष ही प्राप्त करता है ऐसा श्री जिनेन्द्र भगवान कहते हैं ।

तात्पर्य यह है कि -- विवक्षा में ली हई एकदेश-शुद्ध-नय के आश्रित होने वाली भावना निर्विकार-स्वसंवेदन ही है लक्षण जिसका, ऐसे क्षायोपशमिक ज्ञान से पृथक्पने के कारण यद्यपि एकदेश-व्यक्ति-रूप है फिर भी ध्यान करने वाला पुरुष यही भावना करता है कि जो सभी-प्रकार के आवरणों से रहित अखंड-एक-प्रत्यक्ष-प्रतिभासमय तथा नाश-रहित और शुद्ध-पारिणामिक लक्षणवाला निज-परमात्म-द्रव्य है वही मैं हूँ अपितु खंड-ज्ञान-रूप मैं नहीं हूँ, यह सब व्याख्यान यहाँ परस्पर की अपेक्षा को लिये हुये हैं जो आगम और अध्यात्मनय इन दोनों का विरोध नहीं करने से ही सिद्ध होता है । इस प्रकार विवेकी ज्ञानियों को समझना चाहिये ।

इसके आगे जीव आदि नव अधिकारों में जीव के कर्तापन और भोक्तापन आदि के विषय से निश्चय-नय और व्यवहार-नय के विभाग द्वारा सामान्यपने का जो पूर्व में वर्णन किया है उसी का अब विशेष वर्णन करने के लिये [लोगस्स कुणदि विण्हु] इत्यादि गाथा को आदि लेकर पाठ-क्रम से ९६ गाथाओं में चूलिका का व्याख्यान करते हैं ।

चूलिका शब्द का अर्थ करते हैं --
  • विशेष व्याख्यान;
  • कहे हुये और न कहे हुए का व्याख्यान;
  • तथा कहा हुआ और न कहा हुआ से मिश्रित व्याख्यान
इस प्रकार तीन प्रकार का व्याख्यान चूलिका शब्द से कहा जाता है ।

