+ अब पूर्व-पक्ष के उत्तर में कथन करते हैं कि निश्चय से आत्मा का पुदगलद्रव्य के साथ में कर्त्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं है, तब आत्मा कैसे कर्त्ता बनता है ? -
ववहारभासिदेण दु परदव्वं मम भणंति अविदिदत्था । (324)
जाणंति णिच्छएण दु ण य मह परमाणुमित्तमवि किंचि ॥347॥
जह को वि णरो जंपदि अम्हं गामविसयणयररट्ठं । (225)
ण य होंति जस्स ताणि दु भणदि य मोहेण सो अप्पा ॥348॥
एमेव मिच्छदिट्ठी णाणी णीसंसयं हवदि एसो । (326)
जो परदव्वं मम इदि जाणंतो अप्पयं कुणदि ॥349॥
तम्हा ण मे त्ति णच्चा दोण्ह वि एदाण कत्तविवसायं । (327)
परदव्वे जाणंतो जाणेज्जो दिट्ठिरहिदाणं ॥350॥
व्यवहारभाषितेन तु परद्रव्यं मम भणंत्यविदितार्था:
जानंति निश्चयेन तु न च मम परमाणुमात्रमपि किं चित् ॥३२४॥
यथा कोऽपि नरो जल्पति अस्माकं ग्रामविषयनगरराष्ट्र्
न च भवंति तस्य तानि तु भणति च मोहेन स आत्मा ॥३२५॥
एवमेव मिथ्यादृष्टिर्ज्ञानी नि:संशयं भवत्येष:
य: परद्रव्यं ममेति जानन्नात्मानं करोति ॥३२६॥
तस्मान्न मे इति ज्ञात्वा द्वयेषामप्येतेषां कर्तृव्यवसायम्
परद्रव्ये जानन् जानीयान् दृष्टिरहितानाम् ॥३२७॥
अतत्त्वविद् व्यवहार ग्रह परद्रव्य को अपना कहें ।
पर तत्त्वविद् जाने कि पर परमाणु भी मेरा नहीं ॥३२४॥
ग्राम जनपद राष्ट मेरा कहे कोई जिसतरह ।
किन्तु वे उसके नहीं हैं मोह से ही वह कहे ॥३२५॥
इसतरह जो 'परद्रव्य मेरा' - जानकर अपना करे ।
संशय नहीं वह ज्ञानि मिथ्यादृष्टि ही है जानना ॥३२६॥
'मेरे नहीं ये' - जानकर तत्त्वज्ञ ऐसा मानते ।
है अज्ञता कर्तृत्व-बुद्धि लोक एवं श्रमण की ॥३२७॥
अन्वयार्थ : [अविदिदत्था] अज्ञानीजन [ववहारभासिदेण दु] व्यवहारमूढ़ होकर [परदव्वं मम भणंति] परद्रव्य मेरा है, ऐसा कहते हैं; [णिच्छएण दु] निश्चय-प्रतिबुद्ध (ज्ञानी) [ण य मह परमाणुमित्तमवि किंचि] कोई (पर-पदार्थ) परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है, [जाणंति] ऐसा जानते हैं ।
[जह को वि णरो] जैसे किसी मनुष्य के [अम्हं गामविसयणयररट्ठं] 'ग्राम, देश, नगर और राष्ट्र मेरा है', ऐसा [जंपदि] कहने से [य] वे [जस्स] उसके [ण होंति] नहीं होते [य मोहेण सो अप्पा] इसे मोह से वह जीव [ताणि दु भणदि] ऐसा कहता है (कि वे मेरे हैं)
[एमेव] इसीप्रकार [णाणी] ज्ञानी भी [परदव्वं मम इदि जाणंतो] 'परद्रव्य मेरा है', ऐसा जानता हुआ उन्हें [अप्पयं कुणदि] अपना करता है [एसो] तो वह [णीसंसयं] नि:संदेह [मिच्छदिट्ठी] मिथ्यादृष्टि [हवदि] होता है ।
[तम्हा] इसलिए [ण मे त्ति णच्चा] (परद्रव्य) मेरे नहीं हैं - यह जानकर [दोण्ह वि एदाण] इन दोनों (लोक और श्रमण) ही के [परदव्वे] परद्रव्य में [कत्तविवसायं] कर्तृत्व के व्यवसाय को [जाणंतो] जानकर [जाणेज्जो दिट्ठिरहिदाणं] उनको सम्यग्दर्शन से रहित जानते हैं ।
Meaning : From the empirical point of view, (the ignorant) people call the non-self substance as their own, but knowledgeable people, who know the real nature of substances, say that, in reality, even an atom of alien substance is not theirs.
A person may say that this village, town, city, or nation, is his, but, in reality, these do not belong to him; he utters such words only due to his delusion. In the same way, a person, who considers an alien substance to be his own, and then identifies himself with it, is, without doubt, a wrong believer.
Therefore, believe that these alien substances do not belong to you, and that the involvement of the Self in creation of non-self substances, as asserted by ordinary people and monks, is the view of the wrong believers.

