
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
ये त्वात्मानं कर्तारमेव पश्यंति ते लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तंते; लौकिकानां परमात्मा विष्णु: सुरनारकादिकार्याणि करोति, तेषां तु स्वात्मा तानि करोतीत्यपसिद्धांतस्य समत्वात् । ततस्तेषामात्मनो नित्यकर्तृत्वाभ्युपगमात् लौकिकानामिव लोकोत्तरिकाणामपि नास्ति मोक्ष: ॥३२१-३२३॥ (कलश--अनुष्टुभ्) नास्ति सर्वोऽपि संबंध: परद्रव्यात्मतत्त्वयो: । कर्तृकर्मत्वसंबंधाभावे तत्कर्तृता कुत: ॥२००॥ अब इसी अर्थ को गाथा द्वारा कहते हैं - जो आत्मा को कर्ता ही देखते हैं; वे लोकोत्तर हों तो भी लौकिकता का अतिक्रमण नहीं करते; क्योंकि लौकिकजनों के मत में परमात्मा विष्णु देव-नारकादि कार्य करता है और इन लोकोत्तर मुनियों के मत में स्वयं का आत्मा वे कार्य करता है - इसप्रकार दोनों में अपसिद्धान्त की समानता है । इसलिए आत्मा के नित्यकर्तृत्व की उनकी मान्यता के कारण लौकिकजनों के समान लोकोत्तर पुरुषों (मुनियों) का भी मोक्ष नहीं होता । (कलश--दोहा)
[परद्रव्य-आत्मतत्त्वयोः सर्वः अपि सम्बन्धः नास्ति] पर-द्रव्य और आत्म-तत्त्व का सम्पूर्ण ही (कोई भी) सम्बन्ध नहीं है; [कर्तृ-कर्मत्व-सम्बन्ध-अभावे] इसप्रकार कर्तृ-कर्मत्व के सम्बन्ध का अभाव होने से, [तत्कर्तृता कुतः] आत्मा के पर-द्रव्य का कर्तृत्व कहाँ से हो सकता है ?
जब कोई संबंध ना, पर अर आतम माहिं । तब कर्ता परद्रव्य का, किसविध आत्म कहाहिं ॥२००॥ |
जयसेनाचार्य :
[लोयस्स कुणदि विण्हू सुरणारयतिरियमाणुसे सत्ते] लोकों के मत में तो विष्णु -- देव, नारक, तिर्यच और मनुष्य नाम के जीवों को करता है । [समणाणं पि य अप्पा जदि कुव्वदि छव्विहे काऐ] उसी प्रकार श्रमणों के मत में आत्मा छह काय के जीवों को करता है । [लोयसमणाणमेयं सिद्धंतं जइ ण दीसदि विसेसो] इस पूर्वोक्त रीति से लोक और श्रमणों में सिद्धान्त के प्रति और आगम के प्रति फिर कोई भेद नहीं दिखता है । [लोयस्स कुणइ विण्हू समणाण वि अप्पओ कुणदि] क्योंकि लोगों के मत में तो कल्पित किया हुआ विष्णु नाम का पुरुष-विशेष करता है और श्रमणों के मत में आत्मा करता है, सो वहाँ करने वाले का नाम विष्णु है और श्रमणों के मन में उस करने वाले का नाम आत्मा है । नाम भेद है पर अर्थ में कोई भेद नहीं है । [एवं ण को वि मोक्खो दीसदि दोण्ह पि समणलोयाणं] इस प्रकार के कर्तृत्व में दोष क्या आता है ? कि फिर लोक और श्रमणों में मोक्ष होना नहीं ठहरता है । कब और कहाँ ? [णिच्चं कुव्वंताणं सदेवमणुयासुरे लोगे] निरंतर सब ही काल में कर्म करने वालों को देव, मनुष्य और असुर सहित लोक में मोक्ष नहीं ठहरता । भावार्थ यह है कि राग-द्वेष और मोह के रूप में परिणमन करने का नाम ही कर्त्तापन है राग-द्वेष और मोहरूप परिणमन होने पर शुद्ध-स्वभाव-आत्मतत्त्व का समीचीन-श्रद्धान, ज्ञान और आचरण-रूप जो निश्चय-रत्नत्रय तद्रूप जो मोक्ष-मार्ग उससे च्युत होता है तब वहाँ मोक्ष नहीं होता है । इस प्रकार पूर्व-पक्ष-रूप से तीन गाथायें हुई ॥३४४-३४६॥ |