  • वहाँ इन ९६ गाथाओं में सबसे पहले ७ गाथाओं में यह बतलाया है कि देवादि-पर्यायों को करने वाला विष्णु: नहीं है इस प्रकार [लोगस्स कुणदि विण्हु] आदि सात गाथाएँ हैं ।
  • इसके बाद अन्य कर्ता है अन्य भोक्ता है इस प्रकार के एकांत का निषेध करते हुए [केहिन्चिदु पज्जयेहिं] इत्यादि ४ गाथायें बौद्धमत के अनुयायी शिष्य को समझाने के लिये कहीं हैं ।
  • इसके पश्चात् सांख्य-मतानुसारी शिष्य को लक्ष्य में लेकर एकान्त से जीव के भाव-मिथ्यात्व का कर्तापन निवारण करने के लिये [मिच्छत्ता जदि पयडी] इत्यादि पांच सूत्र हैं ।
  • इसके आगे ज्ञान-अज्ञान तथा सुख-दु:ख आदि भावों का करने वाला एकान्त से कर्म है, आत्मा कर्ता नहीं है, इस प्रकार सांख्य-मत के निराकरण करने के लिये [कम्मेहिं अण्णाणी] इत्यादि तेरह गाथा सूत्र हैं ।
  • इसके आगे कोई नवीन शिष्य शब्द आदि पांचों इन्दियों के विषयों को नष्ट करना चाहता है किन्तु मन में तिष्ठे हुये विषयों के अनुराग को नाश करना चाहिये ऐसे विवेक से रहित है अत: उसको संबोधन करने के लिये [दंसणणाणचरित्तं] इत्यादि ७ सूत्र हैं ।
  • उसके आगे [जह सिप्पियो दु] इत्यादि सात गाथायें हैं जिनमें बतलाया है कि जैसे स्वर्णकारादि शिल्पकार हथोड़े आदि उपकरणों के द्वारा कुण्डल आदि वस्तुयें बनाता है और उनसे उसे जो फल मिलता है, मूल्य आदि उसे भोगता है किन्तु उससे तन्मय नहीं होता उसी प्रकार जीव भी द्रव्य-कर्म करता है और उसके फल को भोगता है किन्तु उससे तन्मय नहीं हो जाता ।
  • इसके बाद दस गाथायें हैं जिनमें ब्रह्म-अद्वैत-मतानुसारी शिष्य को समझाने के लिये [जह सेडिया] इत्यादि रूप से बताया है कि जैसे श्वेत-मिट्टी भीत आदि को सफेद करती है फिर भी निश्चय से देखा जाये तो इससे वह तन्मय नहीं होती । इसी प्रकार जीव भी व्यवहार से ज्ञेय-भूत-द्रव्य को जानता है, देखता है, दूर करता है, श्रद्धान करता है तो भी निश्चय से वह उसमें तन्मयी नहीं होता है ।
  • इसके आगे [कम्मं जं पुव्वकयं] इत्यादि चार गाथायें हैं, जिनमें शुद्धात्मा की भावनारूप निश्चय-प्रतिक्रमण, निश्चय-प्रत्याख्यान और निश्चय-आलोचनारूप निश्चय-चारित्र का व्याख्यान किया गया है ।
  • इसके आगे राग-द्वेष की उत्पत्ति के विषय में अज्ञान-रूप अपनी बुद्धि का दोष ही कारण है अचेतन शब्द आदि विषय, राग-द्वेष की उत्पत्ति में कारण नहीं हैं ऐसा कथन करने के लिये [णिंदि दसंथुदवयणाणि] इत्यादि दश गाथाएँ हैं ।
  • इसके आगे [वेदंतो कम्मफलं] इत्यादि तीन गाथायें हैं जिनमें बतलाया है कि उदय में आये हुये कर्म के फल को भोगता हुआ यह ऐसा मानता है कि यह मेरा है, यह मुझसे किया गया है एवं स्वस्थ-भाव से शुन्य होकर सुखी या दुखी होता है ताकि दु:ख के बीज आठ प्रकार के कर्म का फिर से बंध कर लेता है ।
  • इसके बाद [सत्थं णाणं ण हवदि] इत्यादि पन्द्रह गाथाओं में यह बतलाया है कि शुद्ध-निश्चय-नय से आचारांग, सूत्रकृतांग आदि द्रव्य-श्रुत, स्पर्शन आदि इंद्रियों के विषय, तथा द्रव्य-कर्म, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश व काल-द्रव्य एवं रागादि-विभाव ये सब भी जीव के स्वरूप नहीं हैं ।
  • इसके आगे [अत्ता जस्स अमुत्तो] इत्यादि तीन गाथायें हैं जिनमें बताया है कि शुद्ध-नय के अभिप्राय से आत्मा अमूर्त्त है उसी नय के अभिप्राय से कर्म, नोकर्म, आहार से भी रहित है ।
  • इसके आगे [पाखंडीलिं गाणिय] इत्यादि सात सूत्र हैं इनमें मुख्यता से बतलाया है कि देहाश्रित द्रव्य-लिंग जो कि निर्विकल्प-समाधि है लक्षण जिसका ऐसे भाव-लिंग से रहित है ऐसे यतियों की मुक्ति का कारण नहीं किन्तु भाव-लिंग-सहित यतियों का ही द्रव्य-लिंग मुक्ति का सहकारी कारण है ।
  • इसके पश्चात इस समयप्राभृत-ग्रन्थ के अध्ययन का फल बतलाये हुये इस ग्रन्थ को समाप्त करने के लिये [जो समयपाहुडमिणं] इत्यादि एक सूत्र है ।
इस प्रकार १३ अन्तर-अधिकारों से समयसारजी की चूलिका के अधिकार में यह समुदाय-पातनिका हुई । आगे इन तेरह अधिकारों का क्रम से व्याख्यान किया जाता है ।