  अमृतचंद्राचार्य    जयसेनाचार्य    notes 

अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
अज्ञानिन एव व्यवहारविमूढा: परद्रव्यं ममेदमिति पश्यंति । ज्ञानिनस्तु निश्चयप्रतिबुद्धा: पर-द्रव्यकणिकामात्रमपि न ममेदमिति पश्यंति ।
ततो यथात्र लोके कश्चिद्‌ व्यवहारविमूढ: परकीयग्रामवासी ममायं ग्राम इति पश्यन्‌ मिथ्यादृष्टि:, तथा यदि ज्ञान्यपि कथंचिद्‌ व्यवहारविमूढो भूत्वा परद्रव्यं ममेदमिति पश्येत्‌ तदा सोऽपि निस्संशयं परद्रव्यमात्मानं कुर्वाणो मिथ्यादृष्टिरेव स्यात्‌ ।
अतस्तत्त्वं जानन्‌ पुरुष: सर्वमेव परद्रव्यं न ममेति ज्ञात्वा लोकश्रमणानां द्वयेषामपियोऽयंपरद्रव्ये कर्तृव्यवसाय: स तेषां सम्यग्दर्शनरहितत्वादेव भवति इति सुनिश्चितं जानीयात्‌ ॥३२४-३२७॥
(कलश--वसंततिलका)
एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्धं
संबंध एव सकलोऽपि यतो निषिद्ध: ।
तत्कर्तृकर्मघटनास्ति न वस्तुभेदे
पश्चन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाश्च तत्त्वम् ॥२०१॥

(कलश--वसंततिलका)
ये तु स्वभावनियमं कलयंति ने-
मज्ञानमग्नमहसो बत ते वराका: ।
कुर्वंति कर्म तत एव हि भावकर्म
कर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्य: ॥२०२॥



व्यवहारविमूढ़ अज्ञानीजन ही पर-द्रव्य के संदर्भ में ऐसा मानते हैं कि 'यह मेरा है' और निश्चय में प्रतिबुद्ध ज्ञानीजन परद्रव्य के संदर्भ में ऐसा ही मानते हैं कि 'यह मेरा नहीं है' । जिसप्रकार इस लोक में कोई व्यवहारविमूढ़ दूसरे ग्राम का रहनेवाला व्यक्ति किसी दूसरे गाँव के बारे में यह कहे कि यह मेरा गाँव है तो उसकी वह मान्यता मिथ्या ही है, वह तत्संबंधी मिथ्यादृष्टि ही है; उसीप्रकार यदि कोई ज्ञानी भी कथंचित् व्यवहार-विमूढ़ होकर परद्रव्य को 'यह मेरा है' - इसप्रकार देखे, जाने, माने तो उस समय वह भी नि:संशय रूप से परद्रव्य को निजरूप करता हुआ मिथ्यादृष्टि ही होता है । इसलिए तत्त्वज्ञ 'समस्त पर-द्रव्य मेरे नहीं हैं' - यह जानकर यह निश्चित-रूप से जानता है कि लोक और श्रमणों - दोनों के ही पर-द्रव्य में कर्तृत्व का व्यवसाय, उनकी सम्यग्दर्शन-रहितता के कारण ही है ।

(कलश--रोला)
जब कोई संबंध नहीं है दो द्रव्यों में,
तब फिर कर्ताकर्मभाव भी कैसे होगा ?
इसीलिए तो मैं कहता हूँ निज को जानो
सदा अकर्ता अरे जगतजन अरे मुनीजन ॥२०१॥
[यतः] क्योंकि [इह] इस लोक में [एकस्य वस्तुनः अन्यतरेण सार्धंसकलः अपि सम्बन्धः एव निषिद्धः] एक वस्तु का अन्य वस्तु के साथ सम्पूर्ण सम्बन्ध ही निषेध किया गया है, [तत्] इसलिये [वस्तुभेदे] जहाँ वस्तुभेद है (भिन्न वस्तुएँ हैं) वहाँ [कर्तृकर्मघटना अस्ति न] कर्ता-कर्म घटना नहीं होती [मुनयः च जनाः च] इसप्रकार मुनिजन और लौकिक जन [तत्त्वम् अकर्तृ पश्यन्तु] तत्त्व को (आत्मा / वस्तु को) अकर्ता देखो ।

