
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
आत्मा यस्यामूर्तो न खलु स आहारको भवत्येवम् । आहार: खलु मूर्तो यस्मात्स पुद्गलमयस्तु ॥४०५॥ नापि शक्यते ग्रहीतुं यत् न विमोक्तुं यच्च यत्परद्रव्यम् । स कोऽपि च तस्य गुण: प्रायोगिको वैस्रसो वाऽपि ॥४०६॥ तस्मात्तु या विशुद्धश्चेतयिता स नैव गृह्णाति किंचित् । नैव विमुंचति किंचिदपि जीवाजीवयोर्द्रव्ययो: ॥४०७॥ ज्ञानं हि परद्रव्यं किंचिदपि न गृह्णाति न मुंचति च, प्रायोगिकगुणसामर्थ्यात् वैस्रसिकगुण-सामर्थ्याद्वा ज्ञानेन परद्रव्यस्य गृहीतुं मोक्तुं चाशक्यत्वात् । परद्रव्यं च न ज्ञानस्यामूर्तात्मद्रव्यस्य मूर्तपुद्गलद्रव्यत्वादाहार: । ततो ज्ञानं नाहारकं भवति । अतो ज्ञानस्य देहो न शङ्कनीय: । (कलश--अनुष्टुभ्) एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते । ततो देहमयं ज्ञातुर्न लिंगं मोक्षकारणम् ॥२३८॥ परमात्मा शुद्ध-बुद्ध-रूप एक स्वभाव-वाला है, ऐसी हालत में जब परमात्मा के देह नहीं है तो उसके आहार कैसे होगा ? यह बतलाते हैं -- ज्ञान परद्रव्य को किंचित्मात्र भी न तो ग्रहण करता है और न छोड़ता ही है; क्योंकि प्रायोगिक और वैस्रसिक गुण की सामर्थ्य से ज्ञान के द्वारा पर-द्रव्य का ग्रहण तथा त्याग अशक्य है । ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य का कर्म-नोकर्मरूप परद्रव्य आहार नहीं है; क्योंकि वह मूर्तिक पुद्गल-द्रव्य है, इसलिए ज्ञान आहारक नहीं है । इसीलिए ऐसी आशंका भी नहीं करनी चाहिए कि ज्ञान (आत्मा) के देह होगी । (कलश--सोरठा)
[एवं शुद्धस्य ज्ञानस्य देहः एव न विद्यते] इसप्रकार शुद्ध-ज्ञान के देह ही नहीं है; [ततः ज्ञातुः देहमयं लिङ्गं मोक्षकारणम् न] इसलिए ज्ञाता को देहमय चिह्न मोक्ष का कारण नहीं है ।
शुद्ध-ज्ञानमय जीव, के जब देह नहीं कही । तब फिर देही लिंग, शिवमग कैसे हो सके ॥२३८॥ |
जयसेनाचार्य :
यह आत्मा जिस शुद्ध-नय के अभिप्राय से मूर्तिक नहीं है ऐसी अमूर्तिक होने पर स्पष्टतया यह आत्मा उस शुद्ध-नय के अभिप्राय से ही आहारक भी नहीं है क्योंकि वह आहार तो मूर्तिक है इसलिये वह नोकर्म-शरीर-योग्य पुद्गलों का ग्रहण पुद्गल-मय ही है । यह कोई उस आत्मा का कर्म-संयोग से होने वाला प्रायोगिक गुण है और स्वभाव से उत्पन्न होने वाला वैस्रसिक-गुण है कि जिससे वह आत्मा आहारक-वर्गणा आदि पर-द्रव्यों को न ग्रहण ही कर सकता है और न छोड़ ही सकता है । प्रश्न – हे भगवन् ! कर्म से होने वाले प्रायोगिक गुण के निमित्त से आहार को ग्रहण करते हुये ये सभी आत्मा अनाहारक कैसे होते हैं ? उत्तर – हे शिष्य ! तुमने बहुत ही अच्छा कहा है, किंतु निश्चय-नय से यह आत्मा तन्मय -- उन आहारक वर्गणादिरूप नहीं होता है, जो वह आहार ग्रहण करता है वह व्यवहार-नय का कथन है यहाँ तो निश्चय-नय का व्याख्यान किया गया है । जिस कारण निश्चय-नय से यह आत्मा अनाहारक है उस कारण से यह विशेष-रूप से शुद्ध है -- रागादि भावों से रहित है अत: यह जीव-अजीव द्रव्यों में से किंचित् भी सचित्त-अचित्त आहार को न ग्रहण करता है और न छोड़ता ही है । आहार के छह भेद हैं -- कर्म-आहार, नोकर्म-आहार, कवलाहार, लेप्य-आहार, ओज-आहार और मानस-आहार । यहाँ यह समझना कि उस कारण से, निश्चय-नय की अपेक्षा से नोकर्म आहार-मय शरीर जीव का स्वरूप नहीं है । शरीर के अभाव में शरीरमय द्रव्य-लिंग भी जीव का स्वरूप नहीं है । इस तरह 'निश्चय-नय से जीव के आहार नहीं है' इस व्याख्यान की मुख्यता से बारहवें-स्थान में तीन गाथायें हुई है ॥४२९-४३१॥ |