अर्थ : बिन्दुसहित ॐकार को योगीजन सर्वदा ध्याते हैं, मनोवाँछित वस्तु को देने वाले और मोक्ष को देने वाले ॐकार को बार बार नमस्कार हो । निरंतर दिव्य-ध्वनि-रूपी मेघ-समूह संसार के समस्त पापरूपी मैल को धोनेवाली है मुनियों द्वारा उपासित भवसागर से तिरानेवाली ऐसी जिनवाणी हमारे पापों को नष्ट करो । जिसने अज्ञान-रूपी अंधेरे से अंधे हुये जीवों के नेत्र ज्ञानरूपी अंजन की सलार्इ से खोल दिये हैं, उस श्री गुरु को नमस्कार हो । परम गुरु को नमस्कार हो, परम्परागत आचार्य गुरु को नमस्कार हो ।
(समस्त पापों का नाश करनेवाला, कल्याणों का बढ़ानेवाला, धर्म से सम्बन्ध रखनेवाला, भव्यजीवों के मन को प्रतिबुद्ध-सचेत करनेवाला यह शास्त्र प्रवचनसार नाम का है, मूल-ग्रन्थ के रचयिता सर्वज्ञ-देव हैं, उनके बाद ग्रन्थ को गूंथनेवाले गणधर-देव हैं, प्रति-गणधर देव हैं उनके वचनों के अनुसार लेकर आचार्य श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेव द्वारा रचित यह ग्रन्थ है । सभी श्रोता पूर्ण सावधानी पूर्वक सुनें । )
आर्हत भक्ति पण्डित-जुगल-किशोर कृत तुम चिरंतन, मैं लघुक्षण लक्ष वंदन, कोटी वंदन ॥
जागरण तुम, मैं सुषुप्ति, दिव्यतम आलोक हो प्रभु, मैं तमिस्रा हूँ अमा की, क्षीण अन्तर, क्षीण तन-मन । लक्ष वंदन, कोटी वंदन ॥
शोध तुम, प्रतिशोध रे ! मैं, क्षुद्र-बिन्दु विराट हो तुम, अज्ञ मैं पामर अधमतम, सर्व जग के विज्ञ हो तुम, देव ! मैं विक्षिप्त उन्मन, लक्ष वंदन, कोटी वंदन ॥
चेतना के एक शाश्वत, मधु मंदिर उच्छ्वास ही हो पूर्ण हो, पर अज्ञ को तो, एक लघु प्रतिभास ही हो दिव्य कांचन, मैं अकिंचन, लक्ष वंदन, कोटी वंदन ॥
व्याधि मैं, उपचार अनुपम, नाश मैं, अविनाश हो रे ! पार तुम, मँझधार हूँ मैं, नाव मैं, पतवार हो रे ! मैं समय, तुम सार अर्हन् !, लक्ष वंदन, कोटी वंदन