(कलश--रोला)
इस स्वभाव के सहज नियम जो नहीं जानते,
अरे विचारे वे तो डूबे भवसागर में ।
विविध कर्म को करते हैं बस इसीलिए वे,
भावकर्म के कर्ता होते अन्य कोई ना ॥२०२॥
[बत] अरे रे ! [ये तु इमम्स्वभावनियमं न कलयन्ति] जो इस वस्तु-स्वभाव के नियम को नहीं जानते [ते वराकाः] वे बेचारे, [अज्ञानमग्नमहसः] जिनका (पुरुषार्थरूप – पराक्रमरूप) तेज अज्ञान में डूब गया है ऐसे, [कर्मकुर्वन्ति] कर्म को करते हैं; [ततः एव हि] इसलिये [भावकर्मकर्ता चेतनः एव स्वयं भवति] भावकर्म का कर्ता चेतन ही स्वयं होता है, [अन्यः न] अन्य कोई नहीं ।
जयसेनाचार्य :

[ववहारभासिदेण दु परदव्वं मम भणंति अविदिदत्था] जो विदितार्थ हैं -- तत्व के जानने वाले हैं, वे लोग भी पर-द्रव्य को 'मेरा है' ऐसा व्यवहार-नय के द्वारा, व्यवहार की भाषा में कहा करते हैं । [जाणंति णिच्छएण दु ण य मह परमाणुमित्तमवि किंचि] किन्तु निश्चय-नय से जानते हैं कि यहाँ जो पर-द्रव्य है उनमें से परमाणु-मात्र भी मेरा नहीं है । [जह को वि णरो जंपदि अम्हं गामविसयणयररट्ठं] जैसे कोई पुरुष ऐसा स्पष्ट कहे कि 'बाडी से घिरा हुआ ग्राम, देशनामवाला विषय, नगर है नाम जिसका वह पुर, देश का एक हिस्सा, वह राष्ट्र, ये सब हमारे हैं' [ण य होंति जस्स ताणि दु भणदि य मोहेण सो अप्पा] उसके कहने मात्र से वे सब उसके नहीं हो जाते हैं कि ग्रामादिक उस देश के राजा के हैं फिर भी मोह-भाव के निमित्त से वह ऐसा कहता है जो कि 'अमुक ग्रामादिक तो मेरे हैं' यह दृष्टांत हुआ । अब दार्ष्टान्त कहते हैं -- इसी प्रकार पूर्वोक्त दृष्टांत के द्वारा ज्ञानी जीव भी व्यवहार-विमूढ़ होकर यदि पर-द्रव्य को अपना कहता है तो उस समय मिथ्यात्व को प्राप्त होता हुआ वह अवश्य मिथ्यादृष्टि हो जाता है इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये । [तम्हा] इत्यादि चौथी गाथा का अर्थ यह है कि परकीय ग्रामादि दृष्टांत के द्वारा ही स्वात्मानुभूति की भावना पर से च्युत हुआ जीव पर-द्रव्य को व्यवहार से अपना कहता है वह मिथ्यादृष्टि होता है, ऐसा पहले ही कहा जा चुका है । इस कारण से जाना जाता है कि [दोण्ह वि एदाण कत्तविवसायं] पर-द्रव्य अर्थात् आत्मा से इतर वस्तुओं के बारे में पूर्वोक्त लौकिक (जन और जैन जन) इन दोनों का ही आत्मा पर-द्रव्य को करता है । इस रूप से जो कर्त्तापन का व्यवसाय है, उसको कोई तीसरा तटस्थ पुरुष [ण मेत्ति णच्चा] विकार रहित जो स्व और पर परिच्छिति, रूप ज्ञान के द्वारा पर-द्रव्य मेरा सम्बन्धी नहीं हो सकता । इस बात को जानकर [जाणंतो जाणेज्जो दिट्ठिरहिदाणं] लौकिक-जन और जैन-जन इन दोनों के पर-द्रव्य के बारे में होने वाले कर्त्तापन के व्यवसाय को जानता हुआ, इस प्रकार जाने कि वीतराग सम्यक्त्व है नाम जिसका ऐसी, निश्चय-दृष्टि जिनके नहीं है उन लोगों का यह अध्यवसाय है ।

इस पर शंका होती है कि ज्ञानी होकर भी व्यवहार से जो पर द्रव्य को अपना कहता है वह अज्ञानी कैसे हो सकता है ?

