
अमृतचंद्राचार्य : संस्कृत
केचिद्द्रव्यलिंगमज्ञानेन मोक्षमार्गं मन्यमाना: संतो मोहेन द्रव्यलिंगमेवोपाददते । तदनुपपन्नम्; सर्वेषामेव भगवतामर्हद्देवानां, शुद्धज्ञानमयत्वे सति द्रव्यलिंगाश्रयभूतशरीरममकारत्यागात्, तदाश्रितद्रव्यलिंगत्यागेन दर्शनज्ञानचारित्राणां मोक्षमार्गत्वेनोपासनस्य दर्शनात् । अथैतदेव साधयति -- न खलु द्रव्यलिंगं मोक्षमार्ग:, शरीराश्रितत्वे सति परद्रव्यत्वात् । दर्शन-ज्ञानचारित्राण्येव मोक्षमार्ग:, आत्माश्रितत्वे सति स्वद्रव्यत्वात् । यत् एवम् -- यतो द्रव्यलिंगं न मोक्षमार्ग:, तत: समस्तमपि द्रव्यलिंगं त्यक्त्वा दर्शनज्ञानचारित्रे-ष्वेव, मोक्षमार्गत्वात्, आत्मा योक्तव्य इति सूत्रानुमति: । (कलश--अनुष्टुभ्) दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मा तत्त्वमात्मन: । एक एव सदा सेव्यो मोक्षमार्गो मुमुक्षुणा ॥२३९॥ कितने ही लोग अज्ञान से द्रव्य-लिंग को मोक्ष-मार्ग मानते हुए मोह से द्रव्य-लिंग को ही धारण करते हैं, परन्तु यह ठीक नहीं है; क्योंकि सभी अरिहंत भगवन्तों के शुद्ध-ज्ञानमयता होने से द्रव्य-लिंग के आश्रय-भूत शरीर के ममत्व का त्याग होता है । इसलिए शरीराश्रित द्रव्य-लिंग के त्याग से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की मोक्षमार्ग-रूप से उपासना देखी जाती है । वस्तुत: बात यह है कि द्रव्य-लिंग मोक्ष-मार्ग नहीं है; क्योंकि वह द्रव्य-लिंग शरीराश्रित होने से पर-द्रव्य है । दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मोक्ष-मार्ग है; क्योंकि वे आत्माश्रित होने से स्व-द्रव्य हैं । चूँकि द्रव्य-लिंग मोक्षमार्ग नहीं है; इसलिए सभी द्रव्य-लिंगों का त्याग करके दर्शन-ज्ञानत-चारित्र में ही स्थित होओ । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मोक्षमार्ग होने से इनमें ही आत्मा को लगाना योग्य है - ऐसी सूत्र की अनुक्ति है । (कलश--दोहा)
[आत्मनः तत्त्वम् दर्शन-ज्ञान-चारित्र-त्रय-आत्मा] आत्मा का तत्त्व दर्शन-ज्ञान-चारित्र-त्रयात्मक है (अर्थात् आत्माका यथार्थ रूप दर्शन, ज्ञान और चारित्र के त्रिकस्वरूप है); [मुमुक्षुणा मोक्षमार्गः एकः एव सदा सेव्यः] इसलिये मोक्ष के इच्छुक पुरुष को (यह दर्शन-ज्ञान-चारित्र-स्वरूप) मोक्ष-मार्ग एक ही सदा सेवन करने योग्य है ।
मोक्षमार्ग बस एक ही, रत्नत्रयमय होय । अत: मुमुक्षु के लिए, वह ही सेवन योग ॥२३९॥ |
जयसेनाचार्य :
उपर्युक्त लिखे अनुसार विशुद्ध-ज्ञान-दर्शन-स्वभाव वाले परमात्मा के नोकर्म आदि आहार के अभाव होने पर आहारमय देह नहीं है । देह के अभाव में देहमयी द्रव्य-लिंग भी निश्चय से मुक्ति का कारण नहीं है -- जो मोही हैं अर्थात् रागादि-विकल्प की उपाधि से रहित परम-समाधिरूप भाव-लिंग के विषय के जानकर नहीं हैं, ये नाना प्रकार के बनावटी साधुओं के भेष अथवा गृहस्थों के भेष लेकर मान बैठते हैं कि यह द्रव्य-मय मेरा भेष मुझे मुक्ति प्राप्त करा देगा । उसके लिये आचार्य कहते हैं कि [ण य होदि मोक्खमग्गो लिंगं] भाव-लिंग से रहित अर्थात् अंतरंग-शुद्धि से रहित केवल-मात्र शरीर पर स्वीकार किया हुआ द्रव्य-लिंग ही मोक्ष का मार्ग नहीं हो सकता । क्योंकि [जं देहणिम्ममा अरिहा] अर्हन्त-भगवान देह से निर्ममत्व होते हुए और [लिंगं मुइत्तु] लिंग का आधार जो शरीर उसके ममत्त्व को मन-वचन-काय से छोड़कर [दंसणणाणचरित्तणि सेवंते] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की सेवा करते हैं । अर्थात चिदानंद ही है एक स्वभाव जिसका, ऐसा जो शुद्धात्म-तत्त्व उसके विषय में जो श्रद्धान, ज्ञान और आचरण-रूप सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं, उनको बार-बार उपार्जन करते हैं ॥४३२-४३३॥ [ण वि एस मोक्खमग्गो] यह मोक्ष का मार्ग नहीं है । कौन मोक्ष का मार्ग नहीं है ? कि [पासंडीगिहिमयाणि लिंगाणि] निर्विकल्प समाधि-रुप भाव-लिंग से सर्वथा रहित जो पाखंडी या गृहस्थों के द्वारा स्वीकार किये जो नाना भेष हैं, वे मोक्ष-मार्ग नहीं हैं । ये भेष कौन-कौन से हैं ? कि बाह्य में सर्वथा निर्ग्रन्थ होकर रहता अथवा कोपीन धारण करना आदि-रूप बहिरंग आकार के चिह्न-रूप हैं, ये सब मोक्ष-मार्ग नहीं हैं । मोक्ष-मार्ग कब है ? कि [दंसणणाणचरित्तणि मोक्खमग्गं जिणा बेंति] शुद्ध-बुद्ध-रूप एक-स्वभाव-वाला जो परमात्म-तत्त्व उसका श्रद्धान, ज्ञान और अनुभव ही है स्वरूप जिसका, ऐसा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्ष का मार्ग है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ॥४३४॥ [तम्हा जहित्तु लिंगे सागारणगारएहिं वा गहिदे] जब कि ऊपर लिखे अनुसार सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ही मोक्ष का मार्ग है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान, प्रतिपादन करते हैं तो निर्विकार स्व-संवेदन-ज्ञानरूप जो भाव-लिंग है उससे रहित होने वाले सागार गृहस्थ और अनगार त्यागी मुनियों के द्वारा मात्र बाह्य में ग्रहण किये हुए द्रव्य-लिंगों को छोड़कर [दंसणणाणचरित्ते अप्पाणं जुंज मोक्खपहे] हे भव्य ! केवल-ज्ञानादि अनंत-चतुष्टय स्वरूप जो शुद्ध आत्मा उसका समीचीन श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठान रूप जो अभेद-रत्नत्रय ही है लक्षण जिसका, ऐसे मोक्ष-मार्ग में अर्थात मोक्ष के उपाय में अपने आपको युक्त करो अर्थात तल्लीन बन जावो ॥४३५॥ |