उसका उत्तर यह है कि व्यवहार तो प्राथमिक लोगों को सम्बोधन करने के लिये उस समय ही अनुसरण करने योग्य है जैसे कि म्लेच्छों को समझाने के लिए म्लेच्छ भाषा बोली जाती है । प्राथमिक जन के सम्बोधन-काल को छोड़कर अन्य-काल में भी यदि कोई ज्ञानी जीव कतक-फल के समान आत्मा का संशोधन करने वाला शुद्धनय, उससे च्युत होकर पर-द्रव्य को अपना करता है, कहता है उस समय वह मिथ्यादृष्टि होता है । अब इसका विस्तार से वर्णन करते हैं --

जैसा पहले की तीन गाथाओं में कह आये हैं कि लोगों के मत में विष्णु ही सृष्टि का कर्ता है सो वह लोक व्यवहार को लेकर कही हुई बात है किन्तु अनादि स्वरूप इस देव, मनुष्यादि प्राणियों से भरे हुये लोक का विष्णु या महेश्वर नाम का कोई भी एक कर्त्ता नहीं है । क्योंकि यह सारा लोक ही एकेंद्रियादि जीवों से भरा हुआ है उन सभी जीवों में निश्चय-नय से विष्णु के रूप से, ब्रह्मा के रूप से, महेश्वर के रूप से और जिन के रूप से परिणमन करने की शक्ति विद्यमान है इसलिये आत्मा ही विष्णु है, आत्मा ही ब्रह्मा है, आत्मा ही महेश्वर है और आत्मा ही जिन भी है । वह कैसे है सो बताते हैं --

देखो, कोई जीव अपने पूर्व मनुष्य भव में जिन-दीक्षा लेकर भोगों की आकांक्षा रूप निदान बंध के द्वारा पापानुबंधी पुण्य करके स्वर्ग में जा उत्पन्न हुआ, वहाँ से आकर मनुष्य भव में तीन खण्ड का अधिपति अर्द्धचक्री बनता है उसी ही की विष्णु, संज्ञा होती है और कोई लोक का कर्ता अन्य विष्णु, नहीं है । इसी प्रकार कोई जिन-दीक्षा लेकर रत्नत्रय की आराधना द्वारा पापानुबन्धी पुण्य उपार्जन करके विद्यानुवाद नाम के दशवें पूर्व को पढ़कर चारित्र-मोह के उदय से तपश्चरण से भ्रष्ट होकर हुँडावसर्पिणी काल के प्रभाव से और अपनी विद्या के बल से 'मैं इस लोक का कर्ता हूँ' ऐसा चमत्कार दिखाकर मूढ़ लोगों में आश्चर्य पैदा करके महेश्वर बनता है, सो यह सभी अवसर्पिणीयों में नहीं होता किन्तु हुण्डावसर्पिणी में होता है जो कि असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अवसर्पिणी कालों के बीतने के पर ही आया करता है । जैसा कि लिखा हुआ है --

संखातीदवसप्पिणी गयासु हुण्डावसप्पिणी एइ ।
परसमयहं उप्पती तहिं जिणवर एव पभणेइ ॥
अर्थात असंख्यात अवसर्पिणी कालों के बीत जाने पर एक हुण्डावसर्पिणी काल आता है । जिसमें जैनेतर मतों की भी उत्पत्ति हो जाती है ऐसा जिनेन्द्र-भगवान कहते हैं तो उसी में महेश्वर पैदा होता है । इसके सिवाय जगत् का कर्ता महेश्वर नाम का पुरुष नहीं है । इसी प्रकार कोई एक विशिष्ट तपश्चरण करके पश्चात् इस तपश्चरण के प्रभाव से स्त्री-विषय का निमित्त पाकर चार-मुख वाला हो जाता है उसी का ब्रह्मा नाम है, और कोई व्यापक एक रूप वाला होकर जगत् का कर्ता हो ऐसा ब्रह्म कोई नहीं है । इसी प्रकार कोई एक दर्शन-विशुद्धि, विनय-सम्पन्नता आदि सोलह भावना के फल से देवेन्द्रादि द्वारा की हुई पंच-महाकाल्याण-पूजा के योग्य तीर्थंकर नाम पुण्य को उपार्जन कर जिनेश्वर नाम वाला वीतराग सर्वज्ञ होता है -- ऐसा वस्तु का स्वरूप है सो जानना चाहिये ॥३४७-३